UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion (जनमत (लोकमत)) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion (जनमत (लोकमत)).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 6
Chapter Name Public Opinion (जनमत (लोकमत))
Number of Questions Solved 25
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion (जनमत (लोकमत))

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
लोकमत से आप क्या समझते हैं? लोकमत की अभिव्यक्ति के कौन-कौन से साधन हैं [2016]
या
जनमत-निर्माण के प्रमुख साधनों का वर्णन कीजिए। [2007, 14]
या
‘जनमत के निर्माण व प्रकट करने के साधन’ पर टिप्पणी लिखिए।
या
जनमत से आप क्या समझते हैं ? स्वस्थ जनमत-निर्माण के आवश्यक साधनों का वर्णन कीजिए। [2007, 09, 12, 13, 14]
या
जनमत के विभिन्न साधनों का उल्लेख कीजिए। [2011, 12, 13, 14]
उत्तर
जनमत (लोकमत) का अर्थ व परिभाषा
साधारण शब्दों में, लोकमत अथवा जनमत का अर्थ सार्वजनिक समस्याओं के सम्बन्ध में जनता के मत से है। आधुनिक प्रजातान्त्रिक युग में लोकमत का विशेष महत्त्व है। डॉ० आशीर्वादम् ने लोकमत के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “जागरूक व सचेत लोकमत स्वस्थ प्रजातन्त्र की प्रथम आवश्यकता है।”
विभिन्न विद्वानों ने जनमत की परिभाषाएँ निम्नवत् दी हैं-

  1. लॉर्ड ब्राइस का मत है कि “सार्वजनिक हित से सम्बद्ध किसी समस्या पर जनता के सामूहिक विचारों को जनमत कहा जा सकता है।”
  2. डॉ० बेनी प्रसाद के शब्दों में, “केवल उसी राय को वास्तविक जनमत कहा जा सकता है जिसका उद्देश्य जनता का कल्याण हो। हम कह सकते हैं कि सार्वजनिक मामलों पर बहुसंख्यक का वह मत जिसे अल्पसंख्यक भी अपने हितों के विरुद्ध नहीं मानते, जनमत कहलाता है।

उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी विषय पर अधिकांश जनता के उस मत को लोकमत अथवा जनमत कहा जाता है जिसमें लोक-कल्याण की भावना निहित हो।

जनमत के निर्माण के साधन
जनमत के निर्माण और उसकी अभिव्यक्ति में अनेक साधन सहायक होते हैं। कुछ मुख्य साधन निम्नलिखित हैं-

  1. समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएँ – जनमत के निर्माण में सबसे प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण अंग प्रेस है। प्रेस के अन्तर्गत समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ तथा अन्य प्रकार का साहित्य आ जाता है। एक विचारक ने इनको आधुनिक सभ्यता का प्रकाश स्तम्भ और प्रजातन्त्र के धर्म-ग्रन्थ कहकर पुकारा है।
  2. सार्वजनिक भाषण – जनमत के निर्माण में सार्वजनिक मंचों पर नेताओं या व्यक्ति-विशेष द्वारा दिये जाने वाले भाषणों का विशेष महत्त्व होता है। इन भाषणों के द्वारा जनता को राजनीतिक शिक्षा प्राप्त होती है और वह सार्वजनिक समस्याओं के प्रति जागरूक बनती है।
  3. शिक्षण संस्थाएँ – स्कूल, कॉलेज व विश्वविद्यालय जैसी शिक्षण संस्थाएँ भी प्रबुद्ध जनमत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। शिक्षण संस्थाएँ विद्यार्थियों में नागरिक चेतना जाग्रत करती हैं और उनके चरित्र-निर्माण में सहायक होती हैं।
  4. राजनीतिक दल – राजनीतिक दल जनमत-निर्माण के सशक्त साधन माने जाते हैं। विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने विचारों तथा कार्यक्रमों को जनता के सामने रखते हैं। इससे जनता को अपना मत बनाने में बड़ी सहायता प्राप्त होती है।
  5. रेडियो, सिनेमा व दूरदर्शन – प्रचार की दृष्टि से रेडियो तथा टेलीविजन प्रेस से भी सशक्त माध्यम हैं। किसी महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक घटना की जानकारी रेडियो तथा दूरदर्शन द्वारा करोड़ों लोगों तक पहुँच जाती है। इसके माध्यम से संसार के विभिन्न भागों के लोग एक ही समय में किसी लोकप्रिय नेता का भाषण अथवा किसी सार्वजनिक विषय पर वाद-विवाद सुन सकते हैं।
  6. निर्वाचन – जनमत के निर्माण में निर्वाचन का भी महत्त्व है। निर्वाचन के समय विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने कार्यक्रमों एवं नीतियों के सम्बन्ध में जनता को जानकारी देकर जनमत को अपने पक्ष में करने का प्रयास करते हैं, किन्तु जनता उसी दल के प्रत्याशी को अपना मत देती है जिसके कार्यक्रमों और नीतियों को वह देश-हित में अच्छा समझती है।
  7. व्यवस्थापिका सभाएँ – व्यवस्थापिका सभाएँ भी जनमत के निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं। व्यवस्थापिका सभाओं में विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि जाते हैं। व्यवस्थापिका सभाओं में होने वाले वाद-विवाद से सम्पूर्ण जनता को देश की महत्त्वपूर्ण समस्याओं के सभी पक्षों का समुचित ज्ञान प्राप्त होता है, जिसके आधार पर उन्हें अपना मत निर्धारित करने में सहायता मिलती है।
  8. धार्मिक संस्थाएँ – लोकमत के निर्माण में धार्मिक संस्थाएँ भी अपना योगदान देती हैं। इसका प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति के चरित्र, विचारों और उसके कार्यों पर पड़ता है। हमारे देश में आर्य समाज, कैथोलिक चर्च, अकाली दल आदि अनेक संस्थाओं ने भी अपने प्रचार द्वारा लोकमत को प्रभावित किया है।
  9. साहित्य – साहित्य भी जनमत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। साहित्य के अध्ययन से जनता के विचारों की संकीर्णता दूर होती है और स्वस्थ जनमत के निर्माण में सहायता मिलती है।
  10. अफवाहें – आधुनिक युग में अफवाहें भी जनमत–निर्माण में योगदान देती हैं। कभी-कभी सच्चाई का पता लगाने हेतु जान-बूझकर अफवाहें भी फैला दी जाती हैं। पत्रकार ऐसी अफवाहों को फीलर (Feeler) के नाम से पुकारते हैं। 1942 ई० में गाँधी जी को किसी अज्ञात स्थान पर नजरबन्द किया गया था। समाचार-पत्रों ने उनकी बीमारी, अनशन आदि अफवाहें छापना प्रारम्भ कर दिया, जिसका जनमत पर व्यापक प्रभाव पड़ा और बाद में सरकार को यह स्पष्ट करना पड़ा कि गाँधी जी कहाँ पर नजरबन्द हैं।

प्रश्न 2.
जनमत से आप क्या समझते हैं ? स्वस्थ जनमत के विकास के मार्ग की प्रमुख बाधाओं का वर्णन कीजिए। [2007, 09, 12]
या
जनमत से आप क्या समझते हैं ? स्वस्थ जनमत के निर्माण की आवश्यक दशाओं का वर्णन कीजिए। [2007, 09, 12]
या
लोकतन्त्र की सफलता की आवश्यक शर्ते क्या हैं? लोकतन्त्र के विरुद्ध बाधाओं को रेखांकित कीजिए। [2016]
या
स्वस्थ जनमत के निर्माण में कौन-सी बाधाएँ आती हैं ? लिखिए। [2012, 14]
उत्तर
(संकेत-जनमत से अभिप्राय के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का उत्तर देखें।)
स्वस्थ जनमत-निर्माण की प्रमुख बाधाएँ।
(लोकतन्त्र के विरूद्ध बाधाएँ)
स्वस्थ जनमत के निर्माण में अनेक बाधाएँ आती हैं, जिनमें प्रमुख बाधाएँ इस प्रकार हैं-

1. निर्धनता और भीषण आर्थिक असमानताएँ – जब समाज के कुछ व्यक्ति बहुत अधिक निर्धन होते हैं, तो इनका सारा समय और शक्ति दैनिक जीवन की आवश्यकताओं के साधन जुटाने में ही चली जाती है और ये सार्वजनिक हित की बातों के सम्बन्ध में विचार नहीं कर पाते। इसी प्रकार जब समाज के अन्तर्गत भीषण आर्थिक असमानताएँ विद्यमान होती हैं, तो इन असमानताओं के परिणामस्वरूप वर्ग-विद्वेष और वर्ग-संघर्ष की भावना उत्पन्न हो जाती है। जब धनी और निर्धन वर्ग एक-दूसरे को अपना निश्चित शत्रु मान लेते हैं तो वे प्रत्येक बात के सम्बन्ध में सार्वजनिक हित की दृष्टि से नहीं, वरन् वर्गीय हित की दृष्टि से विचार करते हैं।

2. निरक्षरता और दूषित शिक्षा-प्रणाली – स्वस्थ लोकमत के निर्माण के लिए यह जरूरी है कि व्यक्ति समाचार-पत्र पढ़े, विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करे और उनके द्वारा परस्पर विचारों का आदान-प्रदान किया जाए, लेकिन ये सभी कार्य पढ़े-लिखे व्यक्तियों द्वारा ही ठीक प्रकार से किये जा सकते हैं, इसलिए निरक्षरता लोकमत के निर्माण के मार्ग की एक बहुत बड़ी बाधा है। स्वस्थ लोकमत के निर्माण हेतु न केवल शिक्षित, वरन् ऐसे नागरिक होने चाहिए। जो स्वतन्त्र रूप से विचार कर सकें और जिनमें सामान्य सूझबूझ हो। इस दृष्टि से दूषित शिक्षा-प्रणाली भी लोकमत के मार्ग की उतनी ही बड़ी बाधा है जितनी कि निरक्षरता।

3. पक्षपातपूर्ण समाचार-पत्र – समाचार-पत्र स्वस्थ लोकमत के निर्माण का कार्य उसी समय कर सकते हैं, जब वे निष्पक्ष हों, लेकिन यदि समाचार-पत्रों पर सरकार को अधिकार हो अथवा वे किन्हीं धनी व्यक्तियों या राजनीतिक दलों के प्रभाव में हों, तो इन पक्षपातपूर्ण समाचार-पत्रों के द्वारा स्वस्थ लोकमत के निर्माण का कार्य ठीक प्रकार से नहीं किया जा सकता। पक्षपातपूर्ण समाचार-पत्र लोकमत को पूर्णतया विकृत कर देते हैं।

4. दोषपूर्ण राजनीतिक दल – यदि राजनीतिक दल आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रम पर आधारित हों, तो ये राजनीतिक दल लोकमत के निर्माण में बहुत अधिक सहायक सिद्ध होते हैं, लेकिन जब इन राजनीतिक दलों का निर्माण जाति और भाषा के प्रश्नों के आधार पर किया जाता है, तो इन दलों के द्वारा धर्म, जाति और भाषा पर आधारित विभिन्न वर्गों के बीच संघर्षों को जन्म देने का कार्य किया जाता है। ये दोषपूर्ण राजनीतिक दल लोकमत के मार्ग को पूर्णतया भ्रष्ट कर देते हैं।

5. सार्वजनिक जीवन के प्रति उदासीनता और राजनीतिक चेतना का अभाव – स्वस्थ लोकमत के निर्माण हेतु आवश्यक है कि जनता सार्वजनिक जीवन में रुचि ले और जनता द्वारा सार्वजनिक जीवन को अपने पारिवारिक जीवन के समान ही समझा जाए, लेकिन जब जनता सार्वजनिक जीवन में कोई रुचि नहीं लेती, कोऊ नृप होउ, हमें का हानि’ का दृष्टिकोण अपना लेती है और अपने अधिकार तथा कर्तव्यों को नहीं समझती, तो ऐसी स्थिति में स्वस्थ लोकमत के निर्माण की आशा नहीं की जा सकती है।

6. वर्गीयता तथा साम्प्रदायिकता – वर्गीयता, जातिवाद, साम्प्रदायिकता आदि भावनाएँ स्वार्थपरता, असहिष्णुता और संकुचित दृष्टिकोण को जन्म देती हैं, जिनसे स्वस्थ जनमत के निर्माण में बाधा पहुँचती है।

स्वस्थ जनमत के निर्माण की बाधाओं को दूर करने के उपाय
(लोकतन्त्र की सफलता की आवश्यक शर्ते)
स्वस्थ जनमत-निर्माण के लिए विशेष अवस्थाओं की आवश्यकता होती है। स्वस्थ जनमत के निर्माण में जो बाधाएँ आती हैं, उनको दूर करके सही अवस्थाओं को उत्पन्न किया जा सकता है। ऐसा करने के लिए निम्नलिखित अवस्थाएँ आवश्यक है-

  1. शिक्षित नागरिक – शुद्ध जनमत-निर्माण के लिए प्रत्येक नागरिक को शिक्षित होना आवश्यक है। शिक्षित नागरिक ही देश की समस्याओं को समझ सकता है। वह नेताओं के भड़कीले भाषणों को सुनकर अपने मत का निर्माण नहीं करता।
  2. निष्पक्ष प्रेस – शुद्ध जनमत-निर्माण के लिए निष्पक्ष प्रेस का होना भी आवश्यक है। प्रेस दलों और पूँजीपतियों से स्वतन्त्र होनी चाहिए, ताकि वह सच्चे समाचार दे सके। स्वस्थ जनमत-निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि प्रेस ईमानदार, निष्पक्ष और संकुचित साम्प्रदायिक भावनाओं से ऊपर हो।
  3. गरीबी का अन्त – स्वस्थ जनमत-निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि गरीबी का अन्त किया जाये, जनता को भरपेट भोजन मिले और मजदूरों का शोषण न हो तथा समाज में आर्थिक समानता हो।
  4. आदर्श शिक्षा-प्रणाली – देश की शिक्षा-प्रणाली आदर्श होनी चाहिए ताकि विद्यार्थियों को दृष्टिकोण व्यापक बन सके और वे धर्म, जाति और क्षेत्र से ऊपर उठकर देश के हित में सोच सकें तथा आदर्श नागरिक बन सके।
  5. राजनीतिक दल आर्थिक तथा राजनीतिक सिद्धान्तों पर आधारित – स्वस्थ जनमतनिर्माण में राजनीतिक दलों का विशेष हाथ होता है। राजनीतिक दल धर्म व जाति पर आधारित न होकर आर्थिक तथा राजनीतिक सिद्धान्तों पर आधारित होने चाहिए।
  6. भाषण तथा विचार व्यक्त करने की स्वतन्त्रता – शुद्ध जनमत-निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि नागरिकों को भाषण देने तथा अपने विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता हो। यदि भाषण देने की स्वतन्त्रता नहीं होगी तो साधारण नागरिक को विद्वानों और नेताओं के विचारों का ज्ञान न होगा, जिससे स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं हो सकेगा।
  7. नागरिकों का उच्च चरित्र – स्वस्थ जनमत-निर्माण के लिए नागरिकों का चरित्र ऊँचा होना चाहिए। नागरिकों में सामाजिक एकता की भावना होनी चाहिए और उन्हें प्रत्येक समस्या पर राष्ट्रीय हित से सोचना चाहिए। उच्च चरित्र का नागरिक अपना मत नहीं बेचता और न ही झूठी बातों का प्रचार करता है। वह उन्हीं बातों तथा सिद्धान्तों का साथ देता है, जिन्हें वह ठीक समझता है।
  8. अफवाह के लिए दण्ड की व्यवस्था – मिथ्या प्रचार और अफवाह फैलाने वाले तत्वों के लिए दण्ड की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। झूठी अफवाहों का तत्काल ही खण्डन किया जाना चाहिए।
  9. राष्ट्रीय आदर्शों की समरूपता – स्वस्थ जनमत के निर्माण के लिए एक अनिवार्य तत्त्व यह है कि राष्ट्र के राज्य सम्बन्धी आदर्शों में जनता के मध्य अत्यधिक मतभेद न हो। इसके साथ ही राष्ट्रीय तत्त्वों में विभिन्नता कम होनी चाहिए। जिस राष्ट्र में धर्म, भाषा, संस्कृति, प्राचीन इतिहास तथा राजनीतिक परम्पराओं के मध्य विभिन्नता होगी, वहाँ इन विषयों से सम्बद्ध सार्वजनिक नीतियों के सम्बन्ध में स्वस्थ जनमत के निर्माण में बाधा पहुँचती है।
  10. साम्प्रदायिकता और संकीर्णता का अभाव – जिस देश में लोग जात-पात, धर्म, नस्ल आदि संकीर्ण विचारों को महत्त्व देते हैं वहाँ स्वस्थ लोकमत का विकास नहीं हो सकता।
  11. न्यायप्रिय बहुमत व सहनशील अल्पमत – यदि बहुमत की प्रवृत्ति अपने आपको ध्यान में रखकर विचार करने की हो जाती है तो निश्चय ही अल्पमत उदासीन होकर असंवैधानिक मार्ग को अपना लेते हैं। स्वार्थी बहुमत व विद्रोही अल्पमत लोकमत के स्वरूप को भ्रष्ट कर देता है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion

प्रश्न 3.
जनतन्त्र (लोकतन्त्र) के प्रहरी के रूप में जनमत का महत्त्व समझाइए। [2010, 11, 12, 15]
या
जनमत क्या है? भारतीय राजनीति में इसकी भूमिका का विवेचन कीजिए।
या
प्रजातन्त्रीय शासन व्यवस्था में जनमत के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए। [2010, 11, 12, 15]
या
जनमत से आप क्या समझते हैं? आधुनिक लोकतन्त्र में जनमत की भूमिका की विवेचना कीजिए। [2016]
(संकेत-जनमत से अभिप्राय के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 का उत्तर देखें।)
उत्तर
लोकतन्त्र में राज्य-प्रबन्ध सदा लोगों की इच्छानुसार चलता है। अत: प्रत्येक राजनीतिक दल और सत्तारूढ़ दल लोकमत को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करता है। जैसा कि ह्यूम ने कहा है, “सभी सरकारें चाहे वे कितनी भी बुरी क्यों न हों, अपनी सत्ता के लिए लोकमत पर निर्भर होती हैं।” लोकमत के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु को शासन का आधार बनाकर कभी कोई शासन नहीं कर सकता। जिस राजनीतिक दल की विचारधारा लोगों को अच्छी लगती है, लोग उसे शक्ति देते हैं।”
लोकमत या जनमत का महत्त्व : जनतन्त्र के प्रहरी के रूप में

1. लोकतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली में सरकार का आधार जनमत होता है- सरकार जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा बनायी जाती है। कोई भी सरकार जनमत के विरुद्ध नहीं जा सकती। सरकार सदैव जनमत को अपने पक्ष में बनाये रखने के लिए जनता में अपनी नीतियों का प्रसार करती रहती है। विपक्षी दल जनमत को अपने पक्ष में मोड़ने का सदैव प्रयत्न करते रहते हैं ताकि सत्तारूढ़ दल को हटाकर अपनी सरकार बना सकें। जो सरकार जनमत के विरोध में काम करती है वह शीघ्र ही हटा दी जाती है। यदि लोकतन्त्रीय सरकार लोकमत के विरुद्ध कानून पारित कर देती है तो उस कानून को सफलता प्राप्त नहीं होती है। यदि हम लोकमत को लोकतन्त्रात्मक सरकार की आत्मा कहें तो गलत न होगा।

2. जनमत सरकार का मार्गदर्शन करता है- जनमत लोकतन्त्रात्मक सरकार का आधार ही नहीं, बल्कि लोकतन्त्र सरकार का मार्गदर्शक भी है। डॉ० आशीर्वादम् के अनुसार, “जागरूक और सचेत जनमत स्वस्थ प्रजातन्त्र की प्रथम आवश्यकता है।” जनमत सरकार को रास्ता भी दिखाता है कि उसे क्या करना है और किस तरह करना है। सरकार कानूनों का निर्माण करते समय जनमत का ध्यान अवश्य रखती है। यदि सरकार को पता हो कि किसी कानून का जनमत विरोध करेगा तो सरकार कानून को वापस ले लेती है।

3. जनमत प्रतिनिधियों की निरंकुशता को नियन्त्रित करता है- लोकतन्त्र में जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनकर भेजती है और जनमत जिस दल के पक्ष में होगा उसी दल की सरकार बनती है। कोई भी प्रतिनिधि अथवा मन्त्री अपनी मनमानी नहीं कर सकता। उन्हें सदैव जनमत का डर रहता है। प्रतिनिधि को पता रहता है कि यदि जनमत उसके विरुद्ध हो गया तो वह चुनाव नहीं जीत सकेगा। इसीलिए प्रतिनिधि सदा जनमत के अनुसार कार्य करता है। इस प्रकार जनमत प्रतिनिधियों को तथा सरकार को मनमानी करने से रोकता है।

4. जनमत नागरिक अधिकारों की रक्षा करता है- लोकतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली में नागरिकों को राजनीतिक एवं सामाजिक अधिकार प्राप्त होते हैं। इन अधिकारों की रक्षा जनमत के द्वारा की जाती है। जनमत सरकार को ऐसा कानून नहीं बनाने देता जिससे जनता के अधिकारों में हस्तक्षेप हो। जब सरकार कोई ऐसा कार्य करती है जिससे जनता की स्वतन्त्रता समाप्त हो तो लोकमत उस सरकार की कड़ी आलोचना करता है।

5. जनमत सरकार को शक्तिशाली एवं दृढ़ बनाता है- जनमत से सरकार को बल मिलता है और वह दृढ़ बन जाती है। जब सरकार को यह विश्वास हो कि जनमत उसके साथ है। तो वह दृढ़तापूर्वक कदम उठा सकती है और प्रगतिशीलता की ओर काम भी कर सकती है। जनमत तो सरकार का आधार होता है और वह शासक को शक्तिशाली बना देता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि लोकतन्त्र शासन-प्रणाली में जनमत का विशेष महत्त्व है। सरकार का आधार जनमत ही होता है और जनमते ही सरकार को रास्ता दिखाता है। सरकार जनमत की अवहेलना नहीं कर सकती और यदि करती है तो उसे आने वाले चुनावों से हटा दिया जाता है। इसीलिए सभी विचारकों का लगभग यही मत है कि लोकतन्त्र के लिए एक सचेत जनमत पहली आवश्यकता है। गैटिल के शब्दों में, “लोकतन्त्रात्मक शासन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि लोकमत कितना सबल है तथा सरकार के कार्यों और नीतियों को किस सीमा तक नियन्त्रित कर सकता है।”

लोकमत के निर्माण में राजनीतिक दलों का योगदान
जनमत के निर्माण में राजनीतिक दल बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रखते हैं। फाइनर के अनुसार, दलों के अभाव में मतदाता या तो नपुंसक हो जायेंगे या विनाशकारी, जो ऐसी असम्भव नीतियों का पालन करेंगे जिससे राजनीतिज्ञ ध्वस्त हो जायेंगे।” जिस राजनीतिक दल के पक्ष में जनमत होता है वही दल शासन पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लेता है। इसीलिए प्रत्येक दल जनमत को अपने पक्ष में रखने का प्रयत्न करता है। जनमतं के निर्माण में राजनीतिक दल निम्नलिखित विधियों से अपना योगदान देते हैं-

1. देश की विभिन्न समस्याओं पर अपने विचार और कार्यक्रमों का प्रस्तुतीकरण – राजनीतिक दल लोगों के सामने देश की विभिन्न समस्याओं पर अपने विचार रखते हैं। और उन समस्याओं को हल करने के लिए अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार राजनीतिक दल जनता का ध्यान देश की महत्त्वपूर्ण समस्याओं की ओर आकर्षित करते हैं। राजनीतिक दल आकर्षक और रचनात्मक कार्यक्रम बनाकर जनमत को अपनी ओर करने का प्रयत्न करते हैं। राजनीतिक दल जनमत को एक विशेष ढाँचे में ढालने का प्रयास करते

2. सार्वजनिक सभाएँ – राजनीतिक दल जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए सार्वजनिक सभाएँ करते हैं। सत्तारूढ़ दल अपनी नीतियों और किये गये कार्यों की प्रशंसा करता है। और विरोधी दल सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों की आलोचना करते हैं। राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा सार्वजनिक सभाओं में दिये गये भाषण समाचार-पत्रों में छपते हैं। इससे जनता को विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं के विचारों को पढ़ने-सुनने का अवसर मिलता है। चुनाव के दिनों में विशेषकर राजनीतिक दल विशाल और छोटी-छोटी सार्वजनिक सभाएँ करते हैं, जिससे लोकमत प्रभावित होता है।

3. दल का साहित्य – राजनीतिक दल जनमत का निर्माण करने में केवल भाषणों तक ही सीमित नहीं रहते, बल्कि वे दल का साहित्य भी जनता में बाँटते हैं। इस साहित्य के द्वारा राजनीतिक दल अपने उद्देश्य, अपनी नीतियों और सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं। बहुत-से राजनीतिक दल अपने समाचार-पत्र भी निकालते हैं। इन सभी साधनों द्वारा राजनीतिक दल अपने विचार जनता और सरकार तक पहुँचाते हैं और जनमत के निर्माण में सहायता करते

4. जनता को राजनीतिक शिक्षा – राजनीतिक दल जनता में राजनीतिक जागृति उत्पन्न करते हैं तथा जनता को राजनीतिक शिक्षा देते हैं। ये सरकार और जनमत के बीच की कड़ी का काम तथा जनता को राजनीतिक गतिविधियों से भी परिचित कराते हैं।

5. विधानमण्डल में बाद-विवाद – राजनीतिक दल व्यवस्थापिका में वाद-विवाद करते हुए अपने विचार प्रकट करते हैं। यही विचार रेडियो और समाचार-पत्रों द्वारा जनता तक पहुँचते हैं। इन विचारों का भी जनमत के निर्माण में काफी प्रभाव पड़ता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
जनमत-निर्माण में सहायक चार साधनों का उल्लेख कीजिए। [2011, 12, 14]
या
स्वस्थ लोकमत के निर्माण में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (टी०वी० चैनल्स आदि) की भूमिका का परीक्षण कीजिए। [2010, 11, 12, 14]
उत्तर
जनमत-निर्माण में सहायक चार साधन निम्नवत् हैं-

1. शिक्षण संस्थाएँ – जनमत के निर्माण में शिक्षण संस्थाएँ महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती हैं। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति लोकहित का महत्त्व समझ चुका होता है तथा स्वस्थ एवं प्रबुद्ध जनमत का निर्माण करने योग्य हो जाता है। शिक्षण संस्थाओं में अनेक प्रकार के समाचार-पत्र व पत्रिकाएँ आती हैं जिनको विद्यार्थी पढ़ते हैं तथा विभिन्न घटनाओं के सम्बन्ध में विचार विमर्श करते हैं एवं अनेक प्रकार की नवीन जानकारी प्राप्त करते हैं। शिक्षण संस्थाओं में प्रमुख राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं पर सेमिनार, सिम्पोजियम तथा वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का आयोजन भी किया जाता है।

2. जनसंचार के साधन – रेडियो, सिनेमा और टी०वी० भी जनमत के निर्माण में पर्याप्त सहयोग देते हैं। रेडियो एवं टी०वी० पर समाचारों के प्रसारण के साथ-साथ देश के प्रमुख नेताओं के मत एवं भाषण प्रसारित किये जाते हैं। महत्त्वपूर्ण विषयों पर संगोष्ठियों, परिचर्चाओं आदि का प्रसारण भी प्रबुद्ध जनमत का निर्माण करता है। इस प्रकार साधारण जनता बड़ी सरलता से देश के बड़े नेताओं और विद्वानों के विचारों से अवगत करता है। इस प्रकार साधारण जनता बड़ी सरलता से देश के बड़े नेताओं और विद्वानों के विचारों से अवगत हो जाती है और अपना मत (जनमत) निर्धारित करने का प्रयास करती है।

3. समाचार-पत्र एवं पत्र-पत्रिकाएँ – समाचार-पत्र एवं पत्र-पत्रिकाएँ जनमत को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण सहयोग देते हैं। इनमें देश-विदेश की नीतियों, घटनाओं, शासन व्यवस्थाओं का वर्णन होता है, जिन्हें पढ़कर जनता अपना मत निर्धारित करती है। इस प्रकार समाचारपत्र साधारण जनता के लिए प्रकाश-स्तम्भ का कार्य करते हैं। जैसा कि गैटिल ने लिखा है-“समाचार-पत्र अपने समाचारों और सम्पादकीय शीर्षकों के माध्यम से तथ्यों का उल्लेख करते हैं।” नेपोलियन ने भी कहा था-“एक लाख तलवारों की अपेक्षा मुझे तीन समाचार पत्रों से अधिक भय है।”

4. राजनीतिक साहित्य – जनमत निर्माण एवं उसको अभिव्यक्त करने की दृष्टि से राजनीतिक साहित्य भी एक अच्छा साधन है। अनेक राजनीतिक दल अपने मत, नीतियों तथा देश की. सामाजिक समस्याओं को व्यक्त करने हेतु राजनीतिक साहित्य का प्रकाशन करते हैं। ऐसे साहित्य में निर्वाचन से पहले प्रकाशित होने वाले घोषणा-पत्रों का विशेष महत्त्व होता है क्योंकि जनता उनके माध्यम से दलों की नीतियों एवं योजनाओं से परिचित होकर अपना मत तय करने में सफल होती है। यह मत अन्ततोगत्वा जनादेश या जनमत का निर्माण करता है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion

प्रश्न 2.
जनमत के महत्त्व को लिखिए। [2010, 11, 12, 14]
या
आधुनिक जनतन्त्र में जनमत की भूमिका को संक्षेप में समझाइए।
उत्तर
आधुनिक जनतन्त्र में जनमत की भूमिका
सामान्य रूप से सभी शासन व्यवस्थाओं में जनमत अथवा लोकमत की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, परन्तु प्रजातन्त्र अथवा जनतन्त्र में इसका विशेष महत्त्व होता है। प्रजातान्त्रिक शासन जनमत से ही अपनी शक्ति प्राप्त करता है तथा उसी पर आधारित होता है। इसीलिए जनमत को जनतन्त्र का आधार कहा जाता है। संगठित जनमत ही जनतन्त्र की सफलता तथा सार्थकता की आधारशिला हैं। जनतन्त्र में जनमत की भूमिका को निम्नलिखित आधारों पर स्पष्ट किया जा सकता है।

  1. शासन की निरंकुशता पर नियन्त्रण – जनतन्त्र में शासन की निरंकुशता पर जनमत के द्वारा नियन्त्रण रखने का कार्य किया जाता है। जनतन्त्र में सरकार को स्थायी बनाने के लिए जनमत के समर्थन तथा सहमति की आवश्यकता होती है। जनमत के बल पर ही सरकारें बनती तथा बिगड़ती हैं।
  2. सरकारी अधिकारियों पर नियन्त्रण – जनमत द्वारा सरकारी अधिकारियों की आलोचना से उन पर नियन्त्रण रखा जाता है।
  3. सरकार का पथ-प्रदर्शन – जनतन्त्र में जनमत सरकार का पथ-प्रदर्शन करता है। जनमत से सरकार को इस बात की जानकारी होती है कि जनता किस प्रकार की व्यवस्था चाहती है। तथा उसके हित में किस प्रकार के कानूनों का निर्माण किया जाए।
  4. सरकार का निर्माण और पतन – जनमत जनतन्त्र का आधार है। जनतन्त्र में सरकार को निर्माण और पतन जनमत पर ही निर्भर करता है। जनमत का सम्मान करने वाला दल सत्ता प्राप्त करता है तथा पुनः सत्ता प्राप्त करने का अवसर बनाए रखता है। जनमत की अवहेलना करने पर शासक दल का स्थान विरोधी दल ले लेता है। ई०बी० शुल्ज के शब्दों में, “जनमत एक प्रबल सामाजिक शक्ति है, जिसकी अवहेलना करने वाला राजनीतिक दल स्वयं अपने लिए संकट आमन्त्रित करता है।”
  5. जनता और सरकार में समन्वय – जनमत जनता और सरकार के विचारों में समन्वय स्थापित करने की एक कड़ी है।
  6. नागरिक अधिकारों का रक्षक – जनमत नागरिकों के अधिकारों और स्वतन्त्रता का भी रक्षक होता है। जागरूक और सचेत जनमत शासक वर्ग को जनता के विचारों से परिचित रखता है। इस प्रकार जनमत नागरिकों के अधिकारों और स्वतन्त्रता की रक्षा करता है। स्वतन्त्रता तथा अधिकारों की रक्षा के लिए जागरूक जनमत की आवश्यकता होती है।
  7. राजनीतिक जागरूकता उत्पन्न करना – जनमत नागरिकों में राजनीतिक जागरूकता उत्पन्न करता है। जनमत से प्रेरित राजनीतिक जागरूकता ही जनतन्त्र का वास्तविक आधार होती है। जनमत द्वारा ही जन-सहयोग प्राप्त किया जाता है।
  8. नैतिक तथा सामाजिक व्यवस्था की रक्षा – जनमत का सामाजिक क्षेत्र में भी अत्यधिक महत्त्व है। जनमत नैतिक तथा सामाजिक व्यवस्था की रक्षा करता है और नागरिकों का ध्यान महत्त्वपूर्ण सामाजिक प्रश्नों तथा समस्याओं की ओर आकृष्ट करता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जनतन्त्र में जनमत का बहुत अधिक महत्त्व है। गैटिल के अनुसार-“जनतान्त्रिक शासन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि जनमत कितना सबल है। तथा सरकार के कार्यों तथा नीतियों को किस सीमा तक नियन्त्रित कर सकता है।” डॉ० आशीर्वादम् के अनुसार, “जागरूक और सचेत जनमत स्वस्थ जनतन्त्र की प्रथम आवश्यकता है। वास्तव में प्रबुद्ध जनमत लोकतन्त्र का पहरेदार है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
लोकमत की कोई दो विशेषताएँ लिखिए। [2012]
या
जनमत अथवा लोकमत की विशेषताएँ (लक्षण) बताइए।
उत्तर
जनमत अथवा लोकमत की परिभाषाएँ यद्यपि एक-दूसरे से भिन्न हैं फिर भी वे उसकी प्रमुख तीन विशेषताओं को स्पष्ट रूप से प्रकट करती हैं-

1. जनसाधारण का मत – जनमत के लिए यह आवश्यक है कि वह जनसाधारण का मत हो। किसी विशेष वर्ग अथवा व्यक्तियों का मत जनमत नहीं हो सकता। विलहेम बोयर ने ठीक ही कहा है कि, “जनमत किसी गुट विशेष का विचार एवं सिद्धान्त मात्र न होकर जनसाधारण की सामूहिक आस्था और विश्वास होता है।”

2. लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित – जनमत की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक विशेषता लोक-कल्याण की भावना होती है। डॉ० बेनी प्रसाद ने कहा है कि “वही मत वास्तविक जनमत होता है जो जन-कल्याण की भावना से प्रेरित हो।” इसी बात को लॉवेल ने इन शब्दों में कहा है कि “जनमत के लिए केवल बहुमत ही पर्याप्त नहीं होता और न ही एक मत की आवश्यकता होती है। किसी भी मत को जनमत का रूप धारण करने के लिए ऐसा होना चाहिए जिसमें चाहे अल्पमत भागीदार न हो, परन्तु भय के कारण नहीं, वरन् दृढ़ विश्वास के कारण स्वीकार करता हो।’

3. विवेक पर आधारित स्थायी विचार – जनमत भावनाओं के अस्थिर आवेग या एक समयविशेष में प्रचलित विचार पर आधारित नहीं होता, अपितु उसका आधार जनता के विवेकपूर्ण और स्थायी विचार होते हैं। स्थायित्व जनमत को अनिवार्य लक्षण है।

प्रश्न 2.
लोकमत की विशेषताओं पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर
लोकमत अथवा जनमत की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं-

  1. यह जनसाधारण के बहुसंख्यक भाग का मत होता है।
  2. यह विवेक पर आधारित मत होता है।
  3. यह लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित होता है।
  4. यह सर्वथा निष्पक्ष होता है।
  5. यह नैतिकता और न्याय की भावना पर आधारित होता है।
  6. जनता की संगठित शक्ति का प्रतीक है।

प्रश्न 3.
समाचार-पत्रों को लोकतन्त्र का चतुर्थ स्तम्भ क्यों कहा गया है ?
उत्तर
समाचार-पत्र एवं प्रेस जनमत के निर्माण के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। समाचार-पत्र देशविदेश की विविध घटनाओं, समस्याओं और विचारों को जन-साधारण तक पहुँचाने का कार्य करते हैं। समाचार-पत्र केवल सामयिक घटनाओं का विवरण ही नहीं देते, वरन् निकट भविष्य में होने वाले परिवर्तनों का आभास देकर जनता के विचारों को प्रभावित करते हैं। समाचार-पत्र जनता की भावनाओं को सरकार तक और सरकार के निर्णयों को जनता तक पहुँचाते हैं। इसी कारण समाचारपत्रों को ‘लोकतन्त्र का चतुर्थ स्तम्भ’ कहा गया है।

प्रश्न 4.
जनमत की अभिव्यक्ति के दो साधन बताइए। [2013]
उत्तर
जनमत की अभिव्यक्ति के दो साधनों का विवरण निम्नवत् है-

  1. निर्वाचन – निर्वाचन व्यक्तियों को जनमत अभिव्यक्त करने का सर्वोत्तम साधन उपलब्ध कराते हैं। निर्वाचन में मतदान के द्वारा अपने मत के माफिक उम्मीदवार को विजयी बनाकर, लोग अपने जनमत की अभिव्यक्ति करते हैं।
  2. समाचार-पत्र और पत्रिकाओं – में अपने विचारों की अभिव्यक्ति के द्वारा भी लोग अपना जनमत अभिव्यक्त करते हैं। देश के समक्ष उपस्थित समस्याओं और उनके समाधान के प्रति जनता अपना मत समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं के माध्यम से प्रभावी ढंग से व्यक्त करती है।

प्रश्न 5.
सोशल मीडिया का जनमत निर्माण में क्या योगदान है? [2016]
उत्तर
स्पेशल मीडिया यानि इण्टरनेट, टेलीविजन, दूरसंचार की आधुनिक प्रणालियाँ और कम्प्यूटर-प्रणाली में जो विचार-विमर्श होता है, उससे भी जनमत के रुझान का पता लगाने में सहयोग मिलता है। रेडियो एवं टेलीविजन पर समाचारों के प्रसारण के साथ-साथ देश के प्रमुख नेताओं के मत एवं भाषण प्रसारित किए जाते हैं। महत्त्वपूर्ण विषयों पर संगोष्ठियों, परिचर्चाओं आदि का प्रसारण भी प्रबुद्ध जनमत का निर्माण करता है। इस प्रकार साधारण जनता बहुत सरलता से देश के बड़े नेताओं और विद्वानों के विचारों से अवगत हो जाती है और अपना मत (जनमत) निर्धारित करने का प्रयास करती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
लोकमत की एक परिभाषा लिखिए। उक्ट लॉर्ड ब्राइस के अनुसार, “सार्वजनिक हित से सम्बद्ध किसी समस्या पर जनता के सामूहिक विचारों को जनमत कहा जा सकता है।”

प्रश्न 2.
जनमत के कोई दो तत्त्व लिखिए।
उत्तर

  1. सार्वजनिक हित पर आधारित तथा
  2. व्यापक सहमति।

प्रश्न 3.
लोकतन्त्र में जनमत के कोई दो महत्त्व बताइए।
उत्तर

  1. जनमत शासन-प्रणाली का आधार होता है तथा
  2. जनमत सरकार की निरंकुशता को नियन्त्रित करता है।

प्रश्न 4.
जनमत-निर्माण के किन्हीं दो साधनों के नाम लिखिए। [2007, 10, 11, 13, 14, 16]
उत्तर

