UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem (पारितन्त्र) are part of UP Board Solutions for Class 12 Biology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem (पारितन्त्र).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Chapter Chapter 14
Chapter Name Ecosystem
Number of Questions Solved 31
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem (पारितन्त्र)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
रिक्त स्थानों को भरो –

  1. पादपों को ……. कहते हैं; क्योंकि ये कार्बन डाइऑक्साइड का स्थिरीकरण करते हैं।
  2. पादप (वृक्ष) द्वारा प्रमुख पारितंत्र का पिरामिड (संख्या का) …… प्रकार का है।
  3. एकजलीय पारितन्त्र में उत्पादकता का सीमा कारक ……. है।
  4. हमारे पारितन्त्र में सामान्य अपरदाहारी …….. हैं।
  5. पृथ्वी पर कार्बन का प्रमुख भण्डार ……. है।

उत्तर

  1. स्वपोषी
  2. उल्टा
  3. प्रकाश
  4. केंचुए तथा सूक्ष्मजीवी,
  5. समुद्र।

प्रश्न 2.
एक खाद्य श्रृंखला में निम्नलिखित में सर्वाधिक संख्या किसकी होती है?
(क) उत्पादक
(ख) प्राथमिक उपभोक्ता
(ग) द्वितीयक उपभोक्ता
(घ) अपघटक
उत्तर
(घ) अपघटक।

प्रश्न 3.
एक झील में द्वितीय (दूसरा) पोषण स्तर होता है –
(क) पादपप्लवक
(ख) प्राणिप्लवक
(ग) नितलक (बैनथॉस)
(घ) मछलियाँ
उत्तर
(ख) प्राणिप्लवक।

प्रश्न 4.
द्वितीयक उत्पादक हैं –
(क) शाकाहारी (शाकभक्षी)
(ख) उत्पादक
(ग) मांसाहारी (मांसभक्षी)
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(क) शाकाहारी (शाकभक्षी)।

प्रश्न 5.
प्रासंगिक सौर विकिरण में प्रकाश संश्लेषणात्मक सक्रिय विकिरण का क्या प्रतिशत होता है?
(क) 100%
(ख) 50%
(ग) 1 – 5%
(घ) 2 – 10%
उत्तर
(घ) 2 – 10%.

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में अन्तर स्पष्ट करें –
(क) चारण खाद्य श्रृंखला एवं अपरद खाद्य श्रृंखला
(ख) उत्पादन एवं अपघटन
(ग) ऊर्ध्ववर्ती (शिखरांश) एवं अधोवर्ती पिरामिड
उत्तर
(क) चारण खाद्य श्रृंखला एवं अपरद खाद्य श्रृंखला में अन्तर
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(ख) उत्पादन एवं अपघटन में अन्तर
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(ग) ऊर्ध्ववर्ती एवं अधोवर्ती पिरामिड में अन्तर
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प्रश्न 7.
निम्नलिखित में अन्तर स्पष्ट करें –
(क) खाद्य श्रृंखला तथा खाद्य जाल (वेब) (2009, 10, 11, 14, 16, 17)
(ख) लिटर (कर्कट) एवं अपरद
(ग) प्राथमिक एवं द्वितीयक उत्पादकता
उत्तर
(क) खाद्य श्रृंखला तथा खाद्य जाल में अन्तर
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(ख) लिटर (कर्कट) एवं अपरद में अन्तर
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(ग) प्राथमिक एवं द्वितीयक उत्पादकता में अन्तर
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प्रश्न 8.
पारिस्थितिक तन्त्र के घटकों की व्याख्या कीजिए। (2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18)
या
परिस्थितिक तन्त्र की परिभाषा लिखिए। (2018)
उत्तर
स्थलमण्डल, जलमण्डल तथा वायुमण्डल का वह क्षेत्र जिसमें जीवधारी रहते हैं जैवमण्डल (biosphere) कहलाता है। जैवमण्डल में पाए जाने वाले जैवीय (biotic) तथा अजैवीय (abiotic) घटकों के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन पारितन्त्र (ecosystem) कहलाता है। पारितन्त्र या पारिस्थितिक तन्त्र (ecosystem) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम टैन्सले (Tansley, 1935) ने किया था। यदि जीवमण्डल में जैविक, अजैविक अंश तथा भूगर्भीय, रासायनिक व भौतिक लक्षणों को शामिल करें तो यह पारिस्थितिक तन्त्र बनता है।

पारिस्थितिक तन्त्र सीमित व निश्चित भौतिक वातावरण का प्राकृतिक तन्त्र है जिसमें जीवीय (biotic) तथा अजीवीय (abiotic) अंशों की संरचना और कार्यों का पारस्परिक आर्थिक सम्बन्ध सन्तुलन में रहता है। इसमें पदार्थ तथा ऊर्जा का प्रवाह सुनियोजित मार्गों से होता है।

पारिस्थितिक तन्त्र के घटक
पारिस्थितिक तन्त्र के मुख्यतया दो घटक होते हैं- जैविक तथा अजैविक घटक।
1. जैविक घटक (Biotic components) – पारिस्थितिक तन्त्र में तीन प्रकार के जैविक घटक होते हैं- स्वपोषी (autotrophic), परपोषी (heterotrophic) तथा अपघटक (decomposers)।
(अ) स्वपोषी घटक (Autotrophic component) – हरे पादप पारितन्त्र के स्वपोषी घटक होते हैं। ये सौर ऊर्जा तथा क्लोरोफिल की उपस्थिति में CO2 तथा जल से प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा कार्बनिक भोज्य पदार्थों का संश्लेषण करते हैं। हरे पादप उत्पादक (producer) भी कहलाते हैं। हरे पौधों में संचित खाद्य पदार्थ दूसरे जीवों का भोजन है।
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(ब) परपोषी घटक (Heterotrophic components) – ये अपना भोजन स्वयं नहीं बना सकते, ये भोजन के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पौधों पर निर्भर रहते हैं। इन्हें उपभोक्ता (consumer) कहते हैं। उपभोक्ता तीन प्रकार के होते हैं –

  1. प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता अथवा शाकाहारी (Herbivores) – ये उपभोक्ता अपना भोजन सीधे उत्पादकों (हरे पौधों) से प्राप्त करते हैं। इन्हें शाकाहारी कहते हैं। जैसे-गाय, बकरी, भैंस, चूहा, हिरन, खरगोश आदि।
  2. द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता अथवा मांसाहारी (Carnivores) – द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता भोजन के लिए शाकाहारी जन्तुओं का भक्षण करते हैं, इन्हें मांसाहारी कहते हैं जैसे- मेढक, साँप आदि।
  3. तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता – तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता से भोजन प्राप्त करते हैं जैसे- शेर, चीता, बाज आदि।
    कुछ जन्तु सर्वाहारी (omnivores) होते हैं, ये पौधों अथवा जन्तुओं से भोजन प्राप्त कर सकते हैं जैसे- कुत्ता, बिल्ली, मनुष्य आदि।

(स) अपघटक (Decomposers) – ये जीव कार्बनिक पदार्थों को उनके अवयवों में तोड़ देते हैं। ये मुख्यत: उत्पादक व उपभोक्ता के मृत शरीर का अपघटन करते हैं। इन्हें मृतजीवी भी कहते हैं। सामान्यतः ये जीवाणुकवक होते हैं। इसके फलस्वरूप प्रकृति में खनिज पदार्थों का चक्रण होता रहता है। उत्पादक, उपभोक्ता व अपघटक सभी मिलकर बायोमास (biomass) बनाते हैं।

2. अजैविक घटक (Abiotic components) – किसी भी पारितन्त्र के अजैविक घटक तीन भागों में विभाजित किए जा सकते हैं –

  1. जलवायवीय घटक (Climatic components) – जल, ताप, प्रकाश आदि।
  2. अकार्बनिक पदार्थ (Inorganic substances) – C, O, N, CO2 आदि। ये विभिन्न चक्रों के माध्यम से जैव-जगत् में प्रवेश करते हैं।
  3. कार्बनिक पदार्थ (Organic substances) – प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा आदि। ये अपघटित होकर पुनः सरल अवयवों में बदल जाते हैं।
    कार्यात्मक दृष्टि से अजैविक घटक दो भागों में विभाजित किए जाते हैं –

    1. पदार्थ (Materials) – मृदा, वायुमण्डल के पदार्थ जैसे- वायु, गैस, जल, CO2, O2, N2, लवण जैसे- Ca, S, P कार्बनिक अम्ल आदि।
    2. ऊर्जा (Energy) – विभिन्न प्रकार की ऊर्जा जैसे- सौर ऊर्जा, तापीय ऊर्जा, गतिज ऊर्जा, रासायनिक ऊर्जा आदि।

प्रश्न 9.
पारिस्थितिकी पिरैमिड को परिभाषित कीजिए तथा जैवमात्रा या जैवभार तथा संख्या के पिरैमिडों की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए। (2014, 15, 16, 17)
उत्तर
पारिस्थितिक पिरैमिड
पारितन्त्र में खाद्य श्रृंखला के विभिन्न पोषक स्तरों में जीवधारियों के सम्बन्धों का रेखीय चित्रण पारिस्थितिक पिरैमिड (pyramid) कहलाता है। पिरैमिड पारितन्त्र में जीव की संख्या, जीवभार तथा जैव ऊर्जा को प्रदर्शित करते हैं। इनका सर्वप्रथम प्रदर्शन एल्टन (Elton, 1927) ने किया था। इनमें सबसे नीचे का पोषी स्तर उत्पादक का होता है तथा सबसे ऊपर का पोषी स्तर सर्वोच्च उपभोक्ता का होता है।

(i) जीवभार का पिरैमिड (Pyramid of biomass) – जीव के ताजे (fresh) अथवा शुष्क (dry) भार के रूप में प्रत्येक पोषी स्तर को मापा जाता है। स्थलीय पारितन्त्र में उत्पादक का जीवभार सर्वाधिक होता है। अतः पिरैमिड सीधा रहता है। तालाबीय पारितन्त्र में उत्पादक का भार सबसे कम होता है। अतः पिरैमिड उल्टा बनता है। जीवभार को g/m2 में मापा जाता है।
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(ii) संख्या का पिरैमिड (Pyramid of numbers) – इस पिरैमिड में विभिन्न पोषी स्तर के जीवों की संख्या को प्रदर्शित करते हैं। घास तथा तालाब पारितन्त्र में संख्या का पिरैमिड सीधा (upright) होता है। वृक्ष पारितन्त्र में उत्पादकों की संख्या सबसे कम (एक वृक्ष) तथा अन्तिम उपभोक्ता की संख्या सर्वाधिक होती है अतः यह पिरैमिड उल्टा होता है।
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प्रश्न 10.
प्राथमिक उत्पादकता क्या है? उन कारकों की संक्षेप में चर्चा कीजिए जो प्राथमिक उत्पादकता को प्रभावित करते हैं।
उत्तर
प्राथमिक उत्पादकता (Primary Productivity) – हरे पौधे प्रकाश संश्लेषण द्वारा सौर ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में रूपान्तरित करके कार्बनिक पदार्थों में संचित कर देते हैं। यह क्रिया पर्णहरित तथा सौर प्रकाश की उपस्थिति में CO2 तथा जल के उपयोग द्वारा होती है। इस क्रिया के फलस्वरूप जैव जगत में सौर ऊर्जा का निरन्तर निवेश होता रहता है।

प्रकाश संश्लेषण द्वारा संचित ऊर्जा को प्राथमिक उत्पादन (primary production) कहते हैं। एक निश्चित अवधि में प्रति इकाई क्षेत्र में उत्पादित जीवभार (biomass) या कार्बनिक पदार्थ की मात्रा को भार (g/m2) या ऊर्जा (kcal/m2) के रूप में अभिव्यक्त करते हैं। ऊर्जा की संचय दर को प्राथमिक उत्पादकता (primary productivity) कहते हैं। इसे kcal/m2/yr  या  g/m2/r में अभिव्यक्त करते हैं।

प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में हरे पौधों द्वारा कार्बनिक पदार्थों में स्थिर (fixed) सौर ऊर्जा की कुल मात्रा को सकल प्राथमिक उत्पादन (Gross Primary Production : G.PP) कहते हैं।

प्राथमिक उत्पादकता को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Primary Production)-प्राथमिक उत्पादकता एक सुनिश्चित क्षेत्र में पादप प्रजातियों की प्रकृति पर निर्भर करती है। यह विभिन्न प्रकार के पर्यावरणीय कारकों (प्रकाश, ताप, वर्षा, आर्द्रता, वायु, वायुगति, मृदा का संघटन, स्थलाकृतिक कारक तथा सूक्ष्मजैवीय कारक आदि), पोषकों की उपलब्धता (मृदा कारक) तथा पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्षमता पर निर्भर करती है। इस कारण विभिन्न पारितन्त्रों की प्राथमिक उत्पादकता भिन्न-भिन्न होती है। मरुस्थल में प्रकाश तीव्र होता है, ताप की अधिकता और जल की कमी होती है। अत: इन क्षेत्रों में जल की कमी के कारण पोषकों की उपलब्धता कम रहती है। इस प्रकार प्राथमिक उत्पादकता प्रभावित होती है। इसके विपरीत उपयुक्त प्रकाश एवं ताप की उपलब्धता के कारण शीतोष्ण प्रदेशों में उत्पादन अधिक होता है।

प्रश्न 11.
अपघटन की परिभाषा दीजिए तथा अपघटन की प्रक्रिया एवं उसके उत्पादों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर
अपघटन (Decomposition) – अपघटकों (decomposers) जैसे- जीवाणु, कवक आदि द्वारा जटिल कार्बनिक पदार्थों को सरल अकार्बनिक पदार्थों जैसे-कार्बन डाइऑक्साइड, जल एवं पोषक तत्त्वों में विघटित करने की प्रक्रिया को अपघटन (decomposition) कहते हैं।

पादपों के मृत अवशेष जैसे- पत्तियाँ, छाल, फूल आदि तथा जन्तुओं के मृत अवशेष, मलमूत्र आदि को अपरद (डेट्राइटस-detritus) कहते हैं। अपघंटन की प्रक्रिया के महत्त्वपूर्ण चरण खण्डन, निक्षालन, अपचयन, ह्यूमस निर्माण तथा पोषक तत्त्वों का मुक्त होना है। केंचुए आदि को अपरदाहारी (detritivores) कहते हैं। ये अपरदे को छोटे-छोटे कणों में खण्डित करते हैं। इस प्रक्रिया को खण्डन (fragmentation) कहते हैं।

निक्षालन (leaching) प्रक्रिया में जल में घुलनशील अकार्बनिक पोषक मृदा में प्रवेश कर जाते हैं। शेष पदार्थ का अपचय जीवाणु तथा कवक द्वारा होता है। ह्यूमस निर्माण (humification) के फलस्वरूप गहरे भूरे-काले रंग का भुरभुरा पदार्थ ह्युमस (humus) बनता है। खनिजीकरण (mineralization) के फलस्वरूप ह्युमस (humus) से पोषक तत्त्व मुक्त हो जाते हैं। गर्म तथा आर्द्र वातावरण में अपघटन प्रक्रिया तीव्र होती है।

प्रश्न 12.
एक पारिस्थितिक तन्त्र में ऊर्जा प्रवाह का वर्णन कीजिए। (2015)
उत्तर
पारितन्त्र में ऊर्जा प्रवाह
पारितन्त्र को ऊर्जा मुख्य रूप से सौर ऊर्जा के रूप में प्राप्त होती है। सौर ऊर्जा का उपयोग हरे पादप (उत्पादक) ही कर सकते हैं। उत्पादक (हरे पौधे) प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा सौर ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में बदलकर कार्बनिक पदार्थों के रूप में संचित करते हैं। खाद्य पदार्थ के रूप में ऊर्जा उत्पादक (producers) से विभिन्न स्तर के उपभोक्ताओं (consumers) को प्राप्त होती है। ऊर्जा को प्रवाह एकदिशीय (unidirectional) होता है।
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प्रत्येक खाद्य स्तर पर उपलब्ध ऊर्जा का 90% जीवधारी की जैविक क्रियाओं में खर्च हो जाता है, केवल 10% संचित ऊर्जा ही अगले खाद्य स्तर को हस्तान्तरित होती है। हस्तान्तरण के समय भी कुछ ऊर्जा का ह्रास होता है। इस प्रकार एक खाद्य स्तर से दूसरे खाद्य स्तर में केवल 10% ऊर्जा हस्तान्तरित होती है।

उदाहरणार्थ – एक खाद्य श्रृंखला में यदि उत्पादक के पास 100% ऊर्जा है तो प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता (शाकाहारी) को केवल 10% ऊर्जा मिलेगी। उससे दूसरी श्रेणी के उपभोक्ता (मांसाहारी) को केवल 1% ऊर्जा मिलेगी। इसी प्रकार अगली श्रेणी के उपभोक्ता को 0.1% ऊर्जा मिलती है। इस प्रकार एक से दूसरी श्रेणी के जीव को केवल 10% ऊर्जा पिछली श्रेणी से प्राप्त हो सकती है। उपभोक्ता में सर्वाधिक ऊर्जा केवल शाकाहारियों को प्राप्य है।
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पारितन्त्र में ऊर्जा को एकपक्षीय प्रवाह तथा अकार्बनिक पदार्थों के परिसंचरण का पारिस्थितिकी सिद्धान्त सभी जीवों एवं पर्यावरण पर लागू होता है।

प्रश्न 13.
एक पारिस्थितिक तन्त्र में एक अवसादीय चक्र की महत्त्वपूर्ण विशिष्टताओं का वर्णन करें।
उत्तर
एक पारिस्थितिक तन्त्र में एक अवसादीय चक्र की महत्त्वपूर्ण विशिष्टताएँ इस प्रकार हैं –

  1. अवसादी चक्र (जैसे- सल्फर एवं फॉस्फोरस चक्र) के भण्डार धरती के पटल में स्थित होते हैं।
  2. पर्यावरणीय घटक (जैसे- मिट्टी, आर्द्रता, pH, ताप आदि) वायुमण्डल में पोषकों के मुक्त होने की दर तय करते हैं।
  3. एक भण्डार की क्रियाशीलता, कमी को पूरा करने के लिए होती है जोकि अन्तर्वाह एवं बहिर्वाह की दर के असंतुलन के कारण संपन्न होती है।
  4. अवसादी चक्र की गति गैसीय चक्र की अपेक्षा बहुत धीमी होती है।
  5. वायुमण्डल में अवसादी चक्र का निवेश कार्बन निवेश की अपेक्षा बहुत कम होता है।
  6. अवसादी पोषक तत्त्वों की एक बहुत घनी मात्रा पृथ्वी के अन्दर अचलायमान स्थिति में संचित रहती है।

प्रश्न 14.
एक पारिस्थितिक तंत्र में कार्बन चक्रण की महत्त्वपूर्ण विशिष्टताओं की रूपरेखा प्रस्तुत करें।
उत्तर
एक पारितन्त्र में कार्बन चक्रण की महत्त्वपूर्ण विशिष्टताएँ इस प्रकार हैं –

  1. जीवों के शुष्क भार का 49% भाग कार्बन से बना होता है।
  2. समुद्र में 71% कार्बन विलेय के रूप में विद्यमान है। यह सागरीय कार्बन भण्डार वायुमण्डल में CO2 की मात्रा को नियमित करता है।
  3. जीवाश्मी ईंधन भी कार्बन के एक भण्डार का प्रतिनिधित्व करता है।
  4. कार्बन चक्र वायुमण्डल, सागर तथा जीवित एवं मृतजीवों द्वारा संपन्न होता है।
  5. अनुमानतः जैव मण्डल में प्रकाश संश्लेषण के द्वारा प्रतिवर्ष 4 x 1013 किग्रा कार्बन का स्थिरीकरण होता है।
  6. एक महत्त्वपूर्ण कार्बन की मात्रा CO2 के रूप में उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं की श्वसन क्रिया के माध्यम से वायुमण्डल में वापस आती है। भूमि एवं सागरों में कचरा सामग्री एवं मृत कार्बनिक सामग्री के अपघटन की प्रक्रियाओं द्वारा भी CO2 की काफी मात्रा अपघटकों द्वारा छोड़ी जाती है।
  7. यौगिकीकृत कार्बन की कुछ मात्रा अवसादों में नष्ट होती है और संचरण द्वारा निकाली जाती है।
  8. लकड़ी के जलाने, जंगली आग एवं जीवाश्मी ईंधन के जलने के कारण, कार्बनिक सामग्री, ज्वालामुखीय क्रियाओं आदि अतिरिक्त स्रोतों द्वारा वायुमण्डल में CO2 को मुक्त किया जाता है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
पारिस्थितिकी सिद्धान्त को प्रतिपादित करने वाले वैज्ञानिक का नाम बताइए (2016)
(क) ए०जी० टैन्सले
(ख) के०आर० स्पोनें
(ग) जे०डी० वाटसन
(घ) एफ०एच०सी० क्रिक
उत्तर
(क) ए०जी० टैन्सले

प्रश्न 2.
पारिस्थितिक तन्त्र से सम्बन्धित वैज्ञानिक हैं। (2016)
(क) बीरबल साहनी
(ख) आर० मिश्रा
(ग) राम उदार
(घ) के०सी० मेहता
उत्तर
(ख) आर० मिश्रा

प्रश्न 3.
पोखर पारिस्थितिक तन्त्र में निम्नलिखित में से कौन प्राथमिक उत्पादक है? (2012, 15)
(क) शैवाल
(ख) कवक
(ग) विषाणु
(घ) जीवाणु
उत्तर
(क) शैवाल

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ऊर्जा के पिरैमिड की मुख्य विशेषता क्या है? (2016)
उत्तर
पारितंत्र में ऊर्जा का प्रवाह एकदिशीय होता है तथा ऊर्जा का पिरैमिड सदैव सीधा होता है।

प्रश्न 2.
उस जीवाणु का नाम लिखिए जो दलहनी पौधों की जड़ों की ग्रन्थियों में पाया जाता है। (2017, 18)
उत्तर
राइजोबियम लेग्यूमिनोसेरमा

प्रश्न 3.
लेगहीमोग्लोबिन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2017)
उत्तर
सहजीवी जीवाणु राइजोबियम दाल वाले पौधों की जड़ों के कॉर्टेक्स में लेग-हीमोग्लोबिन वर्णक एवं नाइट्रोजनेज एन्जाइम का संश्लेषण करता है। लेग-हीमोग्लोबिन कॉर्टेक्स कोशिकाओं में अवायवीय अवस्था को बनाये रखने में सहायक होता है।

प्रश्न 4.
कौन-सा शैवाल नाइट्रोजन स्थिरीकरण में भाग लेता है? (2012)
उत्तर
नाइट्रोसोमोनास (Nitrosomonas)।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
उत्पादक तथा उपभोक्ता में अन्तर बताइए। (2013, 14, 17)
उत्तर
उत्पादक तथा उपभोक्ता में अन्तर
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प्रश्न 2.
घास स्थल पारिस्थितिक तन्त्र की एक प्रारूपिक खाद्य श्रृंखला का वर्णन कीजिए। (2009)
या
खाद्य श्रृंखला पर टिप्पणी लिखिए। (2009, 10, 15)
उत्तर
खाद्य श्रृंखला
सभी जीवों को अपना जीवन तथा जैव क्रियाएँ चलाने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। पृथ्वी पर ऊर्जा का प्राथमिक तथा एकमात्र स्रोत सूर्य है। इस ऊर्जा को केवल हरे पौधे पर्णहरित द्वारा ग्रहण कर पाते हैं और इसी ऊर्जा का स्थानान्तरण विभिन्न श्रेणी के जन्तुओं में खाद्य स्तरों (trophic levels) द्वारा होता है। प्रत्येक स्तर पर विभिन्न रूपों में 90% ऊर्जा का अपव्यय होता है, जिसमें कुछ ऊर्जा का इस्तेमाल धारक जीव स्वयं करता है। एक खाद्य श्रृंखला में खाद्य स्तरों की संख्या 4 से 5 तक हो सकती है।

इस प्रकार ऊर्जा इन खाद्य स्तरों के सभी जीवों में होकर एक सीधी रेखा में प्रवाहित होती है। और इस प्रकार के जीवों को एक श्रृंखला के रूप में पहचाना जा सकता है। यही श्रृंखला खाद्य श्रृंखला या आहार श्रृंखला (food chain) है, अर्थात् खाद्य श्रृंखला, विभिन्न प्रकार के जीवधारियों का वह क्रम है, जिसके द्वारा एक पारिस्थितिक तन्त्र में खाद्य पदार्थों के रूप में ऊर्जा का प्रवाह एक ही सीधी दिशा में होता है।

किसी भी खाद्य श्रृंखला के लिए हरे पौधे सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में बदलकर खाद्य पदार्थों का निर्माण करते हैं तथा उसे संचित करते हैं। अतः ये उत्पादक (producers) कहलाते हैं। शाकाहारी जन्तु (herbivorous animals) इन उत्पादकों से अपना भोजन प्राप्त करते हैं। अतः ये प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता (consumers) हैं। मांसाहारी जीव (carnivorous animals) अपने भोजन के लिए इन शाकाहारी अथवा अन्य मांसाहारियों पर निर्भर करते हैं।

ये द्वितीय अथवा तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता हैं। इसी प्रकार की खाद्य श्रृंखलाओं, जो एक-दूसरे जीव के भक्षण के लिए एक घास के मैदान में होती हैं, में से एक वह है, जिसमें टिड्डे (grasshopper) अर्थात् प्रथम उपभोक्ता पौधों (उत्पादकों) से अपना भोजन प्राप्त करते हैं, टिड्डों को मेढ़क (frog) खा जाते हैं। मेढ़कों को सर्प (snake) अपना भोजन बना लेते हैं; अन्त में सर्यों को बाज (hawk) अपना भोजन बनाता है।

यहाँ मेढ़क एक कीटाहारी तथा द्वितीय श्रेणी का उपभोक्ता है जबकि मेढ़क को अपना भोजन बनाने वाला सर्प मांसाहारी तथा तृतीय श्रेणी का उपभोक्ता है। सर्प को बाज खा जाता है, जिसको कोई नहीं खाता है अर्थात् बाज उच्चतम मांसाहारी (top carnivore) अथवा सर्वोच्च उपभोक्ता (top consumer) हुआ (चित्र देखिए)। किसी भी खाद्य श्रृंखला में वैकल्पिक रास्ते बनने से वह खाद्य जाल (food web) में बदल जाती है; जैसे-हरे पौधों को खाने वाले चूहे भी हो सकते हैं तथा चूहों को सर्प खा जाते हैं अर्थात् सर्प के लिए मेढ़क के साथ चूहा भी वैकल्पिक भोजन हुआ। इसी प्रकार, बाज के लिए चूहा, सर्प तथा मेढ़क तीनों वैकल्पिक भोजन हुए।
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किसी भी खाद्य श्रृंखला अथवा इनसे बने खाद्य जाल में मृत जीवों तथा इनके मृत अंगों अथवा इनके द्वारा त्यागे गये कार्बनिक पदार्थों को विभिन्न चक्रों के लिए कच्चे पदार्थों में बदलने वाले अपघटक (decomposers) भी होते हैं।
खाद्य श्रृंखलाएँ प्रमुखत: निम्नलिखित तीन प्रकार की होती हैं –

  1. परभक्षी श्रृंखला (Predator Chain) – यह श्रृंखला उत्पादकों अर्थात् हरे पौधों से आरम्भ होती है तथा छोटे जन्तुओं से क्रमशः बड़े जन्तुओं में जाती है।
  2. परजीवी श्रृंखला (Parasitic Chain) – यह श्रृंखला भी हरे पौधों से ही आरम्भ होती है, किन्तु बड़े जीवों से छोटे जीवों की ओर चलती है।
  3. मृतोपजीवी श्रृंखला (Saprophytic Chain) – यह श्रृंखला मृत जीवों या मृत कार्बनिक पदार्थ (dead organic matter) से सूक्ष्म-जीवों (micro-organisms) की ओर चलती है।

प्रश्न 3.
खाद्य जाल पर टिप्पणी लिखिए। (2015)
उत्तर
खाद्य जाल
विभिन्न खाद्य श्रृंखलाएँ मिलकर खाद्य जाल बनाती हैं। किसी एक ही पारितन्त्र में एक से अधिक खाद्य श्रृंखलाएँ पायी जाती हैं। ये पारितन्त्र में भोजन-प्राप्ति के वैकल्पिक पक्ष हैं। जिस पारितन्त्र में जितनी अधिक खाद्य श्रृंखलाएँ होती हैं वह उतना ही स्थिर होती है।

एक घास पारितन्त्र का खाद्य जाल निम्नवत् प्रदर्शित है –
आहारपूर्ति सम्बन्धों के अनुसार सभी जीवों का प्राकृतिक वातावरण या एक समुदाय में अन्य जीवों के साथ एक स्थान होता है। सभी जीव अपने पोषण या आहार के स्रोत के आधार पर आहार श्रृंखला में एक विशेष स्थान ग्रहण करते हैं, जिसे पोषण स्तर के नाम से जाना जाता है। उत्पादक प्रथम पोषण स्तर में आते हैं, शाकाहारी (प्राथमिक उपभोक्ता) दूसरे एवं मांसाहारी (द्वितीयक उपभोक्ता) तीसरे पोषण स्तर से सम्बद्ध होते हैं।
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उत्तरोत्तर पोषण स्तरों पर ऊर्जा की मात्रा घटती जाती है। जब कोई जीव मरता है तो वह अपरद या मृत जैवमात्रा में बदल जाता है जो अपघटकों के लिए एक ऊर्जा स्रोत के रूप में काम करता है। प्रत्येक पोषण स्तर पर जीव अपनी ऊर्जा की आवश्यकता के लिए निम्न पोषण स्तर पर निर्भर रहता है।

प्रश्न 4.
मरुक्रमक पर टिप्पणी लिखिए। (2013)
उत्तर
यह चट्टानों पर प्रारम्भ होने वाला अनुक्रमण है। चट्टानों पर जल तथा कार्बनिक पदार्थों की अत्यधिक कमी होती है। चट्टानों पर सर्वप्रथम स्थापित होने वाला प्राथमिक समुदाय क्रस्टोज लाइकेन का होता है। मरुक्रमक में एक समुदाय निश्चित अवधि के पश्चात् दूसरे समुदाय से विस्थापित हो जाता है। इस क्रम में निम्न अवस्थाएँ पायी जाती हैं –

  1. क्रस्टोज लाइकेन अवस्था – अनावृत चट्टानों पर सर्वप्रथम क्रस्टोज लाइकेन, जैसे राइजोकापन, लिकोनोरा, गैफिस आदि उगते हैं। लाइकेन से स्रावित अम्ल चट्टानों का अपक्षय करते हैं। लाइकेन की मृत्यु से कार्बनिक पदार्थ एकत्र होने लगते हैं।
  2. फोलियोज लाइकेन अवस्था – मृदा की पतली पर्त पर फोलियोज लाइकेन, जैसे- पामलिया, डर्मेटोकापन, फाइसिया, जैन्थोरिया आदि उगते हैं। इनकी मृत्यु होने से मृदा तथा कार्बनिक पदार्थों की मोटी पर्त बन जाती है। इनके फलस्वरूप आवास फोलियोज लाइकेन के लिए अनुपयुक्त हो जाता है।
  3. मॉस अवस्था – चट्टानों पर मृदा तथा ह्युमस की मोटी पर्त आवास को मॉस के लिए उपयुक्त बना देती है। इस आवास में पॉलीट्राइकम, टॉटुला, फ्यूनेरिया, पोगोनेटम आदि सफलतापूर्वक उगते हैं। ब्रायोफाइट्स के निरन्तर अपघटन से चट्टानों पर कार्बनिक पदार्थों से युक्त मोटा स्तर बन जाता है। अब आवास शाकीय पौधों के लिए उपयुक्त बनने लगता है।
  4. शाक अवस्था – शाकीय पौधों के लिए आवास के उपयुक्त हो जाने से पोआ, फेस्टुका, एरिस्टिडा, ट्राइडेक्स, ऐजिरेटम आदि शाकीय पौधे उग आते हैं। चट्टानों का निरन्तर अपक्षय होता रहता है, ह्युमस की मात्रा बढ़ती रहती है। इसके फलस्वरूप झाड़ीदार पौधों का आक्रमण प्रारम्भ हो जाता है।
  5. झाड़ीय अवस्था – चट्टानों पर ह्यूमस युक्त मृदा की मोटी पर्त बन जाने से शाकीय पौधों के मध्य झाड़ीदार पौधे उगने लगते हैं, जैसे-कैपेरिस, कैसिया, यूरेना, क्रोटालेरिया आदि। झाड़ियों के उगने के कारण चट्टान अपक्षय के कारण मृदा में बदलने लगती है। वृक्षों का अतिक्रमण प्रारम्भ हो जाता है।
  6. चरम अवस्था – मरुस्थलीय वृक्ष आवास में वृद्धि करने लगते हैं। ये वृक्ष अपने आवास के साथ सन्तुलन बनाये रखते हैं। इसके फलस्वरूप वन क्षेत्रों का विकास हो जाता है। वृक्षों का समुदाय लगभग स्थायी समुदाय होता है।

प्रश्न 5.
जलक्रमक अनुक्रमण एवं मरुक्रमक अनुक्रमण में अन्तर बताइए। (2014)
उत्तर
वह अनुक्रमण जो जलीय आवास में प्रारम्भ होता है, जलक्रमक अनुक्रमण कहलाता है; जैसे-तालाब या झील का अनुक्रमण। इस अनुक्रमण के अन्तिम चरण में आने से पहले ही जलाशय लुप्त हो जाता है और वहाँ चरम समुदाय के रूप में वृक्षों का बाहुल्य स्थापित हो जाता है। इसके विपरीत वह अनुक्रमण जो अत्यन्त शुष्क वातावरण अर्थात् जहाँ जल की अत्यधिक कमी बनी रहती है, में प्रारम्भ होता है, मरुक्रमक अनुक्रमण कहलाता है; जैसे-नग्न चट्टानों एवं बालू के टीलों पर, मरुस्थल आदि का अनुक्रमण। नग्न चट्टानों के अनुक्रमण को शैलक्रमक तथा बालू के टीलों पर अनुक्रमण को बलुकियक्रमक अनुक्रमण भी कहा जाता है।

प्रश्न 6.
प्रकृति में कार्बन चक्र का एक रेखीय चित्र सहित वर्णन कीजिए। (2016)
उत्तर
कार्बन को जीवों का आधार माना जाता है। सजीव शरीर के शुष्क भार का 49 प्रतिशत भाग कार्बन से बना होता है और जल के पश्चात् यही आता है। यदि हम भूमण्डलीय कार्बन की पूर्ण मात्रा की ओर ध्यान दें तो हम देखेंगे कि समुद्र में 71 प्रतिशत कार्बन विलेय के रूप में विद्यमान है। यह सागरीय कार्बन भण्डार वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को नियमित करता है। वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड सम्पूर्ण आयतन का लगभग 0.03% होता है।

