UP Board Solutions for Class 12 English Poetry Short Poems Chapter 2 The True Beauty

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Textbook NCERT
Class Class 12
Subject English Poetry short Poems
Chapter Chapter 2
Chapter Name The True Beauty
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 English Poetry Short Poems Chapter 2 The True Beauty

About the Poet : Thomas Carew was born in 1595. He got his education at Corpus Christ College, Oxford etc. He won the favor of King Charles I and was appointed to an office at his court. He became popular for his love of poems and many graceful songs and lyrics. About the Poem: “The True Beauty” is one of the most famous lyrics. In this poem the poet glorifies spiritual beauty and condemns mere physical beauty. The language of the poem is very simple and figurative.

Central Idea                                                                                 [2009, 10, 11, 12, 13, 15, 16, 17, 18]
In this poem Thomas Carew makes the readers aware that the charm of physical beauty is short lived. So the love inspired by it also dies soon. True beauty lies in virtues, e.g. constant and stable mind, gentle thoughts and calm desires etc. The inspiration derived from this beauty is everlasting. So we should condemn physical beauty devoid of these virtues and should love the beauty of mind and soul.

है; जैसे—सदा समान एवं स्थिर रहने वाला मस्तिष्क, अच्छे विचार तथा शान्त इच्छाएँ। इस सुन्दरता से प्रेरित प्रेम स्थायी होता है। इसलिए हमें इन गुणों से रहित भौतिक सुन्दरता का बहिष्कार करना चाहिए और मन एवं आत्मा की सुन्दरता से प्यार करना चाहिए।)

EXPLANATIONS (With Meanings & Hindi Translation)
(1)
He that loves a rosy cheek
Or a coral lip admires,
Or from star-like eyes doth seek
Fuel to maintain his fires;
As old Time makes these decay,
So his flames must waste away. [2011,17]

[Word-meanings : rosy cheek = गुलाब जैसे गाल red cheeks like rose; coral lip = मँगे के समान लाल होंठ lips like coral; admires = प्रशंसा करता है praises; doth = करता है does; seek fuel = प्रेरणा खोजता है find inspiration; maintain = बनाए रखना to keep on; fire = प्रेम की भावना passion for love; old time = बुढ़ापा old age; decay = नष्ट करना to destroy; flames = प्रेम की इच्छा desire for love; waste away = समाप्त हो जाता है comes to an end.]

(कोई व्यक्ति उस स्त्री से प्यार करता हो जिसके गाल गुलाब जैसे लाल हों या वह उस स्त्री की प्रशंसा करता हो जिसके होंठ मूंगे के समान लाल हों या जिसकी आँखें सितारे के समान चमकीली हों और वह अपनी प्रेम की भावना को बनाए रखने के लिए इन सभी सुन्दरताओं में प्रेरणा पाता हो, किन्तु कवि कहता है कि उस स्त्री को बुढ़ापा आने पर ये सभी सुन्दरताएँ समाप्त हो जाएँगी और तब उस व्यक्ति के प्रेम की तीव्रता भी समाप्त हो जाएगी।)

Reference : These lines have been taken from the poem ‘The True Beauty’ composed by Thomas Carew.

[ N.B. : The above reference will be used for all the explanations of this poem. ]

Context : In these lines the poet describes the meaning of true beauty. He says that the I charms are not true beauty because they decay with the passing of time. But the spiritual beauty is the true beauty because it never dies.

Explanation : In this stanza the poet says that red cheeks like rose, red lips like coral and the bright shining eyes like star make a woman beautiful. But these physical charms are temporary. They die with the passage of time. These physical attractions supply fuel to the fires of love. But in the old age these attractions die away and the fire of love also dies. So a man should not be attracted by the physical beauty of a woman. But he should seek love in virtues of a woman.

(इस पद्यांश में कवि कहता है कि गुलाब के समान लाल गाल, मँगे के समान लाल होंठ और सितारों के समान चमकीली आँखें किसी स्त्री को सुन्दर बनाती हैं। किन्तु यह शारीरिक आकर्षण अस्थाई होते हैं। वे समय की गति के साथ नष्ट हो जाते हैं। ये शारीरिक आकर्षण प्रेम रूपी अग्नि को ईंधन प्रदान करते हैं। किन्तु वृद्धावस्था में यह आकर्षण समाप्त हो जाते हैं और प्रेम की अग्नि भी समाप्त हो जाती है। इसलिए मनुष्य को किसी स्त्री के शारीरिक सौन्दर्य की ओर आकर्षित नहीं होना चाहिए, बल्कि उसके सद्गुणों से प्रेम करना चाहिए।)

Comments : The poet has glorified this stanza by using metaphor figure of speech in ‘rosy cheek’ and ‘coral lip’ and simile figure of speech in ‘star like eyes’.

(2)
But a smooth and steadfast mind,
Gentle thoughts, and calm desires,
Hearts with equal love combined
Kindle never-dying fires :
Where these are not, I despise,
Lovely cheeks or lips or eyes. [2009, 10, 12, 13, 15, 18]

[Word-meanings : smooth = लगातार समान रहने वाला constant; steadfast = दृढ़ firm; । gentle thoughts = 37089 791 Hofer honest and good ideas; calm = 911 7 free from agitation; kindle = जाग्रत करना awaken; never dying = स्थायी permanent; fires = प्रेम की तीव्र इच्छा intense desire of love; despise = घृणा करना hate; lovely = सुन्दर beautiful.]

(कवि कहता है कि जिस स्त्री का मन सरल एवं स्थिर होता है, जिसके विचार कोमल होते हैं और जिसकी इच्छाएँ शान्त एवं दोषरहित होती हैं और स्त्री एवं पुरुष को समान रूप से प्रेम करने वाले हृदय, यह सभी गुण मिलकर अमर प्रेम को जन्म देते हैं। जिस स्त्री में यह सभी गुण नहीं होते, मैं ऐसी स्त्री से घृणा करता हूँ चाहे शारीरिक सुन्दरता उसमें कितनी ही क्यों न हो।

Context : In these lines the poet describes the meaning of true beauty. He says that rosy cheeks, coral lips and star like eyes form physical beauty. But this beauty decays with the passage of time. So the love inspired by this beauty also dies soon.

Explanation : In this stanza the poet describes some of the qualities of a woman which make her really beautiful. She should have a constant and stable mind. She should have gentle thoughts and calm desires combined with love in the same degree. A lady with these qualities goes on inspiring her lover with renewed vigour. This love is everlasting. That is why the poet praises the beauty of mind and soul. Without these virtues physical beauty is useless.

