Class 9 Sanskrit Chapter 8 UP Board Solutions नारी-महिमा Question Answer

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Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 8
Chapter Name नारी-महिमा (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 8 Nari Mahima Question Answer (पद्य-पीयूषम्)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 8 हिंदी अनुवाद नारी-महिमा के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय-सामाजिक एवं व्यक्तिगत जीवन के विविध पक्षों पर प्रकाश डालने वाले ग्रन्थों को स्मृति कहते हैं। श्रुति’ से जिस प्रकार वेद, ब्राह्मण, आरण्यक् और उपनिषद् ग्रन्थों का बोध होता है; उसी प्रकार ‘स्मृति’ को ग्रन्थकारों ने धर्मशास्त्र का पर्याय माना है। धर्मशास्त्र उस शास्त्र को कहते हैं, जिसमें राजा-प्रजा के अधिकार, कर्तव्य, सामाजिक आचार-विचार, व्यवस्था, वर्णाश्रम, धर्मनीति, सदाचार और शासन सम्बन्धी नियमों और व्यवस्थाओं का वर्णन होता है। स्मृतियाँ अनेक हैं किन्तु प्रमुख स्मृतियों की संख्या अठारह मानी जाती है। मनु, (UPBoardSolutions.com) याज्ञवल्क्य, अत्रि, विष्णु, हारीत, उशनस्, अंगिरा, यम, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, दक्ष, गौतम, वसिष्ठ, नारद, भृगु आदि प्रमुख स्मृतिकार माने जाते हैं। मनु को मानव जाति के आदि पुरुष के रूप में वेदों में भी स्मरण किया गया है। मनु द्वारा रचित ‘मनुस्मृति’ न केवल सर्वाधिक प्राचीन है अपितु यह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भी है। न्यायालयों में भी हिन्दू-विधि के लिए मनुस्मृति’ को ही प्रामाणिक माना जाता हैं।

प्रस्तुत पाठ के श्लोक ‘मनुस्मृति’ के द्वितीय अध्याय से संगृहीत हैं। इन श्लोकों में समाज और परिवार में नारी के महत्त्व को बताया गया है। अनेक लोग प्राचीन भारत में नारी की स्थिति को निम्न और अपमानपूर्ण बताते हैं। इन संगृहीत श्लोकों से उनकी धारणा भ्रान्तिपूर्ण सिद्ध होती है।

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पाठ-सारांश

जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। जहाँ नारियों की पूजा नहीं होती, वहाँ सभी क्रियाएँ असफल हो जाती हैं। स्त्रियों के प्रसन्न रहने पर पूरा कुल प्रसन्न रहता है। इसीलिए नारियाँ सदैव आभूषण, वस्त्र एवं भोजन द्वारा पूजनीय हैं। सांसारिक ऐश्वर्य की इच्छा करने वाले मनुष्यों को चाहिए कि सदैव उत्सवों में इनका सत्कार करें। कल्याण चाहने वाले पिता, भाइयों, पति, देवरों द्वारा नारियों का सम्मान (UPBoardSolutions.com) किया जाना चाहिए तथा इन्हें अलंकारों से भूषित किया जाना चाहिए। उपाध्याय से दस गुना आचार्य, आचार्य से सौ गुना पिता तथा पिता से हजार गुना माता गौरव में बढ़कर होती है। स्त्रियाँ सौभाग्यशालिनी तथा पुण्यशालिनी होती हैं। ये गृह की शोभा तथा लक्ष्मी होती हैं। इसलिए इनकी विशेष रूप से रक्षा की जानी चाहिए।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

(1)
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते, सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ॥

शब्दार्थ
यत्र = जहाँ, जिस घर, स्थान, समाज या देश में।
नार्यः = स्त्रियाँ।
पूज्यन्ते = पूजी जाती हैं।
रमन्ते = निवास करते हैं। तत्र । वहाँ।
यत्रैतास्तु (यत्र + एताः + तु) = जहाँ ये नारियाँ।
सर्वास्तत्रफलाः (सर्वाः + तत्र + अफलाः) = वहाँ सभी क्रियाएँ निष्फल होती हैं।

सन्दर्भ
प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘नारी-महिमा’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत-इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में स्त्रियों के महत्त्व का वर्णन किया गया है।

अन्वय
यत्र नार्यः तु पूज्यन्ते, तत्र देवताः रमन्ते। यत्र एताः तु ने पूज्यन्ते, तत्र सर्वाः क्रिया: अफलाः (भवन्ति)।

व्याख्या
जिस देश, समाज या घर में स्त्रियाँ पूजी जाती हैं; अर्थात् सम्मानित होती हैं, वहाँ देवता प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं। जहाँ पर ये पूजी, अर्थात् सम्मानित नहीं की जाती हैं, वहाँ पर किये गये यज्ञादि सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं।

(2)
स्त्रियां तु रोचमानायां, सर्वं तद्रोचते कुलम् ।
तस्यां त्वरोचमानायां, सर्वमेव न रोचते ॥

शब्दार्थ
स्त्रियां = स्त्रियों के।
रोचमानायाम् = वस्त्र, आभूषण आदि से प्रसन्न रहने पर।
रोचते  = अच्छा लगता है, शोभित होता है।
अरोचमानायाम् = अच्छी न लगने पर।
सर्वमेव = सभी कुछ।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में स्त्री के पारिवारिक महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है।

अन्वय
स्त्रियां तु रोचमानायां सर्वं तद् कुलं रोचते। तस्याम् अरोचमानायां तु सर्वम् एव न रोचते।

व्याख्या
स्त्रियों के आभूषण-वस्त्र आदि से प्रसन्न रहने पर उसका वह सारा कुल शोभित होता है। उनके प्रसन्न न रहने पर सभी कुछ अच्छा नहीं लगता है। तात्पर्य यह है कि जिस घर में स्त्रियाँ सुखी हैं, उसी घर में समृद्धि और प्रसन्नता विद्यमान रहती हैं। जहाँ स्त्रियाँ प्रसन्न नहीं रहती हैं, वहाँ कुछ भी अच्छा नहीं लगता है; अर्थात् सम्पूर्ण कुल मलिन रहता है।

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(3)
तस्मादेताः सदा पूज्या, भूषणाच्छादनाशनैः।
भूतिकामैनरैर्नित्यं, सत्यकार्येषुत्सवेषु च ॥

शब्दार्थ
सदा पूज्याः = सर्वदा पूजनीय हैं।
भूषणाच्छादनाशनैः = (भूषण + आच्छादन + अशनैः) = आभूषणों, वस्त्रों और भोजन के द्वारा
भूतिकामैः = समृद्धि चाहने वालों को।
सत्कार्येषुत्सवेषु (सत्कार्येषु + उत्सवेषु) = सत्कार्यों में और विवाहादि उत्सवों में। |

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में सत्कार्यों और उत्सवों के अवसर पर नारी को सम्मानित करने की बात कही गयी है।

अन्वय
तस्मात् भूतिकामैः नरैः सत्कार्येषु उत्सवेषु च एताः भूषणाच्छादनाशनैः सदा पूज्याः।।

व्याख्या
इस कारण से समृद्धि चाहने वाले मनुष्यों को शुभ कार्यों और उत्सवों में इनका अर्थात् स्त्रियों का आभूषण, वस्त्र और भोजन द्वारा सदा सम्मान करना चाहिए।

(4)
पितृभिर्भातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा। । 
पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः ॥

शब्दार्थ
पितृभिः = पिता आदि द्वारा।
भ्रातृभिः = भाइयों द्वारा।
पतिभिः = पति द्वारा।
देवरैः = देवरों द्वारा।
भूषयितव्याश्च = वस्त्र और अलंकार द्वारा सजाना चाहिए।
बहुकल्याणम् ईप्सुभिः = अधिक कल्याण चाहने वालों को।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में परिवारजनों द्वारा नारी को सम्मानित करने की बात कही गयी है।

अन्वय
बहु कल्याणम् ईप्सुभिः पितृभिः, भ्रातृभिः, पतिभिः तथा देवरैः एताः पूज्याः भूषयितव्याः च।।

व्याख्या
अपना अधिक कल्याण चाहने वाले माता-पिता आदि द्वारा, भाइयों द्वारा, पतियों तथा देवरों द्वारा इन स्त्रियों को वस्त्र-आभूषण आदि द्वारा अलंकृत करना चाहिए; अर्थात् स्त्री चाहे जिस रूप में; माता, बहन, पत्नी अथवा अन्य कोई भी; हो, उसका सम्मान अवश्य करना चाहिए।

(5)
उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता ।
सहस्त्रं तु पितृन्माता, गौरवेणीतिरिच्यते ॥

शब्दार्थ
उपाध्यायन्= वेतनभोगी शिक्षक।
आचार्यः = जिसके गुरुकुल में ब्रह्मचारी विद्या ग्रहण करते हैं।
शतम्= सौ गुना।
सहस्रम् = हजार गुना।
गौरवेण= श्रेष्ठता में।
अतिरिच्यते = श्रेष्ठ होती है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में नारी के माता रूप के गौरव का वर्णन किया गया है।

अन्वय
दश उपाध्यायान् (अपेक्ष्य) आचार्यः, आचार्याणां शतं (अपेक्ष्य) पिता, सहस्रं पितृन् (अपेक्ष्य) तु माता गौरवेणे अतिरिच्यते।। व्याख्या-दस उपाध्यायों की अपेक्षा आचार्य श्रेष्ठ होता है। सौ आचार्यों की अपेक्षा पिता श्रेष्ठ होता है। हजार पिता की अपेक्षा माता श्रेष्ठ होती है। तात्पर्य यह है कि सबसे ऊँचा स्थान माता का, उसके पश्चात् पिता का, फिर आचार्य का और तत्पश्चात् उपाध्याय का मान्य होता है।

(6)
पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः ।। 
स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्ताः तस्माद्रक्ष्या विशेषतः ॥

शब्दार्थ
पूजनीया = पूजा अर्थात् सम्मान के योग्य।
महाभागाः = महान् भाग्यशालिनी।
गृहदीप्तयः = घर की शोभास्वरूप।
श्रियः = लक्ष्मी।
उक्ताः = कही गयी हैं।
रक्ष्या = रक्षा करनी चाहिए।
विशेषतः = विशेष रूप से।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है कि स्त्री सभी दृष्टियों से पूजा करके प्रसन्न रखे जाने •. योग्य है।

अन्वय
पूजनीयाः, महाभागाः, पुण्याः गृहदीप्तयः च स्त्रियः गृहस्य श्रियः उक्ता। तस्मात् । विशेषत: रक्ष्याः। |

व्याख्या
सम्मान के योग्य, महाभाग्यशालिनी, पुण्यशीला और घर की शोभास्वरूप स्त्रियाँ घर की लक्ष्मी कही गयी हैं। इसलिए इनकी विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि स्त्री सर्वविध पूजनीय और रक्षणीय है।

सूक्तिपरक वाक्य की व्याख्या

(1)
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। 
सन्दर्थ
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘नारी-महिमा’ पाठ से उद्धृ त है। ।
[संकेत-इस शीर्षक के अन्तर्गत आने वाली शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में नारियों की महिमा बतायी गयी है। अर्थ-जिस स्थान पर नारियों का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं।

व्याख्या
प्रस्तुत सूक्ति में स्त्रियों का सम्मान करने पर बल दिया गया है और कहा गया है कि सदा स्त्रियों का सम्मान करना चाहिए। स्त्रियाँ देवी और लक्ष्मी के समान होती हैं; क्योंकि उनमें मातृत्व पाया जाता है। माता सदा सभी जगह वन्दनीय होती है। नारी के सतीत्व से यमराज भी पराजित हो गये। थे। (UPBoardSolutions.com) स्त्रियों का सम्मान जिस घर में होता है, वह घर स्वर्गतुल्य हो जाता है और उस घर में रहने वाले लोगों का जीवन देवताओं के समान सुखी हो जाता है।

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(2)
सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते।
प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में माता के गौरवशाली स्वरूप का वर्णन किया गया है।

अर्थ
माता गौरव में हजारों पिताओं से बढ़कर होती है।

व्याख्या
माता का पद सर्वाधिक गौरवशाली होता है। उसका. गौरव उपाध्याय, आचार्य और पिता से बढ़कर होता है। समाज में वेतनभोगी शिक्षक का पद भी गौरवशाली होता है, लेकिन वेतनभोगी शिक्षक से आचार्य का पद दस गुना गौरवपूर्ण होता है। सौ आचार्यों से पिता का गौरव अधिक होता है। और हजारों पिताओं से भी माता अधिक गौरवशालिनी होती है। इस प्रकार माता को गौरव गुरु, आचार्य और पिता सबसे अधिक होता है।

(3)
स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्ताः तस्मादक्ष्या विशेषतः ।
प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में स्त्रियों की प्रत्येक परिस्थिति में रक्षा करने की बात कही गयी है।

अर्थ
स्त्रियाँ घर की शोभा कही गयी हैं, इसलिए इनकी विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिए।

व्याख्या
घर की शोभा उसको सजाने-सँवारने तथा घर में आये अतिथियों के मान-सम्मान तथा आदर-सत्कार से होती है। इन सभी कार्यों का उत्तरदायित्व स्त्रियों का होता है। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ ही इन कार्यों को भली प्रकार सम्पादित कर पाती हैं। इसीलिए तो स्त्रियों को घर की शोभा का पर्याय मानकर यह कहा जाने लगा है कि स्त्रियाँ ही घर की शोभा होती हैं।
एक स्त्री घर के इन उत्तरदायित्वों का भली प्रकार (UPBoardSolutions.com) निर्वाह तभी कर पाती है, जब वह अपने को आर्थिक तथा सामाजिक सभी प्रकार से सुरक्षित अनुभव करती है। इसलिए घर की शोभा को बनाये रखने हेतु घर की स्त्रियों को उचित मान-सम्मान और सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए।

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते ••• तत्राफलाः क्रिया ॥ (श्लोक 1)
संस्कृतार्थः-
महर्षिः मनुः मनुस्मृतौ नारीणां सम्मानं कर्तुम् उपदिशति यत् एषु गृहेषु स्थानेषु वा जनाः नारीणां यथोचितं सम्मानं कुर्वन्ति, तेषु गृहेषु सुख-सम्पत् प्रदातारः सुराः निवासं कुर्वन्ति। यत्र एतासां सम्मानं न भवति, तत्र यानि अपि-कर्माणि क्रियन्ते, तानि फलदानि न भवन्ति। अतः नारीणां सम्मानम् अवश्यं करणीयम्।

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(2) स्त्रियां तु रोचमानायां•••न रोचते ॥ (श्लोक 2).
संस्कृतार्थः-
महर्षिः मनुः नारीणां महत्त्वं वर्णयन् कथयति यत् यस्मिन् कुले समाजे वा स्त्रियः स्वयोग्यतया न शोभन्ते, यत् सर्वं कुलं न शोभते। यस्मिन् कुले नारी शोभां प्राप्तुं न शक्नोति तत् सर्वं कुलं समाजे शोभां न प्राप्नोति।

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Class 9 Sanskrit Chapter 9 UP Board Solutions प्राचीनाः पञ्चवैज्ञानिकाः Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 9 प्राचीनाः पञ्चवैज्ञानिकाः (कथा – नाटक कौमुदी) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 9 प्राचीनाः पञ्चवैज्ञानिकाः (कथा – नाटक कौमुदी).

