UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 15 Problems of Women Education

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 15
Chapter Name Problems of Women Education
(स्त्री-शिक्षा की समस्याएँ)
Number of Questions Solved 39
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 15 Problems of Women Education (स्त्री-शिक्षा की समस्याएँ)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारत में स्त्री-शिक्षा की मुख्य समस्याओं का उल्लेख कीजिए।
या
भारत में बालिकाओं की शिक्षा की मुख्य समस्याएँ क्या हैं? इन्हें कैसे दूर किया जा सकता है? [2007]
या
बालिकाओं की शिक्षा के प्रसार में आने वाली कठिनाइयाँ बताइए। इनके समाधान हेतु सुझाव दीजिए। [2008, 13]
या
स्त्री शिक्षा का क्या महत्त्व है? स्त्री-शिक्षा के विकास में क्या-क्या समस्याएँ हैं? [2016]
या
भारत में स्त्री-शिक्षा प्रसार में आने वाली बाधाओं का उल्लेख कीजिए। [2015]
उत्तर :
स्त्री-शिक्षा का महत्त्व
समाज तथा घर में स्त्री का स्थान महत्त्वपूर्ण होता है। अतः स्त्रियों का शिक्षित होना जरूरी है। आज की बालिका कल की स्त्री है, जिस पर पूरे परिवार का दायित्व होता है। अत: बालिका शिक्षा (स्त्री) भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितनी बालक की शिक्षा। स्त्री-शिक्षा के महत्त्व का विवरण निम्नलिखित है।

1. पारिवारिक उन्नति :
शिक्षित स्त्री अपने परिवार में विभिन्न मूल्यों का विकास तथा बच्चों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दे सकती है।

2. सामाजिक उत्थान :
समाज के सतत् उत्थान के लिए भी शिक्षित नारियों का सहयोग आवश्यक है।

3. सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करना :
सती प्रथा, पर्दा प्रथा, छुआछूत, अन्धविश्वास, दहेज प्रथा आदि को समाप्त करने के लिए स्त्री-शिक्षा आवश्यक है।

4. प्रजातन्त्र को सफल बनाना :
पुरुषों के समान अधिकार एवं कर्तव्य प्राप्त कराने तथा उनके प्रति चेतना जाग्रत कर प्रजातन्त्र को सफल बनाने की दृष्टि से स्त्री-शिक्षा का प्रसार आवश्यक है।

स्त्री-शिक्षा की समस्याएँ
इसमें सन्देह नहीं कि स्वाधीन भारत में स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति हुई है, लेकिन कुछ समस्याएँ तथा कठिनाइयाँ स्त्री-शिक्षा के मार्ग में बाधक बनी हुई हैं। इन समस्याओं/कठिनाइयों/बाधाओं का विवरण निम्नलिखित है।

1. सामाजिक कुप्रथाएँ एवं अन्धविश्वास :
भारतीय समाज अनेक सामाजिक रूढ़ियों एवं अन्धविश्वासों से ग्रस्त है। शिक्षा के अभाव में आज भी अधिकांश लोग प्राचीन परम्पराओं एवं विचारों के कट्टर समर्थक हैं। उनका विचार है कि बालिकाओं को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उन्हें विवाह करके पति के घर ही जाना है। वह शिक्षित और स्वच्छन्द बालिकाओं को चरित्रहीन भी समझते हैं। कुछ परिवारों में आज भी बाल-विवाह और परदा-प्रथा विद्यमान है, जिनके कारण स्त्री-शिक्षा के प्रसार में बाधा उत्पन्न हो रही है।

2. जनसाधारण में शिक्षा का कम प्रसार :
आज भी देश की अधिकांश जनता अशिक्षित है और शिक्षा के सामाजिक तथा सांस्कृतिक महत्त्व से अनभिज्ञ है। अधिकांश लोग शिक्षा को निरर्थक और समय का अपव्यय समझते हैं। उनका विचार है कि शिक्षा केवल व्यावसायिक या राजनीतिक लाभ के लिए ही ग्रहण की जाती है। इस दृष्टि से केवल लड़कों को ही शिक्षित करना उचित है।

3. निर्धनता तथा पिछडापन :
वर्तमान समय में भारत की अधिकांश जनता निर्धन है और उसका जीवन-स्तर काफी पिछड़ा हुआ है। हमारे ग्रामीण क्षेत्र आज भी अविकसित दशा में हैं और वहाँ जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएँ भी सुलभ नहीं हो पाती हैं। धन के अभाव के कारण वे अपने बालकों को ही शिक्षा नहीं दिला पाते हैं, फिर बालिकाओं को विद्यालय भेजना तो एक असम्भव बात है।

4. संकीर्ण दृष्टिकोण :
भारत में लोगों का स्त्रियों के प्रति बहुत संकीर्ण दृष्टिकोण पाया जाता है। अशिक्षा के कारण अधिकांश व्यक्ति यह कहते हैं कि स्त्रियों को केवल घर-गृहस्थी का कार्य भार सँभालना है, इसलिए अधिक पढ़ाने-लिखाने की आवश्यकता नहीं है। शिक्षा प्राप्त करने पर स्त्रियाँ घर के काम नहीं कर सकेंगी। इस प्रकार के संकीर्ण दृष्टिकोण स्त्री-शिक्षा के प्रसार में बाधक सिद्ध हो रहे हैं।

5. बालिका-शिक्षा के प्रति अनुचित दृष्टिकोण :
भारत में अधिकांश लोग अपने बालकों को शिक्षा नौकरी प्राप्त करने के सामाजिक कुप्रथाएँ एवं उद्देश्य से दिलाते हैं और लड़कियों को शिक्षा इसलिए देते हैं, अन्धविश्वास जिससे उनका विवाह अच्छे परिवार में हो जाए। इस अनुचित दृष्टिकोण के कारण विवाह होते ही लड़कियों की पढ़ाई बन्द करा दी जाती है।

6. शिक्षा में अपव्यय :
शिक्षा सम्बन्धी आँकड़ों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि बालकों की अपेक्षा बालिकाओं की शिक्षा पर अधिक अपव्यय होता है। वस्तुत: अधिकांश अभिभावक, के पास धनाभाव और पूर्ण सुविधाओं के उपलब्ध न होने के कारण अधिकांश छात्राएँ निर्धारित अवधि से पूर्व ही पढ़ना छोड़ देती हैं। इस कारण अनेक बालिकाएँ समुचित शिक्षा प्राप्त करने से वंचित तथा रह जाती हैं।

7. पाठ्यक्रम का उपयुक्त न होना :
हमारे देश में शिक्षा के सभी स्तरों पर बालक-बालिकाओं के लिए समान पाठ्यक्रम, पुस्तकें और परीक्षाएँ हैं। अत: अधिकांश लोग इस प्रकार की शिक्षा के विरोधी हैं, क्योंकि उनका विचार है कि बालिकाओं की शारीरिक, मानसिक और सामाजिक आवश्यकताएँ बालकों से भिन्न होती हैं। अतः एक-समान पाठ्यक्रम बालिकाओं के लिए उपयुक्त नहीं होता। इस ज्ञान-प्रधान और पुस्तक-प्रधान पाठ्यक्रम का बालिकाओं के वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता।

8. बालिका विद्यालयों तथा अध्यापिकाओं की कमी :
शिक्षा के सभी स्तरों पर हमारे देश में बालिका विद्यालयों की कमी है। देश में लगभग दो-तिहाई ग्राम ऐसे हैं, जहाँ प्राथमिक शिक्षा के लिए ही कोई व्यवस्था नहीं है। शेष एक-तिहाई ग्रामों में से अधिकांश में बालिकाओं को बालकों के साथ ही प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती है। यही स्थिति माध्यमिक और उच्च शिक्षा के स्तरों पर भी है। अतः सहशिक्षा के कारण भी स्त्री-शिक्षा के प्रसार में बाधा पहुँच रही है। इसी प्रकार प्रशिक्षित अध्यापिकाओं की भी कमी है। अनेक शिक्षित स्त्रियाँ अपने अभिभावकों और पति की अनिच्छा के कारण चाहते हुए भी नौकरी नहीं कर पातीं।

9. दोषपूर्ण शैक्षिक प्रशासन :
भारत में लगभग सभी राज्यों में स्त्री-शिक्षा का प्रशासन पुरुष अधिकारियों के हाथ में है, परन्तु स्त्री-शिक्षा की समस्याओं से पूर्णतया अवगत न होने के कारण और अरुचि के कारण स्त्री-शिक्षा का समुचित विकास नहीं हो पा रहा है।

10. सरकार की उदासीनता :
सरकार स्त्री-शिक्षा के प्रति उतनी जागरूक नहीं है, जितनी कि बालकों की शिक्षा के प्रति है। इस कारण ही स्त्री-शिक्षा के विकास पर बहुत कम धन व्यय किया जा रहा है। सरकार की इस उपेक्षापूर्ण नीति के कारण स्त्री-शिक्षा का वांछित विकास नहीं हो पा रहा है।

(संकेत : समाधान हेतु सुझावों के लिए निम्नलिखित प्रश्न 2 का उत्तर देखें।)

प्रश्न 2
स्त्री-शिक्षा से सम्बन्धित समृस्याओं के समाधान के उपायों का उल्लेख कीजिए। [2007, 08]
या
बालिकाओं की शिक्षा में बाधक तत्त्वों का निराकरण किस प्रकार किया जा सकता है? [2013]
या
महिला शिक्षा की प्रगति हेतु किये गये प्रयासों का वर्णन कीजिए। [2015]
उत्तर :
स्त्री-शिक्षा की समस्याओं का समाधान
स्त्री-शिक्षा के विकास में यद्यपि अनेक बाधाएँ हैं, परन्तु यदि धैर्यपूर्वक इन बाधाओं का सामना किया जाए तो इन पर विजय प्राप्त की जा सकती है। यहाँ हम स्त्री-शिक्षा की समस्याओं को हल करने के लिए निम्नांकित सुझाव प्रस्तुत कर रहे हैं।

1. रूढ़िवादिता का उन्मूलन :
जब तक समाज में रूढ़िवादिता का उन्मूलने नहीं किया जाएगा, तब तक स्त्री-शिक्षा का विकास सम्भव नहीं है। इसलिए निम्नलिखित कदम उठाये जाने चाहिए।

  • बाल-विवाह के विरुद्ध व्यापक अभियान चलाया जाए तथा इसकी हानियों से जनसाधारण को अवगत कराया जाए।
  • सामाजिक रूढ़ियों को समाप्त करने के लिए समाज शिक्षा का प्रसार प्रभावशाली ढंग से किया जाए।
  • स्त्रियों के प्रति आदर की भावना उत्पन्न करने तथा परदा-प्रथा की निरर्थकता सिद्ध करने के प्रयास किये जाएँ।
  • ऐसा सचित्र साहित्य प्रचारित किया जाए, जिसमें देश-विदेश की महिलाओं की सामाजिक गतिविधियों का उल्लेख हो।
  • ऐसी फिल्मों का प्रदर्शन किया जाए, जिनमें सामाजिक रूढ़ियों का विरोध किया गया हो।

2. अपव्यय और अवरोधन का उपचार :
स्त्री-शिक्षा में अपव्यय और अवरोधन को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाएँ

  • विद्यालय के वातावरण को आकर्षक बनाया जाए।
  • पाठ्यक्रम को यथासम्भव रोचक तथा उपयोगी बनाया जाए।
  • रोचक और मनोवैज्ञानिक शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाए।
  • परीक्षा प्रणाली में सुधार किया जाए।
  • अंशकालीन शिक्षा का प्रबन्ध किया जाए।
  • शिक्षण में खेल विधियों का उपयोग किया जाए।
  • स्त्री-शिक्षा के प्रति अभिभावकों के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाया जाए।

3. भिन्न पाठ्यक्रम की व्यवस्था :
बालिकाओं के पाठ्यक्रम में भी पर्याप्त परिवर्तन की आवश्यकता है। यह बात ध्यान में रखने की है कि बालक और बालिकाओं की व्यक्तिगत क्षमताओं, अभिवृत्तियों और रुचियों में भिन्नता होती है। अतः पाठ्यक्रम के निर्धारण में इस तथ्य की उपेक्षा न की जाए। बालिकाओं के पाठ्यक्रम सम्बन्धी प्रमुख सुझाव निम्नलिखित हैं

  • प्राथमिक स्तर पर बालक-बालिकाओं के पाठ्यक्रम में समानता रखी जा सकती है।
  • माध्यमिक स्तर पर पाकशास्त्र, गृहविज्ञान, सिलाई, कताई, बुनाई आदि की शिक्षा प्रदान की जाए।
  • उच्च स्तर पर गृह अर्थशास्त्र, गृह प्रबन्ध, गृह शिल्प आदि की शिक्षा का प्रबन्ध किया जाए। उन्हें संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा विशेष रूप से दी जाए।
  • प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर बालिकाओं के लिए।

4. ग्रामीण दृष्टिकोण में परिवर्तन :
ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक पैमाने पर समाज शिक्षा का प्रसार किया जाए तथा विभिन्न गोष्ठियों और आन्र्दोलनों के द्वारा ग्रामीण दृष्टिकोण में परिवर्तन करने का प्रयास किया जाए। ग्रामवासियों को शिक्षा का महत्त्व समझाया जाए तथा स्त्री-शिक्षा के प्रति जो उनकी परम्परागत विचारधाराएँ हैं, उनका उन्मूलन किया जाए।

5. आर्थिक समस्या का समाधान :
आर्थिक समस्या को हल करने के लिए केन्द्र सरकार का कर्तव्य है कि वह राज्य सरकारों को पर्याप्त अनुदान दे। राज्य सरकारों का कर्तव्य है कि वे अनुदान उचित मात्रा में उचित स्त्री-शिक्षा के लिए करें तथा बालिका विद्यालयों को इतनी आर्थिक सहायता दें कि वे अपने यहाँ अधिक-से-अधिक बालिकाओं को प्रवेश दे सकें।

6. जनसाधारण के दृष्टिकोण में परिवर्तन :
स्त्री-शिक्षा के विकास के लिए जनसाधारण को शिक्षा के वास्तविक अर्थ बताये जाएँ तथा उनके उद्देश्यों पर व्यापक दृष्टि से प्रकाश डाला जाए। शिक्षा को केवल नौकरी प्राप्त करने का साधन न माना जाए। शिक्षा के महत्त्व और लाभों का ज्ञान कराने के लिए फिल्मों, प्रदर्शनियों तथा व्याख्यानों आदि का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया जाए। जब हमारे देश के पुरुष वर्ग का शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण बदल जाएगा और वह यह समझने लगेगा कि सुयोग्य नागरिकों का निर्माण सुयोग्य व शिक्षित माताओं द्वारा ही सम्भव है, तो स्त्री-शिक्षा के मार्ग में आने वाली समस्याओं का समाधान स्वतः ही हो जाएगा।

7. बालिका विद्यालयों की स्थापना :
सरकार का कर्तव्य है कि यथासम्भव अधिक-से-अधिक बालिका-विद्यालयों की स्थापना करे। माध्यमिक स्तर पर अधिक-से-अधिक विद्यालय खोलने की आवश्यकता है। जो बालिका विद्यालय अमान्य हैं, उन्हें सरकार द्वारा शीघ्र ही मान्यता दी जाए। धनी और सम्पन्न व्यक्तियों को बालिका विद्यालयों की स्थापना हेतु अधिक-से-अधिक आर्थिक सहायता के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

8. अध्यापिकाओं की पूर्ति :
बालिका विद्यालयों में अध्यापिकाओं की पूर्ति के लिए निम्नलिखित बातों पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है

  • अध्यापन कार्य के प्रति अधिक-से-अधिक महिलाएँ आकर्षित हों, इसके लिए अध्यापिकाओं के वेतन में वृद्धि की जाए।
  • जिन अध्यापिकाओं के पति भी अध्यापक हैं, उन्हें एक-साथ रहने की सुविधाएँ प्रदान करना तथा उनका स्थानान्तरण भी एक स्थान पर ही करना।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में अध्यापिकाओं को भी आवश्यकता पड़ने पर नियुक्त करना।
  • अप्रशिक्षित अध्यापिकाओं को भी आवश्यकता पड़ने पर नियुक्त करना।
  • महिलाओं को आयु सम्बन्धी छूट प्रदान करना।
  • शिक्षण कार्य में रुचि रखने वाली बालिकाओं को पर्याप्त आर्थिक सहायता प्रदान करना।
  • वर्तमान प्रशिक्षण संस्थाओं का विस्तार करना तथा नवीन महिला प्रशिक्षण संस्थाओं की स्थापना करना।

9. शिक्षा प्रशासन में सुधार :
स्त्री-शिक्षा का सम्पूर्ण प्रशासन पुरुष वर्ग के हाथ में न होकर स्त्री वर्ग के हाथ में होना चाहिए। सरकार का कर्तव्य है कि वह प्रत्येक राज्य में एक उपशिक्षा संचालिका तथा उसकी अधीनता में विद्यालय निरीक्षिकाओं की नियुक्ति करे। स्त्री निरीक्षिकाओं द्वारा ही बालिका विद्यालयों का निरीक्षण किया जाए। बालिकाओं के लिए पाठ्यक्रम तथा शिक्षा नीति का निर्धारण भी महिला शिक्षार्थियों द्वारा किया जाए।

10. शिक्षा की उदार नीति :
सरकार का कर्तव्य है कि वह स्त्री-शिक्षा के प्रति उदार नीति अपनाये। स्त्री-शिक्षा की उपेक्षा न करके उसे राष्ट्रीय हित की योजना माना जाए तथा विभिन्न साधनों द्वारा स्त्री-शिक्षा के प्रसार में योगदान प्रदान किया जाए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
“नारी सशक्तिकरण के लिए शिक्षा आवश्यक है।” इस कथन के सन्दर्भ में अपने विचार व्यक्त कीजिए। [2010]
या
भारत में नारी शिक्षा के विकास पर टिप्पणी कीजिए। [2012]
उत्तर :
पारस्परिक रूप से हमारा समाज पुरुष-प्रधान रहा है तथा समाज में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को कम अधिकार प्राप्त रहे। महिलाओं को कम स्वतन्त्रता प्राप्त थी तथा उन्हें समाज़ में अबला ही माना जाता था। परन्तु अब स्थिति एवं सोच परिवर्तित हो चुकी है। अब यह माना जाने लगा है कि समाज एवं देश की प्रगति के लिए समाज में महिलाओं को भी समान अधिकार, अवसर एवं सत्ता प्राप्त होनी चाहिए। इसीलिए हर ओर नारी सशक्तिकरण की बात कही जा रही है। नारी सशक्तिकरण की अवधारणा को स्वीकार कर लेने पर यह भी अनुभव किया गया कि “नारी सशक्तिकरण के लिए शिक्षा आवश्यक है।

वास्तव में जब समाज में स्त्रियाँ शिक्षित होंगी तो उनमें जागरूकता आएगी तथा वे अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों को भी समझ सकेंगी। इसके अतिरिक्त शिक्षित नारी पारम्परिक रूढ़ियों एवं अन्धविश्वासों से भी मुक्त हो पाएँगी। शिक्षा प्राप्त नारियाँ विभिन्न व्यवसायों एवं नौकरियों में पदार्पण करके आर्थिक रूप से भी स्वतन्त्र होंगी। इससे जहाँ एक ओर वे पुरुषों की आर्थिक निर्भरता से मुक्त होंगी वहीं उनमें एक विशेष प्रकार का आत्म-विश्वास जाग्रत होगा। इस स्थिति में न तो उन्हें अबला माना जाएगा और न ही उनका शोषण ही हो पाएगा। इन समस्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है। कि नारी सशक्तिकरण के लिए शिक्षा आवश्यक है।

प्रश्न 2
प्राचीन काल में भारतीय समाज में स्त्री-शिक्षा की क्या स्थिति थी?
उत्तर :
प्राचीन काल में स्त्री-शिक्षा काफी उन्नति पर थी। उस समय स्त्रियाँ वैदिक साहित्य का अध्ययन और अनुशीलन करती थीं। मैत्रेयी, गार्गी, अपाला, घोषा, लोपामुद्रा आदि महिलाओं ने तो वैदिक संहिताओं की भी रचना की है। स्त्रियाँ विविध शास्त्रों की पण्डित होती थीं और कभी-कभी तो वे न केवल शास्त्रार्थ में भाग लेकर पुरुषों की बराबरी करती थीं, अपितु उन्हें शास्त्रार्थों में मध्यस्थ भी बनाया जाता था। इस बात के भी अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं कि सभी धार्मिक कार्यों में पति के साथ पत्नी को भाग लेना अनिवार्य था और यह तभी सम्भव था जब वे शिक्षित हों।

वैदिककाल के बाद बौद्ध काल में भी स्त्री-शिक्षा को कुछ प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। बौद्ध शिक्षकों ने मठों में रहने वाली बौद्ध भिक्षुणियों के लिए समुचित शिक्षा-व्यवस्था की थी, लेकिन स्त्री-शिक्षा की यह दशा अधिक दिनों तक न रह सकी। बौद्ध धर्म के पतन के बाद जब हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान हुआ तबे स्त्री-शिक्षा प्रसार के सभी प्रयासों को निरुत्साहित किया गया, क्योंकि पुनरुत्थान आन्दोलन के नेता शंकराचार्य स्त्री-शिक्षा के विरोधी थे।

प्रश्न 3
मध्यकाल में भारतीय समाज में स्त्री-शिक्षा की क्या स्थिति थी?
उत्तर :
भारत में मुस्लिम सत्ता की स्थापना हो जाने से देशभर में हिन्दू और मुस्लिम दोनों समाजों में परदा-प्रथा का बहुत अधिक प्रचलन हो गया तथा हिन्दुओं में बाल-विवाह की प्रथा भी आरम्भ हो गयी। अतः अल्प आयु की कुछ बालिकाएँ भले ही थोड़ा-बहुत ज्ञान प्राप्त कर लेती हों, लेकिन उच्च शिक्षा से वे वंचित ही रहती थीं।

केवल धनी परिवारों की स्त्रियाँ ही घर पर शिक्षा प्राप्त करती थीं, लेकिन जनसाधारण वर्ग की स्त्रियों के लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। इसीलिए रजिया बेगम, नूरजहाँ, जहाँआरा, जेबुन्निसा, मुक्ताबाई आदि बहुत थोड़ी विदुषी महिलाएँ ही इस युग में हुईं। 18वीं शताब्दी में स्त्री-शिक्षा का इतना ह्रास हो गया कि 19वीं शताब्दी के आरम्भ में केवल एक प्रतिशत बालिकाएँ ही पढ़-लिख सकती थीं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
स्त्री-शिक्षा अथवा बालिका शिक्षा को आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण क्यों माना जाता है? [2007]
या
टिप्पणी लिखिए-नारी शिक्षा का महत्त्व। [2007]
उत्तर :
एक विद्वान का कथन है, एक लड़के की शिक्षा एक व्यक्ति की शिक्षा है, परन्तु एक लड़की की शिक्षा पूरे परिवार की शिक्षा है। प्रस्तुत कथन द्वारा स्पष्ट होता है कि बालिका-शिक्षा अधिक आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में आज की बालिका सुशिक्षित है तो एक भावी परिवार उससे लाभान्वित होगा। सुशिक्षित गृहिणी अपने घर-परिवार की सुव्यवस्था बनाये रखती है तथा बच्चों को शिक्षित बनाने में भरपूर योगदान प्रदान कर सकती है। बालिकाओं की शिक्षा से समाज की कुरीतियों को समाप्त करने में योगदान प्राप्त होता है तथा सामाजिक उत्थान में सहायता प्राप्त होती है।

प्रश्न 2
टिप्पणी लिखिए-स्त्री-शिक्षा तथा सहशिक्षा। [2007]
उत्तर :
स्त्री-शिक्षा तथा सहशिक्षा सहशिक्षा वह शिक्षा-व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत लड़के तथा लड़कियाँ एक स्थान पर एक समय, एक पाठ्यक्रम, एक विधि तथा एक प्रशासन के अन्तर्गत अध्ययन करते हैं।

सहशिक्षा की आवश्यकता तथा महत्त्व

  1. सहशिक्षा के आधार पर शिक्षा के समान अवसर, सुविधाएँ तथा अधिकार मिलते हैं।
  2. लड़के और लड़कियों में परस्पर सहयोग तथा विश्वास विकसित होता है।
  3. एक-दूसरे के प्रति जिज्ञासाएँ सन्तुष्ट होती हैं।
  4. स्त्री को स्वतन्त्र सामाजिक वातावरण, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा नागरिक अधिकार मिलते हैं, जो सहशिक्षा में ही सम्भव हैं।
  5. स्त्री-शिक्षा का ‘अलग प्रबन्ध खर्चीला होता है। सहशिक्षा में बचत होती है।

सहशिक्षा का प्रसार
सहशिक्षा के प्रसार के लिए स्त्री-शिक्षा समिति ने निम्नलिखित सुझाव दिए हैं

  1. सहशिक्षा पर आधारित विद्यालय सुसंगठित हो।
  2. सहशिक्षा के विद्यालयों की संख्या बढ़ाई जाए।
  3. इस प्रणाली को प्राथमिक स्तर पर ही लागू किया जाए।
  4. सहशिक्षा से सम्बन्धित विद्यालयों में संगीत, गृह विज्ञान, नृत्य, चित्रकला आदि विषयों की पूर्ण व्यवस्था हो।
  5. इस प्रणाली की जानकारी अभिभावकों को दी जाए जिससे यह विकसित हो सके।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
परिवार में माता का योग्य एवं सुशिक्षित होना क्यों आवश्यक है?
उत्तर :
माता योग्य एवं सुशिक्षित है तो वह अपने बच्चों को भी योग्य एवं सुशिक्षित बना सकती है।

प्रश्न 2
नारी-शिक्षा का परिवार की आर्थिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
नारी-शिक्षा का परिवार की आर्थिक स्थिति पर अच्छा प्रभाव पड़ता है क्योंकि शिक्षित गृहस्वामिनी परिवार की आय-वृद्धि में समुचित योगदान दे सकती है।

प्रश्न 3
स्त्री-शिक्षा प्रसार का समाज में स्त्रियों की स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
स्त्री-शिक्षा प्रसार से समाज में नारी-सशक्तिकरण को बल मिलता है।

प्रश्न 4
किस काल में हमारे देश में स्त्री-शिक्षा की दुर्दशा थी?
उत्तर :
मध्यकाल में हमारे देश में स्त्री-शिक्षा की दुर्दशा थी।

प्रश्न 5
ब्रिटिश काल में सर्वप्रथम बालिका विद्यालय किनके द्वारा स्थापित किये गये थे?
उत्तर :
ब्रिटिश काल में सर्वप्रथम ईसाई मिशनरियों द्वारा बालिका विद्यालय स्थापित किये गये थे।

प्रश्न 6
हमारे देश में किन क्षेत्रों में स्त्री-शिक्षा का कम प्रसार हुआ है?
उत्तर :
हमारे देश में ग्रामीण तथा पिछड़े क्षेत्रों में स्त्री-शिक्षा का कम प्रसार हुआ है।

प्रश्न 7
प्राचीनकालीन कुछ सुशिक्षित महिलाओं के नामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
प्राचीनकाल की कुछ सुशिक्षित महिलाएँ थीं-मैत्रेयी, गार्गी, अपाला, घोषा तथा लोपामुद्रा आदि।

प्रश्न 8
मध्यकाल में भारत में स्त्री-शिक्षा की कैसी व्यवस्था थी?
उत्तर :
मध्यकाल में भारत में स्त्री-शिक्षा की व्यवस्था सन्तोषजनक नहीं थी।

प्रश्न 9
मध्यकाल की कुछ सुशिक्षित महिलाओं के नाम लिखिए।
उत्तर :
मध्यकाल की कुछ सुशिक्षित महिलाएँ थीं-रजिया बेगम, गुलबदन बेगम, नूरजहाँ, जहाँआरा, जेबुन्निसा तथा मुक्ताबाई।

प्रश्न 10
बालिकाओं की शिक्षा को क्यों आवश्यक माना जाता है?
उत्तर :
देश एवं समाज की प्रगति तथा पारिवारिक सुव्यवस्था के लिए बालिकाओं की शिक्षा को आवश्यक माना जाता है।

प्रश्न 11
स्त्री-शिक्षा का प्रबल समर्थन करने वाले किन्हीं दो समाज-सुधारकों के नाम लिखिए।
उत्तर :
स्त्री-शिक्षा के प्रबल समर्थक थे राजा राममोहन राय तथा स्वामी दयानन्द।

प्रश्न 12
राष्ट्रीय महिला-शिक्षा परिषद् (N.C.W.E) का गठन कब हुआ? [2008]
उत्तर :
राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद् का गठन सन् 1959 ई० में हुआ था।

प्रश्न 13
राष्ट्रीय महिला-शिक्षा समिति का गठन कब हुआ तथा इसे अन्य किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर :
राष्ट्रीय महिला शिक्षा समिति का गठन सन् 1958 ई० में हुआ तथा इसे ‘देशमुख समिति के नाम से भी जाना जाता है।

प्रश्न 14
महिला समाख्या कार्यक्रम कब प्रारम्भ हुआ और क्यों? [2012]
उत्तर :
महिला समाख्या कार्यक्रम ‘हंसा मेहता समिति 1962’ की सिफारिशों से प्रारम्भ हुआ। इस योजना को लागू करने का प्रमुख उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से महिला सशक्तिकरण के लक्ष्य को प्राप्त करना है।

प्रश्न 15
वर्तमान परिस्थितियों में सहशिक्षा के प्रति क्या विचार हैं?
उत्तर :
वर्तमान परिस्थितियों में सहशिक्षा को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।

प्रश्न 16
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. सामाजिक कुरीतियों एवं बुराइयों को समाप्त करने के लिए स्त्री-शिक्षा अति आवश्यक है।
  2. कुछ अन्धविश्वास तथा सामाजिक रूढ़ियाँ स्त्री-शिक्षा के मार्ग में बाधक हैं।
  3. मध्यकाल में स्त्री-शिक्षा की सुव्यवस्था थी।
  4. ईसाई मिशनरियों ने स्त्री-शिक्षा के प्रसार में उल्लेखनीय योगदान दिया है।
  5. वर्तमान समय में सहशिक्षा को प्रोत्साहन देकर स्त्री-शिक्षा का अधिक प्रसार किया जा सकता है।

उत्तर :

  1. सत्य
  2. सत्य
  3. असत्य
  4. सत्य
  5. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
वर्तमान परिस्थितियों में स्त्री-शिक्षा का प्रसार
(क) अधिक-से-अधिक होना चाहिए।
(ख) सीमित होना चाहिए।
(ग) नियन्त्रित होना चाहिए
(घ) अनावश्यक है।
उत्तर :
(क) अधिक-से-अधिक होना चाहिए।

प्रश्न 2
किस काल में महिलाएँ समान मंच पर पुरुषों से शास्त्रार्थ करती थीं?
(क) वैदिक काल में
(ख) पौराणिक काल में
(ग) मध्य काल में
(घ) किसी भी काल में नहीं
उत्तर :
(क) वैदिक काल में

प्रश्न 3
स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व किस काल में स्त्री-शिक्षा के प्रसार के लिए सराहनीय प्रयास किये गये थे?
(क) मुस्लिम शासन काल में
(ख) बौद्धकाल में
(ग) ब्रिटिश शासनकाल में
(घ) किसी भी काल में नहीं
उत्तर :
(ग) ब्रिटिश शासनकाल में

प्रश्न 4
“बालक का भविष्य सदैव उसकी माता द्वारा निर्मित किया जाता है।” यह कथन है
(क) अरस्तू का
(ख) नेपोलियन को
(ग) नेहरू का।
(घ) दयानन्द का
उत्तर :
(ख) नेपोलियन को

प्रश्न 5
स्त्री-शिक्षा के प्रसार में बाधक कारक हैं
(क) निर्धनता एवं पिछड़ापन
(ख) संकीर्ण दृष्टिकोण
(ग) बालिका शिक्षा के प्रति अनुचित दृष्टिकोण
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर :
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 6
तुम मुझे 100 सुशिक्षित माताएँ दो, मैं एक महान राष्ट्र का निर्माण कर दूंगा यह कथन किसका है?
(क) मैजिनी
(ख) नेपोलियन बोनापार्ट
(ग) जॉन डीवी
(घ) बिस्मार्क
उत्तर :
(ख) नेपोलियन बोनापार्ट

प्रश्न 7
वैदिककाल की प्रमुख विदुषी महिला थीं
(क) चिदम्बरा
(ख) हंसा बेन
(ग) गार्गी
(घ) पार्वती
उत्तर :
(ग) गार्गी

प्रश्न 8
मध्यकालीन महिला इतिहासकार थीं
(क) गुलबदन बेगम
(ख) नूरजहाँ
(ग) रजिया बेगम
(घ) जहाँआरा
उत्तर :
(क) गुलबदन बेगम

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi राष्ट्रीय भावनापरक निबन्ध

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Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name राष्ट्रीय भावनापरक निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi राष्ट्रीय भावनापरक निबन्ध

राष्ट्रीय भावनापरक निबन्ध

राष्ट्रभाषा हिन्दी [2009, 13]

सम्बद्ध शीर्षक।

  • राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के विकास में बाधाएँ
  • राष्ट्रभाषा हिन्दी : राष्ट्र की एकता का प्रतीक
  • देश के विकास में राष्ट्रभाषा की भूमिका
  • हिन्दी ही राष्ट्रभाषा क्यों ? [2009]
  • राष्ट्रभाषा का महत्त्व [2009]
  • भारत की भाषा-समस्या और हिन्दी (2012)