(इस पद्यांश में कवि एक स्त्री के कुछ ऐसे गुणों का वर्णन करता है जो उसे वास्तव में सुन्दर बनाते हैं। उसका मस्तिष्क स्थिर तथा सदा समान रहने वाला होना चाहिए। उसके विचार अच्छे होने चाहिए तथा इच्छाएँ शान्त होनी चाहिए और इसी प्रकार उसमें इतना ही प्रेम मिश्रित होना चाहिए। इन गुणों वाली स्त्री अपने प्रेमी को नये उत्साह के साथ सदा प्रेरित करती रहती है। ऐसा प्रेम स्थायी होती है। यही कारण है कि कवि मस्तिष्क और आत्मा की सुन्दरता की प्रशंसा करता है। इन गुणों के बिना शारीरिक सुन्दरता व्यर्थ है।)

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 6 महामना मालवीयः

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Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 6
Chapter Name महामना मालवीयः
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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 6 महामना मालवीयः

अवतरणों का सन्दर्भ अनुवाद

(1) महामनस्विनः ……………………………………… सम्मानभाजनमभवत् । [2017]
युवकः मालवीयः ………………………………………… सम्मानभाजनमभवत् ।। [2009]
महामनस्विनः ………………………………………………….. मनांसि अमोहयत् ।।
महामनस्विनः मदनमोहन………………………………………………………… कर्तुं प्रेरितवन्तः । । (2013)

[ महामनस्वी = बहुत बुद्धिमान्, दृढ़-निश्चयी। आरब्धवान् = आरम्भ किया। प्राविवाक = वकील। विधिपरीक्षा = कानून की परीक्षा।]

सन्दर्भ-यह गद्यखण्ड हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘महामना मालवीयः’ नामक पाठ से उद्धृत है।
[ विशेष—इस पाठ के सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]
अनुवाद–महामना (महा बुद्धिमान्) मदनमोहन मालवीय का जन्म प्रयाग के प्रतिष्ठित (सम्मानित) परिवार में हुआ था। इनके पिता पण्डित ब्रजनाथ मालवीय संस्कृत के प्रतिष्ठित विद्वान् थे। इन्होंने प्रयाग में ही संस्कृत पाठशाला, राजकीय विद्यालय एवं म्योर सेण्ट्रल महाविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करके यहाँ ही राजकीय विद्यालय में पढ़ाना आरम्भ किया। युवक मालवीय अपने प्रभावपूर्ण भाषण से मनुष्यों का मन मोह लेते थे। इसलिए इनके मित्रों ने इन्हें वकील की पदवी प्राप्त करके देश की उच्चतर सेवा करने को प्रेरित किया। उसी । के अनुसार इन्होंने कानून की परीक्षा उत्तीर्ण करके प्रयाग में उच्च न्यायालय में वकालत आरम्भ कर दी। कानून के उत्कृष्ट ज्ञान, मधुर वार्तालाप एवं उदार व्यवहार से ये शीघ्र ही मित्रों एवं न्यायाधीशों के सम्मानपात्र बन गये।

(2) महापुरुषाः ……………………………………. नात्यजत् । [2012, 15, 18]
महापुरुषाः …………………………………………. अध्यक्षपदमलङ्कृतवान् । [2009, 12, 16]

[ नियतलक्ष्यान्न (नियतलक्ष्यात् + न) = निश्चित उद्देश्य से नहीं। नात्यजत् (न + अत्यजत्) = नहीं छोड़ा। ]
अनुवाद–महापुरुष सांसारिक प्रलोभनों में फंसकर (अपने) निश्चित लक्ष्य से कभी विचलित नहीं होते। देश-सेवा में अनुरक्त यह युवक उच्च न्यायालय की सीमाओं में (बँधकर) न रह सका। पण्डित मोतीलाल नेहरू, लाला लाजपतराय जैसे अन्य राष्ट्रीय नेताओं के साथ वे भी देश के स्वतन्त्रता संग्राम में उतरे। दिल्ली में कांग्रेस के तेईसवें अधिवेशन के अध्यक्ष पद को इन्होंने सुशोभित किया। ‘रॉलेट ऐक्ट’ के विरोध में इनके ओजस्वी भाषण को सुनकर अंग्रेज शासक भयभीत हो उठे। बहुत बार जेल में डाले जाने पर भी इसे वीर ने देशसेवा का व्रत नहीं छोड़ा।

(3) हिन्दी-संस्कृताङ्ग्लभाषासु …………………………………………….. अभिधातुमारब्धवन्तः । [2017]
अस्य निर्माणाय ………………………………………………………………….. मालवीयः ।
हिन्दी-संस्कृताङ्ग्लभाषासु ……………………………………………… प्रतिमूर्तिरिव विभाति । [2014, 16]
शिक्षयैव देशे समाजे ………………………………………………… मनीषिमूर्धन्यः मालवीयः । [2013,18]

[अचायत = माँगा। अभिधातुम् = सम्बोधित कर।] । पछि ,
अनुवाद-इनका हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषाओं पर समान अधिकार था। हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान की उन्नति के लिए ये निरन्तर प्रयत्न करते रहे। शिक्षा द्वारा ही देश और समाज में नवीन प्रकाश का उदय होता है, इसलिए श्री मालवीय ने वाराणसी में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। इसके निर्माण के लिए इन्होंने लोगों से धन माँगा और लोगों ने इस महान् ज्ञानयज्ञ में इन्हें प्रचुर धन दिया। इनके द्वारा बनवाया हुआ यह विशाल विश्वविद्यालय भारतीयों की दानशीलता और श्री मालवीय के यश की प्रतिमूर्ति की भाँति सुशोभित हो रहा है। साधारण स्थिति का मनुष्य भी महान् उत्साह, बुद्धिमत्ता एवं पुरुषार्थ से असाधारण कार्य करने में सक्षम होता है, यह बुद्धिमानों में श्रेष्ठ मालवीय जी ने दिखा दिया। इसी कारण लोगों ने इन्हें महामना की उपाधि से पुकारना आरम्भ कर दिया।

(4) महामना ……………………………………………… क्वचित् ।।
महामना …………………………………………. उपस्थित एव । [2011]
महामना ………………………………………………… एवासीत् । [2011, 15]
अद्यास्माकम् ……………………………………………………: क्वचित् ।।
जयन्ति ते ……………………………………………….. क्वचित् ।। [2010, 12, 14]

