UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 3 Election and Representation

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 3 Election and Representation (चुनाव और प्रतिनिधित्व)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में कौन प्रत्यक्ष लोकतंत्र के सबसे नजदीक बैठता है?
(क) परिवार की बैठक में होने वाली चर्चा
(ख) कक्षा-संचालक (क्लास-मॉनीटर) का चुनाव
(ग) किसी राजनीतिक दल द्वारा अपने उम्मीदवार का चयन
(घ) मीडिया द्वारा करवाए गए जनमत-संग्रह
उत्तर-
(घ) मीडिया द्वारा करवाए गए जनमत संग्रह।

प्रश्न 2.
इनमें कौन-सा कार्य चुनाव आयोग नहीं करता?
(क) मतदाता सूची तैयार करना
(ख) उम्मीदवारों का नामांकन
(ग) मतदान-केन्द्रों की स्थापना
(घ) आचार-संहिता लागू करना।
(ङ) पंचायत के चुनावों का पर्यवेक्षण
उत्तर-
(ङ) पंचायत के चुनावों का पर्यवेक्षण।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में कौन-सी राज्यसभा और लोकसभा के सदस्यों के चुनाव की प्रणाली के समान है?
(क) 18 वर्ष से ज्यादा की उम्र का हर नागरिक मतदान करने के योग्य है।
(ख) विभिन्न प्रत्याशियों के बारे में मतदाता अपनी पसंद को वरीयता क्रम में रख सकता है।
(ग) प्रत्येक मत का समान मूल्य होता है।
(घ) विजयी उम्मीदवार को आधे से अधिक मत प्राप्त होने चाहिए।
उत्तर-
(ग) प्रत्येक मत का समान मूल्य होता है।

प्रश्न 4.
फर्स्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली में वही प्रत्याशी विजेता घोषित किया जाता है जो
(क) सर्वाधिक संख्या में मत अर्जित करता है।
(ख) देश में सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले दल का सदस्य हो।
(ग) चुनाव-क्षेत्र के अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा मत हासिल करता है।
(घ) 50 प्रतिशत से अधिक मत हासिल करके प्रथम स्थान पर आता है।
उत्तर-
(घ) 50 प्रतिशत से अधिक मत हासिल करके प्रथम स्थान पर आता है।

प्रश्न 5.
पृथक् निर्वाचन-मण्डल और आरक्षित चुनाव-क्षेत्र के बीच क्या अंतर है? संविधान निर्माताओं ने पृथक निर्वाचन-मण्डल को क्यों स्वीकार नहीं किया?
उत्तर-
स्वतन्त्रता से पूर्व अंग्रेजों की नीति थी-फूट डालो तथा शासन करो। इस नीति के अनुसार अंग्रेजों ने निर्वाचन हेतु मतदाताओं को विभिन्न श्रेणियों और वर्गों में विभाजित कर रखा था, किन्तु हमारे संविधान-निर्माताओं ने पृथक् निर्वाचन-मण्डल का अन्त कर दिया क्योंकि यह प्रणाली समाज को बाँटने का काम करती थी। भारत के संविधान में कमजोर वर्गों का विधायी संस्थाओं (संसद व विधान पालिकाएँ) ने प्रतिनिधित्व को निश्चित करने के लिए आरक्षण का रास्ता चुना जिसके तहत संसद में तथा राज्यों की विधानसभाओं में इन्हें आरक्षण प्रदान किया गया है। भारत में यह आरक्षण 2010 तक के लिए लागू किया गया है।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में कौन-सा कथन गलत है? इसकी पहचान करें और किसी एक शब्द अथवा पद को बदलकर, जोड़कर अथवा नए क्रम में सजाकर इसे सही करें-
(क) एक फर्स्ट-पोस्ट-द-पोस्ट प्रणाली (‘सबसे आगे वाला जीते प्रणाली’) का पालन भारत के हर चुनाव में होता है।
(ख) चुनाव आयोग पंचायत और नगरपालिका के चुनावों का पर्यवेक्षण नहीं करता।
(ग) भारत का राष्ट्रपति किसी चुनाव आयुक्त को नहीं हटा सकता।
(घ) चुनाव आयोग में एक से ज्यादा चुनाव आयुक्त की नियुक्ति अनिवार्य है।
उत्तर-
(क) एक फस्र्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली (सबसे आगे वाला जीते प्रणाली’) का पालन भारत के हर चुनाव में होता है। यह कथन गलत है। सही स्थिति यह है कि इस प्रणाली का प्रयोग भारत में कुछ पदों के निर्वाचन में ही होता है। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति व राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव एकल संक्रमणीय मत पद्धति के द्वारा इसी प्रणाली से होता है। अन्य चुनावों में फर्स्ट-पोस्ट-द-पोस्ट प्रणाली का पालन नहीं होता है।
(ख) यह कथन सही है।
(ग) यह कथन सही है।
(घ) यह कथन सही है।

प्रश्न 7.
भारत की चुनाव-प्रणाली का लक्ष्य समाज के कमजोर तबके की नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना है। लेकिन अभी तक हमारी विधायिका में महिला सदस्यों की संख्या 10 प्रतिशत भी नहीं पहुँचती। इस स्थिति में सुधार के लिए आप क्या उपाय सुझाएँगे?
उत्तर-
सन् 1992 में पंचायतों तथा नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिए एक-तिहाई स्थान आरक्षित किए जाने के लिए प्रयास चल रहे हैं। इसके लिए निम्नलिखित सुझाव हैं-

  1. भारत में मतदाताओं का लगभग 50 प्रतिशत भाग महिलाएँ हैं; अतः इनकी संख्या बढ़ाने के लिए इनमें जागरूकता उत्पन्न की जाए।
  2. संविधान के समक्ष पुरुष और स्त्री समान हैं और स्त्रियों पर भी सभी कानून समान रूप से लागू होते हैं। इसलिए कानून के निर्माण में इनकी भागीदारी पर्याप्त होनी चाहिए।

प्रश्न 8.
एक नए देश के संविधान के बारे में आयोजित किसी संगोष्ठी में वक्ताओं ने निम्नलिखित आशाएँ जतायीं। प्रत्येक कथन के बारे में बताएँ कि उनके लिए फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली) उचित होगी या समानुपातिक प्रतिनिधित्व वाली प्रणाली?
(क) लोगों को इस बात की साफ-साफ जानकारी होनी चाहिए कि उनका प्रतिनिधि कौन है। ताकि वे उसे निजी तौर पर जिम्मेदार ठहरा सकें।
(ख) हमारे देश में भाषाई रूप से अल्पसंख्यक छोटे-छोटे समुदाय हैं और देशभर में फैले हैं, हमें इनकी ठीक-ठीक नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना चाहिए।
(ग) विभिन्न दलों के बीच सीट और वोट को लेकर कोई विसंगति नहीं रखनी चाहिए।
(घ) लोग किसी अच्छे प्रत्याशी को चुनने में समर्थ होने चाहिए भले ही वे उसके राजनीतिक दल को पसंद न करते हों।
उत्तर-
(क) जनसाधारण की इच्छाओं को अधिक प्रभावी रूप से व्यक्त करने के लिए फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट मत प्रणाली सर्वाधिक उपयुक्त रहेगी क्योंकि इसमें नागरिकों व प्रतिनिधियों का सीधा सम्पर्क रहता है तथा नागरिक अपने प्रतिनिधियों को सीधे ही जिम्मेवार ठहराकर उन्हें आगामी चुनाव में सत्ता से हटा सकते हैं। इस प्रणाली में नागरिक को अपनी पसन्द का प्रतिनिधि चुनने का मौका मिलता है।

(ख) देश के सभी अल्पसंख्यकों को उनकी संख्या के आधार पर उसी अनुपात में उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए आनुपातिक मत प्रणाली का कोई एक तरीका प्रयोग में लाना चाहिए जिससे सभी अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त हो सके। देश में अनेक धार्मिक, जातीय, भाषायी व सांस्कृतिक अल्पसंख्यक पाए जाते हैं, जिनके उचित प्रतिनिधित्व के लिए आनुपातिक मत प्रणाली अधिक उपयुक्त है।

(ग) इस वर्ग के लोगों की इच्छा पूर्ति के लिए आनुपातिक मत प्रणाली का एक प्रकार—लिस्ट प्रणाली-प्रयोग में ला सकते हैं, जिसके अनुसार राजनीतिक दलों को मिलने वाले वोटों व उनके द्वारा प्राप्त सीटों में एक निश्चित अनुपात पाया जा सकता है।

(घ) फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली में नागरिक अपनी पसन्द का उम्मीदवार चुन सकते हैं, भले ही वे उस उम्मीदवार के राजनीतिक दल को पसन्द न करते हों।

प्रश्न 9.
एक भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ने एक राजनीतिक दल का सदस्य बनकर चुनाव लड़ा। इस मसले पर कई विचार सामने आए। एक विचार यह था कि भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एक स्वतंत्र नागरिक है। उसे किसी राजनीतिक दल में होने और चुनाव लड़ने का अधिकार है। दूसरे विचार के अनुसार, ऐसे विकल्प की सम्भावना कायम रखने से चुनाव आयोग की निष्पक्षता प्रभावित होगी। इस कारण, भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। आप इसमें किस पक्ष से सहमत हैं और क्यों?
उत्तर-
भारत में मुख्य चुनाव आयुक्त सेवानिवृत्त होने के बाद किसी भी दल का सदस्य बन सकता है। और उस दल के टिकट पर चुनाव भी लड़ सकता है। श्री टी० एन० शेषन ने सेवानिवृत्त होने के बाद ऐसा किया था। इसमें कोई दोष नहीं है। किसी राजनीतिक दल के सदस्य को मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त करना उचित नहीं है क्योंकि ऐसे व्यक्ति से निष्पक्षता से निर्णय लेने और कार्य करने की आशा नहीं की जा सकती। परन्तु सेवानिवृत्ति के बाद अपने विचार प्रकट करना, किसी दल को अपनाना, चुनाव लड़ना उसका अधिकार भी है और इससे चुनावों की स्वतन्त्रता तथा निष्पक्षता पर कोई आँच नहीं आती। सेवानिवृत्त होने के बाद भारत का मुख्य न्यायाधीश भी ऐसा कर सकता है।

प्रश्न 10.
“भारत का लोकतंत्र अब अनगढ़ ‘फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली को छोड़कर समानुपातिक प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली को अपनाने के लिए तैयार हो चुका है” क्या आप इस कथन से सहमत हैं। इस कथन के पक्ष अथवा विपक्ष में तर्क दें।
उत्तर-
भारत में समानुपातिक प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली के विपक्ष में तर्क – प्रायः सभी देशों में संसद के लिए प्रत्यक्ष चुनावों में फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट’ प्रणाली अपनाई गई है। आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली बड़ी जटिल है और इसके अन्तर्गत दूसरी तीसरी पसन्द के अनुसार मतों का हस्तान्तरण सामान्य व्यक्ति की समझ में सरलतापूर्वक नहीं आता। इसमें मतगणना में काफी समय लगता है। इसमें मतदाताओं के लिए विभिन्न पसन्दों का अंकित करना भी आसान काम नहीं है। इसके अतिरिक्त आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में मतदाता और प्रतिनिधि के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित नहीं होते और प्रतिनिधि भी अपने को चुनाव-क्षेत्र के लिए उत्तरदायी नहीं समझते।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सीमित मताधिकार विचारधारा के समर्थक हैं –
(क) बार्कर
(ख) जे० एस० मिल
(ग) डॉ० गार्नर
(घ) प्लेटो
उत्तर :
(ख) जे० एस० मिल।

प्रश्न 2.
वयस्क मताधिकार विचारधारा के समर्थक हैं –
(क) ब्लण्टशली
(ख) बेन्थम
(ग) सर हेनरीमैन
(घ) जॉन स्टुअर्ट मिले
उत्तर :
(घ) जॉन स्टुअर्ट मिल।

प्रश्न 3.
“वयस्क मताधिकार का कोई विकल्प नहीं है।” यह किसका कथन है?
(क) लॉस्की
(ख) ब्राइस
(ग) ब्लण्टशली
(घ) अरस्तू
उत्तर :
(क) लॉस्की।

प्रश्न 4.
किसने कहा-“मत देने का अधिकार उन्हीं को प्राप्त होना चाहिए जिनमें बौद्धिक योग्यता की एक सुनिश्चित मात्रा विद्यमान हो, चाहे वे स्त्री हों या पुरुष।”
(क) अब्राहम लिंकम।
(ख) जवाहरलाल नेहरू
(ग) टी० एच० ग्रीन
(घ) जे० एस० मिल।
उत्तर :
(क) अब्राहम लिंकन।

प्रश्न 5.
“सर्वजनीन मताधिकार का कोई विकल्प नहीं है।” यह किसका कथन है?
(क) अरस्तू
(ख) ब्राइस
(ग) लॉस्की
(घ) गार्नर
उत्तर :
(ग) लॉस्की

प्रश्न 6.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व की पद्धति का प्रतिपादन किसके द्वारा किया गया है।
(क) थॉमस हेयर
(ख) जे० एस० मिल
(ग) सर हेनरी मेन
(घ) ब्राइस
उत्तर :
(क) थॉमस हेयर।

प्रश्न 7.
थॉमस हेयर का नाम किस निर्वाचन प्रणाली से सम्बन्धित है?
(क) प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली
(ख) अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली
(ग) सीमित मतदान प्रणाली
(घ) आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली
उत्तर :
(घ) आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली।

प्रश्न 8.
भारत में प्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति को सबसे पहले कब लागू किया गया?
(क) सन् 1909
(ख) सन् 1919
(ग) सन् 1935
(घ) सन् 1950
उत्तर :
(ग) सन् 1935

प्रश्न 9.
नागरिकों द्वारा अपने प्रतिनिधि चुनने की प्रक्रिया कहलाती है –
(क) निर्वाचन
(ख) मनोनयन
(ग) संगठन
(घ) आवंटन
उत्तर :
(क) निर्वाचन।

प्रश्न 10.
लोकसभा में निर्वाचन में किस प्रणाली को अपनाया जाता है?
(क) बहुमत प्रणाली
(ख) द्वितीय मतपत्र प्रणाली
(ग) सीमित मत प्रणाली
(घ) साम्प्रदायिक मत प्रणाली
उत्तर :
(क) बहुमत प्रणाली।

प्रश्न 11.
अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली द्वारा किस संस्था का निर्वाचन होता है?
(क) लोकसंभ
(ख) विधानसभा
(ग) राज्यसभा
(घ) किसी को नहीं
उत्तर :
(ग) राज्यसभा।

प्रश्न 12.
चुनावी दौड़ में जो प्रत्याशी अन्य प्रत्याशियों के मुकाबले सबसे आगे निकल जाता है। वही विजयी होता है। इसे कहते हैं –
(क) फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम
(ख) एकदलीय व्यवस्था
(ग) प्रत्यक्ष व्यवस्था
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(क) फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम।

प्रश्न 13.
वर्तमान में लोकसभा की कितनी निर्वाचित सीटें हैं –
(क) 543
(ख) 545
(ग) 546
(घ) 548
उत्तर :
(क) 543.

प्रश्न 14.
लोकसभा की 543 सीटों में से अनुसूचित जाति के लिए कितनी सीटें आरक्षित है?
(क) 79
(ख) 76
(ग) 73
(घ) 74
उत्तर :
(क) 79.

प्रश्न 15.
कौन-से निर्वाचन क्षेत्र आरक्षित होंगे, यह कौन तय करता है?
(क) चुनाव आयोग
(ख) परिसीमन आयोग
(ग) मानवाधिकार आयोग
(घ) जनसंख्या आयोग
उत्तर :
(क) चुनाव आयोग।

प्रश्न 16.
मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति कौन करता है?
(क) उपराष्ट्रपति
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) मुख्य न्यायाधीश
(घ) राष्ट्रपति
उत्तर :
(घ) राष्ट्रपति।

प्रश्न 17.
निर्वाचन प्रक्रिया का सर्वप्रथम चरण कौन-सा है?
(क) मतदाता सूची तैयार करना
(ख) निर्वाचन की घोषणा
(ग) प्रत्याशियों का नामांकन
(घ) निर्वाचन अधिकारी की नियुक्ति
उत्तर :
(क) मतदाता सूची तैयार करना।

प्रश्न 18.
निर्वाचन आयोग का गठन संविधान की किस धारा के अन्तर्गत किया जाता है?
(क) धारा 370
(ख) धारा 226
(ग) धारा 324
(घ) धारा 371
उत्तर :
(ग) धारा 324

प्रश्न 19.
चुनाव चिह्नों का आवंटन करता है –
(क) राष्ट्रपति
(ख) प्रधानमंत्री
(ग) निर्वाचन आयोग
(घ) उच्चतम न्यायालय
उत्तर :
(ग) निर्वाचन आयोग।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वयस्क मताधिकार के पक्ष में दो तर्क दीजिए।
उत्तर :

  1. अल्पसंख्यकों के अधिकारों को सुरक्षित होना तथा
  2. लोकमत की वास्तविक अभिव्यक्ति होना।

प्रश्न 2.
वयस्क मताधिकार के दो दोष लिखिए।
उत्तर :

  1. शासनाधिकार अशिक्षित व्यक्तियों के हाथ में होना तथा
  2. भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन।

प्रश्न 3.
निर्वाचन पद्धति कितने प्रकार की होती है?
या
निर्वाचन की कोई एक प्रणाली बताइए।
उत्तर :
निर्वाचन पद्धति दो प्रकार की होती है –

  1. प्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति तथा
  2. अप्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति।

प्रश्न 4.
अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने की दो पद्धतियों के नाम लिखिए।
उत्तर :

  1. आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति तथा
  2. सीमित मत-प्रणाली।

प्रश्न 5.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व के दो प्रकार बताइए।
उत्तर :

  1. एकल संक्रमणीय प्रणाली तथा
  2. सूची-प्रणाली।

प्रश्न 6.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के दो गुण लिखिए।
उत्तर :

  1. प्रत्येक वर्ग या दल को उचित प्रतिनिधित्व तथा
  2. अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा।

प्रश्न 7.
वयस्क मताधिकार के दो’गुण बताइए।
उत्तर :

  1. राष्ट्रीय एकीकरण में वृद्धि तथा
  2. जनसाधारण को शासकों के चयन का अधिकार।

प्रश्न 8.
प्रत्यक्ष निर्वाचन के दो गुण बताइए।
उत्तर :

  1. सरलता तथा
  2. लोकतान्त्रिक धारणा के अनुकूल।

प्रश्न 9.
प्रत्यक्ष निर्वाचन के दो दोष बताइए।
उत्तर :

  1. अपव्ययी व्यवस्था तथा
  2. प्रतिभावान व्यक्तियों की निर्वाचन से दूरी।

प्रश्न 10.
अप्रत्यक्ष निर्वाचन के दो गुण बताइए।
उत्तर :

  1. योग्य व्यक्तियों के निर्वाचन की अधिक सम्भाक्ना तथा
  2. पेशेवर राजनीतिज्ञों का अभाव।

प्रश्न 11.
अप्रत्यक्ष निर्वाचन के दो दोष बताइए।
उत्तर :

  1. भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन तथा
  2. दल-प्रणाली के कुप्रभाव।

प्रश्न 12.
आदर्श निर्वाचन-प्रणाली का एक प्रमुख तत्त्व क्या है?
उत्तर :
गुप्त मतदान की व्यवस्था आदर्श निर्वाचन-प्रणाली का एक प्रमुख तत्त्व है।

प्रश्न 13.
भारत में वयस्क मताधिकार की न्यूनतम आयु क्या है?
उत्तर :
भारत में वयस्क मताधिकार की आयु 18 वर्ष है।

प्रश्न 14.
स्विट्जरलैण्ड में वयस्क होने की आयु क्या है?
उत्तर :
स्विट्जरलैण्ड में वयस्क होने की आयु 20 वर्ष है।

प्रश्न 15.
वयस्क मताधिकार क्या है?
उत्तर :
निश्चित आयु प्राप्त करने के बाद सभी वयस्क नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के मत देने का अधिकार प्राप्त होना ही वयस्क मताधिकार है।

प्रश्न 16.
वयस्क मताधिकार के विपक्ष में कोई एक तर्क दीजिए।
उत्तर :
वयस्क मताधिकार से भ्रष्टाचार में वृद्धि हो जाती है।

प्रश्न 17.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व का एक दोष लिखिए।
उत्तर :
यह अत्यधिक जटिलनिर्वाचन प्रणाली है।

प्रश्न 18.
एकल संक्रमणीय मत प्रणाली के किसी एक गुण का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न 19.
बहुमत प्रणाली का एक दोष लिखिए।
उत्तर :
बहुमत प्रणाली में अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं होता है।

प्रश्न 20.
चुनाव से आप क्या समझते हैं?
उत्तर :
अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में नागरिकों द्वारा अपने प्रतिनिधियों के चुनने की प्रक्रिया को चुनाव कहते

प्रश्न 21.
चुनाव आयोग क्या है?
उत्तर :
चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है जिसका कार्य चुनाव की प्रक्रिया को विभिन्न स्तरों पर शान्तिपूर्ण तरीके से व सुचारु रूप से सम्पन्न करना है।

प्रश्न 22.
भारतीय चुनाव प्रणाली के पाँच दोष लिखिए।
उत्तर :

  1. अल्पमत को बहुसंख्या पर शासन
  2. राजनीति को अपराधीकरण
  3. मतदान केन्द्र पर कब्जा
  4. चुनाव में काले धन का प्रयोग
  5. एक-दूसरे के स्थान पर मत प्रयोग की प्रवृत्ति।

प्रश्न 23.
चुनाव आयोग का स्वरूप क्या है?
उत्तर :
भारत का चुनाव आयोग तीन सदस्यीय है। इसमें एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त को पद है और दो अन्य आयुक्त हैं।

प्रश्नं 24.
मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्यकाल कितना होता है।
उत्तर :
संविधान के अनुसार मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्यकाल 6 वर्ष या 65 वर्ष की आयु, जो भी प्रथम अद्यतन हो, होता है।

प्रश्न 25.
चुनाव आयोग के दो कार्य लिखिए।
उत्तर :

  1. राष्ट्र में विद्यमान निर्वाचक दलों को मान्यता प्रदान करना।
  2. निर्वाचन में प्रत्याशियों द्वारा किए गए व्यय की जाँच करना।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वयस्क मताधिकार क्या है?
या
सार्वभौमिक मताधिकार पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :

वयस्क या सार्वभौमिक मताधिकार

वयस्क मताधिकार से तात्पर्य है कि मतदान का अधिकर एक निश्चित आयु के नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के प्राप्त होना चाहिए। वयस्क मताधिकार की आयु का निर्धारण प्रत्येक देश में वहाँ के नागरिक के वयस्क होने की आयु पर निर्भर करता है। भारत में वयस्क होने की आयु 18 वर्ष है। अतः भारत में मताधिकार की आयु भी 18 वर्ष है। वयस्क मताधिकार से तात्पर्य है कि दिवालिए, पागल व अन्य किसी प्रकार की अयोग्यता वाले नागरिकों को छोड़कर अन्य सभी वयस्क नागरिकों को मताधिकार प्राप्त होना चाहिए। मताधिकार में सम्पत्ति, लिंग अथवा शिक्षा जैसा कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। मॉण्टेस्क्यू, रूसो, टॉमस पेन इत्यादि विचारक वयस्क मताधिकार के समर्थक हैं। वर्तमान में विश्व के लगभग सभी देशों में वयस्क मताधिकार की व्यवस्था है।

प्रश्न 2.
महिला.(स्त्री) मताधिकार पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :

स्त्री-मताधिकार

स्त्रियों के लिए मताधिकार प्राप्त करने की माँग प्रजातन्त्र के विकास तथा विस्तार के साथ ही प्रारम्भ हुई। यदि मताधिकार प्रत्येक व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार है, तो स्त्रियों को भी यह अधिकार प्राप्त होना चाहिए। 19वीं शताब्दी में बेन्थम, डेविड हेयर, सिजविक, ऐस्मीन तथा जे०एस० मिल ने स्त्री मताधिकार का समर्थन किया। इंग्लैण्ड में 1918 ई० में सार्वभौमिक मताधिकार अधिनियम पारित करके 30 वर्ष की आयु वाली स्त्रियों को मताधिकार प्रदान किया गया। 10 वर्ष बाद यह आयु-सीमा घटाकर 21 वर्ष कर दी गई। सन् 1920 में संयुक्त राज्य अमेरिका में पुरुषों के समान स्त्रियों को भी समान अधिकार प्रदान किया गया। भारतीय संविधान में प्रारम्भ से ही स्त्रियों को पुरुषों के समान मताधिकार दिया गया है।

प्रश्न 3.
मताधिकार का महत्त्व बताते हुए दो तर्क दीजिए।
उत्तर :
मताधिकार का महत्त्व बताते हुए दो तर्क निम्नवत् हैं –

1. नितान्त औचित्यपूर्ण  – राज्य के कानूनों और कार्यों का प्रभाव समाज के केवल कुछ ही व्यक्तियों पर नहीं, वरन् सब व्यक्तियों पर पड़ता है; अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपना मत देने और शासन की नीति का निश्चय करने का अधिकार होना चाहिए। जॉन स्टुअर्ट मिल ने इसी आधार पर वयस्क मताधिकार को नितान्त औचित्यपूर्ण बताया है।

2. लोकसत्ता की वास्तविक अभिव्यक्ति – लोकसत्ता बीसवीं सदी का सबसे महत्त्वपूर्ण विचार है और आधुनिक प्रजातन्त्रवादियों का कथन है कि अन्तिम सत्ता जनता में ही निहित है। डॉ० गार्नर के शब्दों में, “ऐसी सत्ता की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति सार्वजनिक मताधिकार में ही हो सकती है।”

प्रश्न 4.
चुनाव से आप क्या समझते हैं? चुनाव की आवश्यकताएँ क्या हैं?
उत्तर :
ज़नसामान्य द्वारा निश्चित अवधि पर अपने प्रतिनिधियों को चुनने की प्रक्रिया को चुनाव कहते हैं। एक लोकतान्त्रिक देश में कोई भी निर्णय लेने में सभी नागरिक प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं ले सकते। अतः लोग अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं। इसलिए चुनाव की आवश्यकता पड़ती है।

प्रश्न 5.
भारत में चुनाव लड़ने की क्या योग्यताएँ हैं।
उत्तर :
भारत में विभिन्न प्रतिनिधि सभाओं के चुनाव लड़ने के लिए भी योग्यताएँ निश्चित हैं जो निम्नलिखित हैं –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो। राज्यसभा तथा राज्य विधानपरिषद् के लिए यह आयु 30 वर्ष निश्चित है जबकि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के लिए 35 वर्ष है।
  3. वह पागल तथा दिवालिया न हो।
  4. वह किसी न्यायालय द्वारा किसी गम्भीर अपराध के कारण चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित न किया गया हो।
  5. वह संसद द्वारा निर्धारित अन्य योग्यताएँ रखता हो।

प्रश्न 6.
भारत में निर्वाचन कराने के लिए सर्वोच्च अधिकार किसके पास हैं? स्वतन्त्र और निष्पक्ष निर्वाचन लोकतन्त्र के लिए क्यों आवश्यक है? इसे सुनिश्चित करने के किन्हीं तीन उपायों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
भारत में निर्वाचन कराने सम्बन्धी सर्वोच्च अधिकार निर्वाचन आयोग के पास है। इस आयोग में एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा दो आयुक्त होते हैं। आयोग के कार्यों में सहायता देने के लिए राष्ट्रपति प्रादेशिक आयुक्तों को नियुक्त करता है। देश में निष्पक्ष निर्वाचन कराना निर्वाचन आयोग का दायित्व है।

स्वतन्त्र और निष्पक्ष निर्वाचन ही लोकतन्त्र को सुरक्षित रख सकते हैं। इसके अभाव में लोकतन्त्र की कल्पना नहीं की जा सकती है। लेकिन देश की वर्तमान परिस्थितियों में स्वतन्त्र और निष्पक्ष निर्वाचन कराना निर्वाचन आयोग के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है।

स्वतन्त्र और निष्पक्ष निर्वाचन कराने के लिए निम्नलिखित तीन उपाय प्रभावकारी हो सकते हैं –

  1. मतदाताओं के लिए परिचय-पत्र रखना अनिवार्य कर दिया जाए जिससे गलत मतदान पर रोक लग सके।
  2. निर्वाचन को आपराधिक तत्त्वों के प्रभाव से बिल्कुल पृथक् रखा जाए, जिससे चुनाव प्रक्रिया शान्तिपूर्वक और बिना किसी पक्षपात के सम्पन्न हो सके।
  3. निर्वाचन आयोग द्वारा प्रत्येक निर्वाचन में पर्यवेक्षकों की नियुक्ति की जाती है जो चुनाव से सम्बन्धित सभी प्रकार की जानकारियों की रिपोर्ट निर्वाचन आयोग को देते हैं।

प्रश्न 7.
राजनीतिक दलों को चुनाव चिह्न आवंटित किए जाने का क्या महत्त्व है? इन चिह्नों का आवंटन कौन करता है?
उत्तर :
किसी भी देश की जनता, पूर्णतया साक्षर न होने पर मतपत्र पर अंकित प्रत्याशियों के नाम नहीं पढ़ सकती है; अत: चुनाव चिह्नों के माध्यम से वही अपनी रुचि के प्रत्याशी को मतदान देती है। इसका भेद यहीं से स्पष्ट हो जाता है कि स्नातकीय निर्वाचन क्षेत्र (विधानपरिषद्) में मतदाता पढ़े-लिखे होते हैं; अत: वहाँ चुनाव चिह्नों की व्यवस्था नहीं होती। निर्वाचन के समय प्रत्येक मतदाता के लिए एक चुनाव चिह्न की आवश्यकता होती है। निर्वाचन आयोग राजनीतिक दलों को चुनाव चिह्न आवंटित करता है। चुनाव चिह्न से राजनीतिक दल की पहचान होती है तथा मतदाता चुनाव चिह्न के आधार पर ही उस राजनीतिक दल के उम्मीदवार को अपना मत प्रदान करते हैं। राजनीतिक दल इस प्रकार के चुनाव चिह्नों को लेना पसन्द करते हैं, जो मतदाताओं को मनोवैज्ञानिक तथा मानसिक रूप से प्रभावित कर सकें। चुनाव चिह्नों को आवंटित करने अथवा उनके बारे में विवादों को निपटाने की शक्ति निर्वाचन आयोग, को प्राप्त है। निर्वाचन प्रक्रिया के दौरान चुनाव चिह्न इतने प्रचलित हो जाते हैं कि मतदाता इनको देखकर ही सम्बन्धित दल अथवा उससे सम्बन्धित प्रत्याशियों को पहचान लेते हैं।

प्रश्न 8.
निष्पक्ष निर्वाचन कराने के लिए संविधान में उल्लिखित किन्हीं दो प्रावधानों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
निष्पक्ष निर्वाचन कराने के लिए संविधान में निम्नलिखित दो प्रावधान किए गए हैं –

1. स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष निर्वाचन प्रणाली की व्यवस्था – संविधान द्वारा सम्पूर्ण भारतवर्ष में निष्पक्ष निर्वाचन कराने के लिए निर्वाचन आयोग की स्थापना की गई है। निर्वाचन आयोग के सदस्यों को स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष रूप से कार्य कराने के लिए इनकी सेवा-शर्तों को निश्चित किया गया है तथा उनको उपदस्थ करने के लिए एक विशेष प्रकार की प्रक्रिया को अपनाना आवश्यक बनाया गया है।

2. निर्वाचन बूथों पर पर्याप्त सुरक्षा-व्यवस्था – मतदाता स्वतन्त्र रूप से अपने मत का प्रयोग कर सकें, इसके लिए निर्वाचन बूथों पर पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था की जाती है। इस दृष्टि से पुलिस की समुचित व्यवस्था की जाती है। मतदान के समय मतदाताओं की अंगुलियों पर निशान बनाया जाता है। शान्ति व्यवस्था बनाए रखने के लिए निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव प्रारम्भ होने से पूर्व ही धारा 144 लगा दी जाती है। असामाजिक अथवा अपराधी प्रकृति के व्यक्तियों पर प्रशासन कड़ी नजर रखता है।

प्रश्न 9.
देश में चुनावों में सीटों का आरक्षण क्यों आवश्यक है?
उत्तर :
भारतीय समाज दीर्घकाल से सामाजिक व आर्थिक असमानताओं और विषमताओं का शिकार है। समाज के कई वर्ग-विशेष रूप से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के लोग और महिलाएँ सामाजिक, आर्थिक वराजनीतिक रूप से उपेक्षित रहे हैं। स्वतन्त्रता के पश्चात् संविधान के बनाने वालों ने इन वर्गों के राजनीतिक विकास के उद्देश्य से अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लिए संसद व राज्यों की विधानसभाओं में निश्चित सीटों का आरक्षण किया ताकि राजनीतिक संस्थाओं और निर्णय प्रणाली में इनकी भागीदारी को निश्चित किया जा सके अन्यथा यह कठिन कार्य था। सभी वर्गों को राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने के लिए पिछड़े वर्गों व महिलाओं के लिए आरक्षण आवश्यक है।

प्रश्न 10.
चुनाव के सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार किसे है?
उत्तर :
संविधान के अनुसार निर्वाचन सम्बन्धी कानून बनाने का अधिकार संसद को प्राप्त है। संसद विधानमण्डलों के निर्वाचन के लिए मतदाताओं की सूचियाँ तैयार करने, निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन तथा अन्य समस्त समस्याओं से सम्बन्धित कानून बना सकती है। इस अधिकार के अन्तर्गत निर्वाचन की व्याख्या के लिए संसद ने दो मुख्य अधिनियम बनाए हैं –
(1) जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950
(2) जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951। प्रथम अधिनियम द्वारा निर्वाचन क्षेत्र का परिसीमन करने की विधि, संसद के विभिन्न राज्यों के स्थानों की संख्या तथा प्रत्येक राज्य के विधानमण्डल में सदस्यों की संख्या निश्चित की गई है। दूसरे अधिनियम द्वारा निर्वाचनों का संचालन तथा प्रबन्ध करने की प्रशासनिक व्यवस्था, मतदान, उप-निर्वाचन आदि विषयों का समुचित प्रबन्ध किया गया है। इन अधिनियमों में समय-समय पर परिवर्तन किए जा चुके हैं।

प्रश्न 11.
चुनाव सुधार हेतु प्रमुख सुझाव क्या हैं?
उत्तर :
चुनाव सुधार हेतु प्रमुख सुझाव निम्नलिखित हैं –

  1. देश की चुनाव व्यवस्था को सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली के स्थान पर किसी प्रकार की समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को लागू करना चाहिए। इससे राजनीतिक दलों को उसी अनुपात में सीटें मिलेंगी जिस अनुपात में उन्हें वोट मिलेंगे।
  2. संसद और विधानसभाओं में एक-तिहाई सीटों पर महिलाओं को चुनने के लिए विशेष प्रावधान बनाए जाएँ।
  3. चुनावी राजनीति में धन में प्रभाव को नियन्त्रित करने के लिए और अधिक कठोर प्रावधान होने चाहिए।
  4. जिस उम्मीदवार के विरुद्ध फौजदारी का मुकदमा हो उसे चुनाव लड़ने से रोक दिया जाना चाहिए, भले ही उसने इसके विरुद्ध न्यायालय में अपील कर रखी हो।
  5. चुनाव प्रचार में जाति और धर्म के आधार पर की जाने वाली किसी भी अपील को पूरी तरह से प्रतिबन्धित कर देना चाहिए।
  6. राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली को नियन्त्रित करने के लिए तथा उनकी कार्यविधि को और अधिक पारदर्शी तथा लोकतान्त्रिक बनाने के लिए एक कानून होना चाहिए।

प्रश्न 12.
निर्वाचन आयोग के संगठन का वर्णन कीजिए।
या
“निर्वाचन आयोग एक स्वतन्त्र संवैधानिक निकाय है।” इस कथन को समझाइए।
उत्तर :
संविधान-निर्माताओं ने संविधान की धारा (अनु०) 324(2) के अन्तर्गत प्रावधान किया है कि समय की माँग के अनुरूप निर्वाचन आयोग एक-सदस्यीय अथवा बहुसदस्यीय निकाय हो सकता है। भारत में केन्द्र तथा राज्यों के लिए एक ही निर्वाचन आयोग है।

  1. मुख्य निर्वाचन आयुक्त कार्यकाल – संविधान के अनुसार मुख्य निर्वाचन आयुक्त का कार्यकाल 6 वर्ष या 65 वर्ष की आयु, जो भी प्रथम अद्यतन हो, होता है।
  2. पद की स्थिति – मुख्य निर्वाचन आयुक्त एक सांविधानिक पद है। यह पद उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के समकक्ष है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त को संसद के प्रत्येक सदन द्वारा विशेष बहुमत से और साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर ही हटाया जा सकता है।
  3. अन्य आयुक्तों की स्थिति – अन्य आयुक्तों को राष्ट्रपति मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सिफारिश पर ही हटा सकता है।
  4. निर्वाचन की सेवा-शर्ते – निर्वाचन आयोग की सेवा की शर्ते और पदावधि वह होगी जो संसद विधि द्वारा मान्य होगी।

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गुप्त मतदान तथा द्वितीय मत-प्रणाली पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :

गुप्त मतदान

1. गुप्त मतदान जब मतदाता इस प्रकार गोपनीय विधि से मत देता है कि उसे कोई अन्य व्यक्ति नहीं जान सके कि उसने किसे मत दिया है तो इसे गुप्त मतदान कहते हैं। इस प्रकार मतदाता स्वतन्त्रतापूर्वक अपने मतदान का प्रयोग कर सकते हैं और उन पर किसी के दबाव की आशंका नहीं रहती। हेरिंग्टन तथा काउण्ट अण्डरेसी ने गुप्त मतदान का प्रबल समर्थन किया है। आजकल विश्व के सभी लोकतान्त्रिक देशों में गुप्त मतदान-प्रणाली द्वारा ही चुनाव होते हैं। आदर्श रूप में प्रकट मतदान की प्रणाली अच्छी हो सकती है, किन्तु व्यवहार में गुप्त मतदान की प्रणाली ही सर्वश्रेष्ठ है।

2. द्वितीय मत-प्रणाली – मतदाताओं के व्यापक प्रतिनिधित्व के लिए द्वितीय मतदान-प्रणाली अपनायी जाती है। इस प्रणाली में प्रत्याशी को विजयी होने के लिए डाले गये मतों का 50 प्रतिशत से अधिक भागे प्राप्त होना आवश्यक होता है। जब एक ही स्थान के लिए दो से अधिक प्रत्याशी चुनाव लड़ते हैं और किसी भी प्रत्याशी को मतदान में पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं। होता तो अधिक मत प्राप्त करने वाले दो प्रत्याशियों के बीच दुबारा मतदान होता है और जिस प्रत्याशी को निरपेक्ष बहुमत प्राप्त हो जाता है वह विजयी घोषित कर दिया जाता है। फ्रांस के राष्ट्रपति के निर्वाचन में इस प्रणाली को अपनाया जाता है।

प्रश्न 2.
लोकतन्त्र में चुनावों का क्या महत्त्व है?
उत्तर :
लोकतन्त्र में चुनावों का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। आज का लोकतन्त्र अप्रत्यक्ष या प्रतिनिध्यात्मक लोकतन्त्र है और जनता अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा ही शासन में भाग लेती है तथा अपनी प्रभुसत्ता का उपयोग करती है। आज के राष्ट्र-राज्यों में निर्वाचनों के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है जिसके माध्यम से जनता शासन में भाग ले सके। चुनावों से लोगों को राजनीतिक शिक्षा भी मिलती रहती है और इन्हें देश के सामने आने वाली तात्कालिक समस्याओं तथा विभिन्न राजनीतिक दलों की नीतियों तथा कार्यक्रमों का निरन्तर ब्यौरा प्राप्त होता रहता है। चुनावों के कारण जनता के प्रतिनिधि भी अपने उत्तरदायित्व को अनुभव करते हैं और कोई कार्य जनमत के विरुद्ध करने की हिम्मत नहीं कर सकते, क्योंकि उन्हें शीघ्र ही चुनावों के दिनों में जनता के सामने वोट माँगने जानी पड़ता है। उन्हें यह भय बना रहता है कि यदि उन्होंने जनमत की अवहेलना की तो उन्हें दुबारा चुने जाने की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। इस प्रकार प्रतिनिधि उत्तरदायी बने रहते हैं और मनमानी नहीं कर सकते। इन सभी तथ्यों से स्पष्ट है कि लोकतन्त्र में चुनावों का अत्यधिक महत्त्व है। हम चुनाव के बिना लोकतन्त्र की कल्पना भी नहीं कर सकते।

प्रश्न 3.
साधारण बहुमत तथा पूर्ण बहुमत में क्या अन्तर है?
उत्तर :

साधारण बहुमत तथा पूर्ण बहुमत में अन्तर

चुनावों में किसी उम्मीदवार के चुने जाने के लिए प्रायः साधारण बहुमत का तरीका अपनाया जाता है। इसमें सभी उम्मीदवारों को प्राप्त मतों की गणना एक साथ की जाती है तथा सर्वाधिक मत प्राप्त उम्मीदवार को विजयी घोषित किया जाता है; जैसे—लोकसभा, विधानसभा, नगरपालिका व पंचायतों के चुनावों में। परन्तु निर्वाचन के लिए पूर्ण बहुमत अथवा स्पष्ट बहुमत का तरीका भी अपनाया जा सकता है। इसमें कुल डाले गए मतों को 50% +1 मत को प्राप्त करना अनिवार्य होता है; जैसे–भारत के राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति के चुनाव में इस प्रणाली को अपनाया जाता है। दोनों प्रकार के बहुमत में । निम्नलिखित अन्तर हैं –

(1) साधारण बहुमत में सभी उम्मीदवारों में सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले को निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। परन्तु पूर्ण बहुमत में ऐसा नहीं होता। पूर्ण बहुमत प्रणाली के अन्तर्गत निर्वाचित होने के लिए उम्मीदवारों को कुल डाले गए मतों का स्पष्ट बहुमत अर्थात् उन मतों के 50 प्रतिशत से एक मत अधिक (50% + 1) प्राप्त करना आवश्यक है।

(2) साधारण बहुमत के अन्तर्गत निर्वाचित प्रतिनिधि कुल मतों का थोड़ा-सा प्रतिशत जैसे कि 20% मत लेकर भी चुना जा सकता है। यदि उम्मीदवारों की संख्या 18 है और एक को 20% मत मिले और अन्य को इससे भी कम तो 20% मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार चुना जा सकता है। परन्तु पूर्ण बहुमत के अन्तर्गत ऐसा नहीं हो सकता।

(3) साधारण बहुमत का तरीका सरल है। इसमें केवल एक ही बार चुनाव तथा वोटों की गिनती | होती है। परन्तु पूर्ण बहुमत के अन्तर्गत, किसी भी उम्मीदवार द्वारा पूर्ण बहुमत प्राप्त न करने पर पुनः चुनाव करवाया जाता है या एकल संक्रमणीय मत प्रणाली को अपनाया जाता है।

(4) पूर्ण बहुमत का तरीका जटिल है और इसे संसद अथवा विधानसभा के चुनावों में प्रायः नहीं अपनाया जाता। उच्च पदों के लिए प्रायः पूर्ण बहुमत का तरीका अपनाया जाता है।

प्रश्न 4.
निर्वाचन सम्बन्धी व्ययों को कम करने की आवश्यकता क्यों है?
उत्तर :
वर्तमान में निर्वाचनों पर अत्यधिक धन व्यय किया जाता है। ऐसी स्थिति में गरीब परन्तु प्रतिभावान् व्यक्ति निर्वाचन में खड़ा होने का विचार मन में नहीं ला सकता है। निर्वाचनों में भ्रष्टाचार का प्रमुख कारण, अत्यधिक धनराशि को खर्च करना है। अत: यह आवश्यक ही नहीं, वरन् अपरिहार्य है कि कानून द्वारा धन निर्धारित सीमा का कठोरता से पालन किया जाए तथा जो व्यक्ति इस कानून का उल्लंघन करता है, उसे कड़ी-से-कड़ी सजा मिलनी चाहिए। राजनीतिक दलों तथा संस्थाओं द्वारा चुनाव-प्रचार पर किए गए व्यय का हिसाब रखने तथा उसे निर्वाचन आयोग के समक्ष प्रस्तुत करने का भी प्रावधान होना चाहिए। सरकार को इस विषय पर भी कानून का निर्माण करना चाहिए कि राजनीतिक दल व्यक्तियों तथा संस्थाओं से चन्दे से कितनी धनराशि प्राप्त करे।

27 नवम्बर, 1974 ई० को काँग्रेस संसदीय दल की बैठक में निर्वाचन पर व्यय की जाने वाली धनराशि को कम करने के सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिए गए –

  1. सरकार को धन से उम्मीदवारों की सहायता करनी चाहिए।
  2. सरकार की तरफ से उम्मीदवारों को मतदाता सूची प्राप्त होनी चाहिए।
  3. सरकार सार्वजनिक बैठक के लिए एक स्थान निश्चित करे तथा सभी उम्मीदवार उसी प्लेटफार्म से भाषण दें।
  4. चुनाव अभियान का समय कम किया जाए।

इस सम्बन्ध में निर्वाचन आयोग ने व्यवस्था दी है कि निर्वाचन के सम्पन्न हो जाने के पश्चात् चुनाव व्यय का गलत ब्यौरा देने वाले उम्मीदवार को जुर्माने के साथ 6 महीने से 1 वर्ष का ” कारावास दिया जाना चाहिए। साथ ही प्रत्येक चुनाव के प्रत्याशी हेतु खर्च की सीमा भी तय कर दी गई है।

प्रश्न 5.
मताधिकार सम्बन्धी सिद्धान्तों को समझाइए।
उत्तर :

मताधिकार सम्बन्धी सिद्धान्त

मताधिकार दिए जाने के सम्बन्ध में विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। इससे सम्बन्धित कुछ प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं –

1. प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के अनुसार मताधिकार एक प्राकृतिक अधिकार है तथा सभी व्यक्तियों को समान रूप से इसे प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त है इस सिद्धान्त के अनुसार मत देने का अधिकार स्वाभाविक है और यह अधिकार मनुष्य को प्राकृतिक रूप से प्राप्त होता है। इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक मॉण्टेस्क्यू, टामस पेन तथा रूसो हैं।

2. वैधानिक अथवा कानूनी सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के अनुसार मताधिकार प्राकृतिक अधिकार नहीं है, बल्कि यह राज्य द्वारा प्रदान किया गया अधिकार है। कानूनी सिद्धान्त के अन्तर्गत नागरिक द्वारा मताधिकार का दावा नहीं किया जा सकता है।

3. नैतिक सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के अनुसार मताधिकार नैतिक मान्यताओं पर आधारित होता है। यह राजनीतिक मामलों में व्यक्ति द्वारा अपने विचारों को अभिव्यक्ति करने का एक माध्यम मात्र है। मताधिकार व्यक्ति का नैतिक और आध्यात्मिक विकास करता है तथा यह मानव के व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक है।

4. सामुदायिक सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के अनुसार मताधिकार सामुदायिक जीवन का एक प्रमुख अंग है, इसलिए सीमित क्षेत्र में मताधिकार मिलना चाहिए। यह सिद्धान्त इटली और जर्मनी की देन है।

5. सामन्तवादी सिद्धान्त – यह सिद्धान्त मध्य युग में प्रचलित हुआ। इस सिद्धान्त के अनुसार मताधिकार केवल उन्हीं व्यक्तियों को प्राप्त होना चाहिए, जिनका समाज में उच्च स्तर हो तथा जो सम्पत्ति के स्वामी हों।

6. सार्वजनिक कर्तव्य का सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के अनुसार मतदान एक सार्वजनिक कर्तव्य है। अत: मतदान अनिवार्य होना चाहिए। बेल्जियम, नीदरलैण्ड्स, चेक गणराज्य व स्लोवाकिया देशों में मतदान अनिवार्य है। इन देशों में मताधिकार का प्रयोग न करना। दण्डनीय माना गया है।

प्रश्न 6.
प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष निर्वाचन-प्रणालियों के बारे में बताइए।
उत्तर :
सामान्यतया निर्वाचन की दो प्रणालियाँ हैं-प्रत्यक्ष निर्वाचन और अप्रत्यक्ष निर्वाचन।

प्रत्यक्ष निर्वाचन – प्रत्यक्ष निर्वाचन-प्रणाली से तात्पर्य ऐसी निर्वाचन प्रणाली से है जिसमें मतदाता स्वयं अपने प्रतिनिधि चुनते हैं। प्रत्यक्ष निर्वाचन में जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि ही व्यवस्थापिका के सदस्य और मुख्य कार्यपालिका के अंग बनते हैं। यह बहुत सरल विधि है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक मतदाता मतदान-केन्द्र पर विभिन्न प्रत्याशियों में से किसी एक प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करता है और जिस प्रत्याशी को सर्वाधिक मत प्राप्त होते हैं उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। यह प्रणाली सर्वाधिक लोकप्रिय प्रणाली है। सामान्यत: विश्व के प्रत्येक प्रजातान्त्रिक देश में व्यवस्थापिका के निम्न सदन के सदस्य प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा ही चुने जाते हैं।

अप्रत्यक्ष निर्वाचन – इस प्रणाली के अन्तर्गत मतदाता सीधे अपने प्रतिनिधि नहीं चुनते हैं वरन् वे पहले एक निर्वाचक-मण्डल को चुनते हैं। यह निर्वाचक-मण्डल बाद में अन्य प्रतिनिधियों को चुनते हैं। इस प्रकार जनता प्रत्यक्ष रूप से प्रतिनिधियों का निर्वाचन नहीं करती है; अतः इसे अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली कहा जाता है। भारत के राष्ट्रपति तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति दोनों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से होता है। भारत, फ्रांस आदि देशों में व्यवस्थापिका के द्वितीय सदन का निर्वाचन भी अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 7.
आदर्श प्रतिनिधित्व प्रणाली की विशेषताएँ बताइए।
या
आदर्श निर्वाचन-प्रणाली के चार प्रमुख तत्वों को बताइए।
उत्तर :
आदर्श निर्वाचन-प्रणाली के लिए अनेक बातें आवश्यक हैं, जिनमें से निम्न चार प्रमुख हैं –

1. प्रतिनिधि के कार्यकाल का उचित निर्धारण – आदर्श निर्वाचन-प्रणाली में प्रतिनिधियों का कार्यकाल न बहुत अधिक और न बहुत कम होना चाहिए। 3 से 5 वर्ष तक के कार्यकाल को प्रायः उचित कहा जा सकता है।

2. अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व की उचित व्यवस्था – अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व की उचित व्यवस्था होनी चाहिए, क्योंकि ऐसा न होने से अल्पसंख्यक वर्गों के व्यक्तियों की निष्ठ्ठा देश के प्रति नहीं होगी तथा उनके हितों को भी उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा। इस सम्बन्ध में अल्पसंख्यक वर्गों के लिए सीटों के आरक्षण की व्यवस्था को अपनाया जा सकता है। इसके साथ-साथ पृथक् निर्वाचन-प्रणाली न अपनाकर संयुक्त निर्वाचन-प्रणाली को ग्रहण किया जाना। चाहिए।

3. सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार – लोकतन्त्र के मूल सिद्धान्तों में से एक सिद्धान्त समानता है। और सभी नागरिकों को समान राजनीतिक शक्ति वयस्क मताधिकार की व्यवस्था के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। इसलिए सभी वयस्क नागरिकों को बिना किसी प्रकार के भेदभाव के मताधिकार प्राप्त होना चाहिए।

4. गुप्त मतदान की व्यवस्था – आदर्श निर्वाचन प्रणाली में मतदान गुप्त विधि से होना चाहिए, जिससे मत की गोपनीयता बनी रहे और मतदाता स्वतन्त्र होकर अपनी इच्छानुसार मताधिकार का प्रयोग कर सकें।

प्रश्न 8.
निर्वाचन आयोग के कार्य संक्षेप में लिखिए।
उत्तर :
संविधान की धारा (अनु०) 324 में निर्वाचन आयोग के कार्यों को स्पष्टतः उल्लेख किया गया है। इस प्रकार निर्वाचन आयोग के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. निर्वाचन की तिथि घोषित हो जाने के पश्चात् निर्वाचन-क्षेत्रों का सीमांकन करना।
  2. मतदान हेतु सम्पूर्ण राष्ट्र के मतदाताओं की सूची तैयार करना।
  3. राष्ट्र में विद्यमान विभिन्न राजनीतिक दलों को मान्यता प्रदान करना। राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय स्तर प्रदान करना भी निर्वाचन आयोग के अधिकार क्षेत्र में है।
  4. राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने हेतु चुनाव-चिह्न प्रदान करना। यदि चुनाव चिह्न से सम्बन्धित कोई विवाद है तो उसका समाधान करना। चुनाव चिह्न के आवंटन के अधिकार को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
  5. राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, सामान्य निर्वाचन, संसद, विधानमण्डलों के उप-चुनाव करना।
  6. निर्वाचन आयोग निर्वाचन करवाने के लिए रिटर्निग अफसरों तथा सहायक रिटर्निंग अफसरों को नियुक्त करता है।
  7. निर्वाचन आयोग राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल को किसी संसद सदस्य या राज्य विधानमण्डल के सदस्य की अयोग्यता के विषय में परामर्श देता है।
  8. निर्वाचन आयोग संसद तथा राज्य विधानसभाओं के रिक्त स्थानों की पूर्ति के लिए उप-चुनाव करवाता है।
  9. यदि कोई राजनीतिक दल अथवा उसके प्रत्याशी आयोग द्वारा निश्चित किए गए व्यवहार के आदर्श नियमों का पालन नहीं करते तो निर्वाचन आयोग उनकी मान्यता रद्द कर सकता है।
  10. निर्वाचन आयोग समय-समय पर निर्वाचन में सुधार करने के सम्बन्ध में सुझाव देता है।
  11. निर्वाचन में यदि किसी कारणवश अनियमितताएँ हो जाती हैं तो उनके विरुद्ध याचिकाओं को आमन्त्रित करना और उनकी सुनवाई के लिए न्यायाधिकारियों की नियुक्ति करना।
  12. निर्वाचन में प्रत्याशियों द्वारा किए गए व्यय की जाँच करना।
  13. लोकसभा तथा विधानसभा के निर्वाचनों में निर्वाचन क्षेत्रों में पर्यवेक्षकों की नियुक्ति करना। पर्यवेक्षकों के प्रतिवेदन के आधार पर सम्पूर्ण निर्वाचन क्षेत्र के निर्वाचन को रद्द कर देना अथवा उसके कुछ मतदान केन्द्रों पर पुनर्मतदान का आदेश देना।
  14. संविधान द्वारा आयोग को कुछ अर्द्ध-न्यायिक कार्य भी सौंपे गए हैं। संविधान के अनुच्छेद 103 के अन्तर्गत राष्ट्रपति संसद के सदस्यों की अयोग्यताओं के सम्बन्ध में तथा 192 अनुच्छेद के अनुसार, राज्यपाल विधानमण्डल के सदस्यों के सम्बन्ध में आयोग से परामर्श कर सकते हैं।
  15. आयोग द्वारा राजनीतिक दलों के लिए आचार संहिता तैयार की जाती है।
  16. राजनीतिक दलों को आकाशवाणी पर चुनाव प्रचार की सुविधाओं की व्यवस्था कराना।
  17. मतदाताओं को राजनीतिक प्रशिक्षण देना।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वयस्क मताधिकार से आप क्या समझते हैं? इसके गुण तथा दोषों की विवेचना कीजिए।
या
मताधिकार का क्या अर्थ है? मताधिकार के प्रकारों की व्याख्या कीजिए।
या
सार्वभौमिक मताधिकार के पक्ष में चार तर्क दीजिए।
या
वयस्क मताधिकार से आप क्या समझते हैं। इसके पक्ष और विपक्ष में तर्क प्रस्तुत कीजिए।
या
वयस्क मताधिकार का अर्थ बताइए तथा वर्तमान समय में इसकी आवश्यकता के पक्ष में तर्क दीजिए।
या
वयस्क मताधिकार के समर्थन का मुख्य आधार क्या है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
या
लोकतान्त्रिक शासन में वयस्क मताधिकार का महत्त्व समझाइए।
उत्तर :

मताधिकार का अर्थ एवं परिभाषा

‘मताधिकार’ शब्द में दो शब्द सम्मिलित हैं-‘मत’ और ‘अधिकार’। इसका आशय है—राय या मत प्रकट करने का अधिकार। नागरिकशास्त्र के अन्तर्गत मताधिकार का अपना विशिष्ट अर्थ है। इसके अनुसार देश के नागरिकों को शासन संचालन हेतु अपने उम्मीदवारों को चुनने का जो अधिकार प्राप्त होता है, उसे ही ‘मताधिकार’ कहते हैं। यह अधिकार नागरिक को मौलिक अधिकार माना गया है। केवल कुछ विशेष परिस्थितियों में ही नागरिक को मताधिकार से वंचित किया जा सकता है। मताधिकार की परिभाषा देते हुए गार्नर ने लिखा है-“मताधिकार वह अधिकार है जिसे राज्य देश के हित-साधक योग्य व्यक्तियों को प्रदान करता है।” मताधिकार की प्राप्ति के लिए आयु, नागरिकता, निवासस्थान आदि योग्यताएँ महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। कुछ देशों में लिंग व शिक्षा को भी मताधिकार की शर्त माना गया है।

मताधिकार के प्रकार

मताधिकार दो प्रकार का हो सकता है –

  1. सीमित मताधिकार तथा
  2. वयस्क मताधिकार।

1. सीमित मताधिकार

सीमित मताधिकार का अर्थ है कि सम्पूर्ण समाज के कल्याण को ध्यान में रखकर यह अधिकार केवल ऐसे लोगों को ही दिया जाना चाहिए, जिनमें इसके प्रयोग की योग्यता व क्षमता हो। यह मताधिकार शिक्षा, सम्पत्ति या पुरुषों को प्रदान करने तक सीमित किया जा सकता है। ब्लण्टशली, मिल, हेनरीमैन, सिजविक, लैकी इसी विचार के समर्थक हैं। इन विचारकों का मत है कि सम्पूर्ण समाज के हित को ध्यान में रखते हुए मताधिकार केवल ऐसे लोगों को दिया जाना चाहिए, जो मतदान के महत्त्व को समझते हों तथा मतदान करते समय योग्य तथा सक्षम उम्मीदवार की पहचान कर सकें। ये विचारक सम्पत्ति, शिक्षा अथवा लिंग को ही आधार मानकर मतदान को सीमित करना चाहते हैं, इसलिए इसे ‘सीमित मताधिकार’ कहा जाता है। सीमित मताधिकार के समर्थक निम्नलिखित आधारों पर मतदान को सीमित करना चाहते हैं –

(अ) सम्पत्ति का आधार – सम्पत्ति को मताधिकार का आधार मानने वाले विचारक कहते हैं कि मताधिकार केवल उन नागरिकों को ही प्राप्त होना चाहिए, जिनके पास कुछ सम्पत्ति हो तथा जो कर देते हों। यदि सम्पत्तिविहीन या कर न देने वालों को यह अधिकार दिया गया तो वे ऐसे व्यक्तियों को चुनेंगे जो कानूनों द्वारा धनिकों की सम्पत्ति का अधिग्रहण करने का प्रयास करेंगे तथा उन पर अधिक-से-अधिक कर लगाएँगे।

(ब) शिक्षा का आधार – शिक्षा के समर्थक मानते हैं कि निरक्षर अथवा अशिक्षित व्यक्तियों को मताधिकार नहीं दिया जाना चाहिएः निरक्षर व्यक्तियों में समझदारी नहीं होती है तथा वे राजनीति को नहीं समझते हैं। वे जाति, धर्म व सम्बन्धों से प्रभावित हो जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप वे गलत निर्णय भी ले सकते हैं।

2. वयस्क या सार्वभौमिक मताधिकार

कुछ विद्वानों ने मताधिकार को प्रत्येक नागरिक का प्राकृतिक अधिकार स्वीकार किया है तथा शिक्षा, लिंग, सम्पत्ति एवं अन्य किसी भेदभाव के बिना एक निश्चित आयु तक के सभी व्यक्तियों को मताधिकार प्राप्त होने का विचार प्रतिपादित किया है। मत की इस व्यवस्था को ही वयस्क मताधिकार कहते हैं। वयस्क मताधिकार क्योंकि सभी वयस्क स्त्री-पुरुषों को प्राप्त रहता है, इसलिए इसे सार्वभौम मताधिकार भी कहा जाता है।

विभिन्न राज्यों में वयस्क होने की आयु अलग-अलग है। उदाहरणार्थ-भारत, इंग्लैण्ड तथा अमेरिका में 18 वर्ष पर, स्विट्जरलैण्ड में 20 वर्ष पर, नार्वे में 23 वर्ष पर और हॉलैण्ड में 25 वर्ष पर व्यक्ति वयस्क माना जाता है। साधारणतया पागल, दिवालिये, अपराधी तथा विदेशी मताधिकार से वंचित रखे जाते हैं।

वयस्क मताधिकार के गुण (पक्ष में तर्क)

संसार के अधिकाश देशों में वयस्क मताधिकार प्रचलित है। वयस्क मताधिकार के निम्नलिखित गुणों के कारण इसको मान्यता प्रदान की गयी है –

1. सभी के हितों की रक्षा – वयस्क मताधिकार द्वारा सभी वर्गों के हितों की रक्षा होती है। यह लोक-सत्ता की वास्तविक अभिव्यक्ति है। गार्नर के अनुसार, “ऐसी सत्ता की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति मताधिकार में ही हो सकती है।”

2. विकास के समान अवसर – मिल ने कहा है कि “प्रजातन्त्र मनुष्य की समानता को स्वीकार करता है और राजनीतिक समानता तभी हो सकती है जब सभी नागरिकों को मताधिकार दे दिया जाये।”

3. राजनीतिक शिक्षा – वयस्क मताफ्रिकार समस्त नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के राजनीतिक जागृति तथा सार्वजनिक शिक्षा प्रदान करता है।

