UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 2 Wildlife and Ecosystem

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 2 Wildlife and Ecosystem (वन्य जीवन एवं पारिस्थितिक तन्त्र) are part of UP Board Solutions for Class 12 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 2 Wildlife and Ecosystem (वन्य जीवन एवं पारिस्थितिक तन्त्र).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography
Chapter Chapter 2
Chapter Name Wildlife and Ecosystem (वन्य जीवन एवं पारिस्थितिक तन्त्र)
Number of Questions Solved 19
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 2 Wildlife and Ecosystem (वन्य जीवन एवं पारिस्थितिक तन्त्र)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पारिस्थितिक-तन्त्र (Ecosystem) से आप क्या समझते हैं? ये कितने प्रकार के होते हैं ?
या
टिप्पणी लिखिए-पारिस्थितिकी-तन्त्र। [2008, 09, 10, 13, 14]
या
पारिस्थितिक-तन्त्र की व्याख्या कीजिए। [2013]
उत्तर

पारिस्थितिकी Ecology

‘पारिस्थितिकी’ शब्द की व्युत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द ‘OIKOS’ से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है- ‘घर’ अथवा ‘आवास’। अतः इस आधार पर पारिस्थितिकी का अर्थ हुआ-जीव का घर या आवास। इस प्रकार जीव विज्ञान का वह भाग जिसके अन्तर्गत जीवों तथा उनके पर्यावरण की पारस्परिक क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है, पारिस्थितिकी विज्ञान कहलाता है। जीव और पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन को वातावरणीय जीव विज्ञान (Environmental Biology) भी कहा जाता है। एच० रेटर (H. Reiter) ने ‘इकोलॉजी’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1868 ई० में किया था। जीव और उसका पर्यावरण प्रकृति के जटिल एवं गतिशील घटक हैं। पर्यावरण अनेक घटकों का समूह है। ये घटक जीवों को पारस्परिक क्रियाओं द्वारा प्रभावित करते रहते हैं। पारिस्थितिकी को अनेक विद्वानों ने परिभाषित किया है, जिनमें से कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं –

ओडम (Odum) के अनुसार, “इकोसिस्टम पारिस्थितिकी की वह आधारभूत इकाई है जिसमें जैविक और अजैविक वातावरण एक-दूसरे पर अपना प्रभाव डालते हुए पारस्परिक अनुक्रिया से ऊर्जा और रासायनिक पदार्थों के निरन्तर प्रवाह से तन्त्र की कार्यात्मक गतिशीलता बनाये रखते हैं।’
“पारिस्थितिकी प्रकृति की अर्थव्यवस्था तथा प्राणियों के अपने अजैविक तथा जैविक पर्यावरण के साथ समस्त सम्बन्धों का अध्ययन है।”– हैकल
“पारिस्थितिकी पर्यावरण के सन्दर्भ में जीवों के अध्ययन का विज्ञान है।’                -वार्मिग
इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषाओं से निष्कर्ष निकलता है कि पारिस्थितिकी जैविक तथा पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन है। वास्तव में पृथ्वीतल पर पाये जाने वाले प्राणियों तथा जैविक एवं अजैविक पर्यावरण की सम्मिलित क्रिया-प्रतिक्रिया पारिस्थितिक-तन्त्र कहलाती है।

पारिस्थितिक-तन्त्र Ecosystem

‘इकोसिस्टम’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम सन् 1935 में ए०जी० तांसले द्वारा किया गया था। उनके अनुसार, “पारिस्थितिक-तन्त्र पर्यावरण के सभी जीवित एवं निर्जीव कारकों के सम्पूर्ण सन्तुलन के परिणामस्वरूप बनी हुई प्रणाली है।”
विभिन्न विद्वानों द्वारा पारिस्थितिकी एवं पारिस्थितिक-तन्त्र (Ecosystem) के पर्याय शब्दों का प्रयोग –
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 2 Wildlife and Ecosystem 1
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 2 Wildlife and Ecosystem 2
कोई भी जैविक तत्त्व पर्यावरण के बिना जीवित नहीं रह सकता। उसका एक निश्चित पारिस्थितिक-तन्त्र होता है। स्वयं में हमारी पृथ्वी एक बहुत बड़ा पारिस्थितिक-तन्त्र है, जिसमें समस्त जीव समुदाय सूर्य से ऊर्जा प्राप्ति पर निर्भर करता है तथा भौतिक पर्यावरण जो भूतल पर पाया जाता है; अर्थात् स्थलमण्डल, वायुमण्डल एवं जलमण्डल में जीवनोपयोगी समस्त तत्त्वों की प्राप्ति करता है। जलवायु जैविक तत्त्वों- प्राणी एवं पौधों के विचरण तथा उनकी क्रियाओं को नियन्त्रित करती है। प्राणी एवं पौधे स्वयं पारस्परिक रूप से पर्यावरण को भी प्रभावित करते हैं। इस प्रकार पर्यावरण और उसमें निवास करने वाले जीवधारी आपस में एक-दूसरे को प्रभावित करते हुए एक तन्त्र बना लेते हैं। यही तन्त्र’ पारिस्थितिक-तन्त्र’ (Ecosystem) कहलाता है।

