UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi गद्य गरिमा Chapter 4 आचरण की सभ्यता

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 4
Chapter Name आचरण की सभ्यता (सरदार पूर्णसिंह)
Number of Questions 4
Category UP Board Solutions

लेखक को साहित्यिक परिचय और भाषा-शैली

प्रश्न:
सरदार पूर्णसिंह का साहित्यिक परिचय देते हुए उनकी भाषा-शैली की विशेषताओं पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
या
सरदार पूर्णसिंह का साहित्यिक परिचय दीजिए।
या
सरदार पूर्णसिंह का जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों तथा भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
जीवन-परिचय: सरदार पूर्णसिंह हिन्दी-साहित्य में द्विवेदी युग के श्रेष्ठ निबन्धकारों में गिने जाते हैं। भावात्मक और लाक्षणिक शैली में केवल छ: निबन्धों की रचना करके ही ये हिन्दी-साहित्य जगत् में अमर हो गये। इनके निबन्ध इनकी मनोलहरी से जुड़े हुए हैं और ये सच्चे अर्थों में एक आत्म-व्यंजक निबन्धकार कहे जा सकते हैं।

अध्यापक पूर्णसिंह का जन्म सन् 1881 ई० में सीमा प्रान्त के एबटाबाद जिले के सलहडू नामक ग्राम में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। पिता के सरकारी नौकरी में रहने के कारण बालक पूर्णसिंह का बचपन धर्मपरायण । माता की सात्त्विकता की छाया में व्यतीत हुआ। इनकी आरम्भिक शिक्षा रावलपिण्डी में हुई और फिर इण्टरमीडिएट की परीक्षा लाहौर से उत्तीर्ण करके ये रसायनशास्त्र के विशेष अध्ययन के लिए जापान चले गये। वहाँ इन्होंने टोकियो की इम्पीरियल युनिवर्सिटी में रसायनशास्त्र का अध्ययन किया। वहाँ ‘विश्व धर्म सभा में भाग लेने पहुँचे स्वामी रामतीर्थ से भेंट होने पर संन्यास की दीक्षा लेकर ये भारत लौट आये।

भारत लौटने पर स्वामी जी की मृत्यु के पश्चात् इनके विचारों में परिवर्तन आये और इन्होंने विवाह करके गृहस्थ जीवन व्यतीत किया तथा देहरादून के इम्पीरियल फॉरेस्ट इंस्टीट्यूट में अध्यापक हो गये। कुछ समय उपरान्त वहाँ से नौकरी छोड़कर ग्वालियर चले गये और जीवन के अन्तिम दिनों में पंजाब में जड़ाँवाला ग्राम में खेतीबारी करने लगे। खेती में नुकसान होने से अर्थ-संकट से पीड़ित हो ये निरन्तर कष्ट उठाते रहे। अन्तत: मार्च सन् 1931 ई० में स्वतन्त्र व्यक्तित्व का यह साधु-साहित्यकार मात्र पचास वर्ष की आयु में ही देहरादून में दिवंगत हो गया।
साहित्यिक सेवाएँ – उत्कृष्ट निबन्धकार एवं शैलीकार अध्यापक पूर्णसिंह की मातृभाषा पंजाबी थी, फिर भी इन्होंने हिन्दी में श्रेष्ठ निबन्धों की रचना की। ये भारतीय संस्कृति, दर्शन और अध्यात्म से बहुत प्रभावित थे, जिसका प्रभाव इनके निबन्धों में भी स्पष्ट परिलक्षित होता है। इनके निबन्धों में नयी विचार-सामग्री, लाक्षणिकता और भावात्मकता पायी जाती है। इन्होंने मुख्य रूप से नैतिक विषयों पर निबन्धों की रचना की है। श्रम, सदाचार, समता, ममता और आत्मिक उन्नति इनके निबन्धों के विषय रहे हैं। ये निबन्ध सत्य, अहिंसा, सादगी और लोकमंगल की भावना से परिपूरित हैं। इन निबन्धों में भावों का आवेग, कल्पना की उड़ान और स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। सच्चे मानव की खोज और सच्चे हृदय की तलाश करने वाले इस साहित्यकार ने अपनी निजी निबन्ध-शैली के कारण केवल छ: निबन्ध लिखकर ही हिन्दी-साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। विचारों और भावों की अभिव्यक्ति के क्षेत्र में ये किसी सम्प्रदाय से बँधकर नहीं चले।।

रचनाएँ:
पूर्णसिंह जी के निबन्ध ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित होते रहे। इन्होंने केवल छ: निबन्धों की रचना की
(1) कन्यादान,
(2) मजदूरी और प्रेम,
(3) सच्ची वीरता,
(4) पवित्रता,
(5) आचरण की सभ्यता,
(6) अमेरिका का मस्त योगी वॉल्ट ह्विटमैन। इसके अतिरिक्त इन्होंने सिक्खों के दस गुरुओं और स्वामी रामतीर्थ की जीवनी अंग्रेजी में लिखी।