4. सभी प्रकार के अधिकार व सम्मान की सुरक्षा – मताधिकार के बिना न तो नागरिकों को अन्य अधिकार प्राप्त होंगे और न उनका सम्मान ही सुरक्षित रहेगा। मताधिकार मिलने से नागरिकों को अन्य नागरिक अधिकार भी स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं।

5. शासन-कार्यों में रुचि – मताधिकार प्राप्त होने से नागरिक शासनं-कार्यों में रुचि लेते हैं, जिससे राष्ट्र शक्तिशाली बनता है और नागरिकों में स्वदेश-प्रेम की भावना उत्पन्न होती है।

6. लोकतन्त्र का आधार – वयस्क मताधिकार को लोकतन्त्र की नींव तथा आधार कहा जाता है, क्योंकि प्रजातान्त्रिक शासन में राज्य की वास्तविक प्रभुसत्ता मतदाताओं के हाथ में ही होती है।

7. अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व – सभी नागरिकों को मताधिकार प्राप्त होने से समाज के बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक सभी वर्गों को शासन में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है; अतः समाज के सभी वर्ग सन्तुष्ट रहते हैं।

8. निरंकुशता पर रोक – वयस्क मताधिकार शासन की निरंकुशता को रोकने के लिए अवरोध का कामे करता है।

वयस्क मताधिकार के दोष (विपक्ष में तर्क)

कुछ विद्वानों ने वयस्क मताधिकार की निम्नलिखित दोषों के आधार पर आलोचना की है –

1. मताधिकार का दुरुपयोग सम्भव – विद्वानों का तर्क है कि मात्र वयस्कता के आधार पर सभी लोगों को मताधिकार देने से इस अधिकार के दुरुपयोग की सम्भावना बढ़ जाती है।

2. अयोग्य व्यक्तियों का चुनाव सम्भव – लॉवेल के शब्दों में, “अज्ञानियों को मताधिकार दो, आज ही उनमें अराजकता फैल जाएगी और कल ही उन पर निरंकुश शासन होने लगेगा।” वयस्क मताधिकार प्रणाली में यदि मतदाता अशिक्षित व अज्ञानी हों तो यही सम्भावना बलवती हो जाती है कि वे अयोग्य व्यक्तियों का चुनाव करेंगे, जो प्रजातन्त्र के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है।

3. धनी वर्ग के हित असुरक्षित – वयस्क मताधिकार की दशा में बहुसंख्यक निर्धन तथा मजदूर जनता प्रतिशोध की भावना से ऐसे प्रतिनिधियों का चुनाव करती है जिनसे धनिकों व पूँजीपतियों के हितों को हानि पहुँचने की सम्भावना रहती है।

4. वोटों की खरीद – वयस्क मताधिकार का एक बहुत बड़ा दोष यह है कि जनता की निर्धनता तथा अज्ञानता का लाभ उठाकर अनेक प्रत्याशी उनके वोटों को धन या अन्य सुविधाओं का लालच देकर खरीद लेते हैं।

5. चुनाव में भ्रष्टाचार – वयस्क मताधिकार की स्थिति में मतदाताओं की संख्या इतनी अधिक होती है कि चुनाव में लोग अनेक प्रकार के भ्रष्ट साधन अपनाने लगते हैं; जैसे-कुछ कमजोर वर्ग के लोगों को वोट डालने से बलपूर्वक रोकना, मतदाताओं के फर्जी नाम दर्ज कराना, किसी के नाम का वोट किसी अन्य के द्वारा डाल देना आदि।

6. रूढ़िवादिता – सामान्य जनता में रूढ़िवादी व्यक्तियों की संख्या अधिक होती है। ये लोग सुधारों तथा प्रगतिशील विचारों का विरोध करते हैं। अत: यदि वयस्क मताधिकार दिया गया तो शासन रूढ़िवादी तथा प्रगतिशील विचारों के विरोधी व्यक्तियों का केन्द्र बन जाएगा। इसीलिए हेनरीमैन ने कहा कि “वयस्क मताधिकार सम्पूर्ण प्रगति का अन्त कर देगा।”

हालाँकि वयस्क मताधिकार के विरोध में कतिपय तर्क दिये गये हैं, परन्तु ये तर्क इसके समर्थन में दिये गये तर्को की तुलना में गौण और महत्त्वहीन हैं। व्यावहारिक अनुभव यह है कि अनेक बार अशिक्षित व्यक्तियों ने भी अपने मताधिकार का प्रयोग अत्यन्त बुद्धिमान व्यक्ति की तुलना में अधिक विवेक के साथ किया है; अतः शिक्षा के आधार पर मताधिकार को सीमित किया जाना ठीक नहीं है। वयस्क मताधिकार का सर्वत्र अपनाया जाना इस बात का प्रमाण है कि वह प्रजातन्त्र की भावनाओं के सर्वथा अनुकूल और अनिवार्य है। लॉस्की के इस कथन में सत्य निहित है, “वयस्क मताधिकार का कोई विकल्प नहीं है।”

प्रश्न 2.
स्त्री-मताधिकार के पक्ष एवं विपक्ष में तर्क दीजिए।
या
महिला मताधिकार के पक्ष और विपक्ष में दो-दो तर्क दीजिए।
उत्तर :
कुछ विद्वानों का विचार है कि मताधिकार स्त्री-पुरुष दोनों को मिलना चाहिए, जब कि अनेक लोग स्त्री-मताधिकार के विरोधी हैं। ऐसे लोग स्त्री-मताधिकार के विपक्ष में विभिन्न तर्क प्रस्तुत करते हैं

स्त्री-मताधिकार के विपक्ष में तर्क

सामान्यतः स्त्री-मताधिकार के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं –

1. पारिवारिक जीवन पर कुप्रभाव – स्त्री-मताधिकार से स्त्रियों का कार्यक्षेत्र बढ़ जाता है, फलस्वरूप वे परिवारिक कार्यों के प्रति उदासीन हो जाती हैं। इससे पारिवारिक जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

2. मत की मात्र पुनरावृत्ति – ऐसा देखा गया है कि स्त्रियाँ अपने पति के परामर्शानुसार ही अपना मत प्रयोग करती हैं। वे स्वविवेक से अपने मत का प्रयोग नहीं करतीं।

3. राजनीति के प्रति उदासीनता – प्रायः स्त्रियाँ राजनीति के प्रति उदासीन रहती हैं। उनकी तरफ से भले ही कोई ग दल शासन करे, इससे उन्हें अधिक सरोकार नहीं होता।

4. शारीरिक दुर्बलता – ऐसा माना जाता है कि स्त्रियाँ शारीरिक रूप से पुरुष की अपेक्षा कम शक्तिशाली होती हैं। उन्हें मताधिकार प्रदान करने का कोई लाभ नहीं। वे कदम-से-कदम मिलाकर पुरुष का साथ नहीं दे सकतीं।

5. आत्मविश्वास की कमी – परम्परा से स्त्रियाँ पुरुषों पर निर्भर रहती आयी हैं। उनमें आत्म निर्भरता तथा आत्मविश्वास का अभाव होता है।

6. भावुक प्रवृत्ति – स्त्रियाँ प्राय: भावुक होती हैं। भावुकता की यह प्रवृत्ति राजनीतिक व्यवहार के लिए उपयुक्त स्थिति नहीं है।

7. भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन – आज की दलगत राजनीति में भ्रष्ट उपायों का प्रयोग बढ़ जाने से स्त्रियों के लिए यह क्षेत्र उपयुक्त नहीं रह गया है।

स्त्री-मताधिकार के पक्ष में तर्क

उपर्युक्त तर्कों के बावजूद स्त्री-मताधिकार के विरोध में आज बहुत कम लोग हैं। लगभग सभी देशों ने आज स्त्री-मताधिकार प्रदान किया हुआ है। स्त्री-मताधिकार के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं –

1. मताधिकार के सम्बन्धं में लिंग-भेद अनुचित – लिंग-भेद एक प्राकृतिक स्थिति है। इस आधार को मताधिकार का आधार बनाना नितान्त अनुचित है। स्त्रियाँ भी पुरुषों के समान स्वतन्त्र, बुद्धिमान व नैतिक गुणों से श्रेष्ठ होती हैं। अतः मात्र स्त्री होने के कारण उन्हें ‘ मताधिकार से वंचित करना अनुचित ही नहीं, वरन् अन्यायपूर्ण भी है।

2. पारिवारिक जीवन पर कोई बुरा प्रभाव नहीं – स्त्री-मताधिकार से पारिवारिक जीवन पर कुप्रभाव पड़ता है, इसे मत में कोई औचित्य नहीं। वास्तविकता यह है कि स्त्री मताधिकार से स्त्रियों की दृष्टिकोण व्यापक होता है, उनमें विद्यमान संकुचित विचारधारा का अन्त होता है। उनका वैचारिक क्षेत्र पारिवारिक स्तर से उठकर राष्ट्रीय स्तर तक बढ़ जाता है।

3. राजनीति पर स्वस्थ प्रभाव – यह कहना सर्वथा अनुचित है कि स्त्रियाँ राजनीति के प्रति उदासीन होती हैं। सच तो यह है कि उनके राजनीतिक क्षेत्र में उतरे आने से राजनीति में स्वस्थ परम्पराओं का उदय होता है। स्त्रियाँ स्वभावतः शान्ति-प्रिय, व्यवस्था-प्रिय, दयालु तथा सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण रखने वाली होती हैं। स्त्रियों के इन मानवीय गुणों के कारण राजनीति में व्याप्त कठोरता, निर्दयता, बेईमानी, चालबाजी आदि में ह्रास होगा तथा राजनीति में नये आयाम स्थापित होंगे।

4. स्त्रियों को दुर्बल मानना अतार्किक – स्त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा निर्बल होती हैं, इस तर्क में अधिक तथ्य नहीं है। आज प्रत्येक क्षेत्र में स्त्रियाँ न केवल पुरुष के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चल रही हैं, वरन् वे पुरुषों से आगे निकलने के प्रयास में हैं। अतः स्त्रियों को निर्बल मानकर उन्हें मताधिकार से वंचित कर देने का समर्थन करने वाले मिथ्या भ्रम के शिकार हैं।

5. शासन प्रबन्ध हेतु पूर्ण सक्षम – यह मत कि स्त्रियाँ अपने राजनीतिक अधिकारों का सदुपयोग नहीं कर सकतीं और उन्हें मताधिकार नहीं दिया जाना चाहिए, सर्वथा हास्यास्पद है। इतिहास साक्षी है। कि स्त्रियों ने सफल शासिका होने के प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। कैथरीन, एलिजाबेथ विक्टोरिया, इन्दिरा गाँधी, मारग्रेट थैचर, भण्डारनायके, बेनजीर भुट्टो, एक्विनो, बेगम खालिदा जिया जयललिता आदि महिलाओं ने न केवल शासन किया है, वरन् यह सिद्ध कर दिया है कि नारी होना किसी भी प्रकार से कोई दोष नहीं है। नारी प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष की समानता कर सकती है। अतः स्त्री-मताधिकार का विरोधी मत रखना भ्रामक है।

6. आज के युग के सर्वथा अनुकूल – स्त्री-मताधिकार वर्तमान परिस्थितियों में नितान्त आवश्यक हो गया है। आज स्त्रियाँ जीवन के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में पदार्पण कर चुकी हैं। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में तो स्त्री-मताधिकार अपरिहार्य ही है। स्त्रियों का कार्यक्षेत्र बढ़ गया है। ऐसा भी नहीं है। कि स्त्री-मताधिकार प्रदान कर देने से उनके प्राकृतिक कार्यों में कोई रुकावट आती हो। यदि कोई महिला किसी देश की प्रधानमन्त्री है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उसका कोई पारिवारिक जीवन ही नहीं। घर में वह पत्नी, माता, बहन, पुत्री आदि रूपों में अपनी पारम्परिक महत्ता बनाये हुए है। अत: इस आधार पर उनको मताधिकार से वंचित करना गलत होगा।

उपर्युक्त पक्ष – विपक्षीय मतों का विवेचन करने पर एक बात जो विशेष रूप से स्पष्ट होती है, वह यह है कि स्त्री-मताधिकार के विपक्ष में दिये गये लगभग सभी तर्क अतार्किक, भ्रामक व पक्षपातपूर्ण हैं। आज स्त्री-मताधिकार लाभप्रद ही नहीं, वरन् परमावश्यक भी है, तभी लोकतन्त्र सुरक्षित रह सकता है। इसी कारण आज लगभग सभी देशों ने स्त्री-मताधिकार प्रदान किया हुआ है।

प्रश्न 3.
प्रतिनिधित्व के विभिन्न तरीकों का परीक्षण कीजिए।
या
आनुपातिक प्रतिनिधित्व से आप क्या समझते हैं? इसकी विभिन्न प्रणालियों की व्याख्या कीजिए।
यो
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के गुणों एवं दोषों की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र में प्रतिनिधित्व की विभिन्न प्रणालियों की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। सम्पूर्ण प्रणालियों में बहुमत प्रणाली को आशातीत समर्थन प्राप्त हुआ है। परन्तु इसमें सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें अल्पसंख्यकों की समुचित प्रतिनिधित्व की स्थिति का अभाव पाया जाता है। इस दोष को दूर करने के उद्देश्य से ही अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए अन्य प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है।

प्रतिनिधित्व की प्रणालियाँ

आधुनिक काल में अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए निम्नलिखित प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है –

  1. आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली।
  2. सीमित मत प्रणाली।
  3. संचित मत प्रणाली।
  4. एकल मत प्रणाली।
  5. पृथक् निर्वाचन प्रणाली।
  6. सुरक्षित स्थानयुक्त संयुक्त प्रणाली।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व

अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए जिन उपायों का साधारणतः प्रयोग किया जाता है। उनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध उपाय आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional Representation) प्रणाली है। इस प्रणाली का मूल उद्देश्य राज्य के सभी राजनीतिक दलों के हितों का ध्यान रखना एवं उन्हें न्याय प्रदान करना है, जिससे प्रत्येक दल को व्यवस्थापिका में आनुपातिक दृष्टि से लगभग उतना प्रतिनिधित्व अवश्य प्राप्त हो सके, जितना कि न्यूनतम उस वर्ग के लिए युक्तिसंगत हो। प्रतिनिधित्व की इस योजना को जन्म देने वाले 19वीं शताब्दी के एक अंग्रेज विद्वान थॉमस हेयर (Thomas Haire) थे। उन्होंने सन् 1831 ई० में इस प्रणाली का सूत्रपात किया इसीलिए इसे ‘हेयर प्रणाली’ भी कहते हैं। वर्तमान काल में आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का प्रयोग अनेक रूपों में किया जा रहा है। प्रो० सी० एफ० स्ट्राँग के शब्दों में—“आनुपातिक प्रतिनिधित्व का पृथक् रूप में कोई भी अर्थ नहीं है क्योंकि इसके अनेक प्रकार हैं। वास्तव में इतने अधिक, जितने राज्यों ने उसे अपनाया है और सिद्धान्त रूप में उससे भी अधिका” आनुपातिक प्रतिनिधित्व के ये सभी प्रकार इन दो रूपों में विभक्त किए जा सकते हैं –

  1. एकल संक्रमणीय मत प्रणाली (Single Transferable Vote System)
  2. सूची प्रणाली (List System)।

1. एकल संक्रमणीय मत प्रणाली – इस प्रणाली में बहुसदस्यीय निर्वाचन-क्षेत्रों का प्रयोग किया जाता है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से तीन या इससे अधिक प्रतिनिधि चुने जा सकते हैं एक निर्वाचन-क्षेत्र से चाहे कितने ही प्रतिनिधि चुने जाने हों किन्तु प्रत्येक मतदाता को केवल एक ही । मत देने का अधिकार होता है। परन्तु वह मत-पत्र पर अपनी पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी और इससे अधिक पसन्द का उल्लेख उतनी संख्या में करता है, जितने उम्मीदवार चुने जाने होते हैं। मतदान समाप्त हो जाने पर यह देखा जाता है कि निर्वाचन-क्षेत्र में कुल कितने मत डाले गए और यह संख्या ज्ञात हो जाने पर निश्चित निर्वाचक अंक (Electoral Quota) निकाला जाता है। निश्चित मत-संख्या मतों की वह संख्या है जो उम्मीदार को विजयी घोषित किए जाने के लिए आवश्यक है। निश्चित मत-संख्या ज्ञात करने का सूत्र इस प्रकार है –
कोटा = कुल डाले गए मतों की संख्या / पदों की संख्या +1 (+1)

निश्चित मत संख्या निकाल लेने के बाद सब मतदाताओं की पहली पसन्द (First Preference) के मतपत्र (Ballot-papers) गिन लिए जाते हैं। जिन उम्मीदवारों को निश्चित संख्या के बराबर या उससे अधिक पहली पसन्द के मत प्राप्त होते हैं, वे निर्वाचित घोषित कर दिए जाते हैं। परन्तु यदि इस प्रकार सब स्थानों की पूर्ति नहीं हो पाती है, तो सफल उम्मीदवारों के अतिरिक्त मत (Surplus Votes) अन्य उम्मीदवारों को हस्तान्तरित कर दिए जाते हैं और उन पर अंकित दूसरी पसन्द (Second Preference) के अनुसार विभाजित किए जाते हैं। यदि इस पर भी सब स्थानों की पूर्ति नहीं होती है तो सफल उम्मीदवारों की तीसरी, चौथी, पाँचवीं पसन्द भी इसी प्रकार हस्तान्तरित की जाती है और यदि उसके बाद भी कुछ स्थान रिक्त रह जाते हैं तो जिन उम्मीदवारों को सबसे कम मत प्राप्त हुए हैं, वे बारी-बारी से पराजित घोषित कर दिए जाते हैं और उनके प्राप्त-मत दूसरी, तीसरी, चौथी इत्यादि पसन्द के अनुसार हस्तान्तरित कर दिए जाते हैं। यह प्रक्रिया उस समय तक चलती रहती है, जब तक कि रिक्त स्थानों की पूर्ति न हो जाए।

इस प्रणाली का स्पष्ट उद्देश्य यही है कि एक भी मत व्यर्थ न जाए। यह प्रणाली अत्यन्त जटिल है। इसीलिए इसका प्रयोग बहुत कम देशों में होता है, तथापि स्वीडन, फिनलैंड, नार्वे, डेनमार्क आदि देशों में यही प्रणाली प्रचलित है।

2. सूची प्रणाली – सूची प्रणाली आनुपातिक प्रतिनिधित्व का दूसरा रूप है। इस प्रणाली के अन्तर्गत सभी प्रत्याशी अपने-अपने राजनीतिक दलों के अनुसार अलग-अलग सूचियों में सूचीबद्ध किए जाते हैं और प्रत्येक दल अपने उम्मीदवारों की सूची प्रस्तुत करता है, जिसमें दिए गए नामों की संख्या उस निर्वाचन-क्षेत्र से चुने जाने वाले प्रतिनिधियों की संख्या से अधिक नही हो सकती है। मतदाता अपने मत अलग-अलग उम्मीदवारों को नहीं, अपितु किसी भी दल की पूरी-की-पूरी सूची के पक्ष में देते हैं। इसके बाद डाले गए मतों की कुल संख्या को निर्वाचित होने वाले प्रतिनिधियों की संख्या से भाग देकर निर्वाचक अंक (Electoral Quota) निकाल लिया जाता है। तदुपरान्त एक दल द्वारा प्राप्त मतों की संख्या को निर्वाचक अंक से भाग दिया जाता है और इस प्रकार यह निश्चय किया जाता है कि उसे दल को कितने स्थान मिलने चाहिए। उदाहरणार्थ, किसी राज्य से 50 प्रतिनिधि चुने जाते हैं और कुल वैध मतों की संख्या 2.00,000 है, तो 2,00,000/50 = 4,000 निर्वाचन अंक हुआ। ऐसी स्थिति में किसी राजनीतिक दल ‘अ ब स’ को 21,000 मत प्राप्त हुए हैं, तब (21,000/4,000 = 5.25) उस दल के 5 प्रत्याशी विजयी घोषित होंगे। सभी सूची प्रणालियों का आधारभूत सिद्धान्त यही है, परन्तु विभिन्न देशों में थोड़ा-बहुत परिवर्तन अथवा संशोधन करके इसे नए-नए रूप दिए गए हैं और इस प्रकार आज सूची प्रणाली के अनेक प्रकार पाए जाते हैं। ऐसी स्थिति में सूची प्रणाली का कोई सार्वभौमिक सिद्धान्त नहीं है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के गुण

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली व्यवस्थापक-मण्डल में अल्पमतों को प्रतिनिधित्व प्रदान करने का एक सरल उपाय है। इस प्रणाली के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं –

1. यह प्रणाली अल्पसंख्यक दल को उसकी शक्ति के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्रदान करती है। जिसके फलस्वरूप यह व्यवस्थापिका का यथार्थ प्रतिबिम्ब बन जाती है तथा प्रत्येक अल्पसंख्यक वर्ग सन्तुष्ट हो जाता है।

2. आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अन्तर्गत व्यवस्थापिका में साधारणतया किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हो पाता है। इस प्रकार यह प्रणाली अल्पमत दलों को बहुमत दल की स्वेच्छाचारिता से बचाकर शासन में उचित भागीदारी का अवसर प्रदान करती है।

3. आनुपातिक प्रतिनिधित्व के परिणामस्वरूप एक प्रकार की राजनीतिक शिक्षा भी प्राप्त होती है। क्योंकि मतदाताओं के लिए अपना मत देने से पहले विभिन्न उम्मीदवारों तथा विभिन्न दलों की नीतियों के सम्बन्ध में विचार करना आवश्यक हो जाता है।

4. यह प्रणाली मताधिकार को सार्थक एवं व्यावहारिक बनाती है क्योंकि इसमें प्रत्येक मतदाता को अनेक उम्मीदवारों में से चुनाव की स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। इसमें किसी मतदाता का मत व्यर्थ नहीं जाता है, उससे किसी-न-किसी उम्मीदवार के निर्वाचन में सहायता अवश्य मिलती है। शुल्ज (Schulz) का मत है- “एकल संक्रमणीय मत पद्धति निर्वाचकों को अपनी पसन्द के उम्मीदवार चुनने में सबसे अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करती है।”

5. आनुपातिक प्रणाली में उच्च व्यवस्थापिका स्तर की सम्भावना बनी रहती है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के दोष

यदि निर्वाचन का एकमात्र उद्देश्य केवल न्याय अथवा चुनाव लड़ने वाले दलों के बीच अनुपात की स्थापना है तो यह प्रणाली वास्तव में निर्वाचन की आदर्श प्रणाली कही जा सकती है। परन्तु व्यवस्थापिका को केवल विभिन्न दलों तथा वर्गों का प्रतिनिधित्व ही नहीं करना चाहिए, अपितु अपने कर्तव्यों का भी सुचारु रूप से पालन करना चाहिए। इस दृष्टिकोण से आनुपातिक प्रतिनिधित्व के विरुद्ध अनेक तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं, जिनमें से कतिपय विशेष महत्त्वपूर्ण तर्क निम्नलिखित हैं –

1. यह प्रणाली विशाल राजनीतिक दलों की एकता को नष्ट कर देती है तथा इससे अनेक छोटे-छोटे दलों और गुटों का जन्म होता है। इसके परिणामस्वरूप सभी समस्याओं पर राष्ट्रीय हित की दृष्टि से नहीं, वरन् वर्गीय हित की दृष्टि से विचार किया जाता है। सिजविंक के शब्दों में -“वर्गीय प्रतिनिधित्व आवश्यक रूप से दूषित वर्गीय व्यवस्थापन को प्रोत्साहित करता है।

2. आनुपातिक प्रतिनिधित्व ‘अल्पमत विचारधारा’ को प्रोत्साहन देता है, जिसके परिणामस्वरूप वर्ग-विशेष के हितों और स्वार्थों का उदय होता है। इसके अन्तर्गत व्यवस्थापिका में किसी एक दल का स्पष्ट बहुमत नहीं होता है और मिश्रित मन्त्रिपरिषद् के निर्माण में छोटे-छोटे दलों की स्थिति बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। वे अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए स्वार्थपूर्ण वर्गहित के पक्ष में अपना समर्थन बेच देते हैं, परिणामतः सार्वजनिक जीवन की पवित्रता नष्ट हो जाती है। फाइनर के अनुसार-“इस प्रणाली को अपनाने से प्रतिनिधि द्वारा अपने क्षेत्र की देखभाल प्रायः समाप्त हो जाती है।”

3. यह प्रणाली व्यावहारिक रूप में बहुत जटिल है। इसकी सफलता के लिए मतदाताओं और उनमें भी अधिक निर्वाचन अधिकारियों को उच्च कोटि की राजनीतिक शिक्षा प्राप्त करनी आवश्यक होती है। मतदाताओं को इसके नियम समझने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। साथ ही मतगणना अत्यन्त जटिल होती है, जिसमें भूल होने की अनेक सम्भावनाएँ रहती

4. उपचुनावों में जहाँ केवल एक प्रतिनिधि का चुनाव करना होता है, इस प्रणाली का प्रयोग किया जाना सम्भव नहीं होता है।

5. आनुपातिक प्रणाली में, विशेषतया सूची प्रणाली में, दलों का संगठन तथा नेताओं का प्रभाव बहुत बढ़ जाता है और साधारण सदस्यों की स्वतन्त्रता नष्ट हो जाती है क्योंकि मतदान का आधार राजनीतिक दल होता है।

6. अनेक दलों के अस्तित्व के परिणामस्वरूप कोई भी दल अकेले ही सरकार निर्माण की स्थिति में नहीं होता है। अत: संयुक्त मन्त्रिपरिषदों का निर्माण होता है और प्रायः सरकारें अस्थायी होती हैं।

7. दलीय वर्चस्व होने के कारण मतदाता प्रायः अपने-अपने राजनीतिक दलों को मत देते हैं, अतः इस प्रणाली में निर्वाचकों और प्रतिनिधियों में कोई सम्पर्क नहीं होता है।

8. इस प्रणाली में समय और धन दोनों का अपव्यय होता है।

विश्लेषणात्मक समीक्षा – उपर्युक्त दोषों के कारण ही अनेक राजनीतिक विद्वान् आनुपातिक प्रतिनिधित्व को अनुपयोगी और जटिल निर्वाचन प्रणाली कहते हैं। वास्तव में राष्ट्रीय निर्वाचकों में आनुपातिक प्रणाली को अपनाना एक प्रकार से अव्यवस्था उत्पन्न करना है क्योंकि यह व्यवस्थापिका की सत्ता को निर्बल बना देती है। यह प्रणाली मन्त्रिपरिषदों के स्थायित्व तथा एकरूपता को नष्ट कर संसदीय शासन को असम्भव बना देती है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का औचित्य निर्धारण एवं उपयोगिता

प्रथम महायुद्ध के उपरान्त फ्रांस, जर्मनी, आयरलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया, पोलैण्ड आदि अनेक यूरोपीय देशों ने इस प्रणाली को अपनाया था, परन्तु अब इसकी उपयोगिता कम होती जा रही है और अनेक देशों ने तो इस परित्याग तक कर दिया है। ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत तथा अन्य अनेक देशों ने अपने साधारण निर्वाचनों के लिए कभी इस प्रणाली को अपनाया ही नहीं, यद्यपि आजकल ब्रिटेन तथा अमेरिका में आनुपातिक प्रतिनिधित्व संस्थाएँ इस प्रणाली को लोकप्रिय बनाने का प्रयास कर रही हैं।

संसदीय निर्वाचनों में तो बहुत कम देश ही इस प्रणाली का प्रयोग करते हैं, परन्तु व्यवस्थापक मण्डलों, स्थानीय निकायों और गैर-सरकारी समुदायों की विभिन्न समितियों का निर्वाचन साधारणतया इस प्रणाली के अनुसार ही होता है। हमारी संविधान सभा का निर्वाचन भी आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार ही हुआ था। नए संविधान के अन्तर्गत राज्यसभा के सदस्य राज्यों की विधानसभाओं द्वारा इसी प्रणाली के आधार पर निर्वाचित होते हैं और राज्यों के उच्च सदनों जैसे भारत में विधान परिक्दों और व्यवस्थापक-मण्डल की समितियों के निर्माण में भी इसी निर्वाचन प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। भारत के राष्ट्रपति का निर्वाचन भी आधुनिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की एकल-संक्रमणीय मत प्रणाली के आधार पर होता है।

प्रश्न 4.
प्रत्यक्ष निर्वाचन के गुणों और दोषों का मूल्यांकन कीजिए।
या
प्रत्यक्ष निर्वाचन के चार मुण बताइए।
उत्तर :

प्रत्यक्ष निर्वाचन

यदि निर्वाचक प्रत्यक्ष रूप से अपने प्रतिनिधि निर्वाचित करें, तो उसे प्रत्यक्ष निर्वाचन कहा जाता है। यह बिल्कुल सरल विधि है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक मतदाता निर्वाचन स्थान पर विभिन्न उम्मीदवारों में से किसी एक उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करता है और जिस उम्मीदवार को सर्वाधिक मत प्राप्त होते हैं. उसे विजयी घोषित कर दिया जाता है। भारत, इंग्लैण्ड, अमेरिका, कनाडा, स्विट्जरलैण्ड आदि देशों में व्यवस्थापिका के प्रथम सदन के निर्माण हेतु यही पद्धति अपनायी गयी है।

प्रत्यक्ष निर्वाचन के गुण

1. प्रजातन्त्रात्मक धारणा के अनुकूल – यह जनता को प्रत्यक्ष रूप से अपने प्रतिनिधि निर्वाचित करने का अवसर देती है; अतः स्वाभाविक रूप से यह पद्धति प्रजातन्त्रीय व्यवस्था के अनुकूल

2. मतदाता और प्रतिनिधि के मध्य सम्पर्क – इस पद्धति में जनता अपने प्रतिनिधि को प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित करती है; अत: जनता और उसके प्रतिनिधि के बीच उचित सम्पर्क बना रहता है। और दोनों एक-दूसरे की भावनाओं से परिचित रहते हैं। इसके अन्तर्गत जनता अपने प्रतिनिधियों के कार्य पर निगरानी और नियन्त्रण भी रख सकती है।

3. राजनीतिक शिक्षा – जब जनता अपने प्रतिनिधि को प्रत्यक्ष रूप से चुनती है तो विभिन्न दल और उनके उम्मीदवार अपनी नीति और कार्यक्रम जनता के सामने रखते हैं, जिससे जनता को बड़ी राजनीतिक शिक्षा मिलती है और उनमें राजनीतिक जागरूकता की भावना का उदय होता है। इससे सामान्य जनता को अपने अधिकार और कर्तव्यों का अधिक अच्छे प्रकार से ज्ञान भी हो जाता है।

4. राजनीतिक अधिकार का प्रयोग – प्रत्यक्ष निर्वाचन जनता को अपने राजनीतिक अधिकार का प्रयोग करने का अवसर प्रदान करता है।

प्रत्यक्ष निर्वाचन के दोष

1. सामान्य निर्वाचकों का मत त्रुटिपूर्ण – आलोचकों का कथन है कि जनता में अपने मत का उचित प्रयोग करने की क्षमता नहीं होती। मतदाता अधिक योग्य और शिक्षित न होने के कारण नेताओं के झूठे प्रचार और जोशीले भाषणों के प्रभाव में बह जाते हैं और निकम्मे, स्वार्थी और चालाक उम्मीदवारों को चुन लेते हैं।

2. सार्वजनिक शिक्षा का तर्क त्रुटिपूर्ण – प्रत्यक्ष निर्वाचन के अन्तर्गत किया जाने वाला चुनाव अभियान शिक्षा अभियान नहीं होता, अपितु यह तो निन्दा, कलंक और झूठ का अभियान होता है। चुनाव में उम्मीदवारों और उनकी नीतियों को ठीक प्रकार से समझाने के बजाय उनके सामने व्यक्तियों और समस्याओं का विकृत चित्र प्रस्तुत किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप मतदाता गुमराह हो जाता है।

3. बुद्धिमन व्यक्ति निर्वाचन से दूर – प्रत्यक्ष निर्वाचन में चुनाव अभियान नैतिकता के निम्नतम स्तर तक गिर जाने के कारण बुद्धिमान एवं निष्कपट व्यक्ति निर्वाचन से दूर भागते हैं जब ऐसे व्यक्ति उम्मीदवार के रूप में आगे नहीं आते, तो देश को स्वभावतः हानि पहुँचती है।

4. अपव्ययी और अव्यवस्थाजनक – इस प्रकार के चुनाव पर बहुत अधिक खर्च आता है और बड़े पैमाने पर इसका प्रबन्ध करना होता है। अत्यधिक जोश-खरोश के कारण अनेक बार दंगे-फसाद भी हो जाते हैं।

प्रश्न 5.
मताधिकार की महत्ता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
वर्तमान समय में अप्रत्यक्ष अथवा प्रतिनिध्यात्मक लोकतन्त्र ही लोकतान्त्रिक शासन का एकमात्र व्यावहारिक रूप है। इस व्यवस्था में सामान्य जनता प्रतिनिधि चुनती है और ये प्रतिनिधि शासन का संचालन करते हैं। प्रतिनिधियों को चुनने के इस अधिकार को ही सामान्यतः मताधिकार अथवा निर्वाचन का अधिकार कहा जाता है, जो कि लोकतन्त्र का आधार है। इसकी महत्ता अग्रलिखित बातों से स्पष्ट हो जाती है –

1. नितान्त औचित्यपूर्ण – राज्य के कानूनों और कार्यों का प्रभाव समाज के केवल कुछ ही। व्यक्तियों पर नहीं, वरन् सबै व्यक्तियों पर पड़ता है; अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपना मत देने और शासन की नीति का निश्चय करने का अधिकार होना चाहिए। जॉन स्टुअर्ट मिल ने इसी आधार पर वयस्क मताधिकार को नितान्त औचित्यपूर्ण बताया है।

2. लोकसत्ता की वास्तविक अभिव्यक्ति – लोकसत्ता बीसवीं सदी का सबसे महत्त्वपूर्ण विचार है और आधुनिक प्रजातन्त्रवादियों का कथन है कि अन्तिम सत्ता जनता में ही निहित है डॉ० गार्नर के शब्दों में, “ऐसी सत्ता की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति सार्वजनिक मताधिकार में ही हो सकती है।”

3. अल्पसंख्यकों के अधिकार सुरक्षित – वयस्क मताधिकार अल्पसंख्यकों को अपने प्रतिनिधियों द्वारा अपने हितों की रक्षा का पूरा अवसर देता है। ये प्रतिनिधि व्यवस्थापिका में विधेयकों के सम्बन्ध में अल्पसंख्यकों को दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं और इस प्रकार अल्पसंख्यक अपने हितों की रक्षा में विधिकर्ताओं की सहायता ले सकते हैं।

4. राष्ट्रीय एकीकरण का साधन – इस प्रणाली के अन्तर्गत राष्ट्र की शक्ति एवं एकता में वृद्धि होती है। अपने ही प्रतिनिधियों द्वारा बनाये गये कानूनों का पालन लोगों को एक-दूसरे के निकट लाता है और राष्ट्रीय एकीकरण में सहायक होता है। वयस्क मताधिकार को अपनाने पर जनता में क्रान्ति की सम्भावना कम हो जाती है, क्योकि जनता स्वयं द्वारा निर्मित सरकार को पूर्ण सहयोग देती है।

5. सार्वजनिक शिक्षा का साधन – वयस्क मताधिकार सार्वजनिक शिक्षा और राजनीतिक जागृति का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण साधन है। मताधिकार व्यक्ति की राजनीतिक उदासीनता दूर कर देता है और उसको यह अनुभव कराता है कि राज्य शासन में उसका भी हाथ है। ऐसी स्थिति में वह देश के सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में अधिक रुचि लेना प्रारम्भ कर देता है।

6. आत्मसम्मान में वृद्धि – सार्वजनिक मताधिकार नागरिकों में आत्मसम्मान की भावना पैदा करता है। मताधिकार का जनता पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है और जनता यह महसूस करती है कि राज्य की अन्तिम शक्ति उसी के हाथ में है। इससे उनके आत्मसम्मान में वृद्धि होती है। और जैसा कि ब्राइस कहते हैं, “इससे उनके नैतिक चरित्र का उत्थान होता है।”

7. सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति रुचि में वृद्धि – वयस्क मताधिकार की व्यवस्था में जब नागरिकों को मताधिकार का प्रयोग करना होता है तो स्वाभाविक रूप में उनके द्वारा सार्वजनिक समस्याओं पर विचार किया जाता है और सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति उनकी रुचि में वृद्धि होती

8. देशभक्ति की भावना में वृद्धि – वयस्क मताधिकार के परिणामस्वरूप नागरिक राज्य और शासन के प्रति अपनत्व की भावना अनुभव करते हैं और उनमें देशभक्ति की भावना बढ़ती है। ऐसी स्थिति में वे देश के लिए बड़े-से-बड़ा बलिदान करने को तत्पर हो जाते हैं।

प्रश्न 6.
प्रादेशिक अथवा भौगोलिक प्रतिनिधित्व प्रथा का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

प्रादेशिक अथवा भौगोलिक प्रतिनिधित्व प्रथा

आधुनिक लोकतन्त्रात्मक शासन में निर्वाचन हेतु देश को विभिन्न क्षेत्रों में विभाजित कर, सरकार के गठन के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव किया जाता है। समस्त देश को भौगोलिक भागों (क्षेत्रों) में विभाजित कर दिया जाता है। निर्वाचन क्षेत्र एकसदस्यीय अथवा बहुसदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र हो सकता है। एक प्रतिनिधि उस निर्वाचन क्षेत्र में रहने वाले सभी निर्वाचकों का प्रतिनिधित्व करता है, चाहे वह कोई भी व्यवसाय करता हो। इस प्रथा को प्रादेशिक अथवा भौगोलिक प्रतिनिधित्व प्रथा’ कहते हैं, किन्तु इस प्रथा का घोर विरोध किया गया। प्रादेशिक अथवा भौगोलिक प्रतिनिधित्व प्रथा के आलोचकों का कथन है कि प्रतिनिधित्व का आधार क्षेत्रीय न होकर कार्य-विशेष से सम्बन्धित होना चाहिए। इसको व्यावसायिक प्रतिनिधित्व नाम भी दिया गया है। डिग्बी ने व्यावसायिक प्रतिनिधित्व का समर्थन करते हुए कहा है, “व्यवसाय, वाणिज्य, उद्योग-धन्धे यहाँ तक कि विज्ञान, धर्म आदि राष्ट्रीय जीवन की बड़ी शक्तियों को प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाना चाहिए।” इमैनुअल ऐबीसीएज का मत है-“समाज के उद्योगों एवं व्यवसायों का व्यवस्थापिका में विशेष रूप से प्रतिनिधित्व होना चाहिए।’ व्यावसायिक प्रतिनिधित्व के पक्ष में कहा जाता है कि यह जनतन्त्रात्मक आदर्शों के अनुकूल प्रतिनिधित्व की एकमात्र वास्तविक प्रणाली है। इसके समर्थकों का दृष्टिकोण है कि निर्वाचन क्षेत्र में रहने वाले व्यक्तियों की विभिन्न आवश्यकताएँ तथा इच्छाएँ होती हैं। व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व केवल व्यवसायों तथा आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व ही कर सकता है। व्यावसायिक प्रतिनिधित्व के कारण निर्वाचित प्रतिनिधि का ध्यान अपने सभी कार्यकर्ताओं के हितों पर अधिक रहता है। औद्योगीकरण के साथ व्यावसायिक प्रतिनिधित्व की माँग तीव्र हुई है साम्यवादियों तथा बहुलवादियों ने भी इस प्रतिनिधित्व का पूर्ण समर्थन किया है। इसे “कार्य-विशेष सम्बन्धी प्रतिनिधित्व प्रणाली” भी कहते

प्रश्न 7.
सूची प्रणाली से आप क्या समझते हैं?
उत्तर :

सूची प्रणाली

सूची प्रणाली आनुपातिक प्रतिनिधित्व का दूसरा रूप है। इस प्रणाली के अन्तर्गत सभी प्रत्याशी अपने-अपने राजनीतिक दलों के अनुसार अलग-अलग सूचियों में सूचीबद्ध किए जाते हैं और प्रत्येक दल अपने उम्मीदवारों की सूची प्रस्तुत करता है, जिसमें दिए गए नामों की संख्या उस निर्वाचन-क्षेत्र से चुने जाने वाले प्रतिनिधियों की संख्या से अधिक नहीं हो सकती। मतदाता अपने मत अलग-अलग उम्मीदवारों को नहीं, अपितु किसी भी दल की पूरी-की-पूरी सूची के पक्ष में देते हैं। इसके बाद डाले गए मतों की कुल संख्या को निर्वाचित होने वाले प्रतिनिधियों की संख्या से भाग देकर निर्वाचक अंक (Electoral Quota) निकाल लिया जाता है। तदुपरान्त एक दल द्वारा प्राप्त मतों की संख्या को निर्वाचक अंक से भाग दिया जाता है और इस प्रकार यह निश्चय किया जाता है कि उस दल को कितने स्थान मिलने चाहिए; उदाहरणार्थ-किसी राज्य से 50 प्रतिनिधि चुने जाते हैं और कुल वैध मतों की संख्या 2,00,000 है तो 2,00,000/50 = 4,000 निर्वाचन अंक हुआ। ऐसी स्थिति में किसी राजनीतिक दल ‘अ ब स’ को 21,000 मत प्राप्त हुए हैं, तब (21,000/4, 000=5.25) उस दल के 5 प्रत्याशी विजयी घोषित होंगे। सभी सूची प्रणालियों का आधारभूत सिद्धान्त यही है, परन्तु विभिन्न देशों में थोड़ा-बहुत परिवर्तन अथवा संशोधन करके इसे नए-नए रूप दिए गए हैं और इस प्रकार आज सूची प्रणाली के अनेक प्रकार पाए जाते हैं। ऐसी स्थिति में सूची प्रणाली का कोई सार्वभौमिक सिद्धान्त नहीं है।

प्रश्न 8.
बहुमत प्रणाली की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।
उत्तर :

बहुमत प्रणाली

बहुमत प्रणाली निर्वाचन की एक महत्त्वपूर्ण प्रणाली है। इस प्रणाली द्वारा विश्व के अनेक राष्ट्रों की संसद के लोकप्रिय सदन का निर्वाचन किया जाता है। भारत में लोकसभा तथा विधानसभा के सदस्यों का निर्वाचन इस पद्धति द्वारा ही किया जाता है।

इस प्रणाली में एक-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र होते हैं। सम्पूर्ण देश को विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित कर दिया जाता है। इन निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन जनसंख्या के आधार पर किया जाता है। एक निश्चित क्षेत्र से एक प्रतिनिधि का निर्वाचन किया जाता है। निर्वाचन के लिए अनेक प्रत्याशी चुनाव मैदान में खड़े हो सकते हैं परन्तु मतदाता को केवल एक मत प्रदान करने का अधिकार होता है। निर्वाचन में डाले गए मतों में जिस उम्मीदवार को सबसे अधिक मत प्राप्त हो जाते हैं उसको निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है।

बहुमत प्रणाली की आलोचना

बहुमत प्रणाली की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई है –

(1) बहुमत प्रणाली यद्यपि सैद्धान्तिक रूप में स्वीकार की जाती है परन्तु व्यवहार में यह अल्पमत प्रणाली के रूप में कार्य करती है; उदाहरण के लिए यदि किसी निर्वाचन क्षेत्र में कुल डाले गए मतों की संख्या 100 है तथा 5 उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं और मतों का विभाजन पाँच उम्मीदवारों में क्रमशः 30, 20, 15, 10 तथा 25 प्रतिशत है तो इस निर्वाचन में वह उम्मीदवार विजयी घोषित कर दिया जाएगा जिसे 30 प्रतिशत मत प्राप्त होते हैं। इस प्रकार से 30 प्रतिशत मत प्राप्त करने वाला व्यक्ति कुल मतों का केवल 30% मत ही प्राप्त कर पाता है तथा यह 70% ऐसे व्यक्तियों पर शासन करता है जिन्होंने इस व्यक्ति के विरोध में अपना मत दिया था।

(2) इस प्रणाली में केवल एक ही स्थिति उत्पन्न होती है, या तो मत 100% सफल हो जाता है। अथवा वह 100% व्यर्थ हो जाता है। इसका अन्य कोई विकल्प नहीं होता है।

(3) इस प्रणाली में अल्पसंख्यक समुदायों के व्यक्तियों को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हो पाता है। क्योंकि निर्वाचन क्षेत्र में जिस समुदाय के व्यक्तियों की संख्या अधिक होगी वे अपने समुदाय (जाति) के व्यक्ति को विजयी बनाने में सफल हो जाएँगे।

(4) इस प्रणाली द्वारा क्षेत्रीय एवं जातीय भावनाओं को बहुत प्रोत्साहन प्रदान किया जाता है जो संकीर्ण राजनीति को जन्म देता है। बहुमत प्रणाली के दोषों को दूर करने के उद्देश्य से ही आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अस्तित्व में आई है।

प्रश्न 9.
भारतीय निर्वाचन प्रणाली की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
भारतीय निर्वाचन प्रणाली की प्रमुख विशेषतएँ भारतीय निर्वाचन प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

1. वयस्क मताधिकार – वयस्क मताधिकार भारतीय निर्वाचन प्रणाली की प्रमुख विशेषता है। यह लोकतन्त्र का आधार स्तम्भ है। संविधान के अनुच्छेद 326 के अनुसार लोकसभा तथा राज्य विधानमण्डलों के निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर किए जाएँगे। वयस्क मताधिकार की व्यवस्था करते हुए संविधान में कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति, जो भारत का नागरिक है। तथा जो कानून के अन्तर्गत किसी निर्धारित तिथि पर 18 वर्ष का है तथा संविधान अथवा कानून के अन्तर्गत निर्वाचन हेतु किसी भी दृष्टि से अयोग्य नहीं है, को निर्वाचन में मतदाता के रूप में भाग लेने के पूर्ण अधिकार प्राप्त हैं।

2. संयुक्त निर्वाचन पद्धति – देश में संयुक्त निर्वाचन प्रणाली को अपनाया गया है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र हेतु एक ही मतदाता सूची होती है, जिसमें उस क्षेत्र के सभी मतदाताओं के नाम होते हैं तथा वे सभी मिलकर एक प्रतिनिधि का निर्वाचन करते हैं। धारा 325 के अनुसार प्रत्येक प्रादेशिक निर्वाचन हेतु संसद एवं राज्य विधानसभा के सदस्य चुनने हेतु सामान्य मतदाता सूची होगी तथा कोई भी भारतीय धर्म, जाति एवं लिंग के आधार पर सूची में नाम लिखाने के अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा।

3. अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों हेतु सुरक्षित स्थान – संयुक्त निर्वाचन प्रणाली के होने पर भी हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों हेतु विधायिकाओं में स्थान आरक्षित कर दिए हैं।

4. प्रत्यक्ष निर्वाचन – लोकसभा, राज्यों की विधानसभाओं, नगरपालिकाओं, पंचायतों आदि के निर्वाचन प्रत्यक्ष रूप से होते हैं, जबकि राज्यसभा, राज्य विधानपरिषदों, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति आदि के निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से होते हैं।

5. स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष निर्वाचन – भारतीय निर्वाचन प्रणाली की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष निर्वाचन है। स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष निर्वाचन ही सच्चे लोकतन्त्र की कसौटी है। संविधान-निर्माताओं ने निर्वाचन स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष करवाने हेतु निर्वाचन आयोग की व्यवस्था की है।

6. गुप्त मतदान – निर्वाचन की एक अन्य विशेषता यह है कि मतदान गुप्त होता है। गुप्त मतदान स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष निर्वाचन हेतु आवश्यक है। मतदान करने वालों के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को यह नहीं मालूम होगा कि उसने किसके पक्ष में मतदान किया है।

7. एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र – निर्वाचन प्रणाली की अन्य विशेषता यह है कि यहाँ पर एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र की व्यवस्था को अपनाया गया है। जिस प्रान्त से जितने विधायक निर्वाचित होने होते हैं, उस प्रान्त को उतने निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है। इस प्रकार प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक ही प्रतिनिधि चुना जाता है।

8. जनसंख्या के आधार पर निर्वाचन – भारत में संसद तथा राज्य विधानसभाओं के निर्वाचन हेतु निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था जनसंख्या के आधार पर की जाती है। राज्य विधानसभा के सदस्यों की संख्या के अनुसार राज्यों को उतने ही निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है।

9. निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन – लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं हेतु निर्वाचन क्षेत्रों को परिसीमन इस प्रकार किया जाता है कि विधानसभा का कोई भी निर्वाचन क्षेत्र एक ही संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में स्थित हो।

10. ऐच्छिक मतदान – निर्वाचन में मतदान करना अथवा न करना, मतदाता की स्वेच्छा पर निर्भर करता है।

11. निर्वाचन याचिका – निर्वाचन सम्बन्धी विवादों हेतु निर्वाचन याचिका की भी व्यवस्था है। पहले निर्वाचन याचिकाएँ आयोग के पास आती थीं तथा वह किसी न्यायाधीश को इन्हें सुनने हेतु नियुक्त करता था किन्तु अब सभी याचिकाएँ उच्च न्यायालय अथवा उच्चतम न्यायालय के पास जाती हैं।

12. निर्वाचन आयोग – निर्वाचन का प्रबन्ध निर्वाचन आयोग के नियन्त्रण के अधीन होता है। भारतीय संविधान में निर्वाचन प्रक्रिया के प्रबन्ध हेतु एक निर्वाचन आयोग गठित किया गया है। निर्वाचन आयोग में आजकल एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा दो निर्वाचन आयुक्त हैं।

13. निर्वाचन के सम्बन्ध में संसद को कानून बनाने का अधिकार – संविधान के अनुसार निर्वाचन सम्बन्धी कानून बनाने का अधिकार संसद को प्राप्त है। संसद के विधानमण्डलों के निर्वाचन हेतु मतदाताओं की सूचियाँ तैयार करने, निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन तथा अन्य समस्त समस्याओं से सम्बन्धित कानून बना सकती है।

प्रश्न 10.
देश में निर्वाचन की प्रक्रिया किस प्रकार सम्पन्न होती है? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर :

भारत में निर्वाचन की प्रक्रिया

भारत में निर्वाचन प्रायः निम्नलिखित प्रक्रिया के आधार पर सम्पन्न किए जाते हैं –

1. निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था – निर्वाचन की व्यवस्था में सर्वप्रथम कार्य निर्वाचन क्षेत्र को निश्चित करना है। लोकसभा में जितने सदस्य चुने जाते हैं, लगभग समान जनसंख्या वाले उतने ही क्षेत्रों में समस्त भारत को विभाजित कर दिया जाता है। इस प्रकार विधानसभाओं के निर्वाचन में राज्य को समान जनसंख्या वाले निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित कर दिया जाता है तथा प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक सदस्य चुन लिया जाता है।

2. मतदाताओं की सूची – सर्वप्रथम मतदाताओं की अस्थायी सूची तैयार की जाती है। इन सूचियों को कुछ विशेष स्थानों पर जनता के देखने हेतु रख दिया जाता है। यदि किसी सूची में किसी का नाम लिखने से रह गया हो अथवा किसी का नाम भूल से लिख गया हो तो उसको एक निश्चित तिथि तक संशोधन करवाने हेतु प्रार्थना-पत्र देना होता है, फिर संशोधित सूचियाँ तैयार की जाती हैं।

3. निर्वाचन तिथि की घोषणा – निर्वाचन आयोग निर्वाचन-तिथि की घोषणा करता है। निर्वाचन आयोग तिथि की घोषणा करने से पहले केन्द्रीय सरकार तथा राज्यों की सरकारों से विचार-विमर्श करता है।

4. निर्वाचन अधिकारियों की नियुक्ति – निर्वाचन आयोग प्रत्येक राज्य में मुख्य निर्वाचन अधिकारी तथा प्रत्येक क्षेत्र हेतु एक निर्वाचन अधिकारी, पर्यवेक्षक व अन्य अनेक कर्मचारी नियुक्त करता है।

5. नामांकन-पत्र दाखिल करना – इसके पश्चात् निर्वाचन में भाग लेने वाले व्यक्ति के नाम का प्रस्ताव एक निश्चित तिथि के अन्दर छपे फॉर्म पर जिसका नामांकन पत्र है, किसी एक मतदाता द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। दूसरा मतदाता उसका अनुमोदन करता है। इच्छुक व्यक्ति (उम्मीदवार) भी उस पर स्वीकृति देता है। प्रार्थना-पत्र के साथ जमानत की निश्चित राशि जमा करवानी पड़ती है।

6. नाम की वापसी – यदि उम्मीदवार किसी कारण से अपना नाम वापस लेना चाहे तो एक निश्चित तिथि तक उसको ऐसा करने का अधिकार होता है। वह अपना नाम वापस ले सकता है। तथा नाम वापस लेने पर जमानत की राशि उसे वापस मिल जाती है।

7. जाँच तथा आपत्तियाँ – एक निश्चित तिथि को आवेदन-पत्रों की जाँच की जाती है। यदि किसी प्रार्थना-पत्र में कोई अशुद्धि रह गई हो तो ऐसे आवेदन-पत्र को अस्वीकार कर दिया जाता है। यदि कोई दूसरा व्यक्ति उसके आवेदन-पत्र के सम्बन्ध में आपत्ति करना चाहे तो ऐसा करने का अधिकार दिया जाता है। यदि आपत्ति उचित सिद्ध हो जाए तो उम्मीदवार का आवेदन-पत्र अस्वीकार कर दिया जाता है।

8. निर्वाचन अभियान – साधारणतया निर्वाचन की घोषणा के साथ ही राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार आरम्भ कर देते हैं, किन्तु वास्तव में निर्वाचन में तेजी नामांकन पत्रों की जाँच-पड़ताल के पश्चात् आती है। राजनीतिक दल का निर्वाचन घोषणा-पत्र जारी करते हैं। राजनीतिक दल सभाएँ करके, पोस्टरों द्वारा, रेडियो, दूरदर्शन आदि द्वारा अपनी नीतियों का प्रचार करते हैं।

9. मतदान एवं परिणाम – मतदान अब वोटिंग मशीन सिस्टम के द्वारा सम्पन्न किया जाता है। मतदाता इच्छित उम्मीदवार के नाम के सामने वाला बटन दबाकर अपने मत की अभिव्यक्ति कर देता है। इन मशीनों द्वारा मतों की गणना बहुत जल्दी हो जाती है जो उम्मीदवार कुल मतों का 1/10 भाग प्राप्त करने में असमर्थ हो जाता है उसकी जमानत जब्त हो जाती है।

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UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 2 Rights in the Indian Constitution

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 2 Rights in the Indian Constitution (भारतीय संविधान में अधिकार)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
निम्नलिखित प्रत्येक कथन के बारे में बताएँ कि वह सही है या गलत
(क) अधिकार-पत्र में किसी देश की जनता को हासिल अधिकारों का वर्णन रहता है।
(ख) अधिकार-पत्र व्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा करता है।
(ग) विश्व के हर देश में अधिकार-पत्र होता है।
उत्तर-
(क) सही, (ख) सही, (ग) गलत।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में कौन मौलिक अधिकारों का सबसे सटीक वर्णन है?
(क) किसी व्यक्ति को प्राप्त समस्त अधिकार।
(ख) कानून द्वारा नागरिक को प्रदत्त समस्त अधिकार।
(ग) संविधान द्वारा प्रदत्त और सुरक्षित समस्त अधिकार।
(घ) संविधान द्वारा प्रदत्त वे अधिकार जिन पर कभी प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता।
उत्तर-
(ग) संविधान द्वारा प्रदत्त और सुरक्षित समस्त अधिकार।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित स्थितियों को पढ़ें। प्रत्येक स्थिति के बारे में बताएँ कि किस मौलिक अधिकार का उपयोग या उल्लंघन हो रहा है और कैसे?
(क) राष्ट्रीय एयरलाइन के चालक-परिचालक दल (Cabin-Crew) के ऐसे पुरुषों को जिनका वजन ज्यादा है नौकरी में तरक्की दी गई लेकिन उनकी ऐसी महिला-सहकर्मियों को दण्डित किया गया जिनका वजन बढ़ गया था।
(ख) एक निर्देशक एक डॉक्यूमेण्ट्री फिल्म बनाता है जिसमें सरकारी नीतियों की आलोचना है।
(ग) एक बड़े बाँध के कारण विस्थापित हुए लोग अपने पुनर्वास की माँग करते हुए रैली निकालते हैं।
(घ) आन्ध्र-सोसायटी आन्ध्र प्रदेश के बाहर तेलुगु माध्यम के विद्यालय चलाती है।
उत्तर-
(क) महिला सहकर्मियों को दण्डित करना उनके समानता का अधिकार का उल्लंघन करना है। पुरुषों को पदोन्नति दी गई जबकि महिलाओं को दण्डित किया गया। यह लिंग के आधार पर भेदभाव है। यह अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है।
(ख) इस घटना में मौलिक अधिकार का उपभोग किया जा रहा है। इसमें निर्देशक द्वारा स्वयं को व्यक्त करने के अधिकार (Right of Expression) का प्रयोग किया जा रहा है जिसका उल्लेख संविधान के 19वें अनुच्छेद में है।
(ग) इस घटना में भी मौलिक अधिकार का उपयोग किया जा रहा है। अनुच्छेद 19 में उल्लिखित अधिकार किसी उद्देश्य के लिए संगठित होने का उपयोग करके विस्थापित जन संगठित होकर रैली निकाल रहे हैं।
(घ) इसमें शिक्षा व संस्कृति के अधिकार (अनुच्छेद 29 व 30) का उपयोग किया जा रहा है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में कौन सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की सही व्याख्या है?
(क) शैक्षिक-संस्था खोलने वाले अल्पसंख्यक वर्ग के ही बच्चे इस संस्थान में पढ़ाई कर सकते हैं।
(ख) सरकार विद्यालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अल्पसंख्यक-वर्ग के बच्चों को उनकी संस्कृति और धर्म-विश्वासों से परिचित कराया जाए।
(ग) भाषाई और धार्मिक-अल्पसंख्यक अपने बच्चों के लिए विद्यालय खोल सकते हैं और उनके लिए इन विद्यालयों को आरक्षित कर सकते हैं।
(घ) भाषाई और धार्मिक-अल्पसंख्यक यह माँग कर सकते हैं कि उनके बच्चे उनके द्वारा और उनके लिए इन विद्यालयों को आरक्षित कर सकते हैं।
उत्तर-
(ग) भाषाई और धार्मिक-अल्पसंख्यक अपने बच्चों के लिए विद्यालय खोल सकते हैं और उनके लिए इन विद्यालयों को आरक्षित कर सकते हैं।

प्रश्न 5.
इनमें कौन मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और क्यों?
(क) न्यूनतम देय मजदूरी नहीं देना।
(ख) किसी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाना।
(ग) 9 बजे रात के बाद लाउडस्पीकर बजाने पर रोक लगाना।
(घ) भाषा तैयार करना।
उत्तर-
(क) किसी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाना मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। इसमें अनुच्छेद 19 का उल्लंघन हो रहा है।

प्रश्न 6.
गरीबों के बीच काम कर रहे एक कार्यकर्ता का कहना है कि गरीबों को मौलिक अधिकारों की जरूरत नहीं है। उनके लिए जरूरी यह है कि नीति-निदेशक सिद्धांतों को कानूनी तौर पर बाध्यकारी बना दिया जाए। क्या आप इससे सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
उत्तर-
मैं इस कथन से सहमत नहीं हैं, क्योंकि नागरिकों के लिए मौलिक अधिकार नीति-निदेशक तत्त्वों से अधिक आवश्यक हैं। नीति-निदेशक तत्त्वों को बाध्यकारी (न्यायसंगत) नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि हमारे पास सभी को नीति-निदेशक तत्त्वों में दी गई सुविधाओं को प्रदान करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं।

प्रश्न 7.
अनेक रिपोर्टों से पता चलता है कि जो जातियाँ पहले झाड़ देने के काम में लगी थीं उन्हें मजबूरन यही काम करना पड़ रहा है। जो लोग अधिकार-पद पर बैठे हैं वे इन्हें कोई और काम नहीं देते। इनके बच्चों को पढ़ाई-लिखाई करने पर हतोत्साहित किया जाता है। इस उदाहरण में किस मौलिक अधिकार का उल्लंघन हो रहा है?
उत्तर-
इसमें काम के क्षेत्र में दिए गए समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन हो रहा है।

प्रश्न 8.
एक मानवाधिकार समूह ने अपनी याचिका में अदालत का ध्यान देश में मौजूद भूखमरी की स्थिति की तरफ खींचा। भारतीय खाद्य-निगम के गोदामों में 5 करोड़ टन से ज्यादा अनाज भरा हुआ था। शोध से पता चलता है कि अधिकांश राशनं-कार्डधारी यह नहीं जानते कि उचित-मूल्य की दुकानों से कितनी मात्रा में वे अनाज खरीद सकते हैं। मानवाधिकार समूह ने अपनी याचिका में अदालत से निवेदन किया कि वह सरकार को सार्वजनिक-वितरण प्रणाली में सुधार करने का आदेश दे।
(क) इस मामले में कौन-कौन से अधिकार शामिल हैं? ये अधिकार आपस में किस तरह जुड़े हैं?
(ख) क्या ये अधिकार जीवन के अधिकार का एक अंग हैं?
उत्तर-
(क) इस मामले में कानून के समक्ष समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14) और भेदभाव की मनाही (अनुच्छेद 15) शामिल हैं। दोनों अधिकार आपस में एक ही बिन्दु ‘समानता’ को लेकर सम्बन्धित हैं।
(ख) ये अधिकारे जीवन के अधिकार का ही एक अंग हैं।

प्रश्न 9.
इस अध्याय में उद्धृत सोमनाथ लाहिड़ी द्वारा संविधान-सभा में दिए गए वक्तव्य को पढ़ें। क्या आप उनके कथन से सहमत हैं? यदि हाँ, तो इसकी पुष्टि में कुछ उदाहरण दें। यदि नहीं, तो उनके कथन के विरुद्ध तर्क प्रस्तुत करें।
उत्तर
सोमनाथ लाहिड़ी के प्रस्तुत कथन से हम कम ही सहमत हैं क्योंकि अधिकारों में जो दिया गया है उसे वापस भी ले लिया गया है। प्रत्येक अधिकार के बाद एक उपबन्ध शामिल कर दिया गया है जो अधिकार को वापस ले लेता है; जैसे-अनुच्छेद 19 में दिए गए अधिकार में जितनी स्वतन्त्रताएँ दी गई हैं उतने ही बन्धन भी लगा दिए गए हैं। परन्तु इसका आशय यह नहीं है कि संविधान को एक सिपाही का भी निर्वाह करना है। प्रस्तुत अध्याय में नागरिकों के अधिकार दिए गए हैं जिनसे उनका सामाजिक, राजनीतिक, नागरिक, सांस्कृतिक व शैक्षणिक अधिकार सम्भव हुआ है। हाँ, भारतीय नागरिकों को प्रदान किए गए अधिकार निरपेक्ष अर्थात् नियन्त्रणहीन (Absolute) नहीं हैं क्योंकि हमारा देश अभी विकासशील देश है, कुछ बन्धनों के साथ ही अधिकार सम्भव हैं।

प्रश्न 10.
आपके अनुसार कौन-सा मौलिक अधिकार सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है? इसके प्रावधानों को संक्षेप में लिखें और तर्क देकर बताएँ कि यह क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर
संवैधानिक उपचारों का अधिकार अन्तिम और सबसे महत्त्वपूर्ण मौलिक अधिकार है; क्योंकि इसके अस्तित्व पर ही समस्त अधिकारों का अस्तित्व आधारित है। इस अधिकार द्वारा नागरिक उच्चतम न्यायालय से अपने अधिकारों की सुरक्षा करा सकते हैं। संविधान के 32 वें अनुच्छेद की प्रशंसा करते हुए डॉ बी० आर० अम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा था, “यदि मुझसे पूछा जाए कि संविधान का सबसे महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद कौन-सा है, जिसके बिना संविधान शून्य रह जाएगा तो मैं इस अनुच्छेद के अतिरिक्त और किसी दूसरे अनुच्छेद की ओर संकेत नहीं करूंगा। यह संविधान की आत्मा, उसका हृदय है।” नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए उच्च न्यायालयों तथा उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्नलिखित पाँच प्रकार के लेख जारी किए जा सकते हैं-

1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) – इसका अर्थ बन्दी को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना है। यह उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता है, जो यह समझता है कि उसे अवैधानिक रूप से बन्दी बनाया गया है। इसके द्वारा न्यायालय तुरन्त उस व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित करने का आदेश देता है और उसे अवैधानिक रूप से बन्दी बनाए जाने की स्थिति का सही मूल्यांकन करता है। इसके अतिरिक्त बन्दी बनाने के ढंग का अवलोकन भी करता है और अवैधानिक ढंग से बन्दी बनाए गए व्यक्ति को तुरन्त छोड़ने का आदेश देता है।
2. परमादेश (Mandamus) – जब कोई संस्था या अधिकारी कर्तव्यों का पालन नहीं करता है, जिसके फलस्वरूप किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, तब न्यायपालिका
‘परमादेश’ द्वारा उस संस्था या अधिकारी को कर्तव्यों को पूरा करने का आदेश देती है।
3. प्रतिषेध (Prohibition) – यह किसी व्यक्ति या संस्था को उस कार्य से रोकने के लिए जारी किया जाता है, जो अधिकार-क्षेत्र के अन्तर्गत नहीं है। यदि अध.नस्थ न्यायालय अथवा अर्द्ध-न्यायालय का कोई न्यायाधीश ‘प्रतिषेध’ लेख की उपेक्षा करके कोई अभियोग सुनता है तो उसके विरुद्ध मानहानि का मुकदमा चलाया जा सकता है।
4. अधिकार-पुच्छा (Quo-warranto) – यदि कोई नागरिक कोई पद या अधिकार अवैधानिक | ढंग से प्राप्त कर लेता है तो उसकी जॉच हेतु यह अधिकार-पृच्छा’ लेख जारी किया जाता है।
5. उत्प्रेषण (Certiorari) – यह लेख उच्च न्यायालयों द्वारा उस समय जारी किया जाता है, जबकि अधीनस्थ न्यायालय का न्यायाधीश किसी ऐसे विवाद की सुनवाई कर रहा है, जो वास्तव में उसके अधिकार-क्षेत्र से बाहर है। इस लेख द्वारा उनके फैसले को रद्द कर दिया जाता है और उस मुकदमे से सम्बन्धित कागजात अधीनस्थ न्यायालय को उच्चतम न्यायालय को भेजने की आज्ञा दी जाती है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान के द्वारा नागरिकों को प्रदत्त मौलिक अधिकारों की संख्या है –
(क) सात
(ख) दस
(ग) छः
(घ) पाँच
उत्तर :
(ग) छः

प्रश्न 2.
संविधान के द्वारा किसको वरीयता प्रदान की गयी है?
(क) मौलिक अधिकारों को
(ख) नीति-निदेशक तत्त्वों को
(ग) मौलिक कर्तव्यों को
(घ) मौलिक अधिकारों तथा कर्तव्यों को।
उत्तर :
(क) मौलिक अधिकारों को।

प्रश्न 3.
सम्पत्ति के मौलिक अधिकार को किस संवैधानिक संशोधन के द्वारा समाप्त किया गया है?
(क) 24वें
(ख) 42वें
(ग) 44वें
(घ) 73वें
उत्तर :
(ग) 44वें।

प्रश्न 4.
सम्पत्ति का अधिकार अब रह गया है –
(क) संवैधानिक अधिकार
(ख) मौलिक अधिकार
(ग) कानूनी अधिकार
(घ) प्राकृतिक अधिकार
उत्तर :
(ग) कानूनी अधिकार।

प्रश्न 5.
मौलिक अधिकारों को स्थगित करने का अधिकार है –
(क) राष्ट्रपति को
(ख) प्रधानमन्त्री को
(ग) मन्त्रिमण्डल को।
(घ) लोकसभा के अध्यक्ष को
उत्तर :
(क) राष्ट्रपति को।

प्रश्न 6.
आपातकाल में अब मौलिक अधिकार के किस अनुच्छेद को स्थगित नहीं किया जा सकता है?
(क) अनुच्छेद 14 को
(ख) अनुच्छेद 19 को
(ग) अनुच्छेद 32 को
(घ) अनुच्छेद 21 को
उत्तर :
(घ) अनुच्छेद 21 को।

प्रश्न 7.
छुआछूत का अन्त संविधान के किस अनुच्छेद के द्वारा किया गया ?
(क) अनुच्छेद 14
(ख) अनुच्छेद 19
(ग) अनुच्छेद 21
(घ) अनुच्छेद 17
उत्तर :
(घ) अनुच्छेद 17.

