UP Board Solutions for Class 9 Hindi Chapter 7 कृष्णः गोपालनन्दनः (गोपालनन्दन कृष्ण) (संस्कृत-खण्ड)

UP Board Solutions for Class 9 Hindi Chapter 7 कृष्णः गोपालनन्दनः (गोपालनन्दन कृष्ण) (संस्कृत-खण्ड)

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1. सुविदितमेव ………………………………………………………………………. अस्ति।

शब्दार्थ-सुविदितमेव = भली-भाँति ज्ञात ही है। लोकोत्तरः = अलौकिक। सन्दर्भ-प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक के अन्तर्गत संस्कृत खण्ड के ‘कृष्णः गोपालनन्दन’ नामक पाठ से उद्धृत है।

हिन्दी अनुवाद – (यह) भली-भाँति ज्ञात ही है कि श्रीकृष्ण अलौकिक महापुरुष थे। हजारों वर्ष पहले उत्पन्न हुए यह महापुरुष आज भी मनुष्यों के हृदय में विराजमान हैं।

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2. श्रीकृष्णस्य मातुलः ………………………………………………………………………. श्रीकृष्णः जातः।

शब्दार्थ-मातुलः = मामा उभावपि = दोनों को ही। न्यक्षिपत् = डाल दिया। स्वभगिन्याः = अपनी बहन का।

हिन्दी अनुवाद – श्रीकृष्ण को मामा कंस अत्याचारी शासक था। उसने पहले अपनी बहिन देवकी का विवाह वसुदेव के साथ किया। बाद में आकाशवाणी सुनकर दोनों को ही जेल में डाल दिया। वहीं जेल में श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए।

3. श्रीकृष्णस्य जन्म ………………………………………………………………………. अभवत्।।

शब्दार्थ-घटाटोपाः = घटाओं से घिरे सद्योजातम् = तुरन्त (नवजात) पैदा हुए। आदाय = लेकर। उत्तालतरङ्गाम् = ऊँची-ऊँची लहरोंवाली। उत्तीर्य = पार करके। हृदयवल्लभः = हृदय के प्रिय।

हिन्दी अनुवाद – श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को मथुरा में हुआ था। आधी रात में जब ये (श्रीकृष्ण) उत्पन्न हुए तब आकाश में घटाओं से घिरे मेघों ने मूसलधार वर्षा की। उस समय अन्धकारपूर्ण रात्रि थी, किन्तु वसुदेव ने उत्पन्न हुए पुत्र की रक्षा के लिए तुरन्त उसको (UPBoardSolutions.com) लेकर ऊँची लहरोंवाली यमुना को पारकर गोकुल में नन्द के घर पहुँचाया। वहाँ बचपन से ही श्रीकृष्ण मनुष्यों के हृदय में प्रिय हो गये।

4. बाल्यकाले ………………………………………………………………………. स्निह्यन्ति।

शब्दार्थ-नयति = ले जाती है। अपरा = दूसरी। निधाय = रखकर अर्थात् लेकर। पाययति = पिलाती नवनीतम् = मक्खन दधिभाण्डम् = दही का बर्तन। त्रोटयति = तोड़ देते थे। क्रुध्यति = क्रोध करता था। स्निह्यति = स्नेह करता था।

हिन्दी अनुवाद – बचपन में इन्होंने (श्रीकृष्ण ने) अपने सौंन्दर्य से और बाल-लीला से सभी मनुष्यों के मन को मोहित कर लिया। कोई गोपिका उन्हें गोदी में लेकर अपने घर ले जाती, दूसरी उन्हें दूध पिलाती और अन्य कोई उन्हें मक्खन देती। श्रीकृष्ण प्रेम से दिया गया दूध पीते और मक्खन खाते। (UPBoardSolutions.com) अवसर पाकर वे अपने मित्र ग्वालों के साथ किसी घर में घुसकर दही खाते, मित्रों को देते, शेष दही को जमीन पर गिरा देते और कभी-कभी दही के बर्तन को तोड़ देते। यह सब करते हुए भी उनके शील और सौन्दर्य से प्रभावित हुआ कोई भी उन पर क्रोध नहीं करता था, अपितु सब उनसे स्नेह करते थे।

5. अनन्तरं ………………………………………………………………………. अकरोत्।

शब्दार्थ-अनन्तरम् = बाद में वेणुः = वंशी वेणुम् = वंशी को (द्वितीया एकवचन का रूप) विहाय = छोड़कर। शृण्वन्ति = सुनते थे।’

हिन्दी अनुवाद – इसके पश्चात् श्रीकृष्ण ग्वालों के साथ वन जाकर गायों को चराते और वहाँ वंशी बजाते। इससे सभी गायें और ग्वाले समस्त कार्यों को छोड़कर उनका वंशी-वादन सुनते महाकवि व्यास ने संस्कृत भाषा में (तथा) भक्तकवि सूरदास ने हिन्दी-भाषा में उनकी बाललीला का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है।

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6. यदा अयं ………………………………………………………………………. अभवत्।

शब्दार्थ-प्रेषयत् = भेजा। अविगणय्य = बिना गिने; बिना परवाह किये। सन्दीप्ते वह्नौ = आग लगने पर। अत्रायत = रक्षा की। पद्मधारयत् = स्थान बना लिया। हन्तुं = मारने के लिए।

हिन्दी अनुवाद – जब ये बालक ही थे तब कंस ने उन्हें मारने के लिए एक के बाद एक बहुत-से राक्षसों को भेजा, किन्तु श्रीकृष्ण ने अपने कौशल और पराक्रम से उन सबको मार दिया। उन्होंने न केवल राक्षसों से अपितु अन्य विपत्तियों से भी गोकुलवासियों की रक्षा की। एक बार वर्षा-ऋतु में गोकुल में यमुना का जल तेजी से बढ़ने लगा, तब श्रीकृष्ण ने अपने प्राणों की चिन्ता न करके (बिना परवाह किये) सभी गोकुलवासियों (UPBoardSolutions.com) की रक्षा की। इसी प्रकार आग लग जाने पर इन्होंने सब पशुओं और ग्वालों की उससे रक्षा की। इस प्रकारे (उन्होंने) निरन्तर गोकुलवासियों के कष्टों का निवारण करते हुए उनके हृदय में स्थान बना लिया। अतः श्रीकृष्ण बचपन से ही अपने उत्तम गुणों और परोपकार की भावना के कारण लोकप्रिय हो गये।

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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 3 सुभाषितानि (पद्य-पीयूषम्)

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 3
Chapter Name सुभाषितानि (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 3 सुभाषितानि (पद्य-पीयूषम्)

परिचय-‘सुभाषित’ का अर्थ होता है—सुन्दर वचन, सुन्दर बातें, सुन्दर उक्तियाँ। सुभाषितों से जीवन का निर्माण होता है और जीवन महान् बनता है। जीवन को सफल बनाने के लिए सुभाषित गुरु-मन्त्र के समान हैं। संस्कृत-साहित्य में सुभाषितों का अपरिमित भण्डार संचित है। इसमें ज्ञान के जीवनोपयोगी कथन होते हैं, जो जीवन में उचित आचरण का निर्देश देते हैं। । प्रस्तुत पाठ में 15 सुभाषित श्लोकों का संकलन विविध ग्रन्थों से किया गया है। प्रत्येक श्लोक स्वयं में पूर्ण है।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

 (1)
अन्यायोपार्जितं वित्तं दशवर्षाणि तिष्ठति।
प्राप्ते चैकादशे वर्षे समूलं तद् विनश्यति ॥

शब्दार्थ
अन्यायोपार्जितं = अन्याय से कमाया गया।
वित्तं = धन।
तिष्ठति = ठहरता है।
समूलम् = मूल (धन) सहित, पूर्ण रूप से।
विनश्यति ६ नष्ट हो जाता है।

सन्दर्भ
प्रस्तुत नीति-श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ में संकलित ‘सुभाषितानि’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत–प्रस्तुत पाठ के सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।] प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक में अन्याय से कमाये गये धन को शीघ्र नाशवान् बताया गया है। अन्वय-अन्यायोपार्जितं वित्तं दशवर्षाणि तिष्ठति, एकादशे च वर्षे प्राप्त तद् समूलं विनश्यति।

व्याख्या
अन्याय द्वारा कमाया गया धन मनुष्य के पास दस वर्ष तक ही ठहरता है। ग्यारहवाँ वर्ष प्राप्त होने पर वह मूलधन-सहित नष्ट हो जाता है; अर्थात् वह धन एक निश्चित समय तक; जीवन के एक छोटे अंश तक; ही स्थिर रहता है, उसके बाद नष्ट हो जाता है। अतः मनुष्य को अन्यायपूर्वक धन अर्जित करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए।

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(2)
अतिव्ययोऽनपेक्षा च तथाऽर्जनमधर्मतः ।
मोक्षणं दूरसंस्थानं कोष-व्यसनमुच्यते ॥

शब्दार्थ-

अतिव्ययः = अधिक खर्च।
अनपेक्षा = देखभाल न करना, असावधानी।
अधर्मतः अर्जनम् = अधर्म द्वारा अर्जित करना।
मोक्षणम् = मनमाना त्याग करना या दान देना।
दूरसंस्थानम् = अपने से दूर छिपाकर रखना।
कोष-व्यसनम् = धन के विनाश के दोष (कारण)।
उच्यते = कहे गये।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में धन के विनाश के कारण बताये गये हैं।

अन्वय
अतिव्यय; अनपेक्षा तथा अधर्मतः अर्जनम् , मोक्षणं दूरसंस्थानं च कोष-व्यसनम् उच्यते।

व्याख्या
अत्यधिक खर्च, धन की देखभाल न करना तथा अधर्म या अन्याय द्वारा कमाना, मनमाना त्याग, अपने से दूर (छिपाकर) रखना-ये धन के विनाश के कारण हैं। तात्पर्य यह है कि धन का अत्यधिक व्यय करना, उसकी उचित देखभाल न करना, उसका अधर्म-अन्यायपूर्वक अर्जन करना, पर्याप्त दान करना और उसे अपने से दूर अर्थात् छिपाकर रखना—इन सभी से धन नष्ट हो जाता है।

(3)
नालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थान् न शठाः न च मायिनः।।
न च लोकापवाभीताः न च शश्वत् प्रतीक्षिणः ॥

शब्दार्थ
अलसाः = आलसी रोग।
प्राप्नुवन्त्यर्थान् (प्राप्नुवन्ति + अर्थान्) = धनों को प्राप्त |
करते हैं। मायिनः = छल-कपट वाले।
लोकापवादभीताः = लोक-निन्दा से डरे हुए। शश्वत्
प्रतीक्षिणः = निरन्तर धन की प्रतीक्षा करने वाले।। .