पटु = कुशल। पीयमानान् = पीड़ितों को। कीर्तितनोः = यशरूपी शरीर से।]
अनुवाद–महामना विद्वान् वक्ता (भाषणकर्ता), धार्मिक नेता एवं कुशल पत्रकार थे, किन्तु इनका सर्वोच्च गुण जनसेवा ही था। जहाँ कहीं भी ये लोगों को दु:खित और पीड़ित देखते थे, वहीं शीघ्र उपस्थित होकर सब प्रकार की सहायता करते थे। प्राणियों की सेवा इनका स्वभाव ही था। आज हमारे बीच विद्यमान न होने पर भी महामना मालवीय अमूर्तरूप से अपने यश का प्रकाश फैलाते हुए घोर अन्धकार में डूबे मनुष्यों को सन्मार्ग दिखाते हुए स्थान-स्थान पर प्रत्येक मनुष्य के अन्दर उपस्थित हैं।
जनसेवा में लगे महापुरुष की जय हो, जिनके यशरूपी शरीर को कहीं भी बुढ़ापे और मृत्यु का भय नहीं है।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 5 सुभाषितरत्नानि

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Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 5
Chapter Name सुभाषितरत्नानि
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 5 सुभाषितरत्नानि

श्लोकों का असदर्भ अनुवाद

(1) भाषासु मुख्या मधुरा ………………………………………. तस्मादपि सुभाषितम् ।। (2011, 13)

[ दिव्या=अलौकिक। गीर्वाणभारती = देववाणी (संस्कृत)। गीर्वाण = देवता। भारती = भाषा, वाणी। तस्मात् अपि =उससे भी अधिक।]
सन्दर्भ-यह श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि’ पाठ से अवतरित
[ विशेष—इस पाठ के सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।] अनुवाद-भाषाओं में संस्कृत सबसे प्रधान, मधुर और अलौकिक है। उससे (अधिक) मधुर उसका काव्य है और उस (काव्य) से (अधिक) मधुर उसके सुभाषित (सुन्दर वचन या सूक्तियाँ) हैं।

(2) सुखार्थिनः ……………………………………………… त्यजेत् सुखम् ।। [2011, 13, 17]

अनुवाद-सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ और विद्या चाहने वाले (विद्यार्थी) को सुख कहाँ ? (इसलिए) सुख की इच्छा करने वाले को विद्या (प्राप्त करने की इच्छा) छोड़ देनी चाहिए अथवा विद्या चाहने वाले (विद्यार्थी) को सुख छोड़ देना चाहिए (आशय यह है कि विद्या बड़े कष्टों से प्राप्त होती है, इसलिए जो सुख की कामना वाले हैं, उन्हें विद्यार्जन की आशा छोड़ देनी चाहिए और यदि विद्या अर्जित करना चाहते हैं, तो सुख की इच्छा छोड़ देनी चाहिए)।

(3) जल-बिन्दु-निपातेन …………………………………”धनस्य च || [2016] |

[जल-बिन्दु-निपातेन = जल की एक-एक बूंद गिरने से पूर्यते = भरता है। ]
अनुवाद--जल की एक-एक बूंद गिरने से क्रमश: घड़ा भर जाता है। समस्त विद्याओं, धर्म और धन (को संग्रह करने) का भी यही हेतु (कारण, रहस्य) है (अर्थात् निरन्तर उद्योग करते रहने से ही धीरे-धीरे ये तीनों वस्तुएँ संग्रहीत हो पाती हैं। )।

(4) काव्य-शास्त्र-विनोदेन ……………………………………………….. कलहेन वा ।। [2015,17]

[ धीमताम् = बुद्धिमानों का।]
अनुवाद-बुद्धिमानों का समय काव्य और शास्त्रों (की चर्चा) के विनोद (आनन्द) में बीतता है और मूर्खा का (समय) बुरे शौकों में, सोने में या लड़ाई-झगड़े में (बीतता) है।

(5) न चौरहार्यं ………………………………………………… सर्वधनप्रधानम् ।। [2017]

[चौरहार्यं = चोरी के योग्य।]
अनुवाद–विद्यारूपी धन समस्त धनों में प्रधान (श्रेष्ठ) है; (क्योंकि) न तो चोर उसे चुरा सकता है, न राजा उसे छीन सकता है, न भाई बाँट सकता है, न यह बोझ बनता है; अर्थात् भार-रूप नहीं है और खर्च करने से यह निरन्तर बढ़ता जाता है (अन्य धनों के समान घटता नहीं )।

(6) परोक्षे ………………………………………………………… पयोमुखम् ।। [2009, 12, 14, 17]

[परोक्षे = पीठ पीछे। कार्यहन्तारम् = कार्य को नष्ट करने वाला (बिगाड़ने वाला)। पयोमुखम् = जिसके मुख (ऊपरी भाग) में दूध हो।]
अनुवाद-जो पीठ पीछे काम बिगाड़ने वाला हो, पर सामने मीठा बोलने वाला हो, ऐसे मित्र को उसी प्रकार . छोड़ देना चाहिए, जिस प्रकार विष से भरे घड़े को, जिसके ऊपरी भाग में दूध हो (छोड़ दिया जाता है।)।

(7) उदेति …………………………………………………… महतामेकरूपता ।। [2009, 16]

[ उदेति = उदित होता है। सविता = सूर्य। ताम्रः = ताँबे के समान लाल (रंग का)। एवास्तमेति (एवं + अस्तम् + एति) = ही अस्त होता है। महताम् = महापुरुषों का।]
अनुवाद-सूर्य उदित होते समय लाल होता है और अस्त होते समय भी लाल ही होता है। (इस प्रकार) सम्पत्ति और विपत्ति (दोनों स्थितियों) में महापुरुष एक रूप रहते हैं (अर्थात् सुख में हर्षित और दुःख में पीड़ित नहीं होते, अपितु समभाव से सुख और दुःख दोनों को ग्रहण करते हैं।)।

(8) विद्या विवादाय ……………………………………………. रक्षणाय || [2010, 14, 15, 17]

[ मदाय = घमण्ड के लिए।]
अनुवाद-खल (दुष्ट व्यक्ति) की विद्या वाद-विवाद के लिए, धन घमण्ड के लिए और शक्ति दूसरों को सताने के लिए होती है। इसके विपरीत साधु (सज्जन) की विद्या ज्ञान-प्राप्ति के लिए, धन दान के लिए और शक्ति (दूसरों की) रक्षा के लिए होती है।

