UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 3

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Model Paper Paper 3
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 3

पूर्णाक : 70
समय : 3 घण्टे 15 मिनट

निर्देश: प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
नोट:

  • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
  • आवश्यकतानुसार अपने उत्तरों की पुष्टि नामांकित रेखाचित्रों द्वारा कीजिए।
  • सभी प्रश्नों के निर्धारित अंक उनके सम्मुख

प्रश्न  1.
सही विकल्प चुनकर अपनी उत्तर पुस्तिका में लिखिए।
(क) एल्ब्यूमिन रहित बीज किसमें उत्पादित होते हैं? [1]
(A) मक्का
(B) अरण्डी
(C) गेहूँ
(D) मटर

(ख) जल प्रदूषण का सामान्य जीव सूचक है [1]
(A) लेग्ना पेन्साकोस्टेटा
(B) आइकॉर्निया क्रेसीयस
(C) ई कोलाई
(D) एण्टअमीबा हिस्टोलाइटिका

(ग) मानव में शुक्र मातृ कोशिका व अण्ड मातृ कोशिका द्वारा उत्पन्न युग्मकों का अनुपात होता है [1]
(A) 1:1
(B) 1: 3 .
(C) 1:4
(D) 4: 1

(घ) निम्नलिखित में से कौन-सा एक प्रतिबन्धन एण्डोन्यूक्लिएज है? [1]
(A) प्रोटिएज
(B) DNAse I
(C) RNAse
(D) Hind II.

प्रश्न 2.
(क) पूर्वज क्या होते हैं? [1]
(ख) वंशागति के क्रोमोसोमवाद को किसने प्रस्तावित किया? [1]
(ग) इम्यूनिटी शब्द का क्या अर्थ है? [1]
(घ) DNA खण्डों को पृथक् करने के लिए किस विधि का प्रयोग किया जाता है? [1/2+1/2]
(ङ) पारजीनी जन्तु क्या होते हैं? [1]

प्रश्न 3.
(क) जैव-विविधता क्या है? इसके संरक्षण की दो विधियों का उल्लेख कीजिए। [2]
(ख) जैव-प्रोद्यौगिकी तकनीक द्वारा उत्पन्न फसल को क्या कहते हैं? इस तकनीक द्वारा उत्पन्न फसलों के दो लाभ लिखिए। [1+1]
(ग) किन तथ्यों के आधार पर डार्विनवाद की आलोचना की गई [2]
(घ) बन्ध्यता को जीवनक्षम सन्तति न पैदा कर पाने की अयोग्यता के रूप में परिभाषित किया गया है और यह सदैव स्त्री की दोषों के कारण होती है। यह सही क्यों नहीं है? [2]
(ड़) विलौडित हौज बायोरिएक्टर पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2]

प्रश्न 4.
(क) वायुमण्डल में समतापमण्डल की व्याख्या कीजिए। [3]
(ख) उत्परिवर्तनवाद क्या है? ये सिद्धान्त किसने प्रतिपादित किया? [2+1]
(ग) ट्रान्सजेनिक जन्तु किन्हें कहते हैं? इन जन्तुओं के निर्माण की दो महत्त्वपूर्ण विधियों का वर्णन कीजिए। [3]
(घ) टायफॉइड रोग पर टिप्पणी लिखिए। [3]

प्रश्न 5.
(क) बालूक्रमक क्या है? यह किसके अन्तर्गत रखा गया है? व्याख्या करें। [1+2]
(ख) खाद्य टीके का उत्पादने किस प्रकार किया जाता है? [3]
(ग) भ्रूणकोष के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का सचित्र वर्णन कीजिए। [3]
(घ) एक उपयुक्त चित्र की सहायता से स्तन ग्रन्थि के संगठन की व्याख्या कीजिए। [3]

प्रश्न 6.
(क) रेशम किस कीट द्वारा प्राप्त होता है? इस कीट का जीवन चक्र समझाइए। [1+2]
(ख) द्वितीयक वाहित मल उपचार क्या है? यह किस प्रकार किया जाता है? [1+2]
(ग) निम्न पर आलोचनात्मक टिप्पणी कीजिए। [1/2+1/2]

  •  सुपोषिता
  • जैव-आवर्धन

(घ) DNA फिंगरप्रिंटिंग क्या है? इसकी उपयोगिता पर टिप्पणी कीजिए। [1+2]

प्रश्न 7.
निम्न पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।

  1. जीन गन एवं लाइपोसोम
  2. प्रतिरक्षी माध्यित प्रतिरक्षा प्रणाली [2+3]

अथवा
पोषण चक्र क्या होता है? कार्बन के पोषण चक्र का वर्णन कीजिए। 1+4]

प्रश्न 8.
क्या हम मानव विकास को अनुकूलनी विकिरण कह सकते हैं? कारण स्पष्ट कीजिए। [5]
अथवा
अनुलेखन की क्रियाविधि के दीर्धीकरण अवस्था का सचित्र वर्णन कीजिए। [5]

प्रश्न 9.
मानव में 5वें,13वें तथा 21वें गुणसूत्रों से सम्बन्धित विकारों पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए। [5]
अथवा
मानव में युग्मकजनन को विस्तारपूर्वक समझाइए। [5]

Answers

उत्तर 1.
(क) (D)
(ख) (C)
(ग) (D)
(घ) (D)

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 17 Indian Judiciary: Supreme Court Public Interest Litigations and Lok Adalat

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 17 Indian Judiciary: Supreme Court Public Interest Litigations and Lok Adalat (भारतीय न्यायपालिका-सर्वोच्च न्यायालय, जनहित याचिकाएँ तथा लोक अदालत) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 17 Indian Judiciary: Supreme Court Public Interest Litigations and Lok Adalat (भारतीय न्यायपालिका-सर्वोच्च न्यायालय, जनहित याचिकाएँ तथा लोक अदालत).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 17
Chapter Name Indian Judiciary: Supreme Court Public Interest Litigations and Lok Adalat
(भारतीय न्यायपालिका-सर्वोच्च न्यायालय, जनहित याचिकाएँ तथा लोक अदालत)
Number of Questions Solved 50
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 17 Indian Judiciary: Supreme Court Public Interest Litigations and Lok Adalat (भारतीय न्यायपालिका-सर्वोच्च न्यायालय, जनहित याचिकाएँ तथा लोक अदालत)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
भारत के उच्चतम न्यायालय की संरचना का उल्लेख कीजिए। उसे संविधान का संरक्षक क्यों कहा जाता है? [2010]
या
“भारत के सर्वोच्च न्यायालय को संविधान का संरक्षक व नागरिकों के मूलाधिकारों का रक्षक कहा जाता है।” व्याख्या कीजिए। [2014]
या
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे होती है? [2014]
या
सर्वोच्च न्यायालय के संगठन का वर्णन कीजिए। उसको ‘संविधान का रक्षक’ एवं ‘नागरिकों के मूल अधिकारों का रक्षक’ क्यों कहा जाता है ? [2008, 10, 12, 14, 15]
या
उच्चतम न्यायालय का संगठन समझाइए। उसके महत्त्व को भी समझाइए। [2008, 10, 12, 13]
या
भारत के उच्चतम न्यायालय के गठन व उसके कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। भारत के उच्चतम न्यायालय के संगठन तथा क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए। [2010]
या
न्यायालय की स्वतन्त्रता का संरक्षण किस प्रकार किया जाता है?
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता (महत्त्व)

भारतीय संविधान निर्माताओं के समक्ष यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न था कि भारत में संविधान वे लोकतन्त्र की रक्षा का दायित्व किसे सौंपा जाए? गम्भीर विचार-विमर्श के पश्चात् संविधाननिर्माताओं ने भारत संघ में लोकतन्त्र, नागरिकों के अधिकार व संविधान की रक्षा का दायित्व एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका को सौंपा। भारत में न्याय-व्यवस्था के शिखर पर सर्वोच्च न्यायालय का गठन किया गया है। श्री वी० एस० देशपापडे के शब्दों में, “भारत में संविधान व लोकतन्त्र की रक्षा का दायित्व सर्वोच्च न्यायालय का ही है। स्वतन्त्र भारत में सर्वोच्च न्यायालय का कार्यकरण बहुत गौरवमय रहा है तथा आम जनता में व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों तथा स्वाधीनता के प्रहरी के रूप में उसके प्रति अटूट श्रद्धा-विश्वास है।

भारत की संघीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत न्यायालय की आवश्यकता अथवा महत्त्व को निम्नलिखित तर्को द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है –

1. संघात्मक शासन के लिए अनिवार्य – संघीय शासन व्यवस्था के अन्तर्गत केन्द्र व राज्यों के मध्य शक्तियों का पृथक्करण पाया जाता है। ऐसी स्थिति में अपने-अपने अधिकार-क्षेत्र को लेकर केन्द्र व राज्यों में विवाद की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। अतः केन्द्र व राज्यों के मध्य उत्पन्न किसी भी विवाद के निराकरण हेतु एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष शक्ति का होना अनिवार्य होता है। भारत में इसी उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गयी है। जी० एन० जोशी ने संघीय व्यवस्था में निष्पक्ष व स्वतन्त्र न्यायपालिका की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा है कि “संघात्मक शासन में कई सरकारों का समन्वय होने के कारण संघर्ष अवश्यम्भावी है। अतः संघीय नीति का यह आवश्यक गुण है कि देश में एक ऐसी न्यायिक व्यवस्था हो, जो संघीय कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका तथा इकाइयों की सरकारों से स्वतन्त्र हो।’

2. संविधान का रक्षक – भारत में एक लिखित और कठोर संविधान को अपनाया गया है और इसके साथ ही संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान की गयी है। संविधान की सर्वोच्चता को बनाये रखने का कार्य सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा ही किया जाता हैं। सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा संविधान के रक्षक और संविधान के आधिकारिक व्याख्याता के रूप में कार्य किया जाता है। वह संसद द्वारा निर्मित ऐसी प्रत्येक विधि को अवैध घोषित कर सकता है जो संविधान के विरुद्ध हो। अपनी इस शक्ति के आधार पर वह संविधान की प्रभुता और सर्वोच्चता की रक्षा करता है। संविधान के सम्बन्ध में किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न होने पर संविधान की अधिकारपूर्ण व्याख्या उसी के द्वारा की जाती है। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय संविधान की रक्षा करता है।

3. परामर्शदात्री संस्था के रूप में – भारत का सर्वोच्च न्यायालय एक परामर्शदात्री संस्था के रूप में भी विशिष्ट दायित्वों का निर्वहन करता है। राष्ट्रपति किसी भी महत्त्वपूर्ण विषय के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श माँग सकता है। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है। कि न्यायालय के परामर्श को स्वीकार करने या न करने के लिए राष्ट्रपति पूर्ण स्वतन्त्र होता

4. मौलिक अधिकारों का रक्षक – संविधान के अनुच्छेद 32 में वर्णित है कि न्यायालय : संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अभिरक्षक है। भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का किसी भी रूप में हनन होने पर व्यक्ति न्यायालय की शरण ले सकता है। इस सम्बन्ध में पायली ने कहा है कि “मौलिक अधिकारों का महत्त्व एवं सत्ता समय-समय पर न्यायालयों द्वारा दिये गये निर्णयों से सिद्ध होती है, जिससे कार्यपालिका की निरंकुशता तथा विधानमण्डलों की स्वेच्छाचारिता से नागरिकों की रक्षा होती है।”

5. भारत का अन्तिम न्यायालय – भारत की न्यायिक व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय अन्तिम न्यायालय है। परिणामस्वरूप इसके निर्णय अन्तिम व सर्वमान्य होते हैं। इन निर्णयों में परिवर्तन केवल वह ही कर सकता है।

अन्तत: सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता व महत्त्व को डॉ० एम० वी० पायली के इस कथन से प्रमाणित किया जा सकता है कि ‘‘सर्वोच्च न्यायालय संघीय व्यवस्था का एक आवश्यक अंग है। यह संविधान की व्याख्या करने वाला, केन्द्र व राज्यों के मध्य उत्पन्न विवादों का निराकरण करने वाला तथा नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने वाला अन्तिम अभिकरण है।”

सर्वोच्च न्यायालय का गठन

संविधान के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या, सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार, न्यायाधीशों के वेतन या सेवा-शर्ते निश्चित करने का अधिकार संसद को दिया गया था। अनुच्छेद 124 के अनुसार, “भारत का एक उच्चतम न्यायालय होगा, जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा सात अन्य न्यायाधीश होंगे।” परन्तु इस सम्बन्ध में संविधान में यह व्यवस्था की गयी है कि संसद विधि के द्वारा न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि कर सकती है। वर्तमान समय में 1985 ई० में पारित विधि के अन्तर्गत संसद द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 31 कर दी गयी है। वर्तमान समय में सर्वोच्च न्यायालय में 1 मुख्य न्यायाधीश व 30 अन्य न्यायाधीश होते हैं। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के परामर्श से की जाती है तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से की जाती है।

न्यायाधीशों की योग्यताएँ (मुख्य न्यायाधीश) – संविधान द्वारा उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ निर्धारित की गयी हैं –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह कम-से-कम पाँच वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद पर कार्य कर चुका हो अथवा वह दस वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहा हो।
  3. राष्ट्रपति की दृष्टि में विख्यात विधिवेत्ता हो।
  4. उसकी आयु 65 वर्ष से कम हो।

कार्यकाल – उच्चतम न्यायालय का प्रत्येक न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर बना रह सकता है। 65 वर्ष की आयु पूर्ण करने के पश्चात् उसे पदमुक्त कर दिया जाता है, परन्तु यदि न्यायाधीश समय से पूर्व पदत्याग करना चाहता है, तो वह राष्ट्रपति को अपना त्याग-पत्र देकर मुक्त हो सकता है।

महाभियोग – संवैधानिक प्रावधान के अनुसार दुर्व्यवहार व भ्रष्टाचार के आरोप में लिप्त पाये जाने पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को संसद द्वारा 2/3 बहुमत से महाभियोग लगाकर, राष्ट्रपति के माध्यम से पदच्युत किया जा सकता है।

शपथ – उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश पद को ग्रहण करने से पूर्व प्रत्येक न्यायाधीश राष्ट्रपति के समक्ष शपथ लेता है।

वेतन व भत्ते – नवीन वेतनमानों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 1,00,000 मासिक वेतन व अन्य न्यायाधीशों को र 90,000 रुपये मासिक वेतन की धनराशि देना निश्चित किया गया है। इसके अतिरिक्त न्यायाधीशों के लिए नि:शुल्क आवास व सेवा-निवृत्ति के पश्चात् पेंशन देने की व्यवस्था भी की गयी है। इस सम्बन्ध में यह स्मरणीय है कि न्यायाधीशों को वेतन व भत्ते भारत की संचित निधि में से दिये जाते हैं, जो संसद के अधिकार क्षेत्र से मुक्त होना है। इसके साथ ही न्यायाधीशों के वेतन में उनके कार्यकाल के समय में कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता। केवल वित्तीय आपात के समय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतनभत्ते कम किये जा सकते हैं।

उन्मुक्तियाँ – संविधान द्वारा न्यायाधीशों को प्राप्त उन्मुक्तियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. न्यायाधीशों के कार्यों व निर्णयों को आलोचना से मुक्त रखा गया है।
  2. किसी भी निर्णय के सम्बन्ध में न्यायाधीश पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उसने वह निर्णय स्वार्थवश तथा किसी के हित विशेष को ध्यान में रखकर लिया है।
  3. महाभियोग के अतिरिक्त किसी अन्य प्रक्रिया के द्वारा न्यायाधीश के आचरण के विषय में कोई चर्चा नहीं की जा सकती।

वकालत पर रोक – जो व्यक्ति भारत के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर आसीन हो जाता है, वह अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् भारत के किसी भी न्यायालय में या किसी अन्य अधिकारी के समक्ष वकालत नहीं कर सकता। संविधान द्वारा यह व्यवस्था न्यायाधीशों को अपने कार्यकाल में निष्पक्ष व स्वतन्त्र होकर अपने दायित्वों का निर्वहन करने के उद्देश्य को दृष्टि में रखकर की गयी है।

[संकेत – उच्चतम न्यायालय के कार्य व क्षेत्राधिकार तथा न्यायालय की स्वतन्त्रता का संरक्षण हेतु विस्तृत प्रश्न 2 का अध्ययन करें]

प्रश्न 2.
उच्चतम न्यायालय को अभिलेख न्यायालय क्यों कहते हैं? उसके क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए।
या
नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय किस प्रकार के लेख (रिट) जारी कर सकते हैं? किन्हीं दो का उदाहरण देते हुए समझाइए। [2012]
या
सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए और यह भी बताइए कि न्यायपालिका की स्वतन्त्रता हेतु संविधान में क्या प्रावधान किए गए हैं? [2016]
या
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों और अधिकारों का संक्षिप्त विवरण दीजिए। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए। [2010, 12]
या
भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के कार्य एवं शक्तियों का उल्लेख कीजिए। [2013, 14, 15, 16]
या

न्यायपालिका को स्वतन्त्र रखने के लिए संविधान में क्या व्यवस्थाएँ की गयी हैं? संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2013]
या
सर्वोच्च न्यायालय के प्रारम्भिक तथा अपीलीय क्षेत्राधिकार का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2013]
या
सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता का संरक्षण किस प्रकार किया गया है? [2014]
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय के कार्य और अधिकार

सर्वोच्च न्यायालय भारत का सर्वोपरि न्यायालय है। अतएव उसे अत्यधिक विस्तृत अधिकार प्रदान किये गये हैं। इन अधिकारों को निम्नलिखित सन्दर्भो में समझा जा सकता है –

(1) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार
श्री दुर्गादास बसु ने कहा कि “यद्यपि हमारा संविधान एक सन्धि या समझौते के रूप में नहीं है, फिर भी संघ तथा राज्यों के बीच व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका सम्बन्धी अधिकारों का विभाजन किया गया है। अतः अनुच्छेद 131 संघ तथा राज्य या राज्यों के बीच न्याय-योग्य विवादों के निर्णय का प्रारम्भिक तथा एकमेव क्षेत्राधिकार सर्वोच्च न्यायालय को सौंपता है।’

इस क्षेत्राधिकार को पुनः दो वर्गों में रखा जा सकता है –

(अ) प्रारम्भिक एकमेव क्षेत्राधिकार – प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत वे अधिकार आते हैं जो उच्चतम न्यायालय के अतिरिक्त किसी अन्य न्यायालय को प्राप्त नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय कुछ उन विवादों पर विचार करता है जिन पर अन्य न्यायालय विचार नहीं कर सकते हैं। ये विवाद निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

  1. भारत सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्यों के बीच विवाद।
  2. वे विवाद जिनमें भारत सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्य एक ओर हों और एक या एक से अधिक राज्य दूसरी ओर हों।
  3. दो या दो से अधिक राज्यों के बीच विवाद।

इस सम्बन्ध में यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि 26 जनवरी, 1950 के पूर्व जो सन्धियाँ अथवा संविदाएँ भारत संघ और देशी राज्यों के बीच की गयी थीं और यदि वे इस समय भी लागू हों तो उन पर उत्पन्न विवाद सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाहर है।

(ब) प्रारम्भिक समवर्ती क्षेत्राधिकार – भारतीय संविधान में लिखित मूल अधिकारों को लागू करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के साथ ही उच्च न्यायालयों को भी प्रदान कर दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद 32 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को यह जिम्मेदारी दी गयी है कि वह मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए उचित कार्यवाही करे।

(2) अपीलीय क्षेत्राधिकार
भारत में एकीकृत न्यायिक-प्रणाली अपनाने के कारण राज्यों के उच्च न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के अधीन हैं और इस रूप में उसका इन उच्च न्यायालयों पर अधीक्षण और नियन्त्रण स्थापित किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय में सभी उच्च न्यायालयों और न्यायाधिकरणों द्वारा, केवल सैनिक न्यायालय को छोड़कर, संवैधानिक, दीवानी और फौजदारी मामलों में दिये गये निर्णयों के विरुद्ध अपील की जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार को अग्रलिखित वर्गों में रखा जा सकता है –

