Class 9 Sanskrit Chapter 8 UP Board Solutions बन्धुत्वस्य सन्देष्टा रविदासः Question Answer

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 8
Chapter Name बन्धुत्वस्य सन्देष्टा रविदासः (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 3
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 8 Bandhutvasya Sandeshta Ravidas Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 8 हिंदी अनुवाद बन्धुत्वस्य सन्देष्टा रविदासः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांश

परिचय एवं जन्म-रविदास को स्वामी रामानन्द के बारह शिष्यों में से एक माना जाता है। उनका नाम रैदास लोक-प्रचलित है। उनका जन्म काशी के मण्डुवाडीह ग्राम में विक्रमी संवत् 1471 में माघ मास की पूर्णिमा तिथि को रविवार के दिन हुआ था। रविवार को जन्म होने के कारण ही उनका नाम रविदास’ पड़ा।

तत्कालीन परिस्थितियाँ-रविदास के समय में भारतवासी यवनों के शासन से पीड़ित थे और भारतीय राजा आपस में लड़ रहे थे। भारतवासी सभी तरह से उपेक्षित थे और विद्यमान सम्प्रदायों में। धार्मिक द्वेष बढ़ रहा था। ऐसी दशा में दु:खी होकर महात्माओं ने ईश्वर को ही शरण मानते हुए लोगों को ईश्वर की व्यापकता और सर्वशक्तिमत्ता समझायी। भारतवासी उन्हीं लोगों का सन्त कहकर आदर करते थे, जो दीन-दुःखियों की सेवा में तत्पर तथा दलितों और शोषितों के प्रति दयावान थे।

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जीवन-प्रणाली एवं सिद्धान्त-रविदास अपने कर्म में लगे रहकर दु:खी लोगों के प्रति दयावान बने रहे। वे धर्म के बाह्य आचरणों को परस्पर द्वेष का कारण मानते थे। ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा यह उनका विचार था। रविदास किसी पाठशाला में नहीं पढ़े। उन्होंने गुरु की कृपा से संसार की क्षणभंगुरता एवं ईश्वर की नित्यता और व्यापकता का जो ज्ञान प्राप्त किया, उसी का लोगों को उपदेश . दिया। | रविदास ने न किसी जंगल में जाकर तपस्या की ओर न ही किसी पर्वत की गुफा में बैठकर साधना की। वे जल में रहते हुए भी जल (UPBoardSolutions.com) से भिन्न रहने वाले कमल-पत्र की तरह संसार के बन्धन से मुक्त थे। उनका विश्वास था कि अपना कर्म करते हुए घर पर रहकर भी ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सकता है। वे ईश्वर को मन्दिरों, वनों और एकान्त में ढूंढ़ने की अपेक्षा अपने हृदय के भीतर ढूंढ़ना अधिक उचित समझते थे। वे ईश्वर की प्राप्ति में अहंकार को सबसे बड़ा बाधक मानते थे। यह मैं करता हूँ, यह मेरा है-इस भ्रम को छोड़कर ही ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सकता है; ऐसा उनका मानना था।

निर्गुणोपासक-रविदास, कबीरदास, नानक आदि महात्माओं ने यद्यपि निर्गुण ब्रह्म की उपासना की, फिर भी उन्होंने सगुणोपासकों से कभी द्वेष नहीं किया। वे निराकार ब्रह्म के साक्षात्कार के साथ-साथ दु:खियों, दीनों, दरिद्रों और दलितों के प्रति भी अपने मन में अगाध प्रेम रखते थे।

रविदास दीनों, दरिद्रों और दलितों में ईश्वर के दर्शन करते थे। उनके विचार में ईश्वर ने सबको समान बनाया है; अतः सभी आपस में भाई-भाई हैं। मनुष्य जाति में जाति, वर्ण और सम्प्रदाय के भेद : मनुष्य ने बनाये हैं। वे कहते थे-‘हरि को भजे, सो हरि का होई।’ हरि के भजन में जाति या वर्ण नहीं पूछा जाता है। उन्होंने राष्ट्र की अखण्डता और एकता को बनाये रखने का सदैव प्रयत्न किया।

स्वर्गारोहण-रविदास 126 वर्ष की आयु में संवत् 1597 वि० राजस्थान के चित्तौड़गढ़ नामक स्थान पर परमात्मा में विलीन हो गये थे। वे अपने यशः शरीर से आज भी जीवित हैं।

गधाशों का सन्दर्भ अनुवाद 

(1) परमोपासकस्य रामानन्दस्य द्वादशशिष्या आसन्निति भण्यते। तेषु शिष्येषु रविदासो लोके रैदास इति संज्ञया ख्यात एकः शिष्यः आसीदित्युच्यते। रविदासस्य जन्म काश्यां माण्डूरनाम्नि (मण्डुवाडीह) ग्रामे एकसप्तत्युत्तरचतुर्दशशततमे (1471 वि०) विक्रमाब्दे माघमासस्य पूर्णिमायान्तिथौ रविवासरेऽभवत्। रविवासरे तस्य जन्म इति हेतोः रविदास इति नाम जातमित्यनुमीयते। |

शब्दार्थ-
भण्यते = कहा जाता है। संज्ञया = नाम से।
ख्यात = प्रसिद्ध।
आसीत् इति उच्यते = थे, ऐसा कहा जाता है।
हेतोः = कारण से।
जातमित्यनुमीयते (जातम् + इति + अनुमीयते) = हुआ, ऐसा अनुमान किया जाता है।

सन्दर्भ
प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तके ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘बन्धुत्वस्य सन्देष्टा रविदासः’ शीर्षक पाठ से अवतरित है।

संकेत
इस पाठ के शेष गद्यांशों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में रविदास के शिष्यत्व एवं जन्म की बात कही गयी है।

अनुवाद
महान् उपासक रामानन्द के बारह शिष्य थे, ऐसा कहा जाता है। उन शिष्यों में रविदास संसार में रैदास नाम के प्रसिद्ध एक शिष्य थे, ऐसा कहा जाता है। रविदास का जन्म काशी में | मांडूर (मण्डुवाडीह) नामक ग्राम में विक्रम संवत् 1471 में माघ मास की पूर्णिमा तिथि को रविवार के दिन हुआ था। रविवार के दिन उनका जन्म हुआ, इस कारण ‘रविदास’ यह नाम हुआ, ऐसा अनुमान किया जाता है।

(2) पञ्चदश्यां शताब्दी भारतीयजनजीवनमतीवक्लेशक्लिष्टमासीत्। यवनशासकैराक्रान्तो देशो, मिथः कलहायमाना भारतीयाः राजानः दुःखदैन्यग्रस्ताः, सर्वथोपेक्षिताः भारतीयजनाः विविधधमानुयायिषु प्रवृत्तो विद्वेषो जातिवर्णेषु विभक्तो भारतीयसमाज इति देशदशां दर्श दर्श दूयमानहृदयाः (UPBoardSolutions.com) तदानीन्तनाः महात्मानः सन्तश्चेश्वर एव शरणमिति मन्यमाना ईश्वरम्प्रति समर्पिताः सन्त परमात्मनो व्यापकत्वं तस्य सर्वशक्तिमत्त्वञ्च बोधयति स्म। |

शब्दार्थ-
अतीव = अत्यधिक।
क्लेशक्लिष्टम् = दुःखों से दु:खी।
मिथः = आपस में।
कलहायमाना = कलह करते हुए।
सर्वथोपेक्षिताः = सब प्रकार से उपेक्षित।
दर्श दर्शम् = देख-देखकर।
दूयमान हृदयाः = दुःखी हृदय वाले।
तदानीन्तनाः = उस समय के।
व्यापकत्वं = व्यापक होना।
बोधयन्ति स्म = समझते थे।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में पन्द्रहवीं शताब्दी में भारतीयों की दीन दशा तथा उस दशा से उन्हें उबारने के लिए भारतीय सन्तों द्वारा किये जा रहे जन-जागरण आन्दोलन का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
पन्द्रहवीं शताब्दी में भारतीय लोगों का जीवन कष्टों से अत्यधिक दुःखी था। मुसलमान शासकों से देश आक्रान्त (पीड़ित) था, आपस में झगड़ते हुए भारतीय राजा दुःख और दीनता से ग्रसित थे, भारतीय लोग सभी तरह से उपेक्षित थे, विविध धर्म के अनुयायियों में शत्रुता बढ़ी हुई थी, भारतीय समाज जातियों और वर्गों में बँटा हुआ था इस प्रकार देश की दशा को देख-देखकर दुःखित हृदय वाले तत्कालीन महात्मा और सन्त (UPBoardSolutions.com) ईश्वर ही शरण है ऐसा मानते हुए ईश्वर के प्रति समर्पित सन्त परमात्मा की व्यापकता और उसकी सर्वशक्तिमत्ता को समझाते थे।

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(3) वस्तुतस्तु, तादृशा एव महापुरुषाः ‘सन्त’ शब्देन भारतीयजनमानसे समादृता अभवन्, ये परदुःखकातराः परहितरताः दुःखिजनसेवापरायणाः दलितान् शोषितान्प्रति सदयाः स्वसुखमविगणयन्तः यदृच्छालाभसन्तुष्टा आसन्।

शब्दार्थ-
वस्तुतस्तु = वास्तव में।
तादृशा एव = उस प्रकार के ही।
समादृताः = सम्मान प्राप्त।
परहितरताः = दूसरों की भलाई में लगे हुए।
सदयाः = दयालु।
अविगणयन्तः = न गिनते हुए, उपेक्षा करते हुए।
यदृच्छालाभः = इच्छानुसार जो प्राप्त हो जाए।

प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में तत्कालीन भारतीय समाज में सन्तों की स्थिति का वर्णन किया गया है। | अनुवाद–वास्तव में भारतीय लोगों के मन में उसे प्रकार के महापुरुषों ने ही ‘सन्त’ शब्द से आदर प्राप्त किया, जो दूसरों के दु:खों, दूसरों की भलाई में लगे हुए, दुःखी लोगों की सेवा करने वाले, दलितों और शोषितों के प्रति दयावान्, अपने सुखों की परवाह न करके जैसा मिल गया, उस लाभ से सन्तुष्ट थे।’

(4) सत्पुरुषो महात्मा रविदासः स्वकर्मणि निरतः सन् परमात्मनो माहात्म्यमुपवर्णयन् दुःखितान् जनान्प्रति सदयहृदयः कर्मणः प्रतिष्ठां लोकेऽस्थापयत्। धर्मस्य बाह्याचारः एवं परस्परवैरस्य हेतुरिति स विश्वसिति स्म। अतो बाह्याचारान् परिहाय धर्माचरणं विधेयम्। गङ्गास्नानाच्छरीरशुद्धेरपेक्षया मनसा शुद्धिरावश्यकीति तेनोक्तम्। पूते तु मनसि काष्ठस्थाल्यामेव गङ्गेति तस्योक्ति प्रसिद्धैवास्ति।

शब्दार्थ-
निरतः सन् = लगे हुए।
माहात्म्यम् उपवर्णयन् = महत्त्व का वर्णन करते हुए।
लोकेऽस्थापयत् = लोक में स्थापित की।
विश्वसिति स्म = विश्वास करते थे।
परिहाय = छोड़कर।
विधेयम् = करना चाहिए।
गङ्गस्नानाच्छरीरशुद्धेरपेक्षया (गङ्गा + स्नानात् + शरीर + शुद्धेः + अपेक्षया) = गंगा में स्नान से शरीर की शुद्धि की अपेक्षा।
पूते तु मनसि = मन पवित्र होने पर।
काष्ठस्थाल्यामेव (काष्ठः + स्थाल्याम् + एव) = काठ की थाली (कठौती) में ही।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में रविदास के धर्म के बाह्यचारों के सम्बन्ध में व्यक्त विचारों का वर्णन • किया गया है।

अनुवाद
सत् पुरुष महात्मा रविदास ने अपने कर्म में लगे हुए रहकर परमात्मा की महिमा का वर्णन करते हुए, दु:खी लोगों के प्रति दयालु हृदय होकर संसार में कर्म की प्रतिष्ठा स्थापित की। वे ‘धर्म के बाहरी आचरण ही आपसी वैर के कारण ऐसा विश्वास करते थे। इसलिए बाहरी आचारे को छोड़कर धर्म का (UPBoardSolutions.com) आचरण करना चाहिए। गंगा स्नान से शरीर की शुद्धि की अपेक्षा मन की शुद्धि आवश्यक है, ऐसा उन्होंने बतलाया। मन के पवित्र रहने पर कठौती में ही गंगा है, ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’, उनकी यह उक्ति ही प्रसिद्ध है।

(5) रविदासः कस्याञ्चिदपि पाठशालायां पठितुं न गतोऽतस्तस्य ज्ञानं पुस्तकीयं नासीत्। जगतो नश्वरत्वं परमात्मनोऽनश्वरत्वं व्यापकत्वमित्यादिदार्शनिकं ज्ञानं गुरोरनुकम्पया तेन लब्धं प्रेरणयैव तथाभूतस्य ज्ञानस्योपदेशो जनेभ्यस्तेन दत्तः।।

शब्दार्थ-
कस्याञ्चिदपि = किसी भी।
पुस्तकीयम् = पुस्तक सम्बन्धी।
नश्वरत्वम् = नाशवान् होने का भाव।
गुरोरनुकम्पया = गुरु की कृपा से।
तथाभूतस्य = उस प्रकार का।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में रविदास द्वारा गुरु की कृपा से दार्शनिक ज्ञान अर्जित करने का वर्णन

अनुवाद
रविदास किसी भी पाठशाला में पढ़ने के लिए नहीं गये, इसलिए उनका ज्ञान पुस्तकीय नहीं था। उन्होंने संसार की नश्वरता, ईश्वर की नित्यता और व्यापकता आदि का दार्शनिक ज्ञान गुरु की कृपा से प्राप्त किया था। गुरु की प्रेरणा से ही उन्होंने लोगों को उस प्रकार के ज्ञान का उपदेश दिया।

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(6) सः तपस्तप्तुं गहनं वनं न जगाम न वा गिरिगुहायमुपविश्य साधनरतः ज्ञानमधिगन्तुं चेष्टते स्म। वीतरागभयक्रोधोऽसौ जगति निवसन्नपि जगतः बन्धनात् पद्मपत्रमिव मुक्तः व्यवहरति स्म। स्वकर्मणि निरतः फलम्प्रति निराकाङ्क्षः स्वगृहेऽपि परमात्मा साक्षात्कर्तुं शक्यते इति रविदासः प्रत्येति। (UPBoardSolutions.com) अतो विभिन्नोपासनास्थलेषु वनेषु रहसि वा ईश्वरानुसन्धानादपेक्षया स्वहृदये एवानुसन्धातुमुचितम्। ईश्वरप्राप्तावहङ्कार एवं बाधकोऽस्ति।’अहमिदं करोमि’ ममेदमिति बोधः भ्रमात्मकः। भ्रममपहायैव ईश्वरप्राप्तिः सम्भवा। रविदासः स्वरचिते पद्ये गायति—यदा अहमस्मि तदा त्वं नासि, यदा त्वमसि तदा अहं नास्मि।

शब्दार्थ-
गिरिगुहायामुपविश्य = पर्वत की गुफा में बैठकर।
अधिगन्तुम् = प्राप्त करने के लिए।
चेष्टते स्म = प्रयत्न किया।
निविसन्नपि = निवास करते हुए भी।
पद्मपत्रमिव = कमल के पत्ते के समान।
व्यवहरति स्म = व्यवहार करते थे।
निरतः = लगे हुए।
निराकाङ्क्षः = इच्छारहित। प्रत्येति = विश्वास करते थे।
रहसि = एकान्त में।
ईश्वरानुसन्धानादपेक्षया = ईश्वर को खोजने की अपेक्षा।
अनुसन्धातुम् = खोजने के लिए।
ईश्वर-प्राप्तावहङ्कारः (ईश्वर + प्राप्तौ + अहङ्कारः) = ईश्वर की प्राप्ति में घमण्ड।
बोधः = ज्ञान। भ्रममपहायैव = भ्रम को छोड़कर ही। नासि (न + असि) = नहीं हो।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में रविदास द्वारा ईश्वर-प्राप्ति के साधन रूप में ईश्वर को हृदय में खोजने और अहंकार को त्यागने पर बल दिया गया है।