(9) सहसा विदधीत …………………………………………………… सम्पदः ।। [2012]

[विदधीत = करना चाहिए। क्रियाम् = (किसी) काम को। अविवेकः = विचारहीनता। परमापदाम् (परम +आपदाम्) = भयंकर आपत्तियों का वृणुते = वरण करती है। विमृश्यकारिणम् = सोच-विचारकर काम करने वाले को। गुणलुब्धाः = गुणों पर लुभायी या रीझी। सम्पदः = लक्ष्मी।]
अनुवाद-सहसा (बिना विचारे यकायक) कोई काम नहीं करना चाहिए, (क्योंकि) विचारहीनता भयंकर आपत्तियों का घर है। जो व्यक्ति खूब सोच-विचारकर कार्य करता है, उसके गुणों पर रीझी हुई लक्ष्मी स्वत: ही उसका वरण करती है।

(10) वज्रादपि ………………………………………………….विज्ञातुमर्हति ।। [2010, 12, 17]

[ वज्रादपि (वज्रात् + अपि) = वज्र से अधिक। मृदूनि = कोमल। लोकोत्तराणाम् = असाधारण (महान्) पुरुषों के चेतांसि = चित्त (या मन) को। विज्ञातुम् = जानने में। अर्हति = समर्थ है।]
अनुवाद-असाधारण पुरुषों (महापुरुषों) के वज्र से भी अधिक कठोर और पुष्प से भी अधिक कोमल हृदय को भला कौन समझ सकता है ?

(11) प्रीणाति यः ………………………………………………. पुण्यकृतो लभन्ते ।। [2013, 15, 18]

[प्रीणाति = प्रसन्न करता है। भर्तुरेव (भर्तुः + एव) = पति का ही। कलत्रम् = स्त्री (पत्नी)। तन्मित्रम् (तत् + मित्रम्) = मित्र वही है। आपदि = आपत्ति में। समक्रियम् = एक-से व्यवहार वाला। जगति = संसार में।]
अनुवाद-जो अपने अच्छे चरित्र (सुकर्मो ) से पिता को प्रसन्न करे, वही पुत्र है। जो पति का हित (भलाई) चाहती हो, वही पली है। जो (अपने मित्र की) आपत्ति (दु:ख) और सुख में एक-सा व्यवहार करे, वही मित्र है। इन तीन (अच्छे पुत्र, अच्छी पत्नी और सच्चे मित्र) को संसार में पुण्यात्मा-जन ही पाते हैं। (अर्थात् बड़े पुण्यों के फलस्वरूप ही ये तीन प्राप्त होते हैं)।

(12) कामान् ………………………………………………………….. वाचमाहुः || [2011]

[ कामान् = कामनाओं को। दुग्धे = दुहती है, पूर्ण करती है। विप्रकर्षति = हटाती है, नष्ट करती हैं। अलक्ष्मीम् = दरिद्रता को। सूर्त= उत्पन्न करती है। दुष्कृतम् = पापों को। मङ्गलानां मातरम् = कल्याणों की माता। धीराः = धैर्यवान्। सूनृताम् = सुभाषित। वाचम् = वाणी को।]
अनुवाद-जो (सुभाषित वाणी) इच्छाओं को दुहती है, दरिद्रता को दूर करती है, कीर्ति को जन्म देती है। (और जो) पाप को नष्ट करती है, (जो) शुद्ध, शान्त (और) मंगलों की माता है, (उस) गाय को धैर्यवान् लोगों ने सुभाषित वाणी कहा है।

(13) व्यतिषजति ………………………………………………… चन्द्रकान्तः ।। [2009]

[ व्यतिषजति – मिलती है (परस्पर प्रीति स्थापित करता है)। पदार्थान् = पदार्थों को। आन्तरः हेतुः = आन्तरिक कारण बहिसपाधीन (बहिः + उपाधीन) = बाह्य कारणों (या विशेषताओं) पर। पतङ्गस्योदये (पतङ्गस्य + उदये) = सूर्य के उदित होने पर। पुण्डरीकम् = कमल। हिमरश्मावुदगतेः (हिमरश्मौ + उदगतेः) = शीतल किरणों वाले चन्द्रमा के निकलने पर।]
अनुवाद-कोई आन्तरिक कारण ही पदार्थों को (आपस में) मिलाता है (या उनमें परस्पर प्रीति स्थापित करता है)। प्रीति (या प्रेम) निश्चय ही बाह्य कारणों (या विशेषताओं) पर आश्रित (निर्भर) नहीं होती। जैसे सूर्य के उदित होने पर ही कमल खिलता है और चन्द्रमा के निकलने पर ही चन्द्रकान्त-मणि द्रवित होती है।

(14) निन्दन्तु …………………………………………………… पदं न धीराः || [2009, 15, 18]

[ निन्दन्तु=निन्दा करें। नीतिनिपुणाः = लोकनीति (या लोकव्यवहार) में कुशल लोग। स्तुवन्तु = प्रशंसा करें। समाविशतु = आये| यथेष्टम् = स्वेच्छा से। युगान्तरे = युगों बाद न्याय्यात् पथः = न्याय के मार्ग से। पदम् = पग।]
अनुवाद–लोकनीति में कुशल लोग चाहे निन्दा करें, चाहे प्रशंसा; लक्ष्मी चाहे आये या स्वेच्छानुसार चली जाए। आज ही मरण हो जाए, चाहे युगों बाद हो, किन्तु धैर्यशाली पुरुष न्याय के मार्ग से एक पग भी विचलित नहीं होते। (अर्थात् कैसी भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति हो, धैर्यशाली पुरुष न्याय के मार्ग से रंचमात्र भी नहीं हटते)।

(15) ऋषयो ……………………………………… निर्ऋतिः || [2014]

[ वाचमुन्मत्तदृप्तयोः = अहंकारी (दृप्त) और उन्मत्त (मतवाले) व्यक्तियों की वाणी को (वाचम्)।
राक्षसीमाहुः (राक्षसीम् + आहुः) = राक्षसी कहा है। योनिः = जन्म देने वाली। निऋतिः = विपत्ति।]
अनुवाद-ऋषियों ने उन्मत्त और अहंकारी पुरुषों की वाणी को राक्षसी कहा है, (क्योंकि) वह समस्त वैरों को जन्म देने वाली और संसार की विपत्ति का कारण होती है (अर्थात् अहंकार से भरी वाणी दूसरों के मन पर चोट करके शत्रुता को जन्म देती है और संसार के सारे झगड़े उस के कारण होते हैं)। 1

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UP Board Solutions for Class 12 English Poetry Short Poems Chapter 1 Character of a Happy Life

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Class Class 12
Subject English Poetry Short Poems
Chapter Chapter 1
Chapter Name Character of a Happy Life
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UP Board Solutions for Class 12 English Poetry Short Poems Chapter 1 Character of a Happy Life

About the Poet : Sir Henry Wotton was born in 1568. He was educated at Winchester, Oxford, Middle Temple, etc. He became agent and secretary to the Earl of Essex. He was the ambassador at the court of Venice. He served various other diplomatic missions.

