UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 6 Indian Educationist: Pt Madan Mohan Malaviya

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 6 Indian Educationist: Pt Madan Mohan Malaviya (भारतीय शिक्षाशास्त्री-पण्डित मदन मोहन मालवीय) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 6 Indian Educationist: Pt Madan Mohan Malaviya (भारतीय शिक्षाशास्त्री-पण्डित मदन मोहन मालवीय).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 6
Chapter Name Indian Educationist: Pt Madan Mohan Malaviya (भारतीय शिक्षाशास्त्री-पण्डित मदन मोहन मालवीय)
Number of Questions Solved 26
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter  Chapter 6 Indian Educationist: Pt Madan Mohan Malaviya (भारतीय शिक्षाशास्त्री-पण्डित मदन मोहन मालवीय)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पण्डित मदनमोहन मालवीय जी के अनुसार शिक्षा के अर्थ, उद्देश्यों तथा विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
या
पण्डित मदनमोहन मालवीय के शैक्षिक विचारों का वर्णन कीजिए।
या
पण्डित मदन मोहन मालवीय के अनुसार शिक्षा के उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
मालवीय के शैक्षिक विचार
मालवीय जी मुख्यत: एक शिक्षाशास्त्री नहीं थे और न ही उन्होंने किसी पुस्तक में अपने शैक्षिक विचार व्यक्त किए थे। मालवीय जी का कहना था कि मैं कोई शिक्षाशास्त्री नहीं हूं, लेकिन जब हम उनके कार्यों पर दृष्टिपात करते हैं तो उन्हें किसी भी शिक्षाशास्त्री से कम नहीं पाते हैं। अधिकांश शिक्षाशास्त्री तो अपने सिद्धान्तों और सैद्धान्तिक योजनाओं के कारण विख्यात होते हैं, किन्तु मालवीय जी से हमें सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार के शैक्षिक योगदान प्राप्त हुए हैं। उनकी शैक्षिक विचारधारा उनके भाषणों और लेखों से स्पष्ट होती है। संक्षेप में उनके शैक्षिक विचारों का विवेचन निम्नवत् रूप में किया जा सकता है

1. शिक्षा का अर्थ
मालवीय जी के शब्दों में, “शिक्षा का तात्पर्य व्यक्ति में शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं धार्मिक संस्कारों का विकास करना है।”
एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है-“शिक्षा से मेरा अभिप्राय विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा से है।” यद्यपि यह शिक्षा को संकुचित अर्थ है, किन्तु वे इसी संकुचित अर्थ वाली शिक्षा को समुचित उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन बनाकर शिक्षा को विस्तृत अर्थ प्रदान करना चाहते थे। इस प्रकार मालवीय जी के अनुसार, “शिक्षा का तात्पर्य उस प्रक्रिया से है, जिसमें बालक या व्यक्ति के सर्वांगीण विकास को दृष्टि में रखते हुए उनमें शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं धार्मिक संस्कारों का विकास किया जाता है।” हम कह सकते हैं कि मालवीय जी संस्थागत शिक्षा को अधिक महत्त्व देते थे। वास्तव में देश की तत्कालीन परिस्थितियों में शिक्षा के इसी स्वरूप की अधिक आवश्यकता थी।

2. शिक्षा के उद्देश्य
मालवीय जी ने शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताए थे-

  1. चारित्रिक एवं नैतिक विकास करना,
  2. धार्मिक विकास करना
  3. शारीरिक विकास करना
  4. जीविकोपार्जन हेतु तैयार करना
  5. मानसिक विकास करना
  6. सामाजिक भावना का विकास करना
  7. नैतिक भावना का विकास करना
  8. सन्देशात्मक विकास करना
  9. आध्यात्मिक विकास करना।

मालवीय जी ने उच्च शिक्षा के लिए कुछ विशेष उद्देश्य निर्धारित किए थे, जो कि निम्नलिखित हैं

  1. सांस्कृतिक उद्देश्य।
  2. कला और विज्ञान में शोध कार्य को प्रोत्साहन देना।
  3. भारतीय कला-कौशल का पुनरुत्थान करना।

3. शिक्षा के विभिन्न प्रकार या रूप
मालवीय जी विश्वविद्यालयों में विभिन्न प्रकार की शिक्षा देने के पक्ष में थे। शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों के विषय में उनके विचार निम्नलिखित थे

1. विज्ञान और कौशल की शिक्षा-आधुनिक युग की वैज्ञानिक प्रगति को ध्यान में रखते हुए मालवीय जी भारत में विभिन्न विज्ञानों की शिक्षा को आवश्यक समझते थे। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने इस बात पर बल दिया कि विद्यालयों में चिकित्साशास्त्र, शरीर विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, ज्योतिष विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायनशास्त्र, गणिते आदि वैज्ञानिक विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने अन्वेषण एवं प्रयोगात्मक कार्य पर भी विशेष बल दिया। उनका विचार था कि देश की बेकारी और औद्योगिक अवनति को दूर करने के लिए तकनीकी का भी विकास करना चाहिए।

2. कृषि शिक्षा-भारत एक कृषि प्रधान देश है। देश की अधिकांश जनता कृषि-कार्य में लगी हुई है। इसलिए कृषि के विकास पर ही भारत की उन्नति निर्भर है। मालवीय जी का कहना था कि विद्यालयों में कृषि की शिक्षा व्यवस्थित रूप से दी जानी चाहिए, जिससे लोगों को नए-नए कृषि-यन्त्रों, साधनों, बीजों और विधियों की निरन्तर जानकारी प्राप्त होती रहे। साथ ही भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल नई-नई खोजें भी की जा सकें। उन्होंने कृषि के प्रयोगात्मक रूप पर भी अत्यधिक बल दिया।

3. चरित्र-निर्माण की शिक्षा-मालवीय जी का विचार था कि विद्यालयों में ऐसी शिक्षा दी जाती चाहिए जिससे विद्यार्थियों के चरित्र का विकास हो सके और उन्हें उचित-अनुचित का ज्ञान हो जाए। उनको कहना था कि चरित्र को ऊँचा उठाने से व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास सम्भव है और जीवन सुखमय बन सकता है।

4. संगीत एवं ललित कलाओं की शिक्षा-मालवीय जी को विचार था कि विद्यार्थियों में सौन्दर्यानुभूति का विकास करने के लिए और सुखमय राष्ट्रीय जीवन व्यतीत करने के लिए विद्यालयों में संगीत एवं ललित कलाओं—चित्रकला, वास्तुकला, अभिनय कला आदि को पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बना देना चाहिए। इससे जीवन में सरलता आती है और राष्ट्रीय संगीत का पुनर्निर्माण और विकास सम्भव

5. प्राइमरी और अन्य स्तर की शिक्षा-मालवीय जी तत्कालीन प्राथमिक शिक्षा के स्तर से बहुत असन्तुष्ट थे। इसलिए उन्होंने इसमें सुधार करने के लिए सुझाव दिया।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मालवीय जी के जीवन-वृत्त का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
पण्डित मदनमोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर, 1861 ई० को इलाहाबाद में हुआ था। उन्होंने सन् 1884 ई० में बी० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। वे कुछ समय तक दैनिक हिन्दी पत्र ‘हिन्दुस्तान के सम्पादक रहे। उन्होंने स्वयं ‘अभ्युदय नामक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ करवाया था। मालवीय जी का जीवन सरलता तथा पवित्रता का आदर्श जीवन था। वे एक महान् वक्ता थे। उनका हिन्दी, संस्कृत तथा अंग्रेजी तीनों भाषाओं पर असाधारण अधिकार था। मालवीय जी ने अखिल भारतीय कांग्रेस के 1909 ई० के लाहौर और 1918 ई० के दिल्ली अधिवेशन की अध्यक्षता की थी। सन् 1902 ई० में इनका चुनाव प्रान्तीय विधान परिषद् के लिए हुआ। सन् 1910 ई० में वे इम्पीरियल लेजिस्लेंटिव कौंसिल के सदस्य चुन लिए गए और सन् 1920 ई० तक सदस्य रहे।

सन् 1919 ई० में इन्होंने रौलेट ऐक्ट के विरोध में जोरदार ऐतिहासिक भाषण दिया था। सन् 1924 ई० में मालवीय जी भारतीय विधानसभा के सदस्य चुने गए तथा सन् 1927 ई० में वे राष्ट्रीय दल के असेम्बली में नेता रहे। सन् 1931 ई० में मालवीय जी द्वितीय गोलमेज परिषद् की बैठक में भाग लेने के लिए लन्दन गए। सन् 1932 ई० में उन्होंने अखिल भारतीय एकता सम्मेलन का सभापतित्व ग्रहण किया। मालवीय जी हिन्दुत्व के पोषक थे। सनातन धर्म महासभा के वे प्राण समझे जाते थे। इन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना करके अपना नाम अमर कर लिया। 12 नवम्बर, 1946 ई० को इस महान् राजनीतिज्ञ, देशभक्त, समाजोद्धारक तथा शिक्षाशास्त्री ने अपने नश्वर शरीर को त्याग दिया।

प्रश्न 2
शिक्षा के पाठ्यक्रम के विषय में मालवीय जी के विचार प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
मालवीय जी का मत था कि पाठ्यक्रम का आधार व्यक्ति, समाज एवं देश की आवश्यकता, संस्कृति एवं जीवन दर्शन होना चाहिए, इसलिए उन्होंने संस्कृत एवं धर्म की शिक्षा को पाठ्यक्रम का अनिवार्य विषय बनाने पर बल दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने कलात्मक विषयों को भी स्वीकार किया। उनका कहना था कि अंग्रेजी या किसी विदेशी भाषा का अध्ययन तभी करना चाहिए जब कि उससे भारतीय साहित्य, विज्ञान एवं भाषा के अध्ययन में सहायता मिले। उन्होंने पाठ्यक्रम में कुछ ऐसे विषयों को भी स्थान दिया जिनसे विद्यार्थी अपने जीविकोपार्जन की समस्या हल कर सकें; जैसे-चिकित्सा, कानून, अध्यापन आदि। इसके अतिरिक्त उन्होंने सामाजिक विषयों-इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि को भी पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया। मालवीय जी ने सन् 1904 ई० में व्यावहारिक दृष्टिकोण से शिक्षा के एक व्यापक पाठ्यक्रम की रूपरेखा तैयार की, जिसमें प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक का सम्पूर्ण शिक्षा-पाठ्यक्रम निहित था।

प्रश्न 3
शिक्षण विधियों के विषय में मदन मोहन मालवीय के विचारों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
मालवीय जी ने अपनी कोई शिक्षण विधि नहीं बताई है। उन्होंने केवल अपने लेखों में कुछ ऐसी शिक्षण विधियों की ओर संकेत किया है, जो उच्च स्तर की कक्षाओं के लिए उपयुक्त मानी जा सकती हैं। इन शिक्षण विधियों का विवरण इस प्रकार है|

  1.  व्याख्यान या भाषण विधि-मालवीय जी स्वयं एक कुशल वक्ता थे। इसीलिए शिक्षण विधि के रूप में वे भाषण या व्याख्यान को अधिक महत्त्व देते थे। उन्होंने व्याख्यान विधि को ही उच्च शिक्षा के लिए उपयुक्त माना था।
  2. अभ्यास विधि-मालवीय जी ने शिक्षण प्रक्रिया में अभ्यास को विशेष महत्त्व दिया है। उन्होंने बताया कि विद्यार्थी को निरन्तर अभ्यास करते रहना चाहिए, क्योंकि अभ्यास से ज्ञान पुष्ट होता है।
  3. स्वाध्याय विधि-मालवीय जी ने कहा है कि विद्यालय में प्राप्त की गई शिक्षा पर विद्यार्थियों को घर में चिन्तन-मनन तथा तर्क-वितर्क करना चाहिए। इस प्रकार उन्होंने स्वाध्याय विधि का समर्थन किया।
  4. निरीक्षण विधि-उन्होंने निरीक्षण विधि का समर्थन करते हुए छात्रों द्वारा वास्तविक वस्तुओं के निरीक्षण पर बल दिया है।
  5. प्रयोगशाला विधि-मालवीय जी के अनुसार विद्यार्थियों को प्रायोगिक विषयों का ज्ञान प्रयोगशालाओं में प्रदान करना चाहिए। विज्ञान की शिक्षा में इस विधि का बहुत महत्त्व है।

प्रश्न 4
पण्डित मदन मोहन मालवीय के शैक्षिक योगदान का सविस्तार वर्णन कीजिए।
या
पण्डित मदनमोहन मालवीय की शिक्षा जगत में देन महत्त्वपूर्ण है। सिद्ध कीजिए।
या
“पण्डित मदनमोहन मालवीय का योगदान शिक्षा जगत् में महत्त्वपूर्ण है।” विवेचना कीजिए।
उत्तर
पण्डित मदन मोहन मालवीय का शैक्षिक योगदान निम्न प्रकार है|

  1. हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान-मालवीय जी ने हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान करके भारतीय समाज को अमूल्य योगदान दिया। प्राचीन भारत में शिक्षा पूर्णरूप से धर्म पर आधारित थी और धर्म, जीवन तथा शिक्षा आपस में सम्बद्ध थे। धार्मिक विषयों-वेद, पुराण, स्मृति आदि को पाठ्यक्रम में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। अत: मालवीय ने शिक्षा के क्षेत्र में इस परम्परा की पुनस्र्थापना की।
  2. प्राचीनता तथा नवीनता में समन्वय-मालवीय जी ने शिक्षा के क्षेत्र में समन्वयवादी विचारधारा का समर्थन करके प्राचीन एवं आधुनिक भारतीय एवं पाश्चात्य शिक्षा-प्रणालियों का अद्वितीय समन्वय किया।
  3. प्राचीन साहित्य एवं कलाओं का पुनरुत्थान-मालवीय जी का प्रारम्भिक जीवन धार्मिक वातावरण में व्यतीत हुआ था, इसीलिए उन्होंने अपने जीवन काल में हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान का प्रयत्न किया। उन्होंने अपने शिक्षा सम्बन्धी विचारों में भी धर्म को बहुत अधिक महत्त्व दिया।
  4. राष्ट्रीय शिक्षा की समस्या-मालवीय जी ने राष्ट्रीय शिक्षा की समस्या हल करने के लिए नए प्रकार के विद्यालयों की स्थापना की। वे शिक्षा के कार्य को भारतीय परम्पराओं से सम्बद्ध करना चाहते थे। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने चारों वर्षों (क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र) और स्त्रियों के लिए उच्च-शिक्षा स्तर तक की शिक्षा की समुचित व्यवस्था की।
  5. भाषाओं के समन्वय का प्रयास-मालवीय जी ने भाषाओं के समन्वय के सिद्धान्त को भी समर्थन किया। वे एक ओर तो प्राचीन संस्कृति का ज्ञान कराने के लिए संस्कृत भाषा का अध्ययन आवश्यक समझते थे और दूसरी ओर वर्तमान युग की परिस्थितियों के अनुकूल सफल जीवन व्यतीत करने के लिए मातृभाषा के अध्ययन पर बल देते थे। इसके साथ-ही-साथ उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए अंग्रेजी को भी स्वीकार किया है।
  6. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना-मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना करके अपने आदर्शों, मूल्यों एवं विचारों को साकार रूप प्रदान किया। वास्तव में यह मालवीय जी की कर्तव्यपरायणता, कर्मठता, त्याग, तपस्या तथा देशप्रेम का कीर्ति स्तम्भ है। इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘भारती भवन पुस्तकालय’ तथा ‘हिन्दू हॉस्टल’ स्थापित करके भी शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान प्रदान किया।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
शिक्षा के माध्यम के विषय में मालवीय जी के विचार क्या थे?
या
पण्डित मदन मोहन मालवीय के अनुसार शिक्षा के माध्यम का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
मालवीय जी (हिन्दी, हिन्दू-हिन्दुस्थान के नारे के प्रबल समर्थक थे। यही कारण था कि उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता में पलकर भी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने पर बल दिया। उनका मत था कि देशवासियों को एकता के सूत्र में बाँधने के लिए एक सामान्य भाषा होनी चाहिए और यह भाषा केवल हिन्दी ही हो सकती है, क्योंकि हिन्दी जनजीवन के बोलचाल की भाषा है। इसीलिए उन्होंने कहा कि प्राथमिक से लेकर उच्च स्तर तक हिन्दी को शिक्षा का माध्यम बना देना चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने उच्च शिक्षा स्तर पर अंग्रेजी भाषा को माध्यम बनाने की बात कुछ व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण स्वीकार की थी।

प्रश्न 2
विद्यालय के वातावरण के विषय में मालवीय जी के क्या विचार थे?
उत्तर
मालवीय जी का कहना था कि विद्यालय, शान्त, सुरम्य और पवित्र स्थान पर होना चाहिए, जिससे सामाजिक बुराइयों का प्रभाव विद्यालय पर न पड़ सके। विद्यालय में बालकों को ऐसा वातावरण मिलना चाहिए, जिससे उनमें सामाजिक एवं सांस्कृतिक भावनाओं का विकास हो सके। इसके लिए छात्रों के आपसी सम्बन्ध, छात्रों व अध्यापकों के सम्बन्ध तथा अध्यापकों के पारस्परिक सम्बन्ध अच्छे होने चाहिए।

प्रश्न 3.
मालवीय जी के शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासन सम्बन्धी विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
मालवीय जी शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासन अनिवार्य मानते थे, परन्तु मालवीय जी दमनात्मक अनुशासन तथा बाह्य अनुशासन के विरोधी थे। वे अनुशासन की स्थापना के लिए शारीरिक दण्ड को महत्त्व नहीं देते थे। उनका प्रभावात्मक अनुशासन में दृढ़ विश्वास था। वे विद्यार्थी के लिए ब्रह्मचर्य एवं इन्द्रिय-निग्रह को आवश्यक मानते थे। उनका कहना था कि बालक को मन, वचन और कर्म पर नियन्त्रण रखना चाहिए। इस प्रकार वे आत्मीनुशासन के पक्ष में थे। उनका विचार था कि विद्यालय एवं कक्षा में अनुशासन बनाए रखने में शिक्षक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि शिक्षके स्वयं आदर्श चरित्रवान तथा उत्तम गुणों से युक्त हो तो छात्र उसका अनुकरण करके स्वत: ही अनुशासित रहते हैं।

प्रश्न 4
मालवीय जी के अनुसार अध्यापकों के मुख्य गुण क्या होने चाहिए?
उत्तर
मालवीय जी का मत था कि किसी भी शिक्षण विधि की सफलता इसके अध्यापकों पर निर्भर होती है। अध्यापक को प्रभावशाली, चरित्रवान, उदार, सहिष्णु तथा विद्वान् होना चाहिए। उन्होंने सम्पूर्ण शिक्षण प्रक्रिया में अध्यापक को बहुत महत्वपूर्ण बताया है, क्योंकि अध्यापक भावी नागरिकों का समुचित पथ-पदर्शन करता है। कुशल और प्रभावशाली अध्यापकों पर ही देश की प्रगति निर्भर करती है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पण्डित मदनमोहन मालवीय जी का जन्म कब हुआ था?
उत्तर
पं० मदन मोहन मालवीय जी का जन्म 25 दिसम्बर, सन् 1861 को हुआ था।

प्रश्न 2
मालवीय जी के अनुसार शिक्षा का अर्थ क्या है?
उत्तर
मालवीय जी के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य व्यक्ति में शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं । धार्मिक संस्कारों का विकास करना है।

प्रश्न 3
मालवीय जी के अनुसार शिक्षा के पाठ्यक्रम के निर्धारण का आधार क्या होना चाहिए?
उत्तर
मालवीय जी के अनुसार शिक्षा के पाठ्यक्रम के निर्धारण का आधार व्यक्ति, समाज, देश की आवश्यकता, संस्कृति एवं जीवन-दर्शन होना चाहिए।

प्रश्न 4
मालवीय जी ने शिक्षा के किस स्वरूप को प्राथमिकता प्रदान की थी?
उत्तर
मालवीय जी संस्थागत अर्थात् औपचारिक शिक्षा को प्राथमिकता प्रदान करते थे।

प्रश्न 5
मालवीय जी ने शिक्षा के माध्यम के रूप में किस भाषा को अपनाने का सुझाव दिया था?
उत्तर
मालवीय जी ने शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा तथा हिन्दी भाषा को अपनाने का सुझाव दिया था। उनके अनुसार केवल व्यावहारिक कठिनाइयों की दशा में अंग्रेजी भाषा को अपनाया जा सकता है।

प्रश्न 6
मालवीय जी किस शिक्षण विधि के पक्ष में अधिक थे?
उत्तर
मालवीय जी शिक्षण की व्याख्यान विधि के पक्ष में अधिक थे।

प्रश्न 7
मालवीय जी की अनुशासन सम्बन्धी मान्यता क्या थी?
उत्तर
मालवीय जी आत्मानुशासन तथा प्रभावात्मक अनुशासन के पक्ष में थे। वे दमनात्मक अनुशासन के विरुद्ध थे।

प्रश्न 8
मालवीय जी का मुख्य नारा क्या था?
उत्तर
मालवीय जी का मुख्य नारा था-हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्थान।

प्रश्न 9
पण्डित मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित शैक्षिक संस्था का नाम बताइए।
उत्तर
पं० मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित शैक्षिक संस्था का नाम ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय है।

प्रश्न 10
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. मालवीय जी हिन्दी, संस्कृत तथा अंग्रेजी के अच्छे ज्ञाता थे।
  2. मालवीय जी ने राजनीति में कभी भी भाग नहीं लिया था।
  3. मालवीय जी ने ‘अभ्युदय’ नामक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ करवाया था।
  4. मालवीय जी ने अंग्रेजी भाषा को राजभाषा बनाने का समर्थन किया था।
  5. मालवीय जी धार्मिक शिक्षा के विरोधी थे।
  6. मालवीय जी विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा के समर्थक थे।

उत्तर

  1. सत्य
  2. असत्य
  3. सत्य
  4. असत्य
  5. असत्य
  6. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों के दिए गए विकल्पोंसेसेसही विकल्प का चुनावकीजिए
प्रश्न 1
पं० मदनमोहन मालवीय किस हिन्दी दैनिक पत्र के सम्पादक रहे थे?
(क) अमृत बाजार पत्रिका
(ख) पंजाब केसरी
(ग) हिन्दुस्तान ।
(घ) स्वतन्त्र भारत
उत्तर
(ग) हिन्दुस्तान

प्रश्न 2
“शिक्षा से मेरा अभिप्राय विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा से है।”-यह कथन किसका
(क) लाला लाजपत राय,
(ख) स्वामी दयानन्द
(ग) गोपालकृष्ण गोखले
(घ) मदनमोहन मालवीय
उत्तर
(घ) मदनमोहन मालवीय

प्रश्न 3
मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित संस्था है
(क) बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
(ख) भारती भवन पुस्तकालय
(ग) हिन्दू होस्टल
(घ) ये सभी
उत्तर
(घ) ये सभी

प्रश्न 4
मदनमोहन मालवीय ने किस विश्वविद्यालय की स्थापना की थी?
(क) बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
(ख) काशी विद्यापीठ
(ग) सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय
(घ) विश्वभारती विश्वविद्यालय
उत्तर
(क) बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय

प्रश्न 5
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी
(क) 1916 ई० में
(ख) 1917 ई० में
(ग) 1919 ई० में
(घ) 1933 ई० में
उत्तर
(क) 1916 ई० में

प्रश्न 6
मालवीय जी किस प्रकार की शिक्षा को आवश्यक मानते थे?
(क) विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा
(ख) कृषि-शिक्षा
(ग) ललित कलाओं की शिक्षा
(घ) इन सभी प्रकार की शिक्षा
उत्तर
(घ) इन सभी प्रकार की शिक्षा

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter  6 Indian Educationist: Pt Madan Mohan Malaviya (भारतीय शिक्षाशास्त्री-पण्डित मदन मोहन मालवीय) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 6 Indian Educationist: Pt Madan Mohan Malaviya (भारतीय शिक्षाशास्त्री-पण्डित मदन मोहन मालवीय), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 19 Local Self Government

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 19 Local Self Government (स्थानीय स्वशासन) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 19 Local Self Government (स्थानीय स्वशासन).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 19
Chapter Name Local Self Government
(स्थानीय स्वशासन)
Number of Questions Solved 68
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 19 Local Self Government (स्थानीय स्वशासन)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
स्थानीय प्रशासन से आप क्या समझते हैं ? स्थानीय स्वशासन की आवश्यकता तथा महत्त्व बताइए।
उत्तर :
भारत में केन्द्र व राज्य सरकारों के अतिरिक्त, तीसरे स्तर पर एक ऐसी सरकार है। जिसके सम्पर्क में नगरों और ग्रामों के निवासी आते हैं। इस स्तर की सरकार को स्थानीय स्वशासन कहा जाता है, क्योंकि यह व्यवस्था स्थानीय निवासियों को अपना शासन-प्रबन्ध करने का अवसर प्रदान करती है। इसके अन्तर्गत मुख्यतया ग्रामवासियों के लिए पंचायत और नगरवासियों के लिए नगरपालिका उल्लेखनीय हैं। इन संस्थाओं द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति तथा स्थानीय समस्याओं के समाधान के प्रयास किये जाते हैं। व्यावहारिक रूप में वे सभी कार्य जिनका सम्पादन वर्तमान समय में ग्राम पंचायतों, जिला पंचायतों, नगर पालिकाओं, नगर निगम आदि के द्वारा किया जाता है, वे स्थानीय स्वशासन के अन्तर्गत आते हैं।

स्थानीय स्वशासन की आवश्यकता एवं महत्त्व

स्थानीय स्वशासन की आवश्यकता एवं महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है –

1, लोकतान्त्रिक परम्पराओं को स्थापित करने में सहायक – भारत में स्वस्थ लोकतान्त्रिक परम्पराओं को स्थापित करने के लिए स्थानीय स्वशासन व्यवस्था ठोस आधार प्रदान करती है। उसके माध्यम से शासन-सत्ता वास्तविक रूप से जनता के हाथ में चली जाती है। इसके अतिरिक्त स्थानीय स्वशासन-व्यवस्था, स्थानीय निवासियों में लोकतान्त्रिक संगठनों के प्रति रुचि उत्पन्न करती है।

2. भावी नेतृत्व का निर्माण – स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ भारत के भावी नेतृत्व को तैयार करती हैं। ये विधायकों और मन्त्रियों को प्राथमिक अनुभव एवं प्रशिक्षण प्रदान करती हैं, जिससे वे भारत की ग्रामीण समस्याओं से अवगत होते हैं। इस प्रकार ग्रामों में उचित नेतृत्व का निर्माण करने एवं विकास कार्यों में जनता की रुचि बढ़ाने में स्थानीय स्वशासन का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है।

3. जनता और सरकार के पारस्परिक सम्बन्ध – भारत की जनता स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के माध्यम से शासन के बहुत निकट पहुँच जाती है। इससे जनता और सरकार में एक-दूसरे की कठिनाइयों को समझने की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। इसके अतिरिक्त दोनों में सहयोग भी बढ़ता है, जो ग्रामीण उत्थान एवं विकास के लिए आवश्यक है।

4. स्थानीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था के बीच की कड़ी – ग्राम पंचायतों के कार्यकर्ता और पदाधिकारी स्थानीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था के बीच की कड़ी के रूप में कार्य करते हैं। इन स्थानीय पदाधिकारियों के सहयोग के अभाव में नतो राष्ट्र के निर्माण का कार्य सम्भव हो पाता है और नही सरकारी कर्मचारी अपने दायित्व का समुचित रूप से पालन कर पाते हैं।

5. प्रशासकीय शक्तियों का विकेन्द्रीकरण – स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ केन्द्रीय व राज्य सरकारों को स्थानीय समस्याओं के भार से मुक्त करती हैं। स्थानीय स्वशासन की इकाइयों के माध्यम से ही शासकीय शक्तियों एवं कार्यों का विकेन्द्रीकरण किया जा सकता है। लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण की इस प्रक्रिया में शासन-सत्ता कुछ निर्धारित संस्थाओं में निहित होने के स्थान पर, गाँव की पंचायत के कार्यकर्ताओं के हाथों में पहुँच जाती है। भारत में इस व्यवस्था से प्रशासन की कार्यकुशलता में पर्याप्त वृद्धि हुई है।

6. नागरिकों को निरन्तर जागरूक बनाये रखने में सहायक – स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ लोकतन्त्र की प्रयोगशालाएँ हैं। ये भारतीय नागरिकों को अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रयोग की शिक्षा तो देती ही हैं, साथ ही उनमें नागरिकता के गुणों का विकास करने में भी सहायक होती हैं।

7. लोकतान्त्रिक परम्पराओं के अनुरूप – लोकतन्त्र का आधारभूत तथा मौलिक सिद्धान्त यह है कि सत्ता का अधिक-से-अधिक विकेन्द्रीकरण होना चाहिए। स्थानीय स्वशासन की इकाइयाँ इस सिद्धान्त के अनुरूप हैं।

8. नौकरशाही की बुराइयों की समाप्ति – स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में नागरिकों की प्रत्यक्ष भागीदारी से प्रशासन में नौकरशाही, लालफीताशाही तथा भ्रष्टाचार जैसी बुराइयाँ उत्पन्न नहीं होती हैं।

9. प्रशासनिक अधिकारियों की जागरूकता – स्थानीय लोगों की शासन में भागीदारी के कारण प्रशासन उस क्षेत्र की आवश्यकताओं के प्रति अधिक सजग तथा संवेदनशील हो जाता है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि स्थानीय स्वशासन लोकतन्त्र का आधार है। यह लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण (Democratic Decentralisation) की प्रक्रिया पर आधारित है। यदि प्रशासन को जागरूक तथा अधिक कार्यकुशल बनाना है तो उसका प्रबन्ध एवं संचालन स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप स्थानीय संस्थाओं के द्वारा ही सम्पन्न किया जाना चाहिए।

प्रश्न 2.
ग्रामीण भारत के विकास में ग्राम पंचायतों की भूमिका बताइए। [2016]
या
ग्राम पंचायतों के गठन एवं कार्यों का वर्णन कीजिए। [2015]
या
पंचायती राज-व्यवस्था से आप क्या समझते हैं ? ग्राम पंचायत के कार्यों तथा शक्तियों का वर्णन कीजिए। [2016]
या
भारत में पंचायती राज-व्यवस्था की कार्यप्रणाली का परीक्षण कीजिए। [2010, 11]
उत्तर :
भारत गाँवों का देश है। ब्रिटिश राज में गाँवों की आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्था शोचनीय हो गयी थी; अत: स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद देश में पंचायती राज व्यवस्था द्वारा गाँवों में राजनीतिक तथा आर्थिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण का प्रयास किया गया। बलवन्त राय मेहता समिति ने पंचायती राज व्यवस्था के लिए त्रि-स्तरीय योजना का परामर्श दिया। इस योजना में सबसे निचले। स्तर पर ग्राम सभा और ग्राम पंचायतें हैं। स्तर पर क्षेत्र समितियाँ तथा उच्च स्तर पर जिला परिषदों की व्यवस्था की गयी थी।

