UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 18 Public Services in India: Public Service Commission

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 18
Chapter Name Public Services in India: Public Service Commission
(भारत में सार्वजनिक सेवाएँ-लोक सेवा आयोग)
Number of Questions Solved 31
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 18 Public Services in India: Public Service Commission (भारत में सार्वजनिक सेवाएँ-लोक सेवा आयोग)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
संघीय लोक सेवा आयोग के गठन और कार्यों पर प्रकाश डालिए। [2008, 09, 10, 11, 12, 14, 15]
या
संघ लोक सेवा आयोग के कार्यों पर प्रकाश डालिए। [2009]
या
भारत में सार्वजनिक सेवाओं की कार्यप्रणाली का उल्लेख कीजिए। [2013]
या
संघ लोक सेवा आयोग के गठन और कार्यों को स्पष्ट कीजिए। [2016]
उत्तर :
संविधान के अनुच्छेद 315 (1) के अनुसार, भारत में अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के पदाधिकारियों की नियुक्ति को व्यवस्थित करने तथा तविषयक नियुक्तियों के निमित्त प्रतियोगितात्मक परीक्षाओं को संचालित करने हेतु संघ लोक सेवा आयोग की व्यवस्था की गयी है।

सदस्यों की संख्या एवं नियुक्ति – संघ लोक सेवा आयोग, अखिल भारतीय सेवाओं तथा संघ लोक सेवाओं के सदस्यों की भर्ती, पदोन्नति एवं अनुशासन की कार्यवाही इत्यादि के सम्बन्ध में सरकार को परामर्श देता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 315 (1) से धारा 323 तक, संघ लोक सेवा आयोग के संगठन तथा कार्यों इत्यादि का विस्तृत वर्णन किया गया है। वर्तमान में संघीय लोक सेवा आयोग में 1 अध्यक्ष तथा 10 सदस्यों की व्यवस्था की गयी है। सदस्यों की संख्या राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करती है तथा अध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति ही करता है।

योग्यताएँ – किसी भी योग्य नागरिक को संघ लोक सेवा आयोग का सदस्य नियुक्त किया जा सकता है। आयोग का सदस्य नियुक्त होने के लिए सामान्य योग्यताओं के अतिरिक्त निम्नलिखित योग्यताएं होनी आवश्यक हैं –

  1. वह 65 वर्ष से कम आयु का हो।
  2. दिवालिया, पागल अथवा विवेकहीन न हो।
  3. संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों में से कम-से-कम आधे सदस्य ऐसे व्यक्ति होने चाहिए जो कम-से-कम दस वर्ष तक भारत सरकार अथवा राज्य सरकार के अधीन किसी पद पर कार्य कर चुके हों।

सदस्यों की कार्यावधि – संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति 6 वर्ष के लिए होती है। लेकिन यदि कोई सदस्य इससे पूर्व ही 65 वर्ष का हो जाता है तो उसे अपना पद त्यागना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, उच्चतम न्यायालय के परामर्श पर राष्ट्रपति इन्हें पदच्युत भी कर सकता

पद-मुक्ति – संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यगण अपनी इच्छानुसार राष्ट्रपति को त्याग-पत्र देकर अपने पद से मुक्त भी हो सकते हैं। इसके साथ ही भारत का राष्ट्रपति निम्नलिखित परिस्थितियों में उन्हें अपदस्थ भी कर सकता है –

  1. उन पर दुर्व्यवहार का आरोप लगाया जाए और वह उच्चतम न्यायालय में सत्य सिद्ध हो जाए।
  2. यदि वे वेतन प्राप्त करने वाली अन्य कोई सेवा करने लगे।
  3. यदि वे न्यायालय द्वारा दिवालिया घोषित कर दिये जाएँ।।
  4. यदि वे शारीरिक अथवा मानसिक रूप से कः पालन के अयोग्य सिद्ध हो जाएँ।

वेतन, भत्ते एवं सेवा-शर्ते – आयोग के सदस्यों के वेतन, भत्ते एवं सेवा-शर्तों को निर्धारित करने का अधिकार राष्ट्रपति को प्रदान किया गया है। किसी सदस्य के वेतन, भत्ते एवं सेवा-शर्ते को उसकी पदावधि में परिवर्तित नहीं किया जा सकता।

संघ लोक सेवा आयोग के कार्य

डॉ० मुतालिब ने आयोग के कार्यों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया है – (1) कार्यकारी, (2) नियामक तथा (3) अर्धन्यायिक। परीक्षाओं के माध्यम से लोक महत्त्व के पदों पर प्रत्याशियों का चयन करना आयोग का कार्यकारी कर्तव्य है। भर्ती की पद्धतियों तथा नियुक्ति, पदोन्नति एवं विभिन्न सेवाओं में स्थानान्तरण आदि आयोग के नियामक प्रकृति के कार्य हैं। लोक सेवाओं से सम्बन्धित अनुशासन के मामलों पर सलाह देना आयोग को न्यायिक कार्य है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 320 के अनुसार लोक सेवा आयोग को निम्नांकित कार्य सौंपे गये हैं –

1. परीक्षाओं का आयोजन – संघ लोक सेवा आयोग का प्रमुख कार्य अखिल भारतीय लोक सेवाओं के लिए योग्यतम व्यक्तियों का चयन करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु यह अनेक प्रतियोगी परीक्षाएँ आयोजित करता है। इन परीक्षाओं में जो अभ्यर्थी अपनी योग्यता से पर्याप्त अंक पाता है, उसका चयन कर लिया जाता है। इसके बाद इन व्यक्तियों को सरकारी पदों पर नियुक्ति करने के लिए यह आयोग सरकार से सिफारिश करता है। कुछ पदों के लिए आयोग द्वारा मौखिक परीक्षाओं की व्यवस्था भी की गयी है। मौखिक परीक्षाओं में सफल होने पर सफल अभ्यर्थियों को निर्धारित पदों पर नियुक्त कर दिया जाता है।

2. राष्ट्रपति को प्रतिवेदन – संघीय लोक सेवा आयोग को अपने कार्यों से सम्बन्धित एक वार्षिक रिपोर्ट (प्रतिवेदन) राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करनी पड़ती है। यदि सरकार इस आयोग द्वारा प्रस्तुत की गयी रिपोर्ट की कोई सिफारिश नहीं मानती है तो राष्ट्रपति इसका कारण रिपोर्ट में लिख देता है और इसके उपरान्त संसद इस पर विचार करती है। इस रिपोर्ट का लाभ यह है। कि इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि किन विभागों में इस आयोग ने स्वेच्छा से कितनी नियुक्तियाँ की हैं और सरकार ने कहाँ तक आयोग के कार्यों में हस्तक्षेप किया है।

3. संघ सरकार को परामर्श – संघ लोक सेवा आयोग अखिल भारतीय लोक सेवाओं के कर्मचारियों की नियुक्ति की विधि, पदोन्नति, स्थानान्तरण आदि के विषय में संघ सरकार को परामर्श देता है। यह सरकारी कर्मचारियों की किसी प्रकार की शारीरिक या मानसिक क्षति हो जाने पर संघ सरकार को उनकी क्षतिपूर्ति का परामर्श भी देता है और उससे सिफारिश भी करता है। यद्यपि सरकार आयोग के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है, किन्तु सामान्यतः आयोग की सिफारिशों तथा उसके परामर्श को स्वीकार कर ही लिया जाता है, क्योकि आयोग के सदस्य बहुत कुशल और अनुभवी होते हैं।

4. विशेष सेवाओं की योजना सम्बन्धी सहायता – उस दशा में जब दो या दो से अधिक राज्य किन्हीं विशेष योग्यता वाली सेवाओं के लिए भर्ती की योजना बनाने या चलाने की प्रार्थना करें तो संघ लोक सेवा आयोग उन्हें ऐसा करने में सहायता करता है।

प्रश्न 2
राज्य लोक सेवा आयोग के गठन एवं कार्यों का वर्णन कीजिए। [2007]
या
राज्य के लोक सेवा आयोग के गठन की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
राज्य लोक सेवा आयोग या उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग

प्रत्येक राज्य का एक लोक सेवा आयोग होता है। अतः उत्तर प्रदेश राज्य का अपना एक लोक सेवा आयोग है।

रचना या संगठन (सदस्यों की नियुक्ति) – उत्तर प्रदेश अथवा अन्य किसी राज्य के लोक सेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति, सदस्यों की संख्या तथा उनकी सेवा-शर्तों का निर्धारण राज्यपाल करता है। उत्तर प्रदेश राज्य के लोक सेवा आयोग के सदस्यों की संख्या वर्तमान समय में 9 है। इनमें से एक सदस्य अध्यक्ष का कार्य करता है।

योग्यताएँ व कार्यकाल – राज्य लोक सेवा आयोग में भी कम-से-कम आधे सदस्य ऐसे होने आवश्यक हैं जो कम-से-कम 10 वर्ष तक केन्द्र अथवा किसी राज्य सरकार के अधीन किसी पद पर कार्य कर चुके हों। आयोग के सदस्यों की नियुक्ति 6 वर्ष के लिए होती है, परन्तु यदि कोई सदस्य 6 वर्ष पूर्व ही 62 वर्ष का हो जाता है तो उसे अपने पद से सेवानिवृत्त होना होता है। कोई भी सदस्य 6 वर्ष के कार्यकाल अथवा 62 वर्ष की आयु के पूर्व स्वयं भी राज्यपाल को अपना त्याग-पत्र दे सकता है।

पद से हटाना – राज्यपाल आयोग के अध्यक्ष अथवा किसी सदस्य को दुराचार या दुर्व्यवहार के आरोप के आधार पर पदच्युत कर सकता है, परन्तु इसके पूर्व उच्चतम न्यायालय से इन आरोपों की जाँच और पुष्टि आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय से जाँच की अवधि में राज्यपाल सम्बन्धित सदस्य को निलम्बित कर सकता है।

इसके अतिरिक्त, निम्नलिखित परिस्थितियों में भी राज्यपाल को अधिकार होता है कि वह राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष या सदस्य को पदच्युत कर सके

  1. यदि न्यायालय ने उसे दिवालिया घोषित कर दिया हो।
  2. यदि वह अपने पद के अलावा अन्य कोई नौकरी या वेतनभोगी कार्य करने लगा हो।
  3. यदि वह किसी शारीरिक या मानसिक असाध्य रोग से पीड़ित हो गया हो।

सदस्यता पर प्रतिबन्ध व छूटें – संविधान द्वारा राज्य लोक सेवा आयोग के सभापति एवं सदस्य बनने के सम्बन्ध में कुछ प्रतिबन्ध भी लगाये गये हैं, जो निम्नलिखित हैं –

  1. कोई भी व्यक्ति एक बार सदस्यता की अवधि समाप्त हो जाने पर दुबारा उसी राज्य के लोक सेवा आयोग का सदस्य नहीं बन सकता।
  2. राज्य लोक सेवा आयोग का कोई सदस्य अवधि समाप्त होने पर उसी आयोग का सभापति तथा अन्य किसी राज्य के आयोग का सदस्य या सभापति बन सकता है।
  3. किसी राज्य लोक सेवा आयोग का सभापति (चेयरमैन) अवधि की समाप्ति पर संघीय लोक सेवा आयोग का सदस्य या सभापति अथवा किसी दूसरे राज्य के लोक सेवा आयोग का सभापति बन सकता है।
  4. राज्य लोक सेवा आयोग की सदस्य या सभापति संघ अथवा किसी राज्य सरकार के अधीन अथवा उससे बाहर कोई भी नौकरी नहीं कर सकता।

ये प्रतिबन्ध आयोग के सदस्यों की निष्पक्षता को बनाये रखने के लिए लगाये गये हैं।

वेतन, भत्ते व सेवा-शर्ते – राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों को राज्यपाल द्वारा निर्धारित वेतन व भत्ते मिलते हैं। आयोग के सदस्यों व अन्य कर्मचारियों के वेतन और भत्ते आदि राज्य की संचित निधि से दिये जाते हैं और उनके लिए विधानमण्डल की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती। राज्य आयोग के सदस्यों के वेतन, भत्तों, छुट्टी, पेन्शन तथा सेवा की शर्तों में उनके कार्यकाल में कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।

राज्य लोक सेवा आयोग के कार्य

उत्तर प्रदेश या अन्य किसी राज्य के लोक सेवा आयोग के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं

1. प्रतियोगी परीक्षाओं की व्यवस्था – राज्य लोक सेवा आयोगका प्रमुख कार्य राज्य की सरकारी सेवाओं के पदों पर नियुक्ति के लिए मौखिक या लिखित, अथवा दोनों ही प्रकार की प्रतियोगिता परीक्षाओं की व्यवस्था करना और उनके परिणामों के आधार पर उम्मीदवारों का चयन करके उनकी नियुक्ति के लिए राज्यपाल से सिफारिश करना है।

2. परामर्श देना – संविधान में की गयी व्यवस्था के अनुसार राज्य लोक सेवा आयोग का कार्य निम्नलिखित विषयों में राज्यपाल को परामर्श देना है –

  1. असैनिक सेवाओं तथा असैनिक पदों पर भर्ती की प्रणाली के सम्बन्ध में परामर्श।
  2. असैनिक सेवाओं और पदों पर नियुक्ति, पदोन्नति, पदावनति तथा स्थानान्तरण के सम्बन्ध में अपनाये जाने वाले नियमों के सम्बन्ध में परामर्श।
  3. असैनिक सेवाओं में राज्य सरकार के अधीन काम करने वाले कर्मचारियों के अनुशासन के सम्बन्ध में परामर्श।
  4. राज्य सरकार के किसी कर्मचारी द्वारा सरकारी कार्य को पूरा करते हुए शारीरिक चोट या धन की क्षतिपूर्ति के लिए किये गये दावे के सम्बन्ध में परामर्श।
  5. राज्य सरकार के किसी कर्मचारी द्वारा पेन्शन या सरकारी मुकदमे में अपनी रक्षा में व्यय किये गये धन की क्षतिपूर्ति के दावे के सम्बन्ध में परामर्श।
  6. राज्यपाल द्वारा भेजे गये अन्य किसी भी मामले के सम्बन्ध में परामर्श

3. वार्षिक रिपोर्ट देना – राज्य लोक सेवा आयोग को अपने कार्यों की वार्षिक रिपोर्ट राज्यपाल के पास भेजनी होती है। राज्यपाल द्वारा यह रिपोर्ट विधानमण्डल के दोनों सदनों के समक्ष रखी जाती है। रिपोर्ट में आयोग द्वारा अपनी उन सिफारिशों का भी उल्लेख किया जाता है। जो राज्य सरकार द्वारा न मानी गयी हों। सरकार को इस सम्बन्ध में विधानमण्डल के समक्ष अपना स्पष्टीकरण देना होता है।

प्रश्न 3.
भारतीय सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार पर एक निबन्ध लिखिए। [2016]
उत्तर :
भारतीय सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार

शाब्दिक अर्थों में भ्रष्टाचार का आशय भ्रष्ट अथवा बिगड़े हुए आचरण से है। सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार का अभिप्राय ऐसे आचरण से है, जिसकी आशा लोक सेवकों से नहीं की जाती। लोक सेवकों द्वारा प्राप्त शक्ति, सत्ता एवं स्थिति का उपयोग जन-कल्याण की अपेक्षा अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु किया जाना ही ‘भ्रष्ट आचरण’ माना जाता है। किसी व्यक्ति के किसी कार्य को करने के बदले रिश्वत लेना, भेंट स्वीकार करना, बेईमानी, गबन, अपने पुत्र-पुत्रियों एवं सगे-संबंधियों को नौकरी दिलाना, अवैध एवं अनुचित तरीकों से धन प्राप्त करना, अपनी सरकारी स्थिति एवं प्रभाव का दुरुपयोग अपनी स्वार्थ सिद्धि हेतु करना आदि लोक सेवकों के भ्रष्ट आचरण के प्रकार हैं।

सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार के कारण।

भारतीय सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार के प्रमुख रूप से निम्नलिखित कारण हैं।

1. अंग्रेजों की धरोहर – स्वाधीनता पूर्व ब्रिटिश भारत में उच्चाधिकारियों में भ्रष्टाचार कितना अधिक व्याप्त था इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि तत्कालीन समय में वायसराय अथवा गवर्नर अपने पद से अवकाश ग्रहण करने से पूर्व राजाओं से विदाई लेने के नाम पर देशी रियासतों का दौरा किया करते थे, यद्यपि इनका वास्तविक प्रयोजन उनसे उपहार एवं भेटें प्राप्त करना होता था।

2. युद्धकालीन परिस्थितियाँ – द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप उत्पन्न परिस्थितियों के कारण देश में खाद्यान्नों सहित अन्य वस्तुओं का इतना अधिक अभाव हो गया कि सरकार ने बाध्य होकर व्यापार करने हेतु लाइसेंस एवं परमिट देना आरम्भ कर दिया। इससे भी भ्रष्टाचार को काफी प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। आजादी के पश्चात् देश के त्वरित आर्थिक विकास हेतु उपयुक्त योजनाओं का निर्माण करने तथा उपलब्ध समस्त संसाधनों पर प्रभावी नियन्त्रण स्थापित करने और उपभोक्ताओं को समस्त वस्तुओं एवं सामग्री का वितरण राशन प्रणाली के आधार पर सीमित मात्रा में करने के उद्देश्य की पूर्ति हेतु लाइसेंस, परमिट और कोटा की व्यवस्था प्रारम्भ की गई। इस व्यवस्था के अंतर्गत कारखानों से निश्चित मात्रा में वस्तुएँ प्राप्त करने के परमिट एवं अधिकार-पत्र कुछ विशेष व्यक्तियों को ही दिए जाने लगे। इस व्यवस्था का कु-परिणाम देश में व्यापक रूप से कालाबाजारी शुरू होने के रूप में सामने आया।

3. नैतिक मूल्यों में गिरावट – किसी भी विकसित समाज में शहरीकरण और औद्योगीकरण पर निरन्तर बल प्रदान किया जाता है, जिससे सामाजिक एवं वैयक्तिक मूल्यों में तथा आगे भौतिक मूल्यों में गिरावट आती है। विकास एवं समृद्धि बढ़ने के साथ-साथ मनुष्य की भौतिक आवश्यकताएँ बढ़ती जाती हैं और जो वस्तुएँ पूर्ण विलास की वस्तुएँ मानी जाती थीं, वे अब जीवन की आवश्यकताएँ बनती चली जाती हैं। इन समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धन अनिवार्य रूप से अपेक्षित है। ऐसा माना जाता है कि ईमानदारीपूर्वक धन कमाना काफी दुष्कर हैं अत: इस हेतु अनैतिक उपायों का सहारा लिया जाता है।

4. लालफीताशाही – सरकारी फाइलों को लाल फीते से बाँधे जाने को ही प्रशासनिक शब्दावली में ‘लालफीताशाही’ कहा जाता हैं। भारत में सरकारी कार्यालयों में कार्य सम्पन्न करने की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल एवं विलम्बकारी है। इनमें इतने अधिक नियमों एवं उपनियमों का संजाल विस्तृत है कि कोई भी कार्य चाहकर भी शीघ्रतापूर्वक सम्पन्न नहीं किया जा सकता फिर वह चाहे कितना ही महत्त्वपूर्ण जन-कल्याण सम्बन्ध विषय ही क्यों न हो? लाल फीते से बंधी फाइलों को एक अधिकारी की मेज से दूसरे अधिकारी की मेज तक पहुँचाने में काफी अधिक समय लग जाता है। फाइलों की यह स्थिति अधिकारियों के लिए रिश्वत हेतु आधार का सृजन करती है। अपना कार्य यथाशीघ्र कराने हेतु लोग सरकारी अधिकारियों को विभिन्न प्रकार से रिश्वत देने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करते। इस प्रकार की रिश्वतखोरी ऐसे विभागों में अधिक पाई जाती है जहाँ नागरिकों का सरकार के साथ सम्पर्क अधिक रहता है। इस प्रमुख विभाग के विभागों में प्रमुख हैं—व्यापार, उद्योग, सार्वजनिक निर्माण, कर, संचार एवं यातायात।

5. व्यापारी एवं औद्योगिक वर्ग – वर्तमान व्यापारी एवं औद्योगिक वर्ग में भ्रष्ट करने की आकांक्षा और योग्यता दोनों ही पर्याप्त मात्रा में पाई जाती हैं। आज अपना काम निकलवाने हेतु सुरा एवं सुन्दरियाँ भ्रष्टाचार के नए स्वरूप हो गए हैं। व्यावसायिक घरानों द्वारा ‘जन-सम्पर्क अधिकारियों एवं सम्बन्ध कायम रखने वाले व्यक्तियों को बड़ी संख्या में नियुक्त किया जाता है। ये व्यक्ति शासकीय अधिकारियों को अपने निकृष्ट उद्देश्यों की पूर्ति में सहायता प्रदान करने हेतु धन अथवा अन्य लाभ प्रदान करते हैं।

6. वेतन में असमानता – भारत में कर्मचारियों के वेतन में काफी अधिक असमानता पाई जाती है। अधिक वेतन के कारण जहाँ उच्चाधिकारी आरामदायक जीवन का यापन करते हैं, वहीं निचले स्तरों पर कार्यरत कर्मचारी कम वेतन के कारण ऐसा जीवन यापन नहीं कर पाते। आरामदायक और विलासितापूर्ण जीवन जीने की आकांक्षा उन्हें अनुचित साधनों से धन कमाने के लिए प्रेरित करती है। इस प्रकार वेतन में असमानता का प्रशासन पर व्यापक रूप से अनैतिक एवं विनाशकारी प्रभाव पड़ता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
सार्वजनिक सेवाओं का महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
सार्वजनिक सेवाओं का महत्त्व