  1. राजनीतिक दल तथा
  2. समाचार-पत्र तथा पत्रिकाएँ।

प्रश्न 5.
स्वस्थ जनमत-निर्माण में किन्हीं दो बाधाओं का वर्णन कीजिए। [2011, 14, 15]
उत्तर

  1. निरक्षरता एवं अज्ञानता तथा
  2. निर्धनता।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion

प्रश्न 6.
स्वस्थ जनमत के निर्माण में निर्धनता किस प्रकार बाधक है?
उत्तर
निर्धन व्यक्ति अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति में ही लगा रहता है और उससे सार्वजनिक समस्याओं पर चिन्तन की आशा नहीं की जा सकती जिसके बिना जनमत का निर्माण नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 7.
स्वस्थ जनमत (लोकमत) निर्माण की दो आवश्यक शर्ते बताइए। या स्वस्थ जनमत के विकास की कोई एक शर्त बताइए।
उत्तर

  1. जनमत का शिक्षित होना तथा
  2. प्रेस का निष्पक्ष होना।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1. लोकतन्त्र का चतुर्थ स्तम्भ है- [2015, 16]
(क) समाचार-पत्र
(ख) निष्पक्ष मतदान
(ग) शिक्षा
(घ) सुशिक्षित नागरिक

2. कौन-सा लोकमत का लक्षण नहीं है ?
(क) सार्वजनिक कल्याण की भावना
(ख) विवेक
(ग) अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा
(घ) जन-इच्छा

3. लोकमत का पर्याय क्या है?
(क) सामान्य चेतना
(ख) सामान्य इच्छा
(ग) सामान्य जागरूकता
(घ) सामान्य ज्ञान

4. लोकमत की अभिव्यक्ति केवल सम्भव है-
(क) लोकतन्त्र में
(ख) निरंकुशतन्त्र में
(ग) सर्वाधिकारवाद तन्त्र में
(घ) कुलीनतन्त्र में

5. निम्नलिखित में से स्वस्थ जनमत के निर्माण में कौन-सी बाधा नहीं है?
(क) भाषावाद
(ख) क्षेत्रवाद
(ग) सम्प्रदायवाद
(घ) राजनीतिक जागृति

6. किसके अनुसार ‘सतर्क एवं सुविज्ञ जनमत’ जनतन्त्र की प्रथम आवश्यकता है? [2007]
(क) ब्राइस
(ख) लॉवेल
(ग) डॉ० आशीर्वादम्।
(घ) विल्की

7. भारत में जनमत निर्माण के लिए निम्न में से कौन-सा कारक सूचना प्रदान करता है? [2013]
(क) छोटे समूहों में वार्तालाप
(ख) टी०वी०पर राष्ट्रव्यापी शैक्षिक कार्यक्रमों को देखना
(ग) विशेषज्ञों के भाषण
(घ) उपर्युक्त सभी

8. स्वस्थ जनमत के निर्माण की सबसे बड़ी बाधा है। [2016]
(क) राजनीतिक दल
(ख) पत्र-पत्रिकाएँ
(ग) निरक्षरता
(घ) राजनीतिक चेतना

उत्तर

  1. (क) समाचार-पत्र,
  2. (घ) जन-इच्छा,
  3. (ख) सामान्य इच्छा,
  4. (क) लोकतन्त्र में,
  5. (घ) राजनीतिक जागृति,
  6. (ग) डॉ० आशीर्वादम्,
  7. (घ) उपर्युक्त सभी,
  8. (ग) निरक्षरता

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion (जनमत (लोकमत)) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 Public Opinion (जनमत (लोकमत)), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 9 Administrative Policy of Company and Constitutional Development 1773 – 1858 AD

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 9 Administrative Policy of Company and Constitutional Development 1773-1858 AD (कम्पनी की शासन-नीति एवं वैधानिक विकास (1773 – 1858 ई०) are the part of UP Board Solutions for Class 12 History. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 9 Administrative Policy of Company and Constitutional Development 1773 – 1858 AD (कम्पनी की शासन-नीति एवं वैधानिक विकास (1773 – 1858 ई०).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 9
Chapter Name Administrative Policy of
Company and Constitutional
Development 1773-1858 AD
(कम्पनी की शासन-नीति
एवं वैधानिक विकास (1773-1858 ई०)
Number of Questions Solved 13
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 9 Administrative Policy of Company and Constitutional Development 1773 – 1858 AD (कम्पनी की शासन-नीति एवं वैधानिक विकास (1773 – 1858 ई०)

अभ्यास

प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए|
1. 1773 ई०
2. 1784 ई०
3. 1793 ई०
4. 1833 ई०
5. 1853 ई०
उतर:
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या-174 पर तिथि सार का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 2.
सत्य या असत्य बताइए
उतर:
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 174 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय प्रश्न
उतर:
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 175 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
उतर:
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 175 का अवलोकन कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
1833 ई० के चार्टर ऐक्ट की दो विशेषताएँ लिखिए।
उतर:
1833 ई० के चार्टर ऐक्ट की दो विशेषताएँ निम्न्वत् हैं

  1. इस ऐक्ट द्वारा कम्पनी के भारतीय प्रशासन का केन्द्रीकरण किया गया। प्रादेशिक सरकारों की बहुत-सी शक्तियाँ छीनकर गवर्नर की कौंसिल को प्रदान की गई।
  2. इस ऐक्ट द्वारा कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को पूर्णतया समाप्त कर दिया गया और उसे सुविधापूर्वक अपना हिसाब किताब चुकाने तथा माल आदि समेटने का आदेश दिया गया।

प्रश्न 2.
1833 ई० के चार्टर ऐक्ट का वैधानिक महत्व बताइए।
उतर:
सन् 1833 ई० का चार्टर ऐक्ट भारत के संवैधानिक इतिहास में एक विशेष स्थान रखता है। इसके द्वारा ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के प्रशासन में बड़े एवं महत्वपूर्ण परिवर्तन किए और भारतीयों के प्रति उदार नीति अपनाने की भी घोषणा की। इसके अतिरिक्त, इस ऐक्ट ने कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को पूर्णता समाप्त कर दिया।

प्रश्न 3.
पिट्स इण्डिया ऐक्ट,1784 ई० की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उतर:
पिट्स इण्डिया ऐक्ट, 1784 ई० की दो विशेषताएँ निम्नवत् हैं

  1. इस ऐक्ट द्वारा कमिश्नरों की एक समिति बनाई गई, जिसका भारत के शासन सेना तथा लगान सम्बन्धी कार्यों पर नियन्त्रण होता था। इस समिति के सदस्यों को इंग्लैण्ड का सम्राट मनोनित करता था।
  2. संचालक मंडल को नियन्त्रण बोर्ड के अधीन कर दिया गया। भारत में गोपनीय आज्ञा भेजने के लिए तीन सदस्यों की एक गुप्त समिति का गठन हुआ।

प्रश्न 4.
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट की दो प्रमुख धाराओं का उल्लेख कीजिए।
उतर:
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट की दो प्रमुख धाराएँ निम्नवत् हैं

  1. कम्पनी के डायरेक्टरों का कार्यकाल एक वर्ष की जगह 4 वर्ष कर दिया गया तथा उनकी संख्या बढ़ाकर 24 कर दी गई। इनमें से एक-चौथाई सदस्यों की प्रतिवर्ष अवकाश ग्रहण करने की व्यवस्था की गई।
  2. इस ऐक्ट द्वारा यह निश्चित किया गया कि कम्पनी का कोई भी कर्मचारी भविष्य में लाइसेंस लिए बिना व्यापार नहीं करेगा और वह किसी से भेंट अथवा उपहार भी नहीं लेगा।

प्रश्न 5.
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के दो दोष लिखिए।
उतर:
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के दो दोष निम्नवत् हैं

  1. यद्यपि कम्पनी पर इंग्लैण्ड की सरकार ने अपना अधिकार कर लिया, तदापि व्यावहारिक रूप से उससे कोई लाभ नहीं हुआ। इसका कारण यह था कि ब्रिटिश मंत्रिमंडल को अपने ही कार्यों से फुरसत नहीं थी।
  2. रेग्यूलेटिंग ऐक्ट’ द्वारा कम्पनी के कर्मचारियो के व्यक्तिगत व्यापार करने, उपहार अथवा भेंट लेने पर तो प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, परन्तु उनकी आय में वृद्धि के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। अत: प्रशासन में रिश्वत व भ्रष्टचार का समावेश हो गया था।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए तथा उसके गुण-दोष की विवेचना कीजिए।
उतर:
रेग्यूलटिंग ऐक्ट की विशेषताएँ- इस ऐक्ट की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. कम्पनी के डायरेक्टरों का कार्यकाल एक वर्ष की जगह 4 वर्ष कर दिया गया तथा उनकी संख्या बढ़ाकर 24 कर दी गई। इनमें से एक-चौथाई सदस्य प्रतिवर्ष अवकाश ग्रहण करेंगे।
  2. कम्पनी के संचालकों के चुनाव में वही व्यक्ति मत देने का अधिकारी होगा, जिसके पास कम्पनी के 1,000 पौण्ड के शेयर होंगे।
  3. बंगाल के गवर्नर को अब गवर्नर जनरल कहा जाने लगा तथा उसका कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित कर दिया। बम्बई (मुम्बई) तथा मद्रास (चेन्नई) के गवर्नर उसके अधीन कर दिए गए।
  4. शासन कार्य में गवर्नर जनरल की सहायता के लिए चार सदस्यों की एक कौंसिल बनाई गई। कौंसिल के सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष रखा गया तथा यह भी कहा गया कि कौंसिल के निर्णय बहुमत के आधार पर होंगे।
  5. गवर्नर जनरल का वेतन 25,000 पौण्ड प्रतिवर्ष निश्चित किया गया।
  6. ऐक्ट में यह भी निश्चित किया गया कि कम्पनी का कोई भी कर्मचारी भविष्य में लाइसेंस लिए बिना निजी व्यापार नहीं करेगा और वह किसी से भेंट अथवा उपहार भी नहीं लेगा।
  7. कलकत्ता (कोलकाता) में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई, जिसमें मुख्य न्यायाधीश व तीन अन्य न्यायाधीश होंगे। इनके फैसलों के विरुद्ध केवल इंग्लैण्ड स्थित प्रिवी कौंसिल में ही अपील की जा सकती थी।
  8. कम्पनी के संचालकों व भारत में स्थित कम्पनी के बीच में जो भी पत्र-व्यवहार होगा, उसकी एक प्रति इंग्लैण्ड की सरकार के पास भेजी जाएगी।

रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के दोष- रेग्यूलेटिंग ऐक्ट’ द्वारा इंग्लैण्ड की सरकार ने भारत में वैधानिक विकास का सूत्रपात किया, किन्तु यह अनेक दोषों के कारण एक अपूर्ण कानून था। इसके मुख्य दोष निम्न प्रकार थे

(i) यद्यपि कम्पनी पर इंग्लैण्ड की सरकार ने अपना अधिकार कर लिया, तथापि व्यावहारिक रूप से उससे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। इसका कारण यह था कि ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल को अपने ही कार्यों से फुरसत नहीं मिलती थी।

(ii) यद्यपि इस अधिनियम के अनुसार गवर्नर जनरल ब्रिटिश सरकार का सर्वोच्च अधिकारी था, परन्तु वह कौंसिल के बहुमत की कृपा पर निर्भर था। इस कानून के अनुसार गवर्नर जनरल कार्यकारिणी के निर्णयों को स्वीकार करने के लिए बाध्य था। उसको यह अधिकार नहीं दिया गया था कि वह अपनी कार्यकारिणी’ (कौंसिल) के बहुमत को अस्वीकार कर सके। ऐसी स्थिति में वह अनेक बार उपयुक्त कार्यों को करना चाहकर भी नहीं कर पाता था। चार सदस्यों में से तीन सदस्य समकालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के प्रत्येक कार्य में बाधा डालते थे। इन सदस्यों ने उस पर अनेक झूठे आरोप भी लगाए थे, जिसके कारण वारेन हेस्टिंग्स को कई बार त्याग-पत्र तक देने के विषय में सोचना पड़ा। अतः इस कानून का मुख्य दोष यही था कि इसमें गवर्नर जनरल के अधिकार सीमित रखे गए थे, जबकि वह शासन-प्रबन्ध में सर्वोच्च अधिकारी था।

(iii) मद्रास और बम्बई प्रान्तों के केवल विदेशी मामले ही गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारिणी के अधीन रखे गए थे, आन्तरिक मामलों में वहाँ की स्थानीय सरकारें अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिए स्वतन्त्र थीं। यह एक व्यावहारिक दोष था।

(iv) सर्वोच्च न्यायालय से सम्बन्धित अनेक तथ्य अस्पष्ट थे। कानून में यह विस्तृत रूप से वर्णित नहीं किया गया था कि न्यायालय किस प्रकार के मुकदमों का निर्णय करेगा। न्याय करने में न्यायालय ब्रिटिश कानूनों का पालन करेगा या भारतीय कानूनों का, यह भी स्पष्ट नहीं किया गया था। इसके अतिरिक्त न्यायालय और गवर्नर जनरल तथा कार्यकारिणी में समन्वय स्थापित नहीं किया गया था। अधिकार क्षेत्र के मामले में इनमें प्राय: संघर्ष हो जाता था।

(v) रेग्यूलेटिंग ऐक्ट’ द्वारा कम्पनी के कर्मचारियों के व्यक्तिगत व्यापार करने, उपहार एवं भेंट लेने पर तो प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, परन्तु उनकी आय में वृद्धि के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। अतएव प्रशासन में रिश्वत व भ्रष्टचार का समावेश हो गया था।

(vi) इस अधिनियम में कम्पनी के संचालकों के चुनाव में मतदाता बनने की योग्यता का मापदण्ड 500 पौण्ड से 1,000 पौण्ड कर दिए जाने से कम्पनी पर कुछ धनी व्यक्तियों का ही आधिपत्य हो गया।

रेग्यूलेटिंग ऐक्ट’ की त्रुटियों को भारतीय संवैधानिक सुधारों पर प्रतिवेदन में निम्न प्रकार वर्णित किया गया हैइसने (1773 ई० के ऐक्ट ने) ऐसा गवर्नर जनरल बनाया, जो अपनी कौंसिल के समक्ष अशक्त था। इसने ऐसी ‘कार्यकारिणी’ बनाई जो सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अशक्त थी और ऐसा न्यायालय बनाया, जिस पर देश की शान्ति तथा हित का कोई स्पष्ट उत्तरदायित्व नहीं था।”

एडमण्ड बर्क ने ‘रेग्यूलेटिंग ऐक्ट’ को एक अधूरा कदम बताया है, जिसने कई महत्वपूर्ण प्रश्नों को अस्पष्ट ही छोड़ दिया। उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि यह कानून अनेक दोषों से परिपूर्ण था, तथापि इंग्लैण्ड के संवैधानिक इतिहास में ‘रेग्युलेटिंग ऐक्ट’ का महत्वपूर्ण स्थान है।

ऐक्ट के गुण- यद्यपि रेग्यूलेटिंग ऐक्ट में अनेक दोष विद्यमान थे, तथापि यह सर्वथा गुणरहित भी नहीं था। यह पहला अवसर था जब कम्पनी पर संसद के नियन्त्रण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। इस ऐक्ट के आधार पर ही धीरे-धीरे कम्पनी पर कठोर नियन्त्रण किया गया और इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप 1858 ई० तक तो कम्पनी की सत्ता ही समाप्त कर दी गई। अतः इस अधिनियम के परिणाम बड़े ही दूरगामी व स्थायी सिद्ध हुए। कम्पनी के कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, निजी व्यापार तथा उपहार लेने पर लगाया गया प्रतिबन्ध भी कम महत्वपूर्ण नहीं था। यद्यपि इस ऐक्ट में गुण व दोष दोनों ही विद्यमान थे। इस ऐक्ट के बारे में सप्रे ने ठीक ही लिखा है, “यह अधिनियम संसद द्वारा कम्पनी के कार्यों में प्रथम हस्तक्षेप था, अतः उसकी नम्रतापूर्वक आलोचना की जानी चाहिए।’

प्रश्न 2.
“रेग्यूलेटिंग ऐक्ट एक अधूरा कानून था।” स्पष्ट कीजिए।
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरी प्रश्न संख्या-1 के उत्तर में रेग्युलेटिंग ऐक्ट के दोष का अवलोकन कीजिए। |

प्रश्न 3.
पिट्स इण्डिया ऐक्ट ने रेगयुलेटिंग ऐक्ट के दोषों को किस सीमा तक दूर किया? क्या इसे रेग्यूलेटिंग ऐक्ट का पूरक कहना उचित है?
उतर:
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के दोषों को दूर करने के लिए फाक्स ने 1783 ई० में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट के समक्ष एक इण्डिया बिल प्रस्तुत किया परन्तु यह बिल अस्वीकृत हो गया। अन्त में 1784 ई० में ब्रिटिश प्रधानमन्त्री विलियम पिट ने कुछ संशोधन के साथ इण्डिया बिल पारित किया। इसे ही पिट्स इण्डिया ऐक्ट कहा जाता है। इस ऐक्ट के द्वारा रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के अनेक दोष दूर कर दिए गए। इस ऐक्ट में निम्नालिखित प्रावधान किए गए

  1. सर्वप्रथम गवर्नर जनरल की कौंसिल के सदस्यों की संख्या घटाकर तीन कर दी गई, जिसमें एक सेनापति भी सम्मिलित होना निश्चित हुआ।
  2. बम्बई तथा मद्रास के गवर्नरों को सन्धि, युद्ध तथा लगान के सम्बन्ध में पूर्णतया गवर्नर जनरल के अधीन कर दिया गया।
  3. गृह-सरकार में भी इस ऐक्ट द्वारा कुछ संशोधन किए गए।
  4. कमिश्नरों की एक समिति बनाई गई, जिसका भारत के शासन, सेना तथा लगान सम्बन्धी कार्यों पर नियन्त्रण होता था। इस समिति के सदस्यों को इंग्लैण्ड का सम्राट मनोनीत करता था।
  5. संचालक मण्डल को नियन्त्रण बोर्ड के अधीन कर दिया गया।

भारत में गोपनीय आज्ञाएँ भेजने के लिए एक गुप्त समिति का गठन हुआ, जिसमें तीन सदस्य होते थे। पिट के इण्डिया ऐक्ट में भी कुछ दोष थे। इसके द्वारा द्वैध शासन प्रणाली का जन्म हुआ। संचालक मण्डल तथा नियन्त्रण बोर्ड दोनों के नियन्त्रण तथा अनुशासन में गवर्नर जनरल को कार्य करना पड़ता था। यह व्यवस्था 1886 ई० तक चलती रही। परन्तु इस ऐक्ट को रेग्यूलेटिंग ऐक्ट का पूरक माना जा सकता है क्योंकि रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के अनेक दोषों को इस
ऐक्ट ने दूर कर दिया था।

प्रश्न 4.
भारत शासन अधिनियम, 1858 ई० पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उतर:
भारत शासन अधिनियम, 1858 ई०- इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे
(i) गृह सरकार
(क) नियन्त्रण परिषद् तथा निदेशक मण्डल समाप्त कर दिए गए और उनका स्थान भारत सचिव ने ले लिया।
(ख) भारत में सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक ‘भारत परिषद् होगी।
(ग) इन सदस्यों में से कम-से-कम आधे ऐसे व्यक्ति होने चाहिए, जो भारत में कम-से-कम दस वर्ष तक सेवा कर चुके हों।
(घ) भारत में सचिव परिषद् की बैठकों की अध्यक्षता करेगा।
(ङ) भारत में सचिव प्रतिवर्ष भारत की प्रगति की रिपोर्ट संसद के समक्ष प्रस्तुत करेगा।

(ii) भारत सरकार
(क) भारत के शासन का उत्तरदायित्व ब्रिटिश क्राउन ने अपने ऊपर ले लिया है और इसकी घोषणा रानी के द्वारा भारतीय राजा-महाराजाओं के समक्ष कर दी जाएगी।
(ख) कम्पनी की सभी सन्धियाँ, समझौते और देनदारियाँ क्राउन पर लागू होंगी।
(ग) भारत के बाहर सैनिक कार्यवाहियों के लिए भारतीय कोष से ब्रिटिश संसद की अनुमति के बिना धन व्यय नहीं किया जाएगा।

अधिनियम का मूल्यांकन- इसमें सन्देह नहीं कि 1858 ई० का अधिनियम आधुनिक भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी। वास्तव में 1858 के भारत-शासन अधिनियम ने भारतीय इतिहास में एक युग को समाप्त कर दिया और भारत में एक नए युग का आरम्भ हुआ। रेम्जे म्योर के अनुसार, “भारतीय साम्राज्य का क्राउन को जो हस्तान्तरण किया गया, उसमें ऊपरी दृष्टि से जितना परिवर्तन दिखाई देता था, उतना वास्तव में नहीं था, बल्कि उससे बहुत कम था। वस्तुतः क्राउन कम्पनी के हाथों में प्रादेशिक प्रभुत्व आने के समय से ही उसके मामलों पर अपने नियन्त्रण को निरन्तर कड़ा करता आया था।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 9 Administrative Policy of Company and Constitutional Development 1773-1858 AD (कम्पनी की शासन-नीति एवं वैधानिक विकास (1773-1858 ई०) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 9 Administrative Policy of Company and Constitutional Development 1773-1858 AD (कम्पनी की शासन-नीति एवं वैधानिक विकास (1773-1858 ई०), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi सामाजिक व सांस्कृतिक निबन्ध

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi सामाजिक व सांस्कृतिक निबन्य are part of UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi सामाजिक व सांस्कृतिक निबन्य.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name सामाजिक व सांस्कृतिक निबन्य
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi सामाजिक व सांस्कृतिक निबन्य

सामाजिक व सांस्कृतिक निबन्ध

भारतीय समाज में नारी का स्थान [2009]

सम्बद्ध शीर्षक

  • भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति [2012]
  • आधुनिक भारत में नारी का स्थान
  • आधुनिक नारी का स्थान
  • स्वातन्त्र्योत्तर भारत में महिलाओं की स्थिति
  • भारतीय नारी : आज और कल [2013]
  • नारी सम्मान : भारतीय संस्कृति की पहचान [2014]
  • नारी-चिन्तन का बदलता स्वरूप (2015)

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. भारतीय नारी का अतीत,
  3. मध्यकाल में भारतीय नारी,
  4. आधुनिक युग में नारी,
  5. पाश्चात्य प्रभाव एवं जीवन-शैली में परिवर्तन,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-गृहस्थीरूपी रथ के दो पहिये हैं—नर और नारी। इन दोनों के सहयोग से ही गृहस्थ जीवन सफल होता है। इसमें भी नारी का घर के अन्दर और पुरुष का घर के बाहर विशेष महत्त्व है। फलतः प्राचीन काल में ऋषियों ने नारी को अतीव आदर की दृष्टि से देखा। नारी पुरुष की सहधर्मिणी तो है ही, वह मित्र के सदृश परामर्शदात्री, सचिव के सदृश सहायिका, माता के सदृश उसके ऊपर अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाली और सेविका के सदृश उसकी अनवरत सेवा करने वाली है। इसी कारण मनु ने कहा है, ”यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता” अर्थात् जहाँ नारियों का आदर होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। फिर भी भारत में नारी की स्थिति एक समान न रहकर बड़े उतार-चढ़ावों से गुजरी है, जिसका विश्लेषण वर्तमान भारतीय समाज को समुचित दिशा देने के लिए आवश्यक है।

भारतीय नारी का अतीत-वेदों और उपनिषदों के काल में नारी को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी। वह पुरुष के समान विद्यार्जन कर विद्वत्सभाओं में शास्त्रार्थ करती थी। महाराजा जनक की सभा में हुआ याज्ञवल्क्य-गार्गी शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है। मण्डन मिश्र की धर्मपत्नी भारती अपने काल की अत्यधिक विख्यात विदुषी थीं, जिन्होंने अपने दिग्गज विद्वान् पति की पराजय के बाद स्वयं आदि शंकराचार्य से शास्त्रार्थ किया। यही नहीं, स्त्रियाँ युद्ध-भूमि में भी जाती थीं। इसके लिए कैकेयी का उदाहरण प्रसिद्ध है। उस काल में नारी को अविवाहित रहने या स्वेच्छा से विवाह करने का पूरा अधिकार था। कन्याओं का विवाह उनके पूर्ण यौवनसम्पन्न होने पर उनकी इच्छा व पसन्द के अनुसार ही होता था, जिससे वे अपने भले-बुरे का निर्णय स्वयं कर सकें।

मध्यकाल में भारतीय नारी-मध्यकाल में नारी की स्थिति अत्यधिक शोचनीय हो गयी; क्योंकि मुसलमानों के आक्रमण से हिन्दू-समाज का मूल ढाँचा चरमरा गया और वे परतन्त्र होकर मुसलमान शासकों का अनुकरण करने लगे। मुसलमानों के लिए स्त्री मात्र भोग-विलास और वासना-तृप्ति की वस्तु थी। फलत: लड़कियों को विद्यालय में भेजकर पढ़ाना सम्भव न रहा। हिन्दुओं में बाल-विवाह का प्रचलन हुआ, जिससे लड़की छोटी आयु में ही ब्याही जाकर अपने घर चली जाए। परदा-प्रथा का प्रचलन हुआ और नारी घर में ही बन्द कर दी गयी। युद्ध में पतियों के पराजित होने पर यवनों के हाथ न पड़ने के लिए नारियों ने अग्नि का आलिंगन करना शुरू किया, जिससे सती–प्रथा का प्रचलन हुआ। इस प्रकार नारियों की स्वतन्त्रता नष्ट हो गयी और वे मात्र दासी या भोग्या बनकर रह गयीं। नारी की इसी असहायावस्था का चित्रण गुप्त जी ने निम्नलिखित पंक्तियों में किया है-

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी ।।

आधुनिक युग में नारी-आधुनिक युग में अंग्रेजों के सम्पर्क से भारतीयों में नारी-स्वातन्त्र्य की चेतना जागी। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ सामाजिक आन्दोलन का भी सूत्रपात हुआ। राजा राममोहन राय और महर्षि दयानन्द जी ने समाज-सुधार की दिशा में बड़ा काम किया। सती–प्रथा कानून द्वारा बन्द करायी गयी और बाल-विवाह पर रोक लगी। आगे चलकर महात्मा गाँधी ने भी स्त्री-सुधार की दिशा में बहुत काम किया। नारी की दीन-हीन दशा के विरुद्ध पन्त का कवि हृदय आक्रोश प्रकट कर उठता है-

मुक्त करो नारी को मानव
चिरबन्दिनी नारी को।

आज नारियों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हैं। उन्हें उनकी योग्यतानुसार आर्थिक स्वतन्त्रता भी मिली हुई है। स्वतन्त्र भारत में आज नारी किसी भी पद अथवा स्थान को प्राप्त करने से वंचित नहीं। धनोपार्जन के लिए वह आजीविका का कोई भी साधन अपनाने के लिए स्वतन्त्र है। फलतः स्त्रियाँ अध्यापिका, डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, वकील, जज, प्रशासनिक अधिकारी ही नहीं, अपितु पुलिस में नीचे से ऊपर तक विभिन्न पदों पर कार्य कर रही हैं। स्त्रियों ने आज उस रूढ़ धारणा को तोड़ दिया है कि कुछ सेवाएँ पूर्णत: पुरुषोचित होने से स्त्रियों के बूते की नहीं। आज नारियाँ विदेशों में राजदूत, प्रदेशों की गवर्नर, विधायिकाएँ या संसद सदस्याएँ, प्रदेश अथवा केन्द्र में मन्त्री आदि सभी कुछ हैं। भारत जैसे विशाल देश का प्रधानमन्त्रित्व तक एक नारी कर गयी, यह देख चकित रह जाना पड़ता है। श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित ने तो संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्षता कर सबको दाँतों तले अँगुली दबवा दी। इतना ही नहीं, नारी को आर्थिक स्वतन्त्रता दिलाने के लिए उसे कानून द्वारा पिता एवं पति की सम्पत्ति में भी भाग प्रदान किया गया है।

आज स्त्रियों को हर प्रकार की उच्चतम शिक्षा की सुविधा प्राप्त है। बाल-मनोविज्ञान, पाकशास्त्र, गृह-शिल्प, घरेलू चिकित्सा, शरीर-विज्ञान, गृह-परिचर्या आदि के अतिरिक्त विभिन्न ललित कलाओं; जैसे—संगीत, नृत्य, चित्रकला, छायांकन आदि में विशेष दक्षता प्राप्त करने के साथ-साथ वाणिज्य और विज्ञान के क्षेत्रों में भी वे उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही हैं।

स्वयं स्त्रियों में भी अब सामाजिक चेतना जाग उठी है। प्रबुद्ध नारियाँ अपनी दुर्दशा के प्रति सचेत हैं। और उसके सुधार में दत्तचित्त भी। अनेक नारियाँ समाज-सेविकाओं के रूप में कार्यरत हैं। आशा है कि वे भारत की वर्तमान समस्याओं; जैसे-भुखमरी, बेकारी, महँगाई, दहेज-प्रथा आदि के सुलझाने में भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँगी।

पाश्चात्य प्रभाव एवं जीवन-शैली में परिवर्तन–किन्तु वर्तमान में एक चिन्ताजनक प्रवृत्ति भी नारियों में बढ़ती दीख पड़ती है, जो पश्चिम की भौतिकवादी सभ्यता का प्रभाव है। अंग्रेजी शिक्षा के परिणामस्वरूप अधिक शिक्षित नारियाँ तेजी से भोगवाद की ओर अग्रसर हो रही हैं। वे फैशन और आडम्बर को ही जीवन का सार समझकर सादगी से विमुख होती जा रही हैं और पैसा कमाने की होड़ में अनैतिकता की ओर उन्मुख हो रही हैं। यही बहुत ही कुत्सित प्रवृत्ति है, जो उन्हें पुन: मध्यकालीन-हीनावस्था में धकेल देगी। इसी बात को लक्ष्य कर कवि पन्त नारी को चेतावनी देते हुए कहते हैं-

तुम सब कुछ हो फूल, लहर, विहगी, तितली, मार्जारी,
आधुनिके ! कुछ नहीं अगर हो, तो केवल तुम नारी ।

प्रसिद्ध लेखिका श्रीमती प्रेमकुमारी’ दिवाकर’ को कथन है कि, “आधुनिक नारी ने नि:सन्देह बहुत कुछ प्राप्त किया है, पर सब-कुछ पाकर भी उसके भीतर का परम्परा से चला आया हुआ कुसंस्कार नहीं बदल रहा है। वह चाहती है कि रंगीनियों से सज जाए और पुरुष उसे रंगीन खिलौना समझकर उससे खेले। वह अभी भी अपने-आपको रंग-बिरंगी तितली बनाये रखना चाहती है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि जब तक उसकी यह आन्तरिक दुर्बलता दूर नहीं होगी, तब तक उसके मानस का नव-संस्कार न होगा। जब तक उसका भीतरी व्यक्तित्व न बदलेगा तब तक नारीत्व की पराधीनता एवं दासता के विष-वृक्ष की जड़ पर कुठाराघात न हो सकेगा।”

उपसंहार-नारी, नारी ही बनी रहकर सबकी श्रद्धा और सहयोग अर्जित कर सकती है, तितली बनकर वह स्वयं तो डूबेगी ही और समाज को भी डुबाएगी। भारतीय नारी पाश्चात्य शिक्षा के माध्यम से आने वाली यूरोपीय संस्कृति के व्यामोह में न फंसकर यदि अपनी भारतीयता बनाये रखे तो इससे उसका और समाज दोनों का हितसाधन होगा और वह उत्तरोत्तर प्रगति करती जाएगी। वर्तमान में कुरूप सामाजिक समस्याओं; जैसे-दहेज प्रथा, शारीरिक व मानसिक हिंसा की शिकार स्त्री को अत्यन्त सजग होने की आवश्यकता है। उसे भरपूर आत्मविश्वास एवं योग्यता अर्जित करनी होगी, तभी वह सशक्त व समर्थ व्यक्तित्व की स्वामिनी हो सकेगी अन्यथा उसकी प्राकृतिक कोमल स्वरूप-संरचना तथा अज्ञानता उसे समाज के शोषण का शिकार बनने पर विवश कर देगी। नारी के इसी कल्याणमय रूप को लक्ष्य कर कविवर प्रसाद ने उसके प्रति इन शब्दों में श्रद्धा-सुमन अर्पित किये-

नारी! तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत-नभ-पग-तल में,
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में ।

भारतीय नारी की समस्याएँ

सम्बद्ध शीर्षक

  • कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ
  • आधुनिक समाज में नारी की समस्याएँ

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना : वैदिक काल में नारी,
  2. मध्यकाल में नारी,
  3. आधुनिक काल में नारी,
  4. संविधान द्वारा दिये गये अधिकार,
  5. कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ,
  6. कामकाज से इतर महिलाओं की समस्याएँ,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना : वैदिक काल में नारी—भारत में महिलाओं का स्थान कुछ वर्षों पहले तक घर-परिवार की सीमाओं तक ही सीमित माना जाता रहा है। प्राचीन भारत में नारी के पूर्ण स्वतन्त्र तथा सभी प्रकार के दबावों से पूर्ण मुक्त रहने के विवरण मिलते हैं। उस समय वे अपनी पारिवारिक स्थिति के अनुसार इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त किया करती थीं; क्योंकि तब शिक्षा प्रणाली आश्रम-व्यवस्था पर आधारित थी। इस कारण नारियाँ भी उन आश्रमों में पुरुषों के समान रहकर ही शिक्षा प्राप्त किया करती थीं। गार्गी, मैत्रेयी, अरुन्धती जैसी महिलाओं के विवरण भी मिलते हैं कि वे मन्त्र-द्रष्टा थीं। अपने पतियों के साथ आश्रमों में रहकर वहाँ की सम्पूर्ण व्यवस्था की, वहाँ रहने वाले अन्य स्त्री-पुरुष व विद्यार्थियों, यहाँ तक कि आश्रमवासी पशु-पक्षियों तक की वे देखभाल किया करती थीं। महर्षि वाल्मीकि और कण्व के आश्रमों में भी नारियों के निवास के विवरण मिलते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि वैदिक काल में नारी सुरक्षित तो होती ही थी, प्रत्येक प्रकार से स्वतन्त्र भी हुआ करती थी। फिर भी ऐसे विवरण कहीं नहीं मिलते कि घर-गृहस्थी चलाने के लिए उसे कहीं काम करके धनोपार्जन भी करना पड़ता था। गृहस्वामिनी एवं माँ के रूप में उसे पिता एवं आचार्य से भी उच्च स्थान प्राप्त था। महाभारत में उल्लेख भी है कि “गुरुणां चैव सर्वेषां माता परमं को गुरुः।”

मध्यकाल में नारी–इतिहास के अध्ययन से स्पष्ट है कि मध्यकाल में आकर नारी पूर्णरूपेण घरपरिवार की चारदीवारी में बन्द होकर रह गयी थी। यह काल नारियों के लिए अवनति का काल था। भोग-विलास की प्रवृत्ति बढ़ जाने के कारण नारी के शारीरिक पक्ष को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा। मध्यकालीन कुरीतियों में सती–प्रथा, बाल-विवाह और विधवाओं को हेय दृष्टि से देखना प्रमुख थीं । इस काल के सन्तों एवं सिद्ध कवियों ने भी नारी के प्रति अत्यन्त कटु दृष्टिकोण अपनाया-

नारी तो हम भी करी, जाना नहीं बिचार।
जब जाना तब परिहरी, नारी बड़ा बिकार ॥
नारी की झाँई परत, अंधा होत भुजंग।।
कबिरा तिन की कौन गति, जेनित नारी के संग ।। (कबीरदास)

आधुनिक काल में नारी–अंग्रेजों के आगमन के बाद, कुछ उनके और कुछ उनकी चलाई शिक्षादीक्षा के, कुछ यहाँ चलने वाले अनेक प्रकार के शैक्षणिक, सामाजिक और राजनीतिक आन्दोलनों के प्रभाव से भारतीय नारी को घर-परिवार से बाहर कदम रखने का अवसर मिला। इस काल में महान् समाज-सुधारक राजा राममोहन राय ने सती–प्रथा की समाप्ति, विधवाओं के पुनर्विवाह, स्त्री-शिक्षा आदि पर जोर दिया। महात्मा गाँधी ने अछूतोद्धार की भाँति नारी मुक्ति के लिए भी प्रयास किया। समाज-सुधारकों के सामूहिक प्रयास, देश में सामाजिक और राजनीतिक चेतना के प्रादुर्भाव, पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव तथा प्रगतिशील विचारधारा ने नारी दासता की बेड़ियों को काटा और वह मुक्ति की ओर अग्रसर हुई। आज नारी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त है। वह राजनीतिज्ञ, राजनयिक, विधिवेत्ता, न्यायाधीश, प्रशासक, कवि, चिकित्सकै आदि के रूप में समाज को अपना योगदान दे रही है।

संविधान द्वारा दिये गये अधिकार-स्वतन्त्रता मिलने के पश्चात् लागू भारतीय संविधान में (अनुच्छेद 14 और 15) पुरुषों और स्त्रियों की पूर्ण समानता की गारण्टी दी गयी तथा लैंगिक आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव न करने की बात कही गयी। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में लड़की को लड़के के समान सह-उत्तराधिकारी बना दिया गया। हिन्दू विवाह अधिनियम, 1956 ने विशेष आधारों पर विवाह के सम्बन्ध को समाप्त करने की अनुमति दी। दहेज को अवैध घोषित किया गया तथा इसके लिए सजा की व्यवस्था की गयी। दहेज की विकरालता को देखते हुए सन् 1961 में एक दहेज विरोधी कानून बनाया गया।

बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में नारी ने लगभग प्रत्येक आन्दोलन में पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर योगदान दिया है तथा समाज की प्रत्येक समस्या के विरुद्ध अपनी आवाज उठायी है। शोषण की घटनाओं के विरुद्ध तो उसने शक्तिशाली प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की हैं। यह इस बात का संकेत है कि महिलाओं में पर्याप्त जागरूकता आयी है। नारियों को विभिन्न स्तरों पर आरक्षण देने की बातें हो रही हैं, परन्तु संविधान में यह व्यवस्था अभी तक नहीं की जा सकी है।

कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ-अभाव और महँगाई से दो-चार होने के लिए महिलाओं को कुछ मात्रा में स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पहले और अधिकतर स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद कई तरह के काम-काज का भी सहारा लेना पड़ा। पुरुषों एवं महिलाओं का एक वर्ग यह समझता है कि कामकाजी नारी की समस्त समस्याएँ समाप्त हो जाती हैं। नौकरी मिलते ही नारी नारीत्व के अभिशापों से मुक्त हो जाती है, परन्तु वस्तुस्थिति सर्वथा भिन्न है, यथा–

(1) नारी कामकाजी महिला बनने का निर्णय लेने में स्वतन्त्र नहीं होती है। विवाह के पहले माता-पिता और बाद में ससुरालीजनों की इच्छा पर निर्भर रहता है कि वह कामकाजी बनी रहे अथवा नहीं।

(2) कामकाजी होने पर भी महिला आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र नहीं बन पाती है। उसको अपनी कमाई का हिसाब घरवालों को देना पड़ता है। प्रायः यह भी देखने में आता है कि ससुराल वाले विवाह के पूर्व की जाने वाली उसकी कमाई का भी हिसाब माँगते हैं।

(3) दोहरी जिम्मेदारी-कामकाजी महिलाओं को नौकरी से लौटकर घरेलू कार्य करने पड़ते हैं। अत: एक अतिरिक्त जिम्मेदारी सँभालकर भी कामकाजी महिलाएँ अपनी पूर्व जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो पायी हैं।।

(4) बच्चों की परवरिश-कामकाजी महिलाओं के पास बच्चों को देने के लिए समय का अभाव होता है। फलतः उनके बच्चे संस्कारित नहीं हो पाते और उनका भविष्य बिगड़ जाने की सम्भावना रहती है।