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना,
  2. भाषा के विभिन्न रूप,
  3. हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का औचित्य,
  4. अंग्रेजी को अपदस्थ करना आवश्यक,
  5. उपसंहार : हिन्दी के गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा में बाधक तत्त्व और समस्या का समाधान।।

प्रस्तावना—किसी भी पूर्ण प्रभुसत्तासम्पन्न स्वतन्त्र राष्ट्र के लिए तीन वस्तुएँ अनिवार्य होती हैं(1) राष्ट्रध्वज, (2) राष्ट्रगान तथा (3) राष्ट्रभाषा। भारत के पास राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान तो हैं, किन्तु राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को उसका उचित स्थान अब तक न मिल पाना बड़े दुर्भाग्य की बात है। किसी भी स्वतन्त्र राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा का प्रश्न मूलभूत महत्त्व का होता है; क्योकि राष्ट्रभाषा समस्त राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोने वाली, उसकी सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने वाली एवं उसे उसके प्राचीन गौरव का स्मरण दिलाकर उसमें अस्मिता-बोध जगाने वाली संजीवनी है, जिसके बिना राष्ट्र मृतप्राय होकर कालान्तर में अपनी सम्प्रभुता भी खो देता है। भारतेन्दु जी ने ठीक ही लिखा है-

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल ।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को सूल ॥

वस्तुतः राष्ट्रभाषा के बिना कोई व्यक्ति गर्व से किसी स्वतन्त्र राष्ट्र का नागरिक कहलाने का अधिकारी नहीं होता। आज जो भारतीय किसी कार्यवश संसार के ऐसे देशों में जाते हैं, जहाँ की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी नहीं है, वहाँ अंग्रेजी के प्रयोग के कारण उन्हें जिस असुविधा एवं अपमानजनक स्थिति का सामना करना पड़ता है, उसका विवरण कितने ही सज्जनों ने स्वयं ही दिया है। यही कारण है कि किसी भी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा का प्रश्न सब प्रकार के विवादों से ऊपर होता है, किन्तु संसार में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ राष्ट्रभाषा के प्रश्न को भी क्षुद्र राजनीतिक, क्षेत्रीय एवं साम्प्रदायिक विवादों में फंसाकर व्यवहार में अब तक अनिर्णीत रखा गया है। इसके दुष्परिणाम भी देश के उत्तरोत्तर बढ़ते जाते विघटन के रूप में दीख पड़ते हैं। अतः राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की स्थिति, इसके उचित स्थान-ग्रहण में बाधक तत्त्व एवं इस समस्या के समाधान पर विचार करना उचित होगा।

भाषा के विभिन्न रूप-सर्वप्रथम क्षेत्रीय (प्रादेशिक) भाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा के अन्तर को स्पष्ट करना उचित होगा। किसी देश के प्रदेश विशेष की भाषा को प्रादेशिक या क्षेत्रीय भाषा कहते हैं; जैसे—भारत में बाँग्ला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, तमिल, तेलुगू आदि भाषाएँ। जब कोई प्रादेशिक भाषा किन्हीं राजनीतिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक या साहित्यिक कारणों से समग्र देश में फैलकर विभिन्न प्रदेशवासियों के पारस्परिक व्यवहार का माध्यम बन जाती है तो उसे राष्ट्रभाषा’ कहते हैं। आशय यह है कि किसी प्रदेश विशेष के निवासी आपसी व्यवहार में तो अपनी प्रादेशिक भाषा का ही प्रयोग करते हैं, किन्तु भिन्न भाषा-भाषी दूसरे प्रदेश वालों के साथ व्यवहार के समय एक ऐसी भाषा का प्रयोग करने को बाध्य हैं, जो सारे देश में थोड़ी-बहुत समझी-बोली जाती हो। इसी को राष्ट्रभाषा कहते हैं।

भारत में मध्यकाल से ही हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनने का गौरव-सरकार की ओर से नहीं, अपितु जनता-जनार्दन की ओर से—प्राप्त हुआ; क्योंकि कोई भी राष्ट्रभाषा जनता द्वारा ही स्वीकृत होती है। यहाँ राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय भाषा के अन्तर को भी स्पष्ट करना आवश्यक है। वस्तुतः किसी राष्ट्र में प्रचलित समस्त भाषाएँ वहाँ की राष्ट्रीय भाषाएँ (National Languages) होती हैं, किन्तु राष्ट्रभाषा (Lingua Franca) केवल वही हो सकती है, जिसे विभिन्न प्रादेशिक भाषाएँ बोलने वाले आपसी व्यवहार के लिए अपनाएँ। इस प्रकार समस्त भारतीय भाषाएँ राष्ट्रीय भाषाएँ हैं; राष्ट्रभाषा केवल हिन्दी है।

हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का औचित्य-देश की चौदह सम्पन्न भाषाओं के रहते हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा का पद क्यों दिया गया, इस सम्बन्ध में हिन्दी भाषा के प्रमुख क्षेत्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश के; जिसे प्राचीन काल में मध्यदेश कहते थे; विशिष्ट भौगोलिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व पर दृष्टिपात करना होगा। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध विद्वान् डॉ० धीरेन्द्र वर्मा लिखते हैं, “वैदिक साहित्य के अनुसार आर्यों का प्रारम्भिक निवास स्थान मध्य प्रदेश के मध्य में न होकर उसकी पश्चिमोत्तर सीमा पर सरस्वती नदी के निकटवर्ती प्रदेश में गंगा की घाटी के उत्तरी भाग तक फैला हुआ था। यही प्रदेश बाद में कुरु-पांचाल जनपदों के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी प्रदेश से आर्य-संस्कृति चारों ओर फैली। यूरोपीय विद्वानों के अनुसार भी आर्यों की संस्कृति का प्राचीनतम तथा शुद्धतम रूप भारत में मध्यदेश में ही मिलता है। यहीं से इसका प्रभाव पश्चिम में (ईरान, ग्रीस आदि देशों) तथा अन्य दिशाओं में फैला।”

वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों तथा उपनिषदों की रचना यहीं हुई। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ का सम्बन्ध मध्यदेश से ही है। राम और कृष्ण की क्रीड़ा-स्थलियाँ–अयोध्या और ब्रज-मध्यदेश में ही हैं। ‘गीता’ का उपदेश कुरुक्षेत्र में दिया गया। कई प्रमुख हिन्दू राजवंशों की राजधानियाँ इसी क्षेत्र में रहीं। बाद में विदेशी शासकों-तुर्क, अफगान, मुगल, अंग्रेज आदि ने भी अपने साम्राज्यों का केन्द्र मध्यदेश में ही दिल्ली (प्राचीन इन्द्रप्रस्थ) को बनाया और आज भी भारतवर्ष की राजधानी यही है। प्रधान साहित्यिक आर्य भाषाओं; जैसे-संस्कृत, पालि, शौरसेनी, ब्रजभाषा आदि का घर मध्यदेश ही रहा है। खड़ी बोली हिन्दी का सम्बन्ध भी यहीं से है; अत: किसी भी दृष्टि से देखा जाए तो भारतीय आर्य-संस्कृति के इतिहास में इसका असाधारण महत्त्व है।

विख्यात भाषाशास्त्री डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी भी उपयुक्त मत की पुष्टि करते हुए लिखते हैं, वैदिक युग के बाद से प्राचीन काल में उत्तर भारत के जिस भाग को मध्यदेश कहा जाता था, उसके सांस्कृतिक तथा राजनीतिक प्राधान्य के कारण ही प्रत्येक युग में वहाँ की भाषा का प्राधान्य रहा है और इसी प्रदेश तथा इसके आसपास की भाषा भिन्न-भिन्न युगों में संस्कृत, पालि, शौरसेनी प्राकृत, ब्रज भाषा और अन्त में हिन्दी (खड़ी बोली) के रूप में सम्पूर्ण भारत की सहज एवं स्वाभाविक अन्तर्घान्तीय भाषा के रूप में विराजमान रही है।”

इस प्रकार यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही भारत को अखिल भारतीय व्यवहार के लिए सदा से राष्ट्रभाषा देता आया है, जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय एकता पुष्ट हुई है। अत: यदि आज खड़ी बोली हिन्दी को राष्ट्रभाषा का पद मिला है तो वह किसी पक्षपात या कृपा का फल न होकर उसके पारम्परिक अधिकार की ही स्वीकृति है। वस्तुतः वह मध्यकाल से ही इस देश की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वभावत: ही आसीन रही है। आज ही कोई नयी बात नहीं हुई। सच तो यह है कि इस देश के गौरवमय सुदीर्घ इतिहास में भाषा सम्बन्धी विवाद कभी उठे ही नहीं। फिर आज ही ऐसा क्यों हो रहा है ? इसका कारण यह है कि विदेशी भाषा की गुलामी ने हमें अपनी अतीव समृद्ध परम्परा से काट दिया, जिससे हम अलगाववादी सुर अलापने लगे।

डॉ० चटर्जी अन्यत्र लिखते हैं, भारत की वर्तमान दशा पर विचार करने से राष्ट्रभाषा या जातीय भाषा के स्वीकृत होने की योग्यता हिन्दी में ही सबसे अधिक है। हिन्दी भाषा अखण्ड भारत की एकता के आदर्श को मुख्य प्रतीक है। अंग्रेजी न जानने वाले दो भिन्न-भिन्न प्रान्तों के भारतीय जब आ मिलते हैं, तब वे परस्पर वार्तालाप करते समय हिन्दी में ही बोलने की चेष्टा करते हैं। सम्भव है कि वह हिन्दी अत्यन्त अशुद्ध या टूटी-फूटी हो, किन्तु हिन्दी ही होती है। समस्त भारत के घुमक्कड़ साधु-संन्यासी, जो एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में अथवा एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में घूमते हैं, हिन्दी ही सीखते हैं और हिन्दी ही बोलते हैं। भारतीय सेना-विभाग में हिन्दुस्तानी का ही बोलबाला है। भारत के बाहर, जैसे बर्मा में भारतीय भाषा’ से लोग हिन्दी को ही समझते हैं। इसी प्रकार द्रविड़ भाषा-भाषी दक्षिण भारत में उत्तर भारत की जिस भाषा को सबसे अधिक बोल सकते हैं, वह हिन्दी ही है।

अंग्रेजी को अपदस्थ करना आवश्यक-हिन्दी के इसी अखिल भारतीय स्वरूप का यह परिणाम है कि हिन्दी-प्रदेश में प्रादेशिकता की भावना कभी नहीं उभरी, सदा भारतीयता पर बल दिया गया। यही कारण है कि हिन्दी-प्रदेश में आकर भारत के किसी भी अन्य प्रदेश के व्यक्ति को किसी प्रकार के अलगाव का अनुभव नहीं होता, सर्वथा अपनेपन का ही अनुभव होता है। वस्तुतः हिन्दी को उचित स्थान दिलाने का आग्रह समस्त भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलाने के आग्रह का ही नामान्तर है; क्योंकि यदि हिन्दी को हिन्दी-भाषी प्रदेशों एवं केन्द्र में उसका उचित स्थान मिलता है तो समस्त प्रान्तों में वहाँ की प्रादेशिक भाषाओं को भी उनका उचित स्थान मिलकर रहेगा। अंग्रेजी ने आज हिन्दी का ही नहीं, अपितु समस्त प्रादेशिक भाषाओं का भी अधिकार छीन रखा है। यदि समस्त भारतवासी इस बात पर राष्ट्रीय स्वाभिमान की दृष्टि से विचार करें, तो सारा देश एकता के सूत्र में बँधकर अपने लुप्त गौरव को पुनः प्राप्त कर सकता है।

उपसंहार : हिन्दी के गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा में बाधक तत्त्व और समस्या का समाधान-यही वह भावना थी, जिससे प्रेरित होकर 14 सितम्बर, सन् 1949 ई० को संविधान सभा के 324 सदस्यों में से 312 ने हिन्दी को भारतीय गणतन्त्र की राजभाषा बनाने के पक्ष में मत दिया। इन सदस्यों में भारत की प्रत्येक प्रादेशिक भाषा एवं बोली के प्रतिनिधि थे, किन्तु व्यापक राष्ट्रहित में उन्होंने प्रादेशिक भावना का परित्याग कर दिया। खेद है कि संविधान-निर्माताओं की दृढ़ राष्ट्र-प्रेम से प्रेरित इस उदार भावना के विपरीत आज भी देश पर दासता की प्रतीक एक विदेशी भाषा को थोपे रखा गया है। वस्तुत: यह निहित स्वार्थ वाले उन कतिपय दास मनोवृत्ति से ग्रस्त सत्ताधारियों का काम है, जो शरीर से स्वतन्त्र होने पर भी मन से अंग्रेजों के गुलाम हैं; क्योंकि उन्हें अपने महान् देश के गौरवमय अतीत एवं विश्वविजयिनी संस्कृति का रंचमात्र भी ज्ञान नहीं। हम आज भी विदेशी तकनीक का आयात कर रहे हैं और प्रत्येक क्षेत्र में उन पर निर्भर हैं।

इसका कारण यही है। कि हमने अपनी भाषाओं के माध्यम से स्वदेशी तकनीक को बढ़ावा नहीं दिया, वैज्ञानिक अध्ययन एवं अनुसन्धान को प्रश्रय नहीं दिया। राजभाषा के रूप में हिन्दी को संविधान के अनुसार जो अधिकार मिले हैं। अभी भी अंग्रेजी ही उनका उपभोग कर रही है। अंग्रेजी को अपदस्थ करने के लिए हमें भारत में भी ‘कमालपाशा’ (अरब के शासक कमालपाशा ने एक ही दिन में अपनी भाषा को राजभाषा घोषित कर लागू कर दिया था और अब वही अरबी भाषा संयुक्त राष्ट्र संघ की छठी मान्य विश्वभाषा बन चुकी है।) उत्पन्न करने होंगे। भारत भी उस दिन की प्रतीक्षा में है, जव भारत के राजनीतिज्ञों में से कोई कमालपाशा की भूमिका निभाएगा। बिना अपनी भाषा को अपनाये किसी भी राष्ट्र के लिए किसी क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय मौलिक योगदान करना सम्भव नहीं। अपनी भाषा को अपनाने के कारण ही जापान ने आज विश्व में आश्चर्यजनक प्रगति की है।

अभी तक सत्ताधारियों का अंग्रेजी के प्रति मोह भंग नहीं हुआ है और देश निरन्तर अध:पतन की ओर बढ़ता जा रहा है। इसे विनाश से बचाने एवं विश्वराष्ट्रों के मध्य गौरवपूर्ण स्थान दिलाने का एकमात्र उपाय है-अपनी भाषाओं को अपनाना अर्थात् प्रादेशिक भाषाओं को अपने-अपने प्रदेश में और राष्ट्रभाषा को केन्द्र में प्रतिष्ठित करना; क्योंकि बिना राष्ट्रभारती की आराधना के कोई भी राष्ट्र गौरव का अधिकारी नहीं बनती।

राष्ट्रीय एकता [2010]

सम्बद्ध शीर्षक

  • राष्ट्रीय एकीकरण और उसके मार्ग की बाधाएँ
  • राष्ट्रीय एकता और अखण्डता
  • राष्ट्रीय एकता के पोषक तत्त्व
  • वर्तमान परिवेश में राष्ट्रीय एकता का स्वरूप
  • राष्ट्रीय एकता एवं सुरक्षा
  • राष्ट्रीय एकता : आज की अनिवार्य आवश्यकता [2016]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना : राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय,
  2. भारत में अनेकता के विविध रूप,
  3. राष्ट्रीय एकता का आधार,
  4. राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता,
  5. राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ—(क) साम्प्रदायिकता; (ख) क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता; (ग) भाषावाद; (घ) जातिवाद; (ङ) संकीर्ण मनोवृत्ति,
  6. राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के उपाय—(क) सर्वधर्म समभाव; (ख) समष्टिहित की भावना; (ग) एकता का विश्वास; (घ) शिक्षा का प्रसार; (ङ) राजनीतिक छल-छद्मों का अन्त,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना : राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय-एकता एक भावात्मक शब्द है जिसको अर्थ है-‘एक होने का भाव’। इस प्रकार राष्ट्रीय एकता का अभिप्राय है-देश का सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक, धार्मिक और साहित्यिक दृष्टि से एक होना। भारत में इन दृष्टिकोणों से अनेकता दृष्टिगोचर होती है, किन्तु बाह्य रूप से दिखाई देने वाली इस अनेकता के मूल में वैचारिक एकता निहित है। अनेकता में एकता ही भारत की प्रमुख विशेषता है। किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रीय एकता उसके राष्ट्रीय गौरव की प्रतीक होती है और जिस व्यक्ति को अपने राष्ट्रीय गौरव पर अभिमान नहीं होता, वह मनुष्य नहीं-

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं नरपशु है निरा, और मृतक समान है।

भारत में अनेकता के विविध रूप-भारत एक विशाल देश है। उसमें अनेकता होनी स्वाभाविक ही है। धर्म के क्षेत्र में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी आदि विविध धर्मावलम्बी यहाँ निवास करते हैं। इतना ही नहीं, एक-एक धर्म में भी कई अवान्तर भेद हैं; जैसे-हिन्दू धर्म के अन्तर्गत वैष्णव, शैव, शाक्त आदि। वैष्णवों में भी रामपूजक और कृष्णपूजक हैं। इसी प्रकार अन्य धर्मों में भी अनेकानेक अवान्तर भेद हैं। सामाजिक दृष्टि से विभिन्न जातियाँ, उपजातियाँ, गोत्र, प्रवर आदि विविधता के सूचक हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, पूजा-पाठ आदि की भिन्नता ‘अनेकता’ की द्योतक है। राजनीतिक क्षेत्र में समाजवाद, साम्यवाद, मार्क्सवाद, गाँधीवाद आदि अनेक वाद राजनीतिक विचार-भिन्नता का संकेत करते हैं। साहित्यिक दृष्टि से भारत की प्राचीन और नवीन भाषाओं में रचित साहित्य की भिन्न-भिन्न शैलियाँ विविधता की सूचक हैं। आर्थिक दृष्टि से पूँजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद आदि विचारधाराएँ भिन्नता दर्शाती हैं। इसी प्रकार भारत की प्राकृतिक शोभा, भौगोलिक स्थिति, ऋतु-परिवर्तन आदि में भी पर्याप्त भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। इतनी विविधताओं के होते हुए भी भारत अत्यन्त प्राचीन काल से एकता के सूत्र में बंधा रहा है।

राष्ट्र की एकता, अखण्डता एवं सार्वभौमिक सत्ता बनाये रखने के लिए राष्ट्रीयता की भावना का उदय होना परमावश्यक है। यही वह भावना है, जिसके कारण राष्ट्र के नागरिक राष्ट्र के सम्मान, गौरव और हितों का चिन्तन करते हैं।

राष्ट्रीय एकता का आधार–हमारे देश की एकता के आधार दर्शन (Philosophy) और साहित्य (Literature) हैं। ये सभी प्रकार की भिन्नताओं और असमानताओं को समाप्त करने वाले हैं। भारतीय दर्शन सर्व-समन्वय की भावना का पोषक है। यह किसी एक भाषा में नहीं लिखा गया है, अपितु यह देश की विभिन्न भाषाओं में लिखा गया है। इसी प्रकार हमारे देश का साहित्य भी विभिन्न क्षेत्र के निवासियों द्वारा लिखे जाने के बावजूद क्षेत्रवादिता या प्रान्तीयता के भावों को उत्पन्न नहीं करता, वरन् सबके लिए भाई-चारे, मेल-मिलाप और सद्भाव का सन्देश देता हुआ देशभक्ति के भावों को जगाता है।

राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता–राष्ट्र की आन्तरिक शान्ति, सुव्यवस्था और बाह्य सुरक्षा की दृष्टि से राष्ट्रीय एकता की परम आवश्यकता है। भारत के सन्तों ने तो प्रारम्भ से ही मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई अन्तर नहीं माना। वह तो सम्पूर्ण मनुष्य जाति को एक सूत्र में बाँधने के पक्षधर रहे हैं। नानक का कथन है–

अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत दे सब बन्दे ।
एक नूर ते सब जग उपज्या, कौन भले कौन मन्दे ॥

यदि हम भारतवासी अपने में निहित अनेक विभिन्नताओं के कारण छिन्न-भिन्न हो गये तो हमारी फूट का लाभ उठाकर अन्य देश हमारी स्वतन्त्रता को हड़पने का प्रयास करेंगे। ऐसा ही विचार राष्ट्रीय एकता सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने व्यक्त किया था, “जब-जब भी हम असंगठित हुए, हमें आर्थिक और राजनीतिक रूप में इसकी कीमत चुकानी पड़ी।” अत: देश की स्वतन्त्रता की रक्षा और राष्ट्र की उन्नति के लिए राष्ट्रीय एकता का होना परम आवश्यक है।

राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ—मध्यकाल में विदेशी शासकों का शासन हो जाने पर भारत की इस अन्तर्निहित एकता को आघात पहुँचा था, किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अनेक समाज-सुधारकों और दूरदर्शी राजपुरुषों के सद्प्रयत्नों से यह आन्तरिक एकता मजबूत हुई थी, किन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद अनेक तत्त्व इस आन्तरिक एकता को खण्डित करने में सक्रिय रहे हैं, जो इस प्रकार हैं

(क) साम्प्रदायिकता–साम्प्रदायिकता धर्म का संकुचित दृष्टिकोण है। संसार के विविध धर्मों में जितनी बातें बतायी गयी हैं, उनमें से अधिकांश बातें समान हैं; जैसे—प्रेम, सेवा, परोपकार, सच्चाई, समता, नैतिकता, अहिंसा, पवित्रता आदि। सच्चा धर्म कभी भी दूसरे से घृणा करना नहीं सिखाता। वह तो सभी से प्रेम करना, सभी की सहायता करना, सभी को समान समझना सिखाता है। जहाँ भी विरोध और घृणा है, वहाँ धर्म हो ही नहीं सकता। जाति-पाँति के नाम पर लड़ने वालों पर इकबाल कहते हैं-मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।

(ख) क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता-अंग्रेज शासकों ने न केवल धर्म, वरन् प्रान्तीयता की अलगाववादी भावना को भी भड़काया है। इसीलिए जब-तब राष्ट्रीय भावना के स्थान पर प्रान्तीय अलगाववादी भावना बलवती होने लगती है और हमें पृथक् अस्तित्व (राष्ट्र) और पृथक् क्षेत्रीय शासन स्थापित करने की माँगें सुनाई पड़ती हैं। एक ओर कुछ तत्त्व खालिस्तान की माँग करते हैं तो कुछ तेलुगूदेशम्। और ब्रज प्रदेश के नाम पर मिथिला राज्य चाहते हैं। इस प्रकार क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता की भावना भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए बहुत बड़ी बाधा बन गयी है।

(ग) भाषावाद–भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है। यहाँ अनेक भाषाएँ और बोलियाँ प्रचलित हैं। प्रत्येक भाषा-भाषी अपनी मातृभाषा को दूसरों से बढ़कर मानता है। फलत: विद्वेष और घृणा का प्रचार होता है और अन्तत: राष्ट्रीय एकता प्रभावित होती है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत को एक संघ के रूप में गठित किया गया और प्रशासनिक सुविधा के लिए चौदह प्रान्तों में विभाजित किया गया, किन्तु धीरे-धीरे भाषावाद के आधार पर प्रान्तों की माँग बलवती होती चली गयी, जिससे भारत के प्रान्तों का भाषा के आधार पर पुनर्गठन किया गया। तदुपरान्त कुछ समय तो शान्ति रही, लेकिन शीघ्र ही अन्य अनेक विभाषी बोली बोलने वाले व्यक्तियों ने अपनी-अपनी विभाषा या बोली के आधार पर अनेक आन्दोलन किये, जिससे राष्ट्रीय एकता की भावना को धक्का पहुंचा।

(घ) जातिवाद-मध्यकाल में भारत के जातिवादी स्वरूप में जो कट्टरता आयी थी, उसने अन्य जातियों के प्रति घृणा और विद्वेष का भाव विकसित कर दिया था। पुराकाल की कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था ने जन्म पर आधारित कट्टर जाति-प्रथा का रूप ले लिया और हर जाति अपने को दूसरी से ऊँची मानने लगी। इस तरह जातिवाद ने भी भारत की एकता को बुरी तरह प्रभावित किया। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् हरिजनों के लिए आरक्षण की राजकीय नीति का आर्थिक दृष्टि से दुर्बल सवर्ण जातियों ने कड़ा विरोध किया। विगत वर्षों में इस विवाद पर लोगों ने तोड़-फोड़, आगजनी और आत्मदाह जैसे कदम उठाकर देश की राष्ट्रीय एकता को झकझोर दिया। इस प्रकार जातिवाद राष्ट्रीय एकता के मार्ग में आज एक बड़ी बाधा बन गया है।

(ङ) संकीर्ण मनोवृत्ति–जाति, धर्म और सम्प्रदायों के नाम पर जब लोगों की विचारधारा संकीर्ण हो जाती है, तब राष्ट्रीयता की भावना मन्द पड़ जाती है। लोग सम्पूर्ण राष्ट्र का हित न देखकर केवल अपने जाति, धर्म, सम्प्रदाय अथवा वर्ग के स्वार्थ को देखने लगते हैं।

राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के उपाय–वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए निम्नलिखित उपाय प्रस्तुत हैं-

(क) सर्वधर्म समभाव-विभिन्न धर्मों में जितनी भी अच्छी बातें हैं, यदि उनकी तुलना अन्य धर्मों की बातों से की जाए तो उनमें एक अद्भुत समानता दिखाई देगी; अत: हमें सभी धर्मों का समान आदर करना चाहिए। धार्मिक या साम्प्रदायिक आधार पर किसी को ऊँचा या नीचा समझना नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से एक पाप है। धार्मिक सहिष्णुता बनाये रखने के लिए गहरे विवेक की आवश्यकता है। सागर के समान उदार वृत्ति रखने वाले इनसे प्रभावित नहीं होते।

(ख) समष्टि-हित की भावना–यदि हम अपनी स्वार्थ-भावना को त्यागकर समष्टि-हित का भाव विकसित कर लें तो धर्म, क्षेत्र, भाषा और जाति के नाम पर न सोचकर समूचे ‘राष्ट’ के नाम पर सोचेंगे और इस प्रकार अलगाववादी भावना के स्थान पर राष्ट्रीय भावना का विकास होगा, जिससे अनेकता रहते हुए भी एकता की भावना सुदृढ़ होगी।

(ग) एकता का विश्वास–भारत में जो दृश्यमान अनेकता है, उसके अन्दर एकता का भी निवास है-इस बात का प्रचार ढंग से किया जाए, जिससे कि सभी नागरिकों को अन्तर्निहित एकता का विश्वास हो सके। वे पारस्परिक प्रेम और सद्भाव द्वारा एक-दूसरे में अपने प्रति विश्वास जगा सकें।

(घ) शिक्षा का प्रसार–छोटी-छोटी व्यक्तिगत द्वेष की भावनाएँ राष्ट्र को कमजोर बनाती हैं। शिक्षा का सच्चा अर्थ एक व्यापक अन्तर्दृष्टि व विवेक है। इसलिए शिक्षा का अधिकाधिक प्रसार किया जाना चाहिए, जिससे विद्यार्थी की संकुचित भावनाएँ शिथिल हो। विद्यार्थियों को मातृभाषा तथा राष्ट्रभाषा के साथ एक अन्य प्रादेशिक भाषा का भी अध्ययन करना चाहिए। इससे भाषायी स्तर पर ऐक्य स्थापित होने से राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ होगी।

(ङ) राजनीतिक छल-छद्मों का अन्त–विदेशी शासनकाल में अंग्रेजों ने भेदभाव फैलाया था, किन्तु अब स्वार्थी राजनेता ऐसे छलछम फैलाते हैं कि भारत में एकता के स्थान पर विभेद ही अधिक पनपता है। ये राजनेता साम्प्रदायिक अथवा जातीय विद्वेष, घृणा और हिंसा भड़काते हैं और सम्प्रदाय विशेष का मसीहा बनकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। इस प्रकार राजनीतिक छलछद्मों का अन्त और राजनीतिक वातावरण के स्वच्छ होने से भी एकता का भाव सुदृढ़ करने में सहायता मिलेगी।

उपर्युक्त उपायों से भारत की अन्तर्निहित एकता का सभी को ज्ञान हो सकेगा और सभी उसको खण्डित करने के प्रयासों को विफल करने में अपना योगदान कर सकेंगे। इस दिशा में धार्मिक महापुरुषों, समाज-सुधारकों, बुद्धिजीवियों, विद्यार्थियों और महिलाओं को विशेष रूप से सक्रिय होना चाहिए तथा मिल-जुलकर प्रयास करना चाहिए। ऐसा करने पर सबल राष्ट्र के घटक स्वयं भी अधिक पुष्ट होंगे।

उपसंहार--राष्ट्रीय एकता की भावना एक श्रेष्ठ भावना है और इस भावना को उत्पन्न करने के लिए हमें स्वयं को सबसे पहले मनुष्य समझना होगा, क्योंकि मनुष्य एवं मनुष्य में असमानता की भावना ही संसार में समस्त विद्वेष एवं विवाद का कारण है। इसीलिए जब तक हममें मानवीयता की भावना विकसित नहीं होगी, तब तक राष्ट्रीय एकता का भाव उत्पन्न नहीं हो सकता। यह भाव उपदेशों, भाषणों और राष्ट्रीय गीत के माध्यम से सम्भव नहीं।

हमारे राष्ट्रीय पर्व [2011, 12]

सम्बद्ध शीर्षक

  • भारत के राष्ट्रीय त्योहार
  • कोई राष्ट्रीय पर्व

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. गणतन्त्र दिवस,
  3. स्वतन्त्रता दिवस,
  4. गाँधी जयन्ती,
  5. राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य पर्व,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-भारतवर्ष को यदि विविध प्रकार के त्योहारों का देश कह दिया जाए तो कुछ अनुचित न होगा। इस धरा-धाम पर इतनी जातियाँ, धर्म और सम्प्रदायों के लोग निवास करते हैं कि उनके सभी त्योहारों को यदि मनाना शुरू कर दिया जाए तो शायद एक-एक दिन में दो-दो त्योहार मना कर भी वर्ष भर में उन्हें पूरा नहीं किया जा सकता। पर्वो का मानव-जीवन व राष्ट्र के जीवन में विशेष महत्त्व होता है। इनसे नयी प्रेरणा मिलती है, जीवन की नीरसता दूर होती है तथा रोचकता और आनन्द में वृद्धि होती है। पर्व या त्योहार कई तरह के होते हैं; जैसे-धार्मिक, सांस्कृतिक, जातीय, ऋतु सम्बन्धी और राष्ट्रीय। जिन पर्वो का सम्बन्ध किसी व्यक्ति, जाति या धर्म के मानने वालों से न होकर सम्पूर्ण राष्ट्र से होता है तथा जो पूरे देश में सभी नागरिकों द्वारा उत्साहपूर्वक मनाये जाते हैं, उन्हें राष्ट्रीय पर्व कहा जाता है। गणतन्त्र दिवस, स्वतन्त्रता दिवस एवं गाँधी जयन्ती हमारे राष्ट्रीय पर्व हैं। ये राष्ट्रीय पर्व समस्त भारतीय जन-मानस को एकता के सूत्र में पिरोते हैं। ये उन अमर शहीदों व देशभक्तों का स्मरण कराते हैं, जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए जीवन-पर्यन्त संघर्ष किया और राष्ट्र की स्वतन्त्रता, गौरव व इसकी प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए अपने प्राणों को भी सहर्ष न्योछावर कर दिया।

गणतन्त्र दिवस-गणतन्त्र दिवस हमारा एक राष्ट्रीय पर्व है, जो प्रति वर्ष 26 जनवरी को देशवासियों द्वारा मनाया जाता है। इसी दिन सन् 1950 ई० में हमारे देश में अपना संविधान लागू हुआ था। इसी दिन हमारा राष्ट्र पूर्ण स्वायत्त गणतन्त्र राज्य बना, अर्थात् भारत को पूर्ण प्रभुसत्तासम्पन्न गणराज्य घोषित किया गया। यही दिन हमें 26 जनवरी, 1930 का भी स्मरण कराता है, जब जवाहरलाल नेहरू जी की अध्यक्षता में कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रस्ताव पारित किया गया था।