अनुवाद
वे तपस्या करने के लिए घने जंगल में नहीं गये, न ही पर्वतों की गुफा में बैठकर साधना में लीन होकर ज्ञान को प्राप्त करने की चेष्टा की। राग, भय, क्रोध से रहित वे संसार में रहते हुए भी संसार के बन्धन से उसी प्रकार व्यवहार करते थे, जैसे कमल का पत्ता; अर्थात् जो जल में रहकर भी गीला नहीं होता है। अपने कर्म में लगे हुए फल के प्रति इच्छारहित होकर अपने घर में भी परमात्मा का साक्षात्कार किया जा (UPBoardSolutions.com) सकता है, रविदास ऐसा विश्वास करते थे। इसलिए विभिन्न पूजा-स्थलों में, वन में या एकान्त में ईश्वर को खोजने की अपेक्षा अपने हृदय में ही खोजना उचित है। ईश्वर की प्राप्ति में अहंकार ही बाधक है। मैं यह करता हूँ, यह मेरा है, यह ज्ञान भ्रमपूर्ण है। भ्रम को छोड़कर ही ईश्वर की प्राप्ति सम्भव है। रविदास अपने रचित पद्य में गाते हैं-“जब मैं हूँ, तब तुम नहीं हो, जब तुम हो, तब मैं नहीं हूं।”

(7) रविदासः कबीरदासो नानकदेवप्रभृतयः सन्तो महात्मानः निर्गुणमेवेश्वरं गायन्ति स्म। परन्ते सगुणसम्प्रदायावलम्बिनः प्रति विद्वेषिणो नासन्। तैः रचितेषु पदेषु यत्र-तत्र भक्तिभावस्य तत्त्वमवलोक्यते। निराकारब्रह्मणः गहनभूते सुविस्तृते साक्षात्कारविचारनभसि विचरन्नपि रविदासः ।। पृथिवीतले विद्यमानतेषु दुःखितेषु, दरिद्रेषु दलितेषु च सुतरां रमते स्म।।

शब्दार्थ-
प्रभृतयः = आदि।
परं ते = किन्तु वे।
विद्वेषिणः = द्वेष रखने वाले। नासन् (न +आसन्) = नहीं थे।
तत्त्वमवलोक्यते = तत्त्व देखा जाता है।
गहनभूते = गम्भीर बने हुए में।
साक्षात्कार विचारनभसि = साक्षात्कार के विचार रूपी आकाश में
विचरन्नपि = विचरण करते हुए। भी।
रमते स्म = रमता था।

प्रसंग
रविदास निर्गुण ब्रह्म की उपासना के साथ-साथ दु:खी-दलितों के प्रति भी दयावान थे। इसी का वर्णन प्रस्तुत गद्यांश में किया गया है।

अनुवाद
रविदास, कबीरदास, नानक देव आदि सन्त-महात्मा निर्गुण ईश्वर का ही गान करते थे, परन्तु वे सगुण मत को मानने वालों के प्रति द्वेष नहीं रखते थे। उनके द्वारा बनाये गये पदों में यहाँ-वहाँ (स्थान-स्थान) पर भक्तिभावना का तत्त्व देखा जाता है।

निराकार ब्रह्म के घने, अत्यन्त विस्तृत साक्षात्कार के विचाररूपी आकाश में विचरण करते हुए भी रविदास पृथ्वी तल पर विद्यमान दु:खी, दरिद्र और दलितों में अत्यधिक रमण (घूमते अर्थात् प्रेम) करते थे; अर्थात् निर्गुण ब्रह्म के साधक होते हुए भी दीन-दुःखियों से उतना ही प्रेम करते थे, जितना परमात्मा से।।

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(8) सः दलितेषु, दीनेषु, दरिद्रेष्वेवेश्वरमपश्यत्। तेषां सेवा, तान्प्रति सहानुभूतिः प्रेमप्रदर्शनं चेश्वरार्चनमिति तस्य विचारः। सामाजिकवैषम्यं न वास्तविकं प्रत्युत परमात्मना सर्वे समाना एव रचिताः, सर्वे च तस्येश्वरस्य सन्ततयोऽतः परस्परं बान्धवाः। मनुष्येषु तर्हि मिथः कथं वैरभावः? इत्थं समत्वस्य बन्धुतायाश्चोपदेशं जनेभ्योऽददात्। जातिवर्णसम्प्रदायादिभेदा अपि मनुष्यरचिताः परमात्मन इच्छाप्रतिकूलम्। इत्थं रविदासेन (UPBoardSolutions.com) मनुष्यजातौ स्पृश्यास्पृश्यादिदोषाणामुच्चावचभेदानां चातीवतीव्रस्वरेण विरोधः कृतः। हरि भजति स हरेर्भवति। हरिभजने ने कश्चित्पृच्छति जातिं वर्णं वेति सत्यं प्रतिपादयन् देशस्याखण्डतायाः राष्ट्रस्यैक्यस्य च रक्षणे स प्रायतते। महात्मा रविदासोऽध्यात्म, भक्ति, सामाजिकाभ्युन्नतिं च युगपदेव संसाधयन् सप्तनवत्युत्तरपञ्चदशशततमे वैक्रमे राजस्थानप्रान्ते चित्तौडगढनाम्नि स्थाने षड्विंशत्युत्तरशतिमते वयसि परमात्मनि विलीनः यशःशरीरेणाद्यापि जीवतितराम्।। |

शब्दार्थ
दरिद्रेष्वेवेश्वरमपश्यत् (दरिद्रेषु + एव + ईश्वरम् + अपश्यत्) = दरिद्रों में ही ईश्वर को देखते थे।
चेश्वरार्चनमिति (च + ईश्वर + अर्चनम् + इति) = और ईश्वर की पूजा है, ऐसा।
वैषम्यम् = असमानता को।
इच्छा-प्रतिकूलम् = इच्छा के विपरीत।
इत्थं = इस प्रकार।
स्पृश्यास्पृश्यादिदोषाणां = छुआछूत इत्यादि दोषों का।
उच्चावच = ऊँचे-नीचे।
चातीवतीव्रस्वरेण (च + अतीव + तीव्र + स्वरेण) = और अधिक तीखे स्वर से।
कश्चित् पृच्छति = कोई पूछता है।
प्रतिपादयन् = प्रतिपादन करते हुए।
प्रायतत = प्रयत्न किया। युगपदेव = एक साथ ही।
संसाधयन् = सिद्ध करते हुए।
वयसि = अवस्था में।
शरीरेणाद्यापि = (शरीरेण + अद्य + अपि) शरीर से आज भी।
जीवतितराम् = जीवित हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में रविदास ने दोनों, दुःखियों, दरिद्रों और दलितों में ईश्वर के रूप को दर्शाया है।

अनुवाद
उन्होंने दलितों, दीनों और दरिद्रों में ईश्वर के दर्शन किये। उनकी सेवा, उनके प्रति सहानुभूति और प्रेम-प्रदर्शन ईश्वर की पूजा है, ऐसा उनका विचार था। सामाजिक असमानता वास्तविक नहीं है, अपितु ईश्वर ने सबको समान बनाया है और सब उस ईश्वर की सन्तान हैं; अतः आपस में भाई हैं। फिरे मनुष्यों में आपस में कैसी शत्रुता? इस प्रकार उन्होंने लोगों को समानता और बन्धुता का उपदेश दिया। जाति, वर्ण, सम्प्रदाय आदि के भेद भी मनुष्य के बनाये हैं, परमात्मा की इच्छा के विपरीत हैं। इस प्रकार रविदास ने मनुष्य जाति में छुआछूत आदि दोषों का, ऊँच-नीच के भेदों का अत्यन्त जोरदार शब्दों में खण्डन किया। जो हरि को भजता है, वह हरि का (UPBoardSolutions.com) होता है। हरि के भजने में कोई जाति या वर्ण को नहीं पूछता है-इस सत्य को बतलाते हुए देश की अखण्डता और राष्ट्र की एकता की रक्षा करने के लिए उन्होंने प्रयत्न किया। महात्मा रविदास अध्यात्म (आत्मा, परमात्मा का ज्ञान), भक्ति सामाजिक उन्नति को एक साथ ही सिद्ध करते हुए 1597 विक्रम संवत् में राजस्थान प्रान्त में चित्तौड़गढ़ नाम के स्थान पर 126 वर्ष की आयु में परमात्मा में विलीन हो गये, वे अपने यशः शरीर से आज भी जीवित हैं।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
रविदास का जीवन-परिचय लिखिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत दी गयी सामग्री को अपने शब्दों में संक्षेप में लिखें।] ।

प्ररन 2
रविदास की ईश्वर सम्बन्धी विचारधारा पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
रविदास का ऐसा विश्वास था कि फल के प्रति इच्छारहित होकर अपने कर्म मे लगा हुआ व्यक्ति अपने घर में भी परमात्मा को साक्षात्कार कर सकता है। उनका कहना था कि ईश्वर को अपने हृदय में खोजना ही उचित है। ईश्वर की प्राप्ति में यह मैं हूँ, यह मेरा है’ यह ज्ञान भ्रमपूर्ण है। इस भ्रम का त्याग किये बिना ईश्वर की प्राप्ति असम्भव है।

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प्ररन 3
रविदास के जीवन-परिचय एवं जीवन-दर्शन का वर्णन करते हुए तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों पर प्रकाश डालिए
उत्तर
[संकेत-“पाठ-सारांश” मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत दिये गये शीर्षकों ‘परिचय एवं जन्म’, ‘जीवन-प्रणाली एवं सिद्धान्त’ तथा ‘तत्कालीन परिस्थितियाँ’ की सामग्री को संक्षेप में अपने शब्दों में लिखें।]।

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Class 9 Sanskrit Chapter 15 UP Board Solutions पर्यावरणशुद्धि Question Answer

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Chapter Chapter 15
Chapter Name पर्यावरणशुद्धि (गद्य – भारती)
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UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 15 Paryavaran Shuddhi Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 15 हिंदी अनुवाद पर्यावरणशुद्धि के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांश

पर्यावरण का स्वरूप-अन्य प्राणियों की भाँति मनुष्य ने भी प्रकृति की गोद में जन्म लिया है। प्रकृति के तत्त्व उसको चारों ओर से घेरे हुए हैं। इन्हीं प्राकृतिक तत्त्वों को पर्यावरण कहा जाता है। मिट्टी, जल, वायु, वनस्पति, पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े आदि जीवाणु पर्यावरण के अंग हैं।.विकास के लिए उतावलापन दिखाते हुए मानव ने पर्यावरण के प्रति जो अनाचार किया है, उससे पर्यावरण अत्यधिक असन्तुलित हो गया है। जिन कारणों से पर्यावरण का असन्तुलन हुआ है, वे कारण निम्नलिखित हैं

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वनस्पति का विनाश-वनों में वनस्पति का अमित भण्डार भरा हुआ है। वनों से मानव को लकड़ी, ओषधि, फल-फूल आदि बहुत-सी दैनिक उपयोग की वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। वृक्ष सूर्य की गर्मी को रोकते हैं, वायु को शुद्ध करते हैं, भूमि के कटाव को रोकते हैं तथा वर्षा कराते हैं। इनकी पत्तियों से खाद बनती है। लकड़ी के लोभ से मनुष्य ने असंख्य वृक्षों को काट डाला है। वृक्षों के अभावु  में वनों की मिट्टी बह जाती है, जिससे भूमि की उर्वरता नष्ट हो जाती है। भूस्खलन से खेत-के-खेत जमीन में धंस जाते हैं। नदियाँ उथली हो जाती हैं, जिसके कारण बाढ़ का संकट उपस्थित हो जाता है। |

वृक्षों के अनेक उपकार-प्राणवायु के उत्पादन में वृक्षों का महान् योगदान है। वृक्ष विषाक्त वायु के विष तत्त्व को पीकर स्वास्थ्य के लिए लाभदायक प्राणवायु को उत्पन्न करते हैं। हमारे पूर्व ऋषि-मुनियों ने वनों में योग और अध्यात्म की साधना की है। वृक्ष सूर्य की गर्मी को दूर करते हैं, वातावरण में आर्द्रता उत्पन्न करते हैं, अपने पत्तों को गिराकर खाद बनाते हैं, भूक्षरण को रोकते हैं। इस प्रकार वे मानव मन के लिए महान् उपकारी हैं। मनुष्य उनको काटकर अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारता है। एक वृक्ष अपने पचास वर्ष के जीवन में मनुष्य का पच्चीस लाख रुपये का उपकार करता है, लेकिन मानव सौ या हजार रुपये की लकड़ी प्राप्त करने के लिए उसे काटकर अपनी ही हानि करता है।

वायु का प्रदूषण-एक ओर तो मानव वायु-प्रदूषण के निवारक वृक्षों को काट रहा है, दूसरी ओर वायु-प्रदूषण के कारणों को उत्पन्न कर रहा है। फैक्ट्रियों की चिमनियों से निकला हुआ धुआँ, खनिजों के अणु, रसायनों के अंश और दुर्गन्धयुक्त वायु वातावरण को दूषित करते हैं। तेल से चालित वाहनों के तेल मिले हुए धुएँ से वायु दूषित होती है। दूषित वायु में श्वास लेने से फेफड़ों का कार्यभार बढ़ जाता है और वायु को शुद्ध करने के लिए उन्हें अधिक कार्य करना पड़ता है। वायु-प्रदूषण को रोकने के लिए अधिकाधिकं वृक्ष लगाने चाहिए, लकड़ी के कोयलों का कम-से-कम प्रयोग, डीजल से चलने वाले वाहनों के स्थान पर विद्युत से चलने वाले वाहनों का प्रयोग करना चाहिए।

ध्वनि-प्रदूषण-रेलगाड़ियों, मोटरों, बड़ी-बड़ी मशीनों, लाउडस्पीकरों, तेज वाद्यों की आवाज से ध्वनि का प्रदूषण होता है। नगरों में ध्वनि-प्रदूषण की बड़ी समस्या है। ध्वनि-प्रदूषण से बहरापन और कानों के अनेक दूसरे दोष उत्पन्न होते हैं। मस्तिष्क में अनेक दोष उत्पन्न होकर पागलपन तक हो जाता है। ध्वनि-प्रदूषण को रोकने के लिए लाउडस्पीकरों का अनावश्यक प्रयोग रोकना चाहिए तथा मशीनों में ध्वनिशामक यन्त्र (साइलेन्सर) का प्रयोग करना चाहिए। पेड़ों के लगाने और संवर्द्धन से भी ध्वनि की सघनता कम हो जाती है।

पशु-पक्षियों से पर्यावरण में सन्तुलने-सभी पशु-पक्षी पर्यावरण के सन्तुलन में सहायक होते हैं। सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक पशु हरिण आदि की वृद्धि को सीमित कर देते हैं; सर्प, अजगर आदि चूहों और खरगोशों को खाते हैं। पक्षी बीजों को इधर-उधर बिखेर देते हैं, जिससे विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों का स्वयमेव विकास होता रहता है। जीवो जीवस्य भोजनम्’ इस प्राकृतिक नियम के अनुसार हिंसक पशु, तृणभक्षी पशुओं को खाकर पर्यावरण का सन्तुलन बनाये रखते हैं।

जल-प्रदूषण-मनुष्य ने जीवन के लिए परमोपयोगी जल को अपने अविवेक से दूषित कर दिया है। गंगा-यमुना जैसी नदियों में बड़े नगरों का अपशिष्ट फेंका जाता है। पशुओं और मनुष्यों के शव तथा विषैला रासायनिक जल उनमें बहाया जाता है, जिससे जल विषाक्त और अपेय हो जाता है तथा अनेक रोगाणु जल में पलने लगते हैं। सरकार ने जल के प्रदूषण को दूर करने के लिए प्राधिकरण की स्थापना की है, लेकिन जनता के सहयोग के बिना इस कार्य में सफलता सम्भव नहीं है।

ताप का प्रदूषण-मानव की अनेक क्रियाओं से उत्पन्न ताप भी पर्यावरण दूषित करता है; जैसे-उद्योगशालाओं का ताप, वातावरण के ताप को बढ़ाता है। पक्की ईंटों के मकान, वर्कशॉप और, सड़कें ताप को स्वयं में संचित करती हैं और स्वयं से सम्बद्ध वातावरण को ताप प्रदान कर पर्यावरण को असन्तुलित करती हैं, जिसका मानव के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