(5) समाज में बदनामी-आधुनिक युग में भी स्त्रियों का नौकरी करना उचित नहीं माना जाता। बहू को नौकरी नहीं करने देने के लिए सास-ससुर, देवर-ज्येष्ठ और पति तक भी तनकर खड़े हो जाते हैं।

(6) परिजनों का शक-नौकरी-पेशा करने वाली महिलाएँ चरित्र के प्रति सन्देह की समस्या से कभी नहीं उबर पाती हैं। कार्यालय में किसी भी कारण से थोड़ी भी देर हो जाए तो परिजनों, विशेषकर पति की शक की निगाहें उसे अन्दर तक बेध डालती हैं। यह समस्या उस वक्त और भी बढ़ जाती है, जब महिला कोई स्टेनो या सेक्रेटरी हो।

(7) यौन शुचिता–आज भी स्त्री की सबसे बड़ी समस्या उसकी यौन शुचिता है। ऑफिस में किसी भी मुस्कराहट या स्पर्श से भी वह दूषित हो जाती है। यौन शुचिता का यह परिवेश नारी को खुलकर कार्य करने से रोकता है तथा उसकी प्रतिभा को कुण्ठित करता है।

(8) यौन-शोषण-सरकारी कार्यालयों में कार्य करने वाली महिलाएँ पूर्ण तो नहीं, किन्तु अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं। सरकारी कार्यालयों में कार्यरत महिलाओं के भी यौन-शोषण होते हैं, किन्तु निजी संस्थानों में अथवा मजदूरी करने वाली महिलाओं की दशा तो अत्यधिक दारुण है।

(9) वरीयता का मापदण्ड योग्यता नहीं–प्राइवेट संस्थानों के रोजगार विज्ञापनों में स्मार्ट, सुन्दर व आधुनिक महिलाओं की वरीयता यह प्रश्न खड़ा करती है कि कार्यक्षमता के आधार पर आगे बढ़ने वाले निजी संस्थानों का काम क्या स्मार्ट, सुन्दर व आधुनिक महिलाएँ ही सँभाल सकती हैं ? योग्यता कोई मापदण्ड नहीं? यह भी एक बीमार मानसिकता की परिचायक है।

(10) परिधान-कामकाजी महिलाओं के लिए परिधान (ड्रेस) बहुत बड़ी समस्या रहती है। वह जरा-सी भी सज-सँवर करके चले तो उस पर फब्तियाँ कसी जाती हैं, उसको तितली अथवा फैशन परेड की नारी कहा जाता है।

(11) पुरुषों की अपेक्षा सौतेला व्यवहार-महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा कम वेतन दिया जाता है। तथा पुरुषों की तुलना में इनके साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है। पहले विमान परिचारिकाओं के गर्भवती होते ही उन्हें सेवा-मुक्त कर दिया जाता था। लम्बे संघर्ष के उपरान्त अब विमान परिचारिकाओं ने माँ बनने का अधिकार पाया है।

(12) बाहरी दौरे-कार्य के लिए अपने गृह जिले के बाहर जाना भी कामकाजी महिलाओं की एक प्रमुख समस्या है। घर की जिम्मेदारी, शील व गरिमा की चिन्ता, पति व बच्चों से आत्मीयता आदि उसे दौरे पर जाने से रोक देते हैं।

(13) रात्रि ड्यूटी-कामकाजी महिलाओं के लिए रात्रि ड्यूटी करना बहुत कठिन होता है। लोगों की शक की निगाहें मुसीबत कर देती हैं। अस्पतालों में रात्रि की पारी में काम करने वाली नर्से, बड़े होटलों में काम करने वाली महिलाएँ अपनी ड्यूटी सुरक्षित निकालकर सुकून का अनुभव करती हैं।

(14) नारी की नौकरी यदि पति की अपेक्षा श्रेष्ठ होती है तो उसको पति की हीन भावना का भी शिकार होना पड़ता है।

(15) नौकरी करते हुए पति-पत्नी एक ही स्थान पर कार्यरत रहें, तब तो कुछ ठीक है, अन्यथा उनका दाम्पत्य तथा गृहस्थ जीवन समाप्त हो जाते हैं, वैसे भी कामकाजी महिलाओं की गृहस्थी अव्यवस्थित तो हो ही जाती है।

(16) कुछ कामकाजी महिलाओं के लिए तो नौकरी अभिशाप बन जाती है। ऐसा प्रायः उन महिलाओं के साथ होता है, जिनके पतियों की आमदनी कम होती है, अथवा पति शराबी व कुमार्गी होते हैं। ऐसे पति अपनी पत्नी की आमदनी को भी उड़ाने के लिए पत्नी को भाँति-भाँति से उत्पीड़ित एवं प्रताड़ित करते हैं।

कामकाज से इतर महिलाओं की समस्याएँ-सुधारों की गर्जना तथा संवैधानिक प्रयास नारी की मौलिक समस्याओं को सुलझा नहीं सके हैं। संविधान ने नारी को मताधिकार एवं सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार प्राप्त करने का अधिकार दे दिया है, परन्तु समाज की दृष्टि में नारी को आज भी पुरुष की अंकशायिनी और दासी ही माना जाता है। हम आज भी अनेकानेक नारियों के उत्पीड़न, आत्मदाह तथा उनकी हत्या के समाचार सुनते रहते हैं। इनमें नौकरी करने वाली यानी कामकाजी महिलाएँ भी सम्मिलित हैं। आज भी दहेज का दानव नारी के जीवन को त्रस्त किये हुए है। विधवा-विवाह के नाम पर आज भी लोग नाक-भौंह सिकोड़ते हैं। नारी की उन्नति के नाम पर हम कितनी भी बातें करें, परन्तु नारी आज भी उपेक्षित है। वह घर-परिवार में एक सामान्य नारी से अधिक कुछ नहीं है। आज भी गर्भ में बच्ची (लड़की) को मार दिया जाता है तथा प्रसूति के समय दूषित प्रकृति का शिकार होना पड़ता है। अपनी रक्षा के लिए मुस्तैद नारी पर लोग तरह-तरह की फब्तियाँ कसते हैं।

उपसंहार-महिला हो या पुरुष, काम करना किसी के लिए भी अनुचित या बुरा नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि समाज की मानसिकता, घर-परिवार और समूचे जीवन की परिस्थितियाँ ऐसी बनायी जाएँ, ऐसे उचित वातावरण का निर्माण किया जाए कि कामकाजी महिला भी पुरुष के समान व्यवहार और व्यवस्था पा सके। नारियों की समस्याओं के निराकरण के लिए फैमिली कोर्ट बनाये जाने चाहिए और उनके प्रति किये जाने वाले आपराधिक मामलों में तकनीकी नहीं, व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। दहेज, बलात्कार, अपहरण आज की नारी के सामने बहुत बड़ी चुनौतियाँ हैं। नारियों के समर्थन में किये जाने वाले हमारे आन्दोलन पश्चिम के अन्धानुकरण को लेकर नहीं होने चाहिए। उनको भारतीय गृहिणी के आदर्शों के अनुरूप ढालने का प्रयास करना चाहिए। पाश्चात्य चिन्तन के अन्धानुकरण से इस देश की नारियों को भी जल्दी-जल्दी तलाक, अवैध शिशु-जन्म आदि समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जब तक नारी के प्रति समाज के दृष्टिकोण में बदलाव नहीं आएगा, तब तक नारी का जीवन त्रस्त ही बना रहेगा। भारतीय नारी की मुक्ति के लिए सांस्कृतिक आन्दोलन की आवश्यकता है, संविधान और कानून तो उसमें सिर्फ मुददगार हो सकते हैं।

महिला सशक्तीकरण (2017)

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. सशक्तीकरण का अर्थ,
  3. महिला सशक्तीकरण अभियान,
  4. महिला सशक्तीकरण अभियान के उद्देश्य- (क) महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा को समाप्त करना, (ख) लिंगानुपात को सन्तुलित करना, (ग) लिंग-आधारित आर्थिक असमानता को समाप्त करना, (घ) बाल-विवाह पर रोक लगाना, (ङ) लड़कियों को शिक्षित करना, (च) सीमान्त तथा शोषित महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में लाना, (छ) महिलाओं की खरीद-फरोख्त पर रोक लगाना,
  5. महिलाओं की संवैधानिक स्थिति,
  6. महिला सशक्तीकरण अधिनियम,
  7. महिला सशक्तीकरण और समाज,
  8. उपसंहार।

प्रस्तावना-भारतीय समाज में नारियों को शक्तिस्वरूपा मानते हुए उनकी पूजा होती रही है। प्राचीन भारत के इतिहास के पृष्ठ भारतीय नारियों की गौरवगाथा से भरे हुए हैं।‘मनुस्मृति’ में कहा गया है

“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र देवताः

अर्थात् जहाँ नारी की पूजा की जाती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। भारतीय समाज में नारियों की दशा और दिशा में काल परिवर्तन के साथ परिवर्तन होता रहा है। किसी युग में नारी को पूजा गया तो किसी युग में उसके अपमान, उत्पीड़न और अत्याचार की सीमाएँ पार कर दी गईं। महिलाएँ समाज में अनेक कुरीतियों एवं कुप्रथाओं का भी शिकार होती रहती हैं। भारतीय समाज का ताना-बाना ऐसा है, जिसमें अधिकांश महिलाएँ पिता, पति या पुत्र पर ही आर्थिक रूप से निर्भर होती हैं। निर्णय लेने का अधिकार भी पुरुषों का ही होता है। उनके इन अधिकारों की रक्षा के लिए ही महिला सशक्तीकरण की अवधारणा का जन्म हुआ, जिससे महिलाएं अपने जीवन से जुड़ी प्रत्येक निर्णय स्वयं ले सकें और परिवार तथा समाज में अच्छी प्रकार रह सकें। महिलाओं के वास्तविक अधिकारों के विषय में जानकारी देकर उन्हें सक्षम बनाना ही महिला सशक्तीकरण है। पं० जवाहरलाल नेहरू ने भी महिलाओं की स्थिति को सशक्त बनाने के उद्देश्य से कहा था- “लोगों को जगाने के लिए महिलाओं का जाग्रत होना जरूरी है। एक बार जब वो अपना कदम उठा लेती है, परिवार आगे बढ़ता है, गाँव आगे बढ़ता है और राष्ट्र विकास की ओर उन्मुख होता है।”

सशक्तीकरण का अर्थ–सशक्तीकरण अर्थ है-शक्तिशाली बनाना। वर्तमान में महिला सशक्तीकरण को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक असमानताओं से पैदा हुई समस्याओं के सन्दर्भ में देखा जा रहा है। इसमें जागरूकता, अधिकारों को जानने, सहभागिता और निर्णय लेने के अधिकार जैसे घटक को सम्मिलित किया गया है। लीला मीहेनडल के अनुसार-“निडरता, सम्मान और जागरूकता तीनों शब्द महिला सशक्तीकरण में सहायक हैं।

महिला सशक्तीकरण अभियान–सरकार द्वारा महिलाओं को विकास की मुख्यधारा में लाने के लिए सन् 2001 ई० में महिला सशक्तीकरण की राष्ट्रीय नीति लागू की गई। इसके अन्तर्गत सरकारी नीति तथा कल्याणकारी योजनाओं में महिलाओं के विधिक अधिकारों को सशक्त करने तथा स्वास्थ्य सुविधाओं को दृढ़ बनाने के उद्देश्य को ध्यान में रखा गया है। महिलाओं के उत्थान हेतु किए जा रहे शासकीय प्रयासों में कुछ सामाजिक और संस्थानात्मक अवरोध सामने आए हैं। इन अवरोधों का उन्मूलनकर महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक सशक्तीकरण के उद्देश्य से 8 मार्च, 2010 ई० को राष्ट्रीय महिला सशक्तीकरण अभियान नामक कार्यक्रम आरम्भ किया गया। भारत में सभी राज्यों एवं सभी केन्द्रशासित प्रदेशों में महिला सशक्तीकरण कार्यक्रम को लागू कर दिया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य महिला विकास से सम्बन्धित कार्यक्रमों को निचले स्तर तक पहुँचाना है।

महिला सशक्तीकरण अभियान के उद्देश्य-महिला सशक्तीकरण अभियान के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
(क) महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा को समाप्त करना-महिलाओं को सुरक्षा और स्वायत्तता प्रदान करने की दिशा में अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं। महिलाओं के प्रति हिंसा के अन्तर्गत अनेक प्रकार की प्रताड़नाएँ आती हैं; जैसे-मानसिक, शारीरिक और यौन उत्पीड़न एवं दहेज-सम्बन्धी प्रताड़ना आदि। महिला सशक्तीकरण का दृष्टिकोण यह है कि महिलाएँ इन उत्पीड़नरूपी हिंसा व भेदभाव से मुक्त होकर सम्मान के साथ जीवन व्यतीत कर सकें।

(ख) लिंगानुपात को सन्तुलित करना—लैंगिक असमानता भारत का प्रमुख सामाजिक मुद्दा है, जिसमें महिलाएँ निरन्तर पिछड़ती जा रही हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 1000 पुरुषों पर 943 महिलाएँ हैं। इस असमानता को समाप्त करने के लिए महिला सशक्तीकरण में तेजी लाने की आवश्यकता है।

(ग) लिंग-आधारित आर्थिक असमानता को समाप्त करना-महिलाएँ किसी प्रकार भी पुरुषों से कम नहीं हैं। यदि वे वही कार्य करती हैं जो पुरुष करते हैं तो उन्हें पुरुषों के समान ही पारिश्रमिक मिलना चाहिए, जबकि समाज में ऐसा नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 में समान काम, समान वेतन’ की व्यवस्था की गयी है। महिला सशक्तीकरण में इस आर्थिक असमानता को समाप्त करने के प्रयास किए जा रहे हैं।

(घ) बाल-विवाह पर रोक लगाना-राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि के अथक प्रयासों द्वारा बाल-विवाह निरोधक अधिनियम (1955) बना, परन्तु आज भी कई पिछड़े क्षेत्रों में माता-पिता की अशिक्षा, असुरक्षा और गरीबी के कारण बाल-विवाह का प्रचलन है। इस विवाह से अवयस्क माता और शिशु के व्यक्तित्व और स्वास्थ्य में गिरावट आती है। महिला सशक्तीकरण द्वारा इस पर रोक लगाई जा रही है।

(ङ) लडकियों को शिक्षित करना--शिक्षा अज्ञानतारूपी अंधकार को दूर करके विकास और उन्नति के मार्ग खोलती है। भारतीय समाज में लड़की को पराया धन मानकर उसी शिक्षा एवं अन्य सुख-सुविधाओं की उपेक्षा की जाती है, परन्तु आज महिला सशक्तीकरण आन्दोलन के कारण इस दिशा में भी परिवर्तन हो रहा है। आज लड़कियों के स्कूल में पंजीकरण एवं उनकी उपस्थिति में तेजी से वृद्धि हुई है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के अनुसार-“महिलाओं की शिक्षा व्यवस्था, स्वतन्त्र आय तथा सामाजिक परिस्थिति में सुधार ने परिवार में उनकी निर्णय क्षमता को बढ़ाया है और महिलाओं के समावेशन (सशक्तीकरण) के मार्ग को प्रशस्त किया है।”

(च) सीमान्त तथा शोषित महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में लाना–महिला सशक्तीकरण अभियान के अन्तर्गत सीमान्त महिलाओं (वेश्याओं) को वेश्यालयों से रिहा कराना, यौन शोषित एवं एड्स से पीड़ित, विधवाओं, बेसहाराओं, आतंकवाद की शिकार तथा विक्षिप्त महिलाओं के लिए स्वास्थ्य, देखभाल, परामर्श, रोजगारपरक प्रशिक्षण, जागरूकता, पुनर्वास आदि की सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं और उन्हें देश की मुख्य धारा में जोड़ने को साहसपूर्ण एवं सराहनीय कदम उठाया जाता है। इस प्रयास से अनेक महिलाओं का जीवन सुधारा जा सका है।

(छ) महिलाओं की खरीद-फरोख्त पर रोक लगाना–स्वार्थी तत्त्वों द्वारा महिलाओं की खरीद-फरोख्त के अवैध व्यपार को रोकने के लिए अनेक योजनाएँ बनाई जा रही हैं। उज्ज्वला योजना के अन्तर्गत महिलाओं के अवैध व्यापार को रोकने से लेकर उनकी रिहाई, पुनर्वास, पुन:एकीकरण और पुनस्र्थापन का प्रयास किया जा रहा है। इस दिशा में अनेक एन०जी०ओ० तथा हेल्पलाइनें महिला उन्नयन का कार्य कर रही हैं।

महिलाओं की संवैधानिक स्थिति-भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16, 19, 21, 23, 24, 37, 39 (बी), 44 तथा अनुच्छेद 325 के अनुसार स्त्रियों को भी पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हैं। संविधान की दृष्टि में स्त्री-पुरुष में कोई भेद नहीं किया गया है। समाज में जो भेद दृष्टिगोचर होते हैं, वह सब अशिक्षा, संकीर्णता और स्वार्थलिप्सा आदि के कारण ही समाज में विद्यमान हैं।

महिला सशक्तीकरण अधिनियम–संवैधानिक अधिकारों के साथ-साथ महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए संसद द्वारा कुछ अधिनियम पास किए गए हैं; जैसे–एक बराबर पारिश्रमिक ऐक्ट, दहेज रोक अधिनियम, अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम, मेडिकल टर्मनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी ऐक्ट, बाल-विवाह रोकथाम ऐक्ट, लिंग परीक्षण तकनीक (लड़का-लड़की जाँच पर रोक) ऐक्ट, कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन-शौषण रोकने तथा उन्हें सुरक्षा देने सम्बन्धी ऐक्ट आदि। इन अधिनियमों का सही उपयोग कर महिलाएँ अपना शोषण रोकने में समर्थ हो रही हैं।

महिला सुरक्षा के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 1090 शक्ति-योजना का शुभारम्भ किया गया है। यह महिलाओं की सुरक्षा हेतु एक बहुआयामी योजना है। इसके अन्तर्गत मोबाइल द्वारा मात्र एक बटन दबाते ही पुलिस नियन्त्रण कक्ष को सूचना मिल जाती है और संकटग्रस्त महिला की स्थिीत (स्थान की पहचान) की सही जानकारी पुलिस को हो जाती है, जिससे पुलिस उस महिला की तुरन्त सहायता करती है।

महिला सशक्तीकरण और समाज-भूमण्डलीकरण के इस दौर में स्त्री-पुरुष समानता की दुहाई के साथ-साथ अनेक संगठन, स्वयंसेवी संस्थाएँ, हेल्पलाइनें महिलाओं के सशक्तीकरण और उत्थान में जुटे हुए हैं; फिर भी समाज में महिलाओं की स्थिति में पर्याप्त सुधार नहीं आया है। इसका मुख्य कारण यह है कि स्वयं महिलाओं में आज भी अन्धविश्वास एवं रूढ़िवादिता की प्रवृत्ति कूट-कूटकर भरी है। निरक्षर अथवा अल्पशिक्षित महिलाओं की तो बात ही छोड़िए, सैकड़ों पढ़ी-लिखी महिलाएँ भी पुत्र-रत्न की प्राप्ति के लिए तन्त्र-मन, झाड़-फेंक और ढोंगी बाबाओं के जाल में फंसी हैं। रोजगार के क्षेत्र में भी पर्याप्त सुधार नहीं हो पाया है। उच्च पदों पर महिलाओं की नियुक्ति अभी 2 या 3 प्रतिशत ही है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रत्येक वर्ष एक करोड़ पच्चीस लाख लड़कियाँ जन्म लेती हैं, लेकिन तीस प्रतिशत लड़कियाँ 15 वर्ष से पूर्व ही मृत्यु का शिकार हो जाती हैं। राजनीति में भी महिलाओं का प्रवेश हो गया है, संसद में उनकी संख्या भी बढ़ी है। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, राष्ट्रपति, न्यायाधीश जैसे उच्च पदों को महिलाओं ने सुशोभित किया है। खेलों, फिल्मों, लेखन, पत्रकारिता तथा सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में भी महिलाओं ने नये कीर्तिमान स्थापित किए हैं, परन्तु अभी भी समाज में नारी को वह स्थान नहीं मिल पाया है, जिसकी वह अधिकारी है।

उपसंहार-अन्त में कहा जा सकता है कि महिलाओं को सशक्त करने के लिए कोई ईश्वर या मसीहा अवतरित नहीं होगा और न ही समाज द्वारा नारीवाद की परिभाषा गढ़ने से कोई बात बनेगी। यह तभी सम्भव होग जब महिलाएं अपने अधिकारों के लिए स्वयं आगे आएँ, अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करें। सरकारें भी केवल महिला अधिकारों और कानूनों की संख्या में वृद्धि न करें, बल्कि व्यावहारिकता को ध्यान में रखते हुए ऐसे अधिकार और कानून बनाएँ, जिससे वास्तविक सशक्तीकरण की अवधारणा को साकार किया जा सके।

नारी स्वातंत्र्य : उच्छंखलता या प्रगतिशीलता

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. राष्ट्र की प्रगति में नारी की भूमिका,
  3. नारी स्वातंत्र्य के विरुद्ध घृणित षड्यंत्र,
  4. स्वतन्त्रता का दुरुपयोग,
  5. नारी के बढ़ते कदम,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-आज की नारी स्वतंत्र है। सत्ता की कुर्सी हो अथवा खेल का मैदान, वैज्ञानिक अनुसंधानों की प्रयोगशाला हो या कला-साहित्य का संसार, आज नारी के लिए प्रत्येक क्षेत्र का द्वार पूर्ण रूप से खुला है। भारत में उपनिवेशवादरूपी राक्षस से लड़ने के लिए उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही नारी की दशा में सुधार के प्रयास आरम्भ हो गए थे। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् तो संवैधानिक रूप से भी उन्हें स्वावलम्बी तथा सर्वाधिकारसम्पन्न बना दिया गया। समय-समय पर विभिन्न प्रकार के कानून बनाकर भी उनके स्वातंत्र्य तथा हितों की रक्षा की गई है। विश्व के कई अन्य राष्ट्रों में भी आज नारी को समुचित स्थान प्राप्त है। वस्तुतः ‘स्वतन्त्र और सबल प्रस्थितिवाली नारी’ ही 21वीं सदी को 20वीं सदी की सबसे बड़ी देन है।

किन्तु पिछले कुछ समय से यह विवाद का विषय बन गया है कि नारी स्वातंत्र्य प्रगतिशीलता का पोषक है अथवा उच्छंखलता का। हमारे समक्ष कई उदाहरण हैं कि महिलाओं ने अपनी स्वतन्त्रता का सदुपयोग कर विश्व के सामने विकास को ऊँचा कीर्तिमान प्रस्तुत किया। इसके विपरीत कई ऐसे प्रमाण भी हैं। कि स्त्रियों ने अपने स्वातंत्र्य अधिकारों का दुरुपयोग कर समाज में उच्छृखलता और संस्कारहीनता को बढ़ावा दिया। जहाँ एक ओर संतोष यादव, अरुणिमा सिन्हा और कल्पना चावला जैसी नारियों ने प्रगति की ऊँचाइयों को छुआ है, वहीं दूसरी ओर कुछ युवतियों ने मॉडलिंग के बहाने अपनी देह प्रदर्शन जैसे घृणित कार्य कर समाज के संस्कार को गर्त में गिराया है। वास्तव में नारी स्वातंत्र्य पर चल रहा यह विवाद गम्भीर रूप से विचारात्मक तथा विश्लेषणात्मक है।

राष्ट्र की प्रगति में नारी की भूमिका–इतिहास साक्षी है कि जब-जब समाज या राष्ट्र ने नारी को अवसर तथा अधिकार दिया है, तब-तब नारी ने विश्व के समक्ष श्रेष्ठ उदाहरण ही प्रस्तुत किया है। मैत्रेयी, गार्गी, आंडाल, विश्वपारा, केशा आदि विदुषी स्त्रियाँ शिक्षा के क्षेत्र में अपने बहुमूल्य योगदान के लिए आज भी पूजनीय हैं। आधुनिक काल में महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, महाश्वेता देवी, अमृता प्रीतम, अरुन्धती राय आदि स्त्रियों ने साहित्य तथा राष्ट्र की प्रगति में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। चेनम्मा, रानी दुर्गावती, माँ जीजाबाई, देवी अहिल्याबाई, रजिया सुल्तान, लक्ष्मीबाई, शिरिमाओ भण्डारनायके, इन्दिरा गांधी, आंग सान सू की और एंजेला मार्केल आदि स्त्रियाँ प्रगति के मार्ग पर संघर्ष और सुनेतृत्व की स्पष्ट मूर्तियों के रूप में स्थापित हुईं। कला के क्षेत्र में एम०एस० सुब्बुलक्ष्मी, लता मंगेशकर, देविका रानी, वैजन्तीमाला, सुधा चन्द्रन, सोनाल मानसिंह, मीरा नायर, सरोज खान और फराह खान आदि स्त्रियों का योगदान वास्तव में प्रशंसनीय है। इनके अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों; जैसे—चिकित्सा, अभियान्त्रिकी, बैंकिंग, प्रशासन आदि में भी स्त्रियाँ अपनी सक्रिय तथा विकासोन्मुखी भूमिका निभा रही हैं। इनमें से किसी ने भी उच्छृखलता का मार्ग नहीं अपनाया।

नारी स्वातंत्र्य के विरुद्ध घृणित षड्यंत्र–इन प्रगतिशील तथा उत्तरदायित्वपूर्ण भूमिकाओं के बावजूद नारियों पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे अपनी स्वतन्त्रता का गलत फायदा उठा रही हैं तथा समाज में अनुशासनहीनता फैला रही हैं, ऐसे आरोप कुछ तो सत्य होते हैं, किन्तु कुछ पूर्वाग्रह और दुराग्रह से ग्रसित। आज के युग में मध्यमवर्गीय परिवारों में कामकाजी महिलाओं का प्रचलन बढ़ गया है। ऐसी कामकाजी महिलाओं को अपने कार्यालय तथा घर में सामंजस्य बनाए रखना पड़ता है। कार्यालयों में स्त्रियों को लिंग-भेद के पक्षपातपूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ता है। उच्चस्थ अधिकारी तथा साथी कर्मचारी उनके कार्य के नहीं, बल्कि सौन्दर्य के प्रशंसक होते हैं। असभ्य और असम्मानजनक टिप्पणियों का सामना करना आज महिलाओं के लिए दिनचर्या का अभिन्न अंग-सा बन गया है।

यदि स्त्रियाँ इस प्रकार की असभ्यता का विरोध करती हैं तो उन्हें विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित किया जाता है-यहाँ तक कि उन्हें सेवा से निष्कासन तक की धमकी दी जाती है और यदि वे अपने उच्चस्थ अधिकारियों को प्रसन्न रखने का प्रयास करती हैं तो उन्हें पुंश्चली (वेश्या) और उच्छंखल की संज्ञा मिल जाती है। वस्तुत: नारी की ऐसी उच्छृखंलता के पीछे पुरुष की ही घृणित मंशा छिपी होती है। बाहर की इन परिस्थितियों से जूझते हुए महिलाएँ जब घर लौटती हैं तो घर के सभी काम उन्हें ही करने पड़ते हैं। इस घोर थकावट के बावजूद उनसे आशा की जाती है। कि वे सदा मुस्कराती रहें। ऐसे में यदि कभी उनके चेहरे पर तनाव या चिन्ता की कोई रेखा पड़ जाती है, तो उन्हें असभ्य और उच्छृखल घोषित कर दिया जाता है। वस्तुत: पुरुष का दम्भ यह स्वीकार ही नहीं कर पा रहा कि जो नारी कल तक उसकी दासी-स्वरूपा थी, वह आज उसकी सहचरी बन गई है। इसलिए नारी-स्वतंत्रता के विरुद्ध घृणित षड्यंत्र रचे जा रहे हैं।

स्वतंत्रता का दुरुपयोग-कई ऐसे प्रमाण भी हैं कि स्त्रियों ने अपनी स्वतंत्रता का गलत उपयोग कर उच्छंखलता का ही परिचय दिया है। ‘रानी मेरी’ की उच्छंखलता (क्रूरता) ने ही उन्हें इतिहास में ‘खूनी मेरी के नाम से कुख्यात किया। इन्दिरा गांधी द्वारा अधिरोपित दो वर्षों का आपातकाल आज तक उनके सफल व्यक्तित्व एवं स्वर्णिम शासनकाल पर बदनुमा दाग है। आज फिल्मोद्योग की कई अभिनेत्रियाँ सोचती हैं कि अंग-प्रदर्शन द्वारा वे दर्शकों के बीच अधिक लोकप्रिय हो सकती हैं और इसलिए वे सामाजिक एवं सांस्कृतिक मर्यादा को लाँघकर अंग-प्रदर्शन करती हैं। मॉडलिंग के क्षेत्र में तो स्थिति और भी बदतर है। फिल्म तथा मॉडलिंग से सम्बन्धित अधिकतर कार्यक्रमों एवं पत्रिकाओं में इस तरह की उच्छंखलता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। नारियों में ऐसी उच्छृखलता सामान्य घरों में भी पाई जाती है। मध्यमवर्गीय परिवारों की लड़कियाँ ऊँचे सपने देखती हैं और उन्हें साकार करने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती हैं। कुछ वर्ष पहले मुम्बई की व्यस्त सड़क पर मात्र पन्द्रह सौ रुपये तथा थोड़ी-सी लोकप्रियता के लिए दो लड़कियों ने बिना किसी झिझक के अपने कपड़े उतार दिए। यह घटना वास्तव में नारी-स्वतंत्रता पर उपादेयता का एक बड़ा प्रश्नचिह्न है और उच्छृखलता की पराकाष्ठा भी।

स्त्रियों द्वारा अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग वास्तव में दु:खद है। यह पुरुष-प्रधान समाज सदा से ही नारी-स्वतंत्रता का विरोधी रहा है। ऐसे में महिलाओं द्वारा अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग तथा उच्छृखलता का। प्रदर्शन पुरुषों को उनके विरुद्ध षड्यन्त्र रचने के अवसर प्रदान करते हैं। महिलाओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वतंत्रता का दुरुपयोग उन्हें नष्ट कर देगी। ऊंचे सपने देखना कदापि गलत नहीं है, किन्तु उन्हें साकार करने के लिए निम्नस्तरीय व्यवहार सदा ही गलत है। ‘नारी’ ही सम्पूर्ण विश्व की जननी है। विश्व की संस्कृति, प्रगति आदि सब उसी के गर्भ से उत्पन्न होती हैं। अत: आज नारी को विश्व के समक्ष ऐसा प्रतिमान स्थापित करना है कि उसकी अनिवार्यता और अपरिहार्यता को समग्र रूप से स्वीकार किया जा सके।

नारी के बढ़ते कदम-स्वतंत्रता का सदुपयोग तथा दुरुपयोग व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक प्रयोग है। कुछ लोग अपनी स्वतंत्रता को अपना अधिकार समझते हैं और इसका प्रयोग स्वार्थ-सिद्धि तथा निजी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु करते हैं और कुछ लोग अपनी स्वतंत्रता को अपना उत्तरदायित्व मानते हैं और इसका निर्वहन अपने समाज तथा राष्ट्र के विकास के लिए करते हैं। महिलाओं में भी ये दो श्रेणियाँ पाई जाती हैं, किन्तु अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने वाली महिलाओं की संख्या अपेक्षाकृत अत्यन्त कम है। महिलाओं ने अपनी कर्तव्यनिष्ठा से यह सिद्ध किया है कि वे किसी भी स्तर पर पुरुषों से कम नहीं हैं, बल्कि उन्होंने तो प्रगति के मार्ग पर अपनी श्रेष्ठता ही प्रदर्शित की है।

शारीरिक एवं मानसिक कोमलता के कारण पहले महिलाओं को रक्षा-सम्बन्धी सेवाओं के उपयुक्त नहीं माना जाता था, किन्तु भारत की पहली महिला भारतीय आरक्षी सेवा अधिकारी श्रीमती किरण बेदी ने ही अपनी कर्तव्यनिष्ठा से इस मिथक को पूरी तरह तोड़ दिया। आज देश की आन्तरिक एवं बाह्य सुरक्षा में महिलाएँ समान रूप से संलग्न हैं। नारी-समुदाय पर यह आरोप लगाया जाता था कि वे पुरुषों की अपेक्षा कम बुद्धिमान होती हैं। संघ लोक सेवा आयोग की सर्वप्रतिष्ठित सिविल सेवा परीक्षा में भावना गर्ग और विजयलक्ष्मी बिदारी जैसी नारियों ने इतिहास रचकर पुरुष के इस दंभ को भी तोड़ा है। पुरुष-वर्चस्व वाले फिल्मोद्योग में सर्वप्रतिष्ठित दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की पहली विजेता देविका रानी थीं। सितम्बर, 2001 में आयोजित 58वें वेनिस फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का गोल्डन लायन पुरस्कार भारत की प्रसिद्ध फिल्म निर्मात्री मीरा नायर की फिल्म ‘मानसून वेडिंग’ को मिला। भारत के लिए सम्मान की बात यह है कि मीरा नायर यह प्रतिष्ठित पुरस्कार पाने वाली पहली महिला हैं। जुलाई, 2016 में भारतीय वायुसेना के इतिहास में पहली बार तीन महिला लड़ाकू पायलटों ( भावना कान्त, अवनी चतुर्वेदी व मोहना सिंह) को शामिल किया गया। इस प्रकार, नारी को जिस क्षेत्र में अवसर तथा स्वातंत्र्य मिला, उसने अपने उच्चश्रेणी के कर्त्तव्य से वहीं विकास का नया कीर्तिमान स्थापित कर दिया।

वस्तुत: किसी देश की अन्त:संरचना तथा प्रगति नारी-स्वातंत्र्य के समानुपाती होती है, अर्थात् जिस देश में नारी की सहभागिता जितनी अधिक है, वहाँ की अन्त:संरचना उतनी ही मजबूत तथा प्रगति-दर उतनी ही तीव्र है।

उपसंहार–भारतीय जीवन का आधार वेद एवं शास्त्र हैं। शास्त्रों में लिखी बातें ही हमारे लिए प्रामाणिक होती हैं। नारी की स्वतंत्रता को प्रगति का आवश्यक तत्त्व मानकर ही शास्त्रों में लिखा गया है-

“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”

(नारी की पूजा का अर्थ है–नारी की स्वतंत्रता और उसको प्राप्त सम्पूर्ण अधिकार देवता सम्पन्नता के सूचक हैं।) इस प्रकार शास्त्रों में भी स्पष्ट है कि जहाँ नारी स्वतंत्र है वहाँ सम्पन्नता निश्चित है। उच्छंखलता व्यक्तिगत दोष है जो किसी भी अवस्था में पाया जा सकता है, इसे स्वतंत्रता का परिणाम नहीं कहा जा सकता। दूसरी तरफ विकास स्वतंत्रता का ही परिणाममात्र है।

नारी एवं पुरुष राष्ट्र के आधार हैं। दोनों ही विकासरूपी गाड़ी के दो पहिये हैं। यदि किसी एक पहिये में किसी भी प्रकार का कोई अवरोध होगा तो गाड़ी का आगे बढ़ पाना असम्भव होगा; अतः आवश्यक है कि पहिए आगे बढ़ने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हों।

वर्तमान समाज पर दूरदर्शन का प्रभाव [2009]

सम्बद्ध शीर्षक

  • दूरदर्शन : एक वरदान अथवा अभिशाप
  • मेरे जीवन पर दूरदर्शन का प्रभाव
  • दूरदर्शन : गुण एवं दोष
  • दूरदर्शन और भारतीय समाज [2009]
  • दरदर्शन : लाभ-हानि
  • दूरदर्शन और आधुनिक जीवन
  • दूरदर्शन का शैक्षिक उपयोग [2013, 14]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. दूरदर्शन का आविष्कार,
  3. विभिन्न क्षेत्रों में योगदान.
  4. दूरदर्शन से हानियाँ,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना-विज्ञान द्वारा मनुष्य को दिया गया एक सर्वाधिक आश्चर्यजनक उपहार दूरदर्शन है। आज व्यक्ति जीवन की आपाधापी से त्रस्त है। वह दिनभर अपने काम में लगा रहता है, चाहे उसका कार्य शारीरिक हो या मानसिक। शाम को थककर चूर हो जाने पर वह अपनी थकावट और नियों से मुक्ति के लिए कुछ मनोरंजन चाहता है। दूरदर्शन मनोरंजन का सर्वोत्तम साधन है। आज यह जनसामान्य के जीवन का केन्द्रीय अंग हो चला है। दूरदर्शन पर हम केवल कलाकारों की मधुर ध्वनि को ही नहीं सुन पाते वरन् उनके हाव-भाव और कार्यकलापों को भी प्रत्यक्ष देख पाते हैं। दूरदर्शन केवल मनोरंजन का ही साधन हो, ऐसा भी नहीं है। यह जनशिक्षा का एक सशक्त माध्यम भी है। इससे जीवन के विविध क्षेत्रों में व्यक्ति का ज्ञानवर्द्धन हुआ है। दूरदर्शन के माध्यम से व्यक्ति का उन सबसे साक्षात्कार हुआ है जिन तक पहुंचना सामान्य व्यक्ति के लिए कठिन ही नहीं, वरन् असम्भव भी था। दूरदर्शन ने व्यक्ति में जनशिक्षा का प्रसार करके उसे समय के साथ चलने की चेतना दी है। यूरोपीय देशों के साथ भारत में भी दूरदर्शन इस ओर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। यह रेडियो, सिनेमा और समाचार-पत्रों से अधिक अच्छा और प्रभावी माध्यम सिद्ध हुआ है।

दूरदर्शन का आविष्कार-दूरदर्शन का आविष्कार अधिक पुराना नहीं है। 25 जनवरी, सन् 1926 ई० में इंग्लैण्ड के एक इंजीनियर जॉन बेयर्ड ने इसको रॉयल इंस्टीट्यूट के सदस्यों के सामने पहली बार प्रदर्शित किया। उसने रेडियो-तरंगों की सहायता से कठपुतली के चेहरे का चित्र बगल वाले कमरे में बैठे वैज्ञानिकों के सम्मुख दिखाकर उन्हें आश्चर्य में डाल दिया। विज्ञान के क्षेत्र में यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना थी। भारत में दूरदर्शन का पहला केन्द्र सन् 1959 ई० में नयी दिल्ली में चालू हुआ था। आज तो सारे देश में दूरदर्शन का प्रसार हो गया है और इसका प्रसारण क्षेत्र धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा है। कृत्रिम उपग्रहों ने तो दूरदर्शन के कार्यक्रमों को समस्त विश्व के लोगों के लिए और भी सुलभ बना दिया है।

विभिन्न क्षेत्रों में योगदान–दूरदर्शन अनेक दृष्टियों से हमारे लिए लाभकारी सिद्ध हो रहा है। कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में दूरदर्शन के योगदान, महत्त्व एवं उपयोगिताओं का संक्षिप्त विवरण आगे दिया जा रहा है।

(1) शिक्षा के क्षेत्र में दूरदर्शन से अनेक शैक्षिक सम्भावनाएँ हैं। वह कक्षा में प्रभावशाली ढंग से पाठ की पूर्ति कर सकता है। विविध विषयों में यह विद्यार्थी की रुचि विकसित कर सकता है। यह कक्षा में विविध घटनाओं, महान् व्यक्तियों तथा अन्य स्थानों के वातावरण को प्रस्तुत कर सकता है। दृश्य होने के कारण इसका प्रभाव दृढ़ होता है। इतिहास-प्रसिद्ध व्यक्तियों के जीवन की घटनाओं को दूरदर्शन पर प्रत्यक्ष देखकर चारित्रिक विकास होता है। देश-विदेश के अनेक स्थानों को देखकर भौगोलिक ज्ञान बढ़ता है। अनेक पर्वतों, समुद्रों और वनों के दृश्य देखने से प्राकृतिक छटा के साक्षात् दर्शन हो जाते हैं।