गणतन्त्र दिवस का त्योहार बड़ी धूमधाम से यों तो देश के प्रत्येक भाग में मनाया जाता है, पर इसको मुख्य आयोजन देश की राजधानी दिल्ली में ही किया जाता है। इस दिन सबसे पहले देश के प्रधानमन्त्री इण्डिया गेट पर शहीद जवानों की याद में प्रज्वलित की गयी जवान ज्योति पर सारे राष्ट्र की ओर से सलामी देते हैं। उसके बाद प्रधानमन्त्री अपने मन्त्रिमण्डल के सदस्यों के साथ राष्ट्रपति महोदय की अगवानी करते हैं। राष्ट्रपति भवन के सामने स्थित विजय चौक में राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय ध्वज फहराने के साथ ही मुख्य पर्व मनाया जाना आरम्भ होता है। इस दिन विजय चौक से प्रारम्भ होकर लाल किले तक जाने वाली परेड समारोह का प्रमुख आकर्षण होती है। क्रम से तीनों सेनाओं (जल, थल, वायु), सीमा सुरक्षा बल, अन्य सभी प्रकार के बलों, पुलिस आदि की टुकड़ियाँ राष्ट्रपति को सलामी देती हैं। एन० सी० सी०, एन० एस० एस० तथा स्काउट, स्कूलों के बच्चे सलामी के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए गुजरते हैं। इसके उपरान्त सभी प्रदेशों की झाँकियाँ आदि प्रस्तुत की जाती हैं तथा शस्त्रास्त्रों का भी प्रदर्शन किया जाता है। राष्ट्रपति को तोपों की सलामी दी जाती है। परेड और झाँकियों आदि पर हेलीकॉप्टरों-हवाई जहाजों से पुष्प वर्षा की जाती है। यह परेड राष्ट्र की वैज्ञानिक, कला व संस्कृति के उत्थान को दर्शाती है। रात को राष्ट्रपति भवन, संसद भवन और अन्य राष्ट्रीय महत्त्व के स्थलों पर रोशनी की जाती है, आतिशबाजी होती है और इसे प्रकार धूम-धाम से यह राष्ट्रीय त्योहार सम्पन्न हुआ करता है।

स्वतन्त्रता दिवस-पन्द्रह अगस्त के दिन मनाया जाने वाला स्वतन्त्रता दिवस का त्योहार दूसरा मुख्य राष्ट्रीय त्योहार माना गया है। इसके आकर्षण और मनाने का मुख्य केन्द्र दिल्ली स्थित लाल किला है। यों सारे नगर और सारे देश में भी अपने-अपने ढंग से इसे मनाने की परम्परा है। स्वतन्त्रता दिवस प्रत्येक वर्ष अगस्त मास की पन्द्रहवीं तिथि को मनाया जाता है। इसी दिन लगभग दो सौ वर्षों के अंग्रेजी दासत्व के बाद हमारा देश स्वतन्त्र हुआ था। इसी दिन ऐतिहासिक लाल किले पर हमारा तिरंगा झण्डा फहराया गया था। यह स्वतन्त्रता राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के भगीरथ प्रयासों व अनेक महान् नेताओं तथा देशभक्तों के बलिदान की गाथा है। यह स्वतन्त्रता इसलिए और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि इसे बन्दूकों, तोपों जैसे अस्त्र-शस्त्रों से नहीं वरन् सत्य, अहिंसा जैसे शस्त्रास्त्रों से प्राप्त किया गया।

इस दिने सम्पूर्ण राष्ट्र देश की स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने वाले शहीदों का स्मरण करते हुए देश की स्वतन्त्रता को बनाये रखने की शपथ लेता है। इस दिवस की पूर्व सन्ध्या पर राष्ट्रपति राष्ट्र के नाम अपना सन्देश प्रसारित करते हैं। दिल्ली के लाल किले २ ट्रीय ध्वज फहराने से पहले प्रधानमन्त्री सेना की तीनों टुकड़ियों, अन्य सुरक्षा बलों, स्काउटों आदि ३; निरीक्षण कर सलामी लेते हैं। फिर लाल किले के मुख्य द्वार पर पहुँचकर राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर उसे सलामी देते हैं तथा राष्ट्र को सम्बोधित करते हैं। इस सम्वोधन में पिछले वर्ष सरकार द्वारा किये गये कार्यों का लेखा-जोखा, अनेक नवीन योजनाओं तथा देश-विदेश से सम्बन्ध रखने वाली नीतियों के बारे में उद्घोषणा की जाती है। अन्त में राष्ट्रीय गान के साथ यह मुख्य समारोह समाप्त हो जाता है। रात्रि में दीपों की जगमगाहट से विशेषकर संसद भवन व राष्ट्रपति भवन की सजावट देखते ही बनती है।

गाँधी जयन्ती-गाँधी जयन्ती भी हमारा एक राष्ट्रीय पर्व है, जो प्रति वर्ष गाँधी जी के जन्म-दिवस 2 अक्टूबर की शुभ स्मृति में देश भर में मनाया जाता है। स्वाधीनता आन्दोलन में गाँधी जी ने अहिंसात्मक रूप से देश का नेतृत्व किया और देश को स्वतन्त्र कराने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने सत्याग्रह, असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, भारत छोड़ो आन्दोलन से शक्तिशाली अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर विवश कर दिया। गाँधी जी ने राष्ट्र एवं दीन-हीनों की सेवा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। प्रति वर्ष सारा देश उनके त्याग, तपस्या एवं बलिदान के लिए उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है और उनके बताये गये रास्ते पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करता है। इस दिन सम्पूर्ण देश में विभिन्न प्रकार की सभाओं, गोष्ठियों एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। गाँधी जी की समाधि राजघाट पर देश के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री व अन्य विशिष्ट लोग पुष्पांजलि अर्पित करते हैं। महात्मा गाँधी अमर रहे’ के नारों से सम्पूर्ण वातावरण गूंज उठता है।

राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य पर्व-इन तीन मुख्य पर्वो के अतिरिक्त अन्य कई पर्व भी यहाँ मनाये जाते हैं और उनका भी राष्ट्रीय महत्त्व स्वीकारा जाता है। ईद, होली, वसन्त पंचमी, बुद्ध पंचमी, वाल्मीकि प्राकट्योत्सव, विजयादशमी, दीपावली आदि इसी प्रकार के पर्व माने जाते हैं। हमारी राष्ट्रीय अस्मिता किसी-न-किसी रूप में इन सभी के साथ जुड़ी हुई है, फिर भी मुख्य महत्त्व उपर्युक्त तीन पर्वो का ही है।

उपसंहार-त्योहार तीन हों या अधिक, सभी का महत्त्वं मानवीय एवं राष्ट्रीय अस्मिता को उजागर करना ही होता है। मानव-जीवन में जो एक आनन्दप्रियता, उत्सवप्रियता की भावना और वृत्ति छिपी रहती है, उनका भी इस प्रकार से प्रकटीकरण और स्थापन हो जाया करता है। इस प्रकार के त्योहार सभी देशवासी मिलकर मनाया करते हैं, इससे राष्ट्रीय एकता और ऊर्जा को भी बल मिलता है, जो इनका वास्तविक उद्देश्य एवं प्रयोजन होता है।

हमारे राष्ट्रीय पर्व राष्ट्रीय एकता के प्रेरणा-स्रोत हैं। ये पर्व सभी भारतीयों के मन में हर्ष, उल्लास और नवीन राष्ट्रीय चेतना का संचार करते हैं। साथ ही देशवासियों को यह संकल्प लेने हेतु भी प्रेरित करते हैं कि वे अमर शहीदों के बलिदानों को व्यर्थ नहीं जाने देंगे तथा अपने देश की रक्षा, गौरव व इसके उत्थान के लिए। सदैव समर्पित रहेंगे।

देश की प्रगति में विद्यार्थियों की भूमिका

सम्बद्ध शीर्षक

  • राष्ट्र-निर्माण में युवा-शक्ति का योगदान
  • राष्ट्रीय विकास एवं युवा-शक्ति
  • वर्तमान युवा : दशा और दिशा [2016]
  • छात्र जीवन तथा राष्ट्रीय दायित्व
  • छात्र–संघों का गठन : वरदान या अभिशाप
  • समय नियोजन और विद्यार्थी जीवन
  • भारत की सुरक्षा और युवा पीढ़ी।

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. विद्यार्थी जीवन का महत्त्व,
  3. कुप्रथाओं का उन्मूलन एवं ग्रामोत्थान,
  4. शहरी सभ्यताओं का मोह-त्याग,
  5. भ्रष्टाचार व दुराचार का उन्मूलन,
  6. काले धन की समाप्ति हेतु प्रयास,
  7. चरित्र-निर्माण से ही देश की उन्नति सम्भव,
  8. उपसंहार

प्रस्तावना–विद्यार्थी राष्ट्र का भावी नेता और शासक है। देश की उन्नति और भावी विकास का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व उसके सबल कन्धों पर आने वाला है। वास्तव में राष्ट्र की उन्नति और प्रगति के लिए वह मुख्य धुरी का काम कर सकता है। जिस देश का विद्यार्थी सतत जागरूक, सतर्क और सावधान होता है वह देश प्रगति की दौड़ में कभी पीछे नहीं रह सकता। विद्याथीं एक नवजीवन का सशक्त संवाहक होता है। उसमें रूढ़ियों और परम्पराओं के अटकाव नहीं होते, पूर्वाग्रह से उसकी दृष्टि धूमिल नहीं होती, वरन् वह नये विचारों एवं योजनाओं को क्रियान्वित करने की भरपूर क्षमता से ओतप्रोत होता है।

विद्यार्थी जीवन का महत्त्व-विद्यार्थी शब्द की संरचना है-‘विद्या + अर्थी’ अर्थात् जो विद्यार्जन में सदा संलग्न रहने वाला हो। विद्या प्राप्त करने के लिए परिश्रम और लगन की आवश्यकता होती है। जिस विद्यार्थी को विद्योपार्जन की सच्ची लालसा हो, उसे सभी सुख-सुविधाओं का त्याग करना पड़ता है। आचार्य चाणक्य ने ठीक ही कहा है, “सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ और विद्या चाहने वाले को सुख कहाँ ? सुख चाहने वाला विद्या को छोड़ दे और विद्या चाहने वाला सुख छोड़ दे।” विद्यार्थी के जीवन में आत्म–संयम, इन्द्रिय-निग्रह, सद्-असद् का विवेक, दया, प्रेम, क्षमा, औदार्य, परोपकार आदि सद्गुण होने चाहिए। शास्त्रों में आदर्श विद्यार्थी को एकाग्रचित्त, सजग, चुस्त, कम भोजन करने वाला और चरित्र- सम्पन्न बताया गया है–

काकचेष्टा वकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च।
अल्पाहारी सदाचारी विद्यार्थी पञ्चलक्षणम् ॥

अर्थात् विद्यार्थी कौवे के समान चेष्टा वाला, बगुले के समान ध्यान वाला, कुत्ते के समान नींद वाला, भूख से कम भोजन करने वाला और सदाचार का पालन करने वाला होता है। इसके साथ विद्यार्थी में नम्रता, अनुशासन, परिश्रम, संयम और अनासक्ति भाव होना चाहिए।

उपर्युक्त गुणों से युक्त विद्यार्थियों को कला, साहित्य, चिकित्सा, अभियान्त्रिकी आदि का पूर्ण अध्ययन-अभ्यास करके अपने विषय का विशेषज्ञ बनना चाहिए। एक अच्छा साहित्यिक विद्यार्थी सत् साहित्य का सृजन कर देशवासियों में देशभक्ति की भावना उजागर कर सकता है। देश की एकता व संगठन की भावना को सबल बनाकर भावात्मक एकता को पुष्ट कर सकता है। एक सच्चा चिकित्सक देश को स्वस्थ व नीरोग बनाने के लिए अपनी सेवाएँ समर्पित कर सकता है। एक सच्चा अभियन्ता राष्ट्र-निर्माण के अनेक कार्यों को निष्ठापूर्वक सम्पन्न कर देश की महान् सेवा कर सकता है।

कुप्रथाओं का उन्मूलन एवं ग्रामोत्थान-आज देश में कई अन्धविश्वास, रूढ़ियाँ तथा कुप्रथाएँ प्रचलित हैं। इससे देश की यथोचित प्रगति नहीं हो पा रही है। विद्यार्थियों को इन रूढ़ियों और कुप्रथाओं के उन्मूलन के लिए बीड़ा उठाना होगा। आज भी गाँवों में बाल-विवाह, अशिक्षा व अज्ञान का बोलबाला है। गाँव के लोग ऋणग्रस्त और शोषण के शिकार हैं। भारत की अधिकांश जनता गाँवों में रहती है; अत: जब तक ग्रामोत्थान का बिगुल नहीं बजाया जाता, तब तक भारत प्रगति नहीं कर सकता। विद्यार्थियों को गाँवों में जाकर साक्षरता, सहकारिता आदि कार्यक्रम चलाने में सहयोग करना चाहिए। गाँवों में लघु और कुटीर उद्योगों के प्रचलन के लिए प्रयत्न करना चाहिए। पशुधन व गोपालन को लोकप्रिय बनाना चाहिए। इसके लिए डेयरी उद्योग, कपड़ा बुनना, मधुमक्खी-पालन आदि का महत्त्व ग्रामीण भाइयों को समझाकर उनके विकास के लिए प्रोत्साहित कर इस कार्य में मार्गदर्शन किया जा सकता है। विद्यार्थियों को ग्रामोत्थान की ओर आकर्षित करने के लिए उन्हें आवश्यक रूप से वहाँ कुछ सुविधाएँ; जैसे—आवागमन के साधन, विद्युत उपकरण, सरकारी अनुदान आदि उपलब्ध कराने चाहिए। साथ ही उन्हें पर्याप्त प्रशंसा, प्रोत्साहन व सम्मान भी देना चाहिए, अन्यथा यह केवल एक आदर्श स्वप्न बनकर ही रह जाएगा।

शहरी सभ्यताओं का मोह-त्याग-–आज के अधिकांश शिक्षित व्यक्ति, शिक्षक, चिकित्सक, अभियन्ता गाँवों में सेवा देने से कतराते हैं। यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है। युवाओं को शहरी जीवन की सुख-सुविधाओं को त्यागकर देश की प्रगति और उत्थान को लक्ष्य में रखकर काम करना है।

भ्रष्टाचार व दुराचार का उन्मूलन-आज देश में सर्वत्र भ्रष्टाचार व्याप्त है। एक साधारण चपरासी से लेकर बड़ा अफसर, कर्मचारी, नेता तथा मन्त्री सभी इसमें लिप्त हैं। कोई भी कार्य रिश्वत के बिना नहीं चलता। पुलिस व न्यायालय-कर्मचारी खुले रूप में रिश्वत माँगते हैं। रक्षक ही भक्षक बन गये हैं। व्यापारी व भी खाद्य-पदार्थों में मिलावट करते हैं। मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति बढ़ गयी है। इस भ्रष्टाचार से लड़ना कोई सामान्य बात नहीं है। इसके लिए निर्भीक विद्यार्थियों को आगे आकर इस भ्रष्टाचाररूपी दानव से लड़ना होगा। जब तक देश से भ्रष्टाचार दूर नहीं होगा, देश की प्रगति होना मुमकिन नहीं है। इसके लिए विद्यार्थियों को सूझ-बूझ, धैर्य और साहस के साथ संघर्ष करने के लिए तत्पर होना होगा।

देश में दुराचार की विभीषिका भी बढ़ती जा रही है। लूटपाट, हत्याएँ और बलात्कार की घटनाओं से समाचार-पत्रों के पृष्ठ के पृष्ठ राँगे रहते हैं। प्रजातन्त्र की व्याख्या करते हुए कहा जाता है कि प्रजा द्वारा प्रजा के लिए प्रजा का शासन, किन्तु लगता है कि देश में प्रचलित शासन-व्यवस्था भले और ईमानदार आदमियों के हाथों में न रहकर भ्रष्ट, बदमाश, सफेदपोश लोगों के हाथों में चली गयी है। इस विषम काल में हर आदमी सन्त्रस्त और दु:खी है। इससे लोहा लेने के लिए विद्यार्थी वर्ग ही तत्पर हो सकता हैं। स्वच्छ और सुन्दर प्रशासन के लिए नि:स्वार्थ सेवाभाव रखने वाले और कार्यकुशल व्यक्तियों की आवश्यकता है। इस अभाव की पूर्ति विद्यार्थी वर्ग ही कर सकता है। उसे इस महामारी से लड़कर इसका उन्मूलन करना होगा, तब ही देश को प्रगति की राह पर आगे बढ़ाया जा सकता है।

काले धन की समाप्ति हेत प्रयास-काला धन अथवा काला बाजाररूपी महादानव भी बड़ा शक्तिशाली, दुर्धर्ष और महा भयंकर है। आज काले धन वालों की समानान्तर सरकार शासन-सत्ता को दबोचे हुए है। करोड़ों की हेरा-फेरी करने वाले आबाद हो रहे हैं। उनको कोई आँख नहीं दिखा सकता। दो रुपये की चोरी करने वालों पर कहर बरसाया जाता है। महँगाई हनुमान जी की पूँछ की तरह बढ़ती जा रही है। ईमानदारीरूपी सोने की लंका जलती जा रही है। ऐसी विकराल परिस्थिति में सबकी बुद्धि पर पत्थर पड़ गये हैं। जनता किसी ऐसे सहयोग व नेतृत्व की आकांक्षा रखती है, जो इस विषम स्थिति से देश की रक्षा कर सके। इससे लोहा लेने के लिए भी विद्यार्थी वर्ग ही तत्पर हो सकता है।

चरित्र-निर्माण से ही देश की उन्नति सम्भव-बड़े-बड़े कल-कारखाने खोलने से तथा बड़े-बड़े बाँध बनाने से राष्ट्र सच्चे अर्थों में विकास नहीं कर सकता। हमें आने वाली पीढ़ियों के चरित्र-निर्माण की ओर विशेष ध्यान देना है। चरित्र-निर्माण ही शिक्षा का मुख्य व पवित्र उद्देश्य होना चाहिए। जिस देश में चरित्रवान् लोग रहते हैं, उस देश का सिर गौरव से सदा ऊँचा रहता है। आज के विद्यार्थी को राष्ट्र-भक्ति की भावना से भी ओत-प्रोत होना चाहिए। उसे स्वयं को राष्ट्रीय गौरव का आभूषण बनाये रखना चाहिए। उसे कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे देश की मान-मर्यादा को ठेस पहुँचती हो। राष्ट्र-निर्माण ही उसका लक्ष्य होना चाहिए। अपने जीवन के उत्थान के लिए उसे भौतिकता की ओर उन्मुख न होकर आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होना चाहिए। इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि विश्व के किसी भी क्षेत्र में भौतिक शक्ति आध्यात्मिक शक्ति के सम्मुख ठहर नहीं सकी है।

उपसंहार–किसी देश की वास्तविक उन्नति उसके परिश्रमी, लगनशील, पुरुषार्थी और चरित्रवान् पुरुषों से ही सम्भव है। भारत के विद्यार्थी भी चरित्रशील बनकर देश में वर्तमान में व्याप्त सभी बराइयों का उन्मूलन कर देश की प्रगति में सच्चा योगदान कर सकते हैं। आज का विद्यार्थी वर्ग राजनैतिक पार्टियों के चक्कर में उलझकर अपने भविष्य को अन्धकारमय बना रहा है। घटिया किस्म के नेता इनके द्वारा अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में आज के विद्यार्थी को इन सबसे अलग रहकर अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। उसकी भावना राष्ट्र को उन्नति की ओर अग्रसर करने की होनी चाहिए।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘द्वापर’ काव्य में युवा-शक्ति का आह्वान करते हुए लिखा है-

रखते हो तो दिखलाओ कुछ आभा, उगते तारे,
आओ तेज, साहस के दुर्लभ दिन हैं यही हमारे ।
X                      X                                   X
एक एक, सौ सौ अन्यायी कंसों को ललकारो ।
अपनी पुण्यभूमि पर धन-जीवन सब वारो ॥

स्वदेश-प्रेम

सम्बद्ध शीर्षक

  • जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. देश-प्रेम की स्वाभाविकता,
  3. देश-प्रेम का अर्थ,
  4. देश-प्रेम का क्षेत्र,
  5. देश के प्रति कर्तव्य,
  6. भारतीयों का देश-प्रेम,
  7. ‘देशभक्तों की कामना,
  8. उपसंहार।

प्रस्तावना-ईश्वर द्वारा बनायी गयी सर्वाधिक अद्भुत रचना है ‘जननी’, जो नि:स्वार्थ प्रेम की प्रतीक है, प्रेम का ही पर्याय है, स्नेह की मधुर बयार है, सुरक्षा का अटूट कवच है, संस्कारों के पौधों को ममता के जल से सींचने वाली चतुर उद्यान रक्षिका है, जिसका नाम प्रत्येक शीश को नमन के लिए झुक जाने को प्रेरित कर देता है। यही बात जन्मभूमि के विषय में भी सत्य है। इन दोनों का दुलार जिसने पा लिया उसे स्वर्ग का पूरा-पूरा अनुभव धरा पर ही हो गया। इसीलिए जननी और जन्मभूमि की महिमा को स्वर्ग से भी बढ़कर बताया गया है। यही कारण है कि स्वदेश से दूर जाकर मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी भी एक प्रकार की उदासी और रुग्णता का अनुभव करने लगते हैं।

देश-प्रेम की स्वाभाविकता–प्रत्येक देशवासी को अपने देश से अनुपम प्रेम होता है। अपना देश चाहे बर्फ से ढका हुआ हो, चाहे गर्म रेत से भरा हो, चाहे ऊँची-ऊँची पहाड़ियों से घिरा हो, वह सबके लिए प्रिय होता है। इस सम्बन्ध में कविवर रामनरेश त्रिपाठी की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं–

विषुवत् रेखा का वासी जो, जीता है नित हाँफ-हाँफ कर।
रखता है अनुराग अलौकिक, वह भी अपनी मातृभूमि पर ।।
धुववासी जो हिम में तम में, जी लेता है काँप-काँप कर।
वह भी अपनी मातृभूमि पर, कर देता है प्राण निछावर ।।

प्रात:काल के समय पक्षी भोजन-पानी के लिए कलरव करते हुए दूर स्थानों के लिए चले जाते हैं। परन्तु सायंकाल होते ही एक विशेष उमंग और उत्साह के साथ अपने-अपने घोंसलों की ओर लौटने लगते हैं। पशु-पक्षियों में उसके लिए इतना मोह और लगाव हो जाता है कि वे उसके लिए मर-मिटने हेतु भी तत्पर रहते हैं-

आग लगी इस वृक्ष में, जलते इसके पात,
तुम क्यों जलते पक्षियो ! जब पंख तुम्हारे पास ?
फल खाये इस वृक्ष के, बीट लथेड़े पात,
यही हमारा धर्म है, जलें इसी के साथ।

पशु-पक्षियों को भी अपने घर से, अपनी मातृभूमि से इतना प्यार है तो भला मानव को अपनी जन्मभूमि से, अपने देश से क्यों प्यार नहीं होगा ? वह तो विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि, बुद्धिसम्पन्न एवं सर्वाधिक संवेदनशील प्राणी है। माता और जन्मभूमि की तुलना में स्वर्ग का सुख भी तुच्छ है। संस्कृत के किसी महान् कवि ने ठीक ही कहा है-जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

देश-प्रेम का अर्थदेश-प्रेम का तात्पर्य है-देश में रहने वाले जड़-चेतन सभी प्राणियों से प्रेम, देश की सभी झोपड़ियों, महलों तथा संस्थाओं से प्रेम, देश के रहन-सहन, रीति-रिवाज, वेश-भूषा से प्रेम, देश के सभी धर्मों, मतों, भूमि, पर्वत, नदी, वन, तृण, लता सभी से प्रेम और अपनत्व रखना व उन सभी के प्रति गर्व की अनुभूति करना। सच्चे देश-प्रेमी के लिए देश का कण-कण पावन और पूज्य होता है।

सच्चा प्रेम वही है, जिसकी तृप्ति आत्मबल पर हो निर्भर।
त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण निछावर ॥
देश-प्रेम वह पुण्य क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित।।
आत्मा के विकास से, जिसमें मानवता होती है विकसित ॥

सच्चा देश-प्रेमी वही होता है, जो देश के लिए नि:स्वार्थ भावना से बड़े-से-बड़ा त्याग कर सकता है। स्वदेशी वस्तुओं का स्वयं उपयोग करता है और दूसरों को भी उनके उपयोग के लिए प्रेरित करता है। सच्चा देशभक्त उत्साही, सत्यवादी, महत्त्वाकांक्षी और कर्तव्य की भावना से प्रेरित होता है। वह देश में छिपे हुए गद्दारों से सावधान रहता है और अपने प्राणों को हथेली पर रखकर देश की रक्षा के लिए शत्रुओं का मुकाबला करता है।

देश-प्रेम का क्षेत्र देश-प्रेम का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में काम करने वाला व्यक्ति देशभक्ति की भावना प्रदर्शित कर सकता है। सैनिक युद्ध-भूमि में प्राणों की बाजी लगाकरे, राज-नेता राष्ट्र के उत्थान का मार्ग प्रशस्त कर, समाज-सुधारक समाज का नवनिर्माण करके, धार्मिक नेता मानव-धर्म का उच्च आदर्श प्रस्तुत करके, साहित्यकार राष्ट्रीय चेतना और जन-जागरण का स्वर फेंककर, कर्मचारी, श्रमिक एवं किसान निष्ठापूर्वक अपने दायित्व का निर्वाह करके, व्यापारी मुनाफाखोरी व तस्करी का त्याग कर अपनी देशभक्ति की भावना प्रदर्शित कर सकता है। ध्यान रहे, सभी को अपना कार्य करते हुए देशहित को सर्वोपरि समझना चाहिए।

देश के प्रति कर्तव्य-जिस देश में हमने जन्म लिया है, जिसका अन्न खाकर और अमृत समान जल पीकर, सुखद वायु का सेवन कर हमें बलवान् हुए हैं, जिसकी मिट्टी में खेल-कूदकर हमने पुष्ट शरीर प्राप्त किया है, उस देश के प्रति हमारे अनन्त कर्तव्य हैं। हमें अपने प्रिय देश के लिए कर्तव्यपालन और त्याग की भावना से श्रद्धा, सेवा एवं प्रेम रखना चाहिए। हमें अपने देश की एक इंच भूमि के लिए तथा उसके सम्मान और गौरव की रक्षा के लिए प्राणों की बाजी लगा देनी चाहिए। यह सब करने पर भी जन्मभूमि या अपने देश से हमें कभी भी उऋण नहीं हो सकते हैं।

भारतीयों को देश-प्रेम-भारत माँ ने ऐसे असंख्य नर-रत्नों को जन्म दिया है, जिन्होंने असीम त्याग-भावना से प्रेरित होकर हँसते-हँसते मातृभूमि पर अपने प्राण अर्पित कर दिये। कितने ही ऋषि-मुनियों ने अपने तप और त्याग से देश की महिमा को मण्डित किया है तथा अनेकानेक वीरों ने अपने अद्भुत शौर्य से शत्रुओं के दाँत खट्टे किये हैं। वन-वन भटकने वाले महाराणा प्रताप ने घास की रोटियाँ खाना स्वीकार किया, परन्तु मातृभूमि के शत्रुओं के सामने कभी मस्तक नहीं झुकाया। शिवाजी ने देश और मातृभूमि की सुरक्षा के लिए गुफाओं में छिपकर शत्रु से टक्कर ली और रानी लक्ष्मीबाई ने महलों के सुखों को त्यागकर शत्रुओं से लोहा लेते हुए वीरगति प्राप्त की। भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव, अशफाकउल्ला खाँ आदि न जाने कितने देशभक्तों ने विदेशियों की अनेक यातनाएँ सहते हुए, मुख से ‘वन्दे मातरम्’ कहते हुए हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे को चूम लिया। ऐसे ही वीरों के बलिदान को ध्यान में रखकर कवि ने कहा है

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं ।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ॥

भारत का इतिहास ऐसे अनेक वीरों का साक्षी है, जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा और मान-मर्यादा के लिए अपने सुखों को त्याग दिया और मन में मर-मिटने का अरमान लेकर शत्रु पर टूट पड़े। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, लाला लाजपतराय आदि अनेक देशभक्तों ने अनेक कष्ट सहकर और प्राणों का बलिदान करके देश की स्वाधीनता की ज्योति को प्रज्वलित किया। इसी स्वदेश प्रेम के कारण राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने अनेकों कष्ट सहे, जेलों में रहे तथा अन्त में अपने प्राण निछावर कर दिये। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद, सरदार बल्लभभाई पटेल, पं० जवाहरलाल नेहरू आदि देशरत्नों ने आजीवन देश की सेवा की। श्रीमती इन्दिरा गाँधी देश की एकता और अखण्डता के लिए नृशंस आतंकवादियों की गोलियों का शिकार बनीं।

देशभक्तों की कामना–देशभक्तों को सुख-समृद्धि, धन, यश, कंचन और कामिनी की आकांक्षा नहीं होती है। उन्हें तो केवल अपने देश की स्वतन्त्रता, उन्नति और गौरव की कामना होती है। वे देश के लिए जीते हैं और देश के लिए मरते हैं। मृत्यु के समय भी उनकी इच्छा यही होती है कि वे देश के काम आयें। कविवर माखनलाल चतुर्वेदी के शब्दों में एक पुष्प की भी यही कामना है-

मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक ॥

उपसंहार-खेद का विषय है कि आज हमारे नागरिकों में देश-प्रेम की भावना अत्यन्त दुर्लभ होती जा रही है। नयी पीढ़ी का विदेशों से आयातित वस्तुओं और संस्कृतियों के प्रति अन्धाधुन्ध मोह, स्वदेश के बजाय विदेश में जाकर सेवाएँ अर्पित करने के सजीले सपने वास्तव में चिन्ताजनक हैं। हमारी पुस्तकें भले ही राष्ट्रप्रेम की गाथाएँ पाठ्य सामग्री में सँजोये रहें, परन्तु वास्तव में नागरिकों के हृदय में गहरा व सच्चा राष्ट्रप्रेम ढूंढ़ने पर भी उपलब्ध नहीं होता। हमारे शिक्षाविदों व बुद्धिजीवियों को इस प्रश्न का समाधान ढूंढ़ना ही होगा कि अब मात्र उपदेश या अतीत के गुणगान से वह प्रेम उत्पन्न नहीं हो सकता। हमें अपने राष्ट्र की दशा व छवि अनिवार्य रूप से सुधारनी होगी।

प्रत्येक देशवासी को यह ध्यान रखना चाहिए कि उसके देश भारत की देशरूपी बगिया में राज्यरूपी अनेक क्यारियाँ हैं। किसी एक क्यारी की उन्नति एकांगी उन्नति है और सभी क्यारियों की उन्नति देशरूपी उपवन की सर्वांगीण उन्नति है। जिस प्रकार एक माली अपने उपवन की सभी क्यारियों की देखभाल समान भाव से करता है उसी प्रकार हमें भी देश का सर्वांगीण विकास करना चाहिए। किसी जाति या सम्प्रदाय विशेष को लक्ष्य न मानकर समग्रतापूर्ण चिन्तन किया जाना चाहिए; क्योंकि सबकी उन्नति में एक की उन्नति तो अन्तर्निहित होती ही है। प्रत्येक देशवासी का चिन्तन होना चाहिए कि “यह देश मेरा शरीर है और इसकी क्षति मेरी ही क्षति है।” जब ऐसे भाव प्रत्येक भारतवासी के होंगे तब कोई अपने निहित स्वार्थों के पीछे रेल, बस अथवा सरकारी सम्पत्तियों की होली नहीं जलाएगा और न ही सरकारी सम्पत्ति का दुरुपयोग ही करेगा।

स्वदेश-प्रेम मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। इसे संकुचित रूप में ग्रहण न कर व्यापक रूप में ग्रहण करना चाहिए। संकुचित रूप में ग्रहण करने से विश्व शान्ति को खतरा हो सकता है। हमें स्वदेश-प्रेम की भावना के साथ-साथ समग्र मानवता के कल्याण को भी ध्यान में रखना चाहिए।

स्वाधीनता का महत्त्व

सम्बद्ध शीर्षक

  • पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं
  • परतन्त्रता अथवा दासता

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. पराधीनता एक अभिशाप है,
  3. पराधीनता के विविध रूप-(क) राजनीतिक; (ख) आर्थिक; (ग) सांस्कृतिक; (घ) सामाजिक; (ङ) धार्मिक,
  4. स्वाधीनता का महत्त्व,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना-‘पराधीनता से तात्पर्य दूसरे के अधीन या वश में रहने से है। जब हमारे मनन-चिन्तन और कार्य पर दूसरों की इच्छा और शक्ति का अंकुश लग जाता है तो हम पराधीन कहलाते हैं। इस स्थिति में प्राप्त सुख-सुविधाएँ भी सच्चा आनन्द प्रदान नहीं कर पातीं। सोने के पिंजरे में रहकर विभिन्न फल व स्वादिष्ट पदार्थ खाने वाला पक्षी भी इस बन्धन से छूटकर खुले आकाश में स्वच्छन्द विचरण के लिए उड़ जाना चाहता है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदास की उक्ति सत्य चरितार्थ होती है कि ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं। सूखी रोटी खाने वाला और पत्थर की चट्टान पर सोने वाला स्वाधीन व्यक्ति पराधीन व्यक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक स्वस्थ, प्रसन्न व निर्भीक होता है। किसी कवि ने उचित ही कहा है

बस एक दिन की दासता, शत कोटि नरक समान है।
क्षण मात्र की स्वाधीनता, शत स्वर्ग की मेहमान है।

पराधीनता एक अभिशाप है-पराधीनता मानव की समस्त शक्तियों को कुण्ठित करने वाला पक्षाघात (लकवा) है। पराधीन व्यक्ति का व्यक्तित्व पंगु हो जाता है, उसकी इच्छाशक्ति मर जाती है और कठपुतली के समान दूसरों के आदेश-निर्देशों का अनुवर्तन ही उसकी नियति बन जाती है। फलतः उसका आत्मविश्वास नष्ट हो जाता है और वह हर बात में दूसरों का मुँह ताकता रहता है। इसलिए एक संस्कृत कवि ने कहा है-‘पारतन्त्र्यं महदुःखम् स्वातन्त्र्यं परमं सुखम्”, अर्थात् परतन्त्रता से बड़ा दु:ख और स्वतन्त्रता से बड़ा सुख और कुछ नहीं है।