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पर्यावरण के असन्तुलन को रोकने के उपाय-आज के युग में पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या समाज और सरकार दोनों के लिए ही चिन्तनीय सिद्ध होती जा रही है। इसके रोकने का एकमात्र साधन वृक्षारोपण ही है; क्योंकि वृक्षों की सघनता ताप को नियन्त्रित करती है। मनुष्य को प्राणवायु वृक्षों से ही प्राप्त होती है; अतः मानवों के कल्याण के लिए अधिकाधिक वृक्ष लगाये जाने चाहिए।

शोंगद्यां का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) यथान्ये प्राणिनस्तथैव मनुष्योऽपि प्रकृत्याः क्रोडे जनुरधत्तः। प्रकृत्या एव तत्त्वजातं सर्वमपि परितः आवृत्य संस्थितम्। अतः कारणात् तत्पर्यावरणमित्युच्यते। मनुष्येण स्वबुद्ध्याः प्रभावेण जीवनमुन्नेतुं प्रयतमानेन नानाविधा आविष्काराः कृताः। बहुविधं सौविध्यं सौ फर्यं चाधिगतं किन्तु विकासस्य प्रक्रियायां नैको उपलब्धीः प्राप्तवता तेन यद् हारितं तदपि अन्यूनम्। मृत्स्ना-जल-वायु-वनस्पति-खग-मृग-कीट-पतङ्ग-जीवाणव इति पर्यावरणस्य घटकाः विद्यन्ते। विकासहेतवे क्षिप्रकारिणा मानवेन तान् प्रति विहितेनातिचारेण प्राकृतिकपर्यावरणस्य सन्तुलनमेव नितरां दोलितम्।

शब्दार्थ
क्रोडे = गोद में।
जनुः = जन्म।
अधत्तः = धारण किया है।
परितः = चारों ओर।
आवृत्य = घेरकर।
उन्नेतुम् = उन्नत बनाने के लिए।
सौविध्यं = सुविधा।
सौर्यम् = सरलता।
अधिगतम् = प्राप्त किया।
नैका = अनेक।
हारितम् = खोया।
अन्युनम् = बहुत।
मृत्स्ना : मिट्टी।
घटकाः = इकाइयाँ।
क्षिप्रकारिणा = शीघ्रता करने वाले।
विहितेनातिचारेण = किये गये अत्याचार से।
नितराम् = अत्यधिक।
दोलितम् = विचलित कर दिया।

सन्दर्भ
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ के ‘पर्यावरणशुद्धिः शीर्षक पाठ से उद्धृत है।
[संकेत-इस पाठ के शेष गद्यांशों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में पर्यावरण का स्वरूप और मानव से उसके घनिष्ठ सम्बन्धों को बताते हुए मानव द्वारा पर्यावरण को असन्तुलित करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
जिस प्रकार दूसरे प्राणियों ने, उसी प्रकार मनुष्य ने भी प्रकृति की गोद में जन्म धारण किया। प्रकृति ही, जो तत्त्व समूह है, उसको भी चारों ओर से घेरकर स्थित है। इस कारण से इसे पर्यावरण कहा जाता है। मनुष्य ने अपनी बुद्धि के प्रभाव से जीवन को उन्नत बनाने का प्रयत्न करते हुए नाना प्रकार के आविष्कार किये। बहुत तरह की सुविधा और सरलता प्राप्त की, किन्तु विकास की प्रक्रिया में अनेक उपलब्धियाँ प्राप्त करते हुए उसने जो खोया है, वह भी कम नहीं है। मिट्टी, जल, वायु, वनस्पति, पक्षी, पशु, कीड़े, पतंगे, जीवाणु ये पर्यावरण के अंग (इकाईयाँ) हैं। विकास के लिए शीघ्रता करने वाले मानव ने उनके प्रति किये गये अत्याचार से प्राकृतिक पर्यावरण के सन्तुलन को अत्यधिक हिला दिया। |

(2) सर्वाधिकोऽत्ययस्तु वनस्पतीनां जातः। एकपदे एव बहुलाभलोभी मानवो वनानि च क्रर्ति तथा प्रवृत्तो यदधुना वनानां सुमहान् भाग उच्छिन्नः। वनेभ्यो मनुष्यः काष्ठम्, ओषधीः, फलानि, पुष्पाणि एवंविधानि बहूनि वस्तूनि दैनन्दिनजीवनोपयोगीनि प्राप्नोति, किन्तु काष्ठस्य लोभाद् असङ्ख्या हरिता वृक्षा कर्तिताः। मन्ये पर्वतानां पक्षी एव छिन्नाः। येन तेषां मृत्स्ना वर्षाजलेन बलात् प्रबाह्यपनीयते। पर्वतप्रदेशीयभूप्रदेशानामुर्वरत्वं तु विनश्यत्येवं भूस्खलनेन केदाराः अपि लुप्ता भवन्ति, धनजनहानिर्भवति। ग्रामा अपि ध्वंस्यन्ते। वर्षाजलेन नीता मृत्स्ना नदीनां तलमुत्थलं करोति। येन जलप्लावनानि भवन्ति। जनया महांस्त्रास उत्पद्यते।।

शब्दार्थ
अत्ययः = हानि।
एकपदे एव = एक बार में ही।
च कर्तितुम् = अधिक मात्रा में ।
काटने के लिए।
तथा प्रवृत्तो = ऐसा लगा।
उच्छिन्नः = कट गया है।
दैनन्दिनजीवनोपयोगीनि = दैनिकें जीवन के लिए उपयोगी।
कर्तिताः = काटे,गये।
पक्षाः = पंख।
प्रवाह्य = बहाकर।
अपनीयते = दूर ले जायी जाती है।
उर्वरत्वं = उर्वरता, उपजाऊ शक्ति।
भूस्खलनेन = भूमि के खिसकने सै।
केदाराः = खेतों की क्यारियाँ।
ध्वंस्यन्ते = नष्ट कर दिये जाते हैं।
तलमुत्थलम् = तल को उथला।
जलप्लावनानि = बाढ़े।
महांस्त्रास = महान् भय।
उत्पद्यते = उत्पन्न होता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में वनों से लाभ एवं उनके काटने से होने वाली हानियाँ बतायी गयी हैं।

अनुवाद
सबसे अधिक हानि तो वनस्पतियों की हुई है। एक बार में ही बहुत लाभ के लोभी मानवों ने वनों को ऐसा काटना शुरू किया कि आज वनों का बहुत बड़ा भाग कट चुका है। मनुष्य वनों से लकड़ी, ओषधियाँ, फल, फूल इसी प्रकार की बहुत-सी दैनिक जीवन के उपयोग की वस्तुएँ प्राप्त करता है, किन्तु लकड़ी के लोभ से असंख्य हरे वृक्ष काट डाले गये हैं। मैं समझता हूँ, पर्वतों के पंख ही काट डाले, जिससे उनकी मिट्टी को वर्षा का जल बलपूर्वक दूर बहाकर ले जाता है। पहाड़ी प्रदेशों के भू-भागों की उपजाऊ शक्ति तो नष्ट हो ही रही है, भूमि के खिसकने से खेत भी समाप्त हो जाते हैं ।

तथा धन और जन की हानि होती है। गाँव भी नष्ट हो रहे हैं। वर्षा के जल से बहाकर ले जायी गयी मिट्टी दियों के तल को उथला कर देती है, जिससे बाढ़ आ जाती हैं तथा मनुष्य के लिए भारी भय पैदा हो जाता है।

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(3) एततु सर्वे जानन्त्येव यत् प्राणवायु (ऑक्सीजनेति प्रसिद्धम् ) विना मनुष्यः कतिपयक्षणपर्यन्तमेव जीवितुं शक्नोति। प्राणवायोरुत्पादने वृक्षाणां महान् योगः केन विस्मर्यते। विषाक्तवायोर्विषतत्त्वं नीलकण्ठ इव स्वयं पायं पायं, मानवस्याकारणसुहृदो वृक्षास्तस्य कृते निर्मलं स्वास्थ्यकरं प्राणवायुं समुत्पाद्यन्ति। प्राणायामेन प्राणानां नियमनस्य योगमार्गः,आध्यात्मिकसाधना च वनानां मध्य एवास्माकं पूर्वजैर्महर्षिभिः यद् अनुत्रियते स्म तदस्मादेव कारणात्। प्रत्येकं वृक्षः एका महती प्रयोगशालेव भवति। एष सूर्यस्य तापं हरति, वायुमालिन्यमपनयति, वाष्पोत्सर्गेण वातावरणे आर्द्रतां जनयति, प्रतिवर्षं निजपत्राणि निपात्य उर्वरकमुत्पादयति भूक्षरणं निरुणद्धि, जलवर्षणे कारणं च भवति। एवं स मनुजस्य महानुपकारी भवति तथाविधमुयकारिणमपि मनुष्य उच्छिनत्ति, किन्नासी स्वपादे एवं कुठारं प्रयुनक्ति।

शब्दार्थ
प्राणवायु = ऑक्सीजन।
विस्मर्यते = भुलाया जाता है।
विषाक्तवायोर्विषतत्त्वं (विषाक्तवायोः + विषतत्त्वम्) = जहरीली वायु के विषैले तत्त्व को।
नीलकण्ठः = शिव।
पायंपायं = पी-पीकर।
प्राणायाम = देवगुणों का मन से पाठ करते हुए साँस रोकना।
नियमन = नियन्त्रण करना।
अनुस्रियते स्म = आश्रय (अनुसरण) किया जाता था।
अपनयति = दूर करता है।
वाष्पोत्सर्गेण = भाप निकालने के द्वारा।
आर्द्रताम् =-गीलापन।
निपात्य = गिराकर।
उर्वरकम् = खाद।
निरुणद्धि = रोकता है।
उच्छिनत्ति = नष्ट करता है।
स्वपादे एवं कुठारं प्रयुनक्ति = अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मारता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में वृक्षों के महान् योगदान और उपकार का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
यह सभी जानते ही हैं कि ऑक्सीजन (प्राणवायु) के बिना मनुष्य कुछ क्षणों तक ही जीवित रह सकता है। ऑक्सीजन के उत्पन्न करने में वृक्षों के महान् योग को कोई नहीं भूल सकता है। विषाक्त (विषैली) वायु के विष-तत्त्व को शिव के समान पी-पीकर मनुष्य के बिना कारण के मित्र वृक्ष उसके लिए साफ, स्वास्थ्यकारी प्राणवायु (ऑक्सीजन) को पैदा करते हैं। प्राणायम से प्राणों के नियमन का योगमार्ग और वनों के मध्य ही आध्यात्मिक साधना हमारे पूर्वज महर्षियों द्वारा जो अनुसरण की गयी थी, वह भी इसी कारण है। प्रत्येक वृक्ष एक बड़ी प्रयोगशाला के समान होता है। यह सूर्य की गर्मी का हरण करता है, हवा की गन्दगी को दूर करता है, भाप छोड़ने से वातावरण में नमी उत्पन्न करता है, प्रत्येक वर्ष अपने पत्ते गिराकर खाद उत्पन्न करता है, पृथ्वी के कटाव को रोकता है और जल बरसाने में कारण बनता है। इस प्रकार वह मनुष्य का बड़ा उपकारी होता है, इस तरह के उपकारी को भी मनुष्य काटता है। क्या वह अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी नहीं चलाता है? |

(4) एको वृक्षः स्वपञ्चाशद्वर्षजीवनकाले मानवजातेः पञ्चविंशतिलक्षरूप्यक- परिमाणाय लाभाय कल्पते, तस्मात्प्राप्तस्योर्वरकस्यैव मूल्यं पञ्चदशलक्षथरिमितं भवति, वायुशुद्धीकरणं पञ्चलक्षरूप्यकतुल्यं, प्रोटीनोत्पादन-माईताजननं वर्षासाहय्यमिति त्रितयमपि पञ्चलक्षरूप्यकार्तम्। एतत्सर्वमपि कलिकाताविश्वविद्यालयीयेन डॉ० टी० एम० दासाभिधानेन वैज्ञानिकेन सुतरां विवेच्य प्रतिपादितमास्ते। तथामहिमानं तरुं निपात्य लुब्धो मानवः किं प्राप्नोति? शतं सहस्त्रं वा रूप्यकाणाम्। सत्यम्, अल्पस्य हेतोर्बहातुमिच्छन्नसौ प्रथमश्रेणीको विचारमूढे एव। पर्यावरणरक्षणायापरपर्यायाय आत्मरक्षणाय मनुष्येणेयं मूढता यथा सत्वरं त्यक्ता स्यात् तथैव वरम्।

शब्दार्थ
पञ्चाशद् = पचास।
कल्पते = समर्थ होता है।
तुल्यम् = बराबर।
रूप्यकाम् = रुपये मूल्य के बराबर।
सुतराम् = अच्छी तरह से।
विवेच्य = विवेचन करके।
लुब्धो = लालची।
अल्पस्य हेतोर्बहुहातुमिच्छन् = थोड़े-से के लिए बहुत छोड़ने की इच्छा करता हुआ।
विचारमूढ = मूर्ख।
यथासत्वरम् = जितना जल्दी।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में वृक्ष का उसके जीवनकाल में लाभ रुपयों में आँककर मनुष्य को. उसके महत्त्व का यथार्थ ज्ञान कराया गया है।

अनुवाद
एक वृक्ष अपने पचास वर्ष के जीवनकाल में मानव-जाति का पचीस लाख रुपयों के बराबर लाभ करने में समर्थ होता है। उससे प्राप्त खाद का मूल्य ही पन्द्रह लाख रुपयों के बराबर होता है। वायु को शुद्ध करना पाँच लाख रुपयों के बराबर, प्रोटीन उत्पन्न करना, नमी पैदा करना, वर्षा में 
सहायता करना तीनों ही पाँच लाख रुपयों के मूल्य के बराबर होता है। यह सब कलकता ‘ विश्वविद्यालय के डॉ० टी० एम० दास नाम के वैज्ञानिक ने अच्छी तरह विवेचन करके सिद्ध किया है। ऐसी महिमा वाले वृक्ष को गिराकर लालची मनुष्य क्या प्राप्त करता है? सौ यो हजार रुपये। वास्तव में थोड़े-से लाभ के लिए बहुत छोड़ने की इच्छा करता हुआ वह प्रथम श्रेणी का मूर्ख है, जो सोचने-समझने में असमर्थ है। पर्यावरण की रक्षा के लिए, दूसरे शब्दों में आत्मरक्षा के लिए, मनुष्य इस मूर्खता को जितना जल्दी छोड़ दे, उतना ही अच्छा है।

(5) एवमेकतो मनुष्यो वायुप्रदूषणनिवारकाणां वृक्षाणां हत्यां विदधाति अपरतश्च विविधैः प्रकारैः स्वयं वायुप्रदूषणस्य कारणान्युत्तरोत्तरमाविष्करोति। उद्योगशालाभ्यो निस्सृता धूमाः,खनिजाणवः, रासायनिकाः, लवाः, पूतिगन्धा वायवो वातावरणं दूषयन्तः प्राणवायुं विशेषतो विकारयन्ति। प्रत्यहं तैलतश्चालितवाहनानां सङ्ख्या सुरसाया मुखमिव परिवर्धते विषमयं तैलधूममुद्गिरभिस्तैरपि वायुरतिशयेन विक्रियते। दूषितवायौ श्वसनाद् अस्मत्फुस्फुसकार्यभारः प्रवर्धते, येन तत्रत्यरोगा हृदयरोगाश्च जायन्ते। अतिप्रदूषितवायोः शुद्धीकरणे पादपैरपि अत्यधिकं कार्यं करणीयं भवति तत्राक्षमत्वात्तेऽपि रुग्णा जायन्ते। एवं वायुप्रदूषणं दुष्चक्रं निरोधातीतं गच्छति। वृक्षाणां प्राचुर्येणारोपणं काष्ठेङ्गालानां न्यूनतमः प्रयोगः पेट्रोलडीजलादितैलवाहनानां स्थाने विद्युद्वाहनानामुपयोगः प्रदूषणरहितशक्तिसाधनानां विकासः, इत्येवं प्रायैरुपायैरिदमुपरोद्धं शक्यते।।

