UP Board Class 12 Economics Model Papers Paper 1

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject  Economics
Model Paper Paper 1
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 Economics Model Papers Paper 1

समय: 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक : 100
निर्देश प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।

नोट

  • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
  • प्रश्न संख्या 1 से 12 तक बहुविकल्पीय प्रश्न हैं, जिनका केवल सही उत्तर अपनी उत्तर पुस्तिका में लिखना है, प्रश्न संख्या 13 से 16 तक अतिलघु उत्तरीय प्रश्न हैं, जिनका उत्तर प्रत्येक लगभग 25 शब्दों में लिखना है, प्रश्न संख्या 17 से 22 तक लघु उत्तरीय प्रश्न हैं, जिनका उत्तर प्रत्येक लगभग 50 शब्दों में लिखना है तथा प्रश्न संख्या 23 से 28 तक दीर्घ उत्तरीय प्रश्न हैं, जिनका उत्तर प्रत्येक लगभग 150 शब्दों में लिखना है।
  • प्रत्येक प्रश्न के लिए निर्धारित अंक उसके सम्मुख अंकित हैं।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
व्य के माध्यम से किया जाने वाला विनिमय कहलाता है [1]
(a) वस्तु-विनिमय
(b) प्रत्यक्ष – विनिमय
(c) क्रय-विक्रय
(d) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 2.
किसी वस्तु का मूल्य निर्धारित होता है, उसकी [1]
(a) मॉग दुरा
(b) पूर्ति दुरा
(c) मॉग और पूर्ति द्वारा
(d) इनमें से कई नीं

प्रश्न 3.
जय सोपान लागत घटती है, तो औसत लागत [1]
(a) स्थिर रहती है
(b) तेजी से गिरती है।
(c) तेजी से बदती है
(d) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 4.
‘मजदूरी श्रम की कीमत है।’ यह कथन किसका है? [1]
(a) मार्शल का
(b) रिकार्डों का
(c) मात्थन का
(d) जेनन्स का

प्रश्न 5.
लोक वित्त को विषय-वस्तु सम्बन्धित है- [1]
(a) सरकार के व्यय से
(b) सरकार की आय से
(c) सरकार के ॠपा से
(d) सरकार से माय, व्यय, ऋण एवं राजकीय नीति से

प्रश्न 6.
भारत की राष्ट्रीय आय में सबसे अधिक योगदान है- [1]
(a) उद्योगों का
(b) कृषि का
(c) बैकों का
(d) निर्यात का

प्रश्न 7.
भारत में प्रति 1000 पुरुष पर स्त्रियों की संख्या कितनी है? [1]
(a) 972
(b) 930
(c) 933
(d) 940

प्रश्न 8.
प्रधानमन्त्री प्रामोदय योजना में सम्मिलित किया गया है । [1]
(a) ग्रम सक योजना
(b) ग्रामीण आवास योजना
(c) ग्रमीण पेयजल परियोजना
(d) ये सभी

प्रश्न 9.
भारत में साक्षरता का प्रतिशत अधिक है [1]
(a) रित्रयों में
(b) पुरुषों में
(c) दोनों में बराबर
(d) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 10.
शरत का विदेशी व्यापार किस देश के साथ सबसे अधिक होता है? [1]
(a) अमेरिका
(b) ग्रेट ब्रिटेन
(c) जर्मनी
(d) जापान

प्रश्न 11.
भारत को प्राप्त विदेशी सहायता में सम्मिलित है [1]
(a) ऋण
(b) अनुदान
(C) अण एवं अनुदान
(d) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 12.
भारत के नियोजनकाल में व्यापार सन्तुसन की दृष्टि से कौन सा केशन सा है? [1]
(a) सभी वर्षों में अनुकूल रहा
(b) सभी वर्षों में प्रतिकूल रहा
(c) केवल दो वर्षों में अनुकून रहा
(d) केवल दो वर्षों में प्रतिकूल रहा।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 13.
अप्रत्यक्ष कर की परिभाषा लिखिए [4]

प्रश्न 14.
सकल घरेलू उत्पाद (GDP) किसे कहते हैं? [4]

प्रश्न 15.
‘तीव्र जनसंख्या वृद्धि में किन्हीं दो दुष्परिणामों का उल्लेख कीजिए। [4]

प्रश्न 16.
राष्ट्रीय वन नीति (1988) के उद्देश्य लिखिए। [4]

लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 17.
ममय के आधार पर बाजार के वर्गीकरण को लिखिए। [5]

प्रश्न 18.
सीमा शुल्क पर व्याख्यात्मक टिप्पणी लिखिए। [5]

प्रश्न 19.
राष्ट्रीय आय की गणना में वैचारिक कठिनाइयों को समझाइए। [5]

प्रश्न 20.
भारत की नई जनसंख्या नीति सम्झाइए। [5]

प्रश्न 21.
भारतीय रिज़र्व बैंक के कार्य लिखिए। [5]

प्रश्न 22.
इन्टरनेट पर टिप्पणी लिखिए। [5]

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 23.
पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में उद्योग एवं फर्म के साम्वन्ध का सचित्र वर्णन कीजिए [7]
अयवा
अंश अपूर्ण प्रतियोगिता की दशा में अकाल में लाभ, न एत्र सामान्य लाश की दशा का सचित्र वर्णन कीजिए।

प्रश्न 24.
रिकाडों द्वारा दिए गए लगान सिद्धान्त का वर्णन कीजिए। [7]
अयवा
वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की विवेचना कीजिए। [7]

प्रश्न 25.
कीन्स के व्याज के तरलता पसन्दगी सिद्धान्त की व्याख्या कॉजिए। [7]
अयवा
लाभ के अनिश्चितता गहन सिद्धान्त का वर्णन कीजिए। [7]

प्रश्न 26.
ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम को विस्तार से समझाए। [7]
अयवा
सामाजिक वानिकी से क्या तात्पर्य है? सामाजिक वानिकी के उद्ढेरया बताइए [3+4]

प्रश्न 27.
व्यापार सन्तुलन से क्या आशय है? भारत के प्रतिकूल व्यापार सन्तुलन के कारण सिखिए। [3+4]
अयवा
भुगतान सन्तुलन को परिभाषित कीजिए। भुग सन्तुलन की मदे बताइए [3+4]

प्रश्न 28.
निम्न तालिका में समान्तर मध्य ज्ञात कीजिए। [7]
UP Board Class 12 Economics Model Papers Paper 1 image 1
अयवा
UP Board Class 12 Economics Model Papers Paper 1 image 2

Answers

उतर 1.
(c)

उतर 2.
(c)

उतर 3.
(b)

उतर 4.
(a)

उतर 5.
(d)

उतर 6.
(b)

उतर 7.
(d)

उतर 8.
(c)

उतर 9.
(b)

उतर 10.
(a)

उतर 11.
(c)

उतर 12.
(b)

उतर 16.
राष्ट्रीय वन नीति 1988 का उद्ढेरया वनों की सुरक्षा, सरक्षथा तया विकास के सय -सय पर्यावरण एवं परिस्थतिकी सन्तूल की स्यापना करना है। प्राकृतिक सम्पदाओं कासंरक्षण एवं मूदा अपरदन रोकना भी इसके उद्ढेरया में शामिल है।

उतर 18.
आयात-पात कर को सीमा शुल्क काया जाता है, इसमें देश से बाहर भने आने वाले माल पर चल कर तथा देश में बाहर से मंगवाए नि । वाले माल पर आयात कर लाया जाता है। जय यह शुल्क वस्तु |माल के मूल्यानुसर लगाया जाता है।
जब यद्द शुल्क वस्तु या माल के मल्यानुसा र्लगाया जाता हैं। तब इसे मूल्यानुसार शुल्क और जब इस परिमाण या संस्था के आधर पर लगाया जाता है, तब इसे परिमाणनुमार कहा जाता है। ये दोनों प्रकार के शुल्क भारत में लगाए जाते हैं। भारत में चाथ पदसन, टन, आदि पर लगाया गया का निर्यात कर है। विलासिता की वस्तु पर अधिक दर से आयात कर लगाया जाता हैं।

उतर 27.
एक वर्ष के भीतर एक के देश के विमों का के अन्य देशों के निवासियों के माम भी प्रकार के अधिक लेन-देन ( प, अदृश्य हा पॅनोगत) के विवराण को भगान मन्तुलन कहते हैं। हमें दी मात ने देश जाता है-चल । एवं पूरी पाता। खाता

चालू खाते की मदं चालू खाता दृश्य मदों के आयात तथा नियत को प्रदर्शित करता है; जैसे—गेहूं, चावल, मशीन, इत्यादि। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में प्रयोग होने वाली मुख्य अदृश्य मदे, परिवहनथीमा तथा बैंकिग, आदि सेवाएँ हैं। इसमें निम्न को शामिल किया जाता है

1. निवेश आय  विदेशी कम्पनियों भारत के उद्योग तथा व्यापार में निवेश करती है, तो भारत को उनके शेयरधारकों के भांश के रूप में भुगतान करना पड़ता है। समान रूप से विदेशी लेनदारों को पहले लिए गए ऋण पा याज का न करना पड़ता है। समान रूप से भारत को भी शेष विश्व में किए गए नि। ता दिए गए ऋणों के लिए लाश तथा व्याज की प्राप्ति होती है। ,

2.विदेशी यात्रा पर्यटन अशा विभिन देश का भ्रमणा भुगतान शेष का। एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन चुका हैं। उज्य विदेश गर्यटक भारत में आते हैं, तो वे अपने गा विदेश हा नाते हैं क्या हमारे अन् बाजार में खर्च करने के लिए उसे हमारी मुद्रा में परिवर्तित कराते हैं, इससे देश को विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती हैं। सामान्य रूप में जब भारय पर्यटक विदेश में आते हैं, तो आन्हें करने के लिए। भारतीय मुद्रा को विदेशी मुद्रा में परिवर्तित कराना पड़ता है।
इसमें विदेशी र्णिमय का भुगतान भी शामिल है। शिक्षा, अवसय, इण, आदि के लिए विदेश में गए लोग विदेशी मुद्रा में भुगतान करते हैं, जबकि भारत में आए विदेशी, विदेशी विनिमय की प्राप्ति का स्रोत होते हैं।

3. मिति मदें इनमें चालू खाते के बचे हुए सभी लेन देन को शामिल किया जाता है; जैसे अब फौस, जल का | भता, टेलीफोन व टेलपाफ सेवाएं, आदि।

पूँजी खाते पर भुगतान संतुलन पूँजी खाते पर भुगतान संतुलन के अन्तर्गत ऐसे विसीय लेन-देन का क्विाण होता है, जिसमें सभी प्रकार के अन्तर्राष्ट्रीय पुंजीगत तर, स्वर्ग का आदान-प्रदान, निजी भगत राष्ट्रीय समस्याओं से भिन्न भगवान व प्रति शमन होती हैं। कि पूंजी खाते के सभी लेन देने का काम्यय वित्तीय अनरणों से होता है, अतः इससे देश के उत्पादन, आय व रोजगार र प्रत्यक्षत: कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
पुँजी खाते को मदें इसमें निजी पूंजी, बैंकिग पूँजी, अधिकृत पूँजी, सोना तथा विदेशी पूँजी शामिल हैं।

  1. निजी पूंजी में चत क्रिमिया के पंजीत । को शामिल | किया जाता है। यह अल्पकालीन अथवा दीर्धकालीन पूँजी हो सकती है। दालीन पुंनी गे शेयरों मेंप्रश , शरतविक सम्पत्ति, बंधपत्र, दीर्घकालीन ऋण, आदि शामिल है, जबकि अल्पकालीन पंत में अन्यकाल मण तथा से ऋण के नृत की वापी एक वर्ष अचवा में कम ममम में करनी होती हैं। को मिल किया है। उदाहरण के लिए एक देश के व्यक्ति द्वारा दूसरे देश में निवेश।।
  2. बैंकिग पूँजी इसमें सरकार की विदेशी जिले सम्पत्ति, दापित जया अनाराष्ट्र मुद्रा कोष (IME) में केन्द्रीय क द्वारा पुनः ।
    क्रय की गई प्राप्ति शाक्ति होती है।
  3. अधिकत भी इसमें निम्नलिखित में से अटा शक हैं
    • ऋण इसको केन्द्रीय तथा राज्य सरकार की विदेश सरकार तभा अ य संस्थाओं द्वारा दी गई साख सम्मिलित है।
    • पूँजी का परिशोधन इसका अर्थ है विदेशियों को बैन गई प्रतिभूतियों का रूप तथा पुनः क्रिय।।
    • मिति गलतियाँ तथा भूल यह प्रति तय भगानो के अल्पारण अल्पारण तथा तववरण को दर्शाता है। यह भी सकता है कि आंकड़े अपूर्ण अत्रा सही न हो अथवा सही न हो अथवा एक तरफ के सौदे का लेखा छूट गया है।
  4. सोना तसा विदेशी पूजी गृह राष्ट्र को विदेशी विनमय दर में स्थिरता लाने में सोना तथा विदेशी पूँजी को हो भन्श्यक है। यह कोष ॥ सौदों के शुद्ध शेष द्वारा बदलता रहता है।

उतर 28.

समान्तर मध्य की गणना

अंक मध्य बिन्दु (x) आवृति (f) Dx = (x-A)
A = 35
 fdx
0-10 5 10 -30 -300
10-20 15 12 -20 -240
20-30 25 20 -10 -200
30-40 35 15 0 0
40-50 45 10 10 100
50-60 55 13 20 260
N = 80 ∑fdx = -380

समान्तर मध्य [latex]( \overline { X } ) = A + \frac { \Sigma f d x } { N } = 35 + \frac { – 380 } { 80 }[/latex]

=35-4.75=30.25
अयवा
UP Board Class 12 Economics Model Papers Paper 1 image 3

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 23 Foreign Trade of India

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 23 Foreign Trade of India (भारत का विदेशी व्यापार) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 23 Foreign Trade of India (भारत का विदेशी व्यापार).

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Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 23
Chapter Name Foreign Trade of India (भारत का विदेशी व्यापार)
Number of Questions Solved 48
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 23 Foreign Trade of India (भारत का विदेशी व्यापार)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
विदेशी व्यापार से आप क्या समझते हैं ? विदेशी व्यापार के गुण एवं दोषों का विवेचन कीजिए।
या
भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए विदेशी व्यापार का महत्त्व समझाइए। [2013, 14]
उत्तर:
विदेशी व्यापार का अर्थ – विदेशी व्यापार का तात्पर्य किसी देश द्वारा विदेशों को किये गये निर्यात और विदेशों से किये गये आयात से होता है। विदेशी व्यापार के दो प्रमुख पहलू होते हैं

आयात – आयात का अर्थ किसी देश द्वारा विदेशों से वस्तुओं और सेवाओं के मँगाने से है; उदाहरण के लिए यदि भारत ईरान, इराक से पेट्रोल मँगाता है तब यह भारत के लिए आयात कहा जाता है।

निर्यात – निर्यात का अर्थ किसी देश द्वारा वस्तुओं और सेवाओं को अन्य देशों को भेजने से है; उदाहरण के लिए–यदि भारत से जूट का सामान अमेरिका या इंग्लैण्ड जाता है, तब यह भारत के लिए निर्यात कहलाएगा।

विदेशी व्यापार के गुण (लाभ) या भारत के आर्थिक विकास में इसका महत्त्व
विदेशी व्यापार किसी देश की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक उन्नति का आधार होता है। विदेशी व्यापार से अन्तर्राष्ट्रीय सामाजिक सहयोग एवं सम्पर्क बढ़ता है तथा देश-विदेश के लोगों के बीच भाई-चारे की भावना बढ़ती है। विदेशी व्यापार से भारत को निम्नलिखित लाभ हैं

1. प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण दोहन – विदेशी व्यापार के कारण एक देश अपने प्राकृतिक संसाधनों को पूर्ण दोहन कर सकता है, क्योंकि उसे अति उत्पादन को भय नहीं रहता। वह अतिरिक्त उत्पादित सामग्री का निर्यात करके विदेशी मुद्रा प्राप्त कर सकती है, जिसके द्वारा देश का आर्थिक विकास किया जा सकता है।

2. कृषि व उद्योगों का विकास – एक देश दूसरे देश से आधुनिक मशीनों व यन्त्रों आदि का आयात करके देश में उद्योगों का विकास कर सकता है। कृषि के क्षेत्र में भी कृषि के उपकरण, उर्वरक तथा उन्नत बीजों का आयात कर कृषि का विकास किया जा सकता है।

3. आवश्यकता की वस्तुओं की प्राप्ति – विदेशी व्यापार के माध्यम से उपभोक्ताओं को अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ उचित कीमत पर प्राप्त हो जाती हैं और उपभोक्ताओं को उन वस्तुओं के उपभोग का अवसर मिलता है, जो देश में दुर्लभ या अल्प मात्रा में हैं।

4. उत्पादकों को लाभ – विदेशी व्यापार से उत्पादकों को लाभ के अवसर प्राप्त होते हैं। उत्पादक श्रेष्ठ व अधिक उत्पादन द्वारा विदेशों को निर्यात करके विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकता है।

5. रहन-सहन के स्तर को ऊँचा उठाने में सहायक – विदेशी व्यापार द्वारा नागरिकों को आवश्यकता की वस्तुएँ सरलतापूर्वक सस्ती कीमत पर उपलब्ध हो जाती हैं। इससे जीवन-स्तर ऊँचा उठता है, राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ती है।

6. यातायात व सन्देशवाहन के साधनों का विकास – विदेशी व्यापार से यातायात व सन्देशवाहन के साधनों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसी कारण आज यातायात व सन्देशवाहन के साधनों का तीव्र गति से विकास हुआ है।

7. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग में वृद्धि – विदेशी व्यापार से एक देश का दूसरे देश से पारस्परिक सम्पर्क बढ़ता है, वस्तुओं एवं विचारों का पारस्परिक आदान-प्रदान होता है तथा सभ्यता और संस्कृति का विकास होता है। प्राकृतिक संकट, बाढ़ व सूखे की स्थिति में विदेशी व्यापार के माध्यम से ही एक देश दूसरे देश की सहायता करता है।

8. सरकार को राजस्व की प्राप्ति – विदेशी व्यापार के कारण ही सरकार वस्तुओं पर आयात-निर्यात कर लगाकर राजस्व की प्राप्ति करती है।

9. एकाधिकार के दोषों से मुक्ति – विदेशी व्यापार के कारण एकाधिकार की प्रवृत्ति पर रोक लगती है तथा उपभोक्ताओं को सस्ती कीमत पर वस्तुएँ उपलब्ध करायी जाती हैं।

10. श्रम-विभाजन व विशिष्टीकरण के लाभ – आज प्रत्येक देश उन वस्तुओं को अधिक उत्पादन करना चाहता है जिनके लिए उसके पास पर्याप्त प्राकृतिक संसाधन, श्रम व पूँजी उपलब्ध है। इससे उसे उस वस्तु के उत्पादन में विशिष्टता प्राप्त होती है और श्रम – विभाजन के सभी लाभ प्राप्त होते हैं। यह विदेशी व्यापार से ही सम्भव हुआ है।

11. विदेशी मुद्रा की प्राप्ति – विदेशी व्यापार के कारण ही एक देश अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादन का, अन्य देशों को निर्यात कर विदेशी मुद्रा प्राप्त करता है। यह विदेशी मुद्रा विकास कार्यों में सहायक सिद्ध होती है।

12. देश का आर्थिक विकास – किसी देश का बढ़ता हुआ विदेशी व्यापार उसकी प्रगति का सूचक होता है। इस प्रक्रिया में प्रत्येक देश अपने निर्यात में वृद्धि करने का प्रयास करता है। इसलिए उत्पादन बढ़ाने हेतु पूँजी का निवेश किया जाता है। पूँजी के विनियोग से रोजगार के अवसरों में वृद्धि होती है, राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है और देश का तीव्र आर्थिक विकास सम्भव होता है।

विदेशी व्यापार के दोष या हानियाँ
विदेशी व्यापार में उपर्युक्त लाभों के साथ-साथ निम्नलिखित दोष भी पाये जाते हैं

1. आत्मनिर्भरता में कमी – विदेशी व्यापार के कारण राष्ट्र परस्पर आश्रित हो गये हैं। यदि एक देश में किसी वस्तु की कमी है तो वह उसे अन्य देशों से आयात कर लेता है। वह आत्मनिर्भर नहीं होना चाहता, क्योंकि वस्तुएँ उसे विदेशों से सरलता से मिल जाती हैं।

2. प्राकृतिक संसाधनों की शीघ्र समाप्ति – विदेशी व्यापार के कारण ही राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधनों का तीव्र गति से विदेशों को निर्यात कर दिया जाता है, जिससे प्राकृतिक स्रोत दिन-प्रतिदिन कम होते जा रहे हैं।

3. राष्ट्रीय सुरक्षा में कमी – युद्ध काल में प्रायः विदेशी व्यापार में बाधा उत्पन्न हो जाती है; क्योंकि एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को अपनी वस्तुएँ देना बन्द कर देता है। ऐसे समय में राष्ट्र के सम्मुख संकट उत्पन्न हो जाता है।