(2) वैज्ञानिक अनुसन्धान तथा अन्तरिक्ष के क्षेत्र में वैज्ञानिक अनुसन्धान की दृष्टि से भी दूरदर्शन का विशेष महत्त्व रहा है। चन्द्रमा, मंगल व शुक्र ग्रहों पर भेजे गये अन्तरिक्ष यानों में दूरदर्शन यन्त्रों का प्रयोग किया गया था, जिनसे उन्होंने वहाँ के बहुत सुन्दर और विश्वसनीय चित्र पृथ्वी पर भेजे। बड़े देशों द्वारा अरबों रुपयों की लागत से किये गये विभिन्न वैज्ञानिक अनुसन्धानों को प्रदर्शित करके दूरदर्शन ने विज्ञान का उच्चतर ज्ञान कराया है तथा सैद्धान्तिक वस्तुओं का स्पष्टीकरण किया है।

(3) तकनीक और चिकित्सा के क्षेत्र में-तकनीक और चिकित्सा के क्षेत्र में भी दूरदर्शन बहुत शिक्षाप्रद रहा है। दूरदर्शन ने एक सफल और प्रभावशाली प्रशिक्षक की भूमिका निभायी है। यह अधिक प्रभावशाली और रोचक विधि से मशीनी प्रशिक्षण के विभिन्न पक्ष शिक्षार्थियों को समझा सकता है। साथ ही यह लोगों को औद्योगिक एवं तकनीकी विकास के विभिन्न पहलू प्रत्यक्ष दिखाकर उनसे परिचित कराता है।

(4) कृषि के क्षेत्र में–भारत एक कृषिप्रधान देश है। यहाँ की तीन-चौथाई जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। यहाँ अधिकांश कृषक अशिक्षित हैं। वे कृषि उत्पादन में पुरानी तकनीक को ही अपनाने के कारण अपेक्षित उत्पादन नहीं कर पाते। दूरदर्शन पर कृषि-दर्शन आदि विविध कार्यक्रमों से भारतीय कृषकों में जागरूकता आयी है।।

(5) सामाजिक चेतना की दृष्टि से-सामाजिक चेतना की दृष्टि से तो दूरदर्शन निस्सन्देह उपयोगी सिद्ध हुआ है। इसने विविध कार्यक्रमों के माध्यम से समाज में व्याप्त कुप्रथाओं और अनेक बुराइयों पर कटु प्रहार किया है। लोगों को ‘छोटा परिवार सुखी परिवार की ओर आकर्षित किया है। इसने बाल-विवाह, दहेज-प्रथा, छुआछूत व साम्प्रदायिकता के विरुद्ध जनमत तैयार किया है। इसके अतिरिक्त दूरदर्शन बाल-कल्याण और नारी-जागरण में भी उपयोगी सिद्ध हुआ है। यह दर्शकों को स्वास्थ्य और स्वच्छता के नियमों, यातायात के नियमों, अल्प बचत, जीवन बीमा तथा कानून और व्यवस्था के विषय में भी शिक्षित करता है।

(6) राजनीतिक दृष्टि से दूरदर्शन राजनीतिक दृष्टि से भी जनसामान्य को शिक्षित करता है। वह प्रत्येक व्यक्ति को एक नागरिक होने के नाते उसके अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक करता है। तथा मताधिकार के प्रति रुचि जाग्रत करके उसमें राजनीतिक चेतना लाता है। आजकल दूरदर्शन पर आयकर, दीवानी और फौजदारी मामलों से सम्बन्धित जानकारी भी दी जाती है, जिनके परिणामस्वरूप व्यक्ति का इस ओर ज्ञानवर्द्धन हुआ है।

(7) स्वस्थ रुचि के विकास की दृष्टि से--कवि सम्मेलन, मुशायरों, साहित्यिक प्रतियोगिताओं का आयोजन करके, नये प्रकाशनों का परिचय देकर तथा साहित्यकारों से साक्षात्कार प्रस्तुत करके दूरदर्शन ने साहित्य के प्रति स्वस्थ रुचि का विकास किया है। इसी प्रकार बड़े-बड़े कलाकारों की कलाओं की कला को परिचय देकर कला के प्रति लोगों में जागरूकता और समझ बढ़ायी है। यही नहीं, नये उभरते हुए साहित्यकारों, कलाकारों (चित्रकार, संगीतकार, फोटोग्राफर आदि) एवं विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रहे कारीगरों के कृतित्व का परिचय देकर न केवल उनको प्रोत्साहित किया है, वरन् उनकी वस्तुओं की बिक्री के लिए व्यापक क्षेत्र भी प्रस्तुत किया है। इससे विभिन्न कलाओं को जीवित रखने और विकसित होने में महत्त्वपूर्ण योगदान मिला है।

इतना ही नहीं, दूरदर्शन अन्य अनेक दृष्टिकोणों से जनसाधारण को जागरूक और शिक्षित करता है, वह चाहे खेल का मैदान हो या व्यवसाय का क्षेत्र। दूरदर्शन खेलों के प्रति रुचि जाग्रत करके खेल और खिलाड़ी की सच्ची भावना पैदा करता है। दूरदर्शन के सीधे प्रसारण ने कुश्ती, तैराकी, बैडमिण्टन, फुटबॉल, हॉकी, क्रिकेट, शतरंज आदि को लोकप्रियता की बुलन्दियों पर पहुँचा दिया है। दूरदर्शन के इस सुदृढ़ प्रभाव को देखते हुए उद्योगपति और व्यवसायी अपने उत्पादन के प्रचार और प्रसार के लिए इसे प्रमुख माध्यम के रूप में अपना रहे हैं।

दूरदर्शन से हानियाँ-दूरदर्शन से होने वाले लाभों के साथ-साथ इससे होने वाली कुछ हानियाँ भी हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। कोमल आँखें घण्टों तक टी० वी० स्क्रीन पर केन्द्रित रहने से अपनी स्वाभाविक शोभा क्षीण कर लेती हैं। इससे निकलने वाली विशेष प्रकार की किरणों का प्रतिकूल प्रभाव नेत्रों के साथ-साथ त्वचा पर भी पड़ता है, जो कि कम दूरी से देखने पर और भी बढ़ जाता है। इसके अधिक प्रचलन के परिणामस्वरूप विशेष रूप से बच्चों एवं किशोर-किशोरियों की शारीरिक गतिविधियाँ एवं खेलकूद कम होने लगे हैं। इससे उनके शारीरिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इस पर प्रसारित होते कार्यक्रमों को देखते रहकर हम अपने अधिक आवश्यक कार्यों को या तो भूल जाते हैं या उनका करना टाल देते हैं। समय की बरबादी करने के साथ-साथ हम आलसी और कामचोर भी हो जाते हैं तथा हमें अपने आवश्यक कार्यों के लिए भी समय का प्रायः अभाव ही बना रहता है।

केबल टी०वी० पर प्रसारित होने वाले कुछ कार्यक्रमों ने तो अल्पवयस्क बुद्धि के किशोरों को वासना के तूफान में ढकेलने का कार्य किया है। इनसे न केवल हमारी युवा पीढ़ी पर विदेशी अप-संस्कृति का प्रभाव पड़ता है अपितु हमारे अबोध और नाबालिग बच्चे भी इसके दुष्प्रभाव से बच नहीं पा रहे हैं। । साथ ही विज्ञापनों के सम्मोहन ने धन के महत्त्व को धर्म और चरित्र से कहीं ऊपर कर दिया है। हानिकारक वस्तुओं को भी धड़ल्ले से बेचने का कार्य व्यापारी वर्ग लुभावने विज्ञापनों के माध्यम से खूब कर रहा है।

उपसंहार-इस प्रकार हम देखते हैं कि दूरदर्शन मनोरंजन के साथ-साथ जनशिक्षा का भी एक सशक्त माध्यम है। विभिन्न विषयों में शिक्षा के उद्देश्य के लिए इसका प्रभावशाली रूप में प्रयोग किया जा सकता है। आवश्यकता है कि इसे केवल मनोरंजन का साधन ही न समझा जाए, वरन् यह जनशिक्षा एवं प्रचार का माध्यम भी बने। इस उद्देश्य के लिए इसके विविध कार्यक्रमों में अपेक्षित सुधार होने चाहिए। इसके माध्यम से तकनीकी और व्यावहारिक शिक्षा का प्रसार किया जाना चाहिए। सरकार दूरदर्शन के महत्त्व को दृष्टिगत रखते हुए देश के विभिन्न भागों में इसके प्रसारण-केन्द्रों की स्थापना कर रही है। दूरदर्शन से होने वाली हानियों के लिए एक तन्त्र एवं दर्शन जिम्मेदार है। इसके लिए दूरदर्शन के निर्देशकों, सरकार एवं सामान्यजन को संयुक्त रूप से प्रयास करने होंगे, जिससे दूरदर्शन के कार्यक्रमों को दोषमुक्त बनाकर उन्हें वरदान के रूप में ग्रहण किया जा सके।

मानवता का आधार : परोपकार

सम्बद्ध शीर्षक

  • परहित सरिस धरम नहिं भाई [2009,15]
  • परोपकार
  • वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे (2015)
  • परोपकार का महत्त्व
  • परपीड़ा सम नहिं अधमाई

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना,
  2. परोपकार की महत्ता अर्थात् परोपकार मानवीय धर्म,
  3. प्रकृति और परोपकार,
  4. परोपकार : मानवता का परिचायक,
  5. परोपकार के विविध रूप,
  6. परोपकार : आत्म-उत्थान का मूल,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावनापरहित सरिस धरम नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई” अर्थात् दूसरे की भलाई करने से बढ़कर कोई धर्म नहीं और दूसरे को कष्ट पहुँचाने से बढ़कर कोई नीच काम नहीं। महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी की ये पंक्तियाँ धर्म की सुन्दर परिभाषा प्रस्तुत करती हैं।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, अत: समाज में एक-दूसरे का सहयोग किये बिना वह पूर्ण मानव नहीं बन सकता। कोई भी मनुष्य स्वयं में पूर्ण नहीं है, किसी-न-किसी कार्य के लिए वह दूसरे पर आश्रित रहता ही है। हम दूध-दही के लिए पशुओं पर, फल-फूल तथा अन्नादि के लिए वृक्षों पर, जल के लिए बादल एवं नदियों पर आश्रित हैं। ये सभी बिना किसी स्वार्थ के हमें यही सन्देश प्रदान करते हैं।

परोपकार की महत्ता अर्थात् परोपकार मानवीय धर्म–महर्षि दधीचि ने वृत्रासुर वध के लिए देवताओं द्वारा माँगने पर अपनी हड्डियों को प्रदान करते हुए मानवीय परोपकार का एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया था। उनकी हड्डियों से निर्मित सर्वाधिक कठोर वज्र के निर्माण से ही देवता वृत्रासुर का वध कर सके। मानव द्वारा देवों की रक्षा करने के लिए त्याग-भावना द्वारा मानव देक्ताओं से भी महान् दिखाई देने लगता है। महाराज शिवि ने भी करुणा-भावना के वशीभूत एक कबूतर की प्राण रक्षा के लिए अपने हाथों से अपने शरीर का मांस काट-काट कर कबूतर को खाने के लिए आये बाज को खिलाकर परोपकार के क्षेत्र में प्रतिमान उपस्थित किया। वास्तव में ये महान् पुरुष धन्य हैं, जिन्होंने परोपकार के लिए अपने शरीर व प्राणों की भी चिन्ता नहीं की। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने इनकी वन्दना करते हुए उचित ही कहा है

क्षुधार्त्त रन्तिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर चर्म भी दिया ।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।

इसी भावना से प्रेरित होकर हमारे हजारों क्रान्तिकारी देशभक्तों ने भी नयी पीढ़ी की स्वतन्त्रता एवं सुख-समृद्धि के लिए परोपकार भावना से अनुप्राणित होकर अपने माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री एवं परिवार की तनिक भी चिन्ता न करते हुए अपने प्राणों को हँसते-हँसते देश की बलिवेदी पर चढ़ा दिया। संसार में उन्हीं व्यक्तियों के नाम अमर होते हैं, जो दूसरों के लिए मरते और जीवित रहते हैं। सीता की रक्षा में अपने प्राणों की बाजी लगा देने वाले गिद्धराज जटायु से श्रीराम कहते हैं, “तुमने अपने सत्कर्म से ही सद्गति का अधिकार पाया है, इसका श्रेय मुझे नहीं है”

परहित बस जिनके मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नहीं ॥

प्रकृति और परोपकार-प्रकृति में परोपकार का नियम अप्रतिहत गति से कार्य करता हुआ दिखाई देता है। सूर्य बिना किसी जाति, देश, वर्ण के भेदभाव के समानता-असमानता की भावना से, बिना किसी प्रत्युपकार की भावना के, समस्त संसार को अपने प्रकाश और उष्णता से जीवन प्रदान करते हैं। वायु सभी को प्राण प्रदान कर रही है। चन्द्रमा अपनी शीतल किरणों से सभी को रस एवं शीतलता प्रदान करता है। पृथ्वी रहने को स्थान देती है। मेघ वर्षा ऋतु में आकर फसलों को हरा-भरा कर देते हैं। वृक्ष तो फूल, फल, छाल, शाखाएँ, ऑक्सीजन, जल, पत्ते, लकड़ियाँ, छाया आदि सर्वस्व प्रदान कर मानव-जीवन को आनन्दित बना देते हैं। झरने, प्रपात और नदियाँ अपने अमृतमय जल से पिपासा शान्त करती हुई, विद्युत एवं तैरने के अवसर, नौकाविहार, जलचरों को जीवन प्रदान करती हुई परोपकार की देवी ही बनी हुई है। कहा भी गया है-

बृच्छ कबहुँ नहिं फल भखें, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर ॥

अर्थात् सूर्य, चन्द्रमा, वृक्ष, वायु आदि ऐसा किसी प्रतिफल प्राप्ति की भावना से नहीं करते हैं, वे केवल अपने जन्मजात स्वभाववश ही ऐसा करते हैं। तब क्या प्रकृति की ही एक देन, मनुष्य, का यह कर्तव्य नहीं है कि वह दूसरों के हित में अपने जीवन को कुछ समय ही लगा दे।

परोपकार : मानवता का परिचायक–परोपकार ही मानव को महामानव बनाने की सामर्थ्य रखता है। परोपकार से ही हमारी स्वार्थ-भावना नष्ट होती है और हम देवता के समान कहलाने लगते हैं

सूर्य, चन्द्र, बादल, सरिता, भू, पेड़, वायु कर पर उपकार।।
बन जाते हैं देवतुल्य क्या, देवों के सचमुच अवतार ॥

परोपकारी व्यक्ति समाज में सर्वत्र सम्मान प्राप्त कर देश एवं विश्व के पूज्य बन जाते हैं। परोपकार से ही मनुष्य विश्वबन्धुत्व की भावना की ओर अग्रसर होता है। जनकल्याण, प्राणिसेवा में निरत व्यक्ति परम आदरणीय हो जाता है-

जो पराये काम आता, धन्य है जग में वही।
द्रव्य ही को जोड़कर, कोई सुयश पाता नहीं ॥

परोपकार भाईचारे की भावना का विकास करता है। यही घृणा, द्वेष और स्वार्थ का नाशक है। सभी प्राणियों में अपने ईश्वर का अंश देखकर महापुरुष जगत् के कल्याण में प्रवृत्त हो जाते हैं। राजा रन्तिदेव अपना सर्वस्व दान में देकर अड़तालीस दिन तक भूखे रहे। उनचासवें दिन जब भोजन का प्रबन्ध हुआ तो एक याचक आ गया। उन्होंने वह भोजन याचक को खिलाकर सन्तोष धारण किया–

न त्वहं कामये स्वर्ग, न मोक्षं न पुनर्भवम् ।।
कामये दुःखतप्तानां, प्राणिनामार्तनाशनम् ॥

राजा रन्तिदेव ने स्वर्ग-मोक्ष न माँग कर मानव ही नहीं सभी प्राणियों की पीड़ा को दूर करने का वरदान माँगा। परोपकारियों को ही सज्जन एवं महापुरुष की पदवी प्रदान की जाती है, जो युगों तक प्रणम्य हो जाते हैं। अट्ठारह पुराणों के रचयिता व्यास जी ने भी परोपकार को पुण्य एवं परपीड़ा को पाप घोषित किया है-

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥

परोपकारी व्यक्ति नि:स्वार्थ परोपकार कर अलौकिक आनन्द का अनुभव करता है। किसी भूखे को भोजन देते समय, प्यासे को पानी पिलाते समय, ठण्ड से ठिठुरते को वस्त्र देते समय, रोगी की सेवा करते समय मानव को जो अपार आनन्द का अनुभव होता है, वह वर्णनातीत है। उस समय वह स्व-पर के भेद से ऊपर उठकर ब्रह्मानन्द की प्राप्ति करता है। हमारी सांस्कृतिक परम्परा में यज्ञ परोपकार ही है, जिसके द्वारा ‘इदं न मम’ कहते हुए अग्नि में डाली गयी आहुति लाखों लोगों का कल्याण करती हुई विस्तृत हो जाती है।”

परोपकार के विविध रूप-नि:शुल्क लंगर, सदाव्रत, प्याऊ, विद्यालय, धर्मशाला, बगीचा, वृक्षारोपण, जलाशय, औषधालये, वस्त्र-वितरण, निर्धन विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति, पुस्तकालय, गौशाला आदि की व्यवस्था करना परोपकार के ही विविध रूप हैं। परोपकार का क्षेत्र केवल मनुष्यों तक संकुचित नहीं है, उसमें पशु-पक्षी कीट-पतंग सभी सम्मिलित हैं। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने सभी को प्रणाम करते हुए कहा है-

सियाराममय सब जग जानी। करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी ॥

रहीम ने परोपकार की महिमा का बखान करते हुए लिखा है कि-

रहिमन यों सुख होत है, उपकारी के संग।
बाँटनवारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग॥

तात्पर्य यह है कि परोपकारी व्यक्ति को उसी प्रकार स्वतः ही आनन्द की उपलब्धि होती है, जिस प्रकार लगाने वाले के हाथों में मेंहदी का रंग स्वतः ही आ जाता है।
जहाँ पुल, सड़कें नहीं वहाँ पुल, सड़कों का निर्माण करना, कन्याओं के लिए रोजगार सीखने के नि:शुल्क प्रशिक्षण देना, उन्हें स्वावलम्बी बनाना, अकाल, भूकम्प, युद्धादि के अवसर पर अन्न, वस्त्र, निवास की व्यवस्था करना परोपकारी कार्यों की श्रेणी में आते हैं।

सामान्य व्यक्ति तर्क दे सकते हैं कि धन से सम्पन्न व्यक्ति ही परोपकार कर सकता है। विचार करने पर हम अनुभव करेंगे कि परोपकार के लिए धन की कोई आवश्यकता नहीं होती, अपितु एक सेवाभावी मन की आवश्यकता होती है। हम राह भटके हुए को राह दिखा सकते हैं, सड़क के बीच में पड़े हुए केले के छिलके, कंकड़-पत्थर आदि को उठाकर एक किनारे पर फेंक सकते हैं। यह परोपकार ही तो है। हम किसी दुखिया के आँसू पोंछ सकें, किसी आहत व्यक्ति की आहों में साझीदार बन सकें, किसी के सिर पर रखे हुए बोझ को हलका कर सकें, किसी प्यासे को पानी पिला सकें आदि, तो हम परोपकार के आनन्द एवं पुण्य-फल का लाभ प्राप्त करने के सहज अधिकारी बन जाएँगे। निर्धन विद्यार्थियों को नि:शुल्क ट्यूशन उत्तम कोटि को परोपकार कहलाएगा।

परोपकार : आत्म-उत्थान का मूल-मनुष्य क्षुद्र से महान् और विरल से विराट् तभी बन सकता है, जब उसकी परोपकार-वृत्ति विस्तृत होती रहेगी। भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि उसने प्राणि-मात्र के हित को मानव-जीवन का लक्ष्य बताया है। यही व्यक्ति का समष्टिमय स्वरूप भी है। ज्यों-ज्यों आत्मा में उदारता बढ़ती जाती है, उसे उतनी ही अधिक आनन्द की उपलब्धि होती जाती है तथा अपने समस्त कर्म जीवमात्र के लिए समर्पित कर देने की भावना तीव्रतर होती जाती है-

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत् ॥

तात्पर्य यह है कि सभी लोग सुखी हों, निरोगी हों, कल्याणयुक्त हों। कोई भी दु:ख-कष्ट नहीं भोगे। इसी भावना से संचालित होकर सभी जीवों के कल्याण में रत रहना चाहिए। यही सर्वकल्याणमय भावना सन्तों का मुख्य लक्षण है; क्योंकि वे मन, वचन और काया से सदा परोपकार में लगे रहते हैं-

पर उपकार वचन मन काया। सन्त सहज सुभान खगराया ॥

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी के शब्दों में–

यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे ,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।

अर्थात् जो अपने लिए जीता है वह पशु है, जो अपने साथ-साथ दूसरों के लिए भी जीता है वह मनुष्य है और जो केवल दूसरों के लिए ही जीता है वह महामानव है, महात्मा है।

उपसंहार–परोपकारी अक्षय कीर्ति को धारण करते हैं। प्रत्येक युग में उनको सम्मान वृद्धि को प्राप्त होता रहता है। महात्मा गाँधी, पं० मदनमोहन मालवीय, सुभाषचन्द्र बोस, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, अशफाक उल्ला खाँ, रामप्रसाद बिस्मिल आदि सदैव ही प्रातः स्मरणीय रहेंगे। तभी तो मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहा है कि इस जीवन को अमर बनाने के लिए इसे दूसरों को समर्पित कर दो-

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी ,
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करें सभी ।

मानव का जीवन क्षणभंगुर है, किन्तु परोपकार के द्वारा वही अमरता को प्राप्त हो जाता है। भगवान् राम, कृष्ण, महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, दयानन्द सरस्वती, राजा राममोहन राय “सर्वभूत हिते रतः’ रहकर ही अक्षय यश के भागी हैं।

वर्तमान समय में परोपकार का स्वरूप बदलता जा रहा है। परोपकार के आवरण में लोग अपने स्वार्थों की पूर्ति कर रहे हैं। कोई राजनीतिक नेता ‘गरीबी हटाओ’ का नारा लगाकर गरीबों का वोट अपनी ओर खींचता है तो कोई जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित करवाकर अपना वोट बैंक पक्का करता है। कुछ व्यापारी आयकर में छूट पाने के लिए औषधालय खुलवाते हैं तथा पंजीकृत संस्थाओं में दान देते हैं। यह आज के परोपकार का परिवर्तित स्वरूप है। भारतीय संस्कृति ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’, ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’, ‘सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय’ के सविवेक का सन्देश देती है। आज ऐसी ही भावना की आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति के इन सन्देशों को अपनाकर ही हम परोपकार के सर्वाधिक समीप पहुँच सकते हैं।

परोपकार किसी भी समाज एवं देश के सुख-संवर्धन का एकमात्र उपाय है। जिस समाज में परोपकारी लोगों का आधिक्य होगा वही सुखी और समृद्ध होगा। डॉ० हरिदत्त गौतम ‘अमर’ के शब्दों में –

पर उपकार निरत जो सज्जन कभी नहीं मरते हैं।
चन्द्र सूर्य जब तक हैं उन पर यशः पुष्प झरते हैं।

सांस्कृतिक प्रदूषण

सम्बद्ध शीर्षक

  • समाज में नैतिक मूल्यों का विघटन
  • केबिल टी०वी० के माध्यम से फैलता सांस्कृतिक प्रदूषण और हम
  • भारतीय संस्कृति और दूरदर्शन [2010]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. सांस्कृतिक प्रदूषण का अर्थ,
  3. सांस्कृतिक प्रदूषण का स्वरूप विचारों में प्रदूषण, कलाओं में प्रदूषण, दृष्टिकोण का प्रदूषण, खान-पान का प्रदूषण, रहन-सहन का प्रदूषण,
  4. उपसंहार।

प्रस्तावना–आज के वैज्ञानिक युग में हर ओर प्रदूषण की ही चर्चा है। खुली हवा, धूलरहित आवास, शान्त इमारतें और शोररहित सड़कें आज एक सपना बन कर रह गयी हैं। आज भी सावन आता है पर घरों में वह वृक्ष ही नहीं होता, जिस पर झूला डाला जा सके। घरों में वह खुला आँगन नहीं होता जहाँ बच्चों को हर्षध्वनि करते, भागते-दौड़ते देखा जा सके। आज द्रुतगति की आलीशान वातानुकूलित कारें तो हैं, परन्तु उसकी खिड़की खोलते ही बाहर का शोरगुल और गर्दगुबार बिना निमन्त्रण अन्दर घुसे आता है। आज बच्चे टी० वी० स्क्रीन का कार्टून अपने सपनों में देखते हैं और लोरी के स्थान पर सी० डी० अथवा ऑडियो टेप सुनते हुए सो जाते हैं। यही है–भौतिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक प्रदूषण।

कुछ विद्वान् इसे विश्व की गम्भीरतम समस्या कहते हैं तो कुछ इसे मानवता का सबसे बड़ा शत्रु। आज सभी रोगों का मूल कारण प्रदूषण को ही माना जाता है तथा यह कहा जाता है कि इससे बच पाना असम्भव है। प्रदूषण सम्बन्धी कथन वास्तव में भौतिक पर्यावरण के प्रदूषण से ही सम्बन्धित है। भौतिक पर्यावरण प्रदूषण के अन्तर्गत मुख्य रूप से वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, मृदा-प्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण, रेडियोधर्मी प्रदूषण, रासायनिक प्रदूषण ही आते हैं। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि प्रदूषण केवल भौतिक पर्यावरण तक ही सीमित नहीं है, वरन् इसके कुछ अन्य रूप भी अति महत्त्वपूर्ण एवं चिन्ता के विषय हैं। प्रदूषण का एक अति गम्भीर रूप सांस्कृतिक प्रदूषण भी है। आज विश्व के अधिकांश विकासशील देश जहाँ एक ओर भौतिक प्रदूषण के शिकार हैं तो साथ-साथ ही वे गम्भीर सांस्कृतिक प्रदूषण के भी शिकार हो रहे हैं। भौतिक प्रदूषण के कारक, प्रभाव आदि स्पष्ट होते हैं तथा इनकी जाँच भी सरलता से की जा सकती है, परन्तु सांस्कृतिक प्रदूषण पर्याप्त सीमा तक छिपा हुआ होता है तथा यह अपना प्रभाव अप्रत्यक्ष रूप से डालता है। यद्यपि सांस्कृतिक प्रदूषण छिपा हुआ होता है तथा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है, तथापि इसके परिणाम अति गम्भीर, हानिकारक तथा दूरगामी होते हैं।

सांस्कृतिक प्रदूषण का अर्थ-प्रदूषण का सामान्य अर्थ है-किसी स्थापित व्यवस्था के मूल रूप में कुछ इस प्रकार का परिवर्तन होना जो जनसामान्य के लिए सामान्य रूप से हानिकारक हो। इस मापदण्ड के आधार पर वायु में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ने या ऑक्सीजन की मात्रा घटने की स्थिति वायु-प्रदूषण की स्थिति होती है। सांस्कृतिक प्रदूषण के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि किसी संस्कृति की मौलिक विशेषताओं एवं लक्षण में उससे भिन्न तत्त्वों का समावेश हो जाना ही सांस्कृतिक प्रदूषण है। सांस्कृतिक प्रदूषण के पूर्व संस्कृति के अर्थ को स्पष्टरूपेण समझना आवश्यक है। संस्कृति की अवधारणा पर्याप्त जटिल है। वास्तव में किसी समाज द्वारा जो कुछ भी अपने पूर्व-पुरुषों के अनुभवों के माध्यम से प्राप्त किया जाता है, वह सब कुछ संस्कृति ही है। संस्कृति में ज्ञान, विश्वास, कलाएँ, नीति, विधि, रीति-रिवाज तथा समाज के सदस्य के रूप में मनुष्य द्वारा अर्जित अन्य योग्यताओं एवं आदतों को सम्मिलित किया जाता है। वस्तुतः संस्कृति जीवन का एक ढंग है, जो सैकड़ों-हजारों वर्षों में धीरे-धीरे विकसित होता है।

वर्तमान वैज्ञानिक युग में विश्व के सभी देशों एवं भागों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बहुपक्षीय सम्पर्क स्थापित होने लगे हैं। दूरसंचार के साधनों, यातायात की सुविधाओं, पत्र-पत्रिकाओं, दूरदर्शन, इण्टरनेट आदि के माध्यम से अब विश्व की समस्त संस्कृतियाँ एक-दूसरे को प्रभावित करने लगी हैं। इस स्थिति में विकसित (पाश्चात्य) देशों ने अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से विकासशील देशों पर थोपना प्रारम्भ कर कर दिया है। इसी सांस्कृतिक होड़ से हमारे देश की संस्कृति गम्भीर रूप से प्रभावित हो रही है। हमारी संस्कृति पर जो पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव पड़ रहा है, वह हमारी मूल संस्कृति के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है। अतः इस प्रकार से होने वाले सांस्कृतिक परिवर्तन को हम सांस्कृतिक प्रदूषण की संज्ञा देते हैं।

सांस्कृतिक प्रदूषण का स्वरूप-वर्तमान परिस्थितियों में सांस्कृतिक प्रदूषण में सर्वाधिक योगदान दूरदर्शन के विदेशी और कुछ-एक देशी चैनेलों का है। एम टी० वी०, वी टी० वी०, जी टी० वी० तथा कुछ अन्य विदेशी चैनेल सांस्कृतिक प्रदूषण के मुख्य माध्यम बने हुए हैं। सांस्कृतिक प्रदूषण के मुख्य रूपों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है|

(1) विचारों में प्रदूषण–पारम्परिक भारतीय संस्कृति में शुद्ध विचारों को विशेष महत्त्व दिया जाता है, परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में पाश्चात्य सांस्कृतिक संघात के कारण यह भारतीय धारणा क्रमश: परिवर्तित हो रही है। अब सामान्य जनमानस की विचारधारा धीरे-धीरे कुत्सित हो रही है, विचारों में तीव्र उथल-पुथल मची हुई है तथा व्यक्ति की विचारशक्ति भ्रमित हो रही है। विचारों का इस प्रकार से विकृत होना सांस्कृतिक प्रदूषण का ही एक रूप है।

(2) कलाओं में प्रदूषण- भारतीय कलाओं की अपनी कुछ विशेषताएँ थीं। ये कलाएँ आदर्शोन्मुखी थीं। पाश्चात्य सांस्कृतिक प्रभाव के कारण भारतीय कलाओं में कुछ ऐसा तीव्र परिवर्तन हो रहा है, जो कि सांस्कृतिक प्रदूषण को ही दर्शाता है। साहित्य में दुःखान्त रचनाओं को महत्त्व देना, अकहानी तथा अकविता का प्रचलन, प्रयोगवादी काव्य का प्रादुर्भाव आदि साहित्य के क्षेत्र में प्रदूषण कहे जा सकते हैं। कला के क्षेत्र में सूक्ष्म कला या एब्स्ट्रैक्ट आदि अपने आप में एक प्रदूषणकारी प्रचलन ही हैं। संगीत के क्षेत्र में भारतीय शास्त्रीय संगीत की अवहेलना करके पॉप संगीत तथा डिस्को संगीत स्पष्ट रूप से भारतीय संगीत के लिए प्रदूषण का ही काम कर रहे हैं। भारतीय शास्त्रीय संगीत का अत्यल्प विकृत रूप सिने-संगीत के रूप में श्रोताओं में पर्याप्त लोकप्रिय था। लेकिन अब इस संगीत के दृश्य-श्रव्य माध्यम को विदेशी वाद्यों तथा पर्याप्त नग्नता का समावेश कर रीमिक्स की नवीन संज्ञा देकर पुन: प्रस्तुत किया जा रहा है। इसे भी सांस्कृतिक प्रदूषण का ही स्वरूप माना जाना चाहिए। नृत्य के क्षेत्र में भी कत्थक, भरतनाट्यम आदि भारतीय नृत्यों को छोड़कर पाश्चात्य नृत्यों को अपनाना प्रदूषणकारी ही है। वर्तमान समय में तो भारतीय लोक-नृत्यों का भी पश्चिमीकरण होता जा रहा है। पंजाब का लोकप्रिय लोक-नृत्य भाँगड़ा आज विदेशी रंग में रँगता दिखाई दे रहा है। यह परिवर्तन सांस्कृतिक प्रदूषण का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वाद्य-यन्त्रों में भी अब भारतीय वाद्य-यन्त्र अनावश्यक-से प्रतीत हो रहे हैं तथा पाश्चात्य इलेक्ट्रॉनिक वाद्य-यन्त्र अधिक लोकप्रिय हो रहे हैं।

(3) दृष्टिकोण का प्रदूषण–पारम्परिक रूप से भारतीय दृष्टिकोण आध्यात्मिक तथा नैतिकता की ओर उन्मुख था, परन्तु अब पाश्चात्य सांस्कृतिक संघात ने भारतीय जनसामान्य के दृष्टिकोण को भी भौतिकवादी बना दिया है। सम्मिलित परिवारों की भारतीय अवधारणा अब धीरे-धीरे विघटित परिवारों का रूप लेने लगी है। सांस्कृतिक प्रदूषण के कारण ही नवयुवकों में अब बड़े-बुजुर्गों के प्रति सम्मान की वह भावना नहीं रह गयी, जो पहले पायी जाती थी। आज प्रत्येक बात में भौतिकवादी दृष्टिकोण से लाभ-हानि को ही प्राथमिकता दी जाती है। पारम्परिक दृष्टिकोण में होने वाला यह परिवर्तन स्पष्ट रूप से सांस्कृतिक प्रदूषण ही है।

(4) खान-पान का प्रदूषण-खान-पान को भी सांस्कृतिक मान्यता के अन्तर्गत ही माना जाता है। वर्तमान समय में इस सांस्कृतिक मान्यता में भी तीव्र तथा गम्भीर परिवर्तन परिलक्षित हो रहे हैं। आज हर कोई विदेशी खाद्य-पदार्थों तथा पकवानों को अधिक पसन्द कर रहा है। उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय, पंजाबी, कश्मीरी आदि व्यंजनों के स्थान अब चाइनीज़, फास्ट फूड्स, बर्गर, पिज़ा आदि ने ले लिये हैं। भारतीय परिवारों में विवाह आदि शुभ अवसरों पर विदेशी व्यंजनों का परोसा जाना अब शान की बात समझी जाती है। खान-पान में होने वाला यह परिवर्तन भी सांस्कृतिक प्रदूषण ही है।

(5) रहन-सहन का प्रदूषण–आज हर भारतीय परिवार पाश्चात्य-प्रतिमान को आदर्श रहन-सहन मानता है। पारम्परिक भारतीय रहन-सहन को अब दकियानूसी माना जाने लगा है। रसोईघर, बैठक, शयन-कक्ष, पहनावा, सौन्दर्य प्रसाधन आदि सभी स्थानों पर पाश्चात्य प्रतिमानों को ही अपनाया जा रहा है, यह सांस्कृतिक जीवन का ही प्रदूषण है।

उपसंहार-निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि हमारा समाज घोर सांस्कृतिक प्रदूषण का शिकार हो रहा है। इस सांस्कृतिक प्रदूषण के गम्भीर परिणाम हो रहे हैं। हमारे परिवार विघटित हो रहे हैं, विवाह-विच्छेद हो रहे हैं, मान्यताएँ बदल रही हैं तथा परम्पराएँ छिन्न-भिन्न हो रही हैं। स्वास्थ्य-हीनता और नैतिक मूल्यों-मर्यादाओं के टूटने के दुष्परिणाम स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहे हैं। यदि सांस्कृतिक प्रदूषण की इस आँधी को समय रहते रोका न गया तो निकट भविष्य में हम अपनी पहचान गंवा बैठेंगे। हम ने घर के रहेंगे और न घाट के। अतः भारत के प्रत्येक नागरिक विशेष रूप से युवाओं तथा शिक्षकों का दायित्व है कि वे विदेशियों द्वारा फैलायी जा रही अपसंस्कृति अथवा सांस्कृतिक प्रदूषण का विरोध करें तथा इससे अपने समाज एवं देश को बचाने का प्रयास करें।

नैतिक मूल्यों का हास : कारण एवं निवारण (2016)

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. प्रतिभा की उपेक्षा,
  3. वैचारिक प्रदूषण,
  4. पश्चिम की नकल,
  5. रोजगार की समस्या,
  6. भ्रष्ट राजनीतिक विरासत,
  7. समस्याओं/कारणों के निवारण के उपाय,
  8. उपसंहार।

प्रस्तावना-चाहे धर्म का क्षेत्र हो या दर्शन का, चाहे कला का क्षेत्र हो या विज्ञान का, शताब्दियों तक हमारा देश, विश्व के मानचित्र पर जगमगाता रहा, और आज भी यह दुनिया के उन महानतम देशों में से एक है, जिनके पास प्राकृतिक संसाधनों और मानवीय शक्ति की कहीं कोई कमी नहीं है। आज विश्वभर में फैले हुए भारतीय वैज्ञानिक और इंजीनियर सफलता के ऊँचे शिखर को नैतिक मूल्यों के कारण छू रहे हैं। और यह भी कि–आज अमेरिका की 70 प्रतिशत सिलीकॉन वैली पर भारतीयों का कब्जा है। लेकिन दूसरा पहलू यह भी है कि आज हमारी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था गहरे संकट से गुजर रही है। राजनीति का अपराधीकरण हो चुका है। नैतिक मूल्यों के ह्रास के कारण अब हमारी छवि दुनिया में धूमिल होने लगी है। नैतिक मूल्यों के ह्रास के कारण हमारी नई पीढ़ी जब इस प्रकार की विरोधाभासी व्यवस्था के बीच से होकर गुजर रही हो, तो उसकी दशा और दिशा का सही अनुमान लगा पाना तो बहुत कठिन है, परन्तु सम्भावित अनुमान प्रस्तुत किया जा सकता है।

प्रतिभा की उपेक्षा–जाति-आधारित आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था से प्रतिभा और दक्षता का अनादर हो रहा है। प्रोन्नतियों में आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं थी, परन्तु वहाँ भी ऐसी व्यवस्था की गयी। यह प्रतिभा और योग्यता के साथ किया जाने वाला अन्याय है और यह अन्याय केवल वोट बैंक की राजनीति के कारण किया गया है। ठीक है कि गरीबों और पिछड़ों को भी आगे बढ़ने का मौका मिलना चाहिए परन्तु इसके लिए उन्हें योग्य एवं प्रतिभाशाली बनाने के उपाय किये जाने चाहिए। आरक्षण की बैसाखी से नई पीढ़ी की दशा और दिशा नहीं बदलने वाली है और फिर गरीब और पिछड़े तो हर जाति में होते हैं। यदि आरक्षण ही देना है तो फिर उन सभी को देना चाहिए, परन्तु वोट बैंक के लाभ-हानि देखकर चुन-चुनकर अपने पक्ष की कुछ विशेष जातियों के लोगों को ही आरक्षण देना और बाकी गरीबों और पिछड़ों को उनके अपने हाल पर छोड़ देना तनिक भी उचित नहीं है। देखा यह भी गया है कि इस आरक्षण का लाभ, पिछड़ों में जो सम्पन्न लोग हैं, उन्हीं को मिल सका है। शेष की हालत बदस्तूर है। यदि निजीक्षेत्र में भी आरक्षण किया गया, यदि विधानसभाओं और संसद में भी महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण हो गया, तो स्थिति और अधिक विकट हो जाएगी। ऐसा करने से नई पीढ़ी की दशा बदतर होगी और दिशा भयावह।।