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Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 9
Chapter Name प्राचीनाः पञ्चवैज्ञानिकाः (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 34
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 9 Prachin Panch Vaigyanik Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 9 हिंदी अनुवाद प्राचीनाः पञ्चवैज्ञानिकाः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय- मनुष्य के मन में ब्रह्माण्ड के ग्रहों, उपग्रहों, नक्षत्रादि को देखकर इनके सम्बन्ध में सृष्टि , के प्रारम्भ से ही जिज्ञासा रही है। भारत के ज्योतिर्विद् आचार्यों ने बड़े परिश्रम से इनके बारे में सूक्ष्म जानकारी प्राप्त की। इस दिशा में सबसे पहले आचार्य वराहमिहिर ने ईसा की चौथी शती के उत्तरार्द्ध में ‘पञ्चसिद्धान्तिका’ नामक ग्रन्थ लिखकर पूर्व-प्रचलित सिद्धान्तों का परिचय दिया। इनके पश्चात्

आर्यभट ने ईसा की छठी शती के पूर्वार्द्ध में ‘आर्यभटीय’ और ‘तन्त्र’ नामक दो ग्रन्थों की रचना की। इनके लगभग सौ वर्षों के पश्चात् भास्कराचार्य (प्रथम) नामक ज्योतिर्विद् ने ‘आर्यभटीय’ पर भाष्य लिखा तथा ‘लघु-भास्कर्य’ और ‘महा-भास्कर्य’ नामक दो ग्रन्थों की रचना कर उन्हीं (आर्यभट) के सिद्धान्तों का प्रसार किया। इनके पश्चात् ब्रह्मगुप्त नाम के अत्यन्त प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य हुए, जिन्होंने ‘खण्डखाद्यक’ और ‘ब्रह्मस्फुट (UPBoardSolutions.com) सिद्धान्त’ नामक दो ग्रन्थों की रचना की। इनके पश्चात् ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी में भास्कराचार्य (द्वितीय) हुए, जिन्होंने चार प्रसिद्ध ज्योतिष-ग्रन्थों ‘लीलावती’, ‘बीजगणित’, ‘सिद्धान्तशिरोमणि’ और ‘करणकुतूहल’ की रचना की। प्रस्तुत पाठ में इन्हीं भारतीय विद्वानों का परिचय कराया गया है।

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पाठ-सारांश

(1) वराहमिहिर— यह रत्नगर्भा भारतभूमि अनेक वैज्ञानिकों की जन्मदात्री रही है। राजा विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में वराहमिहिर नाम के एक गणितज्ञ विद्वान् थे। इनके पिता आदित्यदास भगवान् सूर्य के उपासक थे। सूर्य की उपासना से प्राप्त अपने पुत्र का नाम उन्होंने वराहमिहिर रखा। वराहमिहिर की विद्वत्ता से प्रभावित होकर ‘विक्रमादित्य’ उपाधिधारी सम्राट चन्द्रगुप्त ने इन्हें अपनी सभा के नवरत्नों में स्थान दिया।

वराहमिहिर राजकीय कार्य के पश्चात् अपने समय का उपयोग ग्रहों की गणना और पुस्तक लिखने में किया करते थे। फलित ज्योतिष में अधिक रुचि होते हुए भी इन्होंने अपने ‘वृहत्संहिता नामक ग्रन्थ में ग्रह-नक्षत्र की गणना से संवत् का निर्धारण, सप्तर्षि मण्डल के उदय तथा अस्त के काल को निश्चित किया।

वराहमिहिर ने प्राचीन और मध्यकाल के राजाओं की उत्पत्ति का समय भी निर्धारित किया। इन्होंने अपने ‘पञ्चसिद्धान्तिका’ ग्रन्थ की रचना करके लोगों को पूर्व प्रचलित पितामह, रोमक, पोलिश, सूर्य, वशिष्ठ आदि के सिद्धान्तों से अवगत कराया। इन्होंने पृथ्वी के उत्पत्तिविषयक और धूमकेतु के उत्पत्तिविषयक और धूमकेतु के उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धान्तों की भी खोज की।

(2) आर्यभट्ट– आर्यभट्ट भारत के प्रसिद्ध ज्योतिषी और गणितज्ञ थे। इन्होंने ‘आर्यभटीय’ और ‘तन्त्र’ नामक दो ग्रन्थों की रचना की। इन्होंने आर्यभटीय ग्रन्थ में वृत्त का व्यास और परिधि, अनुपात

आदि विषय प्रस्तुत किये। इन्होंने सूर्य और चन्द्र-ग्रहण के विषय में राहु और केतु द्वारा ग्रसे जाने की प्रचलित धारणी का तर्को से खण्डन किया और सिद्ध किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर सूर्य के चारों ओर चक्कर लग्नाती है। इन्होंने अपने आर्यभटीय ग्रन्थ में शून्य का महत्त्व, रेखागणित, बीजगणित, (UPBoardSolutions.com) अंकगणित आदि के विषयों का अन्तर स्पष्ट किया। इनके कार्यों के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए ही भारत के प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट’ रखा गया।

(3) भास्कराचार्य (प्रथम)- भारतीय खगोल-वैज्ञानिकों में दो भास्कराचार्य हुए। इनमें से प्रथम भास्कराचार्य 600 ईसवी में दक्षिण भारत में हुए। इन्होंने ‘आर्यभटीय भाष्य’, ‘महाभास्कर्य’ और ‘लघुभास्कर्य’ नामक तीन ग्रन्थों की रचना करके आर्यभट्ट के सिद्धान्तों को ही विवेचन किया।

(4) ब्रह्मगुप्त- ब्रह्मगुप्त ने 598 ईसवी में ‘ब्रह्मसिद्धान्त’ ग्रन्थ की रचना की। भास्कर द्वितीय ने इन्हें ‘गणक चक्र-चूड़ामणि’ की उपाधि से विभूषित किया। ब्रह्मगुप्त ने आर्यभट्ट के द्वारा स्थापित सिद्धान्तों का खण्डन किया। इन्होंने पूर्वकाल के श्रीसेन, विष्णुचन्द्र, लाट, प्रद्युम्न आदि विद्वानों के सिद्धान्तों की भी आलोचना की। इनके ‘खण्डखाद्यक’ और ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त’ नामक दो ग्रन्थों का अनुवांद ‘अरबी भाषा में हुआ।

 (5) भास्कराचार्य (द्वितीय)- भास्कराचार्य द्वितीय प्राचीन वैज्ञानिकों में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। इन्होंने अपना जन्म-स्थान ‘विज्जऽविड’ तथा जन्म-समय 1114 ईसवी लिखा है। इनकी प्रसिद्धि ‘सिद्धान्तशिरोमणि’, ‘लीलावती’, ‘बीजगणित’ और ‘करणकुतूहल’ नामक पुस्तकों के कारण हुई। इनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना ‘लीलावती’ है। इनकी ‘सूर्यसिद्धान्त’ पुस्तक के अंग्रेजी अनुवाद को पढ़कर अनेक पाश्चात्य विद्वान् अत्यधिक प्रभावित हुए।

इन्होंने सिद्ध किया कि गोलाकार पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। इन्होंने बताया कि सूर्य के ऊपर चन्द्रमा की छाया पड़ने के कारण सूर्यग्रहण तथा चन्द्रमा के ऊपर पृथ्वी की छाया पड़ने से चन्द्र-ग्रहण होता है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन के पूर्व ही भास्कराचार्य ने बता दिया था कि पृथ्वी अपने केन्द्र से सभी वस्तुओं को खींचती है तथा पृथ्वी ग्रह-नक्षत्रों की आपसी आकर्षणशक्ति से ही इस रूप में स्थित है।

भास्कराचार्य ने बीजगणित विषय में भी अनेक नये तथ्यों का आविष्कार किया था। उन्होंने बाँस की नली की सहायता से ही गणना करके अपने सिद्धान्तों की पुष्टि करके झूठे विचारों का खण्डन किया। बाद में उनके गणित के सिद्धान्त वैज्ञानिक उपकरणों से परीक्षित करने पर शुद्ध पाये गये। वे एक-एक नक्षत्र के बारे में सोचते हुए रात-रातभर नहीं सोते थे। उनके कार्यों की स्मृति में ही आधुनिक भारतीयों ने दूसरे उपग्रह का नाम भास्कर रखा।

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चरित्र चित्रण

 आर्यभट्ट

परिचय- वैदेशिक वैज्ञानिक आये-दिन नित नये सिद्धान्तों के प्रतिपादन की बात करते हैं, जब . कि भारतीय वैज्ञानिकों ने उन सिद्धान्तों का प्रतिपादन आज से हजारों वर्ष पूर्व कर दिया था। यह भारत

की विडम्बना ही है कि हमने अपने वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार नहीं किया, जब कि उन्हीं सिद्धान्तों को दूसरे वैज्ञानिक आज अपने नामों से प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं। हमारे ऐसे ही प्राचीन वैज्ञानिकों में एक नाम है–आर्यभट्ट का। उनके चरित्र की जितनी प्रशंसा की जाये, कम है। उनका चरित्र-चित्रण निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है|

(1) महान् संस्कृतज्ञ– आर्यभट्ट वैज्ञानिक होने के साथ-साथ महान् संस्कृतज्ञ भी थे। उन्होंने उत्कृष्ट संस्कृत में ‘आर्यभटीय’ और ‘तन्त्र’ नामक दो ग्रन्थों की रचना की, जिन पर अनेक भाष्य और व्याख्याएँ लिखी गयीं।

(2) महान् ज्योतिर्विद्- भारत क्या, अपितु विश्व के महान् ज्योतिषाचार्यों की गणना में आर्यभट्ट का स्थान सर्वोपरि है। उन्होंने प्राचीन परम्परा से चली आ रही ज्योतिषविषयक (UPBoardSolutions.com) राहु-केतु जैसे ग्रहों की अवधारणाओं को खण्डन करके उनके विषय में वैज्ञानिक और तर्कसंगत सिद्धान्तों का प्रतिपादन करके ज्योतिष को वैज्ञानिक रूप प्रदान किया। |”

(3) मूर्धन्य खगोलज्ञ- अन्तरिक्ष एवं ग्रहों से सम्बन्धित प्रामाणिक जानकारी महान् वैज्ञानिक आर्यभट्ट ने ही विश्व को उपलब्ध करायी। उन्होंने सर्वप्रथम इस तथ्य का रहस्योद्घाटन किया कि पृथ्वी स्थिर नहीं है, वरन् वह अपने स्थान पर घूमती रहती है। सूर्य, चन्द्रमा, अन्य ग्रहों और उपग्रहों के विषय में भी उन्होंने अनेक रहस्यों का उद्घाटन करके विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया।

(4) श्रेष्ठ गणितज्ञ- आर्यभट्ट एक महान् वैज्ञानिक होने के साथ-साथ एक श्रेष्ठ गणितज्ञ भी थे। उन्होंने अपने ‘आर्यभटीय’ नामक ग्रन्थ में शून्य के महत्त्व को प्रतिपादित करने के अतिरिक्त रेखागणित, बीजगणित और अंकगणित के अनेक सिद्धान्तों के प्रतिपादन के साथ ही इनके सूक्ष्म अन्तरों के विवेचन को भी स्पष्ट किया। | निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि आर्यभट्ट विलक्षण मेधा के धनी वैज्ञानिक थे, जिन्होंने विज्ञान, ज्योतिष, गणित एवं खगोल के क्षेत्र में भारतीय मेधा का लोहा विश्व से मनवाकर हमारे राष्ट्रीय गौरव को उन्नत किया।

कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्‍न

प्रश्‍न 1
आचार्य वराहमिहिर ने सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण एवं सप्तर्षिमण्डल-विषयक किन . तथ्यों को प्रस्तुत किया है? लिखिए।
उत्तर
प्रस्तुत प्रश्न का पूर्व अर्द्धश त्रुटिपूर्ण है; क्योंकि सूर्य-ग्रहण एवं चन्द्र-ग्रहण के विषय में वराहमिहिर ने कोई तथ्य प्रस्तुत नहीं किया है, वरन् इनसे सम्बन्धित तथ्य आर्यभट्ट ने प्रस्तुत किये हैं। : हाँ, सप्तर्षिमण्डल विषयक तथ्य इन्हीं के द्वारा प्रतिपादित हैं। इन्होंने सप्तर्षिमण्डले के उदय तथा अस्त होने के निश्चित समय का उद्घाटन किया था।

प्रश्‍न 2
आचार्य आर्यभट्ट के अवदानों और उनके व्यक्तिगत जीवन के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर
आचार्य आर्यभट्ट ने अवदानस्वरूप वृत्त के व्यास, परिधि, अनुपात आदि गणित-विषयक, सूर्य-ग्रहण, चन्द्र-ग्रहण एवं पृथ्वी के अपने स्थान पर घूमने सम्बन्धी और सूर्य की । परिक्रमा करने के भूगोलविषयक तथ्य प्रस्तुत किये।

इनका जन्म तथा शिक्षा कुसुमपुर में हुई। ये गणित तथा ज्योतिष के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने ‘आर्यभटीय’ तथा ‘तन्त्र’ नामक दो ग्रन्थों की रचना की। इनकी श्लाघनीय खोजों के लिए भारत सरकार ने इनके सम्मान में प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट रखा।

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प्रश्‍न 3
भास्कराचार्य प्रथम कहाँ के निवासी थे? उनके समय और लिखी गयी पुस्तकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
भास्कराचार्य प्रथम दक्षिण भारत के निवासी थे। विद्वान् इनका समय 600 ईसवी निर्धारित करते हैं। इन्होंने आर्यभटीय भाष्य, महाभास्कर्य एवं लघुभास्कर्य नामक तीन ग्रन्थों की रचना की।

प्रश्‍न 4
आचार्य ब्रह्मगुप्त के बारे में पाठ के आधार पर हिन्दी में 15 पंक्तियाँ लिखिए।
उत्तर
महान् ज्योतिर्विद् ब्रह्मगुप्त का जन्म 598 ईसवी में हुआ। भास्कराचार्य प्रथम के उपरान्त इनका आविर्भाव हुआ। इन्होंने ‘ब्रह्मसिद्धान्त’ नामक ग्रन्थ की रचना की। इनकी विद्वत्ता का परिचय इस बात से मिलता है कि भास्कराचार्य द्वितीय ने इन्हें ‘गणकचक्रचूड़ामणि’ की उपाधि से अलंकृत किया। (UPBoardSolutions.com) इन्होंने आर्यभट्ट द्वारा प्रतिपादित एवं भास्कराचार्य प्रथम द्वारा पुनरीक्षित सिद्धान्तों का खण्डन किया। इन्होंने अपने पूर्ववर्ती श्रीसेन, विष्णुचन्द्र, लाट, प्रद्युम्न आदि विद्वानों के सिद्धान्तों की भी सम्यक्