भारतीय गाँवों में बहुत पहले से ही ग्राम पंचायतों की व्यवस्था रही है। उत्तर प्रदेश सरकार ने संयुक्त प्रान्तीय पंचायत राज कानून बनाकर पंचायतों के संगठन सम्बन्धी उल्लेखनीय कार्य को किया था। सन् 1947 ई० के इस कानून के अनुसार ग्राम पंचायत के स्थान पर ग्राम सभा, ग्राम पंचायत और न्याय पंचायत की व्यवस्था की गयी थी। अब उत्तर प्रदेश पंचायत विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 के अनुसार भी ग्राम सभा, ग्राम पंचायत तथा न्याय पंचायत की ही व्यवस्था को रखा गया है।

ग्राम पंचायत के कार्य तथा शक्तियाँ

प्रत्येक ग्राम में एक ग्राम सभा’ होती है। गाँव का प्रत्येक वयस्क व्यक्ति ग्राम सभा का सदस्य होता है। ग्राम पंचायत को चयन ग्राम सभा के द्वारा किया जाता है। ग्राम पंचायत के चुनाव गुप्त मतदान के द्वारा वयस्क मताधिकार के आधार पर किये जाते हैं। पंचायत के सरपंच का चुनाव पंचायत के सम्पूर्ण निर्वाचित मण्डल द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। ग्राम पंचायत, पंचायती राज-व्यवस्था की सबसे छोटी आधारभूत इकाई है। यह ग्राम सरकार की कार्यपालिका के रूप में कार्य करती है।

ग्राम पंचायत के कार्यों तथा शक्तियों की विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत की जा सकती है-

1. सार्वजनिक कार्य – सार्वजनिक कार्यों के अन्तर्गत

  1. गाँव की सफाई की व्यवस्था करना
  2. रोशनी का प्रबन्ध करना
  3. संक्रामक रोगों की रोकथाम करना
  4. गाँव एवं गाँव की इमारतों की रक्षा करना
  5. जन्म-मरण का लेखा-जोखा रखना
  6. बालक एवं बालिकाओं की शिक्षा की समुचित व्यवस्था करना
  7. खेलकूद की व्यवस्था करना
  8. कृषि की उन्नति का प्रयत्न करना
  9. श्मशान भूमि की व्यवस्था करना
  10. सार्वजनिक चरागाहों की व्यवस्था करना
  11. आग बुझाने का प्रबन्ध करना
  12. जनगणना और पशुगणना करना
  13. प्राथमिक चिकित्सा का प्रबन्ध करना
  14. खाद एकत्र करने के लिए स्थान निश्चित करना
  15. जल मार्गों की सुरक्षा का प्रबन्ध करना
  16. प्रसूति-गृह खोलना
  17. कानून द्वारा सौंपा गया कोई और कार्य करना
  18. आदर्श नागरिकता की भावना को प्रोत्साहन देना तथा
  19. ग्रामीण जनता को शासन व्यवस्था से परिचित कराना आदि कार्य आते हैं।

2. व्यवसाय – सम्बन्धी कार्य – इन कार्यों के अन्तर्गत

  1. अस्पताल खुलवाना
  2. पुस्तकालय एवं वाचनालयों की व्यवस्था करना
  3. पार्क बनवाना
  4. गृह-उद्योगों को उन्नत करने का प्रयत्न करना
  5. पशुओं की नस्ल सुधारना
  6. स्वयंसेवक दल का संगठन करना
  7. सहकारी समितियों का गठन करना
  8. सहकारी ऋण प्राप्त करने में किसानों की सहायता करना
  9. अकाल या अन्य विपत्ति के समय गाँव वालों की सहायता करना
  10. सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाना आदि कार्य सम्मिलित होते हैं।

3. न्याय-सम्बन्धी कार्य – इन कार्यों के अन्तर्गत, ग्राम पंचायत के कुछ सदस्य न्याय पंचायत के रूप में कार्य करते हुए अपने गाँव के छोटे-छोटे झगड़ों का निपटारा भी करते हैं। दीवानी के मामलों में ये हैं 500 के मूल्य तक की सम्पत्ति के मामलों की सुनवाई कर सकते हैं तथा फौजदारी के मुकदमों में इसे ₹ 250 तक का जुर्माना करने का अधिकार प्राप्त है।

भारतीय संविधान में किये गये 73वें संशोधन के द्वारा ग्राम पंचायत को व्यापक अधिकार एवं शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। साथ ही ग्राम पंचायत के कार्य-क्षेत्र को भी व्यापक बनाया गया है। जिसके अन्तर्गत 29 नियमों से युक्त एक विस्तृत सूची को रखा गया है।

आय के स्रोत – ग्राम पंचायतों की आय के मुख्य स्रोत हैं-सरकार से मिलने वाले अनुदान, भवनों व गाड़ियाँ आदि पर कर, पशुओं व वस्तुओं पर चुंगी, यात्री कर, वाणिज्यिक फसलों पर कर, सरकार द्वारा अनुमोदित कोई भी राज्य कर, कर्ज, उपहार आदि। पंचायतों को भूमि, तालाब और बाजार से भी कुछ आये हो जाती है। कुछ विशेष प्रकार के कर लगाने के लिए पंचायतों को राज्य सरकार की अनुमति लेनी पड़ती है। |

महत्त्व – आज के प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था के युग में ग्राम पंचायतों का बहुत महत्त्व है। ये संस्थाएँ जनता को जनतन्त्र की शिक्षा प्रदान करती हैं। नागरिक गुणों के विकास के लिए ग्राम पंचायतें प्रारम्भिक पाठशालाओं का काम करती हैं और जनता में अपने अधिकारों तथा स्वतन्त्रता की भावना को जाग्रत करने में सहायक होती हैं। ये जनता में सहज बुद्धि, न्यायशीलता, निर्णय-शक्ति और सामाजिकता का भी विकास करती हैं। ग्राम पंचायत स्थानीय स्तर की समस्याओं का समाधान समुचित रूप से कर लेती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई तथा मार्गों का निर्माण कराकर ये संस्थाएँ जनहित के कार्यों में संलग्न रहती हैं। गाँवों के आर्थिक विकास में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वस्तुतः ग्राम पंचायतें ग्राम सभाओं की कार्यकारिणी के रूप में कार्य करती हैं।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 19 Local Self Government

प्रश्न 3.
क्षेत्र पंचायत किस प्रकार गठित की जाती है? यह अपने क्षेत्र के विकास के लिए कौन-कौन से कार्य करती है?
या
क्षेत्र पंचायत (पंचायत समिति के संगठन, कार्यों तथा शक्तियों पर प्रकाश डालिए
उत्तर :
उत्तर प्रदेश पंचायत (संशोधन) अधिनियम, 1994′ के सेक्शन 7(1) के द्वारा क्षेत्र समिति का नाम बदलकर क्षेत्र पंचायत कर दिया गया है। यह ग्राम पंचायत के ऊपर के स्तर की इकाई होती है। राज्य सरकार गजट में अधिसूचना द्वारा प्रत्येक खण्ड के लिए एक क्षेत्र पंचायत स्थापित करेगी। पंचायत का नाम खण्ड के नाम पर होगा।

संगठन – क्षेत्र पंचायत एक प्रमुख और निम्नलिखित प्रकार के सदस्यों से मिलकर बनेगी

  1. खण्ड की सभी ग्राम पंचायतों के प्रधान।
  2. निर्वाचित सदस्य-ये पंचायती क्षेत्र के 2000 जनसंख्या वाले प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा निर्वाचित किये जाएँगे।
  3. लोकसभा और विधानसभा के ऐसे सदस्य, जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो पूर्णतः अथवा अंशत: उस खण्ड में सम्मिलित हैं।
  4. राज्यसभा तथा विधान परिषद् के ऐसे सदस्य, जो खण्ड के अन्तर्गत निर्वाचकों के रूप में पंजीकृत हैं।

उपर्युक्त सदस्यों में केवल निर्वाचित सदस्यों को ही प्रमुख अथवा उप-प्रमुख के निर्वाचन तथा उनके विरुद्ध अविश्वास के मामलों में मत देने का अधिकार होगा।

योग्यता – क्षेत्र पंचायत का सदस्य निर्वाचित होने के लिए व्यक्तियों में निम्नलिखित योग्यताएँ होनी आवश्यक हैं –

  1. उसका नाम क्षेत्र पंचायत की प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र की निर्वाचक नामावली में हो।
  2. वह विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने की योग्यता रखता हो।
  3. उसकी आयु 21 वर्ष हो।
  4. वह किसी लाभ के सरकारी पद पर न हो।

स्थानों का आरक्षण – प्रत्येक क्षेत्र पंचायत में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए स्थान आरक्षित रहेंगे। क्षेत्र पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या में आरक्षित स्थानों का अनुपात यथासम्भव वही होगा जो उस खण्ड में अनुसूचित जातियों अथवा जनजातियों की या पिछड़े वर्गों की जनसंख्या का अनुपात उस खण्ड की कुल जनसंख्या में है। पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण कुल निर्वाचित स्थानों की संख्या के 27% से अधिक नहीं होगा।

अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या के कम-से-कम एक-तिहाई स्थान इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे। क्षेत्र पंचायत में निर्वाचित स्थानों की कुल संख्या के कम-से-कम एक-तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।

पदाधिकारी – क्षेत्र पंचायत में निर्वाचित सदस्यों द्वारा अपने में से ही एक प्रमुख, एक ज्येष्ठ उप-प्रमुख तथा एक कनिष्ठ उप-प्रमुख चुने जाते हैं। राज्य में क्षेत्र पंचायतों के प्रमुखों के पद अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों तथा महिलाओं के लिए आरक्षित किये गये हैं।

कार्यकाल – क्षेत्र पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष है, परन्तु राज्य सरकार 5 वर्ष की अवधि से पहले भी क्षेत्र पंचायत को विघटित कर सकती है। प्रमुख, उपप्रमुख अथवा क्षेत्र पंचायत का कोई भी सदस्य 5 वर्ष की अवधि से पूर्व भी त्यागपत्र देकर अपना पद त्याग सकता है। प्रमुख तथा उप-प्रमुख के द्वारा अपने कर्तव्यों का पालन न करने की स्थिति में उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करके उन्हें पदच्युत किया जा सकता है। क्षेत्र पंचायत के विघटन के छ: माह की अवधि के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य है।

अधिकारी – क्षेत्र पंचायत का सबसे प्रमुख अधिकारी ‘खण्ड विकास अधिकारी’ (Block Development Officer) होता है। इस पर समस्त प्रशासन का उत्तरदायित्व होता है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अधिकारी भी होते हैं।

अधिकार और कार्य – क्षेत्र पंचायत के प्रमुख अधिकार और कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. कृषि, भूमि विकास, भूमि सुधार और लघु सिंचाई सम्बन्धी कार्यों को करना।
  2. सार्वजनिक निर्माण सम्बन्धी कार्य करना।
  3. कुटीर और ग्राम उद्योगों तथा लघु उद्योगों का विकास करना।
  4. पशुपालन तथा पशु सेवाओं में वृद्धि करना।
  5. स्वास्थ्य तथा सफाई सम्बन्धी कार्यों की देखभाल करना।
  6. शैक्षणिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास से सम्बद्ध कार्य कराना।
  7. पेयजल, ईंधन और चारे की व्यवस्था करना।
  8. ग्रामीण आवास की व्यवस्था करना।
  9. चिकित्सा तथा परिवार कल्याण सम्बन्धी कार्यों की देखभाल करना।
  10. बाजार तथा मेलों की व्यवस्था करना।
  11. प्राकृतिक आपदाओं में सहायता प्रदान करना।

क्षेत्र पंचायत जल-कर तथा विद्युत-कर लगाती है। इनके अतिरिक्त क्षेत्र पंचायत ऐसा भी कोई कर लगा सकती है, जिसके सम्बन्ध में राज्य सरकार ने क्षेत्र पंचायत को अधिकृत कर दिया है।

प्रश्न 4.
जिला पंचायत का गठन किस प्रकार होता है? इसके प्रमुख कार्य तथा आय के साधन लिखिए।
उत्तर :
त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की सर्वोच्च इकाई जिला पंचायत होती है। उत्तर प्रदेश सरकार ने पंचायत विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 पारित करके जिला परिषद् का नाम बदलकर जिला पंचायत कर दिया है। जिला पंचायत का नाम जिले के नाम पर होता है तथा प्रत्येक जिला पंचायत एक नियमित निकाय होती है। यह जिले के सम्पूर्ण ग्रामीण क्षेत्र का प्रबन्ध करती है।

गठन – जिला पंचायत के गठन में निम्नलिखित दो प्रकार के सदस्य होते हैं –

(क) निर्वाचित सदस्य निर्वाचित सदस्यों की सदस्य-संख्या राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाती है। साधारणतया 50,000 से अधिक की जनसंख्या पर एक सदस्य निर्वाचित किया जाता है। यह निर्वाचन वयस्क मतदान द्वारा होता है।

(ख) अन्य सदस्य – अन्य सदस्यों में कुछ पदेन सदस्य होते हैं, जो कि निम्नवत् हैं –

  1. जनपद की सभी क्षेत्र पंचायतों के प्रमुख।
  2. लोकसभा तथा विधानसभा के वे सदस्य जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें जिला पंचायत क्षेत्र का कोई भाग समाविष्ट है।
  3. राज्यसभा तथा विधान परिषद् के वे सदस्य जो उस जिला पंचायत क्षेत्र में मतदाताओं के रूप में पंजीकृत हैं।

आरक्षण – प्रत्येक जिला पंचायत में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए नियमानुसार स्थान आरक्षित रहेंगे। आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात, जिला अनुपात में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या में यथासम्भव वही होगा, जो अनुपात इन जातियों, वर्गों की जनसंख्या का जिला पंचायत क्षेत्र की समस्त जनसंख्या में है। संशोधित प्रावधानों के अन्तर्गत पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण कुल निर्वाचित स्थानों की संख्या के 27% से अधिक नहीं होगा।

अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या के कम से कम एक-तिहाई स्थान; इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे। प्रत्येक जिला पंचायत में निर्वाचित स्थानों की कुल संख्या के कम-से-कम एक-तिहाई स्थान; महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे।

योग्यता – जिला पंचायत का सदस्य निर्वाचित होने के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ अपेक्षित हैं –

  1. ऐसे सभी व्यक्ति, जिनका नाम उस जिला पंचायत के किसी प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र के लिए निर्वाचक नामावली में सम्मिलित है।
  2. जो राज्य विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने की आयु सीमा के अतिरिक्त अन्य सभी योग्यताएँ रखता है।
  3. जिसने 21 वर्ष की आयु पूरी कर ली हो।

अधिकारी – प्रत्येक जिला पंचायत में दो अधिकारी होते हैं – अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष, जिनका चुनाव निर्वाचित सदस्यों द्वारा गुप्त मतदान प्रणाली के आधार पर होता है। अध्यक्ष बनने के लिए यह आवश्यक है कि वह जिले में रहता हो, उसकी आयु 21 वर्ष से कम न हो तथा उसका नाम मतदाता सूची में हो। इन दोनों का निर्वाचन पाँच वर्ष के लिए किया जाता है। राज्य सरकार पाँच वर्ष की अवधि से पूर्व भी इन्हें पदच्युत कर सकती है। ये पद भी अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित होते हैं। अध्यक्ष पंचायतों की बैठकों का सभापतित्व करता है, पंचायत के कार्यों का निरीक्षण करता है एवं कर्मचारियों पर नियन्त्रण रखता है। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उसका पद- भार उपाध्यक्ष सँभालता है।

इन अधिकारियों के अतिरिक्त छोटे-बड़े, स्थायी-अस्थायी अनेक वैतनिक कर्मचारी भी होते हैं, जो इन अधिकारियों के प्रति जिम्मेदार होते हैं तथा जिला पंचायत का कार्य निष्पादित करते हैं।

कार्य – जिले के समस्त ग्रामीण क्षेत्र की व्यवस्था तथा विकास का उत्तरदायित्व जिला पंचायत पर है। इस दायित्व को पूरा करने के लिए जिला परिषद् निम्नलिखित कार्य करती है –

  1. सार्वजनिक सड़कों, पुलों तथा निरीक्षण-गृहों का निर्माण एवं मरम्मत करवाना।
  2. प्रबन्ध हेतु सड़कों का ग्राम सड़कों, अन्तर्याम सड़कों तथा जिला सड़कों में वर्गीकरण करना।
  3. तालाब, नाले आदि बनवाना।
  4. पीने के पानी की व्यवस्था करना।
  5. रोशनी का प्रबन्ध करना।
  6. जनस्वास्थ्य के लिए महामारियों और संक्रामक रोगों की रोकथाम की व्यवस्था करना।
  7. अकाल के दौरान सहायता हेतु राहत कार्य चलाना।
  8. क्षेत्र समिति एवं ग्राम पंचायत के कार्यों में तालमेल स्थापित करना।
  9. ग्राम पंचायतों तथा क्षेत्र समितियों के कार्यों का निरीक्षण करना।
  10. प्राइमरी स्तर से ऊपर की शिक्षा का प्रबन्ध करना।
  11. सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाना।
  12. कांजी हाउस तथा पशु चिकित्सालय की व्यवस्था करना।
  13. जन्म-मृत्यु का हिसाब रखना।
  14. परिवार नियोजन कार्यक्रम लागू करना।
  15. अस्पताल खोलना तथा मनोरंजन के साधनों की व्यवस्था करना।
  16. पुस्तकालय-वाचनालय का निर्माण एवं उनका अनुरक्षण करना।
  17. कृषि की उन्नति के लिए उचित प्रबन्ध करना।
  18. खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकना आदि।

आय के साधन – जिला पंचायत अपने कार्यों को पूर्ण करने के लिए इन साधनों से आय प्राप्त करती है –

  1. हैसियत एवं सम्पत्ति कर
  2. स्कूलों से प्राप्त फीस
  3. अचल सम्पत्ति से कर
  4. लाइसेन्स कर
  5. नदियों के पुलों तथा घाटों से प्राप्त उतराई कर
  6. कांजी हाउसों से प्राप्त आय
  7. मेलों, हाटों एवं प्रदर्शनियों से प्राप्त आय तथा
  8. राज्य सरकार से प्राप्त अनुदान।

प्रश्न 5.
नगर पंचायत के संगठन और उसके कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन विधि (संशोधन), 1994 के अनुसार 30 हजार से 1 लाख की जनसंख्या वाले क्षेत्र को ‘संक्रमणशील क्षेत्र घोषित किया गया है, अर्थात् जिन स्थानों पर टाउन एरिया कमेटी’ थी, उन स्थानों को अब ‘टाउन एरिया’ नाम के स्थान पर नगर पंचायत नाम दिया गया है। ये स्थान ऐसे हैं जो ग्राम के स्थान पर नगर बनने की ओर अग्रसर हैं।

संरचना – प्रत्येक नगर पंचायत में एक अध्यक्ष व तीन प्रकार के सदस्य होंगे। सदस्य क्रमशः इस प्रकार होंगे

1. निर्वाचित सदस्य, 2. पदेन सदस्य तथा 3. मनोनीत सदस्य।

1. निर्वाचित सदस्य – नगर पंचायतों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या कम-से-कम 10 और अधिक-से-अधिक 24 होगी। नगर पंचायत के सदस्यों की संख्या राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाएगी तथा यह संख्या सरकारी गजट में अधिसूचना द्वारा प्रकाशित की जाएगी। निर्वाचित सदस्यों को सभासद कहा जाएगा। सभासद के निर्वाचन के लिए नगर को लगभग समान जनसंख्या वाले क्षेत्रों (वार्ड) में विभक्त किया जाएगा। वार्ड एक सदस्यीय होगा। प्रत्येक सभासद का निर्वाचन वार्ड के वयस्क मताधिकार प्राप्त नागरिकों के द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति के आधार पर किया जाएगा।

सभासद की योग्यता –

  1. सभासद का नाम नगर की मतदाता सूची में पंजीकृत होना चाहिए।
  2. उसकी आयु कम-से-कम 21 वर्ष होनी चाहिए।
  3. वह राज्य विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने के सभी उपबन्ध पूरे करता हो (केवल आयु के अतिरिक्त)।
  4. जो स्थान आरक्षित हैं, उन स्थानों से आरक्षित वर्ग का स्त्री/पुरुष ही चुनाव लड़ सकता है।

आरक्षण – जनसंख्या के अनुपात में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के लिए वार्ड का आरक्षण होगा। पिछड़े वर्ग के लिए 27 प्रतिशत वार्ड आरक्षित होंगे, जिनमें अनुसूचित जाति/जनजाति तथा पिछड़े वर्ग के आरक्षण की एक-तिहाई महिलाएँ सम्मिलित होंगी।

2. पदेन सदस्य – लोकसभा व विधानसभा के वे सभी सदस्य पदेन सदस्य होंगे, जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनमें पूर्णतया या अंशतया वह नगर पंचायत क्षेत्र सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त राज्यसभा व विधान परिषद् के ऐसे सभी सदस्य, जो उस नगर पंचायत क्षेत्र की निर्वाचक नामावली में पंजीकृत हैं, पदेन सदस्य होंगे।

3. मनोनीत सदस्य – प्रत्येक नगर पंचायत में राज्य सरकार द्वारा ऐसे 2 या 3 सदस्यों को मनोनीत किया जाएगा, जिन्हें नगरपालिका प्रशासन का विशेष ज्ञान व अनुभव होगा। ये मनोनीत सदस्य नगर पंचायत की बैठकों में मत नहीं दे सकेंगे।

कार्यकाल – नगर पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष का होगा। राज्य सरकार नगर पंचायत का विघटन भी कर सकती है, परन्तु नगर पंचायत के विघटन के दिनांक से 6 माह की अवधि के अन्दर पुनः चुनाव कराना अनिवार्य होगा।

कार्य – नगर पंचायत मुख्य रूप से निम्नलिखित कार्य करेगी –

  1. सर्वसाधारण की सुविधा से सम्बन्धित कार्य करना – इनमें सड़कें बनवाना, वृक्ष लगवाना, सार्वजनिक स्थानों का निर्माण कराना, अकाल, बाढ़ या अन्य विपत्ति के समय जनता की सहायता करना आदि प्रमुख हैं।
  2. स्वास्थ्य-रक्षा सम्बन्धी कार्य करना – इनमें संक्रामक रोगों से बचाव के लिए टीके लगवाना, खाद्य-पदार्थों का निरीक्षण करना, अस्पताल, औषधियों तथा स्वच्छ जल की व्यवस्था करना आदि प्रमुख हैं।
  3. शिक्षा-सम्बन्धी कार्य करना – इनमें प्रारम्भिक शिक्षा के लिए पाठशालाओं की व्यवस्था करना, वाचनालय और पुस्तकालय बनवाना तथा ज्ञानवर्द्धन के लिए प्रदर्शनी लगाना आदि प्रमुख हैं।
  4. आर्थिक कार्य करना – इनमें जल और विद्युत की पूर्ति करना, यातायात के लिए बसों की तथा मनोरंजन के लिए सिनेमा-गृहों (छवि-गृहों) या मेलों की व्यवस्था करना आदि प्रमुख हैं।
  5. सफाई-सम्बन्धी कार्य करना – इनमें सड़कों, गलियों तथा नालियों की सफाई कराना, सड़कों पर पानी का छिड़काव कराना आदि प्रमुख हैं।

प्रश्न 6.
नगरपालिका (परिषद्) की रचना तथा उसके कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
अपने प्रदेश में (क्षेत्र) नगरपालिका परिषद का गठन किस प्रकार होता है ? नगर के विकास के लिए वे कौन-कौन-से कार्य करती हैं?
उत्तर :
उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 ई०’ के अनुसार 1 लाख से 5 लाख तक की जनसंख्या वाले नगर को ‘लघुत्तर नगरीय क्षेत्र का नाम दिया गया है। तथा इनके प्रबन्ध के लिए नगरपालिका परिषद् की व्यवस्था का निर्णय लिया गया है।

गठन – नगरपालिका परिषद् में एक अध्यक्ष और तीन प्रकार के सदस्य होंगे। ये तीन प्रकार के सदस्य निम्नलिखित हैं –

1. निर्वाचित सदस्य – नगरपालिका परिषद् में जनसंख्या के आधार पर निर्वाचित सदस्यों की संख्या 25 से कम और 55 से अधिक नहीं होगी। राज्य सरकार सदस्यों की यह संख्या निश्चित करके सरकारी गजट में अधिसूचना द्वारा प्रकाशित करेगी।

2. पदेन सदस्य – (i) इसमें लोकसभा और राज्य विधानसभा के ऐसे समस्त सदस्य सम्मिलित होते हैं, जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें पूर्णतया अथवा अंशतः वे नगरपालिका क्षेत्र सम्मिलित होते हैं।
(ii) इसमें राज्यसभा और विधान परिषद् के ऐसे समस्त सदस्य सम्मिलित होते हैं, जो उस नगरपालिका क्षेत्र के अन्तर्गत निर्वाचक के रूप में पंजीकृत हैं।

3. मनोनीत सदस्य – प्रत्येक नगरपालिका परिषद् में राज्य सरकार द्वारा ऐसे सदस्यों को मनोनीत किया जाएगा, जिन्हें नगरपालिका प्रशासन का विशेष ज्ञान अथवा अनुभव हो। ऐसे सदस्यों की संख्या 3 से कम और 5 से अधिक नहीं होगी। इन मनोनीत सदस्यों को नगरपालिका परिषद् की बैठकों में मत देने का अधिकार नहीं होगा। नगर निगम के निर्वाचित सदस्यों के समान (सभासद) नगरपालिका परिषद् के सदस्यों को भी सभासद’ ही कहा जाएगा।

सभासदों का निर्वाचन व निर्वाचन हेतु अर्हताएँ – प्रत्येक ‘लघुत्तर नगरीय क्षेत्र को लगभग समान जनसंख्या वाले ‘प्रादेशिक क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है तथा ऐसे प्रत्येक प्रादेशिक क्षेत्र को ‘कक्ष’ कहा जाता है। प्रत्येक कक्ष ‘एक सदस्य निर्वाचन क्षेत्र’ होता तथा ऐसे प्रत्येक कक्ष के वयस्क मताधिकार और प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर एक सभासद निर्वाचित होता है।

सभासद निर्वाचित होने के लिए निम्नलिखित अर्हताएँ होनी चाहिए –

  1. उसका नाम नगर की मतदाता सूची में हो।
  2. वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह राज्य सरकार, संघ सरकार तथा नगरपालिका परिषद् के अधीन किसी लाभ के पद पर न हो।

आरक्षण हेतु प्रावधान – अनुसूचित जातियों तथा जनजातियो के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात नगरपालिका परिषद् में प्रत्यक्ष चुनाव से भरे जाने वाले कुल स्थानो की संख्या में यथासम्भव वही होता है, जो अनुपात नगरपालिका परिषद् क्षेत्र की कुल जनसंख्या में इन जातियों का है। पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत स्थान आरक्षित किये गये हैं। इन आरक्षित स्थानों से कम-से-कम एक-तिहाई स्थान इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित किये गये हैं। इसमें आरक्षण की चक्रानुक्रम व्यवस्था का प्रावधान है। इन महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों को सम्मिलित करते हुए प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या के कम से कम एक-तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे।

पदाधिकारी – प्रत्येक नगरपालिका परिषद् में एक अध्यक्ष और एक ‘उपाध्यक्ष’ होगा। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में या पद रिक्त होने पर उपाध्यक्ष के द्वारा अध्यक्ष के रूप में कार्य किया जाता है। अध्यक्ष का निर्वाचन 5 वर्ष के लिए समस्त मतदाताओं द्वारा वयस्क मताधिकार तथा प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होता है। उपाध्यक्ष का निर्वाचन नगरपालिका परिषद् के सभासदों द्वारा एक वर्ष की अवधि के लिए किया जाता है।

अधिकारी और कर्मचारी – उपर्युक्त के अतिरिक्त परिषद् के कुछ वैतनिक अधिकारी व कर्मचारी भी होते हैं, जिनमें सबसे प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी’ (Executive Officer) होता है। जिन परिषदों में प्रशासनिक अधिकारी न हों, वहाँ परिषद् विशेष प्रस्ताव द्वारा एक या एक से अधिक ‘सचिव नियुक्त करती है।

परिषद की समितियाँ – नगरपालिका परिषद अपने कार्यों के सम्पादन के लिए विभिन्न समितियाँ बना लेती है और प्रत्येक समिति को एक विशिष्ट विभाग का कार्य सौंप दिया जाता है। इसकी प्रमुख समितियाँ हैं –

  1. स्थायी समिति
  2. जल समिति
  3. अर्थ अथवा वित्त समिति
  4. शिक्षा समिति आदि। इन समितियों में स्थायी समिति सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होती है।

कार्य – नगरपालिका अपनी समितियों के माध्यम से नगरों के विकास के लिए निम्नलिखित कार्य करती है –

(I) अनिवार्य कार्य – नगरपालिका परिषद् को निम्नलिखित कार्य अनिवार्य रूप से करने पड़ते हैं।

  1. सड़कों का निर्माण करना तथा उनकी मरम्मत व सफाई करवाना।
  2. नगरों में जल की व्यवस्था करना।
  3. नगरों में प्रकाश की व्यवस्था करना।
  4. सड़कों के किनारों पर छायादार वृक्ष लगवाना।
  5. नगर की सफाई का प्रबन्ध करना।
  6. औषधालयों का प्रबन्ध करना तथा संक्रामक रोगों से बचने के लिए टीके लगवाना।
  7. शवों को जलाने एवं दफनाने की उचित व्यवस्था करना।
  8. जन्म एवं मृत्यु का विवरण रखना।
  9. नगरों में शिक्षा की व्यवस्था करना।
  10. आग बुझाने के लिए फायर ब्रिगेड की व्यवस्था करना।
  11. सड़कों तथा मोहल्लों का नाम रखनी व मकानों पर नम्बर डलवाना।
  12. बूचड़खाने बनवाना तथा उनकी व्यवस्था करना।
  13. अकाल के समय लोगों की सहायता करना।

(II) ऐच्छिक कार्य – नगरपालिका परिषद् निम्नलिखित ऐच्छिक कार्यों को भी स्वेच्छा से पूरा करती है –

  1. नगर को सुन्दर तथा स्वच्छ बनाये रखना।
  2. पुस्तकालय, वाचनालय, अजायबघर व विश्रामगृहों की स्थापना करना।
  3. प्रारम्भिक शिक्षा से ऊपर की शिक्षा की व्यवस्था करना।
  4. पागलखाना और कोढ़ियों के रखने के स्थानों आदि की व्यवस्था करना।
  5. बाजार तथा पैंठ की व्यवस्था करना।
  6. पागल तथा आवारा कुत्तों को पकड़वाना।
  7. अनाथों के रहने तथा बेकारों के लिए रोजी का प्रबन्ध करना।
  8. नगर में नगर-बस सेवा चलवाना।
  9. नगर में नये-नये उद्योगधन्धे विकसित करने के लिए सुविधाएँ प्रदान करना।