वैचारिक प्रदूषण-नई पीढ़ी को जो विचार उत्तराधिकार में मिल रहे हैं, वे सामाजिक एकता और सद्भाव को बनाये रखने वाले अथवा सर्वधर्म समभाव वाले नहीं हैं। समाज को जोड़ने के बदले सर्वत्र अलगाव और बिखराव ही अधिक दिखाई दे रहा है। राजनीतिक दलों द्वारा राष्ट्र की एकता और अखण्डता को जाति, धर्म, सम्प्रदाय, बोली, भाषा और क्षेत्र के आधार पर कई टुकड़ों में बाँटने के प्रयास जारी हैं, और यह सब वोट बैंक की राजनीति के कारण हुआ है। यही कारण है कि अयोध्या में विवादित ढाँचा गिराये जाने के आठ वर्ष बाद भी तेरहवीं लोकसभा का सत्र हफ्ते भर तक नहीं चलने दिया गया। एक ही देश में कहीं शौर्य दिवस और कहीं कलंक दिवस मनाये जाने के पीछे यह वैचारिक प्रदूषण ही मुख्य कारण है। इसी वैचारिक प्रदूषण के कारण राजनीतिक दल अपने स्वार्थ को राष्ट्रीय आवश्यकता से अधिक महत्त्व देते हैं। ऐसे प्रदूषित विचारों के मध्य जी रही नई पीढ़ी की दशा और दिशा उज्ज्वल होने की सम्भावना कम ही है।

पश्चिम की नकल-देश की नई पीढ़ी पश्चिम की नकल करते-करते अपनी अकल भी गॅवाती हुई दीख रही है। भारतीय जीवन-दर्शन, भारतीय जीवन-मूल्य, भारतीय आदर्श और भारतीय संस्कृति से अपना पल्ला झाड़कर, यही पीढ़ी पाश्चात्य भौतिकवादी और भोगवादी संस्कृति की ओर उन्मुख दिखाई देती है। नई पीढ़ी की लड़कियों के शरीर पर कपड़े घटते जा रहे हैं और सौन्दर्य प्रसाधनों के बाजारों में भीड़ उमड़ती जा रही है। सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के नाम पर नग्नता और अश्लीलता परोसी जा रही है। लड़के भी इस दौड़ में कहीं पीछे नहीं हैं। शास्त्रीय संगीत के बदले पॉप म्यूजिक लोकप्रिय होता जा रहा है। खुलेपन और प्रगतिशील होने के नाम पर टी०वी० चैनल भी घर-घर में नग्नता और अश्लीलता ही परोस रहे हैं। यह सब देखकर मुझे तो नहीं लगता कि नई पीढ़ी की दशा और दिशा अच्छी हो सकेगी।

रोजगार की समस्या-यद्यपि नई पीढ़ी सूचना प्रौद्योगिकी के युग में जी रही है, परन्तु उसके लिए साधन जुटाना नई पीढ़ी के लिए आसान काम नहीं है। सरकारी नौकरियाँ बहुत कम हैं क्योंकि अब अधिकतर काम कम्प्यूटर करने लगे हैं। फिर आरक्षण भी इसमें बाधक है और हमारी शिक्षा नीति भी रोजगारपरक नहीं है। राजनीतिज्ञों की सन्तानें तो विदेशों में अच्छी उपयोगी शिक्षा पा रही हैं पर देश की सामान्य जनता के लिए सरकारी स्कूल भी पूरी तरह उपलब्ध नहीं हैं। जो विद्यालय हैं भी वहाँ गणित, विज्ञान और भाषा आदि विषयों के शिक्षकों एवं प्रधानाचार्यों की भारी कमी है। आज की शिक्षा-व्यवस्था स्नातक बनाने के बाद छात्र में शारीरिक परिश्रम के प्रति निष्ठा नहीं जगाती, बल्कि छात्र न घर का रहता है न घाट की। ऐसी दशा में नई पीढ़ी का भविष्य उज्ज्वल नहीं दिखाई देता है। उद्योग लगाने के लिए पूँजी की जरूरत होती है, परन्तु वह पूँजी आयेगी कहाँ से? इस प्रश्न का उत्तर पाना बहुत कठिन है।

भ्रष्ट राजनीतिक विरासत-आजादी के बाद छः दशकों में जैसी धोखाधड़ी भारतीय जनता के साथ की गई, उसकी मिसाल शायद ही कहीं और मिले। जनता के धन को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। इस लूट में राजनेता और नौकरशाह दोनों ही जिम्मेदार रहे हैं। भारत के गृह सचिव एन०एन० बोहरा ने 1995 में अपनी रिपोर्ट में कहा था-“माफिया संगठनों को एक तन्त्र देश में समानान्तर सरकार चला रहा है। और उसने राज्य के उपकरणों को अप्रासंगिक बना दिया है। अपराधी गिरोहों, तस्कर गिरोहों और आर्थिक लॉबियों का तेजी से विस्तार हुआ है।”

समस्याओं/कारणों के निवारण के उपाय-राष्ट्र की भौतिक दशा सुधारने के लिए नैतिक मूल्यों का उपयोग कर हम उन्नति की सही राह चुन सकते हैं। हम जानते हैं कि भारत में लोगों के बीच फैला भ्रष्टाचार किस तरह से विकास की धार को मोथरा (कुंद) किए हुए है।

नैतिक मूल्यों में ह्रास होने से समाज में हर प्रकार के अपराध बढ़ रहे हैं। हम यह भी देखते हैं कि मूल्यविहीन समाज में असन्तोष फैल रहा है। बेकारी के बढ़ने से युवक असन्तोष जैसी कई प्रकार की चुनौतियाँ खड़ी दिखाई देती हैं। छोटे से बड़े नौकरशाह निकम्मेपन और भ्रष्टाचार के अंधकूप में डुबकियाँ लगा रहे हैं, उन्हें समाज या राष्ट्र की कोई परवाह नहीं है। इन परिस्थितियों से देश को उबारने के लिए आत्ममंथन अनिवार्य हो जाता है। नैतिक मूल्यों के द्वारा ही देश को समस्याओं के गर्त से उबारा जा सकता है, क्योंकि नीति से ही नैतिक शब्द बना है जिसका अर्थ है-सोच-समझकर बनाए गए नियम या सिद्धान्त। अतः अपने हृदय से दूषित भावनाओं का त्याग कर तथा सदाचार की वैसी बातें जो सभी धर्मों व सभी सम्प्रदायों को मान्य हैं, समाहित कर हम प्रगतिशील समाज की रचना कर सकते हैं तथा साथ ही नैतिक मूल्यों का उत्थान भी कर सकते हैं। नैतिक मूल्यों के ह्रास का निवारण तभी सम्भव हो सकता है जब हम अपनी संस्कृति को पहचानें, उसे अपने जीवन में उतारे और पश्चिम की ओछी भोगवादी संस्कृति से प्रभावित न हों।

उपसंहार-निश्चय ही जिस समाज में अपराधी लोग, जातीय गौरव के रूप में शोभित हो रहे हैं, तो राजनीतिक दल उनसे वंचित कैसे रह सकते हैं? सवाल यह भी है कि जिन लोगों पर गम्भीर आरोप हैं वे चुनाव कैसे जीत जाते हैं? वास्तव में राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारण ही राजनीति के अपराधीकरण की समस्या पैदा हुई है। यदि ऐसा नहीं होता तो चन्दन तस्कर वीरप्पन दो राज्य सरकारों को अपने इशारे पर नाच नहीं नचाता। यही कारण है कि आज तमाम विकास योजनाओं का लाभ नेता, अधिकारी, इंजीनियर, बैंक मैनेजर और दलाल उठा रहे हैं। तात्पर्य यह है कि हमारे शासक जिस दिन भ्रष्टाचार पर रोक लगाने में सफल होंगे, उसी दिन से नई पीढ़ी की दशा और दिशा प्रकाशित होने लगेगी; तभी हमारी संस्कृति और समाज का उत्थान हो सकेगा।

आधुनिक जीवन में संचारमाध्यमों की उपयोगिता

सम्बद्ध शीर्षक

  • शिक्षा के उन्नयन में संचय माध्यमों की उपयोगिता [2010]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. संचारमाध्यमों का मानव-जीवन में महत्त्व,
  3. उद्योग और व्यवसाय के क्षेत्र में संचारमाध्यमों का योगदान,
  4. भारत में संचारमाध्यमों का विकास (i) समाचार-पत्र, (ii) रेडियो, (ii) सेल्यूलर मोबाइल टेलीफोन सेवा, (iv) इण्टरनेट सेवा,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना--अपने विचारों, भावनाओं व सूचनाओं को सम्प्रेषित करने के लिए मनुष्य को संचारमाध्यम की आवश्यकता पड़ती है। संचार का माध्यम मौखिक एवं लिखित दोनों रूपों में हो सकता है। पहले मनुष्य आपस में बोलकर या इशारे से अपनी अभिव्यक्ति करता था। वैज्ञानिक प्रगति ने उसे संचार-माध्यम के अन्य साधन भी उपलब्ध करवाए। अब मनुष्य दुनिया के एक छोर पर मौजूद व्यक्ति से दुनिया के दूसरे छोर से वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से बात करने में सक्षम है।

ये वैज्ञानिक उपकरण ही संचार के माध्यम कहलाते हैं। टेलीफोन, रेडियो, समाचार-पत्र, टेलीविजन इत्यादि संचार के ऐसे ही माध्यम हैं। टेलीफोन ऐसा माध्यम है, जिसकी सहायता से एक बार में कुछ ही व्यक्तियों से संचार किया जा सकता है, किन्तु संचार के कुछ माध्यम ऐसे भी हैं जिनकी सहायता से एक साथ कई व्यक्तियों से संचार किया जा सकता है। जिन साधनों का प्रयोग कर एक बड़ी जनसंख्या तक विचारों, भावनाओं व सूचनाओं को सम्प्रेषित किया जाता है उन्हें हम संचार के माध्यम कहते हैं।

संचार-माध्यमों का मानव-जीवन में महत्त्व-मानव-जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने में संचारमाध्यम महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। सूचनाओं के आदान-प्रदान करने में समय की दूरी घट गई है। अब क्षणभर में संदेश व विचारों का आदान-प्रदान किया जा सकता है। शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन तथा उद्योग आदि के क्षेत्र में संचारमाध्यम का महत्त्व बढ़ गया है। अपराधों पर नियंत्रण करने तथा शासन-व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने में संचार माध्यम का विशेष योगदान है। संचारमाध्यम के अभाव में देश में शान्ति और सुव्यवस्था करना कठिन कार्य है। व्यावसायिक क्षेत्र में भी सही सूचनाओं का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है; अतः कहा जा सकता है कि किसी भी राष्ट्र के लिए वहाँ के संचारमाध्यम की व्यवस्था का विकसित होना अत्यावश्यक है।

उद्योग और व्यवसाय के क्षेत्र में संचारमाध्यमों का योगदान–किसी भी देश का विकास उसकी सुदृढ़ अर्थव्यवस्था पर निर्भर करता है, उद्योग और व्यवसाय के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाता है; लेकिन सफल व्यवसाय और उद्योगों के विकास के लिए संचार माध्यम की अत्यधिक आवश्यकता होती है। भूमण्डलीकरण के इस काल में तो व्यवसायी एवं उद्योगपति सूचनाओं के माध्यम से व्यवसाय एवं उद्योग में नई ऊँचाइयों को छूने के लिए लालायित हैं। सूचनाएँ व्यवसाय का जीवन-रक्त हैं। व्यवसाय के अन्तर्गत माल के उत्पादन से पूर्व, उत्पादन से वितरण तक और विक्रयोपरान्त सेवाएँ प्रदान करने के लिए संचार माध्यम का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास परिषद् की रिपोर्ट के अनुसार, संचार-माध्यम एवं सूचना-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विदेशी निवेश प्राप्त करने के मामले में भारत अग्रणी देश बनता जा रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2000 में दक्षिण एशिया में हुए कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में भारत का हिस्सा 76 प्रतिशत था। चीन में भारत से ज्यादा मोबाइल फोन हैं, लेकिन इण्टरनेट के क्षेत्र में व्यावसायिक गतिविधियों को लाभ उठाने के लिए भारत का माहौल चीन से कहीं बेहतर है। संचार माध्यम में क्रान्ति ने आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन की नई सम्भावना को जन्म दिया है, जिसका लाभ विकसित और विकासशील देश दोनों ही उठा रहे हैं।

भारत में संचारमाध्यमों का विकास–भारत ने संचार माध्यम के क्षेत्र में असीमित उन्नति की है। भारत का संचार नेटवर्क एशिया के विशालतम संचार नेटवर्कों में गिना जाता है। जून, 2013 के अन्त तक 903.10 मिलियन टेलीफोन कनेक्शनों के साथ भारतीय दूरसंचार नेटवर्क चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्क है। जून, 2013 के अन्त तक 873.37 मिलियन टेलीफोन कनेक्शनों के साथ भारतीय वायरलैस टेलीफोन नेटवर्क भी दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्क है। आज लगभग सभी देशों के लिए इण्टरनेशनल सबस्क्राइबर डायलिंग सेवा उपलब्ध है। इण्टरनेट उपभोक्ताओं की संख्या 7 करोड़ 34 लाख है। अन्तर्राष्ट्रीय संचार-क्षेत्र में उपग्रह संचार और जल के नीचे से स्थापित संचार सम्बन्धों द्वारा अपार प्रगति हुई है। ध्वनि वाली और ध्वनिरहित संचार सेवाएँ, जिनमें आँकड़ा प्रेषण, फैसीपाइल, मोबाइल रेडियो, रेडियो पेनिंग और लीज्ड लाइन सेवाएँ शामिल हैं। 31 मार्च, 2013 ई० की स्थिति के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में 357.74 मिलियन फोन हैं।

जनसंचार माध्यमों को कुल तीन वर्गों-मुद्रण माध्यम, इलेक्ट्रॉनिक्स माध्यम एवं नव-इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में विभाजित किया जा सकता है। मुद्रण माध्यम के अन्तर्गत समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ, पैम्फलेट, पोस्टर, जर्नल पुस्तकें इत्यादि हैं। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के अन्तर्गत रेडियो, टेलीविजन एवं फिल्में आती हैं। और इण्टरनेट जनसंचार का नव-इलेक्ट्रॉनिक माध्यम है। इनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-

(i) समाचार-पत्र—मुद्रण माध्यम की शुरुआत गुटेनबर्ग द्वारा 1454 ई० में मुद्रण मशीन के आविष्कार के साथ हुई थी। इसके बाद विश्व के अनेक देशों में समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। आज समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएँ विश्वभर में जनसंचार का एक प्रमुख एवं लोकप्रिय माध्यम बन चुके हैं। मैथ्यू अर्नाल्ड ने इसे फटाफट साहित्य का नाम दिया था। समाचार-पत्र कई प्रकार के होते हैं-त्रैमासिक, मासिक, साप्ताहिक एवं दैनिक। इस समय विश्व के अन्य देशों के साथ-साथ भारत में भी दैनिक समाचार-पत्रों की संख्या अन्य प्रकार के पत्रों से अधिक है। भारत का पहला समाचार-पत्र अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित ‘बंगाल गजट’ था। इसका प्रकाशन 1780 ई० में जेम्स ऑगस्टस हिकी ने शुरू किया था। कुछ वर्षों बाद अंग्रेजों ने इसके प्रकाशन पर प्रतिबन्ध लगा दिया। हिन्दी का पहला समाचार-पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ था। इस समय भारत में कई भाषाओं के लगभग तीस हजार से भी अधिक समाचार-पत्र प्रकाशित होते हैं। भारत में अंग्रेजी भाषा का प्रमुख दैनिक समाचार-पत्र ‘द टाइम्स ऑफ इण्डिया’, ‘द हिन्दू’, ‘द : हिन्दुस्तान टाइम्स’ इत्यादि हैं। हिन्दी के दैनिक समाचार-पत्रों में दैनिक जागरण’, दैनिक भास्कर’, ‘हिन्दुस्तान’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘नई दुनिया’, ‘जनसत्ता’ इत्यादि प्रमुख हैं। समाचार-पत्र की उपयोगिता महात्मा गाँधी के इस कथन से भी उजागर होती है-“समाचार-पत्र सच्चाई अथवा वास्तविकता को जानने के लिए पढ़ा जाना चाहिए।’

(ii) रेडियो-आधुनिक काल में रेडियो जनसंचार का एक प्रमुख साधन है, विशेष रूप से दूरदराज के उन क्षेत्रों में जहाँ अभी तक बिजली नहीं पहुंच पाई है या जिन क्षेत्रों के लोग आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। भारत में वर्ष 1923 में रेडियो के प्रसारण के प्रारम्भिक प्रयास और वर्ष 1927 में प्रायोगिक तौर पर इसकी शुरुआत के बाद अब तक इस क्षेत्र में अत्यधिक प्रगति हासिल की जा चुकी है और इसका सर्वोत्तम उदाहरण-एफएम रेडियो प्रसारण है। ‘एफएम’ फ्रीक्वेंसी मॉड्यूल का संक्षिप्त रूप है। यह एक ऐसा रेडियो प्रसारण है, जिसमें आवृत्ति को प्रसारण ध्वनि के अनुसार मॉड्यूल किया जाता है। भारत में इसकी शुरुआत 1990 के दशक में हुई थी। स्थानीय स्तर पर ‘एफएम’ प्रसारण के लाभ को देखते हुए देश के कई विश्वविद्यालयों ने इसके माध्यम से अपने शैक्षिक प्रसारण के उद्ददेश्य से अपने-अपने एफएम प्रसारण चैनलों की शुरुआत की है। यही कारण है कि इससे न केवल आम जनता को लाभ पहुँचा है, बल्कि दूरस्थ एवं खुले विश्वविद्यालयों से शिक्षा ग्रहण कर रहे लोगों के लिए भी यह अति लाभप्रद सिद्ध हुआ है। आज एफएम प्रसारण दनियाभर में रेडियो प्रसारण का पसन्दीदा माध्यम बन चुका है, इसका एक कारण इससे उच्च गुणवत्तायुक्त स्टीरियोफोनिक आवाज की प्राप्ति भी है। शुरुआत में इस प्रसारण की देशभर में कवरेज केवल 30% थी, किन्तु अब इसकी कवरेज बढ़कर 60% से अधिक तक जा पहुँची है।

(iii) सेल्यूलर मोबाइल टेलीफोन सेवा–सभी महानगरों और 29 राज्यों के लगभग सभी शहरों के लिए सेवाएँ शुरू हो चुकी हैं। 31 मई, 2013 ई० तक देश में 873.37 मिलियन सेल्यूलर उपभोक्ता थे। नई दूरसंचार नीति के अन्तर्गत सेल्यूलर सेवा के मौजूदा लाइसेंसधारकों को 1 अगस्त, 1999 ई० से राजस्व भागीदारी प्रणाली अपनाने की अनुमति मिल गई। देश के विभिन्न भागों में सेल्यूलर मोबाइल टेलीफोन सेवा चलाने के लिए एम०टी०एन०एल० और बी०एस०एन०एल० को लाइसेंस जारी किए गए। नई नीति के अनुसार सेल्यूलर ऑपरेटरों को यह छूट दी गई कि वे अपने कार्यक्षेत्र में सभी प्रकार की मोबाइल सेवा, जिसमें ध्वनि और गैर-ध्वनि संदेश शामिल हैं, डेटा सेवा और पी०सी०ओ० उपलब्ध करा सकते हैं।

(iv) इण्टरनेट सेवा–नवम्बर, 1998 ई० से इण्टरनेट सेवा निजी भागीदारी के लिए खोल दी गई। इसके बाद सरकार ने देश की प्रत्येक पंचायत में वर्ष 2012 में ब्रॉडबैण्ड की शुरुआत करने का निर्णय लिया। समयानुसार इण्टरनेट आम आदमी की निजी और व्यावसायिक जिन्दगी का अहम हिस्सा बन चुका है। लगभग सभी व्यावसायिक साइटों को इण्टरनेट पर लांच किया जा चुका है। ई-मेल द्वारा मास कैम्पेन चलाना अब एक सामान्य प्रचलन हो चुका है। ‘चैट’ एक ऐसी उपलब्ध सेवा है, जिसके द्वारा इण्टरनेटधारक एक-दूसरे के साथ आपस में ऑनलाइन वार्तालाप कर सकते हैं। ई-गर्वनेंस सरकार की पहली प्राथमिकता है।

उपर्युक्त संचार के माध्यमों के प्रमुख कार्य हैं-लोकमत का निर्माण, सूचनाओं का प्रसार, भ्रष्टाचार एवं घोटालों का पर्दाफाश तथा समाज की सच्ची तसवीर प्रस्तुत करना। इन माध्यमों से लोगों को देश की प्रत्येक गतिविधि की जानकारी तो मिलती ही है, साथ ही उनका मनोरंजन भी होता है। किसी भी देश में जनता का मार्गदर्शन करने के लिए निष्पक्ष एवं निर्भीक संचार माध्यमों का होना आवश्यक है। ये देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों की सही तस्वीर प्रस्तुत करते हैं।

चुनाव एवं अन्य परिस्थितियों में सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों से जन-साधारण को अवगत कराने की जिम्मेदारी भी संचारमाध्यमों को ही वहन करनी पड़ती है। ये सरकार एवं जनता के बीच एक सेतु का कार्य करते हैं। इसे हम मीडिया भी कहते हैं। जनता की समस्याओं को इन माध्यमों से जन-जन तक पहुंचाया जाता है। विभिन्न प्रकार के अपराधों एवं घोटालों का पर्दाफाश कर ये देश एवं समाज का भला करते हैं। इस तरह, ये आधुनिक समाज में लोकतन्त्र के प्रहरी का रूप ले चुके हैं, इसलिए इन्हें लोकतन्त्र के चतुर्थ स्तम्भ की संज्ञा दी गई है। आशा है, आने वाले वर्षों में भारतीय मीडिया अपना कर्तव्य पूरी ईमानदारी के साथ निभाते हुए देश के विकास में और सहयोग करेगा।

उपसंहार–वास्तव में संचारमाध्यम (प्रणाली) ने विश्व की दूरियों को समेटते हुए मानव-जीवन को एक नया मोड़ दिया है। आज हमारा देश संचार टेक्नोलॉजी की दौड़ में निरन्तर आगे बढ़ रहा है। विभिन्न निजी कम्पनियों को भी इसमें विशेष योगदान रहा है, जिसके कारण हम इसे देश के कोने-कोने से जोड़ने में सफल हुए हैं। इस प्रकार संचारमाध्यम के प्रसार ने शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन, व्यवसाय तथा उद्योग के विकास के साथ-साथ मानव-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति को गति प्रदान की है।

स्वच्छता अभियान की सामाजिक सार्थकता

सम्बद्ध शीर्षक

  • स्वच्छता अभियान [2016, 18]

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना,
  2. मोदी जी की स्वच्छता अभियान की संकल्पना,
  3. स्वच्छता अभियान की शुरुआत,
  4. स्वच्छता अभियान हेतु नवरत्नों की घोषणा,
  5. स्वच्छता अभियान का प्रारूप-(i) शहरी क्षेत्रों के लिए, (ii) ग्रामीण क्षेत्रों के लिए, (ii) विद्यालयों के लिए,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना–‘स्वच्छता अभियान’ एक राष्ट्र स्तरीय अभियान है। गाँधी जी की 145वीं जयन्ती के अवसर पर माननीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने इस अभियान के आरम्भ की घोषणा की। यह अभियान प्रधानमन्त्री जी की महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं में से एक है। 2 अक्टूबर, 2014 को उन्होंने राजपथ पर जनसमूह को सम्बोधित करते हुए सभी राष्ट्रवासियों से स्वच्छता अभियान में भाग लेने और इसे सफल बनाने की अपील की। साफ-सफाई के सन्दर्भ में देखा जाए तो यह अभियान अब तक का सबसे बड़ा स्वच्छता अभियान है।

साफ-सफाई को लेकर दुनिया भर में भारत की छवि बदलने के लिए प्रधानमन्त्री जी बहुत गम्भीर हैं। उनकी इच्छा स्वच्छता अभियान को एक जन-आन्दोलन बनाकर देशवासियों को गम्भीरतापूर्वक इससे जोड़ने की है। हमारे नवनिर्वाचित प्रधानमन्त्री जी ने 2 अक्टूबर के दिन सर्वप्रथम गाँधी जी को राजघाट पर श्रद्धांजलि अर्पित की और फिर नई दिल्ली स्थित वाल्मीकि बस्ती में जाकर झाड़ लगाई। कहा जाता है। कि वाल्मीकि बस्ती दिल्ली में गाँधी जी का सबसे प्रिय स्थान था। वे अक्सर यहाँ आकर ठहरते थे।

इसके बाद मोदी जी ने जनपथ जाकर स्वच्छता अभियान की शुरुआत की। इस अवसर पर उन्होंने लगभग 40 मिनट का भाषण दिया और स्वच्छता के प्रति लोगों को जागरूक करने का प्रयास किया। अपने भाषण के दौरान उन्होंने महात्मा गाँधी और लालबहादुर शास्त्री का जिक्र करते हुए बड़ी ही खूबसूरती से इन दोनों महापुरुषों को इस अभियान से जोड़ दिया। उन्होंने कहा-“गाँधी जी ने आजादी से पहले नारा दिया था, ‘क्विट इण्डिया क्लीन इण्डिया। आजादी की लड़ाई में उनका साथ देकर देशवासियों ने ‘क्विट इण्डिया’ के सपने को तो साकार कर दिया, लेकिन अभी उनका ‘क्लीन इण्डिया का सपना अधूरा है।”

मोदी जी की स्वच्छता अभियान की संकल्पना-माननीय मोदी जी की स्वच्छता अभियान की संकल्पना यह है कि देश के प्रत्येक शहरी और ग्रामीण परिवार में एक स्वच्छ शौचालय हो, जिन घर-परिवारों में स्थानाभाव के कारण शौचालय बनाया जाना सम्भव न हो, वहाँ पर सुलभ सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण किया जाए। देश के प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के प्रत्येक विद्यालय में छात्र-छात्राओं के लिए स्वच्छ और पृथक्-पृथक् शौचालय हों। उनकी इस संकल्पना से जहाँ सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा समाप्त होगी, वहीं देश की उन करोड़ों महिलाओं को सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर प्राप्त होगा, जिनको खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है। उन बालिकाओं के विद्यालय जाने का मार्ग प्रशस्त होगा, जो विद्यालयों में अलग शौचालयों की व्यवस्था न होने के कारण विद्यालय नहीं जा पातीं।

मोदी जी की स्वच्छता अभियान की संकल्पना केवल शौचालयों के निर्माण तक ही सीमित नहीं है। उनका प्रयास है कि देश का प्रत्येक कोना स्वच्छ हो। इसके लिए देश के प्रत्येक नागरिक की भागेदारी आवश्यक है। उन्होंने देश के सवा सौ करोड़ नागरिकों का आह्वान किया कि देश के प्रत्येक नागरिक को यह संकल्प लेना होगा कि वह न स्वयं गन्दगी फैलाएगा और न दूसरों को फैलाने देगा। यदि देश का प्रत्येक नागरिक अपनी इस जिम्मेदारी को समझे तो देश गन्दा ही न होगा और सारा देश स्वत: ही स्वच्छ हो जाएगा। | स्वच्छता अभियान की शुरुआत-स्वच्छता अभियान की शुरुआत माननीय मोदी जी ने महात्मा गाँधी जी की जयन्ती पर 2 अक्टूबर, 2014 ई० को राजपथ से लोगों को स्वच्छता की शपथ दिलाकर की। इस दिन उन्होंने स्वयं मन्दिर मार्ग, नई दिल्ली स्थित वाल्मीकि बस्ती जाकर झाडू लगाकर फुटपाथ की सफाई की और स्वच्छता अभियान के अन्तर्गत बने पहले जैविक शौचालय (बायो टॉयलेट) को जनता को समर्पित किया।

स्वच्छता अभियान हेतु नवरत्नों की घोषणा–स्वच्छता अभियान से देश के प्रत्येक नागरिक को जोड़ने के लिए माननीय प्रधानमन्त्री जी ने 2 अक्टूबर को ही देश के नौ प्रतिष्ठित लोगों को नवरत्नों के रूप में नामांकित किया, जिनसे प्रेरणा ग्रहण करके देश के लोग स्वच्छता अभियान में पूर्ण मनोयोग से लग जाएँ। उनके ये नवरत्न हैं—अनिल अम्बानी, सचिन तेन्दुलकर, सलमान खान, प्रियंका चौपड़ा, बाबा रामदेव, कमल हसन, मृदुला सिन्हा, शशि थरूर और शाजिया इल्मी। इसके अलावा उन्होंने टी०वी० सीरियल ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ की सम्पूर्ण टीम को भी नामित किया है।

इसी प्रकार, 7 नवम्बर, 2014 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी के असी घाट पर मोदी जी ने स्वच्छता अभियान के लिए उत्तर प्रदेश के नवरत्नों के रूप में भी नौ प्रसिद्ध लोगों को नामांकित किया। इन नौ लोगों में प्रदेश के मुख्यमन्त्री अखिलेश यादव, क्रिकेटर मुहम्मद कैफ तथा सुरेश रैना, हास्य टी०वी० कलाकार राजू श्रीवास्तव, सूफी गायक कैलाश खेर, भोजपुरी फिल्म अभिनेता मनोज तिवारी, लेखक मनु शर्मा, संस्कृत विद्वान् पद्मश्री प्रोफेसर देवीप्रसाद द्विवेदी, आन्ध्र विश्वविद्यालय चित्रकूट के कुलपति जगद्गुरु रामभद्राचार्य सम्मिलित हैं।

मोदी जी ने इन लोगों के नामांकन के साथ इन सभी का आह्वान किया कि ये सभी लोग अपने स्तर पर नौ-नौ और लोगों को इस अभियान हेतु नामांकित करें, फिर वे लोग दूसरे नौ-नौ लोगों को नामांकित करें। इस प्रकार लोगों की एक श्रृंखला बनती चली जाएगी और देश के सभी लोग इस अभियान से जुड़कर भारत को स्वच्छ बनाने में सफल होंगे।

स्वच्छता अभियान का प्रारूप-स्वच्छता अभियान भारत सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर चलाया गया जन-आन्दोलन है, जिसका प्रयास सन् 2019 तक सम्पूर्ण भारत को स्वच्छ बनाना है। सरकारी सहायता हेतु इस अभियान को तीन क्षेत्रों में विभक्त किया गया है-

(i) शहरी क्षेत्रों के लिए अभियान का उद्देश्य 1.04 करोड़ परिवारों को लक्षित करते हुए 2.5 लाख सामुदायिक शौचालय, 2.6 लाख सार्वजनिक शौचालय और प्रत्येक शहर में एक ठोस अपशिष्ट प्रबन्धन की सुविधा प्रदान करना है। इस कार्यक्रम के तहत आवासीय क्षेत्रों में जहाँ व्यक्तिगत घरेलु शौचालयों का निर्माण करना मुश्किल है वहाँ सामुदायिक शौचालयों का निर्माण करना तथा पर्यटन स्थलों, बाजारों, बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों जैसे प्रमुख स्थानों पर भी सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण करना प्रस्तावित है। यह कार्यक्रम पाँच साल की अवधि में 4401 शहरों में लागू किया जाएगा। इस कार्यक्रम में खुले में शौच करने को रोकना, स्वच्छ शौचालयों को फ्लश शौचालयों में परिवर्तित करने, मैला ढोने की प्रथा का उन्मूलन करने, नगरपालिका के ठोस अपशिष्ट प्रबन्धन और स्वास्थ्य एवं स्वच्छता से जुड़ी प्रथाओं के सम्बन्ध में लोगों के व्यवहार में परिवर्तन लाने के कार्यक्रम शामिल हैं।

(ii) ग्रामीण क्षेत्रों के लिए स्वच्छता अभियान भारत सरकार द्वारा चलाया जा रहा ग्रामीण क्षेत्र के लोगों के लिए माँग-आधारित एवं जन-केन्द्रित अभियान है, जिसमें लोगों की स्वच्छता सम्बन्धी आदतों को बेहतर बनाना, स्वसुविधाओं की माँग उत्पन्न करना और स्वच्छता सुविधाओं को उपलब्ध कराना शामिल है, जिससे ग्रामीणों के जीवन-स्तर को बेहतर बनाया जा सके। अभियान का उद्देश्य पाँच वर्षों में भारत को खुला शौच से मुक्त देश बनाना है। अभियान के तहत देश में लगभग 11 करोड़ 11 लाख शौचालयों के निर्माण के लिए एक लाख चौंतीस हजार करोड़ रुपये खर्च किए जाएँगे। बड़े पैमाने पर प्रौद्योगिकी का उपयोग कर ग्रामीण भारत में कचरे को इस्तेमाल उसे पूँजी का रूप देते हुए जैव उर्वरक और ऊर्जा के विभिन्न रूपों में परिवर्तित करे – लिए किया जाएगा। अभियान को युद्ध-स्तर पर प्रारम्भ कर ग्रामीण आबादी और कूल शिक्षकों व छात्रों के बड़े वर्गों के अलावा प्रत्येक स्तर पर इस प्रयास में देश भर की ग्रामीण पंचायत, समिति और जिला परिषद् को भी इससे जोड़ा जाना है।

(iii) विद्यालयों के लिए मानव संसाधन विकास मन्त्रालय के अधीन स्वच्छ विद्यालय अभियान 25 सितम्बर, 2014 से 31 अक्टूबर, 2014 ई० के बीच केन्द्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों में आयोजित किया गया। इस दौरान की जाने वाली गतिविधियाँ इस प्रकार रहीं–

  • शिक्षकगण स्कूल कक्षाओं के दौरान प्रतिदिन बच्चों के साथ सफाई और स्वच्छता के विभिन्न पहलुओं पर, विशेष रूप से महात्मा गाँधी जी की स्वच्छता और अच्छे स्वास्थ्य से जुड़ी शिक्षाओं के सम्बन्ध में बात करें।
  • कक्षा, प्रयोगशाला और पुस्तकालयों आदि की सफाई करना।
  • स्कूल में स्थापित किसी भी मूर्ति या स्कूल की स्थापना करने वाले व्यक्ति के योगदान के बारे में बात करना और इनकी मूर्तियों की सफाई करना।
  • शौचालयों और पीने के पानी वाले क्षेत्रों की सफाई करना।
  • रसोई और भण्डार-गृह की सफाई करना।
  • स्कूल एवं बगीचों का रख-रखाव और सफाई करना।
  • खेल के मैदान की सफाई करना।
  • स्कूल-भवन का वार्षिक रख-रखाव, रँगाई एवं पुताई के साथ।
  • निबन्ध, वाद-विवाद, चित्रकला, सफाई और स्वच्छता पर प्रतियोगिताओं का आयोजन करना।
  • बाल मन्त्रिमण्डलों का निगरानी दल बनाना और सफाई अभियान की निगरानी करना।

इसके अलावा फिल्म-शो, स्वच्छता पर निबन्ध/पेन्टिग और अन्य प्रतियोगिताओं, नाटकों आदि के आयोजन द्वारा स्वच्छता एवं अच्छे स्वास्थ्य का सन्देश प्रसारित करना। मन्त्रालय ने इसके अलावा स्कूलों के छात्रों, शिक्षकों, अभिभावकों और समुदाय के सदस्यों को शामिल करते हुए सप्ताह में दो बार आधे घण्टे सफाई अभियान शुरू करने का प्रस्ताव भी रखा।

उपसंहार—आशा की जा सकती है कि स्वच्छता अभियान की संकल्पना निश्चय ही साकार होगी; क्योंकि जिस अभियान के प्रणेता माननीय नरेन्द्र मोदी जैसे कर्मठ, श्रमशील, ईमानदार और राष्ट्रवादी व्यक्ति हों उसकी सफलता में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जा सकता है। जिस दिन यह अभियान सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाएगा उस दिन न केवल कश्मीर, वरन् सम्पूर्ण भारत देश धरती का स्वर्ग कहलाएगा।

मानव-जीवन में योग शिक्षा का महत्त्व

सम्बद्ध शीर्षक

  • योग शिक्षा : आवश्यकता और उपयोगिता (2016)

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. योग का अर्थ,
  3. योग की आवश्यकता,
  4. योग की उपयोगिता,
  5. योग के सामान्य नियम
  6. योग से लाभ,
  7. उपसंहार।।

प्रस्तावना-योगासन शरीर और मन को स्वस्थ रखने की प्राचीन भारतीय प्रणाली है। शरीर को किसी ऐसे आसन या स्थिति में रखना जिससे स्थिरता और सुख का अनुभव हो, योगासन कहलाता है। योगासन शरीर की आन्तरिक प्रणाली को गतिशील करता है। इससे रक्त-नलिकाएँ साफ होती हैं तथा प्रत्येक अंग में शुद्ध वायु का संचार होता है जिससे उनमें स्फूर्ति आती है। परिणामत: व्यक्ति में उत्साह और कार्य-क्षमता का विकास होता है तथा एकाग्रता आती है।

योग का अर्थ-योग, संस्कृत के यज् धातु से बना है, जिसका अर्थ है, संचालि। ५५ म्वद्ध करना, सम्मिलित करना अथवा जोड़ना। अर्थ के अनुसार विवेचन किया जाए तो शरीर एवं आत्मा का मि : ही योग कहलाता है। यह भारत के छः दर्शनों, जिन्हें षड्दर्शन कहा जाता है, में से एक है। अन्य दर्शन हैं-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त एवं मीमांसा। इसकी उत्पत्ति भारत में लगभग 5000 ई०पू० में हुई थी। पहले यह विद्या गुरु-शिष्य परम्परा के तहत पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी को हस्तांतरित होती थी। लगभग 200 ई०पू० में महर्षि पतञ्जलि ने योग-दर्शन को योग-सूत्र नामक ग्रन्थ के रूप में लिखित रूप में प्रस्तुत किया। इसलिए महर्षि पतञ्जलि को ‘योग का प्रणेता’ कहा जाता है। आज बाबा रामदेव ‘योग’ नामक इस अचूक विद्या का देश-विदेश में प्रचार कर रहे हैं।

योग की आवश्यकता–शरीर के स्वस्थ रहने पर ही मस्तिष्क स्वस्थ रहता है। मस्तिष्क से ही शरीर की समस्त क्रियाओं का संचालन होता है। इसके स्वस्थ और तनावमुक्त होने पर ही शरीर की सारी क्रियाएँ भली प्रकार से सम्पन्न होती हैं। इस प्रकार हमारे शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक विकास के लिए योगासन अति आवश्यक है।

हमारा हृदय निरन्तर कार्य करता है। हमारे थककर आराम करने या रात को सोने के समय भी हृदय गतिशील रहता है। हृदय प्रतिदिन लगभग 8000 लीटर रक्त को पम्प करता है। उसकी यह क्रिया जीवन भर चलती रहती है। यदि हमारी रक्त-नलिकाएँ साफ होंगी तो हृदय को अतिरिक्त मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। इससे हृदय स्वस्थ रहेगा और शरीर के अन्य भागों को शुद्ध रक्त मिल पाएगा, जिससे नीरोग व सबल हो जाएँगे। फलतः व्यक्ति की कार्य-क्षमता भी बढ़ जाएगी।

योग की उपयोगिता-मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए हमारे जीवन में योग अत्यन्त उपयोगी है। शरीर, मन एवं आत्मा के बीच सन्तुलन अर्थात् योग स्थापित करना होता है। योग की प्रक्रियाओं में जब तन, मन और आत्मा के बीच सन्तुलन एवं योग (जुड़ाव) स्थापित होता है, तब आत्मिक सन्तुष्टि, शान्ति एवं चेतना का अनुभव होता है। योग शरीर को शक्तिशाली एवं लचीला बनाए रखता है, साथ ही तनाव से भी छुटकारा दिलाता है। यह शरीर के जोड़ों एवं मांसपेशियों में लचीलापन लाता है, मांसपेशियों को मजबूत बनाता है, शारीरिक विकृतियों को काफी हद तक ठीक करता है, शरीर में रक्त प्रवाह को सुचारु करता है तथा पाचन-तन्त्र को मजबूत बनाती है। इन सबके अतिरिक्त यह शरीर की रोग-प्रतिरोधक शक्तियाँ बढ़ाता है, कई प्रकार की बीमारियों जैसे अनिद्रा, तनाव, थकान, उच्च रक्तचाप, चिन्ता इत्यादि को दूर करता है तथा शरीर को ऊर्जावान बनाता है। आज की भाग-दौड़ भरी जिन्दगी में स्वस्थ रह पाना किसी चुनौती से कम नहीं है। अतः हर आयु-वर्ग के स्त्री-पुरुष के लिए योग उपयोगी है।