जीवाश्मी ईंधन भी कार्बन के एक भण्डार का प्रतिनिधित्व करता है। कार्बन चक्र वायुमण्डल, सागर तथा जीवित एवं मृत जीवों द्वारा सम्पन्न होता है। एक अनुमान के अनुसार जैवमण्डल में प्रकाश-संश्लेषण के द्वारा प्रतिवर्ष 4 x 1013 किग्रा कार्बन का स्थिरीकरण होता है। कार्बन की कुछ मात्रा CO2 (कार्बन डाइऑक्साइड) के रूप में उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं की श्वसन क्रिया के माध्यम से वायुमण्डल में वापस आती है।

इसके साथ ही भूमि एवं सागरों की कचरा सामग्री एवं मृत जीवों के कार्बनिक पदार्थों के अपघटन प्रक्रियाओं के द्वारा भी कार्बन डाइऑक्साइड की काफी मात्रा अपघटकों (decomposers) द्वारा छोड़ी जाती है। यौगिकीकृत कार्बन की कुछ मात्रा अवसादों में नष्ट होती है और संचरण द्वारा निकाली जाती है। लकड़ी के जलाने, जंगली आग एवं जीवाश्मी ईंधन के जलने के कारण, कार्बोनेटी चट्टानों तथा ज्वालामुखीय क्रियाओं आदि अतिरिक्त स्रोतों द्वारा वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड को मुक्त किया जाता है।

यदि सड़ने- गलने की प्रक्रिया धीमी हो जाये तो कार्बन यौगिक की बहुत अधिक मात्रा का भण्डारण हो जाता है। जब ये पृथ्वी में दब जाते हैं तो इनका अपघटन नहीं हो पाता। धीरे-धीरे ये तेल एवं कोयला में परिवर्तित हो जाते हैं। तेल और कोयले को जब जलाया जाता है तो कार्बन पुनः वायुमण्डल में आ जाता है। कार्बनिक कार्बन (organic carbon) के पृथ्वी में दब जाने से लाइमस्टोन चट्टान (limestone rock) बनती है। इस चट्टान के क्षरण (weathering) से कार्बन डाइऑक्साइड वायुमण्डल में पुनः वापस आ जाती है।

वायुमण्डल में कार्बनडाइऑक्साइड की मात्रा संतुलित होती है, किन्तु मानवीय क्रियाकलापों के कारण इसका संतुलन बिगड़ रहा है। तेजी से जंगलों का विनाश तथा परिवहन एवं ऊर्जा के लिए जीवाश्मी ईंधनों को जलाने आदि से महत्त्वपूर्ण रूप से वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड को मुक्त करने की दर बढ़ी है।
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प्रश्न 7.
‘पारिस्थितिक तन्त्र में मानव की भूमिका’ शीर्षक पर टिप्पणी लिखिए। (2015)
उत्तर
बहुत पुराने समय से मनुष्य प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र (natural ecosystem) को नष्ट करके अपनी इच्छानुसार बदलता रहा है। उसे मकान बनाने के लिए और ईंधन के लिए लकड़ी की आवश्यकता होती है। साथ ही वह अपनी इच्छानुसार विभिन्न फसलें उगाने व फलों के उद्यान लगाने के लिए भी प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र को नष्ट करता रहा है।

जिस समय संसार में कम मानव थे, प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र कम ही नष्ट होता था और मामूली रूप में बदल पाता था, परन्तु जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ रहने के लिए वे सड़क, आदि बनाने के लिए स्थान की आवश्यकता, मकान बनाने की सामग्री व ईंधन की आवश्यकता और खेती के लिए भूमि की आवश्यकता बढ़ती गई, जिस कारण प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र को उत्पादन, इत्यादि के विचार के बिना ही नष्ट कर दिया गया या उसका स्वरूप बहुत बदल दिया गया। इस प्रकार धीरे-धीरे सन्तुलित पारिस्थितिक तन्त्र (balanced ecosystem) समाप्त होने लगे, क्योंकि ऊर्जा और दूसरे पदार्थों का सन्तुलन मनुष्यों व जन्तुओं द्वारा नष्ट कर दिया गया।

मिट्टी की ऊपर की उपजाऊ सतह अथवा परत वायु व वर्षा के जल द्वारा अपरदन (erosion) से नष्ट होकर वनस्पतिविहीन हो गई। इस प्रकार मनुष्य द्वारा कृत्रिम पारिस्थितिक तन्त्र (artificial ecosystem) का विकास हुआ। बहुत से खरपतवार (weed) व जीवनाशी (pests) मनुष्य द्वारा भूमण्डल पर फैलकर प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र को बहुत हानि पहुँचाते हैं। प्राकृतिक वनस्पति के विनाश के कारण अपरदन (erosion), बाढ़ (flooding), रेत का एकत्रित होना (silting) अधिक तेजी से होता है। स्वच्छ जल के तालाबों का पारिस्थितिक तन्त्र बाढ़ से नष्ट हो जाता है। जलीय पारिस्थितिक तन्त्र (aquatic ecosystem ), गन्दे जल और कारखानों के बेकार बचे हुए पदार्थ से दूषित होकर बदल जाता है।

इसी प्रकार कोयला, गैस व तेल के अधिक मात्रा में जलने से वायु दूषित हो जाती है, क्योंकि इनके जलने से कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड व धुएँ के छोटे-छोटे कण पौधे की वृद्धि पर प्रभाव डालते हैं। मनुष्य विघ्न डालने वाले कार्यों द्वारा स्थिर पारिस्थितिक तन्त्रों को कम स्थिर पारिस्थितिक तन्त्रों में बदलता रहता है जिससे प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्रों की स्थिरता नष्ट हो जाती है। जिस समय शहर बनते हैं, पारिस्थितिक तन्त्र का और अधिक विनाश हो जाता है। खाद्य आपूर्ति में आने वाली फसलों के कारण पारिस्थितिक तन्त्रों को बदलना अधिक आवश्यक होता जा रहा है।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पारिस्थितिक तन्त्र कितने प्रकार के होते हैं? एक तालाब के पारिस्थितिक तन्त्र के विभिन्न घटकों का वर्णन कीजिए। (2010, 12, 13, 14, 17)
या
भारतीय पर्यावरण के एक पारिस्थितिक समूह का उदाहरण दीजिए तथा इसकी विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए। यह किस प्रकार असन्तुलित हो सकता है? (2014)
या
सन्तुलित पारिस्थितिक तन्त्र से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए। (2015)
उत्तर
पारिस्थितिक तन्त्र के प्रकार
पारिस्थितिक तन्त्र प्रमुखत: दो प्रकार के हो सकते हैं –

  1. जलीय (aquatic),
  2. स्थलीय (terrestrial)।

जलीय पारिस्थितिक समूह, भारतीय पर्यावरण में अलवणीय जल (fresh water), जैसे- तालाबीय पारितन्त्र (pond ecosystem) अथवा लवणीय जल (marine water); जैसे- कुछ झील, समुद्र आदि के पारितन्त्र हो सकते हैं।

तालाबीय पारितन्त्र के विभिन्न घटक
कोई जैव समुदाय तथा उसका पर्यावरण मिलकर एक जैविक इकाई (biological unit) बनाते हैं। तालाब में मिलने वाली जैव जातियाँ तथा अजैवीय वस्तुएँ परस्पर अन्तक्रियाएँ करके एक आत्मनिर्भर इकाई बनाते हैं। इसे तालाब का पारितत्र (pond ecosystem) कहते हैं। तालाब के पारितन्त्र के दो प्रमुख प्रकार के घटक इस प्रकार हैं –

1. अजैवीय घटक
जल, ताप, प्रकाश, अकार्बनिक पदार्थ, खनिज लवण, विभिन्न गैसें (CO2 एवं O2), कार्बनिक अवशेष, ह्युमस आदि अजैवीय घटक हैं।

2. जैवीय घटक
इन्हें निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित करते हैं –
(i) उत्पादक (Producers) – जलीय तथा उभयचारी (amphibious) हरे पौधे होते हैं. ये स्वपोषी (autotrophs) हैं। इनके जलाशय के तट से धरातल तक अनेक उदाहरण हो सकते हैं; जैसे-तट की दलदली मृदा से टाइफा (Typha), रेननकुलस (Ranunculus) आदि एवं जल में अनेक शैवाल, हाइड्रिला, वैलिसनेरिया आदि तथा पादप प्लवक (phytoplanktons) आदि। ये पौधे प्रकाश संश्लेषण द्वारा भोजन का निर्माण करते हैं।
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(ii) उपभोक्ता (Consumers) – ये कई श्रेणियों में बँटे होते हैं; जैसे –

  1. प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता – जल में पाये जाने वाले छोटे-छोटे कीट- जन्तु प्लवक (zooplanktons), कोपीपोड (copepods), कीटों के लार्वी, कुछ ऐनीलिड्स (annelids) तथा मॉलस्क्स (molluscs) आदि। ये शाकाहारी (herbivores) हैं। और शैवालों, पत्तियों इत्यादि को भोजन के रूप में लेते हैं।
  2.  द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता – ये प्रमुखतः शिकारी कीट छोटी मछलियाँ आदि होती हैं, जो शाकाहारी उपभोक्ताओं का शिकार करते हैं; जैसे- मूंग (beetles) आदि। मेढ़क (frogs) भी प्रायः इसी श्रेणी के जन्तु होते हैं।
  3. तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता – विभिन्न प्रकार की मांसाहारी मछलियाँ (carnivorous fish) जो सभी श्रेणी के अन्य उपभोक्ताओं को अपना भोजन बनाती हैं। यहाँ उच्चतम उपभोक्ता (top consumers) ये ही हैं।

(iii) अपघटक (Decomposers) – मृत जीवों पर आश्रित रहने वाले जीव अर्थात् मृतोपजीवी जैसे- जीवाणु, कवक आदि। ये जीव तालाब में मृत जीवों का अपघटन कर उनके अवयवों को पर्यावरण में मुक्त करते हैं ताकि उत्पादक अर्थात् हरे पौधे इनको उपभोग कर सकें। इस प्रकार हरे पौधे जिन पदार्थों का उपयोग करके भोजन बनाते हैं अन्त में ये पदार्थ चक्रीकरण द्वारा विभिन्न जीवों से होते हुए अन्त में वापस जलीय भूमि में आ जाते हैं।

पारिस्थितिक तन्त्र का सन्तुलन
पारिस्थितिक तन्त्र का सन्तुलन उसमें उपस्थित खाद्य जाल (food web) की जटिलता और विशालता पर निर्भर करता है। खाद्य जाल जितना जटिल होता है उतना ही पारितन्त्र अधिक स्थायी होता है। जटिल खाद्य जाल में किसी भी उपभोक्ता के लिए अधिक प्रकार के जीव (खाद्य ऊर्जा) उपभोग के लिए उपलब्ध होंगे। अत: एक जीव के किसी कारण से कम हो जाने या नष्ट हो जाने से भी खाद्य जाल की स्थिरता पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि उस स्थान की पूर्ति उसी स्तर का कोई दूसरा जीव कर देगा अर्थात् अधिक संख्या में वैकल्पिक पथ होने पर पारिस्थितिक तन्त्र अधिक स्थिर तथा सन्तुलित रहता है।

असन्तुलन की दशा किसी भी पोषण स्तर (trophic level) में विनष्टीकरण की क्रिया से होती है। यह असन्तुलन चाहे तो उस स्तर के जीवों की स्वयं कमी के कारण, कम वैकल्पिक पथ होने पर अथवा प्रदूषण (pollution) के कारण हो सकता है। तालाबीय पारितन्त्र में जल प्रदूषण अनेक प्रकार के कीटनाशक, अपतृणनाशक आदि के कारण हो सकता है अथवा औद्योगिक संस्थानों से निकले अनावश्यक पदार्थों से भी हो सकता है, इनमें तापीय प्रदूषण भी सम्मिलित है। इनसे जलीय जीव-जन्तु मरने लगते हैं। सबसे अधिक प्रभाव छोटे जीवों पर होता है इससे प्रारम्भिक पोषक स्तरों के नष्ट होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

प्रश्न 2.
अनुक्रमण (यथाक्रम) से आप क्या समझते हैं ? तालाब में अनुक्रमण की क्रिया का वर्णन कीजिए। (2009, 11)
या
तालाब में होने वाले अनुक्रमण का संक्षिप्त में वर्णन कीजिए। (2015)
उत्तर
अनुक्रम या अनुक्रमण
जिस प्रकार किसी पारितन्त्र के घटकों (components) में जैवीय घटेकों (biotic components) का अत्यधिक महत्त्व है, उसी प्रकार किसी पारितन्त्र के निर्माण के समय उसके जैव समुदायों में पादप समुदाय का विशेष महत्त्व है। पादप समुदाय की उत्पत्ति तथा उसका परिवर्द्धन ही अन्य जैव समुदायों की दिशा भी निर्धारित करता है।

किसी स्थान को यदि वनस्पति विहीन कर दिया जाए तथा उसे मानव व मानव द्वारा पाले जाने वाले पशुओं की क्रियाओं से भी विलग कर दिया जाए तो धीरे-धीरे लेकिन एक निश्चित क्रम में उस स्थान पर वनस्पति उगनी प्रारम्भ होगी। कालान्तर में, एक स्थिति ऐसी आएगी जब वहाँ पर अपेक्षाकृत अधिक स्थायी समुदाय (stable community) निर्मित हो जाएगा।

इस प्रकार किसी नग्न स्थान पर शनैः-शनैः पादप समुदाय के जमाव को पादप अनुक्रम या अनुक्रमण (plant succession) कहते हैं। अनुक्रमण की विचारधारा को सर्वप्रथम वार्मिंग (Warming 1899) ने प्रस्तुत किया तथा क्लीमेण्ट्स (Clements, 1907 – 1916) ने इसे पोषित किया। क्लीमेण्ट्स ने इसे प्राकृतिक प्रक्रम कहा जिसमें पादप समुदायों के विभिन्न समूहों द्वारा क्रमिक रूप से एक ही क्षेत्र का उपनिवेशन (colonization) सम्मिलित है।

सामान्यतः समुदाय स्थायी इकाई नहीं है, बल्कि यह एक गतिक (dynamic) इकाई है जिसमें सन्तुलन के कारण आत्मनिर्भरता बनी रहती है। पर्यावरण में परिवर्तन होने से समुदाय की पादप जातियों में भी परिवर्तन आते हैं। परिवर्तन के प्रमुख कारणों में जलवायवीय, भू-आकृतिक अथवा जैविक परिवर्तन हो सकते हैं। जैव समुदाय की विभिन्न जातियों की क्रिया-प्रतिक्रियाएँ इन जैविक परिवर्तनों का आधार होती हैं। कालान्तर में उपर्युक्त प्रकार के परिवर्तनों के कारण समुदाय की संरचना में शनैः-शनैः परिवर्तन होते जाते हैं। इस प्रकार प्रमुख जातियाँ अन्य जातियों द्वारा प्रतिस्थापित होती जाती हैं। प्रतिस्थापन की ये प्रक्रियाएँ तब तक होती रहती हैं जब तक कि समुदाय की जातियों तथा पर्यावरण में परस्पर अपेक्षाकृत अधिक स्थायी सन्तुलन स्थापित नहीं हो जाता। इस प्रकार की समय के साथ समुदाय में परिवर्तन की प्रक्रिया को पारिस्थितिक अनुक्रमण (ecological succession) कहा गया है। ओडम ने इस प्रक्रिया को पारितन्त्र का परिवर्द्धन माना है।

स्पष्ट है, अनुक्रमण या परिवर्द्धन एक निर्धारित दिशा में बढ़ने वाली व्यवस्थित प्रक्रिया है। जिसमें समयान्तर के बाद जाति संरचना में परिवर्तन होता जाता है। इस प्रकार के परिवर्तन में ऊसर क्षेत्र (barren area) में, प्रारम्भिक रूप में, स्थापित समुदाय पुरोगामी समुदाय (pioneer community) तथा अन्तिम समुदाय को चरम समुदाय (climax community) कहा जाता है। अनुक्रम की इस प्रक्रिया के मध्य में चूंकि क्रमकी समुदायों (seral communities) का प्रतिस्थापन होता है अतः सम्पूर्ण प्रक्रिया या अनुक्रम क्रमक (sere) कहलाता है।

इस परिवर्तन का मूल कारण समुदाय के सदस्यों द्वारा पर्यावरण में परिवर्तन उत्पन्न करना है। इससे यह भी स्पष्ट है कि अनुक्रमण समुदाय द्वारा ही नियन्त्रित होता है और भौतिक वातावरण इसमें परिवर्तन की दर, इसके प्रतिरूप तथा परिवर्द्धन की सीमा को निर्धारित करता है। उपर्युक्त के परिणाम में समुदाय एक स्थायी पारितन्त्र (ecosystem) बन जाता है।
अनुक्रम निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं –

  1. प्राथमिक अनुक्रम (Primary Succession) – यह अनुक्रम उन नग्न स्थानों पर आरम्भ होता है जहाँ पर पहले किसी भी प्रकार की वनस्पति नहीं पाई जाती है।
  2. द्वितीयक अनुक्रम (Secondary Succession) – यह अनुक्रम उन स्थानों पर पाया जाता है। जहाँ पर पहले पूर्ण विकसित वनस्पति थी किन्तु बाद में किसी कारण से वह नष्ट हो गई।

अनुक्रमण की प्रक्रिया
क्लीमेण्ट्स ने सन् 1916 में अनुक्रमण की निम्नलिखित अवस्थाओं का उल्लेख किया-

  1. न्यूडेशन
  2. आक्रमण
  3. स्पर्धा
  4. प्रतिक्रिया
  5. चरम अवस्था।

जलक्रमक : खाली तालाब की अनुक्रम
जलक्रमक की विभिन्न अवस्थाओं को समझने के लिए कोई झील या सरोवर एक आदर्श स्थान हो सकता है जहाँ जल मध्य में तो गहरा होता है तथा किनारों की ओर क्रमशः छिछला (कम गहरा) होता चला जाता है। ऐसी परिस्थिति में जिन विभिन्न अवस्थाओं से चरम पादप समुदाय का विकास होता है, वे इस प्रकार हैं –
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1. प्लवक अवस्था (Plankton Stage) – जल की गहराई में पुरोगामी के रूप में पादप प्लवक (phytoplankton) तथा जन्तु प्लवक (zooplanktons) उत्पन्न होते हैं। ये मुख्यत: एककोशिकीय अथवा निवही (colonial) और समूह में रहने वाले हरे शैवाल, जीवाणु तथा अन्य सूक्ष्म जीव हैं जो जल की ऊपरी सतह पर तैरते रहते हैं। जल की गहराई में पादप जीवन
अनुपस्थित होता है।

2. निमग्न अवस्था (Submerged Stage) – 10 फीट या इससे कम गहरे पानी वाले झील क्षेत्र में पूर्णत: निमग्न पौधे तथा मुक्त प्लावी पौधे पाये जाते हैं। इनकी जड़े प्रायः नीचे कीचड़ में जमी रहती हैं। उदाहरण के लिए- मिरियोफिलम (Myriophyllum), इलोडीया (Elodea), पोटेमोजेटॉन (Potamogeton), हाइड्रिला (Hydrilla), वैलिसनेरिया (Vallisneria), यूट्रीक्युलरिया (Utricularia) आदि। इन पौधों के साथ शैवाल गुच्छ चिपके रहते हैं। किनारों से अपरदित मिट्टी के कण, जो गॅदले पानी में तैरते रहते हैं, इन पौधों द्वारा रोक लिये जाते हैं। इन पौधों की मृत्यु पर इनके अवशेष ह्युमस में परिवर्तित होकर तल में बैठ जाते हैं। इस प्रकार झीलों के तल में लगातार मिट्टी, कीचड़ ह्यूमस के जमा होते रहने से प्रतिवर्ष झील उत्तरोत्तर कम गहरी होती चली जाती है। गहराई कम होने के कारण अब यह स्थान निमग्न पादपों के लिए कम अनुकूल तथा नये पादपों के लिए अधिक अनुकूल हो जाता है।
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3. जड़ित प्लावी अवस्था (Rooted Floating Stage) – उपर्युक्त वर्णित अनेक कारणों से जल कम गहरा हो जाता है तथा 5 से 10 फीट गहरे पानी में प्लावी जातियाँ उगने लगती हैं। इन पौधों की जड़े तल में जमी रहती हैं परन्तु स्तम्भ अथवा पर्णवृन्त लगभग पानी के ऊपर पहुँच जाते हैं। तथा इनकी पत्तियाँ जल सतह पर तैरती रहती हैं। इनमें निम्फिया (Nymphaea), नीलम्बियम (Nelumbium), रैननकुलस (Ranunculus sp.), मोनोकोरिया (Monochoria), एपोनोजीटॉन (Aponogeton), ट्रापा (Trupa) प्रमुख हैं। इनके साथ ही कुछ मुक्त प्लावी जातियाँ; जैसे- लेम्ना (Lemng), वॉल्फिया (Wolfia), एजोली (Azolla), पिस्टिया (Pistiq), सालविनिया (Salvinia) इत्यादि निमग्न जातियों तक प्रकाश को नहीं पहुँचने देतीं जिसके फलस्वरूप निमग्न जातियाँ समाप्त हो जाती हैं। अपघटित कार्बनिक पदार्थ इत्यादि जमा होने से जल की गहराई कम होती जाती है। धीरे-धीरे प्लावी अवस्था भी समाप्त हो जाती है।

4. नइ अनूप अवस्था (Reed Swamp Stage) – जब जल की गहराई 2 से 3 फुट रह जाती है। तो नड़ अनूप या नरकुल अनूप जैसे पादप उगने लगते हैं। यहाँ पर टाइफा (Typha), सेजिटेरिया (Sagittaria), सिरपस (Scirpus), फ़ैगमाइट्स (Phragmites), रैननकुलस (Ranunculus) जैसे पादपों के साथ ही अत्यन्त कम जल में रूमेक्स (Rumex), एक्लिप्टा (Eclipta), इत्यादि पादप उगने लगते हैं। ये पौधे तल में जड़ों द्वारा जमे रहते हैं। इनके कुछ भाग पानी में डूबे रहते हैं। यहाँ पर दलदल बनने लगता है तथा धीरे-धीरे मिट्टी के जमाव के कारण यह स्थान कच्छ (marshy) भूमि में परिवर्तित होने लगती है।

5. कच्छ शादुल अवस्था (Marsh Meadow Stage) – मिट्टी के जमाव के कारण यह क्षेत्र कच्छ भूमि (जहाँ केवल कुछ इंच पानी ही हो) में परिवर्तित हो चुका होता है। इस भूमि पर पॉलीगोनम (Polygonum), पोदीना कुल के पौधे, ऊँची घास की जातियाँ- साइप्रस (Cyperus), जंकस (Juncus), कैरेक्स (Carex), इलीयोकैरिस (Eleocharis) आदि आकर जमने लगती हैं। यह एक शाद्वल (meadow) बन जाता है। ये पौधे भूमि जल का अत्यधिक अवशोषण करते हैं और इसे वाष्पोत्सर्जन द्वारा उड़ा देते हैं। इनके मृत अवशेषों के संचयन से, जल वाहित मृदा तथा वातोढ़ मृदा को रोककर भूमि का निर्माण करते हैं। ऐसी भूमि जलीय पौधों के पनपने के लिए अनुकूल नहीं होती; अतः अब यहाँ पर क्षुप तथा वृक्षों के पनपने की परिस्थिति बनने लगती है।

6. काष्ठीय वनस्पति अवस्था (Woodland Stage) – आर्द्र जलवायु में इस अनुक्रमण का अगला चरण क्षुपों; जैसे- सैलिक्स (Salix), कॉर्नस (Cormus) आदि तथा वृक्षों; जैसे- एल्मस (Almus), पॉपुलस (Populus) आदि की जातियों का पनपेना है। इस अवस्था में ऐसे पौधे पुरोगामी होते हैं जो अपनी जड़ों के आस-पास आंशिक जलाक्रान्त परिस्थितियों को सहन कर सकें। ये काष्ठीय पौधे आवास को अपने पूर्ववर्ती पौधों के समान ही छाया डालकर तथा तीव्र वाष्पोत्सर्जन द्वारा प्रभावित करते हैं। ये काष्ठीय पादप वातोढ़ मिट्टी को रोककर तथा पादप अवशेषों के संचयन द्वारा मिट्टी को शुष्क बनाते हैं।
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7. चरम वन (Climax Forest) – जैसे- जैसे ह्यूमस का संचयन होता है जीवाणु तथा अन्य सूक्ष्म जीव भूमि में बढ़ने लगते हैं और भूमि अधिक उर्वर होती चली जाती है। इस भूमि पर नये समोभिद वृक्ष प्रकट होने लगते हैं। ये वृक्ष भूमि को अपनी तरह से प्रभावित करते हैं। इनकी छाया (tree canopy) के नीचे वायु आई रहती है और इनकी छाया के नीचे छायासह (shade tolerant) क्षुप व शाक पनपने लगते हैं।

इस प्रकार एक क्षेत्र, जो जलमग्न था, अन्त में वन में परिवर्तित हो जाता है। यहाँ पर यह याद रखना आवश्यक है कि चरम समुदाय की प्रकृति वहाँ उपस्थित जलवायु पर निर्भर करती है; जैसे- शीतोष्ण (temperate) जलवायु में मिश्रित वन बनते हैं जिसमें एल्मस (Almus), एसर (Acer), क्वेरकस (Quercus) की जातियाँ होती हैं। उष्ण कटिबन्धीय या उपउष्ण कटिबन्धीय (subtropical) जलवायु में वर्षा की कमी या अधिकता के अनुसार वनों का विकास होता है; जैसे–कम वर्षा में पर्णपाती वन या मानसूनी वन, अधिक वर्षा में उष्ण कटिबन्धीय वर्षा वन आदि। वन समुदाय का विकास तभी होगा जब जलवायु आर्द्र होगी। शुष्क जलवायु में चरम समुदाय (climax community) घास स्थल (grass land) अथवा कोई अन्य शुष्कस्थली समुदाय हो सकता है।

प्रश्न 3.
नाइट्रोजन चक्र का वर्णन कीजिए और नाइट्रोजन स्थिरीकरण के महत्त्व को समझाइए। (2010, 11)
या
प्रकृति में नाइट्रोजन चक्र का वर्णन कीजिए। पौधों में इसके महत्त्व की व्याख्या कीजिए। (2009, 12)
या
केवल रेखीय चित्र की सहायता से नाइट्रोजन चक्र का प्रदर्शन कीजिए। (2015, 18)
या
नाइट्रीकरण का वर्णन कीजिए। (2015)
या
जीवाणु तथा नील-हरित शैवाल द्वारा नाइट्रोजन स्थिरीकरण पर टिप्पणी लिखिए। (2017)
या
दलहनी पौधों की जड़ में पाये जाने वाले जीवाणु का नाम लिखिए। ये पौधे जमीन की उर्वरा शक्ति को कैसे बढ़ाते हैं? (2018)
उत्तर
नाइट्रोजन तथा वायुमण्डल में इसका भौतिक चक्र
वायुमण्डल की गैसों में सबसे अधिक, लगभग 78 प्रतिशत मुक्त नाइट्रोजन होती है, किन्तु कुछ जीवाणु तथा नीली-हरी शैवालों को छोड़कर अन्य जीव इसका सीधे उपयोग करने में अक्षम हैं। इस मुक्त नाइट्रोजन का केवल कुछ प्रतिशत भौतिक व प्राकृतिक कारणों से ऑक्सीजन के साथ संयोग करके ऑक्साइड्स (NO2, NO आदि) बना लेता है। इस क्रिया में तड़ित क्रिया सम्मिलित है। ये ऑक्साइड्स वर्षा के जल के साथ भूमि पर गिरकर खनिजों के साथ क्रिया करते हैं और उनके नाइट्रेट्स आदि बना लेते हैं।
N2 + O2 → 2NO (nitric oxide)
2NO + O2 → 2NO2 (nitrogen peroxide)
2NO2 + H20 → HNO2 + HNO3 (nitrous acid + nitric acid)
यह क्रिया बहुत ही कम मात्रा में नाइट्रोजन को स्थिर कर पाती है।

नाइट्रोजन चक्र में हरे पौधों का महत्त्व
हरे पौधे भूमि से जड़ों द्वारा नाइट्रेट्स (nitrates =NO3) आदि खनिज लवणों को लेकर कार्बोहाइड्रेट के साथ मिलाते हैं तथा अपनी कोशिकाओं में प्रोटीन जैसे पदार्थों का निर्माण करते हैं। जन्तु किसी-न-किसी रूप में इसी प्रोटीन को भोजन के रूप में पौधों से प्राप्त करते हैं। जन्तुओं का जीवद्रव्य इन प्रोटीन्स को अमीनो अम्लों के रूप में ग्रहण कर, जन्तु प्रोटीन्स के रूप में आत्मसात कर लेता है। जन्तुओं के शरीर में अधिक मात्रा में बने अमीनो अम्लों को वे अमोनिया, यूरिया, यूरिक अम्ल आदि के रूप में बदलकर, उत्सर्जी पदार्थों के रूप में शरीर से बाहर निकाल देते हैं। पौधों तथा जन्तुओं के मृत होने पर भी ये नाइट्रोजन गुक्त यौगिक भूमि में आ जाते हैं।

सूक्ष्म जीवों का नाइट्रोजन स्थिरीकरण में महत्त्व
जीवाणुओं का नाइट्रोजन चक्र में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण योगदान है। मिट्टी में स्वतन्त्र रूप से रहने वाले कुछ जीवाणु वायुमण्डल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन स्थिर करके यौगिकों में बदल देते हैं: जैसे- एजोटोबैक्टर (Azotobacter), क्लॉस्ट्रीडियम (Clostridium) आदि। इसके अतिरिक्त लेग्यूमिनोसी (दलहनी) कुल के पौधों की जड़ों पर छोटी-छोटी गुलिकाओं में रहने वाले जीवाणु राइजोबियम लेग्यूमिनोसैरम (Rhizobium leguminosdrum) वायुमण्डल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन को नाइट्रेट में बदल देते हैं। जीवाणुओं द्वारा छोड़े गये नाइट्रोजन के ऐसे घुलनशील यौगिक पौधों द्वारा ग्रहण किये जाते हैं।

नील- हरित शैवाल जैसे नोस्टॉक, ऐनाबीना, रिबुलेरिया, ग्लीयोट्राइकिया, ऑलोसिरा आदि भी वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं।
अमोनीकरण एवं नाइट्रीकरण (Ammonification and Nitrification) – कुछ जीवाणु नाइट्रोजनी कार्बनिक पदार्थों को तोड़कर उपस्थित नाइट्रोजन को अमोनिया में बदल देते हैं। ऐसे जीवाणु अपघटक कहलाते हैं। अमोनिया जैसे पदार्थ हानिकारक हैं। कुछ जीवाणु, जैसे-नाइट्रोसोमोनासे (Nitrosomonas) अमोनिया को नाइट्राइट में और नाइट्रोबैक्टर (Nitrobacter) नाइट्राइट को नाइट्रेट में बदल देते हैं। इन जीवाणुओं को नाइट्रीकारक जीवाणु (nitrifying bacteria) कहते हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 Ecosystem img-20

वायुमण्डल में नाइट्रोजन का कुछ अंश तड़ित विद्युत द्वारा ऑक्साइड्स में बदल जाता है जो बाद में जल के साथ मिलकर नाइट्रस नाइट्रिक अम्ल (nitrous and nitric acid) बना लेता है। ये अम्ल भूमि में खनिजों के साथ मिलकर नाइट्रेट बनाते हैं, जिन्हें पौधे अवशोषित करते हैं।
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विनाइट्रीकरण (Denitrification) – कुछ अन्य प्रकार के जीवाणु मिट्टी में मिलने वाले नाइट्रेट्स (nitrates) को तोड़कर नाइट्रोजन को वायु में मुक्त कर देते हैं। ऐसे जीवाणु विनाइट्रीकारी जीवाणु (denitrifying bacteria) कहलाते हैं तथा ये प्राय: अनॉक्सी अवस्थाओं में पाये जाते हैं; जैसे- थायोबैसिलस (Thiobacillus) व माइक्रोकॉकस (Micrococcus) की जातियाँ।
नाइट्रोजन का यह चक्र पर्यावरण में निरन्तर चलता रहता है और मृदा की उर्वरा शक्ति क्षीण नहीं होने पाती है।

नाइट्रोजन चक्र का महत्त्व
पृथ्वी पर प्रोटीन के बिना जीवों का अस्तित्व नहीं समझा जा सकता। ये जीवद्रव्य के अभिन्न अंग हैं। पौधे जड़ों से नाइट्रेट्स जैसे खनिज लवण अवशोषित कर अपनी कोशिकाओं में प्रोटीन का निर्माण करते हैं। जीव-जन्तु पौधों को खाते हैं। इस प्रकार जीवन को बनाये रखने तथा जीवद्रव्य की वृद्धि करने के लिए नाइट्रोजन चक्र का होना नितान्त आवश्यक है।
नाइट्रोजन चक्र के अन्य प्रमुख महत्त्व इस प्रकार हैं –

  1. नाइट्रोजन चक्र से ही वायु में नाइट्रोजन का सन्तुलन बना रहता है, जो ऑक्सीजन की सक्रियता को कम करने के लिए आवश्यक है।
  2. पौधों की वृद्धि तथा प्रकृति में भोजन प्राप्त कराने के लिए नाइट्रोजन चक्र अत्यन्त आवश्यक चक्र है।
  3. जीव-जन्तुओं की उचित वृद्धि खाद्य पदार्थों के बिना असम्भव है, जो नाइट्रोजन चक्र से आवश्यकतानुसार सम्भव है।
  4. वायुमण्डल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन का उपयोग करके, नाइट्रोजन के अनेक यौगिक विभिन्न उपयोगों के लिए प्राप्त किये जाते हैं।
  5. विभिन्न अपद्रव्यों का अपघटन होता रहता है।

अत: नाइट्रोजन चक्र प्रकृति का अत्यन्त आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण चक्र है।

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UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 13 Organisms and Populations

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Chapter Chapter 13
Chapter Name Organisms and Populations
Number of Questions Solved 35
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 13 Organisms and Populations (जीव और समष्टियाँ)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
शीत निष्क्रियता (हाइबर्नेशन) से उपरति (डायपाज) किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर
शीत निष्क्रियता (Hibernation) – यह इक्टोथर्मल या शीत निष्क्रिय जन्तुओं (cold-blooded animals), जैसे-एम्फिबियन्स तथा रेप्टाइल्स की शरद नींद (winter sleep) है। जिससे वे अपने आपको ठंड से बचाते हैं। इसके लिए वे निवास स्थान, जैसे-खोह, बिल, गहरी मिट्टी आदि में रहने के लिए चले जाते हैं। यहाँ शारीरिक क्रियाएँ अत्यधिक मन्द हो जाती हैं। कुछ चिड़ियाँ एवं भालू के द्वारा भी शीत निष्क्रियता सम्पन्न की जाती है।

उपरति (Diapause) – यह निलंबित वृद्धि या विकास का समय है। प्रतिकूल परिस्थितियों में झीलों और तालाबों में प्राणिप्लवक की अनेक जातियाँ उपरति में आ जाती हैं जो निलंबित परिवर्धन की एक अवस्था है।

