UP Board Solutions for Class 9 Social Science Geography Chapter 6 जनसंख्या

UP Board Solutions for Class 9 Social Science Geography Chapter 6 जनसंख्या

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
नीचे दिए गए चार विकल्पों में सही विकल्प चुनिए-
(i) निम्नलिखित में से किस क्षेत्र में प्रवास, आबादी की संख्या, वितरण एवं संरचना में परिवर्तन लाता है?
(क) प्रस्थान करने वाले क्षेत्र में
(ख) आगमन वाले क्षेत्र में
(ग) प्रस्थान एवं आगमन दोनों क्षेत्रों में
(घ) इनमें से कोई नहीं

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(ii) जनसंख्या में बच्चों का एक बहुत बड़ा अनुपात निम्नलिखित में से किसका परिणाम है?
(क) उच्च जन्मदर
(ख) उच्च मृत्युदर
(ग) उच्च जीवनदर
(घ) अधिक विवाहित जोड़े

(iii) निम्नलिखित में से कौन-सा एक जनसंख्या वृद्धि का परिणाम दर्शाता है?
(क) एक क्षेत्र की कुल जनसंख्या
(ख) प्रत्येक वर्ष लोगों की संख्या में होने वाली वृद्धि,
(ग) जनसंख्या वृद्धि की दर
(घ) प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या

(iv) 2001 की जनगणना के अनुसार एक साक्षर’ व्यक्ति वह है
(क) जो अपने नाम को पढ़ एवं लिख सकता है।
(ख) जो किसी भी भाषा में पढ़ एवं लिख सकता है।
(ग) जिसकी उम्र 7 वर्ष है तथा वह किसी भी भाषा को समझ के साथ पढ़ एवं लिख सकता है।
(घ) जो पढ़ना-लिखना एवं अंकगणित, तीनों जानता है।
उत्तर:
(i) (ग) प्रस्थान एवं आगमन दोनों क्षेत्र में
(ii) (क) उच्च जन्म दर
(iii) (ग) जनसंख्या वृद्धि की दर
(iv) (ग) जिसकी उम्र 7 साल, किसी भाषा को समझना, पढ़ना तथा लिखना।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित के उत्तर संक्षेप में दें-

  1. जनसंख्या वृद्धि के महत्त्वपूर्ण घटकों की व्याख्या करें।
  2. 1981 से भारत में जनसंख्या की वृद्धि दर क्यों घट रही है?
  3. आयु संरचना, जन्मदर एवं मृत्युदर को परिभाषित करें।
  4. प्रवास, जनसंख्या परिवर्तन का एक कारक।

उत्तर:
(1) जनसंख्या वृद्धि के महत्त्वपूर्ण घटक इस प्रकार हैं-

  1. उच्च जन्म दर,
  2. निम्न मृत्यु दर,
  3. प्रवसन।

(2) 1981 के बाद भारत में जनसंख्या वृद्धि दर में कमी के कारण निम्नलिखित हैं-

  1. परिवार कल्याण विधियों का अपनाया जाना,
  2. स्वास्थ्य के प्रति महिलाओं की अधिक जागरूकता,
  3. महिलाओं में शिक्षा का तेज गति से प्रसार,
  4. सरकारी

(3) आयु संरचना-किसी देश में जनसंख्या की आयु संरचना वहाँ के विभिन्न आयु समूहों के लोगों की संख्या को बताता है। यह जनसंख्या की मूल आवश्यकताओं में से एक है। जन्मदर-एक वर्ष के दौरान 1000 लोगों पर जीवित पैदा हुए बच्चों की संख्या को जन्मदर कहते हैं। मृत्युदर-एक वर्ष की अवधि में 1000 लोगों पर मृत व्यक्तियों की संख्या को मृत्युदर कहते हैं।

(4) प्रवास, जनसंख्या परिवर्तन का एक कारक है लोगों का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में चले जाने को प्रवास कहते हैं। जनसंख्या वितरण एवं उसके घटकों को परिवर्तित करने में प्रवास की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि यह आगमन तथा प्रस्थान दोनों ही स्थानों के जनसांख्यिकीय आँकड़ों को प्रभावित (UPBoardSolutions.com) करता है। प्रवास आंतरिक (देश के भीतर) या अंतर्राष्ट्रीय (देशों के बीच) हो सकता है। आंतरिक प्रवास जनसंख्या के आकार में परिवर्तन नहीं करता लेकिन देश में जनसंख्या के वितरण को प्रभावित करता है।

  1. प्रवास जनसंख्या के गठन एवं वितरण में बदलाव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  2. भारत में अधिकतर प्रवास ग्रामीण क्षेत्रों से ‘अपकर्षण’ कारक प्रभावी होते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी एवं बेरोजगारी की प्रतिकूल अवस्थाएँ हैं तथा नगर का ‘कर्षण’ प्रभाव रोजगार में वृद्धि एवं अच्छे जीवन स्तर को दर्शाता है। 1951 में शहरी जनसंख्या 17.29 प्रतिशत थी जो 2011 में बढ़कर 31.2 प्रतिशत हो गई।
  3. 2001-2011 के बीच एक ही दशक के दौरान ‘‘दस लाख से अधिक की जनसंख्या वाले महानगर 35 से बढ़कर 53 हो गए हैं।

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प्रश्न 3.
जनसंख्या वृद्धि एवं जनसंख्या परिवर्तन के बीच अंतर स्पष्ट करें?
उत्तर:
जनसंख्या वृद्धि एवं जनसंख्या परिवर्तन के बीच निम्नलिखित अंतर हैं-

जनसंख्या वृद्धि

जनसंख्या परिवर्तन

 1. जनसंख्या वृद्धि से तात्पर्य किसी क्षेत्र में निश्चित अवधि के दौरान रहने वाले लोगों की संख्या में  परिवर्तन है। 1. जनसंख्या परिवर्तन से आशय किसी क्षेत्र में निश्चित अवधि के दौरान जनसंख्या वितरण, संरचना या आकार में परिवर्तन से है।
2. इसमें पिछली जनसंख्या को बाद की जनसंख्या से घटाकर ज्ञात किया जाता है। 2. जनसंख्या परिवर्तन तीन प्रक्रियाओं के आपसी संयोजन के कारण आता है- जन्मदर, मृत्युदर और प्रवास।
 3. वृद्धि को संख्या के रूप में प्रकट किया जाता है। 3. जनसंख्या परिवर्तन सापेक्ष वृद्धि और प्रतिवर्ष होने वाले प्रतिशत परिवर्तन के द्वारा देखा जाता है।

प्रश्न 4.
व्यावसायिक संरचना एवं विकास के बीच क्या संबंध है?
उत्तर:
व्यावसायिक संरचना एवं विकास के बीच सम्बन्ध–मुख्य रूप से व्यवसायों को तीन वर्गों में रखा जाता है-प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक व्यवसाय। प्राथमिक व्यवसाय कृषि आदि से संबंधित हैं, द्वितीयक व्यवसाय निर्माण उद्योगों से संबंधित है तथा तृतीयक व्यवसाय सेवाओं से सम्बन्धित होते हैं। विकसित एवं विकासशील देशों में द्वितीयक एवं तृतीयक व्यवसायों में कार्य करने वाले लोगों का अनुपात अधिक (UPBoardSolutions.com) होता है। विकासशील देशों में प्राथमिक क्रियाकलापों में कार्यरत लोगों का अनुपात अधिक होता है। भारत में कुल जनसंख्या का 64 प्रतिशत भाग केवल कृषि कार्य करता है। द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्रों में कार्यरत लोगों की संख्या का अनुपात क्रमशः 13 तथा 20 प्रतिशत है। वर्तमान समय में बढ़ते हुए औद्योगीकरण एवं शहरीकरण में वृद्धि होने के कारण

द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्रों में व्यावसायिक परिवर्तन हुआ है।
विकास के लिए जनसंख्या का स्वस्थ होना अत्यन्त आवश्यक है।
इस प्रकार स्वस्थ जनसंख्या निम्नलिखित रूप से लाभकारी हो सकती है-

  1. बीमारियों पर कम खर्च होता है। इसके अतिरिक्त धन को विकास कार्यों में लगाया जाता है।
  2. विकास की गति तीव्र होती है।
  3. सरकार को अधिक स्वास्थ्य सेवाएँ बढ़ाने की आवश्यकता नहीं रहती।
  4. लोगों में स्वस्थ वातावरण का संचार होता है।
  5. स्वस्थ जनसंख्या अधिक समय तक काम करती है तथा उत्पादन में वृद्धि होती है।
  6. स्वस्थ जनसंख्या में स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है।
  7. हृष्ट-पुष्ट नागरिक उत्पन्न होते हैं।
  8. अधिक तेज तथा अधिक कार्यक्षम होते हैं।

प्रश्न 5.
राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर:
राष्ट्रीय जनसंख्या नीति वर्ष 2004 में घोषित की गयी।
इसकी प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  1.  किशोर-किशोरियों को असुरक्षित यौन संबंधों के कुप्रभावों/कुपरिणामों के बारे में जागरूक करना।
  2. गर्भनिरोधक सेवाओं को पहुँच और खरीद के दायरे के भीतर रखना।
  3. खाद्य संपूरक को पोषणिक सेवाएँ उपलब्ध कराना।
  4. बाल विवाह को रोकने के कानून को और अधिक कारगर बनाना।
  5. शिक्षा और स्वास्थ्य की शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार करना।
  6. किशोर-किशोरियों की पहचान जनसंख्या के उस भाग के रूप में करें जिस पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
  7. इनकी पोषणिक आवश्यकताओं की ओर ध्यान देना।।
  8. अवांछित गर्भधारण तथा यौन संबंधों से होने वाली बीमारियों से किशोर-किशोरियों की सुरक्षा करना।
  9. किशोर-किशोरियों की अन्य आवश्यकताओं के प्रति विशेष ध्यान देना।
  10. देर से विवाह और देर से संतानोत्पत्ति को प्रोत्साहित करना।

परियोजना कार्य

प्रश्न 1.
एक प्रश्नावली बनाकर कक्षा की जनगणना कीजिए। प्रश्नावली में कम-से-कम पाँच प्रश्न होने चाहिए। ये प्रश्न विद्यार्थियों के परिवारजनों, कक्षा में उनकी उपलब्धि, उनके स्वास्थ्य आदि से संबंधित हों। प्रत्येक विद्यार्थी को वह प्रश्नावली भरनी चाहिए। बाद में सूचना को संख्याओं में (प्रतिशत में) संग्रहीत कीजिए। इस सूचना को वृत्त-रेखा, दंड-आरेख या अन्य किसी प्रकार से प्रदर्शित कीजिए।
उत्तर:
स्वयं करें।

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जनसंख्या का अध्ययन करना क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर:
किसी देश की जनसंख्या ही उस देश के संसाधनों का विकास करती है और उनका उपभोग करती है। ऐसे में किसी देश के लोगों की संख्या, उनका वितरण एवं विकास तथा गुणवत्ता पर्यावरण को समझने का मूलभूत आधार है। इसलिए जनसंख्या का अध्ययन करना महत्त्वपूर्ण है।

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प्रश्न 2.
अरुणाचल प्रदेश का जनघनत्व कम क्यों है?
उत्तर:
अरुणाचल प्रदेश एक पर्वतीय क्षेत्र है। यहाँ की जलवायु ठण्डी है। यहाँ कृषि तथा उद्योग भी विकसित नहीं है। इसीलिए यहाँ का जनघनत्व कम है।

प्रश्न 3.
भारत में किस राज्य की साक्षरता सबसे अधिक है?
उत्तर:
भारत में केरल राज्य की साक्षरता सबसे अधिक है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार केरल राज्य की साक्षरता दर 94.0% है।

प्रश्न 4.
भारत के अति सघन आबादी वाले दो भागों के नाम बताइए। इनमें सघन जनसंख्या होने के दो कारण बताइए।
उत्तर:
भारत में ऊपरी गंगाघाटी तथा मालाबार क्षेत्र में अति सघन जनसंख्या है।
सघन जनसंख्या के दो कारण इस प्रकार हैं-

  1.  इन प्रदेशों में उद्योगों का अत्यधिक विकास हुआ है।
  2. इन प्रदेशों की भूमि उपजाऊ है।

प्रश्न 5.
लिंगानुपात (स्त्री-पुरुष) से क्या आशय है?
उत्तर:
स्त्री-पुरुष के बीच जनसंख्या के संख्यात्मक अनुपात को स्त्री-पुरुष अनुपात कहते हैं। इसे प्रति हजार पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या के रूप में व्यक्त करते हैं।

प्रश्न 6.
मृत्यु-दर के तेजी से घटने के दो कारण बताइए।
उत्तर:

  1. मृत्यु-दर के तेजी से घटने का मुख्य कारण स्वास्थ्य सेवाओं का प्रसार है।
  2. शिक्षा के प्रसार से भी मृत्यु-दर में अत्यधिक कमी आयी है।

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प्रश्न 7.
भारत में जनसंख्या वृद्धि के कोई दो कारण बताइए।
उत्तर:
भारत में जनसंख्या वृद्धि के दो मुख्य कारण इस प्रकार हैं-

  1. चिकित्सा सुविधाओं के प्रसार के कारण मृत्यु-दर में तो कमी आयी है, लेकिन जन्म-दर में आशा के अनुरूप कमी नहीं आ पाई है।
  2. भारत में अधिकतर लोग निर्धन एवं अनपढ़ हैं। वे छोटे परिवारों के महत्त्व को नहीं समझते हैं। वे सन्तान को ईश्वर की कृपा समझकर गर्भ-निरोध का प्रयास नहीं करते हैं।

प्रश्न 8.
जनसंख्या घनत्व का क्या अर्थ है?
उत्तर:
किसी देश-प्रदेश के प्रति एक वर्ग किलोमीटर में रहने वाले लोगों की औसत जनसंख्या को जनसंख्या घनत्व कहते हैं। इसे व्यक्ति प्रति वर्ग किमी में व्यक्त किया जाता है।

प्रश्न 9.
भारत की लगभग आधी आबादी कितने राज्यों में निवास करती है?
उत्तर:
भारत की लगभग आधी जनसंख्या इन पाँच राज्यों में निवास करती है-उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल एवं आंध्र प्रदेश।

प्रश्न 10.
प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्रियाकलापों के अंतर्गत कौन-कौन से व्यवसाय सम्मिलित हैं?
उत्तर:
प्राथमिक क्षेत्र के अंतर्गत कृषि, पशुपालन, वृक्षारोपण एवं मछली पालन तथा खनन आदि क्रियाएँ शामिल हैं। द्वितीयक क्रियाकलापों में उत्पादन करने वाले उद्योग, भवन एवं निर्माण कार्य आते हैं। तृतीयक क्रियाकलापों में परिवहन, संचार, वाणिज्य, प्रशासन तथा सेवाएँ शामिल हैं।

प्रश्न 11.
भारत सरकार द्वारा जनसंख्या नियंत्रण के क्या उपाय अपनाए गए हैं?
उत्तर:
भारत सरकार ने 1952 में एक व्यापक परिवार नियोजन कार्यक्रम को प्रारंभ किया। 1975 में इंदिरा कांग्रेस सरकार ने परिवार नियोजन कार्यक्रम तथा 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने इसे परिवार कल्याण कार्यक्रम नाम रख दिया। परिवार कल्याण कार्यक्रम जिम्मेदार तथा सुनियोजित पितृत्व को बढ़ावा देने के लिए कार्यरत है। राष्ट्रीय जनसंख्या नीति 2000 कई वर्षों के नियोजित प्रयासों का परिणाम है।

प्रश्न 12.
भारत की जनसंख्या का सबसे महत्त्वपूर्ण लक्षण बताइए।
उत्तर:
भारत की जनसंख्या का सबसे महत्त्वपूर्ण लक्षण इसकी किशोर जनसंख्या का आकार है। यह भारत की कुल जनसंख्या का पाँचवाँ भाग है। किशोर प्रायः 10 से 19 वर्ष की आयु वर्ग के होते हैं। ये भविष्य के सबसे महत्वपूर्ण मानव संसाधन हैं।

प्रश्न 13.
जनसंख्या की सापेक्ष एवं निरपेक्ष वृद्धि किसे कहते हैं?
उत्तर:
किसी विशेष समय के अंतराल में जैसे 10 वर्षों के भीतर, किसी देश/राज्य के निवासियों की संख्या में परिवर्तन सापेक्ष वृद्धि कहलाता है। पहले की जनसंख्या (UPBoardSolutions.com) जैसे 2001 की जनसंख्या को बाद की जनसंख्या जैसे 2011 की जनसंख्या से घटाकर इसे प्राप्त किया जाता है। इसे निरपेक्ष वृद्धि कहा जाता है।

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प्रश्न 14.
आश्रित जनसंख्या के अंतर्गत किन-किन आयु वर्ग के लोगों को सम्मिलित किया जाता है?
उत्तर:
आश्रित जनसंख्या के अंतर्गत बच्चों तथा वृद्ध जिनकी आयु क्रमशः 15 वर्ष से कम और 59 वर्ष से अधिक है, आयु वर्ग के लोग सम्मिलित होते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ग्रामीण जनसंख्या और नगरीय जनसंख्या में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
ग्रामीण जनसंख्या और नगरीय जनसंख्या में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं-

नगरीय जनसंख्या

ग्रामीण जनसंख्या

1. भारत की नगरीय जनसंख्या 37.7 करोड़ है, लेकिन 35 महानगरों में 27% से अधिक नगरीय जनसंख्या रहती है। 1. ग्रामीण जनसंख्या 83.32 करोड़ है। इसका बहुत छोटा भाग गौण व तृतीयक व्यवसाय में लगा है।
2. नगरीय जनसंख्या को सर्वाधिक सुविधाएँ सुलभ हैं। 2. ग्रामीण जनसंख्या को सार्वजनिक सेवाएँ बहुत कम सुलभ हैं।
3. नगरीय जनसंख्या का जीवन स्तर सामान्यतः उच्च पाया जाता है। 3. ग्रामीण जनसंख्या का जीवन स्तर सामान्यतः निम्न पाया जाता है।
4. देश की लगभग 31.2% जनसंख्या नगरों में रहती  है। 4. भारत गाँवों का देश है। देश की लगभग 68.8% जनसंख्या गाँवों में रहती है।
 5. नगरीय जनसंख्या का 65 प्रतिशत भाग प्रथम श्रेणी के नगरों में रहता है। प्रथम श्रेणी के नगरों की संख्या 2929 है। 5. ग्रामीण जनसंख्या अधिकतर प्राथमिक व्यवसाय में लगी होती है। जैसे कृषि करना, लकड़ी काटना, मछली पकड़ना,  पशु-पालन, खनन आदि।

प्रश्न 2.
जन्म-दर और वृद्धि-दर में अंतर कीजिए।
उत्तर:
जन्म-दर और वृद्धि-दर में निम्नलिखित अन्तर हैं-

वृद्धि -दर

जन्म-दर

1. विकासशील देशों में वृद्धिदर सामान्य से अधिक है। विकसित देशों में वृद्धि-दर 1 प्रतिशत से कम है । 1. विकसित देशों में जन्म-दर कम होती है और विकासशील देशों में जन्म-दर अधिक होती है।
2. उच्च-वृद्धिदर से प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों पर भारी दबाव पड़ता है। 2. उच्च जन्मदर पिछड़ेपन का प्रतीक बन गई है।
3. जन्म-दर और मृत्यु-दर के अंतर को वृद्धि दर कहते हैं। 3. किसी देश या क्षेत्र में वर्ष के मध्य जीवित जन्मे बच्चों की  संख्या को जन्म-दर कहते हैं।
4. वृद्धिदर को प्रतिशत में व्यक्त करते हैं। 4. जन्मदरे प्रति हजार में व्यक्त की जाती है।
 5. आजकल भारत की प्राकृतिक वार्षिक वृद्धि दर 21.3 प्रतिशत है। 5. भारत में जन्म दर 26.1 व्यक्ति प्रति हजार है।

प्रश्न 3.
भारत के मैदानी भागों में सघन आबादी पाए जाने के कारण बताइए।
उत्तर:
भारत के मैदानी भागों में सघन जनसंख्या पाए जाने के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-

  1. समतल मैदान,
  2. उपजाऊ मिट्टी,
  3. पर्याप्त मात्रा में वर्षा,
  4. सिंचाई के विकसित साधन,
  5. परिवहन के विकसित साधन,
  6. उद्योग एवं कृषि का विकास।

प्रश्न 4.
भारत में राज्यवार जनसंख्या वितरण को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश देश का सर्वाधिक जनसंख्या वाला राज्य है। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 19.981 करोड़ है। यहाँ भारत की कुल जनसंख्या का 16.51 प्रतिशत निवास करते हैं।
भारत की सबसे कम जनसंख्या वाला राज्य सिक्किम है तथा लक्षद्वीप केन्द्रशासित प्रदेशों में सबसे कम जनसंख्या वाला क्षेत्र है। सिक्किम की जनसंख्या 6 लाख, 10 हजार है जबकि लक्षद्वीप में जनसंख्या 64,429 है। भारत की जनसंख्या का लगभग 50 प्रतिशत भाग निम्नलिखित पाँच राज्यों में निवास करता है।

  1. उत्तर प्रदेश             16.51%
  2. महाराष्ट्र                    9.28%
  3. बिहार                      8.60%
  4. पश्चिम बंगाल            7.54%
  5. आंध्र प्रदेश              6.99%.

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प्रश्न 5.
नगरों में बढ़ती हुई जनसंख्या ने न केवल नगरीय केन्द्रों में समस्याएँ पैदा की हैं बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों को भी प्रभावित किया है। प्रत्येक के विषय में दो बिन्दु स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
(क) बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण नगरीय केन्द्रों में उत्पन्न समस्यायें इस प्रकार हैं-

  1. लोगों के नैतिक मूल्यों में परिवर्तन और गिरावट।
  2. चोरबाजारी, कालाबाजारी, रिश्वत तथा लूट-पाट का बोलबाला।।
  3. नगरों के संसाधनों तथा जन सुविधाओं पर भारी दबाव पड़ता है।
  4. आवश्यक वस्तुओं की कमी तथा उनके मूल्यों में आशातीत वृद्धि।
  5. वस्तुओं की गुणवत्ता में गिरावट आना।

(ख) नगरीय जनसंख्या में वृद्धि का ग्रामीण क्षेत्रों पर प्रभाव इस प्रकार है-

  1. रोजगार की खोज में लोगों को ग्रामीण क्षेत्र से नगरीय क्षेत्रों की ओर पलायन करना।
  2. भूमिहीन किसानों की निर्धनता में वृद्धि। 3. कृषि जोतों का अलाभकारी होना तथा छोटे किसानों के गाँव में बेकार हो जाने से उनका नगरों में जाकर मजदूरी करना।

प्रश्न 6.
भारत में भूमि की उर्वरता जनसंख्या वितरण को किस प्रकार प्रभावित करती है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जनसंख्या की दृष्टि से भारत विश्व का दूसरा बड़ा देश है। यहाँ की जनसंख्या वितरण बहुत असमान है। सामान्यतः जनसंख्या का वितरण भूमि की उर्वरता के अनुरूप पाया जाता है। जिन क्षेत्रों में मिट्टी अधिक उपजाऊ पाई जाती है, वहाँ जनसंख्या की सघनता अधिक मिलती है और जिन क्षेत्रों में मिट्टी कम उपजाऊ होती है, वहाँ जनसंख्या कम पाई जाती है। भारत कृषि प्रधान देश है। कृषि और मिट्टी का सीधा संबंध है। हमारे भरण-पोषण की अधिकांश सामग्री प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मिट्टी से ही मिलती है।

उदाहरण के लिए उत्तरी मैदान, पूर्व तटीय मैदान, पश्चिम तटीय मैदान, डेल्टाई मैदान एवं घाटी प्रदेश सघन आबादी वाले हैं। यदि इन प्रदेशों का भी अवलोकन करें तो स्पष्ट होता है कि प्रत्येक प्रदेश में जनसंख्या का वितरण संभव नहीं है। उत्तरी मैदान में जनसंख्या पश्चिम से पूर्व की ओर घटती जाती है। हरियाणा राज्य पश्चिमी बंगाल की तुलना में कम सघन है। पश्चिमी बंगाल की मृदा बहुत उर्वरक है। पर्वतीय (UPBoardSolutions.com) प्रदेश में मिट्टी की परत पतली होती है। इन क्षेत्रों में अपेक्षाकृत मिट्टी की परत मोटी और उपजाऊ होती है। अतः घाटी प्रदेशों में पर्वतीय प्रदेशों से अधिक सघन जनसंख्या पाई जाती है।

प्रश्न 7.
भारत में जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने के उपाय बताइए।
उत्तर:
भारत की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। जनसंख्या की तीव्र वृद्धि को जन्मदर कम करके ही रोका जा सकता है। जन्मदर को निम्न उपायों के माध्यम से कम किया जा सकता है-

  1. गर्भधारण से लेकर प्रजनन प्रक्रिया से जुड़ी अनेकानेक समस्याओं का ज्ञान होने के कारण शिक्षित महिलाओं की जीवन प्रत्याशा अधिक होती है। वह अपने और अपने बच्चे के स्वास्थ्य के प्रति अधिक सजग होती है।
  2. शिक्षित महिलाओं की दृष्टि व्यापक होती है, उनकी सोच राष्ट्रीय स्तर की होने के कारण बड़े परिवार को राष्ट्रीय संसाधनों पर बोझ मानती हैं।
  3. भारत में दो बच्चों के परिवार को राष्ट्रीय आदर्श माना गया है, उसकी दृढ़ता से पालन कराया जाए।
  4. भारतीय संविधान में निर्धारित शादी की न्यूनतम आयु लड़कियों की 18 तथा लड़कों की 21 वर्ष को व्यावहारिक रूप दिया जाए।
  5. स्त्री शिक्षा पर अधिक बल दिया जाए।
  6. दो या इससे कम बच्चों वाले माता-पिता को सरकारी नियुक्तियों एवं पदोन्नतियों में प्राथमिकता दी जाए। साथ ही विशेष वेतन-वृद्धि का प्रावधान हो।
  7. परिवार कल्याण सुविधाओं का देशभर में विस्तार किया जाए।

प्रश्न 8.
भारत के आर्थिक विकास के लिए प्राकृतिक तथा मानवीय संसाधनों का विकास आवश्यक क्यों है?
उत्तर:

  1. प्राकृतिक संसाधनों को संपत्ति में तभी बदला जा सकता है, जब लोगों की गुणवत्ता या उत्पादन क्षमता को बढ़ाया जाए।
  2. देश की प्राकृतिक संपदा के पूर्ण विकास के लिए पर्याप्त संख्या, आवश्यक तकनीकी ज्ञान, पूँजी तथा लोगों का कुशल, क्रियाशील, परिश्रमी व ईमानदार होना आवश्यक है।
  3. अच्छे स्वास्थ्य एवं सुविधाओं की सुलभता भी प्राकृतिक संपदा के विकास पर निर्भर है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि देश के आर्थिक विकास के लिए प्राकृतिक तथा मानव दोनों ही संपदाओं का विकास साथ-साथ होना चाहिए।
  4. किसी देश का आर्थिक विकास प्राकृतिक संसाधनों और मानवीय संसाधनों पर निर्भर करता है। किसी एक के अभाव में विकास की कल्पना नहीं की जा सकती।
  5. प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों की विपुलता व संपन्नता, आर्थिक प्रगति की गति तेज करती है।
  6. मानव संसाधनों द्वारा ही प्राकृतिक संपदा को अधिकाधिक मात्रा में उपयोगी वस्तुओं में बदलकर, बड़े पैमाने पर संपदा प्राप्त की जाती है।

प्रश्न 9.
जनसंख्या का गाँवों से नगरों की ओर पलायन क्यों हो रहा है?
उत्तर:
गाँवों से नगरों की ओर जनसंख्या का तेजी से पलायन निम्न कारणों से हो रहा है-

