UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi साहित्यिक निबन्ध

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi साहित्यिक निबन्ध part of UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi साहित्यिक निबन्ध.

Board UP Board
Textbook SCERT, UP
Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 1
Chapter Name साहित्यिक निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi साहित्यिक निबन्ध

1. रामचरितमानस की प्रासंगिकता (2018)
प्रस्तावना आज हर तरफ मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं परम्पराओं का ह्रास होता जा रहा है। वर्तमान पीढ़ी आज गुणों की अपेक्षा दुर्गुणों को अपनाती जा रही है। आज जन्म देने वाले माता-पिता का सम्मान, अपनी संस्कृति के अनुसार दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा है। इसलिए पुन: रामचरितमानस में वर्णित आदर्शो, मान्यताओं और मर्यादाओं की रक्षा के लिए भावी पीढ़ी को रामचरित का ज्ञान होना आवश्यक है।

रामचरितमानस पुस्तक की उपयोगिता किसी भी देश की सभ्यता और संस्कृति के संरक्षण एवं उसके प्रचार-प्रसार में पुस्तके विशेष भूमिका निभाती हैं। पुस्तकें ज्ञान का संरक्षण भी करती हैं। यदि हम प्राचीन इतिहास के बारे में जानना चाहते हैं, तो इसका अच्छा स्रोत भी पुस्तकें ही हैं। उदाहरण के तौर पर, वैदिक साहित्य से हमें उस काल के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक पहलुओं की जानकारी मिलती है। पुस्तके इतिहास के अतिरिक्त विज्ञान के संरक्षण एवं प्रसार में भी सहायक होती हैं। विश्व की हर सभ्यता के विकास में पुस्तकों का प्रमुख योगदान रहा है अर्थात् हम कह सकते हैं कि सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान को भावी पीढ़ी को हस्तान्तरित करने में पुस्तकों की विशेष भूमिका रही है।

पुस्तकें शिक्षा का प्रमुख साधन तो हैं ही, इसके साथ ही इनसे अच्छा मनोरंजन भी होता है। पुस्तकों के माध्यम से लोगों में सद्वृत्तियों के साथ-साथ सृजनात्मकता का विकास भी किया जा सकता है। पुस्तकों की इन्हीं विशेषताओं के कारण इनसे मेरा विशेष लगाव रहा है। पुस्तकों ने हमेशा अच्छे मित्रों के रूप में मेरा साथ दिया है। मुझे अब तक कई पुस्तकों को पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इनमें से कई पुस्तकें मुझे प्रिय भी हैं, किन्तु सभी पुस्तकों में ‘रामचरितमानस’ मेरी सर्वाधिक प्रिय पुस्तक है। इसे हिन्दू परिवारों में धर्म-ग्रन्थ का दर्जा प्राप्त है। इसलिए ‘राम चरित मानस’ हिन्दू संस्कृति का केन्द्र है।

जॉर्ज ग्रियर्सन ने कहा है—“ईसाइयों में बाइबिल का जितना प्रचार है, उससे कहीं अधिक प्रचार और आदर हिन्दुओं में रामचरितमानस का है।”

रामचरितमानस का स्वरूप रामचरितमानस’ अवधी भाषा में रचा गया महाकाव्य है, इसकी रचना गोस्वामी तुलसीदास ने सोलहवीं सदी में की थी। इसमें भगवान राम के जीवन का वर्णन है। यह महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत के महाकाव्य ‘रामायण’ पर आधारित है। तुलसीदास ने इस महाकाव्य को सात काण्डों में विभाजित किया है। इन सात काण्डों के नाम हैं- ‘बालकाण्ड’, ‘अयोध्याकाण्ड’, ‘अरण्यकाण्ड’, ‘किष्किन्धाकाण्ड’, ‘सुन्दरकाण्ड’, ‘लंकाकाण्ड’ एवं ‘उत्तरकाण्ड’।

‘रामचरितमानस में वर्णित प्रभु श्रीराम के रामराज्य का जो भावपूर्ण चित्रण तुलसीदास जी ने किया है, उसे पढ़कर या सुनकर पाठक अथवा श्रोतागण भावविभोर हो जाते हैं। जैसे कि कहा गया है- दैहिक, दैविक, भौतिक तापा रामराज्य में काहु ने व्यापा।।

रामचरितमानस की प्रासंगिकता “रामचरितमानस में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम चन्द्र जी के उत्तम चरित्र का विषद वर्णन है। जिसका अध्ययन पाश्चात्य सभ्यता की अन्धी दौड़ में भटकती वर्तमान पीढ़ी को मर्यादित करने के लिए आवश्यक है, क्योंकि भगवान रामचन्द्र जी ने कदम-कदम पर मर्यादाओं का पालन करते हुए अपने सम्पूर्ण जीवन को एक आदर्श जीवन की श्रेणी में पहुंचा दिया है। ‘रामचरितमानस’ में वर्णित रामचन्द्र जी का सम्पूर्ण जीवन शिक्षाप्रद है।

