UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 9 चतुरश्चौरः are part of UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi . Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 9 चतुरश्चौरः.
Board | UP Board |
Textbook | NCERT |
Class | Class 11 |
Subject | Sahityik Hindi |
Chapter | Chapter 9 |
Chapter Name | चतुरश्चौरः |
Category | UP Board Solutions |
UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 9 चतुरश्चौरः
अवतरणों का ससन्दर्भ अनुवाद
(1) आसीत् …………………………. विचक्षणाः।।
संवर्द्धनञ्च साधूनां ………….. नीति-विचक्षणाः।।
[तत्रैकदा (तत्र +एकदा) = वहाँ एक बार। चोरयन्तः = चुराते हुए। चत्वारः चौराः = चार चोर। सन्धिद्वारि = सेंध के मुहाने पर प्रशास्तृपुरुषैः = सिपाहियों के द्वारा घातकपुरुषान् = जल्लादों
(वधिकों) को। आदिष्टवान =आज्ञा दी। विमर्दनम् = दमन करना। बुधाः = विद्वानों ने। प्राहुः = कहा है। | दण्डनीति- विचक्षणाः = दण्डनीति में कुशल। ]
सन्दर्भ – यह गद्यखण्ड हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘चतुरश्चौरः’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।
[ विशेष – इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]
अनुवाद – काञ्ची नाम की राजधानी थी। वहाँ सुप्रताप नाम का राजा (राज्य करता) था। वहाँ एक बार किसी धनी का धन चुराते हुए चार चोरों को सेंध के मुख पर सिपाहियों ने जंजीर से बाँधकर राजा से निवेदन किया (राजा के सामने उपस्थित किया और कहा कि इन चारों को सेंध के द्वार पर पकड़ा है। आदेश दें कि क्या दण्ड दिया जाए।) और राजा ने वधिकों (जल्लादों) को आदेश दिया-अरे वधिको! इन्हें ले जाकर मार दो;
क्योंकि
दण्डनीति में कुशल विद्वानों ने सज्जनों की वृद्धि (उन्नति) और दुष्टों के दमन को ही राजधर्म (राजा का कर्तव्य) कहा है।
(2) ततो राजाज्ञया ……………………… नरः।
‘प्रत्यासन्नेऽपि मरणे ……………………. प्रतीकारपरो नरः।
[ राजाज्ञया = राजा की आज्ञा से। शूलम् आरोष्य हताः = सूली पर चढ़ाकर मार दिये गये। प्रत्यासन्नेऽपि = निकट होने पर भी। विधीयते = मारा जाता हुआ। भूभुजा = राजा द्वारा प्रत्यायाति = वापस लौट आता
है। प्रतीकारपरः = उपाय करने में लगा।]
अनुवाद – तब राजा की आज्ञा से तीन चोर सूली पर चढ़ाकर मार दिये गये। चौथे ने सोचामृत्यु निकट होने पर भी (मनुष्य को अपनी) रक्षा का उपाय करना चाहिए। उपाय के सफल होने पर रक्षा हो जाती है (और) निष्फल (व्यर्थ) होने पर मृत्यु से अधिक (बुरा तो) और कुछ (होने वाला) नहीं। रोग से पीड़ित होने या राजा द्वारा मरवाये जाने पर भी मनुष्य यदि (अपने बचाव के) उपाय में तत्पर हो, तो यम के द्वार से (मृत्यु के मुख से) भी लौट आता है।
(3) चौरोऽवदत् ………………………. तिष्ठतु।
[ राजाज्ञया (राजा +आज्ञया) = राजा की आज्ञा से राजसन्निधानं कृत्वा = राजा के पास ले जाकर। यतोऽहमेकाम् (यतः + अहम् + एकाम्) – क्योंकि मैं एक मर्त्यलोके = पृथ्वी पर, संसार में।]