About the Poem : In this poem the poet describes the qualities necessary for a truly happy man, e.g. independence, honesty, truthfulness, straight forwardness, clear heartedness, etc. He should also pray to God daily.

Central Ideas                                                                                                                [2012, 13, 15, 17, 18]
In this didactic poem Sir Henry Wotton describes the character of a happy man. He should be independent, honest and truthful. He should be free from jealousy, ill will and worldly anxieties. He should be very careful of flatterers and rumours. He should pray to God daily for Godly merits. He should not be overjoyed in his achievements and disconsolate in failures. He should be master of himself. Contentment and self-respect are the greatest qualities of a happy man.

(इस शिक्षाप्रद कविता में सर हेनरी वाटन एक प्रसन्न व्यक्ति के लक्षणों का वर्णन करता है। उसे स्वतन्त्र, ईमानदार और सत्यवादी होना चाहिए। उसे ईर्ष्या, दुर्भावना तथा सांसारिक चिन्ताओं से मुक्त होना चाहिए। उसे चापलूसों तथा अफवाहों से बहुत सावधान रहना चाहिए। दैवी गुणों के लिए उसे प्रतिदिन ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिए। उसे उपलब्धियों में अत्यधिक प्रसन्न और असफलताओं में निराश या दु:खी नहीं होना चाहिए। उसे स्वयं का स्वामी होना चाहिए। आत्म-सन्तुष्टि एवं आत्म-सम्मान एक प्रसन्न व्यक्ति के सबसे बड़े गुण हैं।)

EXPLANATIONS (With Meanings & Hindi Translation)
(1)
How happy is he born or taught,
That serveth not another’s will;
Whose armour is his honest thought,
And simple truth his utmost skill ! [2009, 11, 12, 17, 18]

[Word-meanings : taught = सिखाया advised; serveth (serves) = कार्य करना act; will = इच्छा wish; armour = कवच weapon for protection; honest thought = शुद्ध विचार noble ideas या honesty; utmost = सबसे बड़ी greatest; skill = गुण quality.]

(वह मनुष्य कितना प्रसन्न होगा जो दूसरे व्यक्ति के अधीन नहीं है अर्थात् आत्म-निर्भर व्यक्ति बहुत प्रसन्न होता है। यह गुण उसमें जन्मजात भी हो सकता है और सिखाया भी जा सकता है। उस व्यक्ति की सुरक्षा का हथियार उसके शुद्ध विचार तथा ईमानदारी है और केवल सत्य ही उसका सबसे बड़ा गुण होता है।)

Reference : This stanza refers to the famous poem ‘Character of a Happy Life’ composed by Sir Henry Wotton.

[ N.B. : The above reference will be used for all the explanations of this poem.]

Context : In these lines the poet describes the character of a happy man. He points out some of the essential qualities for a happy life. He advises us to be independent and true if we want to be happy..

Explanation : In this stanza the poet points out the qualities of a happy man. He says that happy man is independent in his thinking and action. He is self-dependent. Either he has this quality by birth or he has been taught to have it. He is always honest and has no ill will for anybody. So he does not need any other weapon for his protection. The greatest quality of his character is only truth. For this quality he is honoured. Thus the man who has these quaļities will be happy beyond expectation.

(इस पद्यांश में कवि एक प्रसन्न व्यक्ति के लक्षण बताता है। वह बताता है कि एक प्रसन्न व्यक्ति अपने विचारों तथा कार्यों में स्वतन्त्र होता है। वह आत्म-निर्भर होता है। या तो उसमें यह गुण जन्मजात होता है या इसे प्राप्त करने के लिए उसे सिखाया जाता है। वह सदा ईमानदार होता है और किसी के प्रति दुर्भावना नहीं रखता। इसलिए उसे अपनी सुरक्षा के लिए किसी अन्य हथियार की आवश्यकता नहीं होती। उसके चरित्र का सबसे महान् लक्षण केवल सत्य होता है। इसी गुण के कारण उसका सम्मान किया जाता है। इस प्रकार वह मनुष्य जिसमें यह सभी गुण होंगे वह आशा से अधिक प्रसन्न होगा।)

comments : The poet has personified thought’ and truth’ which are abstract notions (अदृश्य विचार).

(2)
Whose passions not his masters are,
Whose soul is still prepared for death;
Untied unto the world with care,
Of princely love or vulgar breath. [2017]

[ Word-meanings : passions = मन की प्रबल भावनाएँ, क्रोध, घृणा, प्रेम आदि strong feelings of love, anger, hate, etc.; masters = पथ-प्रदर्शक, स्वामी guide; still = सदा always; untied = स्वतन्त्र free from; princely love = राजकुमारों का प्यार love of a prince; vulgar breath = सामान्य लोगों का मत या आलोचना opinion या criticism of the common people.]

(वह व्यक्ति कितना प्रसन्न होगा जो अपनी तीव्र मानसिक भावनाओं (क्रोध, घृणा, प्रेम) से विचलित न हो अर्थात् जो अपनी तीव्र भावनाओं के वशीभूत न हो। जो मनुष्य सदा मृत्यु के लिए भी तैयार रहता है अर्थात् जिसे मृत्यु का भय नहीं है, जो इस संसार में सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त होकर जीवन व्यतीत करता है। और जिसे राजकुमारों का प्यार अथवा जनता की आलोचना भी विचलित नहीं कर पाती हो वह व्यक्ति अत्यन्त प्रसन्न होगा।)

Context : In these lines the poet describes the character of a happy man. He is free and self-dependent. He is honest and truthful. He has no ill will for anybody.

