UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 18 Stages of Child Development

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 18
Chapter Name Stages of Child Development (बाल-विकास की अवस्थाएँ)
Number of Questions Solved 55
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 18 Stages of Child Development (बाल-विकास की अवस्थाएँ)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
शैशवावस्था से क्या आशय है ? शैशवावस्था की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

शैशवावस्था का अर्थ
(Meaning of Infancy)

शिशु होने की अवस्था को शैशवावस्था कहा जाता है। जो बालक अपने आप जीवन की सभी क्रियाओं को नहीं कर पाता, उसे शिशु कहा जाता है। ऐसा बालक अपने अस्तित्व एवं विकास के लिए दूसरों पर आश्रित होता है। शाब्दिक अर्थ में शिशु एक अबोध प्राणी है, जो अपने लिए कुछ कर नहीं सकता अर्थात् दूसरों पर आश्रित रहने वाला प्राणी है। शैशवावस्था को पराश्रितता तथा असहायावस्था भी कहते हैं। क्रो और क्रो के अनुसार, “शैशवावस्था वह अवस्था है जिसमें इन्द्रिय प्रणालियाँ कार्य करने लगती हैं और शिशु रेंगना, चलना और बोलना सीखता है। सामान्य रूप से जन्म से 2-3 वर्ष की आयु तक के काल को शैशवावस्था माना जाता है। कुछ विद्वानों ने जन्म से 6 वर्ष की आयु तक के काल को शैशवावस्था माना है।

शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएँ
(Major Characteristics of Infancy)

शैशवावस्था में निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ पायी जाती हैं-

1. पराश्रयिता- जन्म से लेकर;6 वर्ष की आयु तक शिशु अपने माता-पिता एवं अन्य लोगों पर आश्रित होता है, क्योंकि डेढ़-दो वर्ष तक तो शिशु की शारीरिक स्थिति ऐसी होती है कि वह अपने आप कुछ नहीं कर सकता। बाद में भी माँ उसे साफ करती, नहलाती, धुलाती, कपड़े पहनाती तथा भोजन कराती है। अपनी रक्षा, ज्ञानार्जन एवं प्रशिक्षण के लिए शिशु अपने से बड़ों पर आश्रित होता है। आयु के बढ़ने के साथ-साथ यह पराश्रितता कम हो जाती है।

2. अपरिपक्वता- जन्म के समय शिशु सर्वथा अशक्त एवं असहाय होता है। रोने, चिल्लाने व हाथ-पैर हिलाने के अतिरिक्त वह कुछ दिन तक और कुछ नहीं कर सकता। मानसिक क्रिया करने में भी वह अशक्त रहता है। भाषा बोलने में वह असमर्थ पाया जाता है। संवेगात्मक रूप से भी वह अपरिपक्व होता है। धीरे-धीरे शारीरिक, मानसिक एवं संवेगात्मक क्षमताओं की परिपक्वता आती है।

3. अभिवृद्धि और विकास की निरन्तरता- जन्म के समय अत्यन्त अपरिपक्वता होते हुए भी शिशु में निरन्तर अभिवृद्धि और विकास होता है। उसके शरीर का आकार, ‘भार, मांसपेशियों का गठन, हड्डियों की वृद्धि एवं परिपक्वता तथा सिर से लेकर पैर तक सभी अंगों का बढ़ना और पुष्ट होना निरन्तर चलता रहता है। सम्पर्क से वह भाषा सीखता है, बीत करना जानता है और उसकी अन्य मानसिक क्रियाएँ विकसित होती रहती हैं। अपने माता-पिता, भाई-बहन, पास-पड़ोस के लोगों से प्रेम, सहानुभूति, क्रोध, घृणा आदि के संवेगों को भी वह प्रकट करता है।

4. सीखने की तीव्रता- इस अवस्था में सीखने की क्रिया तेजी से होती है। अनुभव बढ़ने के साथ भाषा का ज्ञान बढ़ता है। प्रथम. छह वर्षों में भाषा की वृद्धि तेजी से होती है और शब्द भण्डार बहुत बड़ा हो जाता है। लगभग 15 हजार शब्द वह सीख लेता है, जो आगामी 12 वर्ष की दुगुनी मात्रा होती है। चलना, फिरना, दौड़ना, लोगों के साथ व्यवहार करना, अपने विचार-भाव व्यक्त करना भी तेजी से पाया जाता है और ये सब इसी अवस्था में सीखे जाते हैं।

5. अन्य मानसिक क्रियाओं की तीव्रता- शिशु में संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, स्मरण और विस्मरण भी तीव्र गति से होता है। अवधान में चंचलता पायी जाती है और किसी एक बिन्दु पर वह बहुत थोड़ी देर तक ही ध्यान दे पाता है। तर्क का अभाव अवश्य होता है, परन्तु फिर भी मानसिक क्रियाओं में तीव्रता पायी जाती है।

6. कल्पना का बाहुल्य- शिशु काल्पनिक और वास्तविक जगत में भेद नहीं कर पाता है। इसलिए उसमें कल्पना की अधिकता पायी जाती है। खेल में, बातचीत में तथा प्रेम व्यवहार में वह कल्पना का ही प्रयोग करता है। रॉस (Ross) के अनुसार, “जीवन की विषम परिस्थितियों की चोट से अपने को बचाने की वह कोशिश करता है। इसी कारण वह कल्पनाशील होता है। झूठ भी वह कल्पना की अधिकता के कारण ही बोलता है। अज्ञानता ही इसका कारण है, जो बाद में दूर हो जाता है और वह झूठ का प्रयोग नहीं करता है।

7. एकान्तप्रियता-शिशु आरम्भ में अकेले रहना पसन्द करता है। कोई साथी न रहने पर भी वह अकेले खेलता है। वह गुड्डे-गुड़ियों को ही अपने साथी होने की कल्पना कर लेता है। धीरे-धीरे उसमें समवयस्कों के साथ खेलने की इच्छा बढ़ती है। आरम्भ से इस प्रकार वह अन्तर्मुखी व्यक्तित्व वाला कहा जाता है।

8. अनुकरण की प्रवृत्ति- शिशु अपने चारों ओर जो कुछ क्रिया अन्य लोगों को करते देखता है, उसे ही दोहराता है और ऐसी स्थिति में उसमें अनुकरण की प्रवृत्ति पायी जाती है। खेल, बोलचाल, खाने-पीने व घरेलू काम-काज करने में शिशु की अनुकरणशीलता पायी जाती है। इसका कारण मानसिक क्षमता में कम वृद्धि होना है।

9. मूल-प्रवृत्यात्मक व्यवहार- इस अवस्था में शिशु का व्यवहार मूल-प्रवृत्तियों को प्रभावित करता है। उसकी आवश्यकता ही व्यवहार करने के लिए प्रेरित करती है। भूख लगने पर वह रोता है। मचलना, हठ करना व मनमाना कार्य करना उसके मूल-प्रवृत्यात्मक व्यवहार हैं। उसे समाज के रीति-रिवाज, परम्परा, नियम की चिन्ता नहीं रहती है।

10. अपनी क्रियाओं की पुनरावृत्ति- प्रो० भाटिया के अनुसार-“शिशुओं में अपनी गतियों एवं ध्वनियों को दोहराने की प्रवृत्ति पायी जाती है। वास्तव में शिशु के पास कोई अन्य क्रिया करने को नहीं होती है। इसलिए वह अपनी ही क्रियाओं को दोहराता है। चारपाई पर पड़े अशक्त शिशु के लिए अपने हाथ-पैर मारने की आदत स्वाभाविक है। पड़े-पड़े वह बलबलाती रहता है।”

11. स्नेह की आकांक्षा- शिशु सभी से स्नेह पाने की आकांक्षा रखता है। वह सभी से लिपट जाता है और सभी से स्नेह पाने की कोशिश करता है। स्नेह के अभाव में वह मानसिक आघात का अनुभव करता है, उसके मन में कुण्ठाएँ उत्पन्न हो जाती हैं तथा भाव-ग्रन्थियाँ बन जाती हैं। इनका उसके व्यक्तित्व के विकास पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है।

12. आत्म के प्रति विशेष प्रेम- शिशु अपने आत्म के लिए विशेष प्रेम रखता है। इस कारण वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए हठ करता है। वह अपनी चीजों के लिए बहुत अधिक प्रेम रखता है और दूसरों को छूने नहीं देता। वह माता-पिता, भाई-बहने तथा अन्य सभी सम्बन्धियों को केवल अपने से सम्बन्ध रखने की इच्छा रखता है। अन्य हिस्सेदारों से वह ईर्ष्या भी रखता है। बाद में वह इस प्रेम को दूसरों के साथ बाँट लेता है।

13. संवेगशीलता की तीव्रता- शिशु में क्रोध, घृणा, आश्चर्य, प्रेम, ईष्र्या आदि संवेगों का प्रकाशन तीव्रता से होता है, लेकिन ये संवेग क्षणिक, अपरिष्कृत तथा अपरिपक्व होते हैं। इनकी अभिव्यक्ति स्वतन्त्र रूप से होती है। इसलिए शिशु स्थान, समय एवं व्यक्ति की परवाह इन्हें अभिव्यक्त करते समय नहीं करती। धीरे-धीरे वह इन पर नियन्त्रण करना सीख लेता है।

14.पर्यावरण से अनुकूलन की असमर्थता- अपनी अशक्तता के कारण शिशु अपने वातावरण के साथ अनुकूलन नहीं कर पाता है। इसी बाध्यता के कारण यदि दुर्भाग्यवश उसे समुचित संरक्षण प्राप्त नहीं होता तो वह रोग ग्रस्त हो सकता है तथा परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु भी हो सकती है। सामाजिक रूप से भी वह अनुभवहीन होने के कारण समायोजन करने में समर्थ नहीं होता। इसीलिए अधिकांशत: शिशु अशिष्ट व्यवहार कर देता है।

15. इन्द्रिय संवेदनाओं की तीव्रता- शिशु अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का प्रयोग करने की तीव्र इच्छा रखता है। छोटा शिशु खिलौने को अपने मुँह में डाल लेता है और सभी चीजों को पकड़ने की कोशिश करता है। इस प्रकार वह इन्द्रिय संवेदनाओं को तीव्रता से प्रकट करती है।

16. काम-प्रवृत्ति की सुप्तता- फ्रॉयड तथा अनेक मनोविश्लेषणवादियों ने अपनी खोजों के आधार पर सिद्ध किया है कि शिशु में काम-प्रवृत्ति सुप्त होती है और इसीलिए उसका प्रकटीकरण दूसरे तरीके से होता है; जैसे-अँगूठा चूसना, मल-मूत्र त्याग करना, दुग्धपान करते समय माँ के स्तन पकड़ना आदि। इससे उसकी काम-प्रवृत्ति सन्तुष्ट होती है, परन्तु यह कथन पूर्णतया सत्य प्रतीत नहीं होता। इसी प्रकार मनोविश्लेषणवादियों के अनुसार पुत्र का माता के प्रति प्रेम तथा पुत्री का पिता के प्रति प्रेम भी शिशु में पाया जाता है।

17. नैतिक भावना का अभाव- मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शिशु में नैतिकता की भावना नहीं होती अर्थात् वह उचित-अनुचित में अन्तर नहीं कर पाता। वह अपनी इच्छा को स्वतन्त्र रूप से प्रकट करता है और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेता है।

प्रश्न 2
शैशवावस्था में दी जाने वाली शिक्षा का सामान्य परिचय दीजिए।
या
शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप क्या होना चाहिए? समझाइए।
उत्तर:

शैशवावस्था की शिक्षा
(Infancy of Education)

शैशवावस्था विकास की प्रारम्भिक अवस्था है, इसलिए इस काल को शिक्षा का आधार भी कहें तो अनुचित नहीं होगा। फ्रॉयड के अनुसार, “मनुष्य चार-पाँच वर्षों में ही जो कुछ बनना होता है, बन जाता है। इसी प्रकार एडलर ने कहा है, “शैशवावस्था सम्पूर्ण जीवन का क्रम निर्धारित कर देती हैं।” इस अवस्था की शिक्षा में हमें निम्नांकित बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए|

1. शारीरिक विकास का प्रयास- माता-पिता एवं शिक्षक सभी को शिशु को स्वस्थ बनाने का विशेष प्रयत्न करना चाहिए। शिशु को सन्तुलित भोजन, उपयुक्त आवास एवं । स्वस्थ क्रियाओं के लिए अवसर देना चाहिए।

2. शिशु की क्षमताओं का ज्ञान- शिशु की शारीरिक, मानसिक ५ शारीरिक विकास का प्रयास एवं भावात्मक क्षमताओं को समझकर उसी के अनुकूल शिक्षा की क्रियाओं का आयोजन करना चाहिए। इस अवस्था में मॉण्टेसरी और किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणालियों को अपनाना चाहिए।

3. जिज्ञासा की सन्तुष्टि- माता-पिता और शिक्षक का कर्तव्य है। कि खिलौने आदि देते समय शिशु उनसे जो प्रश्न पूछे, उनका उत्तर देकर शिशु की जिज्ञासा को सन्तुष्ट करें तथा उसके मानसिक विकास में सहायता दे।

4. शारीरिक दोषों का निराकरण- शिशु के शारीरिक दोषों को दूर करने के प्रयत्न करने चाहिए, क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का विकास होता है।

5. उचित वातावरण- शिशु के समुचित विकास के लिए यह आवश्यक है कि शिशु के लिए उचित वातावरण बनाया जाए। खेल की चीजें, ज्ञानात्मक अनुभव की वस्तुएँ, स्वतन्त्र क्रिया के लिए स्थान एव अवसर देने से शिशु को उत्तम विकास होता है।

6. भावात्मक दमन से सुरक्षा- बालक की मूल-प्रवृत्तियों एवं संवेगों का दमन नहीं करना चाहिए, बल्कि उन्हें उचित रूप में अभिव्यक्त करने के अवसर देने चाहिए।

7. भाषा का विकास- परस्पर अच्छी भाषा का प्रयोग करने से शिशु में भाषा का अच्छे ढंग से विकास होता है।

8. समाजीकरण व अच्छी आदतों का निर्माण- शिशु के साथ प्रेम, सहानुभूति व सहयोग के द्वारा व्यवहार करके उसमें भी समायोजन करने की आदत डाली जा सकती है।

9. दण्ड व भय से मुक्ति- शिशुओं के साथ दण्ड का प्रयोग नहीं करना चाहिए। उन्हें किसी प्रकार का भय भी नहीं दिखाना चाहिए, अन्यथा उनमें भाव-ग्रन्थियाँ बन जाएँगी और उनका विकास अवरुद्ध हो जाएगा।

10. आदर्शों द्वारा चरित्र-निर्माण- बड़े लोगों को चाहिए कि वे शिशु के समक्ष अच्छे आदर्श उपस्थित करें। इससे शिशुओं के चरित्र का निर्माण होता है।

11. अवस्थानुकूल शिक्षा- शिशु की शारीरिक, मानसिक, भावात्मक एवं सामाजिक विशेषताओं के अनुकूल ही शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम एवं शिक्षण-विधि का प्रयोग करना चाहिए।

12. स्वतन्त्रता, सहानुभूति एवं सहकारिता का व्यवहार- शिशु को स्वतन्त्रता देकर उसके साथ सहानुभूति एवं सहकारिता का व्यवहार करने से उसका उत्तम विकास होता है।

13. क्रिया द्वारा शिक्षा-शिशु एक क्रिया- प्रधान प्राणी होता है। अत: उसे क्रिया द्वारा ही शिक्षा दी जानी चाहिए। इससे शिशुओं को आत्म-प्रदर्शन का भी अवसर मिलता है और कर्मेन्द्रियों का भी प्रशिक्षण होता है।

14. ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण- मॉण्टेसरी एवं किण्डरगार्टन पद्धतियों में शिशुओं को ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है। इनके शिक्षा उपकरणों तथा उपहारों का प्रयोग करके शिशु अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को प्रशिक्षित करता है।

प्रश्न 3
बाल्यावस्था से क्या आशय है ? बाल्यावस्था की मुख्य विशेषताओं का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
बाल्यावस्था से आप क्या समझते हैं ? इस अवस्था में भाषा के विकास का निरूपण कीजिए।
उत्तर:

बाल्यावस्था का अर्थ
(Meaning of Childhood)

शैशवावस्था की विशेषताएँ समाप्त होते ही बाल्यावस्था का आगमन हो जाता है। बालक वह व्यक्ति होता है, जो शिशु से बड़ा होता है। हरलॉक के अनुसार, “बाल्यकाल 6 वर्ष की आयु से 11-12 वर्ष की आयु तक होता है। इस अवस्था में बालक नियमित रूप से विद्यालय जाने लगता है और सामूहिक जीवन व्यतीत करता है। इसलिए कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इसे ‘विद्यालय अवस्था’ और कुछ ने ‘क्षीण बौद्धिक बाधा’ की अवस्था कहा है, जिससे आगामी वयस्क जीवन के लिए सफल प्रयास किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त इस अवस्था को चुस्ती की आयु’, ‘गन्दी आयु’ तथा ‘समूह आयु’ आदि नामों से भी जाना जाता है।

बाल्यावस्था की प्रमुख विशेषताएँ
(Major Characteristics of Childhood)

बाल्यावस्था की प्रमुख विशेषताओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-

1. स्थायित्व- बाल्यावस्था में प्रवेश करते ही बालक के शारीरिक और मानसिक विकास में स्थायित्व आ जाता है। यह स्थायित्व उसे शारीरिक और मानसिक दृष्टि से दृढ़ बनाता है। अत: बालक मानसिक दृष्टि से प्रौढ़-सा प्रतीत होने लगता है। परन्तु यह परिपक्वता वास्तविक न होकर ‘मिथ्या परिपक्वता होती है।

2. यथार्थ जगत् से सम्बन्ध- स्ट्रांग (Strong) के अनुसार, “बालक अपने को अति व्यापक संसार में पाता है तथा उसके विषय में शीघ्र जानकारी प्राप्त करना चाहता है।” शैशवावस्था का काल्पनिक जगत् इस अवस्था में प्रायः समाप्त हो जाता है और बालक जीवन की यथार्थताओं में प्रवेश करता है। अब वह केवल उन वस्तुओं की ही कल्पना करता है, जो उसके यथार्थ जीवन से सम्बन्धित होती हैं।

3. मानसिक योग्यताओं का विकास- इस अवस्था में बालक की मानसिक शक्ति का तीव्रता से विकास होता है। उसकी प्रत्यक्षीकरण और संवेदना शक्ति पर्याप्त विकसित हो जाती है तथा वह किसी बात पर पर्याप्त काल तक अपना ध्यान केन्द्रित करने लगता है।

4. जिज्ञासा की तीव्रता- बाल्यावस्था में जिज्ञासा प्रवृत्ति और अधिक प्रबल हो जाती है। बालक अपने वातावरण के सम्बन्ध में बहुत कुछ जानने का प्रयास करता है। माता-पिता तथा शिक्षक से वह प्रश्न किया करता है-यह कैसे हुआ ? ऐसा क्यों है ? इसका अर्थ क्या है ? आदि। जिज्ञासा की तीव्रता उसके मानसिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। माता-पिता तथा अध्यापकों का दायित्व है कि वे बालक की जिज्ञासा को शान्त करने का प्रयास करें।

5. स्मरण- शक्ति का विकास-शैशवावस्था में बालक अपने सामने के पदार्थ के विषय में ही सोचता है, परन्तु बाल्यावस्था में बालक उन वस्तुओं के विषय में भी सोच लेता है, जो कि सामने नहीं है। प्रायः 6 से 12 वर्ष के मध्य के बालक पूर्व अनुभवों को याद करने के योग्य हो जाते हैं, और भाषा भी अनुभव द्वारा ज्ञानार्जन करने के लिए सहायता देती है।

6. रचनात्मक कार्यों में रुचि- इस अवस्था में बालकों में सामाजिकता की भावना का तीव्रता से विकास होता है। शैशवावस्था में बालक प्रायः अकेले ही खेलना पसन्द करता है, परन्तु बाल्यकाल में वह अपने साथियों के साथ खेलने में विशेष आनन्द का अनुभव करता है। उसका अधिकांश समय अपने सहयोगियों के साथ व्यतीत होता है।

7. संग्रह प्रवृत्ति का विकास- बाल्यावस्था में संग्रह प्रवृत्ति विशेष रूप से क्रियाशील रहती है। बालक चाक, टिकट, गोलियाँ तथा चित्रों आदि का संग्रह करने में विशेष रुचि लेते हैं। बालिकाएँ गुड़िया, सूई, वस्तुओं के टुकड़े तथा खिलौने आदि के संग्रह में आनन्द का अनुभव करती हैं।

8. अनुकरण प्रवृत्ति का विकास- इस अवस्था के बालकों में अनुकरण प्रवृत्ति का बाहुल्य होता है। बालक अपने बड़ों की नकल करने का प्रयास करते हैं तथा उनके जैसा आचरण करने में रुचि का अनुभव करते हैं। बालिकाएँ अपनी माँ के समान खाना पकाने, झाड़ लगाने तथा साड़ी पहनने का अनुकरण करती हैं।

9. निरुद्देश्य भ्रमण की प्रवृत्ति- बर्ट (Burt) महोदय ने अनेक परीक्षण करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि 9वर्ष की आयु के बालक आवारा घूमने, कक्षा से भागने तथा आलस्य में पड़े रहने के अभ्यस्त हो जाते हैं।

10. रुचियों में परिवर्तन- इस अवस्था में बालकों की रुचियों में निरन्तर परिवर्तन होते हैं। रुचियों में परिवर्तन वातावरण के आधार पर होता रहता है।

11. सामूहिक खेलों में रुचि- इस अवस्था में बालक सामूहिक खेलों में विशेष रुचि लेते हैं। बालक गिरोह बनाकर किसी पार्क या मैदान में सामूहिक रूप से खेलना पसन्द करते हैं। वे विभिन्न प्रकार के खेलों द्वारा अनुकरण का पाठ भी सीखते हैं।

12. नैतिक गुणों का विकास- तिक भावना का विकास बाल्यकाल में ही होता है। बालक उचित और अनुचित के बीच अन्तर करने लग जाता है। अब वह किसी कार्य को करने से पूर्व विचार करने लगता है। स्ट्रांग (Strong) के अनुसार, “आठ वर्ष के बालकों में भले-बुरे के ज्ञान का न्यायपूर्ण व्यवहार, न्यायप्रियता तथा सामाजिक मूल्यों का विकास होने लगता है।”

13. भाषा का विकास- इस अवस्था में भाषा का विकास सबसे अधिक तीव्रता के साथ होता है। बालक अब शुद्ध उच्चारण करने लगता है। शब्दों के स्थान पर अब वह वाक्यों का भी प्रयोग सफलता के साथ करता है, परन्तु भाषा में पूर्ण शुद्धता नहीं आती।

14. स्वलिंगीय प्रेम- इस अवस्था में बालक का प्रेम माता-पिता से हटकर अपने मित्रों के प्रति अधिक होता है। बालक प्रायः बालकों के साथ तथा बालिकाएँ बालिकाओं के साथ खेलना पसन्द करती हैं।

15. बहिर्मुखी व्यक्तित्व का विकास- शैशवावस्था में बालक एकान्तप्रिय होता है और वह केवल अपने में ही रुचि लेता है। इस प्रकार शैशवकाल में उसका व्यक्तित्व अन्तर्मुखी होता है, परन्तु बाल्यकाल में बालक में बाह्य जगत के प्रति रुचि उत्पन्न हो जाती है और वह अन्य व्यक्तियों में रुचि लेने लग जाता है।

प्रश्न 4
बाल्यावस्था में दी जाने वाली शिक्षा के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

बाल्यावस्था की शिक्षा :
(Childhood of Education)

बाल्यावस्था की किसी भी रूप में उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि यह वह अवस्था है जब कि आधारभूत दृष्टिकोणों, मूल्यों और आदर्शों का पर्याप्त सीमा तक निर्माण हो जाता है। अत: बाल्यावस्था में बालक की शिक्षा का स्वरूप निर्धारित करते समय निम्नलिखित बातों पर विशेष रूप से ध्यान देना आवश्यक है

1. अवस्थानुकूल शिक्षा- प्रत्येक बालक की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा अन्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए।

2. भाषा के ज्ञान पर बल- इस अवस्था में बालक की भाषा में विशेष रुचि होती है। अत: उसे भाषा का समुचित ज्ञान कराने की उत्तम व्यवस्था की जानी चाहिए।

3. क्रियाशील शिक्षा- बाल्यावस्था में बालक में क्रियाशीलता की प्रधानता होती है। अतः उसकी शिक्षा का आयोजन क्रियाशीलता के सिद्धान्त को ध्यान में रखकर किया जाए। किण्डरगार्टन तथा मॉण्टेसरी शिक्षा प्रणालियाँ इस उद्देश्य को प्राप्त कराने में सहायक हैं। अतः अध्यापक को उनके सिद्धान्तों का अध्ययन करना चाहिए और यथासम्भव उनको प्रयोग करना चाहिए।

4. रचनात्मक प्रवृत्तियों का विकास- इस अवस्था के स बालकों में रचनात्मक कार्यों के प्रति विशेष रुचि होती है। अतः बालक की शिक्षा में हस्त-कार्यों का भी आयोजन किया जाए। बालक से गृहं उपयोगी तथा सजावट की वस्तुएँ बनवायी जा सकती हैं।

5. पाठ्यक्रम के निर्माण में सावधानी- पाठ्यक्रम के निर्माण में विशेष सावधानी रखनी चाहिए। उन विषयों को पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाना चाहिए, जो इस अवस्था के बालकों की आवश्यकताओं को पूरा करते हों। भाषा, गणित, विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, चित्रकला, पुस्तक कला, काष्ठ कला तथा सुलेख, निबन्ध आदि को विशेष स्थान दिया जाए। किसी विदेशी भाषा का भी प्रारम्भ इस स्तर पर किया जा सकता है।

6. रोचक पाठ्य-सामग्री- बाल्यावस्था में बालक की रुचियों में विभिन्नता और परिवर्तनशीलता होती है। अत: पाठ्य-सामग्री का चुनाव रोचकता और विभिन्नता के सिद्धान्त के आधार पर किया जाना चाहिए। पाठ्य-पुस्तकों, साहसी गाथाओं, नाटक, वार्तालाप, हास्य प्रसंग व विभिन्न देशों के निवासियों के विवरण आदि को स्थान दिया जाना चाहिए।

7. जिज्ञासा की सन्तुष्टि- दस वर्ष की अवस्था के बालक के मस्तिष्क का पर्याप्त विकास हो जाता है। अतः उसकी जिज्ञासा प्रवृत्ति काफी तीव्र हो जाती है। वह प्रत्येक बात को समझने का प्रयास करता है और अनेक प्रश्न करता है। अध्यापक का कर्तव्य है कि वह बालकों की जिज्ञासु प्रवृत्ति को सन्तोषजनक ढंग से सन्तुष्ट करे, बालक द्वारा किये गये प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दे तथा समय-समय पर उन्हें अजायबघर और चिड़ियाघर ले जाकर उनके सामान्य ज्ञान का विकास करे।

8. संवेगों की अभिव्यक्ति के अवसर- बाल्यावस्था में संवेगों का विकास तीव्रता से होता है। कोल और बुस के अनुसार, “बाल्यावस्था संवेगात्मक विकास का अनोखा काल है। अतः अध्यापक का कर्तव्य है कि बालकों के संवेगों का दमन न करके यथासम्भव उन्हें अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान करे।

9. सामूहिक प्रवृत्ति की तृप्ति- इस अवस्था में बालक समूह में रहना अधिक पसन्द करते हैं। इस प्रवृत्ति की तृप्ति के लिए विद्यालय में सामूहिक कार्यों तथा सामूहिक खेलों का आयोजन किया जाए। विद्यालय के समारोहों का आयोजन भी बालकों के द्वारा ही कराया जाए।

10. प्रेम और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार-इस अवस्था में बालक का हृदय कोमल होता है। अत: वह कठोर अनुशासन को पसन्द नहीं करता। अध्यापक का कर्तव्य है कि इस अवस्था के बालकों के साथ वह यथासम्भव उदारता, प्रेम एवं सहानुभूति का व्यवहार करे। शारीरिक दण्ड और बल-प्रयोग का बालक पर इतना अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता जितना कि प्रेम और सहानुभूति की।

11. उत्तम आचरण की शिक्षा- बाल्यावस्था में बालकों को उत्तम आचरण की विशेष रूप से शिक्षा प्रदान की जाए। नमस्कार व अभिवादन की शिक्षा के साथ-साथ बालकों से उनके साथियों के जन्मदिवस पर बधाई-पत्र, उपहार आदि भिजवाएँ।

12. सामाजिक गुणों का विकास- विद्यालय में उन क्रियाओं और गतिविधियों का आयोजन किया जाए, जिससे बालकों में सामाजिकता का विकास हो सके। किलपैट्रिक के अनुसार, “बाल्यावस्था प्रतिद्वन्द्वात्मक समाजीकरण का काल है। ऐसी दशा में विद्यालय में समय-समय पर उन क्रियाओं का आयोजन किया जाए, जिनसे छात्रों में आत्म-नियन्त्रण, सहानुभूति, प्रतियोगिता, सहयोग आदि गुणों का विकास हो सके।

13. पाठ्य-सहगामी क्रियाओं की व्यवस्था- बालकों की विभिन्न रुचियों की सन्तुष्टि के लिए और विभिन्न शक्तियों के प्रदर्शन के लिए विद्यालय में विभिन्न पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का आयोजन करना परम ।
आवश्यक है। संगीत प्रतियोगिता, अन्त्याक्षरी, कविता पाठ, वाद-विवाद प्रतियोगिता आदि का आयोजन विद्यालय में समय-समय पर किया जाना चाहिए।

14. पर्यटन तथा स्काउटिंग की व्यवस्था- इस अवस्था में बालकों में बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने के लिए पर्यटन की समय-समय पर योजनाएँ बनायी जाएँ। बालकों को ऐतिहासिक स्थलों, कल-कारखानों तथा बन्दरगाहों का भ्रमण कराया जाए। विद्यालयों में स्काउटिंग की व्यवस्था भी अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होती है।

प्रश्न 5
किशोरावस्था से आप क्या समझते हैं ? किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख
कीजिए।
या
किशोरावस्था की विशेषताओं का वर्णन कीजिए। इनकी शिक्षण व्यवस्था में किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?
या
“किशोरावस्था में मानसिक विकास उच्चतम सीमा पर पहुँच जाता है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए और इस काल में होने वाले मानसिक विकास का उल्लेख कीजिए।
या
“किशोरावस्था तूफान और तनाव की अवस्था है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
या
किशोरावस्था को तनाव, तूफान और संघर्ष का काल क्यों कहा जाता है?
या
किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों का वर्णन कीजिए।
या
किशोरावस्था क्या है? किशोरावस्था की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

किशोरावस्था का आशय
(Meaning of Adolescence)

किशोरावस्था जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण काल है। यह अवस्था 12 से 18 वर्ष तक मानी जाती है। इस अवस्था में किशोर न तो बालक होता है और न वह प्रौढ़ होता है। जरसील्ड ने किशोरावस्था की परिभाषा देते हुए लिखा है-“किशोरावस्था वह अवस्था है, जिसमें मनुष्य बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है। ब्लयेर, जोन्स तथा सिम्पसन के अनुसार, “किशोरावस्था प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में वह काल है, जो बाल्यावस्था के अन्त से प्रारम्भ होता है तथा प्रौढ़ावस्था के आरम्भ में समाप्त हो जाता है।” बालक भावी जीवन में क्या बनेगा, इसका निर्णय बहुत कुछ किशोरावस्था में ही हो जाता है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं, “किशोरावस्था में मानसिक विकास उच्चतम सीमा पर पहुँच जाता है।”

किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताएँ
(Major Characteristics of Adolescence)

किशोरावस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं। अतः यह काल परिवर्तन का काल कहलाता है। बिग्स एवं हण्ट (Bigges and Hunt) के अनुसार, “किशोरावस्था की विशेषताओं को सर्वोत्तम रूप में अभिव्यक्त करने वाला एक शब्द है-परिवर्तन। यह परिवर्तन शारीरिक; मानसिक और मनोवैज्ञानिक होता है।” किशोरावस्था में होने वाले परिवर्तनों का विवरण निम्नलिखित है-

1. शारीरिक परिवर्तन- इस अवस्था में किशोरों में पर्याप्त परिपक्वता आ जाती है। यह परिपक्वता लड़कों में 16 वर्ष तथा लड़कियों में 14 वर्ष तक आ जाती है। बालक तथा बालिकाओं की ऊँचाई में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं। किशोरावस्था के प्रारम्भ में लड़कियों का विकास तीव्रता से होता है, परन्तु 16 वर्ष की आयु तक बालकों का कद लड़कियों की अपेक्षा अधिक हो जाता है। भार में भी पर्याप्त वृद्धि होती है। लड़कों की आवाज में भारीपन आने लगता है। उनकी दाढ़ी, मूछों, बगल तथा गुप्तांगों पर बाल चमकने लगते हैं। किशोरियों के स्तन उभरने लगते हैं तथा रजोदर्शन का आरम्भ भी इस अवस्था में हो जाता है। ये शारीरिक परिवर्तन किशोर तथा किशोरियों के मन में हलचल उत्पन्न कर देते हैं।

2. मानसिक परिवर्तन- इस अवस्था में शारीरिक परिवर्तन के साथ-साथ मानसिक परिवर्तन भी तीव्रता से होते हैं। बालक की वृद्धि, कल्पना, विचार तथा तर्क शक्तियाँ पर्याप्त विकसित हो जाती हैं। ये परिवर्तन इतनी तीव्रता से होते हैं कि बालक को ऐसा ज्ञान होने लगता है कि मानो वह उन परिस्थितियों में लाकर खड़ा कर दिया गया हो, जिनके लिए वह पहले से तैयार नहीं था।

3. आत्म-सम्मान का विकास- किशोर का मानसिक विकास पर्याप्त हो जाने से वह बालकों के मध्य अधिक रहना पसन्द नहीं करता। यदि माता-पिता अब भी उसके साथ बालक जैसा व्यवहार करते हैं तो उसे ठेस लगती है। इस अवस्था तक उसमें आत्म-सम्मान का विकास हो जाता है और वह अपने को बालक न मानकर वयस्क मानने लगता है।

4. स्थायित्व का अभाव- किशोर में स्थायित्व और समायोजन का अभाव रहता है। उसका मन शिशु के समान ही स्थिर नहीं होता। वह कभी कुछ विचार करता है, कभी कुछ। वह वातावरण में समायोजन नहीं कर पाता।

5. कल्पना की प्रधानता- इस अवस्था में किशोर में कल्पना की प्रधानता होती है। उसकी कल्पना-शक्ति का पर्याप्त विकास हो जाता है और उसका अधिकांश समय दिवा-स्वप्न देखने में ही व्यतीत होता है। किशोर तथा किशोरियाँ उपन्यास तथा कहानियों में विशेष रुचि लेते हैं। साहित्य रचना के बीज इस अवस्था में अंकुरित होते हैं। कल्पना की प्रधानता के कारण किशोरों की प्रवृत्ति अन्तर्मुखी हो जाती है।

6. रुचियों में परिवर्तन तथा स्थिरता- प्रारम्भ में किशोर और किशोरियों की रुचियों में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं, परन्तु बाद में स्थिरता आ जाती है। किशोर और किशोरियों की रुचियों में समानता भी होती है और असमानता भी। उपन्यास कहानियाँ, पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने, सिनेमा देखने फैशन आदि में किशोर और किशोरियाँ समान रुचि रखते हैं, परन्तु लड़कों को यदि शारीरिक व्यायाम, खेलकूद तथा दौड़-भाग में विशेष रुचि होती है तो लड़कियों में सीने, काढ़ने, बुनने तथा नृत्य और संगीत में विशेष रुचि होती है।

7. व्यवहार में भिन्नता- इस अवस्था में संवेगों की प्रबलता होती है। किशोर भावुकता, अस्थिरता, उत्साह तथा उदासीनता में ग्रसित होता है। वह कभी एकदम उत्साहित हो जाते हैं तो कभी निरुत्साहित। उसके संवेगात्मक व्यवहार में कुछ विरोध होता है।

8. घनिष्ठ मित्रता पर बल- वेलेण्टाइन के अनुसार, “घनिष्ठ और व्यक्तिगत मित्रता उत्तर किशोरावस्था की विशेषता है।” किशोर यद्यपि किसी समूह का सदस्य होता है, परन्तु इस पर भी वह .. किसी-न-किसी को अपना घनिष्ठ मित्र बनाता है। घनिष्ठ मित्र से अपने मन की बात कहकर वह विशेष आत्म-सन्तोष का अनुभव करता है।

9. वीर पूजा- किशोर काल में वीर पूजा की भावना प्रबल होती है। शैशवावस्था में बालक का अनुराग अपनी माता की ओर अधिक रहता है, परन्तु किशोरकाल में माता-पिता का स्थान कोई महान नेता, वैज्ञानिक या आदर्श अध्यापक ले लेता है। प्रत्येक किशोर किसी उपन्यास, नाटक या सिनेमा के नायक को अपना इष्ट मान लेता है और उसके प्रति श्रद्धा रखता है।

10.धार्मिक चेतना का विकास- वीर पूजा के समान इस अवस्था के किशोर धर्म के प्रति अपना सम्मान प्रकट करने लगते हैं। मानसिक अस्थिरता किशोरों में धर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करती है। ईश्वर के प्रति निष्ठा की भावना इस काल में ही उत्पन्न होती है।

11. तार्किक भावना का विकास- किशोर किसी भी बात को आँख बन्द करके स्वीकार नहीं करते। उनमें तर्कात्मक-शक्ति का पर्याप्त विकास हो जाता है और वे किसी भी बात को स्वीकार करने से पूर्व काफी तर्क-वितर्क करते हैं।

12. भावी व्यवसाय की चिन्ता- किशोर प्राय: भावी व्यवसाय की समस्या से चिंतित हो जाते हैं। ये विद्यार्थी जीवन में ही अपनी व्यावसायिक समस्या का निराकरण करने का प्रयास करते हैं, परन्तु उन्हें जब इस विषय में कोई मार्गदर्शन नहीं मिलता तो वे चिंतित हो जाते हैं। स्ट्रांग (Strong) के अनुसार, “जब विद्यार्थी हाईस्कूल में होता है तो वह किसी व्यवसाय का चुनाव करने, उसके लिए तैयारी करने, उसमें प्रवेश करने तथा उसमें प्रगति करने के लिए अधिक-से-अधिक चिन्तनशील होता जाता है।”

13. अपराध प्रवृत्ति का विकास- इस अवस्था में दिवास्वप्न देखने के कारण बालकों में अपराध प्रवृत्ति का विकास होता है। बर्ट (Bert) के अनुसार, “प्राय: सभी बाल-अपराधी किशोर दिवास्वप्न-दृष्टा होते हैं।” दूसरे संवेगों की अस्थिरता और बलता, निराशा और प्रेम में असफलता भी बालकों को अपराधी बना देती है। वेलेण्टाइन के अनुसार, “किशोरकाल, अपराध प्रवृत्ति में विकास का नाजुक काल है।” अधिकांश अपराधी किशोरकाल में ही अपराधों में प्रवीण हो चुके होते हैं।

14. समाज सेवा की भावना- किशोरों में सामाजिक सेवा की भावना को तीव्रता से विकास होता है। समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए वे समाज सेवा में विशेष रुचि लेते हैं। रॉस (Ross) के अनुसार, किशोर, समाज-सेवा के आदर्शों को निर्मित तथा पोषित करता है। उसका उदार हृदय मानव-जाति के प्रेम से ओत-प्रोत हो जाता है तथा आदर्श समाज के निर्माण में सहायता करने की इच्छा से व्यग्र हो जाता है।”

15. मानसिक स्वतन्त्रता और विद्रोह की भावना- किशोर स्वभाव से परम्पराओं और रूढ़ियों के विरोधी तथा स्वतन्त्रता-प्रेमी होते हैं। वे प्राचीन परम्पराओं, अन्धविश्वासों तथा रूढ़ियों के बन्धन में न रहकर स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करना पसन्द करते हैं।

16. समूह या दल को महत्त्व- किशोर की अपने समूह या दल के प्रति विशेष श्रद्धा होती है। वह अपने समूह या दल को विद्यालय तथा परिवार से भी अधिक महत्त्व देता है तथा उससे ही सबसे अधिक प्रभावित होता है। ब्रिग्स तथा हण्ट के अनुसार, “जिन समूहों से किशोर सम्बन्धित होते हैं, उनसे उनके प्राय: सभी कार्य प्रभावित होते हैं। समूह उनकी भाषा, नैतिक मूल्यों, वस्त्र धारण करने की आदतों तथा भोजन करने की प्रणालियों को प्रभावित करते हैं।”

17. काम भावना का विकास- बाल्यावस्था में समलिंगीय प्रेम की भावना प्रबल होती है। बालक बालकों के प्रति तथा बालिकाएँ-बालिकाओं के प्रति आकर्षित होती हैं। किशोरावस्था में इसके विपरीत विषमलिंगीय प्रेम की भावना प्रबल होती है। प्रत्येक लड़का किसी लड़की के सम्पर्क में आना चाहता है और इसी प्रकार लड़कियाँ भी किसी-न-किसी लड़के का सम्पर्क चाहती हैं। प्रेम भावना के साथ-साथ किशोरकाल में काम-भावना का भी विशेष वेग होता है। प्राय: लड़के-लड़कियों में परस्पर काम-सम्बन्धों की स्थापना हो जाती है।
(नोट-किशोरावस्था में शिक्षा के स्वरूप के लिए प्रश्न संख्या 6 देखें)।

प्रश्न 6
किशोरावस्था में शिक्षा की किस प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए? विस्तारपूर्वक स्पष्ट कीजिएँ।
या
किशोरावस्था में शिक्षा के स्वरूप का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

किशोरावस्था की शिक्षा
(Adolescence of Education)

शैक्षिक दृष्टि से किशोरावस्था का अपना विशेष महत्त्व है। यह वह अवस्था हैं, जबकि बालक संवेगात्मक अस्थिरता तथा यौवन आवेग से ग्रसित होने के साथ-साथ एक नवीन उत्साह और आदर्श से प्रेरित होते हैं। यदि किशोरों को उचित मार्गदर्शन मिल जाता है तो भावी जीवन में वे बहुत कुछ कर सकते हैं। इसके विपरीत उचित मार्गदर्शन के अभाव में वे निराशा, अपराध तथा असफलताओं के शिकार हो जाते हैं। किशोरावस्था में बालकों की शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत निम्नांकित बातों पर ध्यान देना अति आवश्यक है

1. शारीरिक विकास सम्बन्धी शिक्षा- किशोरावस्था में शरीर में अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं। उनमें शक्ति का अतिरिक्त प्रवाह होता है। अत: इस अतिरिक्त शक्ति के उचित प्रयोग तथा उनके शारीरिक विकास के लिए व्यायाम तथा विभिन्न शारीरिक परिश्रम वाले खेलों का आयोजन किया जाए। बालकों के लिए दौड़-धूप वाले खेल विशेष रूप से उपयोगी होते हैं। लड़कियों के नृत्य तथा हल्के शारीरिक व्यायाम अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।

2. समुचित पाठ्यक्रम का निर्माण- किशोर के उचित मानसिक विकास के लिए पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय उनकी रुचियों, अभिरुचियों, आवश्यकताओं तथा योग्यताओं का विशेष रूप से ध्यान रखा जाए। इस उद्देश्य से पाठ्यक्रम में गणित, कला, विज्ञान, साहित्य, भूगोल, इतिहास, नागरिकशास्त्र तथा हस्तशिल्प को अवश्य शामिल किया जाए।

3. कल्पना-शक्ति का समुचित उपयोग- किशोर और किशोरियाँ अत्यधिक कल्पनाशील होते हैं। उनकी कल्पना-शक्ति का समुचित उपयोग करने के लिए विद्यालय में आवश्यक व्यवस्था की सामाजिक सम्बन्धों की जाए। विद्यालय के पुस्तकालय में किशोरावस्था के अनुकूल साहित्य होना चाहिए। महान् पुरुषों के जीवन-चरित्र, साहित्यिक यात्रा वृतान्त, विभिन्न देशों के भौगोलिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक विवरण, आदि सम्बन्धी पुस्तकें पुस्तकालय में अवश्य मँगवाई जाएँ।

4. संवेगों का उचित शोधन- किशोरावस्था में संवेगों का प्राबल्य होता है। अत: इनका उचित शोधन और मार्गान्तीकरण करने का प्रयास किया जाना चाहिए। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विद्यालय में विभिन्न पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का आयोजन किया जाना चाहिए। समय-समय पर साहित्य, कला, संगीत तथा विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाए। इन क्रियाओं के माध्यम से निकृष्ट संवेगों का शोधन और मार्गान्तीकरण किया जा सकता है।

5. किशोर को महत्त्व देना- प्रत्येक किशोर समाज में अपना महत्त्व चाहता है। अतः इसके महत्त्व को मान्यता देना आवश्यक है। किशोरों को उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपने चाहिए तथा उन कार्यों के सम्पादन के बाद उनकी प्रशंसा भी की जानी चाहिए। विद्यालय अनुशासन स्थापना में भी छात्रों से हर प्रकार का सहयोग प्राप्त करना उपयोगी सिद्ध होगा।

6. बालक तथा बालिकाओं के पाठ्यक्रम में अन्तर- शारीरिक, मानसिक और रुचियों के सम्बन्ध में बालक तथा बालिकाओं की आवश्यकताओं में भिन्नता होती है। अत: इनके पाठ्यक्रम में अन्तर होना चाहिए। बी० एन० झा के अनुसार, “लिंग-भेद के कारण तथा इस विचार से कि बालकों और बालिकाओं को भावी जीवन में समाज में भिन्न-भिन्न कार्य करने हैं, दोनों के पाठ्यक्रम में विभिन्नता होनी चाहिए।’
यौन-शिक्षा

7. उचित शिक्षण विधियों का प्रयोग- किशोरों को परम्परागत विधियों के आधार पर शिक्षा प्रदान करना। पूर्णतया अनुचित है।. यथासम्भव उन शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाए जिससे किशोरों को स्वयं परीक्षण-निरीक्षण, विचार और तर्क करने के अवसर प्राप्त हो सकें। सभी विषयों का शिक्षण पूर्णतया व्यावहारिक और दैनिक जीवन से सम्बन्धित होना चाहिए। साथ ही शिक्षण ऐसा हो जो बालकों की रुचियों को जाग्रत करे तथा उन्हें क्रियाशीलता के अवसर प्रदान करे।

8. व्यक्तिगत भिन्नता के आधार पर शिक्षा- किशोरावस्था में बालक तथा बालिकाओं के दृष्टिकोणों, भावनाओं और रुचियों में भिन्नता आ जाती है। अत: शिक्षा की योजना इस प्रकार की हो कि बालकों की विभिन्न रुचियों और भावनाओं की सन्तुष्टि हो सके। इस उद्देश्य से विद्यालय में विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जानी चाहिए।

9. सामाजिक सम्बन्धों की शिक्षा- किशोर के लिए विद्यालय और परिवार से भी अधिक महत्त्व उस ‘समूह’ का होता है, जिसका वह सदस्य होता है। ऐसी दशा में विद्यालय में ही कुछ समूहों का संगठन किया जाए, जिससे कि छात्र उनके सदस्य बनकर उत्तम आचरण की शिक्षा ग्रहण कर सकें। ये समूह अध्यापकों के निरीक्षण में संगठित किये जाएँ। इसके अतिरिक्त विद्यालय में सामूहिक खेल तथा सामूहिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाए। इनमें भाग लेकर बालक सामाजिकता की शिक्षा स्वाभाविक ढंग से प्राप्त कर सकते हैं।

10. स्काउटिंग तथा गर्लगाइड- किशोरों की अतिरिक्त शक्तियों तथा संवेगों को उचित दिशा में लगाने के लिए स्काउटिंग तथा गर्लगाइड जैसी संस्थाओं का संगठन करना अति आवश्यक है। स्काउटिंग किशोरों की पाशविक तथा निरुद्देशीय भ्रमण करने की प्रवृत्ति पर नियन्त्रण का साधन है। स्काउटिंग उन्हें समाज-सेवा करने का अवसर प्रदान करती है तथा उनकी साहसिक प्रवृत्तियों को सन्तुष्ट करती है। गर्लगाइड की योजना किशोरियों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होती है।

11. व्यावसायिक मार्गदर्शन- किशोरावस्था में बालक व्यवसाय सम्बन्धी चिन्ता करने लगता है। अतः शिक्षक का कर्तव्य है कि वह इस दिशा में बालकों का समुचित मार्गदर्शन करे। किशोर यह निश्चय नहीं कर पाता है कि उसके लिए कौन-सा व्यवसाये उचित है। अत: शिक्षक का कर्तव्य है कि वह बालकों की रुचियों, झुकावों तथा योग्यताओं का ध्यानपूर्वक अध्ययन करे तथा उसके आधार पर उनका व्यावसायिक निर्देशन करे। विद्यालयों में भी कुछ व्यवसायों के प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थापना इस उद्देश्य की पूर्ति करती है।

12. धार्मिक और नैतिक शिक्षा- किशोरावस्था में बालकों में जो मानसिक द्वन्द्व होता है, उसको समाप्त करने के लिए धार्मिक और नैतिक शिक्षा की व्यवस्था करना आवश्यक है। नैतिक तथा धार्मिक शिक्षा का स्वरूप ऐसा हो जिससे बालक उचित और अनुचित के मध्य अन्तर करना सीख सकें। महापुरुषों की जीवनगाथाओं का अध्ययन इस उद्देश्य को प्राप्त करने में विशेष सहायक सिद्ध हो सकता है।

13. यौन-शिक्षा- किशोरावस्था में काम-भावना का विकास होता है। यदि किशोरों को उचित मार्गदर्शन नहीं मिलता तो वे भटक जाते हैं और अनेक उलझनें उत्पन्न हो जाती हैं। अत: किसी-न-किसी रूप में यौन शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। यौन शिक्षा बिना झिझक के उसी प्रकार प्रदान की जाए जिस प्रकार अन्य विषयों की शिक्षा प्रदान की जाती है। किशोरों को यौन शिक्षा प्रदान करते समय स्वास्थ्य विज्ञान और शरीर विज्ञान का भी पूरा-पूरा ज्ञान कराया जाए। बालिकाओं को यौन शिक्षा गृह विज्ञान के साथ दी जाए तो उत्तम है।

काम-प्रवृत्ति को यथासम्भव उचित ढंग से शोधून या मार्गान्तीकरण किया जाना अति आवश्यक है। निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि किशोरावस्था जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण और नाजुक अवस्था है। बालक भावी जीवन में जो कुछ बनेगा, वह किशोरावस्था में ही ज्ञात हो जाता है। जो बालक किशोरावस्था में अपराध, अधार्मिकता तथा आवारागर्दी में पड़ गया तो वह भावी जीवन में समाज व देश के लिए एक सिरदर्द बन सकता है। इसके विपरीत यदि उसका झुकाव साहित्य, कला तथा विज्ञान की ओर हो गया तो वह महान् साहित्यकार, कलाकार या वैज्ञानिक कुछ भी बन सकता है। अतः अभिभावकों तथा शिक्षकों का कर्तव्य है। कि वे किशोरों की मूल आवश्यकताओं, रुचियों, अभिरुचियों तथा समस्याओं को भली प्रकार समझें तथा उनका समुचित मार्गदर्शन करें।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
हरंलॉक द्वारा किये गये बाल-विकास की विभिन्न अवस्थाओं का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

हरलॉक द्वारा किया गया वर्गीकरण
(Classification by Hurlock)

विकास के सिद्धान्त के अनुसार बाल-विकास क्रमशः होता है। इस विकास की प्रक्रिया में भिन्न-भिन्न अवस्थाओं की विशेषताएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। इन विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए तथा विकास की प्रक्रिया का व्यवस्थित अध्ययन करने के लिए विकास की विभिन्न अवस्थाएँ निर्धारित की गयी हैं। यह वर्गीकरण भिन्न-भिन्न रूप में किया गया है। हरलॉक द्वारा किया गया वर्गीकरण निम्नलिखित है

  1. गर्भावस्था- गर्भधारण होने से लेकर शिशु के जन्म तक।
  2. नवजात अवस्था- शिशु के जन्म से 14 दिन तक।
  3. शैशवावस्था- 14 दिन की आयु से दो वर्ष की आयु तक।
  4. बाल्यावस्था- 2 वर्ष की आयु से 11 वर्ष की आयु तक।
  5. किशोरावस्था- 11 वर्ष की आयु से 21 वर्ष की आयु तक।

हरलॉक ने विकास की उपर्युक्त मुख्य अवस्थाएँ मानी हैं। इसके उपरान्त उसने किशोरावस्था का पुनः वर्गीकरण किया है। हरलॉक ने किशोरावस्था को निम्नलिखित तीन भागों में बाँटा है

(क) पूर्व किशोरावस्था- 11 वर्ष की आयु से 13 वर्ष की आयु तक का काल।
(ख) मध्य किशोरावस्था- 13 वर्ष की आयु से 17 वर्ष की आयु तक का काल।
(ग) उत्तर किशोरावस्था- 17 वर्ष की आयु से 21 वर्ष तक की आयु तक का काल।

प्रश्न 2
किशोरावस्था के विकास के मुख्य सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
या
किशोरावस्था में बच्चों के, सामाजिक विकास का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

किशोरावस्था के विकास के सिद्धान्त
(Theories of Development of Adolescence)

जब बालक बाल्यावस्था से किशोरावस्था में प्रवेश करता है तो उसके अन्दर क्रान्तिकारी, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन शरीर और मन दोनों को प्रभावित करते हैं। इन परिवर्तनों के सम्बन्ध में निम्नलिखित दो सिद्धान्त प्रचलित हैं

1. आकस्मिक विकास का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के प्रतिपादक स्टेनले हाल (Stenley Hall) हैं। इनके अनुसार किशोरावस्था में प्रवेश करते ही बालक में जो परिवर्तन होते हैं, उनका सम्बन्ध न तो शैशवावस्था से होता है और न बाल्यावस्था से। इस प्रकार किशोरावस्था एक प्रकार से नया जन्म है। इस अवस्था में बालकों में जो परिवर्तन होते हैं, वे सब आकस्मिक होते हैं।

2. क्रमिक विकास का सिद्धान्त- क्रमिक विकास का सिद्धान्त आकस्मिक विकास के सिद्धान्त के ठीक विपरीत है। थॉर्नडाइक का मत है कि किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन अचानक न होकर क्रमिक होते हैं। किंग (King) के अनुसार, “जिस प्रकार एक ऋतु में ही दूसरी ऋतु के आगमन के लक्षण प्रकट होने लगते हैं, उसी प्रकार बाल्यावस्था और किशोरावस्था परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं।”

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
स्पष्ट कीजिए कि किशोरावस्था में व्यवहार एवं स्वभाव में अस्थिरता पायी जाती है ?
उत्तर:
किशोरावस्था के प्रारम्भिक चरण में ही बालक के व्यवहार एवं स्वभाव में पर्याप्त अस्थिरता एवं चंचलता आ जाती है। इस काल में बालक कल्पनाओं में अधिक रहता है। इस काल में बालक कभी उदास, कभी प्रसन्न, कभी आत्म-विश्वासी तथा इसी प्रकार परस्पर विरोधी मानसिक स्थितियों से गुजरता रहता है। इस काल में यौन-आकर्षण भी प्रारम्भ हो जाता है। यह भी किशोरों के लिए अस्थिरता का एक कारण होता है। इस काल में असुरक्षा की भावना भी काफी प्रबल हो उठती है।

प्रश्न 2
स्पष्ट कीजिए कि किशोरावस्था में कल्पनाओं तथा भावनाओं की अधिकता होती है ?
उत्तर:
किशोरावस्था में बालक एवं बालिकाएँ अधिकतर कल्पनाओं में खोये रहते हैं। उनकी कल्पनाएँ। जीवन के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित होती हैं, जिनका ठोस आधार कुछ भी नहीं होता। इसीलिए अनेक किशोर-किशोरियाँ प्रायः अन्तर्मुखी हो जाते हैं। कल्पनाओं के अतिरिक्त इस काल में कोमल भावनाओं को भी बोलबाला रहता है। भावनाओं के वशीभूत होकर किशोर कभी-कभी ऐसे भी कार्य कर बैठते हैं जिन्हें असाधारण कार्य कहा जाता है।

प्रश्न 3
आडीपस (मातृ भावना) और इलेक्ट्रा (पितृ भावना) काम्प्लेक्स क्या हैं?
उत्तर:
बाल्यावस्था में प्राय: कुछ मनोग्रन्थियाँ विकसित हो जाती हैं। इन मनोग्रन्थियों में दो मुख्य मंनोग्रन्थियाँ हैं-आडीपस (मातृ भावना) तथा इलेक्ट्रा (पितृ भावना)। इन मनोग्रन्थियों का विस्तृत विवरण फ्रॉयड ने प्रस्तुत किया है। फ्रॉयड के अनुसार, आडीपस मनोग्रन्थि से ग्रस्त बालक (लड़की) अपनी माँ के प्रति विशेष रूप से आकृष्ट होता है तथा वह उस पर अधिकार बनाना चाहता है। इस स्थिति में बालक अपने पिता को अपना प्रतिद्वन्द्वी मानने लगता है तथा माँ पर पिता के अधिकार को सहन नहीं कर पाता। इलेक्ट्रा या पितृ भावना की ग्रन्थि लड़कियों में विकसित होती है। इस ग्रन्थि से ग्रस्त बालिका अर्थात् बेटी अपने पिता के प्रति आकृष्ट होती है तथा पिता पर अपना अधिकार दर्शाना चाहती है। वह पिता पर माँ के अधिकार को सहन नहीं कर पाती।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
सामान्य वर्गीकरण के अनुसार विकास की मुख्य अवस्थाएँ कौन-कौन सी हैं ?
उत्तर:
सामान्य वर्गीकरण के अनुसार विकास की मुख्य अवस्थाएँ हैं-

  1. गर्भावस्था
  2. शैशवावस्था
  3. बाल्यावस्था तथा
  4. किशोरावस्था

प्रश्न 2
हरलॉक ने किशोरावस्था को किन उपवर्गों में बाँटा है ?
उत्तर:
हरलॉक ने किशोरावस्था को तीन उपवर्गों में बाँटा है-

  1. पूर्व किशोरावस्था
  2. मध्य किशोरावस्था तथा
  3. उत्तर किशोरावस्था

प्रश्न 3
“व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है, उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता है।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
प्रस्तुत कथन गुडएनफ का है।

प्रश्न 4
विकास की किस अवस्था में सीखने की दर सर्वाधिक होती है ?
उत्तर:
विकास की शैशवावस्था में सीखने की दर सर्वाधिक होती है।

प्रश्न 5
विकास की किस अवस्था में व्यक्ति का व्यवहार मुख्य रूप से मूलप्रवृत्यात्मक होता है?
उत्तर:
विकास की शैशवावस्था में व्यक्ति का व्यवहार मुख्य रूप से मूलप्रवृत्यात्मक होता है।

प्रश्न 6
शैशवावस्था में मुख्य रूप से किस विधि द्वारा सीखा जाता है ?
उत्तर:
शैशवावस्था में मुख्य रूप से अनुकरण विधि द्वारा सीखा जाता है।

प्रश्न 7
शैशवावस्था में नैतिक विकास की क्या स्थिति होती है ?
उत्तर:
शैशवावस्था में नैतिक विकास का प्रायः नितान्त अभाव होता है।

प्रश्न 8
विकास की बाल्यावस्था को अन्य किन-किन नामों से भी जाना जाता है ?
उत्तर:
विकास की बाल्यावस्था को क्रमशः ‘चुस्ती की आयु’, ‘गन्दी आयु’, ‘समूह आयु तथा ‘प्राथमिक विद्यालय की आयु’ आदि नामों से भी जाना जाता है।

प्रश्न 9
किन वर्षों के बीच की अवधि को प्रारम्भिक बाल्यकाल कहा जाता है?
उत्तर:
2 से 5 वर्षों के बीच की अवधि को प्रारम्भिक बाल्यकाल कहा जाता है।

प्रश्न 10
5 से 12 वर्ष तक विकास की अवस्था को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
मध्य बाल्यावस्था।

प्रश्न 11
विकास की किस अवस्था में व्यक्ति का नैतिक विकास प्रारम्भ हो जाता है ?
उत्तर:
सामान्य रूप से बाल्यावस्था में व्यक्ति का नैतिक विकास प्रारम्भ हो जाता है।

प्रश्न 12
व्यक्ति की जिज्ञासा वृत्ति विकास की किस अवस्था में प्रबल होती है ?
उत्तर:
व्यक्ति की जिज्ञासा वृत्ति बाल्यावस्था में प्रबन्न होती है।

प्रश्न 13
किशोरावस्था से क्या आशय है ?
उत्तर:
“किशोरावस्था बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था के मध्य का परिवर्तन काल है।”

प्रश्न 14
कौन-सी अवस्था संघर्ष, तनाव, तूफान तथा विरोध की अवस्था कहलाती है?
उत्तर:
किशोरावस्था संघर्ष, तनाव, तूफान तथा विरोध की अवस्था कहलाती है।

प्रश्न 15
किशोरावस्था की व्याख्या करने वाले मुख्य सिद्धान्त कौन-कौन से हैं ?
उत्तर:
किशोरावस्था की व्याख्या करने वाले मुख्य सिद्धान्त हैं–

  1. त्वरित विकास का सिद्धान्त अथवा आकस्मिक विकास का सिद्धान्त तथा
  2. क्रमशः विकास का सिद्धान्त।

प्रश्न 16
किशोरावस्था के त्वरित विकास के सिद्धान्त को स्पष्ट करने वाले किसी कथन का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
“किशोर में जो शारीरिक तथा मानसिक परिवर्तन होते हैं, वे एकदम छलाँग मारकर आते हैं।’

प्रश्न 17
किशोरावस्था के क्रमशः विकास के सिद्धान्त को स्पष्ट करने वाले किसी कथन का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
“जिस तरह एक ऋतु का आगमन दूसरी ऋतु के उपरान्त होता है, परन्तु पहली ही ऋतु में दूसरी ऋतु के आने के लक्षण प्रतीत होने लगते हैं, उसी प्रकार बाल्यावस्था और किशोरावस्था परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं।”

प्रश्न 18
शैशवावस्था को जीवन का महत्त्वपूर्ण काल क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
शैशवावस्था में सम्पूर्ण विकास का प्रारम्भ होता है। शैशवावस्था को सम्पूर्ण विकास का आधार माना जाता है। इस अवस्था में यदि सुचारु विकास हो जाता है तो भावी विकास-प्रक्रिया भी सुचारु रूप में ही चलती है। इसीलिए शैशवावस्था को जीवन का महत्त्वपूर्ण काल कहा जाता है।

प्रश्न 19
शिशु में किस भावना का प्रभुत्व होता है?
उत्तर:
शिशु में स्नेह की भावना का प्रभुत्व होता है।

प्रश्न 20
बालक के विकास की किस अवस्था में पूनरावृत्ति की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है ?
उत्तर:
बालक के विकास की पूर्व-बाल्यावस्था में पुनरावृत्ति की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है।

प्रश्न 21
बालक की किस अवस्था को संकट की अवस्था कहते है?
उत्तर:
बालक की किशोरावस्था को संकट की अवस्था कहते हैं।

प्रश्न 22
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. शैशवावस्था में बालक के विकास पर उसके स्वास्थ्य का गम्भीर प्रभाव पड़ता है।
  2. बाल्यावस्था को चुस्ती का काल’ भी कहते हैं।
  3. बाल्यावस्था में कठोर अनुशासन द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए।
  4. बाल्यावस्था संघर्ष और तनाव का काल है।
  5. किशोरावस्था महान तनाव, तूफान तथा विरोध का काल है।
  6. किशोरावस्था में कोई प्रबल समस्या नहीं होती।

उत्तर:

  1. सत्य
  2. सत्य
  3. असत्य
  4. असत्य
  5. सत्य
  6. असत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए-

प्रश्न 1.
शैशवावस्था में कौन-सा विकास तीव्र गति से होता है ?
(क) शारीरिक विकास
(ख) मानसिक विकास
(ग) सामाजिक विकास
(घ) भाषागत विकास

प्रश्न 2.
शैशवावस्था में सुचारु विकास के लिए किस बात का विशेष ध्यान रखना अनिवार्य है ?
(क) आज्ञापालन
(ख) अध्ययन
(ग) नैतिकता
(घ) पोषण

प्रश्न 3.
शैशवावस्था की मुख्य विशेषता है
(क) नैतिक बोध की प्रधानता
(ख) जटिल संवेगों का प्रदर्शन
(ग) काम-प्रवृत्ति का प्रकाशन
(घ) अनुकरण द्वारा सीखने की प्रधानता

प्रश्न 4.
विकास की किस अवस्था में यौन-प्रवृत्ति सुप्तावस्था में होती है ?
(क) शैशवावस्था
(ख) बाल्यावस्था
(ग) किशोरावस्था
(घ) प्रौढ़ावस्था

प्रश्न 5.
बाल्यावस्था की उल्लेखनीय विशेषता है-
(क) मानसिक विकास की अधिकता
(ख) अनुभव में वृद्धि
(ग) जिज्ञासा में वृद्धि
(घ) खेल की अवहेलना

प्रश्न 6.
विकास की किस अवधि को प्रारम्भिक विद्यालय की आयु’ कहा जाता है ?
(क) शैशवावस्था
(ख) बाल्यावस्था
(ग) किशोरावस्था
(घ) प्रौढ़ावस्था

प्रश्न 7.
विकास की किस अवस्था में शारीरिक परिवर्तनों से सम्बन्धित समस्याएँ प्रबल होती हैं ?
(क) शैशवावस्था
(ख) बाल्यावस्था
(ग) किशोरावस्था
(घ) युवावस्था

प्रश्न 8.
वीर पूजा की अवस्था कहलाती है
(क) शैशवावस्था
(ख) बाल्यावस्था
(ग) किशोरावस्था
(घ) प्रौढ़ावस्था

प्रश्न 9.
किशोरावस्था जीवन का
(क) अधिक महत्त्वपूर्ण काल है
(ख) महत्त्वपूर्ण काल है
(ग) अत्यधिक महत्त्वपूर्ण काल है
(घ) कम महत्त्वपूर्ण काल है

प्रश्न 10.
किशोरावस्था जीवन की सबसे
(क) महत्त्वपूर्ण काल है
(ख) कठिन काल है
(ग) अनोखा काल है
(घ) आदर्श काल है

प्रश्न 11.
अधिक तनाव का काल है-
(क) शैशवावस्था
(ख) बाल्यावस्था
(ग) किशोरावस्था
(घ) युवावस्था

प्रश्न 12.
किशोरावस्था के विकास के सिद्धान्त हैं
(क) तीन
(ख) दो
(ग) चार
(घ) पाँच

प्रश्न 13.
यौन-शिक्षा को सामान्य शिक्षा में अनिवार्य रूप से सम्मिलित करना चाहिए
(क) बाल्यावस्था में
(ख) किशोरावस्था में
(ग) युवावस्था में।
(घ) प्रत्येक अवस्था में

प्रश्न 14.
किशोरावस्था सम्बन्धी समस्याएँ हैं
(क) समायोजन की समस्याएँ
(ख) शारीरिक परिवर्तन सम्बन्धी समस्याएँ
(ग) यौन समस्याएँ
(घ) ये सभी समस्याएँ

प्रश्न 15.
किशोरों हेतु सर्वाधिक आवश्यक है
(क) शैक्षिक निर्देशन
(ख) यौन शिक्षा
(ग) कैरियर सम्बन्धी व्यावसायिक निर्देशन
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 16.
जन्म के समय बालकों का औसत भार होता है-
(क) 2.5 किग्रा
(ख) 2.9 किग्रा
(ग) 3.2 किग्रा
(घ) 4.7 किग्रा

प्रश्न 17.
शैशवावस्था की प्रमुख मनोवैज्ञानिक विशेषता है|
(क) सामाजिक व्यवहार
(ख) धार्मिक व्यवहार
(ग) मूल-प्रवृत्यात्मक व्यवहार
(घ) अनुकरणात्मक प्रवृत्ति का अभाव

प्रश्न 18.
शैशवावस्था की प्रमुख विशेषता नहीं है-
(क) अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति
(ख) मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार
(ग) कल्पनाशीलता
(घ) परिपक्वता

प्रश्न 19.
चुस्त-दुरुस्त अवस्था’ किस अवस्था को कहा जाता है ?
(क) पूर्व शैशवावस्था
(ख) शैशवावस्था
(ग) बाल्यावस्था
(घ) किशोरावस्था

प्रश्न 20.
जीवन का अनोखा काल’ कहा जाता है
(क) किशोरावस्था को
(ख) शैशवावस्था को
(ग) बाल्यावस्था को
(घ) युवावस्था को

प्रश्न 21.
स्वतन्त्रता व विद्रोह की भावना प्रबल होती है
(क) शैशवावस्था में
(ख) बाल्यावस्था में
(ग) किशोरावस्था में
(घ) इन सभी में

उत्तर:

  1. (क) शारीरिक विकास
  2. (घ) पोषण
  3. (घ) अनुकरण द्वारा सीखने की प्रधानता
  4. (ख) बाल्यावस्था
  5. (ग) जिज्ञासा में वृद्धि
  6. (ख) बाल्यावस्था
  7. (ग) किशोरावस्था
  8. (ग) किशोरावस्था
  9. (ग) अत्यधिक महत्त्वपूर्ण काल है
  10. (ग) अनोखी काल है
  11. (ग) किशोरावस्था
  12. (ख) दो
  13. (ख) किशोरावस्था में
  14. (घ) ये सभी समस्याएँ
  15. (ख) यौन शिक्षा
  16. (ख) 2.9 किग्रा
  17. (ग) मूल-प्रवृत्यात्मक व्यवहार
  18. (घ) परिपक्वता
  19. (ग) बाल्यावस्था
  20. (क) किशोरावस्था को
  21. (ग) किशोरावस्था में

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UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 13 Project Method

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 13 Project Method (योजना अथवा प्रोजेक्ट पद्धति) are the part of UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 13 Project Method (योजना अथवा प्रोजेक्ट पद्धति).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 13
Chapter Name Project Method
(योजना अथवा प्रोजेक्ट पद्धति)
Number of Questions Solved 30
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 13 Project Method (योजना अथवा प्रोजेक्ट पद्धति)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
शिक्षा की योजना पद्धति (Project Method) से आप क्या समझते हैं? इस पद्धति के मुख्य सिद्धान्तों का भी उल्लेख कीजिए।
या
प्रोजेक्ट विधि के मुख्य सिद्धान्त क्या हैं?
उत्तर:
आधुनिक शिक्षा पद्धतियों में प्रोजेक्ट या योजना पद्धति का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस पद्धति के प्रवर्तक जॉन डीवी के शिष्य अमरीकन शिक्षाशास्त्री किलपैट्रिक थे। ये कोलम्बिया विश्वविद्यालय के अध्यापकों के कॉलेज में शिक्षाशास्त्र के प्रोफेसर थे। डीवी (Dewey) के प्रयोजनवाद के सिद्धान्तों के आधार पर ही इन्होंने योजना शिक्षा-पद्धति का निर्माण किया। प्रारम्भ में इस पद्धति का प्रयोग कृषि के कार्यों में किया जाता था, परन्तु कालान्तर में इस पद्धति का प्रयोग अन्य क्षेत्रों में भी होने लगा। इस पद्धति में पाठ्य-विषय का अध्ययन कराने के स्थान पर उसे प्रत्यक्ष रूप से समझाया जाता है।

योजना पद्धति का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definition of Project Method)

योजना पद्धति के जनक किलपैट्रिक का कथन है कि कार्य दो प्रकार से किया जाता है—योजना बनाकर और बिना योजना के। योजना वाले कार्यों में भी कुछ कार्य ऐसे होते हैं, जो जीवन की समस्या से सम्बन्धित होते हैं और कुछ कार्य ऐसे होते हैं, जिनका जीवन की समस्याओं से कोई सम्बन्ध नहीं होता। योजना शिक्षा पद्धति के अनुसार बालक जो कार्य करते हैं, वे पूर्व निर्धारित होते हैं और जीवन की समस्याओं से सम्बन्धित होते हैं; जैसे—विद्यालय में सूत कातती हुई लड़कियों से यदि कह दिया जाए कि उस सूत से उनके लिए साड़ियाँ बनवाई जाएँगी तो वे और मन लगाकर तीव्र गति से कार्य करेंगी। इस प्रकार कार्यों को उद्देश्यपूर्ण, सार्थक, रोचक और स्वाभाविक बनाया जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि योजना सोद्देश्य, स्वाभाविक, सार्थक एवं रुचिपूर्ण कार्य का आयोजन है। योजना शब्द की प्रमुख परिभाषाओं का विवरण निम्नलिखित है—

  1. किलपैट्रिक के अनुसार, “योजना वह सहृदय उद्देश्यपूर्ण कार्य है जो पूर्ण संलग्नता से सामाजिक वातावरण में किया जाए।”
  2. रायबर्न के अनुसार, “योजना वह उद्देश्यपूर्ण कार्य है जिसे सहयोग तथा सद्भावना से बालक स्वेच्छापूर्वक पूरा करने का प्रयास करते हैं।”
  3. थॉमस और लैंग के अनुसार, “योजना इच्छानुसार ऐसा कार्य है, जिसमें रचनात्मक प्रयास आपका विचार हो और जिसका कुछ साकार परिणाम हो।”
  4. बेलार्ड के अनुसार, “योजना वास्तविक जीवन का एक भाग है जो कि विद्यालय में प्रयोग किया जाता
  5. स्टीवेन्सन के अनुसार, “योजना एक समस्यामूलक कार्य है जो अपनी स्वाभाविक परिस्थितियों के ।अन्तर्गत पूर्णता को प्राप्त करता है।”
  6. किलपैट्रिक की संशोधित परिभाषा, “योजना सोद्देश्य अनुभव की कोई इकाई, सोद्देश्य क्रिया का कोई उदाहरण है जहाँ पर प्रभावशाली प्रयोजन एक आन्तरिक प्रवृत्ति के रूप में कार्य के उद्देश्य को निर्धारित करता है, क्रिया का पथ-प्रदर्शन करता है और उसे प्रेरणा देता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि “योजना एक जीवन अनुभव है जो एक प्रबल इच्छा से प्रेरित होता है और इस इच्छा का प्रयोग ही योजना पद्धति का आधार है।”

योजना पद्धति के सिद्धान्त
(Principles of Project Method)

योजना पद्धति एक नई शिक्षा-पद्धति है, जिसका निर्माण अमेरिका में शिक्षा के क्षेत्र में प्रचलित प्राचीन परम्पराओं की प्रतिक्रियास्वरूप हुआ है। यह पद्धति ‘करके सीखने’ (Learming by doing) के साथ-साथ रहकर सीखने’ (Learming by living) परे भी बल देती है। इस पद्धति के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं|

1. उद्देश्य या प्रयोजन का सिद्धान्त- इस पद्धति के अनुसार बालकों के सम्मुख कोई भी कार्य समस्या के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाता है और उसे पूरा करने में कोई उद्देश्य निहित रहता है। उद्देश्य के अभाव में योजना निरर्थक हो जाती है, क्योंकि कोई भी कार्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही किया जाता है। जब बालक के सामने कोई उद्देश्य स्पष्ट होता है तो वह उत्तेजित होकर मन लगाकर काम करता है उद्देश्य या प्रयोजन का सिद्धान्त है। इसका परिणाम यह होता है कि बालक कम समय में अधिक ज्ञान क्रियाशीलता का सिद्धान्त प्राप्त कर लेते हैं।

2. क्रियाशीलता का सिद्धान्त- बालक स्वभावतः क्रियाशील होते हैं, इसलिए यह पद्धति बालक की क्रियाशीलता का सदुपयोग । करने में विश्वास करती है। इस पद्धति में बालकों को क्रिया द्वारा शिक्षा दी जाती है, क्योंकि जो भी ज्ञान स्वयं कार्य करके प्राप्त किया जाता है, वह अधिक स्थायी होता है, इसलिए जहाँ तक सम्भव हो सके बालक को व्यावहारिक क्रिया के आधार पर शिक्षा देनी चाहिए, जिससे बालक उत्साहपूर्वक सीख सके।

3. अनुभव का सिद्धान्त- इस पद्धति में बालक अनुभवों को अर्जित करके शिक्षा प्राप्त करते हैं। इस पद्धति के द्वारा बालक को ऐसे अनुभव प्रदान किए जाते हैं, जो उसके जीवन में काम आ सकें। यह अनुभव वे कार्य के द्वारा प्राप्त करते हैं। इससे बालक कार्य का अनुभव, सहयोग का अनुभव, सामाजिक सम्बन्धों का अनुभव और अन्य विभिन्न प्रकार के अनुभव प्राप्त करता है।

4.स्वतन्त्रता का सिद्धान्त- इस पद्धति में बालक को कार्य करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। बालकों को कार्य चुनने की पूरी स्वतन्त्रता होनी चाहिए। उन्हें इतना उत्साहित करना चाहिए कि वे कार्य का प्रस्ताव स्वयं रखें। विद्यालय का समस्त कार्यक्रम उनके प्रस्ताव के अनुकूल होना चाहिए। शिक्षकों को उन्हें किसी भी कार्य को करने के लिए बाध्य नहीं करना चाहिए।

5. वास्तविकता का सिद्धान्त- इस पद्धति में बालकों से शैक्षिक कार्य वास्तविक और स्वाभाविक परिस्थितियों में कराए जाते हैं। बालकों के सामने काल्पनिक समस्याएँ न रखकर वास्तविक समस्याएँ प्रस्तुत की जानी चाहिए। वास्तविक परिस्थितियों में काम करने से जीवन और कार्य में सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।

6. उपयोगिता का सिद्धान्त- इस पद्धति में बालकों से वही कार्य कराए जाते हैं, जिनमें उनका स्वार्थ हो और जो उनके भावी जीवन में सहायक बन सकें। उपयोगी कार्यों में बालक की रुचि होती है और वह उत्साहपूर्वक कार्य को पूरा करता है। बालक ऐसी समस्याओं का समाधान करने में कोई रुचि नहीं रखता, जो उसकी तात्कालिक आवश्यकताओं से सम्बन्धित नहीं होते।

7. सामाजिकता का सिद्धान्त- यह पद्धति इस तथ्य पर विशेष बल देती है कि बालकों में शिक्षा द्वारा सामाजिक भावना का विकास करना चाहिए। इसलिए इस पद्धति में सामूहिक कार्यों, सामाजिक उत्तरदायित्वों तथा सामाजिक सम्बन्धों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है।

8. सानुबन्यता का सिद्धान्त- यह पद्धति ज्ञान की एकता में विश्वास करती है। इसलिए इस पद्धति के अन्तर्गत इस सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है कि विभिन्न विषयों को एक-दूसरे से सम्बन्धित करते हुए पढ़ाना चाहिए। प्रायः एक ही योजना के द्वारा विभिन्न विषयों की शिक्षा बालकों को दे दी जाती है।

प्रश्न 2.
शिक्षा की योजना पद्धति के मुख्य गुणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

योजना पद्धति के गुण
(Merits of Project Method)

1. व्यावहारिकता- इस पद्धति के अनुसार बालक पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त नहीं करते, बल्कि वे स्वयं विभिन्न प्रकार की योजनाओं व समस्याओं को जीवन में कार्यान्वित करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार जो ज्ञान बालकों को प्राप्त होता है, वह व्यावहारिक होता है और उसकी योजना पद्धति के गुण जीवन में उपयोगिता होती है।

2. रुचिपूर्ण पद्धति- इस पद्धति के अनुसार शिक्षा ग्रहण करने में बालक प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, क्योंकि शिक्षा देते समय मनोवैज्ञानिक पद्धति उनकी रुचि का पूरा ध्यान रखा जाता है। इसमें बालक प्रोजेक्ट के प्रति आकर्षित, जिज्ञासु एवं उत्सुक बने रहते हैं।

3. मनोवैज्ञानिक पद्धति- यह पद्धति मनोवैज्ञानिक है, क्योंकि विकास के समान अवसर इसमें बालकों की रुचि, प्रवृत्ति, इच्छा और क्षमता का पूर्ण ध्यान रखा जाता है। इसमें रटने तथा स्मरण करने की क्रिया की अपेक्षा सोचने स्वतन्त्रता की रक्षा तथा कार्य करने की प्रवृत्ति पर बल दिया गया है।

4. श्रम का महत्त्व- बालकों की समस्याओं का समाधान करने * पाठ्य-विषयों का समन्वय के लिए शारीरिक तथा मानसिक कार्य करने पड़ते हैं। शारीरिक कार्य गृह, पाठशाला एवं समाज के करने के कारण उनके हृदय में श्रम के प्रति आदर का भाव उत्पन्न हो बीच सम्बन्ध जाता है और वे हाथ से काम करने में कोई हीनता नहीं समझते। इस सामाजिक भावना का विकास प्रकार यह पद्धति श्रम को विशेष महत्त्व प्रदान करती है।

5. मानसिक विकास- यह पद्धति निष्क्रिय रहकर ज्ञान प्राप्त करने का विरोध करती है। इस पद्धति में बालकों को स्वतन्त्र रूप से सोचने-विचारने तथा कार्य करने के अवसर प्राप्त होते हैं। इसमें बालक दूसरों से वाद-विवाद करके और परामर्श करके स्वयं निर्णय करता है। इस प्रकार इस पद्धति के द्वारा बालक की विभिन्न मानसिक शक्तियों का विकास बहुत अच्छी तरह से होता है।

6. विकास के समान अवसर- इस पद्धति में सभी बालकों को समान रूप से कार्य करने का अवसर प्राप्त होता है, चाहे उनकी बुद्धि तीव्र, मन्द अथवा साधारण हो। परिणामस्वरूप बालकों का समान रूप से विकास होता है।

7. आत्म-विकास का अवसर- यह पद्धति बालकों को अपने अनुभव से सीखने का अवसर देती है। कोई भी ज्ञान बालक के ऊपर थोपा नहीं जाता है, बल्कि वे कार्य करके अपने अनुभव से सीखते हैं।

8. स्वतन्त्रता की रक्षा- इस पद्धति में बालकों को अधिक-से-अधिक स्वतन्त्र रखकर शिक्षा दी जाती है। उन्हें अपनी रुचि के अनुसार काम करने, प्रोजेक्ट चुनने तथा प्रोजेक्ट का कार्यक्रम बनाने का पूरा अधिकार होता है और उन्हें कार्य करने की पूरी स्वतन्त्रता होती है। इस प्रकार उनके विकास में कोई बाधा नहीं आती है।

9. पाठ्य- विषयों की स्वाभाविकता-इस पद्धति में बालक को पाठ्य-विषयों का ज्ञान स्वाभाविक परिस्थितियों में कराया जाता है, जिससे जीवन और कार्य में सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इससे ज्ञान की स्वाभाविकता बनी रहती है। जीवन से सम्बन्धित हो जाने पर बालक रुचिपूर्वक कार्य को पूरा करता है और बालक में विधिपूर्वक कार्य करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है।

10. पाठ्य-विषयों का समन्वयं- इस पद्धति में बालकों को सभी पाठ्य-विषय अलग-अलग करके नहीं पढ़ाए जाते। पाठ्यक्रम के समस्त विषय समन्वित रूप से प्रस्तुत किए जाते हैं। किसी विशेष समस्या को हल करने में बालक अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। इससे बालकों को ज्ञान की एकता का अनुभव होता है और ज्ञान संगठित होकर उनके द्वारा आत्मसात किया जाता है।

11. गृह, पाठशाला एवं समाज के बीच सम्बन्ध- इस पद्धति की शिक्षाविधि ऐसी है कि गृह, पाठशाला एवं समाज तीनों में सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। तीनों सम्बद्ध रूप से बालक की शिक्षा में भाग लेते हैं। विद्यालय में जो शिक्षा बालक ग्रहण करते हैं, उसे गृह एवं समाज में कार्यान्वित करते हैं। इसके साथ-साथ गृह और समाज में प्राप्त अनुभवों के आधार पर बालक विद्यालय में प्रोजेक्ट का निर्माण करते हैं।

12. चरित्र का विकास- इस पद्धति के द्वारा बालकों का चारित्रिक विकास होता है। यह सत्यम् शिवम सुन्दरम्’ की भावना का अनुभव करते हुए विश्व का कल्याण करने में समर्थ होते हैं।

13. सामाजिक भावना का विकास- इस पद्धति में बालकों को दूसरों के सहयोग से कार्य करने का अवसर प्राप्त होता है। इससे उनमें सामाजिकता की भावना का विकास होता है। इसके साथ ही उनमें नागरिकता की भावना का भी विकास होता है। वह अपने उत्तरदायित्व को समझते हैं और एक-दूसरे के सहयोग से कार्य करते हैं।

प्रश्न 3.
योजना पद्धति के मुख्य दोषों अथवा कमियों का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

योजना पद्धति के दोष
(Defects of Project Method)

भले ही शिक्षा की योजना पद्धति के विभिन्न गुणों का उल्लेख किया जाता है, परन्तु अन्य शिक्षा-पद्धतियों के ही समान इस पद्धति में भी कुछ दोष हैं। इस पद्धति में मुख्य दोषों अथवा कमियों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

1. खर्चीली पद्धति- इस पद्धति को कार्यान्वित करने के लिए अनेक पुस्तकों तथा यन्त्रों की आवश्यकता होती है, जिनके प्रबन्ध में काफी धन व्यय करना पड़ता है। इसलिए सामान्य विद्यालयों में इस पद्धति का प्रयोग नहीं किया जा सकता।

2. उचित परीक्षा प्रणाली का अभाव- इस पद्धति में एक योजना पद्धति के दोष निश्चित पाठ्यक्रम का अभाव रहता है, इसलिए परीक्षा के निर्धारण में काफी कठिनाई होती है। वर्तमान परीक्षा प्रणाली में योजना पद्धति को खर्चीली पद्धति कोई स्थान प्राप्त नहीं है। इस पद्धति में कार्य का सही-सही मूल्यांकन भी नहीं हो पाता है।

3. पाठ्य-पुस्तकों का अभाव- इस पद्धति से सम्बन्धित हिन्दी विषयों के क्रमबद्ध अध्ययन का अभाव भाषा में लिखी हुई पाठ्य-पुस्तकों का भी अभाव है। इससे विषयों की । प्रोजेक्ट के चुनाव में कठिनाई निश्चित सीमा निर्धारित नहीं हो पाती, जिसके परिणामस्वरूप शिक्षण विधि कार्य सुचारु रूप से नहीं चल पाता है।

4. विषयों के क्रमबद्ध अध्ययन का अभाव-इस पद्धति में कठिनाई विषयों का क्रमबद्ध अध्ययन नहीं किया जाता, इसलिए बालकों को किसी भी विषय का क्रमिक ज्ञान नहीं हो पाता। इससे सभी विषयों का ज्ञान अपूर्ण रहता है। गोड के टॉमसन ने इस पद्धति की आलोचना * व्यक्तिगत रुचियों की उपेक्षा करते हुए कहा है, “प्रासंगिक शिक्षा पद्धति बड़ी महत्त्वपूर्ण है, किन्तु प्रौढ़ों की समस्याएँ पर्याप्त नहीं होती।”

5. प्रोजेक्ट के चुनाव में कठिनाई- कुछ शिक्षाशास्त्रियों का मत योग्य शिक्षकों का अभाव है कि इस प्रकार के प्रोजेक्ट का चुनाव करना, जिनका सामाजिक * शिक्षक के प्रभाव का अभाव जीवन में कुछ मूल्य तथा महत्त्व हो और जो कक्षा के विद्यार्थियों की रुचि, बुद्धि तथा क्षमता के अनुकूल हो, अत्यन्त कठिन है। इसके अतिरिक्त विद्यालय के बहुसंख्यक विद्यार्थियों के लिए प्रोजेक्ट का चुनाव करना भी कठिन कार्य है। इस कार्य के लिए समय, सहनशीलता तथा समझदारी की आवश्यकता है। साधारणतया शिक्षक के पास इन बातों के लिए समय का अभाव रहता है, जिसके परिणामस्वरूप बालक ऐसे प्रोजेक्ट चुन लेता है जिनका कोई शैक्षिक मूल्य नहीं होता।

6. अव्यवस्थित शिक्षण विधि- इस पद्धति में शिक्षण विधि अव्यवस्थित तंथा क्रमहीन होती है, जिसके कारण बालकों को पाठ्यक्रम का पूरा ज्ञान नहीं हो पाता। इससे बालक उचित और मनोवैज्ञानिक क्रम से ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता है; जैसे—गुणा की आवश्यकता पहले पड़ने पर बिना जोड़-घटाने का ज्ञान प्राप्त किए बालक गुणा सीखने का प्रयत्न करेगा। यहीं पर यह पद्धति अमोवैज्ञानिक हो जाती है।

7.वातावरण से अनुकूलन में कठिनाई- जब विद्यार्थी इस शिक्षा विधि से पढ़ाए जाने वाले विद्यालय से किसी अन्य साधारण विद्यालय में प्रवेश लेता है, तो उसे अपने वातावरण से अनुकूलन करने में अत्यन्त कठिनाई होती है।

8. हस्त कार्यों का बाहुल्य- कुछ शिक्षाशास्त्रियों का कहना है कि इस पद्धति में हस्त कार्यों पर आवश्यकता से अधिक बल दिया जाता है, जोकि अनुचित है। इसके परिणामस्वरूप बालक दिन भर विभिन्न वस्तुओं के मॉडल बनाता रहता है और उसे किसी विषय का ज्ञान नहीं होता। इस प्रकार इस पद्धति से बालकों का मानसिक विकास नहीं हो पाता।

9. समय का अपव्यय- यह शिक्षा विधि काफी लम्बी है और इसमें समय का अपव्यय करने के बाद भी बालक को उतना ज्ञान नहीं हो पाता, जितना अपेक्षित होता है।

10. व्यक्तिगत रुचियों की उपेक्षा- सामाजिक प्रोजेक्ट का चुनाव करते समय बालकों की व्यक्तिगत रुचियों और प्रवृत्तियों का ध्यान नहीं रखा जाता। यह मान लिया जाता है कि सभी बालकों के अन्दर वांछित रुचियाँ और प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं, लेकिन सभी बालकों के लिए एक ही प्रोजेक्ट की व्यवस्था करना अनुचित

11. प्रौढों की समस्याएँ- इस पद्धति में बालकों के सम्मुख अधिकतर प्रौढ़ जीवन की समस्याएँ प्रस्तुत की जाती हैं। इससे बालकों को शिक्षा प्राप्त करने में कठिनाई होती है। रेमॉण्ट (Raymont) के अनुसार, बालकों की पाठशाला में प्रौढ़ जीवन की समस्याओं को हल करने से पाठशाला की बुराइयाँ नहीं हो सकतीं। बालकों के सम्मुख क्रिया से परे कोई समस्या उपस्थित कर देना अमनोवैज्ञानिक है।”

12. समस्त विषयों के ज्ञान का अभाव- इस पद्धति के द्वारा एक ही प्रोजेक्ट से बालक सभी विषयों का ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता है। इससे उनमें आपस में सम्बन्ध नहीं जुड़ पाता है।

13. योग्य शिक्षकों का अभाव- हमारे देश में ऐसे शिक्षकों की कमी है, जोकि इस पद्धति के द्वारा बालकों को शिक्षा दे सकें। इनके प्रशिक्षण के साधन भी इतने सीमित हैं कि कुशल शिक्षक सरलता से उपलब्ध नहीं हो पाते हैं।

14. शिक्षक के प्रभाव का अभाव- इस पद्धति में शिक्षक को कोई प्रमुख स्थान नहीं है। शिक्षक को केवल पथ-प्रदर्शक के रूप में स्वीकार किया गया है, इसलिए शिक्षक के व्यक्तित्व और ज्ञान का प्रभाव बालकों पर नहीं पड़ पाता है। लेकिन यह आलोचना असंगत लगती है, क्योकि इस पद्धति में तो शिक्षक का उत्तरदायित्व और भी अधिक बढ़ जाता है। प्रोजेक्ट का सफलतापूर्वक सम्पन्न होना शिक्षक की योग्यता तथा कार्य-कुशलता पर निर्भर है।

लघु उत्तरीय प्रण

प्रश्न 1.
योजना पद्धति की कार्य-प्रणाली को स्पष्ट करने के लिए उसके विभिन्न सोपानों का उल्लेख कीजिए। योजना शिक्षण पद्धति के कौन-से सोपान हैं ?
उत्तर:

योजना शिक्षण पद्धति के सोपान
(Factors of Project Educational Method)

योजना शिक्षण पद्धति के मुख्य सोपान निम्नलिखित हैं

1. समस्या मूलक परिस्थिति उत्पन्न करना-जहाँ तक सम्भव हो सके बालकों को ही योजना या प्रोजेक्ट चुनने के अवसर देने चाहिए। शिक्षक इस कार्य में बालकों की सहायता कर सकता है। शिक्षक को चाहिए कि वह बालकों के सम्मुख कोई समस्यामूलक परिस्थिति उत्पन्न कर दे, जिसमें कोई समस्या निहित हो और जो बालकों की रुचि और बौद्धिक विकास के अनुरूप हो। रुचि उत्पन्न होने पर बालकों का ध्यान उस . परिस्थिति में निहित समस्या की ओर आकर्षित हो जाएगा। उस समस्या का समाधान करने के लिए बालक स्वयं ही योजनाएँ बनाएँगे।

2. योजना का चुनाव- शिक्षक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह कोई भी योजना बालकों पर बलपूर्वक न लादे, क्योंकि ऐसा करने से योजना महत्त्वहीन हो जाती है। शिक्षक को चाहिए कि वह योजना का चुनाव करने के लिए बालकों को प्रोत्साहित करे। बालक योजनाओं को प्रस्तावित करेंगे, लेकिन प्रत्येक बालक के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया जा सकता। उसी योजना के प्रस्ताव को स्वीकार करना चाहिए, जोकि बालकों के वास्तविक जीवन से सम्बन्धित हो। शिक्षक को योजना चुनने के सम्बन्ध में बालकों का पथ-प्रदर्शन करना चाहिए और उसी योजना को स्वीकार करना चाहिए जिसका शैक्षिक मूल्य सबसे अधिक

3. कार्यक्रम का निर्माण योजना का चुनाव होने के बाद उसका कार्यक्रम बनाया जाता है, जिसकी सहायता से बालक उस समस्या अथवा योजना को हल करते हैं। कार्यक्रम-निर्माण के सम्बन्ध में भी सब बालकों को इस प्रकार के अवसर मिलने चाहिए कि वे अपने सुझाव रख सकें। किसी भी कार्यक्रम को पूर्ण वाद-विवाद के बाद ही स्वीकार करना चाहिए। कार्यक्रम इस प्रकार का होना चाहिए जोकि स्वाभाविक परिस्थितियों में पूर्ण किया जा सके। कार्यक्रम को कई भागों में विभाजित कर देना चाहिए और प्रत्येक बालक को योग्यतानुसार कुछ-न-कुछ कार्य अवश्य देना चाहिए। इस प्रकार सभी बालक मिलकर किसी योजना को पूरा करते हैं।

4. कार्यक्रम का क्रियान्वयन- कार्यक्रम के निर्धारण के पश्चात् प्रत्येक बालक उत्साहपूर्वक अपने-अपने कार्य को ग्रहण करता है और उसे पूरा करने में जुट जाता है। प्रत्येक बालक अपना कार्य स्वयं करता है। इस प्रकार बालक क्रिया द्वारा सीखते हैं। शिक्षकों को योजना का कोई भी कार्य स्वयं नहीं करना चाहिए, बल्कि योजना को पूरा करने में बालकों की सहायता करनी चाहिए। शिक्षक को चाहिए कि वह बालकों को अपनी गति से कार्य करने दें। इससे समय तो अधिक लगता है, लेकिन इस प्रकार प्राप्त किया गया ज्ञान अधिक स्थायी रहता है। शिक्षक का कार्य बालकों के कार्य का निरीक्षण करना, प्रोत्साहन देना और आवश्यकता पड़ने पर आदेश देना है। आवश्यकता पड़ने पर शिक्षक योजना में परिवर्तन भी कर सकता है। और उस परिवर्तन की ओर बालकों का ध्यान आकर्षित कर सकता है।

5. कार्य का निर्माण करना-योजना या प्रोजेक्ट पूर्ण होने के पश्चात् शिक्षक तथा बालकों द्वारा यह देखा जाता है कि योजना ने कहाँ तक सफलता प्राप्त की है। जिस उद्देश्य को लेकर योजना प्रारम्भ की गई थी, वह पूर्ण हुआ या नहीं। प्रत्येक बालक पूर्णतया स्वतन्त्र होकर अपने विचार प्रकट करता है। इन विचारों पर सामूहिक रूप से विचार करके निष्कर्ष निकाले जाते हैं। इस प्रकार से बालकों को अपनी गलतियों का ज्ञान हो जाता है और वे अपनी आलोचना स्वयं करते हैं। ‘

6. कार्य का लेखा- प्रत्येक बालक के पास एक विवरण-पुस्तिका रहती है, जिसमें बालक के कार्यों को लेखबद्ध कर दिया जाता है। बालक प्रारम्भ से अन्त तक जो कुछ भी करते हैं, वह अपनी विवरण-पुस्तिका में लिख देते हैं। शिक्षक को चाहिए कि वह जो कार्य बालकों को दे, उसे लिखा दे, ताकि वह लेखानुसार अपने कार्य में व्यस्त रहें। इस लेखे के द्वारा शिक्षक यह निरीक्षण करता है कि छात्रों ने कितना कार्य समाप्त कर दिया है और कितना शेष है। वे अपने उत्तरदायित्व को पूरी तरह निभा रहे हैं या नहीं, छात्रों ने कितनी प्रगति की है आदि।

प्रश्न 2.
प्रोजेक्ट प्रणाली की क्या उपयोगिता है ?
उत्तर:
आधुनिक शिक्षा- पद्धतियों में प्रोजेक्ट या योजना प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस प्रणाली का मुख्यतम गुण है-व्यावहारिकता। इस प्रणाली से प्राप्त होने वाला ज्ञान व्यावहारिक होता है तथा वह जीवन के लिए उपयोगी होता है। यह एक रोचक शिक्षा-प्रणाली है, जो मनोवैज्ञानिक मान्यताओं पर आधारित है। यह बच्चों के मानसिक विकास में सहायक है। इस शिक्षा-पद्धति में सभी बालकों को समान रूप से कार्य करने का अवसर प्राप्त होता है, चाहे उनकी बुद्धि तीव्र, मन्द अथवा साधारण हो। यह शिक्षा-प्रणाली बालकों को आत्म-विकास के अवसर प्रदान करती है। इस प्रणाली में विभिन्न विषयों को समन्वित रूप से पढ़ाया जाता है। इस शिक्षा-प्रणाली में गृह, पाठशाला तथा समाज में एक प्रकार का सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। प्रोजेक्ट प्रणाली बालकों के चरित्र के विकास में भी सहायक है। इसके अतिरिक्त प्रोजेक्ट प्रणाली की एक अन्य उपयोगिता है–सामाजिक भावना के विकास में सहायक होना। इस पद्धति में बालकों को दूसरे के सहयोग से कार्य करने का अवसर प्राप्त होता है। इससे उनमें सामाजिकता की भावना का विकास होता है।

प्रश्न 3.
योजना पद्धति का कोई एक उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

योजना पद्धति एक उदाहरण
(An Example of Project Method)

प्रोजेक्ट या योजना दो प्रकार के होते हैं- सरल और बहुपक्षीय। जिसमें एक ही काम होता है, उसे सरल प्रोजेक्ट कहते हैं; जैसे-रोटी पकाना, बाजार से कुछ सामान लाना आदि। बहुपक्षीय प्रोजेक्ट उसे कहते हैं, जिनके द्वारा बालकों को एक साथ कई विषयों का ज्ञान मिल जाता है; जैसे—सीमेण्ट की दीवार बनाना, विद्यालयों में पानी का प्रबन्ध करना, नाटक करना आदि। सी० डब्ल्यू० स्टोन (C. W. Stone) ने पार्सल भेजने के एक बहुपक्षीय प्रोजेक्ट का उल्लेख किया है, जिसके माध्यम से पाठ्यक्रम के कई विषयों की शिक्षा दी जाती है। इस प्रोजेक्ट के अनुसार चौथी कक्षा के विद्यार्थी अपने दूरवर्ती मित्रों तथा सम्बन्धियों को पार्सल भेजने का निश्चय करते हैं और उससे सम्बन्धित योजना तैयार करते हैं। इस पार्सल को डाक द्वारा भेजने के कार्य में बालक पाठ्यक्रम के विभिन्न विषयों का ज्ञान निम्नलिखित तरीकों से प्राप्त करते हैं|

1. वार्तालाप- सर्वप्रथम बालक पार्सल को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने के सम्बन्ध में वार्तालाप प्रारम्भ करते हैं। इससे उन्हें डाक सम्बन्धी अनेक स्थानों एवं नियमों का ज्ञान हो जाता है। इसके साथ-ही-साथ उनकी बोलने, सोचने तथा तर्क करने की शक्ति का विकास होता है।

2. इतिहास- इतिहास के घण्टे में बालक भिन्न-भिन्न काल में डाक भेजने के साधनों से परिचय प्राप्त करता है। इससे उन्हें टिकटों के बारे में, विभिन्न देशों व प्रान्तों के निवासियों के बारे में पता चल जाता है।

3.हस्त-कार्य- हस्त-कार्य के घण्टे में बालक स्वयं पार्सल बनाकर उस पर कागज लपेटते हैं। इससे उन्हें कागज के मोड़ने, काटने तथा प्रयोग करने की विधियों का ज्ञान हो जाता है। इसके साथ-ही-साथ उन्हें कागज बनाने का तरीका भी पता चल जाता है। वे जान जाते हैं कि पार्सल को लपेटने के लिए किस प्रकार के कागज को प्रयोग करना चाहिए

4. भाषा-भाषा के घण्टे में बालक पार्सलों पर अपने मित्रों का पता लिखते हैं। इसके पश्चात् वे अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों को पत्र लिखते हैं। इस प्रकार वे लिखने तथा पत्र-व्यवहार करने की योग्यता का विकास करते हैं। इसके बाद वे यह जानने का प्रयास करते हैं कि पत्र किस प्रकार पोस्ट किए जाते हैं। पत्र भेजने तथा पार्सल भेजने के क्या-क्या नियम हैं और निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचने में कितना समय लगता है। आदि।

5. भूगोल- भूगोल के घण्टे में बालक मानचित्र की सहायता से उन स्थानों की स्थिति के विषय में ज्ञान प्राप्त करते हैं, जहाँ वे पार्सल भेजना चाहते हैं। इससे उन्हें पता चल जाता है कि वह स्थान कितनी दूर है, वहाँ पहुँचने के कौन-से साधन हैं, कौन-कौन सी रेलवे लाइनें जाती हैं और वे किस-किस प्रदेश में से निकलकर निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचती हैं ? उन्हें यह भी ज्ञात हो जाता है कि जिन स्थानों पर रेलवे लाइन का अभाव है, वहाँ पार्सल किस प्रकार से भेजा जाएगा।

6. भ्रमण-इसके बाद बालक शिक्षक के साथ डाकखाने जाते हैं और डाकखाने के विभिन्न कार्यों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। उन्हें यह मालूम हो जाता है कि उन्हें अपने पार्सलों को तोलना है, वजन के हिसाब से टिकट लगाना है और पोस्ट ऑफिस से रजिस्ट्री करानी है।

7. अंकगणित- इसके लिए बालक अपने-अपने पार्सलों को तोलते हैं और उन पर वजन के हिसाब से टिकट लगाते हैं। इससे उन्हें जोड़ना, घटाना, गुणा आदि आ जाता है। इससे उन्हें पता चल जाता है कि पार्सल भेजने में कुल कितना धन व्यय हुआ है। इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि प्रोजेक्ट के माध्यम से बालक भिन्न-भिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। इस प्रकार योजना फ्द्धति बालकों को व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा प्रदान करती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रत

प्रश्न 1 शिक्षा के क्षेत्र में योजना पद्धति की आवश्यकता क्यों अनुभव की गई?
उत्तर:
किलपैट्रिक ने स्वयं योजना पद्धति की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, आधुनिक समय में शिक्षालय और समाज तीव्र एवं विस्तृत रूप में एक-दूसरे से पृथक् हो गए हैं। विचार एवं कार्य-दो क्षेत्रों में स्थान, समय और भेद में असम्बन्धित हो गए हैं। शिक्षालय में जो कुछ भी अध्ययन किया जाता है एवं संसार में जो कुछ हो रहा है, इन दोनों में बहुत ही कम सम्बन्ध पाया जाता है। शिक्षालय के विषयों में बालकों को प्रौढ़ों के साथ सामाजिक क्रियाओं में भाग लेने की कोई अवसर प्राप्त नहीं होता है, इसलिए हम चाहते हैं कि शिक्षा वास्तविक जीवन की गहराई में प्रवेश करे। केवल सामाजिक जीवन में ही नहीं, वरन् उस समस्त जीवन में जिसकी आकांक्षा करते हैं।’

प्रश्न 2.
किलपैट्रिक के अनुसार प्रोजेक्ट के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
किलपैट्रिक ने चार प्रकार के प्रोजेक्टों का उल्लेख किया है

  1. रचनात्मक प्रोजेक्ट- ऐसे प्रोजेक्ट को रचनात्मक प्रोजेक्ट कहते हैं, जिनमें विचार अथवा योजना को बाह्य रूप से स्पष्ट किया जाए; जैसे–नाव बनाना, पत्र लिखना आदि।
  2. समस्यात्मक प्रोजेक्ट- उन प्रोजेक्टों को समस्यात्मक प्रोजेक्ट कहते हैं, जिनमें किसी बौद्धिक कठिनाई या समस्या का समाधान करना हो; जैसे–ताप पाकर द्रव क्यों फैलते हैं ?
  3. रसास्वादन प्रोजेक्ट- ऐसे प्रोजेक्ट, जिनका उद्देश्य सौन्दर्यानुभूति हो, को रसास्वादन प्रोजेक्ट कहते हैं; जैसे-कहानी सुनना, गाना सुनना आदि।
  4. कौशल प्रोजेक्ट- इन प्रोजेक्टों का उद्देश्य किसी कार्य में दक्षता अथवा उसका विशेष ज्ञान प्राप्त करना होता है; जैसे—किसी चक्र को चलाना अथवा उसके चलाने का ज्ञान प्राप्त करना आदि।

प्रश्न 3.
मकमेरी के अनुसार प्रोजेक्ट के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
चार्ल्स ए० मकमेरी ने प्रोजेक्ट के निम्नलिखित विशेष प्रकार बताए हैं|

  1. साहित्य सम्बन्धी प्रोजेक्ट-इसमें साहित्यिक रचनाओं के आधार पर प्रोजेक्ट का निर्माण किया जाता है; जैसे-नाटक, कहानी, कविता आदि।
  2. विज्ञान सम्बन्धी प्रोजेक्ट-इस प्रकार के प्रोजेक्ट में बालकों के सामने विभिन्न प्रकार की अन्वेषण सम्बन्धी योजनाएँ प्रस्तुत की जाती हैं; जैसे-बेतार का तार, वायुयान, टेलीविजन आदि।
  3. ऐतिहासिक तथा जीवनी सम्बन्धी प्रोजेक्ट-इसके द्वारा ऐतिहासिक कथाओं तथा महापुरुषों की रचनाओं को प्रोजेक्ट के रूप में प्रस्तुत किया जाता है; जैसेसिकन्दर का आक्रमण, चन्द्रगुप्त का शासन-प्रबन्ध, अशोक का धर्म प्रचार आदि।
  4. हस्तकौशल सम्बन्धी प्रोजेक्ट-इसमें पुस्तक कला, कृषि, बागवानी, बढ़ईगिरी, दुकानदारी, मुर्गीपालन आदि कुटीर उद्योगों को कार्यान्वित किया जाता है। सिलाई-वस्त्रों की धुलाई, पाक विद्या आदि की भी योजना बनाई जाती है।
  5. औद्योगिक एवं व्यापारिक प्रोजेक्ट-भौगोलिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए ये प्रोजेक्ट बहुत लाभदायक सिद्ध होते हैं। इसमें रेल, पुल-निर्माण, सड़क, नहर आदि की योजना प्रस्तुत की जाती है। प्रकृति सम्बन्धी योजना; जैसे—समुद्र की लहरें, घाटियाँ तथा पहाड़ियाँ आदि भी इसी में आती हैं।

प्रश्न 4.
शिक्षा की प्रोजेक्ट प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं ? सटीक उत्तर लिखिए।
उत्तर:
शिक्षा की प्रोजेक्ट प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं- व्यावहारिकता पर विशेष बल दिया जाना, रोचक पद्धति होना, मनोवैज्ञानिक पद्धति होना, श्रम को समुचित महत्त्व देना, मानसिक विकास पर बल देना, विकास के समान अवसर उपलब्ध कराना, आत्म-विकास के अवसर प्रदान करना, पाठ्य-विषयों की स्वाभाविकता तथा आपसी समन्वय, गृह, पाठशाला एवं समाज के बीच सम्बन्ध होना तथा चरित्र एवं सामाजिक भावना के विकास पर बल देना।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
शिक्षा की योजना अथवा प्रोजेक्ट प्रणाली के प्रवर्तक कौन थे ?
या
प्रोजेक्ट शिक्षण-विधि किसकी देन है ?
उत्तर:
शिक्षा की योजना अथवा प्रोजेक्ट प्रणाली के प्रवर्तक जॉन डीवी के शिष्य अमरीका के शिक्षाशास्त्री किलपैट्रिक थे।

प्रश्न 2.
किलपैट्रिक द्वारा प्रतिपादित शिक्षा की योजना प्रणाली किस सिद्धान्त पर आधारित है?
उत्तर:
किलपैट्रिक, द्वारा प्रतिपादित शिक्षा की योजना प्रणाली जॉन डीवी द्वारा प्रतिपादित प्रयोजनवाद नामक सिद्धान्त पर आधारित है।

प्रश्न 3.
शिक्षा की योजना प्रणाली को प्रारम्भ करने का मुख्य उद्देश्य क्या था ?
उत्तर:
शिक्षा की योजना प्रणाली को प्रारम्भ करने का मुख्य उद्देश्य शिक्षा को यथार्थ जीवन से जोड़ना था।

प्रश्न 4.
“योजना वास्तविक जीवन का एक भाग है जो विद्यालय में प्रयोग किया जाता है। यह 
कथन किसका है ?
उत्तर:
प्रस्तुत कथन बेलार्ड का है।

प्रश्न 5.
“योजना वह सहृदय उद्देश्यपूर्ण कार्य है जो पूर्ण संलग्नता से सामाजिक वातावरण में किया जाए।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
प्रस्तुत कथन किलपैट्रिक का है।

प्रश्न 6.
शिक्षा की योजना पद्धति में सीखने की प्रक्रिया के आधार क्या हैं?
या
प्रोजेक्ट पद्धति का सम्बन्ध किस प्रकार के जीवन से है ?
उक्ट
शिक्षा की योजना पद्धति में सीखने की प्रक्रिया करके सीखने’ (Learning by doing) तथा जीने से सीखने (Learning by living) पर आधारित है।

प्रश्न 7.
शिक्षा की योजना प्रणाली के चार मुख्य सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
उक्ट

  • उद्देश्य या प्रयोजन का सिद्धान्त,
  • क्रियाशीलता का सिद्धान्त,
  • स्वतन्त्रता का सिद्धान्त तथा
  • उपयोगिता का सिद्धान्त।

प्रश्न 8.
शिक्षा की योजना पद्धति के चार मुख्य गुणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • व्यावहारिकता,
  • रोचक एवं मनोवैज्ञानिक पद्धति,
  • पाठ्य-विषयों की स्वाभाविकता तथा
  • गृह, पाठशाला तथा समाज से सम्बन्धित।

प्रश्न 9.
शिक्षा की योजना पद्धति के चार मुख्य दोषों का उल्लेख कीजिए।
उक्त्र

  • खर्चीली पद्धति,
  • प्रोजेक्ट के चुनाव की कठिनाई,
  • उचित परीक्षा प्रणाली का अभाव तथा
  • विषयों के क्रमबद्ध अध्ययन का अभाव।

प्रश्न 10.
शिक्षा की योजना पद्धति के महत्त्व को दर्शाने वाला कोई कथन लिखिए।
उत्तर:
“योजना पद्धति शिक्षा का प्रजातान्त्रिक मार्ग है। यह बच्चों को सहयोग के लिए प्रोत्साहित करती है तथा सामान्य उद्देश्य के लिए विचार करने की प्रेरणा देती है।” -प्रो० भाटिया

प्रश्न 11.
शिक्षा की योजना पद्धति के अन्तर्गत मुख्य रूप से कितने प्रकार के प्रोजेक्ट होते हैं ?
उत्तर:
शिक्षा की योजना पद्धति के अन्तर्गत मुख्य रूप से दो प्रकार के प्रोजेक्ट होते हैं-
(i) व्यक्तिगत प्रोजेक्ट तथा
(i) सामाजिक प्रोजेक्ट।।

प्रश्न 12.
व्यक्तिगत प्रोजेक्ट से क्या आशय है ? उत्तर व्यक्तिगत प्रोजेक्ट उन्हें कहते हैं, जिनमें विद्यार्थी स्वतन्त्र रहकर कार्य करता है। कभी-कभी विद्यार्थी को अलग-अलग योजनाएँ दी जाती हैं जिन्हें वे पूर्ण करते हैं।

प्रश्न 13.
सामाजिक प्रोजेक्ट से क्या आशय है ?
उत्तर:
सामाजिक प्रोजेक्ट उस प्रोजेक्ट को कहते हैं जिनमें सब विद्यार्थी एक ही प्रोजेक्ट पर कार्य करते हैं और एक-दूसरे के सहयोग से उसे पूरा करते हैं।

प्रश्न 14.
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. प्रोजेक्ट प्रणाली को मिस हैलेन पार्कहर्ट ने प्रारम्भ किया था।
  2. प्रोजेक्ट से आशय है निश्चित उद्देश्यपूर्ण कार्य।
  3. किलपैट्रिक कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अध्यापकों के कॉलेज में शिक्षाशास्त्र के प्रोफेसर थे।
  4. योजना प्रणाली के अन्तर्गत बालकों को क्रिया के माध्यम से शिक्षा दी जाती है।
  5. योजना प्रणाली में बच्चों में सामाजिक भावना की पूर्ण अवहेलना की गई है।
  6. योजना प्रणाली के अन्तर्गत बच्चों के व्यक्तित्व पर शिक्षक का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता।

उत्तर:

  1. असत्य,
  2. सत्य,
  3. सत्य,
  4. सत्य,
  5. असत्य,
  6. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1.
प्रोजेक्ट प्रणाली के जन्मदाता हैं
(क) फ्रॉबेल
(ख) जॉन डीवी
(ग) किलपैट्रिक
(घ) पेस्टालॉजी

प्रश्न 2.
प्रोजेक्ट एक समस्याप्रधान कार्यवाही है जिसके अन्तर्गत स्वाभाविक परिस्थितियों में पूर्णता को प्राप्त किया जाता है।” यह कथन किसका है?
(क) किलपैट्रिक का
(ख) जॉन डीवी का
(ग) कमेनियस का।
(घ) स्टीवेन्सन का।

प्रश्न 3.
प्रोजेक्ट प्रणाली का आधार है
(क) आदर्शवाद
(ख) प्रयोजनवाद
(ग) उदारवाद
(घ) प्रयोगवाद

प्रश्न 4.
प्रोजेक्ट प्रणाली का प्रमुख सिद्धान्त है
(क) अनुभव का सिद्धान्त
(ख) प्रयोजन का सिद्धान्त
(ग) उपयोगिता का सिद्धान्त
(घ) प्रयोगशाला का सिद्धान्त

प्रश्न 5.
प्रोजेक्ट प्रणाली की शिक्षण विधि का अन्तिम चरण है
(क) प्रोजेक्ट का चुनाव
(ख) योजना का निर्माण
(ग) मूल्यांकन
(घ) कार्य का लेखा।

प्रश्न 6.
प्रोजेक्ट प्रणाली का प्रमुख दोष है
(क) प्राजक्ट चयन में कठिनाई
(ख) समय का अधिक व्यय
(ग) व्यावहारिकता
(घ) शारीरिक विकास के लिए उपयुक्त

उत्तर:

1. (ग) किलपैट्रिक,
2. (घ) स्टीवेनन का,
3. (ख) प्रयोजनवाद,
4, (ख) प्रयोजन का सिद्धान्त,
5. (घ) कार्य का लेखा,
6. (क) प्रोजेक्ट चयन में कठिनाई। .

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UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 4 Aims of Education in Present Democratic India

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 4 Aims of Education in Present Democratic India (वर्तमान लोकतन्त्रीय भारत में शिक्षा के उद्देश्य) are the part of UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 4 Aims of Education in Present Democratic India (वर्तमान लोकतन्त्रीय भारत में शिक्षा के उद्देश्य).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 4
Chapter Name Aims of Education in Present Democratic India
(वर्तमान लोकतन्त्रीय भारत में शिक्षा के उद्देश्य)
Number of Questions Solved 26
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 4 Aims of Education in Present Democratic India (वर्तमान लोकतन्त्रीय भारत में शिक्षा के उद्देश्य)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.

शिक्षा के उद्देश्यों के निर्धारण के दृष्टिकोण से अपने देश की वर्तमान परिस्थितियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
शिक्षा अपने आप में एक व्यापक प्रक्रिया है। इसके अनेक उद्देश्य महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं। इसके उद्देश्य सापेक्ष होते हैं। इसके उद्देश्यों के निर्धारण के लिए सम्बन्धित देशकाल की समस्त परिस्थितियों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। वास्तव में भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में शिक्षा के भिन्न-भिन्न उद्देश्यों को प्राथमिकता प्रदान की जाती है।

आधुनिक भारत संक्रमण काल से होकर गुजर रहा है। एक तरफ जहाँ भारतीय समाज की पुरानी मान्यताएँ, सिद्धान्त तथा आदर्श मूल्यहीन होकर पतन की ओर बढ़ रहे हैं, वहाँ दूसरी तरफ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकसित होते नवीन दृष्टिकोण अभी पूर्णतः स्वीकृत नहीं हो पाए हैं। अत: स्थिति उलझन एवं निराशा भरी और विचित्र है। देश के धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षिक आदि सभी क्षेत्रों में भीषण समस्याओं ने जन्म ले लिया है। शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित करने के लिए देश की निम्नलिखित परिस्थितियों को ध्यान में रखना आवश्यक है

1. धार्मिक दिशाहीनता- पारम्परिक रूप से भारत प्रारम्भ से ही एक धर्म-प्रधान देश रहा है, किन्तु वर्तमान में धर्म अपना वास्तविक | धार्मिक दिशाहीनता स्वरूप खो चुका है। आजकल धर्म के नाम पर मजहबी झगड़े और चारित्रिक एवं नैतिक पतन साम्प्रदायिक उन्माद ही दिखाई पड़ते हैं। स्वार्थी एवं दिशाहीन धार्मिक, सामाजिक विकृतियाँ एवं नेतृत्व ने समूचे भारत को साम्प्रदायिक विद्वेष की आग में झोंक दिया विखण्डन

2. चारित्रिक एवं नैतिक पतन- देश में चारों ओर छल, फरेब, बेरोजगारी तथा निर्धनता जालसाजी, घूसखोरी तथा भ्रष्टाचार फैला हुआ है। व्यक्ति का आर्थिक विषमताओं के कुप्रभाव चारित्रिक एवं नैतिक पतन समूचे समाज के पतन का कारण बनता जा राजनीतिक नेतृत्वहीनता रहा है। देश के नागरिकों के चरित्र एवं नैतिकता में निरन्तर पतन से 9 सांस्कृतिक विघटन राष्ट्रीय चरित्र का भारी अवमूल्यन हुआ है।

3. सामाजिक विकृतियाँ एवं विखण्डन- अशिक्षा एवं अज्ञानता पड़ोसी देशों से खतरा के कारण आज भी भारतीय समाज में नाना प्रकार की सामाजिक कुप्रथाएँ, रूढ़ियाँ तथा विकृतियाँ व्याप्त हैं। अन्धविश्वास, नारी उत्पीड़न, दहेज-प्रथा, मद्यपान, जूआखोरी जैसे दोषों ने समाज को रोगी बना दिया है। जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद एवं प्रान्तवाद की संकीर्ण विचारधाराओं ने राष्ट्र की एकता और अखण्डता को गम्भीर चुनौती दी है। यदि ये सामाजिक दोष एवं विखण्डनकारी प्रवृत्तियाँ इसी प्रकार बढ़ती रहीं तो एक दिन देश टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा।

4. भौतिकवादी मनोवृत्ति- पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति के बढ़ते हुए प्रभाव ने भारतीयों के आध्यात्मिक मूल्यों तथा आदर्शों पर गहरी चोट की है। लगता है कि जैसे धर्म का आदि-स्रोत सूखकर शनैः-शनै: भौतिकवाद के रेगिस्तान में बदल रहा है। अधिक-से-अधिक भौतिक सुख और समृद्धि पाने की लालसा में लोग प्राचीन भारतीय संस्कृति को भुला बैठे हैं। भौतिकता की अन्धी दौड़ में जीवन का चरम लक्ष्य उपेक्षित हो रहा है।

5. बेरोजगारी तथा निर्धनता- विभिन्न कारणों से हमारे देश में दिन-प्रतिदिन बेरोजगारी की समस्या बढ़ रही है। शिक्षित तथा अशिक्षित दोनों ही प्रकार के बेरोजगारों की संख्या बढ़ रही है। बेरोजगारी से समाज में असन्तोष तथा आर्थिक संकट की स्थिति उत्पन्न हो रही है। इसके साथ-ही-साथ समाज के एक बड़े वर्ग में निर्धनता की स्थिति उत्पन्न हो रही है। निर्धनता अपने आप में एक अभिशाप है।।

6. आर्थिक विषमताओं के कुप्रभाव- देश की अर्थव्यवस्था अभूतपूर्व संकट की स्थिति में है। देश के कन्धे विदेशी ऋणों के भार से दबे जा रहे हैं। निर्धनता के दुष्चक्र में फंसे देशवासियों का शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ रहा है। देश के लगभग 60% से अधिक लोग ‘निर्धनता की रेखा से नीचे जीवन बिताने पर मजबूर हैं। शिक्षित एवं अशिक्षित दोनों ही तरह की निरन्तर बढ़ती हुई बेरोजगारी ने युवाओं में विद्रोह को जन्म दिया है, जिसके परिणामस्वरूप आतंकवाद, लूटमार, हत्या तथा डकैती की घटनाएँ बढ़ रही हैं।

7. राजनीतिक नेतृत्वहीनता-वर्तमान समय में राजनीति भ्रष्टाचार एवं स्वार्थ की नीति का पर्याय बन चुकी है। जनकल्याण की भावना से प्रेरित राजनैतिक नेतृत्व शून्यप्रायः है। पदलोलुप नेता वोट बटोरने की खातिर संकीर्ण विचारधारा पर आधारित मनोभावों को भड़काकर जनता को आपस में लड़ा रहे हैं। राज्य और केन्द्र की अस्थिर सरकारों ने देश के सामने आन्तरिक तथा बाहरी, दोनों ही प्रकार की असुरक्षा का संकट उत्पन्न कर दिया है।

8. सांस्कृतिक विघटन- भारत की विश्वप्रसिद्ध सांस्कृतिक धरोहर आज क्रमशः विघटन की ओर है। आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी जगत् के अनमेल संस्कार भारतीयों के दिल-दिमाग पर हावी हो गए हैं, जिससे उनका नैतिक-चरित्र तथा आचरण गिरा है। इस सांस्कृतिक विघटन के कारण मनुष्य-मात्र मानवीय गुणों से हीन होता जा रहा है।

9. शिक्षा की शोचनीय दशा- वर्तमान शिक्षा-प्रणाली की विकृतियों ने उसके सभी अंगों; जैसे—शिक्षक, शिक्षार्थी, पाठ्यक्रम, शिंक्षण-नीति तथा मूल्यांकन-पद्धति को दोषों से भर दिया है। यही कारण है कि आज शैक्षिक प्रक्रिया का उत्पादन. (अर्थात् शिक्षार्थी) वांछित गुणों से युक्त नहीं है और शिक्षा की सम्पूर्ण व्यवस्था में परिवर्तन की माँग उठ रही है।

10. पड़ोसी देशों से खतरा- हमारे देश को अपने पड़ोसी देशों से भी समय-समय पर खतरा बना रहता है। इस कारण हमें अपने सैन्य बल को निरन्तर बढ़ाना पड़ रहा है।

प्रश्न 2.
वर्तमान भारतीय परिस्थितियों में व्यक्ति के दृष्टिकोण से शिक्षा के मुख्य उद्देश्य क्या निर्धारित किए जा सकते हैं ? ‘
या
हमारे देश की वर्तमान व्यवस्था के सन्दर्भ में शिक्षा के उद्देश्य क्या होने चाहिए ?
या
वर्तमान भारत में माध्यमिक शिक्षा के क्या उद्देश्य होने चाहिए ? सविस्तार व्याख्या कीजिए।
या
भारत की वर्तमान सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर आप शिक्षा के किन उद्देश्यों का निर्धारण करेंगे ?
या
आधुनिक लोकतन्त्रीय भारत में शिक्षा के क्या उद्देश्य होने चाहिए ?
या
भारत में उभरते हुए लोकतन्त्र में शिक्षा के क्या उद्देश्य होने चाहिए?
या
भारत की वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार शिक्षा के क्या उद्देश्य होने चाहिए। इनकी विस्तृत विवेचना कीजिए।
या
भारत के वर्तमान सन्दर्भ में शिक्षा के विभिन्न उद्देश्यों का वर्णन कीजिए। कौन-से उद्देश्य व्यक्तिगत विकास में सहायक हैं ?
उत्तर:
वर्तमान लोकतान्त्रिक भारत की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों के अन्तर्गत भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों का अध्ययन दो आधारों पर किया जा सकता है
(अ) व्यक्ति की दृष्टि से शिक्षा के उद्देश्य तथा
(ब) समाज की दृष्टि से शिक्षा के उद्देश्य।

व्यक्ति की दृष्टि से शिक्षा के उद्देश्य
(Aims of Education According to Man)

व्यक्ति से सम्बन्ध रखने वाले शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित हो सकते हैं—

1.शारीरिक विकास- लोकतन्त्र में नागरिकों के शारीरिक विकास एवं स्वास्थ्य की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। स्वस्थ शरीर ही स्वस्थ मस्तिष्क का सूचक है। स्वस्थ व्यक्ति ही परिश्रम के साथ उत्तम कार्य करने की क्षमता रखता है, वही व्यवसाय में सफल हो सकता है जो मानव-मात्र और राष्ट्र की सेवा कर सकता है। यही कारण है कि लोकतन्त्र में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य । व्यक्ति की दृष्टि से शिक्षा। बालकों के शरीर का विकास करना होना चाहिए। विश्वविद्यालय के उद्देश्य शिक्षा आयोग, माध्यमिक शिक्षा आयोग तथा अनेक शिक्षाशास्त्रियों ने । इस उद्देश्य पर बल दिया है। जवाहरलाल नेहरू के अनुसार, “मेरा विचार है कि जब तक हमारा शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा नहीं होगा, तब।  तक हम वास्तव में अधिक मानसिक प्रगति नहीं कर सकते।”चारोत्रक विकास

2. मानसिक विकास- लोकतन्त्र के आदर्श नागरिकों में वकास शारीरिक बल से भी अधिक मानसिक शक्तियों का विकास आवश्यक का विकास समझा जाता है। दुर्भाग्यवश हमारा देश सदियों तक कई विदेशी ताकतों . का गुलाम रहा, जिसके परिणामस्वरूप भारतीयों में स्वतन्त्र चिन्तने, व्यावसायिक कुशलता की उन्नति तर्क एवं आत्मनिर्णय आदि की मानसिक शक्तियाँ क्षीण पड़ गयीं। वर्तमान में इन शक्तियों को विकसित करने की सर्वाधिक आवश्यकता है। अत: हमारी शिक्षा का पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जिसके माध्यम से बालकों के मस्तिष्क व्यापक बनें और उनमें विभिन्न मानसिक शक्तियाँ विकसित हो सकें। प्रसिद्ध विचारक हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार, “मस्तिष्क ही व्यक्ति को अच्छा या बुरा, दुःखी या सुखी, धनी और निर्धन बनाता है।”

3.आध्यात्मिक विकास- महर्षि अरविन्द ने लिखा है, “हम में से हर एक कुछ दैवीय है, कुछ अपना स्वयं का है जो हमें पूर्णता और शक्ति प्राप्त करने का अवसर देता है। हमारा कार्य है इसकी खोज करना, इसे विकसित करना और इसका प्रयोग करना। शिक्षा का उद्देश्य विकसित होने वाली आत्मा को सर्वोत्तम प्रकार से विकास करने में मदद देना तथा श्रेष्ठ कार्य के लिए पूर्ण बनाना, होना चाहिए।” यह सच है कि पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध और लौकिकता के उन्माद में हम भारतीय अध्यात्म के महान् आदर्श को भूल चुके हैं। शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण कार्य आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति, इसके विकास तथा प्रयोग की क्षमता देना है। अतः बालक में आध्यात्मिक गुणों का विकास करना शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए।

4. चारित्रिक विकास-कि सी लोकतन्त्र की उन्नति उसके नागरिकों के आदर्श चरित्र पर निर्भर करती है। आजकल भारतीय जनों के आचार-विचार तथा कर्तव्यों एवं दायित्वों के प्रति उदासीनता का भाव, प्रपंच, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार तथा देशद्रोह जैसी प्रवृत्तियाँ समा गई हैं। इसका परिणाम यह है कि वैयक्तिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर चरित्र का पतन हुआ है। अत: भारतीय शिक्षा प्रणाली में बालकों के चारित्रिक विकास पर सर्वाधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। शिक्षा का उद्देश्य श्रेष्ठ चरित्र का निर्माण होना चाहिए। जैसा कि डॉ० जाकिर हुसैन का विचार है, “हमारे शिक्षा-कार्य का पुनर्संगठन और व्यक्तियों का नैतिक पुनरुत्थान एक-दूसरे में अविच्छिन्न रूप से गुंथे हुए हैं।”

5. व्यक्तित्व का विकास-भारत जैसी लोकतान्त्रिक शासन-पद्धति के अन्तर्गत शिक्षा का एक अपरिहार्य उद्देश्य बालक के व्यक्तित्व का विकास करना है। बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करने के लिए उसकी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, चारित्रिक, रचनात्मक तथा कलात्मक आदि सभी शक्तियों का समुचित प्रयोग किया जाना चाहिए। यह भी आवश्यक है कि शिक्षा बालक की मनोवैज्ञानिक, भावात्मक, सामाजिक तथा व्यावहारिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे और उसमें अच्छी रुचियों का निर्माण करे। यह तभी सम्भव है जब शिक्षा के पाठ्यक्रम को इस प्रकार सुगठित किया जाए जिससे कि शिक्षार्थियों में साहित्य, कला, ” हस्तकौशल, नृत्य तथा संगीत आदि के प्रति अनुराग उत्पन्न हो सके।

6. वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास- आधुनिक युग में विज्ञान एवं तकनीक का विकास किसी भी अर्थव्यवस्था की उन्नति का मूलतन्त्र है। विश्व का हर कोई फ्रगतिशील देश विज्ञान का सहारा लेकर ही आगे बढ़ रहा है। अतः शिक्षा का उद्देश्य शिक्षार्थियों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा अभिवृत्तियों का विकास करना होना चाहिए। नि:सन्देह तर्क पर आधारित विज्ञान की शिक्षा ही भारतीयों को अन्धविश्वासों, आधारहीन मान्यताओं, कूप-मण्डूकता तथा रुग्ण विचारों से मुक्ति दिला सकती है। स्वामी विवेकानन्द का कथन है-“हमारे लिए पश्चिमी विज्ञान का अध्ययन आवश्यक है। हमें तकनीकी शिक्षा की आवश्यकता है, जिससे हमारे देश के उद्योगों का विकास होगा।’

7. व्यावसायिक कुशलता की उन्नति- बालकों की व्यावसायिक कुशलता में उन्नति लाना लोकतान्त्रिक देश की शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। शिक्षार्थियों को व्यावसायिक शिक्षा के सैद्धान्तिक तथा क्रियात्मक दोनों ही पक्षों का पर्याप्त ज्ञान सुलभ कराया जाए। शिक्षा के दौरान ही वे इस तथ्य को अच्छी प्रकार समझ लें कि उनके देश की उन्नति सिर्फ कार्य द्वारा सम्भव है तथा शिक्षा की समाप्ति के बाद जब वे किसी व्यवसाय में लगें तो उसे कुशलता के साथ पूर्ण करने का प्रयत्न करें। अतः शिक्षा को छात्रों की व्यावसायिक कुशलता की उन्नति पर भी ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। भारत की वर्तमान आर्थिक परिस्थितियों में शिक्षा के व्यावसायिक कुशलता सम्बन्धी उद्देश्य का विशेष महत्त्व है।

8. जीवन-यापन की कला का विकास- भारतीय शिक्षा का यह उद्देश्य होना चाहिए कि वह बालकों को समाज में जीवन-यापन की कला में दीक्षित करे। सर्वमान्य रूप से मनुष्य अकेला रहकर जीवन का सुख नहीं पा सकता। अपने सर्वांगीण विकास तथा समाज के हित के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति दूसरे लोगों के साथ रहने तथा उन्हें सहयोग देने का महत्त्व समझे। बालक को जीवन-यापन का प्रशिक्षण देने सम्बन्धी शिक्षा के उद्देश्य के बारे में डॉ० राधाकृष्णन ने लिखा है, “हमें युवकों को यथासम्भव सर्वोत्तम प्रकार के सर्व कार्यकुशल, व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए। उन्हें शिष्टाचार और सम्मान के अलिखित नियमों को अपनी इच्छा से मानना एवं सीखना चाहिए।”

9. अवकाश का सदुपयोग- लोकतन्त्रीय शिक्षा-प्रणाली को एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह भी होना चाहिए कि वह हमें समय का सदुपयोग करना सिखाए। सम्भवतः हम भारतीय लोग समय का जितना दुरुपयोग करते हैं, उतना दुनिया के किसी भी देश के लोग नहीं करते। अवकाश काल में अनर्गल बातें करना, उद्देश्यहीन इधर-उधर घूमना, दूसरों के अहित की कामना करना या फिर क्षुद्र राजनीति का शिकार होना–ऐसी बातों से मनुष्य का कल्याण नहीं हो सकता। अवकाश के समय में भी व्यक्ति को किसी-न-किसी सत्कर्म में रत रहना चाहिए। नैपोलियन के इन शब्दों ने फ्रांस के छात्रों को प्रेरणा से भर दिया था, “अपने अवसरों से लाभ उठाओ, प्रत्येक घण्टा जो तुम अब तक नष्ट कर चुके हो वह तुम्हारे भावी दुर्भाग्य को मौका देता है। अतः अवकाश का उचित उपयोग सिखाना शिक्षा का परम कर्तव्य है।

10. सांस्कृतिक विकास- भारत देश की संस्कृति ने सदैव ही विश्व में इस धरती का मस्तक ऊँचा किया है। संस्कृति की सामंजस्य एवं समन्वयवादी विशेषता के कारण अगणित झंझावातों से निकलकर आज भी भारतीय समाज अखण्ड एवं अक्षुण्ण बना है, किन्तु दुर्भाग्यवश पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण भारतवासी अपनी बहुमूल्य संस्कृति को हीन समझने लगे हैं। परिणामतः भारतीय समाज की सांस्कृतिक स्थिति डगमगा गई है। स्पष्टतः वर्तमान भारत में सांस्कृतिक पुनरुत्थान की दृष्टि से शिक्षा में सांस्कृतिक विकास के उद्देश्य को उच्च एवं सम्मानयुक्त स्थान देना होगा। प्रश्न 3 वर्तमान भारतीय परिस्थितियों में समाज के दृष्टिकोण से शिक्षा के मुख्य उद्देश्य क्या निर्धारित किए जा सकते हैं ?

समाज के दृष्टिकोण से शिक्षा के उद्देश्य
(Aims of Education According to Society)

वर्तमान भारत का धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वातावरण विभिन्न प्रकार की कुप्रवृत्तियों, शोषण एवं उत्पीड़न के कारण विषाक्त है। यदि हमें एक सुन्दर समाज की स्थापना करनी है, तो आवश्यक रूप से शिक्षा के ढाँचे में आमूल परिवर्तन करना होगा। इसके लिए शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य निश्चित । किए जा सकते हैं।

1. लोकतान्त्रिक नागरिकता का विकास- विश्व का प्रत्येक लोकतन्त्र अपने नागरिकों की श्रेष्ठता पर निर्भर करता है। अतः लोकतन्त्र में हर एक व्यक्ति को उत्तम नागरिकता के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। उत्तम नागरिकता के लिए आवश्यक मानसिक, सामाजिक और नैतिक गुण व्यक्ति में तभी विकसित होते हैं, जब–

  • वह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं समाज के दृष्टिकोण से शिक्षा के का समाधान स्वतन्त्रतापूर्वक खोज सके,
  • अपने कार्य की विधि को स्वयं निश्चित कर सके और
  • उसमें स्पष्ट रूप से विचार व्यक्त करने की क्षमता हो। अत: अच्छे नागरिक को मानसिक

दृष्टि से स्वस्थ, योग्यता से युक्त, तर्कशील, विवेकपूर्ण तथा स्पष्ट  वक्ता होना चाहिए। इन समस्त विशेषताओं वाला नागरिक ही  अन्त शोषण एवं कुरीतियों का साहसपूर्वक विरोध करता हुआ का विकास सामाजिक दोषों को दूर करने में सफल हो सकता है। लोकतन्त्र जन-शिक्षा की व्यवस्था को सफल बनाने के लिए नागरिकों में लेखन और भाषण की स्पष्टता का होना भी अनिवार्य है, क्योंकि स्वतन्त्र विचार-विनिमय एवं वाद-विवाद ही लोकतन्त्र के वास्तविक भावात्मक एकता आधार हैं। उत्तम नागरिकता के लिए अपरिहार्य तथा उपर्युक्त सभी नि:स्वार्थ कार्य की भावना का विकास गुण व्यक्ति में स्वयं ही नहीं आ जाते, अपितु इन्हें शिक्षा द्वारा अन्तर-सांस्कृतिक भावना का विकास उत्पन्न किया जाता है। अत: लोकतन्त्रीय नागरिकता का विकास  शिक्षा का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है।

2.समाजवादी समाज की स्थापना- स्वतन्त्र भारत एक सुन्दर “समाजवादी समाज की स्थापना का स्वप्ने मन में सँजोए हुए है। इस अनोखी समाज-व्यवस्था में–

  • प्रत्येक व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक वे आर्थिक सुरक्षा प्रदान की जाएगी,
  • सभी को स्वस्थ जीवन व्यतीत करने के समान अवसर प्रदान किए जाएँगे तथा
  • जीवन के किसी भी क्षेत्र में असमानता की भावना न होगी।

स्पष्टत: यह भारतीय समाज का नवीन दिशा में रूप परिवर्तन होगा और यह परिवर्तन सिर्फ शिक्षा के माध्यम से ही लाना सम्भव है। इसीलिए शिक्षा का यह उद्देश्य होना चाहिए कि वह बालकों में नई सामाजिक व्यवस्था के प्रति प्रेम एवं सद्भाव पैदा करे तथा भारतीय समाज के प्रत्येक सदस्य को समाजवादी समाज के सिद्धान्तों की ओर ले जाए। नेहरू जी का विचार था, “मैं समाजवादी राज्य में विश्वास करता हूँ और चाहता हूँ कि शिक्षा का इस उद्देश्य की तरफ विकास किया जाए।

3. सामाजिक कुप्रथाओं का अन्त- आधुनिक भारतीय समाज में अनेक प्रकार की सामाजिक कुप्रथाएँ व्याप्त हैं, जिनमें जाति-प्रथा, परदा-प्रथा, बाल-विवाह, विधवा-पुनर्विवाह निषेध तथा अस्पृश्यता आदि प्रमुख हैं। सुन्दर समाज की स्थापना तथा सामाजिक प्रगति के विचार से उचित शिक्षा द्वारा सभी कुप्रथाओं का अन्त करना होगा। इस सम्बन्ध में नेहरू जी का यह कथन उल्लेखनीय है, “मैं चाहता हूँ कि धर्म या जाति, भाषा या प्रान्त के नाम में जो संकीर्ण संघर्ष आजकल चल रहे हैं, वे समाप्त हो जाएँ और वर्गविहीन तथा जातिविहीन समाज का निर्माण हो जिसमें हर एक व्यक्ति को अपने गुण और योग्यता के अनुसार उन्नति करने का पूरा अवसर मिले। निष्कर्षत: भारतीय शिक्षा का उद्देश्य प्रचलित सामाजिक कुप्रथाओं का अन्त करना होना चाहिए।’

4. सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना का विकास- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे अपनी अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज के अन्य व्यक्तियों पर निर्भर रहना पड़ता है। वस्तुत: व्यक्ति की शारीरिक, बौद्धिक तथा आत्मिक आवश्यकताओं को समाज के दूसरे सदस्य ही पूरा करते हैं। इस प्रकार से समाज के प्रत्येक व्यक्ति के कन्धे पर अनेक सामाजिक उत्तरदायित्व आ जाते हैं। इस दृष्टि से यह आवश्यक हो जाता है कि व्यक्ति सभी के साथ मिलकर समाज के जीवन को भौतिक एवं नैतिक रूप से उत्तम बनाने का दायित्व ले। लोगों में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना का विकास करने का कार्य शिक्षा ही करती है। डॉ० जाकिर हुसैन लिखते हैं, “सामुदायिक उत्तरदायित्व की शिक्षा देने के लिए स्वयं शिक्षा संस्थाओं को सामुदायिक जीवन की इकाइयों के रूप में संगठित किया जाना चाहिए।’

5. जन-शिक्षा की व्यवस्था—भारतीय समाज की निर्धनता, पिछड़ेपन, बदहाली, संकीर्ण मनोवृत्ति तथा अवनति का मूल कारण राष्ट्रव्यापी निरक्षरता है। लोकतान्त्रिक शासन-पद्धति में शिक्षित नागरिक ही देश की उन्नति कर सकते हैं, लेकिन देश के बहुसंख्यक लोग अशिक्षित हैं। अत: देश में जन-शिक्षा की प्रभावपूर्ण एवं श्रेष्ठ व्यवस्था की जानी चाहिए। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, “मेरे विचार से जनता की अवहेलना महान् राष्ट्रीय पाप है। कोई भी राजनीति उस समय तक सफल नहीं होगी, जब तक कि भारत की जनता एक बार पुनः अच्छी तरह शिक्षित न हो जाएगी।

6. नेतृत्व के गुणों का विकास- माध्यमिक शिक्षा आयोग की दृष्टि में-“लोकतान्त्रिक भारत में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य व्यक्तियों में नेतृत्व के गुणों का विकास करना है।” लोकतन्त्र का कार्य सबसे बुद्धिमान् निर्वाचित नागरिकों के नेतृत्व में सबकी प्रगति करना है। यदि बालकों को उचित शिक्षा द्वारा जीवन के विभिन्न क्षेत्रों; जैसे-धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, औद्योगिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक–में आवश्यक प्रशिक्षण नहीं दिया जाएगा तो वे भारत के भावी समाज को नेतृत्व न दे सकेंगे। निश्चय ही, शिक्षा का एक विशिष्ट उद्देश्य शिक्षार्थियों में नेतृत्व के गुणों का विकास करना है।

7.भावात्मक एकता- भावात्मक एकता से अभिप्राय देश के विभिन्न क्षेत्रों के व्यक्तियों को भावात्मक रूप से एक रखने से है।  जीवन के कुछ ऐसे मूल्य होते हैं जिन्हें ‘राष्ट्र के रूप में सामान्य समझा जाता है। भावात्मक एकता ऐसे ही मूल्यों की भावात्मक चेतना और उन सब मूल्यों के प्रति भावनाओं के विकास का नाम है। वर्तमान भारत में जो सांस्कृतिक संघर्ष चल रहे हैं उन्हें कम करने में भावात्मक एकता सशक्त भूमिका निभा सकती है। भावात्मक एकता प्राप्त करने के लिए भारत के लोगों को समान रूप में सोचने-समझने, कार्य करने, समान जीवन के ढंग स्वीकार करने, विभिन्न धर्मों में समान आधार खोजने, समान सार्वजनिक परम्पराओं को अपनाने तथा समान भाषा को स्वीकार करने के लिए प्रशिक्षित करना होगा। इस दिशा में शिक्षा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकती है। सर्वमान्य रूप से लोकतान्त्रिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य देश के बालकों को भावात्मक एकता की प्राप्ति के लिए प्रचेष्ट करना है।

8. निःस्वार्थ कार्य की भावना का विकास- भौतिकवादी पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति के प्रभाव ने नि:स्वार्थ त्याग के प्रतीक महर्षि दधीचि के देश भारत को स्वार्थपरता की भावनाओं से भर दिया है। हर कोई स्वार्थसिद्धि की आशा लेकर ही कार्य करता है। जिनसे स्वार्थ पूरा होने की आशा नहीं होती, उनसे बात तक नहीं की जाती और मतलब निकल जाने पर फिर कोई सम्बन्ध भी रखना नहीं चाहता। स्वार्थपरता की प्रबल भावना लोगों के मस्तिष्क में दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है, लेकिन ऐसी भावना मानवीय मूल्यों के एकदम विरुद्ध है। अतः शिक्षा के माध्यम से देशवासियों में नि:स्वार्थ भाव से कार्य करने की भावना का विकास करने की आवश्यकता है। जैसा कि डॉ० राधाकृष्णन ने लिखा है, “भारतमाता आपसे आशा करती है कि आपका जीवन शुद्ध, श्रेष्ठ और नि:स्वार्थ कार्य के लिए अर्पित हो।”

9. अन्तर-सांस्कृतिक भावना का विकास- हमारे देश में अनादिकाल में विभिन्न सांस्कृतिक धाराएँ प्रवाहित होती रही हैं। दूसरे शब्दों में, भारतीय संस्कृति अनेक संस्कृतियों का सुन्दर समाहार है। हमारी संस्कृति की इसी विशेषता ने उसे विश्व की अन्य संस्कृतियों से पृथक् एवं विशिष्ट बना दिया है। प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य है कि वह विश्व के अन्य देशों की संस्कृतियों को समझे और उन्हें उचित सम्मान दे। इस कार्य में शिक्षा को सबसे अधिक योगदान करना होगा। उदाहरण के लिए–(i) शैक्षिक पाठ्यक्रम के अन्तर्गत बालकों को देश के विभिन्न भागों तथा विश्व की विविध संस्कृतियों का ज्ञान दिया जाए, (ii) विश्व इतिहास के अध्ययन पर जोर दिया जाए, (iii) देश के विश्वविद्यालय समय-समय पर सांस्कृतिक संगोष्ठियों का आयोजन करें, (iv) सभी राज्यों के शिक्षक परस्पर ज्ञान का विनिमय करें तथा (v) विश्व के सांस्कृतिक-मण्डलों, नृत्यकारों, लेखकों, संगीतज्ञों तथा कलाकारों के बीच ज्ञान एवं कलाओं के आदान-प्रदान की सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ।।

10. विश्व-बन्धुत्व की भावना- आधुनिक युग विश्व-बन्धुत्व की ओर बढ़ रहा है। ज्ञान, विज्ञान एवं तकनीकी की उन्नति ने समूचे भूमण्डल को एक इकाई का रूप दे दिया है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में,  संसार से अलग रहकरे भारत समय के साथ कदम नहीं मिला सकेगा; अत: अन्तर्राष्ट्रीय ज्ञान एवं सद्भावना का विकास प्रगति का वास्तविक मानदण्ड बन गया है। पण्डित नेहरू के शब्दों में, “प्राचीन संसार बदल गया है और प्राचीन बाधाएँ समाप्त होती जा रही हैं। जीवन अधिक अन्तर्राष्ट्रीय होता जा रहा है। हमें आने वाली अन्तर्राष्ट्रीयता में अपनी भूमिका अदा करनी है। इस कार्य के लिए, संसार से सम्पर्क आवश्यक है। अतएव यह कार्य शिक्षा द्वारा प्रभावशाली ढंग से किया जाना चाहिए।’

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वर्तमान भारतीय सन्दर्भ में शैक्षिक आवश्यकताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

शैक्षिक आवश्यकताएँ
(Educational Needs)

माध्यमिक शिक्षा आयोग ने भारत में समाजवादी समाज की स्थापना के लिए देश की शैक्षिक आवश्यकताओं को इस प्रकार बताया है

1. बहुआयामी समस्याओं का समाधान- आज भारत धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षिक आदि गम्भीर बहुआयामी समस्याओं के साथ जूझ रहा है। शिक्षाशास्त्रियों के अनुसार इनमें से अधिकांश समस्याओं का समाधान उपयुक्त शिक्षा द्वारा ही सम्भव है।

2. नैतिक-चरित्र एवं सदगुणों का विकास- चरित्रवान्, नैतिक तथा मानवीय गुणों से युक्त नागरिक बनना किसी लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की पहली आवश्यकता है। श्रेष्ठ नागरिक ही स्वस्थ वे प्रगतिशील विचार रखते हैं। वे अपने अधिकार व उत्तरदायित्वों के प्रति भी सजग होते हैं। अत: उत्कृष्ट शिक्षा के माध्यम से नागरिकों में उत्तम चरित्र, आदतों, अभिरुचियों तथा नैतिक गुणों का विकास किया जाना चाहिए।

3. आर्थिक समृद्धि- भारत प्राकृतिक साधनों से सम्पन्न, किन्तु एक निर्धन अर्थव्यवस्था वाला देश है, जिसकी अधिकांश जनता दरिद्र है। वर्तमान समय में देश के आर्थिक, तकनीकी व औद्योगिक विकास द्वारा सर्वप्रथम, निर्धनता तथा बेरोजगारी की समस्या का समाधान आवश्यक है। शिक्षा द्वारा देशवासियों की उत्पादन-शक्ति में वृद्धि कर राष्ट्रीय आय बढ़ाई जानी चाहिए, ताकि लोगों के रहन-सहन का स्तर ऊँचा हो सके। स्पष्टतः आर्थिक समृद्धि का विचार उचित शिक्षा के साथ जुड़ा है।

4. सांस्कृतिक पुनरुत्थान- भारत की अधिकांश जनता रोजी-रोटी की समस्या में इस तरह उलझी हुई है कि उसके पास सांस्कृतिक कार्यों की ओर ध्यान देने का समय ही नहीं है। देश में सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए वर्तमान शिक्षा पद्धति में वांछित एवं आवश्यक सुधार किए जाने चाहिए। प्रश्न 2 “हमारे देश में शिक्षा को बहु-उद्देशीय होना चाहिए।” इस विषय में आपके क्या विचार हैं? ट

भारतीय शिक्षा को बहुउद्देशीय होना चाहिए
(Indian Educations should be Multi-Aimed)

किसी भी देश की शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण उस देश की विभिन्न परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही किया जाता है। हमारे देश की वर्तमान परिस्थितियाँ अत्यधिक जटिल तथा कुछ विशेष प्रकार की हैं। इन परिस्थितियों में यदि शिक्षा के किसी एक या दो उद्देश्यों को ही प्राथमिकता दी जाए तो शिक्षा अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकती। इस स्थिति में हम कह सकते हैं कि हमारे देश में शिक्षा को बहु-उद्देशीय होना चाहिए। इसी तथ्य को डॉ० सुबोध अदावल ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “भारतीय व्यक्ति तथा समाज के सर्वांगीण विकास के निमित्त शिक्षा में विभिन्न उद्देश्यों का महत्त्व समान रूप से है। हमारी शिक्षा एक सीमित उद्देश्य को लेकर व्यक्ति तथा राष्ट्र की सब समस्याओं को नहीं सुलझा सकती। हमारा जीवन जितना विविध दिशाओं में उन्मुख और व्यापक है, शिक्षा का उद्देश्य भी उतना ही विषद् और आकर्षक होना चाहिए। हमें व्यक्ति तथा समाज की उन्नति के लिए अपना प्रयत्न विविध दिशाओं में आयोजित करना पड़ेगा और शिक्षा के बहु-उद्देश्य ही इस कार्य में सफल हो सकते हैं।”

प्रश्न 3.
विभिन्न शिक्षा आयोगों के सुझावानुसार वर्तमान भारत में शिक्षा के उद्देश्यों का उल्लेख : कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा आयोगों के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य
(Aims of Education According to Éducation Commissions)

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत की केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों ने शिक्षा-व्यवस्था के पुनर्गठन एवं निर्माण हेतु समय-समय पर शिक्षा आयोगों का गठन किया। इन आयोगों द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों तथा साधनों पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया गया, जिसका प्रस्तुतीकरण निम्न प्रकार किया जा सकता– 

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वर्तमान परिस्थितियों में भारत में व्यक्ति के दृष्टिकोण से शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
हमारे देश की वर्तमान परिस्थितियाँ अत्यधिक जटिल तथा विशिष्ट हैं। इन परिस्थितियों में व्यक्ति के दृष्टिकोण से शिक्षा का मुख्यतम उद्देश्य है-व्यक्ति का बहुपक्षीय विकास। इसके अन्तर्गत मुख्य रूप से शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, चारित्रिक तथा सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति के दृष्टिकोण को वैज्ञानिक बनाना भी शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। व्यक्ति की व्यावसायिक कुशलता की उन्नति, जीवन-यापन की कला का विकास, अवकाश को ” सदुपयोग तथा सांस्कृतिक विकास भी व्यक्ति की शिक्षा के कुछ मुख्य उद्देश्य हैं।

प्रश्न 2.
वर्तमान युग में शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करना क्यों 
माना गया है ?
या
वैज्ञानिक शिक्षा का क्या अर्थ है? वर्तमान में उसकी उपयोगिता को सिद्ध कीजिए।
उत्तर:
वैज्ञानिक शिक्षा का आशय है वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दी जाने वाली शिक्षा। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दी जाने वाली शिक्षा तथ्यों पर आधारित होती है तथा उसमें वैज्ञानिक पद्धति को अपनाया जाता है। वैज्ञानिक पद्धति सार्वभौमिक होती है तथा उसके द्वारा प्राप्त सिद्वान्तों का सत्यापन किया जा सकता है। 
वर्तमान युग विज्ञान तथा औद्योगिक क्रान्ति का युग है। आज हमारे जीवन का प्रत्येक पक्ष विज्ञान पर निर्भर हो गया है। अतः इस दशा में वही राष्ट्र प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा जो वैज्ञानिक क्षेत्र में प्रगति करेगा। परन्तु भारत जैसे अनेक विकासशील देश आज भी परम्पराओं, रूढ़ियों एवं अन्धविश्वासों से घिरे हुए हैं। ये समस्त कारक देश की प्रगति में बाधक हैं। इस स्थिति में हमारी शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए जिससे जनसाधारण का दृष्टिकोण वैज्ञानिक बने तथा अन्धविश्वासों को उन्मूलन हो। इस प्रकार हम कह सकते हैं। कि वर्तमान युग में शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करना होना चाहिए।

प्रश्न 3 वर्तमान में व्यावसायिक शिक्षा की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर:
भारत प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न, किन्तु एक विकासशील अर्थव्यवस्था वाला देश है, जिसकी अधिकांश जनता निर्धन है। वर्तमान समय में देश के आर्थिक, तकनीकी व औद्योगिक विकास द्वारा सर्वप्रथम और अपरिहार्य रूप से निर्धनता तथा बेरोजगारी की समस्या का समाधान आवश्यक है। शिक्षा द्वारा देशवासियों की उत्पादन-शक्ति में वृद्धि कर राष्ट्रीय आय बढ़ानी चाहिए ताकि लोगों के रहन-सहन का स्तर ऊँचा हो सके। स्पष्टतः आर्थिक समृद्धि का विचार व्यावसायिक शिक्षा के बिना अधूरा है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
किसी भी देशकाल में शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण मुख्य रूप से किस कारक के आधार पर होता है ?
उत्तर:
किसी भी देशकाल में शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण उस देशकाल की समस्त परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किया जाता है।

प्रश्न 2.
पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से भारतीय समाज में कौन-सी मनोवृत्ति प्रबल हुई हैं ?
उत्तर:
पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से भारतीय समाज में भौतिकवादी मनोवृत्ति प्रबल हुई है।

प्रश्न 3.
वर्तमान भारतीय अर्थव्यवस्था तथा रोजगारों की स्थिति क्या है ?
उत्तर:
वर्तमान भारतीय अर्थव्यवस्था दुल-मुल है तथा बेरोजगारी की समस्या प्रबल है।

प्रश्न 4.
विज्ञान-शिक्षा की आवश्यकता क्यों है ?
उत्तर:
‘अन्धविश्वासों के उन्मूलन, औद्योगिक उन्नति एवं प्रगति तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के लिए विज्ञान-शिक्षा आवश्यक है।

प्रश्न 5.
“मेरा विचार है कि जब तक हमारा शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा नहीं होगा, तब तक हम 
वास्तव में अधिक मानसिक प्रगति नहीं कर सकते।” यह कथन किसका है ?
उत्तर प्रस्तुत कथन पं० जवाहरलाल नेहरू का है।

प्रश्न 6.
शिक्षा में विज्ञान के समावेश के महत्त्व सम्बन्धी स्वामी विवेकानन्द का कथन लिखिए।
उत्तर:
स्वामी विवेकानन्द के कथनानुसार, “हमारे लिए पश्चिमी विज्ञान का अध्ययन आवश्यक है। हमें तकनीकी शिक्षा की आवश्यकता है, जिससे हमारे देश के उद्योगों का विकास होगा।”

प्रश्न 7.
समाज के दृष्टिकोण से शिक्षा के चार मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
समाज के दृष्टिकोण से शिक्षा के चार प्रमुख उद्देश्य हैं–
(i) लोकतन्त्रीय नागरिकता का विकास,
(ii) सामाजिक कुप्रथाओं का अन्त,
(iii) सामाजिक उत्तरदायित्वों की भावना का विकास तथा
(iv) जन-शिक्षा की व्यवस्था करना।

प्रश्न 8.
स्वतन्त्र भारत में शिक्षा के उद्देश्यों के निर्धारण के लिए गठित किए गए मुख्य शिक्षा आयोगों 
का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
स्वतन्त्र भारत में गठित किए गए मुख्य शिक्षा आयोग हैं
(i) विश्वविद्यालय आयोग–1948,
(ii) माध्यमिक शिक्षा आयोग-1952-53 तथा
(iii) राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (कोठारी कमीशन)-1964-66.

प्रश्न 9.
किस शिक्षा आयोग ने व्यक्तियों में नेतृत्व के गुणों के विकास की शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण 
उद्देश्य निर्धारित करने का सुझाव दिया है?
उत्तर:
माध्यमिक शिक्षा आयोग ने नेतृत्व के गुणों के विकास की शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य … निर्धारित करने का सुझाव दिया है।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. वर्तमान परिस्थितियों में शिक्षा के किसी एक उद्देश्य को प्राथमिकता देना उचित नहीं है।
  2. भारत में शिक्षा का एक उद्देश्य निरक्षरता समाप्त करना भी है।
  3. भारत में शिक्षा का उद्देश्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना कदापि नहीं है।
  4. भारत में शिक्षा का एक उद्देश्य व्यावसायिक कुशलता में वृद्धि करना भी है।
  5. शिक्षा के माध्यम से विश्व-बन्धुत्व की भावना को विकसित करना व्यर्थ एवं अनावश्यक है।

उत्तर:

  1. सत्य,
  2. सत्य,
  3. असत्य,
  4. सत्य,
  5. असत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न1.
“भारत में शिक्षा द्वारा लोकतन्त्रीय चेतना, वैज्ञानिक खोज और दार्शनिक सहिष्णुता का निर्माण किया जाना चाहिए।” यह कथन किसका है ?
(क) महात्मा गांधी का
(ख) हुमायूँ कबीर का
(ग) पं० जवाहरलाल नेहरू का
(घ) जाकिर हुसैन का

प्रश्न 2.
ब्रिटिश काल में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य था
(क) आध्यात्मिक उन्नति।
(ख) जीविकोपार्जन
(ग) चरित्र-निर्माण..
(घ) व्यक्तित्व का बहुपक्षीय विकास

प्रश्न 3.
विभिन्न सामाजिक समस्याओं के निराकरण के लिए शिक्षित करना चाहिए
(क) ग्रामीण समुदाय को
(ख) समाज के पिछड़े वर्ग को।
(ग) स्त्रियों को।
(घ) जनसाधारण को

प्रश्न 4.
हमारे देश में शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण होना चाहिए
(क) अमेरिकी शिक्षा के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर
(ख) प्राचीन भारतीय आदर्शों को ध्यान में रखकर
(ग) औद्योगिक उन्नति को ध्यान में रखकर।
(घ) भारतीय समाज की विभिन्न परिस्थितियों को ध्यान में रखकर

प्रश्न 5.
भारत में बेरोजगारी की समस्या का हल सम्भव है
(क) चरित्र-निर्माण द्वारा
(ख) ज्ञानार्जन द्वारा
(ग) मानसिक विकास द्वारा
(घ) व्यावसायिक शिक्षा द्वारा

प्रश्न 6.
लोकतन्त्रीय भारत में व्यक्ति के दृष्टिकोण से शिक्षा का उद्देश्य है
(क) शारीरिक स्वास्थ्य का विकास
(ख) वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकास
(ग) व्यावसायिक कुशलता अर्जित करना
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 7.
वर्तमान लोकतन्त्रीय भारत में समाज के दृष्टिकोण से शिक्षा के उद्देश्य हैं
(क) सहयोग की भावना को विकसित करना
(ख) समाज में व्याप्त बुराइयों को समाप्त करना।
(ग) सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता में वृद्धि करना
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 8.
किसी देश की शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण नहीं होना चाहिए
(क) देश की संस्कृति के अनुसार
(ख) देश की वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार
(ग) विदेश की संस्कृति के अनुसार
(घ) देश की आवश्यकता के अनुसार
उत्तर:

1. (ख) हुमायूँ कबीर का,
2. (ख) जीविकोपार्जन,
3. (घ) जनसाधारण को,
4. (घ) भारतीय समाज की विभिन्न परिस्थितियों को ध्यान में रखकर,
5. (घ) व्यावसायिक शिक्षा द्वारा,
6. (घ) उपर्युक्त सभी,
7.(घ) उपर्युक्त सभी,
8. (ग) विदेश की संस्कृति के अनुसार।

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UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 1 Meaning, Definition, Importance, Need and Utility of Education

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 1
Chapter Name Meaning, Definition, Importance,
Need and Utility of Education
(शिक्षा का अर्थ, परिभाषा, महत्त्व,
आवश्यकता एवं उपयोगिता)
Number of Questions Solved 58
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 1 Meaning, Definition, Importance, Need and Utility of Education (शिक्षा का अर्थ, परिभाषा, महत्त्व, आवश्यकता एवं उपयोगिता)

विरत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
शिक्षा की परिभाषा निर्धारित कीजिए तथा शिक्षा की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उतर:
शिक्षा एक व्यापक प्रक्रिया है, जिसका घनिष्ठ सम्बन्ध सम्पूर्ण मानव-जीवन से है। शिक्षा के वास्तविक अर्थ को स्पष्ट करने के लिए अनेक विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से शिक्षा की परिभाषाएँ प्रतिपादित की हैं।

शिक्षा की परिभाषाएँ
(Definitions of Education)

पाश्चात्य एवं भारतीय शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा को भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया है, जिनमें कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाओं का विवेचन निम्नलिखित हैसुकरात के अनुसार, “शिक्षा का अर्थ संसार के उन सर्वमान्य विचारों को प्रकाश में लाना है जो व्यक्तियों के मस्तिष्क में स्वभावतः निहित होते हैं।”

  • प्लेटो के अनुसार, “शिक्षा एक शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास की प्रक्रिया है।”
  • अरस्तू के अनुसार, “स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का विकास ही शिक्षा है।”
  • फ्रॉबेल के अनुसार, “शिक्षा छह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बालक की जन्मजात शक्तियाँ बाहर प्रकट होती हैं।”
  • काण्ट के अनुसार, “शिक्षा व्यक्ति की उस सब पूर्णता का विकास है, जिसकी उसमें क्षमता है।”
  • पेस्टालॉजी के अनुसार, “शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक, सामंजस्यपूर्ण तथा प्रगतिशील विकास है।”
  • टी० पी० नन के अनुसार, “शिक्षा बालक के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास है, जिसके द्वारा यह यथाशक्ति मानव-जीवन को मौलिक योगदान कर सके।”
  • जेम्स के अनुसार, “शिक्षा कार्य-सम्बन्धी अर्जित आदतों का संगठन है, जो व्यक्ति को उसके भौतिक और सामाजिक वातावरण में उचित स्थान देती है।”
  • टी० रेमण्ट के अनुसार, “शिक्षा विकास का वह क्रम है, जिसके द्वारा मनुष्य स्वयं को शैशवावस्था से परिपक्वावस्था तक आवश्यकतानुसार भौतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के अनुकूल बना लेता है।”

बटलर के अनुसार, “शिक्षा प्रजाति की आध्यात्मिक निष्पत्ति के साथ व्यक्ति का क्रमिक अनुकूलन है।”
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, “शिक्षा मानव के अन्तर में निहित दैवीय भाव की अभिव्यक्ति है।”
रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार, “उच्चतम शिक्षा वह है जो हमें केवल सूचना ही नहीं देती, वरन् हमारे जीवन को प्रत्येक अस्तित्व के अनुकूल बनाती है।”
महात्मा गांधी के अनुसार, “शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक एवं मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क एवं आत्मा के सर्वोत्तम अंश का प्रकटीकरण है।”
एस० राधाकृष्णन के अनुसार, “शिक्षा को मनुष्य और समाज का निर्माण करना चाहिए।”

परिभाषाओं की समीक्षा उपर्युक्त परिभाषाओं में विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा को अपने-अपने दृष्टिकोण से परिभाषित करने का प्रयास किया है। कुछ परिभाषाएँ शिक्षा को जन्मजात शक्तियों को व्यक्त करने की प्रक्रिया बताती हैं, कुछ के अनुसार यह बालक के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करती है। कुछ विचारकों ने शिक्षा को समूह में परिवर्तन उत्पन्न करने के अर्थ में, तो कुछ ने वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने की दृष्टि से परिभाषित किया है। प्रत्येक परिभाषा शिक्षा के एक विशेष पक्ष पर बल देती है, जिसके फलस्वरूप इन परिभाषाओं में अत्यधिक विविधता दृष्टिगोचर होती है। वस्तुतः शिक्षा के विस्तृत अर्थ, दृष्टिकोण एवं कार्यों की तुलना में ये सभी परिभाषाएँ अधूरी दिखलायी पड़ती हैं। शिक्षा की सर्वमान्य परिभाषा मानव-जीवन के समस्त पक्षों को समाहित करती है। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री डॉ० अदावल ने शिक्षा की एक आदर्श परिभाषा इस प्रकार दी है, “शिक्षा वह सविचार प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति के विचार तथा व्यवहार में परिवर्तन होता है उसके अपने तथा समाज के कल्याण के लिए। इसमें व्यक्ति, समाज तथा वातावरण सभी के आदर्श सम्मिलित हैं।”

शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ
(Main Features of Education)

आधुनिक विद्वानों ने शिक्षा की प्रक्रिया का विश्लेषण करके शिक्षा के वैज्ञानिक अर्थ को स्पष्ट किया है। इस अर्थ के अनुसार शिक्षा, वैज्ञानिक पद्धति का अंनुसरण करके व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में सहायक होती है। वैज्ञानिक अर्थ की स्पष्टता शिक्षा-प्रक्रिया की निम्नलिखित विशेषताओं से होती है

  1. आजीवन चलने वाली प्रक्रिया-शिक्षा जीवन-पर्यन्त चलने। शिक्षा की प्रमुख विशेषता प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत व्यक्ति नये अनुभवी आजीवन चलने वाली प्रक्रिया से अपने ज्ञान में अभिवृद्धि करता है।
  2. अन्तर्निहित शक्तियों का विकास-शिक्षा के माध्यम से दिमखी प्रक्रिया बालक की अन्तर्निहित शक्तियों का विकास होता है।
  3. द्विमुखी प्रक्रिया-कुछ विद्वानों के अनुसार शिक्षा एक सामाजिक विकास द्विमुखी प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत दो महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व शिक्षा परिवर्तनशीलता प्रदान करने वाला (शिक्षक) और शिक्षा प्राप्त करने वाली (विद्यार्थी), त्रिपक्षीय प्रक्रिया सम्मिलित हैं। ये दोनों व्यक्तित्व एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं।
  4. गतिशीलता- शिक्षा कोई जड़ वस्तु नहीं, अपितु जीवन की गतिशील प्रक्रिया है। इसके द्वारा शिक्षार्थी प्रतिक्षण प्रगति करता हुआ अपने व्यक्तित्व का विकास करता है।
  5. सामाजिक विकास- शिक्षा द्वारा मनुष्य का सामाजिक विकास होता है। वह समाज के प्राणियों के बीच रहकर नये अनुभवों द्वारा सीखता है। वस्तुतः सामाजिक प्रगति उचित शिक्षा पर ही निर्भर है।
  6. परिवर्तनशीलता-व्यक्ति के व्यवहार में वांछित परिवर्तन शिक्षा के माध्यम से ही लाये जा सकते हैं। अतः शिक्षा में परिवर्तनशीलता का गुण निहित है।
  7. त्रि-पक्षीय प्रक्रिया-जॉन डीवी (John Dewy) ने शिक्षा को त्रि-पक्षीय प्रक्रिया माना है। शिक्षा में शिक्षक और विद्यार्थी के अलावा एक तीसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष भी है और वह है ‘पाठ्यक्रम।

प्रश्न 2.
मानव-जीवन में शिक्षा की आवश्यकता को विस्तारपूर्वक स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा की आवश्यकता
(Need of Education)

मानव-जीवन में शिक्षा की आवश्यकता का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है।

1. अधिगम या सीखने के लिए प्रकृति ने पशु- पक्षियों के बच्चों को ऐसी शक्ति प्रदान की है कि वे बिना सिखाये अपनी-अपनी क्रियाएँ कर सकते हैं, किन्तु इसके शिक्षा की आवश्यकता। विपरीत मानव-शिशु जन्म से ही असहाय होता है और बिना सिखाये , अधिगम या सीखने के लिए कोई भी कार्य नहीं कर पाता। शिक्षा की प्रक्रिया के अन्तर्गत वह सामंजस्य के लिए अधिगम (सीखना) करता है तथा चलने-फिरने, बोलने और ज्ञानवर्धन के लिए। लिखने-पढ़ने जैसी क्रियाएँ करने लगता है। अतः अधिगम के लिए। शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है।

2. सामंजस्य के लिए- सभी जीवधारी अपने वातावरण के ॐ श्रेष्ठ नागरिकता के विकास के साथ सामंजस्य स्थापित करते हैं। मनुष्य भी जन्म से लगातार लिए। वातावरण के साथ सामंजस्य बनाने की चेष्टा करता है। वस्तुतः सामंजस्य तथा अनुकूलन में ही उसके जीवन का अस्तित्व निहित है। लिए जो मनुष्य जितना अधिक अपने वातावरण के साथ सामंजस्य बना नै सन्तुलित एवं सर्वांगीण विकास लेता है, वह जीवन में उतना ही अधिक सफल होता है। वातावरण के के लिए साथ सामंजस्य स्थापित करने के इस कार्य में शिक्षा अत्यधिक जीवन की प्रगति के लिए। सहायक है। अत: हम कह सकते हैं कि सामंजस्य स्थापित करने के लिए शिक्षा आवश्यक है।

3. ज्ञानवर्धन के लिए- ज्ञानविहीन मनुष्य का जीवन पशु के समान है। ज्ञान पाकर वह पशुता से ऊपर उठकर मनुष्यत्व और फिर देवत्व की ओर बढ़ता है। शिक्षा की उचित पद्धति के माध्यम से मनुष्य को वांछित ज्ञान प्राप्त होता है, जिसके प्रभाव से उसे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में व्यावहारिक कार्यों के लिए दिशा मिलती है। उपयोगी एवं सुन्दर जीवन के लिए ज्ञान चाहिए और ज्ञान के लिए शिक्षा आवश्यक है।

4. कार्यक्षमता के विकास के लिए- मनुष्य को अपने जीवन काल में अनेक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, जिसके लिए समुचित कार्यक्षमता की आवश्यकता होती है। शिक्षा के माध्यम से मनुष्य में अपनी आवश्यकता तथा परिस्थितियों के अनुकूल कार्य करने की क्षमता उत्पन्न होती है। प्रतिकूल दशाओं के विरुद्ध सुनियोजित संघर्ष करने तथा उन पर विजय प्राप्त करने हेतु पर्याप्त कार्यक्षमता अर्जित करने की दृष्टि से उचित शिक्षा आवश्यक है।

5. जीविकोपार्जन के लिए- अपने व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में विभिन्न आवश्यकताओं की । पूर्ति के लिए मनुष्यों को धन की जरूरत पड़ती है, जिसके लिए वे उपयुक्त आजीविका की तलाश करते हैं। शिक्षा मनुष्य को किसी निश्चित क्षेत्र में सेवा, व्यवसाय, उद्यम अथवा कारोबार के लिए तैयार करती है तथा उसकी रुचि के अनुसार उपयुक्त आजीविका खोजने हेतु निर्देशन प्रदान करती है। प्रतिस्पर्धा तथा प्रतियोगिता के इस युग में शिक्षा ही आजीविका तथा धनोपार्जन का सर्वोत्तम माध्यम है। अतः स्पष्ट है कि जीविकोपार्जन के लिए भी शिक्षा आवश्यक है।

6. श्रेष्ठ नागरिकता के विकास के लिए- भारत एक प्रजातान्त्रिक देश है और प्रजातन्त्र की सफलता के लिए देशवासियों में श्रेष्ठ नागरिकता के गुण विद्यमान होने चाहिए। श्रेष्ठ नागरिक में राष्ट्र की सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं के निरपेक्ष तथा न्यायपूर्ण समाधान की क्षमता होती है, जिसके लिए स्पष्ट विचार, अनुशासन, सहयोग, भ्रातृत्व-भाव, देश-प्रेम, सामाजिक चेतना तथा नैतिक शुद्धता जैसे गुणों की आवश्यकता … होती है। बालकों में श्रेष्ठ नागरिकता के विभिन्न गुणों का विकास केवल शिक्षा द्वारा ही हो सकता है।

7. व्यक्तिगत तथा सामाजिक हित के लिए- मनुष्य जिन मूल-प्रवृत्तियों के साथ जन्म लेता है, वे उसके व्यवहार को प्रेरित तो करती हैं, किन्तु उन्हें सभ्यता तथा व्यक्तिगत व सामाजिक हित की दृष्टि से उत्तम नहीं कहा जा सकता। शिक्षा इन मूल-प्रवृत्तियों को सुन्दर व स्थायी भावों में बदलकर उन्हें व्यक्ति तथा समाज के लिए उपयोगी बनाती है, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य सुखी, सभ्य, कल्याणकारी एवं सामाजिक जीवन व्यतीत कर पाता है। इस प्रकार मनुष्य का व्यक्तिगत तथा सामाजिक हित शिक्षा में ही निहित है।

8. सन्तुलित एवं सर्वांगीण विकास के लिए- मानव-जीवन के तीन प्रमुख पक्ष हैं—शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक। मनुष्य के व्यक्तित्व को सन्तुलित रूप से विकसित करने के लिए इन तीनों ही पक्षों पर समान रूप में ध्यान देने की जरूरत होती है। शिक्षा ही एक ऐसी सविचार, गतिशील तथा जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से मानव व्यक्तित्व का स्वाभाविक, सन्तुलित तथा सर्वांगीण विकास हो सकता है।

9. जीवन की प्रगति के लिए- वर्तमान जीवन अत्यन्त जटिल एवं गतिशील है। आधुनिक विश्व के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रगतिशील जीवन एक अनिवार्य शर्त है और ऐसे जीवन के लिए समाज की संरचना, कार्य-पद्धति तथा समूचे वातावरण का ज्ञान आवश्यक है। शिक्षा के अभाव में हम यह ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। इसी कारणवश जॉन डीवी ने कहा है, “शिक्षा जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि बिना शिक्षा के जीवन की प्रगति नहीं हो सकती।

10. शिक्षा ही जीवन है- शिक्षा का क्षेत्र कुछ ही लोगों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य को शिक्षा की आवश्यकता होती है अतः शिक्षा सर्वसाधारण के लिए आवश्यक है। जीवन की प्रत्येक अवस्था में शिक्षा को आवश्यक कहा गया है। यही कारण है कि कुछ विचारकों ने जीवन और शिक्षा में कोई भेद नहीं माना है। उनका कहना है, “शिक्षा जीवन है और जीवन शिक्षा है।” वास्तव में शिक्षा, जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

प्रश्न 3.
मानव-जीवन में शिक्षा की उपयोगिता का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा की उपयोगिता
(Utility of Education)

आधुनिक मानव के सभ्य तथा सुसंस्कृत जीवन का रहस्य शिक्षा में निहित है। शिक्षा के माध्यम से आदिमानव के आचार-विचार, रहन-सहन तथा दृष्टिकोण में उत्तरोत्तर परिवर्तन आया और उसे पृथ्वी का श्रेष्ठ एवं विवेकशील प्राणी समझा गया। जहाँ एक ओर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मानव की उपलब्धियाँ शिक्षा की उपयोगिता को सिद्ध करती हैं, वहीं दूसरी और शिक्षा की उपयोगिता के विषय में सभी विद्वान् एकमत हैं। संक्षेप में, शिक्षा की निम्नलिखित उपयोगिताएँ हैं।

1. अन्तःशक्तियों का विकास- शिक्षा बालक की अन्त:शक्तियों को विकसित करने की उत्तम प्रक्रिया है। शिक्षा के अभाव में उसकी ये शक्तियाँ अविकसित रह जाती हैं। शिक्षा बालक के व्यवहार का परिमार्जन की जन्मजात व स्वाभाविक क्षमताओं एवं योग्यताओं का सम्यक् तथा ) मानवीय गुणों का अभिप्रकाशन समान रूप से इस भाँति विकास करती है कि वह उनका अपने परिवार, जाति, समाज और राष्ट्र के हित में ठीक प्रकार से उपयोग कर सके।

2. व्यवहार का परिमार्जन- शिक्षा बालक के व्यवहार को समाज की परिस्थितियों के अनुकूल बनाती है। इसके लिए बालक के व्यवहार में परिवर्तन तथा परिमार्जन की आवश्यकता महसूस की जाती है। बालक को सामाजिक व्यवहार के सभी अंगों का ज्ञान भी होना चाहिए। सामाजिक व्यवहार के योग्य बनाने की दृष्टि से उसकी रुचियों, आदतों व आदर्शों आदि में वांछित संशोधन का कार्य भी शिक्षा ही करती है। स्पष्टतः व्यवहार-परिमार्जन हेतु शिक्षा अत्यन्त उपयोगी है।

3. मानवीय गुणों का अभिप्रकाशन-मानवीय गुणों से युक्त व्यक्ति ही सही अर्थों में मानव कहलाने का अधिकारी है। शिक्षा के माध्यम से मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा तथा स्वार्थपरता जैसी समाज विरोधी भावनाओं को नियन्त्रित करता है और प्रेम, धैर्य, उदारता, भ्रातृत्व-भाव, सेवा, आत्मविश्वास तथा सामाजिक कल्याण जैसे सद्गुणों का विकास करता है। शिक्षा मानवीय गुणों के अभिप्रकाशन का सर्वोत्तम साधन है।।

4. नैतिक चरित्र का निर्माण-आज समूची दुनिया में नैतिक मूल्यों का ह्रास दिखाई पड़ता है और नैतिकता का प्रायः अभाव हो गया है। चारों तरफ छल-छद्म, फरेब, धोखा, हिंसा, उत्पीड़न तथा शोषण का बोलबाला है। मनुष्य के नैतिक पतन में मानव जाति का कल्याण नहीं हो सकता। शिक्षा, मनुष्य और समाज की समस्त बुराइयों को दूर कर उनमें नैतिकता का समावेश करती है। स्पष्टतः नैतिक चरित्र के निर्माण की दृष्टि से शिक्षा अत्यधिक उपयोगी है।

5. बालक का समाजीकरण-बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। सर्वप्रथम बालक माता-पिता के संरक्षण में, बाद में संगी-साथियों तथा शिक्षालयों के सम्पर्क में आकर अपने व्यक्तित्व का विकास करता है। शिक्षक समाज अपने विश्वास, दृष्टिकोण, मान्यताएँ, कुशलता तथा रीति-रिवाजों को बालक को प्रदान करता है। शिक्षालय तथा अनेक शिक्षा संस्थाएँ बालक को सामाजिक नियन्त्रण को स्वीकार करने में सहयोग देती हैं, जिससे बालक के समाजीकरण में सहायता मिलती है।

6. अधिकार तथा कर्तव्य का ज्ञान शिक्षा बालक को श्रेष्ठ नागरिक का जीवन जीने के लिए तैयार करती है। शिक्षित व्यक्ति अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों से परिचित होता है और उनके उचित पालन द्वारा योग्य नागरिक बनता है। शिक्षा किसी समाज या राष्ट्र के निवासियों में नागरिक व सामाजिक कर्तव्यों की भावना का समावेश कर उसकी प्रगति में सहायक सिद्ध होती है।

7. भावी जीवन की तैयारी शिक्षा बालक को भावी जीवन के लिए तैयार करती है। मनुष्य का जीवन संघर्षपूर्ण है। माँ के आँचल से धरा की गोद तक मनुष्य को जीवन में अनेक कठिनाइयों तथा विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। शिक्षा बालक को नियोजित एवं व्यवस्थित तरीके से धैर्य तथा साहस के साथ जीवन-संग्राम के लिए प्रेरित करती है।

8. संस्कृति का हस्तान्तरण—शिक्षालय समाज में सांस्कृतिक केन्द्र’ कहे जाते हैं। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित एवं संचित सांस्कृतिक विरासत को अपनी भावी सन्तति को हस्तान्तरित करता है। संस्कृति के हस्तान्तरण से समाज के लोगों का आचरण प्रभावित होता है और जनजीवन सुखी, प्रगतिशील और सुसंस्कृत बनता है।

प्रश्न 4.
व्यक्तिगत जीवन में शिक्षा के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
या
विद्यार्थी के लिए शिक्षा क्यों अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है?
या
शिक्षा के कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
शिक्षा के दो कार्यों के बारे में लिखिए।
उत्तर:

व्यक्तिगत जीवन में शिक्षा के कार्य
(Functions of Education in Personal Life)

व्यक्तिगत जीवन में शिक्षा के कार्य देश-काल एवं समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप निर्धारित और परिवर्तित होते रहे हैं। हमारे समाज की वर्तमान आवश्यकताओं, मूल्यों, उद्देश्यों तथा संरचना को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत जीवन में शिक्षा के निम्नलिखित कार्यों का उल्लेख किया जा सकता है|

1. जन्मजात शक्तियों एवं गुणों का विकास- शिक्षा का मुख्य कार्य मनुष्य की जन्मजात शक्तियों तथा गुणों का सम्यक् विकास करके उसके जीवन को सफल बनाना है। बालक प्रेम, दया, करुणा, सहानुभूति, कल्पना, जिज्ञासा, आत्म-गौरव तथा आत्म-समर्पण जैसी अनेक विशिष्ट शक्तियों व गुणों के साथ जन्म लेता है, जिनके अभिप्रकाशन में शिक्षा की प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है।

2. सन्तुलित व्यक्तित्व का विकास- शिक्षा बालक के व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास करती है। शिक्षा के माध्यम से बालक के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों-शारीरिक, मानसिक, नैतिक, सांवेगिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक का सर्वांगीण विकास होना चाहिए। शिक्षा के इस कार्य को सभी शिक्षाविदों ने महत्त्वपूर्ण माना है। …। फ्रेडरिक ट्रेसी का कथन है, “समस्त शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य व्यक्तित्व के आदर्श की पूर्ण प्राप्ति है। यह आदर्श सन्तुलित व्यक्तित्व है।”

3. चरित्र-निर्माण तथा नैतिकता का विकास-शिक्षा व्यक्ति को चरित्रवान् तथा नैतिक बनाती है। उत्तम चरित्र एवं नैतिकता के अभाव में कोई भी व्यक्ति प्रेम, त्याग, सेवा और बन्धुत्व सदृश मानवीय गुणों से युक्त नहीं हो सकता। अतः आवश्यक है कि शिक्षा बालक में उत्तम नैतिक-चरित्र का निर्माण करे। नैतिक और चारित्रिक गुणों के विकास से ही उसका सर्वांगीण विकास सम्भव है। हरबर्ट (Herbart) ने ठीक ही लिखा है, “शिक्षा का कार्य उत्तम नैतिक चरित्र का विकास करना है।”

4. वयस्क जीवन की तैयारी-प्रसिद्ध विद्वान विलमॉट ने कहा है, “शिक्षा जीवन की तैयारी है।” इसका अभिप्राय यह है कि शिक्षा का कार्य बालक को वयस्क जीवन के लिए भली प्रकार तैयार करना है। वास्तव में शिक्षित व्यक्ति ही विषम परिस्थितियों तथा कठिनाइयों का धैर्यपूर्वक सामना करते हुए जीवन में आगे बढ़ सकता है। बालक वयस्क होकर एक समाज का जिम्मेदार नागरिक बनता है, तब उसके कुछ अधिकार और कर्तव्य होते हैं। शिक्षा की प्रक्रिया बालक को इन अधिकारों, कर्तव्यों तथा दायित्वों से परिचित कराती हुई भावी जीवन के लिए तैयार करती है।

5. आवश्यकताओं की पूर्ति-हमारे समाज में शिक्षा का प्रमुख कार्य व्यक्ति की आवश्यकताओं को पूरा करना है। व्यक्ति की अनेक आवश्यकताएँ हैं; जैसे-जैविक, सामाजिक, नैतिक, धार्मिक तथा मनोवैज्ञानिक।, जीवधारी होने के कारण रोटी, कपड़ा और मकान उसकी जैविक आवश्यकताएँ हैं। सामाजिक प्राणी के रूप में वह समाज के दूसरे व्यक्तियों से सामाजिक सम्बन्ध बनाने की आवश्यकता महसूस करता है। व्यक्ति जीवन के पथ-प्रदर्शन हेतु धर्म एवं जीवन-दर्शन की, विशिष्ट योग्यताओं के विकास हेतु उचित अवसर की, मनोरंजन के लिए अवकाश की तथा उन्नति के लिए संघर्ष की आवश्यकता अनुभव करता है। शिक्षा इन सभी आवश्यकताओं के अनुभवों का पुनसँगठन एवं पुनर्रचना को पूर्ण करने का कार्य करती है। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों के भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति में, “शिक्षा का कार्य यह पता लगाना है कि जीवन की समस्याओं को किस प्रकार हल किया जाए और आधुनिक सभ्य के मार्गदर्शन समाज का गम्भीर ध्यान इसी बात में लगा हुआ है।”

6. व्यावसायिक कुशलता की प्राप्ति- शिक्षा व्यक्ति को विभिन्न व्यवसायों का ज्ञान देती है और उसे अपने व्यवसाय को सुन्दर व व्यवस्थित ढंग से करने की प्रेरणा देती है। शिक्षित व्यक्ति अपनी योग्यता व पसन्द के अनुसार व्यवसाय चुनकर उसमें कुशलता प्राप्त करता है और इस प्रकार भौतिक सम्पन्नता अर्जित करता है। देश में औद्योगिकीकरण की तेज गति ने बड़ी संख्या में इंजीनियरों, वैज्ञानिकों तथा शिल्पियों की माँग उत्पन्न कर दी है। छात्रों को श्रेष्ठ व्यावसायिक प्रशिक्षण उपलब्ध कराने का काम शिक्षा ही कर सकती है। यही कारण है कि शिक्षा का मुख्य कार्य छात्रों में व्यावसायिक कुशलता का विकास करना होना चाहिए।

7. मूल-प्रवृत्तियों का नियन्त्रण-मूल-प्रवृत्तियाँ मानव के व्यवहार का संचालन करती हैं। जिज्ञासा, काम, पलायन, ह्रास आदि मूल-प्रवृत्तियाँ बालक में जन्म से ही पायी जाती हैं, जबकि आत्म-गौरव, आत्महीनता तथा सामुदायिकता की मूल-प्रवृत्तियाँ अर्जित हैं। शिक्षा इन मूल-प्रवृत्तियों के नियन्त्रण तथा शोधन का कार्य करती है ताकि वे अच्छे उद्देश्य वाली बनकर समाज का अधिकाधिक हित कर सकें।

8. आत्मनिर्भर बनाना-आत्मनिर्भर व्यक्ति का जीवन सुखमय होता है। वह स्वयं अपने कार्यों को सफलतापूर्वक सम्पन्न करते हुए समाज की उन्नति में भी योगदान देता है। वस्तुत: वर्तमान परिस्थितियों में समाज को आत्मनिर्भर लोगों की ही आवश्यकता है। शिक्षा का यह प्रमुख कार्य है कि वह व्यक्ति को अपना भार स्वयं अपने ऊपर लेना सिखाये तथा उसे इस योग्य बनाये कि वह समाज के अन्य लोगों को भी सहारादे सके।

9. अनुभवों का पुनसँगठन एवं पुनर्रचना-जीवन के अनेक कार्य अनुभवों से ही होते हैं। शिक्षा व्यक्ति को सभी आवश्यक अनुभव प्राप्त करने में उसकी सहायता करती है। अतीत के अनुभव मनुष्य के वर्तमान जीवन को सफल बनाने में योगदान तो करते हैं, किन्तु उन्हें किसी विशेष परिस्थिति में मूल्य तथा उपयोगिता की दृष्टि से ही प्रयोग किया जा सकता है। मानव-जीवन की भावी प्रगति के लिए आवश्यक है कि अतीत के अनुभवों का पुनसँगठन और उनकी पुनर्रचना भली प्रकार हो। यह महत्त्वपूर्ण कार्य शिक्षा ही करती है।

10. भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति-आज के आर्थिक युग में धन के विशेष महत्त्व ने व्यक्ति को अधिक-से-अधिक धनोपार्जन की ओर लगा दिया है। सभी अभिभावक चाहते हैं कि उनके बच्चे शिक्षित होकर उच्च-स्तर का व्यवसाय या नौकरी पा जाएँ तथा खूब धन कमाएँ। अत: आज के भौतिकवादी युग में शिक्षा का कार्य भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति में सहायता प्रदान करना है। जॉन रस्किन (John Ruskin) के अनुसार, “माता-पिता कहते हैं कि शिक्षा का मुख्य कार्य उनके बच्चों को जीवन में अच्छे स्थान प्राप्त करने, बड़े और धनी व्यक्तियों के समाज में महत्त्वपूर्ण बनने और आराम तथा ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करने के लिए तैयार करना है।”

11. वातावरण से अनुकूलन- वातावरण से अनुकूलन अनिवार्य है। जो प्राणी स्वयं को वातावरण के अनुकूल नहीं बना पाते, वे प्रायः नष्ट हो जाते हैं। वातावरण व्यक्ति के सिर्फ उन्हीं कार्यों को प्रोत्साहित करता है जो उसके अनुकूल होते हैं। अतएव शिक्षा का प्रधान कार्य है कि वह व्यक्ति को वातावरण के अनुकूल बनाये। टॉमसन (Tomson) का कथन है, “वातावरण शिक्षक है और शिक्षा का कार्य है छात्र को उस वातावरण के अनुकूल बनाना, जिससे कि वह जीवित रह पके और अपनी मूल-प्रवृत्तियों को सन्तुष्ट करने के लिए अधिक-से-अधिक सम्भव अवसर प्राप्त कर सके।”

12. मार्गदर्शन-मानव-जीवन की वास्तविक प्रगति उचित मार्गदर्शन पर आधारित है। ‘प्रयास एवं भूल’ के सिद्धान्त पर प्रगति का मार्ग खोजने के प्रयास में मनुष्य अपने जीवन का बहुमूल्य समय गवाँ देता है। उचित मार्गदर्शन पाकर व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति से सामंजस्य बनाने में सक्षम होता है तथा प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त करता है। इसी कारण से मार्गदर्शन अति आवश्यक है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में व्यक्ति को अभीष्ट मार्गदर्शन करने का कार्य शिक्षा ही करती है।

प्रश्न 5.
सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा के कार्य
(Functions of Education in Social and National Life)

व्यक्ति, समाज और राष्ट्र आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं। व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र बनता है। मैकाइवर (Maclver) ने सत्य ही लिखा है, “राष्ट्र का गुण, उसकी सामाजिक इकाइयों का गुण है अर्थात् सामाजिक इकाइयों का सामूहिक जीवन ही राष्ट्रीय जीवन है।” राष्ट्र की उन्नति तभी हो सकती है जब कि उसके नागरिक श्रेष्ठ हों। अत: शिक्षा का यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है कि वह व्यक्ति को राष्ट्रीय जीवन के लिए भी तैयार करे। भारतीय समाज के प्रजातान्त्रिक एवं समाजवादी आदर्श को ध्यान में रखते हुए शिक्षा के सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन से सम्बन्धित कार्य निम्नलिखित हैं

1. व्यक्तिगत हितों के साथ सामूहिक हित की भावना-आधुनिक समाज में तेजी से बढ़ रही । भौतिकवादी प्रवृत्तियाँ, व्यक्तिवाद को अधिकाधिक महत्त्व प्रदान कर, सार्वजनिक हित की उपेक्षा कर रही हैं। प्रत्येक मनुष्य अपने हित के सामने जनहित की अनदेखी कर रहा है। इसके परिणामत: भारत का समाज जाति, वर्ग, धर्म, भाषा और राजनीति के नाम पर विखण्डित हो रहा है तथा लोगों में पारस्परिक द्वेष, कटुता तथा शत्रुता जैसी दूषित भावनाओं का विस्तार होने लगा है। राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का यह महत्त्वपूर्ण कार्य है कि वह लोगों को इस भाँति प्रशिक्षित करे कि वे व्यक्तिगत हितों से अपने समूह, समाज तथा राष्ट्र के हितों को अधिक महत्त्व दें। सामूहिक हित में ही राष्ट्रीय हित निहित है।

2. राष्ट्रीय एकता-शिक्षा को राष्ट्रीय एकता का आधार माना जाता है। हमारे देश में प्रान्तवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, आतंकवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद आदि विभाजनकारी प्रवृत्तियों के बढ़ते प्रभाव ने लोगों के दृष्टिकोण को अत्यन्त संकीर्ण बना दिया है। इन विघटनकारी शक्तियों से लड़ने तथा राष्ट्रीय एकता को विकसित करने के लिए हमें शिक्षा का सहारा लेना होगा। शिक्षा ही हमें इन बाधक तत्त्वों से मुक्ति दिलाकर , राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बाँध सकती है। राष्ट्रीय एकता के महत्त्वपूर्ण कार्य की ओर संकेत करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “एक दृष्टि में राष्ट्रीय एकता के प्रश्नों में जीवन की हर एक वस्तु आ जाती है। शिक्षा का कार्य सर्वोपरि है और यही आधारशिला है।”

3. राष्ट्रीय विकास- शिक्षा के अभाव में कोई भी राष्ट्र उन्नति | सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में। नहीं कर सकता। किसी राष्ट्र का विकास उसके नागरिकों की शिक्षा| शिक्षा के कार्य पर निर्भर करता है। अत: राष्ट्रीय विकास के लिए शिक्षा की योजनाओं व्यक्तिगत हितों के साथ को प्राथमिकता देनी होगी तथा एक निश्चित स्तर तक सभी नागरिकों सामूहिक हित की भावना को शिक्षित बनाना होगा। वास्तव में, शिक्षा के माध्यम से ही लोग जानने से ही लोग जान सकते हैं कि व्यक्तिगत उन्नति की अपेक्षा राष्ट्रीय उन्नति एवं विकास अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसके साथ ही, प्रजातन्त्र की सफलता भी शिक्षा पर ही निर्भर है। एक प्रजातान्त्रिक प्रणाली में मतदान हेतु अच्छे-बुरे का निर्णय करने के लिए आवश्यक विवेक-शक्ति शिक्षा द्वारा ही जाग्रत एवं विकसित होती है। राष्ट्रीय विकास में शिक्षा की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कोठारी आयोग (1964-66) ने इस प्रकार लिखा है, “भारत के भाग्य का निर्माण इस समय उसकी कक्षाओं में हो रहा है। हमारे विद्यालयों तथा कॉलेजों से निकलने वाले छात्रों की योग्यता तथा संख्या पर ही राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के उस महत्त्वपूर्ण कार्य की सफलता निर्भर करेगी, जिसका प्रमुख लक्ष्य हमारे रहन-सहन का स्तर ऊँचा उठाना है।”

4. श्रेष्ठ नागरिकता का निर्माण- राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का पहला कर्त्तव्य श्रेष्ठ नागरिकता का निर्माण करना है। प्रत्येक राज्य को योग्य, सच्चरित्र एवं गुणवान् नागरिकों की आवश्यकता होती है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह अभीष्ट शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था करता है। राष्ट्र के शिक्षित नागरिकों में ही अपने अधिकार तथा कर्तव्यों के बोध एवं विकास की क्षमता होती है। न्यूयॉर्क समिति की दृष्टि में, “सार्वजनिक शैक्षणिक व्यवस्था का यह प्रधान कार्य है कि वह शिक्षार्थियों को राज्य में नागरिकता के अधिकार व कर्तव्यों का बोध कराये।”

5. नैतिकता का प्रशिक्षण- नैतिकता किसी भी राष्ट्र का प्राणधर्म होती है, क्योंकि नैतिकता में वे सभी गुण विद्यमान होते हैं जो उस राष्ट्र के नागरिकों के आचरण को नियमित करते हैं। अतः शिक्षा का प्रधान कार्य लोगों को नैतिकता में प्रशिक्षित करना होना चाहिए। ब्रेचर (Brecher) ने उचित ही कहा है, “प्रत्येक युवक को स्मरण रखना चाहिए कि सभी सफल कार्यों का आधार नैतिकता है।”

6. सामाजिकता की भावना का विकास- व्यक्ति और समाज में घनिष्ठ सम्बन्ध है। व्यक्तियों से समाज बनता है और समाज में रहकर ही व्यक्ति की सुरक्षा एवं उन्नति सम्भव है। इस प्रकार दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। व्यक्ति को समाज में रहने के लिए सामाजिक भावना से ओत-प्रोत विभिन्न गुण विकसित करने चाहिए; जैसे—प्रेम, दया, सेवा, परोपकार आदि। शिक्षा ही व्यक्ति में इस प्रकार के गुण उत्पन्न करते हुए। सामाजिकता का भाव विकसित कर सकती है।

7. सामाजिक कुशलता का विकास- प्रत्येक सामाजिक प्राणी में सामाजिक कुशलता का होना नितान्त आवश्यक है। सामाजिक कुशलता से अभिप्राय यह है कि व्यक्ति राष्ट्र के लिए भार न हो, दूसरों के कार्यों में बाधा न पहुँचाये तथा समाज की उन्नति में सहायक हो। आधुनिक भारत में शिक्षा का यह महत्त्वपूर्ण कार्य है। कि वह बालकों को उन व्यवसायों तथा उद्योगों में कुशल बनाये जो न केवल उनके लिए, बल्कि समूचे समाज व राष्ट्र के लिए हितकारी हों। एलफ्रेड एडलर ने कहा है, “मनुष्य के उचित कार्य केवल वही हैं, जो समाज के लिए उपयोगी हैं।”

8. सामाजिक सुधार एवं उन्नति- समाज की प्रकृति गतिशील होने के कारण विश्व के सभी समाज, समय के परिवर्तन के साथ, निरन्तर परिवर्तित होते रहते हैं। शिक्षा सामाजिक परिवर्तन को अभीष्ट दिशा देते हुए समाज को उन्नति के पथ पर ले जाती है। यह प्रत्येक नागरिक को अपने समाज के विषय में अधिकाधिक ज्ञान सुलभ कराती है और इस भाँति प्रशिक्षित करती है ताकि वह समाज में वांछित सुधार लाने में सक्षम हो सके। जॉन डीवी के अनुसार, “शिक्षा में ही सामाजिक एवं अल्पतम साधनों के माध्यम से समाज में कल्याण, सुधार तथा उन्नति की रुचि को पुष्पित होना पाया जाता है।”

9. कुशल श्रमिकों की पूर्ति- कुशल श्रमिक व्यापार तथा उद्योग के उत्पादन को बढ़ाकर राष्ट्रीय सम्पत्ति में वृद्धि लाते हैं। अत: राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का कार्य कुशल श्रमिकों की पूर्ति करना है। शिक्षा का कार्य है। कि वह देश में ऐसे निपुण कार्यकर्ताओं को तैयार करे जो अपने कार्य का सम्पादन अत्यन्त कुशलतापूर्वक कर सकें। हुमायूँ कबीर ने उचित ही लिखा है, “शिक्षित श्रमिक अधिक उत्पादन में योग देंगे और इस प्रकार उद्योग तथा व्यवसाय दोनों की अधिक उन्नति होगी।’

10. उत्तम नेतृत्व हेतु प्रशिक्षण- लोकतन्त्र की सफलता के लिए नागरिकों को श्रेष्ठ अनुशासन तथा नेतृत्व हेतु प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण कार्य लोगों को इस प्रकार प्रशिक्षित करना है कि वे सामाजिक, राजनीतिक, औद्योगिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में नेतृत्व का कार्य कर सकें। आर० एस० मणि के अनुसार, “सच्चे नेतृत्व के लिए सेवा की भावना के साथ-साथ अच्छे प्रशिक्षण की आवश्यकता है।” ;

11. भावात्मक एकता- धर्म, परम्परा, भाषा, रीति-रिवाज तथा रहन-सहन के ढंग की दृष्टि से भारत। विभिन्नताओं का देश है। देश के सभी नागरिक अपने-अपने धर्म, भाषा तथा रीति-रिवाजों को दूसरे से अच्छा मानकर उन पर गर्व करते हैं। प्रायः संकीर्ण दृष्टिकोण के कारण परस्पर मनमुटाव व संघर्ष हो जाते हैं। ऐसी दशा में शिक्षा राष्ट्र को भावात्मक एकता के सूत्र में बाँधती है। शिक्षा द्वारा ही भावात्मक वातावरण निर्मित किया जा सकता है। शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत छात्रों के लिए ऐसे पाठ्यक्रमों का निर्माण किया जाना चाहिए जिनसे उनमें संवेदनाओं तथा दृष्टिकोणों का उचित दिशा में विकास हो और उनमें राष्ट्रीय व भावात्मक एकता स्थापित हो सके।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
शिक्षा के संकुचित अर्थ को स्पष्ट कीजिए। या शिक्षा के प्रचलित अर्थ को सोदाहरण समझाइए।
उत्तर:

शिक्षा का संकुचित अथवा प्रचलित अर्थ
(Narrow Meaning of Education)

शिक्षा के संकुचित अथवा प्रचलित अर्थ से अभिप्राय बालक को विद्यालय में प्रदान की जाने वाली शिक्षा से है। इस प्रकार की शिक्षा एक निश्चित पाठ्यक्रम, निश्चित समय एवं स्थान, निश्चित शिक्षण-विधि तथा शिक्षक के माध्यम से प्रदान की जाती है। वर्तमान शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत हम शिक्षा शब्द का प्रयोग एक विशेष अर्थ में करते हैं। इस अर्थ के अनुसार शिक्षा को कुछ विशेष प्रभावों तथा विषयों के अध्ययन तक ही सीमित मान लिया जाता है। इस प्रकार बालक को एक पूर्व निश्चित योजना के अनुसार वह ज्ञान दिया जाता। है जो उसके जीवन तथा समाज के लिए उपयोगी हो। इससे शिक्षा का एक सीमित अथवा संकुचित अर्थ ही स्पष्ट होता है और इसे औपचारिक शिक्षा (Formal Education) का नाम दिया जाता है। जे० एस० मैकेंजी का कहना है, “संकुचित अर्थ में शिक्षा से अभिप्राय हमारी शक्तियों के विकास और सुधार के लिए चेतनापूर्वक किये गये प्रयासों से लिया जाता है।”

संकुचित शिक्षा के साधन मुख्यत: रटने की क्रिया पर बल देते हैं। अत: ज्ञान से वंचित रहने के कारण बालकों को सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता। इसी कारण से यहाँ शिक्षा के लिए अध्यापन या निर्देशन (Instruction) शंब्द का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 2.
शिक्षा के व्यापक अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
या
शिक्षा जन्म से लेकर मृत्यु तक चलने वाली प्रक्रिया है। विश्लेषण कीजिए।
या
“शिक्षा अनुभवों के पुनर्गठन एवं पुनर्रचना की सतत् प्रक्रिया है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा का व्यापक अर्थ
(Definition of Complete Education)

अपने व्यापक अर्थ में शिक्षा जीवन- पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। मनुष्य का समूचा जीवन ही शिक्षा का काल है और व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक कुछ-न-कुछ सीखता रहता है। एडलर (Adler) के अनुसार, शिक्षा मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन से सम्बन्धित क्रिया है। यह छोटे बच्चों से ही सम्बन्धित नहीं होती, अपितु जन्म से आरम्भ होती है और मृत्यु तक चलती रहती है। इसी प्रकार टी० रेमण्ट ने लिखा है, “शिक्षा विकास की प्रक्रिया है, जिसमें वह शनैः-शनैः विविध प्रकार से स्वयं को भौतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक वातावरण के अनुकूल बनाता है।”

मनुष्य अपने जीवन काल में जिस वातावरण, परिस्थितियों तथा व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है, उनसे प्राप्त अनुभव उसकी शिक्षा में निरन्तर वृद्धि करते हैं। भूमण्डल की सभी चेतन और अचेतन सत्ताओं के माध्यम से मनुष्य कुछ-न-कुछ शिक्षा अवश्य ग्रहण करता है। सूरज, चाँद, तारे, नदियाँ, पहाड़, पुष्प, वृक्ष, चींटियाँ

और मधुमक्खियाँ आदि से मानव बहुत कुछ सीखता है। इनसे प्राप्त ज्ञान द्वारा वह न केवल स्वयं लाभान्वित होता है, बल्कि इनके आधार पर वह समाज को भी लाभ पहुँचाता है। इमवाइल (Dumville) ने उचित ही कहा है, “शिक्षा के व्यापक अर्थ में वे समस्त कारक सम्मिलित होते हैं, जो व्यक्ति पर उसकी उत्पत्ति होने से मृत्यु तक की यात्रा के मध्य प्रभाव डालते हैं।’

इस भाँति, व्यापक अर्थ के अन्तर्गत शिक्षा को घर, परिवार या शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थाओं तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता है। शिक्षा पाने के लिए न तो कोई स्थान सुनिश्चित है और न कोई विशिष्ट क्षेत्र ही निर्धारित है। इस प्रकार यह सम्पूर्ण विश्व शिक्षाका महाप्रांगण, केन्द्र-स्थल और क्षेत्र है। इसी कारण मानव की अन्तर्निहित शक्तियों को जीवनभर विकसित करने की अविराम प्रक्रिया को ही व्यापक दृष्टिकोण से शिक्षा कहा गया है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है, “शिक्षा अनुभवों के पुनर्गठन एवं पुनर्रचना की सतत प्रक्रिया है।”

प्रश्न 3.
शिक्षा के वैज्ञानिक अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा का वैज्ञानिक अर्थ
(Scientific Definition of Education)

आधुनिक विद्वानों ने शिक्षा की प्रक्रिया का विश्लेषण करके शिक्षा के वैज्ञानिक अर्थ को स्पष्ट किया है। इस अर्थ के अनुसार शिक्षा, वैज्ञानिक पद्धति का अनुसरण करके व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में सहायक होती है। वैज्ञानिक अर्थ की स्पष्टता शिक्षा-प्रक्रिया की निम्नलिखित विशेषताओं से होती है।

1. आजीवन चलने वाली प्रक्रिया-शिक्षा जीवन-पर्यन्त चलने वाली एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत व्यक्ति नये अनुभवों से अपने ज्ञान में अभिवृद्धि करता है।
2. 
अन्तर्निहित शक्तियों का विकास-शिक्षा के माध्यम से। शिक्षा का वैज्ञानिक अथे। बालक की अन्तर्निहित प्रक्रिया का विकास होता है।
3. द्विमुखी प्रक्रिया- शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्निहित शक्तियों का विकास अन्तर्गत दो महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व शिक्षा प्रदान करने वाला (शिक्षक) और शिक्षा प्राप्त करने वाला (विद्यार्थी) सम्मिलित हैं। ये दोनों गतिशीलता व्यक्तित्व एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं।
4. गतिशीलता- शिक्षा कोई जड़ वस्तु नहीं, अपितु जीवन की परिवर्तनशीलता गतिशील प्रक्रिया है। इसके द्वारा शिक्षार्थी प्रतिक्षण प्रगति करता हुआ अपने व्यक्तित्व का विकास करता है।
5. सामाजिक विकास-शिक्षा द्वारा मनुष्य का सामाजिक विकास होता है। वह समाज के प्राणियों के ‘. बीच रहकर नये अनुभवों द्वारा सीखता है। वस्तुतः सामाजिक प्रगति उचित शिक्षा पर ही निर्भर है।।
6. परिवर्तनशीलता- व्यक्ति के व्यवहार में वांछित परिवर्तन शिक्षा के माध्यम से ही लाये जा सकते हैं। अतः शिक्षा में परिवर्तनशीलता का गुण निहित है।
7. त्रि-पक्षीय प्रक्रिया जॉन डीवी (John Dewy) ने शिक्षा को त्रि-पक्षीय प्रक्रिया माना है। शिक्षा में शिक्षक और विद्यार्थी के अतिरिक्त एक तीसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष भी है और वह है ‘पाठ्यक्रम ।

प्रश्न 4.
शिक्षा तथा निर्देशन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा तथा निर्देशन में अन्तर
(Difference between Education and Guidance)

विभिन्न पक्षों को आधार मानते हुए शिक्षा एवं निर्देशन के अन्तर का विवरण निम्नलिखित तालिका में वर्णित है।
UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 1 Meaning, Definition, Importance, Need and Utility of Education 1

प्रश्न 5.
शिक्षा तथा साक्षरता के अन्तर को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा एवं साक्षरता में अन्तर
(Difference between Education and Literacy)
UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 1 Meaning, Definition, Importance, Need and Utility of Education 2

प्रश्न 6.
शिक्षा के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा का महत्त्व
(Importance of Education)

शिक्षा के महत्त्व का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है।

1. जन्मजात शक्तियों का विकास- प्रत्येक मनुष्य कुछ ऐसी जन्मजात शक्तियों तथा गुणों के साथ पैदा होता है जो उसके शारीरिक, मानसिक, आत्मिक तथा सामाजिक पक्षों से सीधा सम्बन्ध रखते हैं। इन शक्तियों तथा गुणों का प्रकटीकरण और विकास अनिवार्य रूप से होना चाहिए। यह कार्य मात्र शिक्षा द्वारा ही सम्भव है। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री पेस्टालॉजी ने भी शिक्षा को जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक, प्रगतिशील तथा विरोधहीन विकास’ कहा है।

2. परिस्थितियों के साथ अनुकूलन- व्यक्ति को अपने जन्म के बाद अनेकानेक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। परिस्थितियों के साथ संघर्ष में जो मनुष्य स्वयं को परिस्थितियों के जितना अधिक अनुकूल बना लेता है, जीवन में उसे उतनी ही अधिक सफलता प्राप्त प्रतिभा का अभिप्रकाशन होती है। अनुकुलन के इस कार्य में मनुष्य को शिक्षा से सर्वाधिक आचरण एवं व्यवहार में सहायता मिलती है।

3. प्रतिभा का अभिप्रकाशन- शिक्षा द्वारा बालक की प्रतिभा का व्यक्तित्व का समुचित विकास अभिप्रकाशन होता है। हम अशिक्षित मनुष्य की तुलना पत्थर के टुकड़े से कर सकते हैं। जिस प्रकार एक पत्थर का टुकड़ा चतुर शिल्पी के सम्पर्क में आकर सुन्दर और सजीव मूर्ति का रूप धारण कर लेता है, उसी प्रकार शिक्षा के माध्यम से किसी बालक की प्रतिभा में निखार आता है। ये निखरी हुई प्रतिभाएँ ही सफल वैज्ञानिक, तकनीशियन, चित्रकार, शिल्पी, वक्ता, साहित्यकार तथा कलाकार के रूप में राष्ट्र की सेवा करती हैं।

4. आचरण एवं व्यवहार में परिवर्तन- सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य से आशा की जाती है कि वह अपने समाज की मर्यादाओं के अनुकूल ही आचरण एवं व्यवहार प्रदर्शित करे। अशिक्षित मनुष्य की दशा जंगली पेड़-पौधों जैसी होती है। उसके आचार-विचार एवं व्यवहार के तरीकों में वांछित परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव की जाती है। शिक्षा के अन्तर्गत ज्ञान और अनुभवों के माध्यम से व्यक्ति के आचरण एवं व्यवहार में परिवर्तन तथा परिमार्जन करके उसे सभ्य व सुसंस्कृत बनाया जाता है।

5. व्यक्तित्व का समुचित विकास- शिक्षा व्यक्तित्व के आदर्श की प्राप्ति में सहायक है और यह आदर्श है मनुष्य का ‘सन्तुलित व्यक्तित्व’। व्यक्तित्व मानव-जीवन के विभिन्न पक्षों; जैसे-शारीरिक, बौद्धिक, नैतिक, सांवेगिक तथा आध्यात्मिक आदि; का सुन्दर सम्मिश्रण है। शिक्षा इन सभी पक्षों को इस भाँति विकसित करती है ताकि वे सर्वांगीण और सन्तुलित रूप से मुखरित होकर शिक्षार्थी को एक सम्पूर्ण मानव के रूप में प्रस्तुत कर सकें।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्राचीन भारतीय मान्यताओं के अनुसार शिक्षा का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्राचीन भारत के धर्मग्रन्थों में कहा गया है कि ‘सा विद्या या विमुक्तये’ अर्थात् विद्या वह है जो मानव को शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक बन्धनों से मुक्ति प्रदान करती है। यहाँ ‘शिक्षा’ को ‘विद्या’ का समानार्थी समझो गया है। विद्या शब्द संस्कृत की ‘विद्’ धातु से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है ‘जानना या ज्ञान प्राप्त करना।

प्रश्न 2.
शिक्षा (Education) का शाब्दिक या व्युत्पत्ति मूलक अर्थ स्पष्ट कीजिए।
या
एजूकेशन शब्द का शाब्दिक या व्युत्पत्तिमूलक अर्थ क्या है?
या
शिक्षा का शाब्दिक अर्थ क्या है?
उत्तर:
शिक्षा अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘एजूकेशन’ (Education) का हिन्दी रूपान्तर है। ‘एजूकेशन’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन के ‘एजूकेटम (Educatum) शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है ‘शिक्षित करना (Act of Training)। इस प्रकार एजूकेटम शब्द दो शब्दों का योग है—‘ए’ (E) और ‘डूको’ (Duco)। ‘ए’ का अर्थ है अन्दर से (Out of) और डूको’ का अर्थ है ‘आगे बढ़ाना’ (To lead)। लैटिन भाषा के अन्य दो शब्द ‘एजूकेयर’ (Educare) तथा ‘एजूसीयर’ (Educere) भी शिक्षा के इसी अर्थ की ओर संकेत करते हैं। इस भाँति, शिक्षा का शाब्दिक अर्थ है “बालक की अन्तर्निहित शक्तियों अथवा गुणों का सर्वतोन्मुखी विकास करना।”

प्रश्न 3.
शिक्षा को गतिशील प्रक्रिया क्यों कहा जाता है ?
उत्तर:
शिक्षा की प्रक्रिया का समुचित विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया (Dynamic Process) है। शिक्षा के गत्यात्मक पक्ष को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि यह न तो जड़ और न ही स्थिर प्रक्रिया है। शिक्षा की प्रक्रिया का मुख्यतम उद्देश्य व्यक्ति का सतत विकास करना है। व्यक्ति का शिक्षा के माध्यम से होने वाला विकास सदैव उन्नयनकारी ही होता है। इन समस्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ही हम शिक्षा को गतिशील प्रक्रिया कहते हैं।

प्रश्न 4.
साक्षरता का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
साक्षरता का सामान्य अर्थ ‘अक्षर-ज्ञान’ या ‘लिपि-ज्ञान’ है। यह भाषा के लिखित पक्ष से सम्बन्धित है, जिसके अन्तर्गत लिखना और पढ़ना दोनों शामिल हैं। अंग्रेजी भाषा में इसे लिट्रेसी (Literacy) कहते हैं, जिसका सम्बन्ध, लेखन-पाठन और गणित’ (Writing-Reading and Arithmatic) से है। इन्हें संक्षेप में श्री-आर्स (3-R’s) कहा जाता है। आधुनिक समय में इन श्री-आर्स अर्थात् लिखना-पढ़ना और गणित का ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति के लिए महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य है। इनको समुचित अध्ययन किये बिना दैनिक जीवन के क्रिया-कलापों को सुचारु और व्यवस्थित रूप से चलाना दूभर है। यूनेस्को के अनुसार, 
साक्षरता द्वारा व्यक्ति अपनी सामाजिक तथा आर्थिक प्रगति को प्राप्त कर सकता है, जो उसे आधुनिक संसार में अपना स्थान ग्रहण करने योग्य बनाती है और शान्तिपूर्वक मिल-जुलकर रहने की प्रेरणा देती है।”

प्रश्न 5.
साक्षरता तथा शिक्षा का सम्बन्ध स्पष्ट कीजिए।
उक्षर:
यह सत्य है कि साक्षरता तथा शिक्षा में स्पष्ट अन्तर है, परन्तु इस अन्तर के होते हुए भी साक्षरता तथा शिक्षा के बीच अटूट सम्बन्ध है। वास्तव में दोनों का एक ही लक्ष्य है और वह है मानव-जीवन को अधिक-से-अधिक सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाना। इस लक्ष्य तक पहुँचने की सीढ़ी का पहला सोपान ‘साक्षरता है और दूसरा सोपान ‘शिक्षा’। ये दोनों सोपान एक-दूसरे के सहायक एवं परिपूरक हैं तथा मानव-जीवन की पूर्णता के क्रमिक व अनिवार्य साधन हैं। साक्षरता के माध्यम से व्यक्ति दैनिक जीवन को सुचारु एवं सुव्यवस्थित बनाता है और शिक्षा उसके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करती है।

प्रश्न 6.
शिक्षा के कार्यों का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर:
शिक्षा का प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण कार्य मानव-जीवन को इस तरह से सुधारना तथा सँवारना है। ताकि वह समाज के लिए मूल्यवान् एवं उपयोगी सिद्ध हो सके। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के सम्बन्ध में वांछित ज्ञान प्राप्त करता है और उस ज्ञान को सामाजिक हित के कार्यों में प्रयोग करता है। जैक्स के अनुसार, “शिक्षा को बहुत-से कार्य करने हैं। शिक्षा के माध्यम से बालकों को इस योग्य बनाना चाहिए ताकि वे स्वयं विचार कर सकें, श्रम का सम्मान कर सकें।” शिक्षा का कार्य व्यक्तिगत जीवन को उन्नत बनाने के साथ-ही-साथ सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन को भी उन्नत बनाना है।

प्रश्न 7.
स्पष्ट कीजिए कि शिक्षा सभ्यता एवं संस्कृति की सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करती है।
उत्तर:
कोई भी समाज अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के माध्यम से पहचाना जाता है। अपनी सभ्यता एवं संस्कृति पर गर्व करने वाला प्रत्येक समाज देश की पुरानी मान्यताओं, कलाओं, परम्पराओं, आस्था तथा धर्म का ज्ञान सभी नागरिकों को प्रदान कराने की व्यवस्था करता है और प्रयास करता है कि उसकी सांस्कृतिक विरासत सुरक्षित रहे। यह शिक्षा का प्रमुख कार्य है कि वह बालकों को देश की सभ्यता एवं संस्कृति से परिचित कराने के साथ उसकी प्रगति व सुरक्षा में योगदान देना सिखाये। इस सन्दर्भ में ओटावे ने कहा है, शिक्षा का एक कार्य समाज के सांस्कृतिक मूल्यों एवं व्यवहार प्रतिमानों को अपने तरुणों तथा कार्यशील सदस्यों को प्रदान करना है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सभ्यता एवं संस्कृति की सुरक्षा में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

प्रश्न 8.
“शिक्षा एक त्रिधुवी (त्रिमुखी) प्रक्रिया है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कुछ विद्वानों ने शिक्षा को त्रिभुवी या त्रिमुखी प्रक्रिया माना है। इस वर्ग के मुख्य शिक्षाशास्त्री जॉन डीवी हैं। इस मान्यता के अनुसार शिक्षा के तीन प्रमुख अंग हैं। ये अंग हैं क्रमश: शिक्षार्थी या बालक, शिक्षा के लिए निर्धारित पाठ्यक्रम तथा शिक्षक। वास्तव में बालक तथा शिक्षक निर्धारित पाठ्यक्रम के आधार पर ही शिक्षा की प्रक्रिया को सुचारु रूप से अग्रसर करते हैं। पाठ्यक्रम के अभाव में शिक्षा की प्रक्रिया सम्पन्न नहीं हो सकती। इस तथ्य को ही ध्यान में रखते हुए शिक्षा की एक त्रिमुखी प्रक्रिया माना गया है।

प्रश्न 9.
शिक्षा का व्यापक एवं संकुचित अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
विभिन्न विषयों से सम्बन्धित कुछ तथ्यों एवं सूचनाओं को प्राप्त कर लेना शिक्षा कहलाता है। यह शिक्षा का प्रचलित अर्थ है। अन्य अर्थ हैं। शिक्षा का संकुचित अर्थ-शिक्षा का आशय उस व्यवस्थित प्रक्रिया से है जिसके अन्तर्गत बालकों को विद्यालय या अन्य किसी शिक्षण संस्था की सीमाओं में रखकर व्यावहारिक तथा उपयोगी ज्ञान प्रदान किया 
जाता है। शिक्षा का व्यापक अर्थ–इस अर्थ के अनुसार शिक्षा जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। इसके अनुसार सम्पूर्ण जगत् ही शिक्षा प्रदान करने वाला अभिकरण है तथा व्यक्ति हर पल कुछ-न-कुछ शिक्षा प्राप्त करता रहता है।

प्रश्न 10.
शिक्षा और सूचना में क्या अन्तर है?
उत्तर:
शिक्षा की प्रक्रिया के सन्दर्भ में अनेक बार ‘सूचना’ का भी उल्लेख किया जाता है, परन्तु ‘सूचना एवं शिक्षा में कुछ स्पष्ट अन्तर है। जहाँ तक शिक्षा की प्रक्रिया का प्रश्न है, इसके माध्यम से बालक में पूर्व-निहित शक्तियों एवं क्षमताओं का अधिकतम विकास किया जाता है। इससे भिन्न ‘सूचना का अर्थ है किन्हीं तथ्यों की जानकारी मात्रा शिक्षा के माध्यम से शिक्षार्थियों का सर्वांगीण विकास होता है। इससे भिन्न-भिन्न सूचनाओं को अर्जित करके सम्बन्धित बालक या व्यक्ति अपने ज्ञान या जानकारी के भण्डार में 
आवश्यक वृद्धि कर सकता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं—सूचनाएँ सीमित होती हैं, जब कि शिक्षा विस्तृत एवं सर्वांगीण होती है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्राचीन भारतीय धर्मग्रन्थों में शिक्षा (विद्या) से क्या आशय है ?
उत्तर:
प्राचीन भारतीय धर्मग्रन्थों में कहा गया है कि ‘सा विद्या या विमुक्तये’ अर्थात् विद्या या शिक्षा वह है जो व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक बन्धनो से मुक्त कराती है।

प्रश्न 2.
शिक्षा के अंग्रेजी पर्यायवाची (Education) शब्द की उत्पत्ति किस भाषा से हुई है ?
उत्तर:
‘Education’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘Educatum शब्द से हुई है।

प्रश्न 3.
विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा को क्या कहा जाता है ?
उत्तर:
विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा को संकुचित शिक्षा अथवा औपचारिक शिक्षा कहा जाता है।

प्रश्न 4.
कोई ऐसा कथन लिखिए जो शिक्षा के व्यापक अर्थ को स्पष्ट करता है।
उत्तर:
“शिक्षा के व्यापक अर्थ में वे समस्त प्रभाव सम्मिलित होते हैं, जो व्यक्ति पर उसके पालने से मृत्यु तक की यात्रा के मध्य पड़ते हैं।” 
-डूमवाइल

प्रश्न 5.
शिक्षा की फ्रॉबेल द्वारा प्रतिपादित परिभाषा लिखिए।
या
शिक्षा की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
“शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक की जन्मजात शक्तियाँ बाहर प्रकट होती हैं।” 
-फ्रॉबेल

प्रश्न 6.
शिक्षा की महात्मा गांधी द्वारा प्रतिपादित परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
“शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक एवं मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क एवं आत्मा के सर्वोत्तम अंश का प्रकटीकरण है।” 
–महात्मा गांधी

प्रश्न 7.
‘शिक्षा द्विमुखी प्रक्रिया है। ऐसा किसने कहा है?
उत्तर:
जॉन एडम्स ने शिक्षा को द्विमुखी प्रक्रिया कहा है।

प्रश्न 8.
शिक्षा को त्रिमुखी प्रक्रिया किसने माना है?
उत्तर:
जॉन डीवी ने शिक्षा को त्रिमुखी प्रक्रिया माना है।

प्रश्न 9.
शिक्षा के तीन प्रमुख अंग क्या हैं?
या
डीवी के अनुसार शिक्षा के प्रमुख पक्ष क्या हैं?
उत्तर:
शिक्षा के तीन प्रमुख अंग हैं-शिक्षार्थी, पाठ्यक्रम तथा शिक्षक।

प्रश्न 10.
साक्षरता से क्या आशय है?
उत्तर:
साक्षरता का सामान्य अर्थ ‘अक्षर-ज्ञान’ या ‘लिपि ज्ञान’ है। यह भाषा के लिखित पक्ष से सम्बन्धित है, जिसके अन्तर्गत लिखना तथा पढ़ना सम्मिलित है।

प्रश्न 11.
‘शिक्षा’ एवं ‘साक्षरता’ का सम्बन्ध एक वाक्य में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शिक्षा एवं साक्षरता दोनों एक-दूसरे के सहायक एवं पूरक हैं।

प्रश्न 12.
क्या शिक्षा प्राप्त करने के लिए साक्षरता एक अनिवार्य शर्त है?
उत्तर:
नहीं, शिक्षा प्राप्त करने के लिए साक्षरता अनिवार्य शर्त नहीं है।

प्रश्न 13.
शिक्षा के चार मुख्य महत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
शिक्षा के चार मुख्य महत्त्व हैं-

  • जन्मजात शक्तियों का विकास करती है,
  • परिस्थितियों के साथ अनुकूलन में सहायक होती है,
  • प्रतिभा के अभिप्रकाशन में सहायक होती है तथा
  • व्यक्तित्व के समुचित विकास में सहायक होती है।

प्रश्न 14.
शिक्षा की महत्ता को स्पष्ट करने वाला जॉन लॉक का एक कथन लिखिए।
उत्तर:
“पौधों का विकास कृषि द्वारा होता है और मनुष्यों का शिक्षा के द्वारा।”

प्रश्न 15.
व्यक्तिगत जीवन में शिक्षा के एक महत्त्वपूर्ण कार्य का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
शिक्षा व्यक्ति की जन्मजात शक्तियों एवं गुणों के विकास में सहायक होती है।

प्रश्न 16.
सामाजिक दृष्टिकोण से शिक्षा के एक महत्त्वपूर्ण कार्य का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक दृष्टिकोण से शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है-सभ्यता एवं संस्कृति को सुरक्षा प्रदान करना।

प्रश्न 17.
“शिक्षा से मेरा अभिप्राय उन सर्वश्रेष्ठ गुणों का प्रदर्शन है जो बालक और मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा में विद्यमान है।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
यह कथन गांधी जी का है।

प्रश्न 18.
वर्तमान समय में शिक्षा शिक्षक/बालक केन्द्रित है।
उत्तर:
वर्तमान समय में शिक्षा बालक केन्द्रित है।

प्रश्न 19.
अनुदेश या निर्देश शिक्षा का संकुचित/व्यापक रूप है।
उत्तर:
संकुचित रूप है।

प्रश्न 20.
निम्न में से कौन-सा शब्द एजूकेशन से सम्बन्धित नहीं है।
(i) एजूकोरस,
(ii) एजेकेयर।
उत्तर:
(i) एजूकोरस।

प्रश्न 21.
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. शिक्षा एक जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है।
  2. जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा एक त्रि-पक्षीय प्रक्रिया है। ये पक्ष हैं-शिक्षक, शिक्षार्थी तथा शिक्षा का पाठ्यक्रम
  3. शिक्षा के द्वारा व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का पथ प्रशस्त होता है।
  4. शिक्षा तथा निर्देशन में कोई अन्तर नहीं है।
  5. शिक्षा के लिए साक्षरता एक अनिवार्य शर्त है।
  6. व्यक्ति की जन्मजात शक्तियों के विकास में शिक्षा का कोई योगदान नहीं होता।
  7. सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन के दृष्टिकोण से शिक्षा का कोई महत्त्व नहीं है।

उत्तर:

  1. सत्य,
  2. सत्य,
  3. सत्य,
  4. असत्य,
  5. असत्य,
  6. असत्य.
  7. असत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1.
शिक्षा क्या है?
(क) शिक्षा का अर्थ परीक्षा पास करना है।
(ख) शिक्षा एक विषय है।
(ग) शिक्षा विकासोन्मुखी परिवर्तन है
(घ) शिक्षा एक आदर्श है।

प्रश्न 2.
शिक्षा शब्द का अर्थ है–
(क) ज्ञान को प्रकाश में लाना।
(ख) ज्ञान को बाहर से भीतर को ले आना
(ग) ज्ञान की वृद्धि करना।
(घ) अन्तर्निहित शक्तियों का सर्वांगीण विकास करना

प्रश्न 3.
“संकुचित अर्थ में शिक्षा का अर्थ-हमारी शक्तियों के विकास और सुधार के लिए चेतनापूर्वक किये गये प्रयासों से किया जाता है।” यह परिभाषा है
(क) मैकेंजी की
(ख) पेस्टालॉजी की
(ग) फ्रॉबेल व
(घ) टी०पी० नन की

प्रश्न 4.
“शिक्षा मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों का स्वाभाविक, सर्वांगपूर्ण तथा प्रगतिशील विकास है।” यह परिभाषा किसने दी है?
(क) ब्राउन ने
(ख) एडीसन ने
(ग) हार्नी ने
(घ) पेस्टालॉजी ने

प्रश्न 5.
“शिक्षा एक द्विध्रुवीय प्रक्रिया है, जिसमें एक व्यक्ति का व्यक्तित्व दूसरे को प्रभावित करता है।” यह कथन किसका है?
(क) एडम्स का
(ख) एडीसन का
(ग) मॉण्टेसरी का
(घ) प्लेटो का

प्रश्न 6.
“शिक्षा से मेरा तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जो बालक और मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा के तत्त्वों का उत्कृष्ट और सर्वांगीण विकास करे।” यह कथन किसका है?
(क) विवेकानन्द का।
(ख) एनी बेसेण्ट का
(ग) सुकरात को।
(घ) महात्मा गांधी का

प्रश्न 7.
“शिक्षा एक त्रिमुखी प्रक्रिया है।” यह कथन किसका है?
(क) जॉन डीवी का
(ख) एडम्स का
(ग) कमेनियस को
(घ) ओटावे का

प्रश्न 8.
शिक्षा की द्विमुखी प्रक्रिया के कौन-से दो मुख्य भाग हैं?
(क) विद्यालय और शिक्षक
(ख) शिक्षक और बालक
(ग) बालक और माता।
(घ) समाज और पुस्तक

प्रश्न 9.
शिक्षा को ‘द्विमुखी प्रक्रिया’ कहा है
(क) जॉन एडम्स ने
(ख) जॉन लॉक ने
(ग) जॉन डीवी ने
(घ) जेम्स रॉस ने

प्रश्न 10.
शिक्षा की आवश्यकता का मुख्य कारण है
(क) जीवन की प्रगति
(ख) सन्तुलित एवं सर्वांगीण विकास
(ग) जीविकोपार्जन
(घ) सुखी जीवन

प्रश्न 11.
सच्ची शिक्षा का कार्य है.
(क) सूचनाएँ एकत्र करना।
(ख) कक्षा में अनुदेश देना
(ग) उपाधि प्रदान करना ।
(घ) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना

प्रश्न 12.
“शिक्षा जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि बिना शिक्षा के जीवन में प्रगति नहीं हो सकती।” यह कथन किसका है?
(क) जॉन डीवी का
(ख) रेमण्ट का
(ग) पेस्टोलॉजी का
(घ) हरबर्ट का

प्रश्न 13.
शिक्षा का प्रमुख कार्य कौन-सा है?
(क) बालक को ज्ञान देना।
(ख) बालक की मूल-प्रवृत्तियों का शोधन करना
(ग) बालक को संसार से लिप्त करना ।
(घ) बालक़ के सर्वांगीण विकास में उसकी सहायता करना

प्रश्न 14.
“स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का विकास ही शिक्षा है।” यह कथन है
(क) प्लेटो का
(ख) अरस्तू का
(ग) गांधी जी का
(घ) अरविन्द का

प्रश्न 15.
राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का प्रमुख कार्य है
(क) राष्ट्रीय विकास।
(ख) राष्ट्रीय एकता
(ग) योग्य नागरिकों का निर्माण
(घ) इनमें से सभी

प्रश्न 16.
एडम्स के अनुसार शिक्षा की द्विमुखी प्रक्रिया में दो तत्त्व होते हैं
(क) शिक्षक, शिष्य
(ख) शिक्षक, अभिभावक
(ग) शिष्य, पाठ्यक्रम।
(घ) शिक्षक, पाठ्यक्रम

प्रश्न 17.
शिक्षा के संकुचित अर्थ को सम्बन्ध है–
(क) घर से
(ख) विद्यालय से
(ग) समाज से
(घ) से सभी

उत्तर:

  1. (ग) शिक्षा विकासोन्मुखी परिवर्तन है,
  2. (घ) अन्तर्निहित शक्तियों का सर्वांगीण विकास करना,
  3. (क) मैकेंजी की,
  4. (क) ब्राउन ने,
  5. (क) एडम्स का,
  6. (घ) महात्मा गांधी का,
  7. (क) जॉन डीवी का,
  8. (ख) शिक्षक और बालक,
  9. (के) जॉन एडम्स ने,
  10. (ख) सन्तुलित एवं सर्वांगीण विकास,
  11. (घ) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना,
  12. (ख) रेमण्ट का,
  13. (घ) बालक के सर्वांगीण विकास में उसकी सहायता करना,
  14. (ख) अरस्तू का,
  15. (घ) इनमें से सभी,
  16. (क) शिक्षक, शिष्य,
  17. (ख) विद्यालय से।

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UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 2 Forms and Nature of Education

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 2
Chapter Name Forms and Nature of Education
(शिक्षा के स्वरूप एवं प्रकृति)
Number of Questions Solved 31
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 2 Forms and Nature of Education (शिक्षा के स्वरूप एवं प्रकृति)

वस्तुत उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
औपचारिक शिक्षा तथा अनौपचारिक शिक्षा का अर्थ स्पष्ट करते हुए इन दोनों का अन्तर : स्पष्ट कीजिए।
या
शिक्षा के औपचारिक स्वरूप का वर्णन कीजिए।
या
औपचारिक शिक्षा से क्या आशय है?
या
शिक्षा के औपचारिक एवं अनौपचारिक स्वरूपों का वर्णन कीजिए।
या
निरौपचारिक (अनौपचारिक) शिक्षा क्या है? उदाहरण दीजिए।
उतर:
व्यक्ति एवं समाज दोनों ही के लिए शिक्षा का विशेष महत्त्व है। शिक्षा एक व्यापक प्रक्रिया है। शिक्षा के अनेक प्रकार अथवा स्वरूप देखे जा सकते हैं। शिक्षा के प्रकारों का निर्धारण भिन्न-भिन्न आधारों पर किया जा सकता है। जब हम शिक्षा के नियमों एवं उसकी व्यवस्था को आधार मानकर शिक्षा के प्रकारों का निर्धारण करते हैं, तब हमारे सम्मुख शिक्षा के मुख्य रूप से दो स्वरूप या प्रकार प्रस्तुत होते हैं, जिन्हें क्रमश: औपचारिक शिक्षा (Formal Education) तथा अनौपचारिक शिक्षा (Informal Education) कहा जाता है। शिक्षा के इन दोनों प्रकारों के अर्थ, साधनों एवं अन्तर आदि का विवरण निम्नवत् है

औपचारिक शिक्षा
(Formal Education)

औपचारिक शिक्षा, जिसे नियमित या सांविधिक शिक्षा भी कहते हैं, बालकों को विचारपूर्ण तथा सुव्यवस्थित ढग से दी जाने वाली शिक्षा है। औपचारिक शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए जे० मोहन्नी ने लिखा है, “इस प्रकार की शिक्षा की योजना सोच-विचारकर और जान-बूझकर बनाई जाती है। इसके पाठ्यक्रम की रूपरेखा पहले से ही तैयार कर ली जाती है और इसके उद्देश्य भी पहले से ही निश्चित कर लिए जाते हैं।” स्पष्ट है इस शिक्षा की योजना पहले ही तैयार कर ली जाती है और इसका ध्येय भी निश्चित कर लिया जाता है। औपचारिक शिक्षा में पूर्व-निर्धारित रूपरेखा के अन्तर्गत बालकों को निश्चित समय पर निश्चित ज्ञान प्रदान किया जाता है। विशेष प्रकार की संस्थाओं में निश्चित व्यक्ति (शिक्षक) निश्चित विधियों के माध्यम से औपचारिक शिक्षा देते हैं। शिक्षा के इस स्वरूप में पाठ्यक्रम, समय-सारणी तथा पुस्तकें अत्यन्त आवश्यक समझी जाती हैं। शिक्षा के इस प्रकार के अन्तर्गत नियमित परीक्षाओं की व्यवस्था होती है तथा परीक्षाओं के आधार पर योग्यता का प्रमाण-पत्र भी प्रदान किया जाता है। वर्तमान समाज में औपचारिक शिक्षा के मुख्यतम अभिकरण विद्यालय या स्कूल-कॉलेज हैं। इनके अतिरिक्त पुस्तकालय, वाचनालय तथा संग्रहालय एवं कलावीथियाँ आदि भी औपचारिक शिक्षा के अभिकरण हैं। औपचारिक शिक्षा केवल एक निश्चित अवधि तक ही चलती है।

अनौपचारिक शिक्षा
(Informal Education)

अनौपचारिक शिक्षा को अनियमित या अविधिक या निरौपचारिक शिक्षा भी कहा जाता है। यह शिक्षा बालक को अनायास तथा आकस्मिक रूप से प्राप्त होती है और व्यक्ति के जीवन में जन्म से अन्त तक चलती रहती है। अनौपचारिक शिक्षा का कोई विचार, पूर्व-योजना, सुव्यवस्थित ढंग, सुनिश्चित स्थान, निश्चित समय और कोई निश्चित नियम नहीं होता। यह तो हर समय और हर स्थान पर किसी-न-किसी रूप में चलती रहती है। मुख्य रूप से अनौपचारिक शिक्षा अनुभवों पर आधारित शिक्षा है; अत: इसे अनुभव द्वारा प्राप्त की गई शिक्षा भी कहते हैं। यह शिक्षा किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी भी व्यक्ति को प्रदान की जा सकती है। परिवार, धर्म, राज्य, समाज, युवकों का समूह, खेल का मैदान, रेडियो, टेलीविजन, समाचार-पत्र तथा पत्रिकाएँ–अनौपचारिक शिक्षा के मुख्य साधन या अभिकरण हैं।

प्रश्न 2.
शिक्षाशास्त्र एक विज्ञान है या कला अथवा दोनों ही? अपने मत के समर्थन में तर्क प्रस्तुत कीजिए।
या
शिक्षाशास्त्र की प्रकृति पर प्रकाश डालते हुए बताइए कि यह एक विज्ञान है या कला।
या
“शिक्षाशास्त्र न तो शुद्ध विज्ञनि है और न ही शुद्ध कला।” आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं?
या
“शिक्षा कलाा है।” स्पष्टतया समझाइए।
उतर:

शिक्षाशास्त्र की प्रकृति : विज्ञान अथवा कला
(Nature of Education : Science or Art)

शिक्षाशास्त्र की प्रकृति के सम्बन्ध में वैचारिक मतभेद दृष्टिगोचर होते हैं। शिक्षाशास्त्र एक विज्ञान है या कला?-आज यह एक विवादास्पद प्रश्न है, जिसके सम्बन्ध में शिक्षाविदों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वानों के अनुसार शिक्षाशास्त्र एक विज्ञान है तो दूसरे विद्वानों के अनुसार यह एक कला है। अधिकांश विद्वानों की दृष्टि में शिक्षाशास्त्र न तो विशुद्ध विज्ञान है और न ही विशुद्ध कला, बल्कि शिक्षाशास्त्र अपने वैज्ञानिक और कलात्मक या व्यावहारिक पक्षों के कारण विज्ञान तथा कला दोनों है। शिक्षाशास्त्र की प्रकृति के विषय में सही निर्णय लेने से पहले आवश्यक है कि विज्ञान एवं कला की विशेषताओं से परिचय प्राप्त किया जाए। इसके साथ ही उन मौलिक सिद्धान्तों तथा मानदण्डों से परिचित भी होना चाहिए जिनके आधार पर ज्ञान की किसी शाखा को विज्ञान या कला की श्रेणी में रखा जाता है।

शिक्षाशास्त्र का वैज्ञानिक पक्ष
(Scientific Aspect of Education)

विज्ञान क्या है?- प्रसिद्ध विचारक ग्रीन के अनुसार, “विज्ञान अन्वेषण का तरीका है।” विज्ञान सत्य या सच्चे ज्ञान का अन्वेषण (खोज) करता है, फिर उस ज्ञान को व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध करके कुछ नियम या सिद्धान्त बनाता है, जो निश्चित एवं सर्वमान्य होते हैं और समान परिस्थितियों में समान रूप से लागू होते हैं। बर्नेट का कथन है, “विज्ञान सामान्यतः जाँचा गया अनुभव है, प्रदत्तों-निष्कर्षों तथा सामान्य नियमों का एक संगठन है, जो अनुभवों से प्राप्त होता है, जिसके आधार पर घटनाओं तथा परिस्थितियों की सर्वोत्तम ढंग से व्याख्या या आलोचना की जाती है। वस्तुत: विज्ञान स्वयं में कोई विषय-सामग्री नहीं, अपितु वैज्ञानिक पद्धति से प्राप्त किया गया व्यवस्थित ज्ञान है।

क्या शिक्षाशास्त्र विज्ञान है?- विज्ञान की भाँति शिक्षा के कुछ निश्चित नियम, सिद्धान्त एवं कार्य होते हैं। इन सभी को विज्ञान की तरह से निर्धारित किया जाता है, इनके परिणाम निकाले जाते हैं तथा मूल्यांकन किया जाता है। आजकल शिक्षा से सम्बन्धित प्रत्येक क्षेत्र में वैज्ञानिक पद्धति को ही अपनाया जा रहा है। शैक्षिक अध्ययनों में भी वैज्ञानिक अध्ययनों की तरह से प्रदत्तों का संग्रह, विश्लेषण, वर्गीकरण, प्रायोगीकरण, सत्य का निर्धारण तथा नियमीकरण किया जाता है। सैद्धान्तिक स्तर पर शिक्षा-शिक्षण के लक्ष्यों, उद्देश्यों, . विधियों तथा नियमों का निर्धारण करती है, जिसमें वैज्ञानिक विधियों का आश्रय लिया जाता है। शिक्षा के पाठ्यक्रम से जुड़े अनेक अध्ययनों; जैसे-शैक्षिक मूल्यांकन, पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त, कक्षा-शिक्षण, सीखने के नियम, स्मरण की विधियों, अवधान तथा थकान आदि के अन्तर्गत भी वैज्ञानिक सिद्धान्तों तथा नियमों का ही प्रयोग होता है।

क्या शिक्षाशास्त्र विशुद्ध विज्ञान है?- यद्यपि शिक्षाशास्त्र एक विज्ञान है तथापि भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान और गणित की भाँति इसे विशुद्ध विज्ञान नहीं कहा जा सकता। वस्तुत: विशुद्ध विज्ञानों का सम्बन्ध पदार्थों (Matter) से है, जब कि शिक्षाशास्त्र एक मानवीय विषय (Human Subject) है जिसका सम्बन्ध मनुष्य मात्र से होता है। इस प्रकार इसे सामाजिक विज्ञानों की श्रेणी में रखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त, विशुद्ध विज्ञान की तरह से शिक्षा के नियम तथा सिद्धान्त अपरिवर्तनशील, निश्चित एवं सार्वभौमिक नहीं होते। इनमें देश-काल, पात्र तथा व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। सत्य तो यह है कि शिक्षा का मानव के मन और आचरण से सीधा सम्बन्ध है जिसके विषय में निश्चित नियमों का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। शिक्षा से सम्बन्धित नियमों एवं सिद्धान्तों को सामान्य परिस्थितियों में ही लागू किया जा सकता है। यही कारण है कि शिक्षा को ‘विशुद्ध विज्ञान के स्थान पर ‘व्यावहारिक विज्ञान’ कहना अधिक उचित होगा।

शिक्षाशास्त्र कला के रूप में
(Education as an Art)

कला क्या है?- कला ‘निर्माण’ या ‘उत्पादन’ की एक प्रक्रिया है जिसमें मनुष्य का कौशल निहित है। कला का उद्देश्य कुछ जानना (अर्थात् ज्ञान) न होकर कुछ ‘सृजन करना है। इस प्रकार विज्ञान एवं कला में उपयोगिता की दृष्टि से मौलिक भेद है। नृत्य, संगीत, मूर्तिकला, चित्रकारी तथा काष्ठकला आदि में निर्माण या सृजन का ही दृष्टिकोण प्रमुख होता है।

क्या शिक्षाशास्त्र कला है?- कला को एक ऐसी व्यावहारिक कुशलता कहा गया है जिसका प्रधान उद्देश्य रचना, निर्माण तथा सृजन है। शिक्षक एक कुशल कलाकार है और उसका शिक्षण-कार्य एक कला है। दूसरे शब्दों में, शिक्षक एक दक्ष कलाकार की तरह कक्षा में शिक्षण-कार्य करता है और बालकों के व्यक्तित्व का निर्माण करता है। उसके लिए विद्यालय एक कला-मन्दिर है, जिसमें अपने आदर्शों के अनुसार वह बालकों के मानस-पटल पर सुन्दर चित्र बनाता है। बालक के व्यवहार में वांछित परिवर्तन शिक्षक की शिक्षण-कला, पर निर्भर करता है। जो शिक्षक अपनी शिक्षण-कला में जितना अधिक पारंगत होता है, वह उतना ही अपने छात्रों का हित कर सकता है। इस दृष्टि से विचार करने पर शिक्षा को कला की संज्ञा दी जा सकती है।

क्या शिक्षाशास्त्र विशुद्ध कला है?- शिक्षा एक ‘कला और शिक्षक ‘कलाकार’ अवश्य है, किन्तु शिक्षक-चित्रकार, शिल्पी या संगीतज्ञ की तरह अपनी शिक्षण-कला को विशुद्ध एवं स्वतन्त्र प्रदर्शन नहीं कर सकता। वह किन्हीं सीमाओं के भीतर रहकर ही शिक्षण कार्य करता है। उसके शिक्षण की पद्धति बालकों की व्यक्तिगत भिन्नताओं; जैसे-शारीरिक-मानसिक-बौद्धिक शक्तियों, रुचियों, अभिरुचियों तथा क्षमताओं आदि; पर आधारित होती है और तदनुसार परिवर्तित भी होती रहती है। हाँ, यदि शिक्षक एक स्वतन्त्र कलाकार की भाँति स्वेच्छा से शिक्षण-कार्य कर पाता तो शिक्षा को विशुद्ध कला कहा जा सकता था, किन्तु उपर्युक्त तर्कों के अन्तर्गत उसे विशुद्ध कला’ क़ा नाम नहीं दिया जा सकता।

शिक्षाशास्त्र विज्ञान और कला दोनों ही है।
(Education is both a Science and an Art)

शिक्षा के वैज्ञानिक तथा कलात्मकं पक्षों की समीक्षा के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शिक्षाशास्त्र को न तो विशुद्ध विज्ञान की श्रेणी में रखा जा सकता है और न ही विशुद्ध कला की श्रेणी में। जहाँ तक शिक्षा की पद्धति, विधि, पाठ्यक्रम, समय-चक्र तथा कार्य-प्रणाली का प्रश्न है-इन्हें निर्मित करते समय शिक्षा की वैज्ञानिक प्रकृति लाभकारी सिद्ध होती है, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से शिक्षण-कार्य के सन्दर्भ में शिक्षा की कलात्मक प्रकृति का ही महत्त्व है। नि:सन्देह और सर्वमान्य रूप से, ‘शिक्षाशास्त्र, विज्ञान और कला दोनों ही हैं।

लघु उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सामान्य शिक्षा तथा विशिष्ट शिक्षा से क्या आशय है? या विशिष्ट शिक्षा क्या है।
उतर:

समान्य तथा विशिष्ट शिक्षा
(General and Specific Education)

शिक्षा के उद्देश्य के आधार पर शिक्षा के दो प्रकारों का निर्धारण किया गया है, जिन्हें क्रमश: सामान्य शिक्षा तथा विशिष्ट शिक्षा के रूप में जाना जाता है। शिक्षा के इन दोनों प्रकारों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित
1. सामान्य शिक्षा- यह शिक्षा बालकों को सामान्य जीवन के लिए तैयार करती है। इस शिक्षा का कोई विशेष उद्देश्य नहीं होता। इसके अन्तर्गत बालक को किसी व्यवसाय के लिए तैयार नहीं किया जाता, अपितु उसमें तत्परता लाने की दृष्टि से उसकी सामान्य बुद्धि को तीव्र करने का प्रयास किया जाता है। सामान्य शिक्षा को उदार शिक्षा भी कहा जाता है। भारत के माध्यमिक स्कूलों में इसी प्रकार की शिक्षा प्रदान की जाती है।

2. विशिष्ट शिक्षा- 
यह शिक्षा किसी विशेष उद्देश्य को ध्यान में रखकर प्रदान की जाती है। यह विशेष उद्देश्य बालक को किसी विशेष दिशा में अपरिहार्य गुणों, कार्य-कुशलताओं तथा क्षमताओं से परिपूर्ण कर देता है। इस शिक्षा को प्राप्त करने के उपरान्त बालक जीवन के एक विशेष या निश्चित क्षेत्र; जैसे-डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, चित्रकार या एकाउण्टेण्ट आदि; में कार्य करने के लिए कुशलता एवं योग्यता प्राप्त कर लेता है। वर्तमान युग में जीविका उपार्जन के लिए तथा किसी भी क्षेत्र में विशेषज्ञ का स्थान अर्जित करने के लिए विशिष्ट शिक्षा को ही आवश्यक माना जाता है।

प्रश्न 2.
वैयक्तिक शिक्षा तथा सामूहिक शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट कीजिट।
उतर:

वैयक्तिक तथा सामूहिक शिक्षा
(Individual and Collective Education)

शिक्षक तथा विद्यार्थी या छात्र के आपसी सम्बन्धों के आधार पर शिक्षा के दो प्रकारों का निर्धारण किया गया है, जिन्हें क्रमश: वैयक्तिक शिक्षा तथा सामूहिक शिक्षा के रूप में जाना जाता है। शिक्षा के इन दोनों प्रकारों का संक्षिप्त विवरण अग्रलिखित है–
1. वैयक्तिक शिक्षा- यह शिक्षा सिर्फ एक बालक से सम्बन्धित शिक्षा है, जिसके अन्तर्गत बालक को व्यक्तिगत रूप से तथा अकेले सिखाया जाता है। शिक्षा देते समय बालक की प्रकृति, योग्यता, रुचि, अभिरुचि तथा व्यक्तिगत विभिन्नता को ध्यान में रखा जाता है और शिक्षण की समस्त क्रियाओं का प्रभाव भी उसी बालक पर केन्द्रित किया जाता है। इस शिक्षा में शिक्षक प्रचलित नवीन शिक्षण-विधियों का प्रयोग करता है। आधुनिक समय में वैयक्तिक शिक्षा पर काफी जोर दिया जा रहा है, परन्तु गरीब देशों में इस प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था कर पाना बहुत कठिन है।

2. सामूहिक शिक्षा- सामूहिक शिक्षा बालकों के समूह से सम्बन्धित है, जिसके अन्तर्गत बहुत-से बालक कक्षा में एक साथ बैठकर एक ही प्रकार की शिक्षा प्राप्त करते हैं। सामूहिक शिक्षा में सभी बालकों को समान स्तर पर समान शिक्षण-विधियों द्वारा शिक्षा दी जाती है और उनकी व्यक्तिगत योग्यताओं, प्रवृत्तियों, रुचियों, अभिरुचियों तथा विभिन्नताओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। वर्तमान में विश्वभर के सभी स्कूलों में सामूहिक शिक्षा का ही प्रचलन है। सामूहिक शिक्षा से केवल औसत क्षमताओं वाले छात्र ही लाभान्वित होते हैं। इस प्रकार की शिक्षा औसत से निम्न तथा औसत से उच्च-स्तर के छात्रों के लिए अधिक लाभकारी सिद्ध नहीं होती है।

प्रश्न 3.
प्रत्यक्ष शिक्षा तथा परोक्ष शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
उतर:

प्रत्यक्ष शिक्षा तथा परोक्ष (अप्रत्यक्ष) शिक्षा
(Direct and Indirect Education)

शिष्य या विद्यार्थी पर शिक्षक के पड़ने वाले प्रभाव के आधार पर भी शिक्षा के प्रकारों का निर्धारण किया गया हैं, जिन्हें क्रमश: प्रत्यक्ष शिक्षा तथा परोक्ष शिक्षा के रूप में जाना जाता है। शिक्षा के इन दोनों प्रकारों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है–
1. प्रत्यक्ष शिक्षा- अनेक शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा को अध्यापक तथा शिक्षार्थी के बीच एक द्विमुखी प्रक्रिया माना है। अध्यापक एक परिपक्व व्यक्तित्व होने के नाते अपने ज्ञान, आदर्श एवं चरित्र से बालक को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है, जिसके परिणामस्वरूप बालक अध्यापक का अनुसरण करता है। जब अध्यापक और बालक पूर्व निश्चित उद्देश्य के अनुसार सुनियोजित रूप से एक-दूसरे के सम्मुख बैठकर ज्ञान का आदान-प्रदान करते हैं, तो उसे प्रत्यक्ष शिक्षा कहा जाता है।

2. परोक्ष शिक्षा- 
परोक्ष शिक्षा में अध्यापक के व्यक्तित्व का प्रत्यक्ष (सीधा) प्रभाव बालक पर नहीं पड़ता। वह परोक्ष साधनों द्वारा प्रभावित होता है। इस शिक्षा का कोई उद्देश्य या योजना पहले से तय नहीं होती। इसके अन्तर्गत शिक्षा कार्यक्रमों के विषय में अधिकांश निर्देश परोक्ष रूप में दिए जाते हैं तथा बालक स्वतन्त्र वातावरण में परोक्ष साधनों द्वारा इच्छानुसार शिक्षा ग्रहण करता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से परोक्ष शिक्षा को उत्तम माना जाता है।

अतिलघु उतरीय प्रण

प्रश्न 1.
औपचारिक शिक्षा के महत्व का उल्लेख कीजिए।
उतर:
विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में व्यवस्थित रूप से प्रदान की जाने वाली शिक्षा को औपचारिक शिक्षा कहा जाता है। औपचारिक शिक्षा के महत्त्व का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

  1. किसी विशेष क्षेत्र में व्यवस्थित ज्ञान अर्जित करने के लिए औपचारिक शिक्षा ही आवश्यक होती है। औपचारिक शिक्षा के अभाव में विशेष ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता।
  2. भले ही औपचारिक शिक्षा का क्षेत्र संकुचित है, किन्तु आज का समाज उसी व्यक्ति को सुशिक्षित मानता है जिसने औपचारिक ढंग से किसी मान्यता प्राप्त शिक्षा-संस्थान या विश्वविद्यालय से प्रमाण-पत्र अर्जित किया है।
  3. वर्तमान परिस्थितियों में जीविका उपार्जन के दृष्टिकोण से भी औपचारिक शिक्षा को ही अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। किसी सरकारी अथवा गैर-सरकारी प्रतिष्ठान में नौकरी पाने के लिए औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के प्रमाण-पत्र के आधार पर ही अनिवार्य योग्यता निर्धारित की जाती है।

प्रश्न 2.
अनौपचारिक शिक्षा के महत्त्व का उल्लेख कीजिए।
उतर:
किसी भी स्रोत से ज्ञान प्राप्त करना ही अनौपचारिक शिक्षा है। अनौपचारिक शिक्षा का व्यक्ति के जीवन में विशेष महत्त्व है। अनौपचारिक शिक्षा के महत्त्व का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

  1. अनौपचारिक शिक्षा बालक के भावी जीवन की आधारशिला है। बालक अपने प्रारम्भिक जीवन में अनौपचारिक ढंग से ही शिक्षा प्राप्त करता है। शिक्षा मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में प्रारम्भ के पाँच वर्षों में बालक का व्यक्तित्व अनौपचारिक शिक्षा द्वारा ही निर्मित होता है।
  2. अनौपचारिक शिक्षा व्यापक है। यह मानव-जीवन के सभी पक्षों से सम्बन्ध रखती है और व्यक्ति को जीवन की यथार्थ परिस्थितियों के साथ सामंजस्य सिखाती है।
  3. अनौपचारिक शिक्षा द्वारा बालक का सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकसित होता है। बालक सद्-आचरण, व्यवहार, नैतिक-शिक्षा, सभ्यता एवं संस्कृति का अधिकाधिक ज्ञान इसी शिक्षा द्वारा प्राप्त करता है।

प्रश्न 3.
लोकतन्त्रात्मक राज्य में समाचार-पत्र और पत्रिकाओं की शैक्षिक भूमिका पर टिप्पणी कीजिए।
उतर:
वर्तमान लोकतन्त्रात्मक राज्य एवं समाज में शिक्षा की अवधारणा अत्यधिक विस्तृत हो गयी है। तथा इस प्रक्रिया के लिए विभिन्न प्रकार के अभिकरण उपलब्ध हैं। समाचार-पत्र तथा पत्रिकाएँ शिक्षा के निरौपचारिक अभिकरण हैं। समाचार-पत्र तथा पत्रिकाएँ अनेक प्रकार की सूचनाएँ, जानकारी तथा ज्ञान प्रदान करने वाले स्रोत हैं। अत: इनका विशेष शैक्षिक महत्त्व एवं भूमिका है। शिक्षा के ये अभिकरण प्रत्येक व्यक्ति के लिए उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण हैं। सामान्य शिक्षा, दूरस्थ शिक्षा तथा प्रौढ़ या सामाजिक-शिक्षा के दृष्टिकोण से पत्र-पत्रिकाओं का विशेष महत्त्व है।

प्रश्न 4.
सकारात्मक शिक्षा (Positive Education) से क्या आशय है?
उतर:
सकारात्मक या निश्चयात्मक शिक्षा को उद्देश्य बालक को कुछ निश्चित तथ्यों, आदर्शों तथा मूल्यों (जैसे—सूर्य पूरब दिशा से निकलता है, पत्तियों का रंग हरा होता है, सदा सत्य बोलना चाहिए, निर्धनों की सहायता करनी चाहिए आदि) का ज्ञानं प्रदान करना है। यहाँ ज्ञान के हस्तान्तरण में शिक्षक की भूमिका प्रधान है। शिक्षा के इस स्वरूप के अन्तर्गत बालक बिना किसी तर्क-वितर्क के ही ज्ञान को स्वीकार कर लेता है। सकारात्मक शिक्षा को आदर्शवादी विचारधारा को समर्थन प्राप्त है।

प्रश्न 5.
नकारात्मक शिक्षा (Negative Education) के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
या
निषेधात्मक शिक्षा से आप क्या समझते हैं?
उतर:
नकारात्मक या निषेधात्मक या अनिश्चयात्मक शिक्षा में बालक स्वयं अपने अनुभव तथा क्रियाओं द्वारा ज्ञान अर्जित करता है। अपने आदर्शों का निर्माता भी वह स्वयं है। अध्यापक की भूमिका एक मार्गदर्शक से अधिक नहीं होती जो उचित वातावरण तैयार करने में सहायता करता है। इस शिक्षा के अन्तर्गत बालक अपनी रुचियों, इच्छाओं तथा स्वाभाविक प्रवृत्तियों के अनुसार अपना शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास करता है। नकारात्मक शिक्षा का समर्थन प्रयोगवादी तथा प्रकृतिवादी विचारधारा के पक्षधर करते हैं।

निश्चित उतरीय प्रश्न,

प्रश्न 1.
शिक्षा के नियमों एवं व्यवस्था के आधार पर शिक्षा के कौन-कौन-से प्रकार या स्वरूप
निर्धारित किए गए हैं?
उतर:
शिक्षा के नियमों एवं व्यवस्था के आधार पर शिक्षा के दो प्रकार या स्वरूप निर्धारित किए गए। हैं–

  • औपचारिक शिक्षा तथा
  • अनौपचारिक शिक्षा।

प्रश्न 2.
प्रवेश और प्रस्थान के निश्चित बिन्दु किस प्रकार की शिक्षा के लक्षण हैं?
उतर:
प्रवेश और प्रस्थान के निश्चित बिन्दु औपचारिक शिक्षा के लक्षण हैं।

प्रश्न 3.
औपचारिक शिक्षा प्रदान करने वाले मुख्य अभिकरणों को क्या कहते हैं?
उतर:
औपचारिक शिक्षा प्रदान करने वाले मुख्य अभिकरणों को विद्यालय अथवा स्कूल कहते हैं।

प्रश्न 4.
शिक्षा के उस स्वरूप को क्या कहते हैं, जो बिना निर्धारित पाठ्यक्रम, पुस्तकों एवं नियमों के …। ही आजीवन चलती रहती है?
उतर:
अनौपचारिक शिक्षा।।

प्रश्न 5.
किसी व्यवस्थित संस्थान में कार्यरत होने के लिए किस प्रकार की शिक्षा को अनिवार्य योग्यता के रूप में स्वीकार किया जाता है?
उतर:
औपचारिक शिक्षा को।।

प्रश्न 6.
जीवन में व्यावहारिक कुशलता अर्जित करने के लिए शिक्षा के किस स्वरूप को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है?
उतर:
जीवन में व्यावहारिक कुशलता अर्जित करने के लिए अनौपचारिक शिक्षा को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

प्रश्न 7.
कुशल व्यवसायी अर्थात् डॉक्टर, इन्जीनियर तथा वकील आदि बनने के लिए दी जाने वाली शिक्षा को क्या कहते हैं?
उतर:
कुशल व्यवसायी बनने के लिए दी जाने वाली शिक्षा को विशिष्ट शिक्षा कहते हैं।

प्रश्न 8.
व्यक्ति की व्यक्तिगत योग्यताओं, रुचियों, अभिरुचियों एवं क्षमताओं आदि को ध्यान में रखकर दी जाने वाली शिक्षा को क्या कहते हैं?
उतर:
इस प्रकार की शिक्षा को वैयक्तिक शिक्षा कहते हैं।

प्रश्न 9.
भिन्न-भिन्न योग्यताओं एवं अंमताओं वाले अनेक बालकों को एक ही प्रकार की एक साथ दी जाने वाली शिक्षा को क्या कहते हैं?
उतर:
सामूहिक शिक्षा।

प्रश्न 10.
जब शिक्षक अपने विचारों, आदर्शों एवं मूल्यों आदि को शिक्षा के रूप में छात्रों पर थोपने का प्रयास करता है तब उस शिक्षा को क्या कहते हैं?
उतर:
इस प्रकार की शिक्षा कों, प्रत्यक्ष शिक्षा कहते हैं।

प्रश्न 11.
आप शिक्षा को किस प्रकार के विज्ञानों की श्रेणी में रखते हैं।
उतर:
हम शिक्षा को व्यावहारिक विज्ञानों की श्रेणी में रखते हैं।

प्रश्न 12.
शिक्षा की मूल प्रकृति को स्पष्ट कीजिए।
या
शिक्षा विज्ञान है अथवा कला या दोनों?
उतर:
शिक्षा को हम न तो शुद्ध विज्ञान मान सकते हैं और न ही शुद्ध कला। यह विज्ञान तथा कला दोनों ही है।

प्रश्न 13.
किस शिक्षा-व्यवस्था में ‘निषेधात्मक शिक्षा को विशेष महत्त्व दिया गया है।
उतर:
प्रकृतिवादी शिक्षा-व्यवस्था में ‘निषेधात्मक शिक्षा’ को विशेष महत्त्व दिया गया है।

प्रश्न 14.
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. औपचारिक शिक्षा का मुख्य अभिकरण परिवार है।
  2. अनौपचारिक शिक्षा की उत्तम व्यवस्था विद्यालय द्वारा की जाती है।
  3. परिवार, समाज, खेल का मैदान, समाचार-पत्र आदि अनौपचारिक शिक्षा के मुख्य अभिकरण हैं।
  4. बालक के व्यक्तित्व के सुचारु विकास के लिए वैयक्तिक शिक्षा की व्यवस्था ही लाभदायक होती है।
  5. सकारात्मक शिक्षा को आदर्शवादी विचारधारा का समर्थन प्राप्त है।
  6. शिक्षा मूल रूप से एक विशुद्ध विज्ञान है।
  7. शिक्षा विज्ञान एवं कला दोनों ही है।

उतर:

  1. असत्य,
  2. असत्य,
  3. सत्य,
  4. सत्य,
  5. सत्य,
  6. असत्य,
  7. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न 1.
औपचारिक शिक्षा की प्रमुख विशेषता है
(क) नियमितता
(ख) व्यापकता
(ग) संकीर्णता
(घ) वैज्ञानिकता

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कौन-सी विशेषता औपचारिक शिक्षा पर लागू नहीं होती?
(क) पूर्व निर्धारित नियमों पर आधारित
(ख) योग्यता का प्रमाण-पत्र देने की व्यवस्था
(ग) सीमित अवधि तक चलती है।
(घ) जीवन-पर्यन्त चलती है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सी विशेषता अनौपचारिक शिक्षा पर लागू नहीं होती?
(क) स्पष्ट रूप से निर्धारित पाठ्यक्रम का अभाव
(ख) नियमित रूप से परीक्षाओं का आयोजन
(ग) क्षेत्र की व्यापकता
(घ) आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है

प्रश्न 4.
अनौपचारिक शिक्षा का अभिकरण नहीं है|
(क) परिवार
(ख) खेल समूह
(ग) तकनीकी शिक्षा प्रशिक्षण संस्थान
(घ) आर्य समाज मन्दिर

प्रश्न 5.
औपचारिक शिक्षा का अभिकरण है
(क) गृह
(ख) विद्यालय
(ग) राज्य
(घ) समाज

प्रश्न 6.
हमारे देश की अधिकांश शिक्षण-संस्थाओं द्वारा दी जाने वाली शिक्षा का स्वरूप है|
(क) वैयक्तिक शिक्षा
(ख) सामूहिक शिक्षा
(ग) अति आवश्यक शिक्षा
(घ) अनावश्यक शिक्षा

प्रश्न 7.
शिक्षा किस प्रकार का विज्ञान है?
(क) यथार्थ विज्ञान
(ख) आदर्शात्मक विज्ञान
(ग) व्यावहारिक विज्ञान
(घ) विज्ञान है ही नहीं

प्रश्न 8.
शिक्षा की प्रकृति को स्पष्ट करने वाला कथन है–
(क) शिक्षा मूल रूप से एक शुद्ध कला है
(ख) शिक्षा मूल रूप से एक शुद्ध विज्ञान है।
(ग) शिक्षा न तो शुद्ध विज्ञान है और न ही शुद्ध कला
(घ) शिक्षा की प्रकृति अस्पष्ट है।
उतर:

1. (क) नियमितता,
2. (घ) जीवन-पर्यन्त चलती है,
3. (ख) नियमित रूप से परीक्षाओं का आयोजन,
4. (ग) तकनीकी शिक्षा प्रशिक्षण संस्थान,
5. (ख) विद्यालय,
6. (ख) सामूहिक शिक्षा,
7. (ग) व्यावहारिक विज्ञान,
8. (ग) शिक्षा न तो शुद्ध विज्ञान है और न ही शुद्ध कला।।

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