Class 10 Sanskrit Chapter 1 UP Board Solutions लक्ष्य-वेध-परीक्षा Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 1 Lakshya Vedh Pariksha Question Answer (पद्य – पीयूषम्)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 1 हिंदी अनुवाद लक्ष्य-वेध-परीक्षा के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

प्रस्तुत पाठ के ये श्लोक महाभारत (भण्डारकर संस्करण, पुणे) के आदिपर्व के 123वें अध्याय से संगृहीत किये गये हैं। महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित ‘महाभारत’ एक विशालकाय ग्रन्थ है। आचार्य द्रोण ने कौरवों और पाण्डवों को धनुर्विद्या की शिक्षा दी थी। एक बार वे (UPBoardSolutions.com) कौरवों-पाण्डवों और अन्य राजकुमारों की निशाना लगाने की कला की परीक्षा लेते हैं। प्रस्तुत पाठ में उसी का वर्णन किया गया है। इस पाठ से छात्रों को यह शिक्षा मिलती है कि उन्हें अपने लक्ष्य के प्रति सदैव एकाग्रचित्त होना चाहिए।

पाठ-सारांश

धनुर्विद्या की परीक्षा का विचार द्रोणाचार्य ने दुर्योधन आदि कौरवों, अर्जुन आदि पाण्डवों तथा अन्य देश के राजकुमारों को अस्त्र-शस्त्र-चालन की शिक्षा दी थी। एक दिन उन्होंने लक्ष्य-वेध कला की परीक्षा लेने के लिए सभी राजकुमारों को एकत्र किया। लक्ष्य-वेध के लिए उन्होंने शिल्पी से एक कृत्रिम गिद्ध पक्षी बनवाया और उसे वृक्ष के शीर्ष पर रखवा दिया तथा सभी शिष्यों को कहा कि मेरी अनुमति मिलते ही इस गिद्ध का सिर बाण से काटकर पृथ्वी पर गिरा दें।।

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युधिष्ठिर की परीक्षा सर्वप्रथम द्रोणाचार्य ने राजकुमार युधिष्ठिर को बाण साधने के लिए कहा। जब युधिष्ठिर अपने धनुष पर बाण चढ़ाकर गिद्ध को लक्ष्य करके तैयार हो गये, तब द्रोणाचार्य ने उनसे । पूछा-“हे नरश्रेष्ठ! क्या आप वृक्ष की चोटी पर रखे गिद्ध पक्षी को देख रहे हैं?” उत्तर में युधिष्ठिर ने कहा-“आचार्य! देख रहा हूँ।” सुनकर पुनः उन्होंने पूछा- “क्या आप वृक्ष को, मुझे और अपने सभी भाइयों को भी देख रहे हैं?” युधिष्ठिर ने कहा-“हाँ आचार्य! मैं आपको, सभी भाइयों और गिद्ध को बारम्बार देख रहा हूँ।” उनके उत्तर से अप्रसन्न होकर द्रोण ने कहा- “आप इस लक्ष्य को नहीं बेध सकते और उन्हें लक्ष्य-वेध से विरत कर दिया।

अन्य राजकुमारों की परीक्षा इसके पश्चात् द्रोणाचार्य ने अपने दुर्योधन, भीम आदि अन्य शिष्यों एवं अन्य देश के राजकुमारों को एक-एक करके लक्ष्य-वेध के लिए बुलाया और उन सभी से वही प्रश्न किया। सभी शिष्यों से युधिष्ठिर के समान ही उत्तर पाकर सभी को; लक्ष्य-वेध के अयोग्य सिद्ध करके; हटा दिया।

अर्जुन की परीक्षा अन्त में आचार्य द्रोण ने अर्जुन को लक्ष्य बेधने के लिए बुलाया। गुरु का आदेश सुनते ही अर्जुन अपने धनुष पर बाण चढ़ाकर और गिद्ध को निशाना बनाकर खड़े हो गये। आचार्य द्रोण ने अर्जुन से भी वही प्रश्न किया कि “हे अर्जुन! क्या तुम गिद्ध को, वृक्ष को, मुझको, अन्य राजकुमारों (UPBoardSolutions.com) को और भाइयों को देख रहे हो?” अर्जुन ने उत्तर दिया-“गुरुवर! मैं तो गिद्ध को ही देख रहा हूँ और मुझे तो केवल उसका सिर नजर आ रहा है।” तब गुरु द्रोण ने उसे बाण छोड़ने का आदेश दिया। आदेश पाते ही अर्जुन ने अपने तीक्ष्ण बाण से गिद्ध का सिर काटकर पृथ्वी पर गिरा दिया। आचार्य द्रोण ने हर्ष से रोमाञ्चित होकर उसे अपने गले से लगा लिया।

पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1-2)
तांस्तु सर्वान् समानीय सर्वविद्यास्त्रशिक्षितान्।
द्रोणः प्रहरणज्ञाने जिज्ञासुः पुरुषर्षभः ॥
कृत्रिमं भासमारोप्य वृक्षाग्रे शिल्पिभिः कृतम्।।
अविज्ञातं कुमाराणां लक्ष्यभूतमुपादिशत् ॥ [2015)

शब्दार्थ तान् सर्वान् = उन सभी (राजकुमारों) को। समानीय = लाकर। सर्वविद्यास्त्रशिक्षितान् = सभी विद्याओं और शस्त्रास्त्रों में शिक्षित किये गये। प्रहरणज्ञाने जिज्ञासुः = निशाना लगाने के ज्ञान के बारे में जानने की इच्छा करने वाले पुरुषर्षभः (पुरुष + ऋषभः) = पुरुषों में श्रेष्ठ भासम् = गिद्ध को। आरोप्य = रखकर। वृक्षाग्रे = वृक्ष की चोटी पर। शिल्पिभिः कृतम् = कारीगरों के द्वारा बनाये गये। अविज्ञातं = न जाने गये। लक्ष्यभूतम् = निशाने के रूप में उपादिशत् = बताया।

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सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘लक्ष्य-वेध-परीक्षा’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

अन्वय प्रहरणज्ञाने जिज्ञासुः पुरुषर्षभः द्रोणः सर्वविद्यास्त्रशिक्षितान् तान् तु सर्वान् समानीय शिल्पिभिः कृतं कृत्रिमं भासं वृक्षाग्रे आरोप्य कुमाराणाम् अविज्ञातं लक्ष्यभूतम् उपादिशत्।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोकद्वय में द्रोणाचार्य द्वारा शिष्यों की लक्ष्य-वेध की परीक्षा लेने के लिए (UPBoardSolutions.com) लक्ष्य निर्धारित किये जाने का वर्णन है।

व्याख्या निशाना लगाने के ज्ञान के विषय में जानने की इच्छा रखने वाले पुरुष-श्रेष्ठ द्रोणाचार्य ने सभी विद्याओं और अस्त्र चलाने में शिक्षा प्राप्त किये हुए उन सब राजकुमारों को लाकर कारीगरों द्वारा बनाये गये बनावटी गिद्ध पक्षी को वृक्ष की चोटी पर रखकर राजकुमारों के न जानते हुए लक्ष्य के रूप में बेधने को कहा।

(3)
शीघ्रं भवन्तः सर्वेऽपि धनूष्यादाय सत्वराः ।
भासमेतं समुद्दिश्य तिष्ठध्वं सन्धितेषवः ॥

शब्दार्थ शीघ्रम्
= शीघ्रता से। भवन्तः सर्वेऽपि = आप सभी लोग। धनूषि = धनुषों को। आदाय = लेकर सत्वराः = शीघ्रतापूर्वक भासं एतं = इस गिद्ध पर। समुद्दिश्य = निशाना साधकर। तिष्ठध्वम् = खड़े हो जाओ। सन्धितेषवः = धनुष पर बाण चढ़ाये हुए।

अन्वय (द्रोणोऽकथयत्) भवन्तः सर्वे अपि धनूषि आदाय शीघ्रम् (आगच्छन्तु)। (यूयं) एतं भासं समुद्दिश्य सन्धितेषवः सत्वराः तिष्ठध्वम् (तिष्ठत)।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में आचार्य द्रोण शिष्यों को निशाना साधने के लिए आदेश दे रहे हैं।

व्याख्या द्रोणाचार्य ने राजकुमारों से कहा कि आप सभी अपने-अपने धनुष लेकर शीघ्र आ जाएँ। इस गिद्ध पक्षी को लक्ष्य करके धनुष पर बाण चढ़ाये हुए शीघ्र खड़े हो जाएँ।

(4)
मद्वाक्यसमकालं तु शिरोऽस्य विनिपात्यताम्।
एकैकशो नियोक्ष्यामि तथा कुरुत पुत्रकाः ॥

शब्दार्थ मद्वाक्यसमकालम् = मेरे कथन के साथ ही। शिरोऽस्य (शिरः + अस्य) = इसका (UPBoardSolutions.com) (गिद्ध का) सिर। विनिपांत्यताम् = गिरा दिया जाये। एकैकशः = एक-एक करके। नियोक्ष्यामि = नियुक्त करूंगा। तथा कुरुत = वैसा ही करना। पुत्रकाः = हे पुत्रो (शिष्यो)

अन्वय हे पुत्रकोः ! मद्वाक्यसमकालं तु अस्य शिरः (उत्कृत्य) विनिपात्यताम्। (अहं) एकैकशः नियोक्ष्यामि तथा कुरुत।

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प्रसंग पूर्ववत्।

व्याख्या द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों से कहा कि हे पुत्रो (शिष्यो)! मेरे कहने के साथ ही इस पक्षी का सिर काटकर गिरा दो। मैं एक-एक करके लक्ष्य-भेद के लिए तुम्हें बुलाऊँगा, तुम लोग वैसा ही करना। तात्पर्य यह है कि जब मैं तुम्हें अनुमति प्रदान करू तब तुम इस पक्षी का सिर काटकर गिरा देना।

(5)
ततो युधिष्ठिरं पूर्वमुवाचाङ्गिरसां वरः।
सन्धत्स्व बाणं दुर्धर्षं मद्वाक्यान्ते विमुञ्च तम् ॥

शब्दार्थ ततः = तत्पश्चात्। आङ्गिरसां वरः = आंगिरस गोत्र के ब्राह्मणों में श्रेष्ठ (द्रोणाचार्य)। सन्धत्स्व = निशाना लगाओ। दुर्धर्षम् = प्रचण्ड। मवाक्यान्ते = मेरे कथन के अन्त में; अर्थात् मेरे कहते ही। विमुञ्च = छोड़ दो। तं = उस (बाण) को।

अन्वये तत: आङ्गिरसां वरः पूर्वं युधिष्ठिरम् उवाच। (त्वं) दुर्धर्षं बाणं सन्धत्स्व। मद्वाक्यान्ते तं विमुञ्च।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में द्रोणाचार्य युधिष्ठिर को लक्ष्य-वेध के लिए तैयार कर रहे हैं।

व्याख्या इसके बाद आंगिरस गोत्र के ब्राह्मणों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य ने (UPBoardSolutions.com) पहले युधिष्ठिर से कहा—तुम प्रचण्ड बाण का सन्धान करो; अर्थात् उसे धनुष पर चढ़ा लो। मेरे कहने के अन्त में; अर्थात् मेरे कहते ही; उसे छोड़ देना।

(6)
ततो युधिष्ठिरः पूर्वं धनुगृह्य परन्तपः।
तस्थौ भासं समुद्दिश्य गुरुवाक्यप्रणोदितः ॥

शब्दार्थ पूर्वं = सबसे पहले। धनुर्गुह्य = धनुष को लेकर। परन्तपः = शत्रुओं को पीड़ित करने वाले। तस्थौ = खड़ा हो गया। भासं समुद्दिश्य = गिद्ध को लक्ष्य करके। गुरुवाक्यप्रणोदितः = गुरु के वाक्य से प्रेरित हुआ।

अन्वय ततः गुरुवाक्य प्रणोदितः परन्तपः युधिष्ठिरः पूर्वं धनुः गृह्य (गृहीत्वा) भासं समुद्दिश्य तस्थौ।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में युधिष्ठिर को लक्ष्य-वेध के लिए तैयार होने का वर्णन है।

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व्याख्या इसके बाद गुरु द्रोणाचार्य के वचन से प्रेरित हुए, शत्रुओं को सन्तप्त करने वाले युधिष्ठिर सबसे पहले धनुष को लेकर और गिद्ध पक्षी को लक्ष्य करके खड़े हो गये।

(7)
ततो विततधन्वानं द्रोणस्तं कुरुनन्दनम्।
स मुहूर्तावाचेदं वचनं भरतर्षभ।

शब्दार्थ विततधन्वानं = चढ़ाये हुए धनुष वाले। कुरुनन्दनम् = कुरु वंश के लोगों को आनन्दित करने वाले।

मुहूर्तात् = थोड़ी देर में। उवाच = कहा। इदं = यह वचनं = कथन। भरतर्षभ = भरतवंशियों में श्रेष्ठ

अन्वय ततः सः द्रोणः विततधन्वानं तं भरतर्षभ कुरुनन्दनं मुहूर्तात् इदं वचनम् उवाच।

प्रसंग पूर्ववत्।

व्याख्या इसके बाद उन द्रोणाचार्य ने धनुष फैलाये हुए, उन भरतवंशियों में श्रेष्ठ (UPBoardSolutions.com) और कुरुवंशियों को आनन्दित करने वाले युधिष्ठिर से यह वचन कहा।।

(8)
पश्यैनं त्वं दुमाग्रस्थं भासं नवरात्मज।।
पश्यामीत्येवमाचार्यं प्रत्युवाच युधिष्ठिरः ॥

शब्दार्थ पश्यैनं (पश्य + एनं) = इसे देखो। हुमाग्रस्थम् = वृक्ष की चोटी पर रखे हुए। नरवरात्मज = हे श्रेष्ठ पुरुष के पुत्र! पश्यामि = देखता हूँ। इति एवं = इस प्रकार प्रत्युवाच = बोले।

अन्वय हे नरवरात्मज! त्वं द्रुमाग्रस्थम् एनं भासं पश्य। युधिष्ठिरः ‘पश्यामि इति’ एवम् आचार्यं प्रत्युवाच।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में द्रोणाचार्य द्वारा लक्ष्य (गिद्ध) को दिखाये जाने पर युधिष्ठिर द्वारा उसे देखने का वर्णन है।

व्याख्या
द्रोणाचार्य युधिष्ठिर से कहते हैं कि हे श्रेष्ठपुरुष के पुत्र! तुम वृक्ष की चोटी पर स्थित; अर्थात् रखे हुए; इस गिद्ध पक्षी को देखो। युधिष्ठिर ने ‘देख रहा हूँ, ऐसा आचार्य को उत्तर दिया।

(9)
स मुहूर्तादिव पुनद्रेणस्तं प्रत्यभाषत।
अथ वृक्षमिमं मां वा भ्रातृन् वाऽपि प्रपश्यसि ।।

शब्दार्थ मुहूर्तादिव (मुहूर्तात् + इव) = थोड़ी ही देर में। पुनः = फिर। प्रत्यभाषत = बोले। अथ = इसके बाद। वृक्षं = वृक्ष को। मां = मुझे। वा = अथवा। भ्रातृन् = भाइयों को। अपि = भी। प्रपश्यसि = अच्छी तरह देख रहे हो।

अन्वय स: द्रोण: मुहूर्तात् इव पुनः तं प्रत्यभाषत। अथ (त्वम्) इमं वृक्षं मां वा भ्रातृन् वा अपि प्रपश्यसि।

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प्रसंग पूर्ववत्।

व्याख्या वह द्रोणाचार्य थोड़ी-सी देर में पुन: युधिष्ठिर से बोले—इस समय तुम इस वृक्ष को (UPBoardSolutions.com) अथवा मुझको अथवा अपने भाइयों को भी अच्छी तरह देख रहे हो।

(10)
तमुवाच स कौन्तेयः पश्याम्येनं वनस्पतिम् ।
भवन्तं च तथा भ्रातृ भासं चेति पुनः पुनः॥ [2006, 10]

शब्दार्थ तं = उन (द्रोणाचार्य) से। उवाच = कहा। कौन्तेयः = कुन्ती-पुत्र युधिष्ठिर ने। पश्यामि = देखता हूँ। एवं वनस्पतिम् = इस वृक्ष को। भवन्तं = आपको। पुनः पुनः = बार-बार।

अन्वय स कौन्तेयः तम् इति उवाच। (अहम्) एनं वनस्पतिं भवन्तं च तथा भ्रातृन् भासं च पुनः पुनः पश्यामि।।

प्रसंग पूर्ववत्।

व्याख्या उस कुन्ती-पुत्र युधिष्ठिर ने उन द्रोणाचार्य जी से कहा कि मैं इस वृक्ष को, आपको, अपने सभी भाइयों को और गिद्ध पक्षी को बार-बार देख रहा हूँ।

(11)
तमुवाचाऽपसर्पति द्रोणोऽप्रीतमना इव।
नैतच्छक्यं त्वया वेदधुं लक्ष्यमित्येव कुत्सयन् ॥

शब्दार्थ तं = उस (युधिष्ठिर) को। उवाच = कहा। अपसर्प = दूर हट जाओ। अप्रीतमनाः इव = अप्रसन्न से मन वाले। न = नहीं। एतत् = यह। शक्यं = सम्भव, समर्थ। त्वया = तुम्हारे द्वारा| वेधुम् = वेधना। लक्ष्यं = लक्ष्य को। कुत्सयन् = कोसते हुए।

अन्वय ‘त्वया एतत् लक्ष्यं वेधुम् न शक्यम्’ इति कुत्सयन् अप्रीतमनाः इव द्रोणः तम् ‘अपसर्प’ इति उवाच।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में युधिष्ठिर को लक्ष्य-वेध से विरत करने का वर्णन है।

व्याख्या ‘तुम्हारे द्वारा यह लक्ष्य बेधा नहीं जा सकता’ इस प्रकार युधिष्ठिर से कुछ (UPBoardSolutions.com) नाराज होकर अप्रसन्न मन से द्रोणाचार्य ने उनसे दूर हट जाओ’ इस प्रकार कहा। तात्पर्य यह है कि युधिष्ठिर के लिए लक्ष्य-वेध असम्भव जानकर द्रोणाचार्य ने उनसे हट जाने के लिए कहा।

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(12-13)
ततो दुर्योधनादींस्तान् धार्तराष्ट्रवान् महायशाः।
तेनैव क्रमयोगेन जिज्ञासुः पर्यपृच्छत ।।
अन्यांश्च शिष्यान् भीमादीन् राज्ञश्चैवान्यदेशजान्।
तेंथा च सर्वे तत्सर्वं पश्याम इति कुत्सिताः ॥

शब्दार्थ दुर्योधनादीन् = दुर्योधन आदि को। तान् = उन| धार्तराष्ट्रवान् = धृतराष्ट्र के पुत्रों को। महायशाः = महान् यशस्वी (द्रोण ने)। तेनैव क्रमयोगेन = उसी प्रकार क्रमबद्धता से। जिज्ञासुः = जानने के इच्छुक पर्यपृच्छत = पूछा। अन्यदेशजान् = अन्य देशों में उत्पन्न हुए। राज्ञः = राजाओं के। तत्सर्वं = वह सब कुछ। इति = इस पर, ऐसा कहने पर। कुत्सिताः = फटकार दिये गये, तिरस्कृत कर दिये गये।

अन्वय ततः जिज्ञासुः महायशाः दुर्योधनादीन् तान् धार्तराष्ट्रान् तेन एव क्रमयोगेन पर्यपृच्छत। सः भीमादीन् अन्यान् च शिष्यान् अन्य देशजान् राज्ञः च तथा (पर्यपृच्छत)। सर्वे ‘तत्सर्वं पश्यामः’ इति कुत्सिताः (अभवन्)।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोकद्वय में यह बताया गया है कि गलत उत्तर दिये जाने के कारण दुर्योधन-भीम अन्य राजादि द्रोणाचार्य द्वारा तिरस्कृत किये गये।

व्याख्या इसके अनन्तर जानने के इच्छुक, महान् यशस्वी द्रोणाचार्य ने दुर्योधन आदि उन धृतराष्ट्र के पुत्रों से; अर्थात् पहले दुर्योधन से और उसके बाद उसके शेष भाइयों से; उसी क्रम से पूछा। इसके बाद उन्होंने भीम आदि अन्य शिष्यों से और अन्य देशों में उत्पन्न राजाओं से भी वैसा ही (UPBoardSolutions.com) प्रश्न पूछा। सभी के द्वारा ‘हम वह सब कुछ देख रहे हैं यही उत्तर देने के कारण गुरु द्रोणाचार्य सभी से नाराज हुए।

(14)
ततो धनञ्जयं द्रोणः स्मयमानोऽभ्यभाषत ।
त्वयेदानीं प्रहर्त्तव्यमेतल्लक्ष्यं विलोक्यताम् ॥

शब्दार्थ धनञ्जयम् = अर्जुन को। स्मयमानः = मुस्कुराते हुए। अभ्यभाषत = बोले। त्वया = तुम्हारे द्वारा। इदानीं = अब। प्रहर्तव्यम् = प्रहार किया जाना चाहिए। एतत् लक्ष्यं = इस लक्ष्य को। विलोक्यताम् = देख लो।

अन्वय ततः स्मयमानः (सन्) द्रोणः धनञ्जयम् अभ्यभाषत। इदानीं त्वया प्रहर्तव्यम्। एतत् लक्ष्यं विलोक्यताम्।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में द्रोणाचार्य अर्जुन से लक्ष्य-सन्धान के लिए कह रहे हैं।

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व्याख्या इसके बाद मुस्कुराते हुए द्रोणाचार्य ने धनंजय अर्थात् अर्जुन से कहा-अब तुम्हें प्रहार करना है। तुम इसे लक्ष्य को देख लो।

(15)
एवमुक्तः सव्यसाची मण्डलीकृतकार्मुकः।
तस्थौ भासं समुद्दिश्य गुरुवाक्यप्रणोदितः ॥ [2007]

शब्दार्थ एवम् = इस प्रकार। उक्तः = कहा गया। सव्यसाची = अर्जुन का एक नाम; दाहिने और बाएँ दोनों हाथों से बाण चलाने की कला में निपुण। मण्डलीकृतकार्मुकः = धनुष को गोलाकार किये हुए; अर्थात् धनुष को ताने हुए। तस्थौ = बैठ गया। भासं = गिद्ध को। समुद्दिश्य = निशाना साधकर।

अन्वय (गुरुणा) एवम् उक्तः, गुरुवाक्यप्रणोदितः, मण्डलीकृतकार्मुकः सव्यसाची भासं समुद्दिश्य तस्थौ।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में लक्ष्य-वेध के लिए अर्जुन के तैयार होने का वर्णन है।

व्याख्या गुरु द्रोणाचार्य के द्वारा इस प्रकार आदेश देने पर गुरु के कथन से प्रेरित हुए, धनुष को मण्डलाकार बनाये हुए; अर्थात् धनुष को ताने हुए, दाहिने और बाएँ दोनों हाथों से धनुष पर बाण चलाने में सिद्धहस्त अर्जुन गिद्ध पक्षी को लक्ष्य करके; अर्थात् निशाना साधकर खड़े हो गये।

(16)
मुहूर्तादिव तं द्रोणस्तथैव समभाषत।
पश्यस्येनं स्थितं भासं द्वमं मामपि चार्जुन॥

शब्दार्थ मुहूर्तादिव
= थोड़ी देर बाद तथैव (तथा + एव) = उसी प्रकार समभाषत = पूछा। पश्यसि = देखते हो। स्थितं = स्थित। द्रुमं = वृक्ष को। माम् अपि = मुझे भी।

अन्वय मुहूर्तात् इव द्रोण: तं तथा एव समभाषत-“हे अर्जुन! त्वं (दुमम् अग्रे) स्थितम् (UPBoardSolutions.com) एनं भासं, द्रुमं माम् च अपि पश्यसि।”

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में आचार्य द्रोण द्वारा अर्जुन से प्रश्न पूछे जाने का वर्णन है।

व्याख्या थोड़ी देर में ही द्रोणाचार्य ने अर्जुन से उसी प्रकार प्रश्न किया-“हे अर्जुन! तुम पेड़ की चोटी पर स्थित इस गिद्ध को, वृक्ष को और मुझे भी देख रहे हो।”

(17)
“पश्याम्येकं’ भासमिति द्रोणं पार्थोऽभ्यभाषत।
‘न तु वृक्षं भवन्तं वा पश्यामीति च भारत’ ।। [2009,10,12,14]

शब्दार्थ पार्थः = पृथा (कुन्ती) के पुत्र अर्जुन। अभ्यभाषत = उत्तर दिया, कहा। भारत = भरतवंशी।

अन्वय भारत पार्थः ‘एकं भासं पश्यामि’ इति न तु वृक्षं, भवन्तं वा पश्यामि। इति द्रोणम् अभ्यभाषत।

प्रसग प्रस्तुत श्लोक में अर्जुन द्वारा उत्तर दिये जाने का वर्णन है।

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व्याख्या भरतवंशी अर्जुन ने “मैं केवल एक गिद्ध को देख रहा हूँ। मैं न तो वृक्ष को अथवा न आपको देख रही हूँ।” ऐसा द्रोण से कहा।

(18)
ततः प्रीतमना द्रोणो मुहूर्तादिव तं पुनः।
प्रत्यभाषत दुर्धर्षः पाण्डवानां महारथम् ॥

शब्दार्थ प्रीतमनाः = प्रसन्नचित्त। दुर्धर्षः = किसी से न दबने वाला। महारथम् = महारथी। ‘महाभारत’ में कहा गया है कि जो अकेला दस हजार वीरों के साथ लड़ सके तथा अस्त्र-शस्त्र के प्रयोग में निपुण हो, उसे महारथी कहते हैं।

अन्वय ततः प्रीतमना दुर्धर्षः द्रोणः मुहूर्तात् इव पाण्डवानां महारथं तं पुनः प्रत्यभाषत।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में द्रोणाचार्य द्वारा अर्जुन से पुन: कुछ पूछने का वर्णन है।

व्याख्या इसके बाद प्रसन्न मन वाले और किसी से न दबने वाले द्रोणाचार्य (UPBoardSolutions.com) ने थोड़ी देर बाद ही पाण्डवों में महान् योद्धा उस अर्जुन से पुनः कहा।

(19)
भासं पश्यसि यद्येनं तथा ब्रूहि पुनर्वचः।
शिरः पश्यामि भासस्य न गात्रमिति सोऽब्रवीत् ॥ [2006]

शब्दार्थ ब्रूहि = बताओ। गोत्रम् = शरीर के अब्रवीत् = कहा, बोला।

अन्वय यदि (त्वम्) एनं भासं पश्यसि, (तर्हि) तथा वचः पुन: ब्रूहि। सः ‘भासस्य शिरः पश्यामि, गात्रं न इति अब्रवीत्।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में आचार्य द्रोण के प्रश्न और अर्जुन के उत्तर का वर्णन है।

व्याख्या द्रोणाचार्य ने अर्जुन से कहा कि यदि तुम इस गिद्ध को देख रहे हो तो वैसे ही वचन पुन: कहो। ‘मैं गिद्ध के सिर को देख रहा हूँ, शरीर को नहीं” ऐसा अर्जुन ने कहा।

