UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 24 Statistics

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 24
Chapter Name Statistics (सांख्यिकी)
Number of Questions Solved 39
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 24 Statistics (सांख्यिकी)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
सांख्यिकी के महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2007, 08, 10, 11]
या
“सांख्यिकी प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करती है तथा जीवन के अनेक बिन्दुओं को स्पर्श करती है।” समीक्षा कीजिए। [2011]
या
हमारे जीवन में सांख्यिकी की उपयोगिता और महत्त्व को स्पष्ट कीजिए। [2016]
उत्तर:
सांख्यिकी का महत्त्व
मानव-सभ्यता के विकास के साथ-साथ सांख्यिकी की उपयोगिता बढ़ती जा रही है। आज विज्ञान, गणित, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, शिक्षाशास्त्र, नक्षत्र विज्ञान आदि विषयों में इसका प्रयोग होने लगा है। हमारे दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया सांख्यिकी से प्रभावित है। सांख्यिकी के महत्त्व को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता हैं

1. अर्थशास्त्र में सांख्यिकी – सांख्यिकी अर्थशास्त्र का आधार है। अर्थशास्त्र के सभी विभागों उपभोग, उत्पादन, विनिमय, वितरण एवं राजस्व में इसकी आवश्यकता पड़ती है। प्रो० बाउले के अनुसार, “अर्थशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी पूर्णतया सत्यता का दावा नहीं कर सकता, जब तक कि वह सांख्यिकी की रीतियों में निपुण न हो।’ प्रत्येक आर्थिक नीति के निर्माण में सांख्यिकी का प्रयोग आवश्यक होता है। आवश्यकताएँ, रहन-सहन का स्तर, पारिवारिक बजट, माँग की लोच, मुद्रा की मात्रा, बैंक-दर, आयात-निर्यात नीति का अध्ययन तथा निर्माण, राष्ट्रीय लाभांश, करों का निर्धारण आदि सांख्यिकीय आँकड़ों पर ही आधारित होते हैं।

2. आर्थिक नियोजन के क्षेत्र में  – वर्तमान युग नियोजन का युग है। देश का आर्थिक विकास नियोजन के द्वारा ही सम्भव है। सांख्यिकी नियोजन का आधार है। किसी भी आर्थिक योजना के निर्माण तथा उसको सफलतापूर्वक चलाने के लिये सांख्यिकीय विधियों का उपयोग अत्यन्त आवश्यक होता है। जितने सही व सबल आँकड़े प्राप्त होंगे, योजना उतनी ही ठीक बन सकेगी। योजना निर्माण में इस तथ्य का अनुमान आवश्यक होता है कि उसमें कितना धन व्यय होगा, कितने व्यक्तियों को रोजगार उपलब्ध हो सकेगा तथा राष्ट्रीय आय में कितनी वृद्धि होगी; अत: इसमें भी सांख्यिकी की आवश्यकता पड़ती है।

3. राज्य प्रशासन के क्षेत्र में  – सांख्यिकी की उत्पत्ति ही राज्य प्रशासन के रूप में हुई थी। आज के युग में राज्य के कार्य-क्षेत्र बढ़ते ही जा रहे हैं। इस कारण सांख्यिकी का महत्व और भी अधिक बढ़ गया है। कुशल प्रशासन हेतु अनेक प्रकार की सूचनाएँ एकत्रित करनी होती हैं; जैसे–सैनिक शक्ति, राष्ट्र की आय, व्यय, ऋण, आयात-निर्यात, औद्योगिक स्थिति, बेरोजगारी आदि। इन सूचनाओं के आधार पर ही सरकार अपनी नीति का निर्धारण करती है तथा बजट का निर्माण किया जाता है; अतः राज्य प्रशासन के क्षेत्र में सांख्यिकी का अत्यधिक महत्त्व है।

4. व्यापार व उद्योग के क्षेत्र में –  आज के इस प्रतियोगिता के युग में एक सफल व्यापारी व उद्यमी को इस बात का ज्ञान होना आवश्यक है कि उसकी वस्तु की माँग कहाँ और कितनी है? भविष्य में मूल्य-परिवर्तन की क्या सम्भावनाएँ हैं? सरकार की नीति उद्योग के विषय में क्या है? आदि। इन सभी प्रश्नों के ठीक उत्तर के लिये सांख्यिकी का ज्ञान आवश्यक है। बॉडिंगटन के शब्दों में, “एक सफल व्यापारी वही है जिसके अनुमान यथार्थता के अति निकट हो।’ इसके लिये उसे सांख्यिकीय विधियों का आश्रय लेना पड़ेगा।

5. सार्वभौमिक महत्त्व – आधुनिक समय में सांख्यिकी का महत्त्व सर्वत्र है। शिक्षा एवं मनोविज्ञान के क्षेत्र में छात्रों की रुचि, बुद्धि, योग्यता और उनकी प्रगति का मूल्यांकन, परीक्षा-प्रणाली में सुधार आदि में सांख्यिकीय विधियों का प्रयोग किया जाता है। चिकित्सा के क्षेत्र में, परिवार नियोजन कार्यक्रम की सफलता, रोग-निवारण में सफलता आदि के ज्ञान के लिए भी सांख्यिकीय विधियाँ प्रयोग में लायी जाती हैं। सांख्यिकी के सार्वभौमिक महत्त्व की ओर संकेत करते हुए टिपेट (Tippett) ने कहा है, सांख्यिकी प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करती है और जीवन को अनेक बिन्दुओं पर स्पर्श करती है।”

6. अनुसन्धान के क्षेत्र में  – हम जानते हैं कि तीव्र आर्थिक विकास के लिए अनुसन्धान आवश्यक हैं। भौतिक एवं सामाजिक विज्ञानों के सभी क्षेत्रों में अनुसन्धान हेतु सांख्यिकी का प्रयोग अनिवार्य है। सांख्यिकी के बिना अनुसन्धानकर्ता कभी भी सही निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकता।

प्रश्न 2
प्राथमिक एवं द्वितीयक आँकड़ों में अन्तर बताइए तथा प्राथमिक आँकड़ों के संग्रहण की विविध विधियों को समझाइए। [2008, 14, 15]
या
समंकों के संकलन से क्या आशय है ? समंक कितने प्रकार के होते हैं ? प्राथमिक समंकों के संकलन की विधियाँ बताइए तथा उनके गुण व दोषों पर भी प्रकाश डालिए।
या
प्राथमिक समंकों से आप क्या समझते हैं? प्राथमिक समंकों को एकत्र करने की विभिन्न विधियों को समझाइए। [2014, 15]
उत्तर:
समंकों (आँकड़ों) के संकलन से आशय आँकड़ों को एकत्रित करने से हैं। जब आर्थिक विकास के किसी भी क्षेत्र के लिए सांख्यिकीय अनुसन्धान की योजना बनायी जाती है तो प्रथम चरण के रूप में समंकों (आँकड़ों) के संकलन का कार्य आरम्भ किया जाता है। आँकड़े सांख्यिकीय अनुसन्धान के लिए नींव का कार्य करते हैं। संकलन के आधार पर समंक दो प्रकार के होते हैं
(क) प्राथमिक समंक तथा
(ख) द्वितीयक समंक।

(क) प्राथमिक समंक – प्राथमिक समंक वे समंक होते हैं, जिन्हें अनुसन्धानकर्ता अपने उपयोग के लिए स्वयं एकत्रित करता है। ये समंक पूर्णतः मौलिक होते हैं। अनुसन्धानकर्ता अपनी
आवश्यकतानुसार इन समंकों का संग्रहण करता है।

(ख) द्वितीयक समंक – द्वितीयक समंक वे समंक होते हैं, जिन्हें अनुसन्धानकर्ता स्वयं एकत्रित नहीं करता है अपितु उन समंकों का संग्रहण किसी पूर्व अनुसन्धानकर्ता के द्वारा पहले से ही किया हुआ होता है तथा निष्कर्ष भी निकाले हुए होते हैं। ये समंक पूर्व-प्रकाशित यो अप्रकाशित हो सकते हैं। अनुसन्धानकर्ता इन द्वितीयक समंकों के द्वारा ही अपनी आवश्यकतानुसार परिणाम ज्ञात कर लेता है।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि नवीन आँकड़े (समंक) प्रथम अनुसन्धानकर्ता के द्वारा प्रयुक्त किये जाने पर प्राथमिक होते हैं, किन्तु जब उन्हीं समंकों का प्रयोग किसी अन्य अनुसन्धानकर्ता द्वारा किया जाए तो वे ही समंक द्वितीयक हो जाएँगे।

प्राथमिक समंकों (आँकड़ों) के संकलन की विधियाँ (रीतियाँ)
प्राथमिक समंकों का संकलन करने के लिए अनुसन्धानकर्ता निम्नलिखित विधियों (रीतियों) में से कोई भी विधि (रीति) जो उसके लिए अधिक उपयुक्त व श्रेष्ठ हो, को अपना सकता है

  1.  प्रत्यक्ष व्यक्तिगत समंक संकलन रीतिः
  2. अप्रत्यक्ष मौखिक समंक संकलन रीति।
  3. संवाददाताओं की सूचनाओं के आधार पर समंक संकलन।
  4. प्रश्नावली विधि
    • कम सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ भरकर तथा
    • प्रगणकों द्वारा सूचनाएँ प्राप्त करके।