प्रश्न 2.
अगर समुद्री मछली को अलवणजल (फ्रेशवाटर) की जलजीवशाला (एक्वेरियम) में रखा जाता है तो क्या वह मछली जीवित रह पाएगी? क्यों और क्यों नहीं?
उत्तर
अगर समुद्री मछली को अलवणजल (freshwater) की जल-जीवशाला में रखा जाए तो वह परासरणीय समस्याओं के कारण जीवित नहीं रह पाएगी तथा मर जाएगी। तेज परासरण होने के कारण रक्त दाब तथा रक्त आयतन बढ़ जाता है जिससे मछली की मृत्यु हो जाती है।

प्रश्न 3.
लक्षण प्ररूपी (फीनोटाइपिक) अनुकूलन की परिभाषा दीजिए। एक उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर
लक्षण प्ररूपी अनुकूलन जीवों का ऐसा विशेष गुण है जो संरचना और कार्यिकी की विशेषताओं के द्वारा उन्हें वातावरण विशेष में रहने की क्षमता प्रदान करता है। मरुस्थल के छोटे जीव, जैसे-चूहा, सॉप, केकड़ा दिन के समय बालू में बनाई गई सुरंग में रहते हैं तथा रात को जब तापक्रम कम हो जाता है तब ये भोजन की खोज में बिल से बाहर निकलते हैं। मरुस्थलीय अनुकूलन का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ऊँट है। इसके खुर की निचली सतह,चौड़ी और गद्देदार होती है। इसके पीठ पर संचित भोजन के रूप में वसा एकत्रित रहती है जिसे हंप कहते हैं। भोजन नहीं मिलने पर इस वसा का उपयोग ऊँट ऊर्जा के लिए करता है। जल उपलब्ध होने पर यह एक बार में लगभग 50 लीटर जल पी लेता है जो शरीर के विभिन्न भागों में शीघ्र वितरित हो जाता है। उत्सर्जन द्वारा इसके शरीर से बहुत कम मात्रा में जल बाहर निकलता है। यह प्रायः सूखे मल का त्याग करता है।

प्रश्न 4.
अधिकतर जीवधारी 45° सेंटीग्रेड से अधिक तापमान पर जीवित नहीं रह सकते। कुछ सूक्ष्मजीव (माइक्रोब) ऐसे आवास में जहाँ तापमान 100° सेंटीग्रेड से भी अधिक है, कैसे जीवित रहते हैं?
उत्तर
सूक्ष्मजीवों में बहुत कम मात्रा में स्वतन्त्र जल रहता है। शरीर से जल निकलने से उच्च तापक्रम के विरुद्ध प्रतिरोध उत्पन्न होता है। सूक्ष्मजीवों की कोशाभित्ति में ताप सहन अणु तथा तापक्रम प्रतिरोधक एंजाइम्स भी पाए जाते हैं।

प्रश्न 5.
उन गुणों को बताइए जो व्यष्टियों में तो नहीं पर समष्टियों में होते हैं।
उत्तर
समष्टि (population) में कुछ ऐसे गुण होते हैं जो व्यष्टि (individual) में नहीं पाए जाते। जैसे व्यष्टि जन्म लेता है, इसकी मृत्यु होती है, लेकिन समष्टि की जन्मदर (natality) और मृत्युदर (mortality) होती है। समष्टि में इन दरों को क्रमशः प्रति व्यष्टि जन्मदर और मृत्युदर कहते हैं। जन्म और मृत्युदर को समष्टि के सदस्यों के सम्बन्धों में संख्या में वृद्धि का ह्रास (increase or decrease) के रूप में प्रकट किया जाता है। जैसे- किसी तालाब में गत वर्ष जल लिली के 20 पौधे थे और इस वर्ष जनन द्वारा 8 नए पौधे और बन जाते हैं तो वर्तमान में समष्टि 28 हो जाती है तो हम जनन दर की गणना 8/20 = 0.4 संतति प्रति जल लिली की दर से करते हैं। अगर प्रयोगशाला समष्टि में 50 फल मक्खियों में से 5 व्यष्टि किसी विशेष अन्तराल (जैसे- एक सप्ताह) में नष्ट हो जाती हैं तो इस अन्तराल में समष्टि में मृत्युदर 5/50 = 0.1 व्यष्टि प्रति फलमक्खी प्रति सप्ताह कहलाएगी।

समष्टि की दूसरी विशेषता लिंग अनुपात अर्थात् नर एवं मादा का अनुपात है। सामान्यतया समष्टि में यह अनुपात 50 : 50 होता है, लेकिन इसमें भिन्नता भी हो सकती है जैसे- समष्टि में 60 प्रतिशत मादा और 40 प्रतिशत नर हैं।

निर्धारित समय में समष्टि भिन्न आयु वाले व्यष्टियों से मिलकर बनती है। यदि समष्टि के सदस्यों की आयु वितरण को आलेखित (plotted) किया जाए तो इससे बनने वाली संरचना आयु पिरैमिड (age pyramid) कहलाती है। पिरेमिड का आकार समष्टि की स्थिति को प्रतिबिम्बित करता है

  • क्या यह बढ़ रहा है,
  • स्थिर है या
  • घट रहा है।

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समष्टि का आकार आवास में उसकी स्थिति को स्पष्ट करता है। यह सजातीय, अन्तर्जातीय प्रतिस्पर्धा, पीड़कनाशी, वातावरणीय कारकों आदि से प्रभावित होता है। इसे तकनीकी भाषा में समष्टि घनत्व से स्पष्ट करते हैं। समष्टि घनत्व का आकलन विभिन्न प्रकार से किया जाता है।
किसी जाति के लिए समष्टि घनत्व (आकार) निश्चित नहीं होता। यह समय-समय पर बदलता रहता है। इसका कारण भोजन की मात्रा, परिस्थितियों में अन्तर, परभक्षण आदि होते हैं। समष्टि की वृद्धि चार कारकों पर निर्भर करती है जिनमें जन्मदर (natality) और आप्रवासन (immigration) समष्टि में वृद्धि करते हैं, जबकि मृत्युदर (death rate-mortality) तथा उत्प्रावसन (emigration) इसे घटाते हैं। यदि आरम्भिक समष्टि No है, Nt एक समय अन्तराल है तथा । बाद की समष्टि है तो
Nt = No + (B + I) – (D + E)
= No + B + 1 – D – E

समीकरण से स्पष्ट है कि यदि जन्म लेने वाले ‘B’ संख्या + अप्रवासी ‘1’ की संख्या (B + I) मरने वालों की संख्या ‘D’ + उत्प्रवासी ‘E’ की संख्या से अधिक है तो समष्टि घनत्व बढ़ जाएगा अन्यथा घट जाएगा।
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प्रश्न 6.
अगर चरघातांकी रूप से (एक्स्पोनेन्शियली) बढ़ रही समष्टि 3 वर्ष में दोगुने साइज की हो जाती है तो समष्टि की वृद्धि की इन्ट्रिन्जिक दर (r) क्या है?
उत्तर
चरघातांकी वृद्धि (Exponential growth) – किसी समष्टि की अबाधित वृद्धि उपलब्ध संसाधनों (आहार, स्थान आदि) पर निर्भर करती है। असीमित संसाधनों की उपलब्धता होने पर समष्टि में संख्या वृद्धि पूर्ण क्षमता से होती है। जैसा कि डार्विन ने प्राकृतिक वरण सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हुए प्रेक्षित किया था, इसे चरघातांकी अथवा ज्यामितीय (exponential or geometric) वृद्धि कहते हैं। अगर N साइज की समष्टि में जन्मदर ‘b’ और मृत्युदर ‘d’ के रूप में निरूपित की जाए, तब इकाई समय अवधि ‘t’ में समष्टि की वृद्धि या कमी होगी –
[latex s=2]\frac { dN }{ dt } =(b\quad -\quad d)\quad \times \quad N[/latex]
मान लीजिए (b – a) =r है, तब
[latex s=2]\frac { dN }{ dt } =rN[/latex]

‘r’ प्राकृतिक वृद्धि की इन्ट्रिन्जिक दर (intrinsicrate) कहलाती है। यह समष्टि वृद्धि पर जैविक या अजैविक कारकों के प्रभाव को निर्धारित करने के लिए महत्त्वपूर्ण प्राचल (parameter) है। यदि समष्टि 3 वर्ष में दोगुने साइज की हो जाती है तो समष्टि की वृद्धि की इन्टिन्जिक दर 3r’ होगी।

प्रश्न 7.
पादपों में शाकाहारिता (हार्बिवोरी) के विरुद्ध रक्षा करने की महत्त्वपूर्ण विधियाँ बताइए।
उत्तर

  1. पत्ती की सतह पर मोटी क्यूटिकल का निर्माण।
  2. पत्ती पर काँटों का निर्माण, जैसे- नागफनी।
  3. काँटों के रूप में पत्तियों का रूपान्तरण, जैसे-डुरेन्टा।
  4. पत्तियों पर कॅटीले किनारों का निर्माण।
  5. पत्तियों में तेज सिलिकेटेड किनारों का विकास।
  6. बहुत से पादप ऐसे रसायन उत्पन्न और भण्डारित करते हैं जो खाए जाने पर शाकाहारियों को बीमार कर देते हैं। उनकी पाचन का संदमन करते हैं। उनके जनन को भंग कर देते हैं। यहाँ तक कि मार देते हैं, जैसे- कैलोट्रोपिस अत्यधिक विषैला पदार्थ ग्लाइकोसाइड उत्पन्न करता है।

प्रश्न 8.
ऑर्किड पौधा, आम के पेड़ की शाखा पर उग रहा है। ऑर्किड और आम के पेड़ के बीच पारस्परिक क्रिया का वर्णन आप कैसे करेंगे?
उत्तर
ऑर्किड पौधा तथा आम के पेड़ की शाखा सहभोजिता प्रदर्शित करता है। यह ऐसी पारस्परिक क्रिया है जिसमें एक जाति को लाभ होता है और दूसरी जाति को न लाभ और न हानि होती है। आम की शाखा पर अधिपादप के रूप में उगने वाले ऑर्किड को लाभ होता है जबकि आम के पेड़ को उससे कोई लाभ नहीं होता।

प्रश्न 9.
कीट पीड़कों (पेस्ट/इंसेक्ट) के प्रबन्ध के लिए जैव-नियन्त्रण विधि के पीछे क्या पारिस्थितिक सिद्धान्त है?
उत्तर
कृषि पीड़कनाशी के नियन्त्रण में अपनाई गई जैव नियन्त्रण विधियाँ परभक्षी की समष्टि नियमन की योग्यता पर आधारित हैं। परभक्षी, स्पर्धा शिकार जातियों के बीच स्पर्धा की तीव्रता कम करके किसी समुदाय में जातियों की विविधता बनाए रखने में भी सहायता करता है। परभक्षी पीड़कों का शिकार करके उनकी संख्या को उनके वास स्थान में नियन्त्रित रखते हैं। गेम्बूसिया मछली मच्छरों के लार्वा को खाती है और इस प्रकार कीटों की संख्या को नियन्त्रित रखती है।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित के बीच अन्तर कीजिए
(क) शीत निष्क्रियता और ग्रीष्म निष्क्रियता (हाइबर्नेशन एवं एस्टीवेशन)
(ख) बाह्योष्मी और आन्तरोष्मी (एक्टोथर्मिक एवं एंडोथर्मिक)
उत्तर
(क) शीत निष्क्रियता और ग्रीष्म निष्क्रियता के बीच अन्तर
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(ख) बाह्योष्मी और आन्तरोष्मी के बीच अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 13 Organisms and Populations img-4

प्रश्न 11.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए –
(क) मरुस्थलीय पादपों और प्राणियों का अनुकूलन, (2018)
(ख) जल की कमी के प्रति पादपों का अनुकूलन,
(ग) प्राणियों में व्यावहारिक (बिहेवियोरल) अनुकूलन,
(घ) पादपों के लिए प्रकाश का महत्त्व,
(ङ) तापमान और जल की कमी का प्रभाव तथा प्राणियों का अनुकूलन।
उत्तर
(क) 1. मरुस्थलीय पादपों के अनुकूलन इस प्रकार हैं –

  1. इनकी जड़ें बहुत लम्बी, शाखित, मोटी एवं मिट्टी के नीचे अधिक गहराई तक जाती हैं।
  2. इनके तने जल-संचय करने के लिए मांसल और मोटे होते हैं।
  3. रन्ध्र स्टोमैटल गुहा में धंसे रहते हैं।
  4. पत्तियाँ छोटी, शल्कपत्र या काँटों के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं।
  5. तना क्यूटिकिल युक्त तथा घने रोम से भरा होता है।

2. मरुस्थलीय प्राणियों के अनुकूलन इस प्रकार हैं –

  1. मरुस्थल के छोटे जीव, जैसे- चूहा, साँप, केकड़ा दिन के समय बालू में बनाई गई सुरंग में रहते हैं तथा रात को बिल से बाहर निकलते हैं।
  2. कुछ मरुस्थलीय जन्तु अपने शरीर के मेटाबोलिज्म से उत्पन्न जल का उपयोग करते हैं। उत्तरी अमेरिका के मरुस्थल में पाया जाने वाला कंगारू चूहा जल की आवश्यकता की पूर्ति अपनी आन्तरिक वसा के ऑक्सीकरण से करता है।
  3. जन्तु प्रायः सूखे मल का त्याग करता है।
  4. फ्रीनोसोमा तथा मेलोच होरिडस में काँटेदार त्वचा पाई जाती है।

(ख) जल की कमी के प्रति पादपों में अनुकूलन- ये मरुस्थलीय पादप कहलाते हैं। अत: इनका अनुकूलन मरुस्थलीय पादपों के समान होगा।

(ग) प्राणियों में व्यावहारिक अनुकूलन इस प्रकार हैं –

  1. शीत निष्क्रियता,
  2. ग्रीष्म निष्क्रियता,
  3. सामयिक सक्रियता,
  4. प्रवास आदि।

(घ) पादपों के लिए प्रकाश का महत्त्व इस प्रकार है –

  1. ऊर्जा का स्रोत,
  2. दीप्तिकालिक आवश्यकता,
  3. वाष्पोत्सर्जन,
  4. पुष्पन,
  5. पादप गति,
  6. पिग्मेंटेशन,
  7. वृद्धि
  8. कंद निर्माण आदि।

(ङ) 1. तापमान में कमी का प्रभाव तथा प्राणियों का अनुकूलन इस प्रकार है –

  1. शीत निष्क्रियता,
  2. सामयिक सक्रियता,
  3. प्रवास आदि।

2. जल की कमी का प्रभाव तथा प्राणियों का अनुकूलन इस प्रकार है –

  1. सूखे मल का त्याग करना।
  2. अपने शरीर के मेटाबोलिज्म से उत्पन्न जल का उपयोग करना।
  3. सूखे वातावरण को सहने की क्षमता।
  4. उत्तरी अमेरिका के मरुस्थल में पाया जाने वाला कंगारू चूहा जल की आवश्यकता की पूर्ति अपने आन्तरिक वसा के ऑक्सीकरण से करता है।

प्रश्न 12.
अजैवीय (abiotic) पर्यावरणीय कारकों की सूची बनाइए।
उत्तर
अजैवीय पर्यावरणीय कारक (Abiotic Environmental Factors) – विभिन्न अजैवीय कारकों को निम्नलिखित तीन समूहों में बाँट सकते हैं –

  1. जलवायवीय कारक (Climatic factors) – प्रकाश, ताप, वायुगति, वर्षा, वायुमण्डलीय नमी तथा वायुमण्डलीय गैसें।
  2. मृदीय कारक (Edaphic factors) – खनिज पदार्थ, कार्बनिक पदार्थ, मृदा जल तथा मृदा वायु।
  3. स्थलाकृतिक कारक (Topographic factors) – स्थान की ऊँचाई, भूमि का ढाल, पर्वत की दिशा आदि।

प्रश्न 13.
निम्नलिखित का उदाहरण दीजिए –

  1. आतपोभिद् (हेलियोफाइट)
  2. छायोदभिद (स्कियोफाइट)
  3. सजीवप्रजक (विविपेरस) अंकुरण वाले पादप
  4. आन्तरोष्मी (एंडोथर्मिक) प्राणी
  5. बाह्योष्मी (एक्टोथर्मिक) प्राणी
  6. नितलस्थ (बैन्थिक) जोन का जीव।

उत्तर

  1. सूर्यमुखी
  2. फ्यूनेरिया
  3. राइजोफोरा
  4. पक्षी तथा स्तनधारी
  5. ऐम्फीबियन्स तथा रेप्टाइल्स
  6. जीवाणु, स्पंज, तारा मछली आदि।

प्रश्न 14.
समष्टि (पॉपुलेशन) और समुदाय (कम्युनिटी) की परिभाषा दीजिए।
उत्तर

  1. समष्टि (Population) – किसी खास समय और क्षेत्र में एक ही प्रकार की स्पीशीज के व्यष्टियों या जीवों की कुल संख्या को समष्टि कहते हैं।
  2. समुदाय (Community) – किसी विशिष्ट आवास-स्थान की जीव-समष्टियों का स्थानीय संघ समुदाय कहलाता है।

प्रश्न 15.
निम्नलिखित की परिभाषा दीजिए और प्रत्येक का एक-एक उदाहरण भी दीजिए –

  1. सहभोजिता,
  2. परजीविता,
  3. छद्मावरण,
  4. सहोपकारिता, (2018)
  5. अन्तरजातीय स्पर्धा।

उत्तर

  1. सहभोजिता (Commensalism) – यह ऐसी पारस्परिक क्रिया है जिसमें एक जाति को लाभ होता है और दूसरी जाति को न लाभ और न हानि होती है। उदाहरण-आम की शाखा पर उगने वाला ऑर्किड तथा ह्वेल की पीठ पर रहने वाला बार्नेकल।
  2. परजीविता (Parasitism) – दो जातियों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध जिसमें एक जाति को लाभ होता है जबकि दूसरी जाति को हानि, परजीविता कहलाती है। उदाहरण-मानव यकृत पर्णाभ (लिवर फ्लूक)।
  3. छद्मावरण (Camouflage) – जीवों के द्वारा अपने आपको परभक्षी द्वारा आसानी से पहचान लिए जाने से बचने के लिए गुप्त रूप से रंगा होना, छद्मावरण कहलाता है। उदाहरण- कीट एवं मेंढक की कुछ जातियाँ।
  4. सहोपकारिता (Mutualism) – दो जातियों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध जिसमें दोनों जातियों को लाभ होता है, सहोपकारिता कहलाती है। उदाहरण- शैवाल एवं कवक से मिलकर बना | हुआ लाइकेन।
  5. अन्तरजातीय स्पर्धा (Interspecies Competition) – जब निकट रूप से सम्बन्धित जातियाँ उपलब्ध संसाधनों (भोजन, आवास) के लिए स्पर्धा करती हैं जो सीमित हैं, अन्तरजातीय स्पर्धा कहलाती है। उदाहरण-गैलापैगोस द्वीप में बकरियों के आगमन से एबिंग्डन का विलुप्त होना। बार्नेकल बेलनेस के द्वारा बार्नेकल चैथेमैलस को भगाना।

प्रश्न 16.
उपयुक्त आरेख की सहायता से लॉजिस्टिक (सम्भार तन्त्र) समष्टि वृद्धि का वर्णन कीजिए।
उत्तर
प्रकृति में किसी भी समष्टि के पास इतने असीमित साधन नहीं होते कि चरघातांकी वृद्धि होती रहे। इसी कारण सीमित संसाधनों के लिए व्यष्टियों में प्रतिस्पर्धा होती है। आखिर में योग्यतम् व्यष्टि जीवित बना रहेगा और जनन करेगा। प्रकृति में दिए गए आवास के पास अधिकतम सम्भव संख्या के पालन-पोषण के लिए पर्याप्त संसाधन होते हैं, इससे आगे और वृद्धि सम्भव नहीं है। उस आवास में उस जाति के लिए इस सीमा को प्रकृति की पोषण क्षमता (K) मान लेते हैं।
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किसी आवास में सीमित संसाधनों के साथ वृद्धि कर रही समष्टि आरम्भ में पश्चता प्रावस्था (लैग फेस) दर्शाती है। उसके बाद त्वरण और मंदन और अन्ततः अनन्तस्पर्शी प्रावस्थाएँ आती हैं। समष्टि घनत्व पोषण क्षमता प्रकार की समष्टि वृद्धि विर्हस्ट-पर्ल लॉजिस्टिक वृद्धि कहलाता है। इसे निम्न समीकरण के द्वारा निरूपित किया जाता है –
[latex s=2]\frac { dN }{ dt } [/latex] = rN = [latex s=2]\frac { K-N }{ K } [/latex] जहाँ, N = समय t में समष्टि घनत्व,
r = प्राकृतिक वृद्धि की दर,
K = पोषण क्षमता।

प्रश्न 17.
निम्नलिखित कथनों में परजीविता को कौन-सा कथन सबसे अच्छी तरह स्पष्ट करता है?
(क) एक जीव को लाभ होता है।
(ख) दोनों जीवों को लाभ होता है।
(ग) एक जीव को लाभ होता है, दूसरा प्रभावित नहीं होता है।
(घ) एक जीव को लाभ होता है, दूसरा प्रभावित होता है।
उत्तर
(घ) एक जीव को लाभ होता है, दूसरा प्रभावित होता है।

प्रश्न 18.
समष्टि की कोई तीन महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ बताइए और व्याख्या कीजिए।
उत्तर
समष्टि की तीन महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ इस प्रकार हैं –

  1. समष्टि आकार और समष्टि घनत्व (population size and population density)
  2. जन्मदर (birth rate),
  3. मृत्युदर (mortality rate)।

व्याख्या (i) समष्टि आकार और समष्टि घनत्व – किसी जाति के लिए समष्टि का आकार स्थैतिक प्रायता नहीं है। यह समय-समय पर बदलता रहता है जो विभिन्न कारकों, जैसे- आहार उपलब्धती, परभक्षण दाब और मौसमी परिस्थितियों पर निर्भर करता है। समष्टि घनत्व बढ़ रहा है। अथवा घट रहा है कारण कुछ भी हो, परन्तु दी गई अवधि के दौरान दिए गए आवास में समष्टि का घनत्व चार मूलभूत प्रक्रमों में घटता-बढ़ता है। इन चारों में से दो (जन्मदर और आप्रवासन) समष्टि घनत्व को बढ़ाते हैं और दो (मृत्युदर और उत्प्रवासन) इसे घटाते हैं।
अगर समय t में समष्टि घनत्व N है तो समय t + 1 में इसका घनत्व Nt + 1 = Nt + (B + I) – (D + E) होगा।

उपरोक्त समीकरण में आप देख सकते हैं कि यदि जन्म लेने वालों की संख्या + आप्रवासियों की संख्या (B + I) मरने वालों की संख्या + उत्प्रवासियों की संख्या (D + E) से अधिक है तो समष्टि घनत्व बढ़ जाएगा, अन्यथा यह घट जाएगा।

(ii) जन्मदर – यह साधारणत: प्रतिवर्ष प्रति समष्टि के 1000 व्यक्ति प्रति जन्म की संख्या द्वारा व्यक्त की जाती है। जन्मदर समष्टि आकार तथा समष्टि घनत्व को बढ़ाता है।
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(iii) मृत्युदर – यह जन्मदर के विपरीत है। यह साधारणतः प्रतिवर्ष प्रति समष्टि के 1000 व्यक्ति प्रति मृत्यु की संख्या द्वारा व्यक्त की जाती है।
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परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
स्पर्धा (competition) प्रभाव डालती है
(क) आबादी घनत्व पर
(ख) उत्पादन क्षमता पर
(ग) समुदाय विकास पर
(घ) इन सभी पर
उत्तर
(घ) इन सभी पर

प्रश्न 2.
खरपतवार वाले पौधे फसल वाले पौधों से स्पर्धा करते हैं –
(क) केवल स्थान के लिए।
(ख) स्थान और पोषण के लिये
(ग) स्थान, पोषण और प्रकाश के लिये
(घ) केवल प्रकाश के लिये
उत्तर
(ग) स्थान, पोषण और प्रकाश के लिये

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्न का कारण स्पष्ट कीजिए (2015)

  1. जलोभिदों में वायु अवकाश अत्यधिक विकसित होते हैं।
  2. मध्योभिद् पौधा नमक के जल में रखने पर मर जाता है।

उत्तर

  1. जलोभिदों में उपस्थित वायु अवकाशों में वायु भरी होने के कारण, गैसीय विनिमय सुलभ हो जाता है, पौधे हल्के हो जाते हैं, ताकि पानी में ठहर सकें। इसके अतिरिक्त यह अंगों के मुड़ने के तनाव का प्रतिरोध भी करता है।
  2. यदि मध्योभिद् पौधे को नमक के घोल में रखा जाता है तो वह इस घोल का अवशोषण करने लगता है जिसके फलस्वरूप उसके अन्दर लवण की मात्रा बढ़ जाती है जिसके कारण वह मुरझा जाता है तथा अन्ततः मर जाता है।

प्रश्न 2.
लवणमृदोभिद कहाँ पाये जाते हैं? इनके केवल दो मुख्य लक्षण लिखिए। (2016)
उत्तर
लवणमृदोभिद पौधे दलदली तटों पर पाये जाते हैं जहाँ के भूमि में लवणों की मात्रा अधिक होती है।

  1. इन पौधों में श्वसन जड़ें पायी जाती हैं।
  2. इनमें पितृस्थ अंकुरण या जरायुजता पायी जाती है।

प्रश्न 3.
मरुदभिद पौधों में कांटे किसका रूपान्तरण हैं? (2016)
उत्तर
मरुभिद् पौधों (जैसे- नागफनी) में कांटे पत्तियों के रूपान्तर हैं।

प्रश्न 4.
जरायुजता (vivipary) क्या है ? (2009, 16, 17)
उत्तर
यह घटना राइजोफोरा (Rhizophora) पौधे में देखी जा सकती है। इस पौधे में बीज जब फल में ही होते हैं तथा पौधे पर लगे होते हैं तभी अंकुरण आरम्भ हो जाता है। जरायुजता मैंग्रोव (mangrove) वनस्पति की विशेषता होती है।

प्रश्न 5.
एक अलेग्यूमीनोसीय पौधे का नाम बताइए जिसमें मूल ग्रन्थियाँ होती हैं। (2011)
उत्तर
कैजुराइना (Casudrina), रूबस (Rubas) की जड़ ग्रन्थियों में माइकोबैक्टीरियम जीवाणु पाया जाता है।

प्रश्न 6.
उत्पादक तथा अपघटक में अन्तर कीजिए। (2017)
उत्तर
उत्पादक हरे पौधे होते हैं, जो प्रकाश-संश्लेषण द्वारा भोजन निर्माण करते हैं। अपघटक के अन्तर्गत सूक्ष्म जीव जैसे जीवाणु एवं कवक आते हैं जो मृत पौधों एवं जन्तुओं का अपघटन करते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वनस्पति समूह को प्रभावित करने वाले किन्हीं दो पारिस्थितिक कारकों का उल्लेख कीजिए। (2017)
उत्तर
वनस्पति समूह को प्रभावित करने वाले दो पारिस्थितिक कारक निम्न हैं –

  1. जलवायु सम्बन्धी कारक – इसके अन्तर्गत प्रकाश, तापमान, जल, वर्षा जल, वायमुण्डलीय गैसें, वायुमण्डलीय आर्द्रता आदि का वनस्पति समूहों पर प्रभाव के बारे में अध्ययन किया जाता है।
  2. स्थलाकृतिक कारक – इसके अन्तर्गत समुद्र की सतह से ऊँचाई, पर्वतों तथा घाटियों की दिशा, ढलान की प्रवणता, आदि कारक आते हैं जो जल-वायवीय कारकों के साथ कार्य करते हैं।

प्रश्न 2.
मृदा परिच्छेदिका पर टिप्पणी लिखिए। (2017)
उत्तर
मृदा परिच्छेदिका (Soil Profile) – मृदा के बनने व विकसित होने में अनेक क्रियाओं के फलस्वरूप मृदा स्तरीय बन जाती है। मृदा के इन स्तरों के अनुक्रम (sequence), रचनात्मक व स्थानीय लक्षणों तथा स्वभाव को मृदा परिच्छेदिका कहते हैं। मृदा परिच्छेदिका की प्रकृति जलवायु एवं क्षेत्र की वनस्पति पर निर्भर करती है। अधिकतर मृदा की खड़ी काट (vertical section) का अध्ययन करने पर इसमें 3 – 4 स्तर एवं अनेक उपस्तर पाये जाते हैं। सामान्य रूप से इसमें निम्नलिखित स्तर पाये जाते हैं –

1. संस्तर ओ (Horizon O) – यह सबसे ऊपरी स्तर है जो कार्बनिक पदार्थों का बना होता है। इसमें पूर्ण अपघटिते (completely decomposed), अनअपघटित (undecomposed), अर्धअपघटित (partially decomposed) तथा नये कार्बनिक पदार्थ मिलते हैं।
यह निम्न दो उपस्तरों का बना हो सकता है –

  1. O1 या A00 उपस्तर – यह सबसे ऊपरी उपस्तर है जो हाल ही में गिरी पत्तियों, पुष्पों, फलों, शाखाओं तथा मृत जीवों एवं जीवों के उत्सर्जी पदार्थों युक्त होता है और मुख्यतः अनअपघटित होता है।
  2. O2 या A0 उपस्तर – इस उपस्तर में कार्बनिक पदार्थ अपघटन की विभिन्न अवस्थाओं में रहता है।

2. संस्तर ए (Horizon A) – ऊपरी सतह से मिला यह स्तर खनिज पदार्थों से भरपूर होता है। इसमें ह्यूमस भी प्रचुर मात्रा में मिलता है। यह मुख्य रूप से बलूई मृदा (sandy soil) का बना होता है। इसमें उपस्थित घुलनशील लवण (soluble salts), लोहा (iron) आदि घुलकर नीचे की तरफ जाते रहते हैं। इसी कारण इस स्तर को अवक्षालन क्षेत्र (zone of eluviation) कहते हैं। अधिकांशतः पौधों की जड़े इसी स्तर में होती हैं।

3. संस्तर बी (Horizon B) – इसमें निक्षालन (leaching) के कारण चिकनी मिट्टी (clay soil), लोहा, ऐलुमिनियम आदि के ऑक्साइड एकत्रित होते हैं। इसको समपोट (illuviation) क्षेत्र कहते हैं। यह क्षेत्र गहरे रंग का होता है। संस्तर ओ, ए तथा बी को मिलाकर उपरिमृदी (top soil) कहते हैं। संस्तर ए तथा बी खनिज मृदा (mineral soil) अथवा सोलम (solum) बनाते हैं।

4. संस्तर सी (Horizon C) – यह भी खनिज पदार्थों का स्तर है। इसमें चट्टानें तथा अपूर्ण रूप से अपक्षीय चट्टानें मिलती हैं। इस स्तर को अवमृदा (sub soil) भी कहते हैं।

5. संस्तर आर (Horizon R) – यह परिच्छेदिका का सबसे निचला स्तर होता है। इसमें अनपक्षीण (unweathered) जनक चट्टानें (parent bed rocks) होती हैं।

प्रश्न 3.
कीस्टोन जातियों से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित समझाइए। (2010, 11, 12)
या
‘कीस्टोन प्रजातियाँ पर टिप्पणी लिखिए। (2009, 10, 15, 16)
उत्तर
कीस्टोन जातियाँ
प्रत्येक समुदाय में यद्यपि विभिन्न जातियाँ पायी जाती हैं, परन्तु समुदाय की सभी जातियाँ समान रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं होतीं। एक या अधिक जातियाँ अन्य जातियों की तुलना में अधिक संख्या में, अधिक सुस्पष्टतया तथा अधिक क्षेत्र में फैली होती हैं। ये जातियाँ तेजी से वृद्धि करती हैं तथा समुदाय की अन्य जातियों की वृद्धि व संख्या का नियन्त्रण भी करती हैं।

इस प्रकार ये समुदाय की प्रमुख जाति या जातियाँ (dominant species) कहलाती हैं। अनेक बार यही जातियाँ, कीस्टोन जातियाँ (keystone species) कहलाती हैं, क्योंकि ये संख्या में अधिक होने के अतिरिक्त पर्यावरण को प्रमुखता से बदलने में सक्षम होती हैं। इस कारण से समुदाय का नाम भी इसी प्रमुख जाति या जातियों के नाम पर पड़ जाता है; जैसे–चीड़ वन, देवदार वन, चीड़-देवदार वन आदि।

उपर्युक्त से स्पष्ट है कि कीस्टोन जातियाँ (keystone species) या जातियों का पादप समुदाय की रचना में ही महत्त्वपूर्ण भाग नहीं होता वरन् यह उसके पर्यावरण को भी पूर्णतः प्रभावित करके रखती हैं। ये वहाँ की जलवायु को भी प्रभावित करती हैं। यहाँ तक कि ये अपने आस-पास के भौतिक पर्यावरण को परिवर्तित करके अपना एक सूक्ष्म जलवायु क्षेत्र (microclimatic region) ही बना लेती हैं जो उस वृहत् जलवायु क्षेत्र (macroclimatic zone) से अत्यधिक भिन्न भी हो सकता है। एक स्वच्छ धूप वाले दिन किसी घने वृक्ष के नीचे तथा खुले क्षेत्र की जलवायु अर्थात् तापमान, आपेक्षिक आर्द्रता, प्रकाश तीव्रता (temperature, relative humidity, light intensity) आदि में तुलना की जा सकती है।

कीस्टोन जातियाँ मृदा की रचना, मृदा रसायन एवं खनिजों के स्तर, ह्युमस आदि को भी परिवर्तित तथा प्रभावित करने में सक्षम होती हैं। अनेक बार मृदा में उपस्थित सूक्ष्मजीव भी कीस्टोन जातियों के उदाहरण होते हैं, ऐसे में वे मृदा के पर्यावरण के साथ-साथ मृदा के बाहर के पर्यावरण को बदलने में भी पूर्ण प्रभाव रखती हैं।

ये जातियाँ भू-जैवीय-रासायनिक चक्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाकर, कार्बनिक पदार्थों को अपघटित करके, ह्यूमस बढ़ाना, मृदा की उपजाऊ शक्ति बढ़ाना, जल को उपयोगी व प्राप्य जल के रूप में मृदा में स्थित रखना आदि अनेकानेक प्रभाव दिखाती हैं तथा ये प्रभाव मृदा पर जातियों को बसने, उन्हें भली-भाँति वृद्धि करने आदि के लिए प्रोत्साहित ही नहीं करते, बल्कि इन प्रक्रियाओं में उनका पूर्ण सहयोग भी करते हैं।

कीस्टोन प्रजातियाँ सूक्ष्म जलवायु, मृदा की बनावट तथा मृदा रसायन एवं खनिजों के स्तर को भी प्रभावित और परिवर्तित करने में सक्षम होती हैं। इनके प्रतिकूल प्रभाव वहाँ के भौतिक पर्यावरण में शीघ्र ही दिखाई देने लगते हैं, जो वहाँ के समुदायों पर बाहरी समुदायों के आक्रमण के रूप में परिलक्षित होते हैं। ऐसे ही परिवर्तनों से किसी स्थान विशेष पर अनुक्रमण (succession) सम्पन्न होते हैं।