योग के सामान्य नियम-योगासन उचित विधि से ही करना चाहिए अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि की सम्भावना रहती है। योगासन के अभ्यास से पूर्व उसके औचित्य पर भी विचार कर लेना चाहिए। बुखार से ग्रस्त तथा गम्भीर रोगियों को योगासन नहीं करना चाहिए। योगासन करने से पहले नीचे दिए सामान्य नियमों की जानकारी होनी आवश्यक है-

  1. प्रातः काल शौचादि से निवृत्त होकर ही योगासन का अभ्यास करना चाहिए। स्नान के बाद योगासन करना और भी उत्तम रहता है।
  2. सायंकाल खाली पेट पर ही योगासन करना चाहिए।
  3. योगासन के लिए शान्त, स्वच्छ तथा खुले स्थान का चयन करना चाहिए। बगीचे अथवा पार्क में योगासन करना अधिक अच्छा रहता है।
  4. आसन करते समय कम, हलके तथा ढीले-ढाले वस्त्र पहनने चाहिए।
  5. योगासन करते समय मन को प्रसन्न, एकाग्र और स्थिर रखना चाहिए। कोई बातचीत नहीं करनी चाहिए।
  6. योगासन के अभ्यास को धीरे-धीरे ही बढ़ाएँ।
  7. योगासन का अभ्यास करने वाले व्यक्ति को हलका, शीघ्र पाचक, सात्विक और पौष्टिक भोजन करना चाहिए।
  8. अभ्यास के आरम्भ में सरल योगासन करने चाहिए।
  9. योगासन के अन्त में शिथिलासन अथवा शवासन करना चाहिए। इससे शरीर को विश्राम मिल जाता है तथा मन शान्त हो जाता है।
  10. योगासन करने के बाद आधे घण्टे तक न तो स्नान करना चाहिए और न ही कुछ खाना चाहिए।

योग से लाभ-छात्रों, शिक्षकों एवं शोधार्थियों के लिए योग विशेष रूप से लाभदायक सिद्ध होता है, क्योंकि यह उनके मानसिक स्वास्थ्य को बढ़ाने के साथ-साथ उनकी एकाग्रता भी बढ़ाता है जिससे उनके लिए अध्ययन-अध्यापन की प्रक्रिया सरल हो जाती है।

पतञ्जलि के योग-सूत्र के अनुसार आसनों की संख्या 84 है। जिनमें भुजंगासन, कोणासन, पद्मासन, मयूरासन, शलभासन, धनुरासन, गोमुखासन, सिंहासन, वज्रासन, स्वस्तिकासन, पवर्तासन, शवासन, हलासन, शीर्षासन, धनुरासन, ताड़ासन, सर्वांगासन, पश्चिमोत्तानासन, चतुष्कोणासन, त्रिकोणासन, मत्स्यासन, गरुड़ासन इत्यादि कुछ प्रसिद्ध आसन हैं। योग के द्वारा शरीर पुष्ट होता है, बुद्धि और तेज बढ़ता है, अंग-प्रत्यंग में उष्ण रक्त प्रवाहित होने से स्फूर्ति आती है, मांसपेशियाँ सुदृढ़ होती हैं, पाचन शक्ति ठीक रहती है तथा शरीर स्वस्थ और हल्का प्रतीत होता है। योग के साथ मनोरंजन का समावेश होने से लाभ द्विगुणित होता है। इससे मन प्रफुल्लित रहता है और योग की थकावट भी अंनुभव नहीं होती। शरीर स्वस्थ होने से सभी इन्द्रियाँ सुचारु रूप से काम करती हैं। योग से शरीर नीरोग, मन प्रसन्न और जीवन सरस हो जाती है।

उपसंहार-आज की आवश्यकता को देखते हुए योग शिक्षा की बेहद आवश्यकता है, क्योंकि सबसे बड़ा सुख शरीर का स्वस्थ होना है। यदि आपको शरीर स्वस्थ है तो आपके पास दुनिया की सबसे बड़ी दौलत है। स्वस्थ व्यक्ति ही देश और समाज का हित कर सकता है। अत: आज की भाग-दौड़ की जिन्दगी में खुद को स्वस्थ एवं ऊर्जावान बनाए रखने के लिए योग बेहद आवश्यक है। वर्तमान परिवेश में योग न सिर्फ हमारे लिए लाभकारी है, बल्कि विश्व के बढ़ते प्रदूषण एवं मानवीय व्यस्तताओं से उपजी समस्याओं के निवारण के संदर्भ में इसकी सार्थकता और बढ़ गई है।

विज्ञापनों का हमारे जीवन पर प्रभाव

सम्बद्ध शीर्षक

  • विज्ञापन की दुनिया (2016)

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. विज्ञापन का उद्देश्य,
  3. विज्ञापन की विशेषताएँ,
  4. विज्ञापन के लाभ व हानियाँ,
  5. पत्रकारिता के मूल्यों का ह्रास,
  6. विज्ञापन के प्रभाव,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना–“विज्ञापन समाज एवं व्यापार जगत् में होने वाले परिवर्तन को प्रदर्शित करने वाला उद्योग है, जो बदलते समय के साँचे में तेजी से ढल जाता है। ऐसा भारत में ‘ऐडगुरु’ के नाम से विख्यात प्रसून जोशी का मानना है। आज हमारे चारों ओर संचार-तन्त्र का जाल-सा बिछा हैं। एक ओर हमारे जीवन में पुस्तकें, पत्रिकाएँ, समाचार-पत्र जैसे प्रिण्ट मीडिया के साधनों की भरमार है, तो दूसरी ओर हम घर से बाहर तक रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, कम्प्यूटर, मोबाइल जैसे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अत्याधुनिक साधनों से घिरे हुए हैं, किन्तु यदि हम कहें कि मीडिया के इन सारे साधनों पर सर्वाधिक आधिपत्य विज्ञापन का है, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि विज्ञापन न केवल इनकी आय का मुख्य स्रोत है वरन् पूरे संचार-तन्त्र का अपना गहरा प्रभाव भी छोड़ता है। तभी तो मार्शल मैकलुहन ने इसे बीसवीं सदी का सर्वोत्तम कला-विधान की संज्ञा दी है।

विज्ञापन का उद्देश्य–विज्ञापन का मुख्य उद्देश्य उत्पाद को प्रभावी तरीके से आम जन तक पहुँचाना होता है। सचमुच एक छोटा-सा विज्ञापन भला क्या नहीं कर सकता! हिट हो जाए तो एक सामान्य से उत्पाद को आसमान की बुलन्दियों तक पहुँचा सकता है। विज्ञापन की बानगी देखिए-“दो बूंद जिन्दगी की’ (पोलियो उन्मूलन), ‘जागो रे’ (टाटा चाय), ‘दाग अच्छे हैं’ (सर्फ एक्सेल) अथवा ‘नो उल्लू बनाईंग’ (आइडिया मोबाइल) जैसे विज्ञापन इतने प्रचलित हुए कि सहज ही लोगों की जुबान पर चढ़ गए। यद्यपि रेडियो या टेलीविजन के प्रसारण के छोटे-से समय अथवा समाचार-पत्रों के छोटे से हिस्से के द्वारा विज्ञापनों को अपना उद्देश्य पूरा करना पड़ता है, फिर भी इनमें रचनात्मकता देखते ही बनती है। इसमें दो राय नहीं है कि मैगी, साबुन, शैम्पू, मोबाइल जैसे उत्पादों में वृद्धि का कारण इनके रचनात्मक विज्ञापन ही हैं और वर्तमान समय का सच भी यही है कि आज किसी भी उत्पाद के प्रचार-प्रसार का सबसे प्रभावशाली माध्यम विज्ञापन ही है।

प्रसून जोशी के शब्दों में-“विज्ञापन का क्षेत्र अति सृजनात्मक है। मैं विज्ञापन लिखने के दौरान तुकबन्दी न कर पूरी कविता की रचना करता हूँ; जैसे-उम्मीदों वाली धूप, सनशाइन वाली आशा अथवा हाँ मैं क्रेजी हूँ! एक अच्छा विज्ञापन लोगों के दिल में उतर जाता है और वे ब्राण्ड से जुड़ जाते हैं।”

विज्ञापन, उपभोक्ताओं को शिक्षित एवं प्रभावित करने वाले दृष्टिकोण से निर्माताओं, थोक विक्रेताओं और खुदरा विक्रेताओं की ओर विचारों, उत्पादों एवं सेवाओं से सम्बन्धित सन्देशों का अव्यक्तिगत संचार है। यह मुद्रित, ऑडियो अथवा वीडियो रूप में हो सकता है। इसके प्रसारण के लिए समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं, रेडियो, टेलीविजन एवं फिल्मों को माध्यम बनाया जाता है। इनके अतिरिक्त होर्डिंग्स, बिलबोर्ड्स, पोस्टर्स इत्यादि का प्रयोग भी विज्ञापन के लिए किया जाता है। जूते-चप्पल से लेकर लिपस्टिक, पाउडर एवं दूध-दही यानी दुनिया की ऐसी कौन-सी चीज है, जिसका विज्ञापन किसी-न-किसी रूप में कहीं प्रकाशित न होता हो! यहाँ तक कि विवाह के लिए वर या वधू की तलाश हेतु भी विज्ञापन प्रकाशित एवं प्रसारित होते हैं।

विज्ञापन की विशेषताएँ-विज्ञापन की विशेषताओं पर गौर करें, तो पता चलता है कि ये सन्देश के अव्यक्तिगत संचार होते हैं। इनका उद्देश्य वस्तुओं एवं सेवाओं का संवर्द्धन करना होता है। इनके प्रायोजक द्वारा लोगों को वस्तुओं एवं सेवाओं को खरीदने के लिए प्रेरित करने वाला एक सन्देश प्रेषित किया जाता है। इस तरह, विज्ञापन संचार का भुगतान किया हुआ एक रूप है।

विज्ञापन से कई प्रकार के लाभ होते हैं। यह उत्पादों, मूल्यों, गुणवत्ता, बिक्री सम्बन्धी जानकारियों, विक्रय उपरान्त सेवाओं इत्यादि के बारे में उपयोगी सूचनाएँ प्राप्त करने में उपभोक्ताओं की मदद करता है। यह नए उत्पादों के प्रस्तुतीकरण, वर्तमान उत्पादों के उपभोक्ताओं को बनाए रखने और नए उपभोक्ताओं को आकर्षित कर अपनी बिक्री बढ़ाने में निर्माताओं की मदद करता है। यह लोगों को अधिक सुविधा, आराम, बेहतर जीवन-पद्धति उपलब्ध कराने में सहायक होता है।

इन सबके अतिरिक्त, विज्ञापन समाचार-पत्र, रेडियो एवं टेलीविजन की आय का प्रमुख स्रोत होता है। यदि सही मात्रा में इन माध्यमों को विज्ञापन न मिलें, तो इन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जो समाचार-पत्र हम दो या तीन रुपये में खरीदते हैं, उसकी छपाई का ही व्यय दस रुपये से अधिक होता है। फिर प्रश्न उठता है कि हमें कम कीमत पर यह कैसे उपलब्ध हो जाता है। दरअसल, विज्ञापनों से प्राप्त आय से इसकी भरपाई की जाती है। इस तरह स्पष्ट है कि यदि संचार माध्यमों को पर्याप्त विज्ञापन न मिलें, तो इनके बन्द होने का खतरा हो सकता है। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ ही आज खेल-कूद आयोजनों एवं कार्यक्रमों को प्रायोजित करती हैं। टेलीविजन पर सीधा प्रसारण हो या रेडियो पर ऑखों देखा हाल, इन सबको बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ ही प्रसारित करती हैं और इसका उद्देश्य होता है—उनकी वस्तुओं एवं सेवाओं का विज्ञापन। इस तरह, विज्ञापन के कारण ही लोगों का मनोरंजन भी होता है। आजकल टेलीविजन पर अत्यधिक मात्रा में प्रसारित विज्ञापनों के कारण लोगों को इससे अरुचि होने लगी है। इस बात से कैसे इनकार किया जा सकता है कि यदि विज्ञापन न हों, तो किसी कार्यक्रम का प्रसारण भी नहीं हो पाएगा। इस तरह देखा जाए, तो विज्ञापन के कारण ही लोगों का मनोरंजन हो पाता है। खिलाड़ियों के लिए विज्ञापन कुबेर का खजाना बन चुके हैं।

आजकल तकनीक एवं प्रौद्योगिकी में प्रगति के साथ ही विज्ञापन संचार के सशक्त माध्यम के रूप में उभरे हैं। समाचार-पत्र एवं रेडियो, टेलीविज़न ही नहीं, इण्टरनेट पर भी आजकल विभिन्न प्रकार के विज्ञापनों को देखा जा सकता है। सरकार की विकासोन्मुखी योजनाएँ-साक्षरता अभियान, परिवार नियोजन, महिला सशक्तीकरण, कृषि एवं विज्ञान सम्बन्धी योजनाएँ, पोलियो एवं कुष्ठ निवारण अभियान इत्यादि विज्ञापन के माध्यम से ही त्वरित ति से क्रियान्वित होकर प्रभावकारी सिद्ध होती हैं। इस तरह से विज्ञापन समाजसेवा में भी सहायक होता है। फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन एवं अभिनेत्री ऐश्वर्या राय द्वारा ‘पोलियो मुक्त अभियान के लिए प्रस्तुत किया गया विज्ञापन ‘दो बूंद जिन्दगी की’ इसका जीता-जागता उदाहरण है। इस विज्ञापन का जनमानस पर गहरा प्रभाव पड़ा है।

केवल व्यावसायिक लाभों के लिए कम्पनियों द्वारा ही विज्ञापनों का प्रसारण या प्रकाशन नहीं किया जाता। अब राजनीतिक दल भी अपने विचारों एवं योजनाओं को जन-जन तक पहुँचाने के लिए विज्ञापन का सहारा लेते हैं। इस तरह, चुनावों के समय लोकमत के निर्माण में भी विज्ञापनों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। बिल बर्नबेक के अनुसार, विज्ञापन का सर्वाधिक शक्तिशाली तत्त्व सच है।

विज्ञापन के लाभ व हानियाँ-विज्ञापन से यदि कई लाभ हैं, तो इससे हानियाँ भी कम नहीं हैं। विज्ञापन पर किए गए व्यय के कारण उत्पाद के मूल्य में वृद्धि होती है। उदाहरण के तौर पर ठण्डे पेय पदार्थों को ही लीजिए। जो ठण्डा पेय पदार्थ बाजार में दस रुपये में उपलब्ध होता है, उसका लागत मूल्य मुश्किल से 5 से 7 रुपये के आस-पास होता है, किन्तु इसके विज्ञापन पर करोड़ों रुपये व्यय किये जाते हैं। इसलिए इनकी कीमत में अनावश्यक वृद्धि होती है।

कभी-कभी विज्ञापन हमारे सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों को भी क्षति पहुँचाता है। भारत में पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव एवं उपभोक्तावादी संस्कृति के विकास में विज्ञापनों का भी हाथ है। ‘वैलेण्टाइन डे’ हो यो ‘न्यू ईयर ईव’ बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ इनका लाभ उठाने के लिए विज्ञापनों का सहारा लेती हैं। इण्टरनेट से लेकर गली-मुहल्ले तक में इनसे सम्बन्धित सामानों को बाजार लग जाता है। इस तरह कम्पनियों को करोड़ों को लाभ होता है तथा ग्राहकों को भी उचित मूल्य पर वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं।

पत्रकारिता के मूल्यों का ह्रास–विज्ञापन से होने वाली एक और हानि यह है कि विज्ञापनदाताओं के विरुद्ध किसी भी प्रकार का भण्डाफोड़ करने से जनसंचार माध्यम बचते हैं। विज्ञापनों से होने वाले आर्थिक लाभ के कारण धन लेकर समाचार प्रकाशित करने की प्रवृत्ति भी आजकल बढ़ रही है। इससे पत्रकारिता के मूल्यों का ह्रास हुआ है। मीडिया को लोकतन्त्र का चतुर्थ स्तम्भ कहा जाता है। विज्ञापनदाताओं के अनुचित प्रभाव एवं व्यावसायिक लाभ को प्राथमिकता देने के कारण मीडिया के उद्देश्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है। कई बार यह भी देखने में आता है कि सरकारी विज्ञापनों के लोभ में समाचार-पत्र एवं टीवी चैनल सरकार के विरोध में कुछ प्रकाशित या प्रसारित नहीं करते।।

विज्ञापन से एकाधिकार की प्रवृत्ति का भी सृजन होता है। माइक्रोसॉफ्ट प्रारम्भ से ही यह प्रयास करती रही है कि कम्प्यूटर की दुनिया में उसका एकाधिकार रहे। इसके लिए वह समस-समय पर विज्ञापनों का सहारा लेती है। विज्ञापनों के माध्यम से एकाधिकार की लड़ाई का सबसे अच्छा उदाहरण कोकाकोला एवं पेप्सी कम्पनियों के बीच विज्ञापनों की होड़ है। यह हमेशा माँग में वृद्धि करवाने में सहायक होता है।

विज्ञापन के प्रभाव-लुभावने विज्ञापनों द्वारा हमारी सोच को बीमार कर दिया जाता है और हम उनकी ओर स्वयं को बँधे हुए पाते हैं। आज मुँह धोने के लिए हजारों किस्म के साबुन और फेशवास तथा मुख की कांति को बनाए रखने के लिए हजारों प्रकार की क्रीम मिल जाएँगे, जिनमें विज्ञापनों द्वारा हमें यह विश्वास दिला दिया जाता है कि यह क्रीम हमें जवान और सुंदर बना देगा। रंग यदि काला है तो वह गोरा हो जाएगा। इन विज्ञापनों में सत्यता लाने के लिए बड़े-बड़े खिलाड़ियों और फिल्मी कलाकारों को लिया जाता है। हम इन कलाकारों की बातों को सच मानकर अपना पैसा पानी की तरह बहाते हैं परन्तु नतीजा कुछ भी सच नहीं निकलता।

हमें विज्ञापन देखकर जानकारी अवश्य लेनी चाहिए परन्तु विज्ञापनों को देखकर वस्तुएँ नहीं लेनी चाहिए। विज्ञापनों में जो दिखाया जाता है, वह शत-प्रतिशत सही नहीं होता। विज्ञापन हमारी सहायता करते हैं कि बाजार में किस प्रकार की सामग्री आ गई है। हमें विज्ञापनों द्वारा वस्तुओं की जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। विज्ञापन ग्राहक और निर्माता के बीच कड़ी का काम करते हैं।

ग्राहकों को अपने उत्पादों की बिक्री करने के लिए विज्ञापनों द्वारा आकर्षित किया जाता है। लेकिन इनके प्रयोग करने पर ही हमें उत्पादों की गुणवत्ता का सही पता चलता है। आज आप कितने ही ऐसे साबुन, क्रीम और पाउडरों के विज्ञापनों को देखते होंगे जिनमें यह दावा किया जाता है कि यह साँवले रंग को गोरा बना देता है, परन्तु ऐसा नहीं होता है। लोग अपने पैसे व्यर्थ में बरबाद कर देते हैं। उनके हाथ मायूसी ही लगती है। हमें चाहिए कि सोच-समझकर उत्पादों का प्रयोग करें। विज्ञापन हमारी सहायता अवश्य कर सकते हैं परन्तु कौन-सा उत्पाद हमारे काम का है या नहीं यह हमें तय करना चाहिए।

उपसंहार-विज्ञापन की दुनिया एक रोचक दुनिया है। जहाँ जैसा है, ग्लैमर है, शोहरत है एवं सफलता की ऊँचाइयाँ हैं। कई मॉडलों के प्रसिद्ध होने में विज्ञापनों का योगदान रहा है। कई फिल्मों के हिट होने के पीछे भी विज्ञापन की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। विज्ञापन की दुनिया की सबसे खास बात इसकी रचनात्मकता होती है। कुछ विज्ञापन तो हास्य-व्यंग्य से भी भरपूर होते हैं, जिसके कारण इनसे भी लोगों का अच्छा मनोरंजन हो जाता है। नि:सन्देह जानकारी बढ़ाने, मेल-मिलाप करने जैसे सकारात्मक साधन के रूप में कार्य करने पर विज्ञापन जनकल्याण के साथ-साथ देशहित में भी सहायक होगा। नॉर्मन डगलस से कहा भी है-“आप अपने विज्ञापनों के माध्यम से राष्ट्र के आदर्शों को प्रकट कर सकते हैं।’

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi सामाजिक व सांस्कृतिक निबन्य help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi सामाजिक व सांस्कृतिक निबन्य, drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition (पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition (पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 6
Chapter Name Determination of Price Under Perfect Competition (पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण)
Number of Questions Solved 47
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition (पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
पूर्ण प्रतियोगिता की मुख्य विशेषताएँ (लक्षण) बताइए। [2006, 08, 12, 14, 15]
या
पूर्ण प्रतियोगिता का क्या अर्थ है ? पूर्ण प्रतियोगी बाजार की विशेषताएँ बताइए। [2011, 12, 15, 16]
या
पूर्ण प्रतियोगिता की विशेषताओं को समझाइए। [2013]
या
पूर्ण प्रतियोगिता को परिभाषित कीजिए। इसकी किन्हीं चार विशेषताओं की विवेचना कीजिए। [2013]
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता का अर्थ तथा परिभाषाएँ
पूर्ण प्रतियोगिता, बाजार की वह दशा होती है जिसमें क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या अधिक होती है। इसमें कोई भी एक क्रेता अथवा विक्रेता व्यक्तिगत रूप से वस्तु की कीमत को प्रभावित नहीं कर सकता। समस्त बाजार में वस्तु का एक ही मूल्य होता है। पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में फर्म ‘कीमत ग्रहण करने वाली’ (Price taker) होती है, कीमत-निर्धारण करने वाली’ (Price maker) नहीं।

बोल्डिंग के अनुसार, “पूर्ण प्रतियोगिता व्यापार की वह स्थिति है जिसमें प्रचुर संख्या में क्रेता और विक्रेता बिल्कुल एक ही प्रकार की वस्तु के क्रय-विक्रय में लगे होते हैं तथा जो एक-दूसरे के अत्यधिक निकट सम्पर्क में आकर आपस में स्वतन्त्रतापूर्वक वस्तु का क्रय करते हैं।

श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के शब्दों में, “जब प्रत्येक विक्रेता द्वारा उत्पादित वस्तु की माँग पूर्ण रूप से लोचदार होती है तो विक्रेता की दृष्टि से प्रतियोगिता पूर्ण होती है। इसके लिए दो अवस्थाओं का होना अनिवार्य है। पहली-विक्रेताओं की संख्या अधिक होनी चाहिए, किसी एक विक्रेता का उत्पादन वस्तु के कुल उत्पादन का एक बहुत ही थोड़ा भाग होता है। दूसरी – सभी ग्राहक प्रतियोगी विक्रेताओं के बीच चयन करने की दृष्टि से समान होते हैं, जिससे बाजार पूर्ण हो जाता है।

पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की आवश्यक विशेषताएँ या लक्षण
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1.  पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में क्रेताओं तथा विक्रेताओं की संख्या अधिक होनी चाहिए, ताकि कोई एक क्रेता या विक्रेता वस्तु के मूल्य को प्रभावित न कर सके।
  2.  क्रेताओं तथा विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए, अर्थात् उनको बाजार में उस वस्तु के मूल्य तथा एक-दूसरे के विषय में पूर्ण जानकारी होनी चाहिए ताकि कोई विक्रेता बाजार मूल्य से अधिक मूल्य न ले सके और न ही कोई क्रेता अधिक मूल्य दे।
  3.  फर्मों द्वारा उत्पादित तथा बेची जाने वाली वस्तुएँ एकसमान गुण वाली होने के साथ ही अभिन्न भी होनी चाहिए, ताकि क्रेता बिना किसी प्रकार की शंका के उन्हें खरीद सके। साथ ही जब वस्तुएँ अभिन्न होंगी तब समस्त बाजार में उनकी कीमत भी एक रहेगी।
  4. पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में किसी समय-विशेष पर वस्तु की समस्त इकाइयों का मूल्य एक-समान होना चाहिए।
  5. पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में फर्मों का भाग लेना अथवा न लेना सरल व स्वतन्त्र होना चाहिए। उन पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए ताकि अधिक लाभ कमाने की इच्छा से ये एक व्यवसाय से दूसरे व्यवसाय में अथवा एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से भाग ले सकें।
  6. पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में क्रय-विक्रय की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए ताकि कोई भी क्रेता किसी भी स्थान से वस्तु खरीद सके तथा कोई भी विक्रेता किसी भी स्थान पर अपनी वस्तु बेच सके।
  7.  पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में वस्तुओं के मूल्य पर किसी भी प्रकार का नियन्त्रण नहीं होना चाहिए, क्योंकि मूल्य-नियन्त्रण के अभाव में ही माँग एवं सम्भरण (पूर्ति) शक्तियाँ प्रभावपूर्ण ढंग से । अपना कार्य करती हैं।

वास्तविक जीवन में पूर्ण प्रतियोगिता की दशाएँ नहीं पायी जाती हैं और यह विचार बिल्कुल काल्पनिक है। वास्तविक जीवन में पूर्ण प्रतियोगिता के न पाये जाने के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं

  • सभी वस्तुओं की बिक्री में क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या अधिक नहीं होती है। कुछ वस्तुएँ ऐसी भी हो सकती हैं जिनके उत्पादक थोड़ी संख्या में हों, और इसलिए, वे वस्तु की कीमत को प्रभावित कर सकते हैं। इसी प्रकार कुछ क्रेता भी बाजार में अत्यधिक प्रभावशाली हो सकते हैं।
  • अधिकतर बाजार में वस्तुओं में एकरूपता नहीं पायी जाती तथा वे एक जैसी नहीं होती हैं। इसके अतिरिक्त आज बाजारों में विज्ञापन, प्रचार, पैकिंग की भिन्नता आदि के द्वारा उपभोक्ताओं के मस्तिष्क में वस्तु-विभेद उत्पन्न कर दिया जाता है और वे एक वस्तु को दूसरी की अपेक्षा प्राथमिकता देने लगते हैं।
  • क्रेताओं और विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है। प्रायः उन्हें यह मालूम नहीं होता है कि अन्य क्रेताओं और विक्रेताओं के द्वारा किस कीमत पर सौदे किये जा रहे हैं।
  • उत्पत्ति के साधनों में पूर्ण गतिशीलता नहीं पायी जाती है। श्रम, पूँजी तथा अन्य साधनों के आने-जाने में अनेक बाधाएँ आ सकती हैं, जिसके कारण उत्पत्ति के साधनों की गतिशीलता कम हो जाती है।
  • उद्योगों में फर्मों का प्रवेश स्वतन्त्र नहीं होता है और इस सम्बन्ध में बहुत-सी बाधाएँ उत्पन्न की जा सकती हैं।

प्रश्न 2
पूर्ण प्रतिस्पर्धा में मूल्य-निर्धारण कैसे होता है ? स्पष्ट कीजिए। [2009, 10, 16]
या
पूर्ण प्रतियोगिता से आप क्या समझते हैं? इसके अन्तर्गत किसी वस्तु की कीमत का निर्धारण किस प्रकार होता है, समझाइए। [2013, 16]
उत्तर:
(संकेत – पूर्ण प्रतियोगिता के अर्थ के अध्ययन हेतु उपर्युक्त विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का अध्ययन करें]

पूर्ण/प्रतियोगिता प्रतिस्पर्धा में मूल्य-निर्धारण
प्रो० मार्शल प्रथम अर्थशास्त्री थे जिन्होंने पूर्ण प्रतिस्पर्धा में मूल्य-निर्धारण के सम्बन्ध में माँग तथा पूर्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया, जिसे मूल्य का आधुनिक सिद्धान्त भी कहते हैं। प्रो० मार्शल के अनुसार, यह वाद-विवाद व्यर्थ हैं कि मूल्य वस्तु की मॉग से निर्धारित होता है अथवा उसकी पूर्ति से। वास्तव में वह दोनों से निर्धारित होता है।

प्रो० मार्शल के अनुसार, माँग और पूर्ति की दोनों शक्तियाँ मूल्य को निर्धारित करती हैं। किसी वस्तु की सन्तुलन कीमत उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर माँग और पूर्ति की शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ सन्तुलित हो जाती हैं अर्थात् जहाँ पर वस्तु की माँग ठीक उसकी पूर्ति के बराबर होती है। उपयोगिता माँग की शक्तियों के पीछे कार्य करती है और उत्पादन लागत पूर्ति की शक्तियों के पीछे। माँग और पूर्ति में से कौन-सी शक्ति अधिक सक्रिय होती है, यह इस बात पर निर्भर होगा कि बाजार में माँग और पूर्ति को समायोजन के लिए कितना समय मिलता है। समयावधि जितनी अधिक लम्बी होती है उतना ही पूर्ति का प्रभाव अधिक होता है और समयावधि जितनी कम होती है उतना ही माँग का प्रभाव अधिक होता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि किसी वस्तु की कीमत सब उपभोक्ताओं के द्वारा की जाने वाली माँग तभी सब फर्मों की पूर्ति से निर्धारित होती है।

वस्तु की मॉग – वस्तु की माँग उपभोक्ताओं के द्वारा की जाती है। उपभोक्ता किसी वस्तु का मूल्य देने के लिए इसलिए तैयार रहते हैं क्योंकि वस्तुओं में तुष्टिगुण होता है तथा साथ-ही-साथ वे दुर्लभ भी होती हैं। उपभोक्ता किसी वस्तु का अधिक-से-अधिक मूल्य उस वस्तु के सीमान्त तुष्टिगुण के बराबर देने को तैयार होगा।

वस्तु की पूर्ति – वस्तु की पूर्ति उत्पादक (फर्मों) के द्वारा की जाती है। कोई भी विक्रेता या उत्पादक, वस्तु की दुर्लभता एवं उसकी उत्पादन लागत के कारण वस्तु का मूल्य माँगते हैं। कोई भी उत्पादक किसी वस्तु का मूल्य कम-से-कम उसकी सीमान्त उत्पादन लागत से कम लेने के लिए तैयार नहीं होगा। उत्पादक अपनी वस्तु को उस पर आयी सीमान्त उत्पादन लागत से कुछ अधिक मूल्य पर ही बेचना चाहेगा।

सन्तुलन कीमत – किसी वस्तु की कीमत का निर्धारण माँग और पूर्ति की शक्तियों के द्वारा होता है। माँग की जाने वाली वस्तु की मात्रा तथा पूर्ति की मात्रा कीमत के साथ बदलती है। वह कीमत जो बाजार में रहने की प्रवृत्ति रखेगी, ऐसी कीमत होगी जिस पर वस्तु की माँग की मात्रा उसकी पूर्ति की मात्रा के बराबर होगी।

जिस कीमत पर माँग और पूर्ति की शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ सन्तुलित होती हैं, सन्तुलन कीमत कहलाती है। इस कीमत पर माँग और पूर्ति की शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ सन्तुलित होती हैं। इसलिए इसे सन्तुलन की स्थिति कहते हैं। यदि कीमत सन्तुलन कीमत से अधिक होती है तो वस्तु की पूर्ति उसकी माँग से अधिक होगी और विक्रेता अपने स्टॉक को बेचने के लिए कीमत को कम करना चाहेंगे, यदि कीमत सन्तुलन कीमत से कम होती है और वस्तु की माँग उसकी पूर्ति से अधिक होगी तो क्रेता उसकी अधिक कीमत देने को तैयार होंगे। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सन्तुलन कीमत ही निर्धारित होने की प्रवृत्ति रखती है।

पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में किसी वस्तु का मूल्य उसके सीमान्त तुष्टिगुण और सीमान्त उत्पादन लागत के मध्य माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा उस बिन्दु पर निर्धारित होता है। जहाँ वस्तु की माँग और पूर्ति बराबर होती हैं। अत: वस्तु के मूल्य-निर्धारण में माँग और पूर्ति पक्ष दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं।

जिस प्रकार से कागज को काटने के लिए कैंची के दोनों ही फलों की आवश्यकता पड़ती है, ठीक उसी प्रकार किसी वस्तु का मूल्य निर्धारित करने के लिए माँग और पूर्ति दोनों ही आवश्यक हैं, जो एक सन्तुलन बिन्दु से आपस में जुड़ी रहते हैं। यह सन्तुलन बिन्दु ही वस्तु का मूल्य होता है। इस कथन को हम निम्नांकित सारणी तथा रेखाचित्र की सहायता से और अच्छी तरह से स्पष्ट कर सकते हैं

गेहूँ की पूर्ति (किंवटल में) कीमत (प्रति क्विटल ₹में) गेहूँ की माँग (किंवटल में)
100 1500 20
80 1350 40
50 1200 50
40 1000 80
20 850 1300

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि बाजार में केवल ₹1200 प्रति क्विटल का मूल्य ऐसा है जहाँ माँगी जाने वाली मात्रा (माँग) विक्रय हेतु प्रस्तुत मात्रा (पूर्ति) के बराबर है। दूसरे शब्दों में 50 क्विटल गेहूँ की माँग व पूर्ति की सन्तुलन मात्राएँ हैं और ₹1200 प्रति क्विटल का भाव ‘सन्तुलन मूल्य’ है।

रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण
उपर्युक्त तालिका के आधार पर मूल्य-निर्धारण संलग्न रेखाचित्र द्वारा दर्शाया गया है
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 1
रेखाचित्र में Ox-अक्ष पर वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर वस्तु की कीमत दर्शायी गयी है। चित्र में Ss’ पूर्ति वक्र तथा DD’ माँग वक्र है जो विभिन्न मूल्य पर माँग व पूर्ति की विभिन्न मात्राओं को प्रदर्शित करते हैं। माँग व पूर्ति वक्र परस्पर E बिन्दु पर एक-दूसरे को काटते हैं; अतः बिन्दु E सन्तुलन बिन्दु है तथा ₹ 1,200 सन्तुलन कीमत है। अत: गेहूं को बाजार में हैं ₹1,200 पर बेचा जाएगा, क्योंकि इस कीमत पर 50 क्विटल गेहूँ की माँग की जा रही है और 50 क्विटल गेहूं की ही पूर्ति की जाती है। इससे ऊँची या नीची कीमत बाजार में नहीं रह सकती। अतः ₹1,200 गेहूं की सन्तुलन कीमत है।

प्रश्न 3
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत उद्योग द्वारा माँग तथा पूर्ति की मात्रा दीर्घकाल में मूल्य का निर्धारण किस प्रकार किया जाता है ? चित्रों की सहायता से समझाइए।
उत्तर:
दीर्घकाल में मूल्य का निर्धारण
दीर्घकाल में इतना पर्याप्त समय होता है कि वस्तु की पूर्ति को घटा-बढ़ाकर माँग के अनुसार किया जा सकता है। इसमें पूर्ति परिवर्तनशील होती है, इसलिए कीमत-निर्धारण में पूर्ति का प्रभाव माँग की अपेक्षा अधिक होता है। वस्तु की पूर्ति उत्पादन लागत से प्रभावित होती है। दीर्घकाल में किसी वस्तु की कीमत उसकी उत्पादन लागत से ऊपर अथवा बहुत नीचे नहीं रह सकती। यह कीमत माँग और पूर्ति के बीच स्थायी और स्थिर सन्तुलन (Permanent and Stable Equilibrium) का परिणाम होती है। दीर्घकाल में मूल्य की प्रवृत्ति सीमान्त उत्पादन लागत के बराबर होने की होती है।

सीमान्त लागत स्वयं इस बात पर निर्भर रहती है कि उद्योग में उत्पत्ति का कौन-सा नियम कार्यशील है। अतः कीमत-निर्धारण में उत्पत्ति के नियम भी सम्मिलित रहते हैं। उत्पादन के बढ़ने के साथ सामान्य मूल्य की प्रवृत्ति बढ़ने की, घटने की अथवा स्थिर रहने की होगी। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वस्तु का उत्पादन उत्पत्ति ह्रास नियम, उत्पत्ति वृद्धि नियम अथवा उत्पत्ति समता नियम के अनुसार हो रहा है। पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत मूल्य-निर्धारण की प्रक्रिया को उत्पत्ति के नियमों के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं

1. उत्पत्ति वृद्धि नियम या उद्योग द्वारा घटती हुई लागतों में कीमत निर्धारण – यदि कोई उद्योग उत्पत्ति वृद्धि नियम (लागत ह्रास नियम) के अन्तर्गत कार्य करता है तो उत्पादन में वृद्धि के साथ सीमान्त लागत क्रमशः घटती जाती है तथा उत्पादन में कमी होने पर वह क्रमशः बढ़ती जाती है। ऐसी स्थिति में वस्तु की माँग और पूर्ति के बढ़ने पर सामान्य कीमत घट जाएगी और घटने पर बढ़ जाएगी।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 2
संलग्न चित्र में, Ox-अक्ष पर वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर कीमत और लागत दर्शायी गयी हैं। चित्र में SS पूर्ति की वक्र रेखा है। जो उत्पत्ति वृद्धि नियम के अन्तर्गत कार्य कर रही है। यह ऊपर से नीचे गिरती हुई इस बात को प्रकट करती है कि जैसे-जैसे उत्पादन की मात्रा बढ़ती जाती है, प्रति इकाई उत्पादन लागत घटती जाती है । तथा घटने के साथ बढ़ती है। DD वस्तु का माँग वक्र है जो पूर्ति वक्र SS को E बिन्दु पर काटता है और इसलिए सामान्य कीमत OP है। यदि वस्तु की

माँग बढ़कर D1D1 हो जाती है तो सामान्य कीमत घटकर OP1 हो जाएगी और यदि माँग घटकर D2D2 रह जाती है तो सामान्य कीमत बढ़कर OP2 हो जाएगी। इस प्रकार उत्पादन के बढ़ने पर सामान्य कीमत घटती है तथा घटने पर बढ़ती है।

2. उत्पत्ति ह्रास नियम या उद्योग द्वारा बढ़ती हुई लागतों में मूल्य-निर्धारण – किसी उद्योग में उत्पत्ति ह्रास नियम क्रियाशील होने पर उत्पादन वृद्धि के साथ-साथ सीमान्त उत्पादन लागत बढ़ती जाती है, तब वस्तु की सामान्य कीमत माँग और पूर्ति के बढ़ने पर बढ़ती है तथा घटने पर घटती है।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 3
चित्र में, Ox-अक्ष पर वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर कीमत और लागत दर्शायी गयी है। चित्र में ss रेखा उत्पत्ति ह्रास नियम के अन्तर्गत कार्य करने वाले उद्योग की पूर्ति रेखा है। जो इस बात को दिखाती है कि उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ सीमान्त उत्पादन व्यय बढ़ता जाता है। DD वस्तु की माँग रेखा है जो Ss पूर्ति रेखा को E बिन्दु पर काटती है; अत: OP सामान्य कीमत है। यदि वस्तु की माँग बढ़कर D1D1 हो जाती है तो वस्तु का उत्पादन OM से बढ़कर OM1 हो जाता है तथा उसकी सीमान्त उत्पादन लागत बढ़ जाती है। सामान्य कीमत OP से बढ़कर OP1 हो जाती वस्तु की माँग एवं पूर्ति है। इसके विपरीत, यदि माँग घटकर D2D2 हो। उत्पत्ति समता नियम के अन्तर्गत मूल्य-निर्धारण जाती है तो उत्पादन लागत पहले की अपेक्षा कम हो जाती है और सामान्य कीमत घटकर OP2 रह जाएगी। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि उत्पत्ति ह्रास नियम लागू होने की दशा में उत्पादन के बढ़ने पर सामान्य कीमत बढ़ जाती है और घटने पर घट जाती है।