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में धन को प्राप्त न कर पाने वाले लोगों के विषय में बताया गया है।

अन्वयन
अलसाः, ने शठाः, न च मायिनः, न च लोकापवाभीताः, न शश्वत् प्रतीक्षिणः अर्थान् प्राप्नुवन्ति।

व्याख्या
ऐसे लोग धने नहीं कमा सकते हैं, जो आलसी हैं, दुष्ट हैं, अत्यन्त चालाक अर्थात् छल-कपट करने वाले हैं, जो सांसारिक बदनामी से भी डरे हुए हैं अथवा लगातार उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने वाले हैं। तात्पर्य यह है कि धन-अर्जन के इच्छुक व्यक्तियों को इन दुर्गुणों से मुक्त रहना चाहिए।

(4)
वरं दारिद्रयमन्यायप्रभवाद् विभवादिह।
कृशताऽभिमता देहे पीनता न तु शोफतः ॥

शब्दार्थ
वरं = श्रेष्ठ।
दारिद्रयं = गरीबी।
अन्यायप्रभवात् = अन्याय के द्वारा उत्पन्न किये गये।
विभवात् = धन की अपेक्षा।
इह = इस लोक में।
कृशता = कमजोरी।
अभिमता = अभीष्ट है।
पीनता = मोटापा।
शोफतः = सूजन के कारण।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में अन्याय से धनार्जन की अपेक्षा गरीबी को श्रेष्ठ बताया गया है।

अन्वय
इह अन्यायप्रभवात् विभवात् दारिद्रयं वरम् (अस्ति)। देहे कृशता अभिमता, न तु शोफतः पीनता।

व्याख्या
इस संसार में निर्धन होकर रहना श्रेष्ठ है, परन्तु अन्यायपूर्वक धन अर्जित करना उचित नहीं है। जैसे शरीर में कमजोरी (दुबलापन) उचित है, परन्तु सूजन के कारण मोटापा अच्छा नहीं है। तात्पर्य यह है कि अन्यायपूर्वक धन का अर्जन उसी प्रकार उचित नहीं है जिस प्रकार शरीर का स्थूल होना।

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(5)
अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च।
वञ्चनं चाऽपमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत् ॥

शब्दार्थ
अर्थनाशम् = धन के विनाश को।
मनस्तापम् = मन की पीड़ा को।
गृहे = घर में।
दुश्चरितानि = बुरे आचरण को।
वञ्चनम् = ठगे जाने को।
मतिमान् = बुद्धिमान्।
न प्रकाशयेत् = प्रकट न करे।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में दूसरों के सम्मुख प्रकट न करने योग्य बातों का वर्णन किया गया है।

अन्वय
मतिमान् अर्थनाशं, मनस्तापं, गृहे दुश्चरितानि च, वञ्चनं च, अपमानं च न प्रकाशयेत्।

व्याख्या
बुद्धिमान पुरुष वही है, जो धन के नष्ट हो जाने को, मन की वेदना को, घर में बुरे आचरण को, ठगे जाने को और अपमान को दूसरों पर प्रकट नहीं करता। तात्पर्य यह है कि दूसरों से कहने पर सर्वत्र उपहास के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं होता है।

(6)
अतिथिर्बालकः पत्नी जननी जनकस्तथा।
पञ्चैते गृहिणः पोष्या इतरे न स्वशक्तितः॥

शब्दार्थ
अतिथिः = मेहमान।
जननी = माता।
जनकः, = पिता।
गृहिणः = गृहस्थ के।
पोष्या = पोषण करने के योग्य।
इतरे = दूसरे।
स्वशक्तितः = अपनी शक्ति के अनुसार।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है कि प्रत्येक गृहस्थ पुरुष को पाँच लोगों का अवश्य पोषण करना चाहिए।

अन्वय
गृहिणः अतिथिः, बालकः पत्नी, जननी तथा जनकः एते पञ्च पोष्याः (सन्ति), इतरे च स्व-शक्तत: (पोष्याः सन्ति)।

व्याख्या
गृहस्थ पुरुषों को अतिथि, बालक, पत्नी, माता तथा पिता–इन पाँचों का पालन-पोषण तो अवश्य ही करना चाहिए और दूसरों का अपनी शक्ति के अनुसार पालन-पोषण करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि उपर्युक्त पाँच का पालन-पोषण करने में किसी भी गृहस्थ को प्रमाद नहीं करना चाहिए।

(7)
नात्यन्तं सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम्।
छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति सर्वदा ॥

शब्दार्थ
नात्यन्तम् (न + अत्यन्तम्) = अत्यधिक नहीं।
सरलैर्भाव्यं = सीधा-सच्चा होना।
गत्वा = जाकर।
पश्य = देखो।
वनस्थलीम् = वन में।
छिद्यन्ते = काटते हैं।
कुब्जाः = कुबड़े-टेढ़े-मेढ़े वृक्ष, कुटिल।
तिष्ठन्ति = स्थिर रहते हैं।
सर्वदा = हमेशा। |

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है कि व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक सज्जन नहीं होना चाहिए।

अन्वय
अत्यन्तं सरलैः न भाव्यं, वनस्थलीं गत्वा पश्य। तत्र सरलाः (भवन्ति जनाः) छिद्यन्ते कुब्जाः सर्वदा तिष्ठन्ति।

व्याख्या
व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक सीधा नहीं होना चाहिए; वन में जाकर देखो। लोग वन में सीधे वृक्षों को ही काटते हैं; टेढ़े-मेढ़े वृक्ष यों ही खड़े रहते हैं। तात्पर्य यह है कि सीधे और सज्जन व्यक्तियों को ही लोग हानि पहुँचाते हैं, दुर्जन व्यक्तियों को नहीं। यही कारण है कि वन में सीधे (UPBoardSolutions.com) वृक्ष ही काटे जाते हैं, टेढ़े-मेढ़े वृक्ष नहीं। अतः अधिक सज्जनता व्यक्ति के स्वयं के लिए घातक बन जाती है। तुलसीदास जी ने भी कहा है-‘कतहुँ सिधायहु ते बड़ दोषू।’

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(8)
मौनं कालविलम्बश्च प्रयाणं भूमि-दर्शनम्।
भृकुट्यन्यमुखी वार्ता नकारः षड्विधः स्मृतः ॥

शब्दार्थ
कालविलम्बः= समय में देरी करना।
प्रयाणम् = चले जाना।
भूमिदर्शनम् = भूमि की ओर देखने लग जाना।
भृकुटी = भौंह तिरछी करना।
अन्यमुखी वार्ता = दूसरे की ओर मुंह करके बातें करने लग जाना।
नकारः = मना करना, मनाही।
षड्विधः = छः प्रकार का।
स्मृतः = कहा गया है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में किसी विषय में अरुचि प्रदर्शित करने के लक्षणों का उल्लेख किया गया है।

अन्वय
मौनं, कालविलम्बः, प्रयाणं, भूमिदर्शनं, भृकुटी, अन्यमुखी वार्ता चेति षड्विधः नकारः स्मृतः।।

व्याख्या
चुप रहना, समय में देरी करना, अन्य स्थान पर चले जाना, भूमि की ओर देखने लगना, भौंहें टेढ़ी कर लेना, दूसरे की ओर मुँह करके बात करने लगनी-ये छ: प्रकार के मना करने के संकेत स्मृतियों में कहे गये हैं। तात्पर्य यह है कि कोई व्यक्तिं बात करते समय इन छ: लक्षणों में से कोई भी एक लक्षण प्रकट करता है तो व्यक्ति को समझ लेना चाहिए कि उसकी आपकी बातों में कोई रुचि नहीं है अथवा वह आपकी बातों से सहमत नहीं है।

(9)
प्रत्यक्षे गुरवः स्तुत्याः परोक्षे मित्र-बान्धवाः।
कर्मोन्ते दास-भृत्याश्च पुत्री नैव च नैव च ।।

शब्दार्थ
प्रत्यक्षे = सामने, सम्मुख।
गुरवः = गुरु की।
स्तुत्योः = प्रशंसा के योग्य।
परोक्षे = पीछे, बाद में, अनुपस्थिति में।
कर्मान्ते = काम की समाप्ति पर।
भृत्याः = नौकरों की।
नैव = नहीं।।

प्रसंग
कार्य करने पर किसकी किस समय प्रशंसा करनी चाहिए, इसका प्रस्तुत श्लोक में वर्णन किया गया है।

अन्वय
गुरुवः प्रत्यक्षे (स्तुत्याः भवन्ति), मित्र-बान्धवाः परोक्षे (स्तुत्याः भवन्ति), दास-भृत्याः च कर्मान्ते (स्तुत्याः भवन्ति) पुत्राः नैव च नैव च स्तुत्याः (भवन्ति)। |

व्याख्या
गुरुजन सामने प्रशंसा के योग्य होते हैं, मित्र और बन्धुजनों की उनकी अनुपस्थिति में प्रशंसा करनी चाहिए। सेवकों और नौकरों की कर्म की समाप्ति पर प्रशंसा करनी चाहिए। पुत्रों की प्रशंसा कभी नहीं करनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि पुत्र की प्रशंसा कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सम्भव है कि प्रशंसा से हुए अभिमान के कारण उसकी उन्नति का मार्ग अवरुद्ध हो जाए।

(10)
क्षणे तुष्टा क्षणे रुष्टास्तुष्ट रुष्टाः क्षणे क्षणे।
अव्यवस्थितचित्तानां प्रसादोऽपि भयङ्करः ॥

शब्दार्थ
क्षणे = पलभर में।
तुष्टाः = सन्तुष्ट होने, प्रसन्न होने वाले।
रुष्टाः = रूठने वाले, अप्रसन्न होने वाले।
क्षणे-क्षणे = पल-पल में।
अव्यवस्थितचित्तानां = चंचल मन वालों का अर्थात् जिनको मन एकाग्र नहीं।
प्रसादः = कृपा, अनुगृह।
अपि = भी। भयङ्करः = भयानक।।

प्रसंग
इस श्लोक में बताया गया है कि किस प्रकार के व्यक्ति को किस प्रकार के लोगों से सावधान रहना चाहिए।

अन्वय
(ये जनाः) क्षणे तुष्टाः क्षणे रुष्टाः क्षण-क्षणे तुष्टा:-रुष्टाः (ईदृशाः) अव्यवस्थित चित्तानां (जनानां) प्रसादः अपि भयङ्करः (भवति)। |

व्याख्या
जो लोग पलभर में सन्तुष्ट हो जाते हैं, अर्थात् प्रसन्न हो जाते हैं, पलभर में नाराज हो जाते हैं और पल-पल में नाराज और अप्रसन्न होते रहते हैं, ऐसे अस्थिर चित्त वाले लोगों की अनुकम्पा भी भयंकर होती है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को ऐसे लोगों से दूर ही रहना चाहिए।

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(11)
षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥

शब्दार्थ
षड् = छः।
पुरुषेण = मनुष्य द्वारा।
हातव्याः = त्याग करना चाहिए।
भूतिम् इच्छता = कल्याण चाहने वाले मनुष्य को।
तन्द्रा = ऊँघना, निद्रालुता।
दीर्घसूत्रता = किसी काम को धीरे-धीरे करना; अर्थात् मन्द गति से कार्य करना।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में मनुष्य के दोषों को बताकर उन्हें त्यागने का परामर्श दिया गया है।

अन्वेय
इह भूतिम् इच्छता पुरुषेण निद्रा, तन्द्रा, भयं, क्रोधः, आलस्यं, दीर्घसूत्रता–(एते) षड् दोषाः हातव्याः।।

