UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 5 Thinking

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 5 Thinking (चिन्तन) are part of UP Board Solutions for Class 12 Psychology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12  Psychology Chapter 5 Thinking (चिन्तन).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Psychology
Chapter Chapter 5
Chapter Name Thinking
Number of Questions Solved 25
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 5 Thinking (चिन्तन)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
चिन्तन (Thinking) से आप क्या समझते हैं ? अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। चिन्तन के विषयक में स्पीयरमैन द्वारा प्रतिपादित नियमों का भी उल्लेख कीजिए। चिन्तन से आप क्या समझते हैं?
या
चिन्तन का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। (2009, 11, 12, 16)
या
चिन्तन को परिभाषित कीजिए। (2008)
उत्तर
जीवन के विकास क्रम में मनुष्य की सर्वोच्च स्थिति (पशुओं की तुलना में) बुद्धि, विवेक एवं चिन्तन जैसी उच्च मानसिक क्रियाओं के कारण है। पशु किसी चीज को देखकर उसका प्रत्यक्षीकरण कर पाते हैं, किन्तु मनुष्य उस वस्तु के अभाव में न केवल उसका प्रत्यक्षीकरण कर लेते हैं अपितु उसके विषय में पर्याप्त रूप से सोच-विचार भी सकते हैं। यह सोच-विचार या चिन्तन (Thinking) मनुष्य का ऐसा स्वाभाविक गुण है जिसकी बढ़ती हुई प्रबलता उसे अधिक-से-अधिक श्रेष्ठता की ओर उन्मुख करती है।

चिन्तन का अर्थ

कल्पना एवं प्रत्यक्षीकरण के समान ही चिन्तन भी एक महत्त्वपूर्ण ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है। जो वस्तुओं के प्रतीकों (Symbols) के माध्यम से चलती है। इस आन्तरिक प्रक्रिया में प्रत्यक्षीकरण एवं कल्पना दोनों का ही मिश्रण पाया जाता है। मनुष्य अपने जीवन में विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों का सामना करता है। कुछ परिस्थितियाँ सुखकारी होती हैं तो कुछ दु:खकारी। दुःखकारी परिस्थितियाँ समस्या पैदा करती हैं और उनका समाधान खोजने के लिए सर्वप्रथम मनुष्य विभिन्न मानसिक प्रयास करता है। दूसरे शब्दों में, शारीरिक रूप से प्रचेष्ट होने से पहले वह उस समस्या का समाधान अपने मस्तिष्क में खोजता है। इसके लिए मस्तिष्क उस समस्या के विभिन्न पक्षों का विश्लेषण प्रस्तुत कर सम्बन्धित विचारों की एक श्रृंखला विकसित करता है। समुद्र की लहरों के समान एक के बाद एक विचार उठते हैं जिनके बीच से समस्या का सम्भावित समाधान प्रकट होता है। समस्या का समाधान मिलते ही चिन्तन की मानसिक प्रक्रिया रुक जाती है। अतएव चिन्तन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत कोई मनुष्य किसी समस्या का समाधान खोजता है।

चिन्तन की परिभाषा

मनोवैज्ञानिकों ने चिन्तन को निम्न प्रकार परिभाषित किया है

  1. जे०एस०रॉस के अनुसार, “चिन्तन ज्ञानात्मक रूप में एक मानसिक प्रक्रिया है।
  2. वुडवर्थ के शब्दों में, “किसी बाधा पर विजय प्राप्त करने का तरीका चिन्तन कहलाता है।”
  3. बी०एन० झा के मतानुसार, “चिन्तन एक सक्रिय प्रक्रिया है जिसमें मन किसी विचार की गति को प्रयोजनात्मक रूप में नियन्त्रित एवं नियमित करता है।”
  4. रायबर्न के अनुसार, “चिन्तने ईच्छा सम्बन्धी वह प्रक्रिया है, जो असन्तोष के फलस्वरुप उत्पन्न होती है और प्रयास एवं त्रुटि के आधार पर उक्त इच्छा की सन्तुष्टि करती है।”
  5. वारेन के अनुसार, “चिन्तन एक विचारात्मक प्रक्रिया है, जिसका स्वरूप प्रतीकात्मक होता है। इसका प्रारम्भ व्यक्ति के समक्ष उपस्थित किसी समस्या अथवा क्रिया से होता है। इसमें प्रयास-मूल की क्रियाएँ निहित रहती है, किन्तु समस्या के प्रत्यक्ष प्रभाव से प्रभावित होकर चिन्तन प्रक्रिया अन्तिम रूप से समस्या समाधान की ओर उन्मुख होती है।”
  6. जॉनड्यूवी के अनुसार, “चिन्तन किसी विश्वास या अनुमानित ज्ञान का उसके आधारों एवं निष्कर्षों के माध्यम से सक्रिय सतत् तथा सतर्कतापूर्वक विचार करने की प्रक्रिया होती है।

    चिन्तन का स्वरूप

चिन्तन में व्यक्ति किन्हीं समस्याओं का हल अपने मस्तिष्क में खोजता है; अतएव वुडवर्थ नामक मनोवैज्ञानिक ने चिन्तन को मानसिक खोज (Mental Exploration) का नाम दिया है। हल खोजने की इस क्रियात्मक प्रक्रिया में प्रयास एवं भूल विधि के अन्तर्गत मन में कई प्रकार के विचार जन्म लेते हैं जिनमें से सर्वाधिक उपयुक्त विचार छाँटकर ग्रहण कर लिया जाता है। चिन्तन को प्रतीकात्मक व्यवहार (Symbolic Behaviour) इसलिए कहा जा सकता है, क्योकि यह प्रतीकों के प्रति प्रतिक्रिया है न कि प्रत्यक्ष वस्तु के प्रति। वस्तुओं का प्रत्यक्ष रूप से अभाव होने पर भी उनकी स्मृति/प्रतीक की उपस्थिति में चिन्तन का जन्म सम्भव है। इस दृष्टि से चिन्तन में अमूर्तकरण का भी सहयोग रहता है। चिन्तन प्रतीकों के मानसिक समायोजन (या प्रहस्तन) की क्रिया है जिसमें विचारों के विश्लेषण के साथ-साथ उनका संश्लेषण भी उपयोगी है। चिन्तन के दौरान व्यक्ति के मन में उपस्थित विचार क्रमबद्ध रूप से निहित रहते हैं तथा उन विचारों में एक तारतम्य एवं सम्बन्ध पाया जाता है। जैसे ही व्यक्ति के सम्मुख कोई समस्या उपस्थित होती है, चिन्तन का यह स्वरूप क्रियाशील हो जाता है। तथा विचार सम्बन्धी मानसिक प्रहस्तन के द्वारा व्यक्ति उपयुक्त हल खोज लेता है।

चिन्तन के विषय में स्पीयरमैन के नियम 

चिन्तन की जटिल प्रक्रिया में विश्लेषण और संश्लेषण और इस प्रकार पृथक्करण और संगठन ये दोनों प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं। संश्लेषणात्मक दृष्टि से ज्ञान का संगठन होता है जिसका आधार स्मृति एवं कल्पनाएँ हैं। विश्लेषणात्मक दृष्टि से कल्पनाओं का आधार पृथक्करण है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक स्पीयरमैन द्वारा प्रतिपादित पृथक्करण सम्बन्धी नियमों का अध्ययन, चिन्तन की व्याख्या में महत्त्वपूर्ण माना जाता है। स्पीयरमैन द्वारा पृथक्करण के दो मुख्य नियम बताये गये हैं
(I) सम्बन्धों का पृथक्करण तथा
(II) सह-सम्बन्धों का पृथक्करण।

(I) सम्बन्धों का पृथक्करण
सम्बन्धों का पृथक्करण चिन्तन के विषय में स्पीयरमैन द्वारा प्रतिपादित पहला नियम है। यह नियम बताता है कि चिन्तन की प्रक्रिया में जब किसी व्यक्ति के सामने कुछ वस्तुएँ रखी जाती हैं तो वह उनके बीच सम्बन्धों की खोज कर लेता है। इन सम्बन्धों का आधार आकार, निकटता व दूरी आदि होते हैं। ये सम्बन्ध ‘वास्तविक सम्बन्ध हैं।

वास्तविक सम्बन्ध–प्रमुख वास्तविक सम्बन्धों के आधार निम्नलिखित हैं

(1) गुण– प्रत्येक वस्तु का अपना एक विशेष गुण होता है और इस गुण के साथ ही वस्तु का वास्तविक सम्बन्ध बोध होता है। नींबू खट्टा होता है। खट्टापन नींबू का विशेष गुण है तथा नींबू व खट्टेपन में एक ऐसा वास्तविक सम्बन्ध है जिसे किसी भी दशा में पृथक् नहीं किया जा सकता।

(2) कालगत सम्बन्ध- कालगत सम्बन्ध वस्तुओं के बीच समय का वास्तविक सम्बन्ध है। राम प्रतिदिन 9.30 बजे प्रात: स्कूल के लिए रवाना होता है। 9.30 बजते ही उसके मन में चलने का विचार आ जाता है। यह 9.30 बजे तथा स्कूल चलने का कालगत सम्बन्ध है।

(3) स्थानगत सम्बन्ध- कुछ वस्तुएँ एक ही स्थान पर साथ-साथ पायी जाती हैं। उदाहरणार्थ-फाउण्टेन पेन और उसका ढक्कन एक ही जगह साथ-साथ मिलते हैं। अब जब वस्तुएँ स्थान के आधार पर सम्बन्धित हों तो यह विशेष सम्बन्ध होता हैं।

(4) कार्य-कारण सम्बन्ध– प्रत्येक क्रिया किसी-न-किसी कारणवश होती है। यदि वर्षा हो रही है तो आसमान में बादल अवश्य होंगे। बादल वर्षा का कारण है। इस भॉति किसी घटना को उसके कारण-विशेष से वास्तविक सम्बन्ध कार्य कारण सम्बन्ध कहलाएगा।

(5) वस्तुगत सम्बन्ध– हिमालय की ऊँची चोटियों पर चाँदी जैसी बर्फ चमक रही है। यहाँ पहाड़ की चोटी तथा बर्फ में वस्तुगत वास्तविक सम्बन्ध बोध होता है। |

(6) निर्माणात्मक सम्बन्ध- किसी भी वस्तु का निर्माण अन्य सहायक सामग्रियों द्वारा होता है। इस प्रकार निर्माणक एवं निर्मित वस्तु के मध्ये एक अभिन्न तथा वास्तविक सम्बन्ध पाया जाता है। कुर्सी का लकड़ी से तथा घड़े का मिट्टी से वास्तविक सम्बन्ध है।

विचारात्मक सम्बन्ध–विचारात्मक सम्बन्ध हृदयगत एवं आन्तरिक होते हैं। इनके निम्नलिखित आधार हो सकते हैं

  1. समानता—इसके अन्तर्गत विभिन्न वस्तुओं में गुणों की समानता के आधार पर चिन्तन का जन्म होता है।
  2. समीपता-वस्तुओं के समीप रहने पर उनमें सम्बन्ध बोध होता है; जैसे–चाँद-तारा।
  3. पूर्वपक्ष एवं निष्कर्ष-पूर्वपक्ष एवं निष्कर्ष के बीच विचारात्मक सम्बन्ध पाया जाता है। रात के समय कुत्ते के लगातार भौंकने का सम्बन्ध किसी अजनबी वस्तु या व्यक्ति की उपस्थिति से होता है। यहाँ कुत्ते का भौंकना पूर्वपक्ष है तथा अजनबी विषय-वस्तु की उपस्थिति का बोध निष्कर्ष है।
  4. नियोजनात्मक सम्बन्ध-कुछ सम्बन्ध नियोजन के आधार पर होते हैं। बहन और भाई के मध्य नियोजनात्मक सम्बन्ध है।

(II) सह-सम्बन्धों का पृथक्करण

स्पीयरमैन के अनुसार, सह-सम्बन्धों के पृथक्करण की प्रक्रिया को सरल बनाने की दृष्टि से किसी शब्द को सम्बन्ध के संकेत के साथ उपस्थित किया जाना आवयश्यक है। उदाहरण के तौर पर–यदि कहें कि गाजर का रंग लाल है और मूली का रंग? तो उत्तर मिलेगा-सफेद। इसी प्रकार मिर्च तीखी है और चीनी? तो उत्तर होगा-मीठी। मिलने वाला उत्तर सह-सम्बन्धों के पृथक्करण पर आधारित होता है।

प्रश्न 2
वैध चिन्तन’ से क्या तात्पर्य है? वैध चिन्तन के लिए अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।
या
वैध चिन्तन की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियाँ बताइए।  (2018)
उत्तर

 वैध चिन्तन का आशय

यदि चिन्तन की प्रक्रिया के परिणामतः निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति हो जाती है तो उसे ‘वैध चिन्तन (Valid Thinking) कहा जाएगा। सामान्यतः चिन्तन का निर्धारित लक्ष्य किसी समस्या-विशेष का समाधान खोजना होता है; अतः सफल या प्रामाणिक चिन्तन वह चिन्तन है, जिसमें समस्या का हल निकल आये। प्रामाणिक चिन्तन, सभी भाँति तटस्थ एवं बाह्य प्रभावों से मुक्त होता है। हमें जानते हैं कि

आत्मगत सुझावों, संवेगों तथा अन्धविश्वासों से युक्त चिन्तने दोषपूर्ण हो जाता है। दोषपूर्ण चिन्तन की वैधता एवं उपयोगिता समाप्त हो जाती है। वैध, प्रामाणिक एवं दोषमुक्त चिन्तन के लिए कुछ अनुकूल परिस्थितियाँ होती हैं।

चिन्तन की अनुकूल परिस्थितियाँ या प्रभावित करने वाली दशाएँ। अच्छे चिन्तन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ या प्रभावित करने वाली दशाएँ निम्नलिखित हैं

(1) सबल प्रेरणा (Strong Motivation)– चिन्तन की प्रक्रिया को शुरू करने के लिए प्रेरणा बहुत आवश्यक है। प्रेरणा की अनुपस्थिति में दोषमुक्त एवं व्यवस्थित चिन्तन सम्भव नहीं है। वस्तुतः चिन्तन की शुरुआत किसी समस्या से होती है। यह समस्या चिन्तन के लिए स्वत: ही एक प्रेरणा का कार्य करती है। व्यक्ति का सम्बन्ध समस्या से जितना, गहरा होगा, वह उसके समाधान हेतु उतनी ही गम्भीरता से कार्य करेगा। बाहरी प्रेरणाएँ जितनी अधिक सबल होंगी, चिन्तन भी उतना ही अधिक प्रबल होगा। इस प्रकार, प्रामाणिक चिन्तन के लिए सबल प्रेरणाएँ पर्याप्त रूप से सहायक समझी जाती हैं।

(2) रुचि (Interest)– रुचि, चिन्तन को प्रभावित करने वाली एक मुख्य दशा है। रुचि होने पर व्यक्ति सम्बन्धित समस्या के समाधान हेतु पूर्ण मनोयोग से प्रयास करता है। अपनी आदत के मुताबिक अरोचक विषयों से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान हेतु चिन्तन करने के लिए या तो व्यक्ति प्रचेष्ट ही नहीं होगा और यदि अनमने मन से चेष्टा करेगा भी तो उसे पूर्ण नहीं करेगा।

(3) अवधान (Attention)- चिन्तन के पूर्व और चिन्तन की प्रक्रिया के दौरान सम्बन्धित समस्या की ओर व्यक्ति का अवधान (ध्यान) होना चाहिए। समस्या पर अवधान केन्द्रित न होने से चिन्तन करना सम्भव नहीं हो पाता।

(4) बुद्धि (Intelligence)– चिन्तन का बुद्धि से सीधा सम्बन्ध है। चिन्तन एक बौद्धिक या मानसिक प्रक्रिया है; अतः बुद्धि का क्षेत्र या मात्रा चिन्तन में सहायक होती है। बुद्धि से सम्बन्धित तीनों पक्ष-अन्तर्दृष्टि, पूर्वदृष्टि तथा पश्चात् दृष्टि के सम्यक् एवं समन्वित प्रयोग से चिन्तन की सफलता सुनिश्चित होती है। देखने में आया है कि अधिक बुद्धिमान व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक सफल चिन्तक बन जाता है।

(5) सतर्कता (Vigilence)- वैध चिन्तन के लिए सतर्कता एक अनुकूल दशा है। चिन्तन के दौरान सतर्कता बरतने से भ्रान्त धारणाओं तथा गलतियों से बचा जा सकता है। इसके अलावा सतर्कता नवीन उपायों तथा विधियों का भी ज्ञान कराती है, जिन्हें आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जा सकता है।

(6) लचीलापन (Flexibility)– चिन्तन में लचीलापन अनिवार्य है। व्यक्ति की मनोवृत्ति में लचीलापन रहने से चिन्तन में स्वतन्त्रता आती है। रूढ़िगत एवं अन्धविश्वास से युक्त चिन्तन संकुचित एवं सीमित रह जाता है। चिन्तन में देश-काल एवं पात्रानुसार परिवर्तन आने चाहिए। स्पष्टतः यह चिन्तन में लचीलेपन के गुण से ही सम्भव है। |

(7) पर्याप्त समय (Enough Time)– चिन्तन के लिए समय की पाबन्दी लगाना उचित नहीं है। चिन्तन करते समय चिन्तक को यह ज्ञात नहीं रहता कि उसे किसी समस्या पर विचार करने में कितना समय लगेगा। अतः चिन्तन में स्वाभाविकता लाने के लिए समय की सीमा कठोर नहीं होनी चाहिए। चिन्तन के लिए पर्याप्त समय उपलब्ध रहना चाहिए।

(8) गर्भीकरण (Incubation)– गर्भीकरण अथवा सेने से अण्डे में बच्चा तैयार हो जाता है। जो समयानुसार पूर्ण रूप में आसानी से बाहर आ जाता है। गर्भीकरण का विचार चिन्तन की मानसिक प्रक्रिया के लिए एक अनुकूल दशा है। कभी-कभी लगातार एवं अवधानपूर्ण चिन्तन के बावजूद भी समस्या का समुचित हल नहीं निकल पाता। ऐसी दशा में चिन्तन के साथ जोर-जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए और उसे कुछ समय के लिए स्थगित कर देना चाहिए। इसे मानसिक विश्राम भी कहते हैं। गर्भीकरण की क्रिया में व्यक्ति समस्या से बेखबर अन्य कार्यों में उलझा रहता है। उसका मस्तिष्क समस्या को सेता रहता है। उचित समय पर समस्या का हल स्वतः ही मस्तिष्क में उभर आता है।

चिन्तन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ

जिस प्रकार वैध चिन्तन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ हैं, उसी प्रकार कुछ ऐसी परिस्थितियाँ भी हैं जो अच्छे चिन्तन को ऋणात्मक के रूप से प्रभावित करती हैं तथा उसके मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती हैं। इस तरह की परिस्थितियाँ चिन्तन को मैला करती हैं; अत: वैध चिन्तन के लिए इनसे बचाव अनिवार्य है।

चिन्तन एक महत्त्वपूर्ण मानसिक प्रक्रिया है जो न केवल समस्या-समाधान की ओर उन्मुख होती। है अपितु व्यक्ति की अभिवृत्तियों तथा गहराई से परिवर्तित करने की क्षमता रखती है। यही कारण है कि प्रारम्भ से मानव को प्रगति और अधोगति, रीति-रिवाज तथा अन्धविश्वास शुद्ध चिन्तन के स्रोत को प्रदूषित करते हैं।

इसके अतिरिक्त यदि व्यक्ति किन्हीं पूर्वाग्रहों से ग्रसित होगा या उसका रवैया किसी वस्तु/व्यक्ति विशेष के लिए पक्षपातपूर्ण होगा तो इसका विपरीत असर चिन्तन पर अवश्य पड़ेगा। भावुक व्यक्तियों का चिन्तन किसी एक दिशा में प्रवाहित हो जाता है, सम्भव है वह भ्रामक या त्रुटिपूर्ण दिशा हो। गलत सुझाव भी चिन्तन को विकासग्रस्त बना देते हैं।

चिन्तन में वस्तुओं की वास्तविक उपस्थिति जरूरी नहीं होती, बल्कि हम उस वस्तु या उद्दीपक का कुछ प्रतीक (Symbols) तथा प्रतिमाएँ (Images) मन में बना लेते हैं और उन्हीं के आधार पर चिन्तन करते हैं। दोषपूर्ण प्रतीक या प्रतिमाएँ दोषपूर्ण चिन्तन को जन्म दे सकती हैं।

चिन्तन की वैधता संप्रत्ययों की वैधता पर भी निर्भर करती है। संप्रत्यय जितने ही सरल तथा स्पष्ट होते हैं, चिन्तन उतना ही सरल होता है। जटिल और विशिष्ट संप्रत्ययों से सम्बन्धित चिन्तन अधिक स्पष्ट नहीं होता है।

स्पष्टतः चिन्तन के उपकरण; यथा—पदार्थ, संकेत, प्रतीक, प्रतिमा तथा संप्रत्यय; अपनी जटिलता, अस्पष्टता या दोषों के कारण वैध चिन्तन के लिए प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकते हैं।

प्रश्न 3
व्यक्ति के चिन्तन में भाषा की क्या भूमिका है? संक्षेप में स्पष्ट कीजिए। (2009)
या
चिन्तन की प्रक्रिया में भाषा के स्थान एवं योगदान को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
यह सत्य है कि चिन्तन की विकसित प्रक्रिया केवल मनुष्यों में ही पायी जाती है अर्थात् केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो व्यवस्थित चिन्तन करता है तथा उससे लाभान्वित भी होता है। मनुष्यों द्वारा चित्तने की उन्नत प्रक्रिया को सम्पन्न करने में सर्वाधिक योगदान भाषा का है। विकसित भाषा भी मनुष्य की ही एक मौलिक क्षमता है। मनुष्यों के अतिरिक्त किसी अन्य प्राणी को विकसित भाषा की क्षमता उपलब्ध नहीं है।

भाषा एक ऐसा प्रबल एवं व्यवस्थित माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों का आदान-प्रदान किया करते हैं तथा सभी सामाजिक अन्तक्रियाएँ स्थापित किया करते हैं। भाषा का मुख्य रूप शाब्दिक ही होता है तथा भाषा में विभिन्न प्रतीकों को प्रयोग किया जाता है। जहाँ तक चिन्तन की प्रक्रिया का प्रश्न है, इसमें भी भाषा द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है। वास्तव में, चिन्तन की प्रक्रिया को हम आत्म-भाषण या आन्तरिक सम्भाषण भी कह सकते हैं।

चिन्तन में भाषा की भूमिका मानवीय चिन्तन अपने आप में एक अत्यधिक तथा विकसित प्रक्रिया है। मानवीय चिन्तन में भाषा की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

चिन्तन में भाषा की भूमिका का विवरण निम्नलिखित 

(1) निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हमारी चिन्तन की प्रक्रिया सदैव शब्दों अथवा भाषा के माध्यम से सम्पन्न होती है। मॉर्गन तथा गिलीलैण्ड ने इससे सम्बन्धित परीक्षण किये तथा स्पष्ट किया कि चिन्तन में भाषा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। भाषा में चिह्नों का प्रयोग होता है तथा ये विचारों के माध्यम की भूमिका निभाते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि शब्द-विन्यास विचारों के संकेत के रूप में भूमिका निभाते हैं।

(2) चिन्तन की प्रक्रिया में स्मृति की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जहाँ तक व्यक्ति के विचारों की स्मृति का प्रश्न है, उसके निर्माण का कार्य भी भाषा द्वारा होता है। व्यक्ति के विचार उसके मस्तिष्क में मानसिक संस्कारों के रूप में स्थान ग्रहण कर लेते हैं तथा जब कभी आवश्यकता पड़ती है तो यही मानसिक संस्कार भाषा के आधार पर सरलता से याद कर लिये जाते हैं।

(3) जहाँ तक चिन्तन की प्रक्रिया की अभिव्यक्ति का प्रश्न है, उसमें भी भाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। व्यक्ति द्वारा किये गये चिन्तन की अभिव्यक्ति भी भाषा के ही माध्यम से होती है। व्यक्ति अपने विचारों को अन्य व्यक्तियों के सम्मुख सदैव भाषा के ही माध्यम से प्रस्तुत करता है।समाज में व्यक्तियों के विचारों का आदान-प्रदान भी भाषा के ही माध्यम से होता है। कोई भी व्यक्ति अपने विचारों को लिखित भाषा के माध्यम से संगृहीत कर सकता है। चिन्तन की प्रक्रिया विचारों के माध्यम से चलती है तथा विचार भाषा के माध्यम से प्रस्तुत किये जाते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि चिन्तन में भाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

(4) चिन्तन की प्रक्रिया को कम समय में पूर्ण होने में भी भाषा का सर्वाधिक योगदान होता है। भाषा द्वारा विचारों की विस्तृत श्रृंखला को सीमित रूप प्रदान किया जा सकता है। इस प्रकार चिन्तन की प्रक्रिया को भी सीमित बनाया जा सकता है।

(5) चिन्तन तथा भाषा में अन्योन्याश्रिता का भी सम्बन्ध है। जहाँ एक ओर चिन्तन की प्रक्रिया में भाषा का योगदान है वहीं दूसरी ओर भाषा के विकास में भी चिन्तन द्वारा उल्लेखनीय योगदान प्रदान किया जाता है। व्यक्ति के विचारों के समृद्ध होने के साथ-साथ चिन्तन का विकास होता है तथा चिन्तन एवं विचार के विकास का भाषा के विकास पर भी विशेष प्रभाव पड़ता है।

(6) हम जानते हैं कि समस्त साहित्य की रचना भाषा के माध्यम से हुई है। सम्पूर्ण साहित्य व्यक्ति को चिन्तन के लिए प्रेरित करता है तथा साहित्य-अध्ययन के माध्यम से व्यक्ति की चिन्तन-क्षमता का भी विकास होता है। इस दृष्टिकोण से भी चिन्तन के क्षेत्र में भाषा का योगदान उल्लेखनीय है।

प्रश्न4
चिन्तन की प्रक्रिया के तत्वों के रूप में प्रतिमाओं एवं प्रतीकों का सामान्य परिचय दीजिएतथा चिन्तन की प्रक्रिया में इनके योगदान को भी स्पष्ट कीजिए। चिन्तन की प्रक्रिया के सन्दर्भ में प्रत्यय-निर्माण की प्रक्रिया को भी स्पष्ट कीजिए।
या
चिन्तन में प्रत्ययों तथा प्रतिमाओं की क्या भूमिका है? (2008)
उत्तर

प्रतिमाएँ और प्रतीक

चिन्तन एकं जटिल मानसिक प्रक्रिया है जिसमें प्रत्यक्ष, प्रतिमा, प्रत्यय तथा प्रतीक इत्यादि तत्त्वों का प्रहस्तन होता हैं। इन समस्त तत्त्वों की चिन्तन की प्रक्रिया में विशिष्ट भूमिका रहती है। सच तो यह है कि चिन्तन की वास्तविक प्रक्रिया इन्हीं तत्त्वों के माध्यम से चलती है। अपने संक्षिप्त परिचय के साथ चिन्तन में इनका योगदान निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत है

(1) प्रतिमा (Images)- वास्तविक या प्रत्यक्ष वस्तु के सामने से हट जाने पर भी जब उसके गुणों का अनुभव ज्ञानेन्द्रियाँ करती हैं तो इसे हम ‘प्रतिमा’ कहते हैं। ‘प्रतिमा’ वास्तविक उत्तेजक की अनुपस्थिति में ही बनती है। व्यक्ति के भूतकालीन अनुभव प्रतिमाओं के रूप में उसके मस्तिष्क में विद्यमान रहते हैं। आँखों के सम्मुख रखी सुन्दर तस्वीर की सूचना दृष्टि स्नायुओं द्वारा मस्तिष्क को पहुँचायी गयी और हमने उसका प्रत्यक्षीकरण कर लिया। एकान्त में बाँसुरी की मीठी तान की सूचना मस्तिष्क को मिली और हमने उस ध्वनि का प्रत्यक्षीकरण कर लिया।

किसी ने अचानक ही तस्वीर को आँखों के सामने से हटा लिया और बाँसुरी की आवाज भी आनी बन्द हो गयी। तस्वीर सामने न होने पर भी उसकी शक्ल कुछ समय तक आँखों के सामने छायी रहती है। इसी प्रकार बाँसुरी बन्द होने पर भी उसकी आवाज कानों में कुछ समय तक गूंजती रहती है। यह बाद तक चल रही तस्वीर की शक्ल तथा बाँसुरी की गूंज प्रतिमा है। प्रतिमाएँ कई प्रकार की हो सकती हैं; जैसे-दृश्य, श्रवण, स्वाद, स्पर्श तथा गन्ध से सम्बन्धित प्रतिमाएँ। मानस पटल पर प्रतिमाओं की स्पष्टता इस बात पर निर्भर करती है। कि उससे सम्बन्धित घटना या तथ्य हमारे जीवन को कितनी गहराई तक प्रभावित कर पाये। गहरे प्रभाव स्पष्ट प्रतिमाओं का निर्माण करते हैं।

चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतिमा का योगदान– चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतिमाओं का काफी योगदान रहता है। पूर्व-अनुभव तो यथावत् मस्तिष्क में नहीं रहते, किन्तु उनके अभाव में मानसिक प्रतिमाएँ अवश्य रहती हैं। व्यक्ति की समस्त चिन्तन इन प्रतिमाओं के इर्द-गिर्द ही चलता रहता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का मत है कि चिन्तन में प्रतिमाएँ अनिवार्य नहीं हैं और न ही ये चिन्तन में अधिक सहायता ही कर पाती हैं। लोग प्रतिमाओं के स्थान पर प्रतीकों का प्रयोग कर लेते हैं।

(2) प्रतीक (Symbols)- प्रतीक’ वास्तविक वस्तु के स्थानापन्न के रूप में कार्य करते हैं। वास्तविक वस्तु के अभाव में मस्तिष्क में उसका ध्यान दो प्रकार से आता है—प्रथम, प्रतिमा के रूप में जब मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों के सम्मुख वस्तु का स्थूल रूप ही प्रतीत हो रहा हो और द्वितीय, प्रतीक के रूप में जो उस वस्तु का सूक्ष्म प्रतिनिधित्व करता हो। ज्यादातर विचार-प्रक्रिया के अन्तर्गत वस्तु की प्रतिमा मस्तिष्क में न आने पर उसके प्रतीक को प्रयोग कर लिया जाता है। उदाहरणार्थ–किसी व्यक्ति या वस्तु का नाम एक प्रतीक है जो उसकी अनुपस्थिति में सूक्ष्म प्रतिनिधित्व कर उसका बोध करा देता है। क्रॉसिंग पर लाल बत्ती रुकने तथा हरी बत्ती चलने का प्रतीक है। किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों में ये प्रतीक चिह्नों में बदल जाते हैं; जैसे—-गणित में *, , +, –, ×, ÷ ,—,= आदि के चिह्न प्रयोग में आते हैं।

चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतीक का योगदान–प्रतीक चिन्तने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रतीक और चिह्न चिन्तन में मिलकर एक साथ कार्य करते हैं तथा इनके माध्यम से चिन्तन के किसी कार्य को सुगमता एवं शीघ्रता से पूरा कर लिया जाता है। उदाहरण के तौर पर विचार (चिन्तन) करते समय एक नजदीक के रिश्तेदार ‘मोहन’ का प्रसंग आता है तो उसकी अनुपस्थिति में उसका नाम ‘मोहन’ ही प्रतीक रूप में मस्तिष्क में होगा। यूँ तो दुनिया में न जाने कितने मोहन हैं, किन्तु यहाँ उस समय ‘मोहन’ एक विशिष्ट अर्थ प्रदान करता है।

प्रतीक सरल, संक्षिप्त तथा साधारण विचारों के प्रतिनिधि होते हैं; यथा—लाल रंग से बना क्रॉस का निशान (अर्थात् ‘+’) रेडक्रॉस संस्था तथा चिकित्सकों का प्रतीक है। एक विशेष प्रकार की घण्टी/सायरन की लगातार आवाज के साथ दमकल की गाड़ी का भागना आग लगने का प्रतीक है और यह आग से सम्बन्धित चिन्तन को जन्म देता है। इसी भॉति चिह्न चिन्तन की क्रियाओं में सहायता करते हैं; यथा” का अर्थ है भाग देना तथा A का अर्थ है A X A X  A। वस्तुतः चिन्तन की प्रक्रिया प्रतीकों के माध्यम से संचालित होती है। प्रतीक व चिह्न चिन्तन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करते हैं तथा इनके प्रयोग से समय और शक्ति की काफी बचत होती है।

प्रत्यय प्रत्यय चिन्तन की पहली प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया भिन्न-भिन्न वस्तुओं, अनुभवों, घटनाओं तथा परिस्थितियों के मध्य समानाताओं का प्रतिनिधित्व करती है। प्रत्यय एक प्रकार से सामान्य विचार हैं। जिनका जन्म चिन्तन द्वारा ही होता है और जो जन्म के पश्चात् पुन: चिन्तन की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण योग देने लगते हैं। हमारे चारों तरफ के वातावरण में उपस्थित जितनी भी वस्तुओं का हमें बोध होता है, उतने ही प्रत्यय हमारे मस्तिष्क में बनते हैं। इस प्रकार, प्रत्ययों का सम्बन्ध हमारे मस्तिष्क में बने संस्कारों से होता है। हमारे मस्तिष्क में अगणित वस्तुओं के संस्कार एवं प्रत्यय निर्मित होते हैं।

उदाहरणार्थ-कागज, कलम, कुर्सी, पलंग, गाय, नारी, वृद्ध, मृत्यु, नैतिकता आदि-आदि के स्वरूप, रूप-रंग, गुण एवं आधार की एक प्रतिछाया मस्तिष्क में उपस्थित रहती है। किसी भी वस्तु या पदार्थ का एक सामान्य शब्द किसी-न-किसी प्रत्यय का प्रतिनिधित्व अवश्य करता है। उस शब्द को सुनते ही वस्तु की सम्पूर्ण जाति के गुण हमारे ध्यान में आ जाते हैं। प्रारम्भ में तो ये प्रत्यय अधिक विकसित नहीं होते, किन्तु व्यक्ति की आयु वृद्धि के साथ-साथ प्रत्ययों में अन्य अर्थ भी सम्मिलित होने लगते हैं और इस भाँति प्रत्यय का स्वरूप अधिक विस्तृत एवं व्यापक हो जाता है। विद्वानों के अनुसार, ये प्रत्यय चिन्तन की प्रक्रिया के आवश्यक तत्त्व हैं।

प्रत्यय निर्माण की प्रक्रिया मानव-मस्तिष्क में प्रत्यय का निर्माण एकदम नहीं हो जाता, अपितु प्रत्यय विशिष्ट मानसिक प्रक्रियाओं द्वारा निर्मित एवं विकसित होते हैं।

प्रत्यय निर्माण की मुख्य प्रक्रियाएँ निम्नलिखित 

(1) प्रत्यक्षीकरण (Perception)- प्रत्यय निर्माण की पहली सीढ़ी विभिन्न विषय-वस्तुओं का प्रत्यक्षीकरण है। प्रत्ययन (Conception) की शुरुआत ही प्रत्यक्षीकरण (Perception) से होती है। बच्चा अपने जीवन के प्रारम्भ में विभिन्न वस्तुओं तथा तत्त्वों का प्रत्यक्षीकरण करता है, किन्तु सिर्फ

एक वस्तु या तत्त्व का प्रत्यक्ष कर लेने (देखने) से ही प्रत्यय का निर्माण नहीं हो जाता। माना, बच्चे से एक चिड़िया देखी जिसका एक निश्चित रूप उसके मानस-पटल पर अंकित हो गया। इसके बाद वह कई प्रकार की छोटी-बड़ी, अनेक रंगों वाली, आवाजों वाली चिड़ियाँ देखता है। अनेक बार यह प्रक्रिया दोहराने पर पक्षी के स्मृति-चिह्न स्थायी एवं प्रबल होते जाएँगे। इस भॉति किसी विषय-वस्तु के प्रत्यक्षीकरण का विकास होता है और उसमें व्यापकता आती है।

(2) विश्लेषण (Analysis)- प्रत्यय निर्माण का द्वितीय चरण विशिष्ट प्रत्ययों के गुणों का विश्लेषण करना है। बच्चा जिस वस्तु का भी प्रत्यय बनाता है उसके प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में सम्बन्धित गुणों का विश्लेषण भी करता है। उदाहरणार्थ-चिड़िया का विशिष्ट रूप, उसकी चोंच की बनावट, उसका रंग, बोलने का ढंग, फुदकने तथा उड़ने का तरीका; इन सबका विश्लेषण वह मस्तिष्क से करता है।

(3) तुलना (Comparison)- विश्लेषण के बाद, बच्चा प्रत्यक्षीकरण की जाने वाली वस्तु के गुणों की तुलना, उसी जाति की अन्य वस्तुओं से करता है। वह उनके बीच समानता एवं विभिन्नता के बिन्दुओं की खोज करता है। उदाहरण के लिए सामान्य चिड़िया और मोर दोनों ही पक्षी हैं। दोनों की आकृति तो कुछ-कुछ मिलती है लेकिन मोर सामान्य चिड़िया से काफी बड़ा है, पीछे लम्बे-लम्बे सुन्दर मोर-पंख भी हैं, मोर नाचता है और नाचते समय मोर-पंखों की छत्र जैसी विशेष आकृति सामान्य पक्षियों में नहीं मिलती।।

(4) संश्लेषण (Synthesis)– विश्लेषण तथा तुलना के उपरान्त एक ही जाति के कई वस्तुओं के समान गुणों का संश्लेषण किया जाता है। एक जैसे गुणों का सामान्यीकरण करके उस वस्तु के जातीय गुणों के आधार पर सम्बन्धित वस्तु का एक रूप मस्तिष्क में धारण कर लिया जाता है।

(5) नामकरण (Naming)- किसी वस्तु का कोई विशेष रूप मस्तिष्क द्वारा धारण कर लेने के उपरान्त उसे एक खास नाम प्रदान किया जाता है। प्रत्यय का नाम उसका प्रतीक होता है।प्रत्यय निर्माण की यह प्रक्रिया बाल्यावस्था से शुरू होती है तथा नये-नये अनुभव प्राप्त करने तक चलती रहती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
चिन्तन की प्रक्रिया की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
चिन्तन की प्रक्रिया की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. चिन्तन की प्रक्रिया एक जटिल प्रक्रिया है। इसमें अनेक मानसिक प्रक्रियाएँ निहित होती हैं। चिन्तन की प्रक्रिया का ज्ञानात्मक पक्ष सर्वाधिक विकसित होता है।
  2. चिन्तन की प्रक्रिया स्थूल से सूक्ष्म की ओर अग्रसर होती है।
  3. चिन्तन की प्रक्रिया में संश्लेषण तथा विश्लेषण की क्रियाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
  4. किसी समस्या के उत्पन्न होने की स्थिति में ही चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है।
  5. चिन्तन की प्रक्रिया के दौरान व्यक्ति का मस्तिष्क विशेष रूप से क्रियाशील रहता है।
  6. चिन्तन की प्रक्रिया में भाषा के साथ-ही-साथ प्रत्ययों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका तथा योगदान होता है।
  7. चिन्तन की प्रक्रिया के माध्यम से सम्बन्धित समस्या का समाधान प्राप्त कर लिया जाता है।
  8. चिन्तन की प्रक्रिया अपने आप में उद्देश्यपूर्ण होती है। इस स्थिति में चिन्तन की प्रत्येक प्रक्रिया किसी-न-किसी प्रेरणा से प्रभावित होती है।

प्रश्न 2
चिन्तन के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं? 
(2011, 12, 16, 18)
उत्तर
चिन्तन के मुख्य प्रकारों का सामान्य परिचय निम्नलिखित है-

(1) प्रत्यक्षात्मक चिन्तन– सर्वाधिक रूप से सरल एवं निम्न स्तर के इस चिन्तन में चिन्तन का विषय (वस्तु) सम्मुख होने पर ही उसके विषय में चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। कुतुबमीनार को देखकर उसके विषय में उठने वाले विचारों की श्रृंखला को प्रत्यक्षात्मक चिन्तन कहा जाएगा।

(2) कल्पनात्मक चिन्तन- कल्पनात्मक चिन्तन में प्रत्ययों तथा प्रतिमाओं के आधार पर भावी जीवन, विषयों एवं परिस्थितियों पर विचार किया जाता है। इस भाँति यह कल्पनाप्रधान चिन्तन है। उदाहरणार्थ-कोई शासक या नेता अपने देश की भावी उन्नति के लिए कल्पनात्मक चिन्तन के आधार पर योजनाएँ तैयार करता है।

(3) प्रत्ययात्मक चिन्तन– प्रत्ययों, प्रतिमाओं तथा भाषा के आधार पर चलने वाला चिन्तन प्रत्ययात्मक चिन्तन होता है। इसमें पूर्व-अनुभवों की प्रधानता नहीं होती। उदाहरण के लिए—मन में किसी मकान का विचार आने पर चिन्तन किसी विशेष मकान से नहीं जुड़ता; यह सिर्फ एक सामान्य मकान से सम्बन्धित होता है और यह कोई भी सामान्य मकान हो सकता है।

(4) तार्किक चिन्तन– तार्किक चिन्तन किसी गम्भीर समस्या को लेकर पैदा होता है। कोई गम्भीर समस्या उपस्थित होने पर एक जटिल प्रकार के चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है जिसमें समस्त प्रकार के चिन्तनों का प्रयोग होता है। इस प्रकार समस्या का हल खोज लिया जाता है।

प्रश्न 3
सृजनात्मक चिन्तन की महत्त्वपूर्ण अवस्थाएँ बताइए। (2017)
उत्तर
चिन्तन के एक विशिष्ट रूप को सृजनात्मक अथवा रचनात्मक चिन्तन के रूप में जाना जाता है। सृजनात्मक चिन्तन उन्नत प्रकार का चिन्तन है तथा इसके माध्यम से ही विभिन्न रचनात्मक कार्य किए जाते हैं। समस्त वैज्ञानिक आविष्कार सृजनात्मक चिन्तन के ही परिणाम होते हैं। सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया अपने आप में व्यवस्थित प्रक्रिया होती है तथा इसकी निश्चित अवस्थाएँ या चरण होते हैं।
जिनका सामान्य परिचय निम्नवर्णित है-

(1) तथ्य एकत्र करना या तैयारी- सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया के प्रथम चरण या अवस्था में चिन्तन की समस्या से सम्बन्धित तथ्यों को एकत्र किया जाता है। इस अवस्था को तैयारी की अवस्था भी कहा जाता है। इस अवस्था में एकत्र किए गए तथ्य ही आगे चलकर समस्या समाधान में सहायक होते हैं।

(2) गर्भीकरण- चिन्तन की प्रक्रिया की इस अवस्था में आकर पहले एकत्र किए गए तथ्यों का अचेतन मस्तिष्क में मंथन किया जाता है। यह मंथन ही चिन्तन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में सहायक होता है तथा व्यक्ति को सम्भावित समाधान सूझता है।

(3) स्फुरणं- सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया की तीसरी अवस्था स्फुरण कहलाती है। इस अवस्था में चिन्तन के लिए ली गयी समस्या का कुछ समाधान प्राप्त होने लगता है।

(4) प्रमापन- यह अन्तिम अवस्था है। वैज्ञानिक क्षेत्र की सभी समस्याओं के प्राप्त किए गए हल की वैधता तथा विश्वसनीयता की जाँच करनी आवश्यक होती है। प्रमापन की अवस्था में इसी प्रकार की जाँच की जाती है। प्रमापन हो जाने पर सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है।

प्रश्न 4
कल्पना और चिन्तन के सम्बन्ध एवं अन्तर का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
ये दोनों मानसिक क्रियाएँ एक-दूसरे की विरोधी न होकर परस्पर सहायक सिद्ध होती हैं। कल्पना यदि मानसिक प्रहस्तन (Mental Manipulation) है तो चिन्तन एक मानसिक खोज (Mental Exploration) है। कल्पना चिन्तन का एक मुख्य अवयव है तथा चिन्तन की प्रक्रिया में कल्पना का आधार लिया जाता है; अतः इन दोनों का एक-दूसरे से अलगाव सम्भव नहीं है। कल्पनाविहीन व्यक्ति सृजन की ओर नहीं बढ़ सकता। सृजन चाहे साहित्य से सम्बन्धित हो, चित्र से या शिल्प से; कल्पना प्रत्येक कला की एक पूर्व आवश्यकता है।
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 5 Thinking 1
किन्तु कल्पना एक सीमा से बाहर जाकर अव्यावहारिक, असामान्य एवं अनुपयोगी सिद्ध होती है; अतः अत्यधिक कल्पना कष्टदायक होती है। वस्तुतः कल्पना की उपयोगिता मानव-जीवन की विभिन्न समस्याओं के समाधान तलाशने तथा नवनिर्माण के लिए सबसे अधिक प्रतीत होती है। दूसरे शब्दों में, चिन्तन से जुड़ी कल्पना महत्त्वपूर्ण एवं सार्थक है।

कल्पना और चिन्तन के पारस्परिक सम्बन्ध से उनके मध्य समानता के कुछ बिन्दु दृष्टिगोचर होते हैं तथापि उनके बीच कुछ अन्तर भी विद्यमान हैं। ये अन्तर अग्रलिखित हैं

प्रश्न 5
चिन्तन तथा स्मृति या स्मरण करने में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
विगत अनुभवों को वर्तमान में याद करना या चेतना में लाना स्मृति कहलाती है। स्मृति भी एक मानसिक प्रक्रिया है तथा चिन्तन भी एक मानसिक प्रक्रिया है। इन दोनों में विद्यमान अन्तर को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 5 Thinking 2
प्रश्न 6
चिन्तन के सन्दर्भ में प्रत्यय और प्रतिमा में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
चिन्तंन की प्रक्रिया में प्रत्यय (Concept) तथा प्रतिमा (Image) का विशेष महत्त्व होता है। प्रत्यय को चिन्तन की पहली प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है। ये प्रक्रियाएँ पृथक्-पृथक् लगने वाली वस्तुओं, अनुभवों, घटनाओं तथा परिस्थितियों के बीच समानताओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। प्रत्यय चिन्तन से उत्पन्न होकर पुनः चिन्तन की प्रक्रिया को क्रियाशील बनाते हैं। प्रतिमाएँ व्यक्ति के भूतकालीन अनुभवों तथा स्मृतियों द्वारा बनती हैं।

स्पर्श, गन्ध, स्वाद तथा श्रवण इत्यादि की प्रतिमाएँ बनती हैं जो धूमिल होती हैं। ये चिन्तन में सहायक हैं, किन्तु अधिक नहीं। इनकी जगह प्रतीक से काम लिया जाता है। प्रत्यय मानसिक, अमूर्त (Abstract) तथा सामान्य होता है किन्तु प्रतिमा मूर्त तथा विशिष्ट होती है। चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतिमा के बिना तो काम चल सकता है, किन्तु प्रत्यय के बिना नहीं। प्रत्यय, चिन्तन का अनिवार्य यन्त्र होता है।प्रत्यय तथा प्रतिमा के अन्तर को अग्रलिखित रूप से भी प्रस्तुत किया जा सकता है ।

  1.  समस्त प्रत्यय सदैव अमूर्त तथा सामान्य होते हैं तथा इनसे भिन्न प्रतिमाएँ सदैव मूर्त तथा विशेष होती हैं। |
  2. प्रत्ययों के अभाव में चिन्तन की प्रक्रिया सम्पन्न नहीं हो सकती, परन्तु प्रतिमाओं के अभाव में चिन्तन की प्रक्रिया सम्पन्न हो सकती है।
  3. कोई एक प्रत्यय एक से अधिक वस्तुओं का प्रतिनिधित्व कर सकता है, परन्तु एक प्रतिमा का सम्बन्ध केवल एक ही वस्तु से होता है।
  4. प्रत्ययों का विकास एक दीर्घकालिक प्रक्रिया के माध्यम से होता है, जबकि प्रतिमा का विकास सरल प्रक्रिया द्वारा होता है।
  5. प्रत्यय के निर्माण की प्रक्रिया जटिल होती है, जबकि प्रतिमा के निर्माण की प्रक्रिया अपेक्षाकृत रूप से सरल होती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
चिन्तन की प्रक्रिया पर पड़ने वाले पूर्वाग्रहों के प्रभाव को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
चिन्तन की तटस्थ प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले कारकों में से एक मुख्य कारक है-व्यक्ति के पूर्वाग्रह। पूर्वाग्रह के कारण व्यक्ति बिना किसी तर्क के ही सम्बन्धित विषये अथवा व्यक्ति के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण विकसित कर लेता है। पूर्वाग्रह के कारण व्यक्ति सम्बन्धित विषय अथवा व्यक्ति के सन्दर्भ में तटस्थ एवं प्रामाणिक चिन्तन नहीं कर पाता तथा उसका चिन्तन पक्षपातपूर्ण हो जाता है। उदाहरण के लिए-यदि किसी व्यक्ति का पूर्वाग्रह हो कि प्रत्येक सरकारी कर्मचारी रिश्वतखोर है, तो वह किसी भी सरकारी कर्मचारी को ईमानदार नहीं मान सकता तथा इसका प्रभाव भी चिन्तन प्रक्रिया पर अवश्य पड़ता है। अतः तटस्थ चिन्तने के लिए व्यक्ति को पूर्वाग्रहों से मुक्त होना चाहिए।

प्रश्न2
चिन्तन की प्रक्रिया पर अन्धविश्वासों का क्या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
चिन्तन की तटस्थ प्रक्रिया पर व्यक्ति के अन्धविश्वासों को प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। किसी भी प्रकार के अन्धविश्वास से ग्रस्त व्यक्ति तटस्थ एवं सामान्य चिन्तन नहीं कर पाता है। उदाहरण के लिए कुछ व्यक्तियों का अन्धविश्वास है कि यदि किसी कार्य को प्रारम्भ करते समय कोई छींक दे तो कार्य में बाधाएँ आती हैं। इस प्रकार के अन्धविश्वास वाला व्यक्ति अपने कार्य में उत्पन्न होने वाली बाधाओं के यथार्थ कारण को जानने के लिए तटस्थ चिन्तन कर ही नहीं सकता, वह बार-बार छींकने वाले व्यक्ति को ही दोष देता है। अत: तटस्थ एवं प्रामाणिक चिन्तन के लिए व्यक्ति को हर प्रकार के अन्धविश्वासों से मुक्त होना अनिवार्य है।

प्रश्न 3
चिन्तन की प्रक्रिया पर प्रबल संवेगों का क्या प्रभाव पड़ता है।
उत्तर
प्रबल संवेगावस्था में व्यक्ति की चिन्तन की प्रक्रिया तटस्थ नहीं रह पाती है। प्रबल संवेगों की दशा में व्यक्ति शान्त एवं सन्तुलित नहीं रह पाता तथा इस स्थिति में वह प्रामाणिक चिन्तन नहीं कर पाता है। संवेगावस्था में व्यक्ति उत्तेजित हो उठता है तथा उत्तेजना की स्थिति में वैध चिन्तन प्रायः नहीं हो पाता है। उदाहरण के लिए-घृणा से ग्रस्त व्यक्ति सम्बन्धित विषय अथवा व्यक्ति के सन्दर्भ में तटस्थ चिन्तन कर ही नहीं सकता।

प्रश्न 4
व्यक्ति के चिन्तन पर अन्य व्यक्तियों के सुझावों का क्या प्रभाव पड़ता है? संक्षेप में 
बताइए।
उत्तर
तटस्थ चिन्तन मूल रूप से एक व्यक्तिगत प्रक्रिया है तथा व्यक्ति स्वयं ही इस प्रक्रिया को चलाता है, परन्तु कुछ दशाओं में अन्य व्यक्ति भी अपने-अपने सुझाव प्रस्तुत करने लगते हैं। अन्य व्यक्तियों द्वारा दिये गये सुझाव निश्चित रूप से व्यक्ति के चिन्तन को प्रभावित करते हैं तथा प्राय: उसे पर प्रतिकूल प्रभाव ही डालते हैं। अन्य व्यक्तियों के सुझावों को स्वीकार करने पर व्यक्ति का चिन्तन तटस्थ न रहकर पक्षपातपूर्ण हो जाता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि किसी भी गम्भीर विषय पर चिन्तन करते समय व्यक्तियों के सुझाव तो आमन्त्रित किये जा सकते हैं, परन्तु उन्हें ज्यों-का-त्यों बिना सोचे-समझे स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए।

प्रश्न I. निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए

1. चिन्तन एक……….. प्रक्रिया है, जो वस्तुओं के प्रतीकों के माध्यम से चलती है।
2. किसी समस्या के मानसिक समाधान के लिए होने वाले मानसिक प्रयास को ……..कहते हैं।
3. विभिन्न प्रतीकों के मानसिक प्रहस्तन को ……….. कहते हैं।
4. चिन्तन की प्रक्रिया यथार्थ विषयों के………… के माध्यम से चलती है।
5. चिन्तन की प्रक्रिया पर सुझावों, अन्धविश्वासों तथा संवेगों का………… प्रभाव पड़ता है।
6. सुचारु चिन्तन के लिए प्रबल प्रेरणा एक………. कारक है।
7. सरल एवं व्यवस्थित चिन्तन में भाषा …………….सिद्ध होती है।
8. यदि चिन्तन की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति हो जाती है तो उसे………..
चिन्तन कहा जाएगा।
9. कुतुबमीनार या ताजमहल को देखकर उसके विषय में होने वाले चिन्तन को …….. कहते हैं।
10. चिन्तन के विषय में व्यवस्थित नियमों के प्रतिपादने का श्रेय ….. नामक मनोवैज्ञानिक का है।
उत्तर
1. ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया, 2. चिन्तन, 3. चिन्तन, 4. प्रतीकों, 5. प्रतिकूल, 6. सहायक, 7. सहायक, ३. वैध, 9. प्रत्यक्षात्मक चिन्तन, 10. स्पीयरमैन।

प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए

प्रश्न 1.
किसी समस्या के उत्पन्न होने पर उसके समाधान के लिए मनुष्यों द्वारा किये जाने वाले 
उपाय को मनोविज्ञान की भाषा में क्या कहते हैं?
उत्तर
चिन्तन

प्रश्न 2.
समस्या के समाधान के लिए चिन्तन की प्रक्रिया के अन्तर्गत क्या किया जाता है?
उत्तर
समस्या के समाधान के लिए चिन्तन की प्रक्रिया के अन्तर्गत मस्तिष्क द्वारा उस समस्या के विभिन्न पक्षों का विश्लेषण प्रस्तुत किया जाता है तथा विचारों की एक श्रृंखला विकसित की जाती है।

प्रश्न 3.
चिन्तन किस प्रकार की प्रक्रिया है?
उत्तर
चिन्तन अपने आप में एक ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है।

प्रश्न 4.
चिन्तन की एक सरल एवं स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उक्ट
बी०एन०झा के अनुसार, “चिन्तन एक सक्रिय प्रक्रिया है जिसमें मन किसी विचार की गति को प्रयोजनात्मक रूप में नियन्त्रित एवं नियमित करता है।”

प्रश्न 5.
वुडवर्थ के अनुसार चिन्तन से क्या आशय है? |
उत्तर
वुडवर्थ के अनुसार, चिन्तन एक मानसिक खोज है।

प्रश्न 6.
चिन्तन की प्रक्रिया मुख्य रूप से किनके माध्यम से चलती है?
उत्तर
चिन्तन की प्रक्रिया मुख्य रूप से प्रतीकों के माध्यम से चलती है।

प्रश्न 7.
चिन्तन के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर
चिन्तन के मुख्य प्रकार हैं-प्रत्यक्षात्मक चिन्तन, कल्पनात्मक चिन्तन, प्रत्ययात्मक चिन्तन तथा तार्किक चिन्तन।

प्रश्न 8.
उत्तम चिन्तन के लिए चार अनुकूल कारकों या परिस्थितियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
उत्तम चिन्तन के लिए चार अनुकूल कारक या परिस्थितियाँ हैं—

  1. प्रबल प्रेरणाएँ
  2. रुचि
  3. अवधान तथा
  4. बुद्धि

प्रश्न 9.
चिन्तन की प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले चार मुख्य कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
चिन्तन की प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले चार कारक हैं

  1. सुझाव
  2. पूर्वाग्रह
  3. अन्धविश्वास तथा
  4. प्रबल संवेग।

प्रश्न 10.
चिन्तन की प्रक्रिया में भाषा का क्या मुख्य योगदान है?
उत्तर
भाषा चिन्तन की प्रक्रिया को व्यवस्थित तथा सरल बना देती है।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1.
मनुष्य के सन्दर्भ में चिन्तन किस प्रकार का गुण है?
(क) आवश्यक
(ख) अनावश्यक
(ग) मौलिक
(घ) शारीरिक
उतर
(ग) मौलिक

प्रश्न 2.
चिन्तन के सन्दर्भ में कौन-सा कथन सत्य है?
(क) चिन्तन एक ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है।
(ख) व्यवस्थित चिन्तन केवल मनुष्य का ही मौलिक गुण है।
(ग) चिन्तन की प्रक्रिया में वस्तुओं का नहीं बल्कि उनके प्रतीकों का मानसिक प्रहस्तन | होता है।
(घ) चिन्तन सम्बन्धी उपर्युक्त सभी कथन सत्य हैं।
उतर
(घ) चिन्तन सम्बन्धी उपर्युक्त सभी कथन सत्य हैं।

प्रश्न 3.
चिन्तन ज्ञानात्मक रूप में एक मानसिक प्रक्रिया है।” चिन्तन की यह परिभाषा किस मनोवैज्ञानिक द्वारा प्रतिपादित है?
(क) बी०एन०झा
(ख) वुडवर्थ
(ग) मैक्डूगल
(घ) जे०एस०रॉस
उतर
(घ) जे०एस०रॉस

प्रश्न 4.
किस प्रकार के चिन्तन में विषय-वस्तु सामने होने पर ही उसके विषय में चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है?
(क) प्रत्यक्षात्मक चिन्तन
(ख) कल्पनात्मक चिन्तन
(ग) प्रत्ययात्मक चिन्तन
(घ) तार्किक चिन्तन
उतर
(क) प्रत्यक्षात्मक चिन्तन 

प्रश्न 5.
चिन्तन के किस प्रकार के अन्तर्गत प्रत्यक्षों एवं प्रतिमानों के आधार पर भविष्य के विषयों एवं परिस्थितियों का चिन्तन किया जाता है?
(क) प्रत्यक्षात्मक चिन्तन
(ख) कल्पनात्मक चिन्तन
(ग) प्रत्ययात्मक चिन्तन
(घ) तार्किक चिन्तन
उतर
(ख) कल्पनात्मक चिन्तन

प्रश्न 6.
किसी गम्भीर समस्या के समाधान के लिए किये जाने वाले चिन्तन को कहते हैं
(क) प्रत्यक्षात्मक चिन्तन
(ख) कल्पनात्मक चिन्तन ।
(ग) तार्किक चिन्तन
(घ) प्रत्ययात्मक चिन्तन
उतर
(ग) तार्किक चिन्तन

प्रश्न 7.
चिन्तन के विषय में सम्बन्धों के पृथक्करण तथा सह-सम्बन्धों के पृथक्करण के दो नियम किस विद्वान द्वारा प्रतिपादित किये गये हैं?
(क) मैक्डूगल
(ख) फ्रॉयड
(ग) स्पीयरमैन
(घ) बी०एन०झा
उतर
(ग) तार्किक चिन्तन

प्रश्न 8.
ध्यान एवं रुचि चिन्तन की प्रक्रिया के लिए होते हैं
(क) बाधक
(ख) अनावश्यक
(ग) सहायक
(घ) व्यर्थ
उतर
(ग) सहायक

प्रश्न 9.
निम्नलिखित में से कौन-सा तत्त्व चिन्तन की प्रक्रिया में बाधक नहीं है?
(क) प्रेरणाएँ
(ख) पूर्वाग्रह
(ग) अन्धविश्वास
(घ) ये सभी
उतर
(क) प्रेरणाएँ

प्रश्न 10.
चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतीकों को अपनाने से चिन्तन की प्रक्रिया
(क) अस्त-व्यस्त हो जाती है।
(ख) सरल एवं उत्तम हो जाती है।
(ग) जटिल एवं कठिन हो जाती है।
(घ) असम्भव हो जाती है।
उतर
(ख) सरल एवं उत्तम हो जाती है।

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 10 Environmental Education

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 10
Chapter Name Environmental Education (पर्यावरण शिक्षा)
Number of Questions Solved 22
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 10 Environmental Education (पर्यावरण शिक्षा)

विस्तृत उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पर्यावरण-शिक्षा से आप क्या समझते हैं। परिभाषा निर्धारित कीजिए तथा इसका स्वरूप स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा का अर्थ
पर्यावरण-शिक्षा एक ऐसी शिक्षा है जो पर्यावरण के माध्यम से, पर्यावरण के सम्बन्ध में, पर्यावरण के हेतु होती है। वास्तव में पर्यावरण जड़ एवं चेतन दोनों को शिक्षा देने वाला है। पर्यावरण व्यक्ति के उन कार्यों को प्रोत्साहित करता है जो उनके अनुकूल होते हैं। पर्यावरण एक महान् शिक्षक है क्योंकि शिक्षा का कार्य छात्रों को उस वातावरण के अनुकूल बनाना है जिससे कि वे जीवित रह सकें तथा अपनी मूल-प्रवृत्तियों को सन्तुष्ट करने हेतु अधिक-से-अधिक सम्भव अवसर प्राप्त कर सकें। शिक्षा व्यक्ति को पर्यावरण से अनुकूलन करना ही नहीं सिखाती वरन् पर्यावरण को अपने अनुकूल बनाने हेतु उसे प्रशिक्षित भी करती हैं।

पर्यावरण-शिक्षा की परिभाषा
पर्यावरण-शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए अनेक विद्वानों ने उसे परिभाषित किया है। यहाँ हम कुछ परिभाषाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं

1. संयुक्त राज्य अमेरिका का पर्यावरण-शिक्षा अधिनियम, 1970 ई०
“पर्यावरण-शिक्षा का अर्थ है-वह शैक्षिक प्रक्रिया जो मानव के प्राकृतिक एवं मानव निर्मित वातावरण से सम्बन्धित है। इसमें जनसंख्या प्रदूषण, संसाधनों का विनियोजन एवं नि:शोषण, संरक्षण, यातायात, प्रौद्योगिकी एवं सम्पूर्ण मानवीय पर्यावरण के शहरी एवं ग्रामीण नियोजन का सम्बन्ध भी निहित है।”

2.एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिसर्च
“पर्यावरण-शिक्षा को परिभाषित करना सरल कार्य नहीं है, क्योंकि पर्यावरण-शिक्षा का अधिगम क्षेत्र ही अभी तक सुनिश्चित नहीं हो पाया है। परन्तु यह सर्वसम्मत अवश्य है कि पर्यावरण-शिक्षा की विषय-वस्तु अन्तर्विषयक (Interdisciplinary) प्रकृति की है। इसमें जीव-विज्ञान, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र एवं अन्य लोकोपकारी विषयों की विषय-सामग्री सम्मिलित है। इस विचार से सभी सहमत हैं कि पर्यावरणीय शिक्षा की सम्प्रत्यात्मक विधि सर्वश्रेष्ठ है।”

3. फिनिश नेशनल कमीशन
पर्यावरणशिक्षा पर्यावरण संरक्षण के लक्ष्यों को लागू करने का एक तरीका है। यह विज्ञान की एक अलग शाखा अथवा कोई अलग अध्ययन विषय नहीं है। इसको जीवन-पर्यन्त एकीकृत शिक्षा के सिद्धान्त के रूप में लागू किया जाना चाहिए।”

4. चैपमैन टेलर
“पर्यावरण-शिक्षा का अभिप्राय अच्छी नागरिकता विकसित करने के लिए सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को पर्यावरण मूल्यों तथा समस्याओं पर केन्द्रित करना है जिससे कि अच्छी नागरिकता का विकास हो सके एवं अधिगमकर्ता पर्यावरण के सम्बन्ध में भिज्ञ, प्रेरित एवं उत्तरदायी हो सके।

पर्यावरण-शिक्षा का स्वरूप / प्रकृति

पर्यावरण-शिक्षा को विभिन्न रूपों में स्पष्ट किया जा सकता है, यथा

1. पर्यावरण-शिक्षा का पर्यावरण माध्यम है
मनुष्य का पर्यावरण अकृतिक, सांस्कृतिक (मानव निर्मित. सुन्दर एवं शिक्षाप्रद है। जब बच्चे चिड़ियों अथवा तितलियों को देखकर आकर्षित होते हैं तो उनके विषय में अवगत कराना वातावरण के माध्यम से शिक्षा प्रदान करना है। वास्तव में इस प्रकार की शिक्षा कक्षा-कक्ष की चहारदीवारी में प्रदान की गयी शिक्षा की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। फलस्वरूप, पर्यावरण के माध्यम से व्यक्ति को शिक्षण अधिगम पर्याप्त मात्रा में कराया जाना चाहिए।

2. पर्यावरण-शिक्षा पर्यावरण से सम्बन्धित है
मनुष्य प्रतिदिन अपने अस्तित्व की रक्षा और समृद्धि के हेतु पर्यावरण के सम्पर्क में कार्य करता है। किसी भी स्थिति में वह इससे बच नहीं सकता। परिवार में जन्म लेकर बच्चा परिवार के बाद पड़ोस, समुदाय आदि के सम्पर्क में आता है और उसके क्रिया-कलापों में भाग लेता है, इस तरह वह वातावरण के सम्बन्ध में सीखता है। व्यक्ति को समुदाय में सामाजिक संस्थाओं के विषय में जानकारी मिलती है और इस जानकारी के अभाव में वह अपना जीवन सफलतापूर्वक नहीं व्यतीत कर सकता। यही स्थिति प्राकृतिक पर्यावरण की भी है। उसे अपने प्राकृतिक पर्यावरण से ही यह जानकारी प्राप्त होती है। वह खाद्य सामग्री कहाँ और किस तरह प्राप्त करता है, यह सामग्री किस प्रकार की भूमि से उत्पन्न होनी चाहिए आदि बातें वह स्वयं
ही सीखता है। पर्यावरण के सम्बन्ध में यह जानकारी पर्यावरणीय शिक्षा है।

3. पर्यावरण, शिक्षा का पर्यावरण है
वर्तमान युग में पर्यावरण के क्षेत्र में क्रान्ति हुई है। जनसंख्या विस्फोट के कारण पर्यावरण में परिवर्तन हुआ है। इस विस्फोट के फलस्वरूप प्रौद्योगिकी का विकास हुआ और औद्योगीकरण के फलस्वरूप वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, परिवहन-प्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण, सामाजिक-प्रदूषण आदि समस्याएँ उत्पन्न हुईं। इनके फलस्वरूप मानव-जीवन अत्यन्त कष्टप्रद हो गया। फलस्वरूप यह आवश्यक हो गया कि उन उपायों की खोज की जाए जिससे पर्यावरण का संरक्षण हो सके। इस तरह पर्यावरण के सुधार तथा संरक्षण से सम्बन्धित जानकारी पर्यावरणीय शिक्षा है। वास्तव में पर्यावरण-शिक्षा, शिक्षा की विषय-वस्तु और शैली दोनों ही है। शैली के रूप में यह पर्यावरण को शिक्षण अधिगम सामग्री के रूप में प्रयुक्त करती है। विषय-वस्तु के रूप में यह पर्यावरण के निर्णायक तत्त्वों के सम्बन्ध में शिक्षण है। पर्यावरण के हेतु शिक्षा के रूप में यह पर्यावरण का नियन्त्रण, पारिस्थितिकी (Ecology) सन्तुलन के स्थापन और पर्यावरणीय प्रदूषण के नियन्त्रण से सम्बन्धित है।

प्रश्न 2
पर्यावरण-शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए। [2007, 09, 14]
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा के उद्देश्य 1975 ई० में बेलग्रेड में पर्यावरण-शिक्षा पर अन्तर्राष्ट्रीय कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस कार्यशाला में एक घोषणा-पत्र प्रकाशित किया गया जिसे बेलग्रेड घोषणा-पत्र (Belgrade Charter) के नाम से पुकारा जाता है। इस घोषणा-पत्र में पर्यावरण-शिक्षा के लक्ष्य एवं प्राप्ति-उद्देश्यों का निर्धारण किया गया है। यहाँ उन्हें संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है

  1. लक्ष्य: पर्यावरण-शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य है—विश्व जनसंख्या को पर्यावरण एवं उससे सम्बन्धित समस्याओं के सम्बन्ध में जागरूक बनाना।
  2. प्राप्ति उद्देश्य: उक्त घोषणा-पत्र में पर्यावरण-शिक्षा के निम्नलिखित प्राप्ति उद्देश्य निर्धारित किये गये
    • जागरूकता: समग्र वातावरण और उसकी समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता एवं जागरूकता विकसित करने में सहायता करना पर्यावरण-शिक्षा का प्रमुख प्राप्ति उद्देश्य है।
    • ज्ञान: लोगों को सम्पूर्ण वातावरण और उससे सम्बन्धित समस्याओं के विषय में जानकारी प्राप्त करने में सहायता प्रदान करना इसका दूसरा प्राप्ति उद्देश्य है।
    • अभिवृत्ति: लोगों में सामाजिक मूल्यों, वातावरण के प्रति घनिष्ठ प्रेम की भावना और उसके संरक्षण तथा सुधार हेतु प्रेरणा विकसित करने में सहायता प्रदान करनी पर्यावरण-शिक्षा का एक अन्य प्राप्ति उद्देश्य है।
    • कौशल: पर्यावरण समस्याओं के समाधान हेतु लोगों में कौशलों का विकास करना भी इसका प्राप्ति उद्देश्य है। ‘
    • मूल्यांकन योग्यता: लोगों के पर्यावरण तत्त्वों एवं शैक्षिक कार्यक्रमों को पारिस्थितिकी (Ecology), राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सौन्दर्यात्मक एवं शैक्षिक कारकों के सन्दर्भ में मूल्यांकन करने की योग्यता के विकास में सहायता प्रश्न करना भी इसका एक प्राप्ति उद्देश्य है।

पर्यावरण-शिक्षा के उद्देश्यों को तीन क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है-

1. संज्ञानात्मक (Cognitive), 2. भावात्मक (Affective) और 3. क्रियात्मक (Psychomotor)। संज्ञानात्मक क्षेत्र के अन्तर्गत वे प्राप्ति-उद्देश्य आते हैं जो ज्ञान के पुनः स्मरण अथवा पहचान (Recognition) से सम्बन्धित होते हैं। इसके अन्तर्गत बौद्धिक कुशलताएँ और योग्यताएँ भी आती हैं। संज्ञानात्मक क्षेत्र के अन्तर्गत स्मरण करना, समस्या समाधान, अवधारणा निर्माण, सीमित क्षेत्र में सृजनात्मक चिन्तन नामक व्यवहार आते हैं। भावात्मक क्षेत्र के अन्तर्गत वे प्राप्ति उद्देश्य आते हैं जो रुचियों, अभिवृत्तियों और मूल्यों में आये परिवर्तनों का उल्लेख करते हैं। क्रियात्मक अथवा मन:प्रेरित क्रियात्मक पक्ष के अन्तर्गत सम्बन्धित पर्यावरण-शिक्षा के प्राप्ति उद्देश्य निम्नवत् हैं-

  1. अपने क्षेत्र के पर्यावरण को ज्ञान प्राप्त करने में सहायता प्रदान करना।
  2. दूरस्थ क्षेत्र के पर्यावरण का ज्ञान प्राप्त करने में सहायता प्रदान करना।
  3. जैविक (Biotic) और अजैविक (Abiotic) पर्यावरण को समझने में सहायता प्रदान करना।
  4. जीवन के विभिन्न स्तरों पर पोषण-विषयक (Trophic) अन्योन्याश्रितता को समझने में सहायता प्रदान करना।
  5. भावी-विश्व में अनियन्त्रित जनसंख्या वृद्धि में तथा संसाधन के अनियन्त्रित विदोहन के प्रभावों को समझने में सहायबा प्रदान करना।
  6. जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्तियों की जाँच करने एवं देश के सामाजिक, आर्थिक विकास हेतु उनकी व्याख्या करना।
  7. भौतिक एवं मानवीय संसाधनों के विदोहन का मूल्यांकन करके उसके उपचारात्मक उपायों हेतु सुझाव देना।।
  8. सामाजिक तनावों के कारणों की खोज में सहायता प्रदान करना और उन्हें दूर करने हेतु उपयुक्त उपाय सुझाना।

पर्यावरण-शिक्षा के भावात्मक पक्ष के प्राप्ति उद्देश्य निम्नवत् हैं-

  1.  समीपस्थ एवं दूरस्थ पर्यावरण की वानस्पतिक स्पीशीज एवं जीव-जन्तुओं में रुचि रखने हेतु सहायता प्रदान करना।
  2. समाज और उसके व्यक्तियों को समस्याओं में रुचि रखने हेतु तत्पर बनाना।
  3. विभिन्न जातियों, प्रजातियों, धर्म एवं संस्कृतियों के प्रति सहिष्णुता उत्पन्न करना।
  4. समानता, स्वतन्त्रता, सत्य एवं न्याय को महत्त्व प्रदान करना।
  5. सभी देशों की राष्ट्रीय सीमाओं के प्रति आदर व्यक्त करने की भावना उत्पन्न करना।
  6. प्रकृति की देनों की भूरि-भूरि प्रशंसा करना।
  7. पर्यावरण की स्वच्छता एवं शुद्धता को महत्त्व प्रदान करना।

क्रियात्मक पक्ष से सम्बन्धित पर्यावरणीय शिक्षा के प्राप्ति-उद्देश्य निम्नवत् हैं-

  1. उन कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेना जिनके फलस्वरूप वायु, जल और ध्वनि-प्रदूषण को कम किया जा सकता है।
  2. पास-पड़ोस की सफाई के कार्यक्रम में भाग लेना।
  3. नगरीय एवं ग्रामीण नियोजन में भाग लेना।
  4. खाद्य पदार्थों में की जाने वाली मिलावट को दूर करने वाले कार्यक्रमों के अन्तर्गत भाग लेना।

प्रश्न 3
पर्यावरण-शिक्षा की शिक्षण विधियों एवं साधनों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा की शिक्षण-विधियाँ एवं साधन पर्यावरण-शिक्षा हेतु प्रयुक्त की जाने वाली शिक्षण विधियाँ एवं साधन विभिन्न प्रकार के हैं। यहाँ । पर्यावरण-शिक्षा की शिक्षण-विधियों और साधनों पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है।

(अ) शिक्षण-विधियाँ
पर्यावरण-शिक्षा की निम्नलिखित शिक्षण विधियाँ हैं-
1. कक्षा वाद: विवाद-इसके अन्तर्गत किसी प्रकरण अथवा समस्या के विषय में कक्षा में विचार-विमर्श किया जाता है। इस विचार-विमर्श के फलस्वरूप पर्यावरण के विभिन्न पक्षों को स्पष्ट किया जाता है।
2. छोटी सामूहिक प्रयोगशालाएँ: छोटी सामूहिक प्रयोगशालाएँ पर्यावरण-शिक्षा के व्यापक अध्ययन हेतु विशेष उपयोगी हैं। इसके अन्तर्गत कक्षा को छोटे-छोटे समूह में बाँट दिया जाता है तथा प्रत्येक समूह की एक परियोजना निर्धारित कर ली जाती है। यह समूह इस परियोजना पर कार्य करता है। उदाहरण के लिए यदि किसी समूह को स्थानीय तालाब की परियोजना निर्धारित करनी है तो वह समूह इससे सम्बन्धित निम्नलिखित विषयों पर अध्ययन करेगा

  1. तालाब पर कौन-से व्यक्ति निर्भर करते हैं?
  2. सामाजिक जीवन पर तालाब का क्या प्रभाव पड़ता है?
  3. तालाब का क्षेत्र विस्तार कितना है?
  4. तालाब के आस-पास कौन लोग निवास करते हैं?
  5. तालाब और उसके आस-पास कौन-से पौधे हैं?
  6. तालाब के पानी में किस तरह की अशुद्धता है?
  7. तालाब की स्थिति को किस तरह उत्तम बनाया जा सकती है?

3. क्षेत्रीय पर्यटन: क्षेत्रीय पर्यटन पर्यावरण-शिक्षा की एक प्रभावी शिक्षण-विधि है। किसी स्थान विशेष के पर्यावरण के अध्ययन हेतु क्षेत्रीय पर्यटन का आयोजन किया जाता है। इसके फलस्वरूप छात्र प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करने हेतु समर्थ होते हैं। क्षेत्रीय पर्यटन का आयोजन सामुदायिक संस्थानों, पोस्ट ऑफिस, फैक्ट्री, स्थानीय बाजार के अध्ययन हेतु किया जा सकता है।

4. बाह्य अध्ययन: बाह्य अध्ययन हेतु नियोजन एवं समन्वय की आवश्यकता होती है। बाह्य अध्ययनों हेतु उसके उद्देश्यों का निर्धारण, कार्यक्रम का निर्धारण, तैयारी, क्षेत्रीय कार्य आदि को पहले से निश्चित कर लिया जाता है। इनमें हम छात्रों को गुफा, नदी आदि के पर्यावरण के अध्ययन हेतु बाहर ले जा सकते हैं।

5. प्रदर्शन का प्रयोग: पर्यावरण-शिक्षा में प्रदर्शन का प्रयोग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है जिसके द्वारा उसके विभिन्न प्रकरणों का अध्ययन रोचक ढंग से किया जा सकता है। किसी भी प्रकरण से सम्बन्धित प्रदर्शनियों का आयोजन सम्भव है। इसके आयोजन हेतु छात्रों के सक्रिय सहयोग की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए-पर्वतीय क्षेत्र में रहने वाले लोगों से सम्बन्धित प्रदर्शनी का आयोजन किया जा सकता है।

6. अनुकरण एवं खेल: पर्यावरणीय-शिक्षा में अनुकरण एवं खेलों का प्रयोग स्वतन्त्र निर्णयन एवं अभिवृत्तियों के निर्माण में विशेष भूमिका निभाता है।

(ब) साधन
पर्यावरण-शिक्षा के अन्तर्गत निम्नलिखित साधनों का प्रयोग किया जाता है-

  1. स्थानीय साधन–स्थानीय साधनों के अन्तर्गत छात्रों के निवास स्थान का पर्यावरण, जल को .. प्रदूषित करने वाले स्रोत, वायु को प्रदूषित करने वाले स्रोत आदि आते हैं।
  2. राष्ट्रीय संगठन-इसके अन्तर्गत पर्यावरण-शिक्षा की बुलेटिन, आपको वातावरण नामक मैगजीन, टेलीफोन डायरेक्टरी आदि आते हैं।
  3. मुद्रित सामग्री-इसके अन्तर्गत वार्षिक प्रतिवेदन, पुस्तकें, पोस्टर, चार्ट्स, सरकारी प्रकाशन, पीरियोडिकल्स (Periodicals) सरकारी नीति आदि आते हैं।
  4. श्रव्य-दृश्य सामग्री-इसके अन्तर्गत फिल्म, फिल्म खण्ड, सेल टी०वी०; कॉमर्शियल टी०वी० एजुकेशनल टी०वी०, ऑडियो टेप, कॉमर्शियल स्लाइड और व्यक्तिगत स्लाइड आदि आते हैं।
  5. अन्य सामग्री–अन्य सामग्रियों के अन्तर्गत विद्यालय का खेल का मैदान, विद्यालय उद्यान आदि आते हैं।

प्रश्न 4
पर्यावरण-शिक्षा की मुख्य समस्याएँ क्या हैं? इन समस्याओं के समाधान के उपाय भी बताइए। [2009, 10]
या
भारत में पर्यावरण-शिक्षा की क्या समस्याएँ हैं? [2014]
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा की समस्याएँ

1. पर्यावरण के प्रति अनचित दृष्टिकोण
पर्यावरण-शिक्षा की सर्वप्रमुख समस्या अशिक्षा के फलस्वरूप पर्यावरण के प्रति उचित दृष्टिकोण का न होना है। लोग यह समझ ही नहीं पाते कि उनके कार्यों से पर्यावरण कितना दूषित हो रहा है। भारत में वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई हो रही है। नदियों के जल को गन्दा किया जा रहा है और वायु-प्रदूषण तथा ध्वनि-प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। लोग इससे होने वाली हानि से अवगत ही नहीं हैं और इस स्थिति में उन्हें पर्यावरण-शिक्षा किस प्रकार दी जा सकती है? यदि किसी से कहा जाता है कि तुम ऐसा कार्य न करो, तो उसका उत्तर होता है इससे क्या हो जाता है, जब तक जीना है तब तक जिएँगे।

2. भौतिकवादी संस्कृति का अत्यधिक प्रसार
पर्यावरणीय शिक्षा की अन्य समस्या भौतिकवादी संस्कृति का अत्यधिक प्रसार है। जो लोग यह जानते हैं कि पर्यावरण की शुद्धता आवश्यक है वे भी अपने आरामतलबी, अपनी आवश्यकता और अपने भौतिक उपभोग हेतु पर्यावरण को व्यापक मात्रा में दूषित कर रहे हैं।

3. साहित्य की कमी
पर्यावरण-शिक्षा की एक अन्य प्रमुख समस्या इस शिक्षा के हेतु पर्याप्त मात्रा में साहित्य का विद्यालयों में पर्यावरण शिक्षा का उपलब्ध न होना है। सत्य तो यह है कि पर्यावरण के सम्बन्ध में अभी हमारा दृष्टिकोण अत्यन्त संकुचित है और ऐसे साहित्य को निर्माण अत्यन्त अल्प मात्रा में हुआ है जो पर्यावरण-शिक्षा से सम्बन्धित हो।

4. नगरीय सभ्यता का विकास
पर्यावरण-शिक्षा की एक अन्य समस्या नगरीय सभ्यता का अत्यधिक विस्तार है। लोगों का व्यापक मात्रा में गाँव से नगर की ओर पलायन हो रहा है और नगरों का वातावरण अत्यन्त प्रदूषित होता जा रहा है।

5. विद्यालयों में पर्यावरण
शिक्षा का अभाव-पर्यावरण-शिक्षा की एक बहुत बड़ी बाधा यह है कि अभी तक भारत के सभी विद्यालयों में पर्यावरण-शिक्षा को पाठ्यक्रम में स्थान नहीं दिया गया है। अनेक विद्यालय अभी ऐसे हैं जहाँ और सब कुछ तो पढ़ाया जाता है परन्तु पर्यावरण के सम्बन्ध में आदर्शवादी बातें ही बताई जाती हैं, यथार्थ की पृष्ठभूमि में लाकर लोगों को पर्यावरण के सम्बन्ध में शिक्षा प्रदान नहीं की जाती।

पर्यावरण-शिक्षा की समस्याओं का समाधान
यह सत्य है कि पर्यावरण-शिक्षा के मार्ग में विभिन्न समस्याएँ हैं परन्तु इन समस्याओं का निराकरण सम्भव है। इस सन्दर्भ में निम्नलिखित उपायों को अपनाकर सम्बन्धित समस्याओं का समाधान किया जा सकता है

1. उचित दृष्टिकोण का विकास
उक्त समस्या के समाधान हेतु यह अत्यन्त आवश्यक है कि लोगों को पर्यावरण को ठीक रखने हेतु प्रेरित किया जाए। इस क्षेत्र में अंशिक्षा सबसे बड़ी बाधक है।

2. प्राचीन भारतीय आदर्शों का स्थापन
इस भौतिकवादी युग में लोगों का ध्यान प्राचीन भारतीय आदर्शों की ओर उन्मुख किया जाना चाहिए। उन्हें यह बताया जाना चाहिए कि प्राचीनकाल में लोग सादा जीवन उच्च विचार रखते थे और प्रकृति के प्रति अत्यन्त संवदेनशील रहते थे। इसी कारण वे सुखमय जीवन व्यतीत करने में सफल थे। भौतिकवादी संस्कृति से जितनी दूर रहा जाएगा, उतना ही मन को सन्तोष प्राप्त होगा और पर्यावरण को जितना स्वच्छ रखा जाएगा उतना ही हमारा स्वास्थ्य ठीक रहेगा।

3. साहित्य का निर्माण
पर्यावरण-शिक्षा से सम्बन्धित पार् साहित्य का निर्माण व्यापक मात्रा में किया जाना चाहिए और उसे विभिन्न स्थानों पर मुफ्त बाँटा जाना चाहिए। इस साहित्य में प्रकृति की देनों की प्रशंसा के साथ ही हर प्रकार के प्रदूषण से मुक्त रहने के उपाय भी बतलाए जाने चाहिए।

4. ग्रामीण सभ्यता को प्रोत्साहन
उपर्युक्त समस्या के समाधान हेतु यह आवश्यक है कि देश में । ग्रामीण सभ्यता को प्रोत्साहन दिया जाए। ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को पर्यावरण को प्रदूषित किये बिना जीविका के साधन और सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ। ग्रामीण जनता को बताया जाए कि कैसे प्राचीन युग में हमें पर्यावरण की रक्षा करने में समर्थ हुए थे। अधिक-से-अधिक पेड़ लगाए जाएँ और वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई आदि को रोका जाए।

5. पाठ्यक्रम में स्थान
पर्यावरण-शिक्षा को सभी माध्यमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाना चाहिए। उचित तो यह होगा कि पर्यावरण की रक्षा नामक एक विषय ही अलग से निर्धारित कर दिया जाए और सभी को उस पाठ्यक्रम को पढ़ना एवं समझना आवश्यक हो।

अन्त में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मानव के अस्तित्व को भौतिक, सामाजिक एवं मानसिक रूप से उन्नत बनाने हेतु जिन तत्त्वों की आवश्यकता होती है वे सभी प्रकृति में हैं। मानव का विकास तभी हो सकता है जब प्रकृति के विभिन्न तत्त्व सन्तुलित हों। प्रकृति में सन्तुलित होने की शक्ति स्वयं में व्याप्त है किन्तु मानव भी उसे सन्तुलित रखने में योगदान देता है।

मानव ने अत्यधिक परिश्रम करके बंजर भूमि को खेती योग्य बनायो, सागर को पाटकर बस्तियाँ बनायी हैं, जल और थल के गर्भ से खनिज निकाले हैं, विज्ञान, विद्या और आधुनिक प्रौद्योगिकी के सहारे कृषि उद्योग एवं पशु-पालन की व्यवस्था में उन्नति की है, तो जिस प्रकृति ने उसे सब कुछ दिया है, उस प्रकृति की चिन्ता यह क्यों नहीं करता? उन्नत विकसित होने के साथ ही हम प्रकृति के सन्तुलन को बिगाड़ रहे हैं और यदि यह सन्तुलन बिगड़ गया तो मानव कैसे बचेगा? अतएव हमने प्रकृति के साथ जो कुछ किया है उसके हेतु पुनर्विचार की आवश्यकता है। डॉ० विद्या निवास मिश्र ने लिखा है-“प्रकृति का संरक्षण हम सबका पावन कर्तव्य है। हमें प्रकृति का उतना ही दोहन करना चाहिए जिससे उसका सन्तुलन न बिगड़े। यदि मानव अब भी नहीं चेता तो हमारा विनाश निश्चित है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पर्यावरण-शिक्षा के पाठ्यक्रम अथवा क्षेत्र का उल्लेख कीजिए।
या
पर्यावरण शिक्षा की विषय-वस्तु क्या होनी चाहिए? [2011]
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा का पाठ्यक्रम निम्नवत् हो सकता है।

  1. मानव एवं पर्यावरण
  2. पारिस्थितिकी
  3. जनसंख्या एवं नगरीकरण
  4. नगरीय एवं क्षेत्रीय नियोजन
  5. सामाजिक संसाधन
  6. अर्थशास्त्र एवं पर्यावरण
  7. वृक्ष एवं जल-संसाधन
  8. वायु प्रदूषण
  9. वन्य-जीवन संसाधून
  10. सरकारी नीति एवं नागरिक
  11. बाह्य मनोरंजन एवं नागरिकों की भूमिका

आधुनिक अध्ययनों एवं खोजों से यह स्पष्ट हुआ है कि पर्यावरण-शिक्षा का अन्तर-विषयक क्षेत्र है। इसके साथ ही इसको समग्र रूप में व्यक्त किया गया है। इसके अन्तर्गत पारिस्थितिकी, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं अन्य क्षेत्रों की विशिष्ट समस्याओं को स्थान दिया गया है। पर्यावरण-शिक्षा वास्तविक जीवन के व्यावहारिक समस्याओं से सम्बन्धित है। यह भावी नागरिकों को मूल्यों के निर्माण की ओर अग्रसर करती है।

प्रश्न 2
पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता और महत्त्व को स्पष्ट कीजिए। [2007, 12, 16]
या
पर्यावरण-शिक्षा वर्तमान समय की एक महत्तम आवश्यकता है।” स्पष्ट कीजिए। [2015]
या
पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता पर प्रकाश डालिए। [2016]
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा की आवश्यकता
वर्तमान आधुनिकी के इस दौर में बढ़ते औद्योगिकीकरण, नगरीकरण एवं उपभोगवाद के कारण अनेक पर्यावरणीय समस्याएँ पैदा हो गई हैं, जिनके कारण सम्पूर्ण विश्व के सामने पर्यावरणीय संकट पैदा हो गया है। पर्यावरणीय असन्तुलन के कारण आए दिन विश्व में कहीं-न-कहीं दुर्घटनाएँ घटित हो रही हैं। अत: मानव-जीवन पर आए इस संकट के समाधान के लिए पर्यावरण एवं उसकी कार्यप्रणाली के बारे में ज्ञान होना आवश्यक है, ताकि पर्यावरणीय सन्तुलन की पुन: प्राप्ति की जा सके और यह ज्ञान हमें पर्यावरण शिक्षा द्वारा ही उपलब्ध हो सकता है। अत: पर्यावरण शिक्षा आज की आवश्यकता है और इसे विद्यालयी पाठ्यक्रम में स्थान मिलना चाहिए। यह आज की माँग है।

पर्यावरण-शिक्षा का महत्त्व
वर्तमान वैज्ञानिक युग में पर्यावरण-शिक्षा का महत्त्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण-प्रदूषण ने विश्व को विनाश के निकट ला खड़ा किया है। पर्यावरण असन्तुलन के कारण आए दिन विश्व के किसी भी कोने में दुर्घटना घटित हो रही है। अत: मानव-जीवन की सुरक्षा के लिए पर्यावरण-सम्बन्धी तथ्यों का ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है और यह ज्ञान पर्यावरण-शिक्षा द्वारा ही उपलब्ध हो सकता है। संक्षेप में पर्यावरण-शिक्षा के महत्त्व को निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जा सकता है

  1. पर्यावरण-शिक्षा द्वारा सम्पूर्ण पर्यावरण का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
  2. पर्यावरण-शिक्षा पर्यावरण-संरक्षण, वन्य-जीव संरक्षण, मृदा संरक्षण आदि की विधियाँ तथा उनकी उपयोगिता बताती है।
  3. पर्यावरण-शिक्षा विद्यार्थियों को नागरिक अधिकारों, कर्तव्यों तथा दायित्व का ज्ञान कराती है।
  4. पर्यावरण-शिक्षा वायु, जल, ध्वनि, मृदा, जनसंख्या आदि प्रदूषणों के कारणों तथा उनके नियन्त्रण की विधियाँ बतलाती है।
  5. पर्यावरण-शिक्षा विद्यालय पर्यावरण को सन्तुलित रखती है तथा नैतिक पर्यावरण को स्वस्थ बनाती है। पर्यावरण-शिक्षा के महत्त्व सम्बन्धी उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि पर्यावरण-शिक्षा को विभागीय पाठ्यक्रम में स्थान मिलनी चाहिए। यह आज के युग की माँग है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पर्यावरण-शिक्षा की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. पर्यावरण-शिक्षा मानव के प्राकृतिक और भौतिक पर्यावरण से सम्बन्धित है।
  2. पर्यावरण-शिक्षा पर्यावरण के तत्त्वों का ज्ञान कराती है तथा पर्यावरण असन्तुलन के कारणों की जानकारी देती है।
  3. पर्यावरण-शिक्षा द्वारा हमें विभिन्न प्रकार के पर्यावरणीय प्रदूषणों-वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण, मृदा-प्रदूषण के स्वरूपों तथा कारणों का ज्ञान प्राप्त होता है।
  4. पर्यावरण-शिक्षा प्रदूषण नियन्त्रण के उपायों का ज्ञान कराती है।
  5. पर्यावरण-शिक्षा का सम्बन्ध जनसंख्या नियन्त्रण, परिवार नियोजन, वन संरक्षण, वनारोपण, वन्य जीव संरक्षण आदि से भी है।

प्रश्न 2
पर्यावरण शिक्षा की विषय-वस्तु क्या होनी चाहिए? [2011]
उत्तर
पर्यावरण शिक्षा के अन्तर्गत पर्यावरण के स्वरूप, पर्यावरण तथा मानव-समाज के सम्बन्ध एवं प्रभावों, पर्यावरण की होने वाली क्षति, पर्यावरण प्रदूषण के कारणों, पर्यावरण प्रदूषण के स्वरूपों तथा पर्यावरण प्रदूषण को नियन्त्रित करने के उपायों का अध्ययन किया जाता है। अत: पर्यावरण शिक्षा की विषय-वस्तु में निम्नलिखित को शामिल किया जाना चाहिए-

