UP Board Solutions for Class 12 Computer Chapter 2 ऑपरेटिंग सिस्टम

UP Board Solutions for Class 12 Computer Chapter 2 ऑपरेटिंग सिस्टम are part of UP Board Solutions for Class 12 Computer. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Computer Chapter 2 ऑपरेटिंग सिस्टम.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Computer
Chapter Chapter 2
Chapter Name ऑपरेटिंग सिस्टम
Number of Questions Solved 21
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Computer Chapter 2 ऑपरेटिंग सिस्टम

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
निम्न में से ऑपरेटिंग सिस्टम का कौन-सा प्रकार सर्वाधिक धीमी गति से कार्य करता है? [2014]
(a) मल्टीटास्किंग ऑपरेटिंग सिस्टम
(b) बैच ऑपरेटिंग सिस्टम
(c) टाइम शेयरिंग ऑपरेटिंग सिस्टम
(d) नेटवर्क ऑपरेटिंग सिस्टम
उत्तर:
(b) बैच ऑपरेटिंग सिस्टम

प्रश्न 2
निम्न में से कौन-सा ऑपरेटिंग सिस्टम नहीं है? [2018]
(a) Sun
(b) Linux
(c) Windows
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(d) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 3
वी एम एस (VMS) किस ऑपरेटिंग सिस्टम का उदाहरण है?
(a) मल्टी यूजर ऑपरेटिंग सिस्टम
(b) बैच ऑपरेटिंग सिस्टम
(c) सिंगल यूजर ऑपरेटिंग सिस्टम
(d) रियल टाइम ऑपरेटिंग सिस्टम
उत्तर:
(a) मल्टी यूजर ऑपरेटिंग सिस्टम

प्रश्न 4
सिंगल टास्किंग ऑपरेटिंग सिस्टम है।
(a) विण्डोज
(b) Mac OS
(c) पॉम
(d) MS-Windows 3X
उत्तर:
(c) पॉम

प्रश्न 5
यूनिक्स पर आधारित ऑपरेटिंग सिस्टम कौन-सा है?
(a) यूनिक्स
(b) लाइनक्स
(c) एम एस विण्डोज
(d) सोलेरिस
उत्तर:
(b) लाइनक्स

प्रश्न 6
पर्सनल कम्प्यूटर के लिए आजकल सर्वाधिक लोकप्रिय ऑपरेटिंग सिस्टम कौन-सा है? [2013]
(a) OS/2
(b) SUN
(c) MS-DOS
(d) MS-Windows
उत्तर:
(d) MS-Windows

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1:
ऑपरेटिंग सिस्टम को परिभाषित कीजिए। [2007]
उत्तर:
ऑपरेटिंग सिस्टम (Operating System, OS) एक ऐसा सॉफ्टवेयर है, जो यूजर (कम्प्यूटर पर कार्य करने वाला व्यक्ति), एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर और कम्प्यूटर हार्डवेयर के बीच संवाद (Communication) स्थापित करता है।

प्रश्न 2
ऑपरेटिंग सिस्टम के कोई दो कार्य लिखिए।
उत्तर:
आपरेटिंग सिस्टम के निम्न दो कार्य इस प्रकार हैं

  1. प्रोसेसिंग प्रबन्धन
  2. फाइल प्रबन्धन

प्रश्न 3
मेमोरी प्रबन्धन में ऑपरेटिंग सिस्टम का क्या कार्य है?
उत्तर:
प्रोग्राम के सफल निष्पादन के लिए ऑपरेटिंग सिस्टम मैमोरी प्रबन्धन का कार्य करता है।

प्रश्न 4
मल्टी यूजर ऑपरेटिंग सिस्टम को परिभाषित कीजिए। [2015, 09]
उत्तर:
मल्टी यूजर ऑपरेटिंग सिस्टम एक समय में एक से अधिक उपयोगकर्ता को कार्य करने की अनुमति देता है।

प्रश्न 5
किन्हीं दो ऑपरेटिंग सिस्टम के उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
(i) लाइनक्स
(ii) एम एस डॉस

प्रश्न 6
PC में प्रयोग होने वाले OS का उदाहरण दीजिए। [2015]
उत्तर:
एम एस विण्डोज

लघु उत्तरीय प्रश्न I (1 अंक)

प्रश्न 1
ऑपरेटिंग सिस्टम कम्प्यूटर के लिए क्यों आवश्यक है? इसके प्रमुख कार्य लिखिए। [2011]
अथवा
ऑपरेटिंग सिस्टम का मुख्य उद्देश्य बताइए। [2017]
उत्तर:
ऑपरेटिंग सिस्टम, एक ऐसा सॉफ्टवेयर है जो यूजर, कम्प्यूटर के हार्डवेयर तथा सॉफ्टवेयर के मध्य संवाद स्थापित करता है। ऑपरेटिंग सिस्टम सॉफ्टवेयर को मैनेज करने, प्रोसेस करने, संरक्षण (Protection) आदि में मुख्य भूमिका निभाता है, इसलिए कम्प्यूटर के लिए यह अति आवश्यक है।

ऑपरेटिंग सिस्टम के कार्य निम्न हैं।

  1. प्रोसेसिंग प्रबन्धन
  2. मेमोरी प्रबन्धन
  3. फाइल प्रबन्धन
  4. इनपुट-आउटपुट युक्ति प्रबन्धन
  5. सुरक्षा प्रबन्धन
  6. कम्यूनिकेशन

प्रश्न 2
ऑपरेटिंग सिस्टम की आवश्यकताएँ लिखिए।
उत्तर:
ऑपरेटिंग सिस्टम की आवश्यकताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. यह उपयोगकर्ता के कार्यों व फाइलों को सुरक्षा प्रदान करता है।
  2. यह प्रोग्राम के क्रियान्वयन पर नियन्त्रण रखता है।
  3. इसके द्वारा यूजर्स कम्प्यूटर के विभिन्न भागों का उचित रूप से प्रयोग कर सकते हैं।
  4. यह यूजर व कम्प्यूटर के मध्य सम्बन्ध स्थापित करता है।

प्रश्न 3
प्रचालन तन्त्र (ऑपरेटिंग सिस्टम) के प्रकार की व्याख्या कीजिए। [2016]
उत्तर:
ऑपरेटिंग सिस्टम के प्रकार निम्न हैं।

  1. बैच ऑपरेटिंग सिस्टम
  2. सिंगल यूजर ऑपरेटिंग सिस्टम
  3. मल्टी यूजर ऑपरेटिंग सिस्टम
  4. सिंगल टास्किंग ऑपरेटिंग सिस्टम
  5. मल्टीटास्किंग ऑपरेटिंग सिस्टम
  6. टाइम शेयरिंग ऑपरेटिंग सिस्टम
  7. रियल टाइम ऑपरेटिंग सिस्टम
  8. डिस्ट्रीब्यूटीड ऑपरेटिंग सिस्टम

प्रश्न 4
मल्टीप्रोग्राम ऑपरेटिंग सिस्टम का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। [2017]
उत्तर:
मल्टीप्रोग्राम ऑपरेटिंग सिस्टम में, मुख्य मेमोरी में एक या अधिक प्रोग्राम लोड होते है, जो एक्जीक्यूशन के लिए तैयार होते हैं। एक समय में, केवल एक प्रोगाम सीपीयू को अपने निर्देशों को एक्जीक्युट करने में सक्षम होता है, जबकि अन्य सभी अपनी बारी का इन्तजार कर रहे होते हैं। मल्टीप्रोग्रामिंग का मुख्य उद्देश्य (CPU) समय के उपयोग को अधिकतम करना है।

लघु उत्तरीय प्रश्न II (3 अंक)

प्रश्न 1
ऑपरेटिंग सिस्टम क्या है? उदाहरण सहित टाइम शेयरिंग ऑपरेटिंग सिस्टम को समझाइए। [2006]
उत्तर:
ऑपरेटिंग सिस्टम (Operating System, OS) एक ऐसा सॉफ्टवेयर है, जो यूजर (कम्प्यूटर पर कार्य करने वाला व्यक्ति) एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर और कम्प्यूटर हार्डवेयर के बीच संवाद (Communication) स्थापित करता है। ऑपरेटिंग सिस्टम, कम्प्यूटर तथा यूजर के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने का भी कार्य करता है। ऑपरेटिंग सिस्टम कम्प्यूटर के विभिन्न क्रियाकलापों (Activities); जैसे-मेमोरी, प्रोसेसर, फाइल सिस्टम तथा अन्य इनपुट-आउटपुट डिवाइसों का संचालन (0peration) करता है।
टाइम शेयरिंग ऑपरेटिंग सिस्टम इस प्रकार के ऑपरेटिंग सिस्टम में एक साथ एक से अधिक उपयोगकर्ता या प्रोग्राम कम्प्यूटर के संसाधनों का प्रयोग करते हैं। इस कार्य में, कम्प्यूटर अपने संसाधनों के प्रयोग हेतु प्रत्येक उपयोगकर्ता को समय का एक भाग आवण्टित करते हैं। सीपीयू सभी यूजर्स के कार्य को उनके आवण्टित समय में क्रमानुसार सम्पन्न करता है।
उदाहरण: Mac OS

प्रश्न 2
रियल टाइम ऑपरेटिंग सिस्टम को विस्तार से समझाइए।
उत्तर:
रियल टाइम ऑपरेटिंग सिस्टम एक ऐसा मल्टीटास्किंग ऑपरेटिंग सिस्टम है, जिसमें रियल टाइम एप्लीकेशन्स का क्रियान्वयन (Execution) किया जाता। है। इसमें एक प्रोग्राम के आउटपुट को दूसरे प्रोग्राम के आउटपुट की तरह प्रयोग किया जाता है। यह दो प्रकार के होते हैं।

  • हार्ड रियल टाइम सिस्टम ये सिस्टम किसी महत्त्वपूर्ण कार्य को करने की गारण्टी देते हैं और समय पर कार्य पूरा न होने की स्थिति में प्रोग्राम का क्रियान्वयन (Execution) फेल कर दिया जाता है।
  • सॉफ्ट रियल टाइम सिस्टम इसमें किसी कार्य को करने की डेडलाइन दी जाती है, परन्तु कार्य का निष्पादन डेडलाइन से पहले और बाद में भी पूरा हो। सकता है और इस स्थिति में कार्य का निष्पादन फेल नहीं होता।

प्रश्न 3
निम्न पर टिप्पणी लिखिए।
(i) यूनिक्स
(ii) एम एस डॉस
(iii) लाइनक्स
उत्तर:
(i) यूनिक्स यह एक मल्टीटास्किंग व मल्टी यूजर ऑपरेटिंग सिस्टम है, जिसे AT & T Bell लैब में रिची एवं थॉमसन नामक इंजीनियरों ने विकसित किया था। यह स्थिर, मल्टीयूजर, मल्टीटास्किंग सिस्टम में प्रयोग किया जाता है।
(ii) लाइनक्स यह यूनिक्स पर आधारित ऑपरेटिंग सिस्टम है, जिसको सन्1991 में लीनस टोरवॉल्ड्स ने विकसित किया था। यह एक ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर है तथा सभी प्रकार के कम्प्यूटर पर चल सकता है। इसका प्रयोग मुख्यतः सर्वर के लिए होता हैं।
(iii) एम एस डॉस यह एक सिंगल यूजर जुलाई, 1981 में माइक्रोसॉफ्ट द्वारा विकसित ऑपरेटिंग सिस्टम है। यह एक नॉन-ग्राफिकल, कमाण्ड लाइन बेस्ड सिस्टम है। यह यूजर फ्रेंडली नहीं है, क्योंकि इसमें कमाण्ड याद रखनी पड़ती है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (5 अंक)

प्रश्न 1
ऑपरेटिंग सिस्टम क्या है? इसके द्वारा किए जाने वाले कार्यों का वर्णन कीजिए। [2005]
अथवा
प्रचालन तन्त्र (ऑपरेटिंग सिस्टम) का अर्थ समझाइए [2008]
उत्तर:
ऑपरेटिंग सिस्टम या प्रचालन तन्त्र एक ऐसा सॉफ्टवेयर है जो मानव, एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर और कम्प्यूटर हार्डवेयर के बीच संवाद स्थापित करता है। ऑपरेटिंग सिस्टम, सिस्टम सॉफ्टवेयर का एक महत्त्वपूर्ण प्रकार है। इसके बिना कम्प्यूटर से कार्य नहीं किया जा सकता। यह सीपीयू से मिलने वाले सिग्नल्स को कम्प्यूटर के विभिन्न भागों तक पहुँचाता है तथा उन्हें नियन्त्रित करता है। ऑपरेटिंग सिस्टम कम्प्यूटर तथा यूजर के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने का भी कार्य करता है। ऑपरेटिंग सिस्टम को कण्ट्रोल प्रोग्राम भी कहा जाता है, क्योंकि ये कम्प्यूटर सिस्टम तथा उसकी गतिविधियों को नियन्त्रित करता है।

ऑपरेटिंग सिस्टम द्वारा किए जाने वाले कार्य
यह कम्प्यूटर के सफल संचालन की प्रक्रिया में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इसके द्वारा किए जाने वाले कार्य निम्न प्रकार हैं।

(i) प्रोसेसिंग प्रबन्धन कम्प्यूटर के सीपीयू के प्रबन्धन का कार्य ऑपरेटिंग सिस्टम ही करता है।
(ii) मेमोरी प्रबन्धन प्रोग्राम के सफल निष्पादन के लिए ऑपरेटिंग सिस्टम मेमोरी प्रबन्धन का अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण कार्य करता है, जिसके अन्तर्गत मेमोरी में कुछ स्थान सुरक्षित रखे जाते हैं, जिनका विभाजन प्रोग्रामों के मध्य किया जाता है तथा साथ ही यह भी ध्यान में रखा जाता है कि प्रोग्रामों को मेमोरी के अलग-अलग स्थान प्राप्त हो सकें।
(iii) इनपुट-आउटपुट युक्ति प्रबन्धन डाटा को इनपुट युक्ति से पढ़कर मेमोरी में उचित स्थान पर संग्रहीत करने एवं प्राप्त परिणाम को मेमोरी में आउटपुट यूनिट तक पहुँचाने का कार्य ऑपरेटिंग सिस्टम का ही होता है। प्रोग्राम लिखते समय कम्प्यूटर केवल यह बताता है कि हमें क्या इनपुट करना है और क्या आउटपुट लेना है, बाकि का कार्य ऑपरेटिंग सिस्टम ही करता है।
(iv) फाइल प्रबन्धन ऑपरेटिंग सिस्टम फाइलों को एक सुव्यवस्थित ढंग से किसी डायरेक्टरी में स्टोर करने की सुविधा प्रदान करता है। किसी प्रोग्राम के निष्पादन के समय इसे सेकेण्डरी मेमोरी से पढ़कर प्राइमरी मेमोरी में भेजने का कार्य भी ऑपरेटिंग सिस्टम ही करता है।
(v) सुरक्षा प्रबन्धन जब मल्टी यूजर तथा मल्टीप्रोग्रामिंग सिस्टम प्रयोग में होते हैं, उस समय सैकड़ों की संख्या में प्रोग्राम क्रिया में होते हैं, ऐसे में उन प्रोग्रामों और उनके डाटा की सुरक्षा व्यवस्था एक जटिल कार्य है। ऑपरेटिंग सिस्टम इस बात को सुनिश्चित करता है कि एक गलत तरीके से रन हुआ प्रोग्राम किसी अन्य प्रोग्राम को प्रभावित न करे।
(vi) कम्युनिकेशन ऑपरेटिंग सिस्टम का महत्त्वपूर्ण कार्य नेटवर्किंग के माध्यम से एक यूजर सिस्टम का दूसरे यूजर सिस्टम से कम्यूनिकेशन की सुविधा प्रदान करना है।

प्रश्न 2
कुछ सर्वाधिक प्रचलित पर्सनल कम्प्यूटर ऑपरेटिंग सिस्टम की संक्षिप्त जानकारी दीजिए। [2012]
उत्तर:
सर्वाधिक प्रचलित पर्सनल कम्प्यूटर ऑपरेटिंग सिस्टम इस प्रकार है।

  1. यूनिक्स यह एक मल्टीटास्किंग व मल्टी यूजर ऑपरेटिंग सिस्टम है, जिसे AT & T Bell लैब में वर्ष 1969 में रिची एवं थॉमसन नामक इंजीनियरों द्वारा विकसित किया गया था। इस ऑपरेटिंग सिस्टम को सर्वर तथा वर्क स्टेशन दोनों में प्रयोग किया जा सकता है। इसमें डाटा प्रबन्धन का कार्य कर्नेल द्वारा होता है।
  2. लाइनक्स यह यूनिक्स का अधिक विकसित संस्करण (Edition) है। यह ऑपरेटिंग सिस्टम सन् 1991 में लीनस टोरवॉल्ड्स द्वारा विकसित किया गया था। लाइनक्स मूल रूप से इण्टेल X86 पर आधारित है।
  3. सोलेरिस इस ऑपरेटिंग सिस्टम का विकास सन माइक्रोसिस्टम्स द्वारा सन् 1992 में किया गया था। ये ऑपरेटिंग सिस्टम, सिस्टम मैनेजमेण्ट तथा नेटवर्क के कार्यों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है।
  4. एम एस डॉस यह एक सिंगल यूजर ऑपरेटिंग सिस्टम है, जिसे माइक्रोसॉफ्ट द्वारा सन् 1981 में विकसित किया गया था। यह एक नॉन-ग्राफिकल, कमाण्ड लाइन बेस्ड ऑपरेटिंग सिस्टम है। एम एस डॉस यूजर फ्रेंडली नहीं है, क्योंकि इसमें कमाण्ड याद रखनी पड़ती है।
  5. एम एस विण्डोज यह माइक्रोसॉफ्ट द्वारा विकसित ग्राफिकल यूजर इण्टरफेस है। यह सर्वाधिक लोकप्रिय पर्सनल कम्प्यूटर में प्रयुक्त ऑपरेटिंग सिस्टम है।
  6. OS/2 इस ऑपरेटिंग सिस्टम को IBM ने सन् 1987 में लॉन्च किया था। यह ऑपरेटिंग सिस्टम मल्टीटास्किंग तथा GUI बेस्ड होता है।

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UP Board Solutions for Class 12 Computer Chapter 1 कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर

UP Board Solutions for Class 12 Computer Chapter 1 कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर are part of UP Board Solutions for Class 12 Computer. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Computer Chapter 1 कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर.

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Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Computer
Chapter Chapter 1
Chapter Name कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर
Number of Questions Solved 22
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Computer Chapter 1 कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1:
निम्न में से कौन-सा सिस्टम सॉफ्टवेयर नहीं है? [2014]
(a) वर्ड प्रोसेसर
(b) ऑपरेटिंग सिस्टम
(c) कम्पाइलर
(d) लिंकर
उत्तर:
(a) वर्ड प्रोसेसर एक एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर है।

प्रश्न 2
निम्न में से कौन-सा प्रोग्राम एक प्रोग्राम के अनेक भागों को कम्पाइलेशन के बाद आपस में जोड़ता है? [2013]
(a) लिंकर
(b) लोडर
(C) इण्टरप्रेटर
(d) लाइब्रेरियन
उत्तर:
(a) लिंकर

प्रश्न 3
वर्ड प्रोसेसर क्या है? [2016]
(a) सिस्टम सॉफ्टवेयर
(b) एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर
(c) ‘a’ और ‘b’ दोनों
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर

प्रश्न 4
टेक्स्ट एडिटर का उदाहरण है।
(a) नोटपैड
(b) प्रिण्टर ड्राइवर
(c) टैली
(d) पेजमेकर
उत्तर:
(a) विण्डोज ऑपरेटिंग सिस्टम में नोटपैड टेक्स्ट एडिटर का उदाहरण है।

प्रश्न 5
कम्प्यूटर के वायरस को डिलीट करने के लिए किसका प्रयोग किया जाता है?
(a) एण्टीवायरस प्रोग्राम
(b) बैकअप यूटिलिटी
(c) डिस्क डिफ़ेग्मेण्टर
(d) डिस्क कम्प्रेशन
उत्तर:
(a) एण्टीवायरस प्रोग्राम

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंकः)

प्रश्न 1
एक से अधिक लाइनों, विवरण, कमेण्टों या निर्देशों के समूह को क्या कहते हैं?
उत्तर:
एक से अधिक लाइनों, विवरण, कमेण्टों या निर्देशों के समूह को प्रोग्राम कहते हैं।

प्रश्न 2
सॉफ्टवेयर की व्याख्या एक वाक्य में कीजिए। [2016]
उत्तर:
कम्प्यूटर के क्षेत्र में निर्देशों के समूह को प्रोगाम कहा जाता है और प्रोग्रामों के समूह को सॉफ्टवेयर कहा जाता है।

प्रश्न 3
लोडर से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
यह ऑपरेटिंग सिस्टम को एक भाग होता है, जो प्रोग्राम तथा लाइब्रेरी को, लोड करने के लिए उत्तरदायी होता है।

प्रश्न 4
एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर को परिभाषित कीजिए। [2017, 11]
उत्तर:
एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर उन प्रोग्रामों को कहा जाता है, जो उपयोगकर्ता के वास्तविक कार्य कराने के लिए लिखे जाते हैं।

प्रश्न 5
एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर के प्रकारों के नाम लिखिए।
उत्तर:
प्लीकेशन सॉफ्टवेयर दो प्रकार के होते हैं।

  • सामान्य उद्देश्य के एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर
  • विशिष्ट उद्देश्य के एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर

प्रश्न 6
यूटिलिटी सॉफ्टवेयर के कोई दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
यूटिलिटी सॉफ्टवेयर के दो उदाहरण निम्नलिखित हैं।

  • टेक्स्ट एडिटर
  • फाइल सॉर्टिग प्रोग्राम

लघु उत्तरीय प्रश्न I (1 अंक)

प्रश्न 1
सॉफ्टवेयर व हार्डवेयर में अन्तर बताइए। [2012]
उत्तर:
सॉफ्टवेयर व हार्डवेयर में निम्न अन्तर है
UP Board Solutions for Class 12 Computer Chapter 1 कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर img-1

प्रश्न 2
सिस्टम सॉफ्टवेयर व एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर में अन्तर बताइए। [2006, 05]
उत्तर:
सिस्टम सॉफ्टवेयर व एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर में निम्न अन्तर है।
UP Board Solutions for Class 12 Computer Chapter 1 कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर img-2