व्याख्या
इस संसार में कल्याण चाहने वाले मनुष्य को नींद, ऊँघना (बँभाई लेना), भय, क्रोध, आलस्य और धीरे-धीरे काम करना-इन छ: दोषों का त्याग कर देना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति में भी ये दोष होंगे, वह कभी उन्नति नहीं कर सकता।

(12)
विद्या विनयाऽवाप्तिः सा चेदविनयाऽऽवहा।
किं कुर्मः कं प्रति बूमः गरदायां स्वमातरि ॥

शब्दार्थ
विद्यया = विद्या से।
विनयाऽवाप्तिः = विनय की प्राप्ति।
चेत् = यदि।
अविनयाऽऽवहा = उद्दण्डता लाने वाली।
कुर्मः = करें।
बूमः = कहें।
गरदायाम् = विष देने वाली हो जाने पर।
स्वमातरि = अपनी माता।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में विद्या के उद्देश्य को विनय से सम्पन्न होना बताया गया है।

अन्वय
विद्यया विनयाऽवाप्तिः (भवति) सा विद्या अविनयाऽऽवहा चेत् (स्यात्) किं कुर्मः? | स्वमातरि गरदायां के प्रति ब्रूमः? |

व्याख्या
विद्या से विनय की प्राप्ति होती है। यदि वह उद्दण्डता प्रदान करने वाली हो जाए तो हम क्या करें? अपनी ही माता के विष देने वाली हो जाने पर हम किससे कहें? तात्पर्य यह है कि यदि विद्यार्जन से हमें विनयी होने का गुण नहीं प्राप्त होता, तो ऐसा विद्यार्जन हमारे लिए व्यर्थ है।

(13)
सर्वे यत्र विनेतारः सर्वे पण्डितमानिनः।।
सर्वे महत्त्वमिच्छन्ति तद् वृन्दम वसीदति ॥

शब्दार्थ
सर्वे = सभी।
यत्र = जहाँ।
विनेतारः = नेता, मार्गदर्शक।
पण्डित = विद्वान्।
मानिनः= मानने वाले।
महत्त्वमिच्छन्ति (महत्त्वम् + इच्छन्ति) = प्रशंसा चाहते हैं।
वृन्दम् = समूह।
अवसीदति = निराश होता है।

प्रसंग
किस समूह की दलगत स्थिति निराशापूर्ण होती है; प्रस्तुत श्लोक में इस बात को समझाया गया है।

अन्वय
तद् वृन्दम् अवसीदति, यत्र सर्वे विनेतारः सर्वे पण्डितमानिनः, सर्वे महत्त्वम् इच्छन्ति।

व्याख्या
वह दल अथवा समूह निराश होता है, जहाँ सभी नेता हों, सब अपने आपको विद्वान् मानते हों और सबै दल में महत्त्व पाने की इच्छा करते हों। तात्पर्य यह है कि जिस सभा में सभी लोग महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करने की इच्छा रखते हों, वह सभा कभी सफल नहीं होती; अर्थात् नेतृत्व एक के हाथ में ही होना चाहिए।

(14)
सम्पूर्णकुम्भो न करोति शब्दमर्दो घटो घोषमुपैति नूनम् ।।
विद्वान् कुलीनो न करोति गर्वं जल्पन्ति मूढास्तु गुणैर्विहीनाः ॥

शब्दार्थ
सम्पूर्णकुम्भः = पूण रूप से भरा हुआ घड़ा।
शब्दम् = आवाज।
अर्द्धः = आधा।
घषम् उपैति = शब्द करता है।
नूनम् = निश्चय ही।
कुलीनः = अच्छे कुल में उत्पन्न।
गर्वम् = अहंकार।
जल्पन्ति = बक्रवास करते हैं।
मूढाः = मूर्ख।
गुणैर्विहीनाः = गुणों से रहित।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में मूर्ख और गुणी लोगों की पहचान बतायी गयी है।

अन्वय
सम्पूर्णकुम्भ: शब्दं न करोति। अर्धः घट: नूनं घोषम् उपैति। कुलीनः विद्वान् गर्वं न करोति। गुणैर्विहीनाः मूढाः तु जल्पन्ति।

व्याख्या
(जल से) भरा हुआ घड़ा (चलते समय) शब्द नहीं करता है। (जल से) आधा भरा हुआ घड़ा निश्चय ही (चलते समय छलकने के) शब्द को प्राप्त होता है। उच्च कुल में उत्पन्न विद्वान् घमण्ड नहीं करता है, लेकिन गुणों से रहित मूर्ख लोग (व्यर्थ में) बकवास करते हैं। तात्पर्य यह है कि विद्वान् व्यक्ति व्यर्थ कभी बकवास नहीं करते हैं और मूर्ख बकवास में ही अपना समय व्यतीत करते हैं।

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(15)
दरिद्रता धीरतया विराजते कुरूपता शीलतया विराजते ।
कुभोजनं चोष्णतया विराजते कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते ॥

शब्दार्थ
दरिद्रता = निर्धनता, गरीबी।
धीरतया = धैर्य के कारण।
विराजते = सुशोभित होता है।
कुरूपता = बदसूरती।
शीलतया = सदाचार और अच्छे स्वभाव के कारण।
कुभोजनम् = स्वादरहित । भोजन।
उष्णतया = गर्म रहने के कारण।
कुवस्त्रता= बुरे वस्त्र, मलिन वस्त्र।
शुभ्रतया= साफ होने से। |

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में उन बातों पर प्रकाश डाला गया है, जिनके द्वारा व्यक्ति की शोभा बढ़ती है।

अन्वय
दरिद्रता धीरतया विराजते। कुरूपता शीलतया विराजते। कुभोजनं च उष्णतया विराजते। कुवस्त्रता च शुभ्रतया विराजते।।

व्याख्या
दरिद्रता धैर्य रखने से सुशोभित होती है। बदसूरती अच्छे स्वभाव या आचरण से सुशोभित होती है। स्वादरहित भोजन गर्म करने से शोभा पाता है और बुरे वस्त्र पहनना सफेद से या साफ रहने से शोभा पाता है। तात्पर्य यह है कि यदि किसी व्यक्ति में उपर्युक्त दुर्गुण हों तो वह उनके उपायों को अपनाकर अपने आपको गुणवान् बना सकता है।

सूक्तिपरक वाक्य की व्याख्या

(1) वरं दारिद्रयमन्यायप्रभवाद् विभवादिह ।।

सन्दर्य
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘सुभाषितानि । शीर्षक पाठ से अवतरित है।

[संकेत-इस शीर्षक के अन्तर्गत आयी हुई समस्त सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। |

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में बताया गया है कि व्यक्ति को अन्याय से धन-संचय नहीं करना चाहिए।

अर्थ-
अन्याय से अर्जितं धन-सम्पदा से तो निर्धन होना श्रेष्ठ है।।

व्याख्या
श्रम से कमाया गया धन ही व्यक्ति के काम आता है और उसी से व्यक्ति के मन को सन्तोष और शान्ति मिलती है। अन्याय से अर्जित धन सदैव व्यक्ति को परेशान रखता है; क्योंकि व्यक्ति को सदैव ही यह भय बना रहता है कि कहीं उसके द्वारा अनैतिक साधनों से संग्रह करके जो धन छिपाया गया है, उसका भण्डाफोड़ न हो जाये। भला ऐसे धन का क्या लाभ, जो व्यक्ति से उसके दिन का.चैन और रातों की नींद छीन ले। मन की शान्ति संसार का सबसे बड़ा धन है। यदि निर्धनता में भी मन की शान्ति बनी रहती है तो यह निर्धनता अन्यायपूर्वक धनोपार्जन करके धनवान् होने से अधिक श्रेष्ठ है।

(2) कृशताऽभिमता देहे पीनता न तु शोफतः ।

प्रसंग
व्यक्ति के स्वस्थ होने के महत्त्व को प्रस्तुत सूक्ति में बताया गया है।

अर्थ
सूजन के मोटापे से शरीर की दुर्बलता ही अच्छी है। |

व्याख्या
किसी रोगवश सूजन के कारण शरीर में आयी स्थूलता किसी काम की नहीं होती; क्योंकि यह स्थूलता व्यक्ति को केवल कष्ट ही दे सकती है। वह व्यक्ति के लिए प्राणघातक हो सकती है अथवा व्यक्ति को अपंग भी बना सकती है। ऐसी स्थूलता से भला क्या लाभ, जो व्यक्ति के प्राण ले ले अथवा उसे अपंग बनाकर नारकीय जीवन जीने को विवश कर दे। उसे स्थूलता के कष्ट से तो शरीर की दुर्बलता ही अच्छी है। कम-से-कम यह दुर्बलता व्यक्ति को कोई कष्ट तो नहीं देती। तात्पर्य यह है कि दुर्बल होते हुए भी स्वस्थ शरीर वाला मनुष्य अधिक उत्तम होता है।

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(3) अव्यवस्थितचित्तानां प्रसादोऽपि भयङ्करः।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में अस्थिर मन वाले लोगों से दूर रहने का परामर्श दिया गया है।

अर्थ
अस्थिर मन वालों की कृपा भी भयंकर होती है।

व्याख्या
जो लोग पलभर में रूठ जाते हैं और पलभर में मान जाते हैं, जो छोटी-छोटी बातों पर रूठते-मानते रहते हैं, ऐसे अस्थिर मन वाले लोगों की कृपा भी भयंकर होती है; क्योंकि ऐसे लोगों का कुछ पता नहीं होता कि वे कब क्या कर बैठेगे ? ऐसे लोग भावुकता में बहकर कभी-कभी व्यक्ति का ऐसा अनिष्ट कर डालते हैं कि उसका उस अनिष्ट से उबर पाना मुश्किल ही नहीं असम्भव हो। जाता है। उदाहरणस्वरूप ऐसे किसी व्यक्ति के साथ मिलकर आप व्यापार आरम्भ करते हैं और अपनी कुल जमापूंजी उसमें लगा देते हैं। व्यापार अभी ठीक से आरम्भ भी नहीं हुआ होता कि वह किसी बात से नाराज होकर अपनी पूँजी के साथ व्यापार से अलग हो जाता है। ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति के कारण आप अपना सब कुछ लुटा बैठेगे। इसलिए ऐसे लोगों से दूर ही रहना चाहिए।

(4) सम्पूर्णकुम्भो न करोति शब्दमर्दो घटो घोषमुपैति नूनम् ।

प्रसंग
प्रस्तुत संक्ति में अज्ञानी व्यक्ति के विषय में बताया गया है।

अर्थ
पूरा भरा हुआ घड़ा शब्द नहीं करता है। आधा घड़ा निश्चय ही शब्द करता है।

व्याख्या
प्रायः देखा जाता है कि जो घड़ा पूरा भरा होता है, दूसरी जगह ले जाते समय वह शब्द नहीं करता। इसके विपरीत जो घड़ा आधा भरा होता है, वह दूसरी जगह ले जाते समय अवश्य शब्द करता है; क्योंकि खाली जगह होने के कारण वह छलकता है और छलकने का शब्द अवश्य होता है। उसी प्रकार जो विद्वान् और कुलीन होता है, वह अहंकार नहीं करता, वह बढ़-चढ़कर डींग नहीं मारता। इसके विपरीत जो अल्पज्ञ और गुणों से हीन होते हैं, वे बहुत डींगे मारते हैं। विद्वान् और कुलीन पूरे भरे घड़े के समान गम्भीर होते हैं; जब कि ओछे व्यक्ति आधे भरे हुए घड़े के समान छलके बिना नहीं रह सकते।

