UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 23 Unemployment: Causes and Remedies

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 23
Chapter Name Unemployment: Causes and Remedies (बेकारी : कारण तथा उपचार)
Number of Questions Solved 25
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 23 Unemployment: Causes and Remedies (बेकारी : कारण तथा उपचार)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
“बेरोजगारी एक समस्या है।” विवेचना कीजिए। [2014]
या
भारत के विशेष सन्दर्भ में ‘बेकारी के प्रकारों की विवेचना कीजिए। [2007]
या
बेरोजगारी किसे कहते हैं ? भारत में बेरोजगारी के कारण एवं निवारण के उपाय बताइए। [2009, 10, 11, 13]
या
बेरोजगारी से आप क्या समझते हैं? बेरोजगारी समाप्त करने के सुझाव दीजिए। [2013, 15]
या
भारत में बेरोजगारी दूर करने के उपाय बताइए। [2009, 10, 16]
या
भारत में बेकारी के कारणों का विश्लेषण कीजिए और इसके उन्मूलन के सुझाव दीजिए। [2013]
या
बेरोजगारी भारतीय निर्धनता को आधारभूत कारण है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए। [2007, 10]
उत्तर:
बेरोजगारी का अर्थ तथा परिभाषाएँ
प्रायः जब किसी व्यक्ति को अपने जीवन-निर्वाह के लिए कोई कार्य नहीं मिलता तो उस व्यक्ति को बेरोजगार और इस समस्या को बेरोजगारी की समस्या कहते हैं। अन्य शब्दों में, जब कोई व्यक्ति कार्य करने का इच्छुक हो और वह शारीरिक व मानसिक रूप से कार्य करने में समर्थ भी हो, लेकिन उसको कोई कार्य नहीं मिलता जिससे कि वह अपनी जीविका कमा सके, तो इस प्रकार के व्यक्ति को बेरोजगार कहा जाता है। जब समाज में इस प्रकार के बेरोजगार व्यक्तियों की पर्याप्त संख्या हो जाती है, तब उत्पन्न होने वाली आर्थिक स्थिति को बेरोजगारी की समस्या कहा जाता है।

प्रो० पीगू के अनुसार, “एक व्यक्ति को तभी बेरोजगार कहा जाता है जब एक तो उसके पास कोई कार्य नहीं होता और दूसरे वह कार्य करना चाहता है। किन्तु व्यक्ति में कार्य पाने की इच्छा के साथ-साथ कार्य करने की योग्यता भी होनी चाहिए; अत: एक व्यक्ति जो काम करने के योग्य है तथा काम करना चाहता है, किन्तु उसे उसकी योग्यतानुसार कार्य नहीं मिल पाता, वह बेरोजगार कहलाएगा और उसकी समस्या बेरोजगारी कहलाएगी। कार्ल प्रिव्राम के अनुसार, “बेकारी श्रम बाजार की वह दशा है जिसमें श्रम-शक्ति की पूर्ति काम करने के स्थानों की संख्या से अधिक होती है।”

गिलिन तथा गिलिन के अनुसार, “बेकारी वह दशा है जिसमें एक समर्थ एवं कार्य की इच्छा रखने वाला व्यक्ति, जो साधारणतया स्वयं के लिए एवं अपने परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनी कमाई पर आश्रित रहता है, लाभप्रद रोजगार पाने में असमर्थ रहता है।”
संक्षेप में, मजदूरी की प्रचलित दरों पर स्वेच्छा से काम चाहने वाले उपयुक्त व्यक्ति को उसकी योग्यतानुसार काम न मिल सके, इस स्थिति को बेरोजगारी कहते हैं।

बेकारी के प्रकार

बेकारी अनेक प्रकार की है। इसके कुछ प्रकार निम्नलिखित हैं

  1. छिपी बेकारी – जो बेकारी प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देती उसे छिपी बेकारी कहते हैं। इसका कारण किसी कार्य में आवश्यकता से अधिक लोगों का लगे होना है। यदि उनमें से कुछ व्यक्तियों को हटा लिया जाए, तो भी उस कार्य या उत्पादन में कोई अन्तर नहीं आएगा। ऐसी बेकारी छिपी बेकारी कहलाती है।
  2. मौसमी बेकारी – यह बेकारी मौसमों एवं ऋतुओं के हेर-फेर से चलती रहती है। कुछ मौसमी उद्योग होते हैं; जैसे-बर्फ का कारखाना। गर्मी में तो इसमें लोगों को रोजगार मिल जाता है, परन्तु सर्दी में कारखाना बन्द होने से इसमें लगे लोग बेकार हो जाते हैं।
  3. चक्रीय बेकारी – यह बेकारी वाणिज्य या क्रय-विक्रय में आने वाली मन्दी या तेजी अर्थात् उतार-चढ़ाव के कारण पैदा होती है। मन्दी के समय बेकारी बढ़ जाती है, जब कि तेजी के समय घट जाती है।
  4.  संरचनात्मक बेकारी – आर्थिक ढाँचे में परिवर्तन, दोष या अन्य किसी कारण से यह बेरोजगारी विकसित होती है। जब स्वचालित मशीनें लगने लगती हैं तो उद्योगों में लगे अनेक व्यक्ति बेकार हो जाते हैं।
  5. खुली बेकारी – काम करने की शक्ति तथा इच्छा होते हुए भी नागरिकों को काम न मिलना खुली बेकारी कहलाती है। राष्ट्र में कार्य करने वालों की अपेक्षा रोजगार के अवसर कम होने पर खुली बेकारी पायी जाती है।।
  6. तकनीकी बेकारी – तकनीकी या प्रौद्योगिकीय बेकारी यन्त्रों या मशीनों की प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों से पैदा होती है। बड़े-बड़े उद्योगों के विकास तथा नवीन मशीन तकनीक के कारण यह बेकारी पैदा होती है।
  7.  सामान्य बेकारी – यह बेकारी प्राय: सभी समाजों में कुछ-न-कुछ अंश तक पायी जाती है, जो कभी समाप्त नहीं होती। इसका कारण कुछ लोगों का स्वभावतः एवं प्रकृति से ही अथवा आलस्य या क्षमताहीन होने के कारण रोजगार के योग्य न होना है।
  8.  शिक्षित बेकारी – इसका कारण उच्च शिक्षा व प्रशिक्षण प्राप्त लोगों में अत्यधिक वृद्धि है। उन्हें अपनी क्षमता एवं योग्यता के अनुसार रोजगार नहीं मिलता। यह बेकारी भारत तथा अन्य देशों में चिन्ता का विषय बनी हुई है।

भारत में बेरोजगारी के कारण
भारत में बेरोजगारी के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

1. तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या – भारत में जनसंख्या 25 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है, जब कि रोजगार के अवसरों में इस दर से वृद्धि नहीं हो रही है। जनसंख्यावृद्धि दर के अनुसार भारत में प्रति वर्ष लगभग 50 लाख व्यक्तियों को रोजगार के अवसर सुलभ होने चाहिए। जनसंख्या की स्थिति विस्फोटक होने के कारण हमारे देश में बेरोजगारी विद्यमान है।

2. दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली – हमारे देश की शिक्षा-पद्धति दोषपूर्ण है। यह शिक्षा रोजगारमूलक नहीं है, जिससे शिक्षित बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। प्रतिवर्ष लगभग 10 लाख शिक्षित व्यक्ति बेरोजगारों की पंक्ति में सम्मिलित हो जाते हैं।

3. लघु एवं कुटीर उद्योगों का पतन – मशीनों का प्रयोग बढ़ने तथा देश में औद्योगीकरण के कारण हस्तकला तथा लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास मन्द हो गया है या प्रायः पतन हो गया है, जिससे बेरोजगारी में वृद्धि होती जा रही है।

4. त्रुटिपूर्ण नियोजन – यद्यपि भारत में सन् 1951 से आर्थिक नियोजन के द्वारा देश का आर्थिक विकास किया जा रहा है, परन्तु पाँचवीं पंचवर्षीय योजना तक नियोजन में रोजगारमूलक नीति नहीं अपनायी गयी, जिसके कारण बेरोजगारों की संख्या बढ़ती गयी। आठवीं पंचवर्षीय योजना में सरकार का ध्यान इस समस्या की ओर गया। अतः त्रुटिपूर्ण नियोजन भी बेरोजगारी के लिए उत्तरदायी है।।

5. पूँजी-निर्माण एवं निवेश की धीमी गति – हमारे देश में पूँजी-निर्माण की गति धीमी है। पूँजी निर्माण की धीमी गति के कारण पूँजी-निवेश भी कम ही हो पाया है, जिसके कारण उद्योग-धन्धों का विस्तार वांछित गति से नहीं हो पा रहा है। भारत में बचत एवं पूँजी निवेश में कमी के कारण बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न हुई है।

6. आधुनिक यन्त्रों एवं मशीनों का प्रयोग – स्वचालित मशीनों एवं कम्प्यूटरों के प्रयोग से श्रमिकों की माँग कम होती जा रही है। उद्योग व कृषि के क्षेत्र में भी यन्त्रीकरण बढ़ रहा है। औद्योगीकरण के साथ-साथ यन्त्रीकरण एवं अभिनवीकरण में भी वृद्धि हो रही है, जिसके कारण बेरोजगारी में वृद्धि हो रही है।

7. व्यक्तियों में उचित दृष्टिकोण का अभाव – हमारे देश में शिक्षित एवं अशिक्षित सभी नवयुवकों का उद्देश्य नौकरी प्राप्त करना है। श्रम के प्रति निष्ठावान न होने के कारण वे स्वतः उत्पादन प्रक्रिया में भागीदार नहीं होना चाहते हैं। वे कोई व्यवसाय नहीं करना चाहते हैं। इस कारण भी बेरोजगारी बढ़ती जा रही है।

8. शरणार्थियों का आगमन – भारत में बेरोजगारी में वृद्धि का एक कारण शरणार्थियों का आगमन भी है। देश-विभाजन के समय, बाँग्लादेश युद्ध के समय तथा श्रीलंका समस्या उत्पन्न होने से भारी संख्या में शरणार्थी भारत में आये हैं, साथ ही गत वर्षों में भारत के मूल निवासियों को कुछ देशों द्वारा निकाला जा रहा है। इन देशों में ब्रिटेन, युगाण्डा, कीनिया आदि प्रमुख हैं। वहाँ से भारतीय मूल के निवासी भारत आ रहे हैं, जिसके कारण बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है।

9. कृषि की अनिश्चितता – भारत एक कृषि-प्रधान देश है। अधिकांश व्यक्ति कृषि पर ही निर्भर हैं। भारतीय कृषि प्रकृति पर निर्भर है। प्रतिवर्ष कभी सूखा और कभी बाढ़, कभी अतिवृष्टि और कभी अनावृष्टि व अन्य प्राकृतिक प्रकोप आते रहते हैं, जिसके कारण लाखों श्रमिक बेरोजगार हो जाते हैं। कृषि की अनिश्चितता के कारण रोजगार में भी अनिश्चितता बनी रहती है। इस कारण बेरोजगारी बढ़ जाती है।

10. एक व्यक्ति द्वारा अनेक व्यवसाय – भारतीय श्रमिक कृषि-कार्य के साथ-साथ अन्य व्यवसाय भी करते हैं। इस कारण भी बेरोजगारी में वृद्धि होती है।

11. आर्थिक विकास की धीमी गति – भारत में बेरोजगारी में वृद्धि का एक कारण आर्थिक विकास की धीमी गति रही है। अभी भी देश के प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण दोहन नहीं हो पाया है। इस कारण रोजगार के साधनों का वांछित विकास नहीं हो पाया है।

बेरोजगारी निवारण के उपाय

यद्यपि बेरोजगारी को पूर्ण रूप से समाप्त नहीं किया जा सकता, परन्तु कम अवश्य किया जा सकता है। बेरोजगारी की समस्या के समाधान हेतु निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं

1. जनसंख्या-वृद्धि पर नियन्त्रण – भारत में बेरोजगारी को कम करने के लिए सबसे पहले देश की जनसंख्या को नियन्त्रित करना होगा। परिवार नियोजन का राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार, सन्तति निरोध की सरल, सुरक्षित तथा व्यावहारिक विधियाँ इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम सिद्ध होंगी।

2. आर्थिक विकास को तीव्र गति प्रदान करना – देश का आर्थिक विकास तीव्र गति से करना चाहिए। प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण दोहन करके रोजगार के अवसरों में वृद्धि की जा सकती है।

3. शिक्षा – प्रणाली में परिवर्तन – शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। आज की शिक्षा व्यवसाय मूलक होनी चाहिए। शिक्षा को रोजगार से सम्बद्ध कर देने से बेरोजगारी की समस्या कुछ सीमा तक स्वतः ही हल हो जाएगी। देश की नयी शिक्षा-नीति में इस ओर विशेष ध्यान दिया गया है।

4. लघु एवं कुटीर उद्योग-धन्धों का विकास – आज की परिस्थितियों में यह आवश्यक हो गया है कि देश में योजनाबद्ध आधार पर लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास किया जाए, क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है। अत: कृषि से सम्बन्धित उद्योगों के विकास की अधिक आवश्यकता है। इसके द्वारा प्रच्छन्न बेरोजगारी तथा मौसमी बेरोजगारी दूर करने में सहायता मिलेगी।

5. बचतों में वृद्धि की जाए – देश के आर्थिक विकास के लिए पूँजी की आवश्यकता होती है। पूँजी-निर्माण बचतों पर निर्भर रहता है। अत: बचतों में वृद्धि करने के लिए हर सम्भव प्रयत्न किये जाने चाहिए।

6. उद्योग-धन्धों का विकास- भारत में पूँजीगत, आधारभूत एवं उपभोग सम्बन्धी उद्योगों का विस्तार एवं विकास किया जाना चाहिए। भारत में श्रमप्रधान उद्योगों का अभाव है, कार्यरत उद्योगों की स्थिति भी अच्छी नहीं है। अत: रोगग्रस्त उद्योगों का उपचार आवश्यक है। मध्यम व छोटे पैमाने के उद्योगों की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि अधिक बड़े उद्योगों की अपेक्षा मध्यम श्रेणी के उद्योगों में रोजगार के अवसर अधिक सुलभ हो सकते हैं।

7. विदेशी व्यापार में वृद्धि – भारत के निर्यात में वृद्धि करने की आवश्यकता है, क्योंकि वस्तुओं के अधिक निर्यात के द्वारा उत्पादन वृद्धि को प्रोत्साहन मिलेगी, जिससे बेरोजगारी की समस्या हल होगी।

8. मानव-शक्ति का नियोजन – हमारे देश में मानव-शक्ति का नियोजन अत्यन्त दोषपूर्ण है। अत: यह आवश्यक है कि वैज्ञानिक ढंग से मानव-शक्ति का नियोजन किया जाए, जिससे मॉग एवं पूर्ति के बीच समन्वय स्थापित किया जा सके।

9. प्रभावपूर्ण रोजगार – नीति – देश में बेरोजगारी की समस्या को हल करने के लिए प्रभावपूर्ण रोजगार-नीति अपनायी जानी चाहिए। स्वरोजगार कार्यक्रम का विकास एवं विस्तार किया जाना चाहिए। रोजगार कार्यालयों की कार्य-प्रणाली को प्रभावशाली बनाने की अधिक आवश्यकता है। भारत में आज भी बेरोजगारी से सम्बन्धित ठीक आँकड़े उपलब्ध नहीं हो पाते हैं, जिससे एक सबल और संगठित बेरोजगारी निवारण-नीति नहीं बन पाती है। अत: आवश्यकता यह है कि बेरोजगारी से सम्बन्धित सही आँकड़े एकत्रित किये जाएँ और उनके समाधान हेतु एक दीर्घकालीन योजना क्रियान्वित की जाए।

10. निर्माण-कार्यों का विस्तार – देश में निर्माण-कार्यो; जैसे – सड़कों, बाँधों, पुलों व भवन निर्माण आदि को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए, जिससे बेरोजगारों को रोजगार देकर बेरोजगारी को कम किया जा सके। निर्माण कार्यों के क्रियान्वयन से रोजगार के नये अवसर बढ़ेंगे तथा रोजगार के बढ़े हुए अवसर बेकारी उन्मूलन के कारगर उपाय सिद्ध होंगे।

प्रश्न 2:
निर्धनता और बेकारी दूर करने के शिक्षा के योगदान पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
निर्धनता वह दशा है जिसमें व्यक्ति अपर्याप्त आय या अविवेकपूर्ण व्यय के कारण अपने जीवन-स्तर को इतना ऊँचा रखने में असमर्थ होता है कि उसकी शारीरिक व मानसिक कुशलता बनी रह सके और न ही वह व्यक्ति तथा उस पर आश्रित वह समाज जिसका वह सदस्य है, निश्चित स्तर के अनुसार उपयोगी ढंग से कार्य कर पाते हैं। बेकारी या बेरोजगारी व्यक्ति की उस अवस्था का नाम है, जब कि वह काम तो करना चाहता है तथा काम करने के योग्य भी है, परन्तु उसे काम नहीं मिलता।
निर्धनता तथा बेरोजगारी को दूर करने के लिए अथक प्रयास किये जा रहे हैं, परन्तु आशातीत सफलता प्राप्त नहीं हो रही है। इन दोनों दोषों को दूर करने के प्रयासों में शिक्षा का योगदान सराहनीय है, जिसका विवरण निम्नवत् है

 1. शिक्षा एवं सीमित परिवार की अवधारणा – भारत जैसे देश के सम्मुख प्रमुख रूप से तीन समस्याएँ हैं – निधर्नता, जनसंख्या और बेरोजगारी। जनसंख्या विस्फोट का कारण अधिकांश भारतीयों को अशिक्षित तथा रूढ़िवादी होना है। शिक्षा हमें विवेकी बनाती है तथा सीमित परिवार की आवश्यकता, महत्त्व तथा लाभ को ज्ञान कराती है। आँकड़े बताते हैं कि शिक्षित दम्पति के परिवार छोटे आकार के हैं तथा वे निर्धनता तले दबे हुए नहीं हैं। वे पुत्र-पुत्री दोनों को समान रूप से महत्त्व देते हैं।

2.  शिक्षा एवं कर्मण्यता – अशिक्षित व्यक्ति अकर्मण्य होते हैं। अकर्मण्य व्यक्ति किसी प्रकार का कार्य करना पसन्द नहीं करते और ईश्वर भरोसे जीवन व्यतीत करते हैं। परिणाम होता है। निर्धनता तथा बेरोजगारी। शिक्षा मनुष्य को कर्मण्य बनाती है। कर्मण्य व्यक्ति कर्म में विश्वास करता है जो जीविकोपार्जन के लिए प्रयत्नशील रहता है। वह हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठता और निर्धनता व बेरोजगारी उसके पास नहीं फटकती।

3. शिक्षा एवं ज्ञान – अज्ञानी और अशिक्षित व्यक्ति उचित व अनुचित में अन्तर नहीं कर पाता और अपने उत्तरदायित्व को पहचानने में असमर्थ होता है। ऐसा व्यक्ति अपने पारिवारिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का सम्पादन अपने विवेक के आधार पर नहीं बल्कि दूसरे व्यक्तियों के फुसलाने में आकर कर बैठता है। अज्ञानी व्यक्ति भेड़ के समान होता है जिसे कोई भी हाँककर ले जाता है। शिक्षा व्यक्ति को विवेकी और ज्ञानी बनाती है तथा उसे अपने परिवार के पालन-पोषण करने की राह पर ढकेलती है। वह अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए प्रयत्नशील रहता है।

4. शिक्षा एवं मितव्ययिता – शिक्षित व्यक्ति जितनी चादर उतने पैर पसारने में विश्वास करते हैं। अशिक्षित व रूढ़िवादी व्यक्ति की तरह वे कर्ज लेकर परिवार में जन्म-मरण या विवाह पर अनाप-शनाप खर्च नहीं करते जो निर्धनता का मुंह देखना पड़े। शिक्षित व्यक्ति सदैव प्राथमिकताएँ निश्चित करने के उपरान्त उपलब्ध धन का सदुपयोग करते हैं। बहुधा निर्धनता
उनसे कोसों दूर रहती है।

प्रश्न 3
भारत में शिक्षित बेकारी के कारणों की व्याख्या कीजिए। या। भारत में शिक्षित बेकारी के कारण तथा शिक्षित बेकारी को दूर करने के उपाय बताइए।
या
शिक्षित बेरोजगारी दूर करने के विभिन्न उपायों का विवेचन कीजिए। [2007, 09, 10, 11, 12]
उत्तर:
भारत में शिक्षित बेकारी के कारण
भारत में शिक्षित बेकारी के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

1. शिक्षा-प्रणाली का दोषपूर्ण होना – विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि हमारी वर्तमान शिक्षा-प्रणाली अपने आपमें दोषपूर्ण है। हमारी शिक्षा प्रणाली के प्रारम्भ करने वाले अंग्रेज थे। उस काल में लॉर्ड मैकाले ने भारतीय शिक्षा को इस रूप में गठित किया था कि शिक्षा प्राप्त युवक अंग्रेजी शासन में क्लर्क या बाबू बन सकें। वही शिक्षा आज भी प्रचलित है। शिक्षित युवक कार्यालयों में बाबू बनने के अतिरिक्त और कुछ बन ही नहीं पाते। कार्यालयों में सीमित संख्या में ही भर्ती हो सकती है। इस स्थिति में अनेक शिक्षित नवयुवकों को बेरोजगार रह जाना अनिवार्य ही है।

2. विश्वविद्यालयों में छात्रों की अधिक संख्या – एक सर्वेक्षण के अनुसार, हमारे देश में विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों की संख्या बहुत अधिक है। ये छात्र प्रतिवर्ष डिग्रियाँ प्राप्त करके शिक्षित व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि करते हैं। इन सबके लिए रोजगार के समुचित अवसर उपलब्ध नहीं होते; अतः शिक्षित बेरोजगारी की समस्या बढ़ती ही जाती है।

3. व्यावसायिक शिक्षा की कमी – भारत में व्यावसायिक शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था एवं | सुविधा उपलब्ध नहीं है। यदि व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा की समुचित व्यवस्था हो तो शिक्षित बेरोजगारी की दर को नियन्त्रित किया जा सकता है।

4. शारीरिक श्रम के प्रति उपेक्षा का दृष्टिकोण – हमारे देश में शिक्षित बेरोजगारी की समस्या के दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाने का एक कारण यह है कि हमारे अधिकांश शिक्षित नवयुवक, शारीरिक श्रम के प्रति उपेक्षा की दृष्टिकोण रखते हैं। ये नवयुवक इसलिए शारीरिक श्रम करना नहीं चाहते क्योंकि वे उसके प्रति हीनता का भाव रखते हैं। इस दृष्टिकोण के कारण वे उन सभी कार्यों को प्रायः अस्वीकार कर देते हैं, जो शारीरिक श्रम से जुड़े हुए होते हैं इससे बेरोजगारी की दर में वृद्धि होती जाती है।

5. सामान्य निर्धनता – शिक्षित नवयुवकों के बेरोजगार रह जाने का एक कारण हमारे देश में व्याप्त सामान्य निर्धनता भी है। अनेक नवयुवक धन के अभाव के कारण व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त भी अपना व्यवसाय प्रारम्भ नहीं कर पाते। इस बाध्यता के कारण वे निरन्तर नौकरी की ही खोज में रहते हैं व बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि करते हैं।