Explanation : In this stanza the poet says that a man who is calm and balanced is always happy. He is not guided or controlled by the strong feelings of heart, e.g. anger, hate, love, etc. He leads a simple and honest life. He is always free from worldly anxieties and worries. So he is never afraid even of death. He neither likes flattery nor does he mind the public criticism. So he is always happy.

(इस पद्यांश में कवि कहता है कि वह मनुष्य जो शान्त और सन्तुलित होता है, सदा प्रसन्न होता है। वह हृदय की तीव्र भावनाओं, जैसे-क्रोध, घृणा, प्रेम आदि से नियन्त्रित नहीं होता। वह सादा और ईमानदारी का जीवन व्यतीत करता है। वह सांसारिक चिन्ताओं तथा परेशानियों से मुक्त होता है। इसलिए वह कभी मृत्यु से भी भयभीत नहीं होता। वह न तो चापलूसी को पसन्द करता है और न सार्वजनिक आलोचना की ओर ध्यान देता है। इसलिए वह सदा प्रसन्न होता है।)

Comments : In the last line ‘of princely love….’ the poet describes the political condition of England.

(3)
Who hath his life from rumours freed,
Whose conscience is his strong retreat;
Whose state can neither flatterers feed.
Nor ruin make oppressors great; [2010, 15]

[Word-meanings : hath = रखना has; rumours = अफवाहें false news; conscience = अन्तःकरण innerself; retreat = शरण देने का स्थान place of shelter; state = स्थिति position, status; flatterers = चापलूस व्यक्ति one who praises too much; ruin = नष्ट करना destroy; feed = सन्तुष्ट करना satisfy; oppressors = दमनकर्ता those who treat others cruelly.]

(वह मनुष्य प्रसन्न होता है जो अफवाहों से प्रभावित न हो, जिसकी अन्तरात्मा ही सबसे शक्तिशाली शरणस्थल हो अर्थात् जो अपनी अन्तरात्मा की आवाज का दृढ़ता से पालन करता हो, जो चापलूस व्यक्तियों की झूठी प्रशंसा से सन्तुष्ट न हो, बड़े-बड़े दमनकर्ता भी ऐसे व्यक्ति को कोई हानि नहीं पहुँचा सकते। ऐसा व्यक्ति सदा प्रसन्न रहता है।)

Context : The poet says that a calm and balanced man is always happy. He is free from worldly anxieties and worries. He does not fear from death and is very careful of flatterers.

Explanation : In this stanza the poet says that a happy man does not believe in rumours. He is always guided by his conscience and follows its voice strictly. He does not like to keep company with flatterers. He is not influenced by his false praise. So he is never proud of himself. Even a cruel and unjust man cannot give him any harm., Such a man leads a happy and ideal life.

(इस पद्यांश में कवि कहता है कि एक प्रसन्न व्यक्ति अफवाहों में विश्वास नहीं करता। वह सदा अपनी अन्तरात्मा से ही निर्देशित होता है और उसकी आवाज का पूर्ण रूप से अनुसरण करता है। वह चापलूस व्यक्तियों की संगति में रहना पसन्द नहीं करता। वह अपनी झूठी प्रशंसा से भी प्रभावित नहीं होता। इसलिए वह कभी भी अपने ऊपर गर्व नहीं करता। एक अत्याचारी तथा अन्यायी व्यक्ति भी उसे हानि नहीं पहुँचा । सकता। ऐसा व्यक्ति एक आदर्श और प्रसन्न जीवन व्यतीत करता है।)

(4)
Who envies none whom chance doth raise
Nor vice; who never understood
How deepest wounds are given with praise;
Nor rules of state, but rules of good;

[ Word-meanings : envies = ईर्ष्या करना to haveill will against anybody; chance = अवसर, भाग्य luck; raise = उन्नति करना, ऊपर उठाना lift up; vice = बुराई evil; deepest = अत्यधिक very much; wounds = कष्ट pains; state = राज्य, सरकार government; good=सदाचार good conduct.]

(वह व्यक्ति कितना प्रसन्न होगा जो किसी ऐसे व्यक्ति से ईष्र्या नहीं करता जिसकी संयोग से या सौभाग्य से उन्नति हुई हो और जो किसी के विरुद्ध कोई बुरी भावना न रखता हो। इस व्यक्ति को यह समझ लेना चाहिए। कि झूठी प्रशंसा के घाव बहुत गहरे होते हैं अर्थात् झूठी प्रशंसा से ऐसा कष्ट होता है जो काफी समय तक भी दूर नहीं होता। एक प्रसन्न व्यक्ति सरकार के नियमों के प्रति इतना वफादार नहीं होता जितना सदाचार के नियमों के प्रति।)

Context : The poet describes the character of a happy man. A happy man is always free, honest and truthful. He is careful of flatterers. He is never proud of himself.

Explanation : In this stanza the poet says that some people may progress in their life by chance or by luck. But a good man is never envious of them. So he is a happy man. He understands that false praise causes deep wounds which cannot be healed up. So a man who is careful of his praise is always happy. Everybody obeys the rules of government by force. But a good man follows the rules of good conduct also. He gives more importance to the rules of good conduct and has no fear of any legal action to be taken against him. He knows well that good conduct is above all things.

(इस पद्यांश में कवि कहता है कि कुछ व्यक्ति अपने जीवन में अवसर का लाभ उठाकर या भाग्य के कारण उन्नति कर सकते हैं। किन्तु एक भला मनुष्य ऐसे व्यक्तियों से कभी ईर्ष्या नहीं करता। इसलिए वह एक प्रसन्न व्यक्ति होता है। वह समझता है कि झूठी प्रशंसा से जख्म गहरे हो जाते हैं जिन्हें भरा नहीं जा सकता। इसलिए ऐसा व्यक्ति जो अपनी प्रशंसा के प्रति सावधान है, सदा प्रसन्न होता है। प्रत्येक व्यक्ति विवशता से सरकार के नियमों का पालन करता है, किन्तु एक भला व्यक्ति अच्छे आचरण के नियमों का भी पालन करता है। वह सदाचार के नियमों को अधिक महत्त्व देता है और उसे अपने विरुद्ध किसी कानूनी कार्यवाही का भय नहीं होता। वह भली प्रकार जानता है कि सदाचार सभी वस्तुओं से ऊपर होता है।)

(5)
Who God doth late and early pray
More of His grace than gifts to lend;
Who entertains the harmless day
With a well-chosen book or friend; [2010]

[ Word-meanings : doth = करता है does; late and early = देर-सवेर, कभी भी whenever one gets time; grace = ईश्वरीय गुण godly goodness; gifts = भगवान् के दिए हुए सुख एवं
आनन्द blessings and happiness given by God; entertains = आनन्द लेता है enjoys; harmless day= पूरे दिन बिना किसी को हानि पहुँचाए without giving any harm to anybody.]

