UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi गद्य गरिमा Chapter 2 महाकवि माघ का प्रभात-वर्णन

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 2
Chapter Name महाकवि माघ का प्रभात-वर्णन (आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी)
Number of Questions 4
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi गद्य गरिमा Chapter 2 महाकवि माघ का प्रभात-वर्णन (आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी)

लेखक का साहित्यिक परिचय और भाषा-शैली

प्रश्न:
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का जीवन-परिचय लिखते हुए उनकी कृतियाँ लिखिए तथा भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
या
महावीरप्रसाद द्विवेदी का साहित्यिक परिचय देते हुए उनकी भाषा-शैली की विशेषताएँ बताइट।
या
महावीरप्रसाद द्विवेदी का साहित्यिक परिचय दीजिए।
या
महावीरप्रसाद द्विवेदी की भाषा-शैली की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
जीवन-परिचय:
हिन्दी साहित्याकाश के देदीप्यमान नक्षत्र आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी युग-प्रवर्तक साहित्यकार, भाषा के परिष्कारक, समालोचना के सूत्रधार एवं यशस्वी सम्पादक थे। इनका जन्म रायबरेली जिले के दौलतपुर ग्राम में सन् 1864 ई० में हुआ था। इनके पिता पं० रामसहाय द्विवेदी ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेना में साधारण सिपाही थे। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण द्विवेदी जी ने स्कूली शिक्षा समाप्त करके रेलवे में नौकरी कर ली तथा घर पर ही संस्कृत, मराठी, बंगला, अंग्रेजी और हिन्दी भाषाओं का अध्ययन किया। सन् 1903 ई० में रेलवे की नौकरी छोड़कर ‘सरस्वती’ पत्रिका का सम्पादन प्रारम्भ किया और हिन्दी भाषा की सेवा के लिए अपना शेष जीवन अर्पित कर दिया। इनकी हिन्दी सेवाओं से प्रभावित होकर इनको काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने ‘आचार्य’ की उपाधि से तथा हिन्दी-साहित्य सम्मेलन ने । ‘साहित्य-वाचस्पति’ की उपाधि से सम्मानित किया। सन् 1938 ई० में सरस्वती को यह वरद-पुत्र स्वर्ग सिधार गया।

साहित्यिक सेवाएँ: आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी हिन्दी-साहित्य के युग-प्रवर्तक साहित्यकार हैं। साहित्य-रचना में इनकी रुचि आरम्भ से ही थी। रेलवे में नौकरी करते हुए भी ये साहित्य-रचना करते रहे, परन्तु इनकी साहित्य-साधना का विधिवत शुभारम्भ ‘सरस्वती’ पत्रिका के सम्पादन अर्थात् सन् 1903 ई० से ही होता है। ‘सरस्वती’ का सफलतापूर्वक सम्पादन करते हुए इन्होंने भारतेन्दु युग के हिन्दी गद्य में फैली अनियमितताओं, व्याकरण सम्बन्धी अशुद्धियों, विराम-चिह्नों के प्रयोग की त्रुटियों, पण्डिताऊपन और अप्रचलित शब्दों के प्रयोग को दूर कर हिन्दी गद्य को व्याकरण के अनुशासन में बाँधा और उसे नवजीवन प्रदान किया। इन्होंने हिन्दी के भण्डार को समृद्ध बनाने के लिए नये-नये विषयों पर मौलिक और अनूदित ग्रन्थों की रचना की। अंग्रेजी भाषा एवं संस्कृति के रंग में रंगे लेखकों की इन्होंने तर्कपूर्ण कटु आलोचना की, जिससे बहुत-से लेखकों ने घबराकर या तो लिखना बन्द कर दिया या अपनी भाषा का सुधार किया।