‘रामचरितमानस’ में सामाजिक आदर्शों को बड़े ही अनूठे ढंग से व्यक्त किया गया है। इसमें गुरु-शिष्य, माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन इत्यादि के आदर्शों को इस तरह से प्रस्तुत किया गया है कि ये आज भी भारतीय समाज के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। वैसे तो इस ग्रन्थ को ईश्वर (भगवान राम) की भक्ति प्रदर्शित करने के लिए लिखा गया काव्य माना जाता है, किन्तु इसमें तत्कालीन समाज को विभिन्न बुराइयों से मुक्त करने एवं उसमें श्रेष्ठ गुण विकसित करने की पुकार सुनाई देती है। यह धर्म-ग्रन्थ उस समय लिखा गया था, जब भारत में मुगलों का शासन था और मुगलों के दबाव में हिन्दुओं को इस्लाम धर्म स्वीकार करना पड़ रहा था।

समाज में अनेक प्रकार की बुराइयाँ अपनी जड़े जमा चुकी थीं। समाज ही नहीं परिवार के आदर्श भी एक-एक कर खत्म होते जा रहे थे। ऐसे समय में इस ग्रन्थ ने जनमानस को जीवन के सभी आदशों की शिक्षा देकर समाज सुधार एवं अपने धर्म के प्रति आस्था बनाए रखने के लिए प्रेरित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन पंक्तियों को देखिए।

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।।

काव्य-शिल्प एवं भाषा के दृष्टिकोण से भी ‘रामचरितमानस’ अति समृद्ध है। यह आज तक हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य बना हुआ है। इसके छन्द और चौपाइयाँ आज भी जन-जन में लोकप्रिय हैं। अधिकतर हिन्दू घरों में इसका पावन पाठ किया जाता है। रामचरितमानस की तरह अब तक कोई दूसरा काव्य नहीं रचा जा सका है, जिसका भारतीय जनमानस पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा हो। आधुनिक कवियों ने अच्छी कविताओं की रचना की है, किन्तु आम आदमी तक उनके काव्यों की उतनी पहुँच नहीं है, जितनी तुलसीदास के काव्यों की हैं।

चाहे ‘हनुमान चालीसा’ हो या ‘रामचरितमानस’ तुलसीदास जी के काव्य भारतीय जनमानस में रच बस चुके हैं। इन ग्रन्थों की सबसे बड़ी विशेषता इनकी सरलता एवं गेयता है, इसलिए इन्हें पढ़ने में आनन्द आता है। तुलसीदास की इन्हीं अमूल्य देनों से प्रभावित होकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है-“यह (तुलसीदास) अकेला कवि ही हिन्दी को एक प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफी है।”

जीवन के सभी सम्बन्धों पर आधारित ‘रामचरितमानस’ के दोहे एवं चौपाइयाँ आम जन में अभी भी कहावतों की तरह लोकप्रिय हैं। लोग किसी भी विशेष घटना के सन्दर्भ में इन्हें उद्धृत करते हैं। लोगों द्वारा प्रायः रामचरितमानस से उद्धृत की जाने वाली इन पंक्तियों को देखिए

सकल पदारथ ऐहि जग माहिं, करमहीन नर पावत नाहिं।

‘रामचरितमानस’ को भारत में सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला ग्रन्थ माना जाता है। विदेशी विद्वानों ने भी इसकी खूब प्रशंसा की है। रामचरितमानस में वर्णित प्रभु रामचन्द्र जी के जीवन से प्रेरित होकर ही अनेक पाश्चात्य विद्वानों द्वारा इसका अनुवाद विश्व की कई भाषाओं में कराया गया है, किन्तु अन्य भाषाओं में अनूदित ‘रामचरितमानस’ में वह काव्य सौन्दर्य एवं लालित्य नहीं मिलता, जो मूल ‘रामचरितमानस’ में है। इसको पढ़ने का अपना एक अलग आनन्द है। इसे पढ़ते समय व्यक्ति को संगीत एवं भजन से प्राप्त होने वाली शान्ति का आभास होता है, इसलिए भारत के कई मन्दिरों में इसका नित्य पाठ किया जाता है।

उपसंहार हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में ‘रामचरितमानस’ की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रही है। इस कालजयी रचना के साथ-साथ इसके रचनाकार तुलसीदास की प्रासंगिकता भी सर्वदा बनी रहेगी। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में-“लोकनायक यही हो सकता है, जो समन्वय कर सके। गीता में समन्वय की चेष्टा है। बुद्धदेव समन्वयवादी थे और तुलसीदास समन्वयकारी थे। लोकशासकों के नाम तो भुला दिए जाते हैं, परन्तु लोकनायकों के नाम युग-युगान्तर तक स्मरण किए। जाते हैं।”

2. राष्ट्रभाषा की समस्या और हिन्दी (2016)
संकेत विन्दु
भूमिका, हिन्दी राजभाषा के रूप में, हिन्दी देश की सम्पर्क भाषा, हिंग्लिश का प्रचलन, देश की एकता व अखण्डता में सहायक, उपसंहार।