(क) संवैधानिक अपीलें – संवैधानिक मामलों से सम्बन्धित उच्च न्यायालय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील तब की जा सकती है जब कि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि इस विवाद में “संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित विधि का कोई सारवान प्रश्न सन्निहित है।’ लेकिन यदि उच्च न्यायालय ऐसा प्रमाण-पत्र देने से इन्कार कर देता है तो स्वयं सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 136 के अन्तर्गत अपील की विशेष आज्ञा दे सकता है, यदि उसे यह विश्वास हो जाए कि उसमें कानून का कोई सारवान प्रश्न सन्निहित है। निर्वाचन आयोग बनाम श्री वेंकटराव (1953) के मुकदमे में यह प्रश्न उठाया गया था कि क्या किसी संवैधानिक विषय में अनुच्छेद 132 के अधीन किसी अकेले न्यायाधीश के निर्णय की अपील भी सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है अथवा नहीं। सर्वोच्च न्यायालय ने इसका उत्तर ‘हाँ’ में दिया है।

(ख) दीवानी की अपीलें – संविधान द्वारा दीवानी मामलों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपील सुने जाने की व्यवस्था की गयी है। किसी भी राशि का मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय के पास आ सकता है, जब उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय के सुनने योग्य है या उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि मुकदमे में कोई कानूनी प्रश्न विवादग्रस्त है। यदि उच्च न्यायालय किसी दीवानी मामले में इस प्रकार का प्रमाण-पत्र न दे तो सर्वोच्च न्यायालय स्वयं भी किसी व्यक्ति को अपील करने की विशेष आज्ञा दे सकता है।

(ग) फौजदारी की अपीलें – फौजदारी के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील सुन सकता है। ये अपीलें इन दशाओं में की जा सकती हैं –

  1. जब किसी उच्च न्यायालय ने अधीन न्यायालय के दण्ड-मुक्ति के निर्णय को रद्द करके अभियुक्त को मृत्यु-दण्ड दे दिया हो।
  2. जब कोई उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि विवाद उच्चतम न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत किये जाने योग्य है।
  3. जब किसी उच्च न्यायालय के किसी मामले को अधीनस्थ न्यायालय से मँगाकर अभियुक्त को मृत्यु-दण्ड दिया हो।
  4. यदि सर्वोच्च न्यायालय किसी मुकदमे में यह अनुभव करता है कि किसी व्यक्ति के साथ वास्तव में अन्याय हुआ है, तो वह सैनिक न्यायालयों के अतिरिक्त किसी भी न्यायाधिकरण के विरुद्ध अपील करने की विशेष आज्ञा प्रदान कर सकता है।

(घ) विशिष्ट अपील – अनुच्छेद 136 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को यह भी अधिकार प्रदान किया गया है कि वह अपने विवेक से प्रभावित पक्ष को अपील का अधिकार प्रदान करे। किसी सैनिक न्यायाधिकरण के निर्णय को छोड़कर सर्वोच्च न्यायालय भारत के किसी भी उच्च न्यायालय या न्यायाधिकरण के निर्णय दण्ड या आदेश के विरुद्ध अपील की विशेष आज्ञा प्रदान कर सकता है, चाहे भले ही उच्च न्यायालय ने अपील की आज्ञा से इन्कार ही क्यों न किया हो।

अपीलीय क्षेत्राधिकार के दृष्टिकोण से भारत का सर्वोच्च न्यायालय विश्व में सबसे अधिक शक्तिशाली है। सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार को लक्ष्य करते हुए ही 1950 ई० को सर्वोच्च न्यायालय के उद्घाटन के अवसर पर भाषण देते हुए श्री एम० सी० सीतलवाड ने कहा था कि “यह कहना सत्य होगा कि स्वरूप व विस्तार की दृष्टि से इस न्यायालय का क्षेत्राधिकार और शक्तियाँ राष्ट्रमण्डल के किसी भी देश के सर्वोच्च न्यायालय तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के कार्य-क्षेत्र तथा शक्तियों से व्यापक हैं।”

(3) संविधान का रक्षक व मूल अधिकारों का प्रहरी
संविधान की व्याख्या तथा रक्षा करना भी सर्वोच्च न्यायालय का एक मुख्य कार्य है। जब कभी संविधान की व्याख्या के बारे में कोई मतभेद उत्पन्न हो जाए तो सर्वोच्च न्यायालय इस विषय में स्पष्टीकरण देकर उचित व्याख्या करता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गयी व्याख्या को अन्तिम तथा सर्वोच्च माना जाता है। केवल संविधान की व्याख्या करना ही नहीं, बल्कि इसकी रक्षा करना भी सर्वोच्च न्यायालय का कार्य है। सर्वोच्च न्यायालय को व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के कार्यों का पुनरावलोकन करने का भी अधिकार है। यदि सर्वोच्च न्यायालय को यह विश्वास हो जाए कि संसद द्वारा बनाया गया कोई कानून या कार्यपालिका को कोई आदेश संविधान का उल्लंघन करता है तो वह उस कानून व आदेश को असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकता है। इस प्रकार न्यायालय संविधान की सर्वोच्चता कायम रखता है।

संविधान की धारा 32 के अनुसार न्यायालय का यह भी उत्तरदायित्व है कि वह मूल अधिकारों की रक्षा करे। इन अधिकारों की रक्षा के लिए यह न्यायालय बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण लेख जारी करता है।

(4) परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार
सर्वोच्च न्यायालय के पास परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार भी है। अनुच्छेद 143 के अनुसार, यदि कभी राष्ट्रपति को यह प्रतीत हो कि विधि या तथ्यों के बारे में कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया। गया है या उठने वाला है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय की राय लेना जरूरी है तो वह उस प्रश्न को परामर्श के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पास भेज सकता है, किन्तु अनुच्छेद 143 ‘बाध्यकारी प्रकृति का नहीं है। यह न तो राष्ट्रपति को बाध्य करता है कि वह सार्वजनिक महत्त्व के विषय पर न्यायालय की राय माँगे और न ही सर्वोच्च न्यायालय को बाध्य करता है कि वह भेजे गये प्रश्न पर अपनी राय दे। वैसे भी यह राय ‘न्यायिक उद्घोषणा’ या ‘न्यायिक निर्णय नहीं है। इसीलिए इसे मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य नहीं है।

अब तक राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से अनेक बार परामर्श माँगा है। केरल शिक्षा विधेयक, 1947′ में, ‘राष्ट्रपति के चुनाव पर एवं 1978 ई० में विशेष अदालत विधेयक पर माँगी गयी सम्मतियाँ अधिक महत्त्वपूर्ण रही हैं।

सर्वोच्च न्यायालय का परामर्श सम्बन्धी क्षेत्राधिकार मुकदमेबाजी को रोकने या उसे कम करने में सहायक होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के सर्वोच्च न्यायालयों द्वारा सलाहकार की भूमिका अदा करना पसन्द नहीं किया गया है। इस सम्बन्ध में भारत की व्यवस्था कनाडा और बर्मा के अनुरूप है।।

(5) अन्य क्षेत्राधिकार
(अ) अधीनस्थ न्यायालयों की जाँच – सर्वोच्च न्यायालय को अपने अधीनस्थ न्यायालयों के कार्यों की जाँच करने का अधिकार प्राप्त है।
(ब) न्यायालयों की कार्यवाही संचालन हेतु नियम बनाना – सर्वोच्च न्यायालय को अपने अधीनस्थ न्यायालयों की कार्यवाही सुचारु रूप से चलाने हेतु नियम बनाने का अधिकार है, परन्तु उन नियमों पर राष्ट्रपति की स्वीकृति अनिवार्य होती है।
(स) पुनर्विचार का अधिकार – सर्वोच्च न्यायालय यदि ऐसा अनुभव करे कि वह अपने निर्णय में कोई भूल कर बैठा है या उसके निर्णय में कोई कमी रह गयी है, तो उस विवाद पर पुनर्विचार करने की प्रार्थना की जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पहले निर्णय को बदलकर अनेक बार नये निर्णय दिये हैं।

(6) अभिलेख न्यायालय
अनुच्छेद 129 सर्वोच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्थान प्रदान करता है। इसके दो अर्थ हैं –

(i) सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय और अदालती कार्यवाही को अभिलेख के रूप में रखा जाएगा जो अधीनस्थ न्यायालयों में दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत किये जाएँगे और उनकी प्रामाणिकता के बारे में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जाएगा।
(ii) इस न्यायालय द्वारा ‘न्यायालय की अवमानना’ के लिए दण्ड दिया जा सकता है। वैसे तो यह बात प्रथम स्थिति में स्वतः ही मान्य हो जाती है, लेकिन संविधान में इस न्यायालय की अवमानना करने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था विशिष्ट रूप से की गयी है।

सर्वोच्च न्यायालय के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि सर्वोच्च न्यायालय का सर्वप्रमुख कार्य संविधान की रक्षा करना ही है। इस सम्बन्ध में श्री डी० के० सेन ने लिखा है, ‘न्यायालय भारत के सभी न्यायालयों के न्यायिक निरीक्षण की शक्तियाँ रखता है और वही संविधान का वास्तविक व्याख्याता और संरक्षक है। उसका यह कर्त्तव्य होता है कि वह यह देखे कि उसके प्रावधानों को उचित रूप में माना जा रहा है और जहाँ कहीं आवश्यक होता है वहाँ वह उसके प्रावधानों को स्पष्ट करता है।”

संक्षेप में, मौलिक अधिकारों को छोड़कर भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ ‘विश्व के किसी भी सर्वोच्च न्यायालय से अधिक हैं।” इस पर भी भारत का सर्वोच्च न्यायालय अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय से अधिक शक्तिशाली नहीं है, क्योंकि इसकी शक्तियाँ ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के कारण मर्यादित हैं, इसीलिए यह संसद के तीसरे सदन की भूमिका नहीं अपना सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता

भारतीय संविधान में सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए अनेक प्रावधान किये गये हैं, जो निम्नवत् हैं –

  1. न्यायपालिका को कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका से पृथक् कर दिया गया है।
  2. न्यायाधीशों के वेतन तथा भत्ते भारत सरकार की संचित निधि से दिये जाते हैं। न्यायाधीशों के लिए पर्याप्त वेतन की व्यवस्था की गयी है। न्यायाधीशों के वेतन व भत्तों में किसी भी प्रकार की कटौती नहीं की जा सकती है।
  3. न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष की आयु तक कार्य कर सकते हैं। यद्यपि महाभियोग लगाकर न्यायाधीशों को अपने पद से हटाने का प्रावधान भारतीय संविधान में किया गया है, परन्तु वह बहुत जटिल है; इसलिए न्यायाधीशों को उनके पद से हटाना भी सरल नहीं है।
  4. न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। संसद का इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं है। इस कारण न्यायाधीश पूर्ण स्वतन्त्र रहते हैं।
  5. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के निर्णयों व कार्यों की आलोचना नहीं की जा सकती है। इस कारण भी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करते हैं।
  6. सर्वोच्च न्यायालय को अपने कर्मचारी वर्ग पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त है।
  7. सर्वोच्च न्यायालय को अपनी कार्य प्रणाली के संचालन हेतु नियम बनाने का अधिकार है।

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प्रश्न 3.
उच्चतम न्यायालय की न्यायिक पुनरावलोकन शक्ति के महत्त्व की विवेचना कीजिए। उदाहरण देकर समझाइए। [2009]
या
भारतीय संविधान में उच्चतम न्यायालय के न्यायिक पुरावलोकन के अधिकार का महत्त्व समझाइए। [2008, 2009]
या
संसद और न्यायपालिका की सर्वोच्चता से सम्बन्धित वाद-विवाद के सन्दर्भ में न्यायिक समीक्षा के सिद्धान्त का सावधानी से परीक्षण कीजिए। [2009]
या
संसद और न्यायालय की सर्वोच्चता से सम्बन्धित विवाद के सन्दर्भ में न्यायिक समीक्षा के सिद्धान्त का सावधानी से परीक्षण कीजिए। [2007]
या
न्यायिक पुनर्विलोकन से आप क्या समझते हैं? लोकतान्त्रिक व्यवस्था में इसकी भूमिका का मूल्यांकन कीजिए। [2015]
या
भारत में न्यायिक समीक्षा के अर्थ एवं महत्त्व का वर्णन कीजिए। [2011]
उत्तर :
न्यायिक पुनर्विलोकन (पुनरावलोकन) का अर्थ

भारत की न्यायिक पुनर्विलोकन की अवधारणा संयुक्त राज्य अमेरिका से ली गई है। संविधान सभा को अमेरिकी संविधान-निर्माताओं की अनेक मौलिक देने हैं। अमेरिका में सर्वोच्च न्यायालय को संविधान निर्माताओं द्वारा एक महत्त्वपूर्ण कार्य यह सौंपा गया है कि वह विधायिका तथा कार्यपालिका को नियन्त्रित करे। अमेरिका में संविधान सर्वोपरि है, इसलिए वे संविधान द्वारा निर्धारित सीमाओं के अन्तर्गत ही कार्य करें और सर्वोच्च न्यायालय यह जाँच करे कि वे संविधान का उल्लंघन तो नहीं कर रहे हैं। इस अधिकार के अन्तर्गत यदि किसी राज्य के विधानमण्डल द्वारा निर्मित कोई कानून संघीय संविधान अथवा संयुक्त राज्य द्वारा की गई सन्धि के प्रतिकूल हो तथा कार्यपालिका के कार्य संविधान के प्रतिकूल हों तो संघीय न्यायपालिका उसे वैधानिक घोषित कर सकती है। न्यायालय के इसी अधिकार को न्यायिक पुनर्विलोकन’ कहते हैं। कॉरविन के शब्दों में-“न्यायिक पुनर्विलोकन का अर्थ न्यायालय की उस शक्ति से है जो उन्हें अपने न्याय क्षेत्र के अन्तर्गत लागू होने वाले व्यवस्थापिका के कानूनों की वैधानिकता का निर्णय देने के सम्बन्ध में तथा कानूनों को लागू करने के सम्बन्ध में प्राप्त हैं, जिन्हें वे अवैधानिक और व्यर्थ समझे।”

न्यायिक पुनर्विलोकन का संचालन

भारत में भी उच्चतम न्यायालय को अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के समान ही न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्रदान की गई है। भारत में भी संविधान को सर्वोच्च कानून घोषित किया गया है। अतः न्यायपालिका का यह अधिकार व कर्तव्य है कि वह संसद अथवा विधानमण्डलों द्वारा निर्मित ऐसे कानूनों को अवैधानिक घोषित कर दे जो संविधान की धाराओं का अतिक्रमण करते हों। आरत का उच्चतम न्यायालय इस शक्ति का प्रयोग, कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ (Procedure established by lawy) के आधार पर करता है जबकि अमेरिका का उच्चतम न्यायालय ‘कानून की उचित प्रक्रिया (Due procedure of law) के आधार पर न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का प्रयोग करता है। भारत का उच्चतम न्यायालय यह निश्चित करने में कि कोई कानून संवैधानिक है अथवा नहीं प्राकृतिक न्याय । के सिद्धान्तों को या उचित-अनुचित की अपनी धारणाओं को लागू नहीं कर सकता है।

भारत के उच्चतम न्यायालय ने पिछले अनेक वर्षों में ऐसे दूरगामी निर्णय दिए हैं जिनमें न्यायिक पुनर्विलोकन के अधिकार का प्रयोग किया गया है; जैसे-‘गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मुकदमे में निवारक निरोध अधिनियम के 14वें खण्ड को असंवैधानिक घोषित किया गया।

न्यायिक पुनर्विलोकन की आलोचना

न्यायिक पुनर्विलोकन की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की गई है।

1. मौलिक कार्यों के सम्पादन में कमी – कुछ आलोचकों का विचार है कि न्यायिक पुनर्विलोकन अधिकार के कारण उच्चतम न्यायालय ने अपने मौलिक कार्यों की उपेक्षा करना प्रारम्भ कर दिया है। यह विवादों का निपटारा नहीं करता है वरन् इसका मुख्य कार्य सामाजिक तथा राजनीतिक नीतियों के निर्धारण में सहभागिता करना है। अब विधानमण्डल जनता की सामान्य इच्छा को विधि के रूप में स्वतन्त्रतापूर्वक अभिव्यक्त नहीं कर सकता है।

2. न्यायाधीशों का संकीर्ण दृष्टिकोण – न्यायिक पुनर्विलोकन के विषय में हम इस बात को नकार नहीं सकते कि न्यायाधीश भी स्वाभाविक रूप से परम्परावादी तथा रूढ़िगत विचारों से प्रभावित होते रहते हैं। ऐसी स्थिति में प्रायः उनके दृष्टिकोण में दूरदर्शिता का अभाव आ जाता है और उनका दृष्टिकोण संकीर्ण हो जाता है।

3. सकारात्मक राज्य के प्रतिकूल – न्यायिक पुनर्विलोकन की प्रणाली आधुनिक, सामाजिक व आर्थिक परिवेश के अनुपयुक्त है। न्यायाधीश प्रायः सम्पन्न वर्ग के होते हैं और वे निहित स्वार्थों का संरक्षण करते हैं। परिणामस्वरूप प्रगतिशील तथा लोकतन्त्रात्मक नीतियों का विरोध करते हैं, जिससे सकारात्मक राज्य का विकास नहीं हो पाता है। लॉस्की का कथन है-“न्यायाधीशों ने सदैव धन-सम्पन्न वर्ग के हितों की सुरक्षा की है। वह लॉर्ड सभा की भाँति ही सदैव धनिक वर्ग का गढ़ रहा है।”

4. असावधान तथा अनुत्तरदायी संसद – उच्चतम न्यायालय न्यायिक पुनर्विलोकन के आधार पर संसद-सदस्यों द्वारा कड़े परिश्रम के बाद पारित विधि को नष्ट कर देता है। फलतः जनता के प्रतिनिधियों के प्रयास का कोई सार्थक परिणाम नहीं निकल पाता है। अतः कानून निर्माण के सम्बन्ध में वे सावधानी नहीं बरतते तथा वे अपने उत्तरदायित्व को अनुभव नहीं करते हैं।

5. कृत्रिम और शिथिल विधायिका – न्यायिक पुनर्विलोकन के कारण देश का योजनाबद्ध विकास नहीं हो पाता है तथा राजनीतिज्ञ अपने लक्ष्य को निश्चित नहीं कर पाते हैं, परिणामस्वरूप उनके कार्यों में कृत्रिमता एवं शिथिलता आ जाती है। वे व्यापक सुधार योजना लागू नहीं कर पाते हैं और केवल साधारण परिवर्तनों से उन्हें सन्तोष करना पड़ता है।

6. संसद तथा न्यायपालिका के बीच संघर्ष से शासन व्यवस्था में गतिरोध – न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति के कारण जब संसद द्वारा निर्मित कानूनों को न्यायपालिका के द्वारा असंवैधानिक घोषित कर दिया जाता है तो संसद तथा न्यायपालिका के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और जब सरकार के दो प्रमुख अंगों के बीच ऐसी असामान्य स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो शासन ठीक प्रकार से संचालित नहीं हो सकता है।

न्यायिक पुनर्विलोकन की उपयोगिता एवं महत्त्व

न्यायिक पुनर्विलोकन की उपयोगिता तथा महत्त्व को निम्नवत् स्पष्ट किया जा सकता है।

1. यद्यपि न्यायिक पुनर्विलोकन की बहुत आलोचना हुई है तथापि इसकी उपयोगिता को भी कम नहीं आँका जाना चाहिए। इसी कारण आज तक इस विषय में उच्चतम न्यायालय के अधिकार सीमित नहीं किए गए हैं। उच्चतम न्यायालय ने न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का प्रयोग करते हुए व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा निजी सम्पत्ति के अधिकारों की भी सुरक्षा की है। प्रो० के० सी० ह्रीयर के अनुसार, “संविधान को समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप ढालना उच्चतम न्यायालय की ही कार्य है।”

2. उच्चतम न्यायालय ने सदैव संविधान को अपनी व्याख्याओं के द्वारा प्रगतिशील बनाया है।

3. उच्चतम न्यायालय ने संघीय तथा राज्यों की सरकारों के वैधानिक विवादों का निर्णय करके उनको अपने क्षेत्राधिकार में रखा है। फाइनर के अनुसार, “यह एक सीमेण्ट है जिसने सम्पूर्ण संघीय ढाँचे को स्थिरता प्रदान की है।”

4. उच्चतम न्यायालय ने विधायिका तथा कार्यपालिका को एक-दूसरे के क्षेत्र में अनुचित हस्तक्षेप से रोका है। यह कार्य न्यायिक पुनर्विलोकन के माध्यम से ही सम्भव हो सका। संघीय व्यवस्था में उच्चतम न्यायालय का यह कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