1. प्रत्यक्ष व्यक्तिगत समंक संकलन रीति – इस विधि में अनुसन्धानकर्ता स्वयं अनुसन्धान क्षेत्र में जाकर व्यक्तिगत रूप से सूचनादाताओं से सम्पर्क स्थापित करता है तथा अनुसन्धान से सम्बन्धित समंक एकत्रित करता है। यह रीति बहुत ही सरल है। इस रीति द्वारा विश्वसनीय और आवश्यक समंक एकत्रित किये जाते हैं, किन्तु इस प्रणाली का क्षेत्र सीमित होता है।
गुण – इस रीति में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. शुद्धता – इस प्रणाली द्वारा समंकों का अनुसन्धानकर्ता स्वयं संग्रह करता है; अतः ये समंक शुद्ध होते हैं तथा इनके परिणाम भी शुद्ध ही निकलते हैं।
  2. विस्तृत सूचनाओं की प्राप्ति – इस विधि में अनुसन्धानकर्ता को समंक एकत्रित करते समय मुख्य सूचनाओं के साथ-साथ अन्य सूचनाएँ भी प्राप्त हो जाती हैं। यदि अनुसन्धानकर्ता परिवार की आर्थिक स्थिति से सम्बन्धित सूचनाएँ प्राप्त कर रहा हो, तब रहन-सहन के स्तर, शिक्षा आदि के विषय में भी जानकारी प्राप्त हो जाती है।
  3.  मौलिकता – प्राथमिक समंक पूर्णत: मौलिक होते हैं, क्योंकि ये अनुसन्धानकर्ता द्वारा स्वयं एक निश्चित उद्देश्य के लिए किये जाते हैं।
  4. लोचकता – इस प्रणाली से प्राप्त समंकों में लोचकता होती है। अनुसन्धानकर्ता समंकों को घटा-बढ़ा सकता है तथा अपनी कार्य-प्रणाली में परिवर्तन कर सकता है।
  5. मितव्ययिता – इस प्रणाली में अनुसन्धानकर्ता समंक स्वयं संगृहीत करता है; अत: वह समंक एकत्रित करते समय होने वाले व्यय पर ध्यान रखता है तथा फिजूलखर्ची पर नियन्त्रण रखता है।

अवगुण – इस विधि में निम्नलिखित अवगुण पाये जाते हैं

  1. सीमित क्षेत्र – प्राथमिक समंकों का संग्रहण स्वयं अनुसन्धानकर्ता द्वारा ही किया जाता है। इस कारण समंकों का क्षेत्र सीमित ही रहता है।
  2. पक्षपातपूर्ण – अनुसन्धानकर्ता क्योंकि स्वयं समंकों का संग्रहण करता है; अतः समंक एकत्रित करते समय पक्षपात की सम्भावना हो सकती है।
  3. परिणामों की अशुद्धता की सम्भावना – अनुसन्धानकर्ता द्वारा समंक एक सीमित क्षेत्र से ही एकत्रित किये जाते हैं; अतः समंकों द्वारा जो परिणाम निकलते हैं उनके विषय में शुद्धता की कोई गारण्टी नहीं होती।
  4. अपव्यय – अनुसन्धानकर्ता स्वयं समंक एकत्रित करता है; अत: समय, शक्ति व धन को अधिक लगाना पड़ता है।

2. अप्रत्यक्ष मौखिक समंक संकलन रीति – अनुसन्धान का क्षेत्र विस्तृत होने की दशा में अनुसन्धानकर्ता स्वयं प्रत्यक्ष रूप से सभी व्यक्तियों से सम्पर्क स्थापित नहीं कर पाता। ऐसी स्थिति में इस विधि को अपनाया जाता है। इस विधि में अनुसन्धानकर्ता सम्बन्धित व्यक्तियों से प्रश्न न पूछकर, उन व्यक्तियों से उनके विषय में जानकारियाँ प्राप्त करता है, जिनका उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध होता है; क्योंकि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि सम्बन्धित व्यक्ति अपरिचित लोगों को प्रश्नों का उत्तर नहीं देना चाहता है। इस विधि का प्रयोग अधिकांश रूप में सरकारी आयोगों एवं समितियों द्वारा किया जाता है। जिन व्यक्तियों से अप्रत्यक्ष रूप से सूचना प्राप्त की जाती है उन्हें साक्षी कहते हैं।

गुण – इस पद्धति में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं।

  1. इस पद्धति में अनुसन्धानकर्ता को समय, शक्ति व धन की बचत हो जाती है।
  2. इस पद्धति से अनुसन्धान कार्य शीघ्र और सरलता से हो जाता है।
  3. अनुसन्धानकर्ता को अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता। समंक सरलता से प्राप्त हो जाते हैं। तथा कभी-कभी विशेषज्ञों का परामर्श भी प्राप्त हो जाता है।
  4. विस्तृत क्षेत्र एवं कठिन परिस्थितियों में यह विधि अधिक उपयोगी होती है।
  5. अनुसन्धानकर्ता द्वारा इसमें किसी प्रकार के पक्षपात की सम्भावना समाप्त हो जाती है।

अवगुण – इस पद्धति में निम्नलिखित अवगुण पाये जाते हैं

  1. अनुसन्धानकर्ता प्रत्यक्ष रूप से उन व्यक्तियों से सम्पर्क नहीं कर पाता, जिनसे सम्बन्धित समस्या का वह अनुसन्धान कर रहा होता है; अत: परिणामों के विषय में निश्चितता का अभाव रहता है।
  2. अनुसन्धानकर्ता को दूसरे के ऊपर आधारित रहना पड़ता है; अतः दूसरे व्यक्ति अनुसन्धानकर्ता को वास्तविकता से दूर रखकर पक्षपातपूर्ण जानकादिर में हैं जिसके कारण अनुसन्धानकर्ता ठीक निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाता है।
  3. प्राप्त समंकों में एकरूपता और गोपनीयता का अभाव रहता है।

3. संवाददाताओं की सूचनाओं के आधार पर समंक संकलन रीति – इस पद्धति में अनुसन्धानकर्ता स्वयं समंकों का संकलन नहीं करता है अपितु स्थानीय स्तर पर व्यक्ति या संवाददाताओं को नियुक्त कर उनके माध्यम से सूचनाएँ प्राप्त करता है। स्थानीय व्यक्ति या संवाददाता भी समंकों का संकलन स्वयं नहीं करते, वरन् अपने अनुभवों एवं अनुमानों के आधार पर ही अनुसन्धानकर्ता को सूचनाएँ उपलब्ध करा देते हैं। प्रायः पत्र-पत्रिकाओं व दूरदर्शन द्वारा इसी विधि का प्रयोग किया जाता है। इस विधि की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि संवाददाता योग्य, निष्पक्ष . एवं प्रतिभावान् हों तथा उनकी संख्या भी पर्याप्त होनी चाहिए।
गुण – इस पद्धति में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. अनुसन्धानकर्ता को कम परिश्रम करना पड़ता है।
  2. समय, शक्ति व धन की बचत होती है।
  3. विस्तृत क्षेत्र से सूचनाएँ शीघ्र एकत्रित की जा सकती हैं।

अवगुण – इस पद्धति में निम्नलिखित अवगुण पाये जाते हैं

  1. समंकों में विश्वसनीयता का अभाव होता है।
  2. समंक मौलिक नहीं होते हैं।
  3. समंकों में पक्षपात का भय बना रहता है।
  4. निष्कर्षों में अशुद्धियों की सम्भावना रहती है।
  5. समंक संकलनों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है।

4. प्रश्नावली विधि द्वारा समंक संकलन

(क) कम सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ भरकर – प्रश्नावली विधि में अनुसन्धानकर्ता, अनुसन्धान से सम्बन्धित एक प्रश्नावली अथवा अनुसूची तैयार करता है। सामान्यतया प्रश्नावली छपवायी जाती है। इसमें अनुसन्धान से सम्बन्धित वस्तुनिष्ठ प्रश्न, वैकल्पिक उत्तरों वाले प्रश्न, सत्य/असत्य पर आधारित प्रश्न, रिक्त स्थानों की पूर्ति आदि से सम्बन्धित प्रश्न होते हैं। यह प्रश्नावली सूचकों को उत्तरदाताओं के पास सूचनाएँ व उत्तर प्राप्त करने के लिए डाक द्वारा भेज दी जाती हैं तथा प्रश्नावली की वापसी के लिए टिकटयुक्त लिफाफा भी भेजा जाता है। उत्तरदाता को यह आश्वासन दिया जाता है कि उनके द्वारा प्रेषित सूचनाएँ या उत्तर पूर्ण रूप से गुप्त रखे जाएंगे। इस प्रकार सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ भरवाकर समंक संगृहीत किये जाते हैं।

गुण – इस प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. यह प्रणाली विस्तृत क्षेत्र के लिए उत्तम मानी जाती है। अनुसन्धानकर्ता इस विधि में अनुसूची या प्रश्नावली डाक द्वारा सूचकों या उत्तरदाताओं के पास भेज देता है।
  2. इस विधि द्वारा संगृहीत समंक मौलिक व शुद्ध होते हैं।
  3. इस विधि में समय वे शक्ति की बचत होती है।
  4. कार्य शीघ्र सम्पन्न हो जाता है, क्योंकि अनुसन्धानकर्ता को उत्तरदाताओं के पास स्वयं नहीं जाना पड़ता।
  5. यह विधि पक्षपातरहित होती है।

अवगुण – इस प्रणाली के मुख्य अवगुण निम्नलिखित हैं

  1. समंक संकलन की इस विधि में अनुसूचियों को तैयार करना, उन्हें मुद्रित कराना, फिर सूचनाएँ एकत्रित करने के लिए डाक द्वारा भेजना तथा उनके उत्तर प्राप्त करने में पर्याप्त धन व्यय हो जाता है।
  2. लोचकता का अभाव पाया जाता है, क्योंकि उत्तरदाता अनुसूची या प्रश्नावली से पूर्णतया बँधा होता है।
  3. इस विधि का सबसे बड़ा अवगुण यह है कि उत्तरदाता, उत्तर देने में एवं अनुसूचियों को भेजने में किसी प्रकार की रुचि नहीं लेता है।
  4. अशिक्षित व्यक्तियों के लिए यह विधि अनुपयुक्त होती है।
  5. सूचना देने वाले यदि सूचना देने में पक्षपात कर जाते हैं, तब सम्पूर्ण अनुसन्धान दोषपूर्ण हो जाता है।