प्रश्न 3
कम्प्यूटर ग्राफिक्स सॉफ्टवेयर का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। [2017]
उत्तर:
कम्प्यूटर ग्राफिक्स सॉफ्टवेयर एक एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर है, जो कम्प्यूटर पर सेव इमेजिस में बदलाव करने और उन्हें सुन्दर बनाने की अनुमति देते हैं। इन सॉफ्टवेयर्स के द्वारा इमेजिस को रीटच, कलर एडजस्ट, एनहेन्स, शैडो व ग्लो जैसे विशेष इफेक्ट्स दिए जा सकते हैं; जैसे-एडोब फोटोशॉप, पेजमेकर आदि।

प्रश्न 4
सामान्य व विशिष्ट उद्देश्य के सॉफ्टवेयरों का विभिन्न क्षेत्रों में उपयोग लिखिए।
उत्तर:
सामान्य उद्देश्य के सॉफ्टवेयर का विभिन्न क्षेत्रों में उपयोग निम्नवत् है

  1. कम्प्यूटर आधारित डिजाइन।
  2. सूचना संचार।
  3. डाटाबेस प्रबन्धन प्रणाली

विशिष्ट उद्देश्य के सॉफ्टवेयर की विभिन्न क्षेत्रों में उपयोग निम्नवत् है।

  1. रेलवे, वायुयान आदि के आरक्षण हेतु
  2. होटल प्रबन्धन में
  3. अस्पतालों में
  4. स्कूलों व लाइब्रेरी में

प्रश्न 5
निम्नलिखित को परिभाषित कीजिए [2009]
(i) यूटिलिटी सॉफ्टवेयर
(ii) ड्राइवर
उत्तर:
(i) यूटिलिटी सॉफ्टवेयर यह कम्प्युटर के रख-रखाव से सम्बन्धित कार्य करता है। यह कई ऐसे कार्य करता है, जो कम्प्यूटर का उपयोग करते समय हमें कराने पड़ते हैं।
(ii) डाइवर यह एक विशेष प्रकार का सॉफ्टवेयर होता है, जो किसी डिवाइस के प्रचालन (Operation) को समझाता है। यह हार्डवेयर डिवाइस और उपयोगकर्ता के मध्य सॉफ्टवेयर इण्टरफेस प्रदान करता है।

प्रश्न 6
निम्न को परिभाषित कीजिए [2010]
(i) डिस्क डिफ़ेग्मेण्टर
(ii) वायरस स्कैनर
उत्तर:
(i) डिस्क डिफ़ेग्मेण्टर यह कम्प्यूटर की हार्ड डिस्क पर विभिन्न जगहों पर रखी हुई फाइलों को खोजकर उन्हें एक स्थान पर लाता है।
(ii) वायरस स्कैनर यह एक यूटिलिटी प्रोग्राम है, जिसका प्रयोग कम्प्यूटर के वायरस ढूंढने में किया जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न II (3 अंक)

प्रश्न 1
निम्नलिखित पर टिप्पणी कीजिए। [2013]
(i) लोडर
(ii) सब-प्रोग्राम अथवा मॉड्यूल
उत्तर:
(i) लोडर यह ऑपरेटिंग सिस्टम का एक भाग होता है, जो किसी एक्जीक्यूटेबल फाइल को मुख्य मेमोरी में लोड करने का कार्य करता है। यह लिंकर द्वारा कम्पाइल किए गए प्रोग्राम को एक साथ जोड़कर कार्य करने योग्य बनाता है।
(ii) सब-प्रोग्राम या मॉड्यूल सब-प्रोग्राम या मॉड्यूल ऐसा प्रोग्राम है, जो किसी निर्धारित टास्क या फंक्शन को चलाने के लिए एक अन्य प्रोग्राम द्वारा कॉल किया जाता है।

प्रश्न 2
कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर कितने प्रकार के होते हैं? उदाहरण सहित समझाइए। [2002]
उत्तर:
कम्प्यूटर के क्षेत्र में निर्देशों के समूह को प्रोग्राम कहा जाता है और प्रोग्रामों के समूह को सॉफ्टवेयर कहा जाता है।
कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर तीन प्रकार के होते हैं।

  1. सिस्टम सॉफ्टवेयर इस प्रकार के सॉफ्टवेयर्स कम्प्युटर को चलाने, उसको नियन्त्रित करने, उसके विभिन्न भागों की देखभाल करने तथा उसकी सभी । क्षमताओं का सही प्रकार से उपयोग करने के लिए बनाए जाते हैं।
    उदाहरण ऑपरेटिंग सिस्टम, लिंकर, लोडर आदि।
  2. एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर इस प्रकार के सॉफ्टवेयर्स उपयोगकर्ता के वास्तविक कार्य कराने के लिए बनाए जाते हैं। ये कार्य हर कम्पनी या उपयोगकर्ता के लिए अलग-अलग होते हैं, इसलिए उपयोगकर्ता की आवश्यकतानुसार इसके प्रोग्राम प्रोग्रामर द्वारा लिखे जाते हैं। उदाहरण एमएस-वर्ड, एमएस-एक्सेल, टैली आदि।
  3. यूटिलिटी सॉफ्टवेयर ये सॉफ्टवेयर्स कम्प्यूटर के कार्यों को सरल बनाने, उसे अशुद्धियों से दूर रखने तथा सिस्टम के विभिन्न सुरक्षा कार्यों के लिए बनाए जाते हैं। ये कम्प्यूटर के निर्माता द्वारा ही उपलब्ध कराए जाते हैं। उदाहरण टेक्स्ट एडिटर, डिस्क क्लीनर्स आदि।

प्रश्न 3
एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर को विस्तार में समझाइए।
उत्तर:
यह उन प्रोग्रामों का समूह होता है, जो उपयोगकर्ता के वास्तविक कार्य कराने के लिए बनाए जाते हैं; जैसे-स्टॉक की स्थिति का विवरण देना, लेन-देन व खातों का हिसाब रखना आदि। मुख्य रूप से प्रयोग होने वाले एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर: जैसे-एमएस वर्ड, एमएस-एक्सेल, टैली, पेजमेकर, फोटोशॉप आदि हैं।
सामान्यतः एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर्स दो प्रकार के होते हैं, जो निम्न हैं ।

  • सामान्य उद्देश्य के एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर प्रोग्रामों का वह समूह, जिसे यूजर्स अपनी आवश्यकतानुसार अपने सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उपयोग करता है, सामान्य उद्देश्य का सॉफ्टवेयर कहलाता हैं। जैसे-ग्राफिक्स सॉफ्टवेयर, स्प्रेडशीट, डाटाबेस प्रबन्धन आदि।
  • विशिष्ट उद्देश्य के एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर प्रोग्रामों का वह समूह, जो एक विशेष प्रकार के कार्य को निष्पादित करने के लिए प्रयोग किया जाता है, विशिष्ट उद्देश्य का सॉफ्टवेयर कहलाता है; जैसे-होटल प्रबन्धन सम्बन्धी सॉफ्टवेयर का प्रयोग बुकिंग विवरण, बिलिंग विवरण आदि को सुरक्षित रखने के लिए किया जाता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (5 अंक)

प्रश्न 1
सिस्टम सॉफ्टवेयर से आपका क्या तात्पर्य है? इनके प्रमुख कार्यों को लिखिए। [2009]
अथवा
सिस्टम सॉफ्टवेयर पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2010]
उत्तर:
ऐसे प्रोग्राम जो कम्प्यूटर को चलाने, नियन्त्रित करने, उसके विभिन्न भागों की देखभाल करने तथा उसकी सभी क्षमताओं का सही प्रकार से उपयोग करने के लिए बनाए जाते हैं, उनको सम्मिलित रूप से ‘सिस्टम सॉफ्टवेयर’ कहा जाता है। कम्प्यूटर से हमारा सम्पर्क या संवाद सिस्टम सॉफ्टवेयर के माध्यम से ही हो पाता है।

सिस्टम सॉफ्टवेयर्स निम्न प्रकार के होते हैं।

  • ऑपरेटिंग सिस्टम इसमें वे प्रोग्राम्स शामिल होते हैं, जो कम्प्यूटर के विभिन्न अवयवों के कार्यों को नियन्त्रित करते हैं, उनमें समन्वय स्थापित करते हैं। तथा उन्हें प्रबन्धित करते हैं। इनका प्रमुख कार्य उपयोगकर्ता तथा हार्डवेयर के मध्य एक समन्वय स्थापित करना है।
  • लिंकर यह एक ऐसा प्रोग्राम होता है, जो पहले से कम्पाइल की गई एक या एक से अधिक ऑब्जेक्ट फाइलों को एक साथ जोड़कर उन्हें क्रियान्वयन के लिए तैयार कर बड़े प्रोग्राम का रूप प्रदान करता है।
  • लोडर यह ऑपरेटिंग सिस्टम का एक भाग होता है, जो प्रोग्राम तथा लाइब्रेरी को लोड करने के लिए उत्तरदायी होता है। लोडर निर्देशों की एक श्रृंखला होती है, जो किसी एक्जीक्यूटेबल प्रोग्राम को मुख्य मेमोरी में लोड करने का कार्य करता है, ताकि सीपीयू उसे एक्सेस कर सके।
  • डिवाइस ड्राइवर यह एक विशेष प्रकार का सॉफ्टवेयर होता है, जो किसी डिवाइस के प्रचालन को समझाता है। एक ड्राइवर हार्डवेयर डिवाइस और उपयोगकर्ता के मध्य सॉफ्टवेयर इण्टरफेस प्रदान करता है। किसी भी डिवाइस को सुचारु रूप से चलाने के लिए उसके साथ एक ड्राइवर प्रोग्राम जुडा होता हैं।

प्रश्न 2
यूटिलिटी सॉफ्टवेयर क्या होता है? उदाहरण सहित समझाइए।
अथवा
यूटिलिटी सॉफ्टवेयर का अर्थ तथा कार्य समझाइए। ऐसे किन्हीं दो सॉफ्टवेयर्स का वर्णन भी कीजिए।[2009]
उत्तर:
ये प्रोग्राम्स कम्प्यूटर के रख-रखाव से सम्बन्धित कार्य करते हैं। प्रोग्राम्स कम्प्यूटर के कार्यों को सरल बनाने, उसे अशुद्धियों से दूर करने तथा सिस्टम के विभिन्न सुरक्षा कार्यों के लिए बनाए जाते हैं। यूटिलिटी सॉफ्टवेयर, कई
ऐसे कार्य करता है, जो कम्प्यूटर का उपयोग करते समय हमें कराने पड़ते हैं।
यूटिलिटी सॉफ्टवेयर के प्रमुख उदाहरण निम्न है।

  1. टेक्स्ट एडिटर यह एक ऐसा प्रोग्राम होता है, जो टेक्स्ट फाइलों के निर्माण और उनके सम्पादन की सुविधा देता है। इसका उपयोग केवल टेक्स्ट टाइप करने में किया जाता है। विण्डोज ऑपरेटिंग सिस्टम में नोटपैड एक ऐसा ही प्रोग्राम है।
  2. फाइल सॉटिंग प्रोग्राम ये ऐसे प्रोग्राम होते हैं, जो किसी डाटा फाइल के रिकॉर्डो को यूजर के किसी इच्छित क्रम (Order) में लगा सकते हैं। फाइल सॉर्टिग किसी विशेष सूचना को ढूंढने के लिए उपयोगी होती है।
  3. डिस्क डिफ़ेग्मेण्टर यह कम्प्यूटर की हार्ड डिस्क पर विभिन्न जगहों पर रखी हुई फाइलों को खोजकर उन्हें एक स्थान पर लाता है।
  4. बैकअप यूटिलिटी यह कम्प्यूटर की डिस्क पर उपस्थित सारी सूचनाओं की एक कॉपी रखता है तथा जरूरत पड़ने पर कुछ जरूरी फाइलें या पूरी हार्ड डिस्क के कण्टेण्ट को वापस रिस्टोर कर देता है।
  5. एण्टीवायरस प्रोग्राम ये ऐसे यूटिलिटी प्रोग्राम्स होते हैं, जिनका प्रयोग कम्प्यूटर के वायरस ढूंढने और उन्हें डिलीट (Delete) करने में किया जाता है।
  6. डिस्क क्लीनर्स यह उन फाइलों को ढूंढकर डिलीट करता है, जिनका बहुत समय से उपयोग नहीं हुआ है। इस प्रकार यह कम्प्यूटर की गति को भी तेज करता है।

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests (उपलब्धि तथा उपलब्धि परीक्षण) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests (उपलब्धि तथा उपलब्धि परीक्षण).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 24
Chapter Name Achievement and Achievement Tests
(उपलब्धि तथा उपलब्धि परीक्षण)
Number of Questions Solved 30
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests (उपलब्धि तथा उपलब्धि परीक्षण)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
उपलब्धि परीक्षण से आप क्या समझते हैं ? निबन्धात्मक परीक्षण के गुण-दोषों का उल्लेख कीजिए। [2014, 15]
या
निबन्धात्मक परीक्षण के गुण और दोषों की विवेचना कीजिए। [2013]
या
निबन्धात्मक परीक्षणों की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं? इनके गुण-दोषों पर प्रकाश डालिए। [2014]
या
निबन्धात्मक परीक्षण के दोषों को बताइए। [2008, 12]
उत्तर :
उपलब्धि परीक्षण
प्रत्येक विद्यालय में विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त करने के लिए जाते हैं। एक निश्चित समय में विद्यार्थियों ने कितना ज्ञान अर्जित किया तथा जीवन की परिस्थितियों में उसे कहाँ तक हस्तान्तरित किया आदि की जाँच उपलब्धि परीक्षण द्वारा की जाती है। अध्यापक उपलब्धि परीक्षाओं द्वारा समय-समय पर यह जानने का प्रयास करता है कि कक्षा में प्रदान किया जाने वाला ज्ञान विद्यार्थियों ने किस सीमा तक ग्रहण कर लिया है।

विभिन्न विद्वानों ने उपलब्धि परीक्षणों की परिभाषाएँ निम्नलिखित शब्दों में दी हैं

  1. हेनरी चौनसी (Henry Chauncy) के अनुसार, “प्रत्येक उपलब्धि परीक्षा में छात्रों को किसी-न-किसी रूप में अपने प्राप्त ज्ञान का इस प्रकार प्रदर्शन करना पड़ता है, जिससे उसका अवलोकन और मूल्यांकन किया जा सके।”
  2.  गैरीसन (Garrison) के अनुसार, “उपलब्धि परीक्षा बालक की वर्तमान योग्यता या किसी विशिष्ट विषय के क्षेत्र में उसके ज्ञानार्जन की सीमा का मापन करती है।”
  3. फ्रीमैन (Freeman) के अनुसार, “एक उपलब्धि परीक्षा वह है जिसका निर्माण ज्ञान समूह में कौशल के मापन के लिए किया जाता है।”

निबन्धात्मक परीक्षण
आजकल हमारे देश में निबन्धात्मक परीक्षाओं का अधिक प्रचलन है। ये परीक्षाएँ एक प्रकार से राष्ट्रीय शिक्षा का अंग हो गयी हैं। इनमें छात्रों को कुछ प्रश्न दिये जाते हैं और छात्र उनके उत्तर लिखित रूप में देते हैं। उत्तर देने का समय निर्धारित होता है। यह परीक्षा की परम्परागत प्रणाली है।

गुण :
निबन्धात्मक परीक्षाओं के निम्नलिखित गुण हैं।

  1. इन परीक्षाओं का आयोजन सरलतापूर्वक किया जा सकता है।
  2. इन परीक्षाओं के प्रश्नों को सुगमता से तैयार किया जा सकता है।
  3. यह विधि समस्त विषयों के लिए उपयोगी है।
  4. इसमें बालक को पूर्ण अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता रहती है।
  5. यह प्रणाली बालकों के लिए भी सुगम होती है, क्योंकि प्रश्न-पत्र समझने में उन्हें विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ती।
  6. छात्रों की तर्क, विचार संगठन तथा चिजन शक्ति का ज्ञान कराने में ये परीक्षाएँ विशेष सहायक होती हैं।
  7. यह प्रणाली छात्रों को परिश्रम करने के लिए प्रेरित करती है।
  8. यह प्रणाली बालकों के अर्जित ज्ञान का वास्तविक मूल्यांकन करती है।

दोष :
निबन्धात्मक परीक्षाओं में निम्नांकित दोष भी हैं

  1. निबन्धात्मक परीक्षाएँ केवल पुस्तकीय ज्ञान का मूल्यांकन करती हैं। इनके द्वारा छात्र की विभिन्न क्षमताओं का मूल्यांकन नहीं हो पाता।।
  2. इस परीक्षा में सम्पूर्ण पाठ्यक्रम के समस्त भागों में प्रश्न नहीं पूछे जाते हैं। जो भाग शेष रहता है, उसका मूल्यांकन नहीं हो पाता।
  3. इस परीक्षा का प्रमुख दोष यह है कि छात्र अनुमान के आधार पर ही परीक्षा की तैयारी करते हैं। इस प्रकार कम परिश्रम करके उन्हें सफलता मिल जाती है।
  4. निबन्धात्मक परीक्षा में मूल्यांकन कठिनता से होता है। मूल्यांकन के लिए प्रत्येक प्रश्न के उत्तर को। पढ़ना आवश्यक है, परन्तु यह एक कठिन कार्य है।
  5. इनमें आत्मनिष्ठता का प्रभाव रहता है। छात्रों द्वारा दिये गये प्रश्नों के उत्तरों का मूल्यांकन करते समय परीक्षक के विचारों, अभिवृत्ति तथा मानसिक स्तर का भी प्रभाव पड़ता है। एक उत्तर-पुस्तिका की। यदि विभिन्न परीक्षकों से जाँच कराई जाए, तो विभिन्न परिणाम देखने में आएँगे। एक उत्तर में यदि एक । अध्यापक आठ अंक देता है, तो उसी उत्तर में दूसरा अध्यापक तीन अंक भी प्रदान कर सकता है।
  6. निबन्धात्मक परीक्षाएँ विश्वसनीय नहीं होतीं। यदि एक ही उत्तर-पुस्तिका को एक ही अध्यापक जाँचने के कुछ काला पश्चात् पुनः जाँचे तो दोनों बार के अंकों में पर्याप्त अन्तर मिलती है।
  7. इस परीक्षा के परिणामों के आधार पर छात्र के विषय में निश्चित रूप से कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। इस परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाला छात्र आवश्यक नहीं कि व्यावहारिक जीवन में भी सफलता प्राप्त करे, क्योंकि इस परीक्षा में अंक प्राप्ति रटने की शक्ति, लेखी शक्ति तथा संयोग पर बहुत कुछ निर्भर करती है।
  8. यह परीक्षा प्रणाली छात्रों के स्वास्थ्य पर बुरे प्रभाव डालती है। छात्र वर्ष-भर तो कुछ पढ़ते-लिखते नहीं हैं, परन्तु परीक्षा के निकट आने पर दिन-रात पढ़कर परीक्षा पास करने का प्रयास करते हैं। फलतः उनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 2
वस्तुनिष्ठ परीक्षण से आप क्या समझते हैं ? वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के प्रकारों एवं गुण-दोषों का उल्लेख कीजिए। [2007, 12]
या
वस्तुनिष्ठ परीक्षण से आप क्या समझते हैं ? इस परीक्षण के गुणों का उल्लेख कीजिए। [2007, 13]
या
वस्तुनिष्ठ परीक्षा-प्रणाली के दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
वस्तुनिष्ठ परीक्षण
निबन्धात्मक परीक्षण के दोषों को दूर करने के लिए शिक्षाशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों ने वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का प्रतिपादन किया। सर्वप्रथम 1854 ई० में होरेसमेन (Horaceman) ने वस्तुनिष्ठ परीक्षण का निर्माण किया। वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में प्रश्नों का स्वरूप ऐसा होता है कि उनका उत्तर पूर्ण रूप से निश्चित होता है। इन प्रश्नों के उत्तर में सम्बन्धित व्यक्ति की रुचि, पसन्द या दृष्टिकोण का कोई महत्त्व नहीं होता। वस्तुनिष्ठ प्रश्न का उत्तर प्रत्येक उत्तरदाता के लिए एक ही होता है।

गुड (Good) ने वस्तुनिष्ठ परीक्षण को स्पष्ट करते हुए कहा :
“वस्तुनिष्ठ परीक्षा प्रायः सत्य-असत्य उत्तर, बहुसंख्यक चुनाव, मिलान या पूरक प्रश्नों पर आधारित होती है, जिनको शुद्ध उत्तरों की सहायता से अंकन किया जाता है। यदि कोई उत्तर तालिका के विपरीत होता है, तो उसे अशुद्ध माना जाता है।” वर्तमान परीक्षा में वस्तुनिष्ठ परीक्षणों को अत्यधिक महत्त्व दिया जा रहा है।

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के प्रकार
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के मुख्य प्रकार निम्नलिखित हैं

1. सत्य-असत्य परीक्षण :
इन परीक्षणों में ‘सत्य’ या ‘असत्य में छात्र उत्तर देते हैं।
निर्देश :
निम्नलिखित कथन यदि शुद्ध हों तो सत्य’ और अशुद्ध हों तो ‘असत्य’ को रेखांकित कीजिए-

  1. बाबर का जन्म 1525 में हुआ था। सत्य/असत्य
  2. कार्बन डाइऑक्साइड जलने में सहायक नहीं है। सत्य/असत्य
  3. ऑक्सीजन जीवधारियों के लिए अनिवार्य है। सत्य/असत्य
  4. रामचरितमानस की रचना तुलसीदास ने की थी। सत्य/असत्य

2. सरल पुनः स्मरण परीक्षण :
इन प्रश्नों का उत्तर छात्र स्वयं स्मरण करके लिखता है।
निर्देश :
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर उनके समक्ष कोष्ठकों में लिखो

  1. प्लासी का युद्ध कब हुआ था ? ( )
  2. सविनय अवज्ञा आन्दोलन किसने चलाया था? ( )
  3. महाभारत ग्रन्थ की रचना किसने की थी ? ( )
  4. उत्तर प्रदेश का वर्तमान राज्यपाल कौन है ? ( )

3. पूरक परीक्षण :
इस परीक्षण में छात्र वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति करते हैं।
निर्देश :
निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए

  1. भारत के प्रधानमन्त्री की नियुक्ति ………….. करता है।
  2. मुख्यमन्त्री विधानसभा के ………….. का नेता होता है।
  3. मूल अधिकारों की रक्षा …………..करता है।
  4. राज्य व्यवस्थापिका के उच्च सदन को …………..कहते हैं।
  5. ‘कामायनी’ की रचना ………….. ने की थी।

