UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 8 Distribution: Meaning and Theory

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 8
Chapter Name Distribution: Meaning and Theory (वितरण : अर्थ और सिद्धान्त)
Number of Questions Solved 29
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 8 Distribution: Meaning and Theory (वितरण : अर्थ और सिद्धान्त)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
वितरण से आप क्या समझते हैं ? वितरण की समस्याएँ समझाइए।
उत्तर:
वितरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ-उत्पादन के विभिन्न उपादानों में संयुक्त उपज को बाँटने की क्रिया को वितरण कहते हैं।
वितरण की परिभाषा विभिन्न विद्वानों ने निम्नलिखित प्रकार से की है

प्रो० चैपमैन के अनुसार, “वितरण का अर्थशास्त्र इस प्रकार की व्याख्या करता है कि समाज द्वारा उत्पन्न की गयी आय का, उन साधनों में अथवा साधनों के मालिकों में जिन्होंने उत्पादन में भाग लिया, किस प्रकार का बँटवारा होता है।”
प्रो० निकोलस के अनुसार, “आर्थिक दृष्टि से वितरण राष्ट्रीय सम्पत्ति को विभिन्न वर्गों में बाँटने की क्रिया की ओर संकेत करता है।”
प्रो० विक्स्टीड के शब्दों में, “अर्थशास्त्र में हम वितरण के अन्तर्गत उन सिद्धान्तों का अध्ययन करते हैं जिनके अनुसार किसी विशेष औद्योगिक संगठन की संयुक्त उत्पत्ति व्यक्तियों में बाँटी जाती है। जो उसे प्राप्त करने में सहायक होते हैं।”
संक्षेप में, वितरण के अन्तर्गत उन नियमों व सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है जिनके द्वारा सामूहिक उत्पादन व राष्ट्रीय लाभांश को उत्पादन के उपादानों में बाँटा जाता है अर्थात राष्ट्रीय लाभांश को उपादानों में बाँटने की क्रिया को वितरण कहते हैं।”

वितरण की समस्या
आधुनिक औद्योगिक युग में उत्पादन प्रक्रिया जटिल होती जा रही है। आज प्रतिस्पर्धा के युग में उत्पादन बड़े पैमाने पर, श्रम-विभाजन व मशीनीकरण द्वारा सम्पादित किया जा रहा है। उत्पादन कार्य में उत्पादन के साधन-भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन व साहस-अपना सहयोग देते हैं। चूँकि उत्पादन समस्त उत्पत्ति के साधनों का प्रतिफल है; अत: यह प्रतिफल सभी उत्पत्ति के साधनों में उनके पुरस्कार के रूप में वितरित किया जाना चाहिए अर्थात् कुल उत्पादन में से श्रम को उसके पुरस्कार के रूप में दी जाने वाली मजदूरी, भूमिपति को लगान, पूँजीपति को ब्याज, संगठनकर्ता को वेतन तथा साहस को लाभ मिलना चाहिए।

अब प्रश्न यह है कि उत्पत्ति के साधनों को उनका पुरस्कार कुल उत्पादन में से किस आधार पर दिया जाए, यह वितरण की केन्द्रीय समस्या है। आज उत्पत्ति के विभिन्न उपादानों में २ष्ट्रीय उत्पादन में से अधिक पुरस्कार प्राप्त करने के लिए एक प्रकार की प्रतिस्पर्धा उत्पन्न हो गयी है। कि राष्ट्रीय उत्पादन (लाभांश) में से कौन अधिक भाग प्राप्त करे ? यही प्रतिस्पर्धा वितरण की समस्या बन जाती है। इस कारण वितरण की समस्या बड़े पैमाने के सामूहिक उत्पादन के कारण उत्पन्न हुई है। यदि एक ही व्यक्ति उत्पादन के सभी साधनों का स्वामी होता तो वितरण की समस्या उत्पन्न ही नहीं होती, क्योंकि वही व्यक्ति समस्त उत्पादन का अधिकारी होता। वितरण की समस्या उत्पन्न होने के निम्नलिखित कारण हैं

  1.  सामूहिक उत्पादन के कारण उत्पादन के सभी उपादानों के सहयोग का अलग-अलग मूल्यांकन करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। इस कारण वितरण की समस्या उत्पन्न होती है।
  2.  उत्पादन के उपादानों के स्वामी अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयास करते हैं तथा प्रत्येक अपने सहयोग के लिए अधिक-से-अधिक भाग प्राप्त करने के लिए संघर्ष करता है।
  3. वितरण की समस्या को बढ़ाने में राजनीतिक व आर्थिक विचारधाराओं ने भी अपना पूर्ण सहयोग दिया है। पूँजीवादी विचारधारा के समर्थक राष्ट्रीय उत्पादन में से पूँजीपतियों के अधिक भाग का समर्थन करते हैं। दूसरी ओर साम्यवादी व समाजवादी विचारधारा में उत्पादन प्रक्रिया में श्रमिक केन्द्रीय धुरी होता है। अतः श्रमिकों को राष्ट्रीय लाभांश में से अधिक भाग मिलना चाहिए। इस कारण वितरण की समस्या विवादास्पद बन जाती है।

वितरण के समय कौन-कौन सी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं?
वितरण की निम्नलिखित प्रमुख समस्याएँ हैं

  1. वितरण किसका होता है या किसका होना चाहिए ?
  2. वितरण किस-किसके मध्य होता है या किस-किसके मध्य होना चाहिए ?
  3.  वितरण का क्रम क्या रहता है या क्या होना चाहिए ?
  4.  वितरण में प्रत्येक उत्पादन के उपादान का भाग किस प्रकार निर्धारित किया जाता है या किया जाना चाहिए ?

1. वितरण किसका होता है या किसका होना चाहिए ? – वितरण में सर्वप्रथम यह समस्या उत्पन्न होती है कि वितरण कुल उत्पादन का किया जाए या शुद्ध उत्पादन का। वितरण कुल उत्पादन गाता, वरन् कुले उत्पादन में से अचल सम्पत्ति पर ह्रास व्यय, चल पूंजी का प्रतिस्थापन व्यय, करों के भुगतान का व्यय तथा बीमे की प्रीमियम आदि व्यय को घटाने के पश्चात् जो वास्तविक या शुद्ध उत्पादन बचता है उसका वितरण किया जाता है। फर्म की दृष्टि से भी वास्तविक या शुद्ध उत्पत्ति का ही वितरण हो सकता है, कुल उत्पत्ति का नहीं अर्थात् कुल उत्पत्ति में से चल पूँजी के प्रतिस्थापन व्यय, अचल पूँजी के ह्रास, मरम्मत और प्रतिस्थापन व्यय, सरकारी कर तथा बीमा प्रीमियम निकाल देने के बाद जो शेष बचता है उसे वास्तविक उत्पत्ति (Net Produce) कहते हैं। यह वास्तविक उत्पत्ति ही उत्पत्ति के साधनों के बीच बाँटी जानी चाहिए। राष्ट्र की दृष्टि से राष्ट्रीय आय अथवा राष्ट्रीय लाभांश (National Dividend) का वितरण उत्पत्ति के समस्त साधनों में होता है।

2. वितरण किस-किसके मध्य होता है या किस – किसके मध्य होना चाहिए ? – दूसरी महत्त्वपूर्ण समस्या यह है कि वितरण किस-किसके मध्य होना चाहिए ? इस समस्या का समाधान सरल है-उत्पादन में उत्पत्ति के जिन उपादानों (भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन और साहस) ने सहयोग किया है, शुद्ध उत्पादन का विभाजन या वितरण उन्हीं को किया जाना चाहिए। उत्पादन के उपादानों (भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन एवं साहस) के स्वामी क्रमशः भूमिपति, श्रमिक, पूँजीपति, प्रबन्धक एवं साहसी कहलाते हैं। इन्हीं को राष्ट्रीय लाभांश में से भाग मिलता है। राष्ट्रीय लाभांश में से भूमिपति को लगान, श्रमिक को मजदूरी, पूँजीपति को ब्याज, प्रबन्धकं को वेतन तथा साहसी को प्राप्त होने वाला प्रतिफल लाभ कहा जाता है। अतः वास्तविक उत्पत्ति का वितरण उत्पादन के विभिन्न उपादानों में किया जाना चाहिए।

3. वितरण का क्रम क्या रहता है या क्या होना चाहिए ? – प्रत्येक उद्यमी उत्पादन के पूर्व यह अनुमान लगाता है कि वह जिस वस्तु का उत्पादन करना चाहता है उसे उस व्यवसाय में कितनी शुद्ध उत्पत्ति प्राप्त हो सकेगी। इन अनुमानित वास्तविक उत्पत्ति में से उत्पत्ति के चार उपादानों को अनुमानित पारिश्रमिक देना पड़ेगा। जब उद्यमी उत्पादन कार्य आरम्भ करने का निश्चय कर लेता है तो वह उत्पत्ति के उपादानों के स्वामियों से उसके पुरस्कार के सम्बन्ध में सौदा तय कर लेता है और अनुबन्ध के अनुसार समय-समय पर उन्हें पारिश्रमिक देता रहता है।

समस्त उपादानों को उनका पारिश्रमिक देने के उपरान्त जो शेष बचता है, वह उसका लाभ होता है। लेकिन यह भी सम्भव है कि शुद्ध आय विभिन्न उपादानों पर व्यय की जाने वाली राशि से कम हो। ऐसी स्थिति में साहसी को हानि होगी। इस प्रकार स्पष्ट है कि साहसी को छोड़कर उत्पादन के अन्य उपादानों का पारिश्रमिक तो उत्पादन कार्य आरम्भ होने से पूर्व ही निश्चित कर उन्हें दे दिया जाता है। उद्यमी का भाग अनिश्चित रहता है। उद्यमी का यह प्रयास रहता है कि उसे अपने व्यवसाय में हानि न हो। इस कारण वह उत्पत्ति के अन्य साधनों को पारिश्रमिक कम-से-कम देने का प्रयास करता है। उत्पादन के अन्य उपादानों का अनुमान ऐसा रहता है। कि उद्यमी उनका शोषण करके अधिक लाभ अर्जित करने का प्रयास कर रहा है। इस कारण वितरण की समस्या उत्पन्न हो जाती है। अत: उत्पादन के उपादानों को लाभ में सहभागिता प्राप्त होनी चाहिए।

4. वितरण में प्रत्येक उत्पादन के उपादान का भाग किस प्रकार निर्धारित किया जाता है। या किया जाना चाहिए ? – संयुक्त उत्पादन में से प्रत्येक उपादान का भाग किस आधार पर निश्चित किया जाए, इस सम्बन्ध में अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग विचार प्रस्तुत किये हैं। प्रो० एडम स्मिथ तथा रिका ने ‘वितरण का परम्परावादी सिद्धान्त’ दिया है जिसके अनुसार, राष्ट्रीय आय में से सर्वप्रथम भूमि का पुरस्कार अर्थात् लगान दिया जाए, उसके बाद श्रमिकों की मजदूरी, अन्त में जो शेष बचता है वह पूँजीपतियों को ब्याज व साहसी को लाभ के रूप में दिया जाना चाहिए। रिका के अनुसार, लगान का निर्धारण सीमान्त व अधिसीमान्त भूमि के उत्पादन के द्वारा निर्धारित होना चाहिए तथा मजदूरों को ‘मजदूरी कोष’ (Wage Fund) से पुरस्कार प्राप्त होना चाहिए। जे० बी० क्लार्क, विक्स्टीड एवं वालरस ने वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।

इनके अनुसार, “किसी साधन का पुरस्कार अथवा उसकी कीमत उसकी सीमान्त उत्पादकता द्वारा निर्धारित होती है अर्थात् एक साधन का पुरस्कार उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर होता है। सीमान्त उत्पादकता को ज्ञात करना एक दुष्कर कार्य है। वितरण का आधुनिक सिद्धान्त माँग व पूर्ति का सिद्धान्त है। इसके अनुसार संयुक्त उत्पत्ति में उत्पत्ति के किसी उपादान का भाग उस उपादान की माँग और पूर्ति की शक्तियों के अनुसार उस स्थान पर निर्धारित होता है जहाँ पर उपादान की माँग और पूर्ति दोनों ही बराबर होते हैं। उपर्युक्त इन चारों सिद्धान्तों के द्वारा वितरण की समस्या को हल करने का प्रयास किया गया है।

प्रश्न 2
वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए। [2015, 16]
या
वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त क्या है? इसकी मान्यताएँ लिखिए। [2006, 07]
या
वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2011, 14, 16]
या
सीमान्त उत्पादकता से आप क्या समझते हैं? वितरण के सीमान्त उत्पादन सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2013]
उत्तर:
वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त – इस सिद्धान्त को प्रतिपादित करने वाले प्रमुख अर्थशास्त्री जे० बी० क्लार्क, विक्स्टीड, वालरस, श्रीमती जॉन रॉबिन्सन और हिक्स हैं। इनके अनुसार, उत्पादन के किसी साधन की कीमत उसको उत्पादकता पर निर्भर करती है। उद्यमी को छोड़कर उत्पादन के अन्य उपादानों को पारिश्रमिक उनकी सीमान्त उत्पादिता के आधार पर निश्चित किया जाता है। सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के अनुसार, “किसी साधन का पुरस्कार अर्थात उसकी कीमत उसकी सीमान्त उत्पादकता द्वारा निर्धारित होती है।”

सीमान्त उत्पादकता क्या है ? – उपादान की एक इकाई में कमी या वृद्धि करने से कुल उत्पादन में जो कमी या वृद्धि होती है, उसे साधन की सीमान्त उत्पादिता कहते हैं। सीमान्त उत्पादिता किसी उपादान विशेष की अन्तिम (सीमान्त) इकाई की उत्पत्ति (सीमान्त उत्पत्ति-Marginal Product) के बराबर होती है। उस साधन का पुरस्कार उसी के आधार पर निर्धारित किया जाता है।

सीमान्त उत्पादकता; साधन की एक अतिरिक्त इकाई को प्रयोग में लाने से कुल उत्पादन की मात्रा में हुई वृद्धि के बराबर होती है अर्थात् सीमान्त उत्पादकता उत्पादन के अन्य साधनों को स्थिर मानकर परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग करने से कुल उत्पादन में जो वृद्धि होती है, उसे उस साधन की सीमान्त उत्पादकता कहते हैं।

उत्पत्ति के साधनों की सीमान्त उत्पादकता उनकी कीमतों को निर्धारित करती है। उत्पत्ति के साधनों की माँग उनकी उत्पादिता से निर्धारित होती है। जिन साधनों की उत्पादकता अधिक होती है, उनकी माँग अधिक होती है, इसके दूसरी ओर जिन साधनों की उत्पादकता कम होती है, उनकी कीमत कम होगी।

सीमान्त उत्पादिता के आधार पर ही उत्पादन में प्रतिस्थापन का नियम (Law of Substitution) लागू होता है। प्रबन्धक तब तक उत्पत्ति के साधनों का प्रतिस्थापन करता रहता है जब तक कि प्रत्येक साधन की सीमान्त उत्पादिता उसे दिये जाने वाले पारिश्रमिक के लगभग बराबर न हो जाए। यदि किसी साधन का पारिश्रमिक सीमान्त उत्पादकता से कम होता है, तो उत्पादक उस साधन की इकाइयों को तब तक बढ़ाता जाएगा जब तक उस साधन की सीमान्त उत्पादकता कम होकर उसके पारिश्रमिक के समान नहीं हो जाती। इसके विपरीत, यदि पारिश्रमिक सीमान्त उत्पादकता से अधिक है तो उत्पादक को उस साधन के प्रयोग से हानि होगी। अत: उत्पादक उस उपादान की इकाइयों को तब तक कम रखता जाएगा जब तक कि उसकी सीमान्त उत्पादित बढ़कर पारिश्रमिक के बराबर न हो जाए। इस प्रकार सीमान्त उत्पादिता का सिद्धान्त यह बताता है कि दीर्घकाल में उत्पादन के प्रत्येक उपादान को दिया जाने वाला प्रतिफल उसकी सीमान्त उत्पादिता के बराबर होता है।

रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण
संलग्न चित्र में Ox – अक्ष पर साधन की मात्रा तथा OY-अक्ष पर सीमान्त भौतिक उत्पादकता दर्शायी गयी है। सीमान्त भौतिक उत्पादकता वक्र अंग्रेजी के उल्टे U-आकार के समान है, जिसे चित्र में MPP वक्र द्वारा दर्शाया गया है जिससे स्पष्ट होता है कि उत्पादन में उत्पत्ति के सीमान्त भौतिक नियम क्रियाशील हैं अर्थात् प्रारम्भ में उत्पादन में उत्पत्ति वृद्धि उत्पादकता वक्र या MPP नियम लागू हो रहा है, उत्पादन बढ़ रहा है तथा यह उत्पादन धीरे-धीरे अधिकतम सीमा पर पहुँचने के पश्चात् नीचे की ओर गिरने लगता है।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 8 Distribution Meaning and Theory 1
चित्र में क से य बिन्दु तक उत्पादकता में वृद्धि, य बिन्दु पर उत्पादन अधिकतम और य बिन्दु के ६ पश्चात् उत्पादन में कमी होनी प्रारम्भ हो जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि उत्पत्ति वृद्धि होने पर भौतिक उत्पादकता में वृद्धि
साधन की मात्रा होती है तथा उत्पादन के उपादान के पुरस्कार में वृद्धि हो । जाती है, परन्तु ह्रास नियम लागू होने के पश्चात् पुरस्कार गिरना (घटना) प्रारम्भ हो जाता है।

सिद्धान्त की मान्यताएँ
वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है

  1. साधन बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है।
  2. साधन के द्वारा उत्पादित वस्तु के बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है।
  3. साधन की प्रत्येक इकाई समान रूप से कुशल तथा विभिन्न इकाइयाँ एक-दूसरे की पूर्ण स्थापन्न (Perfect substitutes) होती हैं।
  4. अन्य साधनों की मात्रा को स्थिर रखकर एक साधन की मात्रा को घटाना-बढ़ाना सम्भव है।
  5. प्रत्येक फर्म अपने लाभ को अधिकतम करने के उद्देश्य से कार्य करती है।
  6. समाज में पूर्ण रोजगार की स्थिति पायी जाती है।
  7. क्रमागत उत्पत्ति द्वारा नियम लागू होता है।

सीमान्त भौतिक उत्पादकता
सिद्धान्त की आलोचनाएँ सीमान्त उत्पादिता सिद्धान्त की मान्यताओं के अवास्तविक होने के आधार पर उनकी कड़ी आलोचना की गयी है। इस सिद्धान्त की कुछ प्रमुख आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं

  1. उत्पादन संयुक्त प्रयत्न का परिणाम होता है। अत: उत्पत्ति में किसी उत्पादन-विशेष के योगदान को ज्ञात करना अर्थात् प्रत्येक साधन की सीमान्त उत्पादकता को ज्ञात करना कठिन होता है।
  2. सीमान्त उत्पादिता उत्पत्ति के किसी साधन के सहयोग का सही मापक नहीं है, क्योंकि उत्पादन के किसी साधन की एक इकाई की वृद्धि अथवा कमी से उसकी उत्पादिता ज्ञात नहीं की जा सकती।
  3. उत्पादन में स्नों की सभी इकाइयाँ एक-सी नहीं होतीं, उनमें भिन्नता पायी जा सकती है। वे एक-दूसरे की पूर्ण स्थानापन्न भी नहीं होती हैं।
  4. यह सिद्धान्त पूर्ण प्रतियोगिता की अवास्तविक मान्यता पर आधारित है। वास्तविक जीवन में पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति नहीं पायी जाती।
  5.  पूर्ण रोजगार की मान्यता ठीक नहीं है। उत्पत्ति के साधनों में बेरोजगारी सामान्यतया पायी जाती है। साधनों के बाजार में पूर्ण रोजगार पाये जाने के कारण एक साधन का प्रतिफल उसकी सीमान्त उत्पादकता से कम हो सकता है। ऐसी स्थिति में यह सिद्धान्त अव्यावहारिक हो जाता है।
  6. यह सिद्धान्त केवल माँग पक्ष को प्रस्तुत करता है और पूर्ति पक्ष को स्थायी मानकर चलता है। अतः यह सिद्धान्त एकपक्षीय है।
  7.  यह सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि यह उत्पादन के सभी उपादानों, विशेषकर श्रमिक और मशीन आदि को एकसमान मानकर चलता है। श्रमिकों के पारिश्रमिक का निर्धारण केवल सीमान्त उत्पादिता के आधार पर ही नहीं, अपितु श्रम की सौदा करने की शक्ति से भी प्रभावित होता है। इसी प्रकार ब्याज की दर, पूँजी की सीमान्त उत्पादिता से प्रभावित होती है।
  8.  इस सिद्धान्त के आधार पर उद्यमी का पुरस्कार ज्ञात नहीं किया जा सकता।
  9. उत्पादन में वर्द्धमान प्रतिफल नियम (Law of Increasing Returns) के लागू होने की सम्भावनाएँ भी होती हैं।
    उपर्युक्त आलोचनाओं से स्पष्ट होता है कि सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त साधनों की कीमत-निर्धारण का अधूरा सिद्धान्त है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
वितरण के आधुनिक सिद्धान्त की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।
या
वितरण के आधुनिक सिद्धान्त को रेखाचित्र की सहायता से समझाइए।
या
वितरण के आधुनिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2012]
उत्तर:
वितरण का आधुनिक सिद्धान्त – आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार, उत्पादन के साधनों की कीमत का निर्धारण वस्तुओं की कीमत-निर्धारण का विस्तार एवं विशिष्ट रूप है। उत्पत्ति के साधन की कीमत एक वस्तु की भाँति उसकी माँग और पूर्ति से निर्धारित होती है। वितरण के आधुनिक सिद्धान्त के अनुसार, संयुक्त उत्पत्ति में उत्पत्ति के किसी उपादान का भाग उस उपादान की माँग और पूर्ति की शक्तियों के अनुसार उस स्थान पर निर्धारित होता है जहाँ पर उत्पादन के उपादानों की माँग और पूर्ति दोनों ही बराबर होती हैं। इस प्रकार वितरण का आधुनिक सिद्धान्त-माँग और पूर्ति का सिद्धान्त ही है।

सिद्धान्त की मान्यताएँ
वितरण का आधुनिक सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है

  1. यह सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि साधन-बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है।
  2. साधनों की सभी इकाइयाँ एकरूप हैं तथा वे एक-दूसरे के लिए पूर्ण स्थानापन्न हैं।
  3. उत्पत्ति ह्रास नियम की क्रियाशीलता सिद्धान्त की महत्त्वपूर्ण मान्यता है।
  4. यह सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि प्रत्येक साधन पूर्णतया विभाज्य होता है।

सिद्धान्त की व्याख्या

1. साधन की माँग – किसी उत्पत्ति के साधन की माँग उसकी सीमान्त उत्पादिता पर निर्भर होती है। एक फर्म उत्पत्ति के साधन को उस सीमा तक प्रयोग करेगी जहाँ पर उसकी सीमान्त उत्पादकता सीमान्त साधन लागत के बराबर हो। यदि साधन की सीमान्त उत्पादकता का मूल्य सीमान्त साधन लागत से अधिक होता है तो फर्म के लिए उस साधन की अधिक इकाइयों का प्रयोग करना लाभपूर्ण होगा। फर्म तब तक साधन की अधिकाधिक इकाइयों का प्रयोग करती जाएगी जब तक साधन की सीमान्त उत्पादकता का मूल्य सीमान्त साधन लागत के बराबर नहीं हो जाता। कोई भी फर्म साधन के लिए उसकी सीमान्त उत्पादकता से अधिक मूल्य नहीं देगी। इस प्रकार सीमान्त उत्पादकता साधन की कीमत की अधिकतम सीमा निर्धारित करती है।

2. साधन की पूर्ति – साधन के पूर्ति पक्ष उत्पत्ति के उपादान के स्वामी होते हैं। किसी साधन की पूर्ति उसकी उपादान लागत पर निर्भर करती है, परन्तु यहाँ पर उत्पादन लागत से अभिप्राय ‘अवसर लागत’ (Opportunity Cost) अथवा हस्तान्तरण आय (Transfer Earning) से है। साधन की हस्तान्तरण आय वह आय होती है जो वह दूसरे सर्वश्रेष्ठ वैकल्पिक प्रयोग से प्राप्त कर सकता है। एक साधन को अपने वर्तमान व्यवसाय में कम-से-कम उतनी आय अवश्य प्राप्त होनी चाहिए जितनी कि वह किसी दूसरे सर्वश्रेष्ठ व्यवसाय में प्राप्त कर सकता हो। इस प्रकार हस्तान्तरण आय’ साधन की उत्पादन लागत होती है जो उस न्यूनतम सीमा को निर्धारित करती है जिससे नीचे उसकी कीमत नहीं गिर सकती। उत्पत्ति के उपादान को स्वामी कम-से-कम उतने मूल्य पर उपादान को बेचने के लिए। तैयार होगा जितना उसकी सीमान्त इकाई की लागत है। यह सीमा पूर्तिकर्ता की न्यूनतम सीमा है।

3. साधन मूल्य का निर्धारण – उत्पत्ति के उपादान का मूल्य उस साधन की माँग तथा पूर्ति की। शक्तियों के अनुसार उस स्थान पर निर्धारित होता है जहाँ उसकी सीमान्त उत्पादिता तथा उसके स्वामी के सीमान्त त्याग या हस्तान्तरण आय अर्थात् सीमान्त लागत बराबर होती है। यही साधन बाजार की सन्तुलन की स्थिति होती है। जिस कीमत पर माँग और पूर्ति में सन्तुलन स्थापित होता है उसे साधन की सन्तुलन कीमत कहा जाता है। इस प्रकार किसी साधन की कीमत उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर उसकी माँग ठीक उसकी पूर्ति के बराबर होती है।।

रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण
संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर साधन की माँग और पूर्ति (इकाइयों में) तथा OY-अक्ष पर साधन की सीमान्त उत्पादिता (₹ में) दर्शायी गयी है।
चित्र में DD साधन की माँग रेखा है, ss साधन कीपूर्ति रेखा है। E सन्तुलन बिन्दु है, क्योंकि यहाँ पर साधन की माँग व पूर्ति दोनों बराबर हैं। EQ या OP साधन की कीमत या पुरस्कार है।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 8 Distribution Meaning and Theory 2
चित्र से स्पष्ट होता है कि एक साधन की कीमत या पुरस्कार EO या OP होगा, क्योंकि यहाँ पर साधन की माँग व पूर्ति दोनों बराबर हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
वितरण का क्या अर्थ है? [2012]
या
अर्थशास्त्र में वितरण से आप क्या समझते हैं? [2007, 14]
या
वितरण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2012]
उत्तर:
अर्थशास्त्र के उस भाग को जिसमें धन को उत्पन्न करने वाले सहयोगियों में बाँटने के नियमों, सिद्धान्तों एवं इससे सम्बन्धित बातों का अध्ययन किया जाता है, ‘वितरण’ कहते हैं। संक्षेप में, अर्थशास्त्र का वह विभाग जो हमें वितरण की समस्या की जानकारी देता है, ‘वितरण’ कहलाता है।

कुछ विद्वानों ने वितरण को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है
विक्स्टीड के अनुसार, “वितरण में राजनीतिक अर्थव्यवस्था की शाखा के रूप में उन सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है जिनके अधीन किसी जटिल औद्योगिक संगठन द्वारा की गयी संयुक्त उत्पत्ति का विभाजन उन व्यक्तियों के मध्य किया जाता है जिन्होंने उत्पादन में किसी प्रकार का सहयोग प्रदान किया है।”

चैपमैन के अनुसार, “वितरण का अर्थ किसी समुदाय द्वारा उत्पादित धन को उन साधनों अथवा साधनों के स्वामियों के मध्य वितरित करना है जो उसके उत्पादन में सक्रिय सहयोग प्रदान करते हैं।”

प्रश्न 2
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त किन मान्यताओं पर आधारित है ? लिखिए। [2009]
उत्तर:
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है

  1. उत्पादन के उपादानों की सभी इकाइयाँ समान होनी चाहिए।
  2. विभिन्न उपादानों का एक-दूसरे से प्रतिस्थापन सम्भव होना चाहिए।
  3. अन्य साधनों की मात्रा को स्थिर रखकर, एक साधन की मात्रा को घटाना-बढ़ाना सम्भव है। अर्थात् प्रत्येक उपादान की उपयोग की मात्रा में परिवर्तन सम्भव होना चाहिए।
  4. उत्पादन व्यवसाय में ह्रासमान प्रतिफल नियम (Law of Diminishing Returns) लागू होना चाहिए।
  5. साधन बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता होनी चाहिए अर्थात् साधन के क्रेताओं व विक्रेताओं की संख्या अधिक होती है।
  6. प्रत्येक फर्म अपने लाभ को अधिकतम करने के उद्देश्य से कार्य करती है।
  7. समाज में पूर्ण रोजगार की स्थिति पायी जाती है।

प्रश्न 3
सीमान्त भौतिक उत्पादकता क्या है ? समझाइए।
उत्तर:
सीमान्त भौतिक उत्पादकता (Marginal Physical Productivity) – जब किसी साधन की सीमान्त उत्पादकता को उत्पन्न की गयी वस्तु की भौतिक मात्रा के रूप में व्यक्त किया जाता है तो उसे साधन की सीमान्त भौतिक उत्पादकता (MPP) कहा जाता है।
अन्य साधनों को स्थिर रखकर किसी साधन की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग से कुल भौतिक उत्पादन में जो वृद्धि होती है, वह उस साधन की सीमान्त भौतिक उत्पादकता होती है। परिवर्तनशील अनुपातों के नियम (Law of variable MPP Proportions) के कार्यशील होने के कारण आरम्भ में परिवर्तनशील साधन की सीमान्त भौतिक उत्पादकता बढ़ती है,साधन की मात्रा किन्तु एक बिन्दु पर अधिकतम होने के पश्चात् वह गिरना आरम्भ (Quantity of Factors) हो जाती है। इसलिए सीमान्त भौतिक उत्पादकता वक्र उल्टे U-आकार को होता है।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 8 Distribution Meaning and Theory 3
संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर साधन की मात्रा तथा OY-अक्ष पर सीमान्त भौतिक उत्पादकता को दिखाया गया है। चित्र में MPP वक्र सीमान्त भौतिक उत्पादकता वक्र है, जो उल्टे U के आकार का है।