  1. मानव और पर्यावरण के बीच के सम्बन्धों का अध्ययन करना।
  2. पारिस्थितिकी सन्तुलन की व्याख्या करना।
  3. जनसंख्या वृद्धि व नगरीकरण के पर्यावरणीय दुष्प्रभावों का अध्ययन करना।
  4. प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण व अनुकूलतम उपयोग को बढ़ावा देना।
  5. विभिन्न प्रकार के पर्यावरणीय प्रदूषणों का अध्ययन करना।
  6. जैव-विविधता को संरक्षण प्रदान करना।

प्रश्न 3
पर्यावरण शिक्षा के लक्ष्य क्या हैं ? [2009, 14]
उत्तर
पर्यावरण शिक्षा इस युग की प्रबल माँग है। इस उपयोगी शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य समस्त नागरिकों को पर्यावरण तथा पर्यावरण सम्बन्धी विभिन्न समस्याओं के प्रति जागरूक करना है। यह जागरूकता ही पर्यावरण की सुरक्षा में सहायक होगी। पर्यावरण शिक्षा का व्यावहारिक लक्ष्य पर्यावरण प्रदूषण को नियन्त्रित करना हैं इसके अतिरिक्त पर्यावरण में प्राकृतिक सन्तुलन को बनाये रखने के प्रयास करना भी पर्यावरण शिक्षा का लक्ष्य है।

प्रश्न 4
पर्यावरण-शिक्षा की सफलता के मार्ग में उत्पन्न होने वाली मुख्य समस्याएँ कौन-कौन-सी हैं? [2014]
उत्तर

  1. पर्यावरण के प्रति अनुचित दृष्टिकोण
  2. भौतिकवादी संस्कृति का अत्यधिक प्रसार
  3. उपयोगी साहित्य की कमी
  4. नगरीय सभ्यता का विकास तथा
  5. विद्यालयों में पर्यावरण-शिक्षा-व्यवस्था की कमी।

प्रश्न 5
‘पर्यावरण-शिक्षा की एक स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा का अभिप्राय अच्छी नागरिकता विकसित करने के लिए सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को पर्यावरण मूल्यों तथा समस्याओं पर केन्द्रित करना है जिससे कि अच्छी नागरिकता का विकास हो सके एवं अधिगमकर्ता पर्यावरण के सम्बन्ध में भिज्ञ, प्रेरित एवं उत्तरदायी हो सके।”

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
‘पर्यावरण-शिक्षा से क्या आशय है ?
उत्तर
पर्यावरण के माध्यम से पर्यावरण के विषय में तथा पर्यावरण के लिए दी जाने वाली व्यवस्थित जानकारी को पर्यावरण-शिक्षा कहते हैं।

प्रश्न 2
राष्ट्रीय आधारभूत पाठ्यचर्या के अनुसार पर्यावरण-शिक्षा किस स्तर से प्रारम्भ होती है ? [2007]
उत्तर
राष्ट्रीय आधारभूत पाठ्यचर्या के अनुसार पर्यावरण-शिक्षा प्राथमिक शिक्षा स्तर से ही प्रारम्भ होती है।

प्रश्न 3
पर्यावरण-शिक्षा मुख्य रूप से पर्यावरण के किस रूप या प्रकार से सम्बन्धित है?
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा मुख्य रूप से प्राकृतिक अथवा भौगोलिक पर्यावरण से सम्बन्धित है।

प्रश्न 4
वर्तमान समय में पर्यावरण-शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य क्या है?  [2007]
उत्तर
वर्तमान समय में पर्यावरण-शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य पर्यावरण-प्रदूषण को नियन्त्रित करनी

प्रश्न 5
पर्यावरण-शिक्षा को सफल बनाने के लिए मुख्य रूप से क्या उपाय किया जाना चाहिए?
उत्तर
पर्यावरण-शिक्षा को सफल बनाने के लिए पर्यावरण के प्रति उचित दृष्टिकोण का विकास करना अति आवश्यक है।

प्रश्न 6
पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से किस समस्या को दूर किया जा सकता है ? [2010]
उत्तर
पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से पर्यावरण प्रदूषण की समस्या को दूर किया जा सकता है।

प्रश्न 7
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य
(i) पर्यावरण-शिक्षा का सम्बन्ध मुख्य रूप से सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण से होता है।
(ii) वर्तमान औद्योगिक सभ्यता के विकास के साथ-साथ पर्यावरण-शिक्षा की आवश्यकता बढ़ गयी है।
उत्तर
(i) असत्य
(ii) सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
पर्यावरण-शिक्षा का मूल उद्देश्य है [2007, 10, 12, 15]
(क) औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया को धीमा करना
(ख) शुद्ध पेय जल की व्यवस्था करना
(ग) खाद्य-पदार्थों के उत्पादन में वृद्धि करना
(घ) प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट होने से बचाना
उत्तर
(घ) प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट होने से बचाना

प्रश्न 2
निम्नलिखित में से सभी पर्यावरण-शिक्षा के उद्देश्य हैं, सिवाय
(क) परिवार नियोजन
(ख) जागरूकता
(ग) वृक्षारोपण
(घ) प्राकृतिक स्रोतों का बचाव
उत्तर
(क) परिवार नियोजन

प्रश्न 3
पर्यावरण-शिक्षा को स्कूली पाठ्यक्रम में जोड़ा गया
(क) 1965 ई० में
(ख) 1970 ई० में
(ग). 1975 ई० में
(घ) 1978 ई० में
उत्तर
(ख) 1970 ई० में

प्रश्न 4
‘अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण-शिक्षा कार्यक्रम कब से प्रारम्भ हुआ?
(क) 1970 ई० में
(ख) 1972 ई० में
(ग) 1975 ई० में
(घ) 1980 ई० में
उत्तर
(ग) 1975 ई० में

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 2 Shershah Suri: Rule and Achievements

UP Board Solutions for Class 12 History  Chapter 2 Shershah Suri: Rule and Achievements (शेरशाह सूरी- शासन एवं उपलब्धियाँ) are the part of UP Board Solutions for Class 12 History. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 2 Shershah Suri: Rule and Achievements (शेरशाह सूरी- शासन एवं उपलब्धियाँ).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 2
Chapter Name Shershah Suri: Rule and Achievements (शेरशाह सूरी- शासन एवं उपलब्धियाँ)
Number of Questions Solved 22
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 2 Shershah Suri: Rule and Achievements (शेरशाह सूरी- शासन एवं उपलब्धियाँ)

अभ्यास

प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए
1. 1540 ई०
2. 1542 ई०
3. 1543 ई० से मई 1544 ई०
4. 1545 ई०
5. 1556 ई०
उतर.
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 36 पर ‘तिथि सार’ का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 2.
सत्य या असत्य बताइए
उतर.
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 36 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय
उतर.
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या-37 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय
उतर.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या-37 का अवलोकन कीजिए। लघु

उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
शेरशाह की प्रमुख विजयों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उतर.
शेरशाह सूरी की प्रमुख विजयों का संक्षिप्त विवरण निम्नवत् हैं

  1. गक्खर प्रदेश की विजय – सन् 1541 ई० में शेरशाह ने गक्खर सरदारों पर चढ़ाई कर उनके प्रदेश को बुरी तरक से रोंद डाला।
  2. बंगाल का विद्रोह और नई व्यवस्था – सन् 1541 ई० में शेरशाह ने खिज्र खाँ को कैद करके बंगाल को जिलों में बाँटकर प्रत्येक को एक छोटी सेना के साथ शिकदारों के नियंत्रण में दे दिया।
  3. मालवा की विजय – सन् 1542 ई० में शेरशाह ने मालवा के शासक कादिरशाह को हराकर वहाँ अपना अधिकार जमा लिया।।
  4. रायसीना की विजय – सन् 1542 ई० में शेरशाह ने रायसीना के शासक पूरनमल को हराया।
  5. मुल्तान व सिंध की विजय – सन् 1543 ई० में शेरशाह के सूबेदार हैबत खाँ ने फतह खाँ जाट को परास्त कर मुल्तान एवं सिंध पर अधिकार कर लिया।
  6. मारवाड़ पर विजय – सन् 1544 ई० में शेरशाह ने मालदेव के सेनापति नैता और कैंपा को हराया।
  7. मेवाड विजय – सन् 1544 ई० में मारवाड़ पर विजय प्राप्त करके वापस लौटते समय शेरशाह ने मेवाड़ को अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया।
  8. कालिंजर की विजय – सन् 1544 ई० में शेरशाह ने शासक कीरत सिंह को हराकर कालिंजर पर विजय प्राप्त की।

प्रश्न 2.
शेरशाह की सफलता के चार कारण लिखिए।
उतर.
शेरशाह की सफलता के चार प्रमुख कारण निम्न प्रकार हैं

  1. दृढ़-संकल्पी – शेरशाह दृढ़-संकल्पी व्यक्ति था। हुमायूँ को भारत की सीमा से बाहर निकालकर ही उसने चैन की साँस ली।
  2. हुमायूँ की चारित्रिक दुर्बलताएँ – हुमायूँ की चारित्रिक दुर्बलताओं का लाभ उठाकर, शेरशाह दिल्ली का सिंहासन अपनी योग्यता के द्वारा छीनने में सफल रहा।।
  3. सैनिक प्रतिभा – शेरशाह ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया, जिसमें उसकी सैनिक योग्यता की प्रमुख भूमिका थी।
  4. कूटनीतिज्ञ – चौसा और बिलग्राम के युद्धों में सैनिक प्रतिभा से अधिक शेरशाह ने अपनी कूटनीति से विजय प्राप्त की।

प्रश्न 3.
शेरशाह के शासन-प्रबन्ध की दो प्रमुख विशेषाएँ लिखिए।
उतर.
शेरशाह के शासन-प्रबन्ध की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. न्यायप्रियता – शेरशाह न्याय प्रिय सुल्तान था। उसके राज्य में न्याय निष्पक्ष था तथा नियम भंग करने वाले अपराधी को | कठोर दण्ड मिलता था, चाहे वह कितना ही बड़ा अधिकारी क्यों न हो।
  2. प्रजा का भौतिक एवं नैतिक विकास – शेरशाह हालाँकि निरकुंश सुल्तान था तदापि उसने अपने सम्मुख प्रजाहित का आदर्श रखा। उसका विश्वास था कि सुल्तान को भगवान ने प्रजा का प्रधान बनाकर भेजा है तथा प्रजा का सर्वांगीण विकास करने का भार सुल्तान पर है।

प्रश्न 4.
शेरशाह के द्वारा भू-राजस्व के क्षेत्र में किए गए सुधारों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उतर.
शेरशाह राज्य के किसानों की भलाई में ही राज्य की भलाई मानता था। उसकी लगान-व्यवस्था अच्छी मानी जाती थी। शेरशाह की लगान-व्यवस्था मुख्यतया रैवतवाडी थी, जिसमें किसानों से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित किया जाता था। उत्पादन के आधार पर ही भूमि को तीन श्रेणियों- उत्तम, मध्यम और निम्न में बाँटा गया। लगान निश्चित करने की प्रणालियाँ निर्धारित की गई थीं। किसान लगान नकद या जिन्स के रूप में दे सकते थे। यदि युद्ध के अवसर पर कृषि की कोई हानि हो जाती थी तो उसकी पूर्ति कर दी जाती थी।

प्रश्न 5.
शेरशाह के चरित्र पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उतर.
शेरशाह को भारत के इतिहास में उच्चतम् सम्राटों में स्थान दिया जाता है और चन्द्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त तथा अकबर महान् के साथ तुलना की जाती है। शेरशाह एक प्रजावत्सल सम्राट था। प्रजा के साथ वह उदारता एवं दयालुता पूर्ण व्यवहार करता था। उसके राज्य में प्रतिदिन भिखारियों का दान दिया जाता था। शेरशाह में उच्चकोटि की धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। शेरशाह मुस्लिम सम्राट था तदापि उसने हिन्दू व मुसलमानों के साथ समानता का व्यवहार किया। शेरशाह कर्तव्यपरायण सुल्तान था। वह अपने कर्तव्य को भली-भाँति जानता था तथा समुचित रूप से उनका पालन करता था। शेरशाह कठोर परिश्रमी था। वह शासन के समस्त विभागों पर नियत्रंण रखता था।

शेरशाह विद्यानुरागी था। सुल्तान बनने के बाद उसने विद्या प्रसार के लिए अनेक पाठशालाएँ एवं मकतब निर्मित करवाए। वह एक कुशल सेनापति एवं कूटनीतिज्ञ था। हुमायूं के साथ उसने उच्चकोटि के सेनापति की तरह युद्ध लड़े। चुनार, रोहतास तथा रायसीन पर उसने कूटनीति द्वारा विजय प्राप्त की। शेरशाह न्यायप्रिय सुल्तान था। न्याय के सम्मुख वह सबको समान समझता था तथा अपने पुत्र तक को साधारण व्यक्ति के समान दण्ड देता था। शेरशाह एक महत्वकांक्षी सुल्तान था, मुगलों को भारत से निकालकर ही उसने चैन की साँस ली।

प्रश्न 6.
शेरशाह को राष्ट्रीय सम्राट कहना कहाँ तक उचित है?
उतर.
शेरशाह को धार्मिक सहिष्णुता का सिद्धान्त अपनाया था। वह ऐसा प्रथम मुस्लिम शासक था, जिसकी दृष्टि में सम्पूर्ण प्रजा एक समान थी, चाहे वह किसी भी धर्म की अनुयायी क्यों न हो। एक दूरदर्शी राजनीतिज्ञ होने के नाते वह इस बात को भली-भाँति समझ चुका था कि हिन्दुओं के देश भारत में, जहाँ की अधिकांश जनता हिन्दू है, धार्मिक अत्याचारों के आधार पर राज्य को
स्थायी नहीं किया जा सकता इस नीति के आधार पर शेरशाह को राष्ट्रीय सम्राट कहना उचित है।

प्रश्न 7.
अकबर के अग्रगामी के रूप में शेरशाह का स्थान निर्धारित कीजिए।
उतर.
शेरशाह एक प्रजावत्सल सम्राट था। वह प्रजा के साथ उदारता एवं दयालुतापूर्ण व्यवहार करता था। यद्यपि दण्ड देने में वह कठोर एवं अनुदार था। अपनी दरिद्र जनता एवं कृषकों के प्रति वह अत्यन्त उदार था। शेरशाह में उच्चकोटि की धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। यद्यपि कुरान की आयतों का पाठ करता था तथा नमाज अदा करता था, तदापि भारत में हिन्दुओं व मुसलमानों के साथ उसने समानता का व्यवहार किया और उच्च पदों पर हिन्दुओं को भी आसीन किया तथा उनके बच्चों के पढ़ने की व्यवस्था की और एक सीमा तक उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की। इस दृष्टिकोण से हम उसे अकबर का अग्रगामी मान सकते हैं।

प्रश्न 8.
सूर-साम्राज्य के पतन के चार कारणों का उल्लेख कीजिए।
उतर.
भारत में दिल्ली पर प्रथम सूर (अफगान) साम्राज्य को लोदी वंश ने स्थापित किया था, किन्तु बाबर ने 1526 ई० में इब्राहीम लोदी को हराकर दिल्ली में मुगल साम्राज्य की स्थापना की। शेरशाह सूरी ने 1540 ई० में हुमायूँ को परास्त कर पुनः सूर साम्राज्य स्थापित किया। अफगानों का यह द्वितीय साम्राज्य लगभग 15 वर्षों तक रहा। सन् 1555 ई० में हुमायूँ ने मच्छीवाड़ा और सरहिन्द के युद्धों को जीतकर द्वितीय सूर साम्राज्य का पतन कर दिया। इस प्रकार सूर-साम्राज्य के पतन के चार प्रमुख कारण निम्नवत् हैं

  1. इस्लामशाह के उत्तराधिकारियों को अयोग्य होना।
  2. अफगानों का एक केन्द्रीय शासन-व्यवस्था को स्वीकार न करना।
  3. इस्लामशाह की मृत्यु के पश्चात शासन-व्यवस्था का नष्ट होना।
  4. अफगान सरदारों की महत्वकाक्षाएँ एवं स्वतन्त्र प्रवृत्ति।

प्रश्न 9.
शेरशाह सूरी द्वारा बनवाए गए दो प्रमुख राजमार्गों का वर्णन कीजिए।
उतर.
शेरशाह सूरी का नाम सड़कों और सरायों के निर्माण के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उसने व्यापार की सुविधा के लिए लम्बी-लम्बी सड़कों का निर्माण कराया तथा देश के प्रमुख नगरों को सड़कों के द्वारा जोड़ दिया। शेरशाह सूरी द्वारा बनवाए गए दो प्रमुख राजमार्ग अग्रलिखित हैं

  1. ग्रांड-ट्रंक रोड़ जो बंगाल के सोनारगाँव से आगरा, दिल्ली और लाहौर होती हुई सिंध प्रांत तक जाती है।
  2. आगरा से बुरहानपुर तक।

प्रश्न 10.
शेरशाह और हुमायूँ के बीच हुए दो प्रमुख युद्धों का उल्लेख कीजिए।
उतर.
शेरशाह और हुमायूं के बीच हुए दो प्रमुख युद्ध निम्न प्रकार हैं

  1. चौसा का युद्ध- सन् 1539 ई० में शेरशाह ने हुमायूँ को तोपखाने का प्रयोग करने का अवसर दिए बिना ही रणक्षेत्र से भागने को विवश कर दिया।
  2. कन्नौज ( बिलग्राम ) का युद्ध- सन् 1540 ई० में शेरशाह ने कन्नौज के युद्ध में हुमायूँ को पराजित कर उसे भारत से बाहर खदेड़ दिया।

प्रश्न 11.
शेरशाह ने जन-साधारण के लिए क्या-क्या कार्य किए?
उतर.
शेरशाह ने जन-साधारण के लिए निम्नलिखित कार्य किए

  1. उत्तम न्याय व्यवस्था
  2. भूमिकर अथवा लगान में सुधार
  3. जन साधारण के जीवन एवं सम्मान की रक्षा के लिए पुलिस प्रशासन की व्यवस्था
  4. शिक्षा के लिए पाठशालाओं एवं मकतबों का निर्माण
  5. जन साधारण को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करना
  6. सड़क एवं सरायों को निर्माण।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘शेरशाह की गणना मध्यकाल के महान् शासकों में की जाती है। इस कथन का विश्लेषण कीजिए।
उतर.
शेरशाह महान् विजेता था। जूलियस सीजर, आगस्टस, हेनरी द्वितीय, एडवर्ड प्रथम, लुई चतुर्दश, अकबर महान् तथा चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ उसकी तुलना की जा सकती है। वह एक महान् साम्राज्य का निर्माता था जिसे उसने अपनी योग्यता से प्राप्त किया था तथा जिसकी सुव्यवस्था के लिए उसने उच्च कोटि की शासन-व्यवस्था स्थापित की थी। पाँच वर्ष के अल्पकाल में उसने अराजकतापूर्ण एवं अव्यवस्थित देश को सुव्यवस्था एवं सुरक्षा प्रदान की थी।

मध्यकाल भारत के इतिहास में शेरशाह का अपना एक स्थान है। वह एक वीर सैनिक, चतुर सेनानायक और कुशल कूटनीतिज्ञ था। वह केवल विजय प्राप्त करने में विश्वास करता था और उसका मानना था कि अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भले-बुरे सभी साधनों का व्यवहार में लाना उचित है। वह एक सफल शासक था। उसे प्रजा के सुख का पूरा ध्यान था और उसकी भलाई के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करता था। शासन-व्यवस्था के पुनर्गठन, भूमि का बन्दोबस्त, लगान, मुद्रा और व्यापार वाणिज्य में उसके द्वारा किए गये सुधारों के कारण मध्यकाल के महान् शासन-प्रबन्धकों में उसकी गणना की जाती है। शेरशाह 68 वर्ष की आयु में राजा बना था किन्तु यह वृद्धावस्था भी उसके उत्साह और आकाँक्षाओं को ठण्डा नहीं कर सकी। इस राय पर सभी इतिहासकार एकमत हैं कि शेरशाह सोलह घण्टे प्रतिदिन राजकाज में लगाता था।

अशोक, चन्द्रगुप्त मौर्य अथवा अकबर की भाँति उसकी भी यही आदर्श वाक्य था कि महान् व्यक्ति को सदैव चैतन्य रहना आवश्यक है। शेरशाह में एक सैनिक और सेनापति के गुणों का अभाव न था। वह सभी यद्धों में शौर्य के साथ चालाकी का प्रयोग भी करता था। एक धार्मिक मुसलमान की दृष्टि से वह अपने धार्मिक कृत्यों को विषमपूर्वक करता था। डॉ० आर०पी० त्रिपाठी ने ठीक ही लिखा है “कोई भी इतिहासकार अकबर के पहले के मुस्लिम शासकों के मध्य महानता, बुद्धिमानी और कार्यक्षमता के नाते शेरशाह को सर्वोच्च पद से वंचित नही रख सकता।”

प्रश्न 2.
शेरशाह के प्रशासन की विवेचना कीजिए।
उतर.
शेरशाह का शासन-प्रबन्ध- इतिहासकारों ने शेरशाह को अकबर से भी श्रेष्ठ रचनात्मक बुद्धि वाला और राष्ट्र-निर्माता बताया है। सैनिक और असैनिक दोनों ही मामलो में शेरशाह ने संगठनकर्ता की दृष्टि से शानदार योग्यता का परिचय दिया। नि:सन्देह शेरशाह मध्य युग के महान् शासन-प्रबन्धकों में से एक था। उसने किसी नई शासन-व्यवस्था को जन्म नहीं दिया बल्कि उसने पुराने सिद्धान्तों और संस्थाओं को ऐसी कुशलता से लागू किया कि उनका स्वरूप नया दिखाई दिया। इस प्रकार योग्य शासन-प्रबन्ध की दृष्टि से इतिहास में शेरशाह का स्थान महत्वपूर्ण माना जाता है। शेरशाह का शासन-प्रबन्ध निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है
(i) प्रान्तीय शासन-प्रबन्ध
(क) इक्ता या सूबा – शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए शेरशाह ने साम्राज्य को अनेक भागों में बाँट रखा था। उस समय राज्य में ‘सरकार’ सबसे बड़ा खण्ड कहलाता था। सरकार ऐसे प्रशासकीय खण्ड थे जो कि प्रान्तों से मिलते-जुलते थे और जो इक्ता कहलाते थे और प्रमुख अधिकारियों के अधीन थे। शेरशाह के समय फौजी गवर्नरों की नियुक्तियाँ भी होती थीं। जिन राज्यों को शासन करने की स्वतन्त्रता दे दी गई थी, उन्हें सूबा या इक्ता कहा जाता था। सूबे का प्रमुख हाकिम अथवा फौजदार होता था। फिर भी शेरशाह के प्रान्तीय प्रशासन का विवरण स्पष्ट नहीं है।

(ख) सरकारें (जिले ) – प्रत्येक इक्ता या सूबा सरकारों में बँटा होता था। शेरशाह की सल्तनत में 66 सरकारें थीं। प्रत्येक सरकार में दो प्रमुख अधिकारी होते थे- ‘शिकदार-ए-शिकदारान’ और ‘मुन्सिफ-ए-मुनसिफान’। शिकदार-ए-शिकदारान सरकार के प्रशासन का अध्यक्ष होता था तथा विभिन्न परगनों के शिकदारों पर प्रशासनिक अधिकारी होता था। अपनी सरकार में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना करना तथा विद्रोही जमींदारों का दमन करना उसका प्रमुख कर्तव्य था। मुन्सिफ-ए-मुन्सिफान मुख्यतया न्याय-अधिकारी था। दीवानी मुकदमों का फैसला करना और अपने अधीन मुन्सिफों के कार्यों की देखभाल करना उसका दायित्व था।

(ग) परगने – प्रत्येक सरकार में कई परगने होते थे। शेरशाह ने प्रत्येक परगने में एक शिकदार, एक अमीन (मुन्सिफ), एक फोतदार (खजांची) और दो कारकून (लिपिक) नियुक्त किए गए थे। शिकदार के साथ एक सैनिक दस्ता होता था और उसका कर्तव्य परगने में शान्ति स्थापित करना था। मुन्सिफ का कार्य दीवानी मुकदमों का निर्णय करना और भूमि की नाप एवं लगान-व्यवस्था की देखभाल करना था। फोतदार परगने का खजांची था और कारकूनों का कार्य हिसाब-किताब लिखना था।

(घ) गाँव – शासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी। प्रत्येक गाँव में मुखिया, पंचायतें और पटवारी होते थे, जो स्थानीय प्रशासन की व्यवस्था करते थे। गाँव की अपनी पंचायत होती थी, जो गाँव में सुरक्षा, शिक्षा, सफाई आदि का प्रबन्ध करती थी। शेरशाह ने गाँव की परम्परागत व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया था परन्तु गाँव के इन अधिकारियों को अपने कर्तव्यों का पालन करना पड़ता था। अन्यथा इन्हें दण्ड दिया जाता था।

(ii) भू-राजस्व व्यवस्था – राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमिकर अथवा लगान था। इसके अतिरिक्त लावारिस सम्पत्ति, व्यापारिक कर, टकसाल, नमक-कर, अधीनस्थ राजाओं, सरदारों एवं व्यापारियों द्वारा दिए गए उपहार, युद्ध में लूटे गए माल का 1/5 भाग, जजिया इत्यादि आय के साधन थे। शेरशाह किसानों की भलाई में ही राज्य की भलाई मानता था। उसकी लगान-व्यवस्था बहुत अच्छी मानी जाती है, उसकी लगान-व्यवस्था निम्न प्रकार थी

(क) शेरशाह की लगान – व्यवस्था मुख्यतया रैयतवाड़ी थी, जिसमें किसानों से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित किया जाता था। इस कार्य में शेरशाह को पूर्ण सफलता नहीं मिली और जागीरदारी प्रथा भी चलती रही। मालवा और राजस्थान में यह व्यवस्था लागू नहीं की जा सकी।

(ख) उत्पादन के आधार पर ही भूमि को तीन श्रेणियों में बाँटा गया था- उत्तम, मध्यम और निम्न।

(ग) खेती योग्य सभी भूमि की नाप की जाती थी और पता लगाया जाता था कि किस किसान के पास कितनी और किस श्रेणी की भूमि है। उस आधार पर पैदावार का औसत निकाला जाता था।

(घ) लगान निश्चित करने की उस समय तीन प्रणालियाँ थीं – (अ) गल्ला बक्सी अथवा बँटाई (खेत बँटाई, लँक बँटाई और रास बँटाई), (ब) नश्क या कनकूत तथा (स) नकद अथवा जब्ती। सामान्यत: किसान बँटाई प्रणाली को ही पसन्द करता था।

(ड.) किसानों को सरकार की ओर से पट्टे दिए जाते थे, जिनमें स्पष्ट किया गया होता था कि उस वर्ष उन्हें कितना लगान देना है। किसान ‘कबूलियत-पत्र के द्वारा इन्हें स्वीकार करते थे।

(च) लगान के अलावा किसानों को जमीन की पैमाइश और लगान वसूल करने में संलग्न अधिकारियों के वेतन आदि के लिए सरकार को ‘जरीबाना’ और ‘महासीलाना’ नामक कर देने पड़ते थे जो पैदावार का 2.5% से 5% तक होता था। किसान को 2.5% अन्य कर भी देना पड़ता था, जिससे अकाल अथवा बाढ़ की दशा में जनता को सहायता मिलती थी।

(छ) शेरशाह का स्पष्ट आदेश था कि लगान लगाते समय किसानों के साथ सहानुभूति का बर्ताव किया जाए लेकिन लगान वसूल करते समय कोई नरमी न बरती जाए।

(ज) किसानों को यह सुविधा थी कि वे लगान नकद या जिन्स के रूप में दे सकते थे, लकिन सरकार नकद के रूप में लेना ज्यादा पसन्द करती थी।

(झ) शेरशाह यह ध्यान रखता था कि युद्ध के अवसर पर कृषि की कोई हानि न हो और जो हानि हो जाती थी, उसकी पूर्ति कर दी जाती थी।

(iii) केन्द्रीय शासन-प्रबन्ध – सुल्तान- दिल्ली सल्तनत के शासकों की भाँति शेरशाह भी एक निरंकुश शासक था और उसकी शक्ति एवं सत्ता अपरिमित थी। शासन नीति और दीवानी तथा फौजदारी मामलों के संचालन की शक्तियाँ उसी के हाथों में केन्द्रित थीं। उसके मन्त्री स्वयं निर्णय नहीं लेते थे बल्कि केवल उसकी आज्ञा का पालन और उसके द्वारा दिए गए कार्यों की पूर्ति करते थे।

इस कारण शासन की सुविधा की दृष्टि से शेरशाह को सल्तनतकाल की व्यवस्था के आधार पर चार मन्त्री विभाग बनाने पड़े थे। ये निम्नलिखित थे
(क) दीवाने वजारत – यह लगान और अर्थव्यवस्था का प्रधान था। राज्य की आय और व्यय की देखभाल करना इसका दायित्व था। इसे मन्त्रियों के कार्यों की देखभाल का भी अधिकार था।

(ख) दीवाने-आरिज – यह सेना के संगठन, भर्ती, रसद, शिक्षा और नियन्त्रण की देखभाल करता था, परन्तु यह सेना का सेनापति न था। शेरशाह स्वयं ही सेना का सेनापति था और स्वयं सेना के संगठन और सैनिकों की भर्ती आदि में रुचि रखता था।

(ग) दीवाने-रसालत – यह विदेश मन्त्री की भाँति कार्य करता था। अन्य राज्यों से पत्र-व्यवहार करना और उनसे सम्पर्क रखना इसका दायित्व था। कूटनीतिक पत्र-व्यवहार भी इसे ही सम्भालना होता था।

(घ) दीवाने – इंशा- इसका कार्य सुल्तान के आदेशों को लिखना, उनका लेखा रखना, राज्य के विभिन्न भागों में उनकी सूचना पहुँचाना और उनसे पत्र-व्यवहार करना था। इनके अतिरिक्त दो अन्य मन्त्रालय भी थे, ‘दीवाने-काजी’ और ‘दीवाने-बरीद’। दीवाने-काजी सुल्तान के पश्चात् राज्य के मुख्य न्यायाधीश की भॉति कार्य करता था और दीवाने-बरीद राज्य की गुप्तचर व्यवस्था और डाकव्यवस्था की देखभाल करता था। इसके अतिरिक्त बादशाह के महलों तथा नौकर-चाकरों की व्यवस्था के लिए एक अलग अधिकारी होता था।

(iv) सड़कें और सरायें – शेरशाह ने अपने समय में कई सड़कों का निर्माण कराया और पुरानी सड़कों की मरम्मत कराईं। शेरशाह ने मुख्यतया चार प्राचीन सड़कों की मरम्मत और निर्माण कराया। ये सड़कें निम्नलिखित थीं
(क) एक सड़क बंगाल के सोनारगाँव, आगरा, दिल्ली, लाहौर होती हुई पंजाब में अटक तक जाती थी अर्थात् (ग्रांड ट्रंक रोड), जिसे ‘सड़के-आजम’ के नाम से पुकारा जाता था।

