UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 20 Industrialization and Urbanization: Effects on Indian Society

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 20 Industrialization and Urbanization: Effects on Indian Society (औद्योगीकरण तथा नगरीकरण : भारतीय समाज पर प्रभाव) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 20 Industrialization and Urbanization: Effects on Indian Society (औद्योगीकरण तथा नगरीकरण : भारतीय समाज पर प्रभाव).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 20
Chapter Name Industrialization and Urbanization: Effects on Indian Society (औद्योगीकरण तथा नगरीकरण : भारतीय समाज पर प्रभाव)
Number of Questions Solved 35
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 20 Industrialization and Urbanization: Effects on Indian Society (औद्योगीकरण तथा नगरीकरण : भारतीय समाज पर प्रभाव)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
औद्योगीकरण से आप क्या समझते हैं ? औद्योगीकरण की परिभाषा दीजिए तथा औद्योगीकरण की विशेषताएँ भी बताइए।
या
औद्योगीकरण किसे कहते हैं ? औद्योगीकरण के सामाजिक प्रभावों का उल्लेख कीजिए। [2007, 09, 10]
या
भारत में औद्योगीकरण के सामाजिक और आर्थिक परिणामों का वर्णन कीजिए। [2010]
या
भारत में औद्योगीकरण के परिणामों की विवेचना कीजिए। [2015, 16]
या
औद्योगीकरण से आप क्या समझते हैं ? औद्योगीकरण के भारतीय समाज पर पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना कीजिए। [2007, 11, 12, 13, 15, 16]
या
औद्योगीकरण किस प्रकार भारत की निर्धनता को दूर कर सकता है ? मत दीजिए। उद्योग समुदाय को निर्मित करता है।” विवेचना कीजिए। [2010]
या
भारतीय समाज पर औद्योगीकरण के कुप्रभावों की विवेचना कीजिए। [2012]
या
औद्योगीकरण क्या है? स्पष्ट कीजिए। [2014]
उत्तर:
औद्योगीकरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ

धन कमाना मनुष्य की एक प्रमुख क्रिया है। आजीविका जुटाने के लिए प्रकृति के साथ सतत संघर्ष करना ही मानव-विकास की कहानी है। मनुष्य आखेट, पशुपालन व मछली पकड़ने से लेकर धीरे-धीरे औद्योगिक युग तक पहुँच गया है। औद्योगीकरण दो शब्दों के मेल से बना है-उद्योग + करण’। ‘उद्योग’ का अर्थ ‘कारखाने’ तथा ‘करण’ का अर्थ है–‘स्थापित करना। इस प्रकार औद्योगीकरण का शाब्दिक अर्थ हुआ ‘कारखाने स्थापित करना।

क्लार्क केर के अनुसार, “औद्योगीकरण से अभिप्राय एक ऐसी स्थिति से है जिसमें पहले का कृषक अथवा व्यापारिक समाज एक औद्योगिक समाज की दिशा की ओर परिवर्तित होने लगता है।”
संयुक्त राष्ट्र संघ (U.N.O.) के अनुसार, “औद्योगीकरण से तात्पर्य बड़े-बड़े उद्योगों के विकास तथा छोटे और कुटीर उद्योग-धन्धों के स्थान पर बड़े पैमाने की मशीनों की व्यवस्था से है। औद्योगीकरण आर्थिक विकास की व्यापक प्रक्रिया का अंग मात्र है, जिसका उद्देश्य उत्पादन के साधनों की क्षमता में वृद्धि करके जनजीवन के स्तर को ऊँचा उठाना है।”
अतः औद्योगीकरण उद्योगों के विकास की एक प्रक्रिया है, जिसमें बड़े पैमाने पर उद्योग लगाये जाते हैं तथा हाथ से किया जाने वाला उत्पादन मशीनों से किया जाने लगता है।

औद्योगीकरण की विशेषताएँ
औद्योगीकरण में मुख्य रूप से निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं.

  1. औद्योगीकरण उत्पादन की एक प्रक्रिया है, जिसका विकास धीरे-धीरे होता है।
  2. औद्योगीकरण के कारण राष्ट्र में नये-नये उद्योगों की स्थापना तीव्र गति से होती है।
  3. औद्योगीकरण मानवीय शक्ति की अपेक्षा मशीनी शक्ति पर बल देता है।
  4. औद्योगीकरण में मशीनों का संचालन कोयला, खनिज तेल अथवा विद्युत-शक्ति द्वारा किया जाता है।
  5. औद्योगीकरण की प्रमुख विशेषता श्रम-विभाजन और विशिष्टीकरण है।
  6. औद्योगीकरण तीव्र गति से सस्ते और बड़े पैमाने के उत्पादन पर बल देता है।
  7. औद्योगीकरण की प्रमुख विशेषता नवीनतम वैज्ञानिक विधियों तथा उत्पादन की नवीनतम तकनीक के प्रयोग पर बल देना है।
  8. औद्योगीकरण प्राकृतिक संसाधनों के अधिकतम तथा योजनाबद्ध दोहन पर बल देता है।
  9. औद्योगीकरण के फलस्वरूप प्रति व्यक्ति आय और राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है, जो आर्थिक विकास की परिचायक है।
  10. औद्योगीकरण राष्ट्र के सामाजिक और आर्थिक ढाँचे में आमूल-चूल परिवर्तन करता है।
  11. औद्योगीकरण के कारण वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित होने से प्राचीन मान्यताएँ ध्वस्त हो जाती हैं।
  12. औद्योगीकरण पूँजीवाद का जनक है। इसके फलस्वरूप श्रमिक वर्ग और पूँजीपति वर्ग जन्म लेते हैं।
  13. औद्योगीकरण की एक प्रमुख विशिष्टता राष्ट्रीय व्यापार और उद्योगों में होने वाली भारी वृद्धि
  14. औद्योगीकरण का क्षेत्र अन्तर्राष्ट्रीय बाजार होने के कारण यह अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की स्थापना करने में सक्षम होता है।
  15. औद्योगीकरण के कारण राष्ट्र को समूचा विनिर्माण, उद्योगों तथा अर्थव्यवस्था को परिवेश परिवर्तित हो जाता है।

औद्योगीकरण का भारतीय समाज पर प्रभाव

औद्योगीकरण का भारतीय समाज के सभी पक्षों पर गहरा प्रभाव पड़ा है, जिस पर हम निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत विचार करेंगे

(क) भारतीय पारिवारिक जीवन पर प्रभाव
औद्योगीकरण का भारतीय पारिवारिक जीवन पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ा है

1. संयुक्त परिवार प्रथा का विघटन – संयुक्त परिवार भारतीय समाज की एक प्रमुख विशेषता रही है। एक परिवार के सभी नये-पुराने सदस्य एक ही स्थान पर रहते हुए खेती का कार्य करते रहे हैं, किन्तु उद्योगों के विकास के साथ-साथ लोग कारखानों में काम करने के लिए गाँव छोड़कर शहरों की ओर भागे। एक ही परिवार का कोई सदस्य कहीं पहुँच गया, कोई कहीं। कारखानों की मजदूर कॉलोनी में या अन्य छोटे-छोटे आवासों में लोग जा बसे, जहाँ मुश्किल से एक छोटे-से परिवार को ही गुजारा होता है। इस प्रकार संयुक्त परिवार को विघटन होने लगा और यह क्रिया काफी व्यापक पैमाने पर हुई है। इस प्रकार के स्थानों पर जिन परिवारों की नींव पड़ी, वे भी छोटे थे; क्योंकि पति-पत्नी तथा बच्चों के अतिरिक्त अन्य किसी का वहाँ गुजारा नहीं हो सकता था।

2. पारिवारिक कार्य-क्षेत्र का सीमित होना – संयुक्त परिवार में परिवार के सदस्यों की अधिकांश आवश्यकताएँ अन्य सदस्यों द्वारा पूरी हो जाती थीं। औद्योगीकरण के प्रभाव से परिवार के अनेक कार्य विशिष्ट संस्थाओं द्वारा होने लगे हैं। औद्योगीकरण के फलस्वरूप कपड़े धोने का काम लॉण्ड्री में, कपड़े सिलने का काम दर्जी की दुकानों में, आटा पीसने का काम आटा पीसने की शक्ति-चालित चक्कियों में, खेत जोतने, बोने, काटने, माँड़ने का काम विभिन्न मशीनों से होने लगा। इस प्रकार परिवार का कार्य-क्षेत्र सीमित हो गया है।

3. स्त्रियों का नौकरी करना – औद्योगीकरण के फलस्वरूप घर के अनेक कार्य मशीनों द्वारा होने लगे और स्त्रियों के पास समय बचने लगा। अतः महँगाई और अभाव से ग्रस्त परिवार की आमदनी बढ़ाने के लिए स्त्रियाँ नौकरी करने लगीं। औद्योगीकरण के फलस्वरूप सघन कॉलोनी में रहने के कारण पर्दा-प्रथा भी कम हो गयी और नौकरी पर जाने में स्त्रियों की हिचक समाप्त हो गयी।

4. स्त्रियों की स्थिति में सुधार – धन कमाने के कारण स्त्रियाँ स्वावलम्बिनी होने लगीं। अपने पैरों पर खड़े होने के कारण उनका आत्मविश्वास बढ़ा। वे अधिक स्वतन्त्र हुईं। उनमें शिक्षा का प्रसार हुआ और इस प्रकार उनकी स्थिति में सुधार हुआ।

5. विवाह के रूप में परिवर्तन – पहले धर्म-विवाह होते थे, जो संयुक्त परिवार के बुजुर्गों द्वारा कर दिये जाते थे। औद्योगीकरण के प्रभाव में प्रेम-विवाह और अन्तर्जातीय विवाहों की संख्या बढ़ी है, क्योंकि सघन औद्योगिक बस्तियों में युवक और युवतियों के सम्पर्क बढ़े तथा बड़े बुजुर्गों के नियन्त्रण का अभाव हो गया। इसके साथ-ही-साथ अपने पैरों पर खड़े होने के प्रयास में विवाह की आयु बढ़ी और इस प्रकार विलम्ब विवाह होने लगे। वैवाहिक जीवन पर नियन्त्रण घटने से तलाक भी बढ़े हैं।

6. पारिवारिक नियन्त्रण का घटना – पहले संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों पर परिवार के मुखिया का कठोर नियन्त्रण रहता था। हर व्यक्ति परिवार के रीति-रिवाज, आस्थाओं, मान्यताओं आदि से प्रभावित रहता था। औद्योगीकरण के प्रभावस्वरूप परिवारों का आकार छोटा हो गया और व्यक्ति पर पारिवारिक नियन्त्रण घट गया है।

(ख) भारतीय सामाजिक जीवन पर प्रभाव
औद्योगीकरण ने भारतीय सामाजिक जीवन को निम्न प्रकार प्रभावित किया

1. रहन-सहन में कृत्रिमता – औद्योगीकरण के फलस्व रूप लोगों का जीवन अप्राकृतिक हो गया। है। तंग घरों, अँधेरी गलियों, धुएँ से भरा हुआ आकाश, ट्रामें, बसें, रेलें, ऊँचे-नीचे मकान व मशीनों का शोर औद्योगीकरण की ही देन है। इस प्रकार मनुष्य प्रकृति से दूर होती जा रही है।

2. गन्दी तथा तंग बस्तियों का विकास –
हर औद्योगिक नगर में जनसंख्या का घनत्व बढ़ने के कारण रहने के स्थान का अभाव हो जाता है। घनी तंग बस्तियों में दिन में भी सूर्य के दर्शन नहीं होते। कमरे धुएँ से भरे रहते हैं। मल-मूत्र की बदबू असह्य होती है, फिर भी लोग अपने को उसका आदी बना लेते हैं। मुम्बई में ‘चाल’, चेन्नई में ‘चेरी’ और कानपुर में ‘अहाता’ आदि इस प्रकार की गन्दी बस्तियों के उदाहरण हैं।।

3. जाति-प्रथा को कमजोर होना –
औद्योगीकरण के फलस्वरूप और बढ़ती हुई बेकारी के कारण हर जाति के लोग कारखानों में काम पाने का प्रयास करते हैं। काम करते समय और सामान्य जीवन में एक-दूसरे के इतने नजदीक आ जाते हैं कि उन्हें प्रतिबन्धों और निषेधों की उपेक्षा करनी पड़ती है। उन्हें मानकर वे कोई कार्य नहीं कर सकते। अन्तर्जातीय विवाह भी
ऐसे स्थानों पर जाति-प्रथा को ढहाने में सहायक होते हैं।

4. नैतिकता का ह्रास –
मशीनों के बीच काम करते-करते मनुष्य की संवेदनशीलता का लोप हो जाता है। उसमें अपने बन्धु-बान्धवों के प्रति सद्भाव का लोप होने लगता है। कारखानों में काम करने वाला व्यक्ति स्वार्थप्रिय हो जाता है और उसमें मूल्यों के प्रति आस्था समाप्त हो जाती है। औद्योगिक बस्तियों में इसीलिए चोरी, बेईमानी, ईष्र्या-द्वेष, मद्यपान, जुआ, हत्याएँ सामान्य घटनाएँ होती रहती हैं। इससे भ्रष्टाचार का व्यापक प्रसार हुआ है। अपराधों की संख्या में कई गुना वृद्धि हुई है।

5. प्रतिद्वन्द्विता और संघर्ष –
उद्योगों में अस्वस्थ प्रतिद्वन्द्विता के कारण पारस्परिक संघर्ष उत्पन्न हुआ है, जिससे प्रभावित होकर एक व्यक्ति दूसरे को गला काटने से भी नहीं चूकता।

6. बाल-अपराधों में वृद्धि –
औद्योगीकरण के फलस्वरूप भारत की औद्योगिक बस्तियों में बाल-अपराधों की भी वृद्धि हुई है। माता-पिता दिन में अधिकांश समय कारखानों में काम करते हैं, उनकी अनुपस्थिति में बच्चे हर तरह से संसर्ग में आते हैं। नैतिक शिक्षा का अभाव पहले से होता है। माता-पिता द्वारा नैतिक आदर्श रखे नहीं जाते; अस्तु बच्चे हर तरह के
अपराध करने लगते हैं।

7. सामुदायिक जीवन का ह्रास –
मानवीय सम्बन्धों के ह्रास के कारण समाज में वैयक्तिकता अधिक पनपी है। पारस्परिक सद्भाव, सहयोग और सहानुभूति के अभाव के कारण सामुदायिक जीवन का ह्रास होता है।

8. चिन्ता एवं तनाव में वृद्धि – बढ़ती हुई जनसंख्या और रहन-सहन की सुविधाओं के अभाव के कारण तथा नौकरी की तनावपूर्ण दशाएँ, शोषण, ईष्र्या, द्वेष, प्रतिद्वन्द्विता आदि के कारण औद्योगिक बस्ती में रहने वाले लोगों में चिन्ता एवं तनावों में अत्यधिक वृद्धि हो गयी है। इससे व्यक्ति का व्यक्तिगत जीवन अशान्त हो गया है।

(ग) भारतीय आर्थिक जीवन पर प्रभाव
भारतीय आर्थिक जीवन को औद्योगीकरण ने व्यापक रूप से प्रभावित किया है, जो निम्न प्रकार है।

1. पूँजीवाद का विकास बड़े – बड़े उद्योग चलाने के लिए अत्यधिक धन की आवश्यकता होती है, जो पूँजीपतियों से प्राप्त होता है या सरकार द्वारा लगाया जाता है। भारत में भी औद्योगीकरण के विकास के साथ पूँजीपतियों को बढ़ावा मिला है। उनका धन उद्योगों के खोलने में लगा है और उद्योगों के लाभ से उनके कोष भरे पड़े हैं। इसके साथ-ही-साथ श्रमिकों का शोषण भी हुआ है।

2. बड़े पैमाने पर उत्पादन एवं व्यापार –  भारत में औद्योगीकरण के फलस्वरूप नये-नये कारखाने खोले गये हैं, जिनसे विभिन्न वस्तुओं का व्यापार भी बड़े पैमाने पर होने लगा है। कई उद्योगों के लिए कच्चा माल बाहर से आने लगा है और शक्ति के कुछ साधनों का भी आयात किया गया है। इस प्रकार औद्योगीकरण से उत्पादन एवं व्यापार को काफी बढ़ावा मिला है।

3. उच्च जीवन-स्तर – औद्योगीकरण से देश में उत्पादन बढ़ता है और निर्यात द्वारा जो धनोपार्जन होता है वह जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने में सहायक होता है। हमारे देश में स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद जो तीव्र गति से औद्योगिक विकास हुआ है, उससे देशवासियों के
जीवन-स्तर में कुछ-न-कुछ वृद्धि तो हुई ही है।

4. श्रम-विभाजन एवं विशिष्टीकरण – कुटीर उद्योगों में तो उद्योग खोलने वाला व्यक्ति सभी काम स्वयं कर लेता है, किन्तु बड़े उद्योगों में कारखानों में काम कई भागों में बाँट दिये जाते हैं और उन्हें विशिष्ट प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति अत्यधिक तीव्र गति और दक्षता से करते हैं। इस प्रकार श्रम-विभाजन एवं विशिष्टीकरण द्वारा उत्पादन में वृद्धि होती है। औद्योगीकरण का यह एक अनिवार्य परिणाम है।

5. काला धन, चोर-बाजारी एवं आयकर की चोरी – औद्योगीकरण के साथ लोगों की आमदनी बढ़ती है। आमदनी पर कर देना होता है, इसलिए उत्पादन ही छिपा लिया जाता है। इस प्रकार कुल आमदनी के एक अंश आयकर की चोरी की जाती है। अवैध रूप से दबाये हुए उत्पादन की वस्तुओं की बिक्री करके चोर-बाजारी पनपती है। भारत में यह सभी कुछ हो रहा है।

(घ) भारतीय राजनीतिक जीवन पर प्रभाव

औद्योगीकरण का प्रभाव भारतीय राजनीतिक जीवन पर भी पड़ा है, जो निम्नवत् है

  1. राज्य का उत्तरदायित्व बढ़ना – औद्योगीकरण विकास की योजनाओं के अन्तर्गत होता है। उसे कार्यान्वित करने के लिए राज्य को विधिवत् योजनाएँ बनाना होता है और कारखाने खोलने के लिए धने का प्रबन्ध करना होता है। औद्योगीकरण के द्वारा भारत की अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ा है, अन्य देशों से लेन-देन बढ़ा है और उनकी व्यवस्था से सम्बन्धित अनेक जिम्मेदारियाँ बढ़ी हैं।
  2. राजनीतिक समस्याओं में वृद्धि – औद्योगीकरण से देश में अनेक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। जैसे–हड़ताल, तालाबन्दी, श्रमिकों एवं पूँजीपतियों के पारस्परिक संघर्ष, श्रमिक-कल्याण, दुर्घटनाएँ आदि। इन सभी समस्याओं को राज्य की ओर से हल करने की कोशिश की जाती है।

(ङ) भारतीय धार्मिक जीवन पर प्रभाव

औद्योगीकरण का किसी देश के धार्मिक जीवन पर भी सीधा प्रभाव पड़ता है। भारत में औद्योगीकरण का धार्मिक मान्यताओं पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ा है

1. समाज में धर्म का महत्त्व कम होना – औद्योगीकरण के फलस्वरूप भारत में ईश्वर पर से लोगों की आस्था कम होती जा रही है। लोगों का ध्यान भौतिक सुखों की ओर अधिक बढ़ने लगा है।

2. नैतिकता का ह्रास – नैतिकता की भावना, जो धर्म का एक आवश्यक अंग है, भारतीय जीवन से तिरोहित होती जा रही है। स्वार्थों की टकराहट में मानवता का हनन हो रहा है। मनुष्य ने मनुष्य को पहचानना तक छोड़ दिया है।

3. आदर्शों का अभाव – औद्योगीकरण के फलस्वरूप व्यक्ति का दृष्टिकोण भौतिकवादी हो गया है। अपने को वह केवल वर्तमान से ही जोड़कर रखने की कोशिश करता है। भौतिक सुखों की उपलब्धि उसके जीवन का लक्ष्य है। जीवन के आदर्शों का उसके लिए कोई महत्त्व नहीं रहा है, क्योंकि उसकी निगाह भविष्य पर टिकी नहीं होती।

औद्योगीकरण के दुष्प्रभावों को रोकने के उपाय

औद्योगीकरण के दुष्प्रभावों को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं

  1. देश में उद्योगों का विकेन्द्रीकरण किया जाए जिससे राष्ट्र का सन्तुलित विकास हो सके।
  2. ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर उद्योग-धन्धों की पुनः स्थापना की जाए।
  3. कृषि एवं उद्योगों में बढ़ती हुई यन्त्रीकरण की प्रवृत्ति पर रोक लगायी जाए।
  4. तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या पर रोक लगायी जाये। इर के लिए परिवार कल्याण कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाए।
  5.  नगरों में आवास सुविधाएँ बढ़ायी जाएँ, प्रदूषण तथा गन्दगी का विनाश किया जाए।
  6.  अपराध वृत्ति पर रोक लगायी जाए तथा अपराध निरोध के लिए उपाय किये जाएँ।
  7. जनसुविधाओं और स्वास्थ्य सेवाओं में आवश्यकतानुसार वृद्धि की जाए।
  8.  नैतिक आदर्शों एवं सामाजिक मूल्यों के प्रति लोगों की आस्था बढ़ायी जाए।
  9. सामाजिक न्याय एवं सामाजिक कल्याण में वृद्धि की जाए।
  10.  उद्योगों में श्रमिकों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए तथा उनकी सुविधाएँ बढ़ायी जाएँ।
  11.  वर्ग-संघर्ष कम करने के लिए समाज में धन का उचित वितरण किया जाए।
  12. बेरोजगारी तथा निर्धनता पर रोक लगायी जाए।
  13. पारिवारिक विघटन की प्रक्रिया को कम किया जाए।
  14. समाज में मनोरंजन के स्वस्थ साधनों का विकास किया जाए।
  15. समाज-सुधार एवं समाज-कल्याण की योजनाएँ चलायी जाएँ।
  16.  उद्योगों का विकास बस्तियों से दूर कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों में किया जाए।
  17.  समाज में सहयोग, प्रेम तथा एकता को वातावरण तैयार किया जाए जिससे तनाव और संघर्षों को रोका जा सके।
  18.  श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए श्रम-कल्याणकारी कानूनों का निर्माण किया जाए।
  19.  सामाजिक समस्याओं के निराकरण हेतु प्रशासन को अधिक चुस्त बनाया जाए।
  20. राष्ट्र में कुशल नेतृत्व का विकास किया जाए तथा प्रजातान्त्रिक मूल्यों की स्थापना की जाए।

प्रश्न 2
नगरीकरण किसे कहते हैं ? भारतीय समाज पर नगरीकरण के प्रभावों का उल्लेख कीजिए। [2011]
या
भारतीय समाज पर नगरीकरण के प्रभावों की विस्तृत विवेचना कीजिए। [2007, 11, 12, 13]
या
नगरीकरण को परिभाषित करते हुए उसकी विशेषताओं को संक्षेप में लिखिए। नगरीकरण के भारतीय जनजीवन पर पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना कीजिए। [2009, 12]
या
भारत में नगरीकरण के दुष्परिणामों को रोकने के कुछ उपाय सुझाइए। [2011]
या
नगरीकरण के दो दुष्प्रभावों का उल्लेख कीजिए। [2015]
उत्तर:
नगरीकरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ

‘नगरीकरण’ शब्द नगर से ही बना है। सामान्यत: नगरीकरण का अर्थ नगरों के उद्भव, विकास, प्रसार एवं पुनर्गठन से लिया जाता है। वर्तमान औद्योगिक नगर औद्योगीकरण की ही देन हैं। जब एक स्थान पर एक विशाल उद्योग स्थापित हो जाता है तो उस स्थान पर कार्य करने के लिए लोग उमड़ पड़ते हैं और धीरे-धीरे वह स्थान नगर के रूप में विकसित हो जाता है। नगरीकरण को परिभाषित करते हुए ब्रीज लिखते हैं, “नगरीकरण एक प्रक्रिया है जिसके कारण लोग नगरीय कहलाने लगते हैं, शहरों में रहने लगते हैं, कृषि के स्थान पर अन्य व्यवसायों को अपनाते हैं जो नगर में उपलब्ध हैं और अपने व्यवहार-प्रतिमान में अपेक्षाकृत परिवर्तन का समावेश करते हैं।’

डेविस के अनुसार, “नगरीकरण एक निश्चित प्रक्रिया है, परिवर्तन का वह चक्र है जिससे कोई समाज कृषक से औद्योगिक समाज में परिवर्तित होता है।” बर्गेल के अनुसार, “ग्रामीण क्षेत्रों को नगरीय क्षेत्र में बदलने की प्रक्रिया को ही हम नगरीकरण कहते हैं।”

नगरीकरण की विशेषताएँ

  1.  नगरीकरण ग्रामों के नगरों में बदलने की प्रक्रिया का नाम है।
  2.  नगरीकरण में लोग कृषि व्यवसाय को छोड़कर अन्य व्यवसाय करने लगते हैं।
  3. नगरीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें लोग गाँव छोड़कर शहरों में निवास करने लगते हैं जिससे शहरों का विकास, प्रसार एवं वृद्धि होती है।
  4. नगरीकरण जीवन जीने की एक विधि है, जिसका प्रसार शहरों से गाँवों की ओर होता है। नगरीय जीवन जीने की विधि को नगरीयता या नगरवाद कहते हैं। नगरवाद केवल नगरों तक ही सीमित नहीं होता वरन् गाँव में रहकर भी लोग नगरीय जीवन विधि को अपना सकते हैं।

उद्योगों की स्थापना के साथ-साथ ही भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया भी तीव्र हुई है। ग्रामीण लोग देश के विभिन्न भागों में स्थित कारखानों में काम करने के लिए गमन करने लगे हैं, फलस्वरूप महानगरीय एवं नगरीय जनसंख्या में वृद्धि हुई है। | भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया ने यहाँ के समाज और जनजीवन को बहुत कुछ प्रभावित किया है। इसके परिणामस्वरूप एक तरफ अनेक सुविधाएँ प्राप्त हुई हैं तो दूसरी ओर कई सामाजिकआर्थिक परिवर्तनों एवं समस्याओं को भी पनपने का मौका मिला है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि नगरीकरण का अर्थ केवल ग्रामीण जनसंख्या का शहर में आकर बसना या भूमि से सम्बन्धित कार्यों के स्थान पर अन्य कार्यों में अपने को लगाना ही नहीं है। लोगों के नगर में आकर बस जाने मात्र से ही उनका नगरीकरण नहीं हो जाता। ग्रामीण व्यक्ति भी जो कि ग्रामीण व्यवसाय और आदतों को त्यागते नहीं हैं, नगरीय हो सकते हैं, यदि वे नगरीय जीवन-शैली, मनोवृत्ति, मूल्य, व्यवहार एवं दृष्टिकोण को अपना लेते हैं।

नगरीकरण का भारतीय समाज पर प्रभाव

नगरीकरण की प्रक्रिया ने, जो भारतवर्ष में पिछली शताब्दी के उत्तरार्द्ध से चल रही है, देश में अनेकानेक परिवर्तन उत्पन्न कर दिये हैं और जनजीवन को गहराई से प्रभावित किया है, जिस पर अग्रलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत विचार करेंगे

(क) नगरीकरण का पारिवारिक जीवन पर प्रभाव
नगरीकरण की भारत के पारिवारिक जीवन पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ा है

1. संयुक्त परिवार का विघटन – गाँवों में संयुक्त परिवार पाये जाते हैं। शहरों में स्थानाभाव के कारण तथा गाँवों से एकाकी रूप से स्थानान्तरित होने के कारण संयुक्त परिवार का स्थान एकाकी छोटे परिवारों ने ले लिया है।

2. पारिवारिक नियन्त्रण का अभाव – गाँवों में संयुक्त परिवार के मुखिया का परिवार पर काफी नियन्त्रण रहता है। नगरों में छोटे परिवार तथा उन्मुक्तता के कारण पारिवारिक नियन्त्रण इतना कठोर नहीं होता।

3. नयी प्रथाएँ एवं परम्पराएँ – नगरीकरण के प्रभाव से भारत के गाँवों के परिवार की प्रथाएँ एवं परम्पराएँ भी बदलती जा रही हैं; जैसे – माँ-बाप को माता-पिता कहने के स्थान पर मम्मी-डैडी कहना, रसोई में पीढ़े पर खाने के बजाय मेज-कुर्सी पर खाना, भाषा में अंग्रेजी का अधिक प्रयोग करना आदि।

4. पारिवारिक जीवन में अस्थिरता – गाँवों में पति-पत्नी के सम्बन्ध अधिक स्थिर एवं स्थायी होते हैं। शहरों में स्त्रियों को पर-पुरुषों से मिलने-जुलने का काफी अवसर मिलता रहता है। और अधिक स्वतन्त्रता रहती है; इसलिए पति-पत्नी के सम्बन्धों में कुछ कम स्थिरता होती है। नगरों में तलाक की घटनाएँ अधिक होती हैं।

5. वैवाहिक आदशों में परिवर्तन – नगरों में युवक-युवतियाँ उच्च स्तर पर शिक्षा प्राप्त करने में लगे रहते हैं। फिर अपने पैरों पर खड़े होने के लिए नौकरी ढूंढ़ते हैं। स्वावलम्बन प्राप्त करने के इस प्रयास में विवाह की अवस्था बढ़ जाती है, जिससे विलम्ब विवाह नगरों में सामान्य हो गये हैं। कुछ लोग विवाह के चक्कर में नहीं फंसना चाहते, अत: वे अविवाहित रहते हैं। इनके अतिरिक्त नगरों में प्रेम-विवाहों की परम्परा भी प्रचलित है और विधवा-विवाह बुरे नहीं माने जाते।

6. स्त्रियों की स्थिति में सुधार – नगरीकरण के साथ-साथ भारत में स्त्रियों में स्वावलम्बन “और स्वतन्त्रता की तरंग अधिक व्याप्त होती जा रही है। वे पुरुषों के दबाव में और पर्दे में नहीं रहतीं। वे पुरुष के समकक्ष शिक्षा प्राप्त करती हैं और नौकरियाँ करती हैं। इस प्रकार उनकी दशा में काफी सुधार हुआ है और होता जा रहा है।

(ख) नगरीकरण का सामाजिक जीवन पर प्रभाव

नगरीकरण का भारतीय सामाजिक जीवन पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ा है

1. शिक्षा का प्रसार – भारत में शिक्षितों की संख्या बढ़ रही है, क्योंकि स्थान-स्थान पर विद्यालय खुलते जा रहे हैं। शिक्षा के इस व्यापक प्रसार से अन्धविश्वास में कमी, सामाजिक जीवन की अधिक गहरी समझ, विचारों का आदान-प्रदान, उद्योगों का विकास, कृषि की उन्नति, व्यापार में विकास आदि सभी कुछ हो रहा है।

2. सभ्यताओं का संगम – नगरों में विभिन्न जातियों, प्रदेशों, सम्प्रदायों आदि के लोग रहते हैं। विदेशों से भी लोगों का आवागमन होता रहता है। इस प्रकार रहन-सहन के तरीकों, भाषाओं और विचारों के मिश्रण से रहन-सहन में परिवर्तन होता रहता है। भारत के अनेक भागों में यह लक्षण परिलक्षित हो रहा है। फलस्वरूप स्थाने-विशेष की मूल संस्कृति में भी परिवर्तन हो जाती है।

3. संचार के साधनों का प्रसार – नगरीकरण के साथ संचार के साधनों में भी परिवर्तन होता
है। भारत के अनेक ग्रामीण क्षेत्रों में रेलों, बसों, तार, टेलीफोन आदि की सुविधाओं का व्यापक प्रसार हुआ। इससे नये विचारों का प्रसार एवं विभिन्न विचारधाराओं का तीव्र मिश्रण सम्भव हो सका है।

4. अपराध-प्रवृत्ति का प्रसार – शहर में आवास की सुविधाओं का अभाव रहता है, जनसंख्या अधिक रहती है, धनलोलुपता अधिक पायी जाती है, इसलिए लोगों में नैतिकता का अभाव होता है। झूठ, घूस, चोरी, छल-कपट, मिलावट, शराबखोरी, जुआ, डकैती, हत्या आदि भाँतिभाँति के अपराध सामाजिक जीवन पर हावी होते जा रहे हैं और उसे नारकीय बना रहे हैं। नगरीकरण के साथ-साथ मानव को मूल्य कम और धन का महत्त्व अधिक बढ़ता जा रहा है।

5. बीमारियों का प्रसार – स्वास्थ्य-विभाग की व्यवस्थाओं के बावजूद भी घनी जनसंख्या, तंग, अँधेरी, बदबू तथा सीलन से युक्त बस्तियों, खुली हवा का अभाव, खाद्य पदार्थों में तरह-तरह की मिलावट, अवैध एवं मुक्त यौनसम्बन्ध तथा अनियमित रहन-सहन से नगरीकरण के साथ रोगों का भी काफी प्रसार होता है।

6. रहन-सहन में कृत्रिमता – नगरीकरण के प्रभाव से गाँवों का स्वाभाविक एवं प्राकृतिक जीवन कृत्रिम रूप ग्रहण करने लगता है। कोल्ड स्टोरेज की सब्जियाँ, दवाओं से युक्त गेहूँ, पॉलिश किया हुआ चावल, रँगी हुई दाल, कृत्रिम वनस्पति घी एवं मक्खन, सेन्ट डाला हुआ कडूवा तेल, टिन में बन्द अन्य खाद्य सामग्रियों का प्रयोग करते हैं। वस्त्रों में सूती, ऊनी व रेशमी वस्तुओं के स्थान पर बनावटी रेशों के वस्त्र; जैसे-टेरीलीन, नायलॉन आदि; का प्रयोग किया जाता है।

7. स्वास्थ्य में गिरावट, किन्तु जीवनावधि में वृद्धि-रहन – सहन की अनियमितता तथा अशुद्ध वस्तुओं के सेवन आदि के कारण नगरीकरण से लोगों के सामान्य स्वास्थ्य में गिरावट आती है। किन्तु चिकित्सा की उत्तम पद्धतियों में रोगों का निराकरण भी हो जाता है, और नगर में रहने वाला भारतीय कमजोर, किन्तु अधिक लम्बा जीवन जीता है।

8. नशीले द्रव्यों के सेवन में वृद्धि – नगरीकरण के प्रभाव से लोगों में शराब, अफीम, एल० एस० डी०, मारिजुआना, हीरोइन, भाँग आदि के सेवन की प्रवृत्ति बढ़ती है, क्योकि नगरीय जीवन में तनाव से शान्ति प्राप्त करने हेतु नशीले द्रव्यों का सेवन आवश्यक बन जाता है। इनके साथ-साथ नींद प्राप्त करने के लिए सोने की गोलियों का प्रयोग भी बढ़ता है।

9. भौतिकवाद की प्रधानता – नागरिक प्रभाव के कारण भारतीय समाज के आदर्शवादी सिद्धान्त तिरोहित होने लगे हैं। लोगों का ध्यान आत्मिक विकास के स्थान पर भौतिक सुख सम्पन्नता प्राप्त करने पर अधिक रहने लगा है। इससे पारस्परिक संघर्ष, ईष्र्या-द्वेष, वैमनस्य, प्रतियोगिता को बढ़ावा मिला है और तनाव-चिन्ता में वृद्धि हुई है।

(ग) नगरीकरण का भारतीय आर्थिक जीवन पर प्रभाव

नगरीकरण के प्रभाव से भारतीय आर्थिक जीवन भी काफी प्रभावित है, जिसका विवरण निम्न प्रकार है

1. पूँजीवाद का विकास – उद्योगों और व्यापारिक कार्यों से थोड़े-से लोगों के हाथ में धन का केन्द्रीकरण होने लगा है और शेष जनता शोषण का शिकार हुई है। जिनके पास साधनसुविधाएँ हैं, वे अधिकाधिक धन कमा रहे हैं तथा जिनके पास इनका अभाव है, उनकी दशा गिरती जाती है।

2. महँगाई में वृद्धि – जनसंख्या में अधिक वृद्धि एवं उत्पादन में कमी की वृद्धि के कारण मूल्यों में वृद्धि होती है, वस्तुएँ महँगी हो जाती हैं जिससे मध्यम और निम्न वर्ग त्रस्त हो रहा है।

3. कुटीर उद्योगों का ह्रास – नगरीकरण के साथ बड़े उद्योग-धन्धों का प्रसार तेजी से हुआ है। और कुटीर उद्योगों का उसी अनुपात में ह्रास हुआ है। फलस्वरूप नगरीकरण के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था असन्तुलित होती जा रही है।

4. बेकारी में वृद्धि – नगरीकरण के साथ-साथ बेकारी में वृद्धि होती है, क्योंकि बड़े उद्योगों में मशीनें मानवीय श्रम का स्थान ले लेती हैं, जिससे बेकारी बढ़ जाती है। व्यवसाय के अभाव से निर्धनता बढ़ती है। नगरीकरण से ऐसे शिक्षित नवयुवकों की संख्या बढ़ती है, जो केवल पढ़ने-लिखने से सम्बन्धित काम करना चाहते हैं। इस तरह के नवयुवक गाँवों से भी नगर में नौकरी की तलाश में आकर इकट्ठे होने लगते हैं और बेकारी की संख्या में वृद्धि करते हैं।

 5. वाणिज्य और व्यापार का विस्तार – नगरीकरण के साथ संचार के साधनों का विस्तार और प्रसार होता है। पक्के वातानुकूलित गोदामों का निर्माण होता है, जो वस्तुओं को संग्रहीत करने की सुविधा प्रदान करते हैं। दूर-दूर से व्यापारी आकर इकट्ठे होते हैं और इस प्रकार वाणिज्य और व्यापार का विस्तार होता है।

(घ) नगरीकरण का भारतीय राजनीतिक जीवन पर प्रभाव

नगरीकरण का देश के राजनीतिक जीवन पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ता है

  1.  राजनीतिक दलों की क्रियाशीलता में वृद्धि – नगरीकरण के साथ-साथ नये-नये राजनीतिक दलों की स्थापना होती है और राजनीतिक ऊट-पटॉग और दाँव-पेचों में वृद्धि होती है। इस प्रकारे बस्तियाँ राजनीति के अखाड़े बन जाते हैं।
  2. राजनीतिक जागृति – नगरों में राजनीतिक दल बहुत अधिक क्रियाशील होते हैं, जिससे नागरिकों में राजनीतिक ज्ञान की वृद्धि होती है।
  3. प्रशासनिक समस्याओं में वृद्धि – नगरीकरण के साथ-साथ अनेक नयी प्रशासनिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं; जैसे–नागरिक सुरक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, अपराधों पर नियन्त्रण, शिक्षा का संगठन, व्यापार का संगठन, उद्योगों का संचालन एवं व्यवस्था, हड़ताल वे तालाबन्दी। इनसे अशान्ति बढ़ती है।

(ङ) नगरीकरण का भारतीय धार्मिक जीवन पर प्रभाव

नगरीकरण की प्रक्रिया ने भारत के धार्मिक जीवन को निम्नलिखित रूप से प्रभावित किया है

  1. लोगों में धार्मिक भावना का ह्रास दिखाई पड़ता है। लोगों को ईश्वर में विश्वास घट रहा है।
  2. लोगों का ध्यान आत्मिक विकास से हटकर भौतिक सुख-सम्पन्नता प्राप्त करने पर अधिक केन्द्रित होता जा रहा है।
  3. लोगों में जीवन के उच्च मूल्यों के प्रति विश्वास कम होता जा रहा है।
  4. नगरीकरण के साथ नैतिक भावना व नैतिक मूल्यों में आस्था समाप्त होती जा रही है। अनैतिक मूल्य और अपराध बढ़ रहे हैं।
  5.  भारत में नगरीकरण के प्रभाव में साम्प्रदायिक संकीर्णता भी उत्पन्न हुई है।नगरीकरण को रोकने के उपाय – भारत में औद्योगीकरण अधिकतर नगरों में हुआ है। साथ ही, अनेक उद्योग खुलने से नवीन नगरों का जन्म हुआ है; अत: नगरीकरण रोकने के उपाय भी वही होंगे जो औद्योगीकरण के दुष्प्रभावों को रोकने के लिए हैं।

प्रश्न 3
भारतीय समाज पर औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के संयुक्त प्रभाव की विवेचना कीजिए।
या
नगरीकरण एवं औद्योगीकरण की प्रक्रियाओं ने किस प्रकार भारतीय सामाजिक संगठन को प्रभावित किया है ? [2009]
उत्तर:
भारतीय समाज पर औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के संयुक्त प्रभाव

भारतीय समाज पर नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के प्रभावों का अनेक विद्वानों ने अध्ययन किया है, जिनमें एम० एस० गोरे, एलन डी० रॉस, एम० एन० श्रीनिवास आदि प्रमुख हैं। इन्होंने भारतीय ग्रामीण सामाजिक संरचना, संयुक्त परिवार, विवाह एवं जाति-प्रथा पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन एवं विश्लेषण किया है। भारतीय समाज पर औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के प्रभावों का उल्लेख निम्नवत् है

1. यातायात के साधनों का विकास – उद्योगों का यन्त्रीकरण हुआ तो उत्पादन की गति तीव्र हुई। कारखानों में कच्चे माल को तथा निर्मित माल को मण्डियों में पहुँचाने के लिए तीव्रगामी यातायात के साधनों की आवश्यकता महसूस हुई। परिणामस्वरूप रेल, मोटर, ट्रक, वायुयान, जहाज आदि का आविष्कार हुआ, पक्की सड़कें बनीं और यातायात के साधनों का जाल बिछ गया।

2. श्रम-विभाजन एवं विशेषीकरण – ग्रामीण कुटीर व्यवसायों में एक परिवार के व्यक्ति मिलकर ही सम्पूर्ण निर्माण की प्रक्रिया में हाथ बंटाते थे, किन्तु जंब उत्पादन मशीनों की सहायता से होने लगा तो सम्पूर्ण उत्पादन प्रक्रिया को अनेक छोटे-छोटे भागों में बाँट दिया गया। इसी कारण श्रम-विभाजन का उदय हुआ। एक व्यक्ति सम्पूर्ण उत्पादन प्रक्रिया के मात्र एक भाग को ही कर सकता था, जिसके कारण विशेषीकरण ने जन्म लिया।

3. उत्पादन में वृद्धि – औद्योगीकरण में श्रम-विभाजन एवं विशेषीकरण के कारण व मशीनों के प्रयोग से उत्पादन बड़े पैमाने पर तीव्र मात्रा में होने लगा। अधिक उत्पादन के कारण माल की खपत के क्षेत्र में वृद्धि हुई, पूँजी में वृद्धि हुई और स्थानीय आवश्यकताओं के लिए ही नहीं वरन् विश्वव्यापी मॉग के लिए उत्पादन होने लगा।

4. बैंक, बीमा एवं साख – व्यवस्था का उदय-उद्योगों को सुविधाएँ देने, उनके लिए पूँजी जुटाने एवं माल की सुरक्षा के लिए बैंक, बीमा एवं साख-व्यवस्था का उदय हुआ। आज हजारों लोग बैंकों एवं बीमा कार्यालयों में काम करते हैं।

5. आर्थिक प्रतिस्पर्धा – औद्योगीकरण ने आर्थिक प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया। इस प्रतिस्पर्धा में अधिक पूँजी वाला कम पूँजी वाले के व्यवसाय को नष्ट कर देता है और अपना एकाधिकार स्थापित कर लेता है। एकाधिकार कायम होने पर वह माल को अपनी मनचाही कीमत पर बेचता है।

6. सांस्कृतिक सम्पर्क – औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण ही यातायात एवं सन्देशवाहन के साधनों का विकास हुआ। नवीन साधनों ने विभिन्न संस्कृतियों के लोगों को एक-दूसरे के नजदीक ला दिया। यही कारण है कि शहरों में जो औद्योगिक केन्द्र हैं, उनमें हम विभिन्न संस्कृतियों को साथ-साथ फलते-फूलते देख सकते हैं।

7. विवाह पर प्रभाव – औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के प्रभाव के कारण परम्परात्मक भारतीय विवाह संस्था में भी अनेक परिवर्तन हुए हैं। अब जीवन-साथी के चयन में स्वयं लड़के व लड़कियों की राय को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा। नगर में ही हमें प्रेम-विवाह, अन्तर्जातीय विवाह, कोर्ट मैरिज, विधवा पुनर्विवाह, तलाक आदि अधिक दिखाई देते हैं। नगर के लोग विवाह को अब एक धार्मिक संस्कार न मानकर एक सामाजिक समझौता मानने लगे हैं जिसे कभी भी तोड़ा जा सकता है। अब विवाह का उद्देश्य धार्मिक कार्यों की पूर्ति न मानकर सन्तानोत्पत्ति एवं रति-आनन्द माना जाने लगा है।

8. जाति-प्रथा पर प्रभाव – औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण भारतीय जाति-प्रथा में भी परिवर्तन हुआ है। परम्परागत जाति-प्रथा में संस्तरण की एक प्रणाली पायी जाती है, जिसमें जातियों की स्थिति ऊँची और नीची होती है। प्रत्येक जाति का इस संस्तरण में एक स्थान निश्चित होता है। किन्तु औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण जाति-प्रथा की उपर्युक्त विशेषताओं में परिवर्तन हुआ है। अब व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी जाति के बजाय उसके गुणों के आधार पर होने लगा है। जातीय संस्तरण में भी परिवर्तन हुआ है और उन जातियों की सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई है, जो संख्या की दृष्टि से अधिक हैं, आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं और जिन्हें राजनीतिक सत्ता प्राप्त है। खान-पान के सम्बन्धों एवं छुआछूत में भी शिथिलता आयी है।

9. ग्रामीण समुदाय पर प्रभाव – औद्योगीकरण एवं नगरीकरण की प्रक्रिया का प्रभाव ग्रामीण समुदायों पर भी पड़ा। यद्यपि गाँवों में आज भी संयुक्त परिवार प्रथा, जाति-प्रथा व कुछ मात्रा में जजमानी प्रथा का प्रचलन है, फिर भी नगरों के प्रभाव से ग्राम बच नहीं पाये हैं। ग्रामीणों में वस्तु के स्थान पर मुद्रा विनिमय का प्रचलन बढ़ा है। उनके दृष्टिकोण एवं मूल्यों में परिवर्तन हुआ है और नयी आकांक्षाएँ पैदा हुई हैं। गाँवों में जजमानी प्रथा कमजोर हुई है और कई ग्रामीण लोग नगरों में जाकर अपना जातीय व्यवसाय करने लगे हैं। गाँवों में नगरीय संस्कृति एवं अर्थव्यवस्था पनपने लगी है।

10. राजनीतिक क्षेत्र पर प्रभाव – औद्योगीकरण एवं नगरीकरण की प्रक्रिया ने राजनीतिक क्षेत्र को भी प्रभावित किया है। नगरों में यातायात एवं संचार के साधनों एवं समाचार-पत्रों आदि की सुविधा होने के कारण राजनीतिक दल अपने विचारों और सिद्धान्तों को सरलता से जनता तक पहुँचा देते हैं। नगरीकरण ने लोगों में राजनीतिक जागृति पैदा की है और नवीन प्रजातन्त्रीय मूल्यों से लोगों को परिचित कराया है।
11. धार्मिक क्षेत्र में परिवर्तन – नगरों में धर्म का प्रभाव धीरे-धीरे क्षीण होता जा रहा है। वहाँ लोग भाग्य तथा ईश्वर में कम विश्वास करते हैं और अपने श्रम पर अधिक भरोसा रखते हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि नगरों में धर्म का कोई महत्त्व और प्रभाव नहीं है। कई धर्म गुरुओं ने तो धर्म की नयी व्याख्या भी प्रस्तुत की है।

12. स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन  – नगरों में स्त्रियों की सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। वहाँ लड़कियों को उच्च शिक्षा दिलायी जाती है। अतः वे पढ़-लिखकर स्वयं धन अर्जन करने लगी हैं और पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता समाप्त हुई है। नगरों में स्त्रियाँ डॉक्टर, इन्जीनियर, प्राध्यापक, प्रशासक, विधायक, मन्त्री और अन्य पदों पर कार्य करने लगी हैं। प्रेम-विवाह एवं विधवा पुनर्विवाह के कारण स्त्रियों की पारिवारिक प्रस्थिति भी ऊँची उठी है। वर्तमान में परिवारों में पत्नी को पति के समकक्ष दर्जा प्राप्त है।

13. सामाजिक गतिशीलता – औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि हुई है। एक व्यक्ति अच्छे अवसर होने पर एक से दूसरे स्थान पर जाने तथा अपने पद, वर्ग, व्यवसाय को बदलने के लिए तैयार रहता है।

14. व्यापारिक मनोरंजन – औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण मनोरंजन का व्यापारीकरण हुआ है। अनेक संस्थाएँ आज मनोरंजन प्रदान करने का कार्य करती हैं। सिनेमा, क्लब, नाटक, टेलीविजन, रेडियो आदि के संचालन में पर्याप्त मात्रा में पैसों की जरूरत नहीं होती है। ग्रामीण जीवन में मनोरंजन, त्योहारों व उत्सवों के अवसर पर होने वाले नृत्यों द्वारा उपलब्ध होता था, किन्तु आज इन सबके लिए पर्याप्त पैसा खर्च करना होता है।