आलोचना की। इनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का प्रायः इनके बाद के सभी वैज्ञानिकों ने अनुकरण किया। इनके सिद्धान्तों की सत्यता, उपयोगिता के कारण ही इनके ग्रन्थों का विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद किया गया। इनके ‘खण्डखाद्यक’ एवं ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त’ नामक दो ग्रन्थों का अनुवाद अरबी भाषा में हुआ। विज्ञान के क्षेत्र में इनका योगदान अविस्मरणीय है।

प्रश्‍न 5
भास्कराचार्य द्वितीय ने किन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया? लिखिए।
उत्तर
भास्कराचार्य द्वितीय ने पृथ्वी के गोल होने, सूर्य के चारों ओर निश्चित कक्षा में पृथ्वी के घूमने, सूर्य के ऊपर चन्द्रमा की छाया पड़ने पर सूर्य-ग्रहण तथा पृथ्वी की छाया चन्द्रमा के ऊपर पड़ने पर चन्द्रग्रहण होने, पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति के होने, ग्रह-नक्षत्रों की आकर्षण शक्ति के कारण पृथ्वी के ब्रह्माण्ड में वर्तमान स्थिति में स्थित होने तथा बीजगणित के अनेकानेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया।

लघु-उतरीय संस्कृत प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के संस्कृत में उत्तर लिखिए

प्रश्‍न 1
अस्मिन् अध्याये वर्णिताः वैज्ञानिकाः के के सन्ति?
उत्तर-
अस्मिन्  अध्याये वर्णिताः वराहमिहिरः, आर्यभट्टः, भास्कराचार्यः प्रथमः, ब्रह्मगुप्तः, भास्कराचार्यः द्वितीय: चेति पञ्चवैज्ञानिकाः सन्ति।

प्रश्‍न 2
तेषां पुस्तकानां नामानि कानि सन्ति?
उत्तर
तेषां पुस्तकानां नामानि निम्नांकितानि सन्ति
वैज्ञानिकाः
वृहत्संहिता
आर्यभट्टः
भास्कराचार्यः (प्रथमः)

ब्रह्मगुप्तः
भास्कराचार्य (द्वितीयः)

पुस्तकानां नामानि  ।

(i) पञ्चसिद्धान्तिका, (ii) वृहत्संहिता। आर्यभट्टः ।
(i) आर्यभटीयम्,       (ii) तन्त्रम्।
(i) आर्यभटीयम् भाष्यम्, (ii) महाभास्कर्यम्,
(ii) लघुभास्कर्यम्। ब्रह्मगुप्तः
(i) खण्डखाद्यक, (ii) ब्रह्मस्फुटसिद्धान्तः भास्कराचार्य (द्वितीयः)
(i) सिद्धान्तशिरोमणिः, (ii) लीलावती,
(iii) बीजगणित, | (iv) करणकुतूहलम्।

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प्रश्‍न 3
ग्रहणविषये पूर्वे का धारणासी?
उत्तर
ग्रहणविषये पूर्वेषां धारणा आसीत् यत् सूर्यचन्द्रमसौ राहु-केतुभ्यां ग्रस्येते।

प्रश्‍न 4
आर्यभटीयं केन विरचितम्?
उत्तर
आर्यभटीयम् आर्यभट्टेन विरचितम्।

प्रश्‍न 5
भास्कराचार्यः केन यन्त्रसाहाय्येन नक्षत्राणां परीक्षणमकरोत्?
उत्तर
भास्कराचार्यः वंशनलिका साहाय्येन नक्षत्राणां परीक्षणमकरोत्।

प्रश्‍न 6
भारतवर्षस्य प्रथमोपग्रहः कस्य नाम सूचयति?
उत्तर
भारतवर्षस्य प्रथमोपग्रहः ‘आर्यभट्टः आर्यभट्टस्य नाम सूचयति।

प्रश्‍न 7
गणकचक्रचूडामणिः कस्य पदव्यासीत्?
उत्तर
गणकचक्रचूडामणिः ब्रह्मगुप्तस्य पदव्यासीत्।

प्रश्‍न 8

वराहमिहिरस्य पितुः नाम किमासीत्?
उत्तर
वराहमिहिरस्य पितुः नाम आदित्यदासः आसीत्।

प्रश्‍न 9
चन्द्रगुप्तविक्रमादित्येन स्वसभायां कस्मै कुत्र च स्थानं दत्तम्।
उत्तर
चन्द्रगुप्तविक्रमादित्येन स्वसभायां वराहमिहिराय नवरत्नेषु स्थानं दत्तम्।

प्रश्‍न 10
आर्यभट्टप्रस्थापितसिद्धान्तानां प्रत्याख्याता कः आसीत्?
उत्तर
आर्यभट्टप्रस्थापितसिद्धान्तानां प्रत्याख्याता ब्रह्मगुप्तः आसीत्?

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प्रश्‍न 11
वराहमिहिरेण स्वग्रन्थे के पञ्चसिंद्धान्तोः प्रस्तुतः?
उत्तर
वराहमिहिरेण स्वग्रन्थे पैतामह-रोमक-पोलिश-सूर्य-वशिष्ठादीनां सिद्धान्ताः प्रस्तुताः

प्रश्‍न 12
भारतवर्षस्य द्वितीयोपग्रहः कस्य नाम सूचयति?
उत्तर
भारतवर्षस्य द्वितीयोपग्रहः ‘भास्करः’ भास्कराचार्य द्वितीयस्य नाम सूचयति।

वस्तुनिष्ठ प्रनोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए

1. विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में से एक कौन थे?
(क) ब्रह्मगुप्त
(ख) वराहमिहिर
(ग) भास्कराचार्य प्रथम
(घ) आर्यभट्ट

2. वराहमिहिर की रचना का क्या नाम है?
(क) करणकुतूहलम् ।
(ख) पञ्चसिद्धान्तिका
(ग) सिद्धान्तशिरोमणि
(घ) तन्त्रम् ।

3. वराहमिहिर राजकीय कार्य से बचे समय का उपयोग किस रूप में करते थे?
(क) ग्रन्थों की रचना करते थे
(ख) अपने परिवार के साथ विनोद करते थे
(ग) भगवान सूर्य की उपासना करते थे
(घ) भ्रमण करते थे ।

4. सूर्य और चन्द्रग्रहण के विषय में प्रचलित अवधारणा का खण्डन किसने किया था?
(क) वराहमिहिर ने
(ख) भास्कराचार्य द्वितीय ने
(ग) ब्रह्मगुप्त ने ।
(घ) आर्यभट्ट ने।

5. भास्कराचार्य प्रथम का समय और विषय-क्षेत्र क्या है?
(क) 498 ई०/गणितज्ञ
(ख) 1114 ई०/ज्योतिर्विद
(ग) 600 ई०/खगोलज्ञ
(घ) 500 ई०/खगोलज्ञ

6. ब्रह्मगुप्त द्वारा ब्रह्मसिद्धान्त’ ग्रन्थ की रचना की गयी ।
(क) 598 ई० में
(ख) 698 ई० में
(ग) 498 ई० में :
(घ) 398 ई० में

7. ‘गणकचक्रचूड़ामणि’ की उपाधि ब्रह्मगुप्त को किसके द्वारा प्रदत्त की गयी थी?
(क) आर्यभट्ट द्वारा
(ख) भास्कराचार्य प्रथम द्वारा।
(ग) भास्कराचार्य द्वितीय द्वारा
(घ) वराहमिहिर द्वारा

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8. ‘पृथ्वी गोल है और सूर्य का चक्कर लगाती है’ इस तथ्य के प्रथम प्रतिपादक थे
(क) ब्रह्मगुप्त ।
(ख) आर्यभट्ट
(ग) भास्कराचार्य द्वितीय
(घ) भास्कराचार्य प्रथम

9.’लीलावती’ और ‘बीजगणित’ नामक रचनाओं के रचयिता हैं.
(क) आदित्यदास
(ख) ब्रह्मगुप्त
(ग) श्रीसेनविष्णुचन्द्र
(घ) भास्कराचार्य द्वितीय

10. भारत द्वारा प्रेषित प्रथम उपग्रह का क्या नाम था?
(क) वराहमिहिर
(ख) भास्कर
(ग) आर्यभट्ट
(घ) एस० एन० एल० वी

11. कस्य जनकः आदित्यदासः आसीत्?
(क) ब्रह्मगुप्तस्य
(ख) भास्कराचार्यस्य
(ग) वराहमिहिरस्य
(घ) आर्यभट्टस्य

12. केन प्रतिपादितं यत् पृथ्वी स्वस्थाने भ्रमन्ती सूर्यं परिक्रामति?
(क) आर्यभट्टेन
(ख) वराहमिहिरेण
(ग) भास्कराचार्येण
(घ) ब्रह्मगुप्तेन ।

13.’•••••••••• उषित्वा आर्यभट्टः विद्यार्जनम् अकरोत्।’ वाक्य में रिक्त स्थान की पूर्ति होगी
(क) ‘प्रयागे’ से
(ख) “कुसुमपुरे’ से
(ग) वाराणस्याम्’ से
(घ) “काम्पिल्ये’ से ।

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14. ‘खण्डखाद्यक ब्रह्मस्फुटसिद्धान्तयोरनुवादः •••••••••••••• भाषायामपि जातः।’ में वाक्य-पूर्ति
(क) “हिन्दी’ से ।
(ख) “लैटिन’ से ,
(ग) “आंग्ल’ से
(घ) “अरबी’ से

15. केन निर्धारितं यद् गोलकाकारा पृथ्वी परिक्रामति सूर्यम्? |
(क) वराहमिहिर ।
(ख) ब्रह्मगुप्त
(ग) आर्यभट्ट
(घ) भास्कराचार्य (द्वितीय)

16. ‘सूर्योपरि चन्द्रस्य छाया यदा पतति तदा ••••••••••••••• भवति।’ वाक्य में रिक्त-पद की पूर्ति होगी
(क) पूर्णिमा’ से
(ख) सूर्यग्रहणम्’ से
(ग) ‘उल्कापातम्’ से
(घ) चन्द्रग्रहणम्’ से

17. बीजगणित विषयेऽपि केन अनेकानां नूतनतथ्यानामाविष्कारः कृतः?
(क) वराहमिहिरेण
(ख) ब्रह्मगुप्तेन
(ग) भास्कराचार्यद्वितीयेन ।
(घ) आर्यभट्टेन

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Class 9 Sanskrit Chapter 13 UP Board Solutions आरोग्य-साधनानि Question Answer

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 13
Chapter Name आरोग्य-साधनानि (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 13 Aarogya – Sadhnani Question Answer (पद्य-पीयूषम्)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 13 हिंदी अनुवाद आरोग्य-साधनानि के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय-भारतीय चिकित्सा विज्ञान के दो अमूल्य रत्न हैं-‘चरक-संहिता’ और ‘सुश्रुत-संहिता’। महर्षि चरक ने ईसा से 500 वर्ष पूर्व ‘अग्निवेश-संहिता’ नामक ग्रन्थ का प्रतिसंस्कार करके चरक-संहिता’ की रचना की थी। इसके 200 वर्ष पश्चात् अर्थात् ईसा से लगभग 300 वर्ष पूर्व ‘सुश्रुत-संहिता’ नामक ग्रन्थ की रचना महर्षि सुश्रुत द्वारा की गयी। चरक-संहिता में काय-चिकित्सा को और सुश्रुत-संहिता में शल्य-चिकित्सा (UPBoardSolutions.com) को प्रधानता दी गयी है। इन दोनों ग्रन्थों में रोगों की चिकित्सा के साथ-साथ वे उपाय भी बताये गये हैं, जिनका पालन करने से रोगों की उत्पत्ति ही नहीं होती।

प्रस्तुत पाठ के सभी श्लोक ‘चरक-संहिता’ और ‘सुश्रुत-संहिता’ से संगृहीत किये गये हैं। इन। श्लोकों में आरोग्य की रक्षा के लिए व्यायाम आदि उपायों पर प्रकाश डाला गया है।

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व्यायाम की परिभाषा-जो शारीरिक चेष्टा स्थिरता के लिए बल को बढ़ाने वाली होती है, उसे . व्यायाम कहते हैं।  व्यायाम की आवश्यकता-व्यायाम करने से शरीर में हल्कापन, कार्यक्षमता में स्थिरता, दु:खों को सहन करने की शक्ति, वात; पित्त; कफ आदि विकारों का विनाश और पाचन-क्रिया की शक्ति में वृद्धि होती है।

व्यायाम की मात्रा- मनुष्य को सभी ऋतुओं में प्रतिदिन शारीरिक क्षमता की अर्द्ध मात्रा के अनुसार, व्यायाम करना चाहिए। जब मनुष्य के हृदय में उचित स्थान पर स्थित वायु मुख में पहुँचने लगती है तो उसे बलार्द्ध (शारीरिक क्षमता की अर्द्धमात्रा) कहते हैं। इससे अधिक व्यायाम करने से (UPBoardSolutions.com) शारीरिक थकान हो जाती है, जिससे शारीरिक बल की क्षति होने की सम्भावना होती है।अधिक व्यायाम से हानियाँ–अधिक व्यायाम करने से शरीर और इन्द्रियों की थकान, रुधिर

आदि धातुओं का नाश, प्यास; रक्त-पित्त का दुःसाध्य रोग, सॉस की बीमारी, बुखार, उल्टी आदि हानियाँ होती हैं; अतः शारीरिक शक्ति से अधिक व्यायाम कभी भी नहीं करना चाहिए।

व्यायाम करने के बाद सावधानी– व्यायाम करने के बाद शरीर को चारों ओर से धीरे-धीरे मलना चाहिए; अर्थात् शरीर की मालिश करनी चाहिए।

व्यायाम के लाभ- व्यायाम करने से शरीर की वृद्धि, लावण्य, शरीर के अंगों की सुविभक्तता, पाचन-शक्ति का बढ़ना, आलस्यहीनता, स्थिरता, हल्कापन, स्वच्छता, शारीरिक थकान-इन्द्रियों की थकान–प्यास-ठण्ड-गर्मी आदि को सहने की शक्ति और श्रेष्ठ आरोग्य उत्पन्न होता है। व्यायाम करने से मोटापा घटता है और शत्रु भी व्यायाम करने वाले को पीड़ित नहीं करते हैं। उसे सहसा बुढ़ापा और बीमारियाँ भी नहीं आती हैं। व्यायाम रूपहीन को रूपवान बना देता है। वह स्निग्ध भोजन करने वाले बलशालियों के लिए हितकर है। वसन्त और शीत ऋतु में तो विशेष हितकारी है।