4. बहुसंख्यक चुनाव या बहुविकल्पीय परीक्षण :
इस परीक्षण में छात्रों को दिये हुए अनेक उत्तरों में से ठीक उत्तर का चुनाव करना पड़ता है।
निर्देश :
सही कथन के सामने कोष्ठक में सही का चिह्न लगाओराज्य के प्रशासन का वास्तविक प्रधान

  1. राष्ट्रपति होता है।
  2. प्रधानमन्त्री होता है।
  3. राज्यपाल होता है।
  4. मुख्यमन्त्री होता है।

5. मिलान परीक्षण :
इस परीक्षण में छात्रों को दो पदों में मिलान करके कोष्ठक में सही पद लिखना पड़ता है।
निर्देश :
नीचे कुछ घटनाओं का उल्लेख किया जा रहा है। उनके सामने अव्यवस्थित रूप में उनसे सम्बन्धित तिथियाँ दी हुई हैं। प्रत्येक कोष्ठक में सम्बन्धित सही तिथि लिखो
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वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के गुण
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं|

1. विश्वसनीयता :
वस्तुनिष्ठ परीक्षण का सबसे बड़ा गुण उसकी विश्वसनीयता (Reliability) है। इसमें ही परीक्षण में विभिन्न समय में प्राप्त अंकों की समानता रहती है, अर्थात् एक उत्तर को कितनी ही बार जाँचा जाए, उसमें  अन्तर की सम्भावना नहीं रहती।

2. वस्तुनिष्ठता :
यह परीक्षण वस्तुनिष्ठ होता है। इसमें परीक्षण के मूल्यांकन पर परीक्षक की मानसिक स्थिति, रुचि, अभिवृत्ति तथा छात्रों के सुलेख का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसका मूल कारण। प्रश्नों के उत्तरों का निश्चित तथा छोटा होना है।

3. वैधता :
वस्तुनिष्ठ परीक्षण का अन्य गुण है-उसकी वैधता (Validity)। ये परीक्षण उसी निर्धारित योग्यता का मापन करते हैं, जिसके लिए इनका निर्माण किया जाता है।

4. उपयोगिता :
इन परीक्षणों के परिणामों के आधार पर छात्रों को शैक्षणिक तथा व्यावसायिक निर्देशन दिया जा सकता है।

5. विभेदीकरण :
ये परीक्षण प्रतिभाशाली और मन्दबुद्धि बालकों के मध्य भेद को स्पष्ट कर देते हैं।

6. व्यापकता :
इन परीक्षणों में पाठ्यक्रम के अन्तर्गत पढ़ाये जाने वाले समस्त प्रकरणों को शामिल किया जा सकता है। इस प्रकार बालकों द्वारा किये गए सम्पूर्ण अर्जित ज्ञान का मापन सम्भव हो जाता है।

7. मूल्यांकन में सुविधा :
वस्तुनिष्ठ परीक्षण का मूल्यांकन बहुत सुविधाजनक ढंग से हो जाता है, क्योंकि उत्तर निश्चित और छोटे होते हैं। दूसरे, इस प्रणाली में अंकन, उत्तर की तालिका की सहायता से किया जा सकता है।

8. ज्ञान की यथार्थता का परीक्षण :
निबन्धात्मक परीक्षण में छात्र प्रभावशाली भाषा का प्रयोग करके अपने ज्ञान की कमी को भी छिपा जाता है, परन्तु वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि छात्रों को अति संक्षिप्त उत्तर देने पड़ते हैं। अतः वे अपनी अज्ञानता को भाषा के आडम्बर में नहीं छिपा सकते। इस प्रकार इन परीक्षणों में छात्रों के ज्ञान की यथार्थ जाँच की जाती है।

9. धन की बचत :
इन परीक्षणों में छात्रों को कम लिखना पड़ता है। प्रायः दो या तीन पृष्ठों की पुस्तिकाएँ पर्याप्त होती हैं। इस प्रकार धन की काफी बचत हो जाती है।

10. समय की बचत :
इस प्रणाली में छात्रों व अध्यापक दोनों के समय की बचत होती है, क्योंकि छात्रों को कम लिखना पड़ता है और अध्यापक को कम जाँचना पड़ता है।

11. रटने की प्रवृत्ति का अन्त :
इस प्रणाली का सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह रटने की प्रवृत्ति का अन्त कर देती है। इसमें प्रश्नों के उत्तरों को रटने से काम नहीं चलता। विषय-वस्तु को ध्यान से पढ़ना आवश्यक हो जाता है।

12. छात्रों का सन्तोष :
निबन्धात्मक परीक्षण से छात्रों को सन्तोष नहीं मिलती, क्योंकि छात्रों का मूल्यांकन ठीक प्रकार से नहीं हो पाता और उन्हें ठीक प्रकार से अंक नहीं मिलते। परन्तु वस्तुनिष्ठ परीक्षण में छात्रों को ठीक अंक मिलते हैं, जिनसे उनको पूर्ण सन्तोष मिलता है।

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के दोष
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में कुछ दोष भी पाये जाते हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है

1.निर्माण में कठिनाई :
वस्तुनिष्ठ परीक्षण का निर्माण निबन्धात्मक परीक्षण की तुलना में अधिक कठिनाई से होता है। छोटे-छोटे प्रश्नों के निर्माण में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं।

2. अपूर्ण सूचना :
इन परीक्षणों से छात्रों के ज्ञान की अपूर्ण सूचना प्राप्त होती है, क्योंकि छोटे-छोटे उत्तरों द्वारा पूर्ण ज्ञान की जानकारी प्राप्त नहीं की जा सकती।

3. आलोचनात्मक तथ्यों व समस्याओं की उपेक्षा :
इन परीक्षणों का सबसे बड़ा दोष यह है। कि इनमें आलोचनात्मक तथ्यों तथा विभिन्न समस्याओं की पूर्ण उपेक्षा की जाती है। वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के प्रश्नों के उत्तर पूर्णतया निश्चित होते हैं। अत: उनमें आलोचना तथा समस्या समाधान का कोई स्थान नहीं होता, परन्तु राजनीति, इतिहास, साहित्य आदि का अध्ययन बिना आलोचना तथा समस्या विवेचन के पूर्ण नहीं हो सकता।

4. उच्च मानसिक योग्यताओं को मापन असम्भव :
इन परीक्षणों के द्वारा छात्रों की चिन्तन, मनन तथा तर्क शक्ति की जाँच सम्भव नहीं है। इस प्रकार उनकी उच्च मानसिक योग्यताओं का मापन सम्भव नहीं हो पाता।

5. केवल तथ्यात्मक ज्ञान की जाँच :
इन परीक्षणों द्वारा केवल तथ्यात्मक ज्ञान का पता चलता है। शेष क्षमताओं का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।

6. भाव प्रकाशन की अवरुद्धता :
इन परीक्षणों में छात्रों की भाव प्रकाशन की शक्ति को विकसित होने का अवसर नहीं मिलता, क्योंकि वे अति संक्षिप्त उत्तर देते हैं।

7. अनुमान को प्रोत्साहन :
इस प्रकार के परीक्षणों से छात्रों में अनुमान लगाने की प्रवृत्ति का विकास होता है। वे विचार तथा बुद्धि का प्रयोग न करके केवल अनुमान से ही ‘सत्य’ या ‘अंसत्य’ पर चिह्न लगा देते हैं।

8. भाषा व शैली की उपेक्षा :
इन परीक्षणों में भाषा व शैली की पूर्ण उपेक्षा की जाती है। अत: छात्रों की भाषा व शैली का उचित दिशा में विकास नहीं हो पाता।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
उपलब्धि परीक्षणों के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए। [2012, 13]
उत्तर :
उपलब्धि परीक्षण के निम्नांकित उद्देश्य हैं।

  1. छात्रों की क्षमताओं तथा योग्यताओं का ज्ञान कराना।
  2. यह पता लगाना कि बालकों ने अर्जित ज्ञान को किस सीमा तक आत्मसात् किया है।
  3. बालकों को अर्जित ज्ञान को उचित ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए प्रेरित करना।।
  4. बालकों की उपलब्धि के सामान्य स्तर का निर्धारण करना।
  5. ज्ञानार्जन के क्षेत्र में बालकों की वास्तविक स्थिति का पता लगाना।
  6. बालकों के ज्ञान की सीमा का मापन करना।
  7. यह ज्ञात करना कि बालक पाठ्यक्रम के लक्ष्यों या उद्देश्यों की ओर अग्रसर हो रहे हैं या नहीं।
  8. यह पता लगाना कि अध्यापक का शिक्षण किस सीमा तक सफल रहा है।
  9. प्रशिक्षण के परिणामों का मूल्यांकन करना।

प्रश्न 2
बुद्धि परीक्षण तथा उपलब्धि परीक्षण में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2007, 10, 13, 15]
उत्तर :
बुद्धि परीक्षण तथा उपलब्धि परीक्षण में निम्नलिखित अन्तर हैं
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प्रश्न 3
वस्तुनिष्ठ परीक्षण और निबन्धात्मक परीक्षण में अन्तर बताइए। [2014, 15]
उत्तर :
वस्तुनिष्ठ परीक्षण में तथ्यों पर आधारित उत्तर दिये जाते हैं। इसमें उत्तरदाता की रुचि, पसन्द या दृष्टिकोण का कोई स्थान नहीं होता। इससे भिन्न निबन्धात्मक के परीक्षण में उत्तरदाता के दृष्टिकोण, पसन्द, रुचि एवं शैली आदि को समुचित महत्त्व दिया जाता है। वस्तुनिष्ठ परीक्षण में अति संक्षिप्त तथा निश्चित उत्तर देना होता है, जबकि निबन्धात्मक परीक्षण में विस्तृत उत्तर देने को प्रावधान होता है। वस्तुनिष्ठ परीक्षण में मूल्यांकन सरल तथा निष्पक्ष होता है, जबकि निबन्धात्मक परीक्षण में मूल्यांकन कठिन होता है तथा इसमें पक्षपात की पर्याप्त सम्भावना होती है। इसमें परीक्षणकर्ता के व्यक्तिगत दृष्टिकोण का भी महत्त्व होता है।

प्रश्न 4
निबन्धात्मक परीक्षण से क्या आशय है?
उत्तर :
वर्तमान औपचारिक शिक्षा :
प्रणाली के अन्तर्गत ज्ञानार्जन के लिए मुख्य रूप से निबन्धात्मक परीक्षणों को अपनाया जाता है। निबन्धात्मक परीक्षण निश्चित रूप से लिखित परीक्षा के रूप में आयोजित किये जाते हैं। इस प्रणाली के अन्तर्गत किसी भी विषय के निर्धारित पाठ्यक्रम से सम्बन्धित कुछ प्रश्नों को एक प्रश्न-पत्र के रूप में एकत्र कर लिया जाता है तथा उनमें से कुछ प्रश्नों का विस्तृत उत्तर लिखित रूप में एक निर्धारित समयावधि में देना होता है।

परीक्षणकर्ता उत्तर :
पुस्तिका को पढ़कर छात्र/छात्रा के ज्ञानार्जन स्तर का मूल्यांकन कर लेता है तथा अंक प्रदान कर देता है। इस परीक्षण के भी कुछ गुण-दोष हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि यह परीक्षण-प्रणाली एक व्यक्तिनिष्ठ परीक्षण प्रणाली है तथा इसके माध्यम से छात्र/छात्रा के सम्पूर्ण ज्ञानार्जन का सही तथा तटस्थ मूल्यांकन नहीं हो पाता।

प्रश्न 5
निबन्धात्मक परीक्षण प्रणाली में सुधार के लिए कुछ सुझाव दीजिए।
उत्तर :
निबन्धात्मक परीक्षा के दोषों को दूर करने के लिए निम्नलिखित सुझावों को अपनाया जा सकता है

  1. प्रश्नों का निर्माण सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को ध्यान में रखकर किया जाए।
  2. परीक्षा प्रश्न-पत्र में पहले सरल और बाद में कठिन प्रश्न रखे जाएँ।
  3. समस्त प्रश्न अनिवार्य हों।
  4. परीक्षण को शिक्षण प्रक्रिया का साधन माना जाए, साध्य नहीं।
  5. निबन्धात्मक प्रश्नों के साथ वस्तुनिष्ठ प्रश्नों को भी रखा जाए।
  6. मौखिक परीक्षा को भी स्थान दिया जाए।
  7. परीक्षाओं द्वारा यह जानने का प्रयास न किया जाए कि छात्र कितना नहीं जानता, वरन् यह जानने का प्रयास किया जाए कि छात्र कितना जानता है।
  8. परीक्षकों का यह स्पष्ट उद्देश्य होना चाहिए कि वे किस बात की परीक्षा लेना चाहते हैं।
  9. अंक प्रदान करने के स्थान पर श्रेणियों का प्रयोग किया जाए।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
उपलब्धि-लब्धि से क्या आशय है?
उत्तर :
बौद्धिक परीक्षणों के आधार पर बौद्धिक योग्यता की गणना करने के लिए बुद्धि-लब्धि की अवधारणा विकसित की गयी थी तथा इसी अवधारणा के समानान्तर एक अन्य अवधारणा निर्धारित की गई, जिसे ज्ञान-लब्धि या उपलब्धि-लब्धि के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 2
विद्यालयों में उपलब्धि परीक्षण का क्या उपयोग है?
उत्तर :
विद्यालय शिक्षा के औपचारिक अभिकरण हैं। विद्यालयों में योजनाबद्ध ढंग से नियमित रूप से शिक्षण-कार्य होता है। छात्रों द्वारा ग्रहण की गयी शिक्षा के मूल्यांकन के लिए निर्धारित परीक्षणों को ही उपलब्धि परीक्षण कहते हैं। उपलब्धि परीक्षण से छात्रों द्वारा अर्जित ज्ञान एवं योग्यता का तटस्थ मूल्यांकन किया जाता है। छात्रों को अगली कक्षा में भेजने के लिए तथा शैक्षिक योग्यता का प्रमाण-पत्र प्रदान करने के लिए उपलब्धि परीक्षण ही सर्वाधिक आवश्यक एवं उपयोगी होता है।

प्रश्न 3
उपलब्धि परीक्षणों के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए। [2014, 15]
उत्तर :
डगलस (Douglas) तथा हालैंड (Holland) ने उपलब्धि परीक्षाओं का विभाजन निम्नवत् किया है

    1. प्रामाणिक परीक्षण (Standardized Tests)।
    2. शिक्षक निर्मित परीक्षण (Teacher Made Tests)।
      • आत्मनिष्ठ परीक्षण (Subjective Tests)।
      • वस्तुनिष्ठ परीक्षण (Objective Tests)।
        • सौखिक परीक्षण (Objective Tests)।
        • र्निबन्धात्मक परीक्षण (Essay Type Tests)।

प्रश्न 4
मौखिक परीक्षण से क्या आशय है?
उत्तर :
उपलब्धि या ज्ञानार्जन परीक्षण का प्राचीनतम तथा सर्वाधिक लोकप्रिय स्वरूप मौखिक परीक्षण रही है। इस प्रकार के परीक्षण के अन्तर्गत परीक्षणकर्ता अर्थात् शिक्षक या अध्यापक द्वारा छात्र/छात्रा से विषय से सम्बन्धित कुछ प्रश्न आमने-सामने बैठकर पूछे जाते हैं। छात्र/छात्रा द्वारा दिए । गए उत्तरों की शुद्धता/अशुद्धता या ठीक/गलत के आधार पर उसके ज्ञान का समुचित मूल्यांकन कर लिया जाता है।

यह सत्य है कि यह एक प्रत्यक्ष परीक्षण है तथा इस परीक्षण के अन्तर्गत परीक्षणकर्ता से पूछे गए प्रश्नों के उत्तर के साथ-ही-साथ कुछ अन्य उपायों द्वारा भी परीक्षादाता के ज्ञान का अनुमान लगा सकता है। परन्तु इस परीक्षण के कुछ दोष भी हैं; यथा-छात्र/छात्रा का घबरा जाना या भयभीत हो जाना, वाणी-दोष या आत्म-विश्वास की कमी के कारण सही उत्तर न दे पानी।

प्रश्न 5
क्रियात्मक परीक्षण से क्या आशय है? [2014, 15]
उत्तर :
छात्र-छात्राओं के उपलब्धि परीक्षण के लिए क्रियात्मक परीक्षणों को भी अपनाया जाता है। इन परीक्षणों के अन्तर्गत विषय से सम्बन्धित कुछ कार्यों को यथार्थ रूप से करवाया जाता है तथा परीक्षमादाता द्वारा किए गए कार्यों को देखकर उनके ज्ञानार्जन का समुचित मूल्यांकन कर लिया जाता है। सामान्य रूप से क्रियात्मक परीक्षणों के अन्तर्गत विषय से सम्बन्धित कुछ प्रश्न मौखिक रूप से भी पूछे जाते हैं। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि सभी विषयों में क्रियात्मक परीक्षणों को सफलतापूर्वक आयोजन नहीं किया जा सकता। केवल प्रयोगात्मक विषयों का परीक्षण ही क्रियात्मक परीक्षण के माध्यम से किया जा सकता है। शुद्ध सैद्धान्तिक विषयों का परीक्षण इस आधार पर नहीं किया जा सकता।

प्रग 6
वस्तुनिष्ठ परीक्षण से क्या आशय है?
उत्तर :
निबन्धात्मक परीक्षण-प्रणाली के दोषों के निवारण के लिए वस्तुनिष्ठ परीक्षण को प्रारम्भ किया गया है। इस परीक्षण के अन्तर्गत ज्ञानार्जन के मूल्यांकन के लिए विषय से सम्बन्धित अनेक ऐसे प्रश्नों को संकलित किया जाता है जिनका एक ही शुद्ध उत्तर होता है। इन प्रश्नों में उत्तरदाता की रुचि, पसन्द, इच्छा या दृष्टिकोण का कोई महत्त्व नहीं होता। वस्तुनिष्ठ परीक्षण एक तटस्थ परीक्षण-प्रणाली है। इसमें पक्षपात या पूर्वाग्रह के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती। लेकिन इस परीक्षण के भी कुछ दोष एवं सीमाएँ हैं जैसे कि भाषा-शैली तथा लेखन-क्षमता का मूल्यांकन करना सम्भव नहीं है।

प्रश्न 7
निबन्धात्मक परीक्षण (परीक्षाओं) के कोई पाँच गुण लिखिए। या निबन्धात्मक परीक्षण के क्या लाभ हैं। [2011]
उत्तर :
निबन्धात्मक परीक्षाओं के पाँच गुण निम्नलिखित हैं

  1. इन परीक्षाओं का आयोजन सरलतापूर्वक किया जा सकता है।
  2. इन परीक्षाओं के प्रश्नों को सुगमता से तैयार किया जा सकता है।
  3. यह विधि समस्त विषयों के लिए उपयोगी है।
  4. इसमें बालक को पूर्ण अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता रहती है।
  5. यह प्रणाली बालकों के लिए भी सुगम होती है, क्योंकि प्रश्न-पत्र समझने में उन्हें विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ती।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
उपलब्धि परीक्षण से क्या आशय है? (2015)
उत्तर :
छात्रों द्वारा किए गए ज्ञानार्जन के मूल्यांकन के लिए निर्धारित किए गए परीक्षणों को उपलब्धि परीक्षण कही जाती है।

प्रश्न 2
विद्यालय में उपलब्धि परीक्षण का प्रमुख उद्देश्य क्या होता है?
उत्तर :
विद्यालय में उपलब्धि परीक्षण का प्रमुख उद्देश्य छात्र को अगली कक्षा में भेजने का निर्णय लेना होता है।

प्रश्न 3
उपलब्धि परीक्षण के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर :
उपलब्धि परीक्षण के मुख्य प्रकार हैं-मौखिक परीक्षण, क्रियात्मक परीक्षण, निबन्धात्मक परीक्षण तथा वस्तुनिष्ठ परीक्षण।

इन 4
कौन-सा परीक्षण उपलब्धि-परीक्षण का प्राचीनतम प्रकार है?
उत्तर :
मौखिक परीक्षण उपलब्धि-परीक्षण का प्राचीनतम प्रकार है।

प्रश्न 5
किस परीक्षा-प्रणाली में विद्यार्थी प्रश्नों का उत्तर निबन्ध के रूप में देते हैं?
उत्तर :
निबन्धात्मक परीक्षण के अन्तर्गत विद्यार्थी प्रश्नों के उत्तर निबन्ध के रूप में देते हैं।

प्रथम 6
निम्न सूत्र से क्या निकालते हैं। [2009]
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests image 4
उत्तर :
इस सूत्र से शिक्षा-लब्धि ज्ञात करते हैं।

प्रश्न 7
विश्वसनीयता और वैधता किस प्रकार के परीक्षण की मुख्य विशेषताएँ हैं ?
उत्तर :
विश्वसनीयता और वैधता वस्तुनिष्ठ परीक्षणों की मुख्य विशेषताएँ हैं।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
कक्षा-शिक्षण के परिणामस्वरूप किए गए ज्ञानार्जन का मूल्यांकन किया जाता है
(क) बुद्धि परीक्षण द्वारा
(ख) अभिरुचि परीक्षण द्वारा
(ग) उपलब्धि परीक्षण द्वारा
(घ) बिना किसी परीक्षण द्वारा
उत्तर :
(ग) उपलब्धि परीक्षण द्वारा

प्रश्न 2
ज्ञान आयु (A.A.)
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests image 5
उत्तर :
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests image 6

प्रश्न 3
निबन्धात्मक परीक्षण का गुण है।
(क) विचारों को प्रस्तुत करने की छूट
(ख) प्रश्न-पत्र का सरलता से निर्माण सम्भव
(ग) समग्र विधि को अपनाया जाता है।
(घ) ये सभी
उत्तर :
(घ) ये सभी

प्रश्न 4
निबन्धात्मक परीक्षण का दोष है।
(क) यान्त्रिक प्रणाली
(ख) संयोग पर निर्भरता
(ग) दोषपूर्ण मूल्यांकन पद्धति
(घ) ये सभी
उत्तर :
(घ) ये सभी

प्रश्न 5
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का गुण है।
(क) छात्र सन्तुष्ट रहते हैं
(ख) विश्वसनीयता
(ग) समय की बचत
(घ) रटने को प्राथमिकता
उत्तर :
(ख) विश्वसनीयता