विशेष—इसी सन्दर्भ में निम्नलिखित उक्तियाँ भी कही गयी हैं
(1) क्षुद्र नदी भरि चली उतराई।
(2) अल्प विद्या भयंकरी
(3) प्यादे ते फरजी भयो टेढो-टेढो जाय।
(4) अधजल गगरी छलकत जाय।
(5) थोथा चना बाजे घना।

श्लोक का संस्कृत अर्थ

(1) नालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थान्••••••••••••••••••••••• शश्वत् प्रतीक्षिणः ॥ (श्लोक 3 )
संस्कृतार्थः–
अस्मिन् संसारे धनं त एव जनाः लभन्ते ये श्रमशीला भवन्ति परन्तु अकर्मण्याः, धूर्ताः, मायाविनः, लोकापवाद-भीताः एवं समुचितावसरं सदैव प्रतीक्षमणाः जनाः अर्थान् कदापि न लभन्ते।

(2) अतिथिर्बालकः ••••••••••••••••••च स्वशक्तितः ॥ (श्लोक 6)
संस्कृताः –
अस्मिन् लोके गृहस्थैर्जनेर्विना प्रमादम् अतिथयः बालकाः पत्नी, माता तथा पिता सर्व प्रकारैः सेवनीया भवन्ति। एते पञ्च यथाशक्ति पोष्याः। अन्ये चापि जीवाः, प्राणिना वा यथाशक्ति परिपाल्याः सन्ति।

(3) पंड् दोषाः पुरुषेणेह ••••••••••••••••••••••• आलस्य दीर्घसूत्रता ॥ (श्लोक 11)
संस्कृतार्थः-
अस्मिन् संसारे यः मनुष्यः कल्याणम् इच्छति सः निद्रां, तन्द्रा, भयं, क्रोधम्, आलस्यं तथा मन्दगत्या कार्यकरणम् इति षड् दोषान् त्यजेत्।

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(4) सम्पूर्णकुम्भो न•••••••••••••••••••••••• मूढास्तु गुणैर्विहीनाः॥ (श्लोक 14)
संस्कृतार्थः-
प्रतिदिनं व्यवहारे दृश्यते यत् यः घट: जलेन पूर्णः भवति, तस्य कदापि शब्द: न भवति। य: घट: जलेन अर्धपूर्णः अस्ति, सः अवश्यमेव शब्दं करोति। एवमेव यः जनः उच्चकुलोत्पन्नः विद्वान् च भवति, सः स्वस्य कुलस्य विद्वत्तायाश्च कदापि अहङ्कारं न करोति। एतद् विपरीतं ये जनाः गुणैः विहीनाः अल्पशिक्षिताः च सन्ति, ते मूढा एवं बहुभाषन्ते।

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UP Board Solutions for Class 9 Hindi Chapter 6 परमहंसः रामकृष्णः (रामकृष्ण परमहंस) (संस्कृत-खण्ड)

UP Board Solutions for Class 9 Hindi Chapter 6 परमहंसः रामकृष्णः (रामकृष्ण परमहंस) (संस्कृत-खण्ड)

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[पाठ-परिचय – प्रस्तुत पाठ में स्वामी रामकृष्ण परमहंस का आदर्श जीवन और उनके अनुभवों का वर्णन है।]

1. रामकृष्णः एकः ………………………………………………………………………. मूर्तिमान् पाठः विद्यते। (V. Imp.)
अथवा परमहंसस्य ………………………………………………………………………. पाठः विद्यते।

शब्दार्थ-विलक्षणः = विचित्र, अलौकिक । उक्तम् = कहा था। प्रायोगिकम् = व्यवहार में लाया गया। मूर्तिमान = सकार।

सन्दर्भ – यह गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के अन्तर्गत संस्कृत खण्ड के ‘परमहंसः रामकृष्णः’ नामक पाठ से उद्धृत है।

हिन्दी अनुवाद – रामकृष्ण एक अलौकिक महापुरुष थे। उनके विषय में महात्मा गांधी ने कहा था— “रामकृष्ण परमहंस का जीवन-चरित धर्म के आचरण का व्यावहारिक विवरण (UPBoardSolutions.com) है। उनका जीवन हमारे लिए ईश्वर-दर्शन की शक्ति प्रदान करता है। उनके वचन न केवल किसी के नीरस ज्ञान के वचन हैं, अपितु उनकी जीवनरूपी पुस्तक के पृष्ठ ही हैं। उनका जीवन अहिंसा का साकार पाठ है।”

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2. स्वामिनः रामकृष्णस्य ………………………………………………………………………. समाधौ अतिष्ठत्।

शब्दार्थ-बंगेषु = बंगाल प्रदेश में खिस्ताब्दे = ईसवी सन् में। पितरौ (माता च पिता च) = माता-पिता सहजा = नैसर्गिक, स्वाभाविक। निष्ठा = विश्वास। आराधनावसरे (आराधना + अवसरे) = ईश्वर की आराधना के समय। समाधो = समाधि में।

सन्दर्भ – पूर्ववत्

हिन्दी अनुवाद – स्वामी रामकृष्ण का जन्म बंगाल में हुगली प्रदेश के ‘कामारपुकुर’ नामक स्थान में 1836 ईस्वी सन् में हुआ था। उनके माता-पिता अत्यन्त धार्मिक विचारों के थे। बचपन से ही रामकृष्ण ने (अपने) अद्भुत चरित्र को प्रदर्शित किया। उसी समय उनकी ईश्वर में स्वाभाविक आस्था हो गयी। ईश्वर की आराधना के समय वे स्वाभाविक समाधि में बैठ जाते थे।

3. परमसिद्धोऽपि सः ………………………………………………………………………. सिद्धेः प्रदर्शनेन।

शब्दार्थ – नोचितम् (न + उचितम्) = उचित नहीं । अमन्यत् = मानते थे। पादुकाभ्याम् = खड़ाओं से. पणद्वयमात्रम् केवल दो पैसे । एतादृश्याः = इस प्रकार की।

हिन्दी अनुवाद – परमसिद्ध होते हुए भी वे सिद्धियों के प्रदर्शन को उचित नहीं मानते थे। एक बार किसी भक्त ने किसी की महिमा का इस प्रकार वर्णन किया-”वह महात्मा खड़ाऊँ से नदी पार कर जाता है, यह बड़े  आश्चर्य की बात है।” परमहंस रामकृष्ण धीरे से हँसे और बोले-”इस सिद्धि का (UPBoardSolutions.com) मूल्य केवल दो पैसे हैं। दो पैसों से साधारण व्यक्ति नाव द्वारा नदी पार कर लेता है। इस सिद्धि से केवल दो पैसों का लाभ होता है। इस प्रकार की सिद्धि के प्रदर्शन से क्या लाभ है?

4. रामकृष्णस्य विषये ………………………………………………………………………. उदयो भवति। (V. Imp.)

शब्दार्थ-निरतः = संलग्न निमजिताः = डूबे हुए। निष्क्रमितुम् आकुलाः = बाहर आने के लिए व्याकुल मत्कृते = मेरे लिए। अपेक्ष्यते = आवश्यक है। सुखप्रदाम् = सुखों को प्रदान करनेवाली। चेत = यदि, साधयितुम = साधन करने में। बहवः = बहुत से।

हिन्दी अनुवाद – रामकृष्ण के विषय में इस प्रकार की बहुत-सी कथाएँ प्रसिद्ध हैं। वे जीवन भर आत्म-चिन्तन में लीन रहे। इस विषय में उनके अनेक अनुभव संसार में प्रसिद्ध हैं।

उन्हीं के शब्दों में उनके आध्यात्मिक अनुभव (इस प्रकार) वर्णित हैं–

  1. “जल में डूबे हुए प्राण जिस प्रकार बाहर निकलने के लिए व्याकुल होते हैं, उसी प्रकार यदि लोग ईश्वर-दर्शन के लिए भी उत्सुक होंवे, तब उसका (ईश्वर का) दर्शन हो सकता है।”
  2. “किसी भी साधना को पूरा करने के लिए मुझे तीन दिन से अधिक का समय नहीं चाहिए।’
  3. “मैं भौतिक (सांसारिक) सुखों को प्रदान करनेवाली विद्या नहीं चाहता हूँ। मैं तो उस विद्या को चाहता हूँ, जिससे हृद में ज्ञान का उदय होता है।”

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5. अयं महापुरुषः ………………………………………………………………………. महान् सन्देशः। (V. Imp.)
अथवा विश्वविश्रुतः ………………………………………………………………………. सेवाश्रमाः स्थापिताः।।
अथवा विश्वविश्रुतः ………………………………………………………………………. महान् सन्देशः ।।

शब्दार्थ-एतवान् = इतने ।विभेदः = भेदभाव। मानवकृताः = मानव के द्वारा बनाये गये।निर्मूलाः = निरर्थक।विश्वविश्रुतः = संसार में प्रसिद्ध। महाभागस्य = महानुभाव के। डिण्डिमघोषः = उच्च स्वर से घोषणा, ढिंढोरा।

हिन्दी अनुवाद – यह महापुरुष अपने योगाभ्यास के बल से ही इतने महान् हो गये थे। वे ऐसे विवेकशील और शुद्ध चित्त वाले (पवित्र मन के) थे कि उनके लिए मानव के द्वारा बनाये गये विभेद निराधार हो गये थे। अपने आचरण से ही उन्होंने सब कुछ सिद्ध किया। संसार में प्रसिद्ध स्वामी विवेकानन्द इन्हीं महानुभाव के शिष्य थे। उन्होंने केवल भारतवर्ष में ही नहीं, अपितु पश्चिमी देशों में भी व्यापक मानव धर्म का डंका (UPBoardSolutions.com) बजाया (उच्च-स्वर से घोषणा की) उन्होंने और उनके दूसरे शिष्यों ने लोगों के कल्याण के लिए स्थान-स्थान पर रामकृष्ण-सेवाश्रम स्थापित किये। ”ईश्वर का अनुभव दुःखी लोगों की सेवा से ही पुष्ट होती है”-यह रामकृष्ण का महान् सन्देश है।

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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 2 रामस्य पितृभक्तिः (पद्य-पीयूषम्)

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 2
Chapter Name रामस्य पितृभक्तिः (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 2 रामस्य पितृभक्तिः (पद्य-पीयूषम्)

परिचय-‘रामस्य पितृभक्तिः
‘ शीर्षक पाठ महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ के अयोध्याकाण्ड के अठारहवें और उन्नीसवें सर्ग से संकलित किया गया है। इन सर्गों में उस समय की कथा का वर्णन है जब कैकेयी स्वयं को दिये गये वरदानों की पूर्ति के लिए दशरथ से दुराग्रह करती है। तब सुमन्त्र को भेजकर राम को वहाँ (UPBoardSolutions.com) बुलवाया जाता है। जब राम दशरथ और कैकेयी के पास पहुँचकर कैकेयी से अपने पिता की दुरवस्था के विषय में पूछते हैं, तब कैकेयी उनके प्रश्न का जो उत्तर देती है, उसी समय की घटना का वर्णन प्रस्तुत पाठ में किया गया है।

