UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 4 Rights and Duties of Citizens (नागरिकों के अधिकार तथा कर्तव्य) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 4 Rights and Duties of Citizens (नागरिकों के अधिकार तथा कर्तव्य).
Board | UP Board |
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | Civics |
Chapter | Chapter 4 |
Chapter Name | Rights and Duties of Citizens (नागरिकों के अधिकार तथा कर्तव्य) |
Number of Questions Solved | 47 |
Category | UP Board Solutions |
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 4 Rights and Duties of Citizens (नागरिकों के अधिकार तथा कर्तव्य)
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)
प्रश्न 1.
अधिकार से क्या तात्पर्य है? लोकतन्त्र में उपलब्ध नागरिकों के अधिकारों का वर्णन कीजिए।
या
अधिकारों का वर्गीकरण कीजिए।
या
अधिकारों के विभिन्न प्रकार बताइए और सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकारों में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2015]
या
किन्हीं चार राजनीतिक अधिकारों का वर्णन कीजिए। [2008, 11, 12, 13, 14]
उत्तर
प्रजातान्त्रिक राज्यों में अधिकार को मानव-जीवन का आधार माना जाता है, क्योंकि व्यक्ति के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक और व्यक्तिगत जीवन का विकास अधिकारों पर ही निर्भर करता है। सामान्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि “अधिकार समाज द्वारा स्वीकृत तथा राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त व्यक्ति को दी जाने वाली वे सुविधाएँ हैं जो उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक होती हैं।
अधिकार की परिभाषा
विभिन्न विचारकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण के आधार पर अधिकार की निम्नलिखित परिभाषाएँ दी हैं-
- लॉस्की के अनुसार, “अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ हैं जिनके बिना सामान्यतः कोई भी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता।”
- वाइल्ड के अनुसार, “अधिकार कुछ विशेष कार्यों को करने की स्वाधीनता की उचित माँग है।”
- बोसांके के शब्दों में, “अधिकार वे माँग हैं जिन्हें समाज स्वीकार तथा राज्य लागू करता है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर अधिकार के निम्नलिखित तत्त्व अथवा लक्षण स्पष्ट होते हैं-
- व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक सुविधाएँ,
- समाज की स्वीकृति,
- राज्य द्वारा मान्यता एवं संरक्षण,
- सार्वभौमिकता तथा
- लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित।
अधिकारों का वर्गीकरण
अधिकार सामान्य रूप में दो प्रकार के होते हैं-
- नैतिक अधिकार तथा
- कानूनी या वैधानिक अधिकार।
1. नैतिक अधिकार
नैतिक अधिकार वे अधिकार होते हैं जिनका सम्बन्ध मनुष्य के नैतिक आचरण से होता है। उनके पीछे राज्य की कानूनी शक्ति नहीं होती है। अतएव इनको मानना या न मानना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है। इन्हें प्राप्त करने के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता। इन अधिकारों में शिष्ट व्यवहार, नैतिक मान्यताएँ और चारित्रिक नियम सम्मिलित होते हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि नैतिक अधिकारों का राज्य अथवा कानून से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। उदाहरण के लिए, वृद्ध और असहाय माता-पिता अपनी सन्तान से जीवन-यापन के लिए सहायता पाने के नैतिक रूप से अधिकारी हैं, परन्तु यदि सन्तान उनकी सहायता नहीं करती तो वह दण्ड की भागी नहीं हो सकती।
2. कानूनी या वैधानिक अधिकार
कानूनी अधिकार वे अधिकार हैं जिनकी व्यवस्था राज्य द्वारा कानून के अनुसार की जाती है। इन अधिकारों में बाधा डालने वाले दण्ड के भागी होते हैं।
कानूनी या वैधानिक अधिकार दो प्रकार के होते हैं-
(क) सामाजिक अधिकार तथा (ख) राजनीतिक अधिकार।
(क) सामाजिक अधिकार – सामाजिक अधिकार वे अधिकार हैं जो मानवीय आधार पर प्रायः राज्य के नागरिक तथा विदेशी सभी को प्राप्त होते हैं। प्रमुख सामाजिक अधिकार निम्नलिखित हैं-
- जीवन का अधिकार – प्रत्येक व्यक्ति को जीवन का अधिकार प्राप्त होता है। यह अधिकार मनुष्य के अस्तित्व से सम्बन्धित होता है। जीवन के अधिकार में यह बात भी उल्लेखनीय है कि कोई व्यक्ति स्वयं अपना जीवन समाप्त नहीं कर सकता। आत्महत्या करना दण्डनीय अपराध है।
- धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार – इस अधिकार का अर्थ है कि मनुष्य को किसी भी धर्म को मानने व उसका प्रचार करने का अधिकार है। राज्य द्वारा उसकी इच्छा के विरुद्ध उसके ऊपर कोई धर्म थोपा नहीं जा सकता।
- शिक्षा एवं संस्कृति का अधिकार – शिक्षा राष्ट्रीय जीवन की आधारशिला है। व्यक्ति के व्यक्तित्व, समाज और राष्ट्र का विकास सब कुछ शिक्षा पर निर्भर करता है। शिक्षा के अभाव में कोई भी मनुष्य उत्तम नागरिक नहीं बन सकता। अरस्तू का तो यह कहना था कि “नागरिक बनने के लिए शिक्षित होना अनिवार्य है। आज के लोकतन्त्रात्मक युग में तो यह अधिकार अत्यन्त अनिवार्य है। संस्कृति के अधिकार का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी भाषा, लिपि, साहित्य, कला एवं परम्पराओं को अपनाने तथा उन्हें सुरक्षित रखने की सुविधा प्राप्त होनी चाहिए।