(ख) दूसरी, आगरा से बुरहानपुर तक।

(ग) तीसरी, आगरा से जोधपुर और चित्तौड़ तक और

(घ) चौथी, लाहौर से मुल्तान तक जाती थी। शेरशाह ने इन सड़कों के दोनों ओर छायादार और फलों के वृक्ष लगवाए थे। उसने इन सभी सड़कों पर प्राय: दोदो कोस की दूरी पर सरायें बनवाई थीं। उसने अपने समय में करीब 1,700 सरायों का निर्माण कराया। इन सभी सरायों में हिन्दू और मुसलमानों के ठहरने के लिए अलग-अलग प्रबन्ध था। व्यापारी, यात्री, डाक-कर्मचारी आदि सभी यहाँ संरक्षण और भोजन प्राप्त करते थे।

(v) मुद्रा व्यवस्था – शेरशाह ने पुराने और घिसे हुए, पूर्व शासकों के प्रचलित सिक्के बन्द करके उनके स्थान पर सोने, चाँदी और ताँबे के नये सिक्के चलाए और उनका अनुपात निश्चित किया। उसके चाँदी के रुपए का वजन 180 ग्रेन था, जिसमें 175 ग्रेन शुद्ध चाँदी होती थी। सोने के सिक्के 166.4 ग्रेन और 168.5 ग्रेन के ढाले गए थे। ताँबे का सिक्का दाम कहलाता था। सिक्कों पर शेरशाह का नाम, उसकी पदवी और टकसाल का स्थान अरबी या देवनागरी लिपि में अंकित रहता था। शेरशाह के रुपए के बारे में इतिहासकार स्मिथ ने लिखा है “यह रुपया वर्तमान ब्रिटिश मुद्रा-प्रणाली का आधार है।”

(vi) पुलिस प्रशासन – शेरशाह के शासनकाल में सेना ही पुलिस का कार्य करती थी। इस विषय में शेरशाह ने स्थानीय उत्तरदायित्व के सिद्धान्त पर कार्य किया था। जिस क्षेत्र में जो अधिकारी था, उसी का उत्तरदायित्व उस क्षेत्र में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित रखना था। विभिन्न सैनिक अपने-अपने क्षेत्रों में शान्ति स्थापित करते थे, चोरों एवं लुटेरों को पकड़ते थे तथा जनसाधारण के जीवन और सम्मान की रक्षा करते थे।

(vii) व्यापार-वाणिज्य – शेरशाह ने स्थान-स्थान पर दिए जाने वाले करों को समाप्त कर दिया। उसने केवल आयात कर और ‘बिक्री कर लेने के आदेश दिए थे। उसके सभी अधिकारियों को यह भी आदेश था कि व्यापारियों की सुरक्षा की जाए और उनके साथ सद्व्यवहार किया जाए।

(viii) न्याय व्यवस्था – शेरशाह स्वयं राज्य का बड़ा न्यायाधीश था और प्रत्येक बुधवार की शाम को स्वयं न्याय के लिए बैठता था। वह न्यायप्रिय शासक था। शेरशाह कहा करता था कि “न्याय करना सभी धार्मिक क्रियाओं में सर्वोत्तम है। इस बात को मुसलमान और काफिर दोनों के बादशाह मानते हैं।” उसने अत्याचारियों का कभी पक्ष नहीं लिया, चाहे वे उसके रिश्तेदार हों, प्रिय पुत्र हों या उसके प्रमुख सरदार हों। अपराध की गम्भीरता के अनुसार कैद, कोड़े, हाथ-पैर काटना, जुर्माना, फाँसी आदि दण्ड दिए जाते थे। शेरशाह के न्याय का आदर्श था- इंसान से इंसान का बर्ताव। शेरशाह के नीचे काजी होता था, जो न्याय विभाग का प्रमुख होता था। प्रत्येक सरकार में मुख्य शिकदार फौजदारी मुकदमे तथा मुख्य मुन्सिफ दीवानी मुकदमों की सुनवाई करते थे। परगनों में यह कार्य अमीन करते थे।

(ix) शेरशाह की इमारतें – इमारतें बनवाने का शेरशाह को बहुत शौक था। उसने अपनी उत्तर-पश्चिम सीमा की सुरक्षा के लिए ‘रोहतासगढ़’ नाम का एक दुर्ग बनवाया। दिल्ली का पुराना किला शेरशाह का बनवाया हुआ ही माना जाता है। इसी किले में उसने एक ऊँची मस्जिद का निर्माण करवाया, जो भारतीय और इस्लामी कला का मिला-जुला एक अच्छा उदाहरण है। परन्तु शेरशाह की सर्वश्रेष्ठ कृति सासाराम (बिहार) में स्थित उसका स्वयं का मकबरा है। सहसराम (सासाराम) में झील के बीचोंबीच एक चबूतरे पर बना हुआ शेरशाह का यह मकबरा नि:सन्देह भारत की श्रेष्ठतम इमारतों में से एक है।

(x) गुप्तचर और सूचना विभाग – शेरशाह का गुप्तचर और सूचना विभाग बहुत श्रेष्ठ था। प्रजा की रक्षा के लिए वह अपने अमीरों की प्रत्येक टुकड़ी के साथ विश्वासपात्र गुप्तचर भेजता था। प्रत्येक नगर और राज्य के दूर-दूर भागों में भी गुप्तचर एवं समाचार भेजने वालों की नियुक्ति की गई थी। यह विभाग ऐसी कुशलता से कार्य करता था कि उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों को घटना का पता लगने से पहले ही शेरशाह को उसका पता चल जाता था। शेरशाह अपने गुप्तचरों और तेज चलने वाले सन्देशवाहकों के माध्यम से अपने सम्पूर्ण राज्य के शासन पर नियन्त्रण रखता था और यह काफी हद तक उनकी शासन-व्यवस्था की सफलता का आधार था।

(xi) शेरशाह का सैनिक-प्रबन्ध – शेरशाह ने एक शक्तिशाली सेना का गठन किया था। अलाउद्दीन की भाँति उसने केन्द्र पर एक शक्तिशाली सेना रखी, जो सुल्तान की सेना थी। केन्द्र की सेना में 1,50,000 घुड़सवार, 25,000 पैदल और 5,000 हाथी थे। उसकी घुड़सवार सेना में मुख्यतया अफगान थे। बाकी अन्य वर्गों के मुसलमान और हिन्दू भी उसकी सेना में थे। सैनिकों को वेतन नकद दिया जाता था यद्यपि सरदारों को जागीरें दी जाती थी। बेईमानी रोकने के लिए उसने घोड़ों को दागने और सैनिकों का हुलिया लिखे जाने की प्रथाओं को अपनाया। शेरशाह के पास एक अच्छा तोपखाना भी था। इस प्रकार हम देखते हैं कि शेरशाह ने कम समय में एक अच्छी व्यवस्था की स्थापना की। जो इतिहासकार बाबर की प्रशासकीय अयोग्यता को समय की कमी कहकर माफ कर देते हैं, शेरशाह उनके लिए एक श्रेष्ठ उदाहरण है। इस प्रकार शेरशाह ने अकबर के कार्य को भी सरल कर दिया क्योंकि अपने थोड़े समय में ही शेरशाह ने एक श्रेष्ठ शासन की पृष्ठभूमि का निर्माण किया, जिससे अकबर के लिए एक स्पष्ट रास्ता बन गया।

प्रश्न 3.
शेरशाह के प्रारम्भिक जीवन का उल्लेख कीजिए। वह भारत का शासक कैसे बना?
उतर.
शेरशाह का जन्म सासाराम शहर में हुआ था, जो अब बिहार के रोहतास जिले में है। शेरशाह सूरी के बचपन का नाम फरीद था उसे शेर खाँ के नाम से जाना जाता था क्योंकि उन्होंने कथित तौर पर कम उम्र में अकेले ही एक शेर को मारा था। उनका कुलनाम ‘सूरी’ उनके गृहनगर ‘सुर’ से लिया गया था। कन्नौज युद्ध में विजय के बाद शेर खाँ ने आगरा पर अधिकार किया ओर तभी से वह शेरशाह सूरी के नाम से भारत का सम्राट बना। शेरशाह सूरी के दादा इब्राहीम खान सूरी नारनौल क्षेत्र में एक जागीरदार थे, जो उस समय के दिल्ली के शासकों का प्रतिनिधित्व करते थे। उनके पिता हसन पंजाब में एक अफगान रईस जमाल खान की सेवा में थे।

शेरशाह के पिता की चार पत्नियाँ और आठ बच्चे थे। हसन अपनी चौथी पत्नी से अधिक प्रभावित था। शेरशाह को बचपन के दिनों में उसकी सौतेली माँ बहुत सताती थी, जिससे अप्रसन्न होकर उन्होंने घर छोड़ दिया और जौनपुर आकर अपनी पढ़ाई की। पढ़ाई पूरी कर शेरशाह 1522 ई० में जमाल खान की सेवा में चले गए, पर उनकी विमाता को यह पसंद नहीं आया। इसलिए उन्होंने जमाल खान की सेवा छोड़ दी और बिहार के स्वघोषित स्वतन्त्र शासक बहार खान लोहानी के दरबार में चले गए।

अपने पिता की मृत्यु के उपरान्त उनकी जागीर का उत्तराधिकारी बनकर वे पुन: सासाराम वापस आ गए। परन्तु अपने सौतेले भाई के षड्यन्त्र के कारण उन्हें अपनी जागीर पुनः त्यागनी पड़ी। शेर खाँ ने पहले बाबर के लिए एक सैनिक के रूप में काम किया था तथा पूर्व में उसने अफगानों के विरुद्ध बाबर की सहायता भी की थी, जिस कारण से अफगान शेर खाँ से अप्रसन्न हो गए थे। किन्तु इसी समय बहार खाँ की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र जलाल खाँ अभी अल्पव्यस्क था। जलाल खाँ की माता ने शेर खाँ को जलाल खाँ का संरक्षक नियुक्त कर दिया।

(i) जलाल खाँ के विरुद्ध विजय – शेर खाँ ने बिहार की इतनी अच्छी व्यवस्था की कि वहाँ की दरिद्र जनता पूर्ण रूप से शेर खाँ की समर्थक बन गई थी, परन्तु उसकी इस प्रसिद्धि से चिढ़कर कुछ सरदारों ने युवक जलाल खाँ के कान शेर खाँ के विरुद्ध भरने आरम्भ कर दिए अतः जलाल खा ने शेर खाँ से सत्ता वापस लेने का निश्चय किया, परन्त शेर खाँ वास्तविक शासक था और उसको सरलतापूर्वक दबाया नहीं जा सकता था। जलाल खाँ ने शेर खाँ से बिहार का राज्य प्राप्त करने के लिए उस पर आक्रमण कर दिया, परन्तु सूरजगढ़ के युद्ध (1534 ई०) में शेर खाँ ने जलाल खाँ को पराजित करके बिहार को पूर्णतया अपने अधिकार में ले लिया।

(ii) बंगाल पर आक्रमण – सूरजगढ़ की विजय से उत्साहित होकर शेर खाँ ने 1535 ई० में बंगाल के सुल्तान महमूद खाँ पर
आक्रमण कर दिया। इस बार महमूद खाँ ने शेर खाँ को धन देकर अपनी प्राण रक्षा की। परन्तु दो वर्ष के उपरान्त 1537 ई० में शेर खाँ ने पुनः बंगाल की राजधानी गौड़ पर घेरा डाल दिया तथा गौड़ पर विजय प्राप्त कर उसने सुल्तान महमूद को हुमायूं की शरण में जाने के लिए बाध्य कर दिया।

(iii) रोहतास के दुर्ग पर अधिकार – गौड़ को अधिकार में लेने के उपरान्त शेर खाँ ने रोहतास दुर्ग पर अधिकार किया। रोहतास दुर्ग उसने विश्वासघात के द्वारा प्राप्त किया। रोहतास दुर्ग के शासक हिन्दू राजा के साथ शेर खाँ के मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे, परन्तु रोहतास का राजनीतिक महत्व होने के कारण शेर खाँ उस पर अधिकार करना चाहता था। जब हुमायूँ ने गौड़ का घेरा डाला तब शेर खाँ ने राजा से रोहतास का दुर्ग उधार देने की प्रार्थना की। राजा ने शेर खाँ की शक्ति से भयभीत होकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। शेर खाँ ने दुर्ग में पहुँचकर किले के सरंक्षकों की हत्या करवा दी और सम्पूर्ण राजकोष पर अधिकार कर लिया।

(iv) हुमायूँ के साथ संघर्ष – शेर खाँ तथा हुमायूँ का संघर्ष 1531 ई० से प्रारम्भ हुआ। 1531 ई० में दक्षिण बिहार पर शेर खाँ ने अधिकार करके सुप्रसिद्ध दुर्ग चुनार पर भी अधिकार कर लिया। जब हुमायूँ को यह सूचना मिली तो उसने शेर खाँ से चुनार त्यागने को कहा। लेकिन शेर खाँ ने चुनार दुर्ग का परित्याग नहीं किया, अतः अवज्ञा के कारण उसे दण्ड देने के लिए हुमायूं स्वयं सेना लेकर बिहार पहुँचा। शेर खाँ ने खुशामद के द्वारा हुमायूँ को राजी कर लिया और हुमायूँ ने चुनार उसी को सौंप दिया। ऐसा करने का कारण यह था कि हुमायूँ इस समय बहादुरशाह के साथ संघर्ष में संलग्न था। जब शेर खाँ ने सूरजगढ़ के युद्ध के द्वारा बिहार को पूर्णतया जीत लिया तथा 1537 ई० तक बंगाल पर भी उसका अधिकार हो गया तब हुमायूँ को उससे संघर्ष करना अनिवार्य हो गया। हुमायूँ ने चुनार पर घेरा डालकर उसे जीत लिया, किन्तु इसी बीच शेर खाँ ने गौड़ तथा रोहतास के दुर्गों को अपने अधिकार में ले लिया तथा वह दुर्ग में सुरक्षित पहुँच गया।

(v) चौसा और कन्नौज के युद्धों में विजय – अन्त में चौसा के युद्ध (1539 ई०) में शेर खाँ ने हुमायूँ को तोपखाने का प्रयोग करने का अवसर दिए बिना ही रणक्षेत्र से भागने को विवश कर दिया। चौसा का युद्ध शेर खाँ की शक्ति तथा प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए पर्याप्त था। इस युद्ध में विजय प्राप्त करके उसने ‘शेरशाह’ की उपाधि धारण की तथा अगले वर्ष 1540 ई० में कन्नौज के युद्ध में हुमायूँ को पराजित कर उसे भारत से बाहर खदेड़ दिया।

(vi) सूर वंश की स्थापना – 1540 ई० में हुमायूँ को देश निकाला देकर शेरशाह भारत का सम्राट बन गया और भारत में मुगल वंश के स्थान पर उसने सूर वंश की स्थापना की।

प्रश्न 4.
शेरशाह के चरित्र और उपलब्धियों का मूल्याकंन कीजिए तथा सूर-साम्राज्य के पतन के जिम्मेदार महत्वपूर्ण कारणों का भी उल्लेख कीजिए।
उतर.
शेरशाह को भारत के इतिहास में उच्चतम सम्राटों में स्थान दिया जाता है और चन्द्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त तथा अकबर महान् के साथ उसकी तुलना की जाती है। शेरशाह के चरित्र की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(i) उदारता एवं दयालुता – शेरशाह एक प्रजावत्सल सम्राट था। वह प्रजा के साथ उदारता एवं दयालुतापूर्ण व्यवहार करता था। वह दण्ड देने में यद्यपि कठोर एवं अनुदार था, किन्तु उस युग में कठोरता के बिना अपराध समाप्त नहीं किए जा सकते थे। अपनी दरिद्र जनता के लिए उसका व्यवहार बड़ा ही दयापूर्ण था। कृषकों के प्रति वह अत्यन्त उदार था तथा उसके | राज्य में प्रतिदिन भिखारियों को दान दिया जाता था।

(ii) धार्मिक सहिष्णुता – शेरशाह प्रथम मुस्लिम सम्राट था, जिसमें उच्चकोटि की धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। यद्यपि वह प्रतिदिन कुरान की आयतों का पाठ करता था तथा नमाज अदा करता था. तथापि उसने भारत में हिन्दुओं व मसलमानों के साथ समानता का व्यवहार किया और उच्च पदों पर हिन्दुओं को भी आसीन किया तथा उनके बच्चों के पढ़ने की व्यवस्था की और एक सीमा तक उन्हें धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की। इस दृष्टिकोण से हम उसे अकबर महान् का अग्रज मान सकते हैं।

(iii) कर्तव्यपरायण – शेरशाह कर्तव्यपरायण सुल्तान था। वह अपने कर्तव्यों को भली-भाँति जानता था तथा समुचित रूप से उनका पालन भी करता था। बाल्यकाल से ही उसमें यह गुण विद्यमान था। सुल्तान बनने के उपरान्त भी वह अपने कर्तव्यों के प्रति हमेशा सजग रहता था। वह दिन में 16 घण्टे कठोर परिश्रम करता था तथा अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिए सतत प्रयत्नशील रहता था।

(iv) कठोर परिश्रमी – शेरशाह कठोर परिश्रमी था। वह दिन-रात परिश्रम करता था। इसी कारण वह अपने विलासी शत्रु हुमायूँ को पराजित कर सका। जिस समय को हुमायूं ने उत्सव और विलासिता में व्यतीत किया, उसी समय का सदुपयोग करके शेरशाह अपनी शक्ति बढ़ाने में सफल हुआ। वह छोटे-से-छोटे राज-काज की स्वयं देखभाल करता था। शासन के समस्त विभागों पर नियन्त्रण रखता था। इसी कारण वह अपने राज्य में सुव्यवस्था बनाए रखने में सफल रहा।

(v) विद्यानुरागी – शेरशाह को अधिक समय विद्याध्ययन के लिए नहीं मिल सका था तथापि उसे अध्ययन का बड़ा शौक था। जौनपुर में रहकर उसने स्वयं अनेक पुस्तकों का अध्ययन किया तथा अनेक ऐतिहासिक एवं दार्शनिक पुस्तकों के विषय में उसे पर्याप्त ज्ञान था। सुल्तान बनने के उपरान्त उसने विद्या प्रसार के लिए अनेक पाठशालाएँ एवं मकतब निर्मित करवाए। उसके दरबार में अनेक विद्वानों को भी आश्रय प्राप्त था।

(vi) कुशल सेनापति एवं कूटनीतिज्ञ – वह एक कुशल सेनापति था। हुमायूं के साथ लड़े गए युद्धों में हमें उसके उच्चकोटि के सेनापति होने के गुण दृष्टिगोचर होते हैं। अपनी कूटनीति के कारण चौसा के युद्ध में कौशल प्रदर्शित किए बिना ही वह विजयी बना। बंगाल एवं बिहार के यद्धों में भी उसने अपने रण-कौशल का परिचय दिया। दिल्ली का सल्तान बनने के उपरान्त भी वह निरन्तर युद्धों में संलग्न रहा तथा अनेक छोटे-छोटे राज्यों पर उसने विजय प्राप्त की। युद्ध में वह छल एवं बल दोनों का उचित प्रयोग जानता था। चुनार, रोहतास तथा रायसीन पर उसने कूटनीति द्वारा ही विजय प्राप्त की थी।

(vii) न्यायप्रिय – शेरशाह न्यायप्रिय सुल्तान था। उसके राज्य में न्याय की समुचित व्यवस्था थी। न्याय के सम्मुख वह सबको समान समझता था तथा अपने पुत्र तक को साधारण व्यक्ति के समान दण्ड देता था। वह कठोर दण्ड में विश्वास करता था, जिससे अपराध सदा के लिए समाप्त हो जाएँ।

सूर साम्राज्य के पतन के कारण – भारत में दिल्ली पर प्रथम अफगान सत्ता को लोदी वंश ने स्थापित किया था, किन्तु बाबर ने 1526 ई० में इब्राहीम लोदी को परास्त करके दिल्ली में मुगल वंश की स्थापना की। शेरशाह सूरी ने 1540 ई० में बाबर के उत्तराधिकारी बादशाह हुमायूँ को दो युद्धों में परास्त करके दिल्ली में पुनः द्वितीय अफगान सत्ता स्थापित की। परन्तु अफगानों का यह द्वितीय साम्राज्य लगभग 15 वर्षों तक ही रहा। 1555 ई० में हुमायूँ ने क्रमश: ‘मच्छीवाड़ा’ और ‘सरहिन्द’ के युद्धों को जीतकर द्वितीय अफगान सत्ता को समाप्त कर दिया। इस प्रकार द्वितीय अफगान (सूर) साम्राज्य के पतन के निम्नलिखित कारण हैं

(i) इस्लामशाह के अयोग्य उत्तराधिकारी – इस्लामशाह का उत्तराधिकारी उसका अल्पायु पुत्र फीरोज था, जिसको तीन दिन पश्चात् ही उसके मामा मुबारिज खाँ ने मरवा डाला और आदिलशाह के नाम से स्वयं सुल्तान बन गया। परन्तु वह अयोग्य सिद्ध हुआ। इसी प्रकार इब्राहीम शाह और सिकन्दरशाह भी अयोग्य सिद्ध हुए। इनमें से कोई भी सूर साम्राज्य के विघटन को रोकने में सफल नहीं हुआ और सूर साम्राज्य खण्डित हो गया।

(ii) अफगानों की स्वतन्त्रता की प्रवृत्ति – सूर साम्राज्य की असफलता का मूल कारण अफगानों का एक केन्द्रीय शासन व्यवस्था को स्वीकार न करना था। अफगान आवश्यकता से अधिक अपने अधिकारों की स्वतन्त्रता पर बल देते थे, जिसके कारण वे एक सुल्तान के शासन के अधीन रहना पसन्द नहीं करते थे। इस कारण सुल्तान के दुर्बल या अयोग्य होते ही उनकी स्वतन्त्रता की महत्वाकाँक्षाएँ सम्मुख आ जाती थीं और वे पारस्परिक संघर्ष में फँस जाते थे। इससे साम्राज्य की एकता को क्षति पहुँचती थी, जो किसी भी साम्राज्य के पतन के लिए जिम्मेदार होती हैं।

(iii) प्रशासकीय कठिनाइयाँ – शेरशाह ने अपने शासनकाल में ही अपने विशाल साम्राज्य में श्रेष्ठ शासन-व्यवस्था स्थापित करने में सफलता प्राप्त की थी। किन्त उसकी और उसके उत्तराधिकारी इस्लामशाह की मृत्यु के पश्चात् अफगानों में सिंहासन को प्राप्त करने के लिए पारस्परिक संघर्ष आरम्भ हुआ, जिससे यह व्यवस्था नष्ट हो गई। इसके अतिरिक्त आर्थिक कठिनाइयाँ भी उत्पन्न हो गई थीं। अफगान साम्राज्य के विभाजित हो जाने के कारण दिल्ली के शासक सिकन्दर लोदी के पास पर्याप्त सैनिक साधन भी उलपब्ध नहीं हो सके। फलत: मुगल सेना अफगान सेना से श्रेष्ठ सिद्ध हुई तथा हुमायूँ ने सिकन्दर लोदी को सरलता से परास्त करके दिल्ली पर अधिकार कर लिया।

(iv) इस्लामशाह का उत्तरदायित्व – इस्लामशाह नि:सन्देह शेरशाह का योग्य उत्तराधिकारी था, परन्तु उसी के शासनकाल में अफगानों में आपस में तीव्र विभाजन हो गया। वह अपने सरदारों के प्रति शंकालु हो गया था और उसने अपने कई सरदारों को मरवा भी दिया। इसी कारण उसके विरुद्ध विद्रोह हो गया। वह विद्रोह को दबाने में तो सफल रहा किन्तु अफगान सरदारों की वफादारी पाने में असफल रहा। उसकी मृत्यु होते ही अफगान सरदारों की व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाएँ और स्वतन्त्र प्रवृत्ति स्पष्ट रूप में सामने आ गई, जिनकी परिणति सूर साम्राज्य के पतन के रूप में हुई।

प्रश्न 5.
शेरशाह एक कुशल विजेता एवं प्रशासक था।प्रस्तुत कथन के आलोक में उसकी उपलब्धियों की समीक्षा कीजिए।
उतर.
कुशल विजेता एवं प्रशासक के रूप में शेरशाह की उपलब्धियाँ निम्नलिखित थीं
(i) गक्खर प्रदेश की विजय (1541 ई०) – शेरशाह का उद्देश्य बोलन दरें और पेशावर से आने वाले मार्गों को मुगलों के आक्रमण से सुरक्षित करना था। अत: झेलम और सिन्धु नदी के उत्तर में स्थित गक्खर प्रदेश पर अधिकार करना आवश्यक था क्योंकि इसकी स्थिति बड़ी ही महत्वपूर्ण थी। शेरशाह ने गक्खर सरदारों पर चढ़ाई की और उनके प्रदेश को बुरी तरह रौंद डाला, परन्तु उनकी शक्ति को समाप्त न कर सका। अनेक गक्खर सरदार इसके बाद भी शेरशाह का विरोध करते रहे। शेरशाह ने वहाँ रोहतासगढ़ नामक एक विशाल दुर्ग बनाया, जिससे उत्तरी सीमा की रक्षा और गक्खों की रोकथाम कर सके। शेरशाह ने वहाँ हैबत खाँ और खवास खाँ के नेतृत्व में 50,000 अफगान सैनिकों की एक शक्तिशाली सेना तैनात की।

(ii) बंगाल का विद्रोह और नई व्यवस्था (1541 ई०) – शेरशाह की एक वर्ष से अधिक की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर बंगाल का गवर्नर खिज्र खाँ स्वतन्त्र शासक बनने के स्वप्न देखने लगा। उसने बंगाल के मृत सुल्तान महमूद की लड़की से शादी कर ली और एक स्वतन्त्र शासक की तरह व्यवहार करने लगा। शेरशाह शीघ्रता से बंगाल आया और गौड़ पहुँचकर उसने खिज्र खाँ को कैद कर लिया। बंगाल जैसे दूरस्थ और धनवान सूबे में विद्रोह की आशंकाओं को समाप्त करने के लिए शेरशाह ने वहाँ एक अन्य प्रकार की शासन-व्यवस्था स्थापित की। उसने बंगाल को सरकारों (जिलों) में बाँटकर उनमें से प्रत्येक को एक छोटी सेना के साथ शिकदारों के नियन्त्रण में दे दिया। इन शिकदारों की नियुक्ति बादशाह ही करता था। इन शिकदारों की देखभाल के लिए फजीलत नामक व्यक्ति को प्रान्त के प्रमुख के रूप में नियुक्त किया। इस व्यवस्था के अन्तर्गत बंगाल में किसी भी अधिकारी के पास एक बड़ी सेना न रही, जिससे उनमें से कोई भी विद्रोह की स्थिति में न रहा।

(iii) मालवा की विजय( 1542 ई०) – बहादुरशाह की मृत्यु के पश्चात् मालवा के सूबेदार मल्लू खाँ ने 1537 ई० में स्वयं को स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया और मालवा पर अधिकार करके कादिरशाह की उपाधि प्राप्त की। सारंगपुर, माण्डू उज्जैन और रणथम्भौर के मजबूत किले उसके अधिकार में थे। उसने शेरशाह के आधिपत्य को मानने से इन्कार कर दिया। शेरशाह ने अपने राज्य की सुरक्षा और एकता के लिए मालवा पर आक्रमण कर दिया। 1542 ई० में कादिरशाह ने डरकर सारंगपुर में आत्मसमर्पण कर दिया। शेरशाह ने मालवा पर अधिकार करके शुजात खाँ को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया और कादिरशाह को लखनौती व कालपी की जागीरें दीं। परन्तु कादिरशाह अपनी जान बचाकर गुजरात भाग गया। वापस आते समय शेरशाह ने रणथम्भौर पर आक्रमण कर उसे अपनी अधीनता में ले लिया। अतः ग्वालियर, माण्डू, उज्जैन, सारंगपुर, रणथम्भौर आदि शेरशाह के अधिकार में आ गए।

(iv) रायसीन की विजय (1543 ई०) – 1542 ई० में रायसीन के शासक पूरनमल ने शेरशाह की अधीनता स्वीकार कर ली थी किन्तु शेरशाह को सूचना मिली कि पूरनमल मुस्लिम लोगों से अच्छा व्यवहार नहीं करता। अत: 1543 ई० में शेरशाह ने रायसीन को घेरे में ले लिया। कई माह तक रायसीन के किले का घेरा पड़ा रहा परन्तु शेरशाह को सफलता न मिली। अन्त । में शेरशाह ने चालाकी से काम लिया। उसने कुरान पर हाथ रखकर शपथ ली कि यदि किला उसे सौंप दिया जाए तो वह पूरनमल, उसके आत्मसम्मान एवं जीवन को हानि नहीं पहुंचाएगा। इस पर पूरनमल ने आत्मसमर्पण कर दिया। किन्तु मुस्लिम जनता के आग्रह पर शेरशाह ने राजपूतों के खेमों को चारों ओर से घेर लिया। राजपूत जी-जान से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। अनेक राजपूत स्त्रियों ने जौहर (आत्मदाह) कर लिया किन्तु दुर्भाग्य से थोड़ी-सी राजपूत स्त्रियाँ और बच्चे जीवित रह गए, उन्हें गुलाम बना लिया गया। डा० ए०एल० श्रीवास्तव के अनुसार- पूरनमल के साथ शेरशाह का यह विश्वासघात उसके नाम पर बहुत बड़ा कलंक है।

(v) मुल्तान व सिन्धविजय(1543 ई०) – शेरशाह ने खवास खाँ को पंजाब से वापस बुलाकर वहाँ हैबत खाँ को सूबेदार के रूप में नियुक्त किया। हैबत खाँ ने फतह खाँ जाट को परास्त कर मुल्तान पर अधिकार कर लिया। शेरशाह ने हुमायूँ का पीछा करने के दौरान (1541ई०) ही सिन्ध पर अधिकार कर लिया था। इस प्रकार उत्तर-पश्चिम में शेरशाह के राज्य के अन्तर्गत पंजाब प्रान्त के अतिरिक्त मुल्तान और सिन्ध भी सम्मिलित हो गए।

(vi) मारवाड़ विजय( नवम्बर (1543 से मई 1544 ई० ) – मारवाड़ का शासक इस समय राजा मालदेव था। ईष्र्यांवश कुछ राजपूतों ने शेरशाह को मारवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भड़काया तथा इस युद्ध में उसकी सहायता करने का भी वचन दिया। शेरशाह ने तुरंत ही एक सेना लेकर मारवाड़ की ओर कूच किया तथा 1544 ई० में मारवाड़ की राजधानी जोधपुर को घेर लिया। दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ, किन्तु मालदेव के वीर सैनिकों के सम्मुख शेरशाह की एक न चली।। अन्त में बल से विजय प्राप्त करने में असमर्थ शेरशाह ने छल-कपट का आश्रय लिया। शेरशाह अन्त में विजयी रहा। लेकिन इस युद्ध के बाद शेरशाह को यह कहना पड़ा कि मैंने केवल दो मुट्ठी बाजरे के लिए अपना सम्पूर्ण साम्राज्य ही दाँव पर लगा दिया था।

