UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 13 Human Rights (मानवाधिकार) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 13 Human Rights (मानवाधिकार).
Board | UP Board |
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | Civics |
Chapter | Chapter 13 |
Chapter Name | Human Rights (मानवाधिकार) |
Number of Questions Solved | 24 |
Category | UP Board Solutions |
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 13 Human Rights (मानवाधिकार)
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)
प्रश्न 1.
मानवाधिकार का अर्थ एवं प्रकृति स्पष्ट करते हुए मानवाधिकारों के वर्गीकरण पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
मानवाधिकार का अर्थ एवं प्रकृति
मानवाधिकारों के उदय तथा विकास क्रम को बताना तो सरल है, परन्तु मानव अधिकारों जैसे जटिल विषय को परिभाषित करना एक चुनौती है। मानवाधिकार व्यक्ति में निहित अधिकारों का एक सामान्य समझौता है, जिन अधिकारों के बिना कोई भी व्यक्ति सभ्य जीवन व्यतीत नहीं कर सकता। आरजे० विन्सेट के अनुसार, “मानवाधिकार ऐसे अधिकार हैं जो प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत गुणों के कारण प्राप्त होते हैं। वह मानवीय प्रकृति के आधार पर मानव अधिकारों की व्याख्या करते हैं, जबकि डेविड सेल्बी इस प्रकार की परिभाषाओं के विपरीत कहते हैं कि मानव अधिकार का सम्बन्ध प्रत्येक व्यक्ति से है। विश्व के प्रत्येक व्यक्ति को ये अधिकार प्राप्त हैं और प्रत्येक व्यक्ति इन अधिकारों को प्राप्त करने का अधिकारी है; क्योंकि वह मानवीय प्रकृति से सम्बन्धित है। ये अर्जित नहीं किये जाते, उधार नहीं लिए जाते और न ही विरासत में मिलते हैं और न ही इन अधिकारों की स्थापना करने वाले किसी समझौते को ऐसे अधिकारों के रूप में परिभाषित करते हैं। “मानव अधिकार ऐसे अधिकार हैं जो व्यक्तिगत गरिमा से सम्बन्धित हैं और आत्म-सम्मान के स्तर हैं जो मानव समुदाय की पहचान को बढ़ावा देकर संरक्षित करते हैं।’
उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि ये सभी विद्वान कुछ विशिष्ट परिस्थितियों को स्वीकार करते हैं; जैसे-व्यक्तिगत प्रकृति, मानवीय गरिमा और अच्छे जीवन की प्राप्ति की आवश्यकता। इन तीनों तत्त्वों का समावेश करते हुए आल्टेन तथा प्लेनो ने इस प्रकार स्पष्टीकरण दिया है, मानव अधिकार वे अधिकार हैं जो व्यक्तिगत जीवन, व्यक्तिगत विकास और अस्तित्व के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं।’ डेविडसन की परिभाषा अधिक संक्षिप्त और स्वीकृत है, मानवाधिकार की अवधारणा व्यक्तिगत क्षेत्रों में सत्ता और सरकार से, राज्य की शक्ति प्रयोग से तथा व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान करने से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। यह राज्य को उन सामाजिक परिस्थितियों के निर्माण का भी निर्देश देती है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का सर्वोच्च विकास कर सके।
संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार आयोग ने मानवाधिकारों को ऐसे अधिकार माना है जो हमारी प्रकृति में निहित हैं और जिनके अभाव में हमें एक व्यक्ति के रूप में जीवन व्यतीत नहीं कर सकते। ये मानवाधिकार न्याय, समानता और राज्य के मनमाने व्यवहार और भेदभाव से संरक्षण प्रदान करते हैं। ये अधिकार व्यक्ति के पूर्ण विकास के लिए आवश्यक हैं और इनकी गारंटी बिना किसी भेदभाव के दी जाती है। मानवाधिकारों के वृहद् रूप को निम्न चार प्रकार की श्रेणियों में रखा जा सकता है।
- ऐसे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन में निहित हैं। उदाहरणार्थ, जीवन का अधिकार।
- ऐसे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन और विकास के लिए आवश्यक हैं। उदाहरणार्थ, शिक्षा का अधिकार।
- ऐसे अधिकार जिनका लाभ उचित सामाजिक स्थितियों में ही उठाया जा सकता हैं। उदाहरणार्थ, सम्पत्ति का अधिकार।
- ऐसे अधिकार जिनको व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकता के रूप में प्रत्येक देश के संविधान में समावेश करना चाहिए। उदाहरणार्थ, भारत के संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार।
मानवाधिकारों का वर्गीकरण
कुछ ऐसे विचारक भी हैं जिन्होंने मानव-अधिकारों के सभी पहलुओं का विभाजन करने का प्रयास किया है। सन् 1979 में चेक न्यायाधीश कारेक वासक द्वारा प्रस्तावित वर्गीकरण को सर्वाधिक समर्थन प्राप्त हुआ। उन्होंने मानव अधिकारों का वर्गीकरण इन तीनों चरणों में किया। पहले चरण में मानव अधिकारों को सम्बन्ध स्वतंत्रता से था। ये अधिकार प्राकृतिक रूप से मौलिक, नागरिक और राजनीतिक थे और व्यक्ति की राज्य के मनमाने व्यवहार से रक्षा के लिए प्रदान किए गए थे। पहले चरण के अधिकारों में विचार की स्वतंत्रता, उचित न्यायिक प्रक्रिया और धर्म की स्वतंत्रता आदि सम्मिलित हैं। अत: पहले चरण के अधिकार नकारात्मक अधिकार थे। इनको सर्वप्रथम वैश्विक स्तर पर सन् 1948 में मानवाधिकारों के घोषणा-पत्र में शामिल किया गया।
दूसरे चरण के मानवाधिकार समानता से सम्बन्धित हैं। ये मूल रूप से अपनी प्रकृति से सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकार हैं। सामाजिक सम्बन्धों में ये अधिकार सभी के लिए समान व्यवहार और परिस्थितियों को सुनिश्चित करते हैं। ये लोगों को कार्य का अधिकार प्रदान करके उसके परिवार का भरण-पोषण करने की योग्यता को संरक्षण करते हैं। ये सकारात्मक अधिकार हैं। ये अधिकार लोगों को न्याय प्रदान करने के लिए राज्य की आवश्यकता की अगुवाई करते हैं।
तीसरे चरण के अधिकारों को मुख्य रूप से सामाजिक सुदृढ़ता के रूप में देखा जा सकता है। ये अधिकार समूह और सामूहिक अधिकार-आर्थिक और सामाजिक विकास, प्राकृतिक संसाधनों पर प्रभुसत्ता, संचार और मानवता की सामान्य विरासत के लिए आत्मनिर्णय के अधिकार की विवेचना करते हैं। इन अधिकारों का संक्षिप्त विवेचन नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा में किया गया है। यह प्रावधान दस्तावेज में एक असाधारण सम्मिश्रण है। समाज पर वैयक्तिक दावों के रूप में अधिकारों की सामान्य कल्पना है। परन्तु तीसरे चरण के अधिकार अन्य अधिकारों के समान कानून द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं।
तीनों चरणों का वैकल्पिक स्पष्टीकरण शीत युद्ध के राजनीतिक वर्गीकरण पर निर्भर है। पहले चरण के अधिकारों का पश्चिमी देशों ने समर्थन किया, दूसरे चरण के अधिकारों को पूर्वी देशों ने प्रोत्साहित किया तथा तीसरे चरण के सामाजिक सुदृढ़ता के अधिकारों का समर्थन विश्व के सभी देशों ने किया। यह वर्गीकरण अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकारों की रूपरेखा निर्माण को भी प्रकट करता है।
प्रश्न 2.
संयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर और मानवाधिकारों का सार्वभौमिक घोषणा-पत्र पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर :
मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा
मानवाधिकारों की प्रगति को सुनिश्चित करने तथा पालन करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने एक ‘मानवाधिकार आयोग’ (Commission of Human Rights) की नियुक्ति की और उसे मानवाधिकारों के मूलभूत सिद्धान्तों का प्रारूप तैयार करने का दायित्व सौंप दिया। यह प्रारूप तीन वर्षों में तैयार हुआ। इस प्रारूप को महासभा ने कुछ संशोधनों के साथ 10 दिसम्बर, 1948 को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया। मानवाधिकार घोषणा-पत्र में नागरिकों के राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक अधिकारों; जैसे-काम के पश्चात् समान पारिश्रमिक पाने का अधिकार, मजदूर संगठनों (Trade Unions) के गठन करने का अधिकार, विश्राम तथा सामाजिक भरण-पोषण का अधिकार, शिक्षा तथा सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार, विचार, धर्म, शान्तिपूर्वक सभाएँ करने तथा संगठन बनाने की स्वतन्त्रता को अधिकार आदि के विषय में विस्तृत उल्लेख किया गया है।
विश्व के सभी राष्ट्रों को मालूम है कि 30 अनुच्छेदों की यह घोषणा लोकतान्त्रिक तथा समाजवादी शक्तियों के बढ़ते हुए प्रभाव के अन्तर्गत एवं मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए जनसाधारण की शक्तिशाली कार्यवाहियों के परिणामस्वरूप की गई थी।
संयुक्त राष्ट्र के 30 अनुच्छेदों में मानवाधिकार को किसी-न-किसी रूप में उल्लेख है–सभी मनुष्य जन्म से स्वतन्त्र हैं तथा अधिकार व मर्यादा में समान हैं। उनमें विवेक व बुद्धि हैं, अत: मनुष्यों को एक-दूसरे के साथ भाई-चारे का व्यवहार करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति बिना जाति, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक या सामाजिक उत्पत्ति, जन्म या किसी दूसरे प्रकार के भेदभाव के बिना सभी प्रकार के अधिकारों तथा स्वतन्त्रता का पात्र है। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन, स्वाधीनता तथा सुरक्षा का अधिकार है। कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को दासता के बन्धन में नहीं बाँधेगा। दासता और दास-व्यवहार सभी क्षेत्रों में सर्वथा निषिद्ध होगा।
किसी भी व्यक्ति को क्रूर दण्ड नहीं दिया जाएगा। प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त होगा कि वह संविधान या कानून के द्वारा प्राप्त मौलिक अधिकारों को समाप्त करने वाले कार्य नहीं करेगा। किसी व्यक्ति की गैर-कानूनी गिरफ्तारी, कैद या निष्कासन न हो सकेगा। प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्र और निष्पक्ष न्यायालय द्वारा अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों के लिए और अपने विरुद्ध आरोपित किसी अपराध के निर्णय के लिए उचित तथा स्वतन्त्र रूप से सुने जाने का समान अधिकार है।
किसी की भी कौटुम्बिक, गार्हस्थिक तथा पत्र-व्यवहार की गोपनीयता में मनमाना हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा और न ही उसके सम्मान तथा प्रसिद्धि को आघात पहुँचाया जाएगा। प्रत्येक व्यक्ति को अपने राज्य की सीमा के अन्दर आवागमन और विकास की स्वतन्त्रता का अधिकार होगा। प्रत्येक व्यक्ति को प्रताड़ना से बचने के लिए किसी भी देश में आश्रय लेने और सुख से रहने का अधिकार है। कोई व्यक्ति अपनी नागरिकता से मनमाने ढंग से वंचित नहीं किया जा सकेगा और न ही उसको नागरिकता परिवर्तन करने के मान्य अधिकार से ही वंचित किया जाएगा।
वयस्क अवस्था वाले पुरुषों और स्त्रियों की जाति, राष्ट्रीयता या धर्म की सीमा के बिना विवाह करने तथा परिवार का निर्माण करने का अधिकार प्राप्त है। उन्हें विवाह करने और वैवाहिक सम्बन्ध विच्छेद करने के समान अधिकार हैं। प्रत्येक व्यक्ति को सम्पत्ति रखने का अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति को विचार, अभिव्यक्ति, अनुभूति तथा धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार है। इस अधिकार के अन्तर्गत अपने धर्म या मत को परिवर्तित करने की स्वतन्त्रता और अपने धर्म तथा मत का उपदेश, प्रयोग, पूजा और परिपालन सर्वसाधारण के सामने या एकान्त में करने की स्वतन्त्रता सम्मिलित है।
प्रत्येक व्यक्ति को शान्तिपूर्ण ढंग से सभा करने की स्वतन्त्रता है। साथ ही किसी भी व्यक्ति को किसी भी संस्था में सम्मिलित होने के लिए विवश नहीं किया जाएगा। प्रत्येक व्यक्ति को काम करने, आजीविका के लिए व्यवसाय चुनने, काम की उचित एवं अनुकूल परिस्थितियाँ प्राप्त करने और बेकारी से बचने का अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति को विश्राम व अवकाश का अधिकार है, साथ ही कार्य के घण्टों का समुचित निर्धारण तथा अवधि के अनुसार वेतन सहित अवकाश का अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति को एक ऐसे जीवन-स्तर की व्यवस्था करने का अधिकार है जो उसके और उसके परिवार के स्वास्थ्य और सुख के लिए अपरिहार्य हो। इसमें भोजन, वस्त्र, निवासस्थान, चिकित्सा की सुविधा तथा आवश्यक समाज-सेवाओं की उपलब्धि और बेकारी, बीमारी, शारीरिक असमर्थता, वैधव्य, वृद्धावस्था के कारण आजीविका के साथ-साथ हास आदि सम्मिलित हैं।
प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। शिक्षा कम-से-कम प्रारम्भिक अवस्था में नि:शुल्क होगी। प्रारम्भिक शिक्षा अनिवार्य होगी। तकनीकी, व्यावसायिक या अन्य प्रकार की शिक्षा की सामान्य उपलब्धि की व्यवस्था की जाएगी और योग्यता के आधार पर उच्च शिक्षा सभी समान रूप से प्राप्त कर सकेंगे। शिक्षा को लक्ष्य मानव व्यक्तित्व का पूर्ण विकास और मानवाधिकारों एवं मौलिक स्वतन्त्रताओं की प्रतिष्ठा बढ़ाना होगा। प्रत्येक व्यक्ति को समाज के सांस्कृतिक जीवन में स्वतन्त्रतापूर्वक भाग लेने व कलाओं का आनन्द लेने तथा वैधानिक विकास से लाभान्वित होने का अधिकार प्राप्त है।
उपर्युक्त अधिकारों के सम्बन्ध में कहा गया है कि संयुक्त राष्ट्र का घोषणा-पत्र ‘मानवता का पत्र’ है।
प्रश्न 3.
मानवाधिकार के घोषणा-पत्र में वर्णित नागरिक और राजनीतिक अधिकारों को वर्णन कीजिए।
उत्तर :
मानवाधिकार घोषणा-पत्र में वर्णित नागरिक और राजनीतिक अधिकार
मानवाधिकारों की उद्घोषणा के अधिकारों को मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम अधिकार नागरिक और राजनीतिक अधिकारों से सम्बन्धित है जिसमें जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता, कानून के समक्ष समानता, दासता और दमन से स्वतंत्रता, व्यक्ति की सुरक्षा, मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध संरक्षण, नजरबंदी और निर्वासन, मुकदमे की उचित प्रक्रिया, निजी सम्पत्ति का अधिकार, राजनीतिक सहभागिता, विवाह का अधिकार, विचार, चेतना तथा धर्म की स्वतंत्रता, मत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण ढंग से बिना हथियारों के सभा और सम्मेलन करने का अधिकार, अपने देश की सरकार में स्वतंत्र रूप में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा भाग लेने का अधिकार सम्मिलित हैं। द्वितीय अधिकार, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार हैं जो दूसरों के साथ व्यवहार से सम्बन्धित हैं, काम का अधिकार, समान कार्य के लिए समान वेतन, व्यावसायिक संघ बनाने या उनका सदस्य बनने का अधिकार तथा सांस्कृतिक जीवन में स्वतंत्र रूप से हिस्सा लेने का अधिकार।
मानवाधिकार सार्वभौमिक घोषणा-पत्र (UDHR) में 30 अनुच्छेद हैं। अनुच्छेद 3 से 21 में नागरिक और राजनीतिक अधिकारों का वर्णन किया गया है –
जीवन, स्वतंत्रता और संरक्षण का अधिकार
- दासता और गुलामी से स्वतंत्रता
- पाश्विक और अमानवीय सजा से स्वतंत्रता
- कानून के समक्ष कहीं भी व्यक्ति के रूप में मान्यता का अधिकार; प्रभावी न्यायिक सहायता पाने का अधिकार; मनमानी गिरफ्तारी से स्वतंत्रता, नजरबंदी और निर्वासन, निष्पक्ष अधिकरण द्वारा उचित मुकदमे और सार्वजनिक सुनवाई का अधिकार, अपराधी सिद्ध होने से पहले निर्दोष माने जाने का अधिकार।
- निजी जीवन, परिवार, घर और पत्राचार में मनमाने हस्तक्षेप से स्वतंत्रता, सम्मान और ख्याति पर प्रतिकूल आलोचना से सुरक्षा, इस प्रकार के हमलों से, कानून से सुरक्षा अधिकार।
- आन्दोलन की स्वतंत्रता, कहीं भी बस जाने की स्वतंत्रता, राष्ट्रीयता का अधिकार।
- मत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
- शांतिपूर्ण सभा और सम्मेलन का अधिकार।
- सरकार में हिस्सा लेने और सरकारी नौकरी पाने का समान अधिकार। घोषणा-पत्र के अनुच्छेद 22-27 में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का वर्णन भी किया गया है।
- सामाजिक संरक्षण का अधिकार।
- काम करने का अधिकार, समान कार्य के लिए समान वेतन का अधिकार, व्यावसायिक संघ बनाने की सदस्यता ग्रहण करने का अधिकार।
- आराम और अवकाश का अधिकार।
- उचित स्वास्थ्य और जीवन-स्तर का अधिकार।
- शिक्षा का अधिकार।
- समुदाय के प्राकृतिक जीवन में हिस्सा लेने का अधिकार।
प्रश्न 4.