भूमिका “राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गुंगा है। अगर हम भारत को राष्ट्र बनाना चाहते हैं, तो हिन्दी ही हमारी राष्ट्रभाषा हो सकती है। यह बात राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कही है। किसी भी राष्ट्र की सर्वाधिक प्रचलित एवं स्वेच्छा से आत्मसात् की गई भाषा को राष्ट्रभाषा’ कहा जाता है। हिन्दी, बांग्ला, उर्दू, पंजाबी, तेलुगू, तमिल, कन्नड़, मलयालम, उड़िया इत्यादि भारत के संविधान द्वारा राष्ट्र की मान्य भाषाएं हैं।

इन सभी भाषाओं में हिन्दी का स्थान सर्वोपरि है, क्योंकि यह भारत की राजभाषा भी है। राजभाषा वह भाषा होती है, जिसका प्रयोग किसी देश में राज-काज को चलाने के लिए किया जाता है। हिन्दी को 14 सितम्बर, 1949 को राजभाषा का दर्जा दिया गया। इसके बावजूद सरकारी कामकाज में अब तक अपेणी का व्यापक प्रयोग किया जाता है। हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की राजभाषा तो है, किन्तु इसे यह सम्मान सिर्फ सैद्धान्तिक रूप में प्राप्त है, वास्तविक रूप में राजभाषा का सम्मान प्राप्त करने के लिए इसे अंग्रेजी से संघर्ष करना पड़ा रहा है।

हिन्दी राजभाषा के रूप में संविधान के अनुच्छेद-343 के खण्ड-1 में कहा गया है कि भारत संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संप के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने वाले अंकों का रूप, भारतीय अंकों का अन्तर्राष्ट्रीय रूप होगा। खण्ड-2 में यह उपबन्ध किया गया था कि संविधान के प्रारम्भ से पन्द्रह वर्ष की अवधि तक अर्थात् 26 जनवरी, 1965 तक संघ के सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग होता रहेगा जैसा कि पूर्व में होता था।

वर्ष 1965 तक राजकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी के प्रयोग का प्रावधान किए जाने का कारण यह था कि भारत वर्ष 1947 से पहले अंग्रेजों के अधीन था और तत्काल ब्रिटिश शासन में यहाँ इसी भाषा का प्रयोग राजकीय प्रयोजनों के लिए होता था।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद अचानक राजकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी का प्रयोग कर पाना व्यावहारिक रूप से सम्भव नहीं था, इसलिए वर्ष 1950 में संविधान के लागू होने के बाद से अंग्रेजी के प्रयोग के लिए पन्द्रह वर्षों का समय दिया गया और यह तय किया गया कि इन पन्द्रह वर्षों में हिन्दी का विकास कर इसे राजकीय प्रयोजनों के उपयुक्त कर दिया जाएगा, किन्तु ये पन्द्रह वर्ष पूरे होने के पहले ही हिन्दी को राजभाषा बनाए जाने का दक्षिण भारत के कुछ स्वार्थी राजनीतिज्ञों ने व्यापक विरोध करना प्रारम्भ कर दिया। जिस कारण वर्तमान समय तक अंग्रेजी हिन्दी के साथ राजभाषा के रूप में प्रयोग की जा रही है। देश की सर्वमान्य भाषा हिन्दी को क्षेत्रीय लाभ उठाने के ध्येय से विवादों में घसीट लेने को किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता।

हिन्दी देश की सम्पर्क भाषा देश की अन्य भाषाओं के बदले हिन्दी को । राजभाषा बनाए जाने का मुख्य कारण यह है कि यह भारत में सर्वाधिक बोली जाने चाली भाषा के साथ-साथ देश की एकमात्र सम्पर्क भाषा भी है।

ब्रिटिशकाल में पूरे देश में राजकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग होता था। पूरे देश के अलग अलग क्षेत्रों में अलग-अलग भाषाएँ बोली जाती है, किन्तु स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय राजनेताओं ने यह महसूस किया कि हिन्दी एकमात्र ऐसी भारतीय भाषा है, जो दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर पूरे देश की सम्पर्क भाषा है और देश के विभिन्न भाषा भाषी भी आपस में विचार विनिमय करने के लिए हिन्दी का सहारा लेते हैं।

हिन्दी की इसी सार्वभौमिकता के कारण राजनेताओं ने हिन्दी को राजभाषा का | दर्जा देने का निर्णय लिया था। हिन्दी, राष्ट्र के बहुसंख्यक लोगों द्वारा बोली और समझी जाती है, इसकी लिपि देवनागरी है, जो अत्यन्त सरल हैं। पण्डित राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में-“हमारी नागरी लिपि दुनिया की सबसे वैज्ञानिक लिपि है।” हिन्दी में आवश्यकतानुसार देशी-विदेशी भाषाओं के शब्दों को तरलता से आत्मसात् करने की शक्ति है। यह भारत की एक ऐसी राष्ट्रभाषा है, जिसमें पूरे देश में भावात्मक एकता स्थापित करने की पूर्ण क्षमता है।