  1. गाँवों में सार्वजनिक सुविधाओं का अभाव – शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन आदि का गाँवों में अभाव है। नगरों में इन सुविधाओं को बराबर आकर्षण है।
  2. गाँवों में रोजगार के अवसरों का अभाव – गाँवों में शिक्षित और अशिक्षित युवकों के लिए रोजगार के साधनों की कमी है। शिक्षित और प्रशिक्षित युवकों के लिए गाँवों में रोजगार का और भी अभाव है। फलतः रोजगार की तलाश में गाँवों से नगरों की ओर पलायन की (UPBoardSolutions.com) स्वाभाविक प्रक्रिया बन गई है। नगरों में रोजगार मिलने के बाद उनकी आश्रित संख्या भी नगरों में आकर बस जाती है।
  3. अलाभकारी जोतों का बढ़ना – छोटे और सीमांत किसान की पैतृक जोतों के बँटवारे होते रहने से उनका छिटका होना तथा भूमि का छोटा टुकड़ा हिस्से में आना, जोत को अलाभकारी बना देता है। अंततः छोटा किसान अपनी भूमि को बेचने के लिए विवश हो जाता है और काम-धंधे की तलाश में वह शहर की ओर चल पड़ता है।

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प्रश्न 10.
जन्म-दर की तुलना में मृत्यु-दर में अधिक कमी का कारण क्या है?
उत्तर:
भारत में जन्म-दर एवं मृत्यु-दर दोनों ही निरंतर घट रही हैं। यह देश के विकास का प्रतीक है। लेकिन इन दोनों के घटने की दर में अंतर है। मृत्यु-दर तो तेजी से नीचे आयी है, लेकिन जन्म-दर में ह्रास मंद गति से हो रहा है। जन्म-दर की तुलना में मृत्यु-दर में अधिक कमी के निम्न कारण हैं-

  1. देश में मलेरिया, हैजा, चेचक, प्लेग जैसी महामारियों को अब नियंत्रित कर लिया गया है। नई और प्रभावशाली ओषधियों का निर्माण व उपयोग किया जा रहा है।
  2. देशभर में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के अधिक प्रसार के कारण वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार जन्म पर प्रत्येक बच्चे की जीवन-प्रत्याशी बढ़कर 64 वर्ष हो गई है, जो इस शताब्दी के प्रारंभ में केवल 27 वर्ष थी।
  3. मृत्यु-दर का तेजी से घटने का मुख्य कारण स्वास्थ्य सेवाओं का प्रसार रहा है।
  4. शिक्षा के प्रसार ने भी मृत्युदर को कम करने में सहायता की है क्योंकि शिक्षित व्यक्ति अपने स्वास्थ्य के प्रति अधिक जागरुक रहते हैं।

प्रश्न 11.
जनसंख्या वृद्धि किसे कहते हैं? इसे कैसे मापा जाता है?
उत्तर:
जनसंख्या वृद्धि से तात्पर्य किसी क्षेत्र में निश्चित अवधि के दौरान स्हने वाले लोगों की संख्या में परिवर्तन से है। ऐसे परिवर्तन को दो तरीके से व्यक्त किया जा सकता है-

  1. प्रतिवर्ष प्रतिशत वृद्धि के रूप में,
  2. सापेक्ष वृद्धि के रूप में।

प्रत्येक वर्ष या एक दशक में बढ़ी जनसंख्या, केवल संख्या में वृद्धि का परिणाम है। इसकी गणना बाद की जनसंख्या में से पहले की जनसंख्या को साधारण रूप से घटाकर की जाती है। जनसंख्या वृद्धि की दर अथवा गति का अध्ययन प्रतिशत प्रतिवर्ष में किया जाता है। इसे वार्षिक वृद्धि दर कहा जाता है। जैसे-10 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर का अर्थ है कि किसी वर्ष के दौरान प्रत्येक 100 लोगों की मूल जनसंख्या में 10 लोगों की वृद्धि हुई।

प्रश्न 12.
किसी देश की जनसंख्या की तीन प्रमुख श्रेणियों का वर्णन कीजिए। इनमें से कौन-सा समूह पराश्रित है?
उत्तर:
आयु संरचना किसी भी देश की जनसंख्या की मूलभूत विशेषता होती है। जनसंख्या की आयु संरचना से आशय किसी देश में विभिन्न आयु वर्ग के लोगों से है। किसी भी देश की जनसंख्या को सामान्यतः तीन विस्तृत श्रेणियों में बांटा जा सकता है-

  1. बच्चे (सामान्यतः 15 वर्ष से कम आयु वाले)-ये आर्थिक रूप से उत्पादनशील नहीं होते हैं तथा इनको भोजन, वस्त्र एवं स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएँ उपलब्ध कराने की आवश्यकता होती है।
  2. वयस्क (15 वर्ष से 59 वर्ष)-ये आर्थिक रूप से उत्पादनशील तथा जैविक रूप से प्रजननशील होते हैं। यह जनसंख्या का कार्यशील वर्ग है।
  3. वृद्ध ( 59 वर्ष से अधिक)-ये आर्थिक रूप से उत्पादनशील या अवकाश प्राप्त हो सकते हैं। ये स्वैच्छिक रूप से कार्य कर सकते हैं, लेकिन भर्ती प्रक्रिया के द्वारा इनकी नियुक्ति नहीं होती है। भारत में जनसंख्या संरचना-युवा 58.7%, वृद्ध 6.9%, बच्चे 34.4%। बच्चों तथा वृद्धों का प्रतिशत निर्भरता अनुपात को प्रभावित करता है क्योंकि ये समूह उत्पादनशील नहीं होते।

प्रश्न 13.
भारत के लिए स्वास्थ्य का स्तर आज भी चिंता का विषय है।’ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
देश ने अनेक क्षेत्रों में प्रगति की है। स्वास्थ्य स्तर में भी महत्त्वपूर्ण सुधार हुआ, फिर भी इस सम्बन्ध में अधिक प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।
असन्तोषजनक स्वास्थ्य परिस्थितियों के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-

  1. शुद्ध पीने का पानी तथा मूल स्वास्थ्य रक्षा सुविधाएँ ग्रामीण जनसंख्या के केवल एक-तिहाई लोगों को उपलब्ध हैं।
  2. प्रति व्यक्ति कैलोरी की खपत अनुशंसित स्तर से काफी कम है तथा हमारी जनसंख्या का एक बड़ा भाग कुपोषण से प्रभावित है।

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प्रश्न 14.
क्या स्त्रियों को अच्छी शिक्षा देकर जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित किया जा सकता है?
उत्तर:
विश्व के विकसित देशों में अशिक्षा को पूर्णतः समाप्त कर दिया गया है। शिक्षा का स्तर बढ़ने से स्त्री-पुरुष अनुपात एवं सन्तानोत्पत्ति को नियंत्रित करने में सहायता मिली है। विकसित देशों में जनसंख्या वृद्धि एक प्रतिशत से भी कम है बल्कि कुछ देशों में यह ऋणात्मक हो गयी है। यह स्थापित तथ्य है कि स्त्रियों को शिक्षित एवं जागरूक करके जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित किया जा सकता है।
इसके लिए निम्न प्रयास किए जा सकते है-

  1. अच्छी शिक्षा पाने के लिए एक लंबी अवधि की आवश्यकता पड़ती है। अतः शिक्षित लड़कियों की अधिक उम्र में जाकर शादी होती है। तब तक परिवार-दायित्व का ज्ञान आसानी से हो जाता है।
  2. शिक्षित स्त्रियों को रोजगार मिल जाता है। रोजगार प्राप्त महिलाएँ अधिक बच्चे की अच्छी देख-रेख करने में अपने को असमर्थ पाती हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
केरल में जनसंख्या की स्थिति देश के अन्य राज्यों से किस प्रकार भिन्न है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जनसंख्या के विभिन्न पक्षों-घनत्व, स्त्री-पुरुष अनुपात, क्रियाशीलता, साक्षरता, जीवन-प्रत्याशी आदि पर विचार करने पर यह स्पष्ट है कि केरल की जनसंख्या की प्रवृत्ति देश के अन्य राज्यों से निम्न कारणों से भिन्न है-

(1) जीवन – प्रत्याशा सार्वजनिक चिकित्सा सुविधाओं एवं शिक्षा में विस्तार के कारण जीवन-प्रत्याशा में वृद्धि हुई है। भारत में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की जीवन-प्रत्याशा कम रही है। परंतु अब इस प्रवृत्ति में परिवर्तन आ गया है। अतः स्त्रियों की जीवन-प्रत्याशा पुरुषों की अपेक्षा (UPBoardSolutions.com) कुछ अधिक है। जन्म के समय स्त्रियों की औसत जीवनप्रत्याशा 67.7 वर्ष तथा पुरुषों की औसत जीवन-प्रत्याशा 64.6 वर्ष थी। केरल में जीवन-प्रत्याशा अधिक है। यहाँ स्त्रियों की जीवन-प्रत्याशा 72% तथा पुरुषों की 71% है।

(2) क्रियाशीलता – भारत में बड़ी जनसंख्या आश्रितों की है। एक-तिहाई क्रियाशील जनसंख्या पर दो-तिहाई आश्रित जनसंख्या का दबाव है। सामान्यतः क्रियाशील जनसंख्या का अधिक अनुपात दुर्गम क्षेत्रों अथवा विकसित क्षेत्रों में पाया जाता है। इस दृष्टि से केरल विकसित क्षेत्रों में आता है। यहाँ अर्जक जनसंख्या का अनुपात देश के औसत अनुपात से लगभग डेढ़ गुना अधिक है।

(3) साक्षरता – मानवीय संसाधनों के विकास में शिक्षा का भारी महत्त्व है। सन् 2011 में साक्षरता का प्रतिशत 73 रहा है। मनुष्य का दीर्घ आयु होना साक्षरता का सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है। साक्षरता से क्रियाशील जनसंख्या का अनुपात बढ़ता है। केरल राज्य साक्षरता में सबसे आगे है। यहाँ 2011 की जनगणना के अनुसार 94% साक्षरता पाई गई है।

(4) घनत्व – केरल में जनघनत्व (पश्चिम बंगाल को छोड़कर) सबसे अधिक है। यहाँ भारत के औसत जनघनत्व से लगभग तीन गुना जनघनत्व पाया जाता है। केरल में जनसंख्या का घनत्व 860 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है। केरल में अधिक वर्षा तथा वर्षा की अवधि भी अधिक होने के कारण वर्ष में दो-तीन फसलें उगाई जाती हैं।

यहाँ के पाश्च जलों एवं तटवर्ती सागरों में भारी मात्रा में मछली पकड़ी जाती है, जिससे सघन जनसंख्या की खाद्य-आपूर्ति हो जाती है। स्त्री-पुरुष अनुपात-स्त्री-पुरुष गृहस्थ जीवन की गाड़ी के दो पहिए हैं। एक पहिए के कमजोर या उसके न होने पर गाड़ी का सही चलना संभव नहीं। संसार के (UPBoardSolutions.com) प्रत्येक सभ्य समाज में स्त्री और पुरुषों की संख्या में समानता है। हमारे देश के अनेक क्षेत्रों में स्त्री-पुरुष अनुपात में बहुत अंतर मिलता है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार प्रति हजार पुरुषों पर 943 स्त्रियाँ थीं।

केरल ही एकमात्र ऐसा राज्य है जिसमें पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या अधिक है। यहाँ स्त्री-पुरुष अनुपात 1084 :1000 हैं। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर स्पष्ट है कि केरल एक सघन आबाद क्षेत्र होते हुए भी मानवीय संपदा का अधिक विस्तार कर अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत किया है। यहाँ के लोग परिश्रमी एवं संघर्षशील हैं, ये लोग अपनी कर्तव्यनिष्ठा के आधार पर उपलब्ध प्राकृतिक संपदा का भरपूर उपयोग करते हैं।

प्रश्न 2.
भारत के महानगरों में तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या चिंता का विषय क्यों बन गई है? इससे उत्पन्न परिणामों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वर्ष 2011 में भारत की नगरीय जनसंख्या बढ़कर 37.7 करोड़ हो गयी है, यह कुल जनसंख्या का 27.78 प्रतिशतॆ है। भारत की नगरीय जनसंख्या का 65% प्रथम श्रेणी के नगरों में निवास करता है। भारत की एक तिहाई से भी अधिक जनसंख्या केवल 35 महानगरों में निवास करती है। यह एक चिंता का विषय है। नगरीकरण विकास का प्रतीक है। परंतु महानगरों में तीव्रता से बढ़ती जनसंख्या न केवल (UPBoardSolutions.com) महानगरों में समस्या खड़ी कर रही है, अपितु ग्रामीण क्षेत्रों में भी विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। नगरों में जनसंख्या के तेजी से बढ़ने के कारण, इनके वर्तमान संसाधनों तथा उपलब्ध जन सुविधाओं पर भारी दबाव पड़ रहा है। कभी-कभी तो यहाँ लोगों को आवश्यक सुविधाएँ भी नहीं मिल पातीं।

महानगरों की तेजी से बढ़ती जनसंख्या के प्रमुख परिणाम इस प्रकार हैं-
(1) लिंग-अनुपात का असन्तुलित होना – रोजगार की तलाश में पहले पुरुष वर्ग नगरों की ओर जाता है। फलतः नगरों में लिंग अनुपात में बहुत अंतर पाया जाता है। इस विषम अनुपात से अनेक सामाजिक कुरीतियाँ एवं बुरी आदतें पड़ जाती हैं, जिससे सामाजिक और आर्थिक स्थिति और भी बिगड़ जाती है।

(2) आवास की समस्या – महानगरों की जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ने के कारण आवास की बड़ी गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई है। अधिकतर लोग तंग, अँधेरे तथा दूषित वातावरण में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। आवास की समस्या मजदूर वर्ग में तो और भी गंभीर है। झुग्गी-झोपड़ियों में और खुले आकाश के नीचे लोग अपनी रातें बिता रहे हैं।

(3) रोजगार की समस्या – रोजगार पाने के लिए गाँवों से लोग नगरों में आ रहे हैं। जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में रोजगार के साधन नहीं बढ़ रहे हैं। अतः नगरों में रोजगार की समस्या बढ़ रही है। भिखारियों की संख्या बढ़ रही है। चोर-गिरहकटों की संख्या बढ़ रही है। लूट-पाट के मामले बढ़ रहे हैं। उपर्युक्त समस्याओं के अतिरिक्त अति नगरीकरण के कारण नगरों में पेयजल की समस्या, सफाई एवं स्वास्थ्य की (UPBoardSolutions.com) समस्या, वायु प्रदूषण की समस्या, ध्वनि प्रदूषण की समस्या, शिक्षा की समस्या, आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धि की समस्या तथा परिवहन की समस्या नगरों से जुड़ गयी है।

प्रश्न 3.
भारत में जनसंख्या घनत्व के वितरण पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
भारत में जनसंख्या का वितरण असमान है। साथ ही भारत विश्व की घनी आबादी वाले देशों में से एक है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत का जनसंख्या घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। जहाँ बिहार का जनसंख्या घनत्व 1106 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है, वहीं अरुणाचल प्रदेश का जनसंख्या घनत्व 17 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है।

पर्वतीय क्षेत्र तथा प्रतिकूल जलवायवी अवस्थाएँ इन क्षेत्रों की विरल जनसंख्या के लिए उत्तरदायी हैं। असोम एवं अधिकतर प्रायद्वीपीय राज्यों का जनसंख्या घनत्व मध्यम है। पहाड़ी, कटे-छैटे एवं पथरीले भूभाग, मध्यम से कम वर्षा, छिछली एवं कम उपजाऊ मिट्टी इन राज्यों के जनसंख्या (UPBoardSolutions.com) घनत्व को प्रभावित करती है। उत्तर मैदानी भाग एवं दक्षिण में केरल का जनसंख्या घनत्व बहुत अधिक है, क्योंकि यहाँ समतल मैदान एवं उपजाऊ मिट्टी पायी जाती है तथा पर्याप्त मात्रा में वर्षा होती है।

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प्रश्न 4.
व्यावसायिक संरचना का अर्थ स्पष्ट कीजिए। विभिन्न व्यवसायों का वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर:
जनसंख्या के वितरण को विभिन्न व्यवसायों के आधार पर वर्गीकृत करना व्यावसायिक ढाँचा कहलाता है। भारत में बड़े पैमाने पर व्यावसायिक विविधता विद्यमान है।
व्यवसायों को प्रायः प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक श्रेणियों में बाँटा गया है जिसका विवरण इस प्रकार है-

  1. प्राथमिक क्रियाकलापों में कृषि, पशुपालन, वृक्षारोपण एवं मछली पालन तथा खनन आदि क्रियाएँ शामिल हैं।
  2. द्वितीयक क्रियाकलापों में उत्पादन करने वाले उद्योग, भवन एवं निर्माण कार्य आते हैं।
  3. तृतीयक क्रियाकलापों में परिवहन, संचार, वाणिज्य, प्रशासन तथा सेवाएँ शामिल हैं।

भाग्त में कुल जनसंख्या का 64 प्रतिशत भाग केवल कृषि कार्य करता है। द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्रों में कार्यरत लोगों की संख्या का अनुपात क्रमशः 13 तथा 20 प्रतिशत है। वर्तमान समय में बढ़ते हुए औद्योगीकरण एवं शहरीकरण में वृद्धि होने के कारण द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्रों में व्यावसायिक परिवर्तन हुआ है।

प्रश्न 5.
बढ़ती हुई जनसंख्या के दुष्प्रभावों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
बढ़ती हुई जनसंख्या के दुष्प्रभाव निम्नलिखित हैं-
(i) बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण – देश की जनसंख्या बढ़ने से विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार का प्रदूषण बढ़ रहा है जो भयंकर खतरे का संकेत दे रहा है। जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के कारण जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण तथा ध्वनि प्रदूषण बढ़ रहा है। वनस्पति व प्राणी जगत के ह्रास (UPBoardSolutions.com) के कारण पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ता जा रहा है। प्रदूषण की रोक-थाम के साथ-साथ बढ़ती हुई जनसंख्या पर रोक लगाई जाए।

(ii) खनिज संपदा का ह्रास – खनिज संपदा की मात्रा निश्चित है, उसे बढ़ाया नहीं जा सकता। एक बार उसका उपभोग, उतनी ही मात्रा को कम कर देता है। जनसंख्या बढ़ने से खनन काम तेजी से बढ़ रहा है। अतः खनिजों के शीघ्र ही समाप्त होने की समस्या पैदा हो गई है। आवश्यकता इस बात की है कि खनिजों का उपभोग कम किया जाए, पूरक वस्तुओं का विकास किया जाए तथा उनके संरक्षण की विधियाँ अपनाई जाएँ।

(iii) मिट्टी की उर्वरा शक्ति में कमी – भारत में प्राचीनकाल से खेती होते रहने से मृदा की उपजाऊपन की क्षमता कम हो गई है। इधर जनसंख्या के बढ़ने से वर्ष में 2-3 फसलें लेना भी आवश्यक है। यह सिंचाई के साधनों के विस्तार तथा रासायनिक उर्वरकों के भरपूर उपयोग से भी संभव है। ऐसा करने पर मृदा में क्षारीय तत्त्वों का बढ़ना तथा भूमि का जलाक्रान्त होना स्वाभाविक है। इससे मृदा का उपजाऊपन कम हो जाता है और कहीं-कहीं तो मृदा की समाप्ति भी देखी गई है। अतः इस समस्या के निदान के लिए रासायनिक खादों का वैज्ञानिक उपयोग तथा मृदा सर्वेक्षण की आवश्यकता है।

(iv) वनों का तेजी से ह्रास – पेट की भूख मिटाने के लिए कृषि का विकास और विस्तार आवश्यक हो जाता है। खाद्यान्नों की माँग को पूरा करने के लिए वनों को साफ करके खेतों में बदला गया है। फलतः देश में 21 प्रतिशत से भी कम भू-भाग पर वनों का विस्तार रह गया। वनों की कमी से वर्षा से (UPBoardSolutions.com) कभी बाढ़ों का आना, मृदा का अपरदन होना तथा बहुमूल्य वन संपदा के न मिलने से समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं। अतः वनों के विस्तार एवं वृक्षारोपण पर अधिक बल देने की आवश्यकता है।

(v) चरागाह भूमि की कमी – भारत में पशु संपदा संसार में सर्वाधिक है। चरागाह भूमि घटते-घटते केवल 4% रह गई। फलतः पशुओं से अपेक्षित उत्पाद नहीं मिल पाते हैं। वनीय भूमि का पशुचारण के लिए उपयोग किया जा रहा है। इससे समस्या का निदान नहीं, अपितु दूसरे प्रकार की समस्या और उठ खड़ी होती है। अतः योजनाबद्ध तरीकों से चरागाह भूमि का विस्तार कर पशुपालन को सुव्यवस्थित व सुदृढ़ किया जाए।

(vi) कृषि योग्य भूमि का घटना – जनसंख्या के बढ़ने से पैतृक कृषि भूमि का बँटवारा निरंतर होता चला आ रहा है। फलतः कृषि योग्य भूमि का प्रति व्यक्ति अनुपात घटकर 0.29 हेक्टेयर रह गया है। इस समस्या का एक ही हल है कि जनसंख्या की वृद्धि पर नियंत्रण किया जाए।

प्रश्न 6.
भारत के सबसे अधिक तथा सबसे कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों का जनसंख्या के वितरण को प्रभावित करने वाले मुख्य कारकों को ध्यान में रखते हुए विवरण दीजिए।
उत्तर:
भारत में जनसंख्या का वितरण असमान है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल जनसंख्या 121.08 करोड़ है और जनसंख्या का औसत घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है। लेकिन दिल्ली में तो घनत्व 11320 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से भी अधिक है तो अरुणाचल प्रदेश में 17 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। उदाहरण के लिए पश्चिमी बंगाल, केरल, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु में घनत्व 401 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी से 1106 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी तक है। कुछ संघ राज्यों जैसे दिल्ली, चंडीगढ़, (UPBoardSolutions.com) लक्षद्वीप तथा पांडिचेरी में 2547 से 11320 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर तक है। कहीं दूसरे राज्यों जैसे अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मेघालय, नगालैण्ड, सिक्किम, मणिपुर आदि में घनत्व 17 से लेकर 128 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी ही है।

इस असमान वितरण के लिए निम्नलिखित कारक उत्तरदायी हैं-
(i) औद्योगिक विकास – देश के जिन क्षेत्रों में औद्योगिक विकास अधिक हुआ है, वहाँ रोजगार के अवसर तथा अन्य सुविधाएँ बढ़ जाती हैं। अतः इन क्षेत्रों में जनसंख्या घनत्व बढ़ जाता है। इसके विपरीत जिन क्षेत्रों में औद्योगिक विकास कम हुआ है, वहाँ जनसंख्या का घनत्व कम है।

(ii) प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता – संसाधनों से संपन्न क्षेत्र जनसंख्या को आकर्षित करते हैं। जल, मृदा, खनिज, वन आदि देश की बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा है। इसके लिए जनशक्ति चाहिए। दामोदर घाटी खनिज संपदा से संपन्न है। फलतः वहाँ अधिक जनसंख्या पाई जाती है। उपजाऊ मृदा क्षेत्र सघन आबाद हैं। डेल्टाई-क्षेत्र देश के सघनतम जनसंख्या वाले हैं।

(iii) यातायात की सुविधाओं का विकास – जिन क्षेत्रों में नदियों, नहरों, सड़कों व रेल मार्गों का जाल है, वहाँ आवश्यक वस्तुएँ आसानी से उपलब्ध होती हैं। लोग काम के केंद्रों पर आसानी से आ-जा सकते हैं। परिवहन के साधनों के विकास से मैदानी भागों में अधिक जनसंख्या पाई जाती है।
पर्वतीय, मरुस्थलीय तथा वनीय क्षेत्रों में यातायात के साधनों की कमी के कारण विरल आबाद है।

(iv) स्थल का स्वरूप – भारत में पर्वत, पठार एवं मैदान तीनों ही स्थलाकृतियाँ विस्तृत क्षेत्र में फैली हैं। देश की अधिकांश जनसंख्या मैदानी भागों में रहती है, क्योंकि मैदानी भाग में कृषि करना आसान व लाभदायक है, जिससे अधिक लोगों का जीवन निर्वाह होता है। मैदानों में जनसंख्या के वितरण में भी असमानता है। अधिक उपजाऊ मैदानी भागों में अधिक सघन जनसंख्या पाई जाती है।

(v) जलवायु – अधिक गर्म व शुष्क भागों में जनसंख्या कम पाई जाती है। अधिक ठंडे प्रदेश भी विरल जनसंख्या वाले हैं। राजस्थान का पश्चिमी भाग तथा हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व बहुत कम है। देश के समजलवायु वाले क्षेत्रों तथा उष्ण आई भागों में सघन जनसंख्या (UPBoardSolutions.com) पाई जाती है। पश्चिमी बंगाल और केरल क्रमशः सर्वाधिक जनसंख्या घनत्व वाले राज्य हैं।

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प्रश्न 7.
भारतीय जनसंख्या से संबंधित पाँच समस्याएँ नीचे दी गई हैं। प्रत्येक समस्या का एक दुष्परिणाम और प्रत्येक समस्या का एक व्यवहारिक समाधान लिखो।

  1. उच्च जनघनत्व
  2. असंतुलित लिंग-अनुपात
  3. सभी को स्वास्थ्य-सुविधाओं को अभाव
  4. बढ़ती जनसंख्या के कारण पर्यावरण संबंधी समस्या
  5. स्त्रियों की आर्थिक भागीदारी।

उत्तर:
1. जनघनत्व

  • दुष्परिणाम : जनघनत्व से प्राकृतिक संसाधनों पर अधिक दबाव पड़ता है तथा पर्यावरण प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गयी है।
  • समाधान : नए उद्योगों की स्थापना करके रोजगार के नए अवसरों का सृजन करना होगा। अधिक जन-घनत्व वाले क्षेत्रों से कम जनघनत्व वाले क्षेत्रों की ओर उद्योगों तथा कार्यालयों को स्थानान्तरित करना होगा।

2. असंतुलित लिंग-अनुपात

  • दुष्परिणाम : स्त्रियों के प्रति दुर्व्यवहार तथा समाज में स्त्रियों के प्रति प्रतिकूल दृष्टिकोण।
  • समाधान : स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार करके उनके हितों की रक्षा करना।

3. सभी को स्वास्थ्य-सुविधाओं का अभाव

  • दुष्परिणाम : प्रति व्यक्ति समुचित स्वास्थ्य-सुविधाओं के न मिलने के कारण स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव।
  • समाधान : स्त्री-बच्चों सहित सबके लिए एकीकृत स्वास्थ्य सुविधाएँ मुहैया कराना।

4. बढ़ती जनसंख्या के कारण पर्यावरण संबंधी समस्या

  • दुष्परिणाम : वायु जल तथा ध्वनि प्रदूषण की समस्या।
  • समाधान : पर्यावरण के संरक्षण के लिए लोगों में जागृति उत्पन्न करना।

5. स्त्रियों की आर्थिक भागीदारी

  • दुष्परिणाम : स्त्रियों में आर्थिक भागीदारी का बहुत कम होना।
  • समाधान : शिक्षा के अवसर प्रदान करके स्त्रियों की आर्थिक भागीदारी बढ़ाना।

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UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 3 कार्य-व्यवस्था

UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 3 कार्य-व्यवस्था

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
कार्य-व्यवस्था से क्या आशय है? गृह-कार्य-व्यवस्था के महत्व को भी स्पष्ट कीजिए। या घर तथा परिवार के सन्दर्भ में कार्य-व्यवस्था के अर्थ को स्पष्ट कीजिए। सुचारू रूप से गृह-कार्य व्यवस्था का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
कार्य-व्यवस्था का अर्थ