स्नान करने के लाभ- स्नान करने से पवित्रता, वीर्य और आयु की वृद्धि, थकान-पसीना और मैल का नाश, शारीरिक बल की वृद्धि और ओज उत्पन्न होता है।

सिर में तेल लगाना–सिर में तेल लगाने से सिर का दर्द, गंजापन, बालों को पकना एवं झड़ना नहीं होता। सिर की अस्थियों का बल बढ़ता है और बाल काले, लम्बे और मजबूत जड़ों वाले हो जाते हैं।

भोजन के नियम- प्रेम, रुचि या अज्ञान के कारण अधिक भोजन नहीं करना चाहिए। हितकर भोजन भी देखभाल कर करना चाहिए। विषम भोजन से रोगों और कष्टों का होना देखते हुए, बुद्धिमान पुरुष को हितकर, परिमित और समय पर भोजन करना चाहिए।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

(1)
शरीरचेष्टा या चेष्टा स्थैर्यार्था बलश्रद्ध
देहव्यायामसङ्ख्याता मात्रया तां समाचरेत् ॥

शब्दार्थ
शरीरचेष्टा = देह की क्रिया।
चेष्टा = क्रिया अथवा च + इष्टा = अभीष्ट, वांछित।
स्थैयुर्था = स्थिरता के लिए।
बलवद्धिनी = बल को बढ़ाने के स्वभाव वाली।
इष्टा = अभीष्ट।
देहव्यायामसङ्ख्याता = शारीरिक व्यायाम नाम वाली।
मात्रया= थोड़ी मात्रा में, अवस्था के अनुसार।
समाचरेत् = उचित मात्रा से करना चाहिए।

सन्दर्य
प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘आरोग्य-साधनानि’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत-इस पाठ के सभी श्लोकों के लिए सही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में शारीरिक व्यायाम की आवश्यकता बतायी गयी है।।

अन्वय
स्थैर्यार्था बलवद्धिनी च या शरीरचेष्टा इष्टा (अस्ति) (सा) देहव्यायामसङ्ख्याता, तां | मात्रय समाचरेत्।।

व्याख्या
स्थिरता के लिए और बल को बढ़ाने वाली जो शरीर की क्रिया अभीष्ट है, वह शारीरिक व्यायाम के नाम वाली है। उसे अवस्था के अनुसार उचित मात्रा में करना चाहिए अर्थात् व्यायाम आयु और मात्रा के अनुसार ही किया जाना चाहिए। |

(2)
लाघवं कर्मसामर्थ्यं स्थैर्यं दुःखसहिष्णुता।
दोषक्षयोऽग्निवृद्धिश्च व्यायामादुपजायते ॥

शब्दार्थ
लाघवम् = हल्कापन।
कर्मसामर्थ्य = कार्य करने की क्षमता।
स्थैर्यम् = स्थिरता।
दुःखसहिष्णुता = कष्टों को सहन करने की शक्ति।
दोषक्षयः = प्रकोप को प्राप्त वात, पित्त, कफ आदि दोषों का विनाश।
अग्निवृद्धिः = भोजन पचाने वाली अग्नि की वृद्धि।
उपजायते = उत्पन्न होता है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यायाम से होने वाले लाभ बताये गये हैं। ।

अन्वय
व्यायामात् लाघवं, कर्मसामर्थ्य, स्थैर्य, दु:खसहिष्णुता, दोषक्षयः, अग्निवृद्धिः च उपजायते।।।

व्याख्या
व्यायाम करने से शरीर में फुर्तीलापन (हल्कापन), कार्य करने की शक्ति, स्थिरता, दु:खों को सहन करने की शक्ति, वात-पित्त कफ़ आदि दोषों का विनाश और भोजन पचाने वाली अग्नि की वृद्धि उत्पन्न होती है। तात्पर्य यह है कि व्यायाम करने से शरीर की सर्वविध उन्नति होती है।

(3)
सर्वेष्वृतुष्वहरहः पुम्भिरात्महितैषिभिः ।
बलस्यार्धेन कर्त्तव्यो व्यायामो हन्त्यतोऽन्यथा ॥

शब्दार्थ
सर्वेष्वृतुष्वहरहः (सर्वेषु + ऋतुषु + अहरह:) = सभी ऋतुओं में प्रतिदिन।
पुम्भिः = पुरुषों के द्वारा।
आत्महितैषिभिः = अपना हित चाहने वाले।
बलस्य = बल के।
अर्धेन = आधे द्वारा।
कर्तव्यः = करना चाहिए।
हन्ति = हानि पहुँचाता है।
अतोऽन्यथा = इससे विपरीत करने से।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में अधिक व्यायाम करने से होने वाली हानि को बताया गया है।

अन्वये
आत्महितैषिभिः पुम्भिः सर्वेषु ऋतुषु अहरह: बलस्य अर्धेन व्यायामः कर्त्तव्यः। अतोऽन्यथा हन्ति।।

व्याख्या
अपना हित चाहने वाले पुरुषों को सभी ऋतुओं में प्रतिदिन अपनी आधी शक्ति से व्यायाम करना चाहिए। इससे भिन्न करने से यह हानि पहुँचाता है। तात्पर्य यह है कि थकते हुए व्यायाम नहीं करना चाहिए और बहुत हल्का व्यायाम भी नहीं करना चाहिए।

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(4)
हृदि स्थानस्थितो वायुर्यदा वक्त्रं प्रपद्यते।
व्यायामं कुर्वतो जन्तोस्तद् बलार्धस्य लक्षणम् ॥

शब्दार्थ
हृदि = हृदय में।
स्थानस्थितः = उचित स्थान पर ठहरा हुआ।
वक्त्रं प्रपद्यते = मुख में पहुंचने लगती है।
कुर्वतः = करते हुए।
जन्तोः = जन्तु का।
बलार्धस्य = बल का आधा भाग।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में आधे बल का लक्षण बताया गया है।

अन्वय
व्यायामं कुर्वतः जन्तोः हृदि स्थानस्थितः वायुः यदा वक्त्रं प्रपद्यते, तद् बलार्धस्य लक्षणम् (अस्ति)।।

व्याख्या
व्यायाम करने वाले प्राणी के हृदय पर अपने स्थान पर स्थित वायु जब मुख में पहुँचते लगती है, वह आधे बल का लक्षण है। तात्पर्य यह है कि जब व्यायाम करते-करते श्वाँस का आदान-प्रदान मुख के माध्यम से शुरू हो जाए; अर्थात् साँस फूलने लगे; तो इसे आधे बल का लक्षण समझना चाहिए।

(5)
श्रमः क्लमः क्षयस्तृष्णा रक्तपित्तं तामकः ।
अतिव्यायामतः कासो ज्वरश्छदिश्च जायते ॥

शब्दार्थ
श्रमः = थकावट।
क्लमः = इन्द्रियों की थकान।
क्षयः = रक्त आदि धातुओं की कमी।
तृष्णा = प्यास।
रक्तपित्तम् = एक दुःसाध्य रोग।
प्रतामकः = श्वास सम्बन्धी रोग।
कासः = खाँसी।
छर्दिः = उल्टी।
जायते = उत्पन्न हो जाते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में अति व्यायाम करने से होने वाली हानियाँ बतायी गयी हैं।

अन्वय
अतिव्यायामतः श्रमः, क्लमः, क्षयः, तृष्णा, रक्तपित्तम्, प्रतामकः, कासः, ज्वरः, छर्दिः च जायते।

व्याख्या
अधिक व्यायाम करने से शारीरिक थकावट, इन्द्रियों की थकावट, रक्त आदि । धातुओं की कमी, प्यास, रक्तपित्त नामक दु:साध्य रोग, श्वास सम्बन्धी रोग, खाँसी, बुखार और उल्टी आदि रोग हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि अत्यधिक व्यायाम करने से अनेकानेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

(6)
व्यायामहास्यभाष्याध्व ग्राम्यधर्म प्रजागरान् ।
नोचितानपि सेवेत बुद्धिमानतिमात्रया॥ |

शब्दार्थ
हास्य = हास-परिहास।
भाष्य = बोलना।
अध्व = मार्ग-गमन।
ग्राम्यधर्म = स्त्री-सहवास।
प्रजागरान् = जागरण।
उचितान् = उचित, अभ्यस्त।
सेवेत = सेवन करना चाहिए।
अतिमात्रया = अत्यधिक मात्रा में।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यक्ति के लिए असेवनीय बातों के विषय में बताया गया है।

अन्वय
बुद्धिमान व्यायाम-हास्य-भाष्य-अध्व-ग्राम्यधर्म-प्रजागरान् उचित अपि अति मात्रया न सेवेत।।

व्याख्या
बुद्धिमान् पुरुष को व्यायाम, हँसी-मजाक, बोलना, रास्ता तय करना, स्त्री-सहवास और जागरण का अभ्यस्त होने पर भी अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि बुद्धिमान पुरुष को सदैव किसी भी चीज के अति सेवन से बचना चाहिए। |

(7)
शरीरांयासजननं कर्म व्यायामसज्ञितम् ।
तत्कृत्वा तु सुखं देहं विमृदनीयात् समन्ततः ॥

शब्दार्थ
शरीरायसिजननं = शरीर में थकावट उत्पन्न करने वाला।
व्यायाम सञ्जितम् = व्यायाम नाम दिया गया है।
सुखम् = सुखपूर्वक।
विमृद्नीयात् = मलना चाहिए, दबाना चाहिए।
समन्ततः = चारों ओर से।

प्रसंग
व्यायाम के बाद शरीर-मालिश की आवश्यकता पर बल दिया गया है।

अन्वय
व्यायामसज्ञितम् शरीरायासजननं कर्म (अस्ति) तत् कृत्वा तु देहं समन्ततः सुखं विमृद्नीयात्।।

व्याख्या
व्यायाम नाम वाला शरीर में थकावट उत्पन्न करने वाला कर्म है। उसे करने के बाद तो शरीर को चारों ओर से आराम से मसलना चाहिए। तात्पर्य यह है कि व्यायाम करने से शरीर में थकावट उत्पन्न होती है। इसके बाद शरीर की मालिश की जानी चाहिए।

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(8-9)
शरीरोपचयः कान्तिर्गात्राणां सुविभक्तता।
दीप्ताग्नित्वमनालस्यं स्थिरत्वं लाघवं मृजा ॥
श्रमक्लमपिपासोष्णशीतादीनां सहिष्णुता।
आरोग्यं चापि परमं व्यायामादुपजायते ॥

शब्दार्थ
शरीरोपचयः = शरीर की वृद्धि।
कान्तिः = चमक, सलोनापन।
गात्राणां = शरीर का।
सुविभक्तता = अच्छी प्रकार से अलग-अलग विभक्त होना।
दीप्ताग्नित्वम् = पेट की पाचनशक्ति का बढ़ना।
अनालस्यं = आलस्यहीनता, उत्साह।
स्थिरत्वं = स्थिरता, दृढ़ता।
लाघवम् = हल्कापन।
मृजा = स्वच्छता।
श्रमक्लमपिपासोष्णशीतादीनां = शारीरिक थकाने, इन्द्रियों की थकान, प्यास, गर्मी, सर्दी आदि की।
सहिष्णुता = सहन करने की योग्यता।
आरोग्यम् = स्वास्थ्य।
उपजायते = उत्पन्न होता है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक-युगल में व्यायाम के लाभ बताये गये हैं।

अन्वय
व्यायामात् शरीरोपचय, कान्तिः, गात्राणां सुविभक्तता, दीप्ताग्नित्वम्, अनालस्यं, स्थिरत्वं, लाघवं, मृजा, श्रम-क्लम-पिपासा-उष्ण-शीत आदीनां सहिष्णुता परमम् आरोग्यं च अपि उपजायते।

व्याख्या
व्यायाम करने से शरीर की वृद्धि,सलोनापन, शरीर के अंगों को भली प्रकार से । अलग-अलग विभक्त होना; पाचन-क्रिया का बढ़ना; आलस्य का अभाव, स्थिरता, हल्काषन, स्वच्छता, शारीरिक थकावट, इन्द्रियों की थकावट, प्यास, गर्मी-सर्दी आदि को सहने की शक्ति और उत्तम आरोग्य भी उत्पन्न होता है। तात्पर्य यह है कि व्यायाम करने से शरीर सर्वविध पुष्ट होता है।

(10)
न चास्ति सदृशं तेन किञ्चित् स्थौल्यापैकर्षणम्।
न च व्यायामिनं मर्त्यमर्दयन्त्यरयो भयात् ॥

शब्दार्थ
स्थौल्यार्पकर्षणम् = मोटापे (स्थूलता) को कम करने वाला।
व्यायामिनम् = व्यायाम करने वाले को।
मय॑म् = मनुष्य को। अर्दयन्ति= पीड़ित करते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यायाम को मोटापा स्थूलकोयत्व कम करने के साधन के रूप्न में . निरूपित किया गया है।

अन्वय
तेन सदृशं च स्थौल्यापकर्षणं किञ्चित् न (अस्ति)। अरय: व्यायामिनं मर्त्य भयात् न अर्दयन्ति।

व्याख्या
उस (व्यायाम) के समान मोटापे को कम करने वाला अन्य कोई साधन नहीं है। शत्रु लोग भी व्यायाम करने वाले पुरुष को अपने भय से पीड़ित नहीं करते हैं। तात्पर्य यह है कि व्यायाम स्थूलकाता को तो कम करता ही है, व्यक्ति को शत्रु भय से भी मुक्ति दिलाता है।

(11)
न चैनं सहसाक्रम्य जरा समधिरोहति ।।

स्थिरीभवति मांसं च व्यायामाभिरतस्य हि ॥

शब्दार्थ
सहसाक्रम्य = अचानक आक्रमण करके।
जरा = बुढ़ापा।
समधिरोहति = सवार होता है।
स्थिरीभवति = मजबूत हो जाता है।
मांसं = मांसपेशियाँ।
व्यायामाभिरतस्य (व्यायाम + अभिरतस्य) = व्यायाम में तत्पर ।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यायाम के महत्त्व को स्पष्ट किया गया है।

अन्वय
सहसा आक्रम्य एनं जरा न समधिरोहति। व्यायाम अभिरतस्य हि मांसं च स्थिरीभवति।

व्याख्या
सहसा आक्रमण करके बुढ़ापा-इस पर (व्यायाम करने वाले पर) सवार नहीं होता है। व्यायाम में तत्पर मनुष्य का मांस भी मजबूत हो जाता है। तात्पर्य यह है कि व्यायाम करने वाला व्यक्ति शीघ्र बूढ़ा नहीं होता है। उसकी मांसपेशियाँ भी बहुत मजबूत हो जाती हैं।