(20)
अर्जुनेनैवमुक्तस्तु द्रोणो हृष्टतनूरुहः।
मुञ्चस्वेत्यब्रवीत् पार्थं स मुमोचाविचारयन् ॥

शब्दार्थ हृष्टतनूरुहः = हर्षित रोमों वाले; अर्थात् हर्ष से रोमांचित हुए। मुञ्चस्व = (बाण) छोड़ो। मुमोच = (बाण) छोड़ दिया। अविचारयन् = बिना विचार किये।

अन्वय अर्जुनेन एवम् उक्तः तु हृष्टतनूरुहः द्रोणः पार्थं ‘मुञ्चस्व’ इति अब्रवीत्। सः अविचारयन् (बाएं) मुमोच।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में द्रोणाचार्य की स्वीकृति पर अर्जुन के बाण छोड़े जाने का वर्णन है।

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व्याख्या अर्जुन के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हर्ष से रोमांचित हुए द्रोणाचार्य ने (UPBoardSolutions.com) अर्जुन से ‘बाण छोड़ दो’ ऐसा कहा। अर्जुन ने भी बिना विचार किये ही बाण छोड़ दिया।

(21)
ततस्तस्य नगस्थस्य क्षुरेण निशितेन च।
शिर उत्कृत्य तरेसा पातयामास पाण्डवः ।
हर्षाद्रिकेण तं द्रोणः पर्यष्वजत पाण्डवम् ॥

शब्दार्थ ततः = इसके बाद। तस्य = उस गिद्ध के नगस्थस्य = पेड़ पर रखे हुए। क्षुरेण = बाण के द्वारा। निशितेन = पैने। उत्कृत्य = काटकर तरसा = वेग से। पातयामास = (पृथ्वी पर) गिरा दिया। हर्षाद्रिकेण = प्रसन्नता की अधिकता से पर्यष्वजत = गले लगा लिया। तं पाण्डवम् = उस पाण्डव (अर्जुन) को।

अन्वय ततः पाण्डव: नगस्थस्य तस्य शिरः निशितेन क्षुरेण उत्कृत्य तरसा (भूमौ) पातयामास। द्रोण: हर्षोंद्रेकेण पाण्डवं पर्यष्वजत।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में अर्जुन द्वारा लक्ष्य-वेध में सफल होने का वर्णन है।

व्याख्या इसके पश्चात् पाण्डु के पुत्र अर्जुन ने वृक्ष की चोटी पर स्थित उस गिद्ध पक्षी का सिर तीक्ष्ण बाण से। काटकर वेग से भूमि पर गिरा दिया। द्रोणाचार्य ने अत्यधिक प्रसन्नता से उस अर्जुन को गले लगा लिया।

सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) पाण्डवानां महारथम्।
सन्दर्भ
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के लक्ष्य-वेध-परीक्षा शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

प्रसंग अर्जुन के उत्तर से प्रसन्न आचार्य द्रोण ने उसे पाण्डवों में महारथी कहा।

अर्थ पाण्डवों (युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव) में महारथी अर्थात् महान् वीर हो।

व्याख्या महाभारत में योद्धाओं की श्रेणियों का वर्गीकरण महारथी, अतिरथी आदि के रूप में किया गया है। इसमें ‘महारथी’ सबसे श्रेष्ठ योद्धा माना जाता था। महारथी को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि

एको दशसहस्राणि योधयेद्यस्तु धन्विनां ।
शस्त्रशास्त्रप्रवीणश्च विज्ञेयः स महारथः ॥

तात्पर्य यह है कि ऐसा योद्धा जो अकेले दस हजार वीरों के साथ युद्ध कर सके तथा अस्त्र-शस्त्र चलाने में कुशल हो, उसे महारथी जानना चाहिए। महारथी होना तत्कालीन योद्धाओं में गौरव की बात मानी जाती थी। द्रौपदी ने भी महाभारत में एक स्थल पर कहा है-“पञ्च मे पतयः सन्ति (UPBoardSolutions.com) भीमाऽर्जुन महारथाः।” द्रोणाचार्य ने अर्जुन में महारथी होने की प्रतिभा उनके अध्ययन-काल में ही पहचान ली थी, इसीलिए उन्हें ‘पाण्डवानां महारथम्’ कहकर सम्बोधित किया।

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(2) शिरः पश्यामि भासस्य नगात्रमिति सोऽब्रवीत्। [2014]

सन्दर्भ पूर्ववत्।

प्रसंग प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में द्रोणाचार्य के प्रश्न का अर्जुन के द्वारा उत्तर दिया जा रहा है।

अर्थ उसने कहा, “मैं गिद्ध के सिर को देख रहा हूँ, शरीर को नहीं।”

व्याख्या वृक्ष के शीर्ष भाग पर लक्ष्य-वेध के लिए रखे गये कृत्रिम गिद्ध पक्षी के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे। जाने पर अर्जुन ने उत्तर दिया था कि वह मात्र गिद्ध के सिर को ही देख रहा था, उसके शरीर को नहीं; क्योंकि लक्ष्य तो गिद्ध के सिर का वेध करना था, शरीर का नहीं। प्रस्तुत सूक्ति का आशय यह है कि व्यक्ति की दृष्टि वहीं केन्द्रित होनी चाहिए जो उसका लक्ष्य है, अन्यत्र नहीं। लक्ष्य पर दृष्टि रखने वाले व्यक्ति ही जीवन-संग्राम में सफल होते हैं। यत्र-तत्र दृष्टि दौड़ाने वाले कभी (UPBoardSolutions.com) जीवन में सफल नहीं होते। जीवन का एक लक्ष्य निर्धारित करने वाले आगे बढ़ जाते हैं, जब कि लक्ष्य से भटकते रहने वाले पीछे छूट जाते हैं। कहा भी गया है “एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाइ।”

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1)   तांस्तु सर्वान् …………………………………………लक्ष्यभूतम् उपादिशत् ॥ (श्लोक 1-2)
कृत्रिमं भासम् ………………………………………… लक्ष्यभूतम् उपादिशत् ॥ (श्लोक 2)

संस्कृतार्थः इमौ द्वौ श्लोकौ लक्ष्य-वेध-परीक्षा नामकात् पाठात् उद्धृतौ स्तः। अस्मिन् श्लोके कथितम्। अस्ति यत् ते राजकुमाराः सर्वविद्यासु शिक्षिताः आसन् तत् तेषां धनुर्विद्यायां निष्णातान् परीक्षां कर्तुम् ऐच्छत् आचार्यः द्रोणः तान् युधिष्ठिरादीन् राजकुमारान् आहूय शिल्पिभिः निर्मितं कृत्रिमं गृध्र वृक्षाग्रे समारोप्य लक्ष्यवेधार्य आज्ञां दत्तवान्।।

(2) शीघ्रं भवन्तः ………………………………………… तिष्ठध्वं सन्धितेषवः ॥ (श्लोक 3) [2011]

संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके आचार्य: द्रोणः स्वशिष्यान् राजकुमारान् अकथयत् यत् भवन्तः सर्वे अपि स्वधनूंषि आदाय शीघ्रम् अत्र आगच्छन्तु। ततः एतं भासं लक्षयित्वा धनुषि वाणं आरुह्य सत्वरः तिष्ठ।

(3) मद्वाक्यंसमकालं ………………………………………… कुरुत पुत्रकाः॥ (श्लोक 4) [2006]

संस्कृतार्थः आचार्य द्रोण: शिष्या निर्दिशति-मत् वचनकालम् एव अस्य दक्षिणः शिरः क्षित्वा भूमौ निपात्यताम्। आचार्यः कथयति-अहम् एकम् एकम् आहूय उपादिशामि। प्रियाः वत्सा:! यूयं तथैव कुरुत यथा अहम् इच्छामि।

(4) ततो युधिष्ठिरः ………………………………………… गुरुवाक्यप्रणोदितः॥ (श्लोक 6) [2012, 14]

संस्कृतार्थः गुरोः द्रोणाचार्यस्य पूर्वम् उक्तं ‘दुर्धर्ष बाणं सन्धत्स्व मत् वाक्यान्ते तं विमुञ्च’। इति कथनं श्रुत्वा प्रेरयित्वा च शत्रुनाशकः युधिष्ठिरः स्वहस्ते धनुः गृहीत्वा पक्षिणं लक्षयित्वा स्थितः।।

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(5) तमुवाचाऽपसपेंति ………………………………………… कुत्सयन् ॥ (श्लोक 11)

संस्कृतार्थः आचार्य द्रोण: युधिष्ठिरस्य उत्तरं श्रुत्वा अप्रसन्न: सन् तं कुत्सयनू अवदत्-त्वं गच्छ। इत्थं प्रकारेण त्वं लक्ष्यं वेद्धं न शक्नोसि। लक्ष्यवेधे परम एकाग्रतायाः आवश्यकता भवति।

(6) एवमुक्तः सव्यसाची ………………………………………… गुरुवाक्यप्रणोदितः ॥ (श्लोक 15) [2008, 11]

संस्कृतार्थः गुरोः द्रोणाचार्यस्य ‘इदानीं त्वया प्रहर्तव्यम् एतत् लक्ष्यं विलोक्यताम्’ इति कथनं श्रुत्वा प्रेरयित्वा (UPBoardSolutions.com) च सव्यसाची अर्जुन: स्वधनुः वृत्ताकारं कृतः। पक्षिणं लक्षयित्वा तं प्रहर्तुं उद्यत्वा सः अर्जुनः स्थितः। |

(7) पश्याम्येकं : ………………………………………… च भारत। (श्लोक 17) [2012]

संस्कृतार्थः आचार्यस्य प्रश्नानन्तरम् अर्जुनः अवदत्-भो भरतश्रेष्ठ गुरुवर! अहं केवलं लक्ष्यं पश्यामि न तु वृक्षं भवन्तं वा अन्यत् किम् अपि पश्यामि।

(8) ततः प्रीतमना ………………………………………… पाण्डवानां महारथम् ॥ (श्लोक 18) [2011, 14]

संस्कृतार्थः ततः आचार्यः द्रोणः प्रीतमना दुर्धर्षः च मुहूर्तात् अनन्तरं पाण्डवानां महान् योद्धा अर्जुनं पुनः अकथयत्।।

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(9) भासं पश्यसि ………………………………………… सोऽब्रवीत् ॥ (श्लोक 19) [2006, 11, 12]

संस्कृतार्थः द्रोणाचार्यः अवदत्-वत्स अर्जुन! चेत् त्वं केवलं भासं लक्ष्यम् एव पश्यसि तर्हि मम प्रश्नस्य (UPBoardSolutions.com) उत्तरं देहि किं त्वं सम्पूर्ण भासं पश्यसि?” अर्जुन: प्रत्यवदत्-अहं तु केवलं भासस्य शिरः पश्यामि, न तु शरीरम्।

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Class 10 Sanskrit Chapter 10 UP Board Solutions मदनमोहनमालवीयः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 10 Madan Mohan Malaviya Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 10 हिंदी अनुवाद मदनमोहनमालवीयः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

पं० मदनमोहन मालवीय एक अच्छे वकील, सफल कथावाचक, कुशल सम्पादक और सच्चे देशभक्त थे। इनकी मानसिक तथा वैचारिक श्रेष्ठता को देखकर ही महात्मा गाँधी इन्हें ‘महामना’ कहकर सम्बोधित करते थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में भी इनका महत्त्वपूर्ण स्थान था। ये शिक्षक बने, सम्पादक रहे और इन्होंने वकालत भी की, परन्तु इनके मन को शान्ति नहीं मिली। अन्ततः ये स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े। अशिक्षा को भारतीयों के पिछड़ेपन (UPBoardSolutions.com) का मुख्य कारण मानकर इन्होंने वाराणसी में गंगा के तट पर ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। इस विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए इन्होंने धनी-निर्धन सभी से यथाशक्ति आर्थिक सहायता माँगी। यह विश्वविद्यालय आज शिक्षा के क्षेत्र में अपना अनुपम योगदान देते हुए इनकी धवल कीर्ति को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित कर रहा है। प्रस्तुत पाठ में मालवीय जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के विषय में विस्तार से प्रकाश डाला गया है।

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पाठ-सारांश (2006,07, 08, 09, 10, 11, 12, 13]

वेशभूषा गौरवर्ण एवं कान्तिमय शरीर, श्वेत वस्त्र, गले में दुपट्टा, सिर पर सफेद पगड़ी, मस्तक पर कुंकुम मिश्रित सफेद चन्दन का तिलक और सफेद उपानह; मालवीय जी के भारतीय चरित्र और हृदय की निर्मलता को प्रकट करते थे। वस्तुत: भारतीय संस्कृति ही इनमें सम्पूर्ण रूप में रूपायित थी।

जन्म पण्डित मदनमोहन मालवीय जी का जन्म सन् 1861 ई० में 25 दिसम्बर को प्रयाग के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता ब्रजनाथ चतुर्वेदी संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान् थे। उनके पूर्वज मालव देश से आकर प्रयाग में रहने लगे थे, इस कारण ये ‘मालवीय’ कहलाये। धन से सम्पन्न न होने पर भी धार्मिक होने के कारण ये समाज में समादृत थे।

शिक्षा मालवीय जी की प्रारम्भिक शिक्षा प्रयाग की एक संस्कृत पाठशाला में हुई थी। संस्कृत के अध्ययन से इनके हृदय में भारतीय आदर्श चरित्रों, भारतीय संस्कृति एवं देश के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो गयी। बाद में इनकी शिक्षा राजकीय हाईस्कूल’ तथा ‘म्योर सेण्ट्रल कॉलेज’ में हुई। पारिवारिक परिस्थितियों के प्रतिकूल होने के कारण इन्होंने अध्यापन-कार्य प्रारम्भ किया और पर्याप्त समय बाद एल-एलबी० की परीक्षा उत्तीर्ण करके उच्च न्यायालय, प्रयाग’ में वकालत प्रारम्भ कर दी।

प्रतिभा मालवीय जी ने अखिल भारतीय कांग्रेस दल के कलकत्ता अधिवेशन में व्यवस्थापिका सभा विषय पर विचारपूर्ण और गम्भीर भाषण दिया। उस समय इनकी आयु मात्र पच्चीस वर्ष की थी। इनके विशद् विचारों को सुनकर उच्चकोटि के नेता और देशसेवक स्तब्ध रह गये (UPBoardSolutions.com) और इन्होंने राष्ट्रीय नेताओं की अग्रिम पंक्ति में अपना स्थान बना लिया। इनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह ने इनसे ‘हिन्दुस्तान’ दैनिक के सम्पादन का अनुरोध किया।

हिन्दी-सेवा और राष्ट्र-सेवा ‘हिन्दुस्तान’ पत्र का सम्पादन करते हुए मालवीय जी ने राष्ट्रीय भावना और हिन्दी भाषा का प्रचार किया। ‘हिन्दुस्तान’ के अतिरिक्त अन्य पत्रों का सम्पादन करते समय भी राष्ट्र-सेवा और हिन्दी भाषा की सेवा ही इनका प्रमुख लक्ष्य था। न्यायालयों में भी हिन्दी भाषा का प्रयोग हो, इसके लिए मालवीय जी ने पर्याप्त प्रयास किया।

वकालत मालवीय जी के विचार स्पष्ट, गम्भीर और युक्तिसंगत होते थे। अंग्रेजों की आलोचना करते हुए भी ये भयभीत नहीं होते थे। पत्र-सम्पादन में मन न लगने के कारण इन्होंने कानून की शिक्षा प्राप्त की और एल-एल०बी० की परीक्षा उत्तीर्ण करके प्रयाग के उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। थोड़े ही दिनों में इन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर न्याय के क्षेत्र में पर्याप्त ख्याति अर्जित कर ली। ये कभी झूठे मुकदमों की पैरवी नहीं करते थे।

देश की स्वतन्त्रता में योगदान अध्यापक रहते हुए और पत्रों का सम्पादन करते हुए भी मालवीय जी को शान्ति नहीं मिली। देश की परतन्त्रता से इनका मन बहुत खिन्न रहा करता था। ये देश को स्वतन्त्र कराने की चिन्ता में लग गये। तीन बार ये अखिल भारतीय कांग्रेस दल के सभापति बने। सन् 1931 ई० में अंग्रेजों के साथ सन्धि वार्ता करने के लिए गाँधी जी के साथ इंग्लैण्ड गये। आंग्लभाषा में व्यक्त किये गये इनके विचारों से अंग्रेज बहुत प्रभावित हुए।

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रचनात्मक कार्य मालवीय जी ने राष्ट्र-सेवा में लगे रहकर प्रयाग में ‘मैक्डॉनल हिन्दू छात्रावास और ‘मिण्टो पार्क का निर्माण कराया। देश की उन्नति के लिए शिक्षा को विशेष साधन मानकर वाराणसी में गंगा के तट पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। इस विश्वविद्यालय के परिसर में अनेक महाविद्यालय हैं, जिनमें विदेशी भाषा, विज्ञान, कला आदि का ज्ञान कराते हुए भारतीय संस्कृति, धर्म, दर्शन और इतिहास की भी शिक्षा दी जाती है। मालवीय जी विभिन्न पर्वो के अवसरों पर भागवत् और पुराणों की कथा सुललित और मधुर भाषा में छात्रों और अध्यापकों को स्वयं सुनाते थे। भारतीय आचार-विचारों से छात्रों को परिचित कराना ही इनका उद्देश्य था। विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद से ही ये उसके कुलपति रहे। ये छात्रों को अपने प्रिय पुत्र-सा मानते थे। किसी छात्र के बीमार पड़ने पर पितृवत् वात्सल्य प्रदान करते थे और आर्थिक संकट पड़ने पर सहायता करते थे।

मालवीय जी देश के असहायजनों के कष्टों को देखकर अत्यन्त दु:खी रहते थे। इन्होंने देश की एकता और अखण्डता के लिए महान् प्रयास किये। सन् 1944 ई० में भारत में साम्प्रदायिक झगड़े हुए जिसमें हजारों लोग मारे गये। मालवीय जी का हृदय इसको देखकर बहुत दुःखी हुआ (UPBoardSolutions.com) और उन्होंने प्राण त्याग दिये। उनका यश आज भी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के रूप में स्थित है।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
गौरं कान्तिमयं वपुः, धवलं परिधानं, गले लम्बितमुत्तरीयं, शिरसि धवलोष्णीषं, ललाटे कुङ्कुमगर्भितधवलचन्दनतिलकं, धवले चोपानहौ एतत्सर्वं मदनमोहनमालवीयस्य भारतीयचारित्र्यं हृदयस्य च विमलत्वं निदर्शयति स्म। वस्तुतस्तु, भारतीयसंस्कृतिस्तस्मिन् रूपायिता जाता।

शब्दार्थ कान्तिमयम् = कान्ति से युक्त। वपुः = शरीर। परिधानम् = वस्त्र। लम्बितमुत्तरीयम्= लटकता हुआ दुपट्टा। धवलोष्णीषम् = सफेद पगड़ी। कुङ्कुमगर्भित = केसर मिश्रित। उपानही = जूते। चारित्र्यम् = चरित्र को। विमलत्वं = विमलता को। निदर्शयति स्म = बतलाते थे। वस्तुतस्तु = वास्तव में। रूपायिता जाता = साकार हो गयी थी। सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘मदनमोहनमालवीयः’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी की वेशभूषा एवं व्यक्तित्व के विषय में बताया गया है।

अनुवाद गौरवर्ण कान्तियुक्त शरीर, श्वेत वस्त्र, गले में लटकता हुआ दुपट्टा, सिर पर सफेद पगड़ी, मस्तक पर कुमकुम मिला सफेद चन्दन का तिलक, सफेद जूते; ये सभी मदनमोहन मालवीय के भारतीय चरित्र और हृदय की पवित्रता को बतलाते थे। वास्तव में भारतीय संस्कृति इनमें साकार हो गयी थी।

(2)
पण्डितमदनमोहनमालवीयस्य जन्म एकषष्ट्युत्तराष्टादशशततमे खीष्टाब्दे दिसम्बरमासस्य पञ्चविंशति दिनाङ्के (25-12-1861) तीर्थराजे प्रयागे एकस्मिन् ब्राह्मणकुलेऽभवत्। अस्य जनकः। पण्डितव्रजनाथचतुर्वेदः संस्कृतभाषायाः विश्रुतो विद्वानासीत्। निर्धनोऽपि धर्मकर्मणि सततरतोऽयं विद्वान् समाजे समादृत आसीत्। एतस्य पूर्वजा मालवदेशादागत्योत्तरभारते न्यवसन्नतस्ते ‘मालवीय’ इति पदेन सम्बोध्या अभवन्।

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शब्दार्थ एकषष्ट्युत्तराष्टादशशततमे = अठारह सौ इकसठ में। विश्रुतः = प्रसिद्ध, जाने-माने। एतस्य = इनके। न्यवसन्नतस्ते = बसे, इसलिए वे। सम्बोध्याः = सम्बोधन करने योग्य।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी के जन्म का वर्णन किया गया है।

अनुवाद पण्डित मदनमोहन मालवीय का जन्म सन् 1861 ई० में दिसम्बर महीने की 25 तारीख को तीर्थराज प्रयाग के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता पण्डित ब्रजनाथ चतुर्वेदी संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध विद्वान् थे। निर्धन होते हुए भी धर्म के कार्य में निरन्तर लगा हुआ यह (UPBoardSolutions.com) विद्वान् समाज में सम्माननीय था। इनके पूर्वज मालव देश से आकर उत्तर भारत में रहते थे; अत: लोग उनको ‘मालवीय’ कहकर पुकारते थे।

(3)
मदनमोहनमालवीयस्य प्रारम्भिक शिक्षा प्रयागे एवैकस्यां संस्कृतपाठशालायां जाता। संस्कृताध्ययनेन बाल्य एव तस्य मनसि भारतीयादर्शचरितानां कृते भारतीयसंस्कृतेश्च कृते बह्लादरः समजायत। स्मृतिपुराणमहाभारतभागवतादिभारतीयग्रन्थानामनुशीलनेन भारतदेशं प्रति तस्य हृदि श्रद्धा समुत्पन्ना। दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनं स कामयते स्म। अतः बाल्यकाले एव तस्य हृदि देशभक्तेः मानवसेवायाः मानवजीवनस्याभ्युदयस्य बीजान्युप्तानि जातानि यानि काले विकसितभूतानि फलितानि।

मदनमोहनमालवीयस्य ……………………………………………… कामयते स्म। [2007]

शब्दार्थ बह्लादरः = अत्यधिक आदर। समजायत = उत्पन्न हो गया था। भारतीयादर्शचरितानां = भारत के आदर्श पुरुषों के चरित्रों के अनुशीलनेन = अध्ययन और मनन से। प्राणिनाम् = प्राणियों के। आर्तिनाशनम् = दुःख दूर करना। कामयते स्म = चाहते थे। बीजान्युप्तानि = बीज बोये गये थे।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी की भारतीय संस्कृति के प्रति आदर-भावना का वर्णन किया गया है।

अनुवाद मदनमोहन मालवीय जी की प्रारम्भिक शिक्षा प्रयाग में ही एक संस्कृत पाठशाला में हुई। संस्कृत के अध्ययन से बचपन में ही उनके मन में भारत के आदर्श चरित्रों के लिए और भारतीय संस्कृति के लिए बहुत आदर उत्पन्न हो गया था। स्मृति, पुराण, महाभारत, भागवत् आदि भारतीय ग्रन्थों के अध्ययन-मनन से भारत देश के प्रति उनके हृदय में श्रद्धा उत्पन्न हो गयी। वे दुःख से पीड़ित प्राणियों के दुःख का नाश करना। चाहते थे; अत: बचपन में ही उनके हृदय में देश-भक्ति, मानव-सेवा और मानव-जीवन की उन्नति के बीज बोये गये थे, जो समय आने पर विकसित और फलित हो गये।

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(4)
कालान्तरे सः प्रयागे प्रथमसंस्थापिते राजकीय हाईस्कूल नाम्नि विद्यालये पठन् ‘इण्ट्रेन्स परीक्षामुदतरत्। ततः म्योर सेण्ट्रल कालेजेऽधीयानः बी0ए0 परीक्षायाः पारं गतः। अग्रे पठितुमिच्छन्तमप्यर्थकोयँ तमबाधत। कर्त्तव्यसङ्घाते किं पूर्वं करणीयमिति विशिष्टकर्तव्यनिर्धारणमेव विवेकशालिनां वैशिष्ट्यम्। अतः जीवननिर्वाहार्थं तेनाध्यापनवृत्तिः स्वीकृता।

शब्दार्थ परीक्षामुदतरत् = परीक्षा उत्तीर्ण की। अधीयानः = पढ़ते हुए। पारं गतः = पार गया, उत्तीर्ण की। पठितुमिच्छन्तमप्यर्थकार्यम् (पठितुम् + इच्छन्तम् + अपि + अर्थकार्यम्) = पढ़ने की इच्छा करने वाले को भी। धन की कमी। तम् = उनको। अबाधत = बाधा पहुँचायी। कर्त्तव्यसङ्घाते = बहुत-से कर्तव्य होने पर निर्धारणम् एव = निश्चय करना ही।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी की शिक्षा और जीविकोपार्जन प्रारम्भ करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद कुछ समय बाद उन्होंने प्रयाग में सबसे पहले स्थापित राजकीय हाईस्कूल नाम के विद्यालय में पढ़ते हुए इण्ट्रेन्स परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद म्योर सेण्ट्रल कॉलेज में पढ़ते हुए बी०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। आगे पढ़ना चाहते हुए भी उन्हें आर्थिक कमी ने बाधा पहुँचाई। अनेक कर्तव्य (UPBoardSolutions.com) होने पर पहले क्या करना है’ इस विशेष कर्तव्य का निश्चय करना ही विवेकशील पुरुषों की विशेषता है। अत: जीवन-निर्वाह के लिए उन्होंने अध्यापन की जीविका स्वीकार की।

(5)
तदैव कलिकातानगरे अखिलभारतीयकॉग्रेसदलस्य अधिवेशनमभूत्। मालवीय महोदयस्तत्र गतः। व्यवस्थापिकासभाविषयमवलम्ब्यातीव गम्भीरं विचारपूर्ण भाषणं चाकरोत्। पञ्चविंशतिवर्षीयस्य यूनः मालवीयस्य मनोहारिण्या शैल्या विशदविचारान् संश्रुत्य नेतार इतरे चोपस्थिता जनाः देशसेवकाश्च चकिता अभवन्। एकेनैव भाषणेनासौ राष्ट्रमञ्चस्थानां पङ्क्तौ स्वमुपावेशयत्। तस्याध्ययनस्य तस्य सदाशयतादिगुणानां तस्य च विनयस्येदं प्रतिफलमासीत्। तत्रैव प्रतापगढस्थकालाकाङ्करस्य देशभक्तो राजारामपालसिंहस्तस्य वैशिष्ट्येनाकृष्टः ‘हिन्दुस्तान’ दैनिकपत्रस्य सम्पादनायानुरोधं कृतवान्।

शब्दार्थ अधिवेशनमभूत् = अधिवेशन हुआ। विषयमवलम्ब्य = विषय का सहारा लेकर। पञ्चविंशति = पच्चीस। विशदविचारान् = स्पष्ट विचारों को। संश्रुत्य = सुनकर। एकेनैव = एक से ही। उपावेशयत् = प्रवेश करा लिया। सदाशयता = उच्च विचारों वाले भाव। वैशिष्ट्येनाकृष्टः = विशेषता से आकर्षित। कृतवान् = किया।