घर तथा परिवार के सन्दर्भ में कार्य-व्यवस्था से आशय है कि घर तथा परिवार से सम्बन्धित समस्त कार्यों को सुनियोजित ढंग से पूरा किया जाए। गृह-कार्य व्यवस्था के लिए समस्त कार्यों की योजना तैयार की जानी चाहिए और योजना के अनुसार कार्य किए जाने चाहिए। कार्य-प्रक्रिया पर समुचित नियन्त्रण रहना चाहिए तथा समय-समय पर कार्यों को समुचित मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए। यह कार्य-व्यवस्था (UPBoardSolutions.com) का सैद्धान्तिक विवेचन है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी कार्य-व्यवस्था का अर्थ स्पष्ट करना आवश्यक है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से आवश्यक है कि सर्वप्रथम परिवार के समस्त कार्यों को निर्धारित कर लिया जाए तथा प्राथमिकता के अनुसार कार्यों का वर्गीकरण कर लिया जाए।

इसके उपरान्त समस्त कार्यों के किए जाने का समय भी निर्धारित कर लेना चाहिए। इतनी व्यवस्था हो जाने के उपरान्त विशेष सूझ-बूझ द्वारा समस्त कार्यों को करने के उत्तरदायित्व का विभाजन परिवार के सभी सदस्यों में करना चाहिए। परिवार के सदस्यों को पारिवारिक कार्य सौंपते समय उनकी योग्यता, क्षमता तथा समय सम्बन्धी सुविधाओं को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए। उदाहरण के लिए-यदि परिवार में अवकाश प्राप्त वृद्ध पिता हों, जो प्रातः घूमने जाते हैं, तो उन्हें दूध लाने का कार्य सौंपा जा सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि घर-परिवार में समस्त कार्यों को अधिक-से-अधिक अच्छे, नियमित तथा सरल ढंग से पूरा करने की व्यवस्था ही गृह-कार्य-व्यवस्था है।

गृह-कार्य-व्यवस्था का महत्त्व

निःसन्देह रूप से कहा जा सकता है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्यवस्था का विशेष महत्त्व है। व्यवस्था से सरलता, सुचारूता तथा उत्तमता के लक्ष्यों को सरलता से प्राप्त किया जा सकता है। व्यवस्थित ढंग से कोई भी कार्य करने से सामान्य रूप से कार्य में सफलता की प्राप्ति निश्चित हो जाती हैं तथा उत्तम परिणाम ही प्राप्त होते हैं। यही तथ्य घर-परिवार के सन्दर्भ में भी सत्य है। घर-परिवार के सन्दर्भ में कार्य-व्यवस्था के महत्त्व का सामान्य विवरण निम्नवर्णित है

(1) आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक:
परिवार के सभी सदस्यों की अनेक आवश्यकताएँ हुआ करती हैं। प्रत्येक आवश्यकता को पूरा करने के लिए कुछ-न-कुछ प्रयास या कार्य करने पड़ते हैं। इस स्थिति में यदि समस्त गृह-कार्यों को सुव्यवस्थित ढंग से किया जाता है, तो निश्चित रूप से निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति सरल हो जाती है। इस प्रकार हम (UPBoardSolutions.com) कह सकते हैं कि गृह-कार्य-व्यवस्था को अपनाकर ही हम परिवार के सभी सदस्यों की विभिन्न आवश्यकताओं की सुचारू ढंग से पूर्ति कर सकते हैं।

(2) उत्तम पारिवारिक वातावरण बनाए रखने में सहायक:
यदि किसी परिवार द्वारा उत्तम गृह-कार्य-व्यवस्था को व्यवहार में लागू कर लिया जाता है, तो उस स्थिति में परिवार के सभी सदस्यों में कार्यात्मक सामंजस्य बना रहता है। ऐसे में इनके आपसी सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण तथा सहयोगात्मक बने रहते हैं तथा सामान्य रूप से तनाव या परस्पर विरोध के अवसर नहीं आते। उत्तम गृह-कार्य-व्यवस्था की स्थिति में पारिवारिक कलह की भी प्रायः आशंका नहीं रहती।

(3) श्रम-विभाजन में सहायक:
परिवार के सदस्यों द्वारा उत्तम कार्य-व्यवस्था को लागू करने से श्रम-विभाजन की उत्तम व्यवस्था प्राप्त हो जाती है। इस स्थिति में परिवार के सभी सदस्यों को अपनी योग्यता, क्षमता तथा अभिरुचि के अनुसार कार्य उपलब्ध हो जाता है। यह व्यवस्था परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए विशेष रूप से सन्तोषदायक होती है।

(4) उत्तम गृह-अर्थव्यवस्था में सहायक:
परिवार की सुख-शान्ति एवं समृद्धि के लिए उत्तम गृह-अर्थव्यवस्था अति आवश्यक होती है। उत्तम गृह-कार्य-व्यवस्था परिवार की अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से भी महत्त्वपूर्ण होती है। उत्तम कार्य-व्यवस्था की स्थिति में परिवार के सभी कार्य सही समय पर तथा अच्छे ढंग से पूरे हो जाते हैं। इससे परिवार की अर्थव्यवस्था भी सही बनी रहती है तथा सामान्य रूप से किसी गम्भीर आर्थिक संकट को भी सामना नहीं करना पड़ता।

(5) परिवार के सदस्यों के उत्तम स्वास्थ्य में सहायक:
परिवार के सदस्यों के स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी गृह-कार्य-व्यवस्था लाभदायक सिद्ध होती है। उत्तम गृह-कार्य-व्यवस्था लागू होने की स्थिति में परिवार के किसी एक सदस्य को अधिक तथा अनावश्यक कार्य-भार नहीं सँभालना पड़ता। इसके अतिरिक्त कार्यों के छूट जाने की चिन्ता तथा (UPBoardSolutions.com) हानि को भी नहीं सहना पड़ता। इस प्रकार की व्यवस्था उपलब्ध होने पर परिवार के सदस्य स्वस्थ एवं सुखी जीवन व्यतीत करते हैं।

(6) रहन-सहन के स्तर को उन्नत बनाने में सहायक:
आज प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसका तथा उसके परिवार के रहन-सहन का स्तर उन्नत हो। उत्तम गृह-कार्य-व्यवस्था इसमें भी सहायक होती है। उत्तम कार्य-व्यवस्था होने की स्थिति में परिवार के सभी कार्य सही समय पर पूर्ण हो जाते हैं। ऐसी । स्थिति में परिवार के सदस्य अधिक धनोपार्जन कर सकते हैं तथा उसका उत्तम उपभोग भी कर सकते हैं। इससे परिवार के रहन-सहन का स्तर उन्नत होता है तथा परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा में भी वृद्धि होती हैं।

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प्रश्न 2:
गृह-कार्य-व्यवस्था के मुख्य सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
गृह-कार्य-व्यवस्था के सिद्धान्त

पारिवारिक सुख-शान्ति, प्रगति एवं समृद्धि के दृष्टिकोण से गृह-कार्य-व्यवस्था का विशेष महत्त्व है। गृह-कार्य-व्यवस्था को सफल व सुचारू बनाए रखने के लिए गृह-कार्य-व्यवस्था का सैद्धान्तिक ज्ञान होना आवश्यक होता है। गृह-कार्य-व्यवस्था के मुख्य सिद्धान्तों का सामान्य परिचय निम्नवर्णित है

(1) गृह-कार्य-सुनियोजन:
गृह-कार्य-व्यवस्था को सुचारू रूप से लागू करने के लिए आवश्यक है कि समस्त कार्यों का पूर्व नियोजन किया जाए। इसके लिए आवश्यक है कि समस्त कार्यों को ध्यान में रखकर उनका विभाजन परिवार के सभी सदस्यों में कर देना चाहिए। कार्यों को सौंपते समय परिवार के सभी (UPBoardSolutions.com) सदस्यों की योग्यता, क्षमता तथा सुविधा को ध्यान में रखना आवश्यक है। कार्यों का व्यवस्थित बँटवारा करने के साथ-ही-साथ कार्यों को करने का समय भी निर्धारित कर देना चाहिए। इस प्रकार गृह-कार्यों की जितनी अच्छी तथा व्यावहारिक योजना तैयार कर ली जाएगी, उतनी ही गृह-कार्य-व्यवस्था में सफलता प्राप्ति की सम्भावना बढ़ जाएगी।

(2) निर्धारित कार्य-योजना का नियन्त्रण:
गृह-कार्य-व्यवस्था का दूसरा सिद्धान्त सूझ-बूझ द्वारा तैयार की गई योजना को व्यावहारिक रूप से लागू करना है। इस सिद्धान्त को कार्य-योजना का नियन्त्रण कहा जाता है। कार्य-योजना के नियन्त्रण के अन्तर्गत यह देखना आवश्यक होता है कि परिवार , के विभिन्न सदस्यों को सौंपे गए कार्य ठीक (UPBoardSolutions.com) ढंग से तथा ठीक समय पर किए जा रहे हैं या नहीं। परिवार के सदस्यों को समय-समय पर अपने-अपने कार्य करने के लिए निर्देश देना कार्य-योजना का नियन्त्रण ही है। कार्य-योजना के नियन्त्रण का दायित्व भी परिवार के मुखिया या गृहिणी को ही होता है। नियन्त्रित ढंग से गृह-कार्य होने पर अव्यवस्था की सम्भावना प्रायः नहीं रहती।

(3) कार्य-मूल्यांकन:
निर्धारित योजना के अनुसार सौंपे गए कार्यों को समय-समय पर मूल्यांकन भी किया जाना आवश्यक होता है। यह देखना होता है कि कौन-कौन से गृह-कार्य पूरे किए जा रहे हैं और कौन-कौन से कार्य समय पर नहीं हो पा रहे हैं? कार्य ठीक ढंग से हो रहे हैं या नहीं? गृह-कार्य-व्यवस्था में कार्य-मूल्यांकन का विशेष महत्त्व है। लेविन के अनुसार, मूल्यांकन के मुख्य रूप से चार उद्देश्य हैं

  1.  उपलब्धियों की जाँच,
  2. आगामी योजना के लिए आधार प्राप्त करना,
  3. निर्धारित योजना में यदि कुछ कमी है, तो उसमें सुधार के लिए आधार प्रस्तुत करना तथा
  4.  नए उपाय सुझाना।

(4) कुशलता:
गृह-कार्य-व्यवस्था के लिए आवश्यक है कि समस्त कार्य कुशलतापूर्वक किए जाएँ। कुशलता से आशय यह है कि समस्त गृह-कार्य सही ढंग से तथा सही समय पर पूरे किए जाएँ। कुशलतापूर्वक कार्य करना ही कार्य-व्यवस्था की मुख्य कसौटी है। भले ही योजना कितनी भी अच्छी क्यों न हो, यदि निर्धारित कार्य कुशलतापूर्वक न किए जाएं तो कार्य व्यवस्था दोषपूर्ण ही कहलाएगी। उदाहरण के लिए-बच्चे के जन्म-दिवस के अवसर पर योजना के अनुसार परिवार के सभी सदस्यों को भिन्न-भिन्न कार्य सौंप दिए जाते हैं। यदि निर्धारित समय तक (UPBoardSolutions.com) सजावट पूरी नहीं हो पाती या मेहमानों के आ जाने के उपरान्त भी केक नहीं आता तो कहा जाएगा कि कार्य-कुशलता का अभाव है। यदि केक भी आ गया हो तथा मेज पर रख दिया गया हो परन्तु उस पर लगाने वाली मोमबत्तियाँ उपलब्ध न हों, तो भी कहा जाएगा कि कार्य-कुशलता का अभाव है। इस प्रकार कार्य-कुशलता का सर्वाधिक महत्त्व है। कुशलतापूर्वक किया गया प्रत्येक कार्य सन्तोष, आनन्द तथा प्रशंसा प्रदान करता है। यही गृह-कार्य-व्यवस्था का अन्तिम लक्ष्य है।

प्रश्न 3:
गृह-कार्य-व्यवस्था में सहायक कारकों का उल्लेख कीजिए।
या
उत्तम गृह-कार्य-व्यवस्था को लागू करने के लिए किन-किन कारकों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गृह-कार्य-व्यवस्था में सहायक कारक

यह सत्य है कि प्रत्येक परिवार चाहता है कि उसकी कार्य-व्यवस्था उत्तम हो। कार्य-व्यवस्था के उत्तम होने के लिए आवश्यक है कि कार्य-व्यवस्था के लिए अनुकूल कारकों का प्रभावपूर्ण ढंग से उपयोग किया जाए तथा कार्य-व्यवस्था के लिए प्रतिकूल कारकों को उन्मूलन किया जाए। कार्य-व्यवस्था के लिए अनुकूल कारक उन कारकों को कहा जाता है जो कार्य-व्यवस्था को बनाए रखने में सहायक होते हैं। गृह-कार्य-व्यवस्था सुचारू रूप बनाए रखने में सहायक मुख्य कारकों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित हैं

(1) उचित योजना का निर्धारण:
गृह-कार्य-व्यवस्था की सफलता के लिए आवश्यक है कि घर-परिवार से सम्बन्धित समस्त कार्यों को सम्पन्न करने के लिए उचित योजना का पूर्व-निर्धारण कर लिया जाए। इस कारक के अन्तर्गत व्यावहारिक दृष्टिकोण से निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना
आवश्यक होता है

  1. सभी महत्त्वपूर्ण कार्यों की सूची बना लेनी चाहिए और उनका व्यवस्थित वर्गीकरण कर लेना चाहिए। दैनिक कार्यों, साप्ताहिक कार्यों, मासिक कायों तथा वार्षिक कार्यों की अलग-अलग सूची बना लेनी चाहिए। इसके अतिरिक्त आकस्मिक कार्यों के लिए भी अलग से प्रावधान होना चाहिए।
  2. प्रत्येक कार्य को करने का समय निश्चित कर लेना चाहिए। प्रत्येक कार्य में लगने वाला समय भी निर्धारित कर लेना चाहिए।
  3. परिवार के समस्त कार्यों को व्यवस्थित रीति से परिवार के सभी सदस्यों में बाँट देना चाहिए। कार्यों के इस बँटवारे के समय परिवार के सभी सदस्यों से विचार-विमर्श भी करना चाहिए तथा उनकी योग्यताओं, क्षमताओं, रुचियों आदि को भी ध्यान में रखना चाहिए।
  4.  कार्यों को करने में कार्यों के महत्त्व एवं अनिवार्यता को ध्यान में रखकर उनको प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
  5. गृह-कार्यों की योजना लचीली होनी चाहिए अर्थात् परिस्थितियों के परिवर्तित होने की दशा में कार्यों के क्रम, प्राथमिकता आदि में परिवर्तन किया जा सकता है।

(2) कार्य-व्यवस्था में परिवार के सभी सदस्यों का सहयोग:
गृह-कार्य-व्यवस्था की सफलता के लिए अति आवश्यक कारक है-कार्य-व्यवस्था में परिवार के सभी सदस्यों का सहयोग प्राप्त करना। यदि परिवार के सभी सदस्य गृह-कार्यों की व्यवस्था में अपना-अपना सहयोग प्रदान करते हैं, तो सभी कार्य ठीक समय पर तथा सही ढंग से पूरे हो जाते हैं। इससे न तो गृह-कार्य अधूरे ही रह पाते हैं और न ही परिवार के किसी एक या दो सदस्यों पर अतिरिक्त बोझ ही पड़ता है। परिवार के (UPBoardSolutions.com) सभी सदस्यों में यदि गृह-कार्यों का उचित बँटवारा कर दिया जाए, तो गृहिणी को भी लाभ होता है तथा परिवार के सदस्य भी पारिवारिक कार्यों में सहयोग देकर सन्तोष का अनुभव करते हैं। बिना विचार-विमर्श किए अथवा क्षमता और रुचि के विपरीत सौंपे गए कार्य थोपे गए लगते हैं, उन्हें पूर्ण करना भार महसूस होता है, घर का कार्य प्रत्येक व्यक्ति को सौंपने से उन्हें परिवार में अपने महत्त्व का अनुमान हो जाता है तथा वह अपने को उपेक्षित अनुभव नहीं करते परिवार में बड़ी-बूढ़ी स्त्रियाँ या पुरुष भी गृह-कार्यों में महत्वपूर्ण सहयोग दे सकते हैं।

अनाज तथा दालें साफ करना, साग बीनना या सब्जी काटने का कार्य बड़ी-बूढ़ी औरतें बड़े चाव से करती हैं तथा अच्छे ढंग से भी करती हैं। यदि परिवार में कोई वृद्ध पुरुष हो, तो वह निकट के पार्क या बागे में बच्चों को घुमाने ले जा सकते हैं। किशोर (UPBoardSolutions.com) बच्चों को घर की वस्तुएँ; जैसे कि कपड़े, किताबें आदि समेटकर यथास्थान रखने का कार्य सौंपा जा सकता है। ये बच्चे ही जूतों को साफ करने, बिस्तर बिछाने तथा झाड़-पोंछ करने का कार्य भी कर सकते हैं। परिवार की कार्य-व्यवस्था को सुचारू एवं सरल बनाने के लिए पति को भी गृह-कार्यों में यथासम्भव सहयोग देना चाहिए।

(3) गृह-कार्य करने की सही विधियों का ज्ञान:
गृह-कार्यों की व्यवस्था में सहायक कारकों में कार्य करने की सही विधियों का ज्ञान भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वास्तव में, कार्य करने के परम्परागत ढंग एवं विधियाँ आज के वैज्ञानिक युग के लिए उपयुक्त नहीं रहीं। अब सभी कार्यों को अच्छे ढंग से करने के लिए नई-नई विधियों को अपनाया जा रहा है। कम समय तथा कम श्रम द्वारा कार्यों को पूरा करना ही अभीष्ट समझा जाता है। कार्य करने की यान्त्रिक (UPBoardSolutions.com) विधियों को अपनाना चाहिए। सही विधियों को अपनाकर कार्य करने से जहाँ एक ओर समय तथा श्रम की बचत होती है, वहीं कार्य अच्छे ढंग से पूरा होता है तथा घर की वस्तुएँ भी नष्ट होने से बच जाती हैं। उदाहरण के लिए यदि घर पर सही विधि को अपनाकर खाना पकाया जाए तो निश्चित रूप से श्रम तथा समय की बचत होती है तथा पकाए गए भोजन के पोषक तत्त्वों को भी नष्ट होने से बचाया जा सकता है।

(4) अच्छे तथा पर्याप्त भौतिक साधन उपलब्ध होना:
गृह-कार्यों को व्यवस्थित रूप में पूरा करने के लिए अनिवार्य है कि कार्य करने में सहायक अच्छे तथा पर्याप्त साधन उपलब्ध हों। अच्छे साधनों द्वारा कार्य करने से कार्य-कुशलता बढ़ती है तथा समय एवं श्रम की बचत होती है। उदाहरण के लिए-सब्जी काटने तथा छीलने के लिए अच्छा तेज चाकू तथा पिलर आदि का होना आवश्यक है। पर्याप्त संख्या में आवश्यक बर्तन होने भी आवश्यक हैं। यदि घर में एक से अधिक प्रेशर-कुकर हों तो एक के बाद दूसरा व्यंजन बनाने के लिए कुकर को धोना नहीं पड़ता तथा एक साथ ही गैस के (UPBoardSolutions.com) दोनों चूल्हों पर दो कुकर चढ़ाए जा सकते हैं। इससे काम शीघ्र पूरा हो जाएगा तथा कुकर को तुरन्त नहीं धोनी पड़ेगा। इसी प्रकार कपड़े धोने की मशीन, मिक्सर-ग्राइण्डर, ओवन, टोस्टर आदि यन्त्रों के उपलब्ध होने पर सभी कार्य शीघ्र, उत्तम तथा सरलता से पूरे हो जाते हैं तथा गृह-कार्य-व्यवस्था बनी रहती है।

(5) अनुभव एवं ज्ञान:
गृह-कार्य-व्यवस्था को सुचारू बनाने में सहायक कारक कार्य-अनुभव भी है। वास्तव में, किसी भी कार्य को स्वयं करने से अनेक बातों की जानकारी प्राप्त हो जाती है। जैसे-जैसे कार्य का अनुभव होता है, वैसे-वैसे उसे करने की त्रुटियाँ कम होती हैं तथा कार्य सही समय पर पूरा होने लगता है।
अनुभव के साथ-ही-साथ ज्ञान का भी विशेष महत्त्व होता है। गृह-कार्यों को समुचित ज्ञान माता-पिता या अन्य अनुभवी व्यक्तियों से भी प्राप्त हो सकता है तथा पुस्तकों से भी आवश्यक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

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प्रश्न 4:
गृह-कार्य-व्यवस्था को कुप्रभावित करने वाले अर्थात् प्रतिकूल कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
गह-कार्य-व्यवस्था को कपभावित करने वाले कारक यह सत्य है कि कुछ कारक गृह-कार्य-व्यवस्था में सहायक होते हैं। परन्तु इसके साथ-साथ यह भी सत्य है कि कुछ कारक ऐसे भी होते हैं जो गृह-कार्य-व्यवस्था पर बुरा प्रभाव डालते हैं। गृह-कार्य-व्यवस्था पर बुरा प्रभाव डालने वाले कारकों को, (UPBoardSolutions.com) कार्य-व्यवस्था को कुप्रभावित करने वाले कारक कहा जाता है। इस प्रकार के कारकों के प्रबल हो जाने की दशा में गृह-कार्य-व्यवस्था बिगड़ जाती है तथा घरेलू कार्य सुचारू रूप से नहीं हो पाते। कार्य-व्यवस्था को कुप्रभावित करने वाले मुख्य कारकों का संक्षिप्त परिचय निम्नवर्णित हैं

(1) सूझ-बूझ की न्यूनता:
यदि गृहिणी तथा परिवार के अन्य मुख्य सदस्यों में गृह-कार्य सम्बन्धी आवश्यक सूझ-बूझ की कमी हो तो अधिक-से-अधिक साधन सम्पन्न होने पर भी गृह-कार्य-व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं चल सकती। सूझ-बूझ की न्यूनता या अभाव गृह-कार्य-व्यवस्था को गम्भीर रूप से प्रभावित करती है।

(2) आवश्यक साधनों का अभाव:
गृह-कार्य-व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए कुछ साधनों की भी आवश्यकता होती है। इन साधनों को ही सूझ-बूझ से इस्तेमाल करके सफलतापूर्वक गृह-कार्य सम्पन्न किए जाते हैं। यदि परिवार में आवश्यक साधनों का अभाव हो, तो सूझ-बूझ होते हुए भी गृह-कार्य-व्यवस्था को उत्तम नहीं बनाए रखा जा सकता। पारिवारिक साधनों में सर्वाधिक महत्त्व आर्थिक साधनों का होता है। इस स्थिति में कहा जा सकता (UPBoardSolutions.com) है कि आवश्यक साधनों का अभाव भी पारिवारिक कार्य-व्यवस्था को कुप्रभावित करने वाला एक उल्लेखनीय कारक है। उदाहरण के लिए—भले ही गृहिणी कितनी भी कार्यकुशल एवं गृह-कार्यों में दक्ष क्यों न हो, यदि उसके भण्डार-गृह में कच्ची खाद्य सामग्री न हो, ईंधन एवं अन्य उपकरण उपलब्ध न हों, तो वह परिवार के सदस्यों के लिए भोजन तैयार नहीं कर सकती।

(3) पारिवारिक-कलह:
गृह-कार्यों को करने की सूझ-बूझ तथा समस्त आवश्यक साधनों के उपलब्ध होने पर भी यदि परिवार में सौहार्दपूर्ण वातावरण न हो, तो गृह-कार्य-व्यवस्था सुचारू रूप से लागू नहीं की जा सकती। परिवार में कलह एवं तनाव का वातावरण होने की स्थिति में न तो गृहिणी स्वयं ही रुचिपूर्वक गृह-कार्यों को कर पाती है और न ही उसे परिवार के अन्य सदस्यों का सहयोग ही प्राप्त हो पाता है। ऐसी स्थिति (UPBoardSolutions.com) में गृह-कार्य-व्यवस्था कैसे सुचारू रूप से चल सकती है? इस प्रकार कहा जा सकता है कि पारिवारिक कलह भी गृह-कार्य-व्यवस्था को कुप्रभावित करने वाला एक प्रबल कारक है।
प्रत्येक गृहिणी तथा परिवार के अन्य वरिष्ठ सदस्यों का दायित्व है कि वे गृह-कार्य-व्यवस्था को कुप्रभावित करने वाले कारकों के प्रति सजग रहें तथा इन कारकों को प्रबल न होने दें।

प्रश्न 5:
कार्य-व्यवस्था के विभिन्न साधनों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कार्य-व्यवस्था के निम्नलिखित दो साधन हैं
(1) मानवीय अथवा अमूर्त साधन।
(2) अमानवीय अथवा भौतिक साधन।

(1) मानवीय अथवा अमूर्त साधन:
इन साधनों के अन्तर्गत मनुष्यों में पाए जाने वाले गुण, कौशल एवं विशेषताओं को सम्मिलित किया जाता है। ये निम्नलिखित हैं
(i) रुचि:
रुचि मनुष्य की एक मनोवैज्ञानिक विशेषता है। कुछ रुचियाँ मनुष्यों में जन्म से होती हैं। तो कुछ समय के साथ-साथ विकसित होती हैं। इन मनोवैज्ञानिक साधनों का प्रयोग कर लड़कों को व्यायाम, खेल-कूद तथा अन्य साहसिक कार्यों के लिए तथा लड़कियों को ललित कलाओं के लिए प्रेरित किया जा सकता है।

(ii) ज्ञान:
शिक्षित गृहिणी को कार्य-व्यवस्था का अधिक ज्ञान होता है। वह उत्तम कार्य-व्यवस्था का सरलता से पालन करती है। अच्छी सन्तान के विकास के लिए भी माता का शिक्षित होना आवश्यक है।

(iii) शक्ति:
गृहिणियों में शारीरिक शक्ति शारीरिक कार्यों के लिए तथा मानसिक शक्ति मानसिक कार्यों के लिए कुशलता का साधन है।

(iv) योग्यता एवं प्रवीणता:
प्रायः सभी लड़कियाँ गृह-कार्य (खाना बनाना, सिलाई, कढ़ाई, गृह-परिचर्या आदि) करने की योग्यता रखती हैं, परन्तु उनका इन कार्यों में प्रवीण या दक्ष होना आवश्यक नहीं है। प्रवीणता का गृह-प्रबन्ध में अत्यधिक महत्त्व है। इसका विकास निरन्तर अभ्यास एवं अनुभव द्वारा किया जा सकता है।

(v) समय:
यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण साधन है, क्योंकि इसके अभाव में कार्य योजनाओं का क्रियान्वयन लगभग असम्भव ही है। अतः समय का सदुपयोग करना चाहिए।

(2) अमानवीय अथवा भौतिक साधन
ये निम्नलिखित हैं

(i) धन:
धन का अर्थ विनिमय मूल्य है। हमारे देश में रुपया विनिमय का माध्यम है। धन से लगभग सभी भौतिक साधन प्राप्त किए जा सकते हैं। धन के अन्तर्गत वेतन एवं ब्याज द्वारा अर्जित आय इत्यादि को सम्मिलित किया जाता है।

(ii) भौतिक वस्तुएँ:
मकान, फर्नीचर, गृह-सज्जा की वस्तुएँ, खाद्य पदार्थ, बर्तन, वस्त्र, मशीनें वाहन आदि प्रमुख भौतिक वस्तुएँ हैं। इनका अपना अलग-अलग महत्त्व है। किसी परिवार में इनका . आपेक्षित मात्रा में होना उस परिवार के आर्थिक स्तर पर निर्भर करता है।