प्रश्न 6
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का गुण नहीं है।
(क) कम लिखना-पढ़ना
(ख) विषय को सम्पूर्ण ज्ञान आवश्यकता है।
(ग) अपनी रुचि एवं दृष्टिकोण से उत्तर देना।
(घ) सुलेख का कोई महत्त्व नहीं
उत्तर :
(ग) अपनी रुचि एवं दृष्टिकोण से उत्तर देना

प्रश्न 7
वस्तुनिष्ठ परीक्षण से हम माप कर सकते हैं। [2015]
(क) उपलब्धि की
(ख) विचार करने की प्रक्रिया की
(ग) तर्कशक्ति की
(घ) लेखन कौशल की
उत्तर :
(ग) तर्कशक्ति की

प्रश्न 8
“उपलब्धि-परीक्षा, बालक की वर्तमान योग्यता अथवा किसी विशिष्ट विषय के क्षेत्र में उसके ज्ञान की सीमा को मापन करती है। यह परिभाषा है
(क) थॉर्नडाइक की
(ख) टरमन की
(ग) गैरीसन की
(घ) बिने की
उत्तर :
(ग) गैरीसन की।

प्रश्न 9
जिस परीक्षा में छात्रों को उत्तर विस्तृत रूप से लिखकर देने पड़ते हैं, उस परीक्षा को कहते हैं
(क) वस्तुनिष्ठ परीक्षा
(ख) मौखिक परीक्षा
(ग) निबन्धात्मक परीक्षा
(घ) प्रयोगात्मक परीक्षा
उत्तर :
(ग) निबन्धात्मक परीक्षा

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UP Board Class 12 History Model Papers Paper 3

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Model Paper Paper 3
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 History Model Papers Paper 3

समय: 3 घण्टे 15 मिनट
पूणक: 100
निर्देश
प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
नोट

  • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
  • इस प्रश्न-पत्र में पाँच खण्ड हैं।
  • खण्ड ‘क’ में 10 बहुविकल्पीय प्रश्न हैं, खण्ड ‘ख’ में 05 अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (लगभग 50 शब्द) हैं।
  • खण्ड ‘ग’ में 06 लघु उत्तरीय प्रश्न (लगभग 100 शब्द) हैं।
  • खण्ड ‘घ’ में 03 विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (लगभग 500 शब्द) हैं।
  • खण्ड ‘ङ’ में ऐतिहासिक तिथियों व मानचित्र से सम्बन्धित 05 प्रश्न हैं। शब्द सीमा में (कम या ज्यादा) 10% की छूट अनुमन्य है।
  • सभी प्रश्नों के निर्धारित अंक उनके सम्मुख अंकित हैं।

खण्ड-‘क’

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
भारत में तुलगुमा युद्ध प्रणाली का प्रणेता कौन था? [1]
(a) शेरशाह सूरी
(b) बाबर
(c) हुमायूँ
(d) अकबर

प्रश्न 2.
हुमायूँ की मृत्यु कब हुई थी? [1]
(a) 1555 ई. में
(b) 1556 ई. में
(c) 1557 ई. में।
(d) 1558 ई. में

प्रश्न 3.
दिल्ली में लाल किले का निर्माण किसने करवाया था? [1]
(a) शाहजहाँ।
(b) जहाँगीर
(c) अकबर
(d) औरंगजेब

प्रश्न 4.
एतमाउद्दौला का मवंबरा किसके शासनकाल में बनाया गया था? [1]
(a) अकबर
(b) हुमायूँ
(c) शेरशाह
(d) जहाँगीर

प्रश्न 5.
मनसबदारी शब्द का अर्थ होता हैं?  [1]
(a) पद
(b) भूमि
(c) जागीर
(d) घुड़सवार

प्रश्न 6.
किस मुगल सेनापति ने शिवाजी को पुरन्दर की सन्धि हेतु बाध्य किया?  [1]
(a) शाइस्ता खान
(b) जसवन्त सिंह
(c) बैरम खान .
(d) जय सिंह

प्रश्न 7.
अंग्रेजों ने कहाँ के किले का नाम फोर्ट विलियम रखा?  [1]
(a) कोलकता
(b) मद्रास
(c) बम्बई
(d) पाण्डिचेरी

प्रश्न 8.
भारत में रेलवे को प्रारम्भ किसके शासनकाल में हुआ? [1]
(a) लॉर्ड डलहौजी
(b) लॉर्ड कर्जन
(c) लॉर्ड रिपन
(d) लॉर्ड लिटन

प्रश्न 9.
महात्मा गाँधी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन कब शुरू किया था?  [1]
(a) 1918 ई.
(b) 1919 ई.
(c) 1920 ई.
(d) 1921 ई.

प्रश्न 10.
भारत विभाजन के समय भारत का गवर्नर जनरल कौन था? [1]
(a) लॉर्ड इरविन |
(b) लॉर्ड लिनलिथगो
(c) लॉर्ड मेयो।
(d) इनमें से कोई नहीं

खण्ड -‘ख’

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 11.
आगरा की मोती मस्जिद पर टिप्पणी लिखिए। [2]

प्रश्न 12.
मराठों के उत्कर्ष के दो प्रमुख कारण लिखिए। [2]

प्रश्न 13.
लॉर्ड रॉबर्ट क्लाइव की दो सैन्य उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए। [2]

प्रश्न 14.
आर्य समाज के प्रमुख सिद्धान्त कौन-से हैं? [2]

प्रश्न 15.
पंचशील के पाँच सिद्धान्त कौन-से हैं? [2]

खण्ड-‘ग’

लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 16.
हुमायूँ की प्रारम्भिक कठिनाइयों का वर्णन कीजिए। [5]

प्रश्न 17.
शेरशाह के जनकल्याणकारी कार्यों का उल्लेख कीजिए। [5]

प्रश्न 18.
शाहजहाँ के स्थापत्य कला की दो विशेषताओं का वर्णन कीजिए। [5]

प्रश्न 19.
प्लासी को युद्ध क्यों हुआ? [5]

प्रश्न 20.
1857 ई. की क्रान्ति के तात्कालिक कारण क्या थे? [5] |

प्रश्न 21.
खिलाफत आन्दोलन से आप क्या समझते हैं? भारतीय राजनीति में इसके महत्त्व का उल्लेख करें। [5]

खण्ड-‘घ’

दीर्घ उत्तरीय (विस्तृत उत्तरीय) प्रश्न
प्रश्न 22.
“बाबर एक विजेता था न कि साम्राज्य संस्थापक’ इस कथन की समीक्षा कीजिए। [10]
अथवा
अकबर की धार्मिक नीति का वर्णन कीजिए। उसके क्या परिणाम हुए?   [10]

प्रश्न 23.
उत्तराधिकार के युद्ध में औरंगजेब की सफलता के क्या कारण [10]
अथवा
मुगलकालीन चित्रकला के विकास पर प्रकाश डालिए। [10]

प्रश्न 24.
1857 ई. की क्रान्ति का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। [10]
अथवा
हैदर अली के जीवन, चरित्र तथा उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।  [10]

खण्ड- ‘ड’

प्रश्न 25.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्त्व का उल्लेख कीजिए। [10]
1. 1526 ई.
2. 1556 ई.
3. 1563 ई.
4. 1628 ई.
5. 1665 ई.
6. 1761 ई.
7. 1758 ई.
8. 1764 ई.
9. 1905 ई.
10. 1916 ई.

मानचित्र सम्बन्धी प्रश्न
प्रश्न 26.
दिए गए भारत के मानचित्र में चार स्थान (.) दर्शाए गए हैं, इनकी पहचान कर इनके नाम लिखिए। सही नाम तथा सही स्थान दर्शाने के लिए 1+1 अंक निर्धारित है।
(i) वह स्थान जहाँ सेण्ट्रले हिन्दू कॉलेज की स्थापना की गई ची। [2]
(ii) वह स्थान जहाँ मुस्लिम विश्वविद्यालय स्थित है। [2]
(iii) वह नगर जहाँ जनसमूह द्वारा पुलिस स्टेशन में आग लगा देने के कारण गाँधीजी ने असहयोग आन्दोलन स्थगित कर दिया था। [2]
(iv) वह स्थान जहाँ गाँधीजी ने नमक कानून भंग किया। [2]
(v) वह स्थान जहाँ गुजरात की राजधानी स्थित है। [2]

Answers

उत्तर 1.
(b) बाबर

उत्तर 2.
(b) 1556 ई. में

उत्तर 3.
(a) शाहजहाँ।

उत्तर 4.
(d) जहाँगीर

उत्तर 5.
(a) पद

उत्तर 6.
(c) बैरम खान

उत्तर 7.
(a) कोलकता

उत्तर 8.
(a) लॉर्ड डलहौजी

उत्तर 9.
(a) 1918 ई.

उत्तर 10.
(d) इनमें से कोई नहीं

उत्तर 11.
आगरा की मोती मस्जिद का निर्माण शाहजहाँ ने 1654 ई. में आगरा के किले में सफेद संगमरमर से करवाया था। इसका निर्माण शाहजहाँ ने अपनी पुत्री जहाँआरा के सम्मान में करवाया था। इसके बाहर लाल पत्थर अन्दर संगमरमर का प्रयोग किया गया है।

उत्तर 12.
मराठों के उत्कर्ष के दो प्रमुख कारण निम्न हैं।

(i) महाराष्ट्र की भौगोलिक स्थिति ने मराठों के उत्थान में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। |
(ii) मराठों को शिवाजी के रूप में शाहसी एवं योग्य नेतृत्व किया।

उत्तर 13.
लॉर्ड रॉबर्ट क्लाइव की दो सैन्य उपलब्धियाँ निम्न हैं।

(i) अर्काट की विजय 1751 ई. में रॉबर्ट क्लाइव ने मात्र 210 सैनिकों के साथ कर्नाटक की राजधानी अकट जीत ली। कर्नाटक के नवाब चाँदा साहब ने अर्काट को मुक्त कराने के लिए 4000 सैनिक भेजे, परन्तु वे असफल रहे।
(ii) प्लासी की विजय क्लाइव ने अपनी कूटनीति से बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के सेनापति मीरजाफर को अपनी ओर मिला लिया तथा 1757 ई. के प्लासी के युद्ध में नवाब को सरलता से पराजित कर दिया।

उत्तर 14.
आर्य समाज के प्रमुख सिद्धान्त स्वामी दयानन्द सरस्वती ने धर्म को प्रतिष्ठित करने के लिए निम्न सिद्धान्त दिए, जो इस प्रकार हैं। • सत्य केवल वेदों में निहित है। अतः वेदों का अध्ययन परम आवश्यक है।

  • वेद मन्त्रों के आधार पर हवन किया जाना चाहिए।
  •  मूर्ति पूजा का विरोध किया।
  •  अवतारवाद तथा तीर्थयात्राओं का विरोध किया।
  •  कर्म सिद्धान्त तथा आवागमन का समर्थन किया।
  •  ईश्वर निराकार तथा एक है।
  •  विशेष परिस्थितियों में विधवा-विवाह का समर्थन किया।
  •  बाल-विवाह, बहु-विवाह का विरोध किया।
  •  हिन्दी और संस्कृत भाषा का प्रचार किया।

उत्तर 15.
वर्ष 1969 में इसकी उपयोगिता को दृष्टिगत रखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे मान्यता प्रदान की। इसके पाँच निम्न सिद्धान्त हैं।

(i) सभी देशों द्वारा अन्य देशों की क्षेत्रीय अखण्डता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना।
(ii) दूसरे देश के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करना।
(iii) शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति का पालन करना।
(iv) दूसरे देश पर आक्रमण न करना।
(v) परस्पर सहयोग एवं लाभ को बढ़ावा देना।

उत्तर 25.
महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तिथियाँ एवं उनका घटनाक्रम

1. 1526 ई. पानीपत का प्रथम युद्ध।
2. 1556 ई. हुमायूँ की मृत्यु।
3. 1563 ई. अकबर ने तीर्थ यात्रा कर को समाप्त किया।
4. 1628 ई. शाहजहाँ का सिंहासनारोहण
5. 1665  ई. शिवाजी के मुगलों के बीच पुरन्दर की सन्धि।
6. 1761  ई. पानीपत का तीसरा युद्ध
7. 1758  ई. कर्नाटक का तीसरा युद्ध आरम्भ।
8. 1764  ई. बक्सर का युद्ध अंग्रेजों एवं बंगाल के नवाब मीर कासिम के बीच
9. 1905 ई. बंगाल विभाजन
10. 1916 ई. लखनऊ पैक्ट के तहत कांग्रेस व मुस्लिम लीग में समझौता

 

उत्तर 26.
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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 26 Guidance Educational and Vocational

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 26 Guidance Educational and Vocational (निर्देशन शैक्षिक तथा व्यावसायिक) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 26 Guidance Educational and Vocational (निर्देशन शैक्षिक तथा व्यावसायिक).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 26
Chapter Name Guidance Educational and Vocational
(निर्देशन शैक्षिक तथा व्यावसायिक)
Number of Questions Solved 47
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 26 Guidance Educational and Vocational (निर्देशन शैक्षिक तथा व्यावसायिक)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
निर्देशन से आप क्या समझते हैं ? निर्देशन की आवश्यकता, महत्त्व एवं उपयोगिता का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
निर्देशन का अर्थ
‘निर्देशन’ सामाजिक सम्पर्को पर आधारित एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसमें किसी व्यक्ति द्वारा अन्य किसी व्यक्ति को इस प्रकार से सहायता प्रदान की जाती है कि वह अपनी जन्मजात और अर्जित योग्यताओं व क्षमताओं को समझते हुए अपनी समस्याओं का स्वतः समाधान करने में उपयोग कर सके।

निर्देशन की परिभाषा
प्रमुख विद्वानों के अनुसार निर्देशन को निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया जा सकता है।

  1. स्किनर के शब्दों में, “निर्देशन एक प्रक्रिया है जो कि नवयुवकों को स्वयं अपने से, दूसरे से तथा परिस्थितियों से समायोजन करना सिखाती है।
  2. जोन्स के अनुसार, “निर्देशन एक ऐसी व्यक्तिगत सहायता है जो एक व्यक्ति द्वारा दूसरे को, जीवन के लक्ष्यों को विकसित करने व समायोजन करने और लक्ष्यों की प्राप्ति में आयी हुई समस्याओं को हल करने के लिए प्रदान की जाती है।”
  3. मॉरिस के मतानुसार, “निर्देशन व्यक्तियों की स्वयं अपने प्रयत्नों से सहायता करने की एक क्रिया है जिसके द्वारा वे व्यक्तिगत सुख और सामाजिक उपयोगिता के लिए अपनी समस्याओं का पता लगाते हैं। तथा उनका विकास करते हैं।’
  4. हसबैण्ड के अनुसार, “निर्देशन व्यक्ति को उसके भावी जीवन के लिए तैयार करने, समाज में उसको अपने स्थान के उपयुक्त बनाने में सहायता देने की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।”
  5. शिक्षा मन्त्रालय भारत सरकार के अनुसार, “निर्देशन एक क्रिया है जो व्यक्ति को शिक्षा, जीविका, मनोरंजन तथा मानव क्रियाओं के समाज सेवा सम्बन्धी कार्यों को चुनने, तैयार करने, प्रवेश करने तथा वृद्धि करने में सहायता प्रदान करती है।”

निर्देशन की आवश्यकता, महत्त्व एवं उपयोगिता
निर्देशन की आवश्यकता हर युग में महसूस की जाती है । सदा-सर्वदा से उसके महत्त्व एवं योगदान को मान्यता प्राप्त हुई है तथा मानव-जीवन के लिए उसकी उपयोगिता भी सन्देह की दृष्टि से दूर एक सर्वमान्य तथ्य है, किन्तु मनुष्य की अनन्त इच्छाओं ने उसकी आवश्यकताओं को बढ़ाकर उसके व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा व्यावसायिक जीवन में अभूतपूर्व संकट और जटिलता उत्पन्न कर दी है। शायद इन्हीं कारणों से वर्तमान काल के सन्दर्भ में निर्देशन की आवश्यकता निरन्तर बढ़ती जा रही है। चिन्तन-मनन करने पर जीवन में निर्देशन की आवश्यकता हम अग्रलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत करते हैं

1. व्यक्ति के दृष्टिकोण से निर्देशन की आवश्यकता :
मानव-जीवन की जटिलता ने पग-पग पर नयी-नयी समस्याओं और संकटकालीन परिस्थितियों को जन्म दिया है। मनुष्य का कार्य-क्षेत्र विस्तृत हो रहा है और उसकी नित्यप्रति की आवश्यकमाओं में वृद्धि हुई है। बढ़ती हुई आवश्यकताओं तथा धार्मिक विषमताओं ने मनुष्य को व्यक्तिगत, धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से प्रभावित किया है। जीवन के हर एक क्षेत्र में समस्याओं के मोर्चे खुले हैं, जिनसे निपटने के लिए भौतिक एवं मानसिक दृष्टि से निर्देशन की अत्यधिक आवश्यकता है।

2. औद्योगीकरण से उत्पन्न समस्याएँ :
मनुष्य प्राचीन समय में अधिकांश कार्य अपने हाथों से किया करता था, किन्तु आधुनिक युग मशीनों का युग’ कहा जाता है। तरह-तरह की मशीनों के
आविष्कार से उद्योग-धन्धों का उत्पादन बढ़कर कई गुना हो गया है, किन्तु उत्पादन की प्रक्रिया जटिल-से-जटिल होती जा रही है। औद्योगिक दुनिया के विस्तार से नये-नये मानव सम्बन्ध विकसित हुए हैं जिनके मध्य सन्तुलन स्थापित करने की दृष्टि से निर्देशन बहुत आवश्यक है।

3. नगरीकरण से उत्पन्न समस्याएँ :
क्योंकि अधिकांश उद्योग-धन्धे तथा कल-कारखाने बड़े-बड़े नगरों में कायम हुए, इसलिए पिछले अनेक दशकों में लोगों का प्रवाह गाँवों से नगरों की ओर हुआ। नगरों में तरह-तरह की सुख-सुविधाओं, मनोरंजन के साधनों, शिक्षा की व्यवस्था, नौकरी के अवसर तथा सुरक्षा की भावना ने नगरों को आकर्षण का केन्द्र बना दिया। फलस्वरूप नगरों की संरचना में काफी जटिलता आने से समायोजन सम्बन्धी बहुत प्रकार की समस्याएँ भी उभरीं। नगरीय जीवन से उपयुक्त समायोजन करने हेतु निर्देशन की परम आवश्यकता महसूस होती है।

4. जाति-प्रथ का विघटन :
आजकल जाति और व्यवसाय का आपसी सम्बन्ध टूट गया है। इसका प्रमुख कारण जाति-प्रथा का विघटन है। पहले प्रत्येक जाति के बालकों को अपनी जाति के व्यवसाय का प्रशिक्षण परम्परागत रूप से उपलब्ध होता था।
उदाहरणार्थ :
ब्राह्मण का बेटा पण्डिताई व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करता था, लोहार का बेटा लोहारी और बनिये का बेटा व्यापार। यह व्यवस्था अब प्राय: समाप्त हो गयी है। इन परिवर्तित दशाओं ने व्यवसाय के चुनाव तथा प्रशिक्षण दोनों ही क्रियाओं के लिए निर्देशन की आवश्यकताओं को जन्म दिया है।

5. व्यावसायिक बहुलता :
वर्तमान समय में अनेक कारणों से व्यवसायों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप कार्य के प्रत्येक क्षेत्र में विशेषीकरण की समस्या भी बढ़ी है। व्यावसायिक बहुलता और विशेषीकरण के विचार ने प्रत्येक बालक और किशोर के सम्मुख यह एक गम्भीर समस्या खड़ी कर दी है कि वह इतने व्यवसायों के बीच से सम्बन्धित प्रशिक्षण किस प्रकार प्राप्त करे,? निश्चय ही, इस समस्या का हल निर्देशन से ही सम्भव है।

6. मन के अनुकूल व्यवसाय का न मिलना :
बेरोजगारी की समस्या आज न्यूनाधिक विश्व के प्रत्येक देश के सम्मुख विद्यमान है। आज हमारे देश में नवयुवक को मनोनुकूल, अच्छा एवं उपयुक्त व्यवसाय मिल पाना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। हर कोई उत्तम व्यवसाय प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षा रखता है, किन्तु रोजगार के अवसरों का अभाव उसे असफलता और निराशा के अतिरिक्त कुछ नहीं दे पाता। आज निराश, चिन्तित, तनावग्रस्त तथा उग्र बेरोजगार युवकों को सही दिशा दिखलाने की आवश्यकता है। उन्हें देश की आवश्यकताओं के अनुकूल तथा जीवन के लिए हितकारी शारीरिक कार्य करने की प्रेरणा देनी होगी। यह कार्य निर्देशन द्वारा ही सम्भव है।

7. विशेष बालकों की समस्याएँ :
विशेष बालकों से हमारा अभिप्राय पिछड़े हुए/मन्दबुद्धि या प्रतिभाशाली ऐसे बालकों से है जो सामान्य बालकों से हटकर होते हैं। ये असामान्य व्यवहार प्रदर्शित करते हैं तथा सामाजिक परिस्थितियों में स्वयं को आसानी से अनुकूलित नहीं कर पाते। कुसमायोजन के कारण … इनके सामने नित्यप्रति नयी-नयी समस्याएँ आती रहती हैं। ऐसे असामान्य एवं विशेष बालकों की समस्याएँ निर्देशन के माध्यम से ही पूरी हो सकती हैं।

8. शैक्षिक विविधता सम्बन्धी समस्याएँ :
शिक्षा के विविध क्षेत्रों में हो रहे अनुसन्धान कार्यों के कारण ज्ञान की राशि निरन्तर बढ़ती जा रही है, जिससे एक ओर ज्ञान की नवीन शाखाओं का जन्म हुआ है। तो दूसरी ओर हर सत्र में नये पाठ्यक्रमों का समावेश करना पड़ रहा है। इसके अतिरिक्त, सामान्य शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त प्रत्येक बालक के सामने यह समस्या आती है कि वह शिक्षा के विविध क्षेत्रों में से किस क्षेत्र को चुने और उसमें विशिष्टीकरण प्राप्त करे।