भारतीय संविधान में मानवाधिकारों की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
या
मौलिक अधिकार तथा मानवाधिकार के सम्बन्धों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान तथा मानवाधिकार
नागरिक स्वतंत्रता अपने आधुनिक अभिप्राय और विशेषताओं के साथ मौलिक अधिकार, संसदीय संस्थाएँ और संवैधानिक सरकार का विकास ब्रिटिश शासन के समय से ही न्यूनाधिक रूप से समांतर रहे हैं, परंतु इन्हें स्पष्ट प्रोत्साहन विदेशी शासन के रूप में तब मिला जब अंग्रेजों ने मनमाने कानूनों; जैसे-शस्त्रहीन भारतीयों पर पाश्विक आक्रमण जैसा दमनकारी व्यवहार भारतीयों के साथ किया। इसका प्रत्यक्ष परिणाम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म था। राष्ट्रीय आन्दोलन किसी भी प्रकार के दमन के विरुद्ध था और रंग, जाति, लिंग, जन्मस्थान, सरकारी नौकरियों की प्राप्ति में बिना भेदभाव के मानवीय अधिकारों को सुरक्षित करता था।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में आधारभूत मानवाधिकारों के इतिहास को देखा जा सकता है। भारत में पहला औपचारिक दस्तावेज सन् 1928 में मोतीलाल नेहरू की रिपोर्ट के रूप में अस्तित्व में आया। इसमें मोतीलाल नेहरू की रिपोर्ट में निशुल्क प्रारम्भिक शिक्षा, जीवन निर्वाह योग्य भत्ता, मातृत्व सहायता तथा बच्चों के कल्याण से सम्बन्धित अधिकारों को सूचीबद्ध किया गया तथा नेहरू रिपोर्ट के ये अधिकार मौलिक अधिकार तथा नीति-निर्देशक सिद्धान्तों के अग्रदूत थे और इन्हें 22 साल बाद भारतीय संविधान में सम्मिलित किया गया। सन् 1946 में जवाहरलाल नेहरू ने मानवाधिकारों के वैकल्पिक अधिकारों की उद्घोषणा की।
इस वैकल्पिक प्रस्ताव में पूरे देश के लिए एक ऐसा कानून बनाने की प्रतिबद्धता थी, जिसमें सब लोगों को पर्याप्त संरक्षण, अल्पसंख्यक, जनजाति, पिछड़े, वंचित और अन्य वर्गों की गारंटी तथा संरक्षण प्रदान किया जाएगा। यह प्रस्ताव संविधान निर्माताओं के आधारभूत सिद्धान्तों के सम्मिलित तथा कार्यान्वयन को प्रकट करता है जो अधिकार सार्वभौमिक घोषणा-पत्र में निरूपित किए गए थे। भारत की संविधान सभा ने इनमें से अधिकतर अधिकारों को भारतीय संविधान में समावेश किया। भारतीय संविधान के दो भाग–मौलिक अधिकार तथा नीति-निर्देशक सिद्धान्त, मानवाधिकारों की सार्वभौमिक उद्घोषणा के लगभग सम्पूर्ण भाग को अपने में समाविष्ट करते हैं। संक्षेप में, वैकल्पिक प्रस्ताव ने संविधान के विशेष प्रावधानों के संयोजन के लिए आधार प्रदान किया है।
प्रस्तावना और मानवाधिकार
संविधान की प्रस्तावना का भारतीय संविधान में एक अद्वितीय स्थान है। भारतीय संविधान की अन्तरात्मा न्याय, समता, अधिकार और बन्धुत्व की भावना से अभिसिंचित है। संविधान की प्रस्तावना में इन गुणों के साथ-साथ विश्वशान्ति तथा मानव कल्याण भी, अन्तरात्मा के रूप में विद्यमान है। भारत की प्रस्तावना इस प्रकार है –
हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म
और उपासना की स्वतन्त्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सब में
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता
और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए
दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई० को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मर्पित करते हैं।’
(इसमें समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द 42वें संशोधन के माध्यम से जोड़े गए।)
संक्षिप्त रूप से भारतीय संविधान की प्रस्तावना मानवाधिकारों को निर्धारित करती है और संविधान निर्माताओं की आकांक्षाओं को प्रकट करती है।
मौलिक अधिकार तथा मानवाधिकार
भारतीय संविधान का एक अद्वितीय लक्षण यह है कि इसमें व्यापक मानवाधिकारों को मौलिक अधिकारों का नाम दिया गया है और मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के अधिकार को भी एक मौलिक अधिकार बनाया गया है। भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार वैयक्तिक स्वतंत्रता तथा मानवाधिकारों के मैग्नाकार्टा को स्थापित करता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14-31 वैयक्तिक अधिकार प्रदान करते हैं जिसमें स्वतंत्रता का अधिकार, समानता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार सम्मिलित हैं।
ये नकारात्मक अधिकार हैं और इनके न होने की स्थिति में राज्य द्वारा इनका प्रवर्तन कराया जा सकता है। इन अधिकारों को सारांश रूप में विभिन्न श्रेणियों में निम्न प्रकार से विभाजित किया जा सकता हैं –
समानता का अधिकार (अनु० 14-18)
भारतीय संविधान में मानव अधिकारों में समानता का अधिकार एक आवश्यक अंग है। संविधान की धारा 14 के अनुसार, “भारत के राज्य क्षेत्र में राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। धारा 15 अधिक विस्तृत रूप से विवरण करती है-“राज्य किसी नागरिक के साथ उसके धर्म, नस्ल, जाति, लिंग अथवा जन्मस्थान आदि के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगा और इनमें से किसी आधार पर किसी व्यक्ति को दुकानों, होटलों, कुओं, तालाबों, स्नानगृहों तथा मनोरंजन के अन्य स्थानों पर प्रवेश की किसी प्रकार की मनाही नहीं होगी। जबकि धारा 16 में कहा गया है, “सभी नागरिकों को सरकारी नौकरी पाने के समान अवसर होंगे और किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना सरकारी नौकरी या पद प्राप्त करने में भेदभाव नहीं किया जाएगा। धारा 17 और 18 में “राज्य को छुआछूत तथा पदवियों के उन्मूलन का निर्देश दिया गया है।”
स्वतंत्रता का अधिकार (अनु० 19-22)
स्वतंत्रता का अधिकार भारत में मानवाधिकारों की आत्मा है। धारा 19 के अनुसार, “सभी व्यक्तियों को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण ढंग से बिना हथियारों के इकट्ठा होने की स्वतंत्रता, संघ बनाने का अधिकार, भारत राज्य क्षेत्र में घूमने-फिरने का अधिकार, भारत के किसी भाग में रहने या निवास करने की स्वतंत्रता, कोई भी व्यवसाय करने, पेशा अपनाने या व्यापार करने का अधिकार है।” जबकि धारा 20 के अनुसार, “किसी व्यक्ति को उस समय प्रचलित कानून के अनुसार दण्ड दिया जा सकता है, कोई भी व्यक्ति को एक अपराध के लिए दो बार दण्डित नहीं किया जा सकता, किसी व्यक्ति को अपने विरुद्ध गवाही के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता तथा व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित उचित प्रक्रिया के बिना जीवन तथा निजी स्वतंत्रता के वंचित नहीं किया जाएगा।
शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनु० 23-24)
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 23-24 शोषण, मानव व्यापार तथा इसी प्रकार के अन्य शोषणों की सूची की गणना करते हैं। अनुच्छेद 23 व्यक्तियों के व्यापार, भीख और बलात् श्रम के अन्य प्रकारों का निषेध करता है। भारतीय संविधान में ‘दासता’ शब्द के स्थान पर अधिक विस्तृत अभिव्यक्ति मानव के व्यापार’ शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसमें केवल दासता का निषेध नहीं किया गया है, बल्कि महिलाओं, बच्चों तथा बच्चों के अनैतिक और अन्य उद्देश्यों के लिए व्यापार का निषेध करता है। अनुच्छेद 24, 14 वर्ष की आयु के बच्चे को किसी प्रकार के खतरनाक व्यवसाय; जैसे-खान या कारखाने में काम का निषेध करता है। इस प्रकार से बालश्रम को निषेध किया गया है और मौलिक अधिकार के रूप में बच्चों को संरक्षित किया जा रहा है।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनु० 25-28)
भारतीय संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 25-28 में नागरिकों के लिए विभिन्न धार्मिक स्वतंत्रताओं का वर्णन किया गया है। इसके अंतर्गत सार्वजनिक नैतिकता, अनुशासन तथा स्वास्थ्य के नियमों को ध्यान में रखते हुए सभी व्यक्तियों को अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी धर्म को मानने, उसका पालने करने तथा प्रचार करने का अधिकार है तथा प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय अथवा उसके किसी भाग को धर्म अथवा दान सम्बन्धी उद्देश्य के लिए संस्थाएँ स्थापित करने, उन्हें चलाने, धर्म के मामलों में प्रबंध करने का अधिकार होगी। किसी भी व्यक्ति को किसी विशेष धर्म की अभिवृद्धि या पोषण में किए गए खर्च के लिए कोई कर (टैक्स) देने के लिए विवश नहीं किया जाएगा। ये ही नहीं राजकीय निधि से संचालित किसी भी शिक्षण संस्था में किसी भी प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। इसके अलावा, राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त शिक्षण संस्था में किसी व्यक्ति को किसी धर्म विशेष की शिक्षा ग्रहण करने के लिए विवश नहीं किया जाएगा।
सांस्कृतिक और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (अनु० 29-30)
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 द्वारा अल्पसंख्यक वर्गों को विशेष सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकार दिए गए हैं। अनुच्छेद 29 के अनुसार, भारत में निवास करने वाले प्रत्येक समूह को अपनी निश्चित भाषा, लिपि तथा संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार है और संरक्षित रखने का पूर्ण अधिकार है। अनुच्छेद 30 में कहा गया है कि सभी अल्पसंख्यकों के वर्गों को अपनी इच्छा के अनुसार शिक्षा संस्थाएँ स्थापित करने और उन्हें चलाने का अधिकार है। संक्षेप में, भारत जैसे बहुसंख्यक समाज में अल्पसंख्यकों के मानव अधिकार सुरक्षित करने के लिए ये अधिकार बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।
संवैधानिक उपचारों का अधिकार
भारतीय संविधान के भाग 3 की धारा 32 के अधिकतर मौलिक अधिकारों के न्यायिक संरक्षण और इन अधिकारों के कार्यान्वयन की पवित्रता से सम्बन्धित हैं। अनुच्छेद 32 के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को इन अधिकारों को लागू करने का अधिकार है।
इस अनुच्छेद का परिच्छेद 2 न्यायपालिका को निर्देश, रिट जिसमें बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेक्षण, अधिकारपृच्छा शामिल हैं, जारी करने की शक्ति प्राप्त है। इन अधिकारों को आपातकाल के सिवाय किसी अन्य परिस्थिति में निलंबित नहीं किया जा सकता।
राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्त
भारतीय संविधान के भाग 3 के अनुच्छेद 36-51 को प्रायः नीति-निदेशक सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है। नीति-निदेशक सिद्धांत भारत के लोगों के लिए मानवीय नागरिक और आर्थिक अधिकारों की एक वृहद् सूची है। इस भाग के सकारात्मक प्रावधानों को प्रदान करने का उद्देश्य शासन के आधारभूत सिद्धांतों द्वारा सबके लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय निर्धारित करना है। इन सिद्धांतों का विधान बनाते और कार्यान्वयन करते समय कार्यकारी सत्ता को ध्यान में रखना आवश्यक है। हालाँकि इनका प्रवर्तन न्यायालय द्वारा नहीं कराया जा सकता, परन्तु यह फिर भी भारत के शासन में मौलिक है और राज्य का यह कर्तव्य है कि कानून बनाते समय इन सिद्धांतों को स्त्री, पुरुष तथा बच्चों के सामान्य कल्याण को कानून में सम्मिलित करने का प्रयास करे। ये सिद्धांत हैं-जीविका के पर्याप्त साधन उपलब्ध कराना (अनु० 39 (a)], स्त्री-पुरुष को समान कार्य के लिए समान वेतन [अनु० 39 (d)], स्त्री-पुरुष तथा श्रमिकों के स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त संरक्षण प्रदान करना [अनु० 39 (e)]। समाने न्याय और निशुल्क कानूनी सहायता (अनु० 39 (d)], प्रत्येक श्रेणी के मजदूरों के लिए अच्छा वेतन, अच्छा जीवन-स्तर तथा आवश्यक छुट्टियों का प्रबंध करना [अनु० 43], बच्चों के लिए अनिवार्य तथा निशुल्क शिक्षा (अनु० 45), राज्य लोगों के जीवन स्तर, पोषण के स्तर को ऊँचा उठाने तथा जनस्वास्थ्य में सुधार करने का प्रयास करेगा (अनु. 47)। गौहत्या का निषेध तथा अन्य दूध देने वाले पशुओं को मारने पर रोक लगायी जाएगी। (अनु० 48)।
मौलिक अधिकारों तथा नीति-निदेशक सिद्धांतों का सूक्ष्म अध्ययन करने के बाद यह बिल्कुल स्पष्ट है कि सार्वभौमिक अधिकारों के लगभग सम्पूर्ण क्षेत्र को यह दोनों अपने में सम्मिलित किए हुए हैं।
प्रश्न 5.