प्रसग प्रस्तुत पद्यांश में मालवीय जी के तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व को प्रभावित करने और कांग्रेस में सम्मिलित होने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद तभी (उसी समय) कलकत्ता नगर में अखिल भारतीय कांग्रेस दल का अधिवेशन हुआ। मालवीय जी वहाँ गये। व्यवस्थापिका सभा के विषय को लेकर (उन्होंने) अत्यन्त गम्भीर और विचारपूर्ण भाषण किया। पचीस वर्षीय युवा मालवीय जी की मनोहर शैली में स्पष्ट विचारों को सुनकर नेता और दूसरे उपस्थित लोग और देशसेवक चकित हो गये। एक ही भाषण से उन्होंने राष्ट्रीय मंच पर बैठने वाले नेताओं की श्रेणी में अपने को बैठा दिया। यह उनके अध्ययन का, उनकी सदाशयता आदि गुणों का और उनकी विनय का परिणाम था। वहीं पर प्रतापगढ़ के कालाकाँकर के देशभक्त राजा रामपाल सिंह ने उनकी विशेषता से आकर्षित होकर ‘हिन्दुस्तान’ दैनिक पत्र के सम्पादन के लिए उनसे अनुरोध किया।

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(6)
‘हिन्दुस्तान’ पत्रस्य सम्पादनं कुर्वता मालवीयमहोदयेन तदानीम् आङ्ग्लशासकैराक्रान्ते देशे चाङ्ग्लभाषायाऽऽक्रान्तायां शिक्षायां राष्ट्रियभावस्य हिन्दी-भाषायाश्च दृढतया प्रचारः कृतः। हिन्दुस्तानपत्रमतिरिच्येतरेषामनेकपत्राणामपि सम्पादनं तेन कृतं परं सर्वत्र राष्ट्रसेवा हिन्दीभाषासेवा (UPBoardSolutions.com) च तस्य मुख्यलक्ष्ये आस्ताम्। न्यायालयेषु हिन्दीभाषायाः प्रयोगनिर्णये मालवीयमहोदयस्य विशिष्टमवदानं विद्यते।

शब्दार्थ कुर्वता = करते हुए। तदानीम् = उस समय। आक्रान्ते = दबाये जाने पर। अतिरिच्य = अतिरिक्त आस्ताम् = थे। अवदानम् = योगदान।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी की हिन्दी-सेवा करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद ‘हिन्दुस्तान’ पत्र का सम्पादन करते हुए मालवीय जी ने उस समय देश को अंग्रेज शासकों द्वारा दबाये जाने पर और शिक्षा के अंग्रेजी भाषा के द्वारा दबाये जाने पर राष्ट्रीय भावना का और हिन्दी भाषा का दृढ़ता से प्रचार किया। ‘हिन्दुस्तान’ पत्र के अतिरिक्त उन्होंने दूसरे अनेक पत्रों का भी सम्पादन किया, परन्तु सभी जगह राष्ट्र की सेवा और हिन्दी भाषा की सेवा उनके मुख्य लक्ष्य थे। न्यायालयों में हिन्दी भाषा के प्रयोग के निर्णय में मालवीय जी का विशेष योगदान है।

(7)
पुत्राणां सम्पादनावसरे प्रकटिता अस्य विचाराः सुस्पष्टा, गम्भीरा, युक्तियुक्ताश्चाभवन्। अतः विरोधिनोऽपि तं प्रशंसन्ति स्म। आङ्ग्लशासनस्यालोचनां कुर्वन् मालवीयमहोदयो न भयमनुभूतवान् नाऽपि संकोचं कृतवान्। न दैन्यं, न पलायनमिति तस्य जीवनसूत्रामासीत्। पत्रसम्पादनकर्मणि तस्य मनो नारमत। गुरुजनानां परामर्शमनुसृत्यासौ एल-एल०बी० कक्षायां पठितुमारब्धवान् ससम्मानं च तां परीक्षामुदतरत्। एल-एल०बी० पदव्या विभूषितः सन् प्रयागस्थोच्चन्यायालये अधिवक्तृकर्म कर्तुं प्रारभत। स्वल्पैरेवाहोभिः न्यायालये न्यायक्षेत्रे च परां ख्यातिमवाप। मृषावादानसौ न स्वीकरोति स्म, अतः सत्यं प्रति तस्य दृढो विश्वासः अधिवक्तृकर्मनिरतानां कृतेऽद्यापि आदर्शभूतः सन्तिष्ठते।

शब्दार्थ युक्तियुक्ताश्चाभवन् = और युक्तियुक्त थे। प्रशंसन्ति स्म = प्रशंसा करते थे। अनुभूतवान् = अनुभव किया। दैन्यम् = दीनता। पलायनम् = पलायन, भागना। जीवनसूत्रम् = जीवन के मुख्य उद्देश्य नारमत (न + अरमत) = नहीं लगा। परामर्श = सलाह। अनुसृत्यासौ = अनुसरण करके इन्होंने। अधिवक्तृकर्म = वकालतं का कार्य। स्वल्पैरेवाहोभिः (स्वल्पैः + एव + अहोभिः) = थोड़े ही दिनों में। ख्यातिम् अवाप = प्रसिद्धि को प्राप्त किया। मृषावादानसौ = झूठे मुकदमों को ये। सन्तिष्ठते = स्थित है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी द्वारा राष्ट्र-सेवा और वकालत किये जाने का वर्णन किया गया है।

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अनुवाद पत्रों के सम्पादन के अवसर पर प्रकट किये गये इनके विचार अत्यन्त स्पष्ट, गम्भीर और युक्तिसंगत होते थे; अत: विरोधी भी उनकी प्रशंसा करते थे। अंग्रेजी शासन की आलोचना करते हुए मालवीय जी ने न भय का अनुभव किया, न ही संकोच किया। ने दीनता (दिखाना), न (कर्तव्य-पथ) पलायन करना उनके जीवन का सत्र था। पत्रों के सम्पादन के काम में उनका मन नहीं लगा। गरुजनों की सलाह के अनुसार उन्होंने एल-एल०बी० की (UPBoardSolutions.com) कक्षा में पढ़ना आरम्भ किया और सम्मानसहित परीक्षा उत्तीर्ण की। एल-एल०बी० की उपाधि से विभूषित होते ही उन्होंने प्रयाग के उच्च न्यायालय में वकालत करना प्रारम्भ कर दिया। थोड़े ही दिनों में न्यायालय में और न्याय के क्षेत्र में अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त कर ली। ये झूठे मुकदमे स्वीकार नहीं करते थे; अत: सत्य के प्रति उनका दृढ़ विश्वास वकालत के काम में लगे हुए लोगों के लिए आज भी आदर्श रूप में स्थित है।

(8)
मदनमोहनमालवीयोऽध्यापकोऽभवत्, पत्रकारकर्म चानुष्ठितवान् परं सः सन्तुष्टि शान्ति च नालभत। देशस्य पारतन्त्र्येण तस्य मनः भृशमदूयत। कथं वा देशः पारतन्त्रशृङ्खलामुच्छिद्य स्वतन्त्रो भविष्यतीति चिन्ताचिन्तितः सन् मालवीयः अखिलभारतीयकॉग्रेसदलमाध्यमेन पृथक्रूपेण मातृभूमेः मुक्तिकर्मणि संलग्नो जातः। स्वकार्येण स्वविचारेण चासौ कॉग्रेसदलस्य त्रिवारं सभापतिपदमलङ्कृतवान्। हिमगिरिमिव तस्योत्तुङ्गं मनो दृष्ट्वा महात्मा गान्धी तं ‘महामना’ इत्यवोचत्। एकत्रिंशदुत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे (1931) आङ्ग्लशासकैः सह सन्धिवार्ता कर्ती महात्मना गान्धिना सह अयमपि इङ्ग्लैण्डे-देशं जगाम्। आङ्ग्लभाषायां व्यक्तान् तस्य विचारान् संश्रुत्य इङ्ग्लैण्डवासिनः अपि मुग्धा अभवन्।

मदनमोहनमालवीयो ……………………………………………… संलग्नो जातः।

शब्दार्थ अनुष्ठितवान् = किया। नालभत = प्राप्त नहीं हुई। पारतन्त्र्येण = परतन्त्रता से। भृशंम् = अत्यधिक अदूयते = दुःखी हुआ। शृङ्खलां = जंजीर को। उच्छिद्य = तोड़कर। मुक्तिकर्मणि = स्वतन्त्रता के काम में। त्रिवारं = तीन बार। सभापतिपदमङ्कृतवान् = सभापति का पद सुशोभित किया। उत्तुङ्गम् = ऊँचा। इत्यवोचत् = ऐसा बोले। एकत्रिंशदुत्तरैकोनविंशतिशततमे = उन्नीस सौ इकतीस में। सन्धिवार्ताम् = समझौते की बात को। मुग्धाः = प्रभावित, प्रसन्न।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्त कराने में किये गये योगदान का वर्णन किया गया है।

अनुवाद मदनमोहन मालवीय जी अंध्यापक हुए और पत्रकार का कार्य किया, परन्तु उन्हें सन्तोष और शान्ति प्राप्त न हुई। देश की परतन्त्रता से उनका मन बहुत दुःखी हुआ। हमारा देश परतन्त्रता की श्रृंखला को तोड़कर कैसे स्वतन्त्र होगा, इस चिन्ता से चिन्तित होते हुए मालवीय जी अखिल भारतीय कांग्रेस दल के माध्यम से पृथक् रूप से मातृभूमि की स्वतन्त्रता के कार्य में लग गये। अपने कार्य से और अपने विचार से इन्होंने कांग्रेस दल के सभापति पद को तीन बार सुशोभित किया। हिमालय के समान ऊँचे उनके मन को देखकर महात्मा गाँधी ने उन्हें ‘महामना’ कहा। सन् 1931 ई० में अंग्रेज शासकों के साथ सन्धि-वार्ता करने के लिए मुहात्मा गाँधी के साथ ये भी इंग्लैण्ड देश गये। अंग्रेजी भाषा में प्रकट किये गये उनके विचारों को सुनकर इंग्लैण्डवासी (अंग्रेज) भी प्रभावित हुए।

(9)
राष्ट्रसेवाकर्मणि निरतोऽपि महामना मालवीयोऽन्येष्वपि रचनात्मककर्मसु प्रवृत्त आसीत्। प्रयागे जनान् धनं याचित्वा मैक्डॉनलहिन्दूछात्रावासस्य निर्माणमसौ अकारयत्। तस्यैवोद्योगेन प्रयागस्य प्रख्यातस्य मिण्टोपार्क इत्यस्यापि निर्माणं जातम्। समग्रे च देशे शिक्षायाः ह्रासदशामवलोक्य अशिक्षैवास्माकं पारतन्त्र्यस्य हेतुरिति सोऽमन्यत। अतो देशस्योन्नत्यै क्रियमाणैरन्यैरुद्योगैः सह शिक्षायाः विकासायापि प्रयत्नो विधेय इति तस्य दृढा मतिरासीत्। सततं चिन्तयन् सः काशीहिन्दूविश्वविद्यालयस्य संस्थापनायाः सङ्कल्पं हृदि निदधौ। षोडशोत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे (1916) वसन्तपञ्चमीपर्वदिने काश्यां पुण्यसलिलायाः गङ्गायास्तटे लोकोत्तरमिदं कार्यं संवृत्तम्। भिक्षावृत्या जनान्, श्रेष्ठिनो, राज्ञो, महाराजान्, वैदेशिकशासनमपि धनं याचित्वा विश्वविद्यालयस्य संस्थापनं तस्यापूर्वमनोबलस्य सङ्कल्पदृढतायाश्च (UPBoardSolutions.com) द्योतकं वर्तते। पञ्चक्रोशपरिमिते क्षेत्रेऽभिव्याप्ते विश्वविद्यालयपरिसरे निर्मितानि विविधविद्यामहाविद्यालयभवनानि दृष्ट्वा कस्य वा भारतीयस्य मनो नाऽऽह्लादते को वा वैदेशिको विस्मितो न जायते। इयति विस्तृते भूखण्डे कस्यचिदपि विश्वविद्यालयस्य जगति स्थितिः न श्रूयते।

राष्ट्रसेवाकर्मणि ……………………………………………… सोऽमन्यत।

शब्दार्थ निरतोऽपि = लगे हुए भी। प्रवृत्तः = लगा हुआ। याचित्वा = माँगकर। अकारयेत् = कराया। प्रख्यातस्य = प्रख्याता ह्रासदशाम् = घटने की हालत को। अवलोक्य = देखकर। अशिक्षेवास्माकम्=अशिक्षा ही हमारी। अमन्यत = मानते थे। देशस्योन्नत्यै = देश की उन्नति के लिए। क्रियमाणैरन्यैरुद्योगैः सह = किये जाते हुए अन्य उद्योगों के साथ। विधेय = करना चाहिए। मतिरासीत् = बुद्धि थी, विचार था। निदधौ = धारण किया। षोडशोत्तरैकोनविंशतिशततमे = उन्नीस सौ सोलह में। पुंण्यसलिलायाः = पवित्र जल वाली। लोकोत्तरमिदम् = लोक से श्रेष्ठ यह। संवृत्तम् = पूरा हुआ। द्योतकं = सूचका अभिव्याप्ते = फैले हुए। परिसरे = चहारदीवारी में। आह्लादते = प्रसन्न होता है। इयति = इतने। न श्रूयते = नहीं सुनी जाती है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में देश की उन्नति के लिए मालवीय जी द्वारा विशाल विश्वविद्यालय की स्थापना किये जाने का वर्णन है।

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अनुवाद राष्ट्र-सेवा के कार्य में लगे हुए महामना मालवीय जी दूसरे रचनात्मक कार्यों में भी लगे रहते थे। उन्होंने प्रयाग के लोगों से धन माँगकर मैक्डॉनल हिन्दू छात्रावास का निर्माण कराया। उन्हीं के परिश्रम से प्रयाग के प्रसिद्ध मिण्टो पार्क का भी निर्माण हुआ। सम्पूर्ण देश में शिक्षा की हीन दशा देखकर ‘अशिक्षा ही हमारी परतन्त्रता का कारण है ऐसा उन्होंने माना। इसलिए देश की उन्नति के लिए किये गये अन्य प्रयत्नों के साथ शिक्षा के विकास के लिए भी प्रयत्न करना चाहिए, यह उनका दृढ़ विचार था। निरन्तर चिन्तन करते हुए उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का संकल्प हृदय में धारण किया। सन् 1916 ई० में वसन्तपंचमी के त्योहार के दिन काशी के पवित्र जल वाली गंगा के तट पर यह अलौकिक कार्य सम्पन्न हुआ। भिक्षावृत्ति से, लोगों से, सेठों से, राजाओं से, महाराजाओं से, विदेशी सरकार से भी धन माँगकर (UPBoardSolutions.com) विश्वविद्यालय की स्थापना करना उनके अद्भुत मनोबल और संकल्प की दृढ़ता का सूचक है। पाँच कोस की सीमा-क्षेत्र में फैले हुए विश्वविद्यालय के अहाते में बने हुए विभिन्न विद्या के महाविद्यालय भवनों को देखकर किसे भारतीय का मन प्रसन्न नहीं हो जाता है अथवा कौन विदेशी आश्चर्यचकित नहीं हो जाता है। इतने विशाल क्षेत्र में संसार में किसी भी विश्वविद्यालय की स्थिति नहीं सुनी जाती है।

(10)
अस्मिन् विश्वविद्यालयेऽध्ययनरताछात्राः वैदेशिक भाषा-विज्ञान-कला-कौशल-प्रभृतिविषयेषु निष्णाताः सन्तः भारतीय संस्कृतिं धर्मदर्शनमितिहासं च न विस्मरेयुरिति तस्य प्रयासोऽभूत्। अतोऽध्यापनावसरे भारतीयाचारान् स छात्रानशिक्षयत्। विभिन्नपर्वावसरेषु च भारतस्य प्राणभूतभागवतमहापुराणस्य कथां सुललितभाषया मधुरेण च स्वरेण छात्रान् प्राध्यापकांश्चाश्रावयत्। विविधविषयज्ञानसम्पादनसममेव छात्रा भारतीयाचारविचारेण च परिचितास्तिष्ठेयुरिति तस्य लक्ष्यमासीत्। स भारतीयस्वातन्त्र्यमपि भारतीयतामधिकृत्यैव भवेदिति कामयते स्म। सः पूर्णभारतीय आसीत्। [2015]

शब्दार्थ निष्णाताः = निपुण, विद्वान्। विस्मरेयुः = भूलना चाहिए। छात्रानशिक्षयत् = छात्रों को सिखाया। प्राणभूतभागवतमहापुराणस्य = मन में बसे भागवत महापुराण की। सुललितभाषया = अत्यन्त सुन्दर भाषा द्वारा प्राध्यापकान् = प्राध्यापकों को। अश्रावयत् = सुनाते थे। सममेव = साथ ही। अधिकृत्य = ग्रहण करके। कामयते स्म = कामना करता था।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी द्वारा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भारतीयता की शिक्षा देने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इस विश्वविद्यालय में अध्ययन में लगे हुए छात्र विदेशी भाषा, विज्ञान, कला-कौशल आदि में विद्वान् होते हुए भारतीय संस्कृति, धर्म, दर्शन और इतिहास को न भूलें, यह उनका प्रयास था; अत: अध्यापन के समय वे छात्रों को भारतीय आचारों की शिक्षा देते थे। विभिन्न त्योहारों के अवसरों पर भारत के प्राणस्वरूप भागवत् महापुराण की कथा को सुन्दर भाषा में और मधुर स्वर में छात्रों और प्राध्यापकों को सुनाते थे। विविध विषयों के ज्ञान की प्राप्ति के साथ ही छात्र भारतीय आचार और विचार से भी परिचित रहें, यह उनका लक्ष्य था। भारत की स्वतन्त्रता भी भारतीयता को ग्रहण करके ही हो, ऐसा वे चाहते थे। वे पूर्ण रूप से भारतीय थे।

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(11)
विश्वविद्यालयस्य संस्थापनानन्तरमेव स कुलपतिपदमलङ्कृतवान्। कुलपतिपदमलङ्कुर्वन् स छात्रान् प्रियपुत्रानिवामन्यत। अर्थसङ्कटे देहसङ्कटे ग्रस्तः कश्चित् छात्र इति ज्ञात्वा तस्य सङ्कटमचिरमसौ पितृवदपानयत्। कुलपतिस्तु स पदेनासीत् व्यवहारेण च कुलपिता अभवत्। [2006, 12]

शब्दार्थ अलङ्कुर्वन्=अलंकृत करते हुए। अमन्यत=मानते थे। अचिरम्=तुरन्त अपानयत्=दूर करते थे।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी के द्वारा विश्वविद्यालय के कुलपति रूप में किये गये कार्यों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद विश्वविद्यालय की स्थापना करने के बाद ही उन्होंने कुलपति के पद को सुशोभित किया। कुलपति के पद को सुशोभित करते हुए, वे छात्रों को प्रिय पुत्रों के समान मानते थे। धन के संकट या शारीरिक कष्ट में कोई छात्र ग्रस्त है, यह जानकर वे उसके संकट को पिता की तरह तुरन्त दूर करते थे। वे पद से कुलपति थे और व्यवहार से कुलपिता थे।

(12)
काशीहिन्दूविश्वविद्यालयस्य विकासाय सततं प्रयत्नरतोऽपि मालवीयमहोदयः देशस्य असहायजनानां महान्तं क्लेशं दशैं दशैं परमः खिन्नो अभवत्। भारतस्याखण्डतायाः तस्यैकत्वस्य च निदर्शनं विश्वविद्यालयरूपेण तेन पुरःकृतम्। तन्निमित्तं तेन गुरुः प्रयासो विहितः। चतुश्चत्वारिंशदुत्तरैकोनविंशतितमे वर्षे (UPBoardSolutions.com) (1944) साम्प्रदायिको झञ्झावातः समुत्थितः। देशस्यानेकेषु भागेषु प्रज्वलितः साम्प्रदायिकताग्निः भारतस्य सांस्कृतिकं प्रासादं भस्मसादकरोत्। ब्रिटिशशासनप्रयुक्तकुटिलनयेनोत्थितो झञ्झावातो मालवीयमहोदयस्य मनः स्थितं भारतस्य चित्रं विकृतमकरोत्। कुटिलराजनीतिमुग्धा धर्मम्प्रति भ्रान्ताः नेतारो यथा ताण्डवमरचयन् तत्स्मृत्वाऽद्यपि हृदयं प्रकामं प्रकम्पते। सहस्रशः प्राणास्तदनले हुताः। सहस्रशोजना गृहहीनाः जाताः। लक्षाधिकाः शरणार्थिनोऽभवन्। मालवीयमहोदयस्य चित्तमतयँ तद्दुःखं सोढुं नाशक्नोत्। विश्वविद्यालयस्थे कुलपतिभवने स प्राणानत्यजत्। मालवीयमहोदयस्य विपुलं यशः विश्वविद्यालयरूपेण जगति शाश्वतं स्थास्यति।

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शब्दार्थ असहायजनानां = निस्सहाय लोगों की। दशैं दर्शम् = देख-देखकर) खिन्नः = दुःखी। तस्यैकत्वस्य = उसकी एकता का निदर्शनम् = उदाहरण, दृष्टान्त पुरः = सामने। गुरुः = महान्। चतुश्चत्वारिंशदुत्तरैकोनविंशतितमे = उन्नीस सौ चवालीस में। झञ्झावातः = तूफान। समुत्थितः = उठा। प्रज्वलितः = जली हुई। साम्प्रदायिकताग्निः = जातिगत और वर्गगत-भेद की अग्निा प्रासादम् = महल को। भस्मसादकरोत् = जलाकर खाक कर दिया। विकृतमकरोत् (विकृतम् + अकरोत्) = बिगाड़ दिया। प्रकामम् = अत्यधिक प्रकम्पते = काँप उठा। तदनले (तत् + अनले) = उस अग्नि में। हुताः = जल गये। शरणार्थिनः अभवन् = शरणार्थी (शरण पाने के इच्छुक) हो गये। अतर्व्यम् = तर्क न किया जाने योग्य सोढुं = सहने के लिए। विपुलं = अत्यधिक शाश्वतं = सदैव, हमेशा। स्थास्यति = स्थित रहेगा।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी की संवेदनशीलता के बारे में बताया गया है कि मालवीय जी ने देश में उठे हुए साम्प्रदायिकता के तूफान से अत्यधिक दुःखी होकर प्राण त्याग दिये।

अनुवाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विकास के लिए निरन्तर प्रयत्न में लगे हुए भी मालवीय जी देश के असहायसनों के अत्यन्त कष्ट को देख-देखकर अत्यधिक दु:खी होते थे। भारत की अखण्डता का और उसकी एकता का उदाहरण उन्होंने विश्वविद्यालय के रूप में सामने रख दिया। उसके लिए उन्होंने महान् प्रयास किया। सन् 1944 ई० में साम्प्रदायिक तूफान उठा। देश के अनेक भागों में जलती हुई साम्प्रदायिकता की आग ने भारत के सांस्कृतिक महल को भस्मीभूत कर दिया। ब्रिटिश सरकार की कुटिल नीति से उठे हुए तूफान ने मालवीय जी के मन में स्थित भारत के चित्र को बिगाड़ दिया। कुटिल राजनीति पर मुग्ध हुए, धर्म के प्रति भटके हुए नेताओं ने जैसा ताण्डव रचा,उसे याद करके आज भी हृदय अत्यधिक काँप उठता है। हजारों प्राण उस आग में जल गये। हजारों लोग बेघर हो गये। लाखों से अधिक शरणार्थी हो गये। मालवीय जी का मन अचिन्तनीय उस दु:ख को सहन नहीं कर सका। उन्होंने विश्वविद्यालय में स्थित कुलपति भवन में प्राण त्याग दिये। मालवीय जी का अत्यधिक यश विश्वविद्यालय के रूप में संसार में सदैव स्थित रहेगा, ‘अर्थात् अमर रहेगा।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मदनमोहन मालवीय जी के सम्बन्ध में संस्कृत में पाँच वाक्य लिखिए।
उत्तर :

  • मदनमोहनमालवीयस्य जन्म प्रयागे एकस्मिन् ब्राह्मणकुले अभवत्।
  • मालवीयः कलिकातानगरे अखिलभारतीयकॉग्रेसदलस्य अधिवेशने गम्भीरं विचारपूर्णं भाषणम् अकरोत्।।
  • मालवीय: राजा रामपालसिंहस्य अनुरोधेन हिन्दुस्तान’ पत्रस्य सम्पादनम् अकरोत्।
  • एल-एल०बी० परीक्षामुत्तीर्य सः प्रयागस्थे उच्चन्यायालये अधिवक्तृकर्म कर्तुं प्रारभत।
  • मालवीयः 1916 वर्षे काश्यां गङ्गायास्तटे काशीहिन्दूविश्वविद्यालयस्य स्थापनामकरोत्।
  • मालवीय: काशी हिन्दू विश्वविद्यालयस्य कुलपतिः आसीत्।

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प्रश्न 2. मदनमोहन मालवीय का जन्म कब और कहाँ हुआ था? [2009]
उत्तर :
पण्डित मदनमोहन मालवीय जी का जन्म सन् 1861 ई० में 25 दिसम्बर को प्रयाग के (UPBoardSolutions.com) एक प्रसिद्ध ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता ब्रजनाथ चतुर्वेदी संस्कृत भाषा के विद्वान् थे। उनके पूर्वज मालव देश के मूल निवासी थे और वहाँ से आने के कारण ‘मालवीय’ कहलाये।

प्रश्न 3.
मदनमोहन मालवीय द्वारा किये गये रचनात्मक कार्यों का वर्णन कीजिए। [2007]
या
मैक्डॉनल हिन्दू छात्रावास, मिण्टो पार्क और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का निर्माण किसके प्रयास से हुआ?
उत्तर :
मालवीय जी ने राष्ट्र-सेवा में लगे रहकर प्रयाग में मैक्डॉनल हिन्दू छात्रावास’ और ‘मिण्टो पार्क का निर्माण कराया। देश की उन्नति के लिए शिक्षा को विशेष साधन मानकर काशी में गंगा के तट पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की।

प्रश्न 4.
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना कब, कहाँ और किसने की? [2008, 10, 11, 12]
या
मदनमोहन मालवीय के द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय का नाम लिखिए। [2006,11]
या
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना कब हुई? [2010, 11]
उत्तर :
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना श्री मदनमोहन मालवीय ने सन् 1916 ई० में वसन्तपंचमी के दिन काशी में पवित्र जल वाली गंगा के तट पर की।

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प्रश्न 5.
मदनमोहन मालवीय के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए। [2008]
या
मालवीय जी के दो महत्त्वपूर्ण कार्य लिखिए। [2007, 09, 13, 14]
उत्तर :
मदनमोहन मालवीय जी का व्यक्तित्व गौरवर्ण एवं कान्तिमय शरीर, श्वेत वस्त्र, गले में उत्तरीय, (UPBoardSolutions.com) सिर पर श्वेत पगड़ी, मस्तक पर श्वेत चन्दन-तिलक और श्वेत उपानह आदि से युक्त था। वस्तुतः इनके व्यक्तित्व में भारतीय संस्कृति पूर्णरूपेण रूपायित थी। मालवीय जी के कर्तृत्व में निहित हैं–