समाज की निरन्तर बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जो नये एवं विशेष व्यवसाय जन्म ले रहे हैं उनके लिए किन्हीं विशेष पाठ्य-विषयों का अध्ययन अनिवार्य है। विभिन्न व्यवसायों की सफलता भिन्न-भिन्न बौद्धिक एवं मानसिक स्तर, रुचि, अभिरुचि, क्षमता व योग्यता पर आधारित है। व्यक्तिगत भिन्नताओं का ज्ञान प्राप्त करके उनके अनुसार बालक को उचित शैक्षिक मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए निर्देशन की जबरदस्त माँग है।

9. पाश्चात्य सभ्यता से समायोजन :
आज के वैज्ञानिक युग में दो देशों के मध्य दूरी कम होने से पृथ्वी के दूरस्थ देश, उनकी सभ्यताएँ, संस्कृतियाँ, परम्पराएँ तथा रीति-रिवाज एक-दूसरे के काफी नजदीक आ गये हैं। अंग्रेजों के पदार्पण एवं शासन ने भारतीयों के मस्तिष्क पाश्चात्य सभ्यता में रंग डाले थे। वर्तमान समय में टी० बी० के विभिन्न चैनलों के माध्यम से पश्चिमी देशों के भौतिकवादी आकर्षण ने भारतीय युवाओं को इस सीमा तक सम्मोहित किया है कि वे अपने पुराने रीति-रिवाज और परम्पराएँ भुला बैठे हैं—एक प्रकार से भारतीय मूल्यों की अवमानना व उपेक्षा हो रही है। इससे असंख्य विसंगतियाँ तथा कुसमायोजन के दृष्टान्त दृष्टिगोचर हो रहे हैं। इनके दुष्प्रभाव से भारतीय युवाओं को बचाने लिए विशिष्ट निर्देशन की आवश्यकता है।

10. यौन सम्बन्धी समस्याएँ :
काम-वासना एक नैसर्गिक मूल-प्रवृत्ति हैं जो युवावस्था में विषमलिंगी व्यक्तियों में एक-दूसरे के प्रति अपूर्व आकर्षण पैदा करती है, किन्तु समाज की मान-मर्यादाओं तथा रीति-रिवाजों की सीमाओं को लाँघकर पुरुष एवं नारी का पारस्परिक मिलन नाना प्रकार की अड़चनों से भरा हैं। सम्मज ऐसे मिलन का घोर विरोध करता है। आमतौर पर काम-वासना की इस मूल-प्रवृत्ति का अवदेमने होने से व्यक्ति में ग्रन्थियाँ बन जाती हैं तथा उसका व्यवहार असामान्य हो जाता है। यौन सम्बन्धों के कारण जनित विकृतियों में सुधार लाने के लिए तथा व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी निर्देशन की आवश्यकता होती है।

11. व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास :
व्यक्तिगत एवं सामाजिक हित में मानव-शक्ति का सही दिशा में अधिकतम उपयोग अनिवार्य है, जिसके लिए व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की आवश्यकता है। बालकों के व्यक्तित्व के सर्वांगीण तथा सन्तुलित विकास के लिए उन्हें घर-परिवार, पास-पड़ोस, विद्यालय तथा समाज में प्रारम्भिक काल से ही निर्देशन प्रदान करने की अतीव आवश्यकता है।

प्रश्न 2
शैक्षिक निर्देशन से आप क्या समझते हैं ? शैक्षिक निर्देशन की प्रक्रिया का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
शैक्षिक निर्देशन का अर्थ
शैक्षिक निर्देशन बालक की अपने कार्यक्रम को बुद्धिमत्तापूर्वक नियोजित कर पाने में सहायता करता है। यह बालकों को ऐसे पाठ्य विषयों का चुनाव करने में सहायता देता है जो उनकी बौद्धिक क्षमताओं, रुचियों, योग्यताओं तथा व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं के अनुकूल हों। यह उन्हें इस योग्य बना देता है। कि वे शिक्षा सम्बन्धी कुछ विशेष समस्याओं तथा विद्यालय की विभिन्न परिस्थिति से भली प्रकार समायोजन स्थापित कर अपने शैक्षिक लक्ष्यों को प्राप्त कर सकें। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शैक्षिक पर्यावरण से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान तथा शैक्षिक परिस्थितियों में समायोजित होने के लिए दिये जाने वाले विशिष्ट निर्देशन को शैक्षिक निर्देशन कहते हैं।

शैक्षिक निर्देशन की परिभाषाएँ
विभिन्न मनोवैज्ञानिकों एवं विद्वानों ने शैक्षिक निर्देशन की अग्रलिखित परिभाषाएँ दी हैं

  1. आर्थर जे० जोन्स के अनुसार, “शैक्षिक निर्देशन का तात्पर्य उस व्यक्तिगत सहायता से है जो विद्यार्थियों को इसलिए प्रदान की जाती हैं कि वे अपने लिए उपयुक्त विद्यालय, पाठ्यक्रम, पाठ्य विषय एवं विद्यालय जीवन का चयन कर सकें तथा उनसे समायोजन स्थापित कर सकें।”
  2. रूथ स्ट्रांग के कथनानुसार, “व्यक्ति को शैक्षिक निर्देशन प्रदान करने का मुख्य लक्ष्य उसे समुचित कार्यक्रम के चुनाव तथा उसमें प्रगति में सहायता प्रदान करना है।”
  3. एलिस के शब्दों में, “शैक्षिक निर्देशन से तीन विशेष क्षेत्रों में सहायता मिलती है
    • कार्यक्रम और पाठ्य-विषयों का चयन
    • चालू पाठ्यक्रम में कठिनाइयों का मुकाबला करना तथा
    • अगले प्रशिक्षण हेतु विद्यार्थियों का चुनाव।

शैक्षिक निर्देशन सम्बन्धी उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि यह प्रक्रिया बालकों के पाठ्यक्रम चयन की सर्वोत्तम विधि है। उसमें बालकों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं, शैक्षिक उपलब्धियों, प्राप्तांकों, अभिभावकों की आशाओं, महत्त्वाकांक्षाओं तथा मनोवैज्ञानिकों के परामर्श को मुख्य रूप से ध्यान में रखा जाता है। इसके अन्तर्गत एक निर्देशक द्वारा प्राप्त किये गये निर्देशन की जाँच भी सम्भव है, इसलिए यह विधि वैज्ञानिक एवं प्रामाणिक भी है।

शैक्षिक निर्देशन की प्रक्रिया
पाठ्य विषयों के चयन सम्बन्धी शैक्षिक निर्देशन के निम्नलिखित तीन मुख्य पहलू हैं।
(अ) बालक के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना
(ब) पाठ्य विषयों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना और
(स) पाठ्य विषयों से सम्बन्धित व्यवसायों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना।

(अ)
बालक के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना।
जिस बालक/व्यक्ति को शैक्षिक निर्देशन देना है, उसके सम्बन्ध में निर्देशक को निम्नलिखित सूचनाएँ प्राप्त कर लेनी चाहिए।

1. बौद्धिक स्तर :
शैक्षिक निर्देशन में बालक में बौद्धिक स्तर का पता लगाना अति आवश्यक है। तीव्र बुद्धि वाला बालक कठिन विषयों का अध्ययन करने के योग्य होता है और इसीलिए विज्ञान एवं गणित जैसे विषयों का चुनाव कर सकता है। वह उच्च कक्षाओं तक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों के साथ सुगमतापूर्वक पहुँच जाता है। कला-कौशल और रचनात्मक कार्यों में अपेक्षाकृत कम बुद्धि की आवश्यकता पड़ती है। इस भाँति बालक के लिए पाठ्य विषयों का चुनाव करने में उसके बौद्धिक-स्तर का ज्ञान बहुत आवश्यक है।

2. शैक्षिक सम्प्राप्ति :
शैक्षिक सम्प्राप्ति अथवा शैक्षिक उपलब्धि की सूचना, अक्सर पिछली कक्षाओं के प्राप्तांकों द्वारा मिलती है, लेकिन निर्देशन की प्रक्रिया के अन्तर्गत सम्प्राप्ति परीक्षणों तथा सम्बन्धित अध्यापकों द्वारा भी शैक्षिक उपलब्धियों का ज्ञान कर लिया जाता है। किसी खास विषय में अधिक प्राप्तांकों की प्रवृत्ति बालक की उस विषय में रुचि एवं योग्यता का संकेत करती है। माना एक विद्यार्थी आठवीं कक्षा तक विज्ञान में सर्वाधिक अंक लेकर उत्तीर्ण हुआ है तो कहा जा सकता है कि भविष्य में भी विज्ञान में अधिक अंक प्राप्त करेगा। इन प्राप्तांकों या उपलब्धियों को आधार मानकर माध्यमिक स्तर पर विषय चुनने का परामर्श दिया जाना चाहिए।

3. मानसिक योग्यताएँ :
शिक्षा-निर्देशक को बालक की मानसिक योग्यताओं को भी समुचित ज्ञान होना चाहिए, क्योंकि विभिन्न प्रकार के पाठ्य विषयों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की मानसिक योग्यताएँ उपयोगी सिद्ध होती हैं। उदाहरण के लिए-साहित्यकार, अधिवक्ता, व्याख्याता, नेता तथा शिक्षक बनने में ‘शाब्दिक योग्यता’; गणितज्ञ में, वैज्ञानिक तथा इन्जीनियर बनने में ‘सांख्यिकी योग्यता’, दार्शनिक, विचारक, गणितज्ञ, अधिवक्ता बनने में ‘तार्किक योग्यता’ सहायक होती है। मानसिक योग्यताओं का ज्ञान तत्सम्बन्धी मनोवैज्ञानिक परीक्षणों तथा शिक्षकों की सूचना द्वारा लगाया जा सकता है।

4. विशिष्ट मानसिक योग्यताएँ एवं अभिरुचियाँ :
बालक के लिए पाठ्य विषय का चयन करते . समय बालक की विशिष्ट मानसिक योग्यताओं तथा अभिरुचियों का ज्ञान परमावश्यक है। विभिन्न पाठ्य विषयों की सफलता अलग-अलग प्रकार की विशिष्ट योग्यताओं या अभिरुचियों पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए संगीत एवं कला की विशिष्ट तथा अभियोग्यता वाले बालक-बालिकाओं को प्रारम्भ से ही संगीत एवं कला विषयों का चुनाव कर लेना चाहिए।

5, रुचियाँ :
बालक की जिस विषय में अधिक रुचि होगी, उस विषय के अध्ययन में वह अधिक ध्यान लगाएगा। अत: निर्देशक को बालक की रुचि का ज्ञान अवश्य लेना चाहिए। रुचियों का ज्ञान रुचि परीक्षणों तथा रुचि परिसूचियों के अतिरिक्त अभिभावकों, शिक्षकों तथा दैनिक निरीक्षण के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।

6. व्यक्तित्व की विशेषताएँ :
माध्यमिक स्तर पर किसी बालक को विषयों के चयन सम्बन्धित परामर्श देने के लिए उसके व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताओं का ज्ञान आवश्यक है। व्यक्तित्व विभिन्न प्रकार की विशेषताओं और गुणों; जैसे – आत्मविश्वास, धैर्य, लगन, मनन, अध्यवसाय आदि का संगठन है। साहित्यिक विषयों का चयन भावुक व्यक्ति को, विज्ञान और गणित का चयन तर्कयुक्त एवं दृढ़ निश्चयी व्यक्ति को तथा रचनात्मक विषयों का चयन उद्योगी एवं क्रिया-प्रधान व्यक्तियों को करना चाहिए। व्यक्तित्व के गुणों का ज्ञान जिन व्यक्तित्व परीक्षणों से किया जाता है। उनमें साक्षात्कार, व्यक्तित्व परिसूचियाँ, प्रश्नसूची, व्यक्ति-इतिहास और निर्धारण मान अदि प्रमुख हैं।

7. शारीरिक दशा :
कुछ विषयों का चयन करते समय निर्देशक को बालक की शारीरिक रचना तथा स्वास्थ्य की दशाओं का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। कृषि विज्ञान एवं प्राविधिक विषय इन्हीं के अन्तर्गत आते हैं। कृषि सम्बन्धी अध्ययन जमीन के साथ कठोर श्रम पर निर्भर हैं, जिसके लिए हुष्ट-पुष्ट शरीर होना आवश्यक है। इसी प्रकार प्राविधिक विषयों का प्रयोगात्मक ज्ञान कार्यशाला में कई घण्टे काम करके ही उपलब्ध किया जा सकता है। अतः पाव्य विषय के चयन से पूर्व चिकित्सक से शारीरिक विकास की जाँच करा लेनी
चाहिए तथा रुग्ण या दुर्बल शरीर वाले बालकों को ऐसे विषय का चुनाव नहीं करना चाहिए।

8. पारिवारिक स्थिति :
पारिवारिक परिस्थितियों, विशेषकर आर्थिक स्थिति, को ध्यान में रखकर शिक्षा-निर्देशक उन्हीं विषयों के चयन को परामर्श देता है जिन्हें निजी परिस्थितियों के अन्तर्गत आसानी से पढ़ा जा सके। माध्यमिक स्तर पर कुछ ऐसे विषय निर्धारित हैं जिनमें उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अभिभावकों को अत्यधिक धन खर्च करना पड़ता है; जैसे—विज्ञान पढ़ने के बाद योग्य बनाता है मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश।

बालक की योग्यताओं, उच्च बौद्धिक स्तर तथा अभिरुचि के बावजूद भी इन कॉलेजों में अपने बच्चों को भेजना हर एक माता-पिता के बस में नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में विद्यार्थियों के लिए पाठ्य विषयों के चयन में उसके परिवार की आर्थिक दशा को ध्यान में रखना आवश्यक है।

(ब)
पाठ्य विषयों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना

निर्देशन एवं परामर्श प्रदान करने वाले विशेषज्ञ को बालक के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने के उपरान्त पाठ्य विषयों से सम्बन्धित विस्तृत जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। इस सम्बन्ध में अग्रलिखित दो प्रकार की जानकारियाँ आवश्यक हैं

1. पाठ्य विषयों के विभिन्न वर्ग :
जूनियर स्तर से निकलकर माध्यमिक स्तर में प्रवेश पाने वाले विद्यार्थियों के लिए पाठ्यक्रम को कई वर्गों में विभक्त किया गया है; जैसे।

  1. साहित्यिक
  2. वैज्ञानिक
  3. वाणिज्य
  4. कृषि सम्बन्धी
  5. प्रौद्यौगिक
  6. रचनात्मक तथा
  7. कलात्मक।

इन वर्गों के विकास में ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त यह जानना आवश्यक है कि सम्बन्धित विद्यालय में कौन-कौन-से वर्ग के पाठ्य विषय पढ़ाये जाते हैं और विद्यार्थी की रुचि के विषय भी वहाँ उपलब्ध हो सकेंगे या नहीं।

2. विविध पाठ्य विषयों के अध्ययन हेतु आवश्यक मानसिक योग्यताएँ :
किन विषयों के लिए कौन-सी योग्यताएँ आवश्यक हैं और उस विद्यार्थी में कौन-कौन-सी योग्यताएँ विद्यमान हैं ? इन सभी बातों की विस्तृत जानकारी शिक्षा निर्देशक को होनी चाहिए, तभी वह उपयुक्त पाठ्य विषयों के चयन में विद्यार्थियों की सहायता कर सकता है।

(स)
पाठ्य विषयों से सम्बन्धित व्यवसायों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना
प्रत्येक विद्यार्थी अपनी शिक्षा से निवृत्त होकर जीवन-यापन के लिए किसी-न-किसी व्यवसाय का चयन करता है। आजकल ज्यादातर व्यवसायों में विशेषीकरण होने से तत्सम्बन्धी प्रशिक्षण पहले से ही प्राप्त करना पड़ता है। अत: निर्देशक को पाठ्य विषयों से सम्बन्धित व्यवसायों के बारे में ये निम्नलिखित दो सूचनाएँ प्राप्त करना बहुत आवश्यक है-

1. व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए किन पाठ्य विषयों का अध्ययन आवश्यक है :
सबसे पहले निर्देशक को यह जानना चाहिए कि किसी खास व्यवसाय से सम्बन्धित प्रशिक्षण कोर्स में प्रवेश पाने के लिए अध्ययन की शुरुआत के लिए किन विषयों का ज्ञान आवश्यक है। उदाहरणार्थ-डॉक्टर बनने के लिए 9वीं कक्षा से जीव विज्ञान पढ़ना चाहिए, जब कि इन्जीनियर बनने के . लिए विज्ञान वर्ग में गणित पढ़ना चाहिए।

2. विभिन्न वर्गों के पाठ्य विषयों का अध्ययन किन व्यवसायों के योग्य बनाता है :
पाठ्य विषयों के चयन में व्यवसाय सम्बन्धी जानकारी आवश्यक है। निर्देशक को पहले ही यह ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए कि किसी व्यवसाय-विशेष का सीधा सम्बन्ध किन-किन विषयों से है ताकि व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त न करके भी उन विषयों का ज्ञान उसके कार्य में मदद दे सके। उदाहरण के लिए-कॉमर्स लेकर कोई विद्यार्थी वाणिज्य या व्यापार के क्षेत्र में प्रवेश कर सकता है, किन्तु डॉक्टरी या इंजीनियरिंग के क्षेत्र में नहीं।
बालक को शैक्षिक निर्देशन प्रदान करने से पूर्व उपर्युक्त समस्त बातों की विस्तृत एवं वास्तविक जानकारी एक सफल शिक्षा निर्देशक (Educational Guide) को होनी चाहिए।

प्रश्नु 3
शैक्षिक निर्देशन की उपयोगिता एवं महत्त्व का उल्लेख कीजिए। [2011, 13]
या
शैक्षिक निर्देशन से आप क्या समझते हैं ? इसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
या
शैक्षिक निर्देशन की क्या आवश्यकता है? स्पष्ट कीजिए। [2013]
उत्तर :
नोट :
शैक्षिक निर्देशन का अर्थ
शैक्षिक निर्देशन बालक की अपने कार्यक्रम को बुद्धिमत्तापूर्वक नियोजित कर पाने में सहायता करता है। यह बालकों को ऐसे पाठ्य विषयों का चुनाव करने में सहायता देता है जो उनकी बौद्धिक क्षमताओं, रुचियों, योग्यताओं तथा व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं के अनुकूल हों। यह उन्हें इस योग्य बना देता है। कि वे शिक्षा सम्बन्धी कुछ विशेष समस्याओं तथा विद्यालय की विभिन्न परिस्थिति से भली प्रकार समायोजन स्थापित कर अपने शैक्षिक लक्ष्यों को प्राप्त कर सकें। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शैक्षिक पर्यावरण से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान तथा शैक्षिक परिस्थितियों में समायोजित होने के लिए दिये जाने वाले विशिष्ट निर्देशन को शैक्षिक निर्देशन कहते हैं।

शैक्षिक निर्देशन की परिभाषाएँ
विभिन्न मनोवैज्ञानिकों एवं विद्वानों ने शैक्षिक निर्देशन की अग्रलिखित परिभाषाएँ दी हैं

  1. आर्थर जे० जोन्स के अनुसार, “शैक्षिक निर्देशन का तात्पर्य उस व्यक्तिगत सहायता से है जो विद्यार्थियों को इसलिए प्रदान की जाती हैं कि वे अपने लिए उपयुक्त विद्यालय, पाठ्यक्रम, पाठ्य विषय एवं विद्यालय जीवन का चयन कर सकें तथा उनसे समायोजन स्थापित कर सकें।”
  2. रूथ स्ट्रांग के कथनानुसार, “व्यक्ति को शैक्षिक निर्देशन प्रदान करने का मुख्य लक्ष्य उसे समुचित कार्यक्रम के चुनाव तथा उसमें प्रगति में सहायता प्रदान करना है।”
  3. एलिस के शब्दों में, “शैक्षिक निर्देशन से तीन विशेष क्षेत्रों में सहायता मिलती है
    • कार्यक्रम और पाठ्य-विषयों का चयन
    • चालू पाठ्यक्रम में कठिनाइयों का मुकाबला करना तथा
    • अगले प्रशिक्षण हेतु विद्यार्थियों का चुनाव।

शैक्षिक निर्देशन सम्बन्धी उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि यह प्रक्रिया बालकों के पाठ्यक्रम चयन की सर्वोत्तम विधि है। उसमें बालकों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं, शैक्षिक उपलब्धियों, प्राप्तांकों, अभिभावकों की आशाओं, महत्त्वाकांक्षाओं तथा मनोवैज्ञानिकों के परामर्श को मुख्य रूप से ध्यान में रखा जाता है। इसके अन्तर्गत एक निर्देशक द्वारा प्राप्त किये गये निर्देशन की जाँच भी सम्भव है, इसलिए यह विधि वैज्ञानिक एवं प्रामाणिक भी है।

शैक्षिक निर्देशन के लाभ, उपयोगिता एवं महत्त्व
वर्तमान शिक्षा पद्धति एक जटिल व्यवस्था है, जिसमें बालकों की क्षमताएँ, शक्तियाँ, योग्यताएँ समये तथा धन आदि का अपव्यय होता है और वे अपने शैक्षिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में असफल रहते हैं। इन असफलताओं तथा निराशाओं के बीच शैक्षिक निर्देशन आशा की किरणों के साथ शिक्षा के क्षेत्र में अवतरित होता है, जिसकी उपयोगिता या महत्त्व सन्देह से परे है। इसमें लाभों की पुष्टि अग्रलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत हो जाती है

1. पाठ्य विषयों का चयन :
माध्यमिक विद्यालयों में विभिन्न व्यवसायों से सम्बन्धित विविध पाठ्य विषयों के अध्ययन की व्यवस्था है। निर्देशन की सहायता से विद्यार्थी अपने बौद्धिक-स्तर, क्षमताओं, योग्यताओं तथा रुचियों के अनुसार पाठ्य-विषयों का चुनाव कर सकता है। इस भॉति वह अपने मनोनुकूल व्यवसाय की प्राप्ति कर सुखी जीवन व्यतीत कर सकता है।

2. भावी शिक्षा का सुनिश्चय :
हाईस्कूल स्तर के पश्चात् विद्यार्थियों के लिए यह सुनिश्चित कर पाना दूभर हो जाता है कि उनकी भावी शिक्षा का लक्ष्य एवं स्वरूप क्या होगा, अर्थात् वे किस व्यावसायिक विद्यालय में प्रवेश लें, व्यापारिक विद्यालय में या औद्योगिक विद्यालय में? यदि किन्हीं कारणों से वे अनुपयुक्त शिक्षा संस्थान में भर्ती हो जाते हैं तो कुसमायोजन के कारण उन्हें बीच में ही संस्था छोड़नी पड़ सकती है, जिसके फलस्वरूप काफी हानि उठानी पड़ती है। इसके सन्दर्भ में निर्देशक सही पथ-प्रदर्शन करते है।