15. अन्य प्रभाव – उपर्युक्त प्रभावों के अतिरिक्त औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कुछ अन्य प्रभाव इस प्रकार हैं

  1. औद्योगीकरण के कारण मानव की शक्ति में वृद्धि हुई है। उसने अनेक आविष्कारों एवं वैज्ञानिक खोजों के द्वारा ऐसी मशीनों का आविष्कार किया है, जो ऐसे कार्य कर सकती हैं जो मानव की शक्ति से परे हैं।
  2. औद्योगीकरण में उत्पादन का कार्य मशीनों से होने लगा। कम समय में अधिक उत्पादन होने से समय की बचत हुई, साथ ही समय की पाबन्दी और समय का महत्त्व बढ़ा।
  3. औद्योगीकरण के कारण अनेक ऐसी वस्तुओं का उत्पादन हुआ जिन्होंने मानव के सुख एवं ऐश्वर्य में वृद्धि की।
  4.  औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण मानव को प्राप्त होने वाली सुख-सुविधाओं में वृद्धि एवं उत्पादन में बढ़ोत्तरी के कारण उसके जीवन-स्तर में वृद्धि हुई।
  5. प्राथमिक सम्बन्धों का ह्रास हुआ और द्वितीयक सम्बन्ध’ पनपे।
  6. आवश्यकताओं में वृद्धि हुई।
  7. शिक्षा में वृद्धि हुई।
  8.  विचारों में विविधता पनपी।
  9. भीड़-भाड़ में वृद्धि हुई।
  10. औद्योगिक केन्द्रों में स्त्री-पुरुषों के अनुपात में अन्तर बढ़ा। वहाँ स्त्रियों की अपेक्षा पुरुष अधिक पाये जाते हैं।
  11. कृषि में यन्त्रीकरण हुआ।
  12.  मजदूरों की समस्याओं एवं शहर की भीड़-भाड़ युक्त स्थिति से निपटने के लिए प्रशासकीय समस्याएँ खड़ी हुईं।
  13. नैतिक मूल्यों में ह्रास हुआ और लोग पैसे के लिए उचित व अनुचित सभी प्रकार के कार्य करने को तैयार होने लगे।

प्रश्न 4
औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कुप्रभावों की विवेचना कीजिए। [2008]
या
औद्योगीकरण के चार दुष्परिणाम बताइए।
या
औद्योगीकरण तथा नगरीकरण के दोषों को दूर करने के उपाय बताइए।
उत्तर:
औद्योगीकरण व नगरीकरण के कुप्रभाव या दोष

1. पूँजीवाद का जन्म – औद्योगीकरण से पूर्व जीवन-यापन का प्रमुख साधन कृषि एवं कुटीर व्यवसाय थे, जो छोटे पैमाने पर होते थे और जिनमें अधिक पूँजी की आवश्यकता नहीं होती थी, किन्तु जब औद्योगीकरण हुआ तो सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में परिवर्तन हुआ। जिसके पास पूँजी थी, उसने कारखाना लगाया। धीरे-धीरे पूँजी में वृद्धि हुई। श्रमिकों के श्रम का लाभ पूँजीपतियों को मिला। वे अधिक धनी बने। औद्योगीकरण ने ही पूँजीपति एवं मजदूर, दो प्रमुख वर्गों को जन्म दिया।

2. मजदूर समस्याओं एवं मजदूर संगठनों का जन्म – औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण अनेक मजदूर समस्याओं ने जन्म लिया। मजदूरों के स्वास्थ्य की समस्या, काम के घण्टे, भर्ती की समस्या, शिक्षा, बीमा, चिकित्सा, मकान, बोनस आदि से सम्बन्धित अनेक समस्याओं का जन्म हुआ। इन्हें हल करने के लिए उन्होंने मजदूर संगठनों का निर्माण किया। कुटीर व्यवसाय से सम्बन्धित कोई श्रम समस्याएँ नहीं थी, क्योंकि उनमें काम करने वालों में परस्पर सहयोग और घनिष्ठ सम्बन्ध थे। अतः शोषण का प्रश्न ही नहीं था।

3. बेकारी – उद्योगों में मशीनों ने मनुष्य का स्थान लिया। अभिनवीकरण में ऐसी मशीनों का प्रयोग किया जाता है, जिनके द्वारा कम श्रम से अधिक उत्पादन होता है तथा इससे मजदूरों की छंटनी होती है। भारत जैसे देश में, जहाँ पहले से ही बेकारी है, मशीनीकरण से अनेक श्रमिक बेकार हो गये।

4. कुटीर उद्योगों का ह्रास – औद्योगीकरण से पूर्व उत्पादन कुटीर उद्योगों द्वारा होता था, किन्तु जब मशीनों की सहायता से उत्पादन होने लगा जो कि हाथ से बने माल की अपेक्षा सस्ता, साफ व टिकाऊ होता था तो उसके सामने गृह उद्योग द्वारा निर्मित माल टिक नहीं सका। धीरे-धीरे कुटीर व्यवसाय समाप्त होने लगे और उनमें काम करने वाले तथा उनके मालिक कारखानों में श्रमिकों के रूप में सम्मिलित हुए। इस प्रकार औद्योगीकरण से ग्रामीण कुटीर उद्योगों एवं गृह-कला का ह्रास हुआ।

5. आर्थिक संकट व पराश्रितता – औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण गाँवों में आत्मनिर्भरता समाप्त हुई। एक गाँव की दूसरे गाँव पर ही नहीं वरन् एक राष्ट्र की दूसरे राष्ट्र पर निर्भरता बढ़ी। कच्चा माल खरीदने एवं बने हुए माल को बेचने के लिए दो देशों में समझौते हुए एवं पारस्परिक निर्भरता बढ़ी। आज एक देश के आर्थिक विकास में प्रत्यक्ष अंथवा परोक्ष रूप में दूसरे देशों का भी योगदान है। यदि अरब राष्ट्र भारत को तेल देना बन्द कर दें, तो भारत की अर्थव्यवस्था पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

6. मकानों की समस्या –
उद्योगों में काम करने के लिए गाँवों से लोग हजारों की संख्या में आते हैं। परिणामस्वरूप उनके निवास की समस्या पैदा होती है। शहरों में हवा व रोशनी वाले मकानों का अभाव होता है। औद्योगिक केन्द्रों में मकान, भीड़-भाड़ युक्त, सीलन भरे एवं बीमारियों के घर होते हैं। औद्योगीकरण ने गन्दी बस्तियों की समस्या को प्रमुखतः जन्म दिया है।

7. दुर्घटनाओं में वृद्धि –
कारखानों में चौबीसों घण्टे काम चलता रहता है। थोड़ी-सी असावधानी या थकान से निद्रा आने पर हाथ-पाँव कटने एवं स्वयं को मृत्यु के मुख में धकेलने के अवसर बढ़ जाते हैं। ट्रकों, बसों एवं रेलों की दुर्घटनाएँ आए दिन होती ही रहती हैं।

8. सामाजिक नियन्त्रण का अभाव –
ग्रामीण जीवन में व्यक्ति पर परिवार, जाति पंचायत, ग्राम पंचायत, प्रथाओं एवं धर्म का नियन्त्रण था। औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण बड़े नगरों में यह सब असम्भव हो गया। नियन्त्रण के अभाव के कारण ही औद्योगिक केन्द्रों एवं बड़े नगरों में उच्छृखलता दिखाई देती है।

9. व्यक्तिवाद को प्रोत्साहन –
औद्योगीकरण एवं नगरीकरण ने व्यक्तिवाद को प्रोत्साहित किया। व्यक्तिवाद व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर जोर देता है तथा वह सरकार एवं राज्य का हस्तक्षेप नहीं चाहता, किन्तु नियन्त्रण के अभाव में व्यक्ति में कई बुराइयाँ जन्म लेती हैं।

10. सामाजिक विघटन एवं अपराध –
औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण समाज-विरोधी कार्यों एवं अपराधों में वृद्धि हुई। नगरों में नियन्त्रण के अभाव में सामाजिक नियमों की अवहेलना की जाती है जिससे समाज में विघटनकारी प्रवृत्तियाँ प्रबल होती हैं। औद्योगिक केन्द्रों एवं बड़े नगरों में वेश्यावृत्ति, शराबखोरी, जुआ, बाल-अपराध, हत्याएँ, आत्महत्याएँ, चोरी, डकैती, गबन एवं अन्य अपराधी व्यवहारों की बहुलता पायी जाती है।

11. संयुक्त परिवार का विघटन –
परम्परागत भारतीय परिवार संयुक्त प्रकृति के होते थे। परिवार के सभी कार्यों पर वयोवृद्ध व्यक्ति का नियन्त्रण होता था। औद्योगीकरण एवं नुगरीकरण के प्रभाव के कारण परम्परात्मक संयुक्त परिवारों का विघटन हुआ। परिणामस्वरूप नगरों में छोटे-छोटे एकाकी परिवार बनने लगे। संयुक्त परिवार के ढाँचे एवं कार्यों में अनेक परिवर्तन हुए।

12. स्वास्थ्य की समस्या –
शहर में स्वच्छ वातावरण का अभाव होता है। मकानों में भीड़-भाड़, वायु प्रदूषण, मिल, फैक्ट्री का धुआँ, स्थान की कमी, रोशनी एवं स्वच्छ हवा का अभाव, गड़गड़ाहट एवं बहरा कर देने वाला शोरगुल, खटमल, मच्छर आदि की अधिकता, छूत के रोग, बदबूदार एवं सीलन भरे कमरे आदि सभी मिलकर स्वास्थ्य पर बुरा असर डालते हैं। शहरों में मृत्यु-दर गाँव की अपेक्षा अधिक होने का यही प्रमुख कारण है। स्वच्छ वातावरण । प्रदान करने एवं मनोरंजन हेतु वहाँ पार्क, बगीचों एवं खेलकूद की सुविधाएँ जुटायी जाती हैं।

औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के दोषों को दूर करने के उपाय

जहाँ औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण लोगों को अनेक सुविधाएँ प्राप्त हुई हैं, वहाँ इनके प्रभाव के कारण अनेक समस्याएँ भी पैदा हुई हैं। औद्योगीकरण के इन दोषों को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय प्रभावी होंगे

  1.  नियोजित नगरों का निर्माण किया जाए, जिनमें मानव-जीवन से सम्बन्धित आवश्यकताओं की पूर्ति उचित प्रकार से की जाए। यहाँ व्यवसाय सम्बन्धी सुविधाएँ भी समुचित मात्रा में उपलब्ध
    करायी जाएँ।
  2. जहाँ तक सम्भव हो उद्योगों को विकेन्द्रीकरण किया जाए तथा बड़े-बड़े उद्योगों के स्थान पर छोटे-छोटे उद्योग स्थापित किये जाएँ।
  3. ग्रामीण उद्योगों को प्रोत्साहन दिया जाए, जिससे गाँव से नगरों की ओर रोजगार की खोज में लोगों का आना बन्द हो।
  4. श्रमिकों की समस्याओं को हल करने तथा उनके हितों की रक्षा के लिए श्रम-कानून एवं कल्याणकारी कदम उठाये जाएँ।
  5. उद्योगों के वातावरण को स्वस्थ बनाया जाए।
  6. श्रमिकों के निवास, जल, बिजली एवं मनोरंजन के साधनों की उचित व्यवस्था की जाए।
  7. गन्दी बस्तियों के निर्माण पर रोक लगायी जाए तथा सरकार स्वयं भवन-निर्माण का कार्य करे। तथा भवन बनाने हेतु अधिकाधिक ऋण की व्यवस्था करे।
  8. उद्योगों की स्थापना नगरों से दूर हो।
  9.  श्रम संगठनों को कुशल, उपयोगी एवं मजबूत बनाया जाए। उनके आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ होने के लिए उन्हें आर्थिक सहायता दी जाए।
  10.  श्रमिकों में कुशल नेतृत्व का विकास किया जाए। अधिकांश मजदूर संगठनों का नेतृत्व श्रमिकों के हाथ में न होकर राजनेताओं के हाथ में है। इसे उनके प्रभावों से मुक्त किया जाए।
  11. श्रमिकों को सस्ते दामों पर वस्तुएँ दिलाने के लिए सरकारी उपभोक्ता भण्डार तथा चिकित्सा के लिए अस्पताल आदि की सुविधाएँ जुटायी जाएँ।

प्रश्न 5
औद्योगीकरण को परिभाषित कीजिए तथा पर्यावरण पर इसके प्रभावों की विवेचना कीजिए।
या
नगरीकरण द्वारा पर्यावरण पर पड़ रहे दो दुष्प्रभावों का उल्लेख कीजिए। [2015]
या
औद्योगीकरण का पर्यावरण पर प्रभाव लिखिए। [2009]
उत्तर:
औद्योगीकरण की परिभाषा

विभिन्न विद्वानों द्वारा औद्योगीकरण की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

एम० एस० गोरे के अनुसार, “औद्योगीकरण उस प्रक्रिया से सम्बन्धित है जिसमें वस्तुओं का उत्पादन हाथ से न होकर विद्युतशक्ति द्वारा चालित मशीनों से किया जाता है।”
गैराल्ड ब्रीज के अनुसार, “किसी समाज में औद्योगीकरण का प्रथम चरण छोटी-छोटी मशीनों के विकास पर बल देता है, जबकि अन्तिम चरण बड़ी-बड़ी मशीनों के विकास पर केन्द्रित होता है।”
फेयरचाइल्ड के शब्दों में, “औद्योगीकरण विज्ञान द्वारा प्रौद्योगिक विकास की प्रक्रिया है; इसमें शक्ति-चालित यन्त्रों द्वारा बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाता है। अतः एक व्यापक बिक्री के लिए उत्पादन एवं उपयोग में आने वाली सामग्री को तैयार किया जाता है। इस बड़े पैमाने का उत्पादन श्रम-विभाजन द्वारा होता है।”
विलबर्ट ई० मूर के शब्दों में, “औद्योगीकरण से अभिप्राय आर्थिक उत्पादन के लिए अमानवीय शक्तियों को अधिक प्रयोग तथा संचार संगठन एवं अन्य व्यवस्थाओं में परिवर्तन से है।”

पी-कांग-चांग के अनुसार, “औद्योगीकरण से अर्थ उस प्रक्रिया से है जिसके अन्तर्गत उत्पादन के कार्यों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होते रहते हैं। इनमें वे आधारभूत परिवर्तन भी सम्मिलित किये जाते हैं जिनका सम्बन्ध किसी औद्योगिक उपक्रम के यन्त्रीकरण, नवीन उद्योगों का निर्माण, नये बाजारों की स्थापना तथा किसी नवीन क्षेत्र के विकास से है। वह एक प्रकार से पूँजी को गहन तथा व्यापक बनाने की विधि है।”

ऊपर वर्णित परिभाषाओं से स्पष्ट है कि औद्योगीकरण उद्योगों के विकास की एक प्रक्रिया है, जिसमें बड़े पैमाने पर उद्योग लगाए जाते हैं तथा हाथ से किया जाने वाला उत्पादन मशीनों से किया जाने लगता है। औद्योगीकरण शब्द का प्रयोग व्यापक एवं संकुचित दो अर्थों में हुआ है। संकुचित अर्थ में औद्योगीकरण से तात्पर्य निर्माता-उद्योगों की स्थापना एवं विकास से है। इस अर्थ में औद्योगीकरण आर्थिक विकास की प्रक्रिया का ही एक भाग है जिसका उद्देश्य उत्पादन के साधनों की कुशलता में वृद्धि करके जीवन-स्तर को ऊँचा उठाना है। व्यापक अर्थ में, “औद्योगीकरण के द्वारा देश की सम्पूर्ण आर्थिक संरचना को परिवर्तित किया जा सकता है।”

औद्योगीकरण एवं नगरीकरण का पर्यावरण पर प्रभाव

औद्योगीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें लघु एवं कुटीर उद्योगों का स्थान बड़े पैमाने के उद्योग ले लेते हैं। उद्योगों में जड़ शक्ति का प्रयोग किया जाता है और उत्पादन मशीनों की सहायता से होता है। फलस्वरूप उत्पादन तीव्र गति से तथा विशाल मात्रा में होता है। औद्योगीकरण के विकास में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी ने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके अन्तर्गत कोयला, विद्युत शक्ति, खनिज पदार्थ आदि की अधिकाधिक प्राप्ति तथा उनके प्रयोग पर बल दिया जाता है। छोटेछोटे उद्योगों के स्थान पर बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना अथवा बड़े पैमाने पर उद्योगों की स्थापना जिनमें प्राकृतिक संसाधनों का अधिकाधिक प्रयोग किया जाता हो तथा उत्पादन कार्य मशीनों की सहायता से होता हो, उसे औद्योगीकरण कहा जाता है।

1. प्रदूषित मकानों का जन्म – उद्योगों में काम करने के लिए गाँवों से लोग हजारों की संख्या में आते हैं। परिणामस्वरूप उनके निवास की समस्या पैदा होती है। शहरों में हवा वे रोशनी वाले मकानों का अभाव होता है। मकान महँगे होने के कारण कई व्यक्ति मिलकर एक ही कमरे में रहने लगते हैं। औद्योगिक केन्द्रों में मकान, भीड़-भाड़युक्त, सीलन भरे एवं बीमारियों के घर होते हैं। औद्योगीकरण एवं नगरीकरण ने गन्दी बस्तियों की समस्या को प्रमुखत: जन्म दिया है।

2. प्रदूषित वातावरण – शहर में स्वच्छ वातावरण का अभाव होता है। मकानों में भीड़-भाड़, वायु प्रदूषण, मिल-फैक्ट्री का धुआँ, स्थान की कमी, बन्द मकान, रोशनी एवं स्वच्छ हवा का अभाव, गड़गड़ाहट एवं बहरा कर देने वाला शोरगुल, खटमल, मच्छर, आदि की अधिकता, छूत के रोग, बदबूदार एवं सीलन भरे कमरे, आदि सभी मिलकर स्वास्थ्य पर बुरा असर डालते हैं। शहरों में मृत्यु-दर गाँव की अपेक्षा अधिक होने का यही प्रमुख कारण है। स्वच्छ वातावरण प्रदान करने एवं मनोरंजन हेतु वहाँ पार्क, बगीचों एवं खेलकूद की सुविधाएँ जुटायी जाती हैं।

3. सांस्कृतिक पर्यावरण पर प्रभाव – औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण ही यातायात एवं सन्देशवाहन के साधनों का विकास हुआ। नवीन साधनों ने विभिन्न संस्कृतियों के लोगों को एक-दूसरे के नजदीक ला दिया, उनमें पारस्परिक समझ बढ़ी, पारस्परिक आदान-प्रदान हुआ, एक-दूसरे की फैशन, वस्त्र प्रणाली, धर्म, रीति-रिवाज, जीवन विधि आदि को अपनाना सम्भव हुआ। यही कारण है कि शहरों में जो औद्योगिक केन्द्र हैं, उनमें हम विभिन्न संस्कृतियों को साथ-साथ फलते-फूलते देख सकते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
“औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप मजदूर समस्याओं एवं मजदूर संगठनों का जन्म होता है।” इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर:
औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण अनेक मजदूर समस्याओं ने जन्म लिया। मजदूरों के स्वास्थ्य, काम के घण्टे, भर्ती, शिक्षा, बीमा, चिकित्सा, मकान, बोनस आदि से सम्बन्धित अनेक समस्याओं का जन्म हुआ। इन्हें हल करने के लिए उन्होंने मजदूर संगठनों को निर्माण किया। इन समस्याओं के उचित तरीके से समाधान नहीं होने पर मजदूरों द्वारा काम रोक दिया जाता है और सम्पूर्ण आर्थिक जगत को इससे हानि होती है। हड़ताल, तालाबन्दी, तोड़फोड़, आगजनी, घेराव एवं हिंसात्मक उपद्रव होने लगे। कभी-कभी तो मजदूरों की समस्याओं को हल करने हेतु श्रम-कल्याण योजनाएँ बनायी गयीं। कुटीर व्यवसाय से सम्बन्धित कोई श्रम समस्याएँ नहीं थी, क्योंकि उनमें काम करने वाले एक ही परिवार व पड़ोस के व्यक्ति अथवा रिश्तेदार होते थे। उनमें परस्पर सहयोग और घनिष्ठ सम्बन्ध थे। अतः शोषण का प्रश्न ही नहीं था। सूर्योदय एवं सूर्यास्त होने के साथ-साथ काम के घण्टे तय होते थे, किन्तु औद्योगीकरण ने अनेक श्रम-समस्याओं को जन्म दिया है। इन समस्याओं के समाधान के लिए भारत सरकार ने 1948 ई० में कारखाना अधिनियम पारित किया।

प्रश्न 2
“औद्योगीकरण कुटीर उद्योगों का ह्रास करते हैं।” इस कथन की सत्यता बताइए।
उत्तर:
औद्योगीकरण से पूर्व उत्पादन कुटीर उद्योगों द्वारा होता था, किन्तु जब मशीनों की सहायता से उत्पादन होने लगा जो कि हाथ से बने माल की अपेक्षा सस्ता, साफ व टिकाऊ होता था, तो उसके सामने गृह-उद्योग द्वारा निर्मित माल टिक नहीं सका। धीरे-धीरे कुटीर व्यवसाय समाप्त होने लगे और उनमें काम करने वाले तथा उनके मालिक कारखानों में श्रमिकों के रूप में सम्मिलित हुए। कुटीर व्यवसायों में व्यक्ति को काम करने के बाद जो मानसिक आनन्द मिलता था, वह कारखानों में समाप्त हो गया, क्योंकि अब वह सम्पूर्ण उत्पादन की प्रक्रिया का एक छोटा-सा भाग ही पूर्ण करने में सहयोग देता है। इस प्रकार औद्योगीकरण से ग्रामीण कुटीर उद्योगों एवं गृह-कला का ह्रास हुआ।

प्रश्न 3
औद्योगीकरण व नगरीकरण में चार अन्तर बताइए।
उत्तर:
औद्योगीकरण व नगरीकरण में गहरा सम्बन्ध है, फिर भी इनमें अन्तर पाये जाते हैं। इनमें चार अन्तर निम्नलिखित हैं

1. औद्योगीकरण गाँव एवं नगर दोनों ही स्थानों पर हो सकता है। इसके लिए गाँव छोड़कर नगर जाने की आवश्यकता नहीं है। ग्रामों में भी यदि बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना कर दी जाए अथवा उत्पादन शक्ति-चालित मशीनों से होने लगे तो वहाँ भी औद्योगीकरण हो जाएगा, किन्तु नगरीकरण में ग्रामीण जनसंख्या को ग्राम छोड़कर नगरों में जाना होता है।

2. औद्योगीकरण में कृषि व्यवसाय को छोड़ना होता है और उसके स्थान पर अन्य व्यवसायों में लगना होता है, जब कि नगरीकरण का सम्बन्ध कृषि, उद्योग, व्यापार, नौकरी एवं छोटे-छोटे व्यवसायों
से भी है। इस प्रकार नगरीकरण में कृषि और गैर-कृषि दोनों ही प्रकार के व्यवसाय किये जाते हैं।

3. औद्योगीकरण का सम्बन्ध उत्पादन की प्रणाली से है, जिसमें उत्पादन का कार्य मशीनों की सहायता से किया जाता है। आर्थिक वृद्धि से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतः मूलत: यह एक आर्थिक प्रक्रिया है, किन्तु नगरीकरण नगरीय बनने की एक प्रक्रिया है, जिसका सम्बन्ध एक विशेष प्रकार की जीवन-शैली, खान-पान, रहन-सहन, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक जीवन से है, जो नगर में निवास करने वाले लोगों में पाया जाता है।

4. सामान्यतः औद्योगीकरण नगरीकरण अथवा नगरों पर आधारित है; क्योंकि उद्योगों की स्थापना के लिए सुविधाओं; जैसे-बैंक मुद्रा, साख, श्रम, यातायात एवं संचार के साधन, पानी, बिजली, बाजार, कच्चा माल आदि की आवश्यकता होती है, वे सभी नगरों में उपलब्ध होती हैं। अतः कहा जाता है कि औद्योगिक समाज नगरीय समाज ही है, जब कि नगरीकरण औद्योगीकरण के बिना भी सम्भव है। प्राचीन समय में जब उत्पादन कार्य बिना मशीनों की सहायता से नहीं किया जाता था तब भी नगर मौजूद थे। उस समय नगर धार्मिक, राजनीतिक, शैक्षणिक एवं व्यापारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थल थे। तीर्थस्थान, राजधानियाँ, शिक्षा व संस्कृति के केन्द्र तथा व्यापारिक मण्डियाँ ही तब नगर कहलाते थे।

प्रश्न 4
नगरीकरण के समाज पर चार प्रभावों को समझाइए। [2007, 09]
उत्तर:
नगरीकरण के समाज पर चार प्रभाव निम्नलिखित हैं

1. सम्बन्धों में औपचारिकता – जीवन का क्षेत्र नगरीकरण के कारण विस्तृत होता है। नगरों की जनसंख्या अधिक होती है। अतः आमने-सामने के घनिष्ठ एवं औपचारिक सम्बन्ध, जो कि लघु समुदायों में सम्भव होते हैं, नगरों में सम्भव नहीं होते। सम्बन्धों में औपचारिकता बढ़ जाती है।

2. एकाकी परिवारों में वृद्धि – भारत में नगरों का विकास हो जाने से संयुक्त परिवारों का विघटन होता जा रहा है। नगरों में व्यावसायिक विजातीयता से एकाकी परिवारों को प्रोत्साहन मिलता है। अब एकाकी परिवारों में वृद्धि के कारण व्यक्तियों में सामाजिक सम्बन्धों की घनिष्ठ ता समाप्त हो चली है तथा साथ-ही पारिवारिकता की भावना का अन्त हो गया है।

3. फैशन का बोलबाला – नगरों में सामाजिक जीवन में बनावट आ गयी है। नगरों में चमके दमक, सजावट तथा आकर्षण का महत्त्व बढ़ गया है। चारों ओर फैशन का बोलबाला हो रहा है तथा सामाजिक रहन-सहन के स्तर में भारी अन्तर आ गया है। साथ ही जीवन के प्रति दृष्टिकोण में भी अन्तर आ गया हैं।

4. सामाजिक विजातीयता – नगरों में विभिन्न जातियों, पेशों तथा संस्कृति के लोग पाये जाते हैं। एक ही जाति एवं धर्म के लोगों के सामूहिक निवास का नगरों में अभाव होता है। अतः नगर के लोग स्थायी सम्बन्धों की स्थापना करने में असफल रहे हैं। नगर के लोगों में पीढ़ीदर-पीढ़ी चलने वाले सम्बन्धों का अभाव पाया जाता है; क्योंकि नगरों में विभिन्न प्रकार के व्यक्ति निवास करते हैं, जो उद्देश्यों तथा संस्कृति में समान नहीं होते हैं, इसलिए नगरीकरण के कारण सम्बन्धों में विजातीयता बढ़ गयी है।

प्रश्न 5
औद्योगीकरण एवं नगरीकरण ने भारत में संयुक्त परिवार को किस प्रकार प्रभावित किया है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
औद्योगीकरण एवं नगरीकरण की प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में हजारों वर्षों से चली आ रही संयुक्त परिवार-प्रणाली भी प्रभावित हुई है। संयुक्त परिवार पर इसके प्रमुख रूप से निम्नलिखित प्रभाव पड़े हैं

1. सीमित आकार – इन प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप परिवार के आकार में कमी हुई है। नगरों व औद्योगिक केन्द्रों में शिक्षा के प्रसार तथा परिवार नियोजन के कारण परिवार के सदस्यों की कमी हुई है और संयुक्त परिवार का आकार पहले की तुलना में सीमित हो गया है।

2. कार्यों में परिवर्तन – परम्परागत रूप से परिवार अपने सदस्यों के लिए शिक्षा, मनोरंजन, स्वास्थ्य बीमा तथा अन्य सभी प्रकार के कार्य करता था, परन्तु आज इसके सभी परम्परागत कार्य अन्य विशेषीकृत समितियों ने ले लिये हैं। उदाहरण के लिए, शिक्षा का कार्य शिक्षा संस्थाओं तथा स्वास्थ्य सुरक्षा का कार्य अस्पतालों ने ले लिया है।

3. पारिवारिक नियन्त्रण में कमी – परिवार के परम्परागत कार्यों में कमी के साथ ही परिवार का व्यक्ति पर नियन्त्रण कम हुआ है। आज पढ़े-लिखे युवक-युवतियाँ परिवार के कठोर नियन्त्रण को पसन्द नहीं करते हैं। अतः सामाजिक नियन्त्रण में इनका महत्त्व कम हो गया है।

4. एकल परिवारों की संख्या में वृद्धि – औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के परिणामस्वरूप संयुक्त परिवारों का विघटन हुआ है तथा एकल परिवारों की संख्या में वृद्धि हुई है। आज नगरीय तथा औद्योगिक क्षेत्रों में इसी कारण एकल परिवारों की संख्या संयुक्त परिवारों की संख्या से कहीं अधिक है।

5. संरचना में परिवर्तन – संयुक्त परिवार की परम्परागत संरचना में काफी परिवर्तन हुआ है। कर्ता की स्थिति, स्त्रियों की स्थिति तथा विधवाओं की स्थिति में परिवर्तन हुआ है।

6. सम्बन्धों में परिवर्तन – औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण व्यक्तिवादिता में वृद्धि हुई है, जिसके परिणामस्वरूप परिवार के सदस्यों के सम्बन्धों में औपचारिकता आती जा रही है। स्त्रियों के बाहर काम करने से भी सम्बन्ध प्रभावित हुए हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
औद्योगीकरण क्या है?
उत्तर:
‘औद्योगीकरण’ शब्द एक प्रकार से यन्त्रीकरण का पर्यायवाची है। जब मशीनों का अधिकाधिक प्रयोग करके किसी वस्तु का उत्पादन बढ़ाने का प्रयास किया जाता है तो उसे औद्योगीकरण की प्रक्रिया कहते हैं। इस प्रकार ‘औद्योगीकरण’ उस प्रक्रिया को कहा जा सकता है, जिसके अन्तर्गत उत्पादन की आधुनिक व्यवस्था एवं सम्बन्धित संस्थाओं का विकास एवं प्रसार होता है। समाजशास्त्र में इसका अर्थ उद्योगों के विकास एवं उत्पादन की आधुनिक व्यवस्था के परिणामस्वरूप समाज के विभिन्न पक्षों में होने वाले परिवर्तनों के लिए किया जाता है।

प्रश्न 2
औद्योगीकरण का अर्थ बताते हुए उसकी चार विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
औद्योगीकरण का अर्थ-औद्योगीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा आधुनिक उद्योगों एवं सम्बन्धित संस्थाओं का विकास व प्रसार होता है। इसमें आर्थिक उत्पादन हेतु अमानवीय शक्ति (मशीनों आदि) का अधिकाधिक प्रयोग होता है। औद्योगीकरण की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. यह मानवीय शक्ति की अपेक्षा मशीनी शक्ति पर बल देता है।
  2.  इसकी प्रमुख विशेषता श्रम-विभाजन और विशिष्टीकरण है।
  3.  इसके कारण प्रति व्यक्ति आय और राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है।
  4. यह प्राकृतिक संसाधनों के अधिकतम तथा योजनाबद्ध दोहन पर बल देता है।

प्रश्न 3
औद्योगीकरण के चार उद्देश्य लिखिए। [2008, 10, 13, 15]
उत्तर:
औद्योगीकरण के चार उद्देश्य निम्नलिखित हैं

  1. नवीन उद्योगों की स्थापना करना,
  2.  हाथ की अपेक्षा मशीनों द्वारा उत्पादन करना,
  3. मानव-शक्ति व पशु-शक्ति के स्थान पर जड़ शक्ति; जैसे – कोयला, डीजल आदि का प्रयोग करना तथा ।
  4.  उत्पादन को तीव्र गति से विशाल पैमाने पर करना।

प्रश्न 4
भारत में औद्योगीकरण के कोई दो आर्थिक प्रभाव बताइए। [2009]
उत्तर:
1. आर्थिक आधार पर स्तरीकरण-भारत में औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप उत्पादन कार्य बड़ी-बड़ी मशीनों द्वारा बड़े-बड़े कारखानों व मिलों में किया जाने लगा है। इससे समाज दो भागों में वर्गीकृत हो गया है-पूँजीपति और श्रमिक।
2. कुटीर व लघु उद्योगों पर प्रभाव-भारत में औद्योगीकरण का प्रत्यक्ष प्रभाव कुटीर एवं लघु उद्योगों पर पड़ा है। वे लगभग नष्ट हो गये हैं तथा उनसे सम्बन्धित व्यक्ति बेकार हो गये हैं।

प्रश्न 5
भारत में औद्योगीकरण के चार सामाजिक प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत में औद्योगीकरण के चार सामाजिक प्रभाव निम्नलिखित हैं

  1.  नगरीकरण एवं गन्दी बस्तियों की स्थापना,
  2.  जनसंख्या का स्थानान्तरण,
  3.  कुटीर उद्योगों का पतन तथा ।
  4.  श्रम-विभाजन एवं विशेषीकरण।

प्रश्न 6
नगरीकरण की चार विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
नगरीकरण की चार विशेषताएँ इस प्रकार हैं

  1. नगरीकरण ग्रामों के नगरों में बदलने की प्रक्रिया का नाम है।
  2. नगरीकरण में लोग कृषि व्यवसाय को छोड़कर अन्य व्यवसाय करने लगते हैं।
  3. नगरीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें लोग गाँव छोड़कर शहरों में निवास करने लगते हैं जिससे शहरों का विकास, प्रसार एवं वृद्धि होती है।
  4. नगरीकरण जीवन जीने की एक विधि है, जिसका प्रसार शहरों से गाँवों की ओर होता है। नगरीय जीवन जीने की विधि को नगरीयता या नगरवाद कहते हैं। नगरवाद केवल नगरों तक ही सीमित नहीं होता वरन् गाँव में रहकर भी लोग नगरीय जीवन विधि को अपना सकते हैं।

प्रश्न 7
पश्चिमीकरण से आप क्या समझते हैं? [2012, 15]
उत्तर:
विश्व को संस्कृति के आधार पर दो भागों में विभाजित किया गया है। एक भाग पूर्वी विश्व और दूसरा भाग पश्चिमी विश्व के नाम से पुकारा जाता है। पूर्व में अध्यात्मवादी संस्कृति का बोलबाला है और पश्चिमी विश्व में भौतिकवादी संस्कृति का महत्त्व है। जब पूर्व के देशों में पश्चिम की भौतिकवादी संस्कृति का प्रभाव बढ़ने लगा है और इसके परिणामस्वरूप गैर पश्चिमी देशों में परिवर्तन होने लगते हैं, तो हम उसको पश्चिमीकरण के नाम से पुकारते हैं। एम० एन० श्रीनिवास के अनुसार, “150 वर्षों के अंग्रेजी राज्य के फलस्वरूप भारतीय समाज में संस्कृति में होने वाले परिवर्तनों को पश्चिमीकरण से सम्बोधित किया जा सकता है। यह शब्द प्रौद्योगिकी, संस्थाएँ, विचारधारा और मूल्य आदि विभिन्न स्तरों पर आधारित होने वाले परिवर्तनों को आत्मसात् करता है।

प्रश्न 8
औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के परिणाम के रूप में सामाजिक विघटन तथा अपराधों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण समाज-विरोधी कार्यों एवं अपराधों में वृद्धि हुई। नगरों में नियन्त्रण के अभाव में सामाजिक नियमों की अवहेलना की जाती है, जिससे समाज में विघटनकारी प्रवृत्तियाँ प्रबल होती हैं। औद्योगिक केन्द्रों एवं बड़े नगरों में वेश्यावृत्ति, शराबखेरी, जुआ, बाल-अपराध, हत्याएँ, आत्महत्याएँ, चोरी, डकैती, गबन एवं अन्य अपराधी व्यवहारों की बहुलता पायी जाती है। इन्हें हम अपराध के केन्द्र कह सकते हैं।

प्रश्न 9
ब्रीज के अनुसार नगरीकरण को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
ब्रीज के अनुसार, “नगरीकरण एक प्रक्रिया है जिसके कारण लोग नगरीय कहलाने लगते हैं, कृषि के स्थान पर अन्य व्यवसायों को अपनाते हैं, जो नगर में उपलब्ध हैं और अपने व्यवहार प्रतिमान में अपेक्षाकृत परिवर्तन का समावेश करते हैं।”

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
नगरीकरण क्या है ? [2013]
उत्तर:
नगरीकरण का अर्थ है-नगरों का उद्भव, विकास, प्रसार एवं पुनर्गठन। नगरीकरण में लोग आसपास के स्थानों से आकर नगरों में बस जाते हैं।

प्रश्न 2
भारत के तीन बड़े उद्योगों के नाम बताइए।
उत्तर:
भारत के तीन बड़े उद्योगों के नाम हैं – सूती वस्त्र, लौह-इस्पात एवं चीनी उद्योग।

प्रश्न 3
नगरीय जनसंख्या में वृद्धि की प्रक्रिया को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
नगरीय जनसंख्या में वृद्धि की प्रक्रिया को नगरीकरण कहते हैं।

प्रश्न 4
भारत नगर-प्रधान देश है। उत्तर हाँ अथवा नहीं में दीजिए।
उत्तर:
नहीं।

प्रश्न 5
“ग्रामीण क्षेत्रों को नगरीय क्षेत्रों में परिवर्तित होने की प्रक्रिया को ही हमें नगरीकरण कहना चाहिए।” यह कथन किसने दिया? [2012]
उत्तर:
बगैल ने।

प्रश्न 6
प्राथमिक उद्योगों में कार्यरत जनसंख्या में आनुपातिक वृद्धि औद्योगीकरण को परिचायक है। सत्य/असत्य।। [2011]
उत्तर:
असत्य।

प्रश्न 7
नगरीकरण और औद्योगीकरण एक-दूसरे के पर्याय हैं। सत्य/असत्य। [2011]
उत्तर:
सत्य।

प्रश्न 8
श्रम कल्याण का अर्थ स्पष्ट कीजिए। [2015]
उत्तर:
श्रम कल्याण का अर्थ श्रमिकों के सुख, स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए उपलब्ध की जाने वाली दशाओं से है।

प्रश्न 9
‘मृत्यु-दर’ से आप क्या समझते हैं? [2015]
उत्तर:
किसी एक वर्ष में प्रति 1,000 जनसंख्या पर मृतकों की संख्या को मृत्यु-दर कहा जाता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
निम्नलिखित में कौन-सा औद्योगीकरण का परिणाम है ?
(क) स्त्रियों को मतदान का अधिकार मिलना
(ख) विशेष विवादों को प्रोत्साहन मिलना
(ग) संयुक्त परिवार का विघटन होना ।
(घ) जोत की अधिकतम सीमा तय होना

प्रश्न 2
कारखाना अधिनियम भारत में किस वर्ष पास हुआ था ?
(क) 1947 ई० में
(ख) 1948 ई० में
(ग) 1950 ई० में
(घ) 1976 ई० में

प्रश्न 3
‘दि डिवीजन ऑफ लेबर’ नामक पुस्तक के लेखक कौन है ? [2009]
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) इमाइल दुर्चीम
(ग) मैक्स वेबर
(घ) एच० एम० जॉनसन

प्रश्न 4
निम्नलिखित में से कौन-सा विराट नगर नहीं है ?
(क) मुम्बई
(ख) कोलकाता
(ग) चेन्नई
(घ) अहमदाबाद

प्रश्न 5
औद्योगिक क्रान्ति सर्वप्रथम कहाँ हुई ? [2011]
(क) अमेरिका में
(ख) फ्रांस में
(ग) इटली में
(घ) इंग्लैण्ड में

प्रश्न 6
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम किस वर्ष लागू किया गया ? [2011]
(क) 1950 ई० में
(ख) 1956 ई० में
(ग) 1976 ई० में
(घ) 1986 ई० में

प्रश्न 7
निम्नलिखित में से कौन एक शहर की विशेषता है? [2015]
(क) बड़ा आकार
(ख) जनसंख्या का उच्च घनत्व
(ग) गैर-कृषि व्यवसाय
(घ) ये सभी

उत्तर:
1. (ग) संयुक्त परिवार का विघटन होना,
2. (ख) 1948 ई० में,
3. (क) कार्ल मार्क्स,
4. (घ) अहमदाबाद,
5. (घ) इंग्लैण्ड में,
6. (घ) 1986 ई० में,
7. (घ) ये सभी।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 20 Industrialization and Urbanization: Effects on Indian Society (औद्योगीकरण तथा नगरीकरण : भारतीय समाज पर प्रभाव) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 20 Industrialization and Urbanization: Effects on Indian Society (औद्योगीकरण तथा नगरीकरण : भारतीय समाज पर प्रभाव), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 4 Memory and Forgetting

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 4 Memory and Forgetting (स्मृति एवं विस्मरण) are part of UP Board Solutions for Class 12 Psychology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12  Psychology Chapter 4 Memory and Forgetting(स्मृति एवं विस्मरण).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Psychology
Chapter Chapter 4
Chapter Name Memory and Forgetting
(स्मृति एवं विस्मरण)
Number of Questions Solved 35
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 4 Learning (अधिगम या सीखना)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
स्मृति (Memory) से आप क्या समझते हैं? परिभाषा दीजिए तथा स्मृति की प्रक्रिया के 
मुख्य तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
या
स्मृति को परिभाषित कीजिए। 
(2009)
या
स्मृति से आप क्या समझते हैं? स्मृति के अंशों (तत्त्वों) को स्पष्ट कीजिए। (2016)
या
स्मृति की प्रक्रिया को विस्तार से समझाइए। 
(2018)
उत्तर
‘स्मृति’ मनुष्य में निहित एक विशिष्ट शक्ति का नाम है। यह ऐसी योग्यता है जिसमें व्यक्ति सीखी गयी विषय-सामग्री को धारण करता है तथा धारणा से सूचना को एकत्रित कर सूचना को उत्तेजनाओं के प्रत्युत्तर में पुनः उत्पादित कर अधिगम सामग्री को पहचानता है। स्मृति का मानव-जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। प्राचीन भारत में वेदों को स्मृति के माध्यम से संचित तथा हस्तान्तरित किया गया था।

‘स्मृति का अर्थ

सामान्यतः स्मृति का अर्थ है किसी ज्ञान या अनुभव को याद करना। स्मृति के सम्बन्ध में प्रचलित ‘अनोखी शक्ति विषयक धारणा धीरे-धीरे मानसिक प्रक्रिया में परिवर्तित हो गयी; अतः स्मृति का अर्थ समझने के लिए इस प्रक्रिया का सार तत्त्व समझना आवश्यक है।

मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अर्जित उत्तेजना (अथवा अनुभव या ज्ञान) उसके मस्तिष्क में संस्कार के रूप में अंकित हो जाती है और इस भाँति वातावरण की प्रत्येक उत्तेजना का मानव-मस्तिष्क में एक संस्कार बन जाता है। ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त विभिन्न संस्कार आगे चलकर संगठित स्वरूप धारण कर लेते हैं और चेतन मन से अर्द्ध-चेतन मन में चले जाते हैं। ये संस्कार/अनुभव या ज्ञान, वहीं अर्द्ध-चेतन मन में संगृहीत रहते हैं तथा समयानुसार चेतन मन में प्रकट भी होते रहते हैं। अतीत काल के किसी विगत अनुभव के अर्द्ध-चेतन मन से चेतन मन में आने की इस प्रक्रिया को ही स्मृति कहा जाता है। उदाहरणार्थ-बहुत पहले कभी मोहन ने नदी के एक घाट पर व्यक्ति को डूबते हुए देखा था। आज पुनः नदी के उस घाट पर स्नान करते समय उसे डूबते हुए व्यक्ति को स्मरण हो आया और भूतकाल की घटना का पूरा चित्र उसकी आँखों के सामने आ गया।

विद्वानों के मतानुसार सीखने की क्रियाओं को स्मृति की क्रियाओं से पृथक् नहीं किया जा सकता। अच्छी स्मृति या स्मरण शक्ति से हमारा अर्थ-सीखना, याद करना अथवा पुनःस्मरण (recall) से है।

स्मृति की परिभाषा

अनेक मनोवैज्ञानिकों ने स्मृति को परिभाषित करने का प्रयास किया है। उनमें से कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. स्टाउद के अनुसार, “स्मृति एक आदर्श पुनरावृत्ति है जिसमें अनुभव की वस्तुएँ यथासम्भव मौलिक घटना के क्रम तथा ढंग से पुनस्र्थापित हैं।”
  2. वुडवर्थ के शब्दों में, “बीते समय में सीखी हुई बातों को याद करना ही स्मृति है।”
  3. जे० एस० रॉस के अनुसार, “स्मृति एक नवीन अनुभव है जो उन मनोदशाओं द्वारा निर्धारित होता है जिनका आधार एक पूर्व अनुभव है, दोनों के बीच का सम्बन्ध स्पष्ट रूप से समझा जाता है।”
  4. मैक्डूगल के मतानुसार, “घटनाओं की उस भाँति कल्पना करना जिस भाँति भूतकाल में उनका अनुभव किया गया था तथा उन्हें अपने ही अनुभव के रूप में पहचानना स्मृति है।”
  5. चैपलिन के अनुसार “पूर्व में अधिगमित विषय के स्मृति-चिह्नों को धारण करने और उन्हें वर्तमान चेतना में लाने की प्रक्रिया को स्मरण कहते हैं।”
  6. रायबर्न के अनुसार, “अनुभवों को संचित रखने तथा उन्हें चेतना के केन्द्र में लाने की प्रक्रिया को स्मृति कहा जाता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन एवं विश्लेषण से ज्ञात होता है कि स्मृति यथावत् प्राप्त पूर्व-अनुभवों को उसी क्रम से पुनः याद करने से सम्बन्धित है। यह एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है। जिसके अन्तर्गत संस्कारों को संगठित करके धारण करना तथा हस्तान्तरित अनुभवों को पुन:स्मरण करना शामिल है जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य के पुराने अनुभव उसकी चेतना में आते हैं। दूसरे शब्दों में, “पूर्व अनुभवों को याद करने, दोहराने या चेतना के स्तर पर लाने की मानसिक क्रिया स्मृति कहलाती है।”

स्मृति के तत्त्व

स्मृति के चार प्रमुख तत्त्व हैं-सीखना, धारणा, पुन:स्मरण या प्रत्यास्मरण तथा प्रत्यभिज्ञा या पहचान। इनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

(1) सीखना (Learming)-‘सीखना या अधिगम’ स्मृति का आधारभूत तत्त्व है। स्मृति की क्रियाएँ सीखने से उत्पन्न होती हैं। वुडवर्थ ने स्मृति को सामान्य रूप से सीखने का एक अंग माना है ,तथा स्मरण को सीखे गये तथ्यों का सीधा, उपयोग बताया है। जब तक कोई ज्ञान, अनुभव यर तथ्य मस्तिष्क में पहुँचकर अपना संस्कार नहीं बनायेगा तब तक स्मरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो ही नहीं सकती। सीखी हुई बातें पहले अवचेतन मन में एकत्र होती हैं और बाद में याद की जाती हैं; अतः। सीखना स्मरण के लिए सबसे पहली शर्त है।

(2) धारणा (Retention)- सीखने के उपरान्त किसी ज्ञान या अनुभव को मस्तिष्क में धारण कर लिया जाता है। किसी समय-विशेष में जो कुछ सीखा जाता है, मनुष्य के मस्तिष्क में वह स्मृति चिह्नों या संस्कारों के रूप में स्थित हो जाता है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से आये सभी संस्कार एक संगठित अवस्था में अवचेतन मन में संगृहीत होते हैं। वस्तुतः स्मृति-चिह्नों या संस्कारों के संगृहीत होने की क्रिया ही धारणा है। आवश्यकतानुसार इन संगृहीत संस्कारों को पुनः दोहराया जा सकता है।

(3) पुनःस्मरण या प्रत्यास्मरण (Recall)- सीखे गये अनुभवों को पुनः दोहराने या चेतना में लाने की क्रिया पुन:स्मरण या प्रत्यास्मरण कहलाती है। यह क्रिया निम्नलिखित चार प्रकार की होती है-