  • ‘हिन्दुस्तान दैनिक पत्र का सम्पादन,
  • वकालत करना किन्तु असत्य पर आधारित मुकदमे स्वीकार न करना,
  • अखिल भारतीय कांग्रेस दल का सभापति बनना और गाँधी जी के साथ अंग्रेजों से सन्धि-वार्ता के लिए इंग्लैण्ड जाना,
  • प्रयाग में मैक्डॉनल हिन्दू छात्रावास’ तथा ‘मिण्टो पार्क’ का निर्माण कराना,
  • काशी में ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना करना; जिसके कारण उनकी कीर्ति चिरकाल तक अमर रहेगी।

प्रश्न 6.
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति कौन थे? [2007,11]
उत्तर :
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति महामना मदनमोहन मालवीय थे।

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प्रश्न 7. मालवीय जी द्वारा सम्पादित समाचार-पत्र का नाम लिखिए। [2008, 12, 13]
या
पत्र के सम्पादन का उद्देश्य बताइए। [2010]
उत्तर :
मालवीय जी द्वारा मुख्य रूप से सम्पादित समाचार-पत्र का नाम ‘हिन्दुस्तान’ है। इसके अतिरिक्त भी इन्होंने अनेक पत्रों का सम्पादन किया। पत्र को सम्पादन करते हुए मालवीय जी ने राष्ट्रीय भावनाओं और हिन्दी का प्रचार किया। इनका प्रमुख उद्देश्य हिन्दी को न्यायालयों में स्थान दिलाना था।

प्रश्न 8.
मदनमोहन मालवीय का जीवन-परिचय दीजिए। [2006]
उत्तर :
[संकेत प्रश्न 2 व 5 के उत्तर को मिलाकर अपने शब्दों में लिखिए।]

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प्रश्न 9.
अंग्रेज शासकों के साथ सन्धि-वार्ता हेतु मालवीय जी किसके साथ इंग्लैण्ड गये? [2010]
उत्तर :
अंग्रेज शासकों के साथ सन्धि-वार्ता हेतु मालवीय जी सन् 1931 में (UPBoardSolutions.com) महात्मा गाँधी के साथ इंग्लैण्ड गये।

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Class 10 Sanskrit Chapter 1 UP Board Solutions कविकुलगुरु कालिदास Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 1 Kavikulguru Kalidas Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 1 हिंदी अनुवाद कविकुलगुरु कालिदास के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

संस्कृत भाषा का साहित्य इतना समृद्ध है कि उसे विश्व की किसी भी भाषा के समक्ष प्रतिस्पर्धी रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। इस भाषा में महाकाव्यों, खण्डकाव्यों तथा नाटकों की परम्परा सहस्राब्दियों से प्रचलित है। संस्कृत भाषा के अनेक कवि और महाकवि हुए हैं, जिनमें कालिदास को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इनकी धवल-कीर्ति देश-देशान्तर तक फैली हुई है। इनके अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ नाटक के अध्ययनोपरान्त ही पाश्चात्य (UPBoardSolutions.com) विद्वानों की अभिरुचि संस्कृत साहित्य के अध्ययन की ओर हुई थी। प्रस्तुत पाठ महाकवि कालिदास के जीवन, व्यक्तित्व एवं उनकी रचनाओं से संस्कृत के छात्रों को परिचित कराता है।

पाठ-सारांश [2007,08,09, 12, 13, 14, 15]

कविकुलगुरु : महाकवि कालिदास संस्कृत के कवियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। उनकी कीर्ति-कौमुदी विदेशों तक फैली हुई है। वे भारत के ही नहीं, अपितु विश्व के श्रेष्ठ कवि के रूप में भी जाने जाते हैं। इस महान् कवि के कुल, काल एवं जन्म-स्थान के विषय में अनेक मतभेद हैं। इन्होंने अपनी कृतियों में भी अपने जीवन के विषय में कुछ भी नहीं लिखा। समीक्षकों ने अन्त: और बाह्य साक्ष्यों के आधार पर इनका परिचय प्रस्तुत किया है।

जन्म, समय एवं स्थान : कालिदास विक्रमादित्य के सभारत्न थे। कोई विद्वान् इन्हें चन्द्रगुप्त द्वितीय का समकालीन मानता है तो कोई उज्जैन के राजा विक्रमादित्य का समकालीन। इस महान् कवि को सभी अपने-अपने देश में उत्पन्न हुआ सिद्ध करते हैं। कुछ विद्वान् इन्हें कश्मीर में उत्पन्न हुआ मानते हैं तो कुछ बंगाल में अनेक आलोचक इनका जन्म-स्थान उज्जैन भी मानते हैं।

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कुल : कालिदास की कृतियों में वर्ण-व्यवस्था के प्रतिपादन को देखकर इन्हें ब्राह्मण कुलोत्पन्न माना जाता है। ये शिवोपासक थे, फिर भी राम के प्रति इनकी अपार श्रद्धा थी। ‘रघुवंशम् महाकाव्य की रचना से यह बात स्पष्ट हो जाती है।

रचनाएँ : कालिदास ने ‘रघुवंशम्’ और ‘कुमारसम्भवम्’ नामक दो महाकाव्य, ‘मेघदूतम्’ और ‘ऋतुसंहार:’ नामक दो गीतिकाव्य तथा ‘मालविकाग्निमित्रम्’, ‘विक्रमोर्वशीयम्’ एवं ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ नामक तीन नाटकों की रचना की। रघुवंशम् में राजा दिलीप से लेकर अग्निवर्ण तक के समस्त इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की उदारता का उन्नीस सर्गों में वर्णन किया गया है। कुमारसम्भवम् में स्वामी कार्तिकेय के जन्म का अठारह सर्गों में वर्णन है। मेघदूतम् में यक्ष और यक्षिणी के वियोग को लेकर विप्रलम्भ श्रृंगार का पूर्ण परिपाक हुआ है। ऋतुसंहारः में छः ऋतुओं का काव्यात्मक वर्णन है। मालविकाग्निमित्रम् नाटक में अग्निमित्र और मालविका (UPBoardSolutions.com) के प्रेम की कथा है। विक्रमोर्वशीयम् नाटक में पुरूरवा और उर्वशी का प्रेम पाँच अंकों में वर्णित है। अभिज्ञानशाकुन्तलम् कालिदास का सर्वश्रेष्ठ नाटक है। इसके सात अंकों में मेनका के द्वारा जन्म देकर परित्यक्ता, पक्षियों द्वारा पोषित एवं कण्व महर्षि के द्वारा पालित पुत्री शकुन्तला के दुष्यन्त के साथ विवाह की कथा वर्णित है।

काव्य-सौन्दर्य : कालिदास ने अपनी रचनाओं में काव्योचित गुणों का समावेश करते हुए भारतीय जीवन-पद्धति का सर्वांगीण चित्रण किया है। उनके काव्यों में जड़ प्रकृति भी मानव की सहचरी के रूप में चित्रित की गयी है। ‘रघुवंशम्’ में दिग्विजय के लिए प्रस्थान करते समय रघु का वन के वृक्ष पुष्पवर्षा करके सम्मान करते हैं। ‘मेघदूतम्’ में बाह्य प्रकृति तथा अन्त:-प्रकृति का मर्मस्पर्शी वर्णन हुआ है। कवि के विचार में मेघ धूम, ज्योति, जलवायु का समूह ही नहीं, वरन् वह मानव के समान संवेदनशील प्राणी हैं। ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ नाटक में वन के वृक्ष शकुन्तला को आभूषण प्रदान करते हैं तथा हरिण-शावक उसका मार्ग रोककर अपना निश्छल प्रेम प्रदर्शित करता है।

कालिदास के काव्यों में प्रधान रस श्रृंगार है। शेष करुण आदि रस उसके सहायक होकर आये हैं। रस के अनुरूप प्रसाद और माधुर्य गुणों की सृष्टि की गयी है। कालिदास वैदर्भी रीति के श्रेष्ठ कवि हैं। वे अलंकारों के विशेषकर उपमा के प्रयोग में सिद्धहस्त हैं। उनके नाटकों में वस्तु-विन्यास अनुपम, चरित्र-चित्रण निर्दोष और शैली में सम्प्रेषणीयता है। उनके काव्यों में मानव-मूल्यों की प्रतिष्ठा की गयी है। दुष्यन्त शकुन्तला को देखने के पश्चात् क्षत्रिय द्वारा विवाह करने योग्य होने पर ही उससे विवाह करते हैं। कण्व की आज्ञा के बिना गान्धर्व विवाह करके दोनों तब तक दु:खी रहते हैं, जब तक तपस्या और प्रायश्चित्त से आत्मा को शुद्ध नहीं कर लेते।

‘रघुवंशम्’ में रघुवंशी राजाओं में भारतीय जन-जीवन का आदर्श रूप निरूपित किया गया है। रघुवंशी राजा प्रजा की भलाई के लिए ही प्रजा से कर लेते थे, सत्य वचन बोलते थे, यश के लिए प्राणत्याग हेतु सदा तैयार रहते थे तथा सन्तानोत्पत्ति के लिए गृहस्थ बनते थे।

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कालिदास ने हिमालय से सागरपर्यन्त भारत की यशोगाथा को अपने काव्य में निरूपित किया है। ‘रघुवंशम्’, ‘मेघदूतम्’ और ‘कुमारसम्भवम्’ में भारत के विविध प्रदेशों का सुन्दर और स्वाभाविक वर्णन मिलता है। संस्कृत के कवियों में कोई भी कवि कालिदास की तुलना नहीं कर पाया है।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) महाकविकालिदासः संस्कृतकवीनां मुकुटमणिरस्ति। न केवलं भारतदेशस्य, अपितु समग्रविश्वस्योत्कृष्टकविषु स एकतमोऽस्ति। तस्यानवद्या कीर्तिकौमुदी देशदेशान्तरेषु प्रसृतास्ति। भारतदेशे जन्म लब्ध्वा स्वकविकर्मणा देववाणीमलङ्कुर्वाणः स न केवलं भारतीयः (UPBoardSolutions.com) कविः अपि तु विश्वकविरिति सर्वैराद्रियते। [2007,09,13]

शब्दार्थ मुकुटमणिः = मुकुट की मणि, श्रेष्ठ। उत्कृष्टकविषु = उच्च या श्रेष्ठ कवियों में। एकतमः = एकमात्र, अकेले। अनवद्या = निर्दोष, निर्मला कीर्तिकौमुदी = यश की चाँदनी। प्रसृतास्ति = फैली हुई है। लब्ध्वा = प्राप्त कर। देववाणीमलङ्कुर्वाणः (देववाणीम् + अलम् + कुर्वाणः) = देववाणी अर्थात् संस्कृत भाषा को अलंकृत करते हुए। सर्वैराद्रियते (सर्वैः + आद्रियते) = सबके द्वारा आदर पाते हैं।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘कविकुलगुरुः कालिदासः’ शीर्षक पाठ से उधृत है।

[संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कालिदास की प्रशंसा की गयी है।

अनुवाद महाकवि कालिदास संस्कृत के कवियों की मुकुटमणि हैं अर्थात् श्रेष्ठ केवल भारत देश के ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण संसार के उत्कृष्ट कवियों में वे अद्वितीय हैं। उनकी निर्मल कीर्ति-चन्द्रिका देश-देशान्तरों में फैली हुई है। भारत देश में जन्म प्राप्त करके अपने कवि-कर्म (कविता) से देववाणी अर्थात् संस्कृत भाषा को अलंकृत करते हुए वे केवल भारत के कवि ही नहीं हैं, अपितु ‘विश्वकवि’ के रूप में सभी के द्वारा आदर किये जाते हैं।

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(2) वाग्देवताभरणभूतस्य प्रथितयशसः कालिदासस्य जन्म कस्मिन् प्रदेशे, काले, कुले, चाभवत्, किञ्चासीत् तज्जन्मवृत्तम् इति सर्वमधुनापि विवादकोटिं नातिक्रामति। इतरकवयः इव कालिदासः आत्मज्ञापने स्वकृतिषु प्रायः धृतमौन एवास्ति। अन्येऽपि कवयस्तन्नामसङकीर्तनमात्रादेव स्वीयां वाचं धन्यां मत्वा मौनमवलम्बन्ते। तथापि अन्तर्बहिस्साक्ष्यमनुसृत्य समीक्षकाः कविपरिचयं यावच्छक्यं प्रस्तुवन्ति। [2006]

वाग्देवताभरणभूतस्य ………………………………….. मौनमवलम्बन्ते। [2013]

शब्दार्थ वाग्देवताभरणभूतस्य = वाणी के देवता के आभूषणस्वरूप। प्रथितयशसः = प्रसिद्ध यश वाले। वृत्तम् = वृत्तान्त विवादकोटिम् = विवाद की श्रेणी को। नातिक्रामति = नहीं लाँघता है। इतर = दूसरे। आत्मज्ञापने = अपना परिचय देने में। धृतमौन = मौन (UPBoardSolutions.com) धारण किये हुए हैं। स्वीयां वाचं = अपनी वाणी को। अवलम्बन्ते = सहारा लेते हैं। अन्तर्बहिः साक्ष्यम् = अन्तः और बाहरी साक्ष्य। यावच्छक्यम् (यावत् + शक्यम्) = जितना सम्भव है। प्रस्तुवन्ति = प्रस्तुत करते हैं।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कालिदास के जन्म-वृत्तान्त की अनभिज्ञता के बारे में बताया गया है।

अनुवाद सरस्वती देवी के अलंकारस्वरूप, प्रसिद्ध यश वाले कालिदास का जन्म किस प्रदेश में, काल में और कुल में हुआ तथा उनके जन्म का वृत्तान्त क्या था, यह अभी भी विवाद की सीमा से परे नहीं है अर्थात् विवादास्पद है। दूसरे कवियों के समान कालिदास अपना परिचय देने में अपनी रचनाओं में प्रायः मौन ही धारण किये हुए हैं। दूसरे कवि भी उनका नाम लेनेमात्र से ही अपनी वाणी को धन्य मानकर मौन हो जाते हैं; अर्थात् दूसरे कवियों द्वारा भी उनके बारे में कुछ नहीं लिखा गया है। इतने पर भी आन्तरिक और बाहरी साक्ष्यों का अनुसरण करके समीक्षक यथासम्भव कवि का परिचय प्रस्तुत करते हैं।

(3) एका जनश्रुतिः अतिप्रसिद्धास्ति यया कविकालिदासः विक्रमादित्यस्य सभारत्नेषु मुख्यतमः इति ख्यापितः। परन्तु अत्रापरा विडम्बना समुत्पद्यते। विक्रमादित्यस्यापि स्थितिकालः सुतरां स्पष्टो नास्ति। केचिन्मन्यन्ते यत् विक्रमादित्योपाधिधारिणो द्वितीयचन्द्रगुप्तस्य समकालिक आसीत् कविरसौ। कालिदासस्य मालविकाग्निमित्रनाटकस्य नायकोग्निमित्रः शुङ्गवंशीय आसीत् स एव विक्रमादित्योपाधि धृतवान् यस्य सभारत्नेष्वेकः कालिदासः आसीत्। तस्य राज्ञः स्थितिकालः खीष्टाब्दात्प्रागासीत्। स एव स्थितिकालः कवेरपि सिध्यति। कविकालिदासस्य जन्मस्थानविषयेऽपि नैकमत्यमस्ति। एतावान् कवेरस्य महिमास्ति यत् सर्वे एव तं स्व-स्वदेशीयं साधयितुं तत्परा भवन्ति। कश्मीरवासिविद्वांसः कश्मीरोदभवं तं मन्यन्ते, बङ्गवासिनश्च बङ्गदेशीयम्। अस्ति तावदन्योऽपि समीक्षकवर्गः यस्य मतेन कालिदास उज्जयिन्यां (UPBoardSolutions.com) लब्धजन्मासीत्। उज्जयिनीं प्रति कवेः सातिशयोऽनुराग एतन्मतं पुष्णाति।

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कविकालिदासस्य ………………………………….. एतन्मतं पुष्णाति।
एका जनश्रुतिः ………………………………….. कवेरपि सिध्यति। [2011, 12, 15]

शब्दार्थ जनश्रुतिः = लोकोक्ति, किंवदन्ती। ख्यापितः = बताया गया। अत्रापरा (अत्र + अपरा) = यहाँ दूसरी। समुत्पद्यते = उत्पन्न होती है। सुतरां = भली प्रकार विक्रमादित्योपाधिम् = विक्रमादित्य की उपाधि का। सभारलेष्वेकः (सभारत्नेषु + एकः) = सभारत्नों में से एक। ख्रीष्टाब्दात् = ईस्वी वर्ष से। प्राक् = पहले। सिध्यति = सिद्ध होता है। नैकमत्यमस्ति = एकमत नहीं हैं। एतावान् = इतनी। साधयितुम् = सिद्ध करने के लिए। लब्धजन्मासीत् = जन्म हुआ था। सातिशयः = अत्यधिक पुष्णाति = पुष्टि करता है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कालिदास के जन्म और स्थितिकाल के विषय में प्रचलित विभिन्न मत दिये गये हैं।

अनुवाद एक लोकोक्ति (किंवदन्ती) अत्यन्त प्रसिद्ध है, जिसके द्वारा कवि कालिदास विक्रमादित्य के सभारत्नों में प्रमुख बताये गये हैं, परन्तु इस विषय में दूसरी शंका उत्पन्न होती है। विक्रमादित्य का भी स्थितिकाल अच्छी तरह स्पष्ट नहीं है। कुछ लोग मानते हैं कि यह कवि ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय के समकालीन थे। कालिदास के ‘मालविकाग्निमित्रम्’ नाटक का नायक अग्निमित्र शुंग वंश का था। उसी ने विक्रमादित्य की उपाधि को धारण किया, जिसकी सभा के रत्नों में कालिदास एक थे। उस राजा का स्थितिकोल ईस्वी सन् से पूर्व था। वही स्थितिकाल कवि का भी सिद्ध होता है। कवि कालिदास (UPBoardSolutions.com) के जन्म-स्थान के विषय में भी एक मत नहीं है। इस कवि की ऐसी महिमा है कि सभी इसे अपने-अपने देश का सिद्ध करने में लगे हुए हैं। कश्मीर के निवासी विद्वान् उन्हें कश्मीर में उत्पन्न हुआ मानते हैं और बंगाल के निवासी बंगाल देश में उत्पन्न हुआ। दूसरा भी समीक्षकों का वर्ग है, जिसके मत से कालिदास का जन्म उज्जैन में हुआ था। उज्जयिनी के प्रति कवि का अत्यधिक प्रेम इस मत की पुष्टि करता है।

(4) देशकालवदेव कालिदासकुलस्यापि स्पष्टः परिचयो नोपलभ्यते। तस्य कृतिषु वर्णाश्रमधर्मव्यव्यवस्थायाः यथातथ्येन प्रतिपादनेन एतदनुमीयते यत् तस्य जन्म विप्रकुलेऽभवत्। भावनया स शिवानुरक्तश्चासीत् तथापि तस्य धर्मभावनायां मनागपि सङ्कीर्णता नासीत्। शिवभक्तोऽपि सन् रघुवंशे स रामं प्रति स्वभक्तिभावमुदारमनसा प्रकटयति। कालिदासस्य जीवनवृत्तं सर्वथा अज्ञानान्धकाराच्छन्नमस्ति। तद्विषयकाः अनेकाः जनश्रुतयः लब्धप्रसस्सन्ति किन्तु ताः सर्वाः ईष्र्याकलुषकषायितचित्तानां कल्पनाप्ररोहा एव, अत एवं सर्वथा चिन्त्याः सन्ति

शब्दार्थ नोपलभ्यते (न + उपलभ्यते) = प्राप्त नहीं होता है। यथातथ्येन = तथ्यों के अनुसार, वास्तविक रूप से। एतदनुमीयते = यह अनुमान किया जाता है। मनागपि = थोड़ा भी। अज्ञानान्धकाराच्छन्नम् (अज्ञान + अन्धकार + आच्छन्नम्) = अज्ञानरूपी अन्धकार से ढका हुआ। तद्विषयका = (UPBoardSolutions.com) उससे सम्बन्धित ईष्र्याकलुष-कषायितचित्तानां = ईष्र्या के कलुष से कसैले (कलुषित) चित्त वालों का। कल्पनाप्ररोहाः = कल्पना के अंकुर। चिन्त्याः = विचार करने योग्य।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कालिदास के कुल के विषय में विचार व्यक्त किया गया है।

अनुवाद देश और काल की तरह ही कालिदास के कुल का भी स्पष्ट परिचय प्राप्त नहीं होता है। उनकी रचनाओं में वर्ण, आश्रम और धर्म की व्यवस्था का उचित प्रतिपादन होने से यह अनुमान किया जाता है कि उनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। विचार से वे शिव में अनुरक्त थे तो भी उनकी धर्म-भावना में थोड़ी-सी भी संकीर्णता नहीं थी। शिव के भक्त होते हुए भी ‘रघुवंशम्’ में उन्होंने राम के प्रति अपनी भक्ति-भावना को उदार मन से प्रकट किया है। कालिदास का जीवन-वृत्त सभी प्रकार से अज्ञान के अन्धकार में छिपा हुआ है। उनके विषय में अनेक जनश्रुतियाँ फैली हुई हैं, किन्तु वे सभी ईर्ष्या और कालुष्य से कलुषित मन वालों की कल्पना के अंकुर ही हैं, अतएव सभी प्रकार से विचार करने योग्य हैं।

(5) कालिदासस्य नवनवोन्मेषशालिन्याः प्रज्ञायाः उन्मीलनं तस्य कृतिषु नास्ति कस्यचित्सुधियः परोक्षम्। संस्कृतकाव्यस्य विविधेषु प्रमुखप्रकारेषु स्वकौशलं प्रदर्य स सर्वानतीतानागतान कवीनतिशिश्ये। रघुवंशं कुमारसम्भवञ्च तस्य महाकाव्यद्वयम्, मेघदूतम्, ऋतुसंहारश्च खण्डकाव्ये, (UPBoardSolutions.com) मालविकाग्निमित्रं विक्रमोर्वशीयम् अभिज्ञानशाकुन्तलञ्च नाटकानि सन्ति। तत्र रघुवंशं नाम महाकाव्यं कविकुलगुरोः सर्वातिशायिनी कृतिरस्ति। अस्मिन् महाकाव्ये दिलीपादारभ्य अग्निवर्णपर्यन्तम् इक्ष्वाकुवंशावतंसभूतानां नृपतीनामवदाननिरूपणमस्ति। [2006,11]

शब्दार्थ नवनवोन्मेषशालिन्याः = नये-नये विकास से युक्त। प्रज्ञायाः = बुद्धि की। उन्मीलनम् = खोलने वाली। प्रदर्य = दिखाकर। सर्वान् = सभी। अतीतानागतान् = अतीत और भविष्य। अतिशिश्ये = अतिक्रमण कर गये। सर्वातिशायिनी = सर्वश्रेष्ठ। अवदाननिरूपणम् = उदारता का वर्णन।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कालिदास की रचनाओं का संक्षिप्त वर्णन किया गया है।

अनुवाद कालिदास की नये-नये विकास से युक्त बुद्धि का उद्घाटन उनकी रचनाओं में नहीं है, ऐसा किसी विद्वान् का परोक्ष (अप्रसिद्ध) कथन है। संस्कृत-काव्य के अनेक प्रमुख प्रकारों में अपना कौशल दिखाकर वे अतीत और भविष्य के सभी कवियों में श्रेष्ठ हैं। उनके रघुवंशम्’ और ‘कुमारसम्भवम्’ दो महाकाव्य; ‘मेघदूतम् और ऋतुसंहार: दो खण्डकाव्य; ‘मालविकाग्निमित्रम्’, ‘विक्रमोर्वशीयम्’ और ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ नाटक हैं। इनमें ‘रघुवंशम्’ नाम का महाकाव्य कविकुलगुरु की सर्वश्रेष्ठ रचना है। इस महाकाव्य में दिलीप से आरम्भ करके अग्निवर्ण तक के इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न राजाओं की उदारता का वर्णन है।

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(6) एकोनविंशसर्गात्मकमिदं महाकाव्यं रमणीयार्थप्रतिपादकं सत् सचेतसां हृदयं सततमाह्लादयति। कुमारसम्भवे स्वामिकार्तिकेयस्य जन्मोपवर्णितम्। इदमपि काव्यम् अष्टादशसर्गात्मकमस्ति। केचन समीक्षका अष्टमसर्गपर्यन्तमेव काव्यमिदं (UPBoardSolutions.com) कालिदासप्रणीतमिति मन्यन्ते। मेघदूते यक्षयक्षिण्योः वियोगमाश्रित्य विप्रलम्भशृङ्गारस्य पूर्णपरिपाको दृश्यते। ऋतुसंहारे अन्वर्थतया षण्णामृतूणां वर्णनमस्ति। मालविकाग्निमित्रनाटके अग्निमित्रस्य मालविकायाश्च प्रेमाख्यानमस्ति। पञ्चाङ्कात्मके विक्रमोर्वशीये

पुरूरवसः उर्वश्याश्च प्रेमकथा वर्णिता। अभिज्ञानशाकुन्तलं स्वनामधन्यस्य अस्य कवेः सर्वश्रेष्ठा नाट्यकृतिरस्ति। नाटकेऽस्मिन् सप्ताङ्काः सन्ति। मेनकया प्रसूतोज्झितायाः शकुन्तैश्च पोषितायाः तदनु कण्वेन परिपालितायाः शकुन्तलायाः दुष्यन्तेन सहोद्वाहस्य कथा वर्णितास्ति।,शाकुन्तलविषये प्रथितैषा भणितिः

‘काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला’

एतन्नाटकं प्राच्यपौरस्त्यैः समीक्षकैः बहु प्रशंसितम् ।

एकोनविंशसर्गात्मकमिदं …………………………… नाट्य कृतिरस्ति। [2010]
कुमारसम्भवे स्वामि- …………………………… रम्या शकुन्तला। [2013]

शब्दार्थ सचेतसाम् = रसिकों के सततमाह्लादयति = नित्य प्रसन्न करता है। केचन = कुछ। अन्वर्थतया = अर्थ के अनुसार। प्रेमाख्यानम् = प्रेम कथा प्रसूतोज्झितायाः (प्रसूता + उज्झितायाः) = जन्म दे करके छोड़ी गयी। शकुन्तैः = पक्षियों के द्वारा उद्वाहस्य = विवाह की। प्रथिता = प्रसिद्ध भणितिः = कथन, उक्ति। प्राच्यपौरस्त्यैः = पूर्वी और पश्चिमी।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कालिदास की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय दिया गया है।