प्रश्न 7.
नगर-निगम की रचना और उसके कार्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन-विधि (संशोधन), 1994 के अन्तर्गत 5 लाख से अधिक जनसंख्या वाले प्रत्येक नगर को वृहत्तर नगरीय क्षेत्र घोषित कर दिया गया है तथा ऐसे प्रत्येक नगर में स्वायत्त शासन के अन्तर्गत नगर निगम की स्थापना का प्रावधान किया गया है। उत्तर प्रदेश में लखनऊ, कानपुर, आगरा, वाराणसी, मेरठ, इलाहाबाद, गोरखपुर, मुरादाबाद, अलीगढ़, गाजियाबाद, सहारनपुर, मथुरा, झाँसी व बरेली नगरों में नगर-निगम स्थापित कर दिये गये हैं। उत्तर प्रदेश के दो नगरों-कानपुर और लखनऊ-की जनसंख्या 10 लाख से अधिक है, अत: इन्हें महानगर तथा इनका प्रबन्ध करने वाली संस्था को ‘महानगर निगम’ की संज्ञा दी गयी है। वर्तमान में कुछ और नगर–आगरा, वाराणसी, मेरठ-भी ‘महानगर निगम’ बनाये जाने के लिए प्रस्तावित हैं।

गठन – नगर-निगम के गठन हेतु नगर प्रमुख, उप-नगर प्रमुख व तीन प्रकार के सदस्य क्रमश: निर्वाचित सदस्य, मनोनीत सदस्य व पदेन सदस्यों को प्रावधान किया गया है। ये तीन प्रकार के सदस्य इस प्रकार हैं –

1. निर्वाचित सदस्य – नगर निगम के निर्वाचित सदस्यों को सभासद कहा जाता है। सभासदों की संख्या कम-से-कम 60 व अधिक-से-अधिक 110 निर्धारित की गयी है। यह संख्या राज्य सरकार द्वारा सरकारी गजट में दी गयी विज्ञप्ति के आधार पर निश्चित की जाती है।

निर्वाचन – नगर निगम के सभासदों का चुनाव नगर के वयस्क नागरिकों द्वारा होता है। चुनाव के लिए नगर को अनेक निर्वाचन-क्षेत्रों में विभाजित कर दिया जाता है, जिन्हें ‘कक्ष’ (ward) कहा जाता है। प्रत्येक कक्ष से संयुक्त निर्वाचन पद्धति के आधार पर एक सभासद का चुनाव होता है।

योग्यता – नगर-निगम के सभासद के निर्वाचन में भाग लेने हेतु निम्नलिखित योग्यताएँ अथवा अर्हताएँ होनी चाहिए –

  1. सभासद के निर्वाचन में भाग लेने के लिए नगर-निगम क्षेत्र की मतदाता सूची (निर्वाचन सूची) में उसका नाम अंकित होना चाहिए।
  2. आयु 21 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए।
  3. वह व्यक्ति राज्य विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने की सभी योग्यताएँ व उपबन्ध पूर्ण करता हो।

विशेष – जो स्थान आरक्षित श्रेणियों के लिए आरक्षित किये गये हैं, उन पर आरक्षित वर्ग का व्यक्ति ही निर्वाचन में भाग ले सकेगा।

स्थानों का आरक्षण – प्रत्येक निगम में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित किये जाएँगे। इस प्रकार से आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात; निगम में प्रत्यक्ष चुनाव से भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या में यथासम्भव वही होगा, जो अनुपात नगर-निगम क्षेत्र की कुल जनसंख्या में इन जातियों का है। प्रत्येक नगर-निगम में प्रत्यक्ष चुनाव से भरे जाने वाले स्थानों का 27 प्रतिशत स्थान पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित किया जाएगा। इन आरक्षित स्थानों में कम-सेकम एक तिहाई स्थान इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे। इन महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों को सम्मिलित करते हुए, प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या के कम-से-कम एक तिहाई स्थान, महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे। इन आरक्षित स्थानों में मनोनीत सदस्यों के स्थान भी सम्मिलित हैं। उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकाय चुनावों में आरक्षण की चक्रानुक्रम व्यवस्था का प्रावधान है।

2. मनोनीत सदस्य – नगर-निगम में राज्य सरकार द्वारा ऐसे सदस्यों को मनोनीत किया जाएगा जिन्हें नगर निगम प्रशासन का विशेष ज्ञान व अनुभव हो। इन सदस्यों की संख्या राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाएगी। मनोनीत सदस्यों को नगर-निगम की बैठकों में मत देने का अधिकार नहीं होगा। इनकी संख्या 5 व 10 के मध्य होगी।

3. पदेन सदस्य –

  1. लोकसभा और राज्य विधानसभा के वे सदस्य जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें नगर पूर्णतः अथवा अंशतः समाविष्ट है।
  2. राज्यसभा और विधान परिषद् के वे सदस्य, जो उस नगर में निर्वाचक के रूप में पंजीकृत
  3. उत्तर प्रदेश सहकारी समिति अधिनियम, 1965 ई० के अधीन स्थापित समितियों के वे अध्यक्ष जो नगर निगम के सदस्य नहीं हैं।

कार्यकाल – नगर-निगम का कार्यकाल 5 वर्ष है, परन्तु राज्य सरकार धारा 538 के अन्तर्गत निगम को इसके पूर्व भी विघटित कर सकती है।

समितियाँ – नगर-निगम की दो प्रमुख समितियाँ होंगी – (1) कार्यकारिणी समिति तथा (2) विकास समिति। इसके अतिरिक्त नगर-निगम में निगम विद्युत समिति, नगर परिवहन समिति और इसी प्रकार की अन्य समितियाँ भी गठित की जा सकती हैं; परन्तु इन समितियों की संख्या 12 से अधिक नहीं होनी चाहिए। अधिनियम, 1994 के अन्तर्गत नगर-निगम को नगर निगम क्षेत्र में वे ही कार्य करने का निर्देश दिया गया है जो कार्य नगरपालिका परिषद् को नगरपालिका क्षेत्र में करने का निर्देश है।

पदाधिकारी – नगर-निगम में दो प्रकार के अधिकारी होते हैं – निर्वाचित एवं स्थायी। निर्वाचित अधिकारी अवैतनिक तथा स्थायी अधिकारी वैतनिक होते हैं।

(I) निर्वाचित अधिकारी निर्वाचित अधिकारी मुख्य रूप से निम्नवत् होते हैं –

नगर प्रमुख – प्रत्येक नगर-निगम में एक नगर प्रमुख होता है। नगर प्रमुख का कार्यकाल पाँच वर्ष का होता है। इस अवधि से पहले अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा ही नगर प्रमुख को पद से हटाया जा सकता है। इस पद के लिए वही व्यक्ति प्रत्याशी हो सकता है, जो नगर का निवासी हो और जिसकी आयु कम-से-कम 30 वर्ष हो। नगर प्रमुख का पद अवैतनिक होता है; उसका निर्वाचन नगर के समस्त मतदाताओं द्वारा वयस्क मताधिकार तथा प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होता है।

उप-नगर प्रमुख – प्रत्येक नगर-निगम में एक ‘उप-नगर प्रमुख भी होता है। नगर प्रमुख की अनुपस्थिति अथवा पद रिक्त होने पर उप-नगर प्रमुख ही नगर प्रमुख के कार्यों का सम्पादन करता है। इसका चुनाव एक वर्ष के लिए सभासद करते हैं।

(II) स्थायी अधिकारी – ये अधिकारी निम्नवत् हैं –

मुख्य नगर अधिकारी – प्रत्येक नगर-निगम का एक मुख्य नगर अधिकारी होता है। यह अखिल भारतीय शासकीय सेवा (I.A.S.) का उच्च अधिकारी होता है। राज्य सरकार इसी अधिकारी के माध्यम से नगर-निगम पर नियन्त्रण रखती है।

अन्य अधिकारी – मुख्य नगर अधिकारी के अतिरिक्त एक या अधिक ‘अपर मुख्य नगर अधिकारी भी राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ प्रमुख अधिकारी भी होते हैं; जैसे—मुख्य अभियन्ता, नगर स्वास्थ्य अधिकारी, मुख्य नगर लेखा परीक्षक, सहायक नगर अधिकारी आदि अनेक वैतनिक अधिकारी भी होते हैं।

नगर निगम का कार्य-क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है। उत्तर प्रदेश के निगमों को 41 अनिवार्य और 43 ऐच्छिक कार्य करने होते हैं; यथा –

अनिवार्य कार्य – इन कार्यों के अन्तर्गत नगर में सफाई की व्यवस्था करना, सड़कों एवं गलियों में प्रकाश की व्यवस्था करना, अस्पतालों एवं औषधालयों का प्रबन्ध करना, इमारतों की देखभाल करना, पेयजल का प्रबन्ध करना, संक्रामक रोगों की रोकथाम की व्यवस्था करना, जन्ममृत्यु का लेखा रखना, प्राथमिक एवं नर्सरी शिक्षा का प्रबन्ध करना, नगर नियोजन एवं नगर सुधार कार्यों की व्यवस्था करना आदि विभिन्न कार्य सम्मिलित किये गये हैं।

ऐच्छिक कार्य – इन कार्यों के अन्तर्गत निगम को पुस्तकालय, वाचनालय, अजायबघर आदि की व्यवस्था के साथ-साथ समय-समय पर लगने वाले मेलों और नुमाइशों की व्यवस्था भी करनी होती है। इन ऐच्छिक कार्यों में ट्रक, बस आदि चलाना एवं कुटीर उद्योगों का विकास करना आदि भी सम्मिलित हैं। इस प्रकार नगर-निगम लगभग उन्हीं समस्त कार्यों को बड़े पैमाने पर सम्पादित करता है, जो छोटे नगरों में नगरपालिका करती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
पंचायती राज के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
या
भारत में पंचायती राज-व्यवस्था का प्रादुर्भाव किस प्रकार हुआ ?
उत्तर :
‘पंचायती राज’ का अर्थ है-ऐसा राज्य जो पंचायत के माध्यम से कार्य करता है। ऐसे शासन के अन्तर्गत ग्रामवासी अपने में से वयोवृद्ध व्यक्तियों को चुनते हैं, जो उनके विभिन्न झगड़ों का निपटारा करते हैं। इस प्रकार के शासन में ग्रामवासियों को अपनी व्यवस्था के प्रबन्ध में प्रायः पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। इस प्रकार पंचायती राज स्वशासन का ही एक रूप है।

यद्यपि भारत के ग्रामों में पंचायतें बहुत पुराने समय में भी विद्यमान थीं, परन्तु वर्तमान समय में पंचायती राज-व्यवस्था का जन्म स्वतन्त्रता के पश्चात् ही हुआ। पंचायती राज की वर्तमान व्यवस्था का सुझाव बलवन्त राय मेहता समिति ने दिया था। देश में पंचायती राज-व्यवस्था सर्वप्रथम राजस्थान में लागू की गयी, बाद में मैसूर (वर्तमान कर्नाटक), तमिलनाडु, ओडिशा, असम, पंजाब, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में भी यह व्यवस्था लागू की गयी। बलवन्त राय मेहता की मूल योजना के अनुसार पंचायतों का गठन तीन स्तरों पर किया गया-

  1. ग्राम स्तर पर पंचायतें
  2. विकास खण्ड स्तर पर पंचायत समितियाँ तथा
  3. जिला स्तर पर जिला परिषद्।

संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम, 1993 द्वारा पूरे प्रदेश में इस व्यवस्था के स्वरूप में एकरूपता लायी गयी है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 19 Local Self Government

प्रश्न 2.
पंचायती राज के गुण-दोषों का उल्लेख कीजिए।
या
पंचायती राज की उपलब्धियों तथा दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
पंचायती राज की उपलब्धियाँ (गुण) –

  1. पंचायती राज पद्धति के फलस्वरूप ग्रामीण भारत में जागृति आयी है।
  2. पंचायतों द्वारा गाँवों में कल्याणकारी कार्यों के कारण गाँव की हालत सुधरी है।
  3. पंचायतों द्वारा संचालित प्राथमिक और वयस्क विद्यालयों के फलस्वरूप गाँवों में साक्षरता और शिक्षा का प्रसार हुआ है।
  4. पंचायतों ने सफलतापूर्वक अपने-अपने क्षेत्र की समस्याओं की ओर अधिकारियों का ध्यान खींचा है।

पंचायती राज के दोष – पंचायती राज पद्धति के कारण गाँवों के जीवन में निम्नलिखित बुराइयाँ भी आयी हैं –

  1. पंचायतों के लिए होने वाले चुनावों में हिंसा, भ्रष्टाचार और जातिवाद का बोलबाला रहता है। यहाँ तक कि निर्वाचित प्रतिनिधि भी इससे परे नहीं होते।
  2. यह भी कहा जाता है कि पंचायती राज के सदस्य चुने जाने के पश्चात् लोग अपने कर्तव्यों को ठीक प्रकार से नहीं करते।
  3. यहाँ रिश्वतखोरी चलती है और धन का बोलबाला रहता है। धनी आदमी पंचों को खरीद लेते हैं।
  4. स्वयं पंच लोग अनपढ़ होते हैं, इसलिए वे विभिन्न समस्याओं को सुलझाने की योग्यता ही नहीं रखते।
  5. पंच लोग पार्टी-लाइनों पर चुने जाते हैं, इसलिए वे सभी लोगों को निष्पक्ष होकर न्याय नहीं दे सकते।

संक्षेप में, भारत में पंचायती राज एक मिश्रित वरदान है।

प्रश्न 3.
ग्राम पंचायत के संगठन, पदाधिकारी, कार्यकाल एवं इसके पाँच कार्यों का विवरण दीजिए। [2011, 12]
उत्तर :
संगठन – ग्राम पंचायत में ग्राम प्रधान के अतिरिक्त 9 से 15 तक सदस्य होते हैं। इसमें 1,000 की जनसंख्या पर 9 सदस्य; 1,000-2,000 की जनसंख्या तक 11 सदस्य; 2,000 3,000 की जनसंख्या तक 13 सदस्य तथा 3,000 से ऊपर की जनसंख्या पर सदस्यों की संख्या 15 होती है। ग्राम पंचायत के सदस्य के रूप में निर्वाचित होने की न्यूनतम आयु 21 वर्ष है। ग्राम पंचायत में नियमानुसार सभी वर्गों तथा महिलाओं को आरक्षण प्रदान किया गया है।

कार्यकाल – ग्राम पंचायत का निर्वाचन 5 वर्ष के लिए होता है, किन्तु विशेष परिस्थितियों में सरकार इसे समय से पूर्व भी विघटित कर सकती है।

पदाधिकारी – ग्राम पंचायत का प्रमुख अधिकारी ग्राम प्रधान’ कहलाता है। प्रधान की सहायता के लिए ‘उप-प्रधान’ की व्यवस्था होती है। प्रधान का निर्वाचन ग्राम सभा के सदस्य पाँच वर्ष की. अवधि के लिए करते हैं। उप-प्रधान का निर्वाचन पंचायत के सदस्य पाँच वर्ष के लिए करते हैं।

पाँच कार्य – ग्राम पंचायत के कार्य निम्नवत् हैं –

  1. कृषि और बागवानी का विकास तथा उन्नति, बंजर भूमि और चरागाह भूमि का विकास तथा उनके अनाधिकृत अधिग्रहण एवं प्रयोग की रोकथाम करना।
  2. भूमि विकास, भूमि सुधार और भूमि संरक्षण में सरकार तथा अन्य एजेन्सियों की सहायता करना, भूमि चकबन्दी में सहायता करना।
  3. लघु सिंचाई परियोजनाओं से जल वितरण में प्रबन्ध और सहायता करना; लघु सिंचाई परियोजनाओं के निर्माण, मरम्मत और रक्षा तथा सिंचाई के उद्देश्य से जलापूर्ति का विनियमन।
  4. पशुपालन, दुग्ध उद्योग, मुर्गी-पालन की उन्नति तथा अन्य पशुओं की नस्लों का सुधार करना।
  5. गाँव में मत्स्य पालन का विकास।

प्रश्न 4.
भारत में स्थानीय स्व-शासन की प्रकृति की व्याख्या कीजिए। [2007]
या
पंचायती राज व्यवस्था के महत्त्व का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए। [2007]
उत्तर :
स्व-शासन की माँग की. तो ब्रिटिश सरकार ने ग्रामीण क्षेत्र में पंचायत और नगर क्षेत्र में नगरपालिका स्तर पर स्व-शासन की शक्तियाँ देना प्रारम्भ किया। कालान्तर में भारत शासन अधिनियम में प्रान्तीय विधानमण्डलों को स्थानीय स्व-शासन’ की बाबत विधान अधिनियमित करने की शक्ति प्रदान की गयी। परन्तु स्वतन्त्र भारत के संविधान-निर्माता इन विद्यमान अधिनियमों से सन्तुष्ट न थे। इसलिए 1949 के संविधान में अनुच्छेद 40 के रूप में एक निर्देश समाविष्ट किया गया। इसके अनुसार, “राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठायेगा और उनको ऐसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो।’

किन्तु अनुच्छेद 40 में इस निर्देश के होते हुए भी पूरे देश में ही इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि प्रतिनिधिक लोकतन्त्र की इकाई के रूप में इन स्थानीय इकाइयों के लिए निर्वाचन कराए जाएँ।

संविधान 73वाँ संशोधन और. 74वाँ संशोधन अधिनियम, 1992 ने इस दिशा में एक गति प्रदान की। अब नयी प्रणाली के अन्तर्गत कुछ नयी बातों का समावेश किया गया; जैसे – जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन, महिलाओं के लिए आरक्षण, निर्वाचनों के संचालन के लिए निर्वाचन आयोग तथा वित्त आयोग जिससे ये संस्थाएँ वित्त की दृष्टि से आत्म निर्भर रह सकें।

वर्तमान स्थानीय स्व-शासन के ढाँचे के स्वरूप एवं प्रवृत्ति को निम्नलिखित रूप में लिपिबद्ध किया जा सकता है –

  1. ग्राम स्तर, ग्राम पंचायत, जिला स्तर पर जिला पंचायत। अन्तर्वर्ती पंचायत जो ग्राम और जिला पंचायतों के बीच होगी।
  2. पंचायत के सभी स्थान पंचायत क्षेत्र के निर्वाचन क्षेत्र में प्रत्यक्ष निर्वाचन से चुने गये व्यक्तियों द्वारा भरे जाएँ।
  3. अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण सुविधा के उनकी जनसंख्या के अनुपात में होगा।
  4. प्रत्येक पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे जाने वाले कुल स्थानों में से स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।

प्रश्न 5.
नगरपालिका परिषद्/नगर निगम के पाँच प्रमुख कार्य बताइए।
या
इसे प्रदेश की नगरपालिकाओं के कोई दो प्रमुख कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2015]
उत्तर
नगरपालिका परिषद्/नगर निगम के पाँच प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. सफाई की व्यवस्था – सम्पूर्ण नगर को स्वच्छ एवं सुन्दर रखने का दायित्व नगरपालिका का ही होता है। यह सड़कों, नालियों और अन्य सार्वजनिक स्थानों की सफाई कराती है। तथा नगर को स्वच्छ रखने के लिए सार्वजनिक स्थानों पर शौचालय एवं मूत्रालयों का निर्माण कराती है।
  2. पानी की व्यवस्था  नगरवासियों के लिए पीने योग्य स्वच्छ जल का प्रबन्ध नगरपालिका परिषद्/नगर निगम ही करती है।
  3. शिक्षा का प्रबन्ध – अपने नगरवासियों की शैक्षिक स्थिति को सुधारने के लिए नगरपालिका परिषदे/नगर निगम, प्राइमरी स्कूल खोलती हैं। ये लड़कियों एवं अशिक्षित लोगों की शिक्षा का विशेष रूप से प्रबन्ध करती हैं।
  4. निर्माण सम्बन्धी कार्य – नगरपालिका परिषदे/नगर निगम नगर में नालियाँ, सड़कें, पुल आदि बनवाने की व्यवस्था करती हैं। सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष एवं पार्क बनवाना भी इनके प्रमुख कार्य हैं। कुछ नगरपालिका परिषदे/नगर निगम यात्रियों के लिए होटल, सरायों एवं धर्मशालाओं की भी व्यवस्था करती हैं। निर्माण सम्बन्धी ये कार्य इनकी ‘निर्माण समिति करती है।
  5. रोशनी की व्यवस्था – सड़कों, गलियों एवं सभी सार्वजनिक स्थानों पर प्रकाश का समुचित प्रबन्ध भी नगरपालिका परिषद्/नगर निगम ही करती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
स्थानीय स्वशासन से आप क्या समझते हैं ? इस प्रदेश में कौन-कौन-सी स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ कार्य कर रही हैं ?
उत्तर :
केन्द्र व राज्य सरकारों के अतिरिक्त, तीसरे स्तर पर एक ऐसी सरकार है, जिसके सम्पर्क में नगरों और ग्रामों के निवासी आते हैं। इस स्तर की सरकार को स्थानीय स्वशासन कहा जाता है, क्योंकि यह व्यवस्था स्थानीय निवासियों को अपना शासन-प्रबन्ध करने का अवसर प्रदान करती है। इसके अन्तर्गत मुख्यतया ग्रामवासियों के लिए पंचायत और नगरवासियों के लिए नगरपालिका उल्लेखनीय हैं। इन संस्थाओं द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति तथा स्थानीय समस्याओं के समाधान के प्रयास किये जाते हैं।

  • नगरीय क्षेत्र – नगर-निगम या नगर महापालिका, नगरपालिका परिषद् और नगर पंचायत।
  • ग्रामीण क्षेत्र – ग्राम पंचायत, न्याय पंचायत, क्षेत्र पंचायत तथा जिला पंचायत।

प्रश्न 2.
उत्तर प्रदेश में स्थानीय स्वशासन के लिए क्या व्यवस्था की गयी है? संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान के 74वें संवैधानिक संशोधन के आधार पर उत्तर प्रदेश के राज्य विधानमण्डल ने उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन अधिनियम, 1994′ पारित किया था तथा इसी के आधार पर प्रदेश में नगरीय स्वायत्त शासन की व्यवस्था की गयी। 1994 ई० के इस अधिनियम से पूर्व उत्तर प्रदेश राज्य के नगरीय क्षेत्रों हेतु स्थानीय स्वायत्त शासन की पाँच संस्थाएँ थीं, परन्तु इस अधिनियम द्वारा अब केवल निम्नलिखित तीन संस्थाएँ ही शेष रह गयी हैं –

  1. वृहत्तर नगरीय क्षेत्र के लिए नगर निगम’।
  2. लघुत्तर क्षेत्र के लिए नगरपालिका परिषद्
  3. संक्रमणशील क्षेत्र के लिए नगर पंचायत’।

प्रश्न 3.
भारत में सनीय संस्थाओं का क्या महत्त्व है ?
उत्तर :
भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में स्थानीय स्वशासी संस्थाओं का देश की राजनीति और प्रशासन में विशेष महत्व है। किसी भी गाँव या कस्बे की समस्याओं का सबसे अच्छा ज्ञान उस गाँव या कस्बे के निवासियों को ही होता है। इसलिए वे अपनी छोटी सरकार का संचालन करने में समर्थ तथा सर्वोच्च होते हैं। इन संस्थाओं का महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट होता है –

  1. इनके द्वारा गाँव तथा नगर के निवासियों की प्रशासन में भागीदारी सम्भव होती है।
  2. ये संस्थाएँ प्रशासन तथा जनता के मध्य अधिकाधिक सम्पर्क बनाये रखने में सहायक होती हैं। इसके फलस्वरूप जिला प्रशासन को अपना कार्य करने में आसानी होती है।
  3. स्थानीय विकास तथा नियोजन की प्रक्रियाओं में भी ये संस्थाएँ सहायक सिद्ध होती हैं।

प्रश्न 4
इस राज्य की आय के चार साधनों का उल्लेख कीजिए। [2009]
उत्तर :
उत्तर प्रदेश की आय के चार साधन निम्नलिखित हैं –

  1. स्थानीय स्वशासन संस्थाओं द्वारा लगाई गई विभिन्न चुंगी व कर।
  2. केन्द्र द्वारा दी गई अनुदान राशि तथा अनुग्रह।
  3. प्रान्त के भीतर विक्रय किए जाने वाले पदार्थों व वस्तुओं पर लगाया गया वाणिज्य-कर।
  4. आबकारी (मादक द्रव्यों) पर लगाया गया शुल्क व नीलामी से प्राप्त राजस्व।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 19 Local Self Government

प्रश्न 5.
ग्राम सभा तथा ग्राम पंचायत में क्या अन्तर है ?
उत्तर :
ग्राम सभा तथा ग्राम पंचायत में निम्नलिखित अन्तर हैं –

  1. ग्राम पंचायत, ग्राम सभा से सम्बन्धित होती है तथा ग्राम सभा के कार्यों का सम्पादन ग्राम पंचायत के द्वारा किया जाता है। इस प्रकार ग्राम पंचायत, ग्राम सभा की कार्यकारिणी होती है। ग्राम पंचायत के सदस्यों का निर्वाचन ग्राम सभा के सदस्य ही करते हैं।
  2. ग्राम सभा का प्रमुख कार्य क्षेत्रीय विकास के लिए योजनाएँ बनाना और ग्राम पंचायत का कार्य उन योजनाओं को व्यावहारिक रूप प्रदान करना है।
  3. ग्राम सभा की वर्ष में दो बार तथा ग्राम पंचायत की माह में एक बार बैठक होना आवश्यक है।
  4. कर लगाने का अधिकार ग्राम सभा को दिया गया है न कि ग्राम पंचायत को।
  5. ग्राम सभा एक बड़ा निकाय है, जब कि ग्राम पंचायत उसकी एक छोटी संस्था है।
  6. ग्राम सभा का निर्वाचन नहीं होता है, जब कि ग्राम पंचायत, ग्राम सभा द्वारा निर्वाचित संस्था होती है।

प्रश्न 6.
नगर पंचायत के प्रमुख कार्य बताइए।
उत्तर :
नगर पंचायत अपने क्षेत्र में वे सभी कार्य करती है जो कार्य नगरपालिका परिषद् द्वारा अपने क्षेत्र में किए जाते हैं। नगर पंचायत के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं –

  1. सार्वजनिक सड़कों, स्थानों व नालियों की सफाई तथा रोशनी का प्रबन्ध।
  2. पर्यावरण की रक्षा।
  3. श्मशान-स्थलों की व्यवस्था।
  4. शुद्ध तथा स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति।
  5. जन्म तथा मृत्यु का पंजीयन।
  6. प्रसूति केन्द्रों तथा शिशु-गृहों की व्यवस्था
  7. पशु चिकित्सालयों तथा प्राथमिक स्कूलों की व्यवस्था।
  8. अग्नि-शमन की व्यवस्था तथा समय-समय पर कानून द्वारा सौंपे गए अन्य समस्त दायित्वों की पूर्ति

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
स्थानीय स्वशासन से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
स्थानीय स्वशासन से आशय है–किसी स्थान-विशेष के शासन का प्रबन्ध उसी स्थान के लोगों द्वारा किया जाना तथा अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं खोजना।

प्रश्न 2.
स्थानीय शासन तथा स्थानीय स्वशासन में दो भेद बताइए।
उत्तर :

  1. स्थानीय शासन उतना लोकतान्त्रिक नहीं होता जितना स्थानीय स्वशासन होता है।
  2. स्थानीय शासन स्थानीय स्वशासन की अपेक्षा कम कुशल होता है।

प्रश्न 3.
क्या पंचायती राज-व्यवस्था अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल हो सकी है ?
उत्तर :
यद्यपि कहीं-कहीं पर पंचायती राज व्यवस्था ने कुछ अच्छे कार्य किये हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि पंचायती राज-व्यवस्था अपने उद्देश्यों की पूर्ति में सफल कम ही हुई है।

प्रश्न 4.
पंचायती राज की तीन स्तरीय व्यवस्था क्या है ?
उत्तर :
पंचायती राज की तीन स्तरीय व्यवस्था के अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों के लिए तीन इकाइयों का प्रावधान किया गया है –

  1. ग्राम पंचायत
  2. पंचायत समिति तथा
  3. जिला परिषद्।

प्रश्न 5.
पंचायती राज को सफल बनाने के लिए किन शर्तों का होना आवश्यक है ?
उत्तर :
पंचायती राज को सफल बनाने के लिए इन शर्तों का होना आवश्यक है –

  1. लोगों का शिक्षित होना
  2. स्थानीय मामलों में लोगों की रुचि
  3. कम-से-कम सरकारी हस्तक्षेप तथा
  4. पर्याप्त आर्थिक संसाधन।

प्रश्न 6.
जिला प्रशासन के दो मुख्य अधिकारियों के नाम लिखिए।
उत्तर :
जिला प्रशासन के दो मुख्य अधिकारी हैं –

  1. जिलाधीश तथा
  2. वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एस०एस०पी०)।

प्रश्न 7.
जिला पंचायत के चार अनिवार्य कार्य बताइए।
उत्तर :
जिला पंचायत के चार अनिवार्य कार्य हैं –

  1. पीने के पानी की व्यवस्था करना
  2. प्राथमिक स्तर से ऊपर की शिक्षा का प्रबन्ध करना
  3. जन-स्वास्थ्य के लिए महामारियों की रोकथाम तथा
  4. जन्म-मृत्यु का हिसाब रखना।

प्रश्न 8.
जिला पंचायत की दो प्रमुख समितियों के नाम लिखिए।
उत्तर :
जिला पंचायत की दो प्रमुख समितियाँ हैं –

  1. वित्त समिति तथा
  2. शिक्षा एवं जनस्वास्थ्य समिति।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 19 Local Self Government

प्रश्न 9.
क्षेत्र पंचायत का सबसे बड़ा वैतनिक अधिकारी कौन होता है ?
उत्तर :
क्षेत्र पंचायत का सर्वोच्च वैतनिक अधिकारी क्षेत्र विकास अधिकारी होता है।

प्रश्न 10.
ग्राम सभा के सदस्य कौन होते हैं ?
उत्तर :
ग्राम की निर्वाचक सूची में सम्मिलित प्रत्येक ग्रामवासी ग्राम सभा का सदस्य होता है।

प्रश्न 11.
अपने राज्य के ग्रामीण स्थानीय स्वायत्त शासन की दो संस्थाओं के नाम लिखिए।
उत्तर :
ग्रामीण स्वायत्त शासन की दो संस्थाओं के नाम हैं –

  1. ग्राम सभा तथा
  2. ग्राम पंचायत।

प्रश्न 12.
ग्राम पंचायत के अधिकारियों के नाम लिखिए।
उत्तर :
ग्राम पंचायत के अधिकारी हैं –

  1. प्रधान तथा
  2. उप-प्रधान।

प्रश्न 13.
ग्राम पंचायत के चार कार्य बताइए। [2010, 11, 16]
उत्तर :
ग्राम पंचायत के चार कार्य हैं –

  1. ग्राम की सम्पत्ति तथा इमारतों की रक्षा करना
  2. संक्रामक रोगों की रोकथाम करना
  3. कृषि और बागवानी का विकास करना तथा
  4. लघु सिंचाई परियोजनाओं से जल वितरण का प्रबन्ध करना।