(ख) प्रगणकों द्वारा सूचनाएँ प्राप्त करके – यह विधि सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ भरकर समंक या सूचनाएँ प्राप्त करने की अपेक्षा उत्तम है। इस विधि में भी प्रश्नावली व अनुसूची तैयार की जाती है, परन्तु डाक द्वारा सूचनादाता के पास नहीं भेजी जाती। इस विधि में कुछ प्रगणकों की नियुक्ति कर दी जाती है, जो अनुसूची या प्रश्नावली को स्वयं लेकर सूचनादाता के पास जाते हैं और प्रश्नोत्तरदाता से प्रश्नों के उत्तर पूछकर स्वयं भरते हैं। सरकार द्वारा व्यापक पैमाने पर कराये जाने वाले सर्वेक्षण इसी विधि द्वारा कराये जाते हैं। जनगणना के समंक इसी विधि द्वारा एकत्रित किये जाते हैं।
गुण – इस विधि में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. प्रगणकों द्वारा एकत्रित किये गये समंक पूर्णत: शुद्ध होते हैं; क्योंकि प्रगणक घर-घर जाकर व्यक्तिगत रूप से सूचनाएँ एकत्रित करते हैं।
  2. इस प्रणाली के द्वारा विस्तृत क्षेत्रों से सूचनाएँ एकत्रित की जा सकती हैं।
  3. इस रीति में पक्षपात नहीं हो पाता है; क्योंकि प्रगणक निष्पक्ष भाव से सूचनाएँ एकत्रित करता है।
  4. यह प्रणाली पूर्णत: लोचपूर्ण है। आवश्यकता पड़ने पर प्रगणक अन्य सूचनाएँ भी एकत्रित कर सकता है।

अवगुण
इस प्रणाली में निम्नलिखित अवगुण पाए जाते हैं

  1. इस प्रणाली में सूचनाएँ या समंक एकत्रित करने में धन, समय व श्रम का अत्यधिक व्यय होता है।
  2. इस प्रणाली में प्रगणक योग्य, शिक्षित, प्रशिक्षित एवं लगनशील होने चाहिए। योग्य, प्रशिक्षित एवं लगनशील प्रगणक के अभाव में विश्वसनीय सूचनाएँ प्राप्त नहीं हो सकती हैं।
  3. इस प्रणाली में प्रगणक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है; जैसे-जाने पर भी सूचनादाता से सम्पर्क न हो पाना, प्रश्नों का यथोचित उत्तर न दे पाना आदि।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि समंक संकलन की सफलता उपर्युक्त रीति के चयन के साथ-साथ अनुसन्धानकर्ता की योग्यता, अनुभव, परिश्रम तथा दक्षता पर निर्भर करती है।

प्रश्न 3
द्वितीयक समंक से क्या अभिप्राय है? द्वितीयक समंकों का प्रयोग करने में क्या-क्या सावधानियाँ बरती जानी चाहिए?
उत्तर:
द्वितीयक समंक वे समंक होते हैं जिन्हें अनुसन्धानकर्ता स्वयं संकलित नहीं करता है। ये समंक किसी पूर्व अनुसन्धानकर्ता द्वारा संगृहीत एवं प्रयुक्त किये हुए होते हैं। इसलिए इन समंकों को पूर्व-प्रकाशित समंक भी कहते हैं।
ब्लेयर के अनुसार, “द्वितीयक समंक वे हैं जो पहले से उपलब्ध हैं, जिन्हें वर्तमान समस्या के समाधान की अपेक्षा किसी अन्य उद्देश्य के लिए संकलित किया गया था।
डॉ० बाउले के अनुसार, “प्रकाशित समंकों को ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लेना कभी भी सुरक्षित नहीं है जब तक कि उनको अर्थ एवं सीमाएँ ज्ञात न हो जाएँ। जो तर्क उन पर आधारित हैं, उनकी आलोचना करना सदैव आवश्यक है।”
उपर्युक्त कथन का अर्थ है कि द्वितीयक समंकों को बिना सोचे-समझे और उनकी सीमाओं को जाने बिना उपयोग में नहीं लाना चाहिए। द्वितीयक समंकों को उपयोग में लाने से पूर्व हमें कुछ सावधानियाँ बरतनी चाहिए, जो निम्नलिखित हैं

(1) द्वितीयक समंकों को उपयोग में लाने से पूर्व वर्तमान अनुसन्धानकर्ता को यह जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए कि इन समंकों को संकलित करने वाले की योग्यती क्या थी ? किन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ये समंक एकत्रित किये गये थे और उस समय के निष्कर्षों की शुद्धता कितनी थी ? संकलनकर्ता यदि योग्य, ईमानदार और परिश्रमी था तब ही इस प्रकार के समंकों पर विश्वास किया जा सकता है अन्यथा नहीं।

(2) अनुसन्धानकर्ता को समंक उपयोग में लाने से पूर्व यह देख लेना चाहिए कि वर्तमान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ये समंक विश्वसनीय एवं पर्याप्त हैं अथवा नहीं।

(3) द्वितीय समंकों को उपयोग में लाने से पूर्व अनुसन्धानकर्ता को यह भी देखना चाहिए कि ये समंक किस समय तथा किन परिस्थितियों में संकलित किये गये थे। सामान्य परिस्थितियों में एकत्रित समंक असामान्य परिस्थितियों के लिए और असामान्य परिस्थितियों में एकत्रित समंक सामान्य परिस्थितियों के अध्ययन के लिए उपयुक्त नहीं होते। यदि समंकों के संकलन का अन्तराल कम है तो इनकी मदद से दीर्घकालीन पद्धति पर प्रकाश नहीं डाला जा सकता।

(4) द्वितीयक समंकों को उपयोग में लाने से पूर्व अनुसन्धानकर्ता को न्यादर्श विधि से कुछ समंकों को छाँटकर उनकी विश्वसनीयता की परख कर लेनी चाहिए।

(5) अनुसन्धानकर्ता को समंकों के संकलन की विधि के विषय में भी जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए। समंकों का संकलन करते समय किस विधि को उपयोग में लाया गया था; वह विधि समय का सही प्रतिनिधित्व करती थी या नहीं अथवा वह विधि विश्वास योग्य थी या नहीं ?

(6) समंक एकत्रित करने वाले व्यक्ति अथवा संस्था के उद्देश्य और क्षेत्र की जानकारी कर लेनी चाहिए। यदि वर्तमान अनुसन्धानकर्ता का उद्देश्य और क्षेत्र वही है जो पूर्व अनुसन्धानकर्ता का था, तभी पूर्व एकत्रित समंक उपयोगी हो सकते हैं।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि यदि अनुसन्धानकर्ता द्वितीयक समंकों का उपयोग सावधानीपूर्वक करता है तब ही अनुसन्धान का निष्कर्ष व परिणाम शुद्ध व वैज्ञानिक होगा। सावधानी के अभाव में अनुसन्धानकर्ता अपने उद्देश्य से भटक जाएगा तथा उसका श्रम, शक्ति व धन व्यर्थ हो जाएगा।

प्रश्न 4
द्वितीयक समंक संकलन के मुख्य स्रोतों को बताइए। [2008, 12]
या
द्वितीयक समंकों के कोई दो स्रोतों का उल्लेख कीजिए। [2015]
या
द्वितीयक आँकड़ों के विभिन्न स्रोतों का वर्णन कीजिए। [2014]
उत्तर:
द्वितीयक समंक संकलन के प्रमुख दो स्रोत हैं
(क) प्रकाशित तथा
(ख) अप्रकाशित।

(क) प्रकाशित स्रोत
1. सरकारी प्रकाशन –
प्रत्येक सरकार को अपने देश के आर्थिक विकास की जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रति वर्ष आर्थिक समीक्षा करनी होती है। इसके लिए सरकार प्रति वर्ष राष्ट्रीय आय, प्रति व्यक्ति आय, निर्धनता का स्तर, बेरोजगारी, सकल घरेलू उत्पाद, कृषि उत्पाद, खनन व औद्योगिक उत्पाद, देश की जनसंख्या आदि से सम्बन्धित समंकों का संकलन और उनका प्रकाशन कराती है। यह केन्द्र व राज्य सरकारों का दायित्व है।
अनुसन्धानकर्ता इन समंकों का उपयोग अपने अनुसन्धान-कार्य में द्वितीयक समंकों के रूप में कर लेता है। इस प्रकार द्वितीयक समंकों के मूल स्रोत सरकारी प्रकाशन ही हैं।

2. आयोग एवं समितियों के प्रकाशन – सरकार समय-समय पर विभिन्न प्रकार के आयोगों एवं समितियों का गठन करती रहती है; जैसे—योजना आयोग, वेतन आयोग आदि। ये आयोग व समितियाँ देश के आर्थिक विकास व उससे सम्बद्ध अनेकों समस्याओं से सम्बन्धित समंकों को संगृहीत कराते हैं तथा उनका प्रकाशन भी कराते हैं। इस प्रकाशित सामग्री का उपयोग भी अनुसन्धानकर्ता द्वितीयक सामग्री के रूप में करते हैं।

3. अर्द्ध-सरकारी प्रकाशन – नगर निगम, नगर पंचायत, जिला पंचायत आदि अपने कार्य-क्षेत्र से सम्बन्धित जन्म, मृत्यु, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि से सम्बन्धित समंकों का संकलन कराती हैं। और उन्हें प्रकाशित कराती हैं। अनुसन्धानकर्ता द्वितीयक समंकों के रूप में इस सामग्री को अपने उपयोग में लाता है।

4. शोधकर्ताओं व अनुसन्धान संस्थाओं के प्रकाशन – विभिन्न विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों पर शोध-कार्य होते रहते हैं। शोधकर्ता अपने शोध-कार्य को प्रकाशित कराते हैं। इसके साथ-साथ अनेक शोध संस्थाएँ; जैसे-भारतीय सांख्यिकीय संगठन, नेशनल काउन्सिल ऑफ ऐप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च आदि संस्थाएँ भी शोध-कार्यों के परिणामों को प्रकाशित कराती हैं। इस प्रकाशित सामग्री को अन्य अनुसन्धानकर्ता द्वितीयक सामग्री के रूप में उपयोग में लाते हैं।

5. समाचार पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन – देश की उत्तम श्रेणी के समाचार पत्र-पत्रिकाएँ भी समंकों का संकलन करके उन्हें प्रकाशित करती हैं। यह सामग्री भी द्वितीयक सामग्री के रूप में उपयोग में लायी जाती है।

6. अन्तर्राष्ट्रीय प्रकाशन – अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा विश्व के कई देशों के तुलनात्मक आँकड़े समय-समय पर प्रकाशित किए जाते हैं; जैसे – संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रकाशित प्रति व्यक्ति आय सम्बन्धी आँकड़े, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष की वार्षिक रिपोर्ट, डेमोग्राफिक इयर बुक, अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा प्रकाशित श्रम सम्बन्धी आँकड़े आदि।।