किसी भी देश की शासन-व्यवस्था को सही रूप देने के लिए लोक सेवाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। ये आयोग लोक सेवाओं में योग्यता को एकमात्र मापदण्ड स्वीकार कर लोकतन्त्र के अर्थ व उसके व्यवहार को अभिव्यक्त करते हैं। ये प्रशासन को निष्पक्ष उपकरण प्रदान कर उसे राजनीतिक संस्थाओं के सम्भावित दबावों से बचाते हैं। संघ लोक सेवा आयोग के भूतपूर्व अध्यक्ष ए० आर० किदवई के शब्दों में, “संसदीय लोकतन्त्र में लोक सेवाओं में गुण-दोषों के आधार पर भर्ती की व्यवस्था होना आवश्यक होता है और यह काम लोक सेवा आयोग के माध्यम से ही होता है।” एम० वी० पायली के अनुसार, “किसी भी देश के प्रशासन का स्तर एवं कार्यक्षमता का आधार वहाँ की लोक सेवा के सदस्यों की मानसिक शक्ति प्रशिक्षण एवं सत्यनिष्ठा है।”

संविधान और उसके द्वारा आयोजित सरकार, शरीर एवं मस्तिष्क हैं तथा लोक सेवा आयोग हाथ के समान है। शासन को ही सही ढंग से चलाने के लिए कुशल, सुयोग्य, दक्ष, विद्वान् तथा ईमानदार पदाधिकारियों की उतनी ही आवश्यकता है जितनी मनुष्य को वायु की तथा मछली को पानी की। राज्य के द्वारा मनुष्य अपनी सारी इच्छाएँ पूरी करना चाहता है। यह तभी सम्भव है जब राज्य की शासन नीति को कार्यान्वित करने वाले केवल योग्य ही नहीं, अपितु पूर्ण रूप से सचेत एवं अनुभवशील व्यक्ति हों। लोक सेवा आयोग इसी कार्य को सम्पन्न करता है। ये स्थायी होते हैं। और इनके फलस्वरूप इनमें कार्य करने वाले व्यक्ति राज्य कार्य-प्रणाली के विषय में जन-निर्वाचित प्रतिनिधियों अथवा मन्त्रियों से अधिक व्यावहारिक ज्ञान रखते हैं। किसी भी सरकारी नीति का कुशल संचालन लोक सेवा के अन्तर्गत कार्य करने वाले मनुष्यों की दक्षता एवं कार्यकुशलता पर निर्भर रहता है। विलोबी का मत है कि “सार्वजनिक सेवाओं के प्रशासन के सम्बन्ध में कोई केन्द्रीय व्यवस्था करना बहुत आवश्यक है। सेवकों की नियुक्ति और उनके सामान्य प्रशासन के लिए एक केन्द्रीय निकाय होना चाहिए, जो निरन्तर इस बात को देखे कि जिन सिद्धान्तों पर सेवाओं की नियुक्ति होती है, उन सिद्धान्तों का पालन होता है अथवा नहीं।” इसी उद्देश्य से भारतीय संविधान में अखिल भारतीय सार्वजनिक सेवाओं के लिए एक ‘संघीय लोक सेवा आयोग की व्यवस्था की गयी है। साथ ही प्रत्येक राज्य में भी ‘राज्य लोक सेवा आयोग’ की स्थापना की गयी है। लोक सेवा आयोग का कार्य सरकारी अधिकारियों की नौकरी की दशाएँ, नियुक्ति, पदोन्नति आदि के सन्दर्भ में सरकार को परामर्श देना होता है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 18 Public Services in India: Public Service Commission

प्रश्न 2.
सरकारी महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति के लिए लोक सेवा आयोग अभ्यर्थियों का चयन करता है। यदि यह कार्य कैबिनेट मन्त्रियों को सौंप दिया जाए तो लोकतान्त्रिक सरकार की कार्यप्रणाली पर सम्भवतः क्या प्रभाव पड़ेगा? दो तर्क दीजिए। (2010)
उत्तर :
लोक सेवा आयोग संवैधानिक संस्था है जिसको संविधान से शक्ति व अधिकारों की प्राप्ति होती है। अत: उसके क्रियाकलाप निष्पक्ष होते हैं और समसामयिक आवश्यकताओं के अनुकूल रहते हैं। भारत में लोकतन्त्र अर्थात् भीड़तन्त्र का शासन है जिसमें किसी की जवाबदेही नहीं बनती है। मन्त्री भी विधायिका के हिस्से होते हैं जहाँ वोटों की दूषित राजनीति हावी रहती है। भारतीय प्रजातन्त्र शैशवावस्था में ही रेंग रहा है अतः लोक सेवकों की नियुक्ति के कार्य को लोक सेवा आयोग से लेकर मंत्रियों को आवंटित करने पर बड़े विपरीत परिणाम आएँगे जो देश को नैराश्य के गर्त में आकर डुबो देंगे। मूल रूप से लोकतान्त्रिक सरकार की कार्यप्रणाली पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ सकता है –

1. भर्ती किए गए कर्मचारी संविधान के प्रति निष्ठा न रखकर मन्त्रियों के प्रति भक्ति जाग्रत करने लगेंगे।
2. आज राजनीति में घनघोर भ्रष्टाचार व्याप्त है, ऐसे कुप्रबन्धन के दौर में अभ्यर्थियों के चयन में भी भ्रष्टाचार का बोलबाला बड़े पैमाने पर होने लगेगा,और भाई-भतीजावाद भी पनपेगा, इसकी आशंका निर्मूल नहीं है।

प्रश्न 3
लोकसेवाओं का महत्त्व बताइए। [2015]
उत्तर :
लोकसेवाओं का महत्त्व

लोकसेवाओं के सदस्य अनुभव एवं ज्ञान की निधि होते हैं। यद्यपि सैद्धान्तिक रूप में कानूननिर्माण का कार्य व्यवस्थापिका द्वारा और इन कानून को कार्य रूप में परिणत करने तथा प्रशासनिक नीति निर्धारित करने का कार्य कार्यपालिका द्वारा किया जाता है, किन्तु वास्तव में कानून-निर्माण तथा प्रशासन का संचालन इन दोनों ही क्षेत्रों में लोक सेवाओं द्वारा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया जाता है। वर्तमान समय के जटिल कानूनों के प्रारूपों का निर्माण सम्बन्धित नीति-निर्धारण और उसका लागू करने का कार्य भी लोक सेवाओं के सदस्य ही करते हैं। वस्तुतः एक राज्य का प्रशासन लोक सेवाओं की कार्यक्षमता पर ही निर्भर करता है। प्रो० लॉस्की ने लिखा, “प्रत्येक राज्य अपने सार्वजनिक अधिकारियों के गुणों पर बहुत अधिक सीमा तक निर्भर करता है।”

यद्यपि व्यवस्थापिका और न्यायपालिका भी सरकार के महत्त्वपूर्ण अंग हैं, किन्तु व्यवहार में सरकार का तात्पर्य कार्यपालिका से ही होता है और कार्यपालिका के भी जो दो अंग होते हैंराजनीतिक कार्यपालिका और स्थायी कार्यपालिका अर्थात् लोक सेवाएँ–उनमें व्यवहार की दृष्टि से राजनीतिक कार्यपालिका की अपेक्षा लोक सेवाएँ अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।

चाहे संसदीय शासन हो या अध्यक्षात्मक शासन, शासन कार्य मन्त्रियों और लोक सेवा पदाधिकारियों के पारस्परिक सहयोग से चलता है और इस पारस्परिक सम्बन्ध की विशेषता यह है कि मन्त्रिगण नौसिखिये (amature) होते हैं, लेकिन स्थायी पदाधिकारी अपने कार्य के विशेषज्ञ होते हैं। ऐसी स्थिति में सामान्यतया सभी बातों के सम्बन्ध में मन्त्रिगण लोक सेवा पदाधिकारियों के परामर्श के अनुसार ही कार्य करते हैं।

प्रश्न 4.
संघीय लोक सेवा आयोग के दो कार्य बताइए। [2008, 10, 11, 13, 15,16]
उत्तर :
संविधान के अनुच्छेद 220 के अनुसार संघीय लोक सेवा आयोग के दो कार्य निम्नवत् हैं।

1. नियुक्ति सम्बन्धी कार्य (प्रतियोगिता परीक्षाओं की व्यवस्था) लोक सेवा आयोग का एक प्रमुख कार्य शासन के प्रमुख पदों हेतु चयन कर नियुक्ति की व्यवस्था करना है। विभिन्न विभागों में रिक्त हुए स्थानों की सूचना शासन द्वारा लोक सेवा आयोग को दी जाती है। आयोग इन स्थानों की पूर्ति के लिए लिखित या मौखिक अथवा दोनों प्रकार की परीक्षाएँ आयोजित करता है। आयोग परीक्षा के नियम तथा कार्यक्रम व प्रार्थी की योग्यता के विषय में कुछ बातें निर्धारित करके उनका प्रकाशन समाचार-पत्रों में करता है। वह परीक्षाओं में भाग लेने के लिए सम्पूर्ण भारत या कुछ परिस्थितियों में किन्हीं विशेष क्षेत्रों के निवासियों से प्रार्थना-पत्र आमन्त्रित करता है। इन परीक्षाओं के आधार पर उनके द्वारा रिक्त स्थानों की पूर्ति हेतु सुयोग्य व्यक्तियों का चयन किया जाता है। 2011 की परीक्षाओं से आयोग ने परीक्षा प्रणाली में व्यापक फेर बदल किया है। अब प्रारम्भिक परीक्षा में अलग-अलग वैकल्पिक विषयों की व्यवस्था समाप्त कर दी गयी है तथा सभी अभ्यर्थियों को एक ही सामान्य रुझाने परीक्षा (Common Aptitude Test-CAT) में भाग लेना होगा। भविष्य में मुख्य परीक्षा में भी वैकल्पिक विषयों को समाप्त किये जाने की योजना है।

2. राज्य सरकारों की सहायता करना यदि दो या दो से अधिक संघीय लोक सेवा आयोग से किसी ऐसी नौकरी पर नियुक्ति की योजना बनाने में सहायता की प्रार्थना करें, जिसमें विशेष योग्यता सम्पन्न व्यक्तियों की आवश्यकता हों, तो संघीय आयोग इस कार्य में राज्यों की सहायता करेगा।

प्रश्न 5.
राज्य लोक सेवा आयोग के दो प्रमुख कार्य बताइए। [2015, 16]
उत्तर :
उत्तर प्रदेश या अन्य किसी राज्य के लोक सेवा आयोग के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं।

1. प्रतियोगी परीक्षाओं की व्यवस्था –  राज्य लोक सेवा आयोग का प्रमुख कार्य राज्य की सरकारी सेवाओं के पदों पर नियुक्ति के लिए मौखिक या लिखित, अथवा दोनों ही प्रकार की प्रतियोगिता परीक्षाओं की व्यवस्था करना और उनके परिणामों के आधार पर उम्मीदवारों का चयन करके उनकी नियुक्ति के लिए राज्यपाल से सिफारिश करना है।

2. परामर्श देना – संविधान में की गयी व्यवस्था के अनुसार राज्य लोक सेवा आयोग का कार्य निम्नलिखित विषयों में राज्यपाल को परामर्श देना है।

  1. असैनिक सेवाओं तथा असैनिक पदों पर भर्ती की प्रणाली के सम्बन्ध में परामर्श।
  2. असैनिक सेवाओं और पदों पर नियुक्ति, पदोन्नति, पदावनति तथा स्थानान्तरण के सम्बन्ध में अपनाये जाने वाले नियमों के सम्बन्ध में परामर्श।
  3. असैनिक सेवाओं में राज्य सरकार के अधीन काम करने वाले कर्मचारियों के अनुशासन के सम्बन्ध में परामर्श।
  4. राज्य सरकार के किसी कर्मचारी द्वारा सरकारी कार्य को पूरा करते हुए शारीरिक चोट या धन की क्षतिपूर्ति के लिए किये गये दावे के सम्बन्ध में परामर्श।
  5. राज्य सरकार के किसी कर्मचारी द्वारा पेन्शन या सरकारी मुकदमे में अपनी रक्षा में व्यय किये गये धन की क्षतिपूर्ति के दावे के सम्बन्ध में परामर्श
  6. राज्यपाल द्वारा भेजे गये अन्य किसी भी मामले के सम्बन्ध में परामर्श।

प्रश्न 6
राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों की स्वतन्त्रता पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
आयोग के सदस्यों की स्वतन्त्रता। भारत में लोक सेवा आयोगों को संवैधानिक स्थिति एवं संरक्षण प्रदान किया गया है, जबकि ब्रिटेन, अमेरिका और अन्य अनेक देशों में ऐसा नहीं है। वहाँ इनका गठन और संचालन व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों के आधार पर होती है। इस प्रकार, भारत में लोक सेवा आयोगों की स्थिति अधिक सुदृढ़ तथा स्वतन्त्र है। लोक सेवा आयोग के सदस्यों की स्वतन्त्रता के लिए संविधान में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गयी हैं –

  1. सुरक्षित कार्यकाल – आयोग के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष या 62 वर्ष की आयु तक निर्धारित कर दिया गया है जिससे कि वे निष्पक्षता और स्वतन्त्रता के साथ कार्य कर सकें। यह भी व्यवस्था कर दी गयी है कि कोई सदस्य दुबारा अपने पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता है।
  2. पदच्युति कठिन – आयोग के किसी सदस्य को संविधान द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही हटाया या निलम्बित किया जा सकता है।
  3. पर्याप्त और सुरक्षित वेतन – भत्ते-आयोग के सदस्यों के लिए पर्याप्त वेतन और भत्तों की व्यवस्था की गयी है और नियुक्ति के बाद इनकी सेवा शर्तों में कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।
  4. व्यय संचित निधि पर भारित – आयोग पर हुआ व्यय संघ अथवा राज्य की संचित निधि पर भारित है। अत: इस व्यय पर संसद या राज्य विधानमण्डल को मतदान करने का अधिकार नहीं है।
  5. अवकाश प्राप्ति के बाद आवश्यक प्रतिबन्ध – आयोग के अध्यक्ष या सदस्य कार्यकाल की समाप्ति के बाद किसी सरकारी पद पर नियुक्त नहीं किये जा सकते, केवल आयोगों में ही पदोन्नति के रूप में उनकी पुनः नियुक्ति हो सकती है।

संविधान की उपर्युक्त व्यवस्थाओं से स्पष्ट है कि आयोग के सदस्यों को निष्पक्षता से अपना कार्य करने के लिए यथेष्ट स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है। इन व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में संघीय लोक सेवा आयोग के एक भूतपूर्व सदस्य वी० सिंह ने कहा था, “संविधान द्वारा की गयी ये व्यापक व्यवस्थाएँ लोक सेवा आयोग की स्वतन्त्रता की गारण्टी देती हैं और कार्यपालिका के हस्तक्षेप से उन्हें पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करती हैं।”

प्रश्न 7.
भारत में सार्वजनिक सेवाओं के इतिहास पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
भारत में सार्वजनिक सेवाओं का इतिहास

आधुनिक सार्वजनिक सेवाओं का विकास भारत में ब्रिटिश काल से आरम्भ हुआ। वारेन हेस्टिग्स तथा लॉर्ड कार्नवालिस ने भारत में भू-राजस्व की वसूली के लिए सरकारी कर्मचारियों की नियुक्ति का आरम्भ किया। 1781 ई० में सर्वप्रथम ‘राजस्व मण्डल’ का गठन किया गया, जिसका कार्य राजस्व अधिकारियों की नियुक्ति करना था। 1787 ई० में जिला कलक्टर, मजिस्ट्रेट तथा जजों के पदों को एकीकृत किया गया और इन्हें प्रतिज्ञाबद्ध’ सिविल सर्विस का नाम दिया गया। लॉर्ड वेलेजली ने सर्वप्रथम सरकारी अधिकारियों को प्रशिक्षण हेतु फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता भेजा। 1813 ई० में इंग्लैण्ड के हेलिबरी नामक स्थान पर सिविल सर्विस के अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिए एक कॉलेज स्थापित किया गया। यह कॉलेज 1858 ई० तक चलता रहा।

स्वतन्त्र भारत में भारतीय सिविल सेवा (आई०सी०एस०) का स्थान भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई०ए०एस०) ने ले लिया। इसके साथ ही एक नई सेवा भारतीय विदेश सेवा (आई०एफ०एस०) का गठन किया गया। पूर्ववर्ती लोक सेवा आयोग का स्थान संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) ने ले लिया तथा परीक्षा में सफल उम्मीदवारों के लिए प्रशासनिक प्रशिक्षण की राष्ट्रीय अकादमी’, मसूरी तथा विशेषीकृत प्रशिक्षण अभिकरणों की स्थापना की गई। 27 जून, 1970 को केन्द्रीय सचिवालय में सेवा संवर्ग विभाग भी खोल दिया गया। वर्तमान समय में भारत में तीन अखिल भारतीय सेवाएँ, 59 केन्द्रीय सेवा ग्रुप ‘ए’ तथा अनेक राज्य स्तरीय लोक सेवाएँ हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
किन्हीं दो अखिल भारतीय सेवाओं के नाम बताइए। इसकी नियुक्ति में संघ लोक सेवा आयोग की क्या भूमिका है? [2008, 10, 11, 13, 15]
उत्तर :
दो अखिल भारतीय सेवाओं के नाम हैं –

  1. भारतीय प्रशासनिक सेवा तथा
  2. भारतीय पुलिस सेवा।।

संघ लोक सेवा आयोग अखिल भारतीय सेवाओं के लिए योग्यतम व्यक्तियों का चुनाव करता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए, आयोग में जो वांछित अंक प्राप्त कर लेते हैं, उसकी मौखिक परीक्षा ली जाती है। मौखिक परीक्षा में सफल होने पर अभ्यर्थी को निर्धारित पदों पर नियुक्त कर दिया जाता है।

प्रश्न 2.
संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की पद-मुक्ति कैसे होती है? [2008, 10, 16]
उत्तर :
संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यगण अपनी इच्छानुसार राष्ट्रपति को त्याग-पत्र देकर अपने पद से मुक्त हो सकते हैं। इसके साथ ही भारत का राष्ट्रपति निम्नलिखित परिस्थितियों में उन्हें अपदस्थ भी कर सकता है –

  1. उन पर दुर्व्यवहार का आरोप लगाया जाए और वह उच्चतम न्यायालय में सत्य सिद्ध हो जाए।
  2. यदि वे वेतन प्राप्त करने वाली अन्य कोई सेवा करने लगे।
  3. यदि वे न्यायालय द्वारा दिवालिया घोषित कर दिये जाएँ।
  4. यदि वे शारीरिक अथवा मानसिक रूप से कर्तव्यपालन के अयोग्य सिद्ध हो जाएँ।

प्रश्न 3.
सार्वजनिक या लोक सेवा का अर्थ बताइए।
उत्तर :
सार्वजनिक या लोक सेवा का अर्थ

सामान्य अर्थ में सरकारी सेवा को सार्वजनिक या लोक सेवा कहा जाता है। कुछ विद्वानों ने लोक सेवाओं को नौकरशाही’ का नाम दिया है। फाइनर ने इसे ‘मेज का शासन’ कहा है। वास्तव में लोक सेवा का आशय उस संगठन से है जिसमें कार्यकुशल, प्रशिक्षित तथा कर्तव्यपरायण कर्मचारी होते हैं तथा जिसमें आदेश की एकता’ तथा ‘पद सोपान’ के सिद्धान्त का पालन किया जाता है।

स्थायित्व, राजनीतिक रूप से तटस्थता, उच्च अधिकारियों का निचले स्तर के अधिकारियों पर शासन, आदेश की एकता (उच्च अधिकारी के आदेश का पालन सभी कर्मचारियों द्वारा किया जाना) लोक सेवा की प्रमुख विशेषताएँ मानी जाती हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
संविधान के किस अनुच्छेद के अन्तर्गत संघ के लिए एक लोक सेवा आयोग व प्रत्येक राज्य के लिए एक लोक सेवा आयोग की व्यवस्था की गयी है?
उत्तर :
संविधान के अनुच्छेद 315 के अन्तर्गत।

प्रश्न 2
संघ लोक सेवा आयोग का व्यय किस पर भारित होता है?
उत्तर :
संघ लोक सेवा आयोग का व्यय भारत सरकार की संचित निधि पर भारित होता है।

प्रश्न 3.
संघ लोक सेवा आयोग का गठन कब किया गया?
उत्तर :
1926 ई० में ली आयोग के द्वारा संघ लोक सेवा आयोग का गठन किया गया।

प्रश्न 4.
भारतीय लोक सेवाओं का जनक किसे कहा जाता है?
उत्तर :
लॉर्ड मैकाले को भारतीय लोक सेवाओं का जनक कहा जाता है।

प्रश्न 5.
संघ लोक सेवा आयोग की प्रथम महिला अध्यक्ष होने का गौरव किसको प्राप्त है?
उत्तर :
संघ लोक सेवा आयोग की प्रथम महिला अध्यक्ष होने का गौरव श्रीमती रोज मिलन मैथ्यू को प्राप्त है।