(वह व्यक्ति कितना प्रसन्न होगा जो शाम-सवेरे कभी भी भगवान् की प्रार्थना करता है। ऐसे व्यक्ति को भगवान् की प्रार्थना ईश्वरीय गुण प्राप्त करने के लिए करनी चाहिए, न कि जीवन के आनन्द या अन्य के लिए। ऐसे व्यक्ति को पूरे दिन अर्थात् किसी भी समय किसी भी व्यक्ति को कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिए, बल्कि उसे अपना समय अच्छी पुस्तक पढ़ने में या अच्छे मित्र की संगति में व्यतीत करना चाहिए।)

Context : The poet says that a happy man is never envious of the progress of others. He always follows the rules of good conduct without any fear of any action by the government. Explanation : In this stanza the poet advises to pray to God daily whenever we get time. It is very necessary to lead a happy life. We should not pray to God for worldly gains but for his blessings and mercy. A man should not give harm of any kind to anybody at any time in the whole day. But he should pass his time either in reading good books or in the company of religious and pious people. Such a man will lead a very happy life.

(इस पद्यांश में कवि हमें शिक्षा देता है कि जब भी समय मिले, हमें भगवान् की प्रार्थना करनी चाहिए। एक प्रसन्न जीवन बिताने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है। हमें भगवान् से सांसारिक लाभ के लिए प्रार्थना नहीं करनी चाहिए, बल्कि उसके आशीर्वाद तथा दया के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। किसी भी व्यक्ति को पूरे दिन में किसी भी समय किसी अन्य व्यक्ति को किसी भी प्रकार की हानि नहीं पहुँचानी चाहिए। बल्कि उसे अपना समय या तो अच्छी पुस्तकों को पढ़ने में बिताना चाहिए या धार्मिक तथा पवित्र व्यक्तियों की संगति में। ऐसा व्यक्ति आनन्दमय जीवन व्यतीत करेगा।)

Comments : A happy man is the devotee of God.

(6)
This man is free from servile bands
Of hope to rise, or fear to fail;
Lord of himself, though not of lands;
And having nothing, he hath all. [2011, 13, 16, 17, 18]

[Word-meanings : servile = दासतापूर्ण like slaves; bands = बन्धन; rise = उन्नति progress; fall = अवनति या असफलता failure.]

(एक सुखी मनुष्य सभी प्रकार के विचारों एवं भावनाओं से स्वतन्त्र होता है। वह उनका दास नहीं होता अर्थात् उसे न तो उन्नति या सफलता की इच्छा होती है और न अवनति या असफलता का भय। वह भले ही धन या धरती का स्वामी न हो फिर भी वह अपना स्वामी स्वयं होता है। उसके पास कुछ भी न होते हुए सब कुछ होता है अर्थात् स्वतन्त्र विचार, आत्म-सम्मान एवं आत्म-सन्तोष ऐसे गुण हैं जो उसके जीवन को पूर्ण सुखी बनाते हैं।)

Context : In these lines the poet describes the character of a happy life. He says that honesty, truthfulness, and sincerity are the main qualities of a happy man. The man who passes his time in reading good books or in the company of good people is always happy.

Explanation : In this concluding stanza the poet advises us to lead an independent life. A man should not depend upon others. He should be free from all hopes and fears. He should not be overjoyed in his achievements and should not be disconsolate in failures. Although he may not have worldly riches yet he is the master of himself. Thus independence, self-respect and contentment are the merits that make a man happy.

(इस अन्तिम पद्यांश में कवि हमें स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देता है। किसी भी व्यक्ति को दूसरों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। उसे सभी प्रकार की आशाओं तथा भय से मुक्त होना चाहिए। उसे अपनी उपलब्धियों पर आवश्यकता से अधिक प्रसन्न नहीं होना चाहिए और असफलताओं पर निराश नहीं होना चाहिए। हो सकता है कि उसके पास सांसारिक धन-दौलत न हो फिर भी वह स्वयं अपना स्वामी होता है। इस प्रकार स्वतन्त्रता, आत्म-सम्मान और सन्तुष्टि ऐसे गुण हैं जो किसी मनुष्य को प्रसन्न बनाते हैं।)

Comments : The poet has used oxymoron figure of speech in this stanza.

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 4 जातक-कथा

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 4
Chapter Name जातक-कथा
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 4 जातक-कथा

अवतरणों का सन्दर्भ अनुवाद

उलूकजातकम् (उल्लू विषयक जातक-कथा)

(1) अतीते ……………………………………………… इत्यवोचन् । [2013,17]
ततः शकुनिगणाः …………………………………………. इत्यवोचन् ।
अतीते प्रथमकल्पे …………………………………………….. इति उक्तवन्तः ।

[ जातक = जन्म। जातक कथा = भगवान बुद्ध के पूर्वजन्मों की कथाएँ, जिनमें उन्होंने बुद्धत्व-प्राप्ति के लिए विभिन्न शीलों का अभ्यास किया था। अभिरूपम् = सुन्दर। सर्वाकारपरिपूर्णम् = समस्त सुलक्षणों से युक्त। चतुष्पदाः = पशु। सन्निपत्य = एकत्रित होकर। शकुनिगणाः = पक्षी। पुनरन्तरे (पुनः +
अन्तरे) = किन्तु (हमारे) बीच। ]

सन्दर्भ-यह गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘जातक-कथा’ पाठ के ‘उलूकजातकम्’ शीर्षक से उद्धृत है।
अनुवाद–प्राचीन काल के प्रथम कल्प में मनुष्यों ने एक सुन्दर, सौभाग्यशाली एवं समस्त सुलक्षणों से युक्त पुरुष को राजा बनाया। चौपायों (पशुओं) ने भी इकट्टे होकर एके सिंह को राजा बनाया। तब पक्षियों ने हिमालय प्रदेश में एक शिलातल पर इकड़े होकर कहा-“मनुष्यों में राजा दीख पड़ता है, वैसे ही चौपायों में भी, किन्तु हमारे बीच कोई राजा नहीं है। राजा के बिना रहना ठीक नहीं। (हमें भी) किसी को राजा के पद पर नियुक्त करना चाहिए। तब उन्होंने (राजा की खोज में) एक-दूसरे पर दृष्टि दौड़ाते हुए एक उल्लू को देखकर कहा ‘यह हमको पसन्द है।”

