Class 9 Sanskrit Chapter 3 UP Board Solutions आदिकविः वाल्मीकिः Question Answer

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Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 5
Chapter Name आदिकविः वाल्मीकिः (गद्य – भारती)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 3 Adikavi Valmiki Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 3 हिंदी अनुवाद आदिकविः वाल्मीकिः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांशु

पूर्व जीवन-संस्कृत के आदिकवि वाल्मीकि हैं। इन्होंने भगवान् राम का लोक-कल्याणकारी चरित्र काव्य रूप में लिखा। राम का जीवन-चरित्र हमारे देश और संस्कृति का प्राण है। वाल्मीकि द्वारा लिखित ‘रामायण’ को संस्कृत का आदिकाव्य माना जाता है।

‘स्कन्दपुराण’ और ‘अध्यात्मरामायण के अनुसार, इनका नाम अग्निशर्मा था तथा ये जाति के ब्राह्मण थे। पूर्व जन्म के कर्मफल स्वरूप ये वन में पथिकों का धन लूटकर जीविका चलाते थे और धन न मिलने पर हत्या करने में भी संकोच नहीं करते थे।

एक बार इन्होंने वन-पथ पर आते हुए एक मुनि को देखा और कड़े स्वर में उससे कहा-“जो कुछ तुम्हारे पास है, सब मुझे दे दो।’ मुनि ने कहा-“मेरे पास कुछ नहीं है, परन्तु तुम इस पापकर्म को क्यों करते हो? इस लूटे गये धन से तुम जिन परिवार वालों का पालन करते हो, क्या वे तुम्हारे (UPBoardSolutions.com) पापकर्म के फल में भी सहभागी होंगे?’ वाल्मीकि ने मुनि के इस प्रश्न का उत्तर परिवार वालों से पूछकर देने के लिए कहा और मुनि को रस्सियों से बाँधकर परिवारजनों से पूछने के लिए चले गये। .
उनके कुटुम्बी उनके प्रश्न को सुनकर क्रुद्ध हुए और बोले-“हमने तुम्हें पापकर्म करने के लिए : नहीं कहा; अत: हम तुम्हारे पाप के फल के भागीदार नहीं होंगे।”

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हृदय-परिवर्तन-परिवारजनों को उत्तर सुनकर वाल्मीकि बहुत दु:खी हुए। उनके शोक को दूर करने के लिए मुनि ने इन्हें ‘राम’ का नाम जपने का उपदेश दिया, परन्तु अपने हिंसक स्वभाव के कारण वे ‘मरा-मरा’ जपने लगे। इस प्रकार वर्षों तक इन्होंने इतना कठोर तप किया कि इनके शरीर के आसपास दीमकों की बॉबी बेने गयी और उसकी मिट्टी से इनका सारा शरीर ढक गया। एक समय वरुणदेव के द्वारा निरन्तर वर्षा (UPBoardSolutions.com) से इनके शरीर से वह मिट्टी बह गयी और ये आँखें खोलकर छठ खड़े हुए। दीमकों की मिट्टी अर्थात् ‘वल्मीक’ से प्रकट होने के कारण ये ‘वाल्मीकि’ नाम से प्रसिद्ध हुए। वरुण का एक अन्य नाम प्रचेता भी है। “प्रचेतसा उत्थापितः इति प्राचेतसः’ इस कारण वरुणदेव के द्वारा मिट्टी बहाये जाने के कारण ये ‘प्रचेतस्‘ कहलाये।

आदिकविता–एक बार वाल्मीकि ने ब्रह्मर्षि नारद से भगवान् राम का कल्याणकारी चरित्र सुना और उसे काव्यबद्ध करने की इच्छा की। इसके बाद किसी दिन ये मध्याह्न-स्नान के लिए तमसा नदी के तट पर गये हुए थे। वहाँ इन्होंने एक क्रौञ्च युगल को प्रेम-क्रीड़ा करते हुए देखा। उनके देखते-ही-देखते एक शिकारी ने उसमें से नरक्रौञ्चे को बाण से घायल कर दिया। खून से लथपथ, पृथ्वी पर धूल-धूसरित होते क्रौञ्च को (UPBoardSolutions.com) देखकर क्रौञ्ची करुण विलाप करने लगी। क्रौञ्ची के करुण विलाप को सुनकर मुनि का हृदय शोक से द्रवित हो गया और उनके हृदय से शिकारी के प्रति श्राप रूप में ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः’ छन्द फूट पड़ा। यही छन्द संस्कृत की पहली कविता अथवा पहला
छन्द बना।।

रामायण की रचना-श्राप रूप में श्लोक के निकलते ही महामुनि के हृदय में महती चिन्ता हुई। तब ब्रह्माजी ने इनके पास आकर कहा-“श्लोक बोलते हुए आपने दुःखियों पर दया करने के धर्म का पालन किया है। अब सरस्वती की आप पर कृपा हुई है। अब आप नारदजी से सुने अनुसार भगवान् राम के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन करें। मेरी कृपा से आपको सम्पूर्ण रामचरित स्मरण हो जाएगा।” ऐसा कहकर ब्रह्मा अन्तर्धान हो गये। तब वाल्मीकि ने सात काण्डों में आदिकाव्य रामायण की रचना की। इनके दो आश्रम थे-एक चित्रकूट में और दूसरा ब्रह्मावर्त (बिठूर) में। यहीं पर लव और कुश का जन्म हुआ था।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) संस्कृतवाङ्मयस्यादिकविः महामुनिः वाल्मीकिरिति सर्वैः विद्वद्भिः स्वीक्रियते। महामुनिना रम्यारामायणी-कथा स्वरचिते काव्यग्रन्थे निबद्धा। भगवतो रामस्य चरितमस्माकं देशस्य (UPBoardSolutions.com) संस्कृतेश्च प्राणभूतं तिष्ठति। वस्तुतस्तु, महामुनेः वाल्मीकेरेवैतन्माहात्म्यमस्ति। यत्तेन रामस्य लोककल्याणकारकं रम्यादर्शभूतं रूपं जनानां समक्षमुपस्थापितम्। वयं च तेन रामं ज्ञातुं अभूम।।

शाब्दार्थ-
वाङ्मय = साहित्य स्वीक्रियते = स्वीकार किया जाता है।
रम्या = सुन्दर।
निबद्धा = गुंथी हुई है।
प्राणभूतम् = प्राणस्वरूप।
वस्तुतस्तु = वास्तव में।
वाल्मीकेरेवैतन्माहात्म्यमस्ति (वाल्मीकेः + एव + एतत् + माहात्म्यम् + अस्ति) = वाल्मीकि का ही यह माहात्म्य है।
आदर्शभूतम् = आदर्शस्वरूप।
उपस्थापितम् = उपस्थित किया गया।
ज्ञातुं अभूम = जानने में समर्थ हुए।

सन्दर्थ
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘आदिकविः वाल्मीकिः’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

संकेत
इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।] ।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में आदिकवि वाल्मीकि की यशः कीर्ति पर प्रकाश डाला गया है।

अनुवाद
सभी विद्वान् यह स्वीकार करते हैं कि महामुनि वाल्मीकि संस्कृत-साहित्य के आदिकवि हैं। महामुनि ने रामायण की सुन्दर कथा को अपने द्वारा रचित काव्यग्रन्थ मे गुँथा है। भगवान् राम का चरित हमारे देश की संस्कृति का प्राणस्वरूप है। वास्तव में महामुनि वाल्मीकि का ही यह माहात्म्य है कि उन्होंने राम का लोक कल्याणकारी, सुन्दर, आदर्शभूत स्वरूप लोगों के सामने उपस्थित किया (रखा) और उससे हम राम को जानने में समर्थ हुए। .

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(2) स्कन्दपुराणाध्यात्मपरामायणयोरनुसारात् अयं ब्राह्मणजातीयः अग्निशर्मा- भिधश्चासीत्। पूर्वजन्मनः विपाकात् परधनलुण्ठनमेवास्य कर्माभूत्। वनान्तरे पथिकानां धनलुण्ठनमेव तस्य जीविकासाधनमासीत्। लुण्ठनव्यापारे, संशयश्चेत् प्राणघातेऽपि स सङ्कोचं नाऽकरोत्। इत्थं हिंसाकर्मणि लिप्तः एकदा वनपथे पथिकमाकुलतया प्रतीक्षमाणोऽसौ । मुनिवरमेकमागच्छन्तमपश्यत्, दृष्ट्वा च हर्षेण प्रफुल्लो जातः। समीपमागते मुनिवरे रक्ते । अक्षिणी श्रीमयन् भीमेन रवेण तमवोचत् यत्किञ्चित्तवास्ति तत्सर्वं मह्यं देहि नो चेत्तव (UPBoardSolutions.com) प्राणसंशयों भविष्यति। मुनिना प्रत्युक्तं, लुण्ठक! मत्पाश्र्वे तु किञ्चिदपि नास्ति, परं त्वां पृच्छामि किं करोषि लुण्ठितेन धनेन? इदं पापकर्म किमिति न जानासि? जानामि, तथापि करोमि। लुण्ठितेन धनेन परिवारजनस्य पोषणरूपं महत्कार्यं करोमीति तेनोक्तम्। मुनिः पुनरपृच्छत्-. पापकर्मणार्जितेन वित्तेन पोषितास्तव परिवारसदस्याः किं तव पापकर्मण्यपि सहभागिनः। स्युरिति। सोऽवोचत् वक्तुं न शक्नोमि परं तान् पृष्ट्वा वदिष्यामि। त्वं तावदत्रैव विरम यावदहं तान् सम्पृच्छ्यागच्छामि। इत्युक्त्वा तं मुनिवरं रज्जुभिः दृढं बद्ध्वा स्वकुटुम्बिनः प्रष्टुं जगाम।

शाब्दार्थ-
अनुसारोत् = अनुसार।
अभिधः = नाम वाला।
विपाकात् = फल या परिपाक, दुष्परिणाम से।
लुण्ठनम् = लूटना।
प्राणघातेऽपि = प्राणनाश में भी।
लिप्तः = लगा हुआ।
प्रतीक्षमाणः = प्रतीक्षा करता हुआ।
मुनिवरमेकमागच्छन्तमपश्यत् (मुनिवरम् + एकम् + आगच्छन्तम् + अपश्यत्) = एक श्रेष्ठ मुनि को आता हुआ देखा।
प्रफुल्लः = प्रसन्न।
रक्ते अक्षिणी = लाल-लाल आँखें।
भ्रामयन् = घुमाता हुआ।
भीमेन रवेण = भयंकर आवाज से।
प्रत्युक्तम् (प्रति + उक्तम्) = उत्तर दिया। लुण्ठक = हे लुटेरे!
सहभागिनः = साथ में भाग लेने वाले अर्थात् हिस्सेदार।
विरम = ठहर। सम्पृच्छ्यागच्छामि (सम्पृच्छ्य + आगच्छामि) = पूछकर आता हूँ।
रज्जुभिः = रस्सियों से।
प्रष्टुम् = पूछने के लिए।
जगाम = चला गया।

प्रसंग
इस गद्यांश में वाल्मीकि के आपराधिक जीवन पर प्रकाश डाला गया है।

अनुवाद
ये वाल्मीकि स्कन्द पुराण और अध्यात्म रामायण के अनुसार ब्राह्मण जाति के थे और इनका नाम अग्निशर्मा था। पूर्व जन्म के परिपाक (फल) से दूसरों के धन को लूटना ही इनका कर्म था। वन के मध्य में पथिकों का धन लूटना ही उनकी जीविका का साधन था। यदि लूटने के काम में सन्देह हो तो वे हत्या करने में भी संकोच नहीं करते थे। इस प्रकार हिंसा के काम में लगे हुए एक बार वन के पथ पर राहगीर की बेचैनी से प्रतीक्षा करते हुए उन्होंने एक मुनिवर को आते हुए देखा और देखकर हर्ष से खिल उठे। मुनिवर के पास आने पर लाल-लाल नेत्रों को घुमाते हुए भयंकर स्वर में उनसे बोले—“जो कुछ तुम्हारे पास है वह सब मुझे दो, नहीं तो तुम्हारे प्राणों का संकट होगा।” मुनि ने उत्तर दिया-“लुटेरे! मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, परन्तु तुमसे पूछता हूँ-“लूटे हुए धन से तुम क्या करते हो? (UPBoardSolutions.com) यह पाप का कर्म है, क्या तुम यह नहीं जानते हो?” “ज्ञानता हूँ तो भी करता हूँ। लूटे हुए धन से मैं परिवार वालों का पालन रूप महान् कार्य करता हूँ।” ऐसा उससे (मुनि से) कहा। मुनि ने फिर पूछा-‘पापकर्म से कमाये गये धन से पाले हुए तुम्हारे परिवार के सदस्य क्या तुम्हारे पापकर्म में भी हिस्सेदार होंगे?” वह बोला-“कह नहीं सकता, परन्तु उनसे पूछकर बताऊँगा। तुम तब तक यहीं रुको, जब तक मै उनसे पूछकर आता हूँ।” यह कहकर उस मुनिवर को रस्सियों से कसकर बाँधकर अपने कुंटुम्बियों से पूछने चले गये।

(3) अथ तस्य कुटुम्बिनः तस्य प्रश्नं श्रुत्वा भृशं चुकुपुरूचुश्च कथं वयं तव पापकर्माणि | सहभागिनो भवेम? वयं किं जानीमहे त्वं किं करोषि कया वा रीत्या धनार्जनं विदधासि? नास्माभिः तवं पापकर्म कर्तुमादिष्टः।

तेषां स्वपरिवारजनानामुत्तरमाकर्त्य सोऽतीव विषण्णोऽभवत्। द्रुतं मुनिवरमुपगम्य सर्वं च तत्परिवारजनोख्यातमसावभाषत। परं निर्विण्णं तं मुनिः तस्य हृदयशोकशमनाय ‘राम’ इति जप्तुमुपादिशत्। ‘राम’ इति समुच्चारेणऽक्षमः स्ववृत्त्यनुसारं ‘मरा’ इत्येव जप्तुमारभत। इत्थमसौ बहुवर्षाणि यावत् समाधौ लीनः तीव्र तपश्चचार। तपसि रतस्य तस्य शरीरं वल्मीकमृत्तिकाभिः आवृत्तं जातम्। अथ कदाचित् प्रचेतसा निरन्तरजलधारया तस्य शरीरात् वल्मीकमृत्तिक परिस्राविता अभवन्। (UPBoardSolutions.com) मृत्तिकाभिः तिरोहितं तस्य शरीरं पुनः प्रकटितम्। ततो मुनिभिः स संस्तुतोऽभ्यर्थितश्च चक्षुषी उन्मील्योदतिष्ठत्। वल्मीकात् प्रोद्भूतत्वाद् वाल्मीकिरिति, प्रचेतसा जलधारया मृत्तिकायाः परित्रुतत्वाद् प्रचेतस इति तस्य नामद्वयं जातम्।रामायणे मुनिना स्वपितुः
नाम प्रचेताः तस्य दशमः पुत्रोऽहमित्त्थमुल्लिलेखे। यथा च–’प्रचेतसोऽहं दशमः पुत्रो.. राघवनन्दन।’

शब्दार्थ-
भृशम् = बहुत। चुकुपुरूचुश्च (चुकुपः + ऊचुः + च). = क्रोधित हुए और बोले।
विदधासि = करते हो।
आदिष्टः = आदेश दिया, कहा।
विषण्णः = उदास, दु:खी।
द्रुतं = शीघ्र।
शोकशमनाय = दु:ख की शान्ति के लिए।
निर्विण्णं = दु:खी।
अक्षमः = असमर्थ स्ववृत्त्यनुसारम् = अपने स्वभाव के अनुसार।
जप्तुमारभत = जपना आरम्भ कर दिया।
इत्थं = इस प्रकार।
तपश्चचारः (तपः + चचारः) = तप करता रहा।
आवृत्तं जातम् = ढक गया।
प्रचेतसा = वरुण देव के द्वारा।
परिस्राविता अभवन् = धुल गयी, गीली होकर बह गयी।
तिरोहितम् = छिपा हुआ।
उन्मल्योदतिष्ठत (उन्मील्य + उत् + अतिष्ठत्) = खोलकर उठ बैठे।
प्रोद्भूतत्वात् = प्रकट होने के कारण।
परिवृतत्वाद = बहाये जाने के कारण से।
स्वपितुः = अपने पिता का।
वल्मीकमृत्तिकाभिः = दीमक की मिट्टी से।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में अग्निशर्मा के तपस्या करने एवं वाल्मीकि तथा प्राचेतस ये दो नाम धारण करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
इसके बाद उनके कुटुम्बी उनके प्रश्न को सुनकर अत्यन्त क्रुद्ध हुए और बोले-“हम तुम्हारे पाप कर्म में क्यों हिस्सेदार होंगे? हम क्या जानें, तुम क्या करते हो अथवा किसी रीति से धन कमाते हो? हमने तुम्हें पाप कर्म करने को नहीं कहा था।” .. उन अपने परिवार के लोगों के उत्तर को सुनकर वह अत्यन्त दुःखी हुआ। शीघ्र ही मुनिवर के पास आकर उसने परिवारजनों का कहा हुआ वह सब बता दिया। अत्यन्त दु:खी हुए उससे (अग्निशर्मा से) मुनि ने उसके हृदय के शोक को शान्त करने के लिए ‘राम’ जपने का उपदेश दिया। ‘राम’ शब्द के उच्चारण में असमर्थ उसने अपने स्वभाव के अनुसार ‘मरा’ जपना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार उन्होंने बहुत वर्षों तक समाधि में लीन होकर कठोर तप किया। तप में लीन उनका शरीर दीमकों की मिट्टी से ढक गया। इसके बाद किसी (UPBoardSolutions.com) समय वरुण के द्वारा लगातार जल की धारा से उनके शरीर से दीमकों की मिट्टी धूल गयी (बह गयी) और मिट्टी से छिपा हुआ उनका शरीर पुनः प्रकट हो गया। तब मुनियों ने उनकी स्तुति और पूजा की तथा वे आँखें खोलकर उठ बैठे। दीमकों की मिट्टी से निकलने के कारण ‘वाल्मीकि’, प्रचेता (वरुण) के द्वारा जलधारा से मिट्टी के धुल जाने के कारण ‘प्रचेतस’ इसे प्रकार उनके दो नाम हो गये। रामायण (उत्तरकाण्ड) में मुनि (वाल्मीकि) ने अपने पिता का नाम ‘प्रचेता “मैं उसका दसवाँ पुत्र” ऐसा लिखा है। जैसे-“हे राघव पुत्र! मैं प्रचेता का दसवाँ पुत्र हूँ।”