हिंग्लिश का प्रचलन आजकल पूरे भारत में सामान्य बोलचाल की भाषा के रूप में हिन्दी एवं अंग्रेजी के मिश्रित रूप हिंग्लिश का प्रयोग बढ़ा है। इसके कई कारण हैं। पिछले कुछ वर्षों में भारत में व्यावसायिक शिक्षा में प्रगति हुई है। अधिकतर व्यावसायिक पाठ्यक्रम अंग्रेजी भाषा में ही उपलब्ध हैं और विद्यार्थियों के अध्ययन का माध्यम अंग्रेजी भाषा ही है। इस कारण से विद्यार्थी हिन्दी में पूर्णतः निपुण नहीं हो पाते। वहीं अंग्रेजी में शिक्षा प्राप्त युवा हिन्दी में बात करते समय अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करने को बाध्य होते हैं, क्योंकि भारत में हिन्दी आम जन की भाषा हैं। इसके अतिरिक्त आजकल समाचार-पत्रों एवं टेलीविजन के कार्यक्रमों में भी ऐसी ही मिश्रित भाषा प्रयोग में लाई जा रही हैं, इन सबका प्रभाव आम आदमी पर पड़ता है।

भले ही हिंग्लिश के बहाने हिन्दी बोलने वालों की संख्या बढ़ रही है, किन्तु हिंग्लिश का बढ़ता प्रचलन हिन्दी भाषा की गरिमा के दृष्टिकोण से गम्भीर चिन्ता का विषय है। कुछ वैज्ञानिक शब्दों; जैसे—मोबाइल, कम्प्यूटर, साइकिल, टेलीविजन एवं अन्य शब्दों; जैसे-स्कूल, कॉलेज, स्टेशन इत्यादि तक तो ठीक है, किन्तु अंग्रेजी के अत्यधिक एवं अनावश्यक शब्दों का हिन्दी में प्रयोग सही नहीं है।

हिन्दी, व्याकरण के दृष्टिकोण से एक समृद्ध भाषा है। यदि इसके पास शब्दों का अभाव होता, तब तो इसकी स्वीकृति दी जा सकती थी। शब्दों का भण्डार होते हुए भी यदि इस तरह की मिश्रित भाषा का प्रयोग किया जाता है, तो यह निश्चय ही भाषायी गरिमा के दृष्टिकोण से एक बुरी बात है। भाषा संस्कृति की संरक्षक एवं वाहक होती हैं। भाषा की गरिमा नष्ट होने से उस स्थान की सभ्यता और संस्कृति पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

देश की एकता व अखण्डता में सहायक हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के सन्दर्भ में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था-“भारत की सारी प्रान्तीय बोलियाँ, जिनमें सुन्दर साहित्यों की रचना हुई है, अपने घर या प्रान्त में रानी बनकर रहे, प्रान्त के जन-गण के हार्दिक चिन्तन की प्रकाश-भूमि स्वरूप कविता की भाषा होकर हे और आधुनिक भाषाओं के हार की मध्य-मणि हिन्दी भारत भारती होकर विराजती रहे।” प्रत्येक देश की पहचान का एक मजबूत आधार उसकी अपनी भाषा होती है, जो अधिक-से-अधिक व्यक्तियों के द्वारा बोली जाने वाली भाषा के रूप में व्यापक विचार विनिमय का माध्यम बनकर ही राष्ट्रभाषा (यहाँ राष्ट्रभाषा का तात्पर्य है-पूरे देश की भाषा) का पद ग्रहण करती है। राष्ट्रभाषा के द्वारा आपस में सम्पर्क बनाए रखकर देश की एकता एवं अखण्डता को भी अक्षुण्ण रखा जा सकता है।

उपसंहार हिन्दी देश की सम्पर्क भाषा तो है ही, इसे राजभाषा का वास्तविक सम्मान भी दिया जाना चाहिए, जिससे कि यह पूरे देश को एकता के सूत्र में बाँधने वाली भाषा बन सके। देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की कही यह बात आज भी प्रासंगिक है-“जिस देश को अपनी भाषा और साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। अतः आज देश के सभी नागरिकों को यह संकल्प लेने की आवश्यकता है कि वे हिन्दी को सस्नेह अपनाकर और सभी कार्य क्षेत्रों में इसका । अधिक-से-अधिक प्रयोग कर इसे व्यावहारिक रूप से राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा बनने का गौरव प्रदान करेंगे।”

3. साहित्य के संवर्द्धन में सिनेमा का योगदान (2016)
संकेत बिन्दु भूमिका, साहित्य सिनेमा के लोकदूत रूप में, समाज पर साहित्य व सिनेमा का प्रभाव, हिन्दी साहित्य से प्रभावित भारतीय सिनेमा, साहित्य व भाषा का बढ़ता वर्चस्व, उपसंहार।

भूमिका साहित्य समाज की चेतना से उपजी प्रवृत्ति है। समाज व्यक्तियों से बना है। तथा साहित्य समाज की सृजनशीलता का नमूना है। साहित्य का शाब्दिक अर्थ है जिसमें हित की भावना सन्निहित हो। कवि या लेखक अपने समय के वातावरण में व्याप्त विचारों को पकड़कर मुखरित कर देता है। कवि और लेखक अपने समाज का मस्तिष्क और मुख भी हैं। कवि की पुकार समाज की पुकार है। समाज की समस्त शोभा, उसकी समृद्धि, मान-मर्यादा सब साहित्य पर अवलम्बित हैं। आचार्य शुक्ल के शब्दों में प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब है।”