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पाठ-सारांश

राम का कैकेयी से पिता के दुःख का कारण पूछना-राम ने कैकेयी के साथ आसन पर बैठे हुए दु:खी पिता को देखा। उन्होंने पहले पिता के चरणों में अभिवादन किया और तत्पश्चात् कैकेयी के चरण स्पर्श किये। पिता दशरथ ‘राम’ शब्द कहकर आँसुओं के कारण न उन्हें देख सके और न बोल सके। पिता को आशीर्वाद न देते देखकर, राम सोचने लगे कि आज पिताजी मुझे देखकर प्रसन्न क्यों नहीं हो रहे हैं। शोकयुक्त राम ने कैकेयी से पूछा कि “आज पिताजी मुझ पर क्यों कुपित हैं? मैं पिता को सन्तुष्ट न करके और उनके वचन का पालन न करता हुआ एक क्षण भी नहीं जीना चाहता हूँ।”

कैकेयी का राम से पिता का वचन पूर्ण करने को कहना-कैकेयी ने राम के वचन सुनकर : स्वार्थ से भरकर कहा कि तुम इन्हें अत्यन्त प्रिय हो। यही कारण है कि तुम्हें अप्रिय बात कहने के लिए इनकी वाणी नहीं निकल रही है। इन्होंने मुझे जो वचन दिया है, वह तुम्हें अवश्य पूरा करना है। तुम्हारे पिता ने मुझे वर देकर मेरा सम्मान किया था, लेकिन अब उस वर को पूरा करते समय ये साधारणजन की तरह दु:खी हो रहे हैं। महाराज तुमसे जो शुभ या अशुभ कहेंगे, वह सब मैं तुमसे कहती हूँ।

राम द्वारा कैकेयी को विश्वास दिलाना-कैकेयी के वचन सुनकर दु:खी राम ने उससे कहा कि, “मैं राजा के कहने से आग में कूद सकता हूँ, भयंकर विष खा सकता हूँ और समुद्र में भी कूद सकता हूँ; अतः हे देवी! आप राजा को अभिलषित मुझे बताइए, मैं उसे अवश्य पूरा करूंगा।’ कैकेयी का वरदानों के विषय में बताना–कैकेयी ने सरल और सत्यवादी राम से अत्यन्त कठोर शब्दों में कहा कि “प्राचीन समय में हुए (UPBoardSolutions.com) देवासुर संग्राम में तुम्हारे पिता की रक्षा करने पर उन्होंने मुझे दो वर प्रदान किये थे। उन दो वरों में से मैंने प्रथम वर भरत के राज्याभिषेक को तथा द्वितीय वर तुम्हारे वन में जाने का माँगा है। यदि तुम पिता का वचन और अपनी प्रतिज्ञा को सत्य करना चाहते हो तो चौदह वर्ष तक वन में रहने के लिए जाओ, जिससे भरत पिता के इस राज्य का शासन कर सके।”

राम द्वारा वन जाने की स्वीकारोक्ति-कैकेयी के वचन को सुनकर राम दु:खी हुए और बोले कि “मैं पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए जटा और वल्कल वस्त्र धारण करके वन में चला जाऊँगा। भरत को राज्य की तो बात ही क्या, उसे मैं सीता, प्रिय प्राणों और धन को भी प्रसन्नतापूर्वक दे सकता हूँ। संसार में पिता की सेवा और उसकी आज्ञापालन से बढ़कर श्रेष्ठ धर्म कोई नहीं है।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

(1)
स ददर्शासने रामो निषण्णं पितरं शुभे।
कैकेय्या सहितं दीनं मुखेन परिशुष्यता ॥

शब्दार्थ
निषण्णं = बैठे हुए।
परिशुष्यता = सूखते हुए। |

सन्दर्भ
प्रस्तुत श्लोक महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित ‘वाल्मीकि रामायण’ से संकलित और हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘रामस्य पितृभक्तिः ‘ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

प्रसंग
कैकेयी के द्वारा राजा दशरथ से दो वरदान माँग लेने पर दशरथ द्वारा श्रीराम को सुमन्त्र से बुलवाया जाता है। राम महल में पहुँचकर जो कुछ देखते हैं, उसी का वर्णन यहाँ किया गया है।।

[संकेत-इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही

सन्दर्भ
प्रसंग प्रयुक्त होगा।]

अन्वय
सः रामः परिशुष्यता मुखेन दीनं पितरं कैकेय्या सहितं शुभे आसने निषण्णं ददर्श।

व्याख्या
उन राम ने सूखे हुए मुख वाले, दीन पिता को कैकेयी के साथ आसन पर बैठे देखा; अर्थात् राम ने अपने पिता दशरथ को अत्यन्त दीन-हीन अवस्था में देखा। मानसिक कष्ट से उनका मुख सूख रहा था और वे कैकेयी के साथ सुन्दर आसन पर विराजमान थे।

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(2)
स पितुश्चरणौ पूर्वमभिवाद्य विनीतवत् ।।
ततो ववन्दे चरणौ कैकेय्याः सुसमाहितः ॥

शब्दार्थ
अभिवाद्य = अभिवादन करके।
विनीतवत् = विनम्र भाव से।
ततः = उसके बाद।
ववन्दे = प्रणाम किया।
सुसमाहितः = अत्यन्त।।

अन्वय
सुसमाहितः (भूत्वा) सः पूर्वं विनीतवत् पितुः चरणौ अभिवाद्य ततः कैकेय्याः चरणौ ववन्दै।

व्याख्या
अत्यधिक एकनिष्ठ होकर उन श्रीराम ने पहले अत्यन्त विनीत भाव के साथ पिता (दशरथ) के चरणों में प्रणाम करके, उसके बाद कैकेयी के चरणों में प्रणाम किया।

(3)
रामेत्युक्त्वा तु वचनं वाष्पपर्याकुलेक्षणः ।।
शशाक नृपतिर्दीनो नेक्षितुं नाभिभाषितुम् ॥

शब्दार्थ
वाष्पपर्याकुलेक्षणः = आँसुओं से व्याकुल नेत्रों वाले।
ईक्षितुम् = देखने के लिए।
अभिभाषितुम् = बोलने के लिए।

अन्वय
वाष्पपर्याकुलेक्षण: दीनः नृपतिः ‘राम’ इति वचनम् उक्त्वा न ईक्षितुं न (च) अभिभाषितुं शशाक।।

व्याख्या
आँसुओं से व्याकुल नेत्रों वाले, अत्यन्त दु:खी राजा राम’ इस वचन को कहकर न तो देख सके और न बोल सके; अर्थात् अत्यधिक दु:खी राजा दशरथ के नेत्र आँसुओ से भरे हुए थे। वे
केवल ‘राम’ इस शब्द को ही कह सके। नेत्रों के अश्रुपूरित होने के कारण न तो वे कुछ देख ही सके और अत्यधिक दु:ख के कारण न कुछ कह ही सके।

(4)
चिन्तयामास चतुरो रामः पितृहिते रतः।
किंस्विदचैव नृपतिर्न मां प्रत्यभिनन्दति ॥

शब्दार्थ
चिन्तयामास = सोचने लगे।
चतुरः = होशियार, मेधावी, तीक्ष्णबुद्धि।
पितृहिते रतः पिता के हित में लगे हुए।
किंस्विद्= किस कारण से।
प्रत्यभिनन्दति = प्रसन्न होकर आशीष दे रहे हैं।

अन्वय
पितृहिते रतः चतुरः रामः चिन्तयामास। किंस्विद् नृपतिः अद्य एवं मां न प्रत्यभिनन्दति।

व्याख्या
पिता के हित में लगे हुए तीक्ष्ण-बुद्धि राम ने सोचा कि किस कारण से राजा आज ही मुझसे प्रसन्न होकर आशीर्वाद नहीं दे रहे हैं। तात्पर्य यह है कि जब भी राम अपने पिता (UPBoardSolutions.com) (राजा दशरथ) को प्रणाम करते थे, तो वे सदैव उन्हें आशीर्वाद दिया करते थे। केवल आज ही ऐसा नहीं हुआ। यह देखकर मेधावी राम, जो हमेशा पिता की हित-चिन्ता में लगे रहते थे; सोचने के लिए विवश हो गये कि ऐसा क्यों हुआ? |

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(5)
अन्यदा मां पिता दृष्ट्वा कुपितोऽपि प्रसीदति ।  
तस्य मामद्य सम्प्रेक्ष्य किमायासः प्रवर्तते ॥

शब्दार्थ
अन्यदा = किसी दूसरे समय।
दृष्ट्य = देखकर।
कुपितः अपि = क्रोधित होने पर भी।
प्रसीदति = प्रसन्न होते हैं।
सम्प्रेक्ष्य = देखकर
आयासः = चित्त-क्लेश, दु:ख।
प्रवर्तते = प्रारम्भ हो रहा है। ।

अन्वय
अन्यदा कुपितः अपि पिता मां दृष्ट्वा प्रसीदति। अद्य मां सम्प्रेक्ष्य तस्य आयासः किं प्रवर्त्तते।

व्याख्या
अन्य दिनों कुपित हुए होने पर भी पिताजी मुझे देखकर प्रसन्न हो जाते थे। आज मुझे देखकर उनको दुःख क्यों हो रहा है? तात्पर्य यह है कि आज के अतिरिक्त दूसरे दिनों में जब पिता दशरथ क्रोधित भी होते थे, तब भी वह राम को देखकर प्रसन्न हो जाते थे, लेकिन आज राम को देखने के बाद दशरथ और भी दु:खी हो गये। ऐसा क्यों हुआ, यह राम समझ नहीं सके।

(6)
स दीन इव शोकात विषण्णवदनद्युतिः।
कैकेयीमभिवाद्यैवं रामो वचनमब्रवीत् ॥

शब्दार्थ
शोकार्त्तः = शोक से व्याकुल।
विषण्णवदनद्युतिः = विषाद के कारण मलिन मुख-कान्ति वाले।
अभिवाद्यैव (अभिवाद्य + एव) = प्रणाम करते ही।
अब्रवीत् = बोला, कहा।

अन्वय
दीनः इव शोकार्त्तः विषण्णवदनद्युतिः सः रामः कैकेयीम् अभिवाद्य एवं वचनम्। अब्रवीत्।।

व्याख्या
दीन-दु:खी के समान दुःख से पीड़ित, दु:ख के कारण मलिन मुख-कान्ति वाले उस राम ने कैकेयी को प्रणाम करते ही यह वचन कहा। तात्पर्य यह है कि पिता को दीन-हीन अवस्था में मानसिक कष्ट से पीड़ित देखते ही राम की मुख-मुद्रा और मानसिक स्थिति भी वैसी ही (पिता जैसी) हो गयी थी।

(7)
कच्चिन्मयानापराद्धमज्ञानाद् येन मे पिता।
कुपितस्तन्ममाचक्ष्व त्वमेवैनं प्रसादय ॥