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(4) अथ कदाचित् सः ब्रह्मर्षेः नारदात् भगवतो रामस्य लोककल्याणकरं वृत्तं शुश्राव। तदाप्रभृत्येव रामचरितं काव्यबद्धं कर्तुमाकाङ्क्षते स्म। अथैकदा महर्षिः माध्यन्दिनसंवनाय प्रयागमण्डलान्तर्गतां तमसानदीं गच्छन्नासीत्। तत्र वनश्रियं निरीक्षमाणो महामुनिः स्वच्छन्दं विरचत् कौञ्चमिथुनमेकमपश्यत्। पश्यत एव तस्य कश्चित् पापनिश्चयो व्याधः तस्मान् मिथुनादेकं बाणेन विजघानां बाणेन विद्धं महीतले लुण्ठन्तं (UPBoardSolutions.com) शोणितपरीताङ्गं तं विलोक्य क्रौञ्ची करुणया गिरा रुराव। क्रौञ्च्याः करुणारावं आवं आवं मुनिहृदयालीनः शोकानलपरिद्रुतः करुणरसः श्लोकच्छलाद् हृदयादेवं निर्गतोऽभवत्

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥

शब्दार्थ-
लोककल्याणकरम् = संसार का कल्याण करने वाला।
वृत्तम् = चरित्र।
आकाङ्क्षते स्म = इच्छा की।
माध्यन्दिनसवनाय = दोपहर के स्नान के लिए।
विचरत् = विचरण करते हुए।
मिथुनं = जोड़े को।
पापनिश्चयः = पापी।
व्याधः = शिकारी।
विजेघान = मार दिया।
लुण्ठन्तम् = लेटते हुए।
शोणितपरीताङ्गम् = खून से लथपथ शरीर वाले।
गिरा = वाणी से।
रुराव = रोने लगी।
करुणरवं = दु:खपूर्ण रुदन को।
श्रावं आवम् = सुन-सुनकर।
शोकानलः= शोक रूपी अग्नि।
परिद्रुतः = भड़क उठी।
निषाद = शिकारी।
शाश्वतीः समाः = चिरकाल तक।
अवधीः = मार, डाला।
काममोहितम् = काम से मुग्ध होने वाले को।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में क्रौञ्च के जोड़े में से नर क्रौञ्च को शिकारी के द्वारा मारे जाते देखकर वाल्मीकि के हृदय से छन्द फूट पड़ने का वर्णन है। यही छन्द आदि कविता कहलाया।

अनुवाद
इसके बाद कभी उन्होंने (वाल्मीकि ने) ब्रह्मर्षि नारद से भगवान् राम का लोक-कल्याणकारी चरित्र सुना। तब से ही उन्होंने राम के चरित्र को काव्यबद्ध करने की इच्छा की थी।
इसके बाद एक दिन महर्षि दोपहर के स्नान के लिए प्रयागमण्डल के अन्तर्गत तमसा नदी पर गये हुए। थे। वहाँ वन की शोभा को देखते हुए महामुनि ने स्वच्छन्द घूमते हुए एक कौञ्च पक्षी-युगल को देखा। उनके देखते हुए ही किसी पापपूर्ण निश्चय वाले शिकारी ने उस जोड़े में से एक को बाण (UPBoardSolutions.com) से मार दिया। बाण से बिंधे, भूमि पर गिरे हुए, खून से लथपथ शरीर वाले उसे देखकर क्रौञ्ची (चकवी) ने करुण वाणी से रुदन किया। क्रौञ्ची के करुण-विलाप को सुन-सुनकर मुनि के हृदय में छिपी शोकाग्नि से पिघला हुआ करुण रस श्लोक के बहाने से हृदय से इस प्रकार निकल पड़ा

“हे निषाद! तू चिरकाल तक रहने वाली स्थिति (सुख) को मत प्राप्त कर; क्योंकि तूने क्रौञ्च के जोड़े में से काम से मुग्ध अर्थात् काम-क्रीड़ा में रत एक(नर क्रौञ्च ) को मार डाला।”

(5) श्लोकोऽयमाम्नायादन्यत्र छन्दसां नूतनोऽवतार आसीत्। एवं बुवतस्तस्य हृदि महती चिन्ता बभूव-अहो! शकुनिशोकपीडितेन मया किमिदं व्याहृतम्। अत्रान्तरे, वेदमूर्तिश्चतुर्मुखो भगवान् ब्रह्मा महामुनिमुपगम्य सस्मितमुवाच महामुने, आपन्नानुकम्पनं हि महतां सहजो धर्मः। श्लोकं ब्रुवता त्वया त्वेष एवं धर्मः पालितः। तन्नात्र विचारणा कार्या। सरस्वती मच्छन्दादेव त्वयि प्रवृत्ता। साम्प्रतं यथा नारदाच्छूतं तथा त्वं श्रीमद्भगवतो रामचन्द्रस्य कृत्स्नं चरितं वर्णय। मत्प्रसादात् निखिलं च रामचरितं तव विदितं भविष्यति। किं बहुना, यावन्महीतले गिरिसरित्समुद्राः स्थास्यन्ति तावल्लोके रामायणकथा ‘प्रचलिष्यतीत्यादिश्य (UPBoardSolutions.com) भगवानब्जयोनिरन्तर्हितोऽभवत्। ततो योगबलेन नारदोक्तं समग्रं रामचरितमधिगम्य गङ्गातमसयोरन्तराले तटे, सप्तकाण्डात्मकं रामायणाख्यमादिमहाकाव्यं रचयामास, तदनन्तरं मुनेः विश्रामार्थं द्वौ अपराश्रमौ अभूताम्। एकश्चित्रकूटे अपरश्च कानपुरमण्डलान्तर्गत ब्रह्मावर्तान्तः आधुनिके बिठूरनाम्नि स्थाने आसीत् अत्रैव लवकुशयोः ज़नुरभूत्। एवमादिकविर्यशसा ख्यातोऽभवल्लोके महामुनिः ब्रह्मर्षिः।

शब्दार्थ-
आम्नायात् = वेद से।
बुवतस्तस्य = कहते हुए उनके।
शकुनिशोकपीडितेन = पक्षी के शोक से दुःखित हुए।
महामुनिमुपगम्य = महामुनि के पास जाकर।
व्याहृतम् = कह दिया।
सस्मितम् = मुस्कराते हुए।
आपन्नानुकम्पनं = पीड़ितों पर दया या कृपा।
सहजः = स्वाभाविक।
बुवता = बोलते हुए।
साम्प्रतं = अब (इस समय)।
नारदाच्छुतम् (नारदात् + श्रुतम्) = नारद से सुने हुए। कृत्स्नम् = सम्पूर्ण।
निखिलम् = पूरा। यावत् = जब तक।
स्थास्यन्ति = स्थित रहेंगे।
तावत् = तब तक।
प्रचलिष्यतीत्यादिश्य (प्रचलिष्यति + इति + आदिश्य) = प्रचलित रहेगी, ऐसी आदेश देकर।
अब्जयोनिः = कमल से उत्पन्न ब्रह्माजी।
अन्तर्हितः = अन्तर्धान।
अधिगम्य = जानकर।
अन्तराले = बीच में।
अपराश्रमौ (अपर + आश्रमौ) = अन्य आश्रम।
ब्रह्मावर्तान्तः = ब्रह्मावर्त में।
अत्रैव (अत्र + एव) = यहाँ ही।
जनुरभूत् (जनु: + अभूत्) = जन्म हुआ।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में श्राप देने से दु:खीं वाल्मीकि को ब्रह्माजी द्वारा सान्त्वना देने तथा रामचरित का वर्णन करने की प्रेरणा दी गयी है।

अनुवाद
यह श्लोक वेद से पृथक्-लोक में छन्दों का नया जन्म था। इस प्रकार कहते हुए उनके हृदय में महान् चिन्ता हो गयी। “ओह! पक्षी के शोक से पीड़ित मैंने यह क्या कह दिया।” इसी बीच वेदमूर्ति चतुर्मुख ब्रह्मा ने महामुनि के पास जाकर मुस्कराते हुए कहा-“हे महामुने! पीड़ितों पर दया करेंना महापुरुषों का स्वाभाविक धर्म है। श्लोक बोलते हुए तुमने इसी धर्म का पालन किया है। तो इस विषय में सोच नहीं करना चाहिए। सरस्वती मेरी इच्छा से ही तुममें प्रवृत्त हुई हैं। अब जैसा तुमने नारद जी से सुना है, वैसा तुम भगवान् रामचन्द्रजी के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन करो। मेरी कृपा से तुम्हें सम्पूर्ण रामचरित ज्ञात हो जाएगा। अधिक क्या? जब तक पृथ्वी (UPBoardSolutions.com) पर पर्वत, नदी और समुद्र रहेंगे, तब तक संसार में राम की कथा चलती रहेगी।’ ऐसा आदेश देकर भगवान् ब्रह्मा अन्तर्धान हो गये। तब योगबल से नारद जी के द्वारा बताये गये सम्पूर्ण रामचरित को जानकर गंगा और तमसा के मध्य स्थित तट पर सात काण्डों वाले ‘रामायण’ नाम के इस महाकाव्य की रचना की। इसके अतिरिक्त मुनि के विश्राम के लिए दो दूसरे आश्रम थे। एक चित्रकूट पर, दूसरा कानपुर मण्डल के अन्तर्गत ब्रह्मावर्तान्त (ब्रह्मावर्त्त) आधुनिक नाम बिठूर के स्थान पर था। यहीं पर लव-कुश का जन्म हुआ था। इस प्रकार महामुनि ब्रह्मर्षि (वाल्मीकि) संसार में आदिकवि के यश से प्रसिद्ध हो गये।

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Class 9 Sanskrit Chapter 2 UP Board Solutions वत्सराजनिग्रहः Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 2 वत्सराजनिग्रहः (कथा – नाटक कौमुदी) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 2 वत्सराजनिग्रहः (कथा – नाटक कौमुदी).

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Chapter Chapter 2
Chapter Name वत्सराजनिग्रहः (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 29
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UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 2 Vatsrajnigrah Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 2 हिंदी अनुवाद वत्सराजनिग्रहः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय–महाकवि भास संस्कृत नाट्य-साहित्य में अपना अन्यतम स्थान रखते हैं। स्वयं महाकवि कालिदास ने उनकी प्रशंसा की है। श्री टी० गणपति शास्त्री द्वारा उनका समय ईसा पूर्व चतुर्थ.

शताब्दी निश्चित किया गया है। इनके द्वारा लिखित नाटकों की संख्या ‘तेरहू’ है, जिनमें ‘स्वप्नवासवदत्तम्’, ‘प्रतिमानाटकम्’, ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायणम्’ आदि अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। इनकी भाषा प्रभावोत्पादक और मुहावरेदार है तथा शैली अत्यन्त प्रौढ़ है। इनके नाटकों की विशिष्टता यह है कि ये

आज भी सफलता के साथ अभिनीत किये जा सकते हैं। । प्रस्तुत अंश महाकवि भास द्वारा रचित ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायणम्’ नाटक के प्रथम अंक से संगृहीत है। इसमें उज्जयिनी के राजा चण्डप्रद्योत द्वारा कृत्रिम नीलहस्ती के व्याज से वत्सराज उदयन को बन्दी बनाने तथा उसके मन्त्री यौगन्धरायण द्वारा अपने स्वामी को छुड़ाने की प्रतिज्ञा करने का वर्णन है।

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पाठ-सारांश

यौगन्धरायण की सालक से बातचीत–यौगन्धरायण को यह समाचार मिलता है कि उज्जयिनी का राजा चण्डप्रद्योत कृत्रिम नीलहस्ती (नीला हाथी) बनाकर वत्सराज उदयन के साथ छल करना चाहता है। वत्सराज उदयन अगले दिन ही नागवन को जाने वाले थे, अत: वह पहले ही सालक के साथ स्वामी (उदयन) से मिलना चाहता है। राजमाता यौगन्धरायण और सालक को उदयन के लिए पत्र और रक्षासूत्र देना चाहती हैं। | हंसक द्वारा उदयन के नागवन पहुँचने की सूचना-इसी बीच वत्सराज (उदयन) के पास से हंसक आता है और मन्त्री यौगन्धरायण को सूचना देता है कि स्वामी (उदयन) वत्सराज एक दिन पहले ही बालुका. तीर्थ से नर्मदा को पार करके केवल राजछत्र धारण करके हाथियों का मर्दन करने योग्य थोड़ी-सी सेना लेकर नागवन चले गये हैं। वहाँ कुछ योजन चलकर (UPBoardSolutions.com) उन्होंने भयंकर हाथियों के एक झुण्ड को देखा। उस झुण्ड में से कोई पैदल सिपाही स्वामी (उदयन) के सम्मुख आया और उसने बताया कि एक कोस की दूरी पर उसने चमेली और साल के वृक्षों से ढके हुए शरीर वाले, नाखून और दाँतरहित ‘नील कुवलय तनु’ नामक एक नीला हाथी देखा है। उस छली सैनिक को उपहारस्वरूप सौ स्वर्णमुद्राएँ देकर स्वामी ने नील बलाहक हाथी से उतरकर, सुन्दर पाटल घोड़े पर बैठकर केवल बीस पैदल सिपाहियों को साथ लेकर उस ‘नील ‘कुवलय तनु’ नामक हाथी को पकड़ने के लिए प्रस्थान कर दिया। उस छली सैनिक द्वारा बताये गये स्थान पर पहुँचकर स्वामी (उदयन) ने वहाँ साल वृक्षों की छाया में कुछ कम दूरी से उस कृत्रिम नीले हाथी को देखा। स्वामी (उदयन) ने घोड़े से उतरकर जैसे ही वीणा हाथ में ली वैसे ही एक महान् बलशाली सिंह पीछे से प्रकट हुआ।

वत्सराज उदयन का बन्दी बनाया जाना—उसी समय बहुत अधिक सेना के साथ वह मिथ्या हाथी प्रकट हुआ। तब वत्सराज उदयन ने उससे युद्ध करना आरम्भ किया। लगातार युद्ध करने से थककर, प्रहारों से घायल होकर, घोड़े के गिर जाने पर वत्सराज उदयन भी बेहोश हो गये। तब कठोर (UPBoardSolutions.com) लताओं से बाँधकर बेहोश उदयन को कठोर यन्त्रणाएँ दी गयीं। उदयन के होश में आने पर वे प्रतिपक्षी तो भाग गये, लेकिन उनमें से एक वत्सराज का वध करने की इच्छा से तलवार लेकर दौड़ा, लेकिन रक्तरंजित धरती पर वह दुष्ट स्वयं फिसल कर गिर पड़ा।

शालंकायन द्वारा उदयन की रक्षा-उसी समय ‘दुस्साहस मत करो’ कहता हुआ प्रद्योत का मन्त्री शालंकायन उस स्थान पर आया और उसने प्रणाम करके स्वामी को बन्धन से मुक्त कर दिया। तब वह सज्जन उपचारसहित शान्ति वचन कहकर स्वामी को पालकी में बैठाकर उज्जयिनी की ओर ले गया। इसी बीच रक्षासूत्र लेकर आयी हुई विजया से यौगन्धरायण ने पूज्या माताजी को स्वामी के पकड़ लिये जाने की बात न बताने के लिए कहा।

यौगन्धरायण द्वारा प्रतिज्ञा-हंसक ने यौगन्धरायण को बताया कि मुझे स्वामी (उदयन) ने सन्देश देने के लिए आपके (यौगन्धरायण के) पास भेजा है। तब यौगन्धरायण (UPBoardSolutions.com) मोचयामि न राजानम्, नास्मि यौगन्धरायणः’ (अर्थात् यदि मैं राजा को नहीं छुड़ाता हूँ, तो मैं यौगन्धरायण नहीं हूँ) कहकर राजा को शत्रु से मुक्त कराने की कठिन प्रतिज्ञा करता है।

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चरित्र – चित्रण

वत्सराज उदयन

परिचय–प्रस्तुत पाठ में वत्सराज उदयन प्रत्यक्ष रूप से मंच पर नहीं आते। पात्रों के वार्तालाप से ही उनके विषय में कुछ परिचय मिलता है। उदयन कौशाम्बी के राजा और नाटक के नायक हैं। उन्हें ।