भाषा और शैली

(अ) भाषागत विशेषताएँ :
सरदार पूर्णसिंह जी ने अपने निबन्धों में प्रवाहमयी एवं लाक्षणिक शुद्ध साहित्यिक परिमार्जित खड़ी बोली का प्रयोग किया है। इन्होंने अपनी भाषा को शुद्ध और परिमार्जित रखने के लिए संस्कृत के तत्सम शब्दों तथा भाषा में सरलता, सरसता तथा सजीवता के लिए उर्दू, फारसी और अंग्रेजी की विदेशी शब्दावली का नि:संकोच प्रयोग किया है। इन्होंने कहावतों और मुहावरों को सुललित प्रयोग किया है। इनकी वाक्य-रचना सरल, व्यवस्थित और सुगठित है।

(ब) शैलीगत विशेषताएँ:
अध्यापक पूर्णसिंह जी के निबन्धों में विचारों और भावों की गतिशीलता मिलती है। इनकी शैली पग-पग पर परिवर्तित होती हुई दिखाई देती है, जिसमें नवीनता के साथ-साथ इनके सन्त-हृदय की स्पष्ट छाप भी परिलक्षित होती है। सरदार पूर्णसिंह की गद्य-शैली के मुख्य रूप निम्नलिखित हैं

(1) भावात्मक शैली – पूर्णसिंह जी के अधिकांश निबन्ध भावात्मक शैली में लिखे गये हैं। इनकी इस शैली में अनुभूति की तीव्रता, अभिव्यंजना की कुशलता और चित्रोपम सजीवता विद्यमान रहती है। इनके निबन्धों को पढ़कर पाठक आत्म-विभोर होकर काव्य जैसा आनन्द प्राप्त करता है।
(2) वर्णनात्मक शैली – लेखक ने वर्णनात्मक शैली का प्रयोग सीधे-सादे सामान्य वर्णनों और प्रसंगों में किया है। इस शैली की भाषा सरल और सुबोध है। इसमें लेखक ने सामान्य रूप में प्रचलित सभी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया है, जिनमें रचित छोटे-छोटे वाक्य विषय का चित्र उपस्थित कर देते हैं। इस शैली में वे अपनी बात की पुष्टि के लिए राजाओं, फकीरों और विविध घटनाओं के दृष्टान्त देते चलते हैं।
(3) विचारात्मक शैली  – लेखक ने गम्भीर विषयों पर लिखते समय विचारात्मक शैली को अपनाया है। इस शैली की भाषा गम्भीर और संस्कृत के तत्सम शब्दों से युक्त है। इसमें वाक्य लम्बे हो गये हैं।
(4) सूत्र-शैली – पूर्णसिंह जी अपनी बात को स्पष्ट करने से पूर्व उसे सूत्र के रूप में कह देते हैं और फिर उसे समझाते हैं। उनके ये सूत्र सूक्ति जैसा आनन्द प्रदान करते हैं।
(5) आंशापरू शैली – पूर्णसिंह जी गम्भीर विषयों के विवेचन के समय कभी-कभी व्यंग्य के छींटे भी छोड़ते चलते हैं। इनके व्यंग्य अत्यन्त सटीक, तर्कपूर्ण, तीखे और हृदय पर प्रभाव डालने वाले होते हैं।
(6) संलाप शैली – इस शैली में लेखक पाठकों से बातचीत करते प्रतीत होते हैं। इस शैली में लिखे गये निबन्धों की भाषा सरल और सरस है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि पूर्णसिंह जी के निबन्धों में भावुकतापूर्ण कथ्य के साथ-साथ विविध शैलियों के दर्शन होते हैं। हिन्दी में भावात्मक शैली के तो ये मानो जन्मदाता ही हैं।
साहित्य में स्थान: हिन्दी के निबन्धकारों में पूर्णसिंह जी का स्थान विषय, भाषा तथा शैली की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर

प्रश्न – दिए गए गद्यांशों को पढ़कर उन पर आधारित प्रश्नों के उत्तर लिखिए

प्रश्न 1:
विद्या, कला, कविता, साहित्य, धन और राजत्व से भी आचरण की सभ्यता अधिक ज्योतिष्मती है। आचरण की सभ्यता को प्राप्त करके एक कंगाल आदमी राजाओं के दिलों पर भी अपना प्रभुत्व जमा  सकता है। इस सभ्यता के दर्शन से कला, साहित्य और संगीत को अद्भुत सिद्धि प्राप्त होती है। राग अधिक मृदु हो जाता है; विद्या का तीसरा शिव-नेत्र खुल जाता है; चित्र कला का मौन राग अलापने लग जाता है; वक्ता चुप हो जाता है; लेखक की लेखनी थम जाती है; मूर्ति बनाने वाले के सामने नये कपोल, नये नयन और नयी छवि का दृश्य उपस्थित हो जाता है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ तथा लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) आचरण की सभ्यता किससे अधिक ज्योतिष्मती है?
(iv) किसके द्वारा विद्या का तीसरा शिव-नेत्र खुल जाता है?
(v) प्रस्तुत पंक्तियों में किसका प्रतिपादन किया गया है?
उत्तर:
(i) प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित एवं सरदार पूर्णसिंह द्वारा लिखित ‘आचरण की सभ्यता’ शीर्षक निबन्ध से उद्धृत है।
अथवा निम्नवत् लिख़िए:
पाठ का नाम –आचरण की सभ्यता।
लेखक का नाम – सरदार पूर्णसिंह।
[संकेत-इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए प्रश्न (i) का यही उत्तर लिखना है।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – आचरण की सभ्यता को प्राप्त करने वाला एक निर्धन मनुष्य भी राजाओं पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेता है; अर्थात् अपने सदाचरण से उन्हें प्रभावित करता है और
सम्मान का पात्र बन जाता है।
(iii) आचरण की सभ्यता विद्या, कला, साहित्य, धन और राजस्व से भी अधिक ज्योतिष्मती है।
(iv) आचरण की सभ्यता के द्वारा विद्या का तीसरा शिव-नेत्र खुल जाता है।
(v) प्रस्तुत पंक्तियों में आचरण की सभ्यता का प्रतिपादन किया गया है।