- सम्पत्ति का अधिकार – सम्पत्ति के अधिकार का अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन-यापन के लिए वैध उपायों द्वारा धन अर्जित करने, एकंत्रं करने एवं खर्च करने का अधिकार होना चाहिए। उसके इस अधिकार में किसी को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होता। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक होगा कि राज्य सार्वजनिक हित के लिए क्षतिपूर्ति देकर किसी व्यक्ति की सम्पत्ति का अधिग्रहण कर सकता है। साम्यवादी राज्य इस अधिकार के विरुद्ध हैं।
- विचार व्यक्त करने का अधिकार – प्रत्येक व्यक्ति को लेखन, भाषण आदि के द्वारा अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का अधिकार होना चाहिए। परन्तु व्यक्ति को अपने विचारों की अभिव्यक्ति का अधिकार उसी सीमा तक होना चाहिए जहाँ तक कि उससे सामाजिक अहित न होता हो। लोकतन्त्र में इस अधिकार का बहुत अधिक महत्त्व है।
- समुदाय बनाने का अधिकार – इस अधिकार के अन्तर्गत व्यक्ति को समुदाय बनाने और उसका सदस्य बनाने का अधिकार दिया जाता है। विभिन्न राजनीतिक दलों, विविध प्रकार के समुदाय इसी अधिकार के आधार पर जन्म लेते हैं।
- परिवार का अधिकार – परिवार सामाजिक जीवन की प्रथम इकाई तथा नागरिकता का प्रथम विद्यालय है। इस अधिकार के अन्तर्गत विवाह करने, यौन–सम्बन्धों की शुद्धता बनाये रखने, सन्तान व माता-पिता के पारस्परिक सम्बन्ध, उत्तराधिकार आदि के अधिकार सम्मिलित हैं। प्रत्येक व्यक्ति का यह अधिकार है कि वह बिना किसी हस्तक्षेप या प्रतिबन्ध के अपने पारिवारिक जीवन का सुख भोग सके।
- न्याय का अधिकार – न्याय के अधिकार से आशय यह है कि न्यायालयों में धनी, निर्धन, साधारण नागरिक और उच्च अधिकारी में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए। कानून के सामने छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं होना चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है जब देश में विधि-विहित शासन हो।
- रोजगार का अधिकार – प्रत्येक नागरिक को राज्य की ओर से उसकी योग्यता और शक्ति के अनुसार काम दिया जाए और उसे उसके परिश्रम के अनुरूप वेतन मिले। समाजवादी देशों में इस अधिकार का विशेष महत्त्व है।
इस अधिकार के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के कोई भी वैध व्यवसाय करने तथा योग्यतानुसार सरकारी नौकरी प्राप्त करने का अधिकार होता है। - समानता का अधिकार – इस अधिकार के अन्तर्गत राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक समानता के अधिकार प्रमुख हैं। ये लोकतन्त्र के प्राण हैं। इनके अभाव में लोकतन्त्र की कल्पना ही अधूरी रह जाती है।
(ख) राजनीतिक अधिकार – राजनीतिक अधिकार नागरिक को देश के शासन में भाग लेने का अवसर प्रदान करते हैं। ये निम्नलिखित हैं-
- मतदान का अधिकार – लोकतन्त्र में यह अधिकार राज्य के समस्त वयस्क नागरिकों को प्रतिनिधि संस्थाओं के लिए सदस्यों को चुनने का अधिकार देता है। नागरिकों का यह अधिकार देश के भाग्य का निर्णय करता है।
- चुनाव लड़ने का अधिकार – मतदान के साथ ही लोकतन्त्र में प्रत्येक नागरिक को यह भी अधिकार होता है कि वह स्वयं भी प्रतिनिधि संस्थाओं की सदस्यता के लिए चुनाव लड़ सके। किसी व्यक्ति को रंग, जाति, लिंग अथवा सम्पत्ति के आधार पर इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।
- सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार – इस अधिकार के अन्तर्गत सभी नागरिकों को योग्यता के अनुरूप सरकारी पदों पर नियुक्त होने का अधिकार प्राप्त रहता है। कोई भी नागरिक धर्म, जाति, लिंग अथवा सम्पत्ति के आधार पर सरकारी पद पाने से वंचित नहीं होना चाहिए।
- सरकार की आलोचना करने का अधिकार – सभी लोकतान्त्रिक राज्यों के नागरिकों को सरकार की दोषपूर्ण नीतियों की आलोचना करने का अधिकार प्राप्त होता है। यदि लोग सरकार के कार्यों व नीतियों से सन्तुष्ट नहीं हैं तो वे उसकी खुलकर आलोचना कर सकते हैं, परन्तु सरकार का विरोध शान्तिपूर्ण ढंग से एक संवैधानिक प्रक्रिया के द्वारा ही किया जा सकता है।
- आवेदन-पत्र देने का अधिकार – प्रायः प्रत्येक सभ्य एवं लोकतन्त्रात्मक राज्य में नागरिकों को आवेदन-पत्र देने का अधिकार प्राप्त होता है। इस आवेदन-पत्र के द्वारा लोग सरकार का ध्यान अपने कष्टों की ओर आकृष्ट करते हैं। यह अधिकार सरकार पर अंकुश रखता है और इसके कारण सरकार जनता के कष्टों की उपेक्षा नहीं कर सकती।
प्रश्न 2.
कर्तव्य का अर्थ बताइए तथा उसका वर्गीकरण कीजिए। [2007]
या
नागरिकों के कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए स्पष्ट कीजिए कि लोकतन्त्र में किन कर्तव्यों पर अधिक बल देना चाहिए ? [2007]
या
एक आदर्श नागरिक के अधिकार तथा कर्तव्यों का विवेचन कीजिए। [2008, 10]
या
नागरिकों के अधिकारों एवं कर्तव्य का संक्षेप में उल्लेख कीजिए। [2010, 12, 14]
[संकेत- अधिकार’ हेतु विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 में अधिकारों सम्बन्धी शीर्षक का अध्ययन करें।]