प्रश्न 4.
परभक्षी की परिभाषा लिखिए। परभक्षी तथा शिकार के बीच अन्तःक्रिया का वर्णन कीजिए। (2010)
या
परभक्षी पर टिप्पणी लिखिए। (2014)
उत्तर
परभक्षी (शिकारी) तथा भक्ष्य (शिकार)
किसी पारिस्थितिक तन्त्र (ecosystem) के जैवीय तथा अजैवीय घटकों (biotic and abiotic components) के आपसी सम्बन्ध, चक्रण आदि पर ही उस पारितन्त्र के सन्तुलन का अस्तित्व है। जैवीय घटकों के आपसी सम्बन्ध, ऊर्जा तथा पोषक पदार्थों के प्रवाह को सुनिश्चित करते हैं। जैवीय घटकों में तीन प्रकार के जीव प्रमुख हैं- उत्पादक (producers), उपभोक्ता (consumers) तथा अपघटक (decomposers)।

उपभोक्ता विभिन्न श्रेणियों (orders) के यथा शाकाहारी (herbivores), मांसाहारी (carnivores) या सर्वाहारी (Omnivores) होते हैं। इनमें भी प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता सदैव शाकाहारी होते हैं और अपने पोषण के लिए उत्पादकों (producers) पर निर्भर करते हैं। . शाकाहारी जन्तु अगली श्रेणी के उपभोक्ताओं के लिए खाद्य पदार्थों को अपने अन्दर संचित करते हैं।
चूंकि ये जीव प्राय: जन्तु (animals) ही होते हैं अतः द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताओं (consumers of second order) को तो इनको किसी न किसी प्रकार पकड़कर अथवा शिकार करके ही अपना खाद्य बनाना होगा। स्पष्ट है यह मांसाहारी (carnivore) जो अपने शिकार या भक्ष्य (prey) को मार कर अपना भोजन बनाता है शिकारी या परभक्षी (predator) कहलाता है।

परभक्षी तथा भक्ष्य के मध्य अन्तर्सम्बन्ध
पारितन्त्र में परभक्षी तथा भक्ष्य के सम्बन्ध निश्चित होते हैं तथा यह परस्पर दोनों की जनन शक्ति, भक्षण बारम्बारता, दोनों के आकार-परिमाप तथा रुचियों पर निर्भर करते हैं। परभक्षी एकाहारी (monophagous), अल्पभक्षी (oligophagous) अथवा विविध भक्षी (polyphagous) हो सकते हैं। कुछ भी हो परभक्षी भक्ष्य की जनसंख्या को क्रम से खाकर कम करने का अनायास प्रयास करता रहता है; उदाहरण के लिए सर्यों की उपस्थिति में चूहों की संख्या बहुत कम हो जाती है।

इसी प्रकार, एक घास के मैदान के पारितन्त्र में मेढकों की संख्या सर्यों द्वारा नियन्त्रित रहती है। यहाँ यह भी विशिष्ट है कि एक पारितन्त्र में भक्ष्य तथा परभक्षी की संख्या सन्तुलित रहती है। यह सन्तुलन, भक्ष्य को कितने प्रकार के परभक्षी अपना शिकार बनाते हैं तथा कितने अन्तराल के बाद कोई परभक्षी भक्ष्य का शिकार करता है, इन दोनों बातों के अतिरिक्त सामान्य परिस्थितियों में भक्ष्य उस पारितन्त्र में अपनी जनसंख्या को कितनी शीघ्रता से बढ़ा सकते हैं, पर निर्भर करता है।

एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो सकती है-किसी जैव समुदाय में एक एकाहारी (monophagous) परभक्षी अर्थात् एक ही भक्ष्य पर निर्भर परभक्षी के लिए भक्ष्य काफी संख्या में उपलब्ध हैं। परभक्षी एक के बाद एक अपने भक्ष्यों का भक्षण करता जाता है; भक्ष्यों की संख्या स्पष्टतः कम होती जाती है, अब परभक्षी भूखे मरेंगे क्योंकि और तो कुछ वे खायेंगे ही नहीं, कुछ अपने भक्ष्य की खोज में अपने जैव समुदाय को ही छोड़ जायेंगे। इधर परभक्षियों की संख्या कम हुई तो भक्ष्यों की संख्या वृद्धि प्रोत्साहित होगी।

इनकी संख्या बढ़ने से परभक्षियों की संख्या वृद्धि का वातावरण तैयार करेगा। इस प्रकार भक्ष्य व परभक्षियों का संख्या घनत्व निश्चित रह सकता है। यहाँ यह आवश्यक रूप से निहित है कि प्रायः परभक्षी उच्चतम परभक्षी को छोड़कर भी तो किसी अन्य का भक्ष्य है।

प्रश्न 5.
संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए – स्पर्धा (प्रतिस्पर्धा) (2014,15)
उत्तर
स्पर्धा (प्रतिस्पर्धा)
जब डार्विन ने प्रकृति में जीवन-संघर्ष और योग्यतम की उत्तरजीविता के बारे में कहा तो वह निश्चयी था कि जैव विकास में अंतरजातीय स्पर्धा एक शक्तिशाली बल है। जीवों के बीच स्थान, भोजन, जल, खनिज लवण, सम्भोग साथी तथा अन्य संसाधनों के लिए स्पर्धा होती है। जब यह स्पर्धा एक ही जाति के सदस्यों के बीच होती है तब इसे अन्तरजातीय स्पर्धा (interspecific competition) कहते हैं तथा जब स्पर्धा विभिन्न प्रजाति के जीवों के बीच होती है। तब इसे अन्तराजातीय स्पर्धा (intraspecific competition) कहते हैं। इस प्रकार स्पर्धाएँ निम्नलिखित दो प्रकार की होती हैं –

(i) अन्तराजातीय स्पर्धा (Intraspecific Competition) – इस प्रकार की स्पर्धा भिन्न-भिन्न जातियों (species) के सदस्यों के बीच एक ही प्रकार के संसाधनों (resources) का उपयोग करने के कारण उत्पन्न होती है।
उदाहरण – जन्तुओं में परभक्षी-भक्ष्य (predator-prey) के सम्बन्ध में विभिन्न परभक्षी (predators) जन्तु अपने भक्ष्य (prey) को पाने के लिए स्पर्धा करते हैं। पौधों में विभिन्न प्रजातियाँ प्रकाश (light), पोषक पदार्थों (nutrients), वास स्थलों (habitats) के लिए आपस में स्पर्धा करती रहती हैं।

(ii) अन्तरजातीय स्पर्धा (Interspecific Competition) – इस प्रकार की स्पर्धा एक ही जाति (species) के सदस्यों के बीच पाई जाती है जिसमें एक ही जाति के विभिन्न सदस्य, आवास, भोजन, सहवास सदस्य आदि के लिए आपस में स्पर्धा करते हैं।
उदाहरण – फसल का मैदान जहाँ एक ही जाति के पौधों के बीच सीमित संसाधनों के कारण इस प्रकार की स्पर्धा पाई जाती है।

प्रश्न 6.
सहोपकारिता (परस्परता) किसे कहते हैं? उदाहरण देकर इसको स्पष्ट कीजिए। (2017, 18)
उत्तर
सहोपकारिता (Mutualism) – यह दो भिन्न प्रजाति के जीवों के बीच पाया जाने वाला सहजीवी (symbiotic) सम्बन्ध होता है जिसमें दोनों जीवों को परस्पर लाभ (benefit) होता है। कवक और प्रकाश-संश्लेषी शैवाल या सायनोबैक्टीरिया के बीच घनिष्ठ सहोपकारी सम्बन्ध का उदाहरण लाइकेन में देखा जा सकता है। इसी प्रकार कवकों और उच्चकोटि पादपों की जड़ों के बीच कवकमूल (माइकोराइजी) साहचर्य है। कवक मृदा से अत्यावश्यक पोषक तत्वों के अवशोषण में पादपों की सहायता करते हैं, जबकि बदले में पादप कवकों को ऊर्जा-उत्पादी कार्बोहाइड्रेट देते हैं। इसी प्रकार लेग्यूम-राइजोबियम सह-सम्बन्ध है।

सहोपकारिता के सबसे शानदार और विकास की दृष्टि से लुभावने उदाहरण पादप-प्राणी सम्बन्ध में पाए जाते हैं। पादपों को अपने पुष्प परागित करने और बीजों के प्रकीर्णन के लिए प्राणियों की सहायता चाहिए। स्पष्ट है कि पादप को जिन सेवाओं की अपेक्षा प्राणियों से है उसके लिए शुल्क तो देना होगा। पुरस्कार अथवा शुल्क के रूप में ये परागणकारियों को पराग और मकरंद तथा प्रकीर्णकों को रसीले और पोषक फल देते हैं।

लेकिन परस्पर लाभकारी तंत्र की ‘धोखेबाजी’ से रक्षा होनी चाहिए, उदाहरण के लिए, ऐसे प्राणी जो परागण में सहायता किए बिना ही मकरंद चुराते हैं। अब आप देख सकते हैं कि पादप-प्राणी पारस्परिक क्रिया में सहोपकारियों के लिए प्राय: सह-विकास’ क्यों शामिल है, अर्थात् पुष्प और इसके परागणकारी जातियों के विकास एक-दूसरे से मजबूती से जुड़े हुए हैं।

अंजीर के पेड़ों के अनेक जातियों में बर्र की परागणकारी जातियों के बीच मजबूत सम्बन्ध है। इसका अर्थ यह है कि कोई दी गई अंजीर जाति केवल इसके साथी’ बर्र की जाति से ही परागित हो सकती है, बर्र की दूसरी जाति से नहीं। मादा बर्र फल को न केवल अंडनिक्षेपण के लिए काम में लेती है; बल्कि फल के भीतर ही वृद्धि कर रहे बीजों को डिंबकों के पोषण के लिए प्रयोग करती है।

अंडे देने के लिए उपयुक्त स्थल की तलाश करते हुए बर्र अंजीर पुष्पक्रम को परागित करती है। इसके बदले में अंजीर अपने कुछ परिवर्धनशील बीज, परिवर्धनशील बर्र के डिंबंकों को, आहार के रूप में देता है।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए

  1. परजीविता (2015, 17)
  2. सहभोजिता (2013, 15)
  3. सहजीवन। (2009, 10, 11, 13, 15, 17)

उत्तर
1. परजीविता
ये विषमपोषी (heterotrophic) जीव हैं जो अपने परपोषी (host) के शरीर से आहार प्राप्त करते हैं। परजीवी विकल्पी (facultative) तथा अविकल्पी (obligate) दो प्रकार के हो सकते हैं। विकल्पी परजीवी मुख्यत: मृतोपजीवी (saprophytic) होते हैं, जो विशेष परिस्थितियों में ही परजीवी बनते हैं; जैसे-अधिकांश कवक या जीवाणु। अविकल्पी परजीवी, परपोषी (host) के परभक्षी (predator) होते हैं। कुछ आवृतबीजी (angiosperms) भी परजीवी स्वभाव को व्यक्त करते हैं, जैसे- कुस्कुटा (Cuscuta) – पूर्ण तना परजीवी; विस्कम (Viscum) तथा लोरेन्थस (Loranthus) – आंशिक तना परजीवी, रेफ्लेसिया (Rufflesia) और औरोबैकी (Orobanchae) – पूर्ण जड़ परजीवी; सैन्टेलम एलबम (Suntalum album) – आंशिक जड़ परजीवी है।

2. सहभोजिता
यह दो जीवों के बीच परस्पर सम्बन्ध है जिसमें एक जीव को लाभ होता है और दूसरे जीव को न हानि न लाभ होता है। आम की शाखा पर अधिपादप के रूप में उगने वाला ऑर्किड और हेल की पीठ को आवास बनाने वाले बार्नेकल को लाभ होता है जबकि आम के पेड़ और ह्वेल को उनसे कोई लाभ नहीं होता। पक्षी बगुला और चारण पशु निकट साहचर्य में रहते हैं। सहभोजिता का यह उत्कृष्ट उदाहरण है। जहाँ पशु चरते हैं उसके पास ही बगुले भोजन प्राप्ति के लिए रहते हैं क्योंकि जब पशु चलते हैं तो वनस्पति को हिलाते हैं और उसमें से कीट बाहर निकलते हैं। बगुले उन कीटों को खाते हैं अन्यथा वानस्पतिक कीटों को ढूंढ़ना और पकड़ना बगुले के लिए कठिन होता। सहभोजिता का दूसरा उदाहरण समुद्री ऐनिमोन दंशन स्पर्शक हैं, जिसमें उनके बीच क्लाउन मछली रहती है। मछलियों को परभक्षियों से सुरक्षा मिलती है जो दंशन स्पर्शकों से दूर रहते हैं। क्लाउन मछली से ऐनिमोन को कोई लाभ मिलता हो ऐसा नहीं लगती।

3. सहजीवन
यह दो भिन्न प्रजाति के जीवों के बीच पाया जाने वाला सहजीवी (Symbiotic) सम्बन्ध होता है। जिसमें दोनों जीवों को परस्पर लाभ (benefit) होता है। कवक और प्रकाश संश्लेषी शैवाल या सायनोबैक्टीरिया के बीच घनिष्ठ सहोपकारी सम्बन्ध का उदाहरण लाइकेन में देखा जा सकता है। इसी प्रकार कवकों और उच्चकोटि पादपों की जड़ों के बीच कवकमूल (माइकोराइजी) साहचर्य है। कवक, मृदा से अत्यावश्यक पोषक तत्त्वों के अवशोषण में पादपों की सहायता करते हैं जबकि बदले में पादप, कवकों को ऊर्जा-उत्पादी काबोहाइड्रेट देते हैं।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अनुकूलन को परिभाषित कीजिए। अनुकूलन में होने वाले परिवर्तन का विस्तार से वर्णन कीजिए। उदाहरण सहित विभिन्न प्रकार के अनुकूलन का वर्णन कीजिए। (2015)
या
मैन्ग्रोव वनस्पतियाँ कहाँ पायी जाती हैं? इनकी विशेषताओं का वर्णन कीजिए। (2014)
या
मैन्ग्रोव पौधों में पितृस्थ अंकुरण (जरायुजता) एक विशिष्ट अनुकूलन है। स्पष्ट कीजिए। (2017)
या
टिप्पणी लिखिए-मैन्ग्रोव वनस्पति। (2014, 15)
उत्तर
अनुकूलन
पौधों की बाह्य आकारिकी तथा आन्तरिक संरचना (external morphology and internal structure) पर उनके वातावरण का प्रभाव पड़ता है। पौधों में अपने आपको वातावरण में समायोजित करने की सामर्थ्य होती है जिसे अनुकूलन (adaptation) कहते हैं। दूसरे शब्दों में पौधों में अनुकूलन से तात्पर्य उन विशेष बाह्य अथवा आन्तरिक लक्षणों से है जिनके कारण पौधे किसी विशेष वातावरण में रहने, वृद्धि करने, फलने-फूलने तथा प्रजनन के लिए पूर्णतया सक्षम होते हैं और अपना जीवन-चक्र पूरा करते हैं। इन विशेष पारिस्थितिकीय अनुकूलनों तथा आवास के आधार पर पौधों को भिन्न पारिस्थितिक समूहों में रखा गया है जो निम्नलिखित चार हैं –

  1. जलोद्भिद् (Hydrophytes)
  2. शुष्कोभिद् = मरुद्भिद् (Xerophytes)
  3. मध्योद्भिद् = समोद्भिद् (Mesophytes)
  4. लवणोद्भिद् (Halophytes)

I. जलोभिद पौधों में अनुकूलन
(A) जलोभिद् पौधों में आकारिकीय अनुकूलन
1. जड़ों में अनुकूलन

  1. जलीय पौधों का शरीर जल के सम्पर्क में रहता है जिससे जल-अवशोषण के लिए जड़ों की आवश्यकता नहीं रह जाती। अतः जड़े बहुत कम विकसित अथवा अनुपस्थित होती हैं, उदाहरण- वॉल्फिया (Wolffa), सिरेटोफिल्लम (Ceratophyllum) आदि।
  2. जड़ें यदि उपस्थित हैं तो वे प्रायः रेशेदार (fibrous), अपस्थानिक (adventitious), छोटी तथा शाखाविहीन (unbranched) अथवा बहुत कम शाखीय होती हैं। लेम्ना (Lemna) में इनका कार्य केवल सन्तुलन (balancing) तथा तैरने में सहायता करना है।
  3. मूलरोम (root hairs) अनुपस्थित अथवा कम विकसित होते हैं।
  4. मूलगोप (root caps) प्रायः अनुपस्थित होती हैं। कुछ पौधों, उदाहरण- समुद्रसोख (Eichhornia) तथा पिस्टिया (Pistia) में मूलगोप के स्थान पर एक अन्य रचना मूल-पॉकेट (root-pocket) होती है।
  5. सिंघाड़े (Trapa) की जड़े स्वांगीकारक (assimilatory) होती हैं, अर्थात् हरी होने के कारण प्रकाश-संश्लेषण करती हैं।

2. तनों में अनुकूलन

  1. जलनिमग्न पौधों में तने प्रायः लम्बे, पतले, मुलायम तथा स्पंजी होते हैं जिससे पानी के बहाव के कारण इन्हें हानि नहीं होती।
  2. स्वतन्त्र तैरक (free floating) पौधों में तना पतला होता है तथा जल की सतह पर क्षैतिज दिशा में तैरता है, उदाहरण-एजोला (Azolla) समुद्रसोख (Eichhormia) तथा पिस्टिया (Pistia) में तना छोटा, मोटा तथा स्टोलन के रूप में (stoloniferous) होता है।
  3. स्थिर तैरक (fixed floating) पौधों में तना, धरातल पर फैला रहता है, इसे प्रकन्द (rhizome) कहते हैं। यह जड़ों द्वारा कीचड़ में स्थिर रहता है, उदाहरण- जलकुम्भी (Nymphaed) तथा निलम्बियम (Nelumbium)।

3. पत्तियों में अनुकूलन

  1. जलनिमग्न पौधों में पत्तियाँ पतली होती हैं, वेलिसनेरिया (Valisneria) में ये लम्बी तथा फीतेनुमा (ribbon-shaped), पोटामोजेटोन (Potamogeton) में लम्बी, रेखाकार (linear) तथा सिरेटोफिल्लम (Ceratophyllum) में ये महीन तथा कटी-फटी होती हैं। तैरक पौधों की पत्तियाँ बड़ी, चपटी व पूर्ण होती हैं। जलकुम्भी (Nymphaed) की पत्ती की ऊपरी सतह पर मोमीय पदार्थ की परत (waxy coating) होती है तथा पर्णवृन्त लम्बे होते हैं व श्लेष्म से ढके रहते हैं।
  2. सिंघाड़े (Trupa) तथा समुद्रसोख (Eichhormia) में पर्णवृन्त फूला होता है तथा स्पंजी होता हैं।
  3. कुछ जलस्थली (amphibious) पौधों, जैसे-सेजिटेरिया (Sagittaria), जलधनिया (Ranunculus), आदि में विषमपर्णी (heterophylly) दशा होती है। इसमें जलनिमग्न पत्तियाँ अधिक लम्बी तथा कटी-फटी होती हैं, जल की सतह पर तैरने वाली पत्तियाँ अथवा वायवीय पत्तियाँ चौड़ी व पूर्ण होती हैं। यह अनुकूलन प्रकाश प्राप्ति के लिए होता है। जलनिमग्न पौधों की कटी-फटी पत्तियाँ अधिकतम प्रकाश ग्रहण करने का प्रयास करती हैं।

4.पुष्प व बीज में अनुकूलन
जलनिमग्न पौधों में प्राय: पुष्प उत्पन्न नहीं होते, जहाँ पर पुष्प उत्पन्न होते हैं, उनमें बीज नहीं बनते।

(B) जलोभिद् पौधों में शारीरिकीय अनुकूलन
जलीय पौधों के विभिन्न भागों की आन्तरिक रचना (शारीरिकी) में निम्न विशेषताएँ या अनुकूलन पाए जाते हैं –

1. बाह्यत्वचा (Epidermis) – बाह्यत्वचा प्रायः मृदूतक कोशिकाओं की बनी इकहरी परत के रूप में होती है। इस पर उपत्वचा (cuticle) नहीं होती, परन्तु तैरने वाली पत्तियों की ऊपरी बाह्यत्वचा पर मोमीय परत (उदाहरण- जलकुम्भी, Nymphaea) अथवा रोमिल परत (उदाहरण- साल्विनिया- Salvyinic) होती है। बाह्यत्वचा की कोशिकाओं में प्रायः पर्णहरिम (chlorophyll) पाया जाता है। टाइफा (Typha) में बाह्यत्वचा पर उपचर्म (cuticle) की परत होती है।

2. रन्ध्र (Stomata) – जलनिमग्न (submerged) पौधों में रन्ध्र प्रायः अनुपस्थित होते हैं। तैरक (floating) पौधों में रन्ध्र प्रायः पत्ती की ऊपरी सतह तक ही सीमित रहते हैं; जबकि
जलस्थलीय (amphibious) पौधों की जल से बाहर निकली पत्तियों में रन्ध्र दोनों सतहों पर होते हैं।

3. अधस्त्वचा (Hypodermis) – जलनिमग्न पौधों, उदाहरण-हाइड्रिलो (Hydrilla) तथा पोटामोजेटोन (Potamogeton) के तनों में अधस्त्वचा अनुपस्थित होती है, यद्यपि कुछ तैरक (floating) पौधों व जलस्थलीय (amphibious) पौधों में यह मोटी भित्ति वाली मृदूतकीय कोशिकाओं के रूप में अथवा स्थूलकोण ऊतक के रूप में होती है।

4. यान्त्रिक ऊतक (Mechanical Tissue) – जलोभिदों में यान्त्रिक ऊतक प्राय: अनुपस्थित अथवा बहुत कम विकसित होता है।

5. वल्कुट (Cortex) – जड़ व तनों में वल्कुट (cortex) सुविकसित होता है तथा पतली भित्ति की मृदूतक कोशिकाओं का बना होता है। वल्कुट (cortex) के अधिकांश भाग में बड़ी-बड़ी वायु-गुहिकाएँ (air cavities) उत्पन्न हो जाती हैं। इस ऊतक को वायूतंक (aerenchyma) कहते हैं। वायु-गुहिकाओं में भरी वायु के कारण, गैसीय विनिमय सुलभ हो जाता है, पौधे हल्के हो जाते हैं, ताकि पानी में ठहर सकें। इसके अतिरिक्त यह अंगों के मुड़ने के तनाव का प्रतिरोध (resistance to bending stress) भी करता है।

6. पत्तियों में पर्णमध्योतक (Mesophyll Tissue in Leaves) – जलनिमग्न पत्तियों में पर्णमध्योतक अभिन्नित (undifferentiated) होता है। तैरक पत्तियों, जैसे-जलकुम्भी (Nymphaea) में यह खम्भ ऊतक (palisade tissue) व स्पंजी मृदूतक (spongy parenchyma) में भिन्नत होता है, इसमें बड़ी वायु-गुहिकाएँ (air cavities) भी पाई जाती हैं।

7. संवहन बण्डल (Vascular Bundle) – संवहन ऊतक कम विकसित होता है। जलनिमग्ने पौधों में यह कम भिन्नित होता है। जाइलम में प्रायः वाहिकाएँ (tracheids) ही उपस्थित होती हैं, वाहिनिकाएँ (vessels) कम होती हैं, यद्यपि जलस्थलीय (amphibious) पौधों में संवहन बण्डल अपेक्षाकृत अधिक विकसित तथा जाइलम व फ्लोएम में भिन्नत होते हैं।

(C) कुछ अन्य अनुकूलन

  1. जलीय पौधे प्रायः बहुवर्षीय (perennials) होते हैं।
  2. अधिकतर जलीय पौधों में भोजन प्रायः प्रकन्दों (rhizomes) में संचित रहता है।
  3. अधिकांश जलीय पौधों में वर्षी या कायिक प्रजनन (vegetative reproduction) तीव्रता से होता है।
  4. जलीय पौधों में द्वितीयक वृद्धि (secondary growth) नहीं होती।
  5. जलीय पौधों में पूर्ण शरीर पर श्लेष्मिक आवरण होता है जिससे पौधे पानी में गल नहीं पाते।

II. शुष्कोभिद् = मरुभिद् पौधों में अनुकूलन
इसका अध्ययन विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 2 के उत्तर में करें।

III. मध्योदभिद् = समोदभिद् पौधों में अनुकूलन
मध्योभिद पौधे उन स्थानों पर उगते हैं, जहाँ की जलवायु न तो बहुत शुष्क है और न ही बहुत नम है। तथा ताप व वायुमण्डल की आपेक्षिक आर्द्रता (relative humidity) भी साधारण होती है। ये पौधे शाक, झाड़ी तथा वृक्ष सभी रूपों में होते हैं, उदाहरण-गेहूँ, चना, मक्का, गुड़हल, आम, शीशम, जामुन आदि, यद्यपि इन पौधों में जलोभिद् तथा मरुभिद् पौधों की भाँति विशिष्ट रचनात्मक या क्रियात्मक अनुकूलन तो नहीं होते, परन्तु कुछ अर्थों में ये जलोभि व मरुभिद् पौधों के बीच की स्थिति रखते हैं। इनके प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं –

  1. जड़ तन्त्र सुविकसित होता है। जड़े सामान्यतः शाखित होती हैं, इनमें मूलरोम (root hairs) व मूलगोप (root caps) पाए जाते हैं।
  2. तना वायवीय, ठोस तथा जाति के अनुसार, स्वतन्त्र रूप से शाखित होता है।
  3. पत्तियाँ प्रायः बड़ी, चौड़ी तथा विभिन्न आकृतियों की होती हैं, प्रायः क्षैतिज दिशा में रहती हैं। तथा इन पर रोम व मोमीय परत आदि नहीं होती।
  4. बाह्यत्वचा (epidermis) सुविकसित होती है। सभी वायवीय भागों की बाह्यत्वचा पर उपत्वचा | (cuticle) का पतला स्तर होता है।
  5. रन्ध्र (stomata) प्रायः पत्तियों की दोनों सतहों पर होते हैं, यद्यपि इनकी संख्या निचली सतह पर अधिक होती है।
  6. पर्णमध्योतक ऊतक (mesophyll tissue), खम्भ ऊतक (palisade tissue) व स्पंजी मृदूतक (spongy parenchyma) में विभेदित होता है।
  7. संवहन ऊतक (vascular tissue) तथा यान्त्रिक ऊतक (mechanical tissue) विकसित होते हैं तथा भली प्रकार विभेदित होते हैं।
  8. इन पौधों में प्रायः दोपहर के समय अस्थाई म्लानता (temporary wilting) देखी जा सकती है।

IV. लवणोदभिद् पौधों में अनुकूलन
(A) लवणोभिद् पौधों में आकारिकीय अनुकूलन
लवणोभिद् पौधों को मैन्ग्रोव वनस्पतियाँ भी कहते हैं। इनके विभिन्न भागों की बाह्य रचना में निम्नलिखित विशेषताएँ अथवा अनुकूलन प्रमुख हैं –

1. जड़ (Root) – जड़े दो प्रकार की होती हैं- वायवीय (aerial) तथा भूमिगत (subterranean)। वायवीय जड़े दलदल से बाहर सीधी निकल जाती हैं और ख़ुटी जैसी रचनाओं के रूप में दिखाई देती हैं। ये जड़े ऋणात्मक गुरुत्वाकर्षी (negatively geotropic) होती हैं तथा इन पर अनेक छिद्र होते हैं। ये जड़े श्वसन का कार्य करती हैं, इन्हें श्वसन मूल (pneumatophores) कहते हैं, उदाहरण-सोनेरेशिया (Sonnerutia) तथा एवीसीर्निया (Avicennia), आदि। श्वसन मूलों द्वारा ग्रहण की गई ऑक्सीजन न केवल जलनिमग्न जड़ों के काम आती है, बल्कि इसे उस रुके लवणीय जल में रहने वाले जन्तु भी प्रयुक्त करते हैं। राइजोफोरा में प्रॉप मूल (prop roots) भी होती है जो पौधे को दलदल वाली भूमि में स्थिर रखती है।

2. तना (Stem) – तने प्रायः मोटे, मांसलसरसे होते हैं।
3. पत्तियाँ (Leaves) – पत्तियाँ प्रायः मोटीसरस होती हैं। ये सदाहरित (evergreen) होती हैं। कुछ पौधों में ये पतली तथा छोटी होती हैं।
4. पितृस्थ अंकुरण (Vivipary) – मैन्ग्रोव पौधों में पितृस्थ अंकुरण एक विशिष्ट अनुकूलन है। प्रायः बीजों को अंकुरित होने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। लवणीय दलदल में ऑक्सीजन की कमी होती है। अत: बीज, मातृ पौधे पर फल के अन्दर रहते हुए ही अंकुरित हो जाते हैं। इस गुण को पितृस्थ अंकुरण (vivipary) कहते हैं।

(B) लवणोभिद् पौधों में शारीरिकीय अनुकूलन
1. जड़ों में अनुकूलन
जड़ की आन्तरिक रचना में निम्न अनुकूलन या विशेषताएँ पाई जाती हैं –

  1. भूमिगत जड़ों में चारों ओर बहुस्तरीय कॉर्क पाई जाती हैं।
  2. जड़ की वल्कुट (cortex) की कोशिकाएँ ताराकृति (star-shaped) की होती हैं और परस्पर पार्श्व भुजाओं (lateral arms) द्वारा सम्बन्धित रहती हैं। कुछ कोशिकाएँ तेलटैनिनयुक्त होती हैं।
  3. पिथ कोशिकाएँ मोटी भित्ति की होती हैं और इनमें भी तेल व टैनिन संचित रहता है।

2. तनों में अनुकूलन
तने की आन्तरिक रचना में निम्नलिखित अनुकूलन या विशेषताएँ होती हैं –

  1. बाह्यत्वचा की कोशिकाएँ मोटी भित्ति वाली होती हैं। तरुण तने में भी बाह्यत्वचा के चारों ओर उपत्वचा (cuticle) का मोटा स्तर होता है। बाह्यत्वचा की कोशिकाएँ तेल व टैनिनयुक्त होती हैं।
  2. बाह्यत्वचा के नीचे बहुस्तरीय, मोटी भित्ति वाली कोशिकाओं की बनी अधस्त्वचा होती है।
  3. प्राथमिक वल्कुट (cortex) में अनेक बड़े स्थान (lacunae) होते हैं, इनकी कोशिकाओं में टैनिन वे तेल होता है। कुछ कोशिकाओं में कैल्सियम ऑक्सेलेट (calcium oxalate) के रवे होते हैं। H- की आकृति की कण्टिकाएँ (spicules) भी होती हैं जो वल्कुट को यान्त्रिक शक्ति (mechanical strength) प्रदान करती हैं।
  4. परिरम्भ (pericycle) बहुस्तरीय तथा दृढ़ोतकीय (sclerenchymatous) होता है।
  5. पिथ में भी ‘H’ की आकृति की कण्टिकाएँ होती हैं।
  6. संवहन बण्डल सुविकसित होते हैं।

3. पत्तियों में अनुकूलन
पत्ती की आन्तरिक रचना में निम्नलिखित अनुकूलन या विशेषताएँ होती हैं।

  1. ऊपरी तथा निचली बाह्यत्वचा पर उपत्वचा की मोटी परत होती है।
  2. बाह्यत्वचा की कोशिकाएँ अधिक मोटी होती हैं और उनमें कैल्सियम ऑक्सेलेट (calcium oxalate) के रवे होते हैं।
  3. रन्ध्र (stomata) प्रायः पत्ती की निचली सतह पर होते हैं तथा गड्ढों में स्थित होते हैं। (sunken stomata)।
  4. ऊपरी बाह्यत्वचा के नीचे पतली भित्ति वाली कोशिकाओं के अनेक स्तर होते हैं जिनमें पानी भरा होता है, बाहरी स्तरों की कोशिकाओं में तेलटैनिन भी होता है।
  5. पर्णमध्योतक, भली प्रकार भिन्नित होता है।
  6. पत्ती की निचली सतह पर कॉर्क क्षेत्र (cork areas) पाए जाते हैं।

प्रश्न 2.
मरुदभि क्या हैं? इनके आकारिकीय एवं आन्तरिक लक्षणों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए। (2013)
या
मरुदभिद् पौधों के लक्षण लिखिए। (2011, 14)
या
मरुभिद् पौधों के विभिन्न आकारीय अनुकूलनों का वर्णन कीजिए।(2009, 10, 11, 18)
या
नागफनी एक मरुदभि है। कारण सहित व्याख्या कीजिए। (2015)
उत्तर
मरुभिद्
शुष्क आवास स्थल पर पाई जाने वाली वनस्पति को शुष्कोभिद् या मरुद्भिद् (xerophytes) कहते हैं। ऐसे वासस्थलों में जल की अत्यधिक कमी पायी जाती है। इस प्रकार के पादप लम्बी अवधि के शुष्क अनावृष्टि काल में भी जीवित रह सकते हैं। अतः इनमें जलाभाव की अत्यधिक सहिष्णुता होती है। अत्यधिक मात्रा में जल उपलब्ध होने के पश्चात् भी जल पौधों को उपलब्ध नहीं हो पाता। इस प्रकार के आवास कार्यिकी दृष्टि से शुष्क (physiologically dry) होते हैं। शुष्क आवास स्थल भी निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

1. भौतिक दृष्टि से शुष्क आवास स्थल (Physically Dry Habitat) – ऐसे स्थलों की मृदा में जल को धारण करने व इसे रोके रखने की क्षमता बहुत ही कम होती है तथा वहाँ की जलवायु भी शुष्क पाई जाती है; जैसे- मरुस्थल व व्यर्थ भूमि, चट्टानी सतह इत्यादि।

2. कार्यिकी दृष्टि से शुष्क आवास स्थल (Physiologically Dry Habitat) – ऐसे आवास स्थलों पर जल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहता है परन्तु पौधे सुगमता से इसका अवशोषण या उपयोग नहीं कर पाते हैं; जैसे–अत्यधिक लवणीय या अम्लीय या ठण्डे स्थान। अत्यधिक लवणीय या अम्लीय अवस्था तथा जल के बर्फ रूप में रहने के कारण पौधे जल का अवशोषण नहीं कर पाते।

3. भौतिक व कार्यिकी दृष्टि से शुष्क आवास स्थल (Physically and Physiologically Dry Habitat) – कुछ स्थल ऐसे होते हैं जहाँ न तो जल धारण की क्षमता उपलब्ध होती है और न ही पौधे उसका उपयोग करने में सक्षम होते हैं अतः ऐसे आवास स्थल कार्यिकी व भौतिक दृष्टि से शुष्क आवास स्थल होते हैं। जैसे–पर्वतों की ढलानें। नागफनी के पौधे में निम्नलिखित लक्षण पाये जाते हैं जिसके आधार पर यह सिद्ध होता है कि यह एक मरुद्भिद् है।

आकारिकीय लक्षण
1. मूल (Root) – मरुभिद् पादप जलाभाव वाले स्थानों पर पाये जाते हैं अतः जल प्राप्त करने के लिए इनका मूल तन्त्र अत्यधिक विकसित होता है। इनमें पाये जाने वाले लक्षण निम्न प्रकार हैं –