प्रश्न 14.
ग्राम पंचायतों का कार्यकाल क्या है ?
उत्तर :
ग्राम पंचायतों का कार्यकाल 5 वर्ष होता है। विशेष परिस्थितियों में सरकार इसे कम भी कर सकती है।

प्रश्न 15.
न्याय पंचायत के पंचों की नियुक्ति किस प्रकार होती है ?
उत्तर :
ग्राम पंचायत के सदस्यों में से विहित प्राधिकारी न्याय पंचायत के उतने ही पंच नियुक्त करता है जितने कि नियत किये जाएँ। ऐसे नियुक्त किये गये व्यक्ति ग्राम पंचायत के सदस्य नहीं रहेंगे।

प्रश्न 16.
किन संविधान संशोधनों द्वारा पंचायतों और नगरपालिकाओं से सम्बन्धित उपबन्धों का संविधान में उल्लेख किया गया ?
उत्तर

  1. उत्तर प्रदेश पंचायत विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 द्वारा जिला पंचायत की व्यवस्था।
  2. उत्तर प्रदेश नगर स्वायत्त शासन विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 द्वारा नगरीय क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था।

प्रश्न 17.
नगर स्वायत्त संस्थाओं के नाम बताइए।
उत्तर :

  1. नगर निगम तथा महानगर निगम
  2. नगरपालिका परिषद् तथा
  3. नगर पंचायत।

प्रश्न 18.
नगर-निगम किन नगरों में स्थापित की जाती है ? उत्तर प्रदेश में नगर-निगम का गठन किन-किन स्थानों पर किया गया है ?
उत्तर :
पाँच लाख से दस लाख तक की जनसंख्या वाले नगरों में नगर-निगम स्थापित की जाती हैं। उत्तर प्रदेश के आगरा, वाराणसी, इलाहाबाद, बरेली, मेरठ, अलीगढ़, मुरादाबाद, गाजियाबाद, सहारनपुर, झाँसी, मथुरा, लखनऊ, कानपुर तथा गोरखपुर में नगर-निगम कार्यरत हैं। कानपुर तथा लखनऊ में महानगर निगम स्थापित हैं।

प्रश्न 19.
नगर-निगम के दो कार्य बताइए।
उत्तर :
नगर निगम के दो कार्य हैं –

  1. नगर में सफाई व्यवस्था करना तथा
  2. सड़कों व गलियों में प्रकाश की व्यवस्था करना।

प्रश्न 20.
नगर-निगम की दो प्रमुख समितियों के नाम लिखिए।
उत्तर :
नगर-निगम की दो प्रमुख समितियाँ हैं –

  1. कार्यकारिणी समिति तथा
  2. विकास समिति।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 19 Local Self Government

प्रश्न 21.
नगर-निगम की अध्यक्ष कौन होता है ?
उत्तर :
नगर-निगम का अध्यक्ष नगर प्रमुख होता है।

प्रश्न 22.
नगर-निगम में निर्वाचित सदस्यों की संख्या कितनी होती है ?
उत्तर :
नगर निगम में निर्वाचित सदस्यों (सभासदों) की संख्या सरकारी गजट में दी गयी विज्ञप्ति के आधार पर निश्चित की जाती है। यह संख्या कम-से-कम 60 और अधिक-से-अधिक 110 होती है।

प्रश्न 23.
उत्तर प्रदेश में नगरपालिका परिषद का गठन किन स्थानों के लिए किया जाता है ?
उत्तर :
नगरपालिका परिषद् का गठन 1 लाख से 5 लाख तक की जनसंख्या वाले ‘लघुतर नगरीय क्षेत्रों में किया जाता है।

प्रश्न 24.
जिले में शिक्षा विभाग का सर्वोच्च अधिकारी कौन होता है ?
उत्तर :
जिले में शिक्षा विभाग का सर्वोच्च अधिकारी जिला विद्यालय निरीक्षक होता है।

प्रश्न 25.
जिले के विकास-कार्यों से सम्बन्धित जिला स्तरीय अधिकारी का पद नाम लिखिए।
उत्तर :
मुख्य विकास अधिकारी।

प्रश्न 26.
ग्राम सभा के प्रधान का निर्वाचन कितने वर्ष के लिए होता है? [2011, 15]
उतर :
ग्राम सभा के प्रधान का निर्वाचन 5 वर्ष के लिए होता है।

प्रश्न 27.
स्थानीय स्वशासन के दो मुख्य लाभ लिखिए।
उत्तर :

  1. स्थानीय स्वशासन द्वारा जनता की शासन में सीधी भागीदारी सुनिश्चित हो जाती है।
  2. स्थानीय लोगों के बीच सामंजस्य का विकास होता है और सांस्कृतिक जीवन बहुआयामी रूप से उन्नत बनता है।

प्रश्न 28.
पंचायत के अधिकारों का उल्लेख संविधान की किस अनुसूची में किया गया है? [2010]
उत्तर :
पंचायत के अधिकारों का उल्लेख संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची में किया गया है।

प्रश्न 29.
पंचायती राज-व्यवस्था में कितने स्तर होते हैं? [2013, 16]
उत्तर :
पंचायती राज व्यवस्था में तीन स्तर होते हैं।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
पंचायत समिति का क्षेत्र है
(क) ग्राम
(ख) जिला
(ग) विकास खण्ड
(घ) नगर

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान के किस संशोधन ने पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया [2011, 14]
(क) 71वें संशोधन द्वारा
(ख) 72वें संशोधन द्वारा
(ग) 73वें संशोधन द्वारा
(घ) 74वें संशोधन द्वारा

प्रश्न 3.
संविधान की ग्यारहवीं सूची के अनुसार पंचायतों के क्षेत्राधिकार में कुछ कितने विषयों को रखा गया है
(क) 27
(ख) 28
(ग) 29
(घ) 30

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से किस विषय से 73वें संविधान संशोधन का सम्बन्ध था – [2011, 14, 15]
(क) नगरीय विकास
(ख) पंचायती राज
(ग) आदिवासी क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन
(घ) आरक्षण

प्रश्न 5.
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई है –
(क) ग्राम
(ख) जिला
(ग) प्रदेश
(घ) नगर

प्रश्न 6.
पंचायती राज का सबसे निचला स्तर है –
(क) ग्राम पंचायत
(ख) ग्राम सभा
(ग) पंचायत समिति
(घ) न्याय पंचायत

प्रश्न 7.
न्याय पंचायत के कार्य-क्षेत्र में सम्मिलित नहीं है –
(क) छोटे दीवानी मामलों का निपटारा
(ख) मुजरिमों पर जुर्माना
(ग) मुजरिमों को जेल भेजना
(घ) छोटे फौजदारी मामलों का निपटारा

प्रश्न 8.
जिला परिषद् के सदस्यों में सम्मिलित नहीं है –
(क) जिलाधिकारी
(ख) पंचायत समितियों के प्रधान
(ग) कुछ विशेषज्ञ
(घ) न्यायाधीश

प्रश्न 9.
ग्राम पंचायत की बैठक होनी आवश्यक है –
(क) एक सप्ताह में एक
(ख) एक माह में एक
(ग) एक वर्ष में दो
(घ) एक वर्ष में चार

प्रश्न 10.
नगरपालिका के अध्यक्ष का चुनाव होता है –
(क) एक वर्ष के लिए
(ख) पाँच वर्ष के लिए
(ग) चार वर्ष के लिए।
(घ) तीन वर्ष के लिए

प्रश्न 11.
नगरपालिका परिषद् का ऐच्छिक कार्य है –
(क) नगरों में रोशनी का प्रबन्ध करना
(ख) नगरों में पेयजल की व्यवस्था करना कर
(ग) नगरों में स्वच्छता का प्रबन्ध करना
(घ) प्रारम्भिक शिक्षा से ऊपर शिक्षा की व्यवस्था करना

प्रश्न 12.
जिला परिषद् की आय का साधन है –
(क) भूमि पर लगान
(ख) चुंगी कर
(ग) हैसियत एवं सम्पत्ति कर
(घ) आयकर

प्रश्न 13.
जिला पंचायत कार्य नहीं करती –
(क) जन-स्वास्थ्य के लिए रोगों की रोकथाम करना
(ख) सार्वजनिक पुलों तथा सड़कों का निर्माण करना
(ग) प्रारम्भिक स्तर से ऊपर की शिक्षा का प्रबन्ध करना
(घ) यातायात का प्रबन्ध करना

प्रश्न 14.
निम्नलिखित में से कौन-सा कार्य नगरपालिका परिषद् नहीं करती ?
(क) पीने के पानी की आपूर्ति
(ख) रोशनी की व्यवस्था
(ग) उच्च शिक्षा का संगठन
(घ) जन्म-मृत्यु का लेखा

प्रश्न 15.
जनपद का सर्वोच्च अधिकारी है –
(क) मुख्यमन्त्री
(ख) जिलाधिकारी
(ग) पुलिस अधीक्षक
(घ) जिला प्रमुख

प्रश्न 16.
जिले के शिक्षा विभाग का प्रमुख अधिकारी है –
(क) जिला विद्यालय निरीक्षक
(ख) बेसिक शिक्षा अधिकारी
(ग) राजकीय विद्यालय का प्रधानाचार्य
(घ) माध्यमिक शिक्षा परिषद् का क्षेत्रीय अध्यक्ष

उत्तर :

  1. (क) ग्राम,
  2. (ग) 73वें संशोधन द्वारा
  3. (ग) 29
  4. (ख) पंचायती राज
  5. (ख) जिला
  6. (क) ग्राम पंचायत
  7. (ग) मुजरिमों को जेल भेजना
  8. (घ) न्यायाधीश
  9. (ख) एक माह में एक
  10. (ख) पाँच वर्ष के लिए
  11. (घ) प्रारम्भिक शिक्षा से ऊपर शिक्षा की व्यवस्था करना
  12. (ग) हैसियत एवं सम्पत्ति कर
  13. (घ) यातायात का प्रबन्ध करना
  14. (ग) उच्च शिक्षा का संगठन
  15. (ख) जिलाधिकारी
  16. (क) जिला विद्यालय निरीक्षक।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 19 Local Self Government (स्थानीय स्वशासन) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 19 Local Self Government (स्थानीय स्वशासन), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 21 Reward and Punishment in Education

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 21 Reward and Punishment in Education (शिक्षा में पुरस्कार एवं दण्ड) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 21 Reward and Punishment in Education (शिक्षा में पुरस्कार एवं दण्ड).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 21
Chapter Name Reward and Punishment in Education
(शिक्षा में पुरस्कार एवं दण्ड)
Number of Questions Solved 38
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 21 Reward and Punishment in Education (शिक्षा में पुरस्कार एवं दण्ड)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पुरस्कार का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। छात्रों को दिये जाने वाले पुरस्कारों के मुख्य प्रकारों का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
पुरस्कार का अर्थ एवं परिभाषा
सीखने की प्रक्रिया में पुरस्कार और दण्ड का विशेष महत्त्व है। अच्छा कार्य करने पर पुरस्कार और बुरा कार्य करने पर दण्ड मिलना एक स्वाभाविक बात है। पुरस्कार एक सुखद अनुभव के रूप में प्राप्त होता है, जो कि अच्छे कार्य करने पर व्यक्ति को प्राप्त होता है। किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा भी किसी। व्यक्ति को अच्छे कार्य करने के उपलक्ष्य में पुरस्कार प्रदान किया जाता है। लेकिन शिक्षा में पुरस्कार का महत्त्व मुख्यतया अनुशासन स्थापित करने में है। वास्तव में पुरस्कार अच्छे कार्यों की प्रेरणा देते हैं, जबकि दण्ड बुरे कार्यों को करने से रोकते हैं।

पुरस्कार का अर्थ बालक को अच्छे कार्यों को करने के फलस्वरूप सुखद अनुभूति कराने से है। अच्छे कार्यों को करने से बालक को उल्लास तथा आनन्द की अनुभूति होती है और वह पुनः श्रेष्ठ कार्यों को करने के लिए उत्साहित तथा प्रेरित होता है। पुरस्कार-प्राप्ति की आकाँक्षा से ही बालक श्रेष्ठ कार्य करने के लिए तत्पर हो जाता है और अपनी क्षमताओं का अभूतपूर्व प्रदर्शन भी करता है। इस प्रकार पुरस्कार एक प्रेरणादायक सथा लाभकारी प्रेरक का कार्य करती है।

पुरस्कार की कुछ परिभाषाएँ इस प्रकार हैं

  1. सेवर्ड (Seward) के अनुसार, “पुरस्कार व्यवहार पर अनुकूल प्रभाव डालने के लिए सम्बन्धित कार्य के साथ सुखद स्मृति का संयोजन करना है।”
  2. हरलॉक (Harlock) के अनुसार, “पुरस्कार वांछित कार्य के साथ सुखद साहचर्य स्थापित करने का साधन है।”
  3. रायबर्न (Ryburn) के अनुसार, “पुरस्कार बालक में सर्वोत्तम कार्य करने की भावना जाग्रत करता है।”

उपर्युक्त वर्णित परिभाषाओं द्वारा ‘पुरस्कार’ का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। वास्तव में पुरस्कार एक साधन है जो सम्बन्धित व्यक्ति को अच्छे कार्य करने के लिए प्रेरित करने हेतु इस्तेमाल किया जाता है।

पुरस्कार के प्रकार
पुरस्कार के अनेक रूप या प्रकार हैं। कुछ प्रमुख प्रकारों का विवरण निम्नलिखित है

1. आदर या सम्मान :
जब कोई बालक, अध्ययन, खेलकूद, अनुशासन आदि के क्षेत्र में विशेष योग्यता का प्रदर्शन केरता है, तो उसे छात्रों, अध्यापकों और विद्यालय की ओर से सम्मानित किया जाता ‘ है। उदाहरण के लिए, यदि विद्यालय का कोई छात्र बोर्ड की परीक्षा में प्रदेश भर में प्रथम स्थान प्राप्त करता। है, तो विद्यालय की ओर से उसे सम्मानित किया जाता है। इस प्रकार से दिये जाने वाले पुरस्कार को उच्च कोटि का पुरस्कार माना जाता है।

2. प्रशंसा :
यदि कोई बालक पढ़ने-लिखने, खेलकूद, नाटक आदि में विशेष योग्यता प्रदर्शित करता हो तो विद्यालय के सभी छात्रों के समक्ष उसकी प्रशंसा की जाती है और उसे गौरवान्वित किया जाता है। इस प्रकार की प्रशंसा से बालक की आत्मसन्तुष्टि होती है और उसका उत्साहवर्धन होता है। प्रशंसा “पाने के लिए वह पहले से भी अधिक उत्तम कार्य करने के लिए प्रोत्साहित होता है।

3. छात्रवृत्ति :
यदि कोई बालक अपनी कक्षा में निरन्तर विशिष्ट सफलता प्राप्त करता है और सदैव : *प्रथम स्थान प्राप्त करता है, तो उसे प्रतिमाह छात्रवृत्ति के रूप में एक निश्चित धनराशि प्रदान की जाती हैं। छात्रवृत्ति से छात्र को परिश्रम करने की सशक्त प्रेरणा मिलती है और उसका उत्साहवर्धन भी होता है।

4. सुविधाएँ :
कक्षा में पढ़ाई-लिखाई तथा विद्यालय में खेलकूद में अग्रणी रहने वाले बालक को कुछ विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं। विद्यालय शुल्क में छूट, छात्रावास में नि:शुल्क रहने की सुविधा, पुस्तकों की नि:शुल्क व्यवस्था आदि सुविधाएँ प्रतिभावान बालकों को प्रत्येक विद्यालय में प्राप्त होती हैं। इन सुविधाओं से बालकों को निरन्तरआगे बढ़ने की प्रेरणा प्राप्त होती है।

5. प्रमाण-पत्र :
विद्यालयों में विभिन्न योग्यताओं के प्रदर्शन के उपलक्ष में छात्रों को प्रमाण-पत्र भी प्रदान किये जाते हैं। इन प्रमाण-पत्रों से भी छात्रों को अच्छे कार्य करने की प्रेरणा मिलती है।

6. प्रगति-पत्र पर अंकन :
छात्रों के प्रगति-पत्र पर उनकी विशिष्ट योग्यताओं से सम्बन्धित अंकन भी किये जाते हैं; जैसे परीक्षा में प्रथम श्रेणी या अनुशासन प्रिय छात्रों को ‘ए’ श्रेणी से विभूषित किया जाता है। इन प्रगति-पत्रों से ही छात्रों की विशेषताओं का ज्ञान लोगों को हो जाता है। दूसरी ओर छात्र भी उन्हें लोगों को दिखाते में हर्ष तथा गर्व का अनुभव करते हैं।

7. पदक तथा तसगे या मैडल :
शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्टता प्राप्त करने पर छात्रों को स्वर्ण, रजत, काँस्य आदि धातु के पदक व तमगे आदि प्रदान किये जाते हैं।

8. उपयोगी वस्तुएँ :
कॉलेज के वार्षिकोत्सव के अवसर पर प्रत्येक विद्यालय में विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं। जो छात्र इन प्रतियोगिताओं में विजयी होते हैं, उन्हें पुस्तकें, बनियाने, घड़ी, कलम, हॉकी, जूते-मौजे आदि अनेक उपयोगी वस्तुएँ पुरस्कार के रूप में प्रदान की जाती हैं। इन वस्तुओं से भी छात्रों का उत्साहवर्धन होता है।

9. शील्ड और कप :
खेल-कूद, वाद-विवाद तथा निबन्ध आदि की प्रतियोगिताओं में विजेताओं को व्यक्तिगत या सामूहिक दोनों रूपों में शील्ड या कप प्रदान किये जाते हैं; जैसे-फुटबॉल टूर्नामेण्ट के लिए निर्धारित विशेष कप। इनके अतिरिक्त विजेताओं को बहुत-सी अन्य वस्तुएँ भी पुरस्कार के रूप में प्रदान की जाती हैं।

10. सफलता :
किसी कार्य में सफलता का मिलना ही एक बड़ा पुरस्कार होता है, क्योंकि सफलता से बालक की आत्म-सन्तुष्टि होती है तथा वह प्रगति-पथ पर बढ़ने के लिए प्रेरित तथा प्रोत्साहित होता है।

प्रश्न 2
पुरस्कार देते समय ध्यान में रखने योग्य महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख कीजिए। या शिक्षा में पुरस्कार और दण्ड का महत्त्व अच्छी तरह से स्पष्ट कीजिए। [2008]
उत्तर :
पुरस्कार देते समय ध्यान रखने योग्य महत्त्वपूर्ण बातें। यह सत्य है कि शिक्षा के क्षेत्र में बालकों को पुरस्कार देने का विशेष महत्त्व है, परन्तु पुरस्कारों से अधिकतम लाभ तेभी हो सकता है, जब उनको देते समय निम्नलिखित बातों पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाए

  1. पुरस्कार उसी छात्र को देना चाहिए जो कि पुरस्कार पाने का उचित अधिकारी हो, अर्थात् पुरस्कार देने में पक्षपात नहीं करना चाहिए। यदि अधिकारीगण निष्पक्ष भाव से पुरस्कार देने का कार्य नहीं करते हैं। और किसी छात्र के साथ पक्षपात करते हैं तो अन्य छात्रों में असन्तोष की भावना उत्पन्न होगी तथा उनमें अनुशासनहीनता बढ़ जाएगी।
  2. पुरस्कार की घोषणा उचित अवसर पर की जानी चाहिए।
  3. पुरस्कार विशेष रूप से उन बालकों को देना चाहिए जो विभिन्न क्षेत्रों में समान रूप से विशिष्ट योग्यता को प्रदर्शन करें, क्योंकि शिक्षा का मूल उद्देश्यलालक का सर्वांगीण विकास करना ही है।
  4. पुरस्कार जीवन की साधारण बातों; जैसे–समयपालन, नियमपालन, स्वच्छता, शिष्ट व्यवहार, परिश्रम आदि पर देने चाहिए। जीवन की बड़ी बातों; जैसे-सत्यप्रियता, संयम, प्रेम, ईमानदारी आदि पर छोटे-छोटे पुरस्कार नहीं देने चाहिए। इससे उनका महत्त्व कम हो जाता है।
  5. पुरस्कार उन गुणों के लिए देना चाहिए जो छात्र ने अपने प्रयल. या परिश्रम द्वारा विकसित किये हों। जन्मजात विशेषताओं के लिए पुरस्कार नहीं देना चाहिए।
  6. छात्रों को केवल प्रेरणा देने के लिए ही पुरस्कार दिये जाने चाहिए। पुरस्कार मिलने के लालच में ही अच्छे कार्य करने की आदत उनमें नहीं पड़ने दी जानी चाहिए।
  7. पुरस्कार मूल्यवान नहीं होने चाहिए, क्योंकि इससे छात्रों में ईष्र्या-द्वेष की भावना में वृद्धि होती है।
  8. छोटे बच्चों को वर्ष में कई बार पुरस्कार देने चाहिए, जबकि बड़े बालकों को केवल महत्त्वपूर्ण अवसरों पर ही पुरस्कार देने चाहिए।
  9. पुरस्कार तभी दिया जाना चाहिए, जब आलक ने कठोर परिश्रम किया हो। बिना परिश्रम के पुरस्कार मिलने से विपरीत प्रभाव पड़ता है।
  10. पुरस्कार इस विधि से वितरित करने चाहिए कि बालकों में व्यक्तिगत भावना के साथ सामूहिक भावना का विकास हो।
  11. पुरस्कार इतनी अधिक संख्या में नहीं देने चाहिए, जिससे प्रत्येक छात्र को पुरस्कार मिल जाए। ऐसा करने से पुरस्कार का महत्त्व कम हो जाता है।

प्रश्न 3
दण्ड से आप क्या समझते हैं ? छात्रों को दिये जाने वाले दण्ड के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
दण्ड का अर्थ एवं परिभाषा
जब भी कहीं ‘पुरस्कोर’ की चर्चा होती है, वहीं साथ-ही-साथ दण्ड की भी बात की जाती है। दण्ड और पुरस्कार दो विरोधी अवधारणाएँ हैं। पुरस्कार जहाँ सुखदायक है, क्हीं दण्ड कष्टदायी है। पुरस्कार को उद्देश्य बालकों को आनन्द की अनुभूति कराना है, जबकि दण्ड का लक्ष्य बालक को कष्ट की अनुभूति कराना है। जब किसी बालक को किसी कार्य के परिणामस्वरूप कष्टदायक अनुभव प्राप्त होता है, चाहे वह प्रकृति-प्रदत्त हो या अर्जित, तब उसे दण्ड कहा जाता है। सृष्टि के प्रारम्भ से ही दण्ड व्यवस्था रही है, जब कोई व्यक्ति प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करता है तो समाज उसे दण्ड देता है।

सामान्य अर्थ में निर्धारित नियमों का पालन न करना तथा उनके अनुकूल बाबर ने करना ही अपराध है और दण्ड अफ्ष की वह प्रतिक्रिया है, जो विद्यालय या समाज द्वारा अपराधी के आचरण के विरुद्ध प्रदर्शित की जाती है। इस प्रकार “दण्ड का अर्थ है-कष्ट, जुर्माना या न्यायानुसार दण्ड, शारीरिक पीड़ा अथवा डाँट-फटकार देना।” देण्ड के सामान्य अर्थ को जान लेने के उपरान्त दण्ड की कुछ व्यवस्थित परिभाषाओं का उल्लेख करना भी आवश्यक है। दण्ड की कुछ मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं।

  1. सदरलैण्ड के अनुसार, “दण्ड में वह पीड़ा या कष्ट निहित है जो जानबूझकर दी जाती है और किसी ऐसे मूल्य द्वारा उचित ठहराई जाती है, जिसे उसे पीड़ा में छिपा माना जाता है।”
  2. टेफ्ट के अनुसार, “हम दण्ड की परिभाषा उस चेतन दबाव के रूप में कर सकते हैं, जो समाज की शान्ति भंग करने वाले व्यक्ति को अवांछनीय अनुभवों वाला कष्ट देता है। यह कष्ट सदैव ही उस व्यक्ति के हित में नहीं होता।”
  3. थॉमसन के अनुसार, “दण्ड एक साधन है, जिसके द्वारा अवांछनीय कार्य के साथ दुःखद भवना. को सम्बन्धित करके उसको दूर करने का प्रयास किया जाता है।
  4. सेना के अनुसार, “दण्ड एक प्रकार की सामाजिक निन्दा है और इसमें यह आवश्यक नहीं है। कि पीड़ा या कष्ट सम्मिलित हो।”

दण्ड के प्रकार
दण्ड अनेक प्रकार के होते हैं, जिन्हें हम दो वर्गों में रख सकते हैं।

I. सरल दण्ड
सरल दण्ड वे होते हैं, जिसके देने से दण्डित होने वाले को कोई बड़ी शारीरिक क्षति नहीं पहुँचती है। सरल दण्ड निम्नलिखित होते हैं

1. डाँटना व फटकारना :
छोटे-मोटे अपराधों के लिए बालक को सबके सामने डाँटना, फटकारना या झिड़क देना ही पर्याप्त है। सबके सामने डाँटे जाने पर बालक लज्जित हो जाते हैं। और साधारणतया अपराध की पुनरावृत्ति नहीं करते हैं। लेकिन डाँटना, फटकारना समयानुकूल हो और केवल आवश्यकता पड़ने पर ही इसका प्रयोग किया जाए, अन्यथा बहुत अधिक डॉटने पर बालक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

2. अवकाश के बाद रोकना :
जब कोई छात्र नियमित रूप से कक्षा में देर से आने लगे या गृह-कार्य नियमित रूप से न करें तो विद्यालय के अवकाश के बाद भी उसे रोका जा सकता है। इस समय उसे पढ़ने-लिखने का कार्य नहीं देना चाहिए, अन्यथा अध्ययन से अरुचि हो जाएगी, किन्तु रोक लेने पर उसके घर में सूचना अवश्य भिजवा देनी चाहिए।

3. आर्थिक दण्ड :
कक्षा में देर से आने, लगातार कई दिनों तक कक्षा में अनुपस्थित रहने या विद्यालय की कोई वस्तु तोड़ देने पर छात्र को आर्थिक दण्ड दिया जा सकता है। किन्तु वास्तव में यह दण्ड तो अभिभावकों को दिया जाता है, क्योंकि उसका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से बालक पर नहीं पड़ता। तथापि बालकों की गलतियों के लिए उन्हें इस रूप में दण्डित किया जा सकता है। आजकल विद्यालयों में आर्थिक दण्ड बहुत प्रचलित है, क्योंकि यह दण्ड देनी असान होता है और अन्य प्रकार के दण्डों के लिए अध्यापकों को सोच-विचार करना पड़ता है।

4. नैतिक दण्ड :
इसके अन्तर्गत निम्नलिखित दण्ड दिये जाते हैं

  1. अपमानित करना : कक्षा में गलती करने वाले छात्र को मूर्ख बनाकर अपमानित किया जाता है, किन्तु इससे छात्रं में अध्यापक के प्रति प्रतिशोध की भावना उत्पन्न होती है।
  2. क्षमा-याचना : अपराधी बालक को भरी कक्षा में या विद्यालय के सभी छात्रों के सामने क्षमा-याचना करने का आदेश दिया जाता है।
  3. स्थान परिवर्तन : गलती करने वाले छात्र को कक्षा में सबसे पीछे बिठा देना या एक कोने से दूसरे कोने में बिठा देना ही इस प्रकार का दण्ड है।
  4. सुविधाओं से वंचित करना : अपराध करने पर परिस्थिति के अनुकूल छात्रों को अनेक सुविधाओं से वंचित कर देना भी एक दण्ड है। ये सुविधाएँ हैं-आधी या पूरी शुल्क छूट को रद्द करना, पुस्तकीय सहायता से वंचित कर देना, छात्रावास में नि:शुल्क रहने की सुविधा समाप्त कर देना आदि।
  5. कक्षा में प्रवेश निषेध : कक्षा में निरन्तर अन्य छात्रों को परेशान करने पर उस छात्र को कक्षा के अन्दर आने की अनुमति न देना भी एक दण्ड है। कुछ अध्यापक देर से आने वाले छात्रों को भी कक्षा में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देते हैं। इससे उनकी पढ़ाई में क्षति पहुँचती है और वे अन्य बुराइयों में लिप्त हो जाते हैं। अतः यह दण्ड किन्हीं विशेष परिस्थितियों में ही दिया जाना चाहिए।
  6. विद्यालय से निष्कासन : गम्भीर अपराध करने या बार-बार अपराध करने पर छात्र को विद्यालय से निष्काषित भी कर दिया जाता है। लेकिन मनोवैज्ञानिक इस दण्ड को अनुचित मानते हैं, क्योंकि इससे छात्र का सुधार नहीं होता है।
  7. अतिरिक्त कार्य देना : ऐसे छात्रों को जो, खाली समय होने के कारण या जल्दी कार्य कर लेने पर बदमाशी करते हैं, अतिरिक्त कार्य दे, देना चाहिए ताकि वे काम में लगे रहें। लेकिन यह दण्ड भी बड़ी सावधानी के साथ देना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि अधिक कार्य से उसे अरुचि हो जाए।
  8. खेल तथा अन्य सामूहिक कार्यों से वंचित करना : छात्रों में एक साथ कार्य करने, खेलने तथा बातें करने की भावना बड़ी प्रबल होती है। अत: सामूहिक कार्यों से वंचित कर देने पर और कुछ समय के लिए अकेला हो जाने पर छात्र को कष्ट होता है। इसलिए समयानुकूल यह एक उपयोगी दण्ड है।
  9. प्रगति-पत्र पर उल्लेख छात्र के प्रगति : पत्र पर अपराध का विवरण लिख दिया जाए, जिससे छात्र तथा उसके प्रगति-पत्र को पढ़ने वाले अपराध के विषय में जान जाएँ और छात्र को उससे लज्जा का अनुभव हो।

II. शारीरिक दण्ड या कठोर दण्ड
शारीरिक दण्ड के अन्तर्गत थप्पड़ मारना, घूसा जमाना, कान उमेठना, बेंत मारना, मुर्गा बनाना तथा दण्ड-बैठक कराना आदि हैं। पहले विद्यालयों में इस प्रकार के दण्डों का विशेष प्रचलन था, लेकिन कभी-कभी इनके भयंकर परिणाम होते थे और बालक अंगहीन तक हो जाते थे। लेकिन आजकल सामान्यतया इसका प्रयोग वर्जित है। इन दण्डों का प्रयोग तभी करना चाहिए, जब अन्य सभी उपाय असफल हो जाएँ।

जहाँ तक सम्भव हो सुधारात्मक दण्ड ही देने चाहिए। यदि शारीरिक दण्ड देने आवश्यक ही हों तो यह केवल शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट बच्चों को ही दिये जाएँ, कमजोर तथा चौदह वर्ष से कम आयु वाले छात्रों को ये दण्ड न दिये जाएँ, न ही क्रोध के आवेश में दिये जाएँ। लेकिन ऐसे दण्ड अपराध करने के तुरन्त बाद ही दिये जाने चाहिए।