उत्तर
कर्तव्य – भारतीय प्राचीन विचारकों ने अधिकार की अपेक्षा कर्तव्यपालन पर अधिक जोर दिया है। कौटिल्य ने कर्तव्य को स्वधर्म कहा है। कर्त्तव्य अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘ड्यूटी’ (Duty) का हिन्दी अनुवाद है। ‘ड्यूटी’ शब्द की उत्पत्ति ‘Due’ से हुई है, जिसका अर्थ ‘उचित होता है। अतः कर्त्तव्य से तात्पर्य ऐसे कार्य से है जिसे कोई व्यक्ति स्वाभाविक, नैतिक तथा कानूनी दृष्टि से करने हेतु बाध्य हो। लैड के शब्दों में, “करना चाहिए की भावना ही कर्तव्य है।” राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के शब्दों में, “कर्त्तव्य अधिकार का सच्चा स्रोत है। यदि हम अपने कर्तव्यों का पालन करते रहें तो अधिकार हमसे दूर न रहेंगे।”
डॉ० जाकिर हुसैन के मतानुसार, “अपने दायित्वों एवं सेवाओं का सक्रिय इच्छा द्वारा निर्वाह करना ही कर्तव्य है।”
संक्षेप में, किसी विशेष कार्य के करने अथवा न करने के सम्बन्ध में व्यक्ति के उत्तरदायित्व को ही कर्तव्य कहा जा सकता है। अन्य शब्दों में, जिन कार्यों के सम्बन्ध में समाज एवं राज्य सामान्य रूप से व्यक्ति से यह आशा करते हैं कि उसे वे कार्य करने चाहिए, उन्हीं को व्यक्ति के कर्तव्य की संज्ञा दी जा सकती है।
कर्तव्यों का वर्गीकरण अथवा प्रकार
नागरिकों के कर्तव्यों का क्षेत्र अत्यधिक व्यापक है, क्योंकि उसको एक साथ अनेक प्रकार के कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है। एक नागरिक के प्रमुख कर्तव्य निम्नलिखित हैं-
1. नैतिक कर्तव्य – नैतिक कर्तव्य उसे कहते हैं जिसका सम्बन्ध व्यक्ति की नैतिक भावना, अन्त:करण तथा उचित कार्य की प्रवृत्ति से होता है। वस्तुतः नैतिक कर्तव्य का सम्बन्ध व्यक्ति के अन्त:करण से होता है। इन कर्तव्यों को राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं होती। नागरिक के नैतिक कर्तव्य निम्नलिखित हैं
(i) परिवार के प्रति कर्तव्य – व्यक्ति, राज्य और समाज के विकास में कुटुम्ब का प्रमुख स्थान है। परिवार में ही मनुष्य को सर्वप्रथम शिक्षा मिलती है और उसमें नागरिक गुणों का बीजारोपण होता है। श्रेष्ठ नागरिक और स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए स्वस्थ परिवार का होना भी आवश्यक है। यह तभी सम्भव है जब नागरिक परिवार के अनुशासन और आचरण का पालन करे।
(ii) अपने प्रति कर्त्तव्य – राज्य या समाज अन्ततः नागरिकों को संगठन है। नागरिकों की उन्नति पर ही उसकी उन्नति निर्भर है। स्वस्थ, चरित्रवान, परिश्रमी तथा स्वावलम्बी नागरिक एक स्वस्थ समाज और राज्य का निर्माण कर सकते हैं। अत: प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपने विकास पर पूर्ण ध्यान दे। इसके लिए उसे स्वस्थ, संयमी, अनुशासनप्रिय, शिक्षित और परोपकारी होना चाहिए। यदि कोई नागरिक अपने शारीरिक और मानसिक विकास के प्रति उदास रहता है तो वह अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता।
(iii) ग्राम, नगर, जाति तथा समाज के प्रति कर्तव्य – परिवार के अतिरिक्त नागरिक को भी अपने ग्राम, नगर, जाति एवं समाज से भी सहायता मिलती है; अतः इन संगठनों के प्रति भी उसके कुछ कर्तव्य हैं। उसका कर्तव्य है कि इन संगठनों की उन्नति में सहायता पहुँचाये।
2. कानूनी कर्तव्य अथवा राज्य के प्रति कर्तव्य – ये नागरिक के वे कर्तव्य होते हैं जिन्हें राज्य निर्धारित करता है। नागरिक को इनका पालन अनिवार्य रूप से करना होता है। इनके उल्लंघन करने पर राज्य द्वारा दण्ड दिया जाता है। नागरिक के प्रमुख कानूनी कर्तव्य निम्नलिखित हैं-
(i) राज्य के प्रति निष्ठा – राज्य के प्रति निष्ठा और भक्ति की भावना नागरिक का प्रथम कर्तव्य होता है। उसे शत्रुओं से देश को बचाने के लिए देश के अन्दर शान्ति और सुव्यवस्था बनाये रखने में राज्य की सहायता करनी चाहिए। आपातकाल में अनिवार्य सैनिक सेवा इसी प्रकार के कर्तव्य का फल है।
(ii) कानूनों का पालन – कानून का निर्माण समाज के कल्याण के लिए होता है। अत: प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह राज्य-निर्मित नियमों का पालन करे। ऐसा करके वह राज्य के लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होगा।
(iii) करों का भुगतान – शासन-संचालन और नागरिकों की उन्नति के लिए प्रत्येक राज्य को आर्थिक शक्ति की आवश्यकता होती है। इस आर्थिक शक्ति को प्राप्त करने के लिए राज्य विविध प्रकार के कर लगाता है। अतः प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह समय से सभी प्रकार के करों का भुगतान करे।
(iv) मत का उचित प्रयोग – लोकतन्त्र को चलाने के लिए जनता के प्रतिनिधियों की आवश्यकता होती है और उन प्रतिनिधियों पर ही देश का भविष्य निर्भर करता है। इसलिए नागरिकों का कर्तव्य है कि वे जनता के प्रतिनिधियों का चुनाव पर्याप्त सोच-समझकर करें। जाति, धर्म अथवा धन को मत का अधिकार नहीं बनाना चाहिए।
(v) सार्वजनिक पद ग्रहण करना – प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह सार्वजनिक पद ग्रहण करने के लिए सदैव तत्पर रहे, साथ ही समाज द्वारा सौंपे गये उत्तरदायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वाह करे।
प्रश्न 3.