  1. प्रत्यक्ष पुनःस्मरण- प्रत्यक्ष पुन:स्मरण में विगत की कोई सामग्री, बिना किसी दूसरे साधन अथवा अनुभव का सहारा लिये, हमारे चेतन मन में आ जाती है।
  2. अप्रत्यक्ष पुनःस्मरण- अप्रत्यक्ष पुन:स्मरण में विगत की कोई सामग्री, किसी अन्य वस्तु या अनुभव के माध्यम से, हमारे चेतन मन में उपस्थित हो जाती है; जैसे-मित्र के पुत्र को देखकर हमें अपने मित्र की याद आ जाती है।
  3. स्वतः पुनःस्मरण- स्वतः पुन:स्मरण में व्यक्ति को बिना किसी प्रयास के अनायास ही किसी सम्बन्धित वस्तु, घटना या व्यक्ति का स्मरण हो आता है; जैसे-बैठे-ही-बैठे स्मृति पटल पर मित्र-मंण्डली के साथ नैनीताल की झील में नौकाविहार का दृश्य उभर आना।
  4. प्रयासमय पुनःस्मरण- जब भूतकाल के अनुभवों को विशेष प्रयास करके चेतन मन में लाया जाता है तो वह प्रयासमय पुन:स्मरण कहलाएगा।

(4) प्रत्यभिज्ञा या पहचान (Recognition)- प्रत्यभिज्ञा या पहचान, स्मृति का चतुर्थ एवं अन्तिम तत्त्व है जिसका शाब्दिक अर्थ है-‘किसी पहले से जाने हुए विषय को पुनः जानना या पहचानना। जब कोई भूतकालीन अनुभव, चेतन मन में पुन:स्मरण या प्रत्याह्वान के बाद, सही अथवा गलत होने के लिए पहचान लिया जाता है तो स्मृति का यह तत्त्व प्रत्यभिज्ञा या पहचान कहलाएगा। उदाहरणार्थ–राम और श्याम कभी लड़कपन में सहपाठी थे। बहुत सालों बाद वे एक उत्सव में मिले। राम ने श्याम को पहचान लिया और अतीतकाल के अनुभवों की याद दिलायी जिनका प्रत्यास्मरण करके श्याम ने भी राम को पहचान लिया।

प्रश्न 2
स्मृति के तत्त्वों (सीखना, धारणा, प्रत्यास्मरण तथा प्रत्यभिज्ञा) को प्रभावित करने वाले कारकों का उल्लेख कीजिए।
या 
स्मृति प्रक्रिया के लिए कौन-कौन सी अनुकूल परिस्थितियाँ हैं? विस्तार से बताइए। 
(2010)
या
धारणा को प्रभावित करने वाले कारकों का विस्तार से वर्णन कीजिए। (2009)
उत्तर

स्मृति की अनुकूल परिस्थितियाँ 

हम जानते हैं कि स्मृति के चार तत्त्व हैं-सीखना, धारणा, प्रत्यास्मरण तथा प्रत्यभिज्ञा। स्मृति की अनुकूल परिस्थितियों अथवा प्रभावित करने वाले तत्त्वों को जानने के लिए इन चारों कारकों को प्रभावित करने वाले कारकों को जानना अभीष्ट होगा।

प्रथम तत्त्व ‘अधिगम या सीखना’ का वर्णन हम पिछले अध्याय में कर चुके हैं; अत: यहाँ हम इन चार तत्त्वों में से सिर्फ धारणा, प्रत्यास्मरण तथा प्रत्यभिज्ञा की अनुकूल परिस्थितियों का वर्णन करेंगे।

धारणा को प्रभावित करने वाली परिस्थितियाँ

बहुत-सी शारीरिक एवं मानसिक परिस्थितियाँ धारणा की प्रक्रिया में सहायक और अनुकूल सिद्ध होती हैं। इन परिस्थितियों का संक्षिप्त विवेचन अग्र प्रकार है-

(1) सामग्री का स्वरूप- धारणा पर याद की जाने वाली विषय-सामग्री के स्वरूप का कफी प्रभाव पड़ता है। धारणा की प्रक्रिया से सम्बन्धित विषय-सामग्री के स्वरूप में निम्नलिखित विशेषताओं की प्रभावपूर्ण भूमिका रहती है-

(i) उत्तेजना का अर्थ- मनोवैज्ञानिकों द्वारा समय-समय पर किये गये प्रयोगों से ज्ञात हुआ है कि सार्थक उत्तेजनाओं को व्यक्ति का मस्तिष्क लम्बे समय तक धारण करता है जबकि निरर्थक उत्तेजनाओं को धारण करने की प्रवृत्ति बहुत कम पायी जाती है। याद किये जाने वाला विषय सार्थक होना चाहिए अर्थात् याद करने वाला व्यक्ति उसका अर्थ भली-भाँति समझता हो।

(ii) उत्तेजना की स्पष्टता- उत्तेजना की स्पष्टता भी धारणा की सहायक दशा है। स्पष्ट उत्तेजनाओं को मस्तिष्क अधिक देर तक धारण रख पाता है, किन्तु अस्पष्ट उत्तेजनाएँ मस्तिष्क में अधिक समय तक नहीं रुक पातीं। किसी वाक्य का जितना अधिक अर्थ स्पष्ट होगा उतने ही अधिक समय तक वह स्मृति में भी रहेगा।

(iii) उत्तेजना की तीव्रता- तीव्र उत्तेजनाओं का स्मृति की धारण-शक्ति पर गहरा प्रभाव होता है। तीव्र प्रकाश, सौन्दर्य की तीव्र अनुभूति, तीव्र मादक सुगन्ध तथा दुर्घटना का तीखा अनुभव लम्बे समय तक स्मृति में बने रहते हैं।

(iv) उत्तेजना का काल- विषय-सामग्री से सम्बन्धित उत्तेजना जितने अधिक समय तक उपस्थित रहती है, मस्तिष्क में उसकी धारणा भी उतनी ही अधिक गहरी होती है।।

(v) उत्तेजना की ताजगी- ताजा या हाल की उत्तेजना मस्तिष्क पर नये संस्कार छोड़ती है और उसकी धारणा अधिक होती है। पुरानी होती जाती उत्तेजना के संस्कार पुराने पड़ते जाते हैं। जिससे धारण-शक्ति कम होती जाती है।

(vi) उत्तेजना की पुनरावृत्ति- बार-बार मस्तिष्क के सामने आने वाली उत्तेजना का प्रभाव गहरा तथा दीर्घकालीन होता है। इसी कारण पाठ की पुनरावृत्ति (बार-बार दोहराना) पर बल दिया जाता है।

(2) सामग्री की मात्रा– सामग्री की मात्रा, धारणा को प्रभावित करने वाली एक महत्त्वपूर्ण दशा है। अधिक मात्रा वाली सामग्री को याद करने में व्यक्ति को अधिक श्रम करना होता है तथा वह उससे सम्बन्धित विभिन्न भागों के बीच अच्छी तरह सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। परिणामतः याद की गई विषय-सामग्री स्थायी होती है। क्योंकि कम मात्रा वाली सामग्री मस्तिष्क के सामने कम समय तक रहती है; अतः उसकी धारणा अधिक समय तक स्थिर नहीं रह पाती।

(3) सीखने की विधियाँ- सीखने की विधियाँ भी मस्तिष्क की धारण शक्ति को प्रभावित करती हैं। प्रभावपूर्ण स्मृति के लिए मनोवैज्ञानिक विधियों की सहायता ली जाती है। सक्रिय, व्यवधान एवं पूर्ण विधि के माध्यम से सीखना श्रेयस्कर माना जाता है। सीखने की विधियों में अभिरुचि का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है।

(4) सीखने की मात्रा- अधिक मात्रा में सीखी गई सामग्री अधिक समय तक तथा कम मात्रा में सीखी गई सामग्री कम समय तक प्रभाव रखती है। इसी कारणवश लोग अच्छी स्मृति के लिए विषय-सामग्री के अतिशिक्षण (Over learning) पर जोर देते हैं। लुह, ठूगर तथा एबिंगहास नामक मनोवैज्ञानिकों के प्रयोगों से ज्ञात हुआ है कि अतिशिक्षण अच्छी स्मृति एवं स्थायी धारणा के लिए अनुकूल व सहायक दशा है।

(5) सीखने की गति- सीखने की गति धारणा को प्रभावित करती है। तीव्र गति से सीखे जाने वाले ज्ञान अथवा विषय की धारण-शक्ति, मन्दगामी सीखने की क्रिया से कम होती है; अतः सीखने की तीव्र गति धारण के लिए एक अनुकूल दशा है।

(6) प्रयोजन या उद्देश्य- याद करने का कोई न कोई प्रयोजन या उद्देश्य अवश्य होता है। उद्देश्य के साथ याद की जाने वाली विषय-सामग्री न केवल शीघ्र ही याद हो जाती है अपितु देर तक याद भी रहती है। उदाहरणार्थ-परीक्षा या प्रतियोगिता की दृष्टि से याद किये गये. पाठ अधिक स्थायी होते हैं। इसके विपरीत निरुद्देश्य सीखे गये विषयों को मस्तिष्क अधिक समय तक नहीं सँजो पाता।

(7) मानसिक तत्परता- मानसिक तत्परता का धारण-शक्ति पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। अच्छी तैयारी और रुचि के साथ यदि व्यक्ति विषय को सीखने के लिए तत्पर है तो धारणा अधिक होगी। किन्तु बिना तैयारी और रुचि के अनायास ही सीखी गई सामग्री के संस्कार जल्दी ही विलुप्त हो जाते हैं।

(8) स्वास्थ्य- शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का धारणा से गहरा सम्बन्ध है। शरीर या मन के अस्वस्थ होने पर धारण-शक्ति कम हो जाती है, किन्तु स्वस्थ, श्रमरहित तथा ताजा मस्तिष्क किसी पाठ को अधिक सीख सकता है, धारण कर सकता है। शाम को थका हुआ विद्यार्थी विषय को उतना अच्छा याद नहीं कर पाता जितना कि प्रातःकाल के समय।

(9) नींद- नींद धारणा के लिए अनुकूल परिस्थिति है। नींद की अवस्था में मन शान्त रहता है; अत: किसी पाठ को याद करने के उपरान्त यदि तत्काल ही नींद ले ली जाए तो अर्जित ज्ञान स्थायी हो जाता है।

(10) मस्तिष्क की संरचना– मस्तिष्क की संरचना (बनावट) भी धारणा को प्रभावित करती है। विकसित मस्तिष्क स्मृति-चिह्नों को आसानी से ग्रहण कर लेता है तथा उन्हें स्थायी रूप से धारण कर लेता है। छोटा, कम संवेदनशील और अविकसित मस्तिष्क सीखी गई बातों को देर तक धारण नहीं कर पाता।

(11) अवधान- सीखने या याद करने की क्रिया में सामग्री पर जितना अधिक अवधान (ध्यान) दिया जाएगा, उतनी ही देर तक वह याद रहेगा। कम अवधान के साथ सीखी गई अथवा याद की गई सामग्री की धारणा भी कम स्थायी होती है।

(12) चिन्तन– चिन्तनविहीन अवस्था में याद की गई सामग्री की मस्तिष्क पर अच्छी पकड़ नहीं होती। किन्तु चिन्तन और मनन के साथ याद की जाने वाली सामग्री की धारणा अधिक स्थायी होती है।

(13) अनुभूति– प्रसिद्ध मनोविश्लेषणवादी फ्रॉयड के अनुसार, व्यक्ति सुखद अनुभूति वाली सामग्री को, दुःखद अनुभूति वाली सामग्री की अपेक्षा, लम्बे समय तक धारण करता है। इस प्रकार सुख या दुःख की अनुभूति स्मृति को प्रभावित करती है। | (14) अनुभव की व्यापकता-अनुभव जितना अधिक व्यापक या अधिक महत्त्व वाला होगा, मस्तिष्क भी उसे उतने ही अधिक समय तक धारण करेगा। मस्तिष्क में किसी अनुभव की धारण शक्ति इस बात पर निर्भर करती है कि उस अनुभव का मूल्य कितना है। मूल्यवान अनुभवों की अपेक्षा कम मूल्य के अनुभव मस्तिष्क से असर खोते रहते हैं।

(15) लैगिक विकास- समझा जाता है कि चौदह वर्ष तक की लड़कियों का विकास लड़कों की तुलना में अधिक तेजी से होता है और इसी कारण उनकी धारण शक्ति भी अपेक्षाकृत अधिक ही होती है।

प्रत्यास्मरण को प्रभावित करने वाली परिस्थितियाँ

स्मृति के तीसरे प्रमुख तत्त्व प्रत्यस्मरण या पुन:स्मरण को प्रभावित करने वाली कुछ सहायक परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं-

(1) धारणा की प्रकृति- धारणा की प्रकृति, प्रत्यस्मरण की सम्भावनाओं को प्रभावित करती है। अच्छी एवं स्थायी धारणा से उत्तम प्रत्यास्मरण की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। वस्तुतः धारणा की। अनुकूल परिस्थितियाँ प्रत्यास्मरण पर भी अच्छा प्रभाव डालती हैं।

(2) अनुकूल शारीरिक-मानसिक अवस्था– व्यक्ति की स्वस्थ शारीरिक-मानसिक अवस्था शीघ्र, सही एवं यथार्थ प्रत्यास्मरण में सहायता करती है। अस्वस्थ तथा थकी हुई अवस्था में स्फूर्ति कम हो जाती है जिसका प्रत्यास्मरण की क्रियाओं पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

(3) साहचर्य संकेत- सहकारी संकेतों की प्रत्यास्मरण की क्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। प्रत्यास्मरण के दौरान विषय-वस्तु की वास्तविक उत्तेजनाएँ तो उपस्थित नहीं होतीं किन्तु ये संकेत ही प्रत्यास्मरण के उत्तेजक बनते हैं। परीक्षा देते समय परीक्षार्थी को पुनःस्मरण किये जाने वाले पाठ की पहली लाइन, शीर्षक या शब्द याद आ जाए तो पूरी सामग्री याद आ जायेगी। वस्तुतः मस्तिष्क में ज्ञान तथा विचार सम्बन्धित होकर रहते हैं। इन सम्बन्धों या साहचर्यों की प्रबलता प्रत्यास्मरण के लिए अनुकूल दशा है।

(4) प्रसंग- प्रसंग से बीते काल के विचारों की श्रृंखला प्रारम्भ होती हैं। अनुकूल प्रसंग के आने पर उससे सम्बन्धित घटनाएँ स्मरण हो आती हैं। यही कारण है कि अक्सर पुन:स्मरण के समय लोग तत्सम्बन्धी प्रसंग पर ध्यान केन्द्रित करते हैं।

(5) प्रयास- प्रत्यास्मरण काफी कुछ प्रयास पर भी आधारित है। अधिक प्रयास से अधिक प्रत्यास्मरण तथा कम प्रयास से कम प्रत्यास्मरण होता है।

(6) प्रेरणाएँ- प्रेरणाएँ प्रत्यास्मरण को प्रभावित करती हैं। किसी विशेष प्रकार की प्रेरणा से तत्सम्बन्धी घटनाओं का पुन:स्मरण होता है अर्थात् जैसी प्रेरणा होगी वैसी-ही बातें व्यक्ति को याद आएँगी। शब्द-साहचर्य परीक्षण के अन्तर्गत प्रयोगों से ज्ञात होता है कि जैसे-जैसे शब्द बोले गये वैसी ही प्रेरित बातें याद आती गयीं।

(7) मनोवृत्ति- व्यक्ति की मनोवृत्ति का प्रत्यास्मरण पर भी प्रभाव है। वैज्ञानिक प्रवृत्ति वाले व्यक्ति को विज्ञान सम्बन्धी बातें तथा धार्मिक प्रवृत्ति वाले व्यक्ति को धार्मिक विषयों का पुनःस्मरण जल्दी होगा। दार्शनिक मनोवृत्ति वाले व्यक्ति को क्रीड़ा से सम्बन्धी बातों का शीघ्र स्मरण नहीं होगा।

(8) अवरोध- अवरोध प्रत्यास्मरण की क्रिया में बाधा पहुँचाते हैं। क्रोध, चिन्ता, भय तथा निराशा जैसी मानसिक अवस्थाएँ याद की जाने वाली विषय-सामग्री के लिए अवरोध बनती हैं तथा प्रत्यास्मरण को मन्द करती हैं। अवरोध की अनुपस्थिति में प्रत्यास्मरण अच्छा होता है।

(9) अनुभूति– जीवन में सुख-दुःख की अनुभूति अनिवार्य है और इनको प्रत्यास्मरण पर प्रभाव पड़ता है। उदासीन अनुभवों की अपेक्षा सुख-दुःख के रंग में रंगे अनुभव जल्दी याद आते हैं।

प्रत्यभिज्ञा को प्रभावित करने वाली परिस्थितियाँ

प्रत्यभिज्ञा को भी अधिकांशतः वही परिस्थितियाँ प्रभावित करती हैं जो सामान्यतः धारणा एवं प्रत्यास्मरण में भी सहायक होती हैं। अतः सभी का विवेचन न करके सिर्फ उन परिस्थितियों को दिया जा रहा है, जो अपरिहार्य हैं|

(1) मानसिक तत्परता- मानसिक तत्परता प्रत्यभिज्ञा में एक महत्त्वपूर्ण सहायक परिस्थिति है। जिस मनुष्य की जिस ओर अधिक मानसिक तत्परता होती है, वह उसी प्रकार की वस्तुओं की पहचान भी करता है। रात हो गयी, किन्तु मोहन के पापा ऑफिस से लौटकर नहीं आये, प्रतीक्षारत मोहन ने। दरवाजे पर आहट होते ही पापा के आगमन को पहचान लिया। किन्तु इसमें त्रुटिपूर्ण प्रत्यभिज्ञा भी हो सकती है।

(2) आत्म-विश्वास-आत्म- विश्वास प्रत्यभिज्ञा के लिए एक अनुकूल दशा है, क्योंकि आत्म-विश्वास खोकर सही पहचान नहीं की जा सकती। इसका अभाव सन्देह को जन्म देता है, किन्तु अतीव (यानी आवश्यकता से अधिक) भी अनुचित ही कहा जायेगा।

प्रश्न 3
कण्ठस्थीकरण अथवा स्मरण करने की विभिन्न विधियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर

कण्ठस्थीकरण अथवा स्मरण कण्ठस्थीकरण

अथवा स्मरण करना एक मानसिक प्रवृत्ति है। मानव की स्मरण शक्ति यद्यपि प्रकृति की उसे एक अनुपम देन है, किन्तु यदि इसे समुचित रूप से प्रयोग में लाया जाए तो समय एवं शक्ति, दोनों की ही पर्याप्त रूप से बचत की जा सकती है। किसी विषय-सामग्री को स्मरण करने में लाघव तथा मितव्ययिता लाने के उद्देश्य से मनोवैज्ञानिकों ने सतत प्रयास किये हैं। इसके परिणामस्वरूप स्मरण करने की कुछ मितव्ययी विधियों की खोज सम्भव हुई, जिनकी सहायता से कम समय में अधिक-से-अधिक सामग्री याद की जा सकती है।

कण्ठस्थीकरण या स्मरण की मितव्ययी विधियाँ

स्मरण या कण्ठस्थीकरण की मितव्ययी विधियाँ निम्नलिखित हैं।

(1) पुनरावृत्ति अथवा दोहराना (Repetition)- स्मरण करने की यह एक पुरानी तथा प्रचलित विधि है। सरल होने के कारण यह लोकप्रिय भी है। इस विधि में याद की जाने वाली सामग्री या पाठ को अनेक बार दोहराया जाता है। बार-बार दोहराने से वह पाठ स्मृति में गहराता जाता है। जितनी ही अधिक बार उसे दोहराया जायेगा, उतने ही गहरे स्मृति-चिह्न या संस्कार मस्तिष्क पर बन जाते हैं। आवृत्ति अर्थात् विषय-सामग्री को मन-ही-मन दोहराने से उसे स्थायित्व प्राप्त होता है; अतः कण्ठस्थीकरण करने वाले को चाहिए कि वह पाठ को कई बार पढ़े तथा अनेक बार मन-ही-मन दोहराए। इस विधि से कोई भी विषय-सामग्री कम-से-कम समय में दीर्घकाल के लिए याद हो जाती है। पुनरावृत्ति विधि का प्रयोग करते समय ध्यान रहे कि सामग्री सार्थक हो, तभी उसके वांछित परिणाम सामने आएँगे। छोटे बालकों को कविताएँ, दोहे तथा पहाड़े याद करने में यह विधि बहुत लाभप्रद है।

(2) पूर्ण विधि (Whole Method)- पूर्ण विधि में सम्पूर्ण विषय या पाठ को एक ही बार में एक साथ याद किया जाता है। यदि बालक किसी कविता या कहानी को कण्ठस्थ करना चाहता है तो पूर्ण विधि के अनुसार वह समूची सामग्री को एक ही बार में याद करेगा। समय-समय पर होने वाले प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि कठिन एवं लम्बे पाठों की तुलना में सरल एवं छोटे पाठ पूर्ण विधि से सुगमतापूर्वक याद किये जा सकते हैं। इसके अलावा यह विधि मन्द-बुद्धि के बालकों की अपेक्षा तीव्र-बुद्धि के बालकों के लिए अधिक लाभप्रद मानी जाती है। यहाँ यह बात भी उल्लेखनीय है कि सीखने की अल्पकालीन अवधि में इस विधि के परिणाम अधिक अच्छे नहीं आते, इसके लिए लम्बा समय उपयुक्त है। पूर्ण विधि के अन्तर्गत याद की जाने वाली सामग्री के अधिक लम्बा होने पर उसे खण्डों में बाँटेकर याद किया जा सकता है, किन्तु इससे पहले समूची सामग्री को आदि से अन्त तक भली-भाँति पढ़ लेना आवश्यक है।

(3) आंशिक या खण्ड विधि (Part Method)- स्मरण की आंशिक या खण्ड विधि के अन्तर्गत पहले पाठ अथवा सामग्री को पृथक्-पृथक् अंशों/खंडों में विभाजित कर लिया जाता है, फिर एक-एक खण्ड को याद करके समूची विषय-सामग्री को कण्ठस्थ कर लिया जाता है। इस प्रकार यह विधि पूर्ण विधि के एकदम विपरीत है। मान लीजिए, बालक को एक लम्बी कविता याद करनी है तो वह पहले उसके एक पद को याद करेगा तब बारी-बारी से कविता के दूसरे तीसरे :: :: चौथे पदों पर ध्यान केन्द्रित करता जायेगा।

(4) मिश्रित विधि (Mixed Method)– मिश्रित विधि में विशेषकर जब विषय-सामग्री काफी लम्बी हो, पूर्ण एवं आंशिक दोनों विधियों को एक साथ लागू किया जाता है। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत एक बार समूची याद की जाने वाली सामग्री को पूर्ण विधि की सहायता से याद करने का प्रयास किया जाता है, फिर उसे छोटे-छोटे खण्डों में करके याद किया जाता है। स्मरण के दौरान विभिन्न खण्डों का सम्बन्ध एक-दूसरे से जोड़ना श्रेयस्कर है। बहुधा देखने में आया है कि पूर्ण एवं आंशिक विधि की अपेक्षा मिश्रित विधि अधिक उपयोगी सिद्ध हुई है।

(5) व्यवधान सहित या सान्तर विधि (Spaced Method)- व्यवधान सहित या सान्तर जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, स्मरण करने की इस विधि में विषय-सामग्री को कई बैठकों में याद किया जाता है। दिन में थोड़े-थोड़े समय का व्यवधान (अन्तर) देकर पाठ को दोहराकर कंठस्थ किया जाता है। यह विधि स्थायी स्मृति के लिए काफी उपयोगी है।।

(6) व्यवधान रहित या निरन्तर विधि (Unspaced Method)– सान्तर विधि के विपरीत निरन्तर या व्यवधान रहित विधि में विषय-सामग्री को एक ही बैठक में कंठस्थ करने का प्रयास किया जाता है। इसमें पाठों को बिना किसी व्यवधान के दोहराकर याद किया जाता है।

(7) सक्रिय विधि (Active Method)– सक्रिय विधि का दूसरा नाम उच्चारण विधि है। इसमें किसी विषय-सामग्री को बोलकर, आवाज के साथ पढ़कर याद किया जाता है। एबिंगहास तथा गेट्स आदि मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रयोगों के माध्यम से यह निष्कर्ष निकाला कि कण्ठस्थीकरण की सक्रिय विधि अत्यधिक उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण विधि है। इस विधि द्वारा स्मरण करने से व्यक्ति के मस्तिष्क में याद की जाने वाली सामग्री का ढाँचा तैयार हो जाता है, विषय का अर्थ अधिक स्पष्ट होता है, सामग्री के विविध खण्डों का लयबद्ध समूहीकरण होता है, उनके बीच सार्थक सम्बन्ध स्थापित होते हैं तथा याद की गई सामग्री का आभास होता रहता है। उच्चारण के साथ याद करने में व्यक्ति रुचि लेकर प्रयास करता है तथा उसकी सक्रियता में वृद्धि होती है। बहुधा सक्रिय विधि के दौरान शरीर के अंगों में गति (हिलना-डुलना) देखा जाता है।

(8) निष्क्रिय विधि (Passive Method)- निष्क्रिय विधि में किसी विषय-सामग्री को बिना बोले मन-ही-मन याद किया जाता है। सक्रिय विधि के लाभों को जानकर यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि निष्क्रिय विधि अनुपयोगी या कुछ कम उपयोगी है। उच्च कक्षाओं में जहाँ शिक्षार्थियों को अधिक पढ़ना पड़ता है, सिर्फ सक्रिय विधि से काम नहीं चल सकता-वहाँ तो निष्क्रिय विधि ही उपयोगी सिद्ध होती है। निष्क्रिय विधि में शरीर के अंगों में गति नहीं होती और विषय को शान्तिपूर्वक गहन अवधान के साथ पढ़ा जाता है। इस विधि की न केवल गति तीव्र होती है अपितु इसमें थकान भी अपेक्षाकृत काफी कम महसूस होती है।

विद्वानों का मत है कि नवीन सामग्री को याद करने की प्रक्रिया में पहले उसे निष्क्रिय विधि से एक बार मन-ही-मन पढ़ लिया जाये, फिर उच्चारण सहित कंठस्थ कर लिया जाये तो स्मृति (ज्ञान) स्थायी होगी।

(9) बोधपूर्ण विधि (Intelligence Method)- बोधपूर्ण विधि में विषय-सामग्री या पाठ को सप्रयास समझ-बूझकर याद किया जाता है। इस विधि से याद की हुई सामग्री के स्मृति-चिह्न या संस्कार मस्तिष्क पर स्थायी होते हैं। सामग्री पुष्ट होकर स्मृति में लम्बे समय तक बनी रहती है।

(10) यान्त्रिक या बोधरहित विधि (Rote Method)– यान्त्रिक या बोधरहित विधि के माध्यम से बिना समझे विषय-सामग्री को कंठस्थ किया जाता है। विषय को समझे बिना तोते की तरह रटने के कारण याद की हुई सामग्री अधिक समय तक मस्तिष्क में नहीं टिक पाती है। इसका कारण स्पष्ट है। कि प्रस्तुत सामग्री की मन के विचारों से साहचर्य स्थापित नहीं हो पाता है। शिक्षार्थी यन्त्र के समान पाठ को रटकर याद कर लेता है।

(11) समूहीकरण तथा लय (Grouping and Rhythm)- समूहीकरण तथा लय के माध्यम से भी कण्ठस्थीकरण में सहायता मिलती है। याद की जाने वाली सामग्री को समूहों में बाँट देने से स्मरण की क्रिया आसान हो जाती है। इसी प्रकार पद्यात्मक सामग्री को लयबद्ध करके तीव्र गति एवं सुगमतापूर्वक याद किया जाता है। प्राथमिक स्तर पर शिक्षा की सामग्री को कविता के रूप में बच्चों को सुविधापूर्वक याद कराया जाता है।

(12) साहचर्य (Association)- कण्ठस्थीकरण की क्रिया में साहचर्य का बड़ा योगदान है। साहचर्य बनाकर स्मरण करने से धारणा स्थायी होती है। साहचर्य बनाने के लिए व्यक्ति स्वतन्त्र है, स्वयं के बनाये हुए साहचर्य अधिक लाभकारी व सहायक होते हैं। इसके लिए याद करते समय सामग्री से सम्बन्धित विभिन्न बातों का अन्य बातों से सम्बन्ध स्थापित करके उसे याद कर लिया जाता है।

प्रश्न4
साहचर्य (Association) से क्या आशय है? साहचर्य के प्राथमिक एवं गौण नियमों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

साहचर्य का अर्थ एवं परिभाषा

स्मृति की प्रक्रिया में साहचर्य (Association) का विशेष महत्त्व है। साहचर्य से स्मरण करने की प्रक्रिया में पर्याप्त सहायता प्राप्त होती है। साहचर्य में किन्हीं दो विषय-वस्तुओं के पारस्परिक सम्बन्ध को ध्यान में रखा जाता है तथा उस सम्बन्ध के आधार पर स्मृति की प्रक्रिया को सुचारु रूप प्रदान किया जाता है। व्यवहार में हम प्राय: देखते हैं कि किसी एक व्यक्ति या वस्तु को देखकर किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु की याद आ जाती है तो याद आने की यह क्रिया साहचर्य के कारण ही होती है। उदाहरण के लिए दो सदैव साथ-साथ रहने वाली सहेलियों में से किसी एक को देखकर दूसरी की

भी याद आ जाना साहचर्य का ही परिणाम है। इसी प्रकार एक विधवा को देखकर उसके स्वर्गीय पति की याद आ जाना भी साहचर्य का ही परिणाम है। इस प्रकार स्पष्ट है कि स्मृति की प्रक्रिया में साहचर्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। साहचर्य के अर्थ को जान लेने के उपरान्त साहचर्य को परिभाषित करना भी आवश्यक है।

प्रो० बी०एन०झा ने साहचर्य को इन शब्दों में परिभाषित किया है, “विचारों का साहचर्य एक विख्यात सिद्धान्त है, जिसके द्वारा कुछ विशिष्ट सम्बन्धों के कारण एक विचार दूसरे से सम्बन्धित हाने की प्रवृत्ति रखता है।”

साहचर्य की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि साहचर्य मस्तिष्क में स्थापित होने वाली एक प्रक्रिया है। वास्तव में, व्यक्ति के मस्तिष्क में एक विशेष क्षेत्र होता है, जिसे साहचर्य-क्षेत्र कहते हैं। मस्तिष्क का यह क्षेत्र व्यक्ति के विभिन्न संस्कारों को परस्पर जोड़ने का कार्य करता है। इस प्रकार विभिन्न संस्कारों या विचारों का परस्पर सम्बद्ध होना ही साहचर्य है।

साहचर्य के प्राथमिक एवं गौण नियम

साहचर्य अपने आप में एक व्यवस्थित प्रक्रिया है। विचारों में साहचर्य की स्थापना कुछ नियमों के आधार पर होती है। साहचर्य की प्रक्रिया का सम्बन्ध अनेक नियमों से है। इन समस्त नियमों को दो वर्गों में बाँटा जाता है। ये वर्ग हैं-क्रमशः साहचर्य के प्राथमिक नियम तथा साहचर्य के गौण नियम। साहचर्य के दोनों वर्गों के नियमों का सामान्य विवरण निम्नलिखित है–

(1) साहचर्य के प्राथमिक नियम– साहचर्य की स्थापना में सहायक मुख्य नियमों को साहचर्य के प्राथमिक नियम कहा गया है। कुछ विद्वानों ने साहचर्य के इन नियमों को साहचर्य के मौलिक नियम माना है। साहचर्य के चार प्राथमिक नियमों का उल्लेख किया गया है। ये नियम हैं-समीपता का नियम, सादृश्यता का नियम, विरोध का नियम तथा क्रमिक रुचि का नियम। साहचर्य के इन चारों प्राथमिक नियमों का सामान्य विवरण निम्नलिखित है

(i) समीपता का नियम– साहचर्य का प्रथम प्राथमिक नियम है–‘समीपता का नियम’। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है; साहचर्य के इस नियम में विषय-वस्तुओं की स्वाभाविक समीपता को साहचर्य स्थापना का आधार माना जाता है। इस नियम के अनुसार सामान्य रूप से एक-दूसरे के समीप पायी जाने वाली विषय-वस्तुओं का ज्ञान हमें एक साथ प्राप्त होता है। वास्तव में, एक साथ पायी जाने वाली विषय-वस्तुओं में समीपता का साहचर्य सम्बन्ध स्थापित हो जाता है तथा इसी सम्बन्ध के आधार पर हम उनका ज्ञान प्राप्त करने लगते हैं। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि समीपता भी दो प्रकार की हो सकती है अर्थात् कालिक समीपता तथा देशिक समीपता। कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो एक के बाद एक क्रमिक रूप से प्रस्तुत होती हैं, इन घटनाओं में पायी जाने वाली समीपता को कालिक समीपता कहते हैं। उदाहरण के लिए, बादल के गरजने तथा वर्षा होने में कालिक समीपता पायी जाती है। इसी प्रकार कुछ वस्तुओं में देशिक समीपता भी पायी जाती है; जैसे कि कप एवं प्लेट या मेज एवं कुर्सी में पायी जाने वाली समीपता। दोनों ही प्रकार की समीपता के कारण सम्बन्धित विषय-वस्तुओं में साहचर्य की स्थापना की जाती है।

(ii) सादृश्यता का नियम– साहचर्य का एक प्राथमिक नियम ‘सादृश्यता का नियम’ कहलाता है। इस नियम के अनुसार कुछ विषय-वस्तुओं में पायी जाने वाली सादृश्यता के कारण उनमें साहचर्य की स्थापना हो जाती है। वास्तव में, जब हम दो समान दिखाई देने वाली वस्तुओं का प्रत्यक्षीकरण करते हैं तो हमारा मस्तिष्क उन वस्तुओं के बीच में एक प्रकार का सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। इस प्रकार की सम्बन्ध-स्थापना के उपरान्त यदि व्यक्ति उन दोनों वस्तुओं में से किसी एक को कहीं देखता है तो उसे तुरन्त उसके सदृश अन्य वस्तु की भी याद आ जाती है। हम जानते हैं कि जुड़वा बहनों अथवा भाइयों में अत्यधिक सादृश्यता पायी जाती है। इस स्थिति में उनमें से किसी एक को देखते ही दूसरी बहन की याद आ ही जाती है। यह क्रिया सादृश्यता का ही परिणाम है। रूप की सादृश्यता के अतिरिक्त प्रायः नामों की सादृश्यता भी स्मृति का एक कारण बन जाया करती है।

(iii) विरोध का नियम–साहचर्य को एक अन्य प्राथमिक नियम विरोध के नियम के नाम से जाना जाता है। इस नियम के अनुसार सम्बन्धित वस्तुओं में पाया जाने वाला स्पष्ट विरोध भी प्रायः साहचर्य-स्थापना का कारण बना जाता है। प्रायः गोरे एवं काले रंगों, सुख एवं दु:ख के भावों, मिलन एवं वियोग आदि में पाये जाने वाले विरोध के कारण उनमें एक प्रकार का साहचर्य सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। विरोध के नियम के अनुसार, परस्पर विरोधी गुण-धर्म वाले एक तत्त्व के प्रत्यक्षीकरण के साथ-ही-साथ दूसरे तत्त्व की भी याद आ जाती है।

(iv) क्रमिक रुचि का नियम- साहचर्य का एक अन्य प्राथमिक नियम है ‘क्रमिक रुचि का नियम’। इस नियम के अनुसार व्यक्ति की रुचि भी उसकी स्मृति को प्रभावित करती है। रुचि के अनुसार प्राप्त होने वाले अनुभव परस्पर सम्बद्ध हो जाते हैं तथा इन अनुभवों से व्यक्ति के मानसिक संस्कार निर्मित हो जाते हैं। उदाहरण के लिए-शास्त्रीय संगीत में रुचि रखने वाला व्यक्ति यदि किसी राग का नाम सुनता है तो उसे तुरन्त उस राग के गायक का नाम याद आ जाता है।

उपर्युक्त विवरण द्वारा साहचर्य के चारों प्राथमिक नियमों का परिचय प्राप्त हो जाता है। हम कह सकते हैं कि साहचर्य के इन चारों प्राथमिक नियमों में पारस्परिक घनिष्ठ सम्बन्ध है तथा ये नियम एक-दूसरे पर किसी-न-किसी रूप में आश्रित भी हैं।

(2) साहचर्य के गौण नियम- साहचर्य के द्वितीय वर्ग के नियमों को साहचर्य के गौण नियम कहा गया है। साहचर्य के गौण नियम पाँच हैं—प्राथमिकता का नियम, नवीनता का नियम, पुनरावृत्ति का नियम, स्पष्टता का नियम तथा प्रबलता का नियम। साहचर्य के इन गौण नियमों का सामान्य परिचय निम्नलिखित हैं

(i) प्राथमिकता का नियम- प्राथमिकता के नियम के अनुसार, हमारे स्मृति पटल पर जिस विषय-वस्तु के संस्कार सर्वप्रथम पड़ते हैं, वे सामान्य रूप से प्रबल तथा अधिक स्थायी होते हैं। इसी नियमको आधार मानते हुए कहा जाता है कि बाल्यावस्था में याद किये गये विषयों की स्मृति अधिक स्पष्ट स्थायी होती है।

(ii) नवीनता का नियम– साहचर्य के इस नियम के अनुसार, हम जिस विषय के निकट भूतकाल में सीखते या याद करते हैं, उसकी धारण प्रबल होती है। यही कारण है कि देखी गयी फिल्म का अन्त प्रायः याद रहता है।

(iii) पुनरावृत्ति का नियम– साहचर्य के एक गौण नियम को पुनरावृत्ति का नियम कहा गया है। इस नियम की मान्यता यह है कि यदि किसी विषय को सीखने या याद करने में अधिक आवृत्ति होती अर्थात् उसे बार-बार दोहराया जाता है तो उस विषय की स्मृति उत्तम एवं स्थायी होती है।

(iv) स्पष्टता का नियम- इस नियम के अनुसार अस्पष्ट विषय की तुलना में स्पष्ट विषय की धारणा प्रबल होती है तथा ऐसा विषय अधिक दिनों तक याद रहता है।

(v) प्रबलता का नियम- कुछ विषयों का सम्बन्ध किसी प्रबल संवेग से होता है। इन विषयों के गहरे संस्कार हमारे मस्तिष्क पर पड़ जाते हैं तथा इन विषयों को अधिक समय तक याद रखा जाता है।

प्रश्न 5
स्मृति के विभिन्न प्रकार कौन-कौन से हैं?
या
संवेदी, अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन स्मृति के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
या
अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन स्मृति को स्पष्ट कीजिए।(2015)
उत्तर
स्मृति के मुख्य प्रकार
व्यक्ति एवं समाज के सन्दर्भ में स्मृति का अत्यधिक महत्त्व है। स्मृति के आधार पर ही जीवन की निरन्तरता बनी रहती है। स्मृति की प्रक्रिया का मनोविज्ञान में व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन के अन्तर्गत स्मृति के प्रकारों का भी निर्धारण भिन्न-भिन्न आधारों पर किया गया है। स्मृति के एक प्रकार को संवेदी स्मृति (Sensory Memory) के रूप में वर्णित किया गया है। संवेदी स्मृति से आशय उस स्मृति से है जिसके अन्तर्गत ज्ञानेन्द्रियों के स्तर पर पंजीकृत सूचनाओं को कुछ क्षणों के 

लिए ज्यों-का-त्यों भण्डारित किया जाता है। इसके अतिरिक्त स्मृति के प्रकारों का निर्धारण धारणा के आधार पर भी किया गया है। इस आधार पर स्मृति के दो प्रकार निर्धारित किये गये हैं। ये प्रकार हैं-क्रमशः अल्पकालीन स्मृति तथा दीर्घकालीन स्मृति। जब किसी विषय को याद करने के अल्प समय अर्थात् कुछ मिनट के उपरान्त धारणा को परीक्षण द्वारा ज्ञात किया जाता है तो धारणा की उस मात्रा को अल्पकालीन स्मृति के रूप में जाना जाता है। जब किसी विषय को याद करने के कुछ अधिक समय अर्थात् कुछ घण्टों या कुछ दिनों के उपरान्त धारणा का मापन किया जाता है, तब प्राप्त निष्कर्ष अर्थात् धारणा की मात्रा को दीर्घकालीन स्मृति के रूप में जाना जाता है। सामान्य रूप से अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन स्मृति में स्पष्ट अन्तर होता है। वैसे कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन स्मृति में केवल मात्रा का अन्तर होता है। उनमें किसी प्रकार का मौलिक अन्तर नहीं होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्मृति के तीन प्रकार हैं—संवेदी स्मृति, अल्पकालीन स्मृति तथा दीर्घकालीन स्मृति। स्मृति के इन तीनों प्रकारों का सामान्य परिचय एवं विवरण निम्नलिखित है–

(1) संवेदी स्मृति (Sensory Memory)- स्मृति के एक प्रकार को संवेदी स्मृति के नाम से जाना जाता है। जब स्मृति की प्रक्रिया के दैहिक सक्रियता के स्तर को ध्यान में रखा जाता है, तब स्मृति को संवेदी स्मृति कहा जाता है। संवेदी स्मृति के अन्तर्गत उस स्मृति को स्थान दिया जाता है जो विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों के स्तर पर पंजीकृत सूचनाओं को ज्यों-का-त्यों कुछ क्षण के लिए भण्डारित किया जाता हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनसारे, व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियों के स्तर पर बाहरी उद्दीपकों के माध्यम से प्राप्त सूचनाओं के पंजीकरण एवं इस प्रकार से पंजीकृत सूचनाओं के ज्ञानेन्द्रियों में अल्प समय के लिए रुके रहने को प्रत्यक्षीकरण का आधार माना गया है। यह भी स्पष्ट किया गया है कि सांवेदिक भण्डार में पंजीकृत सूचनाएँ अपने मौलिक रूप में केवल अल्प समय अर्थात् कुछ क्षणों के लिए ही संचित रहती। हैं। कुछ विद्वानों ने तो इस अवधि को मात्र एक सेकण्ड ही माना है। संवेदी स्मृति के स्वरूप के स्पष्टीकरण के लिए हम एक उदाहरण भी प्रस्तुत कर सकते हैं।

जब किसी ठोस धातु पर किसी अन्य ठोस वस्तु से प्रहार किया जाता है तो इस प्रहार के परिणामस्वरूप एक तीव्र ध्वनि उत्पन्न होती है। इस ध्वनि की गूंज हमारे कानों में कुछ समय तक बनी रहती है। इसी को हम संवेदी स्मृति के रूप में जानते हैं। प्रस्तुत उदाहरण में पायी जाने वाली संवेदी स्मृति को श्रवण सम्बन्धी संवेदी स्मृति माना जाएगा। इसी प्रकार अन्य ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न प्रकार की संवेदी स्मृति भी पायी जाती है। जहाँ तक मनोवैज्ञानिक अध्ययनों का प्रश्न है, उनमें सामान्य रूप से चाक्षुष संवेदी स्मृति तथा श्रवणात्मक संवेदी स्मृति का ही मुख्य रूप से व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है। नाइस्सेर नामक मनोवैज्ञानिक ने चाक्षुष संवेदी स्मृति को प्रतिचित्रात्मक स्मृति (Iconic Memory) तथा श्रवणात्मक संवेदी स्मृति की। प्रतिध्वन्यात्मक स्मृति (Echoic Memory) कहा है। |

(2) अल्पकालीन स्मृति (Short-term Memory)- धारणा के आधार पर किये गये स्मृति के वर्गीकरण में स्मृति के एक प्रकार को अल्पकालीन स्मृति कहा गया है। सामान्य रूप से व्यक्ति द्वारा सम्बन्धित विषय को सीखने अथवा स्मरण करने के अल्प समय के उपरान्त यदि उसकी धारणा का परीक्षण किया जाए तो उस दशा में धारणा की जो मात्रा ज्ञात होती है, उसी को मनोविज्ञान की भाषा में अल्पकालीन स्मृति कहा जाता है। यहाँ अल्पकाल से आशय एक या कुछ मिनट ही होता है। इस प्रकार की स्मृति का सम्बन्ध एक बार के अनुभव यो सीखने से संचित होने वाली सामग्री से होता है। अल्पकालीन स्मृति को मनोवैज्ञानिकों ने एक प्रकार की जैव-वैद्युतिक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया है। उन्होंने इसका स्थायित्व अधिक-से-अधिक 30 सेकण्ड माना है।

(3) दीर्घकालीन स्मृति (Long-term Memory)- धारणा के आधार पर किये गये स्मृति के वर्गीकरण के अन्तर्गत स्मृति के दूसरे प्रकार को दीर्घकालीन स्मृति कहा गया है। दीर्घकालीन स्मृति से आशय उस पुन:स्मरण से है जो किसी विषय के स्मरण के दीर्घकाल के उपरान्त होता है। यह काल या. अवधि कुछ मिनट, कुछ घण्टे, कुछ दिन या कुछ वर्ष भी हो सकती है। दीर्घकालीन स्मृति के अन्तर्गत धारणा के ह्रास की दर कम होती है। हम कह सकते हैं कि इस स्मृति के सन्दर्भ में विस्मरण देर से तथा अपेक्षाकृत रूप से कम होता है। इस तथ्य का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि स्मरण

की गयी विषय-सामग्री का व्यक्ति के मन में होने वाला संचय, जैव-रसायन प्रतिमानों पर आधारित होता है। यह भी स्पष्ट किया गया है कि दीर्घकालीन स्मृति का सम्बन्ध मस्तिष्क के सेरिबेलट काटेंक्स के भूरे पदार्थ के गैगलिओनिक कोशों से होता है। यहाँ यह भी उल्लेख कर देना आवश्यक है कि जैसे-जैसे अधिगम में अभ्यास की वृद्धि होती है, वैसे-वैसे व्यक्ति की धारणा में होने वाला ह्रास घटता जाता है। इसका कारण यह है कि अभ्यास के परिणामस्वरूप व्यक्ति की धारणा क्रमशः सब होती रहती है।

प्रश्न 6
स्मृति अर्थात् धारणा के मापन के लिए अपनायी जाने वाली मुख्य विधियों का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए। या स्मृति मापन की विधियाँ बताइए। (2017)
उत्तर
यह सत्य है कि सभी व्यक्तियों की स्मरण-क्षमता समान नहीं होती। कुछ व्यक्ति सीखे गये विषयों को ज्यों-का-त्यों याद रखते हैं, जबकि कुछ व्यक्ति ऐसा नहीं कर पाते। वास्तव में, इस भिन्नता का कारण व्यक्तियों की धारणा (Retention) शक्ति का भिन्न-भिन्न होना है। प्रबल धारणा वाले व्यक्ति सीखे गये विषय को अधिक समय तक ज्यों-का-त्यों याद रखते हैं। इससे भिन्न यदि व्यक्ति की धारणा-क्षमता कमजोर होती है तो वह सम्बन्धित विषय को अधिक समय तक याद नहीं रख पाता है। ऐसे व्यक्तियों की स्मृति प्रायः उत्तम भी नहीं होती है। स्मृति के मापन के लिए धारणा को मापने करना ही अभीष्ट होता है। स्मृति अथवा धारणा के मापन के लिए अपनायी जाने वाली मुख्य विधियों का विवरण निम्नलिखित है

स्मृति अर्थात् धारणा के मापन की विधियाँ स्मृति के मापन के लिए अर्थात् धारणा-मापन के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित विधियों को अपनाया जाता है।

(1) धारणामापन की पहचान विधि- धारणा-मापन के लिए अपनायी जाने वाली एक मुख्य विधि है-‘पहचान विधि’ (Recognition Method)। इस विधि द्वारा धारणा के मापन के लिए सम्बन्धित व्यक्ति द्वारा स्मरण किये गये विषयों में कुछ अन्य ऐसे विषयों को भी सम्मिलित कर दिया जाता है, जिनसे उनको पूर्व-परिचय नहीं होता। इसके उपरान्त व्यक्ति के सम्मुख नये जोड़े गये विषयों तथा पूर्व-परिचित विषयों को सम्मिलित रूप से प्रस्तुत किया जाता है।

इन समस्त विषयों को एक साथ प्रस्तुत करने के उपरान्त व्यक्ति को कहा जाता है कि वह उनमे से पूर्व-परिचित विषयों को पहचान कर बताये। सामान्य रूप से बाद में सम्मिलित किये गये विषय भी पूर्व-परिचित विषयों से मिलते-जुलते ही होते हैं। इस परीक्षण के अन्तर्गत यह जानने का प्रयास किया जाता है कि व्यक्ति कुल विषयों में सम्मिलिते पूर्व-परिचित विषयों में से कुल कितने विषयों को ठीक रूप में पहचान लेता है। इन निष्कर्षों के आधार पर व्यक्ति की धारणा को मापन कर लिया जाता है। धारणा के मापन के लिए निम्नलिखित सूत्र को अपनाया जाता है
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 4 Memory and Forgetting 1
(2) धारणा- मापन की पुनःस्मरण विधि- स्मृति (धारणा) मापन की एक अन्य विधि है। ‘पुन:स्मरण विधि।’ इस विधि को धारणा-मापन की अन्य विधियों की तुलना में एक सरल विधि माना जाता है; अतः यह विधि अधिक लोकप्रिय भी है। धारणा-मापन की इस विधि को सक्रिय पुनःस्मरण विधि भी कहा जाता है। धारणा-मापन की इस विधि के अन्तर्गत सम्बन्धित व्यक्ति को किसी विषय को याद करने के लिए कहा जाता है तथा याद कर लेने के कुछ समय उपरान्त याद किये गये विषय को सुनाने के लिए कहा जाता है। अब यह देखा जाता है कि वह व्यक्ति पहले याद किये गये विषय के कितने भागों को ज्यों-का-त्यों सुना पाया। उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति को 20 भिन्न-भिन्न देशों की राजधानियों के नाम याद करवाये गये तथा एक सप्ताह के उपरान्त उसे यही नाम सुनाने के लिए कहा गया, परन्तु वह व्यक्ति केवल 12 देशों की राजधानियों के ही नाम सुना पाया। इस स्थिति में कहा जाएगा कि व्यक्ति की धारणा 60% है।