(i) जड़े सुविकसित तथा भूमि में चारों तरफ फैली हुई रहती हैं। जड़े प्राय: मूसला (tap root) होती हैं तथा भूमि में गहराई तक जाती हैं और इनकी शाखाओं का मृदा में एक विस्तृत जाल फैला रहता है। अनेक मरुस्थलीय पौधों में मूल केवल भूमि की ऊपरी सतहों में ही रहती हैं परन्तु ऐसा एकवर्षीय या छोटे शाकीय पौधों या मांसल पादपों में ही होता है।
ओपेनहाइमर (Oppenheimer, 1960) के अनुसार प्रोसोपिस अल्हेगी (Prosophis athagi) की जड़े 20 मीटर तथा अकेशिया (Acacid) और टेमेरिक्स (Tamarix) के वृक्षों की जड़े भूमि में 30 मीटर की गहराई तक पहुँच जाती हैं।

(ii) जड़ों की वृद्धि दर अधिक होती है। यह 10 से 50 सेमी प्रति दिन तक की होती है। शैलोभिद् पादपों की जड़े चट्टानों के ऊपर और अन्दर भी वृद्धि करने में सक्षम होती हैं।

(iii) जड़ों में मूल रोम (root hairs) और मूल गोप (root cap) सुविकसित होते हैं जिससे ये पौधे भूमि से अधिक से अधिक जल का अवशोषण करने में सक्षम होते हैं।

(iv) इन पादपों में जड़ों की अत्यधिक वृद्धि होने के फलस्वरूप जड़ एवं प्ररोह की लम्बाई का अनुपात root and shoot ratio) 3 से 10 तक का पाया जाता है।

2. स्तम्भ (Shoot) – मरुद्भिद् पौधों के स्तम्भ में अनेक प्रकार के लक्षण पाये जाते हैं क्योंकि इसे वहाँ के वायव पर्यावरण को भी सहन करना पड़ता है। इनमें पाये जाने वाले लक्षण निम्न प्रकार हैं –

  1. अधिकांश पौधों में तना छोटा, शुष्क व काष्ठीय होता है। तने के ऊपर मोटी छाल (bark) पायी जाती है।
  2. पौधों में स्तम्भ वायव (aerial) या भूमिगत (underground) होता है। कुछ पौधों में शाखाएँ अधिक संख्या में होती हैं। किन्तु ये आपस में सटी हुई होती हैं, जैसे-सिट्रलस कोलोसिन्थिस (Citrullus colocynthis)
  3. तने पर अत्यधिक मात्रा में बहुकोशिकीय रोम (multicellular hairs) पाये जाते हैं; जैसे- आरनिबिया (Arnebia) तथा कुछ में तने की सतह पर मोम और सिलिका का आवरण पाया जाता है, जैसे-मदार (Calotropis), इक्वीसीटम (Equesetum) आदि।
  4. कुछ मरुद्भिद् के तने कंटकों में परिवर्तित हो जाते हैं; जैसे-यूफोबिया स्पलेनडेन्स (Euphorbid splendens), डूरन्टा (Duranta), सोलेनम जेन्थोकार्पम (Solanum xanthocarpum = नीली कटेली), यूलक्स (Ulex) आदि।
  5. प्रायः मरुभिद् पादपों में पर्ण के छोटे हो जाने से प्रकाश संश्लेषण में कमी आ जाती है। अत: इसकी पूर्ति हेतु तना चपटा व हरे पर्ण की जैसी गूदेदार रचना में परिवर्तित हो जाता है; जैसे–नागफनी (Opurntia), रसकस (Ruscus), कोकोलोबा (Cocoloba) इत्यादि। इस रूपान्तरण को पर्णाभ स्तम्भ (phylloclade) भी कहते हैं। यूफोर्बिया स्पलेनडेन्स (Euphorbia splendens) में भी स्तम्भ मांसल तथा हरा हो जाता है। ऐसपेरेगस (Asparagus) पौधों की कक्षस्थ शाखाएँ भी हरे रंग की सूजाकार (needle like) रचनाओं में परिवर्तित हो जाती हैं। इन्हें पर्णाभ पर्व (cladode) कहते हैं। इनके पर्णाभ स्तम्भ व पर्णाभ पर्व जैसी रचनाएँ पत्तियों के अभाव में प्रकाश संश्लेषण का कार्य करती हैं।

3. पत्तियाँ (Leaves) – इन पौधों की पत्तियों में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं –

(i) अनेक मरुभिद् पादपों की पत्तियाँ प्रारम्भ में ही लुप्त हो जाती हैं और इस प्रकार से इनमें पत्तियाँ पर्णपाती तथा आशुपाती (caducous) लक्षणों वाली होती हैं, जैसे-लेप्टेडीनिया (Laptadenia), केर (Capparis)। किन्तु कुछ में पत्तियों रूपान्तरित होकर कॅटीले रूप भी धारण कर लेती हैं, जैसे- नागफनी (Opuntia) या शल्क पर्ण में परिवर्तित हो जाती हैं, जैसे-रसकस (Ruscus), ऐसपेरेगस (Asparagus), केज्यूराइना (Casudrina), मूहलनबेकिया (Muehelenbeckia) इत्यादि। ये समस्त रूपान्तरण कुल मिलाकर पौधे की वाष्पोत्सर्जन दर को कम करते हैं।

(ii) प्रायः पत्तियों का आकार छोटा होता है तथा जिन पौधों की पत्तियों का आकार बड़ा होता है उनकी सतह चिकनी व चमकदार होती है, जिससे प्रकाश परिवर्तित हो जाता है। फलस्वरूप पत्ती का तापक्रम कम हो जाने से वाष्पोत्सर्जन की क्रिया भी मंद होती है। चीड़ (Pinus) की पत्तियों का आकार तो सूजाकार (needle like) होता है।
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(iii) पत्तियों की सतह पर मोम (wax), सिलिका की परतें आवरित रहती हैं और कभी – कभी उपत्वचा कोशिकाओं में टेनिन और गोंद पाये जाते हैं।

(iv) मरुस्थलीय क्षेत्रों में तेज गति वाली हवाएँ बहती रहती हैं, ऐसे स्थानों पर पाये जाने वाले मरुभिद् पादपों की पत्तियों की सतह बहुकोशीय रोमों (hairs) से ढकी रहती है, जैसे- कनेर (Nerium), आरनिबिया (Armebid), मदार (Calotropis) इत्यादि। ये रन्ध्र वाष्पोत्सर्जन की दर को न्यून करते हैं। ऐसे मरुभिद् जिनकी पत्तियों पर अधिक संख्या में रोम पाये जाते हैं उन्हें रोमपर्णी पादप (trichophyllous plants) कहते हैं।

(v) मरुद्भिद् पादपों की पत्तियों का आकार अर्थात् पर्ण फलक (leaf blade) छोटा हो जाता है; जैसे- बबूल (Acacid), खेजड़ा (Prosopis) तथा पर्ण शिराओं को एक गहरा जाल बिछा रहता है। विलायती कीकर (Parkinsonia aculeata) के पर्णक (leaflate) अधिक छोटे होते हैं किन्तु इसका रेकिस (rachis) मोटा और चपटा होता है। तेज धूप के समय यह किस पर्णकों को ताप से बचाता है।

(vi) ऑस्ट्रेलियन बबूल (Acacid melanoxylon) में जल की हानि को रोकने के लिए द्विपिच्छकी संयुक्त पर्ण (bipinnate compound leaf) सूखकर गिर जाती है परन्तु इसका पर्णवृन्त चपटा और पत्ती के समान हरा हो जाता है। पत्ती के इस चपटे और हरे वृन्त को पर्णाभ वृन्त (phyllode) कहते हैं। ये पर्णाभ वृन्त जल का संग्रह और प्रकाश संश्लेषण का कार्य करते हैं तथा वाष्पोत्सर्जन की दर को अत्यधिक कम कर देते हैं।

(vii) मरुभिद् पादपों में पाई जाने वाली चौड़ी पत्तियाँ मोटी, गूदेदार या मांसल व चर्मल (leathery) होती हैं; जैसे-साइकस (Cycas)

(viii) कुछ पादपों में पत्तियों के अनुपर्ण काँटों में रूपान्तरित हो जाते हैं; जैसे- बेर (Ziyphus jujuba), बबूल (Acacia nilotica), केर (Capparis decidua), खेजड़ा (Prosopis)
आदि।

(ix) कुछ एकबीजपत्री मरुभिद् पौधे; जैसे-पोआ (Pou) और सामा (Psamma) घास और एमोफिला (Ammophilla) व एगरोपाइरोन (Agropyron) की पत्तियाँ जलाभाव के समय गोलाई में लिपट जाती हैं। एक्टिनोप्टेरिस (Actinopteris), एसप्लियम (Asepteum) में भी जलाभाव के समय पत्तियाँ नलिकाकार होकर पर्णवृन्त पर लिपट जाती हैं। इन पौधों की पत्तियों की ऊपरी अधिचर्म में बड़ी आकृति की मृदूतक कोशिकाएँ होती हैं जिन्हें हिंज या मोटर या बुलीफार्म या आवर्धक कोशिकाएँ (hing or motor or bulliform cells) कहते हैं। इन्हीं कोशिकाओं के कारण पत्तियाँ गोलाई में लिपट
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जाती हैं, इस प्रकार शुष्कता से रक्षा करती हैं। इसी प्रकार शुष्कता के समय कुछ पौधों से शाखाएँ कुण्डली मारकर गेंद की जैसे सिमट जाती हैं (जैसे- सिलेजिनेला में), किन्तु जल उपलब्ध होते ही पुन: फैलकर वृद्धि करने लगती हैं। इस प्रकार के पौधों को पुनर्जीवनक्षम पादप (resurrection plants) या प्रोपोफाइट कहते हैं।

4. पुष्प, फल और बीज (Flower, Fruit and Seed) – मरुभिद् पौधों में पुष्प व फल का निर्माण अनुकूल समय में ही होता है। फल व बीज कठोर, मोटे आवरण से ढके होते हैं।
आन्तरिक लक्षण
मरुद्भिद् पादपों का मुख्य उद्देश्य जलव्यय को कम करने का होता है। इसी आधार पर आन्तरिक लक्षणों में परिवर्तन आता है जो निम्न प्रकार से हैं –

1. मूल पूर्ण विकसित, संवहन ऊतक अधिक मात्रा में होता है।
2. अधिचर्म पर लिग्निन व क्यूटिन की मोटी परत, कुछ में मोम व सिलिका का जमाव भी होता है। कनेर (Nerium) में बाह्यत्वचा बहुपर्तीय (multilayered epidermis) होती है।
3. अधिचर्म की कोशिकाएँ छोटी, सटी हुई जमी होती हैं। पत्तियों की बाहरी सतह चमकीली होने से सूर्य प्रकाश को परावर्तित कर रक्षा करती है।

4. कुछ पौधों में तने की रूपरेखा उभार (ridge) व खांचों में विभेदित होती है; जैसे-केज्यूराइना (Casurina) व इनमें रन्ध्र गहरे गर्तों में खांचों के तल अथवा किनारों पर स्थित होते हैं, इन्हें गर्तीय रन्ध्र (sunken stomata) कहते हैं। इसी प्रकार कनेर की पत्ती की निचली अधिचर्म गर्ते में व्यवस्थित रहती है। इन गर्तो को रन्ध्रीय गुहिका (stomatal cavity) कहते हैं। इन गुहिकाओं के अधिचर्म में रोम व अधिचर्मीय रोम पाये जाते हैं जिससे ये सीधे शुष्क हवा के सम्पर्क में न रहकर वाष्पोत्सर्जन को कम करते हैं। पौधों के अधिचर्म में गर्तीय रन्ध्र (sunken stomata) पाये जाते हैं।
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5. विशेष प्रकार की घास; जैसे-सामा (Psamma), पौआ (Poa) में जलाभाव के समय पत्तियाँ गोलाई में लिपट कर अपनी सुरक्षा करती हैं ये प्रवृत्ति बुलीफॉर्म कोशिकाओं (Bulliform cells) के द्वारा होती है जो कि पत्तियों की ऊपरी बाह्यत्वचा में पाई जाती हैं। इस प्रकार की कोशिकाएँ एग्रोपाइरोन (Agropyron), बांस, गन्ने की पत्ती, टाइफा (Typha), एमोफिला (Ammophilla) में भी पाई जाती हैं।

6. उपत्वचा (Hypodermis) – यह पूर्ण विकसित होती है तथा प्राय: दृढ़ोतकीय ऊतकों की बनी होती है जो यांत्रिक सामर्थ्य (mechanical support) प्रदान करती है।

7. वल्कुट (Cortex) – यह मृदूतक कोशिकाओं (parenchymatous cells) का बना होता है। कोशिकाओं के मध्य अन्तराकोशिकीय स्थान (intercellular spaces) नहीं पाये जाते हैं। इसमें रेजिने तथा लेटेक्स वाहिकाओं की उपस्थिति होती है, जैसे-पाइनस (Pinus) और कैलोट्रोपिस (Calotropis)। जिन पादपों में पर्ण सुविकसित या बहुत छोटी आकृति की या शल्की पर्ण होती है उनमें आशुपाती (caducous) प्रवृत्ति होने के कारण झड़ जाती है। इन पौधों के स्तम्भ वल्कुट में प्रायः खम्भाकार ऊतक (patlisade tissue) पाया जाता है जो पर्ण के अभाव की पूर्ति कर प्रकाश संश्लेषण की क्रिया सम्पन्न करवाता है; जैसे-केज्यूराइना, केलोट्रोपिस, केपेरिस, एक्वीजिटम इत्यादि। जिन पौधों की पत्तियों का सूक्ष्म आकार होता है, उन्हें माइक्रोफिलस पादप (microphyllous plants) भी कहते हैं।

8. इन पादपों में प्रायः कोशिकाओं का आकार अपेक्षाकृत छोटा तथा अन्तरकोशिकीय स्थानों का कुल आयतन अत्यधिक कम होता है। इनकी आन्तरिक शारीरिक रचना में दृढ़ोतकीय ऊतकों की बहुलता होती है। इनकी उपस्थिति शुष्कानुकुलित गुणों में एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है। दृढ़ोतक कोशिकाओं के अतिरिक्त दृढ़ोतक या दृढ़क कोशिकाओं (sclereids or sclerotic cells) की अनेक प्रकार की कोशिकाओं; जैसे- समव्यासी दृढ़ कोशिकाएँ (brachysclereids), वृहत् कोशिकाएँ (macrosclereids), अस्थिदृढक (osteosclereids) भी पाई जाती हैं।

9. पत्तियों में पर्ण मध्योतक पूर्ण रूप से खम्भाकार और स्पंजी मृदूतक (palisade and spongy parenchyma) में विभेदित होता है। इन दोनों प्रकार के ऊतकों में से खम्भ ऊतक, स्पंजी ऊतक की तुलना में अधिक मात्रा में परिवर्धित होता है; जैसे- कनेर में खम्भ ऊपर और निचली अधिचर्मों के निकट होता है तथा स्पंजी मृदूतक इन दोनों खम्भ ऊतकों के बीच व्यवस्थित रहता है। पाइनस (Pinus) की सूजाकार पत्तियों की पर्ण मध्योतक की कोशिकाओं की भीतरी सतह पर वलन (folds) होते हैं तथा अनुप्रस्थ काट में खूटी के समान, कोशिका गुहा (cell cavity) में निकले हुए प्रतीत होते हैं। ये वलन पर्ण मध्योतक की क्रियात्मक सतह बढ़ा देते हैं।

10. अन्तःत्वचा (Endodermis) – अन्त:त्वचा की कोशिकाओं में स्टार्च कण विद्यमान होते हैं। इसलिए इसे स्टार्च आच्छद (starch sheath) भी कहते हैं। कभी कभी इन कोशिकाओं में केस्पेरीयन पट्टियाँ (casparian strips) भी पाई जाती हैं।

11. संवहन ऊतक सुविकसित होता है। प्रायः दारू (xylem) की मात्रा फ्लोएम (phloem) की तुलना में अधिक होती है। संवहन पूलों (vascular bundles) की संख्या बढ़कर एक जाल सा बन जाता है। जाइलम में कोशिकाओं का आकार छोटा होता है किन्तु वाहिकाएँ (vessels) बड़ी और लम्बी होती हैं तथा भित्तियों पर लिग्निन की अधिक मात्रा पाई जाती है। फ्लोएम में बास्ट तन्तु (bast fibres) अधिक मात्रा में पाये जाते हैं।

12. पादपों में द्वितीयक वृद्धि के कारण कॉर्क, छाल व वार्षिक वलय पाई जाती हैं।

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UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current (प्रत्यावर्ती धारा) are part of UP Board Solutions for Class 12 Physics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current (प्रत्यावर्ती धारा).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Physics
Chapter Chapter 7
Chapter Name Alternating Current (प्रत्यावर्ती धारा)
Number of Questions Solved 85
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current (प्रत्यावर्ती धारा)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
एक 100 Ω का प्रतिरोधक 220 V, 50 Hz आपूर्ति से संयोजित है।
(a) परिपथ में धारा का rms मान कितना है?
(b) एक पूरे चक्र में कितनी नेट शक्ति व्यय होती है?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

प्रश्न 2.
(a) ac आपूर्ति का शिखर मान 300 V है। rms वोल्टता कितनी है?
(b) ac परिपथ में धारा का rms मान 10 A है। शिखर धारा कितनी है?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q2

प्रश्न 3.
एक 44 mH को प्रेरित्र 220 V, 50 Hz आपूर्ति से जोड़ा गया है। परिपथ में धारा के rms मान को ज्ञात कीजिए।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

प्रश्न 4.
एक 60 µF का संधारित्र 110 V, 60 Hz ac आपूर्ति से जोड़ा गया है। परिपथ में धारा के rms मान को ज्ञात कीजिए।

UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q4.1

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प्रश्न 5.
प्रश्न 3 व 4 में एक पूरे चक्र की अवधि में प्रत्येक परिपथ में कितनी नेट शक्ति अवशोषित होती है? अपने उत्तर का विवरण दीजिए।
हल-
प्रश्न 3 व 4 दोनों में ही पूरे चक्र में नेट शून्य शक्ति व्यय होती है।
विवरण- शुद्ध प्रेरित्र तथा शुद्ध धारिता दोनों में धारा तथा विभवान्तर के बीच 90° का कलान्तर होता है।
शक्ति गुणांक cos φ = cos 90° = 0
प्रत्येक में नेट शक्ति व्यय P = Vrms x irms x cos φ = 0

प्रश्न 6.
एक LCR परिपथ की, जिसमें L = 2.0 H, C = 32 µF तथा R = 10 Ω अनुनाद आवृत्ति ωr परिकलित कीजिए। इस परिपथ के लिए Q का क्या मान है?
हल-
दिया है, L = 2.0 हेनरी
C = 32 x 10-6 फैराडे
R = 10 ओम
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

प्रश्न 7.
30 µF का एक आवेशित संधारित्र 27 mH के प्रेरित्र से जोड़ा गया है। परिपथ के मुक्त दोलनों की कोणीय आवृत्ति कितनी है?
हल-
दिया है,
C = 30 µF = 30 x 10-6 F, L = 27 mH = 27 x 10-3 H
प्रारम्भिक आवेश, q0 = 6 mC = 6 x 10-3 C
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प्रश्न 8.
कल्पना कीजिए कि प्रश्न 7 में संधारित्र पर प्रारम्भिक आवेश 6 mC है। प्रारम्भ में परिपथ में कुल कितनी ऊर्जा संचित होती है? बाद में कुल ऊर्जा कितनी होगी?
हल-
दिया है, C = 30 x 10-6 F, Q0 = 6 x 10-3 C
प्रारम्भ में परिपथ में संचित ऊर्जा
E = संधारित्र की ऊर्जा + प्रेरित्र की ऊर्जा
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q8
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q8.1
परिपथ में कोई प्रतिरोध नहीं जुड़ा है तथा शुद्ध धारिता तथा शुद्ध प्रेरक में ऊर्जा हानि नहीं होती है। अतः बाद में परिपथ में कुल 0.6 J ऊर्जा ही बनी रहेगी।

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प्रश्न 9.
एक श्रेणीबद्ध LCR परिपथ को, जिसमें R = 20 Ω, L = 1.5 H तथा C = 35 µF, एक परिवर्ती आवृत्ति की 200V ac आपूर्ति से जोड़ा गया है। जब आपूर्ति की आवृत्ति परिपथ की मूल आवृत्ति के बराबर होती है तो एक पूरे चक्र में परिपथ को स्थानान्तरित की गई माध्य शक्ति कितनी होगी?
हल-
जब आपूर्ति की आवृत्ति = परिपथ की मूल आवृत्ति, तो परिपथ (L-C-R) अनुनादी परिपथ होगा जिसकी प्रतिबाधा Z = ओमीय प्रतिरोध R = 20 ओम
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प्रश्न 10.
एक रेडियो को MW प्रसारण बैण्ड के एक खण्ड के आवृत्ति परास के एक ओर से दूसरी ओर (800 kHz से 1200 kHz) तक समस्वरित किया जा सकता है। यदि इसके LC परिपथ का प्रभावकारी प्रेरकत्व 200 µH हो तो उसके परिवर्ती संधारित्र की परास कितनी होनी चाहिए?
[संकेत : समस्वरित करने के लिए मूल आवृत्ति अर्थात् LC परिपथ के मुक्त दोलनों की आवृत्ति रेडियो तरंग की आवृत्ति के समान होनी चाहिए]
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प्रश्न 11.
चित्र 7.1 में एक श्रेणीबद्ध LCR परिपथदिखलाया गया है जिसे परिवर्ती आवृत्ति के 230 V के स्रोत से जोड़ा गया है। L = 5.0 H, C = 80 µF, R = 40 Ω.
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current
(a) स्रोत की आवृत्ति निकालिए जो परिपथ में अनुनाद उत्पन्न करे।
(b) परिपथ की प्रतिबाधा तथा अनुनादी आवृत्ति पर धारा का आयाम निकालिए।
(c) परिपथ के तीनों अवयवों के सिरों पर विभवपात के rms मानों को निकालिए। दिखलाइए कि अनुनादी आवृत्ति पर LC संयोग के सिरों पर विभवपात शून्य है।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q11.1
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

प्रश्न 12.
किसी LC परिपथ में 20 mH का एक प्रेरक तथा 50 uF का एक संधारित्र है जिस पर प्रारम्भिक आवेश 10 mC है। परिपथ का प्रतिरोध नगण्य है। मान लीजिए कि वह क्षण जिस पर परिपथ बन्द किया जाता है t = 0 है।
(a) प्रारम्भ में कुल कितनी ऊर्जा संचित है? क्या यह LC दोलनों की अवधि में संरक्षित है?
(b) परिपथ की मूल आवृत्ति क्या है?
(c) किस समय पर संचित ऊर्जा ।
(i) पूरी तरह से विद्युत है (अर्थात वह संधारित्र में संचित है)?
(ii) पूरी तरह से चुम्बकीय है (अर्थात प्रेरक में संचित है)?
(d) किन समयों पर सम्पूर्ण ऊर्जा प्रेरक एवं संधारित्र के मध्य समान रूप से विभाजित है?
(e) यदि एक प्रतिरोधक को परिपथ में लगाया जाए तो कितनी ऊर्जा अन्ततः ऊष्मा के रूप में क्षयित होगी?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q12
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q12.2

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प्रश्न 13.
एक कुण्डली को जिसका प्रेरण 0.50 H तथा प्रतिरोध 100 Ω है, 240 V व 50 Hz की एक आपूर्ति से जोड़ा गया है।
(a) कुण्डली में अधिकतम धारा कितनी है?
(b) वोल्टेज शीर्ष व धारा शीर्ष के बीच समय-पश्चता (time lag) कितनी है?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q13.1

प्रश्न 14.
यदि परिपथ को उच्च आवृत्ति की आपूर्ति (240V, 10 kHz) से जोड़ा जाता है तो प्रश्न 13 (a) तथा (b) के उत्तर निकालिए। इससे इस कथन की व्याख्या कीजिए कि अति उच्च आवृत्ति पर किसी परिपथ में प्रेरक लगभग खुले परिपथ के तुल्य होता है। स्थिर अवस्था के पश्चात किसी dc परिपथ में प्रेरक किस प्रकार का व्यवहार करता है?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

प्रश्न 15.
40 Ω प्रतिरोध के श्रेणीक्रम में एक 100 μF के संधारित्र को 110 V, 60 Hz की आपूर्ति से जोड़ा गया है।
(a) परिपथ में अधिकतम धारा कितनी है?
(b) धारा शीर्ष व वोल्टेज शीर्ष के बीच समय-पश्चता कितनी है?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q15
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

प्रश्न 16.
यदि परिपथ को 110 V, 12 kHz आपूर्ति से जोड़ा जाए तो प्रश्न 15 (a) व (b) का उत्तर निकालिए। इससे इस कथन की व्याख्या कीजिए कि अति उच्च आवृत्तियों पर एक संधारित्र चालक होता है। इसकी तुलना उस व्यवहार से कीजिए जो किसी dc परिपथ में एक संधारित्र प्रदर्शित करता है।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

प्रश्न 17.
स्रोत की आवृत्ति को एक श्रेणीबद्ध LCR परिपथ की अनुनासी आवृत्ति के बराबर रखते हु तीन अवयवों L c तथा को समान्तर क्रम में लगाते हैहाल्ल्शाइए किसमान्तर LCR परिपथ में इस आवृत्ति पर कुल धारा न्यूनतम है। इस आवृति के लिए प्रश्न 11 में निर्दिष्ट स्रोत तथा अवयवों के लिए परिपथ की हर शाखा में धारा के rms मान को परिकलित। कीजिए।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q17
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

प्रश्न 18.
एक परिपथ को जिसमें 80 mH का एक प्रेरक तथा 60 µF का संधारित्र श्रेणीक्रम में है, 230V, 50 Hz की आपूर्ति से जोड़ा गया है। परिपथ का प्रतिरोध नगण्य है।
(a) धारा का आयाम तथा rms मानों को निकालिए।
(b) हर अवयव के सिरों पर विभवपात के rms मानों को निकालिए।
(c) प्रेरक में स्थानान्तरित माध्य शक्ति कितनी है?
(d) संधारित्र में स्थानान्तरित माध्य शक्ति कितनी है?
(e) परिपथ द्वारा अवशोषित कुल माध्य शक्ति कितनी है?
[‘माध्य में यह समाविष्ट है कि इसे पूरे चक्र के लिए लिया गया है।]
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प्रश्न 19.
कल्पना कीजिए कि प्रश्न 18 में प्रतिरोध 15 Ω है। परिपथ के हर अवयव को स्थानान्तरित माध्य शक्ति तथा सम्पूर्ण अवशोषित शक्ति को परिकलित कीजिए।
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प्रश्न 20.
एक श्रेणीबद्ध LCR परिपथ को जिसमें L = 0.12 H, C = 480 nF, R = 23 Ω, 230 V परिवर्ती आवृत्ति वाल स्रोत से जोड़ा गया है।
(a) स्रोत की वह आवृत्ति कितनी है जिस पर धारा आयाम अधिकतम है? इस अधिकतम मान को निकालिए।
(b) स्रोत की वह आवृत्ति कितनी है जिसके लिए परिपथ द्वारा अवशोषित माध्य शक्ति अधिकतम है?
(c) स्रोत की किस आवृत्ति के लिए परिपथ को स्थानान्तरित शक्ति अनुनादी आवृत्ति की शक्ति की आधी है?
(d) दिए गए परिपथ के लिए Q कारक कितना है?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q20UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

प्रश्न 21.
एक श्रेणीबद्ध LCR परिपथ के लिए जिसमें L = 3.0 H, C = 27 µF तथा R = 7.4 Ω अनुनादी आवृत्ति तथा ९कारक निकालिए। परिपथ के अनुनाद की तीक्ष्णता को सुधारने की इच्छा से “अर्ध उच्चिष्ठ पर पूर्ण चौड़ाई” को 2 गुणक द्वारा घटा दिया जाता है। इसके लिए उचित उपाय सुझाइए।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q21
अर्ध उच्चिष्ठ पर पूर्ण चौड़ाई को आधा करने अथवा समान आवृत्ति के लिए Q को दोगुना करने हेतु प्रतिरोध R का आधा कर देना चाहिए।

प्रश्न 22.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

  1. क्या किसी ac परिपथ में प्रयुक्त तात्क्षणिक वोल्टता परिपथ में श्रेणीक्रम में जोड़े गए अवयवों के सिरों पर तात्क्षणिक वोल्टताओं के बीजगणितीय योग के बराबर होता है? क्या यही बात rms वोल्टताओं में भी लागू होती है?
  2. प्रेरण कुण्डली के प्राथमिक परिपथ में एक संधारित्र का उपयोग करते हैं।
  3. एक प्रयुक्त वोल्टता संकेत एक dc (UPBoardSolutions.com) वोल्टता तथा उच्च आवृत्ति के एक ac वोल्टता के अध्यारोपण से निर्मित है। परिपथ एक श्रेणीबद्ध प्रेरक तथा संधारित्र से निर्मित है। दर्शाइए कि dc संकेत C तथा ac संकेत L के सिरे पर प्रकट होगा।
  4. एक लैम्प से श्रेणीक्रम में जुड़ी चोक को एक dc लाइन से जोड़ा गया है। लैम्प तेजी से चमकता है। चोक में लोहे के क्रोड को प्रवेश कराने पर लैम्प की दीप्ति में कोई अन्तर नहीं पड़ता है। यदि एक ac लाइन से लैम्प का संयोजन किया जाए तो तदनुसार प्रेक्षणों की प्रागुक्ति कीजिए।
  5. ac मेंस के साथ कार्य करने वाली फ्लोरोसेंट ट्यूब में प्रयुक्त चोक कुण्डली की आवश्यकता क्यों होती है? चोक कुण्डली के स्थान पर सामान्य प्रतिरोधक का उपयोग क्यों नहीं होता?