7. गैर-सरकारी अथवा व्यापारिक संस्थाओं के प्रकाशन – कुछ गैर-सरकारी प्रकाशन अथवा बड़ी-बड़ी व्यापारिक संस्थाएँ अनेक प्रकार के समंकों का संकलन कर उन्हें प्रकाशित करते हैं; जैसे – मनोरमा इयर बुक, जागरण वार्षिकी, प्रतियोगिता दर्पण आदि।

(ख) अप्रकाशित स्रोत
सरकार, संस्थाएँ, संगठन अथवा व्यक्तियों द्वारा कुछ सामग्री संगृहीत की जाती है, परन्तु ये इनका प्रकाशन नहीं करा पाते हैं। किसी अनुसन्धानकर्ता को यदि इस प्रकार की सामग्री या समंक उपलब्ध हो जाते हैं; तो वह इस सामग्री का उपयोग द्वितीयक सामग्री के रूप में कर लेता है।

प्रश्न 5
सांख्यिकीय अनुसन्धान की संगणना विधि तथा प्रतिदर्श या न्यादर्श विधि को समझाइए। इनके गुण व दोषों को भी स्पष्ट कीजिए।
या
संगणना विधि और ‘निदर्शन विधि को समझाइए। [2014]
उत्तर:
अनुसन्धानकर्ता को अनुसन्धान कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व यह निश्चय करना पड़ता है कि समंकों का संकलन समग्र में से किया जाएगा या न्यादर्श के द्वारा। दूसरे शब्दों में अनुसन्धान से सम्बन्धित प्रत्येक इकाई का अध्ययन किया जाएगा अथवा सम्पूर्ण इकाइयों में से कुछ को चुनकर ही उनका अध्ययन किया जाएगा।
अध्ययन की इन दो विधियों को ही पूर्ण गणना या संगणना विधि (Census Method) और प्रतिदर्श या न्यादर्श विधि (Sampling Method) कहा जाता है।

संगणना या पूर्ण गणना विधि
संगणना विधि  में अनुसन्धानकर्ता को अनुसन्धान से सम्बन्धित समग्र की प्रत्येक इकाई से सूचना एकत्रित करनी होती है। इसमें सम्पूर्ण समूह की समस्या से सम्बन्धित किसी इकाई को नहीं छोड़ा जाता। भारत में जनसंख्या की गणना, उत्पादन गणना, आयात-निर्यात गणना इत्यादि गणनाएँ इसी विधि के द्वारा होती हैं।

गुण या लाभ – संगणना या पूर्ण गणना विधि में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. संगणना विधि द्वारा प्राप्त समंक अत्यधिक शुद्ध और विश्वसनीय होते हैं; क्योंकि इस विधि । में अनुसन्धान की प्रत्येक इकाई का व्यक्तिगत सर्वेक्षण किया जाता है।
  2. इसी विधि के द्वारा समस्या से सम्बन्धित प्रत्येक इकाई का गहन अध्ययन सम्भव होता है; अत: समंकों के संग्रहण के दौरान विस्तृत सूचनाएँ प्राप्त हो जाती हैं। प्रत्येक इकाई के सम्पर्क में आने के कारण अनेकों बातों की जानकारी मिलती है।
  3. यह विधि ऐसे अध्ययनों के लिए अधिक उपयुक्त है, जहाँ पर इकाइयाँ एक-दूसरे से भिन्न होती हैं।
  4. यदि अध्ययन अथवा अनुसन्धान की प्रकृति ऐसी है कि जाँच में सभी इकाइयों का समावेश आवश्यक है तो इस विधि द्वारा अनुसन्धान आवश्यक होता है; जैसे-जनगणना।

अवगुण या दोष – इस प्रणाली में निम्नलिखित अवगुण होते हैं

  1. संगणना प्रणाली बहुत अधिक असुविधाजनक है; क्योंकि इसमें समय, श्रम व धन अधिक व्यय होती है। इस विधि से समंक संग्रहण के लिए एक पूरा विभाग बनाना पड़ता है, जिससे प्रबन्धन सम्बन्धी अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित हो जाती हैं।
  2. संगणना प्रणाली सभी प्रकार की परिस्थितियों में उपयुक्त सिद्ध नहीं होती। यदि अनुसन्धान का क्षेत्र विस्तृत है, समयावधि कम है, धन का अभाव है तब यह प्रणाली उचित नहीं रहती है।
  3. इस विधि का प्रयोग सीमित क्षेत्र में ही सम्भव है। अन्य परिस्थितियों में, अर्थात् जहाँ क्षेत्र विशाल व जटिल हों अथवा सभी इकाइयों की जाँच से उनके समाप्त हो जाने की सम्भावना हो, वहाँ | पर इस विधि को अपनाना असम्भव होता है।
  4. इस विधि का एक दोष यह भी है कि इसके द्वारा सांख्यिकीय विभ्रम का पता नहीं लगाया जा सकता।

निदर्शन विधि
निदर्शन अनुसन्धान विधि में समग्र से सूचनाएँ प्राप्त नहीं की जाती हैं, वरन् समग्र में से कुछ इकाइयों को छाँट लेते हैं। छाँटी हुई इकाइयों की ही जाँच की जाती है तथा उनके आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं। छाँटी हुई इकाई को प्रतिनिधि इकाई, प्रतिदर्श, न्यादर्श, नमूना या बानगी कहते हैं। यह इकाई सम्पूर्ण का प्रतिनिधित्व करती है। सांख्यिकीय अनुसन्धानों में अधिकांश रूप से इसी विधि को उपयोग में लाया जाता है।

रक्त की एक बूंद की जाँच करके शरीर के पूर्ण रक्त की रिपोर्ट इसी विधि का एक उदाहरण है।
निदर्शन की विधियाँ – न्यादर्श चुनने की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं

(क) सविचार निदर्शन – सविचार निदर्शन (Purposive Sampling) में अनुसन्धानकर्ता स्वेच्छा से समग्र में से ऐसी इकाइयाँ छाँट लेता है जो उसके विचार से समग्र का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन इकाइयों द्वारा निकाले गये निष्कर्ष समग्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस प्रणाली का प्रमुख दोष यह है। कि अनुसन्धानकर्ता पक्षपात कर सकता है, क्योंकि न्यादर्श छाँटने में वह स्वतन्त्र होता है।
अत: इस विधि की सफलता न्यादर्श छाँटने वाले की योग्यता, ज्ञान एवं अनुभव पर निर्भर करती है।

(ख) दैव-निदर्शन – दैव-निदर्शन (Random Sampling) विधि में समग्र में से इकाइयाँ इस प्रकार छाँटी जाती हैं कि प्रत्येक इकाई के न्यादर्श में सम्मिलित होने की सम्भावना बनी रहती है। अनुसन्धानकर्ता स्वेच्छा से किसी भी इकाई को नहीं छाँटता है। दैवयोग पर यह निर्भर रहता है कि कौन-सी इकाई का चयन किया जाएगा। न्यादर्श की यह विधि उत्तम है, क्योंकि इसमें किसी प्रकार के पक्षपात की सम्भावना नहीं होती। प्रत्येक इकाई की अनुसन्धान में छंटने की सम्भावना रहती है।

गुण या लाभ – इस विधि में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. इस विधि का प्रयोग करने पर धन, समय व परिश्रम की अत्यधिक बचत होती है।
  2. समय कम लगने के कारण यह प्रणाली शीघ्रता से बदलती हुई परिस्थितियों से सम्बन्धित अनुसन्धानों के लिए उपयुक्त है।
  3. यदि न्यादर्श समुचित आधार पर और यथेष्ट मात्रा में छाँटे जाएँ तो इस विधि के द्वारा भी प्राप्त निष्कर्ष वही होंगे, जो संगणना विधि के माध्यम से प्राप्त होते हैं।
  4. चुनी हुई सामग्री बहुत थोड़ी होती है इसलिए उसकी विस्तृत रूप से जाँच की जा सकती है।
  5. अनुसन्धान करने वाला केवल न्यादर्श के आकार से ही अपने अनुसन्धान में सांख्यिकीय विभ्रम ज्ञात कर सकता है तथा उसकी सार्थकता एवं निरर्थकता की जाँच भी कर सकता है।
  6. संगणना विधि की तुलना में यह विधि अधिक वैज्ञानिक है, क्योंकि उपलब्ध समंकों की जाँच दूसरे न्यादर्शों द्वारा की जा सकती है।

दोष या हानि–इस विधि में निम्नलिखित दोष पाये जाते हैं

  1. यह रीति वहाँ के लिए उपयुक्त नहीं होती, जहाँ पर सम्मिलित इकाइयों में विविधता हो अर्थात् सजातीयता का अभाव हो। इकाइयों के स्वरूप व गुण में परिवर्तन होते रहने के कारण न्यादर्श सम्पूर्ण समूह का सही प्रतिनिधित्व नहीं कर पाते।
  2. यह विधि उन अनुसन्धानों के लिए उपयुक्त नहीं है, जहाँ बहुत उच्च स्तर की शुद्धता ” अपेक्षित हो; क्योंकि न्यादर्श में समूह के शत-प्रतिशत गुणों का समावेश नहीं हो सकता।।
  3. यदि न्यादर्श का चुनाव अवैज्ञानिक या पक्षपातपूर्ण तरीकों से किया गया हो तो इस विधि से प्राप्त निष्कर्ष भ्रमात्मक एवं असन्तोषप्रद होगे।।
  4. कुशल एवं प्रशिक्षित प्रगणकों के अभाव में इस विधि की सफलता सन्दिग्ध होती है; क्योंकि इस विधि द्वारा न्यादर्श का चयन करने में, उसका आकार निश्चित करने में तथा प्राप्त परिणामों की शुद्धता निर्धारित करने में विशिष्ट ज्ञान एवं अनुभव की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 6
सांख्यिकी के प्रति अविश्वास बढ़ता जा रहा है, अविश्वास के कारण तथा इसके निवारण के उपाय बताइए।
उत्तर:
सांख्यिकी एक ऐसा यन्त्र है जो आज प्रत्येक क्षेत्र में होने वाली समस्याओं के समाधान में उपयोगी है; परन्तु आजकल सांख्यिकीय आँकड़ों के प्रति अविश्वास की भावना बढ़ती जा रही है। इसका प्रमुख कारण समंकों के प्रति अविश्वास का होना है। समंकों के अभाव में आज के युग में हम किसी भी महत्त्वपूर्ण कार्य को सम्पादित नहीं कर सकते। सामान्य रूप में यह धारणा है कि ‘आँकड़े झूठ नहीं हो सकते’, यदि आँकड़े हमें इस प्रकार का निष्कर्ष दे रहे हैं तब यह निष्कर्ष असत्य नहीं हो सकता, परन्तु अधिकतर लोग आँकड़ों को शक की दृष्टि से देखते हैं और उन्हें अविश्वसनीय भी मानते हैं।