अनुवाद उन्नीस सर्गों वाला यह (रघुवंशम्) महाकाव्य सुन्दर (रमणीय) अर्थ का प्रतिपादक होने के कारण रसिकों के हृदय को निरन्तर प्रसन्न करता है। ‘कुमारसम्भवम्’ काव्य में स्वामी कार्तिकेय के जन्म का वर्णन है। यह काव्य भी अठारह सर्गों वाला है। कुछ आलोचक आठ सर्ग तक ही इस काव्य को कालिदास के द्वारा रचा हुआ मानते हैं। ‘मेघदूतम्’ में यक्ष-यक्षिणी के वियोग को आधार बनाकर विप्रलम्भ श्रृंगार का पूर्ण परिपाक दिखाई देता है। ‘ऋतुसंहारः’ में (UPBoardSolutions.com) अर्थ के अनुसार छः ऋतुओं का वर्णन है। ‘मालविकाग्निमित्रम् नाटक में अग्निमित्र और मालविका के प्रेम की कथा है। पाँच अंकों वाले ‘विक्रमोर्वशीयम्’ नाटक में पुरूरवा और उर्वशी के प्रेम की कथा वर्णित है। ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ स्वनामधन्य इस कवि की सर्वश्रेष्ठ नाट्य-रचना है। इस नाटक में सात अंक हैं। मेनका के द्वारा जन्म देकर त्यागी गयी, पक्षियों के द्वारा पोषण की गयी और उसके बाद कण्व के द्वारा पालन की गयी शकुन्तला के दुष्यन्त के साथ विवाह की कथा वर्णित है। ‘शाकुन्तलम्’ (नाटक) के विषय में यह उक्ति प्रसिद्ध है–काव्यों में नाटक सुन्दर होता है, उसमें शकुन्तला (अभिज्ञानशाकुन्तलम् ) सुन्दर है। इस नाटक की पूर्वी और पश्चिमी आलोचकों ने बहुत प्रशंसा की है।

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(7) वस्तुतः कालिदासः मूर्धन्यतमः भारतीयः कविरस्ति। एकतस्तस्य कृतिषु काव्योचितगुणानां समाहारः दृश्यते अपरतश्च भारतीयजीवनपद्धतेः सर्वाङ्गीणतो तत्र राराजते। काव्योत्कर्षदृष्ट्या तस्य काव्येषु मानवमनसः सूक्ष्मानुभूतीनामिन्द्रधनुः कस्यापि सहृदयस्य चित्तमावर्जयितुं पारयति। प्रकृतिरपि स्वजडत्वं विहाय सर्वत्र मानवसहचरीवाचरति। रघुवंशे दिग्विजयार्थं प्रस्थितस्य रघोः सभाजनं वनवृक्षाः प्रसूनवृष्टिभिः सम्पादयन्ति। मेघे विरहोत्कण्ठितस्य यक्षस्य प्रेमविह्वलतायाः अद्वितीय सृष्टिः परिलक्ष्यते। तत्र बाह्यान्तः प्रकृत्योः मर्मस्पृग्वर्णनमस्ति। कविदृष्ट्या मेघः धूमज्योतिस्सलिलमरुतां सन्निपातो न भूत्वा एकः संवेदनशीलः मानवोपमः प्राणी अस्ति। स रामगिरेः आरभ्यालकां यावत् यस्य कस्यापि सन्निधि लभते तस्मै हर्षोल्लासौ वितरति। शाकुन्तलनाटके पतिगृहगमनकाले आश्रमपादपाः स्वभगिन्यै शकुन्तलायै आभरणानि समर्पयन्ति। हरिणार्भकः तस्याः मार्गावरोधं कृत्वा स्वकीयं निश्छलं प्रेम प्रकटयति। एवमेव नद्यः प्रेयस्य इवाचरन्ति। सूर्यः अरुणोदयवेलायां स्वप्रियतमायाः नलिन्याः तुषारबिन्दुरूपाणि अश्रूणि स्वकरैः परिमृजति।

रघुवंशे दिग्विजयांर्थं ……………………………………….. हर्षोल्लासौ वितरति। [2006, 08]
वस्तुतः कालिदासः ………………………………………………… सम्पादयन्ति। [2008, 11]
शाकुन्तलनाटके …………………………………….. स्वकरैः परिमृजति।

शब्दार्थ मूर्धन्यतमः = सर्वश्रेष्ठ। एकतः = एक ओर। समाहारः = समावेश। अपरतः = दूसरी ओर। राराजते = अत्यन्त सुशोभित हो रही है। सूक्ष्मानुभूतीनामिन्द्रधनुः (सूक्ष्म + अनुभूतीनां + इन्द्रधनुः) = सूक्ष्म अनुभूतियों का इन्द्रधनुष। आवर्जयितुम् = प्रभावित करने में पारयति = समर्थ होता है। विहाय = त्यागकर। सहचरीव = साथ रहने वाली के समान। आचरति = आचरण करती है। सम्पादयन्ति = पूर्ण करते हैं। परिलक्ष्यते = दिखाई देती है। बाह्यान्तः प्रकृत्योः = बाहरी और आन्तरिक प्रकृतियों का। मर्मस्पृक् = मर्मस्पर्शी, हृदय को छूने वाला। धूमज्योतिस्सलिलमरुतां = धुआँ, प्रकाश, पानी और वायु सन्निपातः = समूह। न भूत्वा = न होकर। (UPBoardSolutions.com) आरभ्य-अलकां = आरम्भ करके अलका को। सन्निधिम् = समीपता को। स्वभगिन्यै = अपनी बहन के लिए। आभरणानि = आभूषणों को। अर्भकः = बच्चा। मार्गावरोधं कृत्वा = मार्ग को रोककर। प्रकटयति = प्रकट करता है। नलिन्याः = कमलिनी के। स्वकरैः = अपनी किरणों (हाथों) से। परिमृजति = पोंछता है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में यह कहा गया है कि कालिदास की रचनाएँ कितनी माधुर्यपूर्ण हैं।

अनुवाद वास्तव में कालिदास सर्वश्रेष्ठ भारतीय कवि हैं। एक ओर (जहाँ) उनकी रचनाओं में काव्य के लिए उचित गुणों का समावेश दिखाई देता है तो दूसरी ओर उनमें भारतीय जीवन-पद्धति की सर्वांगीणता भी सुशोभित होती है। काव्य की श्रेष्ठता की दृष्टि से उनके काव्यों में मानव-मन की सूक्ष्म अनुभूतियों का इन्द्रधनुष किसी भी सहृदय को प्रभावित करने में समर्थ है। प्रकृति भी अपनी जड़ता को छोड़कर सभी जगह (काव्यों में) मानव की सहचरी के समान आचरण करती है। रघुवंशम्’ में दिग्विजय के लिए प्रस्थान किये हुए रघु का सम्मान वन के वृक्ष पुष्पों की वर्षा से सम्पादित करते हैं। ‘मेघदूतम्’ में विरह से उत्कण्ठित यक्ष की प्रेम-विह्वलता की अद्वितीय सृष्टि परिलक्षित होती है। उसमें बाह्यप्रकृति और अन्त:प्रकृति का मर्मस्पर्शी वर्णन है। कवि की दृष्टि में मेघ धुआँ, प्रकाश, जल, वायु का समूह न होकर एक संवेदनशील (UPBoardSolutions.com) मानव के समान प्राणी है। वह रामगिरि से लेकर अलका तक जिस किसी की समीपता प्राप्त करता है, उसे हर्ष और उल्लास प्रदान करता है। ‘शाकुन्तलम्’ नाटक में पति के घर जाते समय आश्रम के वृक्ष अपनी बहन शकुन्तला को आभूषण प्रदान करते हैं। हिरन का बच्चा (शावक) उसका रास्ता रोककर अपने निष्कपट प्रेम को प्रकट करता है। इसी प्रकार नदियाँ भी प्रेमिका की तरह आचरण करती हैं। सूर्य अरुणोदय (प्रथम किरण निकलने) के समय अपनी प्रियतमा कमलिनी के ओस की बूंदरूपी आँसुओं को अपनी किरणों (हाथों) से पोंछता है।

(8) कालिदासकाव्येषु अङ्गीरसः शृङ्गारोऽस्ति। तस्य पुष्ट्यर्थं करुणादयोऽन्ये रसाः अङ्गभूताः। रसानुरूपं क्वचित प्रसादः क्वचिच्च माधुर्यं तस्य काव्योत्कर्षेः साहाय्यं कुरुतः। वैदर्भीरीतिः कालिदासस्य वाग्वश्येव सर्वत्रानुवर्तते। अलङ्कारयोजनायां कालिदासोऽद्वितीयः। यद्यपि उपमाकालिदासस्येत्युक्तिः उपमायोजनायामेव कालिदासस्य वैशिष्ट्यमाख्याति तथापि उत्प्रेक्षार्थान्तरन्यासादीनामलङ्काराणां विनियोगः तेनातीव सहजतया कृतः। कालिदासस्य नाट्यकृतिषु विशेषतः शाकुन्तले वस्तुविन्यासः अनुपमः, चरित्रचित्रणं सर्वथानवद्यं संवादशैली सम्प्रेषणीयास्ति। सममेव भारतीयसंस्कृत्यनुमतानां धर्मार्थकाममोक्षमूलानां मानवमूल्यानां प्रकाशनं कालिदासस्य वैशिष्ट्यमस्ति। आश्रमवासिनीं शकुन्तला निर्वयँ मनसि कामप्ररोहमनुभूय दुष्यन्तः तावच्छान्ति न लभते यावत्तां क्षत्रियपरिग्रहक्षमा विश्वामित्रस्य दुहितेयमिति नार्वेति। (UPBoardSolutions.com) कण्वस्यानुज्ञां विना गन्धर्वविधिना कृतः विवाहः उभावपि तावत्प्रताडयति यावदेकतः शकुन्तला मारीचाश्रमे तपश्चरणेन अवज्ञाजनितं कलुषं न क्षालयति, अपरतः दुष्यन्तः अङ्गुलीयलाभेन लब्धस्मृतिः सन् भृशं पीयमानः प्रायश्चित्ताग्नौ आत्मशुद्धि न कुरुते। तदनन्तरमेव तयोः दाम्पत्यप्रेम निष्कलुषं भवति पुत्रोपलब्धौ च परिणमते।

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कालिदासस्य नाट्यकृतिषु …………………………. च परिणमते। [2007]
कालिदासकाव्येषु …………………………………. सहजतया कृतः। [2007,11]
कालिदासस्य नाटयकृतिषु …………………………….. इति नावैति। [2009]

शब्दार्थ अङ्गीरसः = प्रधान रस। अङ्गभूताः = सहायक, गौण रूप में। क्वचित् = कहीं। काव्योत्कर्षेः = काव्य की उन्नति में। वाग्वश्येव (वाक् + वश्या + इव) = वाणी के वश में होने वाली के समान। अनुवर्तते = अनुसरण करती है। आख्याति = बताती है। विनियोगः = प्रयोग। तेनातीव = उसने अधिकता से। सहजतया = सरलता से। वस्तुविन्यासः = कथावस्तु का संघटन। अनवद्यम् = निर्दोष सम्प्रेषणीया = प्रेषण गुण से युक्त। सममेव = साथ ही। निर्वण्र्य = देखकर। कामप्ररोहमनुभूय (UPBoardSolutions.com) (काम + प्ररोहम् + अनुभूय) = काम-भाव की उत्पत्ति का अनुभव करके। क्षत्रियपरिग्रहक्षमाम् = क्षत्रिय द्वारा विवाह के योग्य। दुहितेयमिति (दुहिता + इति + इयम्) = पुत्री है यह ऐसा। नावैति = नहीं जान लेता है। कण्वस्यानुज्ञाम् = कण्व की अनुमति के उभावपि (उभौ + अपि) = दोनों को। अवज्ञाजनितम् = अपमान से उत्पन्न। कलुषम् = पाप। क्षालयति = धो देती है। लब्धस्मृतिः = स्मृति पाकर (याद करके)। भृशं = अधिक। प्रायश्चित्ताग्नौ = प्रायश्चित्त रूपी अग्नि में। तदनन्तरमेव = इसके बाद ही। निष्कलुषम् = निर्मल, पापरहित परिणमते = फलित होता है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कालिदास के काव्यों की भावपक्षीय व कलापक्षीय विशेषताओं; यथा–रस, शैली, अलंकार आदि का वर्णन किया गया है।

अनुवाद कालिदास के काव्यों में मुख्य रस श्रृंगार है। उसकी पुष्टि के लिए करुण आदि अन्य रस सहायक रूप में हैं। रस के अनुरूप कहीं प्रसाद गुण और कहीं माधुर्य गुण उनके काव्य के विकास में सहायता प्रदान करते हैं। वैदर्भी रीति कालिदास की वाणी के वश में हुई-सी सभी जगह अनुसरण (वाणी का) करती है। अलंकारों की योजना में कालिदास अद्वितीय हैं। यद्यपि ‘उपमा कालिदासस्य’ यह कथन उपमा की योजना में कालिदास की विशेषता बताता है, फिर भी उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों का प्रयोग उन्होंने अत्यधिक स्वाभाविक ढंग से किया है। कालिदास की नाट्य रचनाओं में, विशेषकर ‘शाकुन्तलम्’ नाटक में, कथावस्तु (UPBoardSolutions.com) की योजना अनुपम है; चरित्र-चित्रण सभी प्रकार से निर्दोष और संवाद-शैली प्रेषण गुण से समन्वित है। साथ ही भारतीय संस्कृति के मतानुसार धर्म, अर्थ, काम, मोक्षस्वरूप मानव-मूल्यों का प्रकाशन कालिदास की विशेषता है। आश्रम में निवास करने वाली शकुन्तला को देखकर, मन में काम के अंकुर की अनुभूति करके दुष्यन्त तब तक शान्ति प्राप्त नहीं करते हैं, जब तक उसे क्षत्रिय के द्वारा विवाह के योग्य विश्वामित्र की पुत्री नहीं जान लेते हैं। कण्व की आज्ञा के बिना गन्धर्व विधि से किया गया विवाह दोनों को ही तब तक सताता रहता है, जब तक एक ओर शकुन्तला मारीच ऋषि के आश्रम में तपस्या के आचरण से (दुर्वासा के) अपमान से उत्पन्न पाप को नहीं धो डालती, दूसरी ओर दुष्यन्त अँगूठी के मिलने से स्मृति (याद) पाकर अत्यन्त पीड़ित होते हुए प्रायश्चित्त की अग्नि में आत्मशुद्धि नहीं कर लेते हैं। इसके बाद ही उन दोनों का दाम्पत्य-प्रेम निष्पाप (शुद्ध) होता है और पुत्र की प्राप्ति में प्रतिफलित होता है।

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(9) रघुवंशे कालिदासः रघुवंशिनां चित्रणं तथा करोति यथा भारतीयजनजीवनस्योदात्तादर्शानां सम्यग् दिग्दर्शनं भवेत्। रघुकुलजाः राजानः प्रजाक्षेमाय बलिमाहरन्। मितसंयतभाषिणस्ते सदा सत्यनिष्ठाः आसन्। यशस्कामास्ते तदर्थं प्राणानपि त्यक्तं सदैवोद्यता अभवन्। केवल सन्तत्यर्थे ते गृहमेधिनो बभूवुः। शैशवे विद्यार्जनं यौवने रञ्जनम्। वार्द्धक्ये मुक्त्यर्थं मुनिवदाचरणं तेषां व्रतमासीत्। बाल वृद्धवनितादीनां यदाचरणं कालिदासकाव्ये निरूपितं तत्सर्वथा भारतीयसंस्कृतिगौरवानुरूपमेव। [2009,14]

शब्दर्थ उदात्तादर्शानाम् = श्रेष्ठ आदर्शों का सम्यग् = भली प्रकार दिग्दर्शनम् = वर्णन। क्षेमाय = भलाई के लिए। बलिम् = टैक्स, कर। आहरन् = लेते थे। मितसंयतभाषिणस्ते = सीमित और संयमपूर्ण वचन बोलने वाले वे। यशस्कामास्ते = यश चाहने वाले वे| उद्यताः = तैयार। सन्तत्यर्थे = सन्तानोत्पत्ति के लिए। गृहमेधिनः = गृहस्थ धर्म वाले। रञ्जनम् = भोग। वार्धक्ये = वृद्धावस्था में। मुनिवदाचरणम् (मुनिवत् + आचरणम्) = मुनियों के समान आचरण। वनिता = स्त्री। निरूपितम् = वर्णन किया गया है, वर्णित है। अनुरूपम् = समान।

प्रसग प्रस्तुत गद्यांश में रघुवंशी राजाओं के आचरण का वर्णन किया गया है।

अनुवाद ‘रघुवंशम्’ में कालिदास रघुवंशी राजाओं का चित्रण उस प्रकार करते हैं, जिससे भारतीय जनजीवन के श्रेष्ठ आदर्शों का अच्छी तरह वर्णन हो सके। रघुकुल में उत्पन्न हुए राजा लोग प्रजा की भलाई के लिए कर (टैक्स) लेते थे। परिमित और सधी हुई वाणी बोलने वाले वे सदा सत्यनिष्ठ होते थे। (UPBoardSolutions.com) यश की इच्छा करने वाले वे उसके लिए प्राणों को भी छोड़ने हेतु सदैव तैयार रहते थे। केवल सन्तान के लिए ही वे गृहस्थ धर्म वाले होते थे। बचपन में विद्या-प्राप्ति, युवावस्था में भोग और वृद्धावस्था में मुक्ति के लिए मुनियों के समान आचरण करना उनका व्रत था। बालक, वृद्ध, स्त्री आदि का जो आचरण कालिदास के काव्य में निरूपित हुआ है, वह सभी तरह से भारतीय संस्कृति के गौरव के अनुरूप ही है।

(10) आहिमवतः सिन्धुवेलां यावत् विकीर्णाः भारतगौरवगाथाः कालिदासेन स्वकृतिषुपनिबद्धाः। रघुवंशे, मेघे, कुमारसम्भवे च भारतदेशस्य विविधभूभागानां गिरिकाननादीनां यादृक्स्वा भाविकं मनोहारि च चित्रणं लभ्यते, स्वचक्षुषाऽनक्लोक्य तदसम्भवमस्ति। तथाविधं तस्य देशप्रेम तस्य काव्योत्कर्ष समुद्रढयति। सन्तु तत्रानल्पा संस्कृतकवयः किन्तु कस्यापि कालिदासेन साम्यं नास्ति। साधूक्तम् केनचित् कालिदासानुरागिणा –

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पुरा कवीनां गणनाप्रसङ्गे कनिष्ठिकाधिष्ठितकालिदासः।
अद्यापि तत्तुल्यकवेरभावादनामिका सार्थवती बभूव [2005]

आहिमवतः …………………………………… साम्यं नास्ति। [2006, 11, 15]

शब्दार्थ आहिमवतः = हिमालय से लेकर। सिन्धुवेलां यावत् = समुद्र तट तक। विकीर्णाः = बिखरी हुई, फैली हुई। स्वकृतिषुपनिबद्धाः (स्वकृतिषु + उपनिबद्धाः) = अपनी रचनाओं में सम्मिलित की है। यादृक् = जैसा। लभ्यते = प्राप्त होता है। अनवलोक्य = देखे बिना। तदसम्भवमस्ति (तत् + असम्भवम् + अस्ति) = असम्भव है।

समुद्रढयति = अच्छी तरह दृढ करता है। अनल्पाः = बहुत-से। साम्यम् = समानता, बराबरी। साधूक्तम् = ठीक कहा है। अनुरागिणा = प्रेमी ने। गणनाप्रसङ्गे = गणना के अवसर पर। कनिष्ठिकाधिष्ठित = कनिष्ठिका (छोटी) अँगुली पर रखा गया। अद्यापि = आज भी। अनामिका = अँगूठे की ओर से चौथी अँगुली, बिना नाम वाली। सार्थवती = सार्थक, अर्थात् अर्थ साथ रखने वाली। बभूव = हो गयी।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत के कवियों में कालिदास की सर्वश्रेष्ठता बतायी गयी है।

अनुवाद हिमालय से लेकर समुद्रपर्यन्त भारत के गौरव की जितनी गाथाएँ फैली हैं, वे कालिदास ने अपनी रचनाओं में निबद्ध की हैं। रघुवंशम्’, ‘मेघदूतम्’ और ‘कुमारसम्भवम्’ में भारत देश के विविध भू-भागों, पर्वत और वनों का जैसा स्वाभाविक और मनोहर चित्रण मिलता है, अपनी (UPBoardSolutions.com) आँख से देखे बिना वह (ऐसा वर्णन) असम्भव है। उस प्रकार का उनका देश-प्रेम उनके काव्य की श्रेष्ठता को दृढ़ करता है। भले ही संस्कृत में बहुत-से कवि हों, किन्तु किसी की भी कालिदास के साथ समानता नहीं है। कालिदास के किसी प्रेमी ने ठीक कहा है –

प्राचीनकाल में, कवियों की गणना करने के प्रसंग में कालिदास का नाम कनिष्ठिका (सबसे छोटी) अँगुली पर रखा गया, अर्थात् सर्वप्रथम गिना गया। आज भी उनके बराबर (समान स्तर) के कवि के न होने से अनामिका (बिना नाम वाली) अँगुली सार्थक हो गयी है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कालिदास की काव्य-शैली का परिचय दीजिए।
उत्तर :
कालिदास के काव्यों में प्रधान रस ‘श्रृंगार’ है। शेष करुण आदि रस उसके सहायक होकर आये हैं। रस के अनुरूप प्रसाद और माधुर्य गुणों की सृष्टि की गयी है। कालिदास वैदर्भी रीति के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। ये अलंकारों के, विशेषकर उपमा के प्रयोग में सिद्धहस्त हैं। इनके नाटकों में वस्तुविन्यास अनुपम, चरित्र-चित्रण निर्दोष और शैली में सम्प्रेषणीयता है। इनके काव्यों में मानव-मूल्यों की प्रतिष्ठा की गयी है।

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प्रश्न 2.
महाकवि कालिदास के ग्रन्थों ( रचनाओं) के नाम लिखिए। [2007,08, 10, 11]
या
महाकवि कालिदास के नाटकों के नाम लिखिए। [2012, 13]
या
महाकवि कालिदास रचित दो महाकाव्यों के नाम लिखिए। [2007, 08, 14]
या
कालिदास रचित विविध ग्रन्थों के नाम लिखिए। [2015]
या
‘रघुवंशम्’ महाकाव्य किसकी रचना है? [2007]
उत्तर :
कालिदास को देववाणी का विलास कहा जाता है। संस्कृत भाषा को समस्त सौन्दर्य इनकी रचनाओं में साकार हो गया है। इन्होंने ‘रघुवंशम्’ और ‘कुमारसम्भवम्’ दो महाकाव्य, ‘मेघदूतम्’ और ‘ऋतुसंहार: दो गीतिकाव्य तथा ‘मालविकाग्निमित्रम्’, ‘विक्रमोर्वशीयम्’ एवं (UPBoardSolutions.com) ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ तीन नाटकों की रचना की है।

प्रश्न 3.
महाकवि कालिदास के विषय में क्या जनश्रुति प्रसिद्ध है? [2006]
उत्तर :
कालिदास के विषय में यह जनश्रुति प्रसिद्ध है कि ये विक्रमादित्य के सभारत्न थे, किन्तु विडम्बना यह है कि कोई विद्वान् इन्हें चन्द्रगुप्त द्वितीय का समकालीन मानता है तो कोई उज्जैन के राजा विक्रमादित्य का समकालीन। इस महान् कवि को सभी अपने-अपने देश में उत्पन्न हुआ सिद्ध करते हैं। कुछ विद्वान् इन्हें कश्मीर में उत्पन्न हुआ मानते हैं तो कुछ बंगाल में उत्पन्न हुआ।

प्रश्न 4.
कालिदास को सर्वश्रेष्ठ कवि कहे जाने का कारण बताइए।
या
कालिदास को ‘कविकुलगुरु’ क्यों कहा जाता है? [2012]
उत्तर :
कालिदास की रचनाओं में काव्योचित गुणों के साथ-साथ भारतीय जीवन पद्धति की सर्वांगीणता भी सुशोभित होती है। उनका काव्य सहृदय-जनों को प्रभावित करने में समर्थ है। हिमालय से लेकर समुद्रपर्यन्त तक जितनी भी भारत के गौरव की गाथाएँ हैं, उन सभी को कालिदास ने अपनी (UPBoardSolutions.com) रचनाओं में निबद्ध किया है। बालक, वृद्ध, स्त्री आदि का आचरण इनके काव्य में भारतीय संस्कृति के गौरव के अनुरूप ही निरूपित हुआ है। ये सभी कारण कालिदास की सर्वश्रेष्ठता को प्रमाणित करते हैं। इसीलिए कालिदास को ‘कविकुलगुरु’ कहा जाता है।

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प्रश्न 5.
महाकवि कालिदास की रचनाओं का परिचय दीजिए।
उत्तर :
[ संकेत ‘पाठ-सारांश’ के उपशीर्षक ‘रचनाएँ’ शीर्षक की सामग्री अपने शब्दों में लिखें। ]

प्रश्न 6.
‘मेघदूत’ में कवि ने किसका वर्णन किया है? [2010, 11, 12]
उत्तर :
‘मेघदूत’ में महाकवि कालिदास ने विरह से उत्कण्ठित यक्ष की प्रेमविह्वलता तथा बाह्य-प्रकृति व अन्त:-प्रकृति का मर्मस्पर्शी वर्णन किया है।

प्रश्न 7.
कालिदास का जीवन-परिचय लिखिए। [2006,07]
उत्तर :
महाकवि कालिदास संस्कृत के कवियों में मूर्धन्य तथा विश्व के महानतम कवियों में से एक हैं। इनका जन्म कब और कहाँ हुआ, इस विषय में विद्वान् एकमत नहीं हैं। एक जनश्रुति के अनुसार ये विक्रमादित्य के सभारत्न थे तो कुछ विद्वान् इन्हें चन्द्रगुप्त द्वितीय का समकालीन मानते हैं। (UPBoardSolutions.com) कुछ विद्वान् इन्हें कश्मीर में उत्पन्न हुआ मानते हैं तो कुछ बंगाल में। इनकी रचनाओं में वर्णित तथ्यों के आधार पर इन्हें ब्राह्मण कुल में जन्म लिया हुआ तथा शिव व राम का भक्त माना जाता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है। कि इनका जीवन-वृत्त सभी प्रकार से अज्ञान के अन्धकार में छिपा हुआ है।

प्रश्न 8.
कालिदास का जन्म किस कुल में हुआ था? [2009]
उत्तर :
कालिदास के कुल का स्पष्ट परिचय प्राप्त नहीं होता है। इनकी रचनाओं में वर्ण, आश्रम और धर्म की व्यवस्था का उचित प्रतिपादन होने के कारण विद्वानों का अनुमान है कि इनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था।

प्रश्न 9.
कवि-गणना में कनिष्ठिका पर किस कवि को गिना गया है? [2010]
उत्तर :
कवि-गणना में कनिष्ठिका अर्थात् सबसे छोटी अँगुली पर कालिदास को गिना गया है, अर्थात् सर्वप्रथम गिना गया है।

प्रश्न 10.
अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ कथा के नायक-नायिका का क्या नाम है? [2013]
उत्तर :
‘अभिज्ञानशाकुन्तलम् कथा के नायक हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त’ और नायिका अप्सरा मेनका की पुत्री ‘शकुन्तला’ है।