उत्तर-

  1. हाँ, परन्तु यह तथ्य rms वोल्टताओं के लिए सत्य नहीं है क्योंकि विभिन्न अवयवों की rms वोल्टताएँ समान कला में नहीं होती।
  2. संधारित्र को जोड़ने से, परिपथ को तोड़ते समय चिनगारी देने वाली धारा संधारित्र को आवेशित करती है; अतः चिनगारी नहीं निकल पाती।
  3. संधारित्र dc सिग्नल को रोक देता है; अत: dc सिग्नल वोल्टता संधारित्र के सिरों पर प्रकट होगा जबकि ac सिग्नल प्रेरक के सिरों पर प्रकट होगा।
  4. dc लाइन के लिए V = 0
    अतः चोक की प्रतिबाधा XL = 2πvL = 0
    अतः चोक दिष्ट धारा के मार्ग में कोई रुकावट नहीं डालती, इससे लैम्प तेज चमकता है। ac लाइन में चोक उच्च प्रतिघात उत्पन्न करती है (L का (UPBoardSolutions.com) मान अधिक होने के कारण); अतः लैम्प में धारा घट जाती है और उसकी चमक मद्धिम पड़ जाती है।
  5. चोक कुण्डली एक प्रेरक का कार्य करती है और बिना शक्ति खर्च किए ही धारा को कम कर देती है। यदि चोक के स्थान पर प्रतिरोधक का प्रयोग करें तो वह धारा को कम तो कर देगा परन्तु इसमें विद्युत शक्ति ऊष्मा के रूप में व्यय होती रहेगी।

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प्रश्न 23.
एक शक्ति संप्रेषण लाइन अपचायी ट्रांसफॉर्मर में जिसकी प्राथमिक कुण्डली में 4000 फेरे हैं, 2300 वोल्ट पर शक्ति निवेशित करती है। 230V की निर्गत शक्ति प्राप्त करने के लिए द्वितीयक में कितने फेरे होने चाहिए?
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प्रश्न 24.
एक जल विद्युत शक्ति संयंत्र में जल दाब शीर्ष 300 m की ऊँचाई पर है तथा उपलब्ध जल प्रवाह 100 m3s-1 है। यदि टरबाइन जनित्र की दक्षता 60% हो तो संयंत्र से उपलब्ध विद्युत शक्ति का आकलन कीजिए, g = 9.8 m s-2
हल-
दिया है, h = 300m, g = 9.8m/s, जल का आयतन V = 100 m3, समय t = 1 s, जनित्र की दक्षता = 60%
जल विद्युत शक्ति = जल-स्तम्भ का दाब x प्रति सेकण्ड प्रवाहित जल का आयतन
= hvg x V= 300 x 10 x 9.8 x 100 = 29.4 x 107 W
जनित्र द्वारा उत्पन्न विद्युत शक्ति = कुल शक्ति x दक्षता
= 29.4 x 107 x [latex]\frac { 60 }{ 100 }[/latex]
= 176.4 x 106 W = 176.4 MW

प्रश्न 25.
440V पर शक्ति उत्पादन करने वाले किसी विद्युत संयंत्र से 15 km दूर स्थित एक छोटे से कस्बे में 220 V पर 800 kW शक्ति की आवश्यकता है। विद्युत शक्ति ले जाने वाली दोनों तार की लाइनों का प्रतिरोध 0.5 Ω प्रति किलोमीटर है। कस्बे को उप-स्टेशन में लगे 4000-220V अपचायी ट्रांसफॉर्मर से लाइन द्वारा शक्ति पहुँचती है।
(a) ऊष्मा के रूप में लाइन से होने वाली शक्ति के क्षय का आकलन कीजिए।
(b) संयंत्र से कितनी शक्ति की आपूर्ति की जानी चाहिए, यदि क्षरण द्वारा शक्ति का क्षय नगण्य है।
(c) संयंत्र के उच्चायी ट्रांसफॉर्मर की विशेषता बताइए।
हल-
(a) तार की लाइनों का प्रतिरोध R = 30 km x 0.5 Ω km-1 = 15 Ω
उप-स्टेशन पर लगे ट्रांसफॉर्मर के लिए Vp = 4000 V, Vs = 220 v माना।
प्राथमिक परिपथ में धारा = ip
द्वितीयक परिपथ में धारा = is
ट्रांसफॉर्मर द्वारा द्वितीयक परिपथ में दी गई शक्ति
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यह धारा सप्लाई लाइन से होकर गुजरती है।
लाइन में होने वाला शक्ति क्षय P = ip2 x R = (200)2 x 15 W = 600 kW

(b) संयंत्र द्वारा आपूर्ति की जाने वाली शक्ति = 800 kW + 600 kW = 1400 kW

(c) सप्लाई लाइन पर विभवपात V = ip x R = 200 x 15 = 3000 V
उप-स्टेशन पर लगा अपचायी ट्रांसफॉर्मर 4000 V – 220 V प्रकार का है;
अतः इस ट्रांसफॉर्मर की प्राथमिक कुण्डली पर विभवपात = 4000 V
संयंत्र पर लगे उच्चायी ट्रांसफॉर्मर द्वारा प्रदान की जाने वाली वोल्टता = 3000 + 4000 = 7000 V
अत: यह ट्रांसफॉर्मर 440 V – 7000 V प्रकार का होना चाहिए।
सप्लाई लाइन में प्रतिशत शक्ति क्षय = [latex]\frac { 600 kW }{ 1400 kW }[/latex] x 100 = 42.86 %

प्रश्न 26.
प्रश्न 25 को पुनः कीजिए। इसमें पहले के ट्रांसफॉर्मर के स्थान पर 40,000-220 V का अपचायी ट्रांसफॉर्मर है। [पूर्व की भाँति क्षरण के कारण हानियों को नगण्य मानिए। यद्यपि अब यह सन्निकटन उचित नहीं है, क्योंकि इसमें उच्च वोल्टता पर संप्रेषण होता है] अतः समझाइए कि क्यों उच्च वोल्टता संप्रेषण अधिक वरीय है?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current
(b) संयंत्र द्वारा प्रदान की जाने वाली शक्ति = 800 kW + 6 kW = 808 W

(c) सप्लाई लाइन पर विभवपात V = Ip x R = 20 x 15 = 300 V
उपस्टेशन पर लगा ट्रांसफॉर्मर 40000 V – 220 V प्रकार का है; अतः इसकी।
प्राथमिक कुण्डली पर विभवपात = 40000 V
संयंत्र पर लगे उच्चायी ट्रांसफॉर्मर द्वारा प्रदान की जाने वाली
वोल्टता = 40000 V + 300 V = 40300 V
संयंत्र पर लगा ट्रांसफॉर्मर 440 V – 40300 V प्रकार का होना चाहिए।
सप्लाई लाइन में प्रतिशत शक्ति क्षय = [latex]\frac { 6 }{ 806 }[/latex] x 100 = 0.74%

प्रत्यावर्ती धारा 247 प्रश्न 25 व 26 के हलों से स्पष्ट है कि विद्युत शक्ति उच्च वोल्टता पर सम्प्रेषित करने से सप्लाई लाइन में होने वाला शक्ति क्षय बहुत घट जाता है। यही कारण है (UPBoardSolutions.com) कि विद्युत उत्पादन संयंत्रों से विद्युत शक्ति का सम्प्रेषण उच्च वोल्टता पर किया जाता है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वोल्टमीटर द्वारा मापे गए प्रत्यावर्ती धारा के मेन्स का विभव 200 वोल्ट प्राप्त होता है, तो इस विभव का वर्ग-माध्य-मूल मान होगा- (2017)
(i) 200√2 वोल्ट
(ii) 100√2 वोल्ट
(iii) 200 वोल्ट
(iv) 400/π वोल्ट
उत्तर-
(iii) 200 वोल्ट

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प्रश्न 2.
एक ऐमीटर का प्रत्यावर्ती परिपथ में पाठ्यांक 4 ऐम्पियर है। परिपथ में धारा का शिखर मान है- (2014)
(i) 4 ऐम्पियर
(ii) 8 ऐम्पियर
(iii) 4√2 ऐम्पियर
(iv) 2√2 ऐम्पियर
उत्तर-
(iii) 4√2 ऐम्पियर

प्रश्न 3.
विशुद्ध प्रेरकीय परिपथ में शक्ति गुणांक का मान है- (2011)
(i) शून्य
(ii) 0.1
(iii) 1
(iv) अनन्त
उत्तर-
(i) शून्य

प्रश्न 4.
एक प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में 8 ओम का प्रतिरोध तथा 6 ओम प्रतिघात का प्रेरकत्व श्रेणीक्रम में लगे हैं। परिपथ की प्रतिबाधा होगी
(i) 2 ओम
(ii) 10 ओम
(iii) 14 ओम
(iv) 14√2 ओम
उत्तर-
(ii) 10 ओम

प्रश्न 5.
अनुनाद की स्थिति में L-C परिपथ की आवृत्ति है- (2010, 17)
(i) 2π√LC
(ii) [latex s=2]\frac { 1 }{ 2\Pi } \sqrt { LC }[/latex]
(iii) [latex s=2]\frac { 1 }{ 2\Pi } \sqrt { \frac { 1 }{ LC } }[/latex]
(iv) [latex s=2]2\Pi \sqrt { \frac { 1 }{ LC } }[/latex]
उत्तर-
(iii) [latex s=2]\frac { 1 }{ 2\Pi } \sqrt { \frac { 1 }{ LC } }[/latex]

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प्रश्न 6.
एक श्रेणी अनुनादी LCR परिपथ में धारिता C से 4C परिवर्तित की जाती है। उतनी ही अनुनादी आवृत्ति के लिए प्रेरकत्व Lको परिवर्तित करना चाहिए- (2016)
(i) 2L
(ii) [latex]\frac { L }{ 2 }[/latex]
(iii) 4L
(iv) [latex]\frac { L }{ 4 }[/latex]
उत्तर-
(iv) [latex]\frac { L }{ 4 }[/latex]

प्रश्न 7.
एक L-C-R परिपथ को प्रत्यावर्ती धारा के स्रोत से जोड़ा गया है। अनुनाद की स्थिति में लगाये गये विभवान्तर एवं प्रवाहित धारा में कलान्तर होगा- (2017)
(i) शून्य
(ii) [latex s=2]\frac { \Pi }{ 4 }[/latex]
(iii) [latex s=2]\frac { \Pi }{ 2 }[/latex]
(iv) π
उत्तर-
(i) शून्य

प्रश्न 8.
किसी प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में वोल्टेज V तथा धारा i हो तब शक्ति क्षय- (2014)
(i) Vi
(ii) [latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex] Vi
(ii) [latex s=2]\frac { 1 }{ \surd 2 }[/latex] Vi
(iv) V तथा के बीच कला कोण पर निर्भर करता है।
उत्तर-
(iv) V तथा i के बीच कला कोण पर निर्भर करता है।

प्रश्न 9.
किसी ट्रांसफॉर्मर में क्या सम्भव नहीं है ? (2010)
(i) भंवर धारा
(ii) दिष्ट धारा
(iii) प्रत्यावर्ती धारा
(iv) प्रेरित धारा
उत्तर-
(ii) दिष्ट धारा

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
एक प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में विभवान्तर का वंर्ग-माध्य-मूल मान 220 V है। विभव का शिखर मान क्या है? (2014)
हल-
विभव का शिखर मान V0 = Vrms √2 = 200√2 वोल्ट.

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प्रश्न 2.
किसी प्रत्यावर्ती धारा का वर्ग-माध्य-मूल मान 8 ऐम्पियर है। इसका शिखर मान ज्ञात कीजिए। (2013)
हल-
धारा का शिखर मान i0 = irms √2 = 8√2 ऐम्पियर

प्रश्न 3.
किसी परिपथ में प्रत्यावर्ती धारा का शीर्ष मान √2 A है। धारा का वर्ग-माध्य-मूल (rms) मान ज्ञात कीजिए। (2015)
हल-
धारा का वर्ग-माध्य-मूल (rms) मान
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current VSAQ 3

प्रश्न 4.
एक प्रत्यावर्ती विभव E = 240√2 sin300πt से प्रदर्शित है। विभव का वर्ग-माध्य-मूल मान एवं आवृत्ति ज्ञात कीजिए।
हल-
प्रत्यावर्ती विभव के समीकरण E = 240√2 sin300πt की तुलना E = E0 sinωt से करने पर
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

प्रश्न 5.
एक प्रत्यावर्ती धारा का समीकरण i = 4 sin (100πt – θ) है। धारा का आवर्तकाल ज्ञात कीजिए। (2017)
हल-
समीकरण i = 4 sin (100πt – θ) की समीकरण i = i0 sin (2πft – θ) से तुलना करने पर
2πft = 100πt
f = 50 हर्ट्ज़
धारा का आवर्तकाल T = [latex]\frac { 1 }{ f }[/latex] = [latex]\frac { 1 }{ 50 }[/latex] = 0.2 सेकण्ड

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प्रश्न 6.
एक प्रत्यावर्ती वोल्टता का समीकरण V = 100√2 sin (100πt) है। वोल्टता का वर्ग माध्य मूल मान तथा आवृत्ति ज्ञात कीजिए। (2017)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

प्रश्न 7.
प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में प्रेरण प्रतिघात का अर्थ समझाइए। (2013)
उत्तर-
प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में शुद्ध प्रेरकत्व द्वारा धारा के मार्ग में उत्पन्न प्रभावी प्रतिरोध परिपथ को प्रेरण प्रतिघात कहलाता है। इसे XL से व्यक्त करते हैं तथा
XL = ωL = 2πfL

प्रश्न 8.
100 mH प्रेरकत्व की कुण्डली में 50 Hz आवृत्ति की प्रत्यावर्ती धारा प्रवाहित हो रही है। कुण्डली का प्रेरण प्रतिघात ज्ञात कीजिए। (2013)
हल-
L = 100 mH = 100 x 10-3 H = 0.1 H
f = 50 Hz
प्रेरण प्रतिघात XL = 2πfL = 2 x 3.14 x 50 x 0.1 = 31.4 ओम

प्रश्न 9.
निम्न चित्र से प्रेरक कुण्डली के प्रतिघात की गणना कीजिए- (2012)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current
हल-
दी गयी समीकरण V = 10 sin 1000 t की समीकरण V = V0 sinωt है से तुलना करने पर
ω = 1000 सेकण्ड-1
कुण्डली का प्रतिघात XL = ωL = 1000 x 20 x 10-3 Ω = 20 Ω

प्रश्न 10.
किसी प्रत्यावर्ती परिपथ में 8 ओम का प्रतिरोध 6 ओम प्रतिघात के प्रेरकत्व से श्रेणीक्रम में जुड़ा है। परिपथ के प्रतिबाधा की गणना कीजिए। (2015)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current VSAQ 10

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प्रश्न 11.
एक कुण्डली की प्रतिबाधा 141.4 Ω तथा प्रतिरोध 100 Ω है। उसका प्रतिघात कितना होगा ? (2010)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current VSAQ 11.1
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

प्रश्न 12.
L-R परिपथ के शक्ति गुणांक का सूत्र लिखिए। (2011)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current VSAQ 12

प्रश्न 13.
कुण्डली में उत्पन्न वैद्युत वाहक बल का व्यंजक कोणीय चाल के पदों में लिखिए। (2014)
उत्तर-
कुण्डली में उत्पन्न वैद्युत वाहक बल e = NBAω sinωt
sinωt की महत्तम मान 1 होता है तब वैद्युत वाहक बल e = NBAω

प्रश्न 14.
प्रत्यावर्ती धारा तथा प्रत्यावर्ती वोल्टेज के समीकरण लिखिए जब प्रत्यावर्ती धारा स्रोत से एक संधारित्र जोड़ा जाता है। (2013)
उत्तर-
i = i0 sin(ωt + 90°) तथा V = V0 sin ωt.
इन दोनों समीकरणों से स्पष्ट है कि धारा i वोल्टता V से 90° कलान्तर अग्रगामी है।

प्रश्न 15.
एक LC परिपथ अनुनाद की स्थिति में है। यदि C = 1.0 x 10-6 F तथा L = 0.25 H हो, तो परिपथ में दोलन की आवृत्ति ज्ञात कीजिए। (2015)
हल-
परिपथ में दोलन की आवृत्ति
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प्रश्न 16.
RC का विमीय समीकरण निकालिए जबकि R प्रतिरोध तथा C धारिता है। (2017)
हल-
RC की विमा = [R की विमा] [C की विमा]
= [ML2T-3A-2][M-1L-2T4A2]
= [M0L0T]

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प्रश्न 17.
एक L-C-R परिपथ के शक्ति गुणांक का व्यंजक क्या है? इसका अधिकतम और न्यूनतम मान क्या है? (2014, 17, 18)
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प्रश्न 18.
नीचे दिए गए प्रत्यावर्ती परिपथ (i), (ii) व (iii) में आरोपित प्रत्यावर्ती वोल्टेज की आवृत्ति बढ़ाने पर धारा के मान पर क्या प्रभाव पड़ेगा? (2012, 14)

उत्तर-
परिपथ (i) में धारा घट जायेगी क्योंकि परिपथ का प्रभावी प्रतिरोध XL (= ωL) आवृत्ति बढ़ने पर बढ़ जायेगा। परिपथ (ii) में वही धारा रहेगी क्योंकि प्रतिरोध R वोल्टेज की आवृत्ति पर निर्भर नहीं करता। परिपथ (ii) में धारा बढ़ जायेगी क्योंकि इसका प्रभावी प्रतिरोध XC = ([latex s=2]\frac { 1 }{ \omega c }[/latex]) आवृत्ति बढ़ाने पर घट जायेगा।

प्रश्न 19.
L-C-Rपरिपथ में अनुनाद की दशा में शक्ति गुणांक का मान कितना होता है? (2014)
उत्तर-
L-C-R परिपथ में अनुनाद की दशा में शक्ति गुणांक का मान 1 होता है।

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प्रश्न 20.
चित्र 7.4 में प्रत्यावर्ती वोल्टमीटर द्वारा नापे गए विभवान्तर VL, VC तथा VR क्रमशः 20 V, 11 V तथा 12 V प्राप्त हुए। परिणामी विभवान्तर तथा परिपथ धारा में कलान्तर ज्ञात कीजिए। (2013)
हल-
परिणामी विभवान्तर तथा परिपथ धारा में कलान्तर

प्रश्न 21.
दिए गए परिपथ में प्रत्यावर्ती स्रोत का विद्युत वाहक बल तथा परिपथ का शक्ति गुणांक ज्ञात कीजिए। (2017, 18)

प्रश्न 22.
वैद्युत अनुनाद से आप क्या समझते हैं? (2015)
उत्तर-
किसी वैद्युत परिपथ की वह स्थिति, जब किसी विशेष अनुनादी आवृत्ति पर उस परिपथ की प्रतिबाधाओं या प्रवेश्यता के मान परस्पर निरस्त हो जाएँ, ‘वैद्युत अनुनाद’ कहलाती है।

प्रश्न 23.
दिष्ट धारा परिपथ में ट्रांसफॉर्मर का उपयोग क्यों नहीं किया जाता है? (2012)
उत्तर-
दिष्ट धारा परिपथ में ट्रांसफॉर्मर का उपयोग (UPBoardSolutions.com) नहीं किया जा सकता क्योंकि दिष्ट धारा से क्रोड में परिवर्ती चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न नहीं हो सकता।

प्रश्न 24.
एक उच्चायी ट्रांसफॉर्मर 220 वोल्ट पर कार्य करता है तथा एक लोड में 3 ऐम्पियर धारा देता है। प्राथमिक तथा द्वितीयक फेरों की संख्या का अनुपात 1:15 है। प्राथमिक कुण्डली में धारा की गणना कीजिए। (2009)
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लघु उत्तरीय प्रश्न

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प्रश्न 1.
प्रत्यावर्ती धारा के वर्ग-माध्य-मूल मान का व्यंजक प्राप्त कीजिए। किसी प्रत्यावर्ती धारा का शिखर मान 10√2 ऐम्पियर है। धारा का वर्ग-माध्य-मूल मान ज्ञात कीजिए। (2015, 17, 18)
हल-
प्रत्यावर्ती धारा की एक पूर्ण साइकिल के लिए धारा के वर्ग i2 के औसत मान के वर्गमूल को धारी का ‘वर्ग-माध्य-मूल मान’ (rms value) कहते हैं। इसे irms से प्रदर्शित करते हैं।
एक पूर्ण साइकिल के लिए i2 का माध्य (औसत) मान
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प्रश्न 2.
प्रत्यावर्ती वोल्टता के वर्ग-माध्य-मूल मान की परिभाषा लिखिए। एक प्रत्यावर्ती वोल्टता का समीकरण V = 300√2 sin500πt वोल्ट है। प्रत्यावर्ती धारा के वर्ग-माध्य-मूल मान एवं आवृत्ति की गणना कीजिए। (2016)
उत्तर-
प्रत्यावर्ती वोल्टता का वर्ग-माध्य-मूल मान- (UPBoardSolutions.com) प्रत्यावर्ती वोल्टेज की एक पूर्ण साइकिल के लिए वोल्टेज के वर्ग के औसत मान के वर्गमूल को वोल्टता का वर्ग-मध्य-मूल मान कहते हैं। इसे Vrms से प्रदर्शित करते हैं।
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प्रश्न 3.
0.21 हेनरी का प्रेरक तथा 12 ओम का प्रतिरोध 220 वोल्ट एवं 50 हर्ट्ज के प्रत्यावर्ती आवृत्ति धारा स्रोत से जुड़े हैं। परिपथ में धारा का मान और धारा एवं स्रोत के विभवान्तर में कलान्तर ज्ञात कीजिए। (2014)
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प्रश्न 4.
दिए गए वैद्युत परिपथ में प्रतिबाधा, ऐमीटर का पाठ्यांक एवं शक्ति गुणांक ज्ञात कीजिए। (2016)
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हल-
यहाँ, R = 40 Ω, L = 0.1 हेनरी
दी गई समीकरण V = 200 sin300t की तुलना
समीकरण V = V0 sinωt से करने पर,
V0 = 200 वोल्ट, ω = 300 रेडियन/सेकण्ड
प्रेरण प्रतिघात = XL = ωL = 300 x 0.1 = 30 Ω
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प्रश्न 5.
0.1 हेनरी का प्रेरकत्व तथा 30 ओम प्रतिरोध को श्रेणीक्रम में V = 10 sin400t प्रत्यावर्ती वोल्टेज से जोड़ा गया है। परिपथ में प्रेरण प्रतिघात, प्रतिबाधा, धारा का शिखर मान एवं वोल्टेज और धारा के बीच कलान्तर ज्ञात कीजिए। (2014)
हल-
दी गयी समीकरण V = 10 sin400t वोल्ट की प्रत्यावर्ती वोल्टता समीकरण V= V0sinωt से तुलना करने पर,
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प्रश्न 6.
प्रतिघात का विमीय समीकरण लिखिए। दिए गये परिपथ में ज्ञात कीजिए-
(i) परिपथ में प्रवाहित धारा का अधिकतम मान
(ii) परिपथ में प्रवाहित धारा का वर्ग-माध्य-मूल मान
(iii) वोल्टता एवं धारा में कलान्तर। (2013)

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UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 6.1

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प्रश्न 7.
प्रत्यावर्ती परिपथ के लिए औसत शक्ति का व्यंजक प्राप्त कीजिए तथा वाटहीन धारा को समझाइए। (2010, 12)
या
वाटहीन धारा क्या है ? (2012, 15, 17)
या
किसी प्रत्यावर्ती धारा की शक्ति के लिए सूत्र ज्ञात कीजिए। शक्ति गुणांक किसे कहते हैं? (2013)
या
प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में व्यय शक्ति का सूत्र लिखिए। (2018)
उत्तर-
LR परिपथ में प्रत्यावर्ती धारा की औसत शक्ति-यदि किसी प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में प्रतिरोध है तथा प्रेरकत्व L दोनों हैं तो धारा i वोल्टता V से कला में पश्चगामी होती (UPBoardSolutions.com) है। यदि धारा और वोल्टता के बीच का कलान्तर φ है तो परिपथ के लिए किसी क्षण वोल्टता तथा धारा के मान निम्नलिखित समीकरणों से व्यक्त कर सकते हैं।
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प्रश्न 8.
चोक कुण्डली का कार्य-सिद्धान्त समझाइए। चोक कुण्डली में वाटहीन धारा के महत्त्व को समझाइए। (2010, 12, 14, 17)
उत्तर-
चोक कुण्डली- प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में वैद्युत ऊर्जा का ह्रास हुए बिना धारा को कम करने का एक साधन उपलब्ध है जिसे चोक कुण्डली कहते हैं। यह एक ऊँचे (UPBoardSolutions.com) प्रेरकत्व की कुण्डली होती है जो एक पृथक्कृत (insulated) ताँबे के मोटे तार को बहुत-से फेरों में लोहे की पटलित क्रोड पर लपेटकर बनायी जाती है। इस कुण्डली का ओमीय प्रतिरोध लगभग शून्य रहता है। इसका प्रेरकत्व काफी ऊँचा रहता है।
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इस प्रकारे समी० (1) के अनुसार चोक कुण्डली में औसत शक्ति लगभग शून्य होगी। इस प्रकार चोक कुण्डली का कार्य-सिद्धान्त वाटहीन धारा के सिद्धान्त पर आधारित है। अतः प्रत्यावर्ती धारा परिपथों में चोक कुण्डली के उपयोग से ऊर्जा क्षय में पर्याप्त कमी हो जाती है।

प्रश्न 9.
10 वोल्ट, 2 कीटंक बल्ब को 100 वोल्ट, 40 हर्ट्ज के प्रत्यावर्ती धारा स्रोत से जलाना है। बल्ब के श्रेणीक्रम में जोड़े जाने हेतु आवश्यक चोक-कुण्डली के प्रेरकत्व की गणना कीजिए। (2014)
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UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 9.1

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प्रश्न 10.
एक प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में 100 हर्टज आवृत्ति पर सप्लाई विभवान्तर 80 वोल्ट है। एक संधारित्र को श्रेणीक्रम में 10 ओम प्रतिरोधक के साथ इस परिपथ में जोड़ा जाता है तो परिपथ का शक्ति गुणांक 0.5 हो जाता है। इस संधारित्र की धारिता ज्ञात कीजिए। (2015)
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प्रश्न 11.
एक 50 वाट 100 वोल्ट के वैद्युत लैम्प को 200 वोल्ट, 60 हर्ट्ज के विद्युत मेन्स से जोड़ना है। लैम्प के श्रेणी क्रम में आवश्यक संधारित्र की धारिता ज्ञात कीजिए। (2017)
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प्रश्न 12.
दिए गए परिपथ में ज्ञात कीजिए (i) ऐमीटर (A) का पाठ्यांक (ii) वोल्टमीटर (V) का पाठ्यांक (iii) शक्ति-गुणांक। (2013, 17)
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UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q12.1

प्रश्न 13.
एक प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में प्रेरकत्व (L), संधारित्र (C) तथा प्रतिरोध (R) श्रेणीक्रम में जोड़े गये हैं। परिपथ से L को हटा देने पर वोल्टता तथा विद्युत धारा के बीच 1/3 का कलान्तर होता है। यदि के बजाय परिपथ सेc को हटा दें तब भी कलान्तर [latex s=2]\frac { \Pi }{ 3 }[/latex] रहता है। परिपथ का शक्ति गुणांक क्या होगा? (2015)
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प्रश्न 14.
एक प्रत्यावर्ती परिपथ में प्रतिरोध, संधारित्र तथा प्रेरण कुण्डली एक प्रत्यावर्ती स्रोत से श्रेणीक्रम में संयोजित हैं। इनके सिरों के विभवान्तर क्रमशः 40 वोल्ट, 20 वोल्ट तथा 50 वोल्ट हैं। परिपथ में प्रत्यावर्ती स्रोत का विभव एवं परिपथ का शक्ति-गुणांक ज्ञात कीजिए। (2012, 15)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 14

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प्रश्न 15.
एक प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में प्रेरकत्व, संधारित्र तथा प्रतिरोध श्रेणीक्रम में जोड़े गये हैं। प्रत्यावर्ती वोल्टेज तथा धारा के समीकरण दिये गये हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 15
ज्ञात कीजिए-
(i) प्रत्यावर्ती धारा स्रोत की आवृत्ति
(ii) V तथा i के मध्य कलान्तर
(iii) परिपथ की प्रतिबाधा। (2013)
हल-
धारा तथा वोल्टता के समीकरणों से स्पष्ट है कि
V0 = 200 वोल्ट, i0 = 5 ऐम्पियर
तथा ω = 314 रेडियन/सेकण्ड
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प्रश्न 16.
एक श्रेणी L-C-R परिपथ, जिसमें L = 10.0 H, C = 40 µF तथा R = 60 Ω को 240 V के परिवर्ती आवृत्ति के प्रत्यावर्ती धारा स्रोत से जोड़ा गया है। गणना कीजिए-
(i) स्रोत की कोणीय आवृत्ति जो परिपथ को अनुनाद की अवस्था में लाता है।
(ii) अनुनादी आवृत्ति पर धारा। (2014)
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प्रश्न 17.
चित्र 7.12 में प्रदर्शित प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में प्रतिरोध R, संधारित्र C तथा प्रेरक कुण्डली L के सिरों के बीच उपलब्ध विभवान्तर प्रदर्शित किए गए हैं। प्रत्यावर्ती धारा स्रोत के विद्युत वाहक बले की गणना कीजिए। (2015)
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प्रश्न 18.
अनुनादी परिपथ से क्या अभिप्राय है? श्रेणी व समान्तर अनुनादी परिपथ के लिए आवश्यक प्रतिबन्ध तथा प्रत्येक अनुनाद की स्थिति में आवृत्ति का व्यंजक लिखिए। इनमें अन्तर भी स्पष्ट कीजिए। (2010)
उत्तर-
अनुनादी परिपथ (Resonant Circuits)- वे प्रत्यावर्ती धारा परिपथ जो अपने पर आरोपित प्रत्यावर्ती वोल्टता की आवृत्ति के एक विशेष मान के संगत प्रत्यावर्ती धारा को अपने अन्दर से प्रवाहित होने देते हैं अथवा प्रवाहित होने से रोक देते हैं, अनुनादी परिपथ कहलाते हैं। ये निम्न दो प्रकार के होते हैं-

1. श्रेणी अनुनादी परिपथ (Series Resonant Circuit)- वह प्रत्यावर्ती धारा परिपथ जिसमें प्रेरकत्व L, धारिता C तथा प्रतिरोध R परस्पर श्रेणीक्रम में जुड़े होते हैं तथा यह परिपथ इस पर आरोपित प्रत्यावर्ती वोल्टता की आवृत्ति के एक विशेष मान fo के संगत अधिकतम प्रत्यावर्ती धारा (UPBoardSolutions.com) को अपने अन्दर से प्रवाहित होने देता है, श्रेणी अनुनादी परिपथ कहलाता है।
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2. समान्तर अनुनादी परिपथ (Parallel Resonant Circuit)- वह प्रत्यावर्ती धारा परिपथ जिसमें कुण्डली (प्रेरकत्व = L) व संधारित्र (धारिता = C) प्रत्यावर्ती वोल्टता स्रोत से समान्तर क्रम में जुड़े हों तथा यह परिपथ इस पर आरोपित प्रत्यावर्ती वोल्टता की आवृत्ति के विशेष मान fo के संगत धारा को अपने अन्दर से प्रवाहित नहीं होने देता हो; समान्तर अनुनादी परिपथ कहलाता है। यह विशेष आवृत्ति fo इसकी अनुनादी आवृत्ति कहलाती है। यह (L-C) परिपथ की स्वाभाविक आवृत्ति होती है।
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UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 18.2

प्रश्न 19.
L-C-R संयोजन के लिए श्रेणी क्रम अनुनादी परिपथ बनाइए। इस परिपथ के लिए अनुनादी आवृत्ति का सूत्र प्राप्त कीजिए। (2017)
या
एक प्रत्यावर्ती वोल्टेज स्रोत V = V0 sinωt से प्रेरकत्व L संधारित्र C तथा प्रतिरोध R श्रेणी क्रम में जुड़े हैं। वेक्टर आरेख खींचकर परिपथ की प्रतिबाधा तथा कला कोण के सूत्र निकालिए। (2016)
या
किसी प्रत्यावर्ती परिपथ में L, C और R श्रेणीक्रम में जुड़े हैं। इस परिपथ का आरेख बनाइए। परिपथ की प्रतिबाधा एवं अनुनादी आवृति के लिए सूत्र लिखिए। यदि परिपथ में लगा प्रत्यावर्ती विभव 300 वोल्ट हो, प्रेरण प्रतिघात 50 ओम, धारितीय प्रतिघात 50 ओम तथा ओमीय प्रतिरोध 10 ओम हों तो परिपथ की प्रतिबाधा तथा L, C व R के सिरों के बीच विभवान्तर ज्ञात कीजिए।
या
प्रत्यावर्ती वोल्टेज स्रोत V = V0 sinωt से विप्रेरक L संधारित C तथा प्रतिरोध R तीनों श्रेणी क्रम में जुड़े हैं। सिद्ध कीजिए कि परिपथ की प्रतिबाधा Z का मान
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हल-
माना प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में, प्रेरकत्व L की एक कुण्डली, धारिता C का संधारित्र तथा प्रतिरोध R को श्रेणीक्रम में जोड़कर प्रत्यावर्ती धारा-स्रोत V = V0 sinωt से जोड़ देते हैं [चित्र 7.15 (a)]। इस दशा में प्रतिरोध R के सिरों के बीच प्रेरित विभवान्तर VR तथा धारा i समान कला में होंगे, (UPBoardSolutions.com) प्रेरकत्व L के सिरों के बीच प्रेरित विभवान्तर VL, धारा i से कला में 90° अग्रगामी होगा तथा धारिता C सिरों के बीच प्रेरित विभवान्तर VC, धारा i से कला में 90° पश्चगामी होगा। [चित्र 7.15 (b) ]। अतः VL तथा VC का परिणामी विभवान्तर VL – VC होगा। यदि L-C-R परिपथ में परिणामी विभवान्तर V हो, तब
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 19.1UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 19.3

प्रश्न 20.
एक आदर्श ट्रांसफॉर्मर की प्राथमिक एवं द्वितीयक कुण्डलियों में फेरों की संख्या क्रमशः 1100 एवं 110 है। प्राथमिक कुण्डली में सप्लाई वोल्टेज 220 वोल्ट है। यदि द्वितीयक कुण्डली से जुड़े यंत्र की प्रतिबाधा 220 ओम हो, तो प्राथमिक कुण्डली द्वारा ली गई धारा का मान ज्ञात कीजिए। (2014)
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प्रश्न 21.
220 वोल्ट आपूर्ति से किसी आदर्श ट्रांसफॉर्मर की प्राथमिक कुण्डली द्वारा उस समय कितनी धारा ली जाती है जब यह 110V-550 W के रेफ्रिजरेटर को शक्ति प्रदान करता (2017)
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प्रश्न 22.
एक उच्चायी ट्रांसफॉर्मर में प्राथमिक तथा द्वितीयक कुण्डलियों में फेरों की संख्याओं का अनुपात 1 : 200 है। यदि इसे 200 वोल्ट की प्रत्यावर्ती धारा की मेन लाइन से जोड़ दें तो द्वितीयक में प्राप्त वोल्टता ज्ञात कीजिए। यदि प्राथमिक में धारा का मान 2.0 ऐम्पियर हो तो द्वितीयक में प्रवाहित अधिकतम धारा का मान ज्ञात कीजिए। (2013)
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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ट्रांसफॉर्मर की रचना तथा कार्यविधि का वर्णन कीजिए। (2017)
या
ट्रांसफॉर्मर का नामांकित चित्र बनाइए तथा उसके परिणमन अनुपात का सूत्र व्युत्पादित कीजिए। (2010)
या
ट्रांसफॉर्मर का सिद्धान्त क्या है? (2018)
उत्तर-
ट्रांसफॉर्मर (Transformer)- अन्योन्य प्रेरण (mutual induction) के सिद्धान्त पर आधारित यह एक ऐसी युक्ति है जिससे प्रत्यावर्ती धारा के विभव को कम अथवा अधिक किया जाता है। ट्रांसफॉर्मर केवल प्रत्यावर्ती धारा या विभव को ही परिवर्तित करने के काम आते हैं, दिष्ट धारा या विभव के परिवर्तन में नहीं। ये दो प्रकार के होते हैं-

  1. उच्चायी ट्रांसफॉर्मर (Step-up Transformer)- इनके द्वारा कम विभवे वाली प्रबल प्रत्यावर्ती धारा को ऊँचे विभव वाली निर्बल धारा में बदला जाता है।
  2. अपचायी ट्रांसफॉर्मर (Step-down Transformer)- इनके द्वारा ऊँचे विभव वाली निर्बल प्रत्यावर्ती धारा को कम विभव वाली प्रबल धारा में बदला जाता है।

रचना- इसमें कच्चे लोहे की आयताकार गोलाकार मुड़ी हुई पत्तियाँ एक पटलित क्रोड (laminated core) के रूप में होती हैं। ये पत्तियाँ एक-दूसरे के ऊपर वार्निश से जोड़ दी जाती हैं जिससे कि ये एक-दूसरे से पृथक्कृत रहें। फलतः क्रोड में कम भंवर धाराएँ उत्पन्न होती हैं और वैद्युत ऊर्जा का ह्रास घट जाता है। इस क्रोड पर ताँबे के तार की दो कुण्डलियाँ इस प्रकार लपेटी जाती हैं कि वे एक-दूसरे से (UPBoardSolutions.com) तथा लोहे की क्रोड से पृथक्कृत रहें [चित्र 7.16 (a)] इनमें से एक पर ताँबे के मोटे तार के कम फेरे होते हैं तथा दूसरी में ताँबे के पतले तार के अधिक फेरे होते हैं। इनमें एक को प्राथमिक कुण्डली (Primary coil) और दूसरी को ‘द्वितीयक कुण्डली’ (Secondary coil) कहते हैं। उच्चायी ट्रांसफॉर्मर में मोंटे तार की कम फेरों वाली प्राथमिक कुण्डली होती है, और पतले तार की अधिक फेरों वाली कुण्डली द्वितीयक कुण्डली होती है [चित्र 7.16 (b)] अपचायी ट्रांसफॉर्मर में इसके विपरीत होता है [चित्र 7.16 (c)]]
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कार्यविधि- जिस वि० वा० बल को परिवर्तित करना होता है, उसे सदैव प्राथमिक कुण्डली से जोड़ते हैं। जब प्राथमिक कुण्डली में प्रत्यावर्ती धारा प्रवाहित होती है तो धारा के प्रत्येक चक्कर में क्रोड एक बार एक दिशा में चुम्बकित होती है तथा दूसरी बार दूसरी दिशा में। अतः क्रोड में एक परिवर्ती चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार प्राथमिक कुण्डली की वैद्युत-ऊर्जा का क्रोड में चुम्बकीय ऊर्जा के रूप में स्थानान्तरण हो जाता है। चूंकि द्वितीयक कुण्डली इस क्रोड पर लिपटी रहती है, अतः क्रोड के बार-बार चुम्बकन तथा विचुम्बकन होने की क्रिया से इस कुण्डली से बद्ध चुम्बकीय-फ्लक्स में लगातार परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार (UPBoardSolutions.com) वैद्युत-चुम्बकीय प्रेरण के प्रभाव से द्वितीयक कुण्डली में उसी आवृत्ति का प्रत्यावर्ती वि० वा० बल उत्पन्न हो जाता है। इस प्रेरित वि० वा० बल का मान दोनों कुण्डलियों के फेरों की संख्या के अनुपात तथा प्राथमिक कुण्डली को दिये गये वि० वा० बल पर निर्भर करता है। माना कि प्राथमिक एवं द्वितीयक कुण्डलियों में तार के फेरों की संख्या क्रमशः N, और N, हैं। मान लो कि चुम्बकीय फ्लक्स का कोई क्षरण (leakage) नहीं होता है जिससे कि दोनों कुण्डलियों के प्रत्येक फेरे में से समान फ्लक्स गुजरता है। माना कि किसी क्षण कुण्डलियों के प्रत्येक फेरे से बद्ध फ्लक्स का मान ऎ है। तब फैराडे के वैद्युत-चुम्बकीय प्रेरण के नियमानुसार प्राथमिक कुण्डली में उत्पन्न प्रेरित वि० वा० बल
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यदि प्राथमिक परिपथ का प्रतिरोध नगण्य हो तथा ऊर्जा का कोई क्षय न हो तो प्राथमिक कुण्डली में प्रेरित वि० वा० बल ep, का मान प्राथमिक परिपथ में लगाये गये विभवान्तर Vp के तुल्य (लगभग) होगा। इसके अतिरिक्त यदि द्वितीयक परिपथ खुला हो (अर्थात् प्रतिरोध अनन्त हो) तो द्वितीयक कुण्डली के सिरों के बीच विभवान्तर Vs उसमें उत्पन्न प्रेरित वि० वा० बल es के तुल्य होगा। इन आदर्श परिस्थितियों में
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current LAQ 1.2जहाँ r को ‘परिणमन-अनुपात’ (transformation ratio) कहते हैं। उच्चायी ट्रांसफॉर्मर के लिए r का मान r से अधिक तथा अपचायी ट्रांसफॉर्मर के लिए 1 से कम होता है।