प्रश्न 8.
भारत के संविधान में वर्णित मौलिक कर्तव्यों को किस संवैधानिक संशोधन के द्वारा संविधान के भाग 3 में जोड़ा गया ?
(क) 44वें
(ख) 42वें
(ग) 52वें
(घ) 74वें
उत्तर :
(ख) 42वें।

प्रश्न 9.
मौलिक कर्तव्यों में कितने कर्तव्यों को सम्मिलित किया गया है ?
(क) आठ
(ख) ग्यारह
(ग) पाँच
(घ) बारह
उत्तर :
(ख) ग्यारह।

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान में नीति-निदेशक तत्त्वों को किस देश के संविधान से लिया गया है?
(क) कनाडा
(ख) आयरलैण्ड
(ग) संयुक्त राज्य अमेरिका
(घ) ब्रिटेन
उत्तर :
(ख) आयरलैण्ड।

प्रश्न 11.
भारतीय संविधान के किन अनुच्छेदों में नीति-निदेशक सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है ?
(क) 36 से 51 तक
(ख) 52 से 63 तक
(ग) 60 से 71 तक
(घ) 33 से 35 तक
उत्तर :
(क) 36 से 51 तक।

प्रश्न 12.
मोतीलाल नेहरू समिति ने सर्वप्रथम किस वर्ष ‘अधिकारों के एक घोषणा-पत्र की माँग उठाई थी?
(क) 1928
(ख) 1936
(ग) 1931
(घ) 1937
उत्तर :
(क) 1928

प्रश्न 13.
मौलिक अधिकारों की गारण्टी और उनकी सुरक्षा कौन करता है?
(क) राज्यपाल
(ख) राष्ट्रपति
(ग) संविधान
(घ) पुलिस
उत्तर :
(ग) संविधान।

प्रश्न 14.
मूल अधिकारों का वर्णन संविधान के किस भाग में है?
(क) दो
(ख) तीन
(ग) चार
(घ) पाँच
उत्तर :
(ख) तीन।

प्रश्न 15.
किस वर्ष भारतीय संविधान में मूल कर्तव्यों का समावेश किया गया?
(क) 1972 ई० में
(ख) 1976 ई० में
(ग) 1977 ई० में
(घ) 1980 ई० में
उत्तर :
(ख) 1976 ई० में।

प्रश्न 16.
“नीति-निदेशक तत्त्व ऐसे चैक के समान हैं, जिसका भुगतान बैंक की पवित्र इच्छा पर निर्भर है।” यह कथन किसका है?
(क) के० टी० शाह
(ख) श्रीनिवासन
(ग) ग्रेनविल ऑस्टिन
(घ) जी० एन० सिंह।
उत्तर :
(क) के० टी० शाह।

प्रश्न 17.
निम्नांकित में से कौन-सा नागरिकों का मूल अधिकार नहीं है?
(क) स्वतन्त्रता का अधिकार
(ख) दान देने का अधिकार
(ग) समानता का अधिकार
(घ) शोषण के विरुद्ध अधिकार
उत्तर :
(ख) दान देने का अधिकार।

प्रश्न 18.
निम्नांकित में कौन-सा मूल अधिकार सबसे महत्त्वपूर्ण है?
(क) समानता का अधिकार
(ख) संवैधानिक उपचारों का अधिकार
(ग) स्वतन्त्रता का अधिकार
(घ) शोषण के विरुद्ध अधिकार
उत्तर :
(ख) संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

प्रश्न 19.
“राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व राष्ट्रीय चेतना के आधारभूत स्तर का निर्माण करते हैं।” यह कथन किसका है?
(क) दुर्गादास बसु
(ख) एम० सी० छागला
(ग) एम० वी० पायली
(घ) पतंजलि शास्त्री
उत्तर :
(ग) एम० वी० पायली।

प्रश्न 20.
“नीति-निदेशक तत्त्व नववर्ष के बधाई सन्देशों के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं।” यह कथन किसका है?
(क) नासिरुद्दीन
(ख) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(ग) पं० नेहरू
(घ) के० टी० शाह
उत्तर :
(क) नासिरुद्दीन।

प्रश्न 21.
“मूल अधिकारों के स्थगन की व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक है। यही व्यवस्था संविधान का जीवन होगी। इससे प्रजातन्त्र की हत्या नहीं, वरन रक्षा होगी।” यह कथन किसका
(क) अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर
(ख) डॉ० अम्बेडकर
(ग) के० एम० मुंशी
(घ) आयंगर
उत्तर :
(क) अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर।

प्रश्न 22.
“राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व न्यायालय के लिए प्रकाश-स्तम्भ की भाँति हैं।” यह कथन किसका है?
(क) पतंजलि शास्त्री
(ख) एम० सी० सीतलवाड
(ग) एम० वी० पायली
(घ) पं० नेहरू
उत्तर :
(ख) एम० सी० सीतलवाड।

प्रश्न 23.
दक्षिण अफ्रीका का संविधान किस वर्ष लागू हुआ?
(क) सन् 1996
(ख) सन् 1997
(ग) सन् 1999
(घ) सन् 1967
उत्तर :
(क) सन् 1996.

प्रश्न 24.
निवारक नजरबन्दी की अधिकतम अवधि क्या है?
(क) 3 महीने
(ख) 6 महीने
(ग) 4 महीने
(घ) 2 महीने
उत्तर :
(क) 3 महीने।

प्रश्न 25.
भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन कब किया गया?
(क) सन् 1947
(ख) सन् 2000
(ग) सन् 2001
(घ) सन् 2002
उत्तर :
(ख) सन् 2000.

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मौलिक अधिकार क्या हैं?
उत्तर :
मौलिक अधिकार वे सुविधाएँ, माँगें, अपेक्षाएँ व दावे हैं जिन्हें राज्य ने अपने नागरिकों के विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक मानकर अपने संविधान में स्थान दिया है।

प्रश्न 2.
मौलिक अधिकार आवश्यक क्यों हैं?
उत्तर :
नागरिकों के पूर्ण विकास के लिए मौलिक अधिकार आवश्यक हैं।

प्रश्न 3.
मौलिक अधिकारों की रक्षा किस अधिकार से होती है ?
उत्तर :
मौलिक अधिकारों की रक्षा संवैधानिक उपचार के अधिकार द्वारा होती है।

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान में कौन-सी मूल अधिकार निरस्त कर दिया गया है ?
उत्तर :
भारतीय संविधान में सम्पत्ति का मूल अधिकार निरस्त कर दिया गया है।

प्रश्न 5.
संवैधानिक उपचारों के अधिकार के अन्तर्गत जारी किये जाने वाले दो लेखों के नाम लिखिए।
उत्तर :

  1. परमादेश तथा
  2. प्रतिषेध, संवैधानिक उपचारों के अधिकार के अन्तर्गत जारी किये जाने वाले लेख हैं।

प्रश्न 6.
कानूनी अधिकार क्या हैं?
उत्तर :
कानूनी अधिकार नागरिकों की वे सुविधाएँ हैं जिन्हें राज्य स्वीकृत करता है और जिन्हें कानून द्वारा निश्चित किया जाता है।

प्रश्न 7.
स्वतन्त्रता के अधिकार के अन्तर्गत आने वाली दो स्वतन्त्रताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. भाषण व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा
  2. संघ-निर्माण की स्वतन्त्रता।

प्रश्न 8.
संविधान के किस भाग में मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है?
उत्तर :
संविधान के भाग III में मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है।

प्रश्न 9.
‘भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है।’ दो तर्क दीजिए।
उत्तर :

  1. सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार है।
  2. सरकार द्वारा किसी विशिष्ट धर्म को आश्रय नहीं दिया जाता, वह धर्मनिरपेक्ष है।

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में मूल कर्त्तव्य दिए गए हैं?
उत्तर :
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 (क) में मूल कर्त्तव्य दिए गए हैं।

प्रश्न 11.
भारतीय संविधान में कितने मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख है?
उत्तर :
भारतीय संविधान में 11 मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख है।

प्रश्न 12.
राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों का वर्णन संविधान के किस भाग में किया गया है?
उत्तर :
राज्य के नीति-निदेशक तत्वों का वर्णन संविधान के भाग IV में किया गया है।

प्रश्न 13.
भारतीय संविधान के अनुसार किन्हीं दो निदेशक सिद्धान्तों (तत्त्वों) को लिखिए।
उत्तर :

  1. आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी तत्त्व
  2. सामाजिक प्रगति सम्बन्धी तत्त्व।

प्रश्न 14.
राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्तों की विधि अथवा वैज्ञानिक स्थिति क्या है?
उत्तर :
नीति-निदेशक सिद्धान्तों की सुरक्षा की माँग न्यायालय से नहीं की जा सकती, क्योंकि इनके पीछे बाध्यकारी कानूनी शक्ति नहीं है।

प्रश्न 15.
भारतीय संविधान के नीति-निदेशक तत्त्व किस देश के संविधान से लिये गए हैं?
उत्तर :
भारतीय संविधान के नीति-निदेशक तत्त्व आयरलैण्ड के संविधान से लिए गए हैं।

प्रश्न 16.
शोषण के विरुद्ध अधिकार का क्या अर्थ है ?
उत्तर :
शोषण के विरुद्ध अधिकार का अर्थ है –

  1. कोई भी व्यक्ति किसी से बलात् श्रम नहीं करवा सकता।
  2. स्त्रियों तथा बच्चों का क्रय-विक्रय नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 17.
संविधान के किस संशोधन के द्वारा मूल कर्तव्यों का प्रावधान किया गया है ?
उत्तर :
संविधान के-42वें संशोधन (1976) के द्वारा मूल कर्तव्यों का प्रावधान किया गया है।

प्रश्न 18.
संविधान में वर्णित भारतीय नागरिकों का एक कर्तव्य लिखिए।
उत्तर :
संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज का आदर करना भारतीय नागरिकों का एक कर्तव्य है।

प्रश्न 19.
संविधान द्वारा मूल अधिकारों का संरक्षक किसे बनाया गया है ?
उत्तर :
संविधान द्वारा मूल अधिकारों का संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय को बनाया गया है।

प्रश्न 20.
मूल अधिकारों का स्थगन कैसे किया जा सकता है ?
या
मौलिक अधिकार कब स्थगित किये जा सकते हैं ?
उत्तर :

  1. संकटकाल की घोषणा की स्थिति में
  2. सेना में अनुशासन बनाये रखने के लिए तथा
  3. मार्शल लॉ लागू होने पर मौलिक अधिकार स्थगित किये जा सकते हैं।

प्रश्न 21.
भारतीय नागरिकों के दो मूल कर्त्तव्य लिखिए।
उत्तर :
भारतीय नागरिकों के दो मूल कर्तव्य हैं –

  1. संविधान का पालन करना, राष्ट्रध्वज तथा राष्ट्रगान के प्रति सम्मान प्रकट करना।
  2. भारत की सम्प्रभुता, एकता और अखण्डता की रक्षा करना।

प्रश्न 22.
भारतीय संविधान के किन अनुच्छेदों में नीति-निदेशक सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर :
नीति-निदेशक सिद्धान्तों का वर्णन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 36 से अनुच्छेद 51 तक में किया गया है।

प्रश्न 23.
किन्हीं दो नीति-निदेशक सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. राज्य प्रत्येक स्त्री और पुरुष को समान रूप से जीविका के साधन प्रदान करने का प्रयत्न करेगा।
  2. राज्य 14 वर्ष तक के बालकों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करेगा।

प्रश्न 24.
नीति-निदेशक सिद्धान्त का कोई एक महत्त्व लिखिए।
उत्तर :
नीति-निदेशक सिद्धान्त सत्तारूढ़ दल के लिए आचार-संहिता का कार्य करते हैं।

प्रश्न 25.
नीति-निदेशक सिद्धान्तों की आलोचना का एक प्रमुख आधार लिखिए।
उत्तर :
नीति-निदेशक सिद्धान्तों के पीछे वैधानिक शक्ति का अभाव है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मौलिक अधिकारों का अर्थ और परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
वे अधिकार, जो मानव-जीवन के लिए मौलिक तथा अपरिहार्य होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं, ‘मौलिक अधिकार’ कहलाते हैं। व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका द्वारा इनका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। देश की न्यायपालिका एक प्रहरी की भाँति इन अधिकारों की सुरक्षा करती है। राज्य का मुख्य उद्देश्य नागरिकों का चहुंमुखी विकास व उनका कल्याण करना है। इसलिए संविधान द्वारा नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किए जाते हैं। भारतीय संविधान द्वारा भी इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। जी० एन० जोशी का कथन है, “मौलिक अधिकार ही ऐसा साधन है, जिसके द्वारा एक स्वतन्त्र लोकराज्य के नागरिक अपने सामाजिक, धार्मिक तथा नागरिक जीवन का आनन्द उठा सकते हैं। इनके बिना लोकतन्त्रीय शासन सफलतापूर्वक नहीं चल सकता और बहुमत की ओर से अत्याचारों का खतरा बना रहता है।”

प्रश्न 2.
बन्दी प्रत्यक्षीकरण से क्या अभिप्राय है?
उत्तर :
बन्दी प्रत्यक्षीकरण एक प्रकार का न्यायालयीय आदेश होता है। न्यायालय बन्दी बनाये गये व्यक्ति अथवा उसके सम्बन्धी की प्रार्थना पर यह आदेश दे सकता है कि बन्दी व्यक्ति को उसके सामने उपस्थित किया जाए। तत्पश्चात् न्यायालय यह जाँच कर सकता है कि बन्दी की गिरफ्तारी कानून के अनुसार वैध है अथवा नहीं। यह अधिकार नागरिक की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा करता है।

प्रश्न 3.
भारतीय नागरिकों के मूल अधिकारों पर किन परिस्थितियों में प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है ?
उत्तर :
भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार निरपेक्ष नहीं हैं। इन पर राष्ट्र की एकता, अखण्डता, शान्ति एवं सुरक्षा तथा अन्य राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के आधार पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। संविधान द्वारा अग्रलिखित परिस्थितियों में नागरिकों के मौलिक (मूल) अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगाये जाने की व्यवस्था की गयी है –

  1. आपातकालीन स्थिति में नागरिकों के मूल अधिकार स्थगित किये जा सकते हैं।
  2. संविधान में संशोधन करके नागरिकों के मूल अधिकार कम या समाप्त किये जा सकते हैं।
  3. सेना में अनुशासन बनाये रखने की दृष्टि से भी इन्हें सीमित या नियन्त्रित किया जा सकता है।
  4. जिन क्षेत्रों में मार्शल लॉ (सैनिक कानून) लागू होता है वहाँ भी मूल अधिकार स्थगित हो जाते
  5. नागरिकों द्वारा मूल अधिकारों का दुरुपयोग करने पर सरकार इन्हें निलम्बित कर सकती है।

प्रश्न 4.
मौलिक अधिकारों तथा नीति-निदेशक तत्त्वों में क्या अन्तर है?
उत्तर :
मौलिक अधिकारों तथा नीति-निदेशक तत्त्वों में अन्तर निम्नवत् हैं –

  1. मौलिक अधिकार, भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को दिये गये हैं। नीति-निदेशक तत्त्व केन्द्र तथा राज्य सरकारों के मार्गदर्शन के लिए निर्देश मात्र हैं।
  2. मौलिक अधिकारों का हनन होने पर न्यायालय की शरण ली जा सकती है। नीति-निदेशक तत्त्वों की रक्षा के लिए न्यायालय की शरण नहीं ली जा सकती।
  3. मौलिक अधिकारों का उद्देश्य राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना करना होता है। नीति-निदेशक तत्त्वों का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है।
  4. मौलिक अधिकार नागरिक के व्यक्तिगत विकास तथा स्वतन्त्रता पर अधिक बल देते हैं। नीति-निदेशक तत्त्व आर्थिक और सामाजिक स्वतन्त्रता पर अधिक बल देते हैं।
  5. मौलिक अधिकार निषेधात्मक आदेश हैं। नीति-निदेशक तत्त्व सकारात्मक निर्देश मात्र हैं।
  6. मौलिक अधिकारों के पीछे न्यायिक शक्ति होती है। नीति-निदेशक तत्त्वों के पीछे जनमत की शक्ति होती है।

प्रश्न 5.
नीति-निदेशक तत्त्वों को संविधान में समाविष्ट करने का क्या उद्देश्य है ?
उत्तर :
भारतीय संविधान में केन्द्र तथा राज्य सरकारों के मार्गदर्शन के लिए कुछ सिद्धान्त दिये गये हैं, जिन्हें राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्त या तत्त्व कहा जाता है। संविधान में इन तत्त्वों का समावेश करने का प्रमुख उद्देश्य भारत में वास्तविक लोकतन्त्र और समाजवादी एवं कल्याणकारी शासन की स्थापना करना है। इसके अतिरिक्त, सामाजिक पुनर्निर्माण, आर्थिक विकास, सांस्कृतिक प्रगति तथा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की स्थापना भी नीति-निदेशक तत्त्वों के उद्देश्य हैं।

प्रश्न 6.
नीति-निदेशक सिद्धान्तों की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
नीति-निदेशक तत्त्वों की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –

(1) संविधान का उद्देश्य – संविधान की प्रस्तावना में संविधान का उद्देश्य लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना बताया गया है। नीति-निदेशक तत्त्व इस उद्देश्य को साकार रूप देते हैं। राज्य अधिक-से-अधिक प्रभावी रूप में, ऐसी सामाजिक व्यवस्था तथा सुरक्षा द्वारा जिसमें आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक न्याय भी प्राप्त हो, जनता के हित के विकास को प्रयत्न करेगा और राष्ट्रीय जीवन की प्रत्येक संस्था को इस सम्बन्ध में सूचित करेगा। इस प्रकार नीति-निदेशक तत्त्व आर्थिक तथा सामाजिक प्रजातन्त्र की स्थापना कर एक समाजवादी पद्धति के समाज की स्थापना करना चाहते हैं।

(2) अनुदेश पत्र – राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व ऐसे निर्देश हैं, जिनका पालन राज्य की व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका को करना चाहिए।

(3) वैधानिक बल का अभाव – नीति-निदेशक तत्त्व यद्यपि संविधान के अंग हैं, फिर भी उन्हें 1किसी न्यायालय द्वारा लागू नहीं किया जा सकता।

(4) देश के शासन के आधारभूत सिद्धान्त – ये सिद्धान्त मूलभूत सिद्धान्त माने जाएँगे। राज्य का यह कर्त्तव्य होगा कि कानून का निर्माण करते समय वह इन सिद्धान्तों को ध्यान में रखे। प्रशासकों के लिए ये सिद्धान्त एक आचरण संहिता हैं, जिनका अनुपालन वे अपने दायित्वों को | निभाते समय करेंगे। न्यायालय भी न्याय करते समय इन सिद्धान्तों को प्राथमिकता प्रदान करेंगे।

प्रश्न 7.
नीति-निदेशक तत्त्वों की आलोचना का आधार बताइए।
उत्तर :
नीति-निदेशक तत्त्वों की आलोचना के मुख्य आधार निम्नलिखित हैं –

(1) कानूनी शक्ति का अभाव – कुछ आलोचक इने तत्त्वों को किसी भी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं मानते। उनका यह तर्क है कि जब सरकार इन्हें मानने के लिए कानूनी रूप से बाध्य ही नहीं है, तो इनका कोई महत्त्व नहीं है। इन सिद्धान्तों पर व्यंग्य करते हुए प्रो० के० टी० शाह ने लिखा है। कि, “ये सिद्धान्त उस चेक के समान हैं, जिसका भुगतान बैंक केवल समर्थ होने की स्थिति में ही कर सकता है।”

(2) निदेशक तत्त्व काल्पनिक आदर्श मात्र – आलोचकों के अनुसार नीति-निदेशक तत्त्व व्यावहारिकता से कोसों दूर केवल एक कल्पना मात्र हैं। इन्हें क्रियान्वित करना बहुत दूर की बात है। एन० आर० राघवाचारी के शब्दों में, “नीति-निदेशक तत्त्वों का उद्देश्य जनता को मूर्ख बनाना वे बहकाना ही है।”

(3) संवैधानिक गतिरोध उत्पन्न होने का भय – इन सिद्धान्तों से संवैधानिक गतिरोध भी उत्पन्न हो सकता है। राज्य जब इन तत्त्वों के अनुरूप अपनी नीतियों का निर्माण करेगा तो ऐसी स्थिति में मौलिक अधिकारों के अतिक्रमण की सम्भावना बढ़ जाएगी।

(4) सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य में अस्वाभाविक – ये तत्त्व एक सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य में अस्वाभाविक तथा अप्राकृतिक हैं। विद्वानों ने नीति-निदेशक तत्त्वों की अनेक दृष्टिकोणों के आधार पर आलोचना की है, परन्तु इन आलोचनाओं के द्वारा इन तत्त्वों का महत्त्व कम नहीं हो जाता। ये हमारे आर्थिक लोकतन्त्र के आधार-स्तम्भ हैं।

प्रश्न 8.
मौलिक अधिकारों की संक्षेप में आलोचना कीजिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई है –

  1. इनमें शिक्षा प्राप्त करने, काम पाने, आराम करने तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण अधिकारों का अभाव देखने को मिलता है।
  2. मौलिक अधिकारों पर इतने अधिक प्रतिबन्ध लगा दिए गए हैं कि उनके स्वतन्त्र उपभोग पर स्वयमेव प्रश्न-चिह्न लग जाता है। अत: कुछ आलोचकों ने यहाँ तक कह दिया है कि भाग चार का शीर्षक नीति-निदेशक तत्त्वों के स्थान पर ‘नीति-निदेशक तत्त्व तथा उनके ऊपर प्रतिबन्ध ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होता है।
  3. शासन द्वारा मौलिक अधिकारों के स्थगन की व्यवस्था दोषपूर्ण है।
  4. निवारक-निरोध द्वारा स्वतन्त्रता के अधिकार को सीमित कर दिया गया है।
  5. संकटकाल में कार्यपालिका को असीमित शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं।

प्रश्न 9.
मौलिक अधिकारों के स्थगन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
मौलिक अधिकारों में विशेष परिस्थितियों के निमित्त संविधान में संशोधन द्वारा संसद अधिकार अस्थायी रूप से भी स्थगित किए जा सकते हैं या काफी सीमा तक सीमित किए जा सकते हैं। इसलिए आलोचकों का विचार है कि संविधान के इस अनुच्छेद का लाभ उठाकर देश में कभी भी सरकार तानाशाह बन सकती है। किन्तु ऐसा सोचना या कहना गलत है; क्योंकि ऐसा सरकार अपने हित में नहीं, वरन् लोकहित में करती है। असाधारण परिस्थितियों में देश और राष्ट्र का हित व्यक्तिगत हित से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, इसीलिए विशेष परिस्थितियों में ही मौलिक अधिकारों को स्थगित या सीमित किया जाता है। अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर के शब्दों में, “यह व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक है। यही व्यवस्था संविधान का जीवन होगी। इससे प्रजातन्त्र की हत्या नहीं, वरन् सुरक्षा होगी।”

प्रश्न 10.
नीति-निदेशक तत्त्वों के दोषों का विवेचन कीजिए।
उत्तर :
नीति-निदेशक तत्त्वों के निम्नलिखित दोष हैं –

  1. इन तत्त्वों के पीछे कोई संवैधानिक शक्ति नहीं है। अतः निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि राज्य इनका पालन करेगा भी या नहीं और यदि करेगा तो किस सीमा तक।
  2. ये तत्त्व काल्पनिक आदर्श मात्र हैं। कैम्पसन के अनुसार, “जो लक्ष्य निश्चित किए गए हैं, उनमें से कुछ का तो सम्भावित कार्यक्रम की वास्तविकता से बहुत ही थोड़ा सम्बन्ध है।”
  3. नीति-निदेशक तत्त्व एक सम्प्रभु राज्य में अप्राकृतिक प्रतीत होते हैं।
  4. संवैधानिक विधिवेत्ताओं ने आशंका व्यक्त की है कि ये तत्त्व संवैधानिक द्वन्द्व और गतिरोध के कारण भी बन सकते हैं।
  5. इन तत्त्वों में अनेक सिद्धान्त अस्पष्ट तथा तर्कहीन हैं। इन तत्त्वों में एक ही बात को बार-बार दोहराया गया है।
  6. इन तत्त्वों की व्यावहारिकता व औचित्य को भी कुछ आलोचकों के द्वारा चुनौती दी गई है।
  7. एक प्रभुतासम्पन्न राज्य में इस प्रकार के सिद्धान्त को ग्रहण करना अस्वाभाविक ही प्रतीत होता है। विधि-विशेषज्ञों के दृष्टिकोण के अनुसार एक प्रभुतासम्पन्न राज्य के लिए इस प्रकार के आदेशों का कोई औचित्य नहीं है।

प्रश्न 11.
अधिकार-पत्र किसे कहते हैं? क्या प्रत्येक देश में अधिकार-पत्र का होना आवश्यक है?
उत्तर :

अधिकार-पत्र से आशय

जब किसी देश के नागरिकों को दिए जाने वाले अधिकारों की संवैधानिक घोषणा की जाती है अर्थात् नागरिकों के अधिकारों को संविधान में अंकित किया जाता है तो उसे ‘अधिकार पत्र’ कहते हैं। सर्वप्रथम अमेरिका के संविधान में अधिकार-पत्र की व्यवस्था की गई थी। संविधान के विभिन्न संशोधनों द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई और उन्हें अधिकार-पत्र नाम दिया गया। अब अधिकतर देशों में अधिकार-पत्र की व्यवस्था है। भारत में नागरिकों के अधिकारों को अधिकार-पत्र का नाम न देकर मौलिक अधिकारों का नाम दिया गया है।

प्रत्येक देश में अधिकार-पत्र की व्यवस्था आवश्यक नहीं-यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक देश में अधिकार-पत्र की व्यवस्था हो। इंग्लैण्ड के संविधान में अधिकार-पत्र की कोई व्यवस्था नहीं है। यह भी आवश्यक नहीं है कि इसकी व्यवस्था लोकतान्त्रिक देश में ही होती है। चीन में अधिकार-पत्र की व्यवस्था है। वह गणतान्त्रिक देश है।

प्रश्न 12.
मौलिक अधिकारों की किन्हीं चार विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
या
मौलिक अधिकारों की विशेषताओं का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
मौलिक अधिकारों की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. मौलिक अधिकार देश के सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त हैं।
  2. इन अधिकारों का संरक्षक न्यायपालिका को बनाया गया है।
  3. राष्ट्र की सुरक्षा तथा समाज के हित में इन अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।
  4. इन अधिकारों द्वारा सरकार की निरंकुशता पर अंकुश लगाया गया है।
  5. केन्द्र सरकार अथवा राज्य सरकार ऐसे कानूनों का निर्माण नहीं करेगी जो मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करते हों।
  6. मौलिक अधिकार न्याययुक्त होते हैं।
  7. मौलिक अधिकारों की प्रकृति सकारात्मक होती है।

प्रश्न 13.
संवैधानिक उपचारों के अधिकार को स्पष्ट कीजिए।
या
संवैधानिक उपचारों के अधिकार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु भारतीय नागरिकों को संवैधानिक उपचारों का अधिकार प्रदान किया गया है। इस अधिकार का तात्पर्य यह है कि यदि राज्य या केन्द्र सरकार नागरिकों को दिये गये मौलिक अधिकारों को किसी भी प्रकार से नियन्त्रित करने का प्रयास करती है या उनका हनन करती है, तो उसके लिए उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में सरकार की नीतियों अथवा कानूनों के विरुद्ध अपील की जा सकती है।

दीर्घ लनु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मौलिक अधिकारों का क्या महत्त्व है ?
उत्तर :
प्रजातन्त्र में नागरिकों को उनके सर्वांगीण विकास के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण सुविधाएँ तथा स्वतन्त्रताएँ प्रदान की जाती हैं। इन्हीं सुविधाओं तथा स्वतन्त्रताओं को मूल या मौलिक अधिकार कहा जाता है। ‘मूल’ का अर्थ होता है-जड़। वृक्ष के लिए जो महत्त्व जड़ का होता है, वही महत्त्व नागरिकों के लिए इन अधिकारों का है। जिस प्रकार जड़ के बिना वृक्ष का अस्तित्व सम्भव नहीं है, उसी प्रकार मौलिक अधिकारों के बिना नागरिकों का शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास सम्भव नहीं है। प्रजातन्त्रीय देशों में इनका उल्लेख संविधान में कर दिया जाता है, जिससे सरकार आसानी से इन्हें संशोधित या समाप्त न कर सके।

भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों को स्पष्ट उल्लेख किया गया है जिससे सत्तारूढ़ दल मनमानी न कर सके। सरकार की निरंकुशता के विरुद्ध मौलिक अधिकार प्रतिरोध का कार्य करते हैं। विधानमण्डल द्वारा निर्मित कोई भी कानून जो मौलिक अधिकारों के विरुद्ध है, न्यायालय द्वारा अवैध घोषित किया जा सकता है। भारत में मौलिक अधिकारों का महत्त्व डॉ० भीमराव अम्बेडकर ने इन शब्दों में व्यक्त किया है, “मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद के बिना संविधान अधूरा रह जाएगा। ये संविधान की आत्मा और हृदय हैं।”

प्रश्न 2.
धार्मिक स्वतन्त्रता को अधिकार क्या है ?
उत्तर :
संविधान ने प्रत्येक नागरिक को धर्म के सन्दर्भ में पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की है। व्यक्ति को धर्म के क्षेत्र में पूर्ण स्वतन्त्रता इस दृष्टि से प्रदान की गयी है कि वह अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म को स्वीकार करे तथा अपने ढंग से अपने इष्ट की आराधना करे। व्यक्तियों को यह भी स्वतन्त्रता है कि वह अपनी रुचि के अनुसार धार्मिक संस्थाओं का निर्माण एवं अपने धर्म का प्रचार करे। इस प्रकार सभी धार्मिक सन्दर्भो में प्रत्येक नागरिक पूर्ण स्वतन्त्र है। ऐसा करने में संविधान का मुख्य उद्देश्य धर्म के नाम पर होने वाले विवादों का अन्त करना था। अनुच्छेद 25 के अनुसार, सभी व्यक्तियों को, चाहे वे नागरिक हों या विदेशी, अन्त:करण की स्वतन्त्रता तथा किसी भी धर्म को स्वीकार करने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतन्त्रता है अनुच्छेद 26 के अनुसार, धार्मिक मामलों के प्रबन्ध की भी स्वतन्त्रता है। अनुच्छेद 47 के आधार पर, धार्मिक कार्यों के लिए व्यय की जाने वाली राशि को कर से मुक्त किया गया है अनुच्छेद 28 के अनुसार, राजकीय निधि से चलने वाली किसी भी शिक्षण-संस्था में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं की जाएगी।

प्रतिबन्ध – किन्हीं विशेष कारणों या परिस्थितियोंवश किसी विशेष धर्म के प्रचार या धार्मिक संस्थान पर सरकार को प्रतिबन्ध लगाने का पूर्ण अधिकार है।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में वर्णित नागरिकों के मौलिक कर्तव्य लिखिए।
उत्तर :

नागरिकों के मौलिक कर्तव्य

भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान का निर्माण करते समय मौलिक कर्तव्यों को संविधान में सम्मिलित नहीं किया था, परन्तु 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा मौलिक कर्तव्यों को संविधान में सम्मिलित किया गया जिनकी संख्या 10 थी, लेकिन 86वें संविधान संशोधन अधिनियम (2002) द्वारा इसमें एक और बिन्दु जोड़ा गया। अतः अब इनकी संख्या 11 हो गई है

  1. संविधान, राष्ट्रीय ध्वज तथा राष्ट्रगान का सम्मान करना।
  2. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के उद्देश्यों का आदर करना और उनका अनुगमन करना।
  3. भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता का समर्थन व सुरक्षा करना।
  4. देश की रक्षा करना तथा राष्ट्रीय सेवाओं में आवश्यकता के समय भाग लेना।
  5. भारत में सभी नागरिकों में भ्रातृत्व-भावना विकसित करना।
  6. प्राचीन सभ्यता व संस्कृति को सुरक्षित रखना।
  7. वनों, झीलों व जंगली जानवरों की सुरक्षा तथा उनकी उन्नति के लिए प्रयत्न करना।
  8. वैज्ञानिक तथा मानवतावादी दृष्टिकोण को अपनाना।
  9. हिंसा को रोकना तथा सार्वजनिक सम्पत्ति की सुरक्षा करना।
  10. व्यक्तिगत तथा सामूहिक प्रयासों के द्वारा उच्च राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना।
  11. 6 वर्ष से 14 वर्ष की आयु के बच्चे के माता-पिता को अपने बच्चे को शिक्षा दिलाने के लिए अवसर उपलब्ध कराना।

प्रश्न 4.
नीति-निदेशक तत्त्वों को सरकार ने किस सीमा तक लागू किया है?
उत्तर :
सरकार द्वारा नीति-निदेशक तत्त्वों को लागू करने के बावजूद विगत वर्षों में लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना तो सम्भव नहीं हो सकी, परन्तु इस दिशा में प्रगति अवश्य हुई। है। नीति-निदेशक तत्त्वों को लागू करने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदम सराहनीय हैं; यथा –

(i) पंचवर्षीय योजनाओं के आधार पर कृषि और उद्योगों की उन्नति, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाओं का प्रसार, सरकारी सेवाओं पर आर्थिक संसाधनों, साधनों में वृद्धि, राष्ट्रीय आय व लोगों के रहन-सहन के स्तर को ऊँचा उठाने के प्रयत्न किए गए हैं।

(ii) युवा वर्ग और बच्चों के शोषण से सुरक्षा करने के लिए अनेक कानून बनाए गए हैं। बीमारी और दुर्घटना के विरुद्ध सुरक्षा के लिए मजदूर वर्ग में बीमा योजनाएँ लागू की गई हैं व बेरोजगारी बीमा योजना को लागू करने और रोजगार की सुविधाएँ बढ़ाने के प्रयत्न किए जा रहे हैं।

(iii) ‘हिन्दू कोड बिल’ के कई अंशों; जैसे- ‘हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955′, ‘हिन्दू उत्तराधिकारी अधिनियम, 1956’ आदि; को पारित करके देश के सभी वर्गों के लिए समान विधि संहिता लागू करने के प्रयत्न किए जा रहे हैं।

(iv) अस्पृश्यता निवारण के लिए तथा अनुसूचित व पिछड़ी जातियों के बच्चों को उदारतापूर्वक छात्रवृत्ति और अन्य सुविधाओं द्वारा शिक्षा प्रदान करने के मार्ग में अभूतपूर्व प्रगति हुई है।

(v) यद्यपि अब भी नि:शुल्क और अनिवार्य प्रारम्भिक शिक्षा सबके लिए पर्याप्त स्वास्थ्य सेवा का प्रबन्ध अपूर्ण है, तथापि इन दिशाओं में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है। लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण और सामुदायिक विकास योजनाओं द्वारा ग्राम पंचायतों और पंचायत राज को भी अधिक सशक्त बना दिया गया है। संविधान के 73वें संशोधन के द्वारा पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक आधार प्रदान किया गया है। महिलाओं की सहभागिता को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से उनके लिए 33.33 प्रतिशत आरक्षण की पंचायती राज संस्थाओं में व्यवस्था की गई है तथा संसद एवं विधानमण्डलों में भी प्रावधान पर विचार चल रहा है। पंचायतों की शक्तियों, अधिकारों तथा कार्यों में भी वृद्धि की गई है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान में वर्णित नागरिकों के मौलिक अधिकारों में समानता के अधिकार का वर्णन कीजिए।
या
भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को दिये गये मूल अधिकारों में स्वतन्त्रता के अधिकार का सविस्तार वर्णन कीजिए।
या
मौलिक अधिकार क्या हैं ? भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
संविधान में वर्णित नागरिकों के मौलिक अधिकारों में संवैधानिक उपचारों के अधिकार का वर्णन कीजिए और इनका महत्त्व बताइए।
उत्तर :
वे अधिकार, जो मानव-जीवन के लिए आवश्यक एवं अपरिहार्य हैं तथा संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं, मौलिक अधिकार कहलाते हैं। इन अधिकारों का व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका द्वारा भी उल्लंघन नहीं किया जा सकता। न्यायपालिका ऐसे समस्त कानूनों को अवैध घोषित कर सकती है, जो संविधान के अनुच्छेदों का उल्लंघन अथवा अतिक्रमण करते हैं। मौलिक अधिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व से सम्बद्ध रहते हैं। अत: राज्य द्वारा निर्मित किसी भी कानून से ऊपर होते हैं। इनमें किसी प्रकार का संशोधन केवल संविधान संशोधन के आधार पर ही किया जा सकता है। भारतीय संविधान में निहित मौलिक अधिकार एक विस्तृत अधिकार-पत्र के रूप में हैं। मौलिक अधिकार संविधान के भाग 3 में वर्णित किये गये हैं। भारतीय संविधान के तृतीय भाग में अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का विशिष्ट विवेचन किया गया है। इसके द्वारा भारतीय नागरिकों को सात मौलिक अधिकार प्रदान किये गये थे, किन्तु 44वें संवैधानिक संशोधन (1979) द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में समाप्त कर दिया गया है। अब सम्पत्ति का अधिकार केवल एक कानूनी अधिकार के रूप में है।

मौलिक अधिकारों के प्रकार

भारतीय नागरिकों को निम्नलिखित छ: मौलिक अधिकार प्राप्त हैं –

(i) समानता का अधिकार
संविधान द्वारा निम्नलिखित पाँच प्रकार की समानताएँ प्रदान की गयी हैं –

(1) कानून के क्षेत्र में समानता(अनुच्छेद 14) – संविधान में, कानून के क्षेत्र में सभी नागरिकों को समान अधिकार दिये गये हैं। कानून की दृष्टि में न कोई छोटा है न बड़ा। वह निर्धन को हीन दृष्टि से नहीं देखता और धनवान को भी विशेष महत्त्व नहीं देता। तात्पर्य यह है कि वह सभी को समान दृष्टि से देखता है। धर्म-लिंग के आधार पर भी किसी से किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करता।

(2) सार्वजनिक स्थानों के उपभोग में समानता (अनुच्छेद 15) – संविधान में यह स्पष्ट लिखा है कि सार्वजनिक स्थानों; जैसे – तालाबों, नहरों, पार्को आदि सभी का, सभी नागरिक बिना किसी भेदभाव के उपभोग करने के समान अधिकारी हैं।

(3) सरकारी नौकरियों में समानता (अनुच्छेद 16) – सरकारी नौकरियों में नियुक्ति के समय किसी के साथ धर्म, लिंग, जाति आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा और नियुक्ति या पदोन्नति का आधार केवल योग्यता को माना जाएगा। इस अधिकार का अपवाद यह है कि अनुसूचित जाति- जनजातियों के लिए नौकरियों में कुछ स्थान सुरक्षित कर दिये गये हैं। राज्य पिछड़े वर्गों के लिए भी स्थानों का आरक्षण कर सकता है। इसके अतिरिक्त राज्य कुछ पदों के लिए आवास की योग्यता भी निर्धारित कर सकता है।

(4) अस्पृश्यता का अन्त (अनुच्छेद 17) – अनुसूचित जातियों के उत्थान और उनमें स्वाभिमान की भावना जगाने तथा उनका विकास करने के उद्देश्य से अस्पृश्यता को अपराध घोषित किया गया है।

(5) उपाधियों का अन्त (अनुच्छेद 18) – व्यक्तियों में पारस्परिक भेदभाव, ऊँच-नीच की भावना को समाप्त कर, समाज में समानता स्थापित करने के उद्देश्य से, संविधान ने अंग्रेजी शासन द्वारा दी जाने वाली सभी उपाधियों को निरस्त कर दिया है। अब केवल शैक्षिक और सैनिक उपाधियाँ ही दी जाती हैं।

अपवाद – उपर्युक्त क्षेत्रों में समानता का सिद्धान्त लागू किया गया है, फिर भी मानव-हितों और उनके उत्थान को ध्यान में रखकर सरकार कुछ क्षेत्रों में इन नियमों की अवहेलना भी कर सकती है।

(ii) स्वतन्त्रता का अधिकार

(1) अनुच्छेद 19 द्वारा इस अधिकार से सम्बन्धित निम्नलिखित छः स्वतन्त्रताएँ नागरिकों को प्राप्त हैं –

  1. भाषण द्वारा विचाराभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता-संविधान ने प्रत्येक व्यक्ति को भाषण के रूप में अपने विचार व्यक्त करने एवं अपने विचारों को पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराने की स्वतन्त्रता प्रदान की है।
  2. सभा करने की स्वतन्त्रता संविधान ने नागरिकों को शान्तिपूर्वक सभा व सम्मेलन करने की भी स्वतन्त्रता प्रदान की है।
  3. व्यवसाय की स्वतन्त्रता–प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार व्यवसाय करने के लिए स्वतन्त्र है।
  4. संघ या समुदाय के निर्माण की स्वतन्त्रता-नागरिकों को मानव-हितों के लिए समुदायों अथवा संघों के निर्माण की स्वतन्त्रता है।
  5. भ्रमण की स्वतन्त्रता-संविधान ने नागरिकों को देश की सीमाओं के अन्दर स्वतन्त्रतापूर्वक एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने-जाने की पूर्ण स्वतन्त्रता दी है।
  6. आवास की स्वतन्त्रता प्रत्येक व्यक्ति को इस बात की स्वतन्त्रता दी गयी है कि वह अपनी स्थिति के अनुसार किसी भी स्थान पर रहे।

अपवाद – समाज तथा राष्ट्र के हित में सरकार के द्वारा स्वतन्त्रता के अधिकार पर भी विवेकपूर्ण प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं।

(2) अपराधों की दोषसिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण – अनुच्छेद 20 के अनुसार

(क) किसी व्यक्ति को उस समय तक दण्ड नहीं दिया जा सकता, जब तक कि उसने किसी प्रचलित कानून को न तोड़ा हो तथा
(ख) उसे स्वयं अपने विरुद्ध गवाही देने के लिए किसी भी प्रकार से बाध्य नहीं किया जा सकता।

(3) जीवन और शरीर-रक्षण का अधिकार अनुच्छेद 21 के अनुसार, किसी व्यक्ति की प्राण अथवा दैहिक स्वतन्त्रता को केवल विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर, अन्य किसी प्रकार से वंचित नहीं किया जाएगा।

(4) बन्दीकरण के संरक्षण की स्वतन्त्रता-अनुच्छेद 22 के अनुसार

(क) प्रत्येक बन्दी को बन्दी होने का कारण जानने का अधिकार दिया गया है तथा
(ख) किसी को बन्दी बनाने के बाद उसे 24 घण्टे के अन्दर ही किसी न्यायाधीश के समक्ष उपस्थित करना आवश्यक है।

(iii) शोषण के विरुद्ध अधिकार

संविधान में अनुच्छेद 23 व 24 को सम्मिलित करने का उद्देश्य यह था कि कोई किसी का शोषण ने कर सके। अतः संविधान द्वारा यह घोषणा की गयी है कि –

  1. किसी व्यक्ति से बेगार और बलपूर्वक काम नहीं लिया जाएगा।
  2. चौदह वर्ष से कम आयु के बालक-बालिकाओं से खानों, कारखानों तथा स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालने वाले स्थानों पर काम नहीं लिया जाएगा।
  3. स्त्रियों व बच्चों का क्रय-विक्रय करना अपराध है। अपवाद-राज्य सार्वजनिक कार्यों के लिए नागरिकों की अनिवार्य सेवाएँ प्राप्त कर सकता है।

(iv) धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार

संविधान ने भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करने के उद्देश्य से प्रत्येक नागरिक को पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की है अर्थात् प्रत्येक नागरिक अपनी अन्तरात्मा के अनुसार कोई भी धर्म स्वीकार कर सकता है, अपने धर्म की प्रथा के अनुसार आराधना कर सकता है तथा अपने धर्म का प्रचार-प्रसार कर सकता है (अनुच्छेद 25)। सभी व्यक्तियों को धार्मिक मामलों एवं संस्थाओं का प्रबन्ध करने की भी स्वतन्त्रता है (अनुच्छेद 26)। राज्य किसी भी धर्म के साथ पक्षपात नहीं करेगा। इसका आशय यह है कि राज्य धार्मिक मामलों में पूर्णरूप से तटस्थ है और धर्म, व्यक्ति का व्यक्तिगत विषय है। इसके अतिरिक्त, नागरिकों पर किसी प्रकार का धार्मिक कर नहीं लगाया जाएगा (अनुच्छेद 27)। यह भी घोषणा की गयी है कि सरकारी अथवा सरकारी सहायता या मान्यता प्राप्त शिक्षा संस्था में किसी धर्म-विशेष की शिक्षा नहीं दी जा सकती है (अनुच्छेद 28)। इसके अतिरिक्त 42वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘पन्थनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ा गया है।

अपवाद – अन्य अधिकारों की भाँति इस अधिकार पर भी कुछ प्रतिबन्ध हैं। सरकार किसी भी ऐसे धार्मिक आचरण पर कानून बनाकर रोक लगा सकती है, जिससे सामाजिक या राष्ट्रीय हितों को कोई खतरा पहुँचता हो।

(v) सांस्कृतिक व शिक्षा-सम्बन्धी अधिकार

  1. अनुच्छेद 29 के अनुसार प्रत्येक भाषा-भाषी को अपनी संस्कृति, भाषा और लिपि को सुरक्षित रखने का अधिकार है।
  2. प्रत्येक व्यक्ति को राज्य द्वारा स्थापित या राज्य द्वारा दी गयी आर्थिक सहायता से चल रहे शिक्षण संस्थान में प्रवेश लेने का अधिकार है, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या वर्ग से सम्बन्ध रखता हो।
  3. अनुच्छेद 30 के अनुसार प्रत्येक वर्ग के व्यक्तियों को अपनी इच्छानुसार शिक्षण संस्थाएँ खोलने का अधिकार दिया गया है।
  4. संविधान संशोधन, 93 (2001) के अनुसार 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए नि:शुल्क शिक्षा का अधिकार दिया गया है।

(vi) संवैधानिके उपचारों का अधिकार

उपर्युक्त मूल अधिकारों की रक्षा हेतु संविधान में अनुच्छेद 32 के अनुसार संवैधानिक उपचारों का अधिकार भी सम्मिलित किया गया है। इस अधिकार का तात्पर्य यह है कि यदि राज्य या सरकार, नागरिक को दिये गये मूल अधिकारों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध लगाती है या उनका अतिक्रमण करती है तो वे उसके लिए उच्च न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय की शरण ले सकते हैं। नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निम्नलिखित पाँच प्रकार के लेख जारी किये जाते हैं –

  1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus)
  2. परमादेश (Mandamus)
  3. अधिकार पृच्छा (Quo-Warranto)
  4. प्रतिषेध (Prohibition)
  5. उत्प्रेषण लेख (Certiorari)।

अपवाद – व्यक्तियों के द्वारा साधारण परिस्थितियों में ही न्यायालय की शरण लेकर अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा की जा सकती है। आपातकाल में कोई व्यक्ति अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय में प्रार्थना नहीं कर सकता।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि नागरिकों को संविधान के द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का क्षेत्र बहुत व्यापक है। मौलिक अधिकार व्यक्ति-स्वातन्त्र्य तथा अधिकारों के हित में राज्य की शक्ति पर प्रतिबन्ध लगाने के श्रेष्ठ उपाय हैं। भारत ही नहीं वरन् विश्व के अधिकांश राष्ट्रों में वर्तमान समय में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था ने एक सर्वमान्य अवधारणा का रूप धारण कर लिया है।

मौलिक अधिकारों का महत्त्व

मूल अधिकार लोकतन्त्र के आधार-स्तम्भ हैं। मूल’ का अर्थ होता है-जड़। वृक्ष के लिए जो महत्त्व जड़ का होता है, वही महत्त्व नागरिकों के लिए इन अधिकारों का है। जिस प्रकार जड़ के बिना वृक्ष का अस्तित्व सम्भव नहीं है, उसी प्रकार मौलिक अधिकारों के बिना नागरिकों का शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास सम्भव नहीं है। ये जनता के जीवन के रक्षक हैं। ये बहुमत की तानाशाही पर अंकुश लगाते हैं और मानव की स्वतन्त्रता तथा सामाजिक नियन्त्रण में समन्वय स्थापित करते हैं।

संविधान में मौलिक अधिकारों का बहुत महत्त्व है, जो निम्नलिखित है –

(1) मौलिक अधिकार प्रजातन्त्र के आधार-स्तम्भ हैं – मूल अधिकार प्रजातन्त्र के लिए अनिवार्य हैं। इनके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शारीरिक, मानसिक और नैतिक विकास की सुरक्षा प्रदान की जाती है।

(2) बहुमत की तानाशाही को रोकते हैं – मौलिक अधिकार एक देश के राजनीतिक जीवन में एक दल विशेष की तानाशाही स्थापित होने से रोकने के लिए अनिवार्य हैं। मौलिक अधिकार शासकीय और बहुमत वर्ग के अत्याचारों से व्यक्ति की रक्षा करते हैं।

(3) व्यक्ति की स्वतन्त्रता और सामाजिक नियन्त्रण में समन्वय – मौलिक अधिकार व्यक्ति की स्वतन्त्रता और सामाजिक नियन्त्रण के उचित सामंजस्य की स्थापना करते हैं।

मौलिक अधिकारों का संविधान में उल्लेख कर देने से उनके महत्त्व और सम्मान में वृद्धि होती है। इससे उन्हें साधारण कानून से अधिक उच्च स्थान और पवित्रता प्राप्त हो जाती है। इससे वे अनुल्लंघनीय होते हैं। व्यवस्थापिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के लिए उनका पालन आवश्यक हो जाता है।

डॉ० भीमराव अम्बेडकर ने मौलिक अधिकारों का महत्त्व व्यक्त करते हुए कहा है कि, “मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद के बिना संविधान अधूरा रह जाएगा। ये संविधान की आत्मा और हृदय हैं।”

प्रश्न 2.
दक्षिण अफ्रीका के संविधान में अधिकारों की घोषणा-पत्र किस रूप में सम्मिलित किया गया है?
उत्तर :
दक्षिण अफ्रीका के संविधान में अधिकारों की घोषणा-पत्र दक्षिण अफ्रीका का संविधान दिसम्बर, 1996 में लागू हुआ। इसे तब बनाया और लागू किया गया जब रंगभेद वाली सरकार के हटने के बाद दक्षिण अफ्रीका गृहयुद्ध के खतरे से जूझ रहा था। दक्षिण अफ्रीका के संविधान के अनुसार “उसके अधिकारों की घोषणा-पत्र दक्षिण अफ्रीका में प्रजातन्त्र की आधारशिला है।” यह नस्ल, लिंग, गर्भधारण, वैवाहिक स्थिति, जातीय या सामाजिक मूल, रंग, आयु, अपंगता, धर्म, अन्तरात्मा, आस्था, संस्कृति, भाषा और जन्म के आधार पर भेदभाव वर्जित करता है। यह नागरिकों को सम्भवतः सबसे ज्यादा व्यापक अधिकार देता है। संवैधानिक अधिकारों को एक विशेष संवैधानिक न्यायालय लागू करता है।

दक्षिण अफ्रीका के संविधान में सम्मिलित कुछ प्रमुख अधिकार निम्नलिखित हैं –

  1. गरिमा का अधिकार
  2. निजता का अधिकार
  3. श्रम-सम्बन्धी समुचित व्यवहार का अधिकार
  4. स्वस्थ पर्यावरण और पर्यावरण संरक्षण का अधिकार
  5. समुचित आवास का अधिकार
  6. स्वास्थ्य सुविधाएँ, भोजन, पानी और सामाजिक सुरक्षा का अधिकार
  7. बाल-अधिकार
  8. बुनियादी और उच्च शिक्षा का अधिकार
  9. सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई समुदायों का अधिकार
  10. सूचना प्राप्त करने का अधिकार।

प्रश्न 3.
भारतीय नागरिकों के मूल कर्तव्यों पर एक लेख लिखिए।
या
मौलिक कर्तव्यों से आप क्या समझते हैं ? इनका क्या महत्त्व है ?
उत्तर :
भारतीय संविधान में मूल कर्तव्यों का कोई उल्लेख नहीं था; अत: यह अनुभव किया गया कि मूल अधिकारों के साथ-साथ मूल कर्तव्यों की भी व्यवस्था आवश्यक है। इस कमी को 1976 में संविधान के 42वें संशोधन द्वारा दूर किया गया और संविधान में एक नया अनुच्छेद 51 (क) ‘मौलिक कर्तव्य’ जोड़ा गया। संविधान के 86वें संशोधन अधिनियम 2002 के अन्तर्गत एक कर्तव्य और जोड़ा गया। नागरिकों के ग्यारह कर्तव्यों का वर्णन निम्नवत् है –

  1. संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रगान और राष्ट्रीय ध्वज का आदर करना।
  2. देश के स्वतन्त्रता संग्राम में जो उच्च आदर्श रखे गये थे, उनका पालन करना व उनके प्रति हृदय में आदर बनाये रखना।
  3. भारत की प्रभुसत्ता, एकता तथा अखण्डता का समर्थन और रक्षा करना।
  4. देश की रक्षा के लिए हर समय तैयार रहना तथा आवश्यकता पड़ने पर राष्ट्रीय सेवाओं में भाग लेना।
  5. भारत के सभी नागरिकों में भ्रातृत्व की भावना विकसित करना, विभिन्न प्रकार की भिन्नताओं के बीच एकता की स्थापना करना और स्त्रियों के प्रति आदरभाव रखना।
  6. हमारी प्राचीन संस्कृति और उसकी देनों को तथा उसकी गौरवशाली परम्परा का महत्त्व समझना और उसकी सुरक्षा करना।
  7. प्राकृतिक पर्यावरण को दूषित होने से बचाना एवं वनों, झीलों, नदियों की रक्षा और संवर्धन करना तथा वन्य प्राणियों के प्रति दयाभाव रखना।
  8. वैज्ञानिक तथा मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाना और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करना।
  9. सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना तथा हिंसा को रोकना।
  10. व्यक्तिगत तथा सामूहिक प्रयत्नों के द्वारा सभी क्षेत्रों में श्रेष्ठता प्राप्त करने का प्रयास करना।
  11. छः से चौदह वर्ष तक के बालकों को उनके माता-पिता या संरक्षक द्वारा अनिवार्य शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराना।

मौलिक कर्तव्यों का महत्त्व

मौलिक कर्तव्य हमारे लोकतन्त्र को सशक्त बनाने में सहायक होंगे। इनमें कहा गया है कि नागरिक लोकतान्त्रिक संस्थाओं के प्रति आदर का भाव रखें। देश की सम्प्रभुता, एकता एवं अखण्डता की रक्षा करें। सार्वजनिक सम्पत्ति को अपनी निजी सम्पत्ति समझकर उसे नष्ट होने से बचायें। इस प्रकार का दृष्टिकोण लोकतन्त्र की सफलता के लिए अनिवार्य है।

इनके द्वारा विघटनकारी शक्तियों पर रोक लगेगी और देश में एकता-अखण्डता की भावना का विकास होगा। भौतिक वातावरण दूषित होने से बचेगा और स्वास्थ्यवर्द्धक वातावरण का निर्माण होगा। राष्ट्रीय जीवन से अयोग्यता एवं अक्षमता को दूर करने में सहायता प्राप्त होगी। देश-प्रेम की भावना बलवती होगी और देश की गौरवशाली परम्परागत संस्कृति को सुरक्षित रखने में सहायता मिलेगी।

मौलिक कर्तव्यों के पीछे कोई कानूनी शक्ति नहीं है। इनका स्वरूप नैतिक माना जाता है और यही विशेष महत्त्व रखता है। राष्ट्र और समाज-विरोधी कार्यवाहियाँ करने वाले व्यक्तियों को संविधान में उल्लिखित ये कर्तव्य उन्हें ऐसा न करने के लिए नैतिक प्रेरणा देते हैं। वास्तव में अधिकारों से भी अधिक महत्त्व कर्तव्यों को दिया जाना चाहिए, क्योंकि कर्तव्यपालन से ही अधिकार प्राप्त हो सकते हैं।