5. यदि उच्चतम न्यायालय पुनर्निरीक्षण का कार्य न करता, तो संविधान कभी भी सर्वोच्च कानून नहीं रह सकता था और संसद तथा राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा हजारों कानून इसके विरुद्ध बन जाते और संविधान महत्त्वहीन प्रलेख मात्र रह जाता। इसीलिए अपनी स्वस्थ एवं सुन्दर व्याख्याओं द्वारा उच्चतम न्यायालय ने संविधान की सुरक्षा की है, उसे गतिशील बनाया है और संघीय सरकार तथा राज्यों की सरकारों को मनमानी करने से रोका है।

समीक्षा वर्तमान समय में न्यायिक पुनर्विलोकन की स्थिति में पर्याप्त परिवर्तन आ गया है। प्रारम्भ में न्यायाधीशों की प्रवृत्ति प्रतिक्रियावादी थी, परन्तु अब उनकी प्रवृत्ति में परिवर्तन हुआ है। और वे संसद के व्यवस्थापन क्षेत्र में कम-से-कम हस्तक्षेप करते हैं। उच्चतम न्यायालय अपनी व्याख्याओं के आधार पर संविधान को निरन्तर गति प्रदान करता रहा है।

प्रश्न 4.
जनहित याचिकाएँ (जनहित अभियोग) के अर्थ एवं महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2009]
या
‘जनहित याचिका’ से आप क्या समझते हैं? भारतीय न्याय-व्यवस्था में इनकी भूमिका का मूल्यांकन कीजिए। [2013, 14, 15]
उत्तर :
जनहित याचिकाएँ (जनहित अभियोग) का अर्थ

न्याय के प्रसंग में परम्परागत धारणा यह रही है कि न्यायालय से न्याय पाने का हक उसी व्यक्ति को है जिसके मूल अधिकारों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, जिसे स्वयं या जिसके पारिवारिक जन को कोई पीड़ा पहुँची है, किन्तु आज की परिस्थितियों में न्यायिक सक्रियतावाद के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय ने आंग्ल विधि के उपर्युक्त नियम को परिवर्तित करते हुए यह व्यवस्था की है।

कि कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे समूह या वर्ग की ओर से मुकदमा लड़ सकता है, जिसको उसके कानून या संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया हो। सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि गरीब, अपंग अथवा सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से दलित लोगों के मामले में आम जनता का कोई आदमी न्यायालय के समक्ष ‘वाद’ ( मुकदमा ) ला सकता है। न्यायालय अपने सारे तकनीकी और कार्य-विधि सम्बन्धी नियमों की परवाह किये बिना ‘वाद’ लिखित रूप में देने मात्र से ही कार्यवाही करेगा। न्यायाधीश कृष्णा अय्यर के अनुसार, वाद कारण’ और ‘पीड़ित व्यक्ति की संकुचित धारणा का स्थान अब ‘वर्ग कार्यवाही’ और ‘लोकहित में कार्यवाही की व्यापक धारणा ने ले लिया है। ऐसे मामले व्यक्तिगत मामलों से भिन्न होते हैं। वैयक्तिक मामलों में ‘वादी’ और ‘प्रतिवादी’ होते हैं, जब कि जनहित संरक्षण से सम्बन्धित मामले किसी एक व्यक्ति के बजाय ऐसे समूह के हितों की रक्षा पर बल देते हैं जो कि शोषण और अत्याचार का शिकार होता है और जिसे संवैधानिक और मानवीय अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है।

इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने गरीब और असहाय लोगों की ओर से जनहित में कार्य करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को मुकदमा लड़ने का अधिकार दे दिया है। इस प्रकार के मुकदमे के लिए जो प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया जाता है, वह जनहित याचिका’ है तथा इस प्रकार का मुकदमा जनहित अभियोग है।

जनहित याचिकाओं का महत्त्व

जनहित याचिकाओं का महत्त्व निम्नलिखित रूप में बताया जा सकता है –

1. समाज के निर्धन व्यक्तियों और कमजोर वर्गों को न्याय प्राप्त होना – भारत में करोड़ों ऐसे व्यक्ति हैं जो राजव्यवस्था और समाज के धनी-मानी व्यक्तियों के अत्याचार भुगत रहे हैं, जिनका शोषण हो रहा है, लेकिन उनके पास न्यायालय में जाने के लिए आवश्यक जानकारी, समझ और साधन नहीं हैं। जनहित याचिकाओं के माध्यम से अब समाज के शिक्षित और साधन सम्पन्न व्यक्ति इन कमजोर वर्गों की ओर से न्यायालय में जाकर इनके लिए न्याय प्राप्त कर सकते हैं। जनहित याचिकाओं की विशेष बात यह है कि ‘वाद’ प्रस्तुत करने के लिए कानूनी औपचारिकताओं को पूरा करना आवश्यक नहीं होता और इन मुकदमों में न्यायालय पीड़ित पक्ष के लिए आवश्यकतानुसार नि:शुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था भी करता है।

2. कानूनी न्याय के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक न्याय पर बल – जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के अन्तर्गत संविधान की भावना को दृष्टि में रखते हुए इस विचार को अपनाया गया कि देश के दीन और दलित जनों के प्रति न्यायालयों का विशेष दायित्व है। अतः इन न्यायालयों को कानूनी न्याय से आगे बढ़कर आर्थिक-सामाजिक न्याय प्रदान करने का प्रयत्न करना चाहिए। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश के हरिजनों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं उनकी आर्थिक-सामाजिक दशाओं को जाँचने के लिए एक आयोग गठित किया। आयोग की जाँच रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हरिजनों का धन्धा ठेके पर दिये जाने से उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में इस बात का प्रतिपादन किया कि यदि निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी दी जाती है तो वे इसे संविधान के अनुच्छेद 23 का उल्लंघन और बेगार मानेंगे। इस प्रकार ‘बन्धुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत सरकार’ विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘बन्धुआ मुक्ति मोर्चा’ संस्था के पत्र को रिट मानकर आयोग नियुक्त कर जाँच करवाई और जाँच में जब पाया कि ‘मजदूर अमानवीय दशा में कार्यरत हैं तब न्यायालय ने इन मजदूरों की मुक्ति के आदेश दिये।

3. शासन की स्वेच्छाचारिता पर नियन्त्रण – जनहित याचिकाओं का एक रूप और प्रयोजन शासन की स्वेच्छाचारिता पर नियन्त्रण है। संविधान और कानून के अन्तर्गत उच्च कार्यपालिका अधिकारियों को कुछ- ‘स्वविवेकीय शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। इस पृष्ठभूमि में जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात का प्रतिपादन किया कि विवेकात्मक शक्तियों के अन्तर्गत सरकार की कार्यवाही विवेक सम्मत होनी चाहिए तथा इस कार्यवाही को सम्पन्न करने के लिए जो कार्यविधि अपनायी जाए, वह कार्यविधि भी विवेक सम्मत, उत्तम और न्यायपूर्ण होनी चाहिए।

4. शासन को आवश्यक निर्देश देना – 1993-2003 के वर्षों में तो सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के आधार पर समस्त राजनीतिक व्यवस्था में पहले से बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका प्राप्त कर ली। इन न्यायालयों ने जब यह देखा कि जाँच एजेन्सियाँ उच्च पदस्थ अधिकारियों के विरुद्ध जाँच कार्य में ढिलाई बरत रही हैं तब न्यायालयों ने विभिन्न जाँच एजेन्सियों को अपना कार्य ठीक ढंग से करने के लिए निर्देश दिये और इस बात का प्रतिपादन किया कि व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा हो, कानून उससे ऊपर है तथा सरकारी एजेन्सी को अपना कार्य निष्पक्षता के साथ करना चाहिए। पिछले 20 वर्षों में जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के आधार पर न्यायालयों ने बन्धुआ मजदूरी और बाल श्रम की स्थितियाँ समाप्त करने, कानून और व्यवस्था बनाये रखते हुए निर्दोष नागरिकों के जीवन की रक्षा करने, प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी संविधान के प्रावधान को अनिवार्य रूप से लागू करने, बस दुर्घटनाओं को रोकने की दृष्टि से व्यवस्था करने, सफाई की व्यवस्था कर महामारियों की रोकथाम करने, सरसों के तेल और अन्य खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकने के लिए आवश्यक व्यवस्था करने और पर्यावरण की रक्षा आदि के प्रसंग में समय-समय पर अनेक आदेश-निर्देश जारी किये हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) [4 अंक]

प्रश्न 1.
लोक अदालत से आप क्या समझते हैं? भारतीय न्याय व्यवस्था में इसकी भूमिका एवं महत्त्व की चर्चा कीजिए। [2014]
उत्तर :
लोक अदालत

भारत जैसे देश में जहाँ 125 करोड़ की आबादी निवास करती है वहीं न्यायालयों के समक्ष वादों की संख्या भी अत्यधिक है। एक अध्ययन के अनुसार केवल इलाहाबाद उच्च न्यायालय में तीन लाख वादं लम्बित हैं और देर से न्याय मिलना न्याय न मिलने के समान होता है, अनेक ऐसे वाद हैं, जिनमें वादी एवं प्रतिवादी दोनों का देहान्त हो चुका होता है। इस समस्या का समाधान करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पीएन भगवती ने लोक अदालतों की व्यवस्था आरम्भ की तथा भारत में प्रथम लोक अदालत 1982 ई० में गुजरात में आयोजित की गई।

उत्तर प्रदेश में पहली लोक अदालत का आयोजन 1984 ई० में हुआ। भारत में अधिकांश आबादी इस स्तर पर है कि वे अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति भी मुश्किल से कर पाते हैं। अतः यह आबादी इन लम्बे मुकदमों को लड़ने में असमर्थ है। अतः इस सामान्य जनता के समय एवं धन की बचत के साथ-साथ न्यायालयों के कार्यभार को कम करने के उद्देश्य से भी लोक अदालत की अवधारणा अमल में लाई गई।

न्याय व्यवस्था में लोक अदालतों की प्रमुख भूमिका एवं महत्त्व

लोक अदालतों की प्रमुख भूमिका एवं महत्त्व निम्नलिखित हैं –

  1. लोक अदालत में वादी और प्रतिवादी अपना वकील नहीं रख सकते हैं तथा आपस में समझौता करते हैं, जिससे दोनों पक्षों के सरकारी धन की बचत होती है।
  2. लोक अदालतों में मुकदमों का निपटारा आपसी सहमति के आधार पर होता है, जिससे आपसी सद्भाव एवं समरसता भी दोनों पक्षों में बनी रहती है।
  3. लोक अदालत में दोनों पक्षों को सलाह एवं परामर्श देने के लिए राज़पत्रित अधिकारी, सेवानिवृत्त न्यायाधीश तथा समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति होते हैं, जिससे न केवल निर्णय की निष्पक्षता बनी रहती है, वरन् मुकदमों को सामाजिक व्यापकता भी प्रदान होती है।
  4. लोक अदालतों में सामाजिक एवं पारिवारिक विवाद, किराया, बेदखली बीमा, ब्याज आदि विभिन्न छोटे-छोटे मुकदमों को समझा-बुझाकर समझौता करा दिया जाता है तथा एक दिन में ही अनेकों मामले हल हो जाते हैं, जिससे समय की बचत होती है एवं त्वरित न्याय प्राप्ति की व्यवस्था होती है।
  5. लोक अदालतों ने न केवल सामाजिक समस्याओं का हल निकाला है, वरन् अदालतों पर बढ़ते मुकदमों के बोझ को भी कम करने में सहायता की है।
    नि:सन्देह लोक अदालतों ने सराहनीय कार्य किये हैं। विगत 33 वर्षों में इन अदालतों ने लाखों मुकदमों को शीघ्र एवं सस्ता न्याय दिलाकर निपटारा किया है।

प्रश्न 2.
सर्वोच्च न्यायालय का परामर्शदायी क्षेत्राधिकार क्या है? उसका एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर :
संविधान के अनुच्छेद 143 में प्रावधान है कि राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय से दो प्रकार के मामलों में अपनी राय अभिव्यक्त करने की अपेक्षा की जाती है। यह सलाहकारी हैसियत में होगा, न्यायिक हैसियत में नहीं।

(क) पहले वर्ग में यदि राष्ट्रपति को प्रतीत होता है कि कोई विधि का प्रश्न ऐसी प्रकृति का है। और ऐसे सार्वजनिक महत्त्व का है कि जिस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना समीचीन है तो वह उस विधिक प्रश्न को उच्चतम न्यायालय को राय देने के लिए निर्दिष्ट कर सकेगा।

उच्चतम न्यायालय द्वारा ऐसे निर्देश में दी गयी राय सरकार पर आबद्धकर नहीं है, अर्थात् उसको मानने को सरकार बाध्य नहीं है। यह राय केवल सलाहकारी है। ऐसा प्रायः तभी होता है। जब सरकार कोई कार्यवाही करने से पहले प्राधिकृत विधिक राय पाने को आतुर हो। 1995 ई० तक राष्ट्रपति द्वारा इस वर्ग के 9 निर्देश किये गये हैं। अन्तिम बार 1991 ई० में ‘कावेरी जल विवाद के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श प्राप्त किया गया था।

उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार है कि यदि अनुच्छेद 143 के अधीन उससे पूछा गया प्रश्न व्यर्थ या अनावश्यक है तो वह उसका उत्तर देने से मना कर दे। राष्ट्रपति ने जनवरी, 1993 ई० में सर्वोच्च न्यायालय से इस विषय पर परामर्श माँगा था कि विवादास्पद बाबरी मस्जिद से पूर्व वहाँ कोई मन्दिर था या नहीं। सर्वोच्च न्यायालय ने 24 अक्टूबर, 1994 को अपने सर्वसम्मत ऐतिहासिक निर्णय में राष्ट्रपति को इस सम्बन्ध में राय देने से मना कर दिया था।

(ख) दूसरे वर्ग के मामले में संविधान के प्रारम्भ से पहले की गयी सन्धियों और करारों से उपजे विवाद आते हैं। राष्ट्रपति ऐसे विवादों की विषय-वस्तु को उच्चतम न्यायालय को परामर्शदायी हैसियत से राय देने के लिए भेज सकता है।

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प्रश्न 3.
‘न्यायिक पुनरावलोकन’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2013]
या
न्यायिक समीक्षा के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2007]
या
न्यायिक पुनरावलोकन का क्या अर्थ है? इसका प्रयोग किसके द्वारा किया जाता है? [2007, 10]
या
न्यायिक पुनरावलोकन को परिभाषित कीजिए। [2014, 15]
उत्तर :
भारत की न्यायिक पुनरावलोकन की अवधारणा संयुक्त राज्य अमेरिका से गृहीत है। संविधानवाद को अमेरिकी संविधान निर्माताओं की कई मौलिक देन हैं। अमेरिका में सर्वोच्च न्यायालय को संविधान द्वारा एक महत्त्वपूर्ण कार्य यह सौंपा गया है कि वह विधायिका तथा कार्यपालिका को नियन्त्रित करे। चूँकि अमेरिका में संविधान सर्वोपरि है, इसलिए वे संविधान द्वारा निर्धारित सीमाओं के अन्तर्गत ही कार्य करें और सर्वोच्च न्यायालय यह देखे कि वे संविधान का उल्लंघन तो नहीं कर रहे हैं। इस अधिकार के अन्तर्गत यदि किसी राज्य के विधानमण्डल द्वारा निर्मित कोई कानून संघीय संविधान अथवा संयुक्त राज्य द्वारा की गयी सन्धि के प्रतिकूल हो तथा कार्यपालिका के कार्य संविधान के प्रतिकूल हों तो संघीय न्यायपालिका उसे अवैध घोषित कर सकती है। न्यायालय के इसी अधिकार को न्यायिक पुनरावलोकन’ कहते हैं। कारविन के शब्दों में, “न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ न्यायालय की उस शक्ति से है जो उन्हें अपने न्याय क्षेत्र के अन्तर्गत लागू होने वाले व्यवस्थापिका के कानूनों की वैधानिकता का निर्णय देने के सम्बन्ध में तथा कानूनों को लागू करने के सम्बन्ध में प्राप्त है, जिन्हें वे अवैध व व्यर्थ समझे।’

प्रश्न 4.
न्यायिक अभिलेख (रिट) क्या है? संक्षेप में बताइए। [2016]
या
अधिकार पृच्छा का लेख से आप क्या समझते हैं? [2016]
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय संविधान की धारा-32 के तहत मूल अधिकारों की रक्षा करने के लिए जो आदेश जारी करता है, उसे न्यायिक अभिलेख (रिट) कहते हैं। रिट पाँच प्रकार की होती है जोकि निम्नलिखित हैं

1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण – कार्यपालिका व निजी व्यक्ति दोनों के विरुद्ध उपलब्ध अधिकार जोकि अवैध निरोध के विरुद्ध व्यक्ति को सशरीर अपने सामने प्रस्तुत किए जाने का आदेश जारी करता है। न्यायालय दोनों पक्षों को सुनकर यह निर्णय लेता है कि निरोध उचित है अथवा अनुचित है।

2. परमादेश – इसका शाब्दिक अर्थ है, ‘हम आदेश देते है। यह उस समय जारी किया जाता है जब कोई पदाधिकारी अपने सार्वजनिक कर्तव्य का पालन नहीं करता। इस रिट के माध्यम से उसे अपने कर्तव्य का पालन करने का आदेश दिया जाता है।

3. उत्प्रेषण – इसका शाब्दिक अर्थ है और अधिक जानकारी प्राप्त करना। यह आदेश कानूनी क्षेत्राधिकार से सम्बन्धित त्रुटियों अथवा अधीनस्थ न्यायालय से कुछ सूचना प्राप्त करने के लिए जारी किया जाता है।

4. अधिकार पृच्छा – जब कोई व्यक्ति ऐसे पदाधिकारी के रूप में कार्य करने लगता है जिसका कि वह वैधानिक रूप से अधिकारी नहीं है तो न्यायालय इस रिट द्वारा पूछता है कि वह किस आधार पर इस पद पर कार्य कर रहा है। इस प्रश्न का समुचित उत्तर देने तक वह कार्य नहीं कर सकता है।

5. प्रतिषेध – यह तब जारी किया जाता है जब कोई न्यायिक अधिकरण अथवा अर्धन्यायिक प्राधिकरण अपने क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण करता है। इसमें प्राधिकरण न्यायालय को – कार्यवाही तत्काल रोकने का आदेश दिया जाता है।

प्रश्न 5.
भारतीय न्याय व्यवस्था में लोक अदालत पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2014]
या
लोक अदालतों के दो गुणों का उल्लेख कीजिए। [2009]
या
भारतीय न्याय प्रणाली में लोक अदालतों की प्रासंगिकता के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2015]
उत्तर :
लोक अदालतें

भारत की वर्तमान न्याय व्यवस्था ऐसी है कि न्याय प्राप्त करने में बहुत अधिक समय और धन व्यय होता है। वर्तमान समय में न्यायालयों में लाखों की संख्या में मुकदमे विचाराधीन हैं। इस समस्या का समाधान करने और न्याय को सरल तथा सुविधाजनक बनाने के उद्देश्य से लोक अदालतों की व्यवस्था की गई है। ये अदालतें देश के विभिन्न भागों में शिविर में रूप में लगाई जा रही हैं, जहाँ पर न्यायाधीश छोटे-मोटे मुकदमों की सुनवाई करके तत्काल निर्णय दे देते हैं। इन अदालतों की प्रमुख विशेषताएँ (गुण) निम्नलिखित हैं –

  1. इन अदालतों में सेवानिवृत्त न्यायाधीश, राजपत्रित अधिकारी तथा समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति परामर्शदाता के रूप में बैठते हैं।
  2. इन अदालतों में वादी तथा प्रतिवादी अपना वकील नहीं करते हैं, बल्कि न्यायाधीश के समक्ष दोनों पक्ष स्वयं अपना पक्ष एवं बचाव पक्ष प्रस्तुत करते हैं।
  3. इन अदालतों में मुकदमों का निपटारा पारस्परिक समझौते के आधार पर किया जाता है।
  4. इन अदालतों में वैवाहिक, पारिवारिक व सामाजिक झगड़े, किराया, बेदखली, वाहनों का चालान तथा बीमा आदि के मामले आते हैं।
  5. ये अदालतें समझौता कराती हैं, जुर्माना कर सकती हैं अथवा चेतावनी दे सकती हैं। इन अदालतों को कारावास सम्बन्धी दण्ड देने का अधिकार नहीं है।
  6. इन अदालतों को अभी कानूनी मान्यता नहीं मिल पायी है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए व्यक्ति में किन अर्हताओं का होना आवश्यक है?
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए व्यक्ति में निम्नलिखित अर्हताओं का होना आवश्यक है।