शब्दार्थ
एकतो = एक ओर।
विदधाति = करता है।
आविष्करोति = उत्पन्न करता है।
निस्सृताः = निकले हुए।
लवाः = अंश।
पूतिगन्धाः = दूषित गन्ध वाली।
विकारयन्ति = दूषित करती हैं।
प्रत्यहम् = प्रतिदिन।
सुरसायाः मुखमिव = सुरसा के मुख के समान।
परिवर्धते = बढ़ता है।
उद्गिरभिः = उगलने वाले।
विक्रियते = दूषित की जाती है।
फुफ्फुस कार्यभारः = फेफड़ों पर कार्य का भार।
दुष्चक्रम् = दूषित चक्र।
निरोधातीतम् = नियन्त्रण से बाहर।
आरोपणम् = जमाना, लगाना।
काष्ठेङ्गालानाम् = लकड़ी के कोयलों का।
उपरोधुं शक्यते = रोका जा सकता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में वायु को प्रदूषित करने वाले कारणों, उनसे होने वाले रोगों और प्रदूषण को रोकने के उपायों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
इस प्रकार एक ओर मनुष्य वायु के प्रदूषण को रोकने वाले वृक्षों की हत्या करता है, दूसरी ओर स्वयं अनेक प्रकार से वायु प्रदूषण के कारणों को लगातार उत्पन्न कर रहा है। फैक्ट्रियों से निकले धुएँ, खनिजों के अणु, रासायनिक अंश, दूषित गन्ध वाली हवाएँ वातावरण को दूषित करती हुई विशेष रूप से प्राणवायु (ऑक्सीजन) को दूषित करती हैं। प्रतिदिन तेल से चलने वाले वाहनों की संख्या सुरसा के मुख के समान बढ़ रही है। विषैले तेल के धुएँ को उगलते हुए उनसे भी वायु अत्यधिक रूप से दूषित की जा रही है। दूषित हवा में श्वास लेने से हमारे फेफड़ों पर कार्य का बोझ बढ़ जाता है, जिससे वहाँ (फेफड़ों) के रोग और हृदय रोग उत्पन्न होते हैं। अत्यन्त दूषित वायु को शुद्ध करने में वृक्षों को भी अधिक काम करना पड़ता है, उसको करने में असमर्थ होने के कारण (वे भी) बीमार हो जाते हैं। इस प्रकार वायु के प्रदूषण का दुष्चक्र नियन्त्रण से बाहर हो जाता है। वृक्षों को अधिक मात्रा में लगाना, लकड़ी के कोयलों का कम-से-सम प्रयोग, पेट्रोल, डीजल आदि तेल से चलने वाले वाहनों की जगह बिजली से चलने वाले वाहनों का उपयोग, प्रदूषण के रहित शक्ति के साधनों का विकास। इस प्रकार के उपायों से इसे रोका जा सकता है।

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(6) कोलाहलेनापि पर्यावरणे बहवो दोषी उत्पद्यन्ते, रेलयानानां, मोटरवाहनानां, उद्योगशालासु बृहतां यन्त्राणां, यत्र तत्र सर्वत्र अवसरेऽनवसरे ध्वनिविस्तारकयन्त्रण, उत्सवेषु अतिमुखरवाद्यानां च घोषः, जनसम्मर्दकलकलेन मिलितो महान् कोलाहलः सम्पद्यते। विशेषतो नगरेषु ध्वनिप्रदूषणं महती समस्या। अतिकोलाहलेन श्रवणदोषस्तदनं बाधिर्यं च सम्पद्यते। नैतावतैव मुक्तिः , मस्तिष्कदोषा अपि अनेन उत्पाद्यन्ते यच्चरमापरिणतिरुन्मादो भवति। रक्तचापरोगोऽपि पदं निदधाति येन हृदयं रुग्णं जायते। अस्याः समस्यायाः समाधानार्थं ध्वनिविस्तारकयन्त्राणामनावश्यकः प्रयोग रोधनीयः, यन्त्राणां कोलाहलो नव-नव साइलेन्सराणामाविष्कारेण उपलब्धानां च सम्यगनिवार्यप्रयोगेण परिहरणीयः। कोलाहलदोषान् जनसामान्यं सम्बोध्य तद्विरुद्धं जनाः प्रशिक्षणीया जनमतं च प्रवर्तितव्यम्। ,अत्रापि वनस्पतीनामारोपणेन, संवर्धनेन रक्षणेन च सुखकराः परिणामाः कलयितुं शक्याः । एवं खलु दृश्यते यद् वृक्षाणां द्वादशव्यामपरिणाहमिता राजयः कोलाहलस्य सघनतां प्रकामं न्यूनयन्ति। अतः सर्वत्रापि राजपथमभितः, मध्ये-मध्ये चोपनगराणां वनस्पतयः आरामश्च आरोपणीयाः।

शब्दार्थ
उत्पद्यन्ते = उत्पन्न होते हैं।
बृहताम् = बड़े।
अवसरेऽनवसरे = समय-बेसमय
अतिमुखर = तेज आवाज वाले।
घोषः = ध्वनि।
जनसम्पर्दकलकलेन = जन-समूह के कोलाहल से।
सम्पद्यते = उत्पन्न होता है।
महती = बड़ी।
तदनु = उसके बाद।
बाधिर्यम् = बहरापन।
नैतावतैव = इतने से ही नहीं।
चरमपरिणतिः = अन्तिम परिणाम।
उन्मादः = पागलपन।
रक्तचापरोगः = ब्लडे प्रेशर की बीमारी।
पदं निदधाति = स्थान बना लेता है।
रोधनीयः = रोकना चाहिए।
नव-नव साइलेन्सराणामाविष्कारेण = नये-नये ध्वनिशामक यन्त्रों के आविष्कार से।
परिहरणीयः = दूर करना चाहिए।
बोध्य = समझाकर।
प्रशिक्षणीया = प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
प्रवर्तितव्ययम् = प्रवर्तन करना चाहिए।
वनस्पतीनां आरोपणेन = वनस्पतियों के लगाने से।
कलयितुं शक्याः = प्राप्त किये जा सकते हैं।
द्वादशव्यामपरिणाहमिताः = बारह चौके अर्थात् अड़तालीस हाथ की लम्बाई के बराबर।
राजयः = पंक्तियाँ।
प्रकामम् = अधिक।
न्यूनयन्ति = कम करती हैं।
राजपथम् अभितः = राजमार्ग के दोनों ओर।
उपनगराणाम् = क्षेत्रों या मुहल्लों के।
आरामाः = बगीचे, उपवन।
आरोपणीयाः = लगाने चाहिए।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में ध्वनि-प्रदूषण के कारणों, उससे उत्पन्न रोगों और प्रदूषण की रोकथाम के उपायों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
शोर से ही पर्यावरण में बहुत-से दोष उत्पन्न होते हैं। रेलगाड़ियों, मोटर सवारियों, फैक्ट्रियों में बड़ी-बड़ी मशीनों का, जहाँ-तहाँ सब जगह समय-बेसमय पर लाउडस्पीकरों का और उत्सवों में अत्यन्त तेज बजने वाले बाजों का शब्द, लोगों की भीड़ के कोलाहल से मिला हुआ बहुत शोर उत्पन्न हो जाता है। विशेष रूप से नगरों में ध्वनि के प्रदूषण की अत्यधिक समस्या है। अत्यधिक शोर से सुनने में कमी और उसके बाद बहरापन उत्पन्न हो जाता है। इतने से ही छुटकारा नहीं है, मस्तिष्क की गड़बड़ियाँ भी इसके द्वारा पैदा कर दी जाती हैं, जिसका अन्तिम परिणाम पागलपन होता है। ब्लड प्रेशर की बीमारी भी घर कर लेती है, जिससे हृदय रुग्ण हो जाता है। इस समस्या को सुलझाने के लिए लाउडस्पीकरों का अनावश्यक प्रयोग रोका जाना चाहिए। मशीनों के शोर को भी नये-नये ध्वनिशामक यन्त्रों (साइलेन्सरों) के आविष्कारों से प्राप्त साधनों के उचित और अनिवार्य प्रयोग से रोकना चाहिए। जनसाधारण को शोर की खराबियों को समझाकर, उसके विरुद्ध लोगों को प्रशिक्षित करना चाहिए और जनमत जाग्रत करना चाहिए। इसमें भी वनस्पतियों के लगाने, बढ़ाने और रक्षा करने से सुखद परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। निश्चय ही ऐसा देखा जाता है कि अड़तालीस हाथ की लम्बाई के बराबर वृक्षों की पंक्तियाँ शोर के घनेपन को अत्यधिक कम कर देती हैं; अतः सभी जगह सड़क के दोनों ओर तथा मोहल्लों के बीच-बीच में वनस्पतियाँ और उपवन लगाये जाने चाहिए।

(7) खगमृगाणां मांसादिलोभिना मानवेन एतादृशी जाल्मता अङ्गीकृता यदधुना तेषां नैकाः प्रजातयो लुप्ता एव, वस्तुतः सर्वेऽपि पशुपक्षिणः पर्यावरणसन्तुलननिर्वाहे यथायोगमुपकारका भवन्ति। सिंहव्याघ्रादयो मांसभक्षका हरिणादीनां वृद्धि परिसमयन्ति। आशीविषाजगरादयो मूषकशशकादीनां भक्षणेन कृषिकराणां सुहृद् एव। पक्षिणो बीजानां विकिरणं कुर्वन्ति, कीटपतङ्गादयः पुष्पाणां प्रजननक्रियायां सहायका भवन्ति येन फलानि बीजानि चोत्पद्यन्ते। पशुपक्षिणां पुरीषेण भूमिरुर्वरा भवति येन वनस्पतीनां विकासो भवति।’जीवो जीवस्य भोजनम्’ इति प्रकृतिनियमस्यानुसारं पक्षिणः कीटपतङ्गान् , केऽपि हिंस्राः पशवश्च तृणचरान् भक्षयन्तः पर्यावरणसन्तुलनं स्वत एव विदधति, तत्रं मनुष्यकृतो लोभप्रवर्तितो हस्तक्षेपो विकारमेवोत्पादयति, स्वैर वधो विध्वंसमेव जनयति।

शब्दार्थ
खगमृगाणां = पक्षियों और पशुओं का।
जाल्मता = नीचता।
परिसीमयन्ति = सीमित कर देते हैं।
आशीविष = सर्प।
कृषिकराणां = किसानों के।
विकिरणम् = बिखेरना।
पुरीषेण = विष्ठा से।
विदधति = करते हैं।
स्वैरं = ब्रिना रोक-टोक के।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में पर्यावरण के सन्तुलन में पशु-पक्षियों के योगदान का वर्णन किया गया

अनुवाद
पशु-पक्षियों के मांस आदि के लोभी मानव ने ऐसी नीचता स्वीकार कर रखी है कि आजकल उनकी अनेक प्रजातियाँ समाप्त प्राय ही हैं। वास्तव में सभी पशु-पक्षी पर्यावरण के सन्तुलन के निर्वाह में शक्ति के अनुसार उपकार करने वाले होते हैं। सिंह, व्याघ्र आदि,मांसभक्षी जीव हिरन 
आदि की वृद्धि को सीमित कर देते हैं। सर्प, अजगर आदि चूहे, खरगोश आदि को खाने के कारण किसानों के मित्र ही हैं। पक्षी बीजों को बिखेर देते हैं। कीड़े, पतंगे आदि फूलों की प्रजनन-क्रिया में ।

सहायक होते हैं, जिससे फल और बीज उत्पन्न होते हैं। पशु-पक्षियों के मल (विष्ठा) से भूमि उपजाऊ ‘होती है, जिससे वनस्पतियों का विकास होता है। ‘जीव, जीव का भोजन है, इस प्रकृति के नियम के अनुसार पक्षी, कीड़े और पतंगों को और कुछ हिंसक पशु घास खाने वाले पशुओं को खाते हुए पर्यावरण का सन्तुलन स्वयं ही करते हैं। उसमें मनुष्यों के द्वारा किया गया लोभ से प्रेरित हस्तक्षेप गड़बड़ी ही उत्पन्न करता है। बुद्धिहीन वध (बिना रोक-टोक के किया गया) विध्वंस को ही उत्पन्न करता है।

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(8) मनुजस्यातिचारो नैतावता परिसमाप्यते नास्ति।. जलं यद्धि जीवनयात्यावश्यकत्वज्जीवनमेव कथ्यते तदपि मनुजस्याविवेकेन दूषितम्। गङ्गायमुनासदृशीषु स्वादुपवित्रपेयसलिलासु नदीषु तटीयतटस्थनगराणां मलमूत्रादिकं सर्वप्रकारकं मालिन्यं नदीषु निंपात्यते। औद्योगिक विषमयरसायनदूषितजलं तासु निपात्यते। नराणां पशूनां च शवास्तत्र प्रवाह्यन्ते। सर्वमेतदतिभीतिकरं प्रदूषणं कुरुते। जलं तथा विषाक्तं जायते यन्मत्स्या अपि म्रियन्ते। तथाविधं जलं मानवानां स्नान-पानादिजनितं रोगमेव प्रकुरुते। यतस्तत्र रोगकारकस्तद्वाहकाश्च जीवाणवः परमं पोषमाप्नुवन्ति। सौभाग्येन सम्प्रति शासेन गङ्गाप्रदूषणनिवारकं प्राधिकरणं घटितं। एष खलु प्रारम्भ एव। अन्यासां नदीनां शोधनाय जलोपलब्धेरन्यान्यपि साधनानि विशोधयितुं च लोकस्य रुचिरुत्साहनीया। जनतायाः स्वयं साहाय्येन विना न अभीप्सितं प्राप्तुं शक्यते।

शब्दार्थ
मनुजस्यातिचारः = मनुष्य का अत्याचार।
नैतावती = इतने से नहीं।
परिसमाप्यते = समाप्त होना।
स्वादुपवित्रपेयसलिलासु = स्वादिष्ट, पवित्र और पीने योग्य जल वाली में।
मालिन्यं = मैला, गन्दगी।
निपात्यते. = गिराया जाता है।
प्रवाह्यन्ते = बहाये जाते हैं।
भीतिकरम् = भय उत्पन्न करने वाले।
विषाक्तम् = विषैला।
पोषम् आप्नुवन्ति = पोषण प्राप्त करते हैं।
सम्प्रति = इस समय।
घटितम् = बनाया गया है।
अभीप्सितम् = इच्छित लक्ष्य। |

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश’ में मानव द्वारा जल को दूषित करने एवं उससे उत्पन्न हानि का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
मनुष्य का अत्याचार यहीं तक समाप्त नहीं होता है। जल को जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक होने के कारण जीवन ही कहा जाता है, वह भी मनुष्य की मूर्खता से दूषित हो गया है। गंगा, यमुना जैसी स्वादिष्ट, पवित्र, पीने योग्य जल वाली नदियों में उनके किनारे पर स्थित नगरों की मल-मूत्र आदि सब प्रकार की गन्दगी डाल दी जाती है। उद्योगों का विषैले रसायनों से दूषित जल उनमें डाल दिया जाता है। मनुष्यों और पशुओं के शव उनमें बहा दिये जाते हैं। यह सब अत्यन्त भयानक प्रदूषण कर देता है। जल इतना विषैला हो जाता है कि मछलियाँ भी मर जाती हैं। इस प्रकार का जल मानवों के स्नान और पीने आदि के रोग को ही उत्पन्न करता है; क्योंकि उसमें रोग उत्पन्न करने वाले 
और उनको (रोग को) लाने वाले जीवाणु खूब पुष्ट हो जाते हैं। सौभाग्य से अब सरकार ने गंगा के प्रदूषण को रोकने वाला प्राधिकरण बनाया है। यह तो प्रारम्भ ही है। दूसरी नदियों को शुद्ध करने के लिए और जल-प्राप्ति के दूसरे भी साधनों को शुद्ध करने के लिए लोगों की रुचि को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। जनता की स्वयं सहायता के बिना इच्छित लक्ष्य प्राप्त होना असम्भव है।