शब्दार्थ
कच्चित् = क्या कहीं।
मया = मेरे द्वारा।
अपराद्धम् = अपराध को, दोष को।
आचक्ष्व = बताओ।
प्रसादय = प्रसन्न करो।

अन्वय
कच्चित् मया अज्ञानात् न अपरार्द्धम्, येन मे पिता कुपितः, तत् मम आचक्ष्व। एनं त्वम् एव प्रसादये।

व्याख्या
क्या कहीं मैंने अज्ञान के कारण कोई अपराध तो नहीं कर दिया, जिससे मेरे पिता मुझ पर क्रुद्ध हो गये, उस कारण को मुझे बताइए (और) आप ही इनको (UPBoardSolutions.com) प्रसन्न करें। अर्थात् मेरी जानकारी में तो मुझसे कोई अपराध हुआ नहीं। सम्भव है कि अनजाने में मुझसे कोई अपराध निश्चित हो गया है, जिस कारण पिताजी मेरे ऊपर क्रुद्ध हो गये हैं। अतः आप मुझे मेरा अपराध बताइए और पिताजी को (मेरे ऊपर) प्रसन्न भी कराइए।

(8)
अतोषयन् महाराजमकुर्वन् वा पितुर्वचः।
मुहूर्तमपि नेच्छेयं जीवितुं कुपिते नृपे॥

शब्दार्थ
अतोषयन् = सन्तुष्ट न करता हुआ।
अकुर्वन् (न कुर्वन्) = न करता हुआ।
मुहूर्त्तम् । = एक मुहूर्त अर्थात् दो घटी (48 मिनट)।
इच्छेयम् = चाहो जाना चाहिए। 

अन्वय
नृपे कुपिते महाराजम् अतोषयन् पितुः वचः वा अकुर्वन् मुहूर्तम् अपित जीवितुं न इच्छेयम्।।

व्याख्या
राजा के क्रुद्ध होने पर महाराज को सन्तुष्ट न करता हुआ अथवा पिता के वचन का पालन न करता हुआ मैं एक क्षण भी जीवित रहना नहीं चाहता हूँ; अर्थात् राम स्वयं को धिक्कारते हुए कहते हैं कि यदि मैं महाराज दशरथ को अपने कार्यों से सन्तुष्ट न कर सका, अथवा अपने पिता के वचनों का पालन न कर सका तो मेरे लिए एक क्षण भी जीवित रहना उचित न होगा। तात्पर्य है कि किसी भी स्थिति में मैं इनके वचनों का पालन अवश्य करूंगा।।

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(9)
यतोमूलं नरः पश्येत् प्रादुर्भावमिहात्मनः।।
कथं तस्मिन्न वर्तेत प्रत्यक्षे सति दैवते ।।

शब्दार्थ
यतोमूलम् = जिस मूल कारण से।
प्रादुर्भावम् = उत्पत्ति को। इह = यह लोक।
आत्मनः = अपनी।
वर्तेत = व्यवहार करे।
प्रत्यक्षे = साक्षात् उपस्थित, सामने।
दैवते = ईश्वर तुल्य।

अन्वय
नरः इह आत्मन: प्रादुर्भावं यतोमूलं पश्येत् , तस्मिन् प्रत्यक्षे दैवते सति कथं ने वर्तेत।

व्याख्या
मनुष्य इस संसार में अपनी उत्पत्ति को जिसके कारण देखता है, उस देवता स्वरूप पिता के विद्यमान रहने पर क्यों न उसके अनुकूल आचरण करे; अर्थात् इस संसार में मनुष्य कन जन्म पिता के कारण ही होता है। अतः पिता के रहने पर व्यक्ति को हमेशा उसके अनुकूल ही आचरण करना चाहिए; क्योंकि जन्म देने के कारण पिता देवतास्वरूप ही होता है।

(10)
एवमुक्ता तु कैकेयी राघवेण महात्मना।
उवाचेदं सुनिर्लज्जा धृष्टमात्महितं वचः ॥

शब्दार्थ
महात्मना = महान् पुरुष।
उक्ता = कहा।
सुनिर्लज्जा = अत्यधिक लज्जारहित।
धृष्टम् = ढिठाई से भरा, ढिठाई के साथ।
आत्महितं वचः = अपने स्वार्थ का वचन।
उवाच = कहा।

अन्वय
महात्मना राघवेण एवम् उक्ता तु सुनिर्लज्जा कैकेयी धृष्टम् आत्महितम् इदं वचः उवाच।

व्याख्या
महात्मना राम ने जब इस प्रकार कहा तो अत्यधिक निर्लज्ज कैकेयी ने धृष्टता में ही अपनी भलाई समझते हुए इस प्रकार वचन कहे। तात्पर्य यह है विशाल हृदय वाले राम के सम्मुख भी कैकेयी अपने तुच्छ स्वार्थ को त्याग न सकी और अत्यधिक निर्लज्जता और धृष्टता से स्वार्थ से युक्त अपनी बातें कहने लगी।

(11)
प्रियं त्वामप्रियं वक्तुं वाणी नास्य प्रवर्तते।
तदवश्यं त्वया कार्यं यदनेनाश्रुतं मम ॥

शब्दार्थ
त्वाम् = तुमको।
अप्रियं = अप्रिय, कटु।
वस्तुम् = कहने के लिए।
प्रवर्त्तते = प्रवृत्त हो रहे।
कार्यं = करना चाहिए।
आश्रुतम् = दिया गया वचन, की गयी प्रतिज्ञा को।।

अन्वय
प्रियं त्वाम् अप्रियं वक्तुम् अस्य वाणी न प्रवर्तते। अनेन यत् मम आश्रुतम् , तत् त्वया अवश्यं कार्यम्। |

व्याख्या
अत्यन्त प्रिय, तुमसे कटु बात कहने के लिए इनकी वाणी निकल ही नहीं रही है। इन्होंने मुझसे जो प्रतिज्ञा की है उसका पालन तुम्हें अवश्य करना है। तात्पर्य यह है कि हे राम! तुम अपने पिता महाराजा दशरथ को अत्यन्त प्रिय हो। इसलिए तुमसे ये कुछ भी अप्रिय वचन कहना नहीं चाहते। अतः अब ये तुम्हारा कर्तव्य है कि इन्होंने मुझे जो वचन दिया है, उसे तुम अवश्य पूरा करो।

(12)
एष मह्यं वरं दत्त्वा पुरा मामभिपूज्य च।।
स पश्चात् तप्यते राजा यथान्यः प्राकृतस्तथा ॥

शब्दार्थ
एष = इन्होंने।
मह्यं = मुझे।
पुरा = पहले, प्राचीनकाल में।
अभिपूज्य = सम्मान करके।
तप्यते = सन्तप्त हो रहे हैं।
प्राकृतः = साधारण-जन।।

अन्वय
एषः (राजा) पुरा माम् अभिपूज्य मह्यं वरं च दत्त्वा पश्चात् स राजा तथा तप्यते यथा अन्यः प्राकृतः (जनः तप्यते)।

व्याख्या
ये राजा (दशरथ) प्राचीन समय में मेरा सम्मान करके और मुझे वर देकर बाद में उसी प्रकार दु:खी हो रहे हैं, जैसे दूसरा कोई साधारण-जन दुःखी होता है। तप-सेवा आदि से प्रसन्न हुए देवता, गुरु आदि सामर्थ्यसम्पन्न जनों द्वारा जो इच्छित पदार्थ सेवा करने वाले को दिया जाता है,उसे (UPBoardSolutions.com) वर कहते हैं। कैकेयी का भी यही कहना है कि जब इन्होंने मुझ पर प्रसन्न होकर वर दिये थे तब आज वचन का पालन करते समय एक सामान्यजन की तरह क्यों दुःखी हो रहे हैं, अर्थात् इन्हें उसी प्रसन्नता से वचन का पालन भी करना चाहिए।

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(13)
यदि तद् वक्ष्यते राजा शुभं वा यदि वाऽशुभम्। ।
करिष्यसि ततः सर्वामाख्यास्यामि पुनस्त्वहम् ॥

शब्दार्थ
वक्ष्यते = कहेंगे।
वो = अथवा।
आख्यास्यामि = बता देंगी

अन्वय
यदि राजा शुभं वा अशुभं वा वक्ष्यते, तद् यदि त्वं करिष्यसि, ततः अहं तु पुनः सर्वम् । आख्यास्यामि।

व्याख्या
राजा (दशरथ) प्रिय या अप्रिय जो कुछ भी तुमसे कहेंगे, तुम यदि उसे करोगे, तब फिर मैं सब कुछ तुम्हें बता दूंगी। तात्पर्य यह है कि स्वार्थ की बात कहने से पूर्व कैकेयी राम को भी भली-भाँति वचनबद्ध कर देना चाहती है।

(14)
एतत्तु वचनं श्रुत्वा कैकेय्या समुदाहृतम् ।
उवाच व्यथित रामस्तां देवीं नृपसन्निधौ ॥

शब्दार्थ
श्रुत्वा = सुनकर।
समुदाहृतम् = भली प्रकार से कहे गये।
व्यथितः = दु:खी।
नृपसन्निधौ = राजा के पास।

अन्वय
कैकेय्या समुदाहृतम् एतत् वचनं श्रुत्वा तु रामः व्यथितः (सन्) नृपसन्निधौ तां देवीम् । उवाच।

व्याख्या
कैकेयी द्वारा कहे गये इस वचन को सुनकर तो राम ने दुःखी होते हुए राजा के पास | . उस देवी (माता कैकेयी) से कहा।

(15)
अहो धिङ्नार्हसे देवि वक्तुं मामीदृशं वचः।
अहं हि वचनाद् राज्ञः पतेयमपि पावके ॥

शब्दार्थ
धिङ = धिक्कार है।
अर्हसे = उचित है, योग्य है।
माम् = मुझे।
ईदृशं = इस प्रकार के।
हि = निश्चय ही।
पतेयम् = गिर सकता हूँ।
पावके = अग्नि में।

अन्वय
अहो! धिङ मां। देवि! (त्वं) ईदृशं वचः वक्तुं न अर्हसे। राज्ञः वचनात् हि अहं पावके अपि पतेयम्। •

व्याख्या
अहो, मुझे धिक्कार है! हे देवी! (तुम्हें) मुझको इस प्रकार के वचन कहना उचित : नहीं है। मैं निश्चय ही राजा (पिता) की आज्ञा से अग्नि में भी गिर सकता हूँ। जब राम को अनुभव

हुआ कि कैकेयी उनके वचन-पालन के प्रति पूर्णरूपेण आश्वस्तं नहीं है, तब उन्होंने उसे विश्वास दिलाने के लिए कहा कि पिता की आज्ञा यदि उनके लिए प्राणघातक भी होगी तब भी वे उसे पूर्ण करने के लिए वचनबद्ध हैं।

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(16)
भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे।
नियुक्तो गुरुणा पित्रा नृपेण च हितेन च ॥

शब्दार्थ
भक्षयेयम् = खा सकता हूँ।
अर्णवे = समुद्र में
नियुक्तः = कहा गया।
गुरुणा = गुरु द्वारा।
पित्रा = पिता द्वारा।
नृपेण = राजा द्वारा।
हितेन = हितैषी द्वारा।