साहित्य समाज का दर्पण है तथा सिनेमा को समाज का दर्पण कहा जाता है। चाहे साहित्य हो या सिनेमा इनका स्वरूप समाज के यथार्थ की पृष्ठभूमि से सम्बद्ध होता है। साहित्य जो कभी पाठ्य सामग्री के रूप में प्रस्तुत किया जाता था, परन्तु आज सिनेमा के माध्यम से उसका संवर्द्धन दिनों-दिन चरमोत्कर्ष पर है।

सिनेमा लोकदूत रूप में भाषा-प्रसार उसके प्रयोक्ता समूह की संस्कृति और जातीय प्रश्नों को साथ लेकर चला करता है। भारतीय सिनेमा निश्चय ही हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में अपनी विश्वव्यापी भूमिका का निर्वाह कर रहा है। उसकी यह प्रक्रिया अत्यन्त सहज, बोधगम्य, रोचक, सम्प्रेषणीय और पास है। हिन्दी यहाँ भाषा, साहित्य और जाति तीनों अर्थों में ली जा सकती है। जब हम भारतीय सिनेमा पर दृष्टि डालते हैं, तो भाषा का प्रचार-प्रसार, साहित्यिक कृतियों का फिल्म रूपान्तरण, हिन्दी गीतों की लोकप्रियता, हिन्दी की उपभाषाओं, बोलियों का सिनेमा और सांस्कृतिक एवं जातीय प्रश्नों को उभारने में भारतीय सिनेमा का योगदान जैसे मुद्दे महत्वपूर्ण ढंग से सामने आते हैं। हिन्दी भाषा की संचारात्मकता, शैली, वैज्ञानिक अध्ययन, जन सम्प्रेषणीयता, पटकथात्मकता के निर्माण, संवाद लेखन, दृश्यात्मकता, कोड निर्माण, संक्षिप्त कथन, बिम्ब धर्मिता, प्रतीकात्मकता एवं भाषा-दृश्य की अनुपातिकता आदि मानकों को भारतीय सिनेमा ने गढ़ा है। भारतीय सिनेमा हिन्दी भाषा, साहित्य और संस्कृति का लोकदूत बनकर इन तक पहुँचने की दिशा में अग्रसर है।

समाज पर साहित्य व सिनेमा का प्रभाव यद्यपि हमेशा यह कहना कठिन होता है कि समाज और साहित्य सिनेमा में प्रतिबिम्बित होता है या सिनेमा से समाज प्रभावित होता है। दोनों ही बातें अपनी-अपनी सीमाओं में सही हैं। कहानियाँ कितनी भी काल्पनिक क्यों न हों कहींन-कहीं वे इसी समाज से जुड़ी होती हैं। यही सिनेमा में भी अभिव्यक्त होती है, लेकिन अनेक बार ऐसा भी हुआ है कि सिनेमा का प्रभाव हमारे युवाओं और बच्चों दोनों पर सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव डालता है। अतः प्रत्येक माध्यम से समाज पर विशेष प्रभाव पड़ते हैं।

भारतीय सिनेमा के आरम्भिक दशकों में जो फिल्में बनती थीं, उनमें भारतीय संस्कृति की झलक (बस) होती थी तथा विभिन्न आयामों से भारतीयता को उभारा जाता था। बहुत समय बाद पिछले दो वर्षों में ऐसी ही दो फिल्में देखी हैं, जिनमें हमारी संस्कृति की झलक थी। देश के आतंकवाद पर भी कुछ अच्छा सकारात्मक हल खोजती फिल्में आई हैं।

हिन्दी साहित्य से प्रभावित भारतीय सिनेमा भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ थी। प्रारम्भिक दौर में भारत में पौराणिक एवं रोमाण्टिक फिल्मों का बोल-चाला रहा, किन्तु समय के साथ ऐसे सिनेमा भी बनाए गए जो हिन्दी साहित्य पर आधारित थे एवं जिन्होंने समाज पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। उन्नीसवीं सदी के साठ-सत्तर एवं उसके बाद के कुछ दशकों में अनेक ऐसे भारतीय फिल्मकार हुए जिन्होंने सार्थक एवं समाजोपयोगी फिल्मों का निर्माण किया। सत्यजीत राय (पाथेर पांचाली, चारुलता, शतरंज के खिलाड़ी), ऋत्विक घटक (मेघा ढाके तारा), मृणाल सेन (ओकी उरी कथा),अडूर गोपाल कृष्णन् (स्वयंवरम्) श्याम बेनेगल (अंकुर, निशान्त, सूरज का सातवाँ घोड़ा), बासु भट्टाचार्य (तीसरी कसम), गुरुदत्त (प्यासा, कागज के फूल, साहब, बीवी और गुलाम), विमल राय (दो बीघा जमीन, बिन्दिनी, मधुमती) भारत के कुछ ऐसे ही फिल्मकार हैं। फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की कहानी—मारे गए गुलफाम पर आधारित तीसरी कसम, धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों के देवता पर आधारित श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित ‘द सेम नाम’, प्रेमचन्द के उपन्यास सेवासदन व गोदान तथा भीष्म साहनी के उपन्यास तमस पर आधारित सिनेमा निर्मित किए जा चुके हैं। इसके अतिरिक्त कृष्णा सोबती की ज़िन्दगीनामा पर आधारित सिनेमा ‘ट्रेन ? पाकिस्तान’ तथा यशपाल के ‘झूठा सच पर आधारित ‘खामोश पानी’ जैसी प्रचलित सिनेमा का निर्माण किया जा चुका है। इस प्रकार यह कहा जा सकता हैं कि सिनेमा का जन्म समाज व साहित्य से हुआ है।