1. वह भारत का नागरिक हो।
2. वह किसी उच्च न्यायालय अथवा दो या दो से अधिक न्यायालयों में लगातार कम-से-कम 5 वर्ष तक न्यायाधीश के रूप में कार्य कर चुका है।
या वह किसी उच्च न्यायालय या न्यायालयों में लगातार 10 वर्ष तक अधिवक्ता रह चुका है।
या राष्ट्रपति की दृष्टि में कानून का उच्च कोटि का ज्ञाता है।

प्रश्न 2.
उच्चतम न्यायालय के चार प्रमुख कार्य बताइए। [2008]
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय के चार प्रमुख कार्य निम्नवत् हैं –

  1. मूल क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत निम्नलिखित विवादों पर उच्चतम न्यायालय फैसला देता है।
    • (क) केन्द्र व राज्यों के बीच झगड़े
    • (ख) राज्यों के आपसी झगड़े
    • (ग) अन्तर्राज्यीय जल स्रोतों के झगड़े।
  2. उच्चतम न्यायालय निचली अदालतों के फैसलों का पुनरावलोकन करता है।
  3. सलाहकार क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय सार्वजनिक महत्त्व के मामले में राष्ट्रपति के माँगने पर उन्हें कानूनी सलाह उपलब्ध कराता है।
  4. यह न्यायालय संविधान की व्याख्या करता है तथा उसके मूल स्वरूप को बनाए रखने में निरीक्षक की भूमिका अदा करता है।

प्रश्न 3.
“सर्वोच्च न्यायालय संविधान का रक्षक ही नहीं बल्कि उसे न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति भी प्राप्त है।” इस कथन की पुष्टि कीजिए। [2007]
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय संविधान की पवित्रता की रक्षा भी करता है। यदि संसद संविधान को अतिक्रमण करके कोई कानून बनाती हैं तो उच्चतम न्यायालय उस कानून को अवैध घोषित कर सकता है। संक्षेप में, सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार है कि वह संघ सरकार अथवा राज्य सरकार के उन कानूनों को अवैध घोषित कर सकता है, जो संविधान के विपरीत हो। इसी प्रकार वह संघ सरकार अथवा राज्य सरकार के संविधान का अतिक्रमण करने वाले आदेशों को भी अवैध घोषित कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय संविधान की व्याख्या करने वाला (Interpreter) अन्तिम न्यायालय है। संक्षेप में, कहा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) का अधिकार है, क्योंकि इसे कानूनों की  वैधानिकता के परीक्षण की शक्ति प्राप्त है। इस शक्ति के आधार पर न्यायपालिका ने सम्पत्ति के अधिकार का अतिक्रमण करने वाले अनेक कानूनों को गोलकनाथ केस, सज्जनसिंह केस तथा केशवानन्द भारती केस में अवैध घोषित किया है।

प्रश्न 4.
भारत में उच्चतम न्यायालय की स्वतन्त्रता के कोई दो निर्णायक कारक बताइए। [2012]
उत्तर :
भारत में उच्चतम न्यायालय की स्वतन्त्रता के दो निर्णायक कारक निम्नवत् हैं –

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति – संविधान के द्वारा सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति को सौंपा गया है जो मुख्य न्यायाधीश तथा न्यायाधीशों से परामर्श प्राप्त करते हुए न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति के प्रसंग में सर्वोच्च न्यायालय ने अक्टूबर 1998 के निर्णय के आधार पर व्यवस्था कर दी है कि अब इस प्रसंग में सरकार या भारत के मुख्य न्यायाधीश किसी के भी द्वारा मनमाना आचरण नहीं किया जा सकता। न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में इसे निश्चित रूप से श्रेष्ठ स्थिति कहा जा सकता है।

2. दीर्घ कार्यकाल और पद की सुरक्षा – भारत में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर आसीन रहते हैं। उन्हें साधारणतया पदच्युत नहीं किया जा सकता। है। राष्ट्रपति किसी न्यायाधीश को केवल सिद्ध कदाचार या अक्षमता के आधार पर हटा सकता है, लेकिन वह ऐसा तभी कर सकता है जब इस हेतु संसद के प्रत्येक सदन की सदस्य संख्या के बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा समर्थित प्रस्ताव उसके समक्ष रखा जाए। पदच्युति की इस पद्धति को व्यवहार में अपनाया जाना बहुत कठिन होता है।

प्रश्न 5.
अभिलेख न्यायालय से क्या तात्पर्य है? [2013]
उत्तर :
अभिलेख न्यायालय अनुच्छेद 129 सर्वोच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्थान प्रदान करता है। अभिलेख न्यायालय के दो आशय हैं–प्रथम, इस न्यायालय के निर्णय सब जगह साक्षी के रूप में स्वीकार किये जायेंगे और इन्हें किसी भी न्यायालय में प्रस्तुत किये जाने पर उनकी प्रामाणिकता के विषय में प्रश्न नहीं उठाया जायेगा। द्वितीय, इस न्यायालय के द्वारा न्यायालय अवमान’ (Contempt of Court) के लिए किसी भी प्रकार का दण्ड दिया जा सकता है।

प्रश्न 6
जनहित याचिकाओं के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2016]
उत्तर :
जनहित याचिकाओं के पक्ष में दो तर्क निम्नलिखित हैं –

  1.  सरल, सस्ता, शीघ्र न्याय – जनहित याचिका द्वारा सामान्य जनता को सरल, कम व्यय में तथा जल्दी न्याय की प्राप्ति हो जाती है। अधिकांश जनहित याचिकाओं में यह देखने को मिलता है कि इसमें पीड़ित पक्ष को पर्याप्त राहत मिलती है, चूंकि जनहित याचिका को न्यायिक प्रक्रिया के जटिल विनियमों से गुजरना नहीं पड़ता है, इसमें यदि न्यायालय याचिका को निर्णय के लिए स्वीकार कर लेता है, तो उस पर कार्यवाही तुरन्त हो जाती है।
  2. शासन की स्वेच्छाचारिता पर रोक – न्यायालय ने विभिन्न मुद्दों पर निर्णय देकर कार्यपालिका के ढुलमुल रवैये तथा निरंकुशता पर रोक लगाई है तो उन्हें अपने कर्तव्यों का उचित पालन करने का मार्ग दिखाया है।

प्रश्न 7.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के कार्यकाल एवं उन पर महाभियोग के बारे में बताइए।
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर कार्यरत रह सकते हैं। 65 वर्ष की आयु की समाप्ति पर उन्हें सेवानिवृत्त कर दिया जाता है। यदि कोई न्यायाधीश चाहे तो इससे पूर्व भी राष्ट्रपति को त्याग-पत्र देकर अपने पद-भार से मुक्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को प्रमाणित दुर्व्यवहार की स्थिति में संसद द्वारा महाभियोग की प्रक्रिया के माध्यम से राष्ट्रपति के द्वारा अपदस्थ किया जा सकता है।

प्रश्न 8
सर्वोच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय क्यों कहते हैं? [2013]
उत्तर :
अनुच्छेद 129 सर्वोच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्थान प्रदान करता है। इसके दो अर्थ हैं –

  1. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय और अदालती कार्यवाही को अभिलेख के रूप में रखा जायेगा जो अधीनस्थ न्यायालयों में दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत किये जायेंगे और उनकी प्रामाणिकता के बारे में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जायेगा।
  2. इस न्यायालय द्वारा ‘न्यायालय की अवमानना’ के लिए दण्ड दिया जा सकता है। वैसे तो यह बात प्रथम स्थिति में स्वत: ही मान्य हो जाती है, लेकिन संविधान में इस न्यायालय की अवमानना करने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था विशिष्ट रूप से की गयी है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न [1 अंक]

प्रश्न 1.
सर्वोच्च न्यायालय में कितने न्यायाधीश होते हैं ?
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीस अन्य न्यायाधीशों को मिलाकर कुल 31 न्यायाधीश होते हैं।

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प्रश्न 2
सर्वोच्च न्यायालय के कोई दो कार्य अथवा अधिकार बताइए। [2010]
उत्तर :

  1. मौलिक अधिकारों की रक्षा करना तथा
  2. संविधान की व्याख्या एवं रक्षा करना।

प्रश्न 3.
सर्वोच्च न्यायालय के दो प्रमुख क्षेत्राधिकारों के वाद लिखिए। [2013, 14]
उत्तर :

  1. उच्चतम न्यायालय किसी भी अधीनस्थ न्यायालय के रिकॉर्ड को अपने यहाँ मँगो सकता है तथा फैसला दे सकता है।
  2. सरकार के ऐसे कार्यों को जो संविधान की मूल भावना के अनुकूल न हों उनका स्वयं संज्ञान लेते हुए संवैधानिक घोषित कर उनको शून्य करार दे सकता है।

प्रश्न 4.
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कौन करता है? [2008, 12, 14, 16]
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति वरिष्ठता क्रम के आधार पर करता है।

प्रश्न 5.
उच्चतम न्यायालय के किसी एक आरम्भिक अधिकार का उल्लेख कीजिए। [2010]
उत्तर :
भारत सरकार और एक या अधिक राज्यों के बीच का विवाद उच्चतम न्यायालय के आरम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आता है।

प्रश्न 6.
जनहित याचिकाएँ किन न्यायालयों में दायर की जा सकती हैं? [2009]
उत्तर :
जनहित याचिकाओं को उच्चतम न्यायालय या जिस प्रान्त से सम्बन्धित याचिका है उस प्रान्त के उच्च न्यायालय में दाखिल किया जा सकता है।

प्रश्न 7
सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग का प्रस्ताव प्रस्तुत करने के लिए संविधान में क्या आधार बताये गये हैं?
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग का प्रस्ताव प्रस्तुत करने के लिए संविधान में कदाचार (प्रमाणित दुर्व्यवहार) अथवा असमर्थता (अक्षमता) को आधार बनाया गया है।

प्रश्न 8
सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए किसी उच्च न्यायालय में कम-से कम कितनी अवधि के लिए न्यायाधीश के रूप में कार्य करना आवश्यक है?
उत्तर :
कम-से-कम पाँच वर्ष के लिए।

प्रश्न 9.
सर्वोच्च न्यायालय के मौलिक अधिकार क्षेत्र का क्या अर्थ है?
उत्तर :
संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों को लागू करने के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार प्रदान किया गया है। अतः मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से सम्बन्धित जो विवाद हैं, वे सीधे सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत किये जा सकते हैं।

प्रश्न 10
भारतीय संविधान का संरक्षक कौन है? [2013, 16]
उत्तर :
भारतीय संविधान का संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय है।

प्रश्न 11.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति कौन करता है? [2013]
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से करता है।

प्रश्न 12.
राज्य का सबसे बड़ा न्यायालय कौन-सा है?
उत्तर :
राज्य का सबसे बड़ा न्यायालय उच्च न्यायालय है।

प्रश्न 13.
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति कौन करता है? [2016]
उत्तर :
भारत का राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श पर राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है।

प्रश्न 14.
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश का कार्यकाल कितना होता है? या उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की निर्धारित आयु क्या है? (2012)
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश का कार्यकाल 65 वर्ष की आयु तक होता है।

प्रश्न 15.
भारत के उच्चतम न्यायालय को संविधान का संरक्षक एवं नागरिकों के मूल अधिकारों का संरक्षक क्यों कहा गया है? (2008, 10, 12, 14, 15)
उत्तर :
संविधान के खिलाफ किए गए विधायिका के कार्यों का उच्चतम न्यायालय शून्य घोषित कर सकता है। तथा नागरिकों के मूल अधिकारों को बहाल करा सकने के कारण उसे संविधान व मूल अधिकारों का संरक्षक कहा गया है।

प्रश्न 16.
लोक अदालत किसे कहते हैं?
उत्तर :
लोक अदालत में परम्परागते कानूनी प्रक्रिया को नहीं अपनाया जाता है तथा इसमें वकीलों की भी कोई भूमिका नहीं होती है। समझौते द्वारा समस्या को हल कर न्याय को सुलभ कराया जाता है।

प्रश्न 17.
जनहित मुकदमे से क्या आशय है?
उत्तर :
पददलित सामान्यजनों के हितार्थ जो मुकदमे चलाए जाते हैं, उन्हें जनहित मुकदमे कहा जाता है।

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प्रश्न 18.
लोक अदालत के दो महत्त्वपूर्ण गुणों का उल्लेख कीजिए।
या
लोक अदालत के दो कार्य लिखिए।
उत्तर :

  1. शीघ्र न्याय तथा
  2. कानूनी जटिलताओं से छुटकारा।

प्रश्न 19.
सर्वोच्च न्यायालय के महत्त्व के पक्ष में दो तर्क दीजिए।
उत्तर :

  1. संविधान को संरक्षक तथा
  2. मूल अधिकारों का अभिरक्षक।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कौन करता है? [2008, 12, 14]
(क) संसद
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) राष्ट्रपति
(घ) मन्त्रिपरिषद्

प्रश्न 2.
भारत का सर्वोच्च न्यायालय कहाँ स्थित है? [2009]
(क) इलाहाबाद में
(ख) नयी दिल्ली में
(ग) मुम्बई में
(घ) चेन्नई में

प्रश्न 3.
सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश अपने पद पर कार्यरत रहता है – [2008, 10, 11, 12]
या
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की अवकाश प्राप्त करने की आयु है [2008, 09, 11, 12, 16]
(क) 58 वर्ष की आयु तक
(ख) 60 वर्ष की आयु तक
(ग) 65 वर्ष की आयु तक
(घ) 62 वर्ष की आयु तक

प्रश्न 4.
भारत में संविधान का संरक्षक कौन है? [2013, 15, 16]
(क) राष्ट्रपति
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) सर्वोच्च न्यायालय
(घ) संसद

प्रश्न 5.
उच्चतम न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त कुल कितने न्यायाधीश होते हैं? [2009]
(क) 23
(ख) 24
(ग) 30
(घ) 26

प्रश्न 6.
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति किसकी सलाह पर की जाती है?
(क) केन्द्रीय विधि मन्त्री
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) महान्यायवादी।
(घ) भारत के मुख्य न्यायाधीश

प्रश्न 7.
संविधान के अनुसार उच्चतम न्यायालय की कार्यवाहियों की अधिकृत भाषा है- [2012]
(क) केवल अंग्रेजी
(ख) अंग्रेजी तथा हिन्दी
(ग) अंग्रेजी तथा कोई भी क्षेत्रीय भाषा
(घ) अंग्रेजी तथा आठवीं सूची में निर्दिष्ट भाषा

प्रश्न 8.
भारत में न्यायिक पुनरावलोकन का सिद्धान्त लिया गया है [2013, 15]
(क) फ्रांस के संविधान से
(ख) जर्मनी के संविधान से
(ग) संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से
(घ) कनाडा के संविधान से

प्रश्न 9.
संविधान के किस अनुच्छेद के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है?
(क) अनुच्छेद 29
(ख) अनुच्छेद 31
(ग) अनुच्छेद 33
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 10.
उच्च न्यायालय से परामर्श माँगने का अधिकार किसको है?
(क) प्रधानमन्त्री को
(ख) लोकसभा अध्यक्ष को
(ग) राष्ट्रपति को
(घ) विधिमन्त्री को।

प्रश्न 11.
उच्च न्यायालय के वह कौन-से मुख्य न्यायाधीश थे, जिन्हें कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ?
(क) गजेन्द्र गडकर
(ख) एम० हिदायतुल्लाह
(ग) के० सुब्बाराव
(घ) पी० एन० भगवती

प्रश्न 12.
उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति किसकी सलाह पर की जाती है?
(क) केन्द्रीय विधि मन्त्री
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) महान्यायवादी
(घ) भारत के मुख्य न्यायाधीश

प्रश्न 13.
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति आयु क्या है? [2016]
(क) 65 वर्ष
(ख) 60 वर्ष
(ग) 58 वर्ष
(घ) 62 वर्ष

प्रश्न 14.
सर्वोच्च न्यायालय के कार्य-क्षेत्र को बढ़ाया जा सकता है? [2016]
(क) संसद द्वारा
(ख) राष्ट्रपति द्वारा
(ग) मंत्रिमंडल द्वारा
(घ) प्रधानमंत्री द्वारा

उत्तर :

  1. (ग) राष्ट्रपति
  2. (ख) नयी दिल्ली में
  3. (ग) 65 वर्ष की आयु तक
  4. (ग) सर्वोच्च न्यायालय
  5. (ग) 30
  6. (घ) भारत के मुख्य न्यायाधीश
  7. (क) केवल अंग्रेजी
  8. (ग) संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से
  9. (घ) इनमें से कोई नहीं
  10. (ग) राष्ट्रपति को
  11. (ख) एम० हिदायतुल्लाह
  12. (घ) भारत के मुख्य न्यायाधीश
  13. (घ) 62 वर्ष
  14. (क) संसद द्वारा।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 11 Concept of Reservation: Necessity, Scope, and Results

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 11 Concept of Reservation: Necessity, Scope, and Results (आरक्षण की अवधारणा-आवश्यकता, क्षेत्र तथा परिणाम) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 11 Concept of Reservation: Necessity, Scope, and Results (आरक्षण की अवधारणा-आवश्यकता, क्षेत्र तथा परिणाम).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 11
Chapter Name Concept of Reservation: Necessity, Scope, and Results
(आरक्षण की अवधारणा-आवश्यकता, क्षेत्र तथा परिणाम)
Number of Questions Solved 38
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 11 Concept of Reservation: Necessity, Scope, and Results (आरक्षण की अवधारणा-आवश्यकता, क्षेत्र तथा परिणाम)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
आरक्षण से आप क्या समझते हैं? भारत में आरक्षण व्यवस्था की आवश्यकता तथा प्रभाव पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए। [2016]
या
भारत में आरक्षण की आवश्यकता तथा प्रभाव का परीक्षण कीजिए। [2007]
या
आरक्षण क्या है? आरक्षण के उद्देश्यों पर प्रकाश डालिए। [2011]
या
भारत में आरक्षण नीति तथा आरक्षण के परिणामों का परीक्षण कीजिए। [2008]
उत्तर
आरक्षण का अर्थ
यदि किसी राजव्यवस्था और राजव्यवस्था से जुड़े समाज में समानता को न केवल सिद्धान्त, वरन् व्यवहार में भी लगभग सम्पूर्ण अंशों में मान्यता प्राप्त हो, तो आरक्षण की आवश्यकता नहीं होती। लेकिन व्यवहार में स्थिति यह है कि लोकतान्त्रिक राजव्यवस्थाओं में भी समानता को केवल सिद्धान्त में ही स्वीकार किया गया है, व्यवहार में अधिकांश अंशों में असमानता की स्थिति विद्यमान है। व्यवहार में विद्यमान यह स्थिति ही आरक्षण की आवश्यकता को जन्म देती है।

आरक्षण शब्द अंग्रेजी शब्द ‘रिजर्वेशन’ (Reservation) का हिन्दी रूपान्तर है। इसका शाब्दिक अर्थ है-स्थिर रखना, सुरक्षित करना। लेकिन राजनीतिक सन्दर्भ में इस शब्द का अर्थ है-समाज के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक रूप से पिछड़े वर्गों के उत्थान तथा कल्याण के लिए सरकार के द्वारा ऐसी नीतियों, कानूनों तथा कार्यक्रमों को प्रारम्भ करना जिससे वे समाज तथा राष्ट्र की मुख्य धारा से अपने आपको सम्बद्ध कर सकें। आरक्षण के द्वारा इन वर्गों को विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं, जिससे कि वे समाज के अन्य वर्गों की बराबरी कर सकें।

भारतीय राजनीति में आरक्षण’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड मिण्टो ने 1909 ई० में किया था। सन् 1909 ई० में भारतीय शासन अधिनियम पारित किया गया था, जिसे मार्ले-मिण्टो सुधार के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार ‘आरक्षण व्यवस्था अंग्रेजों की कूटनीतिक देन है, जिसका एकमात्र उद्देश्य भारत में अंग्रेजी राजे को दीर्घकाल तक बनाए रखना था। वर्तमान समय में आरक्षण व्यवस्था भारतीय राजनीति का एक अभिन्न अंग बन गई है। भारत में आरक्षण की व्यवस्था को स्वतन्त्रता की प्राप्ति से पहले ब्रिटिश सरकार ने कुछ निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए लागू किया था। उसके पश्चात् धीरे-धीरे आरक्षण की माँग का निरन्तर विस्तार होता गया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जाति के आधार पर समाज की अन्य पिछड़ी जातियों (27%), अनुसूचित जातियों (15%) तथा जनजातियों (7.5%) को सरकारी सेवाओं, शिक्षण संस्थाओं, केन्द्रीय विधायिका, राज्य विधानमण्डलों तथा स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में भी सीटों का आरक्षण दिया गया है। भारत में प्रथम बार लिंग के आधार पर भी स्थान सुरक्षित किए गए हैं।