प्रकृति में कोई भी जीवधारी एवं उसका समुदाय अकेले रहकर अपनी क्रियाओं का सम्पादन नहीं कर सकता, बल्कि प्रकृति में पाये जाने वाले एवं विचरण करने वाले सम्पूर्ण जीव-जन्तु एवं पेड़-पौधे एक साथ मिलकर कार्य करते हैं तथा एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं। इस प्रकार किसी क्षेत्र में कार्य करने वाले जैविक एवं अजैविक अंशों का सम्पूर्ण योग ही ‘पारिस्थितिक-तन्त्र’ कहलाता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि “पारिस्थितिक-तन्त्र प्रकृति की एक क्रियात्मक इकाई है।” इस प्रकार किसी क्षेत्र या प्रदेश विशेष में कार्यरत जैविक एवं अजैविक अंशों का पूर्ण योग ही पारिस्थितिक-तन्त्र कहलाता है। पारिस्थितिक-तन्त्र को वैज्ञानिकों ने निम्नलिखित प्रकार परिभाषित किया है –

“पारिस्थितिक-तन्त्र पर्यावरण तथा समुदाय की क्रियात्मक समक्रिया है।’      -क्लार्क
‘‘पारिस्थितिक-तन्त्र मूल क्रियात्मक इकाई है, जिसमें जैविक तथा अजैविक पर्यावरण सम्मिलित हैं जो परस्पर प्रभावित करते हैं जिससे ऊर्जा प्रवाह-तन्त्र में निश्चित एवं स्पष्ट जैविक विविधता का चक्र बनता है।  -ओडम
इस प्रकार पारिस्थितिक-तन्त्र जैविक एवं पर्यावरण के सभी भागों में तथा उसके बीच पारस्परिक क्रिया का योग है। पारिस्थितिक-तन्त्र में जीवधारियों का समुदाय अनेक प्रकार के जीवों (पेड़-पौधे एवं जीव-जन्तु) से मिलकर बनता है। पारिस्थितिक-तन्त्र स्थायी अथवा अस्थायी दोनों प्रकार का हो सकता है।

पारिस्थितिक-तन्त्र का वर्गीकरण
Classification of Ecosystem

पारिस्थितिक-तन्त्र को अनेक छोटी इकाइयों में वर्गीकृत किया जा सकता है जिससे उनको आकारिकी, कार्यिकी एवं गति सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त हो सके। इस वर्गीकरण का आधार जलवायु, निवास स्थान एवं पौधों का समुदाय होता है। पारिस्थितिक-तन्त्र निम्नलिखित दो प्रकार का होता है –
1. प्राकृतिक पारिस्थितिक-तन्त्र (Natural Ecosystem) – यह तन्त्र प्रकृति द्वारा सम्पन्न किया जाता है। प्राकृतिक आवास निम्नलिखित दो प्रकार का होता है –

  1. स्थलीय (Terrestrial) – वन, घास के मैदान, मरुस्थलीय आदि।
  2. जलीय (Aquatic) – जलीय पारिस्थितिक-तन्त्र दो प्रकार का होता है –
    1. स्वच्छ जलीय (Fresh Water) – इसके अन्तर्गत, नदी, झील एवं तालाब आदि सम्मिलित किये जाते हैं।
    2. समुद्र जलीय (Sea Water) – इसके अन्तर्गत खारे जल के क्षेत्र अर्थात् महासागर, सागर एवं खारे पानी की झीलें सम्मिलित की जाती हैं।

2. कृत्रिम अथवा मानव-निर्मित पारिस्थितिक-तन्त्र (Artificial Ecosystem) – यह तन्त्र : मानव एवं उसकी क्रियाओं द्वारा सम्पन्न होता है। मानव अपने क्रिया-कलापों एवं तकनीकी-प्राविधिक ज्ञान द्वारा प्राकृतिक सन्तुलन में गड़बड़ कर देता है; अर्थात् असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। मानव बड़े-बड़े क्षेत्रों को काटकर कृषि-योग्य भूमि, औद्योगिक क्षेत्रों तथा बड़ी-बड़ी बस्तियों का निर्माण करता है। यह मानव द्वारा निर्मित भूदृश्य कहलाता है। मानव भौतिक पर्यावरण को नियन्त्रित करने का प्रयास करता है, परन्तु नियन्त्रण के स्थान पर इसमें असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इसे कृत्रिम अथवा अप्राकृतिक पारिस्थितिक-तन्त्र कहा जाता है।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 2 Wildlife and Ecosystem