‘वत्सराज’ के विशेषण से सम्बोधित किया जाता है। वह एक निश्चिन्त प्रकृति के और मृगया-प्रेमी शासक हैं। उज्जयिनी का राजा चण्डप्रद्योत उन्हें छलपूर्वक बन्दी बना लेता है। उदयन को मुक्त कराने के लिए ही उनका मन्त्री यौगन्धरायण प्रतिज्ञा करता है। उदयन की प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं|

(1) कला मर्मज्ञ-वत्सराज उदयन कला-प्रेमी शासक हैं। संगीत के वे महान् ज्ञाता हैं। वीण बजाने में तो वे इतने निपुण हैं कि क्रुर हाथियों को भी अपनी वीणा के मधुर स्वरों से मदमस्त कर उन्हें अपने वश में कर लेते हैं। उनका वीणावादन द्वारा हाथियों को पकड़ने का कौशल ही उनको बन्दी (UPBoardSolutions.com) बनाये जाने का कारण बनता है। वह समय-समय पर कला-गोष्ठियों और प्रदर्शनियों का आयोजन का कलाकारों का सम्मान करते हैं। वह स्वयं अपनी महारानी वासवदत्ता को वीणावादन की शिक्षा देते हैं। प्रत्येक कलाविद् की भाँति वह स्वभाव से रसिक और कोमल है।

(2) मृगया-प्रेमी-वत्सराज उदयन की मृगया (शिकार खेलने) में विशेष रुचि है। उनके मृगया-प्रेम से उनके मन्त्री इत्यादि सभी राज-पुरुष चिन्तित रहते हैं। उनकी मृगया में रुचि कम करने के लिए ही एक बार उनका प्रधानमन्त्री यौगन्धरायण मृगया के समय उनकी प्राणप्रिय रानी वासवदत्ता को छिपा देता है, जिसके वियोग में उदयन अत्यन्त दु:खी होते हैं। मृगया में वे निपुण भी हैं, तभी तो नील-कुवलय हाथी को पकड़ने के लिए बहुत थोड़ी-सी सेना लेकर प्रस्थान करते हैं। नील कुवलय हाथी को देखकर वे स्वयं हाथ में वीणा लेकर अकेले उसे पकड़ने का प्रयत्न करते हैं।

(3) विलासी एवं कर्तव्यपराङ्मुख-कला-प्रेमी उदयन स्वभावोचित विलासी राजा हैं। प्रजा के सुख-दुःख से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। वे प्रतिपल वासवदत्ता के प्रेम में आकण्ठ निमग्न रहते हैं। अथवा वीणावादन में संलग्न रहते हैं। उनके शासन का सम्पूर्ण कार्यभार प्रधानमन्त्री यौगन्धरायण के ऊपर है।

(4) धीरललित नायक-नाट्यशास्त्रियों ने नायकों के मुख्य रूप से चार भेद बताये हैंधीरोदात्त, धीरोद्धत, धीरललित एवं धीरप्रशान्त। उदयन धीरललित कोटि के नायक हैं। इस प्रकार के नायक की विशेषता यह होती है कि वह प्रजा के प्रति अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन नहीं करता है। और करता भी है तो अत्यल्प मात्रा में। वत्सराज उदयन की भी यही दशा है।

(5) वीर एवं साहसी-वीर एवं साहसी एक राजा के मुख्य गुण हैं। उदयन इन गुणों से सम्पन्न राजा है। युद्ध अथवा शिकार के लिए वे अधिक सेना को आवश्यक नहीं मानते। नील कुवलय हाथी को पकड़ने के लिए वे वीरता का परिचय देते हुए अकेले ही आगे बढ़ते हैं। चण्डप्रद्योत की सेना से वे साहस (UPBoardSolutions.com) के साथ लड़ते हुए घायल होकर गिर पड़ते हैं। उन्हें होश में आती देखकर उनके शत्रु उन्हें छोड़कर भाग खड़े होते हैं; यह तथ्य उनके वीर एवं साहसी होने की पुष्टि करता है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि वत्सराज उदयन कोमल एवं निश्चिन्त प्रकृति के, श्रृंगारी, रसिक, कला-प्रेमी, सुन्दर एवं युवा शासक हैं।

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यौगन्धरायण

परिचय-प्रस्तुत नाट्यांश में यौगन्धरायण ही प्रभावशाली पात्र के रूप में मंच पर अवतरित होता है। वह नृत्सराज उदयन का स्वामिभक्त एवं नीति-निपुण प्रधानमन्त्री है। उसके नाम पर ही नाटक का नाम ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायणम्’ रखा गया है। उसका चरित्रांकन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है

(1) राजनीति-निपुणे मन्त्री–यौगन्धरायण राऊँनीति में निपुण योग्य मन्त्री है। वह प्रत्येक कार्य को योजनाबद्ध रूप से सम्पन्न करता है। उसके राजनीतिक ज्ञान से प्रभावित होकर ही उदयन ने उसे अपना प्रधान अमात्य नियुक्त किया है और वही शासन का सम्पूर्ण कार्य भी देखता है। (UPBoardSolutions.com) उदयन को बन्दी बनाये जाने की सूचना राजमाता को न देने के लिए विजया को आदेश देना उसकी नीति-निपुणता का परिचायक है।

(2) स्वामिभक्त कुशल मन्त्री-कुशल मन्त्री के लिए राजा का विश्वासपात्र एवं स्वामिभक्त होना अनिवार्य है। यौगन्धरायण में ये दोनों गुण विद्यमान हैं। उदयन उसे अपने राज्य का समस्त कार्य देखने का उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपता है, जिसे वह पूर्ण निष्ठा के साथ सम्पन्न करता है। उसका यह गुण उसके कुशल मन्त्री होने का द्योतक है। स्वामिभक्ति तो उसके रक्त की एक-एक बूंद में समायी।हुई है। उदयन के बन्दी बनाये जाने का समाचार सुनकर वह तुरन्त अपने स्वामी को मुक्त कराने की .: प्रतिज्ञा करता है

यदि शत्रुबलग्रस्तो राहुणा चन्द्रमा इव ।
मोचयामि न राजानं नास्ति यौगन्धरायणः ॥

(3) दूरदर्शी-मन्त्रियोचित गुणों से सम्पन्न यौगन्धरायण दूरदर्शी मन्त्री है। वह चन्द्रप्रद्योत के छल की बात जानकर सालक के साथ उदयन के नागवन जाने से पूर्व मिलना चाहता है और उन्हें सम्भावित विपत्ति से अवगत कराना चाहता है। उसकी आशंका अन्ततः सही निकलती है। उदयन के बन्दी बनाये जाने की सूचना राजमाता को न देने के लिए विजया से कहना भी उसके दूरदर्शी होने का द्योतक है।

(4) कर्तव्यपरायण-जो व्यक्ति स्वयं कर्तव्यपरायण हो, वह दूसरों को भी उसी रूप में देखना चाहता है। यौगन्धरायण स्वयं कर्तव्यपरायण मन्त्री है तभी तो वह हंसक से उदयन को बन्दी बनाये जाने की सूचना पाकर उत्तेजित स्वर में पूछता है कि “रुमण्वान् उस समय कहाँ था? उसके होते हुए यह (UPBoardSolutions.com) विपत्ति कैसे आयी?” उसे आशंका होती है कि कहीं रुमण्वान् के कर्तव्यच्युत् होने के कारण ही तो राजा (उदयन) बन्दी नहीं बनाये गये हैं। इसलिए वह उत्तेजित हो जाता है।

(5) वीर-यौगन्धरायण महान् वीर भी है। अपने स्वामी उदयन को बन्दी बनाये जाने की सूचना पाकर वह तनिक भी विचलित नहीं होता, अपितु वीरता के साथ आयी हुई विपत्ति के निवारण का उपाय सोचता है और अन्ततः अपने स्वामी को मुक्त कराने की प्रतिज्ञा करता है। यह घटना उसके वीर पुरुष होने का साक्ष्य प्रस्तुत करती है। | निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि यौगन्धरायण, राष्ट्रप्रेमी, प्रजावत्सल, कर्तव्यपरायण, वीर, साहसी, कुशल राजनीतिज्ञ, दूरदर्शी और विशिष्ट गुणों से युक्त व्यक्ति है।

हंसक

परिचय-प्रस्तुत नाट्यांश में यौगन्धरायण के पश्चात् हंसक ही प्रमुख पात्र है। निर्मुण्डक के साथ मंच पर प्रवेश करने के पश्चात् वह अन्त तक मंच पर बना रहता है और यौगन्धरायण को वस्तुस्थिति से अवगत कराने के साथ-साथ आगामी योजना में भी वह उसका सहायक बनता है। उसकी प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) श्रेष्ठ सन्देशवाहक-हंसक एक श्रेष्ठ सन्देशवाहक है। वह यौगन्धरायण को अपने स्वामी (उदयन) को बन्दी बनाये जाने की सूचना देता है और सम्पूर्ण वृत्तान्त को क्रमशः कह देता (UPBoardSolutions.com) है। एक-एक घटना का वर्णन वह विस्तार के साथ करता है। उसकी संवाद-प्रेषण की कुशलता को जानकर ही सम्भवत: उदयन उसे ही अपना सन्देश यौगन्धरायण तक पहुँचाने के लिए चुनते हैं। |

(2) स्वामिभक्त–यौगन्धरायण की भाँति हंसक भी स्वामिभक्त है। उदयन को बन्दी बनाये जाने से वह दु:खी है। अपने स्वामी को बन्दी बनाये जाने की पीड़ा उसके इन शब्दों में स्पष्ट रूप से झलकती। है-
‘अस्यानर्थस्योत्पादकः कश्चिन्पदातिः भत्तरमुपस्थितः।”••••••••• ततः सुवर्णशत प्रदानेन तं नृशंसं प्रतिपूज्य भक्तम्’ इत्यादि संवादों से शत्रु के प्रति उसकी ग्लानि एवं स्वामी के प्रति स्वामिभक्ति प्रकट होती है।

(3) विश्वासपात्र –सेवक का मुख्य गुण स्वामी का विश्वासपात्र होना है। हंसक अपने स्वामी का विश्वासपात्र सच्चा सेवक है तभी तो उदयन अपने बन्दी बनाये जाने का समाचार यौगन्धरायण को देने के लिए उसे नियुक्त करते हैं। यौगन्धरायण भी उससे मन्त्रणा करता है। निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि हंसक वाक्पटु, श्रेष्ठ सन्देशवाहक, स्वामिभक्त व सच्चा सेवक है। सेवक है। 

शालकायन

प्रस्तुत पाठ में शालंकायन भी मंच पर नहीं आता है। वह राजा चण्ड प्रद्योत का मन्त्री है। वह साहसी, बुद्धिमान्, शिष्ट और सज्जन है। वह युद्ध-स्थल में जाकर राजा उदयन को प्रणाम करता है, शान्त वचनों से उन्हें धैर्य बँधाता है और बन्धन से मुक्त कर देता है। वह अपने स्वामी के शत्रु के प्रति भी शिष्टाचार का व्यवहार करता है तथा सैनिक को उदयन का वध करने से रोककर अपने दयावान होने का परिचय भी देता है।

लघु-उत्तीय संस्कृत  प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिएप्रश्न

प्रश्‍न 1
यौगन्धरायणः कः आसीत्?
उत्तर
यौगन्धरायणः वत्सराजस्य उदयनस्य अमात्यः आसीत्।

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प्रश्‍न 2
प्रतिसरा किमर्थं युज्यते?
उत्तर
प्रतिसरा रक्षार्थं युज्यते।

प्रश्‍न 3
राजा उदयनः नीलहस्तिनं वशीकर्तुं कुत्रं गतः? तत्र किं दृष्टम्?
उत्तर
राजा उदयनः नीलहस्तिनं वशीकर्तुं नागवनं गतः। तत्र सः गजबूंथम् एकं पदाति च अपश्यत्।।

प्रश्‍न 4
तेन का नदी तीर्णा?
उत्तर
तेन नर्मदा नदी तीर्णा।

प्रश्‍न 5
कतिभिः पदातिभिः सह राजा प्रयातः?
उत्तर
राजा विंशत्या पदातिभिः सह प्रयातः

प्रश्‍न 6
‘कृतकहस्ती’ इति तेन कथं ज्ञातम्?
उत्तर
यदा स हस्ती सैन्येन सह प्रकटितः तदा राज्ञा सः कृतकहस्ती इति ज्ञातः

प्रश्‍न 7
कथं मोहं गतो राजा? ।
उत्तर
अनुबद्धदिवसयुद्धपरिश्रान्तः बहुप्रहारनिपतिततुरगः स राजा मोहं गतः

प्रश्‍न 8
केन विमुक्तेः राजा?
उत्तर
प्रद्योतस्य अमात्येन शालङ्कायनेन विमुक्तः राजा उदयनः।

प्रश्‍न 9
यौगन्धरायणेन का प्रतिज्ञा कृता?
उत्तर
“यदि शत्रुबलग्रस्तं राजानं न मोचयामि, नाहमस्मि यौगन्धरायणः”, इति यौगन्ध- रायणेन प्रतिज्ञा कृता।।

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प्रश्‍न 10
राजा कुत्रानीतः?
उत्तर
राजा उज्जयिनीम् आनीतः।।

वस्तुनिष्ठ  प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए-

1. ‘वत्सराजनिग्रहः’ नामक पाठ महाकवि भास के किस नाटक से संगृहीत है?
(क) प्रतिमानाटकम्
(ख) स्वप्नवासवदत्तम् ।
(ग) दूतवाक्यम् ।
(घ) प्रतिज्ञायौगन्धरायणम् ।

2. ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायणम्’ नाटक के नाटककार हैं–
(क) महाकवि भवभूति
(ख) महाकवि शुद्रक
(ग) महाकवि कालिदास
(घ) महाकवि भास

3. निम्नलिखित में से कौन-सी रचना महाकवि भास द्वारा लिखी हुई नहीं है ?
(क) स्वप्नवासवदत्तम् ।
(ख) प्रतिज्ञायौगन्धरायणम् ।
(ग) उत्तररामचरितम्
(घ) प्रतिमानाटकम्

4. ‘वत्सराजनिग्रहः’ नाट्य-रचना में ‘वत्सराज’ कौन है?
(क) कौशाम्बी का राजा
(ख) कौशाम्बी का मन्त्री
(ग) उज्जयिनी का राजा
(घ) उज्जयिनी का मन्त्री

5. वत्सराज किस विद्या में निपुण थे?
(क) अश्वविद्या में
(ख) शासन-संचालन में
(ग) शस्त्रविद्या में
(घ) वीणावादन में …

6. उदयन नर्मदा नदी को पार करके कहाँ गये थे?
(क) कौशाम्बी
(ख) बालुका तीर्थ :
(ग) उज्जयिनी ।
(घ) नागवन

7. उदयन कहाँ का राजा था?
(क) उज्जयिनी का
(ख) कौशाम्बी का
(ग) काशी का
(घ) मगध का

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8. उदयन अश्व पर चढ़कर कितने सैनिकों के साथ हाथी को पकड़ने के लिए गया?
(क) बीस
(ख) तीस
(ग) चालीस
(घ) पचास

9. चण्डप्रद्योत ने उदयन के साथ किसके द्वारा छल किया?
(क) वीणा के द्वारा
(ख) पाटल घोड़े के द्वारा
(ग) नील कुवलय हाथी के द्वारा।
(घ) नीलबलाहक हाथी के द्वारा

10. यौगन्धरायण किसका मन्त्री है?
(क) चण्डप्रद्योत का
(ख) शालंकायन का
(ग) हंसक का
(घ) उदयन का

11. यौगन्धरायण में कौन है? नहीं था?
(क) राजभक्ति
(ख) प्रजामंगल और स्वामिभक्ति
(ग) मृगयाप्रेम।
(घ) कूटनीतिज्ञ

12. उदयन के बन्दी होने की सूचना यौगन्धरायण को कौन देता है?
(क) सालक
(ख) हंसक
(ग) शालंकायन
(घ) विजया

13. यौगन्धरायण ने विजया को उदयन के बन्दी होने का समाचार उनकी माता को देने से क्यों मना कर दिया?
(क) क्योंकि उदयन की ऐसी ही आज्ञा थी। |
(ख) क्योंकि राजनीतिक दृष्टि से यह उचित नहीं था।
(ग) क्योंकि उदयन की माता दुर्बल हृदय की थीं।
(घ) क्योंकि मन्त्री यौगन्धरायण राजमाता से रुष्ट थे

14. ‘नागयूथम्’ शब्द का क्या अभिप्राय है?
(क) हाथियों का झुण्ड
(ख) घोड़ों का झुण्ड |
(ग) नागों का झुण्ड
(घ) सिंहों का झुण्ड

15.’••••••••••नाम प्रद्योतस्य अमात्यः।’ में वाक्य-पूर्ति होगी
(क) यौगन्धरायणो
(ख) सालको
(ग) हंसको
(घ) शालङ्कायनो

16. ‘इदानीं रुमण्वान् क्व गतः? इदानीम् अश्वारोहणीयं क्व गतम्?’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति ?
(क) यौगन्धरायणः
(ख) शालङ्कायनः
(ग) उदयनः
(घ) हंसक