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(12)
व्यायामक्षुण्णगात्रस्य पद्भ्यामुवर्तितस्य च।।
व्याधयो नोपसर्पन्ति सिंहं क्षुद्रमृगा इव ॥

शब्दार्थ
व्यायामक्षुण्णगात्रस्य = व्यायाम से कूटे गये शरीर वाले।
पद्भ्यां = पैरों से।
उद्वर्तितस्य = रौंदे गये।
नउपसर्पन्ति= पास नहीं जाती हैं।
क्षुद्रमृगाः इव= छोटे-छोटे पशुओं की तरह।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यायाम के महत्त्व को स्पष्ट किया गया है।

अन्वय
व्यायामक्षुण्णगात्रस्य पद्भ्याम् उर्वर्तितस्य च व्याधयः सिंहं क्षुद्रमृगाः इव न उपसर्पन्ति।

व्याख्या
व्यायाम से कूटे गये शरीर वाले और पैरों से रौंदे गये व्यक्ति के पास बीमारियाँ उसी तरह नहीं जाती हैं, जैसे सिंह के पास छोटे-छोटे जानवर नहीं आते हैं। तात्पर्य यह है कि निरन्तर व्यायाम करने से मजबूत शरीर वाला व्यक्ति सामान्य मनुष्यों की तुलना में अधिक बीमार नहीं पड़ता।

(13)
वयोरूपगुणैहनमपि कुर्यात् सुदर्शनम् ।।
व्यायामो हि सदा पथ्यो बलिनां स्निग्धभोजिनाम्।
स च शीते वसन्ते च तेषां पथ्यतमः स्मृतः ॥

शब्दार्थ
वयोरूपगुणैः हीनम् = आयु, रूप तथा गुण से हीन (व्यक्ति) को।
कुर्यात् = करना चाहिए।
सुदर्शनम् = सुन्दर दिखाई पड़ने वाला।
पथ्यः = हितकर।
बलिनाम् = शक्तिशालियों का।
स्निग्धभोजिनाम् = चिकनाई से युक्त भोजन करने वाले।
पथ्यतमः = अत्यधिक हितकर।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यायाम के महत्त्व को स्पष्ट किया गया है।

अन्वय
व्यायामः हि वयोरूपगुणैः हीनम् अपि (पुरुष) सुदर्शनं कुर्यात्। सः स्निग्धभोजिनां बलिनां (कृते) सदा पथ्यः, किन्तु शीते वसन्ते च तेषां (कृते) पथ्यतमः स्मृतः।

व्याख्या
निश्चय ही व्यायाम अवस्था, रूप और अन्य गुणों से रहित व्यक्ति को भी देखने में सुन्दर बना देता है। वह चिकनाई से युक्त भोजन करने वाले बलवान् पुरुषों के लिए सदा हितकारी है, किन्तु वसन्त और शीत ऋतु में वह अत्यन्त हितकारी माना गया है। तात्पर्य यह है कि (UPBoardSolutions.com) व्यायाम सौन्दर्यरहित व्यक्ति को भी सौन्दर्यवान् बना देता है। वसन्त और शीत ऋतु में तो इसका किया जाना अत्यधिक हितकारी होता है।

(14)
पवित्रं वृष्यमायुष्यं श्रमस्वेदमलापहम्।।
शरीरबलसन्धानं स्नानमोजस्करं परम् ॥

शब्दार्थ
वृष्यम् = वीर्य की वृद्धि करने वाला।
आयुष्यम् = आयु की वृद्धि करने वाला।
श्रमस्वेद-मलापहम् = थकान, पसीने और मैल को दूर करने वाला।
शरीरबलसन्धानम् = शरीर की शक्ति को बढ़ाने वाला।
ओजस्करम् = कान्ति को बढ़ाने वाला।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में स्नान के लाभ बताये गये हैं।  अन्वये-स्नानं पवित्रं, वृष्यम्, आयुष्यं, श्रम-स्वेद-मलापहं, शरीरबलसन्धानं, परम् ओजस्करं । च (मतम्)।

व्याख्या
स्नान को पवित्रता लाने वाला, वीर्य की वृद्धि करने वाला, आयु को बढ़ाने वाला, थकान-पसीना और मैल को दूर करने वाला, शरीर की शक्ति को बढ़ाने वाला और अत्यन्त ओज । उत्पन्न करने वाला माना गया है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति के लिए स्थान बहुत ही लाभदायक है।

(15)
मेध्यं पवित्रमायुष्यमलक्ष्मीकलिनाशनम्।
पादयोर्मलमार्गाणां शौचाधानमभीक्ष्णशः ॥

शब्दार्थ
मेध्यम् = बुद्धि (मेधा) की वृद्धि करने वाला।
आयुष्यम् = आयुष्य की वृद्धि करने वाला।
अलक्ष्मीकलिनाशनम् = दरिद्रता और पाप को नष्ट करने वाला। पादयोः पैरों की
मलमार्गाणां = मल बाहर निकलने के रास्ते।
शौचाधानम् = सफाई करना।
अभीक्ष्णशः = निरन्तर।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में दोनों पैरों और मल-मार्गों की सफाई के लाभ बताये गये हैं।

अन्वय
पादयोः मलमार्गाणां (च) अभीक्ष्णशः शौचाधानं मेध्यं, पवित्रम्, आयुष्यम्, अलक्ष्मी-कलिनाशनं (च भवति)।

व्याख्या
दोनों पैरों और (भीतरी) मल को निकालने के मार्गों गुदा आदि की निरन्तर सफाई बुद्धि को बढ़ाने वाली, पवित्रता करने वाली, आयु को बढ़ाने वाली और दरिद्रता और पाप को नष्ट करने वाली होती है। तात्पर्य यह है कि शरीर की स्वच्छता शरीर को पवित्र करने वाली और आयु को बढ़ाने वाली तो है ही, निर्धनता को भी नष्ट करती है।

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(16)
नित्यं स्नेहार्दशिरसः शिरःशूलं न जायते ।
न खालित्यं ने पालित्यं न केशाः प्रपतन्ति च ॥

शब्दार्थ
नित्यम् = प्रतिदिन।
स्नेहार्दशिरसः = तेल से गीले सिर वाले का।
शिरःशूलम् = सिर का दर्द।
खालित्यम् = गंजापन।
पालित्यम् = बालों का पक जाना।
प्रपतन्ति = झड़ते हैं, गिरते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में तेल लगाने के गुण बताये गये हैं।

अन्वय
नित्यं स्नेहार्दशिरसः (जनस्य) शिरः शुलं न जायते, न च खालित्यं न (च) पालित्यं (भवति), केशाः न प्रपतन्ति (च)।

व्याख्या
सदा तेल से भीगे सिर वाले व्यक्ति के सिर में दर्द नहीं होता है। उसके न गंजापन होता है, न केश पकते हैं और न बाल झड़ते हैं। तात्पर्य यह है कि सदैव सिर में तेल लगाने वाला व्यक्ति सिर के समस्त अन्त:बाह्य विकारों से मुक्त रहता है।

(17)
बलं शिरःकपालानां विशेषेणाभिवर्धते।
दृढमूलाश्च दीर्घाश्च कृष्णाः केशा भवन्ति च ॥

राख्दार्थ
शिरःकपालानां = सिर की अस्थियों का।
विशेषण = विशेष रूप से।
अभिवर्धते = बढ़ता है।
दृढमूलाः = मजबूत जड़ों वाले।
दीर्घाः = लम्बे।
कृष्णाः = काले।
भवन्ति = होते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में तेल लगाने के गुण बताये गये हैं।

अन्वय
(स्नेहार्द्रशिरसः जनस्य) शिर:कपालानां बलं विशेषेण अभिवर्धते, केशाः दृढमूलाः दीर्घाः, कृष्ण च भवन्ति।

व्याख्या
(तेल से गीले सिर वाले पुरुष की) सिर की अस्थियों को बल विशेष रूप से बढ़ता है। बाल मजबूत जड़ों वाले, लम्बे और काले होते हैं। तात्पर्य यह है कि सदैव सिर में तेल लगाने वाला व्यक्ति सिर के समस्त अन्त:-बाह्य विकारों से मुक्त रहता है।

(18)
इन्द्रियाणि प्रसीदन्ति सुत्वम् भवति चाननम्।।
निद्रालाभः सुखं च स्यान्मूनि तैलनिषेवणात् ॥

शब्दार्थ
इन्द्रियाणि = इन्द्रियाँ।
प्रसीदन्ति= प्रसन्न हो जाती हैं।
सुत्वम् = सुन्दर त्वचा वाला।
निद्रालाभः = नींद की प्राप्ति।
मूर्टिन = सिर पर।
तैलनिषेवणात् = तेल की मालिश करने से।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में सिर पर तेल लगाने के गुण बताये गये हैं।

अन्वय
मूर्छिन तैलनिषेवणात् इन्द्रियाणि प्रसीदन्ति, आननं च सुत्वक् भवति, निद्रालाभः च सुखं स्यात्।।

व्याख्या
सिर पर तेल का सेवन करने से इन्द्रियाँ प्रसन्न हो जाती हैं, मुखे सुन्दर त्वचा वाला हो जाती है और नींद की प्राप्ति सुखपूर्वक होती है। तात्पर्य यह है कि सिर पर तेल लगाने वाला व्यक्ति शारीरिक और मानसिक रूप से प्रसन्न रहता है।

(19)
न रागान्नाप्यविज्ञानादाहारमुपयोजयेत् ।
परीक्ष्य हितमश्नीयाद् देहो स्याहारसम्भवः॥

शब्दार्थ
रागात् = प्रेम या रुचि के कारण।
अविज्ञानात् = बिना जाने हुए।
उपयोजयेत् = उपयोग करना चाहिए।
परीक्ष्य = अच्छी तरह देखभालकर।
अश्नीयात् = खाना चाहिए।
आहारसम्भवः = भोजन से बनने वाला अर्थात् आहार से सम्भव।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में भोजन करने के नियम बताये गये हैं।

अन्वय
(नरः) न रागात् न अपि अविज्ञानात्, आहारम् उपयोजयेत्। परीक्ष्य हितम् अश्नीयात्। हि देहः आहारसम्भवः।

व्याख्या
मनुष्य को न प्रेम या रुचि के कारण और न ही अज्ञान के कारण भोजन का उपयोग करना चाहिए। अच्छी तरह देखभाल कर हितकारी भोजन करना चाहिए। निश्चय ही शरीर भोजन से बनने वाला होता है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को देखभाल कर और स्वास्थ्यवर्द्धक भोजन ही करना चाहिए। प्रेम और रुचि के कारण अधिक भोजन नहीं करना चाहिए।

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(20)
हिताशी स्यान्मिताशी स्यात् कालभोजी जितेन्द्रियः।
पश्यन् रोगान् बहून् कष्टान् बुद्धिमान् विषमशिनात् ॥

शब्दार्थ
हिताशी = हितकर भोजनं करने वाला।
मिताशी = थोड़ा भोजन करने वाला।
कालभोजी = समय पर भोजन करने वाला।
जितेन्द्रियः = अपनी इन्द्रियों को वश में करने वाला।
पश्यन् = देखते हुए।
बहून्= बहुत।
विषमाशनात् = विषम (अंटसंट) भोजन करने से।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में भोजन करने के नियम बताये गये हैं।

अन्वय्
बुद्धिमान् विषमाशनात् बहून् रोगान् कष्टान् च पश्यन् हिताशी स्यात्, मिताशी स्यात्, कालभोजी, जितेन्द्रियः च स्यात्।।

व्याख्या
बुद्धिमान् पुरुष को विषम भोजन करने से होने वाले बहुत-से रोगों और कष्टों को देखते हुए हितकर भोजन करने वाला, परिमित (थोड़ा) भोजन करने वाला, समय पर भोजन करने वाला और जितेन्द्रिय होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को सर्वविध सन्तुलित भोजन करने वाला होना चाहिए।

(21)
नरो हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः।
दाता समः सत्यपरः क्षमावानाप्तोपसेवी च भवत्यरोगः ॥

शब्दार्थ
हिताहार-विहारसेवी = हितकर भोजन और विहार (भ्रमण) का सेवन करने वाला।
समीक्ष्यकारी = विचारकर काम करने वाला।
विषयेष्वसक्तः = विषयों में आसक्ति न रखने वाला।
दाता = दान देने वाला।
समः = सभी जीवों में समान भाव रखने वाला।
सत्यपरः = सत्य ही जिसके लिए सबसे उत्कृष्ट है; अर्थात् सत्य को सर्वोपरि मानने वाला।
क्षमावान् = क्षमाभाव से युक्त।
आप्तोपसेवी = विश्वसनीय व्यक्तियों का संसर्ग करने वाला।
अरोगः = नीरोग।। 

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में निरोग होने के उपाय बताये गये हैं।

अन्वय
हिताहार-विहारसेवी, समीक्ष्यकारी, विषयेषु असक्तः, दाता, समः, सत्येपरः, क्षमावान्, आप्तोपसेवी, च नरः अरोगः भवति।

व्याख्या
हितकर भोजन और विहार (भ्रमण) करने वाला, विचारकर कार्य करने वाला, विषय-वासनाओं में आसक्ति न रखने वाला, दान देने वाला, सुख-दुःख को समान समझने वाला, सत्य बोलने वाला, क्षमा धारण करने वाला और विश्वसनीय-जनों की संगति करने वाला मनुष्य रोगरहित होता है।

सूक्तिपरक वाक्य की व्याख्या

(1)
व्याधयो नोपसर्पन्ति सिंहं क्षुद्रमृगा इव।।
सन्दर्थ
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘आरोग्यसाधनानि’ नामक पाठ से उद्धृत है। .