अधिकारों से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
अधिकार सम्बन्धी विभिन्न सिद्धान्त
अधिकारों के सम्बन्ध में विभिन्न सिद्धान्त प्रचलित हैं, जिनका विवेचन निम्नलिखित है-
1. अधिकारों का प्राकृतिक सिद्धान्त – हॉब्स, लॉक, रूसो आदि विद्वानों ने अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धान्त का समर्थन किया है। यह सिद्धान्त अति प्राचीन है। इसके अनुसार अधिकार प्रकृति-प्रदत्त हैं और वे व्यक्ति को जन्म के साथ ही प्राप्त हो जाते हैं। व्यक्ति प्राकृतिक अधिकारों का प्रयोग राज्य के उदय के पूर्व से ही करता आ रहा है। राज्य इन अधिकारों को न तो छीन सकता है और न ही वह इनका जन्मदाता है। टॉमस पेन के अनुसार, “प्राकृतिक अधिकार वे अधिकार हैं जो मनुष्य के अस्तित्व को स्थायित्व प्रदान करने के लिए आवश्यक हैं।’ इस दृष्टिकोण से अधिकार असीमित, निरपेक्ष तथा स्वयंसिद्ध हैं। राज्य इन अधिकारों में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।
आलोचना- इस सिद्धान्त में कतिपय दोष निम्नलिखित हैं-
- यह सिद्धान्त अनैतिहासिक है, क्योंकि जिस प्राकृतिक व्यवस्था के अन्तर्गत इन अधिकारों के प्राप्त होने का उल्लेख किया गया है, वह काल्पनिक है।
- ग्रीन का मत है कि समाज से पृथक् कोई भी अधिकार सम्भव नहीं है।
- यह सिद्धान्त राज्य को कृत्रिम संस्था मानता है, जो अनुचित है।
- प्राकृतिक अधिकारों में परस्पर विरोधाभास पाया जाता है।
- यह सिद्धान्त कर्तव्यों के प्रति मौन है, जबकि कर्तव्य के अभाव में अधिकारों का अस्तित्व सम्भव नहीं है।
2. अधिकारों का कानूनी या वैधानिक सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के प्रवर्तक बेन्थम, हॉलैण्ड, आँ स्टिन आदि विचारक हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार, अधिकार राज्य की इच्छा के परिणाम हैं और राज्य ही अधिकारों का जन्मदाता है। यह सिद्धान्त प्राकृतिक सिद्धान्त के विपरीत है। व्यक्ति राज्य के संरक्षण में रहकर ही अधिकारों का प्रयोग कर सकता है। राज्य ही कानून द्वारा ऐसी परिस्थितियों को उत्पन्न करता है, जहाँ व्यक्ति अपने अधिकारों का स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग कर सके। राज्य ही अधिकारों को वैधता प्रदान करता है। यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि अधिकारों का अस्तित्व केवल राज्य के अन्तर्गत ही सम्भव है।
आलोचना- इस सिद्धान्त में कतिपय दोष निम्नलिखित हैं-
- इस सिद्धान्त से राज्य की निरंकुशता का समर्थन होता है।
- राज्य नैतिक बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
- अधिकारों में स्थायित्व नहीं रहता है।
3. अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकारों की उत्पत्ति प्राचीन रीति-रिवाजों के परिणामस्वरूप होती है। जिन रीति-रिवाजों को समाज स्वीकृति दे देता है, वे अधिकार का रूप धारण कर लेते हैं। इस सिद्धान्त के समर्थकों के अनुसार, अधिकार परम्परागते हैं तथा सतत विकास के परिणाम हैं। इसके अतिरिक्त इनका आधार ऐतिहासिक है। इंग्लैण्ड के संवैधानिक इतिहास में परम्परागत अधिकारों को बहुत अधिक महत्त्व रहा है।
आलोचना- इस सिद्धान्त के आलोचकों का मत है कि अधिकारों का आधार केवल रीतिरिवाज तथा परम्पराएँ नहीं हो सकतीं, क्योंकि कुछ परम्पराएँ तथा रीति-रिवाज समाज के कल्याण में बाधक होते हैं। अतः इस दृष्टि से यह सिद्धान्त तर्कसंगत नहीं है।
4. अधिकारों का समाज – कल्याण सम्बन्धी सिद्धान्त-जे०एस० मिल, जेरमी बेन्थम, पाउण्ड, लॉस्की आदि ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया है। इस सिद्धान्त का प्रमुख लक्ष्य उपयोगिता या समाज-कल्याण है। प्रो० लॉस्की के अनुसार-“अधिकारों का औचित्य उनकी उपयोगिता के आधार पर ऑकना चाहिए। इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार वे साधन हैं, जिनसे समाज का कल्याण होता है। लॉस्की का मत है-“लोक-कल्याण के विरुद्ध मेरे अधिकार नहीं हो सकते क्योंकि ऐसा करना मुझे उस कल्याण के विरुद्ध अधिकार प्रदान करता है जिसमें मेरा कल्याण घनिष्ठ तथा अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।”
इस सिद्धान्त की निम्नलिखित मान्यताएँ हैं-
- अधिकार समाज की देन हैं, प्रकृति की नहीं।
- अधिकारों का अस्तित्व समाज-कल्याण पर आधारित है।
- व्यक्ति केवल उन्हीं अधिकारों का प्रयोग कर सकता है, जो समाज के हित में हों।
- कानून, रीति-रिवाज तथा अधिकार सभी का उद्देश्य समाज-कल्याण है।
आलोचना- यह सिद्धान्त तर्कसंगत और उपयोगी तो है, किन्तु इसका सबसे बड़ा दोष यह है कि यह सिद्धान्त समाज-कल्याण की ओट में राज्य को व्यक्तियों की स्वतन्त्रता का हनन करने का अवसर प्रदान करता है, लेकिन समीक्षात्मक दृष्टि से यह दोष महत्त्वहीन है।
5. अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त – इस सिद्धान्त की मान्यता है कि अधिकार वे बाह्य साधन तथा दशाएँ हैं, जो व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक होती हैं। इस सिद्धान्त का समर्थन थॉमस हिल ग्रीन, हीगल, बैडले, बोसांके आदि विचारकों ने किया है।
आलोचना- इस सिद्धान्त के कतिपय दोष निम्नलिखित हैं-
- यह सिद्धान्त व्यावहारिक नहीं है क्योंकि व्यक्तित्व का विकास व्यक्तिगत पहलू है तथा राज्य एवं समाज जैसी संस्थाओं के लिए यह जानना बहुत कठिन है कि किसके विकास के लिए क्या अनावश्यक है?
- यह व्यक्ति के हितों पर अधिक बल देता है तथा समाज का स्थान गौण रखता है। अतः व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए समाज के हितों के विरुद्ध कार्य कर सकता है।
- मानव-जीवन के विकास की आवश्यक परिस्थितियाँ कौन-सी हैं, इनका निर्णय कौन करेगा तथा किस-किस प्रकार उपलब्ध होंगी-इन बातों को स्पष्टीकरण नहीं होता है। अतः इस सिद्धान्त का आधार ही अवैधानिक है।
समीक्षा – उपर्युक्त सभी सिद्धान्तों में आदर्शवादी सिद्धान्त सर्वमान्य और तर्कसंगत है, क्योंकि इसके आधार पर यह स्पष्ट होता है कि-
- अधिकार व्यक्ति की माँग है।
- अधिकारों की माँग समाज द्वारा स्वीकृत होती है।
- अधिकारों का स्वरूप नैतिक होता है।
- अधिकारों का उद्देश्य समाज का वास्तविक हित है।
- अधिकार व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक साधन हैं।
निष्कर्ष- अधिकारों के उपर्युक्त सिद्धान्तों के अध्ययन के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त ही सर्वोपयुक्त है क्योंकि यह इस अवधारणा पर आधारित है कि अधिकारों की उत्पत्ति व्यक्ति के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए है। राज्य तथा समाज तो केवल व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा तथा व्यवस्था करने के साधन मात्र हैं। व्यक्ति समाज के कल्याण में ही अपने अधिकारों का प्रयोग कर सकता है।
लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)
प्रश्न 1.
“अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।” इस कथन को सिद्ध कीजिए। (2007, 15)
या
अधिकार और कर्तव्यों के बीच सम्बन्ध स्थापित कीजिए। [2007, 09, 11]
या
अधिकार और कर्त्तव्य एक-दूसरे के पूरक हैं।” इस कथन की व्याख्या कीजिए। [2011, 13, 15]
उत्तर
अधिकार और कर्तव्यों का सम्बन्ध
अधिकार और कर्तव्य दोनों ही सार्वजनिक जीवन के प्रमुख पक्ष हैं। अधिकारों का महत्त्व कर्तव्य के संसार में ही है। अधिकार और कर्तव्य पर बल देते हुए कहा गया है कि दोनों ही सामाजिक हैं और दोनों ही सफल जीवन की शर्ते हैं, जो समाज के सभी व्यक्तियों को प्राप्त होनी चाहिए। अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।”
एक के समाप्त होते ही दूसरा स्वयं समाप्त हो जाता है, दोनों एक साथ चलते हैं। इसमें से कोई भी एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकता। अधिकार और कर्तव्यों के सम्बन्ध का विवरण निम्नलिखित है-
1. अधिकारों के अस्तित्व के लिए कर्तव्यों का होना अनिवार्य है- अधिकारों का अस्तित्व कर्तव्यों पर निर्भर होता है। अधिकार वे माँगें हैं, जिन्हें समाज ने कर्तव्य के रूप में स्वीकार कर लिया है। किसी व्यक्ति का अधिकार तब तक अधिकार नहीं कहला सकता जब तक कि समाज उसे कर्तव्य मानकर अपनी स्वीकृति न दे दे। उदाहरणार्थ-एक व्यक्ति को यह अधिकार है कि उसका जीवन सुरक्षित रहे, तो अन्य मनुष्यों का यह कर्तव्य बन जाता है कि वे उसके जीवन पर आघात न करें। इसलिए एक विद्वान् ने कहा है कि “कर्तव्यों के संसारे में ही अधिकारों का जन्म होता है।”
2. कर्तव्य अधिकार पर अवलम्बित हैं- जिस प्रकार अपने अस्तित्व के लिए अधिकार सदैव कर्तव्यों पर निर्भर है, उसी प्रकार कर्तव्य भी अधिकारों पर निर्भर है। कर्तव्यपालने के लिए यह परमावश्यक है कि मनुष्य कर्तव्यपालने की आवश्यक क्षमता रखता हो। दूसरे शब्दों में, मनुष्य को ऐसे अधिकार प्राप्त हों जिनके द्वारा वह अपना शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास कर सके। इस विकास के द्वारा ही वह कर्तव्यपालन के योग्य बन सकता है। यदि उसे ऐसे अधिकार प्राप्त नहीं हैं, जिनके द्वारा वह अपने को सभी दृष्टियों से योग्य बना ले तो उसमें कर्तव्यपालन की क्षमता नहीं आएगी।
3. एक व्यक्ति का अधिकार दूसरे व्यक्ति का कर्तव्य है- समाज में एक वर्ग का जो अधिकार है वही दूसरे को कर्तव्य है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति को जीवित रहने का अधिकार है तो दूसरे लोगों का यह कर्तव्य हो जाता है कि वे उन कार्यों को करें जिनसे वह व्यक्ति अपने जीवित रहने के अधिकार का उपयोग कर सके। इसलिए कहा गया है कि ‘मेरा अधिकार तुम्हारा कर्तव्य है।
4. सुखी सामाजिक जीवन के लिए दोनों आवश्यक हैं- अधिकार और कर्तव्यों का एकमात्र उद्देश्य मनुष्य के सामाजिक जीवन को सुखी बनाना है। ये दोनों व्यक्ति के बहुमुखी विकास के लिए आवश्यक हैं। दोनों के बिना व्यक्ति को शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक विकास रुक जाएगा।
5. कर्तव्य अधिकार का सदुपयोग है- अधिकारों के सदुपयोग का दूसरा नाम कर्तव्य है। यदि एक व्यक्ति अपने अधिकारों का समुचित ढंग से पालन कर रहा है तो दूसरे रूप में वह अपने कर्तव्य की पूर्ति कर रहा है। उदाहरण के लिए, सम्पत्ति की सुरक्षा और जीविकोपार्जन हमारा अधिकार है, परन्तु हमारा यह कर्त्तव्य भी है कि हम ऐसा कोई कार्य न करें जिससे दूसरों के इस अधिकार पर कोई आघात हो।
6. अधिकार और कर्तव्य जीवन के दो पक्ष हैं- यदि अधिकार जीवन के भौतिक पक्ष का प्रतीक है तो कर्तव्य जीवन के नैतिक पक्ष का। यदि अधिकार का सम्बन्ध मनुष्य के शरीर से है। तो कर्तव्य का सम्बन्ध मनुष्य की आत्मा से। यदि अधिकार मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं; यथा–भोजन, वस्त्र इत्यादि की पूर्ति करता है तो कर्त्तव्य आत्मा का परिष्कार कर उसे अलौकिक आनन्द प्रदान करता है। इस प्रकार अधिकार और कर्तव्य जीवन के दो पक्ष हैं।
प्रश्न 2.