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17.’अस्त्येष चक्रवर्ती …………….. नीलकुवलयतनुर्नाम हस्तिशिक्षायां पठितः।’ वाक्य में रिक्त स्थान में आएगा
(क) ऊष्ट्रः
(ख) अश्वः
(ग) राजा
(घ) हस्ती

18. ‘अहो नु खलु वत्सराजभीरुत्वं प्रद्योयतस्य।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(कु) सालकः :
(ख) प्रद्योतः
(ग) यौगन्धरायणः
(घ) हंसकः

19. ‘यदि शत्रुबलग्रस्तो राहुणा चन्द्रमा इव।’ वाक्यस्य वक्ताकः अस्ति?
(क) यौगन्धरायणः
(ख) उदयन:
(ग) शालङ्कायनः
(घ) चण्डप्रद्योतः

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Class 9 Sanskrit Chapter 9 UP Board Solutions आजादः चन्द्रशेखरः Question Answer

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 9
Chapter Name आजादः चन्द्रशेखरः (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 4
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 9 Azad Chandrashekhar Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 9 हिंदी अनुवाद आजादः चन्द्रशेखरः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांश

परिचय और जन्म–राष्ट्र के लिए अपना जीवन बलि-वेदी पर चढ़ाने वाले देशभक्तों में अग्रगण्य चन्द्रशेखर आजाद का नाम भारत की स्वतन्त्रता के इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेगा। इन्हें भुला देना अत्यधिक कृतघ्नता होगी। चन्द्रशेखर तो जीवन-पर्यन्त आजाद ही रहे, निरन्तर प्रयासरस पुलिसकर्मी कभी उनके हाथों में हथकड़ी न डाल सके। | चन्द्रशेखर आजाद का जन्म मध्य प्रदेश के ‘भाँवरा’ नामक (UPBoardSolutions.com) ग्राम में 23 जुलाई, सन् 1906 ईसवीं में हुआ था। इनकी माता का नाम जगरानी और पिता का नाम सीताराम था। इनके पिता उन्नाव जनपद के बदरका ग्राम से जाकर अलीराजपुर राज्य में 8 रुपये मासिक की नौकरी करते थे और वहीं रहने लगे थे।

घर से निष्कासन और अध्ययन-एक दिन चन्द्रशेखर ने राजा के उद्यान का एक फल तोड़ लिया था। क्रोधित हुए पिता ने ग्यारह वर्ष के उस बालक को घर से निकाल दिया; क्योंकि पिता के कहने पर भी चन्द्रशेखर ने माली से क्षमा न माँगी। घर से निकलकर दो वर्ष तक नगर-नगर घूमकर उन्होंने कठिन परिश्रम करके किसी प्रकार अपनी जीविका चलायी। दैवयोग से वाराणसी आये और वहाँ एक संस्कृत पाठशाला में संस्कृत का अध्ययन करने लगे।

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युवती की रक्षा-एक दिन किसी दुष्ट युवक को एक भद्र युवती को परेशान करते हुए चन्द्रशेखर ने देख लिया। चन्द्रशेखर उसे पृथ्वी पर गिराकर और उसकी छाती पर चढ़कर उसे तब तक पीटते रहे, जब तक कि उस बेशर्म युवक ने उस युवती से क्षमा नहीं माँगी। इस घटना से प्रभावित होकर आचार्य नरेन्द्रदेव ने उनके अध्ययन की व्यवस्था काशी विद्यापीठ में करा दी।

असहयोग आन्दोलन में भाग–विद्यापीठ के अनेक छात्रों को असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित होते देखकर आजाद भी तिरंगा झण्डा लेकर भारतमाता की जय’ और ‘गाँधी जी की जय बोलते हुए आन्दोलन में सम्मिलित हो गये। सैनिकों द्वारा उन्हें न्यायाधीश के समक्ष उपस्थित करने पर उन्होंने अपना नाम आजाद, पिता का नाम ‘स्वाधीन’ और घर जेल’ बताया। इस पर क्रुद्ध होकर न्यायाधीश ने उनको 15 कोडे मारे (UPBoardSolutions.com) जाने की सजा दी। कोडों से पीटे जाने पर भी ‘भारतमाता की जय करते हुए उन्होंने ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया। जेल से छूटने पर नागरिकों ने उनका स्नेहसिक्त अभिनन्दन किया। जब गाँधी जी ने हिंसा के कारण अपना आन्दोलन वापस ले लिया, तब आजाद बहुत दु:खी हुए। “

क्रान्तिकारी दल के सदस्य–दैवयोग से आजाद प्रणवेश चटर्जी, मन्मथनाथ गुप्त आदि . क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आये। उनकी सत्यनिष्ठा को देखकर मन्मथनाथ गुप्त ने उन्हें क्रान्तिकारी दल का सदस्य बना लिया। थोड़े ही समय में वे क्रान्तिकारियों की केन्द्रीय परिषद् के सदस्य हो गये। उन्होंने गोली चलाने और निशाना लगाने में कौशल प्राप्त कर लिया। उन्होंने सन् 1925 ई० में काकोरी काण्ड में सक्रिय भाग लिया। इस अवसर पर आजाद को छोड़कर उनके अन्य सहयोगी पकड़े गये और हथकड़ी लगाकर शूली पर चढ़ा दिये गये। उस समय चन्द्रशेखर को बहुत दु:ख हुआ किन्तु वे क्रान्ति : से विरत नहीं हुए और उन्होंने क्रान्तिकारी दल का नेतृत्व सँभाला।।

आजाद ने अनेक अंग्रेज अधिकारियों और सैनिकों को मारा। लाला लाजपत राय के हत्यारे ‘साण्डर्स को भी आजाद ने मौत के घाट उतार दिया।

विधानसभा-भवन में बम-विस्फोट–सन् 1929 ई० में 8 अप्रैल को आजाद की सलाह से सरदार भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने विधानसभा भवन में बम विस्फोट कर दिया। चन्द्रशेख़र विधानसभा भवन के बाहर ही उपस्थित थे। उसमें भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने आत्मसमर्पण कर (UPBoardSolutions.com) दिया और उन्हें शूली पर चढ़ा दिया गया। आजाद के अनेक साथी भगवतीचरण, सालिगराम आदि भी मारे गये। आजाद बहुत दु:खी हुए। यशपाल और वीरभद्र के विश्वासघात से आजाद को गहरा दु:ख पहुंचा था।

अमर बलिदान–सन् 1931 ई० में फरवरी की 27 तारीख को आजाद प्रयाग के अल्फ्रेड पार्क में यशपाल और सुखदेव के साथ बैठे हुए बातचीत कर रहे थे। उसी समय वीरभद्र दिखाई पड़ा और यशपाल उठकर चल दिया। आजाद सुखदेव के साथ बातचीत कर ही रहे थे कि सैनिकों ने वहाँ आकर आजाद को घेर लिया।

आजाद ने अपने सहयोगी सुखदेव को किसी तरह पार्क से बाहर निकाला और पिस्तौल भरकर । खड़े हो गये। विपक्षियों ने आजाद पर गोलियाँ बरसायीं। आजाद ने भी निरन्तर गोलियाँ बरसाकर

अनेक को मूर्च्छित और घायल कर दिया। अन्त में जब उनकी पिस्तौल में एक गोली रह गयी, तब उन्होंने स्वयं को ही मार लिया। इस प्रकार चन्द्रशेखर अमर शहीद हो गये।

ऐसे क्रान्तिकारी देशभक्त सदा उत्पन्न नहीं होते। उनका जन्म कभी-कभी ही होता है। ऐसे अमर युवक युगान्तर उपस्थित करने के लिए जन्म लेते हैं। भारतभूमि धन्य है, जहाँ ऐसे शूरवीर उत्पन्न होते हैं, जो अपने जन्म से भारतभूमि को पवित्र करते हैं और खून से सींचते हैं।

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गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) राष्ट्रहितेऽनुरक्तानामात्मबलिं कर्तुं सहर्षमुद्यतानाम् अग्रगण्यः चन्द्रशेखरः भारतस्य स्वातन्त्र्येतिहासेऽसौ सततमुल्लेखनीयः स्मरणीयश्च। स्वतन्त्रतायाः मधुरं फलं भुञ्जानाः वयमधुना प्रकामं मोदामहे। तद् वृक्षारोपकास्तु त एवात्मबलिदायकास्तादृशाः वीराः एवासन्। प्रातः स्मरणीयास्ते वीराः कदापि भारतीयैरस्माभिः नैव विस्मर्तुं शक्यन्ते। तेषां विस्मृतिस्तु महती कृतघ्नता स्यात्। तेष्वेव वीरेषु मूर्धन्यः परमस्वतन्त्रश्चन्द्रशेखरः आजीवनं स्वतन्त्र एवासीत्। सततं प्रयतमानैरपि आरक्षकैः तत्करे लौहशृङ्खला न पिनद्धा। मातृभूमिपरिचारकः राणाप्रताप इव असावपि आत्मबलिदायको वीरः रक्तस्नातोऽपि स्वतन्त्र एव परिभ्रमन् प्राणानत्यजत्। (UPBoardSolutions.com) जीवितः स तैः कथमपिन गृहीतः। देशभक्तानामादर्शभूतस्य चन्द्रशेखरस्य जन्म षडधिकैकोनविंशतिशततमे . (1906) ख्रीष्टाब्दे जुलाईमासस्य त्रयोविंशतितयां तारिकायां मध्यप्रदेशस्य भाँवरा ग्रामेऽभवत्। तस्य जनकः श्री सीतारामः स्वीययो धर्मपत्न्या जगरानी नामधेयया सह उन्नावजनपदस्य बदरकाग्रामात् गत्वा तत्रैव व्यवसत्। सः तत्र ‘अलीराजपुरराज्ये’ वृत्त्यर्थं कार्यमकार्षीत्। अष्टमुद्रात्मकं मासिकं वेतनञ्चालभत्।

शब्दार्थ
आत्मबलिं कर्तुम् = अपना बलिदान करने के लिए।
उद्यतानाम् = उद्यत रहने वालों में।
सततमुल्लेखनीयः स्मरणीयश्च = सदैव उल्लेख करने और स्मरण रखने योग्य।
भुञ्जानाः = भोगते हुए।
प्रकामम् मोदामहे = अत्यधिक प्रसन्न होते हैं।
तवृक्षारोपकास्तु = उस वृक्ष को लगाने वाले तो।
नैव = नहीं ही। विस्मर्तुं शक्यन्ते = भुलाये जा सकते हैं।
कृतघ्नता = उपकार न मानना।
मूर्धन्यः = सर्वश्रेष्ठ।
पिनद्धा = पहनायी।
असावपि (असौ + अपि) = यह भी।
परिभ्रमन् = घूमते हुए।
स्वीययाय धर्मपत्न्या = अपनी धर्मपत्नी के साथ।
वृत्त्यर्थम् = जीविका के लिए।
अकार्षीत् = करता था।

सन्दर्भ
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘आजादः चन्द्रशेखरः’ शीर्षक पाठ से अवतरित है।

संकेत
इस पाठ के शेष गद्यांशों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में राष्ट्रहित के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले चन्द्रशेखर आजाद के जन्म तथा पारिवारिक स्थिति के विषय में बताया गया है।

अनुवाद
राष्ट्रहित में लगे हुए स्वयं को बलिदान करने के लिए सहर्ष तैयार लोगों में सबसे पहले गिने जाने वाले चन्द्रशेखर भारत की स्वतन्त्रता के इतिहास में मिरन्तर उल्लेख करने योग्य और स्मरणीय हैं। स्वतन्त्रता के जिस मधुर फल को खाते हुए हम आज अत्यन्त प्रसन्न हो रहे हैं, उस वृक्ष को लगाने वाले वे ही अपना बलिदान करने वाले उस प्रकार के वीर ही थे। प्रातः समय स्मरण करने योग्य ये वीर हम भारतीयों के द्वारा कभी भी भुलाये नहीं जा सकते। उनको भूल जाना तो बड़ी कृतघ्नता होगी। उन्हीं वीरों में सर्वश्रेष्ठ अत्यधिक स्वतन्त्र चन्द्रशेखर (UPBoardSolutions.com) जीवनभर स्वतन्त्र ही रहे। निरन्तर प्रयत्न करते हुए भी सिपाहियों ने उनके हाथों में लोहे की जंजीर (हथकड़ी) नहीं पहनायी। मातृभूमि की सेवा करने वाले राणाप्रताप की तरह अपनी बलि देने वाले इसी वीर ने रक्त में स्नान करते हुए भी स्वतन्त्र घूमते हुए ही प्राणों को त्याग दिया।

उनके द्वारा वह जीवित कभी नहीं पकड़े गये। देशभक्तों में आदर्शस्वरूप चन्द्रशेखर का जन्म सन् 1906 ईसवी में जुलाई महीने की 23 तारीख को मध्य प्रदेश के ‘‘भाँवरा’ नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता श्री सीताराम अपनी जगरानी नाम की धर्मपत्नी के साथ उन्नाव जिले के बदरका ग्राम से जाकर वहीं रहते थे। वे वहाँ अल्लीराजपुर के राज्य में जीविका के लिए कार्य करते थे और आठ रुपये मासिक वेतन पाते थे।

(2) एकदा चन्द्रशेखरः तस्यैवोद्यानस्य फलमेकं पितरमपृष्ट्वैव अत्रोटयत्। क्रोधाविष्टस्तज्जनकः सीतारामः प्रियं सुतमेकादशवर्षदेशीयं चन्द्रशेखरं गृहान्निस्सारयामास। क्रोधाविष्टः जनकः अवोचत् , गत्वा मालाकारं क्षमा याचस्व, परं स एवं कर्तुं नोद्यतः। गृहान्निर्गत्य वर्षद्वयमितस्ततः सः प्रतिनगरं भ्रामं-भ्रामं घोरं श्रमं कृत्वा जीविकां निरवहत्। दैववशात् सः बालकः वाराणसीमुपगम्य कस्याञ्चित् संस्कृतपाठशालायां संस्कृताध्ययनमकरोत्।।

शब्दार्थ-
एकदा = एक बार
तस्यैवोद्यानस्य = उसी बगीचे का।
पितरम् अपृष्ट्वैव = पिता से पूछे बिना ही।
निस्सारयामास = निकाल दिया।
क्रोधाविष्टः = क्रोध में भरे हुए।
मालाकारं = माली से।
नोद्यतः (न + उद्यतः) = तैयार नहीं हुआ।
इतस्ततः = इधर-उधर।
निरवहत् = निर्वाह किया।
दैववशात् = भाग्य से।
उपगम्य = जाकर।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में पिता द्वारा चन्द्रशेखर को घर से निकालने और उनके वाराणसी जाकर अध्ययन करने का वर्णन है। |

अनुवाद
एक बार चन्द्रशेखर ने उसी (अल्लीराजपुर) के उद्यान का एक फल पिता से बिना पूछे ही तॉड़ लिया। क्रोध से युक्त उनके पिता सीताराम ने प्रिय पुत्र ग्यारह वर्षीय चन्द्रशेखर को घर से निकाल दिया। क्रुद्ध पिताजी बोले–‘जाकर माली से क्षमा माँगो’, परन्तु वह ऐसा करने को तैयार नहीं हुआ। घर से निकलकर दो वर्ष तक उसने इधर-उधर प्रत्येक नगर में घूम-घूमकर कठोर परिश्रम करके जीविका चलायी। दैवयोग से वह बालक वाराणसी पहुँचा और किसी संस्कृत की पाठशाला में संस्कृत का अध्ययन करने लगा।

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(3) एकदा कोऽपि दुष्टो युवा कामप्येकां भद्रयुवतीं पीडयन् चन्द्रशेखरेण बलात् गृहीतः। तं धराशायिनं कृत्वा तस्योरसि उपविष्टश्च, चन्द्रशेखरः तं तावन्नमुमोच यावत् स चञ्चलो दुष्टः धृष्टः निर्लज्जो युवा तां युवतिं भगिनिकेति नाकथयत् क्षमायाचनाञ्च नाकरोत्। अनया घटनया चन्द्रशेखरस्य महती ख्यातिः जाता। आचार्यनरेन्द्रदेवस्तेन प्रभावितः काशीविद्यापीठे तस्याध्ययनव्यवस्थां कृतवान्। यदा (UPBoardSolutions.com) विद्यापीठस्यानेके छात्राः असहयोगान्दोलने सम्मिलिताः जाताः तदाजादोऽपि तत्र सम्मिलितः त्रिवर्णध्वजमादाय ‘जयतु महात्मा गाँधी’, ‘जयतु भारतमाता’ इति घोषयन् न्यायाधीशस्य सम्मुखमानीतः।

तदा स स्वकीयं नाम ‘आजाद’ इति पितुर्नाम ‘स्वाधीन’ इति गृहञ्च कारागारमवोचत् , तदा क्रुद्धो न्यायाधीशः तस्मै पञ्चदशकशाघातदण्डमददात्। तदपि सः ‘जयजय’ कारं कृत्वा मनसि ब्रिटिशसाम्राज्यमुन्मूलयितुं सङ्कल्पमकरोत्। कशाघातेन पीड्यमानोऽपि सः निश्चल एवासीत्। ततः बहिरागत्य सः जनैरभिनन्दितः। द्वाविंशत्यधिकैकोनविंशतिशततमे (1922) वर्षे यदा महात्मना गान्धिमहोदयेनान्दोलनम् निवारितं तदाजादो दुःखितो जातः यतोऽहिसंकान्दोलने तस्य निष्ठा नासीत्।।