पराधीन मनुष्य का हृदय मात्र गति करता है। उसमें भावना के फूल नहीं लहराते। उसकी जिह्वा होती है। पर स्वर कहीं खो जाते हैं। उसकी आँखें देखती हैं, किन्तु उनमें प्रतिक्रिया का कोई स्पन्दन नहीं होता, उसमें विचार उपजते हैं किन्तु शीघ्र ही विलीन हो जाने को बाध्य होते हैं। उसमें जीवन होता है किन्तु उसमें और मृतक में कोई विशेष अन्तर नहीं जान पड़ता।

पराधीन मनुष्य को तो कुछ सोचने और करने का अवसर ही नहीं मिलता और यदि मिलता भी है तो पराधीन बनाने वाले व्यक्ति की इच्छा और तेवर के अनुसार यानि वह जो सोचता है और करने को कहता है, पराधीन वही सब कर सकता है, वरन् करने को बाध्य हुआ करता है। अपनी इच्छा और सोच के अनुसार कुछ करने की उसकी चेष्टा पर उसे बड़ी बेशरमी से दण्डित किया जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे उसकी इच्छाएँ, भावनाएँ, सोच-विचार की शक्ति समाप्त हो जाती है। ऐसी अवस्था में उसे किसी सुख की प्राप्ति या अनुभूति मात्र का भी प्रश्न नहीं उठता। इसके विपरीत स्वाधीन व्यक्ति अपनी इच्छा और भावना के अनुसार सोच-विचार कर वह सब कुछ करने के लिए स्वतन्त्र होता है, जिसे करने से उसे सुख-प्राप्ति होती है। स्वतन्त्रता पूर्व और पश्चात् की भारतवासियों की स्थिति की तुलना करके इस अन्तर को सरलता के साथ समझा जा सकता है।

मानव सचमुच स्वाभिमान के लिए ही जीता है। स्वाभिमान से शून्य जीवन नरक भोगने से भी असह्य है और स्वाभिमान की रक्षा बिना स्वाधीनता के सम्भव नहीं। इसीलिए एक लेखक ने कहा है, “It is better to reign in hell than to be a slave in heaven.” अर्थात् स्वर्ग में दास बनकर रहने से नरक में स्वाधीन रहना अच्छा है।

पराधीनता के विविध रूप–पराधीनता चाहे व्यक्ति की हो या राष्ट्र की दोनों ही गर्हित हैं; क्योंकि व्यक्तिगत पराधीनता व्यक्ति के एवं राष्ट्रगत पराधीनता राष्ट्र के सम्पूर्ण विकास को अवरुद्ध कर उसे पंगु बना देती है। उसकी चेतना शक्ति शून्य और निष्कर्म हो जाती है। पराधीनता के कई रूप हैं, जिनमें मुख्य हैं—(1) राजनीतिक, (2) आर्थिक, (3) सांस्कृतिक, (4) सामाजिक और (5) धार्मिक।

(क) राजनीतिक पराधीनता-इससे आशय है कि किसी देश का दूसरों द्वारा शासित होना। राजनीतिक पराधीनता सबसे भयावह स्थिति है। वह शासित देश के समस्त गौरव का नाश कर उसे संसार में उपहास, घृणा और दया का पात्र बना देती है। विजेता द्वारा ऐसे देश का सर्वांगीण शोषण करके उसे हर दृष्टि से निःसत्त्व, श्रीहीन और अपदार्थ बना दिया जाता है। भारत का उदाहरण सामने है। जो भारत किसी समय सोने की चिड़िया कहलाता था, वही सैकड़ों वर्षों की गुलामी के परिणामस्वरूप अन्न के दाने-दाने को मोहताज हो गया था। यही कारण है कि प्रत्येक पराधीन देश बंड़े-से-बड़ा बलिदान देकर भी सबसे पहले राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्त करना चाहता है।

(ख) आर्थिक पराधीनता-आज के युग में किसी देश को राजनीतिक दृष्टि से पराधीन बनाये रखना कठिन हो गया है, इसलिए संसार के शक्तिशाली और समृद्ध राष्ट्रों, मुख्यत: अमेरिका, ने दूसरे देशों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने हेतु यह एक नया हथकण्डा अपनाया है। वे उन्हें आर्थिक सहायता या ऋण देकर उनके आन्तरिक मामलों में मनमाने हस्तक्षेप का अधिकार पा लेते हैं। यह पराधीनता वर्तमान में तो क्षणिक सुखकर अवश्य प्रतीत होती है, परन्तु भविष्य में यह बहुत ही कष्टकर होती है। महाजनों और जमींदारों के अत्याचार ऐसी पराधीनता के ही फल रहे हैं।

(ग) सांस्कृतिक पराधीनता-इसका आशय है किसी देश द्वारा दूसरे देश पर अपनी भाषा और साहित्य थोप कर उसके साहित्य, कला और संस्कृति के सहज विकास को अवरुद्ध कर, वहाँ के बुद्धिजीवियों के स्वतन्त्र चिन्तन को नष्ट कर, उन्हें मानसिक दृष्टि से अपना गुलाम बनाना। भारत पर मुसलमानी शासनकाल में फारसी और अंग्रेजों के शासनकाल में अंग्रेजी भाषा का थोपा जाना इस देश के स्वाभाविक सांस्कृतिक विकास के लिए बहुत घातक सिद्ध हुआ। वस्तुतः राजनीतिक और आर्थिक पराधीनता तो किसी देश के शरीर को ही गुलाम बनाती है, किन्तु सांस्कृतिक पराधीनता उसकी आत्मा को ही बन्धक रख लेती है। मैकाले (Macaulay) ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा की वकालत करते हुए यही तर्क दिया था कि इससे यह देश मानसिक दृष्टि से हमारा गुलाम बन जाएगा और उसकी बात आज अत्यधिक सत्य सिद्ध हो रही है। सन् 1947 ई० में राजनीतिक स्वाधीनता पाकर भी इस देश में पनपे अंग्रेजी के मानस-पुत्रों ने भारत को आज पहले से कहीं भयंकर सांस्कृतिक पराधीनता में जकड़कर खोखला बना दिया है।

(घ) सामाजिक पराधीनता-सामाजिक पराधीनता से आशय है समाज के विभिन्न वर्गों में असमानता का होना, जिससे कुछ वर्ग अधिक सुविधाएँ भोगते हुए दूसरों को दबाकर रखें। हिन्दू समाज में पराधीनता का यह रूप छुआछूत, ऊँच-नीच और स्त्रियों पर अत्याचार के कारण अपनी निकृष्टतम स्थिति में दीख पड़ता है। भारतीय नारी की तो नियति सचमुच दयनीय है; क्योंकि कौमार्यावस्था में पिता, यौवन में पति और वृद्धावस्था में पुत्र उसका अभिभावकत्व करते हैं। इस प्रकार बचपन से वार्धक्य तक वह बेचारी किसी-न-किसी के अधीन रहने को बाध्य है, स्वाधीनता उसके भाग्य में नहीं।

(ङ) धार्मिक पराधीनता–धार्मिक पराधीनता के कारण मनुष्य अनेक नियमों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं और अन्धविश्वासों के अधीन हो जाता है। वह पुरोहितों-पुजारियों, मुल्लाओं-मौलवियों और पादरियों का दास बन जाता है। शिक्षा, व्यवसाय, साहित्य, कला आदि में उसे प्रचलित रूढ़िवादिता का अनुकरण करना ही पड़ता है।

स्वाधीनता का महत्त्व-स्वतन्त्रता से मधुर कोई मनोदशा नहीं है। मनुष्य की गरिमा इसी कारण है। कि वह स्वतन्त्र है। पशु को इसीलिए पशु कहा जाता है कि वह पाश (बन्धन) में है। जो मनुष्य भी पाश में हो तो उसका जीवन भी पशुवत् ही है। स्वतन्त्रता से उच्च स्वर्ग और कहीं नहीं है। स्वतन्त्र व्यक्तित्व व विचार से युक्त मानव का तेज अलौकिक होता है। जब प्रसिद्ध क्रान्तिकारी बालक चन्द्रशेखर को न्यायालय में पेश किया गया तो न्यायाधीश ने उससे पूछा-तुम्हारा नाम। बालक चन्द्रशेखर ने उत्तर दिया-‘आजाद’। ‘तुम्हारे पिता का नाम’, न्यायाधीश ने फिर पूछा। स्वतन्त्र’, चन्द्रशेखर ने निडरता के साथ उत्तर दिया। तात्पर्य यह है कि मानव का मन स्वतन्त्रता का प्रेमी है, परतन्त्रता तो उसके लिए मरण तुल्य है।

उपसंहार-आज हम स्वाधीन हैं, स्वतन्त्र हैं। हमें सभी प्रकार के व्यापक अधिकार मिले हुए हैं। इसे प्राप्त करने के लिए न जाने कितने लोग कुर्बान हुए और न जाने कितने कष्ट सहे, इसका अनुभव बहुत कम ही लोग कर सके हैं। हमें स्वाधीन होकर भी स्वच्छन्द नहीं होना चाहिए। हमें स्वतन्त्रता का वास्तविक प्रयोग कर देश का सहयोग करना चाहिए, जिससे देश की स्वाधीनता अमर बनी रहे। इसीलिए तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-

पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं। करि बिचार देखहु मन माहीं ॥

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि स्वाधीनतारूपी अमृत-फल चखने के लिए हमें पराधीनतारूपी कण्टकों को निर्मूल करना होगा, सब प्रकार की पराधीनता के कलंक को मिटाना होगा। तभी भारतमाता का मुख उज्ज्वल होकर सारे विश्व को अपनी आभा से दीप्त कर सकेगा, उसका मार्गदर्शन कर सकेगा।

यदि मैं शिक्षामन्त्री होता [2014]

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना,
  2. धर्म-निरपेक्ष शिक्षण व्यवस्था,
  3. सम-स्तरीय शिक्षण व्यवस्था,
  4. मातृभाषा हिन्दी में शिक्षण,
  5. ग्रामीण छात्रों के लिए शिक्षण व्यवस्था,
  6. शहरी विद्यार्थियों के लिए शिक्षा-प्रणाली,
  7. प्रतिभावान शिक्षकों के पलायन को रोकना,
  8. अध्यापकों की मनोवृत्ति-परिवर्तन,
  9. उपसंहार

प्रस्तावना-आज भारत को अंग्रेजी शासन-श्रृंखला से मुक्त हुए छ: दशकों से भी अधिक समय हो चुका है, परन्तु शिक्षा के क्षेत्र में आज तक देश में विविध प्रयोगों से, देश की भावी पीढ़ी के साथ खिलावाड़ ही हुआ है। अभी तक हम न सभी को साक्षर कर पाये हैं, न ही राष्ट्र-भाषा हिन्दी को अपना यथोचित स्थान दिला पाये हैं। शिक्षा भी ऐसी दी गयी है कि जिसे ठोस रूप में न सांस्कृतिक कह सकते हैं और न ही वैज्ञानिक। इस शिक्षा ने केवल बाबुओं की संख्या बढ़ाई है और बेरोजगारी को बढ़ावा दिया है।
यदि मैं शिक्षामन्त्री होता तो मैं सबसे पहले शिक्षा को राष्ट्रीय, वैज्ञानिक, कर्मप्रधान तथा सर्वसुलभ बनाने को प्राथमिकता देता।

धर्म-निरपेक्ष शिक्षण व्यवस्था-आज विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों की निजी संस्थाओं के अन्तर्गत सारे देश में ऐसे स्कूल-कॉलेज चल रहे हैं जिसमें उन धर्मों की जातियों को प्रश्रय दिया जाता है, जिनके विचार संकुचित होते हैं। ये राष्ट्रीय भावना के स्थान पर साम्प्रदायिक तथा जातिगत श्रेष्ठता को महत्त्व देकर, नयी पीढ़ी को अनुदार विचारों वाला बनाते हैं। इस प्रकार की शिक्षा का परिणाम हम पहले ही देश-विभाजन के रूप में देख चुके हैं।

हमारा देश धर्म-निरपेक्ष है। संविधान में ऐसा माना जा चुका है, फिर भी सनातनी, आर्य समाजी, ब्रह्म समाजी, मुस्लिम, सिख, ईसाई मिशनरियों द्वारा क्यों अलग-अलग शिक्षा संस्थान चलाये जा रहे हैं? यदि मैं शिक्षामन्त्री पद को प्राप्त कर लें तो मैं इन संस्थाओं को प्रेरित करूगा कि भले ही वे अपने स्कूलों में धार्मिक शिक्षा अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार दें, परन्तु राष्ट्रीय चरित्र की उपेक्षा करके निश्चित रूप से नहीं।।

सम-स्तरीय शिक्षण व्यवस्था-धार्मिक भेदभावों के साथ-साथ आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न शिक्षा-संस्थान भी इस देश में पब्लिक स्कूल चला रहे हैं। इन स्कूलों की फीस बहुत अधिक होती है। अत: बड़े-बड़े अमीरों और ऊँचे पदों पर विराजमान नेताओं-अफसरों के बच्चे ही इनमें स्थान पा सकते हैं। देश का गरीब तो क्या, मध्यम वर्ग का योग्य बच्चा भी इनमें प्रवेश नहीं पा सकता। इन महँगे शिक्षा-संस्थानों में अंग्रेजी को माध्यम भाषा का स्थान देकर देश की नयी पीढ़ी में वर्गभेद के अनुचित संस्कार पैदा किए जा रहे हैं। शिक्षामन्त्री बनने के बाद में इन पब्लिक स्कूलों तथा अन्य स्कूलों को समान स्तर पर लाने की नीति अपनाऊंगा।

मातृभाषा हिन्दी में शिक्षण-इसके बाद प्रश्न आता है-शिक्षा के माध्यम का। यह सच है कि भारत की सभी भाषाओं में सर्वाधिक बोली, लिखी व समझी जाने वाली भाषा हिन्दी ही है। परन्तु खेद है, अभी तक इसे व्यावहारिक रूप में समुचित स्थान नहीं दिया जा रहा है, दो-तीन प्रतिशत अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग ही अपनी अंग्रेजियत लाद रखने की तानाशाही चला रहे हैं। इन्हीं के कारण आज साधारण किसानों व मजदूरों की सन्ताने शिक्षा से दूर हैं। उन्हें अनपढ़ ही रहने दिया जा रहा है। यदि में शिक्षामन्त्री बना तो समस्त देश में प्रारम्भिक शिक्षा मातृभाषा में दिलवाने का प्रबन्ध करूगा। स्कूली शिक्षा में हिन्दी प्रथम भाषा रहेगी। अन्य विषय भी हिन्दी माध्यम से पढ़ाये जाने की व्यवस्था करूगा।।

ग्रामीण छात्रों के लिए शिक्षण व्यवस्था—हमारा देश कृषिप्रधान देश है। देश की लगभग 75% आबादी गाँवों में बसती है। मैं चाहता हूँ कि गाँववाले शहर की ओर न देखकर पहले खुद के जीवन को उन्नत एवं गतिशील करें। इसके लिए उनकी शिक्षा व्यवस्था और शहर की शिक्षा-व्यवस्था में अन्तर रखना ही पड़ेगा। यदि मैं शिक्षामन्त्री बना तो गाँवों की जरूरतों के अनुसार, वहीं पर ऐसे शिक्षण व प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना करूगा जो गाँववासियों को आत्मनिर्भर बनाएँ, उनके परम्परागत कार्य को आधुनिक युग के अनुरूप ढालें, जैसे खेती के लिए खाद–निर्माण, नलकूपों की व्यवस्था करना, बीजों की उन्नत किस्में तैयार करना, वैज्ञानिक विधि अपनाकर उत्पादन बढ़ाना, पशुओं की नस्लों का स्तर सुधारना, सूत कातना, कपड़े बुनना, घरेलू सामान तैयार करना आदि। इन अनगिनत कुटीर उद्योगों की स्थापना हेतु उचित ज्ञान व प्रशिक्षण देना उन शिक्षा केंद्रों का कार्य होगा। इसके लिए गाँधी जी द्वारा स्वीकृत बेसिक शिक्षा प्रणाली वहुत उपयुक्त रहेगी।

शहरी विद्यार्थियों के लिए शिक्षा-प्रणाली-शहरी विद्यार्थियों के लिए भी ऐसी शिक्षा का प्रबन्ध होगा जो केवल बाबुओं का निर्माण न करे, बल्कि प्रतिभाशाली छात्रों को समुचित शिक्षा-सुविधाएँ दे। शिक्षा महँगी न हो। स्कूल-स्तर की सम्पूर्ण शिक्षा नि:शुल्क रहे। उस शिक्षा में विज्ञान को प्राथमिकता होगी। इन विद्यार्थियों से योग्य डॉक्टर, इंजीनियर, प्राध्यापक, वकील, अर्थशास्त्री, व्यापारी व उच्चाधिकारी बनने की क्षमता रखने वाले योग विद्यार्थी भी निकलेंगे जिन्हें उच्च शिक्षण संस्थानों में उपयुक्त पदों पर पहुँचने का समुचित शिक्षण व प्रशिक्षण दिया जाएगा। मैं शिक्षामन्त्री होकर यह नियम भी अनिवार्य कर दूंगा कि प्रत्येक सुशिक्षित डॉक्टर, इंजीनियर, प्राध्यापक, वकील, अर्थशास्त्री आदि बहुसंख्यक व्यक्ति गाँवों में कम-से-कम । तीन वर्षों तक कार्य करें। इससे शहर और गाँवों की दूरी कम की जा सकेगी।

प्रतिभावान शिक्षकों के पलायन को रोकना-प्राय: यह देखने में आता है कि धन, प्रतिष्ठा व अन्य प्रलोभनों के वशीभूत होकर अनेक उच्च शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवी एवं वैज्ञानिक विदेशों को चले जाते हैं। मैं शिक्षामन्त्री बनूंगा तो उनको अपने देश में ही ऐसी सुविधाएँ प्रदान करूंगा, जिससे वे विदेशों की ओर मुंह न करें ताकि देश की प्रतिभा देशवासियों के लाभ में काम करे।।

अध्यापकों की मनोवृत्ति-परिवर्तन-शिक्षा की कैसी भी श्रेष्ठतम प्रणाली क्यों न स्वीकृत की जाए, यदि उसको लागू करने में ढील रहेगी अर्थात् योग्य, ईमानदार, परिश्रमी अध्यापकों, प्राध्यापकों, प्रशिक्षकों का अभाव रहेगी तो वह प्रणाली केवल कागजों एवं फाइलों में ही शोभा बढ़ाने वाली बनकर रह जाएगी। उससे देश की नई पीढ़ी का कुछ भी भला नहीं होगा। अध्यापकों या शिक्षकों की मनोवृत्ति को बदलना भी जरूरी है। उन्हें समाज में सम्मानित व प्रतिष्ठित करना होगा। उन पर अध्यापन-कार्यक्रम के अतिरिक्त दूसरे व्यवस्थागत कार्यों का बोझ लादना उचित नहीं है। मैं अपने शिक्षामन्त्रित्व काल में देश के निर्माता शिक्षकों की सुविधाएँ, उनके वेतनमान, उनकी पदोन्नति में न्याय तथा औचित्य का ध्यान रखेंगा।।

उपसंहार-यह सच है कि उक्त शिक्षा-योजनाओं के लिए बहुत धन की आवश्यकता पड़ेगी। धन की इतनी मात्रा एक विकासशील देश के लिए जुटा पाना सम्भव नहीं जान पड़ता। पर यह भी सच है कि अन्य क्षेत्रों में लगाये जाने वाले धन की कटौती करके, फिलहाल शिक्षा क्षेत्र में नई पीढ़ी को तैयार करने के लिए खर्च करना देश के भविष्य को सुनहरा बनाने के लिए जरूरी है। शुरू की कठिनाइयाँ बाद के लिए लाभकारी सुविधाएँ ही सिद्ध होगी।

यदि मैं अपने विद्यालय का प्रधानाचार्य होता [2016]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. मेरी कल्पना प्रधानाचार्य बनना,
  3. अध्यापकों पर ध्यान देना,
  4. पुस्तकालय, खेल आदि का स्तर सुधारने पर बल,
  5. विद्यालय की दशा सुधारना,
  6. शिक्षा-परीक्षा पद्धति में परिवर्तन,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना--कल्पना भी क्या चीज होती है। कल्पना के घोड़े पर सवार होकर मनुष्य न जाने कहाँ-कहाँ की सैर कर आता है। यद्यपि कल्पना की कथाओं में वास्तविकता नहीं होती तथापि कल्पना में जहाँ मनुष्य क्षण भर के लिए आनन्दित होता है, वहीं वह अपने लिए कतिपय आदर्श भी निर्धारित कर लेता है। इसी कल्पना से लोगों ने नये कीर्तिमान भी स्थापित किये हैं। एडीसन, न्यूटन, राइट बंधु आदि सभी वैज्ञानिकों ने कल्पना का सहारा लेकर ही ये नये आविष्कार किये। कल्पना में मनुष्य स्वयं को सर्वगुणसम्पन्न भी समझने लगता है।

मेरी कल्पना प्रधानाचार्य बनना-मेरी कल्पना अपने आप में अत्यन्त सुखद है कि काश मैं अपने विद्यालय का प्रधानाचार्य होता। प्रधानाचार्य का पद गौरव एवं उत्तरदायित्वपूर्ण होता है। मैं प्रधानाचार्य होने पर अपने सभी कर्तव्यों का भली-भाँति पालन करता। हमारे विद्यालय में तो प्रधानाचार्य यदा-कदा ही दर्शन देते हैं जिससे विद्यार्थी और अध्यापकगण कृतार्थ हो जाते हैं। मैं नित्य- प्रति विद्यालय आता। अपने विद्यार्थियों व अध्यापकगणों की समस्याएँ सुनता और तदनुरूप उनका समाधान करता।

अध्यापकों पर ध्यान देना-सामान्यत: विद्यालयों में कुछ अध्यापक अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने ही आते हैं। वे स्वतन्त्र व्यवसाय करते हैं तथा विद्यार्थियों को पढ़ाना अपना कर्तव्य नहीं समझते। हमारे गणित के अध्यापक शेयरों का धन्धा करते हैं। मन्दी आने पर वे सारा क्रोध विद्यार्थियों पर निकालते हैं। यदि कोई विद्यार्थी उनसे प्रश्न हल करवाने चला जाता है तो वे उसकी पिटाई कर देते हैं। अंग्रेजी के अध्यापक बीमा कम्पनी के एजेन्ट हैं। वे अभिभावकों को बीमा करवाने की नि:शुल्क सलाह देते रहते हैं। अधिकांश अध्यापक ट्यूशन पढ़ाने के शौकीन हैं। वे कक्षा में बिल्कुल नहीं पढ़ाते। जो छात्र उनसे ट्यूशन नहीं पढ़ते, उन्हें वे अनावश्यक रूप से परेशान करते हैं। यहाँ तक कि उनको परीक्षाओं में भी असफल कर देते हैं। यदि मैं अपने विद्यालय का प्रधानाचार्य होता तो सर्वप्रथम अध्यापकों की बुद्धि की इस मलिनता को दूर करता। ट्यूशन पढ़ाने को निषेध घोषित करता तथा ट्यूशन पढ़ाने वालों को दण्डित करता। जो अध्यापक अपने कर्तव्यों को पूरा नहीं करते उनको विद्यालय से निकालने अथवा उनके स्थानान्तरण की संस्तुति कर देता। सभी अध्यापकों को आदर्श अध्यापक बनने के लिए येन-केन प्रकारेण विवश कर देता।।

पुस्तकालय, खेल आदि का स्तर सुधारने पर बल-हमारे विद्यालय के पुस्तकालय की दशा अत्यन्त शोचनीय हैं। छात्रों को पुस्तकालय से अपनी रुचि एवं आवश्यकता की पुस्तकें नहीं मिलतीं। मैं विद्यालय के पुस्तकालय की दशा सुधारता। शिक्षाप्रद पुस्तकों तथा महान साहित्यकारों की पुस्तकों की पर्याप्त मात्रा में प्रतियाँ खरीदवाता। किसी भी विषय की पुस्तकों का पुस्तकालय में अभाव नहीं रहने देता। और निर्धन विद्यार्थियों को नि:शुल्क पुस्तकें भी उपलब्ध कराता।।

हमारे विद्यालय में खेलों का आवश्यक सामान नहीं है। प्रधानाचार्य होने पर मैं विद्यार्थियों की आवश्यकतानुसार खेल का सामान उपलब्ध करवाता। विद्यालय की टीम के जीतने पर खिलाड़ियों को पुरस्कृत कर उनका मनोबल बढ़ाता। अपने विद्यालय की टीमों को खेलने के लिए बाहर भेजता, साथ ही अपने विद्यालय में भी नये-नये खेलों का आयोजन करता। राज्यीय और अन्तर्राज्यीय प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करता।

विद्यालय की दशा सुधारना-मैं विद्यार्थियों से श्रमदान करवाता। श्रमदान के द्वारा विद्यालय के बगीचे में नाना-प्रकार के पेड़-पौधे लगवाता। विद्यार्थियों को पर्यावरण के विषय में सचेत करता। विद्यालय के चारों ओर खुशबूदार फूलों के पौधे लगवाता, जिससे विद्यालय का वातावरण फूलों की सुगन्ध से खुशनुमा हो जाता।

सांस्कृतिक कार्यक्रमों के विषय में मेरा विद्यालय अपने क्षेत्र का अवॉम विद्यालय होता। संगीत, कला, आदि की शिक्षा की विद्यालय में समुचित व्यवस्था करवाता। प्रत्येक महीने चित्रकला व वाद-विवाद प्रतियोगिता करवाता। विद्यार्थियों के मस्तिष्क में कला के प्रति आकर्षण पैदा करता। इस प्रकार मैं अपने विद्यालय को नवीन रूप प्रदान करता।

शिक्षा-परीक्षा पद्धति में परिवर्तन-इतना करने के उपरान्त में सर्वप्रथम शिक्षा पद्धति में परिवर्तन लाने पर ध्यान केन्द्रित करता। शिक्षा विद्यार्थियों के लिए सामाजिक, नैतिक, बौद्धिक विकास में सहायक होती है। मैं विद्यालय में प्राथमिक शिक्षा पर तो ध्यान देत ही मा ही व्यावसायिक प्रशिक्षण की भी सुविधा प्रदान करवाता। इस प्रकार विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्ति के बाद पाश्रित नहीं रहना पड़ता। मैं अपने विद्यालय में हिन्दी को अनिवार्य विषय घोषित करता। इसमें विद्यार्थियों में भाषा के प्रति सम्मान की भावना जाग्रत होती, साथ ही उनमें देश-प्रेम की भावना भी आती।

हमारे विद्यालय की परीक्षा प्रणाली बहुत दोषपूर्ण है। परीक्षा एहले ही विद्यार्थी अत्यधिक तनावग्रस्त हो जाते हैं। मेरे प्रधानाचार्य बनने पर विद्यार्थियों को परीक्षाओं का भूत इस तरह नहीं सताता कि उन्हें अनैतिक विधियाँ अपनाकर परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़े। शर्षिक परीक्षा के मथ- साथ आन्तरिक मूल्यांकन भी उनकी योग्यता का मापदण्ड होता। लिखित और मोखिक दोनों रूप में परीक्षा होती। शारीरिक स्वास्थ्य भी परीक्षा का एक भाग होता तथा परीक्षा छात्रों के चहुंमुखी विकास का मूल्यांकन करती।

उपसंहार-यदि मैं प्रधानाचार्य होता तो विद्यालय का रूप ही दूसरा होता! यह सब मेरी कल्पना में रचा-बसा है। यदि मैं प्रधानाचार्य बनूंगा तो अपनी सभी कल्पना को पराकार करूगा, यह मेरा दृढ़संकल्प है। मैं ऐसी सूझबूझ से विद्यालय का संचालन करूगा कि राज्य में ही नहीं पूरे देश में मेरे विद्यालय का नाम रोशन हो जायेगा। मुझे आशा है कि भगवान मेरी इस कल्पना को अवश्य साकार रूप प्रदान करेगा।

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 10 Juvenile Delinquency

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 10
Chapter Name Juvenile Delinquency (बाल-अपराध)
Number of Questions Solved 46
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 10 Juvenile Delinquency (बाल-अपराध)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
बाल-अपराध से आप क्या समझते हैं ? बाल-अपराध के कारकों को समझाइए। [2009, 10, 11, 13, 16]
या
बाल-अपराध क्या है? इसके प्रमुख कारणों की व्याख्या कीजिए। [2015, 16]
या
बाल-अपराध के कारणों की विवेचना कीजिए। [2009, 11, 12, 15, 17]
या
बाल-अपराध के व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक कारणों को स्पष्ट कीजिए। [2015]
या
बाल-अपराध विखण्डित परिवार की देन है।” भारत के सन्दर्भ में इस कथन का विश्लेषण कीजिए। [2012, 13]
या
भारत में बाल-अपराध में वृद्धि के कारणों को स्पष्ट कीजिए। [2015]
या
बाल-अपराध के सामाजिक कारण बताइए। [2015, 16]
या
बाल अपराध की समस्या को दूर करने का उपाय बताइए। [2017]
उत्तर:
बाल-अपराध का अर्थ
एक निश्चित आयु के बालक द्वारा समाज में निषिद्ध अथवा कानून विरोधी कार्य करना बालअपराध कहलाता है। बाल-अपराध दो शब्दों का संयोग है–‘बाल + अपराध’। ‘बाल’ का अर्थ है – बालक या किशोर, ‘अपराध’ का अर्थ है-कानून का उल्लंघन। इस प्रकार बाल-अपराध को शाब्दिक अर्थ हुआ किशोर द्वारा किया गया अपराध। भारत में 1960 व 1986 ई० में बाल अधिनियम पारित किये गये। इनके अनुसार 16 वर्ष की आयु के लड़के तथा 18 वर्ष की आयु की लड़की को बालक माना गया।

इस प्रकार भारत में 7 वर्ष से 16 वर्ष की आयु तक के लड़के तथा 7 वर्ष से 18 वर्ष तक की लड़की द्वारा किया गया कानून-विरोधी कार्य बाल-अपराध माना जाता है। इसके पश्चात् 21 वर्ष की आयु तक के अपराधी को किशोर अपराधी कहा जाता है। सदरलैण्ड ने 16 वर्ष से कम आयु के सभी अपराधियों को बाल-अपराधी कहा है। बाल-अपराध के लिए आयु मिस्र, इराक, लेबनान, सीरिया तथा ब्रिटेन में 16 वर्ष है, जब कि ईरान, जॉर्डन, सऊदी अरब, यमन, तुर्किस्तान तथा थाइलैण्ड में यह 18 वर्ष है। जापान में बाल-अपराधी 20 वर्ष से कम आयु का ही माना जाता है। बालक द्वारा की जाने वाली ऐसी उद्दण्डता को, जो समाज-विरोधी या कानून-विरोधी है, बाल-अपराध कहते हैं। बाल-अपराध वर्तमान समय की एक महत्त्वपूर्ण एवं गम्भीर समस्या है। तथा इसकी दर में वृद्धि सामाजिक व पारिवारिक विघटन की सूचक मानी जाती है।

बाल-अपराध की परिभाषा
बाल-अपराध का अर्थ निश्चित आयु से कम आयु के व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला अपराध है। जब निश्चित आयु से कर्म के बच्चों या युवकों द्वारा कोई अनुचित व समाज-विरोधी कार्य किया जाता है तो उसे बाल-अपराध कहते हैं। बाल-अपराध को ठीक-ठीक अर्थ समझने के लिए हमें इसकी परिभाषाओं का अध्ययन करना होगा। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने बाल-अपराध को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है

माउरर के अनुसार, “बाल-अपराधी वह व्यक्ति है, जो जान-बूझकर इरादे के साथ तथा समझते हुए उसे समाज की रूढ़ियों की उपेक्षा करता है जिससे उसका सम्बन्ध है। ऐसे व्यक्ति द्वारा किये गये अपराध को बाल-अपराध कहा जाएगा।”

सेथना
के अनुसार, “बाल-अपराध के अन्तर्गत उस तरुण व्यक्ति के गलत कार्य आते हैं जो कि सम्बन्धित स्थान के कानून (जो उस समये लागू हों) के द्वारा निर्दिष्ट आयु-सीमा के अन्दर आता है।”

रॉबिन्सन के अनुसार, “बाल-अपराध के अन्तर्गत आवारागर्दी और भीख माँगना, दुर्व्यवहार, बुरे इरादे से शैतानी करना और उद्दण्डता सम्मिलित किये जाते हैं।”
न्यूमेयर के अनुसार, “बाल-अपराधी एक निश्चित आयु से कम का वह व्यक्ति है जिसने समाज-विरोधी कार्य किया है और जिसका दुर्व्यवहार कानून को तोड़ने वाला है।”

सिरिल बर्ट के अनुसार, “किसी बालक को बाल-अपराधी वास्तव में तभी मानना चाहिए जब उसकी समाज-विरोधी प्रवृत्तियाँ इतना गम्भीर रूप धारण कर लें कि उसके विरुद्ध आवश्यक कार्यवाही की जाए या वह उस कार्यवाही के योग्य हो जाए।”

हेली
के अनुसार, “एक बालक जो सामाजिक व्यवहार के मान से विचलित हो रहा हो, बालअपराधी कहलाता है।