अधिकारों के प्रमुख लक्षण लिखिए।
उत्तर
अधिकार के प्रमुख लक्षण
लॉस्की, वाइल्ड और श्रीनिवास शास्त्री ने अधिकार की जो परिभाषाएँ दी हैं उन परिभाषाओं और अधिकार की सामान्य धारणा के आधार पर अधिकार के निम्नलिखित प्रमुख लक्षण कहे जा सकते हैं
1. सामाजिक स्वरूप – अधिकार का सर्वप्रथम लक्षण यह है कि अधिकार के लिए सामाजिक स्वीकृति आवश्यक है, सामाजिक स्वीकृति के अभाव में व्यक्ति जिन शक्तियों का उपभोग करता है वे उसके अधिकार न होकर प्राकृतिक शक्तियाँ हैं। अधिकार तो राज्य द्वारा नागरिकों को प्रदान की गयी स्वतन्त्रता और सुविधा का नाम है और इस स्वतन्त्रता एवं सुविधा की आवश्यकता तथा उपभोग समाज में ही सम्भव है। इसके अतिरिक्त, राज्य के द्वारा व्यक्ति को जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अधिकार प्रदान किये जाते हैं, उसकी सिद्धि समाज में ही सम्भव है। इस दृष्टि से भी अधिकार समाजगत ही होते हैं।
2. कल्याणकारी स्वरूप – अधिकारों का सम्बन्ध आवश्यक रूप से व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास से होता है। इस कारण अधिकार के रूप में केवल वे ही स्वतन्त्रताएँ और सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं जो व्यक्तित्व के विकास हेतु आवश्यक या सहायक हों। व्यक्ति को कभी भी वे अधिकार नहीं मिलते हैं जो व्यक्ति के विकास में बाधक हों। इसी कारण मद्यपान, जुआ खेलना या आत्महत्या अधिकार के अन्तर्गत नहीं आते हैं।
3. लोकहित में प्रयोग – व्यक्ति को अधिकार उसके स्वयं के व्यक्तित्व के विकास और सम्पूर्ण समाज के सामूहिक हित के लिए प्रदान किये जाते हैं। अतः यह आवश्यक होता है कि अधिकारों का प्रयोग इस प्रकार किया जाए कि व्यक्ति की स्वयं की उन्नति के साथ-साथ सम्पूर्ण समाज की भी उन्नति हो। यदि कोई व्यक्ति अधिकार का इस प्रकार से उपयोग करता है कि अन्य व्यक्तियों या सम्पूर्ण समाज के हित साधन में बाधा पहुँचती है तो व्यक्ति के अधिकारों को सीमित किया जा सकता है।
4. राज्य का संरक्षण – अधिकार का एक आवश्यक लक्षण यह भी है कि उसकी रक्षा का दायित्व राज्य अपने ऊपर लेता है और इस सम्बन्ध में राज्य आवश्यक व्यवस्था भी करता है। उदाहरणार्थ, व्यक्ति को रोजगार प्राप्त होना चाहिए, यह बात व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है और समाज भी इंसे स्वीकार करता है, लेकिन राज्य जब तक आवश्यक संरक्षण की व्यवस्था न करे, उस समय तक परिभाषित अर्थ में इसे अधिकार नहीं कहा जा सकता है।
5. सार्वभौमिकता या सर्वव्यापकता – अधिकार का एक अन्य लक्षण यह भी है कि अधिकार समाज के सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्रदान किये जाते हैं और इस सम्बन्ध में जाति, धर्म, लिंग और वर्ण के आधार पर कोई भेद नहीं किया जाता है। अधिकार के उपर्युक्त लक्षणों के आधार पर सामान्य शब्दों में अधिकार की परिभाषा करते हुए कहा जा सकता है कि अधिकार समाज के सभी व्यक्तियों के व्यक्तित्व के उच्चतम विकास हेतु आवश्यक वे सामान्य सामाजिक परिस्थितियाँ हैं जिन्हें समाज स्वीकार करता है और राज्य लागू करने की व्यवस्था करता है।’
प्रश्न 3.
नागरिकों के दो राजनीतिक अधिकार लिखिए। [2016]
उत्तर
राजनीतिक अधिकार नागरिकों के दो राजनीतिक अधिकार निम्नवत् हैं-
- मतदान का अधिकार – किसी भी प्रजातान्त्रिक या लोकतान्त्रिक राष्ट्र में राज्य के सभी वयस्क (भारत में 18 वर्ष) नागरिकों को प्रतिनिधित्वमूलक संस्थाओं के लिए अपना मत देने का अधिकार होता है, जिसके माध्यम से जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है।
- चुनाव लड़ने का अधिकार – यह अधिकार एक प्रमुख राजनीतिक अधिकार है, जिसके अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त होता है कि वह स्वयं प्रतिनिधि संस्थाओं की सदस्यता के लिए चुनाव में खड़ा हो सके। इसके लिए उसको किसी भी रंग, जाति, लिंग अथवा सम्पत्ति के आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता है।
प्रश्न 4.
राज्य के विरुद्ध विद्रोह का अधिकार पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
राज्य के विरुद्ध विद्रोह का अधिकार
राज्य के प्रति भक्ति और राज्य की आज्ञाओं का पालन व्यक्ति का कानूनी कर्तव्य होता है। और इसलिए व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का कानूनी अधिकार तो प्राप्त हो ही नहीं सकता, लेकिन व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का नैतिक अधिकार अवश्य ही प्राप्त होता है। इसका कारण यह है कि शासन के अस्तित्व का उद्देश्य जन-इच्छा को कार्यरूप में परिणत करते हुए सामान्य कल्याण होता है और यदि शासन सामान्य कल्याण की साधना में असफल हो जाता है। या शासन जन-इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करता तो उस शासन को अस्तित्व में बने रहने का कोई नैतिक अधिकार शेष नहीं रह जाता है। नागरिकों को इस प्रकार की सरकार को पदच्युत करने का अधिकार होता है और यदि संवैधानिक मार्ग से इच्छित परिवर्तन न किया जा सके तो व्यक्ति को अधिकार है कि वह शक्ति के आधार पर वांछित परिवर्तन करने का प्रयत्न करे।
लॉस्की ने कहा है कि “नागरिकता व्यक्ति के विवेकपूर्ण निर्णय का जनकल्याण में प्रयोग है।” ऐसी परिस्थितियों में यदि व्यक्ति को इस बात का विश्वास हो जाए कि विद्यमान शासन-व्यवस्था सामान्य जनता के हित में कार्य नहीं कर सकती तो राज्य के विरुद्ध विद्रोह व्यक्ति का एक नैतिक अधिकार ही नहीं वरन् एक नैतिक कर्तव्य भी हो जाता है। महात्मा गांधी ने कहा है कि व्यक्ति का सर्वोच्च कर्त्तव्य अपनी अन्तरात्मा के प्रति होता है। अतः अन्तरात्मा की पुकार पर सरकार का विरोध किया जा सकता है।
ग्रीन, महात्मा गांधी, लॉस्की आदि विद्वानों द्वारा व्यक्त किये गये विचारों के आधार पर कहा जा सकता है कि निम्नलिखित शर्तों के पूरा होने पर ही विद्रोह के अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है-
- स्थिति को सुधारने और वांछित परिवर्तन लाने के लिए विद्रोह के पूर्व सभी संवैधानिक साधनों का प्रयोग किया जाना चाहिए और संवैधानिक साधनों की असफलता के बाद ही विद्रोह के सम्बन्ध में सोचा जाना चाहिए।
- विद्रोह की भावना वैयक्तिक न होकर सामाजिक होनी चाहिए। विद्रोह की बात तभी सोची जा सकती है जबकि सरकार के द्वारा किये जाने वाले अन्याय साधारण प्रकृति के न होकर गम्भीर प्रकृति के हों और विद्रोह करने वाली जनता विद्रोह के उद्देश्यों से पूर्ण परिचित हो।
लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)
प्रश्न 1.