साहित्य व भाषा का बढ़ता वर्चस्व आज हॉलीवुड के फिल्म निर्माता भी भारत में अपनी विपणन नीति बदल चुके हैं। वे जानते हैं कि यदि उनकी फिल्में हिन्दी में रूपान्तरित की जाएँगी तो यहाँ से वे अपनी मूल अंग्रेजी में निर्मित चित्रों के प्रदर्शन से कहीं अधिक मुनाफा कमा सकेंगे। हॉलीवुड की आज की वैश्विक बाजार की परिभाषा में हिन्दी जानने वालों का महत्त्व सहसा बढ़ गया है। भारत को आकर्षित करने का उनको अर्थ अब उनकी दृष्टि में हिन्दी भाषियों को भी उतना ही महत्त्व देना है, परन्तु आज बाजार की भाषा ने हिन्दी को अंग्रेजी की अनुचरी नहीं सहचरी बना दिया है। आज टी. बी, देखने वालों की कुल अनुमानित संख्या जो लगभग १ 10 करोड़ मानी गई है, उसमें हिन्दी का ही वर्चस्व है। आज हम स्पष्ट देख रहे हैं कि आर्थिक सुधारों व उदारीकरण के दौर में निजी पहल का जो चमत्कार हमारे सामने आया है इससे हम माने या न मानें हिन्दी भारतीय सिनेमा के माध्यम से दुनिया भर के दूरदराज के एक बड़े भू-भाग में समझी जाने वाली भाषा स्वतः बन गई हैं।

उपसंहार आधुनिक भारतीय फिल्मकारों ने कुछ सार्थक सिनेमा का भी निर्माण किया है। ‘नो वन किल्ड जेसिका’, नॉक आउट’ एवं ‘पीपली लाइव’ जैसी 2010 में निर्मित फिल्में इस बात का उदाहरण हैं। नो वन किल्ड जेसिका’ में मीडिया के प्रभाव, कानून के अन्धेपन एवं जनता की शक्ति को चित्रित किया गया, तो ‘नॉक आउट’ में विदेशों में जमा भारतीय धन का कच्चा चिट्ठा खोला गया और ‘पीपली लाइव’ ने पिछले कुछ वर्षों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बढ़ी पीत पत्रकारिता को जीवन्त कर दिखाया। ऐसी फिल्मों का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है एवं लोग सिनेमा से शिक्षा ग्रहण कर समाज सुधार के लिए कटिबद्ध होते हैं।

4. साहित्य समाज का दर्पण (2015, 14, 12, 11, 10)
अन्य शीर्षक साहित्य और समाज (2018, 17, 14, 13, 12, 11,10), साहित्य और जीवन (2018, 17, 13, 10), साहित्य और समाज का सम्बन्ध (2012)
संकेत विन्द साहित्य का तात्पर्य, साहित्य समाज का दर्पण, साहित्य विकास का उद्गाता, उपसंहार

साहित्य का तात्पर्य साहित्य समाज की चेतना से उपजी प्रवृत्ति है। समाज व्यक्तियों से बना है तथा साहित्य समाज की सृजनशीलता का प्रतिरूप है। साहित्य का शाब्दिक अर्थ है जिसमें हित की भावना सन्निहित हो। साहित्य और समाज के सम्बन्ध कितने पनिष्ठ है, इसका परिचय साहित्य शब्द की व्युत्पत्ति, अर्थ एवं उसकी विभिन्न परिभाषाओं से प्राप्त हो जाता है। ‘हितं सन्निहितं साहित्यम्’। हित का भाव जिसमें विद्यमान हो, वह साहित्य कहलाता है।

अंग्रेज़ी विद्वान् मैथ्यू आर्नल्ड ने भी साहित्य को जीवन की आलोचना माना है-“Poetry in the bottom criticism of life,” वर्सफोल्ड नामक पाश्चात्य विद्वान् ने साहित्य का रूप स्थिर करते हुए लिखा है-“Literature is the brain of humanity.” अर्थात् साहित्य मानवता का मस्तिष्क है।