शब्दार्थ-
भद्रयुवतीम् = शिष्ट युवती को।
बलात् = बलपूर्वक।
धराशायिनं कृत्वा = पृथ्वी ।
पर गिराकर।
उरसि = छाती पर।
भगिनिकेति = बहन ऐसा।
ख्यातिः जाता = प्रसिद्धि हुई।
त्रिवर्णाध्वजम् आदाय = तिरंगे झण्डे को लेकर।
आनीतः = लाये गये।
घोषयन्= घोषणा करते हुए।
अवोचत् = कहा।
कशाघातदण्डम् = कोड़े मारने का दण्ड।
उन्मूलयितुम् = जड़ से उखाड़ के लिए।
कशाघातेन = कोड़ों की चोट से।
निवारितम् = रोक दिया।
निष्ठा = श्रद्धा, विश्वास।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में चन्द्रशेखर के द्वारा दुष्ट के हाथों से एक युवती को बचाने एवं महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित होने का वर्णन है।

अनुवाद
एक दिन किसी एक शिष्ट युवती को सताते हुए किसी दुष्ट युवक को चन्द्रशेखर ने बलपूर्वक पकड़ लिया और उसे भूमि पर गिराकर उसकी छाती पर बैठ गया। चन्द्रशेखर ने उसे तब तक नहीं छोड़ा, जब तक उस चंचल, दुष्ट, धृष्ट, बेशर्म युवक ने उस युवती को ‘बहन’ नहीं कहा और क्षमा नहीं माँगी। इस घटना से चन्द्रशेखर की बड़ी प्रसिद्धि हो गयी। आचार्य नरेन्द्रदेव ने उससे प्रभावित होकर काशी विद्यापीठ में उसके अध्ययन की व्यवस्था करा दी। जब काशी विद्यापीठ के अनेक छात्र असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित हुए, तब आजाद भी उसमें सम्मिलित हुए और तिरंगा झण्डा लेकर ‘महात्मा गाँधी की जय’, ‘भारतमाता की जय’ बोलते हुए न्यायाधीश (जज) (UPBoardSolutions.com) के सामने लाये गये। तब उन्होंने अपना नाम ‘आजाद’, पिता का नाम ‘स्वाधीन’ और घर ‘कारागार’ बताया। तब क्रुद्ध जज ने उनको 15 कोड़े मारने का दण्ड दिया। तब भी उन्होंने जय्-जयकार करके मन में ब्रिटिश शासन को जड़ से उखाड़ने का संकल्प किया। कोड़ों से पीटे जाते हुए भी वे निश्चल ही रहे। इसके बाद बाहर आने पर उनका लोगों ने अभिनन्दन किया। सन् 1922 ई० में जब महात्मा गाँधी ने आन्दोलन रोक दिया, तब आजाद दुःखी हुए; क्योंकि अहिंसक आन्दोलन में उनको विश्वास नहीं था।

(4) दैवात् आजादस्य परिचयः क्रान्तिकारिणा प्रणवेशचटर्जीमहोदयेन सह सञ्जातः। अनेन प्रसिद्धक्रान्तिकारिणी मन्मथनाथगुप्तेन साकं तस्य परिचयः कारितः। आजादस्य सत्यनिष्ठामवलोक्य मन्मथनाथगुप्तः क्रान्तिकारिदलस्य सदस्यं तमकरोत्। तदानीं क्रान्तिकारिदलस्य नेता अमरबलिदायी रामप्रसादबिस्मिलः आसीत्। अल्पीयसैव समयेन आजादः केन्द्रियक्रान्तिकारिदलस्य सदस्यो जातः। गुलिकाचालने लक्ष्यभेदने च तेन महत् कौशलमवाप्तम्। अतः सः तस्मिन् दले अतीव समादृतः आसीत्। (UPBoardSolutions.com) पञ्चविंशत्यधिकैकोनविंशतिशततमे (1925) वर्षे अगस्तमासस्य नवम्यां तारिकायां जायमाने काकोरीकाण्डे आजादेन सक्रियभागो गृहीतः। तस्मिन्नवसरे आजादं विहाय अन्ये बहवः सहयोगिनः निगडिताः शूलमारोपिताश्च। तदानीं परमदुःखितोऽपि आजादः क्रान्तेर्विरतो न जातः, प्रत्युत क्रान्तिकारिसेनायाः नायको जातः।।

तेनानेकानि कार्याणि कृतानि अनेकेऽधिकारिणः आरक्षिणश्च हताः। लालालाजपतरायस्य हन्ता प्रधानरक्षी ‘साण्डर्स’ नामधेयोऽपि आजादेन निहतः।।

शब्दार्थ-
सञ्जातः = हुआ।
साकम् = साथ।
कारितः = कराया।
अल्पीयसैव (अल्पीयसा + एव) = थोड़ी ही।
अल्पीयसैव समयेन = थोड़े से ही समय में।
गुलिकाचालने = गोली चलाने में।
लक्ष्यभेदने = निशाना लगाने में।
अवाप्तम् = प्राप्त कर लिया।
जायमाने = होने वाले।
निगडिताः = गिरफ्तार कर लिये गये, बेड़ी पहना दिये गये।
शूलमारोपिताः = शूली पर चढ़ा दिये गये।
विरतः = उदासीन।
आरक्षिणः = सिपाही।
हन्ता = मारने वाला।
निहतः = मारा।।

प्रसंग”
प्रस्तुत गद्यांश में चन्द्रशेखर की क्रान्तिकारी कार्यवाहियों तथा क्रान्तिकारी दल के नेतृत्व को सँभालने का वर्णन है।

अनुवाद
भाग्य से आजाद का परिचय क्रान्तिकारी प्रणवेश चटर्जी महोदय के साथ हुआ। इस प्रसिद्ध क्रान्तिकारी ने मन्मथनाथ गुप्त के साथ उसका परिचय कराया। आजाद की सत्यनिष्ठा को देखकर मन्मथनाथ गुप्त ने उसे क्रान्तिकारी दल को सदस्य बना लिया। उस समय क्रान्तिकारी दल के नेता अमर बलि देने वाले ‘रामप्रसाद बिस्मिल’ थे। थोड़े ही समय में आजाद केन्द्रीय क्रान्तिकारी दल के सदस्य हो गये। गोली चलाने और निशाना लगाने में उन्होंने महान् कौशल प्राप्त कर लिया; अतः वह उस दल में अत्यन्त आदरणीय (UPBoardSolutions.com) हो गये थे। सन् 1925 ई० में अगस्त महीने की नौ तारीख को होने वाले काकोरी काण्ड में आजाद ने सक्रिय भाग लिया। उस अवसर पर आजाद को छोड़कर दूसरे बहुत-से सहयोगी पकड़े गये (अर्थात् हथकड़ियाँ पहना दीं) और शूली पर चढ़ा दिये गये। इस समय अत्यन्त दु:खी होते हुए भी आजाद क्रान्ति से उदासीन नहीं हुए, अपितु क्रान्तिकारियों की सेना के नायक हो गये।

उन्होंने अनेक कार्य किये, अनेक अधिकारियों और सैनिकों को मारा। लाला लाजपत राय के … हत्यारे सेना के प्रधान ‘साण्डर्स’ को भी आजाद ने मार दिया।

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(5) एकोनत्रिंशदधिकैकोनविंशतिशततमे (1929) वर्षे अप्रैलमासस्य अष्टम्यां तारिकायाम् आजादस्य परामर्शेनैव सरदारभगतसिंहः बटुकेश्वरदत्तश्च विधानसभाभवने बमविस्फोटमकुरुताम्। तस्मिन् समये चन्द्रशेखरोऽपि विधानसभाभवनाद् बहिः मोटरयानमादायोपस्थितः आसीत्। परं भगतसिंहः बटुकेश्वरदत्तश्च विधानसभाभवने एव आत्मसमर्पणं कृतवन्तौ। पश्चात् तौ द्वावपि शूलमारोपितौ। (UPBoardSolutions.com) एवम् आजादस्य अनेके सहयोगिनः भगवतीचरणसालिकरामप्रभृतयो मृताः। अतः आजादश्चन्द्रशेखरो नितरां खिन्नो जातः, केन्द्रियक्रान्तिकारिदलस्य सदस्ययोः यशपालवीरभद्रयोः सन्दिग्धाचरणेन तु आजादो विक्षुब्धोऽभवत्। यदी दलस्य सदस्याः एव विश्वासघातिनो जाताः तदा तस्य दुःखानुभूतिः स्वाभाविकी एव आसीत्। तदपि सः स्वमार्गात् विचलितो न जातः। कर्णपुरस्य वीरभद्रत्रिपाठिनः विश्वासघात एवं आजादस्य कृतेऽनिष्टकारको जातः।

शब्दार्थ
परामर्शेनैव = परामर्श से ही।
अकुरुताम् = किया।
मोटरयानमादायोपस्थितः = मोटर वाहन लेकर उपस्थित।
कृतवन्तौ = कर दिया। द्वावपि (द्वौ + अपि) = दोनों ही।
मृताः = मारे गये।
सन्दिग्धाचरणेन = सन्देह भरे आचरण से।
विक्षुब्धः = व्याकुल, असन्तुष्ट।
विश्वासघातिनः = विश्वासघात करने वाले।
कर्णपुरस्य = कानपुर के।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में क्रान्तिकारी गतिविधियों में चन्द्रशेखर के अनेक सहयोगियों के मारे जाने एवं दल के कुछ लोगों द्वारा विश्वासघात किये जाने का वर्णन है।

अनुवाद
सन् 1929 ई० में अप्रैल महीने की आठ तारीख को आजाद के परामर्श से ही सरदार भगतसिंह और बटुकेश्वरदत्त ने विधानसभा भवन में बम विस्फोट किया। उस समय चन्द्रशेखर भी विधानसभा भवन के बाहर मोटरगाड़ी लेकर उपस्थित थे, परन्तु भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने विधानस भवन में ही आत्मसमर्पण कर दिया। बाद में उन दोनों को शूली पर चढ़ा दिया गया। इसे प्रकार आजाद के अनेक साथी (UPBoardSolutions.com) भगवतीचरण, सालिगराम आदि मारे गये। इसलिए चन्द्रशेखर आजाद अत्यन्त दु:खी हुए। केन्द्रीय क्रान्तिकारी दल के दो सदस्यों यशपाल और वीरभद्र के सन्देहपूर्ण आचरण से आजाद नाराज हुए। जब दल के सदस्य ही विश्वासघाती हो गये, तब उनको दु:ख का अनुभव होना स्वाभाविक ही था। तब भी वह अपने मार्ग से विचलित नहीं हुए। कानपुर के वीरभद्र त्रिपाठी को विश्वासघात ही आजाद के लिए अनिष्टकारी हुआ।

(6) एकत्रिंशदधिकैकोनविंशतिशततमे (1931) वर्षे फरवरीमासस्य सप्तविंशतितमायां तारिकायां प्रातः नववादने प्रयागस्य अल्फ्रेड नाम्नि उद्याने एकस्य वृक्षस्याधश्छायायाम् आजादः यशपालेन सुखदेवेन च समं वार्तालापं कुर्वन् उपविष्टः आसीत्। तस्मिन्नेव समये गच्छन् वीरभद्रत्रिपाठी दृष्टः, यशपालोऽपि उत्थाय चलितः, आजादः सुखदेवराजेन सह वार्तालाप कुर्वन्नेवासीत्। तदा आरक्षिणः आगत्य परितोऽवरुद्धवन्तस्तम्। ।

शब्दार्थ-
नववादने = नौ बजे।
वृक्षस्याधश्छायायाम् = वृक्ष के नीचे छाया में।
समम् = साथ।
उपविष्टः आसीत् = बैठे हुए थे।
उत्थाय = उठकर।
परितः = चारों ओर।
अवरुद्धवन्तः = घेर लिया।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में चन्द्रशेखर के सिपाहियों द्वारा घेरे जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
सन् 1931 ईसवी में फरवरी महीने की 27 तारीख को प्रातः नौ बजे प्रयाग के अल्फ्रेड नामक बगीचे में एक वृक्ष के नीचे छाया में आजाद यशपाल और सुखदेव के साथ बातचीत करते हुए बैठे थे। उसी समय जाता हुआ वीरभद्र त्रिपाठी दिखाई पड़ा। यशपाल भी उठकर चल दिया। आजाद सुखदेव के साथ बातचीत कर ही रहे थे, तब ही सैनिकों ने आकर चारों ओर से उसे घेर लिया।

(7) स्वकीयं सहयोगिनं कथञ्चित्ततः उद्यानात् निःसार्य. आजादः पेस्तौलअस्त्रं संसाधितवान्। तगा विपक्षतः गुलिकावृष्टिः जाता। विपक्षतः आरक्षिणां गुलिकावृष्टिं दर्श-दर्शम् आजादस्य मनः आकुलं नाभूत्। आजादोऽपि स्वकीयेनास्त्रेणानेकान् विमुग्धान् आहतांश्चाकरोत्। यदास्त्रे एका गुलिकावशिष्टा आसीत् तदा तया स्वमेवाहन्। एवमाजादश्चन्द्रशेखरो यशः शरीरेणामरतामभजत्। |

शब्दार्थ-
स्वकीयम् = अपने।
कथञ्चिद् = किसी प्रकार।
निःसार्य = निकालकरे।
संसाधित- वान् = तैयार किया।
विपक्षतः = शत्रु की ओर से।
गुलिकावृष्टिः = गोलियों की वर्षा।
आरक्षिणां = पुलिस वालों की।
आकुलं नाभूत् = व्याकुल नहीं हुआ।
विमुग्धान् = मूर्च्छित।
स्वमेवाहन (स्वम् + एव + अहन्) = अपने को ही मार दिया।
अभजत् = प्राप्त हुआ। |

प्रसंग

प्रस्तुत गद्यांश में आजाद का अपनी ही गोली से शहीद हो जाने का वर्णन है।

अनुवाद
अपने साथी (सुखदेव) को किसी तरह पार्क से निकालकर आजाद ने पिस्तौल सँभाली। तब विपक्ष की ओर से गोलियों की वर्षा हुई। विपक्ष की ओर से सैनिकों की गोलियों की वर्षा को देख-देखकर आजाद का मन व्याकुल नहीं हुआ। आजाद ने भी अपने अस्त्र से अनेक को मूर्च्छित और घायल कर दिया। जब पिस्तौल में एक गोली बची थी, तब उसने उसने स्वयं को मार लिया। इस प्रकार आजाद चन्द्रशेखर यशरूपी शरीर से अमर हो गये।।

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(8) एवं विधाः अमरबलिदानिनो देशाभिमानिनो देशसंरक्षकाः क्रान्तिकारिणो नवयुवानः प्रतिदिनं नोत्पद्यन्ते। तेषा जन्म युगे कदाचिदेव जायते। यतश्च एतादृशाः अमरयुवानः युगान्तरमुपस्थापयितुमेवोत्पद्यन्ते। एतेषामावश्यकतापि क्वाचित्की कदाचित्की एव भवति। एवंविधाः आजादस्य चन्द्रशेखरस्य द्रष्टारः साक्षात्कर्तारः अद्यापि जीवन्ति ये आत्मानं पावनं मन्यन्ते। भारतभूरपि धन्यैव यत्र एतादृशा आत्मबलिदायिनो शूराः स्वीयेन जन्मना भूमिं पावनां कृतवन्तः, शोणितेन सिञ्चितवन्तश्च।।

स्वातन्त्र्यमाप्तुकामोऽयं क्रान्तिकारी दृढव्रतः।
जातोऽमरो बलेर्दानादाजादश्चन्द्रशेखरः॥

शब्दार्थ
नोत्पद्यन्ते = उत्पन्न नहीं होते।
कदाचिदेव = कभी ही।
उपस्थापयितुं = उपस्थित करने के लिए।
क्वाचित्की = कहीं।
कादाचित्की = आकस्मिक।
द्रष्टारः = देखने वाले।
अद्यापि = आज भी।
पावनं मन्यते = पवित्र मानते हैं।
शोणितेन = रक्त से।
बलेर्दानाद् = बलिदान करने से।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में चन्द्रशेखर आजाद के बलिदान का स्मरण किया गया है।

अनुवाद
इस प्रकार के अमर बलिदानी, देश पर अभिमान करने वाले, देश की रक्षा करने वाले क्रान्तिकारी नवयुवक प्रतिदिन उत्पन्न नहीं होते हैं; अर्थात् जन्म नहीं लेते हैं। उनका ज़न्म युग में कभी ही होता है; क्योंकि इस प्रकार के अमर युवक युग-परिवर्तन उपस्थित करने के लिए ही उत्पन्न होते हैं। इनकी आवश्यकता भी कहीं-कहीं, कभी-कभी ही होती है। चन्द्रशेखर आजाद के देखने वाले और साक्षात्कार करने वाले इस प्रकार के लोग आज भी जीवित हैं, जो अपने आप को पवित्र मानते हैं। भारतभूमि भी धन्य है, जहाँ इस प्रकार के आत्मबलि को देने वाले शूरवीर अपने जन्म से भूमि को पवित्र करते हैं और खून से सींचते हैं।