अविश्वास के कारण
सांख्यिकीय आँकड़ों के प्रति अविश्वास के निम्नलिखित कारण हैं

  1. सांख्यिकी के विषय से अनभिज्ञता – अधिकांश व्यक्तियों को सांख्यिकीय नियमों, सिद्धान्तों, समंकों के संकलन की विधियों, वर्गीकरण और निकाले गये निष्कर्षों के विषय में कोई जानकारी नहीं होती। वे निष्कर्षों को बिना सोचे-समझे सत्य मान लेते हैं और जब उन्हें वास्तविक स्थिति की जानकारी होती है तब वे समंकों पर विश्वास करना छोड़ देते हैं।
  2. सांख्यिकी की सीमाओं की उपेक्षा  – प्रत्येक शास्त्र की अपनी सीमाएँ होती हैं, इसी प्रकार सांख्यिकी की भी अपनी सीमाएँ हैं। सांख्यिकी व्यक्तिगत समस्याओं की अपेक्षा सामूहिक समस्याओं के समाधान के लिए तत्पर रहता है। अनुसन्धानकर्ता यदि सांख्यिकी की सीमाओं की उपेक्षा करके समंकों को उपयोग में लाता है तब समंकों के निष्कर्ष शुद्ध हो ही नहीं सकते।
  3. परस्पर विपरीत समंकों द्वारा निष्कर्ष निकालना – एक ही समस्या परे सरकारी समंक जो निष्कर्ष जनता के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं, विरोधी पक्ष इन समंकों के विपरीत अपने निष्कर्ष प्रस्तुत करता है। ऐसी स्थिति में जनता किस प्रकार समंकों पर विश्वास कर सकती है।
  4. स्वार्थी व्यक्तियों द्वारा समंकों का दुरुपयोग – कुछ स्वार्थी लोग पूर्व भावनाओं से ग्रस्त होने के कारण समंकों का दुरुपयोग करते हैं, जिसके कारण समंकों के प्रति जनता में अविश्वास उत्पन्न हो जाता है।
  5. समंकों की शुद्धता का अभाव – समंकों की शुद्धता की जाँच करना एक कठिन कार्य है। कोई भी व्यक्ति चुनौतीपूर्वक यह नहीं कह सकता कि उसके द्वारा संकलित समंक सत्य, मौलिक एवं शुद्ध हैं। इस कारण समंकों के प्रति जनता में अविश्वास बढ़ता जा रहा है।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि समंक झूठ नहीं बोलते, बल्कि समंकों को उपयोग में लाने वाले व्यक्तियों में अज्ञानता व अनुभव न होने के कारण समंकों के प्रति अविश्वसनीयता रहती है। समंक तो गीली मिट्टी के समान हैं, जिसे हम देवता या दानव जो भी बनाना चाहें बना सकते हैं। किसी दवा का सदुपयोग करके योग्य चिकित्सक कोई रोग दूर कर सकता है, किन्तु अयोग्य चिकित्सक के द्वारा वही दवा किसी रोगी के लिए जहर का काम भी कर सकती है। इसी प्रकार यदि समंकों के प्रयोग में जरा-सी भूल या लापरवाही हो जाती है तो ये समंक भयंकर परिणाम भी दे सकते हैं; अतः समंकों से उत्पन्न अविश्वास के लिए, जो अधिकतर उसके दुरुपयोग से ही उत्पन्न होते हैं, उसके प्रयोगकर्ता ही उत्तरदायी हैं। इसमें समंकों का कोई दोष नहीं है। सांख्यिकी ऐसे विज्ञानों में से एक है जिसका प्रयोग करने वालों में एक कलाकार के समान आत्म-संयम होना चाहिए।

अविश्वसनीयता के निवारण के उपाय
निम्नलिखित उपायों द्वारा समंकों की अविश्वसनीयता को दूर किया जा सकता है

  1. सांख्यिकी विषय की जानकारी रखने वाले व्यक्ति ही समंकों का उपयोग करें।
  2. समंकों का निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र उपयोग किया जाए।
  3. समंकों का प्रयोग करते समय सांख्यिकी की सीमाओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
  4. समंकों को उपयोग में लाने से पूर्व उनकी शुद्धता की जाँच कर लेनी चाहिए।
  5. समंक स्वार्थी व्यक्तियों के हाथों में नहीं पहुँचने चाहिए जो इसका उपयोग मनमाने ढंग से कर सकें।

प्रश्न 7
प्रतिदर्श आँकड़ों की विश्वसनीयता से सम्बन्धित नियमों पर संक्षिप्त निबन्ध लिखिए।
या
टिप्पणी लिखिए
(क) सांख्यिकीय नियमितता नियम तथा
(ख) महांक जड़ता नियम।
उत्तर:
निदर्शन पद्धति सांख्यिकी के दो आधारभूत नियमों पर आधारित है। ये नियम ही प्रतिदर्श आँकड़ों की विश्वसनीयता एवं उपयोगिता के आधार हैं। ये आधारभूत नियम निम्नलिखित हैं
(क) सांख्यिकीय नियमितता नियम तथा
(ख) महांक जड़ता नियम।

(क) सांख्यिकीय नियमितता नियम
यह नियम सम्भावना सिद्धान्त का उपप्रमेय है। यह प्रतिपादित करता है कि यदि समग्र में से दैव-निदर्शन द्वारा न्यादर्श लिया जाए तो वह समग्र का ठीक प्रकार से प्रतिनिधित्व कर सकेगा अर्थात् इस न्यादर्श में उन्हीं गुणों की सम्भावना होगी जो समग्र में है। किंग के अनुसार, “गणित के सम्भावना सिद्धान्त के आधार पर बना सांख्यिकीय नियमितता नियम यह बताता है कि यदि किसी बहुत बड़े समूह में से दैव-निदर्शन द्वारा बड़ी संख्या में पदों को चुन लिया जाए तो यह लगभग निश्चित है कि इन पदों में औसत रूप में बड़े समूह के गुण होंगे।” यही प्रवृत्ति सांख्यिकीय नियमितता नियम कहलाती है।
इस नियम का आधार यह है कि प्रकृति ऊपर से भिन्नता दिखाते हुए भी उसमें अन्तर्निहित एकरूपता या नियमितता होती है। इसी कारण प्रकृति के सभी कार्य व्यवस्थित ढंग से चलते रहते हैं।
नियम की सीमाएँ-इस

नियम की सीमाएँ निम्नलिखित हैं

  1. यह नियम तभी लागू होगा जब न्यादर्श दैव-निदर्शन रीति से लिया जाए।
  2. जब न्यादर्श का आकार पर्याप्त होगा तभी यह नियम लागू होगा अन्यथा नहीं।
  3. यदि न्यादर्श की इकाइयों में विशेष प्रकार की भिन्नता व विषमता होगी तो यह नियम लागू नहीं होगा।
  4. यह नियम औसत रूप से सत्य होता है। यह आवश्यक नहीं है कि सभी स्थानों पर तथा सभी अवस्थाओं में यह सत्य हो।

नियम की उपयोगिताएँ-इस नियम की प्रमुख उपयोगिताएँ निम्नलिखित हैं

  1. इस नियम के आधार पर ही निदर्शन प्रणाली का प्रतिपादन हुआ है। निदर्शन प्रणाली के प्रयोग ने बहुत-से समय, धन एवं श्रम को बचा दिया है।
  2. इस नियम के प्रयोग के आधार पर ही श्रेणी के आन्तरिक एवं बाह्य अज्ञात मूल्यों को ज्ञात किया जा सकता है।
  3. इस नियम के आधार पर ही बीमा कम्पनियाँ भावी जोखिमों का पूर्वानुमान कर बीमा की किस्त निर्धारित करती हैं।
  4. इस नियम का प्रयोग ज्ञान-विज्ञान के लगभग सभी क्षेत्रों में किया जाता है। रेलवे दुर्घटनाओं, जुए के खेल, अपराधों, आत्महत्याओं, तूफानों व बाढ़ों आदि पर यह नियम क्रियाशील होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि इस नियम की व्यापारिक उपयोगिता बहुत ही अधिक है।

(ख) महांक जड़ता नियम
यह नियम सांख्यिकीय नियमितता नियम का उप-प्रमेय है। इसका आशय इसके नाम से ही स्पष्ट है। महा अंक से अर्थ है बड़े अंक तक, जड़ता से अर्थ है स्थिरता, अर्थात् बड़ी संख्याओं में स्थिरता होती है। दूसरे शब्दों में, बड़ी संख्याएँ छोटी संख्याओं की तुलना में कम परिवर्तित होती हैं। बड़ी संख्याओं के अधिक स्थिर तथा अपरिवर्तनशील रहने का कारण यह है कि बड़े समग्र में कुछ इकाइयों में परिवर्तन यदि एक दिशा में होता है तो कुछ इकाइयों में परिवर्तन दूसरी दिशा में और कदाचित कुछ इकाइयों में परिवर्तन होता ही नहीं है। प्रो० किंग ने इस नियम के आधार को स्पष्ट करते हुए कहा है एक बड़े समूह के एक भाग में एक दिशा में परिवर्तन होता है, तो सम्भावना होती है कि उसी समूह के बराबर के अन्य भाग में उसके विपरीत दिशा में परिवर्तन होगा, इस प्रकार कुल परिवर्तन बहुत कम होगा।” सारांश यह है कि बड़ी संख्याएँ छोटी संख्यौओं की अपेक्षा अधिक स्थिर तथा अपरिवर्तनशील होती हैं।