यदि ट्रांसफॉर्मर द्वारा वैद्युत विभव को बढ़ाना है तो विद्युत वाहक बल के स्रोत को उस कुण्डली से सम्बन्धित करते हैं जिसके तार मोटे हैं और जिसमें फेरों की संख्या कम होती है। उपर्युक्त सूत्र से स्पष्ट है। कि इस दशा में Vs, Vp से बड़ा होगा; अर्थात् r का माने 1 से अधिक होगा। (UPBoardSolutions.com) वैद्युत-विभव को कम करने के लिए विद्युत वाहक बल के स्रोत को पतले तार से बनी अधिक फेरों वाली कुण्डली से जोड़ते हैं। स्पष्ट है कि इस दशा में Vs का मान Vp से कम होगा जिसके फलस्वरूप r का मान 1 से कम होगा।

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प्रश्न 2.
एक समांग चुम्बकीय क्षेत्र में क्षेत्र के लम्बवत् किसी अक्ष के परितः कोणीय वेग से घूमती हुई आयताकार कुण्डली में उत्पन्न प्रेरित विद्युत वाहक बल का सूत्र निगमित कीजिए। प्रेरित विद्युत वाहक बल कब महत्तम होगा और कब शून्य? (2011)
उत्तर-
माना एक कुण्डली के तल का क्षेत्रफल A है तथा इसमें तार के N फेरे हैं। इस कुण्डली को एक नियत कोणीय वेग ω से चित्र 7.17 (a) की भाँति एक ऊर्ध्वाधर अक्ष YY’ के परितः एकसमान चुम्बकीय क्षेत्र B में दक्षिणावर्त दिशा में घुमाया जा रहा है।
माना किसी क्षण कुण्डली के तल पर खींचा गया अभिलम्ब अर्थात् कुण्डली का अक्ष चित्र 7.17 (b) की भाँति [latex s=2]\vec { B }[/latex] की दिशा के साथ θ कोण (UPBoardSolutions.com) बनाता है। इस क्षण चुम्बकीय क्षेत्र B का कुण्डली के तल के लम्बवत् घटक B cosθ से होगा।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current
e = NBAω sinωt …(1)
प्रेरित वि० वी० बल के लिए सूत्र (1) से स्पष्ट है कि प्रेरित वि० वा० बल का मान समय t के साथ-साथ निरन्तर बदलता रहेगा परन्तु sinωt का अधिकतम मान 1 होता है। अतः प्रेरित विद्युत वाहक बल e का
अधिकतम मान = NBAω होगा। यदि इसको e0 से प्रदर्शित किया जाए तो प्रेरित विद्युत वाहक बल के लिए सूत्र (1) को निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जाता है।
e = e0 sinωt …(2)

जहाँ e का अधिकतम मान e0 = NBAω
उपर्युक्त सूत्र (2) से स्पष्ट है कि जब किसी कुण्डली (UPBoardSolutions.com) को चुम्बकीय क्षेत्र में घुमाया जाता है तो उसमें प्रेरित विद्युत वाहक बल उत्पन्न हो जाता है जो ज्या-वक्र (sine curve) की भाँति बदलता रहता है। इसका मान कुण्डली के घुमाव कोण θ = ωt पर निर्भर करता है।

जब कुण्डली का तल चुम्बकीय क्षेत्र के लम्बवत् होता है तब से θ = 0°
अतः e = e0 sin 0° = 0
अर्थात् e का मान शून्य होता है। यह कुण्डली की प्रारम्भिक स्थिति है तथा प्रत्येक चक्कर के पश्चात् यही स्थिति होती है।

जब कुण्डली चौथाई चक्कर घूम जाती है तो θ = 90°
तथा इस दशा में e = e0 sin 90° = e0 (अधिकतम)
यही स्थिति कुण्डली के तीन-चौथाई चक्कर घूमने पर आती है परन्तु विपरीत दिशा में प्रेरित विद्युत वाहक बल अधिकतम होता है।
अर्थात् e = – e0
इस प्रकार कुण्डली के पहले आधे चक्कर में कुण्डली में उत्पन्न प्रेरित वि० वी० बल शून्य से बढ़कर अधिकतम मान को प्राप्त करता है तथा पुनः घटकर शून्य हो (UPBoardSolutions.com) जाता है, जबकि शेष आधे चक्कर में यह विपरीत दिशा में अधिकतम मान को प्राप्त करता है तथा पुनः घटकर शून्य हो जाता है। यही क्रिया बार-बार दोहरायी जाती है।

प्रश्न 3.
ए०सी० जनित्र की रचना एवं कार्यविधि समझाइए। दिष्ट धारा की तुलना में प्रत्यावर्ती धारा के क्या लाभ हैं जिनके कारण अब आमतौर पर प्रत्यावर्ती धारा ही प्रयोग की जाती है?
हल-
प्रत्यावर्ती धारा जनित्र का सिद्धान्त तथा कार्य-प्रणाली चित्र द्वारा समझाइए। (2014)
उत्तर-
प्रत्यावर्ती धारा जनित्र अथवा डायनमो
विद्युत चुम्बकीय प्रेरण की क्रिया का सबसे महत्त्वपूर्ण उपयोग विद्युत जनित्र अथवा डायनमो में किया गया है। यह एक ऐसी विद्युत चुम्बकीय मशीन है जिसके द्वारा यान्त्रिक ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में बदला जाता है। प्रत्यावर्ती धारा को उत्पन्न करने के लिये प्रत्यावर्ती-धारा डायनमो तथा दिष्ट धारा को उत्पन्न करने के लिए दिष्ट-धारा डायनमो का उपयोग होती है।

सिद्धान्त- जब किसी बन्द कुण्डली को चुम्बकीय क्षेत्र में तेजी से घुमाया जाता है तो उसमें से गुजरने वाली फ्लक्स-रेखाओं की संख्या में लगातार परिवर्तन होता रहता है। जिसके (UPBoardSolutions.com) कारण कुण्डली में वैद्युत धारा प्रेरित हो जाती है। कुण्डली को घुमाने में जो कार्य करना पड़ता है (अर्थात् यान्त्रिक ऊर्जा व्यय होती है) वही कुण्डली में वैद्युत ऊर्जा के रूप में प्राप्त होता है।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current
रचना- इसके तीन मुख्य भाग होते हैं (चित्र 7.18)।
(i) क्षेत्र चुम्बक (Field Magnet)- यह एक शक्तिशाली चुम्बक NS होता है। इसके द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र की बल रेखाएँ चुम्बक के ध्रुव N से S की ओर होती हैं।
(ii) आर्मेचर (Armature)- चुम्बक के ध्रुवों के N बीच में पृथक्कृत ताँबे के तारों की एक कुण्डली ABCD होती है, जिसे आर्मेचर कुण्डली कहते सर्दी-वलय हैं। कुण्डली कई फेरों की होती है तथा ध्रुवों के बीच क्षैतिज अक्ष पर जल के टरबाइन से घुमाई जाती है।
(iii) सप वलय तथा ब्रुश (Slip Rings and Brushes)- कुण्डली के सिरों का सम्बन्ध अलग-अलग दो ताँबे के छल्लों से होता है जो आपस में एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करते और कुण्डली के साथ उसी अक्ष पर घूमते हैं। इन्हें ‘सप वलय’ कहते हैं। इन छल्लों को दो कार्बन की ब्रुश X तथा ? स्पर्श करती रहती हैं। ये ब्रुश स्थिर रहती हैं तथा छल्ले इन ब्रुशों के नीचे फिसलते हुए घूमते हैं। इन ब्रुशों का सम्बन्ध उस बाह्य परिपथ से कर देते हैं जिसमें वैद्युत धारा भेजनी होती है।

क्रिया- जब आमेचर-कुण्डली ABCD घूमती है तो कुण्डली में से होकर जाने वाली फ्लक्स-रेखाओं की संख्या में परिवर्तन होता है। अत: कुण्डली में धारा प्रेरित हो जाती है। मान लो कुण्डली दक्षिणावर्त (clockwise) दिशा में घूम रही है तथा किसी क्षण क्षैतिज अवस्था में है (चित्र 7.18)। इस क्षण कुण्डली की भुजा AB ऊपर उठ रही है तथा भुजा CD नीचे आ रही है। फ्लेमिंग के दायें हाथ के नियम अनुसार, (UPBoardSolutions.com) इन भुजाओं में प्रेरित धारा की दिशा वही है जो चित्र में दिखाई गई है। अत: धारा ब्रुश X से बाहर जा रही है (अर्थात् यह ब्रुश धन ध्रुव है) तथा ब्रुश Y पर वापस आ रही है (अर्थात् यह ब्रुश ऋण ध्रुव है)। जैसे ही कुण्डली अपनी ऊध्र्वाधर स्थिति से गुजरेगी, भुजा AB नीचे की ओर आने लगेगी तथा CD ऊपर की ओर जाने लगेगी। अतः अब धारा ब्रुश Y से बाहर जायेगी तथा ब्रुश X पर वापस आयेगी। इस प्रकार आधे चक्कर के बाद बाह्य परिपथ में धारा की दिशा बदल जायेगी। अत: परिपथ में प्रत्यावर्ती धारा’ (alternating current) उत्पन्न होती है।

प्रत्यावर्ती धारा की-दिष्ट-धारा की तुलना में उपयोगिता आजकल घरेलू व औद्योगिक कार्यों में प्रत्यावर्ती धारा का ही उपयोग होता है क्योंकि दिष्ट-धारा की तुलना में इसके निम्न लाभ हैं|

(i) प्रत्यावर्ती धारा को पावर हाऊस से किसी स्थान पर ट्रांसफॉर्मर की सहायता से उच्च वोल्टेज पर भेजा जा सकता है तथा वहाँ इसे पुन: निम्न वोल्टेज पर लाया जा सकता है। इस प्रकार भेजने में लागत भी कम आती है तथा ऊर्जा ह्रास भी बहुत घट जाता है। ट्रांसफॉर्मर का उपयोग दिष्ट-धारा के लिए नहीं किया जा सकता। अत: दिष्ट-धारा को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने में ऊर्जा ह्रास भी होता है तथा लागत भी अधिक आती है।

(ii) प्रत्यावर्ती धारा को चोक-कुण्डली द्वारा बहुत कम ऊर्जा ह्रास पर नियन्त्रित किया जा सकता है, जबकि दिष्ट-धारा ओमीय प्रतिरोध द्वारा ही नियन्त्रित की जा सकती है जिसमें अत्यधिक ऊर्जा ह्रास होता है।

(iii) प्रत्यावर्ती धारा वाले यन्त्र; जैसे-वैद्युत मोटर, दिष्ट-धारा वाले यन्त्रों की तुलना में सुदृढ़ व सुविधाजनक होते हैं।

(iv) जहाँ दिष्ट धारा की आवश्यकता होती है (जैसे-विद्युत अपघटन में, संचायक सेलों को आवेशित करने में, वैद्युत चुम्बक बनाने में) वहाँ दिष्टकारी (rectifer) द्वारा प्रत्यावर्ती धारा को सुगमता से | दिष्ट-धारा में बदल लिया जाता है।

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प्रश्न 4.
एक कुण्डली 220 वोल्ट, 50 हर्ट्ज वाले प्रत्यावर्ती धारा स्रोत से 20 ऐम्पियर धारा तथा 200 वाट शक्ति लेती है। कुण्डली का प्रतिरोध तथा प्रेरकत्व ज्ञात कीजिए। (2017)
हल-
कुण्डली में शक्ति-क्षय P, केवल इसके ओमीय प्रतिरोध R के कारण है। अतः  UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

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UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 12 Biotechnology and its Applications

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Chapter Chapter 12
Chapter Name Biotechnology and its Applications
Number of Questions Solved 18
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 12 Biotechnology and its Applications (जैव प्रौद्योगिकी एवं उसके उपयोग)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
बीटी (Bt) आविष के रवे कुछ जीवाणुओं द्वारा बनाये जाते हैं, लेकिन जीवाणु स्वयं को नहीं मारते हैं; क्योंकि –
(क) जीवाणु आविष के प्रति प्रतिरोधी हैं।
(ख) आविष अपरिपक्व है।
(ग) आविष निष्क्रिय होता है।
(घ) आविष जीवाणु की विशेष थैली में मिलता है।
उत्तर
(ग) आविष निष्क्रिय होता है।

प्रश्न 2.
पारजीनी जीवाणु क्या है? किसी एक उदाहरण द्वारा सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर
जब किसी इच्छित लक्षण वाली जीन (gene) को जीवाणु के जीनोम में प्रविष्ट कराकर कोई उत्पादन प्राप्त किया जाता है तो विदेशी जीन युक्त जीवाणु को पारजीनी जीवाणु (transgenic bacteria) कहते हैं।

उदाहरणमानव इन्सुलिन आनुवंशिक प्रौद्योगिकी के द्वारा तैयार किया गया है। इन्सुलिन दो छोटी पॉलिपेप्टाइड श्रृंखलाओं का बना होता है, श्रृंखला ‘ए’ व श्रृंखला ‘बी’ जो आपस में डाइसल्फाइड बन्धों द्वारा जुड़ी होती हैं। मानव इन्सुलिन में प्राक् हॉर्मोन संश्लेषित होता है जिसमें पेप्टाइड-सी’ होता है। यह पेप्टाइड ‘सी’ परिपक्व इन्सुलिन में नहीं पाया जाता, यह परिपक्वता के समय इन्सुलिन से पृथक् हो जाता है। सन् 1983 में मानव इन्सुलिन की श्रृंखला ‘ए’ और ‘बी’ के अनुरूप दो डी०एन०ए० अनुक्रमों को तैयार किया गया जिसे ई० कोलाई के प्लाज्मिड (plasmid) में प्रवेश कराकर इन्सुलिन श्रृंखलाओं का उत्पादन किया गया। इन अलग-अलग निर्मित श्रृंखलाओं ‘ए’ और ‘बी’ को निकालकर डाइसल्फाइड बन्ध (disulphide bonds) द्वारा आपस में संयोजित कर मानव इन्सुलिन को तैयार किया गया। इन्सुलिन डायबिटीज को नियन्त्रित करने के लिए एक उपयोगी औषधि है। इन्सुलिन के जीन की क्लोनिंग करने का श्रेय भारतीय मूल के डॉ० शरण नारंग (Dr. Saran Narang) को जाता है। इन्होंने अपना प्रयोग कनाडा के ओटावा (Ottava) में किया था।
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प्रश्न 3.
आनुवंशिक रूपांतरित फसलों के उत्पादन के लाभ व हानि का तुलनात्मक विभेद कीजिए।
उत्तर
लाभ

  1. फसली पौधे आनुवंशिक रूपांतरण के द्वारा उत्पादकता की दर को बढ़ाते हैं।
  2. आनुवंशिक रूप से रूपांतरित पौधे प्रतिकूल परिस्थितियों; जैसे- सूखे, अत्यधिक ठण्ड को सहने की क्षमता विकसित करते हैं।
  3. आनुवंशिक रूप से रूपांतरित पौधों में विषाणु प्रतिरोधकता व हानिकारक कीट से प्रतिरोधकता | का गुण विकसित किया जाता है।
  4. फसली पौधों में आनुवंशिक रूपांतरण करके खनिज लवण को अवशोषित करने व प्रयुक्त करने के लिए पौधे विकसित किये गये हैं।
  5. आनुवंशिक रूपान्तरण से पौधे विकसित किए गये ताकि मण्ड व अन्य व्यावसायिक उत्पाद की उच्च मात्रा प्राप्त हो सके।
  6. आनुवंशिक रूप से रूपांतरित पौधों की रासायनिक पीड़कनाशी पर निर्भरता कम होती है।
  7. आनुवंशिक रूपान्तरित फसलें कटाई के पश्चात् होने वाले नुकसान को कम करने में सहायक होती हैं।

हानि

  1. अपतृणनाशी जीन पौधों में प्रविष्ट कराये जाते हैं, इनसे फसली पौधों में से कोई भी स्वयं सुपर अपतृण बन सकती है।
  2. आनुवंशिक रूपांतरित फसलें लोगों में एलर्जी उत्पन्न कर सकती हैं।
  3. आनुवंशिक रूपांतरित फसलें बहुत महँगी पड़ती हैं।
  4. ऐसी फसलें काटने की प्रक्रिया में बहुत-से पौधों के अवशेष भूमि में छोड़ दिये जाते हैं, जो जैविक वायुमण्डल को नुकसान पहुंचाते हैं।
  5. इस विधि द्वारा उत्पादित कुछ फसलों में बीज पैदा करने की क्षमता का क्षय हो सकता है।

प्रश्न 4.
क्राई प्रोटीन्स क्या हैं? उस जीव का नाम बताइए जो इसे पैदा करता है। मनुष्य इस प्रोटीन को अपने फायदे के लिए कैसे उपयोग में लाता है?
उत्तर
क्राई प्रोटीन एक विषाक्त प्रोटीन है जो cry gene द्वारा कोड की जाती है। क्राई प्रोटीन्स कई प्रकार के होते हैं, जैसे- जो प्रोटीन्स जीन क्राई 1 ऐ०सी० वे क्राई 2 ए० बी० द्वारा कूटबद्ध होते हैं, वे कपास के मुकुल कृमि को नियन्त्रित करते हैं, जबकि क्राई 1 ए० बी० मक्का छेदक को नियन्त्रित करता है।

क्राई प्रोटीन बेसिलस थुरिनजिएंसिस (Bt) द्वारा बनता है। इसके निर्माण को नियन्त्रित करने वाले जीन को क्राई जीन कहते हैं, जैसे—क्राई 1 ए० वी०, क्राई 1 ए० सी०, क्राई 11 ए० वी०। यह जीवाणु प्रोटीन को एन्डोटॉक्सिन के रूप में प्रोटॉक्सिन क्रिस्टलीय अवस्था में उत्पन्न करता है।

दो क्राई (cry) जीन कॉटन (Bt कॉटन) में डाले जाते हैं, जबकि एक कॉर्न (Bt कॉर्न) में डाला जाता है। जिसके परिणामस्वरूप Bt कॉटन बॉलवार्म के लिए प्रतिरोधक बन जाता है, जबकि Bt कॉर्न प्रतिरोधकता-कॉर्नबोर के लिये विकसित करता है।

प्रश्न 5.
जीन चिकित्सा क्या है? एडीनोसीन डिएमीनेज (ADA) की कमी का उदाहरण देते हुए इसका सचित्र वर्णन कीजिए। (2018)
उत्तर
“जीन चिकित्सा में मानव में उपस्थित दोषपूर्ण जीन को स्वस्थ्य व क्रियाशील जीन से बदला जाता है।
जीन चिकित्सा द्वारा किसी बच्चे या भ्रूण में चिह्नित किए गये जीन के दोषों को सुधार किया जा सकता है। इसमें रोग के उपचार के लिए जीन को व्यक्ति की कोशिकाओं या ऊतकों में प्रवेश कराया जाता है। इस विधि में आनुवंशिक दोष वाली कोशिकाओं के उपचार हेतु सामान्य जीन को व्यक्ति या भ्रूण में स्थानान्तरित करते हैं जो निष्क्रिय जीन की क्षतिपूर्ति कर उसके कार्यों को सम्पन्न करते हैं।
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जीन चिकित्सा का पहला प्रयोग सन् 1990 में एक चार वर्षीय लड़की में एडीनोसीन डिएमिनेज (ADA) की कमी को दूर करने के लिए किया गया था। यह एंजाइम प्रतिरक्षातंत्र में कार्य के लिए अति आवश्यक होता है। कुछ बच्चों में ADA की कमी को उपचार अस्थिमज्जा में प्रत्यारोपण से होता है। जीन चिकित्सा में सर्वप्रथम रोगी के रुधिर से लसीकाणु को निकालकर शरीर से बाहर संवर्धन किया। जाता है।

सक्रिय ADA का सी०डीएनए (cDNA) संवाहक द्वारा लसीकाणु में प्रविष्ट कराकर लसीकाणु को रोगी के शरीर में वापस पहुँचा दिया जाता है। ये कोशिकाएँ मृतकाय होती हैं। इसलिए आनुवंशिक निर्मित लसीकाणु को समय-समय पर रोगी के शरीर से अलग करने की आवश्यकता होती है। यदि मज्जा कोशिकाओं से विलगित अच्छे जीन्स को प्रारंभिक भ्रूणीय अवस्था की कोशिकाओं से उत्पादित ADA में प्रवेश करा दिया जाए तो यह एक स्थाई उपचार हो सकता है।

प्रश्न 6.
ई० कोलाई जैसे जीवाणु में मानव जीन की क्लोनिंग एवं अभिव्यक्ति के प्रायोगिक चरणों का आरेखीय निरूपण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
पुनर्योगज डी०एन०ए० तकनीक
DNA में किसी प्रकार के हेर-फेर या एक जीव के DNA में दूसरे जीव के DNA को जोड़ना, DNA पुनर्योगज (DNA recombination) कहलाता है। इस तकनीक को आनुवंशिक इंजीनियरिंग या DNA इंजीनियरिंग भी कहते हैं।

इस तकनीक द्वारा DNA खण्डों के नए क्रम तैयार किए जाते हैं। प्रकृति में यह कार्य गुणसूत्रों में विनिमय (crossing over) प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न होता है। DNA पुनर्योगज तकनीक द्वारा उच्च जन्तु और पौधों के DNA के इच्छित भागों की अनेकों प्रतिकृतियाँ (copies) तैयार की जाती हैं। इस प्रक्रिया को प्रायः जीवाणुओं में सम्पन्न कराया जाता है।
पुनर्योगज DNA प्राप्त करने के लिए निम्न तीन विधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं –

(i) DNA की दो शृंखलाओं के अन्तिम छोर पर नई DNA श्रृंखलाएँ जोड़कर (By joining new DNA chains at the end point of two chains of DNA) – यदि DNA के सिरे पर कुछ क्षारक (जैसे- CCCCC) जोड़ दें तथा दूसरे DNA के सिरे पर इसके संयुग्मी क्षारक (GGGGG) जोड़ दें और फिर इन दोनों प्रकार के DNA को मिलाएँ तो नई श्रृंखला आपस में हाइड्रोजन बन्ध बनाकर दो भिन्न DNA अणुओं को संयुक्त कर देगी। इस कार्य के लिए विशेष एन्जाइम टर्मिनल ट्रान्सफरेज (terminal transferase) का उपयोग किया जाता है। अनजुड़े स्थानों को डी०एन०ए० लाइगेज (DNA ligase) नामक एन्जाइम द्वारा जोड़ देते हैं।
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(ii) प्रतिबन्ध एन्जाइम्स की सहायता से (With the help of restriction enzymes) – इस विधि में संयुग्मी क्षारकों के बीच हाइड्रोजन बन्ध बनाकर संकर DNA का निर्माण किया जाता है। इस विधि में एक विशेष एन्जाइम, प्रतिबन्ध एण्डोन्यूक्लिएज टाइप-II एन्जाइम (restriction endonuclease enzyme) का उपयोग किया जाता है। ये एन्जाइम चाकू की तरह कार्य करते हैं तथा DNA श्रृंखला को विशिष्ट स्थानों पर इस प्रकार से काटते हैं कि वांछित जीन्स वाले खण्ड प्राप्त हो सकें। अब तक लगभग 350 प्रकार के प्रतिबन्ध एण्डोन्यूक्लिएज एन्जाइम ज्ञात हैं जो DNA अणु में 100 से अधिक अभिज्ञान स्थलों (recognition sites) को पहचानते हैं। पृथक् DNA खण्ड को लाइगेज एन्जाइम द्वारा आवश्यकतानुसार DNA खण्ड से जोड़कर पुनर्योगज DNA अणु के रूप में (संवाहक वेक्टर) किसी पोषद कोशिका में प्रवेश कराकर इसकी असंख्य प्रतियाँ प्राप्त की जा सकती हैं।

जैसे- ई० कोलाई प्लाज्मिड संवाहक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। इस विधि से दो विभिन्न जीवों; विभिन्न प्रकार के पौधों आदि के मध्य संकरण की सम्भावना बढ़ गई है। इतना ही नहीं, पौधों और जन्तुओं में संकरण की सम्भावना भी बढ़ गई है। संकरित जीन में दोनों ही जीवों के गुण उपस्थित होंगे।
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(iii) क्लोनिंग (Cloning)—यह विधि सबसे सरल तथा उपयोगी है। शरीर में प्रत्येक पदार्थ के संश्लेषण के लिए कोई निश्चित जीन उत्तरदायी होता है। यदि इस विशिष्ट जीन को प्लाज्मिड के साथ संकरित करा दिया जाए और इस संकरित DNA को पुनः जीवाणु की कोशिका में स्थापित कर उपयुक्त संवर्धन माध्यम में उगने दिया जाए तो जीवाणु में वह जीन उसी पदार्थ को संश्लेषण करता है जो कि वह मूल शरीर में करता था। इस समस्त प्रक्रम को क्लोनिंग कहते हैं। पोषी जीवाणु के लिए ई० कोलाई का उपयोग किया जाता है।

प्रश्न 7.
तेल के रसायनशास्त्र तथा r-DNA तकनीक के बारे में आपको जितना भी ज्ञान प्राप्त है, उसके आधार पर बीजों से तेल हाइड्रोकार्बन हटाने की कोई एक विधि सुझाइए।
उत्तर
ग्लिसरॉल के एक अणु के साथ तीन वसीय अम्लों के संघनन द्वारा तेल बनता है। वसीय अम्ल एक एंजाइम संकर द्वारा बनते हैं जिसे वसीय अम्ल सिन्थेटेज कहते हैं। एक या ज्यादा जीन बनाने वाले वसीय अम्ल की निष्क्रियता वसीय अम्लों का संश्लेषण रोक सकती है। प्लेवट् टोमेटो में एंजाइम पॉलीग्लेक्टोमूटेनेज की निष्क्रियता से जुड़ा होता है। यह बिना तेल वाले बीज उत्पन्न करेगा।

प्रश्न 8.
इण्टरनेट से पता लगाइए कि गोल्डन राइस (गोल्डन धान) क्या है?
उत्तर
गोल्डन राइस (ओराइजा सैटाइवा) जैव प्रौद्योगिकी द्वारा उत्पन्न चावल की एक किस्म है। इस किस्म के चावल में बीटा कैरोटीन (प्रो-विटामिन A) पाया जाता है जो कि जैव संश्लेषित है। सन् 2005 में गोल्डन राइस-2 की एक और किस्म तैयार की गई जिसमें 23 गुना अधिक बीटा केरोटीन होता है।
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प्रश्न 9.
क्या हमारे रक्त में प्रोटिओजेज तथा न्यूक्लिएजेज हैं?
उत्तर
नहीं।

प्रश्न 10.
इण्टरनेट से पता लगाइए कि मुखीय सक्रिय औषध प्रोटीन को किस प्रकार बनाएँगे? इस कार्य में आने वाली मुख्य समस्याओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर
मुखीय औषध प्रोटीन के निर्माण में ड्यूटेरियम एक्सचेंज मास स्पेक्ट्रोमीटरी (DXMS : Deuterium Exchange Mass Spectrometry) तकनीक का प्रयोग किया जाता है। यह तकनीक प्रोटीन संरचना और उसके प्रकार्यों का अध्ययन करने के लिए एक शक्तिशाली माध्यम है। इस कार्य में आने वाली मुख्य समस्याएँ श्रम और समय की हैं। यह एक जटिल प्रक्रिया होती है। अत: मुखीय प्रोटीन्स का निर्माण कम ही किया जा रहा है।

जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग करके जीवाणुओं की सहायता से पुनर्योगज चिकित्सीय औषधि मानव इन्सुलिन (ह्यूमुलिन) प्राप्त की गई है। यह एक औषध प्रोटीन है। निकट भविष्य में मानव इन्सुलिन मधुमेह रोग से पीड़ित लोगों को मुख से दिया जा सकेगा।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
Bt टॉक्सिन है – (2014)
(क) अन्त: कोशिकीय लिपिड
(ख) अन्तः कोशिकीय क्रिस्टलित प्रोटीन
(ग) बाह्य कोशिकीय क्रिस्टलित प्रोटीन
(घ) लिपिड
उत्तर
(ग) बाह्य कोशिकीय क्रिस्टलित प्रोटीन

प्रश्न 2.
पौधों में अपतृणनाशी प्रतिरोधक जीन होता है – (2014)
(क) Ct
(ख) Mt
(ग) Bt
(घ) Gst
उत्तर
(घ) Gst

प्रश्न 3.
विडाल परीक्षण किसके निदान से संबंधित है? (2014)
(क) मलेरिया
(ख) कोलेरा
(ग) टाइफॉइड
(घ) पीत ज्वर
उत्तर
(ग) टाइफॉइड

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रकृति में समजात डी०एन०ए० का पुनर्योजन कहाँ और कैसे होता है? लिखिए।
उत्तर
प्रकृति में समजात डी०एन०ए० का पुनर्योजन डी०एन०ए० के समजात अणुओं या इन अणुओं के समजात खण्डों के बीच होता है। ये निम्नलिखित प्रक्रियाओं द्वारा होता है –

  1. पारगमने
  2. संयुग्मन
  3. रूपान्तरण
  4. पारक्रमण
  5. स्थान परिवर्तन।

प्रश्न 2.
असमजात डी०एन०ए० पुनर्संयोजन को परिभाषित कीजिए तथा स्थान-परिवर्ती (ट्रांसपोसॉन) या जम्पिंग जीन्स को समझाइए।
उत्तर

  1. असमजात डी0एन0ए0 पुनर्संयोजन – इस प्रकार के पुनर्संयोजन में एक गुणसूत्र का कोई खण्ड इससे पृथक् होकर किसी अन्य असमजात गुणसूत्र से जुड़ता है।
  2. स्थान-परिवर्ती या जम्पिंग जीन्स – कोशिकाओं में स्थित DNA अणुओं के ऐसे जीनरूपी खण्ड जो अणु के एक स्थान से हटकर अन्य स्थान पर जुड़ते रहते हैं और इस प्रकार DNA अणुओं का पुनसँयोजन करते रहते हैं, स्थान-परिवर्ती या जम्पिंग जीन्स कहलाते हैं।

प्रश्न 3.
पारजीनी जन्तु से आप क्या समझते हैं? (2014, 16)
या
‘पारजीनी जन्तु क्या हैं? पारजीनी जन्तुओं के उत्पादन की एक मुख्य विधि का उल्लेख कीजिए। (2017)
उत्तर
ऐसे जन्तु जिनके DNA में परिचालन विधि द्वारा एक अतिरिक्त जीन व्यवस्थित कर दिया जाता है तथा जो अपना लक्षण भी व्यक्त करता है, पारजीनी जन्तु कहलाते हैं।
पारजीनी जन्तुओं को रिकॉम्बीनेन्ट DNA तकनीक द्वारा विजातीय जीन को प्रवेश कराकर आनुवंशिक रूप से रूपान्तरित किया जाता है।

प्रश्न 4.
बायोपाइरेसी किसे कहते हैं? (2014, 15, 16, 17, 18)
उत्तर
मल्टीनेशनल कम्पनियों व दूसरे संगठनों द्वारा किसी राष्ट्र या उससे सम्बन्धित लोगों से बिना व्यवस्थित अनुमोदन वे क्षतिपूरक के जैव संसाधनों का उपयोग करना बायोपाइरेसी कहलाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पुनर्योगज डी०एन०ए० तकनीकी की सहायता से इन्सुलिन का उत्पादन हम कैसे कर सकते हैं? (2018)
या
डी०एन०ए० पुनर्योगज तकनीक का मानव हित में उपयोग बताइए। (2014, 15, 16, 17)
उत्तर
इन्सुलिन एक प्रोटीन है जिसके अमीनों अम्ल अनुक्रम (प्राथमिक संरचना) के बारे में सर्वप्रथम फ्रेडरिक सेंगर, 1954 ने पता लगाया। यह प्रोटीन दो पॉलीपेप्टाइड श्रृंखलाओं का बना होता है-A श्रृंखला (A chain) तथा B श्रृंखला (B chain), जो आपस में डाइसल्फाइड बंधों द्वारा जुड़ी होती हैं। A श्रृंखला 21 अमीनो अम्ल अवशेष से जबकि B श्रृंखला 30 अमीनो अम्ल अवशेष से बनी होती है। A-श्रृंखला में एक N-छोर ग्लाइसिन (GLY) एवं एक C-छोर होता है जबकि B-श्रृंखला में एक N-छोर फिनाइल एलेनीन (Phe) एवं एक C-छोर एलेनीन (Ala) होता है। दो सल्फाइड बंध (-S-S-) A श्रृंखला की 7वीं तथा 20वीं स्थिति पर तथा B श्रृंखला की 7वीं तथा 19वीं स्थिति पर सिस्टीन अमीनो अम्लों के बीच स्थित होते हैं। एक तीसरा डाइसल्फाइड बंध (-S-S-) A श्रृंखला की 6वीं एवं 11 वीं स्थिति पर सिस्टीन (cys) अमीनो अम्लों के बीच भी स्थित होता है।

इन्सुलिन की दोनों श्रृंखलाओं का जैव संश्लेषण (bio-synthesis) एकल पॉलीपेप्टाइड श्रृंखला प्रोइन्सुलिन (proinsulin) के रूप में होता है जिसमें B श्रृंखलाएँ 33 अमीनो अम्लों के संयोजी पॉलीपेप्टाइड द्वारा अन्तरआबंध होती हैं।
प्रोइन्सुलिन के संश्लेषण का नियंत्रण क्रोमोसोम संख्या 11 की छोटी भुजा पर स्थित जीन द्वारा होता है। इसकी प्रोटियोलाइटिक संसाधन द्वारा इन्सुलिन के रूप में उत्पत्ति होती है।

आनुवंशिकतः अभियांत्रिक इन्सुलिन (Genetically Engineered Insulin) – वयस्कों में होने वाले मधुमेह का नियंत्रण निश्चित समयांतराल पर इन्सुलिन लेने से ही संभव है।
मानव सहित स्तनधारियों में इन्सुलिन प्राक्-हार्मोन (pro – hormone) के रूप में संश्लेषित होता है। जिसमें एक अतिरिक्त फैलाव होता है जिसे पेप्टाइड ‘सी’ (peptide – C) कहते हैं। संसाधन (processing) से बने इन्सुलीन में यह ‘C’ पेप्टाइड नहीं होता है। क्योंकि परिपक्वता के समय यह इन्सुलिन से अलग हो जाता है। पुनर्योगज DNA तकनीकियों का प्रयोग करते हुए इन्सुलिन के उत्पादन में मुख्य चुनौती यह है कि इन्सुलिन को एकत्रित कर परिपक्व रूप में तैयार किया जाये।