मानवाधिकार के आधार पर महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
मानवाधिकार और महिलाएँ
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा ने भेदभाव न करने के सिद्धान्त की अभिपुष्टि की थी और यह घोषणा की थी कि सभी मानव स्वतन्त्र पैदा हुए हैं और गरिमा एवं अधिकारों में समान हैं तथा सभी व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के, जिसमें लिंग पर आधारित भेदभाव भी शामिल है, सभी अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं के हकदार हैं। फिर भी महिलाओं के विरुद्ध अत्यधिक भेदभाव होता रहा है।
सर्वप्रथम, सन् 1946 में महिलाओं के मुद्दों का निपटारा करने के लिए महिलाओं की प्रस्थिति पर आयोग की स्थापना की गयी थी। मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा ने भेदभाव की अग्राह्यता के सिद्धान्त को अभिपूष्ट कर दिया था और यह उद्घोषणा की थी कि सभी मानव गरिमा एवं अधिकारों की दृष्टि से स्वतंत्र एवं समान पैदा हुए हैं और हर व्यक्ति उसमें उपवर्णित सभी अधिकारों एवं स्वतंत्रताओं का, लिंग पर आधारित भेदभाव सहित किसी भी प्रकार के अधिकारों का बिना किसी भेदभाव के हकदार हैं। फिर भी महिलाओं के विरुद्ध व्यापक भेदभाव विद्यमान है, मुख्यतः इसलिए है, क्योंकि महिलाओं एवं लड़कियों को समाज द्वारा अधिरोपित अनेक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है, न कि विधि द्वारा अधिरोपित प्रतिबंधों का। इससे अधिकारों की समानता तथा मानव अधिकारों के सिद्धान्त का उल्लंघन हुआ है।
महासभा ने 7 जनवरी, 1967 को महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव की समाप्ति की घोषणा को अंगीकार किया और घोषणा में प्रस्तावित सिद्धान्तों के कार्यान्वयन के लिए महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव की समाप्ति पर अधिनियम 18 दिसम्बर, 1979 को महासभा द्वारा अंगीकार किया गया। यह अधिनियम 1981 को प्रवृत्त हुआ।
महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव की अवधारणा
‘महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव’ शब्द से आशय लिंग के आधार पर किया गया ऐसा कोई भेद, अपवर्जन या प्रतिबंध है जिसका प्रभाव अथवा उद्देश्य महिलाओं द्वारा उनकी वैवाहिक प्रस्थिति पर बिना विचार किए हुए राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, सिविल अथवा किसी अन्य क्षेत्र में पुरुष एवं स्त्री की समानता के आधार पर महिलाओं द्वारा समान स्तर पर उपभोग अथवा प्रयोग करने से वंचित करती है।
अभिसमय द्वारा अनुच्छेद 1 के अन्तर्गत महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव शब्द की परिभाषा लिंग के आधार पर किये गये किसी भी ऐसे भेदभाव अपवर्जन (Exclution) अथवा प्रतिबंध के रूप में की गयी है जिसका प्रभाव अथवा उद्देश्य महिलाओं द्वारा अपनी वैवाहिक प्रस्थिति से बिना कोई सम्बन्ध रखे हुए पुरुष एवं महिलाओं की समानता, मानव अधिकारों एवं राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, सिविल (नागरिक) अथवा किसी अन्य क्षेत्र में मूलभूत स्वतंत्रताओं के आधार पर मान्यता उपभोग अथवा प्रयोग का ह्रास अथवा अकृत करना है।
भाग 3 के अन्तर्गत अभिसमय ने कई क्षेत्रों का प्रतिपादन किया है जहाँ राज्य पक्षकारों के लिए महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव दूर करने के लिए कहा गया है, जिसमें निम्नलिखित सम्मिलित हैं –
1. शिक्षा – अनुच्छेद 10 के अन्तर्गत अभिसमय उपबन्ध करता है कि अपने कैरियर और शैक्षिक पथ-प्रदर्शन में महिलाओं के लिए वे ही शर्ते उपबन्धित की जाएँगी जो पुरुषों के लिए उपबन्धित हैं। वे ग्रामीण तथा नगर क्षेत्रों में सभी प्रकार के शैक्षिक स्थापनों में उपाधियाँ प्राप्त करने के लिए अध्ययन की एक-सी सुविधा प्राप्त करेंगी। यह समानता विद्यालय के पहले सामान्य, तकनीकी, व्यावसायिक तथा उच्चतर तकनीकी शिक्षा तथा सभी प्रकार के शैक्षिक प्रशिक्षण में प्राप्त करेंगी। महिलाओं का पाठ्यक्रम समान होगा, वही परीक्षा होगी और समान स्तर की योग्यताओं से युक्त शैक्षणिक कर्मचारीवृन्द होंगे, विद्यालय परिसर होगा तथा एक प्रकार की सामग्री होगी जैसी कि पुरुषों की है। छात्रवृत्ति और अन्य अध्ययन अनुदान से सम्बन्धित मामलों में पुरुषों के समान महिलाओं को सुविधा दी जाएगी। अनवरत शिक्षा कार्यक्रम में पहुँच के समान अवसर उन्हें प्राप्त होंगे। खेल तथा व्यायाम शिक्षा (physical education) में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए उन्हें समान अवसर प्राप्त होंगे।
2. नियोजन – अभिसमय ने अनुच्छेद 11 के अन्तर्गत उपबन्ध किया है कि राज्य पक्षकार महिलाओं के विरुद्ध भेदभावे दूर करने के लिए सभी प्रकार की उचित व्यवस्था करेंगे। नियोजन के क्षेत्र में महिलाओं के अधिकार पुरुषों के समान होंगे – (क) विशेष रूप से काम करने का अधिकार; (ख) समान नियोजन के अवसर के अधिकार; (ग) व्यवसाय तथा नियोजन चुनने का स्वतन्त्र अधिकार; (घ) समान पारिश्रमिक पाने का अधिकार जिसमें समान मूल्य के कार्य के सम्बन्ध में समान लाभ और व्यवहार सम्मिलित हैं और कार्य की विशेषता का मूल्यांकन करने में समानता का व्यवहार है; (ङ) सामाजिक सुरक्षा का अधिकार विशेष रूप से सेवा निवृत्ति, बेरोजगारी, बीमारी, अवैधता वृद्धावस्था तथा कार्य करने की अन्य असमर्थता तथा भुगतान की गयी छुट्टी का अधिकार तथा (च) कार्यकारी दशाओं में स्वास्थ्य और सुरक्षा की रक्षा का अधिकार; यहाँ विवाह अथवा प्रसव के आधार पर महिलाओं के विरुद्ध कोई भेदभाव न होगा।
3. स्वास्थ्य-सुरक्षा – अभिसमय का अनुच्छेद 12 उपबन्ध करता है कि राज्य पक्षकार स्वास्थ्य सुरक्षा सेवाओं की प्राप्ति में जिसमें परिवार नियोजन भी सम्मिलित है, महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव दूर करने की कार्यवाही करेंगे।
4. आर्थिक तथा सामाजिक जीवन – अभिसमय का अनुच्छेद 13 यह उपबन्ध करता है। कि आर्थिक तथा सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव दूर किया जायेगा। उन्हें वही अधिकार मिलेंगे जो पुरुषों को प्राप्त हैं विशेष रूप से निम्नलिखित मामलों में प्राप्त होंगे – (क) पारिवारिक लाभ के अधिकार में, (ख) बैंक ऋण बन्धक और वित्तीय जमा के अन्य रूप में तथा (ग) मनोरंजन कार्यवाही, खेल तथा सांस्कृतिक जीवन के अन्य पहलुओं में।
5. ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएँ – अनुच्छेद 14 ने यह उपबन्ध किया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव दूर करें। राज्य पक्षकारों से अपेक्षित है कि वे ऐसी महिलाओं को अधिकार सुनिश्चित करें –
(क) सभी स्तरों पर विकास योजना और उसके अनुपालन में भागीदारी करना
(ख) पर्याप्त स्वास्थ्य सुरक्षा सुविधा प्राप्त करना तथा परिवार नियोजन की सूचना प्राप्त करना; राय प्राप्त करना तथा सेवा प्राप्त करना
(ग) सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम से सीधे लाभ प्राप्त करना
(घ) औपचारिक तथा अनौपचारिक प्रशिक्षण तथा शिक्षा प्राप्त करना जिसमें साक्षरता अभियान तथा अन्य बातों के साथ सभी सामुदायिक लाभ तथा विस्तार की सेवाएँ जो उनकी तकनीकी प्रवीणता को बढ़ाने के लिए हों (ङ) स्वयं-सहायता समूहों तथा सहकारिताओं का गठन करना जो नियोजन तथा स्वत: नियोजन द्वारा समान पहुँच प्राप्त करते हों
(च) सभी सामुदायिक कार्यवाहियों में भाग लेना
(छ) कृषिक जमी और ऋणों में पहुँच प्राप्त करना, बाजारी सुविधाएँ, उचित प्रौद्योगिकी तथा भूमि तथा कृषि-सुधार में तथा भूमि पुनर्वास योजनाओं में समान उपचार तथा
(ज) आजीविका-दशाओं का उपभोग करना।