प्रसंग
इस सूक्ति में व्यायाम की उपयोगिता को बताया गया है।

अर्थ
(व्यायाम करने वाले के) समीप बीमारियाँ उसी प्रकार नहीं जातीं, जिस प्रकार से सिंह के समीप छोटे प्राणी।।

व्याख्या
व्यायाम करने वाले व्यक्ति का शरीर इतना बलिष्ठ और मजबूत हो जाता है कि बीमारियाँ उसके समीप जाते हुए उसी प्रकार भय खाती हैं, जिस प्रकार से छोटे-छोटे जीव सिंह के समीप जाते हुए भय खाते हैं; अर्थात् व्यायाम करने वाला व्यक्ति नीरोगी होता है। अत: व्यक्ति को , नियमित व्यायाम द्वारा अपने शरीर को स्वस्थ रखना चाहिए।

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(2) शरीरबलसन्धानं स्नानमोजस्करं परम्।।

सन्दर्य
पूर्ववत्।

प्रसंग
स्नान के महत्त्व को प्रस्तुत सूक्ति में समझाया गया है।

अर्थ
स्नान शरीर की शक्ति तथा ओज को बहुत अधिक बढ़ाने वाला होता है।

व्याख्या
स्नान करने से शरीर का मैल और पसीना साफ हो जाता है, जिससे शरीर में रक्त को संचार बढ़ जाता है। रक्त-संचार के बढ़ जाने से व्यक्ति अपने शरीर में ऐसी स्फूर्ति का अनुभव करता है, मानो उसमें कहीं से अतिरिक्त शक्ति का समावेश हो गया हो। त्वचा के मैल इत्यादि के धुल जाने (UPBoardSolutions.com) से त्वचा में चमक आ जाती है, जिससे व्यक्ति का चेहरा चमकने लगता है। इसीलिए स्नान को शक्ति तथा ओज को बढ़ाने वाला माना गया है।

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Class 9 Sanskrit Chapter 12 UP Board Solutions यक्ष-युधिष्ठिर-संलाप Question Answer

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 12
Chapter Name यक्ष-युधिष्ठिर-संलाप (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 12 Yaksha Yudhishthir Sanlaap Question Answer (पद्य-पीयूषम्)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 12 हिंदी अनुवाद यक्ष-युधिष्ठिर-संलाप के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय–प्रस्तुत पाठ महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित ‘महाभारत’ के वनपर्व से संगृहीत है। इन , श्लोकों में यक्ष और युधिष्ठिर के संलाप द्वारा जीवन एवं जगत् के व्यावहारिक पक्ष की मार्मिक व्याख्या की गयी है।

अपने प्रवास के समय एक बार पाँचों पाण्डव वन में थे। युधिष्ठिर को प्यास लगती है। वह सहदेव को पानी लेने के लिए जलाशय पर भेजते हैं। जलाशय में एक यक्ष था। वह पानी पीने से पूर्व अपने प्रश्न का उत्तर देने को कहता है और कहता कि यदि तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दिये बिना जल लोगे  तो मर जाओगे।” यक्ष के प्रश्नों का उत्तर न दे सकने के कारण क्रमशः सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीम उसके द्वारा मृतप्राय कर दिये जाते हैं। अन्त में युधिष्ठिर जलाशय पर आते हैं। यक्ष उन्हें भी प्रश्नों का उत्तर दिये बिना जल पीने नहीं देता है। वह उन्हें रोककर कहता है कि “यदि तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दे दोगे तो तुम जल ले सकते हो।” युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रस्ताव को स्वीकार किया और उसके द्वारा पूछे गये सभी प्रश्नों का उत्तर दिया।

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पाठ-सारांश

यक्ष-युधिष्ठिर के मध्य हुए वार्तालाप का संक्षिप्त सार इस प्रकार है|

यक्ष
भूमि से बड़ा, आकाश से ऊँचा, वायु से अधिक वेगवान् और घास से संख्या में अधिक कौन है?
युधिष्ठिर
माता भूमि से बड़ी, पिता आकाश से ऊँचा, मन वायु से अधिक वेगवान् और चिन्ता घास से संख्या में अधिक है। 

यक्ष
सोते हुए कौन पलक बन्द नहीं करता? पैदा हुआ कौन चेष्टा नहीं करता? किसके हृदय नहीं है और वेग से कौन बढ़ता है?
युधिष्ठिर
सोती हुई मछली पलक बन्द नहीं करती, पैदा हुआ अण्डा चेष्टा नहीं करता, पत्थर के – हृदय नहीं है और नदी वेग से बढ़ती है।

यक्ष
प्रवासी, गृहस्थ, रोगी और मरने वाले का मित्र कौन है?
युधिष्ठिर
प्रवासी की विद्या, गृहस्थ की पत्नी, रोगी का वैद्य और मरने वाले का मित्र दान होता ।

यक्ष
धान्यों, धनों, लाभ और सुखों में उत्तम क्या है?
युधिष्ठिर
धान्यों में कुशलता, धनों में शास्त्र-ज्ञान, लाभों में नीरोगिता, सुखों में सन्तोष उत्तम है।

यक्ष
व्यक्ति किसे छोड़कर प्रिय होता है? किसे छोड़कर शोक नहीं करता? किसे छोड़कर धनवान् और क़िसे छोड़कर सुखी होता है?
युधिष्ठिर
व्यक्ति अहंकार छोड़कर प्रिय, क्रोध छोड़कर शोकहीन, इच्छा छोड़कर धनवान् और लोभ छोड़कर सुखी होता है।

यक्ष
पुरुष, राष्ट्र, श्राद्ध और यज्ञ कैसे मृत होता है?
युधिष्ठिर
निर्धन पुरुष, राजाहीन राष्ट्र, वेदज्ञहीन श्राद्ध और दक्षिणाहीन यज्ञ मृत होता है।

यक्ष
पुरुष का दुर्जय शत्रु, अन्तहीन रोग, सज्जन और दुर्जन कौन है?
युधिष्ठिर
क्रोध दुर्जय शत्रु, लोभ अन्तहीन रोग, सर्वहितकारी सज्जन और दयाहीन दुर्जन, होता है।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

(1)
किंस्विद्गुरुतरं भूमेः किंस्विदुच्चतरं च खात्।
किंस्विच्छीघ्रतरं वायोः किंस्विबहुतरं तृणात् ॥

शब्दार्थ
यक्ष उवाच = यक्ष ने कहा।
किंस्विद् = कौन-सा।
गुरुतरम् = अधिक बड़ा, अधिक  भारी।
भूमेः = भूमि से।
उच्चतरं = अधिक ऊँचा।
खात् = आकाश से।
शीघ्रतरं = शीघ्रगामी।
बहुतरम् = संख्या में अधिक
तृणात् = तृण, घास।

सन्दर्य
प्रस्तुत श्लोक संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘यक्ष-युधिष्ठिर-संलापः’ पाठ से उधृत है।

[संकेत-पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से कुछ महान् वस्तुओं के विषय में प्रश्न पूछता है

अन्वय
भूमेः गुरुतरं किंस्विद् (अस्ति)? खात् उच्चतरं च किंस्विद् (अस्ति)? वायोः शीघ्रतरं , किंस्विद् (अस्ति)? तृणात् बहुतरं किंस्विद् (अस्ति)? | व्याख्या-यक्ष ने कहा-भूमि से अधिक भारी कौन-सी वस्तु है? आकाश से अधिक ऊँची कौन-सी वस्तु है? वायु से अधिक शीघ्रगामी कौन-सी वस्तु है? घास से संख्या में अधिक कौन-सी , वस्तु है?

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(2)
माता गुरुतरा भूमेः खात्पितोच्चतरस्तथा ।
मनः शीघ्रतरं वाताच्चिन्ता बहुतरी तृणात् ॥

शब्दार्थ
वातात् = वायु से।
बहुतरी = संख्या में अधिक।

प्रसंग
यक्ष के द्वारा पूछे गये प्रश्नों– भूमि से अधिक भारी, आकाश से अधिक ऊँची, वायु से अधिक शीघ्रगामी और घास से संख्या में अधिक कौन-सी वस्तु है—का उत्तर युधिष्ठिर इस प्रकार देते हैं ।

अन्वय
माता भूमेः गुरुतरा (अस्ति) तथा पिता खात् उच्चतरः (अस्ति)। मनः वातात् शीघ्रतरम् (अस्ति)। चिन्ता तृणात् बहुतरी (अस्ति)।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा-माता भूमि से अधिक भारी (गौरवशालिनी) है तथा पिता आकाश से अधिक ऊँचा है। मन वायु से अधिक तीव्रगामी है और चिन्ता घास से सख्या में बहुत अधिक है।

(3)
किंस्वित्सुप्तं न निमिषति किंस्विज्जातं न चेङ्गते ।
कस्यस्विदधृदयं नास्ति कास्विद्वेगेन वर्धते ॥

शब्दार्थ
सुप्तं = सोते हुए।
निमिषति = पलक गिराती है।
जातं = उत्पन्न होने पर।
इङ्गते = चेष्टा करता है।
कस्यस्विद् = किस वस्तु के।
कास्विद् = कौन-सी वस्तु।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से प्रश्न पूछता है।

अन्वय
किंस्वित् सुप्तं न निमिषति? किंस्विद् जातं न इङ्गते? कस्यस्विद् हृदयम् न अस्ति? कास्विद् वेगेन वर्धते?

व्याख्या
यक्ष ने कहा-सोती हुई कौन-सी वस्तु पलक नहीं गिराती? कौन-सी वस्तु उत्पन्न हुई चेष्टा नहीं करती? किस वस्तु के हृदय नहीं है? कौन-सी वस्तु वेग से बढ़ती है? |

(4)
मत्स्यः सुप्तो न निमिषत्यण्डं जातं न चेङ्गते ।।
अश्मनो हदयं नास्ति नदी वेगेन वर्धते ॥

शब्दार्थ
मत्स्यः = मछली।
अण्डं = अण्डा।
अश्मनः = पत्थर का।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष के प्रश्नों-सोती हुई कौन-सी वस्तु पलक नहीं गिराती, कौन-सी वस्तु उत्पन्न हुई चेष्टा नहीं करती, किस वस्तु के हृदय नहीं है तथा कौन-सी वस्तु वेग से बढ़ती है-का उत्तर युधिष्ठिर देते हैं।

अन्वय
सुप्त: मत्स्यः न निमिषति। जातम् अण्डं न च इङ्गते। अश्मनः हृदयं न अस्ति। नदी वेगेन वर्धते।।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा-सोती हुई मछली पलक नहीं गिराती है। उत्पन्न हुआ अण्डा चेष्टा नहीं करता है। पत्थर के हृदय नहीं होता है और नदी वेग से बढ़ती है।

(5)
किंस्वित्प्रवसतो मित्रं किंस्विन्मित्रं गृहे सतः ।।
आतुरस्य च किं मित्रं किंस्विन्मित्रं मरिष्यतः ॥

शब्दार्थ
प्रवसतः = विदेश में रहने वाले का।
गृहे = घर में।
आतुरस्य = रोगी का।
मरिष्यतः = मरने वाले का।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से प्रश्न पूछता है।

अन्वय
प्रवसतः किंस्वित् मित्रम् (अस्ति)? गृहे सत: किंस्वित् मित्रम् (अस्ति)? आतुरस्य च किं मित्रम् (अस्ति)? मरिष्यतः किंस्विद् मित्रम् (अस्ति)?। व्याख्या-यक्ष ने कहा-विदेश में रहने वाले का कौन मित्र है? घर में रहने वाले का कौन मित्र है? रोगी का कौन मित्र है? मरने वाले को कौन मित्र है?

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(6)
विद्या प्रवसतो मित्रं भार्या मित्रं गृहे सतः ।।

आतुरस्यभिषमित्रं दानं मित्रं मरिष्यतः ॥

शब्दार्थ
भार्या = पत्नी।
भिषक् = वैद्य।

प्रसंग
युधिष्ठिर यक्ष के मित्र सम्बन्धी प्रश्नों-विदेश में रहने वाले का, घर में रहने वाले का, रोगी का और मरते हुए का मित्र कौन होता है–का उत्तर देते हैं।

अन्वय
विद्या प्रवसतः मित्रम् (अस्ति)। गृहे सत: भार्या मित्रम् (अस्ति)। आतुरस्य भिषक् मित्रम् (अस्ति)। मरिष्यतः मित्रं दानम् (अस्ति)।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा-विद्या प्रवास में रहने वाले की मित्र होती है। घर में रहने वाले की मित्र पत्नी होती है। रोगी का मित्र वैद्य होता है और मरने वाले का मित्र दान होता है।

(7)
धान्यानामुत्तमं किंस्विद्धनानां स्यात्किमुत्तमम्। .
लाभानामुत्तमं किं स्यात्सुखानां स्यात्किमुत्तमम् ॥

शब्दार्थ
धान्यानाम् = धान्यों में।
धनानां = धनों में।
उत्तमम् = उत्तम, अच्छा।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से विभिन्न उत्तम वस्तुओं के सम्बन्ध में प्रश्न पूछता है।

अन्वय
धान्यानाम् उत्तमं किंस्विद् (अस्ति)? धनानाम् उत्तमं किं स्यात्? लाभानाम् उत्तमं किं स्यात्? सुखानाम् उत्तमं किं स्यात्? ।

व्याख्या
यक्ष ने कहा-धान्यों में उत्तम क्या है? धनों में उत्तम क्या है? लाभों में उत्तम क्या है? सुखों में उत्तम क्या है?

(8)
धान्यानामुत्तमं दाक्ष्यं धनानामुत्तमं श्रुतम्।।
लाभानां श्रेय आरोग्यं सुखानां तुष्टिरुत्तमा॥

शब्दार्थ
दाक्ष्यम् = दक्षता, कुशलता।
श्रुतम् = शास्त्र ज्ञान।
श्रेयः = श्रेष्ठ।
तुष्टिः = सन्तोष।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में युधिष्ठिर यक्ष के उत्तम वस्तु सम्बन्धी प्रश्नों-धान्यों में, धनों में, लाभों में और सुखों में उत्तम क्या है—का उत्तर देते हुए कहते हैं

अन्वय
धान्यानाम् उत्तमं दाक्ष्यम् (अस्ति)। धनानाम् उत्तमं श्रुतम् (भवति)। लाभानां श्रेयः आरोग्यम् (अस्ति)। सुखानाम् उत्तमा तुष्टिः (अस्ति)। |

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा-धान्यों में उत्तम कुशलता है। धनों में उत्तम शास्त्र-ज्ञान है। लाभों में श्रेष्ठ नीरोगिता (आरोग्यता) है। सुखों में उत्तम सन्तोष है।

(9)
किं नु हित्वा प्रियो भवति किं नु हित्वा न शोचति।
किं नु हित्वाऽर्थवान्भवति किं नु हित्वा सुखी भवेत् ॥

शब्दार्थ
किं नु = किसे, क्या।
हित्वा = छोड़कर।
शोचति = शोक करता है।
अर्थवान् = धनवान्।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से हितकारी त्याग के विषय में प्रश्न पूछता है।

अन्वये
(नरः) किं नु हित्वा प्रियः भवति? किं नु हित्वा न शोचति? किं नु हित्वा अर्थवान् भवति? किं नु हित्वा सुखी भवेत्? | व्याख्या—यक्ष ने कहा—मनुष्य क्या चीज छोड़करे प्रिय होता है? किस वस्तु को छोड़कर शोक नहीं करता है ? क्या छोड़कर धनवान् होता है? क्यों छोड़कर सुखी होता है? |

(10)
मानं हित्वा प्रियो भवति क्रोधं हित्वा न शोचति ।
कामं हित्वाऽर्थवान्भवति लोभं हित्वा सुखी भवेत् ॥

राख्दार्थ
मानम् = अहंकार को।
कामम् = इच्छा को। |

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में युधिष्ठिर यक्ष के त्याग सम्बन्धी प्रश्नों—मनुष्य क्या छोड़कर प्रिय होता है, किस वस्तु को छोड़कर शोक नहीं करता, क्या छोड़कर धनवान् होता है तथा क्या छोड़कर सुखी होता है–का उत्तर दे रहे हैं।

अन्वये
(नरः) मानं हित्वा प्रियः भवति। क्रोधं हित्वा न शोचति। कामं हित्वा अर्थवान् भवति। लोभं हित्वा सुखी भवेत्।।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा–(मनुष्य) अहंकार को छोड़कर प्रिय होता है। क्रोध को छोड़कर शोक नहीं करता है। इच्छा को छोड़कर धनवान् होता है। लोभ को छोड़कर सुखी होता है।

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(11)
मृतः कथं स्यात्पुरुषः कथं राष्ट्रं मृतं भवेत् ।।
आद्धं मृतं वा स्यात्कथं यज्ञो मृतो भवेत् ॥

राख्दार्थ-
मृतः = मरा हुआ।
आद्धं = पितरों के लिए किया गया पिण्डदानादि कर्म।
यज्ञ = देव-पूजन, यजन-कर्म।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से कुछ मृत वस्तुओं के विषय में प्रश्न पूछता है।

अन्वय
पुरुषः कथं मृत: स्यात्? राष्ट्रं कथं मृतं भवेत्? श्राद्धं कथं वा मृतम् स्यात? यज्ञः कथं मृत: भवेत्?