(vii) मेवाड़ विजय (1544 ई०) – मेवाड़ के वीर सम्राट राणा साँगा इस समय मर चुके थे और उनके अल्पव्यस्क पुत्र उदयसिहं मेवाड़ के राजा थे, जिनकी अल्पायु से लाभ उठाकर बनबीर मेवाड़ का सर्वेसर्वा बन बैठा था। ऐसे समय में शेरशाह ने मेवाड़ पर आक्रमण कर उस पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

(viii) कालिंजर विजय (1545 ई०) – शेरशाह की अन्तिम विजय कालिंजर पर हुई। कालिंजर का दुर्ग बड़ा सुदृढ़ एवं अभेद्य माना जाता है। नवम्बर 1544 ई० में उसने दुर्ग के चारों ओर घेरा डाल दिया, लेकिन एक वर्ष तक घेरा डाले रखने पर भी शेरशाह उस पर अधिकार न कर सका। तब उसने दुर्ग की दीवारों को गोला-बारूद से उड़ाने का निश्चय किया तथा दुर्ग के चारों ओर मिट्टी एवं बालू के ऊँचे-ऊँचे ढेर लगवा दिए। जब ढेर दुर्ग की दीवारों से भी ऊँचे हो गए तब शेरशाह सूरी की आज्ञानुसार 22 मई, 1545 ई० को अफगान सैनिकों ने इन पर चढ़कर दुर्ग में स्थित राजपूतों का संहार करना आरम्भ कर दिया। इसी समय शेरशाह नीचे से तोपखाने का निरीक्षण कर रहा था, तभी एक गोला फटने से उसे बहुत चोट आई; तथापि उसने आक्रमण को निरन्तर जारी रखने की आज्ञा दी तथा शाम तक दुर्ग पर उसका अधिकार हो गया।

(ix) साम्राज्य का विस्तार – शेरशाह ने अपनी मृत्यु के समय तक असोम, कश्मीर और गुजरात को छोड़कर उत्तर-भारत के प्रायः सम्पूर्ण भू-प्रदेश पर अपनी सत्ता को स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। शेरशाह एक विस्तृत साम्राज्य के संस्थापक के अतिरिक्त एक महान शासन-प्रबन्धक भी था, जिसके कारण उसकी गिनती मध्य युग के श्रेष्ठ शासकों में होती है।

प्रश्न 6.
शेरशाह की शासन-व्यवस्था की रूपरेखा प्रस्तुत कीजिए। उसे अकबर का पथ-प्रदर्शक क्यों कहा गया?
उतर.
शेरशाह की शासन-व्यवस्था – शेरशाह की शासन-व्यवस्था के लिए विस्तृत उत्तरी प्रश्न संख्या-2 का अवलोकन कीजिए। शेरशाह अकबर का पथ-प्रदर्शक- एक शासन-व्यवस्था की दष्टि से शेरशाह को अकबर का अग्रणी (पथ-प्रदर्शक) माना गया है। शेरशाह के सैनिक प्रबन्ध, सरदारों पर उसके नियन्त्रण, उसकी न्याय की भावना, उसकी प्रजा के हित की भावना और शासन के मूल सिद्धान्त आदि सभी का अकबर ने पूर्ण लाभ उठाया। शेरशाह ने राजपूतों से अधीनता स्वीकार कराकर उनके राज्य उन्हें वापस कर दिये थे। अकबर ने इसको और विस्तार से अपनाया।

शेरशाह की लगान व्यवस्था भी अकबर के लिए मार्गदर्शक बनी। शेरशाह के किसानों, व्यापारियों और जन-हित के कार्यों को अकबर ने यथावत् रूप से स्वीकार कर लिया। नि:सन्देह शेरशाह ने अकबर के शासन की आधारशिला का निर्माण किया और उसका अग्रणी अथवा पथ-प्रदर्शक बना। डॉ० आर०पी० त्रिपाठी ने लिखा है “यदि शेरशाह अधिक समय तक जीवित रहता तो सम्भवतया वह अकबर से महान् हो जाता। नि:सन्देह, वह दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ सुल्तान-राजनीतिज्ञों में से एक था। निश्चय ही उसने अकबर की महान् उदार नीति के मार्ग का निर्माण किया और वह सही अर्थों में उसका अग्रणी था।”

प्रश्न 7.
शेरशाह सूरी के शासन-प्रबन्ध की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
उतर.
शेरशाह का शासन-प्रबन्ध- इतिहासकारों ने शेरशाह को अकबर से भी श्रेष्ठ रचनात्मक बुद्धि वाला और राष्ट्र-निर्माता बताया है। सैनिक और असैनिक दोनों ही मामलो में शेरशाह ने संगठनकर्ता की दृष्टि से शानदार योग्यता का परिचय दिया। नि:सन्देह शेरशाह मध्य युग के महान् शासन-प्रबन्धकों में से एक था। उसने किसी नई शासन-व्यवस्था को जन्म नहीं दिया बल्कि उसने पुराने सिद्धान्तों और संस्थाओं को ऐसी कुशलता से लागू किया कि उनका स्वरूप नया दिखाई दिया। इस प्रकार योग्य शासन-प्रबन्ध की दृष्टि से इतिहास में शेरशाह का स्थान महत्वपूर्ण माना जाता है। शेरशाह का शासन-प्रबन्ध निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है
(i) प्रान्तीय शासन-प्रबन्ध
(क) इक्ता या सूबा – शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए शेरशाह ने साम्राज्य को अनेक भागों में बाँट रखा था। उस समय राज्य में ‘सरकार’ सबसे बड़ा खण्ड कहलाता था। सरकार ऐसे प्रशासकीय खण्ड थे जो कि प्रान्तों से मिलते-जुलते थे और जो इक्ता कहलाते थे और प्रमुख अधिकारियों के अधीन थे। शेरशाह के समय फौजी गवर्नरों की नियुक्तियाँ भी होती थीं। जिन राज्यों को शासन करने की स्वतन्त्रता दे दी गई थी, उन्हें सूबा या इक्ता कहा जाता था। सूबे का प्रमुख हाकिम अथवा फौजदार होता था। फिर भी शेरशाह के प्रान्तीय प्रशासन का विवरण स्पष्ट नहीं है।

(ख) सरकारें (जिले ) – प्रत्येक इक्ता या सूबा सरकारों में बँटा होता था। शेरशाह की सल्तनत में 66 सरकारें थीं। प्रत्येक सरकार में दो प्रमुख अधिकारी होते थे- ‘शिकदार-ए-शिकदारान’ और ‘मुन्सिफ-ए-मुनसिफान’। शिकदार-ए-शिकदारान सरकार के प्रशासन का अध्यक्ष होता था तथा विभिन्न परगनों के शिकदारों पर प्रशासनिक अधिकारी होता था। अपनी सरकार में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना करना तथा विद्रोही जमींदारों का दमन करना उसका प्रमुख कर्तव्य था। मुन्सिफ-ए-मुन्सिफान मुख्यतया न्याय-अधिकारी था। दीवानी मुकदमों का फैसला करना और अपने अधीन मुन्सिफों के कार्यों की देखभाल करना उसका दायित्व था।

(ग) परगने – प्रत्येक सरकार में कई परगने होते थे। शेरशाह ने प्रत्येक परगने में एक शिकदार, एक अमीन (मुन्सिफ), एक फोतदार (खजांची) और दो कारकून (लिपिक) नियुक्त किए गए थे। शिकदार के साथ एक सैनिक दस्ता होता था और उसका कर्तव्य परगने में शान्ति स्थापित करना था। मुन्सिफ का कार्य दीवानी मुकदमों का निर्णय करना और भूमि की नाप एवं लगान-व्यवस्था की देखभाल करना था। फोतदार परगने का खजांची था और कारकूनों का कार्य हिसाब-किताब लिखना था।

(घ) गाँव – शासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी। प्रत्येक गाँव में मुखिया, पंचायतें और पटवारी होते थे, जो स्थानीय प्रशासन की व्यवस्था करते थे। गाँव की अपनी पंचायत होती थी, जो गाँव में सुरक्षा, शिक्षा, सफाई आदि का प्रबन्ध करती थी। शेरशाह ने गाँव की परम्परागत व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया था परन्तु गाँव के इन अधिकारियों को अपने कर्तव्यों का पालन करना पड़ता था। अन्यथा इन्हें दण्ड दिया जाता था।

(ii) भू-राजस्व व्यवस्था – राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमिकर अथवा लगान था। इसके अतिरिक्त लावारिस सम्पत्ति, व्यापारिक कर, टकसाल, नमक-कर, अधीनस्थ राजाओं, सरदारों एवं व्यापारियों द्वारा दिए गए उपहार, युद्ध में लूटे गए माल का 1/5 भाग, जजिया इत्यादि आय के साधन थे। शेरशाह किसानों की भलाई में ही राज्य की भलाई मानता था। उसकी लगान-व्यवस्था बहुत अच्छी मानी जाती है, उसकी लगान-व्यवस्था निम्न प्रकार थी

(क) शेरशाह की लगान – व्यवस्था मुख्यतया रैयतवाड़ी थी, जिसमें किसानों से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित किया जाता था। इस कार्य में शेरशाह को पूर्ण सफलता नहीं मिली और जागीरदारी प्रथा भी चलती रही। मालवा और राजस्थान में यह व्यवस्था लागू नहीं की जा सकी।

(ख) उत्पादन के आधार पर ही भूमि को तीन श्रेणियों में बाँटा गया था- उत्तम, मध्यम और निम्न।

(ग) खेती योग्य सभी भूमि की नाप की जाती थी और पता लगाया जाता था कि किस किसान के पास कितनी और किस श्रेणी की भूमि है। उस आधार पर पैदावार का औसत निकाला जाता था।

(घ) लगान निश्चित करने की उस समय तीन प्रणालियाँ थीं – (अ) गल्ला बक्सी अथवा बँटाई (खेत बँटाई, लँक बँटाई और रास बँटाई), (ब) नश्क या कनकूत तथा (स) नकद अथवा जब्ती। सामान्यत: किसान बँटाई प्रणाली को ही पसन्द करता था।

(ड.) किसानों को सरकार की ओर से पट्टे दिए जाते थे, जिनमें स्पष्ट किया गया होता था कि उस वर्ष उन्हें कितना लगान देना है। किसान ‘कबूलियत-पत्र के द्वारा इन्हें स्वीकार करते थे।

(च) लगान के अलावा किसानों को जमीन की पैमाइश और लगान वसूल करने में संलग्न अधिकारियों के वेतन आदि के लिए सरकार को ‘जरीबाना’ और ‘महासीलाना’ नामक कर देने पड़ते थे जो पैदावार का 2.5% से 5% तक होता था। किसान को 2.5% अन्य कर भी देना पड़ता था, जिससे अकाल अथवा बाढ़ की दशा में जनता को सहायता मिलती थी।

(छ) शेरशाह का स्पष्ट आदेश था कि लगान लगाते समय किसानों के साथ सहानुभूति का बर्ताव किया जाए लेकिन लगान वसूल करते समय कोई नरमी न बरती जाए।

(ज) किसानों को यह सुविधा थी कि वे लगान नकद या जिन्स के रूप में दे सकते थे, लकिन सरकार नकद के रूप में लेना ज्यादा पसन्द करती थी।

(झ) शेरशाह यह ध्यान रखता था कि युद्ध के अवसर पर कृषि की कोई हानि न हो और जो हानि हो जाती थी, उसकी पूर्ति कर दी जाती थी।

(iii) केन्द्रीय शासन-प्रबन्ध – सुल्तान- दिल्ली सल्तनत के शासकों की भाँति शेरशाह भी एक निरंकुश शासक था और उसकी शक्ति एवं सत्ता अपरिमित थी। शासन नीति और दीवानी तथा फौजदारी मामलों के संचालन की शक्तियाँ उसी के हाथों में केन्द्रित थीं। उसके मन्त्री स्वयं निर्णय नहीं लेते थे बल्कि केवल उसकी आज्ञा का पालन और उसके द्वारा दिए गए कार्यों की पूर्ति करते थे।

इस कारण शासन की सुविधा की दृष्टि से शेरशाह को सल्तनतकाल की व्यवस्था के आधार पर चार मन्त्री विभाग बनाने पड़े थे। ये निम्नलिखित थे
(क) दीवाने वजारत – यह लगान और अर्थव्यवस्था का प्रधान था। राज्य की आय और व्यय की देखभाल करना इसका दायित्व था। इसे मन्त्रियों के कार्यों की देखभाल का भी अधिकार था।

(ख) दीवाने-आरिज – यह सेना के संगठन, भर्ती, रसद, शिक्षा और नियन्त्रण की देखभाल करता था, परन्तु यह सेना का सेनापति न था। शेरशाह स्वयं ही सेना का सेनापति था और स्वयं सेना के संगठन और सैनिकों की भर्ती आदि में रुचि रखता था।

(ग) दीवाने-रसालत – यह विदेश मन्त्री की भाँति कार्य करता था। अन्य राज्यों से पत्र-व्यवहार करना और उनसे सम्पर्क रखना इसका दायित्व था। कूटनीतिक पत्र-व्यवहार भी इसे ही सम्भालना होता था।

(घ) दीवाने – इंशा- इसका कार्य सुल्तान के आदेशों को लिखना, उनका लेखा रखना, राज्य के विभिन्न भागों में उनकी सूचना पहुँचाना और उनसे पत्र-व्यवहार करना था। इनके अतिरिक्त दो अन्य मन्त्रालय भी थे, ‘दीवाने-काजी’ और ‘दीवाने-बरीद’। दीवाने-काजी सुल्तान के पश्चात् राज्य के मुख्य न्यायाधीश की भॉति कार्य करता था और दीवाने-बरीद राज्य की गुप्तचर व्यवस्था और डाकव्यवस्था की देखभाल करता था। इसके अतिरिक्त बादशाह के महलों तथा नौकर-चाकरों की व्यवस्था के लिए एक अलग अधिकारी होता था।

(iv) सड़कें और सरायें – शेरशाह ने अपने समय में कई सड़कों का निर्माण कराया और पुरानी सड़कों की मरम्मत कराईं। शेरशाह ने मुख्यतया चार प्राचीन सड़कों की मरम्मत और निर्माण कराया। ये सड़कें निम्नलिखित थीं
(क) एक सड़क बंगाल के सोनारगाँव, आगरा, दिल्ली, लाहौर होती हुई पंजाब में अटक तक जाती थी अर्थात् (ग्रांड ट्रंक रोड), जिसे ‘सड़के-आजम’ के नाम से पुकारा जाता था।

(ख) दूसरी, आगरा से बुरहानपुर तक।

(ग) तीसरी, आगरा से जोधपुर और चित्तौड़ तक और

(घ) चौथी, लाहौर से मुल्तान तक जाती थी। शेरशाह ने इन सड़कों के दोनों ओर छायादार और फलों के वृक्ष लगवाए थे। उसने इन सभी सड़कों पर प्राय: दोदो कोस की दूरी पर सरायें बनवाई थीं। उसने अपने समय में करीब 1,700 सरायों का निर्माण कराया। इन सभी सरायों में हिन्दू और मुसलमानों के ठहरने के लिए अलग-अलग प्रबन्ध था। व्यापारी, यात्री, डाक-कर्मचारी आदि सभी यहाँ संरक्षण और भोजन प्राप्त करते थे।

(v) मुद्रा व्यवस्था – शेरशाह ने पुराने और घिसे हुए, पूर्व शासकों के प्रचलित सिक्के बन्द करके उनके स्थान पर सोने, चाँदी और ताँबे के नये सिक्के चलाए और उनका अनुपात निश्चित किया। उसके चाँदी के रुपए का वजन 180 ग्रेन था, जिसमें 175 ग्रेन शुद्ध चाँदी होती थी। सोने के सिक्के 166.4 ग्रेन और 168.5 ग्रेन के ढाले गए थे। ताँबे का सिक्का दाम कहलाता था। सिक्कों पर शेरशाह का नाम, उसकी पदवी और टकसाल का स्थान अरबी या देवनागरी लिपि में अंकित रहता था। शेरशाह के रुपए के बारे में इतिहासकार स्मिथ ने लिखा है “यह रुपया वर्तमान ब्रिटिश मुद्रा-प्रणाली का आधार है।”

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UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 24 Foreign Trade

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography
Chapter Chapter 24
Chapter Name Foreign Trade (विदेशी व्यापार)
Number of Questions Solved 16
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 24 Foreign Trade (विदेशी व्यापार)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारत के विदेशी व्यापार का विवरण निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत दीजिए –
(i) निर्यात, (ii) आयात, (ii) व्यापार की दिशा। [2014]
या
विदेशी व्यापार का क्या आशय है? भारत में आयात की जाने वाली वस्तुओं का उल्लेख कीजिए। [2008]
या
भारत के विदेशी व्यापार की प्रमुख विशेषताएँ बताइए। [2011, 12]
या
भारत का निर्यात व्यापार पर टिप्पणी लिखिए। [2008, 16]
या
भारत के विदेशी व्यापार की प्रवृत्तियों पर एक निबन्ध लिखिए। [2011]
या
भारत के आयात-निर्यात व्यापार की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए। [2011]
या
भारत से निर्यात की जाने वाली प्रमुख वस्तुओं का विवरण दीजिए। [2014]
उत्तर

भारत का विदेशी व्यापार
Foreign Trade of India

विदेशी व्यापार की वृद्धि मानवीय सभ्यता के विकास का मापदण्ड होती है। विदेशी व्यापार द्वारा देश में उत्पादित अतिरिक्त वस्तुओं की खपत दूसरे देशों में हो जाती है, जबकि आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति अन्य देशों से मँगाकर कर ली जाती है। इससे आर्थिक विकास में तीव्रता आती है तथा जीवन-स्तर में वृद्धि हो जाती है।

स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व भारत का विदेशी व्यापार एक उपनिवेश एवं कृषि पदार्थों तक ही सीमित था। इसका अधिकांश व्यापार ग्रेट ब्रिटेन तथा राष्ट्रमण्डलीय देशों से ही होता था। देश से प्राथमिक उत्पादों का निर्यात किया जाता था, जबकि तैयार वस्तुओं का आयात किया जाता था। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भारत के विदेशी व्यापार में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। आज देश के व्यापारिक सम्बन्ध लगभग सभी देशों से हो गये हैं। वर्तमान में भारत 180 देशों को लगभग 7,500 वस्तुओं से भी अधिक का निर्यात करता है, जबकि 6,000 से अधिक वस्तुएँ 140 देशों से आयात करता है। औद्योगिक एवं आर्थिक विकास की आवश्यकताओं ने आयात में भारी वृद्धि की है। उन्नत मशीनें, अलभ्य कच्चे माल, पेट्रोलियम पदार्थ, रासायनिक उर्वरकों आदि के आयात ने वर्तमान विदेशी व्यापार का सन्तुलन विपरीत दिशा में कर दिया है। वर्ष 2006-2007 में देश ने 5,638 अरब की वस्तुएँ विदेशों को निर्यात की थीं, अब यह बढ़कर 18,941 अरब हो गयी है। जबकि आयात १ 8,206 अरब का था, अब यह बढ़कर 27,141 अरब हो गया है।

भारत की प्रमुख आयातक एवं निर्यातक वस्तुएँ
Major Imports and exports of India

आयातक वस्तुएँ Importing Goods
भारत में आयात की जाने वाली वस्तुओं का विवरण निम्नलिखित है
(1) पेट्रोल एवं पेट्रोलियम उत्पाद – भारत के आयात में पेट्रोल एवं पेट्रोलियम उत्पादों का विशिष्ट स्थान है। यह आयात बहरीन द्वीप, फ्रांस, इटली, अरब, सिंगापुर, संयुक्त राज्य, ईरान, इण्डोनेशिया, संयुक्त अरब अमीरात, मैक्सिको, अल्जीरिया, म्यांमार, इराक, रूस आदि देशों से किया जाता है। वर्तमान समय में खाड़ी संकट के कारण पेट्रोल एवं पेट्रोलियम उत्पाद के मूल्य में और अधिक वृद्धि हुई है जिससे इसका आयात मूल्य बढ़ गया है।

(2) मशीनें – देश के आर्थिक एवं औद्योगिक विकास के लिए भारी मात्रा में मशीनों का आयात किया जा रहा है। इनमें विद्युत मशीनों का आयात सबसे अधिक किया जाता है। सूती वस्त्र उद्योग की मशीनें, कृषि मशीनें, बुल्डोजर, शीत भण्डारण, चमड़ा कमाने की मशीनें, चाय एवं चीनी उद्योग की मशीनें, वायु-संपीडक, खनिज उद्योग की मशीनें आदि अनेक प्रकार की मशीनों का आयात किया जाता है। मशीनें 46% ब्रिटेन से, 21% जर्मनी से, 14% संयुक्त राज्य अमेरिका से तथा शेष अन्य देशों; जैसे- बेल्जियम, फ्रांस, जापान एवं कनाडा आदि से आयात की जाती हैं।

(3) कपास एवं रद्दी रूई – भारत में उत्तम सूती वस्त्र तैयार करने के लिए लम्बे रेशे वाली कपास तथा विभिन्न प्रकार के कपड़ों के लिए रद्दी रूई विदेशों से आयात की जाती है। यह कपास एवं रूई मिस्र, संयुक्त राज्य अमेरिका, तंजानिया, कीनिया, सूडान, पीरू, पाकिस्तान आदि देशों से मँगायी जाती है।

(4) धातुएँ, लोहे तथा इस्पात का सामान – इन वस्तुओं का कुल आयातित माल में दूसरा स्थान है। ऐलुमिनियम, पीतल, ताँबा, काँसा, सीसा, जस्ता, टिन आदि धातुएँ विदेशों से अधिक मात्रा में मँगायी जाती हैं। इन वस्तुओं का आयात प्रायः ब्रिटेन, कनाडा, स्विट्जरलैण्ड, स्वीडन, संयुक्त राज्य अमेरिका, बेल्जियम, कांगो गणतन्त्र, मोजाम्बिक, ऑस्ट्रेलिया, म्यांमार, सिंगापुर, मलेशिया, रोडेशिया, जापान आदि देशों से किया जाता है।

(5) खाद्यान्न – देश में जनसंख्या की तीव्र वृद्धि तथा खाद्यान्न उत्पादन की कमी इसके आयात को आकर्षित करती है। परन्तु पिछले कुछ वर्षों से खाद्यान्न उत्पादन में आशातीत सफलता मिलने के कारण इनका आयात कम कर दिया गया है तथा देश निर्यात करने की स्थिति में आ गया है। थाइलैण्ड सदृश देशों को गेहूँ का मैदा निर्यात किया जा रहा है।

(6) रासायनिक पदार्थ – रासायनिक पदार्थों के आयात में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। इसमें अमोनियम सल्फेट, नाइट्रेट ऑफ सोडा, सुपर फॉस्फेट, एसेटिक एसिड, नाइट्रिक एसिड, बोरिक एवं टार्टरिक एसिड, सोडा-ऐश, ब्लीचिंग पाउडर, गन्धक, अमोनियम क्लोराइड आदि वस्तुएँ मुख्य हैं। इनका आयात सं० रा० अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, जर्मनी, जापान, बेल्जियम आदि देशों से किया जाता है। दवाइयों का आयात मुख्यतः ब्रिटेन, स्विट्जरलैण्ड, कनाडा एवं संयुक्त राज्य अमेरिका से किया जाता है।

(7) कागज व स्टेशनरी – देश में साक्षरता की वृद्धि तथा अन्य आवश्यकताओं के कारण कागज की माँग बढ़ रही है। इसका आयात नॉर्वे, स्वीडन, कनाडा, जर्मनी, फ्रांस, संयुक्त राज्य अमेरिका, ऑस्ट्रिया, फिनलैण्ड एवं ब्रिटेन से किया जाता है।
अन्य आयातक वस्तुओं में विद्युत उपकरण, काँच का सामान, सूती वस्त्र, ऊनी वस्त्र, मोटरसाइकिलें, रबड़ का सामान, जूट एवं रेशमी वस्त्र मुख्य हैं।

निर्यातक वस्तुएँ Exporting Goods
भारत से निम्नलिखित प्रमुख वस्तुओं का निर्यात किया जाता है –

  1. जूट का सामान – भारत के निर्यात व्यापार में जूट का सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि इसके निर्यात से विदेशी मुद्रा का 35% भाग प्राप्त होता है। इससे निर्मित बोरे, टाट, मोटे कालीन, फर्श, गलीचे, रस्से, तिरपाल आदि निर्यात किये जाते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, अर्जेण्टीना, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, रूस, अरब गणराज्य आदि देश इसके मुख्य ग्राहक हैं।
  2. चाय – कुल चाय का 59% भाग ब्रिटेन को निर्यात किया जाता है, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका4%, रूस 12%, कनाडा 3%, ईरान 1%, अरब गणराज्य 6%, नीदरलैण्ड्स.2% तथा सूडान एवं जर्मनी अन्य प्रमुख ग्राहक हैं।
  3. चमड़ा – भारतीय चमड़े की माँग मुख्यतः ब्रिटेन 45%, जर्मनी 10%, फ्रांस 7% एवं संयुक्त राज्य अमेरिका 9% देशों में रहती है। अन्य ग्राहकों में इटली, जापान, बेल्जियम और यूगोस्लाविया आदि देश हैं।
  4. तम्बाकू – भारत द्वारा ब्रिटेन, जापान, पाकिस्तान, अदन, चीन, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों को तम्बाकू का निर्यात किया जाता है।
  5. तिलहन – भारत से विभिन्न प्रकार के तिलहन एवं तेलों का निर्यात किया जाता है। इसमें मूंगफली, अलसी, तिल एवं अरण्डी का तेल प्रमुख हैं। तिलहन के उत्पादन में कमी के कारण अब खली का निर्यात अधिक किया जाता है। ब्रिटेन, फ्रांस, संयुक्त राज्य अमेरिका, पाकिस्तान, इराक, कनाडा, इटली, बेल्जियम, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, हंगरी, सऊदी अरब, श्रीलंका, मॉरीशस आदि देश मुख्य आयातक हैं।
  6. लाख – लाख के आयातक ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका एवं ऑस्ट्रेलिया आदि देश हैं।
  7. सूती वस्त्र – भारत मोटा एवं उत्तम, दोनों ही प्रकार का कपड़ा निर्यात करता है। ईरान, इराक, सऊदी अरब, पूर्वी अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, दक्षिणी अफ्रीका, श्रीलंका, म्यांमार, पाकिस्तान, थाइलैण्ड, मिस्र, तुर्की, चीन, सिंगापुर, मलेशिया, इण्डोनेशिया इन वस्त्रों के प्रमुख ग्राहक हैं।
  8. मसाले – भारत में काली मिर्च, इलायची, सुपारी, हल्दी, अदरख आदि अनेक मसालों का निर्यात संयुक्त राज्य अमेरिका, स्वीडन, सऊदी अरब, ब्रिटेन, पाकिस्तान, श्रीलंका, चीन, इटली, डेनमार्क एवं कनाडा को किया जाता है।
  9. धातु-निर्मित वस्तुएँ – धातु-निर्मित वस्तुओं के अन्तर्गत देश से बिजली के पंखे, बल्ब, लोहे एवं ताँबे के तार, बैटरियाँ, धातु की चादरों से बने बरतन, सिलाई की मशीनें, रेजर, ब्लेड, कागज बनाने, प्लास्टिक की ढलाई करने, छपाई करने, जूता सीने, चीनी एवं चाय बनाने की मशीनें, मोटरगाड़ियाँ एवं उनके पुर्जे, ताले, साँकलें एवं चटकनियाँ, छाते, लोहे से ढालकर बनाई गयी वस्तुएँ, गैस-बत्तियाँ, रेगमाल आदि वस्तुएँ निर्यात की जाती हैं।

भारत से निर्यात की जाने वाली अन्य वस्तुओं में सूखे मेवे-कोजू एवं अखरोट, फल एवं तरकारियाँ, अभ्रक, मैंगनीज, ऊन, कोयला, कहवा, नारियल एवं उससे निर्मित पदार्थ, रासायनिक पदार्थ तथा ऊनी कम्बल आदि प्रमुख हैं।

भारत के विदेशी व्यापार की मुख्य विशेषताएँ
Main Characteristics of India’s Foreign Trade

भारत के विदेशी व्यापार की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
(1) अधिकांश भारतीय विदेशी व्यापार लगभग (90%) समुद्री मार्गों द्वारा किया जाता है। हिमालय पर्वतीय अवरोध के कारण समीपवर्ती देशों एवं भारत के मध्य धरातलीय आवागमन की सुविधा उपलब्ध नहीं है। इसी कारण देश का अधिकांश व्यापार पत्तनों द्वारा अर्थात् समुद्री मार्गों द्वारा ही किया जाता है।

(2) भारत के निर्यात व्यापार का 27% पश्चिमी यूरोपीय देशों, 20% उत्तरी अमेरिकी देशों, 51% एशियाई एवं ऑसिआनियाई देशों तथा 2% अफ्रीकी एवं दक्षिणी अमेरिकी देशों को किया जाता है। कुल निर्यात व्यापार का 61.1% भाग विकसित देशों (सं० रा० अमेरिका–17.4%, जापान-7.2%, जर्मनी–6.8% एवं ब्रिटेन-5.8%) को किया जाता है।
इसी प्रकार आयात व्यापार में 26% पश्चिमी यूरोपीय देशों, 39% एशियाई एवं ऑसिओनियाई देशों, 13% उत्तरी अमेरिकी देशों तथा 11% अफ्रीकी देशों का स्थान है।

(3) यद्यपि भारत में विश्व की 16% जनसंख्या निवास करती है, परन्तु विश्व व्यापार में भारत का भाग लगभग 10% से भी कम है, जबकि अन्य विकसित एवं विकासशील देशों का भाग इससे कहीं अधिक है। इस प्रकार देश के प्रति व्यक्ति विदेशी व्यापार का औसत अन्य देशों से कम है।
(4) भारत के विदेशी व्यापार का भुगतान सन्तुलन स्वतन्त्रता के बाद से ही हमारे पक्ष में नहीं रहा है। वर्ष 1960-61 तथा 1970-71 में भुगतानं सन्तुलन हमारे पक्ष में रहा है। वर्ष 1980-81 में घाटा 58.3 अरब था, वर्ष 1990-91 में यह घाटा १ 106.4 अरब तक पहुँच गया है। वर्ष 2013-14 में भारत के पास ₹8200 अरब से अधिक का विदेशी भुगतान शेष था। घाटे में वृद्धि का प्रमुख कारण आयात में भारी वृद्धि का होना है। आयात में भारी वृद्धि पेट्रोलियम पदार्थों के आयात के कारण हुई है।