प्रश्न 2
पारिस्थितिक-तन्त्र में असन्तुलन की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
या
पारिस्थितिक-तन्त्र के असन्तुलन की समस्या की विवेचना कीजिए तथा उसके निराकरण के उपायों को प्रस्तावित कीजिए।
या
टिप्पणी लिखिए-पारिस्थितिक असन्तुलन।
या
टिप्पणी लिखिए-पारिस्थितिक असन्तुलन की समस्या।
या
पारिस्थितिक असन्तुलन की समस्या व उसके निराकरण के किन्हीं दो उपायों का सुझाव दीजिए। [2009]
उत्तर

पारिस्थितिकीय असन्तुलन की समस्या
Problem of Imbalance Ecology

मानव द्वारा पारिस्थितिक-तन्त्र का शोषण किया जाता है। इनमें प्राकृतिक वनस्पति, वन्य जीव-जन्तु, मत्स्य आदि प्रमुख हैं। अधिकतम खाद्यान्नों की प्राप्ति के लिए पारिस्थितिक-तन्त्र में अनेक
परिवर्तन हुए हैं जिससे सामान्य पारिस्थितिक-तन्त्र का विकास हुआ है। पारिस्थितिकीय असन्तुलन को पर्यावरण प्रदूषण भी कहा जा सकता है। मानव प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करता है; जैसे-खानों से
खनिजों का शोषण, भूगर्भ से खनिज तेल, वनों से लकड़ी की कटाई कर तथा अपने मनोरंजन के लिए। वन्य जीवों का आखेट कर पारिस्थितिकीय सन्तुलन को बिगाड़ता रहता है। पालतू पशुओं से दूध, मांस, ऊन तथा अन्य पदार्थ प्राप्त होते हैं जिससे उसकी भोजन-श्रृंखला छोटी हो गयी है। इससे इन पालतू पशुओं की संख्या में भी कमी होने लगी है तथा पारिस्थितिकीय असन्तुलन की समस्या ने जन्म ले लिया है।

“पारिस्थितिक-तन्त्र के किसी भी घटक का वांछित एवं आवश्यक मात्रा से कम हो जाना अथवा अधिक हो जाना ही पारिस्थितिकीय असन्तुलन’ कहलाता है तथा प्रत्येक घटक को उस अनुपात में रहना। जिससे इस तन्त्र के अन्य घटकों पर कोई हानिकारक प्रभाव न पड़े’पारिस्थितिक सन्तुलन’ कहलाता है।”
पारिस्थितिक-तन्त्र में असन्तुलन की स्थिति तभी उत्पन्न होती है जब किसी सम्पूर्ण पोषण-स्तर का विनाश हो जाता है। यह स्थिति जीवों की कमी के कारण अथवा वैकल्फ्कि साधनों की कमी के कारण अथवा प्रदूषण के कारण हो सकती है।

1. प्रदूषण की समस्या – कृषि उत्पादन की सफलता फसलों द्वारा अपने पारिस्थितिक-तन्त्र के अनुकूलन पर निर्भर करती है। स्थानीय जलवायु दशाएँ फसलों का निर्धारण करती हैं। रासायनिक उर्वरकों द्वारा पोषक तत्त्वों में वृद्धि कर उत्पादन में भी वृद्धि के प्रयास किये गये हैं तथा अधिक उत्पादन देने वाली फसलें खोज ली गयी हैं। ‘हरित क्रान्ति’ ने खाद्यान्न उत्पादन में तो वृद्धि की है, परन्तु उर्वरकों के उत्पादन से प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गयी है। मानव ने फसलों के क्षेत्रफल में वृद्धि की है जिसके कारण प्रेयरी, टैगा एवं स्टेप्स घास के मैदानों में प्राकृतिक वनस्पति में कमी हो गयी है। पादपों को कीटनाशकों से बचाव के लिए कीटनाशक दवाओं का अधिकाधिक उपयोग किया जाने लगा है, परन्तु । इनका अधिक उपयोग मानव के लिए हानिकारक है। इनसे मानव को दूषित खाद्य सामग्री प्राप्त होती है। इन कीटनाशकों के उत्पादन काल में प्रदूषण की अनेक समस्याएँ जन्म लेती हैं। भोपाल गैस त्रासदी इसका एक मुख्य उदाहरण है जिससे मानवता में अपंगता ने जन्म लिया है।

2. जैव-प्रदूषण की समस्या – आदि काल से लेकर आज़ तक वनों का बड़ी निर्ममता से शोषण किया जाता रहा है। इससे वन-क्षेत्रों का ह्रास हुआ है। प्रारम्भ से ही विश्व के अनेक भागों में स्थानान्तरित अथवा झूमिंग कृषि पद्धति प्रचलित है। इस पद्धति के अन्तर्गत उर्वर भूमि को प्राप्त करने के लिए मानव वन-क्षेत्रों का शोषण कर उस पर कृषि करता है। जब इस भूमि की उर्वरता समाप्त हो जाती है तो इसे परती छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार वनों के निर्दयतापूर्वक शोषण से पर्यावरण प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हुई है तथा पारिस्थितिक-तन्त्र भी असन्तुलित हुआ है। वनों की कमी के कारण भू-अपरदन, अनावृष्टि, बाढ़ आदि समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं। अतः आज मानव के समक्ष अनेक प्रदूषण सम्बन्धी समस्याएँ विकराल रूप धारण कर गयी हैं। इसी कारण विश्व में वन-संरक्षण के प्रयास किये जा रहे हैं।