प्रश्न 4
दण्ड देते समय ध्यान में रखने योग्य महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख कीजिए। या विद्यालय में दण्ड देते समय किन-किन सावधानियों को ध्यान में रखना आवश्यक है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
दण्ड देते समय ध्यान रखने योग्य महत्त्वपूर्ण बातें
विद्यालय में अनुशासन स्थापित करने में दण्डों का अपना एक विशेष महत्त्व है। इसके बिना अनुशासन स्थापित होना कठिन है। दण्ड अनेक प्रकार के होते हैं। कौन-सा दण्ड कब दिया जाए, कितनी मात्रा में दिया जाए, किसके द्वारा दिया जाए आदि कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनका उत्तर जाने बिना हम दण्डों से यथोचित लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। इसीलिए दण्ड देते समय बहुत-सी सावधानियाँ रखनी पड़ती हैं। इनका विवरण इस प्रकार है

1. दण्ड अपराध के अनुरूप हो :
जिस प्रकार का अपराध किया जाए, उसी के अनुरूप या उसी प्रकार का दण्ड भी दिया जाए। यदि कोई छत्र कक्षा में देर से आता है तो उसे छुट्टी के बाद देर तक रोका जाए। यदि वह गृहकार्य करके नहीं लाता तो अपने सामने उसे गृह-कार्य करायें। आजकल अधिकतर अपराधों के लिए आर्थिक दण्ड दिया जाता है, जो कि उचित नहीं है। केवल विद्यालय की कोई वस्तु तोड़ने पर ही आर्थिक दण्ड देना चाहिए।

2. दण्ड अपराध के अनुपात में हो :
छोटे अपराध करने पर छोटा दण्ड और बड़ा अपराध करने पर बड़ा दण्ड देना चाहिए। दण्ड की मात्रा अपराध की गम्भीरता के अनुकूल होनी चाहिए, तभी उसका यथोचित प्रभाव पड़ता है।

3. दण्ड बालक की प्रकृति के अनुरूप हो :
कुछ बालक शरीर से कमजोर होते हैं। ऐसे बालकों को कठोर शारीरिक दण्ड नहीं देना चाहिए। कुछ बालकों को थोड़ा डाँटने भर से ही गहरा प्रभाव पड़ जाता है, उन्हें अधिक मात्रा में दण्ड नहीं देना चाहिए। कुछ बालकों पर साधारण झिड़कियों का कोई प्रभाव नहीं | पड़ता, ऐसे बालक के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था होनी चाहिए।

4. दण्ड गम्भीरता के साथ देना चाहिए :
दण्ड देते समय अध्यापक को गम्भीर रहना चाहिए। प्रफुल्ल मुद्रा या मजाक करते हुए दण्ड नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि इसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता. और छात्र दण्ड के महत्त्व को नहीं समझ पाता।

5. दण्ड के कारण का ज्ञान :
दण्डित होने वाले छात्र को यह अवश्य ज्ञान होना चाहिए कि उसे किस कारण से दण्ड दिया जा रहा है, तभी छात्र अपराध के कारण को दूर करने का प्रयास करेगा।

6. समयानुकूल दण्ड :
अंपराध और दण्ड के मध्य समय का अन्तराल अधिक नहीं होना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो सके अपराध करने के तुरन्त बाद दण्ड दिया जाना चाहिए ताकि अपराध और दण्ड में सम्बन्ध बना रहे। अपराध के बहुत समय बाद दण्ड देने से दोनों के बीच सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाता।

7. उचित दण्ड :
किसी अपराध के लिए जो दण्ड दिया जाए, वह अध्यापक, दण्डित होने वाले छात्र और अन्य छात्रों की दृष्टि में उचित होना चाहिए। दण्ड अनुचित होने पर छात्रों में असन्तोष की भावना उत्पन्न होती है।

8. सम्पूर्ण समूह को दण्ड नहीं देना चाहिए :
कभी-कभी कक्षा के कुछ छात्र शोरगुल करते हैं या गलती करते हैं तो कक्षा के सभी छात्रों पर मार पड़ती है या जुर्माना किया जाता है। यह सुधारक दण्ड
अनुचित है। दण्ड केवल उन्हीं छात्रों को देना चाहिए, जिन्होंने कोई ) दण्ड देने वाले का व्यक्हार अपराध किया हो।

9. दण्ड विचारपूर्वक दिया जाए :
अपराध के कारण को। जानकर तथा अपराध की गुरुता को समझकर ही दण्ड देना चाहिए, अन्यथा कभी-कभी गलत दण्ड दे दिया जाता है। अतः दण्ड देने से पूर्व विचार-विमर्श करना आवश्यक है।

10. उदाहरण बोध दण्ड :
अपराधी बालक को इस प्रकार दण्डित करना चाहिए कि अन्य देखने वाले छात्रों के सामने वह एक उदाहरण का कार्य करे और अन्य छात्र इस प्रकार का अपराध करने की ओर प्रवृत्त न हों।

11. सुधारक दण्ड :
दण्ड में बदले या प्रतिशोध की भावना नहीं होनी चाहिए। दण्ड सुधार करने की भावना से दिये जाने चाहिए, तभी उनको यथेष्ट प्रभाव पड़ता है।

12. दण्ड देने वाले का व्यवहार सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए :
दण्ड क्रोध या बदले की भावना से न देकर सहानुभूतिपूर्ण तरीके से देना चाहिए ताकि छात्र यह समझे कि अध्यापक हमारा हितचिन्तक है। इसलिए मुझे अमुक अपराध के लिए दण्डित किया गया है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
छात्रों को पुरस्कार देने के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
छात्रों को पुरस्कार देने के निम्नलिखित उद्देश्य हो सकते हैं।

1. अनुशासन के प्रति आस्था :
जब अनुशासित रहने पर या अनुशासन सम्बन्धी उत्तम कार्य करने पर छात्रों को पुरस्कृत किया जाता है, तो उनकी अनुशासन के प्रति आस्था अधिक बढ़ जाती है। दूसरे शब्दों में, पुरस्कार द्वारा छात्रों में अनुशासन स्थापित किया जा सकता हैं।

2. स्वस्थ प्रतियोगिता जाग्रत करना :
प्रायः यह देखा गया है कि पढ़ने-लिखने या खेल-कूद में। छात्रों में फ्रस्पर प्रतिस्पर्धा होने लगती है। एक छात्र दूसरे छात्र से आगे निकलने की भरसक कोशिश करता है। इससे विकास तथा सीखने की क्रिया अति तीव्र हो जाती है। अतः पुरस्कार छात्रों में स्वस्थ प्रतियोगिता को उत्पन्न करते हैं और छात्रों को अधिक परिश्रम करने के लिए प्रेरित करते हैं। इसीलिए सीखने तथा अनुशासन में पुरस्कार का विशेष महत्त्व है।

3. अध्यापकों के प्रति आदर की भावना :
पुरस्कार द्वारा छात्रों का उत्साहवर्धन होता है। उन्हें प्रसन्नता प्राप्त होती है तथा अपने अध्यापकों के प्रति उनके हृदय में आदर के भाव उत्पन्न होते हैं और बढ़ते हैं। अतः अध्यापकों के प्रति आदर की भावना उत्पन्न करना पुरस्कार का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है।

4. अच्छे मर्यों के प्रति उत्साह उत्पन्न करना :
यह निर्विवाद सत्य है कि पुरस्कार प्राप्त होने पर छात्र को सुख मिलता है। अतः जिस कार्य से पुरस्कार का सम्बन्ध होता है उस कार्य से छात्र को लगाव हो जाता है और वह अच्छे कार्य करने के लिए प्रेरित तथा उत्साहित होता है।

5. कार्यों में रुचि जाग्रत करना :
जिन कार्यों के लिए पुरस्कार दिये जाते हैं, उनमें छात्रों की रुचि उत्पन्न हो जाती है और वे उन कार्यों को मन लगाकर करना पसन्द करते हैं।

6. चरित्र का विकास :
पुरस्कारों द्वारा उत्तम कार्यों तथा अच्छी बातों के प्रति छात्र के मन में स्थायी भाव बन जाते हैं। इस प्रकार पुरस्कार छात्र के चरित्र के विकास में भी सहायक होते हैं।

प्रश्न 2
पुरस्कार देने के मुख्य लाभों का उल्लेख कीजिए। [2011, 14]
या
सीखने में पुरस्कार की आवश्यकता एवं महत्त्व पर प्रकाश डालिए। (2007)
उत्तर :
पुरस्कार देने से निम्नांकित लाभ होते हैं

  1. पुरस्कार बालकों को प्रेरित करते हैं तथा आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
  2. पुरस्कार सुर्खदायक होते हैं। अत: वे बालक में कार्य के प्रति रुचि तथा उत्साह उत्पन्न करते हैं।
  3. पुरस्कार व्यक्ति के आत्म-सम्मान में वृद्धि करते हैं तथा उसके अहम् की सन्तुष्टि करते हैं। इसके साथ ही वे उसमें उच्च अनुशासन का भाव उत्पन्न करते हैं।
  4. पुरस्कार अच्छे कार्यों को उल्लास से प्रतिबद्ध कर देते हैं और इस प्रकार उनकी आवृत्ति अधिक होने लगती है।
  5. पुरस्कार बालकों की आकाँक्षा स्तर को भी ऊँचा उठाते हैं। इसके फलस्वरूप बालक अपने को सदैव अच्छा बनाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।
  6. पुरस्कारों से प्रेरित होकर बालक आत्म-निर्देशित होता है तथा उसमें विचारों की सक्रियता और गतिशीलता उत्पन्न होती है।
  7. आर्थिक लाभ से युक्त पुरस्कार छात्रों को आर्थिक दृष्टि से भी लाभ पहुँचाते हैं।
  8. पुरस्कार बालक को उत्तम आचरण की दिशा में प्रवृत्त करते हैं। इनसे उसका आचरण नियन्त्रित भी होती है।
  9. बालकों में परस्पर प्रतिस्पर्धा तथा प्रतियोगिता का विकास होता है और उनमें आगे बढ़ने की होड़ लग जाती है।
  10. बालकों के पुरस्कृत होने पर उनसे सम्बन्धित अध्यापक, माता-पिता और अभिभावक आदि भी गौरवान्वित होते हैं और बालक को आगे तथा उन्नति करने के लिए सदैव प्रेरित करते रहते हैं। बालक भी उनकी असलेता तथा अपनी आत्म-सन्तुष्टि कायम रखने के लिए कठोर परिश्रम करते हैं।

प्रश्न 3.
पुरस्कार वितरण से होने वाली हानियों का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर :
इसमें सन्देह नहीं है कि पुरस्कारों का शिक्षा में विशेष महत्त्व है, तथापि थॉमसन (Thomson) व अन्य मनोवैज्ञानिकों ने पुरस्कारों द्वारा होने वाली अनेक हानियों का भी उल्लेख किया है, जिनमें प्रमुख अलिखित हैं

  1. पुरस्कार पाने के लालच में कभी-कभी बालक खेलकूद तथा पाठ्य सहगामी क्रियाओं में अधिक भाग लेने लगते हैं, जिससे उनकी पढ़ाई-लिखाई चौपट हो जाती है तथा उनकाशैक्षिक स्तर काफी गिर जाता है।
  2. पुरस्कार छात्रों में पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष की भावना उत्पन्न कर देते हैं। इस भावना के कारण छात्र कभी-कभी एक-दूसरे को भारी अहित कर बैठते हैं।
  3. जब बालकों को ध्यान पुरस्कार पर केन्द्रित हो जाता है तो वे प्रत्येक कार्य पुरस्कार प्राप्त करने के लिए ही करते हैं। यदि किसी कार्य में पुरस्कार मिलने वाला नहीं होता तो वे उसकी ओर समुचित ध्यान नहीं देते हैं।
  4. पुरस्कार बालकों का ध्यान कार्य या कर्तव्यं से हटाकर परिणाम पर केन्द्रित करते हैं। इससे कभी-कभी कर्तव्य की अवहेलना हो जाती है।
  5. पुरस्कार छात्रों को प्रायः बाह्य रूप से प्रेरित करते हैं तथा कार्य में उनकी वास्तविक रुचि उत्पन्न नहीं करते।
  6. पुरस्कार न पाने वाले छात्रों में हीनता की भावना उत्पन्न होती है और वे कुण्ठाग्रस्त हो जाते हैं।
  7. प्रायः बालक धोखा देकर भी पुरस्कार पाने का प्रयास करते हैं।

प्रश्न 4
दण्ड क्या है? शिक्षा में इसकी क्या उपयोगिता है? [2016]
या
शिक्षा के क्षेत्र में दण्ड का क्या स्थान है?
उत्तर :
जब किसी व्यक्ति को किसी कार्य के परिणामस्वरूप कष्टदायक अनुभव प्राप्त होता है, चाहे वहु प्रकृति-प्रदत्त हो या अर्जित, तब उसे दण्ड किसी व्यक्ति को अनुचित कार्य करने पर दिया जाता  हैं।

शिक्षा में दण्ड की उपयोगिता
शिक्षा के क्षेत्र, में अनुशासन स्थापित करने में दण्ड का विशेष महत्त्व है। मध्यकालीन शिक्षा में दण्ड’ को अनुशासन स्थापना का प्रमुख साधन समझा जाता था। उस समय उक्ति प्रचलित थी कि डण्डा छूटा बालक बिगड़ा (Spare the rod and spoil the child)। उस समय छात्र द्वारा गलती करने पर उसे कठोरतमै दण्ड दिया जाता था। मध्यकाल में शारीरिक दण्ड की प्रधानता थी।

लेकिन बाद में शिक्षा के क्षेत्र में मनोवैज्ञानिक विचारधारा के प्रवेश के फलस्वरूप शारीरिक दण्ड़ की प्रधानता समाप्त हो गयी, किन्तु अन्य प्रकार को दण्ड आज भी प्रचलित है, क्योंकि दण्ड के अभाव में अनुशासन की स्थापना करना एक कल्पना ही है। छात्रों की बुरी आदतों को छुड़ाने, उन्हें अनुचित कार्य करने से रोकने तथा बुराइयों से बचाने के लिए दण्ड अत्यन्त आवश्यक है। दण्ड के स्वरूप को निर्धारित करने में विशेष सूझ-बूझ से काम लेना चाहिए। दण्ड का उद्देश्य सदैव सुधारात्मक ही होना चाहिए।

प्रश्न 5
विद्यालयों में दण्ड की व्यवस्था के मुख्य लाभ क्या हैं?
या
दण्ड के दो लाभ बताइए। [2011]
उत्तर :
शिक्षा के क्षेत्र में दण्ड से निम्नांकित लाभ हैं

1. गलतियों पर रोक :
किसी गलती पर यदि छात्र को दण्डं मिल जाता है तो वह उसे गलती से दूर रहने की कोशिश करता है और उसकी पुनरावृत्ति नहीं करता।

2. अपराधों में कमी :
दण्ड द्वारा छात्र की अपराधी प्रवृत्ति में सुधार हो जाता है, जिससे उसके अपराधों में निरन्तर कमी आने लगती है। अपराध के फलस्वरूप मिला हुआ दण्ड दुःख की अनुभूतियों से जुड़ जाता है और बालक अपराधी कार्य से दूर रहता है।

3. अपराधों पर नियन्त्रणं :
किसी छात्र को जब किसी अनुचित कार्य के लिए दण्ड मिलता है तो अन्य छात्र भी उस कार्य को नहीं करते, क्योंकि उन्हें भी दण्ड पाने का भय लगने लगता है। इस प्रकार दण्डों से भावी अपराधों पर नियन्त्रण हो जाता है।

4. अनुशासन की स्थापना :
कुछ छात्र ऐसे भी होते हैं, जो सकारात्मक उपायों से नहीं सुधरे सकते। उन्हें सुधारने और अनुशासित रखने के लिए दण्ड बहुत आवश्यक तथा उपयोगी होते हैं।

5. बुरी आदतों को छुड़ाना :
बुरी आदतों को छुड़ाने के लिए उनके साथ दुःखद या अप्रिय अनुभूतियों को प्रतिबद्ध करना उपयोगी होता है। बुरी आदतों के फलस्वरूप दण्ड पाने पर छात्र उन आदतों से बचते हैं।

6. चरित्र :
निर्माण में सहायक-दण्ड के फलस्वरूप छात्रों में अनेक प्रकार के दुर्गुणों का विकास नहीं हो पाता। इससे भी उनके चरित्र की समुचित विकास होता है।

प्रश्न 6
विद्यालयों में दण्ड की व्यवस्था होने की क्या हानियाँ हो सकती हैं?
या
दण्ड की दो हानियाँ लिखिए। (2015)
उत्तर :
प्राय: यह देखा गया है कि दण्ड देने वालों की असावधानी से दण्डों का दुरुपयोग हो जाता है। ऐसी दशा में दण्ड से अनेक हानियाँ होती हैं। इन हानियों का विवेचन निम्नलिखित है

1.प्रतिशोध की भावना :
दण्डिस होने पर दण्ड देने वाले के प्रति छात्रों में बदला या प्रतिशोध लेने की भावना प्रबल हो जाती है और अवसर पाने पर वे अपने दण्ड का प्रतिशोध लेने की कोशिश करते हैं।

2. अपराधों पर अधिक बल :
प्रायः देखा गया है कि अध्यापक दण्ड देते समय छात्र के अपराध या गलती का बार-बार लेख करता है और बताता है कि उसी गलती के लिए उसे दण्ड दिया जा रहा है। इस प्रकार छात्र के मन पर अपराध या गलती की गहरी छाप पड़ जाती है, जो हानिकारक होती है।

3. मानसिक विकास में अवरोध :
अधिक कठोर दण्ड देने से छात्रों में असन्तोष की भावना उत्पन्न होती है और उनका मानसिक विकास भी अवरुद्ध हो जाता है।

4. भावना-ग्रन्थियों का निर्माण :
कठोर दण्ड छात्रों की इच्छा या भावनाओं को दबा देते हैं, जिससे वे अचेतन मन में जाकर ग्रन्थियों का निर्माण करती हैं तथा उन्हें कुण्ठाग्रस्त बना देती हैं।

5. अस्थायी प्रभाव :
छात्र पर दण्ड का प्रभाव स्थायी नहीं हो पाता। दण्ड के भय से छात्र भले ही कोई कार्य करना छोड़ दे, किन्तु दण्ड से उसके हृदय का परिवर्तन नहीं होता है।

6. दण्ड का आदी होना :
बार-बार दण्डित होने पर छात्र दण्ड का आदी हो जाता है और दण्ड का उस पर क्षणिक प्रभाव ही पड़ता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
विद्यालय में छात्रों को किन-किन क्षेत्रों में पुरस्कार दिये जा सकते हैं ?
उत्तर :
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य विशिष्ट या उल्लेखनीय कार्य कर सकता है। अत: प्रत्येक क्षेत्र में पुरस्कार दिये जा सकते हैं। विद्यालय में भी छात्रों द्वारा अनेक क्षेत्रों में प्रशंसनीय कार्य किये जाते हैं। कुछ प्रमुख क्षेत्र, जिनमें पुरस्कार देने चाहिए, निम्नलिखित हैं

  1. बौद्धिक क्षेत्र – बौद्धिक कार्यो; जैसे-पढ़ने-लिखने, वाद-विवाद तथा निबन्ध प्रतियोगिताओं आदि के लिए पुरस्कारों की व्यवस्था होनी चाहिए।
  2. शारीरिक कार्य – शारीरिक स्वास्थ्य, कुश्ती, खेलकूद आदि के लिए भी पुरस्कार देने चाहिए।
  3. नैतिक श्रेष्ठता – नैतिक दृष्टि से उत्तम आचरण करने वाले छात्रों को भी पुरस्कार दिये जाने चाहिए।
  4. सामुदायिक कार्य – सामुदायिक कार्य के सम्पादन तथा सामुदायिक भावना के विकास के लिए पुरस्कार दिये जाने चाहिए।
  5. उपस्थिति व आचरण – कक्षा में नियमित उपस्थिति तथा सदाचरण के लिए भी पुरस्कार दिये। जाने चाहिए।

प्रश्न 2
दण्ड के प्रतिशोधात्मक उद्देश्य का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
प्रतिशोध को उचित दण्ड कहा जाता है। इसके अनुसार जिस व्यक्ति ने जैसा किया है, उसे उसी प्रकार का दण्ड दिया जाना चाहिए। प्राचीनकाल में दण्ड का यह उद्देश्य सर्वमान्य था और जैसे को तैसा (Tit for Tat) का सिद्धान्त प्रचलित था। उस समय प्रतिशोध या बदला लेने के उद्देश्य से दण्ड दिया जाता था। आज भी अप्रत्यक्ष रूप से इस उद्देश्य से दण्ड दिया जाता है।

राज्य मृत व्यक्ति की आत्मा की शान्ति के लिए तथा उसके परिवार वालों के सन्तोष के लिए हत्यारे को मृत्यु-दण्ड या आजीवन कारावास का दण्ड देता है। अतः दण्ड का यह उद्देश्य नैतिक न्याय की सन्तुष्टि पर आधारित है परन्तु वर्तमान शैक्षिक मान्यताओं के अनुसार बालक के लिए दण्ड की व्यवस्था की यह उद्देश्य उचित नहीं है।

प्रश्न 3.
दण्ड के प्रतिरोधात्मक उद्देश्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्रतिरोधात्मक शब्द प्रतिरोध से बना है। इसका अर्थ है-रोकना या रास्ते पर रोक लगा देना तांकि चलने वाला उस रास्ते पर न जा सके। दूसरे शब्दों में, समाज के द्वारा उन व्यक्तियों पर रोक लगाना जो गलत रास्तों पर चलकर समाज को हानि या चोट पहुँचाते हैं। यह उद्देश्य कठोर दण्ड पर आधारित है। दण्ड की कठोरता के कारण बालक भविष्य में कभी भी अपराध की ओर उन्मुख होने का साहस नहीं करेगा। दण्ड कठोर होने के कारण विद्यालय के अन्य छात्र भी अपराध की ओर अग्रसर नहीं होंगे। आजकल विद्यालयों में दण्ड के इस उद्देश्य को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता।

प्रश्न 4.
दण्ड के सुधारात्मक उद्देश्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
यह उद्देश्य इस तथ्य पर आधारित है कि बालक की शारीरिक विशेषताएँ और वंशानुक्रम अपराध के कारण नहीं हैं, बल्कि विद्यालय, परिवार तथा समाज का वातावरण अपराध के लिए जिम्मेदार है, न कि बालक। इस उद्देश्य के अनुसार अपराधियों को सुधार किया जाए और उन्हें योग्य नागरिक के समान जीना और जीने देने का पाठ सिखाया जाए। विद्यालय व समाज के वातावरण का सुधार किया जाए, क्योंकि इससे ही अपराधियों का जन्म होता है। इस उद्देश्य के अन्तर्गत कारावास के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। इन कारागारों को सुधार गृह भी कहा जाता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पुरस्कार से क्या आशय है ? [ 2010, 12 ]
उत्तर :
पुरस्कार का आशय बालक को अच्छे कार्यों को करने के फलस्वरूप सुखद अनुभूति कराने से है।

प्रश्न 2
‘पुरस्कार’ की एक परिभाषा दीजिए।
उत्तर :
“पुरस्कर वांछित कार्य के साथ सुखद साहचर्य स्थापित करने का साधन है।” [ हेरलॉक ]

प्रश्न 3
बालकों को विद्यालय में सामान्य रूप से दिये जाने वाले पुरस्कार के चार प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. प्रशंसा
  2. पदक या मैडल
  3. प्रमाण-पत्र तथा
  4. छात्रवृत्ति।

प्रश्न 4
पुरस्कार प्रदान करने के चार मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
पुरस्कार प्रदान करने के मुख्य उद्देश्य हैं

  1. अनुशासन के प्रति आस्था
  2. स्वस्थ प्रतिस्पर्धा उत्पन्न करना
  3. कार्यों के प्रति रुचि जाग्रत करना तथा
  4. अच्छे कार्यों के प्रति उत्साह उत्पन्न करना

प्रश्न 5
विद्यालय में पुरस्कार प्रदान करने में ध्यान रखने योग्य प्रमुख तथ्य क्या है ?
उत्तर :
पुरस्कार प्रदान करते समय ध्यान में रखने योग्य प्रमुख बात यह है कि पुरस्कार देने का निर्णय हर प्रकार से तटस्थ हो, अर्थात् उसमें कोई पक्षपात न हो।

प्रश्न 6
दण्ड कितने प्रकार का होता है?
उत्तर :
दण्ड दो प्रकार का होता है।

  1. सरल दण्ड तथा
  2. शारीरिक दण्ड या कठोर दण्ड

प्रश्न 7
दण्ड-व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य क्या होना चाहिए ? [2013]
उत्तर :
दण्ड-व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य सुधारात्मक होना चाहिए।

प्रश्न 8
सीखने में दण्ड का क्या स्थान है ? [2008]
उत्तर :
सीखने में दण्ड का महत्त्वपूर्ण स्थान है, परन्तु यह सुधारात्मक होना चाहिए।

प्रश्न 9
मध्यकाल में भारत में किस प्रकार के दण्ड का प्रचलन था?
उत्तर :
मध्यकाल में भारत में कठोर दण्ड-व्यवस्था का प्रचलन था।

प्रश्न 10
बालकों को दिया जाने वाला आर्थिक दण्ड क्यों अनुचित माना जाता है?
उत्तर :
आर्थिक दण्ड का प्रत्यक्ष प्रभाव अलक पर नहीं बल्कि उसके अभिभावकों पर पड़ती है। अतः इसे अनुचित माना जाता है।

प्रश्न 11
दण्ड-व्यवस्था से प्राप्त होने वाले चार लाभों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. गलतियों पर रोक
  2. अपराधों पर नियन्त्रण एवं कमी
  3. अनुशासन की स्थापना तथा
  4. बुरी आदतों को समाप्त करना।

प्रश्न 12
मूर्त पुरस्कार किसे कहते हैं? तीन उदाहरण दीजिए। [2010]
उत्तर :
किसी वस्तु अथवा सामग्री के रूप में दिया जाने वाला पुरस्कार मूर्त पुरस्कार कहलाता है। इसके उदाहरण हैं कोई उपयोगी वस्तु (बैट, फुटबॉल आदि), शील्ड तथा धनराशि।

प्रश्न 13
सीखने में पुरस्कार का क्या स्थान है? [2009]
उत्तर :
सीखने की प्रक्रिया में पुरस्कार एक प्रबल प्रेरक के रूप में कार्य करता है।

प्रश्न 14
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. पुरस्कार-व्यवस्था पूर्णरूप से अनावश्यक है।
  2. विद्यालय में पुरस्कार-व्यवस्था से स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का विकास होता है।
  3. सार्वजनिक रूप से की गयी प्रशंसा भी पुरस्कार ही है।
  4.  बालकों के लिए कठोर शारीरिक दण्ड ही सर्वोत्तम दण्ड है।
  5. दण्ड का उद्देश्य सुधारात्मक होना चाहिए।

उत्तर :

  1. असत्य
  2. सत्य
  3. सत्य
  4. असत्य
  5. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
“पुरस्कार वांछित कार्य के प्रति सुखद साहचर्य स्थापित करने का साधन है।” यह किसकी परिभाषा है ?
(क) हरलॉक की
(ख) थॉर्नडाइक की
(ग) टरमन की
(घ) रायबर्न की
उत्तर :
(क) हरलॉक की

प्रश्न 2
“पुरस्कार व्यक्ति में अच्छा कार्य करने की भावना जाग्रत करता है।” यह कथन है
(क) मैक्डूगल का
(ख) वुडवर्थ का
(ग) हिलगार्ड को
(घ) रायबर्न काँ
उत्तर :
(घ) रायबर्न का

प्रश्न 3
अमूर्त पुरस्कार है (2012)
(क) छात्रवृत्ति
(ख) प्रमाण-पत्र
(ग) उपयोगी वस्तुएँ
(घ) प्रशंसा
उत्तर :
(घ) प्रशंसा

प्रश्न 4
पुरस्कार का प्रमुख उद्देश्य है
(क) छात्रों को खेलने की प्रेरणा देना
(ख) कक्षा में अनुशासन स्थापित करना
(ग) छात्रों को प्रतिस्पर्धी बनाना।
(घ) छात्रों में रुचि, उत्साह एवं लगन से कार्य करने की भावना उत्पन्न करना
उत्तर :
(घ) छात्रों में रुचि, उत्साह एवं लगन से कार्य करने की भावना उत्पन्न करना

प्रश्न 5
थार्नडाइक के सीखने के किस नियम का समान्य पुरस्कार व्यवस्था से है?
(के) यारी का नियम
(ख) अध्याय का नियम
(ग) प्रभाव का नियम
(घ) उपर्युक्त तीनों नियम
उत्तर :
(ग) प्रभाव का नियम

प्रश्न 6
दण्ड, एकू.सीथन है, जिसके द्वेय अवांछनीय कार्य के साथ कुःखद भावना को सम्बन्विं करके उसे दूर करने म प्रयास किया जात है। यह परिभाषा सिक्की है?
(क) थॉमसन
(ख) रॉसेक
(ग) जे० एस० रॉस
(घ) थॉर्नडाइक
उत्तर :
(क) थॉमसन

प्रश्न 7
“दण्ड अवांछनीय व्यवहार को दूर करने का दमनात्मक साधन है।” यह परिभाषा दी
(क) बी० एन० झा ने
(ख) क्रो एवं क्रो ने
(ग) किलपैट्रिक ने
(घ) रॉसेक व अन्य ने
उत्तर :
(घ) रॉसेक व अन्य ने

प्रश्न 8
उपेक्षात्मक दण्ड का उदाहरण है
(क) विद्यालय का कमरा साफ करवाना
(ख) विद्यालय में अवकाश के बाद गृहकार्य पूरा करवाना
(ग) दूसरों के सामने लज्जित करना
(घ) कक्षा में पीछे बैठाना
उत्तर :
(घ) कक्षा में पीछे बैठाना

प्रश्न 9
दण्ड और पुरस्कार है
(क) मनोवैज्ञानिक प्रेरक
(ख) स्वाभाविक प्रेरक
(ग) कृत्रिम प्रेरक
(घ) सामाजिक प्रेरक
उत्तर :
(घ) सामाजिक प्रेरक

प्रश्न 10
उद्दण्ड छात्रों के लिए कौन-सा दण्ड लाभकारी है?
(क) नसिक दण्ड
(ख) आर्थिक दण्ड
(ग) शारीरिक दण्ड
(घ) सामाजिक दण्छ
उत्तर :
(ग) शारीरिक दण्ड

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 21 Reward and Punishment in Education (शिक्षा में पुरस्कार एवं दण्ड) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 21 Reward and Punishment in Education (शिक्षा में पुरस्कार एवं दण्ड), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 5

UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 5 are part of UP Board Class 12 Biology Model Papers. Here we have given UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 5.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Model Paper Paper 5
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 5

पूर्णाक : 70
समय : 3 घण्टे 15 मिनट

निर्देश: प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
नोट:

    • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
    • आवश्यकतानुसार अपने उत्तरों की पुष्टि नामांकित रेखाचित्रों द्वारा कीजिए।
    • सभी प्रश्नों के निर्धारित अंक उनके सम्मुख