आरक्षण की आवश्यकता
1. सामाजिक और क्षेत्रीय विषमताओं के कारण आरक्षण आवश्यक – एक देश के अन्तर्गत जब कुछ वर्ग और क्षेत्र विकास की दृष्टि से बहुत अधिक पिछड़े हुए होते हैं, तब ये वर्ग और क्षेत्र अपना विकास तभी कर पाते हैं, समाज के अन्य वर्गों के समान स्तर पर तभी आ पाते हैं, जब उन्हें प्रतिनिधित्व और सेवाओं के क्षेत्र में विशेष सुविधाएँ, विशेष अवसर दिए जाएँ। इस प्रकार की विशेष सुविधाएँ और विशेष अवसर ही आरक्षण है। भारत में कुछ वर्ग (दलित जातियाँ) और कुछ क्षेत्र (जनजाति क्षेत्र) बहुत ही अधिक पिछड़े हुए हैं, अतः उनके लिए आरक्षण आवश्यक हो जाता है।

2. आरक्षण लोकतन्त्र और समानता के अनुकूल – लोकतन्त्र की माँग है कि समाज के सभी वर्गों को विकास के समुचित अवसर प्रदान किए जाएँ, लेकिन यह लोकतान्त्रिक समानता तभी वास्तविकता का रूप ले पाती है, जब पिछड़े हुए वर्गों को अपने जीवन और समाज में आगे बढ़ने के लिए विशेष अवसर दिए जाएँ। आरक्षण यही कार्य करता है तथा इस दृष्टि से आरक्षण लोकतन्त्र और समानता के अनुकूल है, प्रतिकूल नहीं। आरक्षण वह साधन है जो लोकतान्त्रिक समानता को मात्र कागजी नहीं, वरन् वास्तविकता का रूप देने का प्रयत्न करता है।

3. सामाजिक न्याय के लक्ष्य की प्राप्ति का साधन – सामाजिक न्याय लोकतन्त्र का एक आवश्यक अंग है और सामाजिक न्याय की माँग है कि राज्य के दुर्बल वर्गों को, अन्य व्यक्तियों की तुलना में कुछ विशेष अवसर और सुविधाएँ प्राप्त हों। यह आरक्षण के आधार पर ही सम्भव हो सकता है। इस दृष्टि से आरक्षण सामाजिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने का एक महत्त्वपूर्ण साधन बन जाता है। इस बात को दृष्टि में रखते हुए ही भारत सहित विश्व के कुछ अन्य देशों में आरक्षण की व्यवस्था को अपनाया गया है।

4. भारत की परम्परागत सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से आरक्षण आवश्यक – भारत में हिन्दू वर्ग के अनुयायी परम्परागत रूप में दो वर्गों में विभाजित रहे हैं। प्रथम, सवर्ण हिन्दू अर्थात् उच्च जातियाँ और द्वितीय, निम्न जातियाँ। सवर्ण हिन्दुओं द्वारा तथाकथित निम्न जातियों का सैकड़ों वर्षों से शोषण किया जाता रहा है, उन्हें अपवित्र मानते हुए उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता रहा है। इस पृष्ठभूमि में हिन्दू समाज की निम्न जातियों के पिछड़ेपन का दायित्व समाज पर आता है और समाज के इन वर्गों को विशेष सुविधाएँ और अवसर प्रदान करने का औचित्य है।

5. क्षेत्रीय विषमताओं के कारण आरक्षण की आवश्यकता – क्षेत्र और जनसंख्या की दृष्टि से विशाल और विविधताओं से भरे इस देश में जातीय विषमताओं के समान ही क्षेत्रीय विषमताओं की स्थिति भी रही है। भारतीय संघ के विविध राज्यों में ऐसे अनेक क्षेत्र हैं, जहाँ स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय तक शहरी जीवन की सुविधाओं ने भी प्रवेश नहीं किया था। स्वाभाविक रूप से इन क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्ति घोर पिछड़ेपन में रहते हुए अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। इन क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्तियों को आदिवासी, वनवासी, गिरिजन एवं जनजाति आदि नामों से पुकारा जाता रहा है। इन क्षेत्रों के घोर पिछड़ेपन का दायित्व भी सम्पूर्ण समाज और राजव्यवस्था पर आता है। अत: संविधान में इन्हें अनुसूचित जनजातियों का नाम दिया गया तथा इन्हें प्रतिनिधि संस्थाओं और सेवाओं में आरक्षण की सुविधा तथा विकास के लिए अन्य कुछ विशेष सुविधाएँ प्रदान की गईं।

अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था संविधान के भाग 16 ‘कुछ वर्गों के सम्बन्ध में विशेष उपबन्ध’ के अन्तर्गत की गई है तथा संविधान के इस भाग 16 का आधार संविधान का अनुच्छेद 46 है। अनुच्छेद 46 में कहा गया है-
“राज्य, जनता के दुर्बल वर्गों के विशिष्टतया अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के शिक्षा तथा अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय तथा सभी प्रकार के शोषण से उनकी रक्षा करेगा।’ संविधान जनता के दुर्बल वर्गों के शिक्षा तथा अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि और सामाजिक अन्याय तथा सभी प्रकार के शोषण से उनकी रक्षा की बात करता है और जनता के दुर्बल वर्गों में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों का उल्लेख करता है।

इस प्रकार संविधान जाति के आधार पर आरक्षण की अनुमति प्रदान करता है, लेकिन धर्म के आधार पर आरक्षण की कोई अनुमति प्रदान नहीं करता। भारतीय समाज के हिन्दू वर्ग में परम्परागत रूप से जाति व्यवस्था की जो स्थिति रही है, उसमें वर्ग के साथ जाति के जुड़ने और जातिगत आधार पर आरक्षण का औचित्य है।

सामाजिक न्याय लोकतान्त्रिक व्यवस्था का एक आवश्यक अंग है और सामाजिक न्याय की माँग है कि समाज के दुर्बल वर्गों को अन्य व्यक्तियों की तुलना में विकास के लिए कुछ विशेष अवसर और सुविधाएँ प्राप्त हों। यह आरक्षण के आधार पर सम्भव हो सकता है, इस दृष्टि से आरक्षण सामाजिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने का एक महत्त्वपूर्ण साधन बन जाता है। आरक्षण के कुछ प्रमुख परिणाम इस प्रकार हैं-

1. अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की स्थिति में कुछ सुधार, लेकिन अपेक्षित सुधार नहीं – आरक्षण की इस व्यवस्था से अनुसूचित जातियों और जनजातियों की स्थिति में कुछ सुधार अवश्य ही हुआ है। आज भारत की लोकसभा में अनुसूचित जातियों के 79 से अधिक और जनजातियों के 42 प्रतिनिधि हैं। यह स्थिति इन जातियों के लिए अच्छी है, लोकसभा या संसद के लिए भी उचित स्थिति है। यदि आरक्षण की व्यवस्था नहीं होती, तो इन जातियों के कुल मिलाकर इसके आधी संख्या के प्रतिनिधि भी लोकसभा के लिए निर्वाचित नहीं होते और ऐसी स्थिति में भारत की संसद या लोकसभा को भारत की समस्त जनता को प्रतिनिधि कह पाना बहुत कठिन हो जाता। लोक-सेवाओं, केन्द्रीय तथा राज्य सरकार के अधीन उच्च स्तर की लोक-सेवाओं में भी इन जातियों के सदस्यों ने पर्याप्त संख्या में प्रवेश पाया है। इसी प्रकार पिछड़ी जातियों को जो आरक्षण प्रदान किया गया है, उससे सेवाओं में इन जातियों के सदस्यों की संख्या में वृद्धि हुई है। प्रतिनिधि संस्थाओं और सेवाओं में यह स्थिति लोकतान्त्रिक व्यवस्था की दृष्टि से शुभ है।

2. इन जातियों में चेतना का उदय – आरक्षण की व्यवस्था और इस व्यवस्था से प्राप्त लाभों के परिणामस्वरूप अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों में चेतना का उदय हुआ है, जहाँ चेतना पहले से कुछ अंशों में विद्यमान थी, वहाँ चेतना में वृद्धि हुई है।

3. आरक्षण जातियों के आपसी मेल-मिलाप और समतावादी समाज की स्थापना में बाधक – अनुसूचित जातियों और जनजातियों को प्रदान की गयी विशेष सुविधाओं का मूल उद्देश्य इन जातियों को विकास के मार्ग पर आगे बढ़ाकर उन्हें राष्ट्र और समाज की मुख्य धारा में मिलाना था, परन्तु आरक्षण की यह व्यवस्था सभी जातियों के आपसी मेल-मिलाप में बाधा बनती जा रही है। हिन्दू समाज की तथाकथित उच्च जातियों में अनुसूचित जातियों के प्रति नवीन द्वेष की भावना उत्पन्न होती जा रही है और अनुसूचित जातियाँ सामाजिक मेल-मिलाप की चिन्ता न कर अपने इन विशेष अधिकारों को बनाये रखना चाहती हैं।

4. अन्य जातियों में आरक्षण का लाभ पाने की होड़ – अब तक जो जातियाँ आरक्षण के लाभ से वंचित हैं, इस सदी के अन्तिम दशक में वे आरक्षण का लाभ प्राप्त करने के प्रबल प्रयत्नों में जुट गयी हैं। इन जातियों के लिए अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों में प्रवेश पाना सरल नहीं है, लेकिन पिछड़े वर्ग या पिछड़ी जातियों की कोई निश्चित परिभाषा कर पाना सम्भव नहीं है; अतः वे अपने आपको विकास और शिक्षा की दृष्टि से पिछड़ी बतलाते हुए माँग कर रही हैं कि उन्हें भी पिछड़े वर्गों में शामिल किया जाना चाहिए। उत्तर भारत के जाट, महाराष्ट्र के मराठा, मध्य प्रदेश के कुर्मी, उत्तर प्रदेश के मुसलमान, गूजर, हरियाणा के सैनी, राजस्थान के मेव, कायमखानी और विश्नोई, आन्ध्र प्रदेश के रेड्डी और कर्नाटक के वोक्कालिंगा पिछड़े वर्गों में शामिल होने की माँग कर रहे हैं तथा सांसदों का एक वर्ग उनकी मॉग का समर्थन कर रहा है।

प्रश्न 2.
सरकारी सेवाओं में जातीय आधार पर आरक्षण के औचित्य का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। [2010]
या
आरक्षण पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिए। [2011]
या
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारत सरकार द्वारा आरक्षण व्यवस्था से सम्बन्धित प्रावधानों का विवेचन कीजिए। [2009]
या
वर्तमान आरक्षण नीति का आधार क्या है? विवेचना कीजिए। [2008]
या
सरकारी सेवाओं में जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था में पदोन्नति (प्रोमोशन) को शामिल करने के औचित्य का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। [2013]
उत्तर
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात आरक्षण के सम्बन्ध में उठाए गए कदम।
भारतीय संविधान समानता एवं भ्रातृत्व (Equality and Fraternity) की अवधारणा पर आधारित है। अतः संविधान निर्माताओं ने यह विचार किया कि यदि समानता को वास्तविकता की स्थिति प्रदान करनी है तो समाज के अछूत, दलित तथा पिछड़े वर्गों को विशेष सुविधाएँ प्रदान करनी होंगी। इन विशेष सुविधाओं के आधार पर ही समाज के ये दलित और पिछड़े वर्ग अन्य वर्गों के समान विकास की स्थिति को प्राप्त कर सकेंगे। आरक्षण के सम्बन्ध में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण प्रावधान किए गए

संविधान में आरक्षण की व्यवस्था
सन् 1950 ई० में भारतीय संविधान को लागू किया गया तथा आरक्षण को संविधान में संवैधानिक आधार प्रदान किया गया। मूल अधिकारों से सम्बन्धित संविधान के भाग ३ अनुच्छेद 16 में स्पष्ट रूप से लिखा गया है-“सबै नागरिकों को सरकारी पदों पर नियुक्ति के समान अवसर प्राप्त होंगे और इस सम्बन्ध में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग अथवा जन्म-स्थान या इनमें से किसी एक के आधार पर सरकारी नौकरी अथवा पद प्रदान करने में भेदभाव नहीं किया जाएगा। इस प्रकार से संविधान का यह अनुच्छेद भारत के समस्त नागरिकों को समान रूप से सरकारी नौकरियों में समान अवसर प्रदान करता है। परन्तु इस स्थिति के होते हुए भी सरकार अनुच्छेद 16(4) के अधीन सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए स्थानों का आरक्षण कर सकती है।

संविधान के अध्याय 16 में 13 अनुच्छेदों (अनुच्छेद 330 से 342 तक) के द्वारा कुछ विशेष वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। यह व्यवस्था अस्थायी है और इसे संविधान के लागू होने के बाद 10 वर्ष तक अर्थात् 1960 ई० तक बनाए रखने की व्यवस्था की गई थी, परन्तु बाद में संवैधानिक संशोधनों के द्वारा इन विशेष व्यवस्थाओं की अवधि बढ़ा गई। 8वें, 23वें और 45वें संवैधानिक संशोधन में से प्रत्येक के द्वारा आरक्षण की अवधि 10 वर्ष बढ़ाई गई तथा बाद में 62वें संविधान संशोधन (1990 ई०) के आधार पर 25 जनवरी, 2000 ई० तक के लिए बढ़ा दी गई। 79वें संवैधानिक संशोधन अक्टूबर (1999 ई०) के अनुसार अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए संसद तथा राज्य विधानमण्डलों के स्थान आरक्षित रखने की व्यवस्था को 26 जनवरी, 2010 ई० तक के लिए बढ़ा दिया गया जिसे अब अगले और दस वर्षों तक के लिए बढ़ाकर 2020 तक के लिए लागू किया गया है।

संविधान के अध्याय 16 को ‘कुछ वर्गों के सम्बन्ध में विशेष उपबन्ध’ का शीर्षक दिया गया है। और इस अध्याय में आंग्ल-भारतीय समुदाय, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य पिछड़ी जातियों के लिए विशेष व्यवस्था की गई है। इन विशेष प्रावधानों के उद्देश्य को संविधान के अनुच्छेद 46 में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है-“राज्य जनता के दुर्बल वर्गों, विशेषतया अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी सुरक्षा करेगा।”

आंग्ल-भारतीय समुदाय के लिए आरक्षण सम्बन्धी व्यवस्थाएँ
आंग्ल-भारतीय समुदाय के लिए संविधान में दो प्रकार की आरक्षण सम्बन्धी विशेष व्यवस्थाएँ की गई हैं। प्रथम, संसद तथा राज्य विधानमण्डलों में स्थानों का आरक्षण तथा द्वितीय, सरकारी सेवाओं में विशेष सुविधाएँ। इस वर्ग के लिए सरकारी सेवाओं में विशेष सुविधाएँ अब समाप्त हो गई हैं, लेकिन संसद तथा राज्य विधानमण्डलों में स्थानों के आरक्षण की स्थिति इस वर्ग को अभी तक प्राप्त है। संविधान के अनुच्छेद 331 के अन्तर्गत राष्ट्रपति को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि यदि लोकसभा में राष्ट्रपति के विचार में आंग्ल-भारतीय वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त न हुआ हो तो वह लोकसभा में अधिक-से-अधिक 2 आंग्ल-भारतीयों को नियुक्त कर सकता है। अनुच्छेद 333 के अन्तर्गत राज्य के राज्यपाल को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि यदि उसके विचार में राज्य की विधानसभा में आंग्ल-भारतीय समुदाय को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हुआ है तो वह एक प्रतिनिधि को मनोनीत कर सकेगा।

अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों की आरक्षण सम्बन्धी व्यवस्थाएँ
अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के सम्बन्ध में प्रमुख रूप से निम्नलिखित व्यवस्थाएं की गई हैं-

1. प्रतिनिधित्व के सम्बन्ध में विशेष व्यवस्था – संविधान में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए जनसंख्या के आधार पर स्थान आरक्षित करने की व्यवस्था की गई है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इन जातियों के उम्मीदवार सुरक्षित स्थानों के अतिरिक्त अन्य निर्वाचन क्षेत्रों से भी चुनाव लड़ सकते हैं। लोकसभा में अनुसूचित जातियों के लिए 79 तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए 40 स्थान सुरक्षित किए गए हैं। राज्य के विधानमण्डलों में भी अनुसूचित जाति तथा जनजाति के उम्मीदवारों के लिए स्थान सुरक्षित किए जाने की व्यवस्था है।

2. सेवाओं तथा शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश हेतु विशेष आरक्षण – संविधान के अनुच्छेद 355 के अन्तर्गत अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के उम्मीदवारों के लिए केन्द्र तथा राज्य सरकारों की प्रशासनिक सेवाओं में प्रशासनिक कुशलता के अनुरूप स्थान सुरक्षित रखने की व्यवस्था की गई है। संविधान आरक्षित स्थानों का प्रतिशत एवं समय-सीमा निर्धारित नहीं करता है। इन्हें प्रशासन द्वारा नियमों के अन्तर्गत निर्धारित करने की व्यवस्था की गई है। इन जातियों के लिए शासकीय सेवाओं में प्रतिनिधित्व देने के लिए जो रियायतें प्रदान की गई हैं, उनमें से प्रमुख हैं-आयु सीमा में छूट, योग्यता स्तर में छूट, कार्यकुशलता का निम्नतम स्तर पूरा न करने पर भी उनका चयन, नीचे की श्रेणियों में उनकी नियुक्ति तथा पदोन्नति का विशेष प्रबन्ध। 1950 ई० में गृह मन्त्रालय द्वारा पारित प्रस्ताव के अनुसार इन जातियों के लिए 12.5% से 16% तेक स्थान आरक्षित किए जाने की व्यवस्था थी। परन्तु बाद में यह व्यवस्था की गई कि अनुसूचित जातियों के लिए 15% तथा जनजातियों के लिए 7.5% स्थान आरक्षित किए जाएँगे।

3. विशेष आयोग – इन जातियों के हितों की सुरक्षा के लिए तथा उनसे सम्बन्धित विषयों की जाँच करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 388 में एक विशेष आयोग ‘राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग का गठन किए जाने का प्रावधान किया गया है।

4. जाँच आयोग की नियुक्ति – संविधान के अनुच्छेद 340 के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति दो आयोगों की नियुक्ति करेगा। प्रथम अनुसूचित क्षेत्रों में प्रशासन व अनुसूचित जातियों के कल्याण सम्बन्धी मामलों की जाँच करेगा तथा दूसरा पिछड़ी जातियों की शैक्षणिक तथा सामाजिक स्थिति की जाँच करेगा। इसके अतिरिक्त वे आयोग उनकी उन्नति के उपायों की ओर संघ तथा राज्य सरकारों का ध्यान आकर्षित करेंगे। संविधान के द्वारा केन्द्र सरकार को यह अधिकार है कि वह प्रथम आयोग की सिफारिशों पर अमल करने के लिए राज्य सरकारों को निर्देश दे। दूसरे आयोग की सिफारिशों को अपनाने के लिए केन्द्र सरकार राज्य सरकारों को परामर्श तो दे सकती है, परन्तु निर्देश नहीं। उनका पालन करना राज्य सरकारों की इच्छा तथा साधनों पर निर्भर करता है। आयोगों के द्वारा तैयार किए गए प्रतिवेदन संसद के दोनों सदनों के सम्मुख प्रस्तुत किए जाते हैं।