6. देश में माँग तथा पूर्ति में असन्तुलन – हमारे देश में अनेक कारणों से कुछ इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न हो गई है कि जिन क्षेत्रों में शिक्षित एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता है, वहाँ इस प्रकार के नवयुवक उपलब्ध नहीं है। इसके विपरीत, कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जहाँ पर्याप्त संख्या में शिक्षित एवं प्रशिक्षित नवयुवक तो हैं परन्तु उनके लिए नौकरियाँ उपलब्ध नहीं है; अर्थात् उनकी आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार माँग एवं पूर्ति में असन्तुलन के कारण बेरोजगारी की स्थिति बनी रहती है।

भारत में शिक्षित बेकारी दूर करने के उपाय

भारत में शिक्षित बेकारी को दूर करने के प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं

1. शिक्षा प्रणाली में आवश्यक सुधार – अंग्रेजों द्वारा भारत में प्रारम्भ की गयी शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है। इस शिक्षा प्रणाली का पूर्णतया पुनर्गठन करना चाहिए तथा वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए इसे अधिक-से-अधिक व्यवसायोन्मुख बनाया जाना चाहिए। इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् नवयुवक अपने स्वयं के व्यवसाय प्रारम्भ कर पाएँगे तथा
उन्हें नौकरी के लिए विभिन्न कार्यालयों के चक्कर नहीं लगाने पड़ेंगे।

2. लघु उद्योगों को प्रोत्साहन – शिक्षित बेरोजगारी को नियन्त्रित करने के लिए सरकार को चाहिए कि लघु उद्योगों को प्रोत्साहन दे। इन लघु उद्योगों को स्थापित करने के लिए शिक्षितयुवकों को प्रोत्साहित करना चाहिए तथा उन्हें आवश्यक सुविधाएँ भी उपलब्ध कराई जानी चाहिए।

3. सरल ऋण व्यवस्था – शिक्षित नवयुवकों को अपना व्यवसाय स्थापित करने के लिए। सरकार द्वारा आसान शर्तों पर ऋण प्रदान करने की सुविधा प्रदान की जानी चाहिए। इससे धनाभाव के कारण शिक्षित नवयुवक व्यवसाय स्थापित करने से वंचित नहीं रह पाएँगे।

4. शारीरिक श्रम के प्रति अनुकूल दृष्टिकोण का विकास – हमारी शिक्षा-प्रणाली एवं पारिवारिक संस्कार इस प्रकार के होने चाहिए कि नवयुवकों में शारीरिक श्रम के प्रति किसी प्रकार की घृणा या उपेक्षा की भावना न हो। शारीरिक श्रम के प्रति अनुकूल दृष्टिकोण का विकास हो जाने पर शिक्षित युवक शारीरिक कार्यों के करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करेंगे; अतः उनका रोजगार-प्राप्ति का दायरा विस्तृत हो जाएगा तथा परिणामस्वरूप बेरोजगारी की दर घटेगी।

5. रोजगार सम्बन्धी विस्तृत जानकारी – शिक्षित नवयुवकों को रोजगारों से सम्बन्धित विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराई जानी चाहिए। युवकों को समस्त सम्भावित रोजगारों की जानकारी होनी चाहिए ताकि वे अपनी योग्यता, रुचि आदि के अनुकूल व्यवसाय को प्राप्त करने के लिए सही दिशा में प्रयास करें।

6. अन्य उपाय – उपर्युक्त उपायों के अतिरिक्त वे समस्त उपाय भी शिक्षित बेरोजगारी के उन्मूलन के लिए किए जाने चाहिए, जो देश में सामान्य बेरोजगारी को नियन्त्रित करने के लिए आवश्यक समझे जाते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
ग्रामीण क्षेत्रों में बेकारी पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
ग्रामीण क्षेत्र में हमें कृषि में मौसमी एवं छिपी प्रकृति की बेकारी मिलती है। भारत की 72.22 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में रहती है और 64 प्रतिशत लोग किसी-न-किसी प्रकार से कृषि पर निर्भर हैं। कृषि में फसल बोने एवं काटने के समय कार्य की अधिकता रहती है और शेष समय में किसानों को बेकार बैठे रहना पड़ता है। रायल कमीशन का मत है कि “भारतीय कृषक 4 – 5 महीने ही कार्य करता है।” राधाकमल मुखर्जी के अनुसार, “उत्तर प्रदेश में किसान वर्ष में 200 दिन एवं जैक के अनुसार, बंगाल में पटसन की खेती करने वाले वर्ष में 4-5 माह ही कार्यरत रहते हैं।” डॉ० स्लेटर के अनुसार, “दक्षिण भारत के किसान वर्ष में 200 दिन ही कार्यरत रहते हैं।”

कुटीर व्यवसायों का अभाव, कृषि की मौसमी प्रकृति आदि के कारण ग्रामीणों को वर्ष-भर कार्य नहीं मिल पाता। हमारे यहाँ कृषि मजदूरों की संख्या करीब 475 लाख है, जो वर्ष में 200 दिन से भी कम समय तक कार्य करते हैं। यहाँ कृषि-योग्य भूमि के 15 से 20 प्रतिशत भाग पर ही एक से अधिक बार फसल उगायी जाती है। इसका अर्थ यह है कि यहाँ ऐसे व्यक्ति अधिक हैं जो वर्ष में 165 दिन बेकार रहते हैं। इसके अतिरिक्त भारतीय ग्रामों में अदृश्य बेकारी भी व्याप्त है। संयुक्त परिवार प्रणाली के कारण एक परिवार के सभी सदस्य भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों पर कृषि-कार्य करते हैं, जिनकी सीमान्त उत्पादकता शून्य होती है। यदि इनको कृषि से हटाकर अन्य व्यवसायों में लगा दिया जाए तो भी कृषि उत्पादन पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा। इन्हें हम अतिरिक्त श्रम की श्रेणी में रख सकते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में बेकारी का प्रतिशत 40 आँका गया है।

प्रश्न 2
शिक्षित वर्ग में बेकारी पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
बेकारी केवल निरक्षरों एवं कम पढ़े-लिखे लोगों में ही नहीं, वरन् शिक्षित, बुद्धिमान एवं प्रबुद्ध लोगों में भी व्याप्त है। डॉक्टर, इन्जीनियर, तकनीकी विशेषज्ञ आदि जिन्हें भारत में काम नहीं मिलता, विदेशों में चले जाते हैं और जो विदेशों में शिक्षा ग्रहण कर यहाँ आते हैं, उन्हें यहाँ उपयुक्त कार्य नहीं मिल पाता। लाल फीताशाही एवं आन्तरिक राजनीति से पीड़ित होकर वे पुनः विदेश चले जाते हैं। शिक्षित बेकारों में उन्हीं लोगों को सम्मिलित किया जाता है जो मैट्रिक या उससे अधिक शिक्षा ग्रहण किये हुए हैं। शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ शिक्षित बेकारी में भी वृद्धि होती गयी, क्योंकि आधुनिक शिक्षा छात्रों को रोजी-रोटी के लिए तैयार नहीं करती। शिक्षित व्यक्ति केवल वेतनभोगी सेवाएँ ही पसन्द करते हैं। उच्च शिक्षा सस्ती होने के कारण जब तक नौकरी नहीं मिलती विद्यार्थी पढ़ते रहते हैं। भारत में अधिकांश शिक्षित बेरोजगार पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र में केन्द्रित हैं।

प्रश्न 3
बेकारी को दूर करने में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम की क्या भूमिका रही है ?
उत्तर
ग्रामीण गरीबी, बेकारी एवं अर्द्ध-बेकारी को समाप्त करने के लिए यह योजना प्रारम्भ की गयी है। इसका उद्देश्य ग्रामीण लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान कर गरीब वर्ग में आय एवं उपभोग का पुनर्वितरण करना है। यह योजना अक्टूबर, 1980 ई० से प्रारम्भ की गयी है। इसमें केन्द्र और राज्य सरकारें आधा-आधा खर्च उठाती हैं। इसके अन्तर्गत नये रोजगार के अवसर पैदा करना, समुदाय में स्थायी सम्पत्ति का निर्माण करना तथा ग्रामीण गरीबों के पोषाहार के स्तर को ऊँचा उठाना तथा प्रत्येक ग्रामीण भूमिहीन श्रमिक परिवार के कम-से-कम एक सदस्य को वर्ष में 100 दिन का रोजगार देने की गारण्टी देना आदि लक्ष्य रखे गये हैं। इसमें 50 प्रतिशत धन कृषि मजदूरों एवं सीमान्त कृषकों के लिए एवं 50 प्रतिशत ग्रामीण गरीबों पर खर्च किया जाता है।

इस योजना के अन्तर्गत काम करने वाले मजदूरों को न्यूनतम वेतन अधिनियम के आधार पर भुगतान किया जाता है तथा कुछ भुगतान नकद वे कुछ अनाज के रूप में किया जाता है। इससे ग्रामों में रोजगार के अवसर बढ़े, लोगों के पोपहार स्तर में सुधार हुआ तथा गाँवों में सड़कों, स्कूल एवं पंचायत के भवनों आदि का निर्माण हुआ। बाद में, इस कार्यक्रम को जवाहर रोजगार योजना में मिला दिया गया। वर्तमान में इस योजना को जवाहर ग्राम समृद्धि योजना के रूप में संचालित किया जा रहा है।

प्रश्न 4
निर्धनता और बेकारी दूर करने में आरक्षण नीति कहाँ तक सफल रही है? [2007, 13]
उत्तर
निर्धनता और बेकारी दूर करने में आरक्षण नीति आंशिक रूप से ही सफल हो पाई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि सरकार द्वारा निर्धनता और बेकारी दूर करने हेतु जो आरक्षण नीति बनाई गई है उसका लाभ वांछित लोगों तक नहीं पहुँच पाता है। अनेक अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि सभी अनुसूचित जातियाँ इन नीतियों का लाभ नहीं उठा पाई हैं। कुछ जातियों को इसका लाभ अधिक हुआ है तथा. इसी के परिणामस्वरूप आज निर्धनता एवं बेकारी की स्थिति से निकल कर अपनी सामाजिक-आर्थिक एवं शैक्षिक स्थिति में उल्लेखनीय सुधार कर पाए हैं। आरक्षण नीति की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि इसका लाभ उन लोगों तक पहुँचाने का प्रयास किया जाए जिन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है।

प्रश्न 5
बेकारी के चार प्रमुख लक्षण क्या हैं ? [2015]
उत्तर:
बेकारी के चार प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं।

  1.  इच्छा – किसी भी व्यक्ति को बेकार उस समय कहेंगे जब वह काम करने की इच्छा रखता हो और उसे काम न मिले। साधु, संन्यासी और भिखारी को हम बेकार नहीं कहेंगे, क्योंकि वे शारीरिक दृष्टि से योग्य होते हुए भी काम करना नहीं चाहते।।
  2. योग्यता – काम करने की इच्छा ही पर्याप्त नहीं है, वरन् व्यक्ति में काम करने की शारीरिक एवं मानसिक योग्यता भी होनी चाहिए। यदि कोई व्यक्ति बीमार, वृद्ध या पागल होने के कारण कार्य करने योग्य नहीं है तो उसे काम करने की इच्छा होते हुए भी बेकार नहीं कहेंगे।
  3. प्रयत्न – व्यक्ति को कार्य पाने के लिए प्रयत्न करना भी आवश्यक है। प्रयत्न के अभाव में योग्य एवं इच्छा रखने वाले व्यक्तियों को भी बेकार नहीं कह सकते।
  4.  योग्यता के अनुसार पूर्ण कार्य – व्यक्ति जिस पद एवं कार्य के योग्य है वह उसे मिलना चाहिए। उससे कम मिलने पर उसे हम आंशिक रोजगार प्राप्त व्यक्ति कहेंगे। जैसे-डॉक्टर को कम्पाउण्डर का या इन्जीनियर को ओवरसीयर का काम मिलता है तो यह आंशिक बेकारी की स्थिति है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
भारत में बेरोजगारी के दो कारणों का विश्लेषण कीजिए। [2015]
उत्तर:
भारत में बेरोजगारी के दो कारण निम्नलिखित हैं