6. विधि के समक्ष समानता – अधिनियम का अनुच्छेद 15 उपबन्ध करता है कि राज्य पक्षकार विधि के समक्ष पुरुषों के साथ महिलाओं को समानता प्रदान करेंगे। महिलाएँ संविदाएँ पूर्ण करने में और सम्पत्ति का प्रशासन करने में समान अधिकार रखेंगी और राज्य पक्षकार न्यायालयों तथा न्यायाधिकरणों में तथा प्रक्रिया की समान अवस्थाओं में उनसे समान व्यवहार करेंगी। राज्य पक्षकार सहमत होंगे कि सभी संविदाएँ तथा सभी अन्य प्रकार की व्यक्तिगत लिखतें जो विधिक प्रभाव रखती हैं जो महिलाओं की विधिक क्षमता को नियंत्रित करने के लिए निर्देशित हैं, शून्य समझी जाएँगी। राज्य पक्षकार महिलाओं और पुरुषों को गतिमान होने के लिए समान अधिकार प्रदान करेंगे और वे अपना निवास और अधिवास चुनने की स्वतंत्रता रखेंगे।
7. विवाह तथा परिवार सम्बन्ध – अनुच्छेद 16 उपबन्ध करता है कि राज्य पक्षकार विवाह तथा परिवार सम्बन्धी सभी मामलों में महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव दूर करने के सभी उपाय करेंगे। महिलाओं को निम्नलिखित अधिकार प्रदान किये जाएँगे –
(क) विवाह करने का समान अधिकार
(ख) विवाह तथा विवाह के विघटन में समान अधिकार तथा दायित्व
(ग) अपने बच्चों सम्बन्धी मामलों में माता-पिता के रूप में समान अधिकार तथा दायित्व। सभी मामलों में बच्चों का हित सर्वोपरि होगा
(घ) अपने बच्चों की संख्या और बीच की अवधि निश्चित करने में स्त्री एवं पुरुष का स्वतन्त्र तथा समान दायित्व होगा तथा सूचना शिक्षा तथा अपने अधिकारों का प्रयोग करने के लिए समर्थ बनाने के साधन उन्हें समान रूप से प्राप्त होंगे
(ङ) बच्चों की संरक्षकता, प्रतिपाल्यता, न्यासधारिता तथा दत्तकग्रहण के सम्बन्ध में समान अधिकार तथा दायित्व;
(च) पति तथा पत्नी के रूप में समान व्यक्तिगत अधिकार जिसमें पारिवारिक नाम चुनने का अधिकार, व्यवसाय तथा आजीविका चुनने का समान अधिकार सम्मिलित हैं। तथा
(छ) स्वामित्व, अर्जन, प्रबन्ध, प्रशासन, उपभोग तथा सम्पत्ति का व्ययं चाहे निःशुल्क हो या मूल्यवान प्रतिफल के लिए हो, में दम्पतियों का समान अधिकार होगा।
अभिसमय के राज्य पक्षकारों ने महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव की सभी रूपों में भर्त्सना की है। और हर संभव साधन द्वारा महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव को समाप्त करने के लिए सहमत हुए हैं। तथा इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि –
- पुरुष एवं महिलाओं की समानता के सिद्धान्त को अपने राष्ट्रीय संविधानों अथवा अन्य उपयुक्त विधायनों में शामिल करेंगे, यदि यह सिद्धान्त उनमें पहले से शामिल न हो
- महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव का प्रतिषेध करते हुए उपयुक्त विधायी एवं अन्य उपायों को अंगीकार करेंगे
- पुरुषों के साथ समान आधार पर महिलाओं के अधिकारों के विधिक संरक्षक की स्थापना करेंगे
- महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव के किसी कार्य अथवा अभ्यास में संलग्न होने से विरत रहेंगे
- किसी व्यक्ति, संगठन अथवा उद्यम महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव को समाप्त करने के लिए. सभी उपयुक्त उपाय अपनाएँगे।
- ऐसे सभी राष्ट्रीय दण्ड प्रावधानों का निरसन (Repeal) करेंगे जो महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव किये जाने में सहायक होते हैं।
प्रश्न 6.
मानवाधिकार के आधार पर बालकों को प्राप्त अधिकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
मानवाधिकार तथा बाल-अधिकार
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 25 के परिच्छेद 2 के अन्तर्गत यह प्रावधान किया गया था कि शैशवावस्था में विशेष देखभाल एवं सहायता की आवश्यकता होती है। शिशु के सम्बन्ध में सार्वभौमिक घोषणा के अन्य सिद्धान्तों के साथ उपर्युक्त सिद्धान्त महासभा द्वारी दिनांक 20 नवम्बर, 1959 को अंगीकार किये गये शिशुओं के अधिकारों की घोषणा (Declaration on the Rights of the Child) में शामिल किये गये थे। सिविल एवं राजनीतिक अधिकारों पर अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा के अनुच्छेद 23 एवं 24 तथा आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों पर अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा के अनुच्छेद 10 के अन्तर्गत शिशुओं की देखभाल के लिए प्रावधान किए गए हैं। कई अन्य अन्तर्राष्ट्रीय दस्तावेजों में भी कहा गया है कि किसी शिशु की देखभाल पारिवारिक स्नेह और प्रसन्नता के वातावरण तथा प्यार एवं समझ में होनी चाहिए। यद्यपि शिशुओं की देखभाल एवं विकास के लिए सिद्धान्त की उद्घोषणा की गयी, किन्तु ये सिद्धान्त राज्यों पर बाध्यकारी नहीं थे। अत: यह महसूस किया गया था कि एक ऐसा अभिसमय तैयार किया जाये जो राज्यों पर विधिक रूप से बाध्यकारी हो।
शिशुओं के अधिकार को अभिसमय (Convention of Rights of the Child) महासभा द्वारा दिनांक 20 नवम्बर, 1989 को शिशुओं की घोषणा की 30वीं वर्षगाँठ पर सर्वसम्मति से अंगीकार किया गया; जो दिनांक 2 सितम्बर, 1990 को लागू हुआ। 5 दिसम्बर, 2013 तक अभिसमय के 193 राज्य पक्षकार बन चुके हैं। अभिसमय में 54 अनुच्छेद हैं और यह तीन खण्डों में विभाजित हैं। अभिसमय शिशुओं के सिविल, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों को संरक्षण प्रदान करने के लिए विश्व की पहली सन्धि है। अभिसूचना को सही मायने में शिशुओं के अधिकारों का बिल कहा जा सकता है। अभिसमय के अनुच्छेद 1 के अन्तर्गत यह कहा गया है कि शिशु ऐसे प्रत्येक मानव को कहा जायेगा जिसकी आयु 18 वर्ष से कम हो, यदि शिशुओं पर लागू किसी विधि के अन्तर्गत वयस्कता इससे पूर्व नहीं प्राप्त हो जाती।
शिशु के अधिकार – अभिसमय में शिशुओं के बहुत से अधिकार निर्दिष्ट किये गये हैं, जिनमें निम्नलिखित सम्मिलित हैं –
- प्राण का अधिकार (अनुच्छेद 6, परिच्छेद 1,)
- राष्ट्रीयता अर्जित करने का अधिकार (अनुच्छेद 7)
- अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 13, परिच्छेद 1)
- विचार, अंत:करण एवं धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 14, परिच्छेद 1)
- संगम की स्वतन्त्रता एवं शांतिपूर्ण सभा करने का अधिकार (अनुच्छेद 15, परिच्छेद 1)
- शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 28, परिच्छेद 1)
- सामाजिक सुरक्षा से लाभ का अधिकार (अनुच्छेद 26, परिच्छेद 1)
- शिशु के शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक विकास हेतु पर्याप्त जीवन-स्तर का अधिकार (अनुच्छेद 27, परिच्छेद 1)
- स्वास्थ्य के उच्चतम प्राप्य-स्तर के उपभोग तथा बीमारी के उपचार एवं स्वास्थ्य की पुनस्र्थापना हेतु सुविधाओं का अधिकार (अनुच्छेद 24, परिच्छेद 1)
- शिशु की एकान्तता, परिवार, गृह या पत्राचार में मनमाना एवं विधिविरुद्ध हस्तक्षेप के विरुद्ध विधिक संरक्षण का अधिकार (अनुच्छेद 16, परिच्छेद 1)
दिसम्बर, 2000 में शिशु अधिकार अभिसमय द्वारा निर्धारित न्यूनतम मामलों को प्रभावी बनाने के लिए और शिशुओं के हितों एवं कल्याण के संरक्षण एवं अनुरक्षण के लिए किशोर न्याय (शिशुओं की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम 2000 (Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Act, 2000] पारित किया है। अधिनियम के द्वारा दोनों लिंगों के किशोरों की आयु 18 वर्ष निर्धारित की गयी है। भारतीय विधि को अभिसमय से अभिपुष्टि प्रदान करने के लिए अधिनियम में विभिन्न प्रकार के अनुकल्पों का प्रावधान किया गया है जो किसी शिशु को उसके पुनर्वास एवं पुनर्रकीकरण के लिए उपलब्ध करवाये गये हैं तथा दत्तकग्रहण, पालन सम्बन्धी देखभाल का प्रावधान किया गया है। अनाथ-परित्यक्त, उपेक्षित एवं शोषित बच्चों के पुनर्वास के लिए पद्धतियों में से किसी एक के प्रायोजित किए जाने का भी प्रावधान किया गया है।
लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)
प्रश्न 1.