(3) धारणा-मापन की पुनर्रचना विधि- धारणा के मापन के लिए अपनायी जाने वाली एक विधि ‘पुनर्रचना विधि’ भी है। इस विधि के अन्तर्गत सम्बन्धित व्यक्ति को पहले कोई एक विषय दिया जाता है जिसे समग्र रूप से सीखना या स्मरण करना होता है। व्यक्ति अभीष्ट विषय को भली-भाँति याद कर लेता है। व्यक्ति द्वारा विषय को समग्र रूप से याद कर लेने के उपरान्त उसके सम्मुख उसी विषय को मूल क्रम को भंग करके विभिन्न अंशों में अस्त-व्यस्त रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसके उपरान्त व्यक्ति को कहा जाता है कि वह इस प्रकार के अक्रमित रूप से उपलब्ध सामग्री को उसके मूल रूप में व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत करे। वह अपनी धारणा के आधार पर विषय को व्यवस्थित करता है। व्यक्ति जिस अनुपात में विषय को मूल रूप में प्रस्तुत करने में सफल होता, उसी के आधार पर धारणा की माप कर ली जाती है।

(4) धारणा-मापन की बचत विधि- धारणा (स्मृति) मापन के लिए अपनायी जाने वाली एक विधि को ‘बचत, विधि’ (Saving Method) के नाम से जाना जाता है। धारणा-मापन की इस विधि को पुनः अधिगंम विधि’ भी कहा जाता है। धारणा के मापन के लिए इस विधि के अन्तर्गत प्रथम चरण में व्यक्ति को चुने गये विषय को भली-भाँति स्मरण करवाया जाता है। इस प्रकार से विषय को याद करने में व्यक्ति द्वारा किये गये कुल प्रयासों को लिख लिया जाता है। द्वितीय चरण कुछ समय (काल) उपरान्त प्रारम्भ किया जाता है। इस चरण में व्यक्ति को वही विषय पुन:स्मरण करने के लिए दिया जाता है। इस चरण में अभीष्ट विषय को भली-भाँति स्मरण करने के लिए जितने प्रयास करने पड़े हों उन्हें भी लिख लिया जाता है। यह स्वाभाविक है कि द्वितीय चरण में उसी विषय को याद करने में कम प्रयास करने पड़ते हैं। दोनों चरणों में किये गये प्रयासों के अन्तर को ज्ञात करके लिख लिया जाता है। इन समस्त तथ्यों के आधार पर धारणा को मापन कर लिया जाता है। इसके लिए निम्नलिखित सूत्र को अपनाया जाता है
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 4 Memory and Forgetting 2

प्रश्न 7
विस्मरण से आप क्या समझते हैं? विस्मरण के कारणों को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए। (2011)
या
विस्मरण का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। ‘विस्मरण’ के मुख्य सामान्य कारणों को भी स्पष्ट कीजिए।
या
विस्मरण के कारणों पर विस्तार से प्रकाश डालिए। (2015, 17)
या
विस्मरण के तिन्हीं दो कारणों को स्पष्ट कीजिए। 
(2018)
उत्तर
विस्मरण का अर्थ यदि भूतकालीन अनुभव या याद की गई सामग्री का वर्तमान चेतना में पुन: प्रकट होना ‘स्मरण है, तो उसके प्रकट न होने की मानसिक प्रक्रिया ‘विस्मरण’ कही जाएगी। समय व्यतीत होने के साथ ही व्यक्ति का स्मरण की हुई वस्तु से धीरे-धीरे सम्पर्क कम होता जाता है, फलस्वरूप विस्मृति की क्रिया सक्रिय होती है जिससे स्मृति-चिह्न कमजोर होने लगते हैं; अन्ततः सीखने की क्रिया में ह्रास होता है। और व्यक्ति उस वस्तु को भूल जाता है। विस्मरण की यह महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति प्रत्येक व्यक्ति में पायी जाती है।

विस्मरण (भूलना) से अभिप्राय स्मरण की गई विषय-सामग्री को चेतना में पूर्ण या आंशिक रूप से न ला सकने से है। यदि चेतना में विद्यमान वस्तु की पहचान नहीं हो पा रही है तो भी विस्मरण कहलाएगा। यह एक विरोधी एवं नकारात्मक मानसिक क्रिया है। व्यक्ति के लिए स्मरण जितना आवश्यक है, विस्मरण भी ठीक उतना ही आवश्यक है, क्योंकि जीवन के अरुचिकर एवं दु:खद प्रसंगों को भूलने में ही भलाई है। मनुष्य का मन ऐसी बातों से हटता है जो उसे पीड़ा देती हैं। वह तो केवल सुखद, रुचिकर एवं उपयोगी बातों से सम्बन्ध रखना चाहता है। स्पष्टत: विस्मरण ऐसी अप्रिय बातों से मानव-मन को सुरक्षा प्रदान करता है, किन्तु, आवश्यक एवं उपयोगी बातों को समय पड़ने पर भूल जाना किसी भी दशा में हितकर नहीं कहा जा सकता।

विस्मरण की परिभाषाएँ

विस्मरण की प्रमुख परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं

  1. मन के अनुसार, “जो कुछ अर्जित (सीखा) किया गया है, उसे धारण न कर सकना ही विस्मरण है।”
  2. फ्रॉयड के अनुसार, “जो कुछ अप्रिय है, उसे स्मृति से दूर करने की प्रवृत्ति ही विस्मरण है।”
  3. जेम्स ड्रेवर के अनुसार, “प्रयास करने के पश्चात् भी पूर्व-अनुभवों का स्मरण न हो पाना ही विस्मरण है।”
  4. इंगलिश एवं इंगलिश के अनुसार, “विस्मरण वह स्थायी या अस्थायी हानि है जिसका सम्बन्ध पूर्व सीखी गई सामग्री से रहता है। यह पुन:स्मरण एवं पहचान-जैसी योग्यताएँ नष्ट कर देता है।

 निष्कर्षत: विस्मरण या भूलना वह मानसिक प्रक्रिया है जिसमें स्मरण या सीखने की प्रक्रिया के अन्तर्गत बने सम्बन्ध क्षीण हो जाते हैं।

विस्मरण के दो प्रकार हैं-सक्रिय विस्मरण एवं निष्क्रिय विस्मरण। सक्रिय विस्मरण में व्यक्ति स्मरण की गई सामग्री को भूलने के लिए प्रयास करता है, जबकि निष्क्रिय विस्मरण में वह बिना प्रयास के ही भूल जाता है।

विस्मरण के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए एबिंगहास ने लिखा है, “जब अभ्यास के अभाव में किसी पूर्व सीखी हुई सामग्री या घटना के स्मृति-चिह्न धुंधले एवं अस्पष्ट हो जाते हैं, जिसके फलस्वरूप किसी सीखी हुई सामग्री का विस्मरण हो जाता है। इस प्रकार एबिंगहास के अनुसार, विस्मरण एक निष्क्रिय प्रक्रिया है। इससे भिन्न फ्रॉयड ने विस्मरण को एक सक्रिय प्रक्रिया माना है तथा माना है कि व्यक्ति कुछ विषयों को जान-बूझकर तथा सप्रयास ही भूल जाया करता है।

विस्मरण या भूलने के सामान्य कारण

कोई मनुष्य अवसर पड़ने पर, प्रयास करने के बावजूद भी किसी पूर्व अनुभव को याद करने में क्यों असफल रह जाता है? इसका उत्तर आसानी से नहीं दिया जा सकता, क्योंकि विस्मरण के लिए

कोई एक नहीं, बल्कि अनेकानेक कारकै जिम्मेदार होते हैं। इनमें से अनेक कारकों की तो खोज भी काफी कठिन है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों द्वारा विस्मरण के सम्बन्ध में पर्याप्त अध्ययन से, विस्मरण के निम्नलिखित सामान्य कारणों का पता चलता है|

(1) अभ्यास का अभाव– विस्मरण का एक प्रमुख कारण अनभ्यास अर्थात् अभ्यास का न होना है। यदि सीखी गई वस्तुओं का समुचित एवं निरन्तर अभ्यास नहीं किया जाता है तो वे शनैः-शनैः विस्मृत हो जाती हैं।

(2) समय का प्रभाव प्रत्येक अनुभव मस्तिष्क में एक स्मृति- चिह्न या संस्कार का निर्माण करता है। समय बीतने के साथ-साथ नये अनुभव तथा तथ्य प्रकट होते रहते हैं जिनके प्रभाव से पुराना संस्कार धूमिल पड़ जाता है। दीर्घकाल में इसका पूरी तरह लोप भी हो सकता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार विस्मरण की क्रिया समय द्वारा प्रभावित अवश्य होती है, किन्तु स्मृति को प्रमस्तिष्क के सीधे उद्दीपन द्वारा फिर से जीवित किया जा सकता है।

(3) नींद का अभाव- प्रयोगों से ज्ञात होता है कि नींद और आराम के अभाव में सीखी हुई सामग्री द्वारा निर्मित-चिह्नों के संयोजक दुर्बल पड़ जाते हैं और धीरे-धीरे टूट जाते हैं। इसके विपरीत नींद एवं आराम की अवस्था में स्मृति-चिह्नों में मजबूती आती है और विस्मरण का कम प्रभाव पड़ता है।

(4) संवेग- संवेगावस्था में मनुष्य को स्नायु-संस्थान उत्तेजित होकर असामान्य स्वरूप धारण कर लेता है जिसका शारीरिक संरचना पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि किसी सामग्री को याद करने के उपरान्त व्यक्ति संवेगावस्था का शिकार हो जाए तो सीखा गया विषय विस्मृत हो सकता है।

(5) दमन- प्रसिद्ध मनोविश्लेषणवादी फ्रॉयड के अनुसार, किसी बात को मनुष्य इसलिए भूलता है क्योंकि वह उसे भूलना चाहता है। हमें ज्ञात है कि मनुष्य, अचेतन मन की क्रियाओं को प्रत्यावाहित नहीं कर पाता और इसी कारण ये क्रियाएँ याद नहीं आतीं। मनुष्य के अप्रिय तथा कष्टदायी अनुभव उसके अचेतन मन की ओर ठेल दिये जाते हैं, जहाँ वे जाकर दमित तथा विस्मृत हो जाते हैं।

(6) सीखने की मात्रा तथा विषय का आकार- जब सीखने की मात्रा कम होती है तथा विषय का आकार छोटा होता है तो विस्मरण जल्दी होता है। मनुष्य अधिक मात्रा तथा लम्बे आकार वाली विषय-सामग्री को जल्दी नहीं भूल पाता।

(7) सीखने की गति- द्रुतगति से सीखा हुआ ज्ञान शीघ्र विस्मृत नहीं होता, किन्तु धीरे-धीरे और मन्दगति से सीखा गया ज्ञान शीघ्र एवं अधिक विस्मृत होता है।

(8) दोषपूर्ण पद्धति- यदि सीखने की पद्धति दोषपूर्ण है तो स्मृति पटल पर सीखी गई वस्तु को दुर्बल संस्कार बनता है और वह जल्दी ही लुप्त हो जाता है। सीखने की मनोवैज्ञानिक पद्धति शीघ्र एवं स्थायी स्मरण में सहायक होती है।

(9) अर्थहीन विषय-सामग्री- याद की जाने वाली अर्थहीन विषय-सामग्री के स्मृति-चिह्न मस्तिष्क पर गहरे नहीं बनते; अतः ऐसी सामग्री को भूलने की गति भी तीव्र होती है।

(10) मानसिक तत्परता का अभाव- सीखने की प्रक्रिया के दौरान मानसिक तत्परता एवं रुचि का योग रहने से स्मरण को स्थायित्व मिलता है। मानसिक तत्परता का अभाव रहने से मस्तिष्क पर संस्कार कम स्थायी होता है जिससे भूलने की क्रिया में वृद्धि होती है।

(11) मस्तिष्क आघात- बहुधा देखने में आता है कि मस्तिष्क पर आघात या चोट लगने से स्मृति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे या तो स्मृति कम हो जाती है या लुप्त हो जाती है। गहरी चोट के कारण विस्मरण की मात्रा बढ़ जाती है।

(12) चिन्तन एवं मनन की कमी- सीखने की प्रक्रिया में मानसिक चिन्तन एवं मनन की कमी के कारण सीखे गये तथ्यों के हल्के स्मृति-चिह्न बनते हैं जिसके परिणामतः विस्मृति अधिक होती है।

(13) भावना ग्रंथियाँ– सीखते समय व्यक्ति के अचेतन मन की भावना ग्रन्थियाँ संस्कारों के निर्माण में बाधा उत्पन्न करती हैं जिससे व्यक्ति भूलने लगता है।

(14) वृद्धावस्था– वृद्धावस्था में व्यक्ति के शरीर के अंग कमजोर होने लगते हैं तथा उसको विविध क्षमताएँ दुर्बल हो जा हैं जिसके फलस्वरूप उसकी स्मरण शक्ति भी क्षीण पड़ जाती है।

(15) मादक पदार्थ– मादक पदार्थों का सेवन भी विस्मरण का एक कारण है। शराब, अफीम, गाँजा, भाँग, चरस आदि का नशा करने वाले लोगों की स्नायु क्षीण हो जाती हैं। इसके फलस्वरूप वे बातों को अधिक समय तक स्मरण नहीं रख पाते तथा उन्हें भूल जाते हैं।

(16) गम्भीर रोग- गम्भीर शारीरिक एवं मानसिक रोग; जैसे-टाईफॉइड, मनोविदलता आदि स्मरण शक्ति पर बुरा प्रभाव डालते हैं। इनसे पीड़ित व्यक्ति में विस्मरण तेजी से होता है।

(17) पूर्वोन्मुख अवरोध- इसे आन्तरिक या भूताभिमुख अवरोध (Retroactive Inhibition) भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत हर नया ज्ञान पुराने ज्ञान के प्रत्यास्मरण में रुकावट डालता है। प्रयोगों से पता चलता है कि सीखी गयी नई क्रियाएँ पुरानी क्रियाओं के मार्ग में तुरन्त अवरोध (रुकावट) पैदा करने लगती हैं जिससे पूर्व ज्ञान का स्मरण कठिन हो जाता है।

(18) अग्रोन्मुख अवरोध- अग्रोन्मुख अवरोध (Proactive Inhibition) में पुरानी क्रियाएँ नई सीखी क्रियाओं के प्रत्यास्मरण के मार्ग को बाधित करती हैं। इस भाँति नये ज्ञान का प्रत्यास्मरण पुरानी सीखी क्रियाओं की उत्तेजना से रुक जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
अच्छी स्मृति की मुख्य विशेषताओं अथवा लक्षणों का उल्लेख कीजिए। या अच्छी स्मृति की दो विशेषताएँ बताइए। (2015, 17) उत्तर
अच्छी स्मृति की मुख्य विशेषताओं अथवा लक्षणों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

(1) तीव्र गति से सीखना-सीखना (Learning) स्मृति का प्रथम एवं महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। स्मृति का ज्ञान सीखने की तीव्रता से होता है। अच्छी स्मृति वाला व्यक्ति शीघ्रता से सीखता है और उसके मस्तिष्क पर सीखी गई सामग्री को शीघ्र प्रभाव पड़ता है।

(2) स्थायी धारण शक्ति– अच्छी स्मृति की दूसरी विशेषता विषय-सामग्री का देर तक धारण करना है। किसी सामग्री को लम्बे समय तक धारण करने के लिए दो बातें आवश्यक हैं-एक, व्यक्ति की मानसिक संरचना (बनावट) तथा दो, सामग्री के विषय में बार-बार सोचना। इससे मस्तिष्क में स्थित संस्कार जल्दी नहीं मिटते।

(3) व्यर्थ बातों का विस्मरण- अच्छी स्मृति के लिए व्यर्थ की बातों का विस्मरण (भूलना) भी आवश्यक है। जितना आवश्यक एवं उपयोगी बातों को मस्तिष्क में सँजोकर रखना है उतना ही आवश्यक व्यर्थ बातों को भूल जाना भी है।

(4) यथार्थ पुनःस्मरण- अच्छी स्मृति में यथार्थ पुन:स्मरण पाया जाता है अर्थात् आवश्यकता पड़ने पर भूतकालीन अनुभव ठीक-ठीक तथा पूरी तरह याद आ जाने चाहिए। एक शिक्षक के व्याख्यान की सफलता उसके यथार्थ एवं शीघ्र पुन:स्मरण पर निर्भर करती है।

(5) स्पष्ट एवं शीघ्र पहचान- अच्छी स्मृति के लिए वस्तु के स्पष्ट एवं शीघ्र पहचान की पर्याप्त आवश्यकता होती है।

(6) उपादेयता– सीखा गया ज्ञान तभी उत्पादक या उपादेय होगा जब कि वह समय पड़ने तथा उपयुक्त अवसर पर याद आ जाए। अन्त्याक्षरी प्रतियोगिता के अवसर पर यदि याद की गई कविताएँ सही समय पर याद न आयें तो वे अनुपयोगी ही कहलाएँगी।

प्रश्न 2
कण्ठस्थीकरण (याद करने) की कौन-सी विधि को आप सर्वोत्तम मानते हैं? लम्बी कविता को किस विधि द्वारा याद करना चाहिए?
उत्तर
हम जानते हैं कि कण्ठस्थीकरण अथवा याद करने की विभिन्न विधियाँ हैं। विभिन्न विधियों को ध्यान में रखते हुए स्मरण की क्रिया के सम्बन्ध में निष्कर्षतः हम कह सकते हैं-एक, स्मरण एक व्यक्तिगत प्रक्रिया है तथा दो, स्मरण पर विषय की प्रकृति का प्रभाव पड़ता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से

व्यक्तिगत भिन्नताएँ देखने को मिलती हैं। प्रत्येक व्यक्ति की रुचि, अभिरुचि, बुद्धि, मनोवृत्ति, योग्यता एवं क्षमता अलग होती है। इसी प्रकार कुछ विषय सरल तो कुछ कठिन, ‘कुछ छोटे तो कुछ लम्बे, कुछ रुचिकर तो कुछ अरुचिकर हो सकते हैं। किस व्यक्ति के लिए स्मरण की कौन-सी विधि सर्वोत्तम होगी, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः स्मरण की सभी विधियों का सापेक्षिक (ग्नि) महत्त्व दृष्टिगोचर होता है। याद करने वाला व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं तथा विषय की प्रकृति के अनुसार किसी भी एक उपयुक्त विधि या दो को मिलाकर मिश्रित विधि का उपयोग कर सकता है।

एक लम्बी कविता को कण्ठस्थ करने के लिए सबसे पहले समूची कविता को एक साथ याद किया जाना चाहिए। कुछ अन्तर से थोड़े समय बाद, कविता को इसके पदों में खण्डित करके अलग-अलग कण्ठस्थ किया जाएगा, किन्तु विभिन्न खण्डों या अंशों को परस्पर एक-दूसरे से अवश्य जोड़ते जाना चाहिए। इसकी स्मृति सर्वोत्तम समझी जाती है। स्पष्टत: इसके लिए पूर्ण एवं आंशिक खण्ड विधि को मिलाकर मिश्रित विधि का उपयोग किया जाएगा।

प्रश्न 3
विस्मरण को रोकने के उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
विस्मरण की जीवन में विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण भूमिका है, किन्तु सीमा से अधिक भूल/विस्मृति का होना हानिकारक है और उस समय इसे रोकना अपरिहार्य हो जाता है। विस्मरण को रोकने के उपाय निम्नलिखित से हैं

(1) दोहरांना— याद की जाने वाली किसी विषय-सामग्री को स्थायी करने की दृष्टि से, उसे याद करने के एक घण्टे के भीतर अवश्य दोहरा लेना चाहिए।

(2) स्वास्थ्य– विस्मरण से बचने के लिए शरीर और मन के स्वास्थ्य पर भी ध्यान देना आवश्यक है। जिन लोगों का मस्तिष्क दुर्बल हो जाता है, उन्हें मानसिक दुर्बलता दूर करने के लिए पौष्टिक भोजन ग्रहण करना चाहिए।

(3) विश्राम- विषय को याद करने के उपरान्त कुछ देर विश्राम करना अच्छा है, इससे स्मृति दृढ़ हो जाती है तथा विस्मरण नहीं होगा।

(4) अर्तिशिक्षण– विषय को आवश्यकता से अधिक याद कर लेने तथा पुन: उसे बार-बार दोहराने से भूलने पर नियन्त्रण रहता है। इसे अतिशिक्षण कहते हैं।

(5) इच्छा-शक्ति– विषय को इच्छा-शक्ति के साथ याद करना चाहिए। इससे वह मस्तिष्क में स्थायी होगा तथा विस्मृति कम होगी।

(6) साहचर्य स्थापना- विचार साहचर्य के नियम का पालन करने से स्मरण को स्थायित्व मिलता है। इस नियम के अनुसार याद करते समय नवीन ज्ञान को पुराने ज्ञान से जोड़ते हुए चलना चाहिए।

(7) सस्वर पाठन- बोल-बोलकर (सस्वर) पाठ याद करने से विस्मरण की प्रवृत्ति कम। होती है।

(8) निद्रा— याद करने के उपरान्त थोड़ी देर तक सो लेने से विषय का संस्कार मस्तिष्क में * गहरा हो जाता है तथा भूलना कम हो जाता है।

(9) नशे से बचाव- नशाखोर लोगों को नशीले पदार्थों का सेवन छोड़ देना चाहिए। इससे विस्मरण की मात्रा कम होगी।

(10) लम्बी छुट्टियों में अध्ययन– बहुत-से विद्यार्थी लम्बी छुट्टियों में अध्ययन कार्य बन्द कर देते हैं। परिणामतः वे सीखा गया ज्ञान भूल जाते हैं। अत: लम्बी छुट्टियों (जैसे—ग्रीष्मावकाश) में भी अध्ययन की प्रवृत्ति बनाये रखनी चाहिए।विस्मरण के उपर्युक्त उपाय अपनाने पर भूलने की अस्वाभाविक प्रवृत्ति पर अंकुश लगता है।

प्रश्न 4
अल्पकालीन स्मृति की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
स्मृति के एक मुख्य प्रकार के रूप में अल्पकालीन स्मृति की मुख्य विशेषताओं को संक्षिप्त विवरण अग्रलिखित है

(1) धारणा के ह्रास की दर अधिक— अल्पकालीन स्मृति की धारणा को ह्रास तीव्र गति से होता है अर्थात् धारणा के पास की दर अधिक होती है। हम यह भी कह सकते हैं कि अल्पकालीन स्मृति के सन्दर्भ में सम्बन्धित विषय का विस्मरण तीव्र गति से होता है। इस विषय में पीटरसन एवं पीटरसन ने कुछ परीक्षण किये तथा निष्कर्ष स्वरूप बताया कि अल्पकालीन स्मृति के सन्दर्भ में विषय को याद करने के उपरान्त 12 सेकण्ड में प्रायः याद किये गये विषय का 75% विस्मरण हो जाता है। तथा 18 सेकण्ड के उपरान्त लगभग 90% विस्मरण हो जाती है।

(2) अधिगम की मात्रा कम होती है— अल्पकालीन स्मृति के सन्दर्भ में अधिगम कम मात्रा में होता है। अधिगम की मात्रा कम होने का मुख्य कारण यह होता है कि इस विधि में अनुभव की मात्रा भी कम होती है।

(3) अग्रोन्मुखी तथा पृष्ठोन्मुखी व्यतिकरण- अल्पकालीन स्मृति पर सामान्य रूप से अग्रोन्मुखी तथा पृष्ठोन्मुखी दोनों प्रकार के व्यतिकरणों का प्रभाव अवश्य पड़ता है।

प्रश्न 5
अल्पकालीन स्मृति के अध्ययन की प्रविधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
अल्पकालीन स्मृति के अध्ययन के लिए विभिन्न प्रविधियों को अपनाया जाता है, जिनमें से मुख्य इस प्रकार हैं

(1) अध्ययन की विक्षेप प्रविधि तथा
(2) अध्ययन की छानबीन प्रविधि। इन दोनों प्रविधियों का सामान्य विवरण अग्रलिखित है|

(1) अल्पकालीन स्मृति के अध्ययन की विक्षेप प्रविधि– पीटरसन एवं पीटरसन नामक मनोवैज्ञानिकों ने अल्पकालीन स्मृति के अध्ययन के लिए ‘विक्षेप प्रविधि’ (Distraction Technique) को अपनाया था। इस विधि के अन्तर्गत स्मृति के अध्ययन के लिए सम्बन्धित व्यक्ति के सम्मुख अभीष्ट विषय को एक बार प्रस्तुत किया जाता है अर्थात् विषय को सीखने या याद करने का एक अवसर प्रदान किया जाता है तथा उसके उपरान्त व्यक्ति को तुरन्त कोई अन्य विषय सीखने में लगा दिया जाता है। इस प्रकार की व्यवस्था के कारण व्यक्ति को पूर्व स्मरण किये गये विषय को मन-ही-मन दोहराने का अवसर प्राप्त नहीं होता। द्वितीय विषय में संलग्न रहने के उपरान्त व्यक्ति को पुन: पहले स्मरण किये गये विषय को सुनाने के लिए कहा जाता है अर्थात् उसकी धारणा के मापन का कार्य किया जाता है। पीटरसन एवं पीटरसन ने अपने परीक्षणों के आधार पर निष्कर्ष स्वरूप बताया कि 18 सेकण्ड के व्यवधान के उपरान्त पूर्व स्मरण किये गये विषय की धारणा केवल 10% रह जाता है।

(2) अल्पकालीन स्मृति के अध्ययन की छानबीन प्रविधि- अल्पकालीन स्मृति के अध्ययन की एक विधि छानबीन प्रविधि’ (Probe Technique) भी है। इस प्रविधि के अन्तर्गत व्यक्ति के सम्मुख कुछ सार्थक, निरर्थक या युग्मित सहचर पद क्रमिक ढंग से प्रस्तुत किये जाते हैं। कुछ समय के उपरान्त उन्हीं क्रमिक ढंग से प्रस्तुत किये गये पदों में से किसी एक पद को प्रस्तुत किया जाता है। तथा व्यक्ति को कहा जाता है कि पहले प्रस्तुत की गयी पद-श्रृंखला में उस पद के उपरान्त आने वाला पुद बतायें। इस प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्ति की धारणा को ज्ञात कर लिया जाता है।

प्रश्न 6
टिप्पणी लिखिए–असामान्य स्मृतियाँ उत्तर सामान्य या अच्छी स्मृति से प्रत्येक व्यक्ति परिचित है, परन्तु कुछ स्मृतियाँ असामान्य स्मृतियाँ (Abnormal Memories) भी होती हैं। असामान्य स्मृति के मुख्य रूप से तीन प्रकार या स्वरूप हैं, जिनका संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है|
(1) स्मृति हास- असामान्य स्मृति का एक रूप स्मृति ह्रास (Amnesia) है। इस स्थिति में स्मृति नष्ट हो जाती है। प्राय: सभी सीखी गई क्रियाओं या विषयों का विस्मरण होने लगता है। गम्भीर स्मृति ह्रास के व्यक्ति के व्यक्तित्व का भी विघटन हो सकता है। इस स्थिति के लिए जिम्मेदार मुख्य कारक हैं-ध्यान, प्रत्यक्षीकरण संवेग तथा सीखने की कमी। अनेक बार शारीरिक आघात, व्यक्तिगत संघर्ष तथा मानसिक रोगों के कारण भी स्मृति हास की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

(2) तीव्र स्मृति- असामान्य स्मृति का एक रूप तीव्र स्मृति (Hypermnesia) भी है। ऐसा देखा गया है कि किसी २ किस्मिक घटना के कारण व्यक्ति में स्मृति की प्रबलता आ जाती है। इस स्थिति में विभिन्न घटनाएँ क्रमबद्ध होकर याद आती हैं। प्रायः सम्मोहन अथवा सन्निपात की अवस्था में तीव्र स्मृति हो जाती है।

(3) मिथ्या स्मृति- असामान्य स्मृति का तीसरा रूप मिथ्या स्मृति (Paramnesia) है। इस असामान्य स्थिति में व्यक्ति उन घटनाओं का पुन:स्मरण करता हुआ देखा गया है, जो घटनाएँ पहले कभी घटित हुई ही नहीं थीं। इसी प्रकार कभी-कभी व्यक्ति पुरानी घटनाओं को नई कल्पनाओं से जोड़कर एक भिन्न रूप में प्रस्तुत करता है। यह मिथ्या स्मृति ही है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
स्मरण करने की पूर्ण तथा आंशिक विधियों में से कौन-सी विधि अच्छी मानी जाती है?
उत्तर
पूर्ण और आंशिक दोनों विधियों में से कौन-सी विधि अधिक अच्छी है, इस समस्या को सुलझाने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने समय-समय पर विभिन्न प्रयोग किये हैं। पेखस्टाइन (Pechstein) नामक विद्वान् ने अपने प्रयोग से निष्कर्ष निकाला कि आंशिक विधि, पूर्ण विधि से बेहतर है, किन्तु एल० स्टीफेन्स (L. Steffens) के प्रयोगों से सिद्ध होता है कि स्मरण की क्रिया में आंशिक विधि की तुलना में पूर्ण विधि में 12% समय की बचत होती है। पिनर एवं साइण्डर (Pyner and Synder) के प्रयोगों से ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण रूप से याद करने वाली विधि 240 लाइनों वाली कविता के लिए अत्यन्त प्रभावकारी है लेकिन इससे लम्बी कविता को खण्डों या उप-समग्रों में बाँटकर याद किया जा सकता है।

वस्तुतः याद की जाने वाली सामग्री के लिए विधि का चयन; विषय की मात्र, प्रकार तथा याद करने वाले की बुद्धि व क्षमता पर आधारित है। जहाँ पूर्ण विधि सरल, छोटी सामग्री तथा तीव्र बुद्धि के बालकों के लिए उपयुक्त है; वहीं दूसरी ओर, आंशिक विधि कठिन, लम्बी सामग्री तथा मन्द बुद्धि के बालकों के लिए बेहतर समझी जाती है।

प्रश्न 2
स्मरण करने की व्यवधान सहित तथा व्यवधान रहित विधियों में से कौन-सी विधि अच्छी मानी जाती है?
उत्तर
किसी विषय को स्मरण करने के लिए व्यवधान सहित तथा व्यवधान रहित विधियों को प्रायः अपनाया जाता है। इन दोनों विधियों को लेकर मनोवैज्ञानिकों ने अनेक प्रयोग किये हैं। एबिंगहास के प्रयोगों के निष्कर्ष बताते हैं कि व्यवधान सहित विधि निरर्थक पदों को याद करने की एक अच्छी विधि है। बेलवार्नर तथा विलियम ने इसे पद्य एवं गद्य याद करने की मितव्ययी विधि कहा है। इसके विपरीत कुक नामक विद्वान् ने व्यवधान रहित विधि का समर्थन किया है। सच्चाई यह है कि स्थायी स्मृति के लिए व्यवधान सहित विधि तथा सरल एवं छोटी सामग्री, जिसे तात्कालिक स्मृति के लिए धारण करना हो, के लिए व्यवधान रहित विधि उपयुक्त होती है। वैसे व्यवधान सहित विधि को आमतौर पर इस कारण मान्यता दी जाती है क्योकि व्यवधान या अन्तर से थकान तथा अरुचि समाप्त हो जाती है एवं मानसिक चिन्तन तथा ताजगी के अवसर प्राप्त हो जाते हैं। अन्तर के कारण त्रुटिपूर्ण प्रयासों से अवधान हट जाता है और उन्हें दोहराया नहीं जाता।।

प्रश्न 3
स्मृति में प्रत्याह्वान (Recall) का क्या स्थान है?
उत्तर
प्रत्याह्वान स्मृति की प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। गत सीखे गये विषय या अनुभवों को चेतना के स्तर पर लाने की क्रिया को प्रत्याह्वान या पुन:स्मरण कहा जाता है। प्रत्याह्वान के अभाव में या त्रुटिपूर्ण होने पर स्मृति सम्भव ही नहीं है। व्यवहार में देखा जाता है कि अधिकांश विषयों का प्रत्यास्मरण प्रायः अधूरा या आंशिक ही होता है। जितना अधिक एवं शुद्ध प्रत्याह्वान होगा उतनी ही अच्छी स्मृति होगी। इस प्रकार स्पष्ट है कि स्मृति की प्रक्रिया में प्रत्याह्वान का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

प्रश्न 4
विस्मरण के २ नुप्रयोग सिद्धान्त का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
विस्मरण के कारणों के स्पष्टीकरण के लिए एक सिद्धान्त प्रस्तुत किया जाता है जिसे अनुप्रयोग का सिद्धान्त कहते हैं। यह एक जीवशास्त्रीय सिद्धान्त है। इस जीवशास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार विस्मरण का अनुपयोगिता (Disuse) से गहरा सम्बन्ध है और इसी कारण विस्मृति, मस्तिष्क की एक निष्क्रिय मानसिक क्रिया’ कही जाती है। यदि याद किये गये अनुभवों, तथ्यों या पाठ को समय-समय पर दोहराया नहीं जाएगा तो मस्तिष्क में उनके स्मृति-चिह्न धीरे-धीरे विलुप्त हो जाते हैं। और हम उन्हें भूल सकते हैं। अतः सीखी गयी वस्तुओं को बार-बार दोहराकर उन्हें प्रयोग में लाना आवश्यक है, अन्यथा अनुप्रप्रयोग के कारण उनकी स्मृति दुर्बल या नष्ट हो सकती है।

प्रश्न 5
विस्मरण के बाधा सिद्धान्त का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
विस्मरण के कारणों के स्पष्टीकरण के लिए प्रस्तुत किया गया एक सिद्धान्त बाधा को सिद्धान्त है। बाधा के सिद्धान्त के अनुसार विस्मरण एक ‘सक्रिय मानसिक क्रिया है। यह सिद्धान्त बताता है कि मस्तिष्क में लगातार एवं क्रमशः बनने वाले नये स्मृति-चिह्नों की तह पुराने स्मृति-चिह्नों की तरह को ढकती जाती है जिससे नये स्मृति-चिह्न पुराने स्मृति-चिह्न के पुन:स्मरण में बाधा उत्पन्न करते हैं। परिणामस्वरूप वे अपनी मूल और वास्तविक स्थिति में नहीं रह पाते। उदाहरण के लिए-नींद की अवस्था में नये संस्कारों का जन्म न होने से बहुत कम बाधा उत्पन्न होती है; अतः सोने से पूर्व याद किया गया पाठ जागने पर तत्काल ही याद आ जाता है।

प्रश्न 6
विस्मरण के दमन सिद्धान्त का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
विस्मरण की प्रक्रिया की समुचित व्याख्या प्रस्तुत करने के लिए एक सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है, जिसे दर्मन का सिद्धान्त कहा जाता है। इस सिद्धान्त के मुख्य प्रतिपादक फ्रॉयड हैं। फ्रॉयड के अनुसार, “विस्मरिण एक सक्रिय मानसिक प्रक्रिया है। हम भूलते हैं, क्योंकि हम भूलना चाहते हैं।” विस्मरण की प्रक्रिया को इस रूप में स्वीकार करते हुए विस्मरण के दमन सिद्धान्त के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है कि हम अपने अप्रिय तथा दु:खद अनुभवों को चेतन मन से दमित कर देते हैं तथा उन्हें अचेतन मन में पहुँचा देते हैं। इसी प्रकार मानसिक संघर्ष के कारण भी पुराने अनुभवों को भुला दिया जाता है। फ्रॉयड के द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त की अनेक मनोवैज्ञानिकों ने आलोचना की है। उनका कहना है कि व्यवहार में व्यक्ति प्रायः उन विषयों को भी भूल जाता है जो उसके लिए अप्रिय तथा दु:खद नहीं होते तथा जिन्हें वह भूलना चाहता भी नहीं।।

प्रश्न 7
विस्मरण के महत्त्व का उल्लेख कीजिए। या मानव-जीवन में विस्मृति की क्या उपयोगिता है? (2009, 12)
उत्तर
विस्मरण एक जटिल मानसिक क्रिया है, जिसका मानव-जीवन में विशेष महत्त्व है। विस्मरण के कारण ही मनुष्य दु:खद घटनाओं को समय बीतने के साथ-ही-साथ विस्मृत ( भूलता) करता जाता है। यदि यह क्रिया न होती तो मनुष्य का जीवन अशान्त तथा विक्षिप्त बना रहता और वह अनेक प्रकार के मानसिक रोगों का शिकार हो जाता है। लेकिन अतिशय विस्मरण भी घातक होता है, क्योंकि ऐसी स्थिति में मनुष्य की स्मृति लुप्त हो जाती है और उसे अपने विगत जीवन का कोई ज्ञान नहीं रहता। इस प्रकार विस्मरण और स्मरण दोनों ही क्रियाएँ मानव-जीवन के लिए आवश्यक हैं। व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी विस्मरण का विशेष महत्त्व है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कुछ शत्रुतापूर्ण, अप्रिय तथा जघन्य घटनाएँ घटित होती रहती हैं। व्यक्ति इन्हें समय के साथ भुला देता है। तथा सामान्य जीवन व्यतीत करता रहता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न I.निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए

1. अतीत काल के किसी विगत अनुभव के अर्द्ध-चेतन मन से चेतन मन में आने की प्रक्रिया को……………. कहते हैं।
2. स्मृति अपने आप में एक जटिल……. है।
3. पूर्व अनुभवों को याद करना, दोहराना या चेतना के स्तर पर लाने की मानसिक क्रिया: …….कहलाती है।
4. स्मृति-चिह्नों या संस्कारों के संगृहीत होने की क्रिया को हैं……………।
5. स्मृति में क्रमशः चार मानसिक प्रक्रियाएँ अधिगम, …………….पुनः स्मरण एवं ……………..
सम्मिलित हैं।
6. स्मृति की प्रक्रिया में अधिगम …………….और ……………धारणा के पश्चात् और की प्रक्रियाएँ होती हैं।
7. स्मरण करने के लिए किसी विषय को सीखने के बाद बार-बार दोहराने की प्रक्रिया को…………
कहते हैं ।
8. अच्छी स्मृति की मुख्यतम विशेषता है………… ।
9. सदैव साथ रहने वाली सहेलियों में से किसी एक को देखकर दूसरी की याद आ जाना ………के नियम का परिणाम है।
10. ज्ञानेन्द्रियों के स्तर पर पंजीकृत सूचनाओं को कुछ क्षणों के लिए ज्यों-का-त्यों भण्डारित कर 
लेना …………कहलाता है।
11. किसी विषय को सीखने के कुछ सेकण्ड उपरान्त पायी जाने वाली धारणा को …….के रूप 
में जाना जाता है।
12. किसी विषय को सीखने के कुछ माह उपरान्त पायी जाने वाली धारणा को ………कहते हैं।
13. किसी सीखे गये या स्मरण किये गये विषय का प्रत्यास्मरण न हो पाना ………. कहलाता है।
14. धारण की गई विषय-वस्तु का प्रत्याह्वान और पहचान नहीं कर पाना ………..कहलाता है।
15. स्मरण किये गये विषय का अभ्यास न होने पर विस्मरण की गति…जाती है।
16. फ्रॉयड के अनुसार विस्मरण का मुख्य कारण ………है।
17. दोषपूर्ण पद्धति से सीखे गये विषय का विस्मरण…………हो जाता है।
18. याद किये गये विषय को बार-बार दोहराने से ………को रोका जा सकता है।
19. विस्मरण के नितान्त अभाव में व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य …….सकता है।
20………….. का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि इसके फलस्वरूप व्यक्ति अपनी दु:खद स्मृतियों से 
मुक्त होता है तथा नई बातों को सीखकर याद कर सकता है।
उत्तर
1. स्मृति, 2. मानसिक प्रक्रिया, 3. स्मृति, 4. धारणा, 5. धारणा, प्रत्यभिज्ञा, 6. प्रत्यास्मरण, प्रत्यभिज्ञा, 7. अभ्यास, 8. यथार्थ पुन:स्मरण, 9. साहचर्य, 10. संवेदी स्मृति, 11. अल्पकालीन स्मृति, 12. दीर्घकालीन स्मृति, 13. विस्मरण, 14. विस्मरण, 15. बढ़, 16. दमन, 17. शीघ्र, 18. विस्मरण, 19. बिगड़, 20. विस्मरण

प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए
प्रश्न 1.
स्मृति से क्या आशय है?
उत्तर
पूर्व अनुभवों को याद करने, दोहराने या चेतना के स्तर पर लाने की मानसिक क्रिया ‘स्मृति’ कहलाती है।

प्रश्न 2.
स्मृति के प्रमुख तत्त्व कौन-कौन से हैं?
उत्तर
स्मृति के प्रमुख तत्त्व हैं-सीखना, धारणा, पुन:स्मरण या प्रत्यास्मरण तथा प्रत्यभिज्ञा या पहचान।

प्रश्न 3.
अच्छी स्मृति की मुख्य विशेषताओं या लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
अच्छी स्मृति की मुख्य विशेषताएँ या लक्षण निम्नवत्: हैं–

  1. तीव्र गति से सीखना
  2. स्थायी धारण शक्ति
  3. व्यर्थ बातों का विस्मरण
  4. यथार्थ पुन:स्मरण
  5. स्पष्ट एवं शीघ्र पहचान तथा
  6. उपादेयता।।

प्रश्न 4.
प्रत्यभिज्ञा को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक कौन-कौन से हैं?
उत्तर
प्रत्यभिज्ञा को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक निम्नवत् हैं

  1.  मानसिक तत्परता तथा
  2. आत्म-विश्वास।

प्रश्न 5.
स्मृति के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर
स्मृति के मुख्य प्रकार हैं—

  1. संवेदी स्मृति
  2. अल्पकालीन स्मृति तथा
  3. दीर्घकालीन स्मृति।

प्रश्न 6.
स्मृति अर्थात् धारणा के मापन की मुख्य विधियाँ कौन-कौन सी हैं? ।
उत्तर
स्मृति अर्थात् धारणा के मापन की मुख्य रूप से निम्न चार विधियाँ हैं

  1. धारणा-मापन की पहचान विधि
  2. धारणा-मापन की पुन:स्मरण विधि
  3. धारणा-मापन की पुनर्रचना विधि तथा
  4. धारणा-मापन की बचत विधि।

प्रश्न 7.
साहचर्य से क्या आशय है?
उत्तर
साहचर्य में किन्हीं दो विषय-वस्तुओं के पारस्परिक सम्बन्ध को ध्यान में रखा जाता है तथा उस सम्बन्ध के आधार पर स्मृति की प्रक्रिया को सुचारु रूप प्रदान किया जाता है।

प्रश्न 8.
साहचर्य की एक व्यवस्थित परिभाषा लिखिए।
उत्तर
बी०एन० झा के अनुसार, “विचारों का साहचर्य एक विख्यात सिद्धान्त है, जिसके द्वारा कुछ विशिष्ट सम्बन्धों के कारण एक विचार दूसरे से सम्बन्धित होने की प्रवृत्ति रखता

प्रश्न 9.
साहचर्य के प्राथमिक नियम कौन-कौन से हैं?
उत्तर
साहचर्य के प्राथमिक नियम हैं-

  1.  समीपता का नियम
  2. सादृश्यता का नियम
  3. विरोध का नियम तथा
  4. क्रमिक रुचि का नियम

प्रश्न 10.
साहचर्य के गौण नियम कौन-कौन से हैं?
उत्तर
साहचर्य के गौण नियम हैं-

  1. प्राथमिकता का नियम
  2. नवीनता का नियम
  3. पुनरावृत्ति का नियम
  4. स्पष्टता का नियम तथा
  5. प्रबलता का नियम।

प्रश्न 11.
विस्मरण से क्या आशय है?
उत्तर
किसी याद किये गये या सीखे गये विषय के चेतना के स्तर पर न आ पाने की दशा को विस्मरण कहते हैं।

प्रश्न 12.
विस्मरण के प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
विस्मरण के दो प्रकार हैं-सक्रिय विस्मरण तथा निष्क्रिय विस्मरण। सक्रिय विस्मरण में व्यक्ति स्मरण की गयी सामग्री को भूलने के लिए प्रयास करता है, जबकि निष्क्रिय विस्मरण में यह बिना प्रयास के ही भूल जाता है।

प्रश्न 13.
किस मनोवैज्ञानिक ने विस्मरण को मुख्य रूप से एक निष्क्रिय मानसिक प्रक्रिया माना है?
उत्तर
ऐबिंगहॉस ने मुख्य रूप से विस्मरण को एक निष्क्रिय मानसिक प्रक्रिया माना है।

प्रश्न 14.
फ्रॉयड ने विस्मरण को किस प्रकार की प्रक्रिया माना है तथा क्यों?
उत्तर
फ्रॉयड ने विस्मरण को एक सक्रिय मानसिक प्रक्रिया माना है। उसके अनुसार, क्योंकि व्यक्ति किसी विषय को भूलना चाहता है; अतः वह उसे भूल जाता है। इस प्रकार विस्मरण एक सक्रिय मानसिक प्रक्रिया है।

प्रश्न 15.
विस्मरण को रोकने का सर्वोत्तम उपाय क्या है?
उत्तर
विस्मरण को रोकने का सर्वोत्तम उपाय है—याद किये गये विषय को । समय-समय पर दोहराते रहना।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न 1.
भूतकालीन अनुभवों एवं सीखे गये विषयों का चेतना के स्तर पर आना कहलाता है
(क) सृजनात्मक चिन्तन
(ख) प्रत्यक्षीकरण
(ग) यथार्थ ज्ञान
(घ) स्मृति
उत्तर
(घ) स्मृति

प्रश्न 2.
“घटनाओं की उस भॉति कल्पना करना जिस भाँति भूतकाल में उनका अनुभव किया गया था तथा उन्हें अपने ही अनुभव के रूप में पहचानना स्मृति है।” यह कथन किसका है?
(क) वुडवर्थ
(ख) जे०एस०रॉस
(ग) मैक्डूगल
(घ) स्टाउट
उत्तर
(ग) मैक्डूगल

प्रश्न 3.
स्मृति को ऐसी प्रक्रिया कहते हैं, जिसमें
(क) परिवर्तन होता है।
(ख) तन्त्रिको-तन्त्र प्रभावित होता है।
(ग) किसी आवश्यकतानुसार सूचना पुनर्परित की जाती है।
(घ) किसी आवश्यकता की पूर्ति होती है
उत्तर
(ग) किसी आवश्यकतानुसार सूचना पुनर्परित की जाती है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन स्मृति-प्रक्रिया का अंग है ?
(क) गैस्टाल्ट
(ख) अन्तर्दर्शन
(ग) पहचान
(घ) कल्पना
उत्तर
(ग) पहचान

प्रश्न 5.
स्मृति का तत्त्व नहीं है|
(क) सीखना
(ख) पुन:स्मरण
(ग) प्रत्यभिज्ञा
(घ) चिन्तन
उत्तर
(घ) चिन्तन

प्रश्न 6.
उत्तम स्मृति का लक्षण नहीं है
(क) स्थायी धारण-शक्ति
(ख) यथार्थ पुन:स्मरण
(ग) स्पष्ट एवं शीघ्र पहचान ।
(घ) अनावश्यक काल्पनिक तत्त्वों का समावेश
उत्तर
(घ) अनावश्यक काल्पनिक तत्त्वों का समावेश

प्रश्न 7.
स्मृति प्रक्रिया का सही क्रम है (2009)
(क) सीखना, पहचान, धारणा, स्मरण
(ख) सीखना, प्रत्यास्मरण, धारणा, पहचान
(ग) सीखना, धारणा, प्रत्यास्मरण, पहचान
(घ) सीखना, धारणा, पहचान, प्रत्यास्मरण
उत्तर
(ग) सीखना, धारणा, प्रत्यास्मरण, पहचान

प्रश्न 8.
स्मृति के प्रकार हैं
(क) संवेदी स्मृति
(ख) अल्पकालीन समृति
(ग) दीर्घकालीन स्मृति
(घ) ये सभी
उत्तर
(घ) ये सभी

प्रश्न 9.
ताजमहल को देखकर मुमताज की याद आ जाने का कारण होता है
(क) स्मृति
(ख) कल्पना
(ग) साहचर्य
(घ) धारणा
उत्तर
(ग) साहचर्य

प्रश्न 10.
पूर्व सीखे गये विषय को धारण न कर सकना कहलाता है
(क) अल्प स्मरण
(ख) कल्पना
(ग) विस्मरण
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ग) विस्मरण