प्रश्न 6
अखिल भारतीय सेवाओं के नाम लिखिए। या दो अखिल भारतीय सेवाओं के नाम बताइए। [2008, 10, 11, 13]
उत्तर :
अखिल भारतीय सेवाओं के नाम हैं –

  1. I.A.S. भारतीय प्रशासनिक सेवा
  2. I.P S. भारतीय पुलिस सेवा तथा
  3. I.Es. भारतीय विदेश सेवा।

प्रश्न 7.
राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों का कार्यकाल बताइए।
उत्तर :
राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष है, परन्तु वे 62 वर्ष की आयु तक ही अपने पद पर रह सकते हैं।

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प्रश्न 8.
संघ लोक सेवा आयोग तथा राज्य लोक सेवा आयोग का मुख्य कार्य क्या है?
उत्तर :
दोनों का मुख्य कार्य प्रतियोगी परीक्षाओं का आयोजन कर कर्मचारियों का चयन करना है। प्रश्न 9 राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति कौन करता है? उत्तर राज्यपाल।

प्रश्न 10.
संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति कौन करता है? [2016]
उत्तर :
संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री के परामर्श से करता है।

प्रश्न 11
संघ लोक सेवा आयोग के किन्हीं दो कार्यों का उल्लेख कीजिए। (2008)
उत्तर :

  1. संघ की सरकार में नियुक्ति के लिए परीक्षा का संचालन करना।
  2. आयोग को निर्देशित किये गये किसी विषय पर तथा किसी अन्य विषय पर जिसे यथास्थिति राष्ट्रपति समुचित आयोग को निर्देशित करें, परामर्श देना।

प्रश्न 12.
संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की सेवानिवृत्ति आयु क्या है? [2013]
उत्तर :
संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की सेवानिवृत्ति आयु 65 वर्ष है।

प्रश्न 13.
राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति कौन करता है? [2016]
उत्तर
राज्यपाल।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों की नियुक्ति किसके द्वारा की जाती है ?
(क) संसद
(ख) राष्ट्रपति
(ग) मन्त्रिपरिषद्
(घ) प्रधानमन्त्री

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में कौन-सी अखिल भारतीय सेवा नहीं है?
(क) आई० ए० एस०
(ख) आई० पी० एस०
(ग) आई० सी० एस०
(घ) आई० एफ० एस०

प्रश्न 3.
नयी अखिल भारतीय सेवाएँ स्थापित करने का अधिकार किसको है? [2013]
(क) राष्ट्रपति
(ख) लोकसभा
(ग) संघीय लोक सेवा आयोग
(घ) राज्यसभा

प्रश्न 4.
ब्रिटिश भारत के लोक सेवा आयोग के प्रथम सदस्य कौन थे? [2014]
(क) सर रोज बार्कर
(ख) लॉर्ड मैकाले
(ग) लॉर्ड ली।
(घ) वारेन हेस्टिंग्स

प्रश्न 5.
निम्न में से केन्द्रीय लोक सेवा आयोग का कौन-सा कार्य है? [2014]
(क) खाली पदों का विज्ञापन करना।
(ख) परीक्षाओं का प्रबन्ध करना
(ग) (क) और (ख) दोनों
(घ) (क) और (ख) दोनों नहीं

प्रश्न 6.
सर्वप्रथम ‘राजस्व मण्डल’ को गठन कब किया? [2014]
(क) 1750 ई०
(ख) 1781 ई०
(ग) 1805 ई०
(घ) 1820 ई०

उत्तर :

  1. (ख) राष्ट्रपति
  2. (ग) आई० सी० एस०
  3. (ग) संघीय लोक सेवा आयोग
  4. (क) सर रोज बार्कर
  5. (ख) परीक्षाओं का प्रबन्ध करना
  6. (ख) 1781 ई०।

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UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 4

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Model Paper Paper 4
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 4

पूर्णाक : 70
समय : 3 घण्टे 15 मिनट

निर्देश: प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
नोट:

    • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
    • आवश्यकतानुसार अपने उत्तरों की पुष्टि नामांकित रेखाचित्रों द्वारा कीजिए।
    • सभी प्रश्नों के निर्धारित अंक उनके सम्मुख

प्रश्न 1.
सही विकल्प चुनकर अपनी उत्तर पुस्तिका में लिखिए।
(क) हर्षे तथा चेज ने प्रयोग द्वारा सिद्ध किया कि [1]
(A) प्रोटीन का निर्माण RNA द्वारा होता है।
(B) DNA आनुवंशिक पदार्थ है।
(C) DNA द्विकुण्डलित होता है।
(D) DNA के द्वारा ही RNA का निर्माण होता है।

(ख) प्राथमिक उपभोक्ता है। [1]
(A) बाज
(B) शेर
(C) मृग
(D) भेड़िया

(ग) PCR की खोज किसने की? [1]
(A) जेम्स ग्रिफिथ
(B) जेम्स एलरिक ने
(C) कैरी मुलिस ने
(D) नैथन तथा स्मिथ ने

(घ) स्पाइरुलिना प्रसिद्ध है। [1]
(A) एगारोज निर्माण के लिए
(B) SCP निर्माण के लिए
(C) क्राईजीन के उत्पादन के लिए
(D) प्रतिजैविक निर्माण के लिए

प्रश्न 2.
(क) शुक्राणु में एक्रोसोम का क्या महत्त्व है? [1]
(ख) विश्व की सबसे समृद्ध जैव-विविधता कहाँ पाई जाती है? [1]
(ग) DNA अणु को वाँछित खण्डों में पृथकू करने के लिए किस एन्जाइम का उपयोग किया जाता है? [1]
(घ) पादपों में बहुगुणिता उत्पन्न कराने के लिए कौन-सा रसायन प्रयुक्त करते हैं? [1]
(ङ) ऐसे पादपों को क्या कहते हैं जो जल से संतृप्त स्थानों पर पाए जाते हैं। तथा पूर्णरूप या आंशिक रूप से जल में डूबे रहते हैं? [1]

प्रश्न 3.
(क) मेण्डल के युग्मकों की शुद्धता तथा स्वतन्त्र अपव्यूहन नियम पर प्रकाश डालिए [1+1]
(ख) पराग कण का स्वच्छ नामांकित चित्र बनाते हुए इसकी एक विशेषता बताइए। [1+1]
(ग) नवडार्विनवाद पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए। [1+1]
(घ) विश्व वन्य जीव कोष (WWF) क्या है? इसके उद्देश्य लिखिए। [2]
(ड़) ट्रान्सजेनिक किस विधि द्वारा प्राप्त होते हैं? इसके निर्माण के उद्देश्यों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [1+1]

प्रश्न 4.
(क) निएण्डरथल मानव के जीवाश्म कहाँ और किस युग की चट्टानों से प्राप्त हुए? इनकी कपाल गुहा का ‘आयतन कितना था? इनके कोई दो प्रमुख लक्षण बताइए। [1+1]
(ख) निम्न में अन्तर कीजिए [1 1/2+1 1/2]

  1. प्रतिजीविता एवं सहोपकारिता
  2. उत्पादक एवं उपभोक्ता

(ग) प्रतिजैविक औषधियाँ क्या हैं? ये किन पादपों से प्राप्त होती हैं? उदाहरण सहित बताइए। [1+2]
(घ) यदि आपको अपने घर से अपनी जीव विज्ञान प्रयोगशाला में एक जीवाणु का नमूना ले जाना हो, तो आप किस प्रकार का नमूना अपने साथ ले जाएँगें और क्यों? [3]

प्रश्न 5.
(क) मानव नर जननांगों से सम्बन्धित सहायक ग्रन्थियाँ कौन-सी हैं? संक्षेप में लिखिए। [3]
(ग) पारितन्त्र विविधता क्या है? इसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन ” कीजिए। [1 1/2+1 1/2]
(ख) एड्स क्या है? इसका विषाणु शरीर के किस भाग को प्रभावित करता है? इसका संचरण किस प्रकार होता है? [1+1+1]
(ग) पारितन्त्र विविधता क्या है? इसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन ” कीजिए। [1/2+14]
(घ) प्रत्यूर्जता क्या है? इसकी अनुक्रिया से किस इम्यूनोग्लोब्यूलिन का निर्माण होता है? [1+2]

प्रश्न 6.
(क) निम्न पर टिप्पणी लिखिए। [1 1/2+1 1/2]

  1. टर्नर सिण्ड्रोम
  2. क्राई-डू-चैट सिण्ड्रोम

(ख) निम्न पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए। [1+1+1]

  • अण्डोत्सर्ग
  • शुक्रकायान्तरण
  •  रजोनिवृत्ति

(ग) जैव-पेटेन्ट क्या है? इसका प्रमुख उद्देश्य क्या है? [1+2]
(घ) योग्यतम् की उत्तरजीविता का सिद्धान्त’ क्या है? इसे किसने प्रतिपादित किया? [2 +1]

प्रश्न 7.
जैव-विविधता से संरक्षण की आवश्यकता का वर्णन करते हुए इनकी प्रमुख संरक्षण विधियाँ बताइए। [5]
अथवा
मधुमक्खी पालन पर विस्तृत टिप्पणी कीजिए। [5]

प्रश्न 8.
ठोस अपशिष्ट क्या होता है? ठोस अपशिष्ट को वर्गीकृत करते हुए इनके निस्तारण की प्रमुख विधियाँ बताइए। [1+2+2]
अथवा
मानव में प्रोटीन-संश्लेषण की प्रक्रिया का सचित्र वर्णन कीजिए। [1+1+1+2]

प्रश्न 9.
आनुवंशिकीय रूपान्तरित फसलों की उपयोगिता तथा सम्भावित हानियों का वर्णन करें। [1+4]
अथवा
RCH कार्यक्रम क्या है? इसके प्रमुख उद्देश्य को विस्तारपूर्वक समझाइए। [1+4]

Answers

उत्तर 1.
(क) (B)
(ख) (C)
(ग) (C)
(घ) (B)

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 18 National Income

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 18 National Income (राष्ट्रीय आय) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 18 National Income (राष्ट्रीय आय).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 18
Chapter Name National Income (राष्ट्रीय आय)
Number of Questions Solved 34
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 18 National Income (राष्ट्रीय आय)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
राष्ट्रीय आय क्या है ? विस्तारपूर्वक समझाइए।
उत्तर:
राष्ट्रीय आय का अर्थ एवं परिभाषाएँ
‘राष्ट्रीय आय अथवा लाभांश उत्पादन के साधनों द्वारा किसी एक निश्चित समय में (प्रायः एक वर्ष में) उत्पादन किये गये पदार्थों एवं सेवाओं की शुद्ध मात्रा होती है अर्थात् एक वर्ष की अवधि में किसी देश में जितनी वस्तुओं और सेवाओं का कुल उत्पादन होता है, उसे ही उस देश की वास्तविक
राष्ट्रीय आय कहते हैं। राष्ट्रीय आय या राष्ट्रीय लाभांश की परिभाषा भिन्न-भिन्न अर्थशास्त्रियों ने भिन्न प्रकार से दी है, जिनमें से कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

(i) प्रो० मार्शल के अनुसार – ‘किसी देश के श्रम और पूँजी उसके प्राकृतिक साधनों पर कार्य करके, प्रतिवर्ष भौतिक तथा अभौतिक पदार्थों तथा समस्त प्रकार की सेवाओं की एक शुद्ध मात्रा उत्पन्न करते हैं। इसमें विदेशी विनियोग से प्राप्त आय भी जोड़ देनी चाहिए। यही देश की शुद्ध वास्तविक वार्षिक आय या राष्ट्रीय लाभांश है।’

शुद्ध आय से मार्शल का अभिप्राय है, कुल उत्पादन (Gross Product) में से ये राशियाँ घटा देनी चाहिए

  1. चल पूँजी का प्रतिस्थापना व्यय,
  2. अचल पूँजी का मूल्य ह्रास, मरम्मत और प्रतिस्थापना के लिए किया गया व्यय,
  3. कर,
  4. बीमे की प्रीमियम आदि।

गुण – मार्शल की परिभाषा सरल और स्पष्ट है। मार्शल की परिभाषा में निम्नलिखित बातें पायी जाती हैं

  1. राष्ट्रीय लाभांश देश में उत्पन्न होने वाली वास्तविक उत्पत्ति (Net Product) का योग है।
  2.  इसमें सभी प्रकार की सेवाएँ भी सम्मिलित की जाती हैं।
  3. इसमें विदेशों से प्राप्त होने वाली निबल आय भी सम्मिलित की जाती है।
  4. राष्ट्रीय लाभांश की गणना प्रतिवर्ष की जाती है।

प्रो० मार्शल की परिभाषा की आलोचनाएँ

  •  राष्ट्रीय आय की गणना अत्यन्त कठिन है। प्रो० मार्शल ने पदार्थों एवं सेवाओं को राष्ट्रीय आय की गणना का आधार माना है; अत: उनकी गणना करना तथा समस्त पदार्थों का मूल्य ज्ञात करना कठिन होता है। इस कारण राष्ट्रीय आय की गणना ठीक-ठीक नहीं हो सकती।।
  • प्रो० मार्शल की परिभाषा सैद्धान्तिक दृष्टि से अत्यन्त श्रेष्ठ होते हुए भी व्यावहारिक दृष्टि से पूर्ण नहीं है।

(ii) प्रो० पीगू के विचार –  पीगू ने मार्शल की परिभाषा की कमियों को दूर करने का प्रयत्न किया। प्रो० पीगू ने राष्ट्रीय लाभांश की निम्नलिखित परिभाषा दी है-“राष्ट्रीय लाभांश किसी समुदाय की वास्तविक आय (जिसमें विदेशों से प्राप्त आय भी सम्मिलित है) का वह भाग है जो द्रव्य के द्वारा मापा जा सकता है।”

प्रो० पीगू ने राष्ट्रीय आय में उत्पत्ति के केवल उसी भाग को सम्मिलित किया है जिसका द्रव्य में मूल्यांकन किया जा सकता है।

आलोचनाएँ

  • प्रो० पीगू की परिभाषा में संकीर्णता का दोष विद्यमान है, क्योंकि प्रो० पीगू के अनुसार, राष्ट्रीय आय समस्त उत्पादन नहीं, वरन् उसका केवल वह भाग है जिसे द्रव्य में मापा जा सकता है।
  •  प्रो० पीगू की परिभाषा में विरोधाभास पाया जाता है। यदि कोई कार्य द्रव्य के बदले में किया जाए तब वह राष्ट्रीय आय में सम्मिलित किया जाएगा और यदि वही कार्य सेव-भाव से किया जाए तो राष्ट्रीय आय में सम्मिलित नहीं किया जाएगा।

गुण – प्रो० पीगू की परिभाषा में संकीर्णता एवं विरोधाभास के अवगुण होते हुए भी यह अधिक व्यावहारिक है तथा इसके द्वारा राष्ट्रीय लाभांश की गणना सरलतापूर्वक की जा सकती है।
प्रो० फिशर के विचार – प्रो० मार्शल तथा प्रो० पीयू ने राष्ट्रीय आय की परिभाषा उत्पादन की दृष्टि से की है, जबकि प्रो० फिशर ने राष्ट्रीय आय की परिभाषा उपभोग की दृष्टि से की है।

(iii) प्रो० फिशर के अनुसार, “राष्ट्रीय लाभांश अथवा आय में केवल वे सेवाएँ सम्मिलित की जा सकती हैं जो कि अन्तिम उपभोक्ताओं को प्राप्त होती हैं, चाहे वे सेवाएँ भौतिक परिस्थितियों से उत्पन्न हुई हों या मानवीय परिस्थितियों से।
प्रो० फिशर ने अपनी परिभाषा में इस बात पर विशेष बल दिया है कि राष्ट्रीय आय में वर्ष की वास्तविक उत्पत्ति का केवल वह भाग सम्मिलित किया जाता है जिसका प्रत्यक्ष रूप से उपभोग किया जाता है। उन्होंने बताया कि एक पियानो या ओवर कोट जो इस वर्ष मेरे लिए बनाया गया है, इस वर्ष की आय का अंश नहीं है, बल्कि केवल पूँजी में वृद्धि है। केवल वे सेवाएँ जो इस वर्ष के भीतर मुझे प्राप्त हैं, आय में सम्मिलित की जाएँगी।

आलोचना
प्रो० फिशर का मत तर्कसंगत है, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से अनुपयुक्त है, क्योंकि इस आधार पर राष्ट्रीय आय की गणना करना असम्भव है।
उपर्युक्त तीनों विचारकों की परिभाषाओं का विश्लेषण करने के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रो० मार्शल की परिभाषा ही अधिक उचित है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
राष्ट्रीय आय की निम्न संकल्पनाओं का सामान्य परिचय दीजिए [2010]
(अ) सकल घरेलू उत्पाद (G.D.P),
(ब) सकल राष्ट्रीय उत्पाद (G.N.P),
(स) शुद्ध घरेलू उत्पाद (N.D.P),
(द) निवल राष्ट्रीय उत्पाद (N.N.P)
या
राष्ट्रीय आय की विभिन्न संकल्पनाओं की व्याख्या कीजिए। [2008, 14]
या
सकल घरेलू उत्पाद क्या है? [2012, 13]
या
सकल घरेलू उत्पाद और सकल राष्ट्रीय उत्पाद का अर्थ लिखिए। [2012]
या
निवल राष्ट्रीय उत्पाद क्या है? [2012]
या
सकल राष्ट्रीय उत्पाद को परिभाषित कीजिए। [2012]
या
शुद्ध घरेलू उत्पाद को परिभाषित कीजिए। [2013]
उत्तर:
(अ) सकल घरेलू उत्पाद (G.D.P.)
देश में एक वर्ष की अवधि में उत्पादित समस्त वस्तुओं और सेवाओं के मौद्रिक मूल्य के योग को सकल घरेलू उत्पाद कहते हैं। इसमें केवल अन्तिम वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों को ही लिया जाता है। अन्तिम वस्तु वह वस्तु है जो उपभोग कर ली जाती है तथा जिसका उपयोग अन्य किसी वस्तु के उत्पादन में कच्चे माल के रूप में नहीं किया जाता। सकल घरेलू उत्पाद में यह आवश्यक नहीं कि उत्पादन देश के नागरिकों के द्वारा ही हो। उसमें कुछ भाग उन विदेशियों की उत्पादक सेवाओं का परिणाम हो सकता है जिन्होंने अपनी पूँजी तथा तकनीकी ज्ञान का उपयोग करके देश में कुल उत्पादन के कुछ भाग का उत्पादन किया है।

(ब) सकल राष्ट्रीय उत्पाद (G.N.P)
सकल राष्ट्रीय उत्पाद किसी देश के नागरिकों द्वारा किसी दी हुई समयावधि में (सामान्यतया एक वर्ष में) उत्पादित कुल अन्तिम वस्तुओं तथा सेवाओं का मौद्रिक मूल्य होता है।
किसी देश की सकल उत्पत्ति (G.N.P) देश के नागरिकों द्वारा एक निश्चित समयावधि में उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं का मौद्रिक मूल्य होता है। अत: सकल घरेलू उत्पाद में देशवासियों द्वारा देश के बाहर उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य को भी सम्मिलित किया जाता है।
अतः सकल राष्ट्रीय उत्पाद में विदेशों में निवेश एवं विदेशों में प्रदान की गयी अन्य साधन सेवाओं के लिए देश के नागरिकों को विदेशों से प्राप्त आय को सकल घरेलू उत्पाद में जोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार देश के अन्दर विदेशियों द्वारा उत्पादित आय को सकल घरेलू उत्पाद में से घटा दिया जाना चाहिए। सकल राष्ट्रीय उत्पाद को निम्नलिखित समीकरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है
G.N.P = G.D.P +X – M
उपर्युक्त समीकरण में G.N.P = सकल राष्ट्रीय उत्पाद,
G.D.P = सकल घरेलू उत्पाद,
X = देशवासियों द्वारा विदेशों में अजत आय,
M = विदेशियों द्वारा देश में अर्जित आय।।
उपर्युक्त समीकरण से स्पष्ट है कि x = M है, तो G.N.P = G.D.P के होगा।

(स) शुद्ध घरेलू उत्पाद (N.D.P.)
सकल घरेलू उत्पाद में से ह्रास व्यय को घटाकरं शुद्ध घरेलू उत्पाद ज्ञात किया जाता है।
सुत्र शुद्ध घरेलू उत्पाद = सकल घरेलू उत्पाद – घिसावट

(द) निवल राष्ट्रीय उत्पाद (N.N.P)
निवल राष्ट्रीय उत्पाद ज्ञात करने के लिए सकल राष्ट्रीय उत्पाद (G.N.P) में से मूल्य ह्रास व्यय, चल पूँजी का प्रतिस्थापन व्यय, अचल पूँजी का मूल्य ह्रास, मरम्मत और प्रतिस्थापना के लिए किया गया व्यय, कर, बीमे की प्रीमियम आदि को घटाना होता है।
गणितीय समीकरण – N.N.P = G.N.P – Depreciation
शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद = सकल राष्ट्रीय उत्पाद – ह्रास
इसे शुद्ध राष्ट्रीय आय भी कहते हैं।