  1. तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या – भारत में जनसंख्या 2.5% प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है, जब कि रोजगार के अवसरों में इस दर से वृद्धि नहीं हो रही है। जनसंख्या वृद्धि-दर के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष लगभग 50 लाख व्यक्तियों को रोजगार के अवसर सुलभ ” होने चाहिए। जनसंख्या की स्थिति विस्फोटक होने के कारण हमारे देश में बेरोजगारी विद्यमान है।
  2. दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली – हमारे देश की शिक्षा-पद्धति दोषपूर्ण है। यह शिक्षा रोजगारमूलक नहीं है, जिससे शिक्षित बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। प्रतिवर्ष लगभग 10 लाख शिक्षित व्यक्ति
    बेरोजगारी की पंक्ति में सम्मिलित हो जाते हैं।

प्रश्न 2:
स्वरोजगार योजना के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
यह योजना 15 अगस्त, 1983 को घोषित दूसरी योजना है, जो शहरी पढ़े-लिखे उन बेरोजगारों के लिए है जिनकी उम्र 18 से 35 के मध्य है तथा जो हाईस्कूल या इससे अधिक शिक्षित हैं। इस योजना के अन्तर्गत या शिक्षित बेरोजगारी दूर करने के ₹ 35 हजार तक किसी भी बेरोजगार शहरी पढ़े-लिखे व्यक्ति को बैंकों के माध्यम से दिये जा सकते हैं जो स्वयं कोई काम करना चाहते हैं। इसके लिए चुनाव जिला उद्योग कार्यालयों द्वारा किया जाता है। इस योजना का उद्देश्य 2 से 2.5 लाख बेरोजगार पढ़े-लिखे युवकों को प्रतिवर्ष रोजगार देना है।

प्रश्न 3
बेकारी दूर करने के चार उपाय लिखिए।
या
शिक्षित बेरोजगारी दूर करने के कोई दो उपाय बताइए। [2016]
उत्तर:
बेकारी दूर करने के चार उपाय निम्नलिखित हैं

  1.  सरकार द्वारा उचित योजनाएँ बनाकर बेकारी की समस्या का समाधान किया जा सकता है।
  2.  कुटीर एवं लघु उद्योगों का विकास किया जाए।
  3. जहाँ पर श्रम-शक्ति अधिक है, वहाँ पर मशीनों के प्रयोग को प्रमुखता न दी जाए।
  4. शिक्षा-प्रणाली में सुधार करके उसे व्यवसायोन्मुख बनाया जाए।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
बेकारी के तीन स्वरूपों के नाम बताइए।
उत्तर:
बेकारी के तीन स्वरूपों के नाम हैं-मौसमी, चक्रीय तथा आकस्मिक बेकारी।

प्रश्न 2
सर्दियों में बर्फ के कारखाने बन्द हो जाने के परिणामस्वरूप बेकार हुए मजदूर किस प्रकार की बेकारी का उदाहरण हैं ?
उत्तर:
मौसमी बेकारी।

प्रश्न 3
जवाहर ग्राम समृद्धि योजना का मुख्य लक्ष्य क्या है ?
उत्तर:
जवाहर ग्राम समृद्धि योजना का मुख्य लक्ष्य ग्रामीण क्षेत्रों में बेकार और अर्द्ध-बेकार लोगों को रोजगार उपलब्ध कराना है।

प्रश्न 4
किन दो कार्यक्रमों को मिलाकर जवाहर रोजगार योजना प्रारम्भ की गयी थी ?
उत्तर:
1 अप्रैल, 1989 से, ‘राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम तथा ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारण्टी कार्यक्रम’ को मिलाकर ‘जवाहर रोजगार योजना प्रारम्भ की गयी।

प्रश्न 5
‘भूमि सेना से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
उत्तर प्रदेश सरकार ने बेरोजगारी समाप्त करने के लिए भूमि सेना’ योजना प्रारम्भ की है। ‘भूमि सैनिक’ को जमीन पर वृक्ष लगाने के लिए सरकार द्वारा बैंक से ऋण दिया जाता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न ( 1 अंक)

प्रश्न 1
निम्नलिखित में से किस व्यक्ति को आप बेकार कहेंगे ?
(क) एक पागल व्यक्ति जो कहीं भी नौकरी नहीं करता
(ख) गाँव का एक अशिक्षित किसान जिसे प्रयत्न करने पर भी काम नहीं मिल रहा है।
(ग) धनी परिवार का एम० ए० पास पुत्र जिसकी किसी भी काम में कोई रुचि नहीं है।
(घ) एक संन्यासी।

प्रश्न 2
यदि कारखाने के दोषपूर्ण प्रबन्ध के कारण कारखाना बन्द हो जाने से हजारों श्रमिक बेरोजगार हो जाते हैं, तो ऐसी बेरोजगारी को कहा जाएगा
(क) आकस्मिक बेरोजगारी
(ख) प्रबन्धकीय बेरोजगारी
(ग) नगरीय बेरोजगारी
(घ) औद्योगिक बेरोजगारी

प्रश्न 3
जब कार्यालयों व कारखानों में आवश्यकता से अधिक व्यक्तियों द्वारा काम करने के कारण
उन्हें अपनी योग्यता से कम पारिश्रमिक मिलता है, तब इसे कहा जाता है
(क) औद्योगिक बेरोजगारी
(ख) अर्द्ध-बेरोजगारी
(ग) नगरीय बेरोजगारी
(घ) अनियोजित बेरोजगारी

प्रश्न 4
निम्नलिखित में से किस एक दशा को बेरोजगारी का सामाजिक परिणाम नहीं कहा जाएगा?
(क) परिवार में तनाव
(ख) राजनीतिक भ्रष्टाचार
(ग) मानसिक तनाव
(घ) नैतिक पतन की सम्भावना

प्रश्न 5
बेकारी का प्रत्यक्ष परिणाम क्या है ? [2013, 14]
(क) एक विवाह
(ख) नगरीकरण
(ग) संयुक्त परिवार
(घ) निर्धनता

प्रश्न 6
निम्नांकित में से कौन भारत में गरीबी का कारण नहीं है? [2011, 12]
(क) अशिक्षा
(ख) भाषाई संघर्ष
(ग) बेरोजगारी
(घ) प्राकृतिक विपत्तियाँ

प्रश्न 7
निम्नलिखित में से कौन-सी दशा भारत में शैक्षिक बेरोजगारी का कारण है ?
(क) दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली
(ख) तकनीकी शिक्षा-सुविधाओं की कमी
(ग) माँग और पूर्ति का असन्तुलन
(घ) शिक्षित युवकों में नौकरी के प्रति अधिक आकर्षण

प्रश्न 8
अत्यधिक निर्धन परिवार के बेरोजगार ग्रामीण युवकों को विभिन्न व्यवसायों का प्रशिक्षण देने तथा इसके लिए आर्थिक सहायता देने वाला सरकार का विशेष कार्यक्रम है
(क) सीमान्त कृषक रोजगार कार्यक्रम
(ख) रोजगार गारण्टी कार्यक्रम
(ग) भूमिहीन श्रमिक रोजगार कार्यक्रम
(घ) स्वरोजगार कार्यक्रम

प्रश्न 9
बँधुआ मजदूर प्रथा’ का कानून द्वारा उन्मूलन करने का प्रयास कब किया गया ?
(क) सन् 1976 में
(ख) सन् 1978 में
(ग) सन् 1986 में
(घ) सन् 1991 में

उत्तर:
1. (ख) गाँव का एक अशिक्षित किसान जिसे प्रयत्न करने पर भी काम नहीं मिल रहा है,
2. (घ) औद्योगिक बेरोजगारी,
3. (ख) अर्द्ध-बेरोजगारी,
4. (ख) राजनीतिक भ्रष्टाचार,
5. (घ) निर्धनता,
6. (ख) भाषाई संघर्ष,
7. (ख), तकनीकी शिक्षा-सुविधाओं की कमी,
8. (घ) स्वरोजगार कार्यक्रम,
9. (क) सन् 1976 में।

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 24 Social Welfare in India

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 24
Chapter Name Social Welfare in India (समाज में समाज-कल्याण)
Number of Questions Solved 37
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 24 Social Welfare in India (समाज में समाज-कल्याण)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
समाज-कल्याण से आप क्या समझते हैं? सिद्ध कीजिए कि समाज-कल्याण हेतु भारत में नियोजन आवश्यक है।
या
भारत में समाज-कल्याण कार्यक्रम पर एक लेख लिखिए। [2011, 13]
या
समाज कल्याण की कोई दो परिभाषाएँ लिखिए। [2010]
समाज कल्याण को परिभाषित कीजिए और भारत में श्रम कल्याण कार्यक्रम की विवेचना कीजिए। [2013]
उत्तर:
समाज-कल्याण का अर्थ एवं परिभाषाएँ
भारत में समाज-कल्याण की अवधारणा का विकास द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से हुआ है। समाज-कल्याण; समाज सेवा, सामाजिक न्याय और सामाजिक सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। इस प्रकार वे कार्य जो पिछड़े तथा निम्नतम वर्ग के लोगों को सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त करते हैं, समाज-कल्याण के रूप में जाने जाते हैं। विभिन्न विद्वानों ने समाज-कल्याण को निम्नवत् परिभाषित किया है

  • योजना आयोग के अनुसार, “समाज-कल्याण कार्यक्रम का तात्पर्य समाज के अनेक पीड़ित वर्गों के कल्याण और राष्ट्रीय विकास के आधारभूत पक्षों पर बल देने से है।”
  • फ्राइडलैण्डर के अनुसार, “समाज-कल्याण सामाजिक सेवाओं की वह संगठित व्यवस्था है, जिसका उद्देश्य व्यक्तियों और समूहों को जीवन व स्वास्थ्य का सन्तोषजनक स्तर प्रदान करना होता है।”
  • कैसिडी के अनुसार, “वे सभी संगठित कार्य एवं शक्ति जो मानव के उद्धार के लिए किये जाते हैं, समाज-कल्याण की श्रेणी में आते हैं।’
    वास्तव में, राज्य द्वारा निम्न वर्गों तथा असहाय व्यक्तियों के लिए सम्पन्न की गयी समस्त सेवाएँ ही समाज-कल्याण हैं।

क्या समाज-कल्याण के लिए नियोजन आवश्यक है?