सन् 1983 में एली लिली (Eli Lilly) नामक एक अमेरिकी कम्पनी ने दो DNA अनुक्रमों को तैयार किया जो मानव इन्सुलिन की श्रृंखला A तथा B के अनुरूप होते हैं, जिसे ईश्चेरिचिया कोलाई (E.coli) के प्लास्मिड में प्रवेश कराया जाता है। अब E. coli को संवर्धन माध्यम में वृद्धि कराते हैं। यह अवश्य ध्यान दिया जाता है कि संवर्धन माध्यम (culture medium) में इन्सुलिन बनाने वाले सभी अमीनो अम्ल अवश्य हों। E.coli द्वारा दो पॉलीपेप्टाइड श्रृंखलाओं (A और B) का संश्लेषण अलग-अलग होता है।

इन अलग-अलग निर्मित श्रृंखलाओं में A और B को निकालकर डाइसल्फाइड बंध बनाकर आपस में संयोजित कर मानव इन्सुलिन का निर्माण किया गया है। यह इन्सुलिन मानव इन्सुलिन से अत्यधिक समानता रखता है; अतः इसे झूमेलिन (humalin) कहा जाता है। इसको मधुमेह रोगी द्वारा लिए जाने पर कोई साइड-इफेक्ट या एलर्जी भी नहीं होती है।

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UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 11 Biotechnology: Principles and Processes

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Subject Biology
Chapter Chapter 11
Chapter Name Biotechnology: Principles and Processes
Number of Questions Solved 22
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UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 11 Biotechnology: Principles and Processes (जैव प्रौद्योगिकी-सिद्धान्त व प्रक्रम)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्या आप दस पुनर्योगज प्रोटीन के बारे में बता सकते हैं जो चिकित्सीय व्यवहार के काम में लाये जाते हैं? पता लगाइये कि वे चिकित्सीय औषधि के रूप में कहाँ प्रयोग किये जाते हैं? (इंटरनेट की सहायता लें)।
उत्तर
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प्रश्न 2.
एक सचित्र (चार्ट) (आरेखित निरूपण के साथ) बनाइए जो प्रतिबन्धन एन्जाइम को (जिस क्रियाधार डी०एन०ए० पर यह कार्य करता है उसे), उन स्थलों को जहाँ यह डी०एन०ए० को काटता है व इनसे उत्पन्न उत्पाद को दर्शाता है।
उत्तर
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प्रश्न 3.
कक्षा ग्यारहवीं में जो आप पढ़ चुके हैं, उसके आधार पर क्या आप बता सकते हैं कि आण्विक आकार के आधार पर एन्जाइम बड़े हैं या डी०एन०ए०। आप इसके बारे में कैसे पता लगाएँगे?
या
एन्जाइम (विकर) पर टिप्पणी लिखिए। (2018)
उत्तर
एन्जाइम्स (enzymes) प्रोटीन्स होते हैं। प्रोटीन्स अणु अत्यधिक जटिल संरचना वाले वृहदाणु होते हैं। इनका निर्माण ऐमीनो अम्लों से होता है। प्रकृति में लगभग 300 प्रकार के ऐमीनो अम्ल पाए जाते हैं, किन्तु इनमें से केवल 20 ऐमीनो अम्ल ही जन्तु एवं पादप कोशिकाओं में पाए जाते हैं। ऐमीनो अम्ल श्रृंखलाबद्ध होकर परस्पर पेप्टाइड बन्ध द्वारा जुड़े रहते हैं। प्रत्येक प्रोटीन अणु की पॉलिपेप्टाइड श्रृंखला में ऐमीनो अम्लों का क्रम विशिष्ट प्रकार का होता है। प्रोटीन्स का आण्विक भार बहुत अधिक होता है। विभिन्न ऐमीनो अम्ल से बनने वाली प्रोटीन्स विभिन्न प्रकार की होती हैं। हमारे शरीर में लगभग 50,000 प्रकार की प्रोटीन्स पायी जाती हैं।

डी०एन०ए० के जैविक-वृहदाणु (biological macromolecules) जटिल संरचना वाले होते हैं। ये प्रोटीन्स (एन्जाइम) से भी बड़े जैविक गुरुअणु होते हैं। इनका अणुभार 106 से 109 डाल्टन तक होता है। डी०एन०ए० अणु पॉलिन्यूक्लिओटाइड श्रृंखला से बना होता है। डी०एन०ए० से कम अणुभार वाले m-RNA, t-RNA तथा r-RNA का निर्माण होता है। आर०एन०ए० प्रोटीन संश्लेषण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आर०एन०ए० संश्लेषण हेतु डी०एन०ए० अणु विभिन्न स्थान पर द्विगुणित होकर छोटी-छोटी अनुपूरक श्रृंखलाएँ अर्थात् राइबोन्यूक्लिओटाइड अम्ल का एक छोटा अणु बनाती हैं। इन्हें प्रवेशक (primers) कहते हैं। आर०एन०ए०:प्रवेशकों के संश्लेषण का उत्प्रेरण आर०एन०ए० पॉलिमरेज (RNA polymerase) एन्जाइम करत है। आर०एन०ए० अणु प्रोटीन संश्लेषण के काम आते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि डी०एन०ए० अणु प्रोटीन्स (एन्जाइम्स) से भी बड़े अणु होते हैं।

प्रश्न 4.
मानव की एक कोशिका में DNA की मोलर सान्द्रता क्या होगी? अपने अध्यापक से परामर्श लीजिये।
उत्तर
मानव में DNA 3 M प्रति कोशिका होती है अर्थात् मानव की एक कोशिका में DNA की मोलर सांद्रता 3 होगी।

प्रश्न 5.
क्या सुकेंद्रकी कोशिकाओं में प्रतिबंधन एंडोन्यूक्लिएज मिलते हैं? अपना उत्तर सही सिद्ध कीजिये।
उत्तर
हाँ, सुकेंद्रकी कोशिकाओं में प्रतिबंधन एंडोन्यूक्लिएज मिलते हैं।
प्रतिबंधन एंडोन्यूक्लिएज DNA अनुक्रम की लम्बाई के निरीक्षण के बाद कार्य करता है। जब यह अपना विशिष्ट पहचान अनुक्रम पा जाता है तब DNA से जुड़ता है तथा द्विकुंडलिनी की दोनों लड़ियों को शर्करा-फॉस्फेट आधार स्तंभों में विशिष्ट केन्द्रों पर काटता है। प्रत्येक प्रतिबंधन एंडोन्यूक्लिएज DNA में विशिष्ट पैसिंड्रोमिक न्यूक्लियोटाइड अनुक्रमों को पहचानता है।

प्रश्न 6.
अच्छी हवा व मिश्रण विशेषता के अतिरिक्त कौन-सी अन्य कंपन फ्लास्क सुविधाएँ हैं?
उत्तर
कंपन फ्लास्क द्वितीयक चुनाव के समय किण्वन के लिये परम्परागत विधि है। इसलिये दंड विलोडक हौज बायोरिएक्टर द्वारा उत्पादों को अधिक आयतन तक संवर्धित किया जा सकता है। यह मात्रा 100 लीटर से 1000 लीटर तक हो सकती है। वांछित उत्पादन पाने के लिये जीव-प्रतिकारक अनुकूलतम परिस्थितियाँ, जैसे- तापमान, pH, क्रियाधार, विटामिन, लवण, ऑक्सीजन आदि उपलब्ध कराता है। इस बायोरिएक्टर में अच्छी हवा व मिश्रण की विशेषता के अतिरिक्त यह कम खर्चीला है तथा इसमें ऑक्सीजन स्थानान्तरण की दर बहुत अधिक होती है।

प्रश्न 7.
शिक्षक से परामर्श कर पाँच पैलिंड्रोमिक अनुप्रयास करें तथा क्षारक-युग्म नियमों का पालन करते हुये पैलिंड्रोमिक अनुक्रम बनाने के उदाहरण का पता लगाइये।
उत्तर
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प्रश्न 8.
अर्द्धसूत्री विभाजन को ध्यान में रखते हुए क्या बता सकते हैं कि पुनर्योगज डी०एन०ए० किस अवस्था में बनते हैं?
उत्तर
अर्द्धसूत्री विभाजन में गुणसूत्रों की संख्या घटकर आधी रह जाती है। प्रथम अर्द्धसूत्री विभाजन में प्रत्येक जोड़ी के समजात गुणसूत्रों के मध्य एक या अनेक खण्डों की अदला-बदली अर्थात् पारगमन (crossing over) होता है।

प्रथम अर्द्धसूत्री विभाजन की प्रथम पूर्वावस्था (Ist prophase) की उपअवस्था जाइगोटीन (zygotene) में समजात गुणसूत्र जोड़े बनाते हैं। इस प्रक्रिया को सूत्रयुग्मन (synapsis) कहते हैं। पैकिटीन (pachytene) उपअवस्था में सूत्रयुग्मक सम्मिश्र (synaptonemal complex) में एक या अधिक स्थानों पर गोल सूक्ष्म घुण्डियाँ दिखाई देने लगती हैं, इन्हें पुनर्संयोजन घुण्डियाँ (recombination nodules) कहते हैं।

समजात गुणसूत्रों के परस्पर जुड़े क्रोमैटिड्स (chromatids) के मध्य एक या अधिक खण्डों की पारस्परिक अदला-बदली को पारगमन कहते हैं। इससे समजात पुनसँयोजित डी०एन०ए० (recombinant DNA) बन जाता है। पुनर्संयोजन घुण्डियाँ उन स्थानों पर बनती हैं जहाँ पर पारगमन हेतु क्रोमैटिड्स के टुकड़े टूटकर पुनः जुड़ते हैं।

प्रश्न 9.
क्या आप बता सकते हैं कि प्रतिवेदक (रिपोर्टर) एंजाइम को वरणयोग्य चिह्न की उपस्थिति में बाहरी DNA को परपोषी कोशिकाओं में स्थानान्तरण के लिये मॉनीटर करने के लिये किस प्रकार उपयोग में लाया जा सकता है?
उत्तर
प्रतिकृतियन की उत्पत्ति वह अनुक्रम है जहाँ से प्रप्तिकृतियन की शुरूआत होती है और जब किसी DNA का कोई खंड इस अनुक्रम से जुड़ जाता है तब परपोषी कोशिकाओं के अन्दर प्रतिकृति कर सकता है। यह अनुक्रम जोड़े गये DNA के प्रतिरूपों की संख्या के नियन्त्रण के लिये भी उत्तरदायी है। ‘ori’ के साथ संवाहक को वरणयोग्य चिह्न की आवश्यकता भी होती है, जो अरूपांतरणों की पहचान एवं उन्हें समाप्त करने में सहायक हो और रूपांतरणों की चयनात्मक वृद्धि को होने दे। रूपांतरण एक प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत DNA के एक खंड को परपोषी जीवाणु में प्रवेश कराते हैं।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित का संक्षिप्त वर्णन कीजिये –

  1. प्रतिकृतियन का उद्भव
  2. बायोरिएक्टर (2017)
  3. अनुप्रवाह संसाधन

उत्तर
1. प्रतिकृतियन का उद्भव – यह वह अनुक्रम है जहाँ से प्रतिकृतियन की शुरूआत होती है। जब बाहरी DNA का कोई खंड इस अनुक्रम से जुड़ जाता है तब प्रतिकृति कर सकता है। एक प्रोकैरियोटिक DNA में सामान्यतया एक प्रतिकृतियन स्थल होता है जबकि यूकैरियोटिक DNA में एक से अधिक प्रतिकृतियन स्थल होते हैं।

2. बायोरिएक्टर – बायोरिएक्टर एक बर्तन के समान है, जिसमें सूक्ष्मजीवों, पौधों, जन्तुओं एवं मानव कोशिकाओं का उपयोग करते हुये कच्चे माल को जैव रूप से विशिष्ट उत्पादों व्यष्टि एंजाइम आदि में परिवर्तित किया जाता है। वांछित उत्पाद पाने के लिये जीव-प्रतिकारक अनुकूलतम परिस्थितियाँ, जैसे-तापमान, pH, क्रियाधार, विटामिन, लवण, ऑक्सीजन आदि उपलब्ध कराता है।

सामान्यतया सर्वाधिक उपयोग में लाया जाने वाला बायोरिएक्टर विडोलन (स्टिरिंग) प्रकार का है। विडोलित हौज रिएक्टर सामान्यतया बेलनाकार होते हैं या इसमें घुमावदार आधार होता है। जिससे रिएक्टर के अंदर की सामग्री को मिश्रण में सहायता मिलती है। विडोलक प्रतिकारक के अंदर की सामग्री को मिश्रित करने के साथ-साथ प्रतिकारक में सभी जगह ऑक्सीजन की उपलब्धता भी कराते हैं। प्रत्येक जीव-प्रतिकारक रिएक्टर में एक प्रक्षोभक यन्त्र होता है। इसके अतिरिक्त उसमें ऑक्सीजन-प्रदाय यंत्र, झाग- नियन्त्रण यन्त्र, तापक्रम नियन्त्रण यन्त्र, pH होता है। प्रतिक्रिया नियन्त्रण तंत्र तथा प्रतिचयन द्वारा होता है जिससे समय-समय पर संवर्धित उत्पाद की थोड़ी मात्रा निकाली जा सकती है।

3. अनुप्रवाह संसाधन – जैव प्रौद्योगिकी द्वारा तैयार उत्पाद को बाजार में भेजने से पूर्व उसे कई प्रक्रमों से गुजारा जाता है। इन प्रक्रमों में पृथक्करण एवं शोधन सम्मिलित है और इसे सामूहिक रूप से अनुप्रवाह संसाधन कहते हैं। उत्पाद को उचित परिरक्षक के साथ संरूपित किया जाता है। औषधि के मामले में ऐसे संरूपण को चिकित्सीय परीक्षण से गुजारते हैं। प्रत्येक उत्पाद के लिये सुनिश्चित गुणवत्ता नियन्त्रण परीक्षण की भी आवश्यकता होती है। अनुप्रवाह संसाधन एवं गुणवत्ता नियन्त्रक परीक्षण अलग-अलग उत्पाद के लिये भिन्न-भिन्न होता है।

प्रश्न 11.
संक्षेप में बताइये –
(क) PCR
(ख) प्रतिबंधन एंजाइम और DNA
(ग) काइटिनेज
उत्तर
(क) PCR (Polymerase Chain Reaction) – PCR का अर्थ पॉलीमरेज चेन रिऐक्शन (पॉलीमरेज श्रृंखला अभिक्रिया) है। इस विधि द्वारा कम समय में जीन की कई प्रतिकृतियों का संश्लेषण किया जाता है। इस कार्य के लिये एक विशेष उपकरण थर्मल साइक्लर का उपयोग किया जाता है।
PCR चक्र में मुख्य रूप से तीन चरण होते हैं –

  1. निष्क्रियकरण,
  2. तापानुशीलन तथा
  3. विस्तार।

निष्क्रियकरण में DNA को 92°C पर 1 मिनट तक थर्मल साइक्लर में गर्म किया जाता है जिससे उसके दोनों स्टैंड अलग हो जाते हैं। तापानुशीलन में अभिक्रिया मिश्रण के तापक्रम को घटाया जाता है। यह सामान्यतया 48°C रहता है। इसे इस तापक्रम पर भी 1 मिनट के लिये रखा जाता है। इसके बाद विस्तार किया जाता है जो 27°C पर 1 मिनट के लिये होता है। इस चक्र को 34 – 37 बार दुहराया जाता है। इस प्रक्रम द्वारा DNA खंड को एक अरब गुणा तक प्रवर्धित किया जा सकता है।

पॉलिमरेज श्रृंखला अभिक्रया में DNA खंड के अतिरिक्त उपक्रमकों, एंजाइम टैंक, DNA पॉलीमरेज, मैग्नीशियम क्लोराइड, डाइमेथाइल सल्फॉक्साइड की आवश्यकता पड़ती है। उपक्रमकों (प्राइमर्स) को दो समुच्चयों की आवश्यकता पड़ती है – एक 5′ से 3′ की ओर जाने के लिये तथा एक 3′ व 5′ की ओर जाने के लिए। प्राइमर्स छोटे रासायनिक संश्लेषित अल्प न्यूक्लियोटाइड हैं जो DNA क्षेत्र के पूरक होते हैं।
PCR के उपयोग इस प्रकार हैं:

  1. रोगाणुओं की पहचान में
  2. विशिष्ट उत्परिवर्तन को पहचानने में
  3. DNA फिंगर प्रिटिंग में
  4. पादप रोगाणुओं का पता लगाने में
  5. विलुप्त जीवों तथा मनुष्यों के ममी अवशेष से DNA खंड के क्लोनिंग में।

(ख) प्रतिबंधन एंजाइम और DNA – प्रतिबंधन एंजाइम को ‘आणविक कैंची’ कहा जाता है। वह एंजाइम जो DNA को काटता है प्रतिबंधन एंडोन्यूक्लिएज कहलाता है। अभी तक 900 से अधिक प्रतिबंधन एंजाइमों की खोज हो चुकी है। ये जीवाणुओं के 230 से अधिक प्रभेदों से अलग किये गये हैं। इनमें से प्रत्येक प्रतिबंधन एंजाइम विभिन्न अनुक्रमों को पहचानते हैं।

प्रतिबंधन एंजाइम डबल स्टेंडेड DNA को खंडित करता है। ये एंजाइम DNA को एक विशेष स्थल पर काटता है; जैसे- एंजाइम ECORI प्लाज्मिड अनुक्रम GAATTC को G और A के मध्य काटता है। प्रतिबंधन एंजाइम के नामकरण में परम्परानुसार नाम का पहला शब्द वंश एवं दूसरा और तीसरा शब्द प्रकेन्द्रकी कोशिकाओं की जाति से लिया गया है जिनसे ये पृथक् किये गये थे। जैसे ECORI को ई० कोलाई RY 13 से प्राप्त किया गया है। ECORI में वर्ण R, RY प्रभेद से लिया गया है।

(ग) काइटिनेज – इस एंजाइम का उपयोग कवक कोशिका को तोड़ने के लिये किया जाता है जिससे DNA के साथ वृहद अणु; जैसे- RNA, प्रोटीन, वसा एवं पॉलिसैकेराइड बाहर निकलते हैं।

प्रश्न 12.
अपने अध्यापक से चर्चा करके पता लगाइये कि निम्नलिखित के बीच कैसे भेद करेंगे?
(क) प्लाज्मिड DNA तथा गुणसूत्रीय DNA
(ख) RNA तथा DNA
(ग) एक्सोन्यूक्लिएज तथा एंडोन्यूक्लिएज
उत्तर
(क) प्लाज्मिड DNA तथा गुणसूत्रीय DNA में अन्तर
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(ख) RNA तथा DNA में अन्तर
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(ग) एक्सोन्यूक्लिएज तथा एंडोन्यूक्लिएज में अन्तर
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परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
जीनी-इन्जीनियरिंग में जैविक कैंची का कार्य करने वाला एन्जाइम है – (2017)
(क) लाइगेज
(ख) न्यूक्लिएज
(ग) पॉलीमरेज
(घ) रिस्ट्रिक्शन एण्डोन्यूक्लिएज
उत्तर
(घ) रिस्ट्रिक्शन एण्डोन्यूक्लिएज

प्रश्न 2.
डी०एन०ए० खण्डों की पहचान करते हैं – (2017)
(क) नॉर्दर्न ब्लोटिंग से
(ख) सदर्न ब्लोटिंग से
(ग) वेस्टर्न ब्लोटिंग से
(घ) इन सभी से
उत्तर
(ख) सदर्न ब्लोटिंग से

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
आनुवंशिक इंजीनियरिंग में प्रयुक्त होने वाला सबसे सामान्य बैक्टीरिया कौन-सा है?
उत्तर
ई० कोलाई।

प्रश्न 2.
आनुवंशिकी अभियांत्रिकी में उपयोगी किन्हीं दो एन्जाइमों के नाम तथा कार्य लिखिए। (2017)
उत्तर

  1. प्रतिबंधन एण्डोन्यूक्लिएज एंजाइम (Restriction Endonuclease Enzyme) – यह DNA के भीतर विशिष्ट स्थलों पर ही DNA को काटता है।
  2. DNA लाड़गेजिज (DNA Ligases) – यह एंजाइम DNA के खुले सिरों को जोड़ता है।

प्रश्न 3.
आण्विक कैंचियाँ क्या हैं? इसकी परिभाषा दीजिए। (2017)
उत्तर
प्रतिबन्धन एण्डोन्यूक्लिएज एन्जाइम को आण्विक कैंची कहते हैं। यह DNA को खंडों में काटता है।

प्रश्न 4.
एण्डोन्यूक्लिएज का क्या कार्य है?
उत्तर
एण्डोन्यूक्लिएज DNA को भीतर से विशिष्ट स्थलों पर काटते हैं।

प्रश्न 5.
प्रतिबन्धन एण्डोन्यूक्लिएज कब कार्य करता है?
उत्तर
प्रत्येक प्रतिबन्धन एण्डोन्यूक्लिएज DNA अनुक्रम की लम्बाई के निरीक्षण के बाद कार्य करता है।

प्रश्न 6.
DNA के खंडों को आपस में किस एन्जाइम से जोड़ा जाता है?
उत्तर
लाइगेज।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्लाज्मिड्स क्या होते हैं। प्राणियों के जीवन में इनकी उपयोगिता का वर्णन कीजिए। (2009)
या
प्लाज्मिड्स के चार प्रमुख गुण लिखिए। (2010)
या
प्लाज्मिड्स कहाँ पाये जाते हैं? इनका उपयोग क्या और कहाँ होता है? (2011, 16, 17)
या
प्लाज्मिड्स क्या हैं और ये कहाँ पाये जाते हैं? (2015, 17)
या
प्लाज्मिड पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2018)
उत्तर
प्लाज्मिड्स
प्लाज्मिड्स (plasmids) जीवाणु कोशिका में प्राकृतिक रूप से पाये जाते हैं। यह एक दोहरे स्टैण्ड वाला DNA अणु है जो केन्द्रकाभ (nucleoid) के बाहर स्थित होता है। प्लाज्मिड्स की प्रतिकृति स्वतन्त्र होती है। जीवाणु प्लाज्मिड में केवल कुछ ही जीन होते हैं जो कई बार लैंगिक जनन से सम्बन्धित होते हैं। इन जीनों की जीवाणु कोशिका की अन्य जैव प्रक्रियाओं में कोई भूमिका नहीं होती है। इनमें उपस्थित जीन्स, प्रतिरोधी पदार्थों के निर्माण, किण्वन आदि क्रियाओं का नियमन भी करते हैं। स्वनियन्त्रित प्रतिकृति गुण होने के कारण निम्न दो प्रकार के प्लाज्मिड्स ज्ञात हैं –

1. एकल प्रतिलिपि प्लामिडस (Single Copy Plasmids) – ये प्लाज्मिड्स प्रतिकृति करके केवल एक ही प्रतिलिपि (copy) बनाते हैं।

2. बहुप्रतिलिपि प्लाज्मिड्स (Multicopy Plasmids) – ये प्लाज्मिड्स प्रतिकृति करके एक से अधिक प्रतिलिपियाँ बनाते हैं। इस प्रकार की एक जीवाणु कोशिका में परिणामस्वरूप 10 – 12 प्लाज्मिड्स पाये जा सकते हैं (कभी-कभी इनकी संख्या 1000 तक भी होती है)। ऐसे प्लाज्मिड्स का उपयोग क्लोनिंग साधन के रूप में किया जाता है।

प्लाज्मिड की एक विशेषता है कि इसका डी०एन०ए० विजातीय डी०एन०ए० खण्ड से जुड़कर भी दूसरी कोशिका में प्रवेश करने की क्षमता बनाये रखता है। ऐसे प्लाज्मिड्स ही वेक्टर के रूप में प्रयुक्त होते हैं। सबसे पहला आनुवंशिक इंजीनियरिंग से तैयार किया गया वेक्टर प्लाज्मिड PBR322 था जिसे ई० कोलाई के COIE प्लाज्मिड से तैयार किया गया था। दूसरी ओर प्लाज्मिड्स जीवाणु कोशिकाद्रव्य में मुक्त रूप से पाये जाते हैं। इन्हें सहज ही यहाँ से पृथक् किया जा सकता है।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जीनी अभियान्त्रिकी (प्रौद्योगिकी) क्या है? मनुष्य के लिए लाभदायक विभिन्न क्षेत्रों में इसके अनुप्रयोगों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए। (2018)
या
जीनी अभियान्त्रिकी क्या होती है? इसे पुनर्संयोजी डी०एन०ए० प्रौद्योगिकी क्यों कहते हैं? मानव हित में इसकी उपयोगिता का उल्लेख कीजिए। (2009, 12, 13, 15)
या
जेनेटिक इंजीनियरिंग की प्रयोज्यता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2010)
या
जैव प्रौद्योगिकी से आप क्या समझते हैं? (2014)
या
आनुवंशिक अभियान्त्रिकी के मानव हित में चार अनुप्रयोग लिखिए। (2014, 16)
या
जैव प्रौद्योगिकी की उपयोगिता पर टिप्पणी लिखिए। (2013)
या
जैव प्रौद्योगिकी के किन्हीं दो उपयोगों का उल्लेख कीजिए। (2014)
या
आनुवंशिक अभियान्त्रिकी से आप क्या समझते हैं? चिकित्सा अथवा कृषि-क्षेत्र में आनुवंशिक अभियान्त्रिकी की उपयोगिताएँ लिखिए। (2015)
या
जैव प्रौद्योगिकी के बारे में आप क्या जानते हैं? जैव प्रौद्योगिकी के मानव स्वास्थ्य के क्षेत्र में दो उपयोग बताइए। (2015, 17)
या
आनुवंशिक इन्जीनियरिंग क्या है? इसका कोई एक उपयोग लिखिए। (2017)
उत्तर
आनुवंशिक इंजीनियरी या जीनी अभियान्त्रिकी/प्रौद्योगिकी
आनुवंशिक अभियान्त्रिकी या जेनेटिक इन्जीनियरिंग या जीन अभियान्त्रिकी को जीन क्लोनिंग (gene cloning) भी कहते हैं। जीवों में समलक्षणी गुणों (phenotypic characters) में परिवर्तन हेतु आनुवंशिक पदार्थ (genetic material) को जोड़ना (adding), हटाना (removing) या ठीक करना (repairing) आनुवंशिक इंजीनियरी का उद्देश्य है। क्योंकि DNA अणुओं में जोड़-तोड़ जीनी अभियान्त्रिकी को आधार होता है, इसे पुनर्संयोजी डी०एन०ए० प्रौद्योगिकी भी कहते हैं।

जीन अभियान्त्रिकी में आनुवंशिक पदार्थ का हेर-फेर (manipulation) पूर्व निर्धारित लक्ष्य की ओर निर्देशित किया जाता है। अर्थात् जीवों के आनुवंशिक पदार्थ (DNA) में जोड़-तोड़ करके उनके दोषपूर्ण आनुवंशिक लक्षणों के जीन्स को हटाकर, उनके स्थान पर DNA में उत्कृष्ट लक्षणों के जीन्स को समाविष्ट करना ही जीनी अभियान्त्रिकी (genetic engineering) है।

इस तकनीक में दो DNA अणुओं को सर्वप्रथम कोशिका केन्द्रक से पृथक् किया जाता है और एक या अधिक प्रकार के विशेष एन्जाइम, रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम (restriction enzyme) के द्वारा उनके टुकड़े किये जाते हैं। इसके बाद इन टुकड़ों को इच्छानुसार जोड़कर कोशिका में पुनरावृत्ति व जनन के लिए पुनः स्थापित कर दिया जाता है। संक्षेप में जीन क्लोनिंग या आनुवंशिक इन्जीनियरिंग विदेशी (foreign) DNA के एक विशिष्ट टुकड़े को कोशिका में स्थापित करना होता है।

आर्बर (Arber, 1962) ने बैक्टीरिया कोशिकाओं में रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम (restriction enzyme) नामक ऐसे पदार्थ की उपस्थिति की जानकारी प्राप्त की जो किसी भी बाह्य डी०एन०ए० को विशिष्ट टुकड़ों में तोड़ने के लिए एक तीव्र रसायन का कार्य करता है। यह न्यूक्लिक अम्ल की फॉस्फेट-शर्करा बन्धता को तोड़ता है। किसी बैक्टीरिया पर जब कोई विषाणु आक्रमण करता है तब यह प्रक्रिया उसमें रक्षास्थल का कार्य करती है। स्मिथ (Smith, 1970) ने ग्राम ऋणात्मक बैक्टीरिया हीमोफिलस इन्फ्लुएन्जी (Hemophilus influenzae) से रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम विलगित किया और सन् 1971 में नैथन्स ने बन्दर के ट्यूमर विषाणु (एसवी 40) के DNA को तोड़ने के लिए एक एन्जाइम का उपयोग किया।

सन् 1978 तक लगभग 100 से भी अधिक विभिन्न प्रकार के रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम या निर्बन्धन एण्डोन्यूक्लिएज (restriction endonuclease) विलगित करके लक्षणित किये जा चुके थे। इस प्रकार इसकी खोज सन् 1970 में आर्बर, नैथन्स एवं स्मिथ (Arber, Nathans and Smith) ने की। इसके लिए उन्हें वर्ष 1978 ई० में नोबेल पुरस्कार भी मिला। इसी से जीन अभियान्त्रिकी की नींव पड़ी।

जीनी अभियान्त्रिकी के विभिन्न उपयोग
आनुवंशिक इंजीनियरिंग का प्रयोग व्यावसायिक उत्पादनों, अनेक मानव जीन्स की खोज, रोगों के कारण व उनके इलाज की सहायता में हो रहा है। हम जीन्स के नियन्त्रण में संश्लेषित होने वाले अनेक लाभदायक पदार्थों का औद्योगिक स्तर पर उत्पादन कर सकते हैं। इस प्रौद्योगिकी के महत्त्वपूर्ण प्रयोज्य इस प्रकार हैं –

1. जीन्स का निर्माण – किसी विशेष कोशिका से m-RNA अणु को अलग करके प्रतिवर्ती ट्रांस्क्रिप्टेज (reverse transcriptase) एन्जाइम की सहायता से इस पर DNA श्रृंखला का संश्लेषण कराया जा सकता है।

2. जीन का विश्लेषण तथा संग्रह – DNA अणुओं को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़कर उनका संग्रह करके किसी भी जीव के सम्पूर्ण जीनोम का विश्लेषण किया जा सकता है। इसे “जीनी संग्रह के रूप में रिकॉर्ड किया जा सकता है। संग्रह की इस विधि को “शॉटगन विधि (shotgun method)’ कहते हैं।

3. जीन्स को प्रतिस्थापन – जीनी चिकित्सा (gene therapy) से अवांछित जीन्स को हटाया जा सकता है और इसके स्थान पर नये वांछित जीन्स को प्रवेश कराया जा सकता है। इस प्रकार
व्यक्ति की लम्बाई, बुद्धि, ताकत आदि को नियन्त्रित किया जा सकता है।

4. रोगजनक विषाणुओं का रूपान्तरण – रोगजनक विषाणुओं के आनुवंशिक पदार्थ में परिवर्तन करके कैंसर, एड्स (AIDS) आदि रोगों के विषाणुओं को रोगजनक के बजाय इन्हीं रोगों के
उपचार में प्रयोग किया जा सकता है।

5. विषाणु प्रतिरोधी मुर्गियाँ – जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा मुर्गियों की ऐसी प्रजातियों का विकास किया गया है जो विषाणुओं के संक्रमण का प्रतिरोध करती हैं।

6. व्यक्तिगत जीन्स को अलग करना – कुछ जीन्स को अलग करने की तकनीक विकसित की गयी, जो निम्नलिखित समूहों में वर्गीकृत की जा सकती हैं –

  1. विशेष प्रकार की प्रोटीन बनाने वाली जीन,
  2. r-RNA की जीन्स तथा
  3. नियन्त्रण करने वाली जीन्स; जैसे- प्रोमोटर जीन तथा रेगुलेटरी जीन। चूजों में ओवोएल्ब्यूमिन की जीन, चूहों में ग्लोबिन तथा इम्यूनोग्लोबिन जीन्स, अनाजों व लेग्यूम्स में प्रोटीन संग्रह की जीन्स आदि को पृथक् किया जा चुका है।

7. समुद्री तेल फैलाव का सफाया – इसमें पहले एक प्लाज्मिड में कई जीन्स को जोड़कर एक पुनसँयोजित DNA बनाया जाता है और इसका पुंजकीकरण करके एक समुद्री जीवाणु में प्रवेश कराया जाता है। यह जीवाणु समुद्री सतह पर फैले तेल का सफाया कर देता है। इसे उच्चझक्की जीवाणु (superbug bacterium) कहते हैं।

8. पौधों में नाइट्रोजन अनुबन्धन – पुनर्संयोजी DNA प्रौद्योगिकी के द्वारा नाइट्रोजन स्थिरीकरण की क्षमता रखने वाले जीवाणुओं का संवर्द्धन करके इन्हें फलीरहित पादपों में प्रविष्ट कराया जाता है।

9. आनुवंशिक रोगों का पता लगाना – अनेक रोगों का गर्भ में ही एम्निओसेण्टेसिस (amniocentesis) तकनीक द्वारा पता लगाया जाता था, किन्तु DNA पुनर्संयोजन तकनीक द्वारा पुंजकीकृत डी०एन०ए० क्रम (cloned DNA sequence) के उपलब्ध होने से गर्भस्थ शिशु के पूरे जीनोटाइप का निरीक्षण किया जा सकता है। इस विधि के द्वारा बिन्दु उत्परिवर्तन, विलोपन आदि सभी उत्परिवर्तनों का पता लगाया जा सकता है। इस विधि का प्रयोग गर्भस्थ शिशु में थैलेसीमिया, फिनाइलकीटोन्यूरिया आदि रोगों का पता लगाने के लिए किया जा रहा है।

10. औद्योगिक रसायन – पेट्रोल, ईंधन, कीटनाशी, आसंजक (adhesives), प्रणोदक (propellants), विलायक (solvents), रंजक (dyes), विस्फोटक आदि कई प्रकार के पदार्थ हमें खनिज तेल पदार्थों से प्राप्त होते हैं। इन्हें हम जीनी अभियान्त्रिकी द्वारा रूपान्तरित जीवाणुओं की सहायता से पादपों के किण्वन से प्राप्त कर सकते हैं।

11. इस तकनीक के द्वारा इन्सुलिन तथा मानव वृद्धि हॉर्मोन का उत्पादन किया जा रहा है।

12. इस तकनीक द्वारा मानव इण्टरफेरॉन (interferon) (ल्यूकोसाइटिक इण्टरफेरॉन, फाइब्रोब्लास्टिक इण्टरफेरॉन, प्रतिरक्षक इण्टरफेरॉन) का उत्पादन किया जा रहा है।

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