(iii) सार्वजनिक गएँ:
ये सुविधाएँ किसी समय केवल बड़े नगरों तक ही सीमित थीं। आज इन सुविधाओं को गाँवों तक पहुँचाने के प्रयास किए जा रहे हैं। स्वास्थ्य केन्द्र, राजकीय अस्पताल व शिक्षा संस्थाएँ, बाजार, जीवन बीमा निगम, डाकखाने, बैंक, यातायात व मनोरंजन के साधन आदि अनेक सार्वजनिक सुविधाएँ हैं, जिनके उपलब्ध होने से परिवार के साधन बढ़ जाते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रायः मानवीय व भौतिक (UPBoardSolutions.com) साधनों का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है तथा इन दोनों प्रकार के साधनों के सन्तुलन, उपलब्धि एवं समायोजन पर ही परिवार एवं समाज की प्रगति निर्भर करती है। उत्तम एवं सुचारू गृह कार्य-व्यवस्था के लिए सभी साधन उपलब्ध होना आवश्यक माना जाता है।

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प्रश्न 6:
एक गृहिणी को दैनिक जीवन से समय, अर्थ एवं श्रम की बचत के लिए किन उपायों एवं उपकरणों की सहायता लेनी चाहिए? समझाइए।
या
गृह-संचालन में धन, श्रम और समय की बचत आप किस प्रकार करेंगी?
या
गृह के संचालन में समय, अर्थ व श्रम की बचत किन-किन उपायों द्वारा की जा सकती है? विस्तारपूर्वक समझाइए।
उत्तर:
गृहिणी गृह की संचालिका है। नि:सन्देह उसे गृह के अधिकांश कार्य स्वयं सम्पन्न करने पड़ते हैं, जिससे उसे बहुत श्रम करना पड़ता है। प्रत्येक गृहिणी की शारीरिक शक्ति सीमित होती है। इस स्थिति में यदि कुछ बातों को ध्यान में न रखा जाए तो गृहिणी को गृह- कार्यों से अधिक थकान हो सकती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कुछ ऐसे उपाय किए जाने चाहिए, जो गृहिणी के समय तथा श्रम को बचाने में सहायक हों।

समय व श्रम की बचत के उपाय

निम्नलिखित उपाय एवं उपकरणों की सहायता से समय व श्रम की बचत होती है

  1. कार्य करते समय यह ध्यान रखें कि इसके लिए अनावश्यक क्रियाएँ अथवा श्रम न करना पड़े। उदाहरण के लिए-वस्तुओं को एक व्यवस्थित क्रम में रखने पर कार्य करने के समय उनको ढूंढ़ने में समय अथवा श्रम व्यर्थ नहीं होता।
  2.  खाद्य पदार्थ, मिर्च, मसाले आदि सामग्री, बर्तन इत्यादि का रसोई-गृह में इस क्रम में रखा जाए जिससे कि उनको लेने-रखने में अधिक चलना, झुकनां व उचकना न पड़े।
  3. एक साथ उपयोग में आने वाली आवश्यक वस्तुओं को एक साथ रखें; जैसे–मिर्च, मसाले व नमक आदि को मसालेदानी में रखें। चीनी एवं चाय की पत्ती को पास-पास ही रखें।
  4. श्रम व समय की बचत करने वाले उपकरणों एवं यन्त्रों; जैसे-गैस का चूल्हा, प्रेशर कुकर, वाशिंग मशीन, बिजली की प्रेस आदि का यथासम्भव प्रयोग किया जाना चाहिए।
  5. प्रयोग में आने वाले सभी उपकरण ठीक स्थिति में होने चाहिए तथा इनकी गुणवत्ता भी सन्तोषजनक होनी चाहिए।
  6.  कार्य करते समय गृहिणी की शारीरिक स्थिति अथवा उठने, बैठने व खड़े होने का ढंग इस प्रकार हो कि जिसमें कम-से-कम थकावट हो।
  7.  एक कार्य करते हुए गृहिणी जब थकने लगे, तो उसे कार्य-परिवर्तन करना चाहिए।
  8. मेज-कुर्सी आदि फर्नीचर गृहिणी की ऊँचाई के अनुसार होने चाहिए, जिससे थकावट कम हो।
  9.  सभी दैनिक कार्यों को उपयुक्त योजना बनाकर करना चाहिए।
  10. परिवार के सभी सदस्यों के मध्य उनकी कार्यक्षमता एवं योग्यता के अनुसार कार्यों का विभाजन करना चाहिए।

अर्थ (धन) की बचत के उपाय

परिवार की लगभग सभी आवश्यकताएँ आर्थिक साधनों अर्थात् धन पर निर्भर करती हैं। अतः आर्थिक साधनों का सोच-समझकर व नियन्त्रित ढंग से उपयोग करना चाहिए तथा भविष्य के लिए बचत का प्रावधान अवश्य रखना चाहिए। अग्रलिखित उपायों से यह सम्भव हो सकती है

(1) आय-व्यय में सन्तुलन बनाए रखना:
परिवार के आर्थिक साधन प्रायः सीमित होते हैं, परन्तु आवश्यकताएँ अनन्त होती हैं। अतः आय-व्यय का सन्तुलन प्रमुख आवश्यकताओं की पूर्ति को ही प्राथमिकता देकर (UPBoardSolutions.com) किया जा सकता है। आय के साधनों एवं आवश्यकताओं के अनुसार प्रत्येक गृहिणी को बजट बनाना चाहिए तथा उसे सिद्धान्त रूप से बजट में निर्धारित मदों पर निर्धारित धनराशि का ही व्यय करना चाहिए।

(2) मितव्ययिता के उपाय प्रयोग में लाना:
निम्नलिखित उपायों के आधार पर गृहिणी दैवीक जीवन में धन की बचत कर सकती है

  1.  केवल अत्यावश्यक वस्तुओं को ही खरीदना।
  2.  समान पौष्टिक गुणों वाले सस्ते खाद्य पदार्थ खरीदना।
  3. प्रतिकूल ऋतु में सस्ता सामान खरीदना, जैसे कि ग्रीष्म ऋतु में ऊन।
  4.  पानी, ईंधन व बिजली का केवल आवश्यक उपयोग करना।
  5.  खाद्य पदार्थों की बर्बादी न करना।
  6.  कम-से-कम नौकर रखना।
  7. बच्चों को ट्यूटर न रखकर स्वयं पढ़ाना।

प्रश्न 7:
गृह की सुव्यवस्था के लिए गृहिणी में किन गुणों का होना आवश्यक है? लिखिए।
या
एक कुशल गृहिणी अपना घर किस प्रकार सुव्यवस्थित रख सकती है? समझाइए।
या
गृह की सुव्यवस्था के लिए एक आदर्श गृहिणी में किन-किन गुणों का होना आवश्यक है? विस्तारपूर्वक लिखिए।
उत्तर:
गृहिणी गृह-संचालन में मुख्य भूमिका निभाती है। वह पत्नी, माता, गुरु व गृह-स्वामिनी के कर्तव्यों का पालन करते हुए अपने गृह में समृद्धि, सुख एवं सन्तोष का वातावरण बनाए रखती है। गृह
की सुव्यवस्था के लिए प्रत्येक गृहिणी में निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक है|

(1) कर्तव्यों का ज्ञान:
पति से मधुर व्यवहार करना, सास-ससुर का आदर करना, ननद व देवर से स्नेह रखना, अतिथियों का सत्कार करना, बच्चों से प्रेम करना व उन्हें अच्छी शिक्षा देना आदि ऐसे कर्तव्य हैं, जिनका पालन कर गृहिणी सबका हृदय जीत लेती है।

(2) अनुकूलता:
एक कुशल गृहिणी परिवार के सभी सदस्यों से मधुर सम्बन्ध बनाए रखती है। वह प्रत्येक सदस्य की अभिरुचियों, कार्यक्षमता व भावनाओं का ज्ञान रखती है तथा गृह की सुव्यवस्था में सदस्यों से अपेक्षित सहयोग प्राप्त करती है।

(3) परिश्रमी होना:
गृह-कार्यों को करने के लिए प्रत्येक गृहिणी को परिश्रमी होना चाहिए। इसके लिए गृहिणी को सामान्य स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए।

(4) चरित्रवान होना:
अच्छे चरित्र को बच्चों पर व परिवार के अन्य सदस्यों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। अतः गृहिणी का चरित्रवान होना अनिवार्य है।

(5) कार्य-कुशलता:
गृह की सुयवस्था के लिए गृहिणी का गृह-कार्यों में निपुण होना अत्यन्त आवश्यक है। कुशल गृहिणी के सभी का सही समय पर होते हैं, घर स्वच्छ रहता है तथा परिवार के सभी सदस्य सन्तुष्ट रहते हैं।

(6) भोजन की सुव्यवस्था:
भोजन शरीर के विकास एवं निर्माण का आधार है। रुचिकर एवं पौष्टिक भोजन परिवार के सदस्यों को सन्तुष्ट एवं स्वस्थ रखता है। एक कुशल गृहिणी अपने परिवार के सदस्यों के लिए उनकी आवश्यकता के अनुसार पौष्टिक तथा सन्तुलित आहार की व्यवस्था करती है। परिवार में बच्चों, वृद्धों एवं रोगी सदस्यों के लिए कुछ भिन्न प्रकार के आहार की आवश्यकता हो सकती

(7) गृह-परिचर्या:
प्रत्येक गृहिणी को गृह-परिचर्या का आवश्यक ज्ञान होना चाहिए, जिससे कि वह समय पड़ने पर घर पर परिवार के किसी रोगी सदस्य की उचित देखभाल कर सके।

(8) नियोजन का ज्ञान:
प्रत्येक गृहिणी को सभी गृह-कार्य एक उचित योजना बनाकर करने चाहिए। इससे समय व श्रम की बचत होती है।

(9) आय-व्यय का सन्तुलन:
प्रत्येक गृहिणी को आय-व्यय का सन्तुलन बनाए रखने के लिए बजट बनाना चाहिए। धन को प्रायः आवश्यक कार्यों में ही व्यय करना चाहिए तथा भविष्य के लिए बचत का प्रावधान रखना चाहिए।

(10) परिवार में शान्ति बनाए रखना:
प्रत्येक गृहिणी को महत्त्वपूर्ण कार्य सभी सदस्यों के परामर्श से करने चाहिए। गृहिणी को सभी सदस्यों से यथोक्ति व्यवहार करना चाहिए तथा आपसी मनमुटाव व झगड़ों को हतोत्साहित करना चाहिए। इस दृष्टिकोण को अपनाने से परिवार का वातावरण सौहार्दपूर्ण बना रहता है।

(11) सेवकों के प्रति व्यवहार:
सेवकों को समय पर वेतन देना चाहिए तथा उनके अच्छे कार्यों की प्रशंसा करनी चाहिए। सेवकों के प्रति सन्तुलित व्यवहार रखना चाहिए अर्थात् उनके प्रति न तो अधिक कठोर व्यवहार करना चाहिए और न ही उन्हें आवश्यकता से अधिक ढील ही दी जानी चाहिए।

(12) अतिथि सत्कार:
प्रत्येक गृहिणी को अतिथियों का समुचित आदर-सत्कार करना चाहिए। इससे परिवार को सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।

(13) पति के प्रति कर्तव्य:
पति की सेवा करना व आज्ञा-पालन करना गृहिणी का सबसे महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है। अच्छे-अच्छे कार्यों के लिए पति को उत्साहित करना, मानसिक व आर्थिक कठिनाइयों में (UPBoardSolutions.com) पति का साहस बढ़ाना, गृहस्थी के दायित्वों के प्रति पति को सदैव सजग रखना इत्यादि ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य हैं, जिनको अपने प्रेमपूर्ण व्यवहार से केवल एक कुशल गृहिणी ही कर सकती है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
एक गृहिणी को अपने कार्यों का विभाजन किस प्रकार करना चाहिए? कार्य-विभाजन से क्या लाभ हैं?
उत्तर:
कार्यों का विभाजन प्रायः निम्नलिखित प्रकार से किया जाता है –

(1) दैनिक कार्य:
बच्चों को प्रतिदिन स्कूल भेजना, घर की सफाई, दोनों समय भोजन व सुबह नाश्ता तैयार करना इत्यादि दैनिक कार्य कहलाते हैं।
(2) साप्ताहिक कार्य: बाजार से साप्ताहिक सामग्री लाना व धोबी को कपड़े देना व लेना आदि प्रायः प्रत्येक परिवार में साप्ताहिक कार्य होते हैं।
(3) मासिक कार्य: मकान का किराया व बिजली-पानी का बिल देना, दूध वाले व समाचार-पत्र वाले का हिसाब करना तथा आय-व्यय का बजट रखना आदि प्रमुख मासिक कार्य हैं।
(4) वार्षिक कार्य: मकान में रंगाई-पुताई करवाना, जीवन बीमा की वार्षिक किश्त देना व आयकर का भुगतान करना इत्यादि प्रमुख वार्षिक कार्य होते हैं।
(5) आकस्मिक कार्य: परिवार में अतिथियों के आने पर उनका आदर-सत्कार, अचानक यात्रा पर जाना, विवाह, किसी सदस्य की अस्वस्थता सम्बन्धी कार्य आदि आकस्मिक कार्य कहलाते हैं।
कार्य-विभाजन के मुख्य लाभ निम्नलिखित हैं

  1. सभी सदस्यों को कार्य अपनी योग्यता के अनुसार मिल जाते हैं।
  2.  घर में व्यवस्था बनी रहती है।
  3.  गृहिणी के श्रम व समय की बचत होती है।

प्रश्न 2:
टिप्पणी लिखिए-गृह-कार्य-व्यवस्था में सहायक उपकरण।
उत्तर:
वर्तमान नगरीय जीवन विभिन्न कारणों से अत्यधिक व्यस्त हो गया है। प्रत्येक शहरी व्यक्ति समय की कमी से परेशान है। इस तथ्य का गम्भीर प्रभाव गृह-कार्य-व्यवस्था पर भी पड़ा है। अब गृह-कार्यों को करने के लिए सीमित समय ही उपलब्ध हो पाता है। इस स्थिति में स्वाभाविक ही था कि गृह-कार्यों को करने के लिए यथासम्भव अधिक-से-अधिक उपकरणों को खोजा जाता। वैज्ञानिक प्रगति ने इस क्षेत्र में विशेष सहायता प्रदान की तथा अनेक ऐसे उपकरण दिए जो गृह-कार्यों को कम समय तथा कम श्रम द्वारा पूरा करने में सहायक होते हैं। घरेलू कार्यों में दो प्रकार के कार्य नियमित रूप से किए जाते हैं। ये कार्य हैं–रसोई एवं पाक-क्रिया सम्बन्धी कार्य तथा घर (UPBoardSolutions.com) की सफाई सम्बन्धी कार्य। इन दोनों ही वर्गों के कार्यों को करने के लिए विभिन्न ऐसे उपकरण तैयार किए जा चुके हैं जो समय, श्रम तथा धन की बचत में सहायक होते हैं। इनमें से रसोईघर में उपयोग में आने वाले मुख्य उपकरण हैं-कुकर, विद्युत चालित केतली, टोस्टर, मिक्सर ग्राइण्डर, गैस का चूल्हा, ओवन, फ्रिज आदि। इनके अतिरिक्त घर की सफाई के लिए उपयोगी उपकरण हैं-वैक्यूम क्लीनर, कारपेट स्वीपर, बर्तन धोने की मशीन, कपड़े धोने की मशीन आदि। ये सभी उपकरण गृह-कार्यों को कम समय, कम श्रम तथा कम खर्चे में पूरी कर देते हैं। अतः इन सभी उपकरणों को गृह-कार्य-व्यवस्था में सहायक उपकरण माना जाता है।

प्रश्न 3:
गृह-कार्य-व्यवस्था का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
गृह-कार्य-व्यवस्था के महत्त्व को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है

  1.  इससे परिवार के सभी सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।
  2.  पारिवारिक सदस्यों के मध्य कार्यों के विभाजन से उनकी कार्यक्षमता का उचित उपयोग होता है, श्रम का विभाजन होता है तथा सभी सदस्य सन्तोष का अनुभव करते हैं।
  3.  उपयुक्त कार्य-व्यवस्था के फलस्वरूप परिवार में आर्थिक सन्तुलन बना रहता है।
  4.  परिवार के सदस्यों के मध्य सद्भावना बनी रहती है।
  5. रहन-सहन का स्तर सुधरता है तथा परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है।

प्रश्न 4:
गृह-कार्यों में परिवार के सदस्यों के सहयोग का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
कोई भी गृहिणी घर के सभी कार्यों को अकेले नहीं कर सकती। अपने मधुर व्यवहार एवं कार्य लेने की योग्यता के आधार पर वह परिवार के अन्य सदस्यों का सहयोग प्राप्त करती है। वह सदस्यों के मध्य उनकी योग्यता एवं रुचि के अनुसार कार्यों का विभाजन करती है, जिसके फलस्वरूप कार्य कम समय में व अधिक कुशलतापूर्वक सम्पन्न होते हैं। इस प्रकार सदस्यों के सहयोग से गृह-कार्यों में श्रम व समय की बचत होती है तथा कार्यकुशलता में वृद्धि होती है।

प्रश्न 5:
गृह-कार्य-व्यवस्था को पारिवारिक आय किस प्रकार प्रभावित करती है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गृह-कार्य-व्यवस्था को प्रभावित करने वाले कारकों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथा प्रबल कारक है-पारिवारिक आय। समुचित पारिवारिक आय के अभाव में गृह-कार्य-व्यवस्था सुचारू हो ही नहीं सकती। वास्तव में गृह-कार्य के लिए विभिन्न भौतिक साधन अनिवार्य होते हैं। भौतिक साधनों को अर्जित करने के लिए धन की आवश्यकता होती है तथा धन की प्राप्ति आय के माध्यम से होती है। आये से आशय है-एक निश्चित (UPBoardSolutions.com) अवधि में अर्जित वह धनराशि जो आर्थिक प्रयासों के परिणामस्वरूप प्राप्त होती है तथा जिसमें अन्य सुविधाएँ; जैसे-नि:शुल्क मकान, नि:शुल्क चिकित्सा तथा नि:शुल्क शिक्षा आदि भी सम्मिलित रहती हैं।

गृह-कार्य-व्यवस्था के लिए आय के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहा जा सकता है कि यदि परिवार की आय अपर्याप्त है, तो पर्याप्त सूझ-बूझ, कार्य-कुशलता तथा परिवार के सदस्यों में सहयोग होने पर भी गृह-कार्य-व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं चल सकती, क्योंकि गृह-कार्यों के लिए आवश्यक भौतिक साधनों को अर्जित करने के लिए पारिवारिक आय अनिवार्य है। उदाहरण के लिए यदि परिवार की आय पर्याप्त है, तो गृह-कार्य-व्यवस्था को उत्तम बनाने के लिए श्रम एवं समय की बचत करने वाले विभिन्न उपकरण खरीदे जा सकते (UPBoardSolutions.com) हैं तथा उनके माध्यम से गृह-कार्य सरलतापूर्वक ठीक समय पर पूरे किए जा सकते हैं। इसके विपरीत, यदि परिवार की आय कम है, तो पर्याप्त कार्य-कुशल गृहिणी भी अपने परिवार को अच्छा एवं पौष्टिक आहार तक उपलब्ध नहीं करा सकती, क्योंकि उसके लिए भी पर्याप्त खाद्य-सामग्री चाहिए।

उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि उत्तम गृह-व्यवस्था के लिए पारिवारिक आय पर्याप्त होनी चाहिए, परन्तु पर्याप्त आय होने पर भी सूझ-बूझ, कार्य-कुशलता, लगन तथा परिवार के सदस्यों के पारस्परिक सहयोग का भी विशेष महत्त्व होता है।

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प्रश्न 6:
टिप्पणी लिखिए-परिवार कल्याण तथा गृह-कार्य-व्यवस्था।
उत्तर:
गृह-कार्य-व्यवस्था को प्रभावित करने वाले कारकों में से एक है-परिवार कल्याण। परिवार कल्याण अपने आपमें एक दृष्टिकोण है, जिसके अन्तर्गत परिवार के सर्वांगीण हितों को ध्यान में रखा जाता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार परिवार के सभी सदस्यों के लिए पर्याप्त तथा सन्तुलित आहार, शिक्षा, चिकित्सा तथा मनोरंजन सम्बन्धी सुविधाएँ उपलब्ध होनी चाहिए। उत्तम आवास तथा स्वास्थ्य में सहायक रहन-सहन की दशाएँ भी परिवार-कल्याण के लिए आवश्यक मानी जाती हैं। परिवार कल्याण के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ही परिवार को सीमित रखने का सुझाव दिया जाता है। । परिवार कल्याण के दृष्टिकोण को अपना लेने की स्थिति में (UPBoardSolutions.com) गृह-कार्य-व्यवस्था को भी उसी के अनुरूप ढालना पड़ता है। परिवार के सभी सदस्यों को परिवार के कल्याण सम्बन्धी कार्यों के प्रति जागरूक होना पड़ता है। बच्चों की उत्तम शिक्षा के लिए कुछ अतिरिक्त प्रयास करने पड़ते हैं। बच्चों के स्वास्थ्य के विकास के लिए भी समय एवं धन का व्यय करना पड़ता है। इसके साथ-साथ परिवार के सभी सदस्यों के स्वस्थ मनोरंजन के लिए कुछ अतिरिक्त धन की आवश्यकता होती है तथा समय का सूझ-बुझपूर्वक नियोजन भी करना पड़ता है। वैसे यह सत्य है कि परिवार कल्याण के दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए ही गृह-कार्य-व्यवस्था का निर्धारण किया जाना चाहिए। गृह-कार्य-व्यवस्था तो अपने आप में साधन है। इस साधन को अपनाकर जिस लक्ष्य को प्राप्त करना है, वह है- परिवार कल्याण।

प्रश्न 7:
परिवार के सदस्यों की संख्या तथा कार्य-व्यवस्था में क्या सम्बन्ध है? या ”परिवार की सदस्य-संख्या गृह-कार्य-व्यवस्था को प्रभावित करती है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
समस्त गृह-कार्य मुख्य रूप से परिवार के सदस्यों द्वारा ही किए जाते हैं। इसके साथ यह भी सत्य है कि समस्त गृह-कार्य परिवार के सदस्यों के लिए होते हैं अर्थात् परिवार के सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही समस्त गृह-कार्य किए जाते हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि परिवार के सदस्यों की संख्या तथा गृह-कार्य-व्यवस्था के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। यदि किसी परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होती है अर्थात् परिवार का आकार बड़ा होता है, तो निश्चित रूप से उस परिवार के सदस्यों को अधिक गृह-कार्य करने पड़ते हैं। उदाहरण के लिए-बड़े आकार के परिवार के लिए गृहिणी को अधिक मात्रा में भोजन तैयार करना पड़ता है तथा अधिक वस्त्रों को धोना पड़ता है तथा अन्य कार्य भी अधिक करने पड़ते हैं। इस स्थिति में यदि परिवार (UPBoardSolutions.com) के सदस्यों के कार्यों का समुचित विभाजन नहीं होता, तो परिवार के कुछ सदस्यों पर कार्य का अधिक बोझा पड़ जाता है तथा ऐसे में गृह-कार्य-व्यवस्था अस्त-व्यस्त भी हो सकती है। इसके विपरीत, यदि समस्त गृह-कार्यों को परिवार के सभी सदस्यों में उचित ढंग से विभाजित कर लिया जाए, तो समस्त कार्य सरलता से तथा शीघ्र ही सम्पन्न हो सकते हैं। यदि परिवार के सदस्यों की संख्या कम हो तो उस स्थिति में समस्त गृह-कार्य निश्चित रूप से उन्हीं सदस्यों को करने पड़ते हैं। इस स्थिति में विशेष सूझ-बूझ की आवश्यकता होती है।

समस्त कार्यों को नियोजित तथा सुव्यवस्थित ढंग से करना पड़ता है। कम सदस्य संख्या वाले परिवार कुछ कार्यों को परिवार के बाहर की संस्थाओं द्वारा भी करवा लेते हैं। उदाहरण के लिए–लाण्ड्री से कपड़े धुलवाना, कुछ डिब्बा बन्द भोज्य सामग्रियाँ इस्तेमाल करना तथा घर की सफाई व्यवस्था के लिए मेहरी रखना आदि। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि कम सदस्य संख्या (UPBoardSolutions.com) वाले परिवारों में कोई भी सदस्य सामान्य रूप से कामचोर नहीं होता। इस स्थिति में गृह-कार्य-व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहती है। इसके विपरीत, अधिक सदस्य संख्या वाले परिवारों में कुछ सदस्य कामचोर भी होते हैं। ऐसे में परिवार में तनाव तथा कटुता का वातावरण बना रहता है तथा गृह-कार्य-व्यवस्था भी उत्तम नहीं बन पाती।

प्रश्न 8:
परिवार के सदस्यों का व्यवहार गृह-कार्य-व्यवस्था को किस प्रकार प्रभावित करता है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गृह-कार्य-व्यवस्था पर प्रभाव डालने वाले कारकों में परिवार के सदस्यों का व्यवहार भी महत्त्वपूर्ण कारक है। वास्तव में, परिवार के सदस्यों के व्यवहार से ही कार्य बनते या बिगड़ते हैं। । परिवार में अनेक सदस्य होते हैं तथा परिवार के सभी सदस्य परिवार की कार्य-व्यवस्था में भाग लेते हैं। परिवार के सभी सदस्यों में पारस्परिक सम्बन्ध होते हैं। परिवार के सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्ध इनके पारस्परिक व्यवहारों द्वारा निर्धारित होते हैं। यदि परिवार के सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्ध मधुर, सहयोगात्मक तथा सामंजस्यपूर्ण होते हैं, तो गृह-कार्य-व्यवस्था अच्छी बनी रहती है। इसके विपरीत, यदि परिवार के सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्ध कटु, तनावपूर्ण (UPBoardSolutions.com) तथा असहयोगात्मक हों, तो निश्चित रूप से परिवार की कार्य-व्यवस्था अच्छी नहीं रह सकती। इस प्रकार के पारिवारिक सम्बन्धों की स्थिति में गृह-कार्य-व्यवस्था बिगड़ जाती है तथा कोई भी कार्य सुचारू रूप से नहीं हो पाता। परिवार के सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्धों को सौहार्दपूर्ण बनाने के लिए आवश्यक है कि परिवार के प्रत्येक सदस्य का व्यवहार उत्तम हो।

परिवार के किसी भी सदस्य द्वारा इस प्रकार का व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए कि किसी अन्य सदस्य की भावनाओं को ठेस पहुँचे। परिवार के सभी सदस्यों का अन्य सदस्यों के प्रति मधुर व्यवहार होना चाहिए। इस प्रकार के मधुर व्यवहार गृह-कार्य-व्यवस्था को उत्तम बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं। परिवार में कुछ वरिष्ठ सदस्यों द्वारा नियन्त्रणकारी व्यवहार भी किया जाना चाहिए। इस प्रकार का नियन्त्रणकारी व्यवहार भी (UPBoardSolutions.com) गृह-कार्य-व्यवस्था पर अनुकूल प्रभाव डालता है। परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त घर के नौकरों के प्रति भी सन्तुलित व्यवहार होना चाहिए अर्थात् नौकरों के प्रति न तो अधिक कठोर व्यवहार होना चाहिए और न अधिक कोमलता का। नौकरों के प्रति सन्तुलित व्यवहार होने पर ही वे गृह-कार्य-व्यवस्था में समुचित तथा कुशलतापूर्वक योगदान प्रदान करते हैं।