प्रश्न 4
औसत आय उत्पादकता एवं सीमान्त आय उत्पादकता को समझाइए।
उत्तर:
औसत आय उत्पादकता-किसी साधन से उत्पादित होने वाले कुल भौतिक उत्पादन को बेचकर जो कुल आय प्राप्त होती है, उसे साधन की कुल इकाइयों की मात्रा से भाग देकर उस साधन की औसत आय उत्पादकता ज्ञात की जाती है।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 8 Distribution Meaning and Theory 4

सीमान्त आय उत्पादकता-अन्य साधनों की मात्रा स्थिर रखकर परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग से कुल आगम (आय) में जो वृद्धि होती है, उसे साधन की सीमान्त आय उत्पादकता कहा जाता है।
सीमान्त भौतिक उत्पादकता (MPP) को सीमान्त आय (MR) से गुणा करके भी सीमान्त आय उत्पादकता (MRP) को ज्ञात किया जा सकता है।
MRP = MPP x MR

प्रश्न 5
साधन की औसत लागत व सीमान्त लागत से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
एक साधन की आय फर्म के लिए लागत होती है।
साधन की औसत लागत – एक फर्म किसी साधन के लिए जो कुल व्यय करती है, उसे कुल लागत कहते हैं। उस कुल लागत को साधन की सम्पूर्ण इकाइयों से भाग देने पर जो राशि प्राप्त होती है, वह साधन की औसत लागत कहलाती है।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 8 Distribution Meaning and Theory 5

सीमान्त लागत – एक फर्म किसी साधन की अन्तिम इकाई पर जो व्यय करती है वह साधन की सीमान्त लागत कहलाती है। एक फर्म की अन्य साधनों की मात्रा को स्थिर रखकर परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग से कुल लागत में जो वृद्धि होती है उसे उस साधन की सीमान्त लागत कहते हैं।

पूर्ण प्रतियोगिता की मान्यता के अन्तर्गत फर्म की औसत साधन लागत रेखा (Average factor cost curve) और सीमान्त साधन लागत रेखा (Marginal factor cost curve) एक ही होती है। यह रेखा एक पड़ी। हुई रेखा (Horizontal line) होती है।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 8 Distribution Meaning and Theory 6
संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर साधन की इकाइयाँ सीमान्त साधन लागत रेखा तथा OY-अक्ष पर साधन की लागत दिखायी गयी है। चित्र में सीधी रेखा औसत साधन लागत रेखा AFC तथा सीमान्त । साधन लागत रेखा MFC है। यह रेखा OX-अक्ष के साधन की इकाइयाँ समान्तर है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
‘सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त इस बात की सामान्य व्याख्या करता है कि उत्पत्ति के साधनों को पुरस्कार अर्थात् उनकी कीमतें किस प्रकार निर्धारित होती हैं। सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के अनुसार किसी साधन की कीमत उसकी उत्पादकता के अनुसार होती है।

प्रश्न 2
वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त को प्रतिपादित करने वाले प्रमुख अर्थशास्त्रियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त को प्रतिपादित करने वाले प्रमुख अर्थशास्त्री जे० बी० क्लार्क, विक्स्टीड, वालरा, श्रीमती जॉन रॉबिन्सन और हिक्स हैं।

प्रश्न 3
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त को किस नाम से पुकारा जाता है ?
उत्तर:
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त को वितरण का सामान्य सिद्धान्त भी कहा जाता है, क्योंकि इस सिद्धान्त की सहायता से उत्पत्ति के सभी साधनों की कीमत-निर्धारण की समस्या का अध्ययन किया जा सकता है।

प्रश्न 4
उत्पत्ति के साधनों की कीमत का निर्धारण किस प्रकार होता है ?
उत्तर:
उत्पत्ति के साधनों की कीमत साधनों की सीमान्त उत्पादकता द्वारा निर्धारित होती है।

प्रश्न 5
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की दो आलोचनाएँ लिखिए।
उत्तर:
(1) एक साधन की सीमान्त उत्पादकता को अलग करना कठिन है; क्योंकि सभी उत्पत्ति के साधनों की उत्पादकता सामूहिक होती है।
(2) उत्पत्ति के साधनों की सभी इकाइयाँ एकरूप नहीं होती हैं; अतः सीमान्त उत्पादकता ज्ञात करना कठिन हो जाता है।

प्रश्न 6
वितरण का आधुनिक सिद्धान्त किस अर्थशास्त्री द्वारा प्रतिपादित किया जाता है ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल के द्वारा।

प्रश्न 7
वितरण का आधुनिक सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
वितरण का आधुनिक सिद्धान्त के अनुसार किसी साधन की कीमत भी उसकी माँग और पूर्ति के द्वारा निर्धारित होती है। साधन की कीमत उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर उसकी माँग और पूर्ति बराबर होती हैं।

प्रश्न 8
वितरण के दो सिद्धान्त बताइए। [2007]
उत्तर:
(1) वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त।
(2) वितरण का आधुनिक सिद्धान्त।

प्रश्न 9
वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की चार मान्यताएँ बताइए। [2006]
उत्तर:

  1.  यह सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि साधन बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है।
  2.  साधनों की सभी इकाइयाँ एकरूप हैं तथा वे एक-दूसरे के लिए पूर्ण स्थानापन्न हैं।
  3.  उत्पत्ति द्वारा नियम की क्रियाशीलता सिद्धान्त की महत्त्वपूर्ण मान्यता है।
  4.  यह सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि प्रत्येक साधन पूर्णतया विभाज्य होता है।

प्रश्न 10
सीमान्त उत्पादकता क्या है ? [2009, 10]
उत्तर:
अन्य साधनों को स्थिर रखकर परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग से कुल उत्पादन में जो वृद्धि होती है, उसे साधन की सीमान्त उत्पादकता कहा जाता है।

प्रश्न 11
किसी साधन की सीमान्त उत्पादकता कितने प्रकार की हो सकती है ?
उत्तर:
किसी साधन की सीमान्त उत्पादकता तीन प्रकार की हो सकती है

  1.  सीमान्त भौतिक उत्पादकता,
  2.  सीमान्त आगम उत्पादकता तथा
  3.  औसत उत्पादकता।

प्रश्न 12
औसत उत्पादकता कितने प्रकार की होती है ?
उत्तर:
औसत उत्पादकता दो प्रकार की होती है

  1. औसत भौतिक उत्पादकता तथा
  2. औसत आय उत्पादकता।

प्रश्न 13
औसत आय उत्पादकता को अन्य किस नाम से जाना जाता है ?
उत्तर:
औसत आय उत्पादकता को ‘सकल आय उत्पादकता’ भी कहा जाता है।

प्रश्न 14
सीमान्त आय उत्पादकता और औसत आय उत्पादकता के सम्बन्ध को बताइए।
उत्तर:

  1.  जब औसत आय उत्पादन बढ़ता है तो सीमान्त आय उत्पादन उससे कम होता है।
  2. जब औसत आय उत्पादन स्थिर होता है तब सीमान्त आय उत्पादन उसके बराबर होता है।
  3.  जब औसत आय उत्पादन गिरता है तो सीमान्त आय उत्पादन उससे कम होता है।

प्रश्न 15
वितरण का आधुनिक सिद्धान्त किन मान्यताओं पर आधारित है ?
उत्तर:

  1. बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है।
  2. उत्पादन में उत्पत्ति ह्रास नियम क्रियाशील होता है।
  3. साधन की सभी इकाइयाँ एक रूप तथा एक-दूसरे के लिए पूर्ण स्थानापन्न हैं।
  4.  प्रत्येक साधन पूर्णतया विभाज्य है।

प्रश्न 16
वितरण किस-किस के मध्य होता है? [2007]
उत्तर:
उत्पादन में उत्पत्ति के जो उपादान (भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन और साहस) सहयोग करते हैं, शुद्ध उत्पादन का विभाजन या वितरण उन्हीं के मध्य होता है।

प्रश्न 17
आर्थिक क्रिया से क्या अभिप्राय है? [2015]
उत्तर:
वे क्रियाएँ जो वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन, वितरण और उपभोग को समाज के सभी स्तरों पर शामिल होती हैं, आर्थिक क्रियाएँ कहलाती हैं।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
वितरण के परम्परावादी सिद्धान्त के जन्मदाता कौन हैं ?
(क) एडम स्मिथ
(ख) मार्शल
(ग) जे० एस० मिल
(घ) जे० के० मेहता
उत्तर:
(क) एडम स्मिथ।

प्रश्न 2
वितरण में उद्यमी का हिस्सा प्राप्त होता है
(क) सबसे बाद में
(ख) सबसे पहले
(ग) बीच में
(घ) कभी नहीं
उत्तर:
(क) सबसे बाद में।

प्रश्न 3
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के जन्मदाता कौन हैं ? [2007,09]
(क) जे० बी० क्लार्क
(ख) रिकार्डो
(ग) मार्शल
(घ) कीन्स
उत्तर:
(क) जे० बी० क्लार्क।

प्रश्न 4
वितरण में उद्यमी के हिस्से को कहते हैं [2010, 12]
(क) ब्याज
(ख) लाभ
(ग) वेतन
(घ) मजदूरी
उत्तर:
(ख) लाभ।

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 11 Revolution of 1857 AD: Struggle for Independence

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 11
Chapter Name Revolution of 1857 AD:
Struggle for Independence
(1857 ई० की क्रान्ति-
स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष)
Number of Questions Solved 10
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 11 Revolution of 1857 AD: Struggle for Independence (1857 ई० की क्रान्ति- स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष)

अभ्यास
लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
1857 ई० की क्रान्ति के स्वरूप की विवेचना कीजिए।
उतर:
सन् 1857 ई० में अंग्रेजी शासकों की अत्याचारपूर्ण तथा दमनकारी नीति के विरुद्ध भारतीयों ने अपनी स्वतन्त्रता के लिए सशस्त्र क्रान्ति की, जिसे भारतीय इतिहास में 1857 की महाक्रान्ति, 1857 ई० की क्रान्ति, प्रथम स्वाधीनता संग्राम तथा सैनिक क्रान्ति आदि नामों से जाना जाता है। कुछ विद्वान 1857 की क्रान्ति को सैनिक क्रान्ति मानते हैं क्योंकि भारतीय सैनिक अंग्रेज अफसरों के व्यवहार से असन्तुष्ट थे इसलिए उन्होंने सशस्त्र क्रान्ति की थी। परन्तु कुछ विद्वानों ने इसे राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम कहा क्योंकि इस क्रान्ति का प्रारम्भ तो सैनिकों ने किया किन्तु शीघ्र ही इसने जन-क्रान्ति का रूप धारण कर लिया था। इस क्रान्ति में हिन्दू और मुसलमान दोनों ने ही समान रूप से भाग लिया था। आम जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध व्यापक असन्तोष था, केवल किसी अनुकूल अवसर की आवश्यकता थी, जिसे 1857 ई० की सैनिक क्रान्ति ने पूर्ण किया।

प्रश्न 2.
1857 ई० की क्रान्ति की असफलता के कारणों पर प्रकाश डालिए।।
उतर:
सन् 1857 ई० की क्रान्ति का प्रभाव सम्पूर्ण भारत में फैला परन्तु यह एक जन आन्दोलन नहीं बन सका। इसकी असफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं|

  • अनुशासन तथा संगठन का अभाव
  • योग्य नेतृत्व का अभाव
  • रचनात्मक कार्यक्रम का अभाव
  • अंग्रेजों के भारतीय सहायक
  • जनता के सहयोग की कमी
  • क्रान्ति का सामन्ती स्वरूप
  • क्रान्ति का स्थानीय स्वभाव
  • समय से पूर्व क्रान्ति का प्रारम्भ

प्रश्न 3.
1857 ई० की क्रान्ति का तात्कालिक परिणाम क्या था?
उतर:
1857 ई० की क्रान्ति भारतीय इतिहास में एक युग परिवर्तनकारी घटना थी। यद्यपि यह क्रान्ति असफल रही, किन्तु इसके परिणाम अभूतपूर्व, व्यापक और स्थाई सिद्ध हुए। यह क्रान्ति भारतीय शासन के स्वरूप और देश के भावी विकास में मौलिक परिवर्तन लाई। संवैधानिक दृष्टि से मुगल साम्राज्य हमेशा के लिए समाप्त हो गया तथा भारत में महारानी विक्टोरिया का सीधा शासन स्थापित हो गया था। इसने भारतीय राजनीति, प्रशासन, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था एवं राष्ट्रीय भावना को गहरे रूप से प्रभावित किया। इस क्रान्ति के प्रमुख परिणाम निम्नवत् हैं

  • महारानी विक्टोरिया का घोषणा पत्र एवं कम्पनी शासन का अन्त
  • सेना का पुनर्गठन
  • ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का जन्म
  • भारतीय रियासतों के प्रति पुरस्कार एवं दण्ड की नीति
  • धार्मिक प्रभाव
  • भारतीय राष्ट्रवाद का उदय

प्रश्न 4.
भारतीयों को क्यों लगता था कि अंग्रेज उन्हें ईसाई बनाना चाहते हैं?
उतर:
अंग्रेज व्यापारियों के साथ ईसाई धर्म प्रचारक भी भारत में आ बसे। सन् 1850 ई० में पास किए गए धार्मिक अयोग्यता अधिनियम द्वारा लार्ड डलहौजी ने हिन्दुओं के उत्तराधिकारी नियमों में परिवर्तन किया। अभी तक यह नियम था कि धर्म परिवर्तन करने की दशा में व्यक्ति अपनी पैतृक सम्पत्ति से वंचित हो जाता था परन्तु ईसाई धर्म अपनाने पर वह व्यक्ति अपनी पैतृक सम्पत्ति का अधिकारी बना रह सकता था। सन् 1813 ई० के चार्टर ऐक्ट द्वारा ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार की स्वतन्त्रता दी गई थी जिससे वे खुले रूप में हिन्दू देवी-देवताओं व मुस्लिम पैगम्बरों की निन्दा करने लगे। ईसाई धर्म अपनाने वाले व्यक्तियों को उच्च पदों पर प्राथमिकता मिलती थी। बेरोजगारों, अनाथों, वृद्धों व विधवाओं को अनेक प्रलोभन देकर बलपूर्वक ईसाई बना लिया गया था। इस ईसाईयत के माहौल में भारतीयों को लगता था कि उन्हें ईसाई बनाया जा रहा है।

प्रश्न 5.
1857 ई० की क्रान्ति का भारत के इतिहास में क्या महत्व है?
उतर:
1857 ई० की क्रान्ति भारतीय इतिहास की गौरवमीय गाथा है। यह क्रान्ति छल, कपट, नीचता एवं शोषण से स्थापित साम्राज्य के विरुद्ध था। सैनिक विद्रोह के रूप में आरम्भ हुई इस क्रान्ति ने समूचे भारत की जनता, कृषकों, मजदूरों, हस्त-शिल्पियों, जनजातियों, सैनिकों और रजवाड़ों को सम्मिलित कर लिया। इस क्रान्ति से भारतीय शासन के स्वरूप और देश के भावी विकास में मौलिक परिवर्तन आया। इसने भारतीय राजनीति, प्रशासन, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था एवं राष्ट्रीयवाद की भावना को प्रभावित किया।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
क्या 1857 ई० का विद्रोह भारत को अंग्रेजों के आधिपत्य से मुक्त कराने का सच्चा प्रयास था? इस विप्लव के क्या परिणाम हुए?
उतर:
1857 ई० के विद्रोह में भाग लेने वाले सभी विद्रोहियों तथा जनसाधारण का एक ही लक्ष्य था- अंग्रेजों को भारत से निकालना। उनमें अंग्रेजों के विरुद्ध सर्वव्यापी रोष था। तत्कालीन साहित्य जो समाज का दर्पण माना जाता है, में भी अंग्रेज विरोधी भावनाएँ प्रदर्शित की गई थीं। इस प्रकार 1857 ई० के संघर्ष में नि:सन्देह जनभावना अंग्रेजों के विरुद्ध थी। विद्रोहियों को संगठित करने वाला एकमात्र तत्त्व विदेशी शासन को समाप्त करने की भावना थी। अत: इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि 1857 ई० का विद्रोह शासन को समाप्त करने के लिए हुआ था।

1857 ई० के विद्रोह के परिणाम- 1857 ई० का विद्रोह भारतीय इतिहास में एक युग परिवर्तनकारी घटना थी। यद्यपि यह विद्रोह असफल रहा, किन्तु इसके परिणाम अभूतपूर्व, व्यापक और स्थायी सिद्ध हुए। डॉ० मजूमदार ने लिखा है कि “सन् 1857 ई० का महान् विस्फोट भारतीय शासन के स्वरूप और देश के भावी विकास में मौलिक परिवर्तन लाया।” इसके द्वारा संवैधानिक दृष्टि से मुगल साम्राज्य हमेशा के लिए समाप्त हो गया। भारत में एक शताब्दी से शासन करने वाली ईस्ट इण्डिया कम्पनी की भी समाप्ति हो गई। भारत में महारानी विक्टोरिया का सीधा शासन स्थापित हो गया। इसने भारतीय राजनीति, प्रशासन, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था एवं राष्ट्रीय भावना को गहरे रूप से प्रभावित किया। इस सम्बन्ध में लॉर्ड क्रोमर ने कहा था, “काश कि अंग्रेज युवा पीढ़ी भारतीय विद्रोह के इतिहास को पढ़े, ध्यान दे, सीखे और मनन करे। इसमें बहुत-से पाठ और चेतावनियाँ निहित हैं।” इस क्रान्ति के प्रमुख परिणाम निम्नलिखित हैं

(i) महारानी विक्टोरिया का घोषणा – पत्र और कम्पनी शासन का अन्त- इस विद्रोह के परिणामस्वरूप महारानी विक्टोरिया के घोषणा-पत्र के अनुसार ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन का अन्त कर दिया गया और भारत के शासन को सीधे शाही ताज (क्राउन) के अन्तर्गत लिए जाने की घोषणा की गई। इसमें एक भारतीय राज्य सचिव का प्रावधान भी किया गया और उसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की सलाह समिति बनाई जानी थी, जिसमें से 8 सरकार द्वारा मनोनीत होने थे और शेष 7 कोर्ट ऑफ डायेक्टर्स द्वारा चुने जाने थे।

यह उद्घोषणा 1 नवम्बर, 1858 को इलाहाबाद में लॉर्ड कैनिंग द्वारा की गई। इस घोषणा के तहत लॉर्ड कैनिंग की भारत में पुनर्नियुक्ति कर उसे शासन का सर्वोच्च अधिकारी बनाया गया। अब उसे गवर्नर जनरल के साथ-साथ वायसराय भी कहा जाने लगा। इस घोषणा में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का क्षेत्रीय विस्तार न करने का आश्वासन दिया गया। ब्रिटिश सरकार ने रियासतों के अधिकारों, सम्मानों व पदों के प्रति अपनी आस्था प्रकट की तथा गोद लेने की प्रथा को स्वीकार किया गया। महारानी के इस घोषणा-पत्र को भारतीय स्वतन्त्रता का मेग्नाकार्टा (अधिकार देने वाला मूल कानून) कहा जाता है। वास्तव में इस घोषणा से भारतीय जनजीवन को उन्नत करने में कोई लाभ न हुआ, बल्कि व्यवहार में सरकार की नीति आक्रामक, हिंसात्मक, तर्क-विरोधी और पक्षपातपूर्ण रही।

(ii) सेना का पुनर्गठन- अंग्रेजों की सेना में भारी संख्या में भारतीय थे। इन्हीं भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति की थी। अतः अब अंग्रेजी सेना में भारतीय सैनिकों की संख्या भी कम कर दी गई तथा उनकी 77वीं रेजीमेन्ट भंग कर दी गई। विद्रोह से पहले यूरोपीय सैनिकों की संख्या जो 40,000 थी अब 65,000 कर दी गई और भारतीय सेना की संख्या जो पहले 2,38,000 थी अब 1,40,000 निश्चित कर दी गई। तोपखाने पर पूर्णतः अंग्रेजी नियन्त्रण कर दिया गया। भारतीय सैनिकों के पुनर्गठन में जातीयता एवं साम्प्रदायिकता आदि तत्वों को ध्यान में रखकर भारतीय रेजीमेन्टों को गोरखा, पठान, डोगरा, राजपूत, सिक्ख, मराठे आदि में बाँट दिया गया। इस सम्बन्ध में एक अंग्रेज अधिकारी का मत था कि, “भारत में ऐसी सेना होनी चाहिए जो वास्तव में भारतीय न हो।” भारतीयों को सूबेदार की रैंक से ऊपर कोई रैंक नहीं दिए जाने का भी निर्णय किया गया।

(iii) ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का जन्म- अंग्रेजों ने मुसलमानों के प्रति घृणा की नीति अपनाते हुए दिल्ली की जामा मस्जिद और फतेहपुर मस्जिद मुसलमानों की नमाज के लिए बन्द कर दी। मुसलमानों को राजनीतिक व आर्थिक लाभ के पदों से वंचित कर सेना, प्रशासनिक सेवाओं और दरबार से उनका वर्चस्व समाप्त कर दिया गया। इस बारे में लॉर्ड एलनबरो ने कहा था, “मैं इस विश्वास से आँखें नहीं मूंद सकता कि यह कौम (मुसलमान) मूलत: हमारी दुश्मन है। और इसलिए हमारी सच्ची नीति हिन्दुओं से मित्रता की है। इस प्रकार अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का पालन कर दोनों जातियों में वैमनस्य पैदा कर दिया, जो राष्ट्रीय आन्दोलन में घातक सिद्ध हुई और जिसके अन्तिम परिणाम स्वरूप देश का विभाजन हुआ।

(iv) भारतीय रियासतों के प्रति पुरस्कार और दण्ड नीति- 1857 ई० के विद्रोह में ग्वालियर, हैदराबाद, नाभा और जींद के शासकों ने पूरी तरह से अंग्रेजों की मदद की थी। जिसे ब्रिटिश सरकार कायम रखना चाहती थी। विक्टोरिया के घोषणापत्र में वफादार राजाओं, नवाबों, जमींदारों को पुरष्कृत करने और विद्रोहियों को सजा देने की नीति अपनाई गई। 1876 ई० में ब्रिटिश संसद ने एक रॉयल टाइटल्स’ अधिनियम पास कर महारानी विक्टोरिया को भारत में समस्त ब्रिटिश प्रदेश और भारतीय रियासतों सहित भारत की साम्राज्ञी’ की उपाधि से विभूषित किया।

(v) आर्थिक प्रभाव- विद्रोह के पश्चात अंग्रेजों द्वारा नियन्त्रित चाय, कपास, कॉफी, तम्बाकू आदि के व्यापार को तो बढ़ावा दिया गया किन्तु भारतीय कुटीर उद्योगों को संरक्षण नहीं दिया गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत सरकार पर 3 करोड़ 60 लाख पौण्ड का कर्ज छोड़ गई, जिसकी पूर्ति सरकार ने भारतीयों का शोषण करके ही की। इस शोषण से देश निरन्तर गरीब होता गया।

(vi) भारतीय राष्ट्रवाद का उदय- 1857 ई० के विद्रोह की विफलता ने भारतीयों को यह दिखा दिया कि सिर्फ सेना और शक्ति के बल पर ही अंग्रेजों से मुक्ति नहीं मिल सकती थी, बल्कि इसके लिए सभी वर्गों का सहयोग, समर्थन और राष्ट्रीय भावना आवश्यक थी। इसलिए 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से इस दिशा में प्रयास आरम्भ कर दिए गए। 1855 ई० में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से इस विरोध को एक निश्चित दिशा भी मिल गई।

प्रश्न 2.
1857 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम के स्वरूप का विवेचन कीजिए। इसकी असफलता के क्या कारण थे?
उतर:
1857 ई० के स्वाधीनता संग्राम का स्वरूप- उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में जब शिक्षित भारतीयों को फ्रांस की क्रान्ति, यूनान के स्वाधीनता संग्राम, इटली तथा जर्मनी के एकीकरण आदि बातों की जानकारी मिली, तो उनमें भी अंग्रेजी शासन से मुक्ति पाने की भावना उत्पन्न हो गई। अंग्रेजों की दमन व शोषण-नीति से तो भारतीय जनता पहले से ही रुष्ट थी। जनता ने अनेक छोटी-छोटी क्रान्तियों द्वारा अपने असन्तोष का प्रदर्शन भी किया था। लेकिन अंग्रेज सरकार सैनिक बल से इन क्रान्तियों पर काबू पाने में सफल रही। परन्तु 1806 ई० वेल्लौर (कर्नाटक) में हुई सैनिक क्रान्ति ब्रिटिश शासन के विरुद्ध की गई पहली गम्भीर क्रान्ति थी। 1796 ई० में अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय सैनिकों को आदेश दिया कि वे दाढ़ी न रखें, तिलक न लगाएँ, कानों में बालियाँ न पहने और पगड़ी के स्थान पर टोप पहनें। इस आदेश से रुष्ट होकर भारतीय सैनिकों ने क्रान्ति कर दी।

10 जुलाई, 1806 ई० को हुई इस क्रान्ति का दमन करने में अंग्रेजों को सफलता अवश्य मिल गई, परन्तु यह क्रान्ति उस महाक्रान्ति की शुरुआत थी, जो 1857 ई० के स्वाधीनता संग्राम के रूप में प्रकट हुई। सन् 1857 ई० में अंग्रेजी शासकों की अत्याचारपूर्ण तथा दमनकारी नीति के विरुद्ध भारतीयों ने अपनी स्वतन्त्रता के लिए सशस्त्र क्रान्ति की, जिसे भारतीय इतिहास में 1857 ई० की महाक्रान्ति, 1857 ई० की क्रान्ति, प्रथम स्वाधीनता संग्राम तथा सैनिक क्रान्ति आदि नामों से पुकारा जाता है। सर जॉन लॉरेंस के अनुसार, यह एक सैनिक क्रान्ति थी। दूसरी ओर भारतीय विद्वानों वीर सावरकर, अशोक मेहता, डा० सरकार व दत्ता आदि ने इसे भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम और प्रथम राष्ट्रीय आन्दोलन बताया है। अतः स्वाधीनता संग्राम के स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ प्रख्यात विद्वानों के विभिन्न मतों का अध्ययन करना आवश्यक है

(i) ‘सैनिक क्रान्ति’ थी- जो विद्वान इसे सैनिक क्रान्ति स्वीकार करते हैं, उनके तर्क इस प्रकार हैं
(क) इस क्रान्ति को राजाओं और आम जनता का सहयोग नहीं मिला था, क्योंकि यह केवल असन्तुष्ट सैनिकों द्वारा की गई क्रान्ति थी।
(ख) यह क्रान्ति किसी संगठित योजना का परिणाम नहीं थी।
(ख) इस क्रान्ति को ब्रिटिश सरकार ने सफलतापूर्वक दबा दिया था। यदि यह राष्ट्रीय क्रान्ति होती तो इसे दबाना सरल कार्य न होता।
(ग) भारतीय सैनिक अंग्रेज अफसरों के व्यवहार से बहुत असन्तुष्ट थे इसलिए उन्होंने सशस्त्र क्रान्ति की थी।

पी०ई० रॉबर्स ने लिखा है- “यह केवल एक सैनिक क्रान्ति थी, जिसका तत्कालीन कारण कारतूस वाली घटना थी। इसका किसी पूर्वगामी षड्यन्त्र से कोई सम्बन्ध नहीं था।”

सर जॉन सीले के अनुसार- “यह पूर्णतया आन्तरिक क्रान्ति थी, इसका न कोई देशीय नेता था और न इसे सम्पूर्ण जनता का समर्थन ही प्राप्त था।’

विंसेण्ट स्मिथ ने लिखा है- “यह क्रान्ति मुख्य रूप से बंगाल की सेना द्वारा की गई क्रान्ति थी, किन्तु यह सैनिकों तक ही सीमित न रही और शीघ्र ही इसका प्रसार जनता तक हो गया। जनता में असन्तोष और बैचेनी फैली ही थी अतः जनसाधारण ने क्रान्तिकारियों का साथ दिया। इस प्रकार, इसे राष्ट्रीय क्रान्ति न मानकर कुछ वर्गों के असन्तोष का परिणाम माना जाता है।

(ii) प्रथम राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम था- कुछ भारतीय विद्वानों का मत है कि इस क्रान्ति का प्रारम्भ तो सैनिकों ने किया, किन्तु शीघ्र ही इसने जन-क्रान्ति का रूप धारण कर लिया था। इस क्रान्ति में हिन्दू और मुसलमान दोनों ने ही समान रूप से भाग लिया था। वास्तव में, आम जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध व्यापक असन्तोष पहले ही विद्यमान था, केवल किसी अनुकूल अवसर की आवश्यकता थी, जिसको 1857 ई० की सैनिक क्रान्ति ने पूर्ण कर दिया।
(क) डा० एस०एन० सेन का कहना है- “यद्यपि इसका प्रारम्भ धार्मिक मनोभावनाओं के संग्रह के रूप में हुआ था, तथापि इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि क्रान्तिकारी विदेशी सरकार से मुक्त होना चाहते थे और पुरानी व्यवस्था लाना चाहते थे, जिसका नेतृत्व दिल्ली के बादशाह ने किया था।
(ख) जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है- “यह केवल एक सैनिक क्रान्ति ही नहीं थी। यह भारत में शीघ्र ही फैल गई तथा इसने जनजीवन और स्वाधीनता संग्राम का रूप धारण किया।
(ग) अशोक मेहता व वृन्दावनलाल वर्मा ने इसे मात्र सैनिक क्रान्ति ही नहीं माना है। उनके मतानुसार यह राष्ट्रीय क्रान्ति ही थी।

1857 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम की असफलता के कारण- 1857 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम की असफलता के कारणों के लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या-2 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम 1857 ई० के कारणों एवं परिणामों की विवेचना कीजिए।
उतर:
एंग्लो-इण्डियन इतिहासकारों ने सैनिक असन्तोषों तथा चर्बी वाले कारतूसों को ही 1857 ई० के महान् विद्रोह का मुख्य तथा महत्वपूर्ण कारण बताया है, परन्तु आधुनिक भारतीय इतिहासकारों ने यह सिद्ध कर दिया कि चर्बी वाले कारतूस ही इस विद्रोह का एकमात्र कारण अथवा सबसे प्रमुख कारण नहीं था। विद्रोह के कारण अधिक गूढ़ थे और वे सब जून, 1757 के प्लासी के युद्ध से 29 मार्च, 1857 ई० को मंगल पाण्डे द्वारा अंग्रेज अधिकारी की हत्या तक के अंग्रेजी प्रशासन के 100 वर्ष के इतिहास में निहित हैं। चर्बी वाले कारतूस और सैनिकों का विद्रोह तो केवल एक चिंगारी थी, जिसने उन समस्त विस्फोटक पदार्थों को जो राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक कारणों से एकत्रित हुए थे, आग लगा दी और उसने दावानल का रूप धारण कर लिया। भारतीयों के प्रति अंग्रेजों के व्यवहार ने भारतीयों में असन्तोष भर दिया था। यह असन्तोष काफी समय से चला आ रहा था व समय-समय पर छोटे-छोटे विद्रोहों के रूप में परिलक्षित भी हुआ। वास्तव में 1857 ई० की क्रान्ति केवल सैनिक क्रान्ति नहीं थी। इस क्रान्ति के कारणों को छह प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है

(i) राजनीतिक कारण
(ii) सामाजिक कारण
(iii) धार्मिक कारण
(iv) आर्थिक कारण
(v) सैनिक कारण
(vi) तात्कालिक कारण

(i) राजनीतिक कारण- विद्रोह के अधिकांश राजनीतिक कारण डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति से उत्पन्न हुए थे। डलहौजी के गोद-निषेध सिद्धान्त से भारतीय जनता उत्तेजित हो उठी थी। इस नीति के आधार पर सतारा, नागपुर, झाँसी, सम्भलपुर, जैतपुर, उदयपुर इत्यादि राज्यों को जबरदस्ती अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया गया। अवध अंग्रेजों का सर्वाधिक घनिष्ठ मित्र राज्य था, परन्तु उसका भी अपहरण कर लिया गया। जी०बी० मालेसन ने लिखा है कि “अवध को अंग्रेजी राज्य में मिलाए जाने और वहाँ पर नई पद्धति आरम्भ किए जाने से मुस्लिम कुलीनतन्त्र, सैनिक वर्ग, सिपाही और किसान सब अंग्रेजों के विरुद्ध हो गए और अवध असन्तोष का बड़ा भारी केन्द्र बन गया।”

तन्जौर के राजा और कर्नाटक के नवाब के मरने के बाद उनकी उपाधियाँ समाप्त कर दी गईं। 1831 ई० के बाद मैसूर के राजा को भी पेंशन दे दी गई थी और पेशवा बाजीराव द्वितीय को उसके उत्तराधिकार से वंचित कर दिया। इससे भारतीय राजाओं में असन्तोष और आतंक फैल गया। इतना ही नहीं अनेक राज्यों; जैसे नागपुर में शाही सामान की खुली नीलामी की गई, वहाँ की रानियों को अपमानित किया गया। राजाओं की पेंशन बन्द कर दी गईं। पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब व झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को उनके राज्यों से वंचित कर दिया गया। इससे लोगों को लगा कि जब राजा-महाराजाओं का यह हाल है, तो सामान्य जनता का क्या होगा?

अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह द्वितीय को भी कम्पनी की सरकार ने नहीं बख्शा। लॉर्ड एलनबरो ने बहादुरशाह को भेंट देनी बन्द कर दी थी। सिक्कों पर से उसका नाम हटा दिया गया। डलहौजी ने बहादुरशाह को दिल्ली का लाल किला खाली करने और दिल्ली के बाहर कुतुब (महरौली) में रहने के लिए भी कहा। लॉर्ड डलहौजी की साम्राज्यवादी नीतियों से क्रान्ति की भावना और उग्र हुई। अपनी नीतियों के कारण लॉर्ड डलहौजी ने जिन राज्यों का अपहरण किया, वहाँ के उच्च पदाधिकारियों को बर्खास्त करके अंग्रेजों को नियुक्त कर दिया।

अंग्रेजों की नीति यह थी कि उच्च पदों पर भारतीयों को न बैठाया जाए, इस नीति के कारण लगभग 60,000 सैनिक व राज्य के कर्मचारी बेकार हो गए थे, जो अंग्रेजों के घोर शत्रु बन गए। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों ने कभी-भी भारतीयता को नहीं अपनाया, यद्यपि प्रारम्भ में मुस्लिमों को विदेशी समझा जाता था परन्तु यह भेद धीरे-धीरे खत्म हो गया था व हिन्दू तथा मुस्लिम केवल भारतीय होने की भावना से परस्पर कार्य करते थे। अंग्रेजों ने हमेशा शासक वर्ग की भाँति कार्य किया, वे केवल अपने राष्ट्र (इंग्लैण्ड) के कल्याण के विषय में सोचते थे। भारतीय शासित वर्ग शनैः शनैः निर्धन होता जा रहा था। भारतीय शासित वर्ग, जैसे- जमींदारों आदि ने विद्रोह के समय क्रान्तिकारियों की धन से सहायता की।

(ii) सामाजिक कारण- अंग्रेजों ने भारतीय रीति-रिवाजों की अवहेलना करके अपनी सभ्यता को जबरन भारतीयों पर थोपने का प्रयास किया। भारत के लोगों में अंग्रेजी शिक्षा को लेकर बहुत अविश्वास था। उन्हें लगता था कि अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से सम्भवतः उन्हें ईसाई बनाने के प्रयास कर रहे हैं। अंग्रेजों ने भारतीय धार्मिक शिक्षा का बहिष्कार किया तथा जाति के नियमों का भी उल्लंघन किया। अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार द्वारा अंग्रेजों ने एक ऐसा वर्ग निर्मित कर दिया, जो भारतीय होते हुए भी भारतीय रीति-रिवाजों को हेय दृष्टि से देखने लगा। अंग्रेजों ने भारतीय रीति-रिवाजों का अपमान व अवहेलना की। इसके अतिरिक्त तत्कालीन भारत में अनेक कुप्रथाएँ विद्यमान थीं। अंग्रेजों ने भारतीय समाज को सुधारने के लिए सतीप्रथा, बाल-विवाह, बाल हत्या आदि कुप्रथाओं के विरुद्ध नियम बनाने प्रारम्भ किए। यद्यपि अंग्रेजों ने इन कुप्रथाओं को हटाकर भारत का कल्याण ही किया तथापि रूढ़िवादी भारतीय अंग्रेजों के प्रत्येक कार्य को संदिग्ध दृष्टि से देखते थे। इन सुधारों ने भारतीयों के असन्तोष में वृद्धि की।

(iii) धार्मिक कारण- अंग्रेज व्यापारियों के साथ ईसाई धर्म प्रचारक भी भारत में आ बसे, यद्यपि अंग्रेजों ने मुस्लिम शासकों की भाँति अपना धर्म किसी पर थोपा नहीं परन्तु सन् 1850 ई० में पास किए गए धार्मिक अयोग्यता अधिनियम द्वारा लार्ड डलहौजी ने हिन्दुओं के उत्तराधिकार नियमों में परिवर्तन किए। अभी तक नियम यह था कि धर्म परिवर्तन करने की दशा में व्यक्ति अपनी पैतृक सम्पत्ति से वंचित हो जाता था परन्तु ईसाई धर्म को अपनाने पर वह व्यक्ति अपनी पैतृक सम्पत्ति का अधिकारी बना रह सकता था। सन् 1813 ई० के चार्टर ऐक्ट द्वारा ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार की आज्ञा मिल गई थी, जिससे वे खुले रूप में हिन्दू देवी-देवताओं व मुस्लिम पैगम्बरों को बुरा-भला कहने लगे। ईसाई धर्म अपनाने वाले व्यक्तियों को उच्च पदों पर प्राथमिकता मिलती थी। अनेक बार ये धर्म प्रचारक उद्दण्डता का व्यवहार भी करते थे। इसलिए भारतीयों को इन धर्म प्रचारकों से घृणा होने लगी थी। बेरोजगारों, अनाथों, वृद्धों व विधवाओं को प्रलोभन देकर व बलपूर्वक ईसाई बना लिया जाता था।

(iv) आर्थिक कारण- भारत प्रारम्भ से ही धन सम्पन्न देश था। भारत में समय-समय पर अनेक आक्रमणकारी आए, जिन्होंने भारत की धन-सम्पदा को लूटा तब भी भारत में कभी धन का अभाव नहीं रहा। मुगलों के बादशाहों ने भारत का धन अपनी शानो-शौकत पर लुटाया तथा भारत के अपार धन को अपनी विलासिता पर खर्च किया तब भी भारत एक धनी देश बना रहा क्योंकि विदेशियों व मुगलों ने भारत के आय के स्रोतों पर कभी प्रहार नहीं किया। अंग्रेजों ने भारत में ‘मुक्त व्यापार नीति लागू की, जो भारतीय व्यापार व उद्योगों के विरुद्ध थी। इंग्लैण्ड में बना कपड़ा भारत में सस्ते दामों पर बेचा जाने लगा तथा भारत के कच्चे माल काफी कम कीमत पर इंग्लैण्ड भेजे जाने लगे, जिससे भारतीय वस्त्र उद्योग नष्ट हो गया। देशी रियासतों के अंग्रेजी राज्यों में मिल जाने से भी बेरोजगारी में वृद्धि हुई क्योंकि अंग्रेज उच्च प्रशासनिक पदों पर भारतीयों की नियुक्ति नहीं करते थे। भारत में बढ़ती बेरोजगारी की समस्या का निदान करना अंग्रेज अपना कर्त्तव्य नहीं समझते थे। इस प्रकार अंग्रेजों ने भारतीय समाज के आर्थिक ढाँचे को अस्त-व्यस्त कर दिया।

(v) सैनिक कारण- अंग्रेजों ने भारतीय सैनिकों के सहारे से ही भारत में अपनी स्थिति मजबूत की थी। भारतीय सैनिकों की संख्या अंग्रेजी सेना में लगभग 2,50,000 थी जबकि अंग्रेज 90,000 से भी कम थे, परन्तु समस्त उच्च पद केवल अंग्रेजों को ही प्राप्त थे। अंग्रेजी सैनिकों को भारतीयों से अधिक वेतन व अन्य सुविधाएँ मिलती थीं।

एक साधारण सैनिक का वेतन सात या आठ रुपए मासिक होता था और इस वेतन में से ही उनके खाने का खर्च व वर्दी के पैसे काटकर उन्हें मात्र डेढ़ या दो रुपए दिए जाते थे, जिससे उनको पेट पालना भी मुश्किल होता था। इसी प्रकार एक भारतीय सूबेदार का वेतन 35 रुपए मासिक था, जबकि अंग्रेज सूबेदार को 195 रुपए मासिक वेतन मिलता था।

युद्ध आदि के अवसरों पर भारतीय सैनिकों को भारत से बाहर भी भेजा जाता था, जिससे उनकी सामाजिक व धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचती थी, क्योंकि उस समय विदेश जाना सामाजिक दृष्टि से खराब माना जाता था तथा उस व्यक्ति को बिरादरी से निष्कासित कर दिया जाता था। इसके अतिरिक्त भारतीय सैनिक उच्च जाति के थे, किन्तु अंग्रेज उनके साथ अत्यन्त अभद्र व्यवहार करते थे। अंग्रेज अधिकारी भारतीय सैनिकों को भद्दी-भद्दी गालियाँ देते थे तथा उन्हें निग्गर या काला आदमी कहकर मजाक उड़ाते थे। यही कारण था कि भारतीय सैनिकों ने समय-समय पर विद्रोह कर अपनी भावनाओं को स्पष्ट किया।

यद्यपि सरकार ने इनका कठोरतापूर्वक दमन तो कर दिया, किन्तु भारतीय सैनिकों के हृदयों में आक्रोश निरन्तर बढ़ता रहा जो चर्बी वाले कारतूसों की घटना के रूप में प्रस्फुटित हुआ। इन कारतूसों ने कोई नवीन कारण प्रस्तुत नहीं किया अपितु एक ऐसा अवसर प्रदान किया, जिससे उनके भूमिगत असन्तोष प्रकट हो गए। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों ने अनेक धर्म विरुद्ध नियम बना दिए थे। उस समय समुद्री यात्रा को धर्म विरोधी माना जाता था। 1856 ई० के General Service Enlistment Act के अनुसार जो सैनिक समुद्र पार के स्थलों पर जाने के लिए मना करेगा उसका सेना से निष्कासन कर दिया जाएगा। सैनिकों ने समझा इन कानूनों से अंग्रेजी सरकार उन्हें धर्मविहीन करना चाहती है।

(vi) तात्कालिक कारण- सैनिकों के असन्तोष का तात्कालिक कारण नए कारतूसों का प्रयोग था। कम्पनी सरकार ने पुरानी ब्राउन बैस बन्दूक की जगह जनवरी, 1857 से नई एनफील्ड राइफल का प्रयोग आरम्भ किया। इस राइफल में जो कारतूस भरी जाती थी, उसे दाँत से काटना पड़ता था। बंगाल सेना में यह अफवाह फैल गई कि इस कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी मिली हुई है। इससे हिन्दू-मुसलमान सैनिकों में भयंकर रोष उत्पन्न हो गया। उनके मन में यह बात बैठ गई कि सरकार उनका धर्म भ्रष्ट करने पर तुली हुई है और उन्हें ईसाई बनाना चाहती है। इस घटना ने उस आग को जलाया जिसके लिए लकड़ियाँ पहले से ही इकट्टठा हो चुकी थीं। लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि “कम्पनी औरंगजेब की भूमिका में है। और सैनिकों को शिवाजी बनना ही है।” अत: सेना अपने धर्म की रक्षा के लिए कटिबद्ध हो गई। 1857 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम के परिणाम- इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
1857 ई० की क्रान्ति के आरम्भ तथा दमन का विस्तृत वर्णन कीजिए।
उतर:
1857 ई० की क्रान्ति का आरम्भ व दमन- कुछ विद्वान 1857 ई० की क्रान्ति को अनियोजित मानते हैं। परन्तु कुछ विद्वानों के अनुसार यह पूर्वनियोजित क्रान्ति थी, जिसका नेतृत्व अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नेताओं ने किया। क्रान्ति का दिन 31 मई, 1857 निर्धारित किया गया था किन्तु कुछ अप्रत्यक्ष कारणों से इसकी शुरुआत 29 मार्च, 1857 को बैरकपुर में सैनिकों द्वारा हो गई थी। क्रान्ति के प्रचार का माध्यम कमल का फूल व चपाती थी। क्रान्तिकारियों ने यह निर्णय भी किया था कि क्रान्ति के शुरू होते ही मुगल बादशाह बहादुरशाह को भारत का सम्राट घोषित करके उनके नाम पर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध किया जाएगा। योजनानुसार 31 मई को अंग्रेज कर्मचारियों की हत्या करके जेलों को तोड़ दिया जाएगा तथा कैदियों को आजाद करा लिया जाएगा। रेल व तार की लाइनें काट दी जाएँगी। सरकारी कोष व तोपखानों पर अधिकार करके प्रमुख दुर्गों को अपने अधीन कर लिया जाएगा। परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ और क्रान्ति का आरम्भ समय से पहले हो गया। जिनमें प्रमुख क्रान्तियों का विवरण निम्नलिखित है

(i) बैरकपुर में क्रान्ति- सर्वप्रथम बैरकपुर छावनी के सिपाहियों ने 6 अप्रैल, 1857 ई० को चर्बी वाले कारतूस का प्रयोग करने से इनकार कर दिया। लॉर्ड रॉबर्ट ने अपनी पुस्तक ‘भारत में 40 वर्ष में लिखा है- “मिस्टर फोरस्ट की आधुनिक खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि कारतूसों में चर्बी मिली हुई थी, जिसके कारण सिपाहियों को आपत्ति थी। इन कारतूसों के कारण सिपाहियों की धार्मिक भावना भड़की।” इस पर क्रुद्ध होकर अंग्रेज अफसरों ने उनको पदच्युत करने की धमकी दी तथा उनको नि:शस्त्र कर दिया गया।

कुछ सैनिकों ने तो चुपचाप अस्त्र वापस कर दिए किन्तु मंगल पाण्डे के नेतृत्व में कुछ सैनिकों ने क्रान्ति कर दी। मंगल पाण्डे को बन्दी बनाने की आज्ञा मिली। किन्तु जो व्यक्ति उसको बन्दी बनाने के लिए आगे बढ़ रहा था, उसको मंगल पाण्डे की गोली का शिकार बनना पड़ा। एक अन्य अफसर की भी मंगल पाण्डे ने हत्या कर डाली, किन्तु अन्त में वह घायल हो गया तथा उसे बन्दी बनाकर उस पर अभियोग चलाया गया और उसे 8 अप्रैल, 1857 ई० को प्राणदण्ड मिला। जिन सैनिकों ने क्रान्ति की थी, उन्हें सार्वजनिक रूप से पदच्युत किया गया, उनकी संगीने छीन ली गईं तथा उन्हें जेल में कैद कर दिया गया। इस प्रकार क्रान्ति की ज्वाला अप्रैल में ही भड़कनी प्रारम्भ हो गई।

(ii) मेरठ में क्रान्ति- बैरकपुर के बाद यह विद्रोह मेरठ में हुआ। 24 अप्रैल, 1857 ई० को मेरठ छावनी के नब्बे सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूसों के प्रयोग से मना कर दिया। परिणामस्वरूप मई की परेड में 85 सैनिकों को सेना से हटा दिया गया और मेरठ जेल में बन्द कर दिया गया था। 10 मई को सैनिकों ने खुला विद्रोह कर दिया और अपने अधिकारियों पर गोलियाँ चलाईं। अपने साथियों को मुक्त करवाकर वे लोग दिल्ली की ओर चल पड़े। जनरल हेविट के पास 2,200 यूरोपीय सैनिक थे, परन्तु उसने इस तूफान को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया।

(iii) दिल्ली में क्रान्ति- दिल्ली में क्रान्तिकारियों ने 11 मई, 1857 ई० को प्रवेश किया। वहाँ के भारतीय सैनिकों ने क्रान्तिकारियों का स्वागत किया तथा उनसे जा मिले। उन्होंने अंग्रेज अफसरों की हत्या कर डाली तथा दिल्ली पर सफलतापूर्वक क्रान्तिकारियों का अधिकार हो गया। 16 मई तक अंग्रेजों का हत्याकाण्ड चलता रहा। क्रान्तिकारियों के अनरोध पर मगल बादशाह बहादरशाह द्वितीय ने क्रान्तिकारियों द्वारा दिल्ली विजय की घोषणा की। यह समाचार कछ ही दिनों में समस्त उत्तरी भारत में फैल गया। अनेक स्थानों पर बहादुरशाह का हरा झण्डा फहराने लगा और विभिन्न स्थानों से भारतीय सैनिक खजाने सहित दिल्ली की ओर प्रस्थान करने लगे।

24 मई तक अलीगढ़, इटावा, मैनपुरी और दिल्ली का निकटवर्ती पड़ोसी प्रदेश स्वतन्त्र हो गया। जहाँ क्रान्तिकारियों के प्रमुख गढ़ थे, वहाँ पर क्रान्ति का भयंकर रूप प्रारम्भ हो गया। उदाहरण के लिए मध्य भारत में ताँत्या टोपे, बिहार में कुंवरसिंह साहब, झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई तथा कानपुर में नाना साहब आदि ने क्रान्ति कर दी। क्रान्तिकारियों ने पूर्व निश्चित कार्यक्रम के अनुसार बन्दीगृह तोड़कर बन्दियों के मुक्त। किया, अंग्रेजों की हत्या की तथा उनके कोष एवं शास्त्रागारों पर अधिकार करने का प्रयास किया। दिल्ली के आस-पास के नगरों से क्रान्तिकारी दिल्ली में एकत्रित होने लगे। भारतीय सैनिकों ने दिल्ली की ओर बख्त खाँ के नेतृत्व में प्रस्थान किया। इस समय नाना साहब कानपुर में थे। उन्होंने वहीं अपने को स्वतन्त्र पेशवा घोषित करके क्रान्तिकारियों का नेतृत्व आरम्भ कर दिया। मध्य भारत में क्रान्ति का नेता मराठा सरदार ताँत्या टोपे था तथा झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने बुन्देलखण्ड में क्रान्ति का बिगुल बजा दिया। परन्तु अन्य स्थानों पर जनता का रुख उदासीन रहा। ग्वालियर, हैदराबाद, कश्मीर के शासकों तथा सिक्खों की सहायता से अंग्रेजों ने क्रान्ति का दमन कर दिया।

इस क्रान्ति का दमन सर्वप्रथम दिल्ली से प्रारम्भ हुआ। सेनापति एंसन ने एक सेना लेकर दिल्ली के लिए प्रस्थान किया। एंसन को मार्ग में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा किन्तु पंजाब के कमिश्नर सर जॉन लॉरेंस की सहायता से उसने दिल्ली पर आक्रमण किया। पंजाब के सिक्खों ने क्रान्ति में बिलकुल भी भाग नहीं लिया तथा पंजाब की सेना ने दिल्ली पर पुनः अधिकार करने में अंग्रेजों की सहायता की। इस समय तक एंसन तथा उसके पश्चात् बनने वाले सेनापति कर्नाड क्रान्तिकारियों द्वारा समाप्त किए जा चुके थे। विल्सन ने सेनापति का पद ग्रहण करके दिल्ली पर आक्रमण किया किन्तु उसे कई बार भारतीय सेनाओं से बुरी तरह पराजित होना पड़ा। प्रारम्भ में अंग्रेजी सेना की संख्या कम थी, इसलिए इसने केवल रक्षात्मक नीति ही अपनाई और दिल्ली को घेरे हुए पड़ी रही। दो-तीन महीने के घेरे के बाद सितम्बर 1857 ई० में जनरल निकल्सन के नेतृत्व में पंजाब से एक नई सेना आ जाने पर कम्पनी की सेनाओं में आशा का संचार हुआ और अंग्रेजों ने दिल्ली पर आक्रमण कर दिया। कश्मीरी गेट को अंग्रेजी सेना ने बारूद से उड़ा दिया तथा 6 दिनों के भयंकर युद्ध के पश्चात् उन्होंने दिल्ली नगर एवं लाल किले पर अधिकार कर लिया।

(iv) कानपुर तथा झाँसी में क्रान्ति-4 मार्च, 1857 को कानपुर में भी विद्रोह प्रारम्भ हो गया। कानपुर अंग्रेजों के हाथ से 5 जून को निकल गया। नाना साहब को पेशवा घोषित कर दिया गया। जनरल सर ह्यू व्हीलर ने 27 जून को आत्मसमर्पण कर दिया। कुछ यूरोपीय पुरुष, महिलाओं तथा बालकों की हत्या कर दी गई। वहाँ पेशवा नाना साहब को अपने दक्ष तात्या टोपे की सहायता भी प्राप्त हो गई। सर कैम्बल ने कानपुर पर 6 दिसम्बर को पुनः अधिकार कर लिया। तात्याँ टोपे भाग निकले और झाँसी की रानी से जा मिले।

जून 1857 के आरम्भ में सैनिकों ने झाँसी में भी विद्रोह कर दिया। गंगाधर राव की विधवा रानी की रियासत की शासिका घोषित कर दिया गया। कानपुर के पतन के पश्चात् तात्या टोपे भी झॉसी पहुंच गए थे। सर ह्यूरोज ने झाँसी पर आक्रमण करके 3 मार्च, 1858 को पुन: उस पर अधिकार कर लिया।

झाँसी की रानी तथा तात्याँ टोपे ने ग्वालियर की ओर अभियान किया, जहाँ भारतीय सैनिकों ने उनका स्वागत किया, परन्तु ग्वालियर का राजा सिन्धिया राजभक्त बना रहा और उसने आगरा में शरण ली। लेकिन 17 जून, 1858 को रानी लक्ष्मीबाई बड़ी वीरता से सैनिक वेश में संघर्ष करती हुई वीरगति को प्राप्त हुई।

अंग्रेजों ने सर्वत्र क्रान्ति को दबा दिया था तथा क्रान्ति के प्रमुख नेता समाप्त कर दिए गए थे। केवल ताँत्या टोपे बचा था। उसके पास धन और सेना दोनों का अभाव था। उसने दक्षिण में जाकर वहाँ के राज्यों में क्रान्तिकारी विचारों का प्रचार प्रारम्भ किया, किन्तु अंग्रेज उसका निरन्तर पीछा करते रहे। दस महीने तक वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर भागता रहा और सेना का संगठन करता रहा। अंग्रेज लोग अथक प्रयास करके भी उसको पकड़ने में असमर्थ रहे, किन्तु अन्त में ताँत्या टोपे के पुराने एवं विश्वासी मित्र ने उसके साथ विश्वासघात किया और उसे अलवर में अंग्रेजों द्वारा पकड़वा दिया। उस पर अभियोग चलाया गया। अन्ततः भारतमाता के वीर सपूत तथा 1857 की क्रान्ति के इस महान् अन्तिम नेता को 18 अप्रैल, 1859 ई० में मृत्युदण्ड दे दिया गया।

इस प्रकार समय से पहले आरम्भ हुई यह नेतृत्वहीन क्रान्ति अंग्रेजों द्वारा दबा दी गई। परन्तु इसके दूरगामी परिमाण हुए।

प्रश्न 5.
1857 ई० का विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रथम चरण था। इस कथन से अपनी सहमति का विवरण दीजिए।
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-2 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 7 Political Parties

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 7
Chapter Name Political Parties (राजनीतिक दल)
Number of Questions Solved 34
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 7 Political Parties (राजनीतिक दल)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
राजनीतिक दलों से आप क्या समझते हैं? लोकतन्त्र में इनका क्या महत्त्व है? [2014, 16]
या
लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों की क्या उपयोगिता है? क्या अधिक राजनीतिक दल होने से लोकतन्त्र अधिक सुदृढ़ हो सकता है। दो तर्क देकर समझाइए। [2012]
या
राजनीतिक दल से आप क्या समझते हैं? प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली में राजनीतिक दलों के महत्त्व का मूल्यांकन कीजिए। [2010]
या
लोकतन्त्र (प्रजातन्त्र) में राजनीतिक दलों का महत्त्व संक्षेप में बताइए। [2012]
उत्तर
राजनीतिक दल का अर्थ
मानव एक विवेकशील प्राणी है और एक विवेकशीलता के कारण भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा विभिन्न प्रकार से विचार किया जाता है। विचारों की इसे विभिन्नता के साथ-ही-साथ अनेक व्यक्तियों में विचारों की समानता भी पायी जाती है। राजनीतिक और आर्थिक प्रश्नों पर समान विचारधारा रखने वाले ये व्यक्ति शासन-शक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से जिन संगठनों का निर्माण करते हैं, उन्हें राजनीतिक दल कहा जाता है।

एडमण्ड बर्क के अनुसार, “राजनीतिक दल ऐसे लोगों का एक समूह होता है जो किसी ऐसे सिद्धान्त के आधार पर जिस पर वे एकमत हों, अपने सामूहिक प्रयत्न द्वारा जनता के हित में काम करने के लिए एकता में बँधे होते हैं।” प्रजातन्त्र में राजनीतिक दलों के महत्त्व को निम्नलिखित रूपों में स्पष्ट किया जा सकता है-

प्रजातन्त्र में राजनीतिक दलों का महत्त्व
1. स्वस्थ लोकमत के निर्माण के लिए आवश्यक – प्रजातन्त्र शासन लोकमत पर आधारित होता है और स्वस्थ लोकमत के अभाव में सच्चे प्रजातन्त्र की कल्पना असम्भव है। इस लोकमत के निर्माण तथा उसकी अभिव्यक्ति राजनीतिक दलों के आधार पर ही सम्भव है। इस सम्बन्ध में राजनीतिक दल जलसे एवं अधिवेशन आयोजित करते हैं तथा एजेण्ट, व्याख्यानदाताओं और प्रचारकों के माध्यम से जनता को शिक्षित करने का प्रयास करते हैं। राजनीतिक दल स्थानीय एवं राष्ट्रीय समाचार-पत्रों एवं प्रचार के आधार पर अपनी नीति जनता के सम्मुख रखते हैं।

2. चुनावों के संचालन के लिए आवश्यक – जब मताधिकार बहुत अधिक सीमित था और निर्वाचकों की संख्या कम थी, तब स्वतन्त्र रूप से चुनाव लड़े जा सकते थे, लेकिन अब सभी देशों में वयस्क मताधिकार को अपना लिये जाने के कारण स्वतन्त्र रूप से चुनाव लड़ना असम्भव हो गया है। ऐसी स्थिति में राजनीतिक दल अपने दल की ओर से उम्मीदवारों को खड़ा करते और उनके पक्ष में प्रचार करते हैं। यदि राजनीतिक दल न हों तो आज के विशाल लोकतन्त्रात्मक राज्यों में चुनावों का संचालन लगभग असम्भव ही हो जाये।

3. सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व के लिए आवश्यक – प्रजातन्त्र के लिए यह आवश्यक है। कि देश के शासन में जनता के सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व प्राप्त होना चाहिए और इस बात को राजनीतिक दलों के द्वारा ही सम्भव बनाया जाता है। देश के विभिन्न वर्ग अलग-अलग राजनीतिक दलों के रूप में संगठित होकर अपनी विचारधारा का प्रचार और प्रसार करते हैं। तथा उनके द्वारा व्यवस्थापिका में प्रतिनिधित्व प्राप्त किया जाता है।