5. कल्याणकारी योजनाओं को लागू करना – संविधान के अनुच्छेद 275 के अनुसार अनुसूचित जातियों के विकास के उद्देश्य से बनाई गई योजनाओं के लिए राज्य सरकारों को विशेष अनुदान देने की व्यवस्था है। अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के विद्यार्थियों को छात्रवृत्तियाँ दिए जाने, नि:शुल्क शिक्षा देने तथा प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों में स्थान सुरक्षित रखने का प्रावधान किया गया है। संविधान में यह भी व्यवस्था की गई है कि झारखण्ड, ओडिशा उड़ीसा, छत्तीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश में जनजातियों के कल्याण के लिए एक मन्त्री होगा, जिसे अनुसूचित जाति के कल्याण के लिए उत्तरदायी बनाया गया है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए
(क) 1909 ई० का मॉर्ले-मिण्टो सुधार अधिनियम,
(ख) पूना पैक्ट,
(ग) मण्डल आयोग।
उत्तर
(क) मॉर्ले-मिण्टो सुधार अथवा 1909 ई० के अधिनियम में आरक्षण की व्यवस्था
स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व ब्रिटिश शासन के द्वारा धर्म के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गयी थी। सर्वप्रथम मॉर्ले-मिण्टो सुधारों (1909 ई०) द्वारा मुसलमानों को निर्वाचनों में आरक्षण प्रदान किया गया था। 1909 ई० के अधिनियम द्वारा पृथक एवं साम्प्रदायिक निर्वाचन-पद्धति अपनाई गयी। सामान्य निर्वाचन तथा क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त को भारत के लिए अनुपयुक्त समझा गया। विभिन्न वर्गों, हितों तथा जातियों के आधार पर मुसलमानों के लिए अलग से निर्वाचन की व्यवस्था की गयी। इसके अतिरिक्त वाणिज्यिक संघों तथा जमींदारों आदि के लिए भी पृथक् निर्वाचन-क्षेत्रों की व्यवस्था की गयी। मुसलमानों के लिए साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के आधार पर पृथक् निर्वाचन पद्धति के साथ-साथ अधिकार मतों (Weightage Votes) की भी व्यवस्था की गयी। मुसलमानों के पृथक् प्रतिनिधित्व को देखते हुए सिक्ख, हरिजन, आंग्ल-भारतीय आदि वर्ग भी पृथक् प्रतिनिधित्व की माँग करने लगे।

(ख) पूना पैक्ट (1932 ई०)
पूना पैक्ट में साम्प्रदायिक निर्णय की तुलना में अनुसूचित जातियों को अधिक स्थान प्रदान किये गये। पूना पैक्ट के द्वारा अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधियों के लिए 71 से बढ़ाकर 148 स्थानों को सुरक्षित कर दिया गया। इन सुरक्षित स्थानों के लिए चुनाव की द्विस्तरीय व्यवस्था को स्वीकार किया गया। इस व्यवस्था में यह प्रावधान था कि प्रथम चरण में प्रत्येक सुरक्षित स्थानों के लिए हरिजन प्रत्याशियों को चयनित किया जाएगा। अन्त में हिन्दू तथा हरिजन संयुक्त रूप से इन चार प्रत्याशियों में से एक प्रत्याशी को निर्वाचित करेंगे। यह विषय 30 वर्षों तक लागू रहेगा। हरिजनों को सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में भी मत देने का अधिकार होगा।

(ग) मण्डल आयोग
आयोग ने अपनी रिपोर्ट 31 दिसम्बर, 1980 ई० को सरकार को सौंप दी, जिसे सरकार ने 30 अप्रैल, 1982 ई० को संसद में प्रस्तुत किया। आयोग ने पिछड़ी जातियों को परिभाषित किया तथा उनकी पहचान के लिए मानदण्ड प्रस्तुत करते हुए कुल 3,743 जातियों को पिछड़ी घोषित किया, जबकि प्रथम पिछड़ा आयोग (कालेलकर आयोग) ने केवल 2,399 जातियों को पिछड़ी जाति घोषित किया था। आयोग की रिपोर्ट में निम्नलिखित सिफारिशें की गई थीं-

  1. सम्पूर्ण पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 52% है तथा इनके लिए इसी अनुपात में स्थान आरक्षित किया जाना उचित है, परन्तु संविधान के अनुच्छेद 15(4) तथा 16(4) के प्रसंग में उच्चतम न्यायालय द्वारा की गई व्यवस्था के अनुसार 50% से अधिक स्थान आरक्षित नहीं किया जा सकता है तथा 22.5% स्थान अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए पहले से ही आरक्षित है, अत: पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 52% होने के बावजूद उनके लिए 27% स्थान आरक्षित करने की सिफारिश की जाती है। पिछड़े वर्ग के जो अभ्यर्थी खुली प्रतियोगिता के आधार पर चुन लिए जाते हैं, उन्हें आरक्षण के कोटे में. न माना जाए।
  2. सरकारी नौकरियों में भी पहले से नियोजित पिछड़े वर्ग के लिए पदोन्नति में भी 27% आरक्षण दिया जाए।
  3. यदि 27% आरक्षित स्थानों के लिए पिछड़े वर्ग के लोग किसी वर्ष न मिल पाएँ, तो आरक्षित स्थानों को अगले वर्ष के लिए आरक्षित कर दिया जाए तथा तीन वर्ष तक चालू रखा जाए।
  4. प्रत्यक्ष नियुक्ति में पिछड़े वर्गों के अभ्यर्थियों की आयु सीमा में अनुसूचित जनजातियों को दी जाने वाली छूट के बराबर छूट दी जाए।
  5. जिस प्रकार अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सरकारी सेवाओं के लिए सम्बद्ध अधिकारी रजिस्टर रखता है, उसी प्रकार पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए भी सम्बद्ध अधिकारी द्वारा रजिस्टर रखा जाए।
  6. यह 27% आरक्षण राज्य सरकार, राज्य सरकार के अधीन सार्वजनिक क्षेत्रों, केन्द्र सरकार के अधीन सरकारी क्षेत्रों तथा बैंकों की नियुक्तियों में भी लागू हो।
  7. निजी क्षेत्रों के उन उद्योगों में भी पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू किया जाए, जो किसी भी प्रकार से सरकारी अनुदान या सहायता प्राप्त करते हैं।
  8. पिछड़े वर्गों के लिए विश्वविद्यालय तथा कॉलेजों में प्रवेश के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था लागू हो।

वी०पी० सिंह सरकार की घोषणा
तत्कालीन प्रधानमन्त्री वी०पी० सिंह ने 7 अगस्त, 1990 ई० को संसद के दोनों सदनों में घोषित किया कि भारत सरकार की सेवाओं और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में पिछड़े वर्गों को 27% आरक्षण : प्राप्त होगा। प्रधानमन्त्री ने इसे सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम बताया। 13 अगस्त, 1990 ई० को इस सम्बन्ध में सरकारी अधिसूचना जारी कर दी गई। यद्यपि यह रिपोर्ट श्रीमती इन्दिरा गांधी के कार्यकाल में ही आ गई थी, परन्तु उन्होंने तथा उनके बाद राजीव गांधी ने भी राजनीतिक कारणों से इस रिपोर्ट को लागू नहीं किया। वी०पी० सिंह ने प्रधानमन्त्री बनने पर दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए सामाजिक न्याय के चक्र को प्रगति पथ पर बढ़ाते हुए इसे तुरन्त लागू कर दिया।

क्रीमी लेयर लाभ से वंचित
विधिक दृष्टि से उच्चतम न्यायालय ने 1 अक्टूबर, 1990 को मण्डल रिपोर्ट के क्रियान्वयन पर स्थगन आदेश जारी कर दिया। न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि 13 अगस्त, 1990 ई० को सरकारी अधिसूचना पर रोक लगाई जाती है। लेकिन सरकार इस अधिसूचना के तहत लाभ पाने वाली जातियों को चिह्नित करने का काम जारी रख सकती है।

केन्द्र सरकार द्वारा आयोग की सिफारिश के आधार पर पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था 8 सितम्बर, 1993 ई० से लागू कर दी गई है। भारत सरकार के तत्कालीन कल्याण मन्त्री सीताराम केसरी ने घोषित किया, “केन्द्र सरकार की नौकरियों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27% आरक्षण 8 सितम्बर, 1993 ई० से लागू हो गया है, लेकिन इन वर्गों के सम्पन्न वर्गों (क्रीमी लेयर) को इसका लाभ नहीं मिलेगा।” केसरी ने स्पष्ट किया कि पहले चरण में उन जातियों को आरक्षण मिलेगा, जिनके नाम मण्डल आयोग की रिपोर्ट तथा राज्य सरकार की सूचियों दोनों में शामिल हैं। ऐसी जातियों की संख्या लगभग 1,200 है।

पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए संसद में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अधिनियम (1993 ई०) पारित किया गया, जिसके अधीन अगस्त 1993 ई० में न्यायमूर्ति आर० एन० प्रसाद की अध्यक्षता में पाँच सदस्यीय राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की स्थापना की गई।

केन्द्र सरकार के अधीन व केन्द्र सरकार से सहायता प्राप्त उच्च शिक्षण संस्थाओं में पिछड़े वर्गों के विद्यार्थियों के लिए प्रवेश में 27% आरक्षण के लिए दिसम्बर 2006 में यूपीए सरकार द्वारा लाए गए विधेयक को संसद के दोनों सदनों ने पारित कर दिया।

लघु उत्तरीय प्रश्ठा (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
पिछड़ी हुई जातियों के प्रसंग में आरक्षण की क्या स्थिति है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए आरक्षण की तुलना में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था के प्रयत्नों ने समस्त सामाजिक व्यवस्था में अधिक गम्भीर तनावों को जन्म दिया है। पिछड़े हुए वर्गों के लिए आरक्षण के प्रश्न को लेकर संवैधानिक और राजनीतिक विवाद बहुत अधिक तीव्र रूप से सामने आया है।

अन्य पिछड़े वर्गों (OBCs) के सम्बन्ध की स्थिति – संविधान के भाग 16 तथा अन्य कुछ प्रावधानों में पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जातियों और जनजातियों के साथ अन्य पिछड़े वर्गों शब्द का प्रयोग किया गया है, किन्तु पिछड़े वर्गों का सीमांकन करना कठिन है। इसमें अनेक ऐसी जातियाँ हैं, जो अनुसूचित जातियाँ नहीं हैं, किन्तु समाज की अन्य तथाकथित उच्च जातियों से पिछड़ी हुई हैं; जैसे-नाई, बढ़ई, धोबी, दर्जी, अहीर, कुर्मी आदि। यद्यपि संविधान में इस शब्द समूह का एक-से-अधिक स्थानों पर प्रयोग हुआ है (अनुच्छेद 16(4) तथा अनुच्छेद 340 में, पर इसकी परिभाषा नहीं की गयी हैं। ‘राजनीति कोश’ के अनुसार, “पिछड़े हुए वर्गों का अभिप्राय समाज के उन वर्गों से है, जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक नियोग्यताओं के कारण समाज के अन्य वर्गों की तुलना में निचले स्तर पर हों।”

संविधान अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा तथा अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि की बात जितनी स्पष्टता के साथ कहता है, अन्य पिछड़े वर्गों के सम्बन्ध में कोई बात ऐसी स्पष्टता और निश्चितता के साथ नहीं कहता। अनुच्छेद 16 ‘लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता’ का प्रावधान करता है तथा इसी प्रसंग में अनुच्छेद 16 के भाग (4) में कहा गया है कि “इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए व्यवस्था करने से नहीं रोकेगी। इसके साथ ही संविधान के अनुच्छेद 340 में कहा गया है कि राष्ट्रपति पिछड़े वर्गों की दशाओं के लिए आयोग की नियुक्ति कर सकेगा। इस अनुच्छेद के अन्तर्गत अब तक प्रमुख रूप से दो आयोग स्थापित किये गये हैं-प्रथम ‘काका कालेलकर आयोग’ और द्वितीय ‘मण्डल आयोग’, जिसकी स्थापना जनता पार्टी के शासन काल (1977-79 ई०) में बिहार के भूतपूर्व मुख्यमन्त्री वी० पी० मण्डल की अध्यक्षता में की गयी।

द्वितीय, पिछड़ा वर्ग आयोग (मण्डल आयोग) की रिपोर्ट – इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट 20 अप्रैल, 1982 को सरकार को प्रस्तुत की। आयोग ने पिछड़ी जातियों के लिए सरकारी, अर्द्धसरकारी एवं सार्वजनिक उद्योगों में 26 प्रतिशत स्थान आरक्षित करने की सिफारिश की। आयोग ने पिछड़ी जातियों की परिभाषा की है तथा उनकी पहचान के लिए मानदण्ड प्रस्तुत करते हुए कुल 3,743 जातियों को पिछड़ी घोषित किया गया। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 52 प्रतिशत है और इनके लिए इसी अनुपात में स्थान आरक्षित किया जाना उचित है, परन्तु संविधान की धारा 15 (4) और 16 (4) के प्रसंग में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णयों के अनुसार कुल मिलाकर 50 प्रतिशत से अधिक स्थान आरक्षित नहीं किये जा सकते और 22.5 प्रतिशत स्थान अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए पहले से आरक्षित हैं। इस विवशता के कारण पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 52 प्रतिशत होने के बावजूद उनके लिए केवल 26 प्रतिशत स्थान आरक्षित करने की सिफारिश की जाती है।

आयोग ने यह भी सिफारिश की है कि पिछड़ी जातियों की शिक्षा तथा उनके औद्योगिक एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए। आयोग ने यह भी कहा है कि केन्द्र सरकार को विभिन्न पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए राज्य सरकारों को उसी प्रकार वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए, जिस प्रकार से अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए प्रदान की जाती है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 11 Concept of Reservation: Necessity, Scope, and Results

प्रश्न 2.
जाति-आधारित आरक्षण के भारतीय राजनीति पर प्रभाव का विश्लेषण कीजिए। [2007]
उत्तर
संविधान में आरक्षण का प्रावधान समाज के कमजोर वर्ग के हितों की रक्षा और अभिवृद्धि के उद्देश्य से किया गया था, लेकिन अब मूल उद्देश्य तो धुंधला हो गया है तथा आरक्षण का प्रश्न दलीय राजनीति और चुनावी राजनीति के साथ जुड़ गया है। जातियाँ यह सोचने लगी हैं। कि उन्हें अपने आप से संगठित कर और दबाव डालकर अपने लिए आरक्षण सुनिश्चित कर लेना चाहिए। वर्तमान गुजर-आन्दोलन इस विचारधारा का द्योतक है। जिन जातियों को आरक्षण प्राप्त है, वे ऐसा सोचती हैं कि राजनीतिक दबाव बनाए रखते हुए आरक्षण की अवधि बढ़ाई जा सकती है। राजनीतिक दल आरक्षण के प्रश्न पर वास्तविक पिछड़ेपन की दृष्टि से नहीं, वरन् वोट बैंक की दृष्टि से विचार करते हैं। अनुसूचित जातियाँ व जनजातियाँ एक लम्बे समय तक कांग्रेस का वोट बैंक रही हैं। अब अन्य राजनीतिक दल इस वोट बैंक को तोड़ने में लगे हैं। ये राजनीतिक दल सोचते हैं कि यदि आरक्षण का विरोध करने का साहस किया तो ये जातियाँ उनसे विमुख हो जाएँगी। उपर्युक्त तथ्य यह सिद्ध करते हैं कि आरक्षण का प्रश्न अब केवल चुनावी राजनीति से जुड़ा रह गया है।

आरक्षण की राजनीति ने आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के समस्त विचारों को पीछे छोड़ दिया है। अगड़ी जाति बनाम पिछड़ी जाति, हिन्दू बनाम मुस्लिम, पुरुष बनाम महिला की राजनीति ने समाज को गहरे रूप में विभाजित कर दिया है। परिणामस्वरूप अपनी जाति विशेष के हितों को साधने के लिए नये-नये स्थानीय राजनीतिक दल जन्म ले रहे हैं। वास्तव में विभाजित समाज विभाजित राजनीति को जन्म दे रहा है।

प्रश्न 3.
अन्य पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए दी गई दो सुविधाओं का वर्णन कीजिए। इन वर्गों के सम्पन्न व्यक्तियों को इन लाभों से वंचित रखने के लिए क्या प्रावधान किया गया है ?
उत्तर
अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सरकार ने निम्नलिखित सुविधाएँ दी हैं-

1. अन्य पिछड़ी जातियों को सरकार ने राजकीय और केन्द्रीय सेवाओं में 27% आरक्षण प्रदान किया है जिससे उनका सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर उठ सके। इसके अतिरिक्त सरकार में भागीदारी के लिए भी उन्हें चुनावों में हिस्सेदारी के लिए सीटों पर आरक्षण प्रदान किया गया है। इसके अतिरिक्त इन वर्गों को उच्च शिक्षा में भी आरक्षण प्रदान किया है जिसका उदाहरण अप्रैल, 2008 में आई०आई०एम० व आई०आई०टी० जैसी उच्च शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण बहाली की गई तथा इसे इन संस्थाओं ने लागू भी कर दिया

2. पिछड़े वर्गों के आर्थिक उत्थान के लिए स्वरोजगार हेतु कम ब्याज दरों पर सरकार ऋण उपलब्ध कराती है जिससे प्रशिक्षित व अर्द्धकुशल व्यक्ति अपना रोजगार शुरू कर सकें। इन वर्गों को नि:शुल्क प्रशिक्षण की सुविधा भी सरकार प्रदान करती है।
इन वर्गों के उन सम्पन्न व्यक्तियों को उपरोक्त सुविधाओं से वंचित रखा गया है, जो क्रीमीलेयर (जिनकी आय ₹ 3 लाख से अधिक है) में आते हैं।

प्रश्न 4.
विधानसभाओं में महिलाओं के आरक्षण के पक्ष में चार तर्क दीजिए। [2014, 16]
उत्तर
विधायी संस्थाओं में महिलाओं को आरक्षण
सन् 1990 ई० से ही भारतीय राजनीति में कहा जा रहा था कि विधायिकाओं में महिलाओं के लिए 1/3 स्थान आरक्षित किया जाना चाहिए। ग्यारहवीं लोकसभा के चुनाव के समय प्रमुख राजनीतिक दलों ने यह वादा किया था कि यदि उन्हें सत्ता प्राप्त हुई तो वे संवैधानिक व्यवस्था कर महिलाओं के लिए 1/3 स्थान विधायी संस्थाओं में आरक्षित करेंगे।

14 दिसम्बर, 1998 ई० को केन्द्र सरकार ने विधानसभाओं व लोकसभा में 33% आरक्षण देने से सम्बन्धित विधेयक को लोकसभा में प्रस्तुत किया। मार्च 2010 में राज्यसभा महिला विधेयक को पास कर चुकी है तथा इसे लोकसभा में पारित करने के लिए आम सहमति बनाई जा रही है। महिला आरक्षण विधेयक से यह स्पष्ट हो जाता है कि अब जाति के साथ-साथ लिंग के आधार पर भी आरक्षण की व्यवस्था को लागू करने का प्रयास किया जा रहा है। विधायिकाओं में तो अभी आरक्षण लागू नहीं हो पाया है, परन्तु स्थानीय स्वशासन की इकाइयों (पंचायती राजव्यवस्था) में महिलाओं के लिए 1/3 स्थान सुरक्षित कर दिए गए हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
अनुसूचित जातियों को रोजगार में आरक्षण देने के पक्ष व विपक्ष में एक-एक तर्क दीजिए। [2007, 11, 15]
उत्तर
अनुसूचित जातियाँ समाज का सबसे पिछड़ा वर्ग हैं। आरक्षण दिए जाने और न दिए जाने के सम्बन्ध में तर्क निम्नलिखित रूप में हो सकता है।
अनुसूचित जातियाँ समाज की सर्वाधिक पिछड़ी जातियाँ हैं। ये आर्थिक व शौक्षिक दोनों रूपों में ही पिछड़ी हुई हैं। अतः आरक्षण का सहारा देकर इन्हें समाज के उन्नत वर्ग के समकक्ष लाना आवश्यक है। आरक्षण न दिए जाने के सम्बन्ध में तर्क दिया जा सकता है कि इस वर्ग में कर्मठ व मेहनती जातियाँ हैं जिन्हें आरक्षण की वैसाखी की आवश्यकता नहीं है अपितु सामाजिक रूप से इन्हें सम्मान देकर तथा अच्छी शिक्षा-दीक्षा उपलब्ध कराकर अन्य उच्च वर्गों के समकक्ष लाया जाना चाहिए।

प्रश्न 2.
आरक्षण के पक्ष में चार तर्क प्रस्तुत कीजिए। [2007, 11]
या
आरक्षण के दो लाभ बताइए।
या
अनुसूचित जातियों के आरक्षण के दो आधार बताइए। [2012]
उत्तर
आरक्षण के पक्ष में निम्नलिखित चार तर्क प्रस्तुत किये जा सकते हैं-