4. देश के औद्योगिक विकास में बाधा – विदेशी व्यापार के कारण देश के उद्योगों को विदेशी उद्योगों से प्रतियोगिता करनी पड़ती है। देश में निर्मित वस्तुएँ महँगी होने पर उन वस्तुओं का आयात कर लिया जाता है, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव स्वदेशी उद्योगों पर पड़ता है। इससे देश के औद्योगिक विकास में बाधा उत्पन्न होती है।

5. प्रतियोगिता के कारण हानि – विदेशी व्यापार में वस्तुओं का उचित मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता, क्योंकि वस्तुओं को विदेशी बाजार में प्रतियोगिता करनी पड़ती है। इसी कारण आज भारत जैसे देश को चाय, जूट व चीनी आदि के निर्यात में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है।

6. राजनीतिक परतन्त्रता – विदेशी व्यापार के कारण ही कभी-कभी योग्य शक्तिशाली राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों को पराधीन कर लेते हैं। अंग्रेजों ने व्यापार के माध्यम से ही भारत को अपने अधीन कर लिया था।

7. अन्तर्राष्ट्रीय वैमनस्य – प्रत्येक विकसित देश, विकासशील देशों में अपनी वस्तुओं का बाजार विस्तृत करना चाहता है। इस प्रयास में सफल होने पर अन्य देश उस देश से वैमनस्य की भावना रखना प्रारम्भ कर देते हैं। इससे कभी-कभी विश्व-शान्ति का खतरा उत्पन्न हो जाता है।

8. देश की आर्थिक स्थिरता एवं नियोजन को हानि – विदेशी व्यापार के कारण कभी-कभी आयातकर्ता देश को आयातित माल के भुगतान करने में कठिनाई हो जाती है, जिसको हल करने के लिए निर्यातकर्ता देश आयातकर्ता देश को ऋण देता है। परिणामस्वरूप निर्यातकर्ता देश आयातकर्ता देश की आर्थिक व प्रशासनिक नीतियों में हस्तक्षेप करने लगता है, जिसका प्रभाव देश की आर्थिक स्थिरता व नियोजन पर पड़ता है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि विदेशी व्यापार से देश की सुरक्षा, आर्थिक नियोजन तथा उद्योगों के संरक्षण को हानि होती है तथा देश परावलम्बी हो जाता है। परन्तु यह कहना कि विदेशी व्यापार में हानियाँ अधिक हैं, उचित नहीं है; क्योंकि यह सत्य है कि व्यापार किसी भी देश की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक उन्नति का कारण है। व्यापार के माध्यम से ही अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ता है, एकता की भावना बढ़ती है तथा वैज्ञानिक शोधों का लाभ प्राप्त होता है।

प्रश्न 2
भारत के विदेश व्यापार की मुख्य प्रवृत्तियाँ बताइए। [2008, 10, 15]
या
भारत के विदेश व्यापार के आकार, संरचना एवं दिशा पर एक लेख लिखिए।
या
गत वर्षों में भारत के विदेश व्यापार की संरचना में क्या प्रमुख परिवर्तन हुए हैं?
या
विदेशी व्यापार से आप क्या समझते हैं? भारत के आयात व निर्यात की प्रमुख मदें बताइए। [2008]
या
भारत के विदेशी व्यापार पर एक निबन्ध लिखिए। [2016]
या
हाल के वर्षों में भारत के निर्यातों की मुख्य प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए। [2011, 12]
या
भारत के निर्यातों तथा आयातों की संरचना की मुख्य प्रवृत्तियों की विवेचना कीजिए। [2012]
उत्तर:
विदेश व्यापार का अर्थ
जब दो या दो से अधिक राष्ट्र आपस में एक-दूसरे से वस्तुओं का लेन-देन करते हैं तो इसे विदेश व्यापार कहते हैं। किसी देश के विदेश व्यापार की स्थिति उसके आयात एवं निर्यात के अध्ययन से ज्ञात की जा सकती है। इसी प्रकार किसी देश की आर्थिक स्थिति का आकलन उसके विदेश व्यापार (निर्यात) की मात्रा से किया जा सकता है। कोई भी देश किसी वस्तु का आयात इसलिए करता है कि या तो उस देश में अमुक वस्तु का उत्पादन ही नहीं होता अथवा उसका उत्पादन लागत मूल्य आयात मूल्य से अधिक बैठता है। इसी प्रकार किसी वस्तु का निर्यात इसलिए किया जाता है कि उस देश में उत्पन्न की गई अतिरिक्त वस्तु की माँग विदेशों में अधिक है तथा उसे निर्यात कर विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है।

व्यापार परिदृश्य – स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भारत के विदेश व्यापार में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। फिर भी यह वृद्धि सन्तोषजनक नहीं हैं क्योंकि विश्व के कुल विदेश व्यापार में भारत को अंश वर्ष 2000 तक लगभग 0.5% ही था। विश्व व्यापार संगठन (WTO) की विश्व व्यापार रिपोर्ट 2006 के अनुसार सन् 2009 तक विश्व के वस्तुओं और सेवाओं के कुल विदेश व्यापार में भारत का अंश 2% हो जाने का अनुमान था। सन् 2004 में यह 1.1% तथा 2010 में 1.5% था। भारत का विदेश व्यापार विश्व के लगभग सभी देशों के साथ है। भारत, 7,500 से भी अधिक वस्तुएँ लगभग 190 देशों को निर्यात करता है तथा 6,000 से अधिक वस्तुएँ 140 देशों से आयात की जाती हैं। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत की विदेश व्यापार की उत्तरोत्तर प्रगति
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 23 Foreign Trade of India 1

व्यापार परिदृश्य
भारत का कुल विदेश व्यापार 1991-92 में ₹ 91,893 करोड़ (आयात और निर्यात को मिलाकर जिसमें पुनर्निर्यात भी शामिल) था। इसके बाद कभी-कभार छोड़कर निरन्तर वृद्धि देखी गई है। वर्ष 2012-13 में भारत का विदेश व्यापार बढ़कर ₹ 43,03,481 करोड़ तक पहुंच गया। तालिका 1 में 1991-92 से 2013-14 के आयात-निर्यात, विदेश व्यापार का कुल मूल्य और व्यापार सन्तुलन के पूरे आँकड़े दिये गये हैं।

भारत का निर्यात 2012-13 में ₹16,34,319 करोड़ के स्तर तक 11.48 प्रतिशत तक पहुँच गया जो रुपये के सम्बन्ध में 11.48 प्रतिशत की वृद्धि थी। अमेरिकी डॉलर के रूप में निर्यात 300 बिलियन डॉलर के स्तर तक पहुँच गया, जिसमें पिछले साल की तुलना में 1.82% की गिरावट दर्ज की गई। 2013-14 में भारत का निर्यात ₹ 18,94, 182 करोड़ के स्तर पर पहुँच गया जो रुपये के सम्बन्ध में 15.90 प्रतिशत वृद्धि के साथ है।

2012-13 के दौरान, आयात का स्तर ₹ 26,69,162 करोड़ की बढ़ोतरी तक पहुँच गया जो कि पिछले वर्ष की तलुना में 13.80%, सकारात्मक वृद्धि के साथ है। तात्कालिक वर्ष 2013-14 में भारत का आयात ₹ 27,14,182 करोड़ के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है, जिसमें पिछले वर्ष की तुलना में 1.69 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अमेरिकी डॉलर के रूप में 2012-13 में 490.7 अरब के स्तर पर पहुँच गया है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 0.29 प्रतिशत वृद्धि दर के साथ है। 2013-14 में 450.1 अरब के स्तर पर गिरने से पहले 2012-13 ( अनंतिम) में यह 490.9 के अरव के स्तर पर पहुँच गया। 2013-14 के दौरान व्यापार घाटा कम होकर ₹8,20,000 करोड़ पर गया, जो 2012-13 में ३१ 10,34,843 करोड़ था।

अमेरिकी डॉलर के रूप में व्यापार घाटा 2013-14 में कम होकर 1375 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया, जो इससे पिछले वर्ष 190.3 अरब अमेरिकी डॉलर था। व्यापार के व्यापारिक सम्बन्ध सभी बड़े व्यापारिक ब्लॉकों और दुनिया के सभी भौगोलिक क्षेत्रों से हैं। 2013-14 की अवधि के दौरान पूर्व एशिया, आसियान, पश्चिम एशिया, अन्य पश्चिम एशिया, पूर्वोत्तर एशिया और दक्षिण एशिया–जीसीसी को मिलाकर एशिया क्षेत्र का हिस्सा भारत के कुल निर्यात का 49.95 प्रतिशत रहा। भारत से यूरोप को 18.57 प्रतिशत निर्यात किया गया जो यूरोपियन यूनियन देशों (27) को 16.44 प्रतिशत निर्यात किया गया। उत्तर और लैटिन अमेरिका दोनों भारत के कुल निर्यात का 17.23 प्रतिशत हिस्से के साथ तीसरे स्थान पर हैं। इसी अवधि के दौरान शीर्ष लक्ष्य (तालिका-2) में 12.42 प्रतिशत के साथ अमेरिका निर्यात स्थल के रूप में सबसे महत्त्वपूर्ण है, जिसके बाद संयुक्त अरब अमीरात (9.7 प्रतिशत), चीन (4.77 प्रतिशत), हांगकांग्र (4.05 प्रतिशत) तथा सिंगापुर (3.94 प्रतिशत) हैं।

तालिका 2: पाँच शीर्ष निर्यातकर्ता देश (लागत ‘करोड़ में)
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 23 Foreign Trade of India 2

तालिका 3: पाँच शीर्ष आयातक देश (लागत ‘करोड़ में) श्रेणी देश
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 23 Foreign Trade of India 3

भारत के प्रमुख आयात
भारत के प्रमुख आयात निम्नलिखित हैं

1. मशीनरी तथा परिवहन-उपकरण – भारत आर्थिक विकास योजनाओं में गति लाने के लिए सुधरी हुई एवं उन्नत किस्म की मशीनों का भारी मात्रा में आयात करता है। इनमें विभिन्न प्रकार की औद्योगिक मशीनें, विद्युत मशीनें, उत्खनन मशीनें तथा परिवहन-उपकरणों का आयात किया जाता है। इसमें विद्युत मशीनों का आयात सबसे अधिक किया जाता है। यह आयात मुख्यत: संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, पोलैण्ड, फ्रांस, जापान, इटली, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया तथा रूस से होता है। यद्यपि देश में मशीनों का निर्माण पर्याप्त मात्रा में प्रारम्भ हो गया है तथापि विभिन्न प्रकार की मशीनरी वस्तुओं का आयात किया जाता है।

2. लोहा तथा इस्पात – विगत वर्षों से भारत के औद्योगीकरण में तीव्र गति से विकास हुआ है। इसी कारण लोहा तथा इस्पात की माँग में वृद्धि हुई है परन्तु अभी तक इस क्षेत्र में भारत पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है। यह आयात अमेरिका, ब्रिटेन तथा जर्मनी से किया जाता है।

3. पेट्रोलियम – भारत में पेट्रोलियम तथा उससे सम्बन्धित वस्तुओं का उत्पादन बहुत कम होता है। पेट्रोल का घरेलू उत्पादन देश की अधिकांशत: 70-75% आवश्यकता की पूर्ति ही कर पाता है, शेष 25-30% आवश्यकता के लिए हमें विदेशों पर आश्रित रहना पड़ता है। भारत कच्चा तेल अधिक मात्रा में आयात करता है, जिसका शोधन देश के तेलशोधक कारखानों में किया जाता है। तेल का आयात मुख्यतः ईरान, कुवैत, म्यांमार, इराक, सऊदी अरब, बहरीन द्वीप, मैक्सिको, अल्जीरिया, इण्डोनेशिया, रूस आदि देशों से किया जाता है। तेल व पेट्रोलियम उत्पादों के आयात पर भारत का व्यय लगातार बढ़ता जा रहा है।

4. अन्य आयात – उपर्युक्त वस्तुओं के अतिरिक्त भारत और भी विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का आयात करता है, जिनमें विद्युत उपकरण एवं अन्य मशीनें, रासायनिक पदार्थ, कागज, उर्वरक, प्लास्टिक सामग्री, कागज की लुगदी, कृत्रिम रेशे, रबड़, मोती एवं बहुमूल्य पत्थर, ऊन, कपास, दवाइयाँ आदि वस्तुएँ प्रमुख हैं।

भारत के प्रमुख निर्यात
भारत की प्रमुख निर्यातक निम्नलिखित हैं

1. चाय – चाय भारत के तीन प्रमुख निर्यातों में से एक है। विगत वर्षों से इसके निर्यात व्यापार में चार-गुने से भी अधिक वृद्धि हुई है। ब्रिटेन भारतीय चाय का सबसे बड़ा ग्राहक है। इसके अतिरिक्त कनाडा, अमेरिका, ईरान, संयुक्त अरब गणराज्य, रूस, जर्मनी, सूडान तथा अन्य देशों को भी भारत चाय का निर्यात करता है। भारत को चाय के निर्यात व्यापार में श्रीलंका, इण्डोनेशिया व कीनिया से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है।

2. सूती वस्त्र – सूती वस्त्र भारत के निर्यात व्यापार में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। भारत से सूती वस्त्रों विशेष रूप से सिले-सिलाए परिधानों का निर्यात मुख्यत: अमेरिका, रूस, न्यूजीलैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, श्रीलंका, मलयेशिया, सूडान, अदन, अफगानिस्तान आदि देशों को किया जाता है।

3. जूट का सामान – जूट भारत का परम्परागत निर्यात है। विभाजन से पूर्व भारतको जूट पर एकाधिकार प्राप्त था परन्तु अब यह अधिकार समाप्त हो गया है क्योंकि भारत को बांग्लादेश तथा अन्य देशों के रेशों से प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है। महँगा होने के कारण जूट के कुल निर्यात में भारत का प्रतिशत धीरे-धीरे घटता जा रहा है। भारतीय जूट का सबसे बड़ा ग्राहक अमेरिका है। आज आयातक देशों में क्यूबा, संयुक्त अरब गणराज्य, हांगकांग, रूस, ब्रिटेन, कनाडा, अर्जेण्टीना आदि मुख्य हैं। भारत से पटसन तथा नारियल रेशे से निर्मित गलीचे आदि सामान का प्रतिवर्ष निर्यात किया जाती है।

4. अयस्क एवं खनिज – भारत विश्व का महत्त्वपूर्ण अभ्रक उत्पादक देश है तथा विश्व उत्पादन का 80% अभ्रक भारत में उत्पन्न होता है। अभ्रक का निर्यात अमेरिका, जापान तथा ग्रेट ब्रिटेन को किया जाता है।

5. चमड़ा तथा चमड़े का सामान – भारत चमड़ा तथा चमड़े से निर्मित वस्तुएँ मुख्यतः ब्रिटेन, रूस, अमेरिका, फ्रांस तथा जर्मनी को निर्यात करती है।

6. गर्म मसाले – भारत से मसालों का निर्यात प्रमुख रूप से यूरोपीय देशों तथा अमेरिका को किया जाता है। आज भारत विश्व के मसाला बाजार में 27% से 30% तक योगदान कर लगभग 800 करोड़ की विदेशी मुद्रा कमाता है। भारत मसालों का विश्व में सबसे बड़ा उत्पादक, उपभोक्ता और निर्यातक है। भारत में प्रतिवर्ष लगभग 16 लाख टन मसाले पैदा किये जाते हैं जिसमें से लगभग 2 लाख टन मसालों का विदेशों को निर्यात किया जाता है। मसालों में मुख्यतः इलायची, कालीमिर्च, सुपारी, लौंग, हल्दी, अदरक, अजवायन आदि वस्तुओं का निर्यात किया जाता है। विश्व में मसालों का व्यापार के आकार लगभग 4.5 लाख मीट्रिक टन है, जिसमें अकेले भारत की हिस्सेदारी 46% है।।

7. समुद्री उत्पाद – भारत से समुद्री उत्पाद भी निर्यात किये जाते हैं। इनमें जमी हुई झींगा मछली का विशेष स्थान है। हमारे समुद्री उत्पादों के प्रमुख ग्राहक जापान और श्रीलंका हैं।

8. कहवा – भारत कहवा के निर्यात से विदेशी मुद्रा कमाने में बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ है। कहवा विश्व के अनेक देशों को निर्यात किया जाता है।

9. इन्जीनियरिंग का सामान – भारत से इन्जीनियरिंग का सामान प्रमुख रूप से पूर्वी एशिया, अफ्रीकी, पूर्वी तथा पश्चिमी यूरोपीय देशों को निर्यात किया जाता है। इन्जीनियरिंग सामान के निर्यात मूल्य में तेजी से वृद्धि हो रही है।

10. दस्तकारी का सामान – भारत के निर्यात में दस्तकारी उद्योग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें रत्न, जवाहरात एवं अन्य हस्तर्निमत वस्तुएँ सम्मिलित हैं। रत्न और आभूषण के निर्यात में 90% रत्न
और 10% आभूषण होते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका, बेल्जियम हांगकांग, फ्रांस, जापान, सिंगापुर, रूस, बैंकाक, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात और न्यूजीलैण्ड भारतीय माल के प्रमुख आयातक देश हैं।

11. अन्य निर्यात – उपर्युक्त वस्तुओं के अतिरिक्त भारत अन्य वस्तुओं; जैसे-काजू, कालीमिर्च, चीनी, कपास, चावल, रसायन, कच्चा लोहा, खली, फल आदि का भी निर्यात करता है। कुछ वर्षों से बिजली के पंखों, कपड़ों, सिलाई की मशीनों, साइकिलों, इन्जीनियरिंग वस्तुओं, खेल का सामान तथा पेट्रोलियम उत्पाद के निर्यात में भी पर्याप्त वृद्धि हुई है।

भारत के विदेश व्यापार की विशेषताएँ
अथवा
भारत के विदेश व्यापार की अभिनव (नूतन) प्रवृत्तियाँ

भारत के विदेश व्यापार में सामान्यत: निम्नलिखित विशेषताएँ या अभिनव (नूतन) प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं।

  1. भारत का 90% विदेश व्यापार समुद्री मार्गों द्वारा सम्पन्न होता है। वायु-परिवहन एवं सड़क परिवहन का योगदान केवल 10% है।।
  2. भारत स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व आयात अधिक करता था, परन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद आयात में वृद्धि के साथ-साथ निर्यात में भी वृद्धि हुई है।
  3. भारत के आयात में मशीनें, खाद्य तेल, खनिज तेल एवं सम्बन्धित उत्पाद, इस्पात का बना सामान, उत्तम एवं लम्बे रेशे की कपास, रासायनिक सामान एवं उर्वरक, कच्चा जूट, कागज एवं लुगदी और अखबारी कागज, रबड़, कल-पुर्जे तथा विद्युत उपकरणों एवं मशीनरी का प्रमुख स्थान होता है।
  4. भारत से सूती वस्त्र व सिले-सिलाए परिधान, जूट का सामान, चाय, चीनी, चमड़ा एवं चमड़े की वस्तुएँ, कीमती मोती एवं जवाहरात, कोयला, कोक एवं ब्रिकेट, औषधियाँ, कृत्रिम रेशे, वनस्पति तेल, तिलहन, खनिज पदार्थ, खेल का सामान, रत्न एवं आभूषण, इलेक्ट्रिॉनिक्स और कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर, हस्तशिल्प, कालीन, पेट्रोलियम उत्पाद, इन्जीनियरिंग का सामान, मशीनें एवं उपकरण, भारी संयन्त्र, परिवहन उपकरण, उर्वरक, रबड़ की वस्तुएँ, मछली एवं मछली से निर्मित पदार्थ, नारियल, काजू तथा गर्म मसाले आदि पदार्थ निर्यात किये जाते हैं।
  5. स्वतन्त्रता-पूर्व भारत कच्चे मालों का निर्यात अधिक करता था, परन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् औद्योगिक विकास औद्योगीकरण में प्रगति होने के कारण अब तैयार माल विदेशों को अधिक भेजा जाने लगा है।
  6. भारत में खनिज तेल की माँग निरन्तर बढ़ने के कारण आयातित खनिज तेल की मात्रा भी निरन्तर बढ़ रही है। भारत में सम्पूर्ण आयात का लगभग 28% भाग खनिज तेल का ही होता है।
  7. भारत के आयात में खाद्यान्नों में निरन्तर कमी आई है, बल्कि अब आयात बन्द ही कर दिया गया है क्योंकि खाद्यान्न उत्पादन में पर्याप्त प्रगति हुई है।
  8. हाल के वर्षों में भारत के निर्यात व्यापार में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है और इनका आधार ज्यादा व्यापक बना है, जो एक शुभ संकेत माना जा रहा है। विगत वर्षों में जिन वस्तुओं का निर्यात लगातार बढ़ा है उनमें समुद्री उत्पाद, अयस्क और खनिज, रेडीमेड गारमेण्ट्स, इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पाद, जवाहरात और आभूषण, रसायन, इन्जीनियरिंग सामान और दस्तकारी का सामान आदि प्रमुख हैं।
  9. उदारीकरण के दौर में आयात-निर्यात नीति में उदारवादी एवं मित्रवत् परिवर्तन लाकर जहाँ एक ओर भारतीय निर्यातकों के लिए विस्तृत परिक्षेत्र तैयार किया गया है वहीं विश्व व्यापार संगठन (WTO) को किये गये वादे के अनुरूप परिमाणात्मक नियन्त्रणों को भी समाप्त करने का दौर भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी से लागू कर दिया गया है।
  10. 2000-01 की आयात-निर्यात नीति में चीनी मॉडल का अनुसरण करते हुए भारत सरकार ने देश के निर्यातों में वृद्धि के उद्देश्य से सात परम्परागत निर्यात संवर्द्धन क्षेत्रों (EPZs) को विशेष आर्थिक परिक्षेत्र (SEZs) में रूपान्तरित कर दिया है। कांडला (गुजरात), सान्ताक्रुज (महाराष्ट्र), कोच्चि (केरल), फाल्टा (प० बंगाल), नोएडा (उत्तर प्रदेश), चेन्नई (तमिलनाडु) तथा विशाखापट्टनम (आन्ध्र प्रदेश) विशेष आर्थिक परिक्षेत्र में सम्मिलित हैं।
  11. भारत का विदेश व्यापार अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के आधार पर किया जाता है। भारत का अधिकांश विदेश व्यापार लगभग 200 देशों के साथ होता है।
  12. भारत के अधिकांश आयात-निर्यात (व्यापार) देश के पूर्वी तथा पश्चिमी तट पर स्थित बड़े पत्तनों द्वारा ही सम्पन्न किये जाते हैं।
  13.  भारत का विदेश व्यापार सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा संचालित किया जाता है। इस कार्य के लिए सरकार आयात-निर्यात लाइसेंस प्रदान करती है तथा कुछ वस्तुओं के व्यापार को लाइसेंस से मुक्त कर दिया गया है। सरकार ने निर्यात को प्रोत्साहन देने के लिए जिंस बोर्ड, निर्यात निरीक्षण परिषद्, भारतीय विदेश व्यापार संस्थान, सुमद्री उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण, कृषि एवं संसाधित खाद्य सामग्री निर्यात विकास अभिकरण तथा निर्यात एवं संवर्द्धन परिषद् की स्थापना की है। अन्य संगठनों में भारतीय निर्यात संगठन परिसंघ, भारतीय मध्यस्थता परिषद् तथा भारतीय हीरा संस्थान प्रमुख हैं।
  14. विदेश व्यापार में वृद्धि के लिए भारत अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेलों में भाग लेता है तथा उनका आयोजन अपने देश में भी करता रहता है।
  15. सरकार निर्यात पर अधिक बल दे रही है; अत: उन्हीं कम्पनियों को आयात की छूट दी जा रही है जो निर्यात करने में सक्षम हैं। भारत सरकार ने निर्यात को प्रोत्साहन देने के लिए करों में अनेक रियायतों का प्रावधान किया है तथा निजी क्षेत्र को प्राथमिकता प्रदान कर रही है।