नियम का आधार – यह नियम इस बात पर आधारित है कि बड़े समग्र की पक्ष तथा विपक्ष की इकाइयाँ एक-दूसरे को प्रभावहीन कर देती है।
नियम की सीमाएँ – नियम की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं

  1. समग्र जितना बड़ा होगा यह नियम उतनी ही अधिक सत्यता के साथ लागू होगा।
  2. दीर्घकालीन तथ्यों में अल्पकालीन तथ्यों की अपेक्षा अधिक शुद्धता व स्थिरता होती है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि दीर्घकाल में परिवर्तन होता ही नहीं है। परिवर्तन तो होते हैं, परन्तु अचानक नहीं।

नियम की उपयोगिता – व्यावहारिक जीवन के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में इस नियम का महत्त्व है। दैव-निदर्शन में यह नियम अत्यधिक उपयोगी है। इस नियम के कारण ही बड़ी मात्रा के दैव न्यादर्शों में शुद्धता एवं विश्वसनीयता की मात्रा अधिक होती है। समंकों की स्थिर प्रवृत्ति के कारण ही पूर्वानुमान सम्भव हो पाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
सांख्यिकी की विभिन्न परिभाषाएँ दीजिए। [2007, 10]
या
सांख्यिकी का क्या अर्थ है?
उत्तर:
सांख्यिकी का शाब्दिक अर्थ ‘संख्या से सम्बन्धित शास्त्र’ है। अतः सांख्यिकी ज्ञान की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध संख्याओं या संख्यात्मक आँकड़ों से है। अंग्रेजी का ‘Statistics’ शब्द लैटिन भाषा के ‘status’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ ‘राज्य’ है। इससे पता लगता है कि इस विषय की उत्पत्ति राज्य विज्ञान के रूप में हुई। शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए राजा, सेना की संख्या, रसद की मात्रा, कर्मचारियों का वेतन, भूमि-कर आदि से सम्बन्धित आँकड़े एकत्र कराते थे। इन संख्यात्मक आँकड़ों की सहायता से ही राज्य के बजट का निर्माण किया जाता था।

कुछ विद्वानों द्वारा दी गयी सांख्यिकी की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
डॉ० बाउले (Dr. Bowley) के अनुसार,

  1. “सांख्यिकी गणना का विज्ञान है।”
  2. “सांख्यिकी को उचित रूप से औसतों का विज्ञान कहा जा सकता है।”
  3. “सांख्यिकी वह विज्ञान है जो सामाजिक व्यवस्था को सम्पूर्ण मानकर सभी रूप में उसका मापन करती है।”

बॉडिंगटन (Boddington) के अनुसार, “सांख्यिकी अनुमानों और सम्भाविताओं का विज्ञान है।”
प्रो० किंग (King) के अनुसार, “गणना अथवा अनुमानों के संग्रह को विश्लेषण के आधार पर प्राप्त परिणामों से सामूहिक, प्राकृतिक अथवा सामाजिक घटनाओं पर निर्णय करने की रीति को सांख्यिकी विज्ञान कहते हैं।’
सेलिगमैन (Seligman) के अनुसार, “सांख्यिकी वह विज्ञान है जो किसी विषय पर प्रकाश डालने के उद्देश्य से संग्रह किये गये आँकड़ों के संग्रह, वर्गीकरण, प्रदर्शन, तुलना और व्याख्या करने की रीतियों की विवेचना करता है।”
संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि सांख्यिकी वह विज्ञान है; जो आँकड़ों के संग्रहण, प्रस्तुतीकरण, वर्गीकरण, विश्लेषण, सारणीयन एवं आलेखी निरूपण की विधियों का वर्णन करता है।”

प्रश्न 2
सांख्यिकी की सीमाएँ बताइए। [2006, 07, 09, 10]
उत्तर:
सांख्यिकी की सीमाएँ
टिपेट के शब्दों में, “किसी भी क्षेत्र में सांख्यिकीय नियमों का उपयोग कुछ मान्यताओं पर आधारित तथा कुछ सीमाओं से प्रभावित होता है। इसलिए प्रायः अनिश्चित निष्कर्ष निकलते हैं।” प्रो० न्यूजहोम के शब्दों में, ‘‘सांख्यिकी को अनुसन्धान का एक अत्यन्त मूल्यवान् साधन समझा जाना चाहिए। अतः सांख्यिकी की सीमाओं को ध्यान में रखकर ही सांख्यिकी का प्रयोग किया जाना चाहिए। सांख्यिकी की कुछ प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं

  1. सांख्यिकी समूहों का अध्ययन करती है, व्यक्तिगत इकाइयों का नहीं। उदाहरण के लिए, सांख्यिकी के अन्तर्गत किसी संस्थान में कार्य करने वाले कर्मियों के वेतन-स्तर का अध्ययन किया जाएगा न कि किसी एक कर्मचारी के वेतन को।
  2. सांख्यिकी सदैव संख्यात्मक तथ्यों का अध्ययन करती है, गुणात्मक तथ्यों का नहीं। दूसरे शब्दों में, सांख्यिकी के अन्तर्गत केवल उन्हीं समस्याओं का अध्ययन किया जाता है, जिनका संख्यात्मक वर्णन सम्भव हो; जैसे-आय, आयु, ऊँचाई, लम्बाई, उत्पादन आदि। इसमें ऐसी समस्याओं का अध्ययन नहीं होता जिनका स्वरूप गुणात्मक हो; जैसे – सुन्दरता, चरित्र, बौद्धिक स्तर आदि।
  3. सांख्यिकीय निष्कर्ष असत्य व भ्रमात्मक सिद्ध हो सकते हैं, यदि उनका अध्ययन बिना सन्दर्भ के किया जाए। सही निष्कर्ष प्राप्त करने के लिए समस्या के प्रत्येक पहलू का अध्ययन आवश्यक होता है। बिना सन्दर्भ व परिस्थितियों को समझते हुए जो निष्कर्ष निकाले जाते हैं, वे यद्यपि सत्य जान पड़ते हैं, परन्तु वास्तव में वे निष्कर्ष सत्य नहीं होते।
  4. सांख्यिकीय समंकों का सजातीय होना आवश्यक है। सांख्यिकीय निष्कर्षों के लिए यह आवश्यक है कि जिन समंकों से निष्कर्ष निकाले जाएँ वे एकरूप एवं सजातीय हों। विजातीय समंकों से निकाले गये निष्कर्ष सदैव भ्रमात्मक होंगे; उदाहरणार्थ-हाथी की ऊँचाई से मनुष्यों की ऊँचाई की तुलना नहीं की जा सकती।
  5. सांख्यिकीय निष्कर्ष दीर्घकाल में तथा औसत रूप में ही सत्य होते हैं। सांख्यिकीय निष्कर्ष अन्य विज्ञान के नियमों की भाँति दृढ़, सार्वभौमिक तथा सर्वमान्य नहीं होते।
  6. सांख्यिकीय रीति किसी समस्या के अध्ययन की विभिन्न रीतियों में से एक है, एकमात्र रीति नहीं।।
  7. सांख्यिकी का प्रयोग वही व्यक्ति कर सकता है जिसे सांख्यिकीय रीतियों को पूर्ण ज्ञान हो। बिना पूर्ण जानकारी के समंकों का प्रयोग करना एवं उनसे निष्कर्ष निकालना निरर्थक सिद्ध होता है। यूल एवं केण्डल के शब्दों में, “अयोग्य व्यक्तियों के हाथ में सांख्यिकीय रीतियाँ अत्यन्त खतरनाक यन्त्र हैं।”
  8. सांख्यिकी किसी समस्या के अध्ययन का केवल साधन प्रस्तुत करती है, समाधान नहीं।

प्रश्न 3
सांख्यिकी के प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सांख्यिकी के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं।

1. आँकड़ों को व्यवस्थित और सरल बनाना – सांख्यिकी का प्रथम कार्य संगृहीत आँकड़ों को वर्गीकरण व सारणीयन द्वारा सरल बनाना है। आँकड़ों के व्यवस्थित हो जाने से बहुत-से निष्कर्ष आँकड़ों को देखकर ही ज्ञात हो पाते हैं। अव्यवस्थित आँकड़ों से हमारा कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।

2. सांख्यिकी तथ्यों को निश्चयात्मक बनाती है –
प्राय: संगृहीत आँकड़ों की संख्या अत्यधिक होती है; अतः उनको समझना और उनसे निष्कर्ष निकालना कठिन होता है। सांख्यिकी उनको इस प्रकार प्रस्तुत करती है कि वे सरलतापूर्वक समझ में आ जाते हैं।

3. तथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन –
आँकड़ों का तब तक कोई महत्त्व नहीं होता जब तक कि दूसरे आँकड़ों से उनकी तुलना न की जाए और उनमें सम्बन्ध स्थापित न किया जाए। सांख्यिकी माध्य, सह-सम्बन्ध आदि के द्वारा तथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन कराती है।

4. निर्वचन या व्याख्या करना –
सांख्यिकीय तथ्यों का वर्गीकरण, सारणीयन, चित्रण, विश्लेषण करने के उपरान्त समस्या के हल की व्याख्या करती है, जिसके आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

5. विभिन्न आर्थिक नियमों व सिद्धान्तों की जाँच –
सम्बंख्यिकीय गणना के आधार पर सिद्धान्तों व नियमों का सत्यापन किया जाता है, क्योकि सांख्यिकी की सहायता से निर्मित नियम स्थिर और सार्वभौमिक रहते हैं। उदाहरण के लिए माल्थस का जनसंख्या सिद्धान्त आदि नियमों का सत्यापन सांख्यिकी के द्वारा ही सम्भव है।

6. नीति निर्धारण में सहायता करना –
सांख्यिकी का कार्य है कि वह तथ्यों के आधार पर शुद्ध निष्कर्ष निकाले, जिससे आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक नीति निर्धारित हो सके। विभिन्न सरकारें जनमत के आधार पर ही महत्त्वपूर्ण निर्णय लेती हैं।