3. उत्पत्ति समता नियम या उद्योग द्वारा स्थिर लागतों के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण – यदि उद्योग में स्थिर लागत का नियम क्रियाशील है तब उत्पादन के घटने या बढ़ने पर सीमान्त उत्पादन । लागत अपरिवर्तित रहती है। ऐसी स्थिति में वस्तु की माँग और पूर्ति के घटने-बढ़ने का सामान्य कीमत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 4
संलग्न चित्र में, OX-अक्ष पर वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर कीमत दर्शायी गयी है। चित्र में DD माँग वक्र तथा SS पूर्ति वक्र है, जो उत्पत्ति समता नियम के अन्तर्गत काम कर रहा है। इस वक्र की प्रवृत्ति इस बात की ओर संकेत करती है कि उत्पादन स्तर कुछ भी हो, सीमान्त उत्पादन लागत वही रहती है। उद्योग का माँग वक्र DD है जो पूर्ति वक्र ss को E बिन्दु पर काटता है, इसलिए सामान्य कीमत OP है। यदि माँग बढ़कर D1D1 हो जाती है तो सामान्य कीमत OP1 है जो OP के बराबर है। इस प्रकार माँग एवं पूर्ति माँग और पूर्ति के बढ़ने अथवा घटने पर सामान्य कीमत में कोई परिवर्तन नहीं होता।

प्रश्न 4
पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में कार्य करती हुई कोई फर्म अल्पकाल तथा दीर्घकाल में अपना उत्पादन तथा कीमत किस प्रकार निर्धारित करती है? चित्रों की सहायता से स्पष्ट कीजिए। [2013, 15]
या
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत फर्म का अल्पकालीन सन्तुलन आरेख सहित समझाइए। [2009]
या
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में फर्म के अल्पकाल में सन्तुलनों की व्याख्या कीजिए। [2007, 08, 15, 16]
या
पूर्ण प्रतियोगी बाजार में एक फर्म का दीर्घकालीन सन्तुलन चित्र द्वारा प्रदर्शित कीजिए। [2012]
या
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत फर्म की दीर्घकालीन स्थिति (सन्तुलन) का वर्णन कीजिए। [2014]
या
दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत एक फर्म की संस्थिति को समझाइए।[2015]
या
दीर्घकालिक पूर्ण प्रतियोगी बाजार में किसी फर्म के सन्तुलन को दर्शाइए। [2015]
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत किसी फर्म का अल्पकाल में कीमत व उत्पादन का निर्धारण
पूर्ण प्रतियोगिता में किसी फर्म के पास अल्पकाल में इतना पर्याप्त समय नहीं होता है कि वह माँग में वृद्धि होने पर माँग के अनुरूप पूर्ति को बढ़ा सके। इस कारण अल्पकाल में मूल्य-निर्धारण में माँग का प्रभाव पूर्ति की अपेक्षा अधिक होता है। अल्पकाल में फर्म के पास केवल इतना समय होता है कि उत्पत्ति के परिवर्तनशील साधनों को विभिन्न मात्राओं में प्रयोग किया जा सके जिससे कि अधिकतम लाभ हो, किन्तु स्थिर साधनों की मात्रा को नहीं बदला जा सकता। अल्पकालीन बाजार में पूर्ति को पर्याप्त मात्रा में बदलना सम्भव नहीं होता, इसलिए उसे माँग के
साथ पूर्ण रूप में समायोजित नहीं किया जा सकता। अल्पकाल में फर्म को लाभ, शून्य लाभ या हानि भी हो सकती है। इन तीनों स्थितियों की भिन्न-भिन्न व्याख्या निम्नवत् है
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 5

1. अल्पकाल में सामान्य लाभ से अधिक की स्थिति – लाभ कुल आय और कुल लागत के बीच का अन्तर होता है। इसलिए फमैं उतनी ही मात्रा में उत्पादन करती हैं जो इस अन्तर को अधिकतम करने वाली हो। उत्पत्ति नियमों की क्रियाशीलता के कारण प्रारम्भ में उत्पादन बढ़ता है तथा लागतें कम होती हैं। धीरे-धीरे उत्पादन स्थिर रहकर घटना प्रारम्भ होता है और लागतें बढ़ने लगती हैं। अतः फर्म अधिकतम लाभ ऐसे बिन्दु पर प्राप्त करेगी जहाँ उसकी सीमान्त आय, सीमान्त लागत के बराबर हो।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 6
फर्म का अधिकतम लाभ = (सीमान्त आय – औसत आय = सीमान्त लागंत)
सीमान्त आय संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर उत्पादन/बिक्री की मात्रा तथा OY-अक्ष पर कीमत दर्शायी गयी है।
चित्र में E सन्तुलन बिन्दु है, क्योंकि यहाँ पर सीमान्त फर्म की हानि की स्थिति लागत व सीमान्त आय बराबर हैं। ES = बिक्री की मात्रा है। अतः फर्म अधिकतम लाभ अर्जित कर रही है।

2. अल्पकाल में हानि की स्थिति – पूर्ण प्रतियोगिता में यह भी सम्भव है कि फर्म लाभ अर्जित न कर, हानि की स्थिति में आ जाए। ऐसी स्थिति में फर्म अपनी हानि को न्यूनतम करने का प्रयास करेगी। पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म को हानि तब होती है जब फर्म की औसत लागत, औसत आय से अधिक नै हो।
संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर उत्पादन। बिक्री की मात्रा । तथा OY-अक्ष पर कीमत दर्शायी गयी है। चित्र में E सन्तुलन बिन्दु है (क्योंकि यहाँ पर सीमान्त आय व सीमान्त लागत बराबर हैं)। चित्र में औसत लागत वक्र औसत आय AR से अधिक है, क्योंकि वह किसी भी स्थान पर औसत आय वक्र को स्पर्श नहीं कर रहा है; इसलिए फर्म हानि की स्थिति में है।

3. अल्पकाल में सामान्य या शून्य लाभ की स्थिति – अल्पकाल में पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत जब फर्म की औसत आय, औसत लागत के बराबर होती है, तो इस स्थिति में फर्म शून्य या सामान्य लाभ प्राप्त करती है।

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 7
संलग्न चित्र में, Ox-अक्ष पर उत्पादन बिक्री की मात्रा तथा OY-अक्ष पर कीमत दर्शायी गयी है। चित्र में E सन्तुलन बिन्दु है क्योंकि यहाँ पर सीमान्त आय और सीमान्त लागत बराबर हैं। OS उत्पादन/बिक्री की मात्रा, OP उद्योग द्वारा निर्धारित कीमत, SEE औसत लागत तथा औसत आय है। यह स्थिति सामान्य लाभ या शून्य लाभ को प्रदर्शित करती है। इस स्थिति में फर्म को साम्य उस बिन्दु पर होता है जहाँ सीमान्त लागत, औसत लागत, सीमान्त आय और औसत आय चारों बराबर होते हैं।

पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत दीर्घकाल में कीमत व उत्पादन का निर्धारण
दीर्घकाल में फर्म के पास इतना समय होता है कि वे अपने उत्पादन को पूर्णतया माँग में होने वाले परिवर्तनों के साथ समायोजित कर सकती है। दीर्घकाल में फर्म अपने सभी उत्पत्ति के साधनों में परिवर्तन कर उत्पादन को माँग में होने वाले परिवर्तन के अनुसार परिवर्तित करती है। दीर्घकाल में फर्मे न तो लाभ अर्जित करती हैं और न हानि उठाती हैं, केवल सामान्य लाभ प्राप्त करती है। लाभ की स्थिति में अन्य फर्म उद्योग में प्रवेश कर जाएगी, उत्पादन बढ़ेगा तथा कीमत कम हो जाएगी। हानि की स्थिति में फर्म उद्योग छोड़ जाएगी, उत्पादन कम होगा तथा कीमत बढ़ जाएगी। दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में फर्म केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त कर सकती है।

इस प्रकार दीर्घकाल में फर्म सन्तुलन के लिए दो दशाएँ पूरी होनी चाहिए

  1.  सीमान्त आय (MR) = सीमान्त लागत (MC)
  2.  औसत आय (AR) = औसत लागत (AC)

रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शन
संलग्न चित्र में, OX-अक्ष पर उत्पादन/बिक्री तथा OY-अक्ष पर कीमत दिखायी गयी है। चित्र में, AC फर्म का दीर्घकालीन औसत वक्र है तथा MC दीर्घकालीन सीमान्त लागत वक्र है। PAM फर्म की AR = MR रेखा है, e सन्तुलन बिन्दु है, क्योंकि इस बिन्दु पर MC वक्र, MR वक्र को नीचे से काटता है। इस बिन्दु पर MC = MR है, क्योंकि AR = MR रेखा AC वक्र पर उसके सबसे नीचे बिन्दु पर स्पर्श रेखा (Tangent) है; इसलिए कीमत दीर्घकालीन औसत लागत के बराबर है और फर्म केवल सामान्य लाभ प्राप्त कर रही है।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 8

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
एक चित्र की सहायता से पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत अल्पकाल में कीमत-निर्धारण को समझाइए।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में उद्योग द्वारा कीमत-निर्धारण
पूर्ण प्रतियोगिता में उद्योग व फर्म दो अलग-अलग इकाइयाँ होती हैं। उद्योग वृहत् इकाई होती है। तथा फर्म छोटी इकाई। कीमत-निर्धारण की उद्योग तथा फर्मों में भिन्न प्रक्रियाएँ हैं।
प्रो० मार्शल के अनुसार, “पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत या पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में उद्योगों में कीमत का निर्धारण माँग और पूर्ति की शक्तियाँ मिलकर करती हैं। किसी वस्तु की सन्तुलन कीमत उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर माँग और पूर्ति की शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ सन्तुलित हो जाती हैं अर्थात् जहाँ पर वस्तु की माँग उसकी पूर्ति के बराबर होती है। माँग और पूर्ति में से कौन-सी शक्ति अधिक सक्रिय होती है, यह इस बात पर निर्भर होगा कि बाजार में माँग और पूर्ति को समायोजन के लिए कितना समय दिया जाता है।

अल्पकाल में मूल्य का निर्धारण
अल्पकाले उस स्थिति को बताता है जिसमें वस्तुएँ पहले से ही उत्पन्न कर ली गयी होती हैं और समय इतना कम होता है कि उन्हें और अधिक उत्पन्न नहीं किया जा सकता। अल्पकाल में पूर्ति लगभग स्थिर होती है। उसे माँग के अनुसार नहीं बढ़ाया जा सकता। केवल अल्पकाल में परिवर्तनशील साधन; जैसे – कच्चा माल, शक्ति के साधनों आदि की मात्रा में वृद्धि करके कुछ वृद्धि की जा सकती है; परन्तु उसे माँग के बराबर नहीं बढ़ाया जा सकता, क्योंकि मशीनों की उत्पादन क्षमता निश्चित होती है।

और इतने कम समय में नई ‘फर्मे भी उद्योगों में प्रवेश नहीं कर सकतीं। अत: अल्पकाल में कीमत के निर्धारण में मुख्य प्रभाव माँग का रहता है। माँग में वृद्धि होने पर कीमत बढ़ जाती है तथा माँग कम होने पर कीमत कम हो जाती है। अल्पकाल में कीमत माँग और पूर्ति के अस्थायी और अस्थिर सन्तुलन का परिणाम होती है। वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं – (1) शीघ्र नष्ट होने वाली तथा (2) टिकाऊ। शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं की कीमत के निर्धारण में माँग का महत्त्व टिकाऊ वस्तुओं की अपेक्षा अधिक होता है। दोनों ही दशाओं में माँग का महत्त्व पूर्ति की अपेक्षा अधिक होता है।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 9
संलग्न चित्र में Ox-अक्ष पर वस्तु की मात्रा, पूर्ति एवं माँग तथा OY-अक्ष पर वस्तु की कीमत दर्शायी गयी है। अल्पकाल में पूर्ति निश्चित रहती है, इसलिए पूर्ति वक्र एक सीधी खड़ी रेखा (Vertical Straight Line) होगी। माँग वक्र DD पूर्ति वक्र ss’ को बिन्दु पर काटता है। यह सन्तुलन बिन्दु है। इस स्थिति में सन्तुलन कीमत OP होगी। यदि माँग बढ़कर D1D1 हो जाती है, तो सन्तुलन कीमत OP बढ़कर OP1 हो जाएगी, यदि माँग घटकर D2D2 जाती है तो सन्तुलन कीमत गिरकर OP2 रह जाएगी।

प्रश्न 2
पूर्ण प्रतियोगिता की दशाओं के अन्तर्गत किसी फर्म की कीमत एवं उत्पादन का निर्धारण किस प्रकार होता है ? उपयुक्त रेखाचित्रों की सहायता से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत व उत्पादन का निर्धारण
पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में फर्म की अपनी कोई कीमत-नीति नहीं होती। वह केवल उत्पादन का समायोजन करने वाली होती है। अतः पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में फर्म ‘कीमत ग्रहण करने वाली’ (Price taker) होती है, कीमत-निर्धारण करने वाली’ (Price maker) नहीं। उद्योग द्वारा माँग व पूर्ति के आधार पर कीमत निर्धारित होती है और उस कीमत को उद्योग के अन्तर्गत कार्य करने वाली सभी फर्मे दिया हुआ मान लेती हैं। बाजार में असंख्य फर्म होने के कारण कोई भी व्यक्तिगत फर्म अपनी क्रियाओं द्वारा निर्धारित कीमत को प्रभावित नहीं कर सकती। बाजार में वस्तु की माँग और पूर्ति द्वारा निर्धारित कीमत को फर्म द्वारा स्वीकार किया जाता है और फर्म उस कीमत के आधार पर अपने उत्पादन का समायोजन करती है। पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में फर्म का माँग वक्र एक समानान्तर सीधी रेखा (Horizontal straight line) होती है। यह निर्धारित मूल्य फर्म की औसत आय व सीमान्त आय होती है तथा एक ही रेखा द्वारा प्रदर्शित की जाती है।
निम्नांकित चित्र में उद्योगों द्वारा कीमत का निर्धारण दिखाया गया है तथा फर्म उस कीमत को ग्रहण कर रही है। उद्योग को माँग और पूर्ति का साम्य बिन्दु E तथा कीमत OP है। इसी OP कीमत को फर्म ग्रहण कर लेती है। उद्योग की माँग में वृद्धि हो जाने पर साम्य बिन्दु E1 तथा कीमत बढ़कर OP1 हो
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 10
जाती है, जिसे फर्म को स्वीकार करना पड़ता है तथा फर्म भी OP1 कीमत ग्रहण कर लेती है। अब फर्म की औसत आय तथा सीमान्त आय रेखा P1AM1 हो जाती है। इसी प्रकार माँग में कमी होने पर नया मॉग वक्र D2D2 और कीमत घटकर OP2 हो जाती है। यही कीमत फर्म भी ग्रहण कर लेती है तथा फर्म की औसत व सीमान्त आय रेखा P2AM2 हो जाती है।

स्पष्ट है कि पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में कोई फर्म उद्योग द्वारा निर्धारित कीमत के आधार पर अपनी उत्पादन व बिक्री का कार्य करती है। फर्म अधिकतम लाभ अर्जित करने का प्रयत्न करती है। कोई फर्म केवल सन्तुलन की स्थिति में अधिकतम लाभ प्राप्त करती है। किसी फर्म को सन्तुलन की स्थिति में तब ही कहा जाता है जब उसमें विस्तार अथवा संकुचन करने की कोई प्रवृत्ति न हो। इस स्थिति में ही फर्म अधिकतम लाभ प्राप्त करती है। यदि औसत लागत में सामान्य लाभ सम्मिलित हो तो कीमत के औसत लागत के बराबर होने की दशा में फर्म सामान्य लाभ प्राप्त करेगी।
पूर्ण प्रतियोगिता में एकमात्र स्थिति, जिसमें फर्म सन्तुलन में हो और सामान्य लाभ प्राप्त कर रही हो, वह है जब औसत लागत वक्र, सीमान्त आगम वक़ पर स्पर्श रेखा हो। इस स्थिति में ही औसत आय कीमत के बराबर होती है और फर्म अपनी सब लागतों को पूरा कर लेती है तथा केवल सामान्य लाभ प्राप्त करती है।

फर्म का सन्तुलन या अधिकतम लाभ – संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर उत्पादन तथा OY-अक्ष पर सीमान्त आय वे सीमान्त लागत दर्शायी गयी है। चित्र में E1 बिन्दु सन्तुलन बिन्दु हैं। इस बिन्दु पर सीमान्त आय सीमान्त लागत के बराबर है तथा फर्म अधिकतम उत्पादन कर रही हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 11
सीमान्त आय रेखा RR के नीचे का क्षेत्र फर्म के लाभ को प्रदर्शित करता है, क्योंकि इस क्षेत्र में सीमान्त आय सीमान्त लागत से अधिक है। इसके विपरीत सीमान्त आय रेखा RR से ऊपर का क्षेत्र जहाँ सीमान्त लागत सीमान्त आय से अधिक है, में फर्म को हानि उठानी पड़ेगी।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
‘पूर्ण प्रतियोगिता एक कल्पनामात्र है, व्यावहारिक नहीं।’ विवेचना कीजिए।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता के लिए जिन आवश्यक तत्त्वों या दशाओं का वर्णन किया गया है वे किसी भी दशा में व्यावहारिक नहीं हैं। यह आवश्यक नहीं है कि एक ही प्रकार की वस्तुओं में समानता हो अर्थात् वस्तुएँ एकसमान नहीं होती हैं। वस्तुओं का क्रय-विक्रय सामान्यत: प्रतिबन्धित होता है। उत्पत्ति के साधन पूर्ण गतिशील नहीं होते। क्रेता-विक्रेता को बाजार की दशाओं का पूर्ण ज्ञान नहीं होने के कारण बाजार में प्रचलित वस्तु के मूल्य में भिन्नता होती है। विज्ञापन, माल की पैकिंग, उधार बिक्री, घर तक माल पहुँचाने की सुविधा तथा छूट आदि सुविधाओं के कारण वस्तु-विभेद एवं मूल्य-विभेद की स्थिति सदा बनी रहती है। उपर्युक्त अनेक कारणों से हम देखते हैं कि पूर्ण प्रतियोगिता वाला बाजार अपूर्ण प्रतियोगिता का बाजार बनकर रह गया है, पूर्ण प्रतियोगिता तो मात्र एक कल्पना बनकर रह गयी है।
पूर्ण प्रतियोगिता की आवश्यक दशाओं में अनेक कमियाँ होने के बावजूद भी अर्थशास्त्र में पूर्ण प्रतियोगिता के अध्ययन का महत्त्व है, क्योंकि पूर्ण प्रतियोगिता द्वारा ही आर्थिक समस्याओं का अध्ययन सुविधापूर्वक सम्पन्न हो सकता है।

प्रश्न 2
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में औसत आय और सीमान्त आय का चित्र बनाइए। [2010]
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 12

प्रश्न 3
नीचे दिये गये रेखाचित्र में दी गयी वक्र रेखाओं के नाम लिखिए।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 13
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition 14

प्रश्न 4
संक्षिप्त व्याख्या करें-पूर्ण प्रतिस्पर्धा में लाभ तथा हानि की स्थितियाँ।
उत्तर:
पूर्ण प्रतिस्पर्धा में लाभ तथा हानि की स्थितियाँ–पूर्ण प्रतिस्पर्धा के अन्तर्गत अल्पकाल या दीर्घकाल में कोई भी फर्म मात्र सामान्य लाभ या शून्य लाभ ही प्राप्त करती है।
जब फर्म की औसत आय सीमान्त लागत के बराबर होती है, तो इस स्थिति में फर्म शून्य लाभ या सामान्य लाभ प्राप्त करती है। पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म की हानि की स्थिति तब होगी जब कि फर्म की औसत लागत औसत आय से अधिक हो; परन्तु हानि की स्थिति में फर्म उद्योग छोड़कर चली जाती है, परिणामस्वरूप पूर्ति कम हो जाएगी और कीमत (औसत आय) बढ़कर औसत लागत के बराबर हो जाएगी और फर्म पुनः सामान्य लाभ प्राप्त करेगा।

प्रश्न 5
पूर्ण प्रतियोगिता की कोई चार विशेषताएँ लिखिए। [2014, 15, 16]
उत्तर:
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 के अन्तर्गत देखें।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
“वस्तु की कीमत उसकी उत्पादन लागत से निर्धारित होती है। यह मत किन अर्थशासियों का है ?
उत्तर:
एडम स्मिथ और रिका।

प्रश्न 2
“वस्तु की कीमत उसकी उपयोगिता से निर्धारित होती है। यह मत किन अर्थशास्त्रियों का है?
उत्तर:
वालरा और जेवेन्स का।

प्रश्न 3
माँग तथा पूर्ति का मूल्य सिद्धान्त का प्रतिपादन किस अर्थशास्त्री ने किया ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल ने।

प्रश्न 4
मूल्य-निर्धारण में माँग कब निष्क्रिय रहती है ?
उत्तर:
यदि माँग निश्चित रहती है, किन्तु पूर्ति की दशाएँ बदलती रहती हैं, तो माँग निष्क्रिय रहती है।

प्रश्न 5
पूर्ति कब सक्रिय रहती है ?
उत्तर:
यदि माँग निश्चित रहती है किन्तु पूर्ति की दशाएँ बदलती रहती हैं, तब पूर्ति सक्रिय होती है।

प्रश्न 6
सन्तुलन कीमत किसे कहते हैं ?
उत्तर:
वह कीमत जिस पर माँग और पूर्ति बराबर होती हैं, सन्तुलन कीमत कहलाती है।

प्रश्न 7
मूल्य सिद्धान्त में सर्वप्रथम समय के महत्त्व पर किसे अर्थशास्त्री ने बल दिया ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल ने।

प्रश्न 8
सुरक्षित कीमत किसे कहते हैं ?
उत्तर:
सुरक्षित कीमत वह न्यूनतम कीमत होती है, जिस पर कोई उत्पादक अपनी वस्तु की माँग स्वयं करने लगते हैं और उसे बेचने से मना करते हैं।

प्रश्न 9
सुरक्षित कीमत किस प्रकार के बाजार में पायी जाती है ?
उत्तर:
सुरक्षित कीमत अल्पकालीन बाजार में होती है।

प्रश्न 10
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार के दो लक्षण (विशेषताएँ) लिखिए। [2009, 10, 11, 12, 14, 16]
उत्तर:
(1) क्रेताओं और विक्रेताओं की अधिक संख्या तथा
(2) बाजार को पूर्ण ज्ञान होना।

प्रश्न 11
अर्थशास्त्र में वस्तुएँ कितने प्रकार की मानी गयी हैं ?
उत्तर:
अर्थशास्त्र में वस्तुएँ दो प्रकार की मानी गयी हैं

  1. शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुएँ तथा
  2.  टिकाऊ या दीर्घकाल तक बनी रहने वाली वस्तुएँ।

प्रश्न 12
क्रेता या उपभोक्ता वस्तु-विशेष की माँग क्यों करते हैं ?
उत्तर:
विभिन्न वस्तुओं में पृथक्-पृथक् आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने का गुण या क्षमता होती है। इस कारण किसी वस्तु-विशेष की माँग उसमें निहित तुष्टिगुण के कारण होती है।

प्रश्न 13
कोई फर्म सन्तुलन की स्थिति में कब होती है ?
उत्तर:
कोई फर्म केवल सन्तुलन की स्थिति में ही अधिकतम लाभ प्राप्त करती है। अत: किसी फर्म को सन्तुलन की स्थिति में तब ही कहा जाता है जब उसमें विस्तार अथवा संकुचन करने की कोई प्रवृत्ति न हो।

प्रश्न 14
पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु के मूल्य का निर्धारण किसके द्वारा होता है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु का मूल्य माँग और पूर्ति के द्वारा निर्धारित होता है।

प्रश्न 15
क्या पूर्ण प्रतियोगिता वास्तविक जगत् में सम्भव है ?
उत्तर:
नहीं, पूर्ण प्रतियोगिता वास्तविक जगत् में सम्भव नहीं है।

प्रश्न 16
बाजार की किस दशा में वस्तु की कीमत उत्पादन लागत के बराबर होती है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में दीर्घकाल में वस्तु की कीमत उत्पादन लागत के बराबर होती है।

प्रश्न 17
अर्थशास्त्र में ‘अल्पकाल’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
अल्पकाल से हमारा अभिप्राय उस समयावधि से है, जिसमें केवल विद्यमान साधनों का अधिक अथवा कम प्रयोग करके पूर्ति को घटाया या बढ़ाया तो जा सकता हो, परन्तु साधनों की उत्पादन क्षमता में कोई परिवर्तन न किया जा सकता हो।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में उत्पादकों को प्राप्त होता है केवल
(क) सामान्य लाभ
(ख) असामान्य लाभ
(ग) अतिरिक्त लाभ
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) सामान्य लाभ।

प्रश्न 2
दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में उत्पादकों को होता है [2011]
(क) असामान्य लाभ
(ख) सामान्य लाभ या शून्य लाभ
(ग) अतिरिक्त लाभ
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) सामान्य लाभ या शून्य लाभ।।

प्रश्न 3
पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादन होता है
(क) विषम रूप वस्तुओं का
(ख) एक रूप वस्तुओं को
(ग) (क) व (ख)
(घ) किसी का भी नहीं
उत्तर:
(ख) एक रूप वस्तुओं का।

प्रश्न 4
पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में एक वस्तु का सम्पूर्ण बाजार मूल्य होता है
(क) एक ही
(ख) अलग-अलग
(ग) सामान्य
(घ) ये सभी
उत्तर:
(क) एक ही।

प्रश्न 5
पूर्ण प्रतियोगिता में क्रेता पाये जाते हैं
(क) कम संख्या में
(ख) बराबर
(ग) अधिक संख्या में
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) अधिक संख्या में।

प्रश्न 6
दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म [2011, 12]
(क) हानि वहन करती है।
(ख) असामान्य लाभ प्राप्त करती है।
(ग) सामान्य लाभ प्राप्त करती है।
(घ) कीमत् परिवर्तित कर देती है।
उत्तर:
(ग) सामान्य लाभ प्राप्त करती है।

प्रश्न 7
पूर्ण प्रतियोगिता में सीमान्त आय रेखा और औसत आय रेखा का स्वरूप होता है
(क) नीचे गिरती हुई।
(ख) ऊपर उठती हुई।
(ग) बराबर व क्षैतिज
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) बराबर व क्षैतिज।

प्रश्न 8
पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म असामान्य लाभ प्राप्त करती है, जब [2012]
(क) औसत आय > औसत लागत
(ख) सीमान्त आय < सीमान्त लागत
(ग) औसतं आय > सीमान्त आय ।
(घ) सीमान्त आय > औसत आय
उत्तर:
(क) औसत आय > औसत लागत।

प्रश्न 9
यदि पूर्ति वक्र ऊर्ध्व रेखा के रूप में हो, तो वह किस बाजार का पूर्ति वक्र है?
(क) अल्पकाल का
(ख) अति-अल्पकाल का
(ग) दीर्घकाल का।
(घ) इनमें से किसी का नहीं
उत्तर:
(ख) अति अल्पकाल का।

प्रश्न 10
दीर्घकाल में सामान्य लाभ बाजार की किस दशा में प्राप्त होता है?  [2006]
(क) अपूर्ण प्रतियोगिता
(ख) पूर्ण प्रतियोगिता
(ग) एकाधिकार
(घ) अल्पाधिकार
उत्तर:
(ख) पूर्ण प्रतियोगिता।

प्रश्न 11
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत किस फर्म की माँग रेखा होती है? [2006]
(क) कम लोचदार
(ख) अधिक लोचदार
(ग) पूर्णत: लोचदार
(घ) पूर्णतः बेलोचदार
उत्तर:
(ग) पूर्णत: लोचदार।

प्रश्न 12
निम्नलिखित में से कौन-सी पूर्ण प्रतियोगिता की विशेषता नहीं है? [2006, 14]
(क) क्रेताओं की अधिक संख्या
(ख) विक्रेताओं की अधिक संख्या
(ग) बाजार का पूर्ण ज्ञान
(घ) वस्तु-विभेद
उत्तर:
(घ) वस्तु-विभेद।

प्रश्न 13
पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तुएँ होती हैं [2012]
(क) समरूप
(ख) विभेदित
(ग) निकृष्ट
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) समरूप।

प्रश्न 14
पूर्ण प्रतियोगिता में [2014]
(क) केवल एक फर्म होती है।
(ख) कीमत विभेद होता है।
(ग) वस्तु विभेद होता है।
(घ) समरूप वस्तुएँ होती हैं।
उत्तर:
(घ) समरूप वस्तुएँ होती हैं।

प्रश्न 15
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत सभी फर्मों द्वारा उत्पादित वस्तुएँ [2014]
(क) समरूप होती हैं
(ख) विभेदित होती हैं
(ग) पूरक होती हैं
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) समरूप होती हैं।

प्रश्न 16
पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत किसी वस्तु की कीमत का निर्धारण होता है [2014, 16]
(क) क्रेताओं की माँग के द्वारा
(ख) विक्रेताओं की पूर्ति के द्वारा
(ग) उद्योग की माँग-पूर्ति की शक्तियों के द्वारा
(घ) फर्मों की लागतों के द्वारा
उत्तर:
(ग) उद्योग की माँग-पूर्ति की शक्तियों के द्वारा।

प्रश्न 17
पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म का माँग वक्र होता है [2014, 16]
(क) क्षैतिज
(ख) लम्बवत्
(ग) ऋणात्मक ढाल
(घ) धनात्मक ढाल
उत्तर:
(क) क्षैतिज।

प्रश्न 18
दीर्घकाल में एक एकाधिकारी फर्म अर्जित करती है केवल [2016]
(क) असामान्य लाभ
(ख) सामान्य लाभ
(ग) हानि
(घ) न्यूनतम लाभ
उत्तर:
(ख) सामान्य लाभ।

19. पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म सामान्य लाभ प्राप्त करती है [2016]
(क) सीमान्त आय = सीमान्त लागत = औसत आय = औसत लागत
(ख) औसत आय = औसत लागत
(ग) औसत आय = सीमान्त लागत
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(ख) औसत आय = औसत लागत

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition (पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 Determination of Price Under Perfect Competition (पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत-निर्धारण) , drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 7 Advent of European Powers in India

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 7 Advent of European Powers in India (यूरोपीय शक्तियों का भारत में प्रवेश) are the part of UP Board Solutions for Class 12 History. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 7 Advent of European Powers in India (यूरोपीय शक्तियों का भारत में प्रवेश).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 7
Chapter Name Advent of European Powers in India
(यूरोपीय शक्तियों का भारत में प्रवेश)
Number of Questions Solved 19
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 7 Advent of European Powers in India (यूरोपीय शक्तियों का भारत में प्रवेश)

अभ्यास

प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए
1. 1498 ई०
2. 1600 ई०
3. 1664 ई०
4. 1758 ई०
5. 23 जून, 1757 ई०
6. 1765 ई०
7. 1772 ई०
उतर:
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ-संख्या- 134 पर तिथि सार का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 2.
सत्यया असत्य बताइए
उतर:
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 135 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय प्रश्न
उतर:
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 135 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
उतर:
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 135 व 136 का अवलोकन कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में पुर्तगाली सत्ता की स्थापना पर प्रकाश डालिए।
उतर:
सन् 1498 में पुर्तगाली नाविक वास्को-डि-गामा अपने जाहजी बेड़ों के साथ कालीकट पहुँचा। कालीकट के राजा जमोरिन ने उनका आतिथ्य सत्कार किया। पुर्तगालियों ने इस स्वागत और सम्मान का अनुचित लाभ उठाया। 1500 ई० में पड़ो अल्बरेज काबराल ने 13 जहाजों को एक बेड़ा और सेना लेकर जमोरिन को नष्ट करने की कोशिश की। 1502 ई० में वास्को-डि-गामा पुन: भारत आया और मालाबार तटों पर क्षेत्रीय अधिकार कर भारत में पुर्तगाली सत्ता की स्थापना का प्रयास किया।

प्रश्न 2.
भारत में पुर्तगाली शक्ति के उत्थान और पतन पर संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उतर:
पुर्तगाली गर्वनर अल्मोड़ा और अल्बुकर्क के प्रयासों से भारत में पुर्तगाली शक्ति का उत्थान हुआ। पुर्तगालियों ने भारत के पश्चिमी तटों पर गोवा के अतिरिक्त दमन, दीव, सालीसट, बेसीन, चोल, बम्बई तथा बंगाल में हुगली आदि पर अधिकार कर 150 वर्षों तक सत्ता का उपभोग किया। भारत में पुर्तगालियों की शक्ति के पतन के विभिन्न कारण रहे हैं। 1580 ई० में पुर्तगाल स्पेन के साथ सम्मिलित होने से अपनी स्वतंत्रता खो बैठा। मुगलों और मराठों ने भी पुर्तगालियों का विरोध किया। बाद में पुर्तगाली व्यापार के प्रति उदासीन हो गए और राजनीति में अधिक हस्तक्षेप करने लगे, जिससे स्थानीय विरोधों के कारण उनकी आर्थिक शक्ति समाप्त होने लगी, जो उनके पतन का मख्य कारण बनी।

प्रश्न 3.
भारत में डचों की प्रगति के इतिहास पर प्रकाश डालिए।
उतर:
भारत में पुर्तगालियों के व्यापारिक लाभ से प्रोत्साहित होकर हॉलैण्ड निवासी, जिन्हें डच कहा जाता है, ने अपना ध्यान भारत की ओर केन्द्रित किया। सन् 1602 ई० में भारत में डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की गई, जिसका उद्देश्य भारत व अन्य पूर्वी देशों में व्यापार करना था। शीघ्र ही डचों ने मसालों के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित कर धीरे-धीरे पुर्तगाली शक्ति को समाप्त कर अपने प्रभाव में वृद्धि की।

प्रश्न 4.
कर्नाटक के प्रथम युद्ध का क्या परिणाम हुआ?
उतर:
अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के मध्य कर्नाटक का प्रथम युद्ध हुआ। इस युद्ध के कारण फ्रांसीसियों के भारत में साम्राज्य स्थापना के सपने को गहरा आघात पहुँचा परन्तु फिर भी भारत में फांसीसियों की धाक जम गई तथा फ्रांसीसी गर्वनर डुप्ले ने और अधिक उत्साह से देश की आन्तरिक समस्याओं में हस्तक्षेप करना आरम्भ कर दिया। इस युद्ध ने विदेशियों पर भारत की दुर्बलता को पुर्णत: प्रकट कर दिया और दोनों शक्तियाँ कर्नाटक के आन्तरिक संघर्षों में हस्तक्षेप करने लगीं।

प्रश्न 5.
भारत में पुर्तगालियों की असफलता के दो कारण लिखिए।
उतर:
भारत में पुर्तगालियों की असफलता के दो कारण निम्नलिखित हैं

  • मुगलों एवं मराठों द्वारा पुर्तगालियों का विरोध करना।
  • पुर्तगालियों की धार्मिक कट्टरता, धर्म-प्रचार एवं स्थानीय स्त्रियों से विवाह करने की नीति।

प्रश्न 6.
अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसियों की पराजय के किन्हीं पाँच कारणों का वर्णन कीजिए।
उतर:
अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसियों की पराजय के पाँच कारण निम्नलिखित हैं

  • अंग्रेजी कंपनी का व्यापारिक तथा आर्थिक दृष्टि से श्रेष्ठ होना।
  • अंग्रेजों की शक्तिशाली नौसेना
  • मुम्बई पत्तन की सुविधा
  • ब्रिटिश अधिकारियों की योग्यता
  • फ्रांसीसियों द्वारा व्यापार की अपेक्षा राज्य विस्तार पर बल देना।

प्रश्न 7.
अंग्रेजों ने सूरत पर किस प्रकार अधिकार किया?
उतर:
अंग्रेजों ने सूरत में व्यापारिक कोठी की स्थापना करके धीरे-धीरे सूरत पर अधिकार किया।

प्रश्न 8.
इलाहाबाद की संधि क्या थी? उसकी शर्ते का वर्णन कीजिए।
उतर:
इलाहाबाद की संधि( 1765 ई० )- क्लाइव 1765 ई० में कलकत्ता (कोलकाता) का गर्वनर बनकर पुनः भारत आया। उसने इलाहाबाद जाकर मुगल सम्राट शाहआलम और अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ अलग-अलग संधि की जो इलाहाबाद की संधि के नाम से प्रसिद्ध है। इस संधि की शर्ते इस प्रकार थीं

  • मुगल सम्राट शाहआलम ने बंगाल, बिहार व उड़ीसा (ओडिशा) की दीवानी अंग्रेजों को प्रदान कर दी।
  • मुगल सम्राट शाहआलम को कड़ा और इलाहाबाद के जिले प्रदान किये गये।
  • अंग्रेजों ने मुगल सम्राट शाहआलम को 26 लाख रुपया वार्षिक पेंशन देना स्वीकार किया।
  • नवाब शुजाउद्दौला ने अंग्रेजों को युद्ध के हर्जाने के रूप में 50 लाख रुपया देना स्वीकार किया।
  • शुजाउदौला ने बाह्य आक्रमणों के दौरान भेजी जाने वाली अंग्रेजी सेना का खर्चा वहन करना स्वीकार किया।
  • चुनार का दुर्ग अंग्रेजों के पास यथावत रहने दिया।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में यूरोपीय शक्तियों के आगमन की विवेचना कीजिए।
या
सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय कम्पनियों की गतिविधियों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उतर:
पुर्तगालियों का भारत आगमन- 20 मई, 1498 ई० का दिन भारत और यूरोप के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन कहा जा सकता है क्योंकि इस दिन भारत की धरती पर एक पुर्तगाली वास्को-डि-गामा अपने चार जहाजों और एक सौ अठारह नाविकों के साथ उतरा। एडम स्मिथ ने अमेरिका की खोज और आशा अन्तरीप की ओर से भारत के मार्ग की खोज को “मानवीय इतिहास की दो महानतम् और अत्यन्त महत्वपूर्ण घटनाएँ बताया है।”

आधुनिक अन्वेषणों से पता चलता है कि वास्को-डि-गामा स्वयं भारत नहीं पहुंचा था, बल्कि वह मोजांबिक पहुँचने पर एक भारतीय व्यापारी के जहाज के पीछे-पीछे चलकर कालीकट तक पहुँच पाया। अत: भारत तक उसकी यात्रा ‘वास्को-डि-गामा की नवीन खोज’ न थी। एक प्रकार से उसने इस मार्ग का अनुसरण किया था। कुछ भी हो, कालीकट पहुँचने पर वहाँ के हिन्दू राजा जमोरिन ने उसका स्वागत और आतिथ्य-सत्कार किया। लेकिन पुर्तगालियों ने इस स्वागत और सम्मान का अनुचित लाभ उठाया। 1500 ई० में पेड्रो अल्वरेज काबराल ने 13 जहाजों का एक बेड़ा और सेना लेकर जमोरिन को नष्ट करने की कोशिश की। 1502 ई० में पुन: वास्को-डि-गामा भारत आया और मालाबार तटों पर क्षेत्रीय अधिकार के कुछ प्रयास किए।

आल्मीड़ा या अल्मोडा भारत में पहला पुर्तगाली गवर्नर था। 1509 ई० में अल्बुकर्क नामक पुर्तगाली गवर्नर बनकर भारत आया। विश्वासघात और पारस्परिक फूट का लाभ उठाकर नवम्बर, 1510 में पुर्तगालियों ने गोवा पर अपना अधिकार कर लिया। इन्होंने ईसाईयत का मनमाने ढंग से प्रचार किया और व्यापार को बढ़ाया। गोवा के अतिरिक्त दमन, दीव, सालीसट, बेसीन, चोल और बम्बई (मुम्बई), बंगाल में हुगली तथा मद्रास (चेन्नई) तट पर स्थित सान-थोम पुर्तगालियों के अधिकार में चले गए। 150 वर्षों तक सत्ता का उपभोग करने के उपरान्त भारत में उनकी सत्ता का पतन होने लगा और उनके अधिकार में केवल गोवा, दमन और दीव रह गए थे।