मौलिक कर्तव्यों की आलोचना

मौलिक कर्तव्यों की विभिन्न विद्वानों ने कई प्रकार से आलोचना की है तथा उनमें कमियाँ बतायी हैं जो कि निम्नलिखित हैं –

(1) मूल कर्तव्य आदर्शवादी हैं, उन्हें लागू करना कठिन है। इस कारण व्यावहारिक जीवन में इनकी कोई उपयोगिता नहीं है; जैसे – राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रेरक आदर्शों को पालन करना अथवा वैज्ञानिक तथा मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाना।

(2) मूल कर्तव्यों का उल्लंघन किये जाने पर दण्ड की व्यवस्था नहीं की गयी है। ऐसी स्थिति में यह कैसे विश्वास किया जा सकता है कि नागरिक इन कर्तव्यों का पालन अवश्य ही करेंगे।

(3) कुछ मूल कर्तव्यों की भाषा अस्पष्ट है; जैसे-मानववाद, सुधार की भावना का विकास और सभी क्षेत्रों में उत्कृष्टता के प्रयास आदि ऐसी बातें हैं जिनकी व्याख्या विभिन्न व्यक्ति अपने अपने दृष्टिकोण के अनुसार मनमाने रूप से कर सकते हैं। साधारण नागरिक के लिए तो इनका समझना कठिन है। जब इनका समझना ही कठिन है तो इनका पालन करना तो और भी कठिन हो जाएगा।

निष्कर्ष – नि:सन्देह मौलिक कर्तव्यों की आलोचना की गयी है, लेकिन इससे इन कर्तव्यों का महत्त्व कम नहीं हो जाता। संविधान में मौलिक कर्तव्यों के अंकित किये जाने से ये नागरिकों को सदैव याद । दिलाते रहेंगे कि नागरिकों के अधिकारों के साथ कर्तव्य भी हैं। एक प्रसिद्ध विद्वान् का कथन है, “अधिकारों का अस्तित्व केवल कर्तव्यों के संसार में ही होता है।”

प्रश्न 4.
“अधिकार एवं कर्तव्य एक-दूसरे के पूरक हैं।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
या
“अधिकार और कर्तव्य परस्पर सम्बन्धित हैं।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
अधिकार और कर्तव्य एक प्राण और दो शरीर के समान हैं। एक के समाप्त होते ही दूसरा स्वयं ही समाप्त हो जाता है। एक व्यक्ति का अधिकार दूसरे का कर्तव्य बन जाता है। जहाँ एक व्यक्ति को सुरक्षित जीवन का अधिकार होता है, वहीं दूसरे व्यक्ति का कर्तव्य बन जाता है कि वे उसके जीवन को नष्ट न करे।

महात्मा गांधी के अनुसार, “कर्तव्य का पालन कीजिए; अधिकार स्वत: ही आपको मिल जाएँगे।”

प्रो० एच० जे लॉस्की के अनुसार, “मेरा अधिकार तुम्हारा कर्तव्य है। अधिकार में यह कर्तव्य निहित है कि मैं तुम्हारे अधिकार को स्वीकार करूं। मुझे अपने अधिकारों का प्रयोग सामाजिक हित में वृद्धि करने की दृष्टि से करना चाहिए, क्योंकि राज्य मेरे अधिकारों को सुरक्षित रखता है; अत: राज्य की सहायता करना मेरा कर्तव्य है।”

अधिकारों और कर्तव्यों की पूरकता (सम्बन्ध) को निम्नवत् दर्शाया जा सकता है –

(1) समाज-कल्याण तथा अधिकार – अधिकार सामाजिक वस्तु है। इसका अस्तित्व तथा भोग समाज में ही सम्भव है। इसलिए प्रत्येक अधिकार के पीछे एक आधारभूत कर्तव्य होता है कि मनुष्य अपने अधिकारों का भोग इस प्रकार करे कि समाज का अहित न हो। समाज व्यक्ति को इसी विश्वास के साथ अधिकार प्रदान करता है कि वह अपने अधिकारों का प्रयोग सार्वजनिक हित में करेगा।

(2) अधिकार और कर्तव्य : जीवन के दो पक्ष – अधिकार भौतिक है और कर्तव्य नैतिक। अधिकार भौतिक वस्तुओं-भोजन, वस्त्र, भवन-की पूर्ति करता है, किन्तु कर्त्तव्य से परमानन्द की प्राप्ति होती है। अतः अधिकार एवं कर्तव्य जीवन के दो पक्ष हैं।

(3) कर्त्तव्यपालन तथा अधिकारों का उपभोग – कर्तव्यपालन में ही अधिकारों के उपभोग का रहस्य छिपा हुआ है; जैसे कोई व्यक्ति जीवन और सम्पत्ति के अधिकार का भोग बिना बाधा के करना चाहता है, तो इसके लिए अनिवार्य है कि वह अन्य व्यक्तियों के जीवन तथा सम्पत्ति के संरक्षण में बाधक न बने। अधिकारों का सदुपयोग ही कर्तव्य है।

(4) अधिकार और कर्त्तव्य : एक-दूसरे के पूरक-प्रो० श्रीनिवास शास्त्री के अनुसार, अधिकार और कर्तव्य दो भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से देखे जाने के कारण एक ही वस्तु के दो नाम हैं।” बिना कर्तव्यों के अधिकारों का उपयोग असम्भव है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है। दोनों की उत्पत्ति एवं अन्त साथ-साथ होता है।

(5) अधिकार तथा कर्त्तव्य : एक सिक्के के दो पहलू – व्यक्ति के अधिकारों को नियमित बनाने के लिए समाज की स्वीकृति आवश्यक है। यही स्वीकृति देना समाज का कर्तव्य है और समाज के जो अधिकार होते हैं वे व्यक्ति के कर्तव्य बन जाते हैं। उदाहरण के लिए, यदि मेरा अधिकार है कि मैं स्वतन्त्रतापूर्वक अपने विचारों को व्यक्त कर सकें तो इस अधिकार के कारण अन्य व्यक्तियों का भी यह कर्तव्य है कि वे मेरे विचारों की अभिव्यक्ति में बाधा न डालें। इसी प्रकार यदि अन्य व्यक्तियों का यह अधिकार है कि वे अपनी इच्छानुसार अपने धर्म का पालन करें, तो मेरा यह कर्तव्य हो जाता है कि मैं उनके विश्वास में बाधा न डालें।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अधिकारों और कर्तव्यों को एक-दूसरे से पृथक् करके कल्पना ही नहीं की जा सकती। अधिकार कर्तव्य की तथा कर्तव्य अधिकार की छाया मात्र होता है। एक के हट जाने से दोनों का अस्तित्व नष्ट हो जाता है।

प्रश्न 5.
राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों से आप क्या समझते हैं ? संविधान में वर्णित प्रमुख नीति-निदेशक तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
‘राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व’ वे सिद्धान्त हैं, जो राज्य की नीति का निर्देशन करते हैं। दूसरे शब्दों में, राज्य जिन सिद्धान्तों को अपनी शासन-नीति का आधार बनाता है, वे ही राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व या सिद्धान्त कहे जाते हैं। ये तत्त्व राज्य के प्रशासन के पथ-प्रदर्शक हैं। राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों के अन्तर्गत उन आदेशों एवं निर्देशों का समावेश है, जो भारतीय संविधान ने भारत-राज्य तथा विभिन्न राज्यों को अपनी सामाजिक तथा आर्थिक नीति का निर्धारण करने के लिए दिये हैं। एल० जी० खेडेकर के शब्दों में, “राज्य के नीति निदेशक तत्त्व वे आदर्श हैं, सरकार जिनकी पूर्ति का प्रयत्न करेगी।”

राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों के पीछे कोई कानूनी सत्ता नहीं है। यह राज्य की इच्छा पर निर्भर है कि वह इनका पालन करे या न करे, फिर भी इनका पालन करना सरकार का नैतिक कर्तव्य है। ये नीति-निदेशक तत्त्व राज्य के लिए नैतिकता के सूत्र हैं तथा देश में स्वस्थ एवं वास्तविक प्रजातन्त्र की स्थापना की दिशा में प्रेरणा देने वाले हैं।

प्रमुख नीति-निदेशक तत्त्व

भारत के संविधान में राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों का उल्लेख निम्नलिखित रूप में किया गया है –

(i) आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी तत्त्व – आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी नीति-निदेशक तत्त्वों के अन्तर्गत राज्य इस प्रकार की व्यवस्था करेगा, जिससे निम्नलिखित लक्ष्यों की पूर्ति हो सके –

  1. प्रत्येक स्त्री और पुरुष को समान रूप से जीविका के साधन उपलब्ध हों।
  2. धन तथा उत्पादन के साधन कुछ थोड़े से व्यक्तियों के हाथों में इकट्टे न हो जाएँ।
  3. प्रत्येक स्त्री तथा पुरुष को समान कार्य के लिए समान वेतन प्राप्त करने का अधिकार होगा। स्त्रियों को प्रसूति काल में कुछ विशेष सुविधाएँ भी प्राप्त होंगी।
  4. पुरुषों तथा स्त्रियों के स्वास्थ्य एवं शक्ति तथा बच्चों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो तथा आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसा कार्य न करना पड़े, जो उनकी आयु-शक्ति या अवस्था के प्रतिकूल हो।
  5. राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के अन्तर्गत काम पाने के, शिक्षा पाने के और बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी तथा अन्य कारणों से जीविका कमाने में असमर्थ व्यक्तियों को आर्थिक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त कराने का प्रभावी उपबन्ध करेगा।
  6. गाँवों में निजी तथा सहकारी आधार, पर संचालित उद्योग-धन्धों को प्रोत्साहित किया जाएगा।
  7. कृषि तथा उद्योगों में लगे श्रमिकों को उचित वेतन मिल सके तथा उनका जीवन-स्तर ऊँचा हो।
  8. कृषि तथा पशुपालन व्यवस्था को आधुनिक एवं वैज्ञानिक ढंग से संगठित तथा विकसित किया जा सके।
  9. भौतिक साधनों को न्यायपूर्ण वितरण हो।
  10. औद्योगिक संस्थानों के प्रबन्ध में कर्मचारियों की भी भागीदारी हो।
  11. कानूनी व्यवस्था का संचालन समान अवसर तथा न्याय-प्राप्ति में सहायक है। समाज के कमजोर वर्गों के लिए नि:शुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था, जिससे कोई व्यक्ति न्याय पाने से वंचित न रहे।

(ii) सामाजिक व्यवस्था सम्बन्धी तत्व – नागरिकों के सामाजिक उत्थान के लिए राज्य निम्नलिखित व्यवस्थाएँ करेगा –

  1. समाज के विभिन्न वर्गों विशेषकर अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़ी जातियों की सुरक्षा एवं उत्थान के साथ-साथ सामाजिक अन्याय व इसी प्रकार के शोषण से उनकी रक्षा हो सके।
  2. लोगों के जीवन-स्तर तथा स्वास्थ्य में सुधार हो सके। मानव-जीवन के कल्याण हेतु राज्य को नशीली वस्तुओं, मद्यपान तथा अन्य मादक पदार्थों पर रोक लगानी चाहिए।
  3. देश के प्रत्येक नागरिक को साक्षर बनाने के लिए राज्य सभी बालकों को 14 वर्ष की आयु पूरी करने तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए प्रावधान करने का प्रयास करेगा।
  4. बयालीसवें संविधान संशोधन के अनुसार राज्य देश के पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्धन का और वन तथा वन्य जीवन की रक्षा का प्रयास करेगा।
  5. राज्य विशिष्टतया आय की असमानता को कम करने तथा विभिन्न व्यवसायों में लगे लोगों के मध्य प्रतिष्ठा, सुविधाओं की प्राप्ति तथा अवसर की असमानताओं को समाप्त करने का प्रयास करेगा।

(iii) सांस्कृविक विकास सम्बन्धी तत्त्व – सांस्कृतिक क्षेत्र में नागरिकों के विकास हेतु राज्य निम्नलिखित नीतियों का पालन करने का प्रयत्न करेगा

  1. संविधान के अनुच्छेद 46 के अनुसार दलित वर्ग का आर्थिक और शैक्षिक विकास करना राज्य का कर्तव्य होगा।
  2. राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारकों, भवनों, स्थानों तथा वस्तुओं की देखभाल तथा संरक्षण की व्यवस्था राज्य अनिवार्य रूप से करेगा।

(iv) न्याय सम्बन्धी तत्त्व – न्यायिक क्षेत्र में सुधार लाने के लिए राज्य निम्नलिखित सिद्धान्तों का अनुसरण करेगा –

  1. राज्य देश के समस्त नागरिकों के लिए समस्त राज्य-क्षेत्र में एक समान कानून तथा न्यायालय की व्यवस्था करेगा।
  2. देश के सभी गाँवों में राज्य के द्वारा ग्राम पंचायतों की स्थापना की जाएगी तथा राज्य उन्हें ऐसे अधिकार प्रदान करेगा, जिससे देश में स्वायत्त शासन की स्थापना हो सके।

(v) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा सम्बन्धी तत्त्व – इस सम्बन्ध में राज्य निम्नलिखित सिद्धान्तों का पालन करेगा –

  1. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा के प्रयासों को प्रोत्साहन देगा।
  2. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटाने के कार्य को प्रोत्साहन देगा।
  3. विभिन्न राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत एवं सम्मानपूर्ण सम्बन्धों को बनाने की दिशा में कार्य करेगा।
  4. अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों तथा सन्धियों के प्रति आदरभाव रखेगा।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि नीति-निदेशक तत्त्वों के माध्यम से भारत में आर्थिक प्रजातन्त्र की स्थापना हो सकेगी और भारत एक कल्याणकारी राज्य बन सकेगा।

प्रश्न 6.
निवारक निरोध से क्या तात्पर्य है? निवारक निरोध का महत्त्व लिखिए।
उत्तर :

निवारक निरोध

अनुच्छेद 22 के खण्ड 4 में निवारक निरोध (Preventive Detention) का उल्लेख किया गया है। निवारक निरोध का तात्पर्य वास्तव में किसी प्रकार का अपराध किए जाने के पूर्व और बिना किसी प्रकार की न्यायिक प्रक्रिया के ही किसी को नजरबन्द करना है। निवारक निरोध के अन्तर्गत किसी व्यक्ति को तीन माह तक नजरबन्द रखा जा सकता है। इससे अधिक यह अवधि परामर्शदात्री परिषद् की सिफारिश पर बढ़ाई जा सकती है। निवारक निरोध अधिनियम, 1947 ई० में पारित किया गया था। समय-समय पर इसकी अवधि बढ़ाई जाती रही और वह 1969 ई० तक चलता रहा। 1971 ई० में इसका स्थान ‘आन्तरिक सुरक्षा अधिनियम’ (Maintenence of Internal Security Act, 1971) ने ले लिया। इस कानून को बोलचाल की भाषा में ‘मीसा’ (MISA) के नाम से जाना जाता है। इसके पश्चात् 1981 ई० में इसके स्थान पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून’ (National Security Act) पारित किया गया। तत्पश्चात् टाडा कानून’ (Terrorist and Disruptive Activities Act) लागू किया गया। वर्तमान में यह भी समाप्त कर दिया गया है और इसके स्थान पर पोटा (Prevention of Terrorist Act) का निर्माण किया गया है। अब इसे भी संशोधित करने की प्रक्रिया चल रही है।

निवारक निरोध कानून की आलोचना और उसका महत्त्व

स्वतन्त्रता के अधिकार पर लगे प्रतिबन्धों को देखकर अनेक विद्वानों ने इसकी आलोचना की है। निवारक निरोध कानून के विषय में टेकचन्द बख्शी ने कहा था कि यह दमन तथा निरंकुशता का पत्र है। इसी प्रकार सोमनाथ लाहिड़ी ने इसकी आलोचना करते हुए कहा था, “मूल अधिकारों का निर्माण पुलिस के सिपाही के दृष्टिकोण से किया गया है, स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने वाले राष्ट्र के दृष्टिकोण से नहीं।” परन्तु निवारक निरोध अथवा मीसा की आलोचना के बावजूद भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान परिस्थितियों में यह व्यवस्था कुछ सीमा तक आवश्यक और उपयोगी है। न्यायमूर्ति पतंजलि शास्त्री के अनुसार, “इस भयावह उपकरण की व्यवस्था ……………. उन समाज-विरोधी और विध्वंसकारी तत्त्वों के विरुद्ध की गई है, जिनसे नवविकसित प्रजातन्त्र के राष्ट्रीय हितों को खतरा है।” वस्तुत: निवारक निरोध की व्यवस्था एक ‘भरी हुई बन्दूक’ के समान है और उसका प्रयोग बहुत सावधानी से तथा विवेकपूर्ण ही किया जाना चाहिए।

प्रश्न 7.
मानवाधिकार आयोग के विषय में आप क्या जानते हैं? इसके क्या कार्य हैं?
उत्तर :
किसी भी संविधान द्वारा प्रदान किए गए अधिकारों की वास्तविक पहचान तब होती है जब उन्हें लागू किया जाता है। समाज के गरीब, अशिक्षित और कमजोर वर्ग के लोगों को अपने अधिकारों का प्रयोग करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पी०यू०सी०एल०) या पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पी०यू०डी०आर०) जैसी संस्थाएँ अधिकारों के हनन पर दृष्टि रखती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में वर्ष 2000 में सरकार ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में उच्चतम न्यायालय का एक पूर्व न्यायाधीश, किसी उच्च न्यायालय का एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश तथा मानवाधिकारों के सम्बन्ध में ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव रखने वाले दो और सदस्य होते हैं।

मानवाधिकारों के उल्लंघन की शिकायतें मिलने पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग स्वयं अपनी पहल पर या किसी पीड़ित व्यक्ति की याचिका पर जाँच कर सकता है। जेलों में बन्दियों की स्थिति का अध्ययन करने जा सकता है, मानवाधिकार के क्षेत्र में शोध कर सकता है या शोध को प्रोत्साहित कर सकता है। आयोग को प्रतिवर्ष हजारों शिकायतें प्राप्त होती हैं। इनमें से अधिकतर हिरासत में मृत्यु, हिरासत के दौरान बलात्कार, लोगों के गायब होने, पुलिस की ज्यादतियों, कार्यवाही न किए जाने, महिलाओं के प्रति दुर्व्यवहार आदि से सम्बन्धित होती हैं। मानवाधिकार आयोग का सर्वाधिक प्रभावी हस्तक्षेप पंजाब में युवकों के गायब होने तथा गुजरात-दंगों के मामले में जाँच के रूप में रहा। आयोग को स्वयं मुकदमा सुनने का अधिकार नहीं है। यह सरकार या न्यायालय को अपनी जाँच के आधार पर मुकदमे चलाने की सिफारिश कर सकता है।

प्रश्न 8.
राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्तों के क्रियान्वयन के विषय में आप क्या जानते हैं। इन्हें वादयोग्य क्यों नहीं बनाया गया?
उत्तर :
भारतीय लोकतन्त्र की सफलता नीति-निदेशक तत्त्वों के लागू करने में निहित है। भारत सरकार ने पिछले 57 वर्षों में निदेशक तत्त्वों को प्रभावी बनाने के लिए अनेक कानून व योजनाएँ लागू की हैं। आर्थिक विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाओं को अपनाया गया ताकि निदेशक तत्त्वों में निहित उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके। गरीबी और आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए 20-सूत्री कार्यक्रम लागू किया गया। ग्रामीण अंचलों में शिक्षा व स्वास्थ्य का प्रसार किया गया है। विश्व शान्ति व अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा दिया गया है। इन समस्त नीतियों का उद्देश्य निदेशक तत्त्वों द्वारा घोषित लक्ष्य लोक-कल्याणकारी राज्य की प्राप्ति है।

लेकिन इन नीतियों से किस सीमा तक नीति-निदेशक तत्त्व प्राप्त हो पाए हैं? यह तथ्य केवल एक ही ओर संकेत करता है कि अभी यथार्थ में नीति-निदेशक तत्त्वों को प्राप्त नहीं किया जा सका है। आर्थिक क्षेत्र में पंचवर्षीय योजनाओं को अपनाने के बावजूद भी भौतिक साधनों पर केन्द्रीकरण कम नहीं हुआ। है। अमीर अधिक अमीर हुआ है तथा गरीब और अधिक गरीब निःशुल्क शिक्षा, समान आचार संहिता के निदेशक तत्त्व मृग मरीचिका बन चुके हैं। मुफ्त कानूनी सहायता के निदेशक तत्त्व के बावजूद न्याय-प्रणाली बहुत महँगी है। कुटीर उद्योग-धन्धों को बड़े औद्योगिक कारखानों ने वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर निगल लिया है। मद्यनिषेध को राजस्व-प्राप्ति हेतु बलि का बकरा बना दिया गया है।

राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्तों को न्याययोग्य या वादयोग्य क्यों नहीं पाया गया – प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जब राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त भारतीय नागरिकों के जीवन के विकास तथा लोकतन्त्र की सफलता के लिए इतने महत्त्वपूर्ण हैं तो इन्हें भी मौलिक अधिकारों की तरह वादयोग्य क्यों नहीं बनाया गया? ऐसा होने पर कोई भी सरकार इन्हें अनदेखा नहीं कर सकती थी। परन्तु ऐसा करना सम्भव नहीं था क्योंकि इन्हें लागू करने में धन की बड़ी आवश्यकता थी और देश जब स्वतन्त्र हुआ तो आर्थिक दशा अच्छी नहीं थी। इसलिए यह बात सरकार पर ही छोड़ दी गई कि जैसे-जैसे सरकार के पास धन तथा दूसरे साधन उपलब्ध होते जाएँ, वह इन्हें थोड़ा-थोड़ा करके लागू करती जाए। मौलिक अधिकारों की तरह इन निदेशक सिद्धान्तों को पूर्ण रूप से उस समय लागू करना व्यावहारिक कदम नहीं था।

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UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 1 Constitution: Why and How?

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 1 Constitution: Why and How? (संविधान : क्यों और कैसे?)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
इनमें कौन-सा संविधान का कार्य नहीं है?
(क) यह नागरिकों के अधिकार की गारण्टी देता है।
(ख) यह शासन की विभिन्न शाखाओं की शक्तियों के अलग-अलग क्षेत्र का रेखांकन | करता है।
(ग) यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता में अच्छे लोग आएँ।
(घ) यह कुछ साझे मूल्यों की अभिव्यक्ति करता है।
उत्तर-
(ग) यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता में अच्छे लोग आएँ।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में कौन-सा कथन इस बात की एक बेहतर दलील है कि संविधान की प्रमाणिकता संसद से ज्यादा है?
(क) संसद के अस्तित्व में आने से कहीं पहले संविधान बनाया जा चुका था।
(ख) संविधान के निर्माता :संसद के सदस्यों से कहीं ज्यादा बड़े नेता थे।
(ग) संविधान ही यह बताता है कि संसद कैसे बनाई जाए और इसे कौन-कौन सी शक्तियाँ प्राप्त होंगी।
(घ) संसद, संविधान का संशोधन नहीं कर सकती।
उत्तर-
(ग) संविधान ही यह बताता है कि संसद कैसे बनाई जाए और इसे कौन-कौन सी शक्तियाँ प्राप्त होंगी।

प्रश्न 3.
बताएँ कि संविधान के बारे में निम्नलिखित कथन सही हैं या गलत-
(क) सरकार के गठन और उसकी शक्तियों के बारे में संविधान एक लिखित दस्तावेज है।
(ख) संविधान सिर्फ लोकतांत्रिक देशों में होता है और उसकी जरूरत ऐसे ही देशों में होती है।
(ग) संविधान के कानूनी दस्तावेज हैं और आदर्शों तथा मूल्यों से इसका कोई सरोकार नहीं।
(घ) संविधान एक नागरिक को नई पहचान देता है।

उत्तर-
(क) सही, (ख) गलत, (ग) सही, (घ) सही।

प्रश्न 4.
बताएँ कि भारतीय संविधान के निर्माण के बारे में निम्नलिखित अनुमान सहीं हैं या नहीं? अपने उत्तर का कारण बताएँ-
(क) संविधान सभा में भारतीय जनता की नुमाइंदगी नहीं हुई। इसका निर्वाचन सभी नागरिकों द्वारा नहीं हुआ था।
(ख) संविधान बनाने की प्रक्रिया में कोई बड़ा फैसला नहीं लिया गया क्योंकि उस समय नेताओं के बीच संविधान की बुनियादी रूपरेखा के बारे में आम सहमति थी।
(ग) संविधान में कोई मौलिकता नहीं है क्योंकि इसका अधिकांश हिस्सा दूसरे देशों से लिया गया है।
उत्तर-
(क) भारतीय संविधान की रचना करने वाली संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव समाज के सभी वर्गों के लोगों के बीच से नहीं हुआ था, किन्तु उसमें अधिक-से-अधिक वर्ग के लोगों को प्रतिनिधित्व देने का प्रयास किया गया था। भारत के विभाजन के बाद संविधान सभा के सदस्यों में कांग्रेस के सर्वाधिक 82 प्रतिशत सदस्य थे। ये सदस्य सभी विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते थे। अतः यह कहना किसी भी दृष्टि से सही नहीं होगा कि संविधान सभा में भारतीय जनता की नुमाइंदगी नहीं हुई और इसका निर्वाचन सभी नागरिकों द्वारा नहीं हुआ था।

(ख) यह कथन भी सही नहीं है कि संविधान सभा के सदस्यों में प्रत्येक विषय पर आम सहमति थी और संविधान बनाने की प्रक्रिया में कोई बड़ा फैसला नहीं लिया गया। भारतीय संविधान का केवल एक विषय ऐसा था जिस पर संविधान सभा के सदस्यों में आम सहमति थी और वह विषय था-“मताधिकार किसे प्राप्त हो?” इस विषय के अतिरिक्त संविधान के सभी विषयों पर संविधान सभा के सदस्यों के बीच गहन विचार-विमर्श और वाद-विवाद हुआ।

संविधान के विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श के लिए आठ कमेटियों का गठन किया गया था। सामान्यतया पं० जवाहरलाल नेहरू, डॉ० राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभभाई पटेल, मौलाना अबुलकलाम आजाद तथा डॉ० भीमराव अम्बेडकर इन कमेटियों के अध्यक्ष पद पर पदस्थ थे। ये सभी लोग ऐसे विचारक थे जिनके विचार विभिन्न विषयों पर कभी एकसमान नहीं होते थे। डॉ० अम्बेडकर तो कांग्रेस और महात्मा गांधी के कट्टर विरोधी थे। उनका आरोप था कि कांग्रेस और महात्मा गांधी ने कभी अनुसूचित जातियों की उन्नति के लिए गम्भीर प्रयास नहीं किए। पं० जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल के बीच भी अनेक विषयों पर गम्भीर मतभेद थे। किन्तु फिर भी सबने एक साथ मिलकर काम किया। कई विषयों पर फैसले मत-विभाजन द्वारा भी लिए गए। अतः यह कहना गलत है कि संविधान सभा के सदस्यों में प्रत्येक विषय पर आम सहमति थी।
यह कथन भी गलत है कि संविधान बनाने की प्रक्रिया में कोई बड़ा फैसला नहीं लिया गया। निम्नांकित महत्त्वपूर्ण और बड़े फैसले संविधान सभा द्वारा ही लिए गए-

  • भारत में शासन प्रणाली केन्द्रीकृत होनी चाहिए अथवा विकेन्द्रीकृत।
  • केन्द्र व राज्यों के बीच कैसे सम्बन्ध होने चाहिए।
  • राज्यों के बीच कैसे सम्बन्ध होने चाहिए।
  • न्यायपालिका की क्या शक्तियाँ होनी चाहिए।
  • क्या संविधान को सम्पत्ति के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए। उपर्युक्त के अतिरिक्त अनेक ऐसे महत्त्वपूर्ण और बड़े फैसले संविधान सभा द्वारा ही लिए गए जो भारत की शासन व्यवस्था और अर्थव्यवस्था का मूल आधार हैं।

(ग) यह कथन भी गलत है कि भारतीय संविधान मौलिक नहीं है, क्योकि इसकी अधिकांश भाग विश्व के अन्य देशों के संविधान से ग्रहण किया गया है। सही अर्थों में संविधान सभा के सदस्यों ने अन्य देशों की संवैधानिक व्यवस्थाओं के स्वस्थ प्रावधानों को लेने में कोई संकोच नहीं किया। किन्तु इसे नकल करने की मानसिकता भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि संविधान निर्माताओं ने ग्रहण किए गए प्रावधानों को अपने देश की व्यवस्थाओं के अनुकूल बना लिया। अतः भारतीय संविधान की मौलिकता पर कोई प्रश्न चिह्न लगाना नितान्त गलत है।

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान के बारे में निम्नलिखित प्रत्येक निष्कर्ष की पुष्टि में दो उदाहरण दें-
(क) संविधान का निर्माण विश्वसनीय नेताओं द्वारा हुआ। इसके लिए जनता के मन में आदर था।
(ख) संविधान ने शक्तियों का बँटवारा इस तरह किया कि इसमें उलट-फेर मुश्किल है।
(ग) संविधान जनता की आशा और आकांक्षाओं का केन्द्र है।
उत्तर-
(क) संविधान की रचना उस संविधान सभा द्वारा की गई जिसके सदस्यों में जनता का अटूट विश्वास था। संविधान सभा के अधिकांश बड़े नेताओं ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लिया था। देश की तत्कालीन जनता इस तथ्य से भली-भाँति परिचित थी कि इन बड़े नेताओं द्वारा किए गए अथक संघर्ष और परिश्रम के परिणामस्वरूप ही देश को आजादी प्राप्त हुई है। अतः सभी नेताओं के प्रति हृदय में विश्वास होना स्वाभाविक बात थी। ये नेता भारतीय समाज के सभी अंगों, सभी जातियों और समुदायों, सभी धर्मों का प्रतिनिधित्व करते थे। संविधान सभा के सदस्य के रूप में इन नेताओं ने संविधान की रचना करते समय जनता की आशाओं और आकांक्षाओं का पूरा ध्यान रखा। इसीलिए जनता के मन में इन नेताओं के प्रति आदर को भाव था।

(ख) संविधान सभा ने संविधान की रचना करते समय विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों पर बँटवारा इस प्रकार किया ताकि सरकार के तीनों अंग अपना-अपना कार्य सुचारु रूप से कर सकें। तीनों अंगों के बीच शक्तियों के वितरण की व्यवस्था करते समय संविधान निर्माताओं ने ‘नियंत्रण एवं सन्तुलन’ (Checks and Balances) के सिद्धान्त को अपनी कार्यविधि का आधार बनाया है। तीनों में से कोई भी अंग एक-दूसरे के कार्य में किसी प्रकार का अनुचित हस्तक्षेप नहीं कर सकता। कार्यपालिका की सम्पूर्ण कार्यप्रणाली पर संसद का नियन्त्रण रहता है। न्यायिक पुनरावलोकन की प्रक्रिया से संसद एवं मन्त्रिमण्डल के कार्यों पर टीका-टिप्पणी की जा सकती है। संविधान-निर्माताओं ने ऐसा प्रावधान किया है कि कोई भी अंग अपने स्वार्थ के लिए संविधान को नष्ट नहीं कर सकता।

(ग) संविधान सभा द्वारा बनाया गया भारत का संविधान देश की जनता की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुरूप है। संविधान का कार्य यही है कि वह सरकार को ऐसी क्षमता प्रदान करे जिससे वह जनता की आकांक्षाओं को पूरा कर सके और एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए उचित परिस्थितियों का निर्माण कर सके। देश की जनता के कल्याण के लिए जहाँ भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई है, वहीं राज्य नीति के निदेशक सिद्धान्तों का भी प्रावधान किया गया है। इन सिद्धान्तों का उद्देश्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए सामाजिक, कानूनी और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करना है। मौलिक अधिकारों और राज्य नीति के निदेशक सिद्धान्तों के अतिरिक्त भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, वयस्क मताधिकार, अनुसूचित जातियों व जनजातियों के कल्याण के प्रति विशेष ध्यान रखा गया है। देश में निवास कर रहे प्रत्येक धर्म के लोगों को अपने-अपने धर्म पर चलने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। देश के प्रत्येक नागरिक को कानून के सम्मुख समानता का अधिकार प्राप्त है। प्रत्येक नागरिक को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, सभा और सम्मेलन करने की स्वतन्त्रता तथा संघ और समुदाय बनाने का अधिकार प्रदान किया गया है। इस प्रकार भारत का संविधान देश की जनता की आशाओं व आकांक्षाओं के अनुरूप है।

प्रश्न 6.
किसी देश के लिए संविधान में शक्तियों और जिम्मेदारियों का साफ-साफ निर्धारण क्यों जरूरी है? इस तरह का निर्धारण न हो, तो क्या होगा?
उत्तर-
प्रत्येक देश के संविधान में ऐसी संस्थाओं का प्रावधान किया जाता है जो देश का शासन चलाने में सरकार की सहायता करती हैं। इन संस्थाओं को कुछ शक्तियाँ और जिम्मेदारियाँ भी सौंपी जाती हैं और यह अपेक्षा की जाती है कि ये संस्थाएँ सीमा में रहकर अपनी शक्तियों का प्रयोग करें और जिम्मेदारियों का निर्वहन पूरी ईमानदारी से करें। यदि कोई अपनी निर्धारित शक्ति से बाहर जाकर अपने कार्य का संचालन करती है तो यह माना जाता है कि वह संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन कर रही है। और संविधान को नष्ट कर रही है। इसीलिए प्रत्येक देश के संविधान में संस्थाओं के गठन के साथ ही उनकी शक्तियों और सीमाओं का विवेचन स्पष्ट रूप से कर दिया जाता है ताकि संस्थाएँ शक्तियों के पालन में तानाशाह न बन जाएँ। इस व्यवस्था को न्यायसंगत बनाने के लिए यह भी आवश्यक है कि संविधान में प्रत्येक संस्था को प्रदान की गई शक्तियों का सीमांकन इस प्रकार किया जाए कि कोई भी संस्था संविधान को नष्ट करने का प्रयास न कर सके। संविधान की रूपरेखा बनाते समय शक्तियों का बँटवारा इतनी बुद्धिमत्ता से किया जाना चाहिए कि कोई भी संस्था एकाधिकार स्थापित न कर सके। ऐसा करने के लिए यह भी आवश्यक है कि शक्तियों का बँटवारा विभिन्न संस्थाओं के बीच उनकी जिम्मेदारियों को देखकर किया जाए।

उदाहरणार्थ, भारत के संविधान में शक्तियों का विभाजन विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच किया गया है, साथ ही निर्वाचन आयोग जैसी स्वतन्त्र संस्था को शक्तियाँ व जिम्मेदारियाँ अलग से सौंपी गई हैं। केन्द्र और राज्यों के बीच भी शक्तियों का निर्धारण किया गया है। इस शक्ति-सीमांकन से यह निश्चित हो जाता है कि यदि कोई संस्था शक्तियों का गलत उपयोग करके संवैधानिक व्यवस्थाओं का हनन करने का प्रयास करती है तो अन्य संस्थाएँ उसे ऐसा करने से रोक सकती हैं। भारतीय संविधान में नियंत्रण व सन्तुलन’ (Checks and Balances) के सिद्धान्त का प्रतिपादन शक्तियों के सीमांकन के लिए ही किया गया है। यदि विधायिका कोई ऐसा कानून बनाती है। जो देश की जनता के मौलिक अधिकारों का हनन करता हो तो न्यायपालिका ऐसे कानून को अमल में लाने पर रोक लगा सकती है और कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है। आपात्काल के दौरान बनाए गए अनेक कानूनों को उच्चतम न्यायालय द्वारा बाद में असंवैधानिक घोषित किया गया। कार्यपालिका की शक्तियों को सीमा में बाँधने के लिए विधायिका उस पर अनेक प्रकार के अंकुश लगाती है। संसद में सदस्य प्रश्न पूछकर, काम रोको प्रस्ताव आदि प्रस्तुत कर कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखते हैं। इस प्रकार विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का सीमांकन संविधान की रचना करते समय ही कर दिया जाता है और ये सभी संस्थाएँ अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र रूप से अपनी सीमाओं का ध्यान रखते हुए कार्य करती रहती हैं।

प्रश्न 7.
शासकों की सीमा का निर्धारण संविधान के लिए क्यों जरूरी है? क्या कोई ऐसा भी संविधान हो सकता है जो नागरिकों को कोई अधिकार न दे?
उत्तर-
संविधान का एक कांम यह है कि वह सरकार या शासकों द्वारा अपने नागरिकों पर लागू किए। जाने वाले कानूनों पर कुछ सीमाएँ लगाए। ये सीमाएँ इस रूप में मौलिक होती हैं कि सरकार उनका कभी उल्लंघन नहीं कर सकती।

संविधान द्वारा सरकार या शासकों की शक्तियों पर सीमाएँ लगाना इसलिए आवश्यक है ताकि वे अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न कर सकें और जनता के हितों को नुकसान न पहुँचा सकें। संसद नागरिकों के लिए कानून बनाती है, कार्यपालिका कानूनों को जनता द्वारा अमल में लाने का कार्य करती है और यदि कोई कानून जनता की भावनाओं और हितों के अनुरूप नहीं होता तो न्यायपालिका ऐसे कानून को अमल में लाने से रोक देती है अथवा उस पर प्रतिबन्ध लगा देती है।

भारतीय संविधान में संशोधन करने के लिए संसद को न्यायपालिका ने यह निर्देश दे दिया है कि संसद संविधान के मूल स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती। संविधान सरकार अथवा शासकों की शक्तियों को कई प्रकार से सीमा में बाँधता है। उदाहरणार्थ, संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की विवेचना की गई है। इन मौलिक अधिकारों का हनन कोई भी सरकार नहीं कर सकती। नागरिकों को मनमाने ढंग से बिना किसी कारण के बन्दी नहीं बनाया जा सकता। यही सरकार अथवा शासक की। शक्तियों पर एक सीमा या बन्धन कहलाती है।

देश का प्रत्येक नागरिक अपनी रुचि और इच्छा के अनुसार कोई भी व्यवसाय करने के लिए स्वतन्त्र है। इस स्वतन्त्रता पर सरकार कोई प्रतिबन्ध नहीं लगा सकती। नागरिकों को मूल रूप से जो स्वतन्त्रताएँ प्राप्त हैं; जैसे-अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, देश के किसी भी भाग में स्वतन्त्रतापूर्वक घूमने की स्वतन्त्रता, संगठन बनाने की स्वतन्त्रता आदि पर सरकार सामान्य परिस्थिति में कोई प्रतिबन्ध नहीं लगा सकती। कोई भी सरकार स्वयं किसी व्यक्ति से बेगार नहीं ले सकती और न ही किसी व्यक्ति को यह छूट दे सकती है कि वह किसी भी रूप में किसी व्यक्ति का शोषण करे अथवा उसे बन्धुआ मजदूर बनाकर रखे। इस प्रकार सरकार के कार्यों पर सीमाएँ लगाई जाती हैं। अधिकांश देशों के संविधानों में कुछ मौलिक अधिकारों का प्रावधान अवश्य किया जाता है। अधिकारों के बिना मनुष्य का जीवन निरर्थक है।

प्रश्न 8.
जब-जापान का संविधान बना तब दूसरे विश्वयुद्ध में पराजित होने के बाद जापान अमेरिकी सेना के कब्जे में था। जापान के संविधान में ऐसा कोई प्रावधान होना असम्भव था, जो अमेरिकी सेना को पसन्द न हो। क्या आपको लगता है कि संविधान को इस तरह बनाने में कोई कठिनाई है? भारत में संविधान बनाने का अनुभव किस तरह इससे अलग है?
उत्तर-
जापान का संविधान उस समय बनाया गया था जब वह अमेरिकी सेना के कब्जे में था। अतः जापान के संविधान में की गई व्यवस्थाएँ अमेरिकी सरकार की इच्छाओं को ध्यान में रखकर की गई थीं। जापान तत्कालीन परिस्थितियों में अमेरिकी सरकार की इच्छा के विरुद्ध नहीं जा सकता था। इसका मूल कारण यह था कि अधिकांश देशों के संविधान लिखित थे। इन लिखित संविधानों में राज्य से सम्बद्ध विषयों पर अनेक प्रावधान किए जाते थे जो यह निर्देशित करते थे कि राज्य किन सिद्धान्तों का पालन करते हुए सरकार चलाएगा। सरकार कौन-सी विचारधारा अपनाएगी। किन्तु जब किसी देश पर कोई दूसरा देश कब्जा कर लेता है तो उस देश के संविधान में शासक देश की इच्छाओं के विपरीत कोई प्रावधान नहीं किया जा सकता। अतः यहाँ निष्कर्ष रूप में कहना होगा कि जापान के तत्कालीन संविधान में अमेरिकी शासकों के हितों का विशेष ध्यान रखा गया होगा।

भारत की स्थिति जापान की स्थिति के ठीक विपरीत थी। भारत अपनी स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिए अन्तिम लड़ाई लड़ रहा था और यह लगभग निश्चित हो चुका था देश को आजादी अवश्य प्राप्त होगी। भारतीय संविधान की रचना पर औपचारिक रूप से एक संविधान सभा ने दिसम्बर, 1946 में विचार करना शूरू किया था; अर्थात् आजादी प्राप्त होने से केवल नौ माह पूर्व भारत के लिए एक संविधान बनाने की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी थी। भारत पर अंग्रेजों का नियन्त्रण लगभग समाप्ति के कगार पर था; अतः भारतीय संविधान में अंग्रेजों के दबाव के कारण कोई प्रावधान स्वीकार करना असम्भव था।

भारत ने लोकतन्त्रीय शासन व्यवस्था को अपनाया। उसने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दिनों में जिन समस्याओं का अनुभव किया था, उनके समाधान का मार्ग ढूंढ़ने का प्रयास किया। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि भारतीय संविधान बनाने वाली संविधान सभा ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के लम्बे समय तक चले संघर्ष से काफी प्रेरणा ली। संविधान सभा के सदस्यों को समाज के सभी वर्गों का समर्थन प्राप्त था। इसीलिए देश में भारतीय संविधान को अत्यधिक सम्मान प्राप्त हुआ। संविधान की प्रस्तावना के प्रारम्भिक शब्द हैं “हम, भारत के लोग ……….|” ये शब्द यह घोषित करते हैं कि भारत के लोग संविधान के निर्माता हैं। यह ब्रिटेन की संसद का उपहार नहीं है। इसे भारत के लोगों ने अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से पारित किया था। संविधान सभा में सभी प्रकार के विचारों वाले लोग थे। इस संविधान सभा का गठन उन लोगों के द्वारा हुआ था जिनके प्रति लोगों की अत्यधिक विश्वसनीयता थी। इस प्रकार भारत में संविधान बनाने का अनुभव बिल्कुल अलग है।

प्रश्न 9.
रजत ने अपने शिक्षक से पूछा–“संविधान एक पचास साल पुराना दस्तावेज है और इस कारण पुराना पड़ चुका है। किसी ने इसको लागू करते समय मुझसे राय नहीं माँगी। यह इतनी कठिन भाषा में लिखा हुआ है कि मैं इसे समझ नहीं सकता। आप मुझे बताएँ कि मैं इस दस्तावेज की बातों का पालन क्यों करू?” अगर आप शिक्षक होते तो रजत को क्या उत्तर देते?
उत्तर-
यदि मैं रजत का शिक्षक होता तो उसके प्रश्न का संक्षेप में निम्नलिखित उत्तर देता भारत का संविधान एक गतिशील जीवन्त दस्तावेज है। भारत ने जो संविधान अपनाया है, वह 57 वर्षों से भी अधिक समय से अस्तित्व में है। इस अवधि में हम भारत के लोग अनेक दबावों और तनावों से गुजरे हैं। जून, 1975 में आपात्काल की घोषणा एक दुःखद घटना थी। ऐसी घटना एक लोकतान्त्रिक देश में कभी नहीं घटनी चाहिए थी। संसद सर्वोच्च है या न्यायपालिका-इस विषय पर एक तीखा विवाद उठाा था। किन्तु समय के साथ-साथ कठिन परिस्थितियाँ अपने आप सुलझती चली गईं। संविधान आज भी सजीव और सशक्त है।”

भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया था। तब से लेकर सन् 2007 तक इसमें 93 संशोधन किए जा चुके हैं। इतनी बड़ी संख्या में संशोधनों के बाद भी यह संविधान 57 वर्षों से अधिक समय से अस्तित्व में है। अतः इस संविधान को 50 साल से भी अधिक पुरानी दस्तावेज कहना गलत है। इस संविधान को बीते दिनों की पुस्तक इसलिए भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह कठोर होने के साथ-साथ पर्याप्त रूप से लचीला भी है। देश में सामाजिक-आर्थिक बदलाव लाने के लिए इसमें परिवर्तन भी किया जा सकता है। संविधान में प्रस्तुत किए गए अधिकांश प्रावधानों की प्रकृति इस प्रकार की है कि उन्हें कभी पुराना नहीं कहा जा सकता।

इस संविधान की रचना उस संविधान सभा द्वारा की गई है जिसमें 82 प्रतिशत सदस्य कांग्रेस के प्रतिनिधि थे और कांग्रेस देश के सभी वर्गों, धर्मों, विचारधाराओं और जातियों का प्रतिनिधित्व करती थी। ये सभी व्यक्ति अत्यधिक योग्य और अनुभवी थे। अतः यह कथन भी तर्कसंगत नहीं है कि संविधान निर्माताओं द्वारा आपसे राय नहीं ली गई। जो संविधान सभा संविधान निर्माण का कार्य कर रही थी—वह सम्पूर्ण देश का प्रतिनिधित्व कर रही थी-अर्थात् वह आपका भी प्रतिनिधित्व कर रही थी। भारतीय संविधान का प्रारूप देश की बदलती परिस्थितियों के कारण पैदा होने वाली चुनौतियों का मुकाबला करने में पूरी तरह से सक्षम है।

प्रश्न 10.
संविधान के क्रिया-कलाप से जुड़े अनुभवों को लेकर एक चर्चा में तीन वक्ताओं ने तीन अलग-अलग पक्ष दिए-
(क) हरबंस – भारतीय संविधान एक लोकतान्त्रिक ढाँचा प्रदान करने में सफल रहा है।
(ख) नेहा – संविधान में स्वतन्त्रता, समता और भाईचारा सुनिश्चित करने का विधिवत् वादा है।
चूंकि यह वादा पूरा नहीं हुआ इसलिए संविधान असफल है।
(ग) नाजिमा – संविधान असफल नहीं हुआ, हमने उसे असफल बनाया।
क्या आप इनमें से किसी पक्ष से सहमत हैं, यदि हाँ, तो क्यों? यदि नहीं, तो आप अपना पक्ष बताएँ।
उत्तर-
(क) हरबंस का कथन सही है। भारत का संविधान एक लोकतान्त्रिक ढाँचा देने में सफल रहा है। संविधान में यह घोषणा की गई है कि प्रभुत्व शक्ति’ जनता में निहित है। संविधान की प्रस्तावना के प्रारम्भिक शब्द हैं- “हम, भारत के लोग “……….।” ये शब्द यह उद्घोषणा करते हैं। कि भारत के लोग’ संविधान के निर्माता हैं। लोकतन्त्र का अर्थ है-थोड़े-थोड़े समय के बाद शासकों का चयन। नए संविधान के अन्तर्गत अब तक देश में चौदह आम चुनाव कराए जा चुके हैं। भारत एक गणतन्त्र भी है। यहाँ किसी पुश्तैनी शासक को मान्यता नहीं दी गई है। राष्ट्रपति भारतीय गणतन्त्र का मुखिया है जिसे पाँच वर्ष के कार्यकाल के लिए चुना जाता है।

भारत में प्रत्येक वयस्क व्यक्ति मतदाता के रूप में पंजीकृत होने का हकदार है, बशर्ते वह पागल न हो और अपराध या अवैध गतिविधियों के कारण अयोग्य घोषित न किया गया हो। संविधान द्वारा देश के प्रत्येक नागरिक को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, सभा और सम्मेलन करने की स्वतन्त्रता तथा संघ और समुदाय बनाने की स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। भारतीय संविधान का उदारवादी लोकतान्त्रिक स्वरूप इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि यह भारत में रहने वाले प्रत्येक नागरिक को अवैधानिक गिरफ्तारी से संरक्षण प्रदान करता है। सभी नागरिकों को प्राप्त अन्य अधिकारों में धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार और कानून के समक्ष समानता का अधिकार भी शामिल है।

अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को सरकारी कार्यालयों या उपक्रमों में रोजगार देने के लिए उपयुक्त व्यवस्थाएँ की गई हैं। उनके लिए लोकसभा और राज्य विधानमण्डलों में भी सीटें आरक्षित की गई हैं। सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को भी आरक्षण प्रदान किया गया है। व्यक्ति की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए मौलिक अधिकार, न्यायालय की स्वतन्त्रता, विधि का शासन आदि को अपनाया गया है। इस प्रकार भारत में लोकतन्त्र की नींव रखी गई है और इसे शक्तिशाली बनाने के हर सम्भव प्रयास किए गए हैं। अत: हरबंस को कथन पूरी तरह सही है कि भारत का संविधान एक लोकतान्त्रिक ढाँचा देने में सफल रहा है।

(ख) नेहा का कथन भी सही है। उसका कथन है कि संविधान में स्वतन्त्रता, समानता और भाईचारा सुनिश्चित करने का वादा किया है, किन्तु वादा पूरा नहीं हुआ है इसलिए संविधान असफल है। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार देश की सरकार नागरिकों की स्वतन्त्रता पर विशेष अवसरों पर प्रतिबन्ध लगा सकती है। समानता के अधिकार का क्रियान्वयन आज भी सही ढंग से नहीं हो पा रहा है। समाज के दबे-कुचले वर्ग को आज भी शोषण का शिकार होना पड़ रहा है। कृषि-भूमि के अधिकांश भाग पर दबंग और सम्पन्न लोगों का कब्जा है। ग्रामीण लोगों को आज भी इनके खेतों पर मजदूरों के रूप में कठोर परिश्रम करना पड़ता है और मजदूरों को पारिश्रमिक के रूप में मिलती हैं गालियाँ, मारपीट और अभद्र व्यवहार। देश में भाईचारे का घोर अभाव है। देश के विभिन्न भागों में होने वाले साम्प्रदायिक दंगे इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं। देश के नेता अपने वोटों के लिए साम्प्रदायिक दंगे कराने की साजिश रचते हैं और देश को मार-काट की आग में झोंक देते हैं। अत: उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन के आधार पर हम नेहा के कथन को पूरी तरह सही मानते हैं।

(ग) नाजिमा का कथन है कि संविधान स्वयं असफल नहीं हुआ, हमने उसे असफल बनाया है। अनेक बार हमारे नेताओं ने संविधान के मूल स्वरूप को बदलने का प्रयास तक किया है, किन्तु सजग न्यायपालिका के कारण वह ऐसा करने में सफल नहीं किया जाता; जैसे–नागरिकों को काम का अधिकार, सबको शिक्षा का अधिकार, महिला और पुरुष को समान काम के लिए समान वेतन के प्रावधानों के लिए आज भी जनता को संघर्ष करना पड़ रहा है। देश के बहुत बड़े वर्ग को दो वक्त का भोजन और पीने के लिए स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है। इस वर्ग के पास तन ढकने के लिए वस्त्र नहीं हैं। इन सारी स्थितियों के लिए संविधान नहीं, हम स्वयं जिम्मेदार हैं। देश के बड़े नेता इस निम्न वर्ग को मात्र अपने वोट का साधन समझते हैं, उसकी सुख-सुविधाओं और भू-प्यास से उनका कोई सरोकार नहीं है।

किन्तु नाजिमा के कथन को शत-प्रतिशत सही मान लेना न्यायसंगत नहीं होगा, क्योंकि संविधान के प्रावधानों के अन्तर्गत देश में हो रहे विकास की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा भारत में विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ है। भारत सभी विकासशील देशों में अग्रणी है। विश्व राजनीति में उसकी आवाज को सुना जाता है। निचले स्तर पर भी पर्याप्त विकास हुआ है, किन्तु विकास का लाभ समाज के कमजोर वर्गों तक नहीं पहुंच पा रहा है। अतः इस दिशा में प्रयास किया जाना चाहिए।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान कब लागू हुआ ?
या
भारत में गणराज्य की स्थापना कब हुई?
(क) 26 जनवरी, 1949 ई० को
(ख) 26 जनवरी, 1950 ई० को
(ग) 30 अक्टूबर, 1950 ई० को
(घ) 20 नवम्बर, 1950 ई० को
उत्तर :
(ख) 26 जनवरी, 1950 ई० को।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान का स्वरूप है –
(क) संघात्मक
(ख) एकात्मक
(ग) अर्द्ध-संघात्मक
(घ) एकात्मक व संघात्मक दोनों
उत्तर :
(घ) एकात्मक व संघात्मक दोनों।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान का निर्माण किसने किया?
(क) संविधान सभा
(ख) डॉ० बी० आर० अम्बेडकर
(ग) सी० राजगोपालाचारी
(घ) पं० जवाहरलाल नेहरू
उत्तर :
(क) संविधान सभा।

प्रश्न 4.
संविधान सभा की प्रथम बैठक कब आयोजित की गई?
(क) 9 दिसम्बर, 1946 को
(ख) 7 दिसम्बर, 1947 को
(ग) 14 अगस्त, 1947 को।
(घ) 15 अगस्त, 1947 को
उत्तर :
(क) 9 दिसम्बर, 1946 को।

प्रश्न 5.
भारत विभाजन के परिणामस्वरूप संविधान सभा के सदस्यों की संख्या घटकर कितनी रह गई?
(क) 260
(ख) 271
(ग) 299
(घ) 265
उत्तर :
(ग) 299.

प्रश्न 6.
संविधान सभा में अनुसूचित वर्ग के कितने सदस्य थे?
(क) 34
(ख) 36
(ग) 26
(घ) 42
उत्तर :
(ग) 26.

प्रश्न 7.
संविधान सभा में किस राजनीतिक दल का वर्चस्व था?
(क) मुस्लिम लीग
(ख) हिन्दू महासभा
(ग) कांग्रेस
(घ) जनसंघ
उत्तर :
(ग) कांग्रेस।

प्रश्न 8.
संविधान के विषयों पर विचार-विमर्श हेतु कितनी समितियों का गठन किया गया?
(क) 7
(ख) 6
(ग) 8
(घ) 10
उत्तर :
(ग) 8.