7. पूर्वकथन या अनुभव –
सांख्यिकी का महत्त्वपूर्ण कार्य निष्कर्षों के आधार पर भविष्य में, आने वाली परिस्थितियों के सम्बन्ध में अनुमान लगाकर भविष्यवाणी करना होता है। इस सम्बन्ध में डॉ० बाउले का कथन है-“एक सांख्यिकीयं अंनुमानं अच्छा हो या बुरा, ठीक हो या गलत, परन्तु प्रायः प्रत्येक देशों में वह एक आकस्मिक प्रेक्षक के अनुमान से अधिक ठीक होगा।”

प्रश्न 4
प्राथमिक और द्वितीयक समंकों में अन्तर बताइए।
उत्तर:
प्राथमिक और द्वितीयक समंकों में अन्तर को निम्नवत् स्पष्ट किया जा सकता है
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 24 Statistics 1

प्रश्न 5
सांख्यिकीय अनुसन्धान में प्रयुक्त उत्तम प्रश्नावली के गुण (विशेषताएँ) बताइए।
उत्तर:
एक उत्तम प्रश्नावली के निम्नलिखित गुण (विशेषताएँ) होने चाहिए
1. सरल व स्पष्ट – प्रश्नावली तैयार करते समय इस बात का ध्यान रखा जाए कि प्रश्न सरल, स्पष्ट एवं सीधी भाषा में हों, जिससे उत्तरदाता प्रश्न को समझकर उनका ठीक और शीघ्र उत्तर दे सके।

2. प्रश्नों की कम संख्या – एक उत्तम प्रश्नावली में यह गुण होता है कि प्रश्नों की संख्या न तो बहुत अधिक हो और न ही बहुत कम। प्रश्नों की संख्या इतनी अवश्य होनी चाहिए जिससे कि अनुसन्धानकर्ता के उद्देश्यों की पूर्ति हो जाए और उत्तरदाता को उत्तर देते समय अपने ऊपर किसी प्रकार के भार का अनुभव न हो।

3. वस्तुनिष्ठ, संक्षिप्त एवं उद्देश्यमूलक प्रश्न – प्रश्नावली के प्रश्न वस्तुनिष्ठ, संक्षिप्त व उद्देश्यमूलक होने चाहिए। बहुविकल्पीय, सत्य/असत्य, रिक्त स्थानों की पूर्ति, हाँ अथवा नहीं आदि में प्रश्नोत्तरी होनी चाहिए। इससे उत्तरदाता सरलता से उत्तर दे देता है तथा समय व श्रम की भी बचत होती है।

4. व्यक्तिगत प्रश्न न हों – प्रश्नावली के प्रश्न उत्तरदाता के व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित नहीं होने चाहिए अर्थात् प्रश्न इस प्रकार के हों जिससे उत्तरदाता प्रश्नों के उत्तर देते समय मन में किसी प्रकार की शंका या उत्तेजना का अनुभव न करे। जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि से सम्बन्धित प्रश्न अथवा इस प्रकार के प्रश्न नहीं होने चाहिए; जिससे राष्ट्रीय भावना को ठेस पहुँचती हो।

5. प्रश्नों के उत्तरों में अनेकता हो – एक प्रश्न में अनेक उत्तरों का समावेश होना चाहिए; जैसे भारत में शिक्षा का उद्देश्य है

  • नागरिकों को साक्षर करना,
  • बेरोजगारी दूर करना,
  • निरक्षरता को कम करना,
  • नागरिकों में उत्तम नागरिक गुणों का विकास करना,
  • उपर्युक्त सभी।।इस प्रकार के प्रश्नों से अनुसन्धानकर्ता को अनेक सूचनाएँ प्राप्त हो जाती हैं।

6. आवश्यक निर्देश – अनुसन्धानकर्ता को प्रश्नावली के साथ-साथ उत्तरदाता के पास आवश्यक निर्देश भी भेजने चाहिए। ये निर्देश संक्षेप में देने चाहिए, जिससे उत्तरदाता स्पष्ट और शीघ्र उत्तर दे सके।

7. प्रश्नों का क्रम – प्रश्नावली में एक प्रकार के प्रश्न एक ही क्रम में होने चाहिए तथा दूसरे प्रकार के प्रश्न भी क्रम में एक साथ ही होने चाहिए; जैसे—यदि प्रश्नावली में बहुविकल्पीय, सत्य/असत्य, हाँ/नहीं आदि प्रश्न दिये गये हैं तो वे क्रमानुसार होने चाहिए, जिससे उत्तरदाता को उत्तर देते समय किसी प्रकार की कोई कठिनाई न हो।

प्रश्न 6
दैव-निदर्शन में न्यादर्श चुनने की विधियाँ बताइए।
उत्तर:
दैव-निदर्शन द्वारा न्यादर्श चुनने के लिए निम्नलिखित विधियाँ प्रयुक्त होती हैं

1. लॉटरी रीति – लॉटरी विधि में सभी इकाइयों की पर्चियाँ या गोलियाँ बनाकर रख ली जाती हैं और किसी निष्पक्ष व्यक्ति या अनभिज्ञ बालक के द्वारा उतनी पर्चियाँ उठवा ली जाती हैं जितनी न्यादर्श में सम्मिलित करनी होती हैं। पर्चियाँ बनाते समय यह सावधानी रखनी चाहिए कि पर्चियाँ समान आकार-प्रकार की हों। पर्चियों को हिलाकर परस्पर मिला लेना चाहिए।

2. ढोल घुमाकर – इस रीति में समान आकार-प्रकार के नम्बर लिखे हुए लकड़ी या अन्य प्रकार के टुकड़े ढोल में डाल दिये जाते हैं। ढोल को हाथ या बिजली से घुमाकर उन अंकों को अच्छी तरह मिला लिया जाता है। इसके बाद निष्पक्ष व्यक्ति द्वारा क्रमशः नम्बर निकलवा लिये जाते हैं और उन अंकों को अलग लिख लिया जाता है।

3. निश्चित क्रम द्वारा –
इस विधि में समग्र इकाइयों को संख्यात्मक या वर्णात्मक क्रम में लिख लिया जाता है। इसके बाद उनमें से सुविधानुसार क्रम से आवश्यक संख्या को न्यादर्श में सम्मिलित कर लिया जाता है। उदाहरण के लिए–यदि 50 छात्रों में से 10 छात्र छाँटने हैं तब क्रमानुसार संख्या लिखकर उनमें से 5, 10, 15, 20, 25, 30, 35, 40, 45, 50वें छात्र को न्यादर्श में सम्मिलित कर लिया जाता है।

दैव-निदर्शन विधि से न्यादर्श चुनने के निम्नलिखित लाभ होते है।

  1. दैव-निदर्शन विधि में किसी प्रकार का कोई पक्षपात सम्भव नहीं होता।
  2. इस रीति में समय, श्रम व धन की बचत होती है।
  3. इस विधि द्वारा छाँटी गयी प्रतिदर्श इकाइयाँ समग्र का प्रतिनिधित्व करती हैं।

प्रश्न 7
पूर्ण गणना विधि तथा प्रतिदर्श विधि में अन्तर बताइए।
उत्तर:
पूर्ण गणना या प्रतिदर्श दोनों विधियाँ सांख्यिकीय अध्ययन के लिए महत्त्वपूर्ण विधियाँ हैं। दोनों में निम्नलिखित अन्तर होते हैं।

  1. पूर्ण गणना विधि में समूह की प्रत्येक इकाई के विषय में जाँच की जाती है, जबकि प्रतिदर्श विधि में कुछ ही इकाइयों की जाँच की जाती है।
  2. पूर्ण गणना पद्धति में व्यापक संगठन की आवश्यकता होती है, परन्तु प्रतिदर्श पद्धति में छोटे-से संगठन से भी काम चलाया जा सकता है।
  3. पूर्ण गणना विधि में विभ्रम का अनुमान नहीं लगाया जाता, परन्तु प्रतिदर्श विधि में विभ्रम का अनुमान पर्याप्त सीमा तक लगाया जा सकता है।
  4. जहाँ अनुसन्धान का क्षेत्र सीमित हो वहाँ पूर्ण गणना विधि तथा जहाँ अनुसन्धान का क्षेत्र अनन्त हो वहाँ प्रतिदर्श विधि अधिक उपयुक्त रहती है।
  5. जहाँ इकाइयों की संख्या बहुत ही कम हो वहाँ पूर्ण गणना विधि और जहाँ इकाइयाँ नाशवान् हों या अनन्त हों वहाँ अनुसन्धान की प्रतिदर्श विधि ही अपनायी जा सकती है।
  6. पूर्ण गणना विधि में ऊँचे स्तर की शुद्धता होती है, जबकि प्रतिदर्श विधि में सामान्य स्तर की है।
  7. यदि अनुसन्धान की प्रकृति ऐसी हो जहाँ सभी इकाइयों का अध्ययन आवश्यक हो तो पूर्ण गणना विधि उपयुक्त रहती है, परन्तु जहाँ सभी इकाइयों का अध्ययन महत्त्वपूर्ण न हो वहाँ निदर्शन या प्रतिदर्श विधि उपयुक्त रहती है।
  8. पूर्ण गणना विधि में अधिक धन, समय एवं श्रम की आवश्यकता होती है, परन्तु निदर्शन विधि में कम श्रम, समय एवं धन की आवश्यकता होती है।
  9. पूर्ण गणना विधि में विविध गुणों वाली विजातीय इकाइयों का अध्ययन किया जा सकता है, परन्तु निदर्शन या प्रतिदर्श विधि में सजातीय एवं एक-सी इकाइयों का अध्ययन उपयुक्त रहता है।

वास्तव में, पूर्ण गणना एवं प्रतिदर्श, दोनों ही महत्त्वपूर्ण विधियाँ हैं जो अलग-अलग परिस्थितियों में अपना स्थान रखती है। कई बार दोनों ही विधियों को एक साथ भी काम में लाया जाता है; अत: दोनों ही विधियों का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है और पृथक्-पृथक् परिस्थितियों में दोनों ही उपयोगी हैं।