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प्रश्न 11
‘मेघदूतम्’ में कवि ने किसको दूत बनाकर कहाँ भेजा है? [2013]
उत्तर :
‘मेघदूतम्’ में कवि कालिदास ने मेघ (बादल) को यक्ष का दूत बनाकर यक्षिणी अलका के पास सन्देश भेजा है।

प्रश्न 12.
कालिदास के नाटकों का संक्षिप्त परिचय दीजिए। [2013]
उत्तर :
महाकवि कालिदास ने ‘मालविकाग्निमित्रम्’, ‘विक्रमोर्वशीयम्’ एवं ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ नामक तीन नाटकों की रचना की है। ‘मालविकाग्निमित्रम्’ नाटक में अग्निमित्र और मालविका के प्रेम की कथा है। पाँच अंकों वाले ‘विक्रमोर्वशीयम्’ नाटक में पुरूरवा और उर्वशी के प्रेम की कथा वर्णित है। (UPBoardSolutions.com) ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम् कालिदास की सर्वश्रेष्ठ रचना है, जिसमें सात अंक हैं। इसमें मेनका नामक अप्सरा के द्वारा जन्म देकर त्यागी गयी और कण्व के द्वारा पालन की गयी शकुन्तला के दुष्यन्त के साथ प्रेम और विवाह तत्पश्चात् वियोग और पुनर्मिलन की कथा वर्णित है।

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Class 10 Sanskrit Chapter 8 UP Board Solutions सिद्धार्थस्य निर्वेदः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 8 Siddharthasya Nirvedah Question Answer (पद्य – पीयूषम्)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 8 हिंदी अनुवाद सिद्धार्थस्य निर्वेदः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

महाकवि अश्वघोष मूलत: बौद्ध दार्शनिक थे। बौद्ध भिक्षु होने के कारण इन्हें आर्य भदन्त भी कहा जाता है। ये कनिष्क के समकालीन और साकेत के निवासी थे। इनकी माता का नाम सुवर्णाक्षी था। अश्वघोष के दो महाकाव्यों—बुद्धचरितम् और सौन्दरनन्द के साथ खण्डित अवस्था में एक (UPBoardSolutions.com) नाटक-शारिपुत्रप्रकरण–भी प्राप्त होता है। इनके वर्णन स्वाभाविक हैं। इनके काव्यों की भाषा सरल और प्रवाहपूर्ण है तथा शैली वैदर्भी है।

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प्रस्तुत पाठ के श्लोक महाकवि अश्वघोष द्वारा विचित ‘बुद्धचरितम्’ महाकाव्य के तृतीय और पञ्चम सर्ग से संगृहीत हैं। इनमें विहार के लिए निकले हुए सिद्धार्थ के मन में दृढ़ वैराग्य के उदय होने का संक्षिप्त वर्णन है।

पाठ-सारांश

एक बार कुमार सिद्धार्थ अपने पिता से आज्ञा लेकर रथ पर बैठकर नगर-भ्रमण के लिए निकले। उन्होंने मार्ग में श्वेत केशों वाले, लाठी का सहारा लेकर चलने वाले, ढीले और इसे अंगों वाले एक वृद्ध पुरुष को देखा। सारथी से पूछने पर उसने बताया कि बुढ़ापा समयानुसार सभी को अता है, आपको भी आएगा। इसके बाद सिद्धार्थ ने मोटे पेट वाले, साँस चलने के कारण काँपते, झुके कन्धे और कृश शरीर वाले तथा दूसरे को सहारा लेकर चलते हुए एक रोगी को देखा। पूछने पर सारथी ने बताया कि इसको धातु विकार से उत्पन्न रोग बढ़ गया है। यह रोग इन्द्र को भी शक्तिहीन बना सकता है। इसके बाद सिद्धार्थ ने बुद्धि, इन्द्रिय, प्राण और गुणों द्वारा वियुक्त हुए, महानिद्रा में सोये हुए, चेतनारहित, कफन ढककर चार पुरुषों के द्वारा ले जाए जाते हुए एक मृत मनुष्य को देखा। उनकी जिज्ञासा को शान्त करते हुए सारथी ने बताया कि यह मृत्यु सभी मनुष्यों का विनाश करने वाली है। अधम, मध्यम या उत्तम सभी मनुष्यों की मृत्यु निश्चित ही होती है।

वृद्ध, रोगी और मृतक को देखकर सिद्धार्थ का मद तत्क्षण लुप्त हो गया। इसके बाद सिद्धार्थ को एक अदृश्य पुरुष भिक्षु वेश में दिखाई पड़ा। पूछने पर उसने बताया कि मैंने जन्म-मृत्यु पर विजय प्राप्त करने और मोक्ष प्राप्त करने के लिए संन्यास ग्रहण कर लिया है और इसे क्षणिक संसार में मैं अक्षय पद को ढूंढ़ रहा हूँ। भिक्षु के पक्षी के समान आकाश-मार्ग में चले जाने पर सिद्धार्थ ने भी अभिनिष्क्रमण के लिए निश्चय कर लिया।

पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
ततः कुमारो जरयाभिभूतं, दृष्ट्वा नरेभ्यः पृथगाकृतिं तम्।
उवाच सङ्ग्राहकमागतास्थस्तत्रैव निष्कम्पनिविष्टदृष्टिः॥

शब्दार्थ ततः = तदनन्तर इसके बाद। कुमारः = राजकुमार सिद्धार्थ ने। जरयाभिभूतम् = बुढ़ापे से आक्रान्त। दृष्ट्वा = देखकर पृथगाकृतिम् = भिन्न आकृति वाले को। तम् = उस वृद्ध को। उवाचे = कहा। सङ्ग्राहकम् = घोड़े की लगाम पकड़ने वाले से, सारथी से। आगतास्थः = (UPBoardSolutions.com) उत्पन्न विचारों वाला। तत्र = उस (वृद्ध) पर। निष्कम्पनिविष्टदृष्टिः = दृष्टि को बिना हिलाये अर्थात् गड़ाये हुए।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के सिद्धार्थस्य निर्वेदः’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

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[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसंग इस श्लोक में पिता की आज्ञा से नगर-विहार को निकले हुए सिद्धार्थ द्वारा एक वृद्ध पुरुष को देखकर सारथी से प्रश्न पूछने का वर्णन है।

अन्वय ततः कुमारः जरयाभिभूतं नरेभ्यः पृथगाकृतिं तं दृष्ट्वा आगतास्थः तत्र एव निष्कम्पनिविष्टदृष्टिः (सन्) सङ्ग्राहकम् उवाच।।

व्याख्या (रथ पर चढ़कर नगर-विहार के लिए निकलने के बाद) कुमार सिद्धार्थ ने बुढ़ापे से आक्रान्त, अन्य मनुष्यों से भिन्न आकार वाले उस वृद्ध पुरुष को देखकर उत्पन्न विचारों वाले, उसी वृद्ध पुरुष पर एकटक दृष्टि लगाये हुए अपने सारथी से कहा। तात्पर्य यह है कि नगर-विहार पर निकलने से पूर्व तक कुमार सिद्धार्थ ने केवल युवा पुरुष और युवतियों को ही देखा था। इसीलिए उस वृद्ध पुरुष को देखकर उनके नेत्र उस पर स्थिर हो गये।

(2)
क एष भोः सूत नरोऽभ्युपेतः, केशैः सितैर्यष्टिविषक्तहस्तः
भूसंवृताक्षः शिथिलानताङ्गः किं विक्रियैषा प्रकृतिर्यदृच्छा ॥

शब्दर्थ कः = कौन। एषः = यह। भोः सूत = हे सारथि!| नरः = मनुष्य, आदमी। अभ्युपेतः = सामने आया हुआ। केशैः = बालों वाला। सितैः = सफेद। यष्टिविषक्तहस्तः = लाठी पर हाथ टिकाये हुए। भूसंवृताक्षः = भौंहों से ढकी हुई आँखों वाला। शिथिलानताङ्ग = ढीले और झुके हुए अंगों वाला। किं = क्या। विक्रिया एषा= यह परिवर्तन| प्रकृतिः = स्वाभाविक स्थिति। यदृच्छा = संयोग।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सिद्धार्थ द्वारा वृद्ध पुरुष को देखकर सारथी से पूछे जाने का वर्णन है।

अन्वये भोः सूत! सितैः केशैः (युक्तः), यष्टिविषक्तहस्तः, भूसंवृताक्षः, शिथिलानताङ्ग अभ्युपेतः एषः नरः कः (अस्ति)। किम् एषा विक्रिया (अस्ति) (वा) प्रकृतिः यदृच्छा (अस्ति)।

व्याख्या हे सारथि! सफेद बालों से युक्त, लाठी पर टिके हुए हाथ वाला, भौंहों से ढके हुए नेत्रों (UPBoardSolutions.com) वाला, ढीले और झुके हुए अंगों वाला, सामने आया हुआ यह मनुष्य कौन है? क्या यह विकार है अथवा स्वाभाविक रूप है अथवा यह कोई संयोग है?

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(3)
रूपस्य हर्जी व्यसनं बलस्य, शोकस्य योनिर्निधनं रतीनाम्।
नाशः स्मृतीनां रिपुरिन्द्रियाणामेषा जरा नाम ययैष भग्नः ॥ [2009, 13]

शब्दार्थ रूपस्य = रूप का। हर्जी = हरण या विनाश करने वाली। व्यसनम् = संकट या विनाश। बलस्य = बल का। शोकस्य = शोक का। योनिः = जन्म देने वाली मूल कारण निधनम् = विनाशका रतीनाम् = काम-सुखों को। स्मृतीनां = स्मृति को। रिपुः = शत्रु। इन्द्रियाणां = इन्द्रियों को। जरा = बुढापा। यया= जिससे एषः = यह। भग्नः = टूट गया है। प्रसंग सिद्धार्थ के वृद्ध पुरुष के बारे में प्रश्न करने पर सारथी उत्तर देता है।

अन्वय (सारथिः उवाच) एषा रूपस्य हर्जी, बलस्य व्यसनम्, शोकस्य योनिः, रतीनां निधनं, स्मृतीनां नाशः, इन्द्रियाणां रिपुः जरा नाम (अस्ति)। यया एष (नरः) भग्नः।

व्याख्या सारथी ने उत्तर दिया कि यह रूप का विनाश करने वाला, बल के लिए संकटस्वरूप, दु:ख की उत्पत्ति का मूल कारण, काम-सुखों को समाप्त करने वाला, स्मृति को नष्ट करने वाला, इन्द्रियों का शत्रु बुढ़ापा है, जिसके द्वारा यह पुरुष टूट गया है।

(4)
पीतं ह्यनेनापि पयः शिशुत्वे, कालेन भूयः परिमृष्टमुव्र्याम् ।
क्रमेण भूत्वा च युवा वपुष्मान्, क्रमेण तेनैव जरामुपेतः ॥

शब्दार्थ पीतं = पिया गया है। हि = निश्चय ही। अनेन अपि = इसके द्वारा भी। पयः = दूध। शिशुत्वे = बचपन में। कालेन = समय के अनुसार। भूयः = फिर। परिमृष्टम् = लोट लगायी है। उम् = भूमि पर, पृथ्वी पर। क्रमेण = क्रम के अनुसार। भूत्वा = होकर, बनकर। वपुष्मान् = सुन्दर शरीर वाला। तेन = उस। एव = ही। जराम् उपेतः = बुढ़ापे को प्राप्त हुआ।

प्रसंग सारथी राजकुमार को समझा रहा है कि इस वृद्ध ने एक निश्चित क्रम के अनुसार ही यह अवस्था प्राप्त की है।

अन्वय हि अनेन अपि शिशुत्वे पयः पीतम्, कालेन उ भूयः परिमृष्टं क्रमेण च युवा वपुष्मान् भूत्वा तेन एवं क्रमेण जराम् उपेतः।

व्याख्या निश्चय ही इसने भी बचपन में दूध पीया है, समय के अनुसार पृथ्वी पर लोट लगायी है और क्रम से सुन्दर शरीर वाला युवा होकर उसी क्रम में बुढ़ापे को प्राप्त किया है। तात्पर्य यह है कि इस (वृद्ध) की ऐसी अवस्था अकस्मात् ही नहीं हो गयी है, वरन् एक निश्चित क्रम-जन्म, बाल्यावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, अधेड़ावस्था, वृद्धावस्था के अनुसार हुई है।

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(5)
आयुष्मतोऽप्येष वयोऽपकर्षों, नि:संशयं कालवशेन भावी।
श्रुत्वा जरामुविविजे महात्मा महाशनेर्दोषमिवान्तिके गौः ॥

शब्दार्थ आयुष्मतः = चिरञ्जीवी आपको। अपि = भी। एष = यह। वयः अपकर्षः = अवस्था का हास। निःसंशयम्= निःसन्देह, निश्चित रूप से कालवशेन= समय के अनुसार भावी = होगा। श्रुत्वा = सुनकर। जराम् = वृद्धावस्था को। उद्विविजे = उद्विग्न हो गये। महाशनेः = महान् वज्र के। घोषम् = शब्द को। इव = समान, तरह। अन्तिके = पास में।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वृद्धावस्था की निश्चितता के बारे में जानने पर सिद्धार्थ की उद्विग्नता का वर्णन किया गया है।

अन्वय एषः वयोऽपकर्षः कालवशेन आयुष्मतः अपि नि:संशयं भावी। महात्मा जरां श्रुत्वा अन्तिके महाशनेः घोषं (श्रुत्वा) गौः इव उद्विविजे।

व्याख्या सारथि कुमार सिद्धार्थ से कहता है कि यह अवस्था का ह्रास भी समय के कारण दीर्घ आयु वाले (UPBoardSolutions.com) आपको भी नि:सन्देह होगा। इस प्रकार वह महान् आत्मा वाले कुमार सिद्धार्थ बुढ़ापे के विषय में सुनकर; पास में महान् वज्र की ध्वनि को सुनने वाली; गाय के समान उद्विग्न हो गये।

(6)
अथापरं व्याधिपरीतदेहं, त एव देवाः ससृजुर्मनुष्यम्।
दृष्ट्वा च तं सारथिमाबभाषे, शौद्धोदनिस्तद्गतदृष्टिरेव॥

शब्दार्थ अथ = इसके बाद। अपरम्= दूसरे व्याधिपरीतदेहम् = रोग से व्याप्त शरीर वाले। ते एव देवाः = उन देवताओं ने ही। ससृजुः = रचना कर दी। दृष्ट्वा = देखकर। च= और म्= उसको। सारथिम् = सारथी से। आबभाषे = बोला। शौद्धोदनिः = शुद्धोदन की पुत्र, सिद्धार्थ। तद्गत दृष्टिः = उसी पर दृष्टि लगाये हुए।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सिद्धार्थ के द्वारा एक रोगी को देखकर उसके बारे में सारथी से प्रश्न पूछने का वर्णन है।

अन्वय अथ ते एव देवाः अपरं मनुष्यं व्याधिपरीतदेहं ससृजुः। तं च दृष्ट्वा शौद्धोदनि: तद्गतदृष्टिः एव सारथिम् आबभाषे।।

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व्याख्या इसके बाद उन्हीं देवताओं ने दूसरे मनुष्य को रोग से व्याप्त शरीर वाला रच दिया। उस (रोगी) को देखकर राजा शुद्धोदन के पुत्र सिद्धार्थ ने उसी पर टकटकी लगाये हुए ही सारथी से कहा।

(7)
स्थूलोदर-श्वासचलच्छरीरः, स्वस्तांसबाहुः कृशपाण्डुगात्रः।
अम्बेति वाचं करुणं बुवाणः, परं समाश्लिष्य नरः क एषः ॥

शब्दार्थ स्थूलोदरः = मोटे पेट वाला; निकले हुए पेट वाला। श्वासचलच्छरीरः = साँस लेने से हिलते (काँपते) हुए शरीर वाला। स्वस्तांसबाहुः = ढीले कन्धे और भुजा वाला| कृशपाण्डुगात्रः = दुर्बल और पीले शरीर वाला। अम्बेति वाचं =’हाय माता’ इस प्रकार के वचन को। करुणम् = करुणापूर्वका बुवाणः = बोलता हुआ। परं = दूसरे से। समाश्लिष्य = लिपटकर, सहारा लेकर

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में रोगी के सम्बन्ध में जिज्ञासु सिद्धार्थ द्वारा सारथी से प्रश्न पूछा गया है।

अन्वय (सिद्धार्थः सारथिम् अपृच्छत्) स्थूलोदरः, श्वासचलच्छरीरः, स्रस्तांसबाहुः, कृश-पाण्डुगात्रः, परं समाश्लिष्य ‘अम्ब’ इति करुणं वाचं ब्रुवाणः एषः नरः कः (अस्ति)?

व्याख्या सिद्धार्थ ने सारथी से पूछा कि मोटे पेट वाला, साँस लेने से काँपते हुए शरीर वाला, झुके हुए ढीले कन्धे और भुजा वाला, दुर्बल और पीले शरीर वाला, दूसरे का सहारा लेकर ‘हाय माता!’ इस प्रकार के करुणापूर्ण वचन कहता हुआ यह मनुष्य कौन है?

(8)
ततोऽब्रवीत् सारथिरस्य सौम्य!, धातुप्रकोपप्रभवः प्रवृद्धः।
रोगाभिधानः सुमहाननर्थः, शक्रोऽपि येनैष कृतोऽस्वतन्त्रः॥

शब्दार्थ ततः = इसके बाद अब्रवीत् = कहा। सारथिरस्य (सारथिः + अस्य) = इसके (सिद्धार्थ) सारथी ने। सौम्यः = हे सौम्य!, हे भद्र!| धातुप्रकोपप्रभवः = वात, पित्त, कफ आदि धातुओं की विषमता के कारण उत्पन्न।प्रवृद्धः = बढ़ा हुआ। रोगाभिधानः = रोग नामका सुमहान् (UPBoardSolutions.com) अनर्थः = बहुत बड़ा अनिष्ट शक्रोऽपि = इन्द्र भी। येन = जिस रोग से। एष = यहा कृत = किया गया। अस्वतन्त्रः = पराधीन।

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प्रसग प्रस्तुत श्लोक में सारथी सिद्धार्थ को रोगी के विषय में बता रही है।

अन्वय ततः सारथिः अब्रवीत्-सौम्य! अस्य धातुप्रकोपप्रभवः रोगाभिधानः (नाम) सुमहान् अनर्थः प्रवृद्धः येन एष शक्रः अपि अस्वतन्त्रः कृतः।।

व्याख्या इसके बाद सारथी ने कहा–हे सौम्य इसका वात, पित्त, कफ आदि धातुओं की विषमता के कारण उत्पन्न हुआ रोग नाम का अत्यन्त बड़ा संकट बढ़ गया है, जिसने इस इन्द्र को भी पराधीन कर दिया है। तात्पर्य यह है कि धातुओं (वात-पित्त-कफ) की विषमता या सामंजस्य बिगड़ जाने के कारण रोग के उत्पन्न हो जाने पर इन्द्र जैसे महान् बलशाली को भी दूसरों का सहारा लेने के लिए विवश होना पड़ता है।

(9)
अथाब्रवीद् राजसुतः स सूतं, नरैश्चतुर्भिर्हियते क एषः ?
दीनैर्मनुष्यैरनुगम्यमानो, यो भूषितोऽश्वास्यवरुध्यते च ॥

शब्दार्थ अथ = इसके बाद। अब्रवीत् = कहा। राजसुतः = राजकुमार (सिद्धार्थ) ने। सः = वह, उस। सूतं = सारथी को। नरैश्चतुर्भिः = चार मनुष्यों के द्वारा। ह्रियते = ले जाया जा रहा है। दीनैः मनुष्यैः = दीन-हीन या दुःखी मनुष्यों के द्वारा। अनुगम्यमानः = अनुगमन किया जाता है। यः = जो भूषितः = फूलमालाओं और चन्दन आदि से सजाया गया। अश्वासी = श्वास-विहीन अवरुध्यते च = और (कफन से) ढका जा रहा है, बाँधा गया

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सिद्धार्थ एक अरथी को ले जाये जाते हुए देखकर उसके विषय में सारथि से पूछते हैं।

अन्वय अथ स: राजसुतः सूतम् अब्रवीत्-(हे सूत!) यः भूषितः अश्वासी अवरुध्यते च। दीनै: मनुष्यैः अनुगम्यमाने एषः कः चतुर्भिः नरैः हियते।

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व्याख्या इसके पश्चात् उस राजकुमार ने सारथि से कहा–हे सारथि! जो चन्दन और फूलमालाओं आदि से सजाया गया, श्वासविहीन और (कफन से) ढका हुआ है, दीन-दु:खी लोगों के द्वारा अनुगमन किया जाता हुआ यह कौन चार आदमियों के द्वारा ले जाया जा रहा है?

(10)
बुद्धीन्द्रियप्राणगुणैर्वियुक्तः, सुप्तो विसञ्जस्तृणकाष्ठभूतः।
सम्बध्य संरक्ष्य च यत्नवद्भिः , प्रियाप्रियैस्त्यज्यते एष कोऽपि ॥

शब्दार्थ बुद्धीन्द्रियप्राणगुणैः = बुद्धि, इन्द्रिय, प्राणों और गुणों से। वियुक्तः = अलग हुआ। सुप्तः = (सदा के लिए) सोया हुआ। विसञ्जः = संज्ञाहीना तृणकाष्ठभूतः = तिनके और लकड़ी के समान हुआ अर्थात् निर्जीव। सम्बध्य = अच्छी तरह बाँधकर। संरक्ष्य = सुरक्षित करके च = और यत्नवद्भिः = प्रयत्न करने वाले, प्रयत्नशीला प्रियाप्रियैः = प्रिय और अप्रिय सबके द्वारा। त्यज्यते = (सदा के लिए) छोड़ा जा रहा है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सारथि मृतक व्यक्ति के विषय में सिद्धार्थ को बता रहा है।

अन्वय बुद्धीन्द्रियप्राणगुणैः वियुक्तः, सुप्तः, विसञ्ज्ञः, तृणकाष्ठभूतः एष कोऽपि यत्नवद्भिः प्रियाप्रियैः सम्बध्य संरक्ष्य च त्यज्यते।

व्याख्या सारथि ने उत्तर दिया कि हे कुमार! बुद्धि, इन्द्रियों, प्राणों और गुणों से बिछुड़ा हुआ महानिन्द्रा (UPBoardSolutions.com) में सोया हुआ, चेतना से शून्य, तृण और काष्ठ के समान निर्जीव, यह कोई (मृत मनुष्य) यत्न करने वाले प्रिय और अप्रिय लोगों के द्वारा अच्छी तरह बाँधकर और भली-भाँति रक्षा करके (सदा के लिए) छोड़ा जा रहा है।

(11)
ततः प्रणेता वदति स्म तस्मै, सर्वप्रजानामयमन्तकर्ता।
हीनस्य मध्यस्य महात्मनो वा, सर्वस्य लोके नियतो विनाशः ॥ (2012, 14]

शब्दार्थ प्रणेता = रथ हाँकने वाला सारथी। वदति स्म = कहा। तस्मै = उससे (सिद्धार्थ से)। सर्वप्रजानाम् = सभी प्रजाओं का; अर्थात् जो जन्मे हैं उन सबका। अयम् = यह; अर्थात् मृत्यु या काल। अन्तकर्ता = अन्त करने वाला। हीनस्य = छोटे स्तर वाले का। मध्यस्य= मध्यम स्तर वाले का। महात्मनः वा = या उत्तम स्तर वाले का। सर्वस्य लोके = संसार में सभी का। नियतः विनाशः = विनाश या मृत्यु निश्चित है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सारथी मृत्यु की अवश्यम्भाविता के विषय में सिद्धार्थ को बता रहा है।

अन्वय ततः प्रणेता तस्मै वदति स्म–अयं सर्वप्रजानाम् अन्तकर्ता (अस्ति)। लोके हीनस्य मध्यस्य महात्मनः वा सर्वस्य विनाशः नियतः (अस्ति)।

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व्याख्या इसके बाद सारथी ने उन सिद्धार्थ से कहा-यह (मृत्यु) सभी प्रजाओं का अन्त करने वाली है। संसार में अधम, मध्यम या उत्तम सभी मनुष्यों की मृत्यु निश्चित है। तात्पर्य यह है कि इस संसार में जन्म लेने वाले सभी व्यक्तियों की मृत्यु सुनिश्चित है, चाहे जन्म लेने वाला व्यक्ति उत्कृष्ट हो या निकृष्ट।

(12)
इति तस्य विपश्यतो यथावज्जगतोव्याधिजराविपत्तिदोषान्।
बलयौवनजीवितप्रवृत्तौ विजगामात्मगतो मदः क्षणेन ॥

शब्दार्थ इति = इस प्रकार। तस्य = उसका (सिद्धार्थ का)। विपश्यतः = विशेष रूप से देखते या समझते हुए। यथावत् = सही ढंग से। जगतः = संसार के व्याधिजराविपत्तिदोषान्= बीमारी, बुढ़ापा, मृत्युरूप दोषों को। बलयौवनजीवितप्रवृत्तौ = बल, यौवन और जीवन की प्रवृत्ति के सम्बन्ध में। विजगाम = लुप्त हो गया। आत्मगतः = अपने अन्दर स्थित। मदः = मद, अहंकार, उल्लास। क्षणेन = क्षण भर में

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सिद्धार्थ के मन में विरक्ति के उत्पन्न होने का वर्णन किया गया है।

अन्वय इति जगतः व्याधिजराविपत्तिदोषान् यथावत् विपश्यतः तस्य बलयौवनजीवितप्रवृत्तौ आत्मगतः मदः क्षणेन विजगाम।

व्याख्या इस प्रकार संसार के रोग, वृद्धावस्था, मृत्युरूप दोषों को सही ढंग से विशेष रूप से समझते हुए उसका (सिद्धार्थ का) शक्ति, यौवन और जीवन की प्रवृत्ति के सम्बन्ध में अपने अन्दर स्थित अहंकार क्षणभर में लुप्त हो गया। तात्पर्य यह है कि सिद्धार्थ उसी क्षण (UPBoardSolutions.com) यह भूल गये कि वे राजकुमार हैं। उन्हें यह अनुभव हो गया कि वे भी एक सामान्य मनुष्य हैं।

(13)
पुरुषैरपरैरदृश्यमानः पुरुषश्चोपससर्प भिक्षुवेषः ।।
नरदेवसुतस्तमभ्यपृच्छद् वद कोऽसीति शशंस सोऽथ तस्मै ॥

शब्दार्थ पुरुषैः अपरैः = दूसरे मनुष्यों के द्वारा। अदृश्यमानः = न दिखाई पड़ने वाला। पुरुषः = मनुष्य। च= और। उपससर्प = पास आया। भिक्षुवेषः = भिक्षुक वेष वाला। नरदेवसु ..= राजकुमार (सिद्धार्थ) ने। तम् = उससे। अभ्यपृच्छत् = पूछा। वद = बताओ। कोऽसीति (कः + असि + इति) = कौन हो, यहा शशंस = कहा। सोऽथ (सः + अथ) = इसके बाद उसने। तस्मै = उससे (सिद्धार्थ से)।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में एक दिव्य पुरुष को देखकर सिद्धार्थ उससे उसके विषय में पूछते हैं।

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अन्वय अपरैः पुरुषैः अदृश्यमानः भिक्षुवेषः पुरुषः च (एनम्) उपससर्प। नरदेवसुतः तम् अभ्यपृच्छत्-(त्वं) कः असि? इति वद। अथ सः तस्मै शशंस।।