प्रश्न 2
राष्ट्रीय आय की गणना-विधियाँ कौन-कौन-सी हैं ? समझाइए।
या
राष्ट्रीय आय मापने की प्रमुख विधियाँ बताइए। [2009, 10]
या
राष्ट्रीय आय अनुमान की विभिन्न अवधारणाओं की व्याख्या कीजिए।
या
राष्ट्रीय आय क्या है? राष्ट्रीय आय के आकलन (नापने) की किसी एक विधि की विवेचना कीजिए। [2013, 14]
या
राष्ट्रीय आय क्या है? इसे मापने की उत्पादन गणना विधि अथवा आय गणना विधि में से किसी एक विधि का वर्णन कीजिए। [2013]
या
राष्ट्रीय आय मापने की किसी एक विधि को समझाइए। [2014]
या
राष्ट्रीय आय को अनुमानित करने की उत्पादन विधि का वर्णन कीजिए। [2015]
या
राष्ट्रीय आय मापने की उत्पादन विधि को समझाइए। [2015, 16]
उत्तर:
[संकेत-राष्ट्रीय आय की परिभाषा के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 देखें।

राष्ट्रीय आय की गणना-विधियाँ 
राष्ट्रीय आय की गणना करने के लिए निम्नलिखित विधियों का प्रयोग किया जाता है

1. उत्पादन गणना-विधि – इस विधि में देश के सभी प्रकार के उत्पादकों का कुल उत्पादन ज्ञात किया जाता है। कुल उत्पादन ज्ञात करने के लिए वे समस्त वस्तुएँ व सेवाएँ जिनका विक्रय किया गया है, स्वयं प्रयोग की गयी वस्तुएँ तथा बचे हुए स्टॉक को जोड़ दिया जाता है। कुल उत्पादन में से ह्रास व अप्रचलन घटाकर शुद्ध उत्पादन ज्ञात कर लिया जाता है। सभी उत्पादकों के शुद्ध उत्पादन के योग में समस्त राष्ट्र का वास्तविक कुल घरेलू उत्पादन तथा शुद्ध विदेशी आय जोड़ देने से कुल राष्ट्रीय लाभांश ज्ञात हो जाता है। इस रीति के अन्तर्गत एक वर्ष में वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन के मौद्रिक मूल्य का योग निकाला जाता है तथा देश के वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन सम्बन्धी आँकड़े एकत्रित किये जाते हैं। इस विधि को वस्तु-सेवा गणना-विधि भी कहा जाता है।
इस विधि का प्रमुख दोष यह है कि इसमें कभी-कभी वस्तुओं की दोहरी गणना हो जाती है। दूसरे, इस रीति के अनुसार सेवाओं का मूल्यांकन करना कठिन हो जाता है।

2. आय गणना-विधि – इस विधि में देश के सभी व्यक्तियों की आय ज्ञात करके उन्हें जोड़ दिया जाता है। इस प्रकार कुल राष्ट्रीय आय ज्ञात हो जाती है। इस विधि को प्रयोग में लाने के लिए जो व्यक्ति आयकर देते हैं उनकी आय तो आय कर विभाग से मालूम कर ली जाती है और जो लोग आयकर नहीं देते, उनकी आय पारिवारिक बजट व अन्य सूचनाएँ एकत्रित करके ज्ञात की जाती है। परन्तु जो व्यक्ति आय कर नहीं देते उनके सम्बन्ध में वास्तविक जानकारी प्राप्त करना एक कठिन कार्य है। इसलिए आय का सही ज्ञान नहीं हो पाता है।

3. व्यय गणना-रीति – इस रीति के अनुसार सभी नागरिकों द्वारा किया गया व्यय एवं बचतों को जोड़ दिया जाता है। यही जोड़ राष्ट्रीय आय कहलाता है। इस बात को हम इस प्रकार कह सकते हैं। कि व्यक्तिगत आय = उपभोग व्यय + बचते या राष्ट्रीय आय = राष्ट्रीय उपभोग व्यय + राष्ट्रीय बचते। किसी देश का विनियोग राष्ट्रीय बचत पर निर्भर होता है या बचतों के बराबर होता है। इसलिए इस रीति को ‘उपभोग विनियोग रीति’ भी कहा जाता है। इस विधि की सबसे बड़ी कमी यह है कि देश के सभी व्यक्तियों के उपभोग व्यय सम्बन्धी आँकड़ों व बचतों की सही जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती है। इस कारण राष्ट्रीय आय की गणना करना कठिन होता है।

4. मिश्रित विधि – इस विधि के समर्थक डॉ० वी० के० आर० वी० राव हैं। इस प्रणाली में उत्पादन गणना-रीति व आय गणना-रीति दोनों का मिला-जुला उपयोग किया जाता है। कृषि, खनिज तथा उद्योगों के क्षेत्र में उत्पादन गणना-रीति और व्यापार, परिवहन, प्रशासनिक सेवाओं व अन्य सेवाओं आदि के क्षेत्र में आय गणना-रीति का उपयोग किया जाता है। भारत की राष्ट्रीय आय का अनुमान लगाने के लिए राष्ट्रीय आय समिति ने इसी गणना विधि का प्रयोग किया था। इस मिली-जुली विधि का प्रयोग हमारे देश के लिए उपयुक्त है।

प्रश्न 3
राष्ट्रीय आय की गणना सम्बन्धी कठिनाइयों का वर्णन कीजिए। [2007, 16]
या
राष्ट्रीय आय क्या है ? भारत की राष्ट्रीय आय की गणना में मुख्य कठिनाइयों को बताइए।
उत्तर:
(संकेत–राष्ट्रीय आय की परिभाषा के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का उत्तर देखें।)
भारत में राष्ट्रीय आय की गणना सम्बन्धी कठिनाइयाँ
भारत में राष्ट्रीय आय को ज्ञात करने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना होता है। इनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं

1. वस्तुओं व सेवाओं का मूल्य मुद्रा में जानने में कठिनाई  – राष्ट्रीय आय की गणना मुद्रा या द्रव्य में की जाती है। परन्तु हम अपने दैनिक जीवन में देखते हैं कि अनेक वस्तुएँ तथा सेवाएँ ऐसी होती । हैं जिनके मूल्य को द्रव्य में नहीं मापा जा सकता; जैसे-माँ व स्त्री की सेवाएँ, प्रेम, दया, अपने द्वारा उत्पादित वस्तुओं को स्वयं उपभोग करना आदि। राष्ट्रीय आय की गणना के लिए समस्त उत्पादित वस्तुओं का द्राव्यिक मूल्य ज्ञात करना अनिवार्य है। भारत में कृषक स्व-उत्पादित वस्तुओं का एक बड़ा भाग स्वयं ही उपभोग कर लेते हैं। अत: भारत में कृषि क्षेत्र में उत्पादित वस्तुओं का ठीक-ठीक द्राव्यिक मूल्य ज्ञात करना अत्यन्त कठिन कार्य है।

2. आँकड़ों का विश्वसनीय न होना – राष्ट्रीय आय का अनुमान तभी ठीक प्रकार से लगाया जा सकता है, जबकि उत्पादन आय से सम्बन्धित प्राप्त होने वाले आँकड़े ठीक एवं विश्वसनीय हों। परन्तु भारत की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग अशिक्षित है। अत: वह अपने आय-व्यय का हिसाब ठीक प्रकार से नहीं रख पाता है, जिसके कारण राष्ट्रीय आय की गणना करने में कठिनाई आती है।

3. व्यावसायिक विशिष्टीकरण का अभाव – हम जानते हैं कि देश में जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग कृषि कार्य में लगा हुआ है। कृषि पर जनसंख्या का भार इतना अधिक है कि कृषकों की जीविका केवल कृषि से नहीं चल पाती है। अतः अपनी जीविका को चलाने के लिए कुटीर उद्योग चलाने पड़ते हैं या लघु उद्योगों में कार्य करना होता है। इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि देश में व्यावसायिक विशिष्टीकरण का अत्यन्त अभाव है जिससे देश की राष्ट्रीय आय को अनुमान करना अत्यन्त कठिन कार्य हो जाता है।

4. विभिन्न क्षेत्रों की भिन्न-भिन्न परिस्थितियाँ – भारत में विभिन्न क्षेत्रों की परिस्थितियाँ भिन्न-भिन्न हैं। अत: किसी क्षेत्र विशेष सम्बन्धी जानकारी को अन्य क्षेत्रों में प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। इसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आय की गणना में अनेक व्यावसायिक बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

5. दोहरी गणना की सम्भावना बनी रहना – राष्ट्रीय आय में प्राय: दोहरी गणना की सम्भावना बनी रहती है।

6. अविकसित देशों में राष्ट्रीय आय की उचित गणना का न होना – प्रायः अविकसित देशों में राष्ट्रीय आय की उचित गणना नहीं हो पाती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि अविकसित देशों की अर्थव्यवस्था में अनेक वस्तुओं व सेवाओं का आदान-प्रदान द्रव्य के माध्यम से नहीं होता है।

7. मूल्य ह्रास का सही अनुमान न होना – मूल्य ह्रास वे प्रतिस्थापन का अनुमान सही ने लगा पाना, क्योंकि ये अनुमानित समय के पूर्व ही घटित हो सकते हैं; अतः सही राष्ट्रीय आय की गणना कठिन है।

8. मूल्यांकन की समस्या – उत्पादन गणना विधि के अनुसार उत्पादित वस्तुओं की मात्राओं को मूल्यों से गुणा करके विभिन्न गुणनफलों के योग को राष्ट्रीय आय कहा जाता है। परन्तु इसमें यह कठिनाई है कि गणना करते समय थोक या फुटकर कौन-सी कीमत से गणना करनी चाहिए, स्पष्ट नहीं होता।

9. हस्तान्तरण आय और उत्पादक आय में भेद करना कठिन – जबे सरकार बाजार से ऋण लेकर उनका प्रयोग अनुत्पादक कार्यों में करती है, तब ऐसे ऋणों पर ब्याज ‘हस्तान्तरण आय कहलाती है। परन्तु जब उनको प्रयोग उत्पादक कार्यों में होता हैं तो उन ऋणों पर ब्याज उत्पादक आय’ कहलाती है। राष्ट्रीय आय में हस्तान्तरण आय को नहीं जोड़ा जाता, जबकि उत्पादक आय को जोड़ा जाता है। यह ज्ञात करना कठिन है कि ऋण का कितना भाग उत्पादक है और कितना अनुत्पादक, जिससे राष्ट्रीय आय का अनुमान सही नहीं होता है।

10. कुटीर उद्योगों का उत्पादन – कुटीर उद्योग प्रायः अशिक्षित व्यक्तियों द्वारा संचालित होते हैं जो कि अपने व्यवसाय के ठीक-ठीक आँकड़े रखने में असमर्थ होते हैं। अत: इस क्षेत्र के उत्पादक आँकड़े अविश्वसनीय होते हैं।

11. वस्तुओं और सेवाओं का चुनाव – वस्तुओं और सेवाओं के चुनाव के सम्बन्ध में यह निर्णय करना अत्यधिक कठिन हो जाता है कि अमुक वस्तु अर्द्धनिर्मित है या अन्तिम।

प्रश्न 4
राष्ट्रीय आय से आप क्या समझते हैं? इसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2009, 10, 14]
उत्तर:
[संकेत – शीर्षक ‘राष्ट्रीय आय से आप क्या समझते हैं?’ के लिए इसी अध्याय के विस्तृत उत्तरीय प्रश्न सं० 1 के उत्तर को देखिए।]

राष्ट्रीय आय का महत्त्व
1. राष्ट्रीय आय से देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति का ज्ञान होता है – किसी राष्ट्र की आर्थिक सम्पन्नता उसके द्वारा प्रतिवर्ष उपार्जित आय पर निर्भर होती है। किसी देश की राष्ट्रीय आय को देखकर यह अनुमान लगा लिया जाता है कि देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति किस प्रकार की है ? यदि किसी देश की राष्ट्रीय आय कम है तो इसका अर्थ है कि देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि करने की आवश्यकता है।

2. भविष्य का विकास सम्बन्धी प्रवृत्तियों का ज्ञान – राष्ट्रीय आय से किसी देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति का ही नहीं बल्कि उसके भावी विकास का भी पता लग जाता है। यदि राष्ट्रीय आय में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है तब भविष्य में आर्थिक विकास अच्छा होगा तथा लोगों का जीवन-स्तर ऊँचा होगा। यदि देश में राष्ट्रीय आय कम है तथा उसकी विकास दर भी कम है तो इसका स्पष्ट अर्थ है। कि देश का भविष्य उज्ज्वल नहीं है।

3. देश के आर्थिक कल्याण का ज्ञान – किसी देश की राष्ट्रीय आय तथा उसके आर्थिक कल्याण में घनिष्ठ सम्बन्ध है, “राष्ट्रीय आय को आर्थिक कल्याण का मापक कहा जाता है। अन्य बातें समान रहने पर किसी देश की राष्ट्रीय आय जितनी अधिक होती है उसका आर्थिक कल्याण भी उतना ही अधिक होता है तथा राष्ट्रीय आय के कम हो जाने पर आर्थिक कल्याण घट जाता है।

4. राष्ट्रीय आय से देश के लोगों के रहन – सहन के स्तर का ज्ञान-राष्ट्रीय आय को देखकर यह पता लग जाता है कि देश के लोगों का रहन-सहन का स्तर किस प्रकार का है। देश में प्रति व्यक्ति आय जितनी अधिक होती है लोगों का ज़ीवन-स्तर भी उतना ही ऊँचा होता है। प्रति व्यक्ति आय का कम होना निम्न जीवन-स्तर का सूचक होता है।

5. भिन्न देशों की आर्थिक प्रगति की तुलना – राष्ट्रीय आय के द्वारा दो विभिन्न देशों की आर्थिक प्रगति की तुलना की जा सकती है तथा यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि देश के आर्थिक विकास के लिए अभी कितनी सम्भावनाएँ शेष हैं।

6. आर्थिक नियोजन में महत्त्व – राष्ट्रीय आय को देखकर ही देश के भावी विकास सम्बन्धी योजनाएँ तैयार की जाती हैं। देश के आर्थिक नियोजन को सफल बनाने के लिए राष्ट्रीय आय का ज्ञान आवश्यक है।

7. राष्ट्रीय आय का पूँजी-निर्माण में महत्त्व – पूँजी-निर्माण किसी देश के आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है। पूँजी-निर्माण बचत पर निर्भर होता है, बचत प्रति व्यक्ति आय एवं राष्ट्रीय आय से प्रभावित होती है; अतः राष्ट्रीय आय पूँजी-निर्माण को प्रभावित करती है।

प्रश्न 5
राष्ट्रीय आय के आर्थिक विकास में योगदान की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रीय आय एवं आर्थिक विकास
आर्थिक विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा दीर्घकाल में किसी अर्थव्यवस्था की वास्तविक राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है। अत: किसी देश के द्वारा अपनी वास्तविक राष्ट्रीय आय बढ़ाने हेतु सभी उत्पादन साधनों का कुशलतम प्रयोग करना ही आर्थिक विकास है।

आर्थिक विकास और राष्ट्रीय आय का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। किसी देश का आर्थिक विकास करने का अर्थ उस देश की राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के साथ-साथ देश के सर्वांगीण विकास एवं सामाजिक कल्याण में वृद्धि करना भी है, जिससे उसके प्रत्येक निवासी का जीवन-स्तर ऊँचा उठ सके तथा मानव के आर्थिक कल्याण में वृद्धि हो सके। इसी प्रकार यदि किसी देश की राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है तो इसका भी यही अर्थ है कि देश के आर्थिक विकास का प्रयत्न किया जा रहा है। राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होने से निर्धनता दूर होगी, देशवासियों को पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध हो सकेंगी और उनका जीवन सुखमय होगा।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि राष्ट्रीय आय व आर्थिक विकास एक-दूसरे के सहयोगी हैं।’ किसी देश में राष्ट्रीय आय में उत्तरोत्तर वृद्धि उसकी आर्थिक प्रगति की सूचक होती है। राष्ट्रीय आय के आधार पर ही विकसित, विकासशील व पिछड़े देशों के मध्य तुलना की जाती है। प्रायः उच्च राष्ट्रीय आय व उच्च प्रति व्यक्ति आय वाले देशों को विकसित देश कहा जाता है। इसके विपरीत कम आय वाले देशों को विकासशील देश कहा जाता है। इस प्रकारे स्पष्ट है कि आर्थिक विकास व राष्ट्रीय आय में घनिष्ठ सम्बन्ध है।

प्रश्न 6
भारत में प्रति व्यक्ति आय कम होने के कारण बताइए। [2016]
उत्तर:
भारत में प्रति व्यक्ति आय कम होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

1. कृषि की प्रधानता एवं कृषि का पिछड़ा होना –  भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान है। देश की लगभग जनसंख्या 58.2% जनसंख्या कृषि तथा कृषि से सम्बन्धित कार्य में संलग्न है, जब कि भारत की राष्ट्रीय आय में कृषि का योगदान 22% तक ही है। फिर भी आज भारतीय कृषि पिछड़ी दशा में है, साथ ही कृषक रूढ़िवादी तथा भाग्यवादी हैं। अत: कृषि उत्पादन कम है तथा प्रति व्यक्ति आय आय भी नीची है।

2. औद्योगिक पिछड़ापन यद्यपि पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत पर्याप्त औद्योगिक विकास हुआ है, फिर भी भारत विकसित देशों की तुलना में औद्योगिक दृष्टि से बहुत पीछे है। फलत: प्रति व्यक्ति आय का स्तर नीचा है।

3. जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि भारत की जनसंख्या लगभग 121 करोड़ है और उसमें तीव्र गति से वृद्धि हो रही है। जनाधिक्य के कारण भी प्रति व्यक्ति आय कम रहती है।

4. कम उत्पादकता भारत में प्रति श्रमिक उत्पादकता अन्य देशों की अपेक्षा कम है। इससे प्रति व्यक्ति आय भी कम रहती है।

5. साहस का अभाव भारत में विकसित देशों की अपेक्षा जोखिम उठाकर नवीन उद्योगों की स्थापना करने वाले साहसियों का अभाव है। अत: कुल उत्पादन तथा प्रति व्यक्ति उत्पादन का स्तर नीचा रहता है। अतः प्रति व्यक्ति आय भी कम रहती है।

6. पूँजी का अभाव भारत में बचतें कम होने के कारण पूँजी-निर्माण कम होता है। अत: निवेश भी कम होता है। अतः प्रति व्यक्ति आय कम रहती है।

7. प्राकृतिक साधनों का समुचित प्रयोग न होना नियोजित अर्थव्यवस्था के होते हुए भी देश के प्राकृतिक साधनों का समुचित एवं पूर्ण उपयोग नहीं हो पा रहा है। अतः कुल उत्पादन तथा प्रति व्यक्ति उत्पादन कम रहता है। अतः प्रति व्यक्ति आय भी कम रहती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय में अन्तर बताइए। [2016]
उत्तर:
राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 18 National Income 1

प्रश्न 2
सकल घरेलू उत्पाद और सकल राष्ट्रीय उत्पाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2006, 11, 15]
उत्तर:
सकल घरेलू उत्पाद और सकल राष्ट्रीय उत्पाद में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 18 National Income 2

प्रश्न 3
राष्ट्रीय आय समिति पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
राष्ट्रीय आय समिति
भारत सरकार ने सन् 1949 में एक राष्ट्रीय आय समिति की स्थापना की, जिसके अध्यक्ष प्रो० महालनोबिस थे। राष्ट्रीय आय समिति का कार्य राष्ट्रीय आय सम्बन्धी आँकड़ों को एकत्रित करना और राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय के सन्दर्भ में प्रतिवेदन तैयार करना था। राष्ट्रीय आय अनुमान विधियों में सुधार हेतु सुझाव देना भी समिति का कार्य था। इस समिति ने राष्ट्रीय अनुमान की एक श्रेष्ठ विधि अपनायी। समिति ने आवश्यकतानुसार उत्पादन गणना-रीति व आय गणना-रीति दोनों का प्रयोग किया तथा राष्ट्रीय आय के अनुमान प्रस्तुत किये। राष्ट्रीय आय समिति ने अपनी अन्तिम रिपोर्ट 1954 में दी थी। इस समिति के अनुसार, सन् 1948-49 में देश की कुल राष्ट्रीय आय ₹8,650 करोड़ तथा 1950 में ₹ 9,530 करोड़ थी। इस प्रकार सन् 1950-51 में भारतीय प्रति व्यक्ति आय र 266 थी।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
राष्ट्रीय आय की गणना करने की किन्हीं दो विधियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
(i) उत्पादन गणना-विधि तथा
(ii) आय गणना-विधि।

प्रश्न 2
प्रति व्यक्ति औसत आय की गणना कैसे की जाती है ? [2007, 38, 10, 12, 14, 15]
या
प्रति व्यक्ति आय जानने का सूत्र क्या है? [2015, 14, 15]
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 18 National Income 3

प्रश्न 3
फिशर ने राष्ट्रीय आय की परिभाषा में किस पक्ष पर विशेष महत्त्व दिया है ?
उत्तर:
प्रो० फिशर ने राष्ट्रीय आय की परिभाषा में उत्पादन के स्थान पर उपभोग पक्ष को अधिक महत्त्व दिया है।

प्रश्न 4
शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद को परिभाषित कीजिए। [2017, 08]
उत्तर:
सकल राष्ट्रीय उत्पादन (G.N.P) में से मूल ह्रास व्यय, चल पूँजी का प्रतिस्थापन व्यय, अचल पूँजी का मूल्य ह्रास, मरम्मत और प्रतिस्थापन के लिए किया गया व्यय, कर, बीमे की प्रीमियम आदि को घटाने के पश्चात् जो शेष रहता है उसे शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद कहते हैं।

प्रश्न 5
उस अर्थशास्त्री का नाम बताइए जिसने राष्ट्रीय आय की परिभाषा में उपभोग पक्ष पर बल दिया है।
उत्तर:
प्रो० फिशर।