4. सरकार के निर्माण तथा संचालन के लिए आवश्यक – निर्वाचन के बाद राजनीतिक दलों के आधार पर ही सरकार का निर्माण कर सकना सम्भव होता है और यह बात संसदात्मक एवं अध्यक्षात्मक दोनों ही प्रकार की शासन-व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में नितान्त सत्य है। राजनीतिक दलों के अभाव में व्यवस्थापिका के सदस्य ‘अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग’ की प्रवृत्ति को अपना लेंगे और सरकार का निर्माण असम्भव हो जायेगा। न केवल सरकार को निर्माण, वरन् व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में सम्बन्ध स्थापित कर राजनीतिक दल सरकार के संचालन को भी सम्भव बनाते हैं।

5. शासन सत्ता को मर्यादित रखना – प्रजातन्त्र आवश्यक रूप से सीमित शासन होता है, लेकिन यदि प्रभावशाली विरोधी दल का अस्तित्व न हो तो प्रजातन्त्र असीमित शासन में बदल जाता है। यदि बहुसंख्यक राजनीतिक दल शासन सत्ता के संचालन का कार्य करता है तो अल्पसंख्यक दल विरोधी दल के रूप में कार्य करते हुए शासन शक्ति को सीमित रखने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इस दृष्टि से प्रजातन्त्र में न केवल बहुसंख्यक दल, वरन् अल्पसंख्यक दल का भी अपना और बहुसंख्यक दल के समान ही महत्त्व होता है।

राजनीतिक दलों के महत्त्व के सम्बन्ध में मैकाइवर ने ठीक ही कहा है, “बिना दलीय संगठन के किसी सिद्धान्त का एक होकर प्रकाशन नहीं हो सकता, किसी भी नीति का क्रमबद्ध विकास नहीं हो सकता, संसदीय चुनावों की वैधानिक व्यवस्था नहीं हो सकती और न ऐसी मान्य संस्थाओं की ही व्यवस्था हो सकती है, जिनके द्वारा कोई भी दल शक्ति प्राप्त करता है।” साधारणतया एक देश के विधान या कानून में राजनीतिक दलों का उल्लेख नहीं होता है, किन्तु व्यवहार में इन राजनीतिक दलों का अस्तित्व भी उतना ही आवश्यक और उपयोगी होता है जितना कि विधान या कानून। अमेरिकी संविधान-निर्माता किसी भी रूप में अपने देश में राजनीतिक दलों को पनपने नहीं देना चाहते थे, लेकिन संविधान को कार्यरूप प्राप्त होते ही दलीय संगठन अमेरिकी राजनीतिक जीवन की एक प्रमुख विशेषता बन गये और वर्तमान समय में राजनीतिक दलों की कार्य-व्यवस्था का अध्ययन किये बिना अमेरिकी शासन-व्यवस्था के यथार्थ रूप का ज्ञान प्राप्त करना नितान्त असम्भव ही है।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है। कि आधुनिक राजनीतिक जीवन के लिए दलीय संगठनों का बड़ा महत्त्व है और इनके बिना लोकतन्त्र की सफलता सम्भव ही नहीं है। बर्क के शब्दों में, “दल प्रणाली, चाहे वह पूर्णरूप से भले के लिए या बुरे के लिए, प्रजातन्त्रात्मक शासन-व्यवस्था के लिए अनिवार्य है। इसी प्रकार लॉर्ड ब्राइस लिखते हैं कि, “राजनीतिक दल अनिवार्य है। कोई स्वतन्त्र देश उसके बिना नहीं रह सका है। कोई भी यह नहीं बता सका है कि प्रतिनिधि सरकार किस प्रकार उसके बिना चलायी जा सकती है।”

प्रश्न 2.
राजनीतिक दल की परिभाषा लिखिए तथा इसके कार्यों की विवेचना कीजिए। [2014, 16]
या
लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों की भूमिका का वर्णन कीजिए। [2016]
या
राजनीतिक दलों के प्रमुख कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2014]
या
संसदीय लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों की भूमिका का परीक्षण कीजिए। [2008, 10, 16]
या
संसदीय शासन में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की भूमिका और उपयोगिता का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। [2013]
उत्तर
राजनीतिक दल की परिभाषा
राजनीतिक दल प्रजातन्त्र की आधारशिला हैं। इन्हें प्रजातन्त्र का प्राण’ तथा ‘सरकार का चतुर्थ अंग’ कहा गया है। यही कारण है कि लोकतन्त्रीय शासन को दलीय शासन भी कहा गया है।

विभिन्न विचारकों द्वारा प्रतिपादित राजनीतिक दल की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
गैटिल के मतानुसार, “एक राजनीतिक दल न्यूनाधिक संगठित उन नागरिकों का समूह होता है, जो राजनीतिक इकाई के रूप में कार्य करते हैं और जिनका उद्देश्य मतदान की शक्ति के आधार पर सरकार पर नियन्त्रण करना तथा अपनी सामान्य नीतियों को कार्यान्वित करना होता है।”
न्यूमैन के शब्दों में, “राजनीतिक दल एक स्वतन्त्र समाज में नागरिकों के उस समुदाय को कहते हैं, जो शासन-तन्त्र को नियन्त्रित करना चाहता है और लोकमत की शक्ति के आधार पर अपने सदस्यों को सरकारी पदों पर भेजने का प्रयास करता है।”

एडमण्ड बर्क के अनुसार, “राजनीतिक दल को आशय मनुष्य के उस समूह से है, जो किसी स्वीकृत सिद्धान्त के आधार पर सामूहिक प्रयासों द्वारा राष्ट्रीय हितों की वृद्धि के लिए संगठित होता है।”
लॉस्की के अनुसार, “राजनीतिक दल नागरिकों का वह संगठित समूह है जो एक संगठन के रूप में कार्य करता है।”
सामान्य शब्दों में, यह ऐसा समुदाय है जो सार्वजनिक महत्त्व के प्रश्नों पर सामान्य दृष्टिकोण रखता है तथा जो अपने सिद्धान्तों को कार्यान्वित करने के लिए शासन पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न करता है।

लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों के कार्य
(लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों की भूमिका)
राजनीतिक दल लोकतन्त्रात्मक शासन की जीवन-शक्ति है और आधुनिक लोकतन्त्रात्मक राज्यों में राजनीतिक दलों के द्वारा साधारणतया निम्नलिखित कार्य किये जाते हैं-

1. सुदृढ़ संगठन स्थापित करना – “संगठन में ही शक्ति निहित होती है और कोई भी राजनीतिक दल सुदृढ़ संगठन के बिना अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। अत: प्रत्येक राजनीतिक दल का प्रथम कार्य अपना संगठन स्थापित करना और उसे अधिकाधिक सुदृढ़ करना होता है। इस दृष्टि से राजनीतिक दल केन्द्रीय, प्रान्तीय और स्थानीय स्तर पर संगठन स्थापित करते और इन सभी इकाइयों को एक-सूत्र में पिरोते हैं।

2. दलीय नीति निर्धारित करना – प्रत्येक राजनीतिक दल की अपनी एक नीति और एक विचारधारा होना आवश्यक है। अतः राजनीतिक दल बाहरी क्षेत्र में वैदेशिकी सम्बन्धों और आन्तरिक क्षेत्र में अर्थव्यवस्था, खाद्य, यातायात, शिक्षा, रोजगार और अन्य प्रमुख बातों के सम्बन्ध में अपनी नीति निर्धारित करता है। इसके साथ ही राजनीतिक दल यह भी स्पष्ट करता है कि विभिन्न विषयों के सम्बन्ध में उसकी नीति ही क्यों सबसे अधिक उचित है।

3. दलीय नीति का प्रचार और प्रसार कर अपनी शक्ति बढ़ाना – राजनीतिक दल का लक्ष्य मत पेटी के तरीके से सत्ता प्राप्त करना होता है और इसके लिए उनके द्वारा अपनी दलीय नीति का अधिक-से-अधिक प्रचार और प्रसार किया जाता है। राजनीतिक दल इस बात की कोशिश करता है कि उसके दल के सदस्यों की संख्या में अधिक-से-अधिक वृद्धि हो। इसके अलावा प्रत्येक राजनीतिक दल अपने लिए ऐसे व्यक्तियों की सहानुभूति और समर्थन प्राप्त करने का प्रयत्न करता है जो किसी भी दल के साथ अनिवार्य रूप से बँधे हुए नहीं हों, राजनीतिक दलों के द्वारा इसके लिए प्रेस, प्लेटफॉर्म, साहित्य के प्रकाशन और अन्य साधनों को अपनाया जाता है।

4. लोकमत का निर्माण – वर्तमान समय की जटिल सार्वजनिक समस्याओं को राजनीतिक दले जनता के सामने ऐसे रूप में प्रस्तुत करते हैं कि साधारण जनता उन्हें समझ सके। जब विविध राजनीतिक दल समस्याओं के सम्बन्ध में अपने दृष्टिकोण का प्रतिपादन करते हैं, तो साधारण जनता इन समस्याओं को भली प्रकार समझकर निर्णय कर सकती है और स्वस्थ लोकमत का निर्माण सम्भव होता है।

5. उम्मीदवारों का चयन व उन्हें विजयी बनाना – प्रत्येक राजनीतिक दल सार्वजनिक पदों के लिए अपने उम्मीदवारों का चयन करता है और अपने उम्मीदवारों की विजय के लिए प्रत्येक सम्भव चेष्टा करता है। राजनीतिक दलों के माध्यम से ही लोकतन्त्र में निर्धन, किन्तु योग्य व्यक्तियों को देश की सेवा करने का अवसर प्राप्त होता है।

6. धन एकत्रित करना – अपनी विचारधारा तथा नीति के प्रचार और प्रसार एवं चुनावों में विजय प्राप्त करने के लिए आर्थिक साधनों की आवश्यकता होती है। अत: प्रत्येक राजनीतिक दल धनराशि एकत्रित करता है। व्यवहार के अन्तर्गत अनेक बार यह देखा गया है कि राजनीतिक दल अधिकाधिक धनराशि एकत्रित करने के लिए अनुचित उपायों को अपना लेते हैं और उनके द्वारा धनी-मानी व्यक्तियों से साँठ-गाँठ कर ली जाती है। इसे लोकतन्त्र के हित में नहीं कहा जा सकता। अत: राजनीतिक दलों के द्वारा उचित और खुले उपायों से ही धन प्राप्त किया जाना चाहिए।

7. सरकार का निर्माण – निर्वाचन के बाद राजनीतिक दलों के द्वारा ही सरकार का निर्माण किया जाता है। अध्यक्षात्मक शासन-व्यवस्था में राष्ट्रपति अपने विचारों से सहमत व्यक्तियों की मन्त्रिपरिषद् का निर्माण कर शासन को संचालन करता है। संसदात्मक शासन में जिस राजनीतिक दल को व्यवस्थापिका में बहुमत प्राप्त हो, उसके नेता द्वारा मन्त्रिपरिषद् का निर्माण करते हुए शासन का संचालन किया जाता है।

8. शासन सत्ता को सीमित रखना – लोकतन्त्र में बहुमत वाले राजनीतिक दल के साथ-ही साथ अल्पमत वाले या विरोधी राजनीतिक दलों का कार्य भी बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। यदि बहुमत दल शासन सत्ता के संचालन का कार्य करता है तो अल्पमत दल विरोधी दल के रूप में कार्य करते हुए शासन शक्ति को सीमित रखने की कोशिश करते हैं। संगठित विरोधी दल के अभाव में शासन दल तानाशाही रुख अपना सकता है।

9. सरकार के विभिन्न विभागों में समन्वय और सामंजस्य रखना – सरकार के द्वारा उसी समय ठीक प्रकार से कार्य किया जा सकता है, जब शासन के विविध अंग परस्पर सहयोग करें और यह सहयोग राजनीतिक दलों द्वारा ही सम्भव होता है। संसदीय शासन हो या अध्यक्षात्मक शासन, राजनीतिक दल ही इस कार्य को सम्पन्न करते हैं। राजनीतिक दलों की सहायता के बिना शासन को भली प्रकार संचालन सम्भव हो ही नहीं सकता। अमेरिका में दलीय व्यवस्था ने ही व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के बीच सहयोग स्थापित कर संविधान की कमी को दूर कर दिया है।

10. जनता और शासन के बीच सम्बन्ध – लोकतन्त्र का आधारभूत सिद्धान्त जनता और शासन के बीच सम्पर्क बनाये रखना है और इस प्रकार का सम्पर्क स्थापित करने का सबसे बड़ा साधन राजनीतिक दल ही है। प्रजातन्त्र में जिस दल के हाथ में शासन शक्ति होती है, उसके सदस्य जनता के मध्य सरकारी नीति का प्रचार कर जनमत को पक्ष में रखने का प्रयत्न करते हैं। विरोधी दल शासन के दोषों की ओर जनता का ध्यान आकर्षित करते हैं।

11. सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास के कार्य – राजनीतिक दल अनेक बार सामाजिक सुधार एवं सांस्कृतिक विकास के भी अनेक कार्य करते हैं; जैसे–स्वतन्त्रता के पूर्व गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस ने भारत में हरिजनों की स्थिति को ऊँचा उठाने और मद्यपान का अन्त करने का प्रयत्न किया। विभिन्न राजनीतिक दल पुस्तकालय, वाचनालय एवं अध्ययन केन्द्र स्थापित करके बौद्धिक एवं सांस्कृतिक विकास में भी योग देते हैं। विकसित देशों में राजनीतिक दल सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास के कार्यों पर बहुत अधिक ध्यान देते हैं।

इस प्रकार राजनीतिक दलों के द्वारा शासन-व्यवस्था से सम्बन्धित सभी प्रकार के कार्य किये जाते हैं। वास्तव में, राजनीतिक दल प्रजातान्त्रिक शासन की धुरी के रूप में कार्य करते हैं और प्रजातान्त्रिक शासन के संचालन के लिए राजनीतिक दलों का अस्तित्व नितान्त अनिवार्य है। प्रजातन्त्र में राजनीतिक दलों के महत्त्व और उनके कार्य को स्पष्ट करते हुए हूबर (Huber) के शब्दों में कहा जा सकता है, “प्रजातन्त्रीय यन्त्र के चालन में राजनीतिक दल तेल के तुल्य हैं।

प्रश्न 3.
राजनीतिक दलों अथवा दल प्रणाली के गुणों व दोषों की विवेचना कीजिए।
या
दलीय प्रणाली के गुण-दोषों की विवेचना कीजिए।
या
राजनीतिक दलों के चार दोषों का उल्लेख कीजिए। [2011, 14]
उत्तर
राजनीतिक दलों अथवा दल प्रणाली के गुण-दोष निम्नवत् हैं-
राजनीतिक दलों के गुण
राजनीतिक दलों की उपयोगिता के सम्बन्ध में विचारकों में पर्याप्त मतभेद है। यदि एक ओर दलीय व्यवस्था के समर्थकों द्वारा इन्हें मानवीय स्वभाव पर आधारित स्वाभाविक वस्तु और जनतन्त्र का मूल आधार कहा जाता है तो दूसरी ओर अलैक्जेण्डर पोप जैसे व्यक्तियों द्वारा दल प्रणाली को ‘कुछ व्यक्तियों के लाभ के लिए अनेकों का पागलपन’ कहा गया है। दलीय व्यवस्था के प्रमुख गुण निम्नलिखित कहे जा सकते हैं-

1. सार्वजनिक शिक्षा का साधन – राजनीतिक दल जनता को सार्वजनिक शिक्षा प्रदान करने के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण साधन हैं। राजनीतिक दलों का उद्देश्य अपनी लोकप्रियता बढ़ाकर शासन शक्ति पर अधिकार करना होता है और इसलिए वे प्रेस, मंच, रेडियो आदि साधनों के माध्यम से अपनी विचारधारा का अधिक-से-अधिक प्रचार करते हैं। इस प्रकार के प्रचार और वाद-विवाद के परिणामस्वरूप जनता को सार्वजनिक समस्याओं को ज्ञान प्राप्त होता है और उनमें सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति रुचि जाग्रत होती है।

2. लोकतन्त्र के लिए आवश्यक – वर्तमान समय में विश्व के अधिकांश देशों में प्रतिनिध्यात्मक प्रजातन्त्रीय शासन-व्यवस्था प्रचलित है जिसमें जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है और इन प्रतिनिधियों द्वारा शासन कार्य किया जाता है। इस प्रकार प्रजातन्त्रात्मक शासन-व्यवस्था के संचालन के लिए राजनीतिक दलों का अस्तित्व नितान्त अनिवार्य है। लीकॉक ने कहा है, “दलबन्दी ही एकमात्र ऐसी चीज है जो लोकतन्त्र को सम्भव बनाती है।”

3. शासन के विभिन्न विभागों में समन्वय स्थापित करना – अध्यक्षात्मक शासन में राजनीतिक दल कार्यपालिका और विधानमण्डल के बीच मेल बनाये रखते हैं। इन दलों के अभाव में अध्यक्षात्मक शासन ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर सकता। इस व्यवस्था वाले देशों में राजनीतिक दल व्यवस्थापिका और कार्यपालिका दोनों पर प्रभाव रखते हैं और इनके बीच उत्पन्न होने वाले विरोध को दूर करते हैं।

4. श्रेष्ठ कानूनों का निर्माण – श्रेष्ठ कानूनों का निर्माण तभी सम्भव है जब कानूनों के गुण व दोषों पर उचित रीति से विचार हो। व्यवस्थापिका में मौजूद विरोधी दल के सदस्य शासन दल द्वारा प्रस्तुत सभी विधेयकों की बाल की खाल उधेड़ने के लिए तैयार रहते हैं। इस प्रकार के वाद-विवाद से विधेयकों के सभी दोष सामने आ जाते हैं और श्रेष्ठ कानूनों का निर्माण सम्भव होता है।

5. स्थायी और सबल सरकार की स्थापना – दल प्रणाली इस सत्य को व्यक्त करती है कि संगठन में ही शक्ति निहित होती है।” और राजनीतिक दल शासन को वह शक्ति प्रदान करते हैं जिससे शासन-व्यवस्था सुगमता और दृढ़तापूर्वक चल सके। यदि जनता का प्रत्येक प्रतिनिधि व्यक्तिगत रूप में कार्य करे तो न तो सरकार स्थायी हो सकती है और न ही सरकार में उत्तरदायित्व निश्चित किया जा सकता है। दल के सदस्यों में शासन सम्बन्धी नीति के विषय में एकता होती है। अतः सरकार में दृढ़ता और स्थायित्व रहता है।

6. शासन की निरंकुशता पर नियन्त्रण – प्रजातन्त्रीय शासन-व्यवस्था में बहु-संख्यक दल द्वारा शासन कार्य और अल्पमत दल द्वारा विरोधी दल के रूप में कार्य किया जाता है। विरोधी दल शासक दल की मनमानी पर रोक लागते हुए उसे निरंकुश बनने से रोकता है। लॉस्की ने ठीक ही कहा है, “राजनीतिक दल तानाशाही से हमारी रक्षा का सबसे अच्छा साधन है।”

7. विभिन्न मतों का संगठन – विवेकशीलता के कारण मनुष्यों में मतभेदों का होना नितान्त स्वाभाविक है और इसके साथ ही आधारभूत समस्याओं के सम्बन्ध में अनेक व्यक्तियों के एक ही प्रकार के विचार भी होते हैं। राजनीतिक दलों द्वारा इस प्रकार की आधारभूत एकता रखने वाले व्यक्तियों को संगठित रखने का उपयोगी कार्य किया जाता है, ताकि वे अनुशासित रूप में उपयोगी कार्य कर सकें।

8. निर्धन व्यक्तियों का चुनाव में खड़ा होना सम्भव – राजनीतिक दलों का एक लाभ यह भी है कि जो योग्य किन्तु निर्धन व्यक्ति हैं, वे चुनाव लड़ने के लिए सक्षम हो जाते हैं क्योंकि उन्हें अपने दल से चुनाव लड़ने के लिए पर्याप्त धनराशि व कार्यकर्ताओं आदि के रूप में साधन प्राप्त हो जाते हैं। इस कारण सार्वजनिक जीवन में रुचि रखने वाले योग्य व्यक्ति धनाभाव के कारण देश की सेवा से वंचित नहीं रहते।

9. राष्ट्रीय एकता का साधन – राजनीतिक दलों का उद्देश्य राष्ट्रीय हित में कार्य करना होता है। दल प्रणाली व्यक्ति को जाति, धर्म, भाषा और समुदाय के संकीर्ण भेदों से ऊपर उठाकर देश और राष्ट्र के कल्याण के सम्बन्ध में विचार करने के लिए प्रेरित करती है। दलों द्वारा उत्पन्न किये गये इस व्यापक दृष्टिकोण से राष्ट्रीय एकता के बन्धन दृढ़तर हो जाते हैं।

10. सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास – राजनीतिक दल अनेक बार सामाजिक सुधार और सांस्कृतिक विकास के कार्य करते हैं; जैसे–स्वतन्त्रता के पूर्व गांधी जी के नेतृत्व में भारत में राष्ट्रीय कांग्रेस ने हरिजनों की स्थिति को ऊँचा उठाने और मद्यपान का अन्त करने का प्रयत्न किया। विभिन्न राजनीतिक दल पुस्तकालय, वाचनालय एवं अध्ययन केन्द्र स्थापित करके बौद्धिक एवं सांस्कृतिक विकास में भी योग देते हैं।
इस प्रकार राजनीतिक दलों के द्वारा विविध प्रकार के लाभकारी कार्य किये जाते हैं। लॉर्ड ब्राइस का मत है, “दल राष्ट्र के मस्तिष्क को उसी प्रकार क्रियाशील रखते हैं जैसे कि लहरों की हलचल से समुद्र की खाड़ी का जल स्वच्छ रहता है।”

दल पद्धति के दोष
यद्यपि प्रजातन्त्रात्मक शासन-व्यवस्था में राजनीतिक दलों के द्वारा अनेक प्रकार के उपयोगी कार्य किये जाते हैं, किन्तु वर्तमान समय के लोकतन्त्रीय राज्य में राजनीतिक दल जिस ढंग से कार्य कर रहे हैं उसे दोषहीन नहीं कहा जा सकता है। संक्षेप में, राजनीतिक दलों के निम्नलिखित दोष कहे जा सकते हैं-

1. लोकतन्त्र के विकास में बाधक – लोकतन्त्र व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर आधारित होता है, लेकिन राजनीतिक दल इस वैयक्तिक स्वतन्त्रता का अन्त कर लोकतन्त्र के विकास में बाधक बन जाते हैं। राजनीतिक दल के सदस्य को सार्वजनिक क्षेत्र में अपने व्यक्तिगत विचार को त्यागकर दल की बात का समर्थन करना होता है। इस प्रकारे व्यक्ति दलीय यन्त्र के चक्र का एक ऐसा भाग बनकर रह जाता है जो पहिये के साथ ही चल सकता है स्वयं नही। लीकॉक (Leacock) ने कहा है, “राजनीतिक दल उस व्यक्तिगत विचार एवं कार्य सम्बन्धी स्वतन्त्रता का अन्त कर देते हैं, जिसे लोकतन्त्रात्मक सरकार का आधारभूत सिद्धान्त समझा जाता है।”

2. राष्ट्रीय हितों की हानि – राजनीतिक दल को राष्ट्रीय हित की वृद्धि के लिए संगठित समुदाय कहा गया है, किन्तु व्यवहार में व्यक्ति अनेक बार अपने राजनीतिक दल के इतने अधिक भक्त हो जाते हैं कि वे जाने-अनजाने में दल के हितों को राज्य के हितों से प्राथमिकता दे देते हैं। जैसा कि मेरीयट ने कहा है, “दलभक्ति के आधिक्य से देशभक्ति की आवश्यकताओं पर पर्दा पड़ जाता है। वोट प्राप्त करने के धन्धे पर अत्यधिक ध्यान देने से दलों के नेता अथवा उनके प्रबन्धक देश की उच्चतम आवश्यकताओं को भूल सकते या टाल सकते हैं।”

3. शासन कार्य में सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों की उपेक्षा – शासन कार्य सर्वोच्च कला है और इस नाते देश के सबसे योग्य व्यक्तियों द्वारा इस प्रकार का कार्य किया जाना चाहिए, किन्तु दलीय व्यवस्था के कारण शासन सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों की सेवा से वंचित रह जाता है। सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति न तो जी-हजूरी कर सकते हैं और न ही विचार एवं कार्य की स्वतन्त्रता को छोड़ सकते हैं। इसी कारण राजनीतिक दलों की ओर से उन्हें अपना प्रतिनिधि नहीं बनाया जाता है।

4. भ्रमात्मक राजनीतिक शिक्षा प्रदान करना – राजनीतिक दलों को सार्वजनिक शिक्षा का साधन’ कहा जाता है, किन्तु व्यवहार में राजनीतिक दल राजनीतिक शिक्षा प्रदान करने के नाम पर असत्य व्याख्यानों और बकवास के द्वारा भोली-भाली जनता को धोखे में डालने की चेष्टा करते हैं। गिलक्रिस्ट के शब्दों में, “राजनीतिक दल वास्तविकता का दमन करने और अवास्तविकता प्रकट करने के अपराधों के दोषी होते हैं।”

5. नैतिक स्तर में गिरावट – व्यवहार में राजनीतिक दलों का उद्देश्य येन-केन प्रकारेण’ शासन शक्ति पर अधिकार करना होता है और इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए उनके द्वारा नैतिक-अनैतिक सभी प्रकार के उपायों का सहारा लिया जाता है। चुनावों के समय राजनीतिक दलों के द्वारा किये गये विषैले प्रचार, व्यक्तिगत आलोचना और झूठे एवं मिथ्या वायदों से जनता के नैतिक स्तर पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। दलों के इन कार्यों के कारण ही व्यवहार में ‘राजनीति’ शब्द बुराई का पर्यायवाची बन गया है।

6. जनता में मतभेदों को प्रोत्साहन – राजनीतिक दल मतभेदों को दूर करने के स्थान पर प्रोत्साहित करते हैं और सार्वजनिक जीवन को कटुतापूर्ण बना देते हैं। व्यवस्थापिका तो विरोधी वर्गों में विभाजित हो ही जाती है, दूसरी ओर देश भी ऐसे विरोधी पक्षों में विभाजित हो जाता है जो एक-दूसरे से ईर्ष्या करते, परस्पर आरोप लगाते और लड़ते हैं।

7. राजनीति में भ्रष्टाचार – दलों के कारण पक्षपात, रिश्वत तथा अन्य ऐसी ही बुराइयों का बाजार गरम हो जाता है। जब एक राजनीतिक दल का उम्मीदवार विजयी हो जाता है तो उस दल के स्थानीय नेता राजकीय पद, ठेके या इनाम के रूप में अनुचित लाभ पाने की चेष्टा करते हैं। इसके अतिरिक्त, एक राजनीतिक दल चुनाव में जिन व्यक्तियों से धन लेता है, सत्ता प्राप्त हो जाने पर वह उन्हें अनुचित रूप से लाभ पहुंचाने की चेष्टा करता है। इस प्रकार इन दलों के कारण सम्पूर्ण राजनीति एक प्रकार का व्यवसाय बनकर रह जाती है। इस सम्बन्ध में गैटिल ने लिखा है कि, “राजनीति में एक बहुत बड़ा खतरा दलों तथा व्यावसायिक हितों का गठबन्धन होता है, जिसके परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार फैलता है।”

8. समय और धन का अपव्यय – दलीय व्यवस्था के कारण व्यवस्थापिका सभाओं में विरोधी दल ‘विरोध के लिए विरोध’ की प्रवृत्ति अपनाता है और इस प्रवृत्ति के कारण बहुत-सा अमूल्य समय और लाखों रुपये बरबाद हो जाते हैं। इस धनराशि को यदि राष्ट्र निर्माणकारी कार्यों में व्यय किया जाये, तो देश बहुत उन्नति कर सकता है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 7 Political Parties

प्रश्न 4.
द्विदलीय व्यवस्था के गुण तथा दोषों पर टिप्पणी लिखिए।
या
द्विदलीय प्रणाली से क्या आशय है? इस प्रणाली के गुण-दोष बताइए।
उत्तर
द्विदलीय प्रणाली
जब एक देश की राजनीति में केवल दो ही प्रमुख राजनीतिक दल होते हैं, तो उसे द्विदलीय प्रणाली कहते हैं। द्विदलीय प्रणाली वाले राज्यों में दो से अधिक राजनीतिक दलों के गठन पर कोई वैधानिक प्रतिबन्ध नहीं होता, दो से अधिक राजनीतिक दल हो सकते हैं, लेकिन वे इतने छोटे होते हैं कि राजनीति पर उनका विशेष प्रभाव नहीं होता और उन्हें शासन में भागीदारी प्राप्त नहीं होती। उदाहरणार्थ, इंग्लैण्ड में अनुदार दल और श्रमिक दल दो प्रमुख राजनीतिक दल हैं, इनके अतिरिक्त लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी और स्कॉटलैण्ड तथा वेल्स के राष्ट्रवादी दल भी हैं, लेकिन उनका राजनीति पर कोई विशेष प्रभाव नहीं है। इस प्रकार अमेरिका में द्विदलीय प्रणाली है और यहाँ के दो प्रमुख राजनीतिक दल (रिपब्लिक दल और डेमोक्रेटिक दल) हैं।

द्विदलीय प्रणाली के लाभ/गुण
द्विदलीय प्रणाली के समर्थकों में लॉस्की, हरमन, फाइनर, ब्राइस आदि विद्वान प्रमुख हैं। इन विद्वानों द्वारा द्विदलीय प्रणाली के प्रमुख रूप से निम्नलिखित लाभ बताये जाते हैं-