अनुवाद – चोर बोला-“अरे वधिको! तीन चोर तो तुम लोगों ने राजा की आज्ञा से मार ही दिये, किन्तु मुझे राजा के पास ले जाकर मारना; क्योंकि मैं एक महती (बड़ी महत्त्वपूर्ण) विद्या जानता हूँ। मेरे मरने पर वह विद्या लुप्त हो जाएगी। राजा उस (विद्या) को लेकर (सीखकर) मुझे मार दे, जिससे वह विद्या मृत्युलोक (पृथ्वी) में तो रह जाये।
(4) घातका अब्रुवन् …………………….. दातव्या।
[ पापपुरुषाधम = पापी, नीच। किमपरं जीवितुमिच्छसि ? (किम् +अपरम् +जीवितुम् +इच्छसि) = क्या अभी और जीना चाहता है ? पूजयितव्या = सम्मानित होगी। ज्ञातुमिच्छति (ज्ञातुम् + इच्छति) = जानना चाहता है। गृह्णातु – ग्रहण करे। दातव्या = देने योग्य।]
अनुवाद – वधिक बोले-“अरे चोर! पापी! नीच! तू वधस्थल (मारने के स्थान) पर लाया जा चुका है। क्या अभी और जीना चाहता है ? कौन-सी विद्या जानता है ? तुझ नीच की विद्या भेला राजा द्वारा क्यों सम्मानित होगी?” चोर बोला, “अरे वधिको! क्या कह रहे हो ? राजकार्य में विघ्न डालना चाहते हो ? तुम लोग जाकर निवेदन कर दो। राजा यदि जानना चाहे तो वह विद्या ले ले (सीख ले)। उसे (उस विद्या को) भला मैं तुम लोगों को कैसे दे दें ?”
(5) ततश्चौरस्य …………………. वप सुवर्णम्।
ततश्चौरस्य वचनैः ……………………. पश्यतु।
देव ! सर्षप …………………….. वप सुवर्णम्।
राजा च सकौतुकं ………………. वप सुवर्णम्।
ततश्चौरस्य वचनैः ……………. संख्याकानि भवन्ति।
[ राजकार्यानुरोधेन (राजकार्य + अनुरोधेन) = राजकाज (राजा के काम) के महत्व को समझते हुए। सकौतुकम् = कुतूहलपूर्वका सर्षपपरिमाणानि = सरसों के (दाने के) बराबर। उप्यन्ते = बोये जाते हैं। कन्दल्यों – अंकुर। रक्तिकामात्रेण = रत्ती भर पल = 4 कर्ष की एक प्राचीन तौल। एक कर्ष 16 माशे या 80 रत्ती के बराबर था। इस प्रकार पल 64 माशे (या 320 रत्ती) के बराबर था। यहाँ ‘बहुसंख्यक’ से आशय है। पुरतः = सामने। कस्यासत्यभाषणे (कस्या + असत्यभाषणे) = किसकी झूठ बोलने में। व्यभिचरितम्-झूठ हो। ममाप्यन्तो (मम +अपि +अन्तः) = मेरा भी अन्त (या मृत्यु)। वप = बोओ।]
अनुवाद – इसके पश्चात् चोर की बात से और राजा के कार्य के महत्त्व से उन्होंने वह बात राजा से निवेदित की। राजा ने कुतूहलपूर्वक चोर को बुलाकर पूछा—“अरे चोर! कौन-सी विद्या जानते हो ?’ चोर बोला, “महाराज, सरसों के बराबर सोने के बीज बनाकर भूमि में बोये जाते हैं। महीने भर में ही (उनमें) अंकुर और फूल आ जाते हैं। वे फूले सोने के ही होते हैं। रत्तीभर बीज से बहुसंख्या (या बहुत परिमाण में) हो जाते हैं। उसे महाराज स्वयं देख लें।” राजा ने कहा, “चोर! क्या यह सच है ?” चोर बोला, “महाराज के सामने झूठ बोलने की किसमें शक्ति है ? यदि मेरी बात झूठ निकले तो महीनेभर बाद मेरा अन्त (मृत्यु) हो ही जाएगा।” राजा बोला, “भद्र ( भले आदमी)! सोना बोओ।”
(6) ततश्चौरः ………………….. किं न वपति ?