(9) मानवस्य विविधक्रियाभिरुत्पन्नस्तापोऽपि पर्यावरणं दूषयति। परमाणुपरीक्षणैर्महती तापविकृतिर्निष्पाद्यतेऽन्ये च मानवप्राणहरा दोषा उत्पाद्यन्ते। उद्योगशालानां तापोऽपि वातावरणस्य तापं वर्धयति। ग्रीमष्काले पक्वेष्टिकासीमेण्टकङ्क्रीट-निर्मितानि भवनानि, कार्यशालाः, राजमार्गा एवंविधानि चान्यानि लौहनिर्माणानि तापमात्मसात्कृत्य संरक्षन्ति यस्य मानवजीवनेऽस्वास्थ्यकरः प्रभावो भवति। अत्रापि वनस्पतयो मानवस्य त्राणं चर्कर्तुं प्रभवः सन्ति। तेषां यथाप्रसरं सघनमारोपणं तापं नियमयत्येव। प्रतिव्यक्ति सार्धत्रयोदशकिलोपरिमितः प्राणवायुः स्वस्थजीवनयापेक्षते, तस्यैकमात्रं प्राकृतिक स्रोतस्तु वनस्पतिजातम्। अतएवमेव मुहुर्मुहुरनुरुध्यते यन्यानवेनात्मकल्यणाय अधिकाधिकं वृक्षा आरोपणीयाः। समयश्च कार्यों यत्प्रत्येक व्यक्तिरेकं वृक्षमवश्यमारोप्य वर्धयिष्यति, रक्षयिष्यत्यन्यांश्च तथाकर्तुं प्रवर्तयिष्यतीति।।

शब्दार्थ
दूषयति = दूषित करता है।
निष्पाद्यते = की जाती है।
पक्वेष्टिका = पक्की ईंट।
तापम् आत्मसात्कृत्य = गर्मी को अपने में मिलाकर।
त्राणम् = रक्षा।
चर्कर्तुम् = बार-बार करने के लिए।
प्रभवः = समर्थ।
नियमयत्येव = नियमित ही करता है।
अपेक्षते = आवश्यकता है।
वनस्पतिजातम् = वृक्षों का समूह।
अनुरुध्यते = अनुरोध किया जाता है।
आरोपणीयाः = लगाने |
चाहिए। समयः = निश्चय, प्रतिज्ञा।
प्रवर्तयिष्यति = प्रेरित करेगा।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में तोप के प्रदूषण, उससे उत्पन्न हानियों एवं उनको दूर करने के उपाय बताये गये हैं।

अनुवाद
मानव की विविध क्रियाओं से उत्पन्न ताप भी पर्यावरण को दूषित करता है। एएमाणु के परीक्षणों से ताप में बड़ा विकार उत्पन्न किया जाता है, जिससे मनुष्य के प्राणघातक अन्य दोष उत्पन्न होते हैं। उद्योगशालाओं का ताप भी वातावरण के ताप को बढ़ाता है। ग्रीष्म ऋतु में पक्की ईंटों, सीमेंट, कंक्रीट से बने हुए घर, कार्यशालाएँ, सड़कें और इस प्रकार के अन्य लोहे से निर्मित स्थान ताप को अपने में समेटकर रखते हैं, जिसका मानव के जीवन पर अस्वास्थ्यकारी प्रभाव होता है। इसमें भी वनस्पतियाँ मानव की बार-बार रक्षा करने में समर्थ हैं। उनका (वनस्पतियों का) उचित प्रसार और अधिक घनत्व में रोपना ताप को रोकता है। प्रत्येक व्यक्ति को साढ़े तेरह किलो भार के बराबर प्राणवायु की स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यकता होती है। उसका एकमात्र प्राकृतिक स्रोत तो वनस्पतियाँ हैं; अतः ऐसा बार-बार अनुरोध किया जाता है कि मानव को अपने कल्याण के लिए अधिक-से-अधिक वृक्ष लगाने चाहिए और प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति एक वृक्ष अवश्य लगाकर बढ़ाएगा, रक्षा करेगा और ऐसा करने के लिए दूसरों को भी प्रेरित करेगा।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1 
विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों और मनुष्य पर पड़ने वाले उनके दुष्परिणामों को समझाइए।।
उत्तर
विभिन्न प्रकार के प्रदूषण और मनुष्य पर पड़ने वाले उनके दुष्परिणामों का विवरण इस प्रकार है

(क) वायु-प्रदूषण-कारखानों की चिमनियों से निकलते धुएँ, खनिजों के अणु, रसायनों के अंश, तेल-चालित वाहनों के तेल मिले धुएँ और दुर्गन्धयुक्त वायु वातावरण को दूषित करते हैं। दूषित वायु में साँस लेने से फेफड़ों पर कार्यभार बढ़ जाता है, जिससे मनुष्य सॉस सम्बन्धी बीमारियों का शिकार हो जाता है।

(ख) ध्वनि-प्रदूषण-रेलगाड़ियों, मोटरों, बड़ी-बड़ी मशीनों, तेज वाद्यों की आवाज से ध्वनि का प्रदूषण होता है। ध्वनि-प्रदूषण से बहरापन और कानों के अनेक दोषों के साथ-साथ मस्तिष्क में विकार उत्पन्न हो जाता है, जिससे मनुष्य पागल हो सकता है।

(ग) जल-प्रदूषण-गंगा, यमुना आदि नदियों में महानगरों की गन्दगी, पशुओं-मनुष्यों के शव, रासायनिक जल आदि बहाये जाने के कारण जल विषाक्त और अपेय तो हो ही गया है, साथ ही इसमें अनेक रोगाणु भी पलने लगे हैं।

(घ) ताप-प्रदूषण-मानव की अनेक क्रियाओं; यथा-पारमाणविक; आदि के द्वारा वातावरण का ताप बढ़ता है। पक्की ईंटों-कंकरीट के आवासीय वे कार्य-परिसर, सड़कें आदि स्वयं में ताप को संचित करती हैं। इसका भी मनुष्य के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।

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प्ररन 2 
‘पर्यावरणशुद्धिः पाठ के आधार पर निम्नलिखित पर प्रकाश डालिए
(क) पर्यावरण का आशय,(ख) पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार, (ग) प्रदूषण को रोकने के उपाय। |
उत्तर
(क) पर्यावरण का आशय-सभी जीवधारियों की भाँति मनुष्य ने भी प्रकृति की गोद में जन्म लिया है। प्रकृति के तत्त्व-मिट्टी, जल, वायु, वनस्पति आदि उसको चारों ओर से घेरे हुए हैं। इन्हीं प्राकृतिक तत्त्वों को पर्यावरण कहा.जाता है।

(ख) पर्यावरण प्रदूषण के प्रमुर-पर्यावरण प्रदूषण के निम्नलिखित चार प्रकार हैं(अ) वायु प्रदूषण (ब) ध्वनि-प्रदूषण(स) जल-प्रदूषण और (द) ताप-प्रदूषण।।
[संकेत-विस्तार के लिए प्रश्न सं० 1 देखिए।]

(ग) प्रदूषण को रोकने के उपाय—सभी प्रकार के प्रदूषणों को रोकने का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपाय अधिकाधिक वृक्षारोपण है। वृक्ष विषाक्त वायु के विष-तत्त्व को पीकर स्वास्थ्य के लिए लाभदायक प्राणवायु को उत्पन्न करते हैं। वायु-प्रदूषण को दूर करने में वृक्षों का महान् योगदान है। वृक्षारोपण करने और उनका भली-भाँति संवर्द्धन करने से ध्वनि की सघनता अर्थात् ध्वनि-प्रदूषण कम होता है। जल-प्रदूषण को रोकने में भी अप्रत्यक्ष रूप से वृक्षारोपण का अत्यधिक योगदान है। वृक्ष वातावरण में आर्द्रता उत्पन्न करते हैं, अपने पत्तों को गिराकर खाद बनाते हैं तथा भू-क्षरण को रोकते . हैं। वृक्षों के माध्यम से ही पृथ्वी के गर्भ में जल का संचय होता है, जो मानव के लिए अत्यधिक उपयोगी है। वृक्ष सूर्य की गरमी को दूर करते हैं। अनेकानेक कारणों से वातावरण का जो ताप बढ़ता है, उसे वृक्षों की सघनता नियन्त्रित कर देती है।। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि एकमात्र वृक्षारोपण ही अनेक प्रकार के पर्यावरण प्रदूषण को रोकने में सहायक है। सरकार के साथ-साथ सामान्य जनता का सक्रिय सहयोग इस कार्य में अत्यधिक सहायक सिद्ध होगा।

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Class 9 Sanskrit Chapter 12 UP Board Solutions यज्ञरक्षा Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 12 यज्ञरक्षा (कथा – नाटक कौमुदी) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 12 यज्ञरक्षा (कथा – नाटक कौमुदी).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 12
Chapter Name यज्ञरक्षा (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 26
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 12 Yagyaraksha Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 12 हिंदी अनुवाद यज्ञरक्षा के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय– महर्षि वाल्मीकि द्वारा विरचित ‘रामायण’ तथा महामुनि वेदव्यास द्वारा विरचित ‘महाभारत’ दोनों ही ग्रन्थ कवियों और नाटककारों के लिए, अति प्राचीन काल से ही, प्रेरणा-स्रोत रहे हैं। ये ग्रन्थ न केवल संस्कृत कवियों के लिए अपितु प्राकृत, अपभ्रंश आदि के कवियों के लिए भी आश्रय-ग्रन्थ रहे हैं। इनमें उल्लिखित चरित्रों को आधार बनाकर अगणित महाकाव्यों, खण्डकाव्यों, मुक्तककाव्यों, नाटकों आदि की रचना हुई है। (UPBoardSolutions.com) ‘अनर्घराघव’ भगवान् राम के जीवन को आधार बनाकर विरचित नाटक है। इसकी कथा वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ से ली गयी है। इसके रचयिता मुरारि हैं। इनके पिता का नाम वर्धमानक था। इनका जन्म-समय विद्वानों द्वारा सन् 800 ईसवी के लगभग स्वीकार किया गया है। यह सात अंकों वाला नाटक है, जो यत्र-तत्र कवि-कल्पना से समन्वित है। इससे नाटक की कथा अतिशय रोचक हो गयी है। भाषा पर कविवर मुरारि का असाधारण अधिकार है तथा नाटक में इन्होंने यत्र-तत्र अपने व्याकरण सम्बन्धी ज्ञान का सफल प्रदर्शन किया है।
प्रस्तुत पाठ ‘अनर्घराघव’ के प्रथम अंक से संकलित है।

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पाठ सारांश  

प्रस्तुत अंश में महर्षि विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा हेतु राक्षसों का  वध करने के लिए महाराज दशरथ से उनके दो पुत्रों, राम और लक्ष्मण, की याचना करते हैं। पुत्रों के वियोग का दु:ख अनुभव करते हुए भी दशरथ अपने दोनों पुत्रों को मुनि के साथ भेज देते हैं। राम विश्वामित्र के आश्रम में यज्ञ के रक्षार्थ दुष्टों का वध करना आवश्यक धर्म मानते हुए राक्षसों का संहार करते हैं। पाठ का सारांश इस प्रकार है

विश्वामित्र द्वारा राम की याचना– प्रतिहारी महाराज दशरथ को सूचना देता है कि द्वार पर मुनिवर विश्वामित्र आये हैं। वामदेव; जो कि दशरथ के कुल-पुरोहित हैं; यथोचित सम्मानपूर्वक विश्वामित्र को प्रवेश कराते हैं। विश्वामित्र प्रवेश करते ही कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ से उनका कुशलक्षेम पूछते हैं। दशरथ अपने आसन से उठकर विश्वामित्र का स्वागत करके उन्हें प्रणाम करते हैं। आवश्यक वार्तालाप के पश्चात् दशरथ विश्वामित्र से उनके आने का कारण पूछते हैं। विश्वामित्र बताते हैं कि वे यज्ञ की रक्षा के लिए राम को कुछ दिन तक अपने (UPBoardSolutions.com) आश्रम में ले जाना चाहते हैं। यह सुनकर राम का वियोग हो जाने की बात सोचकर दशरथ अत्यधिक उदास हो जाते हैं। विश्वामित्र दशरथ से कहते हैं। कि राम अब बालक नहीं रहे, वे सूर्य के समान तेजस्वी हैं। दशरथ वामदेव की सहमति से राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेजना स्वीकार कर लेते हैं। विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को अपने साथ लेकर आश्रम की ओर प्रस्थान करते हैं।
आश्रम में पहुँचकर राम और लक्ष्मण वहाँ की रमणीयता और पावनता को देखकर अत्यधिक प्रसन्न होते हैं। |

राम द्वारा राक्षसों का विनाश-
नेपथ्य से राक्षसों द्वारा यज्ञ में विघ्न डालने की ध्वनि सुनाई पड़ती है। राम धनुष लेकर वायव्य अस्त्र का सन्धान कर राक्षसों का संहार करते हैं, लेकिन उनके साथ आयी हुई ताड़का (स्त्री जाति) का वध करने के कारण राम अत्यन्त लज्जित और दुःखी होते हैं। विश्वामित्र (UPBoardSolutions.com) राम को गले लगाकर उनके इस वीरोचित कार्य को उचित बताते हुए उन्हें आशीर्वाद देते हैं। अन्त में मुनि विश्वामित्र को प्रणाम कर राम और लक्ष्मण समेत सभी अपने-अपने स्थान को चले जाते हैं।

चरित्र चित्रण

राम 

परिचय–श्रीराम अयोध्या के महाराज दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र हैं। वे विनीत, धीर, साहसी, वीर, आज्ञाकारी, पितृभक्त और गुरुभक्त हैं। विश्वामित्र राम को यज्ञ के रक्षार्थ अपने साथ आश्रम में ले जाने के लिए दशरथ से माँगते हैं। वे वहाँ पहुँचकर विघ्नकर्ता राक्षसों का वध करते हैं। उनकी चारित्रिक विशेषताएँ अग्र प्रकार हैं

(1) विनीत– श्रीराम स्वभाव से विनीत और शिष्ट हैं। वे पिता और गुरुजन के आज्ञापालक हैं। दशरथ का आदेश पाते ही वे शीघ्र राजसभा में पहुँच जाते हैं। महाराज दशरथ के कहने से वे महामुनि विश्वामित्र को प्रणाम करते हैं। विश्वामित्र के साथ जाने के लिए कहने पर वे अपना कोई मत प्रकट नहीं करते, वरन् वामदेव और पिताजी उनके लिए जैसा कहें, वे वैसा करने को तैयार हैं। इससे राम की नम्रता और शिष्टता प्रकट होती है। |

(2) अनुपम वीर- श्रीराम अतुलित वीर और पराक्रमशाली हैं। वे विश्वामित्र के साथ उनके आश्रम में जाकर वीरतापूर्वक दुष्टों का संहार करते हैं। मारीच और ताड़का जैसे अनेक राक्षसों को मात्र एक बाण (वायव्य शस्त्र) से धराशायी कर देते हैं। इससे उनकी अनुपम वीरता प्रकट होती है।

(3) अद्वितीय धनुर्धर- राम बाण-सन्धान में अद्वितीय हैं। जब दशरथ राम को किशोर मानते हुए विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा हेतु भेजने में संकोच करते हैं तब विश्वामित्र राम के अद्वितीय धनुर्धर रूप को उनके सामने प्रस्तुत करते हुए उन्हें सूर्य के समान तेजस्वी बताते हैं। एक बाण से कई राक्षसों का वध करना भी उनके अद्वितीय धनुर्धर होने की पुष्टि करता है। |

(4) धर्मभीरु– श्रीराम मर्यादापालक हैं। वे ताड़का (स्त्री जाति) का वध करने के बाद दु:खी हो जाते हैं। यद्यपि ताड़का का वध उन्होने विश्वामित्र की आज्ञा से किया है, फिर भी वे स्त्री के वध से दु:खी हैं और उसको मारने से लज्जा और कष्ट का अनुभव करते हैं। विश्वामित्र के कहने पर; “तुमने (UPBoardSolutions.com) अपने कर्तव्य का पालन किया है और तुम्हारा यह कार्य वीरोचित है, तुम्हें लज्जा नहीं करनी चाहिए।’ धैर्य धारण करते हैं। |

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि राम का चरित्र एक आदर्श मानवीय चरित्र है। वे योग्य पुत्र, धर्मभीरु, अद्वितीय धनुर्धर और परम विनीत हैं।

वामदेव 

परिचय- अयोध्या नरेश दशरथ के कुल-पुरोहित पद को विभूषित करने वाले वामदेव ऋषियों के आदर्श हैं। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के आश्रम में उनका निवास है। उनकी चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं

(1) प्रतिष्ठाप्राप्त ऋषि- वामदेव एक प्रतिष्ठाप्राप्त ऋषि हैं। विश्वामित्र भी उन्हें ‘सखा’ कहकर सम्बोधित करते हैं। इससे उनकी विश्वामित्र से समकक्षता भी सिद्ध होती है। दशरथ के प्रतिनिधि रूप में वे ही विश्वामित्र का स्वागत करने और उन्हें राजमहल में ले जाने हेतु उपस्थित होते हैं। इससे उनकी विश्वसनीयता और राजकुल द्वारा बहुमानिता स्पष्ट होती है। |