मानवाधिकार घोषणा-पत्र के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
मानवाधिकार घोषणा-पत्र का महत्त्व
मानवाधिकारों का अन्तर्राष्ट्रीय घोषणा-पत्र अन्तर्राष्ट्रीय इतिहास में इस प्रकार को प्रथम घोषणा-पत्र है। इसमें समस्त विश्व के व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक मानवाधिकारों का विवेचन किया गया है। हालाँकि घोषणा-पत्र सदस्य राष्ट्रों पर बाध्यपूर्ण नहीं है फिर भी यह ऐसे मानक का निर्धारण करता है जिसके आधार पर राज्य तथा व्यक्तियों का विश्लेषण मानवाधिकारों के अन्तर्गत किया जा सकता है।
राष्ट्रों के कानून के विकास में घोषणा-पत्र ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। यह एक ऐसी शक्ति के रूप में उभरा है जो न केवल कानून का एक स्रोत है, बल्कि कानूनों को बाध्यकारी भी बनाता है।
समाज के सभी हिस्सों से जिस प्रकार की नैतिक तथा राजनीतिक स्वीकृति घोषणा-पत्र को प्राप्त है इस प्रकार की अन्तर्राष्ट्रीय स्वीकृति किसी अन्तर्राष्ट्रीय संगठन को कभी प्राप्त नहीं हुई है। इस घोषणा-पत्र का अपना एक विशिष्ट महत्त्व है। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में घोषणा-पत्र ने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में प्रायः मानवाधिकारों का समर्थन किया जाता रहा है; उदाहरणार्थ-दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति का विरोध मानवाधिकारों के हनन के आधार पर किया गया। रंगभेद की नीति से घोषणापत्र की आत्मा का हनन होता है। इसी प्रकार शीत युद्ध के दौरान हंगरी, रूमानिया, बुल्गारिया की आलोचना की गई, क्योंकि वह शांति संधियों और मानवाधिकारों के घोषणा-पत्र की वचनबद्धता को पूरा करने में असमर्थ रहे थे। संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकारों के हनन को रोकने के लिए कई देशों को बाध्य भी किया है क्योंकि मानवाधिकारों का हनन देश के मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों में बाधक है।
मानवाधिकारों की घोषणा से नवस्वतंत्र देशों के संविधान तथा क्षेत्रीय अनुबन्ध बहुत प्रभावित हुए जिसके कारण इंडोनेशिया, सीरिया, अल-साल्वाडोर, हैती, लिबिया, जॉर्डन तथा अन्य कई देशों के संविधानों में काफी कुछ घोषणा-पत्र से ग्रहण किया गया है। संधियों तथा क्षेत्रीय अनुबंधों में घोषणा-पत्र का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है।
अत: संक्षेप में कहा जा सकता है कि घोषणा-पत्र कानूनी रूप से प्रवर्तनीय नहीं है परन्तु फिर भी बहुसंख्यक देशों की सहमति के लिए मानवाधिकार आदर्श रूप में एक महत्त्वपूर्ण साधन सिद्ध हुए हैं।
प्रश्न 2.
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम-2005 के मुख्य बिन्दुओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005
बीजिंग उद्घोषणा एवं कार्य-योजना में घरेलू हिंसा को एक मानवाधिकार वाद बिन्दु के रूप में स्वीकार किया गया था तथा महिलाओं के विकास के लिए चिन्ता व्यक्त की गयी थी। महिलाओं के अधिकारों को प्रभावशाली संरक्षण उपलब्ध कराने के लिए, जो कि परिवार में किसी भी प्रकार की हिंसा का शिकार हैं, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 संसद द्वारा अधिनियमित किया गया। घरेलू हिंसा को अधिनियम की धारा 3 के अन्तर्गत परिभाषित किया गया। है जिसके अनुसार कोई कार्य लोप या कुछ करना या आचरण, घरेलू हिंसा को गठित करेगा यदि वह –
(a) पीड़ित व्यक्ति के स्वास्थ्य, सुरक्षा, जीवन, अंग की या चाहे उसके मानसिक या शारीरिक लाभ की अपहानि करता है, या उसे कोई क्षति कारित करता है, या उसके लिए संकट उत्पन्न करता है या उसके ऐसा करने का स्वभाव है और जिसके अन्तर्गत शारीरिक यौगिक, मौखिक, भावनात्मक एवं आर्थिक दुरुपयोग कारित करना भी है; या
(b) कोई सम्पत्ति या दहेज या मूल्यवान प्रतिभूति के लिए किसी गैर-कानूनी माँग को पूरा करने के लिए इसे या उससे सम्बन्धित किसी अन्य व्यक्ति को प्रपीड़ित करने के आशय से पीड़ित व्यक्ति का उत्पीड़न करता है, या उसे अपहानि कारित करता है या उसे क्षति कारित करता है या उसके लिए संकट उत्पन्न करता है; या
(c) खण्ड (a) (b) में उल्लिखित किसी आचरण द्वारा पीड़ित व्यक्ति या उससे सम्बन्धित किसी व्यक्ति पर धमकी का प्रभाव बनाए रखती है; या
(d) पीड़ित व्यक्ति को, अन्य तरीके से क्षति कारित करता है या उत्पीड़ित करता है, चाहे ऐसा उत्पीड़न शारीरिक हो या मानसिक।
कोई ऐसा व्यक्ति, जिसके पास यह विश्वास करने का कारण है कि घरेलू हिंसा का कोई कार्य हो चुका है, या किया जा रहा है, या किए जाने की सम्भावना है तो वह तत्सम्बन्धित संरक्षणाधिकारी (Protection Officer) को इस सम्बन्ध में जानकारी दे सकेगा। कोई पुलिस अधिकारी संरक्षणाधिकारी, सेवा प्रदाता या मजिस्ट्रेट, जिसको घरेलू हिंसा के किए जाने की शिकायत प्राप्त हुई है या जो घरेलू हिंसा की घटना के घटित होने के स्थान पर उपस्थित है या जब घरेलू हिंसा की उसे रिपोर्ट दी जाती है तब वह उसे पीड़ित व्यक्ति को –
(क) इस अधिनियम के अन्तर्गत, किसी संरक्षण आदेश आर्थिक राहत हेतु कोई आदेश, २ ई आवास आदेश, कोई प्रतिकर आदेश, या ऐसे एक से अधिक आदेश के रूप में किसी प्रकार की राहत अभिप्राप्त करने हेतु आवेदन देने की उसके अधिकार की
(ख) सेवा प्रदाताओं द्वारा सेवाओं की उपलब्धता की
(ग) संरक्षण प्रदाताओं द्वारा सेवाओं की उपलब्धता की;
(घ) विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के अन्तर्गत नि:शुल्क विधिक सहायता प्राप्त करने के अधिकार की
(ङ) जहाँ पर भी सुसंगत हो, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 (क) के अन्तर्गत किसी परिवाद के दाखिल करने के उसके अधिकार की, समस्त जानकारी उपलब्ध करवायेगा।
प्रश्न 3.