प्रश्न 6
राष्ट्रीय आय किसी समुदाय की वास्तविक आय जिसमें विदेशों से प्राप्त होने वाली आय भी सम्मिलित रहती है, का वह भाग है, जो द्रव्य द्वारा मापा जा सकता है। यह परिभाषा किस अर्थशास्त्री की है ?
उत्तर:
प्रो० पागू की।

प्रश्न 7
राष्ट्रीय आय को परिभाषित कीजिए। [2007, 14, 15, 16]
उत्तर:
प्रो० मार्शल के अनुसार, “किसी देश का श्रम व पूँजी उस राष्ट्र के प्राकृतिक साधनों पर प्रयुक्त होकर प्रतिवर्ष भौतिक तथा अभौतिक वस्तुओं की निश्चित मात्रा उत्पन्न करती है। इसमें सब प्रकार की सेवाओं विदेशों द्वारा लगाई गयी पूँजी तथा राष्ट्र द्वारा विदेशों में लगाई गयी पूँजी से प्राप्त आय सम्मिलित है।”

प्रश्न 8
प्रो० फिशर द्वारा दी गयी राष्ट्रीय आय की परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
प्रो० फिशर के अनुसार, “वास्तविक राष्ट्रीय आय कुल उत्पादन का वह भाग है जो सम्बन्धित वर्ष में उपभोग किया जाता है।”

प्रश्न 9
कुल राष्ट्रीय उत्पाद किसे कहते हैं ? [2006, 09]
उत्तर:
किसी अर्थव्यवस्था में वस्तुओं व सेवाओं के अन्तिम उत्पादन के मौद्रिक मूल्य (बाजार कीमतों के आधार पर) को कुल राष्ट्रीय आय कहते हैं तथा सेवाओं के अन्तिम भौतिक उत्पादन के योग को कुल राष्ट्रीय उत्पादन कहते हैं।

प्रश्न 10
प्रति व्यक्ति आय क्या है? [2011, 14]
उत्तर:
किसी देश की राष्ट्रीय आय को उस देश की कुल जनसंख्या से भाग देने पर हमें प्रति व्यक्ति आय प्राप्त हो जाती है।

प्रश्न 11
यदि देश में प्रति व्यक्ति आय ₹60,000 हो और देश की जनसंख्या 120 करोड़ हो, तो राष्ट्रीय आय की गणना कीजिए। [2012]
उत्तर:
राष्ट्रीय आय = प्रति व्यक्ति आय x देश की जनसंख्या
= 60,000 x 12000000000 = 720000000000000
= ₹72 लाख करोड़

प्रश्न 12
भारत में प्रति व्यक्ति आय कम होने के मुख्य कारण बताइए। [2008, 10, 16]
उत्तर:
(1) राष्ट्रीय आय में वृद्धि जनसंख्या में वृद्धि की अपेक्षा कम है।
(2) पूँजी निर्माण की गति धीमी है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
राष्ट्रीय आय की गणना की रीतियाँ हैं [2012]
(क) उत्पादन गणना-रीति
(ख) आय गणना-रीति
(ग) व्यय गणना-रीति
(घ) ये तीनों
उत्तर:
(घ) ये तीनों।

प्रश्न 2
राष्ट्रीय आय में द्रव्य को सबसे अधिक महत्त्व दिया है
(क) प्रो० मार्शल ने
(ख) प्रो० पीगू ने
(ग) प्रो० फिशर ने
(घ) एडम स्मिथ ने
उत्तर:
(ख) प्रो० पीगू ने।

प्रश्न 3
कुल उपभोग को राष्ट्रीय आय की गणना के लिए आवश्यक समझते हैं
(क) प्रो० मार्शल
(ख) प्रो० फिशर
(ग) प्रो० पीगू
(घ) प्रो० शूप
उत्तर:
(ख) प्रो० फिशर।

प्रश्न 4
“राष्ट्रीय आय के योग को अन्तिम उत्पाद योग कहा जा सकता है।” यह कथन है
(क) प्रो० मार्शल का
(ख) प्रो० पीगू का
(ग) प्रो० फिशर का
(घ) प्रो० शूप का
उत्तर:
(घ) प्रो० शूप का।

प्रश्न 5
राष्ट्रीय आय एक माप है
(क) देश के कुल निर्यात की
(ख) देश के कुल आयात की।
(ग) देश के कुल उत्पाद की
(घ) देश की कुल सरकारी आय की
उत्तर:
(ग) देश के कुल उत्पाद की।

प्रश्न 6
भारत में प्रति व्यक्ति आय का अनुमान सर्वप्रथम किसने लगाया था? [2007, 09, 11]
(क) गोपालकृष्ण गोखले
(ख) दादाभाई नौरोजी
(ग) महात्मा गांधी
(घ) स्वामी विवेकानन्द
उत्तर:
(ख) दादाभाई नौरोजी।

प्रश्न 7
राष्ट्रीय आय बराबर होती है [2011]
(क) सकल घरेलू उत्पाद (G.D.P) के
(ख) शुद्ध घरेलू उत्पाद (N.D.P) के
(ग) शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद (N.N.P) के
(घ) सकल राष्ट्रीय उत्पाद (G.N.P) के
उत्तर:
(ग) शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद (N.N.P) के।

प्रश्न 8
निम्नलिखित में से कौन राष्ट्रीय आय मापने की विधि नहीं है? [2012]
(क) सम्पत्ति गणना-विधि
(ख) उत्पादन गणना-विधि
(ग) व्यय गणना-विधि
(घ) आय गणना-विधि
उत्तर:
(क) सम्पत्ति गणना-विधि।

प्रश्न 9
बाजार कीमत पर निबल राष्ट्रीय उत्पाद (NNP)- अप्रत्यक्ष कर+सरकारी सहायता = ?
(क) साधन लागतों पर निवल राष्ट्रीय उत्पाद
(ख) बाजार कीमतों पर निवल राष्ट्रीय उत्पाद
(ग) बाजार कीमतों पर निवल घरेलू उत्पाद
(घ) साधन लागतों पर निवल घरेलू उत्पाद
उत्तर:
(क) साधन लागतों पर निवल राष्ट्रीय उत्पाद।

प्रश्न 10
निम्नलिखित में से कौन राष्ट्रीय आय को मापने की विधि नहीं है? [2014]
(क) उत्पादन गणना विधि
(ख) आय गणना विधि
(ग) व्यय गणना विधि
(घ) बचत-विनियोग गणना विधि
उत्तर:
(घ) बचत-विनियोग गणना विधि।

प्रश्न 11
निम्नलिखित में से क्या सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में सम्मिलित नहीं होता? [2014]
(क) एक वर्ष में उत्पादित अन्तिम वस्तुओं व सेवाओं को मौद्रिक मूल्य
(ख) अप्रत्यक्ष कर
(ग) विदेशों से प्राप्त शुद्ध आय
(घ) मूल्य-ह्रास व्यय
उत्तर:
(ख) अप्रत्यक्ष कर।

प्रश्न 12
निम्न में से आर्थिक कल्याण का सर्वोत्तम माप कौन-सा है? [2015]
(क) सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP)
(ख) सकल घरेलू उत्पाद (GDP)
(ग) शुद्ध घरेलू उत्पाद (N.D.P)
(घ) शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद (NNP)
उत्तर:
(ख) सकल घरेलू उत्पाद (GDP)

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UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 3

UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 3 are part of UP Board Class 12 Biology Model Papers. Here we have given UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 3.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Model Paper Paper 3
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 Biology Model Papers Paper 3

पूर्णाक : 70
समय : 3 घण्टे 15 मिनट

निर्देश: प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
नोट:

  • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
  • आवश्यकतानुसार अपने उत्तरों की पुष्टि नामांकित रेखाचित्रों द्वारा कीजिए।
  • सभी प्रश्नों के निर्धारित अंक उनके सम्मुख

प्रश्न  1.
सही विकल्प चुनकर अपनी उत्तर पुस्तिका में लिखिए।
(क) एल्ब्यूमिन रहित बीज किसमें उत्पादित होते हैं? [1]
(A) मक्का
(B) अरण्डी
(C) गेहूँ
(D) मटर

(ख) जल प्रदूषण का सामान्य जीव सूचक है [1]
(A) लेग्ना पेन्साकोस्टेटा
(B) आइकॉर्निया क्रेसीयस
(C) ई कोलाई
(D) एण्टअमीबा हिस्टोलाइटिका

(ग) मानव में शुक्र मातृ कोशिका व अण्ड मातृ कोशिका द्वारा उत्पन्न युग्मकों का अनुपात होता है [1]
(A) 1:1
(B) 1: 3 .
(C) 1:4
(D) 4: 1

(घ) निम्नलिखित में से कौन-सा एक प्रतिबन्धन एण्डोन्यूक्लिएज है? [1]
(A) प्रोटिएज
(B) DNAse I
(C) RNAse
(D) Hind II.

प्रश्न 2.
(क) पूर्वज क्या होते हैं? [1]
(ख) वंशागति के क्रोमोसोमवाद को किसने प्रस्तावित किया? [1]
(ग) इम्यूनिटी शब्द का क्या अर्थ है? [1]
(घ) DNA खण्डों को पृथक् करने के लिए किस विधि का प्रयोग किया जाता है? [1/2+1/2]
(ङ) पारजीनी जन्तु क्या होते हैं? [1]

प्रश्न 3.
(क) जैव-विविधता क्या है? इसके संरक्षण की दो विधियों का उल्लेख कीजिए। [2]
(ख) जैव-प्रोद्यौगिकी तकनीक द्वारा उत्पन्न फसल को क्या कहते हैं? इस तकनीक द्वारा उत्पन्न फसलों के दो लाभ लिखिए। [1+1]
(ग) किन तथ्यों के आधार पर डार्विनवाद की आलोचना की गई [2]
(घ) बन्ध्यता को जीवनक्षम सन्तति न पैदा कर पाने की अयोग्यता के रूप में परिभाषित किया गया है और यह सदैव स्त्री की दोषों के कारण होती है। यह सही क्यों नहीं है? [2]
(ड़) विलौडित हौज बायोरिएक्टर पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2]

प्रश्न 4.
(क) वायुमण्डल में समतापमण्डल की व्याख्या कीजिए। [3]
(ख) उत्परिवर्तनवाद क्या है? ये सिद्धान्त किसने प्रतिपादित किया? [2+1]
(ग) ट्रान्सजेनिक जन्तु किन्हें कहते हैं? इन जन्तुओं के निर्माण की दो महत्त्वपूर्ण विधियों का वर्णन कीजिए। [3]
(घ) टायफॉइड रोग पर टिप्पणी लिखिए। [3]

प्रश्न 5.
(क) बालूक्रमक क्या है? यह किसके अन्तर्गत रखा गया है? व्याख्या करें। [1+2]
(ख) खाद्य टीके का उत्पादने किस प्रकार किया जाता है? [3]
(ग) भ्रूणकोष के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का सचित्र वर्णन कीजिए। [3]
(घ) एक उपयुक्त चित्र की सहायता से स्तन ग्रन्थि के संगठन की व्याख्या कीजिए। [3]

प्रश्न 6.
(क) रेशम किस कीट द्वारा प्राप्त होता है? इस कीट का जीवन चक्र समझाइए। [1+2]
(ख) द्वितीयक वाहित मल उपचार क्या है? यह किस प्रकार किया जाता है? [1+2]
(ग) निम्न पर आलोचनात्मक टिप्पणी कीजिए। [1/2+1/2]

  •  सुपोषिता
  • जैव-आवर्धन

(घ) DNA फिंगरप्रिंटिंग क्या है? इसकी उपयोगिता पर टिप्पणी कीजिए। [1+2]

प्रश्न 7.
निम्न पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।

  1. जीन गन एवं लाइपोसोम
  2. प्रतिरक्षी माध्यित प्रतिरक्षा प्रणाली [2+3]

अथवा
पोषण चक्र क्या होता है? कार्बन के पोषण चक्र का वर्णन कीजिए। 1+4]

प्रश्न 8.
क्या हम मानव विकास को अनुकूलनी विकिरण कह सकते हैं? कारण स्पष्ट कीजिए। [5]
अथवा
अनुलेखन की क्रियाविधि के दीर्धीकरण अवस्था का सचित्र वर्णन कीजिए। [5]

प्रश्न 9.
मानव में 5वें,13वें तथा 21वें गुणसूत्रों से सम्बन्धित विकारों पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए। [5]
अथवा
मानव में युग्मकजनन को विस्तारपूर्वक समझाइए। [5]

Answers

उत्तर 1.
(क) (D)
(ख) (C)
(ग) (D)
(घ) (D)

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 17 Indian Judiciary: Supreme Court Public Interest Litigations and Lok Adalat

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 17 Indian Judiciary: Supreme Court Public Interest Litigations and Lok Adalat (भारतीय न्यायपालिका-सर्वोच्च न्यायालय, जनहित याचिकाएँ तथा लोक अदालत) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 17 Indian Judiciary: Supreme Court Public Interest Litigations and Lok Adalat (भारतीय न्यायपालिका-सर्वोच्च न्यायालय, जनहित याचिकाएँ तथा लोक अदालत).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 17
Chapter Name Indian Judiciary: Supreme Court Public Interest Litigations and Lok Adalat
(भारतीय न्यायपालिका-सर्वोच्च न्यायालय, जनहित याचिकाएँ तथा लोक अदालत)
Number of Questions Solved 50
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 17 Indian Judiciary: Supreme Court Public Interest Litigations and Lok Adalat (भारतीय न्यायपालिका-सर्वोच्च न्यायालय, जनहित याचिकाएँ तथा लोक अदालत)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
भारत के उच्चतम न्यायालय की संरचना का उल्लेख कीजिए। उसे संविधान का संरक्षक क्यों कहा जाता है? [2010]
या
“भारत के सर्वोच्च न्यायालय को संविधान का संरक्षक व नागरिकों के मूलाधिकारों का रक्षक कहा जाता है।” व्याख्या कीजिए। [2014]
या
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे होती है? [2014]
या
सर्वोच्च न्यायालय के संगठन का वर्णन कीजिए। उसको ‘संविधान का रक्षक’ एवं ‘नागरिकों के मूल अधिकारों का रक्षक’ क्यों कहा जाता है ? [2008, 10, 12, 14, 15]
या
उच्चतम न्यायालय का संगठन समझाइए। उसके महत्त्व को भी समझाइए। [2008, 10, 12, 13]
या
भारत के उच्चतम न्यायालय के गठन व उसके कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। भारत के उच्चतम न्यायालय के संगठन तथा क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए। [2010]
या
न्यायालय की स्वतन्त्रता का संरक्षण किस प्रकार किया जाता है?
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता (महत्त्व)

भारतीय संविधान निर्माताओं के समक्ष यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न था कि भारत में संविधान वे लोकतन्त्र की रक्षा का दायित्व किसे सौंपा जाए? गम्भीर विचार-विमर्श के पश्चात् संविधाननिर्माताओं ने भारत संघ में लोकतन्त्र, नागरिकों के अधिकार व संविधान की रक्षा का दायित्व एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका को सौंपा। भारत में न्याय-व्यवस्था के शिखर पर सर्वोच्च न्यायालय का गठन किया गया है। श्री वी० एस० देशपापडे के शब्दों में, “भारत में संविधान व लोकतन्त्र की रक्षा का दायित्व सर्वोच्च न्यायालय का ही है। स्वतन्त्र भारत में सर्वोच्च न्यायालय का कार्यकरण बहुत गौरवमय रहा है तथा आम जनता में व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों तथा स्वाधीनता के प्रहरी के रूप में उसके प्रति अटूट श्रद्धा-विश्वास है।

भारत की संघीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत न्यायालय की आवश्यकता अथवा महत्त्व को निम्नलिखित तर्को द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है –

1. संघात्मक शासन के लिए अनिवार्य – संघीय शासन व्यवस्था के अन्तर्गत केन्द्र व राज्यों के मध्य शक्तियों का पृथक्करण पाया जाता है। ऐसी स्थिति में अपने-अपने अधिकार-क्षेत्र को लेकर केन्द्र व राज्यों में विवाद की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। अतः केन्द्र व राज्यों के मध्य उत्पन्न किसी भी विवाद के निराकरण हेतु एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष शक्ति का होना अनिवार्य होता है। भारत में इसी उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गयी है। जी० एन० जोशी ने संघीय व्यवस्था में निष्पक्ष व स्वतन्त्र न्यायपालिका की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा है कि “संघात्मक शासन में कई सरकारों का समन्वय होने के कारण संघर्ष अवश्यम्भावी है। अतः संघीय नीति का यह आवश्यक गुण है कि देश में एक ऐसी न्यायिक व्यवस्था हो, जो संघीय कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका तथा इकाइयों की सरकारों से स्वतन्त्र हो।’

2. संविधान का रक्षक – भारत में एक लिखित और कठोर संविधान को अपनाया गया है और इसके साथ ही संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान की गयी है। संविधान की सर्वोच्चता को बनाये रखने का कार्य सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा ही किया जाता हैं। सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा संविधान के रक्षक और संविधान के आधिकारिक व्याख्याता के रूप में कार्य किया जाता है। वह संसद द्वारा निर्मित ऐसी प्रत्येक विधि को अवैध घोषित कर सकता है जो संविधान के विरुद्ध हो। अपनी इस शक्ति के आधार पर वह संविधान की प्रभुता और सर्वोच्चता की रक्षा करता है। संविधान के सम्बन्ध में किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न होने पर संविधान की अधिकारपूर्ण व्याख्या उसी के द्वारा की जाती है। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय संविधान की रक्षा करता है।

3. परामर्शदात्री संस्था के रूप में – भारत का सर्वोच्च न्यायालय एक परामर्शदात्री संस्था के रूप में भी विशिष्ट दायित्वों का निर्वहन करता है। राष्ट्रपति किसी भी महत्त्वपूर्ण विषय के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श माँग सकता है। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है। कि न्यायालय के परामर्श को स्वीकार करने या न करने के लिए राष्ट्रपति पूर्ण स्वतन्त्र होता

4. मौलिक अधिकारों का रक्षक – संविधान के अनुच्छेद 32 में वर्णित है कि न्यायालय : संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अभिरक्षक है। भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का किसी भी रूप में हनन होने पर व्यक्ति न्यायालय की शरण ले सकता है। इस सम्बन्ध में पायली ने कहा है कि “मौलिक अधिकारों का महत्त्व एवं सत्ता समय-समय पर न्यायालयों द्वारा दिये गये निर्णयों से सिद्ध होती है, जिससे कार्यपालिका की निरंकुशता तथा विधानमण्डलों की स्वेच्छाचारिता से नागरिकों की रक्षा होती है।”

5. भारत का अन्तिम न्यायालय – भारत की न्यायिक व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय अन्तिम न्यायालय है। परिणामस्वरूप इसके निर्णय अन्तिम व सर्वमान्य होते हैं। इन निर्णयों में परिवर्तन केवल वह ही कर सकता है।

अन्तत: सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता व महत्त्व को डॉ० एम० वी० पायली के इस कथन से प्रमाणित किया जा सकता है कि ‘‘सर्वोच्च न्यायालय संघीय व्यवस्था का एक आवश्यक अंग है। यह संविधान की व्याख्या करने वाला, केन्द्र व राज्यों के मध्य उत्पन्न विवादों का निराकरण करने वाला तथा नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने वाला अन्तिम अभिकरण है।”

सर्वोच्च न्यायालय का गठन

संविधान के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या, सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार, न्यायाधीशों के वेतन या सेवा-शर्ते निश्चित करने का अधिकार संसद को दिया गया था। अनुच्छेद 124 के अनुसार, “भारत का एक उच्चतम न्यायालय होगा, जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा सात अन्य न्यायाधीश होंगे।” परन्तु इस सम्बन्ध में संविधान में यह व्यवस्था की गयी है कि संसद विधि के द्वारा न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि कर सकती है। वर्तमान समय में 1985 ई० में पारित विधि के अन्तर्गत संसद द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 31 कर दी गयी है। वर्तमान समय में सर्वोच्च न्यायालय में 1 मुख्य न्यायाधीश व 30 अन्य न्यायाधीश होते हैं। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के परामर्श से की जाती है तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से की जाती है।

न्यायाधीशों की योग्यताएँ (मुख्य न्यायाधीश) – संविधान द्वारा उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ निर्धारित की गयी हैं –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह कम-से-कम पाँच वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद पर कार्य कर चुका हो अथवा वह दस वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहा हो।
  3. राष्ट्रपति की दृष्टि में विख्यात विधिवेत्ता हो।
  4. उसकी आयु 65 वर्ष से कम हो।

कार्यकाल – उच्चतम न्यायालय का प्रत्येक न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर बना रह सकता है। 65 वर्ष की आयु पूर्ण करने के पश्चात् उसे पदमुक्त कर दिया जाता है, परन्तु यदि न्यायाधीश समय से पूर्व पदत्याग करना चाहता है, तो वह राष्ट्रपति को अपना त्याग-पत्र देकर मुक्त हो सकता है।

महाभियोग – संवैधानिक प्रावधान के अनुसार दुर्व्यवहार व भ्रष्टाचार के आरोप में लिप्त पाये जाने पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को संसद द्वारा 2/3 बहुमत से महाभियोग लगाकर, राष्ट्रपति के माध्यम से पदच्युत किया जा सकता है।

शपथ – उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश पद को ग्रहण करने से पूर्व प्रत्येक न्यायाधीश राष्ट्रपति के समक्ष शपथ लेता है।