प्रश्न 9:
परिवार के सदस्यों की अभिरुचि का गृह कार्य-व्यवस्था से क्या सम्बन्ध है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
परिवार के सदस्यों की अभिरुचियाँ भी गृह-कार्य-व्यवस्था को प्रभावित करती हैं। अभिरुचि एक व्यक्तिगत गुण या विशेषता होती है। व्यक्ति की किसी कार्य के प्रति रुचि तथा उसे सीखने की क्षमता को सम्मिलित रूप से अभिरुचि कहते हैं। अभिरुचि के लिए कार्य के प्रति रुचि तथा कार्य करने की योग्यता दोनों का ही होना आवश्यक है।
उत्तम गृह-कार्य-व्यवस्था को प्राप्त करने के लिए परिवार के सदस्यों की अभिरुचियों को ध्यान में रखना नितान्त आवश्यक होता है। गृह-कार्यों का विभाजन परिवार के सदस्यों की (UPBoardSolutions.com) अभिरुचियों के अनुसार ही किया जाना चाहिए। परिवार के प्रत्येक सदस्य को गृह-कार्य-व्यवस्था के अन्तर्गत उसकी अभिरुचि के अनुकूल कार्य ही सौंपना चाहिए। अभिरुचि के अनुकूल कार्य सौंपने पर सम्बन्धित कार्य उत्तम एवं शीघ्र हो जाता है तथा साथ-साथ कार्य करने वाला भी प्रसन्न तथा अपने कार्य से सन्तुष्ट रहा करता है। इस स्थिति में गृह-कार्य-व्यवस्था उत्तम रहती है तथा परिवार का वातावरण भी अच्छा एवं उत्साहवर्द्धक रहता है। इसके विपरीत, यदि परिवार के सदस्यों को उनकी अभिरुचि के विरुद्ध कार्य सौंप दिए जाएँ तो वे न तो सम्बन्धित कार्य को ही अच्छे ढंग से कर पाते हैं और न ही उन्हें सम्बन्धित कार्य को करने में किसी प्रकार की प्रसन्नता ही होती है। (UPBoardSolutions.com) ऐसी स्थिति में गृह-कार्य जैसे-तैसे पूरे तो हो सकते हैं। परन्तु न तो गृह-कार्य-व्यवस्था उत्तम रह सकती है और न ही परिवार के सदस्य प्रसन्न रह सकते हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए सुझाव दिया जाता है कि जहाँ तक हो सके परिवार के प्रत्येक सदस्य को उसकी अभिरुचि के अनुकूल ही गृह-कार्य सौंपने चाहिए।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
घर-परिवार के सन्दर्भ में कार्य-व्यवस्था से क्या आशय है?
उत्तर:
घर-परिवार के सम्बन्ध में कार्य-व्यवस्था से आशय है-घर तथा परिवार से सम्बन्धित समस्त कार्यों को सुनियोजित ढंग से पूरा करना।

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प्रश्न 2:
गृह-कार्य व्यवस्था के प्रमुख उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
गृह-कार्य व्यवस्था के प्रमुख उद्देश्य हैं-समय, श्रम तथा धन की समुचित बचत करना।

प्रश्न 3:
गृह-कार्य-व्यवस्था के लक्ष्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
गृह-कार्य व्यवस्था का लक्ष्य है-परिवार के रहन-सहन के स्तर को उन्नत बनाना। इसके माध्यम से पारिवारिक जीवन को सुखी एवं सरल बनाया जाता है।

प्रश्न 4:
गृह-कार्य-व्यवस्था को सुचारू एवं उत्तम बनाने के उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
गृह-कार्य-व्यवस्था को सुचारु एवं उत्तम बनाने के उपाय हैं-परिवार के सभी सदस्यों द्वारा गृह-कार्यों में अपनी शक्ति, क्षमता, बुद्धि एवं रुचि के अनुसार कुशलतापूर्वक यथासम्भवं योगदान देना।

प्रश्न 5:
गृह-कार्य-व्यवस्था में सहायक चार मुख्य कारक बताइए।
उत्तर:
गृह-कार्य-व्यवस्था में सहायक चार मुख्य कारक हैं

  1.  समस्त गृह-कार्यों का समुचित नियोजन,
  2. गृह-कार्यों में परिवार के सभी सदस्यों का यथासम्भव सहयोग प्रदान करना,
  3. उत्तम कार्य-विधियों का ज्ञान तथा
  4.  समस्त आवश्यक साधनों का उपलब्ध होना।

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प्रश्न 6:
गृह-कार्य-व्यवस्था में सहायक मुख्य उपकरणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
गृह-कार्य-व्यवस्था में सहायक मुख्य उपकरण हैं-कुकर, मिक्सरे-ग्राइण्डर, टोस्टर, ओवन, फ्रिज, वैक्यूम क्लीनर, बर्तन धोने की मशीन तथा कपड़े धोने की मशीन।।

प्रश्न 7:
अभिरुचि से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
किसी कार्य के प्रति रुचि तथा उसे सीखने की क्षमता को सम्मिलित रूप से अभिरुचि कहते

प्रश्न 8:
परिवार के सदस्यों की अभिरुचि के अनुसार कार्य सौंपने से क्या लाभ होता है?
उत्तर:
परिवार के सदस्यों को अभिरुचि के अनुसार कार्य सौंपने पर सभी कार्य अच्छे ढंग से तथा शीघ्र ही पूरे हो जाते हैं।

प्रश्न 9:
कुछ सार्वजनिक अथवा सामुदायिक सुविधाएँ बताइए।
उत्तर:

  1. डाकघर एवं बैंक,
  2.  शिक्षण संस्थाएँ,
  3. बाजार,
  4. चिकित्सा सुविधा आदि।

प्रश्न 10:
नियोजित परिवार के सुखी रहने के कारण बताइए।
उत्तर:

  1. सदस्यों के शारीरिक व मानसिक विकास के अधिक अवसरों की उपलब्धि।
  2.  बच्चों को शिक्षा के अच्छे अवसर।
  3. आर्थिक क्षमता एवं सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि।

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प्रश्न 11:
गृह-कार्य-व्यवस्था को कुप्रभावित करने वाले मुख्य कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
गृह-कार्य-व्यवस्था को कुप्रभावित करने वाले मुख्य कारक हैं

  1.  सूझ-बूझ की न्यूनता,
  2.  आवश्यक साधनों का अभाव,
  3.  पारिवारिक कलह।

प्रश्न 12:
घर पर कार्य करने वाले नौकरों के प्रति कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए?
उत्तर:
घर पर कार्य करने वाले नौकरों के प्रति सन्तुलित व्यवहार करना चाहिए, अर्थात् उनके प्रति न तो कठोर व्यवहार किया जाना चाहिए और न ही उन्हें आवश्यकता से अधिक ढील दी जानी चाहिए।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न:
प्रत्येक प्रश्न के चार वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। इनमें से सही विकल्प चुनकर लिखिए

(1) गृह-कार्य-व्यवस्था से आशय है
(क) परिवार के लिए अधिक धन जुटाना,
(ख) घर की सफाई एवं सजावट की व्यवस्था करना,
(ग) घर-परिवार के कार्यों को सुचारू रूप से चलाना,
(घ) घर के कार्य जैसे-तैसे पूरे कर देना।

(2) गृह-कार्य-व्यवस्था को प्रभावित करने वाला मुख्यतम कारक है
(क) मधुर व्यवहार,
(ख) पारिवारिक आय का अधिक होना,
(ग) सुनियोजित ढंग से कार्य करना,
(घ) सहयोगपूर्वक कार्य करना।

(3) भौतिक साधनों में सर्वश्रेष्ठ साधन है
(क) खाद्य पदार्थ,
(ख) घरेलू उपकरण,
(ग) वस्त्र,
(घ) धनः

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(4) उत्तम कार्य-व्यवस्था के लिए गृहिणी को मिलना चाहिए
(क) पुरस्कार,
(ख) प्रोत्साहन,
(ग) धन,
(घ) कुछ नहीं।

5. कार्यों को कुशलतापूर्वक करने के लिए उपयोग करना चाहिए
(क) धन की,
(ख) उपयोगी यन्त्रों एवं उपकरणों को,
(ग) परिश्रम को,
(घ) समय का।

(6) गृहिणी को पारिवारिक सदस्यों के मध्य कार्य-विभाजन का आधार रखना चाहिए
(क) उनकी कार्यक्षमता,
(ख) उनकी योग्यता,
(ग) उनकी योग्यता एवं कार्यक्षमता,
(घ) उनकी स्वयं की इच्छा।

(7) गृह-कार्य-व्यवस्था का स्तर निर्भर करता है
(क) अधिक आय पर,
(ख) धन की मितव्ययिता पर,
(ग) समय तथा श्रम बचाने वाले साधनों पर,
(घ) इनमें से कोई नहीं।

(8) रसोईघर में श्रम की बचत करने वाला उपकरण है
(क) टोस्टर,
(ख) हीटर,
(ग) प्रेशर कुकर,
(घ) मिक्सर-ग्राइण्डर।

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9. बिना पूर्व सूचना के मेहमान आ जाने पर किए जाने वाले अतिरिक्त कार्यों को कहा जाता है
(क) अनावश्यक कार्य,
(ख) थकाने वाला कार्य,
(ग) आकस्मिक कार्य,
(घ) वार्षिक कार्य।

उत्तर:
(1). (ग) घर-परिवार के कार्यों को सुचारू रूप से चलाना,
(2). (ग) सुनियोजित ढंग से कार्य करना,
(3). (घ) धन,
(4). (ख) प्रोत्साहन,
(5). (ख) उपयोगी यन्त्रों एवं उपकरणों का,
(6). (ग) उनकी योग्यता एवं कार्यक्षमता,
(7). (ग) समय तथा श्रम बचाने वाले साधनों पर,
(8). (घ) मिक्सर-ग्राइण्डर,
(9). (ग) आकस्मिक कार्य।

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UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 11 Constructions

UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 11 Constructions (रचनाएँ)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 9 Maths. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 11 Constructions (रचनाएँ).

प्रश्नावली 11.1

प्रश्न 1. एक दी हुई किरण के प्रारम्भिक बिन्दु पर 90° के कोण की रचना कीजिए और कारण सहित रचना की पुष्टि कीजिए।
हल :
दिया है : AB एक दी हुई किरण है जिसका प्रारम्भिक बिन्दु A है।
रचना करनी है: किरण AB के बिन्दु A पर 90° के कोण की।
विश्लेषण : हम 60° का कोण बना सकते हैं।
इस कोण के साथ 60° का एक संलग्न कोण बनाकर उसे समद्विभाजित करें और इसमें जोड़ दें तो 90° का कोण प्राप्त होगा।
अर्थात 90° = 30° + 60°
रचना :

  1. किरण AB खींची।
  2. A को केन्द्र मानकर किसी त्रिज्या का चाप खींचा जो किरण AB को बिन्दु P पर काटता है।
  3. अब P को केन्द्र मानकर उसी त्रिज्या का एक चाप खींचा जो पहले चाप को बिन्दु Q पर काटता है। ∠PAQ = 60° है।
  4. पुनः Q को केन्द्र मानकर उसी (AP) त्रिज्या से एक अन्य चाप खींचा जो पहले चाप को बिन्दु R पर काटे। ∠QAR = 60° है।
  5. बिन्दु Q तथा R को केन्द्र मानकर चाप खींचे जो परस्पर बिन्दु C पर काटते हैं। रेखाखण्ड CA खींचा। ∠CAQ = 30° है।

प्रकार ∠CAB = ∠BAQ + ∠QAC = 60° + 30° = 90° हुआ।
अत: ∠CAB अभीष्ट कोण है।
UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 11 Constructions img-1

प्रश्न 2.
एक दी हुई किरण के प्रारम्भिक बिन्दु पर 45° के कोण की रचना कीजिए और कारणसहित रचना की पुष्टि कीजिए।
हुल :
दिया है : OP एक दी हुई किरण है जिसका प्रारम्भिक बिन्दू 0 है।
रचना करनी है : किरण OP के बिन्दु 0 पर 45° के कोण की।
विश्लेषण : 45° = [latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex] x 90°
अत: 90° का कोण बनाकर उसे समद्विभाजित करके 45° का कोण प्राप्त होगा।
रचना :

  1. किरण OP खींची।
  2. O को केन्द्र मानकर किसी त्रिज्या OA का एक चाप लगाया जो किरण OP को A पर काटता है।
  3. A को केन्द्र मानकर उसी त्रिज्या का एक चाप खींचा जो पहले चाप को B पर काटता है।
  4. B को केन्द्र मानकर उसी त्रिज्या का एक अन्य चाप खींचा जो केन्द्र O वाले चाप को C पर काटता है।
  5. B तथा C को केन्द्र मानकर किसी त्रिज्या के चाप खींचे जो परस्पर बिन्दु R पर काटते हैं। रेखाखण्ड OR खींचा जो चाप BC को D पर काटता है। ∠POR = 90° है।
  6. बिन्दुओं A तथा D को केन्द्र मानकर किसी त्रिज्या के दो। चाप खींचे जो परस्पर बिन्दु Q पर काटते हैं। रेखाखण्ड OQ खींचा। ∠POQ = 45° क्योंकि OQ, ∠POR = 90° का समद्विभाजक है।

अतः ∠POQअभीष्ट कोण है।
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प्रश्न 3. निम्नलिखित मापों के कोणों की रचना कीजिए :
(i) 30°
(ii) 22[latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex]°
(iii) 15°
हल :
(i) रचना करनी है : 30° के कोण की। विश्लेषण : 30° = [latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex] x 60°
रचना :

  1. एक किरण OA खींची।
  2. किरण OA के अन्त्य बिन्दु O को केन्द्र मानकर कोई त्रिज्या OB लेकर एक चाप लगाया जो GA को B पर काटता है।
  3. अब B को केन्द्र मानकर उसी त्रिज्या से एक अन्य चाप खींचा जो पहले चाप को बिन्दु,C पर काटता है। ∠AOC = 60° है।
  4. बिन्दुओं B तथा C को केन्द्र मानकर किसी त्रिज्या के दो चाप खींचे जो परस्पर बिन्दु D पर काटते हैं।
  5. ∠AOC का अर्धक (समद्विभाजक) OD खींचा। तब ∠AOD= 30° जो कि अभीष्ट कोण है।
    UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 11 Constructions img-3

(ii) रचना करनी है : 22[latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex]° के कोण की।
विश्लेषण : 90° के कोण का समद्विभाजक खींचने पर 45° का कोण प्राप्त होता है और इस 45° के कोण का समद्विभाजक खींचने पर 22[latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex]° का कोण प्राप्त होगा।
22[latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex]° = [latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex] x [latex]\frac { 90 }{ 2 }[/latex] = [latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex] x 45°
रचना :

  1. एक किरण OA खींची।।
  2. किरण OA के अन्त्य बिन्दु 0 को केन्द्र मानकर OP त्रिज्या का एक चाप खींचा जो किरण OA को बिन्दु Pपर काटता है।
  3. P को केन्द्र मानकर OP त्रिज्या से एक चाप खींचा जो पहले चाप को Q पर काटता है।
  4. Q को केन्द्र मानकर उसी OP त्रिज्या का चाप खींचा जो चाप PQ को R पर काटता है।
  5. Q और R को केन्द्र मानकर चाप खींचे जो परस्पर T पर काटता है। रेखाखण्ड OT खींचा जो चाप PQR को S पर काटता है। ∠AOT = 90° है।।
  6. बिन्दुओं P तथा S को केन्द्र मानकर किसी त्रिज्या के दो चाप खींचे जो परस्पर बिन्दु C पर काटते हैं।
  7. ∠AOT का समद्विभाजक OC खींचा। जो चाप PQR को U पर काटता है। ∠AOC = 45° है।
  8. बिन्दुओं P तथा U को केन्द्र मानकर किसी त्रिज्या के दो चाप खींचे जो परस्पर बिन्दु B पर काटते हैं।
  9. ∠POU का समद्विभाजक OB खींचा।

अतः ∠AOB = 22[latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex]° जो कि अभीष्ट कोण है।
UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 11 Constructions img-4
(iii) रचना करनी है : 15° के कोण की।
विश्लेषण : 60° के कोण का समद्विभाजक 30° का कोण बनाया। अब 30°C के कोण का समद्विभाजक 15° का कोण बनाया।
अर्थात 15° = [latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex] ([latex]\frac { 60 }{ 2 }[/latex]) = [latex]\frac { 30 }{ 2 }[/latex]
रचना :

  1. किरण OA के अन्त्य बिन्दु 0 से किरण OA पर ∠AOC = 60° इस अध्याय की रचना-3 में वर्णित विधि से बनाया।
  2. ∠AOC का समद्विभाजक OD खींचा। ∠AOD = 30° है जिसे इस प्रश्न के भाग (i) में वर्णित विधि से बनाया।
  3. बिन्दुओं B तथा P को केन्द्र मानकर किसी त्रिज्या के दो चाप खींचे जो परस्पर बिन्दु E पर काटते हैं।
  4. अब ∠AOD का समद्विभाजक OE खींचा। तब ∠AOE = 15° जो कि अभीष्ट कोण है।
    UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 11 Constructions img-5

प्रश्न 4. निम्नलिखित कोणों की रचना कीजिए और चाँदे द्वारा मापकर पुष्टि कीजिए :
(i) 75°
(ii) 105°
(iii) 135°
हल :
(i) रचना करनी है : 75° के कोण की।
विश्लेषण : 75° = 90° – 15° = 90° – (30° के कोण [latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex])
रचना :

  1. प्रश्न-1 की भाँति वर्णित विधि से ∠POQ= 90° बनाया और किरण OB खींची।
  2. बिन्दुओं B तथा T को केन्द्र मानकर किसी त्रिज्या के दो चाप खींचे जो परस्पर बिन्दु S पर काटते हैं।
  3. ∠BOQ = ∠POQ – ∠POB = 90° – 60° = 30° का। समद्विभाजक OS खींचा। जिससे ∠QOS = 15°
  4. स्पष्ट है कि ∠POS = ∠POQ – ∠QOS = 90° – 15° = 75°
    अतः ∠POS अभीष्ट कोण है।
    UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 11 Constructions img-6

(ii) रचना करनी है : 105° के कोण की।
विश्लेषण : 60° + 30° + (30° x [latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex]) = 105°
अथवा 90 अथवा 90° + (30° x [latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex]) = 105°
रचना :

  1. प्रश्न-1 की भाँति वर्णित विधि से सर्वप्रथम ∠POQ = 90° बनाया।
  2. किरण OC खींची। (स्पष्ट है कि ∠QOC = 30°)
  3. बिन्दुओं T तथा C को केन्द्र मानकर किसी त्रिज्या के दो चाप खींचे जो परस्पर बिन्दु S पर काटते हैं।
  4. ∠QOC का समद्विभाजक OS खींचा जिससे ∠QOS = 15°।
    स्पष्ट है कि ∠POS = ∠POQ + ∠QOS = 90° + 15° = 105°
    इस प्रकार, ∠POS = 105° का अभीष्ट कोण है।
    UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 11 Constructions img-7

(iii) रचना करनी है : 135° के कोण की।
विश्लेषण : 135° = 90° + 45°
रचना :

  1. रेखा QP खींची और इस पर एक बिन्दु 0 लिया।
  2. प्रश्न-1 की भाँति वर्णित विधि से O से OR ⊥ QP खींची जिससे ∠POR = 90°
  3. प्रश्न-2 की भाँति वर्णित विधि से ∠QOR का समद्विभाजक OS खींचा।
    ∠ROS = [latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex] x ∠QOR = [latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex] x 90° = 45° (∠POR = ∠QOR = 90°]
    तथा ∠POS = ∠POR + ∠ROS = 90° + 45° = 135°
    तब ∠POS अभीष्ट 135° का कोण है।
    UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 11 Constructions img-8

प्रश्न 5. एक समबाहु त्रिभुज की रचना कीजिए, जब इसकी भुजा दी हो तथा कारण सहित रचना कीजिए।
हल :
दिया है : समबाहु त्रिभुज ABC की भुजा BC
रचना करनी है : समबाहु त्रिभुज ABC की।
रचना :

  1. रेखाखण्ड BC दी गई माप का खींचा।
  2. B तथा Cको केन्द्र मानकर BC त्रिज्या के दो चाप लगाए जो परस्पर A पर काटते हैं।
  3. रेखाखण्ड AB तथा AC खींचे।
    त्रिभुज ABC अभीष्ट समबाहु त्रिभुज है।
    उपपत्ति : AB = BC और AC = BC (रचना से)
    ⇒ AB = BC = AC
    त्रिभुज ABC समबाहु ही है।
    UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 11 Constructions img-9

प्रश्नावली 11.2

UP Board Solutions

प्रश्न 1. एक त्रिभुज ABC की रचना कीजिए जिसमें BC = 7 सेमी, ∠B = 75° और AB + AC = 13 सेमी हो।
हल :
दिया है : ∆ABC में BC = 7 सेमी, ∠B = 75° और AB+ AC = 13 सेमी है।
रचना करनी है : ∆ABC की।
रचना :

  1. एक किरण BX खींचकर उसमें से रेखाखण्ड BC = 7.0 सेमी काटा।
  2. BC के बिन्दु B से BC पर ∠CBY = 75° बनाया।
  3. BY में से BD = 13 सेमी काटा।
  4. CD को मिलाया और उसका लम्ब समद्विभाजक खींचा जिसने BD को बिन्दु A पर काटा।
  5. रेखाखण्ड AC खींचा।
    ∆ABC अभीष्ट त्रिभुज है।
    UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 11 Constructions img-10

प्रश्न 2. एक त्रिभुज ABC की रचना कीजिए जिसमें BC = 8 सेमी, ∠B = 45° और AB – AC = 3.5 सेमी हो।
हल :
दिया है : ABC एक त्रिभुज है जिसमें BC = 8 सेमी, ∠B = 45° व AB – AC = 3.5 सेमी है।
रचना करनी है : ∆ABC की।
रचना :

  1. एक रेखाखण्ड BC = 8.0 सेमी खींचा।
  2. बिन्दु B से BC पर ∠XBC = 45° बनाया।
  3. BX में से BD = 3.5 सेमी काटा।
  4. CD को मिलाया।
  5. CD को लम्बे समद्विभाजक खींचा जो बढ़ी हुई BD को A पर काटता है।
  6. AC को मिलाया।
    ∆ABC अभीष्ट त्रिभुज है।
    UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 11 Constructions img-11

प्रश्न 3. एक त्रिभुज PQR की रचना कीजिए जिसमें QR = 6 सेमी, ∠Q = 60° और PR – PQ = 2 सेमी हो।
हल :
दिया है : ∆PQR में, QR = 6 सेमी, ∠Q = 60°, भुजा PQ < PR और PR – PG = 2 सेमी है।
रचना करनी है : ∆PQR की।
रचना :

  1. रेखाखण्ड QR = 6 सेमी खींचा।
  2. Q से QR पर ∠XQR = 60° बनाया।
  3. X को आगे बढ़ाया और उसमें से QS = (PR – PQ) = 2 सेमी काट लिया।
  4. SR को मिलाया।
  5. SR का लम्ब समद्विभाजक खींचा जो OX को P पर काटता है।
  6. रेखाखण्ड PR खींचा। ∆PQR अभीष्ट त्रिभुज है।
    UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 11 Constructions img-12

प्रश्न 4. एक त्रिभुज XYZ की रचना कीजिए, जिसमें ∠Y = 30°, ∠Z = 90° और XY + YZ + ZX = 11 सेमी हो।
हल :
दिया है : ∆XYZ में, ∠Y = 30°, ∠Z = 90° है
तथा XY + YZ + ZX = 11 सेमी है।
रचना करनी है : ∆XYZ की।
रचना :

  1. त्रिभुज की परिमाप (XY + YZ + ZX)= 11 सेमी के बराबर माप का रेखाखण्ड PQ खींचा।
    UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 11 Constructions img-13
  2. P पर ∠RPQ = 30° व Q पर ∠SQP = 90° दिए हुए आधार कोण बनाए।
  3. ∠RPQ व ∠SQP के समद्विभाजक खींचे जो परस्पर शीर्ष X पर काटते हैं।
  4. PX का लम्ब समद्विभाजक खींचा जो PQ को Y पर काटता है।
  5. QX का लम्ब समद्विभाजक खींचा जो PQ को Z पर काटता है।
  6. XY और XZ को मिलाया।
    ∆XYZ अभीष्ट त्रिभुज है।

UP Board Solutions

प्रश्न 5. एक समकोण त्रिभुज की रचना कीजिए जिसका आधार 12 सेमी और कर्ण व अन्य भुजा का योग 18 सेमी हो।
हल :
दिया है : समकोण ∆ABC में आधार BC = 12 सेमी, ∠C = 90°
तथा कर्ण AB व एक अन्य भुजा AC का योग 18 सेमी हो।
रचना करनी है : समकोण ∆ABC की।
रचना :

  1. रेखाखण्ड BC = 12 सेमी खींचा।
  2. बिन्दु C से BC पर ∠BCX = 90° बनाया।
  3. CX में से CD = (AB + AC) = 18 सेमी काट लिया।
  4. रेखाखण्ड BD खींचा।
  5. BD का लम्ब समद्विभाजक खींचा जिसने CD को बिन्दु A पर काटा।
  6. रेखाखण्ड AB खींचा।
    ∆ABC अभीष्ट त्रिभुज है।
    UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 11 Constructions img-13

UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 8 वायु : शुद्ध वायु का महत्त्व एवं संवातन

UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 8 वायु : शुद्ध वायु का महत्त्व एवं संवातन

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
वायु क्या है? इसमें सम्मिलित तत्त्वों का वर्णन कीजिए। शुद्ध वायु स्वास्थ्य के लिए क्यों आवश्यक है?
या
वायु के प्राकृतिक संगठन का विस्तार से वर्णन कीजिए।शुद्ध वायु के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
वायु से प्रत्येक व्यक्ति भली-भाँति परिचित है। भले ही वायु को हम देख नहीं सकते परन्तु प्रत्येक व्यक्ति वायु का अनुभव एवं सेवन करता रहता है। प्राणी-मात्र के जीवन का आधार वायु ही है। वायु के अभाव में किसी प्रकार के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अब प्रश्न उठता है कि वैज्ञानिक (UPBoardSolutions.com) दृष्टिकोण से वायु क्या है? वायु वास्तव में कुछ गैसों का मिश्रण है। गैसों का यह मिश्रण रंगहीन, स्वादहीन तथा गन्धहीन होता है। वायु में भार होता है तथा यह दबाव डालती है। वायु फैल सकती है तथा संकुचित हो सकती है। इसमें विसरण का गुण भी पाया जाता है। वायु हमारी पृथ्वी के चारों ओर एक व्यापक क्षेत्र में हर समय रहती है। इस क्षेत्र को वायुमण्डल कहा जाता है।

वायू का संगठन

एक समय था जब वायु को एक तत्त्व समझा जाता था। उस समय वायु की गिनती पाँच मुख्य तत्त्वों में की जाती थी, परन्तु विभिन्न वैज्ञानिक खोजों के परिणामस्वरूप इस धारणा को बदलना पड़ा। वर्तमान ज्ञान के अनुसार वायु विभिन्न गैसों का मिश्रण मात्र है। वायु में विद्यमान मुख्य गैसें हैं-ऑक्सीजन (UPBoardSolutions.com) तथा नाइट्रोजन। इन दो मुख्य गैसों के अतिरिक्त वायु में कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, ओजोन, हाइड्रोजन, ऑर्गन तथा जलवाष्प भी विद्यमान रहती है। वायु में लगभग पाँचवा भाग ऑक्सीजन होता है। वायु में विद्यमान गैसों का संगठन निम्नवर्णित तालिका द्वारा स्पष्ट हो जाएगा।
UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 8 वायु  शुद्ध वायु का महत्त्व एवं संवातन
वायु के इस संगठन को चित्र द्वारा भी दर्शाया गया है। वायु में विद्यमान विभिन्न गैसों का सामान्य परिचय निम्नवर्णित है
UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 8 वायु  शुद्ध वायु का महत्त्व एवं संवातन
ऑक्सीजन:
वायु में ऑक्सीजन का आयतन लगभग 21% होता है। ऑक्सीजन जीवन के लिए . अति आवश्यक है। इसे प्राण-वायु भी कहते हैं। ऑक्सीजन प्रायः सभी जीवधारियों की श्वसन क्रिया के लिए आवश्यक है। प्राणी हों अथवा पौधे, सभी श्वसन क्रिया के लिए ऑक्सीजन लेते हैं तथा कार्बन डाइऑक्साइड का निष्कासन करते हैं। श्वसन क्रिया में नासिका द्वारा शुद्ध वायु हमारे फेफड़ों में पहुँचती है। फेफड़ों की रुधिर कोशिकाओं में ऑक्सीजन का अवशोषण होता है तथा कार्बन डाइऑक्साइड वायु में छोड़ दी जाती है ताकि बाह्य-श्वसन (UPBoardSolutions.com) द्वारा वायुमण्डल में मुक्त हो जाए। रुधिर द्वारा ऑक्सीजन विभिन्न ऊतकों एवं केशिकाओं में पहुँचती है। यहाँ यह खाद्य के ज्वलन अथवा ऑक्सीकरण में सहायता करती है। इस क्रिया में ऊर्जा उत्पन्न होती है जोकि हमारे शरीर की विभिन्न जैविक क्रियाओं का मूल आधार है। इसके अतिरिक्त वायुमण्डल में उपस्थित ऑक्सीजन अन्य ज्वलन क्रियाओं में भी सहायता करती है। कोयला, लकड़ी, तेल, कपड़ा, कागज आदि सभी पदार्थ ऑक्सीजन की उपस्थिति में ही जलते हैं। इन क्रियाओं में ऑक्सीजन प्रयोग में आती है तथा कार्बन डाइऑक्साइड बनती है। आग के धुएँ में प्राय: कार्बन डाइऑक्साइड व कार्बन मोनोऑक्साइड गैसें होती हैं।