मेनगोल्ड के अनुसार, “बाल-अपराधी वह अपराधी व्यक्ति है जो आवश्यक रूप से किसी विशेष अपराध करने से अभियुक्त नहीं होता, अपितु उसमें समाज-विरोधी दृष्टिकोण तथा व्यवहार के लक्षणों का विकास हो जाता है, जो यदि नहीं रोके गये तो वे नि:सन्देह ऐसे कार्यों की ओर अग्रसर होंगे जिन्हें लोग सहन नहीं कर सकेंगे।”

वास्तव में, बाल-अपराधी होने का आधार आयु है। बाल-अपराध एक निश्चित आयु के बालक द्वारा किया गया कानून-विरोधी कार्य है। बाल-अपराध में समाज-विरोधी कार्यों को भी सम्मिलित किया जाता है।

अमेरिका की राष्ट्रीय परिवीक्षा समिति (National Probation Association of United States of America) ने बाल-अपराध को निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया है – बाल-अपराधी वह है जिसने

  1. किसी प्रान्त अथवा इसके किसी क्षेत्र के कानून अथवा मान्यता का उल्लंघन किया हो।
  2. जो सुधार से परे, उद्दण्ड हो और अपने माता-पिता, संरक्षक अथवा कानून अधिकारियों के नियन्त्रण से परे हो।
  3. जिसे स्कूल से अनुपस्थित रहने की आदत पड़ गयी हो।
  4. जो इस प्रकार व्यवहार करता हो जिससे वह जानबूझकर अपनी या अन्य व्यक्तियों की नैतिकता अथवा स्वास्थ्य को हानि पहुँचाए।

बाल-अपराध के लक्षण
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि बाल-अपराध में निम्नलिखित लक्षण पाये जाते हैं|

  1. राज्य द्वारा निश्चित आयु से कम आयु का व्यक्ति;
  2. व्यवहार की गम्भीरता;
  3. कानून का उल्लंघन;
  4. अनैतिक एवं अशोभनीय व्यवहार;
  5.  जान-बूझकर अनैतिक एवं बुरे व्यक्तियों से सम्पर्क;
  6.  रात्रि को बिना उद्देश्य घूमना;
  7. स्कूल से भागने की आदत;
  8. सार्वजनिक स्थान पर गन्दी, असभ्य व निम्न स्तर की भाषा का आदतन प्रयोग;
  9.  सार्वजनिक स्थानों पर बीड़ी-सिगरेट इत्यादि पीना तथा
  10. विकास का अनुकूल स्तर न होना।

बाल-अपराध के कारण
बाल-अपराध एक गम्भीर सामाजिक समस्या है। प्रत्येक समाज में इसके कारण हूँढ़ने का प्रयास किया जाता है। बाल-अपराधी किसी एक विशिष्ट कारण की देन नहीं है, इसके लिए अनेक कारण उत्तरदायी हैं। सामान्य रूप से बाल-अपराध के निम्नलिखित कारण हैं

(अ) बाल-अपराध के पारिवारिक कारण
बाल-अपराध के लिए परिवार सम्बन्धी कारणों को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। परिवार को बच्चे की प्रथम पाठशाला कहा जाता है, क्योंकि बच्चे को एक अच्छा नागरिक बनाने अथवा उसे बिगाड़ने में पारिवारिक परिस्थितियाँ महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। जब परिवार बच्चे को सामाजिकमानसिक सुरक्षा प्रदान करने में असफल हो जाता है और बच्चा स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगता है, तो वह बाल-अपराधी बन जाता है। सामान्यत: निम्नलिखित पारिवारिक परिस्थितियाँ बाल-अपराध के लिए उत्तरदायी हैं1. भग्न परिवार तथा नष्ट परिवार-भग्न परिवार से अर्थ ऐसे परिवारों से है, जो शारीरिक , अथवा मानसिक अथवा दोनों दृष्टियों से टूटे हुए होते हैं। शारीरिक अथवा भौतिक दृष्टि से भग्न परिवारों में माता-पिता में से किसी एक या दोनों के न होने या सौतेली माता के होने से बच्चे उपेक्षित होकर अपराधी बन बैठते हैं। मानसिक दृष्टि से भग्न परिवारों में माता-पिता तथा बच्चे अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते, एक-दूसरे का सम्मान नहीं करते तथा बच्चे। स्वयं को उपेक्षित महसूस करते हैं और बाल-अपराध की ओर सरलता से आकृष्ट हो जाते हैं। सुधार-गृहों और बाल-न्यायालयों में आने वाले अधिकांश बालक भग्न परिवारों से ही होते है।

2. परिवार का आर्थिक स्तर – परिवार की आर्थिक स्तर नीचा होने तथा अत्यधिक निर्धनता के फलस्वरूप बालक अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए गैर-सामाजिक या गैर-कानूनी कार्यों की ओर आकर्षित हो जाते हैं। यद्यपि परिवार की निर्धनता बाल-अपराध का अनिवार्य कारण नहीं है तथापि इसकी बाल-अपराधों को प्रोत्साहन देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

3. दोषपूर्ण अनुशासन – यदि परिवार का बच्चे पर नियन्त्रण ठीक नहीं है तो भी वह अपराधी प्रवृत्तियों की ओर आकर्षित हो जाता है। बच्चे पर सन्तुलित वे अनवरत अनुशासन उसे अच्छा नागरिक बनाता है, जब कि दोषपूर्ण अनुशासन उसे बिगाड़ देता है। परिवार में बच्चे के साथ अत्यधिक स्नेह, अत्यधिक तिरस्कार या पक्षपातपूर्ण व्यवहार उन्हें बाल-अपराधी बनाता है।

4. घर का दुषित वातावरण – घर का दूषित वातावरण बच्चे को अपराध की दुनिया में धकेलने में सर्वाधिक उत्तरदायी है। अपराध प्रवृत्ति का पिता, व्यभिचारिणी माँ तथा अनैतिक कार्यों में संलग्न भाई-बहन बच्चे को बाल-अपराधी बना देते हैं।

5. सौतेले माता – पिता का व्यवहार-सौतेले माता-पिता द्वारा यदि बच्चों की उपेक्षा की जाती है, अथवा उनके प्रति गलत व्यवहार किया जाता है तो भी बच्चे अपराधी प्रवृत्तियों की ओर आकर्षित हो जाते हैं तथा उनका व्यवहार अपराधी बन जाता है।

6. परिवार का वृहत आकार – यदि परिवार का आकार वृहत् है, परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और रहने के लिए पर्याप्त कमरे नहीं हैं तो बच्चों के बाल-अपराधी बनने की सम्भावना अधिक होती है।

7. अशान्त परिवार – यदि परिवार में एकता का अभाव है और लड़ाई-झगड़ों से मानसिक तनाव रहता है, तो वह असुरक्षा व अस्थायित्व की स्थिति बच्चों पर बुरा प्रभाव डालती है और उन्हें बाल-अपराधी बनने में सहायता देती है।

(ब) बाल-अपराध के व्यक्तिगत कारण
पारिवारिक कारणों के साथ-साथ बाल-अपराध के लिए कुछ व्यक्तिगत या शारीस्कि कारण भी उत्तरदायी हैं। इनका सम्बन्ध व्यक्ति के व्यक्तित्व से है। लॉम्बोसो, बर्ट, दुहन आदि विद्वानों ने बाल-अपराध में व्यक्तिगत व शारीरिक कारणों को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना है। कुछ प्रमुख व्यक्तिगत व शारीरिक कारण निम्नलिखित हैं

1. शारीरिक असामान्यता – यदि बच्चों का शरीर अस्वस्थ है अथवा इसमें शारीरिक असमानताएँ पायी जाती हैं तो ऐसे बच्चे शारीरिक दृष्टि से स्वयं को दुर्बल अनुभव करते हैं, स्कूल को कार्य ठीक नहीं कर पाते और हीनता की भावना का शिकार होकर बाल-अपराधी बन जाते हैं।

2. शारीरिक दोष – शारीरिक दोष एवं विकृति बच्चों में हीनता की भावना भर देती है और वे अपनी असफलताओं की पूर्ति के लिए अपराध की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं। लँगड़े, लूले, हकलाने वाले तथा ऐसे ही अन्य शारीरिक दोषों वाले बच्चों में हीनता की भावना ऐसी प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न कर सकती हैं, जो बाल-अपराध के लिए उत्तरदायी हैं।

3. लम्बी बीमारी – अध्ययनों से पता चला है कि लम्बी बीमारी भी बाल-अपराध का एक कारण है। लम्बी बीमारी के कारण बच्चों का स्वास्थ्य सामान्य नहीं रहता, वे अधिक चिड़चिड़े हो जाते हैं और कई बार बाल-अपराधी बन जाते हैं।

4. अपूर्ण इच्छाएँ – जब बच्चों की मौलिक आवश्यकताएँ पूरी नहीं होतीं तो उनमें असन्तुलने , की स्थिति आ जाती है और वे भावात्मक अस्थिरता की स्थिति में अनैतिक कार्यों की ओर अग्रसर हो जाते हैं। जब वे अनैतिक व गैर-सामाजिक ढंग से अपनी इच्छाएँ पूरी करते हैं तो बाल-अपराधी बन जाते हैं।

(स) बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारण
मनोवैज्ञानिक कारण व्यक्तिगत कारणों से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। यदि बच्चे का विकास मानसिक रूप से दोषपूर्ण हुआ है तो वह असुरक्षित महसूस करता है और हीन भावना से ग्रसित होकर बाल-अपराधी बन जाता है। बाल-अपराध के प्रमुख मनोवैज्ञानिक कारण निम्नलिखित हैं

1. मानसिक दुर्बलता – गोडार्ड ने मानसिक दुर्बलता को बाल-अपराध का कारण माना है। यह मानसिक दुर्बलता जन्मजात भी हो सकती है अथवा किसी मानसिक आघात का परिणाम भी हो सकती है। मानसिक रूप से दुर्बल बच्चे ठीक प्रकार से सोच-विचार नहीं कर सकते, शिक्षा को ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं और सरलता से बाल-अपराधी बन जाते हैं।

2. संवेगात्मक अस्थिरता – संवेगात्मक अस्थिरता मानसिक संघर्ष का परिणाम है तथा इसे भी – बाल-अपराध का एक मुख्य कारण माना गया है। हीले तथा बूनर ने 105 बाल-अपराधियों में से 15 बाल-अपराधियों में मानसिक अस्थिरता को अपने अध्ययन में प्रमुख रूप से उत्तरदायी बताया है।

3. मन्द बुद्धि वाले बच्चे – यदि बच्चा अपनी आयु के अन्य बच्चों की तुलना में मन्द बुद्धि वाला है तो उसमें हीनता की भावना पैदा हो जाती है। इस हीन भावना के कारण जीवन से निराश होकर वह बाल-अपराधी बन जाता है।

4. अतिवृद्ध बालक – अनेक बच्चे अपनी आयु के सामान्य बच्चों की तुलना में अतिवृद्ध (Over-grown) होते हैं तथा अपनी आयु से बड़े लोगों की संगति में रहते हैं। कई बार बुरी सँगति से वे बाल-अपराधी बन जाते हैं।

(द) बाल-अपराध के सामुदायिक (सामाज़िक) कारण’
सामुदायिक परिस्थितियाँ भी बच्चों के दोषपूर्ण व्यवहार के लिए उत्तरदायी हैं। कुछ प्रमुख सामुदायिक कारण निम्नलिखित हैं

1. बुरा पड़ोस – परिवार के साथ-साथ बच्चे के समाजीकरण पर पड़ोस का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। यदि पझेस अच्छा नहीं है अर्थात् भीड़ वाला या गन्दी बस्तियों का वातावरण है तो इसका प्रभाव बच्चों पर बुरा पड़ता है और ये भी असामाजिक कार्य करने लगते हैं। पड़ोस बालक को अपराध के लिए प्रेरणा देने में प्रमुख भूमिका निभाता है।

2. स्वस्थ मनोरंजन की कॅमी –  बच्चों के लिए खेल मनोरंजन का महत्त्वपूर्ण साधन है। यदि मनोरंजन के साधनं बच्चों को उपलब्ध नहीं हैं तो वह इस समय का दुरुपयोग करके कुसंगति में पड़ सकता है। गन्दी बस्तियों में खेल-कूद तथा स्वस्थ मनोरंजन के साधनों के अभाव के | कारण ही उनमें बाल-अपराध अधिक पनपते हैं।

3. स्कूल का दूषित वातावरण – यदि स्कूल का वातावरण दूषित है तो बच्चे कक्षाओं में अधिक देर तक नहीं रुक पाते, पढ़ने में उनकी रुचि कम हो जाती है और वे स्कूल से बाहर इधर-उधर बैठकर आवारागर्दी करते रहते हैं। पढ़ाई से पिछड़ जाने के कारण भी बच्चे बाल अपराधी बन जाते हैं।

4. गन्दा व आपत्तिजनक साहित्य – गन्दा व आपत्तिजनक साहित्य भी बच्चों को बिगाड़ने में सहायक होता है। अश्लील व यौन-इच्छा भड़काने वाला साहित्य अथवा अपराध की कथाओं वाले साहित्य का बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और वे बाल-अपराधी बन जाते हैं।

5. युद्ध – युद्ध के समय सामाजिक विघटन की परिस्थिति पैदा हो जाती है, जिसके कारण बाल-अपराधों की संख्या भी बढ़ जाती है। युद्धकाल में परिवर्तित परिस्थितियों व कठोर नियन्त्रण से अनेक बच्चे अपनी रुचियों व आदतों का समायोजन नहीं कर पाते जिसके कारण वे बाल-अपराधी बन जाते हैं।

6. नगरीकरण एवं औद्योगीकरण – नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण भी समाज में अनेक समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। दोनों प्रक्रियाएँ अपराध और बाल-अपराध को प्रोत्साहन देती हैं। नगरों और औद्योगिक केन्द्रों में इसलिए बाल-अपराधियों की संख्या अधिक पायी जाती है।
बाल-अपराध के उपर्युक्त कारण अधिकतर नगरों में पाये जाते हैं। ग्रामीण वातावरण में ये कारण अधिक क्रियाशील नहीं होते हैं। इसलिए बाल-अपराधों की मात्रा ग्रामों की अपेक्षा नगरों में अधिक होती है। यह कथन भारत के लिए ही नहीं, अपितु अनेक अन्य देशों के लिए भी सही है।

प्रश्न 2
बाल-अपराध रोकने के आवश्यक उपाय बताइए। [2009]
या
अपराध व बाल-अपराध में अन्तर बताइए। [2007, 08, 09, 10, 12, 13, 14, 15, 16]
या
बाल-अपराधियों को सुधारने के लिए किये गये उपायों को आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। [2011]
या
भारत में बाल-अपराध निरोध के सन्दर्भ में बने सामाजिक विधानों का उल्लेख कीजिए।
या
भारत में बाल-अपराध के उपचार में हो रहे गैर-सरकारी प्रयत्नों पर प्रकाश डालिए।
या
भारत में बाल-अपराध को रोकने हेतु किये गये उपायों को स्पष्ट करें। [2011, 12]
उत्तर:
बालक राष्ट्र का भविष्य होते हैं। राष्ट्र की प्रगति और विकास की दिशा बच्चों पर ही निर्भर करती है। बच्चों को अपराध करने से रोककर राष्ट्र का भविष्य सुधारा जा सकता है। बालअपराध रूपी विषवृक्ष को तभी समूल नष्ट कर देना चाहिए जब यह अंकुरित हो। बाल-अपराध हमारी गम्भीर सामाजिक समस्या है, जिसका निश्चित समाधान खोजना नितान्त आवश्यक है। बालअपराध का उपचार करने के लिए ऐसे उपाये काम में लाने चाहिए जिससे बाल-अपराध पर प्रभावी रोक लग सके तथा बाल-अपराधी भविष्य में समाज की मुख्य धारा से जुड़कर उसके उपयोगी अंग बन सकें। बाल-अपराध का उपचार निम्नलिखित रूप में किया जाना चाहिए

(क) बाल-अपराध उपचार के सरकारी प्रयास
सरकार ने बाल-अपराध की रोकथाम के लिए अनेक पग उठाये हैं। इनमें से कुछ प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं

1. बाल अधिनियम, 1960 – भारतीय संसद द्वारा पारित इस अधिनियम में उपेक्षित बालकों व बाल-अपराधियों की सुरक्षा, कल्याण, प्रशिक्षण, शिक्षा के पुनर्वास इत्यादि उपलब्ध कराने की सुविधाओं पर बल दिया गया है। इसमें बालकों की आयु लड़के के लिए 16 वर्ष तथा लड़की के लिए 18 वर्ष निर्धारित की गयी है। बाल-न्यायालयों की स्थापना इसी अधिनियम के अन्तर्गत की गयी है। इस अधिनियम के अन्तर्गत निम्नलिखित सुधार संस्थाओं की स्थापना की गयी है

  1. आवास अवलोकन गृह – पूछताछ के दौरान बच्चों को इन केन्द्रों में रखा जाता है और इनमें शिक्षा इत्यादि की प्रमुख सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं।
  2. बालगृह – बालगृहों में उपेक्षित बच्चों को आवास, शिक्षा, चरित्र-निर्माण एवं नैतिक खतरे से सुरक्षा इत्यादि की प्रमुख सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं।
  3. विशिष्ट स्कूल – इनमें उद्दण्ड बालकों को सुधारने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण दिया जाता है।
  4.  उत्तम-देखभाल संगठन – इन संगठनों का उद्देश्य बालगृहों या विशिष्ट स्कूलों से बाहर आने वाले बच्चों को सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने में सहायता प्रदान करना है।

2. किशोर न्यायालय – ये न्यायालय साधारण अदालतों से अलग हैं तथा इनकी स्थापना भी बाल अधिनियम, 1960 के अन्तर्गत ही की गयी है। इनमें न्यायाधीश प्रायः महिला होती हैं, जो बाल मनोविज्ञान एवं अन्य सामाजिक विज्ञानों के ज्ञान से परिचित होती हैं। पुलिस सादे कपड़ों में आती है। इन न्यायालयों का उद्देश्य अपराध के कारणों का पता लगाना तथा बालअपराधियों का सुधार करना है। अपराधी पाये जाने पर बच्चों को सुधारगृहों में भेज दिया जाता है।

3. प्रोबेशन – यह किशोर न्यायालय का ही महत्त्वपूर्ण अंग है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत अपराधी बालक को प्रोबेशन अधिकारी के संरक्षण में रखा जाता है। प्रोबेशन के समय तक प्रोबेशन अधिकारी उसकी देख-रेख करता है तथा उसके बारे में आवश्यक जानकारी प्राप्त करता है। यदि प्रोबेशन काल के मध्य उसका ठीक आचरण रहता है, तो न्यायालय की सलाह पर बच्चे को छोड़ दिया जाता है।

4. बोस्टेल स्कूल – यह बाल-अपराधियों के सुधार से सम्बन्धित प्रमुख संस्था है। इंग्लैण्ड में बोर्टल नामक स्थान पर ब्राइस नामक विद्वान् ने 1902 ई० में एक गैर-सरकारी जेलखाना खोला। भारत में सर्वप्रथम तमिलनाडु में 1962 ई० में बोर्टल स्कूल की स्थापना की गयी और बाद में बंगाल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश व कर्नाटक में भी एक-एक बोटंल स्कूल खोला गया। उत्तर प्रदेश में बरेली में बाल-बन्दीगृह की स्थापना की गयी। 15 से 21 वर्ष के किशोर अपराधियों को इसमें व्यावसायिक व औद्योगिक प्रशिक्षण दिया जाता है तथा बाल-अपराधियों को सुधारने का प्रयास किया जाता है।

5. रिफॉर्मेट्री स्कूल – सन् 1987 में बड़े-बड़े राज्यों तथा केन्द्र-शासित प्रदेशों में इन सुधार स्कूलों की स्थापना की गयी, जिनमें बाल-अपराधियों की उचित देख-रेख की जाती है तथा औद्योगिक प्रशिक्षण देकर उन्हें सुधारने का प्रयास किया जाता है।

6. बाल-बन्दीगृह – इनकी स्थापना सुधारगृहों के सिद्धान्तों के अनुरूप की गयी है। इन्हें किशोर सदन भी कहा जाता है। सर्वप्रथम बाल-बन्दीगृहों की स्थापना बिहार, ओडिशा और उत्तर प्रदेश में की गयी। उत्तर प्रदेश में 19 वर्ष से कम आयु के बाल-अपराधियों को इन बन्दीगृहों में रखा जाता है। सन्तोषजनक व्यवहार न करने पर उन्हें केन्द्रीय कारागार में भी भेजा जा सकता है।

7. बाल सलाह केन्द्र तथा बाल-क्लब – बाल सलाह केन्द्रों में मनोवैज्ञानिक रूप से बाल अपराध के कारण जानने का प्रयास किया जाता है। अनेक राज्यों में बाल-क्लबों की भी स्थापना की गयी है।

8. भारतीय किशोर न्याय अधिनियम, 1986 – सन् 1986 में पारित इस अधिनियम में बाल-न्यायालयों तथा किशोर कल्याण बोर्ड की स्थापना पर बल दिया गया है। 2 अक्टूबर, 1987 से यह अधिनियम पूरे देश में लागू है। उत्तर प्रदेश में इस अधिनियम के अन्तर्गत प्रदेश सरकार ने 27 विशेष बाल-न्यायालयों को तोड़कर सभी मण्डल मुख्यालयों पर बालन्यायालयों का गठन किया है। साथ ही 52 जिलों में किशोर कल्याण बोर्डों की स्थापना की | गयी है।

(ख) बाल-अपराध उपचार के गैर-सरकारी सुझाव
गैर-सरकारी क्षेत्र में बाल-अपराध उपचार के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं

1. उचित पारिवारिक वातावरण – परिवार को टूटने से बचाने के लिए उपाय किये जाने चाहिए, जिससे बच्चों को परिवार में सही अनुशासन, स्नेह व सुरक्षा मिल सके। इसके लिए परिवार कल्याण केन्द्रों की स्थापना की जानी चाहिए। माता-पिता को बच्चों की इच्छाओं को ध्यान रखना चाहिए और उनकी रुचि सत्संग की ओर लगानी चाहिए।

2. स्कूल – परिवार के बाद बच्चों के आचरण पर स्कूल का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। बच्चों को इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए कि उनमें अनुशासन तथा नैतिक विकास की वृद्धि हो। उनके चतुर्मुखी विकास को सामने रखकर पाठ्यक्रमों में सुधार किया जाना चाहिए। विद्यालय का वातावरण ठीक होना चाहिए और शिक्षकों का शिष्यों के प्रति सन्तुलित व अच्छा व्यवहार होना चाहिए।

3. स्वस्थ मनोरंजन – बाल-अपराध को रोकने के लिए मनोरंजन के साधन बच्चों के लिए उपलब्ध करना आवश्यक है। गन्दी बस्तियों में इनका विशेष अभाव होता है; अतः इनमें सुधार करके सामुदायिक केन्द्र स्थापित किये जाने चाहिए। यदि खाली समय का सदुपयोग किया जाए तो बाल-अपराध की रोकथाम सम्भव है।

4. बाल पुलिस विभाग – सामान्य पुलिस विभाग बाल-अपराध में सहायक नहीं है। अत: किशोर न्यायालयों की सहायता के लिए बाल पुलिस विभाग का गठन किया जाना चाहिए, जो कि उन्हें सुधारने में सहायता दे सके।

5. अश्लील साहित्य पर रोक – अश्लील साहित्य पर कठोरता से प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए, जिससे इसका प्रकाशन व वितरण न हो सके। अपराधी घटनाओं का विवरण देने में भी सतर्कता रखी जानी चाहिए। अपराधियों व डाकुओं इत्यादि को हीरो के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए। उनके कारनामे पढ़कर छात्र एवं बालक अपराध में लिप्त हो जाते हैं।

बाल-अपराध तथा अपराध में अन्तर
बाल-अपराध और अपराध के अन्तरों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

क्र०सं० बाल-अपराध अपराध
1. बाल-अपराधं कानून द्वारा निर्धारित 18 वर्ष से कम आयु में किया जाने वाला अपराध हैं। अपराध वयस्क व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला अपराध है। बाल-अपराधी की अपराध है। निर्धारित आयु से अधिक आयु वाले व्यक्ति द्वारा किया गया कानून का उल्लंघन अपराध कहा जाता है।
2. बाल-अपराध में कुछ ऐसे व्यवहार भी सम्मिलित हैं जो वास्तव में अपराध की श्रेणी में नहीं आते; जैसे-स्कूल से भागना, घर से बिना बताये गायब हो जाना, निरुद्देश्य रात्रि को घूमते रहना इत्यादि। अपराध में केवल उन्हीं कार्यों को सम्मिलित किया जाता है, जो कि निश्चित रूप से गैर-कानूनी माने जाते हैं।
3. बाल-अपराध सामान्यतः कम गम्भीर होते है। अपराध कम गम्भीर से लेकर अत्यधिक गम्भीर हो सकते हैं।
4. बाल-अपराधी अधिकांशतः संवेगता के कारण अपराध करते हैं। अधिकतर अपराधी जान-बूझकर अपराध कारण अपराध करते हैं।
 5. बाल-अपराधी का अपराध करते समय अनिवार्य रूप से आर्थिक लक्ष्य नहीं होता है। अपराधी मुख्यत: आर्थिक लाभ के लिए या अन्य किसी लाभ के लिए अपराध करता है।
6. बाल-अपराधी बनने में मनोवैज्ञानिक व पारिवारिक कारणों को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अपराधी अधिकतर अपनी इच्छा से अपराधी बनते हैं।
7. बाल-अपराध के लिए विशिष्ट न्यायालयों की स्थापना होती है। न्यायालयों अपराधी के मामले सामान्य न्यायालय ही सुनते हैं।
8. बाल-अपराधी को कठोर दण्ड से बचाने का प्रयास किया जाता है। अपराधी को दण्ड दिलवाने में किसी प्रकार की ढिलाई नहीं बरती जाती है।
9. बाल-अपराधी संस्कृति का महत्त्वपूर्ण तत्त्व बाल-अपराध का अनुपयोगी होना है, क्योंकि बाल-अपराधी किसी आवश्यकता के लिए अपराध नहीं करता, वरन् अधिकांशतः बिना किसी उपयोगी दृष्टिकोण के ही अपराध करता है। अपराधी संस्कृति में इस प्रकार के तत्त्वों का अभाव होता है।
10. बाल-अपराध में सामान्यतः योजना व संगठित संगठन का अभाव पाया जाता है। अधिकतर अपराध योजनाबद्ध व होते हैं। अपराध गिरोह बनाकर किये जाते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
“बाल-अपराध मुख्य रूप से एक नगरीय समस्या है। इसकी विवेचना कीजिए।
उत्तर:
बाल-अपराध : एक नगरीय समस्या–बाल-अपराध सम्बन्धी उपलब्ध आँकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि गाँवों की तुलना में बाल-अपराध नगरों में अधिक होते हैं। नगरीय क्षेत्रों में भी बड़े-बड़े शहरों; जैसे-दिल्ली, चेन्नई, मुम्बई, कोलकाता, चण्डीगढ़, कानपुर आदि; में बाल-अपराध अधिक होते हैं।

नगरों में बाल-अपराध होने के अनेक कारण हैं; जैसे-वहाँ जब माता-पिता दोनों ही काम पर चले जाते हैं तो घर में बच्चों पर नियन्त्रण रखने वाला कोई नहीं होता, अतः वे आवारागर्दी करने लगते हैं। नगरों में वेश्यावृत्ति में सहायता पहुँचाने, भीख माँगने आदि का कार्य भी बच्चों से कराया जाता है। यह कार्य संगठित लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर कराया जाता है, जो नगरीय क्षेत्रों में ही केन्द्रित है। नगरों की भीड़-भाड़युक्त वातावरण, गन्दी बस्तियाँ, अश्लील एवं अपराधी चलचित्र, अति सम्पन्नता के प्रति आक्रोश, बेकारी, नितान्त गरीबी आदि बाल-अपराध को प्रोत्साहित करते हैं।

बाल-अपराधी स्वयं भी यौन सम्बन्धी अपराधों में लिप्त पाये गये हैं, जिनमें लड़कियों की संख्या अधिक है। 86.2 प्रतिशत लड़कियों ने यौन-अपराध किये हैं। यौन-अपराध के लिए नगर ही सुगम तथा सुलभ अवसर प्रदान करते हैं, जहाँ जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है तथा सम्पन्नता भी अधिक होती है।

बाल-अपराधों में धार्मिक प्रकृति के अपराध; जैसे-चोरी, सेंधमारी, जेब कतरना आदि होते हैं। इन अपराधों के लिए ग्रामीण इलाकों में अवसर प्राप्त नहीं होते हैं जब कि नगरों की भीड़-भाड़, व्यस्त जीवन तथा पड़ोसियों की एक-दूसरे के प्रति उदासीनता आदि इन अपराधों के लिए खुले अवसर प्रदान करते हैं।

बाल-अपराधी स्वयं अपराध कम करते हैं। वे किसी संगठित अपराधी गिरोह के साथ मिलकर ही अपराध करते हैं। ये गिरोह उन्हें प्रशिक्षण देते हैं एवं संरक्षण प्रदान करते हैं। नगरीय क्षेत्र इन गतिविधियों के लिए उपयुक्त स्थान है।
निष्कर्षतया कहा जा सकता है कि बाल-अपराध मुख्य रूप से एक नगरीय समस्या है।

प्रश्न 2
भारत में किशोर अपराध की समस्या पर एक लेख लिखिए। [2009, 12]
उत्तर:
भारत में किशोर अपराध (Juvenile Delinquency in India) – भारत में बालअपराध की समस्या गम्भीर है। बढ़ती हुई जनसंख्या, नगरीकरण तथा औद्योगीकरण के कारण बाल-अपराध निरन्तर बढ़ रहे हैं। वर्ष 1988 के सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 24,827 स्थानीय व 25,468 विशेष नियमों के उल्लंघन के दोषी बाल-अपराधी थे। भारत में बाल-अपराध कुल अपराधों को 2% है। भारत में बाल-अपराध की समस्या गाँवों की अपेक्षा नगरों में अधिक है। युवतियों की अपेक्षा युवक बाल-अपराधी अधिक हैं। निम्न जातियों के बच्चों में बाल-अपराध की दर अधिक पायी जाती है।

भारत के महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, आन्ध्र प्रदेश आदि राज्यों में बाल-अपराध की समस्या विकट बनी हुई है। इन राज्यों में भारत के कुल 68% बाल-अपराधी पाये जाते हैं। भारत में बाल-अपराधी व्यक्तिगत स्तर पर कानूनों का उल्लंघन कम करते हैं, इस कार्य में उन्हें पूरे समूह अथवा परिवार का सहयोग मिलता है। भारत में बाल-अपराधी सम्पत्ति के विरुद्ध अपराधों में संलिप्त पाये गये हैं। भारत में 50% बाल-अपराधी अनुसूचित जातियों या जनजातियों के होते हैं, क्योंकि इन जातियों में 1951 ई० में बाल अधिनियम पारित किया गया, जिसे 1956 ई० में लागू किया गया। बाद में देश के अन्य राज्यों में भी इसे लागू किया गया। भारत में बाल-अपराध की रोकथाम के लिए किशोर जेल, सुधारवादी सेवाएँ, अवलोकन-गृह, परिवीक्षा-गृह तथा एप्रूव्ड स्कूल आदि व्यवस्थाएँ लागू की गयी हैं।।

प्रश्न 3
‘पक्षपात’ और ‘दोषपूर्ण अनुशासन बाल-अपराध के दो मुख्य पारिवारिक कारण हैं। समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
पक्षपात-परिवार में पक्षपातपूर्ण व्यवहार होने पर भी बच्चों में निराशा और घृणा की भावना जन्म लेती है। यदि परिवार में किसी बच्चे को विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं और अन्य बच्चों के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है तो ईर्ष्या एवं द्वेष का वातावरण बनता है। अधिक मार और डॉट खाने वाला बच्चा परिवार के वयोवृद्ध लोगों का सम्मान करना बन्द कर देता है और उन लोगों की इच्छा के विपरीत कार्य करने लगता है। इस प्रकार भेदभावपूर्ण व्यवहार बच्चे में अपराधी मनोवृत्ति को जन्म देता है।

दोषपूर्ण अनुशासन-परिवार में बच्चों पर अधिक नियन्त्रण होने पर वे कठोरता से बचने के लिए भागना चाहते हैं और ज्यों ही उन्हें अवसर मिलता है वे उन कार्यों को करने लगते हैं, जिनके लिए उन्हें मना किया जाता है। कठोर नियन्त्रण से व्यक्तित्व का स्वाभाविक विकास भी रुक जाता है। वह अपनी दबी इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी अपराध करता है। इसके विपरीत, बच्चों को अत्यधिक ढील देने एवं अंकुश न रखने पर भी उनमें स्वच्छन्दता की प्रवृत्ति पैदा होती है।