प्रश्न 1.
सही विकल्प चुनकर अपनी उत्तर पुस्तिका में लिखिए।
(क) जब दो पारितन्त्र एक-दूसरे की सीमा को काटते हैं, तो निर्मित भाग कहलाता है [1]
(A) आवासीय
(B) निकेत
(C) इकोटोन
(D) इकोटाइप

(ख) निम्नलिखित में से कौन-सी एक प्लाज्मिड का अभिलक्षण नहीं है? [1]
(A) वृत्तीय संरचना
(B) स्थानान्तरण योग्य
(C) एकल रज्जुकीय
(D) स्वतन्त्र प्रतिकृतियन

(ग) एन्ट्रमी पुटक में निम्नलिखित में से कौन-सी अकोशिकीय होती है? [1]
(A) ग्रेन्युलोसा (कणिकीय)
(B) थीका इण्टर्ना (अन्तर प्रोवरक)
(C) स्ट्रोमा (पीठिका)
(D) जोना पेल्यूसिडा (पारदर्शी अण्डावरण)

(घ) निम्नलिखित में से कौन-सा एक जैव-उर्वरक नहीं है? [1]
(A) राइजोबियम
(B) नॉस्टॉक
(C) कवकमूल
(D) एग्रोबैक्टीरियम

प्रश्न 2.
(क) बैक क्रॉस क्या है?
(ख) क्रोमैटिन का वह भाग, जो हल्का अभिरंजित होता है, क्या कहलाता है? [1]
(ग) ल्यूकीमिया किसे कहते हैं? [1]
(घ) DNA से शीघ्रतापूर्वक पुंज निर्माण विधि का नाम बताइए। [1]
(ङ) अगर समुद्री मछली को अलवण जल की जलजीवशाला में रखा जाता है तो क्या वह मछली जीवित रह पायगी? क्यों और क्यों नहीं? [1]

प्रश्न 3.
(क) पर्यावरणीय प्रदूषण किसे कहते हैं? समझाइए। [2]
(ख) ZIFT एवं GIFT में अन्तर लिखिए। [2]
(ग) इडियोग्राम या कैरियोग्राम क्या होता है? [2]
(घ) HIV की रोगजनकता पर टिप्पणी लिखिए। [2]
(ङ) समर्थ कोशिका क्या होती है? इसके निर्माण में CaCI, का क्या योगदान होता है? [1+1]

प्रश्न 4.
(क) यह किस वैज्ञानिक ने बताया था कि DNA एक आनुवंशिक पदार्थ है? इसके पक्ष में किसी एक प्रयोग को समझाइए। [1+2]
(ख) PCR में प्रयुक्त किन्हीं तीन एन्जाइम तथा उनके स्रोत के नाम लिखिए। [1 x 3]
(ग) तापमान के आधार पर विश्व में पाई जाने वाली वनस्पतियों पर प्रकाश डालिए। [3]
(घ) अंग प्रत्यारोपण क्या है? इसके सफल क्रियान्वयन के दो उपाय बताइए। [1+2]

प्रश्न 5.
(क) जीनीय सन्तुलन क्रियाविधि क्या है? समझाइए। [3]
(ख) बायोपाइरेसी के बारे में आप क्या जानते हैं? [3]
(ग) विद्यालयों में यौन शिक्षा की क्यों आवश्यकता है? कारण सहित स्पष्ट करें। [3]
(घ) ऊर्जा के पिरामिड की विशेषताएँ बताइए। [3]

प्रश्न 6.
(क) रूपान्तरण व परागमन पर टिप्पणी लिखिए। [1 1/2+1 1/2]
(ख) जनसंख्या विस्फोट किसे कहते हैं? इसके क्या परिणाम हो रहे हैं? [3]
(ग) स्तम्भ कोशिका पर टिप्पणी कीजिए। इसके क्या उपयोग हैं? [1+2]
(घ) नीगरॉइड्स और मोन्गोलॉइड्स पर टिप्पणी कीजिए। [3]

प्रश्न 7.
चिकित्सीय सगर्भता समापने क्या है? इसकी आवश्यकता एवं दुरुपयोग को विस्तारपूर्वक समझाइए। [1+2+2]
अथवा
निम्न पर संक्षिप्त टिप्पणी करें [1+2+2]

  1. रेड डाटा बुक
  2. प्रचालक
  3. बहुजीनी वंशागति

प्रश्न 8.
मानव के आर्थिक महत्त्व के किन्हीं तीन कीटों के जन्तु वैज्ञानिक नाम लिखिए तथा इनके द्वारा उत्पादित पदार्थों की उपयोगिता बताइए। [5]
अथवा
निम्न पर संक्षिप्त टिप्पणी करें [1 x 5]

  1. ऊतक संवर्धन
  2. पादप प्रजनन
  3. संयुक्त वन प्रबन्धन
  4. जैव-प्रबलीकरण
  5. निकेत

प्रश्न 9.
परागण क्या होता है? इसके प्रकार बताते हुए पर-परागण की विभिन्न युक्तियाँ बताइए। [1+2+2]
अथवा
पॉलिमरेज श्रृंखला अभिक्रिया को विस्तार से समझाइए। [5]

Answers

उत्तर 1.
(क) (C)
(ख) (C)
(ग) (A)
(घ) (D)

We hope the UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 5 will help you. If you have any query regarding UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 5, drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 19 Development of Indian Population

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 19 Development of Indian Population (भारतीय जनशक्ति का विकास) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 19 Development of Indian Population (भारतीय जनशक्ति का विकास).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 19
Chapter Name Development of Indian Population (भारतीय जनशक्ति का विकास)
Number of Questions Solved 69
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 19 Development of Indian Population (भारतीय जनशक्ति का विकास)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
जनसंख्या घनत्व क्या है? भारत में जनसंख्या के घनत्व को प्रभावित करने वाले कारकों/तत्त्वों का विश्लेषण कीजिए। [2011, 13, 16]
उत्तर:
जनसंख्या के घनत्व से अभिप्राय मनुष्य-भूमि अनुपात से है, अर्थात् देश के कुल भूमि के क्षेत्रफल को कुल जनसंख्या से भाग देने पर जो भागफले आता है, उसे देश की जनसंख्या का घनत्व कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, “किसी देश के प्रति वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों की औसत संख्या को ही जनसंख्या का घनत्व कहते हैं।”

जनसंख्या के घनत्व को प्रभावित करने वाले तत्त्व
किसी स्थान-विशेष पर जनसंख्या का घनत्व निम्नलिखित मुख्य तत्त्वों द्वारा प्रभावित होता है

1. जलवायु – जनसंख्या का घनत्व जलवायु पर निर्भर करता है। जिस क्षेत्र यो स्थान की जलवायु उत्तम और स्वास्थ्यवर्द्धक होती है, वहाँ जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। इसके विपरीत, यदि किसी स्थान की जलवायु अधिक गर्म या अधिक ठण्डी होती है तो ऐसे स्थान पर जनसंख्या का घनत्व कम होता है।

2. वर्षा – जिन स्थानों पर वर्षा न तो बहुत अधिक होती है और न ही बहुत कम, उन स्थानों पर जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। इसके विपरीत, जिन स्थानों पर अत्यधिक वर्षा होती है या बहुत कम वर्षा होती है, उन क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व भी कम पाया जाता है। यही कारण है कि राजस्थान में वर्षा कम होने के कारण तथा असम में अधिक वर्षा होने के कारण जनसंख्या का घनत्व कम है।

3. भूमि की बनावट व उर्वरा-शक्ति – मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा पर्वतीय तथा पठारी क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व कम होता है, क्योंकि ऊँची-नीची भूमि होने के कारण कृषि कार्य करने तथा उद्योगों को स्थापित करने में कठिनाई होती है। इसके विपरीत, मैदानी भागों में मिट्टी समतल व अधिक उपजाऊ होती है इसलिए इन स्थानों पर जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में गंगा-यमुना के मैदानी भाग में जनसंख्या का घनत्व अधिक है।

4. सिंचाई की सुविधाएँ – जिन क्षेत्रों में वर्षा की कमी को सिंचाई के साधनों द्वारा पूरा कर लिया जाता है या ज़िन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधाएँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होती हैं, उन क्षेत्रों में भी जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है।

5. यातायात एवं संवहन/संचार के साधन – जिन क्षेत्रों में यातायात तथा संवहन/संचार के साधन विकसित होते हैं, उन क्षेत्रों में भी जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है, क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में उद्योग तथा व्यापार की सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र आदि राज्यों में यातायात एवं संवहन/संचार के साधनों के कारण ही जनसंख्या का घनत्व अधिक है।

6. औद्योगिक विकास – औद्योगिक स्थानों पर जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। इसका प्रमुख कारण श्रमिकों को रोजगार तथा व्यापारियों को व्यापार आदि की सुविधाएँ सरलता से मिल जाना है। जमशेदपुर, कानपुर, अहमदाबाद, मुम्बई आदि स्थानों पर जनसंख्या का घनत्व इसी कारण अधिक है।

7. खनिज पदार्थ या खनिज सम्पत्ति – जिन क्षेत्रों में खनिज भण्डार अधिक मात्रा में होते हैं, वहाँ पर भी जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है; क्योंकि इन स्थानों पर आधारित अनेक उद्योग-धन्धों में इन्हें व्यवसाय मिल जाता है। बिहार व पश्चिम बंगाल में जनसंख्या का घनत्व अधिक होने का यही कारण है।

8. राजधानी – देश अथवा प्रदेश की राजधानी में भी जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है, क्योंकि इन स्थानों पर सचिवालय, संसद व विधानसभा भवन, राष्ट्रपति भवन, संसद-सदस्य निवास, विधायक निवास आदि के साथ-साथ अनेक कार्यालय, संस्थाएँ तथा व्यापार एवं वाणिज्य के केन्द्र होते हैं। दिल्ली, लखनऊ, चण्डीगढ़ आदि स्थानों पर जनसंख्या का घनत्व अधिक होने का प्रमुख कारण राजधानी होना ही है।

9. ऐतिहासिक एवं धार्मिक स्थान – ऐतिहासिक तथा धार्मिक महत्त्व के स्थानों पर भी जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। आगरा व दिल्ली ऐतिहासिक महत्त्व के स्थान हैं और मथुरा, काशी, हरिद्वार आदि धार्मिक स्थल। इसी कारण से इन स्थानों पर जनसंख्या का घनत्व अधिक है।

10. शान्ति एवं सुरक्षा – जिन क्षेत्रों में शान्ति एवं सुरक्षा की व्यवस्था होती है, उन क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है, क्योंकि ऐसे स्थानों पर लोग अपने जीवन और सम्पत्ति को सुरक्षित समझते हैं। इसके विपरीत, जो स्थान सीमा के समीप होते हैं, सुरक्षा व शान्ति की दृष्टि से वे अशान्त क्षेत्र माने जाते हैं; अत: वहाँ जनसंख्या का घनत्व कम होता है। पंजाब तथा असम के सीमान्त क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व कम होने का प्रमुख कारण यही है।

11. अप्रवास एवं उत्प्रवास – अप्रवास तथा उत्प्रवास का भी जनसंख्या के घनत्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है। देश के विभाजन के समय दिल्ली में जनसंख्या का घनत्व बढ़ गया। इसका प्रमुख कारण पाकिस्तान से आये हुए शरणार्थियों का अप्रवास था। भारत में रीति-रिवाज, भाषा एवं धर्म तथा संस्कृति में विभिन्नताएँ पायी जाती हैं। फलस्वरूप जनसंख्या के घनत्व में भिन्नता पायी जाती है।

12. शिक्षा के केन्द्र – जिन स्थानों पर शिक्षा के केन्द्र स्थापित होंगे, वहाँ जनसंख्या का घनत्व अधिक होगा। रुड़की, इलाहाबाद, वाराणसी आदि शिक्षा के केन्द्र हैं, इसी कारण ऐसे स्थानों पर जनसंख्या का घनत्व अधिक पाया जाता है।

13. व्यापारिक केन्द्र – जो स्थान व्यापारिक महत्त्व के होते हैं, वहाँ पर भी जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। मुम्बई, कोलकाता, दिल्ली, चेन्नई, कानपुर आदि व्यापारिक केन्द्र हैं, इसी कारण इन स्थानों पर जनसंख्या का घनत्व अधिक है।

प्रश्न 2
भारत में जनसंख्या-वृद्धि के कारणों एवं जनसंख्या-वृद्धि को रोकने के उपाय बताइए। [2008, 10, 11, 12]
या
“भारत में जनसंख्या की समस्या विस्फोटक है।” विवेचना कीजिए। इसे हल करने के लिए आप क्या सुझाव देंगे? [2008, 12]
या
भारत में जनाधिक्य की समस्या हल करने के लिए सुझाव दीजिए। [2013]
उत्तर:
भारत में तीव्र गति से जनसंख्या वृद्धि के कारण निम्नलिखित हैं

1. जन्म-दर एवं मृत्यु-दर के मध्य अन्तराल का बढ़ना – भारत में 1921 ई० से पूर्व तक जन्म-दर तथा मृत्यु-दर के बीच का अन्तर बहुत कम रहा। 1921 ई० के बाद से यह अन्तर बढ़ने लगा। पिछले तीस वर्षों से जन्म-दर जिस गति से घटी है उसकी अपेक्षा मृत्यु-दर कहीं अधिक घटी है, जिससे दोनों दरों में अन्तर बढ़ गया है। स्वास्थ्य सुविधाओं के बढ़ जाने के कारण मृत्यु-देर में कमी आयी। 1921 ई० में जन्म-दर 46.4 प्रति हजार थी और मृत्यु-दर 36.3 प्रति हजार; जबकि 2011 ई० में जन्म-दर 23 प्रति हजार तथा मृत्यु-दर 9 प्रति हजार है। इससे स्पष्ट हो कि मृत्यु-दर में तेजी से कमी हुई है।

2. विवाह की औसत आयु – जन्म का सीधा सम्बन्ध विवाह से होता है। भारत में लड़कियों का विवाह कम आयु में हो जाया करता है, जिससे वे कम आयु में ही माँ बन जाती हैं। शारदा ऐक्ट के द्वारा लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु 14 वर्ष थी, जो अब 18 वर्ष कर दी गयी है। विकसित देशों में लड़कियों के विवाह की औसत आयु 22-25 वर्ष है।

3. प्रजनन दर – विकसित देशों की अपेक्षा भारत में प्रजनन दर ऊँची है जिसका मुख्य कारण विवाह की अनिवार्यता, न्यूनतम आयु का कम होना, गर्भ निरोधक उपायों का सीमित उपयोग, साक्षरता में कमी, जीवन-स्तर की निम्नता, परम्परागत जीवन-दर्शन तथा 80% जनसंख्या का ग्रामीण होना है। कर्म आयु में विवाहित स्त्री कम आयु में ही माँ बन जाती है। इस प्रकार अपनी जीवन-अवधि में एक स्त्री 6 से 7 बच्चों तक की माँ बन जाती है। विकसित देशों में यह संख्या 2 से 3 तक ही है।

4. प्रचलित अन्धविश्वास – वंश चलाने एवं श्राद्ध कर्म हेतु पुत्र की कामना करना तथा अन्य धार्मिक अन्धविश्वासों के कारण परिवार में बच्चों की संख्या अधिक हो जाती है।

5. वृद्धावस्था की सुरक्षा – वृद्धावस्था में सन्तान उनकी देख-रेख करेगी; यह धारणा भी जनसंख्या वृद्धि में सहायक होती है।

6. ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े परिवारों का होना – भारत कृषि-प्रधान देश है। बड़ा परिवार कृषि के कामों में बाधक न होकर सहायक सिद्ध होता है। ग्रामीण स्त्रियों के कार्य इस प्रकार के होते हैं कि कार्य करने के साथ-साथ वे बच्चों की देख-रेख भी कर लेती हैं। इसी से अधिक बच्चों को जन्म देना उन्हें बाधक प्रतीत नहीं होता है।

7. अधिकांश लोगों का घर पर रहना – भारत में समस्त जनसंख्या का केवल 33% कार्यशील है। कुल कार्यशील जनसंख्या का लगभग 70% कृषि एवं सम्बन्धित कार्यों में संलग्न होने के कारण अधिकांश लोग घर पर ही रहते हैं, जिसके कारण जनसंख्या में वृद्धि होती है।

8. शरणार्थियों का आगमन – देश की स्वतन्त्रता के पश्चात् पाकिस्तान तथा बांग्लादेश से आने वाले लाखों-करोड़ों शरणार्थियों के कारण भी देश में जनसंख्या में वृद्धि हुई है।

9. परिवार नियोजन के प्रति अज्ञानता – ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों के अशिक्षित होने के कारण परिवार के आकार के सम्बन्ध में उदासीनता पायी जाती है। परिणामस्वरूप परिवार नियोजन के साधन देश में लोकप्रिय नहीं हो पा रहे हैं। परिवार नियोजन के उपायों के प्रति संकोच, लज्जा तथा निराधार शंकाओं के कारण दम्पती बच्चों को जन्म देते रहते हैं।

जनसंख्या-वृद्धि को रोकने के उपाय
जनसंख्या की समस्या के समाधान के लिए हमें एक साथ कई उपाय करने पड़ेंगे। जन्म-दर को कम करने के लिए तत्कालीन एवं दीर्घकालीन उपाय किये जाने चाहिए। तत्कालीन उपायों में निरोध, नसबन्दी, लूप, ऑपरेशन आदि के लिए लोगों को प्रेरित करना तथा दीर्घकालीन उपायों में विवाह की न्यूनतम आयु में वृद्धि, बाल-विवाह पर रोक, मनोरंजन के साधनों में वृद्धि, आत्म-संयम वे ब्रह्मचर्य के पालन के लिए लोगों को प्रेरित करना आदि हैं। इन उपायों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

1. जन्म-दर में कमी करना – जनसंख्या-वृद्धि को सीमित करने के लिए यह आवश्यक है कि मृत्यु-दरे के साथ-साथ जन्म-दर में भी गिरावट लायी जाए। वर्ष 1951-60 में जन्म-दर 41.7% थी, जो 2011 ई० में 23% हो गयी। जन्म-दर में और अधिक कमी लायी जानी चाहिए।

2. साक्षरता तथा शिक्षा का प्रसार आवश्यक – शिक्षा के माध्यम से ही जन-साधारण में जनसंख्या-वृद्धि के विषय में जागरूकता लायी जा सकेगी। विकसित देशों में जनसंख्या-वृद्धि की समस्या न होने का प्रमुख कारण उनकी शत-प्रतिशत साक्षरता है। भारत में केवल केरल में ही साक्षरता अन्य प्रदेशों की अपेक्षा अधिक है।

3. स्त्री-शिक्षा पर विशेष बल – जनसंख्या-वृद्धि के परिप्रेक्ष्य में स्त्री-शिक्षा का विशेष महत्त्व है। केरल में स्त्रियों की साक्षरता प्रतिशत 91.98 है, जबकि उत्तर प्रदेश में 59.26 है। इसी कारण से उत्तर प्रदेश में जनसंख्या वृद्धि की दर भी उच्च है। अत: जनसंख्या-वृद्धि पर नियन्त्रण हेतु स्त्री-शिक्षा पर विशेष बल देने की आवश्यकता है।

4. विवाह सम्बन्धी कानूनों का सख्ती से पालन – यद्यपि विवाह की न्यूनतम आयु कानूनी तौर पर निर्धारित है। बाल-विवाह वर्जित है, फिर भी ये बुराइयाँ समाज में यथावत् बनी हुई हैं। इनका सख्ती से पालन किया जाना भी आवश्यक है। इस प्रकार जनसंख्या वृद्धि पर अंकुश लगाया जा सकता है।

5. मनोरंजन के साधनों में वृद्धि – विशेष रूप से ग्रामीण तथा पिछड़े क्षेत्रों में मनोरंजन के साधनों में वृद्धि की जानी चाहिए। इनमें सिनेमा, सार्वजनिक दूरदर्शन की व्यवस्था, शिक्षाप्रद छोटी-छोटी फिल्मों का प्रदर्शन, अखाड़े, खेल-कूद प्रतियोगिताएँ आदि मुख्य हैं। मनोरंजन के साधनों में वृद्धि होने से जनसंख्या-वृद्धि पर भी नियन्त्रण लगेगा।

6. आत्म-संयम/नैतिक शिक्षा का प्रसार – नैतिकतापूर्ण संयमित जीवन जनसंख्या को सीमित रखने का आदर्श उपाय है। अत: इस बात को समुचित प्रचार किया जाना चाहिए कि शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य अच्छी कार्यक्षमता, सुखद पारिवारिक जीवन तथा देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए संयमी जीवन बिताना उपयोगी है। इससे न केवल जन्म-दर कम होगी, वरन् अनेक सामाजिक समस्याओं; जैसे–चोरी, डकैती, व्यभिचार आदि; में भी कमी आएगी।

7. परिवार नियोजन का प्रचार तथा सम्बद्ध सुविधाओं को उपलब्ध कराना – परिवार तथा देश के कल्याण के लिए परिवार नियोजन के महत्त्व को देखते हुए 1977 ई० से इसे परिवार-कल्याण का नाम दिया गया है। परिवार-कल्याण के द्वारा दम्पति अपने बच्चों की संख्या सीमित रखने तथा दो बच्चों के जन्म के मध्य पर्याप्त समयान्तर रखते हैं। ग्रामीण जनता तक परिवार कल्याण कार्यक्रमों का लाभ पहुंचाने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में परिवार नियोजन का प्रचार तथा सुविधाओं को उपलब्ध कराने की अधिक आवश्यकता है। परिवार कल्याण कार्यक्रम को ‘जन-अभियान’ बनाया जाना चाहिए।

8. विज्ञापन व संवहन/संचार के साधनों का उपयोग – जनसंख्या वृद्धि के कारणों, परिणामों एवं जनसंख्या को नियन्त्रित करने के उपायों का विज्ञापन एवं प्रचार रेडियो, दूरदर्शन व चलचित्रों के माध्यम से ग्रामीण व पिछड़े क्षेत्रों में करने की आवश्यकता है। इसके माध्यम से भी जनसंख्या को सीमित करने में सहायता मिलेगी।

9. सीमित परिवारों को पुरस्कृत करना – जिन दम्पतियों के एक या दो ही बच्चे हैं, उन्हें पुरस्कृत किया जाना चाहिए। इससे अन्य व्यक्तियों को भी सीमित परिवार की प्रेरणा मिलेगी।

10. जनमानस में जनसंख्या के प्रति अनुकूल चेतना का विकास करना – जनसंख्या को नियन्त्रित करने के लिए हमें जनमानस में अनुकूल चेतना का विकास करना होगा, जिससे आज के बालक-बालिकाएँ जो कल वयस्क नागरिक बनेंगे, वे यह निर्णय करने में सक्षम हो सकें कि उनके परिवार का आकार क्या होना चाहिए।

संक्षेप में, देश के तरुण वर्ग को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि जनसंख्या-वृद्धि की समस्या का हल उनके अपने ही हाथों में है। जागरूक एवं सक्रिय बनकर ही वे अपने वर्तमान और भविष्य को सुखद बना सकते हैं। जन-जन में जनसंख्या के प्रति अनुकूल चेतना का विकास होने पर ही हम जनसंख्या-वृद्धि पर नियन्त्रण पाने में सफल हो सकते हैं।

प्रश्न 3
परिवार-नियोजन देश के लिए अत्यन्त आवश्यक है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
या
भारत जैसे विकासशील देश के सन्दर्भ में परिवार-नियोजन के महत्त्व पर प्रकाश डालिए। निरन्तर प्रयत्नों के होते हुए भी भारत में परिवार-नियोजन कार्यक्रम सफल क्यों नहीं हो पा रहा है? समझाइए।
या
परिवार-कल्याण कार्यक्रम की अवधारणा की विवेचना कीजिए। [2011]
उत्तर:
परिवार-नियोजन या परिवार-कल्याण कार्यक्रम
सन् 1952 ई० में जनगणना आयुक्त ने परिवार नियोजन की आवश्यकता और महत्त्व को स्वीकार किया तथा परिवार नियोजन को अपनाने पर विशेष महत्त्व दिया था। भारत में प्रथम पंचवर्षीय योजना में जनसंख्या को नियन्त्रित करने का कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया, जिसे ‘परिवार-नियोजन’ का नाम दिया गया। सन् 1977 ई० में जनता पार्टी की सरकार ने परिवार नियोजन’ का नाम बदलकर ‘परिवार-कल्याण’ कार्यक्रम रखा।

श्रीमती इन्दिरा गांधी के अनुसार, “हमारी परिस्थितियों में परिवार नियोजन का अर्थ माँ और बच्चे का बेहतर स्वास्थ्य तथा पूरे परिवार के लिए अधिक अवसर है।”
परिवार नियोजन की आवश्यकता – भारत में विश्व की जनसंख्या का 17.5 प्रतिशत भाग निवास करता है, जबकि दुनिया के कुल भू-भाग का मात्र 2.4 प्रतिशत ही भारत में है। भारत की जनसंख्या में प्रतिवर्ष लगभग एक करोड़ अस्सी लाख की वृद्धि हो जाती है। 1951 ई० में भारत की जनसंख्या 36.11 करोड़ थी, 2011 की जनगणना के अनुसार, 121 करोड़ हो चुकी है। तेजी के साथ बढ़ती हुई जनसंख्या विकास के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है, जिसके कारण देश की प्रगति आशा के अनुकूल नहीं हो पा रही है। अतः देश के आर्थिक विकास की दर में तेजी लाने के लिए परिवार नियोजन एक आवश्यकता ही नहीं, अपितु परम आवश्यकता है, कम-से-कम भारत के लिए। अतः परिवार नियोजन भारत जैसे विकासशील देश के लिए निम्नलिखित कारणों से परमावश्यक है

1. पूँजी-निर्माण की गति में वृद्धि हेतु – बढ़ती हुई जनसंख्या बचतों की दर व पूँजी-निर्माण की गति में कमी लाती है; अत: इस बात की आवश्यकता है कि जनसंख्या-वृद्धि में कमी करके बचतों को बढ़ाया जाये, जिससे पूँजी निर्माण में वृद्धि हो सके।

2. खाद्यान्नों के अभाव की पूर्ति हेतु – खाद्यान्नों का मन्द गति से बढ़ता हुआ उत्पादन तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या की पूर्ति नहीं कर पाता, जिससे खाद्यान्नों की कमी बनी रहती है। अत: खाद्यान्नों के अभाव को दूर करने के लिए यह उचित है कि बढ़ती हुई जनसंख्या को परिवार नियोजन के माध्यम से रोका जाए।

3. भुगतान-सन्तुलन की समस्या के हल हेतु – बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए जब खाद्यान्नों एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं का आयात किया जाता है तो भुगतान-सन्तुलन की समस्या उत्पन्न हो जाती है। अत: इससे बचने का एक मात्र रास्ता है कि परिवार नियोजन को अपनाकर जनसंख्या की वृद्धि को रोका जाए।

4. बेरोजगारी की समस्या के हल हेतु – बढ़ती हुई जनसंख्या बेरोजगारी में प्रति वर्ष वृद्धि करती जा रही है; अत: इसमें कमी करने के लिए परिवार नियोजन को अपनाया जाना चाहिए।

5. मूल्य-स्तर में वृद्धि को कम करने हेतु – जनसंख्या-वृद्धि से वस्तुओं की माँग बढ़ जाती है, जब कि उत्पादन उस अनुपात में नहीं बढ़ता है। इससे मूल्य-स्तर बढ़ जाता है; अतः बढ़ती हुई जनसंख्या में कमी करने के लिए परिवार नियोजने अपनाकर मूल्य-स्तर में वृद्धि को रोका जा सकता है।

6. उत्पादन तकनीक में सुधार हेतु – जनसंख्या में वृद्धि व बेरोजगारी होने से श्रम प्रधान उत्पादन तकनीकें अपनायी जाती हैं तथा पूँजी-प्रधान आधुनिक उत्पादन तकनीकों को त्याग दिया जाता है; अत: उन्नत उत्पादन तकनीकों को अपनाने के लिए यह उचित होगा कि परिवार नियोजन को अपनाकर जनसंख्या वृद्धि को रोका जाए।

7. कृषि पर भार में कमी करने हेतु – जनसंख्या की वृद्धि कृषि पर भार को बढ़ा देती है। कृषि की औसत उत्पादकता में वृद्धि के लिए जनसंख्या-वृद्धि को रोका जाना आवश्यक है।

8. सामाजिक-कल्याण में वृद्धि हेतु – जनसंख्या-वृद्धि देश के आर्थिक विकास की गति को धीमा कर देती है। परिवार-कल्याण, शिक्षा, परिवहन व अन्य स्वास्थ्य सेवाएँ लोगों को उचित रूप में नहीं मिल पाती हैं; अतः इनमें सुधार करने व जन-कल्याण में वृद्धि करने के लिए उचित है कि परिवार नियोजन प्रणाली को अपनाया जाए।
उपर्युक्त आधार पर हमें कह सकते हैं कि भारत की आर्थिक प्रगति के लिए परिवार नियोजन एक आवश्यक कदम है।

परिवार नियोजन का महत्त्व
परिवार नियोजन के महत्व पर प्रकाश डालते हुए श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कहा था, “कहा जाता है कि समृद्धि एक बढ़िया गर्भ-निरोधक है, किन्तु विकास का प्रभाव कम हो जाता है जब तक कि हम जन्म-दर में कमी न लाएँ। परिवार नियोजन विकास का आधार है, निवेश है और मानव पूँजी के संगठन में एक अनिवार्य प्रयास है। शिक्षा, उत्पादन और आय की बेहतर क्षमताएँ तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि तभी सम्भव है जब जनसंख्या-वृद्धि पर अंकुश लगाया जा सके

भारत जैसे विकासशील देश के सन्दर्भ में परिवार नियोजन का निम्नलिखित महत्त्व है

  1.  यह देश के आर्थिक विकास का आधार है।
  2. इसके द्वारा ही नागरिकों का जीवन-स्तर ऊँचा हो सकता है।
  3.  इसके माध्यम से ही प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि सम्भव है, जिससे निर्धनता की समस्या हल होगी।
  4. सभी व्यक्तियों को ‘खाद्यान्न’ या सन्तुलित आहार इसके माध्यम से ही सुलभ हो सकता है।
  5. कृषि पर जनसंख्या की निर्भरता भी परिवार नियोजन से ही कम हो सकती है। इससे कृषि की उत्पादन क्षमता भी बढ़ेगी।
  6. यह बेरोजगारी समाप्त करने की अचूक औषध है।
  7. इसके माध्यम से ही महँगाई को नियन्त्रित किया जा सकता है।
  8. माँ के स्वास्थ्य को ठीक बनाए रखने के लिए भी परिवार नियोजन का महत्त्व है।
  9. सभी को शिक्षा-दीक्षा व मनोरंजन के अवसर प्राप्त करने में यह अप्रत्यक्ष रूप से सहायक होता है।
  10.  इसके द्वारा ही तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या के आवास की समस्या को हल किया जा सकता है।
  11. बढ़ते हुए अपराधों, नगरीकरण के दोषों तथा प्रदूषण से बचने के लिए भी इसका महत्त्व अधिक है।
  12.  परिवार नियोजन शिशुओं के प्रति स्नेह उत्पन्न करता है तथा अच्छे माता-पिता व अच्छे समाज का निर्माण करता है।
  13. परिवार नियोजन के द्वारा प्रदूषण की समस्या, पारिस्थितिकी के असन्तुलन की समस्या, जन-जीवन के कल्याण एवं सुरक्षा की समस्या आदि को भी हल किया जा सकता है।