(2) महाज्ञानी– महर्षि वामदेव ज्ञानपुंज हैं। वे प्रत्येक बात को गम्भीरता से सोचकर उस पर अपना निर्णय देते हैं। विश्वामित्र द्वारा राम-लक्ष्मण को माँगे जाने पर दशरथ पुत्र-मोह के कारण उन्हें विश्वामित्र को देना नहीं चाहते, तब महर्षि वामदेव ही अपने उपदेश से उन्हें कर्तव्य का बोध कराते हैं। वामदेव के कहने पर दशरथ राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के हाथों सौंप देते हैं।

(3) सत्परामर्शदाता- दशरथ के कुल-पुरोहित होने के कारण उनका कर्तव्य है कि वे राजा को उचित-अनुचित का बोध कराकर उसे उचित मार्ग पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करें। वे अपने इस कर्तव्य को बड़ी कुशलता से पूर्ण करते हैं। दशरथ जब-जब दुविधा में पड़ते हैं, तब-तब वे उनको (UPBoardSolutions.com) अपने परामर्श से कर्तव्य-विमुख होने से रोकते हैं। राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेजने के सन्दर्भ में वे कहते हैं कि “हे राजन्! महर्षि विश्वामित्र याचक हैं और आप दाता। महायज्ञ की रक्षा करनी है और राम उसकी रक्षा करेंगे। मैं राम को भेजने की अनुमति प्रदान करता हूँ।” ऐसा कहकर वे दशरथ को दुविधा के अथाह सागर से उबार लेते हैं।

(4) विवेकशील- वामदेव की विवेकशीलता अनुकरणीय है। महाराज दशरथ किसी भी कार्य में ऊहापोह की स्थिति उत्पन्न होने पर वामदेव की शरण में जाते हैं और उनके विवेकनिमज्जित परामर्श को पाकर स्वयं को धन्य मानते हैं। अपने पुत्रों को राक्षसों के आंतक से आच्छादित अरण्य में भेजने जैसे महत्त्वपूर्ण ल्पर दशरथ वामदेव जैसे विवेकी की सहमति-असहमति जानकर ही उन्हें विश्वामित्र के साथ भेजते हैं।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि वामदेव राजकुल तथा ऋषियों में लब्धप्रतिष्ठ हैं। उनके ज्ञान, विवेक और परामर्श के सभी अभिलाषी हैं।

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विश्वामित्र

परिचय- जन्म से क्षत्रिय तथा कर्म-योग से ब्राह्मण महर्षि विश्वामित्र त्रिकालदर्शी ऋषि हैं। वे जिस कार्य को करने की अपने मन में ठान लेते हैं, उसे पूर्ण करके ही चैन की साँस लेते हैं। अपने यज्ञ में राक्षसों द्वारा विघ्न डालने की आशंका पर वे यज्ञ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए दशरथ के पास उनके पुत्र राम-लक्ष्मण को माँगने जाते हैं। राम को शाश्वत यश दिलाने की पृष्ठभूमि में निश्चित ही इनकी भूमिको प्रशंसनीय है। इनके चरित्र की विशेषताएँ इस प्रकार हैं|

(1) महर्षियोचित सौम्य- क्षत्रिय होते हुए भी विश्वामित्र सौम्य की मूर्ति हैं। वे प्रत्येक से बड़ी सौम्यता के साथ मिलते हैं। वे जहाँ महर्षि वामदेव के लिए ‘सखे वामदेव!’ का सम्बोधन प्रयुक्त करते हैं, वहीं दशरथ को भी वे सखे दशरथ!’ कहकर सम्बोधित करते हैं; यह उनकी सौम्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वामदेव से महर्षि वशिष्ठ की सपरिवार कुशलता को पूछा जाना उनके व्यवहार-ज्ञान का परिचायक है।

(2) वात्सल्य-प्रेम से ओत-प्रोत- महर्षि विश्वामित्र वात्सल्य-प्रेम के मानो सतत प्रवाह हैं। राम-लक्ष्मण को वे पुत्रवत् मानते हैं। राम द्वारा ताड़का-वध पर पश्चात्ताप करने पर वे स्नेहसिक्त वचनों से उन्हें यह विश्वास दिलाते हैं कि ताड़का-वध किसी भी दृष्टि से निन्दनीय नहीं है। इतना ही नहीं, वे राम के कार्य को उचित ठहराते हैं और पुत्रवत् वात्सल्य प्रदर्शित करते हुए भाव-विभोर होकर राम को गले से लगा लेते हैं।

(3) महान् गुणज्ञ- स्वयं गुणों की खान विश्वामित्र गुणों के महान् पारखी और उनका सम्मान करने वाले हैं। वे राम के गुणों से परिचित हैं तभी तो दशरथ के द्वारा अल्पवय राम को वन में भेजने की शंका का निवारण करते हुए वे दशरथ से राम के गुणों का बखान करते हैं। राम के लिए यह कहना कि ‘वह (UPBoardSolutions.com) तो सूर्य के समान अपने तेज से समस्त भूमण्डल को प्रकाशित करने वाले तेजस्वी हैं, उनके गुणज्ञ होने का ही साक्ष्य है।

(4) सम्यक् प्रयोक्ता – विश्वामित्र समयोचित तथा व्यक्ति से उसकी शक्ति एवं गुणोचित कार्य कराने के पक्षधर हैं। स्वयं महर्षि होने के कारण वे महान् यज्ञ प्रयोक्ती भी हैं। राम-लक्ष्मण को वे अपने क्षत्रियोचित गुणों के कारण ही राक्षसों का विनाश करने के लिए प्रेरित करते हैं।

निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि विश्वामित्र ब्रह्म एवं क्षात्र तेज-सम्पन्न, व्यवहार- कुशल, गुणज्ञ, सम्यक् प्रयोक्ता एवं वात्सल्यमय स्वभाव के लब्धप्रतिष्ठित महर्षि हैं।

लघु-उतरीय संस्कृत प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए

प्रश्‍न 1
वामदेवः कः आसीत्?
उत्तर
वामदेवः दशरथस्य कुलपुरोहितः आसीत्।

प्रश्‍न 2
रामलक्ष्मणौ कौशिकेन सह कुत्र अगच्छताम्?
उत्तर
रामलक्ष्मणौ कौशिकेन सह तस्य आश्रमम् अगच्छताम्।

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प्रश्‍न 3
विश्वामित्रः दशरथं किमकथयत्?
उत्तर 
रामभद्रेण कतिपयरात्रम् अस्माकम् आश्रमपदं सनाथी करिष्यते’ इति विश्वामित्रः दशरथम् अकथयत्।

प्रश्‍न 4
आश्रमं दृष्ट्वा लक्ष्मणः रामं प्रति किमकथयत्?
उत्तर
आश्रमं दृष्ट्वा लक्ष्मणः रामं प्रति अकथयत् यत् आर्य! रमणीयमितो वर्तते, अहो पशूनामप्यपत्यवात्सल्यम्।

प्रश्‍न 5
रामः कामताडयत्?
उत्तर
राम: ताडकाम् अताडयत्।

प्रश्‍न 6
वशिष्ठस्य अन्यत् किन्नामासीत्?
उत्तर
वशिष्ठस्य अन्यत् नाम मैत्रावरुणिः आसीत्।

प्रश्‍न 7
विश्वामित्रः कस्मात् कारणात् दशरथमुपागतः?
उत्तर
विश्वामित्र: यज्ञरक्षार्थं रामं याचितुं दशरथमुपागतः।

प्रश्‍न 8
ताडकामारणं कथम् अनुचितम् आसीत्?
उत्तर
ताडका एका नारी आसीत्। अत: ताडकामारणम् अनुचितम् आसीत्। .

प्रश्‍न 9
सुबाहुमारीचौ की आस्ताम्?
उत्तर
सुबाहुमारीचौ हिंस्रा: राक्षसाः आस्ताम्।।

प्रश्‍न 10
विश्वामित्र आश्रमे गत्वा रामेण किं कृतम्?
उत्तर
विश्वामित्रस्य आश्रमे गत्वा रामेण राक्षसबलम् उन्मूलयति स्म।

वस्तुनिष्ठ प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उतर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए

1. ‘यज्ञ-रक्षा’ पाठ के लेखक कौन हैं?
(क) आचार्य विष्णुभट्ट
(ख) मुरारि
(ग) महाकवि कालिदास
(घ) महर्षि वाल्मीकि

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2. ‘यज्ञ-रक्षा’ नामक नाट्यांश किस ग्रन्थ से संकलित किया गया है? |
(क) उत्तर रामचरितम्’ से ।
(ख) अनर्घराघव’ से।
(ग) “रावणवधम्’ से
(घ) “प्रतिमानाटकम्’ से

3. विद्वानों के द्वारा मुरारि का समय क्या निर्धारित किया गया है? |
(क) 800 ई०
(ख) 400 ई०
(ग) 600 ई०
(घ) 750 ई०

4. ‘यज्ञ-रक्षा’ पाठ में किस ऋषि के यज्ञ की रक्षा की बात कही गयी है?
(क) विश्वामित्र के
(ख) वशिष्ठ के
(ग) वामदेव के
(घ) श्रृंगी के

5. विश्वामित्र राम-लक्ष्मण को अपने आश्रम में क्यों ले आना चाहते थे?
(क) क्योंकि उन्हें उनसे बहुत प्रेम था
(ख) क्योंकि वे उनकों शिक्षा देना चाहते थे
(ग) क्योंकि वे उनसे अपनी सेवा कराना चाहते थे।
(घ) क्योंकि वे उनसे यज्ञ की रक्षा कराना चाहते थे।

6. ‘देव भगवान्कौशिको द्वारमध्यास्ते’ वाक्यांश में ‘कौशिक’ शब्द किसके लिए प्रयुक्त हुआ
(क) “वामदेव’ के लिए।
(ख) वशिष्ठ’ के लिए
(ग) “विश्वामित्र के लिए
(घ) “दशरथ’ के लिए

7. ‘श्रवणानामलङ्कारः कपोलस्य तु कुण्डलम्।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति? |
(क) वामदेवः
(ख) राम-लक्ष्मणः
(ग) दशरथः
(घ ) विश्वामित्रः

8. ‘शिवाः सन्तु पन्थानो वत्सयो रामलक्ष्मणयोः।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) वामदेवः
(ख) दशरथः
(ग) विश्वामित्रः
(घ) वशिष्ठः

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9. ‘मैत्रावरुण’ किसको कहा गया है?
(क)विश्वामित्र को
(ख) दशरथ को
(ग) वशिष्ठ को
(घ) वामदेव को ,

10. राम ने राक्षसों का वध किससे किया?
(क) वरुणास्त्र’ से
(ख) ब्रह्मास्त्र’ से
(ग) “पाशुपतास्त्र’ से
(घ) “वायव्यास्त्र’ से

11. राम ने विश्वामित्र के आश्रम में किन राक्षसों पर बाण चलाये?
(क) मारीच पर
(ख) सुबाहु पर
(ग) ताड़का पर
(घ) उपर्युक्त तीनों पर

12. ‘सखे वामदेव! चिरेण दशरथो द्रष्टव्य इति सर्वमनोरथानामुपरि वर्तामहे।’ वाक्यस्य वक्ता | कः अस्ति ?
(क) वशिष्ठः
(ख) मैत्रावरुणिः
(ग) कौशिकः
(घ) दशरथः

13. ‘न खलु प्रकाशमन्तरेणं तुहिन ••••••••••••• उज्जिहीते।’ वाक्य में रिक्त-पद की पूर्ति होगी
(क) चन्द्रः’ से
(ख) ‘नक्षत्र:’ से
(ग) “भानु:’ से
(घ) “उडुपति:’ से

14. ‘कौशिकोऽर्थी भवान्दाता रक्षणीयो…………..।’ श्लोक की चरण-पूर्ति होगी .
(क) ‘महाहनुः’ से
(ख) “महाक्रतुः’ से
(ग) “महाऋतुः’ से
(घ) “महातपः’ से।

15. भगवन्विश्वामित्र! सावित्रौ रामलक्ष्मणावभिवादयेते।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) वशिष्ठः
(ख) दशरथः
(ग) रामलक्ष्मणः
(घ) वामदेवः

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16. ‘अहो विचित्रमिदमायतनं •••••••••••• पदं नाम भगवतो गाधिनन्दनस्य।’ में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी
(क) ‘सिद्धाश्रम’ से
(ख) “कौशिकाश्रम’ से
(ग) “सुराश्रम’ से ‘
(घ) “वशिष्ठाश्रम’ से।

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Class 9 Sanskrit Chapter 1 UP Board Solutions माङ्गलिकम् Question Answer

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 1
Chapter Name माङ्गलिकम् (गद्य – भारती)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 1 Mangalikam Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 1 हिंदी अनुवाद माङ्गलिकम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद 

आब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रेराजन्यः
शूरऽइषव्योऽति व्याधि महारथो। जायतां दोग्धी धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णुः रथेष्ठा

सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे-निकामे नः
पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम्।

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शब्दार्थ:
ब्रह्मवर्चसी = वेद-विद्या से प्रकाशित।
जायताम् = उत्पन्न हो।
राष्ट्रे = राष्ट्र में। शूरः = वीर।
इषव्यः = बाण-विद्या में कुशल।
दोग्धी = दुधारू, अधिक दूध देने वाली।
वोढा = भार ले जाने में समर्थ।
अनड्वान् = बलवान् बैल।
सप्तिः = घोड़ा।
पुरन्धिः = रूप-गुणसम्पन्न।
योषाः = स्त्रियाँ।
जिष्णुः = शत्रुओं को जीतने वाले।
रथेष्ठाः = रथ पर बैठने वाला।
सभेयः = सभा के योग्य, श्रेष्ठ नागरिक।
निकामे-निकामे = समय-समय पर।
नः = हमारे लिए।
पर्जन्यः = बादल।
फलवत्यः = उत्तम फल वाली।
पच्यन्ताम् = पकें।
योगक्षेमः = अप्राप्त को प्राप्त करना और प्राप्त की रक्षा करना।
कल्पताम् = (समर्थ) हों।।
सन्दर्भ-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य भारती’ में ‘शुक्ल यजुर्वेद’ की माध्यन्दिनी शाखा के अध्याय 22, कण्डिका 22 से संगृहीत और ‘माङ्गलिकम्’ शीर्षक पाठ से उधृत है।

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प्रसंग:
प्रस्तुत अंश में वैदिक ऋषि देश के लिए मंगलकामना करता है।

अनुवाद
:
हे ब्रह्मन्! हमारे देश में वेद और ईश्वर को जानने वाले ब्राह्मण उत्पन्न हों। बाण-विद्या में कुशल, शत्रुओं की अत्यन्त ताड़ना करने वाले महायोद्धा, वीर क्षत्रिय उत्पन्न हों। अधिक दूध देने वाली गायें, भार को ढोने वाले बलवान् बैल, शीघ्रगामी घोड़े, रूपादि गुणसम्पन्न, भरण-पोषण करने वाली स्त्रियाँ, रथ पर (UPBoardSolutions.com) बैठने वाले विजेता, सभा में बैठने की योग्यता रखने वाले उत्तम युवक, विद्वानों का आदर करने और सुख देने वाले तथा शत्रुओं को भगाने वाले वीर उत्पन्न हों। समय-समय पर हमारे लिए बादल बरसे। हमारे लिए उत्तम फल वाली औषधियाँ पके, हमारे लिए अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति तथा प्राप्त वस्तु की रक्षा हो। .