प्रश्न 4
बाल-अपराध निर्धारण करने में आयु की महत्ता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
बाल-अपराध का निर्धारण करने में आयु भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। भिन्न-भिन्न देशों में बाल-अपराधियों के लिए अलग-अलग आयु निर्धारित की गयी है। अधिकांश देशों में तथा भारत में भी भारतीय दण्ड संहिता’ (Indian Penal Code) के अनुसार 7 वर्ष से कम की आयु के बालक द्वारा किया गया कानून व समाज-विरोधी कार्य अपराध नहीं माना जाता है, क्योंकि इस समय तक बालक में अच्छे-बुरे के भेद की समझ नहीं होती है। भारत में 1960 व 1986 ई० में बाल-अधिनियम बने। इन अधिनियमों में 16 वर्ष से कम की आयु के लड़के एवं 18 वर्ष से कम की आयु की लड़की को बालक माना गया है। इस आधार पर भारत में 7 वर्ष से अधिक एवं 16 वर्ष से कम उम्र के लड़के एवं 7 वर्ष से अधिक एवं 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की द्वारा किये गये कानून-विरोधी कार्य बाल-अपराध की श्रेणी में आते हैं। इसके बाद 21 वर्ष की आयु तक के अपराधियों को ‘किशोर अपराधी’ एवं इससे अधिक आयु के अपराधियों को अपराधी’ कहा जाता है।

प्रश्न 5
बाल-न्यायालय पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
बाल-न्यायालयों में बाल-अपराधियों की सुनवाई अनौपचारिक विधि से की जाती है। इनमें उनके प्रति बदले की भावना नहीं पायी जाती है। इनके द्वारा बच्चे को संरक्षण एवं पुनर्वास की सुविधा प्रदान की जाती है। बाल-न्यायालय में प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट, एक या दो ऑनरेरी लेडी मजिस्ट्रेट, अपराधी बालक, उसके माता-पिता एवं संरक्षक, प्रोबेशन अधिकारी, साधारण पोशाक में पुलिस, कोर्ट का क्लर्क और कभी-कभी वकील उपस्थित रहते हैं। इनकी बैठक रिमाण्ड होम में साधारण तरीके से टेबल-कुर्सी लगाकर की जाती है, जिससे बच्चे को यह महसूस न हो कि वह अपराधी है।

सुनवाई करने वालों और बच्चों के बीच अनौपचारिक बातचीत होती है। बाल-न्यायालय का सारा वातावरण इस प्रकार का होता है कि बच्चे के मस्तिष्क से कोर्ट का आतंक और भय दूर हो जाए। इनन्यायालयों की कार्यवाही को अखबार में नहीं छापा जा सकता तथा साथ ही गोपनीयता भी बरती जाती है। सुनवाई के बाद अपराधी बालकों को चेतावनी देकर, जुर्माना करके या मातापिता से बॉण्ड भरवाकर उन्हें सौंप दिया जाता है, अथवा उन्हें परिवीक्षा पर छोड़ दिया जाता है या किसी सुधार संस्था, मान्यताप्राप्त विद्यालय, परिवीक्षा हॉस्टल आदि में रख दिया जाता है। भारत में महाराष्ट्र, गुजरात, पश्चिमी बंगाल, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान तथा दिल्ली :आदि राज्यों में बाल-न्यायालय हैं।

प्रश्न 6
बोस्टेल स्कूल पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
बोर्टल स्कूल एक ऐसी संस्था है जहाँ किशोर अपराधी को, जिसकी आयु 16 से 21 वर्ष हो, रखा जाता है। उन्हें यहाँ प्रशिक्षण एवं निर्देशन दिये जाते हैं तथा अनुशासन में रखकर उनका सुधार किया जाता है। इस संस्था में उन्हीं अपराधियों को प्रवेश दिया जाता है जिनकी सिफारिश अदालत यो जेल महानिरीक्षक करता है। यहाँ अपराधी को मुक्त वातावरण में रखा जाता है। उसमें शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं चारित्रिक क्षमताओं के साथ-साथ उत्तरदायित्व एवं आत्म-नियन्त्रण की भावना का विकास किया जाता है। उसके लिए जिमनास्टिक, उद्योग-धन्धों के प्रशिक्षण एवं शिक्षा का प्रबन्ध किया जाता है। उसे पत्र लिखने, रिश्तेदारों से मिलने, मनपसन्द प्रशिक्षण पाने, बिना निगरानी के बाहर घूमने, वर्कशॉप व मनोरंजन कक्ष तथा भोजनशाला में काम करने, खेल-कूद प्रतियोगिता में भाग लेने आदि की भी छूट होती है।

प्रश्न 7
‘रिफॉर्मेट्री स्कूल पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
रिफॉर्मेट्री स्कूलों में 16 वर्ष से कम आयु के ऐसे बच्चों को रखा जाता है, जो पहले सजा काट चुके हैं या जिन्होंने गम्भीर अपराध नहीं किये हैं। इस प्रकार के विद्यालयों का उद्देश्य अपराधी बालक का सुधार और पुनर्वास करना है। इन स्कूलों में अपराधियों को शिक्षा एवं साथ ही विभिन्न व्यवसायों का प्रशिक्षण दिया जाता है। उनके द्वारा निर्मित वस्तुओं को बाजार में बेचकर लाभ को उनके कोष में जमा किया जाता है। इन विद्यालयों में रेडक्रॉस, स्काउटिंग, कृषि, चमड़े का काम, खिलौना, दरी, निवाड़, रस्सी बनाने, बढ़ईगीरी, सिलाई आदि का काम सिखाया जाता है। जिनका काम अच्छा होता है उन्हें वर्ष में 15 दिन तक घर जाने की छुट्टी भी दी जाती है। जबलपुर, हजारीबाग, लखनऊ, बरेली आदि में इस प्रकार के विद्यालय हैं। उत्तर प्रदेश बाल-अधिनियम, 1951 ई० के अधीन उत्तर प्रदेश में कुछ जिलों में एक-एक सुधार अधिकारी को नियुक्त किया गया है, जो बाल-अपराधियों की गोपनीय रिपोर्ट तैयार कर उन्हें सुधारने का प्रयत्न करते हैं।

प्रश्न 8
बाल-अपराध के चार कारण लिखिए। [2010, 13, 15, 16]
या
बाल-अपराध के दो कारण लिखिए। [2007, 17]
उत्तर:
बाल-अपराध के चार कारण निम्नलिखित हैं

1. पारिवारिक कारण – जब परिवार बच्चे को सामाजिक व मानसिक सुरक्षा प्रदान करने में असफल हो जाता है और बच्चा स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगता है, तो वह बाल अपराधी बन जाता है।

2. मनोवैज्ञानिक कारण – यदि बच्चे का विकास मानसिक रूप से दोषपूर्ण हुआ है तो वह स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है और हीन भावना से ग्रसित होकर बाल-अपराधी बन जाता है।

3. अत्यधिक निर्धनता – अत्यधिक निर्धनता के कारण बच्चे को समुचित शिक्षा और मनोरंजन की सुविधाएँ प्राप्त नहीं हो पातीं। सम्पन्न परिवार के बच्चों को देखकर उसमें हीनता; ग्लानि, ईर्ष्या और उद्दण्डता की भावनाएँ साथ-साथ विकसित होने लगती हैं और जब ये भावनाएँ अत्यधिक बलवती हो जाती हैं, तो वह बाल-अपराधी बन जाता है।

4. उद्देश्यहीन शिक्षा व दोषपूर्ण सीख – उद्देश्यहीन शिक्षा के कारण बच्चे अपने आरम्भिक जीवन से ही सुस्त, अनुशासनहीन और उद्दण्ड बनने लगते हैं। शिक्षकों का दुर्व्यवहार उनमें अपराधी मनोवृत्तियाँ उत्पन्न करने लगता है। बच्चे को परिवार या स्कूल में मिलने वाली : दोषपूर्ण सीख के कारण भी उसमें छोटी-छोटी चोरी करने, साथियों को धोखा देने और अकारण मार-पीट करने की आदत पड़ने लगती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
टूटे परिवार बाल-अपराध के लिए कैसे उत्तरदायी होते हैं ?
उत्तर:
परिवार दो प्रकार से टूट सकते हैं
(1) भौतिक रूप से तथा (2) मानसिक रूप से। भौतिक रूप से परिवार के टूटने का अर्थ है – परिवार के सदस्य की मृत्यु हो जाना, लम्बे समय तक अस्पताल, जेल, सेना आदि में रहने अथवा तलाक और पृथक्करण के कारण सदस्यों का परिवार के साथ न रहना। मानसिक रूप से परिवार के टूटने का अर्थ है – सदस्य एक साथ तो रहते हैं, किन्तु उनमें मनमुटाव, मानसिक संघर्ष एवं तनाव पाया जाता है। इन दोनों ही स्थितियों में बच्चों पर परिवार का नियन्त्रण शिथिल हो जाने एवं बच्चों को माता-पिता का प्यार व स्नेह न मिलने के कारण वे अपराध करने लगते हैं।

प्रश्न 2
बाल-अपराधी की ‘मानसिक अयोग्यता उसके अपराधीकरण के लिए कैसे उत्तरदायी
उत्तर:
ऐसा माना जाता है कि बाल-अपराधी मानसिक रूप से पिछड़े होते हैं। डॉ० गोडार्ड ने बताया है कि कमजोर मस्तिष्क अपराध के लिए उत्तरदायी है। हीली और बूनर ने शिकागो के अध्ययन में 63% बाल-अपराधियों को ही स्वस्थ मस्तिष्क का पाया, शेष 37% मानसिक कमजोरी एवं बीमारी आदि से ग्रसित थे। कुमारी इलियट के अध्ययन में 41.5% लड़कियाँ मानसिक रूप से पिछड़ी हुई थीं। कमजोर बुद्धि के बालक अच्छे-बुरे में भेद नहीं कर पाते और वे कुसंगति के कारण अपराध कर बैठते हैं।

प्रश्न 3
क्या ‘बुरे संगी-साथी बाल-अपराध का एक कारण हैं ?
उत्तर:
एक बच्चे को अपराधी बनाने में उसके साथियों का भी पर्याप्त हाथ होता है। एक बच्चा अपराध करने के बाद अपनी साहस भरी कहानी दूसरे बच्चों को सुनाता है तो उनके लिए भी यह प्रेरणा एवं उत्तेजना की बात होती है। अपराधी साथियों के सम्पर्क से ही एक बच्चा धूम्रपान, शराबवृत्ति, चोरी, जुआ आदि सीखता है।

प्रश्न 4
बाल-अपराध को बढ़ाने में गरीबी की क्या भूमिका है ?
उत्तर:
कई अध्ययन इस बात को प्रकट करते हैं कि गरीबी ने बच्चों को अपराधी बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। जोन्स के शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि ज्यों-ज्यों आर्थिक स्तर निम्न होगा, त्यों-त्यों बाल-अपराध की दर ऊँची होगी।” गरीबी में परिवार अपनी मूलभूत आवश्यकताएँ, चिकित्सा एवं मनोरंजन की सुविधाएँ नहीं जुटा पाता। ऐसी स्थिति में माता एवं पिता दोनों ही नौकरी करने लगते हैं। माता-पिता के घर से बाहर रहने की अवधि में बच्चे आवारागर्दी करते हैं। न्यूमेयर लिखते हैं, “जब पिता रात में काम करता है और माता दिन में अथवा दोनों रात या दिन में काम करते हैं तो बच्चे प्रायः गलियों में ही आवारागर्दी करते हुए मिलते हैं। बच्चों की आवश्यकताएँ जब परिवार में पूरी नहीं होती हैं तो वे बाहर चोरी करते हैं।

प्रश्न 5
बाल-अपराध के चार उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
एक निश्चित आयु से कम के बच्चों द्वारा किये जाने वाले कोई भी वे कार्य बालअपराध के अन्तर्गत आते हैं, जो समाज विरोधी होते हैं अथवा जिनसे समूह-कल्याण को हानि पहुँचती है। बाल-अपराध के चार उदाहरण हैं

  1. जेब काटना
  2.  किसी पर साधारण आघात करना,
  3. जुआ खेलना तथा
  4.  चोरी करना।।

प्रश्न 6
भारत में बाल-अपराध के निर्धारण से सम्बन्धित कोई दो मौलिक आधार बताइए।
उत्तर:
भारत में बाल-अपराध के निर्धारण से सम्बन्धित दो मौलिक आधार निम्नवत् हैं

  1. भारत में 7 से 16 वर्ष की आयु तक के अपराधियों को बाल-अपराधी कहा जाता है। इन अपराधियों के लिए एक पृथक् न्याय प्रक्रिया अपनायी जाती है।
  2. बाल-अपराध का तात्पर्य केवल साधारण अपराधी से होता है। यदि 7 वर्ष से 16 वर्ष की आयु तक का कोई बच्चा हत्या, राजद्रोह अथवा अत्यधिक जघन्य अपराध का दोषी हो, तो इस अपराध को बाल-अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाता।

प्रश्न 7
रिमाण्ड होम पर लघु टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अपराध करने के पश्चात् जब पुलिस बच्चे को पकड़ लेती है, तो सर्वप्रथम उसे रिमाण्ड होम में रखा जाता है। जेल में रखने से उसका सम्पर्क युवा-अपराधियों से होने पर उसके गम्भीर अपराधी बन जाने की सम्भावना रहती है। जब तक बच्चे की अदालती कार्यवाही चलती है, उसे रिमाण्ड होम में ही रखा जाता है। अनाथ और निराश्रित बच्चे एवं बन्दीगृहों से पृथक् किये गये। अपराधियों को भी ऐसे गृहों में रखा जाता है। यहाँ बच्चों को मनोरंजन, शिक्षा एवं प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। इस समय देश में 160 रिमाण्ड होम कार्य कर रहे हैं।

प्रश्न 8
परिवीक्षा हॉस्टल पर लघु टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
न्यायालय जब किसी बाल-अपराधी को परिवीक्षा पर छोड़ता है और यदि उस बालअपराधी के माता-पिता या संरक्षक नहीं होते हैं तो उसे परिवीक्षा हॉस्टल में रखा जाता है। ऐसे हॉस्टल में रहने वाले व्यक्ति को दिन में नौकरी करने एवं घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता होती है, किन्तु रात्रि को ठीक समय पर वहाँ वापस पहुँचना अनिवार्य होता है। हॉस्टल वार्डन इन लोगों की गतिविधियों की देख-रेख करता है।

प्रश्न 9
बाल-अपराध रोकने के लिए उचित व स्वस्थ पारिवारिक वातावरण की भूमिका बताइए।
उत्तर:
परिवार ही शिशु की प्रथम पाठशाला और लालन-पालन करने वाली नर्सरी होता है और वही उसके समाजीकरण का केन्द्र भी; अत: यह आवश्यक है कि परिवार व्यवस्थित एवं संगठित हो, उनका वातावरण स्वस्थ हो, माता-पिता एवं परिवारजनों को बच्चे के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार हो, ये बच्चे पर उचित नियन्त्रण रखें और उनका समुचित निर्देशन करें। ऐसी स्थिति में ही बच्चे का चरित्र-निर्माण होगा और वह अपराधी कार्यों से दूर रहेगा।

जिवित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
बाल-अपराध के दो प्रमुख कारक कौन-कौन से हैं ? [2011, 17]
उत्तर:
बाल अपराध के दो प्रमुख कारक परिवार एवं समुदाय हैं।

प्रश्न 2
बाल-अपराध की दो विशेषताएँ लिखिए। [2013]
उत्तर:
बाल अपराध दो विशेषताएँ निम्न हैं|

  1. राज्य द्वारा निश्चित आयु से कम आयु का व्यक्ति।
  2.  अनैतिक एवं अशोभनीय व्यवहार।

प्रश्न 3
भारत में किस आयु-सीमा में बालकों को बाल-अपराधियों की श्रेणी में रखा जाता है?
उत्तर:
भारत में 7 से अधिक एवं 16 वर्ष से कम आयु के लड़कों तथा 7 से अधिक एवं 18 वर्ष से कम आयु की लड़कियों को बाल-अपराधियों की श्रेणी में रखा जाता है।

प्रश्न 4
बाल-न्यायालयों की कार्यवाही कैसे गोपनीय रखी जाती है ?
उत्तर:
बाल-न्यायालयों की कार्यवाही को अखबार में नहीं छापा जा सकता तथा साथ ही गोपनीयता बरती जाती है।

प्रश्न 5
16 वर्ष से अधिक, परन्तु 21 वर्ष से कम आयु के अपराधी को क्या कहते हैं ?
या
किशोर अपराधी की अधिकतम आयु क्या है ?
उत्तर:
16 वर्ष से अधिक, परन्तु 21 वर्ष से कम आयु के अपराधी को किशोर अपराधी कहते है।

प्रश्न 6
अपराध करने के पश्चात् पुलिस बच्चे को पकड़कर सर्वप्रथम कहाँ रखती है ?
उत्तर:
अपराध करने के पश्चात् पुलिस बच्चे को पकड़कर सर्वप्रथम रिमाण्ड होम में रखती है।

प्रश्न 7
बोस्टेल स्कूल में किस आयु-सीमा के किशोर अपराधी को रखा जाता है ?
उत्तर:
बोल स्कूल में 16 से 21 वर्ष की आयु सीमा के किशोर अपराधियों को रखा जाता है।

प्रश्न 8
रिफॉर्मेट्री स्कूल में किन बच्चों को रखा जाता है ?
उत्तर:
इन स्कूलों में 16 वर्ष से कम आयु के ऐसे बच्चों को रखा जाता है, जो पहले सजा काट चुके हैं या जिन्होंने गम्भीर अपराध नहीं किये हैं।

प्रश्न 9
पोषण-गृह तथा सहायक-गृह में किन बच्चों को रखा जाता है ?
उत्तर:
पोषण-गृह तथा सहायक-गृह में 10 वर्ष से कम आयु के बच्चों को रखा जाता है, जिनके माता-पिता में विवाह-विच्छेद हो गया हो या जिनकी मृत्यु हो गयी हो।

प्रश्न 10
नगरों की अपेक्षा बाल-अपराध की भीषण समस्या ग्रामीण क्षेत्रों में क्यों कम है ?
उत्तर:
भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को अपनी परम्पराओं से घनिष्ठ लगाव है। इसी कारण वहाँ बाल-अपराध की समस्या भीषण नहीं है, किन्तु नगरों में संयुक्त परिवार में विघटन तथा औद्योगीकरण के कारण बाल-अपराध ने भीषण रूप धारण कर लिया है।

प्रश्न 11
बाल-अपराध रोकने के लिए मनोवैज्ञानिक क्लीनिक खोलने का सुझाव किसने दिया?
उत्तर:
बाल-अपराध रोकने के लिए मनोवैज्ञानिक क्लीनिक खोलने का सुझाव सिरिल बर्ट ने दिया।

प्रश्न 12
उत्तम-संरक्षण संस्था में किन बच्चों को रखा जाता है ?
उत्तर:
जब बच्चा किसी सुधार संस्था में छः मास तक रहता है और उस अवधि में उसका व्यवहार अच्छा होता है तो ऐसे बच्चों को जेल निरीक्षक उत्तम-संरक्षण संस्था में भेज सकता है।

प्रश्न 13
बाल-अपराधी को दण्ड देने की बजाय सुधारालय क्यों भेजा जाता है ?
उत्तर:
बाल-अपराधी का सुधार सरल एवं सम्भव है, क्योंकि बच्चे के अपरिपक्व मस्तिष्क को किसी भी दिशा में मोड़ना आसान है, जब कि अपराधी में सुधार की सम्भावना कम होती है।

प्रश्न 14
रिफॉर्मेट्री स्कूल अधिनियम कब पारित किया गया ? [2007]
उत्तर:
रिफॉर्मेट्री स्कूल अधिनियम 1897 ई० में पारित किया गया।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
निम्नलिखित में से आप किसे बाल-अपराध कहेंगे ?
(क) घर में भाई-बहन को मारना
(ख) माता-पिता की आज्ञा न मानना
(ग) हॉस्टल में साथियों का सामान चुराना
(घ) अपराधियों की संगत में न रहना

प्रश्न 2
बाल-अपराध के लिए कौन-सी परिस्थिति मुख्य रूप से उत्तरदायी है ?
(क) पारिवारिक
(ख) राजनीतिक
(ग) आर्थिक
(घ) व्यक्तिगत

प्रश्न 3
एक पाँच वर्षीय बालक ने अपने चचेरे भाई के पेट में चाकू घोंप दिया है। बालक की यह क्रिया कहलाएगी।
(क) अपराध
(ख) बाल-अपराध
(ग) श्वेतवसन अपराध
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 4
किसी बालक के विद्यालय से भागने की क्रिया को कहा जाता है [2011]
(क) बाल-अपराध
(ख) अनुपस्थिति
(ग) भगेड़पन
(घ) आवारागर्दी

प्रश्न 5
इस (अपने) राज्य में पुरुष बाल-अपराधी की अधिकतम मानक आयु है।
(क) 11 वर्ष
(ख) 16 वर्ष
(ग) 18 वर्ष
(घ) 21 वर्ष

प्रश्न 6
बाल-अपराध से सम्बन्धित नहीं है। [2007, 08, 09]
(क) बोर्टल स्कूल
(ख) सुधार-गृह
(ग) कारागार
(घ) प्रमाणित स्कूल

प्रश्न 7
बाल-अपराधियों के लिए कौन-सा उपयुक्त है ?
(क) किशोर न्यायालय
(ख) प्राणदण्ड
(ग) प्रोबेशन व्यवस्था
(घ) प्राचीरविहीन कारागार

प्रश्न 8
निम्नलिखित में से कौन-सा उपचार बाल-अपराधियों के लिए है ?
(क) तरुण शक्ति सेना
(ख) सुधार विद्यालय
(ग) हरिजन सेवा संघ
(घ) प्राचीरविहीन जेल

प्रश्न 9
निम्नलिखित में से कौन-सा बाल-अपराधियों के लिए नहीं है ?
(क) किशोर सदन, बरेली
(ख) सेवासदन, नासिक
(ग) प्राचीरविहीन जेल
(घ) सुधार विद्यालय

प्रश्न 10
बच्चे अथवा किशोरों के द्वारा किये अपराध के लिए न्यायिक कार्यवाही किस न्यायालय द्वारा की जाती है ?
(क) जिला न्यायालय द्वारा
(ख) किशोर सदन द्वारा
(ग) सुधार-गृह द्वारा
(घ) किशोर न्यायालय द्वारा

प्रश्न 11
बाल-अपराधियों को प्रशिक्षित करके सुधारने का कार्य कहाँ होता है ?
(क) पोषण-गृह में
(ख) सुधार-गृह में
(ग) किशोर सदन में
(घ) रिमाण्ड होम में

प्रश्न 12
भारत में प्रथम बाल न्यायालय की स्थापना हुई [2016]
(क) 1952 में
(ख) 1922 में
(ग) 1953 में
(घ) 1931 में

प्रश्न 13
बाल-अपराध सुधार हेतु कौन-सी संस्था उपयुक्त है? [2016]
(क) आदर्श बन्दी गृह
(ख) प्रतिप्रेषण गृह
(ग) प्राचीन विहीन कारागार
(घ) उद्धार गृह

उत्तर:
1. (ग) हॉस्टल में साथियों का सामान चुराना, 2. (क) पारिवारिक, 3. (घ) इनमें से कोई नहीं, 4. (क) बाल-अपराध, 5. (ख) 16 वर्ष, 6. (ग) कारागार, 7. (क) किशोर न्यायालय, 8. (ख) सुधार विद्यालय, 9. (ग) प्राचीरविहीन जेल, 10. (घ) किशोर न्यायालय द्वारा, 11. (ग) किशोर सदन में, 12. (ख) 1922 में, 13. (घ) उद्धार गृह

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 4 Indian Education during British Period

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 4
Chapter Name Indian Education during British Period (ब्रिटिश काल में भारतीय शिक्षा)
Number of Questions Solved 40
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 4 Indian Education during British Period (ब्रिटिश काल में भारतीय शिक्षा)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
ब्रिटिशकालीन शिक्षा के आरम्भ एवं विकास का सविस्तार वर्णन कीजिए।
या
भारतीय शिक्षा के लिए वुड-डिस्पैच की सिफारिशों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
ब्रिटिशकालीन शिक्षा का आरम्भ व विकास भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रारम्भ ब्रिटिश शासन काल में हुआ था। ईसाई मिशनरियों ने देश में आधुनिक शिक्षा की नींव डाली। उन्होंने शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार और प्रसार रखा था, लेकिन ब्रिटिश काल में मैकाले के घोषणा-पत्र के बाद शिक्षा का व्यवस्थित रूप से विकास किया गया। ब्रिटिशकालीन शिक्षा 1947 ई० तक कायम रही। इसे स्वतन्त्रता से पूर्व शिक्षा का काल भी कहे। सकते हैं।
ब्रिटिशकालीन या आधुनिक भारतीय शिक्षा के विकास को निम्नलिखित शीर्षकों में रखा जा सकता
1. ईसाई मिशनरियों द्वारा शिक्षा का प्रसार-भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रारम्भ ईसाई मिशनरियों द्वारा किया गया। वे समझते थे कि शिक्षा द्वारा लोग ईसाई धर्म को स्वीकार कर लेंगे। इसीलिए वे भारत में शिक्षा प्रचार के कार्य में लग गए। इस क्षेत्र में पुर्तगाली, डच, फ्रांसीसी, डेन एवं अंग्रेज धर्म-प्रचारकों ने प्रमुख कार्य किया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इस कार्य में अत्यधिक योगदान दिया। वे भारत में ईसाई प्रचारकों को कम्पनी के कर्मचारियों में धार्मिक भावना बनाए रखने तथा भारतीय लोगों को ईसाई बनाने के लिए भेजते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए देश में अनेक स्थानों पर मिशनरी स्कूलों की स्थापना की गई।

2. भारतीय समाज-सुधारकों द्वारा शिक्षा का प्रसार-ईसाई मिशनरियों के साथ-साथ राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, राधाकान्त देव आदि समाज-सुधारकों ने शिक्षा के प्रचार और प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस कार्य को पूरा करने के लिए उन्होंने जनता का सहयोग प्राप्त करके अनेक विद्यालयों की स्थापना की।

3. सन् 1798 का आज्ञा-पत्र-इस आज्ञा–पत्र के अनुसार कम्पनी ने अपने कर्मचारियों तथा सैनिकों को निःशुल्क शिक्षा देने के लिए अनेक विद्यालयों की स्थापना की। कम्पनी ने बम्बई (मुम्बई), मद्रास (चेन्नई) और बंगाल में अठारहवीं शताब्दी में बहुत-से विद्यालयों की स्थापना कर दी। अंग्रेजों की देखा-देखी हिन्दू तथा मुसलमानों ने भी अपने विद्यालय खोलने आरम्भ कर दिए।

4. सन 1813 का आज्ञा-पत्र-इस आज्ञा-पत्र ने भारतीय शिक्षा को ठोस और व्यवस्थित रूप प्रदान किया। ब्रिटिश संसद में यह प्रस्ताव रखा गया कि कम्पनी की सरकार भारतवासियों की शिक्षा में रुचि ले और इस कार्य के लिए धन व्यय करे। कम्पनी के संचालकों ने इस प्रस्ताव का बहुत विरोध किया, लेकिन ब्रिटिश संसद ने एक आज्ञा-पत्र पास कर दिया, जिसे सन् 1813 का आज्ञा-पत्र कहा जाता है। इसमें निम्नलिखित बातें थीं—

  • ईसाई पादरियों को भारत में धर्म-प्रचार के लिए छूट दे दी गई।
  • शिक्षा को कम्पनी का उत्तरदायित्व माना गया।
  • भारत में शिक्षा के प्रचार के लिए प्रतिवर्ष एक लाख रुपए की धनराशि व्यय करने की अनुमति दे दी गई।

5. सन् 1814 का कम्पनी का आदेश-कम्पनी ने अपने प्रथम आदेश में शिक्षा की उन्नति, देशी , शिक्षा तथा प्राच्य भाषाओं की उन्नति, भारतीय विद्वानों को प्रोत्साहन व विज्ञान के प्रचार आदि पर ब्र दिया, परन्तु इस आदेश से कोई विशेष लाभ नहीं हुआ।

6. लॉर्ड मैकाले का विवरण-पन्न-सन् 1835 में लॉर्ड मैकाले ने एक विवरण-पत्र प्रस्तुत किया, जिसमें शिक्षा सम्बन्धी निम्नलिखित सुझाव सम्मिलित थे

  • अंग्रेजी को ही शिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए। ब्रिटिशकालीन शिक्षा का आरम्भ
  • अंग्रेजी पढ़ा-लिखा व्यक्ति ही विद्वान् माना जाए और साहित्य का अर्थ केवल अंग्रेजी साहित्य होना चाहिए।
  • विद्यार्थियों को रुझान फारसी और अरबी की अपेक्षा अंग्रेजी पर अधिक हो।
  • अनेक भारतीय भी अंग्रेजी भाषा को ही ज्ञान का भण्डार शिक्षा का प्रसार मान चुके हैं।

7. छनाई का सिद्धान्त-मैकाले के विवरण-पत्र ने शिक्षा के क्षेत्र में एक विवाद खड़ा कर दिया। इसी सन्दर्भ में छनाई का सन् 1814 का कम्पनी का सिद्धान्त सामने आया। इस सिद्धान्त के अनुसार यदि शिक्षा समाज में आदेश उच्च वर्ग को प्रदान की जाएगी तो वह उच्च वर्ग से निम्न वर्ग में स्वत: चली जाएगी। दूसरे शब्दों में, सरकार का कर्तव्य है कि वह केवल उच्च वर्ग के लिए शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करे, निम्न । वर्ग तो उसके सम्पर्क में आकर स्वयं शिक्षित हो जाएगा। आर्थर मैथ्यू के शब्दों में, “सर्वसाधारण में शिक्षा ऊपर से भारतीय शिक्षा आयोग या हण्टर छन-छन कर पहुँचती थी। बूंद-बूंद करके भारतीय जीवन के हिमालय से लाभदायक शिक्षा नीचे बहे, जिससे वह कुछ समय में चौड़ी और विशाल धारी में परिवर्तित होकर शुष्क मैदानों का सिंचन प्रचार करे।” इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक पाश्चात्यवादी थे।

ईसाई मिशनरियों ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन किया। लॉर्ड मैकाले ने भी इस सिद्धान्त का प्रबल समर्थन करते हुए कहा, “हमें इस समय एक ऐसे वर्ग का निर्माण करने की चेष्टा करनी चाहिए जो हमारे और उन लाखों व्यक्तियों के मध्य जिन पर हम शासन करते हैं, दुभाषिए का कार्य करे।” इस सिद्धान्त को स्वीकार करके 1844 ई० में लॉर्ड हार्डिज ने घोषणा की कि “अंग्रेजी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता दी जाएगी। इस घोषणा के बाद शिक्षा की प्रगति तीव्रता से हुई और स्थान-स्थान पर विद्यालयों की स्थापना होने लगी।

8. वुड की घोषणा-पत्र-सन् 1854 में चार्ल्स वुड ने शिक्षा सम्बन्धी एक घोषणा-पत्र बनाया। इस घोषणा-पत्र में शिक्षा सम्बन्धी निम्नलिखित प्रस्ताव रखे गए थे

  • भारतीय शिक्षा का उद्देश्य अंग्रेजी साहित्य और पाश्चात्य ज्ञान का प्रचार होना चाहिए।
  • भारत में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होना चाहिए।शिक्षा विभाग में शिक्षा सचिव एवं शिक्षा निरीक्षकों की नियुक्ति की जानी चाहिए, जिससे विभाग का कार्य सुचारु रूप से चल सके।
  • समस्त व्यय बड़े विद्यालयों में ही नहीं खर्च करना चाहिए। भारतीयों को शिक्षा देने से वह अपने अन्य सम्बन्धियों को शिक्षा देने में समर्थ हो सकेंगे।
  • नए विद्यालयों की स्थापना की जाए, जिनमें शिक्षा को माध्यम भी भारतीय भाषाएँ हों।

9. थॉमस और स्टैनले के प्रयास-थॉमस और स्टैनले ने भी भारत में शिक्षा की उन्नति के लिए प्रयास किया। इन प्रयासों के परिणामस्वरूप तहसीलों एवं ग्रामों में भी हल्काबन्दी के विद्यालय खोले गए। इसके साथ ही प्राथमिक शिक्षा के लिए प्रत्येक राज्य में विद्यालय स्थापित किए गए। इसके फलस्वरूप सभी प्रान्तों में निम्नलिखित शिक्षा संस्थाएँ हो गयीं

  • राजकीय शिक्षा संस्थाएँ,
  • मान्यता प्राप्त शिक्षा संस्थाएँ,
  • व्यक्तिगत शिक्षा संस्थाएँ।

10. भारतीय शिक्षा आयोग या हण्टर कमीशन (1882 ई०)-इस आयोग की नियुक्ति विशेष रूप से प्राथमिक शिक्षा पर विचार करने के लिए की गई थी, लेकिन उसने शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक सुझाव दिए। इस आयोग द्वारा प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा तक में सरकारी और व्यक्तिगत प्रयासों के मिश्रण
की बात की गई और भारतीयों को शिक्षा के क्षेत्र में आने के लिए प्रेरित किया गया। इस आयोग ने निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किए-

  1. प्राथमिक शिक्षा का विकास करना आवश्यक है, क्योंकि वर्तमान स्थिति बहुत असन्तोषजनक है।
  2. जिला परिषद् एवं नगरपालिका को यह आदेश दिया जाए कि वे विद्यालयों के लिए एक निश्चित. संख्या में धन रखें।
  3. भारतीय भाषा एवं अंग्रेजी भाषा के विद्यालयों को अन्तर समाप्त किया जाए।
  4. प्राथमिक शिक्षा भारतीय भाषाओं में दी जाए।
  5. सरकारी विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। गैर-सरकारी विद्यालयों में प्रबन्धकों की इच्छानुसार धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था की जा सकती है।
  6. स्त्री-शिक्षा की विशेष व्यवस्था की जाए।