जिस प्रकार बेतार के तार का ग्राहम यन्त्र आकाश मण्डल में विचरती हुई विद्युत तरंगों को पकड़कर उनको भाषित शब्द का आधार देता है, ठीक उसी प्रकार कवि या | लेखक अपने समय में प्रचलित विचारों को पकड़कर मुखरित कर देता है। कवि और लेखक अपने समाज के मस्तिष्क हैं और मुख भी। कवि की पुकार समाज की पुकार | है। वह समाज के भावों को व्यक्त कर सजीव और शक्तिशाली बना देता है। उसकी भाषा में समाज के भावों की झलक मिलती है।

साहित्य समाज का दर्पण साहित्य और समाज के बीच अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब है। जनजीवन के धरातल पर ही साहित्य का निर्माण होता है। समाज की समस्त शोभा, उसकी समृद्धि, मान-मर्यादा सय साहित्य पर अवलम्बित हैं।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब है। समाज की क्षमता और सजीवता यदि कहीं प्रत्यक्ष देखने को मिल सकती है, तो निश्चित रूप से साहित्य रूपी दर्पण में ही। कतिपय विद्वान् साहित्य की उत्पत्ति का मूल कारण कामवृत्ति को मानते हैं। ऐसे लोगों में फ्रायड विशेष रूप से उल्लेखनीय है। कालिदास, सूर एवं तुलसी पर हमें गर्व है, क्योंकि उनका साहित्य हमें एक संस्कृति और एक जातीयता के सूत्र में बाँधता है, इसलिए साहित्य केवल हमारे समाज का दर्पण मात्र न रहकर उसका नियामक और उन्नायक भी होता है। वह सामाजिक अन्धविश्वासों और बुराइयों पर तीखा प्रहार करता है। समाज में व्याप्त रूढ़ियों | और आडम्बरों को दूर करने में साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। साहित्य समाज का दर्पण होने के साथ मार्गदर्शक भी होता है, जो समाज को दिशा प्रदान करता है।

साहित्य विकास का उद्गाता साहित्य द्वारा सम्पन्न सामाजिक और राजनीतिक क्रान्तियों के उल्लेखों से तो विश्व इतिहास भरा पड़ा है। सम्पूर्ण यरोप को गम्भीर रूप से आलोकित कर डालने वाली ‘फ्रांस की राज्य क्रान्ति’ (1789 ई.), काफी हद तक रूसो की सामाजिक अनुबन्ध’ नामक पुस्तक के प्रकाशन का ही परिणाम थी। इन्हीं विचारों का पोषण करते हुए कवि त्रिलोचन के उद्गार उल्लेखनीय हैं-

“बीज क्रान्ति के बोता हूँ मैं,
अक्षर दाने हैं।
घर-बाहर जन समाज को
नए सिरे से रच देने की रुचि देता हूँ।”

आधुनिक काल में चार्ल्स डिकेंस के उपन्यासों ने इंग्लैण्ड से कई सामाजिक एवं नैतिक रूढ़ियों का उन्मूलन कर नूतन स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था का सूत्रपात कराया। यदि अपने देश के साहित्य पर दृष्टिपात करें, तो एक ओर बिहारी के ‘नहि पराग नहिं मधुर मधु’ जैसे दोहे ने राजा जयसिंह को नारी-मोह से मुक्त कराकर कर्तव्य पालन के लिए प्रेरित किया, तो दूसरी ओर कबीर, तुलसी, निराला, प्रेमचन्द जैसे साहित्यकारों ने पूरी सामाजिक व्यवस्था को एक नई सार्थक एवं रचनात्मक दिशा दी। रचनाकारों की ऐसी अनेक उपलब्धियों की कोई सीमा नहीं।

उपसंहार वास्तव में, समाज और साहित्य का परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। इन्हें एक-दूसरे से अलग करना सम्भव नहीं है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि साहित्यकार सामाजिक कल्याण हेतु सद्साहित्य का सृजन करें। साहित्यकार को उसके उत्तरदायित्व का बोध कराते हुए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहा है कि

“केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए,
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।

सुन्दर समाज निर्माण के लिए साहित्य को माध्यम बनाया जा सकता है। यदि समाज स्वस्थ होगा, तभी राष्ट्र शक्तिशाली बन सकता है।

5. मेरा प्रिय कवि (साहित्यकार) (2018, 15, 13, 12, 11, 10)
अन्य शीर्षक मेरे प्रिय कवि गोस्वामी तुलसीदास,’ महाकवि गोस्वामी तुलसीदास (2017, 14, 13, 12)
संकेत बिन्द्र प्रस्तावना, आरम्भिक जीवन परिचय, काव्यगत विशेषताएँ, उपसंहार

प्रस्तावना संसार में अनेक प्रसिद्ध साहित्यकार हुए हैं, जिनकी अपनी अपनी विशेषताएँ हैं। मेरा प्रिय साहित्यकार महाकवि तुलसीदास हैं। यद्यपि तुलसीदास जी के काव्य में भक्ति-भावना की प्रधानता है, परन्तु इनका काव्य कई सौ वर्षों के बाद भी भारतीय जनमानस में रचा-बसा हुआ है और उनका मार्गदर्शन कर रहा है, इसलिए तुलसीदास मेरे प्रिय साहित्यकार हैं।