कार्बन डाइऑक्साइड:
वायु में कार्बन डाइऑक्साइड का आयतन लगभग 0.03% होता है। वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा पौधों एवं प्राणियों की श्वसन क्रिया द्वारा तथा वस्तुओं के जलने के फलस्वरूप बढ़ती रहती है। अन्तः श्वसन (प्रश्वसित वायु) तथा बाह्य श्वसन (उच्छ्वसित वायु) क्रिया में वायु की प्रतिशत मात्रा में परिवर्तन निम्न प्रकार से होता है| इस प्रकार हम देखते हैं कि जैसे-जैसे वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि होती है उसी अनुपात में ऑक्सीजन की मात्रा घटती है। यह स्थिति जीवधारियों के लिए घातक हो सकती है। (UPBoardSolutions.com) इससे बचाव करते हैं हरे पौधे। हरे पौधे सूर्य के प्रकाश में कार्बन डाइऑक्साइड व जल को प्रयोग कर अपने भोजन का निर्माण करते हैं। इस क्रिया को प्रकाश-संश्लेषण कहते हैं। इस क्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड प्रयुक्त होती है तथा ऑक्सीजन बाहर निकलती है। इस प्रकार हरे पौधे प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया द्वारा वायुमण्डल में ऑक्सीजन व कार्बन डाइऑक्साइड गैसों की मात्रा में सन्तुलन बनाए रखते हैं।

नाइट्रोजन:
वायुमण्डल में इसकी मात्रा सर्वाधिक (लगभग 78.08%) होती है। प्रत्यक्ष रूप में यह गैस अधिक उपयोगी नहीं है। न तो यह गैस स्वयं जलती है और न ही वस्तुओं के जलने में सहायता करती है। अतः यह एक प्रकार से निष्क्रिय गैस है, परन्तु परोक्ष रूप से यह एक अति महत्त्वपूर्ण गैस है। यह (UPBoardSolutions.com) ऑक्सीजन की ऑक्सीकरण अथवा ज्वलनशील प्रक्रिया की तीव्रता पर अंकुश लगाती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वायुमण्डल में यदि नाइट्रोजन न हो, तो ऑक्सीजन की उपस्थिति में संसार की सभी वस्तुएँ जलकर राख हो जाएँगी।

ओजोन:
यह अन्य गैसों (हाइड्रोजन, ऑर्गन, जलवाष्प आदि) के साथ मिलकर वायु का लगभग 0.94% भाग होती है। यह गैस सूर्य की हानिकारक किरणों का अधिकांश भाग सोखकर पृथ्वी तक नहीं पहुँचने देती है। यह फलों एवं सब्जियों को सड़ने से बचाती है। कुछ रोगों में भी यह लाभकारी पाई गई है। कुल मिलाकर यह गैस मानव जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध हुई है।

जलवाष्प:
यह वायु को नम एवं ठण्डा बनाती है। वायुमण्डल में इसकी प्रतिशत मात्रा स्थान विशेष के तापक्रम पर निर्भर करती है। कम ताप पर इसकी मात्रा अधिक व अधिक ताप पर इसकी मात्रा कम होती है। इसकी वायुमण्डल में प्रतिशत मात्रा को आपेक्षिक आर्द्रता कहते हैं। अधिक आर्द्रता वातावरण को भारी व सीलनयुक्त बनाती है। ऐसा वातावरण (जैसे कि वर्षा ऋतु) स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है, क्योंकि (UPBoardSolutions.com) इसमें मक्खी, मच्छर व अनेक रोगाणु आसानी से पनपते हैं। समुद्रतल से ऊँचाई की ओर (जैसे कि ऊँची पर्वत-श्रृंखलाएँ) बढ़ने पर वायु की संरचना बदलने लगती है। अधिक ऊँचाई पर वायुमण्डल में ऑक्सीजन की प्रतिशत मात्रा घट जाती है। यही कारण है कि ऊँचाई पर पहुँचकर साँस लेने में कठिनाई अनुभव होती है। उपर्युक्त गैसों के अतिरिक्त वायुमण्डल में धूल के कण, रेडियोधर्मी तत्त्वे व अनेक प्रकार के कीटाणु भी पाए जाते हैं।

शुद्ध वायु का महत्त्व

शुद्ध वायु संसार के सभी प्राणियों एवं पेड़-पौधों के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। सभी जीवधारी शुद्ध वायु की उपस्थिति में ही जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण श्वसन क्रिया सम्पादित करते हैं। इसके अतिरिक्त भी शुद्ध वायु से अनेक लाभ हैं, जिनका विस्तृत विवरण अग्रलिखित है

मनुष्यों के लिए उपयोगिता

हमारे जीवन में शुद्ध वायु अनेक रूप में उपयोगी है; जैसे कि

(1) श्वसन क्रिया:
प्रश्वसन क्रिया में हम शुद्ध वायु को नासिका छिद्रों द्वारा फेफड़ों तक खींचते हैं। फेफड़ों में रक्त-केशिकाओं का जाल बिछा होता है। केशिकाओं में उपस्थित रक्त द्वारा वायु से (UPBoardSolutions.com) ऑक्सीजन का अवशोषण होता है तथा कार्बन डाइऑक्साइड का निष्कासन होता है जो कि नि:घसन द्वारा वायुमण्डल में पहुँच जाती है। रक्त संचरण के द्वारा ऑक्सीजन विभिन्न कोशिकाओं तथा ऊतकों तक पहुँचती है तथा खाद्य के ऑक्सीकरण द्वारा ऊर्जा मुक्त करती है। यह मुक्त ऊर्जा मानव शरीर में होने वाली विभिन्न जैविक क्रियाओं के लिए आवश्यक है।

(2) शरीर के ताप को नियमन:
स्वस्थ शरीर का तापमान प्राय: 37° से० के लगभग होता है, जबकि कमरे का तापमान 15°-20° से० तक होता है। अत: कम तापमान वाली वायु जब शरीर को स्पर्श करती है, तो शरीर से कुछ गर्मी लेकर जाती है। इस प्रकार लगातार शरीर की गर्मी अथवा ऊष्मा कम होती रहती है। इसी प्रकार शरीर की त्वचा से पसीने का जब वाष्पीकरण होता है, तो भी शरीर के तापमान में कमी आती है।

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प्रश्न 2:
संवातन से क्या तात्पर्य है? प्राकृतिक साधनों पर आधारित संवातन के विभिन्न उपायों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संवातन का अर्थ घर के वायुमण्डल में उत्पन्न हो जाने वाली गर्मी, नमी तथा स्थिरता को समाप्त अथवा कम कर देने की प्रक्रिया को संवातन कहते हैं। इस क्रिया के अन्तर्गत घर के कमरों से गर्म, नम व अशुद्ध स्थिर वायु का निष्कासन तथा शुद्ध, शुष्क व शीतल वायु का प्रवेश होता है। इस (UPBoardSolutions.com) प्रकार हम कह सकते हैं कि किसी आवासीय स्थल से अशुद्ध वायु के निष्कासन तथा बाहर से शुद्ध वायु के आगमन की समुचित व्यवस्था ही संवातन है। संवातन के परिणामस्वरूप ही किसी आवासीय स्थल में निरन्तर शुद्ध वायु उपलब्ध होती रहती है। व्यक्तिगत स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से संवातन की समुचित व्यवस्था अति आवश्यक है।

प्राकृतिक साधनों पर आधारित संवतन

प्रकृति ने हमारे वातावरण में संवतन की समुचित व्यवस्था की है। प्राकृतिक संवातन मुख्य रूप से वायुमण्डल में होने वाली चूषण, संनयन तथा विसरण नामक क्रियाओं द्वारा सम्पन्न होता है। इन तीनों क्रियाओं का सामान्य विवरण निम्नवर्णित है।

(1) चूषण–प्रायः
सभी गैसों का संवहन सिद्धान्त रूप से कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर होता है। इसे चूषण क्रिया कहते हैं। फुटबॉल का उदाहरण देखें। हवा भरने वाले पम्प से दबाव के साथ फुटबॉल में हवा भरी जाती है। पूरी हवा भर जाने पर फुटबॉल के अन्दर वायु का दबाव वायुमण्डल में उपस्थित वायु के दबाव से अधिक हो जाता है। अब फुटबॉल का वाल्व ढीला करने पर इसके भीतर की वायु कम दबाव वाले वायुमण्डल (UPBoardSolutions.com) में तेजी से संवहन करती है और तब तक करती रहती है जब तक कि फुटबॉल के भीतर की वायु का दबाव वायुमण्डल के दबाव के समान नहीं हो जाता। इस सिद्धान्त का उपयोग घर की संवातन व्यवस्था में किया जाता है।

(2) संनयन-यह प्रक्रिया प्रायः
द्रव पदार्थों व गैसों में होती है। हल्के पदार्थों में यह प्रक्रिया तीव्र होती है। उदाहरण के लिए किसी द्रव पदार्थ को गर्म करने पर इसका प्रथम कण अथवा अणु गर्म होते ही फैलकर व हल्का होकर ऊपर की ओर प्रसारित हो जाता है तथा इसका स्थान अपेक्षाकृत ठण्डा कण ले लेता है। फिर यह भी गर्म होकर प्रसारित हो जाता है। यह क्रम लगातार चलता रहता है। इसी सिद्धान्त के अनुसार गर्म होने पर कमरे की वायु हल्की होकर ऊपर उठ जाती है तथा इसके द्वारा रिक्त किए गए स्थान की पूर्ति शीतल वायु द्वारी (कमरे के बाहर से) होती है। इस प्रकार संनयन प्रक्रिया द्वारा कमरे में लगातार शीतल एवं शुद्ध वायु का प्रवेश होता रहता है।

(3) विसरण:
इस प्रक्रिया में पदार्थ अधिक सान्द्रता अथवा मात्रा वाले स्थान से कम सान्द्रता अथवा मात्रा वाले स्थान की ओर विसरित करते हैं; उदाहरणार्थ-एक सेण्ट अथवा इत्र की शीशी कमरे के एक कोने में खोलने पर धीरे-धीरे इत्र की सुगन्ध पूरे कमरे में फैल जाती है। इसी प्रकार एक गिलास पानी में स्याही की एक बूंद डालकर हिलाने पर पूरा पानी ही रंगीन हो जाता है। ठोस, द्रव तथा गैस तीनों ही प्रकार के पदार्थों में विसरण (UPBoardSolutions.com) की यह प्रक्रिया पाई जाती है। विसरण की प्रक्रिया संवातन के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। कमरे की वायु नमी व बाह्य श्वसन की – कार्बन डाइऑक्साइड गैस के कारण सान्द्र हो जाती है; अत: यह बाहर (कम सान्द्र वायु) की ओर विसरण करती है तथा कम सान्द्रता वाली शुद्ध व शीतल वायु कमरे में अन्दर की ओर विसरण करती है। यह क्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कि कमरे के अन्दर व बाहर की वायु की सान्द्रता समान नहीं हो जाती।

संवातन की प्राकृतिक व्यवस्था के लिए उपयोगी उपाय

व्यक्तिगत स्वास्थ्य के लिए उपयुक्तं संवातन व्यवस्था का होना आवश्यक है।
अतः संवातन की उपयुक्त व्यवस्था के लिए निम्नलिखित उपायों को प्रयोग में लाना विवेकपूर्ण है

(1) मकान की व्यवस्था:
नियोजित बस्तियों में आवास-गृहों का निर्माण परस्पर पर्याप्त दूरी पर होना चाहिए, एक-दूसरे से मिले हुए मकानों में वायु का प्रवेश स्वतन्त्र रूप से नहीं हो पाता, जबकि दूर-दूर बने मकानों में वायु का संवातन भली प्रकार से होता है।

(2) दरवाजे एवं खिड़कियाँ:
मकान में दरवाजे एवं खिड़कियाँ पर्याप्त संख्या में होनी आवश्यक हैं। कमरों में दरवाजों एवं खिड़कियों की व्यवस्था इस प्रकार होनी चाहिए कि जिससे वायु आमने-सामने
आर-पार सरलता से आ-जा सके।

(3) रोशनदान:
गर्म होने से वायु हल्की हो जाती है तथा ऊपर की ओर उठती है। अतः गर्म एवं अशुद्ध वायु के निष्कासन के लिए कमरे में रोशनदान का होना अनिवार्य है। रोशनदान का एक लाभ यह भी है कि सूर्य की किरणें इससे कमरे में प्रवेश पाकर हानिकारक कीटाणुओं को नष्ट करती रहती हैं।

(4) चिमनी:
यह प्राय: रसोई-गृह में निर्मित की जाती हैं। ईंधन के जलने से उत्पन्न धुआँ चिमनी द्वारा ही रसोई-गृह से निष्कासित होता है। इसका लाभ यह है कि गृहिणी न तो घुटन महसूस करती है। और न ही उसके नेत्रों पर धुएँ का कुप्रभाव पड़ता है। आधुनिक युग में धुआँ उत्पन्न करने वाले ईंधन का प्रयोग धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है तथा इसके स्थान पर कुकिंग गैस व विद्युत चूल्हों का उपयोग होने लगा है। अतः अब रसोई-गृह में चिमनी के निर्माण की आवश्यकता लगभग नगण्य हो गई है।

प्रश्न 3:
संवातन के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली कृत्रिम विधियों का वर्णन कीजिए।
या
सामान्य विद्युत पंखों, निर्वातक पंखों एवं वातानुकूलन संयन्त्रों का संवातन के लिए उपयोग किन-किन पद्धतियों के आधार पर किया जाता है?
उत्तर:
संवातन के प्राकृतिक साधनों के अनुसार मकान में कमरे पर्याप्त लम्बे, चौड़े व ऊँचे होने चाहिए तथा कमरों में पारगमन संवातन के लिए दरवाजे व खिड़कियाँ अधिक संख्या में तथा उपयुक्त स्थानों पर बनी होनी चाहिए, परन्तु इसमें प्रायः निम्नलिखित दो कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है

  1.  स्थान के अभाव के कारण प्राय: पर्याप्त लम्बाई, चौड़ाई व ऊँचाई वाले कमरों के मकानों का निर्माण करना सम्भव नहीं हो पाता है।
  2. वर्ष में अनेक बार (जैसे कि ग्रीष्म ऋतु में) वायु अत्यन्त मन्द गति से संचरण करती है, जिसके फलस्वरूप मकानों में शुद्ध एवं शीतल वायु का उपयुक्त संवातन नहीं हो पाता है; अतः मकानों में घुटन भरा गर्म वातावरण रहता है।
    उपर्युक्त कठिनाइयों से निपटने के लिए आज के आधुनिक युग में अनेक प्रकार के विद्युत उपकरणों (संवातन के कृत्रिम साधन) का उपयोग किया जाता है। मकानों एवं सार्वजनिक भवनों में संवातन की उत्तम व्यवस्था के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले प्रमुख विद्युत संयन्त्र निम्नलिखित हैं

(1) सामान्य विद्युत पंखे:
सामान्य पंखे प्लीनम पद्धति पर आधारित होते हैं। इनके द्वारा वायु की गति अधिक संवहनशील हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप दूषित वायु की निकासी शीघ्र होती रहती है।

(2) निर्वातक पंखे (एक्जॉस्ट फैन):
ये पंखे निर्वात पद्धति पर आधारित होते हैं। इस पद्धति में कमरे की अशुद्ध गर्म वायु को पंखों द्वारा बाहर धकेल दिया जाता है, जिसका स्थान शुद्ध एवं शीतल वायु लेती रहती है, परिणामस्वरूप कमरे में संवतन की व्यवस्था ठीक बनी रहती है। निर्वातक पंखे प्रायः प्रयोगशालाओं, अस्पतालों, छविगृहों व घुटन भरे कमरों में लगाए जाते हैं।

(3) सामान्य व निर्वातक पंखों का मिश्रित उपयोग:
इन दोनों प्रकार के पंखों का एक साथ उपयोग मिश्रित अथवा मिली-जुली पद्धति पर आधारित है। इस पद्धति का उपयोग विशाल भवनों, छविगृहों एवं अस्पतालों आदि में किया जाता है। इसके अनुसार निर्वातक पंखे अशुद्ध एवं गर्म वायु को बाहर फेंकते हैं तथा सामान्य पंखे अन्दर की वायु को गति प्रदान करते हैं। इस प्रकार यह पद्धति संवात्नन व्यवस्था को अत्यन्त प्रभावी बना देती है।

(4) वातानुकूलन:
आदर्श संवातन की यह आधुनिकतम पद्धति है। इस पद्धति में वायु को उचित तापमान, वांछित स्वच्छता तथा उपयुक्त आर्द्रता प्रदान की जाती है। कमरे में श्वसन क्रिया के कारण उत्पन्न हुई अशुद्ध वायु वातानुकूलन संयन्त्र के शुद्धिकरण भाग में पहुँचकर शुद्ध हो जाती है। बाहर से आने वाली वायु भी सर्वप्रथम शुद्धिकरण भाग में प्रवेश करती है, जिससे यह धूल के कणों एवं कीटाणुओं से मुक्त हो जाती है।
UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 8 वायु  शुद्ध वायु का महत्त्व एवं संवातन
संयन्त्र के शीतलीकरण भाग द्वारा कमरे में वांछित तापमान बनाए रखा जाता है। इस प्रकार इस विधि द्वारा कमरे की संवातन व्यवस्था अत्यन्त प्रभावी बनी रहती है। इस विधि की एकमात्र कमी यह है कि अत्यधिक महँगी होने के कारण यह जनसाधारण की पहुँच से बाहर है। वातानुकूलन यन्त्रों का उपयोग प्रायः धनी परिवारों, छविगृहों, बड़े-बड़े राजकीय अस्पतालों, सार्वजनिक व राजकीय भवनों तथा उच्च श्रेणी के रेल के डिब्बों इत्यादि में किया जाता है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
वायु के कौन-कौन से चार प्रमुख कार्य हैं?
उत्तर:
वायु के महत्त्वपूर्ण कार्य निम्नलिखित हैं

  1.  समस्त जीवधारियों की श्वसन क्रियों का मूल आधार होना,
  2.  प्राणियों में शारीरिक तापमान का नियमन करना,
  3. जल की उत्पत्ति करना तथा
  4.  हरे पौधों में भोजन-निर्माण की प्रक्रिया का मूल आधार होना।

प्रश्न 2:
वर्षा ऋतु की नमी से हमें क्या हानियाँ हैं?
उत्तर:
वर्षा ऋतु में नमी होने के कारण वायु में जलवाष्प (आर्द्रता) की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार के वातावरण में फफूदी, कीटाणु व कीट-पतंगे अधिक पनपते हैं। इसके हानिकारक परिणाम निम्नलिखित हैं

  1. फफूदी के कारण भोज्य पदार्थ शीघ्र ही सड़ने लगते हैं तथा खाने योग्य नहीं रहते।
  2. चमड़े, लकड़ी व कागज की वस्तुएँ फफूदी के पनपने के कारण अपनी गुणवत्ता खो देती हैं।
  3.  कीटाणुओं के वातावरण में पनपने के कारण विभिन्न रोगों के होने की सम्भावनाएँ बन जाती हैं।
  4. वस्तुओं पर फफूदी व अन्य सूक्ष्मजीवियों के पनपने के कारण वातावरण में सड़न की दुर्गन्ध उत्पन्न हो जाती है।

प्रश्न 3:
प्रकृति वायुमण्डल में प्राण-वायु( ऑक्सीजन) की मात्रा का सन्तुलन किस प्रकार कर पाती है?
या
वायु को शुद्ध करने में प्रकृति किस प्रकार सहायता करती है?
उत्तर:
वायुमण्डल में ऑक्सीजन की मात्रा लगभग 21 प्रतिशत होती है। ऑक्सीजन समस्त प्राणियों को उनकी श्वसन क्रिया के लिए आवश्यक है। श्वसन क्रिया में प्राणी वायु से ऑक्सीजन लेते हैं। तथा कार्बन डाइऑक्साइड गैसे निष्कासित करते हैं। इसके अतिरिक्त लगभग सभी वस्तुएँ; जैसे लकड़ी, कोयला, कागज आदि ऑक्सीजन की उपस्थिति में ही जलती हैं तथा धुएँ के रूप में कार्बन मोनोऑक्साइड व कार्बन डाइऑक्साइड गैसों को वायुमण्डल में निष्कासित करती हैं। परिणाम यह होता है कि वायुमण्डल में ऑक्सीजन की मात्रा घटने (UPBoardSolutions.com) लगती है। प्रकृति इस स्थिति से निपटने के लिए पूर्णरूप से सक्षम है। हरे पेड़-पौधे सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में कार्बन डाइऑक्साइड व पानी का उपयोग कर अपने लिए भोजन का निर्माण करते हैं। इस क्रिया के फलस्वरूप वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड गैस की मात्रा घटती है तथा इसे क्रिया में ऑक्सीजन गैस उत्पन्न होती है। इस प्रकार हरे पौधे वायुमण्डल में ऑक्सीजन गैस निष्कासित कर इसकी मात्रा का सन्तुलन बनाए रखते हैं।

प्रश्न 4:
अच्छे स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से आप अपने मकान में किस प्रकार के कमरे बनवाएँगी?
उत्तर:
सामान्यतः मनुष्य एक घण्टे में लगभग 100 घन मीटर वायु ग्रहण करता है। यदि उस वायु का एक घण्टे में तीन बार भी परिवर्तन हो, तो एक मनुष्य के लिए लगभग 33 घन मीटर स्थान की आवश्यकता पड़ेगी। अतः मकान में लम्बे, चौड़े व ऊँचे कमरों का होना स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद रहता है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए घर के अन्दर व बाहर उत्तम संवातन व्यवस्था का होना भी आवश्यक है। अतः कमरों में दरवाजे व खिड़कियाँ इस प्रकार से होनी चाहिए कि वायु का पारगमन सरलतापूर्वक हो सके।

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प्रश्न 5:
घर से बाहर की संवातन व्यवस्था के सम्भावित उपायों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
घर के अन्दर वायु का प्रवेश सदैव बाहर से ही होता है। अत: घर की अच्छी-से-अच्छी आन्तरिक संवातन व्यवस्था भी तब तक अप्रभावी ही रहेगी जब तक कि बाहर की संवातन व्यवस्था ठीक प्रकार की न हो। बाहर की. संवातन व्यवस्था को उत्तम बनाने के लिए निम्नलिखित उपाय करने चाहिए

  1.  सड़कें तथा गलियाँ चौड़ी होनी चाहिए।
  2.  बस्ती अथवा मौहल्ले में मकानों के बीच पर्याप्त दूरी होनी चाहिए।
  3.  सड़कों व नालियों की सफाई की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।
  4. मकानों के आस-पास पार्क व क्रीड़ास्थल होने चाहिए।
  5.  मकानों के आस-पास व सड़कों के दोनों ओर हरे पेड़-पौधे लगे होने चाहिए।

प्रश्न 6:
घर के अन्दर संवातन के मुख्य साधन कौन-कौन से हैं?
UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 8 वायु  शुद्ध वायु का महत्त्व एवं संवातन

प्रश्न 7:
संवातन का क्या महत्त्व है? समझाइए।
उत्तर:
संवातन वह व्यवस्था है जिसके माध्यम से किसी आवासीय स्थल पर निरन्तर वायु का आवागमन होता रहता है। संवातन की व्यवस्था का विशेष महत्त्व है। इस व्यवस्था के परिणामस्वरूप सम्बन्धित स्थल पर शुद्ध एवं स्वच्छ वायु उपलब्ध होती रहती है। इस स्थिति में कमरे की दूषित, गर्म एवं दुर्गन्धयुक्त वायु बाहर निकल जाती है तथा उसके स्थान पर शीतल, शुद्ध वायु प्रवेश कर जाती है। अवासीय स्थल पर संवातन की (UPBoardSolutions.com) उचित व्यवस्था होने की दशा में विभिन्न रोगों के जीवाणुओं को पनपने का अवसर उपलब्ध नहीं होता, कमरे में नमी या घुटन नहीं होती तथा वहाँ का तापमान भी सामान्य बना रहता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संवतन की व्यवस्था सम्बन्धित व्यक्तियों के सामान्य स्वास्थ्य में सहायक होती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
वायु अपने आप में क्या है?
उत्तर:
वायु अपने आप में विभिन्न गैसों की एक मिश्रण है।

प्रश्न 2:
वायु-रूपी गैसीय मिश्रण में विद्यमान मुख्य गैसों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
वायु-रूपी गैसीय मिश्रण में विद्यमान मुख्य गैसें हैं ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, हाइड्रोजन, ओजोन तथा ऑर्गन आदि।

प्रश्न 3:
वायु जीवन के लिए क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
वायु निम्नलिखित दो रूपों में जीवन के लिए आवश्यक है
(1) जीवधारियों में श्वसन क्रिया वायु की उपस्थिति में ही होती है।
(2) यह हमारे शरीर के ताप को नियन्त्रित करने में सहायता करती है।

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प्रश्न 4:
वस्तुओं के जलने से कौन-सी गैस बनती है?
उत्तर:
वस्तुओं के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड गैस बनती है।

प्रश्न 5:
संवातन क्या है?
उत्तर:
किसी आवासीय स्थान पर शुद्ध वायु के प्रवेश एवं अशुद्ध वायु के बाहर जाने की व्यवस्था को संवातन कहते हैं।

प्रश्न 6:
रोशनदानों का संवातन में क्या महत्त्व है?
उत्तर:
अशुद्ध वायु गर्म होकर हल्की हो जाती है तथा ऊपर उठकर कमरे में बने रोशनदानों से बाहर निकल जाती है।

प्रश्न 7:
कृत्रिम संवतन के मुख्य साधन क्या हैं?
उत्तर:
कृत्रिम संवातन के मुख्य साधन है

  1.  सामान्य विद्युत पंखे,
  2.  निर्वातक पंखे,
  3.  वातानुकूलन संयन्त्र।

प्रश्न 8:
पारगाम संवातन को प्रभावी बनाने का क्या उपाय है?
उत्तर:
इसके लिए दरवाजों एवं खिड़कियों को ठीक आमने-सामने स्थित होना चाहिए।

प्रश्न 9:
रात्रि में पेड़ के नीचे सोना क्यों हानिकारक है?
उत्तर:
रात्रि में पेड़-पौधों में श्वसन क्रिया अधिक होती है जिसके फलस्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड का निष्कासन भी अधिक होता है।
अतः रात्रि में पेड़ के नीचे सोना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

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प्रश्न 10:
पृथ्वी पर वायुमण्डल का क्षेत्र कितना विस्तृत है?
उत्तर:
पृथ्वी पर लगभग 400 किलोमीटर ऊपर तक वायु पाई जाती है।