  1. आरक्षण से कमजोर वर्गों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक निर्योग्यताओं में आमूल-चूल परिवर्तन होकर उनकी आर्थिक उन्नति सम्भव हुई है।
  2. लोकसेवाओं में आरक्षण द्वारा ही पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व बढ़ा है।
  3. पिछड़े वर्गों की गरीबी के निवारण का मार्ग आरक्षण द्वारा ही प्रशस्त हुआ है।
  4. कमजोर वर्गों को शिक्षा के प्रति जागरूक बनाने में आरक्षण ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। इससे उनमें राजनीतिक चेतना का भी संचार हुआ है।

प्रश्न 3.
आरक्षण का क्षेत्र बताइए।
उत्तर
भारत में अनुसूचित जातियों के निर्धारण का आधार जाति तथा अनुसूचित जनजाति के निर्धारण का आधार क्षेत्र एवं जाति है। 1931 ई० की जनगणना के आधार पर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को अन्य जातियों से अलग माना गया। भारतीय संविधान में यह प्रावधान है कि राज्यपाल के परामर्श से राष्ट्रपति लोक अधिसूचना द्वारा ऐसी जातियों का उल्लेख कर सकता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रत्येक राज्य में वहाँ की जातियों के अनुसार इनकी अलग-अलग सूचियाँ निर्मित की गयी हैं।

सामान्यतया अनुसूचित जातियों में आर्थिक दृष्टि से कमजोर एवं सामाजिक दृष्टि से अछुत समझी जाने वाली जातियाँ सम्मिलित हो गयी हैं। ये जातियाँ पीढ़ियों से अप्रिय, अमान्य तथा अत्यधिक खराब समझे जाने वाले कार्य-झाडू देना, मल उठाना, मरे हुए जानवरों को उठाकर उनका चमड़ा उतारना तथा चर्म शोधन इत्यादि करती रही हैं।

प्रश्न 4.
अन्य पिछड़े वर्गों (ओ० बी० सी०) के आरक्षण के दो आधार लिखिए। [2007]
उत्तर
अन्य पिछड़े वर्गों के आरक्षण के दो आधार निम्नवत् हैं-

1. जाति के आधार पर आरक्षण – संविधान के भाग 16 तथा अन्य कुछ प्रावधानों में पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जातियों और जनजातियों के साथ अन्य पिछड़े वर्गों’ शब्द का प्रयोग किया गया है, किन्तु पिछड़े वर्गों का सीमांकन करना कठिन है। इसमें अनेक ऐसी जातियाँ हैं, जो अनुसूचित जातियाँ नहीं हैं, किन्तु समाज की अन्य तथाकथित उच्च जातियों से पिछड़ी हुई हैं; जैसे-नाई, बढ़ई, धोबी, दर्जी, अहीर, कुर्मी आदि।

2. सामाजिक व आर्थिक स्तर पर – अन्य पिछड़े वर्गों के आरक्षण का एक आधार इन जातियों के सामाजिक व आर्थिक स्तर का निम्न होना है। ‘राजनीति कोश’ के अनुसार, “पिछड़े हुए वर्गों का अभिप्राय समाज के उन वर्गों से है, जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक निर्योग्यताओं के कारण समाज के अन्य वर्गों की तुलना में निचले स्तर पर हों।”

प्रश्न 5.
‘आरक्षण’ के सम्बन्ध में भारतीय संविधान में क्या व्यवस्था की गई है?
उत्तर
भारतीय संविधान के अन्तर्गत ‘आरक्षण’ को संवैधानिक आधार प्रदान किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 16 के अनुसार, “समस्त नागरिकों को सरकारी पदों पर नियुक्ति के समान अवसर प्राप्त होंगे तथा इस सम्बन्ध में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग अथवा जन्म स्थान या इनमें से किसी एक के आधार पर सरकारी नौकरी अथवा पद प्राप्त करने में भेदभाव नहीं बरता जाएगा। परन्तु फिर भी सरकार द्वारा अनुच्छेद 16 (4) के अनुसार सरकार नौकरियों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं पिछड़े वर्गों के लिए स्थानों का आरक्षण किया जा सकता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अक)

प्रश्न 1
आरक्षण के दो उद्देश्यों को लिखिए। [2011]
उत्तर

  1. सामाजिक समानता की स्थापना,
  2. दलित जातियों का उत्थान।

प्रश्न 2.
मण्डल आयोग का गठन कब किया गया?
उत्तर
1 जनवरी, 1979 को।

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प्रश्न 3.
मण्डल आयोग का अध्यक्ष कौन था? उत्तर श्री बिन्देश्वरी प्रसाद मण्डल।

प्रश्न 4.
मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू करने वाले प्रधानमन्त्री का नाम बताइए। [2009]
उत्तर
श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह।

प्रश्न 5.
मण्डल आयोग की सिफारिशों के अनुसार पिछड़े वर्गों के लिए भारत सरकार ने कितना आरक्षण करने की घोषणा की?
उत्तर
मण्डल आयोग की सिफारिशों के अनुसार भारत सरकार के तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़े वर्गों के लिए 27% आरक्षण देने की घोषणा की।

प्रश्न 6.
मण्डल आयोग के फैसले के अन्तर्गत प्रथम नियुक्ति कब और किसकी हुई?
उत्तर
मण्डल आयोग के फैसले के अन्तर्गत प्रथम नियुक्ति 20 फरवरी, 1994 को की गयी। इस दिन तत्कालीन केन्द्रीय कल्याण मन्त्री श्री सीताराम केसरी ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग एवं विकास निगम’ में सहायक प्रबन्धक के पद पर आसूला’ जाति के बी० राज शेखराचारी की नियुक्ति की।

प्रश्न 7.
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार आरक्षण का अधिकतम प्रतिशत कितना निर्धारित किया गया ?
उत्तर
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार आरक्षण का अधिकतम प्रतिशत किसी भी स्थिति में 50% से अधिक नहीं हो सकता।। प्रश्न 8 आरक्षण के सम्बन्ध में जातियों का वर्गीकरण किस प्रकार से किया गया ? उत्तर आरक्षण के सम्बन्ध में जातियों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया—अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ी जाति।

प्रश्न 9.
स्थानीय स्वशासन इकाइयों में महिलाओं को कितने प्रतिशत आरक्षण की सुविधा दी गयी है?
उत्तर
महिलाओं को इन संस्थाओं में 335% आरक्षण की सुविधा दी गयी है।

प्रश्न 10.
लोक सेवाओं में आरक्षण के किसी एक आधार का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
जाति का आधार–अनुसूचित जाति।

प्रश्न 11.
भारत में अन्य पिछड़े वर्गों के आरक्षण के पक्ष में एक तर्क दीजिए।
उत्तर
भारत में अन्य पिछड़े वर्गों के आरक्षण के पक्ष में एक तर्क यह दिया जा सकता है। कि इसके माध्यम से निम्न व पिछड़े वर्गों को प्रदान की जाने वाली विशेष सुविधाओं के कारण वे समाज के अन्य वर्गों की बराबरी कर सकेंगे।

प्रश्न 12.
केन्द्र सरकार की सेवाओं में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण कब से लागू हुआ?
उत्तर
केन्द्र सरकार की सेवाओं में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण 8 सितम्बर, 1993 को लागू हुआ।

प्रश्न 13.
आरक्षण का एक लाभ बताइए। [2011]
उत्तर
आरक्षण द्वारा समाज के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से पिछड़े वर्गों को विशेष सुविधाएँ उपलब्ध हो जाती हैं जिससे वे समाज के अन्य वर्गों की बराबरी कर सकें।

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प्रश्न 14.
भारत में आरक्षण की व्यवस्था को कब और किस आधार पर लागू किया गया?
उत्तर
भारत में आरक्षण की व्यवस्था को 1909 ई० में धर्म (सम्प्रदाय) के आधार पर लागू किया गया।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
प्रतिनिधि संस्थाओं में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को आरक्षण कब तक प्राप्त है?
(क) 25 जनवरी, 2010 तक
(ख) 26 जनवरी, 2010 तक
(ग) 25 जनवरी, 2015 तक
(घ) 26 जनवरी, 2020 तक

प्रश्न 2.
मण्डल आयोग की रिपोर्ट संसद में प्रस्तुत की गयी [2016]
(क) 30 जनवरी, 1983 को
(ख) 26 जनवरी, 1984 को
(ग) 30 अप्रैल, 1982 को
(घ) 8 सितम्बर, 1982 को

प्रश्न 3.
केन्द्रीय सेवाओं में पिछड़ी जातियों हेतु आरक्षण कब से लागू किया गया?
(क) 31 दिसम्बर, 1980 से
(ख) 7 अगस्त, 1990 से
(ग) 8 सितम्बर, 1993 से
(घ) 14 दिसम्बर, 1998 से।

प्रश्न 4.
हमारे प्रदेश में राज्य सेवाओं में पिछड़ी हुई जातियों हेतु कितने प्रतिशत स्थान आरक्षित हैं?
(क) 33%
(ख) 27%
(ग) 35%
(घ) 17%

प्रश्न 5.
महिला आरक्षण विधेयक संसद में प्रस्तुत किया गया
(क) 1980 ई० को
(ख) 1985 ई० को
(ग) 1990 ई० को
(घ) 1999 ई० को

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से किस वर्ग को राजकीय सेवाओं में आरक्षण प्राप्त है?
(क) सिख सम्प्रदाय
(ख) ईसाई सम्प्रदाय
(ग) अन्य पिछड़े वर्ग
(घ) मुस्लिम सम्प्रदाय

प्रश्न 7.
राजकीय सेवाओं में जनजातियों के आरक्षण का प्रतिशत है- [2008, 14]
(क) 7.5%
(ख) 15.5%
(ग) 2%
(घ) 27%

प्रश्न 8.
अनुसूचित जातियों सम्बन्धी आरक्षण नीति के मूल में मुख्य अवधारणा क्या है ? [2008]
(क) समाज की पुरानी परम्पराओं को समाप्त करना
(ख) जाति विशेष को विशेषाधिकार प्रदान करना
(ग) सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने का प्रयास करना
(घ) राजनीतिक दबाव समूहों को तुष्ट करना।

प्रश्न 9.
इनमें से किस वर्ग को राजकीय सेवाओं में आरक्षण प्राप्त नहीं है?
(क) अनुसूचित जातियाँ
(ख) अनुसूचित जनजातियाँ
(ग) अन्य पिछड़े वर्ग
(घ) मुस्लिम सम्प्रदाय

प्रश्न 10.
अनुसूचित जनजाति के निर्धारण का आधार रहा है-
(क) क्षेत्र
(ख) जाति
(ग) ये दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं।

प्रश्न 11.
अन्य पिछड़े वर्गों के आरक्षण के सम्बन्ध में सर्वप्रथम संस्तुति की थी [2010, 16]
(क) वी० पी० सिंह ने
(ख) काका कालेलकर ने
(ग) आर० एन० प्रसाद ने
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 12.
पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था किस आयोग की सिफारिश पर की गयी थी? [2016]
(क) सरकारिया आयोग
(ख) मण्डल आयोग
(ग) प्रसाद आयोग
(घ) अल्पसंख्यक आयोग

उत्तर

  1. (घ) 26 जनवरी, 2020 तक,
  2. (ग) 30 अप्रैल, 1982 को,
  3. (ग) 8 सितम्बर, 1993 से,
  4. (ख) 27%,
  5. (घ) 1999 ई० को,
  6. (ग) अन्य पिछड़े वर्ग,
  7. (ग) 2%,
  8. (ग) सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने का प्रयास करना,
  9. (घ) मुस्लिम सम्प्रदाय,
  10. (ग) ये दोनों,
  11. (ख) काका कालेलकर ने,
  12. (ख) मण्डल आयोग

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 17 Source of Income and Items of Expenditure of Local Governing Body

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 17
Chapter Name Source of Income and Items of Expenditure of Local Governing Body (स्थानीय निकाय की आय के स्रोत व व्यय की मदें)
Number of Questions Solved 18
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 17 Source of Income and Items of Expenditure of Local Governing Body (स्थानीय निकाय की आय के स्रोत व व्यय की मदें)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
स्थानीय निकाय की आय के स्रोतों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। [2010, 11]
उत्तर:
आधुनिक युग में स्थानीय निकायों का विशेष महत्त्व है। साधारण रूप से स्थानीय प्रकृति के कार्यों को स्थानीय संस्थाओं को सौंप देने से राज्य सरकारें अपने दायित्वों से मुक्त हो जाती हैं। स्थानीय आवश्यकताओं के कार्य स्थानीय संस्थाओं द्वारा अधिक कुशलतापूर्वक सम्पन्न किये जा सकते हैं। स्थानीय संस्थाओं के सीमित कार्यक्षेत्र होने पर भी उनके दायित्व अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। स्थानीय संस्थाओं की आय के प्रमुख स्रोत निम्नलिखित हैं
(अ) कर स्रोत,
(ब) गैर-कर स्रोत।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 17 Source of Income and Items of Expenditure of Local Governing Body 1

(अ) कर-स्रोत – स्थानीय संस्थाओं को कर से पर्याप्त आय प्राप्त होती है, जो कि कुल आय का 70% भाग तक होती है। करों में निम्नलिखित दो प्रकार के कर आते हैं

  1. स्थानीय संस्थाओं द्वारा लगाये गये कर।
  2.  राज्य सरकारों द्वारा लगाये व वसूल किये गये करों में स्थानीय संस्थाओं का भाग।

(ब) गैर-कर स्रोत – गैर-कर स्रोतों में निम्नलिखित को सम्मिलित किया जा सकता है

  •  सहायता अनुदान,
  • ऋण तथा उपादान तथा
  •  अन्य साधन।

स्थानीय निकायों में नगर निगम, नगरपालिकाएँ, छावनी बोर्ड, अनुसूचित क्षेत्र समिति, नगर क्षेत्र समिति, जिला परिषद् और ग्राम पंचायतों को शामिल किया जाता है।

स्थानीय संस्थाओं की आय के साधन:

  •  कर स्रोत आय तथा
  • गैर-कर स्रोत आय।

कर-स्रोत आय
1. प्रत्यक्ष कर – प्रत्यक्ष कर में निम्नलिखित को सम्मिलित किया जाता है

  • सम्पत्ति कर – सम्पत्ति कर प्रायः वे कर होते हैं जो कि अचल सम्पत्ति के क्रय-विक्रय पेड़ लगाये जाते हैं। यह स्थानीय संस्थाओं की आय का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। सम्पत्ति कर चार प्रकार के होते हैं-सुधार कर, भूमि पर उपकर, भवन पर कर एवं सम्पत्ति के हस्तान्तरण पर कर।
  • हैसियत कर – यह कर व्यक्ति की आर्थिक अवस्था, सामाजिक स्थिति एवं परिवार के सदस्यों की संख्या को ध्यान में रखकर लगाया जाता है।
  •  गाड़ियों पर कर – यह कर स्थानीय संस्थाओं द्वारा रिक्शा, ठेले आदि पर लगाया जाता है।
  •  बाजार कर – यह कर बाजारों में माल बेचने वाले व्यक्तियों पर नगरपालिकाओं द्वारा लगाये जाते हैं।
  •  पशु कर – यह कर जानवरों; जैसे – गाय, बैल, भैंस, कुत्ते आदि पालतू पशुओं पर लगाये जाते हैं।
  • मार्ग शुल्क – यह कर उन पुलों से गुजरने वाले व्यक्तियों एवं माल पर लगाया जाता है। जिनकी लागत के ₹5 लाख से अधिक होती है।

2. अप्रत्यक्ष कर – अप्रत्यक्ष कर में निम्नलिखित करों को सम्मिलित किया जाता है

  •  चुंगी कर – चुंगी कर ऐसा कर है जो किसी विशेष स्थानीय क्षेत्र में उपभोग करने अथवा वहाँ पर बिक्री के लिए आने वाली वस्तुओं पर लगाया जाता है। यह कर वस्तु की मात्रा या मूल्य के आधार पर लगाया जा सकता है।
  •  सीमा कर – जब कोई सामान नगरपालिका की सीमा में प्रवेश करे या सीमा से बाहर जाए या सीमा से गुजरे तो उस पर लगने वाले कर को सीमा कर कहते हैं। रेलों से यात्रा करने वाले यात्रियों के रेल-भाड़े में सीमा कर सम्मिलित होता है, जो रेल-भाड़े के साथ वसूल करके नगर निकायों को दे दिया जाता है।
  •  सुधार कर – विकास प्रन्यासों द्वारा सम्पत्ति के मूल्य बढ़ाने पर लगने वाले कर को सुधार कर कहते हैं। इन संस्थाओं द्वारा ऐसे कार्य किये जाते हैं, जिससे सम्पत्ति के मूल्य बढ़ जाते हैं और इस बढ़े हुए मूल्य को कर के रूप में प्राप्त करते हैं।
  •  अन्य कर – स्थानीय सरकारों द्वारा लगाये जाने वाले अन्य करों में थियेटर कर, विज्ञापन कर आदि हैं।

गैर-कर स्रोत आय
गैर-कर स्रोत में निम्नलिखित प्रकार की आय को सम्मिलित करते हैं
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 17 Source of Income and Items of Expenditure of Local Governing Body 2

(a) अनुदान – सभी राज्यों में राज्य सरकारों द्वारा स्थानीय निकायों को अनुदान दिये जाते हैं। सामान्यतः अनुदान शिक्षा, चिकित्सालय तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं और सड़क, जलापूर्ति इत्यादि की सहायता के लिए प्रदान किये जाते हैं।
(b) ऋण तथा उपदान – नगर पालिकाओं एवं अन्य स्थानीय संस्थाओं को जलापूर्ति, नालियों की व्यवस्था, गन्दी बस्तियों की सफाई आदि कार्यों के लिए ऋण एवं उपादान प्राप्त करने होते हैं।
(c) अन्य साधन – स्थानीय संस्थाओं को प्राप्त होने वाली आय के अन्य साधनों में निम्नलिखित को सम्मिलित करते हैं

  1.  विनियोग से आय,
  2. चिकित्सालयों से प्राप्त आय,
  3.  भूमि का लगान एवं मकानों के किराये की आय,
  4. भूमि एवं भूमि की उपज से आय,
  5. शिक्षण संस्थाओं से आय,
  6.  बाजारों से प्राप्त आर्य आदि।

प्रश्न 2
जिला परिषदों (जिला पंचायतों) की आय के स्रोतों और व्यय की प्रधान मदों की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
या
जिला परिषद् की आय के प्रमुख स्रोतों को समझाइए। [2007]
उत्तर:
जिला परिषदों (जिला पंचायतों) की आय के प्रमुख स्रोत

1. हैसियत एवं सम्पत्ति – कर-जिला पंचायत अपने क्षेत्र में व्यक्तियों की हैसियत एवं सम्पत्ति पर अथवा उद्योगों व व्यापार पर कर लगाती है। इससे जिला परिषद् को आय प्राप्त होती है। इस कर की प्रकृति प्रगतिशील होती है, अर्थात् अमीर व्यक्तियों पर यह कर ऊँची दर से लगाया जाता है।

2. भूमि पर उपकर – यह जिला पंचायत की आय का प्रमुख स्रोत है। इस मद से सम्पूर्ण आय का लगभग 70% भाग प्राप्त होता है। इस कर को लगान के साथ राज्य सरकारें वसूल करती हैं और वह इसे जिला परिषद् में वितरित कर देती हैं। उत्तर प्रदेश में यह कर राज्य सरकार लगान के साथ ही वसूल करती है तथा जिला पंचायतों को प्रतिकारी अनुदान (Compensatory grant) प्रदान करती है।

3. मार्ग शुल्क – जिला पंचायत अपने क्षेत्र में नदियों के पुल, घाट, सड़क आदि पर कर लेती है। जो व्यक्ति अपने पशु अथवा वाहन इन पुलों, सड़कों या घाट से लाते व ले जाते हैं, उन्हें यह मार्ग शुल्क देना पड़ता है।

4. काँजी हाउस से आय – आवारा घूमने वाले पशुओं को कॉजी हाउस में बन्द कर दिया जाता है। जब उनके मालिक उन्हें छुड़ाने आते हैं तो उनसे जुर्माना प्राप्त किया जाता है। इस मद से भी जिला पंचायत को आय प्राप्त होती है।