आरम्भिक जीवन परिचय प्राय: प्राचीन कवियों और लेखकों के जन्म के बारे में सही-सही जानकारी नहीं मिलती। तुलसीदास के विषय में भी ऐसा ही है, किन्तु माना जाता है कि तुलसीदास का जन्म सम्वत् 1589 में उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। इनके ब्राह्मण माता-पिता ने इन्हें अशुभ मानकर जन्म लेने के बाद ही इनका त्याग कर दिया था। इस कारण इनका बचपन बहुत ही कठिनाइयों में बीता। गुरु नरहरिदास ने इनको शिक्षा दी। तुलसीदास जी का विवाह रत्नावली नाम की कन्या से हुआ था। विवाह उपरान्त उसकी एक कटु उक्ति सुनकर इन्होंने रामभक्ति को ही अपने जीवन का ध्येय बना लिया। इन्होंने अपने जीवनकाल में लगभग सैतीस ग्रन्थों की रचना की, परन्तु इनके बारह ग्रन्थ ही प्रामाणिक माने जाते हैं। इस महान् भक्त कवि का देहावसान सम्वत् 1680 में हुआ।

काव्यगत विशेषताएँ तुलसीदास का जन्म ऐसे समय में हुआ था, जब हिन्दू समाज मुसलमान शासकों के अत्याचारों से आतंकित था। लोगों का नैतिक चरित्र गिर रहा था और लोग संस्कारहीन हो रहे थे। ऐसे में समाज के सामने एक आदर्श स्थापित करने की आवश्यकता थी ताकि लोग उचित-अनुचित का भेद समझकर सही आचरण कर सके। यह भार तुलसीदास ने सँभाला और ‘रामचरितमानस’ नामक महान् काव्य की रचना की। इसके माध्यम से इन्होंने अपने प्रभु श्रीराम का चरित्र-चित्रण किया। हालाँकि रामचरितमानस एक भक्ति भावना प्रधान काव्य है, परन्तु इसके माध्यम से जनता को अपने सामाजिक कर्तव्यों का बोध हुआ। इसमें वर्णित विभिन्न घटनाओं और चरित्रों ने सामान्य जनमानस पर गहरा प्रभाव डाला। रामचरितमानस के अतिरिक्त इन्होंने कवितावली, गीतावली, दोहावली, विनयपत्रिका, जानकीमंगल, रामलला नहङ्, बरवें, रामायण, वैराग्य सन्दीपनी, पार्वती मंगल आदि ग्रन्थों। की रचना भी की है, परन्तु इनकी प्रसिद्धि का मुख्य आधार रामचरितमानस ही है।

तुलसीदास जी वास्तव में एक सच्चे लोकनायक थे, क्योंकि इन्होंने कभी किसी सम्प्रदाय या मत का खण्डन नहीं किया वरन् सभी को सम्मान दिया। इन्होंने निर्गुण एवं सगुण, दोनों धाराओं की स्तुति की। अपने काव्य के माध्यम से इन्होंने कर्म, ज्ञान एवं भक्ति की प्रेरणा दी। रामचरितमानस के आधार पर इन्होंने एक आदर्श भारतवर्ष की कल्पना की थी, जिसका सकारात्मक प्रभाव हुआ।. इन्होंने लोकमंगल को सर्वाधिक महत्त्व दिया। साहित्य की दृष्टि से भी तुलसी का काव्य अद्वितीय है। इनके काव्य में सभी रसों को स्थान मिला है। इन्हें संस्कृत के साथ-साथ राजस्थानी, भोजपुरी, बुन्देलखण्डी, प्राकृत, अवधी, ब्रज, अरबी आदि भाषाओं का ज्ञान भी था, जिसका प्रभाव इनके काव्य में दिखाई देता है।

इन्होंने विभिन्न छन्दों में रचना करके अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन किया है। तुलसी ने प्रबन्ध तथा मुक्त दोनों प्रकार के काव्यों में रचनाएँ कीं। इनकी प्रशंसा में कवि जयशंकर प्रसाद ने लिखा-

प्रभु का निर्भय सेवक था, स्वामी था अपना,
जाग चुका था, जग था, जिसके आगे सपना।
प्रबल प्रचारक था, जो उस प्रभु की प्रभुता का,
अनुभव था सम्पूर्ण जिसे उसकी विभुता का।।
राम छोड़कर और की, जिसने कभी न आस की,
रामचरितमानस-कमल, जय हो तुलसीदास की।”

उपसंहार तुलसीदास जी अपनी इन्हीं सब विशेषताओं के कारण हिन्दी साहित्य | के अमर कवि हैं। नि:सन्देह इनका काव्य महान् है। तुलसी ने अपने युग और भविष्य, स्वदेश और विश्व, व्यक्ति और समाज सभी के लिए महत्वपूर्ण सामी दी है। अत: ये मेरे प्रिय कवि हैं। अन्त में इनके बारे में यही कहा जा सकता है-

“कविता करके तुलसी न लसे,
कविता लसी पा तुलसी की कला।”

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi साहित्यिक निबन्ध help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi साहित्यिक निबन्ध, drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

Leave a Comment