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान की एक सरल परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
संविधान कुछ ऐसे बुनियादी सिद्धान्तों का समूह है जिसके आधार पर राज्य का निर्माण किया जाता है और उसका शासन चलाया जाता है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान का निर्माण किसके द्वारा हुआ ?
उत्तर :
भारतीय संविधान का निर्माण संविधान सभा के द्वारा किया गया।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान सभा का गठन कब हुआ ?
उत्तर :
भारतीय संविधान सभा का गठन 1946 ई० में किया गया था।

प्रश्न 4.
संविधान सभा के अध्यक्ष का नाम लिखिए।
उत्तर :
डॉ० राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे।

प्रश्न 5.
प्रारूप समिति के अध्यक्ष कौन थे ?
उत्तर :
प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ० भीमराव अम्बेडकर थे।

प्रश्न 6.
भारत का संविधान कितने समय में तैयार हुआ ?
उत्तर :
भारतीय संविधान 2 वर्ष, 11 माह और 18 दिन की अवधि में बनकर तैयार हुआ।

प्रश्न 7.
भारत के संविधान में कितने अनुच्छेद, अनुसूचियाँ और परिशिष्ट हैं ?
उत्तर :
भारतीय संविधान में 395 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियाँ और 9 परिशिष्ट हैं।

प्रश्न 8.
भारतीय संविधान के दो प्रमुख स्रोत क्या हैं ?
उत्तर :
भारतीय संविधान के दो प्रमुख स्रोत हैं –

  1. अमेरिका का संविधान तथा
  2. ऑस्ट्रेलिया का संविधान।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान की दो प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. भारतीय संविधान विश्व का सबसे विस्तृत तथा लिखित संविधान है
  2. संविधान में स्वतन्त्र न्यायपालिका का प्रावधान किया गया है।

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान के दो संघात्मक तत्त्व लिखिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान के दो संघात्मक तत्त्व निम्नलिखित हैं –

  1. संविधान को सर्वोच्चता प्रदान की गयी है।
  2. केन्द्र तथा राज्य सरकारों के बीच अधिकारों तथा कार्यों को स्पष्ट विभाजन किया गया है।

प्रश्न 11.
भारतीय संविधान के दो एकात्मक तत्त्व लिखिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान के दो एकात्मक तत्त्व निम्नलिखित हैं –

  1. संविधान में इकहरी नागरिकता का प्रावधान किया गया है।
  2. संविधान द्वारा एक ही न्याय-व्यवस्था की स्थापना की गयी है।

प्रश्न 12.
संविधान सभा का गठन किस मिशन के अनुसार किया गया था?
उत्तर :
संविधान सभा का गठन सन् 1946 की कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार किया गया था।

प्रश्न 13.
संविधान सभा के लिए सदस्यों की संख्या कितनी निर्धारित की गई थी?
उत्तर :
जिस समय संविधान सभा के गठन का कार्य हुआ उस समय तक भारत का विभाजन नहीं हुआ था; अतः अविभाजित भारत के लिए संविधान सभा के सदस्यों की संख्या 385 निर्धारित की गई थी।

प्रश्न 14.
अविभाजित भारत में संविधान सभा के लिए सदस्यों की संख्या का चयन कितना-कितना निर्धारित किया गया था?
उत्तर :
अविभाजित भारत में संविधान सभा के सदस्यों के चयन के लिए प्रान्तों को 292 सदस्यों का चुनाव करने का निर्देश दिया गया था और देसी रियासतों को 93 स्थान आवंटित किए गए थे।

प्रश्न 15.
भारत के विभाजन के पश्चात् संविधान सभा के सदस्यों की संख्या घटकर कितनी रह गई?
उत्तर :
भारत के विभाजन के परिणामस्वरूप संविधान सभा के वास्तविक सदस्यों की संख्या घटकर 299 रह गई।

प्रश्न 16.
संविधान सभा ने औपचारिक रूप से भारतीय संविधान की रचना किस अवधि में की?
उत्तर :
संविधान सभा द्वारा भारतीय संविधान औपचारिक रूप से दिसम्बर, 1946 और नवम्बर, 1949 के मध्य बनाया गया।

प्रश्न 17.
संविधान सभा की पहली बैठक किस तिथि को हुई थी?
उत्तर :
संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसम्बर, 1946 को हुई थी। इस बैठक का आयोजन अविभाजित भारत में किया गया था।

प्रश्न 18.
विभाजित भारत में संविधान सभा की बैठक किस तिथि को हुई?
उत्तर :
14 अगस्त, 1947 को विभाजित भारत में संविधान सभा की बैठक हुई।

प्रश्न 19.
संविधान सभा का चुनाव किस प्रकार हुआ?
उत्तर :
सन् 1935 में स्थापित प्रान्तीय विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा अप्रत्यक्ष विधि से संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव हुआ।

प्रश्न 20.
26 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा की आयोजित बैठक में कितने सदस्य थे?
उत्तर :
26 नवम्बर, 1949 को आयोजित बैठक में कुल 284 सदस्य उपस्थित थे। इन सदस्यों ने ही अन्तिम रूप से पारित संविधान पर अपने हस्ताक्षर किए।

प्रश्न 21.
संविधान सभा में अनुसूचित वर्गों के कितने सदस्य थे?
उत्तर :
संविधान सभा में अनुसूचित वर्गों के 26 सदस्य थे।

प्रश्न 22.
संविधान सभा ने कितनी अवधि और कितनी बैठकों में संविधान पारित किया?
उत्तर :
दो वर्ष और ग्यारह माह की अवधि में आयोजित 166 बैठकों में संविधान सभा ने भारतीय संविधान को अन्तिम रूप दिया।

प्रश्न 23.
संविधान सभा ने संविधान की रचना के लिए कितनी समितियों का गठन किया था?
उत्तर :
संविधान सभा ने भारतीय संविधान की रचना के लिए आठ समितियों का गठन किया था।

प्रश्न 24.
संविधान का उद्देश्य प्रस्ताव किस नेता द्वारा किस सन में प्रस्तुत किया गया था?
उत्तर :
संविधान का उद्देश्य प्रस्ताव सन् 1946 में पं० जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत किया गया था।

प्रश्न 25.
किस देश का संविधान लिखित दस्तावेज के रूप में नहीं है?
उत्तर :
इंग्लैण्ड के पास ऐसा कोई लिखित दस्तावेज नहीं है जिसे संविधान कही जा सके। उसके पास दस्तावेजों और निर्णयों की एक सूची है जिसे सामूहिक रूप से संविधान कहा जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान सभा की रचना ब्रिटिश मंत्रिमण्डल की एक समिति कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों के अनुरूप हुई थी। ये प्रस्ताव क्या थे? संक्षेप में विवेचना कीजिए।
उत्तर :
कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव निम्नांकित थे –

  1. प्रत्येक प्रान्त, देशी रियासत या रियासतों के समूह को उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटें दी गई थीं। सामान्य तौर पर दस लाख की जनसंख्या पर एक सीट का अनुपात रखा गया था। इस व्यवस्था के अन्तर्गत ब्रिटिश सरकार के प्रत्यक्ष शासन वाले प्रान्तों को 292 सदस्य तथा देशी रियासतों के न्यूनतम 93 सीटें आवंटित की गई थीं।
  2. प्रत्येक प्रान्त की सीटों को दो प्रमुख समुदायों-मुसलमान और सामान्य में उनकी जनसंख्या के अनुपात में बाँट दिया गया था। पंजाब में यह बँटवारा सिख, मुसलमान और सामान्य के रूप में किया गया था।
  3. प्रान्तीय विधान समस्याओं में प्रत्येक समुदाय के सदस्यों ने अपने प्रतिनिधियों को चुना और इसके लिए उन्होंने समानुपातिक प्रतिनिधित्व और एकल संक्रमण मत पद्धति का प्रयोग किया।
  4. देशी रियासतों के प्रतिनिधित्व के चुनाव का तरीका उनके परामर्श से तय किया गया।

प्रश्न 2.
‘संविधान की प्रस्तावना’ का क्या अर्थ है ? इसका महत्त्व लिखिए।
उत्तर :
संविधान की प्रस्तावना किसी पुस्तक की भूमिका की तरह है। यह संविधान की भावना को परिलक्षित करती है। यह उस खिड़की की भॉति है जिसमें झाँककर संविधान निर्माताओं के मन्तव्य को पढ़ा तथा समझा जा सकता है। दूसरे शब्दों में, प्रस्तावना में संविधान के आधारभूत आदर्शों तथा सिद्धान्तों की चर्चा की गयी है। यह उल्लेखनीय है कि प्रस्तावना संविधान का आरम्भिक अंग होते हुए भी कानूनी तौर पर उसका भाग नहीं होती। यद्यपि प्रस्तावना की अवहेलना होती है तो उसकी रक्षा के लिए हम अदालत की शरण में नहीं जा सकते, तथापि यह बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि –

  1. यह संकेत करती है कि देश की सरकार कैसे चलायी जाए।
  2. इसमें सरकार के सम्मुख नये समाज के निर्माण हेतु उद्देश्यों को स्पष्ट किया गया है।
  3. इससे यह पता चलता है कि संविधान देश में किस प्रकार की शासन-व्यवस्था स्थापित करना चाहता है।

प्रश्न 3.
सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न संविधान से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न संविधान से अभिप्राय यह है कि भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राज्य है, अर्थात् भारत अपने आन्तरिक तथा बाह्य मामलों में स्वतन्त्र है। किसी बाह्य सत्ता को उस पर कोई नियन्त्रण नहीं है तथा भारत राज्य की सभी शक्तियाँ संघ के पास हैं। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारत अपनी इच्छानुसार आचरण करने के लिए स्वतन्त्र है तथा वह किसी भी विदेशी समझौते या सन्धि को मानने के लिए बाध्य नहीं है।

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान के प्रमुख स्रोतों का वर्णन कीजिए।
या
भारतीय संविधान के निर्माण में विभिन्न स्रोतों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान का निर्माण बहुत सोच-समझकर और विचार-विमर्श के उपरान्त किया गया। भारतीय संविधान में विश्व के संविधान में निहित अनेक महत्त्वपूर्ण प्रावधानों को सम्मिलित किया गया है। भारतीय संविधान के अधिकांश (लगभग 200) प्रावधान 1935 ई० के अधिनियम से लिये गये हैं। इसलिए इसको ‘1935 ई० के अधिनियम की कार्बन कॉपी’ भी कहा जाता है। भारतीय संविधान में संसदात्मक प्रणाली को ब्रिटेन से; संविधान की प्रस्तावना, नागरिकों के मूल अधिकार, सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना, न्यायिक पुनरावलोकन आदि अमेरिका के संविधान से; राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व, राष्ट्रपति का निर्वाचक मण्डल द्वारा निर्वाचन, राज्यसभा में योग्यतम व्यक्तियों को राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत करना आदि आयरलैण्ड के संविधान से; संघात्मक शासन-व्यवस्था को कनाडा के संविधान से; संविधान की प्रस्तावना की भाषा, समवर्ती सूची तथा केन्द्र व राज्यों के मध्य उत्पन्न होने वाले विवादों को तय करने की प्रणाली ऑस्ट्रेलिया के संविधान से; संविधान में संशोधन की प्रणाली दक्षिणी अफ्रीका के संविधान से; राष्ट्रपति को प्रदत्त आपातकालीन शक्तियों के कुछ प्रावधान जर्मनी के संविधान से; कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया को जापान के संविधान से तथा संविधान में निहित मौलिक कर्तव्यों को रूस के संविधान से लिया गया है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में संशोधन किस प्रकार होता है ?
उत्तर :
भारत के संविधान निर्माताओं ने ऐसा संविधान बनाया है, जो देश की बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित किया जा सके। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में संशोधन की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। संविधान के अनुच्छेदों को संशोधन के लिए निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है –

(1) संसद के साधारण बहुमत द्वारा – संविधान के 22 अनुच्छेद ऐसे हैं जिनका संशोधन संसद उसी प्रक्रिया से कर सकती है, जिससे वह साधारण कानून को पारित करती है। इस प्रकार के कुछ अनुच्छेद हैं-नागरिक से सम्बन्धित प्रावधान, नये राज्यों की रचना तथा वर्तमान राज्यों का पुनर्गठन, राज्यों के द्वितीय सदनों का निर्माण तथा उन्मूलन।

(2) संसद के विशिष्ट बहुमत द्वारा – संविधान में संशोधन के लिए विधेयक संसद के किसी भी सदन में पहले प्रस्तुत किया जा सकता है और जब वह विधेयक प्रत्येक सदन के कुल सदस्यों के बहुमत से तथा सदन में उपस्थित तथा मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित हो जाता है तो विधेयक राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है और राष्ट्रपति उस पर स्वीकृति दे देता है।

(3) संसद के विशिष्ट बहुमत और विधानमण्डलों की स्वीकृति से – संविधान के कुछ अनुच्छेद ऐसे हैं जिनमें संशोधन के लिए संसद के विशिष्ट बहुमत तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से विधेयक पारित हो जाना चाहिए तथा राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए जाने से पूर्व उसे राज्यों के विधानमण्डलों में से कम-से-कम आधे विधानमण्डलों का समर्थन प्राप्त होना आवश्यक है। ये अनुच्छेद हैं-राष्ट्रपति का चुनाव, केन्द्रीय कार्यपालिका की । शक्तियों की सीमा, राज्य की कार्यपालिका की शक्तियाँ, केन्द्र द्वारा शासित क्षेत्रों में उच्च न्यायालय की व्यवस्था और राज्यों के उच्च न्यायालय आदि।

उपर्युक्त संशोधन प्रक्रिया से यह स्पष्ट है कि भारतीय संविधान में लचीलापन तथा कठोरता दोनों तत्त्वों का अद्भुत सम्मिश्रण है। यही कारण है कि 26 जनवरी, 1950 ई० को संविधान लागू किये जाने के समय से लेकर दिसम्बर, 2005 ई० तक संविधान में 93 संशोधन हो चुके हैं।

प्रश्न 3.
“भारत का संविधान एक सन्तुलित दस्तावेज है।” इस कथन को संक्षेप में समझाइए।
उत्तर :
भारत का संविधान एक सन्तुलित दस्तावेज है। सरकार के तीन मुख्य अंग विधायिका कार्यपालिका तथा न्यायपालिका संसद, मंत्रिगण तथा सर्वोच्च न्यायालय और अन्य न्यायालयों को सौंपे गए हैं। साथ ही केंद्रीय मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। राष्ट्रपति सामान्यत: प्रधानमंत्री की सलाह पर लोकसभा भंग करते हैं। भारत में न्यायपालिका को विधायिता और कार्यपालिका के नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त रखा गया है। इस प्रकार सरकार का कोई भी अंग यह दावा नहीं कर सकता कि उसके पास सत्ता का असीकित अधिकार है।

संविधान ने विशिष्ट मामलों के समाधान के लिए कुछ स्वतंत्र प्राधिकरणों की स्थापना भी की है। भारत का नियंत्रक और महालेखा परीक्षक एक स्वतंत्र संवैधानिक प्राधिकरण है। इस प्राधिकरण का मुख्य कार्य केंद्र व राज्यों की आय और व्यय की जाँच करना है। निर्वाचन आयोग की स्थापना भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के उद्देश्य से की गई है। संविधान में यह प्रावधान किया गया है कि चुनाव आयोग एक स्वतंत्र निकाय के रूप में कार्य करे। संघ लोक सेवा आयोग अखिल भारतीय सेमें भर्ती के लिए परीक्षाएँ आयोजित करता है। संविधान द्वारा राज्यों में पृथक रूप से लोक सेवा आयोगों की स्थापना की गई है।

उपर्युक्त संवैधानिक प्राधिकरण यह सुनिश्चित करते हैं कि शासन के विधायी और कार्यकारी अग पूरी तरह नियंत्रण में रहे ताकि शक्ति संतुलन बना रहे। इस प्रकार सशासन की कोई एक शाखा संविधान के लोकतान्त्रिक स्वरूप को नष्ट नहीं कर सकती।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान से आप क्या समझते हैं ? किसी देश के लिए इसकी आवश्यकता और महत्त्व का वर्णन कीजिए।
या
संविधान किसे कहते हैं ? किसी देश के लिए यह क्यों महत्त्वपूर्ण है ?
उत्तर :
संविधान शब्द अंग्रेजी के ‘constitution’ शब्द का ही हिन्दी रूप है। ‘कॉन्स्टीट्यूशन’ का शाब्दिक अर्थ है-‘गठन’। दैनिक बोलचाल में ‘गठन’ शब्द का अर्थ मनुष्य के शारीरिक ढाँचे के गठन से लिया जाता है, किन्तु नागरिकशास्त्र में कॉन्स्टीट्यूशन’ शब्द का अर्थ ‘राज्य के शारीरिक ढाँचे के गठन’ से लिया जाता है।

अन्य शब्दों में, राज्यों की शासन-व्यवस्था के ढाँचे का निर्धारण करने तथा उसके समुचित संचालन के लिए प्रत्येक राज्य में कुछ लिखित या अलिखित नियम होते हैं, जिनके अनुसार ही सरकार देश में शासन का कार्य चलाती है। इन नियमों को ही कानूनी भाषा में राज्य का संविधान (Constitution) कहा जाता है।

परन्तु यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि राज्य द्वारा बनाये गये सभी नियमों व कानूनों के समूह को संविधान नहीं कहा जाता, वरन् संविधान के अन्तर्गत केवल वे नियम व कानून सम्मिलित होते हैं। जिनके द्वारा शासन के संगठन एवं उसके ढाँचे का निर्धारण किया जाता है और शासन के विभिन्न अंगों के पारस्परिक सम्बन्धों का, उनके अधिकारों व कर्तव्यों का तथा शासन वे नागरिकों के मध्य के सम्बन्धों का निर्धारण किया जाता है।

संविधान की आवश्यकता तथा महत्त्व आधुनिक

लोकतन्त्रीय युग में, जब कि शासन-व्यवस्था गाँव के एक लेखपाल से लेकर राष्ट्रपति तक सैकड़ों सरकारी पदों में बिखरी हुई है, यह अत्यन्त आवश्यक है कि शासन-कार्य को ठीक प्रकार से चलाने तथा सरकारी पदाधिकारियों एवं जनता के अधिकारों का निर्धारण करने के लिए राज्य का एक संविधान हो। वर्तमान समय में तो किसी भी देश के लिए निम्नलिखित कारणों से संविधान बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है –

(1) संविधान के अभाव में जनता को यह पता नहीं होगा कि सरकारी शासन के किस-किस अंग के क्या अधिकार हैं और राज्य तथा जनता के बीच क्या सम्बन्ध है। ऐसा करने का उद्देश्य यह होता है कि सरकार के विभिन्न अंगों की कार्यप्रणाली के सम्बन्ध में किसी प्रकार की भ्रान्ति या विवाद की सम्भावना कम-से-कम हो।

(2) संविधान के अभाव में देश में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। निश्चित नियमों के न होने से सरकारी कर्मचारी मनमानी करने लगेंगे और राज्य एक निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी शासन में परिवर्तित हो जाएगा, जिससे अविश्वास की भावना उत्पन्न हो जाएगी।

(3) राज्य का संविधान होने से शासन के प्रत्येक अंग को अपने कार्य-क्षेत्र का ज्ञान होगा। उन्हें यह भी पता होगा कि उनके क्या-क्या अधिकार हैं और जनता के प्रति उन्हें किन-किन कर्तव्यों का पालन करना है।

(4) नागरिक भी अपनी स्वतन्त्रता तथा अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संविधान का संरक्षण प्राप्त कर सकते हैं।

(5) संविधान राज्य तथा जनता दोनों के लिए ही एक प्रकाश-स्तम्भ के रूप में मार्गदर्शन का कार्य करता है। बिना संविधान के यह निश्चित है कि शासन तथा जनता दोनों ही अपने मार्ग से भटक जाएँगे। अतः किसी भी राज्य के अस्तित्व एवं प्रजा के सुखमय जीवन के निर्माण के लिए राज्य का एक संविधान होना अत्यन्त आवश्यक है और कोई भी राज्य संविधान के महत्त्व की उपेक्षा करके अपने अस्तित्व को खतरे में नहीं डाल सकता। अतः संविधान राज्य की नींव है।

जेलिनेक का यह कथन ठीक ही है – “उस राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती, जिसका अपना संविधान न हो। संविधानविहीन राज्य में अराजकता की स्थिति होगी।”

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान का निर्माण कब और कैसे हुआ ? संविधान की प्रस्तावना का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर :
भारतीयों के लिए 26 जनवरी, 1950 ई० का दिन अत्यन्त गौरवपूर्ण है, क्योंकि इस दिन स्वतन्त्र भारत में स्वयं भारतवासियों द्वारा निर्मित संविधान लागू हुआ था और भारतवासियों ने पूर्ण स्वतन्त्रता का अनुभव किया। इसी दिन भारत को एक गणराज्य भी घोषित किया गया।

संविधान सभा का गठन एवं कार्य

भारत के स्वतन्त्र होने से पूर्व ही भारतीय नेताओं ने 1939 ई० में अंग्रेजों से संविधान सभा के द्वारा संविधान का निर्माण करने की माँग की थी, परन्तु उस समय भारतीयों की इस माँग को स्वीकार नहीं किया गया। कालान्तर में परिस्थितियोंवश 16 मई, 1946 ई० को कैबिनेट मिशन की योजना में इस बात पर अंग्रेजों ने अवश्य विचार किया कि भारतीयों को भारतीय संविधान के निर्माण की स्वतन्त्रता दी। जानी चाहिए, क्योंकि वे ही अपने देश की परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार संविधान का निर्माण कर सकते हैं।

फलस्वरूप शीघ्र ही संविधान सभा का गठन करने के उद्देश्य से जनसंख्या के आधार पर (लगभग दस लाख पर एक) प्रतिनिधि निर्धारित किये गये। चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल मत-संक्रमण प्रणाली द्वारा हुए। निर्वाचन के आधार पर संविधान सभा के कुल 389 सदस्य चुने गये। बाद में पाकिस्तान के अलग होने पर 389 सदस्यों में से 79 सदस्य अलग हो गये। इन सदस्यों के पृथक् होने के पश्चात् संविधान सभा में 310 सदस्य शेष बचे। इन्हीं सदस्यों को संविधान निर्माण का कार्य सौंपा गया।

संविधान सभा को प्रथम अधिवेशन 9 दिसम्बर, 1946 ई० को डॉ० सच्चिदानन्द सिन्हा की अस्थायी अध्यक्षता में प्रारम्भ हुआ। इसमें मुस्लिम लीग के सदस्यों ने भाग नहीं लिया। बाद में, 11 दिसम्बर, 1946 ई० को डॉ० राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के स्थायी अध्यक्ष चुने गये।

संविधान सभा की समितियाँ – संविधान सभा के अन्तर्गत विभिन्न समितियों का गठन किया गया; जैसे—प्रक्रिया समिति, वार्ता समिति, संचालन समिति, कार्य समिति, अनुवाद समिति, सलाहकार समिति, संघ समिति, वित्तीय मामलों की समिति, झण्डा समिति, भाषा समिति, प्रारूप समिति आदि। इन समितियों में सबसे महत्त्वपूर्ण समिति प्रारूप समिति (Draft Committee) थी जिसने संविधान का प्रारूप तैयार किया था।

संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए जिस प्रारूप समिति (Draft Committee) का गठन किया गया उसके अध्यक्ष डॉ० भीमराव अम्बेडकर और अन्य सदस्य श्री के० एम० मुन्शी, श्री टी० टी० कृष्णमाचारी, श्री गोपाल स्वामी आयंगर, श्री अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर, श्री मुहम्मद सादुल्ला खाँ, श्री माधव राव और श्री डी० पी० खेतान थे। इस प्रारूप को तैयार करने में 141 दिन का समय लगा। प्रारूप समिति ने संविधान का जो प्रारूप बनाया, उसको कुछ संशोधन के साथ 26 नवम्बर, 1949 ई० को स्वीकार कर लिया गया। इसके उपरान्त संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के इस पर हस्ताक्षर हुए। इसके निर्माण में 2 वर्ष, 11 महीने तथा 18 दिन लगे थे और इस पर १ 63,96,729 व्यय हुए। इसमें 395 अनुच्छेद तथा 8 अनुसूचियाँ थीं। बाद में इसमें चार अनुसूचियाँ और जोड़ दी गयीं (9वीं अनुसूची प्रथम संवैधानिक संशोधन में सन् 1951 ई० में, 10वीं अनुसूची 35वें संवैधानिक संशोधन में सन् 1975 ई० में, 11वीं अनुसूची 73वें संवैधानिक संशोधन में अप्रैल में व 12वीं अनुसूची 74वें संवैधानिक संशोधनों के आधार पर जून 1993 ई० में)। पश्चात्वर्ती संशोधनों के बाद 2000 को यथाविद्यमान संविधान में 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ हैं। दिसम्बर 2014 तक संविधान का 99 बार संशोधन हो चुका है।

भारत के संविधान को 26 जनवरी, 1950 ई० को विधिवत् लागू कर दिया गया। इसके साथ ही भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न गणराज्य बन गया। 26 जनवरी, 1950 ई० को संविधान लागू करने का वास्तविक कारण यह था कि 26 जनवरी, 1929 ई० को भारत के निवासियों ने रावी नदी के तट पर कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में पंडित नेहरू की अध्यक्षता में यह प्रतिज्ञा की थी कि वे देश को पूर्ण रूप से स्वतन्त्र कराएँगे। संविधान के लागू होने से भारतवर्ष एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न गणराज्य बन गया।

संविधान की प्रस्तावना

सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की प्रस्तावना को स्पष्ट करते हुए एक विवाद में कहा है कि, ‘प्रस्तावना संविधान के निर्माताओं के आशय को स्पष्ट करने वाली कुंजी है।

संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि, “हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष ,लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए और उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचाराभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा व अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए, दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवम्बर, 1949 ई० (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत् 2006 विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

प्रस्तावना में समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ व ‘अखण्डता’ शब्द संविधान के 42 वें संशोधन द्वारा जोड़े गये हैं।

1. (स्रोत–इण्टरनेट पर भारत सरकार की आधिकारिक वेबसाइट)।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारत के लोगों तथा यहाँ के पदाधिकारियों के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इससे सभी पदाधिकारियों को संविधान के उद्देश्यों का ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिए कहा गया है कि प्रस्तावना संविधान का मूल अंग, उसकी कुंजी तथा आत्मा है। डॉ० सुभाष कश्यप के अनुसार, प्रस्तावना में निहित पावन आदर्श हमारे राष्ट्रीय लक्ष्य हैं और जहाँ वे एक ओर हमें अपने गौरवमय अतीत से जोड़ते हैं, वहाँ उस भविष्य की आशंका को भी सँजोते हैं।”

प्रश्न 3.
“भारतीय संविधान संघात्मक है, परन्तु उसमें एकात्मकता के लक्षण भी विद्यमान हैं।” विवेचना कीजिए।
या
भारतीय संविधान की संघात्मक व एकात्मक विशेषताएँ बताइए।
उत्तर :
भारतीय संविधान में संघात्मक और एकात्मक दोनों प्रकार के संविधानों के लक्षण पाये जाते हैं। भारत का संविधान एकात्मकता की ओर झुकता हुआ संघात्मक संविधान है। एक विद्वान्के  शब्दों में, “भारतीय संविधान की प्रकृति संघीय है, किन्तु आत्मा एकात्मक।”

संघात्मक विशेषताएँ

भारतीय संविधान में संघात्मक संविधान की निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं –

(1) लिखित तथा स्पष्ट – भारतीय संविधान एक लिखित संविधान है जिसमें सरल तथा स्पष्ट अर्थों वाली शब्दावली का प्रयोग किया गया है। इसे संविधान सभा ने तैयार किया था।

(2) सर्वोच्च तथा कठोर – भारतीय संविधान को देश के सर्वोच्च कानून की स्थिति प्राप्त है। कोई भी सरकार इसका उल्लंघन नहीं कर सकती। यह कठोर इसलिए है, क्योंकि इसमें संशोधन की प्रक्रिया को बहुत जटिल रखा गया है। राज्यों के अधिकार-क्षेत्र के सम्बन्ध में तो अकेले केन्द्रीय संसद कोई संशोधन कर ही नहीं सकती।

(3) शक्तियों का विभाजन – भारतीय संविधान के अन्तर्गत केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन किया गया है तथा सभी विषयों को तीन सूचियों में बाँट दिया गया है-

  1. संघ सुंची
  2. राज्य सूची तथा
  3. समवर्ती सूची।

संघ सूची पर केन्द्रीय सरकार को तथा राज्य सूची पर राज्यों की सरकारों को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। समवर्ती सूची पर केन्द्र तथा राज्यों की सरकारें कानून बना सकती हैं, किन्तु सर्वोच्चता केन्द्रीय सरकार को प्राप्त है। अवशिष्ट विषय केन्द्रीय सरकार के अधीन हैं। संघ, राज्य और समवर्ती सूची के विषयों की संख्या क्रमशः 97, 66 तथा 47 है।

(4) स्वतन्त्र न्यायपालिका – भारतीय संविधान में एक स्वतन्त्र तथा शक्तिशाली न्यायपालिका की व्यवस्था की गयी है। देश का सर्वोच्च न्यायालय केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सरकारों के नियन्त्रण से मुक्त है। यह संसद तथा राज्य सरकारों द्वारा निर्मित कानूनों को अवैध घोषित कर सकता है। इसे संविधान की रक्षा का कार्यभार सौंपा गया है।

(5) द्विसदनीय व्यवस्थापिका – भारतीय संसद का उच्च सदन अर्थात् राज्यसभा राज्यों को सदन है, जो राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है तथा निम्न सदन अर्थात् लोकसभा जनता का प्रतिनिधित्व करता है।

(6) संशोधन प्रणाली – भारतीय संविधान में संशोधन की प्रणाली पूर्ण रूप से संघात्मक शासन के अनुरूप है।

एकात्मक विशेषताएँ भारतीय संविधान में एकात्मक संविधान की निम्नांकित विशेषताएँ पायी जाती हैं –

(1) इकहरी नागरिकता – संविधान में देश के नागरिकों को केवल भारतीय नागरिकता प्रदान की गयी है। इसमें राज्यों की पृथक् नागरिकता की कोई व्यवस्था नहीं है।

(2) राष्ट्रपति की सर्वोच्च शक्तियाँ – संविधान के अनुसार संकट या आपात्काल में देश की शासन सम्बन्धी सम्पूर्ण शक्तियाँ राष्ट्रपति के हाथों में आ जाती हैं। राज्यों की सरकारों को राष्ट्रपति की इच्छानुसार अपने राज्यों को शासन चलाना पड़ता है।

(3) सीमाओं में परिवर्तन – संसद को राज्यों की सीमाओं तथा नाम में परिवर्तन करने का अधिकार है।

(4) सेना भेजना – केन्द्रीय सरकार प्रान्तीय सरकार के परामर्श के बिना भी राज्य में सेना को भेज सकती है।

(5) राज्यपाल को पद राज्यपाल प्रान्तीय शासन का अध्यक्ष होता है। राज्यपाल की नियुक्ति, स्थानान्तरण तथा पदच्युति का अधिकार राष्ट्रपति को है। वस्तुतः राज्यपाल प्रान्तों में केन्द्रीय सरकार के एजेण्ट के रूप में कार्य करती है।

(6) वित्तीय निर्भरता – प्रान्तीय सरकारें अपने विकासशील कार्यों हेतु केन्द्रीय अनुदानों (Grants) तथा ऋण पर निर्भर करती हैं।

(7) राज्य सूची पर कानून – निर्माण–भारतीय संविधान के अन्तर्गत सामान्य तथा आपातकालीन परिस्थितियों में संसद को राज्य सूची में दिये गये विषयों पर कानून-निर्माण का अधिकार प्राप्त

(8) समान न्याय-व्यवस्था – एकात्मक संविधान की एक प्रमुख विशेषता यह होती है कि सम्पूर्ण देश में समान न्यायव्यवस्था पायी जाती है। भारतीय संविधान में यह विशेषता भी विद्यमान है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्यों के न्यायालयों में दीवानी तथा फौजदारी मुकदमों के लिए एक जैसे कानून बनाये गये हैं। साथ ही राज्यों के उच्च न्यायालयों को उच्चतम (सर्वोच्च) न्यायालय के अधीन रखा गया है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भारत का संविधान न तो पूर्णतया संघात्मक है और न ही पूर्णतया एकात्मक, वरन् इसमें दोनों ही प्रकार की विशेषताओं का समावेश है।

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UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 6 Perception

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Psychology
Chapter Chapter 6
Chapter Name 6 Perception
(प्रत्यक्षीकरण)
Number of Questions Solved 50
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 6 Perception (प्रत्यक्षीकरण)

दीर्घ उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रत्यक्षीकरण (Perception) से आप क्या समझते हैं? प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में निहित क्रियाओं का भी उल्लेख कीजिए।
या
प्रत्यक्षीकरण को परिभाषित कीजिए।

उत्तर :

प्रत्यक्षीकरण का अर्थ
(Meaning of Perception)

प्रत्यक्षीकरण एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है। यह ज्ञानार्जन से सम्बन्धित मानसिक प्रक्रियाओं में विशेष महत्त्व रखती है। ‘संवेदना’ किसी उद्दीपक का प्रथम प्रत्युत्तर है और प्रत्यक्षीकरण’ प्राणी की संवेदना के पश्चात् का द्वितीय प्रत्युत्तर है जो संवेदना से ही सम्बन्धित होता है। वातावरण में उपस्थित किसी उद्दीपक से मिलने वाली उत्तेजना एक संवेदनात्मक प्रत्युत्तर के रूप में अस्तित्व रखती है जिसका प्रथम प्रत्युत्तर संवेदना और द्वितीय प्रत्युत्तर प्रत्यक्षीकरण की शक्ल में प्रस्तुत होता है।

प्रत्यक्षीकरण की परिभाषा
(Definition of Perception)

प्रत्यक्षीकरण को निम्न प्रकार परिभाषित किया जा सकता है –

  1. कॉलिन्स तथा डुवर के कथनानुसार, “प्रत्यक्षीकरण किसी वस्तु का तात्कालिक ज्ञान है या संवेदना द्वारा सभी ज्ञानेन्द्रियों का ज्ञान है।”
  2. वुडवर्थ के मतानुसार, “प्रत्यक्षीकरण विभिन्न इन्द्रियों की सहायता से पदार्थ अथवा उनके आधारों का ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया है।”
  3. स्टेगनर के अनुसार, “बाहरी वस्तुओं और घटनाओं का इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया ही प्रत्यक्षीकरण है।”
  4. मैक्डूगल के अनुसार, “उपस्थित वस्तुओं के बारे में सोचना ही प्रत्यक्षीकरण करना है। एक वस्तु तभी उपस्थित कही जाती है जब तक उससे आने वाली शक्ति (उत्तेजना) हमारी ज्ञानेन्द्रियों को प्रभावित करती रहती है।”

प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया
(Process of Perception)

प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करते हुए हम कह सकते हैं कि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्रथम संवेदना, जो किसी वस्तु, प्राणी या घटना के विषय में प्राप्त होती है-मस्तिष्क में एक संस्कार को जन्म देती है। यह संस्कार प्रथम संवेदना का संस्कार होता है। जब वह वस्तु एक बार फिर से तत्सम्बन्धी ज्ञानेन्द्रिय पर प्रभाव डालती है तो मस्तिष्क पूर्व संस्कार के आधार पर दोनों अनुभूतियों की पारस्परिक समानताओं तथा विषमताओं की व्याख्या प्रस्तुत करता है और इस भाँति तुलना द्वारा वस्तु से प्राप्त अनुभूति की पहचान का प्रयत्न करता है। परिणामस्वरूप, प्रथम-संवेदना को उसका वास्तविक अर्थ मिल जाता है और यह अर्थपूर्ण संवेदना ही प्रत्यक्षीकरण है। उदाहरणार्थ–कोई बच्चा एक स्नेहपूर्ण कोमल आवाज पहली बार सुनता है। यह उसके लिए संवेदना है। किन्तु जब बच्चा वही आवाज दूसरी बार सुनता है तो उसकी तुलना अपनी माँ की पहली आवाज से करता है। फलस्वरूप वह दोनों आवाजों में गहरी समानता पाता है और उस आवाज का अपनी माँ की आवाज के रूप में प्रत्यक्षीकरण करता है।

UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 6 Perception 1

प्रत्यक्षीकरण की क्रियाएँ
(Actions of Perception)

प्रत्यक्षीकरण वर्तमान वस्तु से प्राप्त संवेदना को अर्थ प्रदान करने का कार्य करता है। अर्थ प्रदान करने में निम्नलिखित मुख्य क्रियाएँ पायी जाती हैं –

(1) संग्राहक क्रियाएँ – संग्राहक क्रियाएँ प्रथम मुख्य क्रियाएँ हैं जो विभिन्न संग्राहकों या ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से सम्पन्न होती हैं। प्रत्येक सम्बन्धित ज्ञानेन्द्रियाँ उत्तेजना को ग्रहण करके उसे स्नायु-संस्थान के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुँचाती हैं। मस्तिष्क में इस प्रथम ज्ञान अर्थात् संवेदना की अनुभूति होती है जिसके पश्चात् प्रत्यक्षीकरण होता है।

(2) प्रतीकात्मक क्रियाएँ – प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया की द्वितीय मुख्य क्रियाएँ प्रतीकात्मक क्रियाएँ हैं जिनके माध्यम से अन्य क्रियाओं का प्रतिनिधित्व किया जाता है। प्रतीक (Symbol)’को देखकर उससे सम्बन्धित अनुक्रिया का अनुभव होने लगता है। ‘मोहन’ यह शब्द किसी व्यक्ति का प्रतीक बनकर उनका प्रतिनिधित्व करता है। इसी प्रकार रसगुल्ले को देखकर उससे सम्बन्धित स्वाद का अनुभव होने लगता है, इमली को देखकर मुँह खट्टा हो जाता है।

(3) भावात्मक क्रियाएँ – तीसरी महत्त्वपूर्ण क्रियाएँ भावात्मक क्रियाएँ हैं। हम जानते हैं कि विविध वस्तुओं के प्रत्यक्षीकरण द्वारा भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के मन में भिन्न-भिन्न प्रकार की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। भावनाएँ व्यक्ति से व्यक्ति तक परिवर्तित होती जाती हैं। उदाहरण के लिए-मन्दिर में रखे शिवलिंग को आस्तिक श्रद्धा एवं भक्तिभाव से प्रणाम करते हैं, नास्तिक उसके लिए एक पत्थर का भाव रखता है।

(4) एकीकरण क्रियाएँ – इस चौथी क्रिया के अन्तर्गत वर्तमान संवेदना का पूर्व संवेदनाओं के साथ एकीकरण कर देते हैं। प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में एकीकरण का सोपान अत्यन्तावश्यक है जो मस्तिष्क में सम्पन्न होता है।

(5) विभेदीकरण क्रियाएँ – कभी-कभी प्राप्त संवेदना को अन्य संवेदनाओं से पृथक् भी करना पड़ता है; जैसे-बच्चे अपने पिता के स्कूटर का हॉर्न सुनकर उसकी तुलना या विभेदीकरण अन्य आवाजों से करते हैं और इस प्रकार उसे दूसरी आवाजों से अलग कर लेते हैं।

प्रश्न 2.
प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करने वाले कारकों को उदाहरणों सहित वर्णन कीजिए।
या
प्रत्यक्षीकरण के निर्धारक तत्त्वों की भली-भाँति व्याख्या कीजिए।
या
प्रत्यक्षीकरण के प्रमुख निर्धारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :

प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करने वाले कारक
या प्रत्यक्षीकरण के निर्धारक तत्त्व
(Factors Affecting Perception)

प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करने वाले कारकों तथा उसके निर्धारक तत्त्वों की व्याख्या करने से पूर्व इस बात पर विचार करना आवश्यक है कि प्रत्यक्षीकरण किस तरह का मनोवैज्ञानिक प्रक्रम है-जन्मजात या अर्जित ? वस्तुतः इस विवाद को लेकर कई विचार सम्मुख आते हैं। गेस्टाल्टवादियों के अनुसार, प्रत्यक्षीकरण का सम्बन्ध केन्द्रीय स्नायु-संस्थान की जन्मजात विशेषताओं से है। हेब्ब (Hebb) नामक मनोवैज्ञानिक के अनुसार, प्रत्यक्षात्मक संगठन (Perceptual Organization) केन्द्रीय स्नायु संस्थान की संरचना से प्रभावित होकर स्वत: निर्धारित होता है। साहचर्यवादी विचारकों की दृष्टि में प्रत्यक्षीकरण प्रक्रम, अनुभवों पर आधारित है। प्रत्यक्षीकरण के निर्धारक तत्त्वों के विषय में कई मत अवश्य हैं, किन्तु यह निर्विवाद है कि ये निर्धारक तत्त्व प्रत्यक्षीकरण को स्वतन्त्र रूप से प्रभावित नहीं करते बल्कि विशिष्ट दशा में कई कारकों की अन्त:क्रियाएँ प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करती हैं। प्रत्यक्षीकरण के मुख्य निर्धारक तत्त्वों अथवा कारकों को निम्त्नलिखित रूप से प्रस्तुत किया जा सकता है –

(1) प्रत्यक्षीकरण पर सन्दर्भ का प्रभाव – व्यक्ति प्रत्येक उद्दीपक का प्रत्यक्षीकरण किसी-न-किसी सन्दर्भ में करता है। इस प्रकार सन्दर्भ, प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करता है। यह प्रभाव दो प्रकार का हो सकता है

(अ) अन्तःइन्द्रिय सन्दर्भ – जब उद्दीपक और उद्दीपक का सन्दर्भ दोनों एक ही ज्ञानेन्द्रिय क्षेत्र में होते हैं तो इस तरह का सन्दर्भ प्रत्यक्षीकरण उद्दीपक के लिए पृष्ठभूमि का कार्य करता है। इस दशा को अन्त:इन्द्रिय सन्दर्भ का प्रभाव कहा जाता है। यह दशा प्रत्यक्षीकरण में भ्रम भी पैदा कर सकती है।

(ब) अन्तःइन्द्रिय सन्दर्भ – इस अवस्था में प्रत्यक्षीकरण उद्दीपक ज्ञानेन्द्रिय के एक क्षेत्र में तथा उद्दीपक ज्ञानेन्द्रिय के दूसरे क्षेत्र में होता है। यह दशा अन्त:इन्द्रिय सन्दर्भ कहलाती है और प्रत्यक्षीकरण को अर्थपूर्ण ढंग से प्रभावित करती है।

(2) प्रत्यक्षीकरण पर अभिप्रेरणा का प्रभाव – अभिप्रेरणा से सम्बन्धित व्यवहार का कुछ-न-कुछ लक्ष्य या उद्देश्य होता है। व्यक्ति इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सक्रिय हो उठता है तथा हर सम्भव प्रयास करता है। निश्चय ही, अभिप्रेरणा व्यक्ति की मानसिक क्रियाओं पर असर डालती है। और इस भाँति अभिप्रेरणा से प्रत्यक्षीकरण का निर्धारित होना भी स्वाभाविक है। अभिप्रेरणा का प्रत्यक्षीकरण पर प्रभाव निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट होता है

(अ) प्रात्यक्षिक सतर्कता – प्रात्यक्षिक सतर्कता की प्रघटना में प्राणी का उद्दीपक पहचान सीमान्त कम हो जाता है। प्रायः प्राणी को कुछ खास उद्दीपकों के प्रति अतिरिक्त रूप से तत्पर पाया जाता है। कभी-कभी यह तत्परता इतनी ज्यादा हो जाती है कि प्राणी उद्दीपक के प्रति उस स्थिति में भी अनुक्रिया प्रकट करने लगता है, जबकि उद्दीपक अस्पष्ट हो और उसमें प्रत्यक्षीकरण के आवश्यक गुण भी न हों।

(ब) प्रात्यक्षिक सुरक्षा – प्रात्यक्षिक सुरक्षा की प्रघटना के अन्तर्गत, जब प्रयोज्यों के सम्मुख कोई दु:खदायी उद्दीपक लाया जाता है तो सामान्य या उदासीन उद्दीपकों की अपेक्षा इन उद्दीपकों की पहचान सीमान्त बढ़ जाती है।

(स) उद्दीपक-गुण – मनोवैज्ञानिक प्रयोग के सम्बन्ध में यह परिकल्पना सत्य सिद्ध हुई कि उदासीन उद्दीपक के प्रत्यक्षित आकार की अपेक्षा प्रयोज्यों को मूल्यवान उद्दीपक का प्रत्यक्षित आकार बड़ा प्रतीत होगा। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि उद्दीपक-गुणों के प्रत्यक्षीकरण पर अभिप्ररेणा का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

(द) उद्दीपक-चयन – मनोवैज्ञानिक प्रयोगों से पता चला है कि प्रत्यक्षीकरण के सम्बन्ध में उद्दीपक के चयन पर अभिप्रेरणा का प्रभाव पड़ता है। एक परीक्षण में मुखाकृति के अर्धाशों (Half Parts) को जोड़कर प्रस्तुत किया गया। इन अर्धाशों में से एक को पुरस्कृत किया गया था और दूसरे को दण्डित। प्रयोज्यों ने पुरस्कृत अर्धाश का प्रत्यक्षीकरण अधिक किया।

(3) प्रत्यक्षीकरण पर तत्परता या सेट का प्रभाव – वातावरण में बहुत से उद्दीपक उपस्थित रहते हैं। अनुभव में आता है कि अक्सर प्राणी विशेष उद्दीपकों के प्रति प्रत्यक्ष/परोक्ष रूप से अधिक तत्पर रहता है या कम तत्पर रहता है। यह तत्परता, जिसे सेट (Set) भी कहा जाता है, प्रयोज्य के उन उद्दीपकों के प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करती है। प्रत्यक्षीकरण पर तत्परता या सेट का प्रभाव दो प्रकार से देखा जा सकता है

(अ) पहचान के आधार पर – प्रत्यक्ष निर्देशों के माध्यम से पहचान के आधार पर सेट के अध्ययन से ज्ञात हुआ कि इस आधार पर बने सेट प्रत्यक्षीकरण पर प्रभाव डालते हैं। पोस्टमैन एवं बूनर के अनुसार, जब प्रयोज्यों में निर्देशों के आधार पर एक सेट निर्मित होता है, उस समय पहचान अधिक सुविधाजनक होती है, किन्तु जब इसी आधार पर एक से अधिक सेट बनते हैं तो पहचान मुश्किल व दुविधापूर्ण हो जाती है। |

(ब) आकृति-पृष्ठभूमि के आधार पर – लीपर नामक मनोवैज्ञानिक ने सेट से सम्बन्धित एक प्रयोग द्वारा सिद्ध किया कि आकृति एवं पृष्ठभूमि से सम्बद्ध निर्देशों के आधार पर निर्मित सेट प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करते हैं। बूनर द्वारा किये गये अध्ययन के निष्कर्षों से भी पता चलता है कि आकृति के रंग के सम्बन्ध में बना सेट रंग प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करता है।

(4) प्रत्यक्षीकरण पर अधिगम का प्रभाव – अधिगम अर्थात् सीखना प्रत्यक्षीकरण प्रक्रम को विशेष रूप से प्रभावित करता है। प्रत्यक्षपरक तादात्मीकरण (Perceptual Identification) अधिगम के कारण ही होता है और अधिगम क्रियाएँ प्रत्यक्षीकरण का शोधन एवं परिमार्जन करती है। यह भी ज्ञात होता है कि व्यक्ति के दीर्घकालीन अनुभव तथा अभ्यास प्रत्यक्षीकरण को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं।

(5) प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करने वाले अन्य कारक – प्रत्यक्षीकरण प्रक्रम को प्रभावित करने वाले कुछ अन्य कारक निम्नलिखित हैं

(i) परिचय – व्यक्ति को उन उद्दीपकों या संगठनों का प्रत्यक्षीकरण आसानी से होता है जिनसे वह भली प्रकार परिचित होता है; जैसे–परिचित, रिश्तेदार का प्रत्यक्षीकरण भीड़ के अन्य लोगों के बीच सरलता से हो जाता है।

(ii) पूर्व – अनुभव-जिस व्यक्ति में पूर्व-अनुभवों की अधिकता होती है, वह कम अनुभव वाले व्यक्तियों की अपेक्षा वातावरण में मौजूद उद्दीपकों का शीघ्र और बेहतर प्रत्यक्षीकरण कर लेता है। उदाहरण के लिए—प्रौढ़ व्यक्ति बच्चे की अपेक्षा शीघ्र व अधिक प्रत्यक्षीकरण करता है।

(iii) रंग – आकृति एवं पृष्ठभूमि के रंगों में जितना अधिक विरोध या अन्तर होता है, आकृति एवं पृष्ठभूमि का प्रत्यक्षीकरण उतना ही अधिक स्पष्ट होता है। काली पृष्ठभूमि पर सफेद बिन्दी एकदम साफ चमकती है।

(iv) आकार – बड़े आकार की उत्तेजनाओं को प्रत्यक्षीकरण छोटे आकार की उत्तेजनाओं की अपेक्षा शीघ्र और अधिक होता है।

(v) चमक – यदि आकृति व पृष्ठभूमि की चमक में अधिक अन्तर होगा तो आकृति एवं पृष्ठभूमि का अधिक स्पष्ट प्रत्यक्षीकरण होगा।

(vi) अवधि – प्रदर्शनकाल भी प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करता है। लम्बी अवधि के लिए उपस्थित उद्दीपक को हम सरलता से प्रत्यक्षीकरण कर लेते हैं।

(vii) मानसिक तत्परता – मानसिक तत्परता भी प्रत्यक्षीकरण पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव रखती है। माना, माँ अपने बच्चे के आने की प्रतीक्षा कर रही है तो दरवाजे पर कोई भी आहट बच्चे के आने का संकेत देती है।

(viii) अभिवृत्ति – अभिवृत्ति भी उद्दीपकों के प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करती है; जैसे-एक दल के लोग अभिवृत्ति (ऋणात्मक) के प्रभाव में विरोधी दल के लोगों का भ्रष्ट व अनैतिक लोगों के रूप में प्रत्यक्षीकरण करते है।

उपर्युक्त विवरण में सभी कारक परस्पर जटिल अन्त:क्रिया के कारण सक्रिय होते हैं तथा परिपक्व व्यक्तियों के प्रत्यक्षीकरण में अधिक स्पष्ट होते हैं।

प्रश्न 3.
प्रत्यक्षीकरण में गैस्टाल्ट सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
या
प्रत्यक्षीकरण के सम्बन्ध में गैस्टाल्टवादियों के सिद्धान्त क्या हैं?
या
प्रत्यक्षीकरण का क्या अर्थ है? प्रात्यक्षिक संगठन के नियमों का वर्णन कीजिए।
या
प्रत्यक्षीकरणात्मक संगठन के नियमों को विस्तार से लिखिए। आकृतियों में समानता और समीपता के आधार पर प्रत्यक्षीकरण के संगठन की प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर :

गैस्टाल्टवादी मनोविज्ञान
(Gestalt Psychology)

मनोविज्ञान मानव के स्वभाव व व्यवहार का विधिवत् अध्ययन करता है। 1912 में जब व्यवहारवादी विचारधारा (Behaviourists) के मनोवैज्ञानिक जे० बी० वाटसन अमेरिका में व्यवहारवाद का आन्दोलन चला रहे थे, उन्हीं दिनों जर्मनी में व्यवहारवाद के विरुद्ध प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से मानव स्वभाव को समझने के लिए एक नवीन विचारधारा का जन्म हो रहा था, जिसे गैस्टाल्टवाद या गैस्टाल्टवादी मनोविज्ञान (Gestalt Psychology) का नाम दिया गया है। मैस्टाल्ट मनोविज्ञान का प्रारम्भ तीन मनोवैज्ञानिकों-मैक्स वरदाईमर (Max warthiemer), वोल्फगैंग कोहलर (Wolfgang Kohler) तथा कर्ट कोफ्का (Kurt Koffka) द्वारा किया गया।

गैस्टाल्ट का अर्थ-गैस्टाल्ट’ शब्द का अर्थ है किसी वस्तु का आकार, प्रकार या स्वरूप। पूर्ण को जर्मन भाषा में गैस्टाल्टन (Gestaltan) कहते हैं और अंग्रेजी भाषा में गैस्टाल्ट’ (Gestalt) कहते हैं। गैस्टाल्टवादियों के अनुसार, किसी भी उत्तेजना का प्रत्यक्षीकरण (Perception) उसके पूर्णरूप में होता है तथा वस्तु का वास्तविक रूप उसके पूर्ण में ही दृष्टिगोचर होता है। यही कारण है कि इस विचारधारा के अनुयायी वस्तु के पूर्णरूप को लेकर चलते हैं तथा उसे ही सही एवं वास्तविक प्रत्यक्षीकरण स्वीकार करते हैं। ये मनोवैज्ञानिक इस अवधारणा को स्वीकार नहीं करते कि प्रत्यक्षीकरण संवेदनाओं तथा पूर्व अनुभवों का योग होता है। यदि किसी सुन्दर बच्चे के चेहरे का उदाहरण लें तो वह अपने पूर्णरूप में सुन्दर दिखाई देता है। यदि बच्चे की आँख, नाक, होंठ, कान, गाल, मस्तक आदि को अलग-अलग करके देखें तो वह सुन्दरता विलुप्त हो जाती है। कारण यह है । कि सुन्दरता चेहरे के समस्त अंगों में निहित होने के बावजूद भी पूर्णरूप में देखने पर ही दिखाई पड़ती है, अंश या भागों में देखने पर नहीं। वस्तुत: चेहरा इन समस्त अंगों का योग ही नहीं है, वह तो इनका एक विशेष संगठन है और इस विशेष संगठन में ही बच्चे के चेहरे की सुन्दरता को रहस्य छिपा है।

प्रत्यक्षीकरण का गैस्टाल्ट सिद्धान्त (Gestalt Theory of Perception) – गैस्टील्ट सिद्धान्त के अनुसार, किसी वस्तु का प्रत्यक्षीकरण संश्लेषणात्मक विधि के द्वारा पहले होता है, बाद में उसका प्रत्यक्षीकरण विश्लेषणात्मक ढंग से होता है। कोई वस्तु हमें सर्वप्रथम अपने संश्लेषित या पूर्णरूप में दिखाई देती है। धीरे-धीरे, जैसे-ही-जैसे वस्तु के प्रत्यक्षीकरण के चिह्न घटते जाते हैं, वैसे-ही-वैसे उसके अंग-प्रत्यंग (भागों) का प्रत्यक्षीकरण विश्लेषित या आंशिक रूप में होता है। किसी भव्य इमारत को देखने पर उसका प्रत्यक्षीकरण सम्पूर्ण रूप में किया जाता है, उसके विभिन्न हिस्सों में नहीं। पहली एक दृष्टि में उसके हिस्सों को अलग-अलग करके नहीं देखा जाता। किन्तु शनैः-शनै: जब उसको कई बार देखा जाता है तो हम उसके किसी भी हिस्से का प्रत्यक्षीकरण करने लगते हैं, यथार्थ या वास्तविक प्रत्यक्षीकरण वस्तु के विभिन्न हिस्सों या अंगों का योग न होकर उस संगठन द्वारा होता है जिसमें विषय-वस्तु संगठित रहती है। यदि उस विषय-वस्तु के विभिन्न अंगों का संगठन परिवर्तित हो जाए तो प्रत्यक्षीकरण में भी परिवर्तन आ जाएगा।

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संगठन के नियम
(Laws of Organisation)

अपने मत के समर्थन में गैस्टाल्टवादियों ने संगठन के कुछ नियम प्रतिपादित किये हैं। वे नियम इस प्रकार हैं –

1. समग्रता का नियम (Law of wholes) – समग्रता का नियम प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धी एक महत्त्वपूर्ण नियम है जिसके अनुसार प्रत्यक्षीकरण में समग्र परिस्थिति का प्रत्यक्ष एक साथ होता है। ज्ञान के क्षेत्र में अनेक उत्तेजक तत्त्व स्वयं को विविध प्रकार के आकारों में संगठित कर लेते हैं। जर्मनी भाषा में ये आकार गैस्टाल्टन (Gestaltan) कहलाते हैं। हमारे मस्तिष्क पर इन संगठित आकारों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है और इन्हीं का हम प्रत्यक्षीकरण करते हैं। क्योंकि ज्ञान क्षेत्र में सर्वप्रथम हमें समग्र ही दिखाई पड़ता है, अत: बड़े शब्दों के बीच हुई अक्षरों की गलतियाँ अक्सर हम नहीं देख पाते और गलतियों के बावजूद भी शब्द को पूर्णरूप में ही पढ़ते हैं।

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उपर्युक्त चित्र में कुल 12 फूल हैं हम जिनका प्रत्यक्षीकरण चार-चार के समूह में करते हैं। कारण यह है कि चार-चार फूल मिलकर एक समग्र या इकाई बना रहे हैं।

2. आकृति और पृष्ठभूमि का नियम (Law of Figure and Background) – इस नियम के अनुसार किसी आकृति या दूसरी उत्तेजनाओं का प्रत्यक्षीकरण हम एक पृष्ठभूमि में करते हैं। चित्रकला में आकृति और पृष्ठभूमि नियम का विशेष ध्यान रखा जाता है। उदाहरण के लिए कुछ चित्र ऐसे होते हैं जो सिर्फ पृष्ठभूमि के विरोधी रंग के कारण उभर आते हैं। फिल्म देखते समय हम लोग अलग-अलग दृश्यों के साथ संगीत की अलग-अलग पृष्ठभूमि पाते हैं। पृष्ठभूमि की वजह से आकृति (उत्तेजना) का प्रत्यक्षीकरण प्रभावित होता है।

निर्धारक नियम
(Determining Laws)

गैस्टाल्टवादियों ने संगठन के नियमों के अलावा आकृति और पृष्ठभूमि के निर्धारक नियम भी प्रतिपादित किये हैं। ये नियम निम्नलिखित हैं –

(1) समीपता का नियम (Law of Proximity) – देश-काल की किसी पृष्ठभूमि में उन दशाओं, वस्तुओं, पदार्थों तथा प्राणियों का प्रत्यक्षीकरण शीघ्रता से होता है जो अपनी समीपता के कारण एक इकाई या आकृति का रूप धारण कर लेती हैं। इसके विपरीत, अनियमित तथा दूर-दूर बिखरे तत्त्वों का प्रत्यक्षीकरण आसानी से नहीं होता। बगीचे के उन पौधों का प्रत्यक्षीकरण शीघ्र व सरलता से होता है जो एक-दूसरे के समीप तथा समूह में होते हैं। बगीचे के बाहर खड़े एकाकी पौधे के प्रत्यक्षीकरण में देर लगती है।

(2) निरन्तरता का नियम (Law of Continuity) – उने उत्तेजनाओं का शीघ्र प्रत्यक्षीकरण कर लिया जाता है जो अनवरत रूप से निरन्तर या लगातार आती हैं। इस प्रकार की उत्तेजनाएँ किसी ज्ञानेन्द्रिय को ज्यादा देर तक तथा पूर्णरूप से प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए स्कूटर के रुक-रुककर बजने वाले हॉर्न की अपेक्षा लगातार और निरन्तर बजने वाले हॉर्न का प्रत्यक्षीकरण शीघ्र होता है।

(3) समानता का नियम (Law of Similarity) – समानता प्रत्यक्षीकरण का एक महत्त्वपूर्ण नियम है। समान आकृति वाली उत्तेजनाओं का प्रत्यक्षीकरण शीघ्र कर लिया जाता है। वस्तुतः नाड़ी-तन्त्र में उन्हीं उत्तेजनाओं (वस्तुओं या व्यक्तियों) की आकृति बनती है जो वातावरण में समान रूप से पायी जाती हैं यानि जिनके विभिन्न अंगों में अधिक समानता दृष्टिगोचर होती है।

(4) सजातीयता का नियम (Law of Homogeneity) – गैस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, किसी पृष्ठभूमि में एक ही जाति के उत्तेजक या विभिन्न वस्तुएँ पहले दिखाई पड़ती हैं। एक ही दीप्ति के प्रकाश अथवा एक ही तीव्रता की ध्वनियों का प्रत्यक्षीकरण पृष्ठभूमि की अपेक्षा शीघ्रता से होता है। वसन्त ऋतु में फलते-फूलते टेसू के फूलों से लदे पेड़ों को देखकर प्रायः जंगल में आग का, भ्रम हो जाता है। ऐसा इसे कारण होता है क्योंकि एक ही जाति के ढेर सारे फूलों का प्रत्यक्षीकरण इनके एकसमान रंग की दीप्ति के कारण होता है।

(5) तत्परता का नियम (Law of Readiness) – वस्तु या उत्तेजना के संगठन पर मानसिक तत्परता का भी प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति जिस चीज का प्रत्यक्षीकरण करने के लिए तत्पर होता है उसे वह जल्दी देख अथवा सुन लेता है। उदाहरण के लिए परीक्षार्थी प्रश्न-पत्र में पहले उन प्रश्नों का प्रत्यक्षीकरण करता है जिनके आने की उम्मीद थी, दूसरे प्रश्नों का प्रत्यक्षीकरण वह बाद में करता है।

(6) आच्छादन का नियम (Law of Closure) – कई बार उत्तेजनाएँ रिक्त स्थान (Gaps) छोड़ देती हैं जिन्हें मानव मस्तिष्क द्वारा स्वयं पूरा कर लिया जाता है। यह प्रक्रिया आच्छादन अंग के प्रभाव के कारण है। जब हम कोई ऐसी आकृति देखते हैं जिस का कोई अंग अपूर्ण है तो हम उस अपूर्णता की ओर ध्यान न देकर आकृति का प्रत्यक्षीकरण पूर्ण रूप में ही करते हैं।

(7) प्रेरणा का नियम (Law of Motivation) – किसी व्यक्ति में कार्यरत प्रेरक अपने से सम्बन्धित उत्तेजनाओं तथा तत्त्वों का प्रत्यक्षीकरण पहले करने की दृष्टि से व्यक्ति को प्रेरित करता है। रिक्शा चलाने वाली सवारियों का प्रत्यक्षीकरण अन्य राहगीरों की अपेक्षा शीघ्र करेगा, जबकि पान वाला पान खाने वालों का।

(8) संगति या सम्बद्धता का नियम (Law of Symmetry) – गैस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, व्यक्ति किसी वस्तु अथवा उद्दीपक को उसके पूर्ण रूप में देखने की प्रवृत्ति रखता है। वह वस्तु की सम्बद्धता या संगति पर ध्यान देता है तथा छोटी-मोटी असम्बद्धताओं या विसंगतियों पर ध्यान नहीं देता। वस्तुतः संगति की वजह से समस्त उत्तेजना के अंग संगठित हो जाते हैं जिससे उनका सम्पूर्ण प्रत्यक्षीकरण हो जाता है। कमरे की दीवारों को प्रत्यक्षीकरण इसी संगति या संम्बद्धता के कारण है।

(9) अनुभव का नियम (Law of Experience) – प्रत्यक्षीकरण पर पहले अनुभव का भी । प्रभाव पड़ता है। जिन वस्तुओं अथवा उत्तेजनाओं को व्यक्ति को पहले से अनुभव रहता है उनका प्रत्यक्षीकरण वह शीघ्र करता है। यह इस कारण से होता है क्योंकि प्रत्यक्षीकरण करने वाला व्यक्ति पृष्ठभूमि की अन्य वस्तुओं की अपेक्षा उस वस्तु-विशेष से अधिक परिचित होता है।

(10) मनोवृत्ति का नियम (Law of Attitude) – व्यक्ति की मनोवृत्ति भी उसकी उत्तेजना के प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित करती है, क्योंकि व्यक्ति अपनी आन्तरिक प्रवृत्ति के अनुसार ही वस्तु का प्रत्यक्षीकरण करता है। उपवन में सैर कर रहे विभिन्न लोग अपनी मनोवृत्ति के अनुकूल ही फूल-पौधों का प्रत्यक्षीकरण करेंगे। माली उन्हें उगाने की विधि, मिट्टी की दशा तथा उर्वरकों की दृष्टि से; कवि या लेखक सौन्दर्यानुभूति की प्रवृत्ति से तथा युवती फूल के सौन्दर्य से आकर्षित होकर उसका प्रत्यक्षीकरण करेगी।

प्रश्न 4.
भ्रम अथवा विपर्यय (nlusion) से क्या आशय है? भ्रम की प्रकृति को स्पष्ट कीजिए तथा इसके कारणों का भी उल्लेख कीजिए।
या
भ्रम क्या है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
या
विपर्यय या भ्रम के कारणों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर :
प्रत्यक्षीकरण में हम किसी उत्तेजना या वस्तु-विशेष के यथार्थ का बोध करते हैं, किन्तु मिथ्या या त्रुटिपूर्ण प्रत्यक्षीकरण भ्रम कहलाता है। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति अपनी ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से घर के किसी प्रकोष्ठ में रस्सी का प्रत्यक्षीकरण करता है। व्यक्ति को यह यथार्थ ज्ञान हो जाता है कि यह रस्सी है। वह घर में आते-जाते, सुबह-शाम रस्सी का प्रत्यक्ष बोध करता है। एक दिन रात के अन्धेरे में इसके विपरीत घटना घटी और वह रस्सी को साँप समझ बैठा और चीखकर दौड़ पड़ा। व्यक्ति प्रत्यक्षीकरण यहाँ भी कर रहा है, किन्तु यह यथार्थ या वास्तविक नहीं है। यह विपरीत अर्थात् विपर्यये (उल्टा) प्रत्यक्षीकरण है और इसी कारण भ्रम है।

विपर्यय अथवा भ्रम का अर्थ
(Meaning of Illusion)

विपर्यय अथवा भ्रम (Ilusion) त्रुटिपूर्ण प्रत्यक्षीकरण का दूसरा नाम है। प्रत्यक्षीकरण की क्रिया में संवेगात्मक अनुभव को उचित अर्थ प्रदान किया जाता है, किन्तु जब हम अपनी संवेदनाओं को त्रुटिपूर्ण या गलत अर्थ प्रदान कर देते हैं तो हमें विपर्यय (भ्रम) हो जाता है। इसे भाँति, प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धी कोई भी त्रुटि विपर्यय के अन्तर्गत शामिल की जा सकती है। हालाँकि ऐसी त्रुटियाँ सामान्यतया होती रहती हैं, किन्तु ‘विपर्यय’ या ‘भ्रम’ शब्द का प्रयोग हम केवल उस दशा में ही करते हैं, जबकि निरीक्षण के दौरान कोई अनोखी तथा बड़ी त्रुटि हो गयी हो। भ्रम किसी स्वप्नावस्था का नाम नहीं है, क्योकि इसमें प्रत्यक्ष वस्तु सामने विद्यमान है। यह कल्पना भी नहीं है। यह तो मिथ्या या भ्रामक प्रत्यक्ष है। नींद से जागने पर अक्सर आदमी सवेरे को शाम या शाम को सवेरा समझ लेता है।

विपर्यय या भ्रम की प्रकृति स्थायी नहीं होती। यह एक क्षणिक और नितान्त अस्थायी प्रक्रिया है। जैसे ही व्यक्ति को उत्तेजक की सच्चाई का ज्ञान प्राप्त होता है, वैसे ही व्यक्ति को अपनी त्रुटि का आभास हो जाता है और उसका भ्रम दूर हो जाता है।

विपर्यय या भ्रम के प्रकार
(kinds of Illusion)

विपर्यय या श्रम साधारणतया दो प्रकार के होते हैं –

  1. व्यक्तिगत विपर्यय या भ्रम तथा
  2. सामान्य विपर्यय या भ्रम।

(1) व्यक्तिगत विपर्यय या भ्रम (Personal Illusion) – व्यक्तिगत विपर्यय या भ्रम वे हैं जो सभी व्यक्तियों में एकसमान नहीं होते। ये व्यक्ति से व्यक्ति में बदलते रहते हैं। हर एक व्यक्ति ऐसे भ्रम को अनुभव ही करे, यह अनिवार्य भी नहीं है अर्थात् इन्हें कोई अनुभव कर पाता है। अनुभव का स्वरूप भी भिन्न-भिन्न होता है। ये भ्रम क्षणिक प्रकृति के होते हैं तथा जल्दी ही दूर हो जाते हैं। उदाहरण के लिए—कुछ व्यक्ति अन्धेरे में रस्सी को साँप समझ सकते हैं, किन्तु जिस किसी ने साँथे । को देखा-सुना नहीं है, वह अन्धेरे में साँप को भी रस्सी ही समझ बैठेगा। यदि किसी ने कभी भूत के बारे में नहीं सुना है तो उसे कोई विचित्र आकृति भूत का भ्रम नहीं दे सकती।

(2) सामान्य विपर्यय’ या भ्रम (General Illusion) – सामान्य विपर्यय सार्वभौम (Universal) होते हैं। यही कारण है कि इन्हें सार्वभौमिक विपर्यय भी कहते हैं। ये दुनिया भर के सभी लोगों को समान रूप से होते हैं। इनका स्वरूप पर्याप्त रूप से स्थायी होता है। इसी कारण वास्तविकता जान लेने पर भी ये भ्रम ही रहते हैं। ऐसे भ्रमों से मुक्ति पाने के लिए अत्यधिक प्रयास करने पड़ते हैं। सामान्य विपर्यय को निम्नलिखित उदाहरणों के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है –

(i) गतिभ्रम – गतिभ्रम सामान्य या सार्वभौमिक विपर्यय का एक अच्छा उदाहरण है जिसे ‘फाई-फिनोमिना’ (Phi-Phenomena) कहते हैं। इसका प्रमाण सिनेमाघर में मिलता है। सिनेमा की रोल में थोड़े-थोड़े फासले पर किसी अभिनेता के सैकड़ों-हजारों चित्र होते हैं। रील को प्रोजेक्टर से चलाने पर पर्दे पर व्यक्ति अभिनय करता दीख पड़ता है। अभिनेता वास्तव में पर्दे पर अभिनय नहीं कर रहा है, किन्तु गति भ्रम के कारण यह सजीव जान पड़ता है। शादी-ब्याह, नुमाइश या मेले के अवसर पर बिजली के बल्बों को जला-बुझाकर गतिभ्रम कराया जाता है। कभी चक्र घूमता जान पड़ता है तो कभी बल्बों की माला चलती हुई महसूस होती है।

(ii) अक्सर किसी बस या गाड़ी से यात्रा करते समय नेत्र बन्द कर लेने से अनुभव होता है कि बस या गाड़ी उल्टी दिशा में चल रही है।
UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 6 Perception 4
(iii) इसी प्रकार किसी वाहन से सफर के दौरान हर एक व्यक्ति अनुभव करता है कि दोनों ओर के मकान, पेड़-पौधे या विभिन्न वस्तुएँ। विपरीत दिशा में भागे जा रहे हैं। टेलीफोन के खम्भों पर खिंचे तार भी ऊपर-नीचे चलते अनुभव होते हैं।
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(iv) म्यूलर-लापर विपर्यय (Muller-Lyer Illusion) – म्यूलरलायर विपर्यय या भ्रम को संलग्न चित्र में दिखाया गया है। चित्र को देखकर हर एक व्यक्ति यही बतायेगा कि अ ब रेखा ब स रेखा से बड़ी है जबकि अ * ब रेखा, ब स के एकदम बराबर है। अ सिरे पर अ अ, ब सिरे पर ब ब” तथा स सिरे पर स स रेखाओं के कारण यह भ्रम उत्पन्न होता है।

(v) जुलनर का भ्रम (Zullner’s Illusion)प्रायः हम लोग किसी वस्तु पर देर तक ध्यान केन्द्रित करके अ > तथा उसका विश्लेषण करके ही उसका प्रत्यक्षीकरण कर सट पाते हैं। जब ऐसा करना सम्भव नहीं होता तथा विरोधी उत्तेजनाओं को हम वस्तु से पृथक् नहीं कर पाते तो हमें संलग्न चित्र में प्रदर्शित भ्रम के सदृश विपर्यय हो जात्रा है। अब, सद, यर तथा ल व-ये चार खड़ी समान्तर रेखाएँ हैं, किन्तु तिरछी काटने वाली छोटी रेखाओं के कारण समानान्तर महसूस नहीं होती।
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(vi) हैरिंग का विपर्यय (Herring’s Illusion) – संलग्न चित्र में हैरिंग द्वारा प्रस्तुत एक ज्यामितीय आकृति दिखाई गयी है जिसमें अब और स द दो समान्तर पड़ी रेखाओं को कुछ रेखाएँ इस प्रकार काट रही हैं कि ये समानान्तर नहीं जान पड़तीं।

विपर्यय के कारण
(Causes of Illusion)

निःसन्देह किसी वस्तु का मिथ्या प्रत्यक्षीकरण या झूठी भ्रान्ति ही विपर्यय अथवा भ्रम है और इसके अन्तर्गत ऐसी वस्तु का प्रत्यक्षीकरण किया जाता है जो वास्तविक वस्तु से सर्वथा भिन्न है। किन्तु, ऐसा होता क्यों है ? इस प्रश्न के उत्तर की खोज में कई सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं। इन सिद्धान्तों के आधार पर ही विपर्यय या भ्रम के मुख्य कारण अग्रलिखित रूप से प्रस्तुत हैं –

(1) पूर्वधारणा या पूर्वानुभव (Preconception) – आमतौर पर लोगों को अपने पुराने अनुभवों या पूर्वधारणाओं के कारण भ्रम पैदा हो जाता है। किसी विषय-वस्तु के सन्दर्भ में पूर्वधारणाओं के कारण प्रत्यक्षीकरण विकृत होकर विपर्यय को जन्म देता है। उदाहरणार्थ-किसी मकान में कभी एक स्त्री का कत्ल कर दिया गया था। यह बात फैल गयी कि रात के समय उस स्त्री का प्रेत मकान में आता है। इस बात को जानकर कोई व्यक्ति यदि उस मकान में रात व्यतीत करे त सम्भव है कि उसे रात में किसी आवाज से प्रेत का भ्रम हो जाये या कोई आकृति भूत जैसी दिखाई पड़े। यह भ्रम सोने वाले व्यक्ति की पूर्वधारणा के कारण होगा।

(2) आशा (Expectation) – प्रायः हम किसी वस्तु या घटना की आशा करते हैं। इस आशा के अनुकूल तथा इसके कारण विपर्यय या भ्रम हो जाते हैं। देखने में आता है कि परीक्षा में किसी प्रश्न के आने की आशा में छात्र उससे मिलते-जुलते किसी अन्य प्रश्न का उत्तर लिख देते हैं। यदि अकेले सफर कर रहे यात्री को आशा हो कि आज डाकू मिलेगा तो सामान्य आदमी को देखकर भी वह भयभीत हो उठेगा। यह भ्रान्त दशा आशा के कारण है।

(3) आदतें (Habits) – यदा-कदा व्यक्ति आदतों के कारण भ्रम का शिकार हो जाता है। यदि हम किसी वस्तु को विशेष रूप में देखने की आदत रखते हैं तो उसी तरह की दूसरी वस्तुएँ देखने पर हमें पहली वस्तुओं का ही बोध होगा। यदि किसी परिचित को एक विशेष पोशाक में देखने की आदत है तो किसी अन्य को उसी पोशाक में देखकर परिचित व्यक्ति का भ्रम होगा।

(4) ज्ञानेन्द्रिय दोष (Defects of Sense Organs) – कुछ विपर्यय या भ्रम ज्ञानेन्द्रिय दोष के कारण उत्पन्न होते हैं। ज्वर से पीड़ित व्यक्ति को खाने की सभी वस्तुएँ कड़वी या नमकीन लगती हैं, पीलिया (Jaundice) का रोगी प्रत्येक वस्तु को पीला पाता है तथा सुनने का दोषी अद्भुत आवाजें सुना करता है।

(5) नेत्रगति (Eye Movement) – विपर्यय या भ्रम में नेत्रगति की विशेष भूमिका है। चित्रानुसार अ ब रेखा पर स द रेखा लम्बवत् खड़ी है। हालाँकि अ ब और स द आपस में समान लम्बाई की हैं लेकिन अ ब, से स द लम्बी महसूस होती है। यह भ्रम हमें अपनी ज्ञानेन्द्रियों की विशेषताओं के कारण होता है।

(6) नवीनता (Novelty) – नवीनता के कारण भी व्यक्ति को विपर्यय होता है। अक्सर किसी परिस्थिति या वस्तु में परिवर्तन के कारण कोई नवीनता उत्पन्न होने से उसके विषय में भ्रम उत्पन्न हो जाता है। जब हम किसी शहर में एक लम्बे समय बाद आते हैं तो वहाँ किसी खास गली या मुहल्ले के नये मकानों को देखकर उस स्थान-विशेष के बारे में भ्रम हो जाता है।

(7) संवेग (Emotion) – संवेगावस्था में व्यक्ति को बहुधा भ्रम होते हैं। संवेग की दशा में व्यक्ति असामान्य हो जाता है और गलत प्रत्यक्षीकरण करने लगता है। चोर या डाकू की आशंका से उत्पन्न भय की संवेगावस्था में दरवाजे या छत पर होने वाली जरा-सी आहट भी चोर या डाकू की उपस्थिति का भ्रम करा देती है।।

(8) उत्तेजनाओं का विरोध (Contrast of Stimuli) – दो विपरीत गुणों वाली उत्तेजनाओं के सम्मुख आने पर व्यक्ति को उसकी वास्तविकता के विषय में भ्रम हो जाता है। लम्बा व्यक्ति यदि ठिगने व्यक्ति के साथ चले तो ठिगना और अधिक ठिगना दिखाई देगा, किन्तु यदि ठिगना, ठिगने व्यक्तियों के ही साथ चलेगा तो इतना ठिगना नहीं लगेगा। यदि एक साथ बनी चाय को तीन प्यालों में डालकर उन तीन व्यक्तियों को पिलायी जाये जिनमें से एक ने पहले मिठाई खाई हो, दूसरे ने नमकीन और तीसरे ने कुछ भी न खाया-पिया हो, तो मिठाई खाने वाला चाय को कम मीठी (या फीकी), नमकीन खाने वाला अपेक्षाकृत अधिक मीठी तथा बिना कुछ खाये-पिये चाय पीने वाला व्यक्ति उसे वास्तविक रूप से मीठा बतायेगा। ऐसा वस्तुओं के विरोधी गुणों के कारण है।

(9) सम्भ्रान्ति (Confusion) – सम्भ्रान्ति से अभिप्राय है–किसी आकृति के किसी भाग का अशुद्ध या मिथ्या प्रत्यक्षीकरण। किसी आकर्षक वस्तु को देखकर हम उसके सम्पूर्ण रूप में इतना खो जाते हैं कि उसके भागों की कमी पर ध्यान ही नहीं देते। अक्सर सुन्दर आकृति से सम्भ्रान्ति का विपर्यय या भ्रम पैदा हो जाता है।

(10) समग्रतो की प्रवृत्ति (Tendency towards whole) – प्रत्यक्षीकरण में समग्रता की प्रवृत्ति पायी जाती है। किसी चित्र या दृश्य के विभिन्न रूप समग्र के गुणों पर निर्भर होते हैं। इनका अर्थ भी समग्र के अर्थ पर आधारित होता है। बादलों को ध्यानपूर्वक देखने पर उसमें कई प्रकार की आकृतियाँ दिखाई पड़ती हैं, क्योंकि बादल को समग्र रूप से देखा जाता है।

(11) परिदृश्य (Perspective) – किसी भी वास्तविक वस्तु में ये सभी माप पायी जाती हैं–लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई अथवा गहराई आदि, किन्तु वस्तु के चित्र में सामान्यतया सिर्फ लम्बाई और चौडाई ही दिखाई पड़ती है। परिदृश्य त्रिमिति (Three Dimensional) होता है। इसी कारण त्रिमित्याकार चित्रों को देखकर वे वास्तविक जैसी लगती हैं, किन्तु यह भ्रम है त्रिमित्याकार फिल्मों को एक विशेष प्रकार का चश्मा लगाकर देखा जाता है और उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि जैसे फिल्म की चीजें हमारे सिर पर आ रही हों। ऐसे भ्रम परिदृश्य के कारण हैं।

उपर्युक्त विभिन्न कारणों से भ्रम या विपर्यय होती है। भ्रम कभी किसी एक कारण या अनेक कारणों से भी हो सकता है। यह बात ध्यान रखने योग्य है कि इस प्रकार के भ्रमों को निर्मूल या निराधार भ्रम से अलग समझा जाता है।

प्रश्न 5.
विभ्रम (Hallucination) से क्या आशय है? विभ्रम के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
या
एक निराधार प्रत्यक्षीकरण के रूप में विभ्रम का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा उसके कारणों को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :

विभ्रम का अर्थ
(Meaning of Hallucination)

संवेग की अवस्था में प्रत्यक्षीकरण की दशाएँ असामान्य हो जाती हैं, किन्तु संवेग की अवस्था समाप्त हो जाने पर प्रत्यक्षीकरण पुनः सामान्य रूप से होने लगता है। प्रत्यक्षीकरण की असामान्य दशाओं में विभ्रम का अध्ययन महत्त्वपूर्ण है।

विपर्यय अथवा भ्रम की तरह से विभ्रम भी एक त्रुटिपूर्ण प्रत्यक्षीकरण है। भ्रम और विभ्रम के बीच अन्तर यह है कि भ्रम बाह्य उत्तेजक का गलत प्रत्यक्षीकरण करने से उत्पन्न होता है जबकि विभ्रम बाह्म उत्तेजक की अनुपस्थिति (अभाव) के प्रत्यक्षीकरण करने से पैदा होता है। इस प्रकार से विभ्रम, वस्तुतः निर्मूल या निराधार प्रत्यक्षीकरण है। जब हम किसी ऐसी वस्तु को देखते हैं जो सचमुच में नहीं है, ऐसी गन्ध को सँघते हैं जो वातावरण में नहीं है और ऐसी ध्वनि को सुनते हैं जो पैदा नहीं हुई तो यही विभ्रम कहलायेगा। उदाहरण के तौर पर–रेगिस्तान में दूर-दूर तक कहीं पानी नहीं है, किन्तु प्यासे हिरन को कुछ दूर पानी का स्रोत होने का निर्मूल प्रत्यक्षीकरण हो जाता है। प्यासा हिरने पानी की चाह में जैसे ही आगे बढ़ता जाता है, पानी का स्रोत वैसे ही पीछे हटता जाता है। रेगिस्तान में पानी का पूर्ण अभाव है तथापि प्राणी को पानी का प्रत्यक्षीकरण हो रहा है-यह विभ्रम हुआ।

साधारणतया ऐसा माना जाता है कि विभ्रम असामान्य व्यक्तियों में होते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार, विभ्रम वे अनुभव हैं जिनमें प्रतिमाओं को प्रत्यक्ष समझ लिया गया है। उनकी दृष्टि में विभ्रम एक स्मृति प्रतिमा (Memory Image) है जिसे संवेदना को स्वरूप प्रदान किया गया है। यह हमारे पूर्व-अनुभव पर निर्मित होती है तथा वर्तमान में सत्य लगती है। रस्सी को साँप समझना यही विपर्यय अथवा भ्रम है तो कुछ भी न होने पर साँप देख लेना विभ्रम है। यद्यपि मनुष्य को श्रवण विभ्रम अधिक होते हैं लेकिन विभ्रम हमारी किसी भी ज्ञानेन्द्रिय आँख, नाक, कान, त्वचा, जिह्वा आदि को हो सकते हैं।

विभ्रम के कारण
(Causes of Hallucination)

विभ्रम की असामान्य स्थिति उत्पन्न करने वाले प्रमुख कारण अग्रलिखित हैं –

(1) मानसिक रोग – विभ्रम सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा एक मानसिक रोगी को अधिक मत्रा में होते हैं। इसमें मानसिक रोगों में से प्रमुख रोग हैं-हिस्टीरिया, शिजोफ्रेनिया और न्यूरिस्थीनिया आदि। इन रोगियों को विभिन्न प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं; यथा-वह आकाश में उड़ा चला जा रहा है, उसके कान में तरह-तरह की आवाजें सुनाई पड़ रही हैं, उसकी नाक टेढ़ी हुई जा रही है या हाथ मुड़ रहा है आदि। इस भाँति मानसिक रोग भी विभ्रम के कारण हैं।

(2) तीव्र कल्पना शक्ति – तीव्र कल्पना शक्ति वाले लोग अधिकांशतः कल्पना-जगत् में खोये रहते हैं। ऐसे लोग गहन कल्पनाएँ करते-करते स्वयं को उसी काल्पनिक परिस्थिति में पहुँचा देते हैं। वे वास्तविक विषय-वस्तु की अनुपस्थिति में भी उसका निराधार, किन्तु वास्तविक प्रत्यक्षीकरण करने लगते हैं। यह बात अलग है कि यह प्रत्यक्षीकरण सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए वास्तविक होता है जो कल्पनाएँ कर रहे हैं।

(3) दिवास्वप्न – जब व्यक्ति चेतना (जाग्रत) अवस्था में बैठे-बैठे स्वप्न देखता है तो इसे दिवास्वप्न देखना कहते हैं। जागते हुए भी ऐसे व्यक्ति अपने मन की आँखों से कोई दूसरा ही नजारा देख रहे होते हैं। वे उसमें इतने लवलीन रहते हैं कि उन्हें वह नजारा एकदम सच जान पड़ता है। यह दिवास्वप्न के कारण विभ्रम की स्थिति है।

(4) अचेतन मन – अचेतन मन की इच्छाएँ विभ्रम का कारण बनती हैं। फ्रॉयड के अनुसार, व्यक्ति की अपूर्ण इच्छाएँ अन्ततोगत्वा अचेतन मन में चली जाती हैं। कोई तीव्र एवं शक्तिशाली इच्छा अचेतन रूप से व्यक्ति पर प्रभाव डाल सकती है और वहीं से उसके व्यवहार को संचालित कर सकती है। अचेतन मन में बसी यह प्रबल इच्छा विभ्रम उत्पन्न कर सकती है।

(5) मादक द्रव्य – मादक द्रव्यों का सेवन करने वाले लोग भी विभ्रम का शिकार हो जाते हैं। मादक द्रव्य यथा शराब, अफीम, भाँग, गाँजा तथा चरस आदि के सेवन से चेतना शक्ति प्रभावित होती है। इस अवस्था में या तो चेतना शक्ति समाप्त हो जाती है या कमजोर पड़ जाती है और विभ्रम उत्पन्न करती है। एक शराबी को सरलता से विभ्रम हो जाते हैं।

(6) चिन्तनशील प्रवृत्ति – अधिक विचारशील एवं चिन्तनशील व्यक्ति भी विभ्रम के शिकार होते हैं। ऐसे व्यक्ति निरन्तर एक ही बात सोचते रहते हैं और उसी से सम्बन्धित प्रत्यक्ष करने लगते हैं। जो विभ्रम के कारण है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संवेदन का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में संवेदना (Sensation) का विशेष महत्त्व है। वास्तव में अभीष्ट संवेदना के आधार पर ही प्रत्यक्षीकरण होता है। संवेदना के अभाव में प्रत्यक्षीकरण हो ही नहीं सकता। अब प्रश्न उठता है कि संवेदना से क्या आशय है अर्थात् संवेदना किसे कहते हैं? वास्तव में, जब कोई व्यक्ति या जीव किसी बाहरी विषय-वस्तु से किसी उत्तेजना को प्राप्त करता है, तब वह जो अनुक्रिया करता है, उसे ही हम संवेदना कहते हैं। सभी संवेदनाएँ इन्द्रियों द्वारा ग्रहण की जाती हैं। सैद्धान्तिक रूप से संवेदना सदैव प्रत्यक्षीकरण से पहले उत्पन्न होती है, परन्तु व्यवहार में संवेदना को ग्रहण करना तथा प्रत्यक्षीकरण सामान्य रूप से साथ-साथ ही होते हैं। संवेदनाएँ आँख, नाक, कान, जिल्ला तथा त्वचा नामक पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण की जाती हैं। प्रत्येक विषय की संवेदना विशिष्ट होती है। इस विशिष्टता के कारण ही प्रत्येक विषय का प्रत्यक्षीकरण अलग रूप में होता है। संवेदनाएँ अनेक प्रकार की होती हैं; जैसे-आंगिक संवेदनाएँ, विशेष संवेदनाएँ तथा गति संवेदनाएँ।

प्रश्न 2.
आंगिक संवेदनाओं के अर्थ एवं प्रकारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्राणियों द्वारा ग्रहण की जाने वाली एक मुख्य प्रकार की संवेदनाएँ, आंगिक संवेदनाएँ हैं। इन संवेदनाओं का सम्बन्ध प्राणियों की कुछ आन्तरिक अंगों की विशिष्ट दशाओं से होता है। आंगिक संवेदनाएँ इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण नहीं की जातीं। आंगिक संवेदनाओं के मुख्य उदाहरण हैं – खुजली अथवा पीड़ा, बेचैनी, वेदना, पुलकित होना तथा भूख एवं प्यास। आंगिक संवेदनाओं के तीन वर्ग या प्रकार निर्धारित किये गये, जिनका सामान्य परिचय निम्नलिखित है –

(अ) निश्चित स्थानवाली आंगिक संवेदनाएँ-जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इस प्रकार की आंगिक संवेदनाओं का शरीर में निश्चित स्थान होता है अर्थात् व्यक्ति या जीव यह स्पष्ट रूप से जान लेता है कि संवेदना शरीर के किस अंग या भाग से सम्बन्धित है। उदाहरण के लिए—खुजली अथवा दर्द की संवेदना निश्चित स्थाने वाली आंगिक संवेदना होती है।

(ब) अनिश्चित स्थान वाली आंगिक संवेदनाएँ—इस वर्ग में उन आंगिक संवेदनाओं को सम्मिलित किया जाता है, जिनकी उत्तेजना का स्थान शरीर में स्पष्ट रूप से जाना नहीं जा सकता। इस प्रकार की मुख्य संवेदनाएँ हैं-बेचैनी, वेदना तथा आनन्दित अथवा पुलकित होने की संवेदनाएँ।

(स) अस्पष्ट स्थान वाली आंगिक संवेदनाएँ-तीसरे वर्ग या प्रकार की संवेदनाओं को अस्पष्ट स्थान वाली आंगिक संवेदनाएँ कहा जाता है। इस प्रकार की आंगिक संवेदनाओं के स्थान को शरीर में स्पष्ट रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता। भूख तथा प्यास की संवेदनाएँ इसी प्रकार की आंगिक संवेदनाएँ हैं।

प्रश्न 3.
विशेष संवेदनाओं के अर्थ एवं प्रकारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्राणियों द्वारा अपनी इन्द्रियों के माध्यम से जिन संवेदनाओं को ग्रहण किया जाता है, उन संवेदनाओं को विशेष संवेदनाएँ कहा जाता है। विशेष संवेदनाओं का सम्बन्ध बाहरी विषय-वस्तुओं से होता है अर्थात् इन संवेदनाओं की उत्पत्ति बाहरी विषय-वस्तुओं से होती है। हम कह सकते हैं कि बाहरी विषय-वस्तुओं से उत्पन्न होने वाली उत्तेजनाओं के प्रति होने वाली अनुक्रिया को विशेष । संवेदनाएँ कह सकते हैं। हम जानते हैं कि बाहरी विषय असंख्य हैं; अत: उनसे सम्बन्धित विशेष संवेदनाएँ भी असंख्य हैं। विशेष संवेदनाएँ विभिन्न इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण की जाती हैं; अतः पाँच इन्द्रियों से सम्बन्धित संवेदनाओं को ही पाँच प्रकार की विशेष संवेदनाओं के रूप में वर्णित किया जाता है, जो निम्नलिखित हैं –

(अ) दृष्टि संवेदेनाएँ – आँखों अथवा नेत्रों के माध्यम से ग्रहण की जाने वाली संवेदनाओं को दृष्टि संवेदनाएँ कहा जाता है। इस प्रकार की संवेदनाओं के लिए जहाँ एक ओर बाहरी जगत की वस्तुएँ आवश्यक हैं, वहीं साथ-ही-साथ प्रकाश का होना भी एक अनिवार्य कारक है।

(ब) घ्राण संवेदनाएँ – नाक से ग्रहण की जाने वाली संवेदनाओं को घ्राण संवेदनाएँ कहते हैं। इस वर्ग की संवेदनाओं के विभिन्न प्रकार की गन्ध ही उत्तेजना की भूमिका निभाती है। सामान्य रूप से दो प्रकार की गन्ध मानी जाती है अर्थात् सुगन्ध तथा दुर्गन्ध।

(स) श्रवण संवेदनाएँ – उन विशेष संवेदनाओं को श्रवण संवेदनाएँ माना जाता है, जो कानों के माध्यम से ग्रहण की जाती हैं। इस वर्ग की संवेदनाओं को हम ध्वनि तरंगों के माध्यम से ग्रहण करते हैं।

(द) स्पर्श संवेदनाएँ – त्वचा द्वारा ग्रहण की जाने वाली संवेदनाओं को स्पर्श संवेदनाएँ कहते हैं। स्पर्श संवेदनाओं का क्षेत्र काफी व्यापक है तथा हम विभिन प्रकार का ज्ञान इन्हीं संवेदनाओं के माध्यम से प्राप्त करते हैं। सामान्य रूप से स्पर्श संवेदनाओं के माध्यम से हम कोमलता एवं कठोरता, छोटे-बड़े एवं ऊँचे तथा गर्म एवं ठण्डे का ज्ञान प्राप्त करते हैं।

(य) स्वाद संवेदनाएँ – जीभ द्वारा ग्रहण की जाने वाली विशेष संवेदनाओं को हम स्वाद संवेदनाएँ कहते हैं। इन संवेदनाओं के लिए विभिन्न वस्तुओं के अलग-अलग स्वाद ही उत्तेजना होते हैं। जीभ के भिन्न-भिन्न भागों से भिन्न-भिन्न स्वादों की जानकारी प्राप्त होती है।

प्रश्न 4.
गति संवेदनाओं के अर्थ एवं प्रकारों को स्पष्ट कीजिए।
उतर :
गति से सम्बन्धित संवेदनाओं को गति संवेदना के नाम से जाना जाता है। सामान्य रूप से शरीर के जोड़ों, कण्डराओं तथा मांसपेशियों के माध्यम से गति संवेदनाओं को ग्रहण किया जाता है। गति संवेदनाओं के मुख्य उदाहरण हैं-खिंचाव, तनाव तथा सिकुड़न। गति संवेदनाओं की अनुभूति जहाँ एक ओर शरीर की विभिन्न मांसपेशियों के तथा स्नायु तन्तुओं द्वारा होती है, वहीं दूसरी ओर पूरी त्वचा का भी गति संवेदनाओं से सम्बन्ध होता है। ये संवेदनाएँ अग्रलिखित तीन प्रकार की होती हैं –

(अ) स्थिति से सम्बन्धित गति संवेदनाएँ – प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव है कि यश-कदा बैठे-बैठे ही व्यक्ति की भुजाओं या जंघाओं की मांसपेशियों में एक विशेष प्रकार की कम्पन्न या गति होने लगती है। इस गति के लिए न तो अंगों को हिलाया जाता है और न ही फैलाया जाता है। इस प्रकार की संवेदनाओं को स्थिति से सम्बन्धित गति संवेदनाएँ कहते हैं।

(ब) स्वच्छन्द गति संवेदनाएँ – गति संवेदनाओं का एक प्रकार या रूप है–स्वच्छन्द गति संवेदनाएँ। इस प्रकार की गति संवेदनाएँ उस समय अनुभव की जाती हैं, जब शरीर के अंगों को मुक्त रूप से इधर-उधर हिलाया जाता है।

(स) प्रतिरुद्ध गति संवेदनाएँ – शरीर के विभिन्न मांसपेशियों के माध्यम से अनुभव की जाने वाली एक प्रकार की गति संवेदनाओं को प्रतिरुद्ध गति संवेदनाएँ कहा जाता है। जब हम किसी वस्तु पर दबाव डालते हैं, या भारी वस्तु को उठाते हैं, तब अनुभव की जाने वाली संवेदना को प्रतिरुद्ध गति संवेदना कहते हैं।

प्रश्न 5.
संवेदना तथा प्रत्यक्षीकरण में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
संवेदना तथा प्रत्यक्षीकरण में अन्तर
UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 6 Perception 7 UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 6 Perception 8

प्रश्न 6.
प्रत्यक्षीकरण पर संवेग का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
संवेग एक भावनात्मक मनोवैज्ञानिक अवस्था है और प्रत्यक्षीकरण किसी उत्तेजक (वस्तु, घटना या व्यक्ति) का बाद का ज्ञान है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में अनेकानेक संवेगों की अनवरत अनुभूति करती है; जैसे-क्रोध, भय, प्रेम, घृणा, शोक, हर्ष तथा आश्चर्य इत्यादि की अनुभूतियाँ। संवेग मनुष्य के व्यवहार से सम्बन्धित एक जटिल अवस्था है जो मनुष्य के विभिन्न मनोवैज्ञानिक अवयवों को प्रभावित करती है। संवेग का प्रत्यक्षीकरण पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि कोई व्यक्ति किसी विशिष्ट संवेग की अवस्था में है तो वह अपने सम्मुख उपस्थित उत्तेजक अर्थात् वस्तु, घटना या व्यक्ति को यथार्थ एवं सही-सही प्रत्यक्षीकरण नहीं कर सकता। यदि कोई व्यक्ति अत्यधिक शोक संतप्त है तो ऐसी संवेगावस्था में वह शुभ विवाह की मधुर शहनाई का भी कर्कश एवं पीड़ादायक संगीत के रूप में प्रत्यक्षीकरण करेगा। भले ही क्रोधित व्यक्ति के सामने दुनिया के स्वादिष्टतम व्यंजन परोस दिये जाएँ उसे तो वे स्वादहीन ही अनुभव होंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि समस्त शक्तिशाली संवेग यथार्थ प्रत्यक्षीकरण के प्रति विपरीत कारक समझे जायेंगे और जितनी ही प्रबल संवेगावस्था होगी उतना ही गलत प्रत्यक्षीकरण भी हो सकता है। वस्तुत: सही प्रत्यक्षीकरण के लिए संवेगमुक्त एवं तटस्थ मानसिक दशा एक पहली शर्त है। मोटे तौर पर, जिस रंग का चश्मा व्यक्ति लगायेगा सामने की वस्तु भी उसी के अनुसार दिखाई देगी। संवेगावस्था तो एक रंगीन चश्मा है और प्रत्यक्षीकरण दीख पड़ने वाली वस्तु। स्पष्ट प्रत्यक्षीकरण के लिए व्यक्ति की भावनाएँ किसी संवेग से रँगी न हों, अन्यथा संवेग प्रत्यक्षीकरण को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकेगा।

प्रश्न 7.
भ्रम (विपर्यय) तथा विभ्रम में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भ्रम (विपर्यय) तथा विभ्रम में अन्तर

UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 6 Perception 9

प्रश्न 8.
रंग-प्रत्यक्षीकरण से क्या आशय है?
उत्तर :
रंगों के प्रत्यक्षीकरण से आशय है–सम्बन्धित विषय-वस्तु के रंग को देखना एवं पहचानना। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत रंगों के अन्तर का भी ज्ञान प्राप्त होता है। किसी भी वस्तु के रंग का निर्धारण उससे निगमित ‘प्रकाश-तरंगों द्वारा होता है अर्थात् रंग-प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में प्रकाश-तरंगों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। वास्तव में, रंग अपने आप में कोई स्वतन्त्र या अलग। विषय-वस्तु नहीं है, जिसका हम प्रत्यक्षीकरण करते हैं बल्कि रंग का निर्धारण विषय-वस्तु से निकलने वाली प्रकाश-तरंगों की लम्बाई से होता है। भिन्न-भिन्न वस्तुओं से निकलने वाली प्रकाश-तरंगों की लम्बाई भिन्न-भिन्न होती है तथा इसी लम्बाई से ही वस्तु के रंग के स्वरूप का निर्धारण होता है। समस्त प्रकार की तरंगें प्रकाश के किसी मूल स्रोत से सम्बन्धित होती हैं। हमारे विश्व में प्रकाश का मुख्यतम एवं सबसे बड़ा स्रोत सूर्य है। इसके अतिरिक्त चाँद एवं तारे भी प्रकाश के प्राकृतिक स्रोत हैं। कृत्रिम स्रोतों में दीपक की लौ तथा विद्युत बल्ब को भी प्रकाश का स्रोत माना जा सकता है। हम जानते हैं कि जब विद्युत-धारा बल्ब के तार में प्रवाहित होती है तो वह प्रकाश में परिवर्तित हो जाती है। प्रकाश ही वह एकमात्र कारक है, जिसके माध्यम से हम बाहरी वस्तुओं को देखते हैं। बाहरी वस्तुओं को दिखाने वाला प्रकाश हमारी आँखों तक मुख्य रूप से दो प्रकार से पहुँचता है। अपने प्रथम रूप में प्रकाश की किरणें या तरंगें सीधे ही हमारी आँखों तक पहुँचती हैं। दूसरे रूप में प्रकाश की किरणें पहले किसी वस्तु पर पड़ती हैं तथा इसके उपरान्त उस वस्तु से परावर्तित होकर हमारी आँखें पर पड़ती हैं। भौतिक विज्ञान के अध्ययनों द्वारा ज्ञात हो चुका है कि प्रकाश की तरंगों की लम्बाई भिन्न-भिन्न होती है। जहाँ तक हमारी आँखों की प्रकृति का प्रश्न है तो यह सत्य है कि हमारी आँखें 4000 से 7800 8 तक की तरंग दैर्घ्य (1 ऍग्स्ट्रम = 10-10 मीटर) वाली प्रकाश-तरंगों को ही ग्रहण कर सकती हैं। हमारी आँखें इससे अधिक लम्बाई वाली तरंगों को सामान्य रूप से ग्रहण करने की क्षमता नहीं रखती। इसका कारण यह है कि एक सीमा से अधिक लम्बाई वाली प्रकाश-तरंगें प्रकाश के स्थान पर ताप की संवेदना देने लगती हैं। कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं, जिन पर किसी स्रोत से प्रकाश पड़ने पर वे हमें दिखाई देती हैं तथा उनके प्रभाव से अन्य वस्तुओं को भी देखा जा सकता है। इन वस्तुओं को प्रकाशमान वस्तुएँ कहा जाता है। वास्तव में ये वस्तुएँ प्रकाश का परावर्तन करती हैं। इससे भिन्न कुछ वस्तुएँ ऐसी भी होती हैं जिनमें न तो अपना प्रकाश होता है और न ही वे प्रकाश का परावर्तन ही कर पाती हैं। इन वस्तुओं को प्रकाशहीन वस्तुएँ कहा जाता है। इस प्रकार की वस्तुएँ हर प्रकार के बाहरी प्रकाश को अवशोषित कर लेती हैं। प्रकाश की तरंगों एवं विभिन्न वस्तुओं के गुणों का उल्लेख करने के उपरान्त हम कह सकते हैं कि किसी वस्तु के रंग का निर्धारण एवं प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धित वस्तु से परावर्तित होने वाली प्रकाश-तरंगों की लम्बाई के आधार पर होता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
टिप्पणी लिखिए-संवेदना व प्रत्यक्षीकरण।
उत्तर :
संवेदना (Sensation) तथा प्रत्यक्षीकरण (Perception) में घनिष्ठ सम्बन्ध है तथा इन दोनों का अध्ययन साथ-साथ ही किया जाता है। संवेदना में प्राणी वस्तु का सिर्फ प्रथम ज्ञान ही अनुभव करता है, वस्तु का वास्तविक अर्थ वह नहीं समझ पाता। कोई व्यक्ति हरे-पीले रंग की गोल वस्तु देखता है, यह छूने में चिकनी और दबाने में रसदार है, सँघने पर उसकी विशेष गन्ध तथा जीभ द्वारा चखने पर तीव्र खट्टे स्वाद की संवेदना होती है। दृष्टि, स्पर्श, घ्राण एवं स्वाद की विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों की अलग-अलग संवेदनाओं से उस वस्तु का सही अर्थ पता नहीं चलता। इसके लिए इन सभी संवेदनाओं को मिलाकर समन्वित तथा समष्टि रूप में देखा जायेगा तथा सभी संवेदनाओं के अर्थ की व्याख्या करनी होगी। इस व्याख्या में संवेदनाओं के साथ प्रत्यभिज्ञा (सदृश वस्तु देखकर किसी पहले देखी हुई वस्तु का स्मरण) का योगदान रहने से वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान हो जाता है। इसे प्रत्यक्षीकरण कहते हैं। यह प्रत्यक्षीकरण वर्तमान में घटने वाली घटना, किसी प्राणी अथवा किसी वस्तु का होता है।

प्रश्न 2.
प्रत्यक्षीकरण की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
प्रत्यक्षीकरण में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं –

  1. प्रत्यक्षीकरण एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है।
  2. इसके द्वारा हमें सम्पूर्ण स्थिति का ज्ञान होता है। हम किसी वस्तु या घटना को उसके अलग-अलग अंगों के रूप में नहीं वरन् सम्पूर्ण रूप में देखते हैं।
  3. प्रत्यक्षीकरण में सबसे पहले वस्तु या उत्तेजक उपस्थित होता है।
  4. यह उसैजक ज्ञानेन्द्रियों या संग्राहकों को प्रभावित करता है जिसके फलस्वरूप ज्ञानवाही स्नायुओं का प्रवाह शुरू होता है।
  5. यह स्नायु प्रवाह मस्तिष्क केन्द्र तक पहुँचता है और उत्तेजक की संबेदना अनुभव की जाती है।
  6. अब इस संवेदना में पूर्ण संवेदना के आधार पर अर्थ जोड़कर व्याख्या की जाती है और इस भॉति प्रत्यक्षीकरण हो जाता है।
  7. प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से हम अपने चारों ओर की वस्तुओं में से उस वस्तु का चयन कर लेते हैं जिसका हमसे सम्बन्ध है स्वभावतः उसी की ओर हमारा ध्यान भी हो जाता है।
  8. प्रत्यक्षीकरण का आधार परिवर्तन है क्योंकि परिवर्तन की वजह से ही प्रत्यक्षीकरण होता है। हमारे चारों ओर उपस्थित विभिन्न वस्तुओं में से उस वस्तु का प्रत्यक्षीकरण शीघ्र होगा जो परिवर्तित हो रही है।
  9. प्रत्यक्षीकरण में संगठन की विशेषता पायी जाती है, और अन्ततः
  10. प्रत्यक्षीकरण में संवेदनात्मक पूर्व ज्ञान का अधिक समावेश रहता है।

प्रश्न 3.
व्यक्तिगत तथा सामान्य भ्रमों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
त्रुटिपूर्ण प्रत्यक्षीकरण को भ्रम या विभ्रम कहते हैं। भ्रम दो प्रकार के होते हैं—व्यक्तिगत भ्रम तथा सामान्य भ्रम। इन दोनों प्रकार के भ्रमों में कुछ मौलिक अन्तर होते हैं। व्यक्तिगत भ्रमों का स्वरूप भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के सन्दर्भ में भिन्न-भिन्न होता है। उदाहरण के लिए कम प्रकाश में किसी व्यक्ति द्वारा रस्सी को साँप समझ बैठना एक व्यक्तिगत भ्रम है। हो सकता है कि इसी परिस्थिति में कोई अन्य व्यक्ति भ्रमित न हों तथा रस्सी को रस्सी ही समझे। इससे भिन्न सामान्य भ्रम सार्वभौमिक होते हैं, अर्थात् इस प्रकार के भ्रमों की स्वरूप सभी व्यक्तियों के लिए एकसमान ही होता है। उदाहरण के लिए पानी में पड़ी छड़ टेढ़ी दिखाई देती है। यह एक सामान्य भ्रम है जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए एकसमान होता है।

प्रश्न 4.
विभ्रम में संवेगों की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
सामान्यजनों में विभ्रम की उत्पत्ति संवेगों की प्रबलता के कारण होती है। कोई शक्तिशाली भय का संवेग हमारे अन्दर विभ्रम उत्पन्न कर सकता है; जैसे-श्मशान या कब्रिस्तान के मार्ग से गुजरते हुए हमें प्रेत या जिन्न को विभ्रम हो सकता है। संवेगावस्था में अयथार्थ तथा आत्मनिष्ठ प्रत्यक्षीकरण होता है और इस कारण विभ्रम उत्पन्न हो सकता है। इसके अतिरिक्त संवेग की दशा में आन्तरिक उद्दीपन होते हैं तथा अनायास ही शारीरिक परिवर्तन आते हैं जिनके कारण व्यक्तियों में विभ्रम की सम्भावना रहती है। संवेग की दशा में सामान्य कार्य-व्यापार अवरुद्ध हो जाते हैं तथा व्यक्ति का जीवन असन्तुलित हो जाता है जिसके फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले विभ्रम असामान्य व्यवहार द्वारा अभिव्यक्त होते हैं। कभी-कभी यह असामान्यता पागलपन की दशा में बदल जाती है; अतः इसे दूर करने के लिए तत्काल उपाय वांछित हैं।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न I.
निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए। –

  1. किसी बाहरी विषय-वस्तु से प्राप्त होने वाली उत्तेजना के प्रति व्यक्ति द्वारा की जाने वाली अनुक्रिया को मनोविज्ञान की भाषा में …………………. कहते हैं।
  2. उद्दीपक द्वारा …………………. घटित होती है।
  3. संवेदना किसी उद्दीपक का प्रथम प्रत्युत्तर है और …………………. प्राणी की संवेदना के पश्चात् का द्वितीय प्रत्युत्तर है जो संवेदना से ही सम्बन्धित होता है।
  4. बाहरी विषय-वस्तुओं का इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया ही …………………. है।
  5. जब किसी संवेदना को अर्थ प्रदान कर दिया जाता है तब उसे …………………. कहते हैं।
  6. संवेदना को …………………. की कच्ची सामग्री माना जाता है।
  7. प्रत्यक्षीकरण एक …………………. मानसिक प्रक्रिया है, जब कि संवेदना एक सरल मानसिक प्रक्रिया है।
  8. प्रत्यक्षीकरण में समग्रता पर बल देने वाले मत को …………………. कहते हैं।
  9. वस्तुओं को समग्र रूप में देखने की प्रवृत्ति …………………. कहलाती है।
  10. जब समीप स्थित उद्दीपक नये रूप में संगठित हो जाए तो इसे प्रत्यक्षीकरणात्मक संगठन का …………………. नियम कहते हैं।
  11. संवेगावस्था में प्रत्यक्षीकरण पर …………………. प्रभाव पड़ता है।
  12. मानसिक तत्परता का प्रत्यक्षीकरण पर …………………. प्रभाव पड़ता है।
  13. त्रुटिपूर्ण प्रत्यक्षीकरण को …………………. कहते हैं।
  14. बिना किसी उद्दीपक के ही प्रत्यक्षीकरण होना …………………. कहलाता है।
  15. भ्रम एक गलत प्रत्यक्षीकरण है तथा विभ्रम …………………. ।
  16. किसी भी वस्तु के रंग का निर्धारण उससे निगमित …………………. द्वारा होता है।
  17. मानसिक रोगी प्रायः …………………. के शिकार हो जाते हैं।

उत्तर :

  1. संवेदना
  2. संवेदना
  3. प्रत्यक्षीकरण
  4. प्रत्यक्षीकरण
  5. प्रत्यक्षीकरण
  6. प्रत्यक्षीकरण
  7. जटिल
  8. गेस्टाल्टवाद
  9. समग्रता
  10. समीपता का
  11. प्रतिकूल
  12. अनुकूल
  13. भ्रम या विपर्यय
  14. विभम
  15. निराधार प्रत्यक्षीकरण
  16. प्रकाश तरंगों
  17. विमा

प्रश्न II.
निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए –

प्रश्न 1.
संवेदना का अर्थ एक वाक्य में लिखिए।
उत्तर :
किसी बाहरी विषय-वस्तु से प्राप्त होने वाली उत्तेजना के प्रति व्यक्ति द्वारा की जाने वाली अनुक्रिया को मनोविज्ञान की भाषा में संवेदना कहते हैं।

प्रश्न 2.
संवेदनाओं को ग्रहण करने वाले शरीर के अंगों को क्या कहते हैं ?
उत्तर :
संवेदनाओं को ग्रहण करने वाले शरीर के अंगों को ज्ञानेन्द्रियाँ कहते हैं।

प्रश्न 3.
हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तर :
ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं – आँख, नाक, कान, जिल्ला तथा त्वचा।

प्रश्न 4.
संवेदनाओं के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं ?
उत्तर :
संवेदनाओं के मुख्य प्रकार हैं-आंगिक संवेदनाएँ, विशेष संवेदनाएँ तथा गति संवेदनाएँ।

प्रश्न 5.
प्रत्यक्षीकरण की एक स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
स्टेगनर के अनुसार, “बाहरी वस्तुओं और घटनाओं की इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया ही प्रत्यक्षीकरण है।”

प्रश्न 6.
कोई ऐसा कथन लिखिए जिससे संवेदना तथा प्रत्यक्षीकरण का सम्बन्ध स्पष्ट होता हो।
उत्तर :
रॉस के अनुसार, “संवेदना को सही अर्थ प्रदान करना ही प्रत्यक्षीकरण है।”

प्रश्न 7.
संवेदना तथा प्रत्यक्षीकरण में मुख्य अन्तर क्या है?
उत्तर :
संवेदना किसी विषय-वस्तु का प्रथम अर्थहीन ज्ञान या अनुभूति है, जबकि प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धित विषय-वस्तु का द्वितीयक अर्थपूर्ण ज्ञान है।

प्रश्न 8.
संवेगों का प्रत्यक्षीकरण पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
संवेगावस्था में तटस्थ एवं सही प्रत्यक्षीकरण सम्भव नहीं होता है।

प्रश्न 9.
प्रत्यक्षीकरण के विषय में गैस्टाल्टवाद की क्या मान्यता है?
उत्तर :
गैस्टाल्टवाद के अनुसार, किसी विषय-वस्तु का प्रत्यक्षीकरण पहले संश्लेषणात्मक विधि द्वारा होता है तथा बाद में उसका प्रत्यक्षीकरण विश्लेषणात्मक ढंग से होता है।

प्रश्न 10.
प्रत्यक्षीकरण के समग्रता के नियम से क्या आशय है?
उत्तर :
प्रत्यक्षीकरण के समग्रता के नियम के अनुसार प्रत्यक्षीकरण में किसी वस्तु के विभिन्न अंगों को अलग-अलग प्रत्यक्षीकरण नहीं होता बल्कि सम्पूर्ण वस्तु का प्रत्यक्षीकरण एक साथ होता है।

प्रश्न 11.
भ्रम या विपर्यय से क्या आशय है?
उत्तर :
त्रुटिपूर्ण या गलत प्रत्यक्षीकरण को भ्रम या विपर्यय कहते हैं; जैसे-रस्सी को साँप समझ लेना अथवा साँप को रस्सी समझ लेना।

प्रश्न 12.
भ्रम कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर :
भ्रम दो प्रकार के होते हैं –

  1. व्यक्तिगत भ्रम तथा
  2. सामान्य भ्रम।

प्रश्न 13.
विभ्रम (Hallucination) से क्या आशय है?
उत्तर :
यथार्थ विषय-वस्तु के नितान्त अभाव में होने वाले निराधार प्रत्यक्षीकरण को विभ्रम कहते हैं।

प्रश्न 14.
सामान्य रूप से किस वर्ग के व्यक्ति विभ्रम के अधिक शिकार होते हैं?
उत्तर :
सामान्य रूप से मानसिक रोगी विभ्रम के अधिक शिकार होते हैं।

प्रश्न 15.
भ्रम तथा विभ्रम में मुख्य अन्तर क्या है?
उत्तर :
भ्रंम एक गलत या त्रुटिपूर्ण प्रत्यक्षीकरण होता है, जबकि विभ्रम एक निराधार प्रत्यक्षीकरण होता है।

प्रश्न 16.
रंगों का प्रत्यक्षीकरण किसके माध्यम से होता है?
उत्तर :
रंगों का प्रत्यक्षीकरण प्रकाश की तरंगों के माध्यम से होता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए –

प्रश्न 1.
प्राणी में अनुक्रिया प्रारम्भ करने के लिए क्या आवश्यक है?
(क) उद्दीपक
(ख) संवेग
(ग) रुचि
(घ) वातावरण

प्रश्न 2.
किसी बाहरी विषय-वस्तु की प्रथम अनुभूति को कहते हैं –
(क) प्रत्यक्षीकरण
(ख) प्रतिमा
(ग) संवेदना
(घ) कल्पना

प्रश्न 3.
किसी बाहरी विषय-वस्तु का सही ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया को कहते हैं
(क) संवेदना
(ख) प्रत्यक्षीकरण
(ग) स्मरण
(घ) संज्ञान

प्रश्न 4.
“संवेदना का सही अर्थ निकालना ही प्रत्यक्षीकरण है।” यह कथन किसका है?
(क) मैक्डूगल
(ख) वुडवर्थ
(ग) रॉस
(घ) बोरिंग

प्रश्न 5.
प्रत्यक्षीकरण विभिन्न इन्द्रियों की सहायता से पदार्थ अथवा उनके आधारों का ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया है।” यह परिभाषा किसके द्वारा प्रतिपादित है?
(क) वुडवर्थ
(ख) स्टेगनर
(ग) कालिन्स एवं ड्रेवर
(घ) विलियम जेम्स

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से कौन प्रत्यक्षीकरणात्मक संगठन का नियम नहीं है?
(क) समीपता
(ख) समानता
(ग) अन्तर्मुखता
(घ) निरन्तरता

प्रश्न 7.
जर्मनी में व्यवहारवाद के विरुद्ध प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से मानव स्वभाव को समझने के लिए जिस विचारधारा का जन्म हुआ, उसका नाम है –
(क) साहचर्यवाद
(ख) मनोविश्लेषणवाद
(ग) प्रयोजनवाद
(घ) गैस्टाल्टवाद

प्रश्न 8.
सेट प्रत्यक्षीकरण पर सकारात्मक प्रभाव डालता है, जब वह –
(क) एक हो
(ख) दो हो।
(ग) दो से अधिक हो
(घ) अनगिनत हो

प्रश्न 9.
किसी ‘आकृति के प्रत्यक्षीकरण के लिए क्या आवश्यक है?
(क) अधिगम
(ख) पृष्ठभूमि
(ग) चिन्तन
(घ) कल्पना

प्रश्न 10.
जब हम कोई ऐसी आकृति देखते हैं जिसका कोई अंग अपूर्ण है, परन्तु हम उस अपूर्णता की ओर ध्यान नहीं देते तथा आकृति का प्रत्यक्षीकरण पूर्ण रूप में ही करते हैं। ऐसा प्रत्यक्षीकरण के किस नियम के अनुसार होता है?
(क) निरन्तरता का नियम
(ख) आच्छादन का नियम
(ग) समीपता का नियम
(घ) सम्बद्धता का नियम

प्रश्न 11.
किसी भी संवेदना के गलत अर्थ प्रदान करने की प्रक्रिया को कहते हैं –
(क) संवेग
(ख) चिन्तन
(ग) भ्रम
(घ) विभ्रम

प्रश्न 12.
मन्द प्रकाश में आँगन के कोने में साँप को देखकर रस्सी समझ लेना क्या है?
(क) विभ्रम
(ख) प्रत्यक्षीकरण
(ग) भ्रम
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 13.
मन्द प्रकाश में गोल आकृति में रखी हुई रस्सी समझ लेना है –
(क) विभ्रम
(ख) प्रत्यक्षीकरण
(ग) भ्रम
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 14.
किसी बाहरी विषय-वस्तु के अस्तित्व के नितान्त अभाव की स्थिति में होने वाले प्रत्यक्षीकरणको कहते हैं –
(क) विशेष प्रत्यक्षीकरण
(ख) शुद्ध प्रत्यक्षीकरण
(ग) भ्रम या त्रुटिपूर्ण प्रत्यक्षीकरण
(घ) विभ्रम

प्रश्न 15.
निम्नलिखित में से किसमें उद्दीपक अनुपस्थित रहता है?
(क) संवेदना
(ख) विभ्रम
(ग) भ्रम
(घ) प्रत्यक्षीकरण

प्रश्न 16.
प्रबल संवेगावस्था में प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया
(क) सर्वोत्तम होती है।
(ख) दोषपूर्ण होती है।
(ग) यथार्थ होती है
(घ) सम्पन्न हो ही नहीं सकती

उत्तर :

  1. (क) उद्दीपक
  2. (ग) संवेदना
  3. (ख) प्रत्यक्षीकरण
  4. (ग) रॉस
  5. (क) वुडवर्थ
  6. (ग) अन्तर्मुखता,
  7. (घ) गैस्टाल्टवाद
  8. (ग) दो से अधिक हो
  9. (ख) पृष्ठभूमि
  10. (ख) औच्छिादन का नियम
  11. (ग) अम
  12. (ग) भ्रम
  13. (ग) प्रम
  14. (घ) विषम
  15. (ख) विश्रम
  16. (ख) दोषपूर्ण होती है।

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UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 12 Statistics in Psychology

UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 12 Statistics in Psychology (मनोविज्ञान में सांख्यिकीय गणना) are part of UP Board Solutions for Class 11 Psychology. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 12 Statistics in Psychology (मनोविज्ञान में सांख्यिकीय गणना).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Psychology
Chapter Chapter 12
Chapter Name Statistics in Psychology
(मनोविज्ञान में सांख्यिकीय गणना)
Number of Questions Solved 66
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 12 Statistics in Psychology (मनोविज्ञान में सांख्यिकीय गणना)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सांख्यिकी का अर्थ स्पष्ट कीजिए। सांख्यिकी को परिभाषित कीजिए।
या
सांख्यिकी से आप क्या समझते हैं? इसे परिभाषित करते हुए बताइए कि आप किस परिभाषा को उपयुक्त समझते हैं और क्यों?
या
“सांख्यिकी गणना का विज्ञान है।’ इस कथन की व्याख्या करते हुए समझाइए कि आपकी दृष्टि में सांख्यिकी की सही परिभाषा क्या होनी चाहिए?

उत्तर :

सांख्यिकी का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definition of Statistics)

‘सांख्यिकी अंग्रेजी शब्द ‘स्टैटिस्टिक्स (Statistics) का हिन्दी रूपान्तर है। अंग्रेजी भाषा का स्टैटिस्टिक्स (Statistics) शब्द लैटिन भाषा के ‘स्टेटस (Status), इटैलियन भाषा के ‘स्टैटिस्टा (Statista) या जर्मन भाषा के स्टैटिस्टिक’ (Statistik) शब्द से उत्पन्न हुआ है। इन सभी शब्दों का अर्थ राज्य (State) होता है। इस प्रकार प्रारम्भ में सांख्यिकी का प्रयोग राज्य विज्ञान के रूप में किया जता था। वास्तविक रूप में सांख्यिकी’ शब्द का प्रयोग करने का श्रेय जर्मन विद्वान् गॉटफ्रायड एकेनॉल (Gottfried Achenwall) को जाता है। उन्होंने 1749 ई० में सांख्यिकी को मानव ज्ञान की एक विशिष्ट शाखा के रूप में प्रयोग किया।

सांख्यिकी’ (Statistics) शब्द का दो अर्थों में प्रयोग होता है—एक ‘एकवचन’ में तथा दूसरा ‘बहुवचन’ में। एकवचन के अर्थ में ‘सांख्यिकी’ का प्रयोग एक विज्ञान के रूप में किया जाता है। बहुवचन के अर्थ में ‘सांख्यिकी का प्रयोग आँकड़ों, संख्याओं या समंकों के रूप में लिया जाता है।

अब हम ‘सांख्यिकी’ (Statistics) शब्द की परिभाषा का उपर्युक्त दोनों ही अर्थों में अध्ययन करेंगे।

बहुवचन के रूप में सांख्यिकी का अर्थ एवं परिभाषाएँ

बहुवचन के रूप में ‘साख्यिकी’ शब्द का अर्थ समंकों या आँकड़ों से है जो किसी विशिष्ट क्षेत्र से सम्बन्धित संख्यात्मक तथ्य होते हैं। जनसंख्या, शिक्षा, कृषि, स्त्री-शिक्षा, प्रौढ़-शिक्षा आदि से सम्बन्धित आँकड़े बहुवचन के रूप में होते हैं।

(1) गॉटफ्रायड एकेनवाल के अनुसार, “राज्य से सम्बन्धित ऐतिहासिक और विवरणात्मक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का संग्रह ‘समंक’ है।”

(2) डॉ० ए० एल० बाउले के अनुसार, “किसी अनुसन्धान से सम्बन्धित तथ्यों का अंकात्मक विवरण ‘समंक’ होते हैं, जिन्हें एक-दूसरे के सम्बन्ध में रखा जा सकता है।”

(3) होरेस सेक्राइस्ट के अनुसार, “सांख्यिकी से हमारा तात्पर्य तथ्यों के उन समूहों से है जो अनेक कारणों से पर्याप्त सीमा तक प्रभावित होते हैं, जो संख्यात्मक रूप से व्यक्त किये जाते हैं, जिनकी गणना या अनुमान शुद्धता के एक उचित स्तर तक की जाती है तथा जिन्हें किसी पूर्व निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए क्रमबद्ध ढंग से संगृहीत किया जाता है तथा जिन्हें एक-दूसरे से सम्बन्धित करके रखा जाता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं में होरेस सेक्राइस्ट की परिभाषा ही सर्वश्रेष्ठ है। इस परिभाषा में समंकों की सभी विशेषताओं पर पूर्ण प्रकाश डाला गया है।

एकवचन अर्थात् विज्ञान के रूप में सांख्यिकी की परिभाषाएँ

एकवचन के रूप में ‘सांख्यिकी’ शब्द का प्रयोग एक विज्ञान की दृष्टि से किया जाता है। सांख्यिकी विज्ञान की परिभाषाओं को तीन भागों में विभक्त किया गया है –

(क) संकुचित परिभाषाएँ

प्रारम्भ में सांख्यिकी को एक राज्य-विषय के रूप में जाना जाता था; अतः प्राचीन परिभाषाएँ सांख्यिकी के केवल कुछ पहलुओं पर प्रकाश डालती है जो कि निम्नलिखित हैं

(1) बॉडिंगटन (Boddington) के अनुसार, “सांख्यिकी अनुमानों और सम्भावनाओं का विज्ञान है।” बॉडिंगटन की परिभाषा में सांख्यिकी के क्षेत्र को संकुचित कर दिया गया है। इन्होंने इसे केवल विज्ञान माना है, न कि विज्ञान और कला दोनों।

(2) डॉ० बाउले ने सांख्यिकी की तीन परिभाषाएँ दी हैं –

(i) “सांख्यिकी गणना का विज्ञान है।”
उपर्युक्त परिभाषा में सांख्यिकीय अनुसन्धान की अनेक विधियों में से केवल गणना विधि को महत्त्व दिया गया है, किन्तु केवल गणना ही सांख्यिकीय नहीं है। विशाल संख्याओं का तो मात्र अनुमान लगाया जाता है, उनकी गणना नहीं की जाती; अतः यह परिभाषा अधूरी है।

(ii) “सांख्यिकी को सही रूप में औसतों को विज्ञान कहा जा सकता है।”
प्रस्तुत परिभाषा में औसत पर बल दिया गया है। सांख्यिकीय विश्लेषण में न केवल औसत (मध्य) का प्रयोग होता है अपितु अपकिरण, विषमता, सह-सम्बन्धन आदि का भी प्रयोग किया जाता है; अतः यह परिभाषा भी अधूरी है।

(iii) “सांख्यिकी, सामाजिक व्यवस्था को सम्पूर्ण मानकर माप का विज्ञान है।”
डॉ० बाउले ने इस परिभाषा में सांख्यिकी को केवल सामाजिक संस्थाओं एवं उनके क्रिया-व्यवहार के मापन का विज्ञान कहा है। इस प्रकार गैर सामाजिक क्रियाएँ सांख्यिकी के क्षेत्र से बाहर कर सांख्यिकी का क्षेत्र अति संकुचित बना दिया गया है।

(3) पर्सन और हार्लोज के शब्दों में, “सांख्यिकी तथ्यों के समूह को प्रयोग में लाने का विज्ञान और कला है।”

प्रस्तुत परिभाषा में विश्लेषण की विधियों को स्पष्ट नहीं किया गया है।

(ख) विस्तृत परिभाषाएँ

(1) क्रॉक्स्टन और काउडेन के अनुसार, “सांख्यिकी को संख्यात्मक, समंकों के एकत्रीकरण, प्रस्तुतीकरण, विश्लेषण तथा निर्वचन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।”

(2) प्रो० सैलिगमैन के अनुसार, “सांख्यिकी वह विज्ञान है जो किसी भी अनुसन्धान (जाँच) के क्षेत्र पर प्रकाश डालने के लिए संख्यात्मक आँकड़ों के संग्रहण, प्रस्तुतीकरण, वर्गीकरण, तुलना तथा निर्वचन की रीतियों का प्रयोग करता है।”

(3) लाविट के अनुसार, “सांख्यिकी वह विज्ञान है जो संख्यात्मक तथ्यों के संग्रह, वर्गीकरण तथा सारणीयन से सम्बन्ध रखता है जिसे घटनाओं की व्याख्या, विवरण और तुलना के लिए प्रयुक्त किया जा सके।

उपर्युक्त परिभाषाओं की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –

  1. सांख्यिकी की प्रकृति को स्पष्ट करें
  2. सांख्यिकी के उद्देश्य को स्पष्ट करें
  3. सांख्यिकी के विषय-क्षेत्र को स्पष्ट करें तथा
  4. सांख्यिकी, विज्ञान और कला दोनों है।

(ग) उपयुक्त परिभाषा

सांख्यिकी की उपयुक्त परिभाषा वही हो सकती है जिसमें निम्नलिखित विशेषताएँ हों –

  1. सांख्यिकी की प्रकृति को स्पष्ट करे
  2. सांख्यिकी के उद्देश्य को स्ट करे
  3. सांख्यिकी के विषय-क्षेत्र को स्पष्ट करे तथा
  4. सांख्यिकी की विभिन्न रीतियों को स्पष्ट करे।

अन्त में हम कह सकते हैं कि सांख्यिकी, विज्ञान एवं कला दोनों ही है जिसमें पूर्व-निश्चित उद्देश्यों के अनुसार सर्वेक्षणों, अध्ययनों एवं प्रयोगों आदि के आधार पर प्राप्त आँकड़ों का संकलन, वर्गीकरण, विवरण, विश्लेषण, तुलना एवं विवेचन किया जाता है। आँकड़ों के विश्लेषण को उद्देश्यों, तथ्यों के पारस्परिक सम्बन्ध को ज्ञात करना, तथ्यों की विशेषताओं को वर्णन करना, तथ्यों के सम्बन्ध में अनुमान लगाना, निष्कर्ष निकालना और भविष्य कथन करना है।

प्रश्न 2.
सांख्यिकी की प्रकृति स्पष्ट कीजिए।
या
सांख्यिकी विज्ञान है अथवा कला। स्पष्ट कीजिए।
या
सांख्यिकी विज्ञान एवं कला दोनों ही है।” स्पष्ट कीजिए।
या
सांख्यिकी एक विज्ञान नहीं है, वह एक वैज्ञानिक विधि है।” आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।
उत्तर :
सांख्यिकी की प्रकृति
(Nature of Statistics)

सांख्यिकी की प्रकृति या स्वभाव जानने के लिए यह देखना होगा कि सांख्यिकी विज्ञान है या कला अथवा दोनों है। अत: सर्वप्रथम हमें विज्ञान और कला का अर्थ जानना जरूरी है।

विज्ञान का अर्थ (Meaning of Science) – विज्ञान, ज्ञान के क्रमबद्ध समूह को कहते हैं। साधारणत: निम्नलिखित शर्तों को पूर्ण करने वाले ज्ञान (विषय) को विज्ञान कह सकते हैं –

  1. जिस ज्ञान का क्रमबद्ध अध्ययन (Systematic Study) किया जाता हो।
  2. वह ज्ञाप्त जिससे कारण और प्रभाव (Cause and Effect) के सम्बन्धों की जानकारी मिलती है।
  3. जिस ज्ञान के अध्ययन के लिए स्वयं के नियम होते हैं।
  4. जिसके नियम सार्वभौमिक (Universal) होते हैं।
  5. जिसके नियमों के द्वारा भविष्यवाणी या पूर्वानुमान (Forecasting) किये जा सके।
  6. जिसका अन्य विज्ञानों से सम्बन्ध होता है।

कला का अर्थ (Meaning of Art)-यदि विज्ञान ज्ञान है तो कला क्रिया है। किसी कार्य को करना ही कला कहलाता है। कला विज्ञान का व्यावहारिक या प्रयोगात्मक पहलू (Practical Aspect) है। किसी विज्ञान के विभिन्न नियमों तथा सिद्धान्तों का प्रयोग और क्रियान्वयन ही कला कहलाता है।

‘विज्ञान’ और ‘कला’ का अर्थ समझने के बाद अब हमें यह देखना है कि सांख्यिकी विज्ञान है। या कला है अथवा दोनों।

सांख्यिकी एक विज्ञान के रूप में
(Statistics as a Science)

सांख्यिकी एक विज्ञान है, क्योंकि इसमें विज्ञान के ऊपर वर्णित सभी लक्षण या विशेषताएँ पायी जाती हैं। सांख्यिकी ज्ञान का क्रमबद्ध अध्ययन करती है। अध्ययन के लिए इसके अपने स्वयं के सिद्धान्त और पद्धतियाँ हैं। इसके अपने नियम हैं; जैसे—सम्भावना का नियम, जड़ता का नियम, सांख्यिकीय नियमितता का नियम आदि। ये नियम सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक हैं। इन नियमों के द्वारा अध्ययन करके पुर्वानुमान या भविष्यवाणी की जा सकती है। सांख्यिकी में ‘कारण’ और ‘प्रभाव (Cause and Effect) में सम्बन्ध स्थापित करने की क्षमता है। सांख्यिकी के नियमों द्वारा किसी ‘कारण’ के ‘परिणाम’ का विश्लेषण और पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सांख्यिकी एक विज्ञान है। इसमें विज्ञान होने के सभी लक्षण पाये जाते हैं।

सांख्यिकी एक कला के रूप में
(Statistics as an ‘Art’)

सांख्यिकी कला भी है। यह विभिन्न समस्याओं के समाधान की विधि बताती है। सांख्यिकीय समंकों को एकत्रित करना, उनका उपयोग करना आदि कला के स्वरूप को व्यक्त करते हैं। विभिन्न वर्गों पर मूल्यवृद्धि का जो प्रभाव पड़ता है, उसकी जानकारी मूल्य-निर्देशकों (Price Index) द्वारा की जाती है। यह सांख्यिकी का कला पक्ष ही है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समस्याओं का विभिन्न सांख्यिकीय विधियों से अध्ययन करके आँकड़ों को बिन्दुरेखाओं (Graphs), चित्रों (Diagrams) एवं तालिकाओं द्वारा प्रदर्शित करना भी कला ही है। सांख्यिकी की विषय-वस्तु (Subject-matter) में व्यावहारिक सांख्यिकी का समावेश है।

विभिन्न सांख्यिकीय तथ्यों को तुलनीय बनाना तथा उनसे निष्कर्ष निकालना सांख्यिकी के कला पक्ष को स्पष्ट करते हैं।

सांख्यिकी विज्ञान और कला दोनों है।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि सांख्यिकी न केवल विज्ञान है, अपितु कला भी है। यह सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक दोनों प्रकार का विज्ञान है। अन्त में टिप्पेट के शब्दों में कह सकते हैं, सांख्यिकी विज्ञान और कला दोनों है। यह विज्ञान इसलिए है क्योंकि इसकी रीतियाँ मौलिक रूप से क्रमबद्ध हैं तथा उनका सर्वत्र उपयोग होता है और कला इसलिए है कि इसकी रीतियों का सफल प्रयोग पर्याप्त सीमा तक सांख्यिकी की योग्यता, विशेष अनुभव तथा उसके प्रयोग-क्षेत्र; जैसे—अर्थशास्त्र के ज्ञान पर निर्भर करता है।”

अन्त में, सांख्यिकी एक विज्ञान और कला दोनों है जिसमें किसी अनुसन्धान क्षेत्र से सम्बन्धित सामूहिक संख्यात्मके तथ्यों के संकलन, प्रदर्शन, विश्लेषण तथा निर्वचन की रीतियों का विधिवत् । अध्ययन किया जाता है।

सांख्यिकी एक वैज्ञानिक विधि है
(Statistics is a Scientific Method)

क्रॉक्सटन और काउडेन का यह विचार है कि सांख्यिकी स्वयं एक विज्ञान नहीं है, अपितु अनुसन्धान करने की एक वैज्ञानिक विधि है, ज्ञान-प्राप्ति का एक तरीका है। उपर्युक्त शीर्षकों के अन्तर्गत हम सांख्यिकी की प्रकृति को स्पष्ट करते हुए उल्लेख कर चुके हैं कि सांख्यिकी एक विज्ञान भी है और कला भी, परन्तु क्रॉक्सटन और काउडेन का मत भिन्न है। वे इसे विज्ञान नहीं मानते वरन् एक वैज्ञानिक विधि (तरीका) मानते हैं, क्योंकि सभी विषयों में अनुसन्धान के लिए सांख्यिकीय विधियों का प्रयोग भरपूर तरीके से किया जाता है। अनुसन्धानकर्ता अपने-अपने निष्कर्षों को सांख्यिकीय विधियों से प्रदर्शित करते हैं; प्राप्त आँकड़ों का वर्गीकरण व निर्वचन करते हैं। जीवन के सभी क्षेत्रों अर्थात् सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक एवं प्राकृतिक क्षेत्रों में सांख्यिकीय विधियों का उपयोग किया जाता है। यही कारण है कि वॉलिस और रॉबर्स कहते हैं, “सांख्यिकी स्वतन्त्र और मूलभूत ज्ञान का समूह नहीं है, अपितु ज्ञान-प्राप्ति की रीतियों का समूह है।”

इस तरह इन विद्वानों के अनुसार, सांख्यिकी अर्थशास्त्र, भौतिकशास्त्र या रसायनशास्त्र आदि की तरह स्वयं एक स्वतन्त्र विशुद्ध विज्ञान नहीं है, अपितु ज्ञान-प्राप्ति की वैज्ञानिक विधि है। परन्तु अधिकांश विशेषज्ञ सांख्यिकी को एक विज्ञान मानते हैं; क्योंकि विज्ञान की सभी विशेषताएँ और लक्षण इसमें पाये जाते हैं।

प्रश्न 3.
मनोविज्ञान में सांख्यिकी की उपयोगिता प्रतिपादित कीजिए।
उत्तर :
आधुनिक समय में मानव-जीवन की सभी समस्याओं के अध्ययन तथा समाधान में सांख्यिकी की उपयोगिता है और जीवन के प्रत्येक मोड़ पर यह पथ-प्रदर्शक की तरह कार्य करती है। यही कारण है कि विद्वान् सांख्यिकी को ‘मानव-कल्याण का अंकगणित’ कहते हैं। वर्तमान में मानवजीवन का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जिसमें सांख्यिकी का उपयोग एवं महत्त्व न हो। सांख्यिकी के बढ़ते हुए महत्त्व एवं उपयोगिता के कारण टिप्पट (Tippet) ने कहा है, “सांख्यिकी प्रत्येक व्यक्ति को ‘प्रभावित करती है तथा जीवन को अनेक बिन्दुओं पर स्पर्श करती है।”

सामाजिक विज्ञानों की भाँति, मनोविज्ञान में भी सांख्यिकी का उपयोग दिन-प्रतिदिन विस्तार ले। रहा है। मनोविज्ञान की समस्याओं को समझने तथा उनके समाधान के लिए और मनोविज्ञान से सम्बन्धित शोध-कार्यों में सांख्यिकी का उपयोग अपरिहार्य हो गया है। मनोविज्ञान में सांख्यिकी की उपयोगिता की निम्नलिखित प्रकार विवेचना कर सकते हैं

मनोविज्ञान में सांख्यिकी की उपयोगिता
(Utility of Statistics in Psychology)

मनोविज्ञान में सांख्यिकी की उपयोगिता निर्विवाद, सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक है। प्रायः सभी मनोवैज्ञानिक अध्ययनों, प्रयोग एवं शोध कार्यों में सांख्यिकी की भारी माँग है। सच तो यह है कि सांख्यिकीय विधियों के अभाव में ये कार्य हो ही नहीं सकते। मनोविज्ञान के क्षेत्र में सांख्यिकी की उपयोगिता के निम्नलिखित कारण हैं –

(1) आँकड़ों को सरल एवं बोधगम्य बनाना – मनोवैज्ञानिक प्रयोग अक्सर एक विशाल समूह पर लागू किये जाते हैं जिनसे प्रदत्त या समंक आँकड़े प्राप्त होते हैं। इन आँकड़ों को सार्थक बनाने के लिए आवश्यक है कि इन्हें सुव्यवस्थित किया जाए आँकड़ों को सुव्यवस्थित बनाने में सांख्यिकी विधियाँ उपयोगी हैं। उदाहरण के लिए–आँकड़ों का आवृत्ति वितरण बनाकर उन्हें विभिन्न रेखाचित्रों द्वारा प्रदर्शित करने में सांख्यिकी का बहुत महत्त्व है। केन्द्रीय प्रवृत्ति के मापन की विधियों द्वारा आँकड़ों का वर्णन करने में भी सांख्यिकी उपयोगी है। इस भॉति, सांख्यिकी अव्यवस्थित एवं अर्थहीन आँकड़ों को सरल तथा बोधगम्य बनाती है।

(2) ऑकड़ों की सुस्पष्ट एवं संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण – सांख्यिकी की मदद से मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से सम्बद्ध आंकड़ों का सरल, सुस्पष्ट एवं संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण किया जाता है। वृत्तचित्र, स्तम्भ रेखाचित्र, आवृत्ति बहुभुज, स्तम्भाकृति, संचित प्रतिशत वक्र तथा संचित आवृत्ति वक्र आदि विधियों के द्वारा आँकड़ों की मुख्य विशेषताओं को स्पष्टता मिलती है। एक मनोवैज्ञानिक बालकों के एक बड़े समूह पर बुद्धि परीक्षण का प्रयोग करके मध्यमान तथा प्रामाणिक विचलन की गणना द्वारा सभी इकाइयों में सामूहिक रूप से मिलने वाले लक्षणों को खोज निकालता है। वह बालकों की औसत बुद्धि ज्ञात कर सकता है और यह पता भी लगा सकता है कि समूह सजातीय है अथवा विषमजातीय। पढ़ने वाले बालकों की योग्यताओं में विषमता अधिक होने पर कक्षा को कई हिस्सों में विभाजित कर बालकों की योग्यताओं के अनुसार पढ़ाया जा सकता है। इसी प्रकार आँकड़ों के वर्णन में सामान्य सम्भावना वक्र के प्रारम्भिक सिद्धान्तों का उपयोग भी किया जाता है।

(3) आँकड़ों को मात्रात्मक स्वरूप प्रदान करना – अन्य सामाजिक विज्ञानों की तरह से मनोविज्ञान में शोध कार्य के अन्तर्गत प्राप्त आँकड़े प्रायः गुणात्मक प्रकृति के होते हैं जिन्हें मात्रात्मक स्वरूप प्रदान करना होता है। यह कार्य सांख्यिकीय विधियों की सहायता से ही सम्भव है। बुद्धि, समायोजन, अन्तर्मुखता, बहिर्मुखता आदि से सम्बन्धित गुणात्मक आँकड़ों को मात्रात्मक रूप में परिवर्तित करने के लिए सांख्यिकी अत्यन्त उपयोगी है।

(4) घटना की यथार्थ व्याख्या – सांख्यिकीय विधियाँ किसी घटना की यथार्थ व्याख्या (Exact descriptions) करने में सक्षम हैं। इस व्याख्या को कोई भी प्रशिक्षित व्यक्ति बिना किसी सन्देह के ठीक-ठीक समझ सकता है। यदि कहा जाए कि कक्षा 12 के छात्र श्याम ने मनोविज्ञान में बहुत अच्छे अंक प्राप्त किये हैं तो इससे श्याम की मनोविज्ञान में योग्यता का सुनिश्चित ज्ञान नहीं होता; किन्तु यदि यह कहा जाए कि श्याम के मनोविज्ञान में प्राप्तांकों का प्रतिशत 95 है तो इससे स्पष्टतया ज्ञात होता है। कि 95% छात्रों के मनोविज्ञान में प्राप्तांक, श्याम के प्राप्तांकों से कम हैं। इस भाँति सांख्यिकी की सहायता से घटना की सही-सही व्याख्या की जा सकती है।

(5) आँकड़ों के सहसम्बन्ध का वर्णन – मनोविज्ञान से जुड़े अध्ययन एवं अनुसन्धान कार्यों में सांख्यिकीय विधियों की सहायता से दो या दो से अधिक चरों (variables) में सहसम्बन्ध ज्ञात किया जा सकता है। यदि कोई मनोवैज्ञानिक किसी कक्षा के बालकों की आयु और उनकी स्मरण-शविन के मध्य सम्बन्ध ज्ञात करना चाहे तो वह सहसम्बन्ध गुणांक को प्रयोग करता है। सहसम्बन्ध की विधियाँ आंशिक तथा बहुगुणी सहसम्बन्ध की गणना भी कर सकती हैं।

(6) तुलनात्मक अध्ययन – बॉडिंगटन का कथन है, “सांख्यिकी का निचोड़ गणना करना ही नहीं है अपितु तुलना करना भी है।’ मनोवैज्ञानिक दो या दो से अधिक समूहों की तुलना के लिए सांख्यिकीय विधियों का प्रयोग कर सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि यह ज्ञात करना हो कि कक्षा 11 के छात्रों को मनोविज्ञान पढ़ाने के लिए शिक्षण की पुस्तक-पाठन तथा व्याख्यान विधि में से कौन-सी विधि अच्छी है तो इसके लिए प्रयोग किया जा सकता है। समान योग्यता वाले छात्रों के दो समूह बनाकर एक समूह को पुस्तक-पाठन विधि द्वारा तथा दूसरे समूह को व्याख्यान विधि द्वारा पढ़ाया जाएगा। फिर दोनों समूहों की प्रामाणिक परीक्षा लेकर उनके प्राप्तांकों पर सांख्यिकीय विधियाँ लागू कर तुलनात्मक अध्ययन द्वारा यह बताना सम्भव है कि मनोविज्ञान शिक्षण की प्रभावशाली विधि कौन-सी

(7) कार्यकारण सम्बन्ध – सांख्यिकीय विधियों की सहायता से कोई भी मनोवैज्ञानिक किसी घटना को उत्पन्न करने वाले कारणों को ज्ञात कर सकता है। इसके लिए स्वतन्त्र चर का परतन्त्र चर पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करना होगा। यदि यह ज्ञात करना हो कि अमुक छात्र किसी विषय में क्यों फेल हो जाता है तो तत्सम्बन्धी कारणों को प्रयोगात्मक विधि (Experimental Method) द्वारा ज्ञात किया जा सकता है। उदाहरणार्थ- प्रयोग में सभी कारणों को स्थिर (Constant) करने के उपरान्त यह पाया जाए कि नियमित अध्ययन न करने वाले छात्र फेल हो जाते हैं तो सम्भवतया छात्र के उस विषय में फेल होने का कारण, नियमित अध्ययन का अभाव ही हो।

(8) मापन तथा मनोवैज्ञानिक परीक्षणों में सांख्यिकी का उपयोग – सांख्यिकीय विधियों के अभाव में मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का निर्माण, उनकी व्याख्या तथा विश्वसनीयता व वैधता की जाँच नहीं की जा सकती। बुद्धि-परीक्षण, निष्पत्ति परीक्षण, अभिवृत्ति परीक्षण तथा प्रवणता परीक्षण आदि के निर्माण में सांख्यिकीय विधियाँ अत्यधिक उपयोगी हैं। इसी प्रकार मनोवैज्ञानिक मापन में भी सांख्यिकी बहुत उपयोगी है।

(9) भविष्यकथन में सांख्यिकी का उपयोग – जब कोई मनोवैज्ञानिक मानव-व्यवहार से सम्बन्धित किसी घटना के सम्बन्ध में पूर्वानुमान लगाना चाहता है या भविष्यकथन करना चाहता है तो वह सांख्यिकी की प्रतीपगमन तथा भविष्यकथन से सम्बन्धित विधियों का उपयोग करता है। उदाहरण के लिए यदि कक्षा बारह के किसी छात्र की बुद्धि-लब्धि (I.Q.), हाईस्कूल में उसके प्राप्तांक तथा अध्ययन के घण्टों के आधार पर उसकी बोर्ड की परीक्षा में सफलता का पूर्वानुमान/भविष्यकथन करना हो तो प्रतीपगमन रेखाओं की मदद से ऐसा किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक सांख्यिकीय विधियों की सहायता से यह भी ज्ञात किया जा सकता है कि उसका भविष्यकथन कितना त्रुटिपूर्ण है।

(10) शैक्षिक समस्याओं का निदान – सांख्यिकीय विधियाँ शैक्षिक समस्याओं के निराकरण में भी विशिष्ट भूमिका निभाती हैं। छात्रों के चयन (Selection), उनकी पदोन्नति (Promotion) तथा शैक्षिक उपलब्धियों (Educational Achievements) के विषय में भविष्यकथन करने में भी सांख्यिकीय विधियाँ उपयोगी हैं। छात्रों के लिए परीक्षण तैयार करने व उनके मूल्यांकन में सांख्यिकी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इसी प्रकार छात्रों के मार्गदर्शन में सांख्यिकीय विधियाँ अत्यन्त उपयोगी सिद्ध

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर निष्कर्ष निकलता है कि मनोविज्ञान में सांख्यिकी की महती उपयोगिता है। मनोवैज्ञानिक समस्याओं से सम्बन्धित आकंड़ों के संकलन, वर्गीकरण व्याख्या तथा तुलना में ही नहीं बल्कि उनसे सम्बद्ध पूर्वानुमान व भविष्यकथन में भी सांख्यिकी का बहुत उपयोग है।

प्रश्न 4.
सांख्यिकी की सीमाओं की विवेचना कीजिए।
या
“सांख्यिकीय विधियाँ अयोग्य व्यक्तियों के हाथों में खतरनाक औजार हो सकती है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
उत्तर :
सांख्यिकी की सीमाएँ
(Limitations of Statistics)

सांख्यिकी एक लाभप्रद विज्ञान है। यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को स्पर्श करता है। सामाजिक विज्ञान शिक्षा तथा मनोविज्ञान में सांख्यिकी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। कृषि, नियोजन, अर्थशास्त्र, राजस्व, राजनीतिशास्त्र आदि में भी इसका भरपूर प्रयोग होता है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि सांख्यिकी की कोई सीमाएँ (कमियाँ) ही नहीं हैं। वास्तविकता यह है कि सांख्यिकी जितना लाभदायक विज्ञान है, उतना ही यह ख़तरनाक भी है। इसका प्रयोग बहुत ही सोच-विचारकर, सावधानीपूर्वक तथा विशेषज्ञों द्वारा किया जाना चाहिए। यदि सांख्यिकी का प्रयोग अकुशल व्यक्तियों द्वारा किया जाता है तो यह बहुत हानिप्रद सिद्ध हो सकता है। इसकी सीमाओं पर सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिए। सांख्यिकी की प्रमुख सीमाएँ इस प्रकार हैं –

(1) सांख्यिकी केवल संख्यात्मक तथ्यों का अध्ययन करती है, न कि गुणात्मक तथ्यों का – सांख्यिकी की यह महत्त्वपूर्ण कमजोरी है। यह मानव-जीवन के केवल उसी पहलू का अध्ययन करती है जिसे संख्याओं द्वारा प्रस्तुत किया जा सके; जैसे-ऊँचाई, आयु, भार तथा आय आदि। जीवन के गुणात्मक पक्ष; जैसे—सुन्दरता, भावना, दुष्टता, बुद्धिमत्ता, कुटिलता आदि का अध्ययन सांख्यिकी द्वारा नहीं कर सकते हैं। गुणात्मक पहलू को संख्याओं में व्यक्त करके अप्रत्यक्ष रूप में अध्ययन कर सकते हैं। बुद्धिमत्ता का माप अनुमानित संख्याओं द्वारा व्यक्त कर सकते हैं, प्रत्यक्ष रूप में नहीं।

(2) सांख्यिकीय समंक सजातीय और एकरूप होने चाहिए – सांख्यिकी में विजातीय तथ्यों का अध्ययन नहीं किया जा सकता, सांख्यिकीय विधियों द्वारा समंकों की तुलना तभी सम्भव है जबकि वे सजातीय हों तथा उनमें एकरूपता पायी जाये।

(3) सांख्यिकी समूह का अध्ययन करती है, न कि व्यक्ति को प्रो० नीजवैगर के अनुसार, सांख्यिकी के निष्कर्ष समूह के सामूहिक व्यवहार का अनुमान करने में सहायक होते हैं, उस समूह की व्यक्तिगत इकाइयों फ़ा नहीं।” सांख्यिकी व्यक्तिगत इकाई की विशेषता पर ध्यान न देकर सामूहिक विशेषता या औसत पर ध्यान देती है। सांख्यिकी के परिणाम समूह से जुड़े होते हैं, न कि व्यक्ति से। किसी कक्षा के प्राप्तांकों का औसत यह नहीं बताता कि अमुक विद्यार्थी के प्राप्तांक उतने ही होंगे।

(4) बिना सन्दर्भ के सांख्यिकी के परिणाम असत्य और भ्रामक होते हैं – समस्या के बिना सन्दर्भ और पूर्ण जानकारी के सांख्यिकीय परिणाम भ्रामक और असत्य मालूम होते हैं। कुछ समंकों से प्राप्त निष्कर्ष किसी भी विषय पर तब तक लागू नहीं किये जा सकते जब तक कि परिस्थिति, सन्दर्भ व समस्या की पूर्ण जानकारी न हो।

(5) सांख्यिकी के प्रयोग के लिए सांख्यिकीय विधियों की जानकारी आवश्यक – सांख्यिकी विज्ञान की यह एक गम्भीर सीमा है कि इसके सही उपयोग करने के लिए सांख्यिकीय विधियों की पूर्ण व सही जानकारी अति आवश्यक है। जो व्यक्ति सांख्यिकीय विधियों के प्रयोग की पूर्ण जानकारी नहीं रखते हैं, उनके द्वारा इनके प्रयोग से लाभ के स्थान पर नुकसान ही होता है। यूल और केण्डाल ने तो यहाँ तक कहा है, “अयोग्य व्यक्तियों के हाथों में सांख्यिकीय विधियाँ खतरनाक औजार हैं।”

(6) सांख्यिकी के परिणाम दीर्घकाल में तथा औसत रूप में सही होते हैं – प्राकृतिक विज्ञानों; जैसे-रसायनशास्त्र, भौतिकशास्त्र आदि के नियम और परिणाम सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक होते हैं। ये अल्पकाल तथा दीर्घकाल सभी कालों में लागू होते हैं, परन्तु सांख्यिकी के परिणाम केवले दीर्घकाल में ही सही निकलते हैं तथा वे एक औसत प्रवृत्ति के परिचायक होते हैं। उनमें छोटे-छोटे उच्चावचन एवं कमियाँ विद्यमान रहती हैं। सांखियकी के नियम सम्भावना सिद्धान्त पर आधारित होते हैं। जिसके अनुसार यदि किसी सिक्के को 20 बार उछालें तो सम्भावना यह है कि 10 बार चित (Head) तथा 10 बार पट (Tail) आएगा; किन्तु ‘यथार्थ में हो सकता है 14 बार चित व 6 बार पट आये।

(7) सांख्यिकी एक साधन है, साध्य नहीं – सांख्यिकी का प्रमुख कार्य समस्या से सम्बन्धित आँकड़े एकत्रित कर उन्हें वर्गीकृत करके सारणीयन तथा रेखाचित्रों द्वारा प्रस्तुत करना है। बाउले के मत में सांख्यिकी का काम परिणाम या निष्कर्ष निकालना नहीं है। यदि सांख्यिकी परिणाम निकालेगी। भी, तो वे निष्पक्ष नहीं होंगे। परन्तु कुछ दूसरे सांख्यिकीवेत्ता यह मानते हैं कि बिना परिणाम के सांख्यिकी अनुपयोगी होगी; अतः निष्कर्ष रूप में यह कह सकते हैं कि समंकों के एकत्रीकरण में पूर्ण सावधानी रखकर तटस्थ रूप में उनका प्रयोग करना चाहिए। अनुसन्धानकर्ता के तटस्थ न रहने पर। परिणाम गलत और हानिकारक हो सकते हैं; अतः सांख्यिकीय विधियों का प्रयोग साधन के रूप में बुद्धिमानीपूर्वक करना चाहिए।

(8) सांख्यिकीय विधि अनुसन्धान की एकमात्र विधि नहीं है – समस्याओं के अनुसन्धान की अनेक विधियाँ हैं, सांख्यिकीय विधि उन अनेक विधियों में से एक हैं। अत: सांख्यिकी से प्राप्त परिणामों को पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, जब तक कि अनुसन्धान की दूसरी विधियों से परिणामों की पुनः जाँच न कर ली जाए।

अंत में यह कह सकते हैं कि सांख्यिकीय विधियों के प्रयोग में पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए। उपर्युक्त सीमाओं को ध्यान में रखकर निष्कर्ष निकालने चाहिए, अन्यथा इसके परिणाम भ्रामक और हानिकारक हो सकते हैं। यही कारण है कि यूल और केण्डाल यह कहने पर मजबूर हुए हैं कि सांख्यिकीय गीतियाँ अयोग्य व्यक्तियों के हाथों में खतरनाक औजार हो सकते हैं।

प्रश्न 5.
सांख्यिकीय श्रेणियों (Statistical series) से आप क्या समझते हैं। इनके विभिन्न प्रकारों का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
सांख्यिकीय श्रेणियाँ
(Statistical Series)

संकलिन आँकड़ों को जब एक निश्चित क्रम में लिखा जाता है तो इस भाँति बनी हुई पदमाला या श्रृंखला को सांख्यिकीय श्रेणी (Statistical Series) कहा जाता है। सांख्यिकीय श्रेणी में हम आँकड़ों को एक क्रमबद्ध ढंग से प्रदर्शित करते हैं। कॉनर (Conner) ने सांख्यिकीय श्रेणी की परिभाषा इस प्रकार दी है, “जब दो चल-राशियों के मूल्यों को साथ-साथ इस भाँति व्यवस्थित किया जाए कि एक का मापनीय अन्तरे दूसरे के मापनीय अन्तर का सहगामी हो तो इस प्रकार से प्राप्त पदमाला को सांख्यिकीय श्रेणी कहते हैं।”

सांख्यिकीय श्रेणियों के प्रकार
(Types of Statistical Series)

सांख्यिकीय श्रेणियाँ कई प्रकार की होती हैं। मुख्यतः सांख्यिकीय श्रेणियों की रचना तीन प्रकार से की जा सकती है –

  1. व्यक्तिगत श्रेणी
  2. असतत या खण्डित या विच्छिन्न श्रेणी
  3. सतत् या अखण्डित या अविच्छिन्न श्रेणी।

(1) व्यक्तिगत श्रेणी (Individual Series) – व्यक्तिगत श्रेणी वह है जिसमें समूह की प्रत्येक इकाई का मान अलग-अलग दिया जाता है। इस श्रेणी में प्रत्येक पद स्वतन्त्र होता है। व्यक्तिगत श्रेणी का निर्माण उस समय किया जाता है कि जब संकलित आँकड़ों से समूह अथवा वर्ग बनाने सम्भव न हों अथवा हर एक पद को महत्त्व देना हो। इन श्रेणियों की रचना आरोही (Ascending) तथा अवरोही (Descending) दोनों ही क्रमों में की जा सकती है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित तालिका में कक्षा XI के दस छात्रों के मनोविज्ञान में प्राप्तांक आरोही तथा अवरोही क्रम में प्रस्तुत किये गये हैं –

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(2) असतत या खण्डित या विच्छिन्न श्रेणी (Discrete or Discontinuous Series) – जिस श्रेणी में प्रत्येक मान अलग-अलग नहीं लिखा जाता, अपितु प्रत्येक मान के समक्ष उसकी आवृत्ति लिख दी जाती है, उसे असतत/खण्डित या विच्छिन्न श्रेणी कहा जाता है। यह श्रेणी वास्तविक अन्तर को प्रकट करती है। उदाहरण के लिए—कक्षा XI के 20 छात्रों के मनोविज्ञान में प्राप्तांक निम्नलिखित हैं –
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(3) सतत या अखण्डित या अविच्छिन्न श्रेणी (Continuous Series) – सतत श्रेणी में इकाइयों के मानों को वर्गान्तरों (Class-intervals) के रूप में व्यवस्थित किया जाता है। इस प्रकार की श्रेणी में ऐसे मान आते हैं जिनका सूक्ष्म विभाजन सम्भव है; जैसे—समय को घण्टा-मिनट-सेकण्ड आदि में विभाजित किया जा सकता है। बुद्धि, भार, ऊँचाई व लम्बाई आदि को भी सरलता से मापा और उपविभाजित किया जा सकता है। मनोविज्ञान में जिन चल-राशियों का अध्ययन किया जाता है, वे अधिकतर इसी श्रेणी के अन्तर्गत आती हैं। कक्ष X के 100 छात्रों के मनोविज्ञान के प्राप्तांकों का विवरण निम्नलिखित है –
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श्रेणियों की रचना में निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक है –

(i) व्यक्तिगत श्रेणी वस्तुतः असतत या खण्डित श्रेणी का एक विशिष्ट रूप है। यदि असतत श्रेणी में प्रत्येक प्राप्तांक की आवृत्ति 1 हो तो वह व्यक्तिगत श्रेणी का रूप धारण कर लेती है।
(ii) यदि सतत श्रेणी में प्रत्येक वर्गान्तर के मध्य बिन्दु पर उनकी सम्पूर्ण आवृत्तियाँ केन्द्रित मान ली जाये तो यह श्रेणी असतत या खण्डित श्रेणी का रूप धारण कर लेती है।

प्रश्न 6.
ऑकड़ों के व्यवस्थापन से क्या आशय है? आँकड़ों के व्यवस्थापन के मुख्य प्रकारों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
आँकड़ों का व्यवस्थापन या आवृत्ति विवरण
(Organization of the Data or Frequency Distribution)

मनोविज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न समस्याओं को लेकर अध्ययन, प्रयोग एवं अनुसन्धान कार्य किये जाते हैं। ये प्रयोग या अनुसन्धान कार्य एक विशाल समूह पर किये जाते हैं। जिनके फलस्वरूप हमें आँकड़े प्राप्त होते हैं। ये आँकड़े हमारे लिए तब तक निरर्थक हैं जब तक कि उन्हें व्यवस्थित रूप प्रदान नहीं कर दिया जाता। इस भाँति, आँकड़ों को सार्थक एवं उपयोगी बनाने के लिए व्यवस्थापन या आवृत्ति वितरण का विशेष महत्त्व है।

संगृहीत आँकड़ों से सुगमतापूर्वक निष्कर्ष निकालने हेतु इनका व्यवस्थापन (Organization) किया जाता है। जिसमें आँकड़ों का वर्गीकरण तथा सारणीयन सम्मिलित है। संगृहीत आँकड़ों को सर्गों तथा सारणियों के रूप में निरूपित करना ही आँकड़ों का व्यवस्थापन या आवृत्ति वितरण है। मुख्यत: व्यवस्थापन की तीन पद्धतियाँ हैं –

  1. वर्गीकरण (Classification)
  2. सारणीयन (Tabulation) तथा
  3. रेखाचित्र प्रस्तुतीकरण (Graphical Representation)।

आँकड़ों का वर्गीकरण समानता या सजातीयता के आधार पर किया जाता है; जैसे–सामाजिक स्तर या धर्म के आधार पर वर्गीकरण। आँकड़ों का वर्गीकरण करने के बाद उनके आपसी सम्बन्ध तथा प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उनका सारणीयन किया जाता है जिसे अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए रेखाचित्रों के माध्यम से आँकड़ों का प्रस्तुतीकरण किया जाता है।

मूल आँकड़ों के व्यवस्थापन के प्रकार
(Types of Basic Datas Distribution)

मनोवैज्ञानिक अध्ययनों या अनुसन्धान कार्यों में मूल आँकड़े अधिक संख्या में तथा विस्तृत (फैले हुए) होते हैं जिन्हें व्यवस्थापन की प्रक्रिया द्वारा सुस्पष्ट एवं सार्थक बनाया जाता है। आँकड़ों के व्यवस्थापन के प्रमुख तीन प्रकार हैं –

  1. साधारण व्यवस्था
  2. आवृत्ति व्यवस्था तथा
  3. आवृत्ति वितरण।

(1) साधारण व्यवस्था (Simple Array) – साधारण व्यवस्था आँकड़ों को व्यवस्थित करने की सबसे सरल विधि है जिसमें आँकड़ों को आरोही या अवरोही क्रम में व्यवस्थित किया जाता है। आँकड़ों को इस प्रकार विन्यसित करने से उनकी प्रकृति स्पष्ट हो जाती है। आँकड़ों को साधारण व्यवस्था में उस समय व्यवस्थित किया जाना चाहिए जबकि आँकड़ों की संख्या कम हो। इस व्यवस्था की सबसे बड़ी परिसीमा यह है कि इससे अन्य सांख्यिकी गणनाओं में सहायता नहीं मिलती है।

उदाहरण 1 – कक्षा XI के 10 छात्रों के मनोविज्ञान में प्राप्तांक (पूर्णाक 50) निम्न प्रकार हैं –
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अब इन्हें साधारण व्यवस्था के अन्तर्गत आरोही व अवरोही क्रम में इस प्रकार प्रदर्शित किया जाएगा –
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(2) आवृत्ति व्यवस्था (Frequency Array) – आँकड़ों की प्रकृति अधिक स्पष्ट करने के लिए उनका व्यवस्थापन आवृत्तियों के आधार पर किया जाता है। साधारण व्यवस्था से आवृत्ति व्यवस्था अधिक अच्छी समझी जाती है, किन्तु इसे तभी प्रयोग किया जाना चाहिए जबकि आँकड़ों की संख्या कम हो तथा उनकी आवृत्ति बार-बार हुई हो।

उदाहरण 2 – नीचे की तालिका में एक कक्षा के 100 विद्यार्थियों को बुद्धि-लब्धि के आधार पर विभाजित किया गया है –
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(3) आवृत्ति वितरण (Frequency Distribution) – आवृत्ति वितरण एक ऐसी व्यवस्था है। जिसमें पदों (चरों) के मूल्य तथा उनकी आवृत्तियाँ दी हुई होती हैं। आवृत्ति वितरण के दो प्रमुख तत्त्व हैं –
(i) पद (चर) तथा (ii) आवृत्तियाँ।

(i) पद (Variable) – पद या चर वह संख्यात्मक तथ्य है जो मात्रा या आकार में परिवर्तित होता रहता है; जैसे—आयु, लम्बाई, भार, आय या प्राप्तांक आदि। पद या चर दो प्रकार के हैं(अ) सतत चर तथा (ब) असतत या खण्डित चर। पद या चर को ‘x’ से प्रदर्शित करते हैं।

(ii) आवृत्तियाँ (Frequencies) – किसी प्राप्तांक के बार-बार आने की प्रवृत्ति को आवृत्ति (Frequency) कहते हैं। इकाइयों (व्यक्तियों) की वह संख्या जो किसी वर्ग-विशेष में आती है, उस वर्ग की आवृत्ति या बारम्बारता कहलाती है। इस प्रकार आवृत्तियाँ वह संख्या है जो किसी वर्ग-विशेष के पदों (मूल्यों) को ग्रहण करती है। कोई प्राप्तांक/पद या संख्या यदि पाँच बार आती है तो उस प्राप्तांक की आवृत्ति ‘5’ होगी। आवृत्ति को ‘f’ से प्रकट करते हैं। प्रत्येक वर्ग के अन्तर्गत आने वाले पदों की संख्या उस वर्ग की आवृत्ति कहलाती है।

इन आवृत्तियों को सुविधानुसार भिन्न-भिन्न वर्गों में वितरित अथवा प्रदर्शित करने की विधि आवृत्ति वितरण कहलाती है।

सरल आवृत्ति वितरण
(Simple Frequency Distribution)

सरल आवृत्ति वितरण में सर्वाधिक तथा सबसे कम प्राप्तांकों तथा उनके मध्य जितने भी प्राप्तांक आ सकते हैं उन सभी को आकार के अनुसार लिखा जाता है। फिर हर एक प्राप्तांक के सामने वह अंक लिखा जाता है जितनी बार वह प्राप्तांक दोहराया गया है। यही उस पद की आवृत्ति है।
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ये सभी प्राप्तांक अव्यवस्थित, अपरिष्कृत तथा अवर्गीकृत हैं जिन्हें न तो मस्तिष्क में अंकित रखा जा सकता है और न ही इन्हें देखकर मनोविज्ञान की कक्षा के बारे में कोई सुनिश्चित धारणा ही बनायी जा सकती है। हम इन्हें पहले सरल आवृत्ति वितरण के रूप में प्रदर्शित करते हैं –
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सरल आवृत्ति वितरण से प्रत्येक प्राप्तांक की आवृत्ति ज्ञात हो जाती है। प्राप्तांकों का वितरण अर्थात् अधिकांश विद्यार्थियों ने कम अंक प्राप्त किये हैं या उच्च अंक तथा सामान्य अंक पाने वाले विद्यार्थी कितने हैं, इन सभी बातों का हमें आसानी से ज्ञात हो जाता हैं। किन्तु सरल आवृत्ति वितरण बहुत अधिक स्थान घेरता है; अतः हम आवृत्ति वितरण बनाने की वह प्रक्रिया अपनाएँगे जो कुछ क्रुमबद्ध सोपानों पर आधारित होती है। आवृत्ति वितरण तालिका की यह प्रक्रिया निम्नलिखित है –

आवृत्ति वितरण तालिका निर्माण की प्रक्रिया
(Procedure of Preparing a Frequency Distribution Table)

आवृत्ति वितरण तालिका निर्माण की प्रक्रिया के पाँच प्रमुख सोपान हैं जिनके आधार पर आवृत्ति वितरण तालिका आसानी से निर्मित हो सकती है। ये सोपान निम्न प्रकार वर्णित हैं—

(1) प्रसार क्षेत्र (Range) – आवृत्ति वितरण तालिका बनाने के लिए सबसे पहले प्रसार क्षेत्र ज्ञात कर लेना चाहिए। आँकड़ों में उच्चतम अंक (Highest Score) तथा न्यूनतम अंक (Lowest Score) के अन्तर को प्रसार क्षेत्र कहते हैं।

प्रसार क्षेत्र = उच्चतम अंक – न्यूनतम अंक
Range = Highest Score – Lowest Score or Range =H.S. – L.S.
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(2) वर्गान्तर (Class-anterval : C.I.) – प्रसार क्षेत्र ज्ञात करने के उपरान्त वर्गान्तर की संख्या ज्ञात की जाती है जो साधारणत: 5 से लेकर 20 तक हो सकती है। कुछ विद्वानों की राय में यह 10 से कम तथा 20 से अधिक नहीं होनी चाहिए। परिणामों की शुद्धता का ध्यान रखते हुए वर्गान्तरों की संख्या 10 से 15 तक रखना उपयुक्त है।

वर्गान्तरों की संख्या ज्ञात करने के लिए आवश्यक है कि वर्गान्तर का आकार (Size of C.I.) पता लगाया जाये। वर्गान्तर का आकार सुनिश्चित करने के लिए निम्नलिखित सूत्र प्रयुक्त होता है –
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गणना सम्बन्धी कार्य (जोड़ना व घटाना ओदि) में सुविधा की दृष्टि से वर्गान्तर का आकार ऐसा चुना जाये जो 5 से पूरी तरह विभाजित हो जाये। प्रश्न हल करते समय प्रसार क्षेत्र को सिर्फ 5 से भाग देकर वर्गान्तर का आकार ज्ञात कर लेना चाहिए। यदि प्रश्न में वर्गान्तर का आकार दिया हुआ हो तो फिर आकार ज्ञात करने की कोई आवश्यकता नहीं होती।

(3) वर्गान्तरों का निर्माण (Construction of Class-intervals) – वर्गान्तरों की संख्या तथा उनका आकार ज्ञात करने के बाद वर्गान्तरों का निर्माण किया जाता है। प्रथम वर्गान्तर बनाते समय निम्नतम अंक सर्वप्रथम लिखा जाता है, फिर निम्नतम अंक में वर्गान्तर के आकार को जोड़कर उसके सामने लिख देते हैं। उदाहरण (3) में निम्नतम अंक 30 है तथा वर्गान्तर का आकार 5 है। अत: पहले 30 लिखा जाएगा, फ़िर 30 में 5 जोड़कर (30 + 5) यानि 35 लिखा जायेगा। इस तरह से पहला वर्गान्तर 30-35 बना।

इसके आगे, पहले वर्गान्तर 30-35 की ऊपरी सीमा दूसरे वर्गान्तर की निम्न सीमा बन जायेगी तथा 35 में 5 जोड़कर (35+ 5) यानी 40, यह दूसरे वर्गान्तर की ऊपरी सीमा होगी। इस भाँति, दूसरा वर्गान्तर होगा 30-40। तीसरे वर्गान्तर की निम्न सीमा 40 होगी जिसमें वर्गान्तर का आकार 5 जोड़ने पर 40 + 5 = 45, इसकी ऊपरी सीमा बनेगी और तीसरा वर्गान्तर 40-50 होगा। वर्गान्तर बनाने का यह क्रम तब तक चलता जायेगा जब तक कि उच्चतम अंक वर्गान्तर में शामिल न हो जाये।

नोट – वर्गान्तरों का निर्माण करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए

(i) अक्सर प्राप्तांकों के न्यूनतम अंक से ही वर्गान्तर बनाना शुरू करते हैं; जैसे—उपर्युक्त उदाहरण में न्यूनतम अंक 30 से वर्गान्तर बनाना प्रारम्भ किया गया है।

(ii) गणना को सुविधाजनक बनाने की दृष्टि से ‘वर्गान्तरों को न्यूनतम अंक से भी छोटा या कम अंक से शुरू किया जा सकता है। उदाहरणार्थ-यदि न्यूनतम अंक 26 है और वर्गान्तर का आकार 5 है तो 26-31 वर्गान्तर बन जाता है और यह 25-30 वर्गान्तर भी बन सकता है। वैसे वर्गान्तर 25-30 गणना की दृष्टि से सरल व सुविधाजनक कहा जाएगा।

(iii) यदि निम्नतम प्राप्तांक 5 से कम है तथा आकार 5 या 5 से ज्यादा है तो प्रथम वर्गान्तर ‘शून्य’ से प्रारम्भ करना चाहिए। यदि प्रथम वर्गान्तर ‘शून्य से प्रारम्भ है और वर्गान्तर का आकार 5 है। तो प्रथम वर्गान्तर 0-4 होगा। यहाँ यह स्पष्ट करना उचित है कि 0-4 वर्गान्तर में 5 प्राप्तांक हैं। यानि 0, 1, 2, 3 व 4। इसलिए इस समूह में 0 से लेकर 4 तक अंक पाने वाले सभी व्यक्ति शामिल हो जाएँगे। इस क्रम में दूसरा वर्गान्तर 5 से शुरू होगा तथा 9 पर समाप्त हो जाएगा यानि यही वर्गान्तर 5-9 होगा इसमें भी 5 प्राप्तांक शामिल हैं – 5, 6, 7, 8 व 9।

(iv) वर्गान्तरों को आरोही क्रम (Ascending Order) तथा अवरोही क्रम (Descending Order) दोनों में से किसी भी क्रम में लिखा जा सकता है।

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आवृत्ति तालिका का निर्माण करते समय अव्यवस्थित आँकड़ों के पहले प्राप्तांक को पढ़कर अनुमान लगायें कि यह किस वर्गान्तर में आता है। जिस वर्गान्तर में यह अंक आता हो, उसके सामने एक अंकदण्ड लगा देना चाहिए। अब दूसरा प्राप्तांक पढ़कर सम्बन्धित वर्गान्तर में उसके सामने एक अंकदण्ड लगा दें। इसी तरह से एक के बाद एक सभी प्राप्तांकों को पढ़कर अंकदण्ड लगा दिये जाते हैं। जैसे—उदाहरण (3) में पहला प्राप्तांक 42 है जिसके लिए 40-45 वर्गान्तर के सामने एक अंकदण्ड लगा देंगे। अभिप्राय यह है कि यही क्रिया सभी प्राप्तांकों के लिए दोहराई जाएगी।

(5) अंकदण्डों का आवृत्तियों में बदलना (Changing Tallies in Frequencies)- वर्गान्तरों के सम्मुख आवृत्तियों के अंकदण्डों द्वारा प्रदर्शन के बाद अंकदण्डों को आवृत्तियों में बदलकर लिख दिया जाता है। इसके लिए अंकदण्डों को जोड़कर योग को आवृत्ति (Frequencies) वाले खाने में लिख देते हैं। उदाहरण (3) के 55-60 वर्गान्तर में UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 12 Statistics in Psychology 13 छह अंकदण्ड हैं; अत: इस वर्गान्तर के सामने आवृत्ति वाले खाने में 6 लिखा गया है। इसी प्रकार से सभी वर्गान्तरों के सामने के अंकदण्डों को आवृत्तियों में बदल दिया जाता है। यदि आवृत्ति वितरण तालिका में अंकदण्डों को लगाने में कोई त्रुटि नहीं है तो आवृत्तियों (f) का योगफल व्यक्तियों की कुल संख्या (N) के बराबर होता है।

अब हम उदाहरण (3) के अन्तर्गत सरल आवृत्ति वितरण के आधार पर आरोही तथा अवरोही क्रम में आवृत्ति वितरण तालिकाओं को निर्माण करेंगे।

आवृत्ति वितरण तालिका
(Frequency Distribution Table)
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उदाहरण 4 – कक्षा XI के 50 परीक्षार्थियों ने मनोविज्ञान में नीचे दिये गए अंक प्राप्त किये। इन प्राप्तांकों का आवृत्ति वितरण तैयार कीजिए –
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उदाहरण 5 – निम्नलिखित प्राप्तांकों से उचित वर्गान्तरलेकर आवृत्ति-वितरण तालिका बनाइए –
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उदाहरण 6 – कक्षा x के 50 छात्रों के भार (पौण्ड्स में) ज्ञात किये गये। इन भारों से उचित वर्गान्तर द्वारा आवृत्ति वितरण तालिका तैयार कीजिए –
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संचयी आवृत्तियाँ ज्ञात करना।
(To Find out the Cumulative Frequencies)

किसी आवृत्ति वितरण तालिका में संचयी आवृत्तियाँ (Cumulative Frequencies : C.E:) ज्ञात करने के लिए प्रत्येक वर्ग के सम्मुख उस वर्ग की आवृत्तियों तथा उस वर्ग के नीचे वाले कुल वर्गों की आवृत्तियों का योग लिख दिया जाता है।

उदाहरण 7 – एक स्कूल के 32 शिक्षकों की आयु (वर्षों में दर्शाने वाली संचयी आवृत्तियाँ निम्न प्रकार सारणीबद्ध हैं –
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उपर्युक्त उदाहरण में 20-25 वाले वर्गान्तर की संचयी आवृत्ति 4 + 0 = 4 है; क्योंकि इस वर्गान्तर से नीचे आवृत्तियों की संख्या ‘शून्य’ (अर्थात् कुछ भी नहीं) है। इसी भाँति

25 – 30 वाले वर्गान्तर की संचयी आवृत्तियाँ = 4 + 8 = 12
30 – 35 वाले वर्गान्तर की संचयी आवृत्तियाँ = 7 + 12 = 19
35 – 40 वाले वर्गान्तर की संचयी आवृत्तियाँ = 4 + 19 = 23
40 – 45 वाले वर्गान्तर की संचयी आवृत्तियाँ = 4 + 23 = 27
45 – 50 वाले वर्गान्तर की संचयी आवृत्तियाँ = 2 + 27 = 29
50 – 55 वाले वर्गान्तर की संचयी आवृत्तियाँ = 2 + 29 = 31
55 – 60 वाले वर्गान्तर की संचयी आवृत्तियाँ = 1 + 31 = 32

प्राप्तांकों को समूहबद्ध करने की विधियाँ
(Methods of Grouping Scores)

प्राप्तांकों को समूहबद्ध करने की तीन विधियाँ हैं –

  1. समावेशी विधि (Inclusive Method)
  2. शुद्ध वर्गीकृत श्रृंखला (Pure Classification Series)
  3. अपवर्जी विधि (Exclusive Method)

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(1) समावेशी विधि (Inclusive Method) – समावेशी विधि में वर्गान्तर का अन्तिम अंक वर्गान्तर में ही शामिल है। उदाहरणार्थ-40-44 का अर्थ है कि 40 से लेकर 44 तक के प्राप्तांक इसी वर्ग में सम्मिलित हैं। इसी प्रकार 45-49 का अर्थ है कि 45 से लेकर 49 तक के सभी प्राप्तांक इस वर्ग में सम्मिलित हैं। समावेशी विधि द्वारा आवृत्ति वितरण सरलता से एवं बिना किसी त्रुटि के बनाये जा सकते हैं; अत: यह विधि प्राप्तांकों को समूहबद्ध करने की सर्वश्रेष्ठ विधि है।

(2) शुद्ध वर्गीकृत श्रृंखला (Pure Classification Method) – यह विधि सांख्यिकीय दृष्टि से विशुद्ध हैं; क्योंकि इसमें वास्तविक सीमाएँ प्रदर्शित की गयी हैं। यहाँ प्रत्येक वर्ग की उच्चतम तथा निम्नतम सीमाएँ जानने के लिए प्राप्तांकों की वास्तविक सीमाओं की गणना करते हैं। निम्नतम सीमा जानने के लिए उसे प्राप्तांक में से 0.5 घटा देते हैं तथा उचचतम सीमा जानने के लिए 0.5 जोड़ देते हैं। उदाहरण के लिए-पहले वर्गान्तर 40-44 की निम्नतम सीमा 40-0.5 = 39.5 हुई और उच्चतम सीमा 44+ 0.5 = 44.5 हुई। इसी तरह से सभी वर्गों का निर्माण करते हैं। इस विधि की परिसीमा यह है कि इसमें समय अधिक व्यय होता है।

(3) अपवर्जी विधि (Exclusive Method) – अपवर्जी विधि में वर्गान्तर 40-45 का अर्थ यह है कि इस वर्ग में 40 से लेकर 44 तक के अंक शामिल हैं किन्तु 45 शामिल नहीं हैं। 45 प्राप्तांक पहले वर्ग में न होकर दूसरे वर्ग में है। इसी प्रकार वर्गान्तर 45-50 का अर्थ है कि इसमें 45 से 49 तक शामिल हैं लेकिन 50 नहीं। 50 तीसरे वर्ग में है। अपवर्जी विधि का एक दोष यह है कि इसमें कभी-कभी भ्रमवश आवृत्ति चिह्न (अंकदण्ड) गलत वर्ग के सामने लग जाता है। क्योंकि 50 का अंक 45-50 में भी लिखा है और 50-55 में भी, जबकि इसे शामिल 50-55 वाले वर्ग में करना है; अतः यह ध्यान रखना चाहिए।

वर्गान्तर का मध्य-बिन्द ज्ञात करना
(Mid-point of a Class Interval)

किसी वर्गान्तर का मध्य-बिन्दु (Mid-point) उस वर्गान्तर के निम्नतम और उच्चतम प्राप्तांकों को जोड़कर तथा योग का आधार करने पर प्राप्त हो सकता है। इसके लिए अग्रलिखित सूत्र प्रयोग करते हैं –
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प्रश्न 7.
केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप से क्या आशय है। केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप के मुख्य उद्देश्य का भी उल्लेख कीजिए।
या
केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप से आप क्या समझते हैं?
उत्तर :
समंकों की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को स्पष्ट करने के लिए सांख्यिकीय विश्लेषण में केन्द्रीय प्रवृत्ति (Central Tendency) की माप का महत्त्वपूर्ण स्थान है। समंकों के वर्गीकरण तथा सारणीयन से समंक सरल, सुबोध, व्यवस्थित तथा तुलनीय तो बन जाते हैं किन्तु इससे उनकी महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ प्रकट नहीं होतीं; अत: एक ऐसी विधि की आवश्यकता है जिसके द्वारा एक ही संख्या से सभी संगृहीत आँकड़ों को प्रतिनिधित्व कराया जा सके। इसके लिए केन्द्रीय प्रवृत्ति की मापों या सांख्यिकीय माध्यमों का अध्ययन आवश्यक है।

केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप : अर्थ
(Definitions of Measures of Central Tendency or Average)

संगृहीत आँकड़ों के मध्य ऐसी संख्या, जो सभी आँकड़ों का प्रतिनिधित्व करती हो, तो न तो समूह की न्यूनतम मान वाली संख्या होगी और न ही अधिकतम मान वाली। अवश्य ही, वह संख्या समूह के मध्य या उसके आस-पास की संख्या होगी। अत; आँकड़ों में से किस एक आँकड़े के पास पाये जाने की उनकी प्रवृत्ति को केन्द्रीय प्रवृत्ति (Central Tendency) कहा जाता है तथा इस माध्य या औसत को केन्द्रीय माप या केन्द्रीय प्रवृत्ति की मान कहते हैं।

इस भाँति केन्द्रीय प्रवृत्ति से तात्पर्य उस मान से है जो प्राप्त आँकड़ों का प्रतिनिधित्व करता है। अर्थात् वह मान जो प्राप्त आँकड़ों में सबसे अधिक बार आया हो। साधारणत: केन्द्रीय प्रवृत्ति की मापों से हमारा अर्थ ‘सांख्यिकीय माध्य’ या ‘औसत (Average) से होता है; क्योंकि सांख्यिकी माध्यम के आस-पास सभी आँकड़े वितरित होते हैं।

वह संख्या, जो किसी समूह-विशेष के सभी आँकड़ों का प्रतिनिधित्व करती है, उस समूह का सांख्यिकीय माध्य से औसत कहलाती है।

केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप या सांख्यिकीय माध्य की परिभाषाएँ
(Definitions of Measures of Central Tendency or Average)

सांख्यिकीय माध्य या केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं –

(1) सिम्पसन और काक्का के अनुसार, “केन्द्रीय प्रवृत्ति का माप एक ऐसा प्रतिरूपी मूल्य है। जिसकी ओर अन्य संख्याएँ केन्द्रित होती हैं।”

(2) क्लार्क और शकाडे के मत में, “माध्ये सम्पूर्ण समंक समूह का विवरण देने वाली एकमात्र संख्या प्राप्त करने का प्रयत्न है।”

(3) क्रॉक्सटन और काउडेन के मतानुसार, “माध्य समंकों के विस्तार के अन्तर्गत स्थित एक ऐसा पद है। जिसका प्रयोग श्रेणी के सभी पदों का प्रतिनिधित्व करने के लिए किया जाता है। समंक माला के विस्तार के अन्तर्गत स्थित होने के कारण माध्य को कभी-कभी केन्द्रीय मूल्य का माप भी कहा जाता है।

समंक माला के कुछ पद (मूल्य) माध्य से छोटे तथा कुछ मूल्य बड़े होते हैं; अत: माध्य समंक श्रेणी की केन्द्रीय प्रवृत्ति को प्रदर्शित करता है। अन्त में कह सकते हैं कि माध्य समंक श्रेणी का मध्य मूल्य होता है जो श्रेणी की बनावट वे महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को बतलाता है।

केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप या सांख्यिकीय माध्य के उद्देश्य
(Objectives of Averages)

केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप या औसत या सांख्यिकीय माध्य के महत्त्वपूर्ण उद्देश्य निम्नलिखित है।

(1) जटिल तथ्यों को सरल रूप में प्रस्तुत करना – जिससे वे आसानी से समझ में आ सकें।

(2) विस्तृत तथ्यों को संक्षिप्तता प्रदान करना – माध्य तथ्यों के विशाल समूह को एक संख्या के रूप में प्रस्तुत कर देता है। इससे विशाल समूह की जानकारी प्राप्त हो जाती हैं। मोरेनो के अनुसार, माध्य का उद्देश्य व्यक्तिगत मूल्यों के समूह का सरल और संक्षिप्त रूप में प्रतिनिधित्व करना है। जिससे मस्तिष्क समूह की इकाइयों के सामान्य आकार को असानी से समझ सके।”

(3) समग्र की रचना तथा विशेषताओं की जानकारी प्रदान करना – माध्य के द्वारा सारे समूह की सामान्य बनावट (रचना) की जानकारी मिल जाती है। सम्पूर्ण समूह की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं तथा गुणों की जानकारी भी मिलती है।

(4) तुलना में सहायता – माध्यों के द्वारा दो या दो से अधिक समूहों, प्रदेशों के कुछ खास लक्षणों का तुलनात्मक अध्ययन कर सकते हैं। दो कक्षा के छात्रों के माध्य से उनके भार या ऊँचाई की जानकारी मिल जाती है।

(5) मार्गदर्शक के रूप में कार्य करना – सांख्यिकीय माध्यम मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है। माध्य की जानकारी से समूह के विकास सम्बन्धी नीतियों के निर्धारण में सहायता मिलती है।

(6) सांख्यिकीय विश्लेषण का आधार – माध्यम विभिन्न वर्गों में गणितीय सम्बन्ध स्थापित करता है। माध्य से विभिन्न समूहों का सांख्यिकीय विश्लेषण किया जाता है।

(7) माध्य बहुत बड़े समूह या वार्ड के प्रतिनिधि के रूप में कार्य किया करता है।

अन्त में कह सकते हैं कि माध्यों का विश्लेषण में महत्त्वपूर्ण स्थान है। डॉ० बाउले के शब्दों में, “माध्य का उद्देश्य जटिल समूहों तथा विशाल क्रियाओं को कुछ महत्त्वपूर्ण शब्दों में या संख्याओं में प्रस्तुत करना है।”

प्रश्न 8.
मध्यमान अथवा समान्तर माध्य (Mean) से आप क्या समझते हैं? मध्यमान ज्ञात करने की विधियों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
मध्यमान की परिभाषित कीजिए।
उत्तर :
मध्यमान अथवा समान्तर माध्य
(Mean or Arithmetic Mean)

अंकगणित में जिस मान को औसत (Average) कहा जाता है, उसे हम सांख्यिकी में मध्यमान अथवा समान्तर माध्य (Mean or Arithmetic Mean) कहते हैं। मध्यमान को ‘M’ अक्षर द्वारा प्रदर्शित करते हैं।

परिभाषा – “मध्यमान वह मान है जो दिये हुए पदों के योगफल में पदों की संख्या से भाग देने पर प्राप्त होता है।”

या किसी अंक-सामग्री के समस्त अंकों के योगफल को उन अंकों की संख्या से भाग देने से जो भागफल प्राप्त होता है, उसे मध्ययान कहते हैं।”

या “मध्यमान वह प्राप्तांक है जिसके दोनों ओर विचलन समान होता है।”

उदाहरण 1 – यदि कक्षा 8 के पाँच विद्यार्थियों के भार क्रमानुसार 54, 2, 56, 53 तथा 50 किलोग्राम हों तो इनके मध्यमान की गणना कीजिए।
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मध्यमान ज्ञात करना
(Calculation of Mean)

मध्यमान अव्यवस्थित (Ungrouped) तथा व्यवस्थित (Grouped) दोनों ही प्रकार के प्राप्तांकों की मदद से निकाला जा सकता है –

(I) अव्यवस्थित प्राप्तांकों से मध्यमान की गणना (The mean of the Ungreuped Scores) – (N) अव्यवस्थित प्राप्तांकों को मध्यमान निकालने के लिए अव्यवस्थित अंकों को जोड़ लेते हैं तथा प्राप्त योगफल को अंकों की संख्या से भाग दे देते हैं। इसके लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है –
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उदाहरण 3 – नीचे तालिका में प्राप्तांक तथा उनके सामने आवृत्तियाँ लिखी गयी हैं, मध्यमान की गणना कीजिए –
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  1. सबसे पहले प्रत्येक वर्गान्तर (Class-interval) का मध्य-बिन्दु ज्ञात किया जाता है।
  2. प्रत्येक मध्य-बिन्दु को तत्सम्बन्धी आवृति से गुणा कर लेते हैं।
  3. गुणनफलों के योगफल को आवृत्तियों की कुल संख्या से विभाजित कर देते हैं।

उदाहरण 4 – मीचे दी गयी सारणी का दीर्घ विधि द्वारा मध्यमान ज्ञात कीजिए –
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उदाहरण 5 – निम्नांकित सारणी का दीर्घ विधि द्वारा मध्यमान ज्ञात कीजिए –
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(2) संक्षिप्त विधि (Short Method) – मध्यमान की गणना की दीर्घ विधि में समय बहुत ज्यादा लगता है; अत: सामान्यतया, संक्षिप्त विधि से मध्यमान की गणना की जाती है। इसके क्रमागत पद निम्नलिखित हैं –

    1. सबसे पहले वर्गान्तरों के बीच से मध्यवर्ती वर्गान्तर ज्ञात किया जाता है। इस मध्यवर्ती वर्गान्तर का मध्य-बिन्दु ही कल्पित मध्यमान (Assumed Mean) है। सर्वाधिक आवृत्तियों वाले, वर्गान्तर को मध्यवर्ती वर्गान्तर मानना उचित होता है।
    2. इस कल्पित मध्यमान को प्रत्येक मध्य-बिन्दु में से घटाकर विचलन (Deviation) (X- A) ज्ञात किया जाता है।
    3. अब विचलन को वर्ग–अन्तराल से भाग देते हैं। भागफल को संक्षिप्त विचलन Step Deviation) (d) कहते हैं।
    4. स्पष्टंत: कल्पित मध्यमान वाले वर्गान्तर के सामने वाले स्तम्भ में ‘0’ लिखा जाएगा। वितरण के जिस ओर मध्य-बिन्दुओं का मान बढ़ता है, उस तरफ विचलन क्रमशः धनात्मक +1,+2, +3, +4,… आदि होता है तथा जिस ओर मध्य-बिन्दुओं का मान घटता है, उस तरफ विचलन क्रमागत ऋणात्मक -1-2-3,-4… आदि होता है।
    5. अब (fd) ज्ञात किया जाता है जिसके लिए वर्गान्तर के सामने की आवृत्तियों को विचलन से गुणा कर देते हैं और (fd) वाले खाने में लिखते हैं।
    6. (∑fd) की गणना के लिए धनात्मक व ऋणात्मक संख्याओं का अलग-अलग योग ज्ञात करके दोनों का अन्तर ज्ञात कर लिया जाता है।
    7. वर्गान्तर का आकार तथा N का मान प्रश्न से देखकर लिख लिया जाता है और सूत्र में ज्ञात मानों को रखकर मध्यमान की गणना कर ली जाती है।
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उदाहरण 7 – नीचे दी गयी सारणी का संक्षिप्त विधि से मध्यमान ज्ञात कीजिए –
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प्रश्न 9.
मध्यांक या माध्यिका (Median) से आप क्या समझते हैं? मुख्य विशेषताओं का उल्लेख करते हुए इसकी गणना की विधि का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
मध्यांक अथवा माध्यिका
(Median)

मध्यांक (या माध्यिका) (Median) दिये हुए आँकड़ों को दो समूहों में विभक्त कर देता है जिसके एक समूह के प्रत्येक पद का मान मध्यांक से कम और दूसरे समूह का मान मध्यांक से अधिक होता है।

परिभाषा – (1) “यदि आँकड़ों को आरोही या अवरोही क्रम में व्यवस्थित किया जाये तो बिल्कुल मध्य में पड़ने वाला आँकड़ा ‘मध्यांक’ कहलाता है।”

(2) गैरेट के अनुसार, “जब अव्यवस्थित अंक (Ungrouped Scores) या दूसरी माप, क्रम में व्यवस्थित हो तो मध्य का अंक मध्यांक कहलाता है।”

मध्यांक का संकेत चिह्न Md है।

उदाहरण 1 – किसी कक्षा के पाँच बच्चों की ऊँचाई क्रमानुसार 140, 143, 145, 147, 152 सेमी हैं। और इन्हें ऊँचाईं के आरोही क्रम में खड़ा किया गया है। इनका मध्यांक क्या होगा?

हल – ऊँचाइयाँ आरोही क्रम में-140, 143, 145, 147, 152 पाँच बच्चों की ऊँचाइयों का मध्यांक तीसरे बच्चे की ऊँचाई =145 सेमी होगा।

मध्यांक की विशेषताएँ
(Characterisitics of Median)

मध्यांक की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. मध्यांक श्रेणी का केन्द्रीय मूल्य होता है; अत: मध्यांक निर्धारण के लिए श्रेणी को किसी क्रम में व्यवस्थित करना आवश्यक है।
  2. यह श्रेणी का मध्य अंक (बिन्दु) है जिसके ऊपर व नीचे की ओर आधे-आधे प्राप्तांक स्थित होते हैं; अत: मध्यांक का मान इस बात पर निर्भर है कि उसके ऊपर-नीचे कितने प्राप्तांक स्थित हैं, न कि इस बात पर कि उससे प्राप्तांक कितनी दूरी पर स्थित हैं।
  3. मध्यांक की गणना क्रमीय स्तर (Ordinal level) के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है।
  4. वितरण के सिरों पर स्थित प्राप्तांक, मध्यांक के मान को कम प्रभावित करते हैं।
  5. मध्यांक की मानक त्रुटि (Standard Error); मध्यमान की मानक त्रुटि से अधिक किन्तु बहुलक की मानक त्रुटि से कम होती है।

मध्यांक को ज्ञात करना।

मध्यांक की गणना भी ‘आँकड़ों की प्रकृति के अनुसार की जाती है। अव्यवस्थित तथा व्यवस्थित आँकड़ों के मध्यांक को ज्ञात करने की प्रक्रिया का विवरण निम्नलिखित है –

(I) अव्यवस्थित ऑकों का मध्यांक (The Medium of Ungrouped Data) – अव्यवस्थित आँकड़ों का मध्यांक निकालने के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान देते हैं –

(1) सर्वप्रथम अव्यवस्थित आँकड़ों को आरोही क्रम (Ascending Order) या अवरोही क्रम (Descending Order) में रखते हैं।
(2) N की संख्या ज्ञात करके उसमें 1 जोड़ देते हैं और योग को 2 से भाग देकर भागफल निकाल लेते हैं।
(3) भागफल की संख्या वाला पद/स्थान मध्यांक है जिसकी गिनती किसी भी छोर से की जा सकती है।
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11 का विस्तार 10.5 से लेकर 11.5 तक है तथा वर्ग-विस्तार (10.5-11.5) का मध्य-बिन्दु 11 है; अतः मध्यांक =11

(II) व्यवस्थित आँकड़ों का मध्यांक (The Median of Grouped Data) – व्यवस्थित या वर्गीकृत आँकड़ों का मध्यांक ज्ञात करने के लिए निम्नलिखित पदों का अनुसरण करना चाहिए –

  1. सर्वप्रथम आवृत्ति वितरण तालिका से दी गयी आवृत्तियों को संचयी आवृत्तियों में बदल लेना चाहिए ताकि यह पता लग सके कि मध्यांक किस वर्गान्तर में है।
  2. इस भाँति उस वर्ग को ज्ञात किया जाता है जिसमें आवृत्तियों के योग के आधार ()[latex]\frac { N }{ 2 } [/latex] स्थित हो। इसे मध्यांक वर्ग कहते हैं।
  3. मध्यांक वर्ग ज्ञात करने के बाद ‘F’, ‘fm’ तथा ” संकेतों के मूल्य ज्ञात करके प्राप्त मूल्यों को निम्नलिखित सूत्र में स्थापित कर मध्यांक की गणना कर लेनी चाहिए –

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हल – प्रश्न में मध्यांक वह बिन्दु होगा जिसके ऊपर ([latex]\frac { 24 }{ 2 } [/latex]) = 12 प्राप्तांक हों। अवलोकन से ज्ञात होता है कि मध्यांक मान 30-39 वाले वर्ग में स्थित है जिसके सम्मुख संचयी आवृत्ति 14 लिखी है।
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विशेष परिस्थितियाँ – आवृत्ति वितरण में मध्यांक की गणना करते समय कुछ विशेष परिस्थितियाँ भी उपस्थित हो सकती हैं जो इस प्रकार हैं –

(i) यदि आवृत्ति वितरण में f का मान °0 दिया गया हो यानी आवृत्ति वितरण के ठीक मध्य में एक अन्तराल (Gap) हो तो मध्यांक की गणना का सूत्र होगा –
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उदाहरण 6 – में 22-24 वर्गान्तर की आवृत्ति ‘0’ है यानी वितरण के ठीक मध्य में एक अन्तराल (Gap) है; अतः यहाँ सूत्र Md = [latex]\frac { L+U }{ 2 } [/latex] प्रयुक्त होगा।
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उदाहरण 7 – में तीन क्रमागत वर्गान्तरों (85-89), (80-84), (75-79) की आवृत्ति ‘0’ दिखायी दे रही है। वितरण में कुल वर्गान्तरों की संख्या 9 है। यहाँ मध्य का वर्गान्तर 80-84 है; अतः =795 और U = 84.5।
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प्रश्न 10.
‘बहुलाक या ‘भूयिष्क (Mol) का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। बहुलाक की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए इसकी गणना की प्रक्रिया को भी स्पष्ट कीजिए।
या
बहुलक किसे कहते हैं?
उत्तर :
बहुलांक (Mode) को हिन्दी में भूयिष्ठक’ भी कहते हैं। यह वह मूल्य या बिन्दु है जिसकी अधिकतम आवृत्ति होती है। सबसे अधिक घनत्व वाले बिन्दु को भी बहुलोक कहते हैं। इस प्रकार से वह मूल्य जिसके आसपास सर्वाधिक श्रेणियाँ केन्द्रित हों बहुलांक कहलाएगा।

उदाहरण 1 – मान लीजिए हमने किसी कक्षा के 15 छात्रों का भार ज्ञात किया जो किग्रा में निम्न प्रकार है –
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हल – इस सारणी में 15 छात्रों में से 6 छात्र ऐसे हैं जिनका भार 51 किग्रा है अर्थात् सर्वाधिक आवृत्ति 51 किग्रा है अर्थात् इन आँकड़ों का बहुलांक 51 किग्रा है।

निष्कर्षतः, सांख्यिकीय आँकड़ों में जिस पद की आवृत्ति अधिकतम हो वह पद बहुलांक कहलाता है।

बहुलांक की परिभाषा
(Definition of Mode)

‘बहुलांक’ को अंग्रेजी में ‘Mode’ कहा गया है। ‘Mode’ शब्द की व्युत्पत्ति फ्रेंच भाषा के ‘la mode’ से हुई है जिसका अर्थ फ्रेंच में फैशन या ‘रिवाज से लिया जाता है। जो वस्तु या मूल्य सर्वाधिक फैशन या चलन में होता है, बहुलांक कहलाती है। उदाहरण के लिए—जूते की दुकान पर उस माप के जूते सबसे ज्यादा संख्या में होंगे जो सबसे ज्यादा लोगों की माप है। इसी भाँति, कपड़े की दुकान पर उस माप के कपड़े अधिक संख्या में होंगे जो अधिकांश लोगों की माप है। यह माप ही बहुलांक है। बहुलांक को Mo से प्रदर्शित किया जाता है।

बहुलांक को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया जा सकता है –

  1. गिलफोर्ड के अनुसार, “किसी वितरण में वह बिन्दु, जिसकी आवृत्ति सर्वाधिक हो, बहुलांक कहलाता है।
  2. क्रॉक्सटन ऐवं काउडेन के अनुसार, “एक श्रेणी का बहुलांक वह मूल्य है जिसके निकट श्रेणी की इकाइयाँ अधिक-से-अधिक केन्द्रित होती हैं।”
  3. ए० एम० टुटले के मतानुसार, “बहुलांक वह मूल्य है जिसके तुरन्त आस-पास आवृत्ति घनत्व अधिकतम होता है।”

बहुलांक की विशेषताएँ
(Characteristics of Mode)

बहुलांक की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. बहुलांक केन्द्रीय प्रवृत्ति को स्थिर एवं विश्वसनीय मान नहीं है, किन्तु इसकी गणना अन्य केन्द्रीय प्रवृत्ति की मापों की अपेक्षा अधिक सरल है।
  2. अव्यवस्थित आँकड़ों में बहुलांक की स्थिति सुनिश्चित नहीं होती; अत: ऐसे समूहों में एक से ज्यादा भी बहुलांक हो सकते हैं।
  3. बहुलांक को वर्गीय स्तर (Nominal Level) के प्राप्तांकों की केन्द्रीय प्रवृत्ति का एकमात्र तथा सर्वोच्च प्रतीक माना जाता है। ऐसी दशाओं में यह केन्द्रीय प्रवृत्ति का सबसे अधिक प्रतिनिधित्व करता है।

अव्यवस्थित आँकड़ों का बहुलक ज्ञात करना
(The Mode of Ungrouped Data)

अव्यवस्थित आँकड़ों में बहुलांक वह प्राप्तांक होता है जो सबसे अधिक बार दोहराया गया हो, अर्थात् जिसकी आवृत्ति सबसे अधिक हो।

उदाहरण 2 – एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग में निम्नलिखित त्रुटियाँ प्राप्त हुई, इनका बहुलक ज्ञात कीजिए –
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हल – निरीक्षण से ज्ञात होता है कि 13 अंक 3 बार दोहराया गया है, जो सबसे अधिक है अर्थात् इसकी आवृत्ति 3 है। अतः अभीष्ट बहुलांक 3 होगा।

व्यवस्थित आँकड़ों का बहुलांक
(The Mode of Grouped Data)

व्यवस्थित आँकड़ों का बहुलक ज्ञात करने के प्रमुख दो सूत्र हैं –
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इस सूत्रे से बहुलांक की गणना के लिए पहले मध्यमान ज्ञात किया जाता है फिर मध्यांक। मध्यांक में 3 का गुणा करते हैं तथा मध्यमान में 2 का। पहली संख्या में से दूसरी घटाकर बहुलक ज्ञात कर लेते हैं। इस सूत्र की सहायता से बहुलक का सन्निकट मान प्राप्त होता है।
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यहाँ, Mo = बहुलांक (Mode)

L1 = उस वर्गान्तर की निम्नतम सीमा है जिसमें आवृत्तियों की संख्या सर्वाधिक है,
fa = यह उस वर्ग की आवृत्ति है जो बहुलांक मान वाले वर्ग के पास हो तथा जिसकी निम्नतम सीमा बहुलांक व मान वाले वर्ग की निम्नतम सीमा से अधिक हो (Post-modal Class),
fb = यह उस वर्ग की आवृत्ति है जो वर्ग बहुलांक मान वाले वर्ग के पास है तथा जिसकी निम्नतम सीमा बहुलांक मान वाले वर्ग की निम्नतम सीमा से कम हो (Pre-Modal Class), तथा
C.I.= वर्गान्तर

उदाहरण 3 – नीचे दी गयी व्यवस्थित अंक सामग्री से बहुलांक की गणना कीजिए –
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नोट – सूत्र (1) द्वारा ज्ञात Mo का मान 29.16 है, जबकि सूत्र (2) द्वारा ज्ञात Mo को मान 33.79 आता है। दोनों मान भिन्न हैं क्योंकि सूत्र (1) की सहायता से सन्निकट मान प्राप्त होता है।

उदाहरण 4 – नीचे दी गयी सारणी की बहुलक मान ज्ञात कीजिए –
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मध्यमान, मध्यांक तथा बहुलक पर अभ्यास के लिए कुछ प्रश्न एवं उनके उत्तर,

1. निम्नलिखित आँकड़ों का मध्यमान तथा मध्यांक ज्ञात कीजिए –
5, 6, 6, 4, 7, 9, 10, 15, 13, 22

2. निम्नलिखित प्राप्तांकों का मध्यांक तथा बहुलांक ज्ञात कीजिए –
72, 80, 84, 88, 92, 76, 78,72,74, 72, 80, 62

3. निम्नलिखित व्यवस्थित अंक सामग्री से मध्यमान तथा बहुलांक की गणना कीजिए (N=70) –
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4. नीचे दी गयी सारणी का मध्यमान, मध्यांक तथा बहुलांक ज्ञात कीजिए (N = 72) –
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5. नीचे दिये गये आवृत्ति वितरण की मदद से केन्द्रवर्ती मान ज्ञात कीजिए (N=84) –
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6. निम्न व्यवस्थित आँकड़ों का मध्यमान, मध्यांक व बहुलांक ज्ञात कीजिए –
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7. कक्षा 11 के छात्रों की मनोविज्ञान में परीक्षा के प्राप्तांकों का आवृत्ति वितरणनीचे है। इनके द्वारा मध्यमान, मध्यांक तथा बहुलक ज्ञात कीजिए (N=38) –
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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समंकों (Data) की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
समंकों की मुख्य विशेषताएँ सांख्यिकी का सम्बन्ध समंकों से होता है। समंकों की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

(1) समंक तथ्यों के समूह होते हैं  इसका अभिप्राय यह है कि किसी एक तथ्य से सम्बन्धित संख्या समंक नहीं कही जा सकती है, क्योंकि एक संख्या से कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है। उदाहरण के लिए-यदि किसी विद्यार्थी के हिन्दी में प्राप्तांक 40 हैं तो ये प्राप्तांक समंक नहीं कहे जाएँगे, परन्तु यदि उस कक्षा के समस्त विद्यार्थियों के प्राप्तांक दिये हुए हैं तो इन प्राप्तांकों को समंक कहा जाएगा।

(2) समंक संख्याओं के रूप में व्यक्त किये जाते हैं – सांख्यिकी में संख्याओं के रूप में व्यक्त किये गये तथ्य ही समंक कहलाते हैं, न कि गुणात्मक रूप में व्यक्त किये गये तथ्य उदाहरणार्थ–तथ्यों का गुणात्मक रूप; जैसे तीव्र बुद्धि, सामान्य, मन्द बुद्धि समंक नहीं कहलाएँगे; परन्तु यदि इन तथ्यों को हम संख्यात्मक रूप में व्यक्त कर दें तो वे संख्याएँ समंक कही जाएँगी; जैसे-बुद्धि को संख्यात्मक रूप में इस प्रकार व्यक्त किया जाता है –

(3) समंकों के संकलन में उचित शुद्धता होनी चाहिए – समंकों के संकलन में उनकी शुद्धता पर काफी ध्यान देना चाहिए। समंकों की शुद्धता की मात्रा अनुसन्धान के क्षेत्र, उद्देश्य, साधन, समय आदि पर निर्भर करती है।

(4) समंकों को एक-दूसरे से सम्बन्धित रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए – इसका तात्पर्य यह है कि समंक सजातीय तथा समरूप होने चाहिए, तभी उनकी आपस में तुलना की जा सकती है। जैसे-यदि हम किसी कक्षा के एक विद्यार्थी के गणित में प्राप्तांक लिख लें और दूसरे विद्यार्थी की आयु लिख लें तो इन संख्याओं को हम समंक नहीं कह सकते; क्योंकि इन्हें एक-दूसरे से सम्बन्धित नहीं किया जा सकता। परन्तु यदि दोनों विद्यार्थियों के गणित में प्राप्तांक या दोनों की आयु ही लिखें तो वे समंक कहलाये जा सकते हैं।

(5) समंकों के संकलन का पूर्व-निश्चित उद्देश्य होता है – वे संख्यात्मक तथ्य ही समंक कहे जाएँगे जिनके संकलन का पूर्व-निश्चित उद्देश्य होता है। बिना उद्देश्य के एकत्रित किये गये आँकड़े समंक नहीं बल्कि केवल संख्याएँ ही कहलाते हैं।

(6) समंक अनेक कारणों से पर्याप्त सीमा तक प्रभावित होते हैं – समंकों पर अनेक कारणों को सामूहिक रूप से प्रभाव पड़ता है। कोई एक घटना किसी एक कारण का परिणाम नहीं होती, अपितु अनेक कारणों से प्रभावित होती है। जैसे-यदि हाईस्कूल की परीक्षा में अधिक विद्यार्थियों की प्रथम श्रेणी है तो प्रथम श्रेणी के अनेक कारण हो सकते हैं। हो सकता है विद्यार्थी अधिक संख्या में प्रतिभावान हों, अधिक परिश्रम से पढ़ते हों, निरीक्षक उदार हों आदि।

(7) सर्मक व्यवस्थित रूप से संकलित होते हैं – समंक एकत्रित करने के लिए एक निश्चित योजना तैयार की जाती है तथा उन आँकड़ों का विश्लेषण करके समुचित तथा तर्कसंगत निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। संगणकों को आँकड़े एकत्रित करने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है। समंक प्रश्नावली तथा अनुसूची के अनुसार एकत्र किये जाते हैं।

(8) समंकों को गणना या अनुमान द्वारा संकलित किया जाता है – संमकों को गणना अथवा अनुमान द्वारा एकत्रित किया जाता है। यदि अनुसन्धान का क्षेत्र सीमित है तो गणना द्वारा समंकों का संकलन,किया जा सकता है और यदि क्षेत्र विस्तृत है तो अनुमान द्वारा ही समंकों का संकलन सम्भव है।

प्रश्न 2.
मनोविज्ञान में सांख्यिकी के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
या
मनोविज्ञान में सांख्यिकीय अध्ययन की कोई चारे उपयोगिताएँ बताइए।
उत्तर :
मनोविज्ञान में सांख्यिकी का महत्त्व

आधुनिक युग में मनोविज्ञान के अध्ययनों में सांख्यिकी का अपना एक विशिष्ट स्थान है। विभिन्न मनोवैज्ञानिक समस्याओं के अध्ययन में सांख्यिकीय विधियों का प्रयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। सच तो यह है कि मनोवैज्ञानिक सांख्यिकी का प्रयोग अपनी पसन्द या नापसन्द के आधार पर नहीं करता बल्कि आँकड़ों की प्रकृति के कारण सांख्यिकी का प्रयोग उसे अनिवार्य रूप से करना पड़ता है। सांख्यिकीय विधियाँ उपकल्पना की जाँच, व्यक्तिगत विभिन्नताओं के मापन तथा जटिल मानव-व्यवहार को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। सांख्यिकी के प्रयोग से मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के परिणाम निष्पक्ष, विश्वसनीय तथा वैध बन जाते हैं और उनके आधार पर भविष्यवाणियाँ करना सम्भव होता है। मनोविज्ञान में सांख्यिकी का महत्त्व इस प्रकार है

(1) मनोविज्ञान की समस्याओं के अध्ययन में एकत्र किये गये आँकड़े जटिल, अतुलनीय एवं अस्पष्ट होते हैं। सांख्यिकीय विधियों से अव्यवस्थित समंकों को व्यवस्थित रूप में वर्गीकृत करके सारणी, चित्रों व रेखाचित्रों के माध्यम से सरल व बोधगम्य रूप से प्रदर्शित किया जाता है।

(2) मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के सम्बन्ध में सांख्यिकी की मदद से वस्तुगत (Objective) तथा शुद्ध (Accurate) परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं।

(3) सांख्यिकीय अध्ययनों से कुछ निष्कर्ष प्राप्त होते हैं जो तथ्यों की वैधानिक व्याख्या कर सकते हैं। सामान्य निष्कर्षों के निर्धारण में भी सांख्यिकी का महत्त्व है; क्योंकि ये निष्कर्ष सांख्यिकीय सूत्रों व नियमों के आधार पर निकाले जाते हैं।

(4) मनोविज्ञान से सम्बन्धित तुलनात्मक अध्ययनों में शुद्ध विश्वसनीय परिणाम निकाले जा सकते हैं। साथ ही तुलना ज्यादा सरल हो जाती है। उदाहरणार्थ-बालकों की बुद्धि की तुलना बुद्धि-लब्धि (1.2.) द्वारा सम्भव है।

(5) सांख्यिकीय अध्ययनों के आधार पर व्यवहार से सम्बन्धित निष्कर्षों के आधार मनोवैज्ञानिक पूर्वकथन या भविष्यवाणी कर सकते हैं।

(6) मनोविज्ञान के क्षेत्र में प्राय: अध्ययन प्रतिदर्श (Sample) पर आधारित होते हैं। प्रतिदर्श समष्टि (Universe) का प्रतिनिधि होता है। सांख्यिकी विधियाँ प्रतिनिधित्वपूर्ण प्रतिदर्श का चयन करने में सहायक हैं।

(7) मनोवैज्ञानिक परीक्षणों के निर्माण में सांख्यिकी का अत्यधिक महत्त्व है। मानसिक व शारीरिक योग्यताओं के मापन हेतु बहुत-से मनोवैज्ञानिक परीक्षण निर्मित होते हैं; उदाहरणार्थ-बुद्धि परीक्षण, व्यक्तित्व परीक्षण तथा रुचि परीक्षण आदि।

स्पष्टत: मेनोविज्ञान के क्षेत्र में सांख्यिकी का विशेष महत्त्व है।

प्रश्न 3.
आँकड़ों के व्यवस्थापन या आवृत्ति वितरण के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
आँकड़ों के व्यवस्थापन यो आवृत्ति वितरण का महत्त्व

आँकड़ों के व्यवस्थापन या आवृत्ति वितरण का महत्त्व निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत प्रतिपादित किया जा सकता है –

(1) संगृहीत किन्तु अव्यवस्थित आँकड़ों से तत्सम्बन्धी समस्या या अध्ययन विषय के परिणाम के सम्बन्ध में उचित निर्णय लेने में कठिनाई होती है। आँकड़ों को व्यवस्थित करने अर्थात् आवृत्ति वितरण बनाने पर ये ही आँकड़े संक्षिप्त, स्पष्ट तथा बोधगम्य महसूस होते हैं और इनके द्वारा परिणामों के बारे में सरलतापूर्वक उचित निर्णय दिया जा सकता है।

(2) व्यवस्थापन या आवृत्ति वितरण द्वारा सांख्यिकीय आँकड़ों का संक्षिप्त प्रदर्शन सम्भव है। अर्थात् आवृत्ति वितरण आँकड़ों को अर्थपूर्ण बनाने का एक सरल उपाय है। वस्तुतः अव्यवस्थित आँकड़े अर्थहीन होते हैं जिनके गुण-दोषों को सामान्यतः व्यक्ति ग्रहण नहीं कर पाता है। आवृत्ति वितरण तालिका में प्रदर्शित होकर ये ही आँकड़े अर्थपूर्ण बन जाते हैं जिन्हें व्यक्ति सरलता से ग्रहण कर लेता है।

(3) सारणीयन में आवृत्ति वितरण तालिका बनाने के उपरान्त तालिका (Table) का सिर्फ अवलोकन करके ही आँकड़ों का अर्थ ज्ञात किया जा सकता है।

(4) आवृत्ति वितरण तालिका के माध्यम से समान या सजातीय गुण (Homogeneous Characters) पूरी तरह स्पष्ट हो जाते हैं।

(5) आवृत्ति वितरण से आँकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन एकदम सरल हो जाता है।

आँकड़ों के व्यवस्थापन या आवृत्ति वितरण के महत्त्व को हम एक उदाहरण के माध्यम से अच्छी प्रकार समझ सकते हैं। मान लीजिए, हमें कक्षा XI के छात्रों की अंक-सूची (Marks-list) प्राप्त है। क्योंकि ये अंक अव्यवस्थित हैं; अतः इनसे परीक्षण के परिणाम के बारे में उचित निर्णय देना दुष्कर होगा। इन प्राप्तांकों को सुव्यवस्थित करैने पर अर्थात् इनका आवृत्ति वितरण तैयार करने पर यही अंक-सूची एक संक्षिप्त, स्पष्ट तथा बोधगम्य स्वरूप में हमारे सामने आ जाएगी। अब हम इसके माध्यम से आसानी से बता पाएँगे कि कितने छात्रों ने प्रथम श्रेणी, कितनों ने द्वितीय और तृतीय श्रेणी प्राप्त की है तथा कितने छात्र परीक्षा में अनुत्तीर्ण हुए हैं।

प्रश्न 4.
केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप या सांख्यिकीय माध्य के महत्त्व एवं उपयोगिता का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :

केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप या सांख्यिकीय माध्य : महत्त्व और उपयोगिता

माध्य के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए प्रो० फिशर ने कहा है कि विशाल संख्यात्मक तथ्यों को समझाने के लिए माध्य बहुत उपयोगी अंक है। सांख्यिकीय में माध्य के अत्यधिक महत्त्व के कारण ही डॉ० बाउले ने तो सांख्यिकी को माध्यों का विज्ञान (Science of Averages) तक कह दिया है। सांख्यिकी विश्लेषण की दूसरी अनेक विधियाँ माध्य पर ही अवलम्बित हैं।

व्यक्तिगत इकाइयों का सांख्यिकी में कोई महत्त्व या उपयोगिता नहीं है किन्तु माध्यों के द्वारा सभी इकाइयों की सामूहिक विशेषताओं व लक्षणों को आसानी से प्रकट किया जा सकता है। इसी प्रकार एक व्यक्ति की आये या आयु का कोई महत्त्व नहीं है, किन्तु सम्पूर्ण समाज की औसत आय या आयु का अत्यधिक महत्त्व है। इस तरह माध्य का समाज में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। माध्य के महत्त्व पर प्रो० टिप्पेट ने इस प्रकार प्रकाश डाला है—“माध्य की अपनी सीमाएँ (कमियाँ)होती हैं, किन्तु यदि उनको स्वीकार किया जाए तो कोई भी एक सांख्यिकीय संख्या माध्य से अधिक उपयोगी नहीं होती है।”

गैरेट (H.E. Garrett) ने केन्द्रीय प्रवृत्ति की मापों का महत्त्व इस प्रकार प्रतिपादित किया है –

  1. केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप समूह के प्राप्तांकों का प्रतिनिधित्व करती है।
  2. यह समूचे समूह के गुणों को संक्षेप में प्रदर्शित कर देती है।
  3. इसकी सहायता से दो या दो से अधिक समूह के कार्यों एवं गुणों का बोध व उनकी तुलना आसानी से की जा सकती है।
  4. इनके द्वारा ढेर सारे प्राप्तांकों के अर्थ को सिर्फ कुछ अंकों या शब्दों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।
  5. प्रामाणिक विचलन (Standard Deviation) तथा सह-सम्बन्ध (Correlation) जैसे उच्च सांख्यिकीय विश्लेषण में केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप आवश्यक होती है।
  6. उच्च सांख्यिकीय अध्ययनों में केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप का प्रयोग प्राथमिक सांख्यिकीय विधियों के रूप में किया जाता है।

प्रश्न 5.
केन्द्रीय प्रवृत्ति की मापों या सांख्यिकी माध्य की प्रमुख विशेषताओं एवं गुणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

केन्द्रीय प्रवृत्ति की मापों या सांख्यिकीय माध्य की
प्रमुख विशेषताएँ एवं गुण

‘केन्द्रीय प्रवृत्ति की मापों का आदर्श माध्य में निम्नलिखित विशेषताएँ तथा गुण अनिवार्य रूप से होने चाहिए –

(1) सरल – एक अच्छी माध्य वही हो सकता है जो समझने तथा गणना करने में सरल हो। इससे उसका उपयोग व्यापक रूप में किया जा सकती है।

(2) स्पष्टता और निश्चितता – माध्य की परिभाषा स्पष्ट होनी चाहिए। उसकी कितनी ही बार गणना की जाये, उसका मान हमेशा ही समान आना चाहिए। अनुसन्धानकर्ता के अनुमान की गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए। परिभाषा में भिन्न-भिन्न अर्थ न निकले।।

(3) प्रतिनिधित्व – माध्य ऐसा होना चाहिए कि समंक माला अर्थात् समूह के प्रमुख-प्रमुख लक्षण उसमें दिखाई दें। समग्र के प्रत्येक पद में उसके निकट रहने की प्रवृत्ति दिखलाई दे।

(4) बीजगणितीय क्रियाओं के योग्य – माध्य ऐसा हो कि उससे बीजगणितीय क्रियाएँ अर्थात् । जोड़, बाकी, गुणा एवं भाग आसानी से की जा सकें।

(5) माध्ये एक निरपेक्ष संख्या होनी चाहिए – माध्यम समंक माला की संख्याओं में हो,.न कि प्रतिशत या दूसरे सापेक्ष रूप में।

(6) न्यादर्श में परिवर्तन से माध्य बहुत कम प्रभावित हो। न्यादर्श के बदल जाने से माध्य में परिवर्तन न हो या क-से-कम हो। समग्र में से एक तरीके से अनेक न्यादर्श चुने जाये जिनके माध्य लगभग समान हों।

(7) समंक माला के सभी पदों पर आधारित होना चाहिए – माध्य किसी एक पद पर आधारित न हो, तभी माध्य समग्र का प्रतिनिधित्व कर सकता है।

(8) माध्ये सीमान्त पदों से अधिक प्रभावित नहीं होना चाहिए, वह सभी पदों पर आधारित हो।

प्रश्न 6.
केन्द्रीय प्रवृत्ति की मापों या सांख्यिकीय माध्य की सीमाओं या दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
केन्द्रीय प्रवृत्ति की मापों या सांख्यिकीय माध्य की सीमाएँ या दोष

केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप या सांख्यिकीय माध्य की प्रमुख सीमाएँ या दोष निम्नलिखित हैं –

  1. सांख्यिकीय माध्य से सिर्फ समूह के गुणों, कार्यों तथा विशेषताओं को ही समझा जा सकता है, ये व्यक्तिगत विशेषताओं का वर्णन नहीं करते।
  2. यदि समूह के गुणों, कार्यों तथा विशेषताओं में विषमता पायी जाये तो उस दशा में सांख्यिकी माध्य समूह की प्रतिनिधित्व नहीं करते, जिसका परिणाम यह होता है कि उच्च सांख्यिकीय विश्लेषण के दौरन दूषित और भ्रामक निष्कर्ष निकलते हैं।
  3. अलग-अलग तरह के सांख्यिकी विश्लेषण में सांख्यिकीय माध्य के अलग-अलग मापक भिन्न परिणाम प्रस्तुत करते हैं।

प्रश्न 7.
केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप या सांख्यिकीय माध्य के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए तथा इनका तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप या सांख्यिकीय माध्य के प्रकार

सांख्यिकी में माध्य कई प्रकार के होते हैं जिनमें से प्रमुख माध्ये निम्नलिखित हैं –

  1. मध्यमान (Mean)
  2. मध्यांक माने (Median) तथा
  3. बहुलांक मान (Mode)।

केन्द्रीय प्रवृत्ति की विभिन्न मापों की तुलना

मध्यमान, मध्यांक और बहुलांक – केन्द्रीय प्रवृत्ति की इन तीन मापों में समानता या विषमता, आवृत्ति वितरण की प्रकृति पर निर्भर है। इस विषय में निम्नलिखित दशाएँ अनुभव में आती हैं –

(1) सममित (Symmetrical) आवृत्ति वितरण की स्थिति में मध्यमान, मध्यांक तथा बहुलक तीनों को मान समान आता है।
(2) विषमता (Skewness) आवृत्ति वितरण होने पर इन तीनों अर्थात् मध्यमान, मध्यांक तथा बहुलक के मान भिन्न-भिन्न आते हैं। यहाँ दो स्थितियाँ सम्भव हैं –
(a) धनात्मक विषमता (Positively Skewed Distribution) में मध्यमान का मूल्य कम, मध्यांक को मध्यमान से अधिक तथा बहुलांक का मध्यांक से भी अधिक होता है।
(b) ऋणात्मक विषमता (Negatively Skewed Distribution) में मध्यमान का मान सबसे अधिक, मध्यांक का मान उससे कम तथा बहुलांक का मान सबसे कम होता है।
(3) मध्यमान सबसे अधिक शुद्ध, मध्यांक अपेक्षाकृत कम शुद्ध तथा बहुलांक सबसे कम शुद्ध मान स्वीकार किये गये हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सांख्यिकी की परिभाषा दीजिए।
उत्तर :
प्रो० सेलिगमैन ने सांख्यिकी की एक स्पष्ट परिभाषा इन शब्दों में प्रतिपादित की है, सांख्यिकी वह विज्ञान है जो किसी भी अनुसन्धान (जाँच) के क्षेत्र पर प्रकाश डालने के लिए संख्यात्मक आंकड़ों का संग्रहण, प्रस्तुतीकरण, वर्गीकरण, तुलना तथा निर्वचन की रीतियों का प्रयोग करता है।”

प्रश्न 2.
सांख्यिकी की किन्हीं दो विशेषताओं के बारे में लिखिए।
उत्तर :

  1. सांख्यिकी विज्ञान तथा कला दोनों है।
  2. सांख्यिकी में किसी अनुसंधान क्षेत्र से सम्बन्धित सामूहिक संख्यात्मक तथ्यों के संकलन, प्रदर्शन, विश्लेषण तथा निर्वचन की रीतियों का विधिवत् अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 3.
सांख्यिकी की मुख्य सीमाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
यह सत्य है कि सांख्यिकी की अत्यधिक उपयोगिता एवं महत्त्व है, परन्तु इसकी कुछ सीमाएँ भी हैं। सर्वप्रथम हम कह सकते हैं कि सांख्यिकी के माध्यम से केवल संख्यात्मक तथ्यों का अध्ययन किया जा सकता है, इसके माध्यम से गुणात्मक तथ्यों का अध्ययन नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार सांख्यिकी के माध्यम से विजातीय तथ्यों का अध्ययन नहीं किया जा सकता है। यही नहीं, इसके माध्यम से केवल समूह का अध्ययन किया जा सकता है, व्यक्ति का नहीं। बिना सन्दर्भ से सांख्यिकी के माध्यम से प्राप्त होने वाले परिणाम असत्य तथा भ्रामक होते हैं। सांख्यिकी के माध्यम से प्राप्त होने वाले परिणाम केवल औसत रूप में ही सही हैं। वास्तव में, सांख्यिकी एक साधन है, साध्य नहीं। इन्हीं सीमाओं को ध्यान में रखते हुए यूल तथा केण्डाल ने कहा है, “सांख्यिकीय राीतियाँ अयोग्य व्यक्तियों के हाथों में खतरनाक औजार हो सकती हैं।”

प्रश्न 4.
प्रदत्त (Data) से क्या आशय है?
उत्तर :
प्रदत्त (Datum) वह तथ्य या सूचना है जिसके आधार पर हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं। किसी परीक्षा में प्राप्तांकों को प्रदत्त कहा जा सकता है। यह परीक्षा उनके व्यवहार के किसी भी पहलू से सम्बन्धित हो सकती है। उदाहरण के लिए-यदि कक्षा बारह के छात्रों की मनोविज्ञान विषय में परीक्षा ली जाये तो परीक्षा में छात्रों को जो प्राप्तांक प्राप्त होंगे उन्हें प्रदत्त कहा जाएगा। प्रयोगों, शोध कार्य या सर्वेक्षणों में जो आँकड़े सूचनाएँ एकत्र की जाती हैं, उन्हें भी प्रदत्त कहा जाता है। अंग्रेजी में Data शब्द बहुवचन है जबकि Datum शब्द एकवचन।

प्रश्न 5.
प्राप्तांक (Score) के अर्थ एवं सीमाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
“किसी मनोवैज्ञानिक परीक्षा में प्राप्तांक का अभिप्राय उस इकाई से है जो दो सीमान्तों के बीच होती है। उदाहरणार्थ-किसी छात्र के बुद्धि-परीक्षण में 130 प्राप्तांक का अर्थ दो सीमान्तों 129.5-130.5 में लगाया जाता है। यहाँ 130 प्राप्तांक 129.5-130.5 का मध्य-बिन्दु है।

सांख्यिकी में किसी भी प्राप्तांक का विस्तार (Interval) दी गई संख्या से आधा इकाई कम से लेकर आधार इकाई अधिक तक माना जाता है। इस भाँति प्रत्येक प्राप्तांक का प्रसार क्षेत्र (Range) एक के बराबर होता है। किसी प्राप्तांक की दो सीमाएँ हैं—उसकी उच्चतम सीमा (Upper limit) तथा उसकी निम्नतम सीमा (Lower limit)। प्राप्तांक की उच्चतम सीमा ज्ञात करने के लिए उसमें 0.5 जोड़ देना चाहिए तथा निम्नतम सीमा ज्ञात करने के लिए उसमें से 0.5 घटा देना चाहिए। प्राप्तांक 130 से हमारा अभिप्राय- 129.5 से लेकर 130.5 तक है तथा प्राप्तांक 130 का मान इन दोनों सीमाओं के मध्य कोई भी हो सकता है। 130.5 इस प्राप्तांक की उच्चतम सीमा तथा 129.5, इसकी निम्नतम सीमा है। प्राप्तांक 150 की उच्चतम सीमा 150 + 0.5 अर्थात् 15.5 तथा निम्नतम सीमा 150-0.5 = 149.5 होगी।। इसी भाँति 151 प्राप्तांक की निम्नतम सीमा 150.05 तथा उच्चतम सीमा 151.5 होगी। इसे निम्नलिखित रूप में प्रदर्शित कर सकते हैं –
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प्रश्न 6.
सांख्यिकी में प्रसार क्या है?-एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर :
सांख्यिकी में प्राप्तांकों में परिवर्तनशीलता की मापों को ज्ञात किया जाता है। परिवर्तनशीलता की एक माप को प्रसार (Range) कहा जाता है। यह परिवर्तनशीलता की एक स्थल माप है। जब किसी अध्ययन के दौरान अध्ययनकर्ता के पास कम समय होता है तथा वह प्राप्तांकों के विवरण की परिवर्तनशीलता को जानना चाहता है तो उस स्थिति में विवरण के प्रसार को ज्ञात करने का प्रयास किया जाता है। नियमानुसार प्रसार को निम्नलिखित सूत्र द्वारा ज्ञात किया जाता है –
प्रसार (Range)= (उच्चतम प्राप्तांक-न्यूनतम प्राप्तांक) +1
उदाहरण-उच्चतम प्राप्तांक 80, न्यूनतम प्राप्तांक 5
प्रसार = (80 – 5) + 1 = 76

प्रश्न 7.
मध्यमान (Mean) की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2016]
उत्तर :
मध्यमान में निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं –

  1. मध्यमान दिये गये वितरण का केन्द्र या सन्तुलन बिन्दु होता है।
  2. मध्यमान की स्थिति वितरण के प्रत्येक प्राप्तांक से प्रभावित होती है। उदाहरणार्थ—प्राप्तांकों में से किसी प्राप्तांक को घटाने या बढ़ाने पर वितरण का मध्यमान भी घट या बढ़ जाएगा।
  3. वितरण के सभी प्राप्तांकों को एक निश्चित संख्या से गुणा करने पर मध्यमान का मान उस संख्या के गुणनफल के बराबर हो जाएगा।
  4. केन्द्रीय प्रवृत्ति के मापों में मध्यमान एक निष्पक्ष (Unbiased) सांख्यिकी है जिसमें मानक त्रुटि (Standard Error) कम होती है।

प्रश्न 8.
मध्यसान के मुख्य गुणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
मध्यमान के मुख्य गुण निम्नलिखित हैं –

  1. केन्द्रीय प्रवृत्ति की मापों में सर्वाधिक शुद्ध माप मध्यमान है।
  2. यह सबसे अधिक विश्वसनीय सांख्यिकी है।
  3. इसकी गणना शीघ्र तथा सरलता से हो जाती है।
  4. मध्यमान वितरण के प्राप्तांकों का विशुद्ध प्रतिनिधित्व करता है।
  5. केन्द्रीय प्रवृत्ति की अन्य मापों की अपेक्षा मध्यमान की मदद से तुलना करना अधिक सरल
  6. प्रामाणिक विचलन तथा सहसम्बन्ध गुणांक जैसी सांख्यिकी गणनाओं में मध्यमान की गणना जरूरी है।

प्रश्न 9.
मध्यमान के मुख्य दोषों का उल्लेख करते हुए स्पष्ट कीजिए कि इसका प्रयोग कब उचित होता है?
उत्तर :
मध्यमान के कुछ दोष ये हैं –

  1. मुक्त सिरों वाले या अपूर्ण प्राप्तांक वितरण के अन्तर्गत मध्यमान प्रयोग नहीं किया जा सकता।
  2. इसी प्रकार असामान्य अंक-वितरण के अन्तर्गत भी मध्यमान की जगह मध्यांक का प्रयोग उचित समझा जाता है।

मध्यमान का प्रयोग कब और कहाँ करना उचित है, इसके लिए कुछ निर्देश नीचे दिये जा रहे

  1. सबसे अधिक शुद्ध एवं विश्वसनीय केन्द्रीय प्रवृत्ति ज्ञात करने हेतु मध्यमान का प्रयोग किया जाता है।
  2. जब बहुलांक, प्रामाणिक विचलन तथा सहसम्बन्ध आदि की गणना करनी हो, तब भी मध्यमान की गणना आवश्यक होती है।
  3. सामान्य वितरण (अर्थात् जब दिये गये प्राप्तांकों के सभी अंक समान रूप से वितरित हों) के अन्तर्गत भी मध्यमान प्रयुक्त होती है।
  4. मध्यमान की गणना तुलनात्मक अध्ययन के समय भी आवश्यक होती है।

प्रश्न 10.
मध्यांक (Median) के मुख्य गुणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
मध्यांक के मुख्य गुण निम्नलिखित हैं –

  1. सरलता – मध्यांक को ज्ञात करना तथा इसे समझना दोनों ही बहुत आसान हैं।
  2. चरम मूल्यों से अप्रभावित – मध्यांक के मूल्य पर श्रेणी के सबसे बड़े या छोटे मूल्य का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
  3. गुणात्मक विशेषताओं के अध्ययन में उपयोगी – गुणात्मक तथ्य; जैसे-बुद्धिमत्ता, स्वास्थ्य, ईमानदारी, गरीबी आदि के निर्धारण में यह अति उपयोगी होता है।
  4. निश्चितता – मध्यांक का मूल्य बहुलांक की भाँति अस्पष्ट और अनिश्चित नहीं होता है।
  5. अधूरे समंक से मध्यांक निर्धारण सम्भव है। केवल मध्यांक वर्ग तथा कुछ दूसरी सूचनाएँ मिल जाने पर ही इसको ज्ञात कर सकते हैं। सम्पूर्ण पदमाला की जानकारी जरूरी नहीं।
  6. इसको बिन्दुरेख विधि से भी ज्ञात कर सकते हैं। निरीक्षण से भी मध्यांक का निर्धारण किया जा सकता है।

प्रश्न 11.
मध्यांक (Median) के मुख्य दोषों या सीमाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
मध्यांक के मुख्य दोष या सीमाएँ निम्नलिखित हैं –

  1. सीमान्त मूल्यों की उपेक्षा – सामान्यत: मध्यांक निर्धारण में श्रेणी के सीमान्त पदों पर ध्यान नहीं दिया जाता है। इस तरह मध्यांक में सभी पदों को समान महत्त्व नहीं देते हैं।
  2. आवश्यक क्रियाएँ – श्रेणी को आरोही या अवरोही आधार पर व्यवस्थित करने का कार्य अनिवार्य रूप से करमा पड़ता है।
  3. निर्धारण में कठिनाई – यदि मध्य पद दो मूल्यों के बीच आता है, तब मध्यांक मूल्य बिल्कुल ठीक नहीं होता है। केन्द्रीय मूल्यों के औसत को मध्यांक लिया जाता है। इसी तरह सतत श्रेणी में भी यह इस मान्यता पर आधारित है कि प्रत्येक वर्ग में आवृत्तियाँ समान हैं।
  4. कभी-कभी मध्यांक एक प्रतिनिधि माप नहीं होता है विशेषकर पदों की संख्या कम होने पर।
  5. मध्यांक बीजगणितीय विवेचन में अनुपयोगी रहता है। मध्यांक मूल्य को पदों की संख्या से गुणा करने पर पदों के मूल्यों का योग मालूम नहीं कर सकते हैं।

प्रश्न 12.
मध्यांक के उचित प्रयोग सम्बन्धी कुछ निर्देश दीजिए।
उत्तर :
मध्यांक के उचित प्रयोग हेतु निम्नलिखित निर्देश दिये जा सकते हैं –

  1. मध्यांक की गणना असामान्य वितरण की स्थिति में करनी चाहिए जबकि अंक सामग्री का वास्तविक मध्य-बिन्दु पता लगाना हो।
  2. श्रेणी के शुरू तथा अन्तर के अंक जब मध्यमान को प्रभावित करते हों तब भी मध्यांक की गणना की जाती है। उदाहरणार्थ – 2, 3, 4, 5, 6 का मध्यमान (M) तथा मध्यांक (Md) 4 है। यदि 6 के स्थान पर 11 हो तो मध्यांक 4 ही रहेगा लेकिन मध्यमान 5 हो जाएगा।
  3. इसकी गणना उस समय की जानी उचित है जबकि अपेक्षाकृत कम शुद्ध केन्द्रीय प्रवृत्ति के मान की आवश्यकता हो।
  4. बहुलांक (Mode) की गणना के समय भी मध्यांक ज्ञात किया जाता है।

प्रश्न 13.
बहुलांक (Mode) के मुख्य गुणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
बहुलांक के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं –

  1. निर्धारण में सरलता—इसको निरीक्षण अर्थात् देखकर भी तय किया जा सकता है।
  2. बिन्दुरेखीय विधि से भी इसका निर्धारण कर सकते हैं।
  3. प्रतिनिधित्व-बहुलांक मूल्य श्रेणी का सबसे श्रेष्ठ प्रतिनिधि माना जाता है।
  4. सीमान्त पदों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
  5. उद्योग, व्यापार एवं वाणिज्य में इसका बहुत उपयोग होता है। विशेषकर जूते निर्माताओं, सिले-सिलाये वस्त्र तैयार करने वालों आदि के लिए यह बहुत उपयोगी है।

प्रश्न 14.
बहुलांक (Mode) के मुख्य दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
बहुलांक के मुख्य दोष निम्नलिखित हैं –

  1. समान आवृत्तियाँ होने पर इसका निर्धारण कठिन हो जाता है।
  2. सीमान्त मूल्यों की अवहेलना होती है।
  3. बीजगणितीय विश्लेषण सम्भव नहीं है।
  4. श्रेणी के सभी पदों पर आधारित नहीं होता है।
  5. श्रेणी में कभी-कभी बहुलांक भ्रमात्मक होता है।

प्रश्न 15.
बहुलांक (Mode) का प्रयोग किन परिस्थितियों में किया जाना चाहिए?
उत्तर :

बहुलांक का प्रयोग निम्नलिखित परिस्थितियों में करना वांछित है –

  1. सबसे कम शुद्ध केन्द्रीय प्रवृत्ति के मान की गणना के समय बहुलांक का प्रयोग उचित है।
  2. यदि निरीक्षण-मात्र से ही केन्द्रीय प्रवृत्ति की गणना करनी हो तो बहुलक उपयोगी है।
  3. वितरण के कुछ वर्ग या अंक छूटे होने पर भी बहुलांक का प्रयोग उचित है।
  4. व्यापार में अधिक प्रचलित वस्तु या लोकप्रिय फैशन से जुड़ी समस्या के अध्ययन में बहुलांक का सर्वाधिक प्रयोग होता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न I.
निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए –

  1. बहुवचन में सांख्यिकी शब्द का अर्थ ………………….. से है, जो किसी विशिष्ट क्षेत्र से सम्बन्धित संख्यात्मक तथ्य होते हैं।
  2. ………………….. प्रदत्तों के संग्रह, उनके विश्लेषण तथा निष्कर्ष निकालने का विज्ञान है।
  3. सांख्यिकी में संख्याओं के रूप में व्यक्त किये गये तथ्य ही ………………….. कहलाते हैं।
  4. मनोविज्ञान के क्षेत्र में तुलनात्मक अध्ययन करने में सांख्यिकी ………………….. होती है।
  5. सांख्यिकी केवल संख्यात्मक तथ्यों का अध्ययन करती है, ………………….. का नहीं।
  6. सांख्यिकी द्वारा केवल ………………….. तथ्यों का ही अध्ययन किया जा सकता है।
  7. सांख्यिकी अपने आप में एक साधन है, ………………….. नहीं।
  8. संकलित आँकड़ों को जब एक निश्चित क्रम में लिखा जाता है तो इस भाँति बनी हुई पदमाला या श्रृंखला को ………………….. कहा जाता है।
  9. दिये गये प्रदत्तों के उच्चतम एवं न्यूनतम अंकों के अन्तर को ………………….. कहते हैं।
  10. आँकड़ों को समानता या सजातीयता के आधार पर वर्गों में व्यवस्थित करने को ………………….. कहते हैं।
  11. किसी प्राप्तांक के बार-बार आने की प्रवृत्ति को ………………….. कहते हैं।
  12. केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप समूह के प्राप्तांकों का ………………….. करती है।
  13. अव्यवस्थित सांख्यिकीय आँकड़ों को व्यवस्थित करके मध्यमान की गणना हेतु ………………….. निर्धारित किया जाता है।
  14. किसी कक्षा के बच्चों के प्राप्तांकों को जोड़कर बच्चों की कुल संख्या से भाग देने पर जो मान प्राप्त होता है, उसे ………………….. कहते हैं।
  15. केन्द्रीय प्रवृत्ति की मापों में सर्वाधिक शुद्ध माप ………………….. है।
  16. सांख्यिकी में दिये गये प्राप्तांकों को ठीक दो बराबर भागों में बांटने वाले बिन्दु को ………………….. कहते हैं।
  17. आरोही अथवा अवरोही क्रम में लिखे पदों के मध्य पद के रूप को ………………….. कहते हैं।
  18. किसी दी गयी पदमाला में सर्वाधिक बार आने वाले मूल्य को ………………….. कहते हैं।
  19. बहुलांक में श्रेणी के सीमान्त मूल्यों की ………………….. होती है।

उत्तर :

  1. सर्मकों या आंकड़ों
  2. सांख्यिकी
  3. समंक
  4. सहायक
  5. गुणात्मक तथ्यों
  6. सजातीय
  7. साध्य
  8. सांख्यिकी श्रेणी
  9. वर्ग विस्तार
  10. वर्गीकरण
  11. केन्द्रीय प्रवृत्ति
  12. प्रतिनिधित्व
  13. कल्पित मध्यमान
  14. मध्यमान
  15. मध्यमान
  16. मध्यांक
  17. मण्यांक
  18. पुलकि
  19. अपहेलना।

प्रश्न II
निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए।

प्रश्न 1.
शाब्दिक रूप से सांख्यिकी (Statlalc) का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
सांख्यिकी’ शब्द दो अर्थों में प्रयोग होता है। एकवचन के अर्थ में ‘सांख्यिकी का प्रयोग एक विज्ञान के रूप में किया जाता है। बहुवचन के अर्थ में सांख्यिकी का प्रयोग आँकड़ों, संख्याओं या समंकों के रूप में लिया जाता है।

प्रश्न 2.
सांख्यिकी के सन्दर्भ में समंकों की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. समंक तथ्यों के समूह होते हैं तथा
  2. समंक संख्याओं के रूप में व्यक्त किये जाते हैं।

प्रश्न 3.
एक विज्ञान के रूप में सांख्यिकी की उचित परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
लाविट के अनुसार, “सांख्यिकी वह विज्ञान है जो संख्यात्मक तथ्यों के संग्रह, वर्गीकरण तथा सारणीयन से सम्बन्ध रखता है, जिससे उन्हें घटनाओं की व्याख्या, विवरण और तुलना के लिए प्रयुक्त किया जा सके।

प्रश्न 4.
सांख्यिकी की प्रकृति क्या है?
उत्तर :
सांख्यिकी विज्ञान तथा कला दोनों है। इसमें किसी अनुसन्धान क्षेत्र से सम्बन्धित सामूहिक संख्यात्मक तथ्यों के संकलन, प्रदर्शन, विश्लेषण तथा निर्वचन की रीतियों का विधिवत् अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 5.
सांख्यिकी के विषय में वॉलिस और “रॉबर्टस का दृष्टिकोण क्या है?
उत्तर :
बॉलिस और रॉबर्ट्स के अनुसार, “सांख्यिकी स्वतन्त्र और मूलभूत ज्ञान का समूह नहीं है अपितु ज्ञान-प्राप्ति की रीतियों का समूह है।”

प्रश्न 6.
‘सांख्यिकीय श्रेणी की एक व्यवस्थित परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
कॉनर के अनुसार, “जब दो चल-राशियों के मूल्यों को साथ-साथ इस भाँति व्यवस्थित किया जाये कि एक मापनीय अन्तर दूसरे के मापनीय अन्तर का सहगामी हो तो इस प्रकार से प्राप्त पदमाला को सांख्यिकीय श्रेणी कहते हैं।”

प्रश्न 7.
सांख्यिकीय श्रेणियों के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

(क) व्यक्तिगत श्रेणी
(ख) असतत या खण्डित या, विच्छिन्न श्रेणी तंथा
(ग) सतत या अखण्डित या अविच्छिन श्रेणी।

प्रश्न 8.
वर्गीकरण की एक व्यवस्थित परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
कॉनर के अनुसार, “वर्गीकरण तथ्यों को उनकी विशेषताओं अथवा गुणों के आधार पर समूह एवं वर्गों में क्रमबद्ध करने की एक प्रक्रिया है, जिसका उद्देश्य विभिन्नताओं के बीच समान तथ्यों को खोजकर एक साथ रखना है।”

प्रश्न 9.
सारणीयन की परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
कॉनर के अनुसार, “सारणीयन किसी विचाराधीन समस्या को स्पष्ट करने के उद्देश्य से किया जाने वाला सांख्यिकी तथ्यों का क्रमबद्ध एवं सुव्यवस्थित प्रस्तुतीकरण है।’

प्रश्न 10.
प्राप्तांकों को समूहबद्ध करने की विधियाँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तर :

(क) समावेशी विधि
(ख) शुद्ध वर्गीकृत श्रृंखला विधि तथा
(ग) अपवर्जी विधि।

प्रश्न 11.
केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप लिखिए।
उत्तर :

  1. मध्यमान, (Mean)
  2. मध्यांक (Median) तथा
  3. बहुलांक (Mode)

प्रश्न 12.
सांख्यिकीय माध्य या औसत से क्या आशय है?
उत्तर :
वह संख्या, जो किसी समूह-विशेष के सभी आँकड़ों का प्रतिनिधित्व करती है, उस समूह का सांख्यिकी माध्य या औसत कहलाती है।

प्रश्न 13.
मध्यमान (Mean) से क्या आशय है?
उत्तर :
मध्यमान वह मान है जो दिये हुए पदों के योगफल में पदों की संख्या से भाग देने पर प्राप्त होता है।

प्रश्न 14.
अव्यवस्थित प्राप्तांकों से मध्यमान ज्ञात करने का सूत्र लिखिए।
उत्तर :
[latex]{ M= }\frac { \Sigma X }{ N } [/latex]
यहाँ M = मध्यमान, ∑ = प्राप्तांकों का योग, N = प्राप्तांकों की संख्या।

प्रश्न 15.
मध्यांक (Median) से क्या आशय है?
उत्तर :
यदि आँकड़ों को आरोही या अवरोही क्रम में व्यवस्थित किया जाये तो बिल्कुल मध्य में पड़ने वाला आँकड़ा मध्यांक कहलाता है।

प्रश्न 16.
बहुलांक (Mode) से क्या आशय है?
उत्तर :
क्राक्सटन एवं काउडेन के अनुसार, “एक श्रेणी का बहुलांक वह मूल्य है। जिसके निकट श्रेणी की इकाइयाँ अधिक-से-अधिक केन्द्रित होती हैं।”

प्रश्न 17.
शुद्धता के दृष्टिकोण से मध्यमान, मध्यांक और बहुतांक या तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
परिणामों की शुद्धता के दृष्टिकोण से मध्यमान को सबसे अधिक शुद्ध, मध्यांक को अपेक्षाकृत कम शुद्ध तथा बहुलांक को सबसे कम शुद्ध माना जाता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सांख्यिकी का प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्ध है –

(क) विज्ञान से
(ख) संख्यात्मक तथ्यों से
(ग) सुझावों एवं संकेतों से
(घ) गुणात्मक तथ्यों से,

प्रश्न 2.
“सांख्यिकी को संख्यात्मक समंकों के एकत्रीकरण, प्रस्तुतीकरण, विश्लेषण तथा निर्वचन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।” प्रस्तुत परिभाषा के प्रतिपादक हैं –

(क) डॉ० बाउले
(ख) पर्सन और हार्लोज
(ग) क्रॉक्सटन और काउडेन
(घ) इनमें से कोई नहीं।

प्रश्न 3.
सांख्यिकी को माना जाता है –

(क) शुद्ध विज्ञान
(ख) शुद्ध कला
(ग) विज्ञान तथा कला दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं।

प्रश्न 4.
मनोविज्ञान में सांख्यिकी की उपयोगिता है –

(क) आँकड़ों को सरल एवं बोधगम्य बनाना
(ख) आँकड़ों को सुस्पष्ट एवं संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण
(ग) आँकड़ों के सहसम्बन्ध का वर्णन
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 5.
आँकड़ों के व्यवस्थापन की पद्धति है –

(क) वर्गीकरण
(ख) सारणीयन
(ग) रेखाचित्र प्रस्तुतीकरण
(घ) ये सभी

प्रश्न 6.
प्राप्तांक 76 की न्यूनतम सीमा है – [2014]

(क) 76
(ख) 76.5
(ग) 755
(घ) 75.

प्रश्न 7.
सांख्यिकी में प्राप्तांक 1 का विस्तार होता है – [2011]

(क) 0.0 से 1
(ख) 0.5 से 1
(ग) 0.5 से 1.5
(घ) 1 से 1.5 8.

प्रश्न 8.
आंकड़े 8, 23, 16, 15, 5, 26, 6, 38, 33, 11 एवं 15 का विस्तार है – (2015)

(क) 5
(ख) 6
(ग) 33
(घ) 38

प्रश्न 9.
केन्द्रीय प्रवृत्ति के माप हैं – (2008)

(क) मध्यमान तथा सहसम्बन्ध
(ख) मध्यांक तथा
(ग) बहुलक
(घ) मध्यमान, मध्यांक तथा बहुलक।

प्रश्न 10.
अंक वितरण के सभी अंकों को जोड़कर उनकी संख्या से भाग देने पर जो भागफल प्राप्त होता है, उसे कहते हैं – (2010)

(क) प्रतिशतांक
(ख) मध्येमान
(ग) मध्यांक
(घ) प्रसार

प्रश्न 11.
मध्यमान का गुण है –

(क) सर्वाधिक शुद्ध माप
(ख) शीघ्र एवं सरल गणना
(ग) दिये गये प्राप्तांकों का विशुद्ध प्रतिनिधित्व
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 12.
किसी सांख्यिकीय वितरण में ऊपर-नीचे दो बराबर भागों में बाँटने वाले बीच के अंक को कहते हैं –

(क) मध्यमान
(ख) मध्यांक
(ग) बहुलक
(घ) प्रतिशतांक

प्रश्न 13.
यदि दिये गये आँकड़ों को आरोही या अवरोही क्रम में व्यवस्थित किया जाए तो बिल्कुल मध्य में पड़ने वाला ऑकड़ा कहलाता है – (2007)

(क) मध्यमान
(ख) मध्यांक
(ग) बहुलांक
(घ) इनमें से कोई नहीं।

प्रश्न 14.
मध्यांक का दोष है –

(क) सीमान्त मूल्यों की अपेक्षा
(ख) निर्धारण में कठिनाई
(ग) कम पदों की दशा में सही प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता
(घ) उपर्युक्त सभी दोष

प्रश्न 15.
वितरण में जिस अंक की आवृत्ति सर्वाधिक होती है, उसे कहते हैं –

(क) मध्यांक
(ख) बहुलक
(ग) मध्यमान
(घ) चतुर्थांक

प्रश्न 16.
आँकड़े 8, 6, 8, 2, 11, 6, 8 एवं 5 में से है –

(क) मध्यमान
(ख) मानक विचलन
(ग) मध्यांक
(घ) बहुलांक

उत्तर :

  1. (ख) संख्यात्मक तथ्यों से
  2. (ग) क्रॉक्सटन और काउडन
  3. (ग) विज्ञान तथा कला दोनों
  4. (घ) उपर्युक्त सभी
  5. (घ) ये सभी
  6. (ग) 75.57
  7. (ख) 0.5 से 1 8.
  8. (ग) 33
  9. (घ) मध्यमान मध्यांक तथा बहुलेक
  10. (ख) मध्यमान
  11. (घ) उपर्युक्त सभी
  12. (ख) मध्याक
  13. (ख) मध्यांक
  14. (घ) उपर्युक्त सभी दोष
  15. (ख)बहुलक
  16. (घ) बहुलाका

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