प्रश्न 11.
दमन को विस्मरण का मुख्यतम कारण किसने माना है?
(क) मफ
(ख) वुडवर्थ
(ग) फ्रॉयड
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ग) फ्रॉयड

प्रश्न 12.
विस्मरण को रोकने का उपाय है–
(क) विषय को बार-बार दोहराना।
(ख) विषय को याद करने के बाद आराम करना अथवा सो जाना
(ग) विभिन्न प्रकार के नशों से बचना
(घ) उपर्युक्त सभी उपाय।
उत्तर
(घ) उपर्युक्त सभी उपाय।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 4 Memory and Forgetting help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12  Psychology Chapter 4 Memory and Forgetting, drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 5 Family

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 5 Family (परिवार) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 5 Family (परिवार).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 5
Chapter Name Family (परिवार)
Number of Questions Solved 39
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 5 Family (परिवार)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
परिवार की परिभाषा दीजिए तथा परिवार के कार्यों की विवेचना कीजिए। [2013, 15, 16]
या
परिवार से क्या तात्पर्य है? इसके विभिन्न कार्यों को समझाइए। [2015, 16]
उत्तर:

परिवार का अर्थ एवं परिभाषा

‘Family’ शब्द का उद्गम लैटिन शब्द ‘Famulus’ से हुआ है, जो एक ऐसे समूह के लिए। प्रयुक्त हुआ है जिसमें माता-पिता, बच्चे, नौकर और दास हों। साधारण अर्थों में विवाहित जोड़े को परिवार की संज्ञा दी जाती है, किन्तु समाजशास्त्रीय दृष्टि से यह परिवार शब्द का सही उपयोग नहीं है। परिवार में पति-पत्नी एवं बच्चों का होना आवश्यक है। विभिन्न विद्वानों ने परिवार को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है

मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, “परिवार पर्याप्त निश्चित यौन सम्बन्ध द्वारा परिभाषित एक ऐसा समूह है जो बच्चों के जनन एवं लालन-पालन की व्यवस्था करता है।”

डॉ० दुबे के अनुसार, “परिवार में स्त्री और पुरुष दोनों को सदस्यता प्राप्त रहती है, उनमें कम-से-कम दो विपरीत लिंग के व्यक्तियों को यौनसम्बन्धों की सामाजिक स्वीकृति रहती है और उनके संसर्ग से उत्पन्न सन्तान मिलकर परिवार का निर्माण करते हैं।”

मरडॉक के अनुसार, “परिवार एक ऐसा सामाजिक समूह है जिसके लक्षण सामान्य निवास, आर्थिक सहयोग और जनन हैं। इसमें दो विषम लिंगों के वयस्क शामिल होते हैं, जिनमें कम-से-कम दो व्यक्तियों में स्वीकृत यौन सम्बन्ध होता है और जिन वयस्क व्यक्तियों में यौन-सम्बन्ध होता है, उनके अपने या गोद लिये हुए एक या अधिक बच्चे होते हैं।”

लूसी मेयर ने लिखा है, “परिवार एक गार्हस्थ्य समूह है, जिसमें माता-पिता और सन्तान साथसाथ रहते हैं। इनके मूल रूप में दम्पती और उनकी सन्तान रहती हैं।” । संक्षेप में, हम परिवार को जैविकीय सम्बन्धों पर आधारित एक सामाजिक समूह के रूप में परिभाषित कर सकते हैं, जिसमें माता-पिता और बच्चे होते हैं तथा जिसका उद्देश्य अपने सदस्यों के लिए सामान्य निवास, आर्थिक सहयोग, यौन-सन्तुष्टि, प्रजनन, समाजीकरण, शिक्षण आदि की सुविधाएँ जुटाना है।

परिवार के कार्य

परिवार समाज की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई है। परिवार में बच्चा जन्म लेता है और विकसित होकर एक आदर्श नागरिक बनता है। परिवार वह कार्यशाला है जिसमें आदर्श नागरिक गढ़े जाते हैं। रूसेक के शब्दों में, “परिवार व्यक्तित्व को पालना है।” परिवार एक ऐसी सामाजिक संस्था है, जो मानव-जीवन के विकास में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह बालक को सीख देने वाली प्राथमिक पाठशाला है। परिवार एक ऐसा छोटा सामाजिक समूह है जो बालक में सामाजिक मूल्यों एवं रीति-रिवाजों के प्रति लगाव उत्पन्न करता है। समाज उच्छृखल बालक को नियन्त्रित और सामाजिक बनाकर अपनी भूमिका निभाता है। परिवार के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं
1. प्राणिशास्त्रीय कार्य-एक परिवार के द्वारा निम्नलिखित प्राणिशास्त्रीय कार्य सम्पादित किये जाते हैं

  • यौन-इच्छाओं की पूर्ति-परिवार विवाह संस्था के माध्यम से युवक और युवतियों को दाम्पत्य सूत्र में बाँधकर यौन-इच्छाओं की सन्तुष्टि करने का अवसर जुटाता है। बिना वैवाहिक सूत्र में बंधे समाज यौन-सम्बन्धों को मान्यता नहीं देता। इस प्रकार यौन आवश्यकताओं की पूर्ति कराने के रूप में परिवार का कार्य बहुत महत्त्वपूर्ण होता है।
  • सन्तानोत्पत्ति-सन्तान को जन्म देना परिवार का दूसरा महत्त्वपूर्ण प्राणिशास्त्रीय कार्य है। वैवाहिक जीवन में बँधकर दम्पती यौन-क्रियाओं के माध्यम से सन्तान को जन्म देते हैं। इस प्रकार उत्पन्न सन्तानों को समाज वैध मानता है।
  • प्रजाति की निरन्तरता बनाये रखना-परिवार और समाज प्रजाति की निरन्तरता को बनाये रखता है। वैवाहिक दम्पती सन्तानों को जन्म देकर अपनी प्रजाति के प्रभाव को प्रवाहित रखते हैं। इस कृत्य से प्रजाति की निरन्तरता बनी रहती है।

2. शारीरिक कार्य-परिवार के द्वारा निम्नलिखित शारीरिक कार्य सम्पन्न किये जाते हैं

  • शारीरिक सुरक्षा परिवार का एक महत्त्वपूर्ण कार्य सदस्यों को शारीरिक सुरक्षा प्रदान करना है। परिवार सदस्यों के चोटग्रस्त होने, दुर्घटना में अंग-भंग होने व गम्भीर रूप से बीमार होने पर उनकी सेवा-सुश्रुषा करता है।
  • बच्चों का पालन-पोषण शारीरिक कार्य के निमित्त बच्चों के पालन-पोषण के रूप में परिवार का कार्य बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। परिवार उसका लालन पालन कर उसे समाज का आवश्यक और उपयोगी अंग बनाता है।
  • आवास, भोजन एवं वस्त्रों की व्यवस्था–आवास, भोजन और वस्त्र मानवे की प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं। परिवार अपने सदस्यों के लिए आवास, पुष्टिकारक भोजन तथा आरामदायक स्वच्छ वस्त्रों की व्यवस्था करता है। ये तीनों वस्तुएँ मानव के जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

3. आर्थिक कार्य-परिवार के द्वारा निम्नलिखित आर्थिक कार्य सम्पन्न किये जाते हैं

  • उत्तरधिकारी का निर्धारण-परिवार की पुरानी पीढ़ी नयी पीढ़ी को सम्पत्ति और पदों का हस्तान्तरण करती है। प्रत्येक परिवार में वंशगत सम्पत्ति को आदान-प्रदान होता है। पितृसत्तात्मक परिवार में पिता की सम्पत्ति पर पुत्र का तथा मातृसत्तात्मक परिवार में सम्पत्ति पर अधिकार माता के सम्बन्ध से निर्धारित होता है।
  • उत्पादक इकाई-उत्पादक इकाई के रूप में परिवार का कार्य महत्त्वपूर्ण माना जाता है। परिवार में कुटीर उद्योग चलाये जाते हैं। परिवार के सदस्य एक साथ मिलकर वंशानुगत व्यवसाय कर परिवार के लिए आजीविका जुटाते हैं। इस प्रकार उत्पादक इकाई के रूप में परिवार का कार्य महत्त्वपूर्ण है।
  • श्रम-विभाजन-परिवार श्रम-विभाजन का सरल रूप है। परिवार में स्त्री, पुरुष, बच्चों और वृद्धों के मध्य कार्यों का स्पष्ट विभाजन कर दिया जाता है। परिवार में बालकों के पालन-पोषण से लेकर बाह्य कार्य पुरुषों को सौंपे गये हैं। बच्चे पठन पाठन का कार्य करते हैं तथा घर के कार्यों में हाथ बंटाते हैं।

4. धार्मिक कार्य-परिवार अपने सदस्यों के लिए धार्मिक कार्य भी करता है। परिवार बच्चों को धर्म, आचरण, नैतिकता और परम्पराओं की शिक्षा देकर इस कार्य का निर्वाहन करता है। परिवार में रहकर ही बच्चा पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, सदाचार और दुराचार में भेद करना सीखती है।

5. शिक्षण कार्य-परिवार को नागरिकता की प्रथम पाठशाला कहा जाता है। वह नवजात शिशु को विभिन्न सीखों द्वारा आदर्श नागरिक बनाता है। परिवार द्वारा प्रदत्त शिक्षाएँ व्यक्ति का जीवनभर मार्गदर्शन करती रहती हैं। परिवार बालक को प्रेम, त्याग, सहानुभूति, बलिदान और कर्तव्यपरायणता का पाठ पढ़ाकर उसे भावी जीवन के लिए प्रशिक्षित करता है। बच्चे के चरित्र-निर्माण में पारिवारिक शिक्षण की प्रमुख भूमिका रहती है।

6. मनोरंजनात्मक कार्य-परिवार अपने सदस्यों को स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करने का भी कार्य करता है। परिवार के सदस्य गप्पें लड़ाकर, बच्चों से खेलकर, चुटकुले सुनाकर व खेलकूद द्वारा मनोरंजन कर लेते हैं। समय-समय पर सम्पन्न होने वाले त्योहार और उत्सव भी परिवार में मनोरंजन प्रदान करते हैं। गीत, संगीत व लोकगीत आदि के द्वारा भी परिवार में भरपूर मनोरंजन किया जाता है।

7. मनोवैज्ञानिक कार्य-परिवार का एक महत्त्वपूर्ण कार्य अपने सदस्यों को मनोवैज्ञानिक सन्तुष्टि और सुरक्षा प्रदान करना है। परिवार में बच्चों को माँ की ममता, पिता का स्नेह और भाई-बहनों का प्यार मनोवैज्ञानिक सन्तोष प्रदान करता है। परिवार के मनोवैज्ञानिक कार्य बच्चे के मानसिक विकास और मस्तिष्क को विशाल बनाने में अभूतपूर्व सहयोग प्रदान करते हैं।

8. समाजीकरण का कार्य-परिवार समाजीकरण के अभिकरण के रूप में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। परिवार बच्चे का समाजीकरण करके उसे समाज के अनुकूल बनाता है। बच्चा सांस्कृतिक परम्पराओं, रूढ़ियों, रीति-रिवाजों और समाज के अनुरूप व्यवहार करने का ज्ञान परिवार से ही ग्रहण करता है।

9. मानव अनुभवों का हस्तान्तरण-परिवार में नयी पीढ़ी के सदस्य अपने पूर्वजों द्वारा मापदण्ड और अनुभवों का लाभ उठाते हैं। परिवार की प्रत्येक पीढ़ी इन अनुभवों को अगली पीढ़ी को हस्तान्तरित करती है। नयी पीढ़ी परिस्थितियों के अनुकूल पुरानी मान्यताओं और मूल्यों में परिवर्तन लाती है व नये-नये आविष्कार द्वारा उन्हें सुधारकर नयी पीढ़ी तक पहुँचाती है। परिवार सामाजिक सभ्यता और संस्कृति के विकास में अभूतपूर्व योगदान देता है।

10. सामाजिक नियन्त्रण के कार्य-सामाजिक नियन्त्रण के क्षेत्र में परिवार के कार्य अद्वितीय हैं। परिवार व्यक्ति का समाजीकरण करके सामाजिक नियन्त्रण के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह सदस्यों का चरित्र-निर्माण कर उन्हें- आदर्श नागरिक के रूप में ढाल देता है। परिवार सदस्यों को शैक्षिक, मनोरंजनात्मक व विवाह सम्बन्धी सहयोग देकर सामाजिक नियन्त्रण के क्षेत्र में बहुत सहयोग देता है। यह एकता, ,,, भाईचारा, त्याग, सहानुभूति आदि गुणों का विकास कर व्यक्ति की दानवी शक्तियों का दमन कर नियन्त्रण को बढ़ावा देता है। इस प्रकार, परिवार के अभाव में सामाजिक नियन्त्रण करना दूभर कार्य होगा।

प्रश्न 2
भारतीय समाज में संयुक्त परिवार का भविष्य क्या है? इसकी व्याख्या कीजिए। [2013]
उत्तर:

भारतीय समाज में संयुक्त परिवार का भविष्य

संयुक्त परिवार में हो रहे परिवर्तनों के सन्दर्भ में यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि संयुक्त परिवार का क्या भविष्य है? क्या वास्तव में संयुक्त परिवार टूट रहा है? और, क्या संयुक्त परिवारों का स्थान पश्चिमी देशों में पाए जाने वाले एकाकी परिवार लेते जा रहे हैं? अधिकांश विद्वानों ने संयुक्त परिवार पर किए गए अध्ययनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि यद्यपि समकालीन भारत में संयुक्त परिवार छिन्न-भिन्न होकर एकाकी परिवारों का रूप ले रहे हैं और हमारी सामाजिक संरचना में उनका कोई विशेष स्थान नहीं है, तथापि वास्तविकता यह है कि आज भी संयुक्त परिवार हमारे देश में विद्यमान हैं और इनके छिन्न-भिन्न होने के निकट भविष्य में कोई आसार नहीं हैं। कृषि व्यवसाय, हिन्दू आदर्श तथा मनोवृत्तियाँ और विचार अभी भी संयुक्त परिवारों के पक्ष में हैं।

वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए संयुक्त परिवार के भविष्य के विषय में दो विचारधाराएँ सामने आती हैं—प्रथम, संयुक्त परिवार का भविष्य उज्ज्वल है तथा द्वितीय, संयुक्त परिवार का भविष्य अन्धकारमय है। प्रथम विचारधारा के समर्थक के०एम० कपाडिया हैं। उनके मतानुसार, संयुक्त परिवार ने अभी तक जिस कष्टमय समय को पार किया है, उसका भविष्य बुरा नहीं है।” उन्होंने आगे कहा है, “हिन्दू मनोवृत्तियाँ आज भी संयुक्त परिवार के पक्ष में हैं। इसी कारण विधियों द्वारा संयुक्त परिवार का विनाश अहिन्दू समझा जाता है, क्योंकि वह हिन्दू पारिवारिक मनोवृत्तियों की अवहेलना करता है। इनके द्वारा मुम्बई में किए गए सर्वेक्षण से भी हमें यह पता चलता है।

कि बहुमत (57%) लोग आज भी संयुक्त परिवार के पक्ष में हैं। इस मत को अधिकांश विद्वान् स्वीकार करते हैं। वास्तव में, संयुक्त परिवार परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल अपने स्वरूप को बदल रहा है और इसका विघटन नहीं हो रहा है। आई०पी० देसाई भी इस विचारधारा के समर्थक हैं। उनका कहना है, “आज भी अधिकतर लोग संयुक्त पारिवारिक व्यवस्था को अच्छा समझते हैं और उसकी उपयोगिता से प्रभावित हैं।

” एम०एन० श्रीनिवास का विचार है। कि आधुनिक युग में भी संयुक्त परिवार की महत्ता बढ़ती जा रही है और संयुक्त परिवार की भावना केवल अलग रहने से समाप्त नहीं हो जाती। दूसरी विचारधारा के समर्थकों का कहना है कि संयुक्त परिवारों का विघटन हो रहा है और उसका भविष्य अन्धकारमय है। उदाहरणार्थ कोलण्डा के अनुसार, अधिकांश भारत में संयुक्त परिवारों की संख्या कम होती जा रही है तथा उसमें विघटन हो रहा है। टी०बी० बॉटोमोर ने 1951 ई० की जनगणना रिपोर्ट के आधार पर इस बात को उल्लेख किया है कि संयुक्त परिवार में काफी परिवर्तन आए हैं। संयुक्त परिवार से पृथक् घर बसाने की प्रवृत्ति निरन्तर बढ़ती जा रही है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि यद्यपि संयुक्त परिवार का तीव्रता के साथ विघटन हो रहा है तथापि भारत में इसका समूल विनाश हो जाना स्वाभाविक दिखाई नहीं देता। एकाकी परिवारों की बढ़ती संख्या के आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि आने वाले समय में भारतीय समाज में संयुक्त परिवार पूर्णतः विघटित हो जाएँगे।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
परिवार की स्थायी व अस्थायी प्रकृति से आप क्या समझते हैं ? परिवार के महत्त्व को रूसेक ने क्या कहकर समझाया है ?
उत्तर:
परिवार एक समिति भी है और एक संस्था भी। पति-पत्नी और बच्चे मिलकर परिवाररूपी समिति का निर्माण करते हैं। समिति के रूप में परिवार अस्थायी है, क्योंकि तलाक, मृत्युं, पृथक्करण आदि के कारण परिवार की सदस्यता त्यागी जा सकती है, लेकिन एक संस्था के रूप में परिवार अमर है। परिवार के नियम और कार्य-प्रणाली मिलकर परिवाररूपी संस्था का निर्माण करते हैं। परिवार के सदस्यों के मरने या पृथक् हो जाने पर भी परिवार के नियम (अर्थात् संस्था) तो बने ही रहते हैं। इस रूप में परिवार अमर है, स्थायी है। ‘ परिवार के महत्त्व को प्राचीन काल से ही स्वीकार किया गया है। रूसेक कहते हैं, “परिवार व्यक्तित्व का पालना है।”

प्रश्न 2
परिवार के प्राणिशास्त्रीय कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
परिवार के प्राणिशास्त्रीय कार्य (Biological Functions) निम्नलिखित हैं–
1. यौन-इच्छाओं की पूर्ति-मानव की आधारभूत आवश्यकताओं में यौन-सन्तुष्टि भी महत्त्वपूर्ण है। परिवार ही वह समूह है जहाँ समाज द्वारा स्वीकृत विधि से व्यक्ति अपनी यौन-इच्छाओं की पूर्ति करता है। समाज में ऐसे स्त्री-पुरुषों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता जो परिवार के बाहर अपनी यौन-इच्छाओं की पूर्ति करते हैं।
2. सन्तानोत्पत्ति-मानव-समाज की निरन्तरता बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि मृत्यु को प्राप्त होने वाले सदस्यों का स्थान नवीन सदस्यों द्वारा भरा जाए। परिवार ही समाज के इस महत्त्वपूर्ण कार्य को करता है। परिवार के बाहर भी सन्तानोत्पत्ति हो सकती है, किन्तु कोई भी समाज अवैध सन्तानों को स्वीकार नहीं करता।
3. प्रजाति की निरन्तरता-परिवार ने ही मानव-जाति को अमर बनाया है। यही मृत्यु और अमरत्व का संगम-स्थल है। नयी पीढ़ी को जन्म देकर परिवार ने मानव की स्थिरता एवं निरन्तरता को बनाये रखा है। गुडे लिखते हैं, “यदि परिवार मानव की प्राणिशास्त्रीय आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त व्यवस्था न करे तो समाज समाप्त हो जाएगा।

प्रश्न 3
परिवार नियोजन के प्रसार के लिए दो उपायों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
परिवार नियोजन का अर्थ है। परिवार को उपलब्ध साधनों के अनुसार नियोजित करना। परिवार नियोजन का अर्थ मात्र जनसंख्या नियन्त्रण ही नहीं है, अपितु भारत में लोगों की आर्थिक दशा तथा देश के संसाधनों के परिप्रेक्ष्य में परिवार नियोजन का मुख्य उद्देश्य जनसंख्या नियन्त्रण से ही लगाया जाना उचित होगा।

देश में फैली निर्धनता, बेकारी, भुखमरी, मूल्यवृद्धि जैसी समस्याओं को दूर करने के लिए परिवार नियोजन को सर्वोपरि महत्ता देना नितान्त आवश्यक है। इसके दो उपाय निम्नवत् हैं
1. अज्ञानता व अन्धविश्वासों को दूर करना-भारत की अधिकांश जनसंख्या अशिक्षित (निरक्षर) है, जिसके कारण लोग अनेक अन्धविश्वासों एवं कुसंस्कारों से घिरे हुए हैं। वे समझते हैं कि बच्चे ईश्वरीय देन हैं। इस अज्ञानता के कारण परिवार नियोजन कार्यक्रम वांछित सफलता प्राप्त नहीं कर पा रहा है। हमें लोगों को शिक्षित करना होगा जिससे कि वे इस कार्यक्रम की महत्ता एवं लाभों को समझ सकें।

2. परिवार नियोजन अपनाने के लिए प्रोत्साहन देना-भारत के अधिकांश लोग निर्धन हैं तथा परिवार नियोजन की उनको अधिक आवश्यकता है। हमें उन्हें यह कार्यक्रम अपनाने के लिए उनके बीच जाकर इस कार्यक्रम की महत्ता बतानी होगी तथा उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित करना होगा। उनको प्रोत्साहित करने के लिए उनके कुछ लाभों की घोषणा भी करनी चाहिए। जैसे–नौकरी में प्राथमिकता, नकद पुरस्कार या उनका सार्वजनिक
अभिनन्दन आदि।

प्रश्न 4
संयुक्त परिवार की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2016]
या
संयुक्त परिवार की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2013, 14, 16]
उत्तर:

‘संयुक्त परिवार की मुख्य विशेषताएँ

संयुक्त परिवार की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. अधिक पीढ़ियों के लोग-संयुक्त परिवार में एकाकी परिवार की अपेक्षा सामान्यतः तीन-चार पीढ़ियों के लोग निवास करते हैं; जैसे-दादा-दादी, माता-पिता, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, भाई-बहनें भाइयों की पत्नियाँ तथा उनके बच्चे।

2. संयुक्त निवास-
संयुक्त परिवार की दूसरी विशेषता यह है कि इसके सभी सदस्य एक ही मकान में निवास करते हैं। इरावती कर्वे ने “एक ही छत के नीचे रहना” संयुक्त परिवार का मुख्य लक्षण बताया है। आई०पी० देसाई इस विशेषता को महत्व नहीं देते। वे इस पर बल देते हैं कि अगर सदस्य किसी कारणवश एक ही छत के नीचे नहीं रहते, परन्तु पारस्परिक अधिकारों एवं कर्तव्यों का पालन करते हैं तो उसे संयुक्त परिवार ही कहा जाता है। अधिकांश विद्वान संयुक्त परिवार की मुख्य विशेषता ही संयुक्त निवासस्थान बताते हैं। जब संयुक्त परिवार के सदस्यों की संख्या अधिक हो जाती है तो कभी-कभी व्यक्तिगत परिवारों के लिए अलग अलग घर ले लिये जाते हैं, परन्तु भोजन इत्यादि की व्यवस्था ‘बड़े घर में ही होती है।

3. संयुक्त भोजन-
संयुक्त परिवार का तीसरा लक्षण सदस्यों का सम्मिलित रूप से भोजन करना है, अर्थात् सभी सदस्य एक ही रसोई या चूल्हे का बना खाना खाते हैं। कर्ता की पत्नी की देखरेख में परिवार की सभी महिलाएँ (लड़कियाँ तथा बहुएँ) रसोई का कार्य करती हैं। परम्परागत रूप से संयुक्त परिवारों में पहले पुरुष भोजन करते हैं तथा बाद में महिलाएँ।

4. सामान्य सम्पत्ति-
परम्परागत रूप से संयुक्त परिवार का लक्षण सामान्य सम्पत्ति रहा है। संयुक्त परिवार उत्पादन एवं उपभोग दोनों का ही केन्द्र है; अतः न केवल सम्पत्ति पर सबका समान अधिकार होता है, अपितु एक सामान्य कोष में सभी सदस्य अपनी आय जमा करते हैं और इसी कोष से परिवार का खर्च चलता है। सभी सदस्यों पर समान रूप से बिना किसी भेद-भाव के खर्च होता है।

प्रश्न 5
पारिवारिक विघटन के कोई चार कारण बताइए। [2007, 11]
या
संयुक्त परिवार में आधुनिक परिवर्तनों का विश्लेषण कीजिए। [2010]
या
भारत में पारिवारिक विघटन के प्रमुख कारणों का वर्णन कीजिए। [2011, 15, 16]
या
परिवार की संरचना एवं प्रकार्य में होने वाले परिवर्तन के किन्हीं दो कारणों का उल्लेख कीजिए। [2011]
उत्तर:
पारिवारिक विघटन के चार मुख्य कारण निम्नलिखित हैं—
1. औद्योगीकरण एवं नगरीकरण-औद्योगीकरण के कारण लोग रोजगार की तलाश में औद्योगिक नगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। साथ-साथ नगरीय जीवन की चमक-दमक तथा आरामदायक जिन्दगी भी मनुष्यों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है। ये दोनों ही पारिवारिक विघटन के मुख्य कारक हैं।

2. आर्थिक आत्मनिर्भरता के प्रति झुकाव-आज का नवयुवक वर्ग संयुक्त परिवार की आर्थिक व्यवस्था सहन नहीं कर पाता है। उसके विचारों की आर्थिक आत्मनिर्भरता तथा आर्थिक स्वतन्त्रता ने प्रमुख स्थान धारण कर लिया है। इस कारण भी पारिवारिक विघटन को बल मिल रही है।

3. द्वेष एवं कलह से मुक्ति-आज संयुक्त परिवारों का वातावरण बड़ा बोझिल हो गया है। सदस्यों के सम्बन्ध औपचारिक होते जा रहे हैं तथा आत्मीयता कम होती जा रही है। इस कारण भी पारिवारिक विघटन बढ़ रहा है।

4. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के प्रति आकर्षण-अधिक सदस्य होने के कारण संयुक्त परिवार में नवविवाहित दम्पती को भी कई बार स्वतन्त्र रूप से मिलना कठिन होता है। फिर यहाँ कर्ता का स्थान इतना अधिक प्रमुख होता है कि प्रत्येक सदस्य अपने को पराधीन अनुभव करता है। तथा स्वतन्त्रता के लिए लालायित रहता है। इस कारण भी पारिवारिक विघटन हो रहा है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
‘परिवार के बदलते स्वरूप में स्त्रियों की स्वतन्त्रता में वृद्धि’ से आप क्या समझते हैं? [2010]
उत्तर:
वर्तमान में परिवार की सम्पत्ति में स्त्रियों के साम्पत्तिक अधिकार बढ़े हैं। अब उन्हें नौकरी या व्यापार करने की भी स्वतन्त्रता है। इससे स्त्रियों की आर्थिक स्वतन्त्रता बढ़ी है। अब वे परिवार पर भार या पुरुषों की कृपा पर आश्रित नहीं हैं। इससे परिवार में स्त्रियों का महत्त्व बढ़ा है। स्त्री-शिक्षा के प्रसार ने सामाजिक चेतना लाने और स्त्रियों को अपने अधिकारों के प्रति सजग बनाने में योगदान दिया है। अब वे सामाजिक जीवन से सम्बन्धित विभिन्न गतिविधियों में भाग लेती हैं। इससे पारिवारिक क्षेत्र में कहीं-कहीं भूमिका-संघर्ष की स्थिति भी पायी जाती है।

प्रश्न 2
परिवार के बदलते स्वरूप में पिता के अधिकारों में क्या कमी आयी है तथा अन्य । सदस्यों का महत्त्व कैसे बढा है ? [2010]
उत्तर:
पिता के अधिकारों में कमी तथा अन्य सदस्यों के महत्त्व का बढ़ना–अब परिवार अधिनायकवादी आदर्शों से प्रजातान्त्रिक आदर्शों की ओर बढ़ रहे हैं। अब पिता परिवार में निरंकुश शासक के रूप में नहीं रहा है। परिवार से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण निर्णय अब केवल पिता के द्वारा नहीं लिये जाते। अब ऐसे निर्णयों में पत्नी और बच्चों का महत्त्व भी बढ़ता जा रहा है। अब परिवार में स्त्री को भार-स्वरूप नहीं समझा जाता। अब बच्चों के प्रति भी माता-पिता के मनोभावों में परिवर्तन आया है। वे समझने लगे हैं कि बच्चों को मार-पीटकर या उनकी इच्छाओं का दमन करके उन्हें सही रास्ते पर नहीं लाया जा सकता। स्पष्ट है कि परिवार में स्त्री-सदस्यों एवं बच्चों का महत्त्व बढ़ा है।

प्रश्न 3
परिवार के शिक्षात्मक कार्य क्या हैं ?
उत्तर:
परिवार ही बच्चे की प्रथम पाठशाला है, जहाँ उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है। परिवार के द्वारा दी गयी शिक्षाएँ जीवन-पर्यन्त उसका मार्गदर्शन करती रहती हैं। महापुरुषों की जीवनियाँ इस बात की साक्षी हैं कि उनके व्यक्तित्व-निर्माण में परिवार की भूमिका प्रमुख रही है। आदिम समय में जब आज की तरहे शिक्षण संस्थाएँ नहीं थीं तो परिवार ही शिक्षा की मुख्य संस्था थी। परिवार में ही बालक दया, स्नेह, प्रेम, सहानुभूति, त्याग, बलिदान, आज्ञापालन एवं कर्तव्यपरायणता का पाठ सीखता है। प्रश्न 4 परिवार के मनोवैज्ञानिक कार्य क्या हैं ? उत्तर: मनोवैज्ञानिक कार्य-परिवार अपने सदस्यों को मानसिक सुरक्षा और सन्तोष प्रदान करता है। परिवार के सदस्यों में परस्पर प्रेम, सहानुभूति और सद्भाव पाया जाता है। माता-पिता में से किसी की मृत्यु, तलाक, पृथक्करण, घर से अनुपस्थिति आदि के कारण बच्चों को स्नेह एवं मानसिक सुरक्षा नहीं मिल पाने पर उनके व्यक्तित्व का समुचित विकास नहीं हो पाता है।

प्रश्न 5
परिवार के ‘समाजीकरण का कार्य से क्या तात्पर्य है ?
या
व्यक्ति के समाजीकरण में परिवार की क्या भूमिका होती है ?
उत्तर:
समाजीकरण का कार्य-परिवार में ही बच्चे का समाजीकरण प्रारम्भ होता है। समाजीकरण की प्रक्रिया से ही मानव जैविक प्राणी से सामाजिक प्राणी बनता है। कॉम्टे (Comte) नामक विख्यात विद्वान् का यह कथन है कि “परिवार सामाजिक जीवन की अमर पाठशाला है।” वास्तव में यह कथन सत्य है, क्योंकि वहीं रहकर उसे परिवार और समाज के रीति-रिवाजों, प्रथाओं, रूढ़ियों और संस्कृति का ज्ञान प्राप्त होता है। धीरे-धीरे बच्चा समाज की प्रकार्यात्मक इकाई बन जाता है। परिवार ही समाज की संस्कृति को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित करता है। वास्तव में, परिवार एक ऐसी संस्था है जिसका समाज में अद्वितीय स्थान है। परिवार में ही ज्ञान का संचय, संरक्षण एवं वृद्धि होती है। परिवार ही शिशु की प्रथम पाठशाला है।

प्रश्न 6
परिवार की दो विशेषताएँ लिखिए। [2015]
उत्तर:
परिवार अपनी जिन विशेषताओं के कारण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व प्रभावशाली माना जाता है, वे निम्न हैं
1. छोटा व सीमित आकार-परिवार में जन्म लेने वाले व्यक्ति या विवाह सम्बन्धों में बँधे व्यक्ति या नातेदारी सम्बन्धों में आने वाले व्यक्ति ही परिवार के सदस्य माने जाते हैं। यही “कारण है कि परिवार की एक विशेषता उसका छोटा एवं सीमित आकार है।
2. स्थायी व अस्थायी प्रकृति-चूँकि परिवार का निर्माण आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जाता है; अत: इसकी प्रकृति समिति की तरह अस्थायी होती है लेकिन परिवार का निर्माण करते हुए कुछ निश्चित नियमों व व्यवहार प्रणालियों का ध्यान रखा जाता है, ‘जिनकी प्रकृति स्थायी होती है; अत: यह एक संस्था भी है।

प्रश्न 7
परिवार के चार कार्य लिखिए। [2016]
उत्तर:
परिवार के चार कार्य निम्नलिखित हैं

  1. यौन इच्छाओं की पूर्ति-परिवार का पहला प्रमुख कार्य विवाह संख्या के माध्यम से युवक-युवतियों को दाम्पत्य सूत्र में बाँधकर यौन-इच्छाओं की सन्तुष्टि करने का अवसर जुटाना है।
  2. सन्तानोपत्ति-सन्तान को जन्म देना परिवार का दूसरा प्रमुख कार्य है।
  3. बच्चों का पालन-पोषण-परिवार बच्चों का पालनपोषण कर उन्हें समाज का आवश्यक और उपयोगी अंग बनाता है।
  4. शिक्षण कार्य-परिवार को नागरिकता की प्रथम पाठशाला कहा जाता है। वह नवजात शिशु को विभिन्न सीखों द्वारा आदर्श नागरिक बनाता है।

प्रश्न 8
पारिवारिक विघटन से आप क्या समझते हैं? या पारिवारिक विघटन पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए। [2014]
उत्तर:
जब पति-पत्नी और परिवार के अन्य लोगों के सम्बन्धों में तनावे चरम सीमा पर पहुँच जाता है तो पारिवारिक विघटन आरम्भ हो जाता है। पारिवारिक विघटन में तलाक, अनुशासनहीनता, गृहकलह, पृथक्करण आदि समस्याओं का समावेश होता है। ये समस्याएँ परिवार के स्वरूप एवं गठन को ही बदल देती हैं। इसी स्थिति को पारिवारिक विघटन कहते हैं।

प्रश्न 9
परिवारों में वंशनाम की क्या व्यवस्था होती है ?
उत्तर:
सभी परिवारों में बच्चों का नामकरण करने का कोई-न-कोई आधार होता है। इसे उपनाम या वंशनाम कहते हैं। पितृवंशीय परिवारों में यह नामकरण पिता के वंश के आधार पर तथा मातृवंशीय परिवारों में माता के वंश के आधार पर होता है।

निश्चित उत्तररीय प्रश्न

प्रश्न 1
मैकाइवर एवं पेज ने परिवार की क्या परिभाषा दी है?
उत्तर:
मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, “परिवार पर्याप्त निश्चित यौन-सम्बन्धों द्वारा परिभाषित एक ऐसा समूह है जो बच्चों के जनन एवं लालन-पालन की व्यवस्था करता है।”

प्रश्न 2
परिवार को मानव स्वभाव की पोषिका किसने कहा है ?
उत्तर:
चार्ल्स कूले ने परिवार को ‘मानव स्वभाव की पोषिका’ कहा है।

प्रश्न 3
परिवार व्यक्तित्व का पालना है।’ यह कथन किसका है ? [2013, 15, 16]
उत्तर:
यह कथन रूसेक नामक विद्वान् का है।

प्रश्न 4
संयुक्त परिवार से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
जिस परिवार में कई पीढ़ियों के सदस्य सामान्य भोजन, आवास और सामान्य कोष से सम्बन्धित रहते हैं, उसे संयुक्त परिवार कहते हैं।

प्रश्न 5
“परिवार सामाजिक नियन्त्रण का साधन है।” क्या यह सत्य है ?
उत्तर:
नहीं, क्योंकि परिवार सामाजिक नियन्त्रण का अभिकरण अथवा माध्यम है।

प्रश्न 6
पितृसत्तात्मक परिवार किसे कहते हैं ?
उत्तर:
ऐसा परिवार जिसमें सत्ता किसी पुरुष सदस्य में निहित होती है, जिसे परिवार का मुखिया या कर्ता कहा जाता है, उसे पितृसत्तात्मक परिवार कहते हैं।

प्रश्न 7
मातृसत्तात्मक परिवार का कर्ता कौन होता है ? [2009]
उत्तर:
मातृसत्तात्मक परिवार का कर्ता माता या बुजुर्ग महिला होती है।

प्रश्न 8
बहुपति-विवाही परिवार किसे कहते हैं ?
उत्तर:
जिस परिवार में एक स्त्री अनेक पुरुषों की पत्नी होती है, उसे बहुपति-विवाही परिवार कहते हैं।

प्रश्न 9
ऐसा परिवार जिसके सदस्य केवल पति, पत्नी तथा उसके अविवाहित बच्चे होते हैं, उसे ……….. परिवार कहते हैं। [2007]
उत्तर:
एकाकी।

प्रश्न 10
परिवार के सहयोगी आधार में कमी आने का मुख्य कारण क्या है ?
उत्तर:
परिवार में बढ़ती हुई व्यक्तिवादिता, परिवार के सहयोगी आधार में कमी आने का मुख्य कारण है।

प्रश्न 11
जब विवाह के पश्चात पति, पत्नी के साथ उसके माता-पिता के निवासस्थान पर रहने लगता है, तो ऐसे परिवार को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
ऐसे परिवार को मातृस्थानीय परिवार कहते हैं।

प्रश्न 12
परिवार को शिशु की प्रथम पाठशाला क्यों कहते हैं ?
उत्तर:
क्योंकि सर्वप्रथम बच्चे का शिक्षण परिवार में होता है, इसीलिए परिवार को शिशु की प्रथम पाठशाला कहते हैं।

प्रश्न 13
नयी पीढी के आ जाने पर भी परिवार के सदस्यों की संख्या निश्चित सीमा तक ही क्यों बनी रहती है ?
उत्तर:
पुरानी पीढ़ी वृद्ध होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाती है; अतः नयी पीढ़ी के आने पर भी सदस्यों की संख्या एक निश्चित सीमा तक बनी रहती है।

प्रश्न 14
आधुनिक परिवार तथा संयुक्त परिवार कैसे भिन्न हैं?
उत्तर:
आधुनिक परिवार का आकार छोटा होता जा रहा है, जबकि संयुक्त परिवार का आकार, अर्थात् सदस्य-संख्या, बड़ा होता है।

प्रश्न 15
परिवार एक समिति है या समुदाय? [2016]
उत्तर:
परिवार एक समिति है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
परिवार की विशेषता है [2016]
(क) सार्वभौमिकता
(ख) अकेलापन
(ग) भावात्मक सम्बन्ध
(घ) संघर्ष

प्रश्न 2.
मातृसत्तात्मक परिवार होता है, जिसमें
(क) विवाह के बाद पत्नी पति के घर जाकर रहती है।
(ख) एक स्त्री कई पतियों की पत्नी हो सकती है।
(ग) पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की स्थिति ऊँची होती है।
(घ) माता की पूजा की जाती है।

प्रश्न 3.
जिस परिवार में पति-पत्नी और उनके अविवाहित बच्चों के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति नहीं रहता, उसे कहते हैं [2007]
(क) संयुक्त परिवार
(ख) केन्द्रीय परिवार या नाभिक परिवार
(ग) मातृसत्तात्मक परिवार
(घ) बहुपति-विवाही परिवार

प्रश्न 4.
शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार, परिवार का प्रारम्भिक स्वरूप था
(क) मातृसत्तात्मक
(ख) संयुक्त
(ग) पितृसत्तात्मक
(घ) मातृवंशीय

प्रश्न 5.
ऐसे परिवार जिनमें सत्ता किसी पुरुष सदस्य में निहित होती है, जिसे परिवार का मुखिया या कर्ता कहा जाता है, को कहते हैं
(क) पितृवंशीय परिवार
(ख) पितृसत्तात्मक परिवार
(ग) पितृस्थानीय परिवार
(घ) संयुक्त परिवार

प्रश्न 6.
किस नियमानुसार परिवार की सम्पत्ति में परिवार के प्रत्येक सदस्य का अधिकार जन्मजात होता है?
(क) दायभाग
(ख) सपिण्ड
(ग) मिताक्षरा
(घ) प्रवर

प्रश्न 7.
दायभाग की प्रथा भारत के किस राज्य में प्रचलित है ?
(क) हरियाणा में
(ख) पंजाब में
(ग) पश्चिम बंगाल में
(घ) बिहार में

प्रश्न 8.
परिवार में परिवर्तन हैं [2011]
(क) संरचनात्मक
(ख) प्रकार्यात्मक
(ग) संरचनात्मक एवं प्रकार्यात्मक
(घ) इनमें से कोई नहीं

उत्तर:
1. (ग) भावात्मक सम्बन्ध, 2. (ग) पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की स्थिति ऊँची होती है, 3. (ख) केन्द्रीय परिवार या नाभिक परिवार,
4. (ग) पितृसत्तात्मक, 5. (ख) पितृसत्तात्मक परिवार, 6. (ग) मिताक्षरा, 7. (ग) पश्चिम बंगाल में, 8. (घ) इनमें से कोई नहीं।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 5 Family (परिवार) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Sociology UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 5 Family (परिवार), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 22 Industries

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 22 Industries (उद्योग धन्धे) are part of UP Board Solutions for Class 12 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 22 Industries (उद्योग धन्धे).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography
Chapter Chapter 22
Chapter Name Industries (उद्योग धन्धे)
Number of Questions Solved 49
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 22 Industries (उद्योग धन्धे)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारत के औद्योगिक विकास पर एक निबन्ध लिखिए। [2010]
उत्तर

पंचवर्षीय योजनाओं में औद्योगिक विकास
Industrial Development in Five Year Plans

स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार ने देश के औद्योगीकरण के लिए ठोस कदम उठाये। 6 अप्रैल, 1948 ई० को औद्योगिक नीति प्रस्तावित की गयी जिसको उद्देश्य “देशवासियों को शिक्षा एवं सार्वजनिक सुविधाएँ विकसित करके देश के प्राकृतिक संसाधनों का विकास एवं देशवासियों का जीवन-स्तर ऊँचा उठाना था।
पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान उद्योगों का विकास निम्नलिखित प्रकार से हुआ –
प्रथम एवं द्वितीय पंचवर्षीय योजनाओं में उद्योग – प्रथम योजना कृषि-प्रधान थी। द्वितीय योजना में देश में समाजवादी अर्थव्यवस्था विकसित करने के लिए उद्योगों पर विशेष बल दिया गया। लोहा-इस्पात, भारी रसायन, उर्वरक, इंजीनियरिंग तथा मशीन निर्माण उद्योगों की स्थापना पर विशेष ध्यान दिया गया। परिणामतः वर्ष 1960-61 में औद्योगिक सूचकांक (वर्ष 1950-51 में = 100) बढ़कर 194 हो गया। अनेक औद्योगिक नगर स्थापित हुए।

तृतीय एवं वार्षिक योजनाओं में उद्योग – तृतीय योजना में कृषि तथा उद्योग के मध्य सन्तुलन लाने का प्रयास किया गया; अतः उद्योगों के क्षेत्र में धीमी प्रगति हुई जो वार्षिक योजनाओं के दौरान स्थिरप्रायः हो गयी। धीमी औद्योगिक प्रगति के अनेक कारण थे-भारत-पाकिस्तान युद्ध, वर्ष 1965-67′ के अकाल, विदेशी सहायता बन्द होना आदि। केवल ऐलुमिनियम, मोटर-वाहन, विद्युत ट्रांसफार्मर, सूती वस्त्र, मशीन उपकरण, चीनी, जूट तथा पेट्रोलियम उत्पादों के उत्पादन लक्ष्य ही पूरे किये जा सके। इस्पात, उर्वरक तथा औद्योगिक रसायनों के उत्पादन में बहुत गिरावट आयी।

चौथी योजना में उद्योग – इस अवधि में औद्योगिक उत्पादन तथा पूँजी निवेश दोनों ही कम रहे। लौह धातु, पेट्रोलियम तथा पेट्रो-रसायन उद्योगों में तो पूँजी निवेश सन्तोषजनक रहा, किन्तु इस्पात, अलौह धातुओं, उर्वरक, चीनी तथा कोयले में कमी रही। औद्योगिक इकाइयों में क्षमता के अनुरूप उत्पादन नहीं हो सका, किन्तु मिश्र धातुओं, ऐलुमिनियम, टायर, पेट्रोल शोधन, इलेक्ट्रॉनिक्स; मशीनी उपकरण, ट्रैक्टर, विद्युत उपकरण सम्बन्धी उद्योगों की प्रगति सन्तोषजनक रही।

पाँचवीं योजना में उद्योग – पाँचवीं योजना में आधारभूत उपभोक्ता तथा निर्यात सम्बन्धी उद्योगों को विशेष महत्त्व दिया गया। खाद्यान्नों, उर्वरकों तथा पेट्रोलियम के मूल्यों में तीव्र वृद्धि के कारण उद्योगों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा। औद्योगिक योजनाओं में तदनुसार संशोधन करना पड़ा। सार्वजनिक क्षेत्र में । 39,303 करोड़ में से हैं 10,201 करोड़ (लगभग 26%) खनिज व उद्योगों के लिए प्रावधान किया गया।

छठी योजना में उद्योग – इस योजना में सार्वजनिक क्षेत्र के कुल १ 97,500 करोड़ में से है 20,407 करोड़ (लगभग 21%) का प्रावधान बड़े उद्योगों कोयला, पेट्रोलियम तथा खनिजों के लिए किया गया। छठी योजना में उत्पादक इकाइयों का पूर्ण क्षमता उपभोग, उपभोक्ता, पूँजीगत व अन्य पदार्थों के उत्पादन की वृद्धि का लक्ष्य रखा गया। ऐलुमिनियम, जिंक, सीसा, थर्मोप्लास्टिक, पेट्रो-रसायन, विद्युत उपकरण, मोटर वाहन, उपभोक्ता पदार्थों के उत्पादन लक्ष्य प्राप्त हुए किन्तु कोयला, इस्पात, अलौह धातुओं, सीमेण्ट, टेक्सटाइल, जूट, व्यापारिक वाहन, रेल वैगन, चीनी आदि का उत्पादन लक्ष्य से कम रहा। छठी योजना की निम्नलिखित प्राविधिक उपलब्धियाँ उल्लेखनीय हैं-500 मेगावाट शक्ति उत्पादन की इकाई का आरम्भ, 500 मेगावाट टब-जेनरेटर तथा बॉयलर का उत्पादन, 800 cc वाली (कम पेट्रोल खपत वाली) मारुति कार, 1,350 टने प्रतिदिन क्षमता का उर्वरक प्लाण्ट आदि। इस्पात, इलेक्ट्रॉनिक आदि के क्षेत्र में भी विशेष उपलब्धियाँ प्राप्त की गयीं।

सातवीं योजना में उद्योग – इस अवधि में सार्वजनिक क्षेत्र के कुल १ 1,80,000 करोड़ में से 30% ऊर्जा पर, 11% बड़े व मध्यम उद्योगों पर तथा 1.5% छोटे व घरेलू उद्योगों पर व्यय करने का प्रावधान किया गया। इस योजना में समेकित विकास द्वारा उपभोक्ता उद्योगों, प्राविधिक सुधार, इलेक्ट्रॉनिक उद्योगों के विकास द्वारा निर्यात में वृद्धि तथा रोजगार के पर्याप्त अवसर विकसित करने के उद्देश्य निर्धारित किये गये। सातवीं योजना में औद्योगिक क्षेत्र में 8.7% वार्षिक वृद्धि की दर निश्चित की गयी।
आठवीं योजना में उद्योग – इस अवधि में सभी क्षेत्र के उद्योगों में सुधार हुआ। विनिर्माण के 17 क्षेत्रों में उच्च वृद्धि दर्ज की गयी। 5.7% की वार्षिक वृद्धि दर निर्धारित की गयी।

नौवीं योजना में उद्योग – इस योजना में उद्योगों तथा खनिजों के लिए है 69,972 करोड़ का प्रावधान किया गया जो कुल आयोजना व्यय का 8% से अधिक था। उद्योगों में उदारीकरण तथा वैश्वीकरण को बढ़ावा दिया गया तथा विदेशी पूँजी विनिवेश को उदार बनाया गया। कम्प्यूटर, सॉफ्टवेयर, इलेक्ट्रॉनिक, संचार, परिवहन उपस्कर आदि उद्योगों को अधिक प्रोत्साहन दिया गया। मोटर वाहन उद्योग में विशेष रूप से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत में उद्योग स्थापित करने का अवसर दिया गया।

दसवीं योजना में उद्योग – इस योजना में ग्रामीण तथा लघु उद्योगों में नीतिगत सुधार तथा लघु उद्योग को चरणबद्ध रूप में आरक्षण देना, बिजली-कोयला तथा संचार विधेयकों को लागू कराना, सूचना प्रौद्योगिकी का विकास आदि प्राथमिकताएँ निर्धारित की गयी हैं।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में उद्योग – इस योजना में निर्माण के सिलसिले में योजना आयोग ने संवृद्धि में सभी राज्यों तथा समाज के सभी वर्गों को उचित भागीदारी देने की बात कही है तथा Inclusive growth की अवधारणा सामने रखी है। इसी सन्दर्भ में सबकी पहुँच बुनियादी सेवाओं तक बनाने पर जोर दिया गया है। सबको शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छ पेयजल आदि प्राप्त होना चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्य चुनौतियाँ भी निर्धारित की गयी हैं; जो निम्नलिखित हैं –