भारत एक विशाल देश है, जिसकी आर्थिक एवं सामाजिक समस्याएँ भी विशाल हैं। यहाँ की लगभग 35.97 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यतीत करती है। यहाँ गरीबी, बेकारी, भिक्षावृत्ति, अस्पृश्यता, राष्ट्रीय एकीकरण का अभाव, भाषावाद, साम्प्रदायिकता, औद्योगिक तनाव, अस्वास्थ्य, अशिक्षा, अपराध, बाल-अपराध एवं आर्थिक पिछड़ेपन आदि समस्याएँ व्याप्त हैं। इन समस्याओं से मुक्ति पाने, आर्थिक विषमता को दूर करने, सामाजिक तनावों से छुटकारा पाने एवं सांस्कृतिक पिछड़ेपन पर काबू पाने, गाँवों का पुनर्निर्माण करने एवं समाज-कल्याण हेतु भारत में नियोजन आवश्यक है।

भारत में विभिन्न क्षेत्रों में नियोजन की आवश्यकता एवं महत्त्व को हम इस प्रकार प्रकट कर सकते हैं

1. कृषि क्षेत्र में भारत एक कृषि – प्रधान देश है, परन्तु फिर भी यह कृषि के क्षेत्र में बहुत पिछड़ा हुआ है, क्योंकि यहाँ का कृषक कृषि के लिए उन्नत औजारों, बीजों, खादों एवं वैज्ञानिक साधनों से परिचित नहीं है। कृषि के विकास एवं उपज बढ़ाने के लिए आवश्यक है। कि नियोजन का सहारा लिया जाए।

2. औद्योगिक क्षेत्र में – औद्योगिक क्षेत्र में भी भारत अन्य देशों की तुलना में पर्याप्त पिछड़ा हुआ है। पूँजी, साहस और वैज्ञानिक ज्ञान के अभाव के कारण भारत में पर्याप्त औद्योगिक विकास नहीं हो पाया है। दूसरी ओर औद्योगीकरण ने भारत में अनेक समस्याओं; जैसे औद्योगिक तनाव, वर्ग-संघर्ष, आर्थिक विषमता, गन्दी बस्तियाँ, बेकारी, निर्धनता, पर्यावरणप्रदूषण, औद्योगिक असुरक्षा, श्रमिकों, स्त्रियों व बच्चों का शोषण आदि को जन्म दिया है। इन समस्याओं का निवारण सामाजिक-आर्थिक नियोजन द्वारा ही सम्भव है।

3. स्वार्थ-समूहों पर नियन्त्रण – आधुनिक भारत में अनेक शक्तिशाली स्वार्थ-समूह विकसित हो गये हैं, जो केवल अपने ही हितों की पूर्ति में लगे हुए हैं। इन साधनसम्पन्न समूहों के साथ पिछड़े हुए वर्ग के लोग प्रतिस्पर्धा करने की स्थिति में नहीं हैं। इससे सामान्यजन एवं पिछड़े वर्गों का शोषण होता है। राज्य द्वारा संचालित नियोजन में शोषण की सम्भावना समाप्त हो जाती है और स्वार्थ-समूहों पर नियन्त्रण स्थापित हो जाता है।

4. ग्रामीण पुनर्निर्माण में उपयोगी – नियोजन द्वारा ग्रामों का विकास, उत्थान और पुनर्निर्माण कर ग्रामीणों के जीवन को समृद्ध और सुखी बनाया जा सकता है।

5. समाज-कल्याण में सहायक – नियोजन के द्वारा ही समाज कल्याण सम्भव है। यहाँ अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों से सम्बन्धित अनेक सामाजिक और आर्थिक समस्याएँ पायी जाती हैं। इनकी प्रगति और अभावों से मुक्ति नियोजन द्वारा ही सम्भव है। इनके अलावा यहाँ मातृत्व एवं शिशु-कल्याण, श्रम-कल्याण, शारीरिक और मानसिक दृष्टि से असमर्थ लोगों के कल्याण, परिवार नियोजन तथा शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने की नितान्त आवश्यकता है। इन सबके लिए सामाजिक नियोजन अत्यन्त आवश्यक है।

6. सामाजिक क्षेत्र में – भारत में जातिवाद और अस्पृश्यता से सम्बन्धित अनेक समस्याएँ पायी जाती हैं। यहाँ अपराध, बाल-अपराध, श्वेतवसन अपराध, आत्महत्या, वेश्यावृत्ति, भिक्षावृत्ति, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भाषावाद, जनसंख्या वृद्धि, बेकारी, निर्धनता, युवा असन्तोष, मद्यपान एवं भ्रष्टाचार की समस्या व्याप्त है। यहाँ वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विघटन की दर बढ़ती जा रही है। इन सभी समस्याओं को सुलझाने और समाज का पुनर्गठन करने के लिए सामाजिक नियोजन आवश्यक है।

7. राष्ट्रीय एकीकरण के लिए – भारत एक विभिन्नता युक्त समाज है। इसमें विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, प्रजातियों, जातियों एवं संस्कृतियों के लोग निवास करते हैं। उन्हें एकता के सूत्र में बाँधने और राष्ट्रीय एकीकरण के लिए सामाजिक नियोजन आवश्यक है।

8. श्रम कल्याण – हमारे देश में श्रमिकों की दशा अत्यन्त शोचनीय रही है। पूँजीपतियों ने अपने लाभ के लिए उनका अत्यधिक शोषण क्या है। उनसे काम अधिक लिया जाता था और वेतन कम दिया जाता था। भारत सरकार ने श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए निम्नलिखित अधिनियम पारित किए

  •  फैक्ट्री अधिनियम, 1948 (संशोधित 1987),
  • न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948,
  •  खाना अधिनियम, 1952,
  • चाय बागान श्रमिक अधिनियम, 1961,
  •  मोटर यातायात कर्मचारी अधिनियम, 1961,
  • बोनस भुगतान अधिनियम, 1965 तथा
  • वेतन भुगतान (संशोधन) अधिनियम, 2000

भारत में बाल श्रमिकों की समस्या सुलझाने हेतु प्रभावशाली नीति अपनाई गई है। बाल श्रम (निषेध और नियमन) अधिनियम, 1986′ में जोखिम भरे व्यवसायों में बच्चों के काम करने की मनाही के अलावा, कुछ अन्य क्षेत्रों में उनको काम देने से सम्बन्धित नियम बनाए गए हैं। 1987 ई० में बाल श्रमिकों के बारे में एक राष्ट्रीय नीति बनाई गई है जिसमें देश के आर्थिक विकास, सामाजिक एकजुटता तथा राजनीतिक स्थिरता के लिए बच्चों का शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक विकास सुनिश्चित करने हेतु अनेक कदम उठाए गए हैं।

महिला श्रमिकों के हितों की रक्षा हेतु भी अनेक उपाय अपनाए गए हैं। श्रम मन्त्रालय में महिला श्रम प्रकोष्ठ’ नाम का एक अलग सेल बनाया गया है। प्रसूति लाभ अधिनियम, 1961′ तथा ‘समान मजदूरी अधिनियम, 1976′ पारित किए गए हैं। बंधुआ मजदूरी प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 द्वारा बंधुआ मजदूरों के ऋणों को समाप्त कर दिया गया है तथा उनके पुनर्वास हेतु केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा आर्थिक सहायता दी जा रही है। असंगठित क्षेत्र में मजदूरों के हितों की रक्षा हेतु भी अनेक उपाय किए गए हैं। खानों में सुरक्षा हेतु ‘खान अधिनियम, 1952′ पारित किया गया है। औद्योगिक झगड़ों के निवारण हेतु औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947’ पारित किया गया है। 24 दिसम्बर, 1966 को ‘राष्ट्रीय श्रम आयोग गठित किया गया था जिसने संगठित एवं असंगठित क्षेत्रों में श्रम समस्याओं के समाधान हेतु जो महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए थे उन्हें लागू किया गया है।

उपर्युक्त क्षेत्रों के अतिरिक्त धार्मिक क्षेत्र में व्याप्त रूढ़िवादिता और अन्धविश्वासों को समाप्त करने, अपाहिजों व विकलांगों की रक्षा करने एवं अनाथों व भिखारियों को संरक्षण देने के लिए भी सामाजिक नियोजन आवश्यक है। इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने नियोजन का महत्त्व स्वीकार किया और 1951 ई० से देश में पंचवर्षीय योजनाएँ प्रारम्भ कीं। अब तक दस पंचवर्षीय योजनाएँ पूरी हो चुकी हैं तथा ग्यारहवीं योजना, 2007 ई० से प्रारम्भ हो चुकी है।

प्रश्न 2
भारत में विभिन्न समाज-कल्याण कार्यक्रमों का वर्णन कीजिए। [2007, 09, 11]
या
‘बाल-कल्याण के लिए भारत सरकार द्वारा किये गये कार्यों पर एक लघु निबन्ध लिखिए। भारत में महिला-कल्याण पर एक निबन्ध लिखिए। [2016]
या
स्वतन्त्र भारत में समाज-कल्याण के लिए किये गये विभिन्न उपायों की समीक्षा कीजिए। [2008]
उत्तर:
समाज-कल्याण जनसंख्या के दुर्बल एवं पीड़ित वर्ग के लाभ के लिए किया जाने वाला कार्य है। इसके अन्तर्गत स्त्रियों, बच्चों, अपंगों, मानसिक रूप से विकारयुक्त एवं सामाजिक रूप से पीड़ित व्यक्तियों के कल्याण के लिए की जाने वाली सेवाओं का विशेष रूप से समावेश होता है। भारत में विभिन्न समाज-कल्याण कार्यक्रमों का विवरण नीचे प्रस्तुत है

1. अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के कल्याण के कार्यक्रम – सरकार द्वारा राष्ट्रीय अनुसूचित जाति तथा जनजाति आयोग का गठन करके इन वर्गों को संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया है। सफाई कर्मचारियों के हितों और अधिकारों के संरक्षण तथा प्रोत्साहन के लिए राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग अधिनियम, 1993 के अन्तर्गत एक आयोग का गठन किया गया। छुआछूत की कुप्रथा को रोकने के लिए 1955 ई० में बने कानून के दायरे को बढ़ाया गया है। कानून में संशोधन करके इसे नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 का नाम दिया गया। इसी प्रकार अनुसूचित जाति तथा जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989, 30 जनवरी, 1990 से लागू किया गया है। इन वर्गों के परिवारों के बच्चों को पढ़ाई के लिए आर्थिक सहायता दी जाती है। मेडिकल और इन्जीनियरी डिग्री पाठ्यक्रमों के लिए अनुसूचित जाति/जनजाति के छात्रों को पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध कराने के लिए ‘बुक बैंक’ कार्यक्रम शुरू किया गया है।

इन वर्गों के छात्रों को परीक्षा-पूर्व प्रशिक्षण देने के कार्यक्रम पर छठी योजना से ही अमल शुरू हो गया है जिससे छात्र विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की प्रतिस्पर्धाओं; जैसे – सिविल सेवा, बैंकिंग भर्ती परीक्षाओं और रेलवे बोर्ड आदि की परीक्षाओं में सफलता प्राप्त कर सकें। इन बालकों के लिए छात्रावासों की योजना का मुख्य उद्देश्य मिडिल, हाईस्कूल और सेकण्ड्री स्कूलों, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों को होस्टल की सुविधा प्रदान कराना है।

2. विकलांगों के कल्याणार्थ कार्यक्रम – एक अनुमान के अनुसार भारतीय जनसंख्या का 4 से 5 प्रतिशत भाग किसी-न-किसी प्रकार की विकलांगता से ग्रस्त है। विकलांग व्यक्ति को समान अवसर, अधिकारों की रक्षा और पूर्ण सहभागिता अधिनियम, 1995 नामक व्यापक कानून को फरवरी, 1996 ई० में लागू किया गया। इस कानून के तहत केन्द्र और राज्य-स्तर पर विकलांगों के पुनर्वास को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रम; जैसे – शिक्षा, रोजगार और व्यावसायिक प्रशिक्षण, बाधारहित परिवेश का निर्माण, विकलांगों के लिए पुनर्वास सेवाओं का प्रावधान, संस्थागत सेवाएँ और बेरोजगार भत्ता तथा शिकायतों का निदान जैसे सहायक सामाजिक सुरक्षा के उपाय करना आदि बातों पर ध्यान दिया गया है। विकलांगों के लिए स्वैच्छिक कार्य योजना पर भी अमल किया जा रहा है। इस योजना के अन्तर्गत गैर-सरकारी संगठनों को विकलांग लोगों के कल्याण; जैसे – विशेष स्कूल खोलने व व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्र चलाने के लिए सहायता दी जाती है।