परिवार नियोजन कार्यक्रम की असफलता
यद्यपि भारत सरकार ने इस कार्यक्रम को पूर्ण प्राथमिकता के साथ लागू किया है, तथापि इस कार्यक्रम को अभी तक वांछित सफलता प्राप्त नहीं हो सकी है। केवल 23% दम्पती ही अभी तक इस कार्यक्रम के दायरे में लाये जा सके हैं। शेष 77% दम्पतियों ने अभी तक इस कार्यक्रम को नहीं अपनाया है। जूनियर हक्सले के शब्दों में, “जनसंख्या के सम्बन्ध में भारत की स्थिति अत्यन्त संकटपूर्ण है। यदि वह अपनी जनसंख्या की समस्या को हल करने में असफल रहता है तो वह एक बड़ा आर्थिक एवं सामाजिक विनाश उत्पन्न कर लेगा। यदि वह सफल होता है तो न केवल उसे एशिया का नेतृत्व प्राप्त होगा, वरन् वह सम्पूर्ण विश्व की आशा का केन्द्र बन जाएगा।

इस कार्यक्रम की आंशिक सफलता के कारण निम्नलिखित हैं

  1.  अशिक्षा एवं जन-सहयोग का अभाव।
  2. अन्धविश्वास एवं धार्मिक अवरोध।
  3. जन-आन्दोलन का स्वरूप प्राप्त करने में असफल।
  4.  शहरों तक ही सीमित, ग्रामीण क्षेत्रों में आंशिक रूप से सफल।
  5. यौन शिक्षा का अभाव।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि आज के छात्र जो कल के कर्णधार हैं, जनसंख्या की वृद्धि से उत्पन्न होने वाली समस्याओं के बारे में गम्भीरता से सोचें और विचारों तथा बड़े होने पर उनके समाधान में सहयोग देने का दृढ़ निश्चय अभी से कर लें, तब ही इस समस्या का सार्थक समाधान सम्भव होगा।

प्रश्न 4
नयी राष्ट्रीय जनसंख्या-नीति, 2000 पर एक लेख लिखिए। [2007, 10]
या
भारत की जनसंख्या-नीति पर प्रकाश डालिए। [2008, 11]
या
राष्ट्रीय जनसंख्या-नीति, 2000 की मुख्य विशेषताएँ बताइए। [2007, 10]
या
भारत की जनसंख्या-नीति, 2000 पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2014]
उत्तर:
केन्द्र सरकार ने नयी जनसंख्या-नीति की घोषणा 15 फरवरी, 2000 ई० को की थी। राष्ट्रीय जनसंख्या-नीति, 2000 ई० का निर्धारण तीन मुख्य उद्देश्यों या लक्ष्यों को सामने रखकर किया गया; जो निम्नलिखित हैं,

1. नयी नीति का तात्कालिक उद्देश्य है – छोटे परिवार अर्थात् प्रति दम्पती 2 बच्चों के मानक को प्रोत्साहन देना। इसके लिए वांछित क्षेत्रों में पर्याप्त मात्रा में गर्भनिरोधकों, स्वास्थ्य सुरक्षा ढाँचा व स्वास्थ्यकर्मियों की आपूर्ति करने के साथ-साथ प्रोत्साहन पुरस्कारों की योजना भी है।

2. मध्यकालीन उद्देश्य के अन्तर्गत परिवार नियोजन के उपायों को प्रभावी बनाकर 2010 ई० तक कुल प्रजननता दर को 2: 1 के प्रतिस्थापना स्तर तक लाना है तथा 2010 ई० तक देश की जनसंख्या को 110 करोड़ पर सीमित करना है।

3. दीर्घकालीन उद्देश्य के अन्तर्गत 2045 ई० तक स्थिर जनसंख्या को ऐसे स्तर पर स्थिर बनाने की बात कही गयी है जो आर्थिक वृद्धि, सामाजिक विकास तथा पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि के अनुरूप हो।

नयी जनसंख्या नीति में राज्यों की निर्भय सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए लोकसभा की संरचना को 2001 ई० के पश्चात् 25 वर्ष आगे तक अपरिवर्तित रखने की घोषणा की गयी है। इसका अर्थ है कि लोकसभा में निर्वाचित सीटों की संख्या अब 2026 ई० तक 543 ही बनी रहेगी तथा प्रत्येक राज्य में सीटों की संख्या भी तब तक यथावत् रहेगी।

15 फरवरी, 2000 ई० को केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल द्वारा अनुमोदित नयी जनसंख्या नीति की घोषणा करते हुए केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्री ने बताया कि छोटे परिवार (प्रति दम्पती 2 बच्चे) का मानक अपनाने के लिए प्रोत्साहन एवं प्रेरणा प्रदान करने हेतु इसमें 16 उपायों को सम्मिलित किया गया है, जो निम्नलिखित हैं

  1.  केन्द्र सरकार उन पंचायतों और जिला पंचायतों को पुरस्कृत करेगी जो अपने क्षेत्र में रहने वाले लोगों को जनसंख्या नियन्त्रण के उपायों को अधिकाधिक अपनाने के लिए प्रेरित करेंगे।
  2.  नयी नीति के अन्तर्गत बाल-विवाह निरोधक अधिनियम तथा प्रसव पूर्व लिंग-परीक्षण निरोधक अधिनियम को कड़ाई के साथ लागू किया जाएगा।
  3. गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले उन परिवारों को पाँच हजार रुपये की स्वास्थ्य बीमा की सुविधा दी जाएगी जिनके मात्र दो बच्चे होंगे और दो बच्चों के जन्म के बाद उन्होंने बन्ध्याकरण करा लिया होगा।
  4. ऐसे लोगों को पुरस्कृत किया जाएगा, जो निर्धारित आयु में विवाह करने के पश्चात् पहले बच्चे को तब तक जन्म न दें जब तक माँ की उम्र 21 वर्ष की न हो और छोटे परिवारों के सिद्धान्त में विश्वास रखते हुए दो बच्चों को जन्म देने के पश्चात् बन्ध्याकरण करा लें।
  5. ग्रामीण क्षेत्रों में एम्बुलेन्स की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए उदार शर्तों पर ऋण एवं आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जाएगी।
  6. गर्भपात सुविधा योजना को और सुदृढ़ किया जाएगा।
  7. अशासकीय स्वयंसेवी संस्थाओं को इस कार्य से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।
  8.  लड़कियों की विवाह की न्यूनतम आयु को 18 वर्ष से बढ़ाकर 20 वर्ष से भी अधिक किया जाएगा।
  9.  ऐसी सुविधाएँ जुटाने के प्रयास किए जाएँगे जिससे तीन-चौथाई से अधिक (80%) प्रसवों के लिए प्रशिक्षित कर्मियों, नियमित डिस्पेन्सरियों, अस्पतालों व चिकित्सा संस्थानों का प्रयोग किया जा सके।
  10.  शिशु मृत्यु-दर (1,000 जीवित जन्मे शिशुओं पर) को 30% से कम किया जाएगा।
  11.  मातृ मृत्यु-दर को एक लाख जीवित जन्मों के लिए 100 से भी कम करने के प्रयास किए जाएँगे।
  12.  भारतीय चिकित्सा पद्धतियों का प्रजनन और बाल-स्वास्थ्य सेवाओं के लिए उपयोग किया जाएगा।
  13. एड्स के बारे में सूचना उपलब्ध कराना तथा संक्रामक रोगों पर नियन्त्रण के प्रयास करना।
  14. प्राथमिक शिक्षा की उपलब्धता को नि:शुल्क और अनिवार्य करना।
  15. जन्म और मृत्यु के साथ ही विवाह और गर्भ के पंजीकरण को भी अनिवार्य किया गया है।
  16. जनसंख्या नीति के कार्यान्वयन पर निगरानी रखने के लिए प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में जनसंख्या पर एक राष्ट्रीय आयोग नियुक्त करना, जिससे जनसंख्या नियन्त्रण की समस्याओं का तत्काल समाधान किया जा सके।

नयी जनसंख्या नीति के कार्यान्वयन एवं समीक्षा के लिए 11 मई, 2000 ई० को प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय 100 सदस्यीय राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग का गठन किया गया। केन्द्रीय परिवार-कल्याण मन्त्री व अन्य कुछ सम्बन्धित केन्द्रीय मन्त्रियों के अतिरिक्त सभी राज्यों व केन्द्रशासित क्षेत्रों के मुख्यमन्त्री इस आयोग के सदस्य बनाये गये। जाने-माने जनसंख्याशास्त्रियों, जनस्वास्थ्य विशेषज्ञों व गैर-सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों को भी इसमें सम्मिलित किया गया। योजना आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष के०सी० पन्त को इस आयोग का भी उपाध्यक्ष बनाया गया था।

सरकार ने जनसंख्या नियन्त्रण की आधार-संरचना को उन्नत करने के उद्देश्य से ₹3,000 करोड़ का अतिरिक्त प्रावधान किया है, जिससे गर्भ-निरोध की अभी तक पूरी न हो सकी जरूरतों को पूरा किया जा सके।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
भारतीय जनसंख्या का विभिन्न आधारों पर वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर:
भारत में जनसंख्या का वितरण समान नहीं है। सन् 2011 के आँकड़ों के अनुसार, भारत की कुल जनसंख्या 121 करोड़ थी। भारत की जनसंख्या का विभिन्न आधारों पर वितरण निम्नलिखित है

1. जनसंख्या घनत्व के आधार पर – देश में जनसंख्या का घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी था: परन्तु विभिन्न राज्यों में जनसंख्या का घनत्व समान नहीं है। राज्यों में सर्वाधिक घनत्व बिहार का (1102 व्यक्ति) तथा सबसे कम अरुणाचल प्रदेश का (17 व्यक्ति) है। इसी प्रकार केन्द्रशासित क्षेत्रों में सर्वाधिक घनत्व दिल्ली में ( 11,297 व्यक्ति) तथा सबसे कम अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में ( 46 व्यक्ति) था।

2. स्त्री-पुरुष के आधार पर – 2011 के आँकड़ों के अनुसार कुल जनसंख्या 121 करोड़ रही, जिसमें पुरुष जनसंख्या 62.37 करोड़ (51.73 प्रतिशत) तथा स्त्री जनसंख्या 58.64 करोड़ (48.27 प्रतिशत) थी। स्त्री-पुरुष अनुपात 940 रहा। राज्यों में प्रति 1,000 पुरुषों पर महिलाओं की सर्वाधिक संख्या केरल (1,084) तथा सबसे कम हरियाणा में (877) रही।

3. साक्षरता के आधार पर – पूरे देश के लिए साक्षरता दर 74.04 प्रतिशत थी, जिसमें पुरुषों की साक्षरता 82.14 प्रतिशत तथा महिलाओं की 65.46 प्रतिशत थी। सर्वाधिक साक्षरता केरल में 93.91 प्रतिशत तथा सबसे कम बिहार में 63.82 प्रतिशत थी। महिलाओं में सर्वाधिक साक्षरता केरल में 91.98 प्रतिशत तथा सबसे कम राजस्थान में 52.66 प्रतिशत थी।

4. जनसंख्या के आधार पर – देश में सर्वाधिक जनसंख्या वाला राज्य उत्तर प्रदेश है। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 19.95 करोड़ तथा सबसे कम जनसंख्या वाला राज्य सिक्किम है, जिसकी जनसंख्या 6.07 लाख है। सर्वाधिक जनसंख्या वाला केन्द्रशासित क्षेत्र दिल्ली है। दिल्ली की जनसंख्या 167.53 लाख तथा सबसे कम जनसंख्या वाला केन्द्रशासित राज्य लक्षद्वीप है जहाँ की जनसंख्या 64.42 हजार है।

5. जनसंख्या-वृद्धि दर –  वर्ष 2001 की जनगणना की तुलना में 2011 में जनसंख्या में कुल 18.14 करोड़ व्यक्तियों की वृद्धि हुई। इस प्रकार वर्ष 2001-11 के दशक में जनसंख्या में 17.64 प्रतिशत की वृद्धि हुई। वर्ष 2001-11 के दशक में जनसंख्या में वार्षिक घातांकी वृद्धि दर 1.64 प्रतिशत रही। राज्यों में सर्वाधिक दशक वृद्धि दर दादर नगर हवेली में 55.50 प्रतिशत रही, जबकि न्यूनतम केरल में 0.47 प्रतिशत रही।

प्रश्न 2
जनसंख्या-विस्फोट के परिणामों पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए। [2009]
या
भारत की सबसे कठिन समस्या उसकी तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या है।” विवेचना कीजिए।
या
सन् 1951 से भारत में मुख्य जनांकीय प्रवृत्तियों की विवेचना कीजिए। [2011]
या
जनसंख्या विस्फोट क्या है? जनसंख्या विस्फोट के परिणाम लिखिए। [2016]
उत्तर:
तीव्र गति से जनसंख्या का बढ़ना, जनसंख्या विस्फोट कहलाता है। विश्व में चीन के बाद भारत ही सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है। भारत की वर्तमान जनसंख्या विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग छठवाँ हिस्सा है, जबकि भारत के पास विश्व के कुल भू-भाग का केवल 2.4 प्रतिशत भाग है। भारत की जनगणना आँकड़ों के अनुसार, सन् 1901 में भारत की जनसंख्या 23.84 करोड़ थी जो 1941 में बढ़कर 31.87 करोड़, 1951 में 36.11 करोड़, 1961 में 43.92 करोड़, 1971 में 54.82 करोड़, 1981 में 68.33 करोड़, 1991 में 84.64 करोड़, 2001 में 102.7 करोड़ तथा वर्तमान में भारत की कुल जनसंख्या 121 करोड़ के ऊपर हो चुकी है। भारत में जनसंख्या वृद्धि के विगत दशकों के आँकड़े लें तो हमें ज्ञात होगा कि जनसंख्या वृद्धि दर 1921 ई० तक तो बहुत कम थी, परन्तु उसके उपरान्त वृद्धि-दर तेजी से बढ़ी है। वर्ष 1961-71 के मध्य वृद्धि दर 2.22 प्रतिशत प्रति वर्ष थी जो 1971-81 में 2.20 प्रतिशत प्रति वर्ष रही । भारत में इस समय जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि-दर लगभग 1.64 प्रतिशत प्रति वर्ष है। भारत की जनसंख्या 1.80 करोड़ वार्षिक वृद्धि की दर से बढ़ रही है अर्थात् हम भारत में प्रति वर्ष एक ऑस्ट्रेलिया एवं प्रति दस वर्षों में एक उत्तर प्रदेश को जन्म देते जा रहे हैं।

पिछले दो दशकों से समस्त विश्व में यह अनुभव किया जाने लगा है कि बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में अनेक समस्याएँ सामने आ रही हैं। इसका प्रभाव विकास योजनाओं पर भी पड़ रहा है, क्योंकि विकास से उपलब्ध लाभों का वितरण अत्यधिक जनसंख्या में होने से प्रति व्यक्ति पर्याप्त सुविधाएँ नहीं मिल पा रही हैं, जिसके कारण देश की प्रगति अपेक्षित गति से नहीं हो पा रही हैं। यही कारण है। कि भारत जैसे विकासशील देशों के लिए अतिशय जनसंख्या अभिशाप मानी जाती है, क्योंकि इसके कारण ऐसी विकट समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं जो विकास के प्रयासों तथा परिणामों को मटियामेट कर देती हैं।

भारत में जनसंख्या-वृद्धि से उत्पन्न होने वाली प्रमुख समस्याएँ (परिणाम) निम्नलिखित हैं|

  1.  खाद्य सामग्री की आपूर्ति की समस्या!
  2. वस्त्र आपूर्ति की समस्या
  3. आवास समस्या।
  4. शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था की समस्या।
  5. स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सेवाओं की समस्या।
  6. रोजगार की समस्या।
  7. यातायात सुविधाओं की समस्या।
  8. प्रदूषण की समस्या।
  9. पारिस्थितिकी के असन्तुलन की समस्या।
  10. जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने की समस्या।
  11.  जन-जीवन के कल्याण एवं सुरक्षा की समस्या।
  12.  गरीबी में वृद्धि व निम्न प्रति व्यक्ति आय की समस्या आदि।

अत: संक्षेप में हम कह सकते हैं कि भारत में आज जो भी महत्त्वपूर्ण समस्याएँ; जैसे-अपराध, भ्रष्टाचार, हिंसा, बेरोजगारी, अपहरण, स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास आदि हैं, उनको मूल कारण भारत में तीव्रगति से बढ़ती जनसंख्या है।

प्रश्न 3
परिवार-नियोजन कार्यक्रम और प्रभावी कैसे हो सकता है? इस सम्बन्ध में अपने सुझाव प्रस्तुत करें। [2009, 10]
या
भारत में परिवार-कल्याण कार्यक्रम की सफलता के लिए दो/चार सुझाव दीजिए। [2011, 12]
उत्तर:
भारत की पूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के अनुसार, “मृत्यु-दर में गिरावट संगठित सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के परिणामस्वरूप आती है। जन्म-दर में गिरावट शिक्षा-प्रसार तथा जीवन-स्तर में सुधार का परिणाम होती है। हम कह सकते हैं कि मृत्यु-देर में गिरावट समाज की

व्यक्ति के प्रति दायित्व के कारण तथा जन्म-दर में गिरावट व्यक्ति की समाज के प्रति दायित्व के कारण आती हैं। मानव-जाति का प्रारम्भ शिशु से होता है। जो व्यक्ति शिशु की परवाह करता है, वह मानव-जाति की परवाह करता है।”
उपर्युक्त विचार से यह स्पष्ट होता है कि परिवार नियोजन को प्रभावी बनाने में मनुष्य का सहयोग या दायित्व महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव निम्नलिखित हैं

  1. परिवार कल्याण कार्यक्रम का प्रचार एवं प्रसार पूरे देश में किया जाना चाहिए, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, क्योंकि भारत की 75% जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में ही निवास करती है।
  2. परिवार कल्याण कार्यक्रम को ‘जन-अभियान’ बनाया जाना चाहिए।
  3. ‘सेक्स शिक्षा’ को हेय दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए, वरन् परिवार-कल्याण कार्यक्रम एवं सेक्स शिक्षा को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाना चाहिए।
  4. परिवार-कल्याण कार्यक्रम के साधन आधुनिक बाजारवाद से लिप्त नहीं होने चाहिए, वरन् आयुर्वेद, होम्योपैथी आदि से सम्बन्धित गर्भनिरोधक होने चाहिए जो सस्ते, प्रयोग में आसान तथा बिना किसी अनुचित प्रभाव वाले हों।
  5.  प्रौढ़ शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार भी होना चाहिए।
  6. परिवार नियोजन की शिक्षा सभी व्यक्तियों को दी जानी चाहिए, जिससे वे नियोजित परिवार के महत्त्व को समझ सकें।
  7. परिवार नियोजन कार्यक्रम को राष्ट्रीय महत्त्व को समझा जाना चाहिए।
  8. उन डॉक्टरों को विशेष सुविधाएँ दी जानी चाहिए जो इस कार्यक्रम को लागू करने और सफल बनाने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर काम करने को तैयार हैं।
  9. परिवार नियोजन कार्यक्रम में स्वैच्छिक संगठनों का सहयोग लिया जाना चाहिए, उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान की जानी चाहिए तथा इन संगठनों के कर्मचारियों को भी उचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
  10.  शिक्षाविदों तथा जन-माध्यम में लगे व्यक्तियों का कर्तव्य है कि वे ऐसे व्यक्तियों के प्रति. जो परिवार नियोजन के विचार से असहमत हैं और इसके बारे में भ्रामक प्रचार करते हैं, की कड़ी छानबीन करें तथा उन्हें गलत प्रचार करने से रोकें।।
  11.  अधिक-से-अधिक जनसंख्या को शिक्षित करके कट्टर धार्मिक विचारधारा को मानने वाले लोगों के कारण जो अवरोध उत्पन्न हो रहे हैं, उन्हें समाप्त किया जाना चाहिए।
  12.  गर्भ निरोधक औषधियाँ या अन्य उपकरण नि:शुल्क या कम मूल्य पर सरकार द्वारा वितरित की जानी चाहिए।
  13.  अधिक-से-अधिक परिवार कल्याण केन्द्र ग्रामीण क्षेत्रों तथा औद्योगिक क्षेत्रों में स्थापित किए जाने चाहिए।
  14. चलचित्र, नाटक, रेडियो, टेलीविजन आदि के माध्यम से परिवार नियोजन कार्यक्रम का प्रसार किया जाना चाहिए।
  15. स्त्री-पुरुषों को दीर्घकालीन प्रतिरक्षा प्रदान करने के लिए सम्बन्धित शोध-संस्थानों को अधिक प्रभावशाली तथा सुरक्षित तरीके खोज निकालने चाहिए।
  16. परिवार नियोजन से सम्बन्धित साधनों से दम्पती न केवल इसमें सक्षम हों कि वे गर्भ से बच सकें, बल्कि वे इच्छानुसार शिक्षा भी प्राप्त कर सकें।

प्रश्न 4
परिवार-कल्याण कार्यक्रम के सम्बन्ध में सरकार द्वारा क्या कदम उठाए गये हैं ? [2006]
उत्तर:
स्वाधीनता के बहुत पहले ही हमने यह अनुभव कर लिया था कि गरीबी से तब तक नहीं निपटा जा सकता जब तक कि परिवार का आकार सीमित न हो। भारत परिवार नियोजन को सरकारी नीति के रूप में अपनाने वाला पहला देश है। जनसंख्या नियन्त्रण हमारी योजनाओं का एक अभिन्न अंग है। सरकार द्वारा किये गये प्रयासों के कारण जन्म-दर, जो सन् 1951 में 40.8 प्रति हजार से अधिक थी, वह 2011 में घटकर 23 प्रति हजार तक आ गयी है। हमारा लक्ष्य औसत राष्ट्रीय जन्म दर को घटाकर 21 प्रति हजार से भी कम करना है। सन् 1951 के जनगणना आयुक्त ने परिवार नियोजन की आवश्यकता पर बल दिया था। इसलिए प्रथम तथा द्वितीय पंचवर्षीय योजनाओं में सरकार ने कुछ अप्रत्यक्ष प्रयास किये, लेकिन इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। सन् 1961 ई० की जनगणना में हुई जनसंख्या-वृद्धि से सरकार अत्यधिक चिन्तित हुई। अत: 1966 ई० में इसके लिए एक पृथक् स्वतन्त्र विभाग खोला गया।
पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा सरकार जनसंख्या नियन्त्रित करने तथा परिवार कल्याण के लिए निम्नलिखित प्रयास किये हैं

1. परिवार-कल्याण मन्त्रालय की स्थापना – परिवार-कल्याण कार्यक्रमों के उचित संचालन के लिए परिवार कल्याण मन्त्रालय स्थापित किया गया है। यह मन्त्रालय परिवार कल्याण सम्बन्धी कार्यों एवं नीतियों के साथ-साथ इस बात का भी निर्धारण करता है कि परिवार कल्याण कार्यक्रम के अन्तर्गत हमने कितनी सफलता प्राप्त की है।

2. परिवार-कल्याण केन्द्र की स्थापना – जनता को परिवार-कल्याण सम्बन्धी सुविधाएँ उपलब्ध कराने हेतु देश के प्रत्येक भाग में यहाँ तक कि ब्लॉक-स्तर पर परिवार-कल्याण केन्द्रों की स्थापना की गयी है, जिससे जनसाधारण को नियोजन सम्बन्धी सामग्रियाँ; जैसे – ओषधि, निरोध आदि नि:शुल्क वितरित की जाती हैं तथा नसबन्दी कराने की भी सुविधा उपलब्ध रहती है।

3. पुरस्कार एवं दण्ड को प्रावधान – परिवार नियोजन कार्यक्रमों को सफल बनाने हेतु पुरस्कार एवं दण्ड के प्रावधान की व्यवस्था भी की गयी है। इसके अन्तर्गत जिसके तीन या अधिक बच्चे हैं, उनकी बहुत-सी सुविधाओं को समाप्त कर दिया गया है। ऑपरेशन कराने वालों तथा प्रेरकों को कुछ नकद रुपये भी प्रोत्साहन राशि के रूप में दिये जाते हैं। जिन दम्पतियों के दो या दो से कम बच्चे हैं, उन्हें सरकार एक विशेष वार्षिक वेतन वृद्धि दे रही है जिसका लाभ उन्हें सेवाकाल तथा उसके बाद भी मिलती रहता है।

4. अनुकूल जनमत तैयार करना – परिवार नियोजन के प्रचार व प्रसार के लिए समय-समय पर परिवार-कल्याण सप्ताह तथा ऑपरेशन शिविरों का भी प्रबन्ध किया जाता है। स्वास्थ्य शिक्षकों की नियुक्तियाँ भी की गयी हैं। ये गाँवों में घर-घर जाकर परिवार-कल्याण की शिक्षा देते हैं। परिवार नियोजन के प्रति जनमत तैयार करने के उद्देश्य से बड़े पैमाने पर रेडियो, समाचार-पत्रों, चलचित्रों आदि के माध्यम से प्रचार किया जाता हैं।

5. गर्भपात को वैधानिक मान्यता – हमारे देश में अप्रैल,स सन् 1972 से ‘Medical Termination of Pregnancy Act’ जम्मू-कश्मीर राज्य को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में लागू किया गया है। इस कानून के द्वारा गर्भपात को वैधानिक मान्यता प्राप्त हो गयी है।

6. विवाह की आयु में वृद्धि – वैवाहिक आयु की सीमा को बढ़ाकर लड़कियों के लिए 18 वर्ष तथा लड़कों के लिए 21 वर्ष कर दिया गया है।

7. जनसंख्या-शिक्षा – सरकार ने यह अनुभव किया है कि जनसंख्या सम्बन्धी नीतियों एवं कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से कार्यान्वित करने हेतु शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान हो सकता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सन् 1970 में राष्ट्रीय स्तर पर एक जनसंख्या शिक्षा कोष्ठ’ तथा प्रशिक्षण संस्थाओं के लिए पाठ्यक्रम तैयार किया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ की शाखा ‘यूनाइटेड नेशन्स फण्ड फॉर पॉपुलेशन एक्टीविटीज’ के सहयोग से भारत सरकार ने जनसंख्या शिक्षा कार्यक्रम को देश में कार्यान्वित करने के लिए कदम उठाया।

प्रश्न 5
भारत में परिवार-कल्याण कार्यक्रमों के मार्ग में आने वाली बाधाओं को समझाइए। [2009]
उत्तर:
भारत परिवार नियोजन को सरकारी नीति के रूप में अपनाने वाला संसार का पहला देश है। जनसंख्या-नियन्त्रण हमारी विकास योजनाओं का अभिन्न अंग-पूर्णतया स्वैच्छिक है। परिवार-कल्याण कार्यक्रम के मार्ग में अनेक बाधाएँ हैं, जिससे यह कार्यक्रम पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पा रहा है। इस कार्यक्रम की प्रमुख बाधाएँ अग्रलिखित हैं

1. कार्यक्रम जन-अभियान न बन पाना – परिवार-कल्याण कार्यक्रम 50 वर्षों के पश्चात् भी जन-अभियान नहीं बन पाया है। इसका मूल कारण हमारे देश की जटिल सामाजिक व्यवस्था के द्वारा ‘सेक्स शिक्षा’ को हेय दृष्टि से देखना रहा है।

2. कार्यक्रम का पूरा दायित्व महिलाओं पर – परिवार कल्याण कार्यक्रम का पूरा दायित्व महिलाओं पर डाल दिया गया है, जिसके परिणामस्वरूप इस कार्यक्रम की कमर टूट गयी है। गर्भाधान रोकने के सबसे अधिक उपाय महिलाओं के हैं, जबकि पुरुषों के लिए मात्र एक गर्भ निरोधक है, उसे भी एड्स जैसे रोगों से बचाव के माध्यम के रूप में ही प्रचारित किया जा रहा है।

3. भारतीय समाज का पुरुष-प्रधान होना – परिवार-कल्याण कार्यक्रम के अन्तर्गत महिला नसबन्दी की दर तो 35 प्रतिशत तक पहुँच गयी है, परन्तु पुरुष नसबन्दी की दर 3 प्रतिशत से भी कम है। इसका प्रमुख कारण भारतीय समाज का पुरुष-प्रधान होना है, जो परिवार कल्याण कार्यक्रम में बाधक है।

4. अशिक्षा एवं अन्धविश्वास – हमारे देश में अधिकांश व्यक्ति अशिक्षित हैं। इस कारण वे परिवार के आकार के सम्बन्ध में उदासीन रहते हैं। भारत में 26 प्रतिशत तथा उत्तर प्रदेश में 31 प्रतिशत व्यक्ति अशिक्षित हैं। लाखों दम्पतियों, जिनमें से अधिकांश अशिक्षित हैं, को परिवार नियोजन के प्रति सहमत करना कठिन है। सन्तान ईश्वर की देन है और आने वाली सन्तान को नहीं रोका जाना चाहिए, यह धारणा तथा शिक्षा की कमी परिवार नियोजन के विकास में सर्वाधिक बाधक है।

5. आर्थिक व धार्मिक दृष्टि से पुत्र का महत्त्व – धार्मिक दृष्टि से यह समझा जाता है कि पुत्र का जन्म होना अनिवार्य है तथा पुत्र के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता। इसलिए परिवार में कई लड़कियाँ होने पर भी पुत्र की अभिलाषा बनी ही रहती है। अधिक आर्थिक समृद्धि अधिक पुत्र सन्तति से ही मिल सकती है, यह धारणा भी परिवार कल्याण कार्यक्रम में बाधक है।

6. राष्ट्रीय भावना की कमी या राजनीतिक कारण – प्रजातन्त्रात्मक सरकार होने के कारण भारत का नागरिक-नेतृत्व किसी भी कार्यक्रम पर राष्ट्रीय दृष्टिकोण से विचार न करके अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण से विचार करता है तथा अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति करता है। यह मनोवृत्ति भी इस कार्यक्रम में बाधक बनती है।

7. धार्मिक मान्यताएँ – भारत में विभिन्न धर्मों व सम्प्रदायों के व्यक्ति निवास करते हैं। कुछ धर्मावलम्बी इस कार्यक्रम में अपना सहयोग नहीं दे रहे हैं। उनका कहना है कि हमारा धर्म इन कार्यक्रमों को अपनाने की अनुमति नहीं देता है।

8. परिवार-नियोजन की विधियाँ – भारत में परिवार नियोजन की सरल एवं प्रभावी विधियों का अभाव है। भारत में अभी तक केवल एक ही विधि सफल रही है-बन्ध्याकरण। इसलिए उत्तम व श्रेष्ठ तथा सरल विधि का न होना भी परिवार नियोजन कार्यक्रम में बाधक है।