5. मेलों, प्रदर्शनियों व बाजारों से आय – जिला पंचायतों के क्षेत्र में जिन प्रमुख मेलों व प्रदर्शनियों का आयोजन किया जाता है, उसका प्रबन्ध जिला पंचायत को करना पड़ता है। इनके आयोजन से जो आय प्राप्त होती है वह जिला पंचायत की आय है; उदाहरण के लिए-मुजफ्फरनगर में शुक्रताल, गढ़मुक्तेश्वर में गंगास्नान मेला आदि। इनसे प्राप्त होने वाली आय जिला पंचायतों को प्राप्त होती है।

6. किराया व शुल्क – जिला पंचायत के भूमि, मकानों, दुकानों, डाक-बंगलों आदि के किराये से आय प्राप्त होती है। स्कूलों में अस्पतालों से कुछ शुल्क भी आय के रूप में मिलता है।

7. राज्य सरकारों से प्राप्त अनुदान – राज्य सरकार जिला पंचायतों को अनुदान के रूप में आर्थिक सहायता प्रदान करती है। राज्य सरकारें यह अनुदान उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा आदि के विकास के लिए देती हैं। जिला पंचायतों की आय की यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मद है।

8. अनुज्ञा-पत्र शुल्क – जिला परिषद् कसाइयों से, गोश्त की दुकानों से, वनस्पति घी की दुकानों से, आटे की चक्की के रूप में आय प्राप्त करती है।

9. कृषि उपकरणों की बिक्री से आय – जिला पंचायत खाद, बीज, कृषि यन्त्र आदि की बिक्री की भी व्यवस्था करती है। इनकी बिक्री से भी लाभ के रूप में कुछ आय प्राप्त होती है।

जिला पंचायतों की व्यय की प्रमुख मदें
जिला पंचायत की व्यय की मदें निम्नलिखित हैं

1. शिक्षा पर व्यय – जिला पंचायत सबसे अधिक व्यय शिक्षा पर करती है। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का प्रचार व प्रसार का उत्तरदायित्व जिला पंचायतों पर है। इसके लिए जिला पंचायत गाँवों में प्राइमरी स्कूल तथा जूनियर हाईस्कूल खोलती है। गाँवों में वाचनालय एवं पुस्तकालयों की भी व्यवस्था करती है।

2. सामान्य प्रशासन एवं करों की प्राप्ति पर व्यय – जिला पंचायत को अपने कार्यालय में कर्मचारियों के वेतन तथा करों की वसूली पर भी व्यय करना पड़ता है।

3. सार्वजनिक स्वास्थ्य – जिला पंचायतें ग्रामीण क्षेत्रों में अस्पताल एवं जच्चा-बच्चा गृहों की व्यवस्था करती हैं। ये गाँवों में हैजा, चेचक, प्लेग आदि संक्रामक रोगों की रोकथाम के लिए टीके लगवाने की व्यवस्था करती हैं।

4. सार्वजनिक निर्माण कार्य – जिला पंचायत अपने क्षेत्र में सड़कें बनवाना, वृक्ष लगवाना, पुलों को निर्माण एवं मरम्मत की व्यवस्था करती है। इन कार्यों पर जिला पंचायत को पर्याप्त व्यय करना पड़ता है।

5. मेले तथा प्रदर्शनी पर व्यय – जिला पंचायत को जिले में लगने वाले मेलों तथा प्रदर्शनियों की व्यवस्था पर भी व्यय करना पड़ता है।

6. पंचायतों की आर्थिक सहायता – जिला पंचायत, ग्राम पंचायतों तथा क्षेत्रीय समितियों के कार्यों का निरीक्षण करती है तथा अनुदान के रूप में ग्राम पंचायतों को आर्थिक सहायता भी देती है।

7. ऋण पर ब्याज – जिला पंचायत कभी- कभी जिले के आर्थिक विकास के लिए ऋण भी ले लेती है। इन ऋणों पर उसे ब्याज देना पड़ता है।

8. अन्य मदें – जिला पंचायतें दीन-दु:खियों तथा अपाहिजों की सहायता करती हैं, जन्म-मृत्यु का विवरण रखती हैं, कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित करती हैं तथा पशुओं आदि की बीमारी से रोकथाम की व्यवस्था करती हैं। इन सब कार्यों के लिए जिला पंचायते पर्याप्त धन व्यय करती हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
अपने राज्य की नगर महापालिकाओं की आय के स्रोतों की व्याख्या कीजिए।
या
नगर महापालिकाओं की आय की प्रमुख मदें (मुख्य स्रोत) लिखिए।
उत्तर:
नगर महापालिकाओं की आय के प्रमुख स्रोत (प्रमुख मदें)
नगर महापालिकाओं की आय के प्रमुख स्रोत निम्नलिखित हैं

1. सम्पत्ति-कर – यह नगर महापालिकाओं की आय का एक प्रमुख स्रोत है। यह कर नगर महापालिकाओं की सीमा में स्थित भूमि, मकान तथा सम्पत्तियों के स्वामियो पर लगाया जाता है। यह दो प्रकार का होता हैं

  • गृह कर – भवन कर नगर महापालिका की आय का एक प्रमुख स्रोत है। यह कर नगर महापालिकाओं की सीमा में स्थित भूमि, मकान तथा सम्पत्तियों से वसूल किया जाता है।
  •  विकास कर – नगर महापालिकाओं द्वारा जब किसी क्षेत्र में विकास; जैसे–सड़कों का निर्माण, पुलों का निर्माण आदि किया जाता है तो नगर महापालिका कर वसूल करती है। इसे विकास कर कहते हैं।

2. जल-कर – नगर महापालिकाएँ अपने नागरिकों के लिए स्वच्छ पीने के पानी की व्यवस्था करती हैं। इसके बदले में वे जल-कर प्राप्त करती हैं।

3. चुंगी कर – चुंगी कर के द्वारा नगर महापालिकाओं को पर्याप्त आय होती है। चुंगी उन वस्तुओं पर लगायी जाती है जिनका नगर महापालिकाओं के क्षेत्र में आयात होता है अर्थात् जो वस्तुएँ नगर की सीमा से बाहर के क्षेत्रों से नगर की सीमा में आती हैं। उत्तर प्रदेश में अब यह कर बन्द कर दिया गया है।

4. सीमा कर – यह कर उन वस्तुओं पर लगाया जाता है जो रेल द्वारा नगर महापालिका के क्षेत्र में आती हैं।।

5. मार्ग कर – यह कर नगर महापालिकाओं की सीमा में पड़ने वाले पुलों, सड़कों, नदियों पर से गुजरने वाले व्यक्तियों, पशुओं तथा वाहनों पर उनके भार अथवा संख्या के आधार पर लगाया जाता है।

6. यात्री कर – यह कर तीर्थस्थानों की नगर महापालिकाओं या नगर पालिकाओं द्वारा लगाया जाता है। नगर महापालिकाएँ बाहर से आने वाले यात्रियों की सुविधा के लिए अतिरिक्त व्यय स्वास्थ्य, सफाई व जलापूर्ति पर करती हैं। इस कारण वे यह कर वसूल करती हैं। अब इस कर को केन्द्रीय सरकार ने अपने हाथ में ले लिया है।

7. तहबाजारी – यह कर अस्थायी दुकानदारों से वसूल किया जाता है। जो दुकानदार सड़क की पटरियों पर रखकर सामान बेचते हैं; जैसे-खोमचे वाले, फेरी वाले, हॉकर्स आदि; इनसे यह कर प्रतिदिन वसूल किया जाता है।

8. वाहन कर या लाइसेंस से आय – नगर महापालिकाएँ मोटरों, ऊँटगाड़ियों, बैलगाड़ियो. घोड़े-ताँगों, ठेलों, रिक्शा आदि पर कर लगाती हैं तथा उन्हें लाइसेंस प्रदान करती हैं।

9. राज्य सरकार से अनुदान – राज्य सरकार नगर महापालिकाओं को उनके व्यय की पूर्ति हेतु अनुदान देती है।

प्रश्न 2
नगर महापालिकाओं की व्यय की मदों को लिखिए। [2010]
उत्तर:
नगर महापालिकाओं के व्यय की मदें।

1. प्रशासन और कर-संग्रह पर व्यय – नगर महापालिकाओं को अपने प्रशासन हेतु कार्यालय व्यवस्था करनी होती है। अत: कार्यालयों के कर्मचारियों के वेतन तथा सामग्री पर व्यय करना पड़ता है। करों को वसूल करने में भी आय का पर्याप्त भाग व्यय होता है।

2. सार्वजनिक सुरक्षा पर व्यय – नगर महापालिकाएँ सार्वजनिक सुरक्षा की दृष्टि से आग बुझाने के लिए दमकलें रखती हैं, सड़कों के चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस के उड़े होने के लिए चबूतरे बनवाती हैं तथा सार्वजनिक स्थानों पर बिजली व रोशनी का प्रबन्ध करती हैं। इन मदों पर भी प्रतिवर्ष काफी व्यय होता है।

3. सार्वजनिक स्वास्थ्य व चिकित्सा – नगर महापालिकाएँ नि:शुल्क चिकित्सा व्यवस्था प्रदान करती हैं। चेचक, हैजा, प्लेग आदि रोगों की रोकथाम के लिए टीके लगवाती हैं, नगर की सफाई की व्यवस्था करती हैं तथा बाजार में बिकने वाली अशुद्ध वस्तुओं पर रोक लगाती हैं। इन सब कार्यों को पूरा करने के लिए नगर महापालिकाओं का पर्याप्त धन व्यय होता है।

4. शिक्षा पर व्यय – नगर महापालिकाएँ अपने क्षेत्र में प्राइमरी शिक्षा की व्यवस्था करती हैं। कुछ नगर महापालिकाएँ जू० हा० स्कूल, हाईस्कूल व इण्टरमीडिएट कॉलेज भी चलाती हैं। इस मद पर भी नगर महापालिकाएँ धन व्यय करती हैं।

5. सार्वजनिक निर्माण कार्य – नगर महापालिकाओं को उद्योगों व पार्को की व्यवस्था करनी पड़ती है। खेल के मैदान एवं व्यायामशालाओं आदि का निर्माण भी करना पड़ता है तथा अपने क्षेत्र में टूटी-फूटी सड़कों का निर्माण एवं मरम्मत भी करानी पड़ती है। इन सभी कार्यों को सम्पादित करने में प्रतिवर्ष पर्याप्त धन व्यय करना पड़ता है।

6. पेयजल की व्यवस्था पर व्यय – नगर महापालिकाओं का एक प्रमुख कर्तव्य अपने क्षेत्र के नागरिकों को पीने के लिए शुद्ध जल की व्यवस्था करना है। इस कार्य के लिए नगर महापालिकाएँ नलकूपों का निर्माण कराकर टंकियों के माध्यम से पेयजल की व्यवस्था करती हैं। सार्वजनिक स्थानों पर नल भी लगवाती हैं। इस मद पर भी धन व्यय करना पड़ता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
स्थानीय संस्थाओं की व्यय की मदों का उल्लेख कीजिए। [2012]
उत्तर:
स्थानीय संस्थाओं की व्यय की मदें निम्नलिखित हैं

  1.  चिकित्सा व स्वास्थ्य – इस कार्य में अस्पताल, दवा, डॉक्टर आदि का व्यय सम्मिलित होता है।
  2. परिवहन – स्थानीय संस्थाओं को परिवहन पर भी पर्याप्त व्यय करना पड़ता है। सड़कों के निर्माण पर अधिक व्यय किया जाता है।
  3.  शिक्षा – माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा की मुफ्त व्यवस्था की गयी है।
  4.  नागरिक सेवाएँ – इसमें सफाई, जन स्वास्थ्य, प्रकाश, विद्यालयों की देख-रेख व जल की व्यवस्था सम्मिलित की जाती है।
  5. कल्याण कार्य  – समाज कल्याण कार्यों को इसमें सम्मिलित किया जाता है; जैसे – मनोरंजन व्यय, कल्याण केन्द्र, विश्राम-गृह आदि।।
  6. विकास कार्य – कृषि, परिवहन, उद्योग, सिंचाई आदि के विकास पर आवश्यक धन व्यय करना होता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
राज्यों की आय के दो कर-स्रोतों के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) भू-राजस्व या मालगुजारी तथा
(2) विद्युत कर।

प्रश्न 2
जिला परिषद् की आय के दो साधन बताइए।
उत्तर:
(1) हैसियत या सम्पत्ति कर तथा
(2) राज्य सरकार से अनुदान।

प्रश्न 3
इस प्रदेश की जिला परिषद् की व्यय की दो प्रमुख मदों को लिखिए।
उत्तर:
(1) शिक्षा पर व्यय तथा
(2) करों की प्राप्ति पर व्यय।

प्रश्न 4
नगर महापालिकाओं की आय के दो साधन लिखिए।
उत्तर:
(1) सम्पत्ति-कर या गृहकर तथा
(2) जल-कर।

प्रश्न 5
नगर महापालिकाओं की व्यय की दो प्रमुख मदों को लिखिए।
उत्तर:
(1) शिक्षा तथा
(2) सार्वजनिक स्वास्थ्य व चिकित्सा।

प्रश्न 6
उत्तर प्रदेश के नगर निगमों के नगरों के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) कानपुर,
(2) आगरा,
(3) वाराणसी,
(4) इलाहाबाद,
(5) लखनऊ,
(6) मेरठ,
(7) बरेली,
(8) गोरखपुर, झॉसी, मथुरा, सहारनपुर, गाजियाबाद, मुरादाबाद, अलीगढ़।।

प्रश्न 7
स्थानीय निकाय की आय का एक स्रोत लिखिए। [2006]
उत्तर:
गृह-कर।

प्रश्न 8
स्थानीय निकाय की व्यय की दो मदों के नाम लिखिए। [2016]
उत्तर:
(1) शिक्षा,
(2) सार्वजनिक स्वास्थ्य व चिकित्सा।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
नगर निगम के मुख्य पदाधिकारी को कहते हैं
(क) जिलाधीश
(ख) नगर-प्रमुख
(ग) स्वास्थ्य अधिकारी
(घ) पुलिस अधीक्षक
उत्तर:
(ख) नगर-प्रमुख।

प्रश्न 2
जिला पंचायत एक संस्था है
(क) स्थायी
(ख) अस्थायी
(ग) स्थायी एवं अस्थायी दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) स्थायी।

प्रश्न 3
स्थानीय निकायों को अनुदान दिये जाते हैं
(क) राज्य सरकार द्वारा
(ख) केन्द्रीय सरकार द्वारा
(ग) केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा
(घ) इनमें से किसी के द्वारा नहीं।
उत्तर:
(क) राज्य सरकार द्वारा।

प्रश्न 4
निम्नलिखित में से कौन-सा कर स्थानीय निकायों द्वारा लगाया जाता है? [2006, 15]
(क) गृह-कर
(ख) बिक्री-कर
(ग) भू-राजस्व
(घ) आय-कर
उत्तर:
(क) गृह-कर।

प्रश्न 5
कौन-सी सरकार गृह कर लगाती है? [2013, 15]
(क) केन्द्र सरकार
(ख) राज्य सरकार
(ग) स्थानीय सरकार
(घ) येसभी
उत्तर:
(ग) स्थानीय सरकार।

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UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 2

UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 2 are part of UP Board Class 12 Biology Model Papers. Here we have given UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 2.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Model Paper Paper 2
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 2

पूर्णाक : 70
समय : 3 घण्टे 15 मिनट

निर्देश: प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
नोट:

  • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
  • आवश्यकतानुसार अपने उत्तरों की पुष्टि नामांकित रेखाचित्रों द्वारा कीजिए।
  • सभी प्रश्नों के निर्धारित अंक उनके सम्मुख

प्रश्न 1.
सही विकल्प चुनकर अपनी उत्तर पुस्तिका में लिखिए।
(क) टर्नर सिण्ड्रोम के लिए निम्न में से कौन-सा संकेत सही है? [1]
(A) AAXO
(B) AAXYY
(C) AAXXY
(D) AAXXX

(ख) उपदंश उत्पन्न करने वाला जीवाणु है [1]
(A) ट्रिपोनिमा पैलिडम
(B) नाइसीरिया गोनोरी
(C) लिस्टेरिया मोनोसिस्टोजेन्स
(D) परसिनिया पेस्टिस

(ग) निम्न में से संक्रामक रोग है [1]
(A) पीलिया
(B) मलेरिया
(C) तपेदिक
(D) हैजा

(घ) मोनोक्लोनल प्रतिरक्षी के लिए हाइब्रिडोमा तकनीक की खोज की [1]
(A) नीरेनबर्ग तथा खुराना ने
(B) जेम्स एलरिक ने
(C) जॉर्ज कोहलर ने
(D) जेम्स ग्रिफिथ ने

प्रश्न 2.
(क) निषेचन के बाद पादप के किस भाग से फल तथा बीज का निर्माण होता है? [1/2+1/2]
(ख) मेण्डल द्वारा कराए गए द्विगुण संकरण में F-पीढ़ी में प्राप्त फीनोटाइप (लक्षण प्रारूप) बताइए। [1]
(ग) भक्षकाणु या फैगोसाइट्स क्या होते हैं? [1]
(घ) जैव-प्रौद्योगिकी की परिभाषा लिखिए। [1]
(ङ) आयु का घण्टीनुमा पिरामिड क्या प्रदर्शित करता है? [1]

प्रश्न 3.
(क) जर्मप्लाज्म सिद्धान्त क्या है?
(ख) ग्राफियन पुटिका क्या है? अण्डोत्सर्ग में इनकी क्या भूमिका होती है? [1+1]
(ग) जैविक खाद क्या होती है? एक उदाहरण दो। [1+1]
(घ) वह कौन-सी परत है, जो पृथ्वी पर पराबैंगनी किरणों को आने से रोकती है? इसे परत के अपक्षय के कारण बताइए। [1+1]
(ङ) बायोपाइरेसी से आप क्या समझते हैं? उदाहरण दीजिए। [2]

प्रश्न 4.
(क) डार्विन की फिंचों के अनुकूली विकिरण को समझाइए। [3]
(ख) अपूर्ण प्रभाविता क्या है? इसकी खोज किसने की? [2+1]
(ग) जैव-प्रौद्योगिकी में सहयोगी एन्जाइमों का उल्लेख कीजिए। [3]
(घ) रेगिस्तान में उगने वाले पादपों को क्या कहते हैं? इनमें कौन-से शारीरिक अनुकूलन पाए जाते हैं? [1+2]

प्रश्न 5.
(क) निम्न रोगों के रोगकारक के नाम बताइए। [1/2 x 6]

  1. मलेरिया
  2. सुजाक
  3. अफ्रीकी निद्रा रोग
  4. फीलपाँव
  5. दाद
  6. पोलियो

(ख) यदि कोई व्यक्ति वृद्धिरोधक का प्रयोग करते हुए अनिषेकजनन को प्रेरित करता है, तो आप प्रेरित अनिषेकजनन के लिए कौन-सा फल चुनते हैं तथा क्यों? [1  1/2+1  1/2]
(ग) मिलर का प्रयोग क्या था? इससे उन्होंने क्या निष्कर्ष निकाला? [2+1]
(घ) GM फसलें क्या हैं? इनके लाभ बताइए। [1+2]

प्रश्न 6.
(क) विभ्रमक व ओपिएट्स औषधियाँ क्या हैं? उदाहरण सहित बताइए। [1  1/2+1  1/2]
(ख) बन्ध्यता क्या है? स्त्रियों में बन्ध्यता के कोई चार कारण बताइए। [1+2]
(ग) एक तालाब के पारिस्थितिकी तन्त्र के विभिन्न घटकों का वर्णन कीजिए। [3]
(घ) तुलनात्मक शारीरिकी से विकास के क्या प्रमाण मिलते हैं? [3]

प्रश्न 7.
मरुक्रमक की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन कीजिए। [5]
अथवा
द्विबीजपत्री पादपों में निषेचन एवं भ्रूणोद्भव की सम्पूर्ण प्रक्रिया का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। [5]

प्रश्न 8.
चिकित्सा के क्षेत्र में जैव-प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोगों पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए। [5]
अथवा
पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के सम्बन्ध में ओपेरॉन परिकल्पना का वर्णन कीजिए। [5]

प्रश्न 9.
जैव-प्रबलीकरण किसे कहते हैं? इसके विभिन्न प्रकारों तथा विधियों का वर्णन करते हुए इसके लाभ तथा हानि की विवेचना कीजिए। [1+2+2]
अथवा
पुष्पी पादपों में पर-परागण की विभिन्न युक्तियों तथा माध्यमों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। [5]

Answers

उत्तर 1.
(क) (A)
(ख) (A)
(ग) (C)
(घ) (C)

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