1. वास्तविक प्रतिनिधि सरकार की स्थापना – प्रजातन्त्र का वास्तविक अभिप्राय यह है कि जनता के द्वारा ही सरकार का निर्माण किया जाये। लेकिन बहुदलीय व्यवस्था के अन्तर्गत सरकार का निर्माण जनता द्वारा नहीं वरन् राजनीतिक दलों के पारस्परिक समझौतों द्वारा होता है। केवल द्विदलीय प्रणाली के अन्तर्गत ही सरकार जनता की इच्छाओं का प्रत्यक्ष परिणाम होती है। इसके अन्तर्गत वही दल शासन का संचालन करता है जिसे मतदाताओं का बहुमत प्राप्त हो। स्वाभाविक रूप से यह व्यवस्था प्रजातान्त्रिक धारणा के अनुकूल होती है।

2. सरकार का निर्माण – संसदीय शासन वाले देश में यदि केवल दो ही राजनीतिक दल हों तो मन्त्रिमण्डल का निर्माण सरलता से किया जा सकता है। बहुमत दल को सरकार के निर्माण का कार्य सौंपा जाता है और जब यह दल अविश्वसनीय हो जाता है या आगामी चुनावों में हार जाता है तो शासन की शक्ति उस दल के हाथ में आ जाती है जो पहले विरोधी दल के रूप में कार्य कर रहा था।

3. शासन में स्थायित्व और निरन्तरत – शासन का सबसे अधिक आवश्यक तत्त्व सुदृढ़ एवं स्थायी शासन होता है और इन गुणों को द्विदलीय प्रणाली के अन्तर्गत ही प्राप्त किया जा सकता है। मन्त्रिमण्डल को व्यवस्थापिका में एक शक्तिशाली दल का समर्थन प्राप्त होता है और इस समर्थन के आधार पर मन्त्रिमण्डल दृढ़तापूर्वक शासन कार्य का संचालन कर सकता है। ऐसी व्यवस्था के अन्तर्गत सामान्यतया सरकारें स्थायी होती हैं और इनके द्वारा अपने कार्यक्रम और नीति को विश्वासपूर्वक कार्यरूप में परिणित किया जा सकता है। अमेरिका में अध्यक्षात्मक शासन की सफलता का रहस्य भी द्विदलीय प्रणाली में ही निहित है।

4. संवैधानिक गतिरोध की आशंका नहीं – बहुदलीय व्यवस्था के अन्तर्गत अनेक बार ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि कोई भी राजनीतिक दल अकेले या पारस्परिक समझौते के आधार पर सरकार का निर्माण नहीं कर पाता और संवैधानिक गतिरोध की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। लेकिन द्विदलीय प्रणाली में कभी भी संवैधानिक गतिरोध पैदा नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक समय विरोधी दल वर्तमान शासन का अन्त कर शासन-व्यवस्था पर अधिकार प्राप्त करने के लिए तत्पर रहता है।

5. शासन में एकता और उत्तरदायित्व की व्यवस्था – शासन कार्य सफलतापूर्वक करने के लिए ‘सत्ता का एकत्रीकरण’ नितान्त आवश्यक होता है और शासन-व्यवस्था में इस प्रकार की एकता द्विदलीय प्रणाली के अन्तर्गत ही सम्भव है। इसके अतिरिक्त द्विदलीय प्रणाली में शासन की कुशलता-अकुशलता का उत्तरदायित्व आसानी से स्थापित किया जा सकता है।

6. संगठित विरोधी दल – राजनीतिक दल, शासन संचालन का कार्य ही नहीं, वरन् शासन को नियन्त्रित रखने का कार्य करते हैं। शासन को नियन्त्रित रखने का कार्य उसी समय भलीभाँति किया जा सकता है जब विरोधी राजनीतिक दल सुसंगठित और पर्याप्त शक्तिशाली हो। द्विदलीय व्यवस्था के अन्तर्गत विरोधी दल सदैव ही इस स्थिति में होता है। वस्तुत: प्रतिनिधि शासन के संचालन के लिए द्विदलीय प्रणाली ही सर्वाधिक उपयुक्त है।

द्विदलीय प्रणाली के दोष
यद्यपि द्विदलीय प्रणाली शासन व्यवस्था को स्थायित्व और निरन्तरता प्रदान करती है और यही ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत शासन में एकता होती है तथा उत्तरदायित्व निश्चित होता है, लेकिन इतना होने पर भी द्विदलीय प्रणाली पूर्णतया दोषमुक्त नहीं है। रैम्जे म्योर (Ramsay Muir) ने अपनी पुस्तक “How Britain is Govermed” में द्विदलीय प्रणाली की कटु आलोचना की है। द्विदलीय प्रणाली के प्रमुख दोष निम्नलिखित कहे जा सकते हैं-

1. मतदान की स्वतन्त्रता सीमित – द्विदलीय प्रणाली के अन्तर्गत नागरिकों की मतदान की स्वतन्त्रता बहुत अधिक सीमित हो जाती है। उन्हें दो में से एक दल को अपना मत देना ही होता है, चाहे वे दोनों दलों के उम्मीदवारों या दलों की नीतियों से असहमत ही क्यों न हों। मैकाइवर के शब्दों में, “इस पद्धति में मतदाता की पसन्दगी अत्यधिक सीमित हो जाती है। और यह स्वतन्त्र जनमत के निर्माण में भी बाधक होती है।

2. राष्ट्र का विभाजन – बहुधा ऐसा देखा गया है कि द्विदलीय व्यवस्था के कारण समस्त राष्ट्र ऐसे दो दलों में विभक्त हो जाता है जिसमें समझौते की कोई सम्भावना नहीं रहती, लेकिन बहुदलीय प्रणाली राष्ट्र को आपस में न मिल सकने वाले समूहों में विभाजित नहीं होने देती। लोग अपने सिद्धान्तों के आधार पर ही बिना किसी प्रकार के गम्भीर समझौते किये परस्पर मिल सकते और सहयोग कर सकते हैं।

3. बहुमत की निरंकुशता – द्विदलीय प्रणाली के अन्तर्गत एक ही राजनीतिक दल के हाथ में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका सम्बन्धी शक्ति होती है और, इसके परिणामस्वरूप एक ऐसे निरंकुश बहुमत का जन्म होता है जो सदा ही अल्पमत को कुचलता रहता है और उसकी माँग की अवहेलना करता रहता है।

4. व्यवस्थापिका के महत्त्व और सम्मान में कमी – द्विदलीय व्यवस्था के अन्तर्गत व्यवस्थापिका के महत्त्व में कमी हो जाती है, क्योंकि व्यवस्थापिका का बहुमत दल सदैव ही मन्त्रिमण्डल का समर्थन करता रहता है। अतः समष्टि रूप से व्यवस्थापिका की सत्ता सीमित हो जाती है। द्विदलीय व्यवस्था के अन्तर्गत व्यवस्थापिका ‘मात्र लेखा करने वाली संस्था (Recording Institution) और दल के सदस्य कार्यपालिका की इच्छानुसार मत देने वाले यन्त्र मात्र बनकर रह जाते हैं।

5. मन्त्रिमण्डलीय तानाशाही – कुछ विद्वानों का यह मत है कि द्विदलीय प्रणाली से मन्त्रिमण्डल की तानाशाही को विकास होता है। दलीय अनुशासन के कारण व्यवस्थापिका को सदैव ही मन्त्रिपरिषद् का समर्थन करना होता हैं। इसके अतिरिक्त, प्रधानमन्त्री दल का नेता भी होता है और व्यवस्थापिका के साधारण सदस्य दल के नेता की बात का विरोध नहीं कर पाते। दल के सदस्य अपने दल की मन्त्रिपरिषद् को इस कारण भी विरोध नहीं कर पाते हैं। कि कहीं विरोधी दल की सरकार न बन जाये। इंग्लैण्ड में मन्त्रिमण्डल के प्रभाव और सम्मान में वृद्धि और लोक सदन (House of Commons) के सम्मान में कमी होने का एक प्रमुख, कारण यह द्विदलीय प्रणाली ही है।

6. अनेक हित बिना प्रतिनिधित्व के – देश की राजनीति में जब केवल दो ही राजनीतिक दल होते हैं तो अनेक हितों और वर्गों को व्यवस्थापिका में प्रतिनिधित्व ही प्राप्त नहीं हो पाता। यह स्थिति प्रजातन्त्र के लिए उचित नहीं कही जा सकती।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
राजनीतिक दल के आवश्यक तत्त्व बताइए।
उत्तर
राजनीतिक दल के आवश्यक तत्त्व
एडमण्ड बर्क, गैटिल और अन्य विद्वानों द्वारा राजनीतिक दल की दी गई परिभाषाओं के आधार पर इन दलों के निम्नलिखित आवश्यक तत्त्व हैं-

1. संगठन – आधारभूत समस्याओं के सम्बन्ध में एक ही प्रकार का विचार रखने वाले व्यक्ति जब तक भली प्रकार से संगठित नहीं होते, उस समय तक उन्हें राजनीतिक दल नहीं कहा जा सकता। राजनीतिक दलों की शक्ति संगठन पर ही निर्भर होती है, अत: राजनीतिक दलों को यह प्रथम आवश्यक तत्त्व है कि वे भली प्रकार संगठित होने चाहिए।

2. सामान्य सिद्धान्तों की एकता – राजनीतिक दल उसी समय संगठित रूप में कार्य कर सकते हैं जब राजनीतिक दल के सभी सदस्य सामान्य सिद्धान्तों के विषय में एक ही प्रकार की धारणा रखते हों। विस्तार की बातों के सम्बन्ध में उनमें किसी प्रकार के मतभेद हो सकते हैं, किन्तु आधारभूत बातों के सम्बन्ध में विचारों की एकता होना आवश्यक है।

3. संवैधानिक साधनों में विश्वास – राजनीतिक दल शासन शक्ति प्राप्त करने के लिए संगठित होते हैं, किन्तु शासन शक्ति प्राप्त करने के लिए उनके द्वारा संवैधानिक उपायों का ही आश्रय लिया जाना चाहिए। मतदान और मतदान के निर्णय में उनका विश्वास होना चाहिए। गुप्त उपाय या सशस्त्र क्रान्ति में विश्वास करने वाले संगठन विशुद्ध राजनीतिक दल नहीं कहे जा सकते।

4. शासन पर प्रभुत्व की इंच्छा – राजनीतिक दल का एक तत्त्व यह होता है कि उसका उद्देश्य शासन पर प्रभुत्व स्थापित कर अपने विचारों और नीतियों को कार्यरूप में परिणत करना होता है। यदि कोई संगठन शासन के बाहर रहकर कार्य करना चाहता है तो उसे राजनीतिक दल नहीं कहा जा सकता।

5. राष्ट्रीय हित – राजनीतिक दल के लिए यह आवश्यक है कि उसके द्वारा किसी विशेष जाति, धर्म या वर्ग के हित को दृष्टि में रखकर नहीं, वरन् सम्पूर्ण राज्य के हित को दृष्टि में रखकर कार्य किया जाना चाहिए। बर्क ने राजनीतिक दल की परिभाषा करते हुए उन्हें ‘राष्ट्रीय हित की वृद्धि के लिए संगठित राजनीतिक समुदाय’ ही कहा है।

प्रश्न 2.
दलबन्दी के दोषों को दूर करने के उपाय बताइए। [2016]
उत्तर
दलबन्दी के दोषों को दूर करने के उपाय यद्यपि दलबन्दी की तीव्र आलोचना की गयी है, परन्तु किसी ने भी इस समस्या को हल करने का प्रयत्न नहीं किया है कि बिना दलबन्दी के प्रतिनिधि सरकार को किस प्रकार चलाया जाये। वास्तव में दलबन्दी प्रजातन्त्र के लिए अपरिहार्य है। अतः दलबन्दी के दोषों को दूर करने के उपायों पर विचार किया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में प्रमुख रूप से निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं-

1. राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखना – प्रत्येक राजनीतिक दल का यह कर्तव्य हो जाता है कि उसके द्वारा राष्ट्र के प्रति भक्ति को दल के प्रति भक्ति से उच्च स्थान प्रदान किया जाये। दल के द्वारा समस्त समाज और राष्ट्र के प्रति हित को प्रतिपल ध्यान में रखा जाना चाहिए और समस्त समाज तथा राष्ट्रीय हित के लिए दलीय हित का परित्याग कर दिया जाना चाहिए।

2. दलों का गठन आर्थिक तथा राजनीतिक सिद्धान्तों पर – राजनीतिक दलों का निर्माण जाति, भाषा या क्षेत्र के आधार पर न करके विशुद्ध राजनीतिक तथा आर्थिक सिद्धान्तों के आधार पर किया जाना चाहिए। ऐसा होने पर ही इन दलों के द्वारा राज्य के सभी नागरिकों में एकता उत्पन्न करने व जनमत जाग्रत करने का कार्य किया जा सकता है।

3. बहुमत दल में उदारता और अल्पमत दल में सहनशीलता – बहुमत दल के द्वारा विरोधी अल्पमत वालों के विचारों का पूरा सम्मान किया जाना चाहिए और अल्पमत विरोधी दलों के द्वारा विरोध के लिए विरोध की प्रवृत्ति को नहीं, वरन् सहनशीलता की प्रवृत्ति को अपनाया जाना चाहिए।

4. आर्थिक विषमताओं का अभाव – समाज में आर्थिक विषमता होने पर इस बात की शंका रहती है कि राजनीतिक दल पूँजीपतियों की स्वार्थसिद्धि के साधन बन जायेंगे। अतः राजनीतिक दलों के सफल संचालन के लिए समाज में आर्थिक विषमताओं का अभाव होना चाहिए।

5. शिक्षा का प्रसार – शिक्षित व्यक्तियों को भले-बुरे का ज्ञान होता है और वे दूसरे के बहकावे में न आकर अपने विवेक तथा निर्णय से काम लेते हैं। अतः राजनीतिक दलों की सफलता के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि जनता में शिक्षा का प्रसार और प्रचार हो।

6. सही नेतृत्व – राजनीतिक दलों द्वारा प्रजातन्त्र और राष्ट्रीय हित में कार्य किये जा सकें, इसके लिए यह आवश्यक है कि उनका नेतृत्व कपटी, चरित्रहीन, दम्भी और महत्त्वाकांक्षी व्यक्तियों के हाथों में न होकर योग्य, चरित्रवान, निस्पृह, त्यागी तथा समाज सेवा की भावना से प्रेरित व्यक्तियों के हाथों में होना चाहिए।

7. दलों पर किसी एक व्यक्ति या गुट का प्रभाव नहीं – दलों के उचित रूप से कार्य कर सकने के लिए जरूरी है कि इन दलों पर किसी एक व्यक्ति या गुट का प्रभाव नहीं होना चाहिए। इस दृष्टि से दल के विधान में ऐसी शर्त रखी जा सकती है कि कोई एक व्यक्ति अधिक दिनों तक किसी दलीय पद पर न रह सके। दल में निरन्तर नये रक्त के प्रवेश का पूरा प्रयत्न किया जाना चाहिए।

8. दलों की संख्या सीमित हो – राजनीतिक दल प्रजातन्त्र और देश हित में कार्य कर सकें, इसके लिए यह जरूरी है कि दलों की संख्या एक से तो अधिक, किन्तु बहुत अधिक नहीं होनी चाहिए। जब व्यवस्थापिका में अपने दल हो जाते हैं, तो सरकार अस्थायी हो जाती है और व्यवस्थापिका के सदस्य जनहित के कार्यों में अपनी शक्ति लगाने के स्थान पर मन्त्रिमण्डल के निर्माण और पतन में ही अपना सारा समय और शक्ति लगा देते हैं।
उपर्युक्त सुझावों के अपनाये जाने पर राजनीतिक दलों के द्वारा राष्ट्रीय हित और प्रजातन्त्र के श्रेष्ठ संचालन के साधन के रूप में कार्य किया जा सकता है।

प्रश्न 3.
बहुदलीय प्रणाली की प्रमुख (चार) विशेषताएँ बताइए। [2011, 16]
उत्तर
बहुदलीय प्रणाली की प्रमुख (चार) विशेषताएँ निम्नवत् हैं-

  1. मतदाताओं को अधिक स्वतन्त्रता – जहाँ दलों की संख्या अधिक होती है, वहाँ मतदाताओं को स्वाभाविक रूप से चयन की अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त रहती है, क्योंकि वे कई दलों में से अपने ही समान विचार रखने वाले किसी दल का समर्थन कर सकते हैं।
  2. मन्त्रिमण्डल की तानाशाही सम्भव नहीं – बहुदलीय पद्धति में सामान्यतया व्यवस्थापिका में किसी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हो पाता, अतः मिले-जुले मन्त्रिमण्डल का निर्माण किया जाता है। यह मिले-जुले मन्त्रिमण्डल कभी भी स्वेच्छाचारी नहीं हो सकते, क्योंकि सरकार में साझीदार विभिन्न दलों में किसी एक दल की असन्तुष्टि सरकार के अस्तित्व को खतरे में डाल देती है।
  3. सभी विचारधाराओं का व्यवस्थापिका में प्रतिनिधित्व – जहाँ बहुदलीय पद्धति होती है, वहाँ व्यवस्थापिका में सभी विचारधाराओं के लोगों को प्रतिनिधित्व मिल जाता है और राष्ट्र के सभी वर्गों के विचार सुने जा सकते हैं।
  4. राष्ट्र दो विरोधी गुटों में नहीं बँटता – जहाँ बहुदलीय पद्धति होती है वहाँ दलीय भावना प्रबल नहीं हो पाती और विभिन्न दलों के द्वारा कुछ सीमा तक पारस्परिक सहयोग का मार्ग अपनाया जा सकता है। अत: राष्ट्र दो विरोधी वर्गों में बँट जाने से बच जाता है।
  5. व्यक्तित्व बनाये रखने का अवसर – यह व्यक्ति को कुछ सीमा तक अपना व्यक्तित्व बनाये रखने का अवसर देता है। यदि एक दल उनके विचारों के अनुकूल नहीं रहता, तो विशेष कठिनाई के बिना वह दूसरे दल को अपना सकता है।

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प्रश्न 4.
बहुदलीय पद्धति के प्रमुख (चार) दोषों का उल्लेख कीजिए। [2014, 16]
उत्तर
बहुदलीय पद्धति के प्रमुख दोष निम्नवत् हैं-

1. शासन में अस्थिरता – बहुदलीय व्यवस्था मिले-जुले मन्त्रिमण्डल को जन्म देती है जो कि बहुत अधिक अस्थिर होते हैं। जहाँ कहीं शासन में साझीदार राजनीतिक दलों के हित परस्पर टकराते हैं, वहीं विवाद उत्पन्न हो जाता है जिसका परिणाम शासन का पतन होता है। बहुत जल्दी-जल्दी बदलने वाली ये सरकारें राजनीतिक अस्थिरता और भारी कठिनाइयों को जन्म देती हैं।

2. नीति की अनिश्चितता – सरकारों के शीघ्र परिवर्तन के कारण नीति की अनिश्चितता उत्पन्न होती है जिसका शासन के समस्त स्वरूप पर बुरा प्रभाव पड़ता है। सरकार में होने वाले ये निरन्तर परिवर्तन दीर्घकालीन योजना को व्यावहारिक रूप में असम्भव बना देते हैं।

3. शक्तिशाली विरोधी दल का अभाव – बहुदलीय पद्धति में एक व्यवस्थित तथा शक्तिशाली विरोधी दल का जो कि संसदीय प्रजातन्त्र का आधार है, विकास सम्भव नहीं हो पाता। शक्तिशाली विरोधी दल के अभाव में जनहितों की अवहेलना की आशंका बनी रहती है।

4. कार्यपालिका की निर्बल स्थिति – बहुदलीय पद्धति में वास्तविक कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रिमण्डल और प्रधानमन्त्री की स्थिति बहुत निर्बल रहती है क्योंकि प्रधानमन्त्री को हमेशा ही इन अलग-अलग राजनीतिक दलों को प्रसन्न रखना पड़ता है। ऐसी कार्यपालिका की स्थिति शोचनीय ही होती है जिसके सिर पर सदैव अविश्वास प्रस्ताव की तलवार लटकी रहती हो।

5. कार्यकुशलता में कमी – बहुदलीय व्यवस्था के अन्तर्गत राजनीतिक दलों के नेताओं का ध्यान सरकार तोड़ने, गठजोड़ करने तथा किसी भी प्रकार से सरकार बनाने की ओर रहता है। ऐसी स्थिति में प्रशासनिक कार्यकुशलता में बहुत अधिक कमी हो जाती है।

प्रश्न 5.
एकदलीय प्रणाली पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
एकदलीय प्रणाली
जिस देश में केवल एक दल हो और शासन शक्ति का प्रयोग करने वाले सभी सदस्य इस एक ही राजनीतिक दल के सदस्य हों, तो वहाँ की दल प्रणाली को एकदलीय कहा जाता है। साम्यवादी व्यवस्था वाले राज्यों और अन्य भी अनेक राज्यों में एकदलीय व्यवस्था को अस्तित्व रहा है, लेकिन पूर्व सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के अन्य साम्यवादी राज्यों ने अब एकदलीय व्यवस्था का त्याग कर बहुदलीय व्यवस्था को अपना लिया है।

इस एकदलीय प्रणाली को कभी तो संविधान से ही मान्यता प्राप्त होती है, जैसे कि पूर्व सोवियत संघ और अन्य साम्यवादी राज्यों के संविधानों में साम्यवादी दल का उल्लेख करते हुए अन्य दलों के संगठन का निषेध कर दिया गया था। अनेक बार ऐसा होता है कि संविधान के द्वारा तो अन्य राजनीतिक दलों का निषेध नहीं किया जाता, लेकिन शासक दल संविधानेतर (Extraconstitutional) उपायों से अन्य राजनीतिक दलों का दमन कर शासन शक्ति पर एकाधिकार स्थापित कर लेता है। इसके अतिरिक्त, यदि किसी राज्य में एक से अधिक राजनीतिक दल हों, लेकिन राजनीतिक प्रभाव की दृष्टि से अन्य राजनीतिक दलों की स्थिति नगण्य हो अर्थात् वैसी ही हो जैसी स्थिति द्विदलीय प्रणाली वाले राज्यों में दो के अतिरिक्त अन्य राजनीतिक दलों की होती है, तो इसे एकदलीय प्रणाली वाला राज्य ही कहा जाएगी।

एकदलीय प्रणाली को सामान्यतया सर्वाधिकारवादी और जनहित-विरोधी समझा जाता है, किन्तु सदैव ही ऐसा होना आवश्यक नहीं है और उद्देश्य की दृष्टि से भी एकदलीय प्रणाली के विभिन्न रूप हो सकते हैं। हिटलर और मुसोलिनी की एकदलीय प्रणाली का उद्देश्य सत्ता हस्तगत , करना और उस पर अपना अधिकार बनाये रखना ही था, लेकिन टर्की में मुस्तफा कमालपाशा की एकदलीय पद्धति निश्चय ही जन हितैषी थी। वर्तमान समय में मेक्सिको, मैडागास्कर आदि राज्यों की एकदलीय व्यवस्था को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। कमालपाशा का टर्की, मेक्सिको या मैडागास्कर अपवाद हो सकते हैं, लेकिन सामान्यतया एकदलीय व्यवस्था को लोकतन्त्र के अनुकूल नहीं समझा जा सकता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
“राजनीतिक दल लोकतन्त्र के प्राण हैं।” इस कथन के प्रकाश में राजनीतिक दलों के दो कार्यों का उल्लेख कीजिए। उत्तर “राजनीतिक दल लोकतन्त्र के प्राण हैं।” इस कथन के प्रकाश में राजनीतिक दलों के दो कार्य निम्नवत् हैं-

1. सरकार का निर्माण – निर्वाचन के बाद राजनीतिक दलों के द्वारा ही सरकार का निर्माण किया जाता है। अध्यक्षात्मक शासन-व्यवस्था में राष्ट्रपति अपने विचारों से सहमत व्यक्तियों की मन्त्रिपरिषद् का निर्माण कर शासन का संचालन करता है। संसदात्मक शासन में जिस राजनीतिक दल को व्यवस्थापिका में बहुमत प्राप्त हो, उसके नेता द्वारा मन्त्रिपरिषद् का निर्माण करते हुए शासन का संचालन किया जाता है। राजनीतिक दलों के अभाव में तो व्यवस्थापिका के सदस्यों द्वारा अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग” का स्वरूप अपनाया जा सकता है, जिसके कारण सरकार का निर्माण और संचालन सम्भव ही नहीं होगा।

2. जनता और शासन के बीच सम्बन्ध – लोकतन्त्र का आधारभूत सिद्धान्त जनता और शासन के बीच सम्पर्क बनाये रखना है और इस प्रकार का सम्पर्क स्थापित करने का सबसे बड़ा साधन राजनीतिक दल ही है। प्रजातन्त्र में जिस दल के हाथ में शासन शक्ति होती है, उसके सदस्य जनता के मध्य सरकारी नीति का प्रचार कर जनमत को पक्ष में रखने का प्रयत्न करते हैं। विरोधी दल शासन के दोषों की ओर जनता को ध्यान आकर्षित करते हैं। इसके अलावा ये सभी दल जनता की कठिनाइयों एवं शिकायतों को शासन के विविध अधिकारियों तक पहुँचाकर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करते हैं। लावेल ने ठीक ही कहा है, “राजनीतिक दल ‘विचारों के दलाल’ (Broker of Ideas) के रूप में कार्य करते हैं।”

प्रश्न 2.
राजनीतिक दल के चार कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2007]
उत्तर
राजनीतिक दल के चार कार्य निम्नवत् हैं-

1. सुदृढ़ संगठन स्थापित करना – कोई भी राजनीतिक दल सुदृढ़ संगठन के बिना अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता; अतः प्रत्येक राजनीतिक दल का प्रथम कार्य केन्द्रीय, प्रान्तीय और स्थानीय स्तर पर अपना संगठन स्थापित करना और उसे अधिकाधिक सुदृढ़ बनाना होता है।

2. दलीय नीति-निर्धारण करना – प्रत्येक राजनीतिक दल की अपनी एक नीति और विचारधारा होना आवश्यक है। अत: राजनीतिक दल बाहरी क्षेत्र में वैदेशिक सम्बन्धों तथा आन्तरिक क्षेत्र में अर्थव्यवस्था, खाद्य, यातायात, शिक्षा, रोजगार और प्रमुख बातों के सम्बन्ध में अपनी नीति निर्धारित करता है।

3. दलीय नीति का प्रचार और प्रसार कर दल की शक्ति बढ़ाना – राजनीतिक दल का लक्ष्य चुनाव में जीतकर सत्ता प्राप्त करना होता है और इसके लिए उनके द्वारा अपनी दलीय नीति का अधिक-से-अधिक प्रचार और प्रसार किया जाता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक राजनीतिक दल अपने पक्ष में व्यक्तियों की सहानुभूति और समर्थन प्राप्त करने का प्रयत्न करता है।

4. लोकमत का निर्माण करना – लोकतन्त्र के इस युग में जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि ही देश के शासन का संचालन करते हैं। अत: चुनाव में जीतने के लिए प्रत्येक राजनीतिक दल अपनी नीतियों तथा कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसार करके तथा जनता को जनहितकारी कार्य करने का आश्वासन देकर अपने पक्ष में जनमत तैयार करने का प्रयत्न करता है।

प्रश्न 3.
लोकतन्त्र में राजनीतिक दल क्यों आवश्यक हैं? दो कारण दीजिए। या राजनीतिक दल की दो विशेषताएँ बताइए। [2016]
या
लोकतन्त्र की सफलता एवं शासन की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश के लिए राजनीतिक दल आवश्यक हैं।” इस कथन की पुष्टि कीजिए। [2007]
या
लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों की दो भूमिकाओं का उल्लेख कीजिए। [2008, 10]
उत्तर
राजनीतिक दल-प्रणाली के समर्थकों ने राजनीतिक दलों के निम्नलिखित दो प्रमुख गुण बताये हैं-

1. लोकतन्त्र हेतु अनिवार्य – आधुनिक समय में अधिकांश देशों में प्रतिनिध्यात्मक प्रजातन्त्रीय शासन-व्यवस्था प्रचलित है, जिसमें जनता अपने प्रतिनिधियों का निर्वाचन करती है। निर्वाचन राजनीतिक दलों के आधार पर होते हैं। निर्वाचन में जो दल बहुमत में आता है वह सरकार का निर्माण और संचालन करता है तथा अन्य दल विरोधी दल के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं। इस प्रकार राजनीतिक दलों का अस्तित्व लोकतन्त्रीय शासन-प्रणाली के लिए अनिवार्य है। लीकॉक ने कहा है, “दलबन्दी ही एकमात्र ऐसी चीज है जो लोकतन्त्र को सम्भव बनाती है।”

2. शासन की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश – राजनीतिक दलों के अस्तित्व के कारण प्रतिनिध्यात्मक शासन-प्रणाली में बहुमत प्राप्त दल शासन-कार्य संचालित करता है और अन्य दल विरोधी दल के रूप में कार्य करते हुए शासन की स्वेच्छाचारिता एवं निरंकुशता पर बन्धन लगाते हैं। लॉस्की ने ठीक ही कहा है कि राजनीतिक दल तानाशाही से हमारी रक्षा का सबसे अच्छा साधन है।”

प्रश्न 4.
क्या दलीय व्यवस्था प्रजातन्त्र के लिए अनिवार्य है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
क्या दलीय व्यवस्था प्रजातन्त्र के लिए अनिवार्य है?
दलीय व्यवस्था के जो दोष बताये गये हैं उनमें बहुत कुछ सच्चाई है और यह कहा जा सकता है कि जेहाँ दलीय सरकार स्थापित हुई, वहाँ दलीय संघर्ष और वर्गीय हितों पर आधारित कानून निर्माण होता ही है। इस प्रकार की बुराइयों के कारण अनेक विद्वानों द्वारा ‘दलविहीन लोकतन्त्र’ (Partyless Democracy) के मार्ग का प्रतिपादन किया गया है, किन्तु दलविहीन लोकतन्त्र जितना आकर्षक जान पड़ता है उतना व्यावहारिक नहीं है। वस्तुत: प्रतिनिध्यात्मक शासन के लिए राजनीतिक दलों का अस्तित्व अनिवार्य है। राजनीतिक दलों की बुराइयों को दूर करने का एकमात्र व्यावहारिक मार्ग यही है कि जनता के बौद्धिक और नैतिक स्तर को उच्च किया जाये। इसके अतिक्ति, प्रत्येक परिस्थिति में दल के प्रति भक्ति से राष्ट्र के प्रति भक्ति को उच्च स्थान दिया जाना चाहिए। राजनीतिक दलों में योग्य और जनभावना से प्रेरित नागरिकों को स्थान दिया जाना चाहिए। राजनीतिक दल प्रतिनिध्यात्मक प्रजातन्त्र के लिए आवश्यक हैं। इन उपायों को अपनाकर उन्हें प्रतिनिध्यात्मक प्रजातन्त्र के लिए अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों के दो कार्य लिखिए। [2007, 09, 13, 16]
उत्तर