स्वतन्त्रता-प्राप्ति का इच्छुक वह चन्द्रशेखर नाम का युवक अत्यन्त क्रान्तिकारी और दृढ़-प्रतिज्ञ था। वह आत्म-बलिदान देकर अमर हो गया।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
चन्द्रशेखर आजाद का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीषक के अन्तर्गत दी गयी सामग्री को संक्षेप में अपने शब्दों में लिखें।] ।

प्ररन 2
चन्द्रशेखर के घर से निकलने की घटना का वर्णन कीजिए।
उत्तर
जब चन्द्रशेखर केवल ग्यारह वर्ष के थे, तब उन्होंने अल्लीराजपुर राज्य के बगीचे से एक फल बिना अपने पिताजी से पूछे तोड़ लिया। इस पर उनके पिता जी बहुत क्रुद्ध हुए और उन्होंने चन्द्रशेखर से उद्यान के माली से माफी माँगने के लिए कहा। लेकिन चन्द्रशेखर ने माली से क्षमा न माँगी। इस पर उनके पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया।

प्ररन 3
चन्द्रशेखर आजाद किस प्रकार क्रान्तिकारियों में सम्मिलित होकर क्रान्तिकारी सेना के नायक बने?
उत्तर
असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के बाद आजाद का परिचय भाग्य से प्रणवेश चटर्जी नामक क्रान्तिकारी के साथ हो गया। प्रणवेश चटर्जी ने इनका परिचय मन्मथनाथ गुप्त से करवाया। इनकी सत्यनिष्ठा से प्रभावित होकर मन्मथनाथ गुप्त ने इन्हें क्रान्तिकारी दल का सदस्य बना लिया। गोली चलाने और निशाना लगाने में इन्होंने शीघ्र ही कुशलता प्राप्त कर ली। ‘काकोरी काण्ड में इन्होंने सक्रिय भाग लिया। इस काण्ड के पश्चात् जब प्रमुख सदस्य पकड़ लिये गये, तब ये क्रान्तिकारी सेना के नायक बना दिये गये।

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प्ररन 4
अल्फ्रेड पार्क में चन्द्रशेखर आजाद के बलिदान पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
सत्ताइस फरवरी उन्नीस सौ इकतीस को प्रातः नौ बजे आजाद, अल्फ्रेड पार्क में एक वृक्ष की छाया में बैठे हुए यशपाल और सुखदेव से बात कर रहे थे। इसी समय उनका विश्वासघाती साथी वीरभद्र त्रिपाठी दिखाई दिया, जिसे देखकर यशपाल उठकर चला गया। इसी समय पुलिस ने आकर पार्क (UPBoardSolutions.com) को चारों ओर से घेर लिया। आजाद ने किसी प्रकार सुखदेव को पार्क के बाहर निकाल और पिस्तौल सँभाल लिया। पुलिस की ओर से गोलियों की बौछार होने लगी। आजाद ने भी अपनी गोलियों से बहुतों को घायल किया। जब उनके पास केवल एक ही गोली शेष रह गयी तो उन्होंने उससे स्वयं को मार लिया और शहीद हो गये।

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Class 9 Sanskrit Chapter 3 UP Board Solutions सुभाषितानि Question Answer

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 3
Chapter Name सुभाषितानि (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 3 Subhashitani Question Answer (पद्य-पीयूषम्)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 3 हिंदी अनुवाद सुभाषितानि के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय-‘सुभाषित’ का अर्थ होता है—सुन्दर वचन, सुन्दर बातें, सुन्दर उक्तियाँ। सुभाषितों से जीवन का निर्माण होता है और जीवन महान् बनता है। जीवन को सफल बनाने के लिए सुभाषित गुरु-मन्त्र के समान हैं। संस्कृत-साहित्य में सुभाषितों का अपरिमित भण्डार संचित है। इसमें ज्ञान के जीवनोपयोगी कथन होते हैं, जो जीवन में उचित आचरण का निर्देश देते हैं। । प्रस्तुत पाठ में 15 सुभाषित श्लोकों का संकलन विविध ग्रन्थों से किया गया है। प्रत्येक श्लोक स्वयं में पूर्ण है।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

 (1)
अन्यायोपार्जितं वित्तं दशवर्षाणि तिष्ठति।
प्राप्ते चैकादशे वर्षे समूलं तद् विनश्यति ॥

शब्दार्थ
अन्यायोपार्जितं = अन्याय से कमाया गया।
वित्तं = धन।
तिष्ठति = ठहरता है।
समूलम् = मूल (धन) सहित, पूर्ण रूप से।
विनश्यति ६ नष्ट हो जाता है।

सन्दर्भ
प्रस्तुत नीति-श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ में संकलित ‘सुभाषितानि’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत–प्रस्तुत पाठ के सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।] प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक में अन्याय से कमाये गये धन को शीघ्र नाशवान् बताया गया है। अन्वय-अन्यायोपार्जितं वित्तं दशवर्षाणि तिष्ठति, एकादशे च वर्षे प्राप्त तद् समूलं विनश्यति।

व्याख्या
अन्याय द्वारा कमाया गया धन मनुष्य के पास दस वर्ष तक ही ठहरता है। ग्यारहवाँ वर्ष प्राप्त होने पर वह मूलधन-सहित नष्ट हो जाता है; अर्थात् वह धन एक निश्चित समय तक; जीवन के एक छोटे अंश तक; ही स्थिर रहता है, उसके बाद नष्ट हो जाता है। अतः मनुष्य को अन्यायपूर्वक धन अर्जित करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए।

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(2)
अतिव्ययोऽनपेक्षा च तथाऽर्जनमधर्मतः ।
मोक्षणं दूरसंस्थानं कोष-व्यसनमुच्यते ॥

शब्दार्थ-

अतिव्ययः = अधिक खर्च।
अनपेक्षा = देखभाल न करना, असावधानी।
अधर्मतः अर्जनम् = अधर्म द्वारा अर्जित करना।
मोक्षणम् = मनमाना त्याग करना या दान देना।
दूरसंस्थानम् = अपने से दूर छिपाकर रखना।
कोष-व्यसनम् = धन के विनाश के दोष (कारण)।
उच्यते = कहे गये।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में धन के विनाश के कारण बताये गये हैं।

अन्वय
अतिव्यय; अनपेक्षा तथा अधर्मतः अर्जनम् , मोक्षणं दूरसंस्थानं च कोष-व्यसनम् उच्यते।

व्याख्या
अत्यधिक खर्च, धन की देखभाल न करना तथा अधर्म या अन्याय द्वारा कमाना, मनमाना त्याग, अपने से दूर (छिपाकर) रखना-ये धन के विनाश के कारण हैं। तात्पर्य यह है कि धन का अत्यधिक व्यय करना, उसकी उचित देखभाल न करना, उसका अधर्म-अन्यायपूर्वक अर्जन करना, पर्याप्त दान करना और उसे अपने से दूर अर्थात् छिपाकर रखना—इन सभी से धन नष्ट हो जाता है।

(3)
नालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थान् न शठाः न च मायिनः।।
न च लोकापवाभीताः न च शश्वत् प्रतीक्षिणः ॥

शब्दार्थ
अलसाः = आलसी रोग।
प्राप्नुवन्त्यर्थान् (प्राप्नुवन्ति + अर्थान्) = धनों को प्राप्त |
करते हैं। मायिनः = छल-कपट वाले।
लोकापवादभीताः = लोक-निन्दा से डरे हुए। शश्वत्
प्रतीक्षिणः = निरन्तर धन की प्रतीक्षा करने वाले।। .

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में धन को प्राप्त न कर पाने वाले लोगों के विषय में बताया गया है।

अन्वयन
अलसाः, ने शठाः, न च मायिनः, न च लोकापवाभीताः, न शश्वत् प्रतीक्षिणः अर्थान् प्राप्नुवन्ति।

व्याख्या
ऐसे लोग धने नहीं कमा सकते हैं, जो आलसी हैं, दुष्ट हैं, अत्यन्त चालाक अर्थात् छल-कपट करने वाले हैं, जो सांसारिक बदनामी से भी डरे हुए हैं अथवा लगातार उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने वाले हैं। तात्पर्य यह है कि धन-अर्जन के इच्छुक व्यक्तियों को इन दुर्गुणों से मुक्त रहना चाहिए।

(4)
वरं दारिद्रयमन्यायप्रभवाद् विभवादिह।
कृशताऽभिमता देहे पीनता न तु शोफतः ॥

शब्दार्थ
वरं = श्रेष्ठ।
दारिद्रयं = गरीबी।
अन्यायप्रभवात् = अन्याय के द्वारा उत्पन्न किये गये।
विभवात् = धन की अपेक्षा।
इह = इस लोक में।
कृशता = कमजोरी।
अभिमता = अभीष्ट है।
पीनता = मोटापा।
शोफतः = सूजन के कारण।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में अन्याय से धनार्जन की अपेक्षा गरीबी को श्रेष्ठ बताया गया है।

अन्वय
इह अन्यायप्रभवात् विभवात् दारिद्रयं वरम् (अस्ति)। देहे कृशता अभिमता, न तु शोफतः पीनता।

व्याख्या
इस संसार में निर्धन होकर रहना श्रेष्ठ है, परन्तु अन्यायपूर्वक धन अर्जित करना उचित नहीं है। जैसे शरीर में कमजोरी (दुबलापन) उचित है, परन्तु सूजन के कारण मोटापा अच्छा नहीं है। तात्पर्य यह है कि अन्यायपूर्वक धन का अर्जन उसी प्रकार उचित नहीं है जिस प्रकार शरीर का स्थूल होना।

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(5)
अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च।
वञ्चनं चाऽपमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत् ॥

शब्दार्थ
अर्थनाशम् = धन के विनाश को।
मनस्तापम् = मन की पीड़ा को।
गृहे = घर में।
दुश्चरितानि = बुरे आचरण को।
वञ्चनम् = ठगे जाने को।
मतिमान् = बुद्धिमान्।
न प्रकाशयेत् = प्रकट न करे।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में दूसरों के सम्मुख प्रकट न करने योग्य बातों का वर्णन किया गया है।

अन्वय
मतिमान् अर्थनाशं, मनस्तापं, गृहे दुश्चरितानि च, वञ्चनं च, अपमानं च न प्रकाशयेत्।

व्याख्या
बुद्धिमान पुरुष वही है, जो धन के नष्ट हो जाने को, मन की वेदना को, घर में बुरे आचरण को, ठगे जाने को और अपमान को दूसरों पर प्रकट नहीं करता। तात्पर्य यह है कि दूसरों से कहने पर सर्वत्र उपहास के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं होता है।

(6)
अतिथिर्बालकः पत्नी जननी जनकस्तथा।
पञ्चैते गृहिणः पोष्या इतरे न स्वशक्तितः॥

शब्दार्थ
अतिथिः = मेहमान।
जननी = माता।
जनकः, = पिता।
गृहिणः = गृहस्थ के।
पोष्या = पोषण करने के योग्य।
इतरे = दूसरे।
स्वशक्तितः = अपनी शक्ति के अनुसार।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है कि प्रत्येक गृहस्थ पुरुष को पाँच लोगों का अवश्य पोषण करना चाहिए।

अन्वय
गृहिणः अतिथिः, बालकः पत्नी, जननी तथा जनकः एते पञ्च पोष्याः (सन्ति), इतरे च स्व-शक्तत: (पोष्याः सन्ति)।

व्याख्या
गृहस्थ पुरुषों को अतिथि, बालक, पत्नी, माता तथा पिता–इन पाँचों का पालन-पोषण तो अवश्य ही करना चाहिए और दूसरों का अपनी शक्ति के अनुसार पालन-पोषण करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि उपर्युक्त पाँच का पालन-पोषण करने में किसी भी गृहस्थ को प्रमाद नहीं करना चाहिए।

(7)
नात्यन्तं सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम्।
छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति सर्वदा ॥

शब्दार्थ
नात्यन्तम् (न + अत्यन्तम्) = अत्यधिक नहीं।
सरलैर्भाव्यं = सीधा-सच्चा होना।
गत्वा = जाकर।
पश्य = देखो।
वनस्थलीम् = वन में।
छिद्यन्ते = काटते हैं।
कुब्जाः = कुबड़े-टेढ़े-मेढ़े वृक्ष, कुटिल।
तिष्ठन्ति = स्थिर रहते हैं।
सर्वदा = हमेशा। |

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है कि व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक सज्जन नहीं होना चाहिए।

अन्वय
अत्यन्तं सरलैः न भाव्यं, वनस्थलीं गत्वा पश्य। तत्र सरलाः (भवन्ति जनाः) छिद्यन्ते कुब्जाः सर्वदा तिष्ठन्ति।

व्याख्या
व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक सीधा नहीं होना चाहिए; वन में जाकर देखो। लोग वन में सीधे वृक्षों को ही काटते हैं; टेढ़े-मेढ़े वृक्ष यों ही खड़े रहते हैं। तात्पर्य यह है कि सीधे और सज्जन व्यक्तियों को ही लोग हानि पहुँचाते हैं, दुर्जन व्यक्तियों को नहीं। यही कारण है कि वन में सीधे (UPBoardSolutions.com) वृक्ष ही काटे जाते हैं, टेढ़े-मेढ़े वृक्ष नहीं। अतः अधिक सज्जनता व्यक्ति के स्वयं के लिए घातक बन जाती है। तुलसीदास जी ने भी कहा है-‘कतहुँ सिधायहु ते बड़ दोषू।’

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(8)
मौनं कालविलम्बश्च प्रयाणं भूमि-दर्शनम्।
भृकुट्यन्यमुखी वार्ता नकारः षड्विधः स्मृतः ॥

शब्दार्थ
कालविलम्बः= समय में देरी करना।
प्रयाणम् = चले जाना।
भूमिदर्शनम् = भूमि की ओर देखने लग जाना।
भृकुटी = भौंह तिरछी करना।
अन्यमुखी वार्ता = दूसरे की ओर मुंह करके बातें करने लग जाना।
नकारः = मना करना, मनाही।
षड्विधः = छः प्रकार का।
स्मृतः = कहा गया है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में किसी विषय में अरुचि प्रदर्शित करने के लक्षणों का उल्लेख किया गया है।

अन्वय
मौनं, कालविलम्बः, प्रयाणं, भूमिदर्शनं, भृकुटी, अन्यमुखी वार्ता चेति षड्विधः नकारः स्मृतः।।

व्याख्या
चुप रहना, समय में देरी करना, अन्य स्थान पर चले जाना, भूमि की ओर देखने लगना, भौंहें टेढ़ी कर लेना, दूसरे की ओर मुँह करके बात करने लगनी-ये छ: प्रकार के मना करने के संकेत स्मृतियों में कहे गये हैं। तात्पर्य यह है कि कोई व्यक्तिं बात करते समय इन छ: लक्षणों में से कोई भी एक लक्षण प्रकट करता है तो व्यक्ति को समझ लेना चाहिए कि उसकी आपकी बातों में कोई रुचि नहीं है अथवा वह आपकी बातों से सहमत नहीं है।

(9)
प्रत्यक्षे गुरवः स्तुत्याः परोक्षे मित्र-बान्धवाः।
कर्मोन्ते दास-भृत्याश्च पुत्री नैव च नैव च ।।

शब्दार्थ
प्रत्यक्षे = सामने, सम्मुख।
गुरवः = गुरु की।
स्तुत्योः = प्रशंसा के योग्य।
परोक्षे = पीछे, बाद में, अनुपस्थिति में।
कर्मान्ते = काम की समाप्ति पर।
भृत्याः = नौकरों की।
नैव = नहीं।।

प्रसंग
कार्य करने पर किसकी किस समय प्रशंसा करनी चाहिए, इसका प्रस्तुत श्लोक में वर्णन किया गया है।

अन्वय
गुरुवः प्रत्यक्षे (स्तुत्याः भवन्ति), मित्र-बान्धवाः परोक्षे (स्तुत्याः भवन्ति), दास-भृत्याः च कर्मान्ते (स्तुत्याः भवन्ति) पुत्राः नैव च नैव च स्तुत्याः (भवन्ति)। |

व्याख्या
गुरुजन सामने प्रशंसा के योग्य होते हैं, मित्र और बन्धुजनों की उनकी अनुपस्थिति में प्रशंसा करनी चाहिए। सेवकों और नौकरों की कर्म की समाप्ति पर प्रशंसा करनी चाहिए। पुत्रों की प्रशंसा कभी नहीं करनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि पुत्र की प्रशंसा कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सम्भव है कि प्रशंसा से हुए अभिमान के कारण उसकी उन्नति का मार्ग अवरुद्ध हो जाए।

(10)
क्षणे तुष्टा क्षणे रुष्टास्तुष्ट रुष्टाः क्षणे क्षणे।
अव्यवस्थितचित्तानां प्रसादोऽपि भयङ्करः ॥

शब्दार्थ
क्षणे = पलभर में।
तुष्टाः = सन्तुष्ट होने, प्रसन्न होने वाले।
रुष्टाः = रूठने वाले, अप्रसन्न होने वाले।
क्षणे-क्षणे = पल-पल में।
अव्यवस्थितचित्तानां = चंचल मन वालों का अर्थात् जिनको मन एकाग्र नहीं।
प्रसादः = कृपा, अनुगृह।
अपि = भी। भयङ्करः = भयानक।।