(2) अथैकः शकुनिः ……………………………………………… कृत्वा अगमन् ।
अथैकः शकुनिः ……………………………………………………… इत्याह ।
अर्थकः शकुनिः …………………………………………………….. धक्ष्यामः ।

[ आशयग्रहणार्थम् = मत (राय) जानने के लिए। त्रिकृत्वः = तीन बार। अवयत् = सुनाया (अर्थात् घोषित किया कि उल्लू को राजा बनाने में किसी को आपत्ति हो तो कहे)। तप्तकटाई = गर्म कड़ाही में। प्रक्षिप्ताः तिलाः इव =डाले गये तिलों के सदृश। धक्ष्यामः = भुन जाएँगे। विरुवन् = चिल्लाता हुआ। उदपतत् = उड़ गया। एनमवधावत (एनम् + अन्वधावत्) = इसके पीछे दौड़ा।]

सन्दर्भ-पूर्ववत्।
अनुवाद-इसके बाद एक पक्षी ने सबका मत जानने के लिए तीन बार सुनाया (घोषणा की)। तब एक कौआ उठकर बोला-“जरा ठहरो, इसका राज्याभिषेक के समय ही ( अर्थात् इस अतीव हर्ष के अवसर पर ही) ऐसा (भयानक) मुख है तो क्रुद्ध होने पर कैसा होगा ? इसके क्रुद्ध होकर देखने पर तो हम लोग गर्म कड़ाही में डाले गये तिलों की तरह जहाँ-के-तहाँ ही जल-भुन जाएँगे। ऐसा राजा मुझे अच्छा नहीं लगता। तुम लोगों का इस उल्लू को राजा बनाना मुझे ठीक नहीं लगता। इस समय के क्रोधहीन मुख को ही देखो, क्रुद्ध होने पर यह कैसा (विकृत) हो जाएगा ?” वह ऐसा कहकर ‘मुझे अच्छा नहीं लगता’, ‘मुझे अच्छा नहीं लगता’ चिल्लाता हुआ आकाश में उड़ गया। उल्लू ने भी उठकर उसका पीछा किया (या उसके पीछे भागा)। तब से ही दोनों एक-दूसरे के वैरी बन गये। पक्षी भी सुवर्ण हंस को राजा बनाकर चले गये।

नृत्यजातकम् (नृत्य-सम्बन्धी जातक-कथा)

(1) अतीते प्रथमकल्पे ……………………………………………… इत्यकथयत् ।
हंसराजः तस्यै …………………………………………………… इत्यभाषत ।।
अतीते ………………………………………………………. इत्यवोचत् । [2013]
अतीते ……………………………………………. दुहितरमादिदेश । [2018]
अतीते प्रथमकल्पे ……………………………………………. संन्यपतत् ।।
सा शकुनिसह्ये …………………………………………………………. इत्यकथयत् । [2010]

[वरमदात् (वरम् + अदात्) = वर दिया। आत्मनश्चित्तरुचितम् (आत्मनः + चित्त + रुचितम्) = अपना मनपसन्द (मनोनुकूल)। वृणुयात् = वरण करे। मणिवर्णग्रीवम् = नीलमणि के रंग की गर्दन वाले। चित्रप्रेक्षणम् = रंग-बिरंगे पंखों वाले। लज्जाञ्च (लज्जाम् + च) = और लज्जा को। प्रतिच्छन्न = बिना ढका (नंगा)। बर्हाणाम् = पंखों को। समुत्थाने = उठाने में। न अस्मै = इसे नहीं। गतत्रपाय = लज्जाहीन को (त्रपा = लज्जा), नष्ट हो गयी है लज्जा जिसकी वह, निर्लज्ज। ]

सन्दर्भ–यह गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के जातक-कथा’ पाठ के नृत्यजातकम्’ शीर्षक से अवतरित है।
अनुवाद-प्राचीन काल में प्रथम कल्प में चौपायों (पशुओं) ने सिंह को राजा बनाया। मछलियों ने आनन्द मत्स्य (मछली) को एवं पक्षियों ने सुवर्ण हंस को (राजा बनाया)। उस सुवर्ण राजहंस की पुत्री हंसपोतिका (हंसकुमारी) अत्यधिक रूपवती थी। उस (हंसराज) ने उसे (हंसकुमारी को) वर दिया कि वह अपने मनोनुकूल पति का वरण करे। हंसराज ने उसे वर देकर हिमालय के पक्षियों के समुदाय को इकट्ठा कराया। विभिन्न प्रकार के हंस, मोर आदि पक्षीगण आकर एक विशाल शिलातल पर इकट्टे हुए। हंसराज ने पुत्री को
आदेश दिया कि (वह) आकर अपने मनपसन्द पति को चुने। उसने पक्षी समुदाय पर दृष्टि डालते हुए नीलमणि के रंग की गर्दन और रंग-बिरंगे (या विचित्र) पंखों वाले मोर को देखकर कहा कि यह मेरा स्वामी हो।’ मोर ने (यह कहते हुए कि) “आज भी तुम मेरा बल नहीं देखती हो’ (अर्थात् अभी तुमने मेरा पराक्रम देखा ही कहाँ है ?), बड़े गर्व से निर्लज्जतापूर्वक उस बड़े पक्षी समुदाय के बीच पंख फैलाकर नाचना शुरू किया और नाचते हुए नग्न हो गया। सुवर्ण राजहंस ने लज्जित होकर कहा-“इसे तो न (अन्दर का) संकोच है और न ही पंखों को उठाने में (बाहर की) लज्जा। इस निर्लज्ज को मैं अपनी पुत्री नहीं दूंगा।” यह मेरी पुत्री से विवाह योग्य नहीं है।

(2) हंसराजः ……………………………………….. अगच्छत् ।

[तदैव = उसी। परिषन्मध्ये (परिषत् + मध्ये)= सभा के बीच। भागिनेयः = भांजा। भागिनेयाय = भांजे के लिए।].

सन्दर्भ-पूर्ववत्।।
अनुवाद-हंसराज ने उसी परिषद् के बीच अपने भांजे हंसकुमार को पुत्री दे दी। मोर हंसपुत्री को न पाकर लजाकर उस स्थान से भाग गया। हंसराज भी प्रसन्न मन से अपने घर को चला गया।

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