सम्पत्ति के अधिकार पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
आधुनिक काल में सम्पत्ति का अधिकार बड़े वाद-विवाद वाला अधिकार बन गया है। अरस्तू तथा लॉक इसे प्राकृतिक अधिकार मानते हैं। इसके विपरीत, प्लेटो सम्पत्ति के अधिकार का विरोध करते हैं। कार्ल मार्क्स ने सम्पत्ति को ‘लूट के माल’ की संज्ञा दी है। इसी कारण समाजवादी राष्ट्र रूस, चीन इत्यादि सम्पत्ति के अधिकार के विरोधी हैं।
राज्य अथवा सरकार को किसी व्यक्ति की निजी सम्पत्ति को समुचित मुआवजा दिये बिना छीनने का अधिकार नहीं है, क्योंकि सम्पत्ति ही वह प्रेरणा-स्रोत है जो मानव को आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है।
वर्तमान समय में सम्पत्ति के अधिकार को अनियमित एवं अनियन्त्रित रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि जहाँ एक ओर सम्पत्ति व्यक्ति की प्रेरणा-स्रोत है वहीं दूसरी ओर सम्पत्ति घमण्ड, शोषण, उत्पीड़न एवं अकर्मण्यता को प्रोत्साहित करती है। लॉस्की ने उचित ही लिखा है, धनवान तथा निर्धन में विभाजित समाज रेत की नींव पर टिका होता है।”
प्रश्न 2.
अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धान्त पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
हॉब्स, लॉक तथा रूसो आदि विद्वानों ने अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धान्त का समर्थन किया है। यह सिद्धान्त अति प्राचीन है। इस सिद्धान्त की मान्यता है कि अधिकार प्रकृति-प्रदत्त हैं। तथा व्यक्ति को जन्म लेते ही प्राप्त हो जाते हैं। राज्य इन अधिकारों को नहीं छीन सकता, क्योंकि एक तो वह इनका जन्मदाता नहीं है और दूसरे व्यक्ति राज्य के उदय से पूर्व से ही इन अधिकारों का प्रयोग करता आ रहा है।
इस सिद्धान्त में निम्नलिखित दोष पाये गये हैं-
- यह सिद्धान्त काल्पनिक है न कि ऐतिहासिक।
- ग्रीस का मत है कि समाज से पृथक् किसी अधिकार की कल्पना नहीं की जा सकती।
- यह सिद्धान्त राज्य को अनुचित रूप से कृत्रिम संस्था मानता है।
- यह सिद्धान्त कर्तव्यों के प्रति मौन है, जब कि कर्तव्य के अभाव में अधिकारों का अस्तित्व सम्भव नहीं है।
प्रश्न 3.
अधिकारों के वैधानिक सिद्धान्त पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
इस सिद्धान्त की मान्यता है कि अधिकार राज्य की इच्छा के परिणाम हैं और राज्य ही अधिकारों का स्रोत है। यह सिद्धान्त प्राकृतिक सिद्धान्त के एकदम विपरीत है। इस सिद्धान्त को मानने वालों में बेन्थम, हॉलैण्ड, ऑस्टिन आदि विद्वान् हैं। इन विद्वानों के अनुसार व्यक्ति राज्य के संरक्षण में रहकर भी अधिकारों का प्रयोग करता है और राज्य ही अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है।
इस सिद्धान्त में निम्नलिखित दोष पाये जाते हैं-
- यह सिद्धान्त राज्य की निरंकुशता का समर्थक है।
- राज्य नैतिक बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
- अधिकारों में स्थायित्व नहीं रहता है।
प्रश्न 4.
‘अधिकार केवल समाज में ही सम्भव है, परन्तु असीमित नहीं।’ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
अधिकार सिर्फ समाज में ही सम्भव–अधिकार की प्रथम विशेषता यह है कि इन्हें व्यक्ति सिर्फ समाज में ही प्राप्त कर सकता है। यदि समाज नहीं है तो व्यक्ति अधिकारों को प्राप्त नहीं कर सकता। एकाकी व्यक्ति को अधिकारों की आवश्यकता नहीं होती है।
अधिकार असीमित नहीं – समाज में एक व्यक्ति के अधिकार दूसरे व्यक्ति के अधिकारों से सीमित हो जाते हैं। एक व्यक्ति अपने अधिकारों का उपभोग तभी कर सकता है जब कि वह दूसरे के अधिकारों को मान्यता प्रदान करे। ऐसा न होने पर समाज में अराजकता फैल सकती है।
प्रश्न 5.
मौलिक अधिकार से क्या आशय है?
उतर
वे अधिकार जो मानव-जीवन के लिए मौलिक तथा अपरिहार्य होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं, मौलिक अधिकार कहे जाते हैं। इन अधिकारों का राज्यों के संविधान में वर्णन कर दिया जाता है। न्यायपालिका इन अधिकारों की रक्षा करती है। सर्वप्रथम मौलिक अधिकार अमेरिकी संविधान में सम्मिलित किये गये। भारतीय संविधान द्वारा भी मौलिक अधिकार प्रदान किये गये हैं।
प्रश्न 6.
कानूनी अधिकार से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
ये वे अधिकार हैं जिन्हें राज्य मान्यता प्रदान करता है तथा जिनकी रक्षा राज्य के कानूनों द्वारा होती है। कानूनी अधिकारों का उल्लंघन करने वाले को राज्य द्वारा दण्डित किया जाता है। लीकॉक के शब्दों में, “कानूनी अधिकार वे विशेषाधिकार हैं जो एक नागरिक को अन्य नागरिकों के विरुद्ध प्राप्त होते हैं तथा जो राज्य की सर्वोच्च शक्ति द्वारा प्रदान किये जाते हैं तथा रक्षित होते हैं।”
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)
प्रश्न 1.
लॉक द्वारा बताये गये कोई दो प्राकृतिक अधिकार बताइए।
उत्तर
- जीवन का अधिकार तथा
- स्वतन्त्रता का अधिकार।
प्रश्न 2.
नागरिकों के कोई दो सामाजिक अधिकार लिखिए। [2014]
उत्तर
- जीवन का अधिकार तथा
- समानता का अधिकार
प्रश्न 3
नागरिक के दो नैतिक कर्तव्य लिखिए।
उत्तर
- अपने प्रति कर्त्तव्य (चरित्र-निर्माण) तथा
- समाज के प्रति कर्तव्य (कुरीतियों का उन्मूलन)।
प्रश्न 4.
नागरिकों के दो कानूनी कर्तव्य लिखिए।
उत्तर
- राज्य के कानूनों का पालन करना तथा
- राज्य के प्रति भक्ति।
प्रश्न 5.
कानूनी अधिकार के सिद्धान्त के दो समर्थकों के नाम लिखिए।
उत्तर
- बेन्थम तथा
- ऑस्टिन।
प्रश्न 6.
अधिकार के किन्हीं दो सिद्धान्तों के नाम लिखिए।
उत्तर
- प्राकृतिक सिद्धान्त तथा
- आदर्शवादी सिद्धान्त।
प्रश्न 7.
अधिकारों के दो प्रमुख प्रकार बताइए।
उत्तर
- सामाजिक या नागरिक अधिकार तथा
- राजनीतिक अधिकार।
प्रश्न 8.