व्याख्या
यक्ष ने कहा-पुरुष कैसे मृत होता है? राष्ट्र कैसे मृत होता है? श्राद्ध कैसे मृत होता है? यज्ञ कैसे मृत होता है? |

(12)
मृतो दरिद्रः पुरुषो मृतं राष्ट्रमराजकम्।
मृतमश्रोत्रियं श्राद्धं मृतो यज्ञस्त्वदक्षिणः ॥

शब्दार्थ
दरिद्रः = निर्धन।
अराजकम् = राजा के बिना।
अश्रोत्रियम् = वेदज्ञ विद्वान् से रहित।
अदक्षिणः = दक्षिणा से रहित।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में युधिष्ठिर यक्ष के मृत वस्तु सम्बन्धी प्रश्नों—पुरुष, राष्ट्र, श्राद्ध, यज्ञ कैसे मृत होता है के उत्तर देते हैं।

अन्वय
दरिद्रः पुरुषः मृतः (भवति)। अराजकं राष्ट्रं मृतं (भवति)। अश्रोत्रियं श्राद्धं मृतं  (भवति)। अदक्षिणः तु यज्ञः मृतः (भवति)।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा-दरिद्र पुरुष मृत होता है। राजारहित राष्ट्र मृत होता है। वेद-ज्ञाता विद्वान् से रहित श्राद्ध मृत होता है; दक्षिणारहित यज्ञ मृत होता है अर्थात् बिना दक्षिणा दिये यज्ञ का कोई महत्त्व नहीं होता।

(13)
कः शत्रुर्दुर्जयः पुंसां कश्च व्याधिरनन्तकः।
कीदृशश्च स्मृतः साधुरसाधुः कीदृशः स्मृतः ॥

शब्दार्थ
कः = कौन।
दुर्जयः = जो कठिनाई से जीता जा सके।
पुंसाम् = पुरुषों के लिए।
व्याधिः = रोग।
अनन्तकः = अन्तहीन।
कीदृशः = कैसा।
स्मृतः = माना गया है।
साधुः = सज्जन।
असाधुः = दुर्जन।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से शत्रु, रोग और सज्जन-दुर्जन के विषय में प्रश्न पूछता है।

अन्वय
पुंसां दुर्जयः शत्रुः कः (अस्ति)?”अनन्तकः व्याधिः च कः (अस्ति)? साधुः च कीदृशः स्मृतः? असाधुः कीदृशः स्मृतः? । |

व्याख्या
यक्ष ने कहा-पुरुषों के लिए कठिनाई से जीतने योग्य शत्रु कौन-सा है? अन्तहीन रोग कौन-सा है? सज्जन कैसा माना गया है? दुर्जन कैसा माना गया है?

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(14)
क्रोधः सुदुर्जयः शत्रुभो व्याधिरनन्तकः ।।
सर्वभूतहितः ‘ साधुरसाधुर्निर्दयः स्मृतः ॥

शब्दार्थ
संर्वभूतहितः = सब प्राणियों का हित करने वाला।
निर्दयः = दयाहीन।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में युधिष्ठिर यक्ष के–शत्रु, रोग और सज्ज़न-दुर्जन सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर देते हैं।

अन्वय
क्रोधः सुदुर्जयः शत्रुः (अस्ति)। लोभः अनन्तकः व्याधिः (अस्ति)। साधुः  सर्वभूतहितः स्मृतः। असाधुः निर्दयः (स्मृतः)।।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा–क्रोध अत्यन्त कठिनाई से जीतने योग्य शत्रु होता है। लोभ अन्तहीन रोग है। साधु सब प्राणियों का हित करने वाला माना गया है। दुर्जन दयाहीन माना गया है।

सूक्तिपरक वाक्य की व्याख्या

(1) माता गुरुतरा भूमेः खात्पितोच्चतरस्तथा।।

सन्दर्य
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘यक्ष-युधिष्ठिरसंलापः’ नामक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत-इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

फ्संग
प्रस्तुत सूक्ति में माता-पिता के स्थान को सर्वोच्च बताया गया है।

अर्थ
माता भूमि से बड़ी और पिता आकाश से ऊँचा है।

व्याख्या
धरती माता की तरह ही अनेक वनस्पतियों तथा दूसरे जीवों को जन्म देती है। वह माता की तरह ही अपने अन्न-जल और वायु से उनका पोषण करती है। लेकिन धरती अपनी इन

सन्तानों पर कष्ट आने पर उनके कष्ट स्वयं नहीं ले लेती और न ही उन्हें दूर करने का कोई प्रयास करती है। जब कि माता अपनी सन्तानों के दु:ख अपने ऊपर ले लेती है और कभी-कभी तो उनके दुःखों को दूर करने के लिए अपने प्राणों तक को न्योछावर कर देती है। निश्चित ही वह भूमि से बड़ी है।

आकाश सबसे ऊँचा है, उसकी ऊँचाई अनन्त है। वह किसी को अपने से ऊँचा निकलने का अवसर नहीं देता। वह किसी को ऊँचा उठाने के लिए स्वयं नीचा नहीं हो जाता। जब कि पिता अपनी सन्तानों को अनन्त ऊँचाइयों तक ऊँचा उठाना चाहता है, इसके लिए वह स्वयं झुक जाता है तथा अपने

अस्तित्व तक को दाँव पर लगा देता है। वह अपने बलिदान से अपनी सन्तानों को ऊँचा उठाने का हर ‘सम्भव प्रयत्न करता है, यही कारण है उसे आकाश से भी ऊँची कहा गया है। ”

(2)

आतुरस्य भिषङिमत्रं दानं मित्रं मरिष्यतः।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में रोगी तथा मृतप्राय व्यक्ति के मित्र के विषय में बताया गया है।

अर्थ
रोगी का मित्र वैद्य तथा मरते हुए का मित्र दान होता है।

व्याख्या
व्यक्ति को जो कष्टों से बचाये, वही सच्चा मित्र कहलाता है। रोगी व्यक्ति को चिकित्सक ही उसके रोग के कष्टों से मुक्ति दिला सकता है और मरते हुए व्यक्ति को दान ही यों के कष्टों से मुक्ति दिलाता है। इसीलिए वैद्य (चिकित्सक) को रोगी को तथा दान को मरने वाले का मित्र बताया गया है। कालिदास ने ‘रघुवंशम्’ महाकाव्य में लिखा है कि ‘लोकान्तर सुखं पुण्यं तपोदानसमुद्भवम्।’ अर्थात् तप और दान के पुण्यस्वरूप सुख परलोक में ही प्राप्त होता है।

(3)
मृतो दरिद्रः पुरुषो मृतं राष्ट्रमराजकम्।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में दरिद्र पुरुष और राजाहीन राष्ट्र की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ
दरिद्र पुरुष मृत होता है। राजारहित राष्ट्र मृत होता है।

व्याख्या
दरिद्र व्यक्तिं सदैव अभावों का जीवन जीता है। धन के अभाव में वह अपनी किसी भी आशा को फलित होते हुए, नहीं देख पाता, जिससे उसका जीवन निराशा से भर जाता है, उसके जीवन का उत्साह समाप्त हो आता है, उसकी संवेदना मर जाती है। संवेदनाहीन व्यक्ति मरे हुए के समान ही होता है। इसीलिए दरिद्र पुरुष को मृत उचित ही कहा गया है। | जिस राष्ट्र का कोई राजा नहीं होता, उस पर पड़ोसी राजा अपना अधिकार करके उसे अपने राज्य में मिला लेता है और उस राष्ट्र का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। अस्तित्वहीनता ही मृत्यु है; अत: वास्तव में राजारहित राष्ट्र मृत ही होता है। तात्पर्य यह है कि राजा के अभाव में राष्ट्र की कल्पना ही निरर्थक है।

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(4)
सर्वभूतहितः साधुरसाधुर्निर्दयः स्मृतः।

प्रसंग
सज्जन और दुर्जन के स्वभावों के अन्तर को प्रस्तुत सूक्ति में स्पष्ट किया गया है।

अर्थ
साधु (सज्जन) समस्त प्राणियों का हित करने वाला माना गया है। असाधु (दुर्जन) दयाहीन माना गया है।

व्याख्या
सज्जन व्यक्ति संसार के समस्त अच्छे-बुरे प्राणियों का हित चाहने वाले होते हैं। उनके मन में यह भावना कभी नहीं आती कि यह प्राणी बुरी है अथवा इसने उनको हानि पहुँचायी थी; अतः उनका हित नहीं किया जाना चाहिए। वे सभी का समानभाव से हित-साधन करते हैं, भले ही वह प्राणी अच्छा हो अथवा बुरा

सज्जनों की इस प्रवृत्ति के विपरीत दुर्जन संसार के अच्छे तथा बुरे सभी प्राणियों को निर्दयतापूर्वक कष्ट देते हैं। किसी की दीन-हीन दशा को देखकरे भी उनके मन में दया नहीं उपजती। दूसरों की पीड़ा में उन्हें आनन्द आता है। वे ऐसे व्यक्ति के दुःख को देखकर भी नहीं पिघलते, जिसने कभी उन पर उपकार किया हो। इसीलिए सज्जनों को सबका हित करने वाला और दुष्टों को निर्दयी माना जाता है।

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) माता गुरुतरा ••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••वृणात् ॥(श्लोक 2)
संस्कृतार्थः-
अस्मिन् श्लोके महाराजः युधिष्ठिरः कथयति–“जननी पृथिव्याः श्रेष्ठा भवति, जनकः आकाशात् उच्चतरः अस्ति। मनः वायोः अपि शीघ्रगामी भवति। चिन्ता च तृणेभ्यः अपि भूयसी भवति।”

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Class 9 Sanskrit Chapter 5 UP Board Solutions क्षीयते खलसंसर्गात् Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 5 क्षीयते खलसंसर्गात् (कथा – नाटक कौमुदी) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 5 क्षीयते खलसंसर्गात् (कथा – नाटक कौमुदी).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 5
Chapter Name क्षीयते खलसंसर्गात् (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 25
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 5 Kshiyate Khalasansargat Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 5 हिंदी अनुवाद क्षीयते खलसंसर्गात् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय–प्रस्तुत कॅथा ‘हितोपदेश’ नामक ग्रन्थ से संकलित की गयी है। इसके लेखक नारायण पण्डित हैं। बंगाल के राजा धवलचन्द्र ने इसका संकलन कराया था। इस कथा-संग्रह में रोचक कथाओं के माध्यम से नीति और धर्म की शिक्षा दी गयी है। कथाओं की रोचकता, सरलता और उपदेशात्मकता के कारण ही इसको संस्कृत वाङमय में आदरणीय स्थान प्राप्त है। इस ग्रन्थ में घशु-पक्षियों आदि से सम्बद्ध नीति-कथाएँ हैं, जो मानव-मात्र के लिए रोचक और उपादेय तो हैं ही, साथ ही इनमें जीवन का । व्यावहारिक पक्ष भी वर्णित है। ‘हितोपदेश’ (UPBoardSolutions.com) की कथा-शैली सरल, सुबोध होने के साथ-साथ । उपदेशात्मक भी है। इसकी कथाओं में प्रवाह और रोचकता दृष्टिगोचर होती है। इस ग्रन्थ का रचना-काल दसवीं शताब्दी (ईस्वी) के लगभग माना जाता है। इसमें चार परिच्छेद हैं-मित्रलाभ, सुहृद्भेद, विग्रह और सन्धि। इस ग्रन्थ को पंचतन्त्र से भी अधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई है।

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पाठ-सारांश

संजीवक का वन में छूटना- दक्षिणापथ में सुवर्ण नाम की नगरी में वर्धमाने नाम का एक व्यापारी रहता था। एक बार उसने अधिक धन कमाने के उद्देश्य से संजीवक और नन्दक नाम के दो बैलों की जोड़ी को जोड़कर गाड़ी में अनेक प्रकार के सामान भरकर कश्मीर की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में ऊबड़-खाबड़ भूमि वाले एक महावन में टाँग टूट जाने से संजीवक चलते-चलते गिर पड़ा। अनेक उपाय करने पर भी जब वह स्वस्थ न हो सका तो उसका स्वामी वर्धमान उसे वहीं छोड़कर आगे चल दिया।

पिंगलक को भय- संजीवक स्वेच्छा से उस महावन में आहार-विहार करता हुआ कुछ ही दिनों में हष्ट-पुष्ट हो गया। उसी महावन का राजा पिंगलक नाम का सिंह एक दिन यमुना के तट पर पानी पीने के लिए आया। वहाँ संजीवक की महान् गर्जना को सुनकर और भयभीत होकर बिना जल पीये ही घबराया हुआ-सा अपने स्थान पर आकर चुपचाप बैठ गया। उसके मन्त्री के ‘करटक’ और ‘दमनक नाम के दो पुत्रों ने उसे (UPBoardSolutions.com) घबराया हुआ देखकर उसकी चिन्ता का कारण जानने का विचार किया। बहुत सोच-विचार कर दमनक ने साष्टांग प्रणाम करके पिंगलक से उसकी चिन्ता का कारण पूछा। पिंगलक ने किसी बलवान् पशु की भयंकर आवाज सुनने को अपने भय का कारण बताया।