3. बाल-कल्याण कार्यक्रम – बालकों के कल्याण के लिए एवं बाल-श्रमिकों के शोषण को रोकने के लिए कानूनी एवं अन्य कल्याणकारी कार्य किये गये हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में दिसम्बर, 2000 ई० में 10 करोड़ बाल-श्रमिक थे। कारखाना अधिनियम, 1948 में यह प्रावधान है कि 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी भी कारखाने में ऐसे कार्य पर नहीं लगाया जा सकता, जिससे उनका स्वास्थ्य खराब हो सकता हो। भारतीय खान अधिनियम, 1952 के अनुसार 15 वर्ष से कम आयु के बच्चों को खानों में काम पर नहीं लगाया जा सकता। वर्ष 1975-76 में समन्वित बाल-विकास सेवाएँ (I.C.D.S.) प्रारम्भ की गयीं। इनके उद्देश्य हैं

  1. पूरक पोषाहार,
  2. टीके लगाना,
  3. स्वास्थ्य की जाँच,
  4. रोगी बच्चों को अस्पताल भेजना,
  5.  स्कूल पूर्व अनौपचारिक शिक्षा तथा
  6. माताओं को पोषाहार एवं स्वास्थ्य की समुचित शिक्षा देना।

इस योजना का लाभ 31 मार्च, 2001 तक लगभग 2.5 करोड़ बच्चों एवं 50 लाख माताओं ने उठाया है। सन् 1979 में भारत में ‘राष्ट्रीय बाल-कोष’ की स्थापना की गयी, जिसका उद्देश्य बाल-कल्याण सम्बन्धी साधनों में वृद्धि करना था। सन् 1979 से ही बाल-कल्याण के क्षेत्र में श्रेष्ठ कार्य करने वाले व्यक्ति को प्रशंसा – पत्र एवं 50,000 तथा संस्था को प्रशंसा – पत्र एवं ₹ 2 लाख के राष्ट्रीय पुरस्कार देने की व्यवस्था की गयी है।

सन् 1970-71 से 3 से 6 वर्ष की आयु के बालकों को पौष्टिक आहार देने के लिए पोषण कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। जनवरी, 1986 में स्कूल जाने योग्य से पूर्व के बच्चों एवं भावी माताओं के लिए गेहूँ पर आधारित सहायक पोषण कार्यक्रम प्रारम्भ किया। छोड़े हुए, उपेक्षित, अवांछित और अनाथ बच्चों को संरक्षण प्रदान करने के लिए संरक्षण एवं पोषण गृह स्थापित किये गये। गन्दी बस्तियों में रहने वाले श्रमिकों एवं पिछड़े वर्ग के बच्चों को आर्थिक सहायता देने के लिए अवकाश शिविर लगाये गये। बाल-कल्याण के क्षेत्र में लगे कार्यकर्ताओं के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की गयी। बाल-कल्याण के महत्त्व को ध्यान में रखकर बालकों के लिए राष्ट्रीय नीति तय की गयी। 1974 ई० में ‘राष्ट्रीय बाल बोर्ड’ को गठन किया गया। बालकों के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए ही सारे विश्व में 1979 का वर्ष ‘बाल-वर्ष’ के रूप में मनाया गया, जिसमें असहाय, श्रमिक और कमजोर वर्गों के बालकों के कल्याण के लिए अनेक कार्य किये गये।

4. महिला कल्याणार्थ कार्यक्रम – सन् 2011 की जनगणना के अनुसार देश की कुल जनसंख्या 121.02 करोड़ है, जिसमें से 58.65 करोड़ महिलाएँ हैं। समाज के इतने बड़े भाग की उपेक्षा कर भारत प्रगति नहीं कर सकता। महिलाओं के कल्याण हेतु देश में कई कार्य किये गये हैं। स्त्रियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार करने की दृष्टि से 1979 ई० में समान वेतन अधिनियम पारित किया गया। इसके द्वारा पुरुषों और महिलाओं के लिए समान वेतन की व्यवस्था की गयी। 1961 ई० में दहेज निरोधक अधिनियम पारित किया गया, जिसमें 1986 ई० में संशोधन कर उसे और अधिक कठोर बना दिया गया। 1955 ई० में हिन्दू विवाह अधिनियम पारित कर स्त्रियों को भी विवाह-विच्छेद सम्बन्धी सुविधा प्रदान की गयी। 1961 एवं 1976 ई० में मातृत्व हित लाभ अधिनियम बनाये गये। 15 से 45 वर्ष की आयु समूह की महिलाओं के लिए वर्ष 1975-76 से ही प्रकार्यात्मक साक्षरता का कार्यक्रम चल रहा है, जिसमें महिलाओं को स्वच्छता एवं स्वास्थ्य, भोजन तथा पोषक तत्त्वों, गृह-प्रबन्ध तथा शिशु देख-रेख, शिक्षा तथा व्यवसाय के सन्दर्भ में अनौपचारिक शिक्षा प्रदान की जाती है।

ग्रामीण महिलाओं के कल्याण के लिए गाँवों में महिला मण्डल बनाये गये हैं। नगरों में कार्यशील महिलाओं को आवास सुविधा देने के लिए हॉस्टल खोले गये हैं। वर्तमान में देश में 841 हॉस्टल हैं जिससे 59,500 कार्यशील महिलाएँ लाभान्वित हुई हैं। 1975 ई० में सारे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष मनाया गया। भारत में भी इस वर्ष महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक कल्याण हेतु अनेक कदम उठाये गये। 8 मार्च, 1992 को अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। महिलाओं को उत्तम रोजगार सेवाएँ उपलब्ध कराने की दृष्टि से वर्ष 1986-87 में महिला विकास निगम’ (WDC) स्थापित किये गये। जनवरी, 1992 ई० में एक राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन किया गया जिससे महिलाओं पर सामाजिक-आर्थिक रूप से हो रहे अन्याय एवं अत्याचारों से लड़ा जा सके। 2 अक्टूबर, 1993 से महिला समृद्धि योजना प्रारम्भ की गयी है। इसके अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएँ डाकघर में ₹300 जमा करा सकती हैं। एक वर्ष तक ये रुपये जमा रहने पर सरकार उन्हें ₹75 अपनी ओर से अंशदान देगी।

5. वृद्धावस्था कल्याणार्थ कार्यक्रम – 1981 ई० में 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की संख्या 4 करोड़ 45 लाख (6.2%) थी, जो 1991 ई० में 5 करोड़ 42 लाख (6.5%) तथा 2001 ई० में बढ़कर 7.6% हो गयी है। कल्याण मन्त्रालय ने वृद्धों की देखभाल, आवास, चिकित्सा आदि के लिए एक नयी योजना आरम्भ की है। संशोधित योजना को ‘वृद्ध व्यक्तियों के लिए समन्वित कार्यक्रम’ नाम दिया गया है। इस संशोधित योजना के अन्तर्गत परियोजना पर आने वाले खर्च का 90 प्रतिशत हिस्सा भारत सरकार वहन करेगी और शेष खर्च सम्बन्धित संगठन/संस्थान वहन करेगा। इस योजना के अन्तर्गत 331 वृद्धाश्रमों, 436 देखभाल के केन्द्रों
और 74 चल मेडिकेयर इकाइयों की स्थापना हेतु सहायता प्रदान की गयी है।

प्रश्न 3
नीति आयोग की संरचना का विवरण देते हुए इसके उद्देश्य एवं कार्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
नीति आयोग
योजना आयोग के स्थान पर बनाए गए नए संस्थान नीति आयोग के गठन की घोषणा केन्द्र सरकार ने 1 जनवरी, 2015 को की थी। प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता वाला यह आयोग केन्द्र के साथ-साथ राज्य सरकारों के लिए भी नीति निर्माण करने वाले संस्थान की भूमिका निभाएगा। यह थिंक टैंक की तर्ज पर काम करेगा। यह आयोग की एक संचालन परिषद् होगी। इसमें सभी राज्यों के मुख्यमन्त्री और संघ-शासित प्रदेशों के उपराज्यपाल सदस्य होंगे। परिषद् केन्द्र व राज्यों के साथ मिलकर सहकारी संघवाद का एक राष्ट्रीय एजेंडा तैयार करेगी।

  • संरचना इसकी संरचना निम्न प्रकार है
  • अध्यक्ष  – भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी
  • गवर्निंग काउन्सिल – राज्यों के मुख्यमन्त्री एवं केन्द्र-शासित प्रदेशों के उपराज्यपाल
  • उपाध्यक्ष – अरविन्द वनगढ़िया
  • पदेन सदस्य – राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, सुरेश प्रभु
  • विशेष आमन्त्रित – नितिन गडकरी, थावरचन्द गहलोत, स्मृति ईरानी
  • पूर्णकालिक सदस्य – विवेक देवराय, डॉ० वी०के० सारस्वत
  • मुख्य कार्यकारी अधिकारी – अमिताभ कान्त

नीति आयोग के उद्देश्य एवं कार्यनीति

आयोग के उद्देश्य एवं कार्य निम्नलिखित हैं

  1. सरकारी नीति निर्माण के लिए थिंक टैंक।
  2.  दूसरे देशों से अच्छी पद्धतियों का पता लगाना, देशी-विदेशी निकायों से उनके तरीकों का – उपयोग भारत में करने के लिए साझेदारी करना।
  3.  सहकारी संघवाद : राज्य सरकारों यहाँ तक कि गाँवों को भी योजना बनाने में शामिल करना।
  4.  सतत विकास : पर्यावरण की दृष्टि से जीरो डिफेक्ट-जीरो इफेक्ट उत्पादन मंत्र।
  5. शहरी विकास : शहर निवास योग्य रहें और सभी को आर्थिक अवसर मिल सकें, यह सुनिश्चित करना।
  6. सहयोगात्मक विकास : निजी क्षेत्र और नागरिकों की सहायता से।
  7.  समावेशी विकास या अंत्योदय। विकास का लाभ एससी, एसटी और महिलाएँ भी ले सकें,यह सुनिश्चित करना।
  8. गरिमा और आत्मसम्मान सुनिश्चित करने के लिए गरीबी उन्मूलन।
  9. कमजोर वर्ग के लिए और अधिक रोजगार पैदा करने के लिए 5 करोड़ लघु उद्यमों पर फोकस करना।
  10.  निगरानी और प्रतिपुष्टि। यदि आवश्यक हो तो बीच का रास्ता निकालना।
  11. जनसांख्यिकीय भिन्नता और सामाजिक पूँजी का लाभ लेने के लिए नीति बनाना।
  12.  क्षेत्रीय परिषदें राज्यों के एक समूह के लिए विशिष्ट मुद्दों को उठाएँगी। उदाहरण के लिए सूखा, वामपंथी अतिवाद, जनजाति कल्याण इत्यादि।
  13. भारत के विकास के लिए, एनआरआई की भू-आर्थिक और भू-राजनीतिक सुदृढ़ता से अधिकतम लाभ प्राप्त करना।
  14. सोशल मीडिया और सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी माध्यमों का प्रयोग कर पारदर्शिता, जवाबदेही और सुशासन सुनिश्चित करना।
  15. अन्तर विभागीय विवादों को हल करने में सहायक।।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
नियोजन कितने प्रकार का होता है ? आर्थिक नियोजन व सामाजिक नियोजन में अन्तर बताइए।
उत्तर:
नियोजन सामान्यत: दो प्रकार का होता है – प्रथम, आर्थिक नियोजन तथा द्वितीय, सामाजिक नियोजन। आर्थिक नियोजन के अन्तर्गत आर्थिक उद्देश्यों; जैसे – कृषि, उद्योग-धन्धे, खनिज-पदार्थ, व्यापार, यातायात, संचार, रोजगार तथा प्रति व्यक्ति अधिकतम आय आदि लक्ष्यों की पूर्ति पर ध्यान दिया जाता है। सामाजिक नियोजन के अन्तर्गत आने वाले उद्देश्यों में शराबबन्दी, मातृत्व एवं शिशुकल्याण, श्रम-कल्याण, अपाहिजों एवं विकलांगों का कल्याण, स्वास्थ्य एवं शिक्षा में सुधार, पिछड़ी जातियों एवं जनजातियों को कल्याण, सामाजिक कुरीतियों एवं समस्याओं का निवारण आदि प्रमुख हैं। सामाजिक नियोजन एक ऐसी व्यापक अवधारणा है, जिसमें आर्थिक नियोजन भी सम्मिलित है। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि सामाजिक नियोजन एक ऐसा प्रयत्न या पद्धति है जिसके द्वारा समाज को इस प्रकार संगठित किया जाता है कि सामाजिक न्याय, समानता, स्वतन्त्रता एवं बन्धुत्व में वृद्धि हो सके और साथ ही सामाजिक स्वास्थ्य को एक स्वचालित गति मिल सके।