अन्वय
नृपेण गुरुणा हितेन च पित्री नियुक्तः (अहं) तीक्ष्णं विषं भक्षयेयम् , अर्णवे च अपि पतेयम्।।

व्याख्या
यदि राजा, गुरु, पिता और हितैषी मुझे आदेश दें तो मैं तेज विष खा सकता हूँ और समुद्र में भी गिर सकता हूँ। तात्पर्य यह है कि राजा, गुरु और पिता तो श्रेष्ठ होते ही हैं, उनकी आज्ञा का पालन तो आवश्यक है ही, लेकिन राम तो उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए भी तत्पर हैं जो उनका हित चाहते हैं।

(17)
तद् बूहि वचनं देवि! राज्ञो यदभिकाङ्क्षितम्।
करिष्ये प्रतिजाने च रामो द्विर्नाभिभाषते ॥

शब्दार्थ
ब्रूहि = कहो।
अभिकाङ्क्षितम् = अभिलषित को।
प्रतिजाने = प्रतिज्ञा करता हूँ।
द्विः न अभिभाषते = दो तरह की बात नहीं कहता है।

अन्वय
देवि! राज्ञः यद् अभिकाङ्क्षितम् , तद् वचनं (मां) ब्रूहि। (अहं) प्रतिजाने, तत् । (अहं) करिष्ये। रामः द्विः न अभिभाषते।।

व्याख्या
हे देवी! राजा की जो अभिलाषा है, वह आप मुझे बतलाइए, मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि उसका पालन अवश्य करूंगा। राम दो प्रकार की बात नहीं कहता है। तात्पर्य यह है कि राम कभी असत्य-भाषण नहीं करता है। |

(18)
तमार्जवसमायुक्तमनार्या सत्यवादिनम्।।
उवाच रामं कैकेयी वचनं भृशदारुणम् ॥

शब्दार्थ
आर्जवसमायुक्तम् = सरलता से युक्त।
अनार्या = नीचे विचारों वाली।
भृशदारुणम् = अत्यन्त कठोर।

अन्वय
अनार्या कैकेयी आर्जवसमायुक्तं सत्यवादिनं तं रामं भृशदारुणं वचनम् उवाच।।

व्याख्या
नीचे अर्थात् निकृष्ट विचारों वाली कैकेयी ने सरल स्वभाव वाले और सत्यवक्ता राम से अत्यन्त कठोर वाणी से कहा। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति के जैसे विचार होते हैं, उसी के अनुरूप उसकी वाणी भी परिवर्तित हो जाती है।

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(19)
पुरा दैवासुरे युद्धे पित्रा ते मम राघव ! 
रक्षितेन वरौ दत्तौ सशल्येन महारणे ॥

शब्दार्थ
पुरा = प्राचीन काल में।
दत्तौ = दिये गये।
सशल्येन = बाण से विद्ध हुए।

अन्वय
हे राघव! पुरा दैवासुरे युद्धे शल्येन (मया) रक्षितेन ते पित्रा महारणे मम वरौ दत्तौ।।

व्याख्या
हे राघव! प्राचीनकाल में देवताओं और असुरों के बीच होने वाले युद्ध में बाण से। विद्ध हुए और मेरे द्वारा रक्षित तुम्हारे पिता ने उसी महान् युद्ध-भूमि में ही मुझे दो वर प्रदान किये थे।

(20)
तत्र मे याचितो राजा भरतस्याभिषेचनम्।
गमनं दण्डकारण्ये तव चाद्यैव राघव! ॥

शब्दार्थ
तत्र = वहाँ।
याचितः = माँगा।
अभिषेचनम् = अभिषेक, राज्याभिषेक।
दण्डकारण्ये = दण्डक वन में।
तव = तुम्हारा।
अध एवं = आज ही।

अन्वय
हे राघव! तत्र (एकेन) में भरतस्य अभिषेचनम्। (द्वितीयेन) अद्यैव तव दण्डकारण्ये गमनं च राजा याचितः।

व्याख्या
हे राघव! उन वरों में से मैंने राजा से एक वर से भरत का राज्याभिषेक और दूसरे वर से आज ही तुम्हारा दण्डक वन में जाना माँगा था।

(21)
यदि सत्यप्रतिज्ञं त्वं पितरं कर्तुमिच्छसि।
आत्मानं च नरश्रेष्ठ! मम वाक्यमिदं शृणु ॥

शब्दार्थ
सत्यप्रतिज्ञम् = सच्ची प्रतिज्ञा वाला।
कर्तुमिच्छसि = करना चाहते हो।
आत्मानं =’ स्वयं को।
नरश्रेष्ठ! = मनुष्यों में श्रेष्ठ।
शृणु = सुनो।..

अन्वय
हे नरश्रेष्ठ! यदि त्वं पितरम् आत्मानं च सत्यप्रतिज्ञं कर्तुम् इच्छसि, (तदा) मम इदं वाक्यं शृणु।।

व्याख्या
मानवों में श्रेष्ठ (हे राम)! यदि तुम पिताजी को और अपने को सच्ची प्रतिज्ञा वाला सिद्ध करना चाहते हो तो मेरे इस वचन को सुनो। कैकेयी का आशय यह है कि यदि राम स्वयं अपने वचनों की तथा अपने पिता के वचनों की रक्षा करना चाहते हैं तो उन्हें कैकेयी की बात मान लेनी चाहिए।

(22)
त्वयारण्यं प्रवेष्टव्यं नव वर्षाणि पञ्च च।
भरतः कोशलपतेः प्रशास्तु वसुंधमिमाम् ॥

शब्दार्थ
त्वया = तुम्हारे द्वारा।
अरण्यम् = वने में।
प्रवेष्टव्यं = प्रवेश करना चाहिए।
नव पञ्च च वर्षाणि = नव और पाँच अर्थात् चौदह वर्ष तक।
प्रशास्तु = शासन करे। वसुधाम् = पृथ्वी का।

अन्वय
त्वया नव पञ्च च वर्षाणि अरण्यं प्रवेष्टव्यम्। भरतः कोशलपतेः इमां वसुधां प्रशास्तु।

व्याख्या
तुम्हें चौदह वर्षों के लिए वन में प्रवेश करना चाहिए और भरत को कोशल नरेश की इस भूमि का शासन करना चाहिए।

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(23)
तदप्रियममित्रघ्नो वचनं मरणोपमम् ।
श्रुत्वा न विव्यथे रामः कैकेयीं चेदमब्रवीत् ॥

शब्दार्थ
अमित्रघ्नः = शत्रुओं का वध करने वाले।
मरणोपमम् = मृत्यु के समान कष्टदायक।
श्रुत्वा = सुनकर।
विव्यथे = पीड़ित हुए।

अन्वय
तद् अप्रियं मरणोपमं वचनं श्रुत्वा अमित्रघ्नः रामः न विव्यथे। कैकेयींच इदम् अब्रवीत्। .

व्याख्या
उस अप्रिय और मृत्यु के समान कष्टदायक वचने को सुनकर शत्रुओं का वध करने । वाले राम पीड़ित नहीं हुए और कैकेयी से यह वचन बोले।

(24)
एवमस्तु गमिष्यामि वनं वस्तुमहं त्वितः। |
जटाचीरधरो राज्ञः प्रतिज्ञामनुपालयन् ॥

शब्दार्थ
एवम् अस्तु = ऐसा ही हो।
वस्तुम् = रहने के लिए।
इतः = यहाँ से।
जटाचीरधरः = जटाएँ और वल्कल वस्त्र धारण करके
अनुपालयन् = पालन करता हुआ।

अन्वय
एवम् अस्तु। अहं तु ज़टाचीरधरः राज्ञः प्रतिज्ञाम् अनुपालयन् वनं स्तुम् इत: गमिष्यामि। व्याख्या-(राम ने कैकेयी से कहा अच्छा ठीक है) ऐसा ही हो। मैं जटाएँ और वल्कल धारण करके राजा (पिता) की आज्ञा का पालन करता हुआ वन में रहने के लिए यहाँ से चला जाऊँगा।

(25)
अहं हि सीतां राज्यं च प्राणानिष्टान् धनानि च। |
हृष्टो भ्रात्रे स्वयं दद्यां भरताय प्रचोदितः ॥

शब्दार्थ
इष्टान् = प्रिय।
हृष्टः = प्रसन्न होकर।
दद्याम् = दे सकता हूँ।
प्रचोदितः = प्रेरित किया गया।

अन्वय
(त्वया) प्रचोदितः अहं हि सीता, राज्यम्, इष्टान् प्राणान् धनानि च हृष्टः भ्रात्रे भरताय स्वयं दद्याम्।

व्याख्या
(राम ने कैकेयी से कहा) आपके द्वारा प्रेरित किया गया मैं निश्चय ही, सीता को, राज्य को, प्रिय प्राणों को और धनों को भी प्रसन्न होकर स्वयं भाई भरत को दे सकता हूँ। तात्पर्य यह है । कि राम अपने भाई भरत के लिए सर्वस्व त्याग हेतु सदैव तत्पर हैं।

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(26)
न ह्यतो धर्माचरणं किञ्चिदस्ति महत्तरम्।
यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिया ॥

शब्दार्थ
अतो महत्तरम् = इससे बढ़कर।
धर्माचरणम् = धर्म का आचरण करना।
किञ्चित् = कोई।
पितरि शुश्रूषा = पिता की सेवा करना।
वचनक्रिया = वचनों का पालन करना।

अन्वय
पितरि शुश्रूषा तस्य वचनक्रिया वा यथा धर्माचरणम्; अत: महत्तरं किञ्चित् (धर्माचरणम्) न हि अस्ति।

व्याख्या
निश्चय ही, पिता की सेवा अथवा उनके वचनों का पालन करने जैसे उत्तम धर्म के आचरण से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। तात्पर्य यह है कि पिता की सेवा और उनकी आज्ञा के पालन से बढ़कर सर्वोत्तम धर्म और कोई नहीं है।

सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1)
यतोमूलं नरः पश्येत् प्रादुर्भावमिहात्मनः।।
कथं तस्मिन्न वर्तेत प्रत्यक्षे सति दैवते ॥

सन्दर्भ
प्रस्तुत सूक्ति श्लोक महर्षि वाल्मीकिकृत ‘रामायण’ से संकलित हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘रामस्य पितृभक्तिः शीर्षक पाठ से उधृत है।

[संकेत-इस शीर्षक के अन्तर्गत आयी हुई समस्त सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्तिपरक श्लोक में राम पिता के महत्त्व को बताते हुए उसकी इच्छानुसार आचरण करने की बात कहते हैं। |

अर्थ
मनुष्य इस संसार में अपनी उत्पत्ति को जिसके कारण देखता है, उस पिता रूप देवता के विद्यमान रहने पर क्यों न उसके अनुकूल आचरण करे।।

व्याख्या
प्रत्येक व्यक्ति के जन्म लेने का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण पिता है। बिना पिता के उसकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है। जिस पिता के कारण व्यक्ति अस्तित्व में आया, वह पिता निश्चित रूप से किसी भी देवता से बढ़कर है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का यह परम कर्तव्य है कि वह अपने प्राण रहते पिता की इच्छा के अनुरूप आचरण करे। हमारे धार्मिक ग्रन्थों में भी सर्वत्र पिता को देवता के समान पूज्य बताया गया है। महाभारत में भी यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में युधिष्ठिर ने पिता को आकाश से ऊँचा बताते हुए कहा है-खात्पितोच्चतरस्तथा।।