करटक और दमनक को संजीवन के पास जाना— दमनक ने पिंगलक के भय का कारण सुनकर कहा कि हे स्वामी! जब तक मैं जीवित हूँ, तब तक आपको भय नहीं करना चाहिए, लेकिन आप ‘करटक’ को भी अपने विश्वास में लीजिए, जिससे इस विपत्ति के समय में वह भी हमारा सहायक हो सके। तब करटक और दमनक दोनों ही पिंगलक के पास से सम्मानसहित विदा होकर उसके भय का प्रतिकार करने के लिए चल दिये। दमनक ने मार्ग में करटेक को बताया कि स्वामी के भय का कारण बैल का भयानक शब्द है। तब वे दोनों संजीवक के पास गये। करंटक पहले ही कहीं वृक्ष के नीचे बैठ गया था। दमनक ने संजीवक से (UPBoardSolutions.com) कहा कि मैं इस महावन के रक्षक रूप में नियुक्त किया गया हूँ। आप शीघ्र मेरे सेनापति करटक के पास जाकर प्रणाम कीजिए या वन को छोड़कर चले. जाइए। संजीवक ने डरते-डरते करटक के पास पहुँचकर उसको साष्टांग प्रणाम किया।

संजीवक और पिंगलक की मैत्री– करटक ने संजीवक से कहा कि यदि तुम्हें इस वन में रहना हो तो हमारे स्वामी पिंगलक को जाकर प्रणाम करो। वे दोनों उसे स्वामी से अभयदान का आश्वासन देकर अपने साथ पिंगलक के पास ले गये। पहले उसे कुछ दूर बैठाकर उन्होंने पिंगलक से कहा कि हे स्वामिन्! वह बहुत बलवान् है किन्तु आपसे मिलना चाहता है। उसकी स्वीकृति लेकर उन दोनों ने संजीवक को लाकर राजा से मिलवाया। संजीवक ने पिंगलक के पास जाकर उसको प्रणाम किया और तत्पश्चात् वे दोनों बड़े प्रेम से वहीं रहने लगे।

दमनक की उपेक्षा – एक दिन पिंगलक का भाई स्तब्धकर्ण वहाँ आया। उसने देखा कि करटक और दमनक दोनों अत्यधिक मनमानी करते हैं, खूब खाते हैं, मनमाना खर्च करते हैं, फेंकते भी हैं। उसने पिंगलक को समझाया कि दमनक और करटक सन्धिविग्रह के अधिकारी हैं, इन्हें खजाने (UPBoardSolutions.com) की रक्षा का काम नहीं सौंपना चाहिए। इसलिए आप संजीवक को आय-व्यय के अधिकार में लगा दीजिए। ऐसा करने पर पिंगलक और संजीवक का समय बड़े प्रेम से सुखपूर्वक बीतने लगा।

दमनक की भेद- नीति-करटक और दमनक ने स्वयं को और भाई-बन्धुओं को भोजन मिलने में शिथिलता देख विचार किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संज़ीर्वक और पिंगलक को मिलाना ही हमारी भूल थी। दमनक ने पिंगलक से कहा कि हे देव! यह संजीवक आपके प्रति दुर्भावना रखता है, वह आपका अनिष्ट करना चाहता है और आपका राज्य लेना चाहता है। सभी मन्त्रियों को त्यागकर इसे ही सब कार्यों का अधिकारी बनाना आपकी बड़ी भूल है। फिर वह संजीवक के पास जाकर बोला कि स्वामी आप पर दुष्ट भाव रखते हैं, वह आपको मारकर अपने परिवार को तृप्त करना चाहते हैं। ऐसा कहकर दमनक ने उसे अपना पराक्रम दिखाने के लिए उकसा दिया।

संजीवक का विनाश- संजीवक ने शेर का बिगड़ा रूप देखकर अपनी शक्ति के अनुसार बल प्रदर्शन किया। दोनों के युद्ध में संजीवक मारा गया। पिंगलक अपने सेवक (UPBoardSolutions.com) संजीवक को मारकर बड़ा दुःखी हुआ। उसे ‘:ख देखकर दमनक ने कहा-स्वामिन्! शत्रु को मारकर ‘सन्ताप करना उचित नहीं है। दमनक द्वारा : दये जाने पर पिंगलक धीरे-धीरे अपनी स्वाभाविक अवस्थी को प्राप्त हो गया।

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चरित्र-चित्रण

दमनक

परिचय– दमनक पिंगलक नामक सिंह के मन्त्री का पुत्र है। वह जाति से शृगाल और प्रकृति से अत्यन्त दुष्ट है। वह कुटिल, राजनीतिज्ञ, अवसरवादी एवं स्वार्थ-सिद्धि में अत्यन्त कुशल है। वह ही इस कथा का मुख्य पात्र है। उसके चरित्र की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) अवसरवादी– दमनक को अवसरवादी व्यक्ति के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वह अपने राजा का सान्निध्य प्राप्त करने के लिए कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहता। अवसर का लाभ उठाकर वह पिंगलक एवं संजीवक की मित्रता कराकर दोनों को सान्निध्य प्राप्त कर मनमानी करता है। अपनी उपेक्षा को देखकर वह संजीवक का वध करा देता है और फिर से सम्मान प्राप्त करता है।

(2) कुशल कूटनीतिज्ञ- कूटनीति में दमनक करटक की तुलना में अत्यधिक कुशल है। वह कूटनीति का सहारा लेकर और पिंगलक के भय का निवारण कर सम्मानित स्थान प्राप्त करता है। राजा द्वारा अपनी उपेक्षा किये जाने पर कूटनीतिक चाल चलकर वह पिंगलक एवं संजीवक में फूट डालकर संजीवक को मरवा देता है और अपना खोया हुआ पद पुन: प्राप्त कर लेता है।

(3) वाक्पटु एवं स्वार्थी– स्वार्थी व्यक्ति के लिए वाक्पटु होना बहुत आवश्यक है। दमनक अपनी वाक्पटुता के बल पर करटक की सहायता से अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। संजीवक और पिंगलक की मित्रता उसकी वाक्पटुता का ही परिणाम है। उसकी वाक्पटुता का ज्ञान संजीवक और पिंगलक से (UPBoardSolutions.com) की गयी अलग-अलग बातों से होता है। अपने स्वार्थ में वह इतना अन्धा है कि उसकी सिद्धि के लिए वह किसी की हत्या तक कराने में भी नहीं हिचकिचाता। वह संजीवक की अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए बलि चढ़ा देता है। उसका भाई करटक उसके स्वार्थ-पूर्ति के मार्ग में केवल उसकी बतायी गयी भूमिका में ही साधक सिद्ध होता है। |

(4) धृष्ट एवं चतुर- दमनक स्वभाव से धृष्ट एवं बुद्धि से चतुर है। बुद्धिचातुर्य के द्वारा वह संजीवक एवं पिंगलक दोनों पर अप्रत्यक्ष रूप से शासन करता है। उसकी स्वाभाविक धृष्टता की पूर्ति में उसका बुद्धिचातुर्य उसका सहायक होता है। उसकी बुद्धि की चतुरता का उदाहरण है कि वह एक ओर तो संजीवक को सिंह का भय दिखाता है तथा दूसरी ओर पिंगलक को बताता है कि वह सामान्य बैल न होकर (UPBoardSolutions.com) महादेव (शिव) का शक्तिशाली बैल है। इस प्रकार दोनों में सामंजस्य कराकर मेल करा देता है। अपने धृष्ट स्वभाव के कारण ही वह मनमानी करने लगता है और उस पर अंकुश लगाये जाने पर संजीवक एवं पिंगलक में एक-दूसरे के प्रति द्वेष की चिनगारी उत्पन्न कर देता है, यह उसकी धृष्टता का चरम-बिन्दु है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि दमनक को कुटिल राजनीतिज्ञ के रूप में चित्रित करके राजनीति की घिनौनी चालों को उजागर किया गया है।

लघु-उत्तरीय संस्कृत प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए

प्रश्‍न 1
सञ्जीवकः कः आसीत्?
उत्तर
सञ्जीवकः एकः वृषभः आसीत्।

प्रश्‍न 2
पिङ्गलकः किमर्थं पानीयमपीत्वा तूष्णीं स्थितः?
उत्तर
पिङ्गलक: सञ्जीवकस्य घोरशब्दात् भीत: सन् पानीयम् अपीत्वा तूष्णीं स्थितः।

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प्रश्‍न 3
दमनकः पिङ्गलकसमीपं गत्वा किमब्रवीत्?
उत्तर
दमनकः पिङ्गलकसमीपं गत्वा अब्रवीत् यद् उदकार्थी स्वामी पानीयम् अपीत्वा किमर्थं विस्मिता इव तिष्ठति।।

प्रश्‍न 4
स्तब्धकर्णः कः आसीतू?
उत्तर
स्तब्धकर्णः पिङ्गलकस्य भ्राता आसीत्।

प्रश्‍न 5
दमनकः सञ्जीवकसमीपं गत्वा किमब्रवीत्?
उत्तर
दमनकः सञ्जीवकसमीपं गत्वा अब्रवीत–अरे वृषभ! एषोऽहं राजा पिङ्गलकोऽ’रण्यरक्षार्थे नियुक्तः। सेनापतिः करटकः समाज्ञापयति, सत्वरमागच्छ न चेदस्मादरण्याद् दूरमपरसर अन्यथा ते विरुद्धं फलं भविष्यति।

प्रश्‍न 6
पिङ्गलक-सञ्जीवकयोयुद्धे कः केन व्यापादितः?
उत्तर
पिङ्गलक-सञ्जीवकयोयुद्धे सञ्जीवकः पिङ्गलकेन व्यापादितः। 

वस्तुनिष्ठ प्रश्‍नेवर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए

1. ‘क्षीयते खलसंसर्गात् पाठ किस ग्रन्थ से उदधृत है?
(क) “बृहत्कथामञ्जरी’ से
(ख) “हितोपदेश’ से ।
(ग) “कथासरित्सागर’ से ।
(घ) ‘पञ्चतन्त्रम्’ से

2. ‘हितोपदेश’ नामक कथा-संग्रह के लेखक हैं
(क) बाणभट्ट
(ख) नारायण पण्डित
(ग) विष्णु शर्मा
(घ) शर्ववर्मा

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3. दक्षिणापथ में कौन-सी नगरी थी?
(क) सुवर्णा नगरी
(ख) उज्जयिनी नगरी
(ग) साकेत नगरी
(घ) कौशल नगरी

4. संजीवक’ और ‘स्तब्धकर्ण’ कौन थे?
(क) सिंह और वृषभ
(ख) शृगाल और वृषभ ।
(ग) वृषभ और सिंह
(घ) दोनों शृगाल

5. वर्धमान ने संजीवक को किस वन में छोड़ा था?
(क) दण्डक नामक अरण्य में
(ख) नन्दन नामक अरण्य में
(ग) दुर्ग नामक अरण्य में।
(घ) अभयारण्य में

6. पिंगलक कौन था? उसने भयंकर आवाज किसकी सुनी थी?
(क) सिंह था, संजीवक की
(ख) वृषभ था, करटक और दमनक क्री
(ग) सिंह था, स्तब्धकर्ण की
(घ) सिंह था, नन्दक की

7. संजीवक और पिंगलक में किसने मित्रता करायी?
(क) करटक नामक शृगाले ने ।
(ख) दमनक नामक शृगाल ने
(ग) स्तब्धकर्ण नामक सिंह ने
(घ) नन्दक नामक बैल ने।

8. वर्धमान वणिक् ने संजीवक को वन में क्यों छोड़ दिया?
(क) उसे संजीवक की आवश्यकता नहीं थी
(ख) संजीवक नन्दक को मारने लगा था
(ग) वह संजीवक से छुटकारा पाना चाहता था
(घ) संजीवक को.एक पैर टूट गया था

9. पिंगलक नदी के पास जाकर बिना पानी पिये क्यों लौट आया था?
(क) क्योंकि पिंगलक को प्यास नहीं थी।
(ख) क्योंकि नदी का पानी गन्दा था
(ग) क्योंकि नदी में पानी नहीं था।
(घ) क्योंकि संजीवक को गर्जन सुनकर वह डर गया था

10. पिंगलक सिंह ने संजीवक बैल को अपना मित्र क्यों बना लिया?
(क) संजीवक के समान पिंगलक भी शाकाहारी था ।
(ख) पिंगलक को मन्त्री के रूप में बैल की ही आवश्यकता थी
(ग) पिंगलक संजीवक के अच्छे स्वास्थ्य से भयभीत था। |
(घ) पिंगलक के मन्त्री-पुत्र करटक-दमनक ने उसे सलाह दी थी

11. पिंगलक सिंह ने संजीवक बैल को अपना अर्थमन्त्री क्यों बनाया?
(क) क्योंकि संजीवक मांस नहीं खाता था।
(ख) क्योंकि स्तब्धैकर्ण ने ऐसी ही सलाह दी थी
(ग) क्योंकि पिंगलक के सभी साथी ऐसा ही चाहते थे।
(घ) क्योंकि संजीवक ने इसके लिए अनुरोध किया था

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12. पिंगलक और संजीवक में किसने युद्ध करवाया
(क) करटक ने
(ख) स्तब्धकर्ण ने
(ग) नन्दक ने
(घ) दमनक ने

13. पिंगलक ने संजीवक को क्यों मार डाला?
(क) क्योंकि पिंगलक संजीवक का मांस खाना चाहता था
(ख) संजीवक ने पिंगलक पर आक्रमण किया था।
(ग) क्योंकि पिंगलक के भाई स्तब्धकर्ण ने ऐसा करने के लिए कहा था
(घ) क्योंकि पिंगलक को विश्वास दिलाया गया था कि संजीवक तुम्हें मारना चाहता है।

14. ‘अनुजीविना कुतः कुशलम्’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) पिङ्गलकः
(ख) दमनकः  
(ग) सञ्जीवकः
(घ) करटकः

15.’•••••••••••••••• सह मम महान् सनेहः’ में रिक्त पद की पूर्ति होगी
(क) ‘सञ्जीवकः’ से
(ख) “सञ्जीवकस्य’ से
(ग) ‘सञ्जीवकेन’ से
(घ) “सञ्जीवकम्’ से

16. ‘सिंहस्य भ्राता •••••••••••••••••नामा सिंहः समागतःवाक्य में रिक्त-पद की पूर्ति होगी— 
(क) ‘दमनक’ से
(ख) “स्तब्धकर्ण’ से
(ग) “करटक’ से
(घ) “संजीवक’ से

17. देव! सञ्जीवकस्तोपर्यसदृश व्यवहारः अवलक्ष्यते।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) स्तब्धकर्णः
(ख) नन्दकः,
(ग) दमनकः
(घ) वर्धमानः

18. ‘अयं स्वामी तवोपरि विकृतबुद्धी रहस्यमुक्तवान्।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) दमनकः
(ख) करटकः
(ग) सञ्जीवकः
(घ) पिङ्गलकः

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19. ‘ततस्तयोर्युद्धे सञ्जीवकः•••••••••••••••••• व्यापादितः।’ में रिक्त पद की पूर्ति होगी
(क) ‘सिंहात्’ से
(ख) “सिंहेन’ से
(ग) “सिंहै:’ से
(घ) ‘सिंहम्’ से

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