  • कृषि क्षेत्र के विकास में गत्यात्मकता लाना
  • विनिर्माण के क्षेत्र को प्रतिस्पर्धात्मक बनाना
  • मानव संसाधनों को विकसित करना
  • पर्यावरण की सुरक्षा आदि।

बारहवीं पंचवर्षीय योजना में उद्योग – भारत की 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के निर्माण की दिशा का मार्ग अक्टूबर, 2011 में उस समय प्रशस्त हो गया जब इस योजना के दृष्टि पत्र (दृष्टिकोण पत्र/दिशा पत्र/Approach Paper ) को राष्ट्रीय विकास परिषद् (NDC) ने स्वीकृति प्रदान कर दी। 1 अप्रैल, 2012 से प्रारम्भ हो चुकी इस पंचवर्षीय योजना के दृष्टि पत्र को योजना आयोग की 20 अगस्त, 2011 की बैठक में स्वीकार कर लिया गया था तथा केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् ने इसका अनुमोदन 15 सितम्बर, 2011 की अपनी बैठक में किया था। तत्कालीन प्रधानमन्त्री डॉ० मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में राष्ट्रीय विकास परिषद् की नई दिल्ली में 22 अक्टूबर, 2011 को सम्पन्न हुई इस 56वीं बैठक में दिशा पत्र को कुछेक शर्तों के साथ स्वीकार किया गया। राज्यों द्वारा सुझाए गए कुछ संशोधनों का समायोजन योजना दस्तावेज तैयार करते समय योजना आयोग द्वारा किया जायेगा। 12वीं पंचवर्षीय योजना में वार्षिक विकास दर का लक्ष्य 9 प्रतिशत है।

इस लक्ष्य को प्राप्त करने में राज्यों के सहयोग की अपेक्षा तत्कालीन प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने की है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कृषि, उद्योग व सेवाओं के क्षेत्र में क्रमश: 4.0 प्रतिशत, 9.6 प्रतिशत व 10.0 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि प्राप्त करने के लक्ष्य तय किये गये हैं। इनके लिए निवेश दर सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की 38.7 प्रतिशत प्राप्त करनी होगी। बचत की दर जीडीपी के 36.2 प्रतिशत प्राप्त करने का लक्ष्य दृष्टि पत्र में निर्धारित किया गया है। समाप्त हुई 11वीं पंचवर्षीय योजना में निवेश की दर 36.4 प्रतिशत तथा बचत की दर 34.0 प्रतिशत रहने का अनुमान था। 11वीं पंचवर्षीय योजना में वार्षिक विकास दर 8.2 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया था। 11वीं पंचवर्षीय योजना में थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index) में औसत वार्षिक वृद्धि लगभग 6.0 प्रतिशत अनुमानित था, जो 12वीं पंचवर्षीय योजना में 4.5-5.0 प्रतिशत तक सीमित रखने का लक्ष्य है। योजनावधि में केन्द्र सरकार का औसत वार्षिक राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.25 प्रतिशत तक सीमित रखने का लक्ष्य इस योजना के दृष्टि पत्र में निर्धारित किया गया है।

प्रश्न 2
उद्योग के मुख्य केन्द्रों का उल्लेख करते हुए भारत में लोहा तथा इस्पात उद्योग के स्थानीयकरण के कारकों की विवेचना कीजिए।
या
भारत के लौह-इस्पात उद्योग का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए –
(क) स्थानीयकरण के कारक, (ख) वितरण। [2013]
या
भारत में लोहा-इस्पात उद्योग का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए –
(क) उद्योग का महत्त्व, (ख) स्थानीयकरण के कारण, (ग) उद्योग के प्रमुख क्षेत्र। [2008, 14, 15]
या
भारत में लौह तथा इस्पात उद्योग के स्थानीयकरण के कारकों की विवेचना कीजिए तथा दो प्रमुख उत्पादन केन्द्रों का वर्णन कीजिए। [2008]
या
भारत में लौह-अयस्क के उत्पादन एवं वितरण का वर्णन कीजिए। [2014, 15, 16]
उत्तर

भारत में लोहा-इस्पात उद्योग का विकास
Development of Iron-steel Industry in India

लोहा-इस्पात उद्योग वर्तमान युग में एक आधारभूत उद्योग है जिसके उत्पाद अन्य सभी उद्योगों एवं वस्तुओं के निर्माण में आवश्यक होते हैं। इसी उद्योग से देश के औद्योगिक विकास की नींव पड़ती है।
भारत में लोहा गलाने, ढालने तथा इस्पात तैयार करने का कार्य अति प्राचीन काल से किया जा रहा है, परन्तु पश्चिमी देशों में आधुनिक ढंग के उद्योग स्थापित हो जाने से भारतीय लोहे के कुटीर उद्योग को बड़ा धक्का लगा तथा भारत निर्यातक से आयातक देश बन गया। सर्वप्रथम 1874 ई० में पश्चिम बंगाल में झरिया कोयला क्षेत्र में कुल्टी नामक स्थान पर बाराकर लौह कम्पनी की स्थापना की गयी। 1889 ई० में इस कारखाने पर बंगाल लोहा-इस्पात कम्पनी का अधिकार हो गया था। इसके बाद 1907 ई० में झारखण्ड के सांकची नामक स्थान पर प्रसिद्ध व्यवसायी श्री जमशेद जी टाटा द्वारा टाटा आयरन एवं इस्पात कम्पनी (TISCO) की स्थापना की गयी।

इसके पश्चात् 1918 ई० में एक और कारखाना पश्चिम बंगाल में भारतीय लोहा-इस्पात कम्पनी के नाम से आसनसोल के निकट हीरापुर में स्थापित किया गया। 1937 ई० में बर्नपुर में स्टील कॉरपोरेशन ऑफ बंगाल की स्थापना की गयी। वर्तमान में कुल्टी, हीरापुर एवं बर्नपुर के कारखाने भारतीय लोहा और इस्पात कम्पनी (IISCO) के अधिकार में हैं। 1932 ई० में दक्षिणी भारत के मैसूर नगर में मैसूर लोहा और इस्पात कारखाने की स्थापना की गयी। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भारत में लोहा-इस्पात उद्योग का विकास तीव्र गति से किया गया। दूसरी पंचवर्षीय योजना में तीन नये कारखाने स्थापित करने के लिए ‘हिन्दुस्तान स्टील कम्पनी’ की स्थापना की गयी।

इस कम्पनी के तत्त्वावधान में 10-10 लाख टन की क्षमता के तीन कारखाने भिलाई, राउरकेला एवं दुर्गापुर में स्थापित किये गये तथा TISCO एवं IISCO की उत्पादन क्षमता क्रमशः 20 लाख टन और 10 लाख टन इस्पात बनाने की निर्धारित की गयी। तीसरी पंचवर्षीय योजना में एक नया कारखाना बोकारो में खोलने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। चौथी पंचवर्षीय योजना में सलेम, विजयनगर एवं विशाखापट्टनम् में तीन नये कारखाने स्थापित करने का प्रस्ताव किया गया। 1978 ई० में सार्वजनिक क्षेत्र की इस्पात इकाइयों के लिए ‘स्टील ऑथोरिटी ऑफ इण्डिया’ की स्थापना की गयी जिसके अधिकार में TISCO को छोड़कर अन्य पाँचों इकाइयाँ हैं।

भारत में लोहा-इस्पात उद्योग के स्थानीयकरण के लिए उत्तरदायी भौगोलिक कारक
Geographical Factors of Localisation of Iron-steel Industry in India

लोह्म-इस्पात उद्योग मूलत: कच्चे माल पर आधारित उद्योग है। बाजार की निकटता का इस पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। इसके स्थानीयकरण में अग्रलिखित कारक सहायक हैं –
(1) लौह-अयस्क एवं कोयले की एक-दूसरे के निकट प्राप्ति – इस उद्योग में लोहा एवं कोयला कच्चे माल के रूप में सबसे अधिक प्रयुक्त किये जाते हैं, जो दोनों ही भारी पदार्थ हैं। भारत के झारखण्ड राज्य में कोयला तथा निकटवर्ती राज्य में ओडिशा में लौह-अयस्क निकाली जाती है। इस प्रकार दोनों खनिज पदार्थों के लगभग एक ही स्थान पर उपलब्ध होने के कारण यहाँ लोहा-इस्पात उद्योग की स्थापना में बहुत सुविधा रही है।

(2) अन्य खनिज पदार्थों की सुलभता – लोहा-इस्पात उद्योग में लौह-अयस्क तथा कोयले के अतिरिक्त मैंगनीज, डोलोमाइट तथा चूना-पत्थर आदि अधात्विक खनिज प्रयुक्त किये जाते हैं। भारत में ये पदार्थ भी बिहार एवं ओडिशा राज्यों में ही पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं।

(3) सस्ती एवं सुलभ जल-विद्युत शक्ति – लोहा-इस्पात कारखानों में भारी-भारी मशीनों के संचालन के लिए तथा भट्टियों में लौह-अयस्क को पिघलाने के लिए शक्ति संसाधन के रूप में सस्ती जल-विद्युत शक्ति सुलभ होनी चाहिए। भारत ने जल-विद्युत के उत्पादन में पर्याप्त प्रगति की है। अतः लोहा-इस्पात उद्योग को सस्ती जल-विद्युत शक्ति सुगमता से मिल जाती है।

(4) स्वच्छ जल की आपूर्ति – लोहा-इस्पात उद्योग के लिए काफी मात्रा में स्वच्छ जल की भी आवश्यकता होती है। कारखानों के समीप ही सदावाहिनी नदियाँ इस उद्योग को स्वच्छ जल प्रदान करती हैं।

(5) विस्तृत बाजार – भारत एक विकासशील देश है। यहाँ नये-नये कारखाने, बाँध एवं भवननिर्माण के अनेक कार्य निरन्तर क्रियान्वित किये जा रहे हैं, जिनमें लौह-इस्पात की भारी माँग रहती है। भारत लोहा-इस्पात के सामान का निर्यात भी करता है। पर्याप्त माँग होने के कारण यहाँ लोहा-इस्पात उद्योग का विकास तीव्र गति से हुआ है।

(6) सस्ते एवं कुशल श्रमिक – लोहा-इस्पात उद्योग में कार्य करने के लिए पर्याप्त संख्या में सस्ते एवं कुशल श्रमिकों की आवश्यकता होती है। सघन जनसंख्या के समीपवर्ती भागों में लोहा-इस्पात केन्द्र स्थापित किये जाने के कारण इस उद्योग को पर्याप्त संख्या में सस्ते एवं कुशल श्रमिक आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। भारत में श्रमिकों को कुशल तथा प्रशिक्षित करने के लिए भी अनेक संस्थान खोले गये हैं।”

(7) परिवहन के सस्ते एवं सुलभ साधन – लोहा-इस्पात एक भारी पदार्थ है। इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने, मशीनों को लाने, कच्चा माल एकत्र करने तथा तैयार माल को बाहर भेजने में सस्ते परिवहन साधनों की आवश्यकता पड़ती है। भारत में ये साधन सुलभ एवं सस्ते हैं; अत: लौह-इस्पात उद्योग की स्थापना में इनसे बड़ी सहायता मिली है।

(8) पर्याप्त पूँजी – लोहा-इस्पात उद्योग में बड़े-बड़े संयन्त्र लगाने आवश्यक होते हैं। इनके स्थापन के लिए अरबों रुपयों की आवश्यकता होती है। भारत के साहसी उद्योगपतियों ने इस उद्योग के लिए पर्याप्त पूँजी जुटाकर इस उद्योग की स्थापना में बहुत सहयोग दिया है। भारत सरकार भी इस उद्योग को पर्याप्त अनुदान एवं आर्थिक सहायता प्रदान करती है।

(9) सरकारी संरक्षण एवं सहायता – भारत में लोहा-इस्पात के अधिकांश कारखाने सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित किये गये हैं जिन्हें सरकार ने संरक्षण एवं संहायता प्रदान की है, जिससे लोहा-इस्पात उद्योग की स्थापना में बहुत प्रोत्साहन मिला है।

भारत में लोहा-इस्पात का उत्पादन तथा वितरण
Production and Distribution of Iron-steel in India

भारत में लोहा-इस्पात उद्योग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारत में जमशेदपुर के इस्पात कारखाने को छोड़कर शेष सभी इस्पात केन्द्र सार्वजनिक क्षेत्र में हैं। देश में इस्पात पिण्डों की स्थापित क्षमता 200 लाख टनं वार्षिक है, जबकि इनका वास्तविक उत्पादन 180 लाख टन है। भारत में लोहा और इंस्पात । तैयार करने वाली इकाइयों का विवरण अग्रलिखित है –

(1) टाटा आयरन एण्ड स्टील, कम्पनी (TISCO) – भारत में यह एक बड़ा तथा महत्त्वपूर्ण लोहा-इस्पात का कारखाना है जो कि अकेला ही निजी क्षेत्र में है। यह एशिया महाद्वीप का सबसे बड़ा इस्पात कारखाना है। यह कारखाना झारखण्ड राज्य के सिंहभूम जिले में कोलकाता-नागपुर रेलमार्ग पर कोलकाता से 240 किमी उत्तर-पश्चिम में झारखण्ड राज्य के सांकची (जमशेदपुर) नामक स्थान पर 1907 ई० में प्रसिद्ध उद्योगपति जमशेद जी टाटा द्वारा स्थापित किया गया था। इसके उत्तर में स्वर्ण रेखा और पश्चिम में खोरकाई नदियाँ प्रवाहित होती हैं।

इस कारखाने में लोहे की सलाखें, गर्डर, रेल के डिब्बे, पहिये एवं पटरियाँ, चादरें, स्लीपर तथा फिश प्लेटें बनाई जाती हैं। इसके निकटवर्ती भागों में टिन प्लेट, कास्ट लोहे की पटरियाँ, इंजीनियरिंग
और मशीन कम्पनी, फाउण्ड्री, कृषि के उपकरण, रेलवे इन्जन तथा विद्युत तार के उद्योग-धन्धे स्थापित किये गये हैं। इस कारखाने की उत्पादन क्षमता प्रतिवर्ष 40 लाख टन इस्पात की है।
स्थानीयकरण के कारक – इस इस्पात केन्द्र को अनेक भौगोलिक सुविधाएँ प्राप्त हैं, जो निम्नलिखित हैं –

  1. इस कारखाने के लिए लोहा पार्श्ववर्ती गुरुमहिसानी की पहाड़ियों से प्राप्त होता है जो यहाँ से लगभग 100 किलोमीटर दूर हैं।
  2. कोयला झरिया की खानों से मिलता है, जो केवल 160 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं।
  3. चूना 320 किलोमीटर की दूरी से आता है, विशेषकर विरमित्रापुर, हाथीबारी, बिसरा, कटनी और बाराद्वार से।
  4. पागपोश की डोलोमाइट की खानें यहाँ से 480 किलोमीटर दूर हैं तथा उत्तम श्रेणी का मैंगनीज और अन्य रासायनिक पदार्थ निकट ही प्राप्त हो जाते हैं। क्वार्ट्जाइट एवं क्रोमाइट वाली शैलें भी यहाँ मिलती हैं।
  5. लोहा इस्पात के लिए मीठे और स्वच्छ जल की आवश्यकता पूर्ति के लिए नदियों के जल को बड़े हौजों में एकत्रित कर लिया जाता है। स्वर्णरेखा नदी की बालू मिट्टी लोहा ढालने के लिए उपयुक्त है।
  6. जमशेदपुर का कारखाना दक्षिणी-पूर्वी रेलमार्ग द्वारा कोलकाता तथा मुम्बई से जुड़ा है, जहाँ निर्मित माल सुविधापूर्वक भेजा जा सकता है।
  7. कोलकाता के निकट अनेक इन्जीनियरिंग उद्योग स्थित हैं जहाँ विभिन्न प्रकार के लोहे की खपत होती है। यहाँ श्रमिक न केवल संथाली लोग हैं वरन् बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के लोग भी हैं।

(2) भारतीय लोहा एवं इस्पात कम्पनी (IISCO) – इस कम्पनी के तीन कारखाने हैं—पहला बर्नपुर में, दूसरा कुल्टी में तथा तीसरा हीरापुर में स्थापित किया गया है। यह कम्पनी भारत में सबसे अधिक लोहा ढलाई का कार्य करती है। 1952 ई० से इन तीनों कारखानों को भारतीय लोहा एवं इस्पात कम्पनी के अधीन कर दिया गया है। 1976 ई० से यह कम्पनी भारत सरकार के अधिकार में है। हीरापुर में केवल लोहे की ढलाई का कार्य किया जाता है। इसकी उत्पादन क्षमता 13 लाख टन ढलवाँ लोहा वार्षिक की है। यहाँ से ढलवाँ लोहा कुल्टी की इकाई को इस्पात निर्माण के लिए भेज दिया जाता है। जिसकी उत्पादन क्षमता 10 लाख टन वार्षिक इस्पात की है। बर्नपुर में इस्पात की ढलाई की जाती है। यहाँ नल एवं रेलवे स्लीपर तैयार किये जाते हैं। भविष्य में इस कारखाने की उत्पादन क्षमता 23 लाख टन किये जाने का प्रस्ताव है।

(3) विश्वेश्वरैया आयरन एण्ड स्टील लिमिटेड (VISL) – इस कारखाने की स्थापना 1923 ई० में कर्नाटक राज्य के शिमोगा जिले में भद्रावती नामक स्थान पर भद्रा नदी के किनारे की गयी थी। 1961 ई० से यह कारखाना कर्नाटक राज्य तथा भारत सरकार के संयुक्त स्वामित्व में है। प्रारम्भ में इस कारखाने का उद्देश्य केमानगुण्डी एवं बाबाबूदन की खानों से लौह-अयस्क प्राप्त करना था जो कि इसके अधिकार क्षेत्र में है। इन खानों से प्रति वर्ष 250 लाख टन लौह-अयस्क प्राप्त की जाती है। इस कारखाने की वार्षिक उत्पादन क्षमता एक लाख टन ढलवाँ लोहा तथा 2 लाख टन इस्पात पिण्ड तैयार करने की है। भविष्य में इसकी उत्पादन क्षमता 3 लाख टन इस्पात तैयार किये जाने का प्रस्ताव है।

(4) राउरकेला इस्पात संयन्त्र (Rourkela Steel Plant) – हिन्दुस्तान स्टील लिमिटेड का यह कारखाना कोलकाता-मुम्बई रेलमार्ग पर कोलकाता से 431 किमी दूर स्थित है। जर्मनी की सहायता से प्रथम धमन भट्टी 1959 ई० से प्रारम्भ की गयी थी। यहाँ पर अधिकतर चपटे आकार की वस्तुएँ, अलग-अलग मोटाई की प्लेट, चादरें, पत्तियाँ, टिन की चादरें आदि बनाई जाती हैं। इस कारखाने की उत्पादन क्षमता बढ़ाकर 35 लाख टन कर दी गयी है।

(5) भिलाई इस्पात संयन्त्र (Bhilai Steel Plant) – हिन्दुस्तान स्टील लिमिटेड का यह कारखाना मध्य प्रदेश में भिलाई नामक स्थान पर रायपुर से 21 किमी दूर पश्चिम में दुर्ग-रायपुर रेलमार्ग पर सन् 1955 में स्थापित किया गया था। इस कारखाने की स्थापना रूस के सहयोग से की गयी है। यहाँ पर इस्पात का उत्पादन सन् 1959 से प्रारम्भ किया गया है। इस कारखाने में रेलों में प्रयुक्त अनेक प्रकार का सामान-छड़े, स्लीपर, शहतीर, लोहे की कतरनें आदि तैयार की जाती हैं। वर्तमान समय में इस कारखाने की उत्पादन क्षमता 25 लाख टन से बढ़ाकर 50 लाख टन कर दी गयी है।

(6) दुर्गापुर इस्पात संयन्त्र लिमिटेड (Durgapur Steel Plant Ltd.) – हिन्दुस्तान स्टील लिमिटेड का यह कारखाना पश्चिम बंगाल राज्य में दामोदर नदी-घाटी में कोलकाता-आसनसोल रेलमार्ग पर कोलकाता के उत्तर-पश्चिम में 160 किमी दूर दुर्गापुर में ब्रिटिश सरकार के सहयोग से सन् 1956 में स्थापित किया गया था। यहाँ इस्पात का उत्पादन सन् 1962 से प्रारम्भ किया गया था।
अधिकांशतः इस कारखाने में पहिये, धुरे, पटरियाँ, छड़े, इस्पात की कतरनें, बिलेट आदि का निर्माण किया जाता है। इस कारखाने की वार्षिक उत्पादन क्षमता 16 लाख टन इस्पात तथा 3.6 लाख टनं ढलवाँ लोहे की है।

(7) बोकारो इस्पात संयन्त्र (Bokaro Steel Plant) – चतुर्थ पंचवर्षीय योजना में लोहा-इस्पात का एक नया कारखाना 1964 ई० में रूस के सहयोग से झारखण्ड के बोकारो नामक स्थान पर स्थापित किया गया था। इसकी प्रारम्भिक क्षमता 40 लाख टन इस्पात उत्पादन की थी जिसे भविष्य में 60 लाख टन तक बढ़ाया जा सकेगा। इसमें 1972 ई० से उत्पादन प्रारम्भ हो गया है।

निर्यात व्यापार – भारत ने लोहा-इस्पात के निर्यात में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है। इस्पात का भारी सामान अब रूस को भी निर्यात किया जाने लगा है। भारतीय इस्पात के अन्य प्रमुख ग्राहक न्यूजीलैण्ड, मलेशिया, बांग्लादेश, कुवैत, ईरान, श्रीलंका, म्यांमार, तंजानिया, संयुक्त अरब अमीरात, कीनिया आदि देश हैं। भारत लगभग 15 लाख टन इस्पात के विशेषीकृत उत्पादों को विदेशों से आयात भी करता है, परन्तु देश से इस्पात निर्यात की भावी सम्भावनाएँ वृद्धि की ओर व्यक्त की जा सकती हैं।

प्रश्न 3
भारत में सीमेण्ट उद्योग की अवस्थिति एवं विकास के कारकों की विवेचना कीजिए।
या
भारत में सीमेण्ट उद्योग के स्थानीयकरण के कारकों की विवेचना कीजिए तथा इसके उत्पादन के प्रमुख केन्द्रों का उल्लेख कीजिए। [2011]
या
भारत में सीमेण्ट उद्योग का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए –
(क) स्थानीयकरण के कारक, (ख) प्रमुख केन्द्र, (ग) व्यापार। [2013, 16]
या
भारत में सीमेण्ट उद्योग का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों में कीजिए –
(क) स्थानीयकरण के कारक, (ख) उत्पादन, (ग) उद्योग के प्रमुख केन्द्र। [2013, 16]
उत्तर

सीमेण्ट उद्योग का विकास
Development of Cement Industry

भारत में संगठित रूप से सीमेण्ट तैयार करने का श्रेय चेन्नई को जाता है, जहाँ सन् 1904 में समुद्री सीपियों से सीमेण्ट बनाने का प्रयास किया गया था, परन्तु इसमें पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी। इस उद्योग का वास्तविक विकास वर्ष 1912-13 में हुआ, जबकि मध्य प्रदेश में कटनी, राजस्थान में लखेरी-बूंदी तथा गुजरात में पोरबन्दर में तीन कारखाने स्थापित किये गये। इनमें सन् 1914 से उत्पादन प्रारम्भ हुआ। देश में इस उद्योग की प्रगति का श्रेय एसोसिएटिड सीमेण्ट कम्पनी (ए०सी०सी०), कंक्रीट एसोसिएशन ऑफ इण्डिया एवं सीमेण्ट मार्केटिंग कम्पनी को दिया जा सकता है।

सीमेण्ट वर्तमान युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है। भारत जैसे विकासशील देश के लिए सीमेण्ट उद्योग का विकास अति आवश्यक है। यह अनेक उद्योगों के विकास की कुंजी है। भारत संसार का सातवाँ बड़ा सीमेण्ट उत्पादक देश है। इस उद्योग में लगभग 90,000 व्यक्ति कार्यरत हैं। सन् 2012 में सीमेण्ट उत्पादन 210 मिलियन टन हुआ।

सीमेण्ट उद्योग के स्थानीयकरण के भौगोलिक कारक
Geographical Factors of Localisation of Cement Industry

(1) कच्चा माल – सीमेण्ट उद्योग में अधिकांशतः भारी वस्तुओं-चूने का पत्थर, जिप्सम तथा कोयले का उपयोग अधिक किया जाता है। अतः इन्हें ढोने में अधिक व्यय करना पड़ता है। इसी कारण सीमेण्ट उद्योग कच्चे पदार्थों की प्राप्ति के निकटवर्ती स्थानों पर स्थापित किया जाता है। भारत में कोई भी सीमेण्ट कारखाना चूना-पत्थर की खानों से 50 किमी से अधिक दूरी पर स्थित नहीं है। अब सीमेण्ट बनाने के लिए धमन भट्टी का कचरा भी प्रयुक्त किया जाने लगा है।

(2) ऊर्जा – इस उद्योग के लिए ऊर्जा की बहुत आवश्यकता होती है। तमिलनाडु के सीमेण्ट कारखानों को छोड़कर देश के अन्य सभी कारखानों द्वारा यही कोयला काम में लाया जाता है। अब जलविद्युत शक्ति का भी प्रयोग किया जाने लगा है।
(3) पर्याप्त जल।
(4) सस्ता तथा कुशल श्रम – मध्य प्रदेश एवं झारखण्ड राज्य सीमेण्ट उद्योग के लिए सर्वाधिक उपयुक्त क्षेत्र हैं, क्योंकि यहाँ पर कोयला एवं चूने का पत्थर लगभग स्थानीय रूप से उपलब्ध हो जाते हैं। इन क्षेत्रों से पश्चिम बंगाल एवं बिहार के औद्योगिक क्षेत्र भी दूर नहीं पड़ते। कोसी, दामोदर एवं महानदी नदियों की घाटियों में विकसित बहुमुखी परियोजनाओं से सस्ती जल-विद्युत शक्ति प्राप्त हो जाती है।
(5) सस्ते एवं कुशल श्रमिक।
(6) परिवहन के साधन।
(7) पूँजी की उपलब्धता।
(8) सरकारी नीति।
गुजरात, राजस्थान तथा कर्नाटक में कच्चा माल उपलब्ध है।
उपर्युक्त भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए सीमेण्ट उद्योग का स्थापन मुख्यत: राजस्थान के पूर्व से लेकर उत्तरी मध्य प्रदेश होता हुआ झारखण्ड तक विस्तृत एक पेटी के रूप में फैला है।

सीमेण्ट का उत्पादन एवं वितरण
Production and Distribution of Cement

सीमेण्ट उद्योग का वितरण विकेन्द्रित है। अधिकांश कारखाने देश के पश्चिमी तथा दक्षिणी भागों में विकसित हुए हैं, जबकि सीमेण्ट की अधिकांश माँग उत्तरी एवं पूर्वी क्षेत्रों में अधिक है। तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, गुजरात, बिहार, राजस्थान, कर्नाटक एवं आन्ध्र प्रदेश राज्य देश का 74% सीमेण्ट उत्पन्न करते हैं, जबकि कुल उत्पादित क्षमता का 86% भाग इन्हीं राज्यों में केन्द्रित है। निम्नलिखित राज्यों का सीमेण्ट उत्पादन में महत्त्वपूर्ण स्थान है –
(1) मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ – मध्य प्रदेश राज्य देश का 15% सीमेण्ट उत्पन्न करता है। यहाँ सीमेण्ट के 8 विशाल कारखाने हैं। कटनी, कैमूर, सतना, जबलपुर, दुर्ग, बनमोर एवं दमोह में प्रमुख कारखाने हैं। इस राज्य में सीमेण्ट के 5 नये कारखाने प्रस्तावित हैं। यहाँ कोयला झारखण्ड से तथा शेष कच्चा माल स्थानीय रूप से उपलब्ध है।’. ”

(2) तमिलनाडु – इंसे राज्य को सीमेण्ट के उत्पादन में दूसरा स्थान है। यहाँ पर सीमेण्ट के 7 कारखाने हैं जो बड़े आकार के हैं तथा देश का 12% सीमेण्ट उत्पन्न करते हैं। चूना-पत्थर की पूर्ति स्थानीय क्षेत्रों के साथ-साथ कर्नाटक एवं आन्ध्र प्रदेश सज्यों से भी की जाती है। तुलुकापट्टी, तिलाईयुथू, : तिरुनलवेली, डालमियापुरम, राजमलायम, संकरी दुर्ग एवं मधुकराई प्रमुख सीमेण्ट उत्पादक केन्द्र हैं।

(3) आन्ध्र प्रदेश – आन्ध्र प्रदेश में सीमेण्ट के 18 कारखाने हैं, जो गुण्टूर, कर्नूल, नालगोण्डा, मछलीपट्टनम्, हैदराबाद एवं विजयवाड़ा में केन्द्रित हैं। इस राज्य की सीमेण्ट उत्पादन क्षमता 45 लाख टन तक पहुँच गयी है।
(4) राजस्थान – सीमेण्ट के उत्पादन में राजस्थान राज्य का चौथा स्थान है। यहाँ अरावली पहाड़ियों में चूने-पत्थर के पर्याप्त भण्डार हैं। यहाँ सीमेण्ट उत्पादन के 10 कारखाने हैं, जो लखेरी (बूंदी), सवाईमाधोपुर, चित्तौड़गढ़, चुरू, नीम्बाहेड़ा एवं उदयपुर में हैं।
(5) बिहार – इस राज्य में सीमेण्ट के 10 बड़े कारखाने हैं। सभी कारखाने कोयला एवं चूना-पत्थर क्षेत्रों के समीप पड़ते हैं। डालमियानगर, सिन्द्री, बनजारी, चायबासी, खलारी, जापला एवं कल्याणपुर प्रमुख केन्द्र हैं। बिहार राज्य में सीमेण्ट के दो कारखाने और लगाये जाने प्रस्तावित हैं।

(6) कर्नाटक – इस राज्य में बीजापुर, भद्रावती, गुलबर्गा, उत्तरी कनारा, तुमुकुर एवं बंगलुरु . प्रमुख सीमेण्ट उत्पादक केन्द्र हैं। यहाँ सीमेण्ट उत्पादन के 8 बड़े संयन्त्र स्थापित किये गये हैं।

(7) गुजरात – गुजरात राज्य में सीमेण्ट के 10 कारखाने हैं। सीमेण्ट उद्योग का प्रारम्भ इसी राज्य से किया गया था। चूना-पत्थर और समुद्री सीपों का उपयोग यहाँ पर सीमेण्ट बनाने में किया जाता है। सिक्का (जामनगर), अहमदाबाद, राणाबाव, बड़ोदरा, पोरबन्दर, सेवालिया, ओखामण्डल एवं द्वारका प्रमुख सीमेण्ट उत्पादक केन्द्र हैं। यहाँ 20 लाख टन सीमेण्ट का वार्षिक उत्पादन किया जाता है।

(8) अन्य राज्य – हरियाणा में सूरजपुर एवं डालमिया-दादरी; केरल में कोट्टायम; उत्तर प्रदेश में चुर्क एवं चोपन; ओडिशा में राजगंगपुर एवं हीराकुड; जम्मू-कश्मीर में वुयाने तथा असम में गुवाहाटी अन्य प्रमुख सीमेण्ट उत्पादक केन्द्र हैं। सन् 1985 के बाद से उत्तर प्रदेश राज्य में लघु संयन्त्रों की स्थापना की ओर विशेष ध्यान आकर्षित हुआ है तथा यहाँ94 लघु संयन्त्र स्थापन की अनुमति प्रदान की जा चुकी है।

भारत में सीमेण्ट उद्योग की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ कुल उत्पादन क्षमता का 84% सीमेण्ट का ही उत्पादन किया जाता है। सन् 1965 में इस उद्योग के विकास एवं विस्तार हेतु सीमेण्ट निगम की स्थापना की गयी थी। इस निगम का प्रमुख कार्य कच्चे माल के नये क्षेत्रों का पता लगाना तथा इस उद्योग से सम्बन्धित समस्याओं को हल करना था। निगम द्वारा मन्धार (मध्य प्रदेश) तथा करकुन्ता (कर्नाटक) में सीमेण्ट के कारखाने स्थापित किये गये हैं। बोकाजन (असम), पॉवटा साहिब (हिमाचल प्रदेश), अलकतरा एवं नीमच (मध्य प्रदेश), तन्दूर, अदिलाबाद एवं येरागुन्तला (आन्ध्र प्रदेश) तथा बरूवाला (उत्तर प्रदेश) केन्द्रों में नवीन सीमेण्ट कारखाने स्थापित किये गये हैं।

व्यापार Trade

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय देश में सीमेण्टे का उत्पादन बहुत कम था परन्तु तब से अब तक उसके उत्पादन में निरन्तर प्रगति हुई है। भारत समय-समय पर विदेशों को सीमेण्ट का निर्यात भी करता रहा है। यह निर्यात मुख्यतः पश्चिमी एशियाई देशों को हुआ है। कुछ वर्षों पूर्व तक हम अपनी आवश्यकता का भी सीमेण्ट उत्पादित नहीं कर पाते थे परन्तु अब हम सीमेण्ट उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गए हैं। सन् 1997-98 में भारत ने 42.5 लाख टन, सन् 2001-02 में 51.4 लाख टन तथा सन् 2012 में 210 मिलियन टन सीमेण्ट विदेशों को निर्यात किया था। उत्तम क्वालिटी के कारण भारतीय सीमेण्ट ने बंगलादेश, इण्डोनेशिया, मलेशिया, नेपाल, म्यांमार, अफ्रीका तथा पश्चिमी व दक्षिणी एशिया के देशों के बाजार में महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया है।

प्रश्न 4.
भारत में चीनी उद्योग के स्थानीयकरण के कारकों एवं विकास का विवरण दीजिए।
या
भारत में चीनी उद्योग का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों में कीजिए –
(क) उत्पादन की प्रवृत्ति, (ख) उत्पादक क्षेत्र। [2011]
या
भारत में चीनी उद्योग का भौगोलिक विवरण निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत दीजिए –
(अ) स्थानीयकरण के कारक, (ब) वितरण प्रतिरूप। [2007, 10]
या
भारत में चीनी उद्योंग के स्थानीयकरण के कारकों की विवेचना कीजिए तथा उद्योग के दो प्रमुख केन्द्रों का विवरण दीजिए। [2008]
या
भारत में चीनी उद्योग का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए –
(क) स्थानीयकरण के कारक, (ख) उद्योग के प्रमुख केन्द्र। [2014, 16]
उत्तर
चीनी उद्योग कृषि पर आधारित भारत का दूसरा सबसे बड़ा संगठित उद्योग है। सन् 1982 से भारत का इस उद्योग में विश्व में प्रथम स्थान है। इस उद्योग में ₹ 1,250 करोड़ की पूँजी लगी है तथा इससे 2.86 लाख लोगों को रोजगार प्राप्त होता है। इसके साथ ही देश के लाखों किसानों एवं श्रमिकों को गन्ना उत्पादन से आजीविका प्राप्त होती है।

भारत में चीनी उद्योग का विकास – भारत में चीनी उद्योग का वास्तविक विकास 20वीं शताब्दी से आरम्भ होता है। सन् 1931 तक इसका विकास काफी मन्द रहा, परन्तु इसके बाद सरकार ने चीनी के आयात पर नियन्त्रण लगाकर इस उद्योग के विकास को प्रोत्साहन दिया। सन् 1951 में भारत में चीनी की 138 मिलें थीं जिनकी उत्पादन क्षमता 15 लाख टन थी, परन्तु उत्पादन केवल 11 लाख टन ही हो पाया। वर्तमान में भारत में 453 चीनी मिलें हैं जिनमें 134 निजी क्षेत्र में, 67 सार्वजनिक क्षेत्र में तथा 252 सहकारी क्षेत्र में हैं। इसके बाद इस उद्योग को तीव्र गति से विकास हुआ, जिसकी
प्रगति निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट हो जाती है –
तालिका : चीनी उत्पादन की प्रगति
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 22 Industries 1

चीनी उद्योग के स्थानीयकरण के भौगोलिक कारक
Geographical Factors of Localisation of Sugar Industry

भारत में चीनी उद्योग के लगभग 65% कारखाने उत्तर प्रदेश एवं बिहार राज्यों में केन्द्रित हैं, जहाँ से कुल चीनी उत्पादन का लगभग दो-तिहाई भागे प्राप्त होता है। इस उद्योग के स्थानीयकरण के निम्नलिखित कारण हैं –

  1. गंगा नदी-घाटी की उर्वरा-शक्ति अधिक है जहाँ पर कांप मिट्टी में बहुत ही कम व्यय में गन्ने का उत्पादन भारी मात्रा में किया जाता है।
  2. गन्ना तोल में घट जाने वाला पदार्थ है; अत: इसके अधिकांश कारखाने गन्ना उत्पादक क्षेत्रों में स्थापित किये गये हैं।
  3. चीनी उद्योग में शक्ति की प्राप्ति गन्ने को पेरने से प्राप्त खोई से की जाती है। उत्तरी भारत में तराई क्षेत्र से लकड़ी भी प्राप्त हो जाती है।
  4. शुद्ध जल की प्राप्ति नहरों अथवा नलकूपों द्वारा प्राप्त कर ली जाती है।
  5. गंगा घाटी के सघन बसे होने के कारण पर्याप्त संख्या में कम मजदूरी पर श्रमिक उपलब्ध हो जाते हैं।
  6. संघने जनसंख्या के कारण पर्याप्त मात्रा में चीनी की आवश्यकता पड़ती है; अत: स्थानीय रूप से बाजार की सुविधा उपलब्ध हो जाती है।
  7. उत्तरी भारत में गन्ना उत्पादन के लिए पर्याप्त सिंचाई की सुविधाएँ हैं।
  8. उत्तरी भारत में गन्ना ही एक प्रमुख व्यापारिक एवं नकदी फसल है। यहाँ गन्ना उत्पादक क्षेत्र रेल एवं सड़क मार्गों द्वारा जुड़े हैं। इस प्रदेश में कोई भी चीनी मिल गन्ना उत्पादक क्षेत्रों से 20 किमी से अधिक दूरी पर स्थित नहीं है।

दक्षिणी भारत में चीनी उद्योग की स्थापना के भौगोलिक कारक
Geographical Factors for Establishment of Sugar Industry in South India

देश में चीनी उद्योग अब धीरे-धीरे दक्षिणी भारत की ओर पलायन कर रहा है। दक्षिण भारत में इस उद्योग के विकसित होने के अग्रलिखित कारक उत्तरदायी रहे हैं –

  1. दक्षिणी भारत में उत्तरी भारत की अपेक्षा गन्ने का प्रति हेक्टेयर उत्पादन अधिक होता है तथा इसमें रस की मात्रा भी अधिक होती है।
  2. समुद्री जलवायु के कारण दक्षिणी भारत में गन्ना उत्पादन के लिए भौगोलिक परिस्थितियाँ उत्तरी भारत की अपेक्षा अधिक अनुकूल हैं।
  3. दक्षिणी भारत के अधिकांश कारखाने अपने ही कृषि फार्मों पर गन्ने का उत्पादन करते हैं; अतः कच्चे माल के रूप में गन्ने की प्राप्ति सुगम रहती है।
  4. दक्षिणी भारत की चीनी मिलें गन्ना पेराई के मौसम के बाद मूंगफली से तेल निकालने का कार्य करती हैं; अत: इन्हें दोहरा लाभ प्राप्त होता है।

भारत में चीनी उत्पादक राज्य
Sugar Producing States in India

भारत में निम्नलिखित राज्य चीनी के उत्पादन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं –
(1) महाराष्ट्र – महाराष्ट्र राज्य ने चीनी के उत्पादन में पिछले कुछ वर्षों से भारी प्रगति की है। चीनी के उत्पादन में इसका प्रथम स्थान है। यहाँ 100 चीनी मिलें हैं जिनमें देश की लगभग 35% चीनी उत्पादित की जाती है। गोदावरी, प्रवरा, मूला-मूठा, नीरा एवं कृष्णा नदियों की घाटियों में चीनी मिलें केन्द्रित हैं। मनमाड़, नासिक, पुणे, अहमदनगर, शोलापुर, कोल्हापुर, औरंगाबाद, सतारा एवं सांगली प्रमुख चीनी उत्पादक जिले हैं।

(2) उत्तर प्रदेश – इस राज्य का चीनी के उत्पादन में द्वितीय स्थान है। इस प्रदेश में 105 चीनी मिलें हो गयी हैं। उत्तर प्रदेश में उपयुक्त भौगोलिक परिस्थितियों के कारण ही चीनी मिलों का केन्द्रीकरण हुआ है। यह राज्य देश की 24% चीनी का उत्पादन करता है यद्यपि अभी भी यहाँ देश का सर्वाधिक गन्ना उगाया जाता है। यहाँ चीनी उत्पादन के निम्नलिखित तीन क्षेत्र प्रमुख हैं –

  • ऊपरी गंगा-यमुना दोआब – पश्चिमी उत्तर प्रदेश का यह क्षेत्र राज्य की एक-तिहाई चीनी तैयार करता है। यहाँ पर अधिकांश चीनी की मिलें रेलमार्गों के सहारे-सहारे स्थित केन्द्रों में स्थापित हुई हैं। सृहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, गाजियाबाद एवं बुलन्दशहर जिले प्रमुख चीनी उत्पादक हैं।
  • तराई क्षेत्र – तराई क्षेत्र पश्चिम में बिजनौर जिले से लेकर पूर्व में देवरिया जिले तक विस्तृत है। देवरिया, गोरखपुर, बस्ती, गोंडा, रामपुर, पीलीभीत, बहराइच एवं बिजनौर जिले प्रमुख चीनी उत्पादक हैं।
  • मध्यवर्ती एवं अन्य क्षेत्र – रुहेलखण्ड, फैजाबाद, कानपुर एवं लखनऊ मण्डलों में इस क्षेत्र का विस्तार है। सीतापुर, हरदोई, मुरादाबाद, फैजाबाद, एटा, कानपुर, शाहजहाँपुर, बरेली एवं इलाहाबाद प्रमुख चीनी उत्पादक जिले हैं।

(3) कर्नाटक – चीनी के उत्पादन में कर्नाटक राज्य का तीसरा स्थान है। यहाँ पर चीनी उद्योग के 27 केन्द्र हैं जिनमें देश की 9% चीनी उत्पन्न की जाती है। बेलगाम, मांडया, बीजापुर, बेलारी, शिमोगा एवं चित्रदुर्ग महत्त्वपूर्ण चीनी उत्पादक जिले हैं।
(4) तमिलनाड – इस राज्य का चीनी के उत्पादन में चौथा स्थान है जहाँ 22 चीनी मिलें हैं। यहाँ देश की लगभग 8% चीनी उत्पादित की जाती है। मदुराई, उत्तरी एवं दक्षिणी अर्काट, कोयम्बटूर एवं तिरुचिरापल्ली प्रमुख चीनी उत्पादक जिले हैं।

(5) आन्ध्र प्रदेश – यहाँ पर चीनी की 32 मिलें हैं जो प्रमुखत: प्रदेश के उत्तरी भागों में स्थित हैं। पूर्वी एवं पश्चिमी गोदावरी, कृष्णा, विशाखापट्टनम्, निजामाबाद, मेंडक, हास्पेट, बोबीलो, अनाकापाले, सामलकोट, पीठापुरम्, हैदराबाद, विजयवाड़ा और चित्तूर जिलों में चीनी के कारखाने स्थापित हुए हैं।

(6) बिहार – बिहार भारत का एक महत्त्वपूर्ण चीनी उत्पादक राज्य है जहाँ देश की 5% चीनी का उत्पादन किया जाता है। यहाँ चीनी की 29 मिलें हैं जो विशेष रूप से सारन, चम्पारन, दरभंगा, मुजफ्फरपुर आदि उत्तरी जिलों के गन्ना उत्पादक क्षेत्रों में केन्द्रित हैं। पटना, गया, शाहाबाद जिलों में भी चीनी का उत्पादन किया जाता है।

(7) अन्य उत्पादक राज्य – चीनी उत्पादक अन्य राज्यों में गुजरात, हरियाणा, पंजाब, केरल, . मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं पश्चिम बंगाल मुख्य हैं।
व्यापार – भारत चीनी का निर्यातक देश है और विश्व के चीनी निर्यात व्यापार में भारत 0.6% का हिस्सा रखता है। देश की आवश्यकता को पूरी करने के उपरान्त केवल 2 लाख टन चीनी निर्यात के लिए शेष बचती है, परन्तु निर्यात की मात्रा घटती-बढ़ती रहती है।

प्रश्न 5
भारत के सूती वस्त्र उद्योग की विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए –
(i) स्थानीयकरण के कारक, (ii) उद्योग के क्षेत्र, (iii) कोई दो समस्याएँ। [2009]
या
भारत में सूती वस्त्र उद्योग के स्थानीयकरण का विवरण दीजिए। [2008]
या
भारत में सूती वस्त्रोद्योग के स्थानीयकरण के कारक बताइए तथा इस उद्योग के दो प्रमुख केन्द्रों का उल्लेख कीजिए। [2009, 11]
या
भारत में सूती वस्त्र उद्योग का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए –
(अ) स्थानीयकरण के कारक, (ब) प्रमुख केन्द्र। [2014, 16]
उत्तर

भारत में सूती वस्त्र उद्योग का विकास
Development of Cotton Textile Industry in India

सूती वस्त्र उद्योग भारत का एक प्राचीन उद्योग है। यह एक ऐसा उद्योग है जिसने लगभग सौ वर्ष पूर्व भारत में औद्योगीकरण का आधार प्रस्तुत किया था। देश का यह सबसे बड़ा उद्योग है। सन् 1854 में प्रथम भारतीय सूती वस्त्र कारखाना मुम्बई में स्थापित किया गया तथा भारतीय वस्त्र उद्योग प्रारम्भ हुआ। सन् 1900 तक भारत में 193 मिलें खुल चुकी थीं। सन् 1945 में 417 मिलें हो गयी थीं जिनमें 10.2 करोड़ तकुएँ तथा2 लाख करघे कार्य कर रहे थे। सन् 1947 में विभाजन के फलस्वरूप देश के 15 कारखाने तथा 73% कपास उत्पादक क्षेत्र पाकिस्तान में चले जाने के कारण 402 मिलें ही भारत में रह गयी थीं।

सूती वस्त्र उद्योग के स्थानीयकरण के कारक
Factors of Localization of Cotton Textile Industry

सूती वस्त्र उद्योग के लिए कपास एक शुद्ध कच्चा माल है जो निर्माण प्रक्रिया में अपना अस्तित्व नहीं खोता। इसी कारण सूती वस्त्र उद्योग का स्थापन केवल कच्चे माल के क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रहा। इसका स्थापन उन क्षेत्रों में भी हो गया है जहाँ पर इस उद्योग के लिए अन्य सुविधाएँ; जैसे—बाजार, श्रमिक, शक्ति-संसाधन, रासायनिक पदार्थ आदि पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं। इसी कारण यह उद्योग बाजार की समीपता से प्रभावित होता है न कि कच्चे माल की निकटता से। भारत में सूती वस्त्र उद्योग की स्थापना में निम्नलिखित कारक उत्तरदायी रहे हैं –

(1) कपास के रूप में शुद्ध कच्चे माल की स्थानीय प्राप्ति – सूती वस्त्र उद्योग के लिए कच्चे माल के रूप में पर्याप्त मात्रा में कपास की आवश्यकता होती है। यह कच्चा माल इस उद्योग को आसानी से उपलब्ध हो जाता है। प्रायद्वीपीय पठार की लावा निर्मित काली मिट्टी के क्षेत्र में देश का सर्वाधिक कपास उत्पादन किया जाता है। महाराष्ट्र, गुजरात तथा पंजाब राज्य मिलकर देश के कुल उत्पादन का 55% से भी अधिक कपास का उत्पादन करते हैं। कपास के अन्य महत्त्वपूर्ण उत्पादक राज्य हैं-आन्ध्र प्रदेश, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, राजस्थान, कर्नाटक आदि। तमिलनाडु राज्य में कपास के आर्थिक उत्पादन तथा पायकारा परियोजना से सस्ती जल-विद्युत की उपलब्धता के कारण देश की संर्वाधिक (439) मिलों की स्थापना की गयी है, जिनमें से अधिकांश केवल सूत का ही निर्माण करती हैं। इसके अतिरिक्त उत्तम रेशे की कपास मिस्र, सूडान एवं संयुक्त राज्य अमेरिका से भी आसानी से उपलब्ध हो जाती है।
(2) आर्द्र जलवायु का होना।
(3) पर्याप्त संख्या में सस्ते एवं कुशल श्रमिकों की प्राप्ति।
(4) कपास उत्पादक क्षेत्रों का देश के अन्य भागों से तीव्रगामी परिवहन साधनों द्वारा जुड़ा होना।
(5) शक्ति-संसाधनों के रूप में जल-विद्युत शक्ति का पर्याप्त विकास तथा कोयले की उपलब्धि।
(6) सघन जनसंख्या के कारण पर्याप्त खपत तथा विदेशों में भी भारी माँग।
(7) उद्योग के लिए रासायनिक पदार्थों की सुलभता।
(8) सरकारी संरक्षण एवं अनुदानों की उपलब्धि।
(9) विदेशी सूती वस्त्रों पर भारी आयात कर का लगाया जाना।
(10) विदेशों से मिलों के लिए मशीनों एवं उपकरणों का आयात।
(11) निर्यात व्यापार से विदेशी मुद्रा की प्राप्ति।