3. नवीन विद्यालय में समायोजन :
शैक्षिक निर्देशन उन विद्यार्थियों की सहायता करता है जो किसी नये विद्यालय में प्रवेश पाते हैं और वहाँ के वातावरण के साथ समायोजित नहीं हो पाते।

4. पाठ्यक्रम का संगठन :
विद्यार्थियों की व्यक्तिगत भिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए उनका पाठ्यक्रम निर्धारित एवं संगठित किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम-संगठन का कार्य शैक्षिक निर्देशन के माध्यम से किया जाता है।

5. परिवर्तित विद्यालयी प्रबन्ध, पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधि के सन्दर्भ में :
विद्यालय एक लघु समाज है। समाज की प्रजातान्त्रिक व्यवस्था का सीधा प्रभाव विद्यालय प्रबन्ध एवं व्यवस्थाओं पर पड़ा है। प्रजातान्त्रिक शिक्षा समाज के सभी व्यक्तियों को समान अवसर प्रदान करती है। व्यक्तिगत विभिन्नता के सिद्धान्त पर आधारित गत्यात्मक प्रकार की प्रशासन्त्रिक विद्यालय व्यवस्था पाठ्यक्रम तथा शिक्षण-विधियों की आवश्यकताओं की और पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए। इन परिवर्तित दशाओं के कारण पैदा होने वाली समस्याओं का समाधान एकमात्र शैक्षिक निर्देशन की सहायता से ही सम्भव है।

6. मन्दबुद्धि, पिछड़े तथा मेधावी बालक :
शैक्षिक निर्देशन की प्रक्रिया के अन्तर्गत मन्दबुद्धि, पिछड़े तथा मेधावी बालकों की पहचान करके उनकी क्षमतानुसार शिक्षा की व्यवस्था की जाती है। इस विशिष्ट व्यवस्था का लाभ अलग-अलग तीनों ही वर्गों के बालकों अर्थात् मन्दबुद्धि, पिछड़े तथा मेधावी बालकों को प्राप्त होता है।

7. अभिभावकों की सन्तुष्टि :
कभी-कभी अभिभावकों की महत्त्वाकांक्षाओं तथा बालकों की । मानसिक योग्यताओं व क्षमताओं के मध्य गहरा अन्तर होता है। निर्देशंन के माध्यम से वे बालक की विशेषैताओं की सही वास्तविक झलक पाकर तदनुकूल शिक्षा की व्यवस्था कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षा संस्थानों के कार्यक्रमों से परिचित होकर उन्हें अपना योगदान प्रदान कर सकते हैं।

8. अनुशासन की समस्या का समाधान :
क्योंकि शैक्षिक निर्देशन की प्रक्रिया में बालक की क्षमताओं, रुचियों तथा अभिरुचियों को ध्यान में रखकर उसकी शिक्षा सम्बन्धी व्यवस्था की जाती है; अतः पाठ्यकम बालक को भार-स्वरूप नहीं लगता। इसके विपरीत वह चयनित विषयों में रुचि लेकर अनुशासित रूप में अध्ययन करता है, जिससे अनुशासन की समस्या का किसी हद तक समाधान निकल आता है।

9. जीविकोपार्जन का समुचित ज्ञान :
प्रायः विद्यार्थियों को विभिन्न पाठ्य विषयों से सम्बन्धित एवं आगे चलकर उपलब्ध हो सकने वाले व्यावसायिक अवसरों की जानकारी नहीं होती। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति किसी खास व्यवसाय में जानकारी व रुचि न होने के कारण बार-बार अपना पेशा बदलते हैं, जिससे व्यावसायिक अस्थिरता में वृद्धि के कारण हानि होती है। अत: रोजगार के अवसरों का ज्ञान प्राप्त करने तथा जीविकोपार्जन सम्बन्धी समुचित ज्ञान पाने की दृष्टि से शैक्षिक निर्देशन अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है।

10. अपव्यय एवं अवरोधन की समस्या का अन्त :
अपव्यय एवं अवरोधन की समस्या के अन्तर्गत अनेक बालक-बालिकाएँ विभिन्न कारणों से स्थायी साक्षरता प्राप्त किये बिना ही विद्यालय का त्याग कर देते हैं, जिससे प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर अत्यधिक अपव्यय हो रहा है। इसके अतिरिक्त परीक्षा में फेल होने वाले विद्यार्थियों की संख्या भी निरन्तर बढ़ रही है। इस समस्या का अन्त शैक्षिक निर्देशन के माध्यम से ही सम्भव है।

प्रश्न 4
सामूहिक शैक्षिक निर्देशन विधि और प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
या
वैयक्तिक शैक्षिक निर्देशन और सामूहिक शैक्षिक निर्देशन विधियों का आलोचनात्मक वर्णन कीजिए।
या
शैक्षिक निर्देशन की कितनी विधियाँ हैं ? उन्हें संक्षेप में समझाइए। [2007]
उत्तर :
शैक्षिक निर्देशन की विधि शैक्षिक निर्देशन की दो विधियाँ प्रचलित हैं
I. वैयक्तिक शैक्षिक निर्देशन तथा
II. सामूहिक शैक्षिक निर्देशन

I. वैयक्तिक शैक्षिक निर्देशन

1. भेंट या साक्षात्कार :
निर्देशक या परामर्शदाता बालक से भेंट करके या साक्षात्कार द्वारा उसके सम्बन्ध में आवश्यक सूचनाएँ एकत्र करता है तथा निर्देशन की प्रक्रिया में सहायक विभिन्न तथ्यों की जानकारी उपलब्ध कराता है।

2. प्रश्नावली :
बालक के सम्बन्ध में तथ्यों का पता लगाने अथवा उसके व्यक्तिगत विचारों से परिचित होने के उद्देश्य से एक प्रश्नावली निर्मित की जाती है, जिसके उत्तर स्वयं बालक को देने होते हैं। प्रश्नावली के माध्यम से बालक की आदतों, पारिवारिक वातावरण, अवकाशकालीन क्रियाओं, शिक्षा और व्यवसाय सम्बन्धी योजनाओं के विषय में ज्ञान हो जाता है।

3. व्यक्तिगत्र इतिहास :
व्यक्तिगत इतिहास के माध्यम से बालक को व्यक्तिगत, सामाजिक व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की जानकारी प्राप्त की जाती हैं। इसके अतिरिक्त चालक के अभिभावक, मित्र, परिवार के सदस्य एवं आस-पड़ोस के लोग भी उसके विषय में बताते हैं, जिनमें उसकी समस्याओं का निदान एवं समाधान किया जाता है।

4. संचित अमितेख :
विद्यालय में हर एक विद्यार्थी से सम्बन्धित एक ‘संचित अभिलेख’ होता है। इस अभिलेख में विद्यार्थी की प्रगति, योग्यता, बौद्धिक स्तर, रुचि, पारिवारिक दशा तथा शारीरिक स्वास्थ्य सम्बन्धी सूचनाएँ संगृहीत रहती हैं। इन अभिलेखों को अध्ययन कर परामर्शदाता, निर्देशन की दिशा निर्धारित करता है।

5. बुद्धि एवं ज्ञानार्जन परीक्षण :
इन फ्रीक्षणों के माध्यम से निर्देशक इस बात की जाँच करता है। कि विद्यार्थी ने विभिन्न पाठ्य विषयों में कितना ज्ञानार्जन किया है, उसको बौद्धिक स्तर कितना है, शिक्षके ने उसे कितने प्रभावकारी ढंग से पढ़ाया है तथा उसकी योग्यताएँ व दुर्बलताएँ क्या हैं ? इन सभी बातों का ज्ञान विद्यार्थी की भावी प्रगति के सन्दर्भ में अनुमान लगाने में निर्देशक की सहायता करता है।

6. परामर्श :
निर्देशक विद्यार्थियों की समस्या का ज्ञान करके तथा उनके विषय में समस्त तथ्यों का संकलन करके उन्हें शिक्षा सम्बन्धी परामर्श प्रदान करता है। यह परामर्श उनकी समस्याओं का उचित समाधान करने में सहायक होता है।

7. अनुगामी कार्यक्रम :
निर्देशन प्रदान करने के उपरान्त अनुगामी कार्य द्वारा यह जाँच की जाती है। कि निर्देशन के बाद विद्यार्थी की प्रगति सन्तोषजनक रही है अथवा नहीं। असन्तोषजनक प्रगति इस बात की द्योतक है कि विद्यार्थी के बारे में निर्देशक के अनुमान गलत थे तथा निर्देशक ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर पाया। इसलिए उसमें संशोधन करके पुन: निर्देशन प्रदान किया जाना चाहिए। वैयक्तिक शैक्षिक निर्देशन की विधि के उपर्युक्त सोपान किसी विद्यार्थी की शैक्षिक समस्याओं के सम्बन्ध में समुचित परामर्श एवं समाधान प्रस्तुत करने में सहायक सिद्ध होते हैं। लेकिन इस विधि की कुछ परिसीमाएँ हैं; जैसे-एक ही विद्यार्थी के लिए विशेषज्ञ या मनोवैज्ञानिक की आवश्यकता होती है तथा इसमें अधिक समय और धन का व्यय भी होता है। सामूहिक शैक्षिक निर्देशन में इन कमियों को पूरा करने का प्रयास किया गया है।

II. सामूहिक शैक्षिक निर्देशन

सामूहिक शैक्षिक निर्देशन की विधि के विभिन्न सोपानों का संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है।

1. अनुस्थापने वार्ताएँ :
सामूहिक निर्देशन के अन्तर्गत, सर्वप्रथम, मनोवैज्ञानिक विद्यालय में जाकर बालकों को वार्ता के माध्यम से निर्देशन का महत्त्व समझाता है। ये वार्ताएँ विद्यार्थियों को स्वयं अपनी आवश्यकताओं, क्षमताओं, शैक्षिक उद्देश्यों, रुचियों इत्यादि के सम्बन्ध में सोचने-समझने हेतु प्रेरित व उत्साहित करती हैं।

2. मनोवैज्ञानिक परीक्षण :
विद्यार्थियों को उचित दिशा में निर्देशित करने के उद्देश्य से मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का प्रयोग किया जाता है। इन परीक्षणों की सहायता से विद्यार्थियों की सामान्य एवं विशिष्ट बुद्धि, मानसिक योग्यता, रुचि, अभिरुचि, भाषा एवं व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं का ज्ञान होता है। इससे निर्देशन का कार्य सुगम हो जाता है।

3. साक्षात्कार :
व्यक्तिगत निर्देशन के समान ही साक्षात्कार का प्रयोग सामूहिक निर्देशन में भी किया जाता है। इसके लिए निर्देशक या निर्देशन समिति स्वयं बालकों से भेंट करके विभिन्न पाठ्य विषयों के प्रति उनकी रुचि, भावी शिक्षा और व्यवसाय-योजना आदि के सम्बन्ध में सूचनाएँ एकत्र करते हैं। इसके लिए स्वयं-परिसूची’ (Self-Inventory) का भी प्रयोग किया जाता है।

4. विद्यालय से तथ्य संकलन :
मनोवैज्ञानिक, बालकों की विभिन्न पाठ्य विषयों की ‘शैक्षुिक-सम्प्राप्ति की जानकारी के लिए, पूर्व परीक्षाओं के प्राप्तांकों पर विचार करता है। इस सम्बन्ध में ‘संचित-लेखा (Cumulative Record) के साथ-साथ अध्यापकों की राय लेना भी जरूरी एवं महत्त्वपूर्ण है।

5. सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का अध्ययन :
शिक्षा से सम्बन्धित समुचित निर्देशन प्रदान करने की दृष्टि से विद्यार्थियों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का अध्ययन आवश्यक है। निर्देशक को समाज, आस-पड़ोस, घर-गृहस्थी, मित्र-मण्डली, परिचितों तथा अभिभावकों से उनके विषय में पूरी-पूरी सामाजिक व आर्थिक जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए।

6. परिवार से सम्पर्कमाता :
पिता ने बालकों को जन्म दिया है, पालन-पोषण किया है, उन्हें शनैः-शनैः विकसित होते हुए देखा हैं तथा उनकी भावी उन्नति व व्यवसाय का स्वप्न देखा है। अतः मनोवैज्ञानिक को बालकों के माता-पिता के विचारों को अवश्य समझना चाहिए। इसके लिए पत्र-व्यवहार द्वारा या माता-पिता से व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करके तथ्यों का संकलन किया जा सकता है।

7. पाश्र्व-चित्र :
अनेकानेक स्रोतों से एकत्रित की गयी सूचनाओं व तथ्यों को एक पार्श्व चित्र (Profile) में व्यक्त किया जाता है। इस प्रयास में उनकी विभिन्म योग्यताओं, क्षमताओं तथा भिन्न-भिन्न परीक्षण स्तर के चित्र अंकित किये जाते हैं। पार्श्व-चित्र को देखकर बालकों के सम्बन्ध में एक साथ ही ढेर सारी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ ज्ञात हो जाती हैं। इन सूचनाओं के आधार पर विद्यार्थियों को पाठ्य विषयों के चुनाव के सम्बन्ध में निर्देशन दिया जाता है जो प्रायः लिखित रूप में होता है।

8. अनुगामी कार्य :
अनुगामी कार्य का एक नाम अनुवर्ती अध्ययन (Follow-up Study) भी है। निर्देशन से सम्बन्धित यह अन्तिम सोपान या कार्य है। निर्देशन पाने के बाद जब बालक किसी विषय का चयन करके उसका अध्ययन शुरू कर देता है तो मनोवैज्ञानिक या निर्देशक को यह जाँच करनी होती है। कि बालक उस विषय का सफलता से अध्ययन कर रहा है अथवा नहीं। बालक की ठीक प्रगति का अभिप्राय है कि निर्देशन सन्तोषजनक रहा अन्यथा उसे फिर से निर्देशन प्रदान किया जाता है।

प्रश्न 5
व्यावसायिक निर्देशन का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। व्यावसायिक निर्देशन की प्रक्रिया का भी विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
व्यावसायिक निर्देशन का क्या अर्थ है? माध्यमिक विद्यालयों में व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता की विवेचना कीजिए। [2007]
उत्तर :
व्यावसायिक निर्देशन का अर्थ
व्यावसायिक निर्देशन एक ऐसी मनोवैज्ञानिक सहायता है जो व्यक्ति (विद्यार्थी) को जीवन के एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य ‘जीविकोपार्जन की प्राप्ति में सहायक है। इसका मुख्य उद्देश्य व्यक्ति को यह निर्णय करने में मदद देना है कि वह जीविकोपार्जन के लिए कौन-सा उपयुक्त व्यवसाय चुने जो उसकी बुद्धि, अभिरुचि तथा व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं के अनुकूल हो।

व्यावसायिक निर्देशन की परिभाषा

  1. क्रो एवं क्रो के अनुसार, “व्यावसायिक निर्देशन की व्याख्या सामान्यत: उसे सहायता के रूप में की जाती है, जो विद्यार्थियों को किसी व्यवसाय को चुनने, उसके लिए तैयारी करने तथा उसमें उन्नति प्रदान करने के लिए दी जाती है।”
  2. अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, “व्यावसायिक निर्देशन वह सहायता है जो एक व्यक्ति को व्यवसाय चुनने से सम्बन्धित समस्या के समाधान हेतु प्रदान की जाती है, जिससे व्यक्ति की क्षमताओं का तत्सम्बन्धी व्यवसाय-सुविधाओं के साथ समायोजन हो सके।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि व्यावसायिक निर्देशन, उपयुक्त व्यवसाय के चुनाव में किसी व्यक्ति की सहायता करने की प्रक्रिया है। यह उसे व्यावसायिक परिस्थितियों से स्वयं को अनुकूलित करने में मदद देती है, जिससे कि समाज की मानव-शक्ति का सदुपयोग हो सके तथा अर्थव्यवस्था में समुचित सलन स्थापित हो सके।

व्यावसायिक निर्देशन की प्रक्रिया : व्यवसाय का चयन
किसी व्यक्ति के लिए उपयुक्त व्यवसाय चुनने की दृष्टि से व्यावसायिक निर्देशन की प्रक्रिया प्रारम्भ की जाती है। यह प्रक्रिया निर्देशक से निम्नलिखित दो प्रकार की जानकारियों की माँग करती है|
(A) व्यक्ति के विषय में जानकारी।
(B) व्यवसाय जगत् सम्बन्धी जानकारी।

(A) व्यक्ति के विषय में जानकारी।
व्यावसायिक निर्देशन के अन्तर्गत उपयुक्त व्यवसाय का चुनाव करते समय सर्वप्रथम व्यक्ति के शारीरिक विकास, उसके बौद्धिक स्तर, मानसिक योग्यताओं, रुचियों, अभिरुचियों तथा व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं का अध्ययन करना आवश्यक है। व्यक्ति के इस भॉति अध्ययन को व्यक्ति-विश्लेषण (Individual Analysis) का नाम दिया गया है। व्यक्ति-विश्लेषण में अग्रलिखित बातें जानना आवश्यक समझा जाता है।

1. शैक्षिक योग्यता :
किसी व्यवसाय के चयन में उसके लिए शिक्षा के स्तर तथा शैक्षणिक योग्यता की जानकारी आवश्यक होती है। कुछ व्यवसायों के लिए प्रारम्भिक स्तर, कुछ के लिए माध्यमिक स्तर, तो कुछ के लिए उच्च स्तर की शिक्षा अपेक्षित हैं। प्रोफेसर, इंजीनियर, डॉक्टर, वकील तथा प्रशासक आदि के व्यवसाय हेतु उच्च शिक्षा की आवश्यकता होती है, किन्तु ओवरसियर, कम्पाउण्डर, स्टेनोग्राफर, क्लर्क, मिस्त्री तथा प्राथमिक स्तर के शिक्षक हेतु सामान्य शिक्षा ही पर्याप्त है।

कृषि, निजी व्यापार, दुकानदारी आदि के लिए थोड़ी बहुत शिक्षा से ही काम चल जाता है। वैसे अव परिस्थितियाँ बदल रही हैं। इसके अतिरिक्त अनेक व्यवसायों में शैक्षिक योग्यताओं के साथ-साथ विशेष परीक्षण-प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए इंजीनियर और ओवरसियर तथा कम्पाउडर बनने के लिए विशेष प्रशिक्षण में शामिल होना पड़ता है।

2, बुद्धि :
यह बात सन्देह से परे है कि भिन्न-भिन्न व्यवसायों में सफलता प्राप्त करने के लिए भिन्न-भिन्न बौद्धिक स्तर की आवश्यकता होती है। निर्देशक या परामर्शदाता को व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता का ज्ञान निम्नलिखित तालिका से हो सकता है।
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3. मानसिक योग्यताएँ :
अलग-अलग व्यवसायों के लिए विशिष्ट मानसिक योग्यताओं की आवश्यकता होती है। निर्देशक को चाहिए कि वह सम्बन्धित व्यक्ति में विशिष्ट योग्यता की जाँच कर उसे तत्सम्बन्धी व्यवसाय चुनने का परामर्श दे। उदाहरण के लिए संगीत की विशेष योग्यता संगीतज्ञ के लिए, यान्त्रिक (Mechanical) व आन्तरिक्षक (Spatial) योग्यता इंजीनियर और मिस्त्रियों के लिए, शाब्दिक व शब्द-प्रवाह सम्बन्धी योग्यताएँ वकील, अध्यापक और लेखक आदि के लिए आवश्यक समझी जाती हैं।

4. अभियोग्यताएँ :
विभिन्न प्रकार के व्यवसायों की सफलता हेतु विभिन्न प्रकार की अभियोग्यताएँ। या अभिरुचियाँ आवश्यक हैं। सर्वमान्य रूप से, प्रत्येक व्यक्ति में किसी विशेष प्रकार का कार्य करने से सम्बन्धित योग्यता जन्म से ही होती है। यदि जन्म से चली आ रही योग्यता को ही प्रशिक्षण देकर अधिक। परिष्कृत एवं प्रभावशाली बनाया जाए तो व्यक्ति की व्यावसायिक कार्यकुशलता में अभिवृद्धि हो सकती है। यान्त्रिक कार्य के लिए यान्त्रिक अभिरुचि, कला सम्बन्धी कार्य के लिए कलात्मक अभिरुचि तथा लिपिक के लिए लिपिक अभिरुचि आवश्यक है।

5. रुचियाँ :
किसी कार्य की सफलता के लिए उस कार्य में व्यक्ति को रुचि का लेना आवश्यक है। किसी ऐसे कार्य को करना उचित है जिसमें पहले से व्यक्ति की रुचि हो, अन्यथा मिले हुए कार्य में बाद की रुचि विकसित की जा सकती है। प्रायः, योग्यता और रुचि साथ-साथ पाये जाते हैं और कम योग्यता वाले क्षेत्र में व्यक्ति रुचि प्रदर्शित नहीं करता। ऐसी दशा में रुचि और योग्यता में से किसे प्रमुखता दी जाए – यह बात विचारणीय बन जाती है।

6. व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताएँ :
अनेक व्यवसायों की सफलता व्यक्तित्व सम्बन्धी विशिष्ट गुणों पर आधारित होती है। अत: निर्देशक को व्यवसाय के चयन सम्बन्धी परामर्श प्रदान करते समय व्यक्तित्व की विशेषताओं पर भी ध्यान देना चाहिए। एजेण्ट या सेल्समैन के लिए मिलनसार, आत्मविश्वासी, खुशमिजाज, व्यवहार-कुशल तथा बहिर्मुखी व्यक्तित्व का होना परमावश्यक है। कुछ व्यवसाय ऐसे होते हैं जिनमें संवेगात्मक स्थिति, धैर्य, एकाग्रता, सामाजिकता आदि गुणों की आवश्यकता होती है; जैसे-डॉक्टर, इंजीनियर, बैंक लिपिक तथा ड्राइवर इत्यादि। लेखक, विचारक और समीक्षक का व्यक्तित्व चिन्तनशील एवं अन्तर्मुखी होता है।