11. स्वदेशी आन्दोलन एवं शिक्षा का प्रचार-उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का प्रादुर्भाव हुआ। राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत समाज-सुधारकों का मत था कि भारतीय विद्यालयों में ही भारत के नवयुवकों का चारित्रिक निर्माण हो सकता है। देश में राष्ट्रीय भावना के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी भारतीयता लाने पर बल दे रहे थे। ब्रह्म समाज, आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसायटी जैसी संस्थाएँ स्वदेशी भावना का प्रचार एवं प्रसार कर रही थीं; अतः स्वदेशी आन्दोलन के फलस्वरूप अनेक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की गई। इनमें दयानन्द वैदिक कॉलेज, लाहौर; सेण्ट्रल हिन्दू कॉलेज, बनारस; फग्र्युसन कॉलेज, पूना विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

12. भारतीय विश्वविद्यालय आयोग (1904 ई०)-लॉर्ड कर्जन ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधार करने के उद्देश्य से 1901 ई० में शिमला में एक शिक्षा सम्मेलन आयोजित करवाया। इस सम्मेलन के निर्णय के अनुसार भारतीय विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति की गई। लॉर्ड कर्जन की नीति थी कि भारत में शिक्षा का अधिक-से-अधिक प्रचार और प्रसार हो। उसने गैर-सरकारी संस्थाओं को अनुदान देने की प्रथा का प्रचलन किया। इसके साथ ही उसने शिक्षा के विभिन्न स्तरों के विकास तथा प्रसार का भी प्रशंसनीय प्रयास किया।

13. राष्ट्रीय शिक्षा का विकास-लॉर्ड कर्जन की उग्र राष्ट्रीयता से सशंकित होकर तथा बंगाल के विभाजन को देखकर अनेक भारतीयों ने राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार और प्रसार में द्रुत गति से कार्य करना आरम्भ कर दिया। बंगाल में गुरुदास बनर्जी की अध्यक्षता में स्थापित समिति में बहुत-से ‘राष्ट्रीय हाईस्कूलों की स्थापना की। इसी समय कलकत्ते (कोलकाता) में नेशनल कॉलेज की स्थापना हुई। गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर ने शान्ति निकेतन में एक ब्रह्मचर्य आश्रम खोला, जो आज विश्व भारती विश्वविद्यालय का रूप धारण कर चुका है। आर्य समाज ने गुरुकुलों की स्थापना करके प्राचीन वैदिक शिक्षा को प्रोत्साहन दिया।

14. गोपालकृष्ण गोखले का प्रस्ताव-मार्च, 1911 ई० में उदार दल के नेता गोपालकृष्ण गोखले ने केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा में प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी एक प्रस्ताव रखा, जो अस्वीकृत हो गया। इस प्रस्ताव की प्रमुख बातें निम्नलिखित थीं–

  • शिक्षा का पुनर्गठन होना चाहिए।
  • प्रत्येक प्रान्त प्राथमिक शिक्षा की एक योजना तैयार करे।
  • प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य एवं नि:शुल्क हो।
  • जिला बोर्ड एवं म्युनिसिपल बोर्डों को शिक्षा सम्बन्धी कार्य अवश्य करना चाहिए।

15. कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग-सन् 1917 ई० में सैडलर की अध्यक्षता में एक आयोग की नियुक्ति की गई, जिसका मूल उद्देश्य कलकत्ता विश्वविद्यालय के सम्बन्ध में अपने सुझाव देना तथा उच्च शिक्षा के सन्दर्भ में कुछ विचार प्रस्तुत करना था। इस आयोग ने देश के सभी विश्वविद्यालयों, माध्यमिक शिक्षा, स्त्री-शिक्षा एवं व्यावसायिक शिक्षा के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। इस आयोग ने अन्त:विश्वविद्यालय परिषद् की स्थापना का भी सुझाव दिया। आज का विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग उसी का विकसित रूप है।

16. हर्टाग समिति-सन् 1927 में श्री फिलिप हर्टाग ने प्राथमिक शिक्षा के सम्बन्ध में एक कमेटी नियुक्त की, जिसने निम्नलिखित सुझाव दिए-

  1. नए विद्यालयों को खोलने की अपेक्षा पुराने विद्यालयों का ही सुधार किया जाए।
  2. प्राथमिक शिक्षा नि:शुल्क एवं अनिवार्य होनी चाहिए।
  3. प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने की आयु 6 से 10 वर्ष निश्चित की गई।
  4. पाठ्यक्रम में सुधार किया जाए।
  5. निरीक्षण कार्य अधिकं कर दिया जाए तथा पढ़ाई का समय भी निश्चित किया जाए।

17. व्यावसायिक शिक्षा तथा वुड-एबट प्रतिवेदन-प्रथम विश्वयुद्ध के अनुभवों ने ब्रिटिश सरकार को इस बात को सोचने के लिए प्रेरित किया कि भारत में औद्योगिक शिक्षा का प्रचार और प्रसार होना चाहिए। इसी के फलस्वरूप सन् 1936-37 में श्री एबट और श्री वुड ने व्यावसायिक शिक्षा की समस्याओं पर विचार किया। इन्होंने भारत में व्यावसायिक शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार के सम्बन्ध में व्यापक सुझाव दिए। इन्होंने सामान्य शिक्षा के सन्दर्भ में भी अनेक सुझाव प्रस्तुत किए, जिन्हें द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लागू किया गया।

18. बेसिक शिक्षा-या वर्धा योजना महात्मा गाँधी ने 1937 ई० में वर्धा में हुए एक शिक्षा सम्मेलन में बेसिक शिक्षा की एक योजना प्रतिपादित की। इसमें 7 से 10 वर्ष के बालक-बालिकाओं की नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था थी। बेसिक शिक्षा आज देश की राष्ट्रीय प्राथमिक शिक्षा बन गई है। श्री टी० एम० निगम के अनुसार, “बेसिक शिक्षा महात्मा गाँधी द्वारा दिया गया अन्तिम एवं सबसे अधिक मूल्यवान उपहार है। इस शिक्षा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें किसी आधारभूत शिल्प को केन्द्र मानकर सम्पूर्ण शिक्षा प्रदान की जाती है।”

19. सार्जेण्ट योजना-सन् 1944 में भारतीय शिक्षा सलाहकार जॉन सार्जेण्ट को भारत में युद्धोत्तर शिक्षा विकास पर एक स्मृति-पत्र तैयार करने का आदेश दिया गया। उन्होंने शिक्षा के विभिन्न स्तर और विभिन्न पक्षों के सम्बन्ध में व्यापक सुझाव दिए, जिनमें से प्रमुख सुझाव निम्नलिखित थे

  1. तीन से छह वर्ष के बालकों के लिए नर्सरी विद्यालयों की स्थापना की जाए और यह शिक्षा निःशुल्क हो।
  2. छह से चौदह वर्ष के बालकों की शिक्षा बेसिक शिक्षा के सिद्धान्तों के आधार पर की जाए।
  3. हाईस्कूल शिक्षा के पाठ्यक्रम को साहित्यिक और औद्योगिक दो भागों में बाँटा जाए।
  4. बी० ए० का पाठ्यक्रम तीन वर्ष का हो।

इस प्रकार स्वतन्त्रता से पूर्व इन सुझावों को लागू करने का प्रयास किया गया, किन्तु ब्रिटिश सरकार के पैर अब भारत की पृथ्वी पर लड़खड़ा रहे थे। भारत-विभाजन सम्बन्धी समस्या के कारण शिक्षा सम्बन्धी सुझावों के प्रति लोगों का ध्यान न रहा और स्वतन्त्रता-प्राप्ति तक शिक्षा के क्षेत्र में कोई महत्त्वपूर्ण सुधार ने हो सका।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
हमारे देश में आधुनिक शिक्षा के आरम्भ होने में ईसाई मिशनरियों की क्या भूमिका थी?
उत्तर
पन्द्रहवीं शताब्दी में यूरोप से अनेक व्यापारिक कम्पनियाँ भारत में व्यापार के लिए आने लगी थीं। इनके साथ-ही-साथ यूरोप की अनेक ईसाई मिशनरियों का भी भारत में आगमन होने लगा। इन ईसाई मिशनरियों का भारत आगमन का मुख्यतया उद्देश्य तो ईसाई धर्म का प्रचार एवं प्रसार करना था परन्तु इस मुख्य उद्देश्य की निश्चित एवं शीघ्र प्राप्ति के लिए इन ईसाई मिशनरियों ने शिक्षा की व्यवस्था को एक प्रबल साधन के रूप में इस्तेमाल करना प्रारम्भ कर दिया। इन ईसाई मिशनरियों ने भारतीय जनता से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित करने के लिए तथा अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए देश के विभिन्न भागों में शिक्षण संस्थाएँ स्थापित करना प्रारम्भ कर दिया।

इन शिक्षण संस्थाओं में सामान्य शिक्षा के साथ-ही-साथ ईसाई धर्म के प्रचार एवं प्रसार का कार्य भी किया जाने लगा। इन शिक्षण संस्थाओं में मिशनरियों द्वारा शिक्षा के पाश्चात्य प्रारूप को अपनाया गया। इस प्रयास से हमारे देश में आधुनिक शिक्षा का सूत्रपात हुआ। इस तथ्य को ही ध्यान में रखते हुए विभिन्न विद्वान ईसाई मिशनरियों को ही भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रवर्तक मानते हैं। स्पष्ट है कि हमारे देश में आधुनिक शिक्षा को आरम्भ करने में ईसाई मिशनरियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका तथा उल्लेखनीय योगदान है।

प्रश्न 2
ब्रिटिशकालीन शिक्षा के सन्दर्भ में लॉर्ड मैकाले के विवरण-पत्र का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
सन् 1835 में लॉर्ड मैकाले ने एक विवरण-पत्र प्रस्तुत किया, इस विवरण-पत्र के माध्यम से मैकाले ने भारतीय शिक्षा में अंग्रेजी की प्राथमिकता प्रदान करने की प्रबल सिफारिश की थी। इस सन्दर्भ में उसने भारतीय भाषाओं और साहित्य को अनुपयोगी तथा निरर्थक बताया। उसका कहना था, एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की एक अलमारी को भारत और अरब के सम्पूर्ण साहित्य से कम महत्त्व नहीं है। इस प्रकार के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से मैकाले ने भारतीय शिक्षा के लिए निम्नलिखित सिफारिशें या सुझाव प्रस्तुत किये

  1. अंग्रेजी को ही शिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए।
  2. अंग्रेजी पढ़े-लिखे व्यक्ति को विद्वान् माना जाए और साहित्य का अर्थ केवल अंग्रेजी साहित्य ‘ होना चाहिए।
  3. विद्यार्थियों का रुझान फारसी और अरबी की अपेक्षा अंग्रेजी पर अधिक हो।
  4. अनेक भारतीय अंग्रेजी भाषा को ही ज्ञान का भण्डार मान चुके हैं।
  5. मैकाले ने यह भी स्पष्ट किया कि भारतीयों को अंग्रेजी की शिक्षा प्रदान करके, उन्हें अंग्रेजी का अच्छा विद्वान बनाना सम्भव है; अतः इस दिशा में समुचित प्रयास अवश्य किये जाने चाहिए।
  6. मैकाले ने अंग्रेजों के स्वार्थ को भी विशेष महत्व दिया तथा इस दृष्टिकोण से भी एक तर्क प्रस्तुत किया, “अंग्रेजी की शिक्षा द्वारा इस देश में एवं ऐसे वर्ग का निर्माण किया जा सकता है जो रक्त और रंग से भले ही भारतीय हो परन्तु रुचियों, विचारों, नैतिकता और विद्वता से अंग्रेज होगा।

लॉर्ड मैकाले द्वारा प्रस्तुत किया गया ‘‘विवरण-पत्र’ तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक द्वारा स्वीकार कर लिया गया तथा सरकार ने 7 मार्च, 1835 में एक विज्ञप्ति जारी करके भारत में अंग्रेजी शिक्षा को लागू कर दिया। इस निर्देश के बाद ब्रिटिशकालीन भारतीय शिक्षा का आगामी स्वरूप निश्चित हो गया। इस तथ्य को टी० एन० सिक्वेस ने इन शब्दों में स्पष्ट किया था, “इस विज्ञप्ति ने भारत में शिक्षा के इतिहास को एक नया मोड़ दिया। यह उस दिशा के विषयँ में, जो सरकार सार्वजनिक शिक्षा को देना चाहती थी, निश्चित नीति की प्रथम सरकारी घोषणा की थी।

प्रश्न 3
टिप्पणी लिखिए-वुड का घोषणा-पत्र
उत्तर
सन् 1854 में चार्ल्स वुड्ने शिक्षा सम्बन्धी एक घोषणा-पत्र बनाया। इस घोषणा-पत्र में शिक्षा सम्बन्धी निम्नलिखित प्रस्ताव रखे गए थे

  1. भारतीय शिक्षा का उद्देश्य अंग्रेजी साहित्य और पाश्चात्य ज्ञान का प्रचार होना चाहिए।
  2. भारत में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होना चाहिए।
  3. शिक्षा विभाग में शिक्षा सचिव एवं शिक्षा-निरीक्षकों की नियुक्ति की जानी चाहिए, जिससे विभाग | का कार्य सुचारु रूप से चल सके।
  4. समस्त व्यय बड़े विद्यालयों में ही नहीं खर्च करना चाहिए। भारतीयों को शिक्षा देने से वह अपनेb अन्य सम्बन्धियों को शिक्षा देने में समर्थ हो सकेंगे।
  5. नए विद्यालयों की स्थापना की जाए, जिनमें शिक्षा का माध्यम भी भारतीय भाषाएँ हों।
  6. “वुड के घोषणा-पत्र में जन-सामान्य की शिक्षा को प्राथमिकता दी गई थी। इस योजना को
    सफल बनाने के लिए इस घोषणा-पत्र में शिक्षा संस्थाओं को आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए सहायता अनुदान प्रणाली को लागू करने की सिफारिश की गई थी। इस योजना के अन्तर्गत शिक्षा-संस्थाओं के भवन निर्माण के लिए, पुस्तकालयों के लिए, अध्यापकों के वेतन के लिए तथा छात्रों को दी जाने वाली छात्रवृत्तियों के लिए अलग-अलग अनुदान की सिफारिश की गई थी।

उपर्युक्त वर्णित्न सिफारिशों के कारण वुड के घोषणा-पत्र को विशेष महत्त्वपूर्ण माना जाता है। कुछ विद्वानों ने तो इसे भारतीय शिक्षा का ‘महाधिकार-पत्र’ (Magnakarta) की संज्ञा दी है।

प्रश्न 4
ब्रिटिशकालीन शिक्षा के मुख्य गुणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
भारत में ब्रिटिशकालीन शिक्षा के प्रमुख गुण निम्नलिखित थे

  1. इस शिक्षा के अन्तर्गत भारतीय पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के सम्पर्क में आए और उनका वैज्ञानिक, | राजनीतिक तथा औद्योगिक क्षेत्र में ज्ञान विकसित हुआ।
  2. अंग्रेज भारतीय सभ्यता और संस्कृति से बहुत प्रभावित थे। अत: उन्होंने प्राचीन भारतीय ग्रन्थों का अंग्रेजी में अनुवाद कराया और उनका अध्ययन किया। इसके फलस्वरूप भारतीयों को भी अपनी | प्राचीन संस्कृति के गौरव का ज्ञान हुआ और उनमें राजनीतिक चेतना का जन्म हुआ।
  3. इस शिक्षा के अन्तर्गत भारत की प्रान्तीय भाषाओं का समुचित विकास हुआ।
  4. ब्रिटिशकालीन शिक्षा ने भारतीयों के अन्धविश्वास और सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  5. अंग्रेजों ने स्त्री-शिक्षा के विकास के लिए काफी प्रयास किए, फलस्वरूप देश में स्त्रियों की दशा | में विशेष सुधार आया।
  6. अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीयों में राजनीतिक पुनर्जागरण किया, फलस्वरूप भारतीय ब्रिटिश दासता से
    मुक्त होने में सफल हो सके।
  7. ब्रिटिश काल में शिक्षा के प्रचार व प्रसार के अनेकानेक साधनों का भी विकास हुआ।
  8. ब्रिटिश शिक्षा के कारण विश्व की विभिन्न देशों की सभ्यताओं और संस्कृतियों का भारतीयों को
    ज्ञान प्राप्त हुआ।

प्रश्न 5
ब्रिटिशकालीन शिक्षा के मुख्य दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
ब्रिटिशकालीन शिक्षा के प्रमुख मेषों का विवेचन निम्नलिखित है-

  1. अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाया गया, फलस्वरूप भारतीय भाषाओं का समुचित विकास ने हो सका।
  2. ब्रिटिशकालीन शिक्षा ने भारतीयों को पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रँग दिया। वे अपनी संस्कृति को भूलकर भौतिकता के सागर में डूज़ गए।
  3. इस शिक्षा ने समाज में ‘बाबू वर्ग नामक एक नए वर्ग को जन्म दिया था। इस वर्ग ने ब्रिटिश सरकार को सहयोग देकर राष्ट्रीय हितों पर कुठाराघात किया।
  4. ब्रिटिश शिक्षा ने भारतीयों को अधार्मिक, अनैतिक तथा भौतिकवादी बना दिया तथा उन्हें प्राचीन भारतीय आध्यात्मिकता के महत्त्व का ज्ञान न रहा।
  5. ब्रिटिश शिक्षा ने जनसाधारण की शिक्षा की पूर्ण उपेक्षा की और देश में निरक्षरता का बोलबाला ही रहा।।
  6. ब्रिटिशकालीन शिक्षा भारतीय हितों के प्रतिकूल रही। इस शिक्षा का मूल उद्देश्य भारत में अंग्रेजी शासन को स्थायी और सुदृढ़ बनाना ही था।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
लॉर्ड मैकाले द्वारा प्रतिपादित निस्यन्दन सिद्धान्त का सामान्य विवरण संक्षेप में लिखिए।
उत्तर
लॉर्ड मैकाले ने भारत में शिक्षा की व्यवस्था के विषय में एक विवरण-पत्र प्रस्तुत किया था, जिसके आधार पर शिक्षा के क्षेत्र में पूर्व-पश्चिम सम्बन्धी विवाद उठ खड़ा हुआ। इसी सन्दर्भ में मैकाले ने निस्यन्दन सिद्धान्त प्रस्तुत किया। इस सिद्धान्त की मान्यता के अनुसार, यदि समाज के उच्च वर्ग को समुचित शिक्षा प्रदान कर दी जाए तो उस स्थिति में शिक्षा उच्च वर्ग से स्वतः ही निम्न वर्ग तक पहुँच जाएगी। इस तथ्य को आर्थर मैथ्यू ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “सर्वसाधारण में शिक्षा ऊपर से छन-छन कर पहुँचानी थी। बूंद-बूंद करके भारतीय जीवन के हिमालय से लाभदायक शिक्षा नीचे बहे, जिससे वह कुछ समय में चौड़ी और विशाल धारा में परिवर्तित होकर शुष्क मैदानों का सिंचन करे।” मैकाले के निस्यन्दन सिद्धान्त के अनुसार सरकार का दायित्व केवल उच्च वर्ग को शिक्षित करना था तथा निम्न वर्ग स्वत: ही उच्च वर्ग के सम्पर्क में आकर क्रमशः शिक्षित हो जाएगा।

प्रश्न 2
टिप्पणी लिखिए-भारतीय शिक्षा आयोग या हण्टर कमीशन।
उत्तर
भारतीय शिक्षा आयोग या हण्टर कमीशन की नियुक्ति विशेष रूप से प्राथमिक शिक्षा पर विचार करने के लिए की गई थी, लेकिन उसने शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक सुझाव दिए। इस आयोग द्वारा प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा तक में सरकारी और व्यक्तिगत प्रयासों के मिश्रण की बात की गई और भारतीयों को शिक्षा के क्षेत्र में आने के लिए प्रेरित किया गया। इस आयोग ने निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किए.

  1. प्राथमिक शिक्षा का विकास करना आवश्यक है, क्योंकि वर्तमान स्थिति बहुत असन्तोषजनक है।
  2. जिला परिषद् एवं नगरपालिका को यह आदेश दिया दिया जाए कि वे विद्यालयों के लिए एक निश्चित संख्या में धन रखें।।
  3. भारतीय भाषा एवं अंग्रेजी भाषा के विद्यालयों को अन्तर समाप्त किया जाए।
  4. प्राथमिक शिक्षा भारतीय भाषाओं में दी जाए।
  5. सरकारी विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। गैर-सरकारी विद्यालयों में प्रबन्धकों की इच्छानुसार धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था की जा सकती है।
  6. स्त्री-शिक्षा की विशेष व्यवस्था की जाए।

प्रश्न 3
भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लॉर्ड मैकाले का तटस्थ मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर
भारत में आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था स्थापित करने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका लॉर्ड मैकाले की रही है। लॉर्ड मैकाले प्रशंसा एवं निन्दा दोनों के ही पात्र रहे हैं। लॉर्ड मैकाले के प्रशंसक उन्हें आधुनिक भारतीय शिक्षा के पथ-प्रदर्शक स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार मैकाले द्वारा की गई। शिक्षा-व्यवस्था के ही परिणामस्वरूप भारतीय जनता उन्नति एवं प्रगति के मार्ग पर अग्रसर हुई। इसके विपरीत लॉर्ड मैकाले के चिन्दकों का कहना है कि मैकाले ने अपनी शैक्षिक नीतियों के माध्यम से भारतीय जनता का घोर अहित किया है। मैकाले ने भारतीय जनता को मानसिक रूप से गुलाम बना दिया। उसके द्वारा की गई अंग्रेजी शिक्षा की व्यवस्था से भारतीय संस्कृति को गहरी ठेस पहुँची। भारतीय भाषाओं का विकास रुक गया तथा एक अलग से ‘बाबू वर्ग का प्रादुर्भाव हुआ।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न1
भारत में आधुनिक शिक्षा-प्रणाली को आरम्भ करने के लिए सर्वप्रथम किन संस्थाओं द्वारा सफल प्रयास किए गए?
उत्तर
भारत में आधुनिक शिक्षा-प्रणाली को आरम्भ करने के लिए सर्वप्रथम ईसाई मिशनरियों द्वारा सफल प्रयास किए गए।

प्रश्न 2
भारत में आधुनिक शिक्षा का सूत्रपात किस शासनकाल में हुआ?
उत्तर
भारत में आधुनिक शिक्षा का सूत्रपात मुख्य रूप से अंग्रेजों के शासनकाल में हुआ।

प्रश्न 3
ईसाई मिशनरियों के अतिरिक्त किन भारतीय समाज-सुधारकों ने देश में आधुनिक शिक्षा के विकास में योगदान प्रदान किया?
उत्तर
आधुनिक शिक्षा को आरम्भ करने में राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, गोपालकृष्ण गोखले, सर सैयद अहमद खाँ आदि समाज-सुधारकों ने उल्लेखनीय योगदान प्रदान किया।

प्रश्न 4
लॉर्ड मैकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त को किस नाम से जाना जाता
उत्तर
लॉर्ड मैकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त को निस्यन्दन सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 5
‘छनाई के सिद्धान्त का सुझाव किसने दिया था ?
उत्तर
छनाई के सिद्धान्त’ का सुझाव लॉर्ड मैकाले ने दिया था।

प्रश्न 6
आधुनिक भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में लॉर्ड कर्जन के योगदान को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
आधुनिक भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में लॉर्ड कर्जन ने संख्यात्मक एवं गुणात्मक विकास के लिए उल्लेखनीय प्रयास किए।

प्रश्न 7
1854 की शिक्षा नीति की घोषणा किसने की ?
उत्तर
चार्ल्स वुड ने।

प्रश्न 8
किस अभिलेख को अंग्रेजी शिक्षा का महाधिकार पत्र’ के नाम से जाना जाता है?
उत्तर
‘वुड के घोषणा-पत्र’ को अंग्रेजी शिक्षा का महाधिकार पत्र के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 9
शिक्षा में सहायता अनुदान प्रणाली की घोषणा किसने की थी?
उत्तर
शिक्षा में सहायता अनुदान प्रणाली’ की घोषणा चार्ल्स वुड ने सन् 1854 के घोषणा-पत्र में की थी।

प्रश्न 10
भारतीय शिक्षा आयोग या हण्टर कमीशन का गठन कब तथा किसलिए किया गया था?
उत्तर
भारतीय शिक्षा आयोग या हण्टर कमीशन का गठन सन् 1882 ई० में किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य प्राथमिक शिक्षा-व्यवस्था पर विचार करना था।

प्रश्न 11
स्वदेशी आन्दोलन के अन्तर्गत मुख्य रूप से कौन-कौन-से कॉलेज स्थापित किए गए थे?
उत्तर
स्वदेशी आन्दोलन के अन्तर्गत स्थापित किए गए मुख्य कॉलेज थे—दयानन्द वैदिक कॉलेज-लाहौर, सेण्ट्रल हिन्दू कॉलेज–बनारस, फग्र्युसन कॉलेज-पूना।

प्रश्न 12
कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग किस सन में गठित किया गया तथा इसका अध्यक्ष कौन था?
उत्तर
कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग 1917 ई० में गठित किया गया तथा इसका अध्यक्ष माइकेल सैडलर था।

प्रश्न 13
सार्जेण्टे योजना के अन्तर्गत छोटे बच्चों की शिक्षा के लिए मुख्य रूप से क्या सुझाव दिया गया था?
उत्तर
सार्जेण्ट योजना के अन्तर्गत सुझाव दिया गया कि 3 से 6 वर्ष के बालकों के लिए नर्सरी विद्यालय स्थापित किए जाएँ तथा यह शिक्षा नि:शुल्क हो।

प्रश्न 14
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. भारत में आधुनिक शिक्षा को आरम्भ करने में ईसाई मिशनरियों का कोई योगदान नहीं था।
  2. सन् 1813 के आज्ञा-पत्र में भारत में शिक्षा को कम्पनी का उत्तरदायित्व माना गया।
  3. लॉर्ड मैकाले के अनुसार समाज के उच्च एवं निम्न दोनों ही वर्गों के लिए शिक्षा की समान व्यवस्था की जानी चाहिए।
  4. लॉर्ड कर्जन ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधार करने के उद्देश्य से सन् 1901 में शिमला में एक शिक्षा सम्मेलन आयोजित किया था।
  5. भारत में औद्योगिक शिक्षा की व्यवस्था का सुझाव वुड-एबट प्रतिवेदन में दिया गया था।

उत्तर

  1. असत्य,
  2. सत्य,
  3. असत्य,
  4. सत्य,
  5. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए-
प्रश्न 1
भारत में आने वाला प्रथम यूरोपियन था
(क) अंग्रेज
(ख) डच
(ग) पुर्तगाली
(घ) फ्रांसीसी
उत्तर
(ग) पुर्तगाली

प्रश्न 2
वास्कोडिगामा कालीकट के बन्दरगाह पर कब उतरा?
(क) अप्रैल, 1492 ई०
(ख) मई, 1498 ई०
(ग) दिसम्बर, 1599 ई०
(घ) जून, 1613 ई०
उत्तर
(ख) मई, 1498 ई०

प्रश्न 3
यूरोपियनों के आगमन के समय भारत की देशी शिक्षा की क्या दशा थी?
(क) सामान्य
(ख) उच्चतर
(ग) उन्नतशील
(घ) दयनीय
उत्तर
(घ) दयनीय

प्रश्न 4
वारेन हेस्टिग्स ने कलकत्ता दरसा की स्थापना कब की?
(क) 1685 ई०
(ख) 1774 ई०
(ग) 1780 ई०
(घ) 1791 ई०
उत्तर
(ग) 1780 ई०

प्रश्न 5
कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज का संस्थापक कौन था?
(क) वारेन हेस्टिग्स
(ख) लॉर्ड वेलेजली
(ग) लॉर्ड विलियम बैंटिंक
(घ) लॉर्ड डलहौजी
उत्तर
(ख) लॉर्ड वेलेजली

प्रश्न 6
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में शिक्षा प्रसार हेतु कब से अनुदान देना आरम्भ किया?
(क) 1798 ई०
(ख) 1813 ई०
(ग) 1833 ई०
(घ) 1853 ई०
उत्तर
(ख) 1813 ई०

प्रश्न 7
भारत में अंग्रेजी शिक्षा का आरम्भ हुआ था
(क) लॉर्ड कर्जन द्वारा।
(ख) लॉर्ड ऑकलैण्ड द्वारा।
(ग) लॉर्ड मैकाले द्वारा
(घ) विलियम हण्टर द्वारा
उत्तर
(ग) लॉर्ड मैकाले द्वारा

प्रश्न 8
“एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की अलमारी भारत और अरबी के सम्पूर्ण देशी साहित्य के बराबर होगी।” यह कथन किसका है?
क) लॉर्ड विलियम बैंटिंक
(ख) लॉर्ड आर्कलैण्ड
(ग) लॉर्ड मैकाले
(घ) लॉर्ड कर्जन
उत्तर
(ग) लॉर्ड मैकाले

प्रश्न 9
ब्रिटिश काल में भारतीय शिक्षा का माध्यम था
(क) हिन्दी,
(ख) अंग्रेजी
(ग) फारसी
(घ) संस्कृत
उत्तर
(ख) अंग्रेजी

प्रश्न 10
चार्ल्स वुड का शिक्षा घोषणा-पत्र कब प्रकाशित हुआ?
(क) 1813 ई०
(ख) 1835 ई०
(ग) 1854 ई०
(घ) 1882 ई०
उत्तर
(ग) 1854 ई०

प्रश्न 11
अंग्रेजी शिक्षा का मैग्नाकार्टा किसे कहा जाता है?
(क) ऑकलैण्ड का विवरण-पत्रे
(ख) लॉर्ड मैकाले का विवरण-पत्र
(ग) वुड का विवरण-पत्र ।
(घ) हण्टर कमीशन की रिपोर्ट
उत्तर
(ग) वुड का विवरण-पत्र

प्रश्न 12
भारत में आधुनिक विश्वविद्यालय की स्थापना का सुझाव दिया गया था
(क) 1813 के आज्ञा-पत्र द्वारा
(ख) 1833 के आज्ञा-पत्र द्वारा
(ग) 1837 के मैकाले के विवरण-पत्र द्वारा।
(घ) 1854 के वुड के घोषणा-पत्र द्वारा
उत्तर
(घ) 1854 के वुड के घोषणा-पत्र द्वारा

प्रश्न 13
भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम किसने पारित करवाया?
(क) लॉर्ड डलहौजी
(ख) लॉर्ड लिटन
(ग) लॉर्ड रिपन :
(घ) लॉर्ड कर्जन
उत्तर
(घ) लॉर्ड कर्जन

प्रश्न 14
भारत में प्राथमिक शिक्षा के विकास और समस्याओं पर विचार करने वाला पहला आयोग था
(क) सैडलर आयोग।
(ख) हण्टर आयोग
(ग) सार्जेण्ट आयोग ।
(घ) हर्टाग समिति
उत्तर
(ख) हण्टर आयोग

प्रश्न 15
भारत में पहला विश्वविद्यालय कहाँ पर खोला गया था?
(क) कोलकाता
(ख) बनारस
(ग) आगरा
(घ) मुम्बई
उत्तर
(क) कोलकाता

प्रश्न 16
भारत में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की स्थापना कब हुई?
(क) 1932 ई०
(ख) 1935 ई०
(ग) 1940 ई०
(घ) 1944 ई०
उत्तर
(ख) 1935 ई०

प्रश्न 17
भारतीय स्कूलों के लिए सहायता अनुदान प्रणाली कब प्रारम्भ हुई?
(क) 1814 ई० में
(ख) 1834 ई० में
(ग) 1854 ई० में ।
(घ) 1864 ई० में
उत्तर
(ग) 1854 ई० में

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 19 Motivation and Education

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 19
Chapter Name Motivation and Education (प्रेरणा एवं शिक्षा)
Number of Questions Solved 34
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 19 Motivation and Education (प्रेरणा एवं शिक्षा)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्रेरणा का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। प्रेरणा के मुख्य स्रोतों का भी उल्लेख कीजिए।
या
अभिप्रेरणा से आप क्या समझते हैं? [2011, 13, 14]
उत्तर :
प्रेरणा का अर्थ एवं परिभाषा
रेरणा या अभिप्रेरणा वह मानसिक क्रिया है, जो किसी प्रकार के व्यवहार को प्रेरित करती है। दूसरे शब्दों में, प्रेरणा मानसिक तत्परता की वह स्थिति है, जो व्यक्ति को कार्य में नियोजित करती है और किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अग्रसर करती है। इस प्रकार मनोवैज्ञानिक अर्थ में प्रेरणा एक प्रकार की आन्तरिक उत्तेजना है,

जिस पर हमारा व्यवहार आधारित रहता है अथवा जो हमें कार्य करने के लिए प्रेरित करती है और लक्ष्य प्राप्ति तक चलती रहती है। कोई व्यक्ति कार्य क्यों करता है ? भोजन क्यों करता है ? प्रेम या घृणा क्यों करता है ? आदि प्रश्नों का सम्बन्ध प्रेरणा से है। इस प्रकार प्रेरणा एक प्रकार की आन्तरिक शक्ति है, जो हमें कार्य करने के लिए प्रेरित को बाध्य करती है।