इस प्रकार यह उद्योग कच्चे माल के उत्पादन क्षेत्रों में ही सीमित न रह सका, बल्कि बाजार एवं शक्ति जैसी सुविधाओं ने वस्त्र उद्योग के कारखानों को अपनी ओर आकर्षित किया है। दिल्ली, कानपुर व कोलकाता जैसे महानगरों में यह उद्योग इन्हीं कारणों से पनपा है। देश में सूती वस्त्रों की अधिक माँग होने के कारण सघन जनसंख्या ने यह उद्योग गंगा के मैदान में भी आकर्षित किया है, जबकि यहाँ पर कच्चे माल का उत्पादन नगण्य ही है। कपास के व्यापार ने ही मुम्बई के सूती वस्त्र उद्योग को विकसित करने में सुविधा प्रदान की है।

भारत में सूती वस्त्रों का उत्पादन एवं वितरण
Production and Distribution of Cotton Textile in India

सूती वस्त्र उद्योग भारत का एक विकेन्द्रीकृत उद्योग है। महाराष्ट्र एवं गुजरात राज्य सूती वस्त्र उद्योग में अग्रणी हैं। देश में सूती वस्त्र उत्पादक राज्यों का विवरण निम्नलिखित है –
(1) गुजरात – गुजरात भारत में प्रथम बड़ा सूती वस्त्र उत्पादक राज्य है, जहाँ सूती वस्त्रों की 120 मिलें हैं। इस राज्य द्वारा देश के एक-तिहाई सूती वस्त्रों का उत्पादन किया जा रहा है। अहमदाबाद सूती वस्त्र उद्योग की राजधानी है, जहाँ पर 72 मिलें केन्द्रित हैं। इसे ‘भारत का मानचेस्टर’ कहा जाता है। राजकोट, मोरवी, बीरमगाँव, कलोल, नवसारी, भावनगर, अंजार सिद्धपुर, नाडियाड, सूरत, भड़ौंच, पोरबन्दर एवं बड़ोदरा अन्य प्रमुख सूती वस्त्र उत्पादक केन्द्र हैं।

(2) महाराष्ट्र – इस राज्य का सूती वस्त्र उत्पादन में दूसरा स्थान है, जहाँ 112 मिलों में वस्त्रों का उत्पादन किया जाता है। देश के एक-चौथाई सूती वस्त्र इसी राज्य में तैयार किये जाते हैं। अकेले मुम्बई महानगर में ही सूती वस्त्र की 62 मिले हैं। इसी कारण इसे ‘सूती वस्त्रों की राजधानी’ कहा जाता है। महाराष्ट्र राज्य के इस उद्योग में 3 लाख से अधिक श्रमिक कार्य करते हैं। बरसी, अकोला, अमरावती, वर्धा, शोलापुर, पुणे, ठाणे, हुबली, सतारा, कोल्हापुर, जलगाँव, सांगली, बिलमोरिया, नागपुर, आलमेनेर इस उद्योग के अन्य प्रधान केन्द्र हैं। यहाँ पर लट्ठा, मलमल, वॉयले, छींट, चद्दर, सूटिंग एवं शर्लिंग, धोतियाँ आदि अनेक प्रकार के रंगीन कपड़ों का निर्माण किया जाता है।

(3) पश्चिम बंगाल – पश्चिम बंगाल राज्य का देश के सूती वस्त्र उत्पादन में तीसरा स्थान है। इस राज्य में बाजार की सुविधा (जनाधिक्य) ने इस उद्योग को आकर्षित किया है। यहाँ सूती वस्त्र की 45 मिले हैं। यहाँ पर कुछ प्रमुख अनुकूल भौगोलिक सुविधाएँ पायी जाती हैं; जैसे-शक्ति संसाधनों के रूप में रानीगंज एवं झरिया की खानों से कोयला; कोलकाता पत्तन की निकटता से मशीनें मँगाने की सुविधा, पूँजी एवं अन्य व्यापारिक सुविधाएँ, सघन जनसंख्या के कारण उपभोक्ता बाजार की सुविधा, वस्त्र उद्योग के अनुकूल जलवायु आदि, परन्तु कपास देश के अन्य भागों से आयात की जाती है। श्यामनगर, पानीहाटी, कोलकाता, सिरामपुर, मौरीग्राम, शिवपुर, पाल्टा, फूलेश्वर, लिलुआ, रिशरा, बेलघरिया, घुसरी प्रमुख सूती वस्त्र उत्पादक केन्द्र हैं।

(4) उत्तर प्रदेश – सूती वस्त्र के उत्पादन की दृष्टि से इस राज्य का चौथा स्थान है। सम्पूर्ण प्रदेश में मिलों की संख्या 41 है। कानपुर इस उद्योग का प्रमुख केन्द्र है जहाँ सूती वस्त्र की 14 मिलें हैं तथा यह उत्तरी भारत को मानचेस्टर’ कहलाता है। यहाँ गंगा घाटी में छोटे रेशे वाली कपास उगायी जाती है; अत: मोटा कपड़ा ही अधिक बनाया जाता है। मुरादाबाद, वाराणसी, आगरा, बरेली, अलीगढ़, मोदीनगर, हाथरस, सहारनपुर, रामपुर, इटावा, लखनऊ आदि अन्य प्रमुख सूती वस्त्र उत्पादक केन्द्र हैं। उत्तर प्रदेश में बाजार एवं यातायात की सुविधाओं के कारण इस उद्योग का विकास हुआ है।

(5) तमिलनाडु – भारत में सूती वस्त्र की मिलें तमिलनाडु राज्य में सबसे अधिक मिलती हैं। जिनकी संख्या 215 है, परन्तु उत्पादन की दृष्टि से इस राज्य का देश में पाँचवाँ स्थान है। यहाँ सूती वस्त्र उद्योग का विकास पायकारा जल-विद्युत परियोजना से सस्ती जलशक्ति की प्राप्ति, कपास का स्थानीय उत्पादन, पर्याप्त श्रमिक तथा उपभोक्ता सुविधाओं के कारण हुआ है। कोयम्बटूर इस राज्य की वस्त्र राजधानी है, जहाँ 105 सूती वस्त्र की मिले हैं। अन्य प्रमुख सूती वस्त्र उत्पादक केन्द्र मदुराई, सलेम, चेन्नई, पेराम्बूर, तिरुचिरापल्ली, रामनाथपुरम्, तूतीकोरिन, तंजौर, काकीनाडा एवं तिरुनेलवेली हैं।

(6) मध्य प्रदेश – मध्य प्रदेश राज्य में वर्धा एवं पूर्णा नदियों की घाटियों में पर्याप्त मात्रा में कपास का उत्पादन किया जाता है। आदिवासी जनसंख्या की अधिकता के कारण श्रमिक पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हो जाते हैं। रामकोला एवं तातापानी की खानों से कोयले की प्राप्ति तथा चम्बल परियोजना से सस्ती जलविद्युत शक्ति की प्राप्ति होती है। रतलाम, इन्दौर, ग्वालियर, देवास, निमाड़, सतना, भोपाल, उज्जैन, बुरहानपुर, अचलपुर एवं जबलपुर प्रमुख सूती वस्त्र उत्पादक केन्द्र हैं। यहाँ पर सूती वस्त्रों की 24 मिलें हैं।

(7) अन्य राज्य – आन्ध्र प्रदेश में 21, कर्नाटक में 32, केरल में 26, राजस्थान में 19, पंजाब में 9, ओडिशा में 5, बिहार में 6, दिल्ली में 4, असोम में 2 तथा गोआ में 1 सूती वस्त्र की मिलें हैं।

निर्यात व्यापार – भारत से सूती कपड़े का निर्यात मुख्यतः अदन, म्यांमार, सूडान, कीनिया, तंजानिया, ऑस्ट्रेलिया, इण्डोनेशिया, पाकिस्तान, श्रीलंका, सिंगापुर, इराक, ईरान, सीरिया, थाईलैण्ड, अरब देश, रूस, ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, नेपाल, नाइजीरिया, बांग्लादेश आदि देशों को किया जाता है। देश के कुल निर्यात का 90 से 92 प्रतिशत कपड़ा मोटा एवं मध्यम श्रेणी का होता है जिसे आयातक देश पुनर्निर्यात के लिए मॅगाते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका व रूस भारतीय सूती वस्त्र के प्रमुख ग्राहक हैं।
सूती वस्त्रोद्योग की समस्याएँ – सूती वस्त्रोद्योग की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं –

  1. भारत में उत्तम किस्म की लम्बे और मुलायम रेशे वाली कपास का अभाव है। अधिकतर राज्यों में घटिया किस्म की कपास ही उगायी जाती है, जिससे उत्पादन भी घटिया ही होता है।
  2. उत्पादन प्रक्रिया में आज भी अधिकांश कारखानों में उत्पादन प्रक्रिया में परम्परागत तकनीकी का ही प्रयोग हो रहा है जिससे उत्पादित माल को अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है।
  3. भारतीय सूती मिलों की मशीनें पुरानी व निम्न स्तर की हैं जो आये दिन खराब होती रहती हैं, जिससे उत्पादन कम होता है।
  4. भारतीय सूती वस्त्र महँगा और घटिया होने के कारण विदेशी वस्त्रों की टक्कर में नहीं टिक पाता है।
  5. भारतीय मिलों में काम करने वाले मजदूरों को उचित पारिश्रमिक नहीं दिया जाता, जिससे वे अपनी माँगों को लेकर हड़ताल कर देते हैं और उत्पादन कई दिनों तक बन्द रहता है।

प्रश्न 6
भारत में कागज उद्योग के दो प्रमुख केन्द्रों के नाम बताइए तथा उनमें इस उद्योग के स्थानीयकरण के भौगोलिक कारकों की विवेचना कीजिए।
या
भारत में कागज उद्योग के स्थानीयकरण को प्रभावित करने वाले कारकों तथा वितरण का वर्णन कीजिए।
उत्तर

भारत में कागज उद्योग का विकास
Development of Paper Industry in India

कागज आधुनिक सभ्यता का मूलाधार है। ऐसा माना जाता है कि ईसा से 300 वर्ष पूर्व कागज निर्माण की कला का विकास सर्वप्रथम चीन में हुआ था। भारत में कागज का निर्माण अति प्राचीन काल से
कुटीर उद्योग के रूप में किया जा रहा है जिसके प्रमुख केन्द्र कालपी, मथुरा एवं सांगानेर तथा आरवल में थे। आधुनिक ढंग का प्रथम प्रयास 1716 ई० में ट्रंकुबार (चेन्नई के समीप) नामक स्थान पर किया गया, परन्तु इसमें असफलता हाथ लगी। 1840 ई० में हुगली नदी के किनारे सिरामपुर में भी असफलता ही मिली, परन्तु इस उद्योग का वास्तविक विकास तब हुआ जब 1879 ई० में लखनऊ में अपर इण्डिया पेपर मिल्स तथा 1881 ई० में पश्चिम बंगाल में टीटागढ़ पेपर मिल्स की स्थापना की गयी। इसके बाद कारखानों की संख्या में वृद्धि होती गयी। शिक्षा में प्रगति के साथ-साथ कागज की माँग में भी वृद्धि होती रही है; फलतः उत्पादन में भी वृद्धि हुई। वर्तमान में देश में कागज के 380 कारखाने कार्यरत हैं।

कागज उद्योग के स्थानीयकरण को प्रभावित करने वाले भौगोलिक कारक
Geographical Factors Affecting to Localisation of Paper Industry

भारत में कागज उद्योग परम्परागत कच्चे माल (वन-आधारित लकड़ी) से मुक्त है, क्योंकि बाजार का 62% कागज गैर-परम्परागत कच्चे माल से तैयार किया जाता है। इनमें कृषि-कचरा एवं पुनः उपयोग में आने वाला कागज सम्मिलित है। देश में कागज उद्योग को निम्नलिखित भौगोलिक सुविधाएँ
उपलब्ध हैं –
(1) कच्चा माल – कागज उद्योग की स्थापना में कच्चे माल का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। कागज बनाने में सवाईघास, गन्ने की खोई,फटे-पुराने चीथड़े, रद्दी कागज, बाँस तथा कोमल लकड़ी प्रयुक्त की जाती है। भारत के तराई क्षेत्र में कागज उद्योग में प्रयुक्त की जाने वाली घास अधिक उगती हैं। इनसे लगभग 9% लुग्दी तैयार की जाती है। उत्तर प्रदेश तथा महाराष्ट्र में गन्ने की खोई पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है जिससे लगभग 4% लुग्दी तैयार की जाती है। पश्चिम बंगाल तथा दक्षिणी भारत में बाँस की लुगदी से कागज बनाया जाता है। यह कागज मोटा और घटिया किस्म का होता है। भारत में कोमल लकड़ी के वृक्ष कम उगते हैं; अत: केवल घास से ही कागज बनाया जाता है। अल्प मात्रा में लुगदी पश्चिमी यूरोपीय देशों से आयात की जाती है।

(2) स्वच्छ जल – कागज उद्योग के लिए स्वच्छ जल की आवश्यकता बहुत अधिक होती है। कागज उद्योग में प्रयुक्त पदार्थों को गलाने व साफ करने में स्वच्छ जल उपयोग में लाया जाता है। यही कारण है कि यहाँ पर अधिकांश कारखानों की स्थापना नदियों के किनारे पर की गयी है।
(3) रासायनिक पदार्थ – कच्चे माल के साथ-साथ कागज उद्योग में अनेक प्रकार के रासायनिक पदार्थों की आवश्यकता होती है। विभिन्न पदार्थों का रंग उड़ाने के लिए ब्लीचिंग पाउडर, गन्धक, सोडाएश, कॉस्टिक सोडा, क्लोरीन गैस, अमोनियम सल्फेट, चूना तथा नमक आदि की आवश्यकता होती है। ये सभी पदार्थ भारत में पर्याप्त मात्रा में स्थानीय रूप से उपलब्ध हैं।

(4) शक्ति संसाधन – कागज उद्योग में चालक शक्ति के रूप में जल-विद्युत अथवा ताप विद्युत- शक्ति (कोयला) की आवश्यकता होती है। कोयला एक भारी पदार्थ है; अत: उसे दूरवर्ती स्थानों तक ले जाने में कठिनाई तथा अधिक व्यय करना पड़ता है। भारत में जल-विद्युत के उत्पादन में कमी होने के कारण, कागज के कारखानों में उत्पादन बहुत घट गया है। पश्चिम बंगाल में अनेक कारखाने जल-विद्युत के अभाव में बन्द हो गये हैं या आंशिक रूप से चल रहे हैं। वर्तमान समय में 125 कागज मिलें इसी कारण बन्द पड़ी हैं अथवा आंशिक रूप से चल रही हैं। अत: इस उद्योग के विकास में पर्याप्त सस्ती जल-विद्युत शक्ति की अत्यन्त आवश्यकता है।

(5) सस्ते एवं कुशल श्रमिक – कागज की मिलों में कार्य करने के लिए अधिक संख्या में सस्ते एवं कुशल श्रमिकों की आवश्यकता होती है। भारत में प्राचीन काल से ही कागज उद्योग कुटीर उद्योग के रूप में चलाया जाता रहा है; अतः कुशल तथा अनुभवी श्रमिक यहाँ पर्याप्त संख्या में सुगमता से उपलब्ध हो जाते हैं। भारत की सघन जनसंख्या इस उद्योग को सस्ते श्रमिक उपलब्ध करा देती है।

(6) परिवहन के साधन – कागज की मिलों तक कच्चा माल लाने तथा तैयार कागज को बाहर भेजने के लिए परिवहन के सस्ते एवं सुगम साधनों की आवश्यकता पड़ती है। यही कारण है कि भारत में कागज के कारखाने प्रायः रेलवे लाइनों, नदियों अथवा सड़कों के सहारे-सहारे स्थापित किये गये हैं।

(7) पर्याप्त माँग – भारत में कागज की खपत बहुत अधिक है। इस विशाल देश में विद्यालयों तथा कार्यालयों के लिए कागज की पर्याप्त माँग रहती है। भारत का कागज उद्योग देश की माँग की पूर्ति (केवल 90%) भी नहीं कर पाता है।
(8) सरकारी सहायता एवं संरक्षण – भारत सरकार ने कागज उद्योग को सन् 1982 से संरक्षण प्रदान किया है जिसके फलस्वरूप इस उद्योग में आशातीत प्रगति हुई है। इसके अतिरिक्त सरकार कागज उद्योग को वित्तीय सहायता भी प्रदान करती है।

भारत में कागज का उत्पादन एवं वितरण
Production and Distribution of Paper in India

कागज के उत्पादन की दृष्टि से भारत का विश्व में बीसवाँ स्थान है। कागज एक विस्तृत उद्योग है। देश का 70% से भी अधिक कागज का उत्पादन पश्चिम बंगाल, आन्ध्र प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं मध्य प्रदेश राज्यों से प्राप्त होता है। कागज के उत्पादन का कुछ भाग हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, केरल एवं गुजरात राज्यों से प्राप्त होता है। प्रमुख कागज उत्पादक राज्यों का विवरण निम्नवत् है –
(1) पश्चिम बंगाल – पश्चिम बंगाल राज्य देश का लगभग 20% कागज उत्पन्न कर प्रथम स्थान बनाये हुए है। इस राज्य में कागज की 19 मिले हैं। टीटागढ़, रानीगंज, नैहाटी, त्रिवेणी, कोलकाता, काकिनाड़ा, चन्द्रहाटी (हुगली), आलम बाजार (कोलकाता), बड़ा नगर, बांसबेरिया तथा शिवफूली कागज उद्योग के प्रमुख केन्द्र हैं। टीटागढ़ में देश की सबसे बड़ी कागज मिल है जिसमें बाँस का कागज निर्मित किया जाता है।

(2) महाराष्ट्र – यह दूसरा बड़ा कागज उत्पादक राज्य है। यहाँ पर 14 कागज एवं 3कागज-गत्ते के सम्मिलित कारखाने हैं जो देश का लगभग 13% कागज का उत्पादन करते हैं। यहाँ पर कोमल लकड़ी की लुगदी विदेशों से आयात की जाती है। इसके अतिरिक्त बाँस, खोई एवं फटे-पुराने चिथड़ों का उपयोग कागंज बनाने में किया जाता है। गन्ने की खोई एवं धान की भूसी से गत्ता बनाया जाता है। पुणे, खोपोली, मुम्बई, बल्लारपुर, चन्द्रपुर, ओगेलवाडी, चिचवाडा, रोहा, कराड़, कोलाबा, कल्याण, वाड़ावाली, काम्पटी, नन्दुरबार, पिम्परी, भिवंडी एवं वारसनगाँव कागज उद्योग के प्रधान केन्द्र हैं। बल्लारपुर एवं सांगली में अखबारी कागज की मिलें भी स्थापित की गयी हैं।।

(3) आन्ध्र प्रदेश – कागज के उत्पादन में आन्ध्र प्रदेश राज्य का देश में तीसरा स्थान है, जहाँ देश का 12% कागज तैयार किया जाता है। कागज उद्योग के लिए बॉस इस राज्य का प्रमुख कच्चा माल है; अतः यहाँ पर यह उद्योग इसी कच्चे माल पर आधारित है। सिरपुर, कागजनगर, तिरुपति तथा राजमहेन्द्री प्रमुख कागज उत्पादक केन्द्र हैं।

(4) मध्य प्रदेश – इस राज्य में वनों का विस्तार अधिक है। यहाँ बाँस एवं सवाई घास पर्याप्त मात्रा में उगती है। इस राज्य में इन्दौर, भोपाल, सिहोर, शहडोल, रतलाम, मण्डीद्वीप, अमलाई एवं विदिशा प्रमुख कागज उत्पादक केन्द्र हैं। नेपानगर में अखबारी कागज तथा होशंगाबाद में नोट छापने के कागज बनाने का सरकारी कारखाना स्थापित है।

(5) उत्तर प्रदेश – उत्तर प्रदेश राज्य का यह उद्योग शिवालिक एवं तराई क्षेत्रों में सवाई, भाबर एवं मूंज घास तथा बॉस की प्राप्ति के ऊपर निर्भर करता है। यहाँ देश का 4.3% कागज उत्पन्न किया जाता है। लखनऊ, गोरखपुर एवं सहारनपुर कागज उत्पादन के प्रमुख केन्द्र हैं। इनके अतिरिक्त मेरठ, मुजफ्फरनगर, उझानी, पिपराइच, मोदीनगर, नैनी, लखनऊ तथा सहारनपुर प्रमुख गत्ता उत्पादक केन्द्र हैं।

(6) कर्नाटक – इस राज्य में भद्रावती, बेलागुला तथा डांडेली केन्द्रों पर कागज की मिलें हैं।
(7) अन्य राज्य – भारत के अन्य कागज उत्पादक राज्यों में बिहार, गुजरात, ओडिशा, केरल, हरियाणा एवं तमिलनाडु प्रमुख हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार – भारत में कागज का उपभोग निरन्तर बढ़ता जा रहा है। अतः उत्पादन की कमी की पूर्ति विदेशों से कागज का आयात कर की जाती है। यह आयात नॉर्वे, स्वीडन, जापान, हॉलैण्ड, पोलैण्ड, जर्मनी, कनाडा आदि देशों से किया जाता है। भारत थोड़ी मात्रा में कागज का निर्यात भी करता है। यह निर्यात अफ्रीकी एवं दक्षिणी-पूर्वी एशियाई देशों को किया जाता है। वर्ष 2001-2002 में भारत ने ₹ 2,131 करोड़ मूल्य के कागज का आयात किया। इस आयात को देखते हुए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भविष्य में कागज उत्पादन में आत्मनिर्भर होने के लिए देश के भीतर ही सम्भावित स्थानों पर कागज की मिलों का विस्तार किया जाना चाहिए।

प्रश्न 7
उत्तर प्रदेश के चमड़ा उद्योग का विवरण लिखिए।
उत्तर
चमड़ा उद्योग पूर्ण रूप से पशुओं पर आधारित उद्योग है। विश्व के लगभग एक-तिहाई पशु भारत में पाले जाते हैं। उत्तर प्रदेश राज्य में सर्वाधिक पशु पाले जाते हैं जिनसे खाल एवं चमड़ा पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होता है। पशुपालन व्यवसाय में इस राज्य का भारत में प्रथम स्थान है। इसी कारण यहाँ चमड़ा उद्योग काफी प्रगति कर गया है। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में चमड़ा एवं उससे निर्मित पदार्थों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उत्तर प्रदेश राज्य में यह उद्योग कुटीर उद्योग के रूप में विकसित हुआ है।
चमड़ा उद्योग का वर्गीकरण निम्नलिखित चार मुख्य विभागों में किया जा सकता है –

  • चाम एवं खालों का कमाना।
  • जूते बनाना।
  • यात्रा में काम आने वाले सामान।
  • मशीनों के पट्टे तथा उद्योगों में काम आने वाले यन्त्रों एवं उपकरणों का निर्माण।

उत्तर प्रदेश राज्य में चमड़े के लगभग 80 कारखाने हैं जिनमें चमड़ा पकाकर एवं कमाकर तैयार किया जाता है। कानपुर चमड़ा उद्योग का प्रधान केन्द्र है जहाँ इसके 25 कारखाने हैं। यहाँ जूते, चप्पल, सूटकेस, अटैचियाँ एवं सैनिक सामान बनाया जाता है। कानपुर में चमड़े की वस्तुओं को प्रोत्साहन देने हेतु (Finished Leather and Leather Manufacturers Council) की स्थापना की गयी है।

आगरा इस उद्योग का दूसरा बड़ा केन्द्र है, जहाँ इसके 25 कारखाने कार्यरत हैं। इनमें जूते, चप्पल अधिक बनाये जाते हैं। ये देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों को भी निर्यात किये जाते हैं। मेरठ खेल को सामान बनाने में देशव्यापी प्रसिद्ध केन्द्र है। यहाँ पर चमड़े से निर्मित खेल के सामान की पूर्ति देश भर में की जाती है। अन्य केन्द्रों में बरेली, अलीगढ़, इलाहाबाद एवं सहारनपुर प्रमुख हैं। यहाँ जूते विशेष रूप से बनाये जाते हैं।

उत्तर प्रदेश में जूते बनाने की 5 बड़ी इकाइयाँ हैं जिनमें कपूर एलन एण्ड कम्पनी, कानपुर; मॉडल इण्डस्ट्रीज, दयालबाग; आगरा तथा कर्जन शू फैक्ट्री, आगरा बहुत ही प्रसिद्ध हैं। प्रदेश में जितना चमड़ा बनता है उसका दो-तिहाई भाग जूता उद्योग में खप जाता है। वैसे तो यह उद्योग घरेलू स्तर पर छोटे-बड़े सभी नगरीय केन्द्रों में किया जाता है, परन्तु वृहत् स्तर पर पश्चिमी ढंग के जूते बनाने के केवल 5 कारखाने प्रदेश में स्थापित हैं, जबकि देश में कुल 15 कारखाने हैं। इस प्रदेश में निर्मित जूते, चप्पल, ब्रीफकेस, अटैचियाँ, खेल का सामान, सैनिक साज-सामान की माँग देश भर में रहती है।

जूता उद्योग के लिए आवश्यक कच्चा माल – जूता उद्योग के लिए आवश्यक कच्चा माल चाम एवं खाले हैं। प्रयोग करने से पहले इसे कमाया जाता है। देश में चमड़ा कमाने के 40 कारखाने हैं। इस व्यवसाय में १ 15 करोड़ की पूँजी लगी है। इनमें से लगभग 10% कारखाने उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित हैं। इन कच्ची खालों की उपलब्धि गाय एवं भैंसों से होती है, परन्तु देश के विभाजन के कारण कच्ची खालों की उपलब्धता में कुछ कमी आयी तथा खालों के कुछ केन्द्र पाकिस्तान में रह गये तथा खाल कमाने के कुछ कारखाने भारत में आये। चमड़ा कमाने के इस देशी उद्योग पर इस स्थिति का काफी प्रभाव पड़ा। भेड़-बकरियों की खाले अन्य कच्चा माल है जिसकी उपलब्धि आवश्यकता से भी अधिक है। अतः इनका विदेशों को निर्यात कर दिया जाता है।

चमड़ा कमाने में काम आने वाली वनस्पति में देश आत्मनिर्भर नहीं है। इस वनस्पति में बबूल की छाल एवं उसका सत महत्त्वपूर्ण है तथा इसका आयात पूर्वी अफ्रीका से किया जाता है। उत्तर प्रदेश राज्य में बबूल का उत्पादन उत्तरी-पश्चिमी भाग में किया जाता है। चमड़ा कमाने में काम आने वाली अन्य प्रमुख वनस्पति, आँवला एवं उसका सत, हर्र, बहेड़ा की छाल हैं। ये वनस्पति पदार्थ प्रदेश के शिवालिक की पहाड़ियों एवं दक्षिणी पठारी भागों में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। अन्य पदार्थों में चूना, सोडियम सल्फाइड, बोरिक एसिड, बाइक्रोमेट ऑफ सोडा, गन्धक का तेजाब मुख्य हैं। इनमें से अधिकांश वस्तुओं में देश आत्मनिर्भर है। इनके अतिरिक्त कॉड, हैरिंग एवं सील मछलियों का तेल भी काम में लाया जाता है। छाल एवं रासायनिक पदार्थों के अतिरिक्त ऐलुमिनियम, अण्डे की जर्दी एवं जैतून का तेल भी चमड़ा शोधन के काम में आता है। इस प्रकार अधिकांश चमड़ा कमाने के कच्चे पदार्थ देश में ही उपलब्ध हैं। कुछ रासायनिक पदार्थों का विदेशों से आयात किया जाता है। प्रदेश का यह उद्योग सफलता की ओर अग्रसर है।

भारतीय चमड़े की माँग प्रमुखतया ब्रिटेन 45%, जर्मनी 10%, फ्रांस 7% एवं संयुक्त राज्य अमेरिका 9% देशों में रहती है। इटली, जापान, बेल्जियम एवं पूर्ववर्ती यूगोस्लाविया अन्य प्रमुख आयातक देश हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारतीय अर्थव्यवस्था में कुटीर उद्योगों की महत्ता को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
भारतीय अर्थतन्त्र कृषि पर आधारित है। देश की 72% जनसंख्या गाँवों में बसती है तथा कृषि द्वारा आजीविका निर्वाह करती है। कृषि एक मौसमी व्यवसाय है, जिससे कृषकों को पर्याप्त रोजगार प्राप्त नहीं होता। अतएव कृषि पर आधारित कुटीर उद्योगों; जैसे-हथकरघा द्वारा सूती धागा तथा वस्त्र बनाना, खाद्य तेल प्रसंस्करण, गुड़, शक्कर बनाना, चटाई, बान, रस्सी आदि बनाना बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इन उद्योगों से जहाँ ग्रामीण जनसंख्या को आजीविका के साधन प्राप्त होते हैं, वहीं अर्थतन्त्र में भी सुधार होता है। इसी प्रकार, नगरों में भी अनेक कुटीर उद्योग लोगों की पारिवारिक आय का साधन होते हैं। इनसे श्रमिकों को रोजगार की प्राप्ति होती है।

प्रश्न 2
भिलाई में लौह-इस्पात उद्योग के स्थापित होने के दो कारणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
भिलाई में लौह-इस्पात उद्योग के स्थापित होने के दो कारण निम्नलिखित हैं –
(1) कच्चे लोहे की निकट उपलब्धता – इस कारखाने के लिए कच्चा लोहा बस्तर, करघाली व राजहरा की पहाड़ियों से उपलब्ध हो जाता है। इसके अतिरिक्त झरिया और बोकारो का मिश्रित कोयला धातुशोधन के उपयुक्त बनाया जाता है। कोरबा ताप शक्ति-गृह से 90,000 किलोवाट बिजली भी उपलब्ध होती है।

(2) चूना व डोलोमाइट की निकट उपलब्धता – इस कारखाने के लिए चुना निकट ही दुर्ग, रायपुर और बिलासपुर जिलों से प्राप्त हो जाता है। डोलोमाइट भी निकट ही भानेवर, कासोंदी, पारसोदा, खरिया, रामतोला और हरदी (बिलासपुर) और भाटापारा (रायपुर) से प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न 3
भारत में लौह तथा इस्पात उद्योग के चार केन्द्रों का उल्लेख कीजिए।
या
बोकारो भारत के किस राज्य में स्थित है तथा यह किस उद्योग के लिए प्रसिद्ध है? [2010,14]
उत्तर
भारत में लौह तथा इस्पात उद्योग के चार केन्द्र निम्नलिखित हैं –

  1. राउरकेला इस्पात लिमिटेड – हिन्दुस्तान स्टील लिमिटेड के तत्वावधान में 1955 ई० में ओडिशा राज्य के सुन्दरगढ़ जिले में राउरकेला नामक स्थान पर जर्मनी की क्रुप्स डिमॉग कम्पनी के सहयोग से इस कारखाने की स्थापना की गयी थी। वर्तमान में इसकी वार्षिक उत्पादन क्षमता 30.10 लाख टन इस्पात तैयार करने की है।
  2. भिलाई इस्पात लिमिटेड – इस कारखाने की स्थापना 1953 ई० में पूर्व सोवियत संघ की सहायता से छत्तीसगढ़ राज्य के भिलाई नामक स्थान पर की गयी थी। इस कारखाने पर भी हिन्दुस्तान स्टील लिमिटेड का अधिकार है। वर्तमान में इस कारखाने की वार्षिक उत्पादन क्षमता 40 लाख टन इस्पात तैयार करने की है।
  3. दुर्गापुर इस्पात लिमिटेड – हिन्दुस्तान स्टील लिमिटेड के तत्त्वावधान में इस कारखाने की स्थापना सन् 1956 में पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर नामक स्थान पर ब्रिटिश सरकार की सहायता से की गयी है। इस कारखाने की वार्षिक उत्पादन क्षमता 28 लाख टन है।
  4. बोकारो इस्पात लिमिटेड – चतुर्थ पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत सन् 1964 में पश्चिमी झारखण्ड के धनबाद जिले के बोकारो नामक स्थान पर इस कारखाने की स्थापना की गयी थी। इसके निर्माण में पूर्व सोवियत संघ की सरकार से सहायता ली गयी थी। इस कारखाने की उत्पादन क्षमता 40 लाख टन थी, जिसे बाद में 60 लाख टन तक बढ़ाया गया है।

प्रश्न 4
भारत में चीनी उद्योग के विकास की समस्याओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
भारत में चीनी उद्योग के विकास की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं –

  1. भारत में गन्ने का लागत मूल्य अधिक है; अत: चीनी उत्पादन महँगा पड़ता है।
  2. चीनी की मिलों में पुराने उपकरण तथा मशीनें होने से उत्पादन कम होता है।
  3. चीनी उद्योग पर सरकार ने भारी कर लगा रखे हैं।
  4. श्रमिकों की हड़तालें भी चीनी उत्पादन में बाधक हैं।

प्रश्न 5
भारत के सूती वस्त्र उद्योग के किसी एक राज्य में स्थानीयकरण के कारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
महाराष्ट्र – यहाँ 119 कारखानों में से 40 कताई मिल तथा 79 सम्मिश्रित कारखाने हैं। अकेले मुम्बई में 54 कारखाने स्थापित हैं। नागपुर, पुणे, वर्धा, अमरावती, अकोला, कोल्हापुर, शोलापुर एवं सांगली प्रमुख केन्द्र हैं। राज्य में सूती वस्त्रोद्योग के विकास में निम्नलिखित कारक उत्तरदायी रहे हैं –

  1. दक्कन लावा के मिट्टी क्षेत्र में कपास की खेती उत्तम होती है।
  2. मुम्बई पत्तन से मिस्र, अमेरिका आदि से कपास तथा यूरोप से मशीनरी आयात की सुविधा है।
  3. राज्य में सघन आबादी के कारण पर्याप्त श्रमिक उपलब्ध हैं।
  4. राज्य में उद्योग के पूर्वारम्भ के कारण श्रमिक कुशल हो गये हैं।
  5. मुम्बई नगर प्रमुख व्यापार केन्द्र होने के कारण पूँजी की सुविधा प्राप्त है।
  6. मुम्बई भीतरी भागों से रेलों एवं सड़कों द्वारा जुड़ा है।
  7. मुम्बई की आर्द्र जलवायु सूती वस्त्र बनाने के लिए उपयुक्त है। कारखानों के भीतर कृत्रिम नमी उत्पन्न करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
  8. जल-विद्युत एवं परमाणु विद्युत का विकास होने के कारण विदेशों से कोयलों के आयात की आवश्यकता नहीं पड़ती।
  9. अनेक प्रकार के विशिष्ट वस्त्र (लट्ठा, मलमल, वायल, छींट, सूटिंग, शर्लिंग, धोती, साड़ी, चादरें आदि) तैयार किये जाते हैं।
  10. उद्योग के पूर्वारम्भ के कारण मुम्बई को ‘सूती वस्त्रों की राजधानी’ (Cottonopolis) कहा जाता है।

प्रश्न 6
उद्योगों के स्थानीयकरण के लिए किन्हीं चार भौगोलिक कारकों का उल्लेख कीजिए
उत्तर
उद्योगों के स्थानीकरण के चार भौगोलिक कारकों का विवरण निम्नवत् है –

  1. कच्चे माल की उपलब्धता – किसी स्थान पर कच्चे माल की उपलब्धता वहाँ सम्बन्धित उद्योग के स्थानीयकरण का प्रमुख कारक है। ऐसा न होने पर कच्चा माल अन्यत्र दूरस्थ स्थान पर ले जाने में समय व धन का अपव्यय होता है। यही कारण है कि चीनी के उद्योग का उत्तर प्रदेश में, लौह-इस्पात उद्योग का झारखण्ड में, सूती वस्त्र उद्योग को महाराष्ट्र में स्थानीयकरण हुआ है।
  2. जलवायु – किसी भी उद्योग के लिए किसी स्थान पर उपयुक्त जलवायु होना भी स्थानीयकरण का कारक है। सूती वस्त्र उद्योग के लिए आर्द्र जलवायु आवश्यक है तो चीनी उद्योग के लिए उष्ण-आर्द्र। यही कारण है कि सूती वस्त्र उद्योग का महाराष्ट्र व गुजरात में स्थानीयकरण हुआ है।
  3. जल की उपलब्धता – अधिकांश विनिर्माण उद्योगों में जल की आवश्यकता बड़ी मात्रा में पड़ती है। सीमेण्ट उद्योग, कागज उद्योग, चीनी उद्योग ऐसे उद्योगों के उदाहरण हैं। ये उद्योग उन्हीं स्रोतों पर केन्द्रित हैं जहाँ जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है।
  4. श्रम-शक्ति की उपलब्धता – लगभग सभी उद्योगों में पर्याप्त तथा कुशल श्रम-शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। किसी जल-विहीन या निम्नतम जनसंख्या घनत्व वाले स्थान पर उद्योगों के लिए श्रम-शक्ति का अभाव होता है। अन्य स्थानों से श्रम-शक्ति को लाकर बसाना महँगा व असुविधाजनक होती है। अत: उद्योगों के स्थानीयकरण में श्रम-शक्ति की उपलब्धता एक महत्त्वपूर्ण कारक है।

प्रश्न 7
भारत में सूती वस्त्रोद्योग के स्थानीयकरण के कोई चार कारक बताइए। [2007]
उत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 5 के अन्तर्गत ‘सूती वस्त्र उद्योग के स्थानीयकरण के कारक शीर्षक देखें।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारत की इस्पात नगरी किसे कहते हैं? उत्तर भारत के झारखण्ड राज्य के सिंहभूम जिले में सांकची (जमशेदपुर) नामक स्थान पर प्रसिद्ध उद्योगपति जमशेदं जी टाटा द्वारा स्थापित “टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी, जमशेदपुर को भारत की इस्पात नगरी कहा जाता है।

प्रश्न 2
सलेम का इस्पात संयन्त्र किस राज्य में है?
उत्तर
सलेम का इस्पात संयन्त्र भारत के तमिलनाडु के सलेम जिले में है।

प्रश्न 3
सीमेण्ट का सर्वाधिक उत्पादन करने वाला राज्य कौन-सा है?
उत्तर
भारत में सीमेण्ट का सर्वाधिक उत्पादन आन्ध्र प्रदेश राज्य (देश का 15%) में होता है।

प्रश्न 4
एशिया का सबसे बड़ा सीमेण्ट कारखाना कहाँ स्थित है?
उत्तर
उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में चुर्क तथा चुनार कजराहट में स्थित है।

प्रश्न 5
भारत का सबसे बड़ा सूती वस्त्र उत्पादक राज्य कौन-सा है? उत्तर गुजरात भारत का सबसे बड़ा सूती वस्त्र उत्पादक राज्य है।

प्रश्न 6
‘उत्तरी भारत का मानचेस्टर’ किसे कहा जाता है?
उत्तर
उत्तर प्रदेश का कानपुर नगर सूती वस्त्र उद्योग का प्रमुख केन्द्र होने के कारण ‘उत्तरी भारत का मानचेस्टर’ कहा जाता है।

प्रश्न 7
भारत की सर्वाधिक सूती वस्त्र मिलें किस राज्य में स्थित हैं?
उत्तर
भारत में सर्वाधिक सूती वस्त्र मिलें तमिलनाडु राज्य में स्थित हैं।

प्रश्न 8
भारत का सर्वाधिक चीनी उत्पादक राज्य कौन-सा है?
उत्तर
उत्तर प्रदेश भारत का सर्वाधिक चीनी उत्पादक राज्य है।

प्रश्न 9
वर्तमान में भारत में कितनी चीनी मिलें हैं?
उत्तर
वर्तमान में भारत में 435 चीनी मिलें हैं।

प्रश्न 10
छत्तीसगढ़ के सीमेण्ट उद्योग के केन्द्रों के नाम लिखिए।
उत्तर
छत्तीसगढ़ में सीमेण्ट उद्योग केन्द्र हैं—जामुला, मंधार, तिलदा, मोदीग्राम, अलकतरा एवं रायगढ़।

प्रश्न 11
हिन्दुस्तान मशीन टूल्स के कारखाने कहाँ-कहाँ स्थित हैं?
उत्तर
‘हिन्दुस्तान मशीन टूल्स के कारखाने जलाहाजी, बंगलुरु, पिंजौर, कालामसेरी और हैदराबाद आदि स्थानों पर स्थित हैं।

प्रश्न 12
भारत में उत्पन्न होने वाले विभिन्न रेशमों का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर
शहतूत का रेशम, टशर रेशम, मूंगा रेशम तथा ईरी रेशम।

प्रश्न 13
टशर रेशम क्या है? इसके प्रमुख उत्पादक राज्यों का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर
यह शहतूत पर पाले गये कीड़ों से प्राप्त किया जाता है। यह रेशम कुछ घटिया किस्म का माना जाता है। इसके प्रमुख उत्पादक राज्य झारखण्ड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ हैं।

प्रश्न 14
पश्चिम बंगाल की कृषि पर आधारित प्रमुख उद्योग का नाम बताइए तथा उसके प्रमुख केन्द्रों के नाम लिखिए। [2008]
उत्तर
पश्चिम बंगाल में कृषि पर आधारित प्रमुख फसल जूट है। जूट उद्योग के प्रमुख केन्द्र टीटागढ़, शिवपुर, हावड़ा, श्यामनगर, बाटानगर, सियालदाह, बिरलापुर, बैरकपुर आदि हैं।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 22 Industries

प्रश्न 15
भिलाई भारत के किस राज्य में स्थित है तथा यह किस उद्योग के लिए प्रसिद्ध है? [2008, 14]
उत्तर
भिलाई भारत के छत्तीसगढ़ राज्य में स्थित है तथा यह इस्पात उद्योग के लिए प्रसिद्ध है, जो यहाँ सन् 1953 में पूर्व सोवियत संघ की सहायता से स्थापित किया गया था।

प्रश्न 16
गुजरात के सूती वस्त्र उद्योग के किन्हीं दो केन्द्रों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
गुजरात के सूती वस्त्र उद्योग के दो केन्द्र हैं-अहमदाबाद तथा सूरत।

प्रश्न 17
उद्योगों के स्थानीयकरण के लिए किन्हीं दो कारकों के नाम लिखिए। [2007]
उत्तर

  1. कच्चे माल की उपलब्धता तथा
  2. यातायात के साधनों की उपलब्धता।

प्रश्न 18
पश्चिम बंगाल के दो प्रमुख कागज उद्योग-केन्द्रों के नाम लिखिए। [2007]
उत्तर

  1. टीटागढ़ तथा
  2. रानीगंज।

प्रश्न 19
भारत के दो प्रमुख लौह तथा इस्पात संयन्त्रों के नाम बताइए। [2008, 09, 16]
उत्तर

  1. भिलाई इस्पात लिमिटेड तथा
  2. बोकारो इस्पात लिमिटेड।

प्रश्न 20
भारत में लौह-अयस्क भण्डार के दो प्रमुख राज्यों का उल्लेख कीजिए। [2014]
उत्तरं

  1. झारखण्ड तथा
  2. छत्तीसगढ़।

प्रश्न 21
भारत के सूती वस्त्र उद्योग के अधिक विकास वाले दो राज्यों के नाम लिखिए। [2008]
या
भारत के सूती वस्त्र उद्योग के दो केन्द्रों के नाम लिखिए। [2013]
उत्तर

  1. गुजरात तथा
  2. महाराष्ट्र।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारत के जूट उद्योग का सबसे मुख्य क्षेत्र है –
(क) पश्चिम बंगाल में हुगली नदी का किनारा
(ख) उत्तर प्रदेश में शहजनता
(ग) बिहार में दरभंगा
(घ) मध्य प्रदेश में रायगढ़
उत्तर
(क) पश्चिम बंगाल में हुगली नदी का किनारा।

प्रश्न 2
भारत का सबसे बड़ा सूती वस्त्र उत्पादक राज्य है –
(क) महाराष्ट्र
(ख) गुजरात
(ग) बंगाल
(घ) मध्य प्रदेश
उत्तर
(ख) गुजरात।

प्रश्न 3
सूती वस्त्र उत्पादन में पूर्व का बोस्टन कहलाता है –
(क) गुजरात का अहमदाबाद
(ख) उत्तर प्रदेश का कानपुर
(ग) महाराष्ट्र का कोल्हापुर
(घ) पश्चिम बंगाल का कोलकाता
उत्तर
(क) गुजरात का अहमदाबाद।

प्रश्न 4
स्टील ऑथोरिटी ऑफ इण्डिया लि० की स्थापना किस वर्ष हुई?
(क) 1963 ई० में
(ख) 1971 ई० में
(ग) 1973 ई० में
(घ) 1976 ई० में
उत्तर
(ग) 1973 ई० में।

प्रश्न 5
भारत का लोहा-इस्पात कारखाना जो निजी क्षेत्र में स्थापित है –
(क) विशाखापट्टनम् स्टील प्लाण्ट
(ख) सलेम स्टील प्लाण्ट
(ग) टाटा आयरन एण्ड स्टील प्लाण्ट
(घ) दुर्गापुर स्टील प्लाण्ट
उत्तर
(ग) टाटा आयरन एण्ड स्टील प्लाण्ट

प्रश्न 6
निम्नलिखित केन्द्रों में से कौन लोहा-इस्पात उद्योग का केन्द्र नहीं है?
(क) बोकारो
(ख) रेनुकूट
(ग) भिलाई
(घ) राउरकेला
उत्तर
(ख) रेनुकूट।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 22 Industries

प्रश्न 7
निम्नलिखित में से भारत की कौन-सी लौह-इस्पात इकाई सबसे पुरानी है?
(क) भद्रावती
(ख) बोकारो
(ग) जमशेदपुर
(घ) दुर्गापुर
उत्तर
(ग) जमशेदपुर।

प्रश्न 8
निम्नलिखित इस्पात केन्द्रों में से कौन छत्तीसगढ़ राज्य में स्थित है?
(क) भिलाई
(ख) राउरकेला
(ग) दुर्गापुर
(घ) बोकारो
उत्तर
(क) भिलाई।

प्रश्न 9
पंजाब का कौन-सा नगर हौजरी उद्योग के लिए प्रसिद्ध है?
(क) गुरदासपुर
(ख) लुधियाना
(ग) अमृतसर
(घ) जालन्धर
उत्तर
(ख) लुधियाना।

प्रश्न 10
देश में रेशम उद्योग का सर्वाधिक स्थानीयकरण किस राज्य में हुआ?
(क) कर्नाटक
(ख) आन्ध्र प्रदेश
(ग) पंजाब
(घ) झारखण्ड तर
उत्तर
(क) कर्नाटक।

प्रश्न 11
टाटा का लोहा तथा इस्पात संयन्त्र स्थित है – [2010,14] 
(क) बिहार में
(ख) मध्य प्रदेश में
(ग) झारखण्ड में
(घ) छत्तीसगढ़ में
उत्तर
(ग) झारखण्ड में।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 22 Industries

प्रश्न 12
निम्नलिखित में से कौन-सा औद्योगिक नगर है? [2012]
(क) जमशेदपुर
(ख) वाराणसी
(ग) लखनऊ
(घ) मथुरा
उत्तर
(क) जमशेदपुर।

प्रश्न 13
भिलाई लौह-इस्पात संयन्त्र अवस्थित है – [2015, 16]
(क) मध्य प्रदेश में
(ख) झारखण्ड में
(ग) छत्तीसगढ़ में
(घ) ओडिशा में
उत्तर
(ग) छत्तीसगढ़ में।

प्रश्न 14
‘जमशेदपुर’ सम्बन्धित है – [2016]
(क) सूती वस्त्र उद्योग से।
(ख) चीनी उद्योग से
(ग) सीमेण्ट उद्योग से
(घ) लोहा एवं इस्पात उद्योग से
उत्तर
(घ) लोहा एवं इस्पात उद्योग से।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 22 Industries (उद्योग धन्धे) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 22 Industries (उद्योग धन्धे), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 17 Population Education