जलीय जीवों के प्राणों की रक्षा करना भी अति आवश्यक है। मत्स्य व्यवसाय पर ध्यान दिया जाना अति आवश्यक है। मछली से मानव को प्रोटीन की प्राप्ति होती है। यदि मत्स्य व्यवसाय का विकास सुचारु रूप से नहीं हुआ तो खाद्यान्न में प्रोटीन की कमी हो जाएगी। विश्व में 3% मानव का भोजन पूर्ण रूप से मछली पर निर्भर करता है, जबकि नॉर्वे, न्यूफाउण्डलैण्ड एवं जापान सदृश देशों में 10% मानव मछली के ऊपर ही निर्भर करते हैं। इनकी कमी से खाद्य समस्या उत्पन्न हो सकती है। अतः इस ओर ध्यान दिये जाने की, नितान्त आवश्यकता है।

3. जनाधिक्य की समस्या संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार – सन् 2010 में विश्व की जनसंख्या 6.9 अरब हो गयी है। सन् 2050 तक इसके 9.10 अरब हो जाने का अनुमान है। जनसंख्या की इस अतिशय वृद्धि के कारण वन क्षेत्रों एवं चरागाहों की कमी होती जा रही है। भोजन की समस्या के समाधान के लिए कृषि-क्षेत्रों का विस्तार किया जा रहा है जिस कारण वन एवं घास क्षेत्रों का विनाश किया जा रहा है जिससे पारिस्थितिक-तन्त्र में अन्तर उपस्थित हुआ है। इसके साथ ही आवास समस्या उत्पन्न हो गयी है। बस्तियों के विकास के लिए उत्पादक भूमि का अधिग्रहण होता जा रहा है।

इस प्रकार जनसंख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि के कारण अनेक समस्याएँ विकराल रूप धारण कर चुकी हैं। भोजन, वस्त्र एवं आवास जैसी प्राथमिक आवश्यकताओं का अभाव होता जा रहा है। इससे प्रदूषण की अनेक समस्याओं ने जन्म लिया है। वायु, जल व मृदा प्रदूषण वर्तमान युग की सबसे बड़ी समस्याएँ हैं। यह पारिस्थितिकीय असन्तुलन की स्थिति है। इससे आज मानव समुदाय को अनेक विषमताओं का सामना करना पड़ता है।

पारिस्थितिकीय असन्तुलन की समस्या का निवारण
Solution of the Problem of Imbalance Ecology

पारिस्थितिक-तन्त्र में असन्तुलन की समस्या के निवारण के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए –
1. जनाधिक्य पर नियन्त्रण – आधुनिक युग में विश्व की जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि होती जा रही है जिस पर नियन्त्रण किया जाना अति आवश्यक है। यदि जनसंख्या-वृद्धि उपलब्ध संसाधनों के अनुसार हो तो अधिक उपयुक्त रहेमा।

2. वन क्षेत्रफल में वृद्धि तथा उनका संरक्षणे – प्रदूषण से बचाव के लिए वन क्षेत्रफल में घृछि किया जा अति आवश्यक है। भारत में सामाजिक वानिकी तथा वन महोत्सव आदि कार्यक्रमों द्वारा वन क्षेत्रफल में वृद्धि के प्रयास किये जा रहे हैं। उत्तराखण्ड में श्री सुन्दर लाल बहुगुणा का ‘चिपको आन्दोलन भी इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है।
वन एक महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक स्रोत है। यह वन्य जीवन के लिए अति आवश्यक है। पर्यावरणीय सन्तुलन को बनाये रखने के लिए वनों को महत्त्वपूर्ण योगदान है। पौधे पर्यावरण से कार्बन डाइऑक्साइड लेकर ऑक्सीजन नि:सृत करते हैं जिसका उपयोग जन्तुओं द्वारा श्वसन क्रिया में किया जाता है।

3. जल संसाधनों में वृद्धि एवं उनका संरक्षण – जल संसाधनों में वृद्धि किया जाना अति आवश्यक है। जेब जल में अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ, कार्बनिक एवं अकार्बनिक पदार्थों तथा गैसों के एक निश्चित अनुपात में अधिक अथवा कम अनावश्यक एवं हानिकारक पदार्थ घुले होते हैं, तब जल का प्रदूषण हो जाता है। प्रदूषित जल का उपयोग करने से प्राणी समुदाय में अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं; अतः ऐसे प्रयास किये जाने चाहिए कि जल का प्रदूषण न होने पाये।