द्विवेदी जी भाषा परिष्कारक के अतिरिक्त समर्थ समालोचक भी थे। इन्होंने अपने लेखन में प्राचीन साहित्य एवं संस्कृति से लेकर आधुनिक काल तक के अनेक विषयों का समावेश केरके साहित्य को समृद्ध किया। द्विवेदी जी ने वैज्ञानिक आविष्कारों, भारत के इतिहास, महापुरुषों के जीवन, पुरातत्त्व, राजनीति, धर्म आदि विविध विषयों पर साहित्य-रचना की।

निबन्ध-लेखक के रूप में इन्होंने निबन्ध-साहित्य को नयी दिशा और सामर्थ्य प्रदान की। द्विवेदी जी ने पाँच प्रकार के निबन्धों की रचना की-शुद्ध साहित्यिक, आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, जीवन-परिचय सम्बन्धी और वैज्ञानिक। उत्कृष्ट समालोचक के रूप में इन्होंने हिन्दी समीक्षा के नये मानदण्ड स्थापित किये तथा भाषा-शिल्पी के रूप में हिन्दी गद्य को व्याकरणसम्मत बनाकर उसका परिष्कार और संस्कार किया तथा कवि के रूप में इन्होंने खड़ी बोली को काव्य-भाषा के आसन पर प्रतिष्ठित किया। द्विवेदी जी की अभूतपूर्व साहित्यिक सेवाओं के कारण ही इनके रचना-काल को हिन्दी-साहित्य में द्विवेदी युग’ कहा जाता है।
कृतियाँ: द्विवेदी जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे। इन्होंने कविता, निबन्ध, आलोचना, व्याकरण एवं इतिहास आदि पर अनेक ग्रन्थों की रचना की। इनकी प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं

(1) कविता संग्रह: काव्य-मंजूषा।
(2) निबन्ध: सरस्वती एवं अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित निबन्ध।
(3) आलोचना: रसज्ञ-रंजन, नैषधचरित चर्चा, हिन्दी नवरत्न, नाट्यशास्त्र, कालिदास की निरंकुशता, कालिदास और उनकी कविता, विचार-विमर्श आदि।
(4) अनूदित: रघुवंश, कुमारसम्भव, किरातार्जुनीय, हिन्दी महाभारत, बेकन विचारमाला, शिक्षा, स्वाधीनता आदि।
(5) सम्पादनं: ‘सरस्वती’ पत्रिका।
(6) अन्य रचनाएँ: साहित्य-सीकूर, हिन्दी भाषा की उत्पत्ति, सम्पत्तिशास्त्र, अद्भुत आलाप, संकलन, अतीत-स्मृति, वाग्विलास, जल-चिकित्सा आदि।

भाषा और शैली

भाषा के आचार्य द्विवेदी जी का हिन्दी गद्य-साहित्य में मूर्धन्य स्थान है। वे हमारे सामने निबन्धकार, आलोचक, सम्पादक और भाषा-संस्कारकर्ता के रूप में आते हैं। द्विवेदी जी से पूर्व भारतेन्दु युग में हिन्दी गद्य अनेक प्रकार के दोषों से युक्त था। लेखकों की भाषा शिथिल और अव्यवस्थित थी। द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका का सम्पादन-भार सँभालते ही हिन्दी गद्य को समृद्ध एवं परिष्कृत किया।

(अ) भाषागत विशेषताएँ

द्विवेदी जी भाषा के सुसंस्कारी आचार्य थे; अत: इनकी भाषा परिष्कृत, परिमार्जित और व्याकरणसम्मत है। इन्होंने अपनी रचनाओं में सरल और सुबोध भाषा को अपनाया है। शब्दों के प्रयोग में ये रूढ़िवादी नहीं थे। इन्होंने आवश्यकता के अनुसार तत्सम शब्दों के अतिरिक्त अंग्रेजी, उर्दू और अरबी-फारसी के प्रचलित शब्दों का नि:संकोच प्रयोग किया है। जहाँ भाषा को लाक्षणिक, चमत्कारपूर्ण, सशक्त और प्रभावशाली बनाने के लिए।
आपने कहावतों और मुहावरों का प्रयोग किया है, वहीं अपने भावों को सहृदयों तक और विषय को गहराई तक पहुँचाने के लिए सूक्तियों के प्रचुर प्रयोग भी किये हैं। द्विवेदी जी अपनी भाषा को विषयानुसार परिवर्तित करने में कुशल थे; अत: आलोचनात्मक निबन्धों में इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ, विवेचनात्मक निबन्धों में शुद्ध साहित्यिक तथा भावात्मक निबन्धों में आलंकारिक और काव्यात्मक हो गयी है।