वेतन व भत्ते – नवीन वेतनमानों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 1,00,000 मासिक वेतन व अन्य न्यायाधीशों को र 90,000 रुपये मासिक वेतन की धनराशि देना निश्चित किया गया है। इसके अतिरिक्त न्यायाधीशों के लिए नि:शुल्क आवास व सेवा-निवृत्ति के पश्चात् पेंशन देने की व्यवस्था भी की गयी है। इस सम्बन्ध में यह स्मरणीय है कि न्यायाधीशों को वेतन व भत्ते भारत की संचित निधि में से दिये जाते हैं, जो संसद के अधिकार क्षेत्र से मुक्त होना है। इसके साथ ही न्यायाधीशों के वेतन में उनके कार्यकाल के समय में कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता। केवल वित्तीय आपात के समय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतनभत्ते कम किये जा सकते हैं।

उन्मुक्तियाँ – संविधान द्वारा न्यायाधीशों को प्राप्त उन्मुक्तियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. न्यायाधीशों के कार्यों व निर्णयों को आलोचना से मुक्त रखा गया है।
  2. किसी भी निर्णय के सम्बन्ध में न्यायाधीश पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उसने वह निर्णय स्वार्थवश तथा किसी के हित विशेष को ध्यान में रखकर लिया है।
  3. महाभियोग के अतिरिक्त किसी अन्य प्रक्रिया के द्वारा न्यायाधीश के आचरण के विषय में कोई चर्चा नहीं की जा सकती।

वकालत पर रोक – जो व्यक्ति भारत के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर आसीन हो जाता है, वह अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् भारत के किसी भी न्यायालय में या किसी अन्य अधिकारी के समक्ष वकालत नहीं कर सकता। संविधान द्वारा यह व्यवस्था न्यायाधीशों को अपने कार्यकाल में निष्पक्ष व स्वतन्त्र होकर अपने दायित्वों का निर्वहन करने के उद्देश्य को दृष्टि में रखकर की गयी है।

[संकेत – उच्चतम न्यायालय के कार्य व क्षेत्राधिकार तथा न्यायालय की स्वतन्त्रता का संरक्षण हेतु विस्तृत प्रश्न 2 का अध्ययन करें]

प्रश्न 2.
उच्चतम न्यायालय को अभिलेख न्यायालय क्यों कहते हैं? उसके क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए।
या
नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय किस प्रकार के लेख (रिट) जारी कर सकते हैं? किन्हीं दो का उदाहरण देते हुए समझाइए। [2012]
या
सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए और यह भी बताइए कि न्यायपालिका की स्वतन्त्रता हेतु संविधान में क्या प्रावधान किए गए हैं? [2016]
या
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों और अधिकारों का संक्षिप्त विवरण दीजिए। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए। [2010, 12]
या
भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के कार्य एवं शक्तियों का उल्लेख कीजिए। [2013, 14, 15, 16]
या

न्यायपालिका को स्वतन्त्र रखने के लिए संविधान में क्या व्यवस्थाएँ की गयी हैं? संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2013]
या
सर्वोच्च न्यायालय के प्रारम्भिक तथा अपीलीय क्षेत्राधिकार का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2013]
या
सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता का संरक्षण किस प्रकार किया गया है? [2014]
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय के कार्य और अधिकार

सर्वोच्च न्यायालय भारत का सर्वोपरि न्यायालय है। अतएव उसे अत्यधिक विस्तृत अधिकार प्रदान किये गये हैं। इन अधिकारों को निम्नलिखित सन्दर्भो में समझा जा सकता है –

(1) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार
श्री दुर्गादास बसु ने कहा कि “यद्यपि हमारा संविधान एक सन्धि या समझौते के रूप में नहीं है, फिर भी संघ तथा राज्यों के बीच व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका सम्बन्धी अधिकारों का विभाजन किया गया है। अतः अनुच्छेद 131 संघ तथा राज्य या राज्यों के बीच न्याय-योग्य विवादों के निर्णय का प्रारम्भिक तथा एकमेव क्षेत्राधिकार सर्वोच्च न्यायालय को सौंपता है।’

इस क्षेत्राधिकार को पुनः दो वर्गों में रखा जा सकता है –

(अ) प्रारम्भिक एकमेव क्षेत्राधिकार – प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत वे अधिकार आते हैं जो उच्चतम न्यायालय के अतिरिक्त किसी अन्य न्यायालय को प्राप्त नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय कुछ उन विवादों पर विचार करता है जिन पर अन्य न्यायालय विचार नहीं कर सकते हैं। ये विवाद निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

  1. भारत सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्यों के बीच विवाद।
  2. वे विवाद जिनमें भारत सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्य एक ओर हों और एक या एक से अधिक राज्य दूसरी ओर हों।
  3. दो या दो से अधिक राज्यों के बीच विवाद।

इस सम्बन्ध में यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि 26 जनवरी, 1950 के पूर्व जो सन्धियाँ अथवा संविदाएँ भारत संघ और देशी राज्यों के बीच की गयी थीं और यदि वे इस समय भी लागू हों तो उन पर उत्पन्न विवाद सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाहर है।

(ब) प्रारम्भिक समवर्ती क्षेत्राधिकार – भारतीय संविधान में लिखित मूल अधिकारों को लागू करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के साथ ही उच्च न्यायालयों को भी प्रदान कर दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद 32 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को यह जिम्मेदारी दी गयी है कि वह मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए उचित कार्यवाही करे।

(2) अपीलीय क्षेत्राधिकार
भारत में एकीकृत न्यायिक-प्रणाली अपनाने के कारण राज्यों के उच्च न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के अधीन हैं और इस रूप में उसका इन उच्च न्यायालयों पर अधीक्षण और नियन्त्रण स्थापित किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय में सभी उच्च न्यायालयों और न्यायाधिकरणों द्वारा, केवल सैनिक न्यायालय को छोड़कर, संवैधानिक, दीवानी और फौजदारी मामलों में दिये गये निर्णयों के विरुद्ध अपील की जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार को अग्रलिखित वर्गों में रखा जा सकता है –

(क) संवैधानिक अपीलें – संवैधानिक मामलों से सम्बन्धित उच्च न्यायालय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील तब की जा सकती है जब कि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि इस विवाद में “संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित विधि का कोई सारवान प्रश्न सन्निहित है।’ लेकिन यदि उच्च न्यायालय ऐसा प्रमाण-पत्र देने से इन्कार कर देता है तो स्वयं सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 136 के अन्तर्गत अपील की विशेष आज्ञा दे सकता है, यदि उसे यह विश्वास हो जाए कि उसमें कानून का कोई सारवान प्रश्न सन्निहित है। निर्वाचन आयोग बनाम श्री वेंकटराव (1953) के मुकदमे में यह प्रश्न उठाया गया था कि क्या किसी संवैधानिक विषय में अनुच्छेद 132 के अधीन किसी अकेले न्यायाधीश के निर्णय की अपील भी सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है अथवा नहीं। सर्वोच्च न्यायालय ने इसका उत्तर ‘हाँ’ में दिया है।

(ख) दीवानी की अपीलें – संविधान द्वारा दीवानी मामलों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपील सुने जाने की व्यवस्था की गयी है। किसी भी राशि का मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय के पास आ सकता है, जब उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय के सुनने योग्य है या उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि मुकदमे में कोई कानूनी प्रश्न विवादग्रस्त है। यदि उच्च न्यायालय किसी दीवानी मामले में इस प्रकार का प्रमाण-पत्र न दे तो सर्वोच्च न्यायालय स्वयं भी किसी व्यक्ति को अपील करने की विशेष आज्ञा दे सकता है।

(ग) फौजदारी की अपीलें – फौजदारी के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील सुन सकता है। ये अपीलें इन दशाओं में की जा सकती हैं –

  1. जब किसी उच्च न्यायालय ने अधीन न्यायालय के दण्ड-मुक्ति के निर्णय को रद्द करके अभियुक्त को मृत्यु-दण्ड दे दिया हो।
  2. जब कोई उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि विवाद उच्चतम न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत किये जाने योग्य है।
  3. जब किसी उच्च न्यायालय के किसी मामले को अधीनस्थ न्यायालय से मँगाकर अभियुक्त को मृत्यु-दण्ड दिया हो।
  4. यदि सर्वोच्च न्यायालय किसी मुकदमे में यह अनुभव करता है कि किसी व्यक्ति के साथ वास्तव में अन्याय हुआ है, तो वह सैनिक न्यायालयों के अतिरिक्त किसी भी न्यायाधिकरण के विरुद्ध अपील करने की विशेष आज्ञा प्रदान कर सकता है।

(घ) विशिष्ट अपील – अनुच्छेद 136 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को यह भी अधिकार प्रदान किया गया है कि वह अपने विवेक से प्रभावित पक्ष को अपील का अधिकार प्रदान करे। किसी सैनिक न्यायाधिकरण के निर्णय को छोड़कर सर्वोच्च न्यायालय भारत के किसी भी उच्च न्यायालय या न्यायाधिकरण के निर्णय दण्ड या आदेश के विरुद्ध अपील की विशेष आज्ञा प्रदान कर सकता है, चाहे भले ही उच्च न्यायालय ने अपील की आज्ञा से इन्कार ही क्यों न किया हो।

अपीलीय क्षेत्राधिकार के दृष्टिकोण से भारत का सर्वोच्च न्यायालय विश्व में सबसे अधिक शक्तिशाली है। सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार को लक्ष्य करते हुए ही 1950 ई० को सर्वोच्च न्यायालय के उद्घाटन के अवसर पर भाषण देते हुए श्री एम० सी० सीतलवाड ने कहा था कि “यह कहना सत्य होगा कि स्वरूप व विस्तार की दृष्टि से इस न्यायालय का क्षेत्राधिकार और शक्तियाँ राष्ट्रमण्डल के किसी भी देश के सर्वोच्च न्यायालय तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के कार्य-क्षेत्र तथा शक्तियों से व्यापक हैं।”

(3) संविधान का रक्षक व मूल अधिकारों का प्रहरी
संविधान की व्याख्या तथा रक्षा करना भी सर्वोच्च न्यायालय का एक मुख्य कार्य है। जब कभी संविधान की व्याख्या के बारे में कोई मतभेद उत्पन्न हो जाए तो सर्वोच्च न्यायालय इस विषय में स्पष्टीकरण देकर उचित व्याख्या करता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गयी व्याख्या को अन्तिम तथा सर्वोच्च माना जाता है। केवल संविधान की व्याख्या करना ही नहीं, बल्कि इसकी रक्षा करना भी सर्वोच्च न्यायालय का कार्य है। सर्वोच्च न्यायालय को व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के कार्यों का पुनरावलोकन करने का भी अधिकार है। यदि सर्वोच्च न्यायालय को यह विश्वास हो जाए कि संसद द्वारा बनाया गया कोई कानून या कार्यपालिका को कोई आदेश संविधान का उल्लंघन करता है तो वह उस कानून व आदेश को असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकता है। इस प्रकार न्यायालय संविधान की सर्वोच्चता कायम रखता है।

संविधान की धारा 32 के अनुसार न्यायालय का यह भी उत्तरदायित्व है कि वह मूल अधिकारों की रक्षा करे। इन अधिकारों की रक्षा के लिए यह न्यायालय बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण लेख जारी करता है।

(4) परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार
सर्वोच्च न्यायालय के पास परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार भी है। अनुच्छेद 143 के अनुसार, यदि कभी राष्ट्रपति को यह प्रतीत हो कि विधि या तथ्यों के बारे में कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया। गया है या उठने वाला है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय की राय लेना जरूरी है तो वह उस प्रश्न को परामर्श के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पास भेज सकता है, किन्तु अनुच्छेद 143 ‘बाध्यकारी प्रकृति का नहीं है। यह न तो राष्ट्रपति को बाध्य करता है कि वह सार्वजनिक महत्त्व के विषय पर न्यायालय की राय माँगे और न ही सर्वोच्च न्यायालय को बाध्य करता है कि वह भेजे गये प्रश्न पर अपनी राय दे। वैसे भी यह राय ‘न्यायिक उद्घोषणा’ या ‘न्यायिक निर्णय नहीं है। इसीलिए इसे मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य नहीं है।

अब तक राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से अनेक बार परामर्श माँगा है। केरल शिक्षा विधेयक, 1947′ में, ‘राष्ट्रपति के चुनाव पर एवं 1978 ई० में विशेष अदालत विधेयक पर माँगी गयी सम्मतियाँ अधिक महत्त्वपूर्ण रही हैं।

सर्वोच्च न्यायालय का परामर्श सम्बन्धी क्षेत्राधिकार मुकदमेबाजी को रोकने या उसे कम करने में सहायक होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के सर्वोच्च न्यायालयों द्वारा सलाहकार की भूमिका अदा करना पसन्द नहीं किया गया है। इस सम्बन्ध में भारत की व्यवस्था कनाडा और बर्मा के अनुरूप है।।

(5) अन्य क्षेत्राधिकार
(अ) अधीनस्थ न्यायालयों की जाँच – सर्वोच्च न्यायालय को अपने अधीनस्थ न्यायालयों के कार्यों की जाँच करने का अधिकार प्राप्त है।
(ब) न्यायालयों की कार्यवाही संचालन हेतु नियम बनाना – सर्वोच्च न्यायालय को अपने अधीनस्थ न्यायालयों की कार्यवाही सुचारु रूप से चलाने हेतु नियम बनाने का अधिकार है, परन्तु उन नियमों पर राष्ट्रपति की स्वीकृति अनिवार्य होती है।
(स) पुनर्विचार का अधिकार – सर्वोच्च न्यायालय यदि ऐसा अनुभव करे कि वह अपने निर्णय में कोई भूल कर बैठा है या उसके निर्णय में कोई कमी रह गयी है, तो उस विवाद पर पुनर्विचार करने की प्रार्थना की जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पहले निर्णय को बदलकर अनेक बार नये निर्णय दिये हैं।

(6) अभिलेख न्यायालय
अनुच्छेद 129 सर्वोच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्थान प्रदान करता है। इसके दो अर्थ हैं –

(i) सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय और अदालती कार्यवाही को अभिलेख के रूप में रखा जाएगा जो अधीनस्थ न्यायालयों में दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत किये जाएँगे और उनकी प्रामाणिकता के बारे में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जाएगा।
(ii) इस न्यायालय द्वारा ‘न्यायालय की अवमानना’ के लिए दण्ड दिया जा सकता है। वैसे तो यह बात प्रथम स्थिति में स्वतः ही मान्य हो जाती है, लेकिन संविधान में इस न्यायालय की अवमानना करने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था विशिष्ट रूप से की गयी है।

सर्वोच्च न्यायालय के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि सर्वोच्च न्यायालय का सर्वप्रमुख कार्य संविधान की रक्षा करना ही है। इस सम्बन्ध में श्री डी० के० सेन ने लिखा है, ‘न्यायालय भारत के सभी न्यायालयों के न्यायिक निरीक्षण की शक्तियाँ रखता है और वही संविधान का वास्तविक व्याख्याता और संरक्षक है। उसका यह कर्त्तव्य होता है कि वह यह देखे कि उसके प्रावधानों को उचित रूप में माना जा रहा है और जहाँ कहीं आवश्यक होता है वहाँ वह उसके प्रावधानों को स्पष्ट करता है।”

संक्षेप में, मौलिक अधिकारों को छोड़कर भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ ‘विश्व के किसी भी सर्वोच्च न्यायालय से अधिक हैं।” इस पर भी भारत का सर्वोच्च न्यायालय अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय से अधिक शक्तिशाली नहीं है, क्योंकि इसकी शक्तियाँ ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के कारण मर्यादित हैं, इसीलिए यह संसद के तीसरे सदन की भूमिका नहीं अपना सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता

भारतीय संविधान में सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए अनेक प्रावधान किये गये हैं, जो निम्नवत् हैं –

  1. न्यायपालिका को कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका से पृथक् कर दिया गया है।
  2. न्यायाधीशों के वेतन तथा भत्ते भारत सरकार की संचित निधि से दिये जाते हैं। न्यायाधीशों के लिए पर्याप्त वेतन की व्यवस्था की गयी है। न्यायाधीशों के वेतन व भत्तों में किसी भी प्रकार की कटौती नहीं की जा सकती है।
  3. न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष की आयु तक कार्य कर सकते हैं। यद्यपि महाभियोग लगाकर न्यायाधीशों को अपने पद से हटाने का प्रावधान भारतीय संविधान में किया गया है, परन्तु वह बहुत जटिल है; इसलिए न्यायाधीशों को उनके पद से हटाना भी सरल नहीं है।
  4. न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। संसद का इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं है। इस कारण न्यायाधीश पूर्ण स्वतन्त्र रहते हैं।
  5. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के निर्णयों व कार्यों की आलोचना नहीं की जा सकती है। इस कारण भी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करते हैं।
  6. सर्वोच्च न्यायालय को अपने कर्मचारी वर्ग पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त है।
  7. सर्वोच्च न्यायालय को अपनी कार्य प्रणाली के संचालन हेतु नियम बनाने का अधिकार है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 17 Indian Judiciary: Supreme Court Public Interest Litigations and Lok Adalat

प्रश्न 3.
उच्चतम न्यायालय की न्यायिक पुनरावलोकन शक्ति के महत्त्व की विवेचना कीजिए। उदाहरण देकर समझाइए। [2009]
या
भारतीय संविधान में उच्चतम न्यायालय के न्यायिक पुरावलोकन के अधिकार का महत्त्व समझाइए। [2008, 2009]
या
संसद और न्यायपालिका की सर्वोच्चता से सम्बन्धित वाद-विवाद के सन्दर्भ में न्यायिक समीक्षा के सिद्धान्त का सावधानी से परीक्षण कीजिए। [2009]
या
संसद और न्यायालय की सर्वोच्चता से सम्बन्धित विवाद के सन्दर्भ में न्यायिक समीक्षा के सिद्धान्त का सावधानी से परीक्षण कीजिए। [2007]
या
न्यायिक पुनर्विलोकन से आप क्या समझते हैं? लोकतान्त्रिक व्यवस्था में इसकी भूमिका का मूल्यांकन कीजिए। [2015]
या
भारत में न्यायिक समीक्षा के अर्थ एवं महत्त्व का वर्णन कीजिए। [2011]
उत्तर :
न्यायिक पुनर्विलोकन (पुनरावलोकन) का अर्थ

भारत की न्यायिक पुनर्विलोकन की अवधारणा संयुक्त राज्य अमेरिका से ली गई है। संविधान सभा को अमेरिकी संविधान-निर्माताओं की अनेक मौलिक देने हैं। अमेरिका में सर्वोच्च न्यायालय को संविधान निर्माताओं द्वारा एक महत्त्वपूर्ण कार्य यह सौंपा गया है कि वह विधायिका तथा कार्यपालिका को नियन्त्रित करे। अमेरिका में संविधान सर्वोपरि है, इसलिए वे संविधान द्वारा निर्धारित सीमाओं के अन्तर्गत ही कार्य करें और सर्वोच्च न्यायालय यह जाँच करे कि वे संविधान का उल्लंघन तो नहीं कर रहे हैं। इस अधिकार के अन्तर्गत यदि किसी राज्य के विधानमण्डल द्वारा निर्मित कोई कानून संघीय संविधान अथवा संयुक्त राज्य द्वारा की गई सन्धि के प्रतिकूल हो तथा कार्यपालिका के कार्य संविधान के प्रतिकूल हों तो संघीय न्यायपालिका उसे वैधानिक घोषित कर सकती है। न्यायालय के इसी अधिकार को न्यायिक पुनर्विलोकन’ कहते हैं। कॉरविन के शब्दों में-“न्यायिक पुनर्विलोकन का अर्थ न्यायालय की उस शक्ति से है जो उन्हें अपने न्याय क्षेत्र के अन्तर्गत लागू होने वाले व्यवस्थापिका के कानूनों की वैधानिकता का निर्णय देने के सम्बन्ध में तथा कानूनों को लागू करने के सम्बन्ध में प्राप्त हैं, जिन्हें वे अवैधानिक और व्यर्थ समझे।”

न्यायिक पुनर्विलोकन का संचालन

भारत में भी उच्चतम न्यायालय को अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के समान ही न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्रदान की गई है। भारत में भी संविधान को सर्वोच्च कानून घोषित किया गया है। अतः न्यायपालिका का यह अधिकार व कर्तव्य है कि वह संसद अथवा विधानमण्डलों द्वारा निर्मित ऐसे कानूनों को अवैधानिक घोषित कर दे जो संविधान की धाराओं का अतिक्रमण करते हों। आरत का उच्चतम न्यायालय इस शक्ति का प्रयोग, कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ (Procedure established by lawy) के आधार पर करता है जबकि अमेरिका का उच्चतम न्यायालय ‘कानून की उचित प्रक्रिया (Due procedure of law) के आधार पर न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का प्रयोग करता है। भारत का उच्चतम न्यायालय यह निश्चित करने में कि कोई कानून संवैधानिक है अथवा नहीं प्राकृतिक न्याय । के सिद्धान्तों को या उचित-अनुचित की अपनी धारणाओं को लागू नहीं कर सकता है।

भारत के उच्चतम न्यायालय ने पिछले अनेक वर्षों में ऐसे दूरगामी निर्णय दिए हैं जिनमें न्यायिक पुनर्विलोकन के अधिकार का प्रयोग किया गया है; जैसे-‘गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मुकदमे में निवारक निरोध अधिनियम के 14वें खण्ड को असंवैधानिक घोषित किया गया।