जल संसाधनों में वृद्धि के लिए मत्स्य उत्पादक क्षेत्रों में जलं प्रदूषणरहित होना चाहिए। जल-क्षेत्रों में जिन मछलियों की प्रजाति की कमी है, उनके पकड़ने पर रोक लगा देनी चाहिए; जैसे- सील, खेल आदि। ऐसे प्रयास किये जाने चाहिए कि मछलियों की भोज्य-सामग्री वनस्पति एवं प्लैंकटन पर्याप्त मात्रा में पनपती रहे। इसके लिए इन क्षेत्रों में शुद्ध जल की प्राप्ति होना अति आवश्यक है। यह जल प्रदूषणरहित होना चाहिए। ऐसे क्षेत्र मछलियों के अक्षय भण्डार हो सकते हैं। मछली पकड़ने की विकसित तकनीक होनी चाहिए तथा उन्हें नियमित रूप से ही पकड़ा जाना चाहिए।

4. वन्य-प्राणियों का संरक्षण – वन्य जीवों में लगभग 350 जातियाँ स्तनधारियों की तथा 2,100 पक्षियों की होने के साथ-साथ लगभग 20,000 प्रजातियाँ कीटों की वन्य अवस्था में पायी जाती हैं। अतः पारिस्थितिक-तन्त्र में सन्तुलन बनाये रखने के लिए वन्य प्राणियों का संरक्षण अति आवश्यक है। वन्य जीवों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपायों को कार्यरूप में परिणत किया जाना चाहिए –

  1. वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए अभयारण्यों की स्थापना की जानी चाहिए।
  2. वन्य जीवों के आवासीय स्थलों को संरक्षण दिया जाना चाहिए।
  3. वन्य जीवों की विभिन्न जातियों को संरक्षण दिया जाना चाहिए।
  4. नवीन वन्य जातियों को वन-क्षेत्रों में पालन-पोषण के प्रयास किये जाने चाहिए।
  5. सभी देशों में वन्य जीवों के आखेट पर प्रतिबन्ध लगा दिये जाएँ तथा इनके अनुपालन के लिए कठोर नियम एवं कानून होने चाहिए। इनका कठोरता से अनुपालन किया जाना चाहिए।

इस प्रकार उपर्युक्त तथ्यों से निष्कर्ष निकलता है कि प्राणी-समुदाय के कल्याण एवं उसके पर्यावरण को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए पारिस्थितिक-तन्त्र को सन्तुलित बनाये रखना अति आवश्यक है।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 2 Wildlife and Ecosystem

प्रश्न 3
पर्यावरण प्रदूषण क्या है? प्रदूषण-नियन्त्रण के उपाय बताइए। [2014]
या
पर्यावरण प्रदूषण के नियन्त्रण हेतु उपायों का वर्णन कीजिए। (2016)
उत्तर

पर्यावरण प्रदूषण Environmental Pollution

प्रदूषण का साधारण अर्थ किसी भी वस्तु की भौतिक गुणवत्ता में किसी अवांछित तत्त्व द्वारा होने वाले ह्रास से है। मिट्टी, भूमि, जल, वायु, प्राकृतिक वनस्पति आदि प्राकृतिक संसाधन ऐसे ही पदार्थ हैं जो अनेक प्राकृतिक तथा मानवीय कारणों से अपनी स्वाभाविक गुणवत्ता खो देते हैं तथा प्रदूषित हो जाते हैं। प्रदूषण,पाँच प्रकार का होता है –

  1. स्थल प्रदूषण
  2. जल प्रदूषण
  3. वायु प्रदूषण
  4. ध्वनि प्रदूषण तथा
  5. आणविक प्रदूषण।

प्राकृतिक कारणों से होने वाले प्रदूषण का प्रभाव बहुत धीमे तथा सीमित स्तर पर होता है और प्रकृति काफी हद तक उसका सन्तुलन भी कर देती है, किन्तु मानवीय कार्यों से इन पदार्थों या संसाधनों में इस प्रकार ह्रास होता है कि उसकी भरपाई सम्भव नहीं होती। उदाहरणार्थ- निरन्तर एकही प्रकार की फसल एक क्षेत्र में बोते रहने से मिट्टी की उर्वरता का ह्रास होता है। यह एक प्रकृतिक-परिघटना है। मानव द्वारा अतिशय सिंचाई, रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग, पर्वतीय ढालों पर स्थानान्तरी कृषि आदि कारणों से मिट्टियाँ अनुर्वर हो जाती हैं।