प्रश्न 11:
वायु को शुद्ध करने में सूर्य के प्रकाश तथा पेड़-पौधों की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में पेड़-पौधे प्रकाश-संश्लेषण की प्रक्रिया सम्पन्न करते हैं। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत पेड़-पौधे वायुमण्डल से कार्बन डाइऑक्साइड गैस ग्रहण कर लेते हैं तथा
ऑक्सीजन विसर्जित करके वायु को शुद्ध करते हैं।

प्रश्न 12:
वायु में पाई जाने वाली सक्रिय गैस कौन-सी है?
उत्तर:
वायु में पाई जाने वाली मुख्य सक्रिय गैस है-ऑक्सीजन।

प्रश्न 13:
वायु में पाई जाने वाली मुख्य निष्क्रिय गैस कौन-सी है?
उत्तर:
वायु में पाई जाने वाली मुख्य निष्क्रिय गैस है-नाइट्रोजन।

प्रश्न 14:
वर्षा ऋतु में वायु में मुख्य रूप से क्या परिवर्तन होते हैं?
उत्तर:
वर्षा ऋतु में वायु में नमी की दर बढ़ जाती है तथा धूल-कणों एवं अन्य लटकने वाली अशुद्धियाँ घट जाती हैं।

प्रश्न 15:
प्राणवायु अथवा जीवन-रक्षक गैस कौन-सी है?
उत्तर:
ऑक्सीजन गैस, जो कि प्राणियों में श्वसन क्रिया के लिए आवश्यक होती है।

प्रश्न 16:
वायु संगठन में ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का प्रतिशत क्या है?
उत्तर:
वायु संगठन में ऑक्सीजन 20.95% तथा कार्बन डाइऑक्साइड 0.03% होती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न:
प्रत्येक प्रश्न के चार वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। इनमें से सही विकल्प चुनकर लिखिए

(1) प्रकृति में ऑक्सीजन का सन्तुलन बनाए रखते हैं
(क) मनुष्य,
(ख) कीट-पतंगे,
(ग) वन्य जीव-जन्तु,
(घ) पेड़-पौधे।

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(2) वायु को दूषित करने वाला कारक है
(क) प्राणियों की श्वसन क्रिया,
(ख) जैविक पदार्थों का विघटन,
(ग) दहन की व्यापक प्रक्रिया,
(घ) ये सभी कारक।

(3) वायु में विद्यमान गैसों में से सर्वाधिक सक्रिय गैस है
(क) नाइट्रोजन,
(ख) हाइड्रोजन,
(ग) कार्बन डाइऑक्साइड,
(घ) ऑक्सीजन।

4. वायु में विद्यमान मुख्य निष्क्रिय गैस है
(क) ऑक्सीजन,
(ख) ओजोन,
(ग) नाइट्रोजन,
(घ) कार्बन मोनोऑक्साइड।

(5) संवातन का मुख्य उद्देश्य है
(क) कमरे से दुर्गन्ध को हटाना,
(ख) कमरे में सुगन्ध को बढ़ाना,
(ग) कमरे में शुद्ध वायु प्राप्त करना,
(घ) कमरे को ठण्डा रखना।

(6) कमरे में उत्तम संवातन व्यवस्था के लिए आवश्यक है
(क) दरवाजे,
(ख) खिड़कियाँ,
(ग) रोशनदान,
(घ) पारगामी व्यवस्था।

(7) विद्युत पंखों द्वारा वायु को प्रदान की जाती है
(क) स्थिरता,
(ख) स्थायित्व,
(ग) गति,
(घ) आर्द्रता।

(8) दीवारों में बनी चिमनियों से कमरे की वायु
(क) बाहर निकलती है,
(ख) बाहर भी जाती है तथा अन्दर भी जाती है,
(ग) बाहर से अन्दर आती है,
(घ) कोई प्रभाव नहीं होता।

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(9) श्वसन क्रिया में रक्त का शुद्धिकरण करती है
(क) नाइट्रोजन,
(ख) हाइड्रोजन,
(ग) ऑक्सीजन,
(घ) कार्बन मोनोऑक्साइड।

उत्तर:
(1) (घ) पेड़-पौधे,
(2) (घ) ये सभी कारक,
(3) (घ) ऑक्सीजन,
(4) (ग) नाइट्रोजन,
(5) (ग) कमरे में शुद्ध वायु प्राप्त करना,
(6) (घ) पारगामी व्यवस्था,
(7) (ग) गति,
(8) (क) बाहर निकलती है,
(9) (ग) ऑक्सीजन।

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UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 4 अर्थव्यवस्था : परिवार की मूलभूत आवश्यकताएँ

UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 4 अर्थव्यवस्था : परिवार की मूलभूत आवश्यकताएँ

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
गृह-अर्थव्यवस्था का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। गृह-अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले मुख्य कारकों का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
गृह विज्ञान’ घर तथा परिवार सम्बन्धी व्यवस्था का अध्ययन है। घर तथा परिवार की व्यवस्था के अनेक पक्ष हैं। इन पक्षों में ‘अर्थव्यवस्था एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। अन्य समस्त पक्षों में गृहिणी एवं परिजनों के दक्ष होते हुए भी, यदि घर की अर्थव्यवस्था सुचारु न हो, तो परिवार की सुख-शान्ति एवं (UPBoardSolutions.com) समृद्धि संदिग्ध हो जाती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए गृह विज्ञान में अर्थव्यवस्था का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है तथा प्रत्येक सुगृहिणी से आशा की जाती है कि वह गृह-अर्थव्यवस्था को उत्तम बनाए रखने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करेगी। गृह-अर्थव्यवस्था के अर्थ, परिभाषा तथा उसे प्रभावित करने वाले कारकों का विवरण निम्नवर्णित है

गृह-अर्थव्यवस्था का अर्थ एवं परिभाषा

सार्वजनिक जीवन में अर्थव्यवस्था’ एक विशिष्ट प्रकार की व्यवस्था है जिसका सम्बन्ध मुख्य रूप से धन-सम्पत्ति से होता है। रुपए-पैसे की योजनाबद्ध व्यवस्था ही अर्थव्यवस्था है। प्रत्येक संस्था एवं संगठन के सुचारू संचालन के लिए स्पष्ट एवं सुदृढ़ अर्थव्यवस्था आवश्यक होती है। जब अर्थव्यवस्था को अध्ययन घर-परिवार के सन्दर्भ में किया जाता है, तब इसे गृह-अर्थव्यवस्था कहा जाता है। अर्थव्यवस्था के अर्थ को जान (UPBoardSolutions.com) लेने के उपरान्त गृह-अर्थव्यवस्था का वैज्ञानिक अर्थ भी स्पष्ट किया जा सकता है। घर-परिवार के आय-व्यय को अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों के आधार पर नियोजित करना तथा इस नियोजन के माध्यम से परिवार को अधिक-से-अधिक आर्थिक सन्तोष प्रदान करना ही गृह-अर्थव्यवस्था है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए निकिल तथा डारसी ने गृह-अर्थव्यवस्था को इन शब्दों में परिभाषित किया है, “परिवार की आय तथा व्यय पर नियन्त्रण होना तथा आय को गृह के सृजनात्मक कार्यों में व्यय करना गृह-अर्थव्यवस्था कहलाता है।” इस प्रकार स्पष्ट है कि गृह-अर्थव्यवस्था का सम्बन्ध, परिवार की आर्थिक क्रियाओं से होता है। इस स्थिति में यह भी जानना आवश्यक है कि आर्थिक क्रियाओं से क्या आशय है? आर्थिक क्रियाएँ व्यक्ति या परिवार की उन क्रियाओं को कहा जाता है, जिनका धन के उपभोग, उत्पादन, विनिमय अथवा वितरण से होता है। परिवार की विभिन्न आर्थिक गतिविधियाँ ही परिवार की आर्थिक पूर्ति में सहायक होती हैं। इस दृष्टिकोण से परिवार की आर्थिक गतिविधियों का विशेष महत्त्व होता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि प्रत्येकै परिवार निरन्तर रूप से असंख्य आवश्यकताओं को महसूस करता है तथा चाहता है कि उसकी समस्त आवश्यकताएँ पूरी होती रहें। परन्तु समस्त आवश्यकताओं को पूरा कर पाना प्रायः सम्भव नहीं होता। इस स्थिति में व्यक्ति अथवा परिवार की आवश्यकताओं की प्राथमिकता को निर्धारित किया जाता है। यह कार्य भी (UPBoardSolutions.com) गृह-अर्थव्यवस्था के ही अन्तर्गत किया जाता है। परिवार का अर्थ-व्यवस्थापक परिवार की आवश्यकताओं की प्राथमिकता को निर्धारित करता है तथा प्राथमिकता के आधार पर विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समुचित प्रयास किए जाते हैं। इस प्रकार की दृष्टिकोण अपना लेने से गृह-अर्थव्यवस्था उत्तम बनी रहती है। सफल गृह-अर्थव्यवस्था के लिए परिवार की आर्थिक गतिविधियों को सुनियोजित बनाना नितान्त आवश्यक है। किसी भी स्थिति में पारिवारिक व्यय को पारिवारिक आय से अधिक नहीं होना चाहिए। आय की तुलना में व्यय के अधिक हो जाने की स्थिति में पारिवारिक अर्थव्यवस्था डगमगा जाती है तथा परिवार को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ जाता है।

गृह-अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक

घर-परिवार की सुख-शान्ति तथा समृद्धि के लिए गृह-अर्थव्यवस्था का उत्तम होना नितान्त आवश्यक है। गृह-अर्थव्यवस्था को विभिन्न कारक प्रभावित करते हैं। गृह-अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले मुख्य कारकों को संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

(1) गृह-अर्थव्यवस्था की सुचारू प्रक्रिया:
परिवार की सम्पूर्ण आय को ध्यान में रखते हुए पारिवारिक व्यय की व्यवस्थित योजना तैयार करना ही, गृह-अर्थव्यवस्था की प्रक्रिया कहलाती है। इस योजना के अन्तर्गत आय तथा व्यय में सन्तुलन बनाए रखना आवश्यक होता है। इसके लिए पारिवारिक-बजट का निर्धारण तथा उसका पालन करना सहायक सिद्ध होता है। आय एवं व्यय में परस्पर सन्तुलन रखने की यह योजना गृह-अर्थव्यवस्था को गम्भीर रूप से प्रभावित करती है।

(2) पारिवारिक आय:
गृह-अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले कारकों में पारिवारिक आय एक अति महत्त्वपूर्ण कारक है। पारिवारिक आय के अर्जन में प्रमुख योगदान परिवार के मुखिया का होता है। वास्तव में धनोपार्जन का दायित्व मुख्य रूप से परिवार के मुखिया का ही माना जाता है। मुखिया की आय परिवार की अर्थव्यवस्था को विशेष रूप से प्रभावित करती है। यदि मुखिया के अतिरिक्त परिवार का कोई अन्य सदस्य भी धनोपार्जन करता हो, तो उसकी आय को भी गृह-अर्थव्यवस्था के लिए प्रभावकारी कारक माना जाता है।

(3) गृहिणी की कुशलता:
निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गृहिणी की कुशलता भी गृह-अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है। कुशल गृहिणी परिवार की आवश्यकताओं की प्राथमिकता को निर्धारित करके आय के अनुसार व्यय करती है। मितव्ययिता ही अच्छी गृहिणी का आवश्यक गुण है। कुशल गृहिणी गृह-अर्थव्यवस्था के लिए जहाँ एक ओर बचत का बजट निर्धारित करती है, वहीं दूसरी
ओर परिवार की आय में यथासम्भव वृद्धि के उपाय भी करती है।

(4) पारिवारिक व्यय का नियोजन:
यह सत्य है कि गृह-अर्थव्यवस्था को परिवार की आय मुख्य रूप से प्रभावित करती है, परन्तु आय के साथ-साथ व्यय का नियोजन भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। भले ही परिवार की आय कितनी भी अधिक क्यों न हो, यदि आय से व्यय अधिक हो जाए तो समस्त प्रयास करने के उपरान्त भी (UPBoardSolutions.com) परिवार की अर्थव्यवस्था सन्तुलित नहीं रह पाती। इस प्रकार कहा जा सकता है कि उत्तम गृह-अर्थव्यवस्था के लिए पारिवारिक व्यय का नियोजन भी एक महत्त्वपूर्ण कारक है। यदि नियोजित ढंग से व्यय नहीं किया जाता, तो परिवार की अर्थव्यवस्था के बिगड़ जाने की आशंका रहती है।

(5) परिवार के रहन-सहन का स्तर:
गृह-अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाला एक अन्य कारक है-परिवार के रहन-सहन का स्तर। प्रत्येक परिवार चाहती है कि उसका रहन-सहन का स्तर उन्नत हो। रहन-सहन के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए पर्याप्त धन व्यय करना पड़ता है। इस स्थिति में यदि इस प्रकार से किया जाने वाला (UPBoardSolutions.com) व्यय पारिवारिक आय के अनुरूप नहीं होता, तो निश्चित रूप से गृह-अर्थव्यवस्था बिगड़ जाती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि रहन-सहन के स्तर को पारिवारिक आय को ध्यान में रखकर ही निर्धारित किया जाना चाहिए।

(6) निरन्तर होने वाले सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन:
समाज में निरन्तर रूप से होने वाले सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन भी परिवार की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हैं। फैशन, नवीन प्रचलन, मनोरंजन के नए-नए साधन आदि कारक परिवार के व्यय को बढ़ाते हैं। इस प्रकार यदि आय में वृद्धि नहीं होती तो परिवार का व्यय बढ़ जाने पर परिवार की अर्थव्यवस्था क्रमशः बिगड़ने लगती है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए सुझाव दिया जाता है कि अपनी आय को ध्यान में रखते हुए ही फैशन, मनोरंजन एवं सामाजिक उत्सवों आदि पर व्यय करना चाहिए।

(7) परिवार का आकार:
परिवार के आकार से आशय है-परिवार के सदस्यों की संख्या। परिवार के सदस्यों की संख्या भी परिवार की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाला एक उल्लेखनीय कारक है। यदि परिवार की आय सीमित हो तथा उस आय पर ही निर्भर रहने वाले परिवार के सदस्यों की संख्या अधिक हो, तो निश्चित रूप से परिवार के रहन-सहन का स्तर निम्न होगी तथा गृह-अर्थव्यवस्था भी संकट में रहेगी। इससे भिन्न यदि (UPBoardSolutions.com) किसी परिवार में धनोपार्जन करने वाले सदस्यों की संख्या अधिक हो तथा उन पर निर्भर रहने वाले सदस्यों की संख्या कम हो तो निश्चित रूप से परिवार की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ बनी रहती है तथा रहन-सहन का स्तर भी उन्नत बन सकता है। आधुनिक दृष्टिकोण से ‘छोटा-परिवार, सुखी-परिवार’ की धारणा को ही उत्तम माना जाता है।

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प्रश्न 2:
‘आवश्यकता’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए। परिवार की मूलभूत आवश्यकताओं को संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
परिवार की मूल आवश्यकताएँ कौन-सी हैं? उनकी पूर्ति क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
आवश्यकता का अर्थ

परिवार एक ऐसी सामाजिक संस्था है, जो अपने सदस्यों की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यापक प्रयास करती है। आवश्यकताओं को अनुभव करना तथा उनकी पूर्ति करना ही जीवन है। अब प्रश्न उठता है कि आवश्यकता से क्या आशय है? व्यक्ति की आवश्यकताएँ मूल रूप से व्यक्ति की कुछ विशिष्ट इच्छाएँ ही होती हैं, परन्तु व्यक्ति की समस्त इच्छाओं को उसकी आवश्यकताएँ नहीं माना (UPBoardSolutions.com) जा सकता। इच्छाएँ हमारी भावनाओं से पोषित होती हैं। वे भौतिक जगत् की यथार्थताओं से दूर होती हैं, परन्तु आवश्यकताओं का सीधा सम्बन्ध भौतिक यथार्थताओं से होता है। आवश्यकताएँ हमारे भौतिक साधनों के अनुरूप होती हैं। इस प्रकार हमारी प्रबल इच्छाएँ तथा साधनानुकूल इच्छाएँ ही हमारी आवश्यकताएँ बन जाती हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि हम उस इच्छा को आवश्यकता कह सकते हैं जिसमें कल्पना के अतिरिक्त अन्य तीन तत्त्व भी विद्यमान हैं। ये तत्त्व हैं क्रमशः इच्छा की प्रबलता, इच्छा को पूर्ण करने के लिए समुचित प्रयास तथा इच्छापूर्ति के लिए सम्बन्धित त्याग के लिए तत्परता। इस प्रकार से हम व्यक्ति की उस इच्छा को आवश्यकता कह सकते हैं जिस इच्छा को पूरा करने के लिए उस व्यक्ति के पास समुचित साधन हैं तथा साथ-ही-साथ वह व्यक्ति उस इच्छा को पूरा करने के लिए सम्बन्धित साधन को इस्तेमाल करने के लिए तत्पर भी हो। आवश्यकता के अर्थ को पेन्शन ने इन शब्दों में स्पष्ट (UPBoardSolutions.com) किया है, “आवश्यकता विशेष वस्तुओं की पूर्ति हेतु एक प्रभावपूर्ण इच्छा है जो उन्हें प्राप्त करने के लिए आवश्यक प्रयत्न अथवा त्याग के रूप में प्रकट होती है।” आवश्यकता के अर्थ एवं प्रकृति को ध्यान में रखते हुए स्मिथ तथा पैटर्सन ने स्पष्ट किया है, ”आवश्यकता किसी वस्तु को प्राप्त करने की वह इच्छा है जिसे पूरा करने के लिए मनुष्य में योग्यता है और वह उसके लिए व्यय करने के लिए तैयार हो।”

परिवार की मूल आवश्यकताएँ

मनुष्य की विभिन्न आवश्यकताएँ होती हैं। आज के वैज्ञानिक युग में निरन्तर बढ़ती हुई आवश्यकताओं ने मानव-जीवन को बड़ा जटिल बना दिया है। आज किसी के पास कितना ही धन हो, वह उसकी आवश्यकता के अनुपात में कम ही प्रतीत होता है। अतः कुशल संचालन के लिए आवश्यक है कि गृहिणी को आवश्यकताओं की जानकारी हो, जिससे वह कुशलतापूर्वक उनकी पूर्ति कर सके।
अनिवार्य आवश्यकताएँ ही मूल आवश्यकताएँ कहलाती हैं, जो प्रत्येक परिवार में प्राय: निम्नलिखित होती हैं

(1) भोजन:
पोषक तत्वों से युक्त सन्तुलित भोजन परिवार की प्रथम मूल आवश्यकता है। परिवार के सभी सदस्यों (बच्चे, स्त्री व पुरुष) को पोषणयुक्त भोजन पर्याप्त मात्रा में मिलना चाहिए।

(2) वस्त्र:
परिवार के सभी सदस्यों को पर्याप्त एवं उपयुक्त वस्त्र उपलब्ध होने चाहिए। उपयुक्त वस्त्रों से हमारा तात्पर्य है कि ये मौसम, व्यक्तिगत रुचि, सामाजिक स्थिति, रीति-रिवाजों आदि के अनुरूप होने चाहिए।

(3) आवासीय व्यवस्था:
परिवार के सदस्यों की आवश्यकताओं के अनुसार उचित आवास का होना एक अनिवार्य आवश्यकता है। पर्याप्त एवं शुद्ध जल, वायु, सूर्य का प्रकाश इत्यादि का उपलब्ध होना उचित आवास की आवश्यक विशेषताएँ हैं।

(4) शिक्षा:
बच्चों की अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करना परिवार की मूल एवं अनिवार्य आवश्यकता है। उपयुक्त शिक्षा से व्यक्तित्व का विकास होता है। अतः बालक-बालिकाओं की शिक्षा का प्रबन्ध करना अति आवश्यक है। इसके अतिरिक्त उपयोगी सूचना देने वाली पत्र-पत्रिकाओं का भी प्रत्येक परिवार के लिए अलग महत्त्व है, क्योंकि ये सदस्यों के स्वास्थ्य, मनोरंजन, राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक ज्ञान में वृद्धि करती हैं।

(5) चिकित्सा एवं स्वास्थ्य रक्षा:
पोषणयुक्त भोजन, आवश्यक व्यायाम, मौसम के अनुरूप वस्त्र एवं घर व आस-पास की स्वच्छता आदि परिवार के सदस्यों को स्वस्थ रखने के लिए अति आवश्यक हैं। इनका विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए। किसी भी सदस्य के बीमार पड़ने पर उसे उपयुक्त चिकित्सा उपलब्ध होनी चाहिए।

(6) बच्चों की देखभाल:
बच्चे परिवार एवं देश का भविष्य होते हैं। अतः स्वास्थ्य, विकास, शिक्षा व आचार-व्यवहार के दृष्टिकोण से उनकी देखभाल अति आवश्यक है। बच्चों की उचित देखभाल को परिवार की मूल आवश्यकताओं में सम्मिलित किया जाता है।

(7) मनोरंजन:
मानसिक स्वास्थ्य के लिए स्वस्थ मनोरंजन अति आवश्यक है। अतः परिवार में मनोरंजन के यथा योग्य साधन अवश्य उपलब्ध होने चाहिए।

(8) प्रेम, स्नेह एवं सहयोग:
एकाकी परिवार में प्राय: पति-पत्नी एवं उनके अविवाहित बच्चे होते हैं। संयुक्त परिवार पति-पत्नी, उनके माता-पिता व भाई-बहनों के संयुक्त रूप से रहने के कार अधिक बड़ा हो जाता है। परिवार छोटा हो या फिर बड़ा, दोनों ही में सदस्यों के स्नेह व परस्पर सह की भावना का होना (UPBoardSolutions.com) आवश्यक है। परिवाररूपी सामाजिक संस्था का कुशल संचालन प्रेम, स्नेह एवं सहयोग पर ही निर्भर करता है। यह प्रवृत्ति भी परिवार की मूल आवश्यकता है।

(9) आय:
यह परिवार की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। धन से प्रायः सभी भौतिक आवश्यकताएँ क्रय की जा सकती हैं। परिवार में धन का प्रमुख स्रोत पारिवारिक आय होती है। प्रत्येक परिवार की आय प्राय: सभी सदस्यों की मूल आवश्यकताओं को पूर्ण करने के योग्य होनी चाहिए।

(10) बचते:
आकस्मिक संकटों (बीमारी आदि) का सामना करने के लिए अतिरिक्त धन की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त लड़के-लड़कियों के विवाह, लड़कों के व्यवसाय एवं धार्मिक कार्यों आदि में भी अकस्मात् ही धन की आवश्यकता पड़ती है। धन की इस आकस्मिक आवश्यकता की पूर्ति एक (UPBoardSolutions.com) बुद्धिमान् गृहिणी नियमित बचत द्वारा करती है। अतः प्रत्येक गृहिणी का कर्तव्य है कि वह आय-व्यय में सन्तुलन रखकर परिवार के भविष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उचित एवं अधिक-से-अधिक बचत करे। प्राथमिक एवं गौण आवश्यकताओं में भिन्नता लाना इतना सरल नहीं है जितना हम समझते हैं। वास्तव में जो वस्तु एक परिवार के लिए विलासिता की श्रेणी में है, वह वस्तु किसी अन्य परिवार के लिए अनिवार्य आवश्यकता की श्रेणी में मानी जा सकती है। अतः विभिन्न आवश्यकताएँ परिवार की आर्थिक दशा, रहन-सहन एवं समाज में स्तर तथा प्रतिष्ठा के अनुसार प्राथमिक अथवा गौण हो सकती हैं। परिवार के मुखिया तथा अन्य सदस्यों का दायित्व है कि वे पारिवारिक परिस्थितियों एवं उपलब्ध साधनों को ध्यान में रखते हुए पारिवारिक आवश्यकताओं की प्राथमिकता को निर्धारित कर लें तथा उनकी क्रमिक पूर्ति के लिए प्रयास करें।

प्रश्न 3:
परिवार की मूल आवश्यकताओं पर प्रभाव डालने वाले कारक कौन-कौन से हैं? विस्तारपूर्वक समझाइए।
या
आवश्यकताओं की वृद्धि एवं तीव्रता को प्रभावित करने वाले कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
किसी भी परिवार के सफल संचालन के लिए उसकी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति अति आवश्यक है। परन्तु बढ़ती हुई महँगाई एवं वैज्ञानिक आविष्कारों के आज के युग में यह कोई सरल कार्य नहीं है। इसके लिए यह जानना आवश्यक है कि मूल आवश्यकताएँ किन-किन कारकों से प्रभावित होती हैं। परिवार की मूल आवश्यकताओं को प्रायः निम्नलिखित कारक प्रभावित करते हैं
(क) व्यक्तिगत कारक,
(ख) वस्तुगत कारक,
(ग) पारिस्थितिक कारक।

(क) व्यक्तिगत कारक:
ये निम्नलिखित प्रकार के होते हैं

(1) आर्थिक स्थिति:
एक व्यक्ति अथवा परिवार की आय के अनुसार ही उसकी आवश्यकताएँ होती हैं। आय में वृद्धि के साथ-साथ आवश्यकताओं में भी वृद्धि होती है। उदाहरण के लिए-एक
पवर्गीय परिवार की आवश्यकताएँ कम होती हैं, जबकि एक धनी परिवार की आवश्यकताएँ विलासिताओं की सीमा तक बढ़ जाती हैं।

(2) रहन-सहन का स्तर:
रहन-सहन का स्तर आवश्यकताओं के वर्गीकरण को बदल देता है। उदाहरण के लिए एक मध्यमवर्गीय परिवार की आवश्यकता बिजली के पंखे से भी पूर्ण हो जाती है,
जबकि एक धनी परिवार वातानुकूलन को आवश्यक समझता है।

(3) रुचि एवं आदत:
रुचि के अनुसार वस्तुओं को रखना आवश्यकता है; जैसे कि संगीत में रुचि रखने वाली गृहिणी के लिए वाद्य यन्त्र आवश्यक है, जबकि किसी अन्य रुचि वाली महिला के लिए यह अनुपयोगी है। इसी प्रकार पान, चाय, कॉफी इत्यादि की जिन्हें आदत है उनके लिए ये आवश्यकताएँ हैं, जबकि अन्य के लिए ये धन के अपव्यय की वस्तुएँ हैं।

(4) सामाजिक स्तर:
यह भी आवश्यकताओं का अर्थ बदल देता है। एक उच्चवर्गीय परिवार के लिए वैभवशाली आवासीय व्यवस्था व मोटरकार इत्यादि यदि एक ओर आवश्यकताएँ हैं, तो दूसरी ओर साधारण मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए विलासिता की वस्तुएँ हैं। इसी प्रकार निम्नवर्गीय परिवारों के लिए कच्चे मकान व झोपड़े आदि आवश्यकताओं की श्रेणी में आते हैं।

(5) शरीर-रचना एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी कारक:
मानवीय आवश्यकताओं को व्यक्ति की अपनी शरीर-रचना तथा स्वास्थ्य भी प्रभावित करते हैं; उदाहरण के लिए—यदि किसी व्यक्ति की टाँग में कोई विकृति या दोष हो, तो उनके लिए छड़ी या बैसाखी एक प्रबलतम आवश्यकता होती है। इसी प्रकार जिसकी नजर या दृश्य-क्षमता कमजोर हो, उसके लिए चश्मा अति आवश्यक या अनिवार्य आवश्यकता माना जाता है।

(6) व्यक्ति का जीवन के प्रति दृष्टिकोण:
प्रत्येक व्यक्ति का जीवन के प्रति दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न होता है। कुछ व्यक्ति भौतिकवादी होते हैं। ऐसे व्यक्ति के लिए भौतिक सुख-सुविधा सम्बन्धी आवश्यकताएँ अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं। ऐसा व्यक्ति घर में सुन्दर सोफा, कलर टी० वी०, डायनिंग टेबल आदि अनिवार्य समझता है। इससे भिन्न (UPBoardSolutions.com) एक धार्मिक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति के लिए सोफा खरीदने की तुलना में तीर्थ-यात्रा का महत्त्व अधिक हो सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि जीवन के प्रति दृष्टिकोण भी एक ऐसा कारक है जो मानवीय आवश्यकताओं को गम्भीरता से प्रभावित करता है।