(ब) शैलीगत विशेषताएँ
कठिन-से-कठिन विषय को बोधगम्य रूप में प्रस्तुत करना द्विवेदी जी की शैली की सबसे बड़ी विशेषता है। इनकी शैली के प्रमुख रूप निम्नलिखित हैं

(1) परिचयात्मक शैली:
इस शैली को प्रयोग ज्ञान-विज्ञान, यात्रा, जीवनी, निजी अनुभव आदि नवीन विषयों पर निबन्ध लिखने में हुआ है। यह इनकी सरलतम शैली है। इस शैली में इन्होंने गूढ़ विषयों को भी बड़े सरल रूप में प्रस्तुत किया है। सरल एवं स्वाभाविक भाषी, छोटे-छोटे वाक्य, उर्दू के शब्दों तथा मुहावरों का प्रयोग; इस शैली की विशेषताएँ हैं।।

(2) गवेषणात्मक शैली:
गम्भीर विषयों के विवेचन और नवीन तथ्यों की गवेषणा करते समय द्विवेदी जी ने इस शैली का प्रयोग किया है। इनके साहित्यिक निबन्धों में भी यह शैली मिलती है। इसमें प्रायः उर्दू शब्दों का
अभाव तथा संस्कृत शब्दावली की अधिकता है।

(3) भावात्मक शैली:
इस शैली का प्रयोग ‘कालिदास के समय भारत’, ‘साहित्य की महत्ता’ आदि निबन्धों में देखने को मिलता है। विचारों की सरस अभिव्यक्ति वाली इस शैली में हृदयस्पर्शी, काव्यात्मक और आलंकारिक भाषा को प्रयोग हुआ है। इसमें अनुप्रास अलंकार की छटा, कोमल शब्दावली का प्रयोग एवं भाषा का सहज प्रवाह देखने को मिलता है।

(4) व्यंग्यात्मक शैली:
इस शैली में द्विवेदी जी की भाषा का सरलतम रूप दिखाई देता है। समाज और साहित्य में व्याप्त दोषों को दूर करने के लिए द्विवेदी जी ने व्यंग्यपूर्ण शैली का प्रयोग किया है। हास्य, चुटीलापन और सरलता इस शैली की विशेषताएँ हैं।।

(5) आलोचनात्मक शैली:
द्विवेदी जी ने इसी शैली में अपने अधिकांश निबन्ध लिखे हैं। साहित्यिक कृतियों की आलोचना करते समय या भाषा-साहित्य विषयक अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते समय इन्होंने आलोचनात्मक शैली का प्रयोग किया है। इस शैली की भाषा संस्कृत और उर्दू के तत्सम शब्दों से युक्त है। इस शैली द्वारा ही इन्होंने साहित्यकारों का मार्गदर्शन किया है।
साहित्य में स्थान: द्विवेदी जी हिन्दी गद्य के उन निर्माताओं में से हैं, जिनकी प्रेरणा और प्रयत्नों से हिन्दी भाषा को सम्बल प्राप्त हुआ है।

 गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर

प्रश्न:
निम्नलिखित गद्यांशों के आधार पर उनसे सम्बन्धित दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए

प्रश्न 1:
पूर्व-दिशारूपिणी स्त्री की प्रभा इस समय बहुत ही भली मालूम होती है। वह हँस-सी रही है। वह यह सोचती-सी है कि चन्द्रमा ने जंब तक मेरा साथ दिया—जब तक यह मेरी संगति में रहा–तब तक उदित ही नहीं रहा, इसकी दीप्ति भी खूब बढ़ी। परन्तु देखो, वही अब पश्चिम-दिशारूपिणी स्त्री की तरफ जाते ही (हीन-दीप्ति होकर) पतित हो रहा है। इसी से पूर्व दिशा, चन्द्रमा को देख-देख प्रभा के बहाने, ईष्र्या से मुसका-सी रही है। परन्तु चन्द्रमा को उसके हँसी-मजाक की कुछ भी परवाह नहीं। वह अपने ही रंग में मस्त मालूम होता है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) पश्चिम दिशा की ओर जाते ही चन्द्रमा की दीप्ति में क्या परिवर्तन आता है?
(iv) कौन चन्द्रमा को देख-देखकर प्रभा के बहाने, ईष्र्या से मुसका-सी रही है?
(v) किस कारण चन्द्रमा पूर्व-दिशारूपिणी स्त्री की हँसी-मजाक की कुछ परवाह नहीं करता?
उत्तर:
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हिन्दी के युग-प्रवर्तक साहित्यकार आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित और हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित ‘महाकवि माघ का प्रभात-वर्णन’ नामक निबन्ध से लिया गया है।
अथवा निम्नवत् लिखिए
पाठ का नाम: महाकवि माघ का प्रभात वर्णन।
लेखक का नाम: आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी।
[संकेत-इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए प्रश्न (i) का यही उत्तर लिखना है।

(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या: द्विवेदी जी कहते हैं कि प्रात:काल में पूर्व दिशारूपी नायिका प्रभात की लालिमा से रँग जाती है, तब ऐसा लगता है कि वह अनुरागवती है। अनुराग के प्रतीक लाल रंग (प्रभात की लाली) से उसके मुख पर नया तेज दिखाई देता है। उस समय ऐसा जान पड़ता है कि वह हँस रही है। पूर्व दिशा की भाँति ही लेखक ने पश्चिम दिशा को भी एक नायिका के रूप में चित्रित किया है तथा पूर्व दिशारूपी स्त्री के मन की प्रतिक्रिया दर्शायी है कि उसके मन में नारी-सुलभ ईष्र्या जाग गयी है। चन्द्रमा के तेज के कम होने और उसके पतित होने पर उसके मुख पर जो मुसकान आयी है, उसमें उसके मन की ईष्र्या ही प्रकट हुई है। चन्द्रमा की इस दीन-हीन स्थिति के विषय में पूर्व दिशारूपी नायिका सोच रही है कि यह चन्द्रमा जब तक मेरे साथ था, तब तक उदित भी हो रहा था और उसका प्रकाश भी खूब फैल रहा था। उसे उन्नति के साथ-साथ सुयश भी प्राप्त था।
(iii) पश्चिम दिशा की ओर जाते ही चन्द्रमा की दीप्ति पतित होने लगती है।
(iv) पूर्व-दिशारूपिणी स्त्री चन्द्रमा को देख-देखकर प्रभा के बहाने, ईष्र्या से मुसका-सी रही है।
(v) पश्चिम दिशारूपिणी स्त्री की रसिकता में निमग्न होने के कारण चन्द्रमा पूर्व-दिशारूपिणी स्त्री की हँसी-मजाक की कुछ परवाह नहीं करता।