(2)
भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे। |
नियुक्तो गुरुणा पित्रा नृपेण च हितेन च ॥

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्तिपरक श्लोक में राम के मुख से यह सन्देश दिया गया है.कि यदि व्यक्ति  को पिता तथा राजा की भलाई के लिए अपना सर्वस्व भी त्यागना पड़े तो उसे कोई संकोच नहीं करना चाहिए।

अर्थ
गुरु, पिता, राजा और हितैषी के लिए मैं तेज विष खा सकता हूँ और समुद्र में भी गिर सकता हूँ।

व्याख्या
श्रीराम के कहने का तात्पर्य यह है कि यदि पिता, गुरु, राजा और हितैषी के लिए विष खाकर प्राण देना आवश्यक हो अथवा समुद्र में डूबकर मरने से उनका हित-साधन होता हो तो व्यक्ति को अपने प्राणों की चिन्ता त्यागकर विषपान कर लेना चाहिए तथा समुद्र में डूब जाना चाहिए। वे (UPBoardSolutions.com) यही बात अपनी माता कैकेयी से कह रहे हैं कि यदि पिता और राजा के हित के लिए मुझे भयंकर विषपान करना पड़े अथवा समुद्र में छलाँग लगानी पड़े तो मैं उससे विचलित नहीं होगा। आप निस्संकोच मुझे बताएँ कि पिता दशरथ का दु:ख कैसे दूर हो सकता है।

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(3)
रामो द्विर्नाभिभाषते ।। 

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में राम अपनी माता कैकेयी को आश्वस्त करते हुए कहते हैं कि मैं अपने कहे वचनों से पीछे नहीं हटूगा।

अर्थ
राम दो प्रकार की बातें नहीं कहता है।

व्याख्या
संसार में ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जो कोई बात कह तो देते हैं, परन्तु उसे पूरा नहीं करते हैं। वे अवसर आने पर अपनी बात से हट जाने का मौका हूँढ़ा करते हैं। ऐसे व्यक्ति अधम कहलाते हैं। लेकिन महापुरुष जो बात कह देते हैं, वे उसे अवश्य पूरा करते हैं। राम माता कैकेयी से कहते हैं कि राम दो प्रकार की बातें नहीं कहता है। इसका तात्पर्य यह है कि राम जो कहता है, उसे पूरा करता है, उससे पीछे नहीं हटता है अर्थात् राम कभी असत्य-भाषण नहीं करता।

(4)
न ह्यतो धर्माचरणं किञ्चिदस्ति महत्तरम् ।।
यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिया ॥

प्रसंग
पितृभक्ति को संसार को सर्वश्रेष्ठ धर्म बताते हुए राम कैकेयी से यह सूक्तिपरक श्लोक कहते हैं।

अर्थ
निश्चय ही पिता की सेवा, उनके वचनों का पालन करने से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं

व्याख्या
यह तो सभी जानते हैं कि पिता के कारण ही इस संसार में सभी व्यक्ति अस्तित्व में आये हैं तथा इस संसार में आने के पश्चात् ही ईश्वर और धर्म-कर्म को जान सके हैं। यदि पिता उन्हें उत्पन्न न करता तो वे इन धर्म-कर्मों को नहीं जान सकते थे; अर्थात् पिता के कारण ही हम उनके विषयों में जान सके हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पिता ही सबसे बड़ा देवता और धर्म होता है और उसकी सेवा-शुश्रूषा करके उसको प्रसन्न करना ही किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा धर्म और पुण्य है।

श्लोक का संस्कृत अर्थ

(1) स दीन इव •••••••••••••••••••••• वचनमब्रवीत् ॥(श्लोक 6)
संस्कृतार्थः–
रामचन्द्रः, कैकेयीम् उपगम्य स्वपितरं दशरथम् एवं मातरं कैकेयीं प्रणम्य पितरम् अवलोक्य दुःखितः अभवत्। मातरं प्रणम्य शोकेन आर्त्तः खिन्न आनन: दीन: इव मातरः कैकेयीं विनम्रो भूत्वा इदम् उवाच।।

(2) यदि सत्यप्रतिज्ञम् ••••••••• इदं शृणु ॥(श्लोक 21)
संस्कृतार्थ:-
कैकेयी रामम् उवाच-हे नरश्रेष्ठ राम! यदि त्वं स्वजनकं सत्यपालकरूपेण जगति विख्यातं कर्तुम् इच्छसि, तु मम कथनं सावधानतया शृणु।।

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(3) न ह्यतो धर्माचरणं ••••••••••••••••••••••••••••••••••• वचनक्रिया ॥ (श्लोक 26 )
संस्कृतार्थ:-
श्रीरामः स्वमातुः कैकेय्याः वचनं श्रुत्वा अकथयत्-संसारेऽस्मिन् स्वपितुः। सेवाकरणं, तस्य च आज्ञायाः पालनं परमः धर्मः अस्ति। अतः महत्तरः मानवस्य कृते कोऽपि धर्में: नास्ति। अतः अहं पितुः आज्ञायाः पालनम् अवश्यं करिष्यामि। एष एव मुम कृते परम: धर्मः अस्ति।।

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UP Board Solutions for Class 9 Hindi Chapter 5 सुभाषितानि (सुन्दर उक्तियाँ) (संस्कृत-खण्ड)

UP Board Solutions for Class 9 Hindi Chapter 5 सुभाषितानि (सुन्दर उक्तियाँ) (संस्कृत-खण्ड)

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[पाठ-परिचय : ‘संस्कृत’ के इस पाठ में जीवनोपयोगी उपदेश निहित हैं, जिनका आचरण करके मनुष्य सुख-शान्ति का जीवन जी सकता है।]

1. वरमेको गुणी ………………………………………………………………………. तारागणैरपि।

शब्दार्थ-वरम् = श्रेष्ठ। गुणी = गुणवान् शतैरपि = सैकड़ों भी। तुम = अन्धकार।

सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक के अन्तर्गत संस्कृत खण्ड के ‘सुभाषितानि’ नामक पाठ से उधृत है।

हिन्दी अनुवाद – सैकड़ों मूर्ख पुत्रों से (भी) एक गुणवान् पुत्र श्रेष्ठ है; (क्योंकि असंख्य) तारागणों और एक चन्द्रमा दोनों में चन्द्रमा अन्धकार को मार देता है; असंख्य तारे नहीं।

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2. मनीषिणः सन्ति ………………………………………………………………………. हितं च दुर्लभम्।।

शब्दार्थ – मनीषिणः = विद्वान् हितैषिणः = हित चाहनेवाले। सुहृत् = मित्र नृणाम् = मनुष्यों में। यथौषधम् (यथा + औषधम्) = जैसे ओषधि। हितं = हितकारी।

हिन्दी अनुवाद – जो विद्वान् हैं, वे हितैषी ( भला चाहनेवाले) नहीं हैं। जो हित चाहने वाले हैं, वे विद्वान् नहीं हैं। जो विद्वान् भी हो और हितैषी भी, ऐसा व्यक्ति मनुष्यों में उसी प्रकार से दुर्लभ है, जिस प्रकार स्वादिष्ट और हितकारी ओषधि दुर्लभ होती है।

3. चक्षुषा मनसा ………………………………………………………………………. लोको नु प्रसीदति।।

शब्दार्थ-चक्षुषा = नेत्र से । वाचा = वाणी से। चतुर्विधम् = चार प्रकार से । प्रसादयति = प्रसन्न करता है। लोकं = संसार को। तं = उसके प्रति ।

हिन्दी अनुवाद – जो मनुष्य नेत्र से, मन से, वाणी से और कर्म से-(इन) चारों प्रकार से संसार को प्रसन्न रखता है, संसार उसे प्रसन्न रखता है।

4. अक्रोधेन जयेत् ………………………………………………………………………. सत्येन चानृतम्॥

शब्दार्थ-अक्रोधेन = क्रोध न करने से। असाधुम् = दुर्जन को। जयेत् = जीतना चाहिए। कदर्यम् = कंजूस को। अनृतं = झूठ।।

हिन्दी अनुवाद – क्रोध को क्रोध न करने से (शान्ति से) जीतना चाहिए। दुर्जन को सज्जनता से जीतना चाहिए। कंजूस को दान से जीतना चाहिए। असत्य (झूठ) को सत्य से जीतना चाहिए।

5. अकृत्वा परसन्तापमगत्वा ………………………………………………………………………. स्वल्पमपि तद् बहु॥

शब्दार्थ – अकृत्वा = न करके। परसन्तापम् = दूसरे को दुःख देना। अगत्वा = न जाकर । तद् = वह। खल = दुष्ट । सतां = सज्जनों का।।

हिन्दी अनुवाद – दूसरों को दु:खी न करके, दुष्ट के घर न जाकर, संज्जनों के मार्ग का उल्लंघन न करके, जो थोड़ा भी मिल जाता है, वही बहुत है।

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6. सत्याधारस्तपस्तैलं ………………………………………………………………………. यत्नेन वार्यताम्।

शब्दार्थ-सत्याधारः = सत्य ही जिसका आधार है। दयावर्तिः = दयारूपी बत्ती। शिखा = लौ । वार्यताम् = जलाना चाहिए। तपस्तेले = तपरूपी तेल।।

हिन्दी अनुवाद – सत्य का आधार वाले, तपरूपी तेल वाले, दयारूपी बत्ती वाले, (और) क्षमारूपी लौ वाले दीपक को अन्धकार में प्रवेश करते समय प्रयत्न से जलाना चाहिए।

7. त्यज दुर्जन ………………………………………………………………………. नित्यताम्।।

शब्दार्थ-संसर्ग = संगति साथ, समगमम् = मेल-मिलाप अहः = दिन नित्यम् = उचित, ठीक। अनित्यम् = अनुचित भज = अनुकरण करो।

हिन्दी अनुवाद – दुष्टों की संगति त्याग दो। सज्जनों से मेल-मिलाप करो दिन में पुण्य कर्म करो और रात्रि में उचितअनुचित को याद करो अर्थात् हमें दिनभर अच्छे कार्य करने चाहिए और रात्रि में उन पर विचार करना चाहिए कि हमने क्या उचित किया और क्या अनुचित

8. मनसि वचसि ………………………………………………………………………. सन्ति सन्तः कियन्तः।।

शब्दार्थ – काये = शरीर में । पुण्यपीयूषपूर्णाः = पुण्यरूपी अमृत से भरे हुए। परगुण-परमाणून् = दूसरों के अत्यल्प गुणों पर्वतीकृत्य = पर्वत के समान बड़ा।

हिन्दी अनुवाद – मन, वाणी और शरीर में पुण्यरूपी अमृत से भरे हुए, परोपकारों के द्वारा तीन लोकों को प्रसन्न करनेवाले, दूसरों के परमाणु जैसे बहुत छोटे गुणों को भी पर्वत के समान बड़ा देखकर और अपने हृदय से सदा प्रसन्न रहनेवाले सज्जन इस संसार में कितने हैं अर्थात् बिरले ही हैं।

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