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Class 9 Sanskrit Chapter 7 UP Board Solutions गणतन्त्रदिवसः Question Answer

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 5
Chapter Name गणतन्त्रदिवसः (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 3
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 7 Ganatantra Dinotsavam Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 7 हिंदी अनुवाद गणतन्त्रदिवसः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांश

‘गणतन्त्र’ से आशय- हमारे देश में प्रतिवर्ष 26 जनवरी को गणतन्त्र महोत्सव मनाया जाता है। सन् 1950 ई० में इसी दिन हमारा देश ‘गणतन्त्र घोषित हुआ था। इसी दिन से भारतीय संविधान देश में लागू हुआ और उसके अनुसार देश का शासन चलाया जाने लगा। इसी दिन,हमें ज्ञात हुआ कि देश की प्रभुसत्ता जनता में निहित है और जनता के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। जनतन्त्र का यह सार्वभौम सिद्धान्त भी इसी दिन चरितार्थ हुआ। यही ‘गणतन्त्र’ का तात्पर्य है।

महत्त्व-26-  जनवरी का दिन राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। सन् •1930 ई० में 26 जनवरी को ही राष्ट्रीय नेताओं ने पंजाब में रावी नदी के तट पर ‘कॉग्रेस के महाधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करने की प्रतिज्ञा की थी। तब से यह दिन स्वतन्त्रता-दिवस के रूप में मनाया जाने (UPBoardSolutions.com) लगा था, किन्तु सन् 1947 ई० में भारत के स्वतन्त्र होने पर 15 अगस्त का दिन स्वतन्त्रता-दिवस के रूप में प्रसिद्ध हो गया। इससे 26 जनवरी का महत्त्व किसी तरह कम नहीं हुआ। राष्ट्रीय नेताओं ने 26 जनवरी, 1950 ई० को भारतीय संविधान लागू करके इसके महत्त्व की रक्षा की। इस प्रकार स्वतन्त्रता की पूर्णरूपेण पुष्टि इसी दिन हुई।

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मनाने का ढंग– यह महोत्सव प्रतिवर्ष सम्पूर्ण देश में अत्यधिक हर्षोल्लासपूर्वक मनाया जाता है। इस दिन भवनों पर तिरंगा झण्डा फहराया जाता है और जन-सभाएँ की जाती हैं। विद्यालयों में बालक-बालिकाएँ राष्ट्रगीत गाते हैं, कविता-पाठ और भाषण प्रतियोगिताएँ होती हैं। छोटे-छोटे बच्चे झण्डियाँ लेकर सड़कों पर राष्ट्रगीत गाते हुए और मातृभूमि की जय बोलते हुए प्रभात-फेरियाँ निकालते हैं। इसे देखकर राष्ट्र के लिए आत्म-समर्पण करने वाले राष्ट्र-प्रेमियों की याद तरोताजा हो जाती है।

दिल्ली में मनाने का ढंग- यद्यपि यह महोत्सव प्रत्येक गाँव में, प्रत्येक नगर में, विद्यालय में और कार्यालय में मनाया जाता है, फिर भी मुख्य उत्सव देश की राजधानी दिल्ली में लालकिले के मैदान में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन दिल्ली नववधू के समान सजायी जाती है।

निश्चित समय पर राष्ट्रपति सुसज्जित बग्घी में चढ़कर आते हैं। उनके अंगरक्षक विशिष्ट वेशभूषा में उनके आगे-आगे चलते हैं। राष्ट्रपति लालकिले की प्राचीर पर राष्ट्रीय (UPBoardSolutions.com) ध्वज फहराते हैं और उपस्थित नर-नारी जयघोष करते हुए हर्ष व्यक्त करते हैं। पंक्ति बनाये बालक-बालिकाएँ राष्ट्रपति का अभिवादन करते हैं। इसके बाद स्थल सेना, जल सेना और नभ सेना के जवान अभिनन्दन करते हैं।

इस अवसर पर आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों और सामरिक वाहनों का प्रदर्शन किया जाता है। आंकाश में उड़ते हुए वायुयान क्षणभर में कभी तिरछे होकर, कभी ऊपर, कभी नीचे आकर अपना उड्डयन-कौशल दिखाते हैं और पुष्प वर्षा करके राष्ट्र का अभिनन्दन करते हैं। | यह उत्सव किसी धर्म, जाति अथवा सम्प्रदाय का नहीं है। यह सम्पूर्ण राष्ट्र की प्रगति के लिए किये गये त्याग और बलिदान का स्मारक है। यह हमें परस्पर प्रेम, सहिष्णुता और सर्वप्रथम समभाव से रहने की प्रेरणा देता है।

राष्ट्रीयता का पोषक-यह महोत्सव हममें राष्ट्रीय भावना जाग्रत करता है। भूमि, जन और संस्कृति–राष्ट्र के इन तीन तत्त्वों का तादात्म्य ही राष्ट्रीयता है। भारतभूमि पर जन्म लेकर उसके अन्न और वायु से हम जीवित रहते हैं। वह हमारी माता के समान पालन-पोषण करती है; अंतः भारतभूमि (UPBoardSolutions.com) हमारी माता और हम उसके पुत्र हैं। भारतभूमि के हम सब निवासी आपस में भाई हैं। वर्ण, जाति, भाषा, धर्म आदि स्थान का भेद होते हुए भी हम भारतमाता के ही पुत्र हैं; अतः हम सभी को मातृभूमि की सेवा में तत्पर होना चाहिए-गणतन्त्र दिवस हमें इसी की याद दिलाता है।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) प्रतिवर्ष जनवरीमासस्य षड्विंशे दिनाङ्केऽस्माकं देशे गणतन्त्रोत्सवः आयोजितो भवति। एतस्मिन्नेव दिनाङ्के पञ्चाशदुत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे (1950) देशोऽयमस्माकं गणतन्त्रो जातः। अस्मिन्नैव दिनाङ्केऽस्माभिर्निर्मितं संविधानं व्यवहारे आगतम्। एतस्माद्दिनादेवास्य देशस्य शासनं स्वनिर्मितेन विधानेन सञ्चाल्यमानमभूत्। राष्ट्रस्य प्रभुत्वशक्तिः जनेषु निहितेति संविधान प्रतिपादितः सिद्धान्तः तद्दिन एव प्रतिफलितः। जननिर्वाचिताः प्रतिनिधयो जनताम्प्रत्येवोत्तरदायिन इति जनतन्त्रस्य सार्वभौमः सिद्धान्तः तद्दिन एवं चरितार्थो जातः। अयमेव गणतन्त्रस्याशयोऽस्ति।

शाब्दार्थ-
षड्विंशे दिनाङ्के = छब्बीसवें दिन।
आयोजितो भवति = मनाया जाता है।
जातः = बना।
व्यवहारे आगतम् = व्यवहार में आया।
सञ्चाल्यमानम् = संचालित होने वाला।
प्रभुत्वशक्तिः = प्रभुसत्ता की शक्ति।
निहिता = स्थित है।
प्रतिपादितः = स्वीकार किया, विवेचित किया।
प्रतिफलितः = कार्यान्वित किया।
निर्वाचिताः = चुने गये।
उत्तरदायिनः = उत्तरदायी।
सार्वभौमः = सारे संसार का।
चरितार्थः = सफल।
आशयः अस्ति = अभिप्राय है।

सन्दर्थ
प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘गणतन्त्रदिवसः’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

संकेत
इस पाठ के शेष गद्यांशों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गणतन्त्र का आशय स्पष्ट किया गया है।

अनुवाद
प्रतिवर्ष जनवरी महीने की 26 तारीख को हमारे देश में गणतन्त्र का उत्सव मनाया जाता है। सन् 1950 ईसवी में इसी दिन हमारा यह देश गणतन्त्र हुआ था। इसी तारीख को हमारे द्वारा बनाया गया संविधान व्यवहार में आया था। इसी दिन से इस देश का शासन अपने द्वारा निर्मित कानून से चलाया गया। (UPBoardSolutions.com) राष्ट्र की प्रभुत्वशक्ति जनता में निहित है, यह संविधान के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त रस दिन ही प्रतिफलित हुआ था। जनता के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि जनता के प्रति ही उत्तरदायी होते हैं। जनतन्त्र का यह सार्वभौम सिद्धान्त उसी दिन चरितार्थ (लागू) हुआ था। यही गणतन्त्र का आशय है।

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(2) जनवरीमासस्य षड्विंशदिनाङ्के भारतस्य राष्ट्रियान्दोलनस्यैतिहासिको दिवसो वर्तते। त्रिंशदुत्तरैकोनविंशतिशततमेऽस्मिन्नेव दिनाङ्के श्रीजवाहरलालनेहरूमहोदयस्य नेतृत्वे पञ्चनदप्रदेशे रावीनद्यस्तटे सम्पन्ने भारतीयराष्ट्रियकॉङ्ग्रेसमहाधिवेशने पूर्णस्वराज्यस्य सङ्कल्पो गृहीतोऽस्मन्नेतृवर्गौः। तत आरभ्य प्रतिवर्षमेष दिवसः स्वतन्त्रतादिवस इति नाम्ना समग्रे देशे समायोजितो भवति। सप्तचत्वारिंशदुत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे अगस्तमासस्य पञ्चदशदिनाङ्के भारतं स्वातन्त्र्यमलभत्। (UPBoardSolutions.com) अतोऽगस्तमासस्य पञ्चदशदिनाङ्के एव स्वतन्त्रतादिवसरूपेण ख्यातोऽभूत्। जनवरीमासस्य षड्विंशदिनाङ्कस्य महिमा न हीयेत इति राष्ट्रियनेतार नेतृभिः एतस्मिन् दिनाङ्के स्वनिर्मितं संविधानं प्रयुज्य तस्य महत्त्वं संरक्षितं किञ्च ततोऽप्यधिकं महत्त्वं तस्मै तैः प्रदत्तम्।

शब्दार्थ-
आन्दोलनस्य = आन्दोलन का।
ऐतिहासिको दिवसो = इतिहास से सम्बद्ध महत्त्व वाला दिन।
पञ्चनदप्रदेशे = पंजाब प्रदेश में सम्पन्ने = पूर्ण हुए।
सङ्कल्पः = निश्चित प्रतिज्ञा।
समायोजितो भवति = मनाया जाता है।
अलभत्= प्राप्त किया।
ख्यातः = प्रसिद्ध।
हीयते = कम होती है।
प्रयुज्य = प्रयोग करके, लागू करके।
प्रदत्तं = प्रदान किया गया।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में बताया गया है कि 26 जनवरी के महत्त्व को बनाये रखने के लिए इस दिन स्वनिर्मित संविधान को लागू किया गया।

अनुवाद
जनवरी महीने की 26 तारीख भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का ऐतिहासिक दिन (तारीख) है। सन् 1930 ई० में इसी तारीख को श्री जवाहरलाल नेहरू महोदय के नेतृत्व में पंजाब में रावी नदी के किनारे पर हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महाधिवेशन में हमारे नेताओं ने पूर्ण स्वराज्य की प्रतिज्ञा की थी। तब से लेकर प्रतिवर्ष यह दिन स्वतन्त्रता दिवस (के), इस नाम से सारे देश में मनाया जाता रहा। सन् 1947 ईसवी में (UPBoardSolutions.com) अगस्त महीने की 15 तारीख को भारत ने स्वतन्त्रता प्राप्त की थी; अतः अगस्त महीने की 15 तारीख ही स्वतन्त्रता दिवस के रूप में प्रसिद्ध हुई। जनवरी महीने की 26 तारीख की महिमा कम न हो जाये, इसलिए राष्ट्रीय नेताओं ने इस तिथि को अपने द्वारा निर्मित संविधान को प्रयोग कर (लागू करके) उसके महत्त्व की उन्होंने रक्षा की और क्या, उन्होंने उसे (26 जनवरी को) उससे (15 अगस्त से) अधिक महत्त्व प्रदान किया।

(3) महोत्सवोऽयं महोल्लासेन समग्रे च देशे जनैः प्रतिवर्षमायोज्यते। पूर्वाह्नत्रिवर्णोऽस्माकं राष्ट्रध्वजो भवनेषु समुच्छुितो भवति, जनसभाश्च विधीयन्ते। तासु सभासु राष्ट्रं प्रति कर्त्तव्यं बोधयन्ति विशिष्टाः जनाः नेतारो विद्वांसश्च। विद्यालयेषु बालकाः बालिकाश्चानेकराष्ट्रियकार्यक्रमान् सोत्साहं सोल्लासं च सम्पादयन्ति, राष्ट्रियगीतानि गायन्ति, कवितापाठं कुर्वन्ति, भाषणप्रतियोगितासु सम्मिलिताः भवन्ति। प्रातः शिशुच्छात्राः (UPBoardSolutions.com) स्वप्रमाणानुरूपान् लघुलघून, ध्वजान् गृहीत्वा पङक्तिबद्धाः सन्तः वीथीषु राष्ट्रगीतं गायन्तः मातृभूमेः जयघोष कुर्वन्तः जनानुबोधयन्तः परिभ्रमन्ति। अदभुतं मनोहरं दृश्यमिदं जनमानसं बलादाकर्षदिवे राष्ट्रभावान् हदि-हृदि सञ्चारयत् स्मारयति तान् युवकान् महापुरुषान् यैः स्वतन्त्रतामाप्तुं, स्वातन्त्र्यान्दोलनाग्नौ स्वसुखं स्ववैभवं स्वप्राणा अपि सानन्दं सर्वं हुतम्।

शब्दार्थ-
महोल्लासेन (महा + उल्लासेन) = अत्यधिक प्रसन्नता से।
आयोज्यते = मनाया जाता है।
पूर्वाह्न = दिन के पूर्वभाग में।
समृच्छुितो भवति = फहराया जाता है।
विधीयन्ते = की जाती हैं।
बोधयन्ति = बताते हैं।
स्वप्रमाणानुरूपान् = अपने प्रमाण के अनुरूप।
लघु-लघून् = छोटे-छोटों को।
वीथीषु = गलियों में परिभ्रमन्ति = घूमते हैं।
बलादाकर्षदिव = बलपूर्वक आकर्षित करता हुआ।
हृदि-हृदि = प्रत्येक हृदय में।
स्मारयति = याद दिलाता है।
आप्तुम् = पाने के लिए।
आन्दोलनाग्नौ = आन्दोलन रूपी अग्नि में।
हुतम् = उत्सर्ग कर दिया।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में सम्पूर्ण देश में गणतन्त्र दिवस मनाये जाने की विधि का वर्णन किया। गया है।

अनुवाद
यह महान् उत्सव लोगों के द्वारा अत्यधिक उत्साह से सारे देश में प्रतिवर्ष मनाया जाता है। सवेरे के समय हमारा तिरंगा झण्डा भवनों पर फहराया जाता है और जन-सभाएँ की जाती हैं। उन सभाओं में विशेष लोग, नेता और विद्वान राष्ट्र के प्रति कर्तव्य समझाते हैं। विद्यालयों में बालक और बालिकाएँ अनेक राष्ट्रीय कार्यक्रमों को उत्साह और प्रसन्नता से सम्पन्न करते हैं। वे राष्ट्रीय गीत गाते हैं, कविता पाठ करते हैं, भाषण-प्रतियोगिताओं में सम्मिलित होते हैं। सवेरे के समय छोटे बच्चे अपने (शरीर के) परिमाण के अनुसार छोटे-छोटे ध्वजों (UPBoardSolutions.com) को लेकर पंक्ति बनाकर रास्तों में राष्ट्रगीत गाते हुए, मातृभूमि की जय बोलते हुए लोगों को जाग्रत करते हुए घूमते हैं। यह अद्भुत मनोहर दृश्य लोगों के मनों को बलपूर्वक खींचता हुआ, हृदय-हृदय में राष्ट्रीय भावों का संचार करता हुआ, उन युवक महापुरुषों की याद दिलाता है, जिन्होंने स्वतन्त्रता को प्राप्त करने के लिए स्वतन्त्रता के आन्दोलन की आग में अपने समस्त सुख, वैभव और प्राणों को भी आनन्दपूर्वक होम कर दिया था।

(4) यद्यपि महोत्सवोऽयं ग्रामे-ग्रामे, नगरे-नगरे प्रतिविद्यालयं प्रतिकार्यालयं सर्वत्र समायोजिता भवति, तथापि मुख्योत्सवो देशस्य राजधान्यां दिल्लीनगरे स्थितस्य प्रख्यातस्य ‘लालकिलाख्यस्य’ महादुर्गस्य विशाले प्राङ्गणे महता समारम्भेण सम्पन्नो भवति। अमुं महोत्सव द्रष्टुं देशस्य सुदूराञ्चलेभ्यो जनास्तत्र समुपयान्ति। वैदेशिकाः तत्रोपस्थितास्तन्महोत्सवस्य भव्यं रूपमवलोक्य चकितास्तिष्ठन्ति। दिल्लीनगरी तद्दिने नवोढयुवतिरिव सज्जिताऽलङ्कृता च सुशोभते।।

