UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 6 चरैवेति-चरैवेति

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 6
Chapter Name चरैवेति-चरैवेति
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 6 चरैवेति-चरैवेति

श्लोकों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति …………………. न प्रमादितव्यम् ||1||

[ वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति (वेदम् + अनूच्य+आचार्याः+अन्तेवासिनम् + अनुशास्ति) =वेद का अध्ययन पूर्ण कराके वेदाचार्य दूर जाने वाले (अर्थात् प्रस्थान करने वाले विद्यार्थी) को अनुशासित करता है। चर -आचरण करो। स्वाध्यायान्मा (स्व + अध्यायात् + मा) प्रमदः = स्वाध्याय से प्रमाद मत करो। धनमाहृत्य = धन लाकर। प्रजातन्तुः = सन्तान परम्परा का। व्यवच्छेत्सी = सन्तानोत्पत्ति करना। प्रमदितव्यम् = प्रमाद करना चाहिए। कुशलात् = कुशल कार्यों में। भृत्यै =नौकरों अथवा सहयोगियों से। स्वाध्यायप्रवचनाभ्याम् = स्वाध्याय और भाषण में।]

सन्दर्भ – प्रस्तुत मन्त्र हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के चरैवेति-चरैवेति’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इस मन्त्र में वेद का अध्ययन पूर्ण कराने के उपरान्त वेदाचार्य अपने से दूर जाने वाले विद्यार्थियों को समापवर्तन संस्कार देता है।
[विशेष – इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा]

अनुवाद – वेद का अध्ययन पूर्ण कराके वेदाचार्य अपने से दूर जाने वाले अर्थात् प्रस्थान करने वाले विद्यार्थी को अनुशासित करता है। सत्य बोलो। धर्म का आचरण करो। स्वाध्याय में प्रमाद मत करो। आचार्य के लिए धन लाकर अर्थात् गुरु-दक्षिणा देकर (समापवर्तन संस्कार के उपरान्त विवाह करके) सन्तान पराम्परा का पालन करो। तुम्हें सत्य बोलने में प्रमाद नहीं करना चाहिए। तुम्हें धर्म के कार्य में प्रमाद नहीं करना चाहिए। कुशल कार्यों में प्रमाद नहीं करना चाहिए। नौकरों अथवा सहयोगियों में प्रमाद नहीं करना चाहिए और तुम्हें स्वाध्याय और भाषण में प्रमाद नहीं करना चाहिए।

(2) देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् ……………….. तानि त्वयोपास्यानि || 2||

[ देवपितृकार्याभ्याम् = देव (धार्मिकादि) तथा पितृ (आद्धादि कर्म) कार्यों में अतिथि = अभ्यागत। यान्यनवद्यानि कर्माणि =जितने भी अनुचित कार्य न हों। सेवितव्यानि =पालन करना चाहिए। सुचरितानि श्रेष्ठ आचरण। त्वयोपास्यानि-तुम्हारे द्वारा विश्वास किए जाने चाहिए।]

अनुवाद – देव (धार्मिकादि) तथा पितृ (श्राद्धादि) कार्यों में प्रमाद नहीं करना चाहिए। माता को देवता स्वरूप मानो। पिता को देवता स्वरूप मानो। आचार्य को देवता स्वरूप मानो। अभ्यागत को देवता स्वरूप मानो। जितने भी उचित कार्य हैं, उनका पालन करो। अन्य का नहीं। जितने भी हमारे श्रेष्ठ आचरण हैं तुम्हारे द्वारा उन पर विश्वास किया जाना चाहिए।

(3) नो इतराणि ……………………. वृत्तविचिकित्सा वा स्यात् ||3||

[ चास्मफ़ेयांसो ब्राह्मणाः =और हमारे कल्याणकारी ब्राह्मण। देयम् = (दान) देना चाहिए। श्रिया = ऐश्वर्य से। हिया = लज्जा से। संविदा = वायदे के अनुसार। कर्मविचिकित्सा = कर्म के अनुष्ठान में।
वृत्तविचिकित्सा = आचरण के अनुष्ठान में।]

अनुवाद – अन्य पर विश्वास नहीं करना चाहिए। और जो हमारे कल्याण चाहने वाले ब्राह्मण हैं तुम्हारे द्वारा उन्हें भली प्रकार दान देना चाहिए। श्रद्धाभाव से (दान) देना चाहिए। अश्रद्धाभाव से (दान) नहीं देना चाहिए। ऐश्वर्य के द्वारा देना चाहिए। लज्जा के द्वारा देना चाहिए। वायदे के अनुसार देना चाहिए। यदि कर्म के अनुष्ठान में और आचरण के अनुष्ठान में देना पड़े तो भी आपके द्वारा दान दिया जाना चाहिए।

(4) ये तव ब्राहाणाः ………………….. एवमु चैतदुपास्यम् ||4||

[ सम्मर्शिनः = विचारशील। अलुक्षा = मृदु स्वभाव। धर्मकामाः – धार्मिक प्रकृति के। वर्तेरन् – आचरण करते हो। अथाभ्याख्यातेषु =यही अर विषयों में भी। एषः आदेशः =यही आदेश है। वेदोपनिषत् = यही वेद और उपनिषत्। एवमुपासितव्यम् – इसी की उपासना करनी चाहिए। ]

अनुवाद – वहाँ (संदिग्ध विषय में) जो ब्राह्मण सम्म (विचारशील) हो, अधिकृत हो अर्थात् सावधान चित्त हो तथा विषय में विशिष्ट विद्वान् हो, उसे ही मानना चाहिए अर्थात् उसके ही विचार को प्रमाण मानना चाहिए। जहाँ ब्राह्मण सौम्य स्वभाव वाले और धार्मिक स्वभाव वाले हों, वे जैसा निर्णय दें तब तुम्हें वैसा ही मानना चाहिए। अन्य विषयों में भी जो ब्राह्मण सम्म (विचारशील) हो, अधिकृत हो अर्थात् सावधान चित्त हो तथा विषय में विशिष्ट विद्वान् हो, उसे ही मानना चाहिए अर्थात् उसके ही विचार को प्रमाण मानना चाहिए। जहाँ ब्राह्मण सौम्य स्वभाव वाले और धार्मिक स्वभाव वाले हों, वे जैसा निर्णय दें तब तुम्हें वैसा ही मानना चाहिए। यही आदेश है। यही उपदेश है। यही वेदोपनिषत् का कहना है। यही अनुशासन है। इसे उपासित करना चाहिए। इसे हृदय में धारण करना चाहिए।

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