प्रश्न 2
सरकारी नौकरियों, विधानमण्डलों एवं पंचायतों में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के प्रतिनिधित्व के विषय में चर्चा कीजिए।
उत्तर:
अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए लोकसभा, राज्यों की विधानसभाओं, पंचायतों एवं स्थानीय निकायों में स्थान सुरक्षित किये गये हैं। पहले यह व्यवस्था 20 वर्ष के लिए थी, जिसे 10-10 वर्षों के लिए चार बार बढ़ाकर जनवरी, 2010 ई० तक कर दिया गया है। इस समय लोकसभा के 543 स्थानों में 79 अनुसूचित जातियों के लिए तथा 42 अनुसूचित जनजातियों के लिए और राज्यों की विधानसभाओं के 4,041 स्थानों में से 547 स्थान अनुसूचित जातियों के लिए तथा 315 अनुसूचित जनजातियों के लिए सुरक्षित रखे गये हैं।

सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व – खुली प्रतियोगिता द्वारा अखिल भारतीय आधार पर की जाने वाली नियुक्तियों में 15 प्रतिशत तथा अन्य नियुक्तियों में 16.66 प्रतिशत स्थान. अनुसूचित जातियों, 7.5 प्रतिशत स्थान अनुसूचित जनजातियों तथा 27 प्रतिशत स्थान पिछड़े वर्गों के लिए सुरक्षित किये गये हैं एवं नौकरी के लिए योग्यता एवं आयु-सीमा में भी छूट दी गयी है।

प्रश्न 3
प्रौढ शिक्षा कार्यक्रम के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पहले तक देश में साक्षरता का प्रतिशत केवल 7 था। स्वतन्त्रता प्राप्त करने के पश्चात् प्रौढ़ लोगों को साक्षर बनाने की ओर विशेष ध्यान दिया गया। सबसे पहले सन् 1951 में दिल्ली के निकट 60 गाँवों में समाज-शिक्षा केन्द्र प्रारम्भ किये गये। इनमें रात्रि-कक्षाएँ चालु की गयीं। पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के पहले तक प्रौढ़ शिक्षा की सामाजिक चेतना की दृष्टि से विशेष महत्त्व होते हुए भी इसे ग्रामीणों तक नहीं पहुँचाया जा सका। छठी पंचवर्षीय योजना में सामाजिक नियोजन के एक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम के रूप में प्रौढ़ शिक्षा के महत्त्व को स्वीकार किया गया। सातवीं योजना में 15 से 35 वर्ष आयु समूह के 9 करोड़ और आठवीं योजना में 10.6 करोड़ लोगों को साक्षर बनाने का लक्ष्य रखा गया। जनवरी, 1991 ई० में शीघ्र और मूल्यांकन अध्ययनों में तकनीकी और शैक्षिक सहायता में वृद्धि करने के लिए राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा संस्थान की स्थापना की गयी।

प्रश्न 4
बारहवीं पंचवर्षीय योजना पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) – भारत की 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के निर्माण की दिशा का मार्ग अक्टूबर 2011 में उस समय प्रशस्त हो गया जब इस योजना के दृष्टि पत्र (दृष्टिकोण पत्र/दिशा पत्र/Approach Paper) को राष्ट्रीय विकास परिषद् (NDC) ने स्वीकृति प्रदान कर दी। 1 अप्रैल, 2012 से प्रारम्भ हो चुकी इस पंचवर्षीय योजना के दृष्टि पत्र को योजना आयोग की 20 अगस्त, 2011 की बैठक में स्वीकार कर लिया था तथा केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् ने इसका अनुमोदन 15 सितम्बर, 2011 की अपनी बैठक में किया था। प्रधानमन्त्री डॉ० मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में राष्ट्रीय विकास परिषद् की नई दिल्ली में 22 अक्टूबर, 2011 को सम्पन्न हुई इस 56वीं बैठक में दिशा पत्र को कुछेक शर्तों के साथ स्वीकार किया गया। राज्यों द्वारा सुझाए गए कुछ संशोधनों का समायोजन योजना दस्तावेज तैयार करते समय योजना आयोग द्वारा किया जायेगा।

12वीं पंचवर्षीय योजना में वार्षिक विकास दर का लक्ष्य 9 प्रतिशत है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने में राज्यों के सहयोग की अपेक्षा प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने की है। इसे लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कृषि, उद्योग व सेवाओं के क्षेत्र में क्रमशः 4.0 प्रतिशत, 9.6 प्रतिशत व 10.0 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि प्राप्त करने के लक्ष्य तय किये गये हैं। इनके लिए निवेश देर सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की 38.7 प्रतिशत प्राप्त करनी होगी। बचत की दर जीडीपी के 36.2 प्रतिशत प्राप्त करने का लक्ष्य दृष्टि पत्र में निर्धारित किया गया है। समाप्त हुई 11वीं पंचवर्षीय योजना में निवेश की दर 36.4 प्रतिशत तथा बचत की दर 34.0 प्रतिशत रहने का अनुमान था। 11वीं पंचवर्षीय योजना में वार्षिक विकास दर 8.2 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया था। 11वीं पंचवर्षीय योजना में थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index) में औसत वार्षिक वृद्धि लगभग 6.0 प्रतिशत अनुमानित था, जो 12वीं पंचवर्षीय योजना में 4.5 – 5.0 प्रतिशत तक सीमित रखने का लक्ष्य है। योजनावधि में केन्द्र सरकार का औसत वार्षिक राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.25 प्रतिशत तक सीमित रखने का लक्ष्य इस योजना के दृष्टि पत्र में निर्धारित किया गया है।

प्रश्न 5
नियोजन को परिभाषित कीजिए और संक्षिप्त रूप में अपना निष्कर्ष दीजिए।
उत्तर:
नियोजन की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
प्रो० हैरिस के अनुसार, “नियोजन मुख्य रूप से उपलब्ध साधनों के संगठन और उपयोग की ऐसी पद्धति है, जिसके द्वारा पूर्व निर्धारित उद्देश्यों के आधार पर अधिकतम लाभ प्राप्त किया जा सके।”
भारत सरकार के योजना आयोग के अनुसार, “नियोजन वास्तव में सुनिश्चित सामाजिक लक्ष्यों की दृष्टि से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए साधनों को संगठित करने एवं उपयोग में लाने की पद्धति है।”
इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि नियोजन में सर्वप्रथम हम अपने उद्देश्य या लक्ष्य तय करते हैं। और उन्हें प्राप्त करने के लिए उपलब्ध साधनों का अधिकाधिक उपयोग करते हैं। नियोजन एक ऐसा प्रयास है जिसमें सीमित साधनों का इस प्रकार विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग किया जाता है कि अधिकतम लाभ की प्राप्ति और इच्छित लक्ष्यों की पूर्ति हो सके।

प्रश्न 6:
भारत में समाज-कल्याण सम्बन्धी प्रमुख कार्यक्रमों को इंगित कीजिए।
या
भारत सरकार द्वारा किए गए दो समाज कल्याण कार्य लिखिए। [2011, 14, 16]
उत्तर:
भारत में समाज कल्याण सम्बन्धी प्रमुख कार्यक्रम निम्नलिखित हैं।

  1. बाल कल्याण और मातृत्व संरक्षण सम्बन्धी कार्यक्रम।
  2. ग्रामीण विकास सम्बन्धी कार्यक्रम।
  3.  समाज शिक्षा या प्रौढ़ शिक्षा का प्रसार।
  4. समाज कल्याण संस्थाओं की स्थापना।
  5. मद्य-निषेध।
  6. स्त्रियों के अनैतिक व्यापार पर रोक।
  7.  किशोर अपराधियों का सुधार।
  8. भिक्षावृत्ति का उन्तमूलन।
  9.  श्रम कल्याण।

प्रश्न 7
कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 के प्रावधानों के बारे में बताइए।
उत्तर:
कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 के अन्तर्गत उन कारखानों, होटलों, रेस्टोरेण्टों, दुकानों, सिनेमाघरों आदि में जहाँ 20 या इससे अधिक काम करने वाले श्रमिक हों, के बीमार पड़ने, प्रसूति, चोट लग जाने आदि की अवस्था में इलाज का प्रबन्ध करने, नकद भत्ता देने अथवा चोट से मृत्यु हो जाने पर आश्रितों को पेंशन देने आदि की व्यवस्था की गयी है। पूरे देश में स्त्री और पुरुष कर्मचारियों को समान वेतन देने के लिए फरवरी 1979 ई० में “समान पारिश्रमिक अधिनियम’ भी बनाया गया। बोनस अधिनियम के अनुसार बैंक, रेल एवं कारखाना श्रमिकों को 8.33 प्रतिशत बोनस देने का प्रावधान किया गया है। ठेका मजदूरी अधिनियम, 1970 कुछ संस्थाओं में ठेकी मजदूरी व्यवस्था का नियमन करता है। मजदूरी की अदायगी न होने पर मालिक को जिम्मेदार माना जाता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
समाज-कल्याण की कोई दो विशेषताएँ लिखिए। [2011, 15]
उत्तर:
समाज-कल्याण की दो विशेषताएँ निम्नवत् हैं

  1.  यह पिछड़े हुए वर्गों को अधिक-से-अधिक सुविधाएँ प्रदान करने में सहायता देती है।
  2.  यह वृद्ध लोगों के सहायतार्थ अनेक कार्यक्रम चलाता है।

प्रश्न 2
समाज-कल्याण की अवधारणा स्पष्ट कीजिए। [2009, 10, 11]
उत्तर:
आमतौर पर हम ‘सामाजिक कल्याण’ को ‘सामाजिक सुरक्षा’, ‘समाज सेवा’ आदि के नाम से भी सम्बोधित करते हैं। वास्तव में समाज-कल्याण के अन्तर्गत वे सभी प्रयत्न शमिल हैं। जिनका उद्देश्य सम्पूर्ण सामाजिक संरचना का कल्याण करना है तथा पिछड़े हुए वर्गों को अधिकसे-अधिक सुविधाएँ प्रदान करना है।

प्रश्न 3:
वृद्धावस्था कल्याण कार्यक्रम के बारे में बताइए।
उत्तर:
वृद्धावस्था कल्याणार्थ कार्यक्रम 1981 ई० में 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की संख्या 4 करोड़ 45 लाख (6.2%) थी जो 1991 ई० में 5 करोड़ 42 लाख (6.5%) तथा 2001 ई० में बढ़कर 7.6% हो गयी। कल्याण मन्त्रालय ने वृद्धों की देखभाल, आवास, चिकित्सा आदि के लिए एक नयी योजना आरम्भ की है। संशोधित योजना को ‘वृद्ध व्यक्तियों के लिए समन्वित कार्यक्रम नाम दिया गया है। इस संशोधित योजना के अन्तर्गत परियोजना पर आने वाले खर्च का 90 प्रतिशत हिस्सा भारत सरकार वहन करेगी और शेष खर्च सम्बन्धित संगठन/संस्थान वहन करेगा। इस योजना के अन्तर्गत 331 वृद्धाश्रमों, 436 दिन में देखभाल के केन्द्रों और 74 चल मेडिकेयर इकाइयों की स्थापना हेतु सहायता प्रदान की गयी है।

प्रश्न 4
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के चार उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के चार प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं

  1.  विकास दर का लक्ष्य 9 प्रतिशत प्रतिवर्ष प्राप्त करना।
  2. 5.8 करोड़ नये रोजगार के अवसर पैदा करना।
  3. गरीबों की संख्या में 10 प्रतिशत की कमी लाना।।
  4.  वर्ष 2010 तक प्रारम्भिक शिक्षा का शत-प्रतिशत विस्तार करना।

प्रश्न 5
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भारत में समाज-कल्याण एवं सामाजिक पुनर्निर्माण के लिए पंचवर्षीय योजनाएँ क्यों बनायी गयीं?
उत्तर:
पंचवर्षीय योजनाएँ – प्रत्येक राष्ट्र योजनाबद्ध प्रयत्नों के द्वारा एक निश्चित अवधि में कुछ सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करना, अपनी समस्याओं एवं अभावों से मुक्ति पाना चाहता है। ऐसा करने के लिए वह नियोजन या आयोजन का सहारा लेता है। जार शासन से मुक्त होने के बाद रूस ने अपने देश में सन् 1928 से पंचवर्षीय योजनाएँ आरम्भ कीं और उसे देश के सर्वांगीण विकास में आशातीत सफलता प्राप्त हुई। रूस से प्रेरित होकर भारत में भी पंचवर्षीय योजनाएँ बनायी गयीं।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
नियोजन से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
नियोजन वास्तव में सुनिश्चित सामाजिक लक्ष्यों की दृष्टि से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए साधनों को संगठित करने एवं उपयोग में लाने की पद्धति है।

प्रश्न 2
भारत में सामाजिक नियोजन का मुख्य उद्देश्य क्या है? [2013]
उत्तर:
भारत में सामाजिक नियोजन का मुख्य उद्देश्य देश का सर्वांगीण विकास करना है।

प्रश्न 3
केन्द्रीय समाज-कल्याण बोर्ड की स्थापना कब और किसकी अध्यक्षता में हुई थी ?
उत्तर:
केन्द्रीय समाज-कल्याण बोर्ड की स्थापना 1953 ई० में दुर्गाबाई देशमुख की अध्यक्षता में हुई थी।

प्रश्न 4
महिला विकास निगम की स्थापना कब और किस उद्देश्य से की गयी थी ?
उत्तर:
महिलाओं को उत्तम रोजगार सेवाएँ उपलब्ध कराने की दृष्टि से वर्ष 1986-87 में महिला विकास निगम की स्थापना की गयी थी।

प्रश्न 5
राष्ट्रीय विकलांग कोष की स्थापना किस उद्देश्य से और कब की गयी थी ?
उत्तर:
राष्ट्रीय विकलांग कोष की स्थापना विकलांगों के कल्याण के लिए वर्ष 1983-84 में की गयी थी।

प्रश्न 6
स्वतन्त्र भारत में कारखाना अधिनियम कब बना ?
उत्तर:
स्वतन्त्र भारत में कारखाना अधिनियम 1948 ई० में बना।

प्रश्न 7
राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन कब किया गया ?
उत्तर:
राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन जनवरी, 1992 ई० में किया गया।

प्रश्न 8
‘गरीबी हटाओ’ नारा कौन-सी पंचवर्षीय योजना में दिया गया था ? [2015]
उत्तर:
गरीबी हटाओ’ नारा पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में दिया गया था।

प्रश्न 9
बारहवीं पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल बताइए।
उत्तर:
2012 – 2017

प्रश्न 10
दसवीं पंचवर्षीय योजना कब प्रारम्भ हुई ?
उत्तर:
दसवीं पंचवर्षीय योजना सन् 2002 में प्रारम्भ हुई।

प्रश्न 11
योजना आयोग का नया नाम क्या है? [2016]
उत्तर:
नीति आयोग।

प्रश्न 12
नीति आयोग का अध्यक्ष कौन होता है ?
उत्तर:
नीति आयोग का अध्यक्ष भारत का प्रधानमन्त्री होता है।

प्रश्न 13
नीति आयोग का पूरा नाम क्या है?
उत्तर:
राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान।।

प्रश्न 14
नीति आयोग की स्थापना कब हुई?
उत्तर:
1 जनवरी, 2015 को नीति आयोग की स्थापना हुई।

प्रश्न 15
नीति आयोग की गवर्निग काउन्सिल के सदस्य कौन होते हैं?
उत्तर:
नीति आयोग की गवर्निग काउन्सिल के सदस्यों में राज्यों के मुख्यमन्त्री एवं केन्द्र-शासित प्रदेशों के राज्यपाल शामिल होते हैं।

प्रश्न 16
भारत सरकार द्वारा किए गए दो समाज कल्याण कार्यों को लिखिए। [2016]
उत्तर:
(1) समाज कल्याण संस्थाओं की स्थापना तथा
(2) प्रौढ़ शिक्षा का प्रसार।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
भारत में योजना आयोग की स्थापना किस वर्ष हुई थी? [2009, 13, 14, 15]
या
योजना आयोग की स्थापना कब हुई ?
(क) 1987 ई० में
(ख) 1989 ई० में
(ग) 1995 ई० में
(घ) 1950 ई० में

प्रश्न 2
पहली पंचवर्षीय योजना कब आरम्भ हुई थी?
(क) 1951 ई० में
(ख) 1952 ई० में
(ग) 1953 ई० में
(घ) 1954 ई० में

प्रश्न 3
योजना आयोग के प्रथम अध्यक्ष थे [2011, 14]
(क) इन्दिरा गांधी
(ख) मोतीलाल नेहरू
(ग) राजीव गांधी
(घ) जवाहरलाल नेहरू

प्रश्न 4
12वीं पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल है
(क) 2007-12,
(ख) 2009-14
(ग) 2012-17
(घ) 2017-2022

प्रश्न 5
योजना आयोग को बन्द करने की घोषणा कब की गई?
(क) 15 जुलाई, 2013 को
(ख) 15 अगस्त, 2014 को
(ग) 5 सितम्बर, 2015 को
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 6
योजना आयोग का नया नाम क्या है? [2016]
(क) भारतीय योजना आयोग
(ख) योजना आयोग
(ग) नीति आयोग
(घ) इनमें से कोई नहीं

उत्तर
1. (घ) 1950 ई० में,
2. (क) 1951 ई० में,
3. (घ) जवाहरलाल नेहरू,
4. (ग) 2012-17,
5. (ख) 15 अगस्त, 2014 को,
6. (ग) नीति आयोग।

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 25 Social Forestry

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 25 Social Forestry (सामाजिक वानिकी) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 25 Social Forestry (सामाजिक वानिकी).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 25
Chapter Name Social Forestry (सामाजिक वानिकी)
Number of Questions Solved 31
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 25 Social Forestry (सामाजिक वानिकी)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक वानिकी को स्पष्ट कीजिए। [2008, 10, 15]
या
सामाजिक वानिकी का अर्थ बताइए। सामाजिक वानिकी के उद्देश्य और सामाजिक महत्त्व की चर्चा कीजिए। सामाजिक वानिकी क्या है? सामाजिक वानिकी के उद्देश्य बताइए। [2015]
या
सामाजिक वानिकी के महत्त्व पर एक निबन्ध लिखिए। [2008, 09, 11, 13, 15, 16]
या
सामाजिक वानिकी के उद्देश्यों एवं महत्त्व (उपयोगिता) की विवेचना कीजिए। [2007, 09, 13, 16]
या
सामाजिक वानिकी से आप क्या समझते हैं ? वर्तमान समय में इसकी उपयोगिता का वर्णन कीजिए। [2013]
या
सामाजिक वानिकी के उद्देश्य एवं क्षेत्र पर प्रकाश डालिए। [2016]
या
सामाजिक वानिकी क्या है और इससे क्या लाभ हैं? [2016]
या
सामाजिक वानिकी के कार्यक्षेत्र की विवेचना कीजिए। [2007, 10, 13]
या
सामाजिक वानिकी से आप क्या समझते हैं? इसके क्षेत्र की विवेचना कीजिए। [2014]
या
सामाजिक वानिकी से आप क्या समझते हैं? [2015]
सामाजिक वानिकी की परिभाषा दीजिए। सामाजिक वानिकी के रूप एवं विशेषताओं का वर्णन कीजिए। सामाजिक वानिकी कार्यक्रम को सफल बनाने हेतु सुझाव दीजिए।
उत्तर:
सामाजिक वानिकी का अर्थ एवं परिभाषाएँ
सामाजिक वानिकी एक नवीन अवधारणा है, जो सामुदायिक आवश्यकताओं की पूर्ति और लाभ के लिए पेड़ लगाने, उनका विकास करने तथा वनों के संरक्षण पर बल देती है। यह वनों के विकास के लिए जनता के सहयोग पर बल देती है। भारत में 747.2 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को वन-क्षेत्र घोषित किया गया। इसमें से 397.8 लाख हेक्टेयर को आरक्षित और 216.5 लाख हेक्टेयर को सुरक्षित के रूप में वर्गीकृत किया गया है। पहाड़ों में अधिकतम वन-क्षेत्र 60% और मैदानों में 20% हैं। पिछले कुछ वर्षों में वनों के क्षेत्र में होने वाली कमी को देखते हुए सामाजिक वानिकी की अवधारणा को विकसित किया गया है।
विभिन्न विद्वानों ने सामाजिक वानिकी को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है

डॉ० राणा के अनुसार, “समाज के द्वारा, समाज के लिए, समाज की ही भूमि पर, समाज के जीवन-स्तर को सुधारने के सामाजिक उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किये जाने वाले वृक्षारोपण को सामाजिक वानिकी कहते हैं।’
“वनों को लगाने, संरक्षण करने तथा उत्पादन में समाज की भागीदारी सुनिश्चित करने का कार्यक्रम सामाजिक वानिकी है।”
सामाजिक वानिकी समाज की भागीदारी का एक सुनिश्चित कार्यक्रम है। इसके माध्यम से राष्ट्र में वन-क्षेत्रों का विकास कर उन्हें समाज के लिए उपयोगी बनाना है। स्वार्थी मानव ने अपने हित के लिए वृक्षों को अन्धाधुन्ध काटकर भावी पीढ़ी के लिए अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर दीं। देश में वर्तमान आवश्यकताओं को देखते हुए वन-क्षेत्र अत्यन्त कम हैं। सरकार राष्ट्र में वन-क्षेत्रों का विस्तार करने के लिए जिन कार्यक्रमों को संचालित कर रही है उनमें से सामाजिक वानिकी महत्त्वपूर्ण है।

सामाजिक वानिकी के रूप (कार्यक्षेत्र)

सामाजिक वानिकी के निम्नलिखित रूप पाये जाते हैं

1. कृषि वानिकी – कृषि वानिकी के अन्तर्गत ग्रामीण आवासों के भीतर अहातों में वृक्ष लगाना है। ग्रामों में खाली पड़ी सार्वजनिक भूमि पर वृक्षारोपण करना, पवन के वेग पर नियन्त्रण करने के लिए हरित पट्टी तैयार करना तथा पेड़ों की रक्षा-पंक्तियाँ बनाना इस वानिकी के मुख्य लक्ष्य हैं। कृषि वानिकी के माध्यम से कृषकों को ईंधन और सामान्य उपयोग की लकड़ियाँ उपलब्ध होती हैं। कृषि वानिकी कृषि के सहायक के रूप में विकसित की जाती है।

2. प्रसार वानिकी – प्रसार वानिकी के अन्तर्गत नहरों के किनारे, रेलवे-लाइनों के किनारे तथा सड़कों के दोनों छोरों पर स्थित वृक्ष आते हैं। इन क्षेत्रों में वृक्षारोपण करके उनका संरक्षण करना प्रसार वानिकी का लक्ष्य है। प्रसार वानिकी झीलों तथा खेतों की मेड़ों पर वृक्ष लगाने के कार्यक्