प्रश्न 3
भारत का निर्यात-व्यापार कम होने के कारण बताइए। सरकार द्वारा निर्यात-वृद्धि के लिए किये गये प्रयासों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत के निर्यात-व्यापार में मन्द (कम) वृद्धि होने के निम्नलिखित कारण हैं

1. निर्यातकर्ताओं को सुविधाओं का अभाव – भारत में निर्यातकर्ताओं को निर्यात के सम्बन्ध में अनेक कठिनाइयों का सामना करना होता है; जैसे–निर्यात सम्बन्धी कानून कड़े होना, साख-सुविधाओं की कमी, जहाजी लदान की कठिनाइयाँ, निर्यात कर अधिक होना आदि। इससे निर्यात में बाधा आती है।

2. औद्योगिक प्रगति धीमी – औद्योगिक प्रगति धीमी होने के कारण भी औद्योगिक उत्पादन तेजी से नहीं बढ़ पा रहा है। इसी कारण जुलाई, 1991 ई० में घोषित नयी उदारवादी औद्योगिक नीति के अन्तर्गत सरकार ने उद्योगों को लाइसेन्स मुक्त कर दिया है।

3. उन्नत देशों की व्यापार नीति – विश्व के उन्नत एवं विकसित देश भारतीय निर्यात के विरुद्ध भारी आयात-कर तथा अन्य व्यापारिक बाधाएँ खड़ी करते रहते हैं, जिनका भारतीय निर्यात पर प्रतिकूल असर पड़ता है।

4. विज्ञापन एवं प्रचार की कमी – विदेशों में यथेष्ट मात्रा में विज्ञापन तथा प्रचार हेतु बनी संस्थाएँ प्रभावी ढंग से कार्य नहीं करती हैं। फलत: भारतीय माल की माँग कम रहती है।

5. ऊँची कीमत – माल की उत्पादन लागत अधिक होने के कारण तथा आयात किये जाने वाले कच्चे माल की ऊँची कीमतों के कारण भारत द्वारा निर्मित माल की कीमतें भी ऊँची रहती हैं। परिणामस्वरूप वे विदेशी प्रतियोगिता में पिट जाती हैं।

6. विदेशी प्रतियोगिता – भारत को जूट के सामान के निर्यात में बांग्लादेश से, चाय के निर्यात में श्रीलंका व चीन से, चीनी के मामले में क्यूबा व जावा से और सूती वस्त्र के निर्यात में जापान, चीन व इंग्लैण्ड से कड़ी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ता है, जिससे इन मुख्य वस्तुओ के निर्यात में वृद्धि नहीं हो पा रही है।

7. घटिया माल का निर्यात – भारतीय निर्यातक कई बार घटिया माल विदेशों को निर्यात कर देते हैं, जिससे विदेशों में भारतीय माल की प्रतिष्ठा गिर जाती है।

विगत वर्षों में निर्यात बढ़ाने के लिए भारत सरकार द्वारा किये गये प्रयास निम्नलिखित हैं

1. अग्रिम लाइसेन्स व लाइसेन्स से मुक्ति – सरकार ने कुछ उद्योगों को अग्रिम लाइसेन्स देने की व्यवस्था की है। इन लाइसेन्सों के आधार पर निर्यातकों द्वारा निर्यात के लिए बनने वाले सामान हेतु कच्चे माल का क्रय किया जाता है। अब सरकार ने अनेक उद्योगों को लाइसेन्स मुक्त भी कर दिया है।

2. ऋण सुविधाएँ – निर्यातकर्ताओं की सुविधाओं के लिए बैंकों द्वारा 6 मास की अवधि या इससे अधिक अवधि के लिए ऋणों की सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु एक निर्यात साख एवं गारण्टी निगम की भी स्थापना की गयी है।

3. व्यापारिक समझौते – सभी महत्त्वपूर्ण राष्ट्रों से उन देशों को विशिष्ट वस्तुओं का निर्यात करने तथा उनसे निश्चित वस्तुएँ आयात करने के लिए व्यापारिक समझौते किये गये हैं।

4. राज्य व्यापार निगम की परिषदें – निर्यात बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा राज्य व्यापार निगम की तथा विभिन्न वस्तुओं के लिए निर्यात संवर्द्धन परिषदें स्थापित की गयी हैं।

5. भाड़े तथा करों में रियायत – निर्यात किये जाने वाले माल को बन्दरगाह तक पहुँचाने के लिए भाड़े में रियायत तथा लदान सम्बन्धी सुविधाएँ भी दी जाती हैं। चाय, पटसन के सामान इत्यादि परम्परागत वस्तुओं के निर्यात पर निर्यात शुल्क में कमी भी की गयी है।

6. प्रदर्शनियों का आयोजन – संसार के सभी देशों की होने वाली औद्योगिक प्रदर्शनियों में भारत भाग लेता है तथा अपने देश में भी इस प्रकार की प्रदर्शनियों का आयोजन करता है।

7. पर्यटकों को सुविधाएँ – भारत के प्राय: सभी भागों में विदेशी पर्यटक केन्द्र खोले गये हैं। इन केन्द्रों द्वारा पर्यटक स्थलों पर भारतीय माले बेचने का प्रबन्ध किया गया है। इस प्रकार पर्यटक भारतीय माल को अपने देश ले जाते हैं और फिर वहाँ से ऑर्डर लेने की चेष्टा की जाती है।

8. लचीले रुख की नीति – निर्यात वायदों को पूरा करने के लिए औद्योगिक सुविधाएँ प्रदान करने की घोषणा की गयी है। इससे लाल फीताशाही सम्बन्धी औपचारिकताओं की आवश्यकता नहीं रहेगी।

9. शत-प्रतिशत निर्यातोन्मुखी उद्योग – निर्यात के लिए गैर-परम्परागत वस्तुओं का उत्पादन करने वाले उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए पूँजीगत वस्तुओं व कच्चे माल तथा उपकरणों के शुल्क-मुक्त आयात, केन्द्रीय उत्पादन शुल्क व अन्य केन्द्रीय करों की उगाही आदि में रियायत तथा विदेशी सहयोग की शर्तों में अधिक उदारता जैसी सुविधाएँ दी जाती हैं।

10. बिजली करघों का नियमितीकरण – वस्त्रों का निर्यात बढ़ाने के लिये अनधिकृत बिजली करघों को नियमित कर दिया गया है।

11. खनिज तेल का आयात – भारत की आयात मदों में सबसे बड़ी मद पेट्रोलियम पदार्थों की है। इस मद का आयात घटाने के लिए भारत ने मुम्बई हाई के समुद्र में तथा अन्य भागों में तेल के उत्पादन में वृद्धि के लिए ठोस प्रयास किये हैं और इनमें उसे पर्याप्त सफलता भी मिली है। भारत में खनिज तेल के उत्पादन में वृद्धि होने के कारण वर्ष 1988-89 में इस मद की आयात राशि घट गयी थी, किन्तु माँग बढ़ने के कारण वर्ष 1993-94 के बाद यह राशि फिर बढ़ गयी।

12. भारतीय विदेशी व्यापार संस्थान – यह सरकारी संस्थान उद्योगों व निर्यात संस्थाओं के ” कर्मचारियों को निर्यात प्रबन्ध का प्रशिक्षण देता है, निर्यात की गुंजाइश वाले देशों का पता लगाता हैं। तथा विदेशों में बाजारों का सर्वेक्षण करता है।

13. निर्यात-आयात बैंक – निर्यात-आयात सम्बन्धी विविध समस्याओं के समाधान के लिए जनवरी, 1982 ई० में भारत में निर्यात-आयात बैंक की स्थापना की गयी है।

प्रश्न 4
व्यापार सन्तुलन से आप क्या समझते हैं ? भारत सरकार ने व्यापार सन्तुलन को अनुकूल बनाने के लिए कौन-कौन-से कदम उठाये हैं ? कारण सहित व्याख्या कीजिए। [2010]
उत्तर:
किसी देश का व्यापार सन्तुलन’ उस देश के आयातों तथा निर्यातों के सम्बन्ध को बताता है। व्यापार सन्तुलन एक ऐसा विवरण होता है जिसमें वस्तुओं के आयात तथा निर्यातों का विस्तृत ब्यौरा दिया जाता है। व्यापार सन्तुलन में केवल दृष्ट निर्यातों तथा आयातों को ही सम्मिलित किया जाता है, अदृष्ट निर्यातों तथा आयातों का उसमें कोई हिसाब नहीं रखा जाता, किसी देश का व्यापार सन्तुलन उसके अनुकूल अथवा प्रतिकूल दोनों हो सकता है। जब दो देशों के बीच आयात-निर्यात बराबर होते हैं, तो व्यापार सन्तुलन की स्थिति होती है। यदि देश ने निर्यात अधिक किया है तथा आयात कम तो व्यापार सन्तुलन अनुकूल कहा जाएगा। इसके विपरीत, यदि आयात अधिक तथा निर्यात कम किया गया है तो प्रतिकूल व्यापार सन्तुलन की स्थिति होगी।

भारत सरकार द्वारा व्यापार सन्तुलन को अनुकूल बनाने के लिए उठाये गये कदम
द्वितीय विश्व युद्ध से पहले व्यापार सन्तुलन प्रायः भारत के अनुकूल ही रहता था, परन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् से भारत का व्यापार सन्तुलन निरन्तर प्रतिकूल होता गया। भारत सरकार ने व्यापार सन्तुलन को अनुकूल बनाने के लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाये हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है|

1. निर्यात प्रोत्साहन द्वारा  – निर्यातों को प्रोत्साहन देकर व्यापार सन्तुलन को अनुकूल करने का उपाय सबसे उत्तम है। निर्यातों को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाये गये हैं, जो निम्नवत् हैं

  • देश के निर्यात व्यापार को सुनियोजित और संगठित ढंग से बढ़ाने के लिए उद्योग और वाणिज्य मन्त्रालय में एक संगठन बनाया गया। इसी मन्त्रालय के अन्तर्गत चाय, कॉफी, रबड़ और इलायची के लिए चार अलग बोर्ड हैं।
  • विभिन्न वस्तुओं के लिए निर्यात प्रोत्साहन परिषदें बनायी गयीं, जो अपनी-अपनी वस्तुओं के लिए विदेशी मण्डियों की जाँच करती थीं, वस्तुओं के स्तर निर्धारित करती थीं, शिकायतें दूर करती थीं तथा उनको प्रचार करती थीं।
  • विभिन्न निर्यात प्रोत्साहन परिषदों, बोर्डों और अन्य निर्यात संस्थाओं के काम में तालमेल स्थापित करने के लिए इन संगठनों की शीर्ष संस्था के रूप में भारतीय निर्यात संगठनों का संघ’ बनाया गया है।
  • बोर्ड ऑफ ट्रेड या व्यापार मण्डल (स्थापना मई, 1962 ई०) देश के विदेशी व्यापार से सम्बन्धित समस्याओं और नीतियों के बारे में सलाह देता है।
  • व्यापार सलाहकार परिषद् की भी स्थापना की गयी है, जो अर्थव्यवस्था के वाणिज्यिक पहलुओं की सफलताओं-असफलताओं का विवेचन करने के साथ-साथ व्यापार के विस्तार तथा आयात के नियमों से सम्बद्ध समस्याओं पर भी विचार-विमर्श करती है।
  • निर्यात वस्तुओं की किस्म पर नियन्त्रण रखने के लिए और जहाज पर लादने से पहले माल का सुनियोजित ढंग से नियन्त्रण करने के लिए एक निर्यात निरीक्षण संस्था बनायी गयी है। इसके कारण विदेशी मण्डियों में भारतीय माल की प्रतिष्ठा बढ़ी है।
  • व्यापार विकास प्राधिकरण’ नामक एक विशेष संगठन भी बनाया गया है, जो निर्यात उत्पादन और बिक्री के क्षेत्र में विशिष्ट सेवाएँ प्रदान करता है।
  •  इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए मुम्बई में निर्यात विधायन (प्रॉसेसिंग) जोन बनाया गया है। निर्यात-व्यापार को बढ़ावा देने के लिए कांदला में एक मुक्त व्यापार क्षेत्र भी बनाया गया है।
  • भारत का राजकीय व्यापार निगम अब एक प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक संस्था माना जाता है। यह लगभग 140 वस्तुओं का निर्यात करता है। इसके तीन सहायक संगठन भी हैं –  (क) परियोजना और उपकरण निगम, (ख) हथकरघा और दस्तकारी विकास निगम और (ग) भारतीय काजू निगम।।
  • उद्योग और वाणिज्य मन्त्रालय के अधीन अन्य निगम हैं–निर्यात-साख़ और गारण्टी निगम, भारतीय कपास निगम, भारतीय पटसन निगम और भारतीय चाय निगम।
  • आयात-निर्यात बैंक (EXIM) की स्थापना की गयी है।
  • निर्यातों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार ने निर्यात जोखिम बीमा निगम की स्थापना की है। सरकार की वर्तमान निर्यात-नीति द्वारा निर्यात में वृद्धि की पर्याप्त सम्भावनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं।

2. आयातों पर प्रतिबन्ध लगाना – व्यापार सन्तुलन को ठीक करने के लिए एक दूसरा प्रभावशाली उपाय देश के आयातों को कम करना है। आयातों की मात्रा को कम करने के लिए आयातों पर विभिन्न प्रकार के प्रतिबन्ध अथवा कर लगाये जाते हैं। भारत सरकार ने आयात-नीति में आयातों को कम करने का प्रयास किया है।

3. अवमूल्यन द्वारा – मुद्रा के अवमूल्यन के द्वारा भी एक देश अपने प्रतिकूल व्यापार सन्तुलन को ठीक कर सकता है। अवमूल्यन से अभिप्राय देश की मुद्रा के विदेशी मूल्य को कम करने से होता है। अवमूल्यन के द्वारा देश के निर्यातों को प्रोत्साहन दिया जा सकता है तथा आयातों की मात्रा को कम किया जा सकता है। भारत सरकार ने 1949 ई० में सबसे पहले भारतीय रुपये का अवमूल्यन किया। इसके पश्चात् 6 जून, 1966 ई० को और पुन: जुलाई, 1991 ई० में रुपये का अवमूल्यन किया गया है। रुपये का अवमूल्यन होने से निर्यातों में वृद्धि हुई है तथा व्यापार सन्तुलन कुछ अनुकूल हुआ, परन्तु कुछ समय पश्चात् व्यापार सन्तुलन पुनः प्रतिकूल ही होता गया है।

4. मुद्रा-प्रसार पर नियन्त्रण करके – मुद्रा-प्रसार को कम करने के लिए भारत सरकार ने अनेक कदम उठाये हैं, जिनके परिणामस्वरूप 1993 ई० में मुद्रा-प्रसार की दर, जो 17% तक पहुँच गयी थी, घटकर 7% तक आ गयी। लेकिन मई, 1994 ई० में यह दर पुन: बढ़ने लगी और 11.8% हो गयी। मुद्रा-प्रसार पर नियन्त्रण करने से व्यापार सन्तुलन को अनुकूल बनाया जा सकता है।

5. जनसंख्या-वृद्धि पर नियन्त्रण द्वारा – व्यापार सन्तुलन को अनुकूल करने के लिए तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या को नियन्त्रित करने के प्रयास किये जाने चाहिए, जिससे आन्तरिक माँग में वृद्धि न हो। भारत सरकार ने परिवार कल्याण कार्यक्रम के द्वारा जनसंख्या-वृद्धि को कम करने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं।

6. कृषि-उत्पादन में वृद्धि द्वारा –
भारत जैसे विकासशील देश में व्यापार सन्तुलन को अनुकूल करने के लिए कृषि-उत्पादन में वृद्धि के प्रयास अनवरत रूप से किये जाने चाहिए। कृषि-उत्पादकता में वृद्धि करके आयातों में कमी की जा सकती है।

प्रश्न 5
भुगतान सन्तुलन व व्यापार सन्तुलन में अन्तर कीजिए। इन दोनों में किसके अध्ययन का अधिक महत्त्व है? [2010, 13, 14]
उत्तर:
भुगतान सन्तुलन व व्यापार सन्तुलन में निम्नलिखित अन्तर हैं
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 23 Foreign Trade of India 4
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 23 Foreign Trade of India 5
व्यापार सन्तुलन एवं भुगतान सन्तुलन का तुलनात्मक महत्त्व
किसी देश के लिए व्यापार सन्तुलन की अपेक्षा उसका भुगतान सन्तुलन अधिक महत्त्वपूर्ण होता । है। व्यापार सन्तुलन के अध्ययन से देश की आर्थिक स्थिति का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता। केवल भुगतान सन्तुलन ही देश की अन्तर्राष्ट्रीय लेन-देन की स्थिति का ज्ञान सही-सही अनुकूल तथा प्रतिकूल हो सकता है, किन्तु दीर्घकाल में व्यापार सन्तुलन का अनुकूल अथवा प्रतिकूल होना हमें देश की आर्थिक स्थिति के विषय में कुछ नहीं बताता है। देश की आर्थिक समृद्धि का प्रमाण समझा जाता था किन्तु आजकल यह विचार अधिक उपयुक्त नहीं है।

व्यापार सन्तुलन का पक्ष में होना देश की आर्थिक समृद्धि का संकेत नहीं है किन्तु किसी देश की आर्थिक समृद्धि उस देश के भुगतान सन्तुलन की स्थिति पर निर्भर होती है। भुगतान सन्तुलन के पक्ष में होने से देश के ऋण दूसरे देशों पर होते हैं और वह देश ऋणदाता होता है। इसके विपरीत भुगतान सन्तुलन का विपक्ष में होना देश को ऋणी बनाता है। अतः। किसी देश की आर्थिक स्थिति का सही ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें उसके भुगतान सन्तुलन का अध्ययन करना चाहिये।