नागरिक के कोई दो प्राकृतिक अधिकार बताइए।
उत्तर
- जीवन का अधिकार तथा
- स्वतन्त्रता का अधिकार।
प्रश्न 9.
विदेशियों को राज्य में प्राप्त होने वाले कोई दो अधिकार लिखिए।
उत्तर
- जीवन-रक्षा का अधिकार तथा
- पारिवारिक जीवन व्यतीत करने का अधिकार।
प्रश्न 10.
अधिकारों के आदर्शवादी सिद्धान्त के किन्हीं दो समर्थकों के नाम बताइए।
उत्तर
- थॉमस हिल ग्रीन एवं
- बोसांके।
प्रश्न 11.
दो मानव अधिकार बताइए।
उत्तर
- जीवन का अधिकार तथा
- स्वतन्त्रता का अधिकार।
प्रश्न 12.
कर्तव्यों के दो प्रमुख भेद बताइए।
उत्तर
कर्तव्यों के दो प्रमुख भेद हैं-
- नैतिक कर्तव्य तथा
- कानूनी कर्तव्य।
प्रश्न 13.
नागरिक के दो प्रमुख कर्तव्य बताइए।
उत्तर
- समाज के प्रति कर्त्तव्य तथा
- राज्य के प्रति कर्तव्य।
प्रश्न 14.
मूल कर्तव्य की धारणा भारत के परिप्रेक्ष्य में किस देश की संवैधानिक व्यवस्था से प्रेरित है?
उत्तर
मूल कर्त्तव्य की धारणा भारत के परिप्रेक्ष्य में रूस की संवैधानिक व्यवस्था से प्रेरित तथा गृहीत है।
प्रश्न 15.
राज्य के प्रति नागरिक के दो कर्तव्य बताइए।
उत्तर
- राज्य के कानूनों का पालन करना तथा
- लगाये गये करों का भुगतान करना।
प्रश्न 16.
“यदि हम कर्तव्यपालन करें तो अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाएँगे।” यह कथन किसका है?
उत्तर
यह कथन गाँधी जी का है।
प्रश्न 17.
अधिकार के किन्हीं दो तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
- सार्वभौमिकता तथा
- राज्य का संरक्षण।
प्रश्न 18.
अधिकारों का कौन-सा सिद्धान्त सबसे अधिक मान्य है?
उत्तर
अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त सबसे अधिक मान्य है।
प्रश्न 19.
वयस्क मताधिकार से क्या तात्पर्य है?
उत्तर
सामान्यतया 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुके नागरिक को जो मताधिकार प्राप्त होता है, उसे वयस्क मताधिकार कहते हैं।
प्रश्न 20.
नैतिक और कानूनी अधिकारों में क्या अन्तर है? [2007]
उत्तर
नैतिक अधिकारों के पीछे राज्य की कानूनी शक्ति नहीं होती। कानूनी अधिकारों की व्यवस्था राज्य द्वारा कानून के अनुसार की जाती है।
प्रश्न 21.
भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद द्वारा अस्पृश्यता को समाप्त किया गया है? (2007)
उत्तर
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 द्वारा अस्पृश्यता को समाप्त किया गया है।
प्रश्न 22.
नागरिकों के दो राजनीतिक अधिकार लिखिए। [2013, 16]
उत्तर
- मतदान का अधिकार तथा
- चुनाव लड़ने का अधिकार।
बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)
1. निम्नलिखित में से कौन-सा अधिकार का तत्त्व है?
(क) सार्वभौमिकता
(ख) मानवता
(ग) स्वतन्त्रता
(घ) निष्पक्षता
2. निम्नलिखित में कौन-सा सामाजिक अधिकार नहीं है?
(क) शिक्षा का अधिकार
(ख) सम्पत्ति रखने का अधिकार
(ग) समानता का अधिकार
(घ) मताधिकार
3. निम्नलिखित में से कौन-सा राजनीतिक अधिकार है?
(क) शिक्षा का अधिकार
(ख) धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
(ग) मतदान का अधिकार
(घ) जीवन-रक्षा का अधिकार
4. निम्नांकित में से कौन कानूनी अधिकार का समर्थक है?
(क) प्रो० बार्कर
(ख) प्रो० लॉस्की
(ग) गाँधी जी
(घ) ऑस्टिन
5. निम्नलिखित में से कौन-सा नागरिक का कर्तव्य है?
(क) कानून का पालन करना
(ख) करों का भुगतान करना
(ग) राज्य के प्रति भक्ति
(घ) ये सभी
6. अधिकारों के समाज-कल्याण सम्बन्धी सिद्धान्तों का समर्थक था-
(क) लॉस्की
(ख) प्लेटो
(ग) रूसो
(घ) मॉण्टेस्क्यू
7. “अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ हैं जिनके अभाव में सामान्यतया कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाता है।” यह कथन किस विचारक का है? [2008, 16]
(क) लॉस्की
(ख) प्लेटो
(ग) बेन्थम
(घ) जे० एस० मिल
8. प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त का समर्थन किसने किया था? [2008, 13]
(क) हीगल ने
(ख) बर्क ने।
(ग) लॉक ने
(घ) बेन्थम ने
9. निम्नलिखित में से कौन एक राजनीतिक अधिकार की श्रेणी में नहीं आता है? (2012, 14)
(क) मत देने का अधिकार
(ख) काम का अधिकार
(ग) निर्वाचित होने का अधिकार
(घ) सार्वजनिक पद ग्रहण करने का अधिकार
10. निम्नलिखित में से कौन-सा कानूनी कर्तव्य नहीं है? (2015)
(क) कानूनों का पालन करना
(ख) सत्य बोलना
(ग) राज्य के प्रति कर्तव्य
(घ) कर अदा करना
11.“अधिकार वह माँग है जिसे समाज स्वीकार करता है और राज्य लागू करता है।” यह कथन निम्न में से किस विचारक का है? (2016)
(क) टी०एच० ग्रीन
(ख) अरस्तू
(ग) बोसांके
(घ) रूसो
12. भारतीय संविधान में नागरिकों को कितने मौलिक कर्तव्य निर्धारित किये गये हैं? [2016]
(क) 10
(ख) 11
(ग) 9
(घ) 15
उत्तर
- (क) सार्वभौमिकता,
- (घ) मताधिकार,
- (ग) मतदान का अधिकार,
- (घ) ऑस्टिन,
- (घ) ये सभी,
- (घ) मॉण्टेस्क्यू,
- (क) लॉस्की
- (ग) लॉक ने,
- (ख) काम का अधिकार,
- (ख) सत्य बोलना,
- (ग) बोसांके,
- (ख) 11
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