प्रसंग
इस श्लोक में बताया गया है कि किस प्रकार के व्यक्ति को किस प्रकार के लोगों से सावधान रहना चाहिए।

अन्वय
(ये जनाः) क्षणे तुष्टाः क्षणे रुष्टाः क्षण-क्षणे तुष्टा:-रुष्टाः (ईदृशाः) अव्यवस्थित चित्तानां (जनानां) प्रसादः अपि भयङ्करः (भवति)। |

व्याख्या
जो लोग पलभर में सन्तुष्ट हो जाते हैं, अर्थात् प्रसन्न हो जाते हैं, पलभर में नाराज हो जाते हैं और पल-पल में नाराज और अप्रसन्न होते रहते हैं, ऐसे अस्थिर चित्त वाले लोगों की अनुकम्पा भी भयंकर होती है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को ऐसे लोगों से दूर ही रहना चाहिए।

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(11)
षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥

शब्दार्थ
षड् = छः।
पुरुषेण = मनुष्य द्वारा।
हातव्याः = त्याग करना चाहिए।
भूतिम् इच्छता = कल्याण चाहने वाले मनुष्य को।
तन्द्रा = ऊँघना, निद्रालुता।
दीर्घसूत्रता = किसी काम को धीरे-धीरे करना; अर्थात् मन्द गति से कार्य करना।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में मनुष्य के दोषों को बताकर उन्हें त्यागने का परामर्श दिया गया है।

अन्वेय
इह भूतिम् इच्छता पुरुषेण निद्रा, तन्द्रा, भयं, क्रोधः, आलस्यं, दीर्घसूत्रता–(एते) षड् दोषाः हातव्याः।।

व्याख्या
इस संसार में कल्याण चाहने वाले मनुष्य को नींद, ऊँघना (बँभाई लेना), भय, क्रोध, आलस्य और धीरे-धीरे काम करना-इन छ: दोषों का त्याग कर देना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति में भी ये दोष होंगे, वह कभी उन्नति नहीं कर सकता।

(12)
विद्या विनयाऽवाप्तिः सा चेदविनयाऽऽवहा।
किं कुर्मः कं प्रति बूमः गरदायां स्वमातरि ॥

शब्दार्थ
विद्यया = विद्या से।
विनयाऽवाप्तिः = विनय की प्राप्ति।
चेत् = यदि।
अविनयाऽऽवहा = उद्दण्डता लाने वाली।
कुर्मः = करें।
बूमः = कहें।
गरदायाम् = विष देने वाली हो जाने पर।
स्वमातरि = अपनी माता।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में विद्या के उद्देश्य को विनय से सम्पन्न होना बताया गया है।

अन्वय
विद्यया विनयाऽवाप्तिः (भवति) सा विद्या अविनयाऽऽवहा चेत् (स्यात्) किं कुर्मः? | स्वमातरि गरदायां के प्रति ब्रूमः? |

व्याख्या
विद्या से विनय की प्राप्ति होती है। यदि वह उद्दण्डता प्रदान करने वाली हो जाए तो हम क्या करें? अपनी ही माता के विष देने वाली हो जाने पर हम किससे कहें? तात्पर्य यह है कि यदि विद्यार्जन से हमें विनयी होने का गुण नहीं प्राप्त होता, तो ऐसा विद्यार्जन हमारे लिए व्यर्थ है।

(13)
सर्वे यत्र विनेतारः सर्वे पण्डितमानिनः।।
सर्वे महत्त्वमिच्छन्ति तद् वृन्दम वसीदति ॥

शब्दार्थ
सर्वे = सभी।
यत्र = जहाँ।
विनेतारः = नेता, मार्गदर्शक।
पण्डित = विद्वान्।
मानिनः= मानने वाले।
महत्त्वमिच्छन्ति (महत्त्वम् + इच्छन्ति) = प्रशंसा चाहते हैं।
वृन्दम् = समूह।
अवसीदति = निराश होता है।

प्रसंग
किस समूह की दलगत स्थिति निराशापूर्ण होती है; प्रस्तुत श्लोक में इस बात को समझाया गया है।

अन्वय
तद् वृन्दम् अवसीदति, यत्र सर्वे विनेतारः सर्वे पण्डितमानिनः, सर्वे महत्त्वम् इच्छन्ति।

व्याख्या
वह दल अथवा समूह निराश होता है, जहाँ सभी नेता हों, सब अपने आपको विद्वान् मानते हों और सबै दल में महत्त्व पाने की इच्छा करते हों। तात्पर्य यह है कि जिस सभा में सभी लोग महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करने की इच्छा रखते हों, वह सभा कभी सफल नहीं होती; अर्थात् नेतृत्व एक के हाथ में ही होना चाहिए।

(14)
सम्पूर्णकुम्भो न करोति शब्दमर्दो घटो घोषमुपैति नूनम् ।।
विद्वान् कुलीनो न करोति गर्वं जल्पन्ति मूढास्तु गुणैर्विहीनाः ॥

शब्दार्थ
सम्पूर्णकुम्भः = पूण रूप से भरा हुआ घड़ा।
शब्दम् = आवाज।
अर्द्धः = आधा।
घषम् उपैति = शब्द करता है।
नूनम् = निश्चय ही।
कुलीनः = अच्छे कुल में उत्पन्न।
गर्वम् = अहंकार।
जल्पन्ति = बक्रवास करते हैं।
मूढाः = मूर्ख।
गुणैर्विहीनाः = गुणों से रहित।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में मूर्ख और गुणी लोगों की पहचान बतायी गयी है।

अन्वय
सम्पूर्णकुम्भ: शब्दं न करोति। अर्धः घट: नूनं घोषम् उपैति। कुलीनः विद्वान् गर्वं न करोति। गुणैर्विहीनाः मूढाः तु जल्पन्ति।

व्याख्या
(जल से) भरा हुआ घड़ा (चलते समय) शब्द नहीं करता है। (जल से) आधा भरा हुआ घड़ा निश्चय ही (चलते समय छलकने के) शब्द को प्राप्त होता है। उच्च कुल में उत्पन्न विद्वान् घमण्ड नहीं करता है, लेकिन गुणों से रहित मूर्ख लोग (व्यर्थ में) बकवास करते हैं। तात्पर्य यह है कि विद्वान् व्यक्ति व्यर्थ कभी बकवास नहीं करते हैं और मूर्ख बकवास में ही अपना समय व्यतीत करते हैं।

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(15)
दरिद्रता धीरतया विराजते कुरूपता शीलतया विराजते ।
कुभोजनं चोष्णतया विराजते कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते ॥

शब्दार्थ
दरिद्रता = निर्धनता, गरीबी।
धीरतया = धैर्य के कारण।
विराजते = सुशोभित होता है।
कुरूपता = बदसूरती।
शीलतया = सदाचार और अच्छे स्वभाव के कारण।
कुभोजनम् = स्वादरहित । भोजन।
उष्णतया = गर्म रहने के कारण।
कुवस्त्रता= बुरे वस्त्र, मलिन वस्त्र।
शुभ्रतया= साफ होने से। |

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में उन बातों पर प्रकाश डाला गया है, जिनके द्वारा व्यक्ति की शोभा बढ़ती है।

अन्वय
दरिद्रता धीरतया विराजते। कुरूपता शीलतया विराजते। कुभोजनं च उष्णतया विराजते। कुवस्त्रता च शुभ्रतया विराजते।।

व्याख्या
दरिद्रता धैर्य रखने से सुशोभित होती है। बदसूरती अच्छे स्वभाव या आचरण से सुशोभित होती है। स्वादरहित भोजन गर्म करने से शोभा पाता है और बुरे वस्त्र पहनना सफेद से या साफ रहने से शोभा पाता है। तात्पर्य यह है कि यदि किसी व्यक्ति में उपर्युक्त दुर्गुण हों तो वह उनके उपायों को अपनाकर अपने आपको गुणवान् बना सकता है।

सूक्तिपरक वाक्य की व्याख्या

(1) वरं दारिद्रयमन्यायप्रभवाद् विभवादिह ।।

सन्दर्य
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘सुभाषितानि । शीर्षक पाठ से अवतरित है।

[संकेत-इस शीर्षक के अन्तर्गत आयी हुई समस्त सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। |

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में बताया गया है कि व्यक्ति को अन्याय से धन-संचय नहीं करना चाहिए।

अर्थ-
अन्याय से अर्जितं धन-सम्पदा से तो निर्धन होना श्रेष्ठ है।।

व्याख्या
श्रम से कमाया गया धन ही व्यक्ति के काम आता है और उसी से व्यक्ति के मन को सन्तोष और शान्ति मिलती है। अन्याय से अर्जित धन सदैव व्यक्ति को परेशान रखता है; क्योंकि व्यक्ति को सदैव ही यह भय बना रहता है कि कहीं उसके द्वारा अनैतिक साधनों से संग्रह करके जो धन छिपाया गया है, उसका भण्डाफोड़ न हो जाये। भला ऐसे धन का क्या लाभ, जो व्यक्ति से उसके दिन का.चैन और रातों की नींद छीन ले। मन की शान्ति संसार का सबसे बड़ा धन है। यदि निर्धनता में भी मन की शान्ति बनी रहती है तो यह निर्धनता अन्यायपूर्वक धनोपार्जन करके धनवान् होने से अधिक श्रेष्ठ है।

(2) कृशताऽभिमता देहे पीनता न तु शोफतः ।

प्रसंग
व्यक्ति के स्वस्थ होने के महत्त्व को प्रस्तुत सूक्ति में बताया गया है।

अर्थ
सूजन के मोटापे से शरीर की दुर्बलता ही अच्छी है। |

व्याख्या
किसी रोगवश सूजन के कारण शरीर में आयी स्थूलता किसी काम की नहीं होती; क्योंकि यह स्थूलता व्यक्ति को केवल कष्ट ही दे सकती है। वह व्यक्ति के लिए प्राणघातक हो सकती है अथवा व्यक्ति को अपंग भी बना सकती है। ऐसी स्थूलता से भला क्या लाभ, जो व्यक्ति के प्राण ले ले अथवा उसे अपंग बनाकर नारकीय जीवन जीने को विवश कर दे। उसे स्थूलता के कष्ट से तो शरीर की दुर्बलता ही अच्छी है। कम-से-कम यह दुर्बलता व्यक्ति को कोई कष्ट तो नहीं देती। तात्पर्य यह है कि दुर्बल होते हुए भी स्वस्थ शरीर वाला मनुष्य अधिक उत्तम होता है।

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(3) अव्यवस्थितचित्तानां प्रसादोऽपि भयङ्करः।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में अस्थिर मन वाले लोगों से दूर रहने का परामर्श दिया गया है।

अर्थ
अस्थिर मन वालों की कृपा भी भयंकर होती है।

व्याख्या
जो लोग पलभर में रूठ जाते हैं और पलभर में मान जाते हैं, जो छोटी-छोटी बातों पर रूठते-मानते रहते हैं, ऐसे अस्थिर मन वाले लोगों की कृपा भी भयंकर होती है; क्योंकि ऐसे लोगों का कुछ पता नहीं होता कि वे कब क्या कर बैठेगे ? ऐसे लोग भावुकता में बहकर कभी-कभी व्यक्ति का ऐसा अनिष्ट कर डालते हैं कि उसका उस अनिष्ट से उबर पाना मुश्किल ही नहीं असम्भव हो। जाता है। उदाहरणस्वरूप ऐसे किसी व्यक्ति के साथ मिलकर आप व्यापार आरम्भ करते हैं और अपनी कुल जमापूंजी उसमें लगा देते हैं। व्यापार अभी ठीक से आरम्भ भी नहीं हुआ होता कि वह किसी बात से नाराज होकर अपनी पूँजी के साथ व्यापार से अलग हो जाता है। ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति के कारण आप अपना सब कुछ लुटा बैठेगे। इसलिए ऐसे लोगों से दूर ही रहना चाहिए।

(4) सम्पूर्णकुम्भो न करोति शब्दमर्दो घटो घोषमुपैति नूनम् ।

प्रसंग
प्रस्तुत संक्ति में अज्ञानी व्यक्ति के विषय में बताया गया है।

अर्थ
पूरा भरा हुआ घड़ा शब्द नहीं करता है। आधा घड़ा निश्चय ही शब्द करता है।

व्याख्या
प्रायः देखा जाता है कि जो घड़ा पूरा भरा होता है, दूसरी जगह ले जाते समय वह शब्द नहीं करता। इसके विपरीत जो घड़ा आधा भरा होता है, वह दूसरी जगह ले जाते समय अवश्य शब्द करता है; क्योंकि खाली जगह होने के कारण वह छलकता है और छलकने का शब्द अवश्य होता है। उसी प्रकार जो विद्वान् और कुलीन होता है, वह अहंकार नहीं करता, वह बढ़-चढ़कर डींग नहीं मारता। इसके विपरीत जो अल्पज्ञ और गुणों से हीन होते हैं, वे बहुत डींगे मारते हैं। विद्वान् और कुलीन पूरे भरे घड़े के समान गम्भीर होते हैं; जब कि ओछे व्यक्ति आधे भरे हुए घड़े के समान छलके बिना नहीं रह सकते।

विशेष—इसी सन्दर्भ में निम्नलिखित उक्तियाँ भी कही गयी हैं
(1) क्षुद्र नदी भरि चली उतराई।
(2) अल्प विद्या भयंकरी
(3) प्यादे ते फरजी भयो टेढो-टेढो जाय।
(4) अधजल गगरी छलकत जाय।
(5) थोथा चना बाजे घना।

श्लोक का संस्कृत अर्थ

(1) नालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थान्••••••••••••••••••••••• शश्वत् प्रतीक्षिणः ॥ (श्लोक 3 )
संस्कृतार्थः–
अस्मिन् संसारे धनं त एव जनाः लभन्ते ये श्रमशीला भवन्ति परन्तु अकर्मण्याः, धूर्ताः, मायाविनः, लोकापवाद-भीताः एवं समुचितावसरं सदैव प्रतीक्षमणाः जनाः अर्थान् कदापि न लभन्ते।

(2) अतिथिर्बालकः ••••••••••••••••••च स्वशक्तितः ॥ (श्लोक 6)
संस्कृताः –
अस्मिन् लोके गृहस्थैर्जनेर्विना प्रमादम् अतिथयः बालकाः पत्नी, माता तथा पिता सर्व प्रकारैः सेवनीया भवन्ति। एते पञ्च यथाशक्ति पोष्याः। अन्ये चापि जीवाः, प्राणिना वा यथाशक्ति परिपाल्याः सन्ति।

(3) पंड् दोषाः पुरुषेणेह ••••••••••••••••••••••• आलस्य दीर्घसूत्रता ॥ (श्लोक 11)
संस्कृतार्थः-
अस्मिन् संसारे यः मनुष्यः कल्याणम् इच्छति सः निद्रां, तन्द्रा, भयं, क्रोधम्, आलस्यं तथा मन्दगत्या कार्यकरणम् इति षड् दोषान् त्यजेत्।

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(4) सम्पूर्णकुम्भो न•••••••••••••••••••••••• मूढास्तु गुणैर्विहीनाः॥ (श्लोक 14)
संस्कृतार्थः-
प्रतिदिनं व्यवहारे दृश्यते यत् यः घट: जलेन पूर्णः भवति, तस्य कदापि शब्द: न भवति। य: घट: जलेन अर्धपूर्णः अस्ति, सः अवश्यमेव शब्दं करोति। एवमेव यः जनः उच्चकुलोत्पन्नः विद्वान् च भवति, सः स्वस्य कुलस्य विद्वत्तायाश्च कदापि अहङ्कारं न करोति। एतद् विपरीतं ये जनाः गुणैः विहीनाः अल्पशिक्षिताः च सन्ति, ते मूढा एवं बहुभाषन्ते।

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Class 9 Sanskrit Chapter 3 UP Board Solutions न गङ्गदतः पुनरेति कूपम् Question Answer

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Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 3
Chapter Name न गङ्गदतः पुनरेति कूपम् (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 24
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 3 Na Gangadatta Punareti Kuppam Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 3 हिंदी अनुवाद न गङ्गदतः पुनरेति कूपम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांश

परिचय-संस्कृत साहित्य में कथा-लेखन की परम्परा अत्यधिक प्राचीन है। तत्कालीन समय में इन कथाओं की रचना का उद्देश्य धर्म, अर्थ एवं काम की प्राप्ति हुआ करता था। इनके अतिरिक्त संस्कृत वाङ्मय में नीति और उपदेशात्मक कथाओं की भी एक दीर्घ श्रृंखला प्राप्त होती है जिनमें ‘पञ्चतन्त्रम्, ‘हितोपदेशः’, ‘बृहत्कथामञ्जरी’, ‘कथासरित्सागर’, ‘वेतालपञ्चविंशतिका’, ‘भोजप्रबन्ध’, ‘भट्टकद्वात्रिंशतिका’ आदि उल्लेखनीय हैं। इस सभी कथा-श्रृंखलाओं में ‘पञ्चतन्त्रम्’ नामक कथा-संग्रह सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इसके रचयिता (UPBoardSolutions.com) विष्णुशर्मा नाम के एक ब्राह्मण थे। इन्होंने महिलारोप्य नगर के राजा अमरशक्ति के अयोग्य एवं विवेकशून्य पुत्रों को शिक्षित करने के लिए इस ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ. में शिष्टाचार, सदाचार, राजनीति एवं लोक-नीति से सम्बद्ध विषयों का कथाओं के माध्यम से अच्छा प्रतिपादन किया गया है। इसकी कथाओं के माध्यम से प्राप्त ज्ञान के द्वारा राजा अमरशक्ति के पुत्र अत्यधिक ज्ञानी और विवेकशील हो गये।