प्रश्न 6
भारत की आयात-निर्यात नीति (विदेशी व्यापार नीति) 2001-02 पर एक लेख लिखिए।
या
भारतीय व्यापार नीति में हाल में हुए परिवर्तनों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
या
आर्थिक सुधारों की अवधि में भारत की व्यापार नीति में हुए मुख्य परिवर्तनों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद से भारत ने समय-समय पर अपनी आयात-निर्यात नीति घोषित की है और आवश्यकता के अनुसार इन नीतियों में उचित समायोजन भी किया है। विगत शताब्दी के अन्तिम दशक में उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमण्डलीकरण की नीतियाँ अपनायी गयीं और आयात-निर्यात नीति को भी इन उदारवादी आर्थिक सुधारों के साथ जोड़ा गया।
आठवीं तथा नवीं पंचवर्षीय योजना के लिए उदारवादी आयात-निर्यात नीतियाँ घोषित की गयी थीं, जिनके उद्देश्य निम्नवत् थे।

  • भारत को भूमण्डलीय अर्थव्यवस्था की ओर ले जाना जिससे कि बढ़ते हुए भूमण्डलीय बाजार का लाभ उठाया जा सके।
  • देश के आर्थिक विकास को बढ़ावा देना जिसके लिए आवश्यक कच्चा माल, साज-सज्जा व पूँजीगत माल उपलब्ध कराना।
  • भारतीय कृषि, उद्योग एवं सेवा की तकनीकी मजबूती को बढ़ावा देना।
  • उपभोक्ताओं को अच्छी क्वालिटी की वस्तुएँ उचित मूल्यों पर उपलब्ध कराना।।

भारत में आयात-निर्यात नीति, 2001-02 की घोषणा तत्कालीन केन्द्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मन्त्री श्री मुरासोली मारन ने 31 मार्च, 2001 ई० को की। भारतीय विदेशी व्यापार के इतिहास में यह नीति ऐतिहासिक है। इस नीति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. इस नीति द्वारा 1 अप्रैल, 2001 ई० से 1429 में से शेष बचे सभी 715 उत्पादों के आयात पर से मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटा लिये गये। यह स्मरण रखना चाहिए कि विश्व व्यापार संगठन के नियमों के प्रति प्रतिबद्धता के चलते इसके अतिरिक्त अन्य 714 उत्पादों के आयात पर से यह प्रतिबन्ध 1 अप्रैल, 2000 ई० से हटा लिये गये थे। अब सुरक्षा की दृष्टि से अति संवेदनशील उत्पादों को छोड़कर लगभग सभी उत्पादों का आयात देश में किया जा सकेगा। इन उत्पादों में से 147 उत्पाद कृषि-क्षेत्र से तथा 342 उत्पाद टेक्सटाइल क्षेत्र से सम्बन्धित हैं। अन्य 226 उत्पादों में ऑटोमोबाइल्स सहित दूसरे उपभोक्ता उत्पाद सम्मिलित हैं।
  2. जिन 715 उत्पादों के आयात परे 1 अप्रैल, 2001 से प्रतिबन्ध समाप्त किये गये उनमें ये पदार्थ हैं—चाय, कॉफी, चावल व अन्य कृषिगत उत्पाद, प्रसंस्करित खाद्य-पदार्थ, शराब, ग्रीटिंग कार्ड, ब्रीफकेस, सूती व सिन्थेटिक वस्त्र, टाइयाँ, जैकेट, जूते, प्रेशर कुकर, बर्तन, टोस्टर, रेडियो, कैसेट प्लेयर, टेलीविजन, मोपेड, मोटरसाइकिलें, कारें, घड़ियाँ, खिलौने, ब्रश, कंघे, पेन, पेंसिलें, दूध, पनीर, डेयरी उत्पाद, हीटर, इलेक्ट्रिक चूल्हे, बल्ब, वीडियो गेम्स, अण्डे, पोल्ट्री उत्पाद व फल आदि।
  3. 300 अति संवेदनशील उत्पादों के आयात पर निगरानी हेतु वाणिज्य सचिव की अध्यक्षता में ‘वाच रूम का गठन किया गया है।
  4. भारत में अपना माल बेचने के लिए विदेशी उत्पादकों द्वारा अनुसूचित तरीके अपनाये जाने पर आयातों पर अंकुश हेतु ‘ऐण्टी डम्पिंग ड्यूटी’ (प्रतिपाटन कर) लगायी जाएगी।
  5. गेहूं, चावल, मक्का, पेट्रोल, डीजल व यूरिया का आयात केवल अधिकृत एजेन्सियों द्वारा ही किया जाएगा।
  6. निर्यातों में 18% वार्षिक वृद्धि का लक्ष्य प्राप्त किया जाएगा।
  7. निर्यात वृद्धि के लिए नये कदम उठाये जाएँगे।
  8. विशेष आर्थिक परिक्षेत्रों की स्थापना के साथ ही उनकी सुविधाओं में भी वृद्धि की जाएगी।
  9. सस्ते आयातों से स्वदेशी उद्योग व कृषि-क्षेत्र को बचाने के लिए आवश्यक उपाय किये जाएँगे। उनकी गुणवत्ता में सुधार कर उनकी कीमतों को भी प्रतिस्पर्धी बनाया जाएगा।

इस नीति के अन्तर्गत की गयी कार्यवाहियाँ निम्नलिखित हैं

  1. भारत सरकार ने 7 मई, 2001 से 300 अति संवेदनशील उपभोक्ता वस्तुओं के आयात पर निगरानी के लिए इनके आयात के 200 रास्ते बन्द कर दिये हैं। पहले 211 प्रवेश मार्गों में से कहीं से भी माल का आयात किया जा सकता था, किन्तु अब केवल 11 बन्दरगाहों व हवाई अड्डों के रास्ते ही आयात किया जा सकता है।
  2. खुली बाजार व्यवस्था व आयात व्यवस्था के कारण यदि कोई देश अनुचित तरीके अपनाकर अपने माल से भारत के बाजार को पाट देता है अर्थात् अपने माल की भारत के बाजार में भरमार कर देता है तो ऐसी दशा में भारत सरकार ऐसी वस्तुओं पर ‘ऐण्टी डम्पिंग ड्यूटी’ (प्रतिपाटन कर) लगाकर उन पर नियन्त्रण करेगी। भारत ने मई, 2001 ई० तक डम्पिग के 89 मामले दर्ज किये हैं, जिनमें से आधे मामले चीन से होने वाली आयातित वस्तुओं के खिलाफ हैं।

इस प्रकार सरकार का निगरानी कक्ष स्थिति पर बराबर निगाह रखेगा और किसी वस्तु के अनुचित आयात की भरमार पर तत्काल कार्यवाही करेगा तथा देश की कृषि, उद्योग व अर्थव्यवस्था पर : खुले आयात का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ने देगा।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
भारत के विदेशी व्यापार की प्रमुख विशेषताओं को बताइए।
उत्तर:
भारत के विदेशी व्यापार की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. अधिकांश भारतीय विदेशी व्यापार लगभग (90%) समुद्री मार्गों द्वारा किया जाता है। हिमालय पर्वतीय अवरोध के कारण समीपवर्ती देशों एवं भारत के मध्य धरातलीय आवागमन की सुविधा उपलब्ध नहीं है। इसी कारण देश का अधिकांश व्यापार पत्तनों द्वारा अर्थात् समुद्री मार्गों द्वारा ही किया जाता है।
  2. भारत के निर्यात व्यापार का 27% पश्चिमी यूरोपीय देशों, 20% उत्तर अमेरिकी देशों, 51% एशियाई एवं ऑस्ट्रेलियाई देशों तथा 2% अफ्रीकी देशों एवं दक्षिण अमेरिकी देशों में किया जाता है। कुल निर्यात का लगभग 40% भाग विकसित देशों को किया जाता है। इसी प्रकार आयात व्यापार में 26% पश्चिमी यूरोपीय देशों, 39% एशियाई एवं ऑस्ट्रेलियाई देशों, 13% उत्तरी अमेरिकी देशों तथा 7% अफ्रीकी देशों का स्थान है।
  3. यद्यपि भारत में विश्व की 17.5% जनसंख्या निवास करती है, परन्तु विश्व व्यापार में भारत का भाग 0.67% है, जबकि अन्य विकसित एवं विकासशील देशों की भाग इससे कहीं अधिक है।
  4. भारत का व्यापार सन्तुलन सदैव भारत के विपक्ष में रहा है। इसका प्रमुख कारण यह है कि भारत के आयात की मात्रा निर्यात से सदैव अधिक रहती है। परिणामस्वरूप विदेशी व्यापार का सन्तुलन प्रायः भारत के विपक्ष में रहती है।
  5. देश का अधिकांश विदेशी व्यापार मात्र 35 देशों (कुल 190 देश) के मध्य होता है जो विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के आधार पर किया जाता है। भारत का सर्वाधिक विदेशी व्यापार संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ है।
  6. भारत के विदेशी व्यापार में खाद्यान्नों के आयात में निरन्तर कमी आयी है, जिसका प्रमुख कारण खाद्यान्न उत्पादन में उत्तरोत्तर वृद्धि का होना है। वर्ष 1989-90 से देश खाद्यान्नों को निर्यात करने की स्थिति में आ गया था, परन्तु वर्ष 1993-94 से पुनः देश को खाद्य-पदार्थ-गेहूं और चीनी-विदेशों से आयात करने पड़ रहे हैं।
  7. भारत अपनी विदेशी मुद्रा के संकट का हल अधिकाधिक निर्यात व्यापार से ही कर सकता है; अतः उन्हीं कम्पनियों को आयात की छूट दी जाती है, जो निर्यात करने की स्थिति में हैं।
  8. भारत के आयातों में मशीनरी, खनिज तेल, उर्वरक, रसायन तथा कपास की अधिकता रहती है और निर्यातों में हीरे-जवाहरात, चमड़ा, सूती वस्त्र व खनिज पदार्थों का मुख्य स्थान है।
  9. स्वतन्त्रता के पूर्व भारत अधिकतर कच्चे माल का निर्यात और पक्के माल (अधिकतर उपभोग वस्तुओं) का आयात करता था। स्वतन्त्रता के बाद उद्योग-धन्धों का विकास होने के कारण भारत द्वारा अब पक्के माल का भी पर्याप्त निर्यात किया जा रहा है। इसके आयात किये गये पक्के माल में अब अधिकतर मशीनें होती हैं। इसके साथ ही भारत में औद्योगिक विकास में वृद्धि होते रहने के कारण कच्चे माल का आयात भी बढ़ रहा है।

प्रश्न 2
भारत के आयात-निर्यात व्यापार (विदेशी व्यापार) की वर्तमान प्रवृत्तियाँ बताइए। [2010, 11]
या
हाल के वर्षों में भारत के निर्यातों की मुख्य प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए। [2011]
या
भारत के विदेशी व्यापार की आधुनिक प्रवृत्तियों का वर्णन कीजिए। [2015]
उत्तर:
अंग्रेजी राज्य की स्थापना से पूर्व भारत विश्व के प्रमुख निर्यातकों में से था। भारत सूती-वस्त्र, रेशमी वस्त्र, बर्तन, इत्र, मसाले आदि रोम, मिस्र, यूनान, चीन, अफगानिस्तान, ईरान आदि देशों को भेजता था तथा शराब, घोड़े, बहुमूल्य जवाहरात आदि का आयात करता था। स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व भारत का विदेशी व्यापार एक उपनिवेश एवं कृषि-पदार्थों तक ही सीमित था। इसका अधिकांश व्यापार ग्रेट-ब्रिटेन तथा राष्ट्रमण्डलीय देशों से ही होता था। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् से भारत के विदेशी व्यापार में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। भारत के विदेशी व्यापार की प्रवृत्ति निम्नवत् रही है

(1) व्यापार की दिशा और स्वभाव में परिवर्तन – स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् हमारे देश से चाय व जूट के निर्यात में कमी हुई है तथा मशीनों, औजारों, इंजीनियरिंग वस्तुओं, चमड़ा तथा चमड़े से बनी वस्तुओं, हस्तशिल्प तथा जवाहरात आदि के निर्यात में वृद्धि हुई है। सबसे अधिक मात्रा में पेट्रोलियम और क्रूड उत्पादों का आयात होता है। मशीनों व उपकरणों का आयात भी अधिक मात्रा में किया जा रहा है। अनाज का आयात कम हुआ है। अब हम विदेशों से तैयार माल के स्थान पर कच्चा माल अधिक मॅगाते हैं। निर्यात के मामले में भारत अब केवल प्राथमिक एवं कृषिगत वस्तुओं का ही निर्यातक नहीं रह गया है, बल्कि इसके निर्यात में विनिर्मित (मैन्युफैक्चर्ड) वस्तुओं का प्रतिशत भी बढ़ता जा रहा है।

(2) विदेशी व्यापार के आकार एवं परिमाण में परिवर्तन – स्वतन्त्रता के उपरान्त भारत के विदेशी व्यापार में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। यद्यपि यह वृद्धि व्यापार की मात्रा एवं मूल्य दोनों में ही हुई है, फिर भी इस वृद्धि को सन्तोषजनक नहीं कहा जा सकता; क्योंकि विश्व के कुल विदेशी व्यापार में भारत का अंश पिछले वर्षों में लगभग स्थिर ही रहा है। भारत का विदेशी व्यापार विश्व के लगभग सभी देशों के साथ है। 7,500 से भी अधिक वस्तुएँ लगभग 190 देशों को निर्यात की जाती हैं, जब कि 6,000 से अधिक वस्तुएँ 140 देशों से आयात की जाती हैं।

(3) व्यापार घाटा – भारत का व्यापार घाटा भी निरन्तर बढ़ता जा रहा है। वित्त वर्ष 2001-02 के प्रथम 9 महीनों में देश का व्यापार घाटा 5.79 अरब डॉलर पर पहुँच गया था, परन्तु अप्रैल-सितम्बर, 2011-12 ई० की अवधि में देश का व्यापार घाटा लगभग 8 अरब आ गया है।

वर्तमान समय में भारत में विदेशी व्यापार की निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ स्पष्ट होती हैं

  • भारत के विदेशी व्यापार में तीव्रता से वृद्धि हो रही है।
  • भारत के विदेशी व्यापार के क्षेत्र में विकास हो रहा है और नये व्यापार सम्बन्ध स्थापित हो रहे हैं।
  • तेल उत्पादक राष्ट्रों के आयात की राशि में असाधारण वृद्धि हुई है।
  • समाजवादी देशों के साथ विशेष रूप से रूस के साथ व्यापार सम्बन्ध सुदृढ़ हो रहे हैं।
  • विदेशी व्यापार के निर्यात में अपरम्परागत क्षेत्र का अनुपात तेजी से बढ़ रहा है।
  • भारत के विदेशी व्यापार में निर्यात का अंशदान बढ़ता जा रहा है।
  • भारत के विदेशी व्यापार में प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन की अवस्था बनी हुई है।

प्रश्न 3
भारत के निर्यातों एवं आयातों की प्रमुख मदे बताइए। [2012]
या
भारत की आयात व निर्यात प्रत्येक की किन्हीं दो प्रमुख मदों का उल्लेख कीजिए। [2016]
उत्तर:
भारत के निर्यात की प्रमुख मदें

(क) कृषि और सम्बद्ध उत्पाद

  1. काजू की गिरी,
  2. कॉफी,
  3. समुद्री उत्पाद,
  4. कपास,
  5. चावल,
  6. मसाले,
  7. चीनी,
  8. चाय,
  9. तम्बाकू।

(ख) अयस्क और खनिज – (1) लौह-अयस्क।

(ग) विनिर्मित वस्तुएँ

  1. इंजीनियरी वस्तुएँ,
  2. रसायन,
  3. टैक्सटाइल्स सिलेसिलाए परिधान,
  4. जूट व जूट से निर्मित सामान,
  5. चमड़ा और चमड़ा उत्पाद,
  6. हस्त शिल्प,
  7. हीरे और जवाहरात।

(घ) खनिज ईंधन और लुब्रीकेण्ट कोयले सहित।
भारत के आयात की प्रमुख मदें

  1. अनाज और अनाज के उत्पाद,
  2. काजू की गिरी,
  3. कच्चा रबर,
  4. ऊनी, कपास तथा जुट के रेशे,
  5. पेट्रोलियम तेल और लुब्रीकेण्ट,
  6. खाद्य तेल,
  7. उर्वरक,
  8. रसायन,
  9. रँगाई व रँगाई की सामग्री,
  10. प्लास्टिक सामग्री,
  11. चिकित्सीय एवं औषध उत्पाद,
  12. कागज, गत्ता,
  13. मोती एवं रत्न,
  14. लौह-इस्पात,
  15. अलौह धातुएँ।।

प्रश्न 4
भारत में निर्यात में वृद्धि हेतु अपने सुझाव दीजिए। [2009, 12, 14]
उत्तर:
निर्यात-वृद्धि के लिए सुझाव
र्यात में वृद्धि हेतु निम्नलिखित सुझाव हैं

  1. प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति बढ़ाने के लिए उत्पादन लागत घटाई जाए।
  2. उत्पादन पद्धति में सुधार किया जाए तथा श्रमिकों की उत्पादकता बढ़ाई जाए।
  3. कृषि उत्पादन तथा व्यापार सुविधाओं में वृद्धि की जाए।
  4. निर्यात वस्तुओं की किस्म में सुधार किया जाए।
  5. निर्यात प्रोत्साहन के लिए सकारात्मक प्रेरणाएँ दी जाएँ।
  6. निर्यात वस्तुओं के उत्पादकों व निर्यातकों को वित्तीय सुविधाएँ प्रदान की जाएँ।
  7. व्यापार समझौते के लाभों को प्राप्त करने के लिए भरपूर प्रयत्न किए जाएँ।
  8. पर्याप्त मात्रा में विदेशों में प्रचार एवं प्रसार किया जाए।
  9. विदेशी बाजारों का गहन एवं व्यापक सर्वेक्षण किया जाए।
  10. भारतीय माल की कीमतों को अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धात्मक स्तरों के समरूप रखा जाए।
  11. केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा स्थापित विभागों में उचित एवं प्रभावपूर्ण समन्वय स्थापित किया जाए।
  12. देश में निर्यात विकास कोष की स्थापना की जाए।
  13. निर्यातगृहों तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक केन्द्रों की स्थापना में सहायता दी जाए।
  14. बन्दरगाहों का सुधार एवं अभिनवीकरण किया जाए।
  15. व्यापार विपणन हेतु प्रशिक्षण दिया जाए।

प्रश्न 5:
भारत में भुगतान-शेष में असन्तुलन के क्या कारण हैं? [2010]
उत्तर:
भारत के भुगतान-शेष में असन्तुलन के अनेक कारण हैं, जिनमें प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  1. तेल उत्पादक देश अपने पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्य पिछले कुछ वर्षों से प्रति वर्ष बढ़ाते रहे हैं। इसके साथ ही देश में पेट्रोलियम पदार्थों की खपत भी बढ़ी है, जिससे पर्याप्त मात्रा में इनका आयात किया गया है।
  2. आर्थिक योजना के कारण देश में औद्योगीकरण व कृषि विकास की गति तेज हो गयी, जिसके फलस्वरूप मशीनों का पर्याप्त आयात करना पड़ा।
  3. भारत के भुगतान-असन्तुलन का एक कारण निर्यातों का आशा के अनुरूप न बढ़ना है। वर्ष 1950-51 में भारत के निर्यात १ 606 करोड़ के थे, जो वर्ष 2011-12 में बढ़कर १ 14,59,28,050 करोड़ के हो गये हैं, जबकि आयात इसी काल में 608 करोड़ से बढ़कर है 23,44,772.04 करोड़ के हो गये हैं।
  4. भारत ने विकास-कार्य के लिए पर्याप्त मात्रा में ऋण लिये हैं, जिसमें ब्याज व मूलधन वापसी के लिए भी विदेशी विनिमय का व्यय करना पड़ता है। इससे भी भुगतान-शेष में असन्तुलन पैदा हो गया है।
  5. भारत की जनसंख्या बराबर बढ़ रही है, जिससे आयातों में वृद्धि हो रही है तथा घरेलू उपभोग बढ़ने से निर्यात-क्षमता में कमी आयी है। इससे भी भुगतान-शेष में असन्तुलन की स्थिति बन गयी है।
  6. देश का अपने विदेशी दूतावासों, यात्रियों, विद्यार्थियों आदि पर सरकारी व्यये बराबर बढ़ रहा है। इससे भी भुगतान-शेष का असन्तुलन बढ़ा है।

प्रश्न 6
भुगतान सन्तुलन को परिभाषित करते हुए इसे अनुकूल बनाने हेतु सुझाव दीजिए। [2010]
या
प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन को सुधारने के लिए कोई चार सुझाव दीजिए। [2013, 16]
या
प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन का अर्थ लिखिए। भारत के प्रतिकूल भगतान सन्तुलन के सुधार के लिए कोई दो उपाय सुझाइए। [2016]
उत्तर:
भुगतान सन्तुलन किसी देश के आर्थिक लेन-देन का एक व्यवस्थित लेखा-जोखा है, जो किसी देश के निवासियों द्वारा विश्व के अन्य देशों के निवासियों के साथ किया जाता है। भुगतान सन्तुलन के विवरण में प्राय: लेन-देन की मदों में चालू खाता और पूँजी खाता की मदों का उल्लेख होता है। जब किसी देश का चालू खाती, पूँजी खाता के अन्तर्गत कुल लेनदारियों तथा देनदारियों की तुलना में अधिक होता है, तो उस देश का भुगतान सन्तुलन अनुकूल कहा जाएगा। वर्तमान समय में अनुकूल भुगतान सन्तुलन आर्थिक विकास और आर्थिक समृद्धि का सूचक माना जाता है।