व्याख्या दूसरे लोगों से न देखा गया और भिक्षु का वेश धारण करने वाला कोई पुरुष उसके (सिद्धार्थ के) पास आया। राजकुमार सिद्धार्थ ने उससे पूछा-तुम कौन हो? यह बताओ। इसके बाद उसने उनसे कहा। तात्पर्य यह है कि सिद्धार्थ के मन में जब अहंकार दूर हो जाता है तभी दिव्य पुरुष उनको दिखाई पड़ता है, जिसे उनका सारथी नहीं देख पाता।

(14)
नृपपुङ्गव! जन्ममृत्युभीतः, श्रमणः प्रव्रजितोऽस्मि मोक्षहेतोः।
जगति क्षयधर्मके मुमुक्षुर्मुगयेऽहं शिवमक्षयं पदं तत् ॥

शब्दार्थ नृपपुङ्गव = राजाओं में श्रेष्ठ। जन्ममृत्युभीतः = जन्म और मृत्यु से डरा हुआ। श्रमणः = साधु या संन्यासी। प्रव्रजितः अस्मि = सब कुछ छोड़कर घर से निकला हुआ अर्थात् संन्यासी हूँ। मोक्षहेतोः = मोक्ष अर्थात् मुक्ति के लिए। जगति = संसार से। क्षयधर्मके = नष्ट होना ही जिसका धर्म (स्वभाव) है; अर्थात् नश्वर। मुमुक्षुः = मोक्ष की इच्छा वाला। मृगये= ढूंढ़ रहा हूँ। शिवम् अक्षयं पदम् = विनाशरहित मंगलमय स्थान को।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में संन्यासी अपने परिचय और लक्ष्य के विषय में सिद्धार्थ से कह रहा है।

अन्वय नृपपुङ्गव! जन्ममृत्युभीत: (अहं) मोक्षहेतोः श्रमणः प्रव्रजित: अस्मि। क्षयधर्मके (UPBoardSolutions.com) जगति मुमुक्षुः अहं तत् अक्षयं शिवं पदं मृगये।

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व्याख्या हे राजाओं में श्रेष्ठ! जन्म और मृत्यु के दु:ख से डरा हुआ मैं मोक्ष के लिए संन्यासी होकर घर से निकल पड़ा हूँ। विनाशशील अर्थात् नश्वर संसार में मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा करने वाला मैं उस अविनाशी मंगलमय पद की खोज कर रहा हूँ।

(15)
गगनं खगवद् गते च तस्मिन्, नृवरः सञ्जहृषे विसिपिये च।
उपलभ्य ततश्च धर्मसञ्ज्ञामभिनिर्याणविधौ मतिं चकार ॥

शब्दार्थ गगनं = आकाश में। खगवत् = पक्षी की तरह गते = जाने पर। च = और। तस्मिन् = उस (भिक्षु) के नृवरः = मनुष्यों में श्रेष्ठ, सिद्धार्थ। सञ्जहृषे = हर्षित हुआ। विसिष्मिये = विस्मित हुआ; उपलभ्य = प्राप्त करके धर्मसञ्ज्ञाम् = धर्म के ज्ञान को। अभिनिर्याणविधौ = अभिनिष्क्रमण में। मतिं चकार = विचार किया।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सिद्धार्थ के भी संन्यास-ग्रहण करने के विषय में विचार करने के बारे में बताया गया है।

अन्वय तस्मिन् खगवत् गगनं गते नृवरः सञ्जहषे विसिष्मिये च। ततः धर्मसंज्ञां च उपलभ्य अभिनिर्याणविधौ मतिं चकार।

व्याख्या उस (भिक्षु) के पक्षी के समान आकाश में चले जाने पर अर्थात् उड़ जाने पर मनुष्यों में श्रेष्ठ सिद्धार्थ प्रसन्न हुए और आश्चर्यचकित हुए तथा उससे धर्म का बोध प्राप्त करके अभिनिष्क्रमण करने का विचार किया। तात्पर्य यह है कि उस भिक्षु से सही ज्ञान प्राप्त (UPBoardSolutions.com) हो जाने के कारण सिद्धार्थ अत्यधिक हर्षित हुए और घर त्याग कर संन्यास-ग्रहण करने का संकल्प कर लिया।

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सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1)
नाशः स्मृतीनां रिपुरिन्द्रियाणामेषा जरा नाम ययैष भग्नः।
एषा जरा नाम ययैष भग्नः। [2010, 14]

सन्दर्भ यह सूक्तिपरक पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘सिद्धार्थस्य निर्वेदः’ नामक पाठ से अवतरित है।

[संकेत इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में वृद्धावस्था के दोषों पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ यह स्मृतियों को नष्ट करने वाला इन्द्रियों का शत्रु वृद्धावस्था ९, जिससे यह व्यक्ति टूट गया है।

व्याख्या वृद्धावस्था में व्यक्ति की स्मरण-शक्ति क्षीण हो जाती है और ज्यों-ज्यों यह अवस्था बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों वह और भी अधिक क्षीण होती जाती है। इसके अतिरिक्त वृद्धावस्था में व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियाँ भी शिथिल हो जाती हैं और उनकी कार्य करने की शक्ति या तो कम हो जाती है अथवा समाप्त हो जाती है। यही कारण है कि वृद्धावस्था में व्यक्ति कम सुनने लगता है, उसे कम दिखाई देने लगता है और उसकी सोचने की शक्ति भी कम (UPBoardSolutions.com) हो जाती है। इसलिए बुढ़ापे को स्मृतियों (याददाश्त) को नष्ट करने वाला तथा इन्द्रियों का शत्रु कहा गया है, जो कि उचित है।

(2) शक्रोऽपि येनैष कृतोऽस्वतन्त्रः। [2006]

प्रसंग प्रत्येक व्यक्ति कभी-न-कभी बीमार अवश्य होता है, इस सूक्ति में इसी सत्य का उद्घाटन किया गया है।

अर्थ इन्द्र भी इस (रोग) के द्वारा स्वतन्त्र नहीं किये गये; अर्थात् उन्हें भी इस रोग ने नहीं छोड़ा।

व्याख्या सिद्धार्थ का सारथी उन्हें रोग के विषय में बता रहा है कि रोग एक ऐसी व्याधि है, जिससे कोई भी प्राणी बच नहीं पाता है। अपने सम्पूर्ण जीवन में प्रत्येक प्राणी कभी-न-कभी बीमार अवश्य पड़ता है। मनुष्यों की तो बात ही क्या, इस रोग ने तो इन्द्र को भी नहीं छोड़ा था। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि बढ़ा हुआ रोग जब व्यक्ति को पूर्णरूपेण असमर्थ बना देता है तब इन्द्र भी चाहने पर उसकी रक्षा नहीं कर सकते। तात्पर्य यह है कि रोग के द्वारा पूरी तरह से पराधीन किया गया मनुष्य इन्द्र द्वारा भी स्वाधीन नहीं किया जा सकता।

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(3) सर्वस्य लोके नियतो विनाशः।। [2006, 08, 09, 10, 11, 13]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति के माध्यम से कवि संसार के शाश्वत नियमों को स्पष्ट कर रहा है।

अर्थ संसार में सबका विनाश निश्चित है।

व्याख्या संसार में जो भी जड़-चेतन पदार्थ हैं, उनमें से कोई भी चिरस्थायी नहीं है। संसार में जो भी वस्तु उत्पन्न होती है, वह अवश्य ही नष्ट होती है। विनाश से कोई भी वस्तु बच नहीं सकती, चाहे वह प्राणियों का शरीर हो या वृक्ष, पर्वत आदि अन्य कुछ। इस संसार में ऐसा कुछ (UPBoardSolutions.com) भी नहीं है, जो उत्पन्न तो हुआ हो लेकिन उसका विनाश न हुआ हो। श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है “जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः धुवं जन्ममृतस्य च।”

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) ततः कुमारो ……………………………………………… निष्कम्प-निविष्ट-दृष्टिः ॥ (श्लोक 1) :
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकविः अश्वघोषः कथयति यत् वृद्धावस्थापीडितं भिन्नाकृति: पुरुषं दृष्ट्वा आगतास्थः कुमार सिद्धार्थः अपलकदृष्ट्या पश्यन् तं वृद्धं स्वसारथिम् अब्रवीत्।।

(2) क एष भोः ………………………………………………प्रकृतिर्यदृच्छा ॥ (श्लोक 2)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके सिद्धार्थः अवदत्-भोः सूत! मत्समक्षम् उपस्थितः श्वेतकेश-युक्तः, यष्टिविषक्तहस्तः, दीर्घभूसंवृताक्षः, शिथिलाङ्गः पुरुषः कः अस्ति? कथमस्य एषा दशा उत्पन्ना? अस्य एषा दशा स्वाभाविकी अथवा संयोगेन सजातः।

(3) रूपस्य हर्जी ……………………………………………… ययैष भग्नः ॥ (श्लोक 3) [2006]
संस्कृतार्थः सिद्धार्थस्य वचनं श्रुत्वा सारथिः प्रत्यवदत्-कुमार! अस्य पुरुषस्य वृद्धावस्था वर्तते। एषां वृद्धावस्था रूपस्य हरणकर्जी, बलस्य विनाशिनी, शोकस्य कारणं, कामानां निधनं, स्मृतीनां नाशः, इन्द्रियाणां शत्रुः चास्ति। वृद्धावस्था सर्वेषां कष्टानां कारणम् अस्ति।

(4) ततोऽब्रवीत् ……………………………………………… कृतोऽस्वतन्त्रः॥ (श्लोक 8)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकविः अश्वघोषः कथयति यत् कुमार सिद्धार्थस्य वचनं श्रुत्वा सारथिः अब्रवीत्-हे सौम्य! अस्य पुरुषस्य धातवः क्षीणः विकृतः अभवन्। रोगस्य वर्धनात् अयं पुरुषः असमर्थः अभवत्। अतएव इन्द्रः अपि तं रक्षितुं न समर्थः।।

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(5) ततः प्रणेता ……………………………………………… नियतो विनाशः ॥ (श्लोक 11) [2007, 08]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके सारथिः कथयति-भो राजकुमार! कालः सर्वेषाम् उत्पन्नानाम् अन्तकर्ता (UPBoardSolutions.com) अस्ति। अस्मिन् लोके उत्तम-मध्यम-हीन जनानां सर्वेषां विनाः नियतो वर्तते। य: उत्पन्न: भवति सः अवश्यमेव विनश्यति। न कः अपि सर्वदा एव तिष्ठति।।

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Class 10 Sanskrit Chapter 5 UP Board Solutions विश्वकविः रवीन्द्रः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 5 Vishwakavi Ravindra Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 5 हिंदी अनुवाद विश्वकविः रवीन्द्रः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मातृभाषा बांग्ला थी। ये अनेक वर्षों तक इंग्लैण्ड में रहे थे। इसलिए इन पर वहाँ की भाषा तथा संस्कृति का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा था। इन्होंने बांग्ला और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में साहित्य-रचना की है। ये नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रथम भारतीय थे। इनकी रचना ‘गीताञ्जलि’ पर इनको यह पुरस्कार प्राप्त हुआ था। ‘गीजाञ्जलि’ के पश्चात् इनकी दूसरी कृति या निर्माण ‘विश्वभारती है। इसमें प्राचीन भारतीय पद्धति (UPBoardSolutions.com) अर्थात् आश्रम पद्धति से शिक्षा दी जाती है। इन्होंने भारतीय और पाश्चात्य संगीत का समन्वय करके संगीत की एक नवीन शैली को जन्म दिया, जिसे ‘रवीन्द्र संगीत’ कहा जाता है। प्रस्तुत पाठ में रवीन्द्रनाथ जी के जीवन-परिचय के साथ-साथ इनकी साहित्यिक एवं सामाजिक उपलब्धियों पर भी प्रकाश डाला गया है।

पाठ-सारांश [2006, 07,08, 11, 12, 13, 15]

प्रसिद्ध महाकवि श्री रवीन्द्रनाथ का बांग्ला साहित्य में वही स्थान है जो अंग्रेजी-साहित्य में शेक्सपीयर का, संस्कृत-साहित्य में कविकुलगुरु कालिदास का और हिन्दी-साहित्य में तुलसीदास का। इनका नाम आधुनिक भारतीय कलाकारों में भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। ये केवल आध्यात्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में ही नहीं, वरन् रचनात्मक साहित्यकार के रूप में भी जाने जाते हैं।

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इन्होंने सांस्कृतिक क्षेत्र में संगीत और नृत्य की नवीन रवीन्द्र-संगीत-शैली प्रारम्भ की। शिक्षाविद् के रूप में इनके नवीन प्रयोगात्मक विचारों को प्रतीक ‘विश्वभारती है, जिसमें आश्रम शैली का नवीन शैली के साथ समन्वय है। ये दीन और दलित वर्ग की हीन दशा के महान् सुधारक थे।

वैभव में जन्म रवीन्द्रनाथ का जन्म कलकत्ती नगर में 7 मई, सन् 1861 ईस्वी को एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री देवेन्द्रनाथ एवं माता का नाम श्रीमती शारदा देवी था। इनके पास विपुल अचल सम्पत्ति थी। इनका प्रारम्भिक जीवन नौकर-चाकरों की देख-रेख में बीता। खेल और स्वच्छन्द विहार का समय न मिलने से इनका मन उदास रहता था।

प्रकृति-प्रेम इनके भवन के पीछे एक सुन्दर सरोवर था। उसके दक्षिणी किनारे पर नारियल के पेड़ और पूर्वी तट पर एक बड़ा वट वृक्ष था। रवीन्द्र अपने भवन की खिड़की में बैठकर इस दृश्य को देखकर प्रसन्न होते थे। वे सरोवर में स्नान करने के लिए आने वालों की चेष्टाओं और वेशभूषा को देखते रहते थे। शाम के समय सरोवर के किनारे बैठे बगुलों, हंसों और जलमुर्गों के स्वर को बड़े प्रेम से सुनते थे।

शिक्षा रवीन्द्र की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। इन्होंने घर पर ही बांग्ला के साथ गणित, विज्ञान और संस्कृत का अध्ययन किया। इसके बाद इन्होंने कलकत्ता के ‘ओरियण्टले सेमिनार स्कूल’ और ‘नॉर्मल स्कूल में प्रवेश लिया, लेकिन वहाँ अध्यापकों के स्वेच्छाचरण और सहपाठियों की हीन मनोवृत्तियों तथा अप्रिय स्वभाव को देखकर इनका मन वहाँ नहीं लगा। सन् 1873 ई० में पिता देवेन्द्रनाथ इन्हें अपने साथ हिमालय पर ले गये। वहाँ हिमाच्छादित पर्वत-श्रेणियों और सामने (UPBoardSolutions.com) हरे-भरे खेतों को देखकर इनका मन प्रसन्न हो गया। पिता देवेन्द्रनाथ इन्हें प्रतिदिन नवीन शैली में पढ़ाते थे। कुछ समय बाद हिमालय से लौटकर इन्होंने विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की।

सत्रह वर्ष की आयु में रवीन्द्र अपने भाई सत्येन्द्रनाथ के साथ कानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिए लन्दन गये, परन्तु वहाँ वे बैरिस्टर की उपाधि न प्राप्त कर सके और दो वर्ष बाद ही कलकत्ता लौट आये।

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साहित्यिक प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ में साहित्य-रचना की स्वाभाविक प्रतिभा थी। उनके परिवार में घर पर प्रतिदिन गोष्ठियाँ, चित्रकला की प्रदर्शनी, नाटक-अभिनय और देश-सेवा के कार्य होते रहते थे। इन्होंने अनेक कथाएँ और निबन्ध लिखकर उनको ‘भारती’, ‘साधना’, ‘तत्त्वबोधिनी’ आदि पारिवारिक पत्रिकाओं में प्रकाशित कराया।

रचनाएँ इन्होंने शैशव संगीत, प्रभात संगीत, सान्ध्य संगीत, नाटकों में रुद्रचण्ड, वाल्मीकि प्रतिभा (गीतिनाट्य), विसर्जन, राजर्षि, चोखेरबाली, चित्रांगदा, कौड़ी ओकमल, गीताञ्जलि आदि अनेक रचनाएँ लिखीं। इनकी प्रतिभा कथा, कविता, नाटक, उपन्यास, निबन्ध आदि में समान रूप से उत्कृष्ट थी। गीताञ्जलि पर इन्हें साहित्य का ‘नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

महात्मा गाँधी जी के प्रेरक गुरु सन् 1932 ई० में गाँधी जी पूना की जेल में थे। अंग्रेजों की हिन्दू-जाति के विभाजन की नीति के विरुद्ध वे जेल में ही आमरण अनशन करना चाहते थे। उन्होंने इसके लिए रवीन्द्र जी से ही अनुमति माँगी और उनको समर्थन प्राप्त करके आमरण अनशन किया। रवीन्द्रनाथ (UPBoardSolutions.com) का जीवन उनके काव्य के समान मनोहारी और लोक-कल्याणकारी था। उनकी मृत्यु 7 अगस्त, 1941 ई० को हो गयी थी, लेकिन उनकी वाणी आज भी काव्य रूप में प्रवाहित है।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
आङ्ग्लवाङ्मये काव्यधनः शेक्सपियर इव, संस्कृतसाहित्ये कविकुलगुरुः कालिदास इव, हिन्दीसाहित्ये महाकवि तुलसीदास इव, बङ्गसाहित्ये कवीन्द्रो रवीन्द्रः केनाविदितः स्यात्। आधुनिक भारतीयशिल्पिषु रवीन्द्रस्य स्थानं महत्त्वपूर्णमास्ते इति सर्वैः ज्ञायत एव। तस्य बहूनि योगदानानि पार्थक्येन वैशिष्ट्यं लभन्ते। न केवलमाध्यात्मिकसांस्कृतिकक्षेत्रेषु तस्य योगदान महत्त्वपूर्णमपितु रचनात्मकसाहित्यकारतयापि तस्य नाम लोकेषु सुविदितमेव सर्वैः।।

शब्दार्थ वाङ्मये = साहित्य में। काव्यधनः = काव्य के धनी। कवीन्द्रः = कवियों में श्रेष्ठ। केनाविदितः = किसके द्वारा विदित नहीं हैं, अर्थात् सभी जानते हैं। आस्ते = है। पार्थक्येन = अलग से। लोकेषु = लोकों में। सुविदितमेव = भली प्रकार ज्ञात है।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘विश्वकविः रवीन्द्रः’ शीर्षक पाठ से उधृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कवीन्द्र रवीन्द्र के महत्त्वपूर्ण योगदानों का उल्लेख किया गया है।

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अनुवाद अंग्रेजी-साहित्य में काव्य के धनी शेक्सपियर के समान, संस्कृत-साहित्य में कविकुलगुरु कालिदास के समान, हिन्दी-साहित्य में महाकवि तुलसीदास के समान बांग्ला-साहित्य में कवीन्द्र रवीन्द्र किससे अपरिचित हैं अर्थात् सभी लोगों ने उनका नाम सुना है। आधुनिक (UPBoardSolutions.com) भारतीय कलाकारों में रवीन्द्र का स्थान महत्त्वपूर्ण है, यह सभी जानते हैं। उनके बहुत-से योगदान अलग से विशेषता प्राप्त करते हैं। केवल आध्यात्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में ही उनका योगदान महत्त्वपूर्ण नहीं है, अपितु रचनात्मक साहित्यकार के रूप में भी उनका नाम संसार में सबको विदित ही है।

(2)
सांस्कृतिकक्षेत्रे सङ्गीतविधासु नृत्यविधासु च सः नूतनां शैली प्राकटयत्। सा शैली ‘रवीन्द्र सङ्गीत’ नाम्ना ख्यातिं लभते। एवं नृत्यविधासु परम्परागतशैलीमनुसरताऽनेन शिल्पिना नवीना नृत्यशैली आविष्कृता। अन्यक्षेत्रेष्वपि शिक्षाविद्रूपेण तेन नवीनानां विचाराणां सूत्रपातो विहितः। तेषां प्रयोगात्मकविचाराणां पुजीभूतः निरुपमः प्रासादः ‘विश्वभारती’ रूपेण सुसज्जितशिरस्कः राजते। यत्र आश्रमशैल्याः नवीनशैल्या साकं समन्वयो वर्तते। दीनानां दलितवर्गाणां दशासमुद्धर्तृरूपेणाऽसौ अस्माकं भारतीयानां पुरः प्रस्तुतोऽभवत्।

शब्दार्थ सांस्कृतिकक्षेत्रे = संस्कृति से सम्बद्ध क्षेत्र में विधासु = विधाओं में, प्रकारों में। प्राकटयत् = प्रकट की। ख्याति = प्रसिद्धि को। अनुसरता = अनुसरण करते हुए। आविष्कृता = खोज की। शिक्षाविद्रूपेण = शिक्षाशास्त्र के ज्ञाता के रूप में। पुञ्जीभूतः = एकत्र, समूह बना हुआ। प्रासादः = महला सुसज्जितशिरस्कः = भली-भाँति सजे हुए सिर वाला। साकं = हाथा समन्वयः = ताल-मेल। समुद्धर्तृरूपेण असौ = उद्धार करने वाले के रूप में यह पुरः = सामने।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश-द्वय में रवीन्द्र जी के सांस्कृतिक और शिक्षा के क्षेत्र में योगदान का उल्लेख किया गया है।

अनुवाद सांस्कृतिक क्षेत्र में संगीत-विधा और नृत्य-विधाओं में उन्होंने नवीन शैली प्रकट की। वह शैली ‘रवीन्द्र-संगीत’ के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है। इस प्रकार नृत्य-विधाओं में परम्परागत शैली का अनुसरण करते हुए इस कलाकार ने नवीन नृत्य शैली का आविष्कार किया। दूसरे क्षेत्रों में भी शिक्षाविद् के रूप में नवीन विचारों का सूत्रपात किया। उनके प्रयोगात्मक विचारों का एकत्रीभूत स्वरूप अनुपम भवन ‘विश्वभारती के रूप में सजे हुए सिर वाला होकर सुशोभित है, जहाँ पर आश्रम शैली का नवीन शैली के साथ समन्वय है। दीनों और दलित वर्गों की दशा के सुधारक के रूप में वे हम भारतीयों के सामने प्रस्तुत थे।

(3)
रवीन्द्रनाथस्य जन्म कलिकातानगरे एकषष्ट्यधिकाष्टादशशततमे खीष्टाब्दे मईमासस्य सप्तमे दिवसे (7 मई, 1861) अभवत्। अस्य जनकः देवेन्द्रनाथः, जननी शारदा देवी चास्ताम्। रवीन्द्रस्य जन्म एकस्मिन् सम्भ्रान्ते समृद्धे ब्राह्मणकुले जातम्। यस्य सविधे अचला विशाला सम्पत्तिरासीत्। अतो भृत्यबहुलं भृत्यैः परिपुष्टं संरक्षितं जीवनं बन्धनपूर्णमन्वभवत्। अतः स्वच्छन्दविचरणाय, क्रीडनाय सुलभोऽवकाशः नासीत्तेन मनः खिन्नमेवास्त।

रवीन्द्रनाथस्य जन्म ………………………………………………….. बन्धनपूर्णमन्वभवत्।।

शब्दार्थ एकषष्ट्यधिकोष्टादशशततमे = अठारह सौ इकसठ में। ख्रीष्टाब्दे = ईस्वी में। आस्ताम् = थे। सम्भ्रान्ते = सम्भ्रान्त। धनिके = धनी। सविधे = पास में। अचला = जो न चल सके। भृत्यबहुलं = नौकरों की अधिकता वाले। परिपुष्टं = सभी प्रकार से पुष्ट हुए। (UPBoardSolutions.com) बन्धनपूर्णमन्वभवत् = बन्धनपूर्ण अनुभव हुआ। नासीत्तेन = नहीं था, इस कारण से। खिन्नमेवास्त = दुःखी ही था।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्र के वैभवसम्पन्न प्रारम्भिक जीवन का वर्णन किया गया है।

अनुवाद रवीन्द्रनाथ का जन्म कलकत्ता नगर में सन् 1861 ईस्वी में मई मास की 7 तारीख को हुआ था। इनके पिता देवेन्द्रनाथ और माता शारदा देवी थीं। रवीन्द्र का जन्म एक सम्भ्रान्त और समृद्ध ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पास विशाल अचल सम्पत्ति थी; अतः उन्होंने नौकरों की अधिकता से पूर्ण, सेवकों से पुष्टे किये गये, देखभाल किये गये जीवन को बन्धनपूर्ण अनुभव किया। इसलिए स्वच्छन्द विचरण के लिए, खेलने के लिए उनके पास इच्छित समय नहीं था, इस कारण से उनका मन दुःखी रहता था। (4) वैभवशालिभवनस्य पृष्ठभागे एकं कमनीयं सरः आसीत्। यस्य दक्षिणतटे नारिकेलतरूणां पङ्क्ति राजते स्म। पूर्वस्मिन् तटे जटिलस्तपस्वी इव महान् जीर्णः पुरातनः एकः वटवृक्षोऽनेकशाखासम्पन्नोऽन्तरिक्षं परिमातुमिव समुद्यतः आसीत्।। भवनस्य वातायने समुपविष्टः बालकः दृश्यमिदं दशैं दशैं परां मुदमलभत। अस्मिन्नेव सरसि तत्रत्याः निवासिनः यथासमयं स्नातुमागत्य स्नानञ्च कृत्वा यान्ति स्म। तेषां परिधानानि विविधाः क्रियाश्च दृष्ट्वा बालः किञ्चित्कालं प्रसन्नः अजायत। मध्याह्वात् पश्चात् सरोवरेः शून्यतां भजति स्म। सायं पुनः बकाः हंसाः जलकृकवाकवः विहंगाः कोलहलं कुर्वाणाः स्थानानि लभन्ते स्म। तस्मिन् काले इदमेव कम्न सरः बालकस्य मनोरञ्जनमकरोत् । [2015]

वैभवशालिभवनस्य ………………………………………………….. समुद्यतः आसीत् ।।
भवनस्य वातायने ………………………………………………….. शून्यतां भजति स्म
भवनस्य वातायने ………………………………………………….. मनोरञ्जनमकरोत् । [2012]

शब्दार्थ वैभवशालिभवनस्य = ऐश्वर्य सामग्री से परिपूर्ण भवन के पृष्ठभागे = पिछले भाग में। कमनीयम् = सुन्दर। राजते स्म = सुशोभित थी। जटिलस्तपस्वी = जटाधारी तपस्वी। जीर्णः = पुराना। वटवृक्षः = बरगद का पेड़। परिमातुम् = मापने के लिए। समुद्यतः = तत्पर। वातायने = खिड़की में। समुपविष्टः = बैठा हुआ। परां मुदम् = अत्यन्त प्रसन्नता को। स्नातुं आगत्य = नहाने के लिए आकर। कृत्वा = करके। परिधानानि = वस्त्र। दृष्ट्वा = देखकर। शून्यतां भजति स्म = सूना हो जाता था। जलकृकवाकवः = जल के मुर्गे। कम्रम् =सुन्दर।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्र के प्रकृति-प्रेम का मनोहारी वर्णन किया गया है।