इसी प्रकार जल में अनेक मानवीय क्रिया-कलापों से’या मानव द्वारा अशुद्धियाँ मिला दी जाती हैं जिससे जल संदूषित (contaminated) हो जाती है तथा सेवन योग्य नहीं रहता। ज्वालामुखी के विस्फोट से सीमित स्तर पर वायु का प्रदूषण होता है, किन्तु मानव द्वारा औद्योगिक कारखानों, वाहनों आदि के धुएँ द्वारा व्यापक स्तर पर वायु प्रदूषण होता है जिसके भयंकर दुष्परिणाम हो रहे हैं। इससे वायु में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि हो रही है जिससे वायुमण्डल में तापमान में वृद्धि हो रही है। इस कारण वैश्विक ऊष्मन’ (global warming) बढ़ रहा है। जो भविष्य में विश्वव्यापी संकट का कारण हो सकता है।

कृषि में रसायनों के प्रयोग से विषैले रसायन जल तथा भूमि के माध्यम से भोजन द्वारा मानव शरीर में पहुँचकर मानवीय जीवन को संकटग्रस्त कर देते हैं। यही नहीं, ये विषैले रसायन वायुमण्डल में पहुँचकर ‘अम्ल वर्षा’ (acid rains) का खतरा पैदा कर रहे हैं, जिसका प्रभाव उत्पत्ति के स्रोत तक सीमित न होकर विश्वव्यापी हो गया है। रेफ्रिजरेटरों के प्रयोग से क्लोरो-फ्लोरो कार्बन तत्त्व वायु में मिलकर उसे प्रदूषित कर रहे हैं जिससे वायुमण्डल की ओजोन परत का क्रमशः क्षय हो रहा है। ओजोन गैस की कमी से मानब तृथा समस्त प्राणियों का जीवन संकटग्रस्त हो जायेगा।

महानगरों में कारखानों के कारण भारी शोर होता है। परिवहन के साधन, लाउडस्पीकर आदि भी शोर पैदा करते हैं। इसे ध्वनि प्रदूषण’ कहा जाता है। मनुष्य एक निश्चित सीमा तक ही शोर सहन कर सकता है। जब यह (शोर) सहन-शक्ति से बाहर हो जाता है तो मनुष्य के लिए कष्टप्रद होता है। इससे बहरेपन तथा अन्य स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं पैदा हो जाती हैं।

आधुनिक युग में परमाणु ऊर्जा का प्रयोग दिनोंदिन बढ़ रहा है। यही नहीं, परमाणु अस्त्र बनाने की होड़ भी जारी है। परमाणु ऊर्जा का भयंकर रूप द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति पर जापान के नागासाकी तथा हिरोशिमा नगरों पर बम प्रहार के रूप में अनुभव किया जा चुका है। यही नहीं, परमाणु संयंत्रों से होने वाले रिसाव से भी भयंकर हानि होती है। पूर्व सोवियत संघ के ‘चर्नोबिल संयंत्र में इसी प्रकार की दुर्घटना से भारी दुष्परिणाम हुए थे। यदि अनजाने में या भूलवश भी इन परमाणु संयंत्रों का दुरुपयोग हो जाये तो इससे सम्पूर्ण मानवता का अस्तित्व संकटग्रस्त हो जायेगा।

पर्यावरण का बढ़ता हुआ प्रदूषण किसी एक क्षेत्र या देश की समस्या नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के लिए गम्भीर चिन्ता का विषय है। इसीलिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इस विषय पर विचार-विमर्श तथा इस संकट से उबरने के प्रयास किये जा रहे हैं। अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन तथा एजेन्सियाँ इस दिशा में कार्यरत हैं।

नियन्त्रण के उपाय Measures of Control

निम्नलिखित उपायों द्वारा पर्यावरण प्रदूषण को रोका जा सकता है –

  1. नगरों तथा महानगरों में मल-मूत्र, गन्दगी, कूड़े-कचरे के निस्तारण (disposal) की उचित व्यवस्था करनी चाहिए, उसे नालों व नदियों में नहीं मिलाना चाहिए। इस कचरे के लिए उपचार संयन्त्र (treatment plants) लगाने चाहिए जिससे ऊर्जा तथा उर्वरक बनाये जा सकते हैं तथा ऐसे जल का सिंचाई में प्रयोग किया जा सकता है।
  2. कृषि में अन्धाधुन्ध रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों तथा अन्य घातक रसायनों के प्रयोग को नियन्त्रित करना चाहिए जिससे भूमि तथा जल का प्रदूषण कम हो। नियन्त्रित सिंचाई पद्धति अपनानी चाहिए जिससे भूमि का अपरदन तथा उर्वरता ह्रास कम हो।
  3. बस्तियों के निकट कारखानों तथा भट्टों को हटाकर अन्यत्र स्थापित करना चाहिए जिससे वायु प्रदूषण का नियन्त्रण हो सके।
  4. कारखानों में वायु प्रदूषण को रोकने वाले संयंत्र लगाने चाहिए।
  5. वाहनों से होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए वाहनों में उपयुक्त उपकरणों की व्यवस्था होनी चाहिए।
  6. परमाणु संयंत्रों को प्रदूषण मुक्त प्रणाली’ (pollution free devices) से जोड़ना चाहिए।
  7. जनता को प्रदूषण के प्रति सचेत करना तथा पर्यावरण रक्षा की शिक्षा देना आवश्यक है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
एक पारिस्थितिक-तन्त्र के रूप में जैवमण्डल की विवेचना कीजिए।
उत्तर
जैवमण्डल से तात्पर्य पृथ्वीतल के उस संकीर्ण क्षेत्र से है जहाँ स्थलमण्डल, जलमण्डल और वायुमण्डल परस्पर सम्पर्क में आते हैं तथा जहाँ समस्त प्रकार का जीवन पाया जाता है। यहाँ जीवन का आशय समस्त जीवधारियों से है, चाहे वे प्राणी (जीव-जन्तु, कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी आदि) हों या पादप (पेड़-पौधे इत्यादि)। सभी जीवधारियों के लिए पारिस्थितिक-तन्त्र आवश्यक होता है जो उनके जन्म तथा विकास के लिए उत्तरदायी होता है। स्थिति के अनुसार पारिस्थितिक-तन्त्र भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। इस तन्त्र में भौतिक तथा जैविक घटक परस्पर प्रतिक्रिया करते हैं।