ततश्चौरः सुवर्णः ……………….. स वपतु।
[ ततश्चौरः (ततः + चौरः) = तब चोर ने। दाहयित्वा = तपाकर। परमनिगूढस्थाने = बड़े गुप्त (सुरक्षित) स्थान में। भूपरिष्कारं कृत्वा = जमीन साफ करके। वप्ता = बोने वाला। ]
अनुवाद – तब चोर ने सोने को तपाकर सरसों (के दानों) के बराबर बीज बनाकर राजा के अन्त:पुर के क्रीड़ा सरोवर के किनारे अत्यधिक सुरक्षित स्थान में भूमि साफ करके कहा, “महाराज, खेत और बीज तैयार हैं, कोई बोने वाला दीजिए।” राजा ने कहा, “तुम्हीं क्यों नहीं बोते ?” चोर बोला, “महाराज, यदि सोना बोने का मेरा ही अधिकार होता तो मैं इस विद्या से (अर्थात् इस विद्या के रहते) दु:खी (दरिद्र) क्यों होता ? किन्तु चोर को सोना बोने का अधिकार नहीं है। जिसने कभी कोई चोरी न की हो, वह बोये। महाराज (आप) ही क्यों नहीं बोते ?’
(7) राजाऽवदत् ……………………. चोरिताः।
[ तातचरणानाम् = पूज्य पिताजी का। राजोपजीविनः (राजा +उपजीविनः) = राजा के आश्रित, सेवक। कथमस्तेयिनो (कथम् + अस्तेयिनः) = कैसे चोरी न करने वाले (होंगे)। स्तेय = चोरी। स्तेयी = चोर।
अस्तेयी = जो चोर न हो।]
अनुवाद – राजा ने कहा-“मैंने चारणों ( भाटों) को देने के लिए पूज्य पिताजी का धन चुराया था।” चोर बोला, “तब मन्त्री लोग बोयें।’ मन्त्रियों ने कहा, “हम राजा के सेवक (या आश्रित) हैं। भला चोरी न करने वाले कैसे हो सकते हैं ?” तो चोर बोला, “तब धर्माधिकारी (न्यायाधीश) बोये।” धर्माधिकारी ने कहा-“मैंने बाल्यावस्था में माता के लड्डू चुराये थे।”
(8) चौरोऽवदत् ……………………. वल्लभतां गतः।
चौरोऽवदत् …………………….. स्वसन्निधाने धृतः।।
[ मारणीयोऽस्मि (मारणीयः + अस्मि) = मारने योग्य हैं। हसितवन्तः = हँसे। हास्यरसापनीतक्रोधो (हास्यरस +अपनीत + क्रोधः) – हँसी से क्रोध दूर होने पर। सन्निधाने = समीप। प्रस्तावे = (उपयुक्त) अवसर पर खेलयतु = खिलाये (मनोरंजन करे)| समुच्छिद्य = काटकर वल्लभताम् = प्रेम को। गतः = प्राप्त हुआ। ]
अनुवाद – चोर बोला, “यदि तुम सभी चोर हो, तो अकेला मैं ही मारने योग्य क्यों हूँ ?’ उस चोर की बात सुनकर सभी सभासद हँस पड़े। राजा भी हँसी के कारण क्रोध दूर हो जाने पर हँसकर बोला, “अरे चोर! तू मारने योग्य नहीं है। हे मन्त्रियो! दुर्बुद्धि (बुरी बुद्धि वाला) होने पर भी यह चोर बुद्धिमान् और हास्यरस में कुशल है। तो (यह) मेरे ही पास रहे, (और उपयुक्त) अवसर पर मुझे हँसाये तथा खिलाये (मेरा मनोरंजन करे)।’ यह कहकर राजा ने उस चोर को अपने समीप रख लिया।
चोर से अधिक नीच और कोई नहीं। वह भी हास्य की विद्या से (हँसाने की कला में निपुण होने से) मृत्यु के फन्दे को काटकर राजा का प्रिय बन गया।
We hope the UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 9 चतुरश्चौरः help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 9 चतुरश्चौरः, drop a comment below and we will get back to you at the earliest.