  1. जनता में राजनीतिक चेतना उत्पन्न करना तथा
  2. सरकार का निर्माण करना।।

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प्रश्न 2.
भारत के चार प्रमुख राजनीतिक दलों के नाम लिखिए।
या
अपने देश के दो राष्ट्रीय दलों के नाम लिखिए। [2011, 13]
उत्तर

  1. भारतीय जनता पार्टी,
  2. कांग्रेस (इ),
  3. बहुजन समाज पार्टी तथा
  4. भारतीय साम्यवादी दल।

प्रश्न 3.
दलीय पद्धति के कोई दो गुण लिखिए।
उत्तर

  1. जनमत का निर्माण तथा
  2. शासन की निरंकुशता पर नियन्त्रण।

प्रश्न 4.
दलीय-प्रणाली के कितने रूप प्रचलित हैं? [2012]
उत्तर
दलीय प्रणाली के प्रमुखतया तीन रूप प्रचलित हैं-

  1. एक-दलीय प्रणाली,
  2. द्विदलीय प्रणाली तथा
  3. बहुदलीय प्रणाली।

प्रश्न 5.
बहुदलीय व्यवस्था के दो दोष लिखिए। [2007, 08, 11, 15, 16]
उत्तर

  1. राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा तथा
  2. मतभेद और गुटबन्दी को बढ़ावा।

प्रश्न 6.
राजनीतिक दलों को ‘लोकतन्त्र का प्राण’ तथा ‘शासन का चतुर्थ अंग’ क्यों कहा गया है?
उत्तर
लोकतन्त्र, चाहे उसका स्वरूप कोई भी क्यों न हो, राजनीतिक दलों की अनुपस्थिति में अकल्पनीय है। इसलिए उसे लोकतन्त्र का प्राण तथा शासन का चतुर्थ अंग कहा गया है।

प्रश्न 7.
भारत के दो क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. अकाली दल पंजाब का क्षेत्रीय दल है तथा
  2. समता पार्टी बिहार को क्षेत्रीय दल है।

प्रश्न 8.
राजनीतिक दल की कोई एक संक्षिप्त परिभाषा दीजिए।
उत्तर
एडमण्ड बर्क के अनुसार, “राजनीतिक दल ऐसे लोगों का समूह होता है, जो किन्हीं ऐसे सिद्धान्तों के आधार पर, जिन पर वे एकमत हों, अपने सामूहिक प्रयत्नों द्वारा जनता के हित में, काम करने के लिए एकता में बँधे होते हैं।”

प्रश्न 9.
एकदलीय पद्धति के दो अवगुण लिखिए। [2013]
उत्तर

  1. वैयक्तिक स्वतन्त्रता का अभाव।
  2. लोकतन्त्र के सिद्धान्तों की उपेक्षा।

प्रश्न 10.
राजनीतिक दलों के दो उद्देश्य लिखिए।
उत्तर

  1. शासन पर वैधानिक रूप से अपना प्रभुत्व स्थापित करना।
  2. सरकार और जनता के मध्य कड़ी का कार्य करना।

प्रश्न 11.
लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों का एक महत्त्व बताइए।
उत्तर
राजनीतिक दल लोकतन्त्र का आधार स्तम्भ है। इनके कारण ही सरकार ठीक प्रकार से कार्य करती है। लीकॉक ने लिखा है कि “दलबन्दी ही एक ऐसी चीज है जो लोकतन्त्र को सम्भव बनाती है।”

प्रश्न 12
राजनीतिक दलों के दो दोष बताइए। [2015]
उत्तर

  1. भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना तथा
  2. जनशक्ति का विभाजन करना।

प्रश्न 13
एकदलीय व्यवस्था वाले किन्हीं दो देशों के नाम लिखिए। [2016]
उत्तर

  1. चीन तथा
  2. रूस

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1. अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र के लिए आवश्यक है-
(क) शिक्षित जनता
(ख) राजनीतिक दल
(ग) स्वस्थ नागरिक
(घ) जनसाधारण का सहयोग

2. शासन-सत्ता पर अंकुश के लिए आवश्यक है-
(क) विरोधी दल
(ख) सक्षम व्यवस्थापिका
(ग) शिक्षित जनता
(घ) अधिक संख्या में राजनीतिक दल

3. डी० एम० के० किस राज्य का महत्त्वपूर्ण दल है?
(क) कर्नाटक
(ख) केरल
(ग) तमिलनाडु
(घ) गुजरात

4. निम्नलिखित में से किस देश में द्वि-दलीय प्रणाली है?
(क) चीन
(ख) फ्रांस
(ग) संयुक्त राज्य अमेरिका
(घ) इटली

5. निम्नलिखित में से किस देश में एकदलीय पद्धति का अस्तित्व है? [2016]
(क) संयुक्त राज्य अमेरिका
(ख) भारत
(ग) चीन
(घ) फ्रांस

6. द्विदलीय शासन-प्रणाली कौन-से देश में पाई जाती है?
(क) ब्रिटेन
(ख) फ्रांस
(ग) पाकिस्तान
(घ) इटली

7. निम्नलिखित में से कौन-सा कार्य राजनीतिक दल नहीं करते ? [2008]
(क) राजनीतिक शिक्षा देना
(ख) सरकार बनाना
(ग) सरकार की आलोचना करना
(घ) परिवहन की व्यवस्था करना

8. भारत में दलविहीन प्रजातन्त्र की संकल्पना की वकालत की [2013]
(क) जयप्रकाश नारायण ने
(ख) मोरारजी देसाई ने
(ग) चन्द्रशेखर ने
(घ) जवाहरलाल नेहरू ने।

उत्तर

  1. (ख) राजनीतिक दल,
  2. (क) विरोधी दल,
  3. (ग) तमिलनाडु,
  4. (ग) संयुक्त राज्य अमेरिका,
  5. (ग) चीन,
  6. (क) ब्रिटेन,
  7. (घ) परिवहन की व्यवस्था करना,
  8. (क) जयप्रकाश नारायण ने

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 10 Development of Social and National Consciousness

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 10
Chapter Name Development of Social and
National Consciousness
(सामाजिक चेतना व राष्ट्रीय
भावना का विकास)
Number of Questions Solved 24
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 10 Development of Social and National Consciousness (सामाजिक चेतना व राष्ट्रीय भावना का विकास)

अभ्यास

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
धार्मिक सुधार के क्षेत्र में आर्य समाज की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
उतर:
आर्य समाज ने हिन्दू धर्म और संस्कृति की श्रेष्ठता का दावा करके हिन्दू सम्मान के गौरव की रक्षा की तथा हिन्दू जाति में आत्मविश्वास एवं स्वाभिमान को जन्म दिया। इससे भारतीय राष्ट्रीयता के निर्माण में सहयोग मिला। आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने हिन्दुओं को उपदेश देकर उन्हें अत्यन्त सरलता से प्राचीन धर्म की विशेषताओं, भारतीय संस्कृति की अच्छाईयों और शुद्ध जीवन के लाभों से परिचित कराया तथा उनकी सुप्त चेतना को जाग्रत किया।

प्रश्न 2.
ब्रह्म समाज और आर्य समाज के प्रमुख सिद्धान्तों की तुलनात्मक विवेचना कीजिए।
उतर:
मूर्तिपूजा का विरोध, एकेश्वरवाद में अटल विश्वास, बुद्धिवादी दृष्टिकोण तथा मानव धर्म, ये ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धान्त थे। आर्य समाज ने निराकार परमेश्वर की सत्ता को महत्व दिया और मूर्तिपूजा, अवतारवाद, तथा बाहरी दिखाने का डटकर विरोध किया। ब्रह्म समाज एवं आर्य समाज दोनों ही छुआछूत, बाल विवाह, कन्या वध सती प्रथा अंधविश्वास आदि कुरीतियों का खण्डन कर भारत को धर्म, समाज, शिक्षा एवं राजनीतिक चेतना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

प्रश्न 3.
ब्रह्म समाज और आर्य समाज के सिद्धान्तों की किन्हीं दो विभिन्नताओं का वर्णन कीजिए।
उतर:
ब्रह्म समाज और आर्य समाज के सिद्धान्तों की दो विभिन्नताएँ निम्न प्रकार हैं

  1. ब्रह्म समाज के अनुसार सभी धर्मों के उपदेश सत्य हैं, उनसे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। जबकि आर्य समाज के अनुसार वेद सब सत्य विधाओं की पुस्तक हैं। वेदों का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना आर्यों का परम धर्म है।
  2. ब्रह्म समाज के सिद्धान्तों का प्रभाव समाज के शिक्षित और उदार-वर्ग तक ही सीमित है जबकि आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रभाव समाज के छोटे तथा निम्न से निम्न वर्ग तक है।

प्रश्न 4.
19वीं सदी के भारतीय पुनर्जागरण की किन्हीं दो प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उतर:
19 वीं सदी के भारतीय पुनर्जागरण की दो प्रमुख विशेषताएँ

  1. 19 वीं सदी के भारतीय पुनर्जागरण आन्दोलनों ने भारत में समाज, धर्म, साहित्य और राजनीतिक जीवन को अत्यधिक प्रभावित किया।
  2. पुनर्जागरण से भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ भारतीय विदेशी दासता से मुक्ति पाने हेतु अंग्रेजों से संघर्ष करने को तत्पर हो गए।

प्रश्न 5.
स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन एवं कार्यों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उतर:
स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के टंकारा नामक स्थान पर एक ब्राह्मण परिवार में 1824 ई० के हुआ था। इनके बचपन का नाम मूलशंकर था। 21 वर्ष की अवस्था में मन की अशांति को दूर करने तथा ज्ञान की खोज में ग्रह-त्याग दिया। पाणिनी व्याकरण के विद्वान विरजानन्द से शिक्षा ग्रहण कर संस्कृत व्याकरण, दर्शन, धर्मशास्त्र और वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय लोग अनेक रुढ़ियों और आडम्बरों के कारण पतन की ओर उन्मुख हो रहे थे। ऐसे समय में स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना कर, उनका उद्धार किया। उन्होंने हिन्दुओं को प्रेम, स्वतन्त्रता, सच्ची ईश्वरभक्ति एवं हिन्दू संस्कृति के प्रति सम्मान का भाव रखने की प्रेरणा दी। शिक्षा के क्षेत्र में दयानन्द सरस्वती का उल्लेखनीय योगदान रहा। वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया।

प्रश्न 6.
स्वामी दयानन्द की प्रमुख कृतियों के नाम लिखिए।
उतर:
स्वामी दयानन्द की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं|

  • सत्यार्थ प्रकाश
  • वेदभाष्य भूमिका
  • वेदभाष्य।

प्रश्न 7.
स्वामी विवेकानन्द की प्रसिद्धि के क्या कारण थे?
उतर:
शिकागों में सर्व – धर्म विश्व सम्मेलन में प्राप्त प्रतिष्ठा, रामकृष्ण मिशन की स्थापना और समाज सेवा स्वामी विवेकानन्द की प्रसिद्धि के कारण थे।

प्रश्न 8.
भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारणों का विश्लेषण कीजिए।
उतर:
भारत में राष्ट्रवाद के उदय के निम्नलिखित कारण थे|

  • धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलन
  • राजनीतिक एकता की स्थापना
  • पाश्चात्य साहित्य
  • पाश्चात्य शिक्षा
  • समाचार पत्रों का प्रभाव
  • आर्थिक शोषण
  • जातीय भेदभाव की नीति का प्रभाव
  • अन्य देशों की जागृति का प्रभाव
  • सरकार के असन्तोषजनक कार्य
  • प्रेस की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध

प्रश्न 9.
स्वामी दयानन्द की प्रमुख शिक्षाओं का उल्लेख कीजिए।
उतर:
स्वामी दयानन्द की प्रमुख शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं

  • सब सत्य, विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका मूल परमेश्वर है।
  • ईश्वर निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, अजन्मा, सर्वव्यापकता, अजर-अमर, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी चाहिए।
  • वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। वेदों को पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना आर्यों का परम धर्म है।
  • सत्य को ग्रहण करने और असत्य को त्यागने में सदा उद्यत रहना चाहिए।
  • सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए।
  • संसार का उपकार करना आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
  • व्यक्ति के साथ उसके गुणों के अनुरूप प्रेम तथा न्याय का व्यवहार करना चाहिए।
  • अविद्या का नाश तथा विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।
  • प्रत्येक को अपनी उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिए, किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।
  • व्यक्ति को आचरण की स्वतन्त्रता व्यक्तिगत क्षेत्र में होनी चाहिए, किन्तु सार्वजनिक क्षेत्र में लोककल्याण को सर्वोपरि मानना चाहिए। सार्वजनिक हित के समक्ष व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का महत्त्व नहीं है।

प्रश्न 10.
थियोसोफिकल सोसायटी के विषय से आप क्या समझते हैं?
उतर:
थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना 1857 ई० में अमेरिकी कर्नल हेनरी स्टील अल्काट तथा एक रूसी महिला मैडम हेलेन पेट्रोवना ब्लेवस्ट्स्की द्वारा, न्यूयार्क में की गई। भारत में इस संस्था का मुख्यालय 1893 ई० में मद्रास के समीप अड्यार नामक स्थान पर खोला गया। भारत में इस संस्था की अध्यक्ष एक आयरिश महिला श्रीमति एनी बेसेण्ट बनी। थियोसोफिकल सोसायटी का गठन सभी प्राचीन धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करने के उद्देश्य से किया गया था, लेकिन इस संस्था ने प्राचीन हिन्दू धर्म को अत्यधिक गूढ़ व आध्यात्मिक माना। थियोसोफिकल सोसायटी के प्रचारकों ने हिन्दू धर्म की बहुत प्रशंसा की तथा इस धर्म के विचारों का प्रचार किया। इस संस्था ने हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने का भी प्रयत्न किया। इस संस्था का विश्वास सभी धर्मों के मूल सिद्धान्तों में था।

प्रश्न 11.
भारत में मुस्लिम समाज के लिए कौन-कौन से सुधारवादी आन्दोलन चलाए गए?
उतर:
भारत में मुस्लिम समाज के लिए निम्नलिखित सुधारवादी आन्दोलन चलाए गए

  • अलीगढ़ आन्दोलन
  • बहावी आन्दोलन
  • अहमदिया आन्दोलन
  • देवबन्द आन्दोलन।

प्रश्न 12.
राजा राममोहन राय ने अपने विचारों का प्रचार करने के लिए कौन-सी संस्था का गठन किया?
उतर:
राजा राममोहन राय ने अपने विचारों का प्रचार करने के लिए ‘ब्रह्म समाज’ नामक संस्था का गठन किया।

प्रश्न 13.
रामकृष्ण परमहंस कौन थे?
उतर:
रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द के आध्यात्मिक गुरु थे। वे उन्नीसवीं शताब्दी के महान चिन्तक थे। उनका बचपन का नाम गदाधर चटर्जी था।

प्रश्न 14.
भारत में नवनिर्माण पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उतर:
भारत में प्रथम रेलमार्ग 1803 ई० में प्रारम्भ हो गया था, जबकि भारत में इसकी व्यवस्था 1853 ई० में हुई। 1856 ई० तक भारत के विभिन्न भागों में रेल लाइनें बिछ गई। 1852 ई० में भारत में विद्युत टेलीग्राफ पद्धति का सूत्रपात हुआ। पहली टेलीग्राफ लाइन 1854 ई० में कलकत्ता से आगरा तक खोली गई, जो 1857 तक लाहौर और पेशावर तक फैल गई। टेलीग्राफ पद्धति द्वारा दूर स्थानों पर बैठे व्यक्तियों के विचारों और संदेशों के आदान-प्रदान से भारतीयों में नवचेतना का विकास हुआ। सन् 1854 ई० में लॉर्ड डलहौजी ने भारतीयों व विदेशियों के साथ नियमित डाक व्यवस्था के लिए पोस्ट ऑफिस ऐक्ट लागू किया। इसी क्रम में डाक टिकटों का सूत्रपात हुआ। इस प्रकार ब्रिटिश शासनकाल में भारत का नवनिर्माण हुआ, जिसने भारतीयों में राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास कर दिया।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समाज सुधारक एवं धर्म सुधारक के रूप में राजा राममोहन राय का मूल्यांकन कीजिए।
उतर:
राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई, 1774 ई० को बंगाल के राधानगर गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद का अग्रदूत और जनक कहा जा सकता है। वे एक ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते थे। उन्होंने लोगों में अपने धर्म एवं राष्ट्र की स्वतन्त्रता के प्रति चेतना उत्पन्न की और अनेक सामाजिक एवं धार्मिक सुधार भी किए। धार्मिक सुधार- आधुनिक भारत के धार्मिक जागरण का प्रारम्भ राजा राममोहन राय से ही होता है। उन्होंने हिन्दू धर्म तथा संस्कृति को अन्धविश्वास तथा आडम्बरों के जाल से मुक्त किया।

उस समय रूढ़ियों, ढोंगों तथा आडम्बरों की भारी तह ने हिन्दुत्व के सच्चे स्वरूप को ढक लिया था। ईसाई पादरी, हिन्दू धर्म के आडम्बरों की तीव्र आलोचना कर रहे थे। अंग्रेजी पढ़ेलिखे भारतीय नवयुवक द्रुतगति से ईसाइयत की ओर दौड़ रहे थे। राजा राममोहन राय इस स्थिति को देखकर अत्यन्त दु:खी हुए। उन्होंने हिन्दू धर्म के यज्ञ-सम्बन्धी कर्मकाण्ड, मूर्तिपूजा तथा जातिवाद का खण्डन किया। उन्होंने फारसी में तुहफत-उलमुवाहिदीन नामक पुस्तक लिखी, जिसमें मूर्तिपूजा का खण्डन तथा एकेश्वरवाद की प्रशंसा की गई थी। उन्होंने संक्षिप्त वेदान्त नामक पुस्तक में वेदान्त का टीका सहित अनुवाद किया। वे वेदान्त को हिन्दुत्व का आधार बनाना चाहते थे।

हिन्दू समाज में नए धार्मिक विचारों का प्रचार करने के उद्देश्य से उन्होंने कलकत्ता (कोलकाता) में 1815 ई० में ‘आत्मीय सभा तथा 1816 ई० में वेदान्त कॉलेज की स्थापना की और अन्त में 20 अगस्त, 1828 को शुद्ध एकेश्वरवादियों की उपासना के लिए उन्होंने कलकत्ता में ब्रह्म समाज की स्थापना की। इस समाज की बैठकों में वेद तथा उपनिषदों का पाठ हुआ करता था। इसमें मूर्तिपूजा तथा अवतार के सिद्धान्तों को नहीं माना गया था। वस्तुतः राममोहन राय विश्व बन्धुत्व तथा मानस प्रेम के पुजारी थे। उनकी निष्ठा किसी सम्प्रदाय विशेष तक ही सीमित न थी। मूर्तिपूजा का विरोध, एकेश्वरवाद में अटल विश्वास, बुद्धिवादी दृष्टिकोण तथा मानव धर्म ये राममोहन राय के प्रमुख सिद्धान्त थे, जिनके आधार पर वे हिन्दुत्व का संशोधन करना चाहते थे।

उनकी इच्छा थी कि भारत, यूरोप से विज्ञान को ग्रहण करे और साथ ही अपने धर्म का बुद्धिसम्मत रूप संसार के सामने रखे। प्राचीन भारतीय संस्कृति तथा आधुनिक प्रगतिवाद के बीच राजा राममोहन राय एक महान् पुल थे। इनकी मृत्यु इंग्लैण्ड के ब्रिस्टल में 1833 ई० में हुई। मिस काटेल ने उनकी जीवनी में लिखा है- “इतिहास में राममोहन राय का स्थान उस महासेतु के समान है, जिस पर चढ़कर भारतवर्ष अपने अथाह अतीत से अज्ञात भविष्य में प्रवेश करता है।

समाज सुधार- राजा राममोहन राय हिन्दू समाज की दशा सुधारने को बहुत उत्सुक थे। उन्होंने समाज में प्रचलित बहुविवाह तथा बालविवाह जैसी बुराइयों का खण्डन किया। स्त्री शिक्षा तथा स्त्रियों के समानाधिकार के वे प्रबल समर्थक थे। उन्होंने सती प्रथा के विरुद्ध शास्त्रार्थ नामक ग्रन्थ में कई निबन्ध लिखे। 1829 ई० में गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने सती प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर इसके विरुद्ध बड़ा कानून बना दिया। यह कानून राममोहन राय के आन्दोलन का ही फल था। राजा राममोहन राय द्वारा प्रकाशित ‘संवाद कौमुदी’ और ‘मिरातुल अखबार’ ने भारतीय विचारों को बदलने तथा विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक सुधार करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

उपरोक्त विवेचना के आधार पर राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण के महान जनक की संज्ञा दी जा सकती है।

प्रश्न 2.
आधुनिक भारत के पुनर्जागरण में स्वामी दयानन्द के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
उतर:
हिन्दू धर्म और समाज में व्याप्त बुराईयों को समाप्त करने में आर्य समाज का विशेष योगदान है। आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानन्द द्वारा 1875 ई० में हुई थी। उन्नीसवीं शताब्दी का काल समाज में घोर असमानता और अन्याय का युग था। भारतीय लोग अनेक रूढ़ियों और आडम्बरों के कारण पतन की ओर उन्मुख हो रहे थे। ऐसे समय में स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना कर, उनका उद्धार किया। उन्होंने हिन्दुओं को प्रेम, स्वतन्त्रता, सच्ची ईश्वर-भक्ति एवं हिन्दू संस्कृति के प्रति सम्मान का भाव रखने की प्रेरणा दी।

शिक्षा के क्षेत्र में दयानन्द का भी उल्लेखनीय योगदान रहा। उनके अनुयायियों के सहयोग से स्थान-स्थान पर डी०ए०वी० स्कूलों, गुरुकुलों एवं कन्या पाठशालाओं की स्थापना की गई। उन्होंने आश्रम-व्यवस्था को महत्व दिया। उनका मानना था कि वर्ण-व्यवस्था को गुण व कर्म के अनुसार ही मानना चाहिए। ये छुआछूत, बालविवाह, कन्या वध, पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियों के विरोधी थे। दयानन्द ने राष्ट्रीय जागरण के क्षेत्र में स्वभाषा, स्वधर्म और स्वराज्य पर बल दिया। इनका मानना था कि समस्त ज्ञान वेदों में ही नीहित हैं, इसलिए ‘पुनः वेद की ओर चलो’ का नारा दिया। दयानन्द पहले भारतीय थे, जिन्होंने सभी व्यक्तियों को (शूद्रों एवं स्त्रियों को भी) वेदों के अध्ययन एवं इसकी व्याख्या करने का अधिकार दिया।

आर्यसमाज का राजनीतिक जागृति में भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। दयानन्द सरस्वती की जीवनी के एक लेखक ने उनके बारे में लिखा है दयानन्द का लक्ष्य राजनीतिक स्वतन्त्रता था। वास्तव में वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ‘स्वराज’ शब्द का प्रयोग किया। वे प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना तथा स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना सिखाया। वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया।” आर०सी० मजूमदार ने लिखा है- “आर्य-समाज प्रारम्भ से ही उग्रवादी सम्प्रदाय था। उसका मुख्य स्रोत तीव्र राष्ट्रीयता था।” इस प्रकार आर्य समाज ने हिन्दू धर्म और संस्कृति की श्रेष्ठता का दावा करके हिन्दू सम्मान के गौरव की रक्षा की तथा हिन्दू जाति में आत्मविश्वास एवं स्वाभिमान को जन्म दिया। इससे भारतीय राष्ट्रीयता के निर्माण में सहयोग मिला।

इस प्रकार आर्य समाज ने भारत को धर्म, समाज, शिक्षा और राजनीतिक चेतना के क्षेत्र में बहुत कुछ प्रदान किया है। इसी कारण ब्रह्म समाज आन्दोलन प्रायः समाप्त हो गया है। रामकृष्ण मिशन का प्रभाव समाज के शिक्षित और उदार-वर्ग तक सीमित है, आर्य समाज अभी तक न केवल एक जीवित आन्दोलन है, अपितु हमारे समाज के छोटे और निम्न से निम्न वर्ग तक उसकी पहुँच है और एक सीमित क्षेत्र में आज भी उसे एक जन-आन्दोलन स्वीकार किया जा सकता है।

प्रश्न 3.
उन्नीसवीं शताब्दी में सामाजिक चेतना में स्वामी विवेकानन्द के योगदान का उल्लेख कीजिए।
उतर:
स्वामी विवेकानन्द ने आध्यात्मवाद को पुनर्जन्म देकर हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता को स्थापित करके उसे ईसाई तथा इस्लाम के आक्रमणों एवं प्रभाव से बचाया। स्वामी जी राष्ट्रीयता के पोषक थे। उन्होंने देश के नवयुवकों में सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना का विकास किया और उन्हें “उठो जागो और तब तक न रूको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो” का सन्देश दिया।

1893 ई० में, वे शिकागो में सर्व-धर्म विश्व सम्मेलन में भाग लेने गए। वहाँ उन्होंने अपनी ओजस्वी वाणी में अपने विचारों और सिद्धान्तों को व्यक्त किया, जिसका वहाँ उपस्थित सभी धर्मों के लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपने व्याख्यान में कहा हिन्दू धर्म अति महान् है, क्योंकि यह सभी धर्मों की अच्छाइयों को समान रूप से स्वीकार करता है।” उन्होंने अमेरिकी लोगों की नीति की आलोचना करते हुए लिखा है- “आप लोग अपने ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए तो भारत में असीम धन व्यय कर सकते हैं, लेकिन भारतवासियों की गरीबी और भुखमरी को दूर करने के लिए कुछ नहीं कर सकते। भारत में धर्म का अभाव नहीं, धन का अभाव है।” उन्होंने गर्वपूर्वक घोषणा की थी कि यदि विश्वमण्डल के किसी भू-क्षेत्र को पुण्यभूमि कहा जा सकता है, तो निश्चित रूप से वह भारतवर्ष ही है।

विदेशों से लौटने के बाद विवेकानन्द ने समाजसेवा को व्यवस्थित रूप देने के उद्देश्य से ‘रामकृष्ण मिशन’ नाम से एक नया संगठन 5 मई 1897 में स्थापित किया। इस संगठन की ओर से दुर्भिक्ष, महामारी, बाढ़ आदि आपदाओं के समय सहायता कार्य किये गये। विवेकानन्द ने बताया कि मोक्ष संन्यास से नहीं बल्कि मानव मात्र की सेवा से प्राप्त होता है। उनका तर्क था कि शिक्षा सामाजिक बुराईयों को दूर करने का सबसे सशक्त माध्यम है। सत्य के बारे में उनका मानना था कि किसी बात पर यह सोचकर विश्वास न करो कि तुमने उसको किसी पुस्तक में पढ़ा है अथवा किसी ने ऐसा कहा है, अपितु स्वयं सत्य की खोज करो।”

विवेकानन्द ने कभी भी सीधे तौर पर ब्रिटिश नीतियों के विरोध में अथवा राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में प्रचार नहीं किया लेकिन सुधार, एकता, जागरण और स्वतन्त्रता के प्रति उनके सभी प्रवचनों के परिणामस्वरूप ही राष्ट्रवाद की सशक्त भावना प्रवाहित हुई। उन्होंने शिक्षित भारतीयों को सम्बोधित करते हुए कहा, “जब तक भारत में करोड़ों लोग भूख और अज्ञान से ग्रसित होकर जीवन व्यतीत कर रहे हैं, तब तक मैं प्रत्येक उस व्यक्ति को देशद्रोही समझेंगा, जो उनके खर्च से शिक्षित होने के बाद उनके प्रति तनिक भी ध्यान नहीं देता।” रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विवेकानन्द को ‘सृजन की प्रतिभा’ कहा है। वे अमेरिका में तूफानी हिन्दू’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। सुभाषचन्द्र बोस ने लिखा है कि “उनमें बुद्ध का हृदय और शंकराचार्य की बुद्धि थी तथा वह आधुनिक भारत के निर्माता थे।

इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म, संस्कृति, सभ्यता, गौरव, समाज और राष्ट्रीयता के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इस कारण रामकृष्णन मिशन, भारतीय पुनरुद्धार आन्दोलन का एक महत्त्वपूर्ण भाग बन गया और आधुनिक समय में वह विभिन्न क्षेत्रों में भारत की सेवा कर रहा है।

प्रश्न 4.
“राजा राममोहन राय भारतीय पुनर्जागरण के जनक थे।”इस कथन की विवेचना कीजिए।
उतर:
राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई, 1774 ई० को बंगाल के राधानगर गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद का अग्रदूत और जनक कहा जा सकता है। वे एक ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते थे। उन्होंने लोगों में अपने धर्म एवं राष्ट्र की स्वतन्त्रता के प्रति चेतना उत्पन्न की और अनेक सामाजिक एवं धार्मिक सुधार भी किए। धार्मिक सुधार- आधुनिक भारत के धार्मिक जागरण का प्रारम्भ राजा राममोहन राय से ही होता है। उन्होंने हिन्दू धर्म तथा संस्कृति को अन्धविश्वास तथा आडम्बरों के जाल से मुक्त किया।