(ख) वस्तुगत कारक
आवश्यकताओं को सीधे ही प्रभावित करती हैं; जैसे कि

(1) वस्तुओं का मूल्य:
साधारण मूल्यों वाली वस्तुओं को प्रायः आवश्यकताओं के वर्ग में तथा अत्यधिक मूल्य वाली वस्तुओं को विलासिता की श्रेणी में रखा जाता है। इस प्रकार वस्तुओं का मूल्य आवश्यकताओं से सीधा सम्बन्ध रखता है।

(2) वस्तुओं की संख्या:

उपभोग की प्रेरक वस्तुओं के सन्दर्भ में उनकी प्रति व्यक्ति अथवा : परिवार के अनुसार संख्या सदैव महत्त्वपूर्ण होती है। उदाहरण के लिए–एक परिवार में एक कार आवश्यकता हो सकती है, जबकि एक से अधिक कारें होना विलासिता कहलाएँगी। इसी प्रकार एक व्यक्ति के पास दो या चार जोड़ी अच्छे वस्त्र होना आवश्यकता है, जबकि अत्यधिक संख्या में वस्त्रों को होना विलासिता माना जाएगा।

(ग) पारिस्थितिक कारक:
मैं परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं; जैसे कि

(1) देश एवं काल:
प्रत्येक देश की भौगोलिक परिस्थितियों पर उसकी आवश्यकताएँ निर्भर करती हैं। उदाहरण के लिए-उष्ण देशों में आवास, वस्त्र एवं भोजन आदि की आवश्यकताएँ ठण्डे देशों से भिन्न होती हैं। इसी प्रकार किसी भी देश में ग्रीष्म ऋतु की आवश्यकताएँ शीत ऋतु से सदैव भिन्न होती हैं।

(2) फैशन एवं रीति-रिवाज:

प्रत्येक देश एवं प्रदेश में रीति-रिवाज प्रायः भिन्न होते हैं। इसके अनुसार ही भोजन, वस्त्र एवं आवास जैसी मूल आवश्यकताएँ भी प्रायः बदल जाया करती हैं।

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प्रश्न 4:
परिवार की आर्थिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने में गृहिणी का क्या योगदान है? विस्तारपूर्वक लिखिए।
या
एक कुशल गृहिणी अर्थव्यवस्था को किस प्रकार व्यवस्थित कर सकती है? समझाइए।
उत्तर:
गृहिणी गृह-संचालिका होती है। उसकी बुद्धिमत्ता, व्यवहार-कुशलता एवं सूझ-बूझ पर ही उत्तम पारिवारिक व्यवस्था एवं सुदृढ़ अर्थव्यवस्था निर्भर करती है। वह पारिवारिक आय के अनुसार ही व्यय करती है। पारिवारिक आय से हमारा अभिप्राय निम्नलिखित है

(1) प्रत्यक्ष आय:
सदस्यों के वेतन एवं व्यापार आदि से अर्जित आय। इसके अतिरिक्त सम्पत्ति का किराया व ब्याज आदि से प्राप्त धन भी इसमें सम्मिलित है।
(2) अप्रत्यक्ष आय:
यह सुख-सुविधाओं के रूप में होती है; जैसे कि नि:शुल्क शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा तथा पैतृक मकान, जिसका किराया नहीं देना होता है इत्यादि। । पारिवारिक आय प्रायः घटती-बढ़ती रहती है। एक कुशल गृहिणी इसका सदैव ध्यान रखती है। वह निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर अर्थव्यवस्था का संचालन करती है

(i) मूल आवश्यकताओं को प्राथमिकता:
भोजन, वस्त्र एवं मकान जीवनरक्षक मूल आवश्यकताएँ हैं, जिन्हें प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इनके लिए यह भी आवश्यक है कि इन पर पारिवारिक आय के अनुसार ही व्यय हो।

(ii) आवश्यकताओं में समन्वय:
विभिन्न आवश्यकताओं को सन्तुलित रूप से पूरा किया जाना चाहिए। आवश्यकताओं की पूर्ति उनके महत्त्व के क्रम में प्राथमिकता के सिद्धान्त के अनुसार की जानी चाहिए। उदाहरण के लिए–जीवनरक्षक आवश्यकताओं में भोजन सर्वप्रथम आता है तथा वस्त्र एवं मकान बाद में। अतः गृहिणी को सर्वप्रथम यह देखना चाहिए कि परिवार के सभी सदस्यों को आवश्यक पौष्टिक भोजन मिले, इसके पश्चात् ही आय का व्यय वस्त्र व मकान की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जाना चाहिए।

(ii) आय के अनुसार व्यय:
जिस प्रकार धन का अपव्यय करना अनुचित है, उसी प्रकार धन का आवश्यकता से कम व्यय करना भी कोई अच्छी बात नहीं है। एक कुशल गृहिणी अर्थव्यवस्था का संचालन रहन-सहन के सामाजिक स्तर के अनुसार करती है। यदि पारिवारिक आय कम है, तो इसका व्यय केवल मूल (UPBoardSolutions.com) आवश्यकताओं की पूर्ति में ही करती है। इसके विपरीत यदि आय अधिक है, तो वह स्तर के अनुरूप विलासिता की वस्तुओं (जैसे कि वातानुकूलन, टेलीविजन, गृह सज्जा की वस्तुएँ इत्यादि) पर भी धन व्यय कर सकती है अर्थात् एक कुशल गृहिणी को आय के अनुसार ही व्यय करना चाहिए।

(iv) मुद्रा की क्रय-शक्ति:
आज महँगाई के युग में मुद्रा की क्रय-शक्ति प्रायः घटती रहती है। एक कुशल गृहिणी मुद्रा की क्रय-शक्ति का विशेष ध्यान रखती है तथा इसके अनुसार ही अपने परिवार की अर्थव्यवस्था का संचालन करती है।

(v) पारिवारिक सन्तोष:
पारिवारिक आय एवं परिवार के सदस्यों की संख्या में सीधा सम्बन्ध होता है। कम सदस्यों के परिवार में अर्थव्यवस्था के संचालन में कोई विशेष कठिनाई नहीं होती, परन्तु यदि परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक है तो गृहिणी की व्यवहार-कुशलता एवं सूझ-बूझ के द्वारा ही अर्थव्यवस्था का संचालन सम्भव है। एक कुशल गृहिणी परिवार के सभी सदस्यों के सुख, सन्तोष एवं रुचि का ध्यान रखती है तथा आवश्यकता पड़ने पर पारिवारिक आय में वृद्धि के उपाय अपनाती है।

(vi) भविष्य के लिए बचत:
एक कुशल गृहिणी कभी भी धन का अनुचित व्यय नहीं करती है। वह अर्थव्यवस्था का संचालन योजना बनाकर करती है। वह प्रत्येक परिस्थिति में भविष्य की योजनाओं व आकस्मिक कार्यों (बीमारी व विवाह आदि) के लिए धन की बचत का प्रावधान रखती है। प्रत्येक कुशल गृहिणी पारिवारिक स्तर के अनुरूप धन का व्यय करती है तथा एक निश्चित मात्रा में धन की बचत कर उसको सुरक्षित एवं अधिक लाभप्रद राष्ट्रीय बचत योजनाओं में लगाती है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि परिवार की बढ़ती आवश्यकताओं की सन्तुष्टि तभी सम्भव हो सकती है जब विभिन्न आवश्यकताओं तथा उनकी तीव्रता को ध्यान में (UPBoardSolutions.com) रखकर सीमित साधनों से सन्तुष्ट किया जाए। इस उद्देश्य के लिए आय-व्यय का सन्तुलन अत्यन्त आवश्यक है। यदि पारिवारिक आय-व्यय का सन्तुलन न किया जाए, तो गृह की अर्थव्यवस्था अव्यवस्थित हो जाएगी और यह भी सम्भव है कि परिवार की आय से व्यय अधिक हो जाए। परिवार की आय से अधिक व्यय हो जाने पर परिवार पर ऋण का बोझ हो जाएगा और ऋण से परिवार की सुख-शान्ति समाप्त हो जाएगी।
वास्तव में, एक सुव्यवस्थित या कुशल अर्थव्यवस्था ही इस उद्देश्य की पूर्ति में सहायक हो सकती है। अतः एक आदर्श गृह-व्यवस्था में कुशल अर्थव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण स्थान है। गृहिणी को इस बात की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए कि मानव की किस-किस अवस्था की । कौन – कौन सी आवश्यकताएँ महत्वपूर्ण हैं; (UPBoardSolutions.com) जैसे-शिशु की आवश्यकता, भूख व सुरक्षा। उसके। पश्चात् बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था एवं वृद्धावस्था की आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न हैं। सभी बातों को ध्यान में रखते हुए अपना पूर्ण उत्तरदायित्व निभाएँ।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
सफल गृह-अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
यह सत्य है कि परिवार की सुख-शान्ति एवं समृद्धि के लिए गृह-अर्थव्यवस्था का उत्तम एवं सुनियोजित होना आवश्यक है। अब प्रश्न उठता है कि किस प्रकार की गृह-अर्थव्यवस्था को उत्तम या सफल कहा जा सकता है, अर्थात् सफल गृह-अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ या लक्षण क्या हैं? सफल गृह-अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित मानी जाती हैं ।

  1.  सफल गृह-अर्थव्यवस्था में परिवार की मूलभूत आवश्यकताओं को प्राथमिकता दी जाती है।
  2. सफल गृह-अर्थव्यवस्था में परिवार की विभिन्न आवश्यकताओं में समन्वय स्थापित किया जाता है।
  3.  सफल गृह-अर्थव्यवस्था में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की प्राथमिकता को निर्धारित कर लिया जाता है।
  4.  सफल गृह-अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत आय के अनुसार व्यय का निर्धारण किया जाता है।
  5.  सफल गृह-अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत अनिवार्य रूप से बचत का प्रावधान होता है।
  6. सफल गृह-अर्थव्यवस्था में पारिवारिक सन्तोष का ध्यान रखा जाता है। प्रश्न 2-गृह-अर्थव्यवस्था के मुख्य सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर:
किसी भी परिवार की उत्तम गृह-अर्थव्यवस्था को बनाए रखने के लिए निम्नलिखित सिद्धान्तों को ध्यान में रखना चाहिए

  1.  पारिवारिक लक्ष्यों के निर्धारण का सिद्धान्त,
  2. आय के विश्लेषण का सिद्धान्त,
  3.  विभिन्न पारिवारिक योजनाओं सम्बन्धी सिद्धान्त,
  4.  पारिवारिक भविष्य की सुरक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त,
  5. परिवार के सदस्यों की सन्तुष्टि का सिद्धान्त।

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प्रश्न 3:
आवश्यकताएँ कितने प्रकार की होती हैं?
या
अनिवार्य आवश्यकताएँ किन्हें कहा जाता है?
या
आरामदायक आवश्यकताओं से आप क्या समझती हैं?
या
विलासात्मक आवश्यकताओं से क्या आशय है?
उत्तर:
व्यक्ति की आवश्यकताएँ अनन्त होती हैं तथा वे कभी भी पूर्ण नहीं होतीं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए मानवीय आवश्यकताओं का एक व्यवस्थित वर्गीकरण किया गया है। इस वर्गीकरण के अन्तर्गत समस्त मानवीय आवश्यकताओं को तीन वर्गों में रखा गया है। ये वर्ग हैं-अनिवार्य आवश्यकताएँ, आरामदायक आवश्यकताएँ तथा विलासात्मक आवश्यकताएँ। इन तीनों प्रकार की आवश्यकताओं का संक्षिप्त परिचय निम्नवर्णित है

(1) अनिवार्य आवश्यकताएँ:
मानव जीवन के लिए अत्यधिक अनिवार्य आवश्यकताओं को इस वर्ग में सम्मिलित किया जाता है। इस वर्ग की मानवीय आवश्यकताओं को व्यक्ति की मौलिक आवश्यकताएँ भी कहा जाता है। इस वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति के अभाव में मनुष्य का जीवन भी कठिन हो जाता है। मुख्य रूप से (UPBoardSolutions.com) भोजन, वस्त्र तथा आवास को इस वर्ग की आवश्यकताएँ माना गया है। व्यापक रूप से इस वर्ग में भी तीन प्रकार की आवश्यकताओं को सम्मिलित किया जाता है, जिन्हें क्रमशः जीवनरक्षक अनिवार्य आवश्यकताएँ, कार्यक्षमतारक्षक अनिवार्य आवश्यकताएँ तथा प्रतिष्ठारक्षक
अनिवार्य आवश्यकताएँ कहा जाता है।

(2) आरामदायक आवश्यकताएँ:
इस वर्ग में उन आवश्यकताओं को सम्मिलित किया जाता है। जिनकी पूर्ति से व्यक्ति का जीक्न निश्चित रूप से अधिक सुखी तथा सुविधामय हो जाता है। उदाहरण के
लिए – विभिन्न घरेलू उपकरण इसी वर्ग की आवश्यकताएँ हैं। इन उपकरणों को अपनाकर जीवन अधिक सरल हो जाता है।

(3) विलासात्मक आवश्यकताएँ:
इस वर्ग में उन आवश्यकताओं को सम्मिलितं किया जाता है। जो व्यक्ति की विलासात्मक इच्छाओं से सम्बन्धित होती हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के अभाव में न तो व्यक्ति के जीवन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और न ही व्यक्ति की कार्यक्षमता ही घटती है। विलासात्मक आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न समाज में भिन्न-भिन्न होती हैं। विलासात्मक आवश्यकताएँ भी तीन प्रकार की होती हैं, जिन्हें क्रमशः हानिरहित विलासात्मक आवश्यकताएँ, हानिकारक विलासात्मक आवश्यकताएँ तथा सुरक्षा सम्बन्धी विलासात्मक आवश्यकताएँ कहा (UPBoardSolutions.com) जाता है। अधिक महँगी कार, आलीशान भवन, महँगे तथा अधिक संख्या में वस्त्र रखना हानिरहित विलासात्मक आवश्यकताओं की श्रेणी में आते हैं। भोग-विलास के साधने नशाखोरी तथा नैतिक एवं चारित्रिक पतन के साधनों को अपनाना हानिकारक विलासात्मक आवश्यकताओं से सम्बद्ध हैं। जहाँ तक सुरक्षात्मक विलासात्मक आवश्यकताओं का सम्बन्ध है, इनमें बहुमूल्य गहनों तथा विभिन्न सम्पत्तियों को सम्मिलित किया जाता है। ये वस्तुएँ व्यक्ति के संकट-काल में सहायक होती हैं।

प्रश्न 4:
आरामदायक तथा विलासात्मक आवश्यकताओं में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मानवीय आवश्यकताओं के वर्गीकरण में आरामदायक तथा विलासात्मक आवश्यकताओं को अलग-अलग वर्ग में प्रस्तुत किया गया है। स्थूल रूप से देखने पर इन दोनों प्रकार की आवश्यकताओं में कोई स्पष्ट अन्तर दिखाई नहीं देता। एक ही आवश्यकता एक व्यक्ति के लिए विलासात्मक आवश्यकता हो सकती है और वही आवश्यकता किसी अन्य व्यक्ति के लिए आरामदायक आवश्यकता हो सकती है। वास्तव (UPBoardSolutions.com) में, ये दोनों सापेक्ष हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि जिस आवश्यकता से सम्बन्धित व्यक्ति का किसी प्रकार अहित होने की आशंका हो, वह आवश्यकता विलासात्मक आवश्यकता की श्रेणी में आएगी। इससे भिन्न जो आवश्यकता केवल जीवन की सुख-सुविधा में वृद्धि करती है, वह आरामदायक आवश्यकता की श्रेणी में आएगी।

प्रश्न 5:
मानवीय आवश्यकताओं की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
मानवीय आवश्यकताओं की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित होती हैं ।

  1. मानवीय आवश्यकताएँ असीमित होती हैं।
  2. मानवीय आवश्यकताओं में पुनरावृत्ति होती है। उदाहरण के लिए–एक बार भोजन ग्रहण कर लेने के उपरान्त कुछ समय बाद पुनः भोजन की आवश्यकता महसूस होने लगती है।
  3. आवश्यकताओं की एक विशेषता यह है कि इनमें विकल्प भी सम्भव होते हैं। उदाहरण के लिए–प्रकाश की आवश्यकता के लिए साधन के रूप में लैम्प, मोमबत्ती, वैद्युत-बल्ब आदि में विकल्प हो सकता है।
  4. कुछ आवश्यकताएँ परस्पर पूरक होती हैं। उदाहरण के लिए मोटर की पूरक आवश्यकता पेट्रोल है।
  5. मानवीय आवश्यकताओं में प्रतिस्पर्धा होती है तथा उनकी प्रबलता में अन्तर होता है।
  6. वर्तमान सम्बन्धी मानवीय आवश्यकताएँ अधिक प्रबल होती हैं।
  7. कुछ मानवीय आवश्यकताएँ आदत का रूप ले लेती हैं।
  8. जानकारी बढ़ने के साथ-साथ आवश्यकताएँ बढ़ती हैं।
  9. आवश्यकताओं पर विज्ञापन एवं प्रचार का भी प्रभाव पड़ता है।
  10. मानवीय आवश्यकताओं की एक विशेषता यह है कि इन पर प्रचलित रीति-रिवाजों तथा फैशन का भी प्रभाव पड़ता है।

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प्रश्न 6:
आवश्यकता की अनिवार्यता आप किस प्रकार निर्धारित करेंगी?
उत्तर:
आवश्यकता की अनिवार्यता निम्नलिखित आधारों पर निर्भर करती है

(1) कुशलता में वृद्धि का आधार:
यदि किसी आवश्यकता की पूर्ति से परिवार की कार्य-कुशलता में वृद्धि होती है, तो वह आवश्यकता अति अनिवार्य हो जाती है।

(2) सुख-सन्तोष का आधार:
जिन आवश्यकताओं की पूर्ति से पारिवारिक सदस्यों को सुख एवं सन्तोष की प्राप्ति होती है, वे अनिवार्यता की श्रेणी में आती हैं।

(3) मूल्य एवं माँग का आधार:
यदि किसी आवश्यक वस्तु के मूल्य में वृद्धि की आशंका हो तो वह अनिवार्यता की श्रेणी में आ जाती है।

प्रश्न 7:
आवश्यकताओं के महत्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। विज्ञान के विभिन्न आविष्कारों के अन्वेषण का आधार सदैव मनुष्य की आवश्यकताएँ ही रही हैं। आदि मानव से आज के मानव का सामाजिक विकास समय-समय पर आवश्यकताओं की उत्पत्ति एवं तुष्टि के कारण ही सम्भव हुआ है। आधुनिक युग में आवश्यकताओं की पूर्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन धन है। आवश्यकताओं में वृद्धि होने पर परिवार के (UPBoardSolutions.com) सदस्य पारिवारिक आय में वृद्धि का प्रयास करते हैं, जिसके फलस्वरूप रहन-सहन का स्तर ऊँचा होता है। सम्मिलित आर्थिक प्रयासों से पारिवारिक सदस्यों में स्नेह, सहयोग एवं दायित्व की भावना में वृद्धि होती है तथा परिवार की उन्नति होती है।

प्रश्न 8:
परिवार की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करना कठिन होता है। क्यों?
उत्तर:
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन मुख्य साधन है। परिवार में धन का मुख्य स्रोत पारिवारिक आय होती है। आवश्यकताएँ अनन्त होती हैं और आय प्रायः सीमित। अतः आवश्यकताओं की पूर्ति अनिवार्यता के क्रम में की जाती है। सर्वप्रथम मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है और यदि धन शेष बचता है तो कुछ और आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है। शेष आवश्यकताओं की पूर्ति का (UPBoardSolutions.com) एकमात्र उपाय पारिवारिक सदस्यों के सम्मिलित प्रयासों से ही सम्भव हो सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि परिवार की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करना एक कठिन कार्य है।

प्रश्न 9:
आवश्यकता एवं आर्थिक क्रियाओं को सम्बन्ध बताइए।
उत्तर:
आवश्यकता आविष्कार की जननी है। यदि आवश्यकताएँ न होतीं तो किसी प्रकार के आर्थिक प्रयास आदि का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः आर्थिक प्रयत्न की जननी आवश्यकता ही है। इस प्रकार आर्थिक क्रियाओं एवं आवश्यकताओं में अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। वास्तव में, आवश्यकताएँ ही (UPBoardSolutions.com) मनुष्य को आर्थिक प्रयत्न करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए मनुष्य विभिन्न प्रकार की आर्थिक क्रियाएँ करता है। इन आर्थिक क्रियाओं में उत्पादन, विनिमय, वितरण आदि को सम्मिलित किया जा सकता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
गृह-अर्थव्यवस्था की एक सरल एवं स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
‘परिवार की आय तथा व्यय पर नियन्त्रण होना तथा आय का गृह के सृजनात्मक कार्यों में व्यय करना गृह-अर्थव्यवस्था कहलाता है।” निकिल तथा डारसी

प्रश्न 2:
गृह-अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाला मुख्यतम कारक क्या है?
उत्तर:
गृह-अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाला मुख्यतम कारक है-धन या आय।

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प्रश्न 3:
गृह-अर्थव्यवस्था के किन्हीं दो सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
गृह-अर्थव्यवस्था के दो सिद्धान्त है

  1. आय के विश्लेषण का सिद्धान्त तथा
  2.  पारिवारिक भविष्य की सुरक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त।

प्रश्न 4:
सफल गृह-अर्थव्यवस्था की किन्हीं दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सफल गृह-अर्थव्यवस्था की दो विशेषताएँ हैं

  1.  परिवार की आवश्यकताओं की प्राथमिकता को निर्धारित करना तथा
  2.  गृह-अर्थव्यवस्था में बचत का प्रावधान रखना।

प्रश्न 5:
परिवार की अति अनिवार्य मूलभूत आवश्यकता क्या है?
उत्तर:
भोजन परिवार की अति अनिवार्य मूलभूत आवश्यकता है।

प्रश्न 6:
जीवनरक्षक आवश्यकता से आप क्या समझती हैं?
उत्तर:
भोजन एवं वस्त्र मानव अस्तित्व की जीवनरक्षक आवश्यकताएँ हैं।

प्रश्न 7:
विलासिता सम्बन्धी आवश्यकताओं से आप क्या समझती हैं?
उत्तर:
ये सामाजिक प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य एवं दिखावे सम्बन्धी आवश्यकताएँ हैं; जैसे कि रंगीन टी० वी०, वातानुकूलित यन्त्र आदि।

प्रश्न 8:
आधुनिक समाज के विभिन्न परिवारों को आप कौन-कौन सी श्रेणियों में वर्गीकृत करेंगी?
उत्तर:
आधुनिक समाज को प्रायः तीन-उच्च, मध्यम व निम्न श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है।

प्रश्न 9:
गृह-अर्थव्यवस्था को उत्तम बनाने में सर्वाधिक योगदान परिवार के किस सदस्य का होता है?
उत्तर:
गृह-अर्थव्यवस्था को उत्तम बनाने में सर्वाधिक योगदान परिवार के मुखिया का होता है।

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प्रश्न 10:
उत्तम एवं सुचारु गृह-अर्थव्यवस्था को विकसित करने के लिए परिवार का आकार किस प्रकार का होना चाहिए?
उत्तर:
उत्तम एवं सुचारु गृह-अर्थव्यवस्था को विकसित करने के लिए परिवार का आकार छोटा होना चाहिए।

प्रश्न 11:
परिवार के बच्चों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था किस प्रकार की पारिवारिक आवश्यकता है?
उत्तर:
परिवार के बच्चों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था परिवार की मूलभूत आवश्यकता है।

प्रश्न 12:
कपड़े धोने की मशीन किस प्रकार की आवश्यकता है?
उत्तर:
कपड़े धोने की मशीन एक आरामदायक आवश्यकता है।

प्रश्न 13:
बहुमूल्य गहने किस प्रकार की आवश्यकता है?
उत्तर:
बहुमूल्य गहने सुरक्षात्मक विलासात्मक आवश्यकता है।

प्रश्न 14:
एक डॉक्टर के लिए कार किस प्रकार की आवश्यकता है?
उत्तर:
एक डॉक्टर के लिए कार अनिवार्य आवश्यकता है।

प्रश्न 15:
सिगरेट या शराब पीना कैसी आवश्यकता है?
उत्तर:
सिगरेट या शराब पीना आदत सम्बन्धी आवश्यकता के उदाहरण हैं।

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प्रश्न 16:
आपके अनुसार परिवार के सदस्यों के लिए स्वस्थ मनोरंजन की व्यवस्था परिवार की किस प्रकार की आवश्यकता है?
उत्तर:
हमारे अनुसार परिवार के सदस्यों के लिए स्वस्थ मनोरंजन की व्यवस्था परिवार की मूलभूत आवश्यकता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न:
प्रत्येक प्रश्न के चार वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। इनमें से सही विकल्प चुनकर लिखिए

(1) किसी परिवार द्वारा अपनी आय-व्यय तथा धन-सम्पत्ति के लिए की जाने वाली व्यवस्था को कहते हैं
(क) अनिवार्य व्यवस्था,
(ख) पारिवारिक व्यवस्था,
(ग) गृह-अर्थव्यवस्था,
(घ) अनावश्यक व्यवस्था।

(2) कुशल अर्थव्यवस्था का आधार है
(क) पारिवारिक आय,
(ख) सीमित आवश्यकताएँ,
(ग) विवेकपूर्ण व्यय,
(घ) पैतृक सम्पत्ति।

(3) यदि गृह-अर्थव्यवस्था सुचारू हो, तो
(क) परिवार के सदस्यों की प्रमुख आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है,
(ख) परिवार के रहन-सहन के स्तर में सुधार होता है,
(ग) परिवार आर्थिक संकट का शिकार नहीं होता,
(घ) उपर्युक्त सभी लाभ प्राप्त होते हैं।

(4) पारिवारिक आय को मितव्ययिता से व्यय करने के लाभ हैं
(क) सुख-सुविधाओं की प्राप्ति,
(ख) भविष्य के लिए बचत,
(ग) सुदृढ़ अर्थव्यवस्था,
(घ) ये सभी।

(5) व्यक्ति की सर्वाधिक अनिवार्य आवश्यकता है
(क) सभी इच्छाओं की पूर्ति,
(ख) सन्तुलित एवं पौष्टिके भोजन,
(ग) नींद,
(घ) भव्य एवं आकर्षक भवन।

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(6) मानवीय आवश्यकताएँ होती हैं
(क) दो,
(ख) चार,
(ग) सीमित,
(घ) असीमित।

(7) सबसे अधिक सुखी होता है
(क) धनी वर्ग,
(ख) नियन्त्रित आवश्यकताओं वाला वर्ग,
(ग) श्रमिक वर्ग,
(घ) मध्यम श्रेणी का वर्ग।

(8) जीवनरक्षक आवश्यकता होती है
(क) जिसकी पूर्ति मानव अस्तित्व के लिए की जाती है,
(ख) जो रहन-सहन के स्तर को ऊँचा उठाती है,
(ग) जिसकी पूर्ति से कार्य-कुशलता बढ़ती है,
(घ) जिसकी पूर्ति से अत्यधिक सुख का अनुभव होता है।

उत्तर:
(1) (ग) गृह-अर्थव्यवस्था,
(2) (ग) विवेकपूर्ण व्यय,
(3) (घ) उपर्युक्त सभी लाभ प्राप्त होते हैं,
(4) (घ) ये सभी,
(5) (ख) सन्तुलित एवं पौष्टिक भोजन,
(6) (घ) असीमित,
(7) (ख) नियन्त्रित आवश्यकताओं वाला वर्ग,
(8) (क) जिसकी पूर्ति मानव अस्तित्व के लिए की जाती है।

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