जैवमण्डल पृथ्वी का विशालतम पारिस्थितिक-तन्त्र है। इसमें सूर्य से प्राप्त ऊर्जा समस्त जीवधारियों के लिए प्राणदायी होती है। इस विशाल तन्त्र के भौतिक घटकों में जलवायु के समस्त तत्त्व, धरातल, जलराशियाँ, खनिज पदार्थ आदि सम्मिलित हैं। जैविक घटकों में उत्पादक (पेड़-पौधे) तथा उपभोक्ता (प्राणी-जीव-जन्तु) सम्मिलित हैं, जो शाकाहारी, मांसाहारी तथा सर्वाहारी (मानव) होते हैं।

प्रश्न 2
पर्यावरण की समग्रता की विवेचना कीजिए।
उत्तर
फिटिंग ने पर्यावरण की जिस समग्रता का उल्लेख किया है वह पर्यावरण के चारों क्षेत्रों का ही मिला-जुला प्रभाव है। सभी जीवधारी जीवनयापन के लिए प्रकृति पर आश्रित हैं। मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्यावरण का दोहन करता है। पर्यावरण के तीनों क्षेत्र सामूहिक रूप से जैवमण्डल पर अपना प्रभाव डालते हैं। मनुष्य अजैव, जैव एवं सांस्कृतिक पर्यावरण के साथ अनुकूलन करने का प्रयास करता है। कहीं उसे प्रकृति का कोपभाजन भी बनना पड़ता है तो कहीं वह पर्यावरण को अपने अनुरूप बदलने का प्रयास करता है। यह बदलाव पर्यावरण का रूपान्तरण कहलाता है। रूपान्तरण में वह प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक कारकों में परिवर्तन लाता है।

कहीं-कहीं उसे प्रकृति के साथ समायोजन (समझौता) भी करना पड़ता है। यह समायोजन मानवे अपनी प्रगति एवं आर्थिक विकास के लिए करता है। इस समायोजन के लिए उसे अपनी क्षमता, कौशल और सूझ-बूझ का प्रयोग करना पड़ता है। पर्यावरण मानव की छाँट के लिए परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है और मानव उनका उपयोग एक क्रियाशील जीव के रूप में करता है। पर्यावरण के चारों क्षेत्रों के पारस्परिक अन्तर्सम्बन्धों द्वारा ही नवीन भौगोलिक तथ्य जन्म लेते हैं। इन्हीं तथ्यों द्वारा मानव विनाशकारी और सृजनकारी क्रियाओं को जन्म देती है। भू-क्षरण, बाढ़ तथा प्रदूषण आदि समस्याएँ मानव की विनाशकारी क्रियाओं का ही परिणाम हैं, जो मनुष्य की प्रकृति के प्रति शोषणात्मक प्रवृत्ति का द्योतक है। प्रकृति की ओर से पर्यावरण के सभी क्षेत्र पारस्परिक अन्तर्निर्भर और सन्तुलित हैं, परन्तु मानव अपने लाभ के कारण इनकी निर्भरता और सन्तुलित स्थिति को भंग करने का प्रयास करता रहता है।

प्रश्न 3
पारिस्थितिक तन्त्र के असन्तुलन की समस्या के निराकरण हेतु कोई दो सुझाव दीजिए। (2015)
उत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 2 के अन्तर्गत ‘पारिस्थितिकीय असन्तुलन की समस्या का निवारण’ शीर्षक देखें।