(5) देश का अधिकांश विदेशी व्यापार लगभग 35 देशों के मध्य होता है, जो विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के आधार पर किया जाता है।
(6) भारत के विदेशी व्यापार में खाद्यान्नों के आयात में निरन्तर कमी आयी है, जिसका प्रमुख कारण खाद्यान्न उत्पादन में उत्तरोत्तर वृद्धि का होना है। वर्ष 1989-90 से देश खाद्यान्नों को निर्यात करने की स्थिति में आ गया है तथा उसने पड़ोसी देशों को खाद्यान्न निर्यात भी किये हैं।
(7) भारत अपनी विदेशी मुद्रा संकट का हल अधिकाधिक निर्यात व्यापार से ही कर सकता है; अतः उन्हीं कम्पनियों को आयात की छूट दी जाती है जो निर्यात करने की स्थिति में हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
विदेशी व्यापार का क्या अभिप्राय है? भारत से निर्यात की जाने वाली दो प्रमुख वस्तुओं का उल्लेख कीजिए। [2010]
उत्तर
विदेशी व्यापार – वह व्यापार जिसके माध्यम से एक देश की अतिरिक्त वस्तुएँ दूसरे देश में खपती हैं, विदेशी व्यापार कहलाता है। आयात व निर्यात विदेशी व्यापार के दो प्रमुख पहलू हैं। जब एक देश दूसरे देश से कोई वस्तु मँगाता है, उसे आयात कहते हैं। एक देश से दूसरे देश को भेजी जाने वाली वस्तु के व्यापार को निर्यात कहा जाता है।
भारत से निर्यात की जाने वाली दो प्रमुख वस्तुएँ हैं-सिले-सिलाए परिधान तथा अभियान्त्रिकी माल।

प्रश्न 2
भारत के विदेशी व्यापार की नवीनतम प्रवृत्तियाँ क्या हैं?
या
भारतीय विदेशी व्यापार की प्रवृत्तियों का वर्णन कीजिए। [2010, 15]
उत्तर
(1) आयातों की प्रकृति में परिवर्तन – पहले भारत में निर्मित माल का अधिक आयात किया जाता था, अब कच्चे (अशुद्ध) पेट्रोलियम, कच्चे माल तथा पूँजीगत वस्तुओं का आयात होने लगा है।

(2) गैर-परम्परागत वस्तुओं के निर्यात में वृद्धि – भारत परम्परागत निर्यात पदार्थों (खाद्य पदार्थ, चमड़ा, अभ्रक, मैंगनीज, लौह धातु) के अतिरिक्त साइकिलें, मशीनें, पंखे, इन्जीनियरिंग का सामान, मशीनरी, उपकरण, रेल के इंजन तथा उपकरण, इस्पात का फर्नीचर, चीनी, सीमेण्ट, हौज़री, फल, हस्त- निर्मित वस्तुओं आदि का निर्यात करने लगा है।

(3) विदेशी व्यापार की दिशा में परिवर्तन – विगत चार दशकों में भारत के विदेशी व्यापार की। दिशा में भारी परिवर्तन हुए हैं। 1960 के दशक में जहाँ ब्रिटेन तथा कॉमनवेल्थ के देशों तथा यूरोपीय संघ के देशों से अधिक व्यापार होता था, अब अल्पविकसित एशियाई तथा अफ्रीकी देशों तथा पेट्रोलियम उत्पादक देशों से आयातों में वृद्धि हुई है। आयातों के स्रोत के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका का वर्चस्व घट गया है, किन्तु निर्यातों में वृद्धि हुई है। सन् 1970 तक जहाँ रूस को अधिक निर्यात होते थे, 1991 ई० में उसके विघटन के बाद निर्यात एकदम घट गये हैं।

प्रश्न 3
भारत से निर्यात की जाने वाली दो प्रमुख वस्तुओं के नाम बताइए। वे किन-किन देशों को निर्यात की जाती हैं? [2008, 11]
उत्तर

  1. चाय – चाय भारत के प्रमुख निर्यातों में से एक है। ब्रिटेन भारतीय चाय का सबसे बड़ा ग्राहक है। इसके अतिरिक्त अमेरिका, ईरान, संयुक्त अरब गणराज्य, रूस, जर्मनी, सूडान आदि देशों को भारत चाय का निर्यात करता है।
  2. जूट – जूट भारत का परम्परागत निर्यात है। भारतीय जूट का सबसे बड़ा ग्राहक अमेरिका है। इसके अतिरिक्त क्यूबा, संयुक्त अरब गणराज्य, हांगकांग, रूस, ब्रिटेन, कनाडा, अर्जेण्टीना आदि देशों को भारत जूट का निर्यात करता है।

प्रश्न 4
भारत के विदेश व्यापार में अभिनव प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए। [2016]
उत्तर
भारत के विदेश व्यापार की अभिनव प्रवृत्तियाँ
भारत के विदेश व्यापार की अभिनव प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. विगत वर्षों में भारत का निर्यात व्यापार अपेक्षाकृत पूर्व वर्षों से बढ़ा है जो एक अच्छा संकेत है। भारत की निर्यात वस्तुओं में भी अब परिवर्तन देखा गया है। इनमें रेडीमेड गारमेण्ट्स, इलेक्ट्रोनिक्स उत्पाद, सॉफ्टवेयर और आभूषण आदि मुख्य हैं।
  2. उदारीकरण के दौर में आयात-निर्यात नीति में उदारवादी एवं मित्रवत् परिवर्तन लाकर जहाँ एक ओर भारतीय निर्यातों के लिए विस्तृत परिक्षेत्र तैयार किया गया है। वहीं विश्व व्यापार संगठन (WTO) को किए गए वादे के अनुरूप परिमाणात्मक नियन्त्रणों को भी समाप्त करने का दौर भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी से लागू कर दिया गया है।
  3. भारत सरकार ने देश के निर्यातों में वृद्धि के उद्देश्य से चार परम्परागत निर्यात संवर्द्धन क्षेत्रों (EPzs) को विशेष आर्थिक परिक्षेत्र (SEZs) में रूपान्तरित कर दिया है। कांडला (गुजरात), सान्ताक्रुज (महाराष्ट्र), कोच्चि (केरल) तथा सूरत (गुजरात) विशेष आर्थिक परिक्षेत्र इसमें सम्मिलित हैं।
  4. भारत का विदेश व्यापार अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के आधार पर किया जाता है। भारत का अधिकांश देशों से विदेश व्यापार होता है।
  5. भारत के अधिकांश आयात-निर्यात (व्यापार) देश के पूर्वी तथा पश्चिमी तट पर स्थित 13 बड़े पत्तनों द्वारा ही सम्पन्न किए जाते हैं।

प्रश्न 5
भारत के विदेशी व्यापार की चार विशेषताएँ लिखिए। [2013]
उत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 के अन्तर्गत ‘भारत के विदेशी व्यापार की मुख्य विशेषताएँ शीर्षक देखें।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
व्यापार के असन्तुलन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
जब किसी देश में निर्यात की अपेक्षा आयात अधिक होते हैं तब इसे व्यापार का असन्तुलन कहते हैं।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 24 Foreign Trade

प्रश्न 2
भारत के विदेशी व्यापार की दो नवीन प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. गैर-परम्परागत वस्तुओं के निर्यात में वृद्धि
  2. विदेशी व्यापार की दिशा में परिवर्तन।

प्रश्न 3
भारत में किस पदार्थ का आयात सबसे अधिक मूल्य का होता है?
उत्तर
भारत में पेट्रोलियम तथा इसके पदार्थों का आयात सर्वाधिक मूल्य का होता है।

प्रश्न 4
भारत के व्यापार असन्तुलन का क्या प्रमुख कारण है?
उत्तर
भारत को पेट्रोलियम, मशीनरी, रसायन आदि के आयात पर भारी विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है तथा निर्यात कम मूल्य के होते हैं जिससे व्यापार असन्तुलित हो जाता है।

प्रश्न 5
भारत की दो प्रमुख निर्यात वस्तुओं का वर्णन कीजिए। [2010, 15]
उत्तर

  1. हस्तनिर्मित सामान तथा सिले-सिलाए वस्त्र।
  2. कच्चे खाद्य पदार्थ।

प्रश्न 6
भारत में आयात की जाने वाली किन्हीं दो वस्तुओं के नाम लिखिए। वे किन-किन देशों से आयात की जाती हैं? [2010, 11]
उत्तर

  1. मशीनें – मशीनें मुख्यतः ब्रिटेन, जर्मनी तथा संयुक्त राज्य अमेरिका से आयात की जाती हैं।
  2. रासायनिक पदार्थ – इन्हें मुख्यत: संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस, इटली, जर्मनी तथा जापान से आयात किया जाता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1
जिन वस्तुओं के विश्व व्यापार में भारत का लगभग 10% भाग है, वे हैं –
(क) चावल
(ख) मसाले
(ग) बहुमूल्य रत्न
(घ) ये सभी।
उत्तर
(घ) ये सभी।

प्रश्न 2
मूल्य की दृष्टि से भारत सबसे अधिक आयात करता है –
(क) मोती का
(ख) पेट्रोलियम और लुब्रिकेट्स का
(ग) अनाजों का
(घ) अधात्विक खनिजों का।
उत्तर
(ख) पेट्रोलियम और लुब्रिकेट्स का।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 24 Foreign Trade

प्रश्न 3
निम्नलिखित में से भारत किस वस्तु का निर्यात नहीं करता है।
(क) समुद्री उत्पाद
(ख) चाय
(ग) मसाले
(घ) पेट्रोलियम।
उत्तर
(घ) पेट्रोलियम।

प्रश्न 4
भारतीय कॉफी का सबसे बड़ा खरीदार है।
(क) रूस
(ख) जापान
(ग) ऑस्ट्रेलिया
(घ) इटली।
उत्तर
(घ) इटली।

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 6 Social Group Primary and Secondary Groups

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 1
Chapter Name Social Group Primary and
Secondary Groups
(सामाजिक समूह प्राथमिक
एवं द्वितीयक समूह)
Number of Questions Solved 58
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 6 Social Group Primary and Secondary Groups (सामाजिक समूह प्राथमिक एवं द्वितीयक समूह)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक समूह का अर्थ व परिभाषा दीजिए तथा प्राथमिक एवं द्वितीयक समूह की विशेषताएँ बताइए।
या
सामाजिक समूह किसे कहते हैं ? प्राथमिक समूह के सामाजिक महत्त्व को स्पष्ट कीजिए। [2008]
या
प्राथमिक समूह किसे कहते हैं ? प्राथमिक समूह की चार विशेषताएँ बताइए। [2007, 13]
या
प्राथमिक समूह और द्वितीयक समूह के मध्य अन्तर बताइए। [2007, 09, 12, 13,]
या
प्राथमिक समूह को परिभाषित करते हुए इसकी विशेषताएँ लिखिए। [2015, 16]
या
द्वितीयक समूह की चार विशेषताएँ बताइए। [2011, 13, 15]
या
सामाजिक समूह को परिभाषित करते हुए इसकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2015, 16]
या
प्राथमिक समूह और द्वितीयक समूह के मध्य अन्तर बताइए। [2007, 09, 12, 13]
या
प्राथमिक समूह और द्वितीयक समूह में दो अन्तरों की व्याख्या कीजिए। [2016]
उत्तर:

सामाजिक समुह का अर्थ

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समूह में रहकरे जीवन व्यतीत करना चाहता है। समूह के बिना मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसी भावना ने सामाजिक समूह को जन्म दिया है। सामाजिक समूह का सामान्य अर्थ व्यक्तियों के संग्रह से लगाया जाता है। वास्तव में, व्यक्तियों का संग्रह ही समूह नहीं है, वरन् कुछ व्यक्तियों द्वारा संगठित होकर परस्पर सम्बन्ध स्थापित करना तथा एक-दूसरे के व्यवहारों को प्रभावित करने का नाम सामाजिक समूह है। सामाजिक समूह एक ऐसा संगठन है जिसके सदस्य परस्पर जान-पहचान रखते हुए एकरूपता स्थापित करते हैं। परिवार, क्रीड़ा-समूह, पड़ोस, मित्र-मण्डली और राज्य ऐसे ही सामाजिक समूह हैं।

सामाजिक समूह की परिभाषा

विभिन्न समाजशास्त्रियों द्वारा दी गयी सामाजिक समूह की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नवत् हैं| ऑगबर्न और निमकॉफ के अनुसार, “जब कभी दो या दो से अधिक व्यक्ति एकत्रित होकर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं तो वे एक सामाजिक समूह का निर्माण करते हैं।”

बोगार्ड्स के अनुसार, “एक सामाजिक समूह का अर्थ हम व्यक्तियों के ऐसे संग्रह से लगा सकते हैं, जिनके सामान्य स्वार्थ होते हैं, जो एक-दूसरे को प्रेरणा देते हैं, जिनमें सामान्य वफादारी पायी जाती है और जो सामान्य क्रियाओं में भाग लेते हैं।”

वास्तव में, सामाजिक समूह मनुष्यों का वह संग्रह या झुण्ड है जिसके मध्य पारस्परिक सम्बन्ध पाये जाते हैं। पारस्परिक सम्बन्धों के द्वारा ही समूह के सदस्य परस्पर एकरूपता प्रकट करते हैं।
ओल्सेन (Olsen) के शब्दों में, “सामाजिक समूह एक प्रकार का संगठन है जिसके सदस्य एक दूसरे को जानते हैं अथवा एक-दूसरे से अपनी एकरूपता स्थापित करते हैं।” सदस्य-संख्या के आधार पर सामाजिक समूहों के निम्नलिखित दो भेद होते हैं

  1. प्राथमिक समूह–इस प्रकार के समूह की सदस्य-संख्या अपेक्षाकृत कम होती है। इसके सदस्यों में घनिष्ठ एवं प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है तथा ये पारस्परिक क्रियाओं में सहभागी रहते हैं। परिवार, पड़ोस तथा खेल आदि प्राथमिक समूह के उदाहरण हैं।
  2. द्वितीयक समूह–इसकी सदस्य-संख्या, अपेक्षाकृत अधिक होती है। इसके सदस्यों में आमने-सामने के सम्बन्ध न होकर अप्रत्यक्ष सम्बन्ध रहते हैं; जैसे–नगर, विद्यालय, राष्ट्र आदि।

प्राथमिक समूह की विशेषताएँ

प्राथमिक समूह को पूरी तरह से समझ लेने के लिए उनकी विशेषताओं से परिचित होना अनिवार्य है।  प्राथमिक समूह में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं
1. शारीरिक समीपता-सदस्यों के मध्य निकटता और शारीरिक समीपता होना प्राथमिक समूहों की प्रमुख विशेषता है। शारीरिक समीपता के कारण ही प्राथमिक समूह के सदस्यों के मध्य आमने-सामने के सम्बन्ध पाये जाते हैं। प्राथमिक समूह के सदस्यों में अपनापन पाया जाता है। अतः यह समूह अधिक स्थायित्व लिये होता है।

2. लघु आकार-प्राथमिक समूह के सदस्यों के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध पाये जाते हैं। प्रत्यक्ष सम्बन्ध तभी स्थापित हो सकते हैं जब समूह का आकार बहुत छोटा हो। प्राथमिक समूह के सदस्य एक-दूसरे से परिचित होते हैं तथा समीप रहते हैं। डेविस ने लघु आकार को प्राथमिक समूह की प्रमुख विशेषता स्वीकार किया है।

3. सम्बन्धों की घनिष्ठता-प्राथमिक समूह के सदस्यों के मध्य पाये जाने वाले सम्बन्ध बड़े घनिष्ठ होते हैं। इसमें सम्बन्धों में निरन्तरता और स्थिरता होने के कारण घनिष्ठता पनप जाती है, जो प्राथमिक समूह की प्रमुख विशेषता है।

4. समान उद्देश्य-प्राथमिक समूह के सदस्य समान उद्देश्यों के कारण परस्पर जुड़े रहते हैं। एक निवास-स्थान और एक जैसी संस्कृति उनमें समरूपता भर देती है, जिससे उनके उद्देश्य एकसमान हो जाते हैं। प्राथमिक समूह के सदस्य सबके हित की सोचते हैं। त्याग और बलिदान की भावना उन्हें व्यक्तिगत स्वार्थ त्यागकर समूह के हित में कार्य करने को विवश कर देती

5. हम की भावना-प्राथमिक समूह एक लघु समूह है। उनके सदस्यों में निकटता के कारण घनिष्ठता पायी जाती है। परस्पर घनिष्ठता उनमें ‘हम की भावना का संचार कर देती हैं। इसमें व्यक्ति समष्टि के कल्याण की बात सोचता है।

6. स्वाभाविक सम्बन्ध-प्राथमिक समूह के सदस्यों के मध्य स्वैच्छिक सम्बन्ध पाये जाते हैं। ये सम्बन्ध स्वतः उत्पन्न होते हैं, उनके मध्य कोई शर्त नहीं रहती। ये सम्बन्ध स्वाभाविक और प्राकृतिक होते हैं।

7. स्वतः विकास-प्राथमिक समूह का निर्माण न होकर स्वत: विकास होता है। इनके निर्माण में कोई शक्ति या दबाव काम नहीं करता, वरन् ये स्वाभाविक रूप से स्वतः विकसित हो जाते हैं। परिवार इसका सुन्दर उदाहरण है।

8. प्राथमिक नियन्त्रण-प्राथमिक समूह के सदस्य एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप में जुड़े होते हैं। पारस्परिक जान-पहचान के कारण इनके व्यवहारों पर प्राथमिक नियन्त्रण बना रहता है। परिवार में वृद्ध पुरुषों का भय ही बच्चों को गलत रास्ते पर जाने से रोके रखता है। प्रत्येक सदस्य अवचेतन ढंग से प्राथमिक समूह के आदर्शों एवं नियमों का पालन करता रहता है।

9. स्थायित्व प्राथमिक समूह शनै-शनैः स्वतः विकसित होने के कारण स्थायी प्रकृति वाले होते हैं। व्यक्तिगत और घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण व्यक्ति इन समूहों की सदस्यता छोड़ना नहीं चाहता। स्थायी प्रकृति भी प्राथमिक समूहों की प्रमुख विशेषता मानी जाती है।

10. साध्य सम्बन्ध-प्राथमिक समूह के सदस्यों के सम्बन्ध स्व:साध्य होते हैं, सम्बन्ध उन पर थोपे नहीं जाते। स्वार्थपरता न होने के कारण इनके सम्बन्ध, लक्ष्य और मूल्य समझे जाते हैं। प्राथमिक समूह के सम्बन्ध साधन न होकर साध्य होते हैं। सम्बन्ध साध्य होने के कारण प्रत्येक सदस्य उन्हें पूरा करना अपना परम कर्तव्य मानता है।

द्वितीयक समूह की विशेषताएँ

द्वितीयक समूह की परिभाषाओं का अध्ययन करने से हमें उसकी निम्नलिखित विशेषताओं का ज्ञान होता है

  1. द्वितीयक समूह में आमने-सामने के सम्बन्ध न होने के कारण सदस्यों के बीच घनिष्ठता नहीं पायी जाती।
  2. द्वितीयक समूहों में समीपता का अभाव होने के कारण सदस्यों के मध्य दूरसंचार के माध्यम से सम्बन्ध स्थापित होते हैं।
  3. द्वितीयक समूह का निर्माण विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जान-बूझकर किया जाता है।
  4. द्वितीयक समूह जीवन के किसी एक पहलू से सम्बन्ध रखते हैं; अत: इनका प्रभाव व्यक्ति के किसी एक पक्ष पर ही विशेष पड़ता है।
  5. द्वितीयक समूह में सम्बन्ध शर्ते या समझौते के आधार पर निश्चित किये जाते हैं।
  6. द्वितीयक समूह में व्यक्ति के स्थान पर उसकी परिस्थिति का विशेष महत्त्व होता है। अत: यहाँ सम्बन्धों में औपचारिकता पायी जाती है।
  7. द्वितीयक समूह के सदस्यों के मध्य “छुओ और जाओ’ (Touch and go) का सम्बन्ध होने के कारण घनिष्ठता का नितान्त अभाव पाया जाता है।
  8. द्वितीयक समूहों का निर्माण किया जाता है; इनमें स्वत: विकास का अभाव रहता है। आवश्यकताओं की प्रकृति परिवर्तित होने पर इन समूहों की प्रकृति में भी परिवर्तन आ जाता है।
  9. द्वितीयक समूह का संचालन नियमानुसार होता है।
  10. द्वितीयक समूह में सदस्यों का सम्बन्ध आमने-सामने का न होने के कारण इनके दायित्व भी सीमित हो जाते हैं।
  11. द्वितीयक समूह में सदस्य स्वहित की सोचते हैं। अत: इनके सदस्यों में स्वार्थपरता पायी जाती है। ये दूसरे सदस्यों के साथ उतना ही सम्बन्ध रखते हैं जितना इनके हितों के लिए लाभप्रद और आवश्यक होता है।
  12. इस समूह के सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से सम्बन्ध स्थापित करना आवश्यक नहीं है। बहुत दूर रहने वाले व्यक्ति भी इसके सदस्य बन सकते हैं।
  13. द्वितीयक समूह के सदस्यों में आत्मनिर्भरता की विशेषता पायी जाती है।
  14. द्वितीयक समूह में नियन्त्रण बाह्य और औपचारिक होता है।
  15. द्वितीयक समूह के सदस्यों के मध्ये प्रायः एकता का अभाव पाया जाता है।
  16. द्वितीयक समूह सम्पूर्ण सामाजिक जीवन की व्यवस्थाओं से वंचित रहते हैं।

प्राथमिक समूह और द्वितीयक समूह में अन्तर

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प्राथमिक समूहों का सामाजिक महत्त्व

प्राथमिक समूहों का सामाजिक महत्त्व निम्नवत् है
1. व्यक्तित्व का विकास--प्राथमिक समूह व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में अभूतपूर्व योग देते हैं। नवजात शिशु एक मांस का लोथड़ा और निरीह जीव मात्र होता है। वह परिवार की सुरम्य पृष्ठभूमि में पलता और बड़ा होता है तथा परिवाररूपी पाठशाला उसमें गुणों का विकास करके उसके व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती है। यही कारण है कि चार्ल्स कूले ने प्राथमिक समूहों को मानव समूह की नर्सरी’ कहकर सम्बोधित किया है। प्राथमिक समूह
व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में अपनी प्रमुख भूमिका निभाते हैं।

2. समाजीकरण में सहायक-प्राथमिक समूह अपने सदस्यों को समाज के साथ अनुकूलन करने में सक्षम बनाते हैं। ये बालक में सहयोग, दया, त्याग, प्रेम, सहानुभूति एवं सहिष्णुता के गुणों का समावेश कराकर समाजीकरण की प्रक्रिया में सहायक होते हैं। ये व्यक्ति में सामाजिक आदर्शों एवं नियमों के पालन का भाव जाग्रत कर उसे सामाजिक दशाओं के साथ अनुकूलन का पाठ पढ़ाते हैं।

3. संस्कृति का हस्तान्तरण-प्राथमिक समूह संस्कृति के वाहक हैं। ये सदस्यों को सांस्कृतिक प्रतिमानों एवं मूल्यों से परिचित कराने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। प्राथमिक समूह व्यक्ति को धर्म, नैतिकता, रूढ़ियों और परम्पराओं का ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुँचाते रहते हैं। इस प्रकार सांस्कृतिक प्रतिमान के पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होने के कारण उनमें सांस्कृतिक निरन्तरता बनी रहती है।

4. आवश्यकताओं की सन्तुष्टि-प्राथमिक समूह व्यक्ति की मूल आवश्यकताओं को पूरा करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। परिवार, विद्यालय, राजनीतिक दल, क्रीड़ा-समूह, पड़ोस, चिकित्सालय और छविगृह मानव की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति में सहयोगी बनकर उसे आन्तरिक सन्तोष प्रदान करते हैं।

5. पशु-प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण-प्राथमिक समूह व्यक्ति में मानवता का समावेश कर उसे दुर्गुणों से मुक्त रखते हैं। वे व्यक्तियों की दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश रखकर उसमें सद्गुणो का संचार करते हैं। परिवार मनुष्य को सत्य, अहिंसा, धर्म, नैतिकता, त्याग और सहानुभूति का पाठ पढ़ाकर उसे पशु-प्रवृत्तियों से बचाता है। कूले के शब्दों में, “पशु-प्रवृत्तियों का मानवीकरण ही सम्भवतः सबसे बड़ी सेवा है, जो प्राथमिक समूह करते हैं।’

6. मनोरंजन-जीवन के दो पहलू हैं—कार्य और मनोरंजन। प्राथमिक समूह हारे-थके व्यक्ति को मनोरंजन की सुविधाएँ प्रदान कर उसे स्वस्थ और प्रसन्न बनाते हैं। परिवार में रहकर व्यक्ति गपशप, हँसी-मजाक, नाचकूद और खेलकूद की सुविधाओं का लाभ उठाकर अपना दिल बहलाता है। मनोरंजन से उसके जीवन में सरसता उत्पन्न होती है।

7. कार्यक्षमता में वृद्धि-प्राथमिक समूह व्यक्ति को उसकी रुचि और क्षमता के अनुरूप कार्य देकर उन्हें कुशल बनाते हैं। व्यक्ति के विभिन्न कार्यों में उसका मार्गदर्शन करके उसकी कार्यक्षमता बढ़ाते हैं। प्राथमिक समूह में व्यक्ति को अपने कौशल दिखाने का पूरा-पूरा अवसर दिया जाता है। अतः उसमें आत्मविश्वास जाग उठता है जो उसकी कार्यक्षमता को द्विगुणित कर देता है।

8. सुरक्षा-प्राथमिक समूह व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक सुरक्षा प्रदान करते हैं। ये व्यक्ति में यह विश्वास कूट-कूट कर भर देते हैं कि विपत्ति के समय उसे पूरी-पूरी सहायता प्राप्त होगी। सुरक्षा की भावना व्यक्ति को आत्मसन्तोष और निश्चिन्तता के भाव से ओत-प्रोत कर देती है। प्राथमिक समूह का प्रत्येक सदस्य स्वयं को मानसिक दृष्टि से पूर्णत: सुरक्षित मानता है।

9. सामाजिक नियन्त्रण में सहायक-प्राथमिक समूह सामाजिक नियन्त्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये सामाजिक नियन्त्रण के प्रमुख साधन हैं। प्राथमिक समूह सदस्यों में सद्गुणों का विकास कर समाज को नियन्त्रित करने में सहायक बनते हैं।

10. समाज का आधार-प्राथमिक समूह समाज के अभिन्न अंग होते हैं। व्यक्ति प्राथमिक समूह में उत्पन्न होकर समाज के अस्तित्व का आधार बनता है। प्राथमिक समूहों में समाज की निरन्तरता बनी रहती है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राथमिक समूह का सामाजिक महत्त्व बहुत अधिक है।

प्रश्न 2
अन्तःसमूह तथा बाह्य समूह से आप क्या समझते हैं ? इनके अन्तर को स्पष्ट कीजिए।
या
अन्तःसमूह एवं बाह्य समूह का वर्गीकरण किसने किया ? इसे स्पष्ट कीजिए। [2007, 09, 12, 13, 14]
उत्तर:

अन्तःसमूह तथा बाह्य समूह

मनुष्य का सारा जीवन ही समूहों में व्यतीत होता है। वह स्वभावतः सामूहिक प्राणी है। किन्तु विभिन्न समूहों के प्रति उसके दृष्टिकोण और अन्य सदस्यों के साथ उसके सम्बन्धों की गुणवत्ता में भिन्नता पायी जाती है। इसी आधार पर समनर (Sumner) ने अपने ग्रन्थ ‘जनरीतियाँ’ (Folkways) में बताया कि मानव-समाज में दो प्रकार के समूह होते हैं-अन्त:समूह एवं बाह्य समूह।

अन्तःसमूह In-Group
एक अन्त:समूह वह समूह है जिससे हम सम्बन्धित होते हैं, अर्थात् उनके साथ अपनत्व की भावना महसूस करते हैं। हमारा परिवार, मित्र-मण्डली, खेल-समूह, प्रजाति, कबीला और आधुनिक सभ्य समाजों में राष्ट्र ऐसे ही समूह हैं। इसलिए उन समूहों को अपना समूह’ (We-Group) भी कहा गया है।

अन्त:समूहों में सम्बन्धों की गुणवत्ता इसमें व्याप्त अपेक्षाकृत शान्ति और व्यवस्था है। उसके सदस्य एक-दूसरे के प्रति सहयोग, शुभकामना, परस्पर-विश्वास और सहयोग प्रदर्शित करते हैं। अन्त:समूह में सदस्य एक-दूसरे के अधिकारों का सम्मान ही नहीं करते, वरन् एक-दूसरे के लिए बलिदान करने की भावना व तत्परता भी रखते हैं। इसीलिए उनमें एकता की भावना तथा समूह के प्रति निष्ठा पायी जाती है। इस प्रकार अन्त:समूह के बीच अभिन्न समरूपता, समानता और सहिष्णुता होती है।

बाह्य समूह Out-Group
अन्त:समूह के सदस्य के लिए अन्य सभी समूह बाह्य समूह होते हैं। बाह्य समूह के प्रति व्यक्ति में अविश्वास और शंका रहती है। उसके सदस्य व्यक्ति के लिए ‘पराये’ या ‘दूसरे लोग हैं। इसीलिए इन्हें ‘अन्य समूह’ (Other Group) या उनका समूह’ या ‘वे-लोग’ (They-Group) भी कहा जाता है। इसीलिए उनके प्रति व्यक्ति घृणा या शत्रु-भाव रखता है।

समाजशास्त्र की दृष्टि से, अन्त:समूह और बाह्य समूह का वर्गीकरण बड़ा महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में, व्यक्ति अपने जीवन के दौरान इसी सन्दर्भ में लोगों को देखता है तथा व्यवहार करता है। कुछ व्यक्ति और समूह उसके अपने लोग होते हैं और कुछ व्यक्ति और समूह उसके अपनों के दायरे से बाहर होते हैं, उसके लिए वे ही बाह्य समूह हैं।

अन्त:समूह और बाह्य समूह के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि समनर द्वारा समूहों का यह वर्गीकरण व्यक्तिनिष्ठ (Subjective Classification) है, क्योंकि यह व्यक्ति को दृष्टि में रखकर किया गया है। तद्नुरूप जो समूह एक व्यक्ति के लिए अन्त:समूह है; जैसे उसका अपना परिवार, वह किसी अन्य व्यक्ति के लिए बाह्य समूह होगा। इसी प्रकार उस अन्य व्यक्ति के लिए जो अन्त:समूह होगा वह उससे पहले व्यक्ति के लिए बाह्य समूह। उदाहरणार्थ-मेरा परिवार मेरे लिए अन्त:समूह है, किन्तु मेरे पड़ोसी के लिए बाह्य समूह। इसी प्रकार मेरे पड़ोसी का परिवार उसके लिए अन्त:समूह है, किन्तु मेरे लिए बाह्य समूह है।।