उस समय रूढ़ियों, ढोंगों तथा आडम्बरों की भारी तह ने हिन्दुत्व के सच्चे स्वरूप को ढक लिया था। ईसाई पादरी, हिन्दू धर्म के आडम्बरों की तीव्र आलोचना कर रहे थे। अंग्रेजी पढ़ेलिखे भारतीय नवयुवक द्रुतगति से ईसाइयत की ओर दौड़ रहे थे। राजा राममोहन राय इस स्थिति को देखकर अत्यन्त दु:खी हुए। उन्होंने हिन्दू धर्म के यज्ञ-सम्बन्धी कर्मकाण्ड, मूर्तिपूजा तथा जातिवाद का खण्डन किया। उन्होंने फारसी में तुहफत-उलमुवाहिदीन नामक पुस्तक लिखी, जिसमें मूर्तिपूजा का खण्डन तथा एकेश्वरवाद की प्रशंसा की गई थी। उन्होंने संक्षिप्त वेदान्त नामक पुस्तक में वेदान्त का टीका सहित अनुवाद किया। वे वेदान्त को हिन्दुत्व का आधार बनाना चाहते थे।

हिन्दू समाज में नए धार्मिक विचारों का प्रचार करने के उद्देश्य से उन्होंने कलकत्ता (कोलकाता) में 1815 ई० में ‘आत्मीय सभा तथा 1816 ई० में वेदान्त कॉलेज की स्थापना की और अन्त में 20 अगस्त, 1828 को शुद्ध एकेश्वरवादियों की उपासना के लिए उन्होंने कलकत्ता में ब्रह्म समाज की स्थापना की। इस समाज की बैठकों में वेद तथा उपनिषदों का पाठ हुआ करता था। इसमें मूर्तिपूजा तथा अवतार के सिद्धान्तों को नहीं माना गया था। वस्तुतः राममोहन राय विश्व बन्धुत्व तथा मानस प्रेम के पुजारी थे। उनकी निष्ठा किसी सम्प्रदाय विशेष तक ही सीमित न थी। मूर्तिपूजा का विरोध, एकेश्वरवाद में अटल विश्वास, बुद्धिवादी दृष्टिकोण तथा मानव धर्म ये राममोहन राय के प्रमुख सिद्धान्त थे, जिनके आधार पर वे हिन्दुत्व का संशोधन करना चाहते थे।

उनकी इच्छा थी कि भारत, यूरोप से विज्ञान को ग्रहण करे और साथ ही अपने धर्म का बुद्धिसम्मत रूप संसार के सामने रखे। प्राचीन भारतीय संस्कृति तथा आधुनिक प्रगतिवाद के बीच राजा राममोहन राय एक महान् पुल थे। इनकी मृत्यु इंग्लैण्ड के ब्रिस्टल में 1833 ई० में हुई। मिस काटेल ने उनकी जीवनी में लिखा है- “इतिहास में राममोहन राय का स्थान उस महासेतु के समान है, जिस पर चढ़कर भारतवर्ष अपने अथाह अतीत से अज्ञात भविष्य में प्रवेश करता है।

समाज सुधार- राजा राममोहन राय हिन्दू समाज की दशा सुधारने को बहुत उत्सुक थे। उन्होंने समाज में प्रचलित बहुविवाह तथा बालविवाह जैसी बुराइयों का खण्डन किया। स्त्री शिक्षा तथा स्त्रियों के समानाधिकार के वे प्रबल समर्थक थे। उन्होंने सती प्रथा के विरुद्ध शास्त्रार्थ नामक ग्रन्थ में कई निबन्ध लिखे। 1829 ई० में गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने सती प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर इसके विरुद्ध बड़ा कानून बना दिया। यह कानून राममोहन राय के आन्दोलन का ही फल था। राजा राममोहन राय द्वारा प्रकाशित ‘संवाद कौमुदी’ और ‘मिरातुल अखबार’ ने भारतीय विचारों को बदलने तथा विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक सुधार करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

उपरोक्त विवेचना के आधार पर राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण के महान जनक की संज्ञा दी जा सकती है।

प्रश्न 5.
स्वामी विवेकानन्द व उनके योगदान पर टिप्पणी कीजिए।
उतर:
स्वामी विवेकानन्द- स्वामी विवेकानन्द का वास्तविक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। उनका जन्म 12 जनवरी, 1863 ई० को कलकत्ता में एक प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में हुआ था। बाल्यकाल से ही नरेन्द्रनाथ दत्त प्रत्येक बात को तर्क के आधार पर समझकर ही स्वीकार करते थे। छात्र जीवन में वे पश्चिमी विचार धारा के कट्टर थे। लेकिन भारतीय संस्कृति के अग्रदूत रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आने पर उनकी विचारधारा बदल गई। वे इस निर्णय पर पहुँचे कि सत्य या ईश्वर को जानने का सच्चा मार्ग, अनुरागपूर्ण साधना का मार्ग ही है। अपनी इस विचारधारा के कारण, वे रामकृष्ण परमहंस के प्रिय शिष्य बन गए। स्वामी विवेकानन्द के योगदान- इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-3 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 6.
उन्नीसवीं शताब्दी के भारत में समाज-सुधार आन्दोलनों की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
उतर:
लगभग दो सौ वर्षों (1757-1947 ई०) तक भारत में ब्रिटिश शासन रहा। सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में अंग्रेज भारतीयों से बहुत आगे थे। यूरोप में पुनर्जागरण तथा औद्योगिक क्रान्ति ने कला, विज्ञान तथा साहित्य के क्षेत्र में दूरगामी और क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया था। इसलिए जब भारतवासी अंग्रेजों के सम्पर्क में आए तो वे भी पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। पहले तो पश्चिम सभ्यता के सम्पर्क से भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न हुई, फिर धर्म-सुधार आन्दोलनों का जन्म हुआ और फिर विदेशी शासन से मुक्ति पाने हेतु भारत के लोग अंग्रेजों से संघर्ष करने के लिए प्रेरित हुए। भारत पर अंग्रेजों की विजय से भारत का काफी भाग प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अन्तर्गत आ गया।

इससे यह सम्पर्क और दृढ़ हो गया। इसके अतिरिक्त भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रवेश ने भी पश्चिमी विज्ञान, दर्शन, साहित्य और चिन्तन से भारतीयों का परिचय कराया। इसने उन बन्धनों को तोड़ दिया, जिन्होंने पश्चिमी दुनिया के दरवाजे भारत के लिए बन्द किए हुए थे। प्रारम्भ से ही भारतीय समाज एवं संस्कृति, परिवर्तन और निरन्तरता की प्रक्रिया से गुजरती रही है। 19 वीं शताब्दी के दौरान भारत सामाजिक-धार्मिक सुधारों और सांस्कृतिक पुनरुद्धार के एक और चरण से गुजरा। इस समय तक भारतीय यूरोपियनों और उनके माध्यम से उनकी संस्कृति के सम्पर्क में आ चुके थे। पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से भारतीयों में राष्ट्रीय व सामाजिक चेतना उत्पन्न हुई, जिसके फलस्वरूप देश में पहले धर्म व सुधार आन्दोलनों का प्रादुर्भाव हुआ।

ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों, विशेष रूप से शिक्षा और धर्म प्रचार ने भी ईसाई धर्म के आन्तरिक सिद्धान्तों की ओर बहुतसे भारतीयों को आकर्षित किया। इससे भारतीय लोगों का जीवन और चिन्तन धीरे-धीरे पश्चिमी संस्कृति और विचारों से प्रभावित हुआ। इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभाव प्रचलित भारतीय परम्पराओं, विश्वासों और रिवाजों में देखा जा सकता है। अनेक प्रबुद्ध हिन्दुओं ने यह जान लिया कि हिन्दू और ईसाई धर्म बाहरी रूपों में एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी आन्तरिक मूल्यों में एक जैसे हैं।

इंग्लैण्ड में इस समय तक पूर्ण लोकतन्त्र की स्थापना हो चुकी थी। इसका प्रभाव भारत पर भी पड़ा। 1857 ई० की क्रान्ति के बाद हमारे देश में भी व्यवस्थापिका की स्थापना होने लगी और स्वायत्त शासन विकसित होने लगा। यह संवैधानिक विकास निरन्तर होता रहा और धीरे-धीरे देश लोकतन्त्र की ओर बढ़ता गया। अन्त में, हमारे देश में पूर्ण रूप से लोकतन्त्रीय शासनव्यवस्था स्थापित हो गई।

इस प्रकार, अपने धर्म और सदियों पुरानी संस्कृति की महान् परम्पराओं को छोड़े बिना प्रबुद्ध भारतीयों ने अपने समाज को अन्धविश्वासों से मुक्त कराने के विषय में गम्भीरता से विचार किया। अत: भारतीय इतिहास में 19 वीं शताब्दी महान् मानसिक चिन्तन का युग माना जाता है। इसने अनेक सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलनों को जन्म दिया, जिन्होंने नए भारत के उदय को सम्भव बनाया। इन आन्दोलनों ने भारत के समाज, धर्म, साहित्य और राजनीतिक जीवन को गहराई से प्रभावित किया। इसी भावना और इससे प्रभावित विभिन्न प्रयत्नों को हम भारतीय पुनरुद्धार आन्दोलन के नाम से पुकारते हैं।

भारतीय पुनर्जागरण ने यूरोप की भाँति धर्म, समाज, कला, साहित्य आदि को प्रभावित किया। भारतीय सभ्यता और संस्कृति की श्रेष्ठता, प्रगति तथा पश्चिमी सभ्यता के सामने टिकने का साहस ही भारतीय पुनर्जागरण का आधार था। भारतीय जीवन का चहुंमुखी विकास उसका स्वरूप था तथा सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक, धार्मिक एवं कलात्मक क्षेत्र में नवीन चेतना की उत्पत्ति उसका परिणाम था। आरम्भ में पुनरुद्धार आन्दोलन एक बौद्धिक परिवर्तन था, बाद में वह अनेक सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों का आधार बना और अन्तत: भारतीय जीवन का प्रत्येक अंग इससे अछूता न रहा।

प्रश्न 7.
“ब्रह्म समाज एवं प्रार्थना समाज का प्रमुख उद्देश्य समाज सुधार था।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
उतर:
‘बह्म समाज’ की स्थापना 20 अगस्त, 1828 ई० में राजा राममोहन राय द्वारा की गई। मूर्तिपूजा का विरोध, एकेश्वरवाद में अटल विश्वास, बुद्धिवादी दृष्टिकोण तथा मानव धर्म आदि ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धान्त थे। उन्नीसवीं शताब्दी में अन्धविश्वास रूढ़ियों, ढोंगों एवं आडम्बरों ने हिन्दुत्व के सच्चे स्वरूप को ढक रखा था। ईसाई पादरी, हिन्दू समाज के अडम्बरों की आलोचना कर रहे थे। समाज में जाति प्रथा, छुआछूत, बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा विवाह, निषेध, अन्धविश्वास, शिक्षा का अभाव आदि अनेक बुराइयाँ व्याप्त थी। ब्रह्म समाज ने इन सब बुराइयों का विरोध कर समाज की दशा सुधारने का महत्वपूर्ण कार्य किया। ब्रह्म समाज ने स्त्री शिक्षा पर जोर दिया और सती प्रथा एवं विधवा विवाह निषेध को गैर कानूनी घोषित कर इनके विरुद्ध कड़ा कानून बनवा दिया।

महाराष्ट्र में हिन्दू समाज और धर्म सुधार लाने का सबसे अधिक सफल प्रयास ‘प्रार्थना समाज’ ने किया। जिसकी स्थापना डॉ० आत्माराम पाण्डुरंग ने मार्च, 1867 ई० में बम्बई में की। प्रार्थना समाज का विकास ब्रह्म समाज की छत्रछाया में हुआ था। प्रार्थना समाज ने जाति-व्यवस्था एवं अस्पृशयता की निन्दा की, अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहित किया। स्त्री-पुरुष के विवाह में वृद्धि, स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन, विधवा विवाह का समर्थन प्रार्थना समाज का मुख्य ध्येय था। विधवाओं का पुनर्वास तथा बाल विधवा का संरक्षण आदि का प्रयास भी प्रार्थना समाज के द्वारा किया गया। इस प्रकार उपरोक्त विवेचना के आधार पर हम कह सकते है। कि “ब्रह्म समाज एवं प्रार्थना समाज का प्रमुख उद्देश्य समाज सुधार था।”

प्रश्न 8.
“उन्नीसवीं शताब्दी सामाजिक एवं राष्ट्रीय पुनर्जागरण का युग था।” इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उतर:
लगभग दो सौ वर्षों (1757-1947 ई०) तक भारत में ब्रिटिश शासन रहा। सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में अंग्रेज भारतीयों से बहुत आगे थे। यूरोप में पुनर्जागरण तथा औद्योगिक क्रान्ति ने कला, विज्ञान तथा साहित्य के क्षेत्र में दूरगामी और क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया था। इसलिए जब भारतवासी अंग्रेजों के सम्पर्क में आए तो वे भी पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। पहले तो पश्चिम सभ्यता के सम्पर्क से भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न हुई, फिर धर्म-सुधार आन्दोलनों का जन्म हुआ और फिर विदेशी शासन से मुक्ति पाने हेतु भारत के लोग अंग्रेजों से संघर्ष करने के लिए प्रेरित हुए। भारत पर अंग्रेजों की विजय से भारत का काफी भाग प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अन्तर्गत आ गया।

इससे यह सम्पर्क और दृढ़ हो गया। इसके अतिरिक्त भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रवेश ने भी पश्चिमी विज्ञान, दर्शन, साहित्य और चिन्तन से भारतीयों का परिचय कराया। इसने उन बन्धनों को तोड़ दिया, जिन्होंने पश्चिमी दुनिया के दरवाजे भारत के लिए बन्द किए हुए थे। प्रारम्भ से ही भारतीय समाज एवं संस्कृति, परिवर्तन और निरन्तरता की प्रक्रिया से गुजरती रही है। 19 वीं शताब्दी के दौरान भारत सामाजिक-धार्मिक सुधारों और सांस्कृतिक पुनरुद्धार के एक और चरण से गुजरा। इस समय तक भारतीय यूरोपियनों और उनके माध्यम से उनकी संस्कृति के सम्पर्क में आ चुके थे। पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से भारतीयों में राष्ट्रीय व सामाजिक चेतना उत्पन्न हुई, जिसके फलस्वरूप देश में पहले धर्म व सुधार आन्दोलनों का प्रादुर्भाव हुआ।

ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों, विशेष रूप से शिक्षा और धर्म प्रचार ने भी ईसाई धर्म के आन्तरिक सिद्धान्तों की ओर बहुतसे भारतीयों को आकर्षित किया। इससे भारतीय लोगों का जीवन और चिन्तन धीरे-धीरे पश्चिमी संस्कृति और विचारों से प्रभावित हुआ। इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभाव प्रचलित भारतीय परम्पराओं, विश्वासों और रिवाजों में देखा जा सकता है। अनेक प्रबुद्ध हिन्दुओं ने यह जान लिया कि हिन्दू और ईसाई धर्म बाहरी रूपों में एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी आन्तरिक मूल्यों में एक जैसे हैं।

इंग्लैण्ड में इस समय तक पूर्ण लोकतन्त्र की स्थापना हो चुकी थी। इसका प्रभाव भारत पर भी पड़ा। 1857 ई० की क्रान्ति के बाद हमारे देश में भी व्यवस्थापिका की स्थापना होने लगी और स्वायत्त शासन विकसित होने लगा। यह संवैधानिक विकास निरन्तर होता रहा और धीरे-धीरे देश लोकतन्त्र की ओर बढ़ता गया। अन्त में, हमारे देश में पूर्ण रूप से लोकतन्त्रीय शासनव्यवस्था स्थापित हो गई।

इस प्रकार, अपने धर्म और सदियों पुरानी संस्कृति की महान् परम्पराओं को छोड़े बिना प्रबुद्ध भारतीयों ने अपने समाज को अन्धविश्वासों से मुक्त कराने के विषय में गम्भीरता से विचार किया। अत: भारतीय इतिहास में 19 वीं शताब्दी महान् मानसिक चिन्तन का युग माना जाता है। इसने अनेक सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलनों को जन्म दिया, जिन्होंने नए भारत के उदय को सम्भव बनाया। इन आन्दोलनों ने भारत के समाज, धर्म, साहित्य और राजनीतिक जीवन को गहराई से प्रभावित किया। इसी भावना और इससे प्रभावित विभिन्न प्रयत्नों को हम भारतीय पुनरुद्धार आन्दोलन के नाम से पुकारते हैं।

भारतीय पुनर्जागरण ने यूरोप की भाँति धर्म, समाज, कला, साहित्य आदि को प्रभावित किया। भारतीय सभ्यता और संस्कृति की श्रेष्ठता, प्रगति तथा पश्चिमी सभ्यता के सामने टिकने का साहस ही भारतीय पुनर्जागरण का आधार था। भारतीय जीवन का चहुंमुखी विकास उसका स्वरूप था तथा सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक, धार्मिक एवं कलात्मक क्षेत्र में नवीन चेतना की उत्पत्ति उसका परिणाम था। आरम्भ में पुनरुद्धार आन्दोलन एक बौद्धिक परिवर्तन था, बाद में वह अनेक सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों का आधार बना और अन्तत: भारतीय जीवन का प्रत्येक अंग इससे अछूता न रहा।

प्रश्न 9.
“आर्य समाज ने भारत को धर्म, शिक्षा एवं राजनीतिक चेतना के क्षेत्र में बहुत कुछ प्रदान किया।” स्पष्ट कीजिए।
उतर:
हिन्दू धर्म और समाज में व्याप्त बुराईयों को समाप्त करने में आर्य समाज का विशेष योगदान है। आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानन्द द्वारा 1875 ई० में हुई थी। उन्नीसवीं शताब्दी का काल समाज में घोर असमानता और अन्याय का युग था। भारतीय लोग अनेक रूढ़ियों और आडम्बरों के कारण पतन की ओर उन्मुख हो रहे थे। ऐसे समय में स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना कर, उनका उद्धार किया। उन्होंने हिन्दुओं को प्रेम, स्वतन्त्रता, सच्ची ईश्वर-भक्ति एवं हिन्दू संस्कृति के प्रति सम्मान का भाव रखने की प्रेरणा दी।

शिक्षा के क्षेत्र में दयानन्द का भी उल्लेखनीय योगदान रहा। उनके अनुयायियों के सहयोग से स्थान-स्थान पर डी०ए०वी० स्कूलों, गुरुकुलों एवं कन्या पाठशालाओं की स्थापना की गई। उन्होंने आश्रम-व्यवस्था को महत्व दिया। उनका मानना था कि वर्ण-व्यवस्था को गुण व कर्म के अनुसार ही मानना चाहिए। ये छुआछूत, बालविवाह, कन्या वध, पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियों के विरोधी थे। दयानन्द ने राष्ट्रीय जागरण के क्षेत्र में स्वभाषा, स्वधर्म और स्वराज्य पर बल दिया। इनका मानना था कि समस्त ज्ञान वेदों में ही नीहित हैं, इसलिए ‘पुनः वेद की ओर चलो’ का नारा दिया। दयानन्द पहले भारतीय थे, जिन्होंने सभी व्यक्तियों को (शूद्रों एवं स्त्रियों को भी) वेदों के अध्ययन एवं इसकी व्याख्या करने का अधिकार दिया।

आर्यसमाज का राजनीतिक जागृति में भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। दयानन्द सरस्वती की जीवनी के एक लेखक ने उनके बारे में लिखा है दयानन्द का लक्ष्य राजनीतिक स्वतन्त्रता था। वास्तव में वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ‘स्वराज’ शब्द का प्रयोग किया। वे प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना तथा स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना सिखाया। वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया।” आर०सी० मजूमदार ने लिखा है- “आर्य-समाज प्रारम्भ से ही उग्रवादी सम्प्रदाय था। उसका मुख्य स्रोत तीव्र राष्ट्रीयता था।” इस प्रकार आर्य समाज ने हिन्दू धर्म और संस्कृति की श्रेष्ठता का दावा करके हिन्दू सम्मान के गौरव की रक्षा की तथा हिन्दू जाति में आत्मविश्वास एवं स्वाभिमान को जन्म दिया। इससे भारतीय राष्ट्रीयता के निर्माण में सहयोग मिला।

इस प्रकार आर्य समाज ने भारत को धर्म, समाज, शिक्षा और राजनीतिक चेतना के क्षेत्र में बहुत कुछ प्रदान किया है। इसी कारण ब्रह्म समाज आन्दोलन प्रायः समाप्त हो गया है। रामकृष्ण मिशन का प्रभाव समाज के शिक्षित और उदार-वर्ग तक सीमित है, आर्य समाज अभी तक न केवल एक जीवित आन्दोलन है, अपितु हमारे समाज के छोटे और निम्न से निम्न वर्ग तक उसकी पहुँच है और एक सीमित क्षेत्र में आज भी उसे एक जन-आन्दोलन स्वीकार किया जा सकता है।

प्रश्न 10.
भारत में मुस्लिम आन्दोलनों का क्या प्रभाव पड़ा? विस्तृत रूप से समझाइए।
उतर:
हिन्दू आन्दोलन की प्रतिक्रियास्वरूप, मुस्लिम समाज में भी अनेक सुधार आन्दोलनों की शुरूआत हुई। इन आन्दोलनों का उद्देश्य मुस्लिम समाज और इस्लाम धर्म में प्रविष्ट हो गई बुराइयों को दूर करना था। इन आन्दोलनों ने जहाँ सामाजिक बुराइयों को दूर करने में योगदान दिया, वहीं भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना के उत्थान में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। भारत के प्रमुख मुस्लिम आन्दोलन निम्नलिखित थे

(i) अलीगढ़ आन्दोलन- इस आन्दोलन के प्रवर्तक सर सैयद अहमद खाँ (1817-1893 ई०) थे। अलीगढ़ आन्दोलन ने मुस्लिमों को जागृत करने में पर्याप्त सहयोग दिया। सर सैयद अमहद खाँ ने सरकार और मुसलमानों के बीच की दूरी को समाप्त करने का प्रयत्न किया। वे न्याय विभाग में एक उच्च पद पर आसीन थे। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि अंग्रेजों से सहानुभूति पाने के लिए उनसे मिल-जुलकर कार्य करना चाहिए और राजभक्ति का प्रदर्शन करना चाहिए। ऐसा कर उन्होंने अंग्रेजों की सहानुभूति प्राप्त कर ली। उन्होंने 1875 ई० में मोहम्मडन एंग्लो-ओरियण्टल कॉलेज की स्थापना की। यही कॉलेज आगे चलकर 1920 ई० में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने नारी शिक्षा का समर्थन एवं पर्दा प्रथा का विरोध किया। इस प्रकार सैयद अहमद खाँ ने मुस्लिमों की बहुत सेवा की और उनमें राजनीतिक चेतना जगाई। अलीगढ़ आन्दोलन के अन्य प्रमुख नेता चिराग अली, अल्ताफ हुसैन, नजीर अहमद तथा मौलाना शिवली नोगानी थे।

(ii) वहाबी आन्दोलन- भारत का वहाबी आन्दोलन अरब के वहाबी आन्दोलन से प्रभावित था। भारत में इसका प्रचलन सैयद अहमद बरेलवी (1786-1831 ई०) ने किया। इस आन्दोलन ने मुस्लिम धर्म में व्याप्त कुरीतियों की ओर मुसलमान वर्ग का ध्यान आकर्षित किया। इस आन्दोलन ने पाश्चात्य सभ्यता एवं शिक्षा की कड़ी आलोचना की और भारत में एक बार फिर से मुस्लिम शासन की स्थापना के लिए लोगों को प्रेरित किया। इस आन्दोलन के दो प्रमुख उद्देश्य थे- अपने धर्म का प्रचार एवं मुस्लिम समाज में सुधार करना। इसके परिणामस्वरूप अनेक लोग इस धर्म की ओर आकर्षित हुए और बहुतों ने इस धर्म को अंगीकार भी किया।

(iii) अहमदिया आन्दोलन- इस आन्दोलन के जन्मदाता मिर्जा गुलाम मुहम्मद (1838-1908 ई०) थे। इन्होंने कादियानी सम्प्रदाय की स्थापना की थी। इनका कथन था कि वे मुसलमानों के पैगम्बर, ईसाइयों के मसीहा और हिन्दुओं के अवतार हैं। वे पर्दा प्रथा, बहुविवाह तथा तलाक जैसी कुरीतियों का घोर विरोध करते थे। इनकी पुस्तक का नाम ‘बराहीन-ए अहमदिया है।

(iv) देवबन्द आन्दोलन- एक मुसलमान उलेमा, जो प्राचीन साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान थे, ने देवबन्द आन्दोलन चलाया। उन्होंने मुहम्मद कासिम तथा रशीद अहमद गंगोही के नेतृत्व में देवबन्द (सहारनपुर, पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में शिक्षण संस्था की स्थापना की। इस आन्दोलन के दो मुख्य उद्देश्य रहे- कुरान तथा हदीस की शिक्षाओं का प्रसार करना और विदेशी शासकों के विरुद्ध जेहाद’ की भावना को बनाए रखना। देवबन्द आन्दोलन ने 1885 ई० में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का स्वागत किया। इनके अतिरिक्त नदवा-उल-उलूम’ (लखनऊ, 1894 ई०, मौलाना शिवली नोगानी), ‘महलए-हदीस’ (पंजाब, मौलाना सैयद नजीर हुसैन) नामक मुस्लिम संस्थाओं ने भी मुस्लिम समाज को जागृत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

योगदान- इन मुस्लिम आन्दोलनों ने मुसलमानों में राजनीतिक तथा सामाजिक चेतना की वृद्धि की; जिसके परिणामस्वरूप मुसलमानों की स्थिति में पर्याप्त सुधार हुआ। उन्होंने पाश्चात्य रीति-रिवाजों को देखा और उसके प्रभावस्वरूप मुस्लिम समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को समाप्त कर दिया। इन आन्दोलनों के नेताओं ने नारी शिक्षा की ओर भी ध्यान देना प्रारम्भ किया, परन्तु मुसलमानों में इस चेतना के जागने से साम्प्रदायिकता की भावना प्रबल हो गई और देश में हिन्दू-मुसलमानों के मध्य झगड़े होने लगे।

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 7 Determination of Price and Output by Firm Under Imperfect Competition

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 7
Chapter Name Determination of Price and Output by Firm Under Imperfect Competition (अपूर्ण प्रतियोगिता में फर्म द्वारा कीमत व उत्पादन का निर्धारण)
Number of Questions Solved 28
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 7 Determination of Price and Output by Firm Under Imperfect Competition (अपूर्ण प्रतियोगिता में फर्म द्वारा कीमत व उत्पादन का निर्धारण)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
अपूर्ण प्रतियोगिता में फर्म अल्पकाल व दीर्घकाल में उत्पादन व कीमत का निर्धारण | किस प्रकार करती है ? सचित्र व्याख्या कीजिए। [2008]
या
अपूर्ण बाजार में किसी फर्म की सामान्य लाभ, असामान्य लाभ तथा हानि की स्थिति में सन्तुलन को दर्शाने वाले चित्र बनाइए तथा व्याख्या कीजिए। [2006]
उत्तर:
अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत प्रत्येक उत्पादक अथवा विक्रेता का अपना अलग व स्वतन्त्र क्षेत्र होता है। अपने क्षेत्र में वह कुछ सीमा तक मनचाही कीमत प्राप्त कर सकता है। इसमें बाजार कई भागों में बँटा रहता है जिन पर विभिन्न विक्रेताओं का प्रभुत्व होता हैं। प्रत्येक विक्रेता का उद्देश्य एकाधिकारी की भाँति अधिकतम लाभ प्राप्त करना होता है।

अपूर्ण प्रतियोगिता में फर्म द्वारा कीमत व उत्पादन का निर्धारण
अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत निर्धारण में माँग और पूर्ति की शक्तियों का समुचित ध्यान रखा जाता है। इनमें कीमत-निर्धारण उस बिन्दु पर होता है जहाँ पर सीमान्त लागत तथा सीमान्त आय दोनों ही बराबर होती हैं।

अपूर्ण प्रतियोगिता में प्रत्येक फर्म अपने लाभ को अधिकतम करने के लिए उत्पादन में तब तक परिवर्तन करती रहेगी जब तक MC = MR नहीं हो जाता। यदि सीमान्त आय सीमान्त लागत से अधिक है तो फर्म अपने उत्पादन को बढ़ाकर लाभ को अधिकतम करेगी और यदि सीमान्त आय सीमान्त लागत से कम है तो फर्म अपने उत्पादन को कम करके लाभ को अधिकतम करेगी। अतः फर्म का सन्तुलन बिन्दु वहाँ निश्चित होगा जहाँ सीमान्त आय और सीमान्त लागत बराबर होती हैं। इस बिन्दु पर फर्म का लाभ अधिकतम होता है और उसमें विस्तार व संकुचन की प्रवृत्ति नहीं होती है।

अपूर्ण प्रतियोगिता में फर्म की औसत आय व सीमान्त आय रेखाएँ एक माँग के रूप में बाएँ से दाएँ नीचे की ओर गिरती हुई होती हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि फर्म द्वारा एक रूप वस्तु का उत्पादन नहीं किया जाता। प्रत्येक फर्म यद्यपि एकाधिकारी नहीं होती, परन्तु एकाधिकारी प्रवृत्ति रखती है। प्रत्येक फर्म वस्तु की कीमत अपने ढंग से निर्धारित करती है। अपूर्ण प्रतियोगिता में फर्म उद्योग से कीमत ग्रहण नहीं करती है। अपूर्ण प्रतियोगिता में सीमान्त आय औसत आय से कम होती है। इसका मुख्य कारण यह है कि एक अतिरिक्त इकाई को बेचने के लिए फर्म को वस्तु की कीमत में थोड़ी-सी कमी करनी पड़ती है। इसलिए फर्म की औसत आय सीमान्त आय से अधिक होती है।

1. अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत अल्पकाल में मूल्य व उत्पादन-निर्धारण – अल्पकाल में यह सम्भव हो सकता है कि फर्म अपने उत्पादन का समायोजन माँग के अनुसार न कर सके। इसलिए अल्पकाल में फर्म की कीमत-निर्धारण की स्थिति माँग के अनुरूप होती है। यदि वस्तु की माँग अधिक होती है और वस्तु का निकट-स्थानापन्न नहीं होता तो फर्म वस्तु की कीमत ऊँची निर्धारित करने की स्थिति में होगी। इसके विपरीत, यदि वस्तु की माँग कम होती है तो मुल्य-निर्धारण नीची कीमत पर होगा। यदि माँग अत्यधिक कमजोर है तो कीमत और भी अधिक नीची निर्धारित होगी। इस प्रकार फर्म तीन स्थितियों में पायी जा सकती है
(अ) असामान्य लाभ या लाभ अर्जित करने की स्थिति,
(ब) शून्य लाभ या सामान्य लाभ प्राप्त करने की स्थिति तथा
(स) हानि की स्थिति।

उपर्युक्त तीनों स्थितियों की हम निम्नलिखित व्याख्या कर सकते हैं
(अ) असामान्य लाभ या लाभ अर्जित करने की स्थिति – यदि किसी फर्म द्वारा उत्पादित वस्तु की माँग बाजारों में अधिक है और उसकी स्थानापन्न वस्तुएँ नहीं हैं तो फर्म वस्तु की ऊंची कीमत निर्धारित करेगी। अल्पकाल में अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत फर्म असामान्य लाभ प्राप्त करने की स्थिति में होती है। ऐसी स्थिति में फर्म की औसत आय उसकी औसत लागत से अधिक होती है। कोई भी फर्म ऐसे बिन्दु पर सन्तुलन की स्थिति में होती हैं जहाँ पर सीमान्त लागते तथा सीमान्त आय बराबर होती हैं।

रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शन – संलग्न चित्र में, OX-अक्ष पर उत्पादन MR की मात्रा तथा OY-अक्ष पर कीमत और लागत दिखायी गयी है। फर्म E बिन्दु पर सन्तुलन की स्थिति में है, क्योंकि इस बिन्दु पर फर्म की उत्पादन की मात्रा फर्म द्वारा असामान्य लाभ या सीमान्त आय और सीमान्त लागत (MR = MC) बराबर हैं। सन्तुलन लाभ की स्थिति उत्पादन OS तथा कीमत PO है।।
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(ब) शून्य या सामान्य लाभ प्राप्त करने की स्थिति – फर्म में सामान्य लाभ की स्थिति उस समय होती है जब वस्तु की माँग कम होती है तथा फर्म ऊंची कीमत निश्चित करने की स्थिति में नहीं होती। ऐसी स्थिति में फर्म की औसत आय (AR) उसकी औसत लागत (AC) के बराबर होती है, जिसके कारण फर्म न तो लाभ प्राप्त करती है और न हानि ही अर्थात् फर्म सन्तुलन की स्थिति औसत आय में होती है।

रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शन – संलग्न चित्र में, OX-अक्ष पर उत्पादन की मात्रा तथा OY-अक्ष पर कीमत व लागत दिखायी गयी है। फर्म E बिन्दु पर सन्तुलन की स्थिति में है, क्योंकि यहाँ पर उसकी सामान्य आय और सीमान्त लागत (MR = MC) बराबर हैं। फर्म को औसत आय : और औसत लागत भी बराबर (AR = AC) हैं। इसलिए फर्म केवल सामान्य लाभ अथवा शून्य लाभ प्राप्त कर रही है।
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(स) हानि की स्थिति – जब वस्तु की माँग इतनी अधिक कम हो लाभ की स्थिति कि फर्म को अपनी वस्तु को विवश होकर कम कीमत पर बेचना पड़े हैं। तब फर्म हानि की स्थिति में होती है। इस स्थिति में फर्म की औसत आय औसत लागत से कम होती है। इसलिए फर्म हानि उठाती है।

रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शन – संलग्न चित्र में, Ox-अक्ष पर उत्पादन तथा OY-अक्ष पर कीमत और लागत दिखायी गयी हैं। फर्म E। बिन्दु पर सन्तुलन की स्थिति में है, क्योंकि यहाँ पर उसकी सीमान्त हैं आय और सीमान्त लागत (MR = MC) बराबर हैं। क्योंकि फर्म की । औसत लागत उसकी औसत आय से अधिक है, इसलिए फर्म को हानि हो रही है।
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2. अपूर्ण प्रतियोगिता में दीर्घकाल में कीमत व उत्पादन-निर्धारण – दीर्घकाल में फर्म स्थिर सन्तुलन की स्थिति में होती है। अतः दीर्घकाल में फर्म केवल सामान्य लाभ अर्जित करती है। यदि दीर्घकाल में कुछ फर्मे अथवा उद्योग असामान्य लाभ अर्जित करते हैं तो ऊँचे लाभ से आकर्षित होकर अन्य फर्ने उद्योग में प्रवेश करने लगती हैं, जिसके कारण उस वस्तु के निकट-स्थानापन्न का उत्पादन प्रारम्भ हो जाता है। लाभ गिरकर सामान्य स्तर पर आ जाता है। प्रतियोगिता के कारण असामान्य लाभ समाप्त हो जाएगा और प्रत्येक फर्म केवल सामान्य लाभ ही अर्जित करेगी।

रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शन – संलग्न चित्र में, Ox-अक्ष पर उत्पादन ४ व बिक्री की मात्रा तथा OY-अक्ष पर कीमत दिखायी गयी है। इस चित्र में AR तथा MR क्रमशः औसत आय तथा सीमान्त आय वक्र हैं तथा AC और MC क्रमशः औसत लागत व सीमान्त लागत वक्र हैं। E फर्म का सन्तुलन बिन्दु है जिस पर सीमान्त आय और सीमान्त लागत है (MR = MC) बराबर हैं। OS सन्तुलन उत्पादन तथा ON कीमत है। फर्म – की औसत आय व सीमान्त लागत भी बराबर हैं। अत: फर्म को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त हो रहा है।
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प्रश्न 2
अपूर्ण प्रतियोगिता को स्पष्ट कीजिए। इस प्रतियोगिता में अल्पकाल में मूल्य-निर्धारण कैसे होता है? [2007]
या
अपूर्ण प्रतियोगिता में अल्पकाल में फर्म के सन्तुलन की दशाओं का सचित्र वर्णन कीजिए। [2007]
या
अपूर्ण प्रतियोगिता में अल्पकाल में एक फर्म मूल्य तथा उत्पादन का निर्धारण किस प्रकार करती है? [2007 ]
उत्तर:
अपूर्ण प्रतियोगिता के अर्थ के लिए इसी अध्याय के लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 में अपूर्ण प्रतियोगिता का अर्थ तथा अपूर्ण प्रतियोगिता में अल्पकाल में मूल्य-निर्धारण के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न सं० 1 में ‘अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत अल्पकाल में मूल्य व उत्पादन-निर्धारण’ शीर्षक देखिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
अपूर्ण प्रतियोगिता से आप क्या समझते हैं ? अपूर्ण प्रतियोगिता की विशेषताओं की विवेचना कीजिए। [ 2011, 16]
या
अपूर्ण प्रतियोगी बाजार को परिभाषित कीजिए। [2012]
या
अपूर्ण प्रतियोगिता की मुख्य विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए। [2014]
उत्तर:
अपूर्ण प्रतियोगिता का अर्थ
वास्तविक जीवन में न तो पूर्ण प्रतियोगिता की दशाएँ पायी जाती हैं और न एकाधिकार की। प्रायः इन दोनों के बीच की अवस्थाएँ मिलती हैं, जिसे अपूर्ण प्रतियोगिता कहते हैं। अपूर्ण प्रतियोगिता से अभिप्राय पूर्ण प्रतियोगिता तथा एकाधिकार के बीच की किसी अवस्था से होता है। अपूर्ण प्रतियोगिता का स्वरूप अंशतः प्रतियोगिता तथा अंशतः एकाधिकारी होता है।

फेयर चाइल्ड के शब्दों में, “यदि बाजार उचित प्रकार से संगठित नहीं होता, यदि क्रेता और विक्रेता एक-दूसरे के सम्पर्क में आने में कठिनाई का अनुभव करते हैं और वे दूसरे के द्वारा क्रय की गयी वस्तुओं और उनके द्वारा दिये गये मूल्यों की तुलना करने में असमर्थ रहते हैं तो ऐसी स्थिति को अपूर्ण प्रतियोगिता कहते हैं।

जे० के० मेहता के शब्दों में, “यह बात भली-भाँति स्पष्ट हो गयी है कि विनिमय की प्रत्येक स्थिति वह स्थिति है जिसको आंशिक एकाधिकार की स्थिति कहते हैं और यदि आंशिक एकाधिकार को दूसरी ओर से देखा जाए तो यह अपूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति है। प्रत्येक स्थिति में प्रतियोगिता तत्त्व तथा एकाधिकार तत्त्व दोनों का मिश्रण है।”

अपूर्ण प्रतियोगिता की विशेषताएँ

  1.  अपूर्ण प्रतियोगिता में क्रेताओं, विक्रेताओं एवं फर्मों की संख्या पूर्ण प्रतियोगिता की अपेक्षा कम होती है।
  2.  अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत प्रतियोगिता तो होती है, किन्तु वह इतनी अपूर्ण तथा दुर्बल होती है कि माँग और पूर्ति की शक्तियों को कार्य करने का पूर्ण अवसर नहीं मिलता।
  3. क्रेताओं और विक्रेताओं को बाजार की स्थिति का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है। परिणामस्वरूप बाजार में कीमतें भिन्न-भिन्न होती हैं।
  4. प्रत्येक विक्रेता को कुछ सीमा तक अपनी वस्तु की मनचाही कीमत वसूल करने की स्वतन्त्रता रहती है।
  5. अपूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु-विभेद होता है। प्रत्येक फर्म अपनी वस्तु की बाजार माँग में अलग पहचान बनाने का प्रयत्न करती है।
  6.  अपूर्ण प्रतियोगिता में फर्मों को बाजार में प्रवेश करने व छोड़ने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। अर्थात् बाजार में फर्मों का स्वतन्त्र प्रवेश व बहिर्गमन होता है।
  7. फर्म के माँग वक्र या औसत आगम वक्र (AR) का ढाल ऋणात्मक होता है और फर्म का सीमान्त आगम वक्र (MR) इसके औसत आगम वक्र से नीचा होता है।
  8.  दीर्घकाल में वस्तु का मूल्य सीमान्त आगम (MR) तथा ओसत आगम (AR) के बराबर होता है।
  9. अपूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु की बिक्री बढ़ाने हेतु विज्ञापन में प्रचार आदि का आश्रय लिया जाता है।
  10.  व्यावहारिक जीवन में बाजार में अपूर्ण प्रतियोगिता की ही स्थिति पायी जाती है।
  11. अपूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु का बाजार संगठित नहीं होता।

प्रश्न 2
अपूर्ण प्रतियोगिता क्या है ? इसके अन्तर्गत मूल्य-निर्धारण कैसे होता है ?
या
अपूर्ण प्रतियोगिता क्या है? इसकी दशाओं का वर्णन कीजिए तथा इसके अन्तर्गत कीमत-निर्धारण को समझाइए।
उत्तर:
(संकेत – अपूर्ण प्रतियोगिता के अर्थ एवं दशाओं के लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का आरम्भिक भाग देखें। )

अपूर्ण प्रतियोगिता में कीमत या मूल्य-निर्धारण
अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत प्रत्येक उत्पादक अथवा विक्रेता का अपना अलग एवं स्वतन्त्र क्षेत्र होता है और वह अपने क्षेत्र में कुछ सीमा तक मनमानी कीमत वसूल कर सकता है। अपूर्ण प्रतियोगिता में प्रत्येक विक्रेता का उद्देश्य एकाधिकारी की भाँति ही अधिकतम लाभ प्राप्त करना होता है; अत: वस्तु की कीमत का निर्धारण ठीक उसी प्रकार होता है जिस प्रकार एकाधिकार की अवस्था में। | अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत का निर्धारण उस बिन्दु पर होता है जिस पर उत्पादन-इकाई की सीमान्त लागत तथा सीमान्त आय दोनों ही बराबर होती हैं। अपने लाभ को अधिकतम करने के लिए प्रत्येक उत्पादक उत्पादन को तब तक बढ़ाता रहता है जब तक कि उसकी सीमान्त आय सीमान्त लागत से अधिक रहती है, जब ये दोनों बराबर हो जाती हैं तो उसके बाद वह उत्पादन नहीं बढ़ाता। अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत विक्रेता कीमत का निर्धारण करते समय माँग और पूर्ति की शक्तियों का समुचित ध्यान रखता है; अत: अपूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में कीमत का निर्धारण माँग और पूर्ति दोनों की पारस्परिक क्रियाओं द्वारा होता है।

अपूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादक का पूर्ति पर तो पूर्ण नियन्त्रण होता है, किन्तु माँग पर कोई प्रत्यक्ष नियन्त्रण नहीं होता; अतः अपूर्ण प्रतियोगिता में विक्रेता माँग की मूल्य सापेक्षता को ध्यान में रखकर कीमत का निर्धारण करता है। यदि वस्तु की मॉग मूल्ये सापेक्ष है तो विक्रेता उसकी कम कीमत निश्चित करेगा, क्योंकि मूल्य सापेक्ष वस्तुओं की कीमत में थोड़ी-सी भी कमी हो जाने पर उनकी माँग बहुत अधिक बढ़ जाती है; अत: कीमत कम निर्धारित होने के कारण यद्यपि प्रति इकाई लाभ तो कम हो जाता है, परन्तु माँग के बढ़ जाने के कारण कुल लाभ की मात्रा अधिक हो जाती है। इसके विपरीत, यदि वस्तु की माँग निरपेक्ष है तो कीमत में बहुत कमी होने पर भी उसकी माँग में विशेष वृद्धि नहीं होती और कीमत में वृद्धि होने पर माँग में कोई विशेष कमी नहीं होती।

अतः ऐसी वस्तुओं की कीमतें ऊँची ही निश्चित की जाती हैं, क्योंकि कीमतें चाहे कुछ भी हों, लोग उन्हें अवश्य खरीदेंगे। पूर्ति पक्ष के सम्बन्ध में यह विचार करना पड़ता है कि वस्तु के उत्पादन में प्रतिफल का कौन-सा नियम लागू हो रहा है ? यदि वस्तु का उत्पादन वृद्धिमान प्रतिफल नियम के अन्तर्गत हो रहा है तब वस्तु की कम कीमत निश्चित की जाएगी, इसके विपरीत, यदि उत्पादन ह्रासमान प्रतिफल नियम के अन्तर्गत हो रहा है तब वह वस्तु की कीमत जितनी अधिक वसूल कर सकता है, करेगा। आनुपातिक प्रतिफल नियम के अन्तर्गत उत्पादित वस्तु की कीमत उसकी माँग के अनुसार निर्धारित की जाएगी अर्थात् माँग के बढ़ने पर कीमत अधिक तथा माँग के घटने पर कम होगी। । संक्षेप में हम कह सकते हैं कि विक्रेता अपनी वस्तु की कीमत को निश्चित करते समय प्रत्येक कीमत पर अपने कुल लाभ का अनुमान लगाता है और वही कीमत निश्चित करता है जिस पर कि उसे अधिकतम कुल निवल लाभ अथवा आय प्राप्त होती हैं।

प्रश्न 3
पूर्ण एवं अपूर्ण प्रतियोगिता में अन्तर (भेद) कीजिए। इनमें से कौन व्यावहारिक है ? [2006,10,11]
या
पूर्ण एवं अपूर्ण प्रतियोगी बाजार की विशेषताओं की तुलना कीजिए। [2013]
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता तथा अपूर्ण प्रतियोगिता में अन्तर (भेद) 

क०स० पूर्ण प्रतियोगिता अपूर्ण प्रतियोगिता
1. पूर्ण प्रतियोगिता में क्रेताओं व विक्रेताओं की संख्या अधिक होती है। अपूर्ण प्रतियोगिता में क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या पूर्ण प्रतियोगिता की अपेक्षा कम होती हैं। इसमें एकाधिकारी प्रतियोगिता, ‘अल्पाधिकार’ तथा ‘द्वयाधिकारी की स्थितियाँ सम्मिलित होती हैं।
2. पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म के द्वारा उत्पादित तथा बेची जाने वाली वस्तुओं में एकरूपता होती है। अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत वस्तु-विभेद पाया जाता है। प्रत्येक फर्म बाजार में अपनी वस्तु की अलग पहचान बनाने का प्रयास करती है।
3. पूर्ण प्रतियोगिता में फर्मों का स्वतन्त्र प्रवेश व बहिर्गमन होता है। अपूर्ण प्रतियोगिता में भी फमों का स्वतन्त्र प्रवेश व बहिर्गमन होता है।
4. पूर्ण प्रतियोगिताओं में क्रेताओं और विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान होता है तथा उनमे परम्पर सम्पर्क होता है। अपूर्ण प्रतियोगिता में क्रेताओं और विक्रेताओं की बाजार का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं होता है।
5. पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में वस्तु की कीमत का निर्धारण उद्योग द्वारा माँग और पूर्ति की शक्तियों के सन्तुलन से होता है। इस कीमत को उद्योग में कार्य कर रही फमें दिया हुआ मान लेती हैं। अपूर्ण प्रतियोगिता में विक्रेता कीमत निर्धारित करते समय माँग व पूर्ति की शक्तियों का ध्यान रखता है, परन्तु प्रत्येक फर्म या विक्रेता का अपना अलग स्वतन्त्र क्षेत्र होता है।
6. पूर्ण प्रतियोगिता में औसत आय तथा सीमान्त आय बराबर होती हैं। औसत आय तथा सीमान्त आय वक्र एक सीधी पड़ी रेखा होती है। अपूर्ण प्रतियोगिता में औसत आय सीमान्त आय से अधिक होती है। औसत आय वक्र तथा सीमान्त आय वक्र बाएँ से दाएँ नीचे को गिरता हुआ होता है।
7. पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म अल्पकाल में लाभ, सामान्य लाभ व हानि अर्जित करती है तथा दीर्घकाल में फर्म को मात्र सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है। अपूर्ण प्रतियोगिता में फर्म अल्पकाल में लाभ, सामान्य लाभ व हानि की स्थिति में हो सकती है। तथा दीर्घकाल में फर्म को केवल सामान्य लाभ ही अर्जित हो पाता है।
8. पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म विज्ञापन व प्रचार आदि में प्रायः बिक्री लागते वहन नहीं करती है। अपूर्ण प्रतियोगिता में फर्म वस्तु की बिक्री बढ़ाने के लिए विज्ञापन व प्रचार व्यय करती है।
9. पूर्ण प्रतियोगिता एक काल्पनिक दशा है। वास्तविक जीवन में यह नहीं पायी जाती है। अतः पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति केवल सैद्धान्तिक है। अपूर्ण प्रतियोगिता व्यावहारिक जीवन में पायी जाती है। अतः यह सैद्धान्तिक न होकर व्यावहारिक है।

प्रश्न 4
अपर्ण प्रतिस्पर्धा में औसत वक्र तथा सीमान्त आय वक्र का रूप कैसा होता है ? इस प्रतिस्पर्धा में सन्तुलन बिन्दु कैसे निर्धारित किया जाता है ?
उत्तर:
अपूर्ण प्रतिस्पर्धा में औसत आय वक्र तथा सीमान्त आय वक्र का रूप – अपूर्ण प्रतिस्पर्धा बाजार में औसत आय और सीमान्त आय रेखाएँ अलग-अलग होती हैं तथा बाएँ से दाएँ नीचे की ओर गिरती हुई होती हैं। अतः स्पष्ट है कि फर्म का उत्पादन बढ़ने पर 14औसत आय (AR) और सीमान्त आय (MR) दोनों ही गिरती हैं, किन्तु सीमान्त आय औसत आय की अपेक्षा तेजी से गिरती है। इसका कारण यह होता है कि विक्रेताओं की संख्या पूर्ण प्रतियोगिता की तुलना में अपेक्षाकृत कम होने से विक्रेता कीमत को प्रभावित कर सकने की स्थिति में होता है अर्थात् वे कीमत में कमी करके वस्तु की बिक्री को बढ़ा सकते हैं।
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अपूर्ण प्रतिस्पर्धा में सन्तुलन बिन्दु का निर्धारण – अपूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में आय वक्र अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण में माँग और पूर्ति की शक्तियों का समुचित ध्यान रखा जाता है। इनमें कीमत-निर्धारण उस बिन्दु पर होता है जहाँ पर सीमान्त लागत तथा सीमान्त आय दोनों ही बराबर होती हैं।
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अपूर्ण प्रतियोगिता में प्रत्येक फर्म अपने लाभ को अधिकतम करने के लिए उत्पादन में जब तक परिवर्तन करती रहेगी तब तक MR = MC अर्थात् सीमान्त आय = सीमान्त लागत नहीं हो जाता। यदि सीमान्त आय, सीमान्त लागत से अधिक है तो फर्म अपने उत्पादन को बढ़ाकर लाभ को अधिकतम करेगी और यदि सीमान्त आय, सीमान्त लागत से उत्पादन की मात्रा कम है तो फर्म अपने उत्पादन को कम करके लाभ को फर्म द्वारा असामान्य लाभ की स्थिति अधिकतम करेगी। अतः फर्म को सन्तुलन बिन्दु वहाँ निश्चित होगा जहाँ सीमान्त आय और सीमान्त लागत बराबर होती हैं। इस बिन्दु पर फर्म का लाभ अधिकतम होता है और उससे विस्तार व संकुचन की प्रवृत्ति नहीं होती है।

प्रश्न 5
अपूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म के दीर्घकालीन साम्य को समझाइए। [2009]
उत्तर:
दीर्घकाल में अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत फर्म को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है। इसके विपरीत पूर्ण प्रतियोगिता में लाभ अथवा हानि की स्थिति भी हो सकती है। यही कारण है कि दीर्घकाल में सामान्य लाभ प्राप्त करने की स्थिति पूर्ण प्रतियोगिता की अपेक्षा अपूर्ण प्रतियोगिता में पहले आती है।
संलग्न चित्र में,
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E = सन्तुलन बिन्दु
LM = औसत आय
LM = औसत लागत
(… औसत लाभ = औसत आय)
अत: लाभ की मात्रा शून्य (सामान्य लाभ) है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
नीचे दिये गये रेखाचित्र में दी गयी वक्र रेखाओं के नाम लिखिए तथा यह भी लिखिए कि वक्र रेखाओं की ऐसी प्रवृत्ति फर्म की हानि दर्शाती है अथवा लाभ।
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उत्तर:
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उपर्युक्त रेखाचित्र की स्थिति में फर्म लाभ की स्थिति को दर्शाती है।

प्रश्न 2
अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत फर्म को मात्र सामान्य लाभ दर्शाने वाले चित्र को अपनी उत्तर-पुस्तिका में विभिन्न वक्रों के नाम सहित बनाइए।
उत्तर:
फर्म द्वारा सामान्य लाभ का चित्र
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निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
अपूर्ण प्रतियोगिता में सीमान्त आय का औसत आय से कम होने का क्या कारण है?
उत्तर:
अपूर्ण प्रतियोगिता में सीमान्त आय का औसत आय से कम होने का मुख्य कारण यह है कि एक अतिरिक्त इकाई को बेचने के लिए फर्म को वस्तु की कीमत में थोड़ी-सी कमी करनी पड़ती है। इसलिए फर्म की औसत आय सीमान्त आय से अधिक होती है।

प्रश्न 2
अपूर्ण प्रतियोगिता में फर्म को कब हानि उठानी पड़ती है ?
उत्तर:
जब वस्तु की माँग इस सीमा तक कम हो जाती है कि फर्म को अपनी वस्तु को विवश होकर लागत से कम कीमत पर बेचना पड़े, तब फर्म हानि की स्थिति में होती है अर्थात् इस स्थिति में फर्म की औसत आय उसकी औसत लागत से कम होती है। इसलिए फर्म को हानि उठानी पड़ती है।

प्रश्न 3
अपूर्ण प्रतियोगिता की चार विशेषताएँ बताइए। [2006, 09]
या
अपूर्ण प्रतियोगिता की दो प्रमुख विशेषताएँ लिखिए। [2013, 15]
उत्तर:

  1.  विक्रेताओं की अपेक्षाकृत कम संख्या,
  2.  वस्तु-विभेद पाया जाना,
  3. बाजार का अपूर्ण ज्ञान,
  4. पूर्ण गतिशील न होना।

प्रश्न 4
अपूर्ण प्रतियोगिता की दशा में उत्पादक कब असामान्य लाभ प्राप्त करता है ?
उत्तर:
अपूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादक केवल उस दशा में असामान्य लाभ प्राप्त करने की स्थिति में होता है जब उसकी औसत आय उसकी औसत लागत से अधिक हो।

प्रश्न 5:
अपूर्ण प्रतियोगिता में दीर्घकाल में वस्तु का मूल्य किस स्थिति में निर्धारित होता है ?
उत्तर:
अपूर्ण प्रतियोगिता में दीर्घकाल में वस्तु का मूल्य सीमान्त आय व सीमान्त लागत की सन्तुलन की स्थिति में निर्धारित होता है। यहाँ फर्म केवल सामान्य लाभ अर्थात् शून्य लाभ की स्थिति में होती है।

प्रश्न 6
अधिकतम बिक्री करने के लिए उत्पादक को क्या करना पड़ता है ?
उत्तर:
उत्पादक को वस्तुओं की अधिकतम बिक्री करने के लिए विज्ञापन व प्रचार आदि पर व्यय करना पड़ता है।

प्रश्न 7
अपूर्ण प्रतियोगिता का स्वरूप कैसा होता है ?
उत्तर:
अपूर्ण प्रतियोगिता का स्वरूप अंशत: पूर्ण प्रतियोगिता तथा अंशत: एकाधिकारी होता है।

प्रश्न 8
अपूर्ण प्रतियोगिता बाजार में औसत ओगम वक्र का ढाल किस प्रकार का होता है?
उत्तर:
अपूर्ण प्रतियोगिता की दशा में औसत आगम वक्र बाएँ से दाएँ नीचे की ओर गिरता हुआ होता है।

प्रश्न 9
अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण किस प्रकार होता है ?
उत्तर:
अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण में माँग एवं पूर्ति की शक्तियों का समुचित ध्यान रखा जाता है। इस प्रकार कीमत-निर्धारण उस बिन्दु पर होता है जहाँ पर सीमान्त लागत तथा सीमान्त आय दोनों ही बराबर हों।

प्रश्न 10
अपूर्ण प्रतियोगिता में सीमान्त आगम रेखा का ढाल कैसा होता है ?
उत्तर:
अपूर्ण प्रतियोगिता में सीमान्त आगम रेखा का ढाल बाएँ से दाएँ नीचे की ओर होता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
अपूर्ण प्रतियोगिता है
(क) काल्पनिक
(ख) व्यावहारिक
(ग) काल्पनिक-व्यावहारिक
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) व्यावहारिक।

प्रश्न 2
अपूर्ण प्रतियोगिता में औसत और सीमान्त आगम के वक्र गिरते हुए होते हैं [2010]
(क) नीचे की ओर
(ख) ऊपर की ओर
(ग) बीच में
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) नीचे की ओर।।

प्रश्न 3
अपूर्ण प्रतियोगिता की दशा में दीर्घकाल में विक्रेता केवल प्राप्त करता है
(क) हानि :
(ख) सामान्य लाभ
(ग) अधिकतम लाभ
(घ) शून्य लाभ
उत्तर:
(ख) सामान्य लाभ।

प्रश्न 4
अपूर्ण प्रतियोगिता में विक्रेताओं की संख्या होती है
(क) शून्य
(ख) कम
(ग) अधिक
(घ) ये सभी
उत्तर:
(ख) कम।

प्रश्न 5
अपूर्ण प्रतियोगिता में प्रत्येक फर्म अपने लाभ को अधिकतम करने के लिए उत्पादन में परिवर्तन करती रहती है, जब तक
(क) सीमान्त लागत = सीमान्त आय
(ख) सीमान्त आय, सीमान्त लागत से अधिक
(ग) सीमान्त आय, सीमान्त लागत से कम
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(क) सीमान्त लागत = सीमान्त आय।

प्रश्न 6
वस्तु (उत्पाद) विभेद’ एक आधारभूत विशेषता है [2012, 13]
या
वस्तु-विभेद किस बाजार में पाया जाता है? [2015]
(क) पूर्ण प्रतियोगिता की
(ख) अपूर्ण प्रतियोगिता की
(ग) एकाधिकार की
(घ) इनमें से किसी की नहीं
उत्तर:
(ख) अपूर्ण प्रतियोगिता की।

प्रश्न 7
किसी फर्म के अधिकतम लाभ के लिए प्रथम आवश्यकता है
(क) सीमान्त आगम = औसत आगम
(ख) सीमान्त लागत = औसत लागत
(ग) सीमान्त लागते = सीमान्त आगम
(घ) औसत लागत = औसत आगम।
उत्तर:
(ग) सीमान्त लागत = सीमान्त आगम।

प्रश्न 8
कोई फर्म सन्तुलन की स्थिति प्राप्त करती है जब [2013]
(क) सीमान्त आगम एवं सीमान्त लागत बराबर हों।
(ख) सीमान्त आगम सीमान्त लागत से अधिक हो।
(ग) सीमान्त आगम सीमान्त लागत से कम हो।
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(क) सीमान्त आगम एवं सीमान्त लागत बराबर हों।।

प्रश्न 9
अपूर्ण प्रतियोगिता में फर्म की औसत आय रेखा होती है [2010]
(क) गिरती हुई रेखा
(ख) उठती हुई रेखा
(ग) क्षैतिज रेखो।
(घ) ऊर्ध्व रेखा।
उत्तर:
(क) गिरती हुई रेखा।

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