प्रश्न 4
पारिस्थितिक तन्त्र में असन्तुलन के किन्हीं दो कारणों का उल्लेख कीजिए। [2014, 15]
उत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 2 के अन्तर्गत पारिस्थितिकीय असन्तुलन की समस्या’ शीर्षक में देखें।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पारिस्थितिक-तन्त्र को परिभाषित कीजिए। [2008, 09, 10, 14, 16]
उत्तर
पारिस्थितिक-तन्त्र धरातल की एक ऐसी इकाई है जिसमें पर्यावरण के सभी भौतिक तथा अभौतिक (जैविक) घटक परस्पर अन्त:क्रिया करते हुए एक विशिष्ट तन्त्र का निर्माण करते हैं।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 2 Wildlife and Ecosystem

प्रश्न 2
पारिस्थितिक तन्त्र की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2012]
उत्तर

  1. पारिस्थितिक तन्त्र एक क्रियाशील इकाई है, जिसमें जैव तथा अजैव तत्त्व परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। इस तन्त्र की सक्रियता से ही जैव तत्त्व उत्पादित होते हैं।
  2. पारिस्थितिक तन्त्र ऊर्जा (सूर्य ऊर्जा) द्वारा संचालित होता है तथा अपनी कार्यप्रणाली द्वारा अन्य तत्त्वों में ऊर्जा का प्रवाह करता है।

प्रश्न 3
पारिस्थितिकी तन्त्रों के दो प्रमुख घटकों के नाम लिखिए। [2007, 11, 12, 13, 14, 16]
उत्तर
पारिस्थितिकी तन्त्र के दो प्रमुख घटकों के नाम हैं –

  1. अजैविक घटक
  2. जैविक घटक।

प्रश्न 4
स्थलीय पारितन्त्र के घटकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
स्थलीय पारितन्त्र में वन, घास के मैदान, मरुस्थल आदि आते हैं।

प्रश्न 5
स्वच्छ जलीय एवं सागरीय पारितन्त्र में क्या अन्तर है।
उत्तर
स्वच्छ जलीय पारितन्त्र नदी, झील, तालाब आदि से मिलकर बनता है, जो प्राय: मीठे जल को धारण करते हैं। इसके विपरीत सागरीय पारितन्त्र खारे पानी से युक्त सागरों एवं महासागरों से मिलकर बना होता है।

प्रश्न 6
पारिस्थितिक असन्तुलन को परिभाषित कीजिए।
या
पारिस्थितिकीय असन्तुलन क्या है ? [2008, 16]
उत्तर
पारिस्थितिक-तन्त्र के किसी भी घटक का वांछित एवं आवश्यक मात्रा से कम हो जाना। अथवा अधिक हो जाना पारिस्थितिक असन्तुलन कहलाता है। प्रत्येक घटक का उस अनुपात में रहना जिससे इस तन्त्र के अन्य घटकों पर कोई हानिकारक प्रभाव न हो, पारिस्थितिक सन्तुलन कहलाता है।

प्रश्न 7
पारिस्थितिकी को परिभाषित कीजिए। [2012]
उत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 के अन्तर्गत पारिस्थितिकीय शीर्षक में दखें।

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1
पारिस्थितिक-तन्त्र के सम्बन्ध में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सत्य है –
(क) यह एक संवृत तन्त्र है
(ख) सम्पूर्ण जैवमण्डल एक पारिस्थितिक तन्त्र है।
(ग) मानव द्वारा निर्मित कार्यात्मक तन्त्र है।
(घ) प्रदूषण वृद्धि तन्त्र है।
उत्तर
(ख) सम्पूर्ण जैवमण्डल एक पारिस्थितिक तन्त्र है।

प्रश्न 2
निम्नलिखित में से सर्वोच्च या अन्तिम उपभोक्ता है –
(क) चीता
(ख) शेर
(ग) बाज
(घ) ये सभी
उत्तर
(घ) ये सभी

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 2 Wildlife and Ecosystem

प्रश्न 3
निम्नलिखित में अपघटक जीव है – (2007)
(क) कवक
(ख) जीवाणु
(ग) मृतोपजीवी
(घ) ये सभी
उत्तर
(घ) ये सभी

प्रश्न 4
निम्नलिखित में से कौन-सा युग्म सुमेलित नहीं है –
(क) हैकल-इंकोलॉजी
(ख) ई०पी० ओडम-इकोटोन
(ग) चार्ल्स एल्टन-वैज्ञानिक
(घ) क्लीमेण्ट-समुदाय विज्ञान
उत्तर
(ख) ई०पी० ओडेम-इकोटोन

प्रश्न 5
पारिस्थितिक तन्त्र की कार्यप्रणाली निर्भर करती है – [2014]
(क) उपभोक्ता पर
(ख) स्वपोषित पर
(ग) वियोजक पर
(घ) ऊर्जा प्रवाह पर
उत्तर
(क) उपभोक्ता पर।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 2 Wildlife and Ecosystem (वन्य जीवन एवं पारिस्थितिक तन्त्र) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 2 Wildlife and Ecosystem (वन्य जीवन एवं पारिस्थितिक तन्त्र), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

Leave a Comment