प्रश्न 2:
प्रेम की भाषा शब्दरहित है। नेत्रों की, कपोलों की, मस्तक की भाषा भी शब्दरहित है। जीवन को तत्त्व भी शब्द से परे है। सच्चा आचरण-प्रभाव, शील, अचल-स्थित संयुक्त आचरण- न तो साहित्य के लंबे व्याख्यानों से गठा जा सकता है; न वेद की श्रुतियों के मीठे उपदेश से; न इंजील से; न कुरान से; न धर्मचर्चा से; न केवल सत्संग से। जीवन के अरण्य में धंसे हुए पुरुष के हृदय पर प्रकृति और मनुष्य के जीवन के मौन व्याख्यानों के यत्न से सुनार के छोटे हथौड़े की मंद-मंद चोटों की तरह आचरण को रूप प्रत्यक्ष होता है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) लेखक ने प्रेम की भाषा को कैसा बताया है?
(iv) उपर्युक्त पंक्तियों में आचरण की सभ्यता की उपमा किससे दी गई है?
(v) मनुष्य के मौन व्याख्यानों के यत्न से किसका रूप प्रत्यक्ष होता है?
उत्तर:
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – जो आचरण प्रभावकारी, स्थायी और शील से युक्त होता है, वही सभ्य आचरण है। संभ्य आचरण साहित्य के लम्बे-लम्बे व्याख्यानों से प्रकट नहीं हो सकता है। वह वेद, कुरान आदि धार्मिक ग्रन्थों या धर्मोपदेशों से भी व्यक्त नहीं होता है। धर्म-चर्चा करने या केवल सत्संग करने से भी सभ्य आचरण नहीं मिलता। अर्थात् इसे प्राप्त करने के लिए जीवन की गहराई में प्रवेश करना पड़ता है।
(iii) लेखक ने प्रेम की भाषा को शब्दरहित बताया है।
(iv) उपर्युक्त पंक्तियों में आचरण की सभ्यता की उपमा सुनार के छोटे हथौड़े की मंद-मंद चोटों से दी गई है।
(v) मनुष्य के मौन व्याख्यानों के यत्न से आचरण का रूप प्रत्यक्ष होता है।

प्रश्न 3:
आचरण का विकास जीवन का परमोद्देश्य है। आचरण के विकास के लिए नाना प्रकार की सामग्रियों का, जो संसार-संभूत शारीरिक, प्राकृतिक, मानसिक और आध्यात्मिक जीवन में वर्तमान हैं, उन सबकी (सबका) क्या एक पुरुष और क्या एक जाति के आचरण के विकास के साधनों के सम्बन्ध में विचार करना होगा। आचरण के विकास के लिए जितने कर्म हैं उन सबको आचरण के संघटनकर्ता धर्म के अंग मानना पड़ेगा।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) व्यक्ति के जीवन का परम उद्देश्य क्या है?
(iv) उपर्युक्त गद्यांश के माध्यम से लेखक किस बात को उजागर करना चाहता है?
(v) लेखक ने आचरण का संघटनकर्ता किसे बताया है?
उत्तर:
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – प्रत्येक मनुष्य का कुछ-न-कुछ कर्त्तव्य होता है, लेकिन उस कर्तव्य को धर्म से जोड़ना परमावश्यक है। जङ्ग कर्त्तव्यपालन में शिथिलता नहीं होगी तो मनुष्य जो कुछ करेगा, वह सदाचार ही होगा; अर्थात् आचरण को विकास करने के लिए व्यापक दृष्टिकोण रखकर धर्म में उन सभी बातों को सम्मिलित करना चाहिए, जो चरित्र के विकास में सहायक हों।
(iii) व्यक्ति के जीवन का परम उद्देश्य आचरण का विकास करना है।
(iv) उपर्युक्त गद्यांश के माध्यम से लेखक इस बात को उजागर करना चाहता है कि मनुष्य का आचरण उसके सम्पूर्ण पर्यावरण से प्रभावित होता है।
(v) धर्म को लेखक ने आचरण की संघटनकर्ता बताया है।

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