इस ग्रन्थ में पशु-पक्षियों, मानवों आदि के माध्यम से प्रत्येक कथा को विस्तार दिया गया है। इस ग्रन्थ के पाँच तन्त्र (भाग) हैं-‘मित्रभेदः’, ‘मित्र-सम्प्राप्तिः’, ‘काकोलूकीयम्’, ‘लब्धप्रणाशम् तथा ‘अपरीक्षितकारकम्’। इस ग्रन्थ का रचनाकाल 300 ईस्वी के आसपास माना जाता है। प्रस्तुत कथा इसी ग्रन्थ के चतुर्थ तन्त्र ‘लब्धप्रणाशम्’ से ली गयी है।

भागीदारों से बदला लेने का उपाय- किसी कुएँ में गंगदत्त नाम को मेढकों का राजा रहता था। वह अपने भागीदारों से अत्यधिक परेशान होकर एक दिन रहट की बाल्टी में चढ़कर कुएँ से बाहर निकल आया। उसने अपने भागीदारों से बदला लेने का विचार करके बिल में प्रवेश करते हुए एक काले सर्प को देखा और उसकी सहायता से अपने भागीदारों के विनाश करने का निश्चय किया। उसने बिल के द्वार पर जाकर सर्प को बुलाया और उससे मैत्री करने का प्रस्ताव किया। पहले तो सर्प (प्रियदर्शन) इसके लिए तैयार न हुआ, किन्तु बाद में (UPBoardSolutions.com) गंगदत्त की करुण कहानी सुनकर और उसके द्वारा भोज्य को सुलभतापूर्वक प्राप्त होता देककर उसके मैत्री प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। गंगदत्त ने उसे पक्के कुएँ में रहट के मार्ग से ले जाकर जल के पास स्थित कोटर (वह खोखला अंश, जिसमें पक्षी, साँप आदि रहते हैं।) में बैठकर सुख से भागीदारों का विनाश करने के लिए कहा और अपने परिवार वालों के भक्षण का निषेध कर दिया।

मेढकों का समूल विनाश- गंगदत्त ने सर्प को अपने भागीदार दिखा दिये। सर्प धीरे-धीरे उसके ‘समस्त भागीदारों को, कुछ को उसकी उपस्थिति में और कुछ को उसकी अनुपस्थिति में; चट कर गया। मेढकों के समाप्त हो जाने पर सर्प ने गंगदत्त से कहा कि मैंने तुम्हारे शत्रुओं को खा लिया है, अब मुझे दूसरा भोजन लाकर दो। इसके बाद गंगदत्त ने उसे अपने परिवार का एक मेढक प्रतिदिन देना प्रारम्भ कर दिया। सर्प उसे खाकर उसके पीछे दूसरों को भी खा लेता था। इसी प्रकार एक दिन उसने दूसरे मेढकों को खाकर गंगदत्त के पुत्र यमुनादत्त को भी खा लिया। कुछ दिनों बाद केवल गंगदत्त शेष रह गया।

गंगदत्त को कुएँ से बाहर जाना- एक दिन सर्प प्रियदर्शन ने गंगदत्त से कहा कि मैं भूखा हूँ, मुझे कुछ भोजन दो। गंगदत्त ने कहा कि तुम चिन्ता मत करो, मैं दूसरे कुएँ से मेंढक लाकर तुम्हें दूंगा और वह रहट की बाल्टी में चढ़कर कुएँ से बाहर आ गया। बहुत दिनों तक गंगदत्त के न आने पर प्रियदर्शन ने (UPBoardSolutions.com) अन्य कोटर में रहने वाली गोध्रा से कहा कि तुम गंगदत्त को खोजकर मेरा सन्देश उससे कहो कि यदि दूसरे मेढक नहीं आते हैं तो तुम अकेले ही आ जाओ, मैं (प्रियदर्शन) तुम्हारे बिना नहीं रह सकता।

गंगदत्त का न लौटना- गोधा ने सर्प के कहने से गंगदत्त को खोजकर कहा कि तुम्हारा मित्र (प्रियदर्शन) तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है, तुम वहाँ शीघ्र चलो। तब गंगादत्त ने गोधा से कहा कि “भूखा  कौन-सा पाप नहीं करता; अतः हे भद्रे! प्रियदर्शन से कहो कि गंगदत्त पुनः कुएँ में वापस नहीं जाएगा।’ ऐसा कहकर उसने गोधा को वापस भेज दिया।

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चरित्र-चित्रण

गंगदत्त 
परिचय- मेढकों का राजा गंगदत्त कुएँ में रहता है। वह अपने वंश के मेढकों से बहुत परेशान है। और उनसे बदला लेने की बात सोचकर कुएँ से बाहर आता है। वह मेढक जाति के जन्मजात शत्रु काले सर्प से मित्रता करके अपने वंश का समूल विनाश कर देता है। उसके चरित्र में निम्नांकित । विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं

(1) अविवेकी व्यक्ति का प्रतीक- गंगदत्त एक ऐसे अविवेकी व्यक्ति का प्रतीक है, जो अपने वंश के सगे-सम्बन्धियों का विनाश करने के लिए अपने जन्मजात शत्रु से सहायता लेता है और उनके साथ अपने परिवार के भी समूह विनाश को देखकर पश्चात्ताप की अग्नि में जलता रहता है। (UPBoardSolutions.com) उसे तभी सद्बुद्धि आती है, जब उसका परिवार भी समूल नष्ट हो जाता है। बिना बिचारे जो करै, सो पाछे पछिताय।’ जैसी कहावतें वास्तव में गंगदत्त जैसे अविवेकी व्यक्ति पर ही चरितार्थ होती हैं।

(2) मूर्ख- गंगदत्त इतना मूर्ख मेढक है कि वह अपने जन्मजात शत्रु को अपने परिवार वालों के पास शरण देता है। अन्ततः उसे अपनी मूर्खता का दुष्परिणाम भुगतना ही पड़ता है।

(3) भीरु– गंगदत्त भीरु प्रकृति का है। वह कायरों की भाँति अपने प्राण बचाकर अन्य मेढकों को लाने के बहाने कुएँ से बाहर चला जाता है। गोधा द्वारा बुलाये जाने पर भी वह नहीं आता। उसे डर है। कि सर्प भूखा होने के कारण उसे भी खा जाएगा। उसकी यही दुर्बलता उसमें प्रारम्भ में भी देखने को मिलती है। यदि ऐसा न होता तो वह अपने भागीदारों का सामना करता और उनसे डरकर न भागता। उसकी भीरुता ही उसे पश्चात्तापमय जीवन व्यतीत करने को बाध्य करती है। |

(4) घोर स्वार्थी–गंगदत्त घोर स्वार्थी है। स्वार्थ-साधन के लिए वह औचित्य-अनौचित्य का भी ध्यान नहीं रखता। उसकी स्वार्थपरता का अन्त वंश के संमूलोच्छेद से होता है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि गंगदत्तं प्रतिशोधी स्वभाव का अविवेकी, भीरु और वज्रमूर्ख मेढक है, जो अपने वंशोच्छेद के बाद पश्चात्ताप की अग्नि में जलने के लिए बच जाता है।

प्रियदर्शन 

परिचय- प्रियदर्शन एक काला साँप है। गंगदत्त उससे मित्रता र्करके अपने सगे-सम्बन्धियों के विनाश के लिए उसे कुएँ में ले जाता है। वहाँ प्रियदर्शन गंगदत्त के सम्बन्धियों के साथ-साथ उसके परिवार का भी भक्षण कर जाता है। उसके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ हैं

(1) नीतिज्ञ— प्रियदर्शन नीति को जानने वाला है। गंगदत्त के पुकारने पर वह तुरन्त बिल से बाहर नहीं आता। उसे शंका है कि वह किसी मन्त्र, वाद्य, औषध से आकृष्ट करके उसे बन्धन में डालना चाहता है। वह गंगदत्त के मित्र बनने के प्रस्ताव पर भी सहसा विश्वास नहीं करता है। अन्ततः वह गंगदत्त (UPBoardSolutions.com) को कुलांगार जानकर उससे मित्रता करता है। वह सोचता है कि मैं कुएँ में आराम से रहूँगा और मेंढकों को खा जाऊँगा। अब अपने भोजन की चिन्ता मुझे नहीं करनी होगी।

(2) कपटी- मित्र-प्रियदर्शन गंगदत्त से मित्रता कर कपट करता है। वह वंशद्रोही गंगदत्त से इसलिए मित्रता करता है कि उसे आराम से भोजन मिलेगा। वह गंगदत्त के वंश-के साथ उसके पुत्र और पत्नी को भी खा जाता है और अन्त में गंगदत्त को भी अपनी मीठी बातों में फंसाकर खा जाना चाहता

(3) कृतघ्न- प्रियदर्शन कृतघ्न है। गंगदत्त की मूर्खता से उसे मेढकों के भक्षण का अवसर मिल जाता है, लेकिन उसकी लालसा बढ़ती ही जाती है। वह गंगदत्त के परिवार के मेढकों को खाकर अपनी कृतघ्नता का परिचय देता है। उसे मित्र के साथ विश्वासघात के दोष से मुक्त नहीं किया जा सकता।

(4) मूर्ख- प्रियदर्शन नीतिज्ञ होते हुए भी मूर्ख है। वह गंगदत्त की इस बात पर विश्वास कर लेता है कि वह उसे और मेढक लाकर देगा। अपनी मूर्खता के कारण ही उसे कुएँ में अकेले रहने के लिए विवश होना पड़ता है।

(5) दूरदर्शी- प्रियदर्शन एक दूरदर्शी सर्प है। वह प्रत्येक कार्य को करने से पहले उसके दूरगामी . परिणाम को सोचता है। जब वह इस निष्कर्ष पर पहुँच जाता है कि गंगदत्त के साथ कुएँ में जाने से उसे कोई हानि नहीं है, तब ही वह उसके साथ कुएँ में जाता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है (UPBoardSolutions.com) कि सर्प प्रियदर्शन के चरित्र में उपर्युल्लिखित समस्त विशेषताएँ पूर्णरूपेण विद्यमान हैं। इन विशेषताओं के सन्दर्भ में उसे बुरे-से-बुरे पात्र का प्रतीक माना जा सकती है।

लघु-उत्तरीय संस्कृत प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए

प्रश्‍न 1
गङ्गदत्तः कुत्रे प्रतिवसति स्म?
उत्तर
गङ्गदत्तः एकस्मिन् कुपे प्रतिवसति स्म।

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प्रश्‍न 2
गङ्गदत्तः किं कर्तुं प्रियदर्शनमाहूतवान्?
उत्तर
गङ्गदत्तः स्व दायादानां विनाशं कर्तुं प्रियदर्शनम् आहूतवान्।

प्रश्‍न 3
मण्डूकोभावे सर्पेण गङ्गदत्तः किमभिहितः?
उत्तर
मण्डूकाभावे सर्प: गङ्गदत्तम् अवदत्–भद्र! प्रयच्छ मे किञ्चिद् भोजनम्।

प्रश्‍न 5
गङ्गदत्तः स्वपल्या कथं निन्दितः?.,
उत्तर
गङ्गदत्त: स्वपल्या स्वपक्षक्षयकारणात् निन्दितः।

प्रश्‍न 5
गोधा प्रियदर्शनस्य कं सन्देशं गङ्गदत्तमकथयत्?
उत्तर
गोधा प्रियदर्शनस्य आगम्यतामेकाकिनापि भवता द्रुततरं, यदन्ये मण्डूकाः नागच्छन्ति। इति सन्देशं गङ्गदत्तमकथयत्।

प्रश्‍न 6
का निष्करुणा भवन्ति?
उत्तर
क्षीणाः नराः निष्करुणा भवन्ति।

वस्तुनिष्ठ  प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए

1. ‘न गङ्गदत्तः पुनरेति कूपम्’ नामक पाठ किस ग्रन्थ से लिया गया है?
(क) बृहत्कथामञ्जरी से
(ख) पञ्चतन्त्रम् से 
(ग) हितोपदेश से
(घ) कथासरित्सागर से

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2. ‘पञ्चतन्त्रम्’ के रचयिता कौन हैं?
(क) महाकवि भास
(ख) पण्डित विष्णु शर्मा
(ग) गुणाढ्य ।
(घ) शर्ववर्मा

3. पंण्डित विष्णु शर्मा ने पञ्चतन्त्रम् की रचना किसलिए की थी?
(क) अपने पुत्रों को शिक्षा देने के लिए।
(ख) सातवाहन के पुत्रों को शिक्षा देने के लिए
(ग) अमरशक्ति के पुत्रों को शिक्षा देने के लिए।
(घ) अमरशक्ति को शिक्षा देने के लिए

4. गंगदत्त कौन है?
(क) एक मगरमच्छ
(ख) एक सर्प
(ग) एक कछुआ
(घ) एक मेंढक

5. गंगदत्त कहाँ रहता था? 
(क) सरोवर में
(ख) कूप में,
(ग) बिल में
(घ) कोटर में

6. प्रियदर्शन किसका नाम है? 
(क) गंगदत्त के पुत्र का
(ख) यमुनादत्त के पिता का
(ग) एक मगरमच्छ का
(घ) एक सर्प का 

7. गंगदत्त प्रियदर्शन को कुएँ में क्यों लाया था? …………।
(क) वह प्रियदर्शन को अपना घर दिखाना चाहता था ,
(ख) प्रियदर्शन गंगदत्त का सम्बन्धी था ।
(ग) गंगदत्त प्रियदर्शन को दिखाकर अपने बन्धुओं को डराना चाहता था ।
(घ) गंगदत्त प्रियदर्शन के द्वारा अपने भागीदारों का विनाश कराना चाहता था।

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8. गंगदत्त की पत्नी ने गंगदत्त की निन्दा क्यों की?
(क) गंगदत्त द्वारा लाये गये सर्प ने उसके पुत्र यमुनादत्त को खा लिया था
(ख) गंगदत्त अपने बन्धुओं के साथ मित्रता से नहीं रह रहा था।
(ग) गंगदत्त की पत्नी को प्रियदर्शन से भय लगता था ।
(घ) प्रियदर्शन सर्प ने गंगदत्त की पत्नी को खाना चाहा था।

9. ‘स्वभाववैरी त्वमस्माकम्’ में किसको किसका वैरी कहा गया है?
(क) मेढक को गोधा का
(ख) गोधा को मेढक का
(ग) मेढक को साँप का
(घ) साँप को मेढक का

10. प्रियदर्शन सर्प ने गंगदत्त मेढक को कुएँ से बाहर क्यों जाने दिया?
(क) प्रियदर्शन कुएँ में अकेला रहना चाहता था,
(ख) प्रियदर्शन ने गंगदत्त के द्वारा अपने घर सन्देश भेजा था।
(ग) गंगदत्त ने बाहर से मेढकों को लाने का आश्वासन दिया था
(घ) गंगदत्त के शरीर से बहुत दुर्गन्ध आती थी।

11. गंगदत्त लौटकर कुएँ में क्यों नहीं गया?
(क) उसको कुएँ से अच्छा निवासस्थान मिल गया था।
(ख) उसको कुएँ में शीत सताती थी।
(ग) उसको प्रियदर्शन द्वारा खाये जाने का भय था
(घ) वह कुएँ में उतरने में असमर्थ था

12. ‘बुभुक्षितः किं न करोति पापं’ इस पंक्ति में बुभुक्षित किसको कहा गया है?
(क) गंगदत्त को
(ख) यमुनादत्त को
(ग) प्रियदर्शन को
(घ) गोधा को

13. ‘न गङ्गदत्तः पुनरेति कूपम्’, पाठ में कपटी मित्र कौन है?
(क) गोधा
(ख) यमुनादत्त
(ग) गंगदत्त
(घ) प्रियदर्शन

14. ‘भो गङ्गदत्त, बुभुक्षितोऽहम्। निःशेषिताः सर्वे मण्डूकाः।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) गोधा ।
(ख) यमुनादत्तः
(ग) प्रियदर्शनः
(घ) मण्डूक

15. ‘अथ मण्डूकाभावे सर्पणाभिहितम्-भद्र, निःशेषितास्ते •••••••••••।’ में वाक्यपूर्ति होगी–
(क) परिजनाः
(ख) रिपवः
(ग) सुहृदाः
(घ) मित्राणि

16. ‘भो! अश्रद्धेयमेतत् यत्तृणानाम् अग्निना सह सङ्गमः।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) गोधा
(ख) यमुनादत्त
(ग) प्रियदर्शनः
(घ) मण्डूकः

17. ‘तस्य मध्ये जलोपान्ते रम्यतरं कोटरम् अस्ति।’ वाक्यस्य वक्ता कोऽस्ति?
(क) गोधा
(ख) यमुनादत्तः
(ग) गङ्गदत्तः
(घ) प्रियदर्शन:

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18. ‘अथान्यदिने सर्पेणगङ्गदत्तसुतो •••••••••• भक्षितः।’ वाक्य में रिक्त-स्थान में जाएगी
(क) प्रियदर्शनो
(ख) सरयूदत्तो
(ग) भगीरथो,
(घ) यमुनादत्तो

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