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अनुवाद वैभवपूर्ण भवन के पिछले भाग में एक सुन्दर तालाब था। जिसके दक्षिण किनारे पर नारियल के वृक्षों की पंक्ति सुशोभित थी। पूर्वी किनारे पर जटाधारी तपस्वी के समान बड़ा, बहुत पुराना एक वट का वृक्ष था। अनेक शाखाओं से सम्पन्न वह (वृक्ष) मानो आकाश को मापने के लिए तैयार था। भवन की खिड़की में बैठा हुआ बालक (रवीन्द्र) इस दृश्य को देख-देखकर अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त करता था। इसी सरोवर में वहाँ के निवासी समयानुसार स्नान के लिए आते और स्नान करके जाते थे। उनके वस्त्रों और विविध क्रियाओं को देखकर बालक कुछ समय के लिए प्रसन्न हो जाता था। दोपहर के बाद सरोवर निर्जन (जन-शून्य) हो जाता था। शाम को फिर बगुले, हंस, जलमुर्गे, पक्षी कोलाहल करते हुए (अपना-अपना) स्थान प्राप्त कर लेते थे। उस समय यही सुन्दर सरोवर बालक (रवीन्द्र) का मनोरंजन करता था।

(5)
शिक्षा-रवीन्द्रस्य प्राथमिकी शिक्षा गृहे एव जाता। शिक्षणं बङ्गभाषायं प्रारभत। प्रारम्भिकं विज्ञानं, संस्कृतं, गणितमिति त्रयो पाठ्यविषयाः अभूवन्। प्रारम्भिकगृहशिक्षायां समाप्तायां बालकः उत्तरकलिकातानगरस्य ओरियण्टल सेमिनार विद्यालये प्रवेशमलभत्। तदनन्तरं नार्मलविद्यालयं गतवान् परं कुत्रापि मनो न रमते स्म। सर्वत्र अध्यापकानां स्वेच्छाचरणं सहपाठिनां तुच्छारुचीः अप्रियान् स्वभावांश्च विलोक्य मनो न रेमे। अतः शून्यायां घटिकायां मध्यावकाशेऽपि च ऐकान्तिकं जीवनं बालकाय रोचते स्म। बालकस्य मनः विद्यालयेषु न रमते इति विचिन्त्य जनको देवेन्द्रनाथः त्रिसप्तत्यधिकाष्टादशशततमे खीष्टाब्दे (1873) सूनोरुपनयनसंस्कारं विधाय तं स्वेन सार्धमेव हिमालयमनयत्। तत्र पितुः सम्पर्केण बालकस्य मनः स्वच्छतामभजत्। तत्रत्यस्य भवनस्य पृष्ठभागे हिमाच्छादिताः पर्वतश्रेणयः आसन्। भवनाभिमुखं शोभनानि (UPBoardSolutions.com) सुशाद्वलानि क्षेत्राणि राजन्ते स्म। अत्रत्यं प्राकृतिकं जीवनं बालकस्य मनो नितरामरमयत्। जनको देवेन्द्रनाथः प्रतिदिवसं नवीनया पद्धत्या पाठयति स्म। पितुः पाठनशैली बालकाय रोचते स्म। कालान्तरं हिमालयात् प्रतिनिवृत्य पुनः विद्यालयीयां शिक्षा लेभे।

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प्रारम्भिक गृहशिक्षायां ………………………………………………….. रोचते स्म। [2006]

शब्दार्थ प्रारभत = प्रारम्भ हुआ। प्रवेशमलेभत्=प्रवेश प्राप्त किया। कुत्रापि= कहीं भी। नरमते स्म = नहीं लगता था। स्वेच्छाचरणं = अपनी इच्छा के अनुकूल (स्वतन्त्र) आचरण। तुच्छारुचीः = खराब आदतें। रेमे =रमा, लगा। शून्यायां घटिकायां = खाली घेण्टे में। ऐकान्तिकं = एकान्त से सम्बन्धित। त्रिसप्तत्यधिकाष्टादशशततमे = अठारह सौ तिहत्तर में। सूनोरुपनयनसंस्कारं (सूनोः + उपनयन संस्कारं)= पुत्र का यज्ञोपवीत संस्कार। विधाय= करके। स्वेन सार्धम्=अपने साथ। तत्रत्यस्य= वहाँ के। सुशाद्वलानि=सुन्दर घास से युक्त। राजन्ते स्म = सुशोभित थे। नितराम् = अत्यधिक। अरमयत् = रम गया। प्रतिनिवृत्य = वापस लौटकर। लेभे = प्राप्त किया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में बालक रवीन्द्र का पढ़ने में मन न लगने एवं पिता के साथ हिमालय पर जाकर पढ़ने का वर्णन है।

अनुवाद रवीन्द्र की प्राथमिक शिक्षा घर पर ही हुई। पढ़ाई बांग्ला भाषा में प्रारम्भ हुई। प्रारम्भ में विज्ञान, संस्कृत और गणित ये तीन पाठ्य-विषय थे। प्रारम्भिक गृह-शिक्षा समाप्त होने पर बालक ने उत्तरी कलकत्ता नगर के ‘ओरियण्टल सेमिनार स्कूल में प्रवेश लिया। इसके बाद नॉर्मल विद्यालय में गया, परन्तु कहीं भी (उसका) मन नहीं लगता था। सब जगह अध्यापकों के स्वेच्छाचरण, सहपाठियों की तुच्छ इच्छाओं और बुरे स्वभावों को देखकर (इनका) मन नहीं लगा। इसलिए खाली घण्टे और मध्य अवकाश में भी बालक को एकान्त का जीवन अच्छा लगता था। बालक का मन विद्यालयों में नहीं लगता है-ऐसा सोचकर पिता देवेन्द्रनाथ सन् 1873 ईस्वी में पुत्र का उपनयन संस्कार कराके उसे अपने साथ ही हिमालय पर ले गये। वहाँ पिता के सम्पर्क से बालक का मन स्वस्थ हो गया। वहाँ के भवन के पिछले भाग में बर्फ से ढकी पर्वत-श्रेणियाँ थीं। भवन के सामने सुन्दर हरी घास से युक्त खेत सुशोभित थे। यहाँ के प्राकृतिक जीवन ने बालक के मन को बहुत प्रसन्न कर दिया। पिता देवेन्द्रनाथ प्रतिदिन नवीन पद्धति द्वारा पढ़ाते थे। पिता की पाठन-शैली बालक को अच्छी लगती थी। कुछ समय पश्चात् हिमालय से लौटकर पुन: विद्यालयीय शिक्षा प्राप्त की।

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(6)
सप्तदशवर्षदेशीयो रवीन्द्रनाथः अष्टसप्तत्यधिकाष्टादशशततमे ख्रीष्टाब्दे सितम्बरमासे भ्रात्रा न्यायाधीशेन सत्येन्द्रनाथेन सार्धं विधिशास्त्रमध्येतुं लन्दननगरं गतवान्। दैवयोगाद् रवीन्द्रस्य बैरिस्टरपदवी पूर्णतां नागात्। सः पितुराज्ञया भ्रात्रा सत्येन्द्रनाथेन साकम् अशीत्यधिकाष्टादशशततमे (UPBoardSolutions.com) खीष्टाब्दे (1880) फरवरीमासे लन्दननगरात् कलिकातानगरमायातः। इङ्ग्लैण्डदेशस्य वर्षद्वयावासे पाश्चात्यसङ्गीतस्य सम्यक् परिचयस्तेन लब्धः।

शब्दार्थ सप्तदशवर्षदेशीयो = सत्रह वर्षीय। अष्टसप्तत्यधिकोष्टादशशततमे = अठारह सौ अठहत्तर में। विधिशास्त्रम् = न्याय-शास्त्र, कानून शास्त्र। अध्येतुम् = पढ़ने के लिए। पूर्णतां नागात् = पूर्णता को प्राप्त नहीं हुई। सम्यक् = अच्छी तरह।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्रनाथ द्वारा लन्दन जाने और वकालत की शिक्षा प्राप्त न करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद सत्रह वर्ष की अवस्था में रवीन्द्रनाथ सन् 1878 ईस्वी में सितम्बर महीने में भाई न्यायाधीश सत्येन्द्रनाथ के साथ न्याय-शास्त्र (वकालत) पढ़ने के लिए लन्दन नगर गये। दैवयोग से रवीन्द्र की बैरिस्टर की उपाधि पूर्ण नहीं हुई। वे पिता की आज्ञा से भाई सत्येन्द्रनाथ के साथ सन् 1880 ईस्वी में फरवरी के महीने में लन्दन नगर से कलकत्ता नगर आ गये। इंग्लैण्ड देश के दो वर्ष के निवास में उन्होंने पाश्चात्य संगीत का अच्छी तरह ज्ञान प्राप्त कर लिया।

(7)
साहित्यिक प्रतिभायाः विकासः-रवीन्द्रस्य साहित्यिकरचनायां नैसर्गिकी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा तु प्रधानकारणमासीदेव। परं तत्रत्या पारिवारिकपरिस्थितिरपि विशिष्टं कारणमभूत्। यथा—गृहे। प्रतिदिनं साहित्यिकं वातावरणं, कलासाधनायाः गतिविधयः, नाटकानां मञ्चनानि, सङ्गीतगोष्ठ्यः, चित्रकलानां प्रदर्शनानि, देशसेवाकर्माणि सदैव भवन्ति स्म। किशोरावस्थायामेव रवीन्द्रः अनेकाः कथाः निबन्धाश्च लिखित्वा पारिवारिकपत्रिकासु भारती-साधना-तत्त्वबोधिनीषु मुद्रयति स्म। [2013]

शब्दार्थ नैसर्गिकी = स्वाभाविक नवनवोन्मेषशालिनी = नये-नये विकास वाली प्रतिभा = रचनाबुद्धि। कलासाधनायाः = कला-साधना की। गोष्ठ्यः = गोष्ठियाँ। मुद्रयति स्म = छपवाते थे।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्रनाथ की साहित्यिक रुचि एवं रचनात्मक प्रवृत्ति का वर्णन किया गया है।

अनुवाद रवीन्द्र की साहित्यिक रचना में स्वाभाविक नये-नये विकास वाली प्रतिभा तो प्रधान कारण थी ही, परन्तु वहाँ की पारिवारिक परिस्थिति भी विशेष कारण थी; जैसे—घर में प्रतिदिन साहित्यिक वातावरण, कला–साधना की गतिविधियाँ, नाटकों का अभिनय, संगीत-गोष्ठियाँ, (UPBoardSolutions.com) चित्रकलाओं का प्रदर्शन, देश-सेवा के कार्य सदा होते थे। किशोर अवस्था में ही रवीन्द्र अनेक कथाओं और निबन्धों को लिखकर पारिवारिक पत्रिकाओं ‘भारती’, ‘साधना’, ‘तत्त्वबोधिनी’ में छपवाते थे।

(8)
तेन च शैशवसङ्गीतम्, सान्ध्यसङ्गीतम्, प्रभातसङ्गीतम्, नाटकेषु रुद्रचण्डम्, वाल्मीकि-प्रतिभा गीतिनाट्यम्, विसर्जनम्, राजर्षिः, चोखेरबाली, चित्राङ्गदा, कौडी ओकमल, गीताञ्जलिः इत्यादयो बहवः ग्रन्थाः विरचिताः। गीताञ्जलिः वैदेशिकैः नोबलपुरस्कारेण पुरस्कृतश्च। एवं बहूनि प्रशस्तानि पुस्तकानि बङ्गसाहित्याय प्रदत्तानि। कवीन्द्ररवीन्द्रस्य प्रतिभा कथासु, कवितासु, नाटकेषु, उपन्यासेषु, निबन्धेषु समानरूपेण उत्कृष्टा दृश्यते। सत्यमेव गीताञ्जलिः चित्राङ्गदा च कलादृष्ट्या महाकवेरुभेऽपि रचने वैशिष्ट्यमावहतः।।

शब्दार्थ विरचिताः = लिखे। पुरस्कृतः = पुरस्कृत, पुरस्कार प्राप्त, सम्मानित किया। प्रशस्तानि = प्रशंसनीय। प्रदत्तानि = दिये। उत्कृष्टा = श्रेष्ठ, उन्नत उभेऽपि = दोनों ही। वैशिष्ट्यमावहतः = विशेषता धारण करते हैं।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्रनाथ की साहित्यिक कृतियों का विवरण दिया गया है।

अनुवाद उन्होंने (रवीन्द्रनाथ ने) शैशव संगीत, सान्ध्य संगीत, प्रभात संगीत, नाटकों में रुद्रचण्ड, वाल्मीकि-प्रतिभा (गीतिनाट्य), विसर्जन, राजर्षि, चोखेरबाली, चित्रांगदा, कौड़ी ओकमल, गीताञ्जलि इत्यादि बहुत-से ग्रन्थों की रचना की। गीताञ्जलि को विदेशियों ने नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत किया है। इस प्रकार बहुत-सी सुन्दर पुस्तकें उन्होंने बांग्ला-साहित्य को प्रदान कीं। कवीन्द्र रवीन्द्र की प्रतिभा कथाओं में, कविताओं में, नाटकों में, उपन्यासों और निबन्धों में समान रूप से उत्कृष्ट दिखाई देती है। वास्तव में महाकवि की दोनों ही रचनाएँ गीताञ्जलि और चित्रांगदा कला की दृष्टि से विशिष्टता को धारण करती हैं।

(9)
द्वात्रिंशदधिकैकोनविंशे शततमे खीष्टाब्दे महात्मागान्धी पुणे कारागारेऽवरुद्धः आसीत्। ब्रिटिशशासकाः अनुसूचितजातीयानां सवर्णहिन्दूजातीयेभ्यः पृथक् निर्वाचनाय प्रयत्नशीलाः आसन्।

यस्य स्पष्टमुद्देश्यं हिन्दूजातीयानां परस्परं विभाजनमासीत्। बहुविरोधे कृतेऽपि ब्रिटिशशासकाः शान्ति ने लेभिरे विभाजयितुं च प्रयतमाना एवासन्। तदा महात्मागान्धी हिन्दूजातिवैक्यं स्थापयितुं कारागारे आमरणम् अनशनं प्रारभत। गुरुदेवस्य रवीन्द्रनाथस्य चानुमोदनमैच्छत्। यतश्च महात्मागान्धी गुरुदेवस्य रवीन्द्रस्य केवलमादरमेव नाकरोत्, अपि तु यथाकालं समीचीनसम्मत्यै मुखमपि ईक्षते स्म। महात्मा एनं कवीन्द्र रवीन्द्र गुरुममन्यता रवीन्द्रनाथः तन्त्रीपत्रे ‘भारतस्य एकतायै सामाजिकाखण्डतायै च अमूल्य-जीवनस्य बलिदानं सर्वथा समीचीनं, परं जनाः दारुणायाः विपत्तेः गान्धिनः जीवनमभिरक्षेयुः इति लिखित्वा प्रत्युदतरत्। रवीन्द्रः आमरणस्य अनशनस्य समर्थनमेव न कृतवानपि तु प्रायोपवेशने प्रारब्धे पुणे कारागारञ्चागतवान्।

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शब्दार्थ द्वात्रिंशदधिकैकोनविंशे शततमे = उन्नीस सौ बत्तीस में अवरुद्धः = बन्दा स्पष्टमुद्देश्यं = स्पष्ट उद्देश्य। लेभिरे = प्राप्त कर रहे थे। समीचीनम् = उचित| मुखमपि ईक्षते स्म = मुख की ओर देखते थे, अपेक्षा करते थे। तन्त्रीपत्रे = तार (टेलीग्राम) में। अभिरक्षेयुः = रक्षा करें। प्रत्युदतरत् = उत्तर दिया। प्रायोपवेशने = अनशन के समय।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में महात्मा गाँधी द्वारा कवीन्द्र रवीन्द्र को गुरु मानने एवं उनसे सम्मति लेने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद सन् 1932 ईस्वी में महात्मा गाँधी पुणे में जेल में बन्द थे। ब्रिटिश शासक अनुसूचित जाति वालों का सवर्ण हिन्दू जाति वालों से अलग निर्वाचन कराने के लिए प्रयत्न में लगे थे, जिसका स्पष्ट उद्देश्य हिन्दू जाति वालों का आपस में बँटवारा करना था। बहुत विरोध करने पर भी अंग्रेजी शासक शान्ति को प्राप्त न हुए। अर्थात् अपने प्रयासों को बन्द नहीं किया और (देश एवं हिन्दू जाति को) विभाजित करने के लिए प्रयत्नशील रहे। तब महात्मा गाँधी ने हिन्दू जातियों (UPBoardSolutions.com) में एकता स्थापित करने के लिए जेल में आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के अनुमोदन की इच्छा की; क्योंकि महात्मा गाँधी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ का केवल आदर ही नहीं करते थे, अपितु समयानुसार सही सलाह के लिए उनसे अपेक्षा भी करते थे। महात्मा इन कवीन्द्र रवीन्द्र को गुरु मानते थे। रवीन्द्रनाथ ने तार में भारत की एकता और सामाजिक अखण्डता के लिए अमूल्य जीवन का बलिदान सभी प्रकार से सही है, परन्तु लोग भयानक विपत्ति से गाँधी जी के जीवन की रक्षा करें” लिखकर उत्तर दे दिया। रवीन्द्र ने आमरण अनशन का समर्थन ही नहीं किया, अपितु उपवास के प्रारम्भ होने पर पुणे जेल में आ गये।

(10)
एवं बहुवर्णिकं, गरिमामण्डितं साहित्यिक, सामाजिकं, दार्शनिकं, लोकतान्त्रिकं जीवनं तस्य काव्यमिव मनोहारि सर्वेभ्यः कल्याणकारि प्रेरणादायि चाभूत्। एकचत्वारिंशदधिकैकोनविंशे शततमे खीष्टाब्देऽगस्तमासस्य सप्तमे दिनाङ्के (7 अगस्त, 1941) रवीन्द्रस्य पार्थिव शरीरं वैश्वानरं प्राविशत्। अद्यापि गुरुदेवस्य रवीन्द्रस्य वाक् काव्यरूपेण अस्माकं समक्षं स्रोतस्विनी इव सततं प्रवहत्येव। अधुनापि करालस्य कालस्य करोऽपि वाचं मूकीकर्तुं नाशकत्।

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जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः ।
नास्ति येषां यशःकाये जरामरणजं भयम् ॥

शब्दार्थ बहुवर्णिकम् = बहुरंगी, अनेक प्रकार का। गरिमामण्डितम् = गरिमा (गौरव) से युक्त। एकचत्वारिंशदधिकैकोनविंशे शततमे = उन्नीस सौ इकतालिस में। पार्थिवम् = मिट्टी से बना, भौतिक वैश्वानरम् = अग्नि में। प्राविशत = प्रविष्ट हुआ। वाक् = वाणी। स्रोतस्विनी इव = नदी के समान। प्रवहत्येव = बहती ही है। वाचं मूकीकर्तुम् = वाणी को मौन करने के लिए। नाशकत् = समर्थ नहीं हुआ। सुकृतिनः = सुन्दर कार्य करने वाले रससिद्धाः = रस है सिद्ध जिनको। कवीश्वराः = कवियों में ईश्वर अर्थात् कवि श्रेष्ठ| यशःकाये = यशरूपी शरीर में जरामरणजे = वृद्धावस्था और मृत्यु से उत्पन्न।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कवीन्द्र रवीन्द्र के जीवन का मूल्यांकन किया गया है, उनके देहान्त की बात कही गयी है और सुन्दर रचनाकार के रूप में उनके यश का गान किया गया है।

अनुवाद इस प्रकार उनका बहुरंगी, गरिमा से मण्डित, साहित्यिक, सामाजिक, दार्शनिक, लोकतान्त्रिक जीवन उनके काव्य के समान सुन्दर, सबके लिए कल्याणकारी और प्रेरणाप्रद था। सन् 1941 ईस्वी में अगस्त महीने की 7 तारीख को रवीन्द्र का पार्थिव शरीर अग्नि में प्रविष्ट हो गया। आज भी गुरुदेव रवीन्द्र की वाणी काव्य के रूप में हमारे सामने नदी के समान निरन्तर बह रही है। आज भी भयानक मृत्यु का हाथ भी (उनकी) वाणी को चुप करने में समर्थ नहीं हो सका। पुण्यात्मा, (UPBoardSolutions.com) रससिद्ध वे कवीश्वर जयवन्त होते हैं, जिनके यशरूपी शरीर में बुढ़ापे और मृत्यु से उत्पन्न भय नहीं है। इसलिए कविगण हमेशा यशरूपी शरीर से ही जीवित रहते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना ‘गीताञ्जलि’ पर प्रकाश डालिए।
या
‘गीताञ्जलि’ के रचयिता का नाम लिखिए। [2006,07,14]
या
विश्वकवि रवीन्द्र की सबसे प्रसिद्ध रचना कौन-सी है? [2011]
या
रवीन्द्रनाथ को नोबेल पुरस्कार किस रचना पर मिला? [2007]
या
रवीन्द्रनाथ को किस पुस्तक पर कौन-सा पुरस्कार दिया गया था? [2010]
उत्तर :
गीताञ्जलि महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा बांग्ला भाषा में लिखे गये गीतों का संकलन है। यह महाकवि की एक अत्यधिक विशिष्ट रचना है। इसका अंग्रेजी अनुवाद; जो कि स्वयं रवीन्द्रनाथ के द्वारा ही। किया गया; को सन् 1913 ईस्वी में विदेशियों द्वारा ‘नोबेल पुरस्कार’ से पुरस्कृत किया गया।

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प्रश्न 2.
विश्वकवि रवीन्द्र का संक्षिप्त जीवन-परिचय दीजिए।
या
विश्वकवि रवीन्द्र का परिचय दीजिए। या कविवर रवीन्द्र का जन्म कब और कहाँ हुआ था? [2008]
या
विश्वकवि रवीन्द्र के माता-पिता का नाम लिखिए। [2010, 12, 13]
या
कवीन्द्ररवीन्द्र की प्रमुख रचनाओं/कृतियों के नाम लिखिए। [2006,08, 10]
उत्तर :
रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई, सन् 1861 ईस्वी में कलकत्ता नगर के एक सम्भ्रान्त और समृद्ध ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम देवेन्द्रनाथ तथा माता का नाम शारदा देवी था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। बाद में इन्होंने स्कूल में प्रवेश ले लिया, लेकिन वहाँ इनका मन नहीं लगा। 17 वर्ष की अवस्था में ये अपने बड़े भाई के साथ इंग्लैण्ड गये। वहाँ इन्होंने दो वर्ष के निवास में पाश्चात्य संगीत का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया। इन्होंने शैशव संगीत, प्रभात संगीत, (UPBoardSolutions.com) सान्ध्य संगीत (गीति काव्य); रुद्रचण्ड, वाल्मीकि-प्रतिभा (गीति नाट्य), विसर्जन, राजर्षि, चोखेरबाली, चित्रांगदा, कौड़ी ओकमल, गीताञ्जलि इत्यादि बहुत-से ग्रन्थों की रचना की। महात्मा गाँधी इन्हें अपना गुरु मानते थे। सन् 1941 ईस्वी में 7 अगस्त को इनका पार्थिव शरीर पंचतत्त्व में विलीन हो गया।

प्रश्न 3.
रवीन्द्रनाथ टैगोर के सांस्कृतिक और शिक्षा के क्षेत्र में योगदान का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सांस्कृतिक क्षेत्र में संगीत और नृत्य विधाओं में एक नवीन शैली का प्रचलन किया, जिसे रवीन्द्र-शैली के नाम से जाना जाता है। एक शिक्षाविद् के रूप में भी इन्होंने नवीन विचारों का प्रारम्भ किया। इनके विचारों का पुंजस्वरूप भवन ‘विश्वभारती के रूप में हमारे समक्ष विद्यमान है। यहाँ पर शिक्षा की आश्रम शैली, नवीन शैली के साथ समन्वित रूप में विद्यमान है।

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प्रश्न 4.
विश्वकवि रवीन्द्र के बाल्य-जीवन का उल्लेख कीजिए। या* * बचपन में बालक रवीन्द्रनाथ का मेन क्यों खिन्न रहता था? [2009]
उत्तर :
रवीन्द्रनाथ का जन्म अतुल धनराशि तथा वैभव से सम्पन्न एक अत्यधिक धनाढ्य ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सेवकों द्वारा पालित, पोषित और रक्षित होने के कारण ये अपने जीवन को बन्धनपूर्ण मानते थे। स्वतन्त्रतापूर्वक घूमने और खेलने का अवसर न मिलने के कारण ये पर्याप्त खिन्नता का अनुभव करते थे। इनके वैभवशाली भवन के पीछे एक सुन्दर सरोवर था जिसके एक ओर नारियल के वन और दूसरी ओर बरगद का वृक्ष था। भवन के झरोखे में बैठकर रवीन्द्रनाथ इस प्राकृतिक दृश्य को देखकर बहुत प्रसन्न होते थे। प्रात:काल के समय सरोवर में स्त्री-पुरुष स्नान के लिए आते थे। उनकी विविध रंग-बिरंगी पोशाकों को देखकर बालक रवीन्द्रनाथ प्रसन्न हो जाते थे। सायंकाल में यह सरोवर पक्षियों की चहचहाहट से गुंजित हो उठता था। यह सब कुछ बालक रवीन्द्रनाथ को बहुत सुखद प्रतीत होता था।

प्रश्न 5.
‘विश्वकवि’ संज्ञा किस आधुनिक कवि को दी गयी है? [2010,11]
उत्तर :
‘विश्वकवि’ संज्ञा आधुनिक कवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर को दी गयी है।

प्रश्न 6.
विधिशास्त्र का अध्ययन करने के लिए रवीन्द्रनाथ किसके साथ और कहाँ गये? [2006]
उत्तर :
विधिशास्त्र का अध्ययन करने के लिए रवीन्द्रनाथ अपने बड़े भाई न्यायाधीश सत्येन्द्रनाथ के साथ सन् 1878 ई० में लन्दन गये।

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प्रश्न 7.
विश्वकवि रवीन्द्र की तुलना किन-किन कवियों से की गयी है? [2010]
उत्तर :
विश्वकवि रवीन्द्र की तुलना अंग्रेजी कवि शेक्सपियर, संस्कृत कवि कालिदास और हिन्दी कवि गोस्वामी तुलसीदास से की गयी है।

प्रश्न 8.
‘विश्वभारती’ का परिचय दीजिए। [2009]
उत्तर :
एक शिक्षाविद् के रूप में रवीन्द्रनाथ ने नवीन विचारों का सूत्रपात किया था। उनके प्रयोगात्मकशिक्षात्मक विचारों का प्रतिफल विश्वभारती के रूप में अपना मस्तक उन्नत किये हुए आज भी सुशोभित हो रहा है। इस संस्था में अध्ययन-अध्यापन की आश्रम-व्यवस्था तथा नवीन (UPBoardSolutions.com) शैली का समन्वय है।।

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प्रश्न 9.
विश्वकवि रवीन्द्र की साहित्यिक प्रतिभा का परिचय दीजिए।
उत्तर :
[
संकेत ‘पाठ-सारांश’ के उपशीर्षकों’ ‘साहित्यिक प्रतिभा के धनी’ एवं ‘रचनाएँ की सामग्री को संक्षेप में लिखें।]

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