अन्तःसमूह और बाह्य समूह के बीच अन्तर

अन्त:समूह और बाह्य समूह की व्याख्या से ही दोनों के बीच अन्तर स्पष्ट हो जाता है। संक्षेप में उनके बीच अन्तर के बिन्दु निम्नलिखित हैं
1. अपनत्व की भावना में अन्तर-अन्त:समूह से व्यक्ति जुड़ा होता है, उसका सदस्य होता है। इसके सदस्य परस्पर ‘हम-भावना’ में बँधे होते हैं। दूसरी ओर, बाह्य समूह का न तो व्यक्ति सदस्य होता है और न ही उसके प्रति व्यक्ति के मन में अपनत्व की भावना होती है। वे उसके लिए ‘वे-लोग होते हैं।
2. एकता की आवश्यकता-अन्त:समूह के लिए आवश्यक है कि उसके सदस्यों के बीच एकता के सूत्र मजबूत हों। आन्तरिक एकता, शान्ति और सहयोग के अभाव में अन्त:समूह का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा, जब कि बाह्य समूह के प्रति व्यक्ति कामचलाऊ दृष्टिकोण रख सकता है।
3. अन्तर का आधार कोई भी होना सम्भव-जॉर्ज सिमेल का कहना है व्यक्ति के लिए समूहों को अन्त:समूह या बाह्य समूह में श्रेणीबद्ध करने का कोई भी ऐसा गुण हो सकता है जो बाहरी व्यक्तियों के लिए बिल्कुल ही अर्थहीन हो। प्रायः देखा गया है कि धर्म, आयु, जाति, बिरादरी, प्रजाति अन्त:समूह और बाह्य समूह के बीच विभेदीकरण के आधार बन जाते हैं। यही कारण है कि लोग विभिन्न राजनीतिक दल के सदस्य होते हैं या एक ही राजनीतिक दल में विभिन्न गुट बन जाते हैं। इस भाँति, अन्त:समूह और बाह्य समूह की अवधारणा समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसकी सहायता से सामाजिक जीवन के यथार्थ को समझना सुगम हो जाता है।

प्रश्न 3
सामाजिक समूह के प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
समाजशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न आधारों पर सामाजिक समूह के विभिन्न रूपों को समझाने का प्रयत्न किया है। प्रस्तुत विवेचन में हम सभी विद्वानों के वर्गीकरण की व्याख्या न करके कुछ प्रमुख वर्गीकरण की रूपरेखा को ही स्पष्ट करेंगे।

मैकाइवर एवं पेज द्वारा समूहों का वर्गीकरण

मैकाइवर एवं पेज ने सभी सामाजिक समूहों को तीन प्रमुख भागों और अनेक उपविभागों में प्रस्तुत किया है। इस वर्गीकरण की जटिलता और विस्तृत प्रकृति को ध्यान में रखते हुए हम मैकाइवर के वर्गीकरण को संक्षेप में निम्नलिखित चार्ट द्वारा समझ सकते हैं

सामाजिक संरचना में प्रमुख समूहों की योजना
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मिलर द्वारा वर्गीकरण

मिलर ने सभी सामाजिक समूहों को उदग्र तथा समतल दो भागों में विभाजित किया है
1. उदग्र समूह-ये वे समूह हैं जो एक-दूसरे से कुछ दूरी प्रदर्शित करते हैं। यद्यपि उदग्र समूह सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था से सम्बन्धित हैं, लेकिन इनकी सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि ऐसे समूह अनेक खण्डों में विभाजित होते हैं और प्रत्येक खण्ड की स्थिति दूसरे की तुलना में उच्च अथवा निम्न है। उदाहरण के लिए, संयुक्त परिवार को एक उदग्र समूह कहा जा सकता है। इस समूह में सभी सदस्यों की सामाजिक स्थिति एक-दूसरे से भिन्न होती है और सभी व्यक्तियों को एक-दूसरे की स्थिति का ध्यान रखते हुए ही अपने कर्तव्यों को पूरा करना आवश्यक होता है।

2. समतल समूह-यह समूह इस अर्थ में समतल है कि इसके सभी सदस्यों की सामाजिक स्थिति लगभग समान होती है। सदस्यों के बीच न तो कोई ऊँच-नीच होती है और न ही उन्हें कम या अधिक अधिकार प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिए, श्रमिक-वर्ग अथवा लेखक-वर्ग समतल समूह हैं जिनके सभी सदस्य इस भावना से प्रभावित रहते हैं कि उन सबका स्तर लगभग एक समान है।

अन्तःसमूह और बाह्य समूह

समनर (Sumner) ने अपनी पुस्तक ‘Folkways’ में समूह के सदस्यों में घनिष्ठता तथा सामाजिक दूरी के आधार पर सभी समूहों को अन्त:समूह और बाह्य समूह जैसे दो प्रमुख भागों में विभाजित किया है। इन दोनों प्रकार के समूहों की प्रकृति को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है|

अन्तःसमूह-इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम समनर ने सन् 1907 में किया और इसके बाद लगभग सभी समाजशास्त्रियों ने किसी-न-किसी रूप में ऐसे समूहों का उल्लेख अवश्य किया है। मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि आरम्भिक समय से ही वह कुछ वस्तुओं अथवा व्यक्तियों को अच्छा समझने लगता है और उनकी तुलना में दूसरी वस्तुओं अथवा व्यक्तियों की अवहेलना करता है। वास्तव में, अन्त:समूह की धारणा व्यक्ति की इसी मनोवृत्ति से सम्बन्धित है।

बाह्य समूहबाह्य-समूह, अन्त:समूह से पूर्णतया विपरीत भावनाएँ प्रदर्शित करता है। जिस समूह को हम बाह्य समूह कहते हैं, उसके प्रति हमारी मनोवृत्ति कम सौजन्यपूर्ण और भेदभाव से युक्त होती है। हम कह सकते हैं कि जब बिना किसी विशेष कारण के ही हम कुछ व्यक्तियों से सामाजिक दूरी का अनुभव करते हैं और इसलिए उन्हें अपने से हीन मानकर उनकी अवहेलना करते हैं, तब ऐसे व्यक्तियों के समूह को ‘बाह्य समूह’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है।

प्राथमिक तथा द्वितीयक समूह

समूह के सभी वर्गीकरणों में चार्ल्स कूले द्वारा प्रस्तुत वर्गीकरण सबसे अधिक संक्षिप्त, वैज्ञानिक और मान्य है। अमेरिकन समाजशास्त्री चार्ल्स कूले (Charles Cooley) ने सन् 1909 में अपनी पुस्तक ‘Social Organisation’ में सर्वप्रथम ‘प्राथमिक समूह’ शब्द का प्रयोग किया। बाद में ऐसे समूहों से भिन्न विशेषताएँ प्रदर्शित करने वाले समूहों को द्वितीयक समूह’ कहा जाने लगा। यह वर्गीकरण समूह के आकार (size), महत्त्व और सदस्यों में पाये जाने वाले सम्बन्धों की प्रकृति के आधार पर प्रस्तुत किया गया है।

प्राथमिक समूह का अर्थ तथा उदाहरण-चार्ल्स कूले ने प्राथमिक समूहों को मानव स्वभाव की पोषिका’ (nursery of human nature) कहा है। कुले ने कुछ समूहों को प्राथमिक इसलिए कहा है क्योंकि महत्त्व के दृष्टिकोण से इनका स्थान प्रथम और प्रभाव प्राथमिक है। जब कभी भी कुछ व्यक्ति घनिष्ठता अथवा ‘हम की भावना से बँधकर अन्तक्रिया करते हैं तथा समूह के हित के सामने निजी स्वार्थों का बलिदान करने के लिए तैयार रहते हैं, तब ऐसे समूह को हम एक प्राथमिक समूह कहते हैं।

कूले ने आरम्भ में परिवार, क्रीड़ा-समूह और पड़ोस के लिए प्राथमिक समूह’ शब्द का प्रयोग किया था। जीवन के आरम्भिक काल में परिवार व्यक्ति के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई होती है, जिसे कूले ने प्राथमिक समूह का सबसे अच्छा उदाहरण माना है।

द्वितीयक समूह का अर्थ तथा उदाहरण-चार्ल्स कूले ने आरम्भ में द्वितीयक समूह’ जैसे किसी शब्द का उल्लेख नहीं किया था, लेकिन प्राथमिक समूह से विपरीत विशेषताएँ प्रदर्शित करने वाले समूहों को जब द्वितीयक समूह (Secondary group) के रूप में स्पष्ट किया जाने लगा, तब कूले ने भी इसे स्वीकार करते हुए कहा, “ये वे समूह हैं जिनमें घनिष्ठता, प्राथमिक तथा अर्द्धप्राथमिक (quasi-primary) विशेषताओं का पूर्ण अभाव रहता है। लगभग इसी प्रकार ऑगबर्न तथा निमकॉफ (Ogburm and Nimkoff) के अनुसार, “द्वितीयक समूह वे समूह हैं जो घनिष्ठता की कमी का अनुभव करते हैं।’ ऑगबर्न ने कहा है कि, “द्वितीयक समूहों का तात्पर्य व्यक्तियों के उन समूहों से है जो द्वितीयक सम्बन्धों द्वारा संगठित होते हैं। द्वितीयक सम्बन्धों का अर्थ ऐसे सामाजिक सम्बन्धों से है जो प्राथमिक नहीं हैं अथवा जो आकस्मिक और औपचारिक (formal) हैं।” द्वितीयक समूहों में घनिष्ठता का अभाव और औपचारिकता होने के कारण ही लैण्डिस (H. H. Landis) ने इन्हें ‘शीत जगत’ (cold world) के नाम से सम्बोधित किया है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
प्राथमिक समूहों को प्राथमिक क्यों कहा जाता है ?  इनके तीन उदाहरण दीजिए।
या
प्राथमिक समूह के दो उदाहरण दीजिए। [2015]
उत्तर:
कूले ने प्राथमिक समूहों को समय एवं महत्त्व की दृष्टि से प्राथमिक माना है। समय की दृष्टि से सर्वप्रथम बच्चा प्राथमिक समूहों; जैसे–परिवार, पड़ोस एवं मित्र-मण्डली के सम्पर्क में आता है। अन्य समूहों का सदस्य तो वह बाद में बनता है। चूंकि प्राथमिक समूह का व्यक्तित्व के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है, इसलिए महत्त्व की दृष्टि से भी ये प्राथमिक हैं। कूले लिखते हैं, “वैसे तो वे अनेक अर्थों में प्राथमिक हैं, किन्तु मुख्यतः इस कारण से कि वे व्यक्तियों की सामाजिक प्रकृति एवं आदर्शों के निर्माण में मौलिक हैं।” समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा प्राथमिक समूह ही बच्चे को सर्वप्रथम संस्कृति, प्रथाओं, रीति-रिवाजों, आदर्शो, मूल्यों आदि का ज्ञान कराते हैं और उसे सामाजिक आदर्शों के अनुरूप ढालने एवं आचरण करने में योग देते हैं। प्राथमिक समूह ही बच्चे में विभिन्न परिस्थितियों से अनुकूलन करने की क्षमता पैदा करते हैं जिससे कि वह अपने जीवन में आने वाली विभिन्न कठिनाइयों एवं संकटों का मुकाबला कर सके। प्राथमिक समूह ही व्यक्ति में आत्म-नियन्त्रण की भावना पैदा करते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्राथमिक समूह महत्त्व, समाजीकरण, व्यक्तित्व-निर्माण, सामाजिक नियन्त्रण, मौलिकता एवं प्राचीनता आदि की दृष्टि से प्राथमिक हैं। चार्ल्स कूले परिवार, क्रीड़ा-समूह और पड़ोस को प्राथमिक समूह मानते

प्रश्न 2
द्वितीयक समूह की उपयोगिता की विवेचना कीजिए। [2007, 11, 15]
उत्तर:
व्यक्तित्व के विकास और सामाजिक अनुकूलन के क्षेत्र में द्वितीयक समूहों के महत्त्व को अग्रलिखित रूप से समझा जा सकता है
1. विशेषीकरण को प्रोत्साहन-वर्तमान युग श्रम-विभाजन और विशेषीकरण को सबसे अधिक महत्त्व देता है। विशेषीकरण की योजना व्यक्ति को द्वितीयक समूहों से ही प्राप्त होती है, क्योंकि द्वितीयक समूहों की प्रकृति अपने आप में विशेषीकृत होती है। उदाहरण के लिए, एक प्राथमिक समूह अपने किसी सदस्य को एक कुशल नेता, डॉक्टर, प्रोफेसर अथवा अभिनेता नहीं बना सकता। व्यक्ति को ये स्थितियाँ केवल द्वितीयक समूह ही प्रदान कर सकते हैं।

2. सामाजिक परिवर्तन द्वारा प्रगति-द्वितीयक समूह व्यक्ति को भविष्य के प्रति आशावान बनाकर परिवर्तन को प्रोत्साहन देते हैं। वास्तविकता यह है कि हमारे समाज में आज यदि प्रथाओं, परम्पराओं, रूढ़ियों और अन्धविश्वासों का प्रभाव कुछ कम हो सका है तो इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि द्वितीयक समूहों ने हमें नये व्यवहारों को ग्रहण करने की प्रेरणा दी है।

3. जागरूकता में वृद्धि-द्वितीयक समूह परम्परा पर आधारित न होकर विवेक और तर्क को अधिक महत्त्व देते हैं। इस कारण इन समूहों में रहकर व्यक्ति का दृष्टिकोण अधिक तार्किक बन जाता है। आज द्वितीयक समूहों के प्रभाव से ही अनेक उपनिवेशवादी समाजों को अपनी दमनकारी नीति को छोड़ना पड़ा है। इसके अतिरिक्त, स्त्रियों की वर्तमान उन्नति और श्रमिक वर्ग को प्राप्त होने वाले अधिकार भी द्वितीयक समूहों के कारण ही सम्भव हो सके हैं।

4. आवश्यकताओं की पूर्ति-औद्योगीकरण के युग में व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति केवल द्वितीयक समूह में रहकर ही सम्भव है। वर्तमान युग में कार्य करना आवश्यक हो गया है। उदाहरण के लिए, शिक्षा प्राप्त करना, किसी कारखाने या कार्यालय में नौकरी करना, राजनीतिक संगठनों से सम्बन्ध बनाये रखना, अनेक कल्याण संगठनों में रहकर कार्य करना, स्थानीय अथवा राष्ट्रीय मामलों में रुचि लेना आदि व्यक्ति की प्रमुख आवश्यकताएँ हैं। इन सभी आवश्यकताओं को केवल द्वितीयक समूह ही पूरा करते हैं।

5. श्रम को प्रोत्साहन-द्वितीयक समूहों ने श्रम को सर्वोच्च मानवीय मूल्य के रूप में स्वीकार करके सामाजिक प्रगति में विशेष योगदान दिया है। द्वितीयक समूह व्यक्ति को श्रम का वास्तविक पुरस्कार देकर उसे अधिक-से-अधिक काम करने की प्रेरणा देते हैं। इससे व्यक्ति का जीवन कर्मठ बनता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
निश्चित संगठन वाले समूह से क्या अर्थ है ?
उत्तर:
निश्चित संगठन वाले समूह इस प्रकार के होते हैं जिनमें एक निश्चित संगठन पाया जाता है। तथा जिनके सदस्य अपने हितों के प्रति जागरूक होते हैं। मैकाइवर इन्हें भी दो भागों में बाँटते हैं

  • वे समूह जिनकी सदस्यता की सीमा निश्चित होती है; जैसे–परिवार, क्लब, पड़ोस, क्रीड़ा समूह आदि।
  • वे समूह जिनकी सदस्यता तुलनात्मक दृष्टि से असीमित होती है; जैसे—राज्य, चर्च, आर्थिक संगठन, श्रमिक संगठन आदि।

प्रश्न 2
अनिश्चित संगठन वाले समूह से क्या तात्पर्य है ? [2009, 10, 15, 16]
उत्तर:
अनिश्चित संगठन वाले समूह ऐसे होते हैं, जिनमें संगठन का अभाव पाया जाता है। तथा वे अस्थिर प्रकृति के होते हैं। वे किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए यकायक बन जाते एवं संगठित हो जाते हैं तथा उद्देश्य की पूर्ति के बाद तुरन्त समाप्त हो जाते हैं। इनके अन्तर्गत श्रोता-समूह एवं भीड़ आते हैं, जो शीघ्र ही संगठित, एकत्रित एवं तितर-बितर हो जाते हैं।

प्रश्न 3
सामाजिक समूह की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए। [2009, 10]
या
सामाजिक समूह की चार विशेषताएँ लिखिए। [2014, 15, 16]
उत्तर:
सामाजिक समूह की विशेषताएँ निम्नवत् हैं

  1. समूह-निर्माण के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों का होना आवश्यक है।
  2. समूह का निर्माण करने वाले लोगों के हित एवं रुचियाँ सामान्य होते हैं।
  3. समूह के सदस्यों के बीच सामाजिक सम्बन्ध पाये जाते हैं।
  4. प्रत्येक समूह के कुछ नियम होते हैं जिनके अनुसार सदस्यों के व्यवहारों को नियन्त्रित किया |

प्रश्न 4
बाह्य समूह की दो विशेषताएँ लिखिए। [2007, 08, 11]
उत्तर:
बाह्य समूह की दो विशेषताएँ निम्नवत् हैं

  1. बाह्य समूह के हम सदस्य नहीं होते हैं और उनके प्रति हम की भावना नहीं पायी जाती।
  2. बाह्य समूह के सदस्यों के प्रति विरोधी भावना पायी जाती है, उनके प्रति भय, सन्देह, घृणा आदि के भाव होते हैं।

प्रश्न 5
प्राथमिक समूह की चार विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2008, 11]
उत्तर:
प्राथमिक समूह की विशेषताएँ निम्नवत् हैं

  1. प्राथमिक समूह का आकार बहुत छोटा होता है।
  2. प्राथमिक समूह के सदस्यों के मध्य बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध होते हैं।
  3. ये समूह किसी विशेष हित या स्वार्थपूर्ति के लिए होते हैं।
  4. प्राथमिक समूहों में सामाजिक नियमों का ही पालन किया जाता है।

प्रश्न 6
बाह्य समूह की अवधारणा किसकी है? इसकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2007]
उत्तर:
बाह्य समूह की अवधारणा समनर नामक समाजशास्त्री ने दी है। समनर ने बाह्य समूह की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है

  1. व्यक्ति, बाह्य समूह; जैसे-शत्रु सेना, अन्य गाँव आदि को पराया समूह मानता है अर्थात्इ सके सदस्यों के प्रति अपनत्व की भावना का अभाव पाया जाता है।
  2. बाह्य समूह के प्रति द्वेष, घृणा, प्रतिस्पर्धा एवं पक्षपात के भाव पाए जाते हैं।
  3. बाह्य समूह के सदस्यों के प्रति घनिष्ठता नहीं पाई जाती है।
  4. बाह्य समूह के प्रति उदासीन अथवा निषेधात्मक दृष्टिकोण विकसित होता है।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
समूह-निर्माण के लिए कम-से-कम कितने व्यक्तियों (सदस्यों) का होना आवश्यक
उत्तर:
समूह-निर्माण के लिए कम-से-कम दो या दो से अधिक व्यक्तियों का होना आवश्यक

प्रश्न 2
“भीड़ को जिधर चाहें उधर भगाकर ले जाया जा सकता है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
यह कथन रस्किन का है।

प्रश्न 3
‘समूह मन के सिद्धान्त (Group-mind Theory) के प्रतिपादक कौन हैं ?
उत्तर:
समूह मन के सिद्धान्त’ (Group-mind Theory) के प्रतिपादक मैक्डूगल हैं।

प्रश्न 4
सन्दर्भ समूह की अवधारणा किस समाजशास्त्री से सम्बन्धित है ? [2011]
उत्तर:
सन्दर्भ समूह की अवधारणा रॉबर्ट के० मर्टन से सम्बन्धित है।

प्रश्न 5
क्षेत्रीय समूह की अवधारणा किस समाजशास्त्री से सम्बन्धित है ?
उत्तर:
क्षेत्रीय समूह की अवधारणा मैकाइवर से सम्बन्धित है।

प्रश्न 6
अन्तःसमूह किसे कहते हैं? इसके दो उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर:
जिस समूह के सदस्यों में हम’ की भावना पायी जाती है, उसे अन्त:समूह कहते हैं ‘परिवार’ एवं ‘कक्षा’ अन्त:समूह के उदाहरण हैं।

प्रश्न 7
बाह्य समूह किसे कहते हैं? इसके दो उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर:
जिस समूह के हम सदस्य नहीं होते और जिसके प्रति ‘हम’ की भावना नहीं पायी जाती, वह हमारे लिए बाह्य समूह होता है। राजनीतिक एवं श्रमिक संगठन इसके उदाहरण हैं।

प्रश्न 8
फोकवेज़ (Folkways) नामक पुस्तक के लेखक का नाम बताइए। [2007, 09]
उत्तर:
फोकवेज़’ नामक पुस्तक के लेखक अमेरिकी समाजशास्त्री समनर हैं।

प्रश्न 9
अन्तःसमूह तथा बाह्य समूह की अवधारणा किसने दी ? [2007, 11]
उत्तर:
अन्त:समूह तथा बाह्य समूह की अवधारणा समनर ने दी।

प्रश्न 10
प्राथमिक समूह की अवधारणा का उल्लेख करने वाले विद्वान का नाम बताइए। [2007, 08, 09, 10, 11, 12, 13, 16]
या
प्राथमिक समूह की अवधारणा किसने की है? [2016]
उत्तर:
प्राथमिक समूह की अवधारणा का उल्लेख करने वाले विद्वान् का नाम है-सी० एच० कूले। प्रश्न 11 किन्हीं चार प्राथमिक समूहों के नाम बताइए। उत्तर: चार प्राथमिक समूह हैं-परिवार, पड़ोस, मित्रमण्डली एवं क्रीडा समूह।

प्रश्न 12
प्राथमिक समूह के दो उदाहरण तथा दो लक्षण बताइए। [2007, 08]
या
प्राथमिक समूह के दो उदाहरण दीजिए। [2015, 16]
उत्तर:
परिवार एवं बच्चों के खेल समूह प्राथमिक समूह के उत्तम उदाहरण हैं। प्राथमिक समूह के दो मुख्य लक्षण हैं-भावनात्मक लगाव तथा निकट सहयोगी सम्बन्ध।

प्रश्न 13
द्वितीयक समूह के दो उदाहरण देते हुए उसके दो लक्षण भी बताइए। [2008, 12]
या
द्वितीयक समूह के दो उदाहरण दीजिए। [2012]
उत्तर:
द्वितीयक समूह के दो उदाहरण हैं-सेना तथा विश्वविद्यालय। प्रतियोगी सम्बन्ध तथा अन्त:क्रिया में घनिष्ठता का अभाव इसके लक्षण हैं।

प्रश्न 14
क्या छात्र-संघ द्वितीयक समूह है ? हाँ/नहीं में उत्तर: दीजिए। [2008, 16]
उत्तर:
हाँ।

प्रश्न 15
द्वितीयक समूह में किस प्रकार के सम्बन्धों की प्रधानता पायी जाती है ?
उत्तर:
द्वितीयक समूह में औपचारिक सम्बन्धों की प्रधानता पायी जाती है।

प्रश्न 16
किसने द्वितीयक समूह को प्राथमिक समूह के विपरीतार्थक समूह के रूप में परिभाषित किया? [2011]
उत्तर:
सी० एच० कूले ने।

प्रश्न 17
सामूहिक प्रतिनिधान की अवधारणा किसकी है? [2013]
उत्तर:
दुर्चीम महोदय की।।

प्रश्न 18
सकारात्मक एवं नकारात्मक समूह की अवधारणा किसने प्रतिपादित की थी ?
उत्तर:
सकारात्मक एवं नकारात्मक समूह की अवधारणा न्यू कॉम्ब ने प्रतिपादित की थी।

प्रश्न 19
किस विद्वान ने समूहों को ‘औपचारिक’ एवं ‘अनौपचारिक’ में वर्गीकृत किया है ?
उत्तर:
बोगास नामक विद्वान् ने समूहों को औपचारिक एवं ‘अनौपचारिक’ में वर्गीकृत किया है।

प्रश्न 20
द्वितीयक समूह की परिभाषा दो उपयुक्त उदाहरणों के साथ दीजिए। [2008, 12, 16]
या
द्वितीयक समूह के दो उदाहरण दीजिए। [2012]
उत्तर:
परिभाषा-वे समूह जो आकार में बड़े होते हैं, जिसके सदस्यों में घनिष्ठता का अभाव होता है, जिनमें अवैयक्तिक सम्बन्ध पाए जाते हैं तथा औपचारिक सम्बन्धों के कारण हम की भावना का प्रायः अभाव होता है, द्वितीयक समूह कहलाते हैं उदाहरण-महाविद्यालय, श्रमिक संघ, राष्ट्र, नगर व व्यावसायिक संघ आदि।

प्रश्न 21
समूहों के दो प्रकार क्या हैं? [2016]
उत्तर:

  • अन्तः समूह तथा
  • बाह्य समूह।

प्रश्न 22
सोशल रिसर्च पुस्तक के लेखक का नाम लिखिए। [2016]
उत्तर:
सोशल रिसर्च पुस्तक के लेखक का नाम जॉर्ज लुण्डबर्ग है।

प्रश्न 23
“समाज वहीं होता है जहाँ जीवन होता है।” यह कथन किसने कहा है? [2017]
उत्तर:
मैकाइवर ने।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
समूह के लिए आवश्यक है
(क) दो या दो से अधिक व्यक्तियों का होना।
(ख) दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच सामाजिक चेतना का होना
(ग) अधिक व्यक्तियों का एकत्र होना
(घ) व्यक्तियों के बीच संचारविहीनता का होना

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कौन-सा एक अस्थायी समूह नहीं है ?
(क) भीड़
(ख) परिवार
(ग) श्रोतागण
(घ) जनता

प्रश्न 3.
अन्तःसमूह तथा बाह्य समूह की अवधारणाएँ किस समाजशास्त्री से सम्बन्धित हैं? [2008]
या
बाह्य समूह की अवधारणा को किसने दिया ?
(क) चार्ल्स कूले ने
(ख) समनर ने
(ग) रॉबर्ट मर्टन ने
(घ) लुण्डबर्ग ने

प्रश्न 4.
निम्नलिखित पुस्तकों में से कूले की पुस्तक कौन-सी है?
(क) फोकवेज़ :
(ख) ए हैण्ड बुक ऑफ सोशियोलॉजी
(ग) सोशल ऑर्गेनाइजेशन
(घ) दे सोशल ऑर्डर

प्रश्न 5.
किस समूह का आकार अपेक्षाकृत छोटा है ? [2008]
(क) अन्तःसमूह
(ख) बाह्य समूह
(ग) भीड़
(घ) श्रोता समूह

प्रश्न 6.
प्राथमिक समूह में सदस्यों के सम्बन्ध होते हैं।
(क) भौतिक
(ख) नैतिक
(ग) वैयक्तिक
(घ) आर्थिक

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में से कौन-सी प्राथमिक समूह की विशेषता नहीं है ?
(क) अनिवार्य सदस्यता
(ख) बड़ा आकार
(ग) शारीरिक समीपता
(घ) आर्थिक स्थिरता

प्रश्न 8.
प्राथमिक समूह की अवधारणा किसने दी है ? [2007, 08, 16]
(क) एल०एफ० वार्ड।
(ख) सी०एच० कले
(ग) मैकाइवर व पेज
(घ) ऑगस्त कॉम्टे

प्रश्न 9.
सामाजिक सम्बन्धों के जाल को कहा गया है
(क) समुदाय
(ख) समिति
(ग) समूह
(घ) समाज

प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से कौन-सा प्राथमिक समूह है ? [2012, 14]
(क) व्यापार संघ
(ख) विद्यालय
(ग) पड़ोस
(घ) भीड़

प्रश्न 11.
प्राथमिक समूह की सही विशेषता बताइए [2012]
(क) बड़ा आकार
(ख) औपचारिक नियन्त्रण
(ग) सदस्यों की भिन्नता
(घ) समान उद्देश्य

प्रश्न 12.
आकार में कौन-सा समूह छोटा होता है ? [2012]
(क) प्राथमिक समूह
(ख) द्वितीयक समूह
(ग) क्षेत्रीय समूह
(घ) तृतीयक समूह

प्रश्न 13.
निम्नलिखित में कौन-सा प्राथमिक समूह है ?
(क) राजनीतिक दल
(ख) श्रमिक संघ
(ग) राष्ट्र
(घ) परिवार

प्रश्न 14.
निम्नलिखित में से कौन प्राथमिक समूह नहीं है ? [2007]
(क) परिवार
(ख) आमने-सामने के सम्बन्ध
(ग) राज्य
(घ) पड़ोस

प्रश्न 15.
निम्नलिखित में कौन-सी विशेषता प्राथमिक समूह की है ?
(क) शारीरिक समीपता
(ख) सदस्यों की अधिक संख्या
(ग) बाह्य नियन्त्रण की भावना
(घ) अल्प अवधि

प्रश्न 16.
सन्दर्भ समूह की अवधारणा किसने दी? [2011, 14, 15]
(क) पीटर बर्जर
(ख) आर० के० मर्टन
(ग) बोटोमोर
(घ) टायनबी

प्रश्न 17.
निम्नांकित में से प्राथमिक समूह कौन है? [2014]
(क) छात्र संघ
(ख) पड़ोस
(ग) सिनेमाघर
(घ) बाजार

प्रश्न 18.
निम्नलिखित में से कौन-सा द्वितीयक समूह है ?
(क) पड़ोस
(ख) नगर
(ग) क्लब
(घ) पति-पत्नी का समूह

प्रश्न 19.
द्वितीयक समूह के सदस्यों के पारस्परिक उत्तर:दायित्व की प्रकृति होती है
(क) स्थिर
(ख) सरल
(ग) जटिल
(घ) सीमित

प्रश्न 20.
निम्नलिखित में से कौन-सा द्वितीयक समूह है ?
(क) परिवार
(ख) क्रीडा समूह
(ग) राजनीतिक दल
(घ) पड़ोस

प्रश्न 21.
द्वितीयक समूह किससे सम्बन्धित है ?
या
द्वितीयक समूह को किसने प्रतिपादित किया? [2015]
(क) समनर से”
(ख) कूले से
(ग) ऑगबर्न से
(घ) पारसन्स से

प्रश्न 22.
द्वितीयक समूह की विशेषता है|
(क) सादृश्य हित
(ख) आमने-सामने का सम्बन्ध
(ग) सामान्य हित
(घ) भौतिक निकटता

प्रश्न 23.
निम्नलिखित में से कौन द्वितीयक समूह की विशेषता नहीं है ?
(क) अल्प अवधि
(ख) छोटा आकार
(ग) सदस्यों का सीमित ज्ञान
(घ) ‘मैं’ की भावना

प्रश्न 24.

निम्नलिखित में द्वितीयक समूह कौन-सा है ? [2013]
(क) परिवार
(ख) मित्रमण्डली
(ग) पड़ोस
(घ) इनमें से कोई नहीं

उत्तर:
1. (क) दो या दो से अधिक व्यक्तियों का होना, 2. (ख) परिवार, 3. (ख) समनर ने, 4. (ग) सोशल ऑर्गेनाइजेशन,
5. (क) अन्त:समूह, 6. (ग) वैयक्तिक, 7. (ख) बड़ा आकार, 8. (ख) सी०एच०कूले, 9. (ग) समूह, 10. (ग) पड़ोस,
11. (घ) समान उद्देश्य, 12. (क) प्राथमिक समूह, 13. (घ) परिवार, 14. (ग) राज्य, 15. (क) शारीरिक समीपता,
16. (ख) आर० के० मर्टन, 17. (ख) पड़ोस, 18. (ख) नगर, 19. (घ) सीमित, 20, (ग) राजनीतिक दल, 21. (ख) कूले से,
22. (क) सादृश्य हित, 23. (ख) छोटा आकार, 24. (घ) इनमें से कोई नहीं।

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