शब्दार्थ-
प्रख्यातस्य = विख्यात।
समारम्भेण = तैयारी के साथ।
समुपयान्ति = आते हैं।
नवोढयुवतिरिव = नव-विवाहिता वधू के समान।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में दिल्ली नगर में गणतन्त्र दिवस का उत्सव मनाये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
यद्यपि यह महोत्सव गाँव-गाँव में, नगर-नगर में, प्रत्येक विद्यालय में, प्रत्येक कार्यालय में सभी जगह मनाया जाता है तो भी मुख्य उत्सवं देश की राजधानी दिल्ली नगरी में स्थित प्रसिद्ध ‘लालकिला’ नाम के बड़े किले के विशाल प्रांगण में बड़ी तैयारी के साथ सम्पन्न होता है। इस महोत्सव को देखने के लिए देश के दूर के स्थानों से लोग वहाँ आते हैं। वहाँ आये हुए विदेशी भी उस महोत्सव के भव्य रूप को देखकर चकित रह जाते हैं। दिल्ली नगरी उस दिन नव-विवाहिता वधू के समान सुसज्जित, अलंकृत और सुशोभित होती है।

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(5) सुनिश्चित कालेऽस्माकं राष्ट्रपतिः विभूषितमश्वयानमारुह्य महोत्सवस्थलं प्रयाति। अश्वारोहास्तस्याङ्गरक्षकाः प्रभावोत्पादकाः विशिष्टभूषाभूषिताः राष्ट्रपतेरश्वयानस्य पुरतोऽग्रेसरन्ति। राष्ट्रपतिः दुर्गप्राचीरं प्राप्तय राष्ट्रप्रतीकभूतं राष्ट्रध्वजं तत्र समुच्छ्यति। तां भव्य दिव्यां शोभां दर्श-दर्श (UPBoardSolutions.com) तत्र समवेताः नराः नार्यः बालाः वृद्धाश्च जयघोषं कुर्वन्तः स्वहृदयहर्ष व्यञ्जयन्ति। बालकाः बालिकाश्च पङ्क्तिबद्धाः पुरस्सरन्तः राष्ट्रपतये आनतिमर्पयन्ति। ततोऽस्माकं स्थल-सैनिकाः जनसैनिकाः नभस्सैनिकाश्च तं नमन्तोऽग्रेसरन्ति।

शब्दार्थ-
विभूषितम् अश्वयानम् आरुह्य = सजी हुई बग्घी पर चढ़कर।
प्रयाति = जाते हैं।
पुरतोओसरन्ति (पुरतः + अग्रेसरन्ति) = आगे बढ़ते हैं।
दुर्गप्राचीरं प्राप्य = किले की चहारदीवारी पर पहुँचकर समुच्छ्य ति = फहराता है।
समवेताः = इकड़े हुए।
व्यञ्जयन्ति = प्रकट करते हैं।
पुरस्सरन्तः = आगे बढ़ते हुए।
आनतिम् = नमस्कार।
नमन्तोऽग्रेसरन्ति = झुकते हुए आगे बढ़ते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में देश की राजधानी दिल्ली में गणतन्त्र दिवस मनाये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
निश्चित समय पर हमारे राष्ट्रपति सजी हुई बग्घी पर चढ़कर महोत्सव के स्थान पर जाते हैं। उनके घुड़सवार अंगरक्षक प्रभाव डालने वाली विशेष वर्दी पहने हुए राष्ट्रपति की बग्घी के सामने आगे चलते हैं। राष्ट्रपति दुर्ग की प्राचीर पर पहुँचकर वहाँ राष्ट्र के प्रतीकस्वरूप राष्ट्रध्वज को फहराते हैं। उस भव्य, दिव्य शोभा को देख-देखकर वहाँ एकत्रित हुए स्त्री-पुरुष, बालक और वृद्ध जय बोलते हुए अपने हृदय के हर्ष को (UPBoardSolutions.com) व्यक्त करते हैं। बालक और बालिकाएँ पंक्ति बनाकर आगे चलते हुए राष्ट्रपति को अभिवादन करते हैं। इसके बाद हमारे स्थल सैनिक, जल सैनिक और नभ सैनिक उन्हें नमस्कार करते हुए आगे चलते हैं।

(6) अस्मिन्नवसरे विशालानां विलक्षणानाञ्चात्याधुनिकास्त्रशस्त्राणां युद्धायुधानां सामरिकवाहनानाञ्च राष्ट्रपतेः पुरतः प्रदर्शनं क्रियते। आयुधयानानि यदा मन्थरंगत्या राष्ट्रपतिसमक्षमायान्ति तदानीमेव ध्वनितोऽप्यधिकवेगेन गगने क्षणमूर्ध्वं क्षणमधः क्षणं तिर्यग् उड्डीयमानानि वायुयानानि चेतश्चमत्कारकं स्वक्रियाकौशलं प्रदर्शयन्ति पुष्पवर्षाभिः राष्ट्रमभिनन्दन्ति देशरक्षाविधौ स्वसामर्थ्यञ्च साधु प्रकटयन्ति।

शब्दार्थ-
युद्धायुधानाम् = युद्ध के शस्त्रों का।
सामरिकवाहनानाम् = युद्ध के सामान को ढोने वाले।
पुरतः = सामने।
मन्थरगत्या = धीमी चाल से।
आयान्ति = आते हैं।
ऊर्ध्वम् = ऊपर।
तिर्यग् = तिरछे।
उड्डीयमानानि = उड़ते हुए।
चेतः चमत्कारकं = मन को चमत्कृत करने वाले।
साधु = अच्छी तरह।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में दिल्ली नगर में आयोजित गणतन्त्र समारोह का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
इसी अवसर पर विशाल और विलक्षण आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों का, युद्ध के आयुधों का और युद्ववाहनों का राष्ट्रपति के सामने प्रदर्शन किया जाता है। युद्धवाहने जब धीमी गति से राष्ट्रपति के सामने आते हैं, तभी ध्वनि से भी अधिक गति से आकाश में क्षणभर ऊपर, क्षणभर नीचे और (UPBoardSolutions.com) क्षणभर तिरछे उड़ते हुए वायुयान हृदय को चमत्कृत करने वाले अपने कौशल को दिखाते हैं, पुष्प-वर्षा से राष्ट्र का सम्मान करते हैं और देश की रक्षा-विधि में अपनी क्षमता को अच्छी तरह प्रकट करते हैं।

(7) महोत्सवोऽयं न कस्यचिद्धर्मस्य सम्प्रदायस्य वर्णस्य जातेर्वाऽस्ति। समग्रस्य राष्ट्रस्य रक्षायै राष्ट्रस्य संवर्धनाय च विहितस्य त्यागस्य बलिदानस्य संस्मारकोऽयमस्माकं राष्ट्रियोत्सवः प्रतिवर्ष परस्परं प्रेम्णां सहिष्णुतया सर्वधर्मसमभावतया स्थातुमस्मान् प्रेरयति।

शब्दार्थ
संवर्धनाय = बढ़ाने के लिए।
विहितस्य = किये गये।
संस्मारकः = स्मारक।
प्रेरयति = प्रेरित करती है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गणतन्त्र दिवस के उत्सव से मिलने वाली प्रेरणा का वर्णन किया गया हैं।

अनुवाद
यह महोत्सव किसी धर्म, सम्प्रदाय, वर्ण या जाति का नहीं है। सारे राष्ट्र की रक्षा के : लिए और राष्ट्र की प्रगति के लिए किये गये त्याग और बलिदान की याद कराने वाला हमारा यह राष्ट्रीय उत्सव प्रतिवर्ष आपस में प्रेम, सहिष्णुता और सर्वधर्म समभाव से रहने के लिए हमें प्रेरणा देता है।

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(8) राष्ट्रियमहोत्सवोऽयं राष्ट्रभावमस्मासु जागरयति। राष्ट्रभावो राष्ट्रं प्रति जनानां तादात्म्यभावः। भूमिः जनाः संस्कृतिरिति त्रयाणां समुच्चय एव राष्ट्रम्। राष्ट्रस्यैतानि त्रीणि तत्त्वानीत्यपि वक्तुं शक्यते। भारतभूमिः भारतीयजनाः भारतीयसंस्कृतिरितित्रयाणां तादात्म्यमेव भारतराष्ट्रमिति संज्ञेयम्। भारतभूमौ वयं जन्म लब्ध्वा निवसामः तदन्नेन, तज्जलेन, तद्वायुना च जीवामः विविधभोगोपयुक्तवस्तूनि सो (UPBoardSolutions.com) अस्मभ्यं प्रयच्छन्ती मातृवदस्मान् पालयति पुष्णाति वर्धयति च। अतएव सा भूमिः मातृभूमिरित्युच्यते। ‘माताभूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ इति श्रुतिर्वदति। मातृभूमिं प्रति समादरं प्रदर्शयन् श्रीरामोऽपि ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ इत्यवोचत्। मातुः मातृभूमेश्च महिमा केनं न स्वीक्रियते? |

शब्दार्थ-
जागरयति = जगाता है।
समुच्चय = समूह।
वक्तुं शक्यते = कहा जा सकता है।
तादात्म्यम् एव = मिश्रित रूप ही।
संज्ञेयम् = जानना चाहिए।
लब्ध्वा = पाकर। जीवायः = जीते हैं।
अस्मभ्यम् = हम सबके लिए।
प्रयच्छन्ती = देती हुई।
मातृवत् अस्मान् = माता के समान हमको।
पुष्णाति = पुष्ट करती है।
श्रुतिः वदति = वेद कहता है।
स्वर्गादपि = स्वर्ग से भी।
गरीयसी = अधिक श्रेष्ठ है।
स्वीक्रियता = स्वीकार करता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश मे राष्ट्र के तत्त्व बताये गये हैं और जन-समुदाय को पृथ्वी का पुत्र बताया। गया है।

अनुवाद
यह राष्ट्रीय महोत्सव हममें राष्ट्रभावना जाग्रत करता है। लोगों का राष्ट्र के प्रति अपनापन ही राष्ट्रभावना है। भूमि, जन् और संस्कृति इन तीनों का समूह ही राष्ट्र है। ये राष्ट्र के तीन तत्त्व हैं, ऐसा कहा जाता सकता है। भारतभूमि, भारत के लोग और भारत की संस्कृति इन तीनों का मिश्रित रूप ही भारत राष्ट्र है, ऐसी जानना चाहिए। हम भारतभूमि पर जन्म लेकर रहते हैं, उसके अन्न से, उसके जल से और उसकी वायु से जीवित रहते हैं। अनेक प्रकार की भोग के योग्य वस्तुओं को वह .

हमें प्रदान करती हुई हमारा पालन करती है, पोषण करती है और बड़ा करती है। इसलिए उस भूमि को ‘मातृभूमि’ ऐसा कहा जाता है। ‘माता भूमि है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ’, ऐसा वेद कहते हैं। मातृभूमि के प्रति आदर दिखाते हुए श्रीराम ने भी ‘माता और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान् है’, ऐसा कहा था। माता। और मातृभूमि की महिमा को कौन स्वीकार नहीं करता है?

(9) मातृभूमौ जनाः निवसन्ति। सर्वे जना एकमातुः सन्ततयोऽतस्ते मिथो भ्रातरः सन्ति। एकमातृजेषु भ्रातृषु सहजः स्नेहो भवति। तेषु भवतु नाम वर्णभेद, भाषाभेदः, धर्मभेदः, क्षेत्रभेदो वापरं सर्वे ते भारतभूतनया एव। पुष्पोद्याने प्रस्फुटितानि विविधवणकारभूतानि यथा स्ववैविध्येनोद्यानस्य सुषमामेव वर्धयन्ति तथैवेते बाह्यभेदाः अस्माकं मातृभूमेः दिव्यस्वरूपं व्यञ्जयन्ति। यथा सर्वेषु वर्णाकारस्वरूपभेदेषु सत्सु भूमेः (UPBoardSolutions.com) प्राप्त एक एव रसः प्रवहति, तस्मिन् से न कश्चिद्भेदः तथैव सर्वेषु जनेषु बाह्यभेदेषु सत्सु भारतीय संस्कृतिः रसरूपेण प्रवहति। स एव । संस्कृतिरसोऽस्मान् मिथः एकसूत्रे प्रतिबध्नाति। अतः सर्वे वयं भारतीयाः भारतपुत्राः पुत्र्यश्च सततं स्वमातृसेवापरा भवेम इति गणतन्त्रमहोत्सवः प्रतिवर्षमस्मान् स्मारयति।

शब्दार्थ
सन्ततयः = सन्तान।
मिथः = आपस में।
एकमातृजातेषु = एक माता से जन्म लेने वालों में।
सहजः = स्वाभाविक।
भवतु नाम = भले ही हो।
वापरं (वा + अपरं) = अथवा अन्य।
भारतभूतनयाः = भारतभूमि में उत्पन्न हुए पुत्र।
प्रस्फुटितानि = खिले हुए।
स्ववैविध्येन = अपनी विविधता से।
उद्यानस्य = बगीचे की।
सुषमाम् = सुषमा को।
तथैवेते (तथा + एव + एते) = उसी प्रकार ये।
बाह्यभेदाः = बाहरी भेद।
व्यञ्जयन्ति = प्रकट करते हैं।
एकसूत्रे = एक सूत्र में।
प्रतिबध्नाति = बाँधती है।
संततम् = सदा, लगातार।
स्मारयति = याद दिलाता है। |

प्रसंग
भारत में रहने वाले लोगों में अनेक विविधताएँ होते हुए भी सभी एक हैं। हम सभी मातृभूमि के पुत्र हैं; अतः हमें मातृभूमि की सेवा करनी चाहिए। प्रस्तुत गद्यांश में यही बताया गया है।

अनुवाद
मातृभूमि पर लोग रहते हैं। सब लोग एक ही माता की सन्तान हैं; अतः वे आपस में भाई हैं। एक माता से उत्पन्न हुए भाइयों में स्वाभाविक स्नेह होता है। उनमें भले ही वर्णभेद, भाषाभेद, धर्मभेद अथवा स्थान भेद हो, परन्तु वे सब भारतभूमि के पुत्र ही हैं। पुष्पों के उद्यान में खिले हुए अनेक रंगों और आकारों के होते हुए भी पुष्प अपनी विविधता से उद्यान की शोभा ही बढ़ाते हैं, उसी प्रकार (हमारे) बाहरी भेदभाव हमारी मातृभूमि के दिव्य (सुन्दर) स्वरूप को प्रकट करते हैं। जिस प्रकार रंग, आकार, स्वरूप का भेद होते हुए भी सभी (वनस्पतियों) (UPBoardSolutions.com) में भूमि से प्राप्त एक ही रस बहता है, उसमें (रस में) कोई भी अन्तर नहीं (होता), वैसे ही बाहरी भेदभाव होते हुए भी सभी (भारतीय) लोगों में भारतीय संस्कृति रस रूप में बहती है। वही संस्कृति रस हमें आपस में एक सूत्र में बाँधती है; अत: हम सभी. भारत के रहने वाले भारत के पुत्र और पुत्रियाँ निरन्तर अपनी माता की सेवा में लगे रहें। .. । गणतन्त्र महोत्सव प्रतिवर्ष हमें इसकी याद दिलाता है।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
गणतन्त्र दिवस के महत्त्व पर एक निबन्ध लिखिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत दी गयी सामग्री को ध्यानपूर्वक पढ़कर अपने शब्दों में लिखिए।]

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प्ररन 2
गणतन्त्र दिवस का आशय स्पष्ट करते हुए इसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत ‘गणतन्त्र से आशय’ और ‘महत्त्व शीर्षकों की सामग्री को पढ़िए और अपने शब्दों में लिखिए।]

प्ररन 3
गणतन्त्र दिवस को लाल किले पर क्या कार्यक्रम होता है और राष्ट्रपति को किस प्रकार सलामी दी जाती है।
उत्तर
गणतन्त्र दिवस के दिन राष्ट्रपति निश्चित समय पर बग्घी में चढ़कर आते हैं और लाल किले की प्राचीन पर राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं। उपस्थित स्त्री-पुरुष जयघोष करते हुए हर्ष व्यक्त करते हैं। पंक्तिबद्ध बालक-बालिकाएँ राष्ट्रपति का अभिवादन करते हैं। इसके पश्चात् तीनों सेनाओं (जल, थल और नभ) के जवान राष्ट्रपति का अभिवादन करते हैं।

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