भारत एक विकासशील देश है। भारत जैसे विकासशील देशों में प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन एक विकट समस्या बनी हुई है। इसे अनुकूल बनाने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं

1. आयातों को कम करना – यदि भुगतान सन्तुलन को भारत के अनुकूल करना है तब यह आवश्यक है कि हमें अपने आयातों में कमी करनी होगी, क्योंकि आयातों में कमी से देनदारियाँ कम होंगी और भुगतान सन्तुलन अनुकूल हो सकेगा। सरकार आयात की वस्तुओं पर अधिक आयात कर. लगाकर, देश में आयातित वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाकर, व्यापारियों को आयात लाइसेन्स देकर तथा आयात कोटा निश्चित कर, आयातों को कम कर सकती है।

2. निर्यातों में वृद्धि – निर्यातों में वृद्धि करके विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है और भुगतान सन्तुलन को अपने पक्ष में किया जा सकता है। निर्यातों में वृद्धि के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं

  • वस्तुओं के गुण और मात्रा में वृद्धि तथा उत्पादन लागत में कमी द्वारा।
  • वस्तुओं से सम्बद्ध उद्योगों को संरक्षण प्रदान कर।
  • निर्यात कर में कमी करना।
  • बन्दरगाहों तक तैयार उत्पादों को ले जाने की उचित व्यवस्था करना।
  • बन्दरगाहों से जहाज में लदान की कारगर व्यवस्था करना।

3. मुद्रा का अवमूल्यनं – मुद्रा का अवमूल्यन करके निर्यात बढ़ाने के प्रयास किये जा सकते हैं। मुद्रा के मूल्य में कमी कर देने से विदेशी व्यापारियों को अपेक्षाकृत कम मुद्रा देकर वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं। मुद्रा के अवमूल्यन से निर्यातों के बढ़ने की सम्भावना होती है।

4. विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करके – विदेशी पर्यटकों को अपने देश में दर्शनीय स्थलों की ओर आकर्षित करके विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है।

5. विनिमय-नियन्त्रण द्वारा विनिमय – नियन्त्रण के द्वारा भी भुगतान सन्तुलन को पक्ष में लाया जा सकता है। सरकार आयात पर प्रतिबन्ध लगाकर भुगतान सन्तुलन को अपने पक्ष में कर सकती है।

6. विदेशी विनियोजकों को आकर्षित करके – भुगतान सन्तुलन को नियन्त्रित करने हेतु विदेशी विनियोजकों को पूँजी विनियोग के लिए अपने देश में आकर्षित करना चाहिए, जिसके द्वारा उत्पादन की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है।

7. विदेशी ऋण प्राप्त करके – विदेशी ऋण प्राप्त करके भी भुगतान सन्तुलन को अपने अनुकूल किया जा सकता है, परन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि विदेशी ऋण उत्पादक-कार्यों के लिए ही लिये जाएँ।

8. जनसंख्या-वृद्धि पर नियन्त्रण द्वारा – देश की जनसंख्या-वृद्धि को नियन्त्रित करने के लिए अधिक प्रयास होना चाहिए, जिससे आन्तरिक माँग में वृद्धि न हो। इस सम्बन्ध में सरकार द्वारा परिवार नियोजन के कार्यक्रम को व्यापक और अनिवार्य कर देना चाहिए।

प्रश्न 7
दसवीं पंचवर्षीय योजना के लिए घोषित नयी आयात-निर्यात नीति पर टिप्पणी लिखिए। [2009]
उत्तर:
दसवीं योजना के लिए नयी आयात-निर्यात नीति की घोषणा केन्द्र सरकार द्वारा 31 मार्च, 2002 ई० को की गयी, जिसमें पूर्व दशक में अपनाये गये उदारीकरण एवं भूमण्डलीकरण के दृष्टिकोण को यथावत् जारी रखा गया और निर्यात की प्रक्रिया के अन्तर्गत आने वाली जटिलताओं को कम करते हुए नीति को निर्यातकों के हितों का संरक्षक बनाया गया। नवीन आयात-निर्यात के अन्तर्गत निम्नलिखित उद्देश्यों को समाहित किया गया है

  1. विश्व बाजार के बढ़ते अवसरों से फायदा उठाने के उद्देश्य से देश को विश्व-अभिमुख अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ाना।।
  2. देश में उत्पादन बढ़ाने के लिए आवश्यक कच्चे माल, तकनीक, मशीनी उपकरण आदि को आसानी से उपलब्ध करवाकर सतत आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करना।
  3. भारतीय कृषि उद्योग एवं सेवाओं की तकनीकी क्षमता और कुशलता को बढ़ावा देना।
  4. रोजगार के नये अवसर सृजित करना।
  5. उत्पादों की तैयारी गुणवत्ता के अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप करना।
  6. उपभोक्ताओं को उचित मूल्य पर अच्छे उत्पाद उपलब्ध कराना।

नयी आयात-निर्यात नीति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. दसवीं योजना की अवधि के अन्त तक (अर्थात् 31 मार्च, 2007 ई० तक) देश के कुल निर्यात को 80 अरब डॉलर वार्षिक के स्तर पर पहुँचाने का लक्ष्य रखा गया है।
  2. मार्च, 2007 ई० के अन्त तक भारत की विदेशी व्यापार में हिस्सेदारी मौजूदा 0.67% से बढ़ाकर 1.0% करने का लक्ष्य रखा गया है।
  3. कुछ संवेदनशील उत्पादों को छोड़कर शेष सभी उत्पादों के निर्यात पर से मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटा लिये गये हैं।
  4. कृषिगत निर्यातों को विशेष प्रोत्साहन देने की योजना बनायी गयी है।
  5. देश के निर्यातों को बढ़ाने के लिए बनाये गये विशेष आर्थिक क्षेत्रों में सुविधाएँ बढ़ायी गयी हैं।
  6. इलेक्ट्रॉनिक, हार्डवेयर तथा रत्नों एवं आभूषणों के निर्यातों को बढ़ाने के लिए विशेष योजना तैयार की गयी है।
  7. कुटीर एवं हथकरघा उद्योग पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया गया है।
  8. निर्यात बाजार के विस्तार हेतु अफ्रीका पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित किया गया है, जिसके पहले चरण में सात देशों-नाइजीरिया, दक्षिणी अफ्रीका, मॉरीशस, केन्या. इथोपिया, तंजानिया एवं घाना को सम्मिलित किया गया है। इन देशों के लिए निर्यात वस्तुओं में कपास एवं धागा, कपड़ा, सिले-सिलाए वस्त्र, दवाएँ, मशीनी उपकरण तथा दूरसंचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी उपकरण सम्मिलित हैं।

प्रश्न 8
सरकार की वर्तमान आयात-नीति के प्रमुख तत्त्वों को बताइए।
उत्तर:
सरकार की वर्तमान आयात-नीति के प्रमुख तत्त्व इस प्रकार हैं

वित्तीय वर्ष 2001-02 के लिए नयी आयात नीति की घोषणा तत्कालीन केन्द्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मन्त्री मुरासोली मारन ने 31 मार्च, 2001 ई० को की। भारतीय विदेशी व्यापार के इतिहास में यह नीति ऐतिहासिक है, क्योंकि इस नीति से शेष बचे सभी 715 उत्पादों के आयात पर से परिमाणात्मक प्रतिबन्ध हटा लिये गये हैं। अब सुरक्षा की दृष्टि से अति संवेदनशील उत्पादों को छोड़कर सभी उत्पादों का आयात देश में किया जा सकेगा। विश्व-व्यापार संगठन के नियमों के प्रति प्रतिबद्धता के चलते 714 उत्पादों के आयात पर से यह प्रतिबन्ध 1 अप्रैल, 2000 ई० से ही हटा लिये गये थे; परन्तु आयातों पर नियन्त्रण रखने के लिए निम्नलिखित उपाय किये गये हैं

  1. आयात आवश्यक पूँजीगत साधनों के अभाव की पूर्ति के लिए हो।
  2. विकास आवश्यकताओं की प्राथमिकता के अनुसार, कच्चा माल तथा खनिज तेल का आयात किया जाए।
  3. कम आवश्यक आयातों को या तो प्रतिबन्धित किया जाए या अनुज्ञापन प्रणाली के द्वारा न्यूनतम आयात किया जाए।
  4. ऊँचे सीमा शुल्क द्वारा आयातों को हतोत्साहित भी किया जाए।
  5. आवश्यक वस्तुओं के आयातों को ध्यान में रखकर अनावश्यक या विलासिता की वस्तुओं के आयात पर नियन्त्रण लगाया जाए।

प्रश्न 9
आयात-निर्यात बैंक (Import-Export Bank) पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता के पश्चात् से ही भारत के विदेशी व्यापार का सन्तुलन प्रतिकूल ही रहा है, क्योंकि भारत का आयात अधिक और निर्यात कम रहता है। आयात-निर्यात में समन्वय लाने के लिए भारत सरकार ने देश में एक निर्यात-आयात बैंक स्थापित करने का निश्चय किया। 14 सितम्बर, 1981 ई० को इस बैंक की स्थापना से सम्बन्धित एक बिल संसद के दोनों सदनों ने पास किया और जनवरी, 1982 ई० से इस बैंक ने कार्य करना आरम्भ कर दिया।

निर्यात-आयात बैंक के प्रबन्ध के लिए 17 व्यक्तियों का एक निदेशक मण्डल बनाया गया है, जिसमें रिजर्व बैंक का एक प्रतिनिधि भी है। 3 निदेशक अनुसूचित बैंकों के हैं। 4 निदेशक विशिष्ट विद्वान व्यक्तियों में से मनोनीत किये गये हैं। इसका एक चेयरमैन भी होता है।
इस बैंक द्वारा 1998-99 में कुल ₹2,832 करोड़ ऋण की सहायता राशि मंजूर की गयी। निर्यात-आयात बैंक के मुख्य रूप से निम्नलिखित कार्य हैं

  1. निर्यात के लिए ऋण उपलब्ध कराना।
  2. व्यापार सम्बन्धी विश्व बाजार की सूचनाएँ देना।
  3. आयात-निर्यात सम्बन्धी सलाह देना।
  4. निर्यात विकास निधि का निर्माण करना।
  5. विश्व को बाजार सम्बन्धी सूचनाएँ देना।
  6. निर्यात बढ़ाने के लिए विभिन्न उपाय अपनाना।
  7. इस सम्बन्ध में सलाह देना कि आयात में कहाँ-कहाँ और कैसे कमी की जा सकती है और कहाँ पर आयात प्रतिस्थापना सम्भव है।
  8. आयातकों व निर्यातकों को विनिमय-दर के परिवर्तनों से परिचित रखना।

यह आशा की जाती है कि निर्यात-आयात बैंक की स्थापना से विदेशी व्यापार के समक्ष उत्पन्न समस्याओं का समाधान होगा तथा विदेशी व्यापार की स्थिति सुधरेगी।

प्रश्न 10
नयी आयात-निर्यात (एक्जिम) नीति की विशेषताएँ लिखिए। उत्तर नयी आयात-निर्यात नीति (एक्जिम नीति) की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. शेष बचे सभी 715 उत्पादों के आयात पर से परिमाणात्मक प्रतिबन्धों की समाप्ति। मुख्यतः कृषिगत उत्पाद व उपभोक्ता वस्तुएँ सम्मिलित।
  2. 300 अति संवेदनशील उत्पादों के आयात पर निगरानी हेतु वाणिज्य सचिव की अध्यक्षता में ‘वार रूम’ (War Room) का गठन।
  3. भारत में अपना माल बेचने के लिए विदेशी उत्पादकों द्वारा अनुचित तौर-तरीके अपनाये जाने की स्थिति में आयातों पर अंकुश हेतु काउण्टरवेलिंग ड्यूटी व एण्टी डम्पिंग ड्यूटी आदि प्रशुल्कों का ही सहारा।
  4. पुराने वाहनों का आयात कतिपय शर्तों के आधीन ही सम्भव।
  5. गेहूं, चावल, मक्का, पेट्रोल, डीजल व यूरिया का आयात केवल अधिकृत एजेन्सियों के द्वारा ही।
  6. निर्यातों में 18 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि का लक्ष्य तथा निर्यात संवर्धन हेतु अनेक नये कदम।
  7. विशेष आर्थिक परिक्षेत्रों में इकाइयों की सुविधाओं में वृद्धि।
  8. कृषिगत आर्थिक परिक्षेत्रों की स्थापना की योजना।
  9. निर्यातकों को उपलब्ध ‘ड्यूटी एक्जैक्शन स्कीम’ व निर्यात संवर्धन पूँजीगत सामान योजना का कृषि-क्षेत्र में विस्तार।
  10. विश्व में भारतीय उत्पादों के बाजार के विस्तार के लिए मार्केट एक्सेस इनीशिएटिव योजना।
  11. आयातकों व निर्यातकों को विश्व बाजार की अद्यतन जानकारियाँ उपलब्ध कराने के लिए भारतीय व्यापार संवर्धन संगठन परिसर में बिजनेस कम ट्रेड फैसिलिटेशन सेण्टर’ तथा ट्रेड पोर्टल’ की स्थापना की योजना।

प्रश्न 11
भारत के प्रतिकूल व्यापार शेष के आधारभूत कारण क्या हैं? [2013, 14, 16]
या
भारत के प्रतिकूल भुगतान संतुलन के कोई चार कारण लिखिए। [2015]
उत्तर:
भारत योजनाकाल में असन्तुलित व्यापार की समस्या से ग्रसित रहा है। इस असन्तुलन के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं

  1. स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद खाद्यान्नों एवं अन्य कृषि-पदार्थों की कमी आमतौर पर बनी रही है, जिसकी पूर्ति के लिए अत्यधिक मात्रा में आयात करना पड़ा है।
  2. आर्थिक नियोजन के कारण देश के औद्योगीकरण एवं कृषि के विकास की गति तेज हो गयी, फलतः मशीनों व पूँजीगत वस्तुओं को पर्याप्त मात्रा में आयात करना पड़ा।
  3. अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए भारत को आधुनिकतम युद्ध-सामग्री का पर्याप्त आयात करना पड़ा।
  4. भारत का विदेशी व्यापार के असन्तुलित होने का कारण तेल उत्पादक देशों द्वारा अपने तेल का मूल्य बढ़ा देना भी है।
  5. विदेशी व्यापार के असन्तुलित होने के कारणों में एक कारण निर्यात व्यापार की आशा के अनुरूप वृद्धि न होना भी रहा है। पिछले कुछ वर्षों से निर्यात तेजी से बढ़े हैं और आशा है कि निकट भविष्य में व्यापार सन्तुलित हो जाएगा।
  6. देश के विभाजन ने भी विदेशी व्यापार को असन्तुलित किया है। विभाजन के फलस्वरूप देश का अधिकांश उपजाऊ क्षेत्र पाकिस्तान में चला गया जिसकी पूर्ति हेतु भारत को पर्याप्त मात्रा में आयात करना पड़ा।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
विदेशी व्यापार से होने वाले प्रमुख चार लाभ बताइए।
उत्तर:
विदेशी व्यापार से होने वाले लाभ निम्नलिखित हैं

  1. प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण रूप से दोहन सम्भव होता है।
  2. कृषि व उद्योगों का पर्याप्त विकास होता है।
  3. रहन-सहन के स्तर को ऊँचा उठाने में और यातायात व सन्देशवाहन के साधनों के विकास में सहायक होता है।
  4. विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है और देश का आर्थिक विकास होता है।

प्रश्न 2
विदेशी व्यापार से होने वाली चार प्रमुख हानियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
विदेशी व्यापार से होने वाली चार हानियाँ निम्नलिखित हैं

  1. देश की आत्म-निर्भरता और राष्ट्रीय सुरक्षा में कमी आती है।
  2. देश के औद्योगिक विकास में बाधा उत्पन्न होती है।
  3. राजनीतिक परतन्त्रता और अन्तर्राष्ट्रीय वैमनस्य की भावना में वृद्धि होती है।
  4. प्राकृतिक संसाधनों के शीघ्र समाप्ति की सम्भावना प्रबल होती है।

प्रश्न 3
भुगतान-सन्तुलन की समस्या को दूर करने के लिए सरकार द्वारा किये गये चार उपाय बताइए।
उत्तर:
भारत में भुगतान-सन्तुलन की समस्या को दूर करने के लिए सरकार द्वारा किये गये चार उपाय निम्नलिखित हैं

  1. यहाँ निर्यातों को बढ़ावा दिया जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों से अनेक ऐसी इकाइयाँ स्थापित की गयी हैं जो अपना शत-प्रतिशत उत्पादन निर्यात करती हैं।
  2. आयातों पर यहाँ प्रतिबन्ध है, लेकिन देश में आर्थिक नियोजन के कारण आयात बढ़ रहे हैं, परन्तु आयात-निर्यात नीति घोषित कर इस पर नियन्त्रण लगाया जा रहा है।
  3. देश में आयात प्रतिस्थापन को भी बढ़ावा दिया जा रहा है।
  4. मूल रूप से भारत के निवासियों को भारत में धन भेजने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है।

प्रश्न 4
भारत में व्यापार को सन्तुलित करने के लिए चार उपाय सुझाइए। [2009]
उत्तर:
व्यापार को सन्तुलित करने के लिए निम्नलिखित चार उपाय सुझाए जा सकते हैं

  1. सरकार को कृषि विकास पर विशेष जोर देना चाहिए, जिससे कि खाद्यान्न व अन्य कृषि-पदार्थों का उत्पादन बढ़े व आयातों में कमी हो।
  2. प्राकृतिक तेल व गैस आयोग को तेल के कुओं की खोज के लिए और अधिक प्रयत्नशील होना चाहिए जिससे पेट्रोलियम पदार्थों के आयात में कमी हो सके।
  3. निर्यात संवर्धन के प्रयासों को भी प्रभावी बनाया जाना चाहिए।
  4. नये बाजारों का पता लगाना चाहिए।

प्रश्न 5
भारत के विदेशी मुद्रा-भण्डार में वृद्धि होने के कारण बताइए।
उत्तर:
भारत के विदेशी मुद्रा-भण्डार में वृद्धि के निम्नलिखित कारण हैं

  1. रुपये का अवमूल्यन।
  2. अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से ऋण प्राप्ति।
  3. अनिवासी भारतीयों के लिए चलाई गयी योजनाओं से प्राप्त विदेशी मुद्रा।
  4. भारत में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष विदेशी निवेश में वृद्धि।
  5. रुपये की चालू खाते में पूर्ण परिवर्तनीयता।।

प्रश्न 6
भुगतान संतुलन और व्यापार सन्तुलन में भेद कीजिए। [2009, 10]
उत्तर:
भुगतान सन्तुलन किसी देश की अन्तर्राष्ट्रीय लेन-देन की स्थिति का सही ज्ञान करा सकता है। क्योंकि इसमें सभी मदों से प्राप्त लेनदारियों व देनदारियों का स्पष्ट विवरण होता है।
व्यापार सन्तुलन किसी देश की आर्थिक स्थिति का पूर्ण चित्र प्रस्तुत नहीं करता क्योंकि इसमें आयात-निर्यात के अतिरिक्त अन्य मदें सम्मिलित नहीं होतीं।

प्रश्न 7
विशेष आर्थिक क्षेत्र पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2014]
उत्तर:
आमतौर पर किसी को आधुनिक आर्थिक क्षेत्र का उल्लेख करने के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र एक सामान्य शब्द के रूप में प्रयोग किया जाता है। यह क्षेत्र किसी भी देश की राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर स्थित होता है लेकिन ये विशेष क्षेत्र के नियमों का प्रयोग करके व्यापार करते हैं। इस क्षेत्र को प्रमुख उद्देश्य व्यापार बढ़ाना, निवेश बढ़ाना, रोजगार देना और प्रभारी प्रशंसा है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
विदेशी व्यापार का अर्थ स्पष्ट कीजिए। [2011, 12, 15]
उत्तर:
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का आरम्भिक भाग देखें।

प्रश्न 2
भारत के आयातों में किस देश का हिस्सा सर्वाधिक है? [2011]
उत्तर:
एशिया व ओसीनिया का।

प्रश्न 3
व्यापार शेष क्या है? [2012, 12]
उत्तर:
किसी देश के निर्यात और आयात अथवा आयात और निर्यात के अन्तर को व्यापार शेष कहते हैं।

प्रश्न 4
‘WTO’ पद को विस्तृत कीजिए। [2009]
उत्तर:
‘WTO’ = World Trade Organization (विश्व व्यापार संगठन)।

प्रश्न 5
भारत में प्रतिकूल भुगतान शेष के सुधार के लिए कोई दो सुझाव दीजिए। [2009]
उत्तर:
(1) निर्यातों को प्रोत्साहन दिया जाए।
(2) आयातों पर प्रतिबन्ध लगाना आवश्यक है।
(3) विदेशों से ऋण प्राप्त करना।
(4) मूलरूप से अनिवासियों को धन भेजने के लिए प्रेरित करना।