मानवाधिकार के सन्दर्भ में चुनौतियों और संभावनाओं की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
मानवाधिकार : चुनौतियाँ और सम्भावनाएँ
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के अन्तर्गत विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। मानवाधिकारों की रक्षा करने में भारत की स्वतन्त्र न्यायपालिका एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। हाल के वर्षों में समाज के हाशिये के वर्गों के दावों के प्रति न्यायपालिका ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है जिसके परिणामस्वरूप आज समाज के दुर्बल वर्ग; जैसे-महिलाएँ, बच्चे, पिछड़ी जातियाँ, जनजातियाँ और अन्य पिछड़े वर्ग अपने अधिकारों के प्रति अधिक सचेत हो गए हैं। प्राचीन भारतीय समाज की जाति-व्यवस्था में हाशिये के वर्गों; जैसे-महिलाएँ और बच्चों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त नहीं थे परन्तु आज यह वर्ग अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए आंदोलनों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। महिलाएँ प्रत्येक क्षेत्र में शक्ति के बँटवारे के प्रति दृढ़-संकल्प हैं। भारतीय संविधान के समानता के अधिकार से सम्बन्धित अनुच्छेद ने सामाजिक व्यवस्था को एक गहरी चोट पहुंचाकर इस घटना में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राष्ट्रीय महिला आयोग महिलाओं के अधिकारों के संरक्षण और उनके अधिकारों के हनन सम्बन्धी शिकायतों को देखता है, यह एक विधायी संस्था है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस दिशा के कार्यक्षेत्र में यौन उत्पीड़न के विरुद्ध संरक्षण के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश दिये हैं और अब अधीनस्थ न्यायालय लिंग सम्बन्धी भेदभाव को मानव अधिकारों के हनन के रूप में स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार बाल-अधिकारों के संरक्षण के लिए “बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ बालकों के प्रति होने वाले अपराधों को नियन्त्रित करने के लिए प्रतिबद्ध है।
मानव अधिकारों के सकारात्मक पहलू के साथ ही मानवाधिकारों का एक नकारात्मक पहलू भी है और हम इसकी अवहेलना नहीं कर सकते। आज सरकारों की यह प्रवृत्ति बन गई है कि वह प्रायः मुकदमों या याचिकाओं की आड़ में मानवाधिकारों की अवहेलना करती है। राज्य ने भारतीय पुलिस को अत्यधिक शक्तियाँ प्रदान की हैं। लोगों को मात्र संदेह के आधार पर हिरासत में लेना उन पर दमन की कठोर थर्ड डिग्री का प्रयोग करना, झूठी मुठभेड़, कारावास में मृत्यु इत्यादि कानून को लागू करवाने वाली संस्थाओं द्वारा मानव अधिकारों के हनन के गंभीर उदाहरण हैं। कानून की सीमा के अन्तर्गत आतंकवादी गतिविधियों पर रोक लगाने तथा उनसे निपटने के लिए पुलिस को आवश्यक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। परन्तु TADA और POTA जैसे विध्वंसक कानूनों की आड़ में मानवाधिकारों का हनन किया जाता है जो एक अपूर्णीय क्षति है। अन्याय के माध्यम से यह निरंकुश कानून बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार का स्रोत भी बन चुके हैं। कारावासीय हिंसा-जिसमें कारावास में मौत और महिलाओं का कारावासीय बलात्कार भी शामिल हैं-एक अन्य अमानवीय क्रूर और गैर-मानवीय व्यवहार है जो मानव अधिकारों के लिए गंभीर चुनौती है।
लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)
प्रश्न 1.
मानवाधिकार के महत्व का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
मानवाधिकार का महत्त्व
अधिकार, मानव के सामाजिक जीवन की ऐसी आवश्यकताएँ हैं जिनके अभाव में मानव न तो अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है और न ही समाज के लिए उपयोगी कार्य ही कर सकता है। बिना अधिकारों के मानव का जीवन पशु तुल्य है। अत: अधिकार मानव-जीवन की वे परिस्थितियाँ हैं जो उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं। राज्य का भी यह प्रयास रहता है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास हो, अतः वह व्यक्तियों को विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करता है। राज्य द्वारा व्यक्तियों को दी जाने वाली सुविधाओं का नाम ही अधिकार है।
मानवाधिकारों की घोषणा सर्वप्रथम अमेरिकी तथा फ्रांसीसी क्रान्तियों के पश्चात् हुई। उसके पश्चात् मानव के महत्त्वपूर्ण अधिकारों को विश्व समुदाय के द्वारा स्वीकार किया गया। सन् 1941 में अमेरिकी कांग्रेस में अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने मानव को निम्न चार स्वतंत्र अधिकारों को प्रदान करने का समर्थन किया
- भाषण तथा विचार अभिव्यक्ति का अधिकार
- धर्म तथा विश्वास का अधिकार
- अभाव से स्वतन्त्रता का अधिकार
- भय से स्वतन्त्रता का अधिकार।
ये चारों अधिकार मानव के व्यक्तित्व के स्वतन्त्र विकास के लिए आवश्यक हैं तथा विश्व के सभी व्यक्तियों को प्रत्येक दशा में प्राप्त होने चाहिए। अटलाण्टिक चार्टर से लेकर द्वितीय महायुद्ध समाप्त होने के पूर्व अनेक सम्मेलनों में मित्र राष्ट्रों के द्वारा मानव के विभिन्न अधिकारों तथा आधारभूत स्वतन्त्रताओं पर बल दिया गया।
प्रश्न 2.
मानवाधिकारों की अवधारणा क्या है?
उत्तर :
मानवीय या मानवाधिकारों की भावना का प्रादुर्भाव विश्वयुद्ध के बाद हुआ। इस भावना का अभिप्राय यह है कि प्रत्येक राष्ट्र को ऐसे अधिकार प्रदान करना, जिनके माध्यम से वह अपना समुचित विकास करने में सफल हो सकें। अत: एक प्रकार से मानवाधिकारों की भावना, विश्वबन्धुत्व की भावना पर आधारित है। इस भावना के आधार पर यह जाना जाता है कि विश्व के सभी मनुष्य एक-दूसरे के भाई और सभी को अपने विकास के समान अवसर मिलने चाहिए।
प्रश्न 3.
भारत में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए क्या प्रयत्न किए गए?
उत्तर :
भारत में महिलाओं की स्थिति में सुधार करने हेतु निम्नलिखित प्रावधानों को लागू किया गया –
- अनुच्छेद 15 (3), अनुच्छेद 15 (1) और अनुच्छेद 15 (2) के अनुसार राज्य महिलाओं और बालकों के लिए विशेष उपबन्ध की व्यवस्था कर सकता है।
- अनुच्छेद-39 (छ) पुरुषों और स्त्रियों के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन का प्रावधान करता है।
- न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1998 पारित किया गया।
- अनु० 42-महिलाओं के लिए प्रसूति सहायता की व्यवस्था करता है।
- प्रसूति सुविधा अधिनियम, 1961 पारित किया गया।
- दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 पारित किया गया।
- अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1956 पारित किया गया।
- स्त्रियों का अशिष्ट प्रस्तुतीकरण (प्रतिषेध) अधिनियम, 1986
- सती (निवारण) अधिनियम, 1987
- बाल विवाह अवषेध अधिनियम, 1929
- गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम, 1971
- राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम, 1990.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)
प्रश्न 1.
आल्टेन तथा प्लेनो द्वारा दी गई मानवाधिकार की परिभाषा दीजिए।
उत्तर :
मानवाधिकार वे अधिकार हैं जो व्यक्तिगत जीवन, व्यक्तिगत विकास और अस्तित्व के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं।
प्रश्न 2.
मानवाधिकारों की भावना का जन्म कब हुआ?
उत्तर :
मानवाधिकारों की भावना का प्रादुर्भाव द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुआ।
प्रश्न 3.
संयुक्त राष्ट्र का घोषणा-पत्र किस वर्ष तैयार हुआ?
उत्तर :
सन् 1945 में।
प्रश्न 4.
भारत में दहेज प्रतिषेध अधिनियम कब बना?
उत्तर :
सन् 1961 में।
प्रश्न 5.
बच्चों के अधिकार एवं कल्याण किस संगठन का उद्देश्य है?
उत्तर :
यूनिसेफ।
प्रश्न 6.
मानवाधिकारों की भावना किस पर आधारित है?
उत्तर :
मानवाधिकारों की भावना विश्व-बन्धुत्व की भावना पर आधारित है।
प्रश्न 7.
भारत में किस वर्ष की महिला शक्ति वर्ष के रूप में मनाया गया था?
उत्तर :
वर्ष 2001 को।
बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)
प्रश्न 1.
मानवाधिकार की भावना का प्रादुर्भाव हुआ।
(क) द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात्
(ख) प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात्
(ग) सन् 1295 में
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 2.
व्यक्ति के अधिकारों की प्रथम घोषणा किस वर्ष हुई?
(क) सन् 1214 में
(ख) सन् 1215 में
(ग) सन् 1216 में
(घ) सन् 1220 में
प्रश्न 3.
भारत में राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम कब बना?
(क) सन् 1990 में
(ख) सन् 1971 में
(ग) सन् 1992 में
(घ) सन् 1947 में
प्रश्न 4.
महिलाओं के लिए प्रसूति सहायता की व्यवस्था किस अनुच्छेद में की गई है।
(क) अनु० 42.
(ख) अनु० 47
(ग) अनु० 51
(घ) अनु० 48
प्रश्न 5.
बालश्रम उन्मूलन हेतु भारत में कानून कब पास किया गया था?
(क) सन् 1980 में
(ख) सन् 1982 में
(ग) सन् 1984 में
(घ) सन् 1986 में
उत्तर :
- (क) द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात्
- (ख) सन् 1215
- (क) सन् 1990 में
- (क) अनु० 42
- (घ) सन् 1986 में
We hope the UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 13 Human Rights (मानवाधिकार) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 13 Human Rights (मानवाधिकार), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.