भारत में डचों का आगमन- भारत में पुर्तगालियों को व्यापारिक लाभ से प्रोत्साहित होकर हॉलैण्ड निवासी, जिन्हें डच कहा जाता है, ने अपना ध्यान भारत की ओर केन्द्रित किया। उनका पहला व्यापारिक बेड़ा मलाया द्वीप-समूह में आया। केप ऑफ गुड होप होते हुए भारत में 1596 ई० में आने वाला कार्निलियस छूटमैन प्रथम डच नागरिक था। उनके द्वारा भी अन्य यूरोपीय देशों की भाँति भारत में व्यापार हेतु 1602 ई० में डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की गई, जिसका उद्देश्य भारत व अन्य पूर्वी देशों से व्यापार करना था।

शीघ्र ही डचों ने मसालों के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया और धीरे-धीरे उन्होंने पुर्तगाली शक्ति को समाप्त कर दिया। डचों ने पुर्तगालियों को मलक्का (1641 ई०) और श्रीलंका (1658 ई०) के तटीय भागों से भगा दिया और दक्षिण भारत में अपने प्रभाव में वृद्धि की। डचों ने भारत में सूरत, भड़ौच, कैम्बे, अहमदाबाद, कोचीन, मसूलीपट्टम, चिन्सुरा और पटना में अनेक व्यापारिक केन्द्र बनाए। वे भारत में सूती वस्त्र और कच्चा रेशम, शोरा, अफीम और नील निर्यात करते थे, परन्तु शीघ्र ही वे भी अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच की स्पर्धा का शिकार हुए। डचों की कम्पनियाँ शीघ्र ही प्रभावहीन हो गई, जिसका प्रमुख कारण डच सरकार का कम्पनी के कार्यों में अत्यधिक हस्तक्षेप था। सरकारी प्रभुत्व को ज्यादा महत्व दिया गया, व्यापार को कम। यह माना जाता है कि डचों की हार का प्रमुख कारण कम्पनी का सरकारी संस्था होना था।

सर्वप्रथम डच और अंग्रेज लोग मित्रों की भाँति पूर्व में आए ताकि कैथोलिक धर्मानुयायी देश पुर्तगाल तथा स्पेन का सामना कर सकें। परन्तु शीघ्र ही यह मित्रता की भावना लुप्त हो गई तथा आपसी विरोध आरम्भ हो गया। अंग्रेजों की स्पेन समर्थक नीति ने आंग्ल-डच मित्रता पर आघात किया तथा दोनों में एक गम्भीर संघर्ष आरम्भ हो गया। अम्बोयना में हुए अंग्रेजों के हत्याकाण्ड (1623 ई०) के कारण समझौते की सब आशाओं पर पानी फिर गया। गर्म मसाले के द्वीपों में अपनी श्रेष्ठता कायम करने के लिए यह संघर्ष लम्बे समय तक चलता रहा तथा डचों ने अपनी स्थिति को वहाँ सुदृढ़ बनाए रखा।

अंग्रेजों का भारत आगमन- महारानी एलिजाबेथ प्रथम के शासनकाल में 1599 ई० में लन्दन में लॉर्ड मेयर की अध्यक्षता में भारत के साथ सीधा व्यापार करने के लिए एक संस्था बनाने पर विचार हुआ, जो ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ नाम से शुरू की गई। 31 दिसम्बर, 1600 ई० को महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने इस कम्पनी को एक अधिकार-पत्र प्रदान किया। प्रारम्भ में कम्पनी को साहसी लोगों की मण्डली कहा गया क्योंकि इसके सदस्य लूटने में दक्ष थे।

1608 ई० में अंग्रेजों का पहला जहाजी बेड़ा हॉकिन्स के नेतृत्व में भारत आया था। 1613 ई० में सूरत में अंग्रेजों की व्यापारिक कोठी की स्थापना की। 1615 ई० में सर टामस रो व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करने के उद्देश्य से मुगल सम्राट जहाँगीर के दरबार में आगरा आया और यहाँ तीन वर्ष तक रहा। प्रारम्भ में मुगल दरबारों में पुर्तगालियों का अधिक प्रभाव होने के कारण उसे अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त नहीं हुई, किन्तु अन्ततः वह शहजादा खुर्रम से व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करने में सफल हुआ।

इसके बाद अंग्रेजों ने सूरत, आगरा, अहमदाबाद तथा भड़ौच में व्यापारिक कोठियाँ स्थापित करने की अनुमति प्राप्त की। 1640 ई० में अंग्रेज कम्पनी ने मद्रास (चेन्नई) में एक सुदृढ़ फोर्ट (सेंट जॉर्ज) की स्थापना की। 1642 ई० में बालासोर में भी अंग्रेजों ने एक व्यापारिक कोठी बनाई। 1668 ई० में कम्पनी को बम्बई (मुम्बई) प्राप्त हुआ जो ब्रिटिश सम्राट चार्ल्स द्वितीय को 1661 ई० में पुर्तगाली राजकुमारी ब्रेगाजा की केथरीन से विवाह करने पर दहेज के रूप में मिला था। इसी प्रकार 1651 ई० में अंग्रेजों ने एक फैक्ट्री हुगली में और इसके बाद बंगाल में, कलकत्ता (कोलकाता) और कासिम बाजार में कई कोठियाँ स्थापित कीं।

ईस्ट इण्डिया के विरोधी सौदागरों ने 17 वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में एक नई कम्पनी स्थापित की, जिसका नाम ‘न्यू कम्पनी रखा गया। इस नई कम्पनी ने भी घूस व रिश्वत की नीति अपनाई। शीघ्र ही दोनों कम्पनियों में परस्पर स्वार्थवश टकराव हो गया। अन्त में 1702 ई० में दोनों कम्पनियों ने एक संयुक्त कम्पनी बनाकर अपना व्यापार तेजी से बढ़ाया और स्थानीय राजाओं व नवाबों से भी सम्बन्ध स्थापित किए। 1707 ई० में इस कम्पनी ने मुगल बादशाह फर्रुखसियार से व्यापारिक अधिकारों का एक फरमान (अधिकार-पत्र) प्राप्त किया। अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों शक्तियों ने भारत के देशी राजाओं के पारस्परिक झगड़ों तथा उत्तराधिकार के मामले में हस्तक्षेप कर भूमि, धन व अन्य व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त कर ली।

अंग्रेजों का डचों तथा फ्रांसीसियों से व्यापारिक संघर्ष हुआ, जिसमें अंग्रेजों को सफलता प्राप्त हुई। मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात् तो अंग्रेजों का भारत के राजनीतिक क्षेत्र में भी प्रभाव बढ़ा। हॉलैण्ड तथा पुर्तगाल यूरोप के दुर्बल राष्ट्रों में थे। अतः वे अंग्रेजों के आगे न टिक सके और व्यापारिक प्रतिद्वन्द्विता से बाहर हो गए। अब अंग्रेजों की केवल फ्रांसीसीयों से व्यापारिक प्रतिस्पर्धा थी। दक्षिण भारत में फैली राजनीतिक अव्यवस्था के कारण दोनों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ जाग्रत हो उठीं और राजनीतिक प्रभुत्व के लिए दोनों के बीच तीन युद्ध (1746-1763 ई०) हुए। यूरोप में भी 1756-63 ई० तक दोनों में सप्तवर्षीय संघर्ष चला, जिसमें फ्रांस का पराभव हुआ। अन्त में भारत में अंग्रेजों को निर्णायक सफलता मिली। धीरे-धीरे अंग्रेजों का भारतीय व्यापार पर ही नहीं सम्पूर्ण भारत पर पूर्णरूपेण अधिकार हो गया।

प्रश्न 2.
भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने में फ्रांसीसियों की अपेक्षा अंग्रेज क्यों सफल हुए? विस्तारपूर्वक विवेचना कीजिए।
उतर:
भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने में फ्रांसीसियों की अपेक्षा अंग्रेज निम्नलिखित कारणों से सफल रहे
(i) अंग्रेजी कम्पनी का स्वरूप- ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक प्राइवेट कम्पनी थी, जिसमें ब्रिटिश सरकार किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करती थी। प्राइवेट होने के कारण इस कम्पनी के सदस्य अत्यधिक परिश्रमी थे, जबकि फ्रांसीसी कम्पनी एक सरकारी कम्पनी थी। अत: प्रत्येक निर्णय के लिए फ्रांसीसी कम्पनी फ्रांसीसी सरकार पर निर्भर रहती थी।

(ii) अंग्रेजी कम्पनी का व्यापारिक तथा आर्थिक दृष्टि से श्रेष्ठ होना- अंग्रेजी कम्पनी व्यापारिक एवं आर्थिक दोनों ही दृष्टि से श्रेष्ठ थी। अंग्रेजों के पास व्यापार हेतु पूर्वी समुद्र-तट और बंगाल का समुद्र प्रान्त था, जहाँ से उन्हें अत्यधिक व्यापारिक लाभ होता था, जिससे उन्हें आर्थिक संकट का बिलकुल भी भय नहीं रहता था। जबकि फ्रांसीसियों के पास ऐसा कोई व्यापारिक स्थान न था, जहाँ से समुचित मात्रा में व्यापारिक लाभ की प्राप्ति होती हो।

(iii) अंग्रेजों की शक्तिशाली नौसेना-
अंग्रेजों की नौसेना फ्रांसीसी नौसेना की तुलना में अधिक शक्तिशाली थी। परिणामस्वरूप वे सदैव अपने व्यापारिक मार्गों को सुरक्षित रखने में सफल रहे, जबकि फ्रांसीसी नौसेना कमजोर होने के कारण सैनिक और व्यापारियों को किसी प्रकार की सहायता प्रदान न कर सकी।

(iv) मुम्बई पत्तन की सुविधा-
अंग्रेजों की समुद्री-शक्ति का स्थान मुम्बई था, जिसके कारण वे अपने जहाज मुम्बई में सुरक्षित
रख सकते थे। इसके विपरीत फ्रांसीसियों की समुद्री-शक्ति का अड्डा फ्रांस के द्वीप में था, जो बहुत दूर स्थित था। अत: वे | शीघ्र कोई कार्यवाही नहीं कर सकते थे।

(v) डूप्ले की वापसी-
डूप्ले फ्रांस का एक योग्यतम गवर्नर था। उसने भारत में फ्रांसीसी प्रभाव में वृद्धि की थी, किन्तु उसे फ्रांसीसी सरकार ने थोड़ी-सी असफलता प्राप्त होने पर ही वापस बुला लिया, जिससे अंग्रेजों के उत्साह में और अधिक वृद्धि हो गई।

(vi) ब्रिटिश अधिकारियों की योग्यता-
ब्रिटिश कम्पनी को योग्य अधिकारियों की सेवाएँ प्राप्त हुई। क्लाइव, लारेंस, आयरकूट आदि योग्य ब्रिटिश अधिकारी थे। उन्होंने अपनी योग्यता के बल पर ब्रिटिश कम्पनी को उन्नत बनाया, जबकि फ्रांसीसी अधिकारी इतने योग्य नहीं थे। वे आपस में लड़ते-झगड़ते थे। अत: वे फ्रांसीसी कम्पनी की उन्नति में अपना योगदान न दे सके।

(vii) फ्रांसीसियों द्वारा व्यापार की अपेक्षा राज्य–
विस्तार पर बल देना- फ्रांसीसियों की एक बड़ी भूल यह थी कि उन्होंने व्यापार की अपेक्षा राज्य–विस्तार की महत्वाकांक्षा पर अधिक बल दिया। उनका सारा धन युद्धों में व्यर्थ चला गया। फ्रांसीसी सरकार यूरोप तथा अमेरिका में व्यस्त रहने के कारण डूप्ले की महत्वाकांक्षी योजनाओं का पूर्ण समर्थन करने की स्थिति में नहीं थी। दूसरी ओर अंग्रेज अपने व्यापार की कभी उपेक्षा नहीं करते थे।

(viii) यूरोप में अंग्रेजों की विजय-
भारत में फ्रांसीसियों और अंग्रेजों के बीच होने वाला संघर्ष यूरोप में होने वाला फ्रांस और इंग्लैण्ड के बीच संघर्ष का एक भाग था। यूरोप में अंग्रेजों की विजय हुई और फ्रांसीसी पराजित हुए। इसका प्रभाव भारत में भी पड़ा। भारत में अंग्रेज जीतते गए और फ्रांसीसी पराजित होते गए।

(ix) विलियम पिट की नीति-
1758 ई० में इंग्लैण्ड में विलियम पिट ने युद्धमन्त्री का कार्यभार सम्भालते ही क्रान्तिकारी परिर्वतन कर कुछ इस प्रकार की नीति अपनाई कि फ्रांस यूरोपीय मामलों में बुरी तरह फँस गया और हार गया।

(x) लैली का उत्तरदायित्व-
लैली अत्यन्त ही कटुभाषी व क्रोधी व्यक्ति था। अत: कोई भी फ्रांसीसी अधिकारी उसके साथ काम करने से हिचकिचाता था। वास्तव में वह भारत में फ्रांसीसियों के पतन के लिए अधिक उत्तरदायी था।

प्रश्न 3.
डूप्ले की नीति की समीक्षा कीजिए तथा फ्रांसीसियों की असफलता के कारणों का वर्णन कीजिए।
उतर:
डूप्ले की नीति- डूप्ले की नीति को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है
(i) भारतीय शासकों के मामलों में हस्तक्षेप- डूप्ले ने भारत की राजनीतिक स्थिति के अनुसार अनुमान लगा लिया कि सफलता प्राप्त करने के लिए राजाओं के आपसी झगड़ों में हस्तक्षेप करना, व्यापार व राजनीतिक अधिकारों के लिए लाभकारी है, अतः उसने इस नीति का अनुसरण किया। हैदराबाद और कर्नाटक के झगड़ों में उसे सफलता प्राप्त भी हुई।

(ii) फ्रांसीसी साम्राज्य की स्थापना-
डूप्ले फ्रांसीसी सरकार तथा फ्रांसीसी व्यापारियों के लाभ हेतु यहाँ पर भारत के अन्य क्षेत्रों में भी साम्राज्य स्थापित करने की नीति में विश्वास करता था और साम्राज्य स्थापना के लिए वह अत्यधिक सक्रिय हो गया था।

(iii) व्यापारिक नीति में परिवर्तन-
डूप्ले प्रारम्भ में अपने देश की समृद्धि के लिए भारत में व्यापार की वृद्धि करने आया। उसने फ्रांसीसी कम्पनी को भारत में सुदृढ़ नींव पर खड़ा करने का प्रयास किया, परन्तु बाद में वह समझ गया था कि अंग्रेजों के विरुद्ध सफल होने के लिए राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करना भी अनिवार्य है। अतः व्यापार की वृद्धि के लिए वह राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में जुट गया। इस प्रकार डूप्ले ने फ्रांसीसी कम्पनी की व्यापारिक नीति में परिवर्तन किया तथा दक्षिणी भारत में फ्रांस के राजनीतिक प्रभुत्व की स्थापना की ओर ध्यान दिया।

(iv) भारतीय सैन्य-बल पर प्रयोग-
डूप्ले फ्रांसीसी सेनाओं की दुर्बलताओं से भली-भाँति परिचित था। अत: उसने सैन्य बल का लाभ उठाने की नीति अपनाई थी। उसने भारतीय राजाओं की सेनाओं को पाश्चात्य ढंग से प्रशिक्षण देना शुरू किया।

(v) उपहार ग्रहण करना-
धन की अभिवृद्धि के लिए डूप्ले ने भारतीय राजाओं से उपहार ग्रहण करने की नीति अपनाई। यह नीति राजनीतिक दृष्टिकोण से डूप्ले द्वारा लिया गया अविवेकपूर्ण निर्णय था।

फ्रांसीसियों की असफलता के कारण- फ्रांसीसियों की असफलता के निम्नलिखित कारण हैं
(i) गोपनीयता- डूप्ले अपनी भावी योजना को अन्य समकक्ष अधिकारियों से छिपाकर रखता था। इसका परिणाम यह हुआ कि कम्पनी और फ्रांसीसी सरकार उसकी समय पर सहायता न कर सकी और इस तरह डूप्ले की गोपनीय योजना की यह नीति फ्रांसीसियों के पतन का प्रमुख कारण बन गई।

(ii) व्यापार की दयनीय दशा-
फ्रांसीसियों का व्यापार भी पतनोन्मुख था। ब्रिटिश व्यापारी बहुत चतुर व दक्ष थे। इनका एकमात्र मुम्बई का व्यापार ही सारे फ्रांसीसी व्यापार की तुलना में पर्याप्त था। व्यापारिक अवनति ने भी फ्रांसीसियों का मनोबल कम कर दिया। यह स्थिति फ्रांसीसियों के लिए अंग्रेजों से बराबरी करने में प्रतिकूल सिद्ध हुई। चारित्रिक दुर्बलता- डूप्ले अहंकारी व्यक्ति था। वह अति महत्वाकांक्षी था तथा उसका स्वभाव षड्यन्त्रप्रिय था। वह एक कुशल राजनीतिज्ञ तथा प्रबन्धक था परन्तु योग्य सेनानायक न था। इसके विपरीत उसका प्रतिद्वन्द्वी क्लाइव योग्य राजनीतिज्ञ तथा प्रबन्धक तो था ही साथ ही कुशल सेनानायक भी था।

(iv) फ्रांसीसी सरकार का असहयोग-
डूप्ले ने भारतीय राज्यों में अपने हस्तक्षेप की बात कम्पनी के डायेक्टरों से छिपाकर अपनी योजना उनके सामने स्पष्ट नहीं की। इस कारण उसको फ्रांसीसी सरकार से कोई सहायता नहीं मिल सकी बल्कि डायरेक्टर उसकी नीति को शंका की दृष्टि से देखने लगे। मजबूरन डूप्ले को अपनी ही अपर्याप्त शक्ति पर निर्भर रहना पड़ा। फ्रांस की तत्कालीन सरकार ने इन परिस्थितियों में अमेरिका में ही अपने उपनिवेश स्थापित करने की ओर ध्यान दिया भारत की ओर नहीं, क्योंकि भारत की स्थिति को डूप्ले ने छिपाए रखा।

(v) फ्रांसीसी सरकार का अपने प्रतिनिधियों से दुर्व्यवहार-
फ्रांसीसी सरकार अपने प्रतिनिधियों के प्रति समुचित स्नेह और आदर का व्यवहार नहीं करती थी। इससे उनका मनोबल टूट जाता था, जिससे वे कार्यों को आत्मिक भाव से न करके उसे सरकारी समझकर असावधानी बरतते थे। डूप्ले तथा लैली के प्रति दुर्व्यवहार किया गया था। डूप्ले को वापस बुला लिया गया तथा लैली को बाद में मृत्युदण्ड दिया गया।

(vi) चाँदा साहब का पक्ष लेना-
डूप्ले को एक भागे हुए तथा मराठों की कैद में वर्षों रहने वाले चाँदा साहब का पक्ष लेना उसकी अदूरदर्शिता थी। चाँदा साहब का कर्नाटक की राजनीति से सम्बन्ध विच्छेद हो चुका था और वहाँ उसका कोई प्रभाव नहीं था। डूप्ले को मुहम्मद अली का पक्ष लेना चाहिए था, जिसका कर्नाटक की जनता पर प्रभाव था और जिसे जनता द्वारा वास्तव में गद्दी का अधिकारी समझा जाता था।

(vii) अति महत्वाकांक्षी होना-
डूप्ले एक ही समय में हैदराबाद और कर्नाटक दोनों स्थानों पर हस्तक्षेप कर सफलता पाना चाहता था, जबकि फ्रांसीसी साधन दोनों स्थानों पर एक साथ सफलता प्राप्त करने के लिए अपर्याप्त थे। उसने अत्यधिक महत्वाकांक्षी होने के कारण दोनों स्थानों पर एक साथ हस्तक्षेप किया और दोनों ही स्थानों पर वह असफल रहा।

प्रश्न 4.
अंग्रेज तथा फ्रांसीसियों के मध्य हुए संघर्ष का वर्णन कीजिए।
उतर:
भारतीय व्यापार की प्रतिद्वन्द्विता एवं उपनिवेश स्थापना का प्रयास तथा भारत में राजनीतिक प्रभुत्व स्थापना के प्रश्न पर अंग्रेजों और फ्रांसीसियों में संघर्ष हो गया। 16वीं तथा 17वीं शताब्दियों में जब मुगलों का चरम उत्कर्ष का काल था तथा केन्द्रीय शक्ति सुदृढ़ थी, यूरोप के व्यापारी विभिन्न छोटे तथा बड़े भारतीय शासकों के दरबारों में प्रार्थी के रूप में आते थे परन्तु अनुकूल परिस्थितियों में उनकी व्यावसायिक प्रवृत्ति धीरे-धीरे साम्राज्यवादी मनोवृत्ति में बदल गई। औरंगजेब की मृत्यु के कुछ समय उपरान्त ही मुगल साम्राज्य, केन्द्र में होने वाले राजमहलों के षड्यन्त्रों तथा अपने सूबेदारों की स्वार्थपूर्ण देशद्रोहिता के कारण पतनोत्मुख हो चला था। इसके अतिरिक्त 1739 ई० में नादिरशाह तथा 1761 ई० में अहमदशाह अब्दाली के भयंकर आक्रमणों ने दिल्ली के शाही दरबार की दुर्बलता सबके सामने स्पष्ट कर दी। पेशवाओं के नेतृत्व में मराठे अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे जिससे देश की शिथिल केन्द्रीय व्यवस्था नष्ट होने के निकट पहुँच गई थी।

(i) व्यापारिक एकाधिकार की स्थापना का प्रयास- फ्रांसीसी तथा अंग्रेज दोनों ही प्रारम्भ में व्यापारिक एकाधिकार स्थापित करने में संलग्न थे। दक्षिण भारत में दोनों विदेशी जातियों ने अपनी-अपनी बस्तियाँ स्थापित कर ली थीं। अत: अंग्रेज तथा फ्रांसीसी संघर्ष अनिवार्य हो गया। दोनों ही राष्ट्रों ने पूर्व में आक्रामक नीति का अनुसरण किया। प्रारम्भ में इन्होंने आत्मरक्षा की भावना से प्रेरित होकर सेना का निर्माण किया और किलेबन्दी भी की। फिर भारतीय राजाओं और नबाबों के पारस्परिक झगड़ों में हस्तक्षेप किया तथा अपने हित की पूर्ति के लिए अपनी सेना से उनकी सहायता करने लगे। इन संघर्षों में फ्रांसीसी यदि एक ओर होते थे तो अंग्रेज ठीक उसके विपक्षी की ओर। इस प्रकार वे दोनों आपस में लड़ने लगते थे और अपनी-अपनी शक्ति एवं क्षमता का प्रदर्शन करते थे।

(ii) डूप्ले की महत्वाकांक्षा- भारतीय राजनीति में प्रथम राजनीतिक हस्तक्षेप का श्रीगणेश फ्रांसीसियों के गवर्नर डूप्ले ने किया। डूप्ले फ्रांसीसी गवर्नरों में सर्वाधिक साम्राज्यवादी एवं महत्वाकांक्षी था। उसने भारत में फ्रांसीसी व्यापार को उन्नत करने के लिए देशी राजाओं की राजनीति में हस्तक्षेप करना और उन्हें अपने प्रभाव में लाना आवश्यक समझा। अंग्रेज डूप्ले की इस नीति को सहन न कर सके और वे भी भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करने लगे। परिणामस्वरूप दोनों शक्तियों के बीच संघर्ष हुआ।

(iii) यूरोप में ऑस्ट्रिया का उत्तराधिकार युद्ध-1742 ई० में यूरोप में अंग्रेज और फ्रांसीसी परस्पर संघर्षरत थे। दोनों के बीच संघर्ष का मुख्य कारण 1740 ई० में ऑस्ट्रिया और प्रशा के मध्य युद्ध का होना था। इस युद्ध में अंग्रेज ऑस्ट्रिया की ओर तथा फ्रांसीसी प्रशा की ओर थे। यूरोप में हुए दोनों के बीच संघर्ष का प्रभाव भारत में भी पड़ा, जिससे भारत में दोनों के बीच संघर्ष हुआ।।

(iv) भारत की राजनीतिक दशा-
औरंगजेब के पतन के पश्चात् भारत में अनेक नवीन राज्य एवं शक्तियों का उदय हुआ। इनमें से कोई भी राज्य अथवा शक्ति ऐसी न थी, जो सम्पूर्ण भारत पर अपना नियन्त्रण कायम रखने में सक्षम हो। अत: ऐसी स्थिति में अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों को ही व्यापार के साथ-साथ भारत में अपनी राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ करने का अवसर प्राप्त हुआ।

(v) उत्तराधिकार के संघर्ष में कम्पनी की भागीदारी-
हैदराबाद के निजाम-उल-हक की मृत्यु के पश्चात् उत्तराधिकार हेतु नासिरजंग और मुजफ्फरजंग के मध्य संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में व्यापारिक लाभ की कामना से अंग्रेजों ने नासिरजंग और फ्रांसीसियों ने मुजफ्फरजंग का साथ दिया। अत: कहा जा सकता है कि उत्तराधिकार के संघर्ष में दोनों कम्पनियों का भाग लेना दोनों के बीच संघर्ष का मुख्य कारण था।

प्रश्न 5.
बंगाल में ब्रिटिश शासन की शुरुआत पर एक टिप्पणी कीजिए।
उतर:
बंगाल में ब्रिटिश शासन की शुरुआत- प्लासी और बक्सर के युद्ध भारतीय इतिहास के निर्णायक युद्ध थे, जिसके परिणामस्वरूप बंगाल में ब्रिटिश राज्य की नींव पड़ी और भारतीय इतिहास में एक नए अध्याय का आरम्भ हुआ।

बंगाल एक समृद्धिशाली प्रान्त था। उस समय यह मुगलों के अधीन था। व्यापारिक दृष्टिकोण से बंगाल काफी अग्रसर था। अंग्रेजों ने सन् 1651 ई० में अपनी प्रथम व्यापारिक कोठी हुगली में स्थापित की। उस समय वहाँ का सूबेदार शाहजहाँ का पुत्र शाहशुजा था। उसकी स्वीकृति के बाद उन्होंने अपनी कोठियों का विस्तार कासिम बाजार व पटना तक कर लिया। मुगल सम्राट फर्रुखसियार ने 1717 ई० में अंग्रेजों को अत्यधिक सुविधाएँ दीं। उसने उन पर लगे सभी व्यापारिक कर हटा दिए, जिसका अंग्रेजों ने पूर्णरूप से दुरुपयोग किया। उन्होंने कम्पनी के साथ स्वयं का व्यापार भी बिना कर दिए करना शुरू कर दिया।

वस्तुत: भारत में अंग्रेजी राज का प्रभुत्व सर्वप्रथम बंगाल से ही शुरू हुआ। मुगलों द्वारा अंग्रेजों को दी गई छूट अन्ततः उन्हीं के साम्राज्य के पतन का कारण बन गई। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुर्शिदकुली खाँ को बंगाल का सूबेदार बनाया गया। वह एक ईमानदार व योग्य व्यक्ति था। उसके काल के दौरान बंगाल उन्नति की ओर अग्रसर हुआ। उस समय बंगाल मुगल काल का सबसे समृद्धिशाली प्रान्त था। 1727 ई० में मुर्शिदकुली खाँ की मृत्यु हो गई और उसके दामाद शुजाउद्दीन मोहम्मद खान शुजाउद्दौला असदजंग को बंगाल व उड़ीसा का कार्यभार सौंप दिया गया। उसके काल में भी बंगाल ने काफी उन्नति की। शुजाउद्दौला की मृत्यु के उपरान्त 1739 ई० में उसके पुत्र सरफराज ने बंगाल, बिहार व उड़ीसा का राज्य सँभाला। उसने अलाउद्दौला हैदरजंग की उपाधि प्राप्त की।

1739 ई० में बिहार के नाजिम अलीवर्दी खाँ ने अलाउद्दौला की हत्या कर दी और बंगाल का सूबेदार बन बैठा। वह भी योग्य शासक था। उसके काल में मराठों ने बंगाल में छापे मारने शुरू कर दिए, जिससे मुक्ति पाने के लिए उसने मराठों से सन्धि कर ली। मराठों को उड़ीसा व 12 लाख रुपए उसने चौथ के रूप में दे दिए। तदुपरान्त बंगाल की आंतरिक स्थिति को सुधारकर वहाँ पर शान्ति स्थापित कर दी।

अलीवर्दी खाँ के कोई पुत्र न था। अत: उसने अपनी सबसे छोटी पुत्री के पुत्र सिराजुद्दौला को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। राज्यारोहण के समय वह 25 वर्ष का अनुभवशून्य युवक था तथा हठी एवं आलसी होने के कारण उसकी कठिनाइयाँ और भी अधिक बढ़ गई थीं। सर शफात अहमद खाँ के अनुसार- ‘‘सिराजुद्दौला अदूरदर्शी, हठी और दृढ़ था। उसको वृद्ध अलीवर्दी खाँ के लाड़-प्यार ने बिलकुल बिगाड़ दिया था। गद्दी पर बैठने पर भी उसमें कोई सुधार न हुआ। वह झूठा था, कायर था, नीच और कृतघ्न था। उसमें अपने पूर्वजों के कोई गुण न थे और अपने जो गुण थे उनको प्रयोग में लाने की शक्ति उसमें नहीं थी। वह भी अंग्रेजों की कुटिल नीति का उसी तरह शिकार बना जिस तरह दक्षिण के नवाब तथा कुछ अन्य राजा बने थे।

प्रश्न 6.
बक्सर के युद्ध का वर्णन कीजिए तथा उसके परिणामों की विवेचना कीजिए।
उतर:
बक्सर का युद्ध ( 22 अक्टूबर, 1764 ई० )- अंग्रेजों ने अपदस्थ मीरकासिम के स्थान पर मीरजाफर को पुनः बंगाल का नवाब बना दिया। अंग्रेजों के इस रवैये से असन्तुष्ट होकर मीरकासिम ने मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय एवं नवाब शुजाउद्दौला से मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध एक शक्तिशाली संघ का निर्माण किया। इनकी संयुक्त सेना में 40-50 हजार सैनिक थे। कम्पनी की सेना में 7027 सैनिक थे और उसका नेतृत्व मेजर मुनरो कर रहा था। इतिहास प्रसिद्ध यह लड़ाई बक्सर नामक स्थान पर 22 अक्टूबर, 1764 को हुई। इस युद्ध में अंग्रेज विजयी हुए। पराजित मीरकासिम भाग गया। शाहआलम ने अंग्रेजों की शरण ली। इस युद्ध में अंग्रेजों के 847 सैनिक मरे या हताहत हुए, जबकि तीनों की संयुक्त सेना के लगभग 2000 सैनिक मरे या हताहत हुए। परिणामस्वरूप पराजित मीरकासिम इलाहाबाद पहुँचा। वह 12 वर्षों तक भटकता रहा, अन्ततः 1777 ई० में दिल्ली के निकट उसकी मृत्यु हो गई।

बक्सर के युद्ध के कारण- मीरकासिम और अंग्रेजों के मध्य बक्सर युद्ध के निम्नलिखित कारण थे
(i) अंग्रेजों की बेईमानी- यद्यपि मीरकासिम ने कम्पनी को यह आज्ञा दी थी कि कलकत्ता (कोलकाता) में ढाली गई मुद्राएँ तौल और धातु में नवाब की मुद्राओं के समान हों परन्तु कम्पनी घटिया मुद्राएँ ढालती रही तथा जब व्यापारियों ने उन मुद्राओं को लेने से इनकार किया तो कम्पनी की प्रार्थना पर नवाब ने व्यापारियों को दण्ड दिया। फलस्वरूप व्यापारी वर्ग भी कासिम से असन्तुष्ट हो गया।

(ii) कम्पनी का असंयत व्यवहार- मीरकासिम की इतनी ईमानदारी के व्यवहार से भी कम्पनी सन्तुष्ट नहीं थी क्योंकि वह तो नवाब को कठपुतली के समान नचाना चाहती थी। परन्तु मीरजाफर के विपरीत मीरकासिम स्वतन्त्र प्रकृति का व्यक्ति था, वह अंग्रेजों के प्रभाव से मुक्त होना चाहता था।

(iii) राजधानी परिवर्तन- जब मीरकासिम ने देखा कि मुर्शिदाबाद में अंग्रेजों का प्रभाव इतना बढ़ गया है कि वह उनके चंगुल से मुक्त नहीं हो सकता तो उसने अपनी राजधानी मुंगेर बदल ली, यद्यपि इस राजधानी परिवर्तन से अनेक अंग्रेज मीरकासिम से असन्तुष्ट हो गए तथा उसे पदच्युत करने का षड्यन्त्र रचने लगे।

(iv) मीरजाफर से अंग्रेजों का समझौता- अंग्रेजों ने पुन: मीरजाफर को गद्दी पर बैठाने का निश्चय किया। मीरजाफर से गुप्त सन्धि की गई जिसके द्वारा मीरकासिम द्वारा दी गई सभी सुविधाएँ कायम रखी गईं परन्तु नवाब की सैनिक संख्या कम कर दी गई। कम्पनी की नमक के अतिरिक्त सभी वस्तुओं पर चुंगी माफ कर दी गई तथा भारतीयों के लिए 25 प्रतिशत चुंगी लगाने का निश्चय किया गया। इसके अतिरिक्त क्षति पूर्ति के लिए भी मीरजाफर ने वचन दिया।

(v) दस्तक प्रथा का दुरुपयोग- इस समय तक मीरकासिम तथा अंग्रेजों के सम्बन्ध बिलकुल बिगड़ चुके थे। इसका कारण व्यापार से सम्बन्धित था। मुगल सम्राट द्वारा दी गई व्यापारिक सुविधाओं का अंग्रेज दुरुपयोग कर रहे थे। दस्तक लेकर सम्पूर्ण देश में अंग्रेज व्यापारी बिना चुंगी दिए व्यापार कर रहे थे तथा अनेक ऐसी वस्तुओं का व्यापार उन्होंने आरम्भ कर दिया था, जिसके लिए उन्हें आज्ञा प्राप्त नहीं थी।

(vi) भारतीयों के साथ अंग्रेजों का व्यवहार- भारतीय व्यापारियों के प्रति उनका व्यवहार अभद्रतापूर्ण था। उनसे बलपूर्वक माल खरीद लिया जाता था तथा उनसे माल पर चुंगी वसूल की जाती थी। कम्पनी मनमाने मूल्य पर कृषकों की खड़ी फसल तथा व्यापारियों का माल खरीद लेती थी, जिसके कारण भारतीय जनता बहुत दु:खी थी। मीरकासिम ने इस विषय पर कम्पनी को अनेक पत्र लिखे परन्तु उसे कोई उत्तर नहीं मिला।

बक्सर के युद्ध के परिणाम- राजनीतिक दृष्टि से बक्सर का युद्ध प्लासी से अधिक महत्वपूर्ण और निर्णायक था और इसके दूरगामी परिणाम हुए
(i) सैनिक महत्व- बक्सर के युद्ध ने प्लासी के युद्ध के द्वारा आरम्भ किए गए कार्य को पूर्ण किया। प्लासी के युद्ध में तो युद्ध का अभिनय-मात्र हुआ था तथा अंग्रेजों को विजय सैनिक योग्यता के कारण नहीं बल्कि कूटनीति के कारण मिली थी, परन्तु बक्सर युद्ध ने यह निश्चित कर दिया कि अंग्रेज युद्ध में भी सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

(ii) अंग्रेजों को दीवानी अधिकार-
इस युद्ध के द्वारा बंगाल तथा बिहार अंग्रेजों के पूर्ण नियन्त्रण में आ गए तथा सम्राट शाहआलम द्वितीय ने बंगाल व
बिहार की दीवानी उन्हें सौंप दी।

(iii) कम्पनी की राजनीतिक प्रतिष्ठा-
अवध भी कम्पनी के प्रभाव में आ गया। इस विजय से कम्पनी का राजनीतिक महत्व स्थापित हो गया। अब वह मात्र व्यापारिक संस्था ही नहीं थी अपितु शासनकर्ता के रूप में उभरी।

(iv) मीरजाफर का पुनः नवाब बनना-
बक्सर के युद्ध में विजय प्राप्त करके अंग्रेजों ने पुन: वृद्ध मीरजाफर को बंगाल का नवाब बना दिया। मीरजाफर ने अंग्रेजों को बिना चुंगी दिए तथा भारतीयों को 25 प्रतिशत चुंगी पर व्यापार की पुन: व्यवस्था कर दी। उसकी सेना 6 हजार सवार और 12 हजार पैदल निश्चित कर दी गई। युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में नवाब ने काफी धन कम्पनी को दिया तथा एक ब्रिटिश रेजीडेण्ट भी अपने दरबार में रखना स्वीकार कर लिया। नवाब को कठपुतली बनाकर अंग्रेजों ने बंगाल की धन-सम्पदा को लूटना जारी रखा। मीरजाफर का कोष रिक्त था तथा वह असहाय नवाब अंग्रेजों के चंगुल में पूर्णतया फँसा हुआ था। उसका अन्तिम समय अत्यन्त दु:खपूर्ण था। अन्त में 5 जनवरी, 1765 ई० को मृत्यु ने ही उसे इन संकटों से मुक्त किया।

प्रश्न 7.
बंगाल दोहरा-शासन( द्वैध-शासन ) कब लागू हुआ? उसके लाभ व हानियों पर प्रकाश डालिए।
उतर:
बंगाल में दोहरा-शासन( द्वैध-शासन)-1765 ई० में लॉर्ड क्लाइव जब दूसरी बार बंगाल का गवर्नर बनकर आया तो उसने बंगाल में ‘दोहरे अथवा द्वैध शासन’ की स्थापना की। इस प्रकार की व्यवस्था के अन्तर्गत कम्पनी ने राजस्व सम्बन्धी सभी कार्य अपने हाथ में ले लिए और प्रशासनिक कार्य नवाब के हाथों में रहने दिए। क्लाइव द्वारा बंगाल में प्रशासनिक कार्यों के इस तरह विभाजित करने की प्रणाली को इतिहास में दोहरे अथवा द्वैध शासन प्रणाली के नाम से जाना जाता है। बंगाल में यह प्रणाली 1765 से 1772 ई० तक लागू रही। इस प्रणाली से आरम्भ में अनेक लाभ हुए किन्तु इस प्रणाली में अनेक दोष विद्यमान थे। अतः 1772 ई० में वारेन हेस्टिग्स ने इसे समाप्त कर दिया। दोहरे-शासन से लाभ

  • कम्पनी ने बिना उत्तरदायित्व लिए बंगाल पर अंग्रेजी शिकंजा कस दिया, किन्तु प्रशासन का दायित्व नवाब पर डाल दिया। उपनायबों के माध्यम से राजस्व कम्पनी के कोष में जमा होता रहा।
  • कम्पनी की आर्थिक व सैनिक स्थिति सुदृढ़ हो गई।
  • फ्रांसीसियों व डचों की ईर्ष्या से कम्पनी बच गई व ब्रिटिश संसद का हस्तक्षेप भी नहीं बढ़ सका।
  • क्लाइव ने बंगाल का प्रशासन अपने हाथों में न लेकर कम्पनी को संभावित खतरे से बचा लिया।
  • कम्पनी को लाभ की स्थिति में रखने हेतु उसे केवल व्यापारिक कम्पनी बनाए रखा।
  • दोहरी-शासन प्रणाली से भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की नींव और अधिक मजबूत हो गई। शासन सत्ता की वास्तविक

बागडोर अब अंग्रेजों के हाथ में आ गई और नवाब अब नाममात्र का शासक रह गया। दोहरे-शासन से हानियाँ

  1. दोहरे शासन से न्याय व्यवस्था खोखली हो गई, नवाब तो न्यायाधीशों को समय पर वेतन भी न दे सका। अत: गुलाम हुसैन के अनुसार दोहरे शासन में न्यायाधीशों व राजकर्मचारियों ने न्याय के बहाने अपार धन कमाया।
  2. भू-राजस्व में वृद्धि के साथ-साथ भूमि एक वर्ष के ठेके पर दी जाने लगी। भूमि की उर्वरता की उपेक्षा से भूमि अनुपजाऊ हो गई और किसान भूखों मरने लगे।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 7 Advent of European Powers in India (यूरोपीय शक्तियों का भारत में प्रवेश) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 7 Advent of European Powers in India (यूरोपीय शक्तियों का भारत में प्रवेश), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.