न्यायिक पुनर्विलोकन की आलोचना

न्यायिक पुनर्विलोकन की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की गई है।

1. मौलिक कार्यों के सम्पादन में कमी – कुछ आलोचकों का विचार है कि न्यायिक पुनर्विलोकन अधिकार के कारण उच्चतम न्यायालय ने अपने मौलिक कार्यों की उपेक्षा करना प्रारम्भ कर दिया है। यह विवादों का निपटारा नहीं करता है वरन् इसका मुख्य कार्य सामाजिक तथा राजनीतिक नीतियों के निर्धारण में सहभागिता करना है। अब विधानमण्डल जनता की सामान्य इच्छा को विधि के रूप में स्वतन्त्रतापूर्वक अभिव्यक्त नहीं कर सकता है।

2. न्यायाधीशों का संकीर्ण दृष्टिकोण – न्यायिक पुनर्विलोकन के विषय में हम इस बात को नकार नहीं सकते कि न्यायाधीश भी स्वाभाविक रूप से परम्परावादी तथा रूढ़िगत विचारों से प्रभावित होते रहते हैं। ऐसी स्थिति में प्रायः उनके दृष्टिकोण में दूरदर्शिता का अभाव आ जाता है और उनका दृष्टिकोण संकीर्ण हो जाता है।

3. सकारात्मक राज्य के प्रतिकूल – न्यायिक पुनर्विलोकन की प्रणाली आधुनिक, सामाजिक व आर्थिक परिवेश के अनुपयुक्त है। न्यायाधीश प्रायः सम्पन्न वर्ग के होते हैं और वे निहित स्वार्थों का संरक्षण करते हैं। परिणामस्वरूप प्रगतिशील तथा लोकतन्त्रात्मक नीतियों का विरोध करते हैं, जिससे सकारात्मक राज्य का विकास नहीं हो पाता है। लॉस्की का कथन है-“न्यायाधीशों ने सदैव धन-सम्पन्न वर्ग के हितों की सुरक्षा की है। वह लॉर्ड सभा की भाँति ही सदैव धनिक वर्ग का गढ़ रहा है।”

4. असावधान तथा अनुत्तरदायी संसद – उच्चतम न्यायालय न्यायिक पुनर्विलोकन के आधार पर संसद-सदस्यों द्वारा कड़े परिश्रम के बाद पारित विधि को नष्ट कर देता है। फलतः जनता के प्रतिनिधियों के प्रयास का कोई सार्थक परिणाम नहीं निकल पाता है। अतः कानून निर्माण के सम्बन्ध में वे सावधानी नहीं बरतते तथा वे अपने उत्तरदायित्व को अनुभव नहीं करते हैं।

5. कृत्रिम और शिथिल विधायिका – न्यायिक पुनर्विलोकन के कारण देश का योजनाबद्ध विकास नहीं हो पाता है तथा राजनीतिज्ञ अपने लक्ष्य को निश्चित नहीं कर पाते हैं, परिणामस्वरूप उनके कार्यों में कृत्रिमता एवं शिथिलता आ जाती है। वे व्यापक सुधार योजना लागू नहीं कर पाते हैं और केवल साधारण परिवर्तनों से उन्हें सन्तोष करना पड़ता है।

6. संसद तथा न्यायपालिका के बीच संघर्ष से शासन व्यवस्था में गतिरोध – न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति के कारण जब संसद द्वारा निर्मित कानूनों को न्यायपालिका के द्वारा असंवैधानिक घोषित कर दिया जाता है तो संसद तथा न्यायपालिका के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और जब सरकार के दो प्रमुख अंगों के बीच ऐसी असामान्य स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो शासन ठीक प्रकार से संचालित नहीं हो सकता है।

न्यायिक पुनर्विलोकन की उपयोगिता एवं महत्त्व

न्यायिक पुनर्विलोकन की उपयोगिता तथा महत्त्व को निम्नवत् स्पष्ट किया जा सकता है।

1. यद्यपि न्यायिक पुनर्विलोकन की बहुत आलोचना हुई है तथापि इसकी उपयोगिता को भी कम नहीं आँका जाना चाहिए। इसी कारण आज तक इस विषय में उच्चतम न्यायालय के अधिकार सीमित नहीं किए गए हैं। उच्चतम न्यायालय ने न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का प्रयोग करते हुए व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा निजी सम्पत्ति के अधिकारों की भी सुरक्षा की है। प्रो० के० सी० ह्रीयर के अनुसार, “संविधान को समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप ढालना उच्चतम न्यायालय की ही कार्य है।”

2. उच्चतम न्यायालय ने सदैव संविधान को अपनी व्याख्याओं के द्वारा प्रगतिशील बनाया है।

3. उच्चतम न्यायालय ने संघीय तथा राज्यों की सरकारों के वैधानिक विवादों का निर्णय करके उनको अपने क्षेत्राधिकार में रखा है। फाइनर के अनुसार, “यह एक सीमेण्ट है जिसने सम्पूर्ण संघीय ढाँचे को स्थिरता प्रदान की है।”

4. उच्चतम न्यायालय ने विधायिका तथा कार्यपालिका को एक-दूसरे के क्षेत्र में अनुचित हस्तक्षेप से रोका है। यह कार्य न्यायिक पुनर्विलोकन के माध्यम से ही सम्भव हो सका। संघीय व्यवस्था में उच्चतम न्यायालय का यह कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

5. यदि उच्चतम न्यायालय पुनर्निरीक्षण का कार्य न करता, तो संविधान कभी भी सर्वोच्च कानून नहीं रह सकता था और संसद तथा राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा हजारों कानून इसके विरुद्ध बन जाते और संविधान महत्त्वहीन प्रलेख मात्र रह जाता। इसीलिए अपनी स्वस्थ एवं सुन्दर व्याख्याओं द्वारा उच्चतम न्यायालय ने संविधान की सुरक्षा की है, उसे गतिशील बनाया है और संघीय सरकार तथा राज्यों की सरकारों को मनमानी करने से रोका है।

समीक्षा वर्तमान समय में न्यायिक पुनर्विलोकन की स्थिति में पर्याप्त परिवर्तन आ गया है। प्रारम्भ में न्यायाधीशों की प्रवृत्ति प्रतिक्रियावादी थी, परन्तु अब उनकी प्रवृत्ति में परिवर्तन हुआ है। और वे संसद के व्यवस्थापन क्षेत्र में कम-से-कम हस्तक्षेप करते हैं। उच्चतम न्यायालय अपनी व्याख्याओं के आधार पर संविधान को निरन्तर गति प्रदान करता रहा है।

प्रश्न 4.
जनहित याचिकाएँ (जनहित अभियोग) के अर्थ एवं महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2009]
या
‘जनहित याचिका’ से आप क्या समझते हैं? भारतीय न्याय-व्यवस्था में इनकी भूमिका का मूल्यांकन कीजिए। [2013, 14, 15]
उत्तर :
जनहित याचिकाएँ (जनहित अभियोग) का अर्थ

न्याय के प्रसंग में परम्परागत धारणा यह रही है कि न्यायालय से न्याय पाने का हक उसी व्यक्ति को है जिसके मूल अधिकारों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, जिसे स्वयं या जिसके पारिवारिक जन को कोई पीड़ा पहुँची है, किन्तु आज की परिस्थितियों में न्यायिक सक्रियतावाद के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय ने आंग्ल विधि के उपर्युक्त नियम को परिवर्तित करते हुए यह व्यवस्था की है।

कि कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे समूह या वर्ग की ओर से मुकदमा लड़ सकता है, जिसको उसके कानून या संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया हो। सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि गरीब, अपंग अथवा सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से दलित लोगों के मामले में आम जनता का कोई आदमी न्यायालय के समक्ष ‘वाद’ ( मुकदमा ) ला सकता है। न्यायालय अपने सारे तकनीकी और कार्य-विधि सम्बन्धी नियमों की परवाह किये बिना ‘वाद’ लिखित रूप में देने मात्र से ही कार्यवाही करेगा। न्यायाधीश कृष्णा अय्यर के अनुसार, वाद कारण’ और ‘पीड़ित व्यक्ति की संकुचित धारणा का स्थान अब ‘वर्ग कार्यवाही’ और ‘लोकहित में कार्यवाही की व्यापक धारणा ने ले लिया है। ऐसे मामले व्यक्तिगत मामलों से भिन्न होते हैं। वैयक्तिक मामलों में ‘वादी’ और ‘प्रतिवादी’ होते हैं, जब कि जनहित संरक्षण से सम्बन्धित मामले किसी एक व्यक्ति के बजाय ऐसे समूह के हितों की रक्षा पर बल देते हैं जो कि शोषण और अत्याचार का शिकार होता है और जिसे संवैधानिक और मानवीय अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है।

इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने गरीब और असहाय लोगों की ओर से जनहित में कार्य करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को मुकदमा लड़ने का अधिकार दे दिया है। इस प्रकार के मुकदमे के लिए जो प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया जाता है, वह जनहित याचिका’ है तथा इस प्रकार का मुकदमा जनहित अभियोग है।

जनहित याचिकाओं का महत्त्व

जनहित याचिकाओं का महत्त्व निम्नलिखित रूप में बताया जा सकता है –

1. समाज के निर्धन व्यक्तियों और कमजोर वर्गों को न्याय प्राप्त होना – भारत में करोड़ों ऐसे व्यक्ति हैं जो राजव्यवस्था और समाज के धनी-मानी व्यक्तियों के अत्याचार भुगत रहे हैं, जिनका शोषण हो रहा है, लेकिन उनके पास न्यायालय में जाने के लिए आवश्यक जानकारी, समझ और साधन नहीं हैं। जनहित याचिकाओं के माध्यम से अब समाज के शिक्षित और साधन सम्पन्न व्यक्ति इन कमजोर वर्गों की ओर से न्यायालय में जाकर इनके लिए न्याय प्राप्त कर सकते हैं। जनहित याचिकाओं की विशेष बात यह है कि ‘वाद’ प्रस्तुत करने के लिए कानूनी औपचारिकताओं को पूरा करना आवश्यक नहीं होता और इन मुकदमों में न्यायालय पीड़ित पक्ष के लिए आवश्यकतानुसार नि:शुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था भी करता है।

2. कानूनी न्याय के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक न्याय पर बल – जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के अन्तर्गत संविधान की भावना को दृष्टि में रखते हुए इस विचार को अपनाया गया कि देश के दीन और दलित जनों के प्रति न्यायालयों का विशेष दायित्व है। अतः इन न्यायालयों को कानूनी न्याय से आगे बढ़कर आर्थिक-सामाजिक न्याय प्रदान करने का प्रयत्न करना चाहिए। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश के हरिजनों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं उनकी आर्थिक-सामाजिक दशाओं को जाँचने के लिए एक आयोग गठित किया। आयोग की जाँच रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हरिजनों का धन्धा ठेके पर दिये जाने से उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में इस बात का प्रतिपादन किया कि यदि निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी दी जाती है तो वे इसे संविधान के अनुच्छेद 23 का उल्लंघन और बेगार मानेंगे। इस प्रकार ‘बन्धुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत सरकार’ विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘बन्धुआ मुक्ति मोर्चा’ संस्था के पत्र को रिट मानकर आयोग नियुक्त कर जाँच करवाई और जाँच में जब पाया कि ‘मजदूर अमानवीय दशा में कार्यरत हैं तब न्यायालय ने इन मजदूरों की मुक्ति के आदेश दिये।

3. शासन की स्वेच्छाचारिता पर नियन्त्रण – जनहित याचिकाओं का एक रूप और प्रयोजन शासन की स्वेच्छाचारिता पर नियन्त्रण है। संविधान और कानून के अन्तर्गत उच्च कार्यपालिका अधिकारियों को कुछ- ‘स्वविवेकीय शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। इस पृष्ठभूमि में जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात का प्रतिपादन किया कि विवेकात्मक शक्तियों के अन्तर्गत सरकार की कार्यवाही विवेक सम्मत होनी चाहिए तथा इस कार्यवाही को सम्पन्न करने के लिए जो कार्यविधि अपनायी जाए, वह कार्यविधि भी विवेक सम्मत, उत्तम और न्यायपूर्ण होनी चाहिए।

4. शासन को आवश्यक निर्देश देना – 1993-2003 के वर्षों में तो सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के आधार पर समस्त राजनीतिक व्यवस्था में पहले से बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका प्राप्त कर ली। इन न्यायालयों ने जब यह देखा कि जाँच एजेन्सियाँ उच्च पदस्थ अधिकारियों के विरुद्ध जाँच कार्य में ढिलाई बरत रही हैं तब न्यायालयों ने विभिन्न जाँच एजेन्सियों को अपना कार्य ठीक ढंग से करने के लिए निर्देश दिये और इस बात का प्रतिपादन किया कि व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा हो, कानून उससे ऊपर है तथा सरकारी एजेन्सी को अपना कार्य निष्पक्षता के साथ करना चाहिए। पिछले 20 वर्षों में जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के आधार पर न्यायालयों ने बन्धुआ मजदूरी और बाल श्रम की स्थितियाँ समाप्त करने, कानून और व्यवस्था बनाये रखते हुए निर्दोष नागरिकों के जीवन की रक्षा करने, प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी संविधान के प्रावधान को अनिवार्य रूप से लागू करने, बस दुर्घटनाओं को रोकने की दृष्टि से व्यवस्था करने, सफाई की व्यवस्था कर महामारियों की रोकथाम करने, सरसों के तेल और अन्य खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकने के लिए आवश्यक व्यवस्था करने और पर्यावरण की रक्षा आदि के प्रसंग में समय-समय पर अनेक आदेश-निर्देश जारी किये हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) [4 अंक]

प्रश्न 1.
लोक अदालत से आप क्या समझते हैं? भारतीय न्याय व्यवस्था में इसकी भूमिका एवं महत्त्व की चर्चा कीजिए। [2014]
उत्तर :
लोक अदालत

भारत जैसे देश में जहाँ 125 करोड़ की आबादी निवास करती है वहीं न्यायालयों के समक्ष वादों की संख्या भी अत्यधिक है। एक अध्ययन के अनुसार केवल इलाहाबाद उच्च न्यायालय में तीन लाख वादं लम्बित हैं और देर से न्याय मिलना न्याय न मिलने के समान होता है, अनेक ऐसे वाद हैं, जिनमें वादी एवं प्रतिवादी दोनों का देहान्त हो चुका होता है। इस समस्या का समाधान करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पीएन भगवती ने लोक अदालतों की व्यवस्था आरम्भ की तथा भारत में प्रथम लोक अदालत 1982 ई० में गुजरात में आयोजित की गई।

उत्तर प्रदेश में पहली लोक अदालत का आयोजन 1984 ई० में हुआ। भारत में अधिकांश आबादी इस स्तर पर है कि वे अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति भी मुश्किल से कर पाते हैं। अतः यह आबादी इन लम्बे मुकदमों को लड़ने में असमर्थ है। अतः इस सामान्य जनता के समय एवं धन की बचत के साथ-साथ न्यायालयों के कार्यभार को कम करने के उद्देश्य से भी लोक अदालत की अवधारणा अमल में लाई गई।

न्याय व्यवस्था में लोक अदालतों की प्रमुख भूमिका एवं महत्त्व

लोक अदालतों की प्रमुख भूमिका एवं महत्त्व निम्नलिखित हैं –

  1. लोक अदालत में वादी और प्रतिवादी अपना वकील नहीं रख सकते हैं तथा आपस में समझौता करते हैं, जिससे दोनों पक्षों के सरकारी धन की बचत होती है।
  2. लोक अदालतों में मुकदमों का निपटारा आपसी सहमति के आधार पर होता है, जिससे आपसी सद्भाव एवं समरसता भी दोनों पक्षों में बनी रहती है।
  3. लोक अदालत में दोनों पक्षों को सलाह एवं परामर्श देने के लिए राज़पत्रित अधिकारी, सेवानिवृत्त न्यायाधीश तथा समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति होते हैं, जिससे न केवल निर्णय की निष्पक्षता बनी रहती है, वरन् मुकदमों को सामाजिक व्यापकता भी प्रदान होती है।
  4. लोक अदालतों में सामाजिक एवं पारिवारिक विवाद, किराया, बेदखली बीमा, ब्याज आदि विभिन्न छोटे-छोटे मुकदमों को समझा-बुझाकर समझौता करा दिया जाता है तथा एक दिन में ही अनेकों मामले हल हो जाते हैं, जिससे समय की बचत होती है एवं त्वरित न्याय प्राप्ति की व्यवस्था होती है।
  5. लोक अदालतों ने न केवल सामाजिक समस्याओं का हल निकाला है, वरन् अदालतों पर बढ़ते मुकदमों के बोझ को भी कम करने में सहायता की है।
    नि:सन्देह लोक अदालतों ने सराहनीय कार्य किये हैं। विगत 33 वर्षों में इन अदालतों ने लाखों मुकदमों को शीघ्र एवं सस्ता न्याय दिलाकर निपटारा किया है।

प्रश्न 2.
सर्वोच्च न्यायालय का परामर्शदायी क्षेत्राधिकार क्या है? उसका एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर :
संविधान के अनुच्छेद 143 में प्रावधान है कि राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय से दो प्रकार के मामलों में अपनी राय अभिव्यक्त करने की अपेक्षा की जाती है। यह सलाहकारी हैसियत में होगा, न्यायिक हैसियत में नहीं।

(क) पहले वर्ग में यदि राष्ट्रपति को प्रतीत होता है कि कोई विधि का प्रश्न ऐसी प्रकृति का है। और ऐसे सार्वजनिक महत्त्व का है कि जिस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना समीचीन है तो वह उस विधिक प्रश्न को उच्चतम न्यायालय को राय देने के लिए निर्दिष्ट कर सकेगा।

उच्चतम न्यायालय द्वारा ऐसे निर्देश में दी गयी राय सरकार पर आबद्धकर नहीं है, अर्थात् उसको मानने को सरकार बाध्य नहीं है। यह राय केवल सलाहकारी है। ऐसा प्रायः तभी होता है। जब सरकार कोई कार्यवाही करने से पहले प्राधिकृत विधिक राय पाने को आतुर हो। 1995 ई० तक राष्ट्रपति द्वारा इस वर्ग के 9 निर्देश किये गये हैं। अन्तिम बार 1991 ई० में ‘कावेरी जल विवाद के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श प्राप्त किया गया था।

उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार है कि यदि अनुच्छेद 143 के अधीन उससे पूछा गया प्रश्न व्यर्थ या अनावश्यक है तो वह उसका उत्तर देने से मना कर दे। राष्ट्रपति ने जनवरी, 1993 ई० में सर्वोच्च न्यायालय से इस विषय पर परामर्श माँगा था कि विवादास्पद बाबरी मस्जिद से पूर्व वहाँ कोई मन्दिर था या नहीं। सर्वोच्च न्यायालय ने 24 अक्टूबर, 1994 को अपने सर्वसम्मत ऐतिहासिक निर्णय में राष्ट्रपति को इस सम्बन्ध में राय देने से मना कर दिया था।

(ख) दूसरे वर्ग के मामले में संविधान के प्रारम्भ से पहले की गयी सन्धियों और करारों से उपजे विवाद आते हैं। राष्ट्रपति ऐसे विवादों की विषय-वस्तु को उच्चतम न्यायालय को परामर्शदायी हैसियत से राय देने के लिए भेज सकता है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 17 Indian Judiciary: Supreme Court Public Interest Litigations and Lok Adalat

प्रश्न 3.
‘न्यायिक पुनरावलोकन’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2013]
या
न्यायिक समीक्षा के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2007]
या
न्यायिक पुनरावलोकन का क्या अर्थ है? इसका प्रयोग किसके द्वारा किया जाता है? [2007, 10]
या
न्यायिक पुनरावलोकन को परिभाषित कीजिए। [2014, 15]
उत्तर :
भारत की न्यायिक पुनरावलोकन की अवधारणा संयुक्त राज्य अमेरिका से गृहीत है। संविधानवाद को अमेरिकी संविधान निर्माताओं की कई मौलिक देन हैं। अमेरिका में सर्वोच्च न्यायालय को संविधान द्वारा एक महत्त्वपूर्ण कार्य यह सौंपा गया है कि वह विधायिका तथा कार्यपालिका को नियन्त्रित करे। चूँकि अमेरिका में संविधान सर्वोपरि है, इसलिए वे संविधान द्वारा निर्धारित सीमाओं के अन्तर्गत ही कार्य करें और सर्वोच्च न्यायालय यह देखे कि वे संविधान का उल्लंघन तो नहीं कर रहे हैं। इस अधिकार के अन्तर्गत यदि किसी राज्य के विधानमण्डल द्वारा निर्मित कोई कानून संघीय संविधान अथवा संयुक्त राज्य द्वारा की गयी सन्धि के प्रतिकूल हो तथा कार्यपालिका के कार्य संविधान के प्रतिकूल हों तो संघीय न्यायपालिका उसे अवैध घोषित कर सकती है। न्यायालय के इसी अधिकार को न्यायिक पुनरावलोकन’ कहते हैं। कारविन के शब्दों में, “न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ न्यायालय की उस शक्ति से है जो उन्हें अपने न्याय क्षेत्र के अन्तर्गत लागू होने वाले व्यवस्थापिका के कानूनों की वैधानिकता का निर्णय देने के सम्बन्ध में तथा कानूनों को लागू करने के सम्बन्ध में प्राप्त है, जिन्हें वे अवैध व व्यर्थ समझे।’