प्रश्न 6
‘जनसंख्या शिक्षा क्या है ? संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:
जनसंख्या शिक्षा वह शिक्षा है जो मनुष्य को विश्व, देश तथा राज्य की जनसंख्या के सभी पक्षों का ज्ञान दे। जनसंख्या और इसकी समस्याओं के प्रति ऐसी अवधारणाओं तथा व्यवहार का विकास करने में सहायक हो, जो व्यक्ति और राष्ट्र के लिए हितकारी हों।
दूसरे शब्दों में, “जनसंख्या शिक्षा एक शैक्षिक प्रयास है, जिसके द्वारा विभिन्न वर्गों, विशेषकर छात्र-छात्राओं को विश्व के परिप्रेक्ष्य में देश, प्रदेश तथा क्षेत्र की जनसंख्या-स्थिति, जनांकिकी के प्रमुख तत्त्वों, जनसंख्या और पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्ध, जनसंख्या-वृद्धि का आर्थिक एवं सामाजिक विकास पर प्रभाव आदि का बोध कराया जा सकेगा। साथ ही जनसंख्या-वृद्धि से उत्पन्न समस्याओं और जनसाधारण के जीवन-स्तर पर पड़ने वाले प्रभावों के विषय में भी जागरूक कराया जा सकेगा।

जनसंख्या शिक्षा न तो परिवार नियोजन सम्बन्धी कार्यक्रम है, न यौन शिक्षा और न कोई प्रचार या विशिष्ट दीक्षा सम्बन्धी कार्यक्रम। जनसंख्या शिक्षा का स्वरूप अति व्यापक है, जनसंख्या शिक्षा एक, सतत प्रक्रिया है। यह एक बार में ही अपना उद्देश्य पूरा कर समाप्त हो जाने वाली नहीं है। यह एक व्यापक विद्या है, जिसकी उपादेयता वर्तमान में भी है और भविष्य में भी रहेगी, क्योंकि इसका उद्देश्य मानव-कल्याण है।
जनसंख्या शिक्षा मानव जनसंख्या का वह अध्ययन है जिसका सम्बन्ध पर्यावरण से है तथा जिसके द्वारा पर्यावरण को प्रभावित किये बिना मानव-जीवन में गुणात्मक सुधार लाया जा सकता है।
विडरमैन ने लिखा है, “जनसंख्या शिक्षा एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा विद्यार्थी जनसंख्या प्रक्रिया की प्रवृत्ति एवं अर्थ, जनसंख्या की विशेषताओं, जनसंख्या परिवर्तन के कारण एवं परिणाम तथा इन परिवर्तनों के अपने परिवार, अपने समाज तथा विश्व पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है।’

प्रश्न 7
जनसंख्या शिक्षा के उद्देश्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
भारत सरकार ने जनसंख्या सम्बन्धी नीतियों एवं कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से कार्यान्वित करने के लिए 1970 ई० में राष्ट्रीय स्तर पर एक ‘जनसंख्या शिक्षा कोष्ठ’ स्थापित किया। भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ की शाखा ‘यूनाइटेड नेशन्स फण्ड फॉर पॉपुलेशन एक्टीविटीज’ के सहयोग से जनसंख्या शिक्षा कार्यक्रम को देश में कार्यान्वित करने के लिए कदम उठाया, जिसके निम्नलिखित उद्देश्य हैं

  1.  जनसंख्या को नियन्त्रित करने के लिए हमें जनसाधारण में ऐसी चेतना का विकास करना है। जो व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र के लिए हितकारी हो।
  2. जनसंख्या शिक्षा माध्यम के द्वारा हमें छात्र-छात्राओं को इस योग्य बनाना है कि जो भविष्य में यह निर्णय लेने में सक्षम हों कि उनके परिवार का क्या आकार होना चाहिए।
  3. जनसंख्या शिक्षा के द्वारा राष्ट्र के समस्त निवासियों, विशेष रूप से छात्र-छात्राओं को विश्व के परिप्रेक्ष्य में अपने देश, राज्य एवं क्षेत्र की जनसंख्या स्थिति के सम्बन्ध में जानकारी देना है।
  4. जनसंख्या शिक्षा के माध्यम से जनसाधारण को जनसंख्या में होने वाली वृद्धि के कारणों एवं कुप्रभावों को भी बताना है।
  5.  जनसंख्या शिक्षा के द्वारा जनसंख्या के सिद्धान्तों का ज्ञान तथा उन सिद्धान्तों का परिपालन्। करना भी बताया जाता है।
  6. जनसाधारण को यह बताना कि प्राकृतिक साधनों एवं जनसंख्या का घनिष्ठ सम्बन्ध है और यदि जनसंख्या और प्राकृतिक संसाधनों का सन्तुलन ठीक है तो यह हमारे सुख का आधार हो सकता है।
  7. जनसंख्या शिक्षा माध्यम के द्वारा मानव अधिकारों का ज्ञान कराना तथा व्यक्तियों में प्रेम और सहानुभूति की भावना का विकास करना।

प्रश्न 8
जनसंख्या शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
यह आशंका प्रकट की जाती है कि विश्व की जनसंख्या, जो 1980 ई० में 4 अरब के करीब थी, सन् 2000 तक 6 अरब की संख्या को पार कर चुकी थी। दूसरे शब्दों में, आने वाले दो दशकों में आज पृथ्वी पर जितने लोग रहते हैं उसका आधा हिस्सा उसमें और जुड़ जाएगा, यानि जनसंख्या डेढ़ गुना अधिक हो जाएगी। इस वृद्धि में 90% जनसंख्या की वृद्धि विकासशील देशों में होगी, जो कि पहले से ही भूमि, भोजन, पानी, आवास, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य की समस्याओं से ग्रस्त हैं। इन सब कारणों से आज जनसंख्या शिक्षा का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। यदि विकासशील देशों को भोजन, आवास, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य की समस्याओं का निवारण करना है तो इन सबका एकमात्र उपाय जनसंख्या शिक्षा है, क्योंकि जनसंख्या शिक्षा के माध्यम से जन्म-दर में गिरावट आएगी तथा जनसंख्या को नियन्त्रित करने में सफलता मिलेगी। उपर्युक्त सभी समस्याओं, विशेष रूप से बेरोजगारी, निर्धनता, भोजन व आवास तथा शिक्षा और स्वास्थ्य की समस्याओं से तब तक सुचारु रूप से नहीं निपटा जा सकता, जब तक कि परिवार का आकार सीमित न हो जिससे हर शिशु को संसाधनों तथा अवसरों का उचित अंश मिल सके। यह सब जनसंख्या शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार द्वारा ही सम्भव है।

प्रश्न 9
नगरीकरण का आर्थिक विकास से क्या सम्बन्ध है? नगरों में जनसंख्या-वृद्धि के क्या कारण हैं?
उत्तर:
किसी भी देश के नगरीकरण में प्रगति उस देश के विकास की गति को सूचित करती है। यही कारण है जिसकी वजह से कहा जाता है कि नगरीकरण व आर्थिक विकास का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जिस देश में नगरीकरण का अनुपात जितना अधिक होगा वह देश उतना ही अधिक विकसित होगा।
भारत की सन् 2011 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या की 30 प्रतिशत नगरों में रहती है तथा शेष 70 प्रतिशत गाँवों में। वर्ष 1991 में यह अनुपात 26 : 74 था।
नगरों में जनसंख्या वृद्धि के कारण निम्नलिखित हैं

  1.  उद्योगीकरण एवं नवीन उद्योगों का विकास,
  2. देश-विभाजन,
  3. गाँवों की सुरक्षा में कमी,
  4.  नगरों में चिकित्सा, शिक्षा, मनोरंजन प्रशिक्षण व रोजगार की सुविधाओं व क्षमता का होना तथा
  5. जमींदारों की शहरों में बसने की प्रवृत्ति आदि।

भारत में भी नगरों में रहने वाली जनसंख्या का प्रतिशत बढ़ा है, जो वर्तमान में 30 प्रतिशत है, जबकि चेक गणराज्य, स्लोवाकिया में 66 प्रतिशत, रूस और अमेरिका में 77 प्रतिशत, जापान में 79 प्रतिशत, कनाडा में 77 प्रतिशत, ऑस्ट्रेलिया में 85 प्रतिशत व ब्रिटेन में 89 प्रतिशत व्यक्ति शहरों में रहते हैं।
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में जिन चार महानगरों की आबादी सबसे अधिक है, वे हैं-मुम्बई 1 करोड़ 24 लाख, दिल्ली 1 करोड़ 10 लाख, बंगलुरु 84 लाख व हैदराबाद 68 लाख।।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
भारत में तीव्र जनसंख्या-वृद्धि के किन्हीं चार प्रमुख कारणों पर प्रकाश डालिए। [2016]
उत्तर:
जनसंख्या-वृद्धि को रोकने के उपाय
जनसंख्या की समस्या के समाधान के लिए हमें एक साथ कई उपाय करने पड़ेंगे। जन्म-दर को कम करने के लिए तत्कालीन एवं दीर्घकालीन उपाय किये जाने चाहिए। तत्कालीन उपायों में निरोध, नसबन्दी, लूप, ऑपरेशन आदि के लिए लोगों को प्रेरित करना तथा दीर्घकालीन उपायों में विवाह की न्यूनतम आयु में वृद्धि, बाल-विवाह पर रोक, मनोरंजन के साधनों में वृद्धि, आत्म-संयम वे ब्रह्मचर्य के पालन के लिए लोगों को प्रेरित करना आदि हैं। इन उपायों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

1. जन्म-दर में कमी करना – जनसंख्या-वृद्धि को सीमित करने के लिए यह आवश्यक है कि मृत्यु-दरे के साथ-साथ जन्म-दर में भी गिरावट लायी जाए। वर्ष 1951-60 में जन्म-दर 41.7% थी, जो 2011 ई० में 23% हो गयी। जन्म-दर में और अधिक कमी लायी जानी चाहिए।

2. साक्षरता तथा शिक्षा का प्रसार आवश्यक – शिक्षा के माध्यम से ही जन-साधारण में जनसंख्या-वृद्धि के विषय में जागरूकता लायी जा सकेगी। विकसित देशों में जनसंख्या-वृद्धि की समस्या न होने का प्रमुख कारण उनकी शत-प्रतिशत साक्षरता है। भारत में केवल केरल में ही साक्षरता अन्य प्रदेशों की अपेक्षा अधिक है।

3. स्त्री-शिक्षा पर विशेष बल – जनसंख्या-वृद्धि के परिप्रेक्ष्य में स्त्री-शिक्षा का विशेष महत्त्व है। केरल में स्त्रियों की साक्षरता प्रतिशत 91.98 है, जबकि उत्तर प्रदेश में 59.26 है। इसी कारण से उत्तर प्रदेश में जनसंख्या वृद्धि की दर भी उच्च है। अत: जनसंख्या-वृद्धि पर नियन्त्रण हेतु स्त्री-शिक्षा पर विशेष बल देने की आवश्यकता है।

4. विवाह सम्बन्धी कानूनों का सख्ती से पालन – यद्यपि विवाह की न्यूनतम आयु कानूनी तौर पर निर्धारित है। बाल-विवाह वर्जित है, फिर भी ये बुराइयाँ समाज में यथावत् बनी हुई हैं। इनका सख्ती से पालन किया जाना भी आवश्यक है। इस प्रकार जनसंख्या वृद्धि पर अंकुश लगाया जा सकता है।

प्रश्न 2
जनसंख्या के घनत्व को प्रभावित करने वाले चार प्रमुख कारकों का उल्लेख कीजिए। [2016]
उत्तर:
किसी स्थान-विशेष पर जनसंख्या का घनत्व निम्नलिखित मुख्य तत्त्वों द्वारा प्रभावित होता है

1. जलवायु – जनसंख्या का घनत्व जलवायु पर निर्भर करता है। जिस क्षेत्र यो स्थान की जलवायु उत्तम और स्वास्थ्यवर्द्धक होती है, वहाँ जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। इसके विपरीत, यदि किसी स्थान की जलवायु अधिक गर्म या अधिक ठण्डी होती है तो ऐसे स्थान पर जनसंख्या का घनत्व कम होता है।

2. वर्षा – जिन स्थानों पर वर्षा न तो बहुत अधिक होती है और न ही बहुत कम, उन स्थानों पर जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। इसके विपरीत, जिन स्थानों पर अत्यधिक वर्षा होती है या बहुत कम वर्षा होती है, उन क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व भी कम पाया जाता है। यही कारण है कि राजस्थान में वर्षा कम होने के कारण तथा असम में अधिक वर्षा होने के कारण जनसंख्या का घनत्व कम है।

3. भूमि की बनावट व उर्वरा-शक्ति – मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा पर्वतीय तथा पठारी क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व कम होता है, क्योंकि ऊँची-नीची भूमि होने के कारण कृषि कार्य करने तथा उद्योगों को स्थापित करने में कठिनाई होती है। इसके विपरीत, मैदानी भागों में मिट्टी समतल व अधिक उपजाऊ होती है इसलिए इन स्थानों पर जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में गंगा-यमुना के मैदानी भाग में जनसंख्या का घनत्व अधिक है।

4. सिंचाई की सुविधाएँ – जिन क्षेत्रों में वर्षा की कमी को सिंचाई के साधनों द्वारा पूरा कर लिया जाता है या ज़िन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधाएँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होती हैं, उन क्षेत्रों में भी जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है।

प्रश्न 3
भारत में जनसंख्या को नियन्त्रित करने के लिए कोई चार उपाय बताइए। [2010, 12, 14]
उत्तर:
जनसंख्या की समस्या के समाधान के लिए हमें एक साथ कई उपाय करने पड़ेंगे। जन्म-दर को कम करने के लिए तत्कालीन एवं दीर्घकालीन उपाय किये जाने चाहिए। तत्कालीन उपायों में निरोध, नसबन्दी, लूप, ऑपरेशन आदि के लिए लोगों को प्रेरित करना तथा दीर्घकालीन उपायों में विवाह की न्यूनतम आयु में वृद्धि, बाल-विवाह पर रोक, मनोरंजन के साधनों में वृद्धि, आत्म-संयम वे ब्रह्मचर्य के पालन के लिए लोगों को प्रेरित करना आदि हैं। इन उपायों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

1. जन्म-दर में कमी करना – जनसंख्या-वृद्धि को सीमित करने के लिए यह आवश्यक है कि मृत्यु-दरे के साथ-साथ जन्म-दर में भी गिरावट लायी जाए। वर्ष 1951-60 में जन्म-दर 41.7% थी, जो 2011 ई० में 23% हो गयी। जन्म-दर में और अधिक कमी लायी जानी चाहिए।

2. साक्षरता तथा शिक्षा का प्रसार आवश्यक – शिक्षा के माध्यम से ही जन-साधारण में जनसंख्या-वृद्धि के विषय में जागरूकता लायी जा सकेगी। विकसित देशों में जनसंख्या-वृद्धि की समस्या न होने का प्रमुख कारण उनकी शत-प्रतिशत साक्षरता है। भारत में केवल केरल में ही साक्षरता अन्य प्रदेशों की अपेक्षा अधिक है।

3. स्त्री-शिक्षा पर विशेष बल – जनसंख्या-वृद्धि के परिप्रेक्ष्य में स्त्री-शिक्षा का विशेष महत्त्व है। केरल में स्त्रियों की साक्षरता प्रतिशत 91.98 है, जबकि उत्तर प्रदेश में 59.26 है। इसी कारण से उत्तर प्रदेश में जनसंख्या वृद्धि की दर भी उच्च है। अत: जनसंख्या-वृद्धि पर नियन्त्रण हेतु स्त्री-शिक्षा पर विशेष बल देने की आवश्यकता है।

4. विवाह सम्बन्धी कानूनों का सख्ती से पालन – यद्यपि विवाह की न्यूनतम आयु कानूनी तौर पर निर्धारित है। बाल-विवाह वर्जित है, फिर भी ये बुराइयाँ समाज में यथावत् बनी हुई हैं। इनका सख्ती से पालन किया जाना भी आवश्यक है। इस प्रकार जनसंख्या वृद्धि पर अंकुश लगाया जा सकता है।

5. मनोरंजन के साधनों में वृद्धि – विशेष रूप से ग्रामीण तथा पिछड़े क्षेत्रों में मनोरंजन के साधनों में वृद्धि की जानी चाहिए। इनमें सिनेमा, सार्वजनिक दूरदर्शन की व्यवस्था, शिक्षाप्रद छोटी-छोटी फिल्मों का प्रदर्शन, अखाड़े, खेल-कूद प्रतियोगिताएँ आदि मुख्य हैं। मनोरंजन के साधनों में वृद्धि होने से जनसंख्या-वृद्धि पर भी नियन्त्रण लगेगा।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
जनसंख्या के घनत्व की परिभाषा अपने शब्दों में दीजिए।
उत्तर:
जनसंख्या के घनत्व से अभिप्राय मनुष्य-भूमि अनुपात से है अर्थात् “किसी देश के प्रति वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों की संख्या को जनसंख्या का घनत्व कहते हैं।”

प्रश्न 2
परिवार-कल्याण कार्यक्रम के मार्ग में उत्पन्न होने वाली चार बाधाएँ लिखिए।
उत्तर:
परिवार-कल्याण कार्यक्रम के मार्ग में निम्नलिखित चार बाधाएँ उत्पन्न होती हैं

  1. अशिक्षा एवं अन्धविश्वास,
  2. राष्ट्रीय भावना की कमी,
  3. परिवार-कल्याण कार्यक्रम का जन अभियान न बन पाना तथा
  4. भारतीय समाज का पुरुष-प्रधान होना।

प्रश्न 3
जन्म-दर से आप क्या समझते हैं? भारत में जन्म-दर के नवीनतम आँकड़े दीजिए।
उत्तर:
जन्म-दर से अर्थ एक वर्ष में प्रति हजार जनसंख्या के पीछे बच्चों के जन्म से है। वर्ष 2011 में यह 23 प्रति हजार हो गयी। यह दर अन्य देशों की तुलना में अत्यधिक ऊँची है।

प्रश्न 4
मृत्यु-दर से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
मृत्यु-दर से अर्थ एक वर्ष में प्रति हजार जनसंख्या के पीछे मृत्युओं की संख्या से है। भारत में इस दर में भी अत्यधिक कमी हुई है। वर्ष 2011 में यह 9 प्रति हजार है। यह अन्य देशों की तुलना में ऊँची है।

प्रश्न 5
जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न होने वाली दो समस्याओं को लिखिए। [2008, 13]
या
भारत में जनसंख्या-वृद्धि के कोई दो दुष्प्रभाव लिखिए। [2015]
उत्तर:
(1) खाद्य-सामग्री की आपूर्ति की समस्या।
(2) आवास की समस्या।

प्रश्न 6
जनसंख्या का घनत्व किस प्रकार ज्ञात किया जाता है?
उत्तर:
देश के कुलं भूमि क्षेत्रफल को कुल जनसंख्या से भाग देने पर जनसंख्या का घनत्व ज्ञात किया जाता है।

प्रश्न 7
परिवार नियोजन के दो लाभ बताइए। [2009]
उत्तर:
(1) देश के आर्थिक विकास का आधार।
(2) बेरोजगारी कम करने की अचूक औषधि।

प्रश्न 8
वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या कितनी है? [2011, 15]
उत्तर:
वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 102.7 करोड़ है।

प्रश्न 9
वर्ष 1951 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या कितनी थी?
उत्तर:
वर्ष 1951 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 36.11 करोड़ थी।

प्रश्न 10
वर्ष 2011 की जनगणना के आँकड़ों के अनुसार पुरुष जनसंख्या तथा स्त्री जनसंख्या बताइए।
उत्तर:
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 62.37 करोड़ पुरुष एवं 58.64 करोड़ स्त्री जनसंख्या है।

प्रश्न 11
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार पुरुष-स्त्री प्रतिशत बताइए।
उत्तर:
2011 की जनगणना के अनुसार पुरुष 51.73 प्रतिशत तथा स्त्री 48.27 प्रतिशत है।

प्रश्न 12
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में जनसंख्या का घनत्व कितना है?
उत्तर:
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में जनसंख्या का घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है।

प्रश्न 13
किस राज्य में जनसंख्या का घनत्व सर्वाधिक है? [2008, 11,14]
उत्तर:
सर्वाधिक जनसंख्या का घनत्व बिहार में (1,102 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी) है।

प्रश्न 14
किस राज्य में जनसंख्या का घनत्व सबसे कम है? [2009]
उत्तर:
सवसे कम जनसंख्या का घनत्व अरुणाचल प्रदेश में (17 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी) है।

प्रश्न 15
केन्द्रशासित क्षेत्रों में सर्वाधिक जनसंख्या का घनत्व किसका है?
उत्तर:
केन्द्रशासित क्षेत्रों में सर्वाधिक जनसंख्या का घनत्व दिल्ली में (11, 297 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी) है।

प्रश्न 16
केन्द्रशासित क्षेत्रों में सबसे कम जनसंख्या का घनत्व किसका है?
उत्तर:
केन्द्रशासित क्षेत्रों में सबसे कम जनसंख्या का घनत्व अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में (46 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी) है।

प्रश्न 17
2011 की जनगणना के आधार पर भारत में साक्षरता-दर क्या थी?
उत्तर:
वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर भारत की साक्षरता-दर 74.04 प्रतिशत थी।

प्रश्न 18
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार पुरुष साक्षरता-दर क्या थी?
उत्तर:
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार पुरुषों में साक्षरता दर 82.14 प्रतिशत थी।

प्रश्न 19
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार स्त्री की साक्षरता दर क्या थी?
उत्तर:
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार स्त्री साक्षरता दर 65.46 प्रतिशत थी।

प्रश्न 20
भारत के किस राज्य में साक्षरता का प्रतिशत सबसे अधिक है? [2014]
या
भारत में सर्वाधिक साक्षरता वाला राज्य कौन-सा है? [2014]
उत्तर:
सर्वाधिक साक्षरता दर केरल में (93.91) प्रतिशत है।

प्रश्न 21
सबसे कम साक्षरता दर किस राज्य में है?
उत्तर:
सबसे कम साक्षरता दर बिहार राज्य में (63.82 प्रतिशत) है।

प्रश्न 22
देश में सर्वाधिक जनसंख्या वाला राज्य कौन-सा है? [2013, 15, 16]
या
भारत के किस राज्य में जनसंख्या सर्वाधिक है?  [2015]
उत्तर:
उत्तर प्रदेश देश में सर्वाधिक जनसंख्या वाला राज्य है।

प्रश्न 23
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश की जनसंख्या कितनी थी?
उत्तर:
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश की जनसंख्या (19.95) करोड़ थी।

प्रश्न 24
भारत में सर्वप्रथम नियमित रूप से जनगणना कब प्रारम्भ हुई? [2007, 08]
उत्तर:
भारत में 1881 ई० में सर्वप्रथम नियमित रूप में अखिल भारतीय जनगणना सम्पन्न हुई।
या
भारत में परिवार नियोजन कार्यक्रम प्रथम पंचवर्षीय योजना में 1952 से आरम्भ किया गया था।

प्रश्न 25
भारत में अन्तिम जनगणना कब हुई तथा अगली जनगणना कब होगी?
उत्तर:
भारत में अन्तिम जनगणना सन् 2011 में हुई तथा अगली जनगणना वर्ष 2021 में होगी।

प्रश्न 26
जनसंख्या विस्फोट का क्या अर्थ है? [2011, 15]
उत्तर:
तीव्र गति से जनसंख्या का बढ़ना, जनसंख्या विस्फोट कहलाता है।

प्रश्न 27
जनसंख्या के घनत्व का सूत्र लिखिए। [2014, 15, 16]
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 19 Development of Indian Population 1
प्रश्न 28
तीव्र जनसंख्या वृद्धि के किन्हीं चार दुष्परिणामों का उल्लेख कीजिए। [2008, 13, 16]
उत्तर:
(1) यह आर्थिक प्रगति में बाधक है।
(2) इससे खाद्य एवं बेरोजगारी की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
(3) प्रति व्यक्ति उत्पादकता में कमी आती है।
(4) उपभोग व्यय बढ़ जाने के कारण बचत एवं पूँजी निर्माण की दर कम होती है।

प्रश्न 29
परिवार कल्याण कार्यक्रम को सफल बनाने हेतु चार सुझाव दीजिए। [2008]
उत्तर:

  1. कमजोर वर्गों को इस अभियान का केन्द्रबिन्दु बनाया जाए।
  2.  गहन परिवार जिला कार्यक्रमों का संचालन किया जाए।
  3. शिक्षा का प्रसार किया जाए।
  4.  बन्ध्यकरण के लिए विशेष सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
भारत का विश्व में जनसंख्या की दृष्टि से स्थान है
(क) पहला
(ख) दूसरा
(ग) तीसरा
(घ) चौथा
उतर:
(ख) दूसरा।

प्रश्न 2
भारत में परिवार नियोजन कार्यक्रम है
(क) सफल
(ख) असफल
(ग) सन्तोषजनक
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) असफल।

प्रश्न 3
जनसंख्या घनत्व का अभिप्राय है
(क) देश में घनी जनसंख्या वाला क्षेत्र
(ख) देश की सम्पूर्ण जनसंख्या
(ग) प्रति वर्ग किलोमीटर निवास करने वालों की औसत संख्या
(घ) उत्पादन कार्य में लगी हुई जनसंख्या
उत्तर:
(ग) प्रति वर्ग किलोमीटर निवास करने वालों की औसत संख्या।

प्रश्न 4
वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या थी
(क) 43.92 करोड़
(ख) 54.82 करोड़
(ग) 68.33 करोड़
(घ) 84.63 करोड़
उत्तर:
(घ) 84.63 करोड़।

प्रश्न 5
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में स्त्री-पुरुष अनुपात (प्रति हजार पुरुषों पर महिलाएँ है
(क) 930
(ख) 934
(ग) 927
(घ) 940
उत्तर:
(घ) 940.

प्रश्न 6
भारत का सबसे अधिक साक्षरता वाला राज्य है
(क) महाराष्ट्र
(ख) उत्तर प्रदेश
(ग) केरल
(घ) बिहार
उत्तर:
(ग) केरल।

प्रश्न 7
भारत में जनसंख्या का ( 2011 के अनुसार) प्रति वर्ग किलोमीटर घनत्व है
(क) 274
(ख) 382
(ग) 300
(घ) 364
उत्तर:
(ख) 382.

प्रश्न 8
भारत में विश्व की कितने प्रतिशत आबादी निवास करती है?
(क) 17.5%
(ख) 20.6%
(ग) 12.4%
(घ) 18.8%
उत्तर:
(क) 17.5%.

प्रश्न 9
उत्तर प्रदेश में भारत की जनसंख्या निवास करती है
(क) 20.6%
(ख) 12.4%
(ग) 16.6%
(घ) 18.8%
उत्तर:
(ग) 16.6%.

प्रश्न 10
देश के किस महानगर में सबसे अधिक जनसंख्या है ?
(क) दिल्ली
(ख) मुम्बई
(ग) कोलकाता
(घ) चेन्नई
उत्तर:
(ख) मुम्बई।।

प्रश्न 11
नयी जनसंख्या नीति में किस वर्ष तक जनसंख्या को स्थिर करने का लक्ष्य रखा गया है?
(क) 2015 ई० तक
(ख) 2025 ई० तक
(ग) 2035 ई० तक
(घ) 2045 ई० तक
उत्तर:
(घ) 2045 ई० तक।

प्रश्न 12
जनसंख्या का घनत्व दर्शाता है [2014]
(क) पूँजी-भूमि अनुपात
(ख) भूमि-उत्पाद अनुपात
(ग) भूमि-श्रम अनुपात
(घ) व्यक्ति- भूमि अनुपात
उत्तर:
(घ) व्यक्ति-भूमि अनुपात।।

प्रश्न 13
भारत के जनसंख्या इतिहास में महान विभाजन वर्ष है [2002]
(क) 1901
(ख) 1921
(ग) 1931
(घ) 1951
उत्तर:
(ख) 1921

प्रश्न 14
निम्नलिखित में से कौन-सा कथन 2011 की जनगणना के अनुसार सही है?
(क) भारत में लिंगानुपात घट रहा है।
(ख) भारत में लिंगानुपात स्थिर रहा है।
(ग) भारत में लिंगानुपात बढ़ा है।
(घ) भारत में लिंगानुपात के बारे में सूचना उपलब्ध नहीं है।
उत्तर:
(ग) भारत में लिंगानुपात बढ़ा है।

प्रश्न 15
निम्न में से किस दशक में जनसंख्या की वृद्धि दर अधिकतम रही?
(क) 1961-1971
(ख) 1971-1981
(ग) 1981-1991
(घ) 1991-2001
उत्तर:
(क) 1961-1971

प्रश्न 16
राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की घोषणा किस वर्ष की गयी थी? [2007, 08, 10, 11, 14, 15, 16]
(क) 1999
(ख) 2000
(ग) 2001
(घ) 2002
उत्तर:
(ख) 2000

प्रश्न 17
सन् 2001 की जनसंख्या के अनुसार 1991-2001 के मध्य जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि कितनी थी ? [2008]
(क) 2.5%
(ख) 2.2%
(ग) 2.1%
(घ) 1.9%
उत्तर:
(क) 2.5%

प्रश्न 18
भारत में परिवार-नियोजन कार्यक्रम किस वर्ष प्रारम्भ किया गया था? [2018, 14]
(क) 1949 में
(ख) 1952 में
(ग) 1972 से
(घ) 1977 से
उत्तर:
(ख) 1952 में।

प्रश्न 19
निम्नलिखित में से किस वर्ष में राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग का गठन हुआ? [2010]
(क) 1998
(ख) 2000
(ग) 2001
(घ) 2002
उत्तर:
(ख) 2000

प्रश्न 20
राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग का पदेन अध्यक्ष होता है [2012, 14]
(क) भारत का राष्ट्रपति
(ख) भारत का उपराष्ट्रपति
(ग) भारत का प्रधानमंत्री
(घ) भारत का स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मन्त्री
उत्तर:
(घ) भारत का स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मन्त्री।

प्रश्न 21
भारत के किस राज्य में लिंगानुपात सर्वाधिक है? [2013, 16]
(क) केरल
(ख) पंजाब
(ग) राजस्थान
(घ) हिमाचल प्रदेश
उत्तर:
(क) केरल।

प्रश्न 22
2011 की जनगणना के अनुसार भारत में जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर कितनी है? [2014]
(क) 1.00%
(ख) 1.50%
(ग) 1.64%
(घ) 1.92%
उत्तर:
(ग) 1.64%.

प्रश्न 23
2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कितनी जनसंख्या है? [2014, 15]
(क) 100 करोड़
(ख) 105 करोड़
(ग) 121 करोड़
(घ) 122 करोड़
उत्तर:
(ग) 121 करोड़।

प्रश्न 24
भारत में जनगणना की जाती है, प्रत्येक [2015]
(क) 5 वर्ष में
(ख) 8 वर्ष में
(ग) 10 वर्ष में
(घ) 20 वर्ष में
उत्तर:
(ग) 10 वर्ष में।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 19 Development of Indian Population (भारतीय जनशक्ति का विकास) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 19 Development of Indian Population (भारतीय जनशक्ति का विकास), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.