7. शारीरिक दशा :
प्रत्येक कार्य में शारीरिक शक्ति का उपभोग होता ही है। अतः सभी व्यवसायों के चयन में शारीरिक विकास, स्वास्थ्य आदि शारीरिक दशाओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए। कुछ व्यवसायों; जैसे-पुलिस, सेना आदि में अधिक शारीरिक क्षमता की आवश्यकता होती है और उनके लिए शारीरिक दृष्ट्रि से क्षमतावान व्यक्तियों को ही चुना जाता है। ऐसे व्यवसायों में कम क्षमता वाले, अस्वस्थ या रोगी व्यक्तियों को कदापि नहीं लिया जा सकता, चाहे वे कितने ही बुद्धिमान क्यों न हों।

8. आर्थिक स्थिति :
बालक को व्यवसाय चुनने सम्बन्धी परामर्श प्रदान करने में उसके परिवार की आर्थिक दशा का ज्ञान निर्देशक को अवश्य रहना चाहिए। कुछ व्यवसाय ऐसे हैं जिनके प्रशिक्षण में अधिक समय और अधिक धन दोनों की आवश्यकता होती है, उदाहरणार्थ–डॉक्टरी और इंजीनियरिंग। लम्बे समय तक शिक्षा पर भारी धन व्यय करना प्रत्येक परिवार के वश की बात नहीं है। अतएव अनेक योग्य एवं प्रतिभाशाली युवक-युवतियाँ धनाभाव के कारण से इन व्यवसायों का चयन नहीं कर पाते।

9. लिंग :
लैंगिक भेद के कारण व्यक्तियों के कार्य-क्षेत्र में अन्तर आ जाता है, इसलिए व्यवसाय चयन की प्रक्रिया में निर्देशक को व्यक्ति के लिंग का भी ध्यान रखना चाहिए। सेना और पुलिस जैसे विभाग पुरुषों के लिए ही उपयुक्त समझे जाते हैं, जब कि अध्यापन, परिचर्या, लेखन आदि स्त्रियों के लिए अधिक ठीक रहते हैं। वस्तुतः स्त्रियाँ बौद्धिक कार्य तो पुरुषों के समान कर सकती हैं, लेकिन उनमें पुरुषों के समान कठोर शारीरिक श्रम की क्षमता नहीं होती। यह कारक भी अब कुछ हद तक कम महत्त्वपूर्ण हो गया है क्योंकि प्रायः सभी व्यवसायों में किसी-न-किसी रूप में महिलाएँ पदार्पण कर रही हैं।

10. आयु :
बहुत से व्यवसायों में राज्य की ओर से सेवाओं में प्रवेश पाने की आयु सीमाएँ निर्धारित कर दी गयी हैं। प्रशिक्षण प्राप्त करने की भी सीमाएँ सुनिश्चित कर दी गयी हैं। अत: किसी व्यवसाय के चयन हेतु निर्देशक को व्यक्ति की आयु सीमा पर भी विचार कर लेना चाहिए।

(B) व्यवसाय-जगत सम्बन्धी जानकारी
व्यावसायिक निर्देशक को व्यवसाय-जगत् की पूरी जानकारी होनी चाहिए। विश्वभर में कितने प्रकार के व्यवसाय हैं, किन्तु किन क्षेत्रों में कौन-से व्यवसाय उपलब्ध हैं, किसी व्यवसाय की विभिन्न शाखाओं व उपशाखाओं का ज्ञान, व्यवसाय-विशेष के लिए आवश्यक शैक्षिक-बौद्धिक-मानसिक योग्यताएँ तथा व्यक्तिगत भिन्नता के साथ अपनाये गये व्यवसाय का समायोजन-इन सभी बातों को लेकर जानकारी आवश्यक है। व्यवसाय-जगत् से पूर्ण परिचय के लिए निर्देशक का अग्रलिखित तथ्यों से अवगत होना परमावश्यक है।

व्यवसायों का वर्गीकरण :
व्यावसायिक निर्देशन के लिए व्यवसायों के प्रकारों को समझना सबसे पहला और अनिवार्य कदम है। व्यवसायों को कई आधारों पर वर्गीकृत किया गया है। तीन प्रमुख आधार ये हैं

  1. कार्य के स्वरूप की दृष्टि से व्यवसायों का वर्गीकरण
  2. शिक्षा बौद्धिक स्तर, प्रशिक्षण तथा सामाजिक सम्मान आदि की दृष्टि से व्यवसायों का वर्गीकरण तथा
  3. रुचियों की दृष्टि से व्यवसायों का वर्गीकरण।

1. कार्य के स्वरूप की दृष्टि से व्यवसायों का वर्गीकरण :
इस आधार पर व्यवसायों को चार वर्गों में रखा गया है

(i) पढ़ने :
लिखने तथा मौलिक विचारों से सम्बन्धित व्यवसाय-इन व्यवसायों में सूक्ष्म बातों की खोज करके नवीन विचारों का प्रतिपादन किया जाता है। साहित्यकार, कवि, निबन्धकार, कथाकार, लेखक, नाटककार, वैज्ञानिक तथा दार्शनिक आदि सभी प्रकार के व्यवसाय इसी कोटि में आते हैं।

(ii) सामाजिक व्यवसाय :
इस प्रकार के व्यवसायों में सामाजिक सम्पर्को व सम्बन्धों को आधार बनाया जाता है। डॉक्टर, वकील, नेता, दुकानदार, जीवन बीमा निगम के एजेण्ट आदि सभी के व्यवसाय सामाजिक सम्बन्धों पर आधारित होते हैं।

(iii) कार्यालय से सम्बन्धित व्यवसाय :
आय-व्यय का हिसाब रखना, फाइलों को समझना, उन पर टिप्पणी लिखना तथा व्यावसायिक-पत्रों के उत्तर देना आदि कार्यों का समावेश इस प्रकार के व्यवसायों में होता है। क्लर्क, मुनीम, कार्यालय अधीक्षक, मैनेजर, एकाउण्टेट आदि इसी वर्ग के व्यवसाय हैं।

(iv) हस्त-कौशल सम्बन्धी व्यवसाय :
इन व्यवसायों में विभिन्न यन्त्रों की सहायता से किसी-न-किसी चीज का निर्माण किया जाता है; जैसे-लुहार, मिस्त्री, बढ़ई, चर्मकार, जिंल्दसाज, ओवरसियर व इंजीनियर आदि।

2. शिक्षा, बौद्धिक स्तर, प्रशिक्षण तथा सामाजिक सम्मान आदि की दृष्टि से व्यवसायों का वर्गीकरण :
इस आधार पर बैकमैन (Backman) ने व्यवसायों को निम्नलिखित पाँच श्रेणियों में विभाजित किया है।

(i) प्रशासकीय एवं उच्च स्तरीय व्यवसाय :
इसके तीन उपवर्ग हैं
(क) भाषा सम्बन्धी व्यवसाय; जैसे – विश्वविद्यालय के प्राध्यापक, लेखक, वकील, सम्पादक, जज आदि।
(ख) विज्ञान सम्बन्धी व्यवसाय; जैसे-डॉक्टरी, इन्जीनियर, वैज्ञानिक, शोधकर्ता, ऑडीटर तथा एकाउण्टेन्ट आदि।
(ग) प्रशासकीय व्यवसाय; जैसे-प्रशासक तथा मैनेजर आदि।

(ii) व्यापार एवं मध्यम :
स्तरीय व्यवसाय–इसके दो उपवर्ग हैं
(क) व्यापार सम्बन्धी व्यवसाय; जैसे-व्यापारी, विज्ञापन के एजेण्ट, दुकानदार आदि।
(ख) मध्यम स्तर के व्यवसाय; जैसे-डिजाइनर, अभिनेता व फोटोग्राफर आदि।

(iii) कुशलतापूर्ण व्यवसाय :
इनमें किसी-न-किसी कौशल की आवश्यकता होती है। इसके अन्तर्गत दो प्रकार के कौशल हैं
(क) शारीरिक कौशल सम्बन्धी व्यवसाय; जैसे-रंगाई, छपाई, बढ़ईगिरी, दर्जीगिरी, मिस्त्री आदि।
(ख) बौद्धिक कौशल सम्बन्धी व्यवसाय; जैसे-लिपिक, स्टेनोग्राफर तथा खजांची आदि।

(iv) अर्द्ध-कुशलतापूर्ण व्यवसाय :
इनमें कुछ कौशल और कुछ यन्त्रवत् कार्य शामिल हैं; जैसे—गार्ड, कण्डक्टर, पुलिस और ट्रैफिक का सिपाही, कार या ट्रक का ड्राइवर आदि।

(v) निम्न-स्तरीय व्यवसाय :
इन व्यवसायों में बुद्धि का सबसे कम प्रयोग किया जाता है; जैसे-चपरासी, चौकीदार, रिक्शाचालक, कृषि-कार्य, बोझा ढोना तथा मिल-मजदूर आदि।

3. रुचियों की दृष्टि से व्यवसायों का वर्गीकरण :
व्यक्ति की रुचियों के अनुसार व्यवसायों को इन वर्गों में विभक्त किया गया है

  • यान्त्रिक व्यवसाय
  • गणनात्मक व्यवसाय
  • बाह्य जीवन से सम्बन्धित व्यवसाय
  • वैज्ञानिक व्यवसाय
  • कलात्मक व्यवसाय
  • प्रभावात्मक व्यवसाय
  • साहित्यिक व्यवसाय
  • संगीतात्मक व्यवसाय
  • समाज सेवा सम्बन्धी व्यवसाय तथा
  • लिपिक सम्बन्धी व्यवसाय।

वर्तमान युग में व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से पड़ती है।

1. व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी एवं मौलिक कारक व्यक्तिगत भिन्नता है। किसी व्यक्ति विशेष के लिए कौन-सा व्यवसाय उपयुक्त होगा, इसके लिए व्यावसायिक निर्देशन का कार्यक्रम अपेक्षित एवं अपरिहार्य है।

2. विभिन्न व्यक्तियों में शरीर, मन या बुद्धि, योग्यता, स्वभाव, रुचि, अभिरुचि तथा व्यक्तित्व के अनेकानेक तत्त्वों की दृष्टि से पर्याप्त अन्तर दृष्टिगोचर होता है। व्यक्ति द्वारा चुने गये व्यवसाय एवं इन वैयक्तिक भिन्नताओं के मध्य समायोजन की दृष्टि से व्यावसायिक निर्देशन आवश्यक है।

3. व्यक्ति और उसके समाज की दृष्टि से भी व्यवसाय में निर्देशन की आवश्यकता महसूस की जाती है। व्यक्ति द्वारा चयन किया गया व्यवसाय यदि उसकी वृत्तियों के अनुकूल हो और उसके माध्यम से वह अपना समुचित विकास स्वयं कर सके तो उसका जीवन सुखी हो सकता है। व्यावसायिक निर्देशन व्यक्ति की आजीविका के सम्बन्ध में अभीष्ट सहायता कर उसके हित में कार्य करता है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति । का सुख मिलकर ही समूचे समाज को सुखी बनाता है।

4. मानव संसाधनों का संरक्षण तथा व्यक्तिगत साधनों का समुचित उपयोग व्यावसायिक निर्देशन के बिना सम्भव नहीं है। व्यक्ति का आर्थिक विकास, प्रगति एवं समृद्धि उसके जीवन में प्रसन्नता उत्पन्न करती है, जिसके लिए व्यावसायिक निर्देशन की सबसे अधिक आवश्यकता होती है।

5. अनेक व्यवसायों के लिए भिन्न-भिन्न क्षमताओं व योग्यताओं से युक्त व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। व्यावसायिक निर्देशन के माध्यम से किसी विशेष व्यवसाय के लिए विशेष क्षमता व योग्यता वाले उपयुक्त व्यक्तियों का सुगम व प्रभावशाली चयन किया जा सकता है।

6. समाज गत्यात्मक एवं क्रियाशील है जिसकी परिस्थितियाँ एवं कार्य द्रुत गति से परिवर्तित हो रहे हैं। नये-नये परिवर्तनों के साथ तालमेल बिठाने के लिए भी व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है।

निष्कर्षत :
व्यक्तिगत भिन्नता, व्यावसायिक बहुलता, विविध व्यवसायों से सम्बन्धित जानकारी तथा वातावरण के साथ उचित सामंजस्य बनाने के लिए भी व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है।

 

प्रश्न 6
व्यावसायिक निर्देशन के लाभ, महत्त्व एवं उपयोगिता का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता व्यक्ति और समाज की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए। [2007]
या
व्यावसायिक निर्देशन से आप क्या समझते हैं। वर्तमान संदर्भ में इसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2016]
उत्तर :
व्यवसाय व्यक्ति के जीवन
यापने का अनिवार्य माध्यम है जो व्यक्ति की रुचि और योग्यता के अनुसार होना चाहिए। व्यक्तिगत विभिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए अनुकूल व्यवसाय चुनने में व्यक्ति की मदद करना व्यावसायिक निर्देशन का कार्य है। इसके अतिरिक्त नियोक्ता के लिए उपयुक्त व्यक्ति को तलाशने का कार्य भी इसी के अन्तर्गत आता है। व्यावसायिक निर्देशन के अर्थ को क्रो तथा क्रो ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “व्यावसायिक निर्देशन की व्याख्या सामान्यतः उस सहायता के रूप में की जाती है, जो विद्यार्थियों को किसी व्यवसाय को चुनने, उसके लिए तैयारी करने तथा उसमें उन्नति प्रदान करने के लिए दी जाती है।”

व्यावसायिक निर्देशन के लाभ, महत्त्व एवं उपयोगिता
व्यावसायिक निर्देशन की उपयोगिता को संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है|

1. व्यक्तिगत भेद एवं व्यावसायिक निर्देशन :
मनोवैज्ञानिक एवं सर्वमान्य रूप से कोई भी दो व्यक्ति एकसमान नहीं हो सकते और हर मामले में आनुवंशिक और परिवेशजन्य भेद पाये जाते हैं।
इन मेदों के कारण हर व्यक्ति पृथक एवं दूसरों की अपेक्षा बेहतर कार्य कर सकता है तथा इन्हीं के आधार पर व्यक्ति को सही और उपयुक्त व्यवसाय चुनने होते हैं। व्यावसायिक निर्देशन के माध्यम से व्यक्तिगत गुणों के आधार पर व्यवसाय चुनने से व्यक्ति को सफलता मिलती है।

2. व्यावसायिक बहुलता एवं निर्देशन :
आजकल व्यवसाय अपनाने का आधार सामाजिक परम्पराएँ व जाति-व्यवस्था नहीं रही। समय के साथ साथ व्यावसायिक बहुलता ने व्यवसाय के चुनाव की गम्भीर समस्या को जन्म दिया है। व्यावसायिक निर्देशन में विविध व्यवसायों व कायों का विश्लेषण करके उनके लिए आवश्यक गुणों वाले व्यक्ति को चुना जाता हैं।

3. सफल एवं सुखी जीवन के लिए सोच :
समझकर व्यवसाय चुनने में व्यक्ति के जीवन में स्थायित्व एवं उन्नति आती है। व्यवसाय का उपयुक्त चुनाव सफलता को जन्म देता है, जिससे जीवन में सुख और समृद्धि आती है।

4. आर्थिक लाभ :
व्यवसाय में योग्य, सक्षम, बुद्धिमान एवं रुचि रखने वाले कार्मिकों को नियुक्त करने से न केवल उत्पादन की मात्रा बढ़ती है, बल्कि उत्पादित वस्तुओं में गुणात्मक वृद्धि भी होती है। जिससे व्यवसाय को अधिक लाभ होता है। इस लाभ का अंश कर्मचारियों में भी विभाजित होता है और वे आर्थिक लाभ अर्जित करते हैं।

5. शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य :
विवशतावश किसी व्यवसाय को अपनाने से रुचिहीनता, निराशा, उत्साहहीनता, कुण्ठाओं एवं तनावों का जन्म होता है; अतः शारीरिक-मानसिक क्षमताओं व शक्तियों का भरपूर लाभ उठाने के लिए व दुर्बलताओं से बचने के लिए व्यावसायिक निर्देशन महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी है।

6. अवांछित प्रतिस्पर्धा की समाप्ति एवं सहयोगमें वृद्धि :
अच्छे व्यवसाय बहुत कम हैं, जबकि उनके पीछे बेतहाशा दौड़ रहे अभ्यर्थियों की भीड़ अधिक है। इससे अवांछित एवं गला काट प्रतिस्पर्धा का जन्म हुआ है। व्यावसायिक निर्देशों का सहारा लेकर यदि व्यक्ति अपनी योग्यता, क्षमता वे शक्ति को ऑककर सही व्यवसाय चुन लेगा तो समाज में अवांछित प्रतिस्पर्धा से उत्पन्न भग्नाशा समाप्त हो जाएगी। इससे पारस्परिक सहयोग में वृद्धि होगी।

7. मानवीय संसाधनों का सुनियोजित एवं अधिकतम उपयोग :
मानव शक्ति को समझना, आँकना और उसके लिए उपयुक्त व्यवसायं की तलाश करना व्यावसायिक निर्देशन का कार्य है। यह निर्देशन राष्ट्रीय नियोजन कार्यक्रम का भी एक महत्त्वपूर्ण अंग है, जिसके अन्तर्गत मानवीय संसाधनों का अधिकाधिक उपयोग सम्भव होता है जिससे व्यक्तिगत एवं समष्टिगत कल्याण में अभिवृद्धि की जा सकेगी।

8. समाज की गत्यात्मकता एवं प्रगति :
समाज की प्रकृति गत्यात्मक है। हर पल नयी-नयी परिस्थितियाँ जन्म ले रही हैं। बढ़ती हुई मानवीय आवश्यकताओं, उपलब्ध किन्तु सीमित साधनों एवं प्रगति की परिवर्तनशीलता आदि अवधारणाओं ने मानव व उसके समाज के मध्य समायोजन की दशाओं को विकृत कर डाला है। इस विकृत दशा में सुधार लाने की दृष्टि से तथा व्यावसायिक सन्तुष्टि के विचार को पुष्ट करने हेतु व्यक्ति को उचित कार्य देना होगा। इसके लिए व्यावसायिक निर्देशन ही एकमात्र उपाय दीख पड़ता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
निर्देशन की विधि के आधार पर निर्देशन का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
निर्देशन प्रदान करने की विधि के आधार पर निर्देशन दो प्रकार का है

  1. वैयक्तिक निर्देशन तथा
  2. सामूहिक निर्देशन।

1. वैयक्तिक निर्देशन :
सर्वोत्तम समझे जाने वाले इस निर्देशन का प्रयोग व्यक्ति विशेष की गम्भीरतम समस्याओं को हल करने में किया जाता है। इसके अन्तर्गत वह समस्यायुक्त युक्ति से व्यक्तिगत सम्पर्क साधता है, उसका बारीकी से अध्ययन करता है, उसकी समस्याओं को स्वयं समझने का प्रयास करता है और इसके बाद व्यक्ति को इस योग्य बनाता है कि वह अपनी समस्याओं का समाधान स्वयमेव प्रस्तुत कर सके। इस प्रकार के निर्देशन में मनोवैज्ञानिक या विशेषज्ञ एक बार में सिर्फ एक व्यक्ति पर ध्यान दे पाता है। इस कारणवश यह निर्देशन धन और समय की दृष्टि से महँगा पड़ता है। इसके अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक / विशेषज्ञ के अभाव में इसका प्रयोग करना सम्भव नहीं है।

2. सामूहिक निर्देशन :
कभी-कभी एक समूह के समस्त व्यक्तियों की समस्या एक ही होती है। उस दिशा में व्यक्तियों के एक समूह को एक साथ निर्देशन प्रदान किया जाता है, जिसे सामूहिक निर्देशन का नाम दिया जाता है। पाठ्य विषयों के चुनाव से सम्बन्धित शैक्षिक निर्देशन एवं व्यावसायिक निर्देशन में यह विधि अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होती है।

प्रश्न 2
निर्देशन का मायर्स द्वारा प्रस्तुत किया गया वर्गीकरण दीजिए।
उत्तर :
मायर्स (Mayers) के अनुसार समस्याओं के आधार पर निर्देशन के आठे प्रकार बताये गये हैं, जो निम्न प्रकार वर्णित हैं

  1. शैक्षिक निर्देशन – निर्देशन की यह शाखा व्यक्ति को शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं के समाधान में सहायता करती है।
  2. व्यावसायिक निर्देशन – यह उपयुक्त व्यवसाय के चुनाव में मार्गदर्शन करता है।
  3. सामाजिक तथा नैतिक निर्देशन – इसमें सामाजिक सम्बन्धों को स्वस्थ व दृढ़ बनाने, सामाजिक तनाव को कम करने तथा मनुष्यों की नैतिक मूल्यों में प्रतिष्ठा हेतु परामर्श दिया जाता है।
  4. नागरिकता सम्बन्धी निर्देशन – यह शाखा नागरिक के अधिकार व कर्तव्यों के सम्बन्ध में आवश्यक निर्देश एवं सुझाव देकर व्यक्ति को श्रेष्ठ नागरिक बनाने में मदद करती है।
  5. समाज-सेवा सम्बन्धी निर्देशन – यह शाखा समाज-सेवा सम्बन्धी कार्यों को सम्पादित करने तथा योजनाओं को पूरा करने में सहायता प्रदान करती है।
  6. नेतृत्व सम्बन्धी निर्देशन – इसके अन्तर्गत लोगों में नेतृत्व की क्षमता का विकास करने सम्बन्धी पथ-प्रदर्शन प्रदान किया जाता है।
  7. स्वास्थ्य सम्बन्धी निर्देशन – इसमें व्यक्तियों को स्वास्थ्य सम्बन्धी परामर्श देने तथा अपने परिवार के सदस्यों का स्वास्थ्य बनाये रखने हेतु निर्देश और सुझाव मिलते हैं।
  8. मनोरंजन सम्बन्धी निर्देशन – निर्देशन की इस शाखा के अन्तर्गत लोगों को अपने खाली समय को सदुपयोग करने तथा श्रमोपरान्त मनोरंजन करने के उपायों से अवगत कराया जाता है।

प्रश्न 3
शैक्षिक निर्देशन के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
शैक्षिक निर्देशन अपने आप में व्यावहारिक महत्त्व एवं उपयोगिता की प्रक्रिया है। शैक्षिक निर्देशन के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं

1. शैक्षिक निर्देशन सर्वसुलभ होना चाहिए :
वर्तमान परिस्थितियों में यह अनिवार्य समझा जाता है कि प्रत्येक छात्र को आवश्यक शैक्षिक निर्देशन की सुविधा उपलब्ध है। सैद्धान्तिक रूप से यह माना जाता है कि शैक्षिक निर्देशन प्रदान करने में किसी भी प्रकार का पक्षपात या भेदभाव नहीं होना चाहिए।