प्रश्न 4.
न्यायिक अभिलेख (रिट) क्या है? संक्षेप में बताइए। [2016]
या
अधिकार पृच्छा का लेख से आप क्या समझते हैं? [2016]
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय संविधान की धारा-32 के तहत मूल अधिकारों की रक्षा करने के लिए जो आदेश जारी करता है, उसे न्यायिक अभिलेख (रिट) कहते हैं। रिट पाँच प्रकार की होती है जोकि निम्नलिखित हैं

1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण – कार्यपालिका व निजी व्यक्ति दोनों के विरुद्ध उपलब्ध अधिकार जोकि अवैध निरोध के विरुद्ध व्यक्ति को सशरीर अपने सामने प्रस्तुत किए जाने का आदेश जारी करता है। न्यायालय दोनों पक्षों को सुनकर यह निर्णय लेता है कि निरोध उचित है अथवा अनुचित है।

2. परमादेश – इसका शाब्दिक अर्थ है, ‘हम आदेश देते है। यह उस समय जारी किया जाता है जब कोई पदाधिकारी अपने सार्वजनिक कर्तव्य का पालन नहीं करता। इस रिट के माध्यम से उसे अपने कर्तव्य का पालन करने का आदेश दिया जाता है।

3. उत्प्रेषण – इसका शाब्दिक अर्थ है और अधिक जानकारी प्राप्त करना। यह आदेश कानूनी क्षेत्राधिकार से सम्बन्धित त्रुटियों अथवा अधीनस्थ न्यायालय से कुछ सूचना प्राप्त करने के लिए जारी किया जाता है।

4. अधिकार पृच्छा – जब कोई व्यक्ति ऐसे पदाधिकारी के रूप में कार्य करने लगता है जिसका कि वह वैधानिक रूप से अधिकारी नहीं है तो न्यायालय इस रिट द्वारा पूछता है कि वह किस आधार पर इस पद पर कार्य कर रहा है। इस प्रश्न का समुचित उत्तर देने तक वह कार्य नहीं कर सकता है।

5. प्रतिषेध – यह तब जारी किया जाता है जब कोई न्यायिक अधिकरण अथवा अर्धन्यायिक प्राधिकरण अपने क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण करता है। इसमें प्राधिकरण न्यायालय को – कार्यवाही तत्काल रोकने का आदेश दिया जाता है।

प्रश्न 5.
भारतीय न्याय व्यवस्था में लोक अदालत पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2014]
या
लोक अदालतों के दो गुणों का उल्लेख कीजिए। [2009]
या
भारतीय न्याय प्रणाली में लोक अदालतों की प्रासंगिकता के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2015]
उत्तर :
लोक अदालतें

भारत की वर्तमान न्याय व्यवस्था ऐसी है कि न्याय प्राप्त करने में बहुत अधिक समय और धन व्यय होता है। वर्तमान समय में न्यायालयों में लाखों की संख्या में मुकदमे विचाराधीन हैं। इस समस्या का समाधान करने और न्याय को सरल तथा सुविधाजनक बनाने के उद्देश्य से लोक अदालतों की व्यवस्था की गई है। ये अदालतें देश के विभिन्न भागों में शिविर में रूप में लगाई जा रही हैं, जहाँ पर न्यायाधीश छोटे-मोटे मुकदमों की सुनवाई करके तत्काल निर्णय दे देते हैं। इन अदालतों की प्रमुख विशेषताएँ (गुण) निम्नलिखित हैं –

  1. इन अदालतों में सेवानिवृत्त न्यायाधीश, राजपत्रित अधिकारी तथा समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति परामर्शदाता के रूप में बैठते हैं।
  2. इन अदालतों में वादी तथा प्रतिवादी अपना वकील नहीं करते हैं, बल्कि न्यायाधीश के समक्ष दोनों पक्ष स्वयं अपना पक्ष एवं बचाव पक्ष प्रस्तुत करते हैं।
  3. इन अदालतों में मुकदमों का निपटारा पारस्परिक समझौते के आधार पर किया जाता है।
  4. इन अदालतों में वैवाहिक, पारिवारिक व सामाजिक झगड़े, किराया, बेदखली, वाहनों का चालान तथा बीमा आदि के मामले आते हैं।
  5. ये अदालतें समझौता कराती हैं, जुर्माना कर सकती हैं अथवा चेतावनी दे सकती हैं। इन अदालतों को कारावास सम्बन्धी दण्ड देने का अधिकार नहीं है।
  6. इन अदालतों को अभी कानूनी मान्यता नहीं मिल पायी है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए व्यक्ति में किन अर्हताओं का होना आवश्यक है?
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए व्यक्ति में निम्नलिखित अर्हताओं का होना आवश्यक है।

1. वह भारत का नागरिक हो।
2. वह किसी उच्च न्यायालय अथवा दो या दो से अधिक न्यायालयों में लगातार कम-से-कम 5 वर्ष तक न्यायाधीश के रूप में कार्य कर चुका है।
या वह किसी उच्च न्यायालय या न्यायालयों में लगातार 10 वर्ष तक अधिवक्ता रह चुका है।
या राष्ट्रपति की दृष्टि में कानून का उच्च कोटि का ज्ञाता है।

प्रश्न 2.
उच्चतम न्यायालय के चार प्रमुख कार्य बताइए। [2008]
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय के चार प्रमुख कार्य निम्नवत् हैं –

  1. मूल क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत निम्नलिखित विवादों पर उच्चतम न्यायालय फैसला देता है।
    • (क) केन्द्र व राज्यों के बीच झगड़े
    • (ख) राज्यों के आपसी झगड़े
    • (ग) अन्तर्राज्यीय जल स्रोतों के झगड़े।
  2. उच्चतम न्यायालय निचली अदालतों के फैसलों का पुनरावलोकन करता है।
  3. सलाहकार क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय सार्वजनिक महत्त्व के मामले में राष्ट्रपति के माँगने पर उन्हें कानूनी सलाह उपलब्ध कराता है।
  4. यह न्यायालय संविधान की व्याख्या करता है तथा उसके मूल स्वरूप को बनाए रखने में निरीक्षक की भूमिका अदा करता है।

प्रश्न 3.
“सर्वोच्च न्यायालय संविधान का रक्षक ही नहीं बल्कि उसे न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति भी प्राप्त है।” इस कथन की पुष्टि कीजिए। [2007]
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय संविधान की पवित्रता की रक्षा भी करता है। यदि संसद संविधान को अतिक्रमण करके कोई कानून बनाती हैं तो उच्चतम न्यायालय उस कानून को अवैध घोषित कर सकता है। संक्षेप में, सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार है कि वह संघ सरकार अथवा राज्य सरकार के उन कानूनों को अवैध घोषित कर सकता है, जो संविधान के विपरीत हो। इसी प्रकार वह संघ सरकार अथवा राज्य सरकार के संविधान का अतिक्रमण करने वाले आदेशों को भी अवैध घोषित कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय संविधान की व्याख्या करने वाला (Interpreter) अन्तिम न्यायालय है। संक्षेप में, कहा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) का अधिकार है, क्योंकि इसे कानूनों की  वैधानिकता के परीक्षण की शक्ति प्राप्त है। इस शक्ति के आधार पर न्यायपालिका ने सम्पत्ति के अधिकार का अतिक्रमण करने वाले अनेक कानूनों को गोलकनाथ केस, सज्जनसिंह केस तथा केशवानन्द भारती केस में अवैध घोषित किया है।

प्रश्न 4.
भारत में उच्चतम न्यायालय की स्वतन्त्रता के कोई दो निर्णायक कारक बताइए। [2012]
उत्तर :
भारत में उच्चतम न्यायालय की स्वतन्त्रता के दो निर्णायक कारक निम्नवत् हैं –

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति – संविधान के द्वारा सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति को सौंपा गया है जो मुख्य न्यायाधीश तथा न्यायाधीशों से परामर्श प्राप्त करते हुए न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति के प्रसंग में सर्वोच्च न्यायालय ने अक्टूबर 1998 के निर्णय के आधार पर व्यवस्था कर दी है कि अब इस प्रसंग में सरकार या भारत के मुख्य न्यायाधीश किसी के भी द्वारा मनमाना आचरण नहीं किया जा सकता। न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में इसे निश्चित रूप से श्रेष्ठ स्थिति कहा जा सकता है।

2. दीर्घ कार्यकाल और पद की सुरक्षा – भारत में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर आसीन रहते हैं। उन्हें साधारणतया पदच्युत नहीं किया जा सकता। है। राष्ट्रपति किसी न्यायाधीश को केवल सिद्ध कदाचार या अक्षमता के आधार पर हटा सकता है, लेकिन वह ऐसा तभी कर सकता है जब इस हेतु संसद के प्रत्येक सदन की सदस्य संख्या के बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा समर्थित प्रस्ताव उसके समक्ष रखा जाए। पदच्युति की इस पद्धति को व्यवहार में अपनाया जाना बहुत कठिन होता है।

प्रश्न 5.
अभिलेख न्यायालय से क्या तात्पर्य है? [2013]
उत्तर :
अभिलेख न्यायालय अनुच्छेद 129 सर्वोच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्थान प्रदान करता है। अभिलेख न्यायालय के दो आशय हैं–प्रथम, इस न्यायालय के निर्णय सब जगह साक्षी के रूप में स्वीकार किये जायेंगे और इन्हें किसी भी न्यायालय में प्रस्तुत किये जाने पर उनकी प्रामाणिकता के विषय में प्रश्न नहीं उठाया जायेगा। द्वितीय, इस न्यायालय के द्वारा न्यायालय अवमान’ (Contempt of Court) के लिए किसी भी प्रकार का दण्ड दिया जा सकता है।

प्रश्न 6
जनहित याचिकाओं के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2016]
उत्तर :
जनहित याचिकाओं के पक्ष में दो तर्क निम्नलिखित हैं –

  1.  सरल, सस्ता, शीघ्र न्याय – जनहित याचिका द्वारा सामान्य जनता को सरल, कम व्यय में तथा जल्दी न्याय की प्राप्ति हो जाती है। अधिकांश जनहित याचिकाओं में यह देखने को मिलता है कि इसमें पीड़ित पक्ष को पर्याप्त राहत मिलती है, चूंकि जनहित याचिका को न्यायिक प्रक्रिया के जटिल विनियमों से गुजरना नहीं पड़ता है, इसमें यदि न्यायालय याचिका को निर्णय के लिए स्वीकार कर लेता है, तो उस पर कार्यवाही तुरन्त हो जाती है।
  2. शासन की स्वेच्छाचारिता पर रोक – न्यायालय ने विभिन्न मुद्दों पर निर्णय देकर कार्यपालिका के ढुलमुल रवैये तथा निरंकुशता पर रोक लगाई है तो उन्हें अपने कर्तव्यों का उचित पालन करने का मार्ग दिखाया है।

प्रश्न 7.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के कार्यकाल एवं उन पर महाभियोग के बारे में बताइए।
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर कार्यरत रह सकते हैं। 65 वर्ष की आयु की समाप्ति पर उन्हें सेवानिवृत्त कर दिया जाता है। यदि कोई न्यायाधीश चाहे तो इससे पूर्व भी राष्ट्रपति को त्याग-पत्र देकर अपने पद-भार से मुक्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को प्रमाणित दुर्व्यवहार की स्थिति में संसद द्वारा महाभियोग की प्रक्रिया के माध्यम से राष्ट्रपति के द्वारा अपदस्थ किया जा सकता है।

प्रश्न 8
सर्वोच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय क्यों कहते हैं? [2013]
उत्तर :
अनुच्छेद 129 सर्वोच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्थान प्रदान करता है। इसके दो अर्थ हैं –

  1. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय और अदालती कार्यवाही को अभिलेख के रूप में रखा जायेगा जो अधीनस्थ न्यायालयों में दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत किये जायेंगे और उनकी प्रामाणिकता के बारे में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जायेगा।
  2. इस न्यायालय द्वारा ‘न्यायालय की अवमानना’ के लिए दण्ड दिया जा सकता है। वैसे तो यह बात प्रथम स्थिति में स्वत: ही मान्य हो जाती है, लेकिन संविधान में इस न्यायालय की अवमानना करने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था विशिष्ट रूप से की गयी है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न [1 अंक]

प्रश्न 1.
सर्वोच्च न्यायालय में कितने न्यायाधीश होते हैं ?
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीस अन्य न्यायाधीशों को मिलाकर कुल 31 न्यायाधीश होते हैं।

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प्रश्न 2
सर्वोच्च न्यायालय के कोई दो कार्य अथवा अधिकार बताइए। [2010]
उत्तर :

  1. मौलिक अधिकारों की रक्षा करना तथा
  2. संविधान की व्याख्या एवं रक्षा करना।

प्रश्न 3.
सर्वोच्च न्यायालय के दो प्रमुख क्षेत्राधिकारों के वाद लिखिए। [2013, 14]
उत्तर :

  1. उच्चतम न्यायालय किसी भी अधीनस्थ न्यायालय के रिकॉर्ड को अपने यहाँ मँगो सकता है तथा फैसला दे सकता है।
  2. सरकार के ऐसे कार्यों को जो संविधान की मूल भावना के अनुकूल न हों उनका स्वयं संज्ञान लेते हुए संवैधानिक घोषित कर उनको शून्य करार दे सकता है।

प्रश्न 4.
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कौन करता है? [2008, 12, 14, 16]
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति वरिष्ठता क्रम के आधार पर करता है।

प्रश्न 5.
उच्चतम न्यायालय के किसी एक आरम्भिक अधिकार का उल्लेख कीजिए। [2010]
उत्तर :
भारत सरकार और एक या अधिक राज्यों के बीच का विवाद उच्चतम न्यायालय के आरम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आता है।

प्रश्न 6.
जनहित याचिकाएँ किन न्यायालयों में दायर की जा सकती हैं? [2009]
उत्तर :
जनहित याचिकाओं को उच्चतम न्यायालय या जिस प्रान्त से सम्बन्धित याचिका है उस प्रान्त के उच्च न्यायालय में दाखिल किया जा सकता है।

प्रश्न 7
सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग का प्रस्ताव प्रस्तुत करने के लिए संविधान में क्या आधार बताये गये हैं?
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग का प्रस्ताव प्रस्तुत करने के लिए संविधान में कदाचार (प्रमाणित दुर्व्यवहार) अथवा असमर्थता (अक्षमता) को आधार बनाया गया है।

प्रश्न 8
सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए किसी उच्च न्यायालय में कम-से कम कितनी अवधि के लिए न्यायाधीश के रूप में कार्य करना आवश्यक है?
उत्तर :
कम-से-कम पाँच वर्ष के लिए।

प्रश्न 9.
सर्वोच्च न्यायालय के मौलिक अधिकार क्षेत्र का क्या अर्थ है?
उत्तर :
संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों को लागू करने के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार प्रदान किया गया है। अतः मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से सम्बन्धित जो विवाद हैं, वे सीधे सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत किये जा सकते हैं।

प्रश्न 10
भारतीय संविधान का संरक्षक कौन है? [2013, 16]
उत्तर :
भारतीय संविधान का संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय है।

प्रश्न 11.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति कौन करता है? [2013]
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से करता है।

प्रश्न 12.
राज्य का सबसे बड़ा न्यायालय कौन-सा है?
उत्तर :
राज्य का सबसे बड़ा न्यायालय उच्च न्यायालय है।

प्रश्न 13.
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति कौन करता है? [2016]
उत्तर :
भारत का राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श पर राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है।

प्रश्न 14.
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश का कार्यकाल कितना होता है? या उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की निर्धारित आयु क्या है? (2012)
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश का कार्यकाल 65 वर्ष की आयु तक होता है।

प्रश्न 15.
भारत के उच्चतम न्यायालय को संविधान का संरक्षक एवं नागरिकों के मूल अधिकारों का संरक्षक क्यों कहा गया है? (2008, 10, 12, 14, 15)
उत्तर :
संविधान के खिलाफ किए गए विधायिका के कार्यों का उच्चतम न्यायालय शून्य घोषित कर सकता है। तथा नागरिकों के मूल अधिकारों को बहाल करा सकने के कारण उसे संविधान व मूल अधिकारों का संरक्षक कहा गया है।

प्रश्न 16.
लोक अदालत किसे कहते हैं?
उत्तर :
लोक अदालत में परम्परागते कानूनी प्रक्रिया को नहीं अपनाया जाता है तथा इसमें वकीलों की भी कोई भूमिका नहीं होती है। समझौते द्वारा समस्या को हल कर न्याय को सुलभ कराया जाता है।

प्रश्न 17.
जनहित मुकदमे से क्या आशय है?
उत्तर :
पददलित सामान्यजनों के हितार्थ जो मुकदमे चलाए जाते हैं, उन्हें जनहित मुकदमे कहा जाता है।

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प्रश्न 18.
लोक अदालत के दो महत्त्वपूर्ण गुणों का उल्लेख कीजिए।
या
लोक अदालत के दो कार्य लिखिए।
उत्तर :

  1. शीघ्र न्याय तथा
  2. कानूनी जटिलताओं से छुटकारा।

प्रश्न 19.
सर्वोच्च न्यायालय के महत्त्व के पक्ष में दो तर्क दीजिए।
उत्तर :

  1. संविधान को संरक्षक तथा
  2. मूल अधिकारों का अभिरक्षक।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कौन करता है? [2008, 12, 14]
(क) संसद
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) राष्ट्रपति
(घ) मन्त्रिपरिषद्

प्रश्न 2.
भारत का सर्वोच्च न्यायालय कहाँ स्थित है? [2009]
(क) इलाहाबाद में
(ख) नयी दिल्ली में
(ग) मुम्बई में
(घ) चेन्नई में

प्रश्न 3.
सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश अपने पद पर कार्यरत रहता है – [2008, 10, 11, 12]
या
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की अवकाश प्राप्त करने की आयु है [2008, 09, 11, 12, 16]
(क) 58 वर्ष की आयु तक
(ख) 60 वर्ष की आयु तक
(ग) 65 वर्ष की आयु तक
(घ) 62 वर्ष की आयु तक

प्रश्न 4.
भारत में संविधान का संरक्षक कौन है? [2013, 15, 16]
(क) राष्ट्रपति
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) सर्वोच्च न्यायालय
(घ) संसद

प्रश्न 5.
उच्चतम न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त कुल कितने न्यायाधीश होते हैं? [2009]
(क) 23
(ख) 24
(ग) 30
(घ) 26

प्रश्न 6.
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति किसकी सलाह पर की जाती है?
(क) केन्द्रीय विधि मन्त्री
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) महान्यायवादी।
(घ) भारत के मुख्य न्यायाधीश

प्रश्न 7.
संविधान के अनुसार उच्चतम न्यायालय की कार्यवाहियों की अधिकृत भाषा है- [2012]
(क) केवल अंग्रेजी
(ख) अंग्रेजी तथा हिन्दी
(ग) अंग्रेजी तथा कोई भी क्षेत्रीय भाषा
(घ) अंग्रेजी तथा आठवीं सूची में निर्दिष्ट भाषा

प्रश्न 8.
भारत में न्यायिक पुनरावलोकन का सिद्धान्त लिया गया है [2013, 15]
(क) फ्रांस के संविधान से
(ख) जर्मनी के संविधान से
(ग) संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से
(घ) कनाडा के संविधान से

प्रश्न 9.
संविधान के किस अनुच्छेद के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है?
(क) अनुच्छेद 29
(ख) अनुच्छेद 31
(ग) अनुच्छेद 33
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 10.
उच्च न्यायालय से परामर्श माँगने का अधिकार किसको है?
(क) प्रधानमन्त्री को
(ख) लोकसभा अध्यक्ष को
(ग) राष्ट्रपति को
(घ) विधिमन्त्री को।

प्रश्न 11.
उच्च न्यायालय के वह कौन-से मुख्य न्यायाधीश थे, जिन्हें कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ?
(क) गजेन्द्र गडकर
(ख) एम० हिदायतुल्लाह
(ग) के० सुब्बाराव
(घ) पी० एन० भगवती

प्रश्न 12.
उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति किसकी सलाह पर की जाती है?
(क) केन्द्रीय विधि मन्त्री
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) महान्यायवादी
(घ) भारत के मुख्य न्यायाधीश

प्रश्न 13.
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति आयु क्या है? [2016]
(क) 65 वर्ष
(ख) 60 वर्ष
(ग) 58 वर्ष
(घ) 62 वर्ष

प्रश्न 14.
सर्वोच्च न्यायालय के कार्य-क्षेत्र को बढ़ाया जा सकता है? [2016]
(क) संसद द्वारा
(ख) राष्ट्रपति द्वारा
(ग) मंत्रिमंडल द्वारा
(घ) प्रधानमंत्री द्वारा

उत्तर :

  1. (ग) राष्ट्रपति
  2. (ख) नयी दिल्ली में
  3. (ग) 65 वर्ष की आयु तक
  4. (ग) सर्वोच्च न्यायालय
  5. (ग) 30
  6. (घ) भारत के मुख्य न्यायाधीश
  7. (क) केवल अंग्रेजी
  8. (ग) संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से
  9. (घ) इनमें से कोई नहीं
  10. (ग) राष्ट्रपति को
  11. (ख) एम० हिदायतुल्लाह
  12. (घ) भारत के मुख्य न्यायाधीश
  13. (घ) 62 वर्ष
  14. (क) संसद द्वारा।

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