प्रश्न 8
समग्र एवं न्यादर्श पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
समग्र-किसी भी अनुसन्धान क्षेत्र की सम्पूर्ण इकाइयाँ सामूहिक रूप में समग्र कहलाती हैं। दूसरे शब्दों में, अवलोकनों का सम्पूर्ण समूह जिनका अनुसन्धान किया जा रहा है, समग्र कहलाता है। अनुसन्धान इकाई की परिभाषा के अन्तर्गत आने वाले समस्त पदों का समूह समग्र कहा जाता है। तथा समग्र की इकाइयाँ व्यक्तिगत रूप में ‘इकाई’ कही जाती हैं। समग्र में निहित इकाइयों के आधार पर यह दो प्रकार का होता है

1. निश्चित या अनन्त समग्र – निश्चित समग्र में इकाइयों की संख्या निश्चित होती है; जैसे-किसी कॉलेज में छात्र या कारखाने में श्रमिक। इसे परिमित समग्र भी कहते हैं। अनन्त या अपरिमित समग्र में इकाइयों की संख्या निश्चित न होकर अनन्त होती है। आकाश के तारागण, वृक्ष की पत्तियाँ आदि अनन्त समग्र के ही उदाहरण हैं।

2. वास्तविक या काल्पनिक समग्र – अस्तित्व की दृष्टि से ठोस विषय वाले समग्र को वास्तविक अथवा विद्यमान समग्र कहते हैं; जैसे—विद्यालय के छात्र, कारखाने के श्रमिक आदि। वह सामग्री जो ठोस नहीं होती, काल्पनिक समग्र के अन्तर्गत आती है। सिक्कों के उछालों की संख्या काल्पनिक समग्र का ही उदाहरण है।

न्यादर्श – जब सम्पूर्ण समग्र में से किसी विशिष्ट आधार या थोड़ा-सा भाग जाँच के लिए लिया जाता है तो उसे नमूना, बानगी, प्रतिनिधि अंश अथवा न्यादर्श कहते हैं। न्यादर्श का अध्ययन करके समग्र के बारे में जानकारी प्राप्त की जाती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
सांख्यिकी की दो सीमाएँ बताइए। [2009]
उत्तर:
सांख्यिकी की सीमाएँ निम्नलिखित हैं

  1. सांख्यिकी में समूहों का अध्ययन किया जाता है न कि इकाइयों को।
  2. सांख्यिकी में केवल संख्यात्मक तथ्यों का अध्ययन होता है।

प्रश्न 2
आधुनिक युग में सांख्यिकी का महत्त्व लिखिए।
उत्तर:
आधुनिक युग में सांख्यिकी का महत्त्व उत्पादन, उपभोग विनिमय, वितरण, लोकवित्त के क्षेत्र में बढ़ता जा रहा है। देश का आर्थिक विकास, नियोजन के माध्यम से किया जा रहा है; अतः सांख्यिकी का महत्त्व और भी अधिक बढ़ गया है।

प्रश्न 3
प्राथमिक समंक और द्वितीयक समंक में क्या सूक्ष्म अन्तर है?
उत्तर:
प्राथमिक समंक अनुसंधानकर्ता अपनी आवश्यकतानुसार स्वयं संगृहीत करता है, जबकि द्वितीयक समंक अनुसंधानकर्ता द्वारा स्वयं एकत्रित नहीं किये जाते हैं। समंकों का संग्रहण किसी पूर्वअनुसंधानकर्ता के द्वारा पहले से ही किया होता है।

प्रश्न 4
विस्तृत प्रतिदर्श क्या है? इसके गुण बताइए।
उत्तर:
विस्तृत प्रतिदर्श बड़ा प्रतिदर्श लिया जाता है तथा लगभग 80 या 90% इकाइयाँ प्रतिदर्श में सम्मिलित की जाती हैं।

विस्तृत प्रतिदर्श के गुण

  1. परिणाम अधिक शुद्ध होते हैं।
  2. परिणाम पक्षपातरहित होते हैं।
  3. जाँच विस्तृत होती है

किश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
सांख्यिकी किसे कहते हैं? [2008, 16]
या
“सांख्यिकी गणना का विज्ञान है।” यह परिभाषा किसकी है? [2013]
उत्तर:
डॉ० बाउले के अनुसार, “सांख्यिकी गणना का विज्ञान है।”

प्रश्न 2
प्रशासन तथा व्यवसाय में सांख्यिकी का महत्त्व लिखिए।
उत्तर:
(1) कुशल प्रशासन हेतु अनेक प्रकार की सूचनाएँ एकत्र करनी होती हैं जिसके लिए। सांख्यिकी की आवश्यकता पड़ती है।
(2) एक व्यापारी को वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा मूल्य सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करने के लिए सांख्यिकी के सहयोग की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 3
सांख्यिकी के कोई दो उपयोग लिखिए। [2012]
उत्तर:
(1) इसका उपयोग तथ्यों को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करने में होता है।
(2) इसका उपयोग वैज्ञानिक नियमों की सत्यता जाँचने में होता है।

प्रश्न 4
सांख्यिकी के दो कार्य बताइए।
उत्तर:
सांख्यिकी के दो कार्य हैं

  1. समंकों को संगृहीत करना तथा
  2. समंकों के द्वारा निष्कर्ष निकालना।

प्रश्न 5
समंकों के संकलन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
समंकों के संकलन से आशय आँकड़ों को एकत्रित करने से है।

प्रश्न 6
संकलन के आधार पर समंक कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
संकलन के आधार पर समंक निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं

  1. प्राथमिक समंक तथा
  2. द्वितीयक समंक।

प्रश्न 7
प्राथमिक समंक (आँकड़े) क्या होते हैं? [2007, 08, 13, 14, 16]
उत्तर:
प्राथमिक समंक वे समंक होते हैं, जिन्हें अनुसन्धानकर्ता अपने उपयोग के लिए स्वयं एकत्रित करता है।

प्रश्न 8
प्राथमिक समंक की दो विशेषताएँ लिखिए। [2007, 08, 13, 14, 15]
उत्तर:
(1) अनुसन्धानकर्ता अपनी आवश्यकतानुसार इन समंकों का संग्रहण करता है।
(2) प्राथमिक समंक पूर्णतः मौलिक होते हैं।

प्रश्न 9
द्वितीयक समंक क्या होते हैं?
उत्तर:
द्वितीयक समंक वे समंक होते हैं जिन्हें अनुसन्धानकर्ता स्वयं एकत्रित नहीं करता अपितु उन समंकों का संग्रहण किसी पूर्व अनुसन्धानकर्ता के द्वारा पहले से ही किया होता है तथा निष्कर्ष भी निकाले हुए होते हैं।

प्रश्न 10
प्रतिदर्श अनुसन्धान विधि क्या है?
उत्तर:
प्रतिदर्श अनुसंधान विधि में समग्र सूचनाएँ प्राप्त नहीं की जाती हैं, वरन् समग्र में से कुछ इकाइयों को छाँट लेते हैं। छाँटी हुई इकाइयों की भी जाँच की जाती है तथा उनके आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

प्रश्न 11
“सांख्यिकी प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करती है और जीवन को अनेक बिन्दुओं पर स्पर्श करती है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
टिपेट (Tippett) का।

प्रश्न 12
सांख्यिकी के प्रति अविश्वास के दो कारण बताइए।
उत्तर:
(1) सांख्यिकी के विषय में ज्ञान न होना तथा
(2) सांख्यिकी की सीमाओं की उपेक्षा।

प्रश्न 13
सांख्यिकी के प्रति विश्वास उत्पन्न करने हेतु दो उपाय बताइए।
उत्तर:
(1) समंकों का निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र उपयोग किया जाए।
(2) समंकों का उपयोग करते समय सांख्यिकी सीमाओं को ध्यान में रखा जाए।

प्रश्न 14
द्वितीयक समंक संकलन के दो मुख्य प्रकाशित स्रोत लिखिए। या द्वितीयक आँकड़ों के क्या स्रोत हैं? [2003]
उत्तर:
(1) समाचार-पत्र-पत्रिकाएँ तथा
(2) सरकारी प्रकाशन।

प्रश्न 15
केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन का मुख्य कार्य क्या है?
उत्तर:
केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन का मुख्य कार्य राष्ट्रीय आय के आँकड़ों का संकलन करना व प्रकाशन कराना है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
“सांख्यिकी अनुमानों और सम्भावनाओं का विज्ञान है। यह परिभाषा है
(क) डॉ० बाउले की
(ख) बॉडिंगटन की
(ग) प्रो० किंग की।
(घ) सेलिगमैन की
उत्तर:
(ख) बॉडिंगटन की।

प्रश्न 2
सांख्यिकी के जन्मदाता हैं
(क) प्रो० किंग
(ख) क्रॉक्सटन व काउडन
(ग) गॉटफ्रिड ऐकेनवाल
(घ) सेलिगमैन
उत्तर:
(ग) गॉटफ्रिड ऐकेनवाल।

प्रश्न 3
आँकडे कितने प्रकार के होते हैं?
(क) एक
(ख) दो
(ग) तीन
(घ) चार
उत्तर:
(ख) दो।

प्रश्न 4
निम्न में से कौन-सा कथन सही है? [2011]
(क) सांख्यिकी केवल औसत का विज्ञान है।
(ख) सांख्यिकी को गलत उपयोग नहीं हो सकता है।
(ग) सांख्यिकी केवल गणना का विज्ञान है।
(घ) निरंकुश व्यक्ति के हाथ में सांख्यिकी विधियाँ बहुत खतरनाक औजार है।
उत्तर:
(घ) निरंकुश व्यक्ति के हाथ में सांख्यिकी विधियाँ बहुत खतरनाक औजार है।

प्रश्न 5
सांख्यिकी को सर्वाधिक माना जा सकता है [2010]
(क) कला
(ख) विज्ञान
(ग) कला एवं विज्ञान दोनों
(घ) इनमें कोई नहीं।
उत्तर:
(ग) कला एवं विज्ञान दोनों।

प्रश्न 6
सांख्यिकी के सम्बन्ध में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही नहीं है? [2012]
(क) यह संख्या का विज्ञान है।
(ख) यह गुणात्मक तथ्यों का अध्ययन करता है।
(ग) यह ज्ञान का व्यवस्थित समूह है।
(घ) यह कारण और परिणाम सम्बन्ध का अध्ययन करता है।
उत्तर:
(ख) यह गुणात्मक तथ्यों का अध्ययन करता है।

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