2. मानक परीक्षणों को अपनाने का सिद्धान्त :
शैक्षिक निर्देशन से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि शैक्षिक निर्देशन आवश्यक परीक्षणों के आधार पर ही दिया जाए।

3. वैयक्तिक भिन्नता का सिद्धान्त :
सैद्धान्तिक रूप से यह माना जाता है कि शैक्षिक निर्देशन की। प्रक्रिया में वैयक्तिक भिन्नता को पूरी तरह से ध्यान में रखा जाए। प्रत्येक छात्र को शैक्षिक निर्देशन प्रदान । करते समय उसके व्यक्तिगत गुणों, क्षमताओं तथा आकांक्षाओं आदि को ध्यान में रखना चाहिए।

4. अनुगामी अध्ययन का सिद्धान्त :
यह सत्य है कि शैक्षिक निर्देशन की सही प्रक्रिया को अपनाया जाना चाहिए, परन्तु इसके साथ-ही-साथ यह भी आवश्यक है कि निर्देशन प्रदान करने के उपरान्त उसकी सफलता का मूल्यांकन भी किया जाए। इसे निर्देशन के अनुगामी अध्ययन का सिद्धान्त कहा जाता है।

प्रश्न 4
व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता क्यों है? स्पष्ट कीजिए। (2013)
या
शिक्षा में व्यावसायिक निर्देशन का महत्त्व बताइए। [2009, 10]
या
व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता एवं महत्ता पर प्रकाश डालिए। [2011, 13]
उत्तर :
वर्तमान युग में व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से पड़ती है।

1. व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी एवं मौलिक कारक व्यक्तिगत भिन्नता है। किसी व्यक्ति विशेष के लिए कौन-सा व्यवसाय उपयुक्त होगा, इसके लिए व्यावसायिक निर्देशन का कार्यक्रम अपेक्षित एवं अपरिहार्य है।

2. विभिन्न व्यक्तियों में शरीर, मन या बुद्धि, योग्यता, स्वभाव, रुचि, अभिरुचि तथा व्यक्तित्व के अनेकानेक तत्त्वों की दृष्टि से पर्याप्त अन्तर दृष्टिगोचर होता है। व्यक्ति द्वारा चुने गये व्यवसाय एवं इन वैयक्तिक भिन्नताओं के मध्य समायोजन की दृष्टि से व्यावसायिक निर्देशन आवश्यक है।

3. व्यक्ति और उसके समाज की दृष्टि से भी व्यवसाय में निर्देशन की आवश्यकता महसूस की जाती है। व्यक्ति द्वारा चयन किया गया व्यवसाय यदि उसकी वृत्तियों के अनुकूल हो और उसके माध्यम से वह अपना समुचित विकास स्वयं कर सके तो उसका जीवन सुखी हो सकता है। व्यावसायिक निर्देशन व्यक्ति की आजीविका के सम्बन्ध में अभीष्ट सहायता कर उसके हित में कार्य करता है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति । का सुख मिलकर ही समूचे समाज को सुखी बनाता है।

4. मानव संसाधनों का संरक्षण तथा व्यक्तिगत साधनों का समुचित उपयोग व्यावसायिक निर्देशन के बिना सम्भव नहीं है। व्यक्ति का आर्थिक विकास, प्रगति एवं समृद्धि उसके जीवन में प्रसन्नता उत्पन्न करती है, जिसके लिए व्यावसायिक निर्देशन की सबसे अधिक आवश्यकता होती है।

5. अनेक व्यवसायों के लिए भिन्न-भिन्न क्षमताओं व योग्यताओं से युक्त व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। व्यावसायिक निर्देशन के माध्यम से किसी विशेष व्यवसाय के लिए विशेष क्षमता व योग्यता वाले उपयुक्त व्यक्तियों का सुगम व प्रभावशाली चयन किया जा सकता है।

6. समाज गत्यात्मक एवं क्रियाशील है जिसकी परिस्थितियाँ एवं कार्य द्रुत गति से परिवर्तित हो रहे हैं। नये-नये परिवर्तनों के साथ तालमेल बिठाने के लिए भी व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है।

निष्कर्षत :
व्यक्तिगत भिन्नता, व्यावसायिक बहुलता, विविध व्यवसायों से सम्बन्धित जानकारी तथा वातावरण के साथ उचित सामंजस्य बनाने के लिए भी व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है।

प्रश्न 5
शैक्षिक निर्देशन तथा व्यावसायिक निर्देशन में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2007, 08, 09, 13, 14]
उत्तर :
शैक्षिक निर्देशन और व्यावसायिक निर्देशन, ये निर्देशन के दो मुख्य प्रकार हैं। शैक्षिक निर्देशन का आशय शैक्षिक विषयों के सम्बन्ध में परामर्श देना है, जबकि व्यावसायिक निर्देशन व्यवसाय के चुनाव तथा व्यवसाय से सम्बन्धित समस्याओं के निराकरण के लिए दिये जाने परामर्श को कहते हैं। मानव जीवन में निर्देशन के इन दोनों प्रकारों का महत्त्वपूर्ण स्थान है और दोनों ही आवश्यक तथा उपयोगी हैं। इनके मध्य भेद को निम्नलिखित तालिका के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 26 Guidance Educational and Vocational image 2

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
परामर्श किसे कहते हैं। इसके कितने प्रकार हैं ? (2016)
उत्तर :
परामर्श शब्द का अर्थ राय, सलाह, मशवरा तथा सुझाव लेना या देना होता है। अंग्रेजी में परामर्श को काउन्सलिंग कहते हैं। रोजर्स के अनुसार, “परामर्श किसी व्यक्ति के साथ लगातार प्रत्यक्ष सम्पर्क की वह कड़ी है, जिसका उद्देश्य उसकी अभिवृत्तियों तथा व्यवहार में परिवर्तन लाने में सहायता प्रदान करना है।” परामर्श एक ऐसी व्यवहारगत प्रक्रिया है, जिसमें कम-से-कम दो व्यक्ति परामर्श लेने वाला तथा परामर्श देने वाला अवश्य शामिल होता है।

परामर्श के प्रकार परामर्श मुख्य रूप से चार प्रकार का होता है।

  1. आपातकालीन परामर्श
  2. समस्या समाधानात्मक या उपचारात्मक परामर्श
  3. निवारक परामर्श
  4. विकासात्मक या रचनात्मक परामर्श

प्रश्न 2
निर्देशन और परामर्श में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2012]
उत्तर :
निर्देशन और परामर्श में अन्तर निर्देशन
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 26 Guidance Educational and Vocational image 3
प्रश्न 3
व्यक्तिगत निर्देशन से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
हर एक व्यक्ति का जीवन अनेक व्यक्तिगत समस्याओं से भरा होता है, ये समस्याएँ परिवार सम्बन्धी, मित्र सम्बन्धी, समायोजन सम्बन्धी, स्वास्थ्य सम्बन्धी, मानसिक ग्रन्थियों सम्बन्धी या यौन सम्बन्धी हो सकती हैं। ऐसी व्यक्तिगत समस्याओं के निराकरण तथा व्यक्तिगत जीवन में समायोजन बनाये रखने के लिए दिये जाने वाले निर्देशन को व्यक्तिगत निर्देशन कहते हैं।

प्रश्न 4
शैक्षिक निर्देशन से आप क्या समझते हैं ? [2010, 12, 13]
उत्तर :
शिक्षा जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया होने के बावजूद भी विशेष तौर पर मानव-जीवन के एक विशिष्ट काल और स्थान से सम्बन्ध रखती है। शैक्षिक जगत् में मनुष्य की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसने अपने अध्ययन के लिए किन विषयों या विशिष्ट क्षेत्रों का चयन किया है। शैक्षिक निर्देशन के अन्तर्गत बालक की योग्यताओं व क्षमताओं के अनुसार उपयुक्त अध्ययन-क्षेत्र या विषयों का चुनाव किया, जाता है।

शैक्षिक निर्देशन के अर्थ को जोन्स ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “शैक्षिक निर्देशन का तात्पर्य उस व्यक्तिगत सहायता से हैं जो विद्यार्थियों को इसलिए प्रदान की जाती है कि वे अपने लिए उपयुक्त विद्यालय, पाठ्यक्रम, पाठ्य विषय एवं विद्यालय जीवन का चयन कर सकें तथा उनसे समायोजन स्थापित कर सकें।

प्रश्न 5
शैक्षिक निर्देशन के क्या लाभ हैं? [2011]
उत्तर :
शैक्षिक निर्देशन के लाभ निम्नलिखित हैं।

  1. छात्र-छात्राओं की समस्याओं का उचित शैक्षिक निर्देशन से समाधान हो सकता है।
  2. छात्र और छात्राओं को क्षमता, रुचि तथा योग्यतानुसार दिशा-निर्देश प्राप्त हो जाते हैं।
  3. पाठ्यक्रम निर्धारण में शैक्षिक निर्देशन महत्त्वपूर्ण होता है।
  4. शैक्षिक निर्देशन से अनुशासन सम्बन्धी समस्याओं का भी समाधान हो जाता है।
  5. रोजगार के अवसरों का ज्ञान प्राप्त होता है।

प्रश्न 6
व्यावसायिक निर्देशन से आप क्या समझते हैं ?[2007, 13]
उत्तर :
व्यवसाय व्यक्ति के जीवन
यापने का अनिवार्य माध्यम है जो व्यक्ति की रुचि और योग्यता के अनुसार होना चाहिए। व्यक्तिगत विभिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए अनुकूल व्यवसाय चुनने में व्यक्ति की मदद करना व्यावसायिक निर्देशन का कार्य है। इसके अतिरिक्त नियोक्ता के लिए उपयुक्त व्यक्ति को तलाशने का कार्य भी इसी के अन्तर्गत आता है। व्यावसायिक निर्देशन के अर्थ को क्रो तथा क्रो ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “व्यावसायिक निर्देशन की व्याख्या सामान्यतः उस सहायता के रूप में की जाती है, जो विद्यार्थियों को किसी व्यवसाय को चुनने, उसके लिए तैयारी करने तथा उसमें उन्नति प्रदान करने के लिए दी जाती है।”

प्रश्न 7
व्यावसायिक निर्देशन के उद्देश्य का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
व्यावसायिक निर्देशन अपने आप में एक उद्देश्यपूर्ण क्रिया है। इसके मुख्य उद्देश्य हैं।

  1. प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यताओं एवं क्षमताओं के अनुसार व्यवसाय का चुनाव करने में सहायता प्रदान करना।
  2. सम्बन्धित व्यक्तियों को विभिन्न व्यवसायों के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी प्रदान करना।
  3. प्रत्येक कार्य के लिए उपयुक्त व्यक्ति की नियुक्ति में सहायता प्रदान करना।
  4. व्यक्ति को अपने जीवन में निराश एवं कुण्ठित होने से बचाना।

प्रश्न 8
व्यावसायिक निर्देशन के क्षेत्र की संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
उत्तर :
व्यावसायिक निर्देशन का क्षेत्र काफी व्यापक है। वास्तव में निर्देशन के व्यावसायिक पक्ष को उसके शैक्षिक, भौतिक तथा सांस्कृतिक पक्षों से पूर्ण रूप से अलग नहीं किया जा सकता। इस स्थिति में व्यावसायिक निर्देशन के लिए व्यक्ति से सम्बन्धित समस्त सूचनाएँ आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण होती हैं। व्यक्ति की अभिरुचि, योग्यता एवं क्षमताओं को जानना अनिवार्य है। व्यावसायिक निर्देशन के लिए व्यक्तिगत भिन्नताओं के साथ-ही-साथ व्यवसायों से सम्बन्धित भिन्नताओं को भी जानना आवश्यक है। इस प्रकार स्पष्ट है कि व्यावसायिक निर्देशन का क्षेत्र व्यापक है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
निर्देशन का क्या अर्थ है? [2011, 13]
या
निर्देशन में क्या प्रदान किया जाता है? [2009, 11]
उत्तर :
“निर्देशन एक ऐसी व्यक्तिगत सहायता है जो एक व्यक्ति द्वारा दूसरे को, जीवन के लक्ष्यों को विकसित करने व समायोजन करने और लक्ष्यों की प्राप्ति में आयी हुई समस्याओं को हल करने के लिए प्रदान की जाती है।” [ जोन्स ]

प्रश्न 2
सामान्य वर्गीकरण के अनुसार निर्देशन के मुख्य प्रकार कौन-कौन-से हैं ? [2016]
उत्तर :
सामान्य वर्गीकरण के अनुसार निर्देशन के मुख्य प्रकार हैं।

  1. शैक्षिक निर्देशन
  2. व्यावसायिक निर्देशन तथा
  3. व्यक्तिगत निर्देशन

प्रश्न 3
निर्देशन की विधि के आधार पर निर्देशन के मुख्य प्रकार कौन-कौन-से हैं ?
उत्तर :
निर्देशन की विधि के आधार पर निर्देशन के दो मुख्य प्रकार हैं।

  1. वैयक्तिक निर्देशन तथा
  2. सामूहिक निर्देशन

प्रश्न 4
विद्यालय में उत्पन्न होने वाली समस्याओं के समाधान के लिए दिये जाने वाले निर्देशन को क्या कहते हैं ?
उत्तर :
विद्यालय में उत्पन्न होने वाली समस्याओं के समाधान के लिए दिये जाने वाले निर्देशन को ‘शैक्षिक निर्देशन’ कहते हैं।

प्रश्न 5
शैक्षिक निर्देशन की कितनी विधियाँ हैं?
उत्तर :
शैक्षिक निर्देशन की दो विधियाँ हैं।

  1. वैयक्तिक निर्देशन तथा
  2. सामूहिक निर्देशन

प्रश्न 6
व्यक्तिगत शैक्षिक निर्देशन में एक समय में कितने व्यक्तियों को निर्देशन प्राप्त होता है?
उत्तर :
व्यक्तिगत शैक्षिक निर्देशन में एक समय में एक ही व्यक्ति को निर्देशन प्राप्त होता है।

प्रश्न 7
शैक्षिक निर्देशन के मुख्य उद्देश्य क्या हैं? [2010, 11]
उत्तर :
शैक्षिक निर्देशन का मुख्य उद्देश्य है – बालक को शैक्षिक परिस्थितियों में उत्पन्न होने वाली समस्याओं के समाधान के योग्य बनाना। शैक्षिक परिस्थितियों में समायोजन स्थापित करने के लिए। शैक्षिक निर्देशन दिया जाता है।

प्रश्न 8
व्यक्ति की व्यावसायिक समस्याओं के समाधान के लिए दिये जाने वाले निर्देशन को क्या कहते हैं ?
उत्तर :
व्यक्ति की व्यावसायिक समस्याओं के समाधान के लिए दिये जाने वाले निर्देशन को ‘व्यावसायिक निर्देशन’ कहते हैं।

प्रश्न 9
एक साथ अनेक व्यक्तियों को निर्देशन प्रदान करने की प्रक्रिया को क्या कहते हैं ?
उत्तर :
एक साथ अनेक व्यक्तियों को निर्देशन प्रदान करने की प्रक्रिया को सामूहिक निर्देशन’ कहते हैं।

प्रश्न 10
निर्देशन के केवल दो उद्देश्य लिखिए। [2014]
उत्तर :
निर्देशन का एक उद्देश्य है – समस्या को भली-भाँति समझने में सहायता प्रदान करना तथा दूसरा उद्देश्य है–समस्या का समाधान प्राप्त करने में सहायता प्रदान करना।

प्रश्न 11
निर्देशन क्यों आवश्यक है ? [2014]
उत्तर :
किसी भी समस्या के उचित समाधान को ढूंढ़ने के लिए निर्देशन आवश्यक होता है।

प्रश्न 12
व्यावसायिक निर्देशन की कितनी विधियाँ हैं? [2007]
उत्तर :
व्यावसायिक निर्देशन की दो विधियाँ हैं।

  1. व्यक्तिगत व्यावसायिक निर्देशन तथा
  2. सामूहिक व्यावसायिक निर्देशन।

प्रश्न 13
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य।

  1. निर्देशन एक प्रकार की वैयक्तिक सहायता है।
  2. निर्देशन की प्रक्रिया के अन्तर्गत निर्देशक द्वारा ही सम्बन्धित व्यक्ति के समस्त कार्य किये जाते हैं।
  3. विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों के लिए निर्देशन अनावश्यक एवं व्यर्थ है।
  4. व्यक्तिगत निर्देशन के परिणाम सामूहिक निर्देशन से अच्छे होते हैं।
  5. शैक्षिक निर्देशन व्यावसायिक निर्देशन से उत्तम है।

उत्तर :

  1. सत्य
  2. असत्य
  3. असत्य
  4. सत्य
  5. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए।

प्रश्न 1
“निर्देशन एक प्रक्रिया है, जो कि नवयुवकों को स्वयं अपने में, दूसरों से तथा परिस्थितियों से समायोजन करना सिखाती है।” यह परिभाषा दी है।
(क) हसबैण्ड ने
(ख) मौरिस ने
(ग) स्किनर ने.
(घ) जोन्स ने
उत्तर :
(ग) स्किनर ने

प्रश्न 2
“निर्देशन प्रदर्शन नहीं है।” यह कथन किसका है?
(क) क्रो एवं क्रो का
(ख) जोन्स का
(ग) वैफनर का
(घ) वुड का
उत्तर :
(क) क्रो एवं क्रो को

प्रश्न 3
“शैक्षिक निर्देशन व्यक्तिगत छात्रों की योग्यताओं, पृष्ठभूमि और आवश्यकताओं का पता लगाने की विधि प्रदान करता है।” यह परिभाषा दी है।
(क) रूथ तथा स्ट्रेन्ज ने
(ख) क्रो एवं क्रो ने
(ग) हैमरिन व एरिक्सन ने
(घ) बोरिंग व अन्य ने
उत्तर :
(ग) हैमरिन व एरिक्सन ने

प्रश्न 4
“व्यावसायिक निर्देशन व्यक्तियों को व्यवसायों में समायोजित होने में सहायता प्रदान करता है।” यह कथन है।
(क) विलियम जोन्स को
(ख) सुपर का
(ग) हैडफील्ड का
(घ) शेफर का
उत्तर :
(ख) सुपर का

प्रश्न 5
निर्देशन का प्रमुख उद्देश्य है। [2009, 11, 13]
(क) छात्र का शारीरिक विकास
(ख) छात्र का मानसिक विकास
(ग) छात्र का सर्वांगीण विकास
(घ) छात्र को संवेगात्मक विकास
उत्तर :
(ग) छात्र का सर्वांगीण विकास

प्रश्न 6
शैक्षिक निर्देशन प्रदान करने में सहायक होता है।
क) व्यक्तित्व परीक्षण
(ख) बौद्धिक परीक्षण
(ग) अभिरुचि परीक्षण
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(ख) बौद्धिक परीक्षण

प्रश्न 7
बालकों को विद्यालय की सामान्य समस्याओं के समाधान के लिए दिया जाने वाला निर्देशन कहलाता है। [2010, 12, 15]
(क) व्यक्तिगत निर्देशन
(ख) शैक्षिक निर्देशन
(ग) व्यावसायिक निर्देशन
(घ) आवश्यक निर्देशन
उत्तर :
(ख) शैक्षिक निर्देशन

प्रश्न 8
व्यावसायिक निर्देशन का प्रमुख उद्देश्य है। [2015)]
(क) शारीरिक विकास
(ख) मानसिक विकास
(ग) सामाजिक विकास
(घ) व्यावसायिक समस्याओं का समाधान
उत्तर :
(घ) व्यावसायिक समस्याओं का समाधान

प्रश्न 9
किसी व्यक्ति को किसी समस्या के समाधान के लिए किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दी गई सहायता को कहते हैं।
(क) समस्या समाधान
(ख) साधारण सहायता
(ग) निर्देशन
(घ) अनावश्यक सहायता
उत्तर :
(ग) निर्देशन

प्रश्न 10
निर्देशन वह निजी सहायता है, जो जीवन के लक्ष्यों को विकसित करने में, समायोजन करने में और लक्ष्यों की प्राप्ति में उनके सामने आने वाली समस्याओं को सुलझाने में एक व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्ति को दी जाती है।” यह कथन किसका है।
(क) आर्थर जोन्स
(ख) बी० मोरिस
(ग) हसबैण्ड
(घ) डॉ० भाटिया
उत्तर :
(क) आर्थर जोन्स

प्रश्न 11
निर्देशन की मुख्य रूप से आवश्यकता होती है।
(क) बाल समस्याओं के समाधान के लिए
(ख) शिक्षा एवं व्यवसाय की समस्याओं के लिए
(ग) व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए
(घ) इन सभी के लिए।
उत्तर :
(घ) इन सभी के लिए

प्रश्न 12
शैक्षिक निर्देशन के प्रमुख महत्त्व हैं। [2010, 12, 15]
(क) पाठ्य-विषयों के चयॆन में सहायक
(ख) अनुशासन स्थापित करने में सहायक
(ग) शैक्षिक वातावरण में समायोजित होने में सहायक
(घ) ये सभी महत्त्व
उत्तर :
(घ) ये सभी महत्त्व

प्रश्न 13
“व्यावसायिक निर्देशन वह सहायता है, जो किसी व्यक्ति की अपनी व्यावसायिक समस्याओं के समाधान के लिए दी जाती है। इस सहायता का आधार व्यक्ति की विशेषताएँ तथा उनसे सम्बन्धित व्यवसाय चुनना है।” यह कथन किसका है?
(क) क्रो एवं क्रो
(ख) जोन्स
(ग) बी० मोरिस
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(ख) जोन्स

प्रश्न 14
व्यावसायिक विवरण के लिए दिए जाने वाले निर्देशन को कहते हैं।
(क) महत्त्वपूर्ण निर्देशन
(ख) व्यावसायिक निर्देशन
(ग) शैक्षिक निर्देशन
(घ) आवश्यक निर्देशन
उत्तर :
(ख) व्यावसायिक निर्देशन

प्रश्न 15
व्यावसायिक निर्देशन से लाभ होते हैं
(क) व्यक्ति की अपनी रुचि एवं योग्यता के अनुसार व्यवसाय मिल जाता है।
(ख) औद्योगिक-व्यावसायिक संस्थानों को योग्य एवं कुशल कर्मचारी मिल जाते हैं।
(ग) उत्पादन की दर में वृद्धि होती है
(घ) उपर्युक्त सभी लाभ होते हैं।
उत्तर :
(घ) उपर्युक्त सभी लाभ होते हैं।

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