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने प्रेरणा की परिभाषा इस प्रकार दी है

1. गिलफोर्ड :
(Guilford) के अनुसार, “प्रेरणा एक कोई भी विशेष आन्तरिक कारक अथवा दशा है, जो क्रिया को प्रारम्भ करने अथवा बनाये रखने को प्रवृत्त होती है।”

2. वुडवर्थ :
(woodworth) के अनुसार, “प्रेरणा व्यक्तियों की दशा का वह समूह है, जो किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए निश्चित व्यवहार स्पष्ट करती है।”

3. मैक्डूगल :
मैक्डूगल के अनुसार, “प्रेरणा वे शारीरिक तथा मानसिक दशाएँ हैं, जो किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करती हैं।”

4. जॉनसन :
जॉनसन के अनुसार, “प्रेरणा सामान्य क्रियाकलापों का प्रभाव है, जो मानव के व्यवहार को उचित मार्ग पर ले जाती हैं।”

5. बर्नार्ड :
(Bernard) के अनुसार, “प्रेरणा द्वारा उन विधियों का विकास किया जाता है, जो व्यवहार के पहलुओं को प्रमाणित करती हैं।”

6. थॉमसन :
थॉमसन के अनुसार, “प्रेरणा प्रारम्भ से लेकर अन्त तक मानव व्यवहार के प्रत्येक प्रतिकारक को प्रभावित करती है।”

7.शेफर :
(Shaffar) व अन्य के अनुसार, “प्रेरणा क्रिया की एक ऐसी प्रवृत्ति है जो कि चालक द्वारा उत्पन्न होती है एवं समायोजन द्वारा समाप्त होती है।”

इन परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर निम्नांकित तथ्यों का ज्ञान होता है

  1. प्रेरणा साध्य नहीं साधन है। यह साध्य तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करती है।
  2. प्रेरणा व्यक्ति के व्यवहार को स्पष्ट करती है।
  3. प्रेरणा से क्रियाशीलता व्यक्त होती है।
  4. प्रेरणा पर शारीरिक तथा मानसिक और बाह्य एवं आन्तरिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है।
  5. प्रेरणा सीखने का प्रमुख अंग न होकर सहायक अंग है।

प्रेरणा के स्रोत
मनोवैज्ञानिकों ने प्रेरणा के निम्नांकित स्रोतों का उल्लेख किया है

1. आवश्यकताएँ :
अपने जीवन को बनाये रखने के लिए मनुष्य की कुर्छ अनिवार्य आवश्यकताएँ होती हैं; जैसे वायु, जल और भोजन आदि। जब मनुष्य की इन आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती तो शारीरिक तनाव उत्पन्न हो जाता है और वह उनकी प्राप्ति के लिए किसी-न-किसी रूप में क्रियाशील हो जाता है। उदाहरण के लिए, ज़ब किसी व्यक्ति को प्यास लगती है, तो वह पानी की खोज के लिए तत्पर हो जाता है और जब तक उसे पानी प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक उसका शारीरिक तनाव बना रहता है।

प्राप्त हो जाने पर उसका शारीरिक तनाव भी समाप्त हो जाता है। इस सम्बन्ध में बोरिंग और लैंगफील्ड (Boring and Langfield) ने लिखा है-“आवश्यकता शरीर की अनिवार्यता या अभाव है, जिसके परिणामस्वरूप शारीरिक अस्थिरता या तनाव उत्पन्न हो जाता है। इस तनाव में ऐसा व्यवहार करने की प्रवृत्ति होती है, जिससे आवश्यकता के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाला तनाव समाप्त हो जाता है।”

2. चालक :
चालक (Driver) की उत्पत्ति आवश्यकताओं के द्वारा होती है। उदाहरण के लिए, पानी व्यक्ति की आवश्यकता है। यह पानी की आवश्यकता ही ‘प्यास चालक को जन्म देती है। इस प्रकार चालक प्राणियों को एक निश्चित प्रकार की क्रियाएँ या व्यवहार के लिए प्रेरित करते हैं।

3. उद्दीपन :
उद्दीपन वे वस्तुएँ हैं, जिनके द्वारा चालकों की सन्तुष्टि होती। है। उदाहरण के लिए, प्यास चालक की सन्तुष्टि पानी के द्वारा होती है। अत: यहाँ पानी उद्दीपन (Incentives) कहलाएगा। इसी प्रकार काम चालक’ का उद्दीपन विपरीत लिंगीय प्राणी होगा। बोरिंग व लैंगफील्ड के अनुसार, “उद्दीप्त को उस वस्तुस्थिति या क्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो व्यवहार को उद्दीप्त और निर्देशित करता है।”

इस प्रकार स्पष्ट है कि आवश्यकता, चालक एवं उद्दीपन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। हिलगार्ड (Hilgard) के शब्दों में, “आवश्यकता से चालक का जन्म होता है। चालक बढ़े हुए तनाव की स्थिति है, जो कार्य और आरम्भिक व्यवहार की ओर अग्रसर रहता है। उद्दीपन बाह्य वातावरण की कोई वस्तु होती है, जिससे आवश्यकता की सन्तुष्टि की प्रक्रिया द्वारा चालक की गति मन्द कर देती है।”

4. प्रेरक :
प्रेरक के अन्तर्गत उद्दीपन चालक, आवश्यकता तथा तनाव आदि सभी आ जाते हैं। प्रेरकों (Motives) के सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों के विभिन्न मत हैं। कुछ मनोवैज्ञानिक प्रेरकों को जन्मजात शक्तियों मानते हैं तो कुछ इन्हें मुक्ति की शारीरिक या मनोवैज्ञानिक स्थिति मानते हैं। परन्तु अधिकांश मनोवैज्ञानिक प्रेरक को वह शक्ति मानते हैं, जो व्यक्ति को कार्य करने के लिए उत्तेजित करती है। दूसरे शब्दों में, प्रेरक व्यक्ति के व्यवहार की दिशाओं को निर्धारित करते हैं। विभिन्न विद्वानों ने प्रेरकों की परिभाषा निम्नलिखित शब्दों में दी है

  • ब्लेयर, जेम्स व शिसन के अनुसार, “प्रेरक हमारी मौलिक आवश्यकता से उत्पन्न होने वाली वे शक्तियाँ हैं, जो व्यवहार को दिशा और प्रयोजन प्रदान करती हैं।”
  • शेफर तथा अन्य के अनुसार, “प्रेरक क्रिया की एक ऐसी प्रवृत्ति है, जो कि चालक द्वारा उत्पन्न होती है और समायोजन द्वारा समाप्त होती है।”

प्रश्न 2
सीखने में प्रेरणा के स्थान एवं महत्त्व का उल्लेख कीजिए। या प्रेरणा क्या है ? सीखने के लिए प्रेरणा आवश्यक है। इस कथन की पुष्टि कीजिए। [2007, 08]
या
प्रेरणा की उपयुक्त परिभाषा दीजिए। सीखने में प्रेरणा का क्या योगदान है? [2007, 08]
या
प्रेरणा सीखने के लिए अनिवार्य है।” इस कथन की विवेचना कीजिए। [2009, 10]
उत्तर :
[संकेत : प्रेरणा की परिभाषा का अध्ययन उपर्युक्त प्रश्न संख्या 1 के उत्तर के अन्तर्गत करें।]

सीखने में प्रेरणा का स्थान (महत्त्व)
सीखने में प्रेरणा का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है। बिना प्रेरणा के हम कुछ सीख ही नहीं सकते। थॉमसन के अनुसार, “बालक की मानसिक क्रिया के बिना विद्यालय में सीखना बहुत कम होता है। सर्वश्रेष्ठ सीखना उस समय होता है, जबकि मानसिक क्रिया सर्वाधिक होती है। अधिकतम मानसिक क्रिया प्रबल प्रेरणा के फलस्वरूप होती है।”

डॉ० सीताराम जायसवाल के अनुसार, “व्यक्ति के अन्दर कुछ ऐसे तत्त्व होते हैं, जिनके कारण व्यक्ति प्रक्रिया करता है। वातावरण के साथ क्रिया किसी विशेष प्रेरक द्वारा प्रेरित होती है। इसी क्रिया के फलस्वरूप सीखना होता है। इस प्रकार सीखने के लिए अभिप्रेरणा अनिवार्य है।”

वास्तव में सीखने में प्रेरणा की प्रमुख भूमिका रहती है। प्रेरणा सीखने में किस प्रकार सहायक हो सकती है, यह निम्नांकित शीर्षकों से स्पष्ट हो जाएगा

1. ध्यान का केन्द्रीकरण :
सीखने में ध्यान का केन्द्रित होना अत्यन्त आवश्यक है। अध्यापक बालकों को विभिन्न ढंग से प्रेरित करके उन्हें अपने पाठ पर ध्यान केन्द्रित करने में सहायता दे सकता है। इसलिए कैली ने लिखा है कि, “सीखने की प्रक्रिया में प्रेरणा का एक केन्द्रीय स्थान है।”

2. रुचि का विकास :
बालक बिना रुचि के अध्ययन नहीं करते। जब बालक में रुचि जाग्रत हो। जाती है, तो वह किसी विषय या तथ्य को तुरन्त समझ जाता है। ध्यान की एकाग्रता और रुचि में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। ऐसी दशा में अध्यापक का कर्तव्य है कि वह प्रेरणा का उचित प्रयोग करके बालकों में अध्ययन के प्रति रुचि जाग्रत करे। थॉमसन के कवि अनुसार, प्रेरणा छात्रों में रुचि जाग्रत करने की कला हैं।”

3. सीखने की इच्छा का विकास :
प्रेरणा से बालकों में सीखने की इच्छा को बलवली बनाया जा सकता है। इसके लिए अध्यापक को छात्रों की समस्या की जानकारी करा देनी चाहिए तथा उनके लक्ष्य का महत्त्व बता देना चाहिए और साथ-ही-साथ उसमें आत्मविश्वास की भावना जाग्रत करनी चाहिए।

4. लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक :
यदि बालकों को लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रेरित किया जाए तो वे अपने कार्य में विशेष लगन और श्रम से जुट जाते हैं। वास्तव में किसी लक्ष्य को प्राप्त करने में प्रेरणा का विशेष हाथ रहता है। अतः अध्यापक को इस दिशा में विशेष ध्यान देना चाहिए।

5. अच्छी आदतों के विकास में सहायक :
अच्छी आदतें नवीन ज्ञान को विकसित करने में सहायक होती हैं। यदि अध्यापक बालकों को श्रेष्ठ आदतें डालने के लिए प्रेरित करें तो उन्हें अनेक लाभ होंगे। यदि उनमें सीखने तथा पढ़ने की आदतों का निर्माण कर दिया जाए तो स्वयं अध्ययन में ध्यान लगाएँगे।

6. ज्ञान की प्राप्ति में सहायक :
प्रेरणा द्वारा बालकों को अधिक ज्ञानार्जन के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। अध्यापकों को चाहिए कि वह प्रभावशाली शिक्षण विधियों का प्रयोग करके बालकों को तीव्र गति से ज्ञानार्जन के लिए प्रेरित करे। इसके लिए वे प्रतियोगिता का सहारा ले सकते हैं।

7. अभिवृत्ति के विकास में सहायक :
प्रेरणा बालकों में अभिवृत्ति का विकास करने में सहायक होती है। अध्यापक उचित ढंग से प्रेरित करके बालकों में श्रेष्ठ अभिवृत्तियों का विकास कर सक अभिवृत्तियों का विकास हो जाने से बालक सरलता से कार्य को सीख जाते हैं।

8. सामाजिक गुणों का विकास :
यदि अध्यापक बालकों को सामुदायिक कार्यों में भाग लेने के लिए प्रेरित करता है तो उनमें सामाजिकता तथा सामुदायिकता का विकास सरलता से किया जा सकता है। विभिन्न सामाजिक प्रेरकों के द्वारा बालकों को सामाजिक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

9. चरित्र के निर्माण में सहायक :
शिक्षा की दृष्टि से चरित्र-निर्माण का विशेष महत्त्व है। एक आदर्श चरित्र वाले व्यक्ति की संकल्पशक्ति तथा चित्त को एकाग्र करने की शक्ति अत्यन्त दृढ़ होती है।  प्रेरणा द्वारा बालकों में विभिन्न सद्गुण उत्पन्न किये जा सकते हैं तथा उनकी इच्छाशक्ति को दृढ़ बनाया जा सकता है।

10. अनुशासन स्थापना में सहायक :
अनुशासनहीन बालक पढ़ने-लिखने के प्रति लापरवाह होते हैं। प्रेरणा के माध्यम से बालकों में अनुशासन की भावना विकसित की जा सकती है। अध्यापक उन्हें सकार्यों के लिए प्रेरित कर सकते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रेरणा सीखने तथा शिक्षण प्रक्रिया का मुख्य आधार है।

प्रेरणा का प्रभावशाली प्रयोग करके अध्यापक बालकों को उनके लक्ष्य तक पहुँचा सकता है तथा उनमें सद्गुणों का विकास कर चारित्रिक दृढ़ता उत्पन्न कर सकता है। हैरिस के अनुसार, “प्रेरणा की समस्या शिक्षा मनोविज्ञान और कक्षा-भवन की प्रक्रिया, दोनों के लिए केन्द्रीय महत्त्व की है।”

प्रश्न 3
बालकों को प्रेरित करने की मुख्य विधियों का उल्लेख कीजिए।
या
शिक्षा में प्रेरणा प्रदान करने की विधियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
बालक को प्रेरित करने की विधियाँ
सीखने में प्रेरणा का विशेष योगदान रहता है। बालकों को सिखाने में प्रेरणा को एक साधन के रूप में प्रयोग करना प्रत्येक अध्यापक का कर्तव्य है। उसका कर्तव्य है कि बालकों को नवीन ज्ञान प्राप्त करने के लिए अधिक-से-अधिक प्रेरित करे। यहाँ पर हम कुछ ऐसी विधियों का उल्लेख करेंगे, जिनके द्वारा छात्रों को समुचित तरीके से प्रेरित किया जा सकता है

1. आवश्यकताओं का ज्ञान :
प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं के वशीभूत होकर कार्य करता है। अध्यापक का कर्तव्य है कि बालकों को पाठ्य-सामग्री की आवश्यकता का ज्ञान कराये। वह बताये कि अमुक विषय का अध्ययन किस आवश्यकता की पूर्ति करता है।

2. संवेगात्मक स्थिति का ध्यान :
अध्यापक को बालकों की संवेगात्मक स्थिति का भी ध्यान रखना चाहिए। यदि अध्यापक सिखाये जाने वाले विषय का सम्बन्ध बालकों के संवेगों से स्थापित कर देता है। तो उन्हें प्रेरित करने में उसे पूर्ण सफलता मिलेगी। इसके अतिरिक्त प्रत्येक तथ्य का प्रतिपादन इस ढंग से किया जाना चाहिए कि बालक उससे घृणी न करके प्रेम करे।

3. रुचि :
प्रेरणा प्रदान करने के लिए पाठक में रुचि उत्पन्न करना अत्यन्त आवश्यक है। रुचि से सम्बन्धित करके यदि पाठ पढ़ाया। जाएगा तो बालकों को इच्छानुसार प्रेरित करने में सुगमता होगी।

4. खेल – विधि का प्रयोग :
छोटे बालक खेल में विशेष रुचि लेते हैं। यदि बालकों को खेल के माध्यम से ज्ञान प्रदान किया जाएगा तो वे अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित होंगे। छोटे-बालकों के यथासम्भव खेल-विधि द्वारा ही ज्ञान प्रदान किया जाए।

5. कक्षा का वातावरण :
कक्षा का वातावरण भी प्रेरणामय होना चाहिए। प्रत्येक कक्षा का वातावरण विषय और शिक्षण के अनुकूल होना चाहिए। यदि विज्ञान-कक्षा विभिन्न वैज्ञानिक उपकरणों तथा यन्त्रों से सुसज्जित है तो छात्र वैज्ञानिक अध्ययन के लिए सरलता से प्रेरित हो जाएँगे।

6. विद्यालय का वातावरण :
कक्षा के समान सम्पूर्ण विद्यालय का वातावरण भी प्रेरणामय होना चाहिए। विद्यालय में स्थान-स्थान पर विभिन्न विषयों सम्बन्धी सूचनात्मक घट तथा महापुरुषों के चित्र लगे हों, छात्रों को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के अध्ययन की सुविधाएँ प्राप्त हो, विद्यालय में सुन्दर .. पुस्तकालय हो तथा अध्यापक बालकों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करते हों और उन्हें हर प्रकार की सूचना देने में आनन्द का अनुभव करते हों, तो ऐसे विद्यालय के छात्र शीघ्रता से प्रेरणा प्राप्त करेंगे।

7. प्रगति का ज्ञान :
जब बालक को यह ज्ञात हो जाता है कि वह अपने कार्य में पर्याप्त प्रगति कर ‘ रहा है तो वह आगे कार्य करने की प्रेरणा ग्रहण करता है। अतः अध्यापक को चाहिए कि वे बालकों को उनकी प्रगति का भी ज्ञान कराते रहें।

8. सफलता :
जब बालक अपने किसी कार्य में सफलता प्राप्त कर लेता है, तो उसे आगे कार्य करने की प्रेरणा मिलती है। फ्रेण्डसन (Frandson) के अनुसार, “सीखने के सफल अनुभव अधिक सीखने की प्रेरणाएँ प्रदान करते हैं। ऐसी दशा में अध्यापक को अपना शिक्षण इस ढंग से करना चाहिए, जिससे कि बालक अपने कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकें।

9. परिणाम का ज्ञान :
वुडवर्थ (Wood worth) के अनुसार, “प्रेरणा परिणामों की तात्कालिक जानकारी से प्राप्त होती है। अतः अध्यापक को चाहिए कि वह बालकों को पाठ्य-विषयं की जानकारी भली प्रकार करा दे और शिक्षण प्रारम्भ करने के पूर्व ही उन्हें यह बता दे कि अमुक पाठ्य-विषय के अध्ययन से उन्हें क्या लाभ होगा?

10. विचार गोष्ठी:
विचार गोष्ठियों द्वारा बालकों को प्रभावशाली तरीके से प्रेरित किया जा सकता है। अतः कक्षा में अध्यापक को समय-समय पर विचार गोष्ठियों (Seminars) का आयोजन करना चाहिए।

11. प्रतियोगिता :
बालकों में स्वभावतः प्रतियोगिता एवं प्रतिस्पर्धा की भावनाएँ पायी जाती हैं। इस भावना का प्रयोग करके बालकों को प्रभावशाली ढंग से प्रेरित किया जा सकता है। अतः विद्यालय में प्रतिस्पर्धा की क्रियाओं को पर्याप्त संख्या में आयोजित किया जाए, जिससे कि समस्त छात्र किसी-न-किसी रूप में सफलता प्राप्त कर सकें। इन प्रतियोगिताओं में असफल छात्रों को डॉटा-फटकारा भी न जाए; परन्तु प्रतियोगिता को इतना अधिक महत्त्व न दिया जाए कि विद्यालय की सामूहिकता की भावनां नष्ट हो जाएं।

12. सामाजिक तथा सामुदायिक कार्यों में भाग लेना :
बालकों को सामाजिक तथा सामुदायिक कार्यों में भाग लेने के पर्याप्त अवसर मिलने चाहिए। इन कार्यों में भाग लेने से उनके अहम् की सन्तुष्टि होती है और वे आत्म-सम्मान तथा आत्म-प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए प्रेरित होते हैं।

13. प्रशंसा :
हरलॉक के अनुसार, प्रशंसां एक प्रभावशाली प्रेरक है। अच्छे कार्य की प्रशंसा करके बालकों को प्रेरित किया जा सकता है। अतः अध्यापक को बालकों की समय-समय पर अच्छे कार्यों के लिए प्रशंसा करनी चाहिए।

14. पुरस्कार :
पुरस्कार द्वारा भी बालकों को प्रोत्साहित तथा प्रेरित किया जा सकता है। पुरस्कार पाकर बालक प्रफुल्लित होते हैं और वे कार्य करने के लिए प्रेरित होते हैं। पुरस्कार बालकों के मनोबल को भी ऊँचा उठाते हैं। इसमें बालकों में प्रतिस्पर्धा की भावना का भी विकास होता है और वे अधिक लगन तथा उत्साह से कार्य करते हैं। इसके साथ-ही-साथ पुरस्कार बालकों के अहम् की भी सन्तुष्टि करते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्रेरकों का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
विभिन्न विद्वानों ने प्रेरकों का वर्गीकरण निम्नवत् किया है
1. थॉमसन (Thomson) के अनुसार

  • स्वाभाविक प्रेरक तथा
  • कृत्रिम प्रेरक

2. गैरेट के अनुसार

  • जैविक व मनोवैज्ञानिक प्रेरक तथा
  • सामाजिक प्रेरक

3. मैस्लो (Maslow) के अनुसार

  • जन्मजात प्रेरक तथा
  • अर्जित प्रेरका

प्रेरकों के मुख्य प्रकारों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित हैं

1. जन्मजात प्रेरक :
ये प्रेरक जन्मजात होते हैं। इसके अन्तर्गत भूख, प्यास, सुरक्षा, यौन आदि प्रेरक आते हैं।

2. अर्जित प्रेरक :
ये प्रेरक वातावरण से प्राप्त होते हैं और इनको अर्जित किया जाता है। आदत्, रुचि, सामुदायिकता आदि अर्जित प्रेरकों के स्वरूप हैं।

3. सामाजिक प्रेरक :
इनका व्यक्तियों के व्यवहार पर विशेष प्रभाव पड़ता है। ये मुख्य रूप से सामाजिक आदर्शो, स्थितियों तथा परम्पराओं के कारण उत्पन्न होते हैं। आत्म-प्रदर्शन, आत्म-सुरक्षा, जिज्ञासा तथा रचनात्मकता सामाजिक प्रेरक हैं।

4. मनोवैज्ञानिक प्रेरक :
इनका जन्म प्रबल मनोवैज्ञानिक दशाओं के कारण होता है। इन प्रेरकों में प्रेम, दुःख, भय, क्रोध तथा आनन्द आते हैं।

5. स्वाभाविक प्रेरक :
स्वाभाविक प्रेरक व्यक्ति के स्वभाव में ही पाये जाते हैं। खेल, सुझाव, अनुकरण, सुख प्राप्ति और प्रतिष्ठा आदि ऐसे ही प्रेरक हैं।

6. कृत्रिम प्रेरक :
कृत्रिम प्रेरक मुख्यतया स्वभाविक प्रेरकों के पूरक के रूप में कार्य करते हैं। सहयोग, व्यक्तिगत तथा सामूहिक कार्य, पुरस्कार, दण्ड व प्रशंसा आदि इन प्रेरकों के रूप हैं। ये व्यक्ति के कार्य तथा व्यवहार को नियन्त्रित तथा प्रोत्साहित करते हैं।

प्रश्न 2
जन्मजात तथा अर्जित प्रेरकों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
जन्मजात एवं अर्जित दोनों ही प्रकार के प्रेरक मनुष्य की आन्तरिक स्थिति से सम्बन्ध रखते हुए उसमें ऐसी क्रियाशीलता पैदा करते हैं जो लक्ष्य की प्राप्ति तक चलती रहती है। इस मौलिक समानता के बावजूद इनके मध्य निम्नलिखित अन्तर दृष्टिगोचर होते हैं
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अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
सकारात्मक प्रेरणा तथा नकारात्मक प्रेरणा से क्या आशय है ?
उत्तर :
प्रेरणा मुख्यतः दो प्रकार की होती है सकारात्मक प्रेरणा तथा नकारात्मक प्रेरणा, इन दोनों प्रकार की प्रेरणाओं का सामान्य परिचय निम्नवर्णित है

1. सकारात्मक प्रेरणा :
इसे आन्तरिक प्रेरणा भी कहते हैं। इस प्रेरणा में व्यक्ति किसी कार्य को अपनी इच्छा से करता है।

2. नकारात्मक प्रेरणा :
इसमें व्यक्ति किसी कार्य को स्वयं अपनी इच्छा से न करके अन्य व्यक्तियों की इच्छा या बाह्य प्रभाव के कारण करता है। यह बाह्य प्रेरणा भी कहलाती है। अध्यापक पुरस्कार, प्रशंसा, निन्दा आदि का प्रयोग करके अपने छात्रों को नकारात्मक प्रेरणा प्रदान करता है।

शिक्षक को चाहिए कि वह यथासम्भव सकारात्मक प्रेरणा का प्रयोग करके बालकों को अच्छे कार्यों में लगाये। परन्तु जब सकारात्मक प्रेरणा से प्रयोजन सिद्ध न हो सके, तभी उसे नकारात्मक प्रेरणा का प्रयोग करना चाहिए।

प्रश्न 2
प्रेरणायुक्त व्यवहार के मुख्य लक्षण क्या हैं ?
उत्तर :
प्रेरणायुक्त व्यवहार के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं

1. अधिक शक्ति का संचालन :
प्रबल प्रेरणा की दशा में व्यक्ति के शरीर में शक्ति को अधिक संचालन हो जाता है। ऐसे में व्यक्ति के समस्त कार्य भी कर सकता है जो सामान्य दशा में उनके लिए कठिन होते हैं।

2. परिवर्तनशीलता :
प्रबल प्रेरणा की दशा में व्यक्ति अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति करने के लिए किये  जाने वाले प्रयासों में बार-बार परिवर्तन भी करता है।

3. निरन्तरता :
प्रबल प्रेरणा की दशा में जब तक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक व्यक्ति निरन्तर प्रयास करता रहता है।

4. लक्ष्य प्राप्त करने की व्याकुलता :
प्रबल प्रेरणा की दशा में व्यक्ति को लक्ष्य को प्राप्त करने की व्याकुलता रहती है।

5. लक्ष्य-प्राप्ति :
जब लक्ष्य-प्राप्ति हो जाती है तब व्यक्ति की व्याकुलता समाप्त हो जाती है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
किसी कार्य को करने के लिए सर्वाधिक अनिवार्य कारक को क्या कहते हैं ?
उत्तर :
किसी कार्य को करने के लिए सर्वाधिक अनिवार्य कारक को प्रेरणा कहते हैं।

प्रश्न 2
प्रेरणा के नितान्त अभाव का व्यक्ति के कार्यों पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर :
प्रेरणा के नितान्त अभाव में व्यक्ति द्वारा कोई कार्य सम्पन्न हो ही नहीं सकता।

प्रश्न 3
प्रेरणा की एक स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
“प्रेरणा वे शारीरिक तथा मानसिक दशाएँ हैं, जो किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करती हैं।” [मैक्डूगल]

प्रश्न 4
“अभिप्रेरणा किसी कार्य को प्रारम्भ करने, जारी रखने और नियन्त्रित करने की प्रक्रिया है।” यह कथन किसका है? [2007]
उत्तर :
अभिप्रेरणा सम्बन्धी प्रस्तुत कथन गुड (Good) का है।

प्रश्न 5
प्रेरणायुक्त व्यवहार का मुख्य लक्षण क्या होता है?
उत्तर :
प्रेरणायुक्त व्यवहार का मुख्य लक्षण है अतिरिक्त शक्ति का संचालन।

प्रश्न 6
अभिप्रेरणा (प्रेरणा) का कोई एक वर्गीकरण बताइए।
उत्तर :
अभिप्रेरणा के एक वर्गीकरण के अन्तर्गत प्रेरणा को दो वर्गों में बाँटा जाता है

  1. जन्मजात प्रेरक तथा
  2. अर्जित प्रेरक

प्रश्न 7
मुख्य जन्मजात प्रेरक कौन-कौन-से हैं?
उत्तर :
मुख्य जन्मजात प्रेरक हैं-भूख, प्यास, निद्रा तथा काम।

प्रश्न 8
प्रशंसा एवं निन्दा किस प्रकार के प्रेरक है?
उत्तर :
प्रशंसा एवं निन्दा सामान्य अर्जित प्रेरक हैं।

प्रश्न 9
अभिप्रेरणा का सीखने पर क्या प्रभाव पड़ता है ? [2008]
उत्तर :
अभिप्रेरणा की दशा में सीखने की प्रक्रिया सुचारु तथा अच्छे रूप में सम्पन्न होती है।

प्रग 10
प्रेरणा के प्रारम्भ के लिए कौन उत्तरदायी होता है?
उत्तर :
प्रेरणा के प्रारम्भ के लिए आवश्यकता की अनुभूति उत्तरदायी होती है।

न 11
प्रेरणा की उत्पत्ति का स्वाभाविक कारण क्या है ? [2011]
उत्तर :
प्रेरणा की उत्पत्ति का स्वाभाविक कारण है-आवश्यकताओं को अनुभव करना एवं आदत।

प्रश्न 12
भूख कैसा प्रेरक है? [2015]
उत्तर :
भूख एक प्रमुख जन्मजात प्रेरक है।

प्रश्न 13
“अभिप्रेरणा सीखने के लिए राजमार्ग है।” किसने कहा है? [2011, 13, 14, 16]
उत्तर :
स्किनर (Skinner) ने।

प्रश्न 14
अभिप्रेरणा से क्या आशय है? [2016]
उत्तर :
अभिप्रेरणा वह मानसिक क्रिया है, जो किसी प्रकार के व्यवहार को प्रेरित करती है।

प्रश्न 15
निम्नलिखित कथन सत्य हैं
या
असत्य

  1. व्यक्ति के समस्त व्यवहार के पीछे निहित मुख्य कारक प्रेरणा ही है।
  2. प्रेरणाओं के नितान्त अभाव में व्यक्ति पूर्ण रूप से निष्क्रिय हो जाता है।
  3. भूख एवं प्यास मुख्य अर्जित प्रेरक हैं।
  4. शिक्षा के क्षेत्र में प्रेरणा का विशेष महत्त्व है।
  5. जीवन में सूफलता प्राप्ति के लिए प्रेरणाओं का विशेष योगदान होता है।

उत्तर :

  1. सत्य
  2. संय
  3. असत्य
  4. सत्य
  5. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
किसी भी व्यवहार के सम्पन्न होने के लिए अनिवार्य कारक है
(क) चिन्तन
(ख) लाभ प्राप्ति की आशा
(ग) प्रेरणा
(घ) संवेग
उत्तर :
(ग) प्रेरणा

प्रश्न 2
“अभिप्रेरणा एक ऐसी मनोदैहिक प्रक्रिया है, जो किसी आवश्यकता की उपस्थिति में  उत्पन्न होती है। वह ऐसी प्रक्रिया की ओर गतिशील होती है, जो आवश्यकता को सन्तुष्ट करती है। यह परिभाषा किसकी है?
(क) लावेल की
(ख) वुडवर्थ की
(ग) गिलफोर्ड की
(घ) शेफर की
उत्तर :
(क) लावेल की

प्रश्न 3
“प्रेरक कोई एक विशेष आन्तरिक कारक यो दशा है, जिसमें किसी क्रिया को आरम्भ करने और बनाये रखने की प्रवृत्ति होती है।” यह परिभाषा किसने दी है ?
(क) मैक्डूगल ने
(ख) वुडवर्थ ने
(ग) गिलफोर्ड ने।
(घ) हिलगार्ड ने
उत्तर :
(ग) गिलफोर्ड ने

प्रश्न 4
प्रेरणा का स्वाभाविक कारण है [2015]
(क) आदत
(ख) संस्कार
(ग) रुचि
(घ) संवेग
उत्तर :
(घ) संवेग

प्रश्न 5
प्रेरणा की उत्पत्ति को अर्जित कारण है
(क) आत्मरक्षा की भावना
(ख) मूल-प्रवृत्तियाँ
(ग) अचेतन मन
(घ) रुचि
उत्तर :
(घ) रुचि

प्रश्न 6
भूख और प्यास कैसे प्रेरक हैं ? [2013]
(क) व्यक्तिगत
(ख) सामाजिक
(ग) जन्मजात
(घ) अर्जित
उत्तर :
(ग) जन्मजात

प्रश्न 7
प्रेरणा छात्र में रुचि उत्पन्न करने की कला है।” यह किसका मत है ?
(क) गेट्स का
(ख) वुडवर्थ का
(ग) थॉमसने का
(घ) जे० एस० रॉस का
उत्तर :
(ग) थॉमसन का ।

प्रश्न 8
प्रेरणा परिणामों के तत्कालिक ज्ञान से प्राप्त होती है।” यह कथन किसका है?
(क) वुडवर्थ का
(ख) मैक्डूगल को
(ग) हिलगार्ड का
(घ) कोहलर का
उत्तर :
(क) वुडवर्थ को

प्रश्न 9
शिक्षा के प्रति प्रेरित बालक के लक्षण हैं
(क) अनुशासन के प्रति ईमानदार
(ख) अध्ययन में एकाग्रता
(ग) सद्गुणों तथा अच्छी आदतों से युक्त
(घ) ये सभी लक्षण
उत्तर :
(घ) ये सभी लक्षणे

प्रश्न 10
व्यक्ति की जन्मजात प्रेरणा है [2012, 14]
(क) आदत
(ख) मनोरंजन
(ग) भूख
(घ) महत्त्वाकांक्षा का स्तर
उत्तर :
(ग) भूख

प्रश्न 11
गैरेट के अनुसार प्रेरणा के कितने प्रकार हैं? [2016]
(क) 5
(ख) 3
(ग) 8
(घ) 6
उत्तर :
(ख) 3

प्रश्न 12
‘प्यास किस प्रकार का प्रेरक है? [2016]
(क) अजित
(ख) जन्मजात
(ग) सामाजिक
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(ख) जन्मजात

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