प्रश्न 2:
जब कमलं शोभित होते हैं तब कुमुद नहीं और जब कुमुद शोभित होते हैं तब कमल नहीं। दोनों की दशा बहुधा एक-सी नहीं रहती। परन्तु, इस समय, प्रात:काल, दोनों में तुल्यता देखी जाती है। कुमुद बन्द होने को हैं; पर अभी पूढे बन्द नहीं हुए। उधर कमल खिलने को हैं, पर अभी पूरे खिले नहीं। एक की शोभा आधी ही रह गयी है, और दूसरे को आधी ही प्राप्त हुई है। रहे भ्रमर, सो अभी दोनों ही पर मँडरा रहे हैं। और गुंजा-रव के बहाने दोनों ही के प्रशंसा के गीत-से गा रहे हैं। इसी से, इस समय कुमुद और कमल, दोनों ही समता को प्राप्त हो रहे हैं।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किस दृश्य का वर्णन किया है?
(iv) किस समय कमल और कुमुद दोनों में तुल्यता देखी जाती है?
(v) भ्रमर, दोनों पर मँडराते हुए गुंजा-रव के बहाने किसके गीत गा रहे हैं?
उत्तर:
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या:
प्रात:काल में सूर्य के उदित होने पर संसार में विरोधाभासपूर्ण दृश्य दिखाई देता है। दैव अर्थात् भाग्यं की चेष्टाएँ किसी के लिए सुखकर हैं तो किसी के लिए दु:खदायी भी। इसी विरोधाभास को लक्षित करते हुए लेखक कहता है कि जब सूर्य उदित होता है तो सरोवरों में कमल खिलते हैं, जो सरोवरों की सुन्दरता को बढ़ाते हैं लेकिन दूसरी तरफ कुमुद की शोभा को उदित सूर्य हर लेता है। जब कुमुद शोभित होते हैं अर्थात् जब सूर्य अस्ताचल की ओर जाता है अर्थात् अस्त होता है तब कुमुदों की शोभा लौट आती है और कमल शोभाहीन हो जाते हैं। सूर्य के उदित होने अथवा चन्द्रमा के अस्त होने पर, चन्द्रमा के उदित होने अथवा सूर्य के अस्त होने पर कमल और कुमुद की दशा समान नहीं रहती। एक को सुख की अनुभूति होती है तो दूसरे को दु:ख की।
(iii) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने प्रात:काल के समय के विरोधाभासपूर्ण दृश्य का वर्णन किया है।
(iv) प्रात:काल के समय कमल और कुमुद दोनों में ही तुल्यता देखी जाती है।
(v) भ्रमर कमल और कुमुद, दोनों पर मँडराते हुए गुंजा-रव के बहाने दोनों ही के प्रशंसा के गीत गा रहे हैं।

प्रश्न 3:
महामहिम भगवान मधुसूदन जिस समय कल्पांत में समस्त लोकों का प्रलय, बात की बात में कर देते हैं, उस समय अपनी समधिक अनुरागवती श्री (लक्ष्मी) को धारण करके उन्हें साथ लेकर क्षीर-सागर ” में अकेले ही जा विराजते हैं। दिन चढ़ आने पर महिमामय भगवान भास्कर भी, उसी तरह एक क्षण में, सारे तारा-लोक का संहार करके, अपनी अतिशायिनी श्री (शोभा) के सहित, क्षीर-सागर ही के समान आकाश में, देखिए अब यह अकेले ही मौज कर रहे हैं।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने सूर्य, उसकी आभा एवं आकाश को किसके समान चित्रित किया है?
(iv) भगवान विष्णु लक्ष्मी जी को लेकर कहाँ विराजते हैं?
(v) गद्यांश में किस समय के सौन्दर्य का आलंकारिक वर्णन प्रस्तुत किया गया है?
उत्तर:
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या: प्रभातकाल में सूर्योदय के होने पर सारा दृश्य ही बदल जाता है। उस समय लेखक के सम्मुख प्रलयकाल का सो दृश्य उपस्थित हो जाता है। वह कल्पना करता है कि कल्पान्त में भगवान विष्णु भी जब तीनों लोकों को नष्ट कर अपनी प्रेममयी पत्नी लक्ष्मी के साथ क्षीरसागर में अकेले ही शोभित होते हैं।
(iii) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने सूर्य को भगवान विष्णु, सूर्य की आभा को लक्ष्मी एवं आकाश को क्षीरसागर के समान चित्रित किया है।
(iv) भगवान विष्णु लक्ष्मी जी को लेकर क्षीरसागर में विराजते हैं।
(v) गद्यांश में सूर्योदय होने पर चन्द्रमा एवं तारों के अदृश्य होने पर आकाश में अकेले सूर्य एवं उसकी प्रभा के सौन्दर्य का आलंकारिक वर्णन प्रस्तुत किया गया है।

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