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 17 Population Education (जनसंख्या शिक्षा) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 17 Population Education (जनसंख्या शिक्षा).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 17
Chapter Name Population Education (जनसंख्या शिक्षा)
Number of Questions Solved 42
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 17 Population Education (जनसंख्या शिक्षा)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
जनसंख्या शिक्षा से आप क्या समझते हैं? भारत में जनसंख्या शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्त्व का भी उल्लेख कीजिए।
उतर
जनसंख्या शिक्षा की अवधारणा
जनसंख्या शिक्षा शिक्षाशास्त्र की एक नवीन अवधारणा है। इस अवधारणा की उत्पत्ति और प्रसार का प्रमुख कारण जनसंख्या की तीव्र गति से वृद्धि है। जनसंख्या की असाधारण वृद्धि ने विश्व के सम्मुख एक अत्यन्त भीषण समस्या उत्पन्न कर दी है। जनसंख्या की वृद्धि वैयक्तिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक पक्ष पर अपना दूषित प्रभाव डालती है। भारत में तो जनसंख्या इतनी तीव्र गति से बढ़ी है। कि हमारे प्रगति के सभी मार्ग अवरुद्ध हो गये हैं। कुछ समय पूर्व तक जनसंख्या शिक्षा की अवधारणा को व्यक्त करने के हेतु यौन शिक्षा, पारिवारिक जीवन शिक्षा आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता था। 1962 ई० के बाद कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्रो० वेलैण्ड ने जनसंख्या शिक्षा शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया। उसी समय से जनसंख्या शिक्षा’ शब्द का प्रयोग निरन्तर होता आ रहा है। अब जनसंख्या शिक्षा को अति आवश्यक एवं उपयोगी माना जाने लगा है। इसका कारण यह है कि शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर जनसंख्या शिक्षा के समावेश को आवश्यक माना जाने लगा है।

जनसंख्या शिक्षा की परिभाषा
अभी तक ‘जनसंख्या शिक्षा का कोई भी सर्वमान्य स्वीकृत अर्थ नहीं प्रस्तुत किया गया है और न ही उसकी कोई परिभाषा है। सबसे पहले इसकी व्याख्या सितम्बर, 1970 ई० में यूनेस्को की ओर से बैंकांक में आयोजित की जाने वाली ‘जनसंख्या शिक्षा संगोष्ठी में की गयी। उसमें कहा गया-“जनसंख्या शिक्षा एक शैक्षिक कार्यक्रम है, जिसमें परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व की जनसंख्या की स्थिति का अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन का उद्देश्य छात्रों में इस स्थिति के प्रति विवेकपूर्ण, उत्तरदायित्वपूर्ण दृष्टिकोण तथा व्यवहार का विकास करना है।”

डॉ० वी०के०आर०वी० राव ने जनसंख्या शिक्षा की परिभाषा इस प्रकार दी है-“जनसंख्या शिक्षा प्रमुख रूप से ऐसी प्रेरणा-शक्ति है जो हमारे परिवार की सीमा एवं परिवार नियोजन की आवश्यकताओं के प्रति उचित दृष्टिकोण उत्पन्न करती है और राष्ट्र के आर्थिक एवं सामाजिक विकास में सहायता प्रदान करती है। इसे यौन शिक्षा और परिवार नियोजन की जानकारी से निश्चित नहीं किया जाना चाहिए।” डॉ० राव का विचार है कि शिक्षा का सम्बन्ध मानवीय स्थितियों के विकास से भी है, क्योंकि सीमित परिवार अथवा परिवार की संख्या उसकी प्रगति अथवा सुधार के मार्ग को निश्चित करती है। | वीडरमैन के अनुसार, “जनसंख्या शिक्षा एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा छात्रों को जनसंख्या तत्त्व की प्रवृत्ति और उसकी व्याख्या, जनसंख्या की विशेषताओं, जनसंख्या में परिवर्तनों के कारणों, उसके परिणामों और इन परिवर्तनों से परिवार, समाज, देश एवं विश्व पर पड़ने वाले प्रभावों से अवगत कराया जाता है।

डॉ० चन्द्रशेखर का मत है, “जनसंख्या शिक्षा न तो यौन-शिक्षा है और न परिवार नियोजन की शिक्षा। जनसंख्या शिक्षा जनसंख्या वृद्धि, इसके वितरण एवं जीवन-स्तर से , उसके सम्बन्ध और उसके आर्थिक एवं सामाजिक परिणामों का अर्थशास्त्र एवं समाजशास्त्र है।” इस तरह जनसंख्या शिक्षा के माध्यम से छात्रों को विश्व, राष्ट्र, राज्य, स्थानीय और परिवार स्तर पर जनसंख्या के विविध पहलुओं से अवगत कराया जाता है। साथ ही उन्हें रहन-सहन के स्तर एवं आर्थिक और सामाजिक स्तर पर जनसंख्या वृद्धि के प्रभाव के सम्बन्ध में जानकारी प्रदान की जाती है। इस तरह जनसंख्या शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य व्यक्ति को इस योग्य बनाना है कि वे जनसंख्या वृद्धि और उससे उत्पन्न समस्याओं को समझ सकें। उनमें यह संचेतना उत्पन्न हो जिससे वे विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो सकें।

भारत में जनसंख्या शिक्षा की आवश्यकता और महत्त्व
2011 की जनसंख्या के अनुसार, भारत की जनसंख्या 121.02 करोड़ हो चुकी है। भारत में जनसंख्या विस्फोट के इस विकराल रूप ने जनसंख्या शिक्षा की आवश्यकता को अनिवार्य बना दिया है। जनसंख्या शिक्षा के उद्देश्य, जो “राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसन्धान प्रशिक्षण परिषद्” ने अपनी पुस्तिका में व्यक्त किये हैं, उनसे उसका महत्त्व स्पष्ट हो जाता है, इस प्रकार है-

  1. छात्रों को आधुनिक विश्व की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना के रूप में जनसंख्या वृद्धि की गति तथा
    कारणों के सम्बन्ध में ज्ञानं प्रदान करना।
  2. छात्रों को व्यक्ति, परिवार, समाज तथा विश्व के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा
    राजनीतिक जीवन पर जनसंख्या वृद्धि के पड़ने वाले प्रभावों से अवगत कराना।
  3. छात्रों को परिवार के आकार तथा रहन-सहन के स्तर के सम्बन्ध में बताना तथा कम आय वाले।
    परिवारों की कव॑िनाई बताकर उन्हें छोटा परिवार रखने हेतु प्रेरित करना।
  4. छात्रों को जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न होने वाली निम्नलिखित समस्याओं की जानकारी प्रदान करके उनमें जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण रखने के दृष्टिकोण का विकास करना-
    1. रोगों तथा दुर्भिक्षों की फैलना
    2. अपराधों एवं सामाजिक संघर्षों का बढ़ना,
    3. जन्म-दर एवं मृत्यु-दर में असन्तुलन
    4. देश की आवश्यकता तथा सुरक्षा में बाधा उत्पन्न होना
    5. भोजन, वस्त्र, मकान, रोजगार, शिक्षण संस्थाओं आदि का अभाव होना।

जनसंख्या शिक्षा के उपर्युक्त उद्देश्यों को एक राष्ट्रीय सेमिनार में इस प्रकार स्पष्ट किया गया-“जनसंख्या शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को यह समझने की योग्यता प्रदान करना होना चाहिए कि परिवार के आकार को नियन्त्रित किया जा सकता है, जनसंख्या का सीमा निर्धारण राष्ट्र में उत्तम जीवन को सुविधाजनक बना सकता है और परिवार का छोटा आकार प्रत्येक परिवार के सदस्य के जीवन-स्तर के उन्नयन में अतिशय योगदान दे सकता है।’ यहाँ हम भारत में जनसंख्या शिक्षा की आवश्यकता और महत्त्व की विवेचना करेंगे। भारत एक प्रगतिशील देश है जिसने लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपनाया है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमने विभिन्न क्षेत्रों में काफी प्रगति की है परन्तु जनसंख्या वृद्धि के फलस्वरूप हमारी प्रगति का सम्पूर्ण लाभ राष्ट्र को नहीं प्राप्त हो सका है। यद्यपि खाद्यान्न के क्षेत्र में हम आत्मनिर्भर हो चुके हैं परन्तु अन्य क्षेत्रों में हम काफी पिछड़े हुए हैं। ऐसी स्थिति में जनसंख्या पर नियन्त्रण रखना अत्यन्त आवश्यक है।

जनसंख्या शिक्षा द्वारा छात्र-छात्राओं में इस विचार का समावेश करके कि “छोटा परिवार सुखी परिवार” हम भावी नागरिकों को परिवार नियोजन के हेतु प्रेरित कर सकेंगे। यदि पाठ्यक्रम में जीवन और विज्ञान के अध्ययन को आवश्यक माना जाता है तो मानव जनसंख्या के अध्ययन को भी आवश्यक मानकर उसे पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाना चाहिए। भारत में अनेक सामाजिक कुरीतियाँ व्याप्त हैं। संसार के उन्नत देशों की अपेक्षा भारत में विवाह की आयु बहुत कम है। इस कारण युवक और युवतियों को विवाह से पूर्व ही जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न होने वाली समस्याओं आदि की जानकारी प्रदान करना अत्यन्त आवश्यक है। जब युवक और युवतियाँ जनसंख्या शिक्षा के द्वारा पर्याप्त जानकारी उपलब्ध कर लेंगे तो जनसँख्या पर नियन्त्रण रखना आसान हो जाएगा। यह कहा जाता है कि किसी देश के स्वस्थ नागरिक ही देश के भविष्य को उज्ज्वल बना सकते हैं।

आज संसार के सभी देश अपने नागरिकों के कल्याण, स्वास्थ्य और पूर्ण विकास के हेतु प्रयत्नशील हैं। भारत भी इस क्षेत्र में प्रयास तो कर रहा है परन्तु हमें सफलता तब तक नहीं प्राप्त हो सकती जब तक य के लोग जनसंख्या शिक्षा द्वारा जनसंख्या वृद्धि के कुप्रभावों से परिचित न हो जाएँ और जनसंख्या वृद्धि को रोकने के हेतु युद्ध-स्तर पर कार्यवाही की जाए। जनसंख्या की वृद्धि देश के आर्थिक और सामाजिक विकास में बाधक है। जनसंख्या वृद्धि के कारण ही भारतीय नागरिकों के रहन-सहन का स्तर ऊँचा नहीं उठ पा रहा है। जनसंख्या शिक्षा द्वारा छात्र-छात्राओं को इससे अवगत कराना आवश्यक हो गया है। जनसंख्या शिक्षा के अन्तर्गत केवल परिवार नियोजन आदि के विषय में ही नहीं बतलाया जाता है बल्कि इसके अन्तर्गत छात्रों को उन सभी बातों से अवगत कराया जाता है जो जनसंख्या से सम्बन्धित हैं। इनकी जानकारी प्राप्त करके छात्र-छात्राएँ कालान्तर में अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह भली-भाँति कर सकते हैं।

डॉ० लल्ला और डॉ० मूर्ति ने ठीक ही लिखा है-“कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति आधुनिक समय के सन्दर्भ में जनसंख्या शिक्षा के महत्त्व और आवश्यकता की उपेक्षा नहीं कर सकता।” भारत में जनसंख्या शिक्षा की विशेष आवश्यकता है। विकासशील भारत के पास सीमित संसाधन हैं। और सीमित संसाधनों से विशाल जनसंख्या का भरण-पोषण करना अत्यन्त कठिन है, फलस्वरूप जनसंख्या नियन्त्रण की विशेष आवश्यकता है। भारत में जनसंख्या शिक्षा परिवार को सीमित रखने के लिए अत्यन्त आवश्यक है, साथ ही जीवन की गुणवत्ता को बनाये रखने, जन्मदर और मृत्युदर को सन्तुलित रखने, परिवार को स्वस्थ-सुखी बनाने, माताओं को उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करने, बच्चों को कुपोषण से बचाने, निरक्षरता का उन्मूलन करने, बेरोजगारी की समस्या के समाधान, पर्यावरण प्रदूषण से बचने और देश के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए जनसंख्या शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है। उत्पादन एवं उपभोक्ता के मध्य सन्तुलन स्थापित करने के लिए भी जनसंख्या शिक्षा की विशेष आवश्यकता है। इस शिक्षा के प्रति लोगों में संचेतना जाग्रत करना अत्यन्त आवश्यक है।

प्रश्न 2
भारत में जनसंख्या शिक्षा के कार्यक्रमों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
भारत में राष्ट्रीय जनसंख्या शिक्षा कार्यक्रम को 1 अप्रैल, 1980 से प्रारम्भ किया गया। शिक्षा की औपचारिक और अनौपचारिक पद्धतियों के साथ जनसंख्या शिक्षा को जोड़ा गया जिससे कि विद्यार्थियों और युवा पीढ़ी में जनसंख्या के प्रति एक स्वस्थ दृष्टिकोण का विकास हो सके। इस कार्यक्रम को सभी राज्यों और संघीय क्षेत्रों में चलाया जा रहा है। कार्यक्रम के संचालन हेतु केन्द्र सरकार ने एक उच्च अधिकार प्राप्त संचालन समिति का गठन किया है। देश की विभिन्न शिक्षण-संस्थाओं में जनसंख्या शिक्षा के प्रसार का दायित्व राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान प्रशिक्षण परिषद् के सुपुर्द किया गया। । विद्यालय स्तर पर यह एक अलग विषय के रूप में नहीं बल्कि विभिन्न विषयों के साथ सम्मिलित करके पढ़ाया जाता है। इस समय तक लगभग 16 लाख शिक्षकों को जनसंख्या शिक्षा में प्रशिक्षित किया गया है और श्रव्य-दृश्य साधनों के रूप में हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में स्लाइडों को तैयार किया गया है, जिन्हें सभी राज्यों में वितरित किया गया है।

शिक्षकों के हेतु जनसंख्या शिक्षा नामक पुस्तक भी प्रकाशित की गयी है जिसमें बी०एड० के सेवा पूर्व शिक्षक प्रशिक्षण के हेतु पाठ्यचर्या सम्मिलित की गयी है। ‘यूनेपा’ (UNEPA) के सहयोग से भारत ने “मेरे बच्चे, मेरा भविष्य” नामक श्रव्य-दृश्य कार्यक्रम तैयार किया है। वर्तमान समय में 800 लाख छात्रों को जनसंख्या शिक्षा की जानकारी प्रदान की जा रही है। जनसंख्या शिक्षा पर राष्ट्रीय स्तर और राज्य स्तर पर लगभग 400 पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। ‘राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसन्धान प्रशिक्षण परिषद् ने स्कूली पाठ्यचर्या में जनसंख्या शिक्षा के हेतु ‘प्लग प्वाइंट्स नामक दस्तावेज का प्रकाशन किया है जिसके आधार पर राज्यों और संघीय क्षेत्रों में पाठ्यचर्या निर्मित की गयी है।

साथ ही जनसंख्या शिक्षा से सम्बन्धित प्रदर्शनी, पोस्टर, निबन्ध लेखन प्रतियोगिता, कार्यशाला और सेमिनारों आदि का आयोजन भी किया जाता है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग देश के कई विश्वविद्यालयों में जनसंख्या शिक्षा केन्द्रों और कॉलेजों की स्थापना कर रहा है। विभिन्न एजेंसियों से प्राप्त जनसंख्या शिक्षा सामग्री की एक निर्देशिका भी तैयार की गयी है जिसे जनसंख्या शिक्षा संस्थानों में वितरित किया गया है। जनसंख्या शिक्षा संस्थान कॉलेजों के नवयुवकों एवं समुदाय के लोगों हेतु प्रशिक्षण कार्यक्रम चला रहा है। स्कूली शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, उच्च शिक्षा, दस्तकारों एवं नागरिकों के हेतु व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम में जनसंख्या शिक्षा कार्यक्रम को भी जोड़ दिया गया है। अनौपचारिक शिक्षा केन्द्रों में भी जनसंख्या शिक्षा को जोड़ा गया है। जनसंख्या शिक्षा पर राष्ट्रीय स्रोत’ नामक पुस्तिका का प्रकाशन किया गया है जिसमें प्रारम्भिक शिक्षा के शिक्षकों के प्रशिक्षण हेतु जनसंख्या शिक्षा पाठ्यचर्या सम्मिलित की गयी है।

अन्तर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान मुम्बई से जनसंख्या शिक्षा की मूल्यांकन रिपोर्ट प्राप्त करके आठवीं तथा नवीं पंचवर्षीय योजना में जनसंख्या शिक्षा कार्यक्रम और अधिक तेज करने का संकल्प रखा गया और 1986 ई० की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुरूप जनसंख्या शिक्षा के प्रशिक्षण को ग्रहण करने के हेतु जिला शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थान, अध्यापक शिक्षा कॉलेज और राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् के साथ सक्रिय सहयोग स्थापित किया गया। प्रशिक्षण के लिए इलेक्ट्रॉनिक प्रचार माध्यमों के उपयोग को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। कुछ राज्यों में प्रौढ़ शिक्षा के साथ जनसंख्या शिक्षा कार्यक्रम को जोड़ा गया है। जनसंख्या शिक्षा में लगे राज्य संसाधन केन्द्रों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है और प्रशिक्षार्थियों को स्वास्थ्य, परिवार, कल्याण, रोग प्रतिरक्षण और जनसंख्या समस्याओं के प्रति जागरूक किया जा रहा है।

प्रश्न 3
जनसंख्या शिक्षा की समस्याओं का उल्लेख कीजिए तथा उनके समाधान के उपायों का भी वर्णन कीजिए।
था
जनसंख्या शिक्षा की क्या समस्याएँ हैं ? जनसंख्या शिक्षा के शिक्षण के लिए सुझाव दीजिए। [2007]
उत्तर
जनसंख्या शिक्षा की समस्याएँ
जनसंख्या शिक्षा की समस्याएँ अत्यन्त जटिल हैं। इसका कारण यह है कि जनसंख्या शिक्षा का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक और विस्तृत है। इसके अन्तर्गत जनसंख्या की वृद्धि की गति, वातावरण एवं स्वास्थ्य और व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र तथा विश्व पर पड़ने वाले । जनसंख्या शिक्षा की समस्याएँ उसके बहुमुखी प्रभावों का अध्ययन सम्मिलित होता है। इन तथ्यों । को टालने जनाधि पायों के छात्रों हेतु जनसंख्या शिक्षा एवं उनके समाधान के उपायों का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है-

1. छात्रों हेतु जनसंख्या शिक्षा सम्बन्धी साहित्य की सम्बन्धी ज्ञान की कमी
हमारे देश में विभिन्न स्तरों के विद्यालयों में अध्ययनरत विद्यालयों में जनसंख्या शिक्षा छात्रों के हेतु जनसंख्या शिक्षा सम्बन्धी साहित्य का अभाव है। इस सम्बन्धी उपकरणों की कमी अभाव के फलस्वरूप उन्हें जनसंख्या वृद्धि के वास्तविक आँकड़े, जनसंख्या समन्थी शोधक तथा व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के जीवन के ऊपर इस वृद्धि के की कमी कुप्रभावों की पूर्ण जानकारी प्रदान नहीं की जा सकती है। इसी के फलस्वरूप विद्यालय स्तर पर जनसंख्या शिक्षा का प्रसार नहीं हो पा रहा है।

2. शिक्षकों में जनसंख्या शिक्षा सम्बन्धी ज्ञान की कमी
सभी स्तरों के विद्यालयों के शिक्षकों . में जनसंख्या शिक्षा सम्बन्धी ज्ञान का अनुभव है। प्रमुख रूप से इसके तीन कारण हैं-

  1. अभी तक जनसंख्या शिक्षा के सम्बन्ध में बहुत कम पुस्तकें लिखी गयी हैं। फलस्वरूप शिक्षकों को जनसंख्या शिक्षा की पर्याप्त सामग्री उपलब्ध नहीं हो पाती।
  2. सेवारत शिक्षकों को जनसंख्या शिक्षा सम्बन्धी ज्ञान प्रदान करने हेतु केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारों, शिक्षा विभागों तथा विश्वविद्यालयों द्वारा कोई सुसंगठित योजना अभी पूरी तरह से संचालित नहीं की गयी है।
  3. महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों और शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रमों के अन्तर्गत जनसंख्या शिक्षा नामक विषय को स्थान नहीं दिया गया है। इन कारणों से सेवारत तथा नव-प्रशिक्षित शिक्षकों में जनसंख्या शिक्षा के समुचित ज्ञान के होने की आशा नहीं की जा सकती है। समुचित ज्ञान न होने के फलस्वरूप वे छात्रों को जनसंख्या शिक्षा सम्बन्धी बातों का ज्ञान प्रदान करने में असमर्थ रहते हैं।

3. विद्यालयों में जनसंख्या शिक्षा सम्बन्धी उपकरणों की कमी
भारतीय विद्यालयों में जनसंख्या शिक्षा सम्बन्धी उपकरणों का नितान्त अभाव है। ऐसा कदाचित कोई भी विद्यालय नहीं है जो जनसंख्या शिक्षा से सम्बन्धित सभी उपकरणों से पूरी तरह सुसज्जित हो। सामान्य शिक्षा के उपकरणों को संग्रह करने हेतु जितना प्रयास किया जाता है उसका शतांश प्रयास भी जनसंख्या शिक्षा सम्बन्धी उपकरणों को प्राप्त करने हेतु नहीं किया जाता। सम्भवतः इसका कारण यह है कि जनसंख्या शिक्षा सम्बन्धी उपकरणे अत्यन्त महँगे हैं। किन्तु यदि प्रतिवर्ष थोड़ा-थोड़ा धन व्यय करके इन उपकरणों की व्यवस्था की जाए तो इनके अभाव को दूर किया जा सकता है। परन्तु वास्तविक स्थिति यह है कि इस कार्य हेतु लेशमात्र भी ध्यान नहीं दिया जाता। परिणामस्वरूप भारतीय विद्यालयों में इनका नितान्त अभाव है और इनके अभाव में जनसंख्या शिक्षा का कार्यक्रम लागू करने में कठिनाई है।

4. जनसंख्या सम्बन्धी शोधकार्यों की कमी
भारत में जनसंख्या शिक्षा सम्बन्धी शोधकार्य अभी प्रारम्भकालीन है। इस कारण जनसंख्या के दुष्परिणामों को सही प्रकार से प्रसार नहीं है।

5. अशिक्षित एवं अर्द्धशिक्षित अभिभावकों द्वारा जनसंख्या शिक्षा का विरोध
भारत में बड़ी संख्या में अभिभावक अशिक्षित एवं अर्द्धशिक्षित हैं। एक अध्ययन के द्वारा यह स्पष्ट हुआ है कि ये अशिक्षित एवं अर्द्धशिक्षित अभिभावक विद्यालयों में जनसंख्या शिक्षा दिये जाने के प्रबल विरोधी हैं। उनका विरोध निम्नलिखित कारणों से है-

  1. वे यह मानते हैं कि जनसंख्या शिक्षा का सम्बन्ध यौन-शिक्षा से है। यदि विद्यालयों में इस शिक्षा की व्यवस्था की जाती है तो बालक-बालिकाओं के नैतिक चरित्र पर बुरा प्रभाव पड़ेगा।
  2. उनकी यह मान्यता है कि जनसंख्या शिक्षा परिवार नियोजन को ही दूसरा रूप है, अतएव उनका विद्यालयी शिक्षा से कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए।
  3. उनकी यह भी धारणा है कि जनसंख्या शिक्षा का सम्बन्ध जनसंख्या विषयक तथ्यों एवं आँकड़ों से है। यह तथ्य और आँकड़े इतने कठिन हैं कि अल्प आयु में छात्र इन्हें आत्मसात नहीं कर सकेंगे।
  4. उनका यह भी विचार है कि जनसंख्या शिक्षा का विचार अन्य देशों से ग्रहण किया गया है और उनसे प्रभावित होकर ही इस शिक्षा को विद्यालयों में स्थान दिया जा रहा है, और इस कारण ऐसा किया जाना पूरी तरह से अनुचित है।

समस्याओं का समाधान

हम इस तथ्य से सहमत हैं कि भारत की जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है जो भविष्य में विभिन्न प्रकार की समस्याओं की उत्पत्ति का कारण बनेगी। अतः जनसंख्या विस्फोट को रोकने के सम्बन्ध में जनसंख्या शिक्षा को एकमात्र-आशा की किरण माना जा रहा है। जनसंख्या शिक्षा के निम्नलिखित तथ्य जनसंख्या-विस्फोट का समाधान करने में सहायक सिद्ध हुए हैं
1. पर्याप्त एवं उपयुक्त साहित्य की व्यवस्था
भारतीय विश्वविद्यालयों में जनसंख्या शिक्षा के प्रसार को गति प्रदान करने के लिए पर्याप्त मात्रा में उपयुक्त साहित्य का निर्माण किया जाना चाहिए। इस साहित्य का निर्माण सरल एवं सुबोध भाषा वाली पुस्तकों के रूप में किया जाए जिससे कि प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों के छात्रों को जनसंख्या शिक्षा का अध्ययन करके ज्ञान प्रदान करने में किसी प्रकार की कठिनाई न हो। इसके साथ ही सामाजिक विज्ञान की पुस्तकों में जनसंख्या शिक्षा से सम्बन्धित पाठों को स्थान दिया जाना चाहिए।

2. शिक्षकों को जनसंख्या शिक्षा सम्बन्धी ज्ञान प्रदान करने की व्यवस्था
यदि शिक्षकों से यह आशा की जाती है कि वे छात्रों को जनसंख्या शिक्षा की शिक्षा दें तो स्वयं शिक्षकों को इस ज्ञान से सम्पन्न करने की पर्याप्त व्यवस्था की जाए। इस व्यवस्था में ५ शिक्षकों को जनसंख्या शिक्षा निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं ।

  1. राज्यों अथवा शिक्षा विभागों द्वारा जनसंख्या शिक्षा के केन्द्र स्थापित किये जाने चाहिए और विद्यालयों द्वारा सेवारत अध्यापकों को इन केन्द्रों पर निश्चित अवधि तक रहने हेतु पूर्ण वेतन पर अवकाश दिया जाना चाहिए। इन केन्द्रों में अध्यापकों हेतु व्याख्यानों, विचार-गोष्ठियों एवं समाप्त करना अध्ययन की समस्त सुविधाओं का प्रबन्ध किया जाना चाहिए।
  2.  महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों और शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रमों में जनसंख्या शिक्षा के विषय को सम्मिलित किया जाना चाहिए। यदि इन सुझावों को व्यावहारिक रूप प्रदान कर दिया जाए तो सेवारत और नव-प्रशिक्षित दोनों तरह के शिक्षकों को जनसंख्या शिक्षा का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त हो जाएगा और उसके द्वारा वे अपने छात्रों को लाभान्वित कर सकेंगे।

3. उपकरणों की व्यवस्था
विद्यालय प्रबन्धकों को यह समझना चाहिए कि जितने आवश्यक सामान्य शिक्षा के उपकरण हैं उतने ही आवश्यक जनसंख्या शिक्षा के उपकरण भी हैं। उन्हें जनसंख्या शिक्षा से सम्बन्धित उपकरणों की व्यवस्था हेतु निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए। इन उपकरणों में निम्नलिखित पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए

  1. जनसंख्या शिक्षा हेतु उपयोगी फिल्म और श्रव्य-दृश्य सामग्री।।
  2. छात्रों को अपने देश और विश्व की जनसंख्या सम्बन्धी जानकारी प्रदान करने वाले ग्राफ, चार्ट और प्रतिमान।

4. जनसंख्या सम्बन्धी शोधकार्यों की व्यवस्था
इसके लिए विद्वानों और सुशिक्षित व्यक्तियों को भी जनसंख्या वृद्धि के कुप्रभावों एवं दुष्परिणामों से भली-भाँति अवगत कराने हेतु जनसंख्या शिक्षा सम्बन्धी शोधकार्य की उत्तम व्यवस्था की जानी चाहिए। यह कार्य मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रश्नों से सम्बन्धित होने चाहिए-

  1. विद्यालयों में जनसंख्या शिक्षा के हेतु अनुकूल वातावरण का निर्माण किस तरह किया जा सकता है।
  2. शिक्षकों को जनसंख्या शिक्षा सम्बन्धी ज्ञान से पूरी तरह से सम्पन्न बनाने हेतु किस तरह के कार्यक्रम उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।
  3. विद्यालयों के प्रबन्ध समितियों तथा शिक्षा विभागों द्वारा जनसंख्या शिक्षा के प्रसार में कितना और किस तरह का योगदान दिया जा सकता है।
  4. साधारण जनता में जनसंख्या शिक्षा की आवश्यकता तथा उपयोगिता के सम्बन्ध में किन उपायों द्वारा अधिकाधिक विश्वास उत्पन्नकिया जा सकता है।

5. अभिभावकों के विरोध को समाप्त करना
विद्यालयों में जनसंख्या शिक्षा के कार्यक्रम को सफल बनाने हेतु, उसके प्रति अशिक्षित और अर्द्धशिक्षित अभिभावकों का विरोध समाप्त किया जाना चाहिए। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु दो उपाय किये जा सकते हैं

  1. पत्रिकाओं, समाचार-पत्रों, फिल्म प्रदर्शनी और विद्वानों के व्याख्यानों द्वारा जनसंख्या शिक्षा की धारणा का स्पष्टीकरण।
  2. विद्यालयों द्वारा जनसंख्या शिक्षा के दिवसों, समारोहों आदि का आयोजन किया जाये और उनमें अभिभावकों को आमन्त्रित करके उन्हें जनसंख्या शिक्षा सम्बन्धी बातों से अवगत कराया जाए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
जनसंख्या विस्फोट (Population Explosion) क्या है? भारत में जनसंख्या विस्फोट के कारणों का उल्लेख कीजिए।
या
देश में जनसंख्या विस्फोट हो रहा है। इसको रोकने में जनसंख्या शिक्षा किस प्रकार सहायक है? [2016]
या
भारत में जनसंख्या वृद्धि के क्या कारण हैं? [2012, 14]
या
भारत में जनसंख्या विस्फोट के क्या कारण हैं? [2012]
उत्तर
जनसंख्या विस्फोट से आशय है-जनसंख्या की वृद्धि की दर का अत्यधिक होना। हमारे देश में होने वाली जनसंख्या की वृद्धि को जनसंख्या विस्फोट की श्रेणी में ही रखा जाएगा। इसका प्रमाण यह है कि सन् 1951 ई० की जनगणना में भारत की जनसंख्या 36.1 करोड़ थी जो 2011 ई० में बढ़कर 121.02 करोड़ हो चुकी है। इन आँकड़ों से स्पष्ट है कि हमारे देश में जनसंख्या वृद्धि की दर बहुत अधिक है। भारत में जनसंख्या विस्फोट के लिए विभिन्न कारक जिम्मेदार हैं। सर्वप्रथम हमारे देश में जन्म-दर बहुत अधिक है। इसका एक मुख्य कारण अशिक्षा तथा यौन-शिक्षा की जानकारी का अभाव है। हमारे देश में छोटी आयु में विवाह का प्रचलन है। इससे स्त्रियों का प्रजनन काल काफी लम्बा होता है। अतः अधिक सन्ताने उत्पन्न होने की गुंजाइश रहती है। इसके साथ ही गर्म जलवायु भी प्रजनन शक्ति की वृद्धि में सहायक होती है। हमारे समाज में बेटे को जन्म देना प्रायः अनिवार्य माना जाता है।

अतः बेटे की चाह में प्राय: तीन-चार अथवा इससे भी अधिक बेटियों को जन्म दे दिया जाता है। यही नहीं कुछ धार्मिक अन्धविश्वासों के अनुसार परिवार-नियोजन अर्थात् सन्तानोत्पत्ति को रोकना अनुचित तथा पाप माना जाता है। इस कारण भी जन्म-दर में वृद्धि होती है। इन विभिन्न कारणों से हमारे देश में आज भी जन्म-दर काफी अधिक है तथा यह कारक जनसंख्या विस्फोट का प्रबल कारक है। इसके अतिरिक्त आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में हुई चमत्कारिक खोजों एवं उपचार के उपायों के कारण बाल-मृत्यु दर बहुत घट गयी है तथा व्यक्ति की औसत आयु में भी वृद्धि हुई है। इस कारक ने भी जनसंख्या विस्फोट में योगदान प्रदान किया है। देश में जनसंख्या की वृद्धि की अधिक दर को नियन्त्रित करने का एक प्रभावी उपाय है-जनसंख्या शिक्षा। जनसंख्या शिक्षा की समुचित व्यवस्था से निश्चित रूप से जनसंख्या वृद्धि की दर को घटाया ज़ा सकता है।

प्रश्न 2
‘नयी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति, 2000’ का सामान्य परिचय दीजिए। या । भारतवर्ष की राष्ट्रीय जनसंख्या नीति, 2000 की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2011, 13]
उत्तर
भारत की जनसंख्या में निरन्तर होने वाली वृद्धि को ध्यान में रखते हुए इसे नियन्त्रित करना अनिवार्य माना जा रहा है। इस मुख्य उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए ‘नयी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति-2000′ निर्धारित की गयी। ‘नयी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति-2000′ की घोषणा फरवरी 2000 में भारत के प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा की गयी। इस जनसंख्या नीति में सर्वप्रथम कहा गया था कि सन् 2010 ई० तक जनसंख्या वृद्धि की दर को 2.1 प्रतिशत पर लाया जाएगा तथा सन् 2045 ई० में जनसंख्या वृद्धि रुक जाएगी अर्थात् जनसंख्या स्थिर हो जाएगी। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हर सम्भव उपाय किये जाएँगे। इस नीति को कार्यान्वित करने के लिए सरकार द्वारा विभिन्न निर्णय लिये गये हैं, जैसे कि-

  1. इस जनसंख्या नीति के अन्तर्गत पंचायतों/जिला परिषदों को जनसंख्या नियन्त्रण के लिए प्रेरित करने के लिए पुरस्कार प्रदान किये जाएँगे।
  2. इस नीति के अन्तर्गत ‘बाल-विवाह निरोधक अधिनियम’ तथा ‘प्रसव पूर्व लिंग परीक्षण तकनीकी निरोधक अधिनियम’ को कठोरता से लागू करने की घोषणा की गयी है।
  3. समाज के गरीबी की रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले परिवारों के लिए स्वास्थ्य बीमा-योजना को लागू किया गया है। इसके अतिरिक्त बालिका शिशुओं के पालन-पोषण के लिए उसके माता-पिता को १ 500 की प्रोत्साहन राशि देने का भी प्रावधान है। |

नयी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति’ सराहनीय है परन्तु कुछ विद्वानों ने इसकी व्यावहारिकता पर प्रश्न-चिह्न लगाया है। उनका कहना है कि 2010 तक जनसंख्या वृद्धि की दर को 2.1 प्रतिशत तक लाना सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त इस नीति में न तो यौन-शिक्षा की बात कही गयी है और न ही अनिवार्य नसबन्दी का कोई प्रावधान है। अतः यह जनसंख्या नीति केवल सैद्धान्तिक है, व्यावहारिक नहीं।

प्रश्न 3
राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् के अनुसार जनसंख्या शिक्षा के उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
या
जनसंख्या शिक्षा के चार उद्देश्य बताइए। [2010]
उत्तर
‘राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् ने Population in Classroom नामक एक पुस्तिका प्रकाशित की थी। इसमें जनसंख्या शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्यों का उल्लेख किया गया है-

  1. छात्रों को आधुनिक विश्व की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना के रूप में जनसंख्या वृद्धि की गति तथा कारणों के सम्बन्ध में ज्ञान प्रदान करना।
  2. छात्रों को व्यक्ति, परिवार, समाज तथा विश्व के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक जीवन पर जनसंख्या वृद्धि के पड़ने वाले प्रभावों से अवगत कराना।
  3. छात्रों को परिवार के आकार तथा रहन-सहन के स्तर के सम्बन्ध में बताना तथा कम आय वाले परिवारों की कठिनाई बताकर उन्हें छोटा परिवार रखने हेतु प्रेरित करना।
  4. छात्रों को जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न होने वाली अग्रलिखित समस्याओं की जानकारी प्रदान करके उनमें जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण रखने के दृष्टिकोण का विकास करना-

(क) रोगों तथा दुर्भिक्षों का फैलना
(ख) अपराधों एवं सामाजिक संघर्षों का बढ़ना
(ग) जन्म-दर एवं मृत्यु-दर में असन्तुलन
(घ) देश की आवश्यकता और सुरक्षा में बाधा उत्पन्न होना तथा
(ङ) भोजन, वस्त्र, मकान, रोजगार तथा शिक्षण संस्थाओं आदि का अभाव होना।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
जनसंख्या शिक्षा में अध्यापक की भूमिका का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
नि:सन्देह जनसंख्या शिक्षा अत्यधिक आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है। शिक्षा के इस प्रकार में शिक्षक द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है। शिक्षक को जनसंख्या शिक्षा की समुचित जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। उसका दायित्व है कि वह अपने छात्र-छात्राओं तथा समाज के व्यक्तियों को जनसंख्या सम्बन्धी विस्तृत जानकारी प्रदान करे। शिक्षक का दायित्व है कि वह छात्रों को जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न समस्याओं की विस्तृत जानकारी प्रदान करे तथा जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करने की आवश्यकता तथा उपायों की भी जानकारी प्रदान करे। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि शिक्षा के पाठ्यक्रम में जनसंख्या शिक्षा को अवश्य सम्मिलित किया जाना चाहिए। इस स्थिति में शिक्षक अपने दायित्व को भली-भाँति निभा सकेंगे।

प्रश्न 2
जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के दो कुप्रभावों का उल्लेख कीजिए। [2009]
उत्तर
जनसंख्या की तीव्र वृद्धि को जनसंख्या विस्फोट के रूप में जाना जाता है। यह एक गम्भीर समस्या है तथा इसका बुरा प्रभाव जनजीवन के प्रायः सभी पक्षों पर पड़ता है। सर्वप्रथम यह स्पष्ट है कि इस स्थिति में देश के नागरिकों को मूलभूत सुविधाओं की अत्यधिक कमी महसूस होने लगती है। इसके अतिरिक्त दूसरा प्रतिकूल प्रभाव यह होता है कि देश में बेरोजगारी तथा निर्धनता की समस्याएँ प्रबल हो जाती हैं।

परश्न 3
जनसंख्या शिक्षा के क्षेत्र का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
जनसंख्या शिक्षा में निम्नलिखित तथ्यों को सम्मिलित किया जाता है-

  1. जनसंख्या की स्थिति के प्रति छात्रों में जागृति तथा उचित दृष्टिकोण विकसित करना।
  2. जनाधिक्य का जीवन की गुणवत्ता पर क्या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है? इसके सम्बन्ध में बताना।
  3. जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न सामाजिक, आर्थिक एवं पारिवारिक समस्याओं के सम्बन्ध में संचेतना का विकास करना।
  4. जनसंख्या-वृद्धि के कारणों एवं नियन्त्रण के उपायों की जानकारी प्रदान करना।
  5. जनसंख्या-वृद्धि का पर्यावरण, रोजगार, आवास, खाद्यान्न और शिक्षा पर क्या कुप्रभाव पड़ता है? इस सम्बन्ध में छात्रों को जानकारी प्रदान करना।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
जनसंख्या शिक्षा क्या है? [2009]
उत्तर
“जनसंख्या शिक्षा एक शैक्षिक कार्यक्रम है, जिसमें परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व की जनसंख्या की स्थिति का अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन का उद्देश्य छात्रों में इस स्थिति के
प्रति विवेकपूर्ण एवं उत्तरदायित्वपूर्ण दृष्टिकोण तथा व्यवहार का विकास करना है।”
                                                                                      -यूनेस्को द्वारा आयोजित जनसंख्या शिक्षा संगोष्ठी

प्रश्न 2
भारत जैसे विकासशील देशों की प्रमुख समस्या क्या है?
उत्तर
भारत जैसे विकासशील देशों की प्रमुख समस्या है जनसंख्या की वृद्धि की दर का अधिक होना।

प्रश्न 3
जनसंख्या-वृद्धि सम्बन्धी समस्या के समाधान के लिए किया जाने वाला शैक्षिक उपाय क्या है?
उत्तर
जनसंख्या-वृद्धि सम्बन्धी समस्या के समाधान के लिए किया जाने वाला शैक्षिक उपाय है। जनसंख्या शिक्षा की व्यवस्था करना।

प्रश्न 4
भारत में जनसंख्या सम्बन्धी स्थिति क्या है?
उतर
भारत में जनसंख्या-विस्फोट की स्थिति है।

प्रश्न 5
जनसंख्या विस्फोट से क्या आशय है?
या
जनसंख्या विस्फोट क्या है ? [2007, 11]
उत्तर
जनसंख्या विस्फोट का आशय जनसंख्या की वृद्धि की दर का अत्यधिक होना है।

प्रश्न 6
किस बच्चे को देश का एक अरबवाँ बच्चा घोषित किया गया ?
उत्तर
11 मई, 2000 को नई दिल्ली स्थित सफदरजंग अस्पताल में जन्म लेने वाली आस्था नामक बच्ची को देश को एक अरबवाँ बच्चा घोषित किया गया।

प्रश्न 7
भारत की नयी जनसंख्या नीति कब घोषित की गयी ?
उत्तर
भारत की नयी जनसंख्या नीति 15 फरवरी, 2000 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा घोषित की गयी।

प्रश्न 8
जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करने का शैक्षिक उपाय क्या है ?
उत्तर
जनसंख्या शिक्षा को लागू करना।

प्रश्न 9
जनसंख्या शिक्षा की अवधारणा को सर्वप्रथम किसने प्रस्तुत किया था ? उक्ट जनसंख्या शिक्षा की अवधारणा को सर्वप्रथम प्रो० स्लोन आर० वेलैण्ड ने प्रस्तुत किया था।

प्रश्न 10
2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या कितनी थी? [2014]
उत्तर
121 करोड़ से अधिक।

प्रश्न 11
ग्रामीण क्षेत्रों में जनता को जनसंख्या शिक्षा प्रदान करने का प्रमुख साधन क्या है?
उत्तर
दूरदर्शन तथा जनसंचार के अन्य माध्यम।

प्रश्न 12
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) द्वारा प्रकाशित जनसंख्या शिक्षा सम्बन्धी पुस्तक का क्या नाम है?
उत्तर
Population in Classroom.

प्रश्न 13
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य-

  1. विश्व के अधिकांश विकासशील देशों में जनसंख्या की अधिकता की गम्भीर समस्या है।
  2. जनसंख्या शिक्षा के अन्तर्गत जनसंख्या सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन किया जाता है।
  3. स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वाले युवक-युवतियों के लिए जनसंख्या शिक्षा अनावश्यक एवं व्यर्थ
  4. ‘राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग के अध्यक्ष के०सी० पंत हैं।
  5. नयी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति के अनुसार सन् 2045 तक जनसंख्या में स्थिरीकरण आ जाएगा।

उत्तर

  1. सत्य
  2. सत्य
  3. असत्य
  4. असत्य
  5. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए-

प्रश्न 1
“जनसंख्या शिक्षा परिवार के आकार के सम्बन्ध में वैज्ञानिक मनोवृत्ति विकसित करने के लिए प्रेरणाशक्ति प्रदान करती है।” यह कथन किसका है?
(क) डॉ० चन्द्रशेखर
(ख) डॉ० माल्थस
(ग) डॉ० वी०के०आर०वी०राव
(घ) डॉ० अमर्त्यसेन
उत्तर
(ग) डॉ० वी०के०आर०वी० राव

प्रश्न 2
जनसंख्या शिक्षा की आवश्यकता किस कारण से है?
(क) जनसंख्या की वृद्धि
(ख) जनसंख्या-नियन्त्रण
(ग) परिवार नियोजन
(घ) परिवार कल्याण
उत्तर
(ख) जनसंख्या-नियन्त्रण

प्रश्न 3
जनसंख्या शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य है
(क) शिशु कल्याण
(ख) मातृ कल्याण
(ग) सीमित परिवार
(घ) सुखी जीवन
उत्तर
(ग) सीमित परिवार

प्रश्न 4
जनसंख्या शिक्षा का आरम्भ होना चाहिए
(क) माध्यमिक शिक्षा स्तर पर
(ख) प्राथमिक शिक्षा स्तर पर
(ग) व्यावसायिक शिक्षा स्तर पर
(घ) उच्च शिक्षा स्तर पर
उत्तर
(ख) प्राथमिक शिक्षा स्तर पर

प्रश्न 5
भारतीय जनसंख्या की प्रमुख विशेषता है
(क) जन्म-दर में वृद्धि
(ख) मृत्यु-दर में वृद्धि
(ग) महिलाओं की अधिक संख्या
(घ) साक्षरता का अधिक प्रतिशत
उतर
(क) जन्म-दर में वृद्धि

प्रश्न 6
भारत की जनसंख्या एक अरब कब हुई?
(क) 11 मई, 2000 में
(ख) 15 मई, 2000 में
(ग) 31 मई, 2000 में
(घ) 1 जुलाई, 2000 में
उत्तर
(क) 11 मई, 2000 में

प्रश्न 7
जनसंख्या की दृष्टि से भारत का विश्व में स्थान है
(क) प्रथम
(ख) द्वितीय
(ग) तृतीय
(घ) चतुर्थ
उतर
(ख) द्वितीय

प्रश्न 8
राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग का गठन कब हुआ?
(क) 15 जून, 1995 को
(ख) 20 मई, 1997 को
(ग) 11 मई, 2000 को
(घ) 1 जुलाई, 2000,को
उत्तर
(ग) 11 मई, 2000 को

प्रश्न 9
राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग के उपाध्यक्ष कौन हैं?
(क) यशवन्त सिन्हा
(ख) डॉ० हर्षवर्धन
(ग) नटवर सिंह
(घ) जी० टी० नानावती
उत्तर
(ख) डॉ० हर्षवर्धन

प्रश्न 10
विश्व जनसंख्या दिवस प्रतिवर्ष किस तिथि को मनाया जाता है? [2014]
(क) 4 जुलाई
(ख) 11 जुलाई
(ग) 10 दिसम्बर
(घ) 25 दिसम्बर
उत्तर
(ख) 11 जुलाई

प्रश्न 11
कौन-सा प्रान्त, भारत की जनगणना 2011 के अनुसार, सबसे अधिक जनसंख्या वाला
(क) उत्तर प्रदेश
(ख) बिहार
(ग) मध्य प्रदेश
(घ) राजस्थान
उत्तर
(क) उत्तर प्रदेश

प्रश्न 12
जनसंख्य शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है-  [2007]
(क) छात्रों और अध्यापकों को जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों से अवगत कराना
(ख) सांस्कृतिक विकास लाना
(ग) राजनैतिक उथल-पुथल पैदा करना
(घ) वैज्ञानिकं और तकनीकी विकास लाना
उत्तर
(क) छात्रों और अध्यापकों को जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों से अवगत कराना

प्रश्न 13
भारत में जनसंख्या शिक्षा पर प्रथम राष्ट्रीय कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ- [2008]
(क) 1984 ई० में
(ख) 1985 ई० में
(ग) 1980 ई० में
(घ) 1986 ई० में
उत्तर
(घ) 1986 ई० में

प्रश्न 14
भारत में जनगणना कितने वर्षों बाद की जाती है ? [2009, 15]
(क) 15 वर्ष बाद
(ख) 20 वर्ष बाद
(ग) 10 वर्ष बाद
(घ) 25 वर्ष बाद
उत्तर
(ग) 10 वर्ष बाद

प्रश्न 15
जनसंख्या-वृद्धि का मुख्य कारण है [2013]
(क) शिक्षा का विस्तार
(ख) स्वास्थ्य सेवाओं में वृद्धि
(ग) जनसंख्या विस्फोट
(घ) वृक्षारोपण
उत्तर
(ख) स्वास्थ्य सेवाओं में वृद्धि

प्रश्न 16
जनसंख्या शिक्षा का प्रमुख रूप से किससे सम्बन्ध है?
(क) परिवार नियोजन से
(ख) छोटे परिवार से
(ग) जनसंख्या की स्थिति से
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ग) जनसंख्या की स्थिति से

प्रश्न 17
जनसंख्या शिक्षा की अवधारणा को सर्वप्रथम किसने प्रस्तुत किया?
(क) बलेंसन ने
(ख) स्लोन आर० वेलैण्ड ने
(ग) मसियालस ने
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ख) स्लोन आर० वेलैण्ड ने

प्रश्न 18
जनसंख्या शिक्षा की प्रमुख समस्या है।
(क) अभिभावकों के विरोध की समस्या
(ख) अन्धविश्वास
(ग) अशिक्षा
(घ) ये सभी
उतर
(घ) ये सभी

प्रश्न 19
जनसंख्या शिक्षा का आरम्भ होना चाहिए
(क) माध्यमिक शिक्षा स्तर से
(ख) प्राथमिक शिक्षा स्तर से
(ग) व्यावसायिक शिक्षा स्तर से
(घ) उच्च शिक्षा स्तर से
उत्तर
(ख) प्राथमिक शिक्षा स्तर से

प्रश्न 20
जनसंख्या शिक्षा, भारत की दिन-प्रतिदिन बढ़ती आबादी के सन्दर्भ में
(क) अनावश्यक है
(ख) आवश्यक है
(ग) मंहत्त्वहीन है
(घ) अनुपयोगी है
उत्तर
(ख) आवश्यक है।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 17 Population Education (जनसंख्या शिक्षा) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 17 Population Education (जनसंख्या शिक्षा), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.