प्रश्न 6
भारत में वर्ष 2008 में तेल और गैस के स्रोत की खोज करने में किस भारतीय कम्पनी ने सफलता प्राप्त की है? [2009]
उत्तर:
रिलायन्स इण्डस्ट्रीज लिमिटेड कम्पनी ने।

प्रश्न 7
नयी आयात-निर्यात नीति की घोषणा कब की गई?
उत्तर:
31 अगस्त, 2004 को नयी आयात-निर्यात नीति 2004-2009 की घोषणा की गई थी।

प्रश्न 8
भारत में आयात की जाने वाली प्रमुख दो वस्तुएँ कौन-सी हैं? [2008, 09, 10, 11, 12]
उत्तर:
(1) पेट्रोलियम व उसके उत्पाद,
(2) रासायनिक उर्वरक।

प्रश्न 9
भारत में निर्यात की जाने वाली चार प्रमुख वस्तुओं के नाम लिखिए। [2007, 09, 10, 11, 12, 14]
उत्तर:
जूट, चाय, सूती वस्त्र तथा समुद्री उत्पाद।

प्रश्न 10
भारत के विदेशी व्यापार में किस देश का अंश सर्वाधिक है? [2007, 13]
उत्तर:
भारत के विदेशी व्यापार में संयुक्त राज्य अमेरिका का अंश सर्वाधिक है।

प्रश्न 11
भारत के विदेशी व्यापार में अदृश्य निर्यात का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
अदृश्य स्थिति की मदों में (बीमा, परिवहन, पर्यटन उपहार आदि) आते हैं। अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता की स्थिति जानने के लिए भुगतान सन्तुलन के चालू खाते का सन्तुलन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होता है, जिसके अन्तर्गत अदृश्य निर्यात सम्मिलित रहते हैं।

प्रश्न 12
देश के भुगतान सन्तुलन के प्रतिकूल होने के दो कारण लिखिए। [2012]
उत्तर:
(1) भारत के विदेशी व्यापार के असन्तुलित होने का करण तेल उत्पादक देशों द्वारा अपने तेल का मूल्य बढ़ा देना है।
(2) देश की सुरक्षा के लिए भारत को आधुनिकता युद्ध-सामग्री का पर्याप्त मात्रा में आयात करना है।

प्रश्न 13
भुगतान शेष को परिभाषित कीजिए। [2007, 12]
उत्तर:
भुगतान शेष अथवा भुगतान सन्तुलन किसी देश के आर्थिक लेन-देन का एक व्यवस्थित लेखा-जोखा है जो किसी देश के निवासियों द्वारा अन्य देश के निवासियों के साथ किया जाता है।

प्रश्न 14
व्यापार सन्तुलन का अर्थ लिखिए। [2014]
उत्तर:
किसी देश का व्यापार सन्तुलन’ उस देश के आयातों तथा निर्यातों के सम्बन्ध को बताता है। व्यापार सन्तुलन एक ऐसा विवरण होता है जिसमें वस्तुओं के आयात तथा निर्यातों का विस्तृत ब्यौरा दिया जाता है। व्यापार सन्तुलन में केवल दृष्ट निर्यातों तथा आयातों को ही सम्मिलित किया जाता है, अदृष्ट निर्यातों तथा आयातों का उसमें कोई हिसाब नहीं रखा जाता, किसी देश का व्यापार सन्तुलन उसके अनुकूल अथवा प्रतिकूल दोनों हो सकता है। जब दो देशों के बीच आयात-निर्यात बराबर होते हैं, तो व्यापार सन्तुलन की स्थिति होती है। यदि देश ने निर्यात अधिक किया है तथा आयात कम तो व्यापार सन्तुलन अनुकूल कहा जाएगा। इसके विपरीत, यदि आयात अधिक तथा निर्यात कम किया गया है तो प्रतिकूल व्यापार सन्तुलन की स्थिति होगी।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
निम्नलिखित में से किन दो वर्षों के दौरान भारत का विदेशी व्यापार शेष अनुकूल था? [2012]
(क) 1972 – 73, 1976 – 77
(ख) 1972 – 73, 1973 – 74
(ग) 1975 – 76, 1977 – 78
(घ) 1975 – 76, 1976 – 77
उत्तर:
(क) 1972 – 73, 1976 – 77

प्रश्न 2
भारत का कितने प्रतिशत विदेशी व्यापार समुद्र मार्ग से किया जाता है? [2011]
(क) 60%
(ख) 70%
(ग) 80%
(घ) 90%
उत्तर:
(घ) 90%.

प्रश्न 3
भारत के निर्यात का सर्वाधिक प्रतिशत भाग जाता है [2010]
(क) यूरोपीय संघ में
(ख) अरब देशों में
(ग) पूर्वी यूरोपीय देशों में
(घ) विकासशील देशों में
उत्तर:
(क) यूरोपीय संघ में।

प्रश्न 4
वर्तमान में भारत का सबसे बड़ा व्यापार साझेदार हैया भारत का सबसे बड़ा विदेशी व्यापार भागीदार है [2014]
(क) अमेरिका
(ख) रूस
(ग) ब्रिटेन
(घ) जापान
उत्तर:
(क) अमेरिका।

प्रश्न 5
भारत के भुगतान सन्तुलन नियोजन काल में रहे हैं
(क) सन्तुलन में
(ख) घाटे में
(ग) आधिक्य में
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) घाटे में।

प्रश्न 6
विशेष आर्थिक क्षेत्रों का सम्बन्ध किससे है?
(क) निर्यातों से
(ख) सूखाग्रस्त क्षेत्रों से
(ग) बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों से
(घ) पिछड़े क्षेत्रों से
उत्तर:
(क) निर्यातों से।

प्रश्न 7
निम्नलिखित में से कौन-सा समूह भारत की निर्यात वस्तुओं को प्रदर्शित करता है?
(क) पेट्रोलियम, स्वर्ण एवं चाँदी
(ख) खाद, तेल, उर्वरक
(ग) मोती एवं बहुमूल्य पत्थर, पूँजीगत वस्तुएँ
(घ) सिले-सिलाए वस्त्र, समुद्री उत्पाद
उत्तर:
(घ) सिले-सिलाए वस्त्र, समुद्री उत्पाद।

प्रश्न 8
निम्नलिखित में से भारत किसका निर्यात नहीं करता है?
(क) चीनी
(ख) चाय
(ग) उर्वरक
(घ) जूट की वस्तुएँ
उत्तर:
(ग) उर्वरक।

प्रश्न 9
निम्नलिखित में से भारत की प्रमुखतया आयात वस्तु है? [2016]
(क) पेट्रोलियम उत्पाद
(ख) मशीनरी
(ग) रसायन
(घ) कम्प्यू टर
उत्तर:
(क) पेट्रोलियम उत्पाद।

प्रश्न 10
निम्नलिखित वस्तुओं में से भारत किसका आयात नहीं करता है? [2016]
(क) उर्वरक
(ख) पेट्रोलियम पदार्थ
(ग) चाय
(घ) मशीनें
उत्तर:
(ग) चाय।

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UP Board Class 12 Economics Model Papers Paper 4

UP Board Class 12 Economics Model Papers Paper 4 are part of UP Board Class 12 Economics Model Papers. Here we have given UP Board Class 12 Economics Model Papers Paper 4.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject  Economics
Model Paper Paper 4
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 Economics Model Papers Paper

समय: 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक : 100
निर्देश
प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
नोट

  • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
  • प्रश्न संख्या 1 से 12 तक बहुविकल्पीय प्रश्न हैं, जिनका केवल सही उत्तर अपनी उत्तर पुस्तिका में लिखना है, प्रश्नपंख्या 13 से 16 तक अतिलघु उत्तरीय प्रश्न हैं, जिनका उत्तर प्रत्येक लगभग 25 शब्दों में लिखना है, प्रश्न संख्या 17 से 22 तक लघु उत्तरीय प्रश्न हैं, जिनका उत्तर प्रत्येक लगभग 50 शब्दों में लिखना है तथा प्रश्न संख्या 23 से 28 तक दीर्घ उत्तरीय प्रश्न हैं, जिनका उत्तर प्रत्येकलगभग 150 शब्दों में लिखना है।
  • प्रत्येक प्रश्न के निर्धारित अंक उसके सम्मुख अंकित हैं।

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
कुल उत्पादन बढ़ने पर उत्पादन की परिवर्तनशील लागत [1]
(a) घटती है।
(b) बढ़ती है।
(c) पहले बढ़ती है, फिर घटती है
(d) अपरिवर्तित रहती है।

प्रश्न 2.
लगान के आधुनिक सिद्धान्त के प्रतिपादक का नाम है । [1]
(a) डेविड रिकार्डो
(b) एडम स्मिथ
(C) जे. आर. हिक्स
(d) श्रीमती जॉन रॉबिन्सन

प्रश्न 3.
लाभ का अनिश्चितता वहन करने के सिद्धान्त का प्रतिपादन किसने दिया? [1]
(a) एफ. एच. नाइट
(b) पी. एम. स्टीजी
(c) डी. पैटिन्किन
(d) आर. जी. हा

प्रश्न 4.
व्यापार कर किसके द्वारा लगाया जाता है?[1]
(a) केन्द्र सरकार
(b) राज्य सरकार
(C) नगरपालिका
(d) दुकानदार

प्रश्न 5.
वर्तमान समय में भारत की राष्ट्रीय आय में सर्वाधिक अंश है [1]
(a) कृषि क्षेत्र का
(b) औद्योगिक क्षेत्र का
(C) प्रसंस्करण उद्योगों का
(d) सेवा क्षेत्र का

प्रश्न 6.
औसत लागत का सूत्र है। [1]
UP Board Class 12 Economics Model Papers Paper 4 image 1
UP Board Class 12 Economics Model Papers Paper 4 image 2
प्रश्न 7.
निम्नलिखित में व्यापारिक बैंकों का कौन-सा कार्य है? [1]
(a) साख नियन्त्रण
(b) नोटों का निर्गमन
(c) विदेशी विनिमय नियन्त्रण
(d) साख सृजन

प्रश्न 8.
बारहवीं पंचवर्षीय योजना की समयावधि है। [1]
(a) 2002-07
(b) 2007-12
(c) 2011-16
(d) 2012-17

प्रश्न 9.
भारत में अन्तरिक्ष आयोग की स्थापना की गई [1]
(a) वर्ष 1961 में।
(b) वर्ष 1972 में
(c) वर्ष 1975 में
(d) वर्ष 1980 में

प्रश्न 10.
भारत का कितने प्रतिशत विदेशी व्यापार समुद्री मार्ग से किया जाता है? [1]
(a) 60%
(b) 70%
(c) 80%
(d) 90%

प्रश्न 11.
केन्द्रीय प्रवृत्ति की एक माप है। [1]
(a) समान्तर माध्य
(b) माध्य विचलन
(c) प्रमाप विचलन
(d) सह-सम्बन्ध

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में कौन-सी योजना उद्योग प्रधान था? [1]
(a) पहली
(b) पाँचवीं
(C) दूसरी
(d) दसवीं

उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 13.
लोकवित्त की परिभाषा एवं महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। [4]

प्रश्न 14.
सकल घरेलू उत्पाद और सकल राष्ट्रीय उत्पाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [4]

प्रश्न 15.
भारत में परिवार कल्याण कार्यक्रम की सफलता के लिए कोई चार सुझाव दीजिए। [4]

प्रश्न 16.
सूचकांकों की विशेषताएँ बताइए। [4]

लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 17.
विनिमय से क्या लाभ है? वर्णन कीजिए। [5]

प्रश्न 18.
सकल एवं शुद्ध ब्याज में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [5]

प्रश्न 19.
पूर्ण व अपूर्ण प्रतियोगिता में अन्तर बताइए। [5]

प्रश्न 20.
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना क्या है? [5]

प्रश्न 21.
भारत में जनसंख्या के घनत्व को प्रभावित करने वाले चार प्रमुख कारकों का उल्लेख कीजिए। [5]

प्रश्न 22.
भारत के विदेशी व्यापार की मुख्य प्रवृत्तियाँ बताइए। [5]

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 23.
अपूर्ण प्रतियोगिता का अर्थ समझाइए। दीर्घकाल में कीमत निर्धारण . किस प्रकार होता.है? [7]
अथवा
कुल लागत, औसत लागत तथा सीमान्त-लागत का अर्थ बताइए तथा उदाहरण देकर सीमान्त-लागत व औसत लागत के बीच सम्बन्ध स्पष्ट कीजिए। [7]

प्रश्न 24.
वितरण से आप क्या समझते हैं? वितरण की समस्याओं के प्रकारों को स्पष्ट कीजिए। [7]
अथवा
रिकाडों के लगान सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [7]

प्रश्न 25.
केन्द्र सरकार के व्यय की मदों को लिखिए। [7]
अथवा
राष्ट्रीय आय क्या है? इसके महत्त्व की विवेचना कीजिए। [7]

प्रश्न 26.
भारत में जनसंख्या वृद्धि के कारणों को स्पष्ट कीजिए। [7]
अथवा
नाबार्ड क्या है? नाबार्ड के कार्य बताइए। [7]

प्रश्न 27.
सामाजिक वानिकी से क्या आशय है? इस कार्यक्रम की सफलता के लिए चार सुझाव दीजिए। [7]
अथवा
भारत में अन्तरिक्ष शोध कार्यक्रम की प्रगति पर प्रकाश डालिए। [7]

28. निम्नलिखित सारणी से प्रत्यक्ष विधि द्वारा समान्तर माध्य की गणना कीजिए। [7]

वर्ग अन्तराल

आवृति

0-10

8

10-20

4

20-30

6

30-40

3

40-50

2

अथवा
निम्नलिखित आँकड़ों के लिए माध्यिका की गणना कीजिए। [7]

प्राप्तांक 10-15 15-20 20-25 25-30 30-35 35-40
विद्यार्थियों की संख्था 40 52 68 58 32 20

Answers

उतर 1.
(b)

उतर 2.
(d)

उतर 3.
(a)

उतर 4.
(b)

उतर 5.
(d)

उतर 6.
(a)

उतर 7.
(d)

उतर 8.
(d)

उतर 9.
(b)

उतर 10.
(d)

उतर 11.
(a)

उतर 12.
(d)

उतर 28.
समान्तर माध्य (X) = 19.35
अथवा
माध्यिका (M) = 23.16

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi वाणिज्य सम्बन्धी निबन्ध

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name वाणिज्य सम्बन्धी निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi वाणिज्य सम्बन्धी निबन्ध

वाणिज्य सम्बन्धी निबन्ध

कुटीर एवं लघु उद्योग

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. कुटीर उद्योगों की स्वतन्त्रतापूर्व स्थिति,
  3. कुटीर उद्योगों की आवश्यकता,
  4. गाँधी जी का योगदान,
  5. कुटीर उद्योगों का नया स्वरूप,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना–वर्तमान सभ्यता को यदि यान्त्रिक सभ्यता कहा जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी। पश्चिमी देशों की सभ्यता यान्त्रिक बन चुकी है। हाथ से बनी वस्तु और यन्त्र से निर्मित वस्तु में किसी प्रकार की होड़ हो ही नहीं सकती; क्योंकि यन्त्र-युग अपने साथ अपरिमित शक्ति एवं साधन लेकर आया है। परन्तु विज्ञान की यह वरदान मानव-शान्ति के लिए अभिशाप भी सिद्ध हो रहा है। इसलिए युग-पुरुष महात्मा गाँधी ने यान्त्रिक सभ्यता के विरुद्ध कुटीर एवं लघु उद्योगों को बढ़ावा देने की आवाज उठायी। वे कुटीर एवं लघु उद्योगों के माध्यम से ही गाँवों के देश भारत में आर्थिक समता लाने के पक्ष में थे।

थोड़ी पूँजी द्वारा सीमित क्षेत्र में अपने हाथ से अपने घर में ही वस्तुओं का निर्माण करना कुटीर तथा लघु उद्योग के अन्तर्गत है। यह व्यवसाय प्रायः परम्परागत भी होता है। दरियाँ, गलीचे, रस्सियाँ बनाना, खद्दर, मोजे, शाल बुनना, लकड़ी, सोने, चाँदी, ताँबे, पीतल की दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुओं का निर्माण करना आदि अनेक प्रकार की हस्तकला के कार्य इसके अन्तर्गत आते हैं।

कुटीर उद्योगों की स्वतन्त्रतापूर्व स्थिति-औद्योगिक दृष्टि से भारत का अतीतकाल अत्यन्त स्वर्णिम एवं सुखद था। लगभग सभी प्रकार के कुटीर एवं लघु उद्योग अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर थे। ‘ढाके की मलमल अपनी कलात्मकता में बहुत ऊँची उठ गयी थी। मुसलमानी बादशाहों और नवाबों के द्वारा भी इसे विशेष प्रोत्साहन मिला। देश को आर्थिक दृष्टि से कुछ इस प्रकार व्यवस्थित किया गया था कि प्राय: प्रत्येक गाँव स्वयं में अधिक-से-अधिक आर्थिक स्वावलम्बन प्राप्त कर सके। किन्तु अंग्रेजी शासन की विनाशकारी आर्थिक नीति तथा यान्त्रिक सभ्यता की दौड़ में न टिक सकने के कारण ग्रामीण जीवन की। औद्योगिक स्वावलम्बता छिन्न-भिन्न हो गयी। देश की राजनीतिक पराधीनता इसके लिए पूर्ण उत्तरदायी थी। ग्रामीण-उद्योगों के समाप्त होने से ग्राम्य जीवन का सारा सुख भी समाप्त हो गया।

कुटीर उद्योगों की आवश्यकता–भारत की दरिद्रता का प्रधान कारण कुटीर एवं लघु उद्योगों को विनाश ही रहा है। भारत में उत्पादन का पैमाना अत्यन्त छोटा है। देश की अधिकांश जनता अब भी छोटे-छोटे व्यवसायों से अपनी जीविका चलाती है। भारत के किसानों को वर्ष में कई महीने बेकार बैठना पड़ता है। कृषि में रोजगार की प्रकृति मौसमी होती है। इस बेरोजगारी को दूर करने के लिए कुटीर-उद्योग का सहायक साधनों के रूप में विकास होना आवश्यक है। जापान, फ्रांस, जर्मनी, इटली, रूस आदि सभी देशों में गौण-उद्योग की प्रथा प्रचलित है।

भारत में कुटीर उद्योगों और छोटे पैमाने के कला-कौशल के विकास के महत्त्व इस रूप में भी विशेष महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि यदि हम अपने बड़े पैमाने के संगठित उद्योगों में चौगुनी-पंचगुनी वृद्धि कर दें तो भी देश में वृत्तिहीनता की विशाल समस्या सुलझायी नहीं जा सकती। ऐसा करके हम केवल मुट्ठी भर व्यक्तियों की रोटी का ही प्रबन्ध कर सकते हैं। इस जटिल समस्या के सुलझाने का एकमात्र उपाय बड़े पैमाने के साथ-साथ कुटीर एवं लघु उद्योगों का समुचित विकास ही है, जिससे कि ग्रामीण क्षेत्रों को सहायक व्यवसाय और किसानों को अपनी आय में वृद्धि करने का अवसर मिल सके।

गाँधी जी का योगदान–गाँधी जी का विचार था कि बड़े पैमाने के उद्योगों को विशेष प्रोत्साहन न देकर विशालकाय मशीनों के उपयोग को रोका जाए तथा छोटे उद्योगों द्वारा पर्याप्त मात्रा में आवश्यक वस्तुएँ उत्पादित की जाएँ। कुटीर-उद्योग मनुष्य की स्वाभाविक रुचियों और प्राकृतिक योग्यताओं के विकास के लिए पूर्ण सुविधा प्रदान करता है। मशीन के मुंह से निकलने वाले एक मीटर टुकड़े को भी कौन अपना कह सकता है, जबकि वह भी उसी मजदूर के खून-पसीने से तैयार हुआ है। हाथ से बनी हुई प्रत्येक वस्तु पर बनाने वाले के नैतिक, सांस्कृतिक तथा आत्मिक व्यक्तित्व की छाप अंकित होती है, जबकि मशीन की स्थिति में इनका लोप हो जाता है और व्यक्ति केवल उस मशीन का एक निर्जीव पुर्जा मात्र रह जाता है।

कुटीर एवं लघु उद्योगों में आधुनिक औद्योगीकरण से उत्पन्न वे दोष नहीं पाये जाते, जो औद्योगिक नगरों की भीड़-भाड़, पूँजी तथा उद्योगों के केन्द्रीकरण, लोक-स्वास्थ्य की पेचीदा समस्याओं, आवास की कमी तथा नैतिक पतन के कारण उत्पन्न होते हैं।

कुटीर, लघु उद्योग थोड़ी पूँजी के द्वारा जीविका-निर्वाह के साधन प्रस्तुत करते हैं। पारस्परिक सहयोग से कुटीर उद्योग बड़े पैमाने में भी परिणत किया जा सकता है। कुटीर-उद्योग में छोटे-छोटे बालकों एवं स्त्रियों के परिश्रम का भी सुन्दर उपयोग किया जा सकता है। कुटीर-उद्योग की इन्हीं विशेषताओं से प्रभावित होकर बड़े- बड़े औद्योगिक राष्ट्रों में भी कुटीर एवं लघु उद्योग की प्रथा प्रचलित है। जापान में 60 प्रतिशत उद्योगशालाएँ कुटीर एवं लघु उद्योग से संचालित हैं। कहा जाता है कि जर्मनी में प्रत्येक मनुष्य को रोटी देने का प्रबन्ध करने के लिए हिटलर ने कुटीर-उद्योगों की ही शरण ली थी।

कुटीर उद्योगों का नया स्वरूप—इस समय देश में छोटे कारखानों की संख्या मोटे तौर पर एक करोड़ से अधिक आँकी गयी है, परन्तु तेल की घानियाँ, खाँडसारी और ऐसी वस्तुओं के छोटे कारखाने, जिन्हें केवल एक आदमी चलाती है आदि को मिलाकर इनकी संख्या बहुत कम है। पंचवर्षीय योजनाओं का उद्देश्य उद्योगों को आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनाने का रहा है। अतः मुख्य रूप से ध्यान इस पर दिया जाएगा कि उद्योगों का विकास विकेन्द्रीकरण के आधार पर हो, शिल्पिक कुशलता में सुधार किया जाए और उत्पादकता बढ़ाने के लिए सहायता देकर छोटे उद्योग वालों की आय बढ़ाने में सहायता की जाए तथा दस्तकारों को सहकारिता के आधार पर संगठित करने के प्रयास किये जाएँ। इससे छोटे उद्योगों में उत्पादन का क्षेत्र बढ़ेगा। | उपसंहार—छोटे उद्योगों की गाँवों में स्थापना से न केवल ग्रामीण दस्तकारों की स्थिति में सुधार हुआ है, बल्कि गाँवों में रोजगार की सुविधा भी बढ़ी है। अत: ग्राम विकास कार्यक्रमों में कुटीर एवं लघु उद्योगों का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। पूर्ण रूप से सफल बनाने के लिए हमारी सरकार इन्हें वैज्ञानिक पद्धति से सहकारिता के आधार पर संचालित करने की व्यवस्था कर रही है। इसकी सफलता पर ही हमारे जीवन में पूर्ण शान्ति, सुख और समृद्धि की कल्याणकारी गूंज ध्वनित हो सकेगी।

आर्थिक उदारीकरण एवं निजीकरण की नीति

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. पं० नेहरू की विचारधारा,
  3. भारतीय अर्थव्यवस्था,
  4. उदारीकरण की अर्थ,
  5. निजीकरण का अर्थ,
  6. नयी औद्योगिक नीति,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना-आजकल ‘उदारीकरण’ शब्द का प्रयोग अत्यधिक प्रचलित हो गया है और इसे इस प्रकार प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे देश की जर्जर अर्थव्यवस्था का उद्धार केवल यही पद्धति कर सकती है। इस व्यवस्था के पक्षधरों का मानना है कि स्वातन्त्र्योत्तर भारत ने आर्थिक विकास हेतु जिस नीति का अनुगमन किया वह सरकारी नियन्त्रण पर आधारित रही और निजी उद्यमिता इससे :भावित हुई। फलतः देश की आर्थिक उन्नति में अपेक्षित उन्नति नहीं हुई। यह भी तर्क दिया जा रहा है कि ‘परमिट लाइसेंस राज ने भी भारतीय अर्थव्यवस्था में गतिरोध ही उत्पन्न किया है।

पं० नेहरू की विचारधारा--ज्ञातव्य है कि सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र किसी भी उन्नतिशील देश के विकास के मूल में होते हैं और इन्हीं से उस देश की आर्थिक प्रक्रिया नियन्त्रित होती है। पं० जवाहरलाल नेहरू का विचार था कि यदि देश का सर्वांगीण विकास करना है तो प्रमुख उद्योगों को विकसित किया जाना आवश्यक होगा। उनका विचार था कि दुनिया में अनेक आर्थिक विचारधाराओं में संघर्ष हो रहा है। मुख्यतः दो धाराएँ हैं-एक ओर तो तथाकथित पूँजीवादी विचारधारा है और दूसरी ओर तथाकथित सोवियत रूस की साम्यवादी विचारधारा। प्रत्येक पक्ष अपने दृष्टिकोण की यथार्थता का कायल है। लेकिन इससे जरूरी तौर पर यह नतीजा नहीं निकलता है कि आप इन दोनों पक्षों में से एक को स्वीकार करें। बीच के कई दूसरे तरीके भी हैं। पूँजीवादी औद्योगिक व्यवस्था ने उत्पादन की समस्या को अत्यधिक सफलता से हल किया है। लेकिन उसने कई समस्याओं को हल नहीं भी किया है। यदि वह इन समस्याओं को हल नहीं कर सकता तो कोई और रास्ता निकालना होगा। यह सिद्धान्त का नहीं कठोर तथ्य का सवाल है। भारत में यदि हम अपने देश की भोजन, वस्त्र, मकान आदि की बुनियादी समस्याएँ हल नहीं कर सकते तो हम अलग कर दिये जाएँगे और हमारी जगह कोई और आएगा। इस समस्या के हल के लिए चरमपंथी तरीका ही नहीं वरन् बीच का रास्ता भी अपनाया जा सकता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था--भारत में जिस प्रकार की अर्थव्यवस्था प्रारम्भ हुई उसे मिश्रित अर्थव्यवस्था का नाम दिया गया। मिश्रित अर्थव्यवस्था से तात्पर्य है ऐसी व्यवस्था जहाँ कुछ क्षेत्र में सरकारी नियन्त्रण रहता है तथा अन्य क्षेत्र निजी व्यवस्था के अधीन रहते हैं और क्षेत्रों का वर्गीकरण पूर्णतया पूर्व सुनिश्चित रहता है।

हिन्दुस्तान में आजादी से पूर्व किसी सुनियोजित औद्योगिक नीति की घोषणा नहीं हुई थी। स्वातन्त्र्योत्तर प्रथम औद्योगिक नीति की घोषणा मिश्रित अर्थव्यवस्था की संकल्पना पर आधारित थी। सन् 1956 में जो औद्योगिक नीति बनी, वह प्रमुख एवं आधारभूत उद्योगों के त्वरित विकास तथा समाजवादी समाज की स्थापना जैसे लक्ष्यों पर आधारित थी। बाद में उसमें कतिपय नीतिगत परिवर्तन हुए जिससे सार्वजनिक क्षेत्र में व्याप्त अवरोधों को दूर किया जा सका।

उदारीकरण का अर्थ-आर्थिक प्रतिबन्धों की न्यूनता को ही उदारीकरण कह सकते हैं। प्रतिबन्धों के कारण प्रतियोगिता का अभाव रहता है, फलतः उत्पादक वर्ग वस्तु की गुणवत्ता के प्रति उदासीन रहता है किन्तु यदि प्रतिबन्धों का अभाव कर दिया जाए तो इसका परिणाम दूरगामी होता है। उदारवादियों का मानना है और नियन्त्रित अर्थव्यवस्था या सरकारीकरण से उद्यमिता का विकास बाधित होता है।

यहाँ पर उल्लेख किया जाना आवश्यक है कि निजीकरण को सम्प्रति विश्व के अधिकांश विकसित एवं अर्द्धविकसित देशों में अपनाया गया है। चूंकि सरकारी उद्योगों में प्रतियोगिता का अभाव रहता है और इसमें उत्पादकता को बढ़ाने का कोई विशेष प्रयास नहीं होता। फलतः इन उद्योगों में कुशलता घट जाती है, किन्तु विकल्प रूप में निजीकरण ही सबसे बेहतर व्यवस्था है, यह भी नहीं कहा जा सकता।

निजीकरण का अर्थ-निजीकरण’ का अर्थ उत्पादनों के साधनों का निजी हाथों में होना है। इसमें सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि निजीकरण का उद्देश्य अल्पकाल में अधिक से अधिक लाभ कमाना होता है। इस कारण यह दीर्घकालीन प्रतिस्पर्धात्मक बाजार नहीं बनाये रहता। प्रायः सरकारी घाटों को पूरा करने के लिए निजीकरण का तरीका अपनाया जाता है। सार्वजनिक सम्पत्ति का निजी हाथों में विक्रय उसी दशा में किया जाना चाहिए जब कि वह राष्ट्रीय ऋण को कम करने में सहायक हो। सन् 1993 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया था कि उदारीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप बेरोजगारी और मुद्रा स्फीति दोनों में वृद्धि हुई है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रोफेसर रुद्र दत्त ने ‘इम्पैक्ट ऑफ इकनॉमिक पॉलिसी ऑन लेबर एण्ड इण्डस्ट्रियल रिलेशन की रिपोर्ट में कहा था कि उदारीकरण ने उत्पादन की संरचना को भी विकृत किया है।

‘नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एण्ड पॉलिसी के प्रमुख शोधकर्ता सुदीप्तो मण्डल का मानना है कि उदारीकरण के परिणामस्वरूप मिल-मालिकों की उग्रता बढ़ी है जबकि श्रमिक वर्ग के जुझारूपन में कमी आयी है।

नयी औद्योगिक नीति–विगत वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था अत्यधिक नियन्त्रित एवं विनियमित अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित हुई है। 24 जुलाई, 1991 को भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व अर्थव्यवस्था के एक अंग के रूप में विकसित करने के लिए नयी औद्योगिक नीति तैयार हुई जिसे उदार एवं क्रान्तिकारी नीति की संज्ञा दी गयी है। इस नीति का लक्ष्य है

  1. अर्थव्यवस्था में खुलेपन को लाना।
  2. अर्थव्यवस्था को अनावश्यक नियन्त्रणों से मुक्त रखना।
  3. विदेशी सहयोग एवं भागीदारी को बढ़ावा देना।
  4. रोजगार के अवसर बढ़ाना।
  5. सार्वजनिक क्षेत्र को प्रतिस्पर्धा के योग्य बनाना।
  6. आधुनिक प्रतिस्पर्धात्मक अर्थव्यवस्था को विकसित करना।
  7. निर्यात बढ़ाने के लिए आयातों को उदार बनाना।
  8. उत्पादकता वृद्धि हेतु प्रोत्साहन देना आदि।

वर्तमान औद्योगिक नीति के अन्तर्गत उद्योगों पर लगे प्रशासनिक एवं कानूनी नियन्त्रणों में शिथिलता दी गयी है। सभी मौजूदा उत्पादन इकाइयों को विस्तार परियोजनाओं को लागू करने के लिए पूर्वानुमति की आवश्यकता नहीं है। उच्च प्राथमिकता वाले उद्योगों में विदेशी पूँजी के निवेश को 40 प्रतिशत के स्थान पर 51 प्रतिशत तक की अनुमति देने के साथ-साथ सार्वजनिक क्षेत्र के महत्त्व को बनाये रखने पर बल दिया गया है। विदेशी तकनीशियनों की सेवाएँ किराये पर लेने तथा स्वदेश में विकसित प्रौद्योगिकी की विदेशों में जॉच करने के लिए अब स्वतः अनुमति की व्यवस्था है।

यह तो ठीक है कि नयी औद्योगिक नीति से उत्पादन वृद्धि, निर्यात संवर्द्धन, औद्योगीकरण, तकनीकी सुधार, प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति का विकास तथा नये उद्यमियों को प्रोत्साहन प्राप्त होगा किन्तु अत्यधिक उदारीकरण एवं विदेशी पूँजी के निवेश की स्वतन्त्र छूट से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था बहुराष्ट्रीय निगमों एवं बड़े औद्योगिक घरानों के चक्र में फंस जाएगी। इस नीति के निम्नलिखित दूरगामी दुष्प्रभाव भी हो सकते हैं|

  1. आर्थिक विषमता में वृद्धि।
  2. आत्मनिर्भरता में ह्रास।
  3. आयतित संस्कृति को बढ़ावा।
  4. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं विदेशी विनियोजकों को स्वतन्त्र छूट देने से देशी उद्यमियों का प्रतिस्पर्धा में टिक पाना कठिन।
  5. अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के दबाव।
  6. काले धन की समानान्तर अर्थव्यवस्था।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि उदारीकरण की हवा पश्चिम से चली है। ठीक है कि निजी उद्योगों की उत्पादन संवृद्धि में विशेष भूमिका हो सकती है किन्तु हस्तक्षेप के अभाव में निजी उद्यमिता विनाशात्मक हो सकती है और किसी भी रूप में निजीकरण सार्वजनिक इकाइयों की त्रुटियों को दूर करने वाला प्रभावपूर्ण उपकरण नहीं हो सकता है। निजीकरण से निजी क्षमता का लाभ होगा और सार्वजनिक इकाइयाँ अस्वस्थ होंगी।

उपसंहार-उदारीकरण से आशय यह नहीं है कि सरकार की भूमिका इसमें कम होती है, अपितु इसमें उसका उत्तरदायित्व और बढ़ जाता है और आर्थिक उदारीकरण का औचित्य सही मायने में तभी सिद्ध हो सकेगा, जब उससे जन-साधारण लाभान्वित हो सकेगा। उदारीकरण की नीति भारतीय अर्थव्यवस्था को गतिशील एवं प्रतिस्पर्धात्मक बनाने में सफल हो सकती है। किन्तु विदेशी पूँजी पर आश्रितता, विदेशी आर्थिक उपनिवेशवाद की स्थापना एवं बड़े औद्योगिक घरानों का वर्चस्व बढ़ेगा, जिससे गरीबी और बेरोजगारी में वृद्धि होगी। अतः इस नीति को दूरदर्शितापूर्वक लागू करना होगा अन्यथा अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनियों के भारत में आने से भारतीय कम्पनियों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा, जो कि आर्थिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भारत के लिए अत्यधिक हानिकारक है।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi कृषि सम्बन्धी निबन्ध

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कृषि सम्बन्धी निबन्ध प्रवास

ग्राम्य विकास की समस्याएँ और उनका समाधान

सम्बद्ध शीर्षक

  • भारतीय कृषि की समस्याएँ
  • भारतीय किसानों की समस्याएँ और उनके समाधान [2009, 12, 15]
  • ग्रामीण कृषकों की समस्या [2012]
  • आज का किसान : समस्याएँ और समाधान [2014]
  • भारतीय किसान का जीवन [2014]
  • कृषक जीवन की त्रासदी [2015]
  • वर्तमान भारत में कृषकों की समस्या एवं समाधान (2016)

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना,
  2. भारतीय कृषि का स्वरूप,
  3. भारतीय कृषि की समस्याएँ,
  4. समस्या का समाधान,
  5. ग्रामोत्थान हेतु सरकारी योजनाएँ,
  6. आदर्श ग्राम की कल्पना,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना-प्राचीन काल से ही भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है। भारत की लगभग 70 प्रतिशत जनता गाँवों में निवास करती है। इस जनसंख्या का अधिकांश भाग कृषि पर ही निर्भर है। कृषि ने ही भारत को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में विशेष ख्याति प्रदान की है। भारत की सकल राष्ट्रीय आय का लगभग 30 प्रतिशत कृषि से ही आता है। भारतीय समाज को संगठन और संयुक्त परिवार-प्रणाली आज के युग में कृषि व्यवसाय के कारण ही अपना महत्त्व बनाये हुए है। आश्चर्य की बात यह है कि हमारे देश में कृषि बहुसंख्यक जनता का मुख्य और महत्त्वपूर्ण व्यवसाय होते हुए भी बहुत ही पिछड़ा हुआ और अवैज्ञानिक है। जब तक भारतीय कृषि में सुधार नहीं होता, तब तक भारतीय किसानों की स्थिति में सुधार की कोई सम्भावना नहीं और भारतीय किसानों की स्थिति में सुधार के पूर्व भारतीय गाँवों के विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि भारतीय कृषि, कृषक और गाँव तीनों ही एक-दूसरे पर अवलम्बित हैं। इनके उत्थान और पतन, समस्याएँ और समाधान भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।

भारतीय कृषि का स्वरूप-भारतीय कृषि और अन्य देशों की कृषि में बहुत अन्तर है। कारण अन्य देशों की कृषि वैज्ञानिक ढंग से आधुनिक साधनों द्वारा की जाती है, जब कि भारतीय कृषि अवैज्ञानिक और अविकसित है। भारतीय कृषक आधुनिक तरीकों से खेती करना नहीं चाहते और परम्परागत कृषि पर ही आधारित हैं। इसके साथ-ही भारतीय कृषि का स्वरूप इसलिए भी अव्यवस्थित है कि यहाँ पर कृषि प्रकृति । की उदारता पर निर्भर है। यदि वर्षा ठीक समय पर उचित मात्रा में हो गयी तो फसल अच्छी हो जाएगी अन्यथा बाढ़ और सूखे की स्थिति में सारी की सारी उपज नष्ट हो जाती है। इस प्रकार प्रकृति की अनिश्चितता पर निर्भर होने के कारण भारतीय कृषि सामान्य कृषकों के लिए आर्थिक दृष्टि से लाभदायक नहीं है।

भारतीय कृषि की समस्याएँ-आज के विज्ञान के युग में भी कृषि के क्षेत्र में भारत में अनेक समस्याएँ विद्यमान हैं, जो कि भारतीय कृषि के पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी हैं। भारतीय कृषि की प्रमुख समस्याओं में सामाजिक, आर्थिक और प्राकृतिक कारण हैं। सामाजिक दृष्टि से भारतीय कृषक की दशा अच्छी नहीं है। अपने शरीर की चिन्ता न करते हुए सर्दी, गर्मी सभी ऋतुओं में वह अत्यन्त कठिन परिश्रम करता है तब भी उसे पर्याप्त लाभ नहीं हो पाता। भारतीय किसान अशिक्षित होता है। इसका कारण आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के प्रसार का न होना है। शिक्षा के अभाव के कारण वह कृषि में नये वैज्ञानिक तरीकों का प्रयोग नहीं कर पाता तथा अच्छे खाद और बीज के बारे में भी नहीं जानता। कृषि करने के आधुनिक वैज्ञानिक यन्त्रों के विषय में भी उसका ज्ञान शून्य होता है तथा आज भी वह प्रायः पुराने ढंग के ही खाद और बीजों का प्रयोग करता है। भारतीय किसानों की आर्थिक स्थिति भी अत्यन्त शोचनीय है। वह आज भी महाजनों की मुट्ठी में जकड़ा हुआ है। प्रेमचन्द ने कहा था, “भारतीय किसान ऋण में ही जन्म लेता है, जीवन भर ऋण ही चुकाता रहता है और अन्तत: ऋणग्रस्त अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।’ धन के अभाव में ही वह उन्नत बीज, खाद और कृषि-यन्त्रों का प्रयोग नहीं कर पाता। सिंचाई के साधनों के अभाव के कारण वह प्रकृति पर अर्थात् वर्षा पर निर्भर करता है।

प्राकृतिक प्रकोपों—बाढ़, सूखा, ओला आदि से भारतीय किसानों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। अशिक्षित होने के कारण वह वैज्ञानिक विधियों का खेती में प्रयोग करना नहीं जानता और न ही उन पर विश्वास करना चाहता है। अन्धविश्वास, धर्मान्धता, रूढ़िवादिता आदि उसे बचपन से ही घेर लेते हैं। इस सबके अतिरिक्त एक अन्य समस्या है—भ्रष्टाचार की, जिसके चलते न तो भारतीय कृषि का स्तर सुधर पाता है और न ही भारतीय कृषक का। हमारे पास दुनिया की सबसे अधिक उपजाऊ भूमि है। गंगा-यमुना के मैदान में इतना अनाज पैदा किया जा सकता है कि पूरे देश का पेट भरा जा सकता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण दूसरे देश आज भी हमारी ओर ललचाई नजरों से देखते हैं। लेकिन हमारी गिनती दुनिया के भ्रष्ट देशों में होती है। हमारी तमाम योजनाएँ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। केन्द्र सरकार अथवा विश्व बैंक की कोई भी योजना हो, उसके इरादे कितने ही महान् क्यों न हों पर हमारे देश के नेता और नौकरशाह योजना के उद्देश्यों को धूल चटा देने की कला में माहिर हो चुके हैं। ऊसर भूमि सुधार, बाल पुष्टाहार, आँगनबाड़ी, निर्बल वर्ग आवास योजना से लेकर कृषि के विकास और विविधीकरण की तमाम शानदार योजनाएँ कागजों और पैम्फ्लेटों पर ही चल रही हैं। आज स्थिति यह है कि गाँवों के कई घरों में दो वक्त चूल्हा भी नहीं जलता है तथा ग्रामीण नागरिकों को पानी, बिजली, स्वास्थ्य, यातायात और शिक्षा की बुनियादी सुविधाएँ भी ठीक से उपलब्ध नहीं हैं। इन सभी समस्याओं के परिणामस्वरूप भारतीय कृषि का प्रति एकड़ उत्पादन अन्य देशों की अपेक्षा गिरे हुए स्तर का रहा है।

समस्या का समाधान--भारतीय कृषि की दशा को सुधारने से पूर्व हमें कृषक और उसके वातावरण की ओर दृष्टिपात करना चाहिए। भारतीय कृषक जिन ग्रामों में रहता है, उनकी दशा अत्यन्त शोचनीय है। अंग्रेजों के शासनकाल में किसानों पर ऋण का बोझ बहुत अधिक था। शनैः-शनै: किसानों की आर्थिक दशा और गिरती चली गयी एवं गाँवों का सामाजिक-आर्थिक वातावरण अत्यन्त दयनीय हो गया। अत: किसानों की स्थिति में सुधार तभी लाया जा सकता है, जब विभिन्न योजनाओं के माध्यम से इन्हें लाभान्वित किया जा सके। इनको अधिकाधिक संख्या में साक्षर बनाने हेतु एक मुहिम छेड़ी जाए। ऐसे ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रम तैयार किये जाएँ, जिनसे हमारी किसान कृषि के आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों से अवगत हो सके।

ग्रामोत्थान हेतु सरकारी योजनाएँ—ग्रामों की दुर्दशा से भारत की सरकार भी अपरिचित नहीं है। भारत ग्रामों का ही देश है; अत: उनके सुधारार्थ पर्याप्त ध्यान दिया जाता है। पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा गाँवों में सुधार किये जा रहे हैं। शिक्षालय, वाचनालय, सहकारी बैंक, पंचायत, विकास विभाग, जलकल, विद्युत आदि की व्यवस्था के प्रति पर्याप्त ध्यान दिया जा रहा है। इस प्रकार सर्वांगीण उन्नति के लिए भी प्रयत्न हो रहे हैं, किन्तु इनकी सफलता ग्रामों में बसने वाले निवासियों पर भी निर्भर है। यदि वे अपना कर्तव्य समझकर विकास में सक्रिय सहयोग दें, तो ये सभी सुधार उत्कृष्ट साबित हो सकते हैं। इन प्रयासों के बावजूद ग्रामीण जीवन में अभी भी अनेक सुधार अपेक्षित हैं।

आदर्श ग्राम की कल्पना-गाँधी जी की इच्छा थी कि भारत के ग्रामों का स्वरूप आदर्श हो तथा उनमें सभी प्रकार की सुविधाओं, खुशहाली और समृद्धि का साम्राज्य हो। गाँधी जी का आदर्श गाँव से अभिप्राय एक ऐसे गाँव से था, जहाँ पर शिक्षा का सुव्यवस्थित प्रचार हो; सफाई, स्वास्थ्य तथा मनोरंजन की सुविधाएँ हो; सभी व्यक्ति प्रेम, सहयोग और सद्भावना के साथ रहते हों; रेडियो, पुस्तकालय, पोस्ट ऑफिस आदि की सुविधाएँ हों; भेदभाव, छुआछूत आदि की भावना न हो; तथा लोग सुखी और सम्पन्न हों। परन्तु आज भी हम देखते हैं कि उनका स्वप्न मात्र स्वप्न ही रह गया है। आज भी भारतीय गाँवों की दशा अच्छी नहीं है। चारों ओर बेरोजगारी और निर्धनता का साम्राज्य है। गाँधी जी को आदर्श ग्राम तभी सम्भव है। जब कृषि जो कि ग्रामवासियों का मुख्य व्यवसाय है, की स्थिति में सुधार के प्रयत्न किये जाएँ और कृषि से सम्बन्धित सभी समस्याओं का यथासम्भव शीघ्रातिशीघ्र निराकरण किया जाए।

उपसंहार-ग्रामों की उन्नति भारत के आर्थिक विकास में अपना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। भारत सरकार ने स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् गाँधी जी के आदर्श ग्राम की कल्पना को साकार करने का यथासम्भव प्रयास किया है। गाँवों में शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई आदि की व्यवस्था के प्रयत्न किये हैं। कृषि के लिए अनेक सुविधाएँ; जैसे-अच्छे बीज, अच्छे खाद, अच्छे उपकरण और साख एवं सुविधाजनक ऋण-व्यवस्था आदि देने का प्रबन्ध किया गया है। इस दशा में अभी और सुधार किये जाने की आवश्यकता है। वह दिन दूर नहीं है जब हम अपनी संस्कृति के मूल्य को पहचानेंगे और एक बार फिर उसके सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करेंगे। उस समय हमारे स्वर्ग से सुन्दर देश के वैसे ही गाँव अँगूठी में जड़े नग की तरह सुशोभित होंगे और हम कह सकेंगे–

हमारे सपनों का संसार, जहाँ पर हँसता हो साकार,
जहाँ शोभा-सुख-श्री के साज, किया करते हैं नित श्रृंगार।
यहाँ यौवन मदमस्त ललाम, ये हैं वही हमारे ग्राम ॥

भारत में वैज्ञानिक कृषि

सम्बद्ध शीर्षक

  • भारतीय विज्ञान एवं कृषि
  • वैज्ञानिक विधि अपनाएँ : अधिक अन्न उपजाएँ।
  • भारत का किसान और विज्ञान [2011]
  • भारतीय कृषि एवं विज्ञान [2014]
  • व्यावसायिक कृषि का प्रसार : किसान का आधार [2014]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. प्रजनन : कृषि की विशिष्ट वैज्ञानिक विधि,
  3. विज्ञान की नयी तकनीकों के प्रयोग का सुखद परिणाम,
  4. उत्पादन के भण्डारण और भू-संरक्षण के लिए विज्ञान की उपादेयता,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना किसान और खेती इस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। इसलिए सच ही कहा गया है। कि हमारे देश की समृद्धि का रास्ता खेतों और खलिहानों से होकर गुजरता है; क्योंकि यहाँ की दो-तिहाई जनता कृषि-कार्य में संलग्न है। इस प्रकार हमारी कृषि-व्यवस्था पर ही देश की समृद्धि निर्भर करती है और कृषि-व्यवस्था को विज्ञान ने एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया है, जिसके कारण पिछले दशकों में आत्मनिर्भरता की स्थिति तक उत्पादन बढ़ा है। इस वृद्धि में उन्नत किस्म के बीजों, उर्वरकों, सिंचाई के साधनों, जल-संरक्षण एवं पौध-संरक्षण का उल्लेखनीय योगदान रहा है और यह सब कुछ विज्ञान की सहायता से ही सम्भव हो सका है। इस प्रकार विज्ञान और कृषि आज एक-दूसरे के पूरक हो गये हैं।

मनुष्यों को जीवित रहने के लिए खाद्यान्न, फल और सब्जियाँ चाहिए। ये सभी चीजें कृषि से ही प्राप्त होंगी। दूसरी ओर किसानों को अपनी कृषि की उपज बढ़ाने के लिए नयी तकनीक चाहिए, उन्नत किस्म के बीज चाहिए, उर्वरक और सिंचाई के साधनों के अलावा बिजली भी चाहिए। विज्ञान का ज्ञान ही उन्हें यह सब उपलब्ध करा सकता है।

प्रजनन : कृषि की विशिष्ट वैज्ञानिक विधि–चन्द्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने वित्तीय वर्ष 1999-2000 में गेहूँ की चार नयी प्रजातियाँ विकसित कीं। कृषि वैज्ञानिक प्रोफेसर जियाउद्दीन अहमद के अनुसार, ‘अटल’, ‘नैना’, ‘गंगोत्री’ एवं ‘प्रसाद’ नाम की ये प्रजातियाँ रोटी को और अधिक स्वादिष्ट बनाने में सक्षम होंगी। पहली प्रजाति-के-9644 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम से जोड़कर ‘अटल’ नाम दिया गया है, जिन्होंने ‘जय जवान जय किसान’ के साथ ‘जय विज्ञान’ जोड़कर एक नया नारा दिया है।

यह गेहूँ ऐच्छिक पौधों के प्रकार के साथ, वर्षा की विविध स्थितियों में भी श्रेयस्कर उत्पादक स्थितियाँ सँजोये रखेगा। हरी पत्ती और जल्दी पुष्पित होने वाली इस प्रजाति का गेहूँ कड़े दाने वाला। होगा। इसमें अधिक उत्पादकता के साथ अधिक प्रोटीन भी होगा। प्रजनन की विशिष्ट विधि का प्रयोग करके वैज्ञानिकों ने के-7903 नैना प्रजाति का विकास किया है, जो 75 से 100 दिन में पक जाता है। इसमें 12 प्रतिशत प्रोटीन होता है और इसकी उत्पादन-क्षमता 40 से 50 क्विटल प्रति हेक्टेयर है। इसी प्रकार विकसित के-9102 प्रजाति को गंगोत्री नाम दिया है। इसकी परिपक्वता अवधि 90 से 105 दिन के बीच घोषित की। गयी है। इसमें 13 प्रतिशत प्रोटीन होता है और 40 से 50 क्विटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन-क्षमता होती है। प्रजनन की विशिष्ट वैज्ञानिक विधि से ही ऐसा सम्भव हो पाया है।

विज्ञान की नयी तकनीकों के प्रयोग का सुखद परिणाम-आधारभूत वैज्ञानिक तकनीकें जो कृषि के क्षेत्र में प्रयुक्त हुई और हो रही हैं, उन्हें अब व्यापक स्वीकृति भी मिल रही है। ये वे आधार बनी हैं, जिससे कृषि की उपलब्धियाँ ‘भीख के कटोरे’ से आज निर्यात के स्तर तक पहुँच गयी हैं। कृषि में वृद्धि, विशेषकर पैदावार और उत्पादन में अनेक गुना वृद्धि, मुख्य अनाज की फसलों के उत्पादन में वृद्धि से सम्भव हुई है। पहले गेहूं की हरित क्रान्ति हुई और इसके बाद धान के उत्पादन में क्रान्ति आयी। विज्ञान की नयी-नयी तकनीकों के प्रयोग से ही यह सम्भव हो सका है।

उत्पादन के भण्डारण और भू-संरक्षण के लिए विज्ञान की उपादेयता-पर्याप्त मात्रा में उत्पादन के बाद उसके भण्डारण की भी आवश्यकता होती है। आलू, फल आदि के भण्डारण के लिए शीतगृहों एवं प्रशीतित वाहनों के लिए वैज्ञानिक विधियों की सहायता की आवश्यकता पड़ती है। फसलों के निर्यात के लिए साफ-सुथरी सड़कों, ट्रैक्टरों और ट्रकों का निर्माण विज्ञान के ज्ञान से ही सम्भव हो सका है, जिनकी आवश्यकता कृषकों के लिए होती है। इसके अलावा चीनी मिल, आटा मिल, चावल मिल, दाल मिल और तेल मिल की आवश्यकता पड़ती है। इन मिलों की स्थापना वैज्ञानिक विधि से ही हो सकती है। ट्यूबवेल एवं कृषि पर आधारित उद्योगों के लिए बिजली की आवश्यकता को वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर पूरा किया जा सकता है। इसी प्रकार खेत की मिट्टी की जाँच कराकर, विश्लेषण के परिणामों के आधार पर सन्तुलित उर्वरकों एवं जैविक खादों के प्रयोग के लिए भी विज्ञान के ज्ञान की ही आवश्यकता होती है।

उपसंहार—इस प्रकार विज्ञान और कृषि का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। भूमण्डलीकरण के युग में आज विज्ञान की सहायता के बिना कृषि और कृषक को उन्नत नहीं बनाया जा सकता। यह भी सत्य है कि जब तक गाँव की खेती तथा किसान की दशा नहीं सुधरती, तब तक देश के विकास की बात बेमानी ही कही जाएगी। भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री चौधरी चरण सिंह के जन्मदिन 23 दिसम्बर को ‘किसान-दिवस’ के रूप में मनाये जाने की घोषणा से कृषि और कृषक के उज्ज्वल भविष्य की अच्छी सम्भावनाएँ दिखाई देती हैं।

भारत में कृषि क्रान्ति एवं कृषक आन्दोलन

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. किसानों की समस्याएँ,
  3. कृषक संगठन व उनकी माँग,
  4. कृषक आन्दोलनों के कारण,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना–हमारा देश कृषि प्रधान है और सच तो यह है कि कृषि क्रिया-कलाप ही देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। ग्रामीण क्षेत्रों की तीन-चौथाई से अधिक आबादी अब भी कृषि एवं कृषि से संलग्न क्रिया-कलापों पर निर्भर है। भारत में कृषि मानसून पर आश्रित है और इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि प्रत्येक वर्ष देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा सूखे एवं बाढ़ की चपेट में आता है। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था, भारतीय जन-जीवन का प्राणतत्त्व है। अंग्रेजी शासन-काल में भारतीय कृषि का पर्याप्त ह्रास हुआ।
किसानों की समस्याएँ-भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। भारत की अधिकांश जनता गाँवों में बसती है। यद्यपि किसान समाज का कर्णधार है किन्तु इनकी स्थिति अब भी बदतर है। उसकी मेहनत के अनुसार उसे पारितोषिक नहीं मिलता है। यद्यपि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि-क्षेत्र का योगदान 30 प्रतिशत है, फिर भी भारतीय कृषक की दशा शोचनीय है।

देश की आजादी की लड़ाई में कृषकों की एक वृहत् भूमिका रही। चम्पारण आन्दोलन अंग्रेजों के खिलाफ एक खुला संघर्ष था। स्वातन्त्र्योत्तर जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ। किसानों को भू-स्वामित्व का अधिकार मिला। हरित कार्यक्रम भी चलाया गया और परिणामत: खाद्यान्न उत्पादकता में वृद्धि हुई; किन्तु इस हरित क्रान्ति का विशेष लाभ सम्पन्न किसानों तक ही सीमित रहा। लघु एवं सीमान्त कृषकों की स्थिति में कोई आशानुरूप सुधार नहीं हुआ।

आजादी के बाद भी कई राज्यों में किसानों को भू-स्वामित्व नहीं मिला जिसके विरुद्ध बंगाल, बिहार एवं आन्ध्र प्रदेश में नक्सलवादी आन्दोलन प्रारम्भ हुए।

कृषक संगठन व उनकी माँग-किसानों को संगठित करने का सबसे बड़ा कार्य महाराष्ट्र में शरद जोशी ने किया। किसानों को उनकी पैदावार का समुचित मूल्य दिलाकर उनमें एक विश्वास पैदा किया कि वे संगठित होकर अपनी स्थिति में सुधार ला सकते हैं। उत्तर प्रदेश के किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत ने किसानों की दशा में बेहतर सुधार लाने के लिए एक आन्दोलन चलाया है और सरकार को इस बात का अनुभव करा दिया कि किसानों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। टिकैत के आन्दोलन ने किसानों के मन में कमोवेश यह भावना भर दी कि वे भी संगठित होकर अपनी आर्थिक उन्नति कर सकते हैं।

किसान संगठनों को सबसे पहले इस बारे में विचार करना होगा कि “आर्थिक दृष्टि से अन्य वर्गों के साथ उनका क्या सम्बन्ध है। उत्तर प्रदेश की सिंचित भूमि की हदबन्दी सीमा 18 एकड़ है। जब किसान के लिए सिंचित भूमि 18 एकड़ है, तो उत्तर प्रदेश की किसान यूनियन इस मुद्दे को उजागर करना चाहती है कि 18 एकड़ भूमि को सम्पत्ति-सीमा को आधार मानकर अन्य वर्गों की सम्पत्ति अथवा आय-सीमा निर्धारित होनी चाहिए। कृषि पर अधिकतम आय की सीमा साढ़े बारह एकड़ निश्चित हो गयी, किन्तु किसी व्यवसाय पर कोई भी प्रतिबन्ध निर्धारित नहीं हुआ। अब प्रौद्योगिक क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी शनैः-शनैः हिन्दुस्तान में अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाती जा रही हैं। किसान आन्दोलन इस विषमता एवं विसंगति को दूर करने के लिए भी संघर्षरत है। वह चाहता है कि भारत में समाजवाद की स्थापना हो, जिसके लिए सभी प्रकार के पूँजीवाद तथा इजारेदारी का अन्त होना परमावश्यक है। यूनियन की यह भी माँग है कि वस्तु विनिमय के , अनुपात से कीमतें निर्धारित की जाएँ, न कि विनिमय का माध्यम रुपया माना जाए। यह तभी सम्भव होगा जब । उत्पादक और उपभोक्ता दोनों रूपों में किसान के शोषण को समाप्त किया जा सके। सारांश यह है कि कृषि उत्पाद की कीमतों को आधार बनाकर ही अन्य औद्योगिक उत्पादों की कीमतों को निर्धारित किया जाना चाहिए।”

किसान यूनियन किसानों के लिए वृद्धावस्था पेंशन की पक्षधर है। कुछ लोगों का मानना है कि किसान यूनियन किसानों का हित कम चाहती है, वह राजनीति से प्रेरित ज्यादा है। इस सन्दर्भ में किसान यूनियन का कहना है “हम आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक शोषण के विरुद्ध किसानों को संगठित करके एक नये समाज की संरचना करना चाहते हैं। आर्थिक मुद्दों के अतिरिक्त किसानों के राजनीतिक शोषण से हमारा तात्पर्य जातिवादी राजनीति को मिटाकर वर्गवादी राजनीति को विकसित करना है। आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक दृष्टि से शोषण करने वालों के समूह विभिन्न राजनीतिक दलों में विराजमान हैं और वे अनेक प्रकार के हथकण्डे अपनाकर किसानों का मुंह बन्द करना चाहते हैं। कभी जातिवादी नारे देकर, कभी किसान विरोधी आर्थिक तर्क देकर, कभी देश-हित का उपदेश देकर आदि, परन्तु वे यह भूल जाते हैं कि किसानों की उन्नति से ही भारत नाम का यह देश, जिसकी जनसंख्या का कम-से-कम 70% भाग किसानों का है, उन्नति कर सकता है। कोई चाहे कि केवल एक-आध प्रतिशत राजनीतिज्ञों, अर्थशास्त्रियों, स्वयंभू समाजसेवियों तथा तथाकथित विचारकों की उन्नति हो जाने से देश की उन्नति हो जाएगी तो ऐसा सोचने वालों की सरासर भूल होगी।

यहाँ एक बात का उल्लेख करना और भी समीचीन होगा कि आर्थर डंकल के प्रस्तावों ने कृषक आन्दोलन में घी का काम किया है। इससे आर्थिक स्थिति कमजोर होगी और करोड़ों कृषक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के गुलाम बन जाएँगे।

कृषक आन्दोलनों के कारण भारत में कृषक आन्दोलन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  1. भूमि सुधारों का क्रियान्वयन दोषपूर्ण है। भूमि का असमान वितरण इस आन्दोलन की मुख्य जड़ है।
  2. भारतीय कृषि को उद्योग को दर्जा न दिये जाने के कारण किसानों के हितों की उपेक्षा निरन्तर हो रही है।
  3. किसानों द्वारा उत्पादित वस्तुओं का मूल्य-निर्धारण सरकार करती है जिसका समर्थन मूल्य बाजार मूल्य से नीचे रहता है। मूल्य-निर्धारण में कृषकों की भूमिका नगण्य है।
  4. दोषपूर्ण कृषि विपणन प्रणाली भी कृषक आन्दोलन के लिए कम उत्तरदायी नहीं है। भण्डारण की अपर्याप्त व्यवस्था, कृषि मूल्यों में होने वाले उतार-चढ़ावों की जानकारी न होने से भी किसानों को पर्याप्त आर्थिक घाटा सहना पड़ता है।
  5. बीजों, खादों, दवाइयों के बढ़ते दाम और उस अनुपात में कृषकों को उनकी उपज को पूरा मूल्य भी न मिल पाना अर्थात् बढ़ती हुई लागत भी कृषक आन्दोलन को बढ़ावा देने के लिए उत्तरदायी है।
  6. नयी कृषि तकनीक का लाभ आम कृषक को नहीं मिल पाता है।
  7. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का पुलन्दा लेकर जो डंकल प्रस्ताव भारत में आया है, उससे भी किसान बेचैन हैं और उनके भीतर एक डर समाया हुआ है।
  8. कृषकों में जागृति आयी है और उनका तर्क है कि चूंकि सकल राष्ट्रीय उत्पाद में उनकी महती भूमिका है; अत: धन के वितरण में उन्हें भी आनुपातिक हिस्सा मिलना चाहिए।

उपसंहार–विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं का अवलोकन करने पर स्पष्ट होता है कि कृषि की हमेशा उपेक्षा हुई है; अतः आवश्यक है कि कृषि के विकास पर अधिकाधिक ध्यान दिया जाए।

स्पष्ट है कि कृषक हितों की अब उपेक्षा नहीं की जा सकती। सरकार को चाहिए कि कृषि को उद्योग का दर्जा प्रदान करे। कृषि उत्पादों के मूल्य-निर्धारण में कृषकों की भी भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। भूमि-सुधार कार्यक्रम के दोषों का निवारण होना जरूरी है तथा सरकार को किसी भी कीमत परे डंकल प्रस्ताव को अस्वीकृत कर देना चाहिए और सरकार द्वारा किसानों की माँगों और उनके आन्दोलनों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।

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