UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 23 Social Development

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 23
Chapter Name Social Development (सामाजिक विकास)
Number of Questions Solved 15
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 23 Social Development (सामाजिक विकास)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
सामाजिक विकास से आप क्या समझते हैं ? सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले मुख्य कारकों का भी उल्लेख कीजिए।
या
सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों का उल्लेख कीजिए। बालक के सामाजिक विकास में पारिवारिक कारक और विद्यालयी कारक की भूमिका का वर्णन कीजिए।
या
सामाजिक विकास क्या है?

सामाजिक विकास का अर्थ
(Meaning of Social Development)

बालक जन्म से सामाजिक नहीं होता। समाज में रहकर ही उसके अन्दर सामाजिकता का विकास होता है। शारीरिक विकास और सामाजिक विकास साथ-साथ चलते हैं। विभिन्न सामाजिक संस्थाएँ उसके समाजीकरण में योग प्रदान करती हैं। सामाजिक विकास की प्रक्रिया जन्म से लेकर मृत्यु तक चलती रहती है। सामाजिक विकास के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए हम यहाँ विभिन्न विद्वानों की परिभाषाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं।

1. सोरेन्सन (Sorenson) के अनुसार, “सामाजिक विकास का तात्पर्य है अपने तथा दूसरे व्यक्तियों के साथ समायोजन की शक्ति में वृद्धि।”

2. ऑगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार, “समाजीकरण एक प्रक्रिया है जिसमें एक व्यक्ति एक सामाजिक मनुष्य में परिवर्तित हो जाता है।” उपर्युक्त विवरण द्वारा सामाजिक विकास का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि व्यक्ति के द्वारा सामाजिक मान्यताओं के अनुसार अपने व्यवहार को निर्धारित करने की प्रक्रिया को सामाजिक विकास कहते हैं।

सामाजिक विकास की क्रमिक प्रक्रिया से बालक में समाज के अन्य मनुष्यों से सम्पर्क स्थापित करने की योग्यता में वृद्धि होती है। सामाजिक विकास के साथ-साथ व्यक्ति की रुचियों, मनोवृत्तियों तथा आदतों में प्रौढ़ता आती है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बालक का पारिवारिक एवं सामाजिक पर्यावरण ही उसके सामाजिक विकास को परिचालित एवं नियन्त्रित करता है। सामाजिक विकास की प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्ति का व्यवहार एवं दृष्टिकोण समाज-सम्मत बनता है।

सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक
(Factors Influencing Social Development)

बालक के सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं

1. शारीरिक कारक- जिन बालकों का स्वास्थ्य ठीक नहीं होता, उनका सामाजिक विकास भी सामान्य गति से नहीं होता। शारीरिक दुर्बलता बालक में हीनता लाती है और वह अपने साथियों से अलग रहना पसन्द करता है। हीनता की यह भावना बालक के सामाजिक विकास में बाधा उत्पन्न करती है। बीमार और कमजोर बालक प्रायः जिद्दी और उद्दण्ड बन जाते हैं। इसके विपरीत स्वस्थ बालकों का सामाजिक विकास सामान्य ढंग से होता है। वे अपने साथियों के सम्पर्क में आकर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।

2. परिवार का वातावरण- परिवार वह स्थान है, जहाँ बालक का सर्वप्रथम समाजीकरण होता है। बालक परिवार के विभिन्न सदस्यों के सम्पर्क में आता है और उनके सम्पर्क में आकर अनेक बातें सीखता है। यह सीखना ही एक प्रकार का समाजीकरण एवं सामाजिक विकास है। परिवार का जैसा वातावरण होता है, वैसा ही बालक सामाजिक आचरण सीखता है। परिचितों को देखकर अभिवादन करना, बड़ों को देखकर खड़े हो जाना तथा शिष्ट एवं संयत स्वर में बोलना, परस्पर सहयोग के लिए तैयार रहना आदि सामाजिक आचरण का शिक्षण-स्थल परिवार है। बालक के सामाजिक विकास में परिवार की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, परिवार में ही रहकर बालक विभिन्न सामाजिक सद्गुणों को सीखता एवं आत्मसात् करता है। परिवार के बड़े सदस्य ही बालक की व्यक्तिगत एवं स्वार्थ सम्बन्धी मनोवृत्तियों को दूर करते हैं तथा सामाजिकता की प्रवृत्ति को पुष्ट करते हैं।

3. पालन- पोषण का स्वरूप-जिस परिवार में समस्त बालकों के साथ सामान्य व्यवहार नहीं होता और पक्षपात का बोलबाला रहता है, उस परिवार के बालकों का सामाजिक विकास ठीक प्रकार से नहीं होता। एक उपेक्षित बालक अपने अन्दर हीनता की भावना अनुभव करता है। इसके विपरीत अधिक लाड़-प्यार में पला बालक अहम् की भावना से ग्रसित हो जाता है और वह अपने को ऊँचा समझने के कारण साथियों से अलग रहने का प्रयास करता है, परन्तु जिन बालकों के साथ समानता का व्यवहार किया जाता है, उनका सामाजिक विकास स्वाभाविक रूप से होता है।

4. पास-पड़ोस- बालक जब बड़ा होता है तो वह अपने पास-पड़ोस के सम्पर्क में आता है। इस प्रकार सामाजिक क्षेत्र बढ़ जाता है। वह पड़ोसियों से मिल-जुलकर अनेक बातें सीखता है। इस प्रकार पास-पड़ोस भी उसके सामाजिक विकास में अपना योगदान प्रदान करता है।

5. आर्थिक स्थिति- परिवार की आर्थिक स्थिति का भी प्रभाव बालक के सामाजिक विकास पर पड़ता है। जिन परिवारों में बालकों को पढ़ने-लिखने व खेलने-कूदने की अनेक सुविधाएँ होती हैं, उन परिवारों में बालक का सामाजिक विकास स्वाभाविक रूप में होता है। दूसरे, सम्पन्न परिवारों के निवास की दशा तथा पड़ोस उत्तम होते हैं। परिवार के सदस्यों का सम्पर्क भी अच्छे व सुसंस्कृत व्यक्तियों से होता है। निर्धन परिवार इन सुविधाओं से वंचित रहते हैं। आर्थिक संकट परिवार में कलह और तनाव का कारण होता है। इस प्रकार के तनाव का बालक के सामाजिक विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

6. क्लब और दल- जो बालक किसी क्लब या दल के सदस्य होते हैं, उनमें अन्य बालकों की अपेक्षा सामाजिकता की भावना अधिक पायी जाती है। क्लब और दल के सदस्यों में परस्पर सहयोग की भावना होती है। बालक क्लब या दल के सदस्य के रूप में शिष्टाचार और सद्व्यवहार आदान-प्रदान करते हैं तथा विभिन्न समारोहों का आयोजन करते हैं। ये समस्त क्रियाएँ बालक के सामाजिक विकास में परम सहायक होती हैं।

7. संवेगात्मक विकास- क्रो व क्रो के अनुसार, “संवेगात्मक और सामाजिक विकास साथ-साथ चलते हैं।” जो बालक क्रोधी तथा ईष्र्यालु स्वभाव के होते हैं, उन्हें समाज में आदर नहीं मिलता और न ही वे अन्य व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हो पाते हैं। इसके विपरीत एक हँसमुख और उत्साही स्वभाव का बालक शीघ्र ही लोकप्रिय हो जाता है और उसके सम्पर्क में प्रत्येक व्यक्ति आना चाहता है।

8. बालक-बालिका का सम्बन्ध- बालक-बालिकाओं के पारस्परिक सम्बन्ध भी सामाजिक विकास पर प्रभाव डालते हैं। किशोरावस्था में बालक-बालिकाएँ परस्पर मिलने-जुलने में विशेष आनन्द का अनुभव करते हैं। यदि उन्हें मिलने-जुलने की स्वतन्त्रता रहती है, तो उनका सामाजिक विकास स्वाभाविक गति से होता रहता है, अन्यथा अवरोध उत्पन्न हो जाता है। हमारे देश में किशोर-किशोरियों को परस्पर मिलने-जुलने की स्वतन्त्रता नहीं है। इस कारण बालकों का सामाजिक विकास स्वाभाविक रूप से नहीं हो पाता और उनमें अनुशासनहीनता की भावना पायी जाती है।

9. सामाजिक व्यवस्था- समाज का स्वरूप या व्यवस्था का प्रभाव बालक के सामाजिक विकास पर पड़ता है। प्रत्येक बालक अपने समाज के स्वरूप, आदर्श और प्रतिमानों से प्रभावित होता है और उसी के अनुसार उसके जीवन के दृष्टिकोण का निर्धारण होता है। इस कारण ही लोकतन्त्रात्मक व्यवस्था तथा अधिनायकतन्त्रात्मक व्यवस्था में पलने वाले बालकों के आचरण में पर्याप्त अन्तर होता है।

10. विद्यालय का योगदान- परिवार के बाद बालक के सामाजिक विकास में योगदान देने वाला दूसरा … तत्त्व विद्यालय है।-घर के पश्चात् बालक का अधिकांश समय विद्यालय में ही व्यतीत होता है। जिन विद्यालयों में अध्यापकों का व्यवहार लोकतांत्रिक होता है तथा बालकों को पर्याप्त स्वतन्त्रता मिलती है और खेलकूद तथा समारोहों में भाग लेने के अवसर मिलते हैं, वहाँ बालकों का समाजीकरण स्वाभाविक ढंग से चलता रहता है। यदि विद्यालय में दमन और कठोर अनुशासन को ही महत्त्व दिया जाता है तथा विभिन्न सामूहिक खेलकूद और अन्य क्रियाओं को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है तो वहाँ बालकों का सामाजिक विकास समुचित ढंग से नहीं हो पाता।

विद्यालय में शिक्षक द्वारा किया गया दैनिक व्यवहार बालक के सामाजिक विकास को विशेष रूप से प्रभावित करता है। यदि शिक्षक बालकों की भावनाओं का आदर करता है तथा समय-समय पर उनका सहयोग लेता है। और कक्षा में उन्हें वाद-विवाद के अवसर प्रदान करता है, तो छात्रों में समाजीकरण की प्रक्रिया तीव्रता से होगी। इसके विपरीत यदि शिक्षक शुष्क और निरंकुश प्रवृत्ति का है और बालकों के साथ उसका व्यवहार ताड़नायुक्त तथा उपेक्षा का है तो ऐसे वातावरण में बालकों का सामाजिक विकास अवरुद्ध हो जाएगा।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
शैशवावस्था में होने वाले सामाजिक विकास का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

शैशवावस्था में सामाजिक विकास
(Social Development in Infancy)

नवजात शिशु में किसी प्रकार का सामाजिक विकास देखने को नहीं मिलता। क्रो एवं क्रो के अनुसार, “जन्म के समय शिशु न तो सामाजिक प्राणी होता है और न असामाजिक, परन्तु यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं बनी रहती। धीरे-धीरे शिशु अपनी माता या परिचारिका के सम्पर्क में आकर अनेक प्रतिक्रियाएँ प्रकट करता है। उसकी यह प्रतिक्रिया विभिन्न रूपों में प्रकट होती है। उसका हर्ष एवं रुदन इसी के अनेक रूपों में से एक है। प्रथम मास तक शिशु साधारण आवाजें तथा मनुष्य की आवाज में कोई अन्तर नहीं कर पाता। परन्तु दूसरे मास में वह यह अन्तर जान जाता है। माता जब बच्चे को पुचकारती है तो वह मुस्कराने लगता है।

म्यूलर के अनुसार, दो मास के पश्चात् ही शिशु सामाजिक प्रतिक्रियाओं को प्रारम्भ करता है। उसके अनुसार दो मास के 60 प्रतिशत बालक माँ या परिचारिका के हट जाने पर रोने लगते हैं तथा माँ या पिता को देखकर मुस्कराने लगते हैं। चौथे मास तक शिशु उन बालकों तथा व्यक्तियों में रुचि दिखाने लगता है, जो उसके प्रति विशेष प्रेम प्रकट करते हैं। पाँचवें तथा छठे मास तक वह स्नेहपूर्ण व्यवहार तथा ताड़ना में अन्तर करने लगता है। जब उसे देखकर कोई मुस्कराता है तो वह मुस्कराने लग जाता है और यदि कोई डाँटता है तो वह रोने लग जाता है। सात या आठ मास का शिशु परिचित तथा अपरिचित में कुछ-कुछ भेद करने लग जाता है। नौ मास का शिशु प्रौढ़ों की विभिन्न क्रियाओं और शब्दों का अनुकरण करने का प्रयास करता है।

एक वर्ष का शिशु उन कार्यों को नहीं करता, जिनके लिए उसे मना किया जाता है। दो वर्ष की आयु के बालक अन्य व्यक्तियों के साथ किसी कार्य में सहयोग देने में विशेष आनन्द का अनुभव करते हैं। तीसरे वर्ष में बालक अपने साथियों के साथ खेलने में विशेष आनन्द लेता है। चार से छ: वर्ष का बालक अभिभावक के संरक्षण में रहकर कार्य करना चाहता है। अब वह नवीन मित्रों की तलाश में रहता है तथा सामूहिक खेल-कूद में उसे विशेष आनन्द आता है। इस अवस्था के शिशु में सामाजिकता का पर्याप्त विकास हो जाता है।

प्रश्न 2
बाल्यावस्था में होने वाले सामाजिक विकास का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

बाल्यावस्था में सामाजिक विकास
(Social Development in Childhood)

बाल्यावस्था में सामाजिक विकास तीव्रता से होता है। प्राय: इस अवस्था के बालक ही विद्यालय में प्रवेश लेते हैं। विद्यालय में बालक अपने जैसे अनेक बालकों के सम्पर्क में आता है। यह सम्पर्क ही उसे सामाजिक प्राणी बनाता है। वह शीघ्रता से नवीन वातावरण के अनुकूल अपने को ढालने का प्रयास करता है। अनुकूलन के पश्चात् ही उसके व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है तथा उसमें उत्तरदायित्व और स्वतन्त्रता की भावना का विकास होता है। इस अवस्था के बालकों का किसी-न-किसी टोली या समूह से सम्बन्ध होता है।

अपनी टोली के प्रति प्रत्येक बालक की अटूट श्रद्धा होती है। टोली की सदस्यता से ही बालक का सामाजिक विकास होता है। इस अवस्था में बालक के सामाजिक विकास पर सहपाठियों एवं मित्रों के अतिरिक्त कक्षा के अध्यापकों का भी गम्भीर प्रभाव पड़ता है। अध्यापकों द्वारा बालकों को अनेक सामाजिक सद्गुणों की जानकारी प्रदान की जाती है। विद्यालय आने-जाने के समय भी बालकों का सम्पर्क रिक्शा अथवा बस के साथियों आदि से होता है। इस सम्पर्क से भी उनके सामाजिक विकास में उल्लेखनीय योगदान प्राप्त होता है।

प्रश्न 3
किशोरावस्था में होने वाले सामाजिक विकास का उल्लेख कीजिए।
या
बालकों अथवा बालिकाओं में किशोरावस्था में होने वाले सामाजिक विकास का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

किशोरावस्था में सामाजिक विकास
(Social Development in Adolescence)

किशोरावस्था में बालक अपने वातावरण के प्रति जागरूक हो जाता है और उसके सामाजिक विकास पर परिवार, साथियों तथा विद्यालय के वातावरण का विशेष प्रभाव पड़ता है। इस अवस्था में किशोर अपने को सम्मानित देखना चाहता है। वह चाहता है कि घर के अन्दर और घर के बाहर सब स्थानों पर उसे सम्मान मिले और इस सम्मान की प्राप्ति में वह प्रौढ़ों के समान व्यवहार करने लग जाता है। इस अवस्था में किशोर के सामाजिक व्यवहार में क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं। अब बाल्यकाल की चंचलता गम्भीरता में परिवर्तित हो जाती है। वह अपने आचरणों में दिखावट का प्रदर्शन करने लगता है। प्रत्येक किशोर अपनी आर्थिक स्थिति को अपने अन्य मित्रों से बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने का प्रयास करता है।

वह मित्रता के महत्त्व को भी समझने लगता है और अपनी रुचि के अनुकूल ही किसी किशोर को ही अपना घनिष्ठ मित्र बनाता है। किशोरावस्था में बालक बालिकाओं के प्रति तथा बालिकाएँ बालकों के प्रति आकर्षित होती हैं। इस आकर्षण के लिए वे अपने वस्त्र, वेशभूषा तथा प्रसाधनों के प्रति विशेष जागरूक रहते हैं। किशोर तथा किशोरियाँ किसी-न-किसी समुदाय के सदस्य बन जाते हैं। इन समुदायों का मूल उद्देश्य पिकनिक, भ्रमण, नाटक खेलना, नृत्य व संगीत द्वारा मनोरंजन करना होता है।

प्रत्येक किशोर अपने समूह या समुदाय के प्रति अटूट श्रद्धा रखता है तथा उसे परिवार और विद्यालय से भी अधिक महत्त्व देता है। इसके साथ-ही-साथ किशोर समुदाय का सदस्य बनकर उसके द्वारा स्वीकृत वेशभूषा, आचरण आदि को भी व्यवहार में लाता है। डॉ० सीताराम जायसवाल के अनुसार, “किशोर में अपने समुदाय की वेशभूषा, व्यवहार शैली और अनुकरण की प्रबल प्रवृत्ति होती है। समुदाय के प्रति सदस्यों की निष्ठा इतनी पक्की होती है कि वे पढ़ाई और परिवार के आवश्यक कार्य भी छोड़कर समुदाय के कार्यक्रमों में भाग लेते हैं। सदस्यों के व्यक्तित्व, व्यवहार और जीवन के मूल्यों पर समुदायों की गहरी छाप । रहती है।’ समुदाय का सदस्य बनकर ही किशोर नेतृत्व की शिक्षा प्राप्त करता है तथा उसमें उत्साह, सहयोग, सहानुभूति आदि सामाजिक गुणों का विकास होता है।

प्रश्न 4
बालक के उचित सामाजिक विकास के लिए शिक्षक द्वारा क्या भूमिका निभायी जा सकती है ?
या
बच्चों में सामाजिक विकास करने के लिए स्कूल को क्या करना चाहिए?
या
बच्चों में सामाजिक विकास को उन्नत करने के लिए स्कूल में क्या करना चाहिए?
उत्तर:

सामाजिक विकास के लिए शिक्षक की भूमिका
(Role of Teacher for Social Development)

बालक के सामाजिक विकास में शिक्षा किस प्रकार सहायक हो सकती है, इसके लिए शिक्षक को निम्नांकित बातों पर ध्यान देना चाहिए-

  1. शिक्षक को स्वयं सामाजिक व्यवहार में प्रवीण होना चाहिए। उसे छात्रों के साथ सदा विनम्रता और शिष्टता का व्यवहार करना चाहिए।
  2. विद्यालय में अनुशासन की स्थापना में छात्रों से सहयोग लेना चाहिए तथा उन्हें अनुशासन की स्थापना का उत्तरदायित्व सौंपना चाहिए।
  3. विद्यालय में समय-समय पर विभिन्न प्रकार के उत्सवों, समारोहों तथा संगीत सम्मेलनों का आयोजन किया जाना चाहिए तथा उनकी व्यवस्था में छात्रों का सहयोग लेना चाहिए। आमन्त्रित अतिथियों का स्वागत भी छात्रों द्वारा ही करवाया जाना चाहिए।
  4. छात्रों को श्रमदान द्वारा समाज-सेवा करने को प्रोत्साहित किया जाए तथा साक्षरता प्रसार में भी उनका सहयोग प्राप्त किया जाए।
  5. विद्यालय को समाज का लघु रूप बनाया जाए तथा समाज के सदस्यों को विद्यालय के कार्यक्रमों में आमन्त्रित किया जाए।
  6. बालकों में सामाजिक गुणों का विकास करने के लिए पाठ्यक्रम में सामाजिक शिक्षा को भी स्थान दिया जाए।
  7. स्काउटिंग सामाजिक विकास में विशेष सहायक होती है। अत: विद्यालय में इसका आयोजन प्रभावशाली ढंग से किया जाए।
  8. विद्यालय में विभिन्न सामूहिक़ खेलकूदों का आयोजन हो तथा छात्रों को उसमें भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाए।
  9. बालकों में सामूहिक प्रवृत्ति होती है। वे इस प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करना चाहते हैं। शिक्षक का कर्तव्य है। कि वे इस प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने के लिए विद्यालय में उन कार्यक्रमों का आयोजन करें, जिनसे बालकों की सामूहिक प्रवृत्ति सन्तुष्ट हो सके।
  10. बालकों में समुचित सामाजिक विकास के लिए शिक्षक को उनकी अनुकरण, संकेत और सहानुभूति की प्रवृत्ति का उचित ढंग से प्रयोग करना चाहिए।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
बालक के सामाजिक विकास में मित्रों एवं खेल-समूह की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
बालक के सामाजिक विकास में उसके मित्रों एवं खेल-समूह द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है। सभी बालक अपने मित्रों से अनेक सामाजिक गुणों को सीखते हैं। खेल के दौरान बच्चों में सहयोग, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा तथा एक-दूसरे की सहायता करने के गुणों का विकास होता है। इन सामाजिक गुणों का बालक के सामाजिक विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बालक के मित्र एवं खेल-समूह सदैव अच्छा होना चाहिए। किसी विकृत बालक की मित्रता प्रायः हानिकारक होती

प्रश्न 2
सामाजिक विकास के मुख्य स्तरों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
व्यक्ति अथवा बालक का सामाजिक विकास क्रमिक रूप में होता है। इसके मुख्य रूप से तीन स्तर माने गये हैं। प्रथम स्तर है-दूसरों के प्रति चेतना का स्तर। इस स्तर पर बालक अन्य व्यक्तियों के प्रति सचेत हो जाता है। वह अन्य व्यक्तियों को पहचानने लगता है। द्वितीय स्तर है-मेल-जोल का स्तर। इस स्तर पर बालक में सामूहिकता के गुण का विकास होता है। वह अन्य व्यक्तियों के साथ अन्त:क्रिया करना प्रारम्भ कर देता है। यह बाल्यावस्था का स्तर है। इस स्तर पर खेल-समूह का विशेष महत्त्व होता है। सामाजिक-विकास का तीसरा स्तर है–सम्बन्धों में परिवर्तन का स्तर। इस स्तर पर बालक में लिंग-भेद की जागरूकता आ जाती है तथा उसका प्रभाव उसके व्यवहार पर भी पड़ने लगता है।

प्रश्न 3
सामाजिक विकास का शैक्षिक महत्त्व क्या हो सकता है?
उत्तर:
सामाजिक विकास का समुचित शैक्षिक महत्त्व है। सामाजिक विकास के लिए व्यापक सामाजिक सम्पर्क आवश्यक होता है। इस प्रकार से सामाजिक सम्पर्क की स्थापना से व्यक्ति अनेक प्रकार की जानकारी एवं ज्ञान भी अर्जित करता है अर्थात् उसका शैक्षिक विकास भी होता है। सामाजिक विकास के माध्यम से व्यक्ति विभिन्न सामाजिक सद्गुणों, मान्यताओं, नियमों आदि को आत्मसात् करता है। इस प्रक्रिया का पर्याप्त शैक्षिक महत्त्व है। सामाजिक विकास के परिणामस्वरूप बालक अनुशासन सीखता है। अनुशासन का शिक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक महत्त्व है। इस दृष्टिकोण से भी सामाजिक विकास का उल्लेखनीय शैक्षिक महत्त्व है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मानव-शिशु का एक सामाजिक प्राणी के रूप में विकसित होना किस प्रकार का विकास कहलाता है ?
उत्तर:
मानव-शिशु का एक सामाजिक प्राणी के रूप में विकसित होना बालक का सामाजिक विकास कहलाता है।

प्रश्न 2
मानव-शिशु के सामाजिक विकास के लिए सर्वाधिक अनिवार्य कारक क्या है?
उत्तर:
मानव-शिशु के सामाजिक विकास के लिए सर्वाधिक अनिवार्य कारक है–सामाजिक सम्पर्क।

प्रश्न 3
“समाजीकरण की प्रक्रिया अन्य व्यक्तियों के साथ शिशु के सम्पर्क से प्रारम्भ होती है और जीवन-पर्यन्त चलती रहती हैं।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
प्रस्तुत कथन गिलफोर्ड का है

प्रश्न 4
शिशु के सामाजिक विकास की प्रक्रिया में प्रमुख भूमिका किस सामाजिक संस्था की होती
उत्तर:
शिशु के सामाजिक विकास की प्रक्रिया में प्रमुख भूमिका ‘परिवार’ नामक सामाजिक संस्था की होती है।

प्रश्न 5
बालक के सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले चार मुख्य कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. शारीरिक कारक
  2. परिवार का वातावरण
  3. पास-पड़ोस तथा
  4. परिवार की आर्थिक स्थिति

प्रश्न 6
कोई ऐसा उदाहरण दीजिए, जिससे स्पष्ट हो जाए कि सामाजिक सम्पर्क के अभाव में मानव-शिशु का सामाजिक विकास सम्भव नहीं है ?
उत्तर:
एक उदाहरण है-भेड़ियों द्वारा मानव-शिशु के पालन-पोषण करने का। यह मानव-शिशु सामाजिक सम्पर्क के अभाव में रहा तथा उसका सामाजिक विकास बिल्कुल नहीं हो पाया।

प्रश्न 7
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. सामाजिक विकास के परिणामस्वरूप ही मानव-शिशु सामाजिक प्राणी बनती है
  2. सामाजिक विकास के लिए सामाजिक सम्पर्क कोई अनिवार्य शर्त नहीं है
  3. बालक के सामाजिक विकास में उसके मित्रों एवं खेल-समूह का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है
  4. बालक के सामाजिक विकास में शिक्षा का कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं होता
  5. बालक की विकलांगता उसके सामाजिक विकास में बाधक होती है
  6. संवेगात्मक रूप से विकृत बालक का सामाजिक विकासे भी सुचारु नहीं हो पाता

उत्तर:

  1. सत्य
  2. असत्य
  3. सत्य
  4. असत्य
  5. सत्य
  6. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न  1.
सामाजिक विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति का व्यवहार बनता है
(क) उदार एवं परोपकारी
(ख) सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप
(ग) समाज विरोधी
(घ) स्वच्छन्द एवं मुक्त

प्रश्न  2.
सामाजिक विकास की प्रक्रिया चलती है
(क) शैशवावस्था में
(ख) विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने तक
(ग) जीवन-पर्यन्त
(घ) युवावस्था तक

प्रश्न  3.
बालक के सामाजिक विकास में बाधक कारक है
(क) बुरा स्वास्थ्य
(ख) विकलांगता
(ग) निम्न आर्थिक स्थिति
(घ) ये सभी

प्रश्न  4.
व्यक्ति के सामाजिक विकास में सर्वाधिक योगदान होता है
(क) परिवार का
(ख) व्यवसाय का
(ग) क्लब एवं मनोरंजन संस्थानों का
(घ) कार्यालय का

प्रश्न  5.
बालक का समाजीकरण किस अवस्था में सबसे अधिक होता है ?
(क) शैशवावस्था
(ख) बाल्यावस्था
(ग) किशोरावस्था
(घ) युवावस्था

उत्तर:

  1. (ख) सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप
  2. (ग) जीवन-पर्यन्त
  3. (घ) ये सभी
  4. (क) परिवार का
  5. (ग) किशोरावस्था

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UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 12 Montessori Method

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 12 Montessori Method (मॉण्टेसरी पद्धति) are the part of UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 12 Montessori Method (मॉण्टेसरी पद्धति).

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Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 12
Chapter Name Montessori Method (मॉण्टेसरी पद्धति)
Number of Questions Solved 29
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 12 Montessori Method (मॉण्टेसरी पद्धति)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मॉण्टेसरी पद्धति के मूल सिद्धान्त क्या हैं? सविस्तार समझाइए।
या
मारिया मॉण्टेसरी के अनुसार शिक्षा के सिद्धान्त क्या हैं?
उत्तर:
मॉण्टेसरी शिक्षा प्रणाली छोटे बच्चों की एक लोकप्रिय शिक्षा-प्रणाली है। इस प्रणाली का प्रारम्भ मैडम मारिया मॉण्टेसरी ने किया था। यह प्रणाली बाल-मनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर आधारित है।

मॉण्टेसरी पद्धति के सिद्धान्त
(Principles of Montessori Method)

मॉण्टेसरी ने अपनी किसी पुस्तक में अपने शिक्षण सिद्धान्तों की व्याख्या नहीं की है, लेकिन उनकी पद्धति का गहन अध्ययन करके सहज ही हम उनके शिक्षण सिद्धान्तों के विषय में अनुमान लगा सकते हैं। वास्तव में मॉण्टेसरी पद्धति के मुख्य शिक्षण सिद्धान्त वही हैं, जो किण्डरगार्टन पद्धति के हैं। मॉण्टेसरी ने केवल उनमें आंशिक संशोधन करके उनको नया रूप प्रदान किया है। संक्षेप में मॉण्टेसरी पद्धति के सिद्धान्तों को निम्नवत् समझा जा सकता है|

1. विकास हेतु शिक्षा का सिद्धान्त- मॉण्टेसरी ने शिक्षा को आन्तरिक विकास की प्रक्रिया माना है। उनका मत है कि शिशु एक अविकसित बीज के समान है, जिसमें उनके भावी विकास की समस्त शक्तियाँ निहित होती हैं। शिशुओं के सम्बन्ध में उनका कथन है, “बालक एक मॉण्टेसरी पद्दति के सिद्धान्त ऐसा शरीर है जो बढ़ता है तथा आत्मा है जो विकास प्राप्त करती है। विकास के इन रूपों को हमें न तो कुरूप बनाना चाहिए और न दबाना, विकास हेतु शिक्षा का सिद्धान्त बल्कि उस काल के लिए प्रतीक्षा करनी चाहिए जब किसी शक्ति का । क्रम के अनुसार प्रादुर्भाव हो। उन्होंने आगे कहा है, “यदि शिक्षण की किसी प्रणाली को प्रभावशाली बनाना है तो वह बालक के सम्पूर्ण विकास के लिए। प्रभावशाली होनी चाहिए।’

2. पूर्ण स्वतन्त्रता का सिद्धान्त- फ्रॉबेल के समान मॉण्टेसरी मांसपेशियों की शिक्षा का का भी यह मत था कि बालक को अपनी शिक्षा ग्रहण करने में पूर्ण स्वतन्त्र होना चाहिए। मॉण्टेसरी का कथन है, “स्वतन्त्रता का अर्थ , आयनिता न इसमें निहित नहीं है कि बालकों से साधारण सेवाएँ कराने के लिए व्यावहारिक शिक्षा का सिद्धान्त दूसरों द्वारा दी गई आज्ञाओं का पालन करवाया जाए, वरन् उन्हें इस व्यक्तित्व के विकास का सिद्धान्त योग्य बनाना है कि वह स्वयं अपने आदेशों का पालन करें। आत्मनिर्भर होना ही स्वतन्त्रता है। 

मॉण्टेसरी के अनुसार, बालकों को इस प्रकार का वातावरण देना चाहिए जिसमें कि वह अपनी रुचि के। अनुसार कार्य कर सके। इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में भी बालक को स्वतन्त्रता देना आवश्यक है। शिक्षा में स्वतन्त्रता का अर्थ है कि बालक की मूल तथा सामान्य प्रवृत्तियों को शिक्षा का माध्यम बना दिया जाए। इस सिद्धान्त में बालक को अपनी रुचि के अनुसार खेलने, कूदने, पढ़ने, खाने और पाठ्य-विषयों को चुनने की पूर्ण स्वतन्त्रता रहती है।

3. आत्मशिक्षण का सिद्धान्त- प्रत्येक बालक में अपने आप कार्य करने की कुछ क्षमता होती है। किलपैट्रिक के अनुसार, “बालक जितना अधिक अपने अनुभव से बिना किसी शिक्षक की सहायता से सीखता है, उतना ही अधिक ज्ञान उसको होता है।” इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर मॉण्टेसरी ने भी अपनी शिक्षा-पद्धति में बालकों को स्वयं अपने प्रयत्नों द्वारा शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया है। इस सम्बन्ध में प्रोफेसर भाटिया ने लिखा है, स्वशिक्षा ही सच्ची शिक्षा है, क्योंकि यहाँ बच्चे को किसी बड़े के हस्तक्षेप से दुःखित नहीं किया जाता, वरन्। वह स्वतः शिक्षा प्राप्त करना सीखता है।”

मॉण्टेसरी ने कुछ शिक्षा उपकरणों का निर्माण किया है, जिनकी सहायता से बालक आत्म-शिक्षण कर सकता है। उन्होंने इस तथ्य पर भी बल दिया है कि बालक अपनी गलती को समझकर स्वयं उसे सुधारे। इससे बालक में आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास, सहनशीलता, धैर्य आदि गुणों का विकास हो सकता है। इस प्रकार मॉण्टेसरी पद्धति में शिक्षक का कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं है। शिक्षक का कार्य केवल बालक का पथ-प्रदर्शन एवं निरीक्षण करना है।

4. ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा का सिद्धान्त- मॉण्टेसरी ने अपनी शिक्षा-पद्धति में ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण पर विशेष बल दिया है। उन्होंने ज्ञानेन्द्रियों को द्वार’ अर्थात् ज्ञान का द्वार’ कहा है, क्योंकि विश्व का अधिकांश ज्ञान मनुष्य को ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ही प्राप्त होता है। अत: बालक की ज्ञानेन्द्रियाँ जितनी अधिक प्रशिक्षित होंगी, उतनी ही सरलता से वह ज्ञान प्राप्त कर सकेगा। यदि ज्ञानेन्द्रियाँ निर्बल रहती हैं तो उसका ज्ञान अस्पष्ट और अपूर्ण रहता है। इसलिए मॉण्टेसरी ने विभिन्न शैक्षिक उपकरण बनाए हैं, जिनके प्रयोग से बालक की ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित किया जाता है।

5. खेल द्वारा शिक्षा का सिद्धान्त- खेल बालक की जन्मजात प्रवृत्ति है। इसलिए अन्य शिक्षाशास्त्रियों की भाँति मॉण्टेसरी ने भी अपनी शिक्षण-पद्धति में खेल द्वारा शिक्षा के सिद्धान्त को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। इस पद्धति में विभिन्न उपकरणों की सहायता से खेलते-खेलते ही बालक को वर्णमाला, भाषा तथा गणित का ज्ञान कराया जाता है। खेलों में बालक को पूर्ण स्वतन्त्रता रहती है और उनके माध्यम से वह तरह-तरह का ज्ञान प्राप्त करते हैं। किलपैट्रिक ने लिखा है, “उसके खेल, खेल न होकर नाममात्र के खेल हैं, जिनसे शिशु खेल तथा ज्ञानार्जन दोनों उद्देश्यों की पूर्ति करता है।”

6. विवेकपूर्ण अनुशासन का सिद्धान्त- मॉण्टेसरी का विचार था कि जब बालक के सम्मुख शिक्षा सम्बन्धी वातावरण उपस्थित किया जाएगा, तब उसमें स्वत: ही उत्तरदायित्व की भावना जाग उठेगी और इसके परिणामस्वरूप उसके अन्दर एक प्रकार के अनुशासन की भावना उत्पन्न होगी जो कि सच्चा अनुशासन होगा।

7.मांसपेशियों की शिक्षा का सिद्धान्त- मॉण्टेसरी का विचार था कि जब तक बालक की मांसपेशियों को सुदृढ़ नहीं किया जाएगा तब तक उसे काम करने में कठिनाई होगी और वह अपने अंगों का समुचित प्रयोग नहीं कर सकेगा। अत: बालक की प्रारम्भिक शिक्षा में मांसपेशियों को साधने की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए, जिससे कि बालक भली-भाँति चलना, फिरना, दौड़ना आदि सीख जाए। इससे बालक में आत्मनिर्भरता के गुण का भी विकास होता है।

8. आत्मनिर्भरता का सिद्धान्त- मॉण्टेसरी ने अपनी शिक्षा-पद्धति में इस बात पर विशेष बल दिया है। कि बालक किसी दूसरे पर निर्भर न रहकर अपना काम स्वयं करे। बालकों में प्रारम्भ से ही यह आदत डाल देनी चाहिए कि वे स्वयं अपना मुँह धोना, कपड़े पहनना, सफाई करना तथा अपना सामान ठीक तरह से रखना सीख लें।।

9. व्यावहारिक शिक्षा का सिद्धान्त- मॉण्टेसरी ने अपनी शिक्षा-पद्धति में व्यावहारिक शिक्षा पर । विशेष बल दिया है। मॉण्टेसरी विद्यालयों में बालकों को ऐसा ज्ञान दिया जाता है, जिनका जीवन में उपयोग होता है। बालक भोजन करना, बातचीत करना, सोना, हँसना, भोजन परोसना, सफाई करना आदि सभी बातें मनोवैज्ञानिक ढंग से सीख जाते हैं। शिक्षा देते समय बालकों की अवस्था का भी ध्यान रखा जाता है और जो बालक जिस योग्य होता है, उसे उसी प्रकार की शिक्षा दी जाती है।

10. व्यक्तित्व के विकास का सिद्धान्त- मॉण्टेसरी पद्धति में बालक के व्यक्तित्व के विकास पर विशेष बल दिया जाता है और उसके व्यक्तित्व का समुचित आदर किया जाता है। मॉण्टेसरी का विचार था कि प्रत्येक बालक की अपनी व्यक्तिगत विशेषता होती है, क्योंकि सभी बालक एक समान नहीं होते, उनमें कुछ-न-कुछ वैयक्तिक भिन्नता होती है। प्रत्येक बालक अपनी व्यक्तिगत योग्यता, क्षमता, सामर्थ्य, शक्ति

और रुचि के अनुसार विकास करता है। अत: शिक्षक को प्रत्येक बालक का ध्यान रखना चाहिए और उसकी आवश्यकता पूर्ति में उसे सहायता देनी चाहिए। मॉण्टेसरी का मत है कि समूह में रहते हुए बालक को व्यक्तिगत शिक्षा दी जा सकती है।

प्रश्न 2.
मॉण्टेसरी शिक्षा-पद्धति के मुख्य गुणों का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

मॉण्टेसरी पद्धति के गुण
(Merits of Montessori Method)

मॉण्टेसरी पद्धति की सफलता उसके अनेक गुणों पर आधारित है। इन गुणों का संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित

1. शिशु-शिक्षा के लिए उपयुक्त- मॉण्टेसरी पद्धति का पहला प्रमुख गुण यह है कि यह पद्धति अल्प आयु के शिशुओं के लिए अत्यन्त उपयोगी और उपयुक्त है। शिशुओं को छोटे-छोटे विभिन्न शिक्षा उपकरणों के साथ खेलने में बहुत आनन्द मिलता है और वस्तुओं के प्रयोग से | मॉण्टेसरी पद्धति के गुण उनकी ज्ञानेन्द्रियाँ भी प्रशिक्षित हो जाती हैं। वे इनसे थोड़ी देर के लिए भी अलग नहीं होना चाहते। इस आयु के बालकों को क्रिया एवं खेल। के द्वारा ज्ञान देना उपयुक्त भी है।

2. स्वशिक्षा का महत्त्व- इस पद्धति में स्वयं शिक्षा के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। इसमें बालक अपना सब काम स्वयं करते हैं और काम करने में रुचि भी लेते हैं। बालक वातावरण का उचित लाभ उठाकर अपने स्वयं के अनुभवों एवं निरीक्षणों के द्वारा सीखते हैं। इस प्रकार स्वशिक्षा आत्मनिर्भरता तथा आत्मविश्वास के स्वाभाविक विकास में सहायक होती है।

3. वैज्ञानिक पद्धति- यह शिक्षण-पद्धति वैज्ञानिक है, क्योंकि बालक की वैयक्तिकता को यह अनुभव और परीक्षण पर बल देती है। इसमें बालक पूर्णरूप से महत्त्व क्रियाशील रहता है। अपने अनुभवों के आधार पर वह प्रयत्न और भूल – वैयक्तिक विभिन्नता का महत्त्व के सिद्धान्त पर मूल ज्ञान प्राप्त करता है। एडम्स (Adams) के शब्दों में, “मॉण्टेसरी ने अपनी पद्धति में दूसरे विद्यालयों की विधियों से मित्र के रूप में भिन्न एक नई वैज्ञानिक विधि प्रदान की है। उनकी पद्धति का आधार के अनुशासन की समस्या का बालक द्वारा स्वतन्त्रतापूर्वक निरीक्षण एवं परीक्षण है।’

4. प्रयोगात्मक मनोविज्ञान पर आधारित- यह पद्धति मनोवैज्ञानिक है, क्योंकि इसमें मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों, बालकों की योग्यता, अनुभव, शक्ति आदि के आधार पर व्यावहारिक ढंग से शिक्षा दी जाती है। इसमें प्रयोगात्मक मनोविज्ञान के स्वरूपों, निष्कर्षों और सिद्धान्तों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। प्रयोगात्मक मनोविज्ञान की तरह इसमें भी बालक को विभिन्न यन्त्र और उपकरण प्रदान किए गए हैं। इन उपकरणों से खेलते हुए ही बालक अपने व्यक्तित्व के विकास का अवसर प्राप्त करते हैं।

5. ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण- मॉण्टेसरी ने बालकों की शिक्षा में ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण पर बल देकर शिक्षा जगत् में एक नई चेतना प्रस्तुत की है। इससे पूर्व की शिक्षा-प्रणालियों में ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा का पूर्णतया अभाव था। इस कमी को पूरा करने का श्रेय मॉण्टेसरी को ही है। मॉण्टेसरी ने ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण द्वारा मन्द तथा हीनबुद्धि बालकों को भी साधारण स्तर पर ला दिया है। लगभग सभी शिक्षाशास्त्री ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा से सहमत हैं। उनका कहना है कि जब तक ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा उचित रूप से न होगी, बालक ज्ञान ग्रहण करने में असमर्थ होंगे।

6. व्यावहारिकता तथा सामाजिकता के गुणों का विकास- मॉण्टेसरी पद्धति में प्रायोगिक कार्यों का सामाजिक महत्त्व है। व्यावहारिक क्रियाओं द्वारा बालकों में व्यावहारिकता तथा सामाजिकता के गुणों का विकास किया जाता है। इस पद्धति वाले विद्यालयों में बालक को सामाजिक जीवन व्यतीत करने के अवसर मिलते हैं, इसलिए इनमें बालक को ऐसा वातावरण मिलता है कि उसके अन्दर सामाजिकता तथा व्यावहारिकता के गुणों का विकास किया जा सके।

7. भाषा-शिक्षण की उत्तम विधिं- मॉण्टेसरी पद्धति में भाषा-शिक्षण की बड़ी उत्तम विधि को अपनाया गया है। लिखना, पढ़ना तथा अंकगणित बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से सिखाया जाता है। लिखने व पढ़ने के लिए जो अभ्यास मॉण्टेसरी ने बताए हैं, वे क्रमानुसार एवं एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। इस पद्धति में लेखन क्रिया के द्वारा बालक की मांसपेशियों पर उचित ध्यान दिया जाता है। लिखने और पढ़ने का अभ्यास साथ-साथ किया जाता है, इसलिए बालके बिना सिखाए पढ़ना सीख जाते हैं।

8. बालक की वैयक्तिकता का महत्त्व- मॉण्टेसरी पद्धति में बालक की रुचियों, प्रवृत्तियों, इच्छाओं व स्वभाव का सदैव ध्यान रखा जाता है। इससे बालक के व्यक्तित्व का स्वाभाविक विकास होता है। बालक विभिन्न शिक्षा उपकरणों से काम करते हुए अपने आपको स्वतन्त्र अनुभव करता है और अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति का विकास करता है। मॉण्टेसरी पद्धति के इस गुण की प्रशंसा करते हुए रस्क (Rusk) ने लिखा है, इस पद्धति की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता निर्देशन में वैयक्तिकता का स्थान है।”

9. वैयक्तिक विभिन्नता का महत्त्व- इस पद्धति में बालक के व्यक्तित्व को स्वतन्त्र एवं पूर्ण विकास होता है, क्योंकि इसमें व्यक्तिगत विभिन्नता का विशेष ध्यान रखा जाता है और हस्तक्षेप के बिना स्वतन्त्र एवं आदर्श वातावरण में बालकों को रखा जाता है। इस पद्धति में बालकों को उनकी बुद्धिलब्धि, रुचियों, इच्छाओं एवं प्रवृत्तियों के अनुसार प्रशिक्षित किया जाता है। इसमें प्रत्येक बालक अपनी क्षमता के अनुसार ज्ञान प्राप्त करता है, जोकि सामूहिक शिक्षा में सम्भव नहीं है।

10. शिक्षक का स्थान पथ- प्रदर्शक व मित्र के रूप में इस पद्धति में शिक्षक बालक का सच्चा निर्देशक, मित्र, निरीक्षक, सहायक और पथ-प्रदर्शक होता है न कि आदेशक या अधिकारी। वह बालकों को कार्य करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करता है तथा कठिनाई आने पर उनकी सहायता भी करता है। मॉण्टेसरी शिक्षक बाल-मनोविज्ञान, प्रयोगात्मक मनोविज्ञान तथा मानवीय गुणों से युक्त होता है।

11. अनुशासन की समस्या का निराकरण- मॉण्टेसरी ने बाह्य अनुशासन का विरोध किया है और वास्तविक आन्तरिक अनुशासन स्थापित करने के नियमों को बताया है। इस पद्धति में कार्य में व्यस्त रहने के कारण बालकों को अनुशासन भंग करने का अवसर नहीं मिलता, जिसके फलस्वरूप उन्हें आत्म-अनुशासन की प्रेरणा मिलती है।

प्रश्न 3.
मॉण्टेसरी शिक्षा-पद्धति के मुख्य दोषों का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

मॉण्टेसरी पद्धति के दोष
(Defects of Montessori Method)

यद्यपि मॉण्टेसरी शिक्षा-पद्धति बालकों की शिक्षा के लिए बड़ी उपयोगी है, तथापि इसमें कुछ दोष और कमियाँ भी हैं, जिनका विवेचन निम्नवत् किया जा सकता है|

1. अमनोवैज्ञानिक- किलपैट्रिक तथा स्टर्न ने मॉण्टेसरी पद्धति को अमनोवैज्ञानिक बताया है, क्योंकि इसमें बालकों से कुछ ऐसे कार्य कराए जाते हैं, जो उनके स्तर से ऊँचे हैं। कुछ शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि चार वर्षीय बालक को अधिक लिखना-पढ़ना सिखाना लाभदायक नहीं है।

2. शक्ति मनोविज्ञान का अनुचित आधार- मॉण्टेसरी पद्धति में एक समय में केवल एक ही ज्ञानेन्द्रिय को शिक्षित करने की व्यवस्था की गई है। यह सिद्धान्त शक्ति मनोविज्ञान पर आधारित है और वर्तमान युग में शक्ति मनोविज्ञान को कोई मान्यता नहीं दी जाती है। वास्तव में सभी ज्ञानेन्द्रियाँ एक साथ कार्य करती हैं, इसलिए उनकी शिक्षा भी एक साथ होनी चाहिए।

3. ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा अपर्याप्त- मॉण्टेसरी की यह व्याख्या सही नहीं है कि सात वर्ष के बालकों में। उच्चकोटि की मानसिक क्रियाओं-स्मृति, विचार, कल्पना, तर्क-का अभाव रहता है और उसे केवल इन्द्रिय अनुभव प्राप्त होते हैं। मनोवैज्ञानिक परीक्षण से यह सिद्ध हो चुका है कि तीन वर्ष के बालक में भी मानसिक क्रियाएँ होती हैं। उसमें स्मृति, कल्पना, जिज्ञासा आदि होती हैं। वह प्रत्येक वस्तु के बारे में जानना चाहता है और साथ-साथ अपनी कल्पनाशक्ति का प्रयोग भी करता है।

4. गेस्टाल्ट.मनोविज्ञान के विरुद्ध- भाषा की शिक्षा के सम्बन्ध में आधुनिक विचारधारा यह है कि बालकों को पहले वाक्ये, फिर शब्द और बाद में अक्षर ज्ञान कराना चाहिए, लेकिन मॉण्टेसरी ने इसके विपरीत विचारधारा का प्रयोग किया है। उनका कहना है कि बालक को पहले अक्षर और तत्पश्चात् वाक्य का ज्ञान कराना चाहिए, इसलिए इस पद्धति को गेस्टाल्ट मनोविज्ञान के विरुद्ध माना जाता है।

5. कल्पनात्मक एवं क्रियात्मक खेलों का अभाव- इस पद्धति का सबसे मुख्य दोष है कि यह बालक की कल्पनाशक्ति को अविकसित रखती है। इस पद्धति में कल्पनात्मक तथा क्रियात्मक खेलों का सर्वथा अभाव है। मॉण्टेसरी का विचार है कि बालक स्वयं कल्पनाओं से पूर्ण है, इसलिए उसे और काल्पनिक बनाना वास्तविक जीवन से दूर ले जाना है। इसलिए वे बालक को कला, कहानी, नाटक तथा कलात्मक भावनाओं से दूर रखना चाहती हैं, क्योंकि उनके विचार से व्यावहारिक जीवन की शिक्षा के लिए इनका कोई महत्त्व नहीं है। परन्तु मॉण्टेसरी यह भूल गई हैं कि कल्पना के सहारे । | मॉण्टेसरी पद्धति के दोष ही बालक अपनी मूल-प्रवृत्तियों को सन्तुष्ट करता है तथा अपने मानसिक तनाव को दूर करता है। इसके अभाव में विभिन्न प्रकार की भावना ग्रन्थियाँ बन जाती हैं और बालक का सम्पूर्ण व्यक्तित्व कुण्ठित हो जाता है। इसलिए कल्पना को स्थान न मिलने के कारण मॉण्टेसरी पद्धति दोषपूर्ण प्रतीत होती है।

6. समय और धन की अधिक आवश्यकता- इस पद्धति में। बालकों का बहुत-सा समय व्यर्थ नष्ट हो जाता है। सामान्य रूप से जो ज्ञान बालक एक महीने में ग्रहण कर सकता है, इस पद्धति द्वारा उसे। वह ज्ञान एक वर्ष में प्राप्त होता है। ज्ञानेन्द्रियों का अभ्यास मन्दबुद्धि के बालकों के लिए तो ठीक है, किन्तु वह साधारण बालक के लिए प्रशिक्षित अध्यापकों का अभाव निरर्थक है। साधारण बालक से इस प्रकार के अभ्यास कराना समय , शिक्षा उपकरणों पर अधिक बल की बरबादी करना है, क्योंकि घर और बाहर की अनेक वस्तुओं को । चाकचर आर बाहर का अनक वस्तुआ का प्रचार का अभाव देखकर और उनका प्रयोग करके उसकी इन्द्रियों पहले ही शिक्षित हो । प्रतिभाशाली बालकों के लिए जाती हैं।

7. प्रशिक्षित अध्यापकों का अभाव- जनता के अज्ञान के , सीमित स्वतन्त्रता कारण इस पद्धति के लिए प्रशिक्षित अध्यापक नहीं मिल पाते हैं। वातावरण के प्रभाव की उपेक्षा मॉण्टेसरी शिक्षा देने के लिए एक विशेष प्रकार का प्रशिक्षण लेना व्यक्तिवाद को प्रोत्साहन होता है। हमारे देश में इस प्रकार का कोई प्रशिक्षण विद्यालय नहीं है।

8. शिक्षा उपकरणों पर अधिक बल- इस पद्धति में शिक्षा के उपकरणों को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दिया जाता है। अमेरिकन शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा उपकरणों की कटु आलोचना की है। उनका कहना है कि अधिक शिक्षा उपकरणों से बालक का बौद्धिक विकास एकांगी रह जाता है। इससे बालक की आत्माभिव्यक्ति का क्षेत्र सीमित रह जाता है। इसके साथ-ही-साथ बालकों को उन क्रियाओं को करने के लिए बाध्य किया जाता है, जिनका वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता।

9. प्रचार का अभाव हमारे देश में इस पद्धति के समुचित प्रचार का अभाव है। सामान्य जनता मॉण्टेसरी विद्यालयों के विषय में कुछ नहीं जानती है। प्रचार और प्रोत्साहन के अभाव में मॉण्टेसरी शिक्षा पद्धति हमारे देश में अधिक प्रचलित नहीं हो पाई है।

10. प्रतिभाशाली बालकों के लिए अनुपयुक्त- वास्तव में मॉण्टेसरी पद्धति का आविष्कार मन्दबुद्धि और अपाहिज बालकों के लिए किया गया था। इसके शिक्षण उपकरण भी उन्हीं के लिए उपयुक्त हैं, इसलिए इस पद्धति से मन्दबुद्धि वाले बालक तो लाभ उठा सकते हैं, लेकिन प्रतिभाशाली बालकों को इससे कोई विशेष लाभ नहीं होता।

11. सीमित स्वतन्त्रता- इस पद्धति में बालक की स्वतन्त्रता सीमित होती है, क्योंकि उसे कुछ शिक्षा उपकरण देकर उनसे खेलने के लिए बाध्य किया जाता है। उसे किसी अन्य बालक से बातचीत करने का अधिकार भी नहीं होता।

12. वातावरण के प्रभाव की उपेक्षा- वातावरण के प्रभाव को जितना महत्त्व मिलना चाहिए, उतना महत्त्व इस पद्धति में नहीं मिला है। मॉण्टेसरी का यह मत नितान्त अवैज्ञानिक है कि सब कुछ बालक के ही अन्त:करण में विद्यमान है और उन आन्तरिक शक्तियों को ही विकसित करने का प्रयत्न करना चाहिए। वातावरण के प्रभाव से बालकों में बहुत-सी बुरी आदतें भी फ्ड़ जाती हैं। इसलिए मॉण्टेसरी स्कूलों में अध्यापिका हस्तक्षेप नहीं करेगी तो बालक का चरित्र कैसे बनेगा?

13. व्यक्तिवाद को प्रोत्साहन- मॉण्टेसरी पद्धति पूर्ण रूप से व्यक्तिवादी है और इसमें बालकों को सामूहिक तथा सामाजिक कार्य करने के लिए कोई अवसर नहीं दिया गया है। इससे बालकों में अभिमान और स्वार्थ की भावना आ जाती हैं, क्योंकि बालक अलग-अलग रहकर शिक्षा उपकरणों से खेलते रहते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनमें सामाजिकता तथा सहकारिता की भावना का विकास नहीं हो पाता है।

14. राष्ट्रीयता की भावना का अभाव- हमारे देश में राष्ट्रीयता की भावना की कमी के कारण भी मॉण्टेसरी पद्धति को अधिक प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा है। जिन पर शासन का उत्तरदायित्व है वे अपने स्वार्थ के कारण यह चाहते हैं कि गरीबी-अमीरी का भेदभाव बना रहे। उन्हीं के बच्चे शासक बने, इसलिए वे ही लोग जनता की शिक्षा के प्रति उदार नहीं हैं। | 15. अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का अभाव–अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का अभाव भी मॉण्टेसरी पद्धति के मार्ग में बाधक है। कुछ लोगों का कहना है कि यह एक विदेशी शिक्षा-प्रणाली है और इसकी जड़े हमारे देश की मिट्टी में न होकर अन्यत्र हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मैडम मारिया मॉण्टेसरी का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर:

मैडम मारिया मॉण्टेसरी का सामान्य परिचय
(General Introduction of Madam Maria Montessori)

डॉ० मॉण्टेसरी की गणना विश्व के महाम् शिक्षाशास्त्रियों में की जाती है। उन्होंने अपना जीवन एक डॉक्टर के रूप में आरम्भ किया और बाल शिक्षा के क्षेत्र में अपनी मौलिक देन देकर अपना नाम अमर कर लिया। डॉ० मॉण्टेसरी इटली की मूल निवासी थीं। 24 वर्ष की आयु में उन्होंने रोम विश्वविद्यालय से डॉक्टरी पास करके अपाहिज और मन्दबुद्धि के बालकों की चिकित्सा करनी आरम्भ की। उन्होंने अपाहिज और मन्दबुद्धि के बालकों की दयनीय दशा देखकर निर्णय किया कि ऐसे बालकों की शिक्षा की कोई नई व्यवस्था होनी चाहिए। उन्होंने अपने अनुभवों से यह निष्कर्ष निकाला कि मन्दबुद्धि वाला बालक भी बुद्धिमान बन सकता है, यदि उसकी शिक्षा-पद्धति पूर्ण मनोवैज्ञानिक हो। इसीलिए उन्होंने प्रयोगात्मक मनोविज्ञान तथा सामाजिक मानवशास्त्र का गहन अध्ययन करके बालकों के लिए एक नवीन शिक्षा-पद्धति को जन्म दिया, जिसे ‘मॉण्टेसरी पद्धति’ के रूप में विश्वभर में ख्याति प्राप्त हुई।

सन् 1907 में मॉण्टेसरी ने अपना स्कूल ‘Children Home’ स्थापित किया। सन् 1939 में वे ‘इण्डियन ट्रेनिंग इन्स्टीट्यूट’ (Indian Training Institute) की डायरेक्टर बनकर भारत आयीं। उन्होंने भारत में अनेक स्थानों पर अपनी पद्धति के सम्बन्ध में भाषण दिए। थियोसोफिकल सोसायटी के माध्यम से उनकी पद्धति के सम्बन्ध में अनेक लेख, व्याख्यान आदि प्रकाशित हुए। इसके परिणामस्वरूप भारत में मॉण्टेसरी पद्धति का व्यापक प्रचार और प्रसार हुआ। भारत में असंख्य मॉण्टेसरी स्कूलों की स्थापना हो गई और ये स्कूल आज भी पूरी सफलता के साथ कार्यरत हैं।

प्रश्न 2.
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली के विद्यालयों का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

मॉण्टेसरी विद्यालय
(Montessori Schools)

मॉण्टेसरी पद्धति में बच्चों को विद्यालय में घर के समान ही वातावरण मिलता है, इसीलिए मॉण्टेसरी ने विद्यालय को ‘बच्चों का घर’ (Children’s Home) कहा है। मॉण्टेसरी स्कूलों का वातावरण बालकों के अनुकूल तथा स्वतन्त्र होता है और उसमें उन्हें खेलने-कूदने तथा अपने व्यक्तित्व को विकसित करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है।

बालघर में एक बड़ा कमरा तथा कई छोटे-छोटे कमरे होते हैं। बड़े कमरे में बालक उपकरणों की सहायता से सीखता है तथा छोटे-छोटे कमरे भोजन, व्यायाम, विश्राम, गोष्ठी आदि कार्यो के लिए प्रयोग में लाए जाते हैं। बालकों को घूमने तथा खेलने के लिए छोटे-छोटे पार्क तथा उद्यान होते हैं, जिनमें बालक स्वच्छन्दतापूर्वक खेलता है तथा उसके भूलने-भटकने का भी डर नहीं रहता है। बालक पूर्ण स्वतन्त्र होता है। कि वह चाहे बाग में जाकर सीखे या कमरे में बैठकर सीखें। विद्यालय में नीचे कमरे, नीची खिड़कियाँ, नीची अलमारियाँ एवं छोटी-छोटी मेज-कुर्सियों का प्रबन्ध होता है। खिड़कियों के खोलने, बन्द करने एवं अलमारियों के उपयोग में बालक स्वतन्त्र होता है। आवश्यकतानुसार बालक स्वयं ही अपनी कुर्सी को यत्र-तत्र ले जाता है। छोटे-छोटे प्याले, चम्मच एवं अन्य बर्तन होते हैं, जिन्हें वह अपना समझता है और वास्तविक आनन्द एवं तृप्ति पाता है।

प्रश्न 3.
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत कर्मेन्द्रियों की शिक्षा-व्यवस्था का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

कर्मेन्द्रियों की शिक्षा
(Education of Action-Sense)

मॉण्टेसरी ने अपनी शिक्षण-पद्धति में बालक की कर्मेन्द्रियों की शिक्षा पर विशेष बल दिया है। मॉण्टेसरी स्कूलों का वातावरण ऐसा होता है और बालकों के सम्मुख ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी जाती हैं कि बालक चलने-फिरने के साधारण कार्य से लेकर अपने से सम्बन्धित सभी कार्यों को स्वयं कर लेता है। हाथ-मुँह धोना, कपड़े पहनना और उतारना, मेज तथा कुर्सी को ठीक स्थान पर रखना, कमरा सजाना, चीजों को सँभालकर रखना, भोजन बनाना और परोसना, बर्तन धोना आदि काम बालक स्वयं कर लेते हैं। ऐसे कार्यों को अपने आप करने से बालक प्रसन्नता का अनुभव प्राप्त करता है तथा अन्य कार्यों के लिए उत्साहित होता है। इस प्रकार के शिक्षण का उद्देश्य बालकों में अच्छी आदतों का निर्माण करना एवं उनका जीवन सफल बनाना है। इसके द्वारा बालक दैनिक जीवन के सभी आवश्यक कार्यों की शिक्षा प्राप्त कर लेता है। वह शिष्ट तथा सभ्य हो जाता है।

प्रश्न 4.
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा-व्यवस्था का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा
(Education of Senses)

ज्ञानेन्द्रियाँ ही हमारे बाह्य संसार के ज्ञान के द्वार हैं तथा ये ही आन्तरिक एवं बाह्य संसार से सम्बन्ध स्थापित करती हैं। इसलिए मॉण्टेसरी ने ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा पर विशेष बल दिया है। उनके अनुसार बालकों को सूक्ष्म विचारों का ज्ञान देना व्यर्थ है, क्योंकि बालकों में इतनी क्षमता नहीं होती कि वे सूक्ष्म विचारों को समझ सकें। उनका कहना है कि जितने अधिक ज्ञानेन्द्रिय अनुभव बालकों को कराए जाएँ, उतनी ही बालक अधिक शिक्षा ग्रहण कर सकेगा। विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित करने के लिए मॉण्टेसरी ने विभिन्न शिक्षा उपकरणों का निर्माण किया है। इनकी विशेषता यह है कि एक उपकरण से केवल एक ही काम हो सकता है। इन उपकरणों से खेलते-खेलते बिना शिक्षक की सहायता के बालक स्वयं समझ जाते हैं कि उन्हें क्या करना है। ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा पर बल देते हुए मॉण्टेसरी ने लिखा है, “ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा सम्बन्धी क्रियाओं का यह ध्येय नहीं है कि बालकों को विभिन्न वस्तुओं के रूप, वर्ण और गुण का ज्ञान हो जाए, वरन् उनसे हम उनकी ज्ञानेन्द्रियों को परिष्कृत करना चाहते हैं। इससे उनकी बुद्धि का विकास होता है। उनसे बुद्धि के विकास में वैसी ही सहायता मिलती है, जैसी व्यायाम से शारीरिक विकास में। अतएव ज्ञानेन्द्रियों की साधना एक प्रकार । का बौद्धिक व्यायाम है।”

प्रश्न 5.
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत भाषा की शिक्षा-व्यवस्था का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

भाषा की शिक्षा-व्यवस्था
(Education Systems of Language)

बालक की ज्ञानेन्द्रियों को विकसित और प्रशिक्षित करने के बाद उन्हें लिखने, पढ़ने तथा अंकगणित की शिक्षा दी जाती है। भाषा, जीवन के लिए आवश्यक और उपयोगी है। भाषा को वातावरण के माध्यम से अधिक जल्दी सिखाया जा सकता है। मॉण्टेसरी का कथन है कि बालक को पहले लिखना सिखाना चाहिए।

और लिखना सीखते-सीखते वे स्वयं पढ़ना सीख जाएँगे। मॉण्टेसरी का सिद्धान्त है कि पढ़ने से लिखना . सरल है, इसलिए बालक की भाषा की शिक्षा लिखने से प्रारम्भ होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त उच्चारण में लय तथा गति पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए। लिखना सिखाने के लिए उँगली फेरते-फेरते बालक की उँगलियाँ सध जाती हैं। वह अक्षर के स्वरूप का ज्ञान सरलता से कर लेता है। इससे बालक में सफलता की भावना बड़ी जल्दी आती है और वह उत्साहित होकर अधिक सीखने का प्रयत्न करता है। इससे उसमें आत्म-गौरव की भावना आती है।

प्रश्न 6.
मॉण्टेसरी प्रणाली और किण्डरगार्टन प्रणाली के संस्थापक कौन थे तथा इन दोनों में क्या अन्तर है?
उत्तर:
मॉण्टेसरी प्रणाली की संस्थापिका मैडम मारिया मॉण्टेसरी थी तथा किण्डरगार्टन प्रणाली के संस्थापक फ्रॉबेल थे। इन दोनों शिक्षा-प्रणालियों में पर्याप्त समानता होते हुए भी निम्नलिखित अन्तर हैं

  1. मॉण्टेसरी प्रणाली का आधार वैज्ञानिक है, जब कि किण्डरगार्टन प्रणाली का आधार मनोवैज्ञानिक तथा दार्शनिक है।
  2. मॉण्टेसरी प्रणाली में व्यक्तिगत शिक्षा पर बल दिया गया है, जब कि किण्डरगार्टन प्रणाली में सामाजिक शिक्षा पर बल दिया गया है।
  3. मॉण्टेसरी प्रणाली में कक्षा-अध्यापन नहीं होता, जब कि किण्डरगार्टन प्रणाली में कक्षा-अध्यापन होता है।
  4. मॉण्टेसरी प्रणाली में शिक्षा की प्रक्रिया बालक की इच्छानुसार संचालित होती है, जब कि किण्डरगार्टन प्रणाली में शिक्षा की प्रक्रिया कार्यक्रमानुसार संचालित होती है।
  5. मॉण्टेसरी प्रणाली में स्वत: अनुशासन एवं आत्म-निर्भरता के गुणों का विकास होता है, जब कि किण्डरगार्टन प्रणाली में नेतृत्व एवं सामाजिक गुणों का विकास होता है।
  6. मॉण्टेसरी प्रणाली में व्यावहारिक क्रियाओं पर बल दिया जाता है, जब कि किण्डरगार्टन प्रणाली में शारीरिक क्रियाओं पर बल दिया जाता है।
  7. मॉण्टेसरी प्रणाली में शिक्षण का कार्य शिक्षा-उपकरणों के माध्यम से किया जाता है, जब कि किण्डरगार्टन प्रणाली में शिक्षण कार्य खेल के माध्यम से दिया जाता है।
  8. मॉण्टेसरी प्रणाली में कृत्रिम साधनों तथा शैक्षिक उपकरणों के प्रयोग पर बल दिया जाता है, जब कि किण्डरगार्टन प्रणाली में प्राकृतिक शिक्षा, संगीत, गीत एवं भावे पर बल दिया जाता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली में शिक्षक की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मॉण्टेसरी पद्धति की सफलता शिक्षक की योग्यता पर निर्भर करती है। अत: मॉण्टेसरी स्कूलों में प्रशिक्षित शिक्षक का होना अनिवार्य है। शिक्षक को बालकों के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और उनकी आवश्यकतानुसार उनकी यथोचित सहायता करनी चाहिए। शिक्षक को तानाशाह न होकर एक योग्य निर्देशक एवं पथ-प्रदर्शक होना चाहिए। बालकों की आवश्यकताओं को समझकर उन्हें स्वतन्त्र वातावरण देना चाहिए, जिससे वह अपनी इच्छानुसार प्राकृतिक शक्तियों का विकास कर सके। शिक्षक को बाल-मनोविज्ञान का ज्ञान होना आवश्यक है। रॉबर्ट रस्क (Robert Rusk) के अनुसार, “मॉण्टेसरी पद्धति के शिक्षक के लिए उन शिक्षकों की ही नियुक्ति करनी चाहिए जिन्होंने बाल-मनोविज्ञान तथा उनके प्रयोग का प्रशिक्षण लिया हो।’

प्रश्न 2.
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली का तटस्थ मूल्यांकन प्रस्तुत कीजिए।
या
मॉण्टेसरी प्रणाली की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
यह सत्य है कि अन्य विभिन्न शिक्षा- प्रणालियों के ही समान मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली के भी अपने गुण-दोष हैं, परन्तु इस शिक्षा प्रणाली की अपनी कुछ मौलिक विशेषताएँ हैं जिनके कारण इस शिक्षा-प्रणाली को सारे विश्व में पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त हुई है। मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली को शिक्षा-जगत की एक महत्त्वपूर्ण शिक्षा-प्रणाली माना जाता है। इस शिक्षा-प्रणाली का तटस्थ मूल्यांकन मेयर्स ने इन शब्दों में प्रस्तुत किया है, “मॉण्टेसरी की सफलता ने इस धारणा को नवजीवन प्रदान किया है कि परम्परागत 
सामूहिक रटाई पद्धति केवल बालकों को कूपमण्डूक ही नहीं बनाती थी, बल्कि एक वर्ग के सदस्यों के विकास को बाधा पहुँचाती थी। मॉण्टेसरी के वैयक्तिक शिक्षा पर जोर देने के कारण शिक्षाशास्त्री फिर से । अधिक उत्तम पद्धति की खोज में लग गए, जिसमें वे छात्रों की वैयक्तिक आवश्यकताओं एवं योग्यताओं पर ध्यान दे सकें।’

प्रश्न 3.
मॉण्टेसरी प्रणाली की सीमाएँ क्या हैं ?
उत्तर:
मॉण्टेसरी प्रणाली की मुख्य सीमाएँ या दोष इस प्रकार हैं।

  1. मॉण्टेसरी प्रणाली बाल-मनोविज्ञान के अनुकूल नहीं है।
  2. यह शिक्षा प्रणाली अधिक समय तथा व्यय साध्य है।
  3. यह प्रणाली प्रतिभाशाली बालकों के लिए अनुपयुक्त है।
  4. इस प्रणाली में सामूहिक भावना का समुचित विकास नहीं हो पाता।
  5. मॉण्टेसरी प्रणाली में बोल उपयोगी कल्पनात्मक खेलों का प्रायः अभाव ही है।
  6. इस प्रणाली के लिए प्रशिक्षित अध्यापकों की कमी है।

प्रश्न 4.
मॉण्टेसरी प्रणाली की शिक्षण पद्धति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मॉण्टेसरी प्रणाली में शिक्षण पद्धति तीन भागों में विभक्त है। ये भाग हैं क्रमशः कर्मेन्द्रियों की शिक्षा, ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा तथा भाषा एवं गणित की शिक्षा। कर्मेन्द्रियों की शिक्षा का उद्देश्य बालकों में अच्छी आदतों का निर्माण करना एवं उनका जीवन सफल बनाना है। ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित करने के लिए मॉण्टेसरी प्रणाली में विभिन्न शिक्षा उपकरणों का निर्माण किया गया है। इनकी विशेषता यह है कि एक उपकरण से केवल एक ही काम हो सकता है। इन उपकरणों से खेलते-खेलते बिना शिक्षक की सहायता के बालक स्वयं समझ जाते हैं कि उन्हें क्या करना है। मॉण्टेसरी प्रणाली में बालक की ज्ञानेन्द्रियों को विकसित और प्रशिक्षित करने के बाद उन्हें लिखने, पढ़ने तथा अंकगणित की शिक्षा दी जाती है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
छोटे बच्चों को शिक्षा प्रदात करने वाली मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली को किसने लागू किया था?
उत्तर:
छोटे बच्चों को शिक्षा प्रदान करने वाली मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली को लागू करने का श्रेय मैडम मारिया मॉण्टेसरी को था।

प्रश्न 2.
मॉण्टेसरी का जन्म किस देश में हुआ था?
उत्तर:
मैडम मारिया मॉण्टेसरी का जन्म इटली में हुआ था।

प्रश्न 3.
मैडम मॉण्टेसरी ने अपना प्रथम विद्यालय कब तथा किस नाम से स्थापित किया था?
उत्तर:
मैडम मॉण्टेसरी ने अपना प्रथम विद्यालय सन् 1907 ई० में Children Home के नाम से स्थापित किया था।

प्रश्न 4.
मैडम मॉण्टेसरी भारत कब आई थीं तथा वह किस संस्था की डायरेक्टर थीं?
उत्तर:
डम मॉण्टेसरी सन् 1939 में ‘इण्डियन ट्रेनिंग इन्स्टीट्यूट’ की डायरेक्टर बनकर भारत आई थीं।

प्रश्न 5.
मैडम मॉण्टेसरी द्वारा लिखित मुख्य पुस्तकों के शीर्षक क्या हैं?
उत्तर:

  • द मॉण्टेसरी मैथड,
  • रीकन्सट्रक्शन इन एजूकेशन,
  • डिस्कवरी ऑफ दि चाइल्ड,
  • चाइल्ड ट्रेनिंग तथा
  • सीक्रेट ऑफ दि चाइल्डहुड।

प्रश्न 6.
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली के अनुसार शिक्षा का मुख्यतम उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
मॉण्टेसरी शिक्षा प्रणाली के अनुसार शिक्षा का मुख्यतम उद्देश्य बालक के सुचारु विकास में योगदान प्रदान करना है।

प्रश्न 7.
माण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली में शिक्षक का क्या स्थान है?
उत्तर:
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली में शिक्षक को निर्देशक, मित्र तथा निरीक्षक का स्थान दिया गया है।

प्रश्न 8 मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली में बच्चों को किस प्रकार के खेल खिलाए जाते हैं?
उत्तर:
मॉण्टेसरी शिक्षा प्रणाली में बच्चों को मुख्य रूप से कल्पनात्मक खेल खिलाए जाते हैं।

प्रश्न 9.
मॉण्टेसरी शिक्षा में ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण क्या है?
उत्तर:
मॉण्टेसरी शिक्षा प्रणाली में ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञान का द्वार माना गया है। इस प्रणाली का मानना है। कि यदि ज्ञानेन्द्रियाँ निर्बल रहती हैं तो व्यक्ति का ज्ञान अस्पष्ट तथा अपूर्ण रहता है। अत: इस प्रणाली में विभिन्न शैक्षिक उपकरणों द्वारा बालक की ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित किया जाता है।

प्रश्न 10.
शिक्षा की कौन-सी विधि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से शिक्षा पर बल देती है?
उत्तर:
मॉण्टेसरी प्रणाली।

प्रश्न 11.
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. मॉण्टेसरी शिक्षा प्रणाली को मिस हेलेन पार्कहर्ट ने प्रारम्भ किया था।
  2. मैडम मॉण्टेसरी जर्मनी की मूल निवासी थीं।
  3. मॉण्टेसरी शिक्षा प्रणाली में सैद्धान्तिक एवं पुस्तकीय शिक्षा को प्राथमिकता प्रदान की जाती
  4. मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली में शिक्षिका की भूमिका कठोर नियन्त्रक की है।
  5. मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली में विभिन्न शिक्षण उपकरणों को अपनाया जाता है।

उत्तर:

  1. असत्य,
  2. असत्य,
  3. असत्य,
  4. असत्य,
  5. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न  1.
मॉण्टेसरी प्रणाली की प्रणेता हैं
(क) एनी बेसेण्टं
(ख) मारिया मॉण्टेसरी
(ग) हरबर्ट
(घ) पेस्टालॉजी

प्रश्न  2.
मारिया मॉण्टेसरी किस देश की निवासी थीं?
(क) इटली
(ख) फ्रांस
(ग) जर्मनी
(घ) स्वीडन

प्रश्न  3.
मॉण्टेसरी की शिक्षा सम्बन्धी प्रसिद्ध पुस्तक है
(क) एजूकेशन ऑफ चाइल्ड
(ख) एजूकेशन ऑफ मैन
(ग) एजूकेशन ऑफ वर्ल्ड
(घ) दि मॉण्टेसरी मैथड

प्रश्न  4.
मॉण्टेसरी में किसको विशेष महत्त्व दिया जाता है?
(क) बालक को
(ख) शिक्षक को
(ग) परिवार को
(घ) विद्यालय को

प्रश्न  5.
मॉण्टेसरी शिक्षा-प्रणाली का सिद्धान्त है
(क) आत्माभिव्यक्ति का सिद्धान्त
(ख) पूर्ण स्वतन्त्रता का सिद्धान्त
(ग) विकास के लिए शिक्षा का सिद्धान्त
(घ) उपर्युक्त सभी सिद्धान्त
उत्तर:

1. (ख) मारिया मॉण्टेसरी,
2. (क) इटली,
3. (घ) दि मॉण्टेसरी मैथड,
4. (घ) विद्यालय को,
5. (घ) उपर्युक्त सभी सिद्धान्त।

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UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 11 Educational Systems: Kindergarten Method

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 11
Chapter Name Educational Systems:
Kindergarten Method
(शिक्षा प्रणालियाँ: किण्डरगार्टन पद्धति)
Number of Questions Solved 28
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 11 Educational Systems: Kindergarten Method (शिक्षा प्रणालियाँ: किण्डरगार्टन पद्धति)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
किण्डरगार्टन प्रणाली (पद्धति) का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा इस प्रणाली के आधारभूत सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
या
किण्डरगार्टन प्रणाली के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

किण्डरगार्टन पद्धति का अर्थ
(Meaning of Kindergarten Method)

किण्डरगार्टन प्रणाली के जन्मदाता प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री फ्रॉबेल थे। उन्होंने छोटे बच्चों को सही ढंग से शिक्षित करने के लिए एक शिक्षण-पद्धति का निर्माण किया, जो किण्डरगार्टन पद्धति के नाम से विख्यात है। किण्डरगार्टन का अर्थ है, ‘बच्चों का बगीचा’। किण्डरगार्टन नामक विद्यालय की स्थापना सन् 1940 में फ्रॉबेल ने की थी। फ्रॉबेल का कहना था, “बालक एक अविकसित पौधा है, जो शिक्षकरूपी माली की देखरेख में अपने आन्तरिक नियमों के अनुसार विकसित होता है।” फ्रॉबेल ने शिक्षक को अधिनायक न मानकर केवल पथप्रदर्शक के रूप में स्वीकार किया है। इस प्रकार के विद्यालयों में समय-सारणी और पाठ्य-पुस्तकों का कोई बन्धन नहीं होता है। बालकों से प्रेम तथा सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार किया जाता है। रस्क (Rusk) ने लिखा है, “किण्डरगार्टन छोटे बच्चों के लिए एक स्कूल है, जिसमें कपड़ों को उचित प्रकार से तह करने, चटाई बुनने, मिट्टी की मूर्तियाँ बनाने, सांकेतिक खेल तथा क्रियात्मक गाने उचित ढंग तथा क्रम से सिखाए जाते हैं।”

किण्डरगार्टन पद्धति के आधारभूत सिद्धान्त
(Fundamental Principles of Kindergarten Method)

किण्डरगार्टन प्रणाली का क्रियात्मक रूप प्रमुख रूप से फ्रॉबेल की दार्शनिक विचारधारा पर आधारित है। उसकी शिक्षा-पद्धति के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं|

1. एकता का सिद्धान्त- फ्रॉबेल ईश्वरवादी था और दैवी एकता के सिद्धान्त में विश्वास रखता था। फ्रॉबेल का विश्वास था कि सभी वस्तुएँ ईश्वर द्वारा निर्मित हैं और सभी में ईश्वर व्याप्त है। वह बालक को शिक्षा के माध्यम से ईश्वर आधारभूत सिद्धान्त द्वारा स्थापित एकता का अनुभव कराना चाहता था। उसका विचार था कि ईश्वर बीज रूप में है और सम्पूर्ण सृष्टि उस बीज के बढ़े हुए वृक्ष के रूप में है। ऊपर से देखने में संसार में विभिन्नताएँ हैं, किन्तु हर जीव में एक आत्मा है। वह आत्मा ईश्वर का अंश है और इस प्रकार संसार की सभी वस्तुओं में एकता है। दूसरे शब्दों में, ईश्वर का साक्षात्कार कराना तथा ईश्वर में स्थित विभिन्न वस्तुओं की एकता को पहचान लेना ही शिक्षा का उद्देश्य है। इसी सिद्धान्त के आधार पर उन्होंने पढ़ाए जाने वाले सभी विषयों में समन्वय स्थापित करने का सुझाव रखा। इस समन्वय के द्वारा ही बालक सरलतापूर्वक एकता के नियम का अनुभव कर सकते हैं।

2. स्वतः विकास का सिद्धान्त- फ्रॉबेल का कथन था कि इस संसार का प्रत्येक प्राणी विकास की ओर उन्मुख होता है। प्रत्येक वस्तु का विकास उसके आन्तरिक नियमों के अनुसार स्वत: होता है, बाहर से थोपा नहीं जाता। किसी भी प्रकार के बाह्य हस्तक्षेप से बालक का विकास कुण्ठित हो जाता है। उसका विश्वास था कि जिस प्रकार बीज के अन्दर विकास शक्ति निहित होती है और उसे प्रयोग में लाने पर वह अन्दर से बाहर की ओर विकसित होती है, उसी प्रकार से बालक का भी विकास अन्दर से बाहर की ओर होता है। उसके अनुसार, “बालक.ज़ो कुछ भी होगा, वह उसके भीतर है, चाहे उसका कितना ही कम संकेत हमें क्यों न मिले।’

इसी सिद्धान्त के आधार पर फ्रॉबेल ने बालक की उपमा पौधे से, पाठशाला की बगीचे से और शिक्षक की माली से देते हुए कहा है, “पाठशाला एक बाग है, जिसमें बालकरूपी पौधा शिक्षकरूपी माली की देखरेख में बढ़ता है।” फ्रॉबेल का कहना है कि शिक्षक को बालक के आन्तरिक विकास में कम-से-कम हस्तक्षेप करना चाहिए और उसे केवल पथ-प्रदर्शक के रूप में कार्य करना चाहिए।

3. स्वक्रिया का सिद्धान्त- फ्रॉबेल की मान्यता थी कि बालकों की आन्तरिक शक्तियों के विकास के लिए क्रियाशीलता अत्यन्त आवश्यक है। इस सिद्धान्त का अर्थ स्वयं सक्रिय होकर कार्य करने से है। फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-पद्धति में इस सिद्धान्त को अत्यधिक महत्त्व दिया है और कहा है कि वास्तविक विकास स्वक्रिया द्वारा ही सम्भव है। क्रियाशील रहने से बालक की मानसिक तथा शारीरिक शक्तियाँ दोनों ही विकसित रहती हैं। स्वयं कार्य करने से बालक परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करता है और स्वयं को वातावरण के अनुकूल बना लेता है, इसलिए बालक की शिक्षा का प्रारम्भ वहीं से होना चाहिए अर्थात् बालक को करके सीखना चाहिए। फ्रॉबेल ने स्वयं लिखा है, “अपनी प्रेरणाओं एवं भावनाओं को पूरा करने के लिए बालक स्वयं अपने मन से सक्रिय होकर काम करे।”

4. खेल का सिद्धान्त- फ्रॉबेल ने सर्वप्रथम खेल के माध्यम से बालकों को शिक्षा देने का प्रयत्न किया। उसने खेल को बालक की शिक्षा का प्रमुख साधन माना। उनका मत था कि खेल बालक की स्वाभाविक प्रकृति होती है, इसलिए बालकों को खेलों के माध्यम से शिक्षा दी जानी चाहिए। फ्रॉबेल के शब्दों में, “बचपन के खेल मनुष्य के शुद्ध आध्यात्मिक कार्य हैं और साथ-ही-साथ खेल में मनुष्य का आन्तरिक जीवन प्रकट होता है। इसलिए वह आनन्द, स्वतन्त्रता, सन्तोष, आन्तरिक एवं बाह्य आराम तथा संसार के साथ शान्ति प्रदान करता है। खेल समस्त अच्छाइयों का उद्गम है।”

5. स्वतन्त्रता का सिद्धान्त- फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-पद्धति में स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को बहुत अधिक महत्त्व दिया है। जब बालक को पूर्ण स्वतंन्त्रता दी जाएगी तभी बालक स्वक्रिया द्वारा ज्ञान प्राप्त कर सकता है। इसीलिए फ्रॉबेल का कहना है कि शिक्षक को बालकों के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, बल्कि उनका निरीक्षण करना चाहिए। इस सिद्धान्त के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए दुग्गन (Duggan) ने लिखा है, शिक्षक को प्रत्येक बालक के स्वतन्त्र व्यक्तित्व के विकास के लिए अवसर प्रदान करना चाहिए। उसे मार्ग निर्देशन करना चाहिए, अवरोध नहीं उपस्थित करना चाहिए। उसे प्रत्येक बालक के देवत्व के विकास के साथ हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।’

6. सामाजिकता तथा सामूहिकता का सिद्धान्त- फ्रॉबेल ने मनुष्य को सामाजिक प्राणी माना है। उसका विचार था कि बालक मानवीय गुणों को समाज में रहकर ही प्राप्त कर सकता है। इसके लिए फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-पद्धति में सामूहिक खेल, सामूहिक गान और अन्य सामूहिक कार्यों पर बल दिया है। इन सभी कार्यों द्वारा बालकों में सहयोग, सहानुभूति और एकता की भावना का विकास होता है।

प्रश्न 2.
किण्डरगार्टन शिक्षा-पद्धति की शिक्षण-सामग्री का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर:

किण्डरगार्टन पद्धति की शिक्षण-सामग्री।
(Device of Teaching in Kindergarten Method)

फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-पद्धति में निम्नलिखित शिक्षण-सामग्री को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है

1. खेल- फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-पद्धति में खेल को विशेष महत्त्व दिया है। इस पद्धति में खेल को शिक्षा का माध्यम स्वीकार किया गया है। विभिन्न प्रकार के खेलों के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था की जाती है। सामान्य रूप से चार प्रकार के खेल अपनाए जाते हैं। ये खेल हैं क्रमश: मनोरंजक तथा रचनात्मक खेल सामूहिक भावना की वृद्धि करने वाले खेल, कल्पना-शक्ति का विकास करने वाले खेल तथा चरित्र का विकास करने वाले खेल।।

2. मातृ और शिशु गीत-यह एक लघु पुस्तिका होती है, जिसमें 50 गीतों का संग्रह होता है। इसमें प्रत्येक गीत की अलग-अलग व्याख्यात्मक टिप्पणी होती है। ये गीत बच्चों के खेल, व्यवसाय तथा कार्यों पर आधारित होते हैं। इन खेलों और गीतों का क्रम बालक की आयु और योग्यता के अनुसार रखा गया है। इन खेलों एवं गीतों द्वारा बालक और उसकी माता में एकता स्थापित होती है। इनके द्वारा बालक का शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास किया जाता है। इनके द्वारा बालक की विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों व विभिन्न अंगों का विकास किया जाता है।

3. उपहार- फ्रॉबेल ने बालकों के खेलने के लिए उनकी | किण्डरगार्टन पद्धति की। अभिक्रिया को उत्तेजित करने के लिए उनकी ज्ञानेन्द्रियों को शिक्षा के शिक्षण-सामग्री लिए कुछ वस्तुओं की व्यवस्था की, जिन्हें उसने उपहार नाम दिया है। खेल इन उपहारों की संख्या 20 है। इसमें 7 उपहार प्रमुख हैं, जो बेलन, मातृ और शिशु गीत गोला और घन से बने होते हैं। इनका वर्गीकरण और क्रम बालकों की आयु तथा विकास के क्रमानुसार रखा जाता है। इनमें से प्रमुख उपहार व्यापार या कार्य । निम्नलिखित हैं–

  • ऊन की छह गेंदें- ये गेंदें लाल, पीले, हरे, नीले आदि भिन्न-भिन्न रंगों से रंगी होती हैं। इनके प्रयोग द्वारा बालकों को रूप, रंग, स्पर्श, गति, कठोरता, कोमलता एवं दिशा का ज्ञान कराया जाता है। इनसे खेलने में बालक अपनी मांसपेशियों का उपयोग करता है।
  • बेलन, गोले तथा घन- लकड़ी तथा अन्य किसी ठोस वस्तु से बने बेलन, गोले व घन की सहायता से बालक किसी वस्तु की स्थिरता, गतिशीलता, समानता व भिन्नता का ज्ञान प्राप्त करते हैं।
  • आठ छोटे घनों का एक बड़ा घन- यह उपहार एक ऐसे बड़े घन का होता है, जो छोटे-छोटे आठ घनों से मिलकर बनता है। इन छोटे-छोटे टुकड़ों से बालक अपनी रचनात्मक शक्ति का विकास करते हैं और छोटी-छोटी वस्तुएँ बनाते हैं; जैसे–मेज, कुर्सी आदि। इनकी सहायता से बालक को प्रारम्भिक गणित का भी ज्ञान कराया जाता है।
  • आठ आयताकार घनों का ऐक बड़ा घन- इसमें आठ आयताकार घनों का बना हुआ एक बड़ा घन होता है, जिनकी सहायता से बालक विभिन्न प्रकार की आकृतियों का निर्माण करते हैं और उन्हें संख्याओं का भी ज्ञान हो जाता है।
  • सत्ताइस घनों का एक बड़ा घन- यह एक इतना बड़ा घन होता है, जो छोटे-छोटे 27 घनों से मिलकर बनता है। इनकी सहायता से भी बालकं विभिन्न प्रकार की आकृतियों का निर्माण करते हैं और उन्हें संख्याओं का भी ज्ञान हो जाता है।
  • अठारह बड़े और नौ छोटे विषम चतुर्भुजों का एक बड़ा घन- इनकी सहायता से बालक ज्यामिति की भिन्न-भिन्न आकृतियाँ बनाकर ज्यामिति का ज्ञान प्राप्त करते हैं।
  • वर्ग तथा त्रिभुज- इनका प्रयोग भी रेखागणित के विभिन्न चित्रों को बनाने में किया जाता है।

4. व्यापार या कार्य- फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-पद्धति में व्यापार या कार्य को विशेष महत्त्व दिया है। ये कार्य बालक को तब दिए जाते हैं जब उपहारों के प्रयोग द्वारा उनमें विचार-शक्ति विकसित हो जाती है। फ्रॉबेल ने उपहारों तथा कार्यों में बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध बताया है। उपहारों के द्वारा बालक में विचार उत्पन्न होते हैं और विचारों के आधार पर बालक कार्य करते हैं। बालक को उपहारों द्वारा बिना वस्तुओं का आकार बदले उन्हें मिलाने तथा क्रमबद्ध करने का अभ्यास कराया जाता है और इससे बालक वस्तुओं के आकार, रूप, रंग इत्यादि का ज्ञान प्राप्त करते हैं।

5. पाठ्यक्रम- फ्रॉबेल की शिक्षा-पद्धति में बालकों को खेलों तथा कार्यों के अतिरिक्त कुछ विषयों का ज्ञान भी कराया जाता है; जैसे—भाषा, गणित, विज्ञान, कला, धार्मिक निर्देश, बागवानी, इतिहास, भूगोल, संगीत आदि।

प्रश्न 3.
किण्डरगार्टन शिक्षा-पद्धति के मुख्य गुणों का उल्लेख कीजिए।
या
किण्डरगार्टन शिक्षा-विधि के गुण-दोषों की विवेचना कीजिए।
या
खेल प्रणाली के गुण-दोषों का वर्णन कीजिए।
उतर:

किण्डरगार्टन पद्धति के गुण
(Merits of Kindergarten Method)

1. शिशु की शिक्षा हेतु उपयोगी- यह पद्धति छोटे बच्चों की शिक्षा के लिए बड़ी उपयोगी और उपयुक्त है। फ्रॉबेल के अनुसार, “स्कूल की शिक्षा में तभी सफलता प्राप्त हो सकती है, जब शिक्षा में सुधार कर उसकी नींव मजबूत कर दी जाए।”

2. सरल, रुचिपूर्ण और आकर्षक पद्धति- शिक्षा देते समय बालक की आयु, रुचियों, क्षमताओं और योग्यताओं का ध्यान रखा जाता है। वह खेल, गीत, अभिनय, रचना इत्यादि के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करता है। इस प्रकार यह पद्धति सरल है। इसके अन्तर्गत बालक रुचिपूर्ण ढंग से शिक्षा प्राप्त करता है, इस कारण यह पद्धति आकर्षक कही जाती है।

3. इन्द्रियों का प्रशिक्षण- इस पद्धति में बालकों की ज्ञानेन्द्रियों किण्डरगार्टन पद्धति के गुण को प्रशिक्षित होने का अवसर मिलता है, क्योंकि इसके खेल और शिशु की शिक्षा हेतु उपयोगी उपहार इस प्रकार के बने हैं कि बालक की इन्द्रियाँ प्रशिक्षित हो जाती , सरल, रुचिपूर्ण और आकर्षक हैं। इसके साथ-ही-साथ उनकी मानसिक क्रियाओं में तत्परता और पद्धति स्पष्टता आ जाती है। इन्द्रियों का प्रशिक्षण

4. आत्मक्रिया पर बल- इस पद्धति में बालकों को आत्मक्रिया में आत्मक्रिया पर बल के सजीव तथा स्वाभाविक माध्यम से शिक्षा दी जाती है। क्रियाशीलता शिक्षक मित्र व पथप्रदर्शक की प्रधानता के कारण बालक स्वयं कार्य करके सीखते हैं। विभिन्न व्यावसायिक क्रिया को महत्त्व वस्तुओं तथा उपकरणों द्वारा खेलने से बालकों की स्वक्रिया को शारीरिक श्रम पर बल उत्तेजना मिलती है, जिससे उनमें आत्मशक्ति, क्रियाशीलता और » नैतिक तथा सामाजिक गुणों का आत्मविश्वास आदि का विकास होता है। विकास

5. शिक्षक मित्र वे पथप्रदर्शक- यह शिक्षा-पद्धति के आधुनिक शिक्षा का आधार बालकप्रधान है और इसमें शिक्षक का स्थान गौण होता है। इस पद्धति के सौन्दर्यात्मक विकास में शिक्षक का स्थान केवल मित्र, सहायक तथा पथप्रदर्शक के रूप में होता है। शिक्षक केवल बालकों के कार्य-कलापों का निरीक्षण हैं और उन पर दबाव नहीं डालते हैं।

6. व्यावसायिक क्रिया को महत्त्व- फ्रॉबेल ने अपनी मनोवैज्ञानिक पद्धति शिक्षा-पद्धति में कार्य और व्यापारों को अत्यधिक महत्त्व दिया है। ये कार्य बालकों को भावी जीवन के लिए तैयार करते हैं। इससे उनकी कल्पना तथा रचनात्मक शक्ति का विकास होता है।

7. शारीरिक श्रम पर बल- इस पद्धति में शारीरिक श्रम पर विशेष बल दिया गया है। बालक अनेक शारीरिक कार्यों; जैसे–चटाई बुनना, बागवानी, लकड़ी का काम, सीना-पिरोना आदि को सीखता है। ऐसे कार्य करने से बालकों के मन में शारीरिक श्रम करने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है और वे किसी कार्य को निम्न स्तर का नहीं समझते हैं।

8. नैतिक तथा सामाजिक गुणों का विकास- यह पद्धति बालकों के वैयक्तिक विकास के साथ-ही-साथ उनके नैतिक और सामाजिक विकास पर भी बल देती है। फ्रॉबेल ने अपनी पद्धति में सामूहिक क्रियाओं तथा सामूहिक खेलों पर बल दिया है, जिससे बालकों में सामाजिक तथा नैतिक गुणों का विकास होता है।

9. आधुनिक शिक्षा का आधार- किण्डरगार्टन पद्धति ने आधुनिक शिक्षा को कुछ महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी सिद्धान्त प्रदान किए हैं, जिन पर आधुनिक शिक्षा आधारित है; जैसे–स्वतन्त्र अनुशासन का महत्त्व, क्रिया द्वारा शिक्षा आदि। आधुनिक शिक्षा को मनोवैज्ञानिक आधार भी किण्डरगार्टन पद्धति की ही देन है।

10. सौन्दर्यात्मक विकास- इस पद्धति द्वारा संचालित विद्यालयों में बालकों को इस प्रकार के अवसर प्रदान किए जाते हैं, जिससे वह सुन्दर-सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों का निरीक्षण कर सके। इस प्रकार बालकों के अन्दर सौन्दर्यात्मक अनुभूति का विकास होता है। |

11. विद्यालय का आकर्षक वातावरण- किण्डरगार्टन पद्धति ने विद्यालय के नीरस वातावरण का अन्त करके वहाँ पर सरसता और उल्लास का वातावरण उत्पन्न कर दिया है। किण्डरगार्टन स्कूलों में शिक्षण कार्य प्रशिक्षित महिलाओं द्वारा किया जाता है। वे अपने मृदु व्यवहार और कुशल कार्यों से विद्यालय में भी घर के समान वातावरण उत्पन्न कर देती हैं, जिससे छोटे-छोटे बच्चों को घर जैसा वातावरण मिलने से किसी प्रकार की घबराहट नहीं होती है।

12. आध्यात्मिकता का विकास- इस पद्धति के द्वारा बालकों को विश्व की अनेकता में एकता का अनुभव होता है। इसकी अनुभूति कराने के लिए गीत, खेल व उपहारों का प्रयोग विशिष्ट प्रकार से किया जाता है। विश्व की एकता का ज्ञान होने से बालकों को ईश्वर के अस्तित्व के बारे में जानकारी प्राप्त होती है और उनका आध्यात्मिक विकास भी होता है।

13. खेल द्वारा शिक्षा- यह पद्धति खेल द्वारा शिक्षा पर विशेष बल देती है। बालक खेल-खेल में लिखना, पढ़ना, गणित आदि विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है। रस्क ने लिखा है, ‘फ्रॉबेल ने किण्डरगार्टन में खेल तथा व्यापार की ऐसी विधिवत् व्याख्या की है, जिससे उसको सामान्य रूपों से अपनाया गया। जिस प्रकार जेसुइटो तथा कमेनियस को शिक्षा को एक व्यवस्थित विधिशास्त्र देने का श्रेय है, उसी प्रकार फ्रॉबेलको खेल की विधि प्रदान करने का श्रेय है।”

14. मनोवैज्ञानिक पद्धति- किण्डरगार्टन पद्धति बाल मनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर आधारित है। यह बाल-केन्द्रित है। यह पद्धति बालकों के व्यक्तित्व के विकास पर पूरा ध्यान देती है।

किण्डरगार्टन पद्धति के दोष
(Defects of Kindergarten Method)

इस पद्धति के मुख्य दोषों का विवरण निम्नलिखित है

1. अस्पष्ट रहस्यवादी सिद्धान्त- कुछ शिक्षाशास्त्रियों का किण्डरगार्टन पद्धति के दोष विचार है कि फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा प्रणाली में जिन रहस्यवादी सिद्धान्तों को आधार बनाया है, वे अमनोवैज्ञानिक, भ्रामक तथा अस्पष्ट रहस्यवादी सिद्धान्त अस्पष्ट हैं। फ्रॉबेल के रहस्यवाद में कल्पना का बाहुल्य है और उसके 4 सीमित स्वतन्त्रता द्वारा बालक वास्तविक जीवन से बहुत दूर पहुँच जाते हैं। 9 वैयक्तिकता के विकास पर कम

2. सीमित स्वतन्त्रता- यद्यपि इस पद्धति में बालक की ध्यान । स्वतन्त्रता पर बहुत अधिक बल दिया गया है, लेकिन वास्तव में यह विषयों की अन्योन्याश्रितता को स्वतन्त्रता सीमित है। इस पद्धति के द्वारा बालक को निश्चित उपहारों, अभाव कार्यो, गीतों तथा खेलों में बँधना पड़ता है, जिस कारण बालक अपने ५ उपहार बनावटी तथा मनमाने आपको पूर्ण स्वतन्त्र अनुभव नहीं कर पाते हैं। वे उस वातावरण में कुछ गीत और चित्र पुराने कुछ बन्धनों का अनुभव करते हैं। प्रशिक्षित शिक्षकों को अभाव

3. वैयक्तिकता के विकास पर कम ध्यान- इस पद्धति में ज्ञान की प्रक्रिया का गलत अर्थ सामूहिक एकता और सामूहिक जीवन पर इतना अधिक बल दिया उत्तरदायित्व की शिक्षा का अभाव गया है कि बालक की वैयक्तिकता की उपेक्षा की जाती है। अमनोवैज्ञानिक पद्धति मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह उचित नहीं है।

4. विषयों की अन्योन्याश्रितता का अभाव-इस पद्धति में विषय अलग-अलग करके पढ़ाए जाते हैं, इसलिए विभिन्न विषयों में समन्वय स्थापित नहीं किया जा सकता। उत्तम शिक्षण-प्रणाली वही हो सकती है, जिसमें सभी विषय परस्पर अन्योन्याश्रित हों।

5. उपहार बनावटी तथा मनमाने- अधिकांश शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि फ्रॉबेले के उपहार स्वरूप में बनावटी और प्रस्तुत करने के क्रम में मनमाने हैं। इनका प्रयोग स्वेच्छापूर्वक किया गया है। फ्रॉबेल ने इस तथ्य की उपेक्षा कर दी है कि बालक विद्यालय में जाने से पहले ही भिन्न-भिन्न आकृतियों, रूपों और रंगों से परिचित हो जाता है और उसे उपहारों की कोई आवश्यकता नहीं रहती। इसीलिए आजकल बहुत-सेविद्यालयों ने इन उपहारों को अनावश्यक समझकर पाठ्यक्रम से निकाल दिया है।

6. कुछ गीत और चित्र पुराने- इस पद्धति में जिन गीतों और चित्रों का समावेश किया गया है, उनमें बहुत-से काफी पुराने हैं। आज जब कि विश्व में बहुत अधिक परिवर्तन हो गया है, लेकिन इस पद्धति के गीतों और चित्रों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। ये सब आज की शैक्षिक परिस्थितियों के अनुकूल नहीं हैं और इनका प्रयोग प्रत्येक देश के प्रत्येक विद्यालय में नहीं किया जा सकता।

7. प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव- इस पद्धति में प्रयुक्त उपहार, व्यापार आदि प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी के कारण समस्या उत्पन्न करते हैं और धन की कमी के कारण प्रत्येक विद्यालय में इनकी व्यवस्था नहीं की जा सकती।।

8. ज्ञान की प्रक्रिया का गलत अर्थ- फ्रॉबेल ने ज्ञान की प्रक्रिया के सम्बन्ध में गलत अर्थ निकाला था। फ्रॉबेल का मत था कि विकास एक आन्तरिक क्रिया है। शिक्षा द्वारा जो कुछ बालक के भीतर होता है, वही बाहर निकालता है। परन्तु यह विचार पूर्णतया सत्य प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि विकास तभी होता है, जब बालक वातावरण को समझ लेता है और उसे अपने अनुकूल बनाता है। बहुत-सा ज्ञान और अनुभव बालक में बाहर से अन्दर प्रवेश करता है।

9. उत्तरदायित्व की शिक्षा का अभाव- किण्डरगार्टन पद्धति में पूर्व निश्चित योजना के अनुसार कार्य करना पड़ता है और बालकों को ऐसे अवसर नहीं दिए जाते हैं कि वह स्वयं विचार कर उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से कार्य कर सकें। इस कारण बालकों में उत्तरदायित्व की भावना का विकास नहीं हो पाता।

10. अमनोवैज्ञानिक पद्धति- कुछ शिक्षाशास्त्री किण्डरगार्टन पद्धति को बाल मनोविज्ञान के विपरीत बताकर उसकी आलोचना करते हैं। इनका मत है कि फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-पद्धति में जिन गोल, बेलन एवं घन आदि आकारों की वस्तुओं का प्रयोग करके अपने दार्शनिक विचारों के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया है, उनको समझना और प्रयोग करना बालक के लिए असम्भव है। बालकों में उन वस्तुओं का प्रयोग करते समय प्रतीकवाद से सम्बन्धित उन सूक्ष्म भावों का विकास नहीं हो सकता, जिनकी फ्रॉबेल ने कल्पना की है। इसलिए फ्रॉबेल का प्रतीकवाद अमनोवैज्ञानिक है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
फ्रॉबेल द्वारा प्रतिपादित शिक्षा-प्रणाली किण्डरगार्टन की मुख्य विशेषताओं का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर:

किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ ।
(Main Characteristics of Kindergarten Education Method)

फ्रॉबेल ने रूसो तथा पेस्टालॉजी द्वारा प्रतिपादित मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर एक नवीन शिक्षा-प्रणाली का प्रतिपादन किया, जिसे किण्डरगार्टन शिक्षा प्रणाली कहा जाता है। इस शिक्षा-प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. स्वाभाविक बाल-विकास को महत्त्व- किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में स्वाभाविक बाल विकास को ध्यान में रखते हुए बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था की जाती है।
  2. बाल-रुचियों के अनुसार उनकी क्रियाओं का विकास- किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में बच्चों को विभिन्न क्रियाओं के माध्यम से शिक्षा प्रदान की जाती है तथा इन क्रियाओं के चुनाव एवं निर्धारण के लिए। बालक की रुचियों एवं स्वभाव को ध्यान में रखा जाता है। रुचियों से सम्बद्ध होने के कारण शिक्षा प्रदान करना सरल हो जाता है तथा अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं।
  3. विद्यालय का वातावरण पूर्णरूप से भयमुक्त-इस शिक्षा प्रणाली की एक मुख्य विशेषता यह है कि इस प्रणाली के अन्तर्गत विद्यालय का वातावरण पूर्णरूप से भयमुक्त होता है। भयमुक्त वातावरण में बच्चों का विकास स्वाभाविक रूप में होता है।
  4. खेल के माध्यम से शिक्षा- खेल बच्चों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में खेल को ही शिक्षा का माध्यम बनाया जाता है। खेल के माध्यम से शिक्षा की प्रक्रिया सरल एवं उत्तम बने जाती है। 
  5. शिक्षक: एक पथप्रदर्शक-किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में शिक्षक द्वारा बच्चों पर किसी कार्य या विचार को थोपा नहीं जाता। वह बच्चों का केवल पथ-प्रदर्शन मात्र ही करता है।
  6. नैतिक तथा सामाजिक शिक्षा को प्राथमिकता किण्डरगार्टन शिक्षा प्रणाली में बच्चों के नैतिक विकास पर बल दिया जाता है तथा उन्हें सामाजिक सद्गुणों की भी समुचित शिक्षा दी जाती है।

प्रश्न 2.
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली की शिक्षण-विधि का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

किण्डरगार्टन प्रणाली की शिक्षण-विधि
(Educational Methods of Kindergarten Method)

फ्रॉबेल ने क्रिया द्वारा बालकों को शिक्षा देने पर विशेष बल दिया। उनका मत था कि क्रिया के द्वारा या खेल के द्वारा बालकों को आत्मविश्वास के अवसर प्राप्त होते हैं, जिससे उनका विकास होता है। इस प्रकार फ्रॉबेल की शिक्षा-पद्धति का उद्देश्य बालकों को कोरा ज्ञान देना नहीं, बल्कि उन्हें आत्माभिव्यक्ति के अवसर प्रदान करना है। उसने आत्माभिव्यक्ति के साधन माने हैं—(1) गीत, (2) गति और (3) रचना।

यद्यपि देखने पर आत्माभिव्यक्ति के ये तीनों रूप पृथक्-पृथक् प्रतीत होते हैं, लेकिन वास्तव में ये तीनों क्रियाएँ सह-सम्बन्धित हैं और व्यापारिक रूप से एक हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, जब बालक को कहानी सुनाई जाती है तो सुनने के बाद वह उसका गीत गा सकता है। गीत गाते समय भावों को व्यक्त करने के लिए वह अपने अंगों का संचालन करता है तथा नाट्य द्वारा उसे प्रकट करता है। फिर वह उसे रचनात्मक क्रिया द्वारा अथवा लकड़ी की वस्तु, कागज, मिट्टी तथा अन्य किसी पदार्थ से रचना करके प्रकट कर सकता है। इस प्रकार संगीत, गति तथा रचना में एकता स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षक बालक से काम कराए, कामे से सम्बन्धित गाना गवाए, गाने के साथ-साथ भाव-भंगिमा का प्रदर्शन कराए और गति में वर्णित वस्तुओं का निर्माण कराए।

प्रश्न 3.
भारत में किण्डरगार्टन शिक्षा-पद्धति के प्रयोग के विषय में अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

भारत में किण्डरगार्टन पद्धति का प्रयोग
(Experiments of Kindergarten Method in India)

किण्डरगार्टन पद्धति के गुण एवं दोषों को ध्यान में रखते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यदि हम देश, काल तथा व्यक्ति की आवश्यकताओं के अनुसार इसमें परिवर्तन एवं सुधार करके इसका प्रयोग करें। न केवल भारत में, वरन् विश्व के लगभग सभी देशों में किण्डरगार्टन पद्धति कुछ परिवर्तनों के साथ प्रचलित है। भारत में किण्डरगार्टन पद्धति के प्रयोग में कुछ कठिनाइयाँ अवश्य हैं, तथापि इस पद्धति को निम्नांकित संशोधनों के साथ सफलतापूर्वक अपनाया जा सकता है

  1. भारत में शिशु-शिक्षा के विकास के लिए इस पद्धति का प्रयोग बड़ा उपयोगी है, क्योंकि स्कूल की शिक्षा में तभी सफलता प्राप्त हो सकती है जब शिक्षा में सुधार कर उसकी नींव मजबूत कर दी जाए।
  2. इस पद्धति को कम खर्चीली बनाया जाए, ताकि भारत जैसे निर्धन देश के सामान्य बच्चे इस पद्धति का लाभ उठा सकें।
  3. इस पद्धति की शिक्षण-सामग्री में कुछ कमी की जानी चाहिए और उसमें नवीनतम सामग्री का समावेश करना चाहिए।
  4. इस पद्धति के प्रयोग में प्रशिक्षित-प्रशिक्षिकाओं की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण है। इनकी पूर्ति के लिए प्रशिक्षण विद्यालयों की स्थापना भी आवश्यक है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में अपनाए जाने वाले मुख्य खेलों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
किण्डरगार्टन शिक्षा प्रणाली में मुख्य रूप से अग्रलिखित प्रकार के खेलों को अपनाया जाता है

  1. मनोरंजक तथा रचनात्मक खेल-इस प्रकार के खेलों में उन खेलों को सम्मिलित किया जाता है। जो बालकों का मनोरंजन करते हैं और उनमें रचनात्मक प्रतिभा का विकास करते हैं; जैसे-दौड़ना, झूला । झूलना, विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनाना।
  2. कल्पना-शक्ति का विकास करने वाले खेल-इस प्रकार के खेलों में वे खेल आते हैं, जिनमें बालक की कल्पना-शक्ति का विकास होता है और उन्हें आत्माभिव्यक्ति के अवसर मिलते हैं। उनसे अवसरों के द्वारा विभिन्न प्रकार की आकृतियों का निर्माण करने को कहा जाता है। वह अपनी कल्पना शक्ति के सहारे नई-नई आकृतियों का प्रयोग करते हैं।
  3. सामूहिक भावना की वृद्धि करने वाले खेल-इनमें उन खेलों का समावेश होता है, जो बालकों में सामाजिकता तथा सामूहिक भावना को विकास करते हैं। उन्हें एक साथ रहकर सामूहिक रूप से काम करने और जीवन-निर्वाह करने के लिए प्रेरित करते हैं। इस दृष्टि से सामूहिक नृत्य, सामूहिक संगीत, नाटक आदि को महत्त्व दिया जाता है, क्योंकि उनके द्वारा बालकों को सामूहिक रूप से काम करने के अवसर प्राप्त होते हैं।
  4. चरित्र का विकास करने वाले खेल-विभिन्न प्रकार से शिक्षाप्रद खेलों द्वारा बालक के चरित्र का विकास किया जाता है और उनमें अच्छी-अच्छी आदतें डाली जाती हैं; जैसे-भाषा की शिक्षा के लिए बालू के अक्षरों का बनाना।

प्रश्न 2.
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली के आधारभूत सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
किण्डरगार्टन शिक्षा प्रणाली के मुख्य आधारभूत सिद्धान्त हैं—

  • एकता का सिद्धान्त,
  • स्वत: विकास का सिद्धान्त,
  • स्वक्रिया का सिद्धान्त,
  • खेल का सिद्धान्त,
  • स्वतन्त्रता का सिद्धान्त तथा
  • सामाजिकता तथा सामूहिकता का सिद्धान्त।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
खेल के माध्यम से बच्चों को शिक्षा प्रदान करने वाली प्रथम शिक्षा-प्रणाली कौन-सी है?
उत्तर:
खेल के माध्यम से बच्चों को शिक्षा प्रदान करने वाली प्रथम शिक्षा प्रणाली किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली है।

प्रश्न 2.
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली के प्रवर्तक कौन थे?
या
खेल शिक्षा-प्रणाली के प्रवर्तक कौन थे?
उत्तर:
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली के प्रवर्तक फ्रॉबेल थे।

प्रश्न 3.
किस शिक्षा-पद्धति से फ्रॉबेल का नाम जुड़ा हुआ है?
उत्तर:
किण्डरगार्टन शिक्षा-पद्धति से फ्रॉबेल का नाम जुड़ा हुआ है।

प्रश्न 4.
फ्रॉबेल ने किस विद्वान् के विचारों से प्रेरित होकर किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली का प्रतिपादन किया था?
उत्तर:
फ्रॉबेल ने रूसो के विचारों से प्रेरित होकर किण्डरगार्टन शिक्षा प्रणाली का प्रतिपादन किया 
था।

प्रश्न 5.
फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-प्रणाली में शिक्षा का माध्यम किसे बनाया?
उत्तर:
फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-प्रणाली में खेल को शिक्षा का माध्यम बनाया है।

प्रश्न 6.
फ्रॉबेल द्वारा अपनाए गए शब्द ‘किण्डरगार्टन’ का क्या अर्थ है?
उत्तर:
फ्रॉबेल द्वारा अपनाए गए शब्द ‘किण्डरगार्टन’ का अर्थ है-‘बच्चों का बगीचा’ या ‘बच्चों का उद्यान’।

प्रश्न 7.
“बालक एक अविकसित पौधा है, जो शिक्षकरूपी माली की देखरेख में अपने आन्तरिक नियमों के अनुसार विकसित होता है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
प्रस्तुत कथन फ्रॉबेल का है।

प्रश्न 8.
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली की सैद्धान्तिक मान्यता के अनुसार विद्यालय का शैक्षिक वातावरण किस प्रकार का होना चाहिए?
उत्तर:
किण्डरगार्टन शिक्षा प्रणाली की सैद्धान्तिक मान्यता के अनुसार विद्यालय का शैक्षिक वातावरण पूर्ण रूप से भयमुक्त होना चाहिए।

प्रश्न 9.
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में किस प्रकार के अनुशासन को सर्वोत्तम माना गया है?
उत्तर:
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में स्वतः अनुशासन को सर्वोत्तम माना गया है।

प्रश्न 10.
फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-प्रणाली में शिक्षक को क्या स्थान प्रदान किया है?
उत्तर:
फ्रॉबेल ने अपनी शिक्षा-प्रणाली में शिक्षक को पथप्रदर्शक का स्थान प्रदान किया है।

प्रश्न 11.
किण्डरगार्टन क्या है?
उत्तर:
किण्डरगार्टन छोटे बच्चों को शिक्षित करने की एक शिक्षा पद्धति है।

प्रश्न 12.
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य–

  1. किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली के जन्मदाता किलपैट्रिक थे।
  2. किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में शिक्षण-सामग्री को उपहार कहा जाता है।
  3. किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली अपने आप में एक अध्यापिका-केन्द्रित शिक्षा प्रणाली है।
  4. किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में बाहरी कठोर अनुशासन को अपनाया जाता है।
  5. किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में स्वत: विकास के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है।

उत्तर:

  1. असत्य,
  2. सत्य,
  3. असत्य,
  4. असत्य,
  5. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रण

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1.
फ्रॉबेल किस शिक्षण-पद्धति का प्रवर्तक था?
(क) मॉण्टेसरी
(ख) डाल्टन
(ग) बुनियादी शिक्षा
(घ) किण्डरगार्टन

प्रश्न 2.
किण्डरगार्टन प्रणाली के जनक हैं
(क) मॉण्टेसरी
(ख) एनीबेसेण्ट
(ग) डीवी
(घ) फ्रॉबेल

प्रश्न 3.
किण्डरगार्टन का क्या अर्थ है?
(क) बच्चों का घर
(ख) बच्चों का बागीचा
(ग) बच्चों की नर्सरी ।
(घ) बच्चों की पाठशाला

प्रश्न 4.
किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणाली में किसे प्रमुख स्थान दिया गया है?
(क) बालक को
(ख) शिक्षक को
(ग) विद्यालय को
(घ) समाज को

प्रश्न 5.
फ्रॉबेल ने शिक्षक को क्या संज्ञा दी है?
(क) माली
(ख) मास्टर
(ग) रखवाला
(घ) निर्देशक

प्रश्न 6.
किण्डरगार्टन प्रणाली का प्रमुख गुण है
(क) सस्ती प्रणाली
(ख) बाल-केन्द्रित प्रणाली
(ग) उपहारयुक्त प्रणाली
(घ) व्यक्तिवादी प्रणाली

प्रश्न 7.
किण्डरगार्टन प्रणाली का प्रमुख दोष है
(क) रचनात्मक कार्यों की प्रधानता
(ख) नैतिक व सामाजिक गुणों का विकास
(ग) कृत्रिम वातावरण
(घ) संवेदी अंगों का प्रशिक्षण

प्रश्न 8.
फ्रॉबेल का जन्म हुआ था–
(क) इटली में
(ख) अमेरिका में
(ग) जर्मनी में
(घ) इंग्लैण्ड में

उत्तर:

1. (घ) किण्डरगार्टन,
2. (घ) फ्रॉबेल,
3. (ख) बच्चों का बगीचा,
4. (क) बालक को,
5. (क) माली,
6. (ख) बाल-केन्द्रित प्रणाली,
7. (ग) कृत्रिम वातावरण,
8. (ग) जर्मनी में।

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UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 22 Emotional Development

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 22
Chapter Name Emotional Development (संवेगात्मक विकास)
Number of Questions Solved 21
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 22 Emotional Development (संवेगात्मक विकास)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
संवेग का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। संवेगों की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

संवेग का अर्थ
(Meaning of Emotion)

‘संवेग’ को अंग्रेजी में ‘Emotion’ कहते हैं। Emotion शब्द ‘Emovre’ से बना है, जिसका अर्थ है-उत्तेजित होना’। इस प्रकार संवेग की स्थिति में व्यक्ति उत्तेजित हो जाता है और उसका व्यवहार असामान्य हो जाता है। संवेग व्यक्ति के वैयक्तिक तथा आन्तरिक अनुभव हैं। प्रत्येक व्यक्ति सुख, दु:ख, पीड़ा तथा क्रोध का अनुभव करता है। जब तक ये अनुभव अपने साधारण रूप में रहते हैं, तब इन्हें राग या भाव (feeling) कहा जाता है, परन्तु जब किसी विशेष कारण या घटना से राग या भाव उग्र रूप धारण कर लेते हैं, तो उन्हें संवेग कहा जाता है।

संवेग की परिभाषा
(Definition of Emotion)

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने संवेगों को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है

1. किम्बाल यंग के अनुसार, “संवेग प्राणी की उत्तेजित, मनोवैज्ञानिक तथा शारीरिक दशा है, जिसमें शारीरिक क्रियाएँ तथा भावनाएँ एक निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए स्पष्ट रूप से बढ़ जाती हैं।

2. टी० पी० नन के अनुसार, संवेग सम्पूर्ण प्राणी का वह मूलत: मनोवैज्ञानिक तीव्र विघ्न डालने वाला व्यवहार है, जिसमें चेतना, अनुभूति, व्यवहार तथा अन्तरावयव की क्रियाएँ शामिल रहती हैं।”

3. वुडवर्थ के अनुसार, “संवेग, प्राणी की उत्तेजित अथवा उद्वेग अवस्था है। यह अनुभूति की उस रूप में उत्तेजित अवस्था है, जिसमें व्यक्ति स्वयं अनुभव करता है। यह पेशीय तथा ग्रन्थीय क्रिया की गड़बड़ी है, जैसा कि बाहर से प्रतीत होता है।”

4. जेम्स ईवर के अनुसार, “संवेग शरीर की जटिल अवस्था है, जिसमें श्वास लेना नाड़ी, ग्रन्थियाँ, उत्तेजना, मानसिक दशा तथा अवरोध आदि का अनुभूति पर प्रभाव पड़ता है एवं मांसपेशियाँ एक विशेष व्यवहार करने लगती हैं।”

5. जर्सिल्ड के अनुसार, “संवेग शब्द किसी भी प्रकार से आवेग में आने, भड़क उठने अथवा उत्तेजित होने की दशा को सूचित करता है।”

संवेग की विशेषताएँ (लक्षण)
(Characteristics of Emotion)

संवेग की विभिन्न परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर संवेग की निम्नांकित विशेषताओं पर प्रकाश पड़ता

1. भावनाओं से सम्बन्धित- डॉ० जायसवाल के अनुसार, “संवेगों का सम्बन्ध भावनाओं और वृत्तियों से होता है। बिना भावना के संवेग सम्भव नहीं है। भावनाएँ एक प्रकार से संवेगों की पृष्ठभूमि है अथवा संवेगों के गर्भ में भावनाओं का ही बल है। वास्तव में भावात्मक प्रवृत्ति का बढ़ा हुआ रूप ही संवेग है।

2. वैयक्तिकता- संवेग की अन्य विशेषता उसका वैयक्तिक होना है। एक ही परिवेश में दो व्यक्ति भिन्न-भिन्न संवेगों का अनुभव करते हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं। उदाहरण के लिए-एक रोती हुई महिला को देखकर एक व्यक्ति दया से द्रवित हो जाता है, तो दूसरा व्यक्ति उसे ढोंगी समझकर उससे घृणा करने लगता है।

3. तीव्रता- संवेग की अनुभूति अत्यन्त तीव्र होती है। संवेग को यदि एक प्रकार का उद्वेग कहा जाए तो अनुचित नहीं है। वे व्यक्ति की मन:स्थिति को तीव्रता के कारण अस्त-व्यस्त कर देते हैं, परन्तु इनकी तीव्रता में अन्तर भी होता है। एक शिक्षित व्यक्ति में अशिक्षित व्यक्ति की अपेक्षा संवेग की तीव्रता कम होती है, क्योंकि शिक्षित व्यक्ति अपने संवेगों पर नियन्त्रण करना सीख जाता है।

4. व्यापकता- संवेग वैयक्तिक होते हुए भी सर्वानुभूति और सर्वव्यापक होते हैं। संवेगों का अनुभव समस्त प्राणी करते हैं। स्टाउट के अनुसार, “निम्न श्रेणी के प्राणियों से लेकर उच्चतर प्राणियों तक एक ही प्रकार के संवेग पाये जाते हैं।” अन्तर केवल मात्रा का होता है। किसी को क्रोध अधिक आता है और किसी को कम।

5. स्थानान्तरण- प्रायः संवेग स्थानान्तरित हो जाते हैं। यदि कोई अधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारी पर क्रोधित हो जाता है और उसी दशा में यदि कर्मचारी का कोई साथी उसे छेड़ दे तो वह अपने साथी पर क्रोधित होने लगता है।

6. संवेगात्मक सम्बन्ध- संवेग का सम्बन्ध किसी व्यक्ति, वस्तु या विचार से सम्बद्ध होता है। हम किसी व्यक्ति या विचार के प्रति ही क्रोध या घृणा करते हैं। दूसरे शब्दों में, संवेग का कोई-न-कोई आधार अवश्य होता है।

7. सुख और दुःख की भावना- संवेग में किसी-न-किसी रूप में सुख या दु:ख का भाव निहित रहता है। जब हम किसी वस्तु को देखकर भयभीत होते हैं तो उसमें दु:ख का भाव निहित होता है। जब हम आशा करते हैं तो उसमें सुख की अनुभूति रहती है। स्टाउट के अनुसार, “अपनी विशेष भावना के अतिरिक्त संवेग में नि:सन्देह रूप से सुख या दु:ख की भांघना होती है।”

8. बाह्यशारीरिक परिवर्तन- संवेगात्मक अवस्था में हमारे शरीर में जो बाह्य परिवर्तन होते हैं, वे इस प्रकार हैं-भय या क्रोध में शरीर का काँपना, पसीना आना, रोंगटे खड़े होना, आँखों में लाली छाना या आँसू निकलना, प्रसन्नता में मुस्कराना या हँसना आश्चर्य के समय आँखों का खुला रह जाना।

9. आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन- संवेगात्मक अनुभूति के समय शरीर में आन्तरिक परिवर्तन भी होते हैं; जैसे-हृदय की धड़कन तीव्र होना, क्रोध की दशा में, पेट में पाचक रस निकलना बन्द होना तथा भोजन की पाचन की सम्पूर्ण प्रक्रिया का अस्त-व्यस्त हो जाना।

10. व्यवहार में परिवर्तन- संवेगात्मक दशा में व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है। क्रोध से ओत-प्रोत व्यक्ति का व्यवहार उसके सामान्य व्यवहार से पूर्णतया भिन्न हो जाता है।

11. मानसिक तनाव- संवेग की अवस्था में हम एक प्रकार की उत्तेजना, आवेग और मानसिक तनाव का अनुभव करते हैं।

12. चिन्तन- शक्ति का लोप-संवेग के कारण हमारी चिन्तन-शक्ति का लोप हो जाता है और संवेगात्मक अवस्था में अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं रहता। उदाहरण के लिए-क्रोध के वशीभूत होकर व्यक्ति हत्या तक कर देता है।

13. स्थिरता की प्रवृत्ति- संवेग की प्रवृत्ति में स्थिरता होती है। अपने प्रिय की मृत्यु का दु:ख पर्याप्त काल तक हमारे मन में रहता है। इसी प्रकार जब हम किसी पर क्रोधित होते हैं तो पर्याप्त काल तक उसका प्रभाव हमारे मन पर छाया रहता है। उसके सामने आने पर हमारा क्रोध फिर भड़क उठता है।

14. क्रियात्मक प्रवृत्ति का होना- जिस समय हम संवेग का अनुभव करते हैं, तो उस समय कुछ-न-कुछ क्रिया अवश्य होती है। उदाहरण के लिए-जब हम कोई घृणास्पद वस्तु को देखते हैं तो तुरन्त ही हम अपना मुख उसकी ओर से फेर लेते हैं। इसी प्रकार क्रोधित होने पर हम अपने हाथ मलने या दाँत किटकिटाने लगते हैं।

प्रश्न 2
संवेगात्मक विकास से क्या आशय है? संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों को उल्लेख कीजिए।
या
उन कारकों का उल्लेख कीजिए,जो संवेगात्मक विकास पर प्रभाव डालते हैं।
उत्तर:

संवेगात्मक विकास का आशय
(Meaning of Emotional Development)

शिशु जन्म के उपरान्त क्रमश: संवेगों को प्रकट करना प्रारम्भ करता है। इस प्रकार से संवेगों के क्रमश: होने वाले विकास को ही संवेगात्मक विकास कहा जाता है। संवेगात्मक विकास की प्रक्रिया के अन्तर्गत व्यक्ति के संवेगों का स्वरूप क्रमश: सरल से जटिल की ओर अग्रसर होता है। संवेगात्मक विकास के अन्तर्गत ही संवेगों को नियन्त्रित करना भी सीखा जाता है। जैसे-जैसे बालक का संवेगात्मक विकास होता है, वैसे-वैसे उसके संवेगों में क्रमशः स्थिरता आने लगती है। संवेगात्मक विकास के ही परिणामस्वरूप व्यक्ति के संवेग उसकी आयु तथा सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप स्वरूप ग्रहण करते हैं। व्यक्तित्व के सुचारु विकास के लिए संवेगात्मक विकास का सामान्य होना अनिवार्य है।

संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक
(Factors Influencing Emotional Development)

बालक के संवेगात्मक विकास को निम्नलिखित कारक प्रभावित करते हैं|

1.शारीरिक स्वास्थ्य- शारीरिक स्वास्थ्य का संवेगों पर विशेष प्रभाव पड़ता है। जो बालक सबल और स्वस्थ होते हैं, उनमें संवेगात्मक स्थिरता निर्बल और अस्वस्थ बालकों की अपेक्षा अधिक होती है। क्रो एवं क्रो के अनुसार, “बालक के स्वास्थ्य का उसकी संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।”

2. मानसिक विकास- जिन बालकों का मानसिक विकास पर्याप्त हो जाता है, उनमें संवेगात्मक स्थिरता पायी जाती है। निम्न मानसिक विकास विकास के बालक की अपेक्षा प्रतिभाशाली बालक अपने संवेगों पर सफलता से नियन्त्रण स्थापित कर लेता है।

3. थकान- थकान का संवेगात्मक विकास पर विशेष प्रभाव पड़ता है। जब बालक थका हुआ होता है तो वह शीघ्र क्रोध और चिड़चिड़ेपन का शिकार हो जाता है।

4. परिवार का वातावरण- जिस परिवार के सदस्य अत्यधिक, आर्थिक संवेदनशील होते हैं, उस परिवार के बालक भी उसी प्रकार से, संवेदनशील हो जाते हैं। इसी प्रकार यदि परिवार का वातावरण उल्लासमय, सुखद तथा शान्तिपूर्ण रहता है, तो बालक पूर्ण सुरक्षा का अनुभव करता है और उसका संवेगात्मक विकास सन्तुलित रूप से होता है।

5. माता-पिता के आचरण और व्यवहार- माता-पिता के आचरण तथा व्यवहार का बालक के संवेगात्मक विकास पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। जो माता-पिता अपने बालकों की उपेक्षा करते हैं या आवश्यकता से अधिक उनको लाड़-प्यार करते हैं तथा उन्हें इच्छानुसार कार्य करने कीस्वतन्त्रता नहीं देते, उनका यह आचरण बालकों के अवांछनीय संवेगात्मक विकास में योग प्रदान करता है।

6. सामाजिक मान्यता- क्रो एवं क्रो के अनुसार, “यदि बालक को अपने कार्यों की सामाजिक मान्यता प्राप्त नहीं होती तो उनके संवेगात्मक व्यवहार में उत्तेजना या शिथिलता आ जाती है। उदाहरण के लिए–यदि एक बालक स्वयं करि बनाता है, परन्तु उस कविता को जन-समुदाय पसन्द नहीं करता तो बालक निराशा और कुण्ठा से ग्रसित हो जाता है।

7. आर्थिक स्थिति- आर्थिक स्थिति बालकों के संवेगों को प्रभावित करती है। एक निर्धन बालक में अनेक अवांछनीय संवेग स्थायी हो जाते हैं। धनी परिवारों के बालक की वेशभूषा तथा रहन-सहन देखकर निर्धन परिवार के बालक में द्वेष और ईर्ष्या के संवेग प्रबल रूप धारण कर लेते हैं।

8. अभिलाषा- प्रत्येक बालक कोई-न-कोई अभिलाषा रखता है। कोई महान् कवि बनना चाहता है तो । कोई डॉक्टर या इंजीनियर। परन्तु जब परिस्थितियाँ प्रतिकूल होती हैं और बालक की अभिलाषाएँ पूरी नहीं हो पाती हैं, तो वह निराशा में डूब जाता है। यह निराशा संवेगात्मक तनाव की जनक होती है।

9. विद्यालय का वातावरण- परिवार के पश्चात् विद्यालय ही वह स्थान है, जो बालकों की भावनाओं को सबसे अधिक प्रभावित करता है। बालक विभिन्न क्रियाओं के माध्यम से संवेगों की अभिव्यंजना करता है। यदि विद्यालय में विभिन्न क्रियाओं का आयोजन इस ढंग से किया जाता है कि बालक अपनी अभिव्यक्ति, इच्छा और रुचियों के अनुकूल कर सके, तो उन्हें आनन्द और उल्लास का अनुभव होता है। परिणामस्वरूप उनके संवेगों का स्वस्थ विकास होता है। इसके विपरीत यदि विद्यालय में आतंक, भय तथा पक्षपात का वातावरण होता है, तो बालक उत्तेजना, क्रोध तथा घृणा से ग्रसित हो जाते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
शैशवावस्था में होने वाले संवेगात्मक विकास का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास
(Emotional Development in Infancy)

शिशु के संवेगात्मक विकास के सम्बन्ध में स्किनर तथा हैरीमन ने लिखा है कि “शिशु का संवेगात्मक व्यवहार क्रमशः अधिक स्पष्ट और निश्चित होता जाता है। उसके व्यवहार के विकास की सामान्य दिशा अनिश्चित और अस्पष्ट से विशिष्ट की ओर होती है।” एक शिशु के संवेगात्मक विकास की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं|

  1. जन्म के समय शिशु में कोई विशेष संवेग नहीं होता। वह केवल उत्तेजना का अनुभव करता है। शिशु को रोना, चिल्लाना और हाथ-पैर पटकना उत्तेजना का परिणाम है।
  2. तीन मास का शिशु उत्तेजना के साथ-साथ कष्ट और प्रसन्नता का अनुभव करने लगता है। छ: मास तक वह भय, घृणा तथा क्रोध भी प्रकट करने लग जाता है।
  3. एक वर्ष का शिशु आनन्द और स्नेहका अनुभव करने लग जाता है। दो वर्ष तक बालक के प्रायः सभी संवेग विकसित हो जाते हैं और पाँच वर्ष की आयु में बालक के संवेगों पर उसके वातावरण का प्रभाव पड़ना आरम्भ हो जाता है।
  4. शिशु का संवेगात्मक व्यवहार अत्यन्त अस्थिर होता है। यदि रोते हुए बालक को चॉकलेट दी जाए तो वह तुरन्त चुप हो जाता है। आयु के विकास के साथ-साथ शिशु के संवेगात्मक व्यवहार में स्थिरता आती जाती
  5. शिशु के संवेगों में प्रारम्भ में तीव्रता होती है धीरे-धीरे वह तीव्रता समाप्त हो जाती है।
  6. शिशु के संवेग प्रारम्भ में अस्पष्ट होते हैं, परन्तु धीरे-धीरे उनमें स्पष्टता आती जाती है।

प्रश्न 2
बाल्यावस्था में होने वाले संवेगात्मक विकास का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:

बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास
(Emotional Development in Childhood)

बाल्यावस्था में प्रवेश करते-करते बालक के संवेगों में पर्याप्त स्थिरता आ जाती है। शैशवकाल में विकसित संवेगों की अभिव्यक्ति बाल्यावस्था में ही होती है। बालक में सामूहिकता का विकास हो जाता है और वह अपने मित्रों के प्रति प्रेम, घृणा, द्वेष तथा प्रतियोगिता की भावना का प्रकटीकरण करने लग जाता है। वह शैशवकाल के समान शीघ्र उत्तेजित नहीं होता, भय और क्रोध पर वह पर्याप्त नियन्त्रण स्थापित कर लेता है। इस अवस्था में बालक के संवेगात्मक विकास पर विद्यालय के वातावरण का विशेष प्रभाव पड़ता है। जिन विद्यालयों में पर्याप्त स्वतन्त्रता तथा स्वस्थ परम्पराओं का वातावरण होता है, वहाँ बालकों का संवेगात्मक विकास उचित दिशा में होता है। इसके विपरीत दमन, आतंक तथा कठोरता के वातावरण में ऐसा नहीं होता। इस अवस्था में बालक के संवेगों में पर्याप्त शिष्टता आ जाती है। वह अपने अध्यापक तथा अभिभावकों के आगे उन संवेगों को प्रकट नहीं होने देता, जिनको वे उचित नहीं समझते।

प्रश्न 3
किशोरावस्था में होने वाले संवेगात्मक विकास का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास
(Emotional Development in Adolescence)

किशोरावस्था में संवेगों में तीव्रता से परिवर्तन होते हैं। एक किशोर के लिए अपने संवेगों पर नियन्त्रण करना अत्यन्त कठिन होता है। उसमें प्रेम, दया, क्रोध तथा सहानुभूति आदि संवेग स्थायित्व धारण कर लेते हैं। किसी को दु:खी देखकर वह अत्यन्त भावुक हो उठता है तथा अत्याचार को देखकर एकदम क्रोधित हो उठता है। इस अवस्था में किशोर न तो बालक होता है और न प्रौढ़। ऐसी दशा में उसके अपने संवेगात्मक जीवन में वातावरण से अनुकूलन करने में विशेष कठिनाई होती है। वातावरण में अनुकूलन की असफलता से उसे निराशा होती है।

यह निराशा उसे कभी घर से भागने के लिए प्रेरित करती है तो कभी आत्महत्या के लिए। इस अवस्था के किशोर-किशोरियों में काम-प्रवृत्ति का तीव्र विकास होता है, जिसके कारण उनके संवेगात्मक व्यवहार पर विशेष प्रभाव पड़ता है। वे दिवास्वप्न देखने लगते हैं तथा उनका अधिकांश समय कल्पना लोक में विचरण करने में व्यतीत होता है। प्रत्येक लड़का किसी लड़की के सम्पर्क में आकर भावुक हो उठता है। किशोर का संवेगात्मक विकास बहुत कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करता है। अनुकूल परिस्थितियाँ उसे प्रोत्साहित करती हैं तथा प्रतिकूल परिस्थितियाँ उसे निराश करती हैं।

प्रश्न 4
बालक के सुचारु संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षक के कर्तव्यों एवं भूमिका का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

बालक के संवेगात्मक विकास में शिक्षक की भूमिका
(Role of Teacher in Emotional Development of Children)

बालक के संवेगात्मक विकास में विद्यालय की महत्त्वपूर्ण भूमिका एवं योगदान होता है। विद्यालय में भी शिक्षक या अध्यापक का सर्वाधिक महत्त्व होता है। बालक के उचित संवेगात्मक विकास के लिए अध्यापक को निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए

  1. बालकों में उत्तम रुचियाँ उत्पन्न करने के लिए अध्यापक को स्वस्थ सदों का सहारा लेना चाहिए, जैसे-आशा, हर्ष तथा उल्लास आदि।
  2. अध्यापक का कर्तव्य है कि अवांछित संवेगों; जैसे-भय, क्रोध, घृणा आदि का मार्गान्तीकरण या शोधन कर उन्हें उत्तम कार्यों के लिए प्रेरित करे।
  3. पाठ्यक्रम निर्धारण में भी बालकों के संवेगों को उचित स्थान दिया जाए।
  4. अध्यापक को चाहिए कि वह बालकों को संवेगों पर नियन्त्रण रखने का प्रशिक्षण दें।
  5. वांछनीय संवेगों का यथासम्भव विकास करके बालकों में श्रेष्ठ विचारों, आदर्शों तथा उत्तम आदतों का निर्माण किया जाए।
  6. बालकों को संवेगों के आधार पर महान् तथा साहित्यिक कार्यों के लिए प्रेरित किया जाए।
  7. अध्यापक को चाहिए कि बालकों के संवेगों को इस तरीके से परिष्कृत करे कि उनका आचरण समाज के अनुकूल हो सके।
  8. वांछनीय संवेगों के माध्यम से छात्रों में साहित्य, कला तथा देशभक्ति के प्रति प्रेम उत्पन्न किया जा सकता है।
  9. संवेग द्वारा अध्यापक बालकों को स्वाध्याय के लिए प्रेरित करके उनके मानसिक विकास में भी योग प्रदान कर सकता है।
  10. अध्यापक को सदा छात्रों के साथ प्रेम एवं मित्रता का व्यवहार करना चाए।
  11. अध्यापक को स्वयं संवेगात्मक सन्तुलन बनाये रखना चाहिए संक्षेप में, अध्यापकों का कर्तव्य है कि वे संवेगों के स्वरूप और विकास से भली-भाँति परिचित हों तथा शिक्षण कार्य द्वारा बालक में उचित संवेगों का विकास करें। प्रत्येक अध्यापक को यह ध्यान में रखना चाहिए कि संवेग विचार एवं व्यवहार के प्रमुख चालक अथवा प्रेरित शक्तियाँ हैं और उनका प्रशिक्षण एवं नियन्त्रण आवश्यक है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
बालकों के संवेगों एवं संवेगात्मक व्यवहार की मुख्य विशेषताएँ क्या होती हैं ?
उत्तर:
प्रौढ़ व्यक्तियों तथा बालकों के संवेगों में पर्याप्त अन्तर होता है। बालकों के संवेगों की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित होती हैं

  1. बालकों द्वारा प्रकट किये जाने वाले संवेग प्राय: सरल, सीधे-सादे तथा क्षणिक होते हैं।
  2. बालकों के संवेग स्थायी नहीं होते बल्कि वे शीघ्र ही परिवर्तित होते रहते हैं।
  3. भिन्न-भिन्न बालकों द्वारा समान दशाओं में भी भिन्न-भिन्न संवेगात्मक प्रतिक्रियाएँ प्रकट की जाती हैं। ऐसा देखा जा सकता है कि डर की दशा में कोई बालक रोता है, कोई चिल्लाता है तथा कोई दुबक जाता है।

प्रश्न 2
संवेगों के नियन्त्रण के लिए अपनायी जाने वाली मुख्य विधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
संवेगात्मक विकास की प्रक्रिया के अन्तर्गत कुछ संवेगों को नियन्त्रित करना भी आवश्यक होता है। संवेगों को नियन्त्रित करने के लिए निम्नलिखित विधियों को अपनाया जाता है

  1. दमन या विरोध- इस विधि के अन्तर्गत अवांछित संवेगों को दबा या रोक देने की व्यवस्था होती है। प्रबल संवेगों का दमन प्रायः हानिकारक माना जाता है।
  2. अध्यवसाय- संवेगों को नियन्त्रित करने के लिए आवश्यक है कि बालकों को सदैव ही किसी-न-किसी कार्य में व्यस्त रखा जाए। इससे उनका व्यवहार सामान्य रहता है।
  3. रेचन- संवेगों को नियन्त्रित रखने का एक उपाय रेचन भी है। रेचन के अन्तर्गत बालकों को अपने संवेगों को प्रकट करने का पर्याप्त अवसर दिया जाता है। इससे उनकी मन की भड़ास निकल जाती है और वे सामान्य हो जाते हैं।
  4. मार्गान्तीकरण- संवेगों को नियन्त्रित करने के लिए मार्गान्तीकरण के उपाय को भी अपनाया जाता है। इस उपाय के अन्तर्गत संवेगों की अभिव्यक्ति के मार्ग को परिवर्तित कर दिया जाता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
संवेग से क्या आशय है ?
उत्तर:
संवेग एक प्रकार की भावात्मक स्थिति होती है, जिसमें व्यक्ति को मन:शारीरिक सन्तुलन पूर्ण रूप से अस्त-व्यस्त हो जाता है।

प्रश्न 2
‘संवेग’ की एक व्यवस्थित परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
“संवेग शब्द किसी भी प्रकार से आवेग में आने, भड़क उठने अथवा उत्तेजित होने की दशा को सूचित करता है।”

प्रश्न 3
मुख्य रूप से किन कारणों से संवेगों की उत्पत्ति होती है ?
उत्तर:
संवेगों की उत्पत्ति मुख्य रूप से मनोवैज्ञानिक कारणों से ही होती है।

प्रश्न 4
छोटे शिशुओं द्वारा किस प्रकार के संवेग अभिव्यक्त किये जाते हैं ?
उत्तर:
छोटे शिशुओं द्वारा सरल तथा अस्पष्ट संवेग अभिव्यक्त किये जाते हैं।

प्रश्न 5
शिशुओं द्वारा मुख्य रूप से कौन-कौन से संवेग अभिव्यक्त किये जाते हैं ?
उत्तर:
शिशुओं द्वारा मुख्य रूप से भय, क्रोध तथा प्रेम नामक संवेग ही अभिव्यक्त किये जाते हैं।

प्रश्न 6
किशोरों द्वारा अभिव्यक्त किये जाने वाले संवेग कैसे होते हैं ?
उत्तर:
किशोरों द्वारा अभिव्यक्त किये जाने वाले संवेग प्रबल तथा अनियन्त्रित होते हैं।

प्रश्न 7
संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले चार मुख्य कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. शारीरिक स्वास्थ्य
  2. बौद्धिक स्तर
  3. घर एवं समाज का वातावरण
  4. लिंग-भेद

प्रश्न 8
संवेगों के अत्यधिक दमन का बालक के व्यक्तित्व पर कैसा प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
संवेगों के अत्यधिक दमन का बालक के व्यक्तित्व पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है

प्रश्न 9
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. व्यक्ति के जीवन में संवेगों का कोई महत्त्व नहीं है
  2. संवेगावस्था में व्यक्ति का चिन्तन एवं निर्णय लेने की क्षमता अत्यधिक उत्तम एवं दोष रहित हो जाती है
  3. बाल्यावस्था में संवेगों को नियन्त्रित करने के उपाय किये जाने चाहिए।
  4. संवेगों की उत्पत्ति सदैव आर्थिक कारकों से होती है
  5. संवेगों को नियन्त्रित करने का एक उत्तम उपाय उनका शोधने है

उत्तर:

  1. असत्य
  2. असत्य
  3. सत्य
  4. अस्त्य
  5. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए-

प्रश्न 1.
संवेग के विषय में सत्य है
(क) प्रसन्न होना तथा हँसना
(ख) आवेश में आ जाना, भड़क उठना तथा उत्तेजित हो जाना
(ग) कष्ट अनुभव करना
(घ) अन्य व्यक्तियों की सहानुभूति की आशा करना

प्रश्न 2.
संवेगावस्था की पहचान का सही उपाय है-
(क) विचार-प्रक्रिया का तीव्र होना
(ख) भाषा का दोषपूर्ण होना
(ग) मुखाभिव्यक्ति
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 3.
प्रबल संवेगावस्था में व्यक्ति का चिन्तन
(क) सुव्यवस्थित हो जाता है
(ख) प्रबल हो जाता है
(ग) अस्त-व्यस्त हो जाता है
(घ) उत्तम हो जाता है

प्रश्न 4.
बाल्यावस्था में अभिव्यक्त होने वाले संवेग-
(क) स्थायी होते हैं
(ख) प्रबल होते हैं
(ग) शीघ्र परिवर्तनीय होते हैं
(घ) असहनीय होते हैं

प्रश्न 5.
संवेगों को नियन्त्रित करने का उपाय है
(क) दमन
(ख) रेचन
(ग) मार्गान्तीकरण एवं शोधन
(घ) ये सभी

प्रश्न 6.
संवेग की अभिव्यक्ति होती है
(क) भाषा
(ख) इंगित चेष्टा
(ग) चेहरे का प्रदर्शन
(घ) ये सभी

उत्तर:

  1. (ख) आवेश में आ जाना, भड़क उठना तथा उत्तेजित हो जाना,
  2. (ग) मुखाभिव्यक्ति
  3. (ग) अस्त-व्यस्त हो जाता है
  4. (ग) शीघ्र परिवर्तनीय होते हैं
  5. (घ) ये सभी
  6. (घ) ये सभी

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UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 17 Process of Development

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 17
Chapter Name Process of Development (विकास की प्रक्रिया)
Number of Questions Solved 26
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 17 Process of Development (विकास की प्रक्रिया)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
‘विकास’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। विकास में होने वाले परिवर्तनों का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

विकास का अर्थ
(Meaning of Development)

प्रायः विकास का अर्थ आयु में बड़े होने या कद में बड़े होने से लगाया जाता है, परन्तु विकास का यह अर्थ भ्रामक है। विकास का अर्थ है-“वे व्यवस्थित तथा समानुगत परिवर्तन, जो परिपक्वता की प्राप्ति में सहायक होते हैं। यहाँ पर व्यवस्थित का अर्थ है-क्रमबद्धता, अर्थात् शारीरिक और मानसिक परिवर्तन में कोई-न-कोई क्रम अवश्य होता है और प्रत्येक परिवर्तन अपने पूर्व परिवर्तन पर निर्भर रहता है। समुनगत शब्द का अर्थ है, इन परिवर्तनों में परस्पर सामंजस्य होता है अर्थात् ये परिवर्तन सम्बन्धविहीन नहीं होते। कुछ विद्वान् विकास को एक अवधारणा मानते हैं, परन्तु गैसल (Gassel) के अनुसार विकास एक अवधारणा मात्र नहीं है, वरन् विकास एक अवधारणा से कहीं अधिक है। विकास का निरीक्षण किया जा सकता है तथा उसका मूल्यांकन भी किया जा सकता है। विकास व्यक्ति में नवीन योग्यताएँ उत्पन्न करता है, जिससे उसमें नवीन विशेषताओं का जन्म होता है। दूसरे शब्दों में, विकास निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, जो जन्म से पूर्व ही आरम्भ हो जाती है।

विकास की परिभाषाएँ
(Definitions of Development)

विकास की कुछ प्रमुख परिभाषाओं का विवरण इस प्रकार है-

  1. जेम्स ड्रेवर (James Drever) के अनुसार, “विकास वह दशा है, जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में व्यक्ति में निरन्तर प्रकट होती है अर्थात् यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी व्यक्ति में भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक चलता है और विकासतन्त्र को नियन्त्रण में रखता है। यह दशा प्रगति का मापदण्ड होती है तथा इसका प्रारम्भ शून्य से होता है।”
  2. मुनरो (Munro) के अनुसार, “परिवर्तन श्रृंखला की वह व्यवस्था, जिसमें बालक भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है, विकास के नाम से जानी जाती है।”
  3. हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, “विकास अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है। इसके बजाय उनमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है। विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ और नवीन मान्यताएँ होती हैं।”
  4. इंगलिश (English) के अनुसार, “विकास प्राणी की शरीर अवस्था में एक लम्बे समय तक होने वाले लगातार परिवर्तन का एक क्रम है। यह विशेषतया ऐसा परिवर्तन है, जिसके कारण जन्म से लेकर परिपक्वता और मृत्यु तक प्राणी में स्थायी परिवर्तन होते हैं।’

विकास में परिवर्तन के रूप
(Types of Changes in Development)

विकास में मुख्यतया चार प्रकार के परिवर्तन होते हैं|

1. आकार में परिवर्तन- आयु-वृद्धि के साथ-साथ बालकों के शारीरिक पक्ष में पर्याप्त परिवर्तन दिखलाई पड़ने लगता है। आकार में यह परिवर्तन परिपक्वता तक चलता रहता है। जन्म लेने के पश्चात् आयु के बढ़ने के साथ-साथ बालक की लम्बाई, भार, आकार आदि में भी वृद्धि होने लगती है। इसी प्रकार शरीर के आन्तरिक भाग में भी अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं। उदाहरण के लिए-फेफड़े, हृदय तथा आँतों के आकार में वृद्धि हो जाती है। बालक नवीन शब्दों को सीखते हैं, जिससे उनके शब्दकोश का विस्तार होता है। धीरे-धीरे उनमें तर्कशक्ति का भी विकास होता जाता है।

2. अनुपात में परिवर्तन- विकास की प्रक्रिया में बालक के शारीरिक विकास में आनुपातिक परिवर्तन होता है। बालक को एक प्रौढ़ के रूप में समझना भारी भूल है, क्योंकि बालक तथा प्रौढ़ दोनों के शरीर में अनुपात सम्बन्धी विभिन्नता पायी जाती है। लगभग 14 वर्ष की आयु (किशोरावस्था) में जाकर बालक और प्रौढ़ के अनुपात के पुराने लक्षणों की समाप्ति में शारीरिक समानता आने लगती है। प्रारम्भ में शारीरिक विकास के अनुपात में इस प्रकार परिवर्तन होते हैं–सिर के अनुपात में दूनी, शरीर के अनुपात में तीन-गुनी तथा मस्तिष्क और शरीर के ऊपरी अंगों में चार-गुनी वृद्धि हो जाती है।

अनुपात सम्बन्धी परिवर्तन मानसिक रूप से भी दृष्टिगोचर होते हैं। छोटे बालक कल्पना तो करते हैं, परन्तु उनकी कल्पना लक्ष्यहीन होती है। जैसे-जैसे बालक बड़ा होता है, उसकी कल्पना में वास्तविकता का अंश आने लगता है। इसी प्रकार आयु के साथ-साथ बालक की रुचियों में भी परिवर्तन होता है। प्रारम्भ में बालक स्वयं अपने में तथा अपने खिलौनों में रुचि लेता है। जब वह पर्याप्त बड़ा हो जाता है, तब वह आस-पास के साथी बालकों के साथ खेलने में रुचि लेने लगता है।

3. पुराने लक्षणों की समाप्ति- जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाता है, वैसे-ही-वैसे उसके पुराने लक्षण लुप्त होते जाते हैं। उदाहरणार्थ–एक छोटा शिशु प्रारम्भ में हाथ-पैर चलाता है, सरक-सरक कर चलता है तथा तुतला कर बोलता है, परन्तु वर्ष भर के बाद इनमें से अभिकांश लक्षणों का लोप हो जाता है। इसी प्रकार आयु-वृद्धि के साथ शरीर के अन्दर थाईमस ग्लैण्ड (Thymus Gland) का लोप हो जाता है। दूध के दाँत, जो जन्म के पश्चात् निकलते हैं, कुछ वर्ष बाद गिर जाते हैं और उनके स्थान पर स्थायी दाँत निकल आते हैं।

4. नवीन विशेषताओं की प्राप्ति- विकास क्रम में जहाँ पुराने लक्षणों का लोप हो जाता है, वहीं बालक का शरीर नवीन रूपरेखा ग्रहण करने लगता है। उदाहरण के लिए-तुतलाहट के स्थान पर बालक स्पष्ट बोलने लगता है। किशोरावस्था में तो अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं। बालकों के दाढ़ी-मूंछ निकलने लगती है। उनकी आवाज में भारीपन आ जाता है। बालिकाओं के स्तनों में उभार आ जाता है। इन शारीरिक परिवर्तनों के कारण किशोर-किशोरियों की मानसिक क्रियाओं तथा सांवेगिक प्रतिक्रियाओं में पर्याप्त परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। दोनों वर्गों के सदस्यों में परस्पर आकर्षण तथा रुचि अत्यधिक तीव्रता से बढ़ने लगती है।

प्रश्न 2
विकास के मुख्य सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
या
विकास के प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए तथा उनका शैक्षिक महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

विकास के सिद्धान्त
(Theories of Development)

विकास एक जटिल प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया का व्यक्ति के जीवन में सर्वाधिक महत्त्व है। विकास की प्रक्रिया की समुचित व्याख्या प्रस्तुत करने के लिए विभिन्न सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं। विकास सम्बन्धी मुख्य सिद्धान्तों का विवरण निम्नवर्णित है –

1. निरन्तर विकास का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार, बालक का विकास तभी से प्रारम्भ हो जाता है, जब वह गर्भावस्था में होता है। विकास की यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। दूसरे शब्दों में, विकास अचानक नहीं होता, वरन् उसमें निरन्तरता रहती है। स्किनर के अनुसार, “विकास प्रक्रियाओं की निरन्तरता का सिद्धान्त केवल इस बात पर बल देता है कि व्यक्ति में कोई अचानक परिवर्तन नहीं होता।”

2. सामान्य से विशिष्ट की ओर का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार, बालक का विकास सामान्य प्रक्रियाओं से विशिष्ट प्रक्रियाओं की ओर होता है। उदाहरण के लिए प्रारम्भ में बालक अपने सम्पूर्ण हाथ का संचालन करता है, तत्पश्चात् धीरे-धीरे वह अपनी उँगलियों पर नियन्त्रण स्थापित करता है। विकास की समस्त अवस्थाओं में बालक की प्रक्रियाएँ विशिष्ट बनने से पूर्व सामान्य होती हैं।

3. विकास की विभिन्न गति का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार एक ही मापदण्ड से समस्त बालकों के विकास का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। विभिन्न बालकों के विकास की गति में भिन्नता पायी जाती है और यह भिन्नता अन्त तक बनी रहती है।

4. समान प्रतिमान का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार समान प्रजाति (Race) में विकास की गति समान प्रतिमानों से प्रभावित होती है। हरलॉक के अनुसार, “प्रत्येक प्रजाति, वह चाहे मानव जाति हो या पशु जाति, अपनी जाति के अनुरूप विकास का अनुकरण करती है।” मनुष्य चाहे अमेरिका में पैदा हो या भारत में, उसका मानसिक, शारीरिक तथा संवेगात्मक विकास समान रूप से होता है।

5. विकास क्रम का सिद्धान्त- शिरले (Shirley) तथा गैसिल (Gassal) आदि ने परीक्षण करके यह सिद्ध कर दिया है कि बालक का गामक (Motor) तथा भाषा (Language) सम्बन्धी विकास एक निश्चित क्रम में होता है। प्रत्येक बालक जन्म के समय केवल रोना जानता है। तीन माह के पश्चात् वह ध्वनि निकालने लगता है। सात माह के पश्चात् वह मा, मी, पा, पा आदि शब्दों का उच्चारण करने लगता है।

6. विकास दिशा का सिद्धान्त- कुछ विद्वानों के अनुसार बालक के विकास की प्रक्रिया सिर से पैर की दिशा की ओर चलती है। प्रारम्भ में बालक केवल अपना सिर उठा पाता है। तीन माह के बाद वह अपने नेत्रों की गति पर नियन्त्रण कर लेता है। छह माह में उसका अपने हाथों की गतियों पर नियन्त्रण हो जाता है। नौ माह में वह सहारे से बैठने लगता है तथा एक वर्ष में लड़खड़ा कर चलने लगती है।

7. परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार विभिन्न अंगों के विकास में सामंजस्य और परस्पर सम्बन्ध रहता है। दूसरों शब्दों में, बालक के शारीरिक विकास, मानसिक और संवेगात्मक पक्षों के विकास में परस्पर सम्बन्ध रहता है। जब बालक का शारीरिक विकास होता है तो उसके साथ-साथ उसकी ध्यान केन्द्रित करने की शक्तियों, रुचियों तथा संवेदनाओं में भी परिवर्तन होता रहता है।

8. वैयक्तिक भिन्नता का सिद्धान्त- प्रत्येक बालक के विकास का अपना निजी स्वरूप होता है। ऐसी दशा में वैयक्तिक भिन्नताओं का होना स्वाभाविक है। सम आयु के दो बालकों के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक आदि पक्षों के विकास में वैयक्तिक विभिन्नताओं के दर्शन होते हैं।

9. वंशानुक्रमण तथा वातावरण की अन्तःक्रिया का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार बालक का विकास वंशानुक्रमण तथा वातावरण की अन्त:क्रिया द्वारा होता है। यदि यह कहा जाए कि केवल वंशानुक्रमण ही बालक के विकास में योग देता है, तो यह बात सर्वथा गलत है। यही बात वातावरण के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।

विकास के सिद्धान्त का शैक्षिक महत्त्व
(Educational Importance of Principle of Development)

विकास की प्रक्रिया का बालक एवं व्यक्ति के जीवन के सभी पक्षों से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि विकास के सिद्धान्तों का विशेष शैक्षिक महत्त्व भी है। वास्तव में शिक्षा की प्रक्रिया का विकास की प्रक्रिया से घनिष्ठ एवं अटूट सम्बन्ध है। शिक्षा की प्रक्रिया सदैव विकास की प्रक्रिया के साथ-साथ चलती है। विकास की प्रक्रिया के सुचारु होने की दशा में शिक्षा की प्रक्रिया भी सामान्य एवं सुचारु रूप से चलती है। विकास की प्रक्रिया का मूल्यांकन विकास के सिद्धान्तों के आधार पर ही किया जा सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि विकास के सिद्धान्तों का विशेष महत्त्व है।

प्रश्न 3
विकास को प्रभावित करने वाले कारकों का उल्लेख कीजिए। या विकास को प्रभावित करने वाले चार मुख्य कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

विकास को प्रभावित करने वाले कारक
(Factors Influencing the Development)

यह सत्य है कि विकास की प्रक्रिया में एक प्रकार की समरूपता पायी जाती है, परन्तु इसके साथ-ही-साथ यह भी सत्य है कि विकास एवं व्यक्तिगत प्रक्रिया भी है। प्रत्येक व्यक्ति का विकास उसके अपने ही ढंग से होता है। इस भिन्नता का मूल कारण यह है कि व्यक्ति के विकास की प्रक्रिया पर विभिन्न कारक अपना-अपना विशिष्ट प्रभाव डालते हैं। इस स्थिति में विकास को प्रभावित करने वाले कारकों को जानना भी आवश्यक है। विकास को प्रभावित करने वाले मुख्य कारकों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

1. बुद्धि- बालकों के विकास पर प्रभाव डालने वाला सबसे महत्त्वपूर्ण कारक बुद्धि है। प्रायः तीव्र बुद्धि के बालकों का विकास तेजी से होता है और मन्द बुद्धि के बालकों का धीमी गति से। टरमन (Turman) के अनुसार, कुशाग्र बुद्धि के बालक 13 माह की आयु में चलना सीख जाते हैं, सामान्य बुद्धि के 14 माह में, मूर्ख बालक 22 माह की आयु में तथा मूढ़ बालक 30 माह की आयु में चलना सीखते हैं। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि बुद्धि और विकास में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है।

2. प्रजाति- प्रजातीय भिन्नता बालक के विकास को भी प्रभावित करती है। विभिन्न प्रजातियों की विकास दरें एक-दूसरे से भिन्न होती हैं। आर्य, द्रविड़, मंगोल आदि के मानसिक तथा शारीरिक विकास में पर्याप्त भिन्नता मिलती है।

3. संस्कृति- जंग (Jung) के अनुसार, “व्यक्ति के विकास में संस्कृति की स्थिति की भूमिका विशेष महत्त्व रखती है। बालक का विकास जातीय संस्कृति के अनुरूप ही होता है। जो संस्कृति जितनी अधिक उन्नत होगी, बालक उससे उसी मात्रा में गुणों का अर्जन करेगा।” विभिन्न संस्कृतियों के बालकों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि सोमान्य.सहज प्रवृत्तियाँ प्रत्येक संस्कृति में पायी जाती हैं, परन्तु उनको अभिव्यक्त करने के ढंग अलग-अलग हैं।

4. यौन- भिन्नता–इस बात के पर्याप्त प्रमाण मिल चुके हैं कि यौन-भेद बालक के शारीरिक तथा मानसिक विकास में एक विशिष्ट भूमिका रखते हैं। लड़के और लड़कियों के शारीरिक विकास में पर्याप्त अन्तर होता है। लड़के जन्म से लड़कियों से कुछ बड़े होते हैं, परन्तु विकास लड़कियों का अधिक तीव्रता से होता है। वे लड़कों की अपेक्षा पहले युवा हो जाती हैं। इसी प्रकार लड़कियों के मानसिक विकास में भी तीव्रता होती है। लड़कों की अपेक्षा वे शीघ्र बोलना सीख जाती हैं।

5. अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ- अन्त:स्रावी ग्रन्थियाँ भी बालक के विकास को प्रभावित करती हैं। इनका प्रभाव मुख्य रूप से बालक के मानसिक विकास पर पड़ता है। इन ग्रन्थियों का अभाव मांसपेशियों में पर्याप्त उत्तेजना उत्पन्न करता है तथा अस्थियों का विकास भी ठीक प्रकार से नहीं हो पाता। गल ग्रन्थियों से निकलने वाला रस सबसे अधिक बालक के शारीरिक तथा मानसिक विकास को प्रभावित करता है। इसकी न्यूनता से बालक को शारीरिक तथा मानसिक विकास रुक जाता है।

6. पौष्टिक भोजन- पौष्टिक आहार का प्रत्येक अवस्था में महत्त्व होता है, परन्तु सबसे अधिक महत्त्व बाल्यावस्था में होता है। यदि बालक को बाल्यावस्था में ही पौष्टिक भोजन मिलना आरम्भ हो जाता है तो उसका विकास उचित दिशा में होता है। भोजन की मात्रा की अपेक्षा खाद्य सामग्री का विटामिन युक्त होना आवश्यक है। जिन बालकों को उचित मात्रा में पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, उनका शारीरिक विकास उचित ढंग से नहीं हो पाता तथा वे विभिन्न रोगों से भी ग्रस्त हो जाते हैं। अत: बालकों के उचित विकास के लिए सन्तुलित भोजन का विशेष महत्त्व है।

7. शुद्ध वायु और प्रकाश- शुद्ध वायु तथा प्रकाश बालक के कद, परिपक्वता तथा सामान्य स्वास्थ्य को विशेष रूप से प्रभावित करते हैं। जिन बालकों का पालन-पोषण पर्याप्त एवं शुद्ध वायु तथा सूर्य के प्रकाश में होता है, उनका शारीरिक विकास उन बालकों की अपेक्षा उत्तम होता है, जो प्रकाशहीन तथा अशुद्ध वायु से परिपूर्ण वातावरण में रहते हैं।

8. रोग तथा चोट- यदि बालक के सिर तथा अन्य कोमल अंगों में चोट लग जाती है तो उसका भी शारीरिक व मानसिक विकास पर प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार विषैली ओषधियों का भी विकास पर कुप्रभाव पड़ता है।

9. परिवार की स्थिति- परिवार की स्थिति भी बालक के स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। यदि परिवार में तीन बालक हैं तो उनकी विकास प्रक्रिया में अन्तर मिलेगा। पहले बालक की अपेक्षा तीसरे बालक का विकास अपेक्षाकृत शीघ्र होता है, क्योंकि उसे अपने भाई-बहनों के अनुकरण के पर्याप्त अवसर मिलते हैं। इसी प्रकार जिन बालकों का परिवार में लाड़-प्यार अधिक होता है, उनका विकास उन बालकों से भिन्न होता है, जिसके साथ डाँट-फटकार तथा उपेक्षा का व्यवहार किया जाता है। उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि विकास की प्रक्रिया को विभिन्न कारक प्रभावित करते हैं। सन्तुलित विकास के लिए पौष्टिक भोजन तथा स्वास्थ्यवर्द्धक परिस्थितियाँ अत्यधिक आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
विकास के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

विकास के मुख्य कारण
(Main Causes of Development)

विकास की प्रक्रिया के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं

1. परिपक्वीकरण- परिपक्वीकरण का अर्थ होता है-स्वाभाविक विकास। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति को वंशानुगत रूप से प्राप्त शील गुणों को, जो उसके अन्दर विद्यमान हैं, का विकास ही परिपक्वता है। प्रायः यह देखा गया है कि परिपक्वता के आधार पर बालक में एकाएक शील गुण प्रकट होते हैं। हरलॉक ने परिपक्वता की परिभाषा देते हुए लिखा है-”परिपक्वता से तात्पर्य वंशानुक्रम के प्रभाव के कारण व्यक्ति में शील गुणों के प्रभावी विकास से है, जिनकी व्यक्ति में जन्म के समय क्षमता होती है।” संक्षेप में, बालक के शील गुणों का स्पष्टीकरण ही परिपक्वता है। यह मानव के विकास की अनवरत प्रक्रिया है। आयु के विकास के साथ-साथ जैसे-जैसे बालक परिपक्व होता जाता है, वैसे ही उसमें कुछ विशेषताएँ स्पष्ट होती जाती हैं तथा परिपक्वता के साथ-साथ शरीर में विभिन्न क्रियाओं के लिए क्षमता भी उत्पन्न होती जाती है।

2. सीखना- सीखने को अधिगम (Learning) भी कहा जाता है। जन्म लेने के पश्चात् बालक अपने को एक विशेष प्रकार के भौतिक तथा सामाजिक वातावरण से घिरा पाता है। बालक की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति इस भौतिक और सामाजिक वातावरण के अन्दर ही होती है, परन्तु इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यक्ति को अपने वातावरण में कुछ-न-कुछ संघर्ष अथवा अनुकूलन करना पड़ता है। इस प्रकार के अनुकूलन के लिए वह गत अनुभवों की सहायता से अपने व्यवहार में परिवर्तन लाता है और इस प्रकार सीख जाता है। गेट्स (Gates) के अनुसार, “अनुभवों और प्रशिक्षण द्वारा अपने व्यवहारों का संशोधन करना ही सीखना है।’ अनुभव जन्म से लेकर मृत्यु तक चलता रहता है। हर व्यक्ति कुछ-न-कुछ सीखता रहता है और इससे लाभ ” उठाकर व्यक्ति अपने व्यवहार में परिवर्तन करता है। अतः सीखना परिवर्तन है। सीखना एक विकास भी है, जिसका कभी अन्त नहीं होता। जीवन-पथ के प्रत्येक कदम पर व्यक्ति कुछ-न-कुछ सीखता रहता है।

प्रश्न 2
विकास तथा वृद्धि में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

विकास तथा वृद्धि में अन्तर
(Difference between Development and Growth)

सामान्य अर्थ में विकास और वृद्धि समानार्थी है, परन्तु वास्तविकता यह है कि विकास और वृद्धि में पर्याप्त अन्तर है। शरीर के अंगों में बढ़ोतरी वृद्धि कहलाती है और इस वृद्धि का मापन तथा मूल्यांकन भी किया जा सकता है। इसके विपरीत विकास शरीर में होने वाले गुणात्मक परिवर्तन का बोध कराता है। उदाहरण के लिए-आयु-वृद्धि के साथ बालक की हड्डियों में वृद्धि होती जाती है तथा इनमें कठोरता और मजबूती आती जाती है। इस प्रकार वृद्धि शब्द का प्रयोग सामान्यतः शरीर तथा उसके अंगों के भार अथवा आकार में बढ़ोतरी के लिए किया जाता है। इस वृद्धि का मापन व मूल्यांकन किया जा सकता है, जबकि विकास प्रमुखतया शरीर में होने वाले गुणात्मक परिवर्तनों को प्रकट करता है। इस प्रकार वृद्धि के बाद विकास होता है। वृद्धि आकार में परिवर्तन है, जबकि विकास गुणों में परिवर्तन है। वृद्धि एक निश्चित आयु आने पर रुक जाती है, किन्तु विकास की प्रक्रिया जीवन-पर्यन्त चलती रहती है।
संक्षेप में विकास और वृद्धि में अन्तर निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है-
UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 17 Process of Development 1

प्रश्न 3
विकास के मुख्य रूपों का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर:

विकास के मुख्य रूप
(Main Kinds of Development)

व्यक्ति का विकास अपने आप में समग्रता का विकास है। उसके भिन्न-भिन्न पक्षों में होने वाले विकास को विकास के विभिन्न रूप कहा जाता है। विकास के मुख्य रूप निम्नलिखित हैं|

  1. शारीरिक विकास- शरीर सम्बन्धी विकास को शारीरिक विकास कहा जाता है। विकास के इस रूप के अन्तर्गत मुख्य रूप से शरीर के अंगों में आने वाली परिपक्वता का अध्ययन किया जाता है। शरीर के अंगों में परिपक्वता आने के साथ-ही-साथ उनकी क्रियाशीलता में भी वृद्धि होती है।
  2. मानसिक विकास- व्यक्ति की मानसिक क्षमताओं में होने वाले विकास को मानसिक विकास के रूप में जाना जाता है।
  3. संवेगात्मक विकास- व्यक्ति के संवेगों में स्थिरता एवं परिपक्वता के गुण के विकास को संवेगात्मक विकास के रूप में जाना जाता है।
  4. सामाजिक विकास-व्यक्ति के समाजीकरण के परिणामस्वरूप कुछ सामाजिक सद्गुणों का आविर्भाव होता है। सामाजिक गुणों के इस विकास को ही सामाजिक विकास के रूप में जाना जाता है।
  5. नैतिक एवं चरित्र सम्बन्धी विकास- नैतिक गुणों के प्रति सचेत होना तथा चरित्र को दृढ़ता प्राप्त होना ही नैतिक एवं चरित्र सम्बन्धी विकास कहलाता है।
  6. भाषागत विकास- भाषा के सीखने, बोलने आदि को भाषागत विकास कहा जाता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
विकास की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
विकास की प्रक्रिया अपने आप में एक जटिल प्रक्रिया है। विकास की मुख्य विशेषताएँ अग्रलिखित हैं

  1. विकास का तात्पर्य केवल बढ़ने से नहीं है।
  2. विकास- बालक की अवस्था में दीर्घकाल तक होने वाले निरन्तर परिवर्तनों का एक क्रम है।
  3. विकास में परिवर्तन एक दिशा में होते हैं।
  4. यह परिवर्तन आगे की ओर होता है, पीछे की ओर नहीं।
  5. विकास में पूर्व स्तर का आने वाले स्तर से सम्बन्ध होता है।
  6. विकास में निरन्तरता का गुण होता है।
  7. विकास अपने आप में एक संगठित प्रक्रिया है।

प्रश्न 2
स्पष्ट कीजिए कि विकास की प्रक्रिया पर पोषण का प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
विकास की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाला एक मुख्य तत्त्व या कारक पोषण है। पोषण का आशय है–सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार ग्रहण करना। वास्तव में बालक के सामान्य एवं सुचारु विकास के लिए पर्याप्त मात्रा में सन्तुलित आहार आवश्यक होता है। उचित पोषण से व्यक्ति का शारीरिक तथा मानसिक विकास भी सामान्य रूप से होता है। उचित पोषण के अभाव में बालक का विकास अवरुद्ध हो जाता है।

प्रश्न 3
स्पष्ट कीजिए कि विकास जीवन भर चलता रहता है।
उत्तर:
विकास की प्रक्रिया जीवन भर किसी-न-किसी रूप में अवश्य चलती रहती है। शरीर में परिपक्वता आती है, मानसिक एवं संवेगात्मक विकास भी सदैव होता रहता है। व्यक्ति के विचारों में जो परिपक्वता प्रौढ़ावस्था के उपरान्त आती है वह बाल्यावस्था अथवा युवावस्था में नहीं होती है। इसी प्रकार वृद्धावस्था में बालों का सफेद होना तथा त्वचा का कठोर होना आदि भी विकास के ही प्रमाण ।

प्रश्न 4
अभिवृद्धि की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
जीवित प्राणियों के शरीर के अंगों में होने वाली बढ़ोतरी को वृद्धि या अभिवृद्धि (Growth) कहा जाता है। उदाहरण के रूप में शरीर का वजन तथा लम्बाई का बढ़ना वृद्धि कहलाता है। शारीरिक वृद्धि का निर्धारित इकाइयों में मापन एवं मूल्यांकन किया जा सकता है। वृद्धि का सीधा सम्बन्ध आकार से होता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
विकास से क्या आशय है?
उत्तर:
विकास एक जटिल प्रक्रिया है। इसके माध्यम से बालक अथवा व्यक्ति की निहित शक्तियाँ एवं गुण क्रमश: प्रकट होते हैं।

प्रश्न 2
विकास की एक स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
“परिवर्तन श्रृंखला की वह व्यवस्था जिसमें बालक भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है। विकास के नाम से जानी जाती है।”

प्रश्न 3
विकास की प्रक्रिया व्यक्ति के जीवन में कब तक चलती है?
उत्तर:
विकास की प्रक्रिया व्यक्ति में किसी-न-किसी रूप में जीवन भर चलती रहती है।

प्रश्न 4
क्या बालक एवं बालिकाओं के विकास की प्रक्रिया पूर्ण रूप से एकसमान होती है?
उत्तर:
नहीं, बालक एवं बालिकाओं के विकास की प्रक्रिया में उल्लेखनीय अन्तर होता है।

प्रश्न 5
क्या ‘वृद्धि एवं विकास’ एक ही हैं?
उत्तर:
नहीं, वृद्धि एवं विकास में स्पष्ट अन्तर है।

प्रश्न 6
विकास की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले चार मुख्य कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. वृद्धि
  2. प्रजाति
  3. यौन-भिन्नता तथा
  4. अन्त:स्रावी ग्रन्थियाँ

प्रश्न 7
बालक के विकास पर वंशानुक्रमण तथा पर्यावरण में से किस कारक का प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
बालक के विकास पर वंशानुक्रमण तथा पर्यावरण दोनों ही कारकों का प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 8
विकास के अन्तर्गत किस प्रकार के परिवर्तन होते हैं?
उत्तर:
विकास के अन्तर्गत गुणात्मक परिवर्तन होते हैं, जैसे कि हड्डियों तथा माँसपेशियों में क्रमश: कठोरता एवं पुष्टता आना।

प्रश्न 9
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. विकास तथा वृद्धि में कोई अन्तर नहीं है
  2. वृद्धि परिपक्वता तथा विकास परस्पर सम्बन्धित हैं
  3. विकास की प्रक्रिया का बालक की शिक्षा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता
  4. युवावस्था में आकर विकास की प्रक्रिया रुक जाती है
  5. पोषण का विकास की प्रक्रिया पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है

उत्तर:

  1. असत्य
  2. सत्य
  3. असत्य
  4. असत्य
  5. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1.
विकास की प्रक्रिया है
(क) एक सरल प्रक्रिया
(ख) एक जटिल एवं बहुपक्षीय प्रक्रिया
(ग) एक अस्पष्ट प्रक्रिया
(घ) एक कृत्रिम प्रक्रिया

प्रश्न 2.
“विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ और नवीन योग्यताएँ प्रकट होती है।” यह कथन किसका है?
(क) डगलस का
(ख) हरलॉक का
(ग) टरमन का
(घ) गेस्टालर का

प्रश्न 3.
बालक के विकास तथा उसकी शिक्षा के सम्बन्ध में सत्य है
(क) विकास तथा शिक्षा में कोई सम्बन्ध नहीं है
(ख) विकास शिक्षा को प्रभावित नहीं करता
(ग) शिक्षा से विकास पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता
(घ) विकास तथा शिक्षा में घनिष्ठ सम्बन्ध है

प्रश्न 4.
बालक के विकास तथा उसकी आयु में क्या सम्बन्ध है?
(क) विकास सदैव आयु के अनुसार होता है
(ख) विकास पर आयु का कोई प्रभाव नहीं पड़ता
(ग) आयु विकास की प्रक्रिया में बाधक है
(घ) उपर्युक्त सभी कथन असत्य हैं

प्रश्न 5.
विकास को प्रभावित करने वाला कारक नहीं है
(क) वृद्धि
(ख) प्रजाति
(ग) उपलब्धि
(घ) संस्कृति

प्रश्न 6.
विकास की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाला कारक है
(क) वृद्धि
(ख) आयु
(ग) पोषण
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 7.
विकास की प्रक्रिया की विशेषता नहीं है
(क) विकास की प्रक्रिया जीवन भर चलती है
(ख) विकास की निश्चित रूप से नाप-तौल की जा सकती है
(ग) विकास में समग्रता का गुण होता है
(घ) अन्तर्निहित गुणों का प्रस्फुटन होता है

उत्तर:

  1. (ख) एक जटिल एवं बहुपक्षीय प्रक्रिया
  2. (ख) हरलॉक का
  3. (घ) विकास तथा शिक्षा में घनिष्ठ सम्बन्ध है
  4. (क) विकास सदैव आयु के अनुसार होता है
  5. (ग) उपलब्धि
  6. (घ) उपर्युक्त सभी
  7. (ख) विकास की निश्चित रूप से नाप-तौल की जा सकती है

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