UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 12 यक्ष-युधिष्ठिर-संलाप (पद्य-पीयूषम्)

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 12
Chapter Name यक्ष-युधिष्ठिर-संलाप (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 12 यक्ष-युधिष्ठिर-संलाप  (पद्य-पीयूषम्)

परिचय–प्रस्तुत पाठ महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित ‘महाभारत’ के वनपर्व से संगृहीत है। इन , श्लोकों में यक्ष और युधिष्ठिर के संलाप द्वारा जीवन एवं जगत् के व्यावहारिक पक्ष की मार्मिक व्याख्या की गयी है।

अपने प्रवास के समय एक बार पाँचों पाण्डव वन में थे। युधिष्ठिर को प्यास लगती है। वह सहदेव को पानी लेने के लिए जलाशय पर भेजते हैं। जलाशय में एक यक्ष था। वह पानी पीने से पूर्व अपने प्रश्न का उत्तर देने को कहता है और कहता कि यदि तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दिये बिना जल लोगे  तो मर जाओगे।” यक्ष के प्रश्नों का उत्तर न दे सकने के कारण क्रमशः सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीम उसके द्वारा मृतप्राय कर दिये जाते हैं। अन्त में युधिष्ठिर जलाशय पर आते हैं। यक्ष उन्हें भी प्रश्नों का उत्तर दिये बिना जल पीने नहीं देता है। वह उन्हें रोककर कहता है कि “यदि तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दे दोगे तो तुम जल ले सकते हो।” युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रस्ताव को स्वीकार किया और उसके द्वारा पूछे गये सभी प्रश्नों का उत्तर दिया।

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पाठ-सारांश

यक्ष-युधिष्ठिर के मध्य हुए वार्तालाप का संक्षिप्त सार इस प्रकार है|

यक्ष
भूमि से बड़ा, आकाश से ऊँचा, वायु से अधिक वेगवान् और घास से संख्या में अधिक कौन है?
युधिष्ठिर
माता भूमि से बड़ी, पिता आकाश से ऊँचा, मन वायु से अधिक वेगवान् और चिन्ता घास से संख्या में अधिक है। 

यक्ष
सोते हुए कौन पलक बन्द नहीं करता? पैदा हुआ कौन चेष्टा नहीं करता? किसके हृदय नहीं है और वेग से कौन बढ़ता है?
युधिष्ठिर
सोती हुई मछली पलक बन्द नहीं करती, पैदा हुआ अण्डा चेष्टा नहीं करता, पत्थर के – हृदय नहीं है और नदी वेग से बढ़ती है।

यक्ष
प्रवासी, गृहस्थ, रोगी और मरने वाले का मित्र कौन है?
युधिष्ठिर
प्रवासी की विद्या, गृहस्थ की पत्नी, रोगी का वैद्य और मरने वाले का मित्र दान होता ।

यक्ष
धान्यों, धनों, लाभ और सुखों में उत्तम क्या है?
युधिष्ठिर
धान्यों में कुशलता, धनों में शास्त्र-ज्ञान, लाभों में नीरोगिता, सुखों में सन्तोष उत्तम है।

यक्ष
व्यक्ति किसे छोड़कर प्रिय होता है? किसे छोड़कर शोक नहीं करता? किसे छोड़कर धनवान् और क़िसे छोड़कर सुखी होता है?
युधिष्ठिर
व्यक्ति अहंकार छोड़कर प्रिय, क्रोध छोड़कर शोकहीन, इच्छा छोड़कर धनवान् और लोभ छोड़कर सुखी होता है।

यक्ष
पुरुष, राष्ट्र, श्राद्ध और यज्ञ कैसे मृत होता है?
युधिष्ठिर
निर्धन पुरुष, राजाहीन राष्ट्र, वेदज्ञहीन श्राद्ध और दक्षिणाहीन यज्ञ मृत होता है।

यक्ष
पुरुष का दुर्जय शत्रु, अन्तहीन रोग, सज्जन और दुर्जन कौन है?
युधिष्ठिर
क्रोध दुर्जय शत्रु, लोभ अन्तहीन रोग, सर्वहितकारी सज्जन और दयाहीन दुर्जन, होता है।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

(1)
किंस्विद्गुरुतरं भूमेः किंस्विदुच्चतरं च खात्।
किंस्विच्छीघ्रतरं वायोः किंस्विबहुतरं तृणात् ॥

शब्दार्थ
यक्ष उवाच = यक्ष ने कहा।
किंस्विद् = कौन-सा।
गुरुतरम् = अधिक बड़ा, अधिक  भारी।
भूमेः = भूमि से।
उच्चतरं = अधिक ऊँचा।
खात् = आकाश से।
शीघ्रतरं = शीघ्रगामी।
बहुतरम् = संख्या में अधिक
तृणात् = तृण, घास।

सन्दर्य
प्रस्तुत श्लोक संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘यक्ष-युधिष्ठिर-संलापः’ पाठ से उधृत है।

[संकेत-पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से कुछ महान् वस्तुओं के विषय में प्रश्न पूछता है

अन्वय
भूमेः गुरुतरं किंस्विद् (अस्ति)? खात् उच्चतरं च किंस्विद् (अस्ति)? वायोः शीघ्रतरं , किंस्विद् (अस्ति)? तृणात् बहुतरं किंस्विद् (अस्ति)? | व्याख्या-यक्ष ने कहा-भूमि से अधिक भारी कौन-सी वस्तु है? आकाश से अधिक ऊँची कौन-सी वस्तु है? वायु से अधिक शीघ्रगामी कौन-सी वस्तु है? घास से संख्या में अधिक कौन-सी , वस्तु है?

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(2)
माता गुरुतरा भूमेः खात्पितोच्चतरस्तथा ।
मनः शीघ्रतरं वाताच्चिन्ता बहुतरी तृणात् ॥

शब्दार्थ
वातात् = वायु से।
बहुतरी = संख्या में अधिक।

प्रसंग
यक्ष के द्वारा पूछे गये प्रश्नों– भूमि से अधिक भारी, आकाश से अधिक ऊँची, वायु से अधिक शीघ्रगामी और घास से संख्या में अधिक कौन-सी वस्तु है—का उत्तर युधिष्ठिर इस प्रकार देते हैं ।

अन्वय
माता भूमेः गुरुतरा (अस्ति) तथा पिता खात् उच्चतरः (अस्ति)। मनः वातात् शीघ्रतरम् (अस्ति)। चिन्ता तृणात् बहुतरी (अस्ति)।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा-माता भूमि से अधिक भारी (गौरवशालिनी) है तथा पिता आकाश से अधिक ऊँचा है। मन वायु से अधिक तीव्रगामी है और चिन्ता घास से सख्या में बहुत अधिक है।

(3)
किंस्वित्सुप्तं न निमिषति किंस्विज्जातं न चेङ्गते ।
कस्यस्विदधृदयं नास्ति कास्विद्वेगेन वर्धते ॥

शब्दार्थ
सुप्तं = सोते हुए।
निमिषति = पलक गिराती है।
जातं = उत्पन्न होने पर।
इङ्गते = चेष्टा करता है।
कस्यस्विद् = किस वस्तु के।
कास्विद् = कौन-सी वस्तु।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से प्रश्न पूछता है।

अन्वय
किंस्वित् सुप्तं न निमिषति? किंस्विद् जातं न इङ्गते? कस्यस्विद् हृदयम् न अस्ति? कास्विद् वेगेन वर्धते?

व्याख्या
यक्ष ने कहा-सोती हुई कौन-सी वस्तु पलक नहीं गिराती? कौन-सी वस्तु उत्पन्न हुई चेष्टा नहीं करती? किस वस्तु के हृदय नहीं है? कौन-सी वस्तु वेग से बढ़ती है? |

(4)
मत्स्यः सुप्तो न निमिषत्यण्डं जातं न चेङ्गते ।।
अश्मनो हदयं नास्ति नदी वेगेन वर्धते ॥

शब्दार्थ
मत्स्यः = मछली।
अण्डं = अण्डा।
अश्मनः = पत्थर का।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष के प्रश्नों-सोती हुई कौन-सी वस्तु पलक नहीं गिराती, कौन-सी वस्तु उत्पन्न हुई चेष्टा नहीं करती, किस वस्तु के हृदय नहीं है तथा कौन-सी वस्तु वेग से बढ़ती है-का उत्तर युधिष्ठिर देते हैं।

अन्वय
सुप्त: मत्स्यः न निमिषति। जातम् अण्डं न च इङ्गते। अश्मनः हृदयं न अस्ति। नदी वेगेन वर्धते।।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा-सोती हुई मछली पलक नहीं गिराती है। उत्पन्न हुआ अण्डा चेष्टा नहीं करता है। पत्थर के हृदय नहीं होता है और नदी वेग से बढ़ती है।

(5)
किंस्वित्प्रवसतो मित्रं किंस्विन्मित्रं गृहे सतः ।।
आतुरस्य च किं मित्रं किंस्विन्मित्रं मरिष्यतः ॥

शब्दार्थ
प्रवसतः = विदेश में रहने वाले का।
गृहे = घर में।
आतुरस्य = रोगी का।
मरिष्यतः = मरने वाले का।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से प्रश्न पूछता है।

अन्वय
प्रवसतः किंस्वित् मित्रम् (अस्ति)? गृहे सत: किंस्वित् मित्रम् (अस्ति)? आतुरस्य च किं मित्रम् (अस्ति)? मरिष्यतः किंस्विद् मित्रम् (अस्ति)?। व्याख्या-यक्ष ने कहा-विदेश में रहने वाले का कौन मित्र है? घर में रहने वाले का कौन मित्र है? रोगी का कौन मित्र है? मरने वाले को कौन मित्र है?

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(6)
विद्या प्रवसतो मित्रं भार्या मित्रं गृहे सतः ।।

आतुरस्यभिषमित्रं दानं मित्रं मरिष्यतः ॥

शब्दार्थ
भार्या = पत्नी।
भिषक् = वैद्य।

प्रसंग
युधिष्ठिर यक्ष के मित्र सम्बन्धी प्रश्नों-विदेश में रहने वाले का, घर में रहने वाले का, रोगी का और मरते हुए का मित्र कौन होता है–का उत्तर देते हैं।

अन्वय
विद्या प्रवसतः मित्रम् (अस्ति)। गृहे सत: भार्या मित्रम् (अस्ति)। आतुरस्य भिषक् मित्रम् (अस्ति)। मरिष्यतः मित्रं दानम् (अस्ति)।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा-विद्या प्रवास में रहने वाले की मित्र होती है। घर में रहने वाले की मित्र पत्नी होती है। रोगी का मित्र वैद्य होता है और मरने वाले का मित्र दान होता है।

(7)
धान्यानामुत्तमं किंस्विद्धनानां स्यात्किमुत्तमम्। .
लाभानामुत्तमं किं स्यात्सुखानां स्यात्किमुत्तमम् ॥

शब्दार्थ
धान्यानाम् = धान्यों में।
धनानां = धनों में।
उत्तमम् = उत्तम, अच्छा।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से विभिन्न उत्तम वस्तुओं के सम्बन्ध में प्रश्न पूछता है।

अन्वय
धान्यानाम् उत्तमं किंस्विद् (अस्ति)? धनानाम् उत्तमं किं स्यात्? लाभानाम् उत्तमं किं स्यात्? सुखानाम् उत्तमं किं स्यात्? ।

व्याख्या
यक्ष ने कहा-धान्यों में उत्तम क्या है? धनों में उत्तम क्या है? लाभों में उत्तम क्या है? सुखों में उत्तम क्या है?

(8)
धान्यानामुत्तमं दाक्ष्यं धनानामुत्तमं श्रुतम्।।
लाभानां श्रेय आरोग्यं सुखानां तुष्टिरुत्तमा॥

शब्दार्थ
दाक्ष्यम् = दक्षता, कुशलता।
श्रुतम् = शास्त्र ज्ञान।
श्रेयः = श्रेष्ठ।
तुष्टिः = सन्तोष।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में युधिष्ठिर यक्ष के उत्तम वस्तु सम्बन्धी प्रश्नों-धान्यों में, धनों में, लाभों में और सुखों में उत्तम क्या है—का उत्तर देते हुए कहते हैं

अन्वय
धान्यानाम् उत्तमं दाक्ष्यम् (अस्ति)। धनानाम् उत्तमं श्रुतम् (भवति)। लाभानां श्रेयः आरोग्यम् (अस्ति)। सुखानाम् उत्तमा तुष्टिः (अस्ति)। |

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा-धान्यों में उत्तम कुशलता है। धनों में उत्तम शास्त्र-ज्ञान है। लाभों में श्रेष्ठ नीरोगिता (आरोग्यता) है। सुखों में उत्तम सन्तोष है।

(9)
किं नु हित्वा प्रियो भवति किं नु हित्वा न शोचति।
किं नु हित्वाऽर्थवान्भवति किं नु हित्वा सुखी भवेत् ॥

शब्दार्थ
किं नु = किसे, क्या।
हित्वा = छोड़कर।
शोचति = शोक करता है।
अर्थवान् = धनवान्।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से हितकारी त्याग के विषय में प्रश्न पूछता है।

अन्वये
(नरः) किं नु हित्वा प्रियः भवति? किं नु हित्वा न शोचति? किं नु हित्वा अर्थवान् भवति? किं नु हित्वा सुखी भवेत्? | व्याख्या—यक्ष ने कहा—मनुष्य क्या चीज छोड़करे प्रिय होता है? किस वस्तु को छोड़कर शोक नहीं करता है ? क्या छोड़कर धनवान् होता है? क्यों छोड़कर सुखी होता है? |

(10)
मानं हित्वा प्रियो भवति क्रोधं हित्वा न शोचति ।
कामं हित्वाऽर्थवान्भवति लोभं हित्वा सुखी भवेत् ॥

राख्दार्थ
मानम् = अहंकार को।
कामम् = इच्छा को। |

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में युधिष्ठिर यक्ष के त्याग सम्बन्धी प्रश्नों—मनुष्य क्या छोड़कर प्रिय होता है, किस वस्तु को छोड़कर शोक नहीं करता, क्या छोड़कर धनवान् होता है तथा क्या छोड़कर सुखी होता है–का उत्तर दे रहे हैं।

अन्वये
(नरः) मानं हित्वा प्रियः भवति। क्रोधं हित्वा न शोचति। कामं हित्वा अर्थवान् भवति। लोभं हित्वा सुखी भवेत्।।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा–(मनुष्य) अहंकार को छोड़कर प्रिय होता है। क्रोध को छोड़कर शोक नहीं करता है। इच्छा को छोड़कर धनवान् होता है। लोभ को छोड़कर सुखी होता है।

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(11)
मृतः कथं स्यात्पुरुषः कथं राष्ट्रं मृतं भवेत् ।।
आद्धं मृतं वा स्यात्कथं यज्ञो मृतो भवेत् ॥

राख्दार्थ-
मृतः = मरा हुआ।
आद्धं = पितरों के लिए किया गया पिण्डदानादि कर्म।
यज्ञ = देव-पूजन, यजन-कर्म।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से कुछ मृत वस्तुओं के विषय में प्रश्न पूछता है।

अन्वय
पुरुषः कथं मृत: स्यात्? राष्ट्रं कथं मृतं भवेत्? श्राद्धं कथं वा मृतम् स्यात? यज्ञः कथं मृत: भवेत्?

व्याख्या
यक्ष ने कहा-पुरुष कैसे मृत होता है? राष्ट्र कैसे मृत होता है? श्राद्ध कैसे मृत होता है? यज्ञ कैसे मृत होता है? |

(12)
मृतो दरिद्रः पुरुषो मृतं राष्ट्रमराजकम्।
मृतमश्रोत्रियं श्राद्धं मृतो यज्ञस्त्वदक्षिणः ॥

शब्दार्थ
दरिद्रः = निर्धन।
अराजकम् = राजा के बिना।
अश्रोत्रियम् = वेदज्ञ विद्वान् से रहित।
अदक्षिणः = दक्षिणा से रहित।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में युधिष्ठिर यक्ष के मृत वस्तु सम्बन्धी प्रश्नों—पुरुष, राष्ट्र, श्राद्ध, यज्ञ कैसे मृत होता है के उत्तर देते हैं।

अन्वय
दरिद्रः पुरुषः मृतः (भवति)। अराजकं राष्ट्रं मृतं (भवति)। अश्रोत्रियं श्राद्धं मृतं  (भवति)। अदक्षिणः तु यज्ञः मृतः (भवति)।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा-दरिद्र पुरुष मृत होता है। राजारहित राष्ट्र मृत होता है। वेद-ज्ञाता विद्वान् से रहित श्राद्ध मृत होता है; दक्षिणारहित यज्ञ मृत होता है अर्थात् बिना दक्षिणा दिये यज्ञ का कोई महत्त्व नहीं होता।

(13)
कः शत्रुर्दुर्जयः पुंसां कश्च व्याधिरनन्तकः।
कीदृशश्च स्मृतः साधुरसाधुः कीदृशः स्मृतः ॥

शब्दार्थ
कः = कौन।
दुर्जयः = जो कठिनाई से जीता जा सके।
पुंसाम् = पुरुषों के लिए।
व्याधिः = रोग।
अनन्तकः = अन्तहीन।
कीदृशः = कैसा।
स्मृतः = माना गया है।
साधुः = सज्जन।
असाधुः = दुर्जन।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से शत्रु, रोग और सज्जन-दुर्जन के विषय में प्रश्न पूछता है।

अन्वय
पुंसां दुर्जयः शत्रुः कः (अस्ति)?”अनन्तकः व्याधिः च कः (अस्ति)? साधुः च कीदृशः स्मृतः? असाधुः कीदृशः स्मृतः? । |

व्याख्या
यक्ष ने कहा-पुरुषों के लिए कठिनाई से जीतने योग्य शत्रु कौन-सा है? अन्तहीन रोग कौन-सा है? सज्जन कैसा माना गया है? दुर्जन कैसा माना गया है?

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(14)
क्रोधः सुदुर्जयः शत्रुभो व्याधिरनन्तकः ।।
सर्वभूतहितः ‘ साधुरसाधुर्निर्दयः स्मृतः ॥

शब्दार्थ
संर्वभूतहितः = सब प्राणियों का हित करने वाला।
निर्दयः = दयाहीन।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में युधिष्ठिर यक्ष के–शत्रु, रोग और सज्ज़न-दुर्जन सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर देते हैं।

अन्वय
क्रोधः सुदुर्जयः शत्रुः (अस्ति)। लोभः अनन्तकः व्याधिः (अस्ति)। साधुः  सर्वभूतहितः स्मृतः। असाधुः निर्दयः (स्मृतः)।।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा–क्रोध अत्यन्त कठिनाई से जीतने योग्य शत्रु होता है। लोभ अन्तहीन रोग है। साधु सब प्राणियों का हित करने वाला माना गया है। दुर्जन दयाहीन माना गया है।

सूक्तिपरक वाक्य की व्याख्या

(1) माता गुरुतरा भूमेः खात्पितोच्चतरस्तथा।।

सन्दर्य
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘यक्ष-युधिष्ठिरसंलापः’ नामक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत-इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

फ्संग
प्रस्तुत सूक्ति में माता-पिता के स्थान को सर्वोच्च बताया गया है।

अर्थ
माता भूमि से बड़ी और पिता आकाश से ऊँचा है।

व्याख्या
धरती माता की तरह ही अनेक वनस्पतियों तथा दूसरे जीवों को जन्म देती है। वह माता की तरह ही अपने अन्न-जल और वायु से उनका पोषण करती है। लेकिन धरती अपनी इन

सन्तानों पर कष्ट आने पर उनके कष्ट स्वयं नहीं ले लेती और न ही उन्हें दूर करने का कोई प्रयास करती है। जब कि माता अपनी सन्तानों के दु:ख अपने ऊपर ले लेती है और कभी-कभी तो उनके दुःखों को दूर करने के लिए अपने प्राणों तक को न्योछावर कर देती है। निश्चित ही वह भूमि से बड़ी है।

आकाश सबसे ऊँचा है, उसकी ऊँचाई अनन्त है। वह किसी को अपने से ऊँचा निकलने का अवसर नहीं देता। वह किसी को ऊँचा उठाने के लिए स्वयं नीचा नहीं हो जाता। जब कि पिता अपनी सन्तानों को अनन्त ऊँचाइयों तक ऊँचा उठाना चाहता है, इसके लिए वह स्वयं झुक जाता है तथा अपने

अस्तित्व तक को दाँव पर लगा देता है। वह अपने बलिदान से अपनी सन्तानों को ऊँचा उठाने का हर ‘सम्भव प्रयत्न करता है, यही कारण है उसे आकाश से भी ऊँची कहा गया है। ”

(2)

आतुरस्य भिषङिमत्रं दानं मित्रं मरिष्यतः।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में रोगी तथा मृतप्राय व्यक्ति के मित्र के विषय में बताया गया है।

अर्थ
रोगी का मित्र वैद्य तथा मरते हुए का मित्र दान होता है।

व्याख्या
व्यक्ति को जो कष्टों से बचाये, वही सच्चा मित्र कहलाता है। रोगी व्यक्ति को चिकित्सक ही उसके रोग के कष्टों से मुक्ति दिला सकता है और मरते हुए व्यक्ति को दान ही यों के कष्टों से मुक्ति दिलाता है। इसीलिए वैद्य (चिकित्सक) को रोगी को तथा दान को मरने वाले का मित्र बताया गया है। कालिदास ने ‘रघुवंशम्’ महाकाव्य में लिखा है कि ‘लोकान्तर सुखं पुण्यं तपोदानसमुद्भवम्।’ अर्थात् तप और दान के पुण्यस्वरूप सुख परलोक में ही प्राप्त होता है।

(3)
मृतो दरिद्रः पुरुषो मृतं राष्ट्रमराजकम्।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में दरिद्र पुरुष और राजाहीन राष्ट्र की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ
दरिद्र पुरुष मृत होता है। राजारहित राष्ट्र मृत होता है।

व्याख्या
दरिद्र व्यक्तिं सदैव अभावों का जीवन जीता है। धन के अभाव में वह अपनी किसी भी आशा को फलित होते हुए, नहीं देख पाता, जिससे उसका जीवन निराशा से भर जाता है, उसके जीवन का उत्साह समाप्त हो आता है, उसकी संवेदना मर जाती है। संवेदनाहीन व्यक्ति मरे हुए के समान ही होता है। इसीलिए दरिद्र पुरुष को मृत उचित ही कहा गया है। | जिस राष्ट्र का कोई राजा नहीं होता, उस पर पड़ोसी राजा अपना अधिकार करके उसे अपने राज्य में मिला लेता है और उस राष्ट्र का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। अस्तित्वहीनता ही मृत्यु है; अत: वास्तव में राजारहित राष्ट्र मृत ही होता है। तात्पर्य यह है कि राजा के अभाव में राष्ट्र की कल्पना ही निरर्थक है।

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(4)
सर्वभूतहितः साधुरसाधुर्निर्दयः स्मृतः।

प्रसंग
सज्जन और दुर्जन के स्वभावों के अन्तर को प्रस्तुत सूक्ति में स्पष्ट किया गया है।

अर्थ
साधु (सज्जन) समस्त प्राणियों का हित करने वाला माना गया है। असाधु (दुर्जन) दयाहीन माना गया है।

व्याख्या
सज्जन व्यक्ति संसार के समस्त अच्छे-बुरे प्राणियों का हित चाहने वाले होते हैं। उनके मन में यह भावना कभी नहीं आती कि यह प्राणी बुरी है अथवा इसने उनको हानि पहुँचायी थी; अतः उनका हित नहीं किया जाना चाहिए। वे सभी का समानभाव से हित-साधन करते हैं, भले ही वह प्राणी अच्छा हो अथवा बुरा

सज्जनों की इस प्रवृत्ति के विपरीत दुर्जन संसार के अच्छे तथा बुरे सभी प्राणियों को निर्दयतापूर्वक कष्ट देते हैं। किसी की दीन-हीन दशा को देखकरे भी उनके मन में दया नहीं उपजती। दूसरों की पीड़ा में उन्हें आनन्द आता है। वे ऐसे व्यक्ति के दुःख को देखकर भी नहीं पिघलते, जिसने कभी उन पर उपकार किया हो। इसीलिए सज्जनों को सबका हित करने वाला और दुष्टों को निर्दयी माना जाता है।

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) माता गुरुतरा ••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••वृणात् ॥(श्लोक 2)
संस्कृतार्थः-
अस्मिन् श्लोके महाराजः युधिष्ठिरः कथयति–“जननी पृथिव्याः श्रेष्ठा भवति, जनकः आकाशात् उच्चतरः अस्ति। मनः वायोः अपि शीघ्रगामी भवति। चिन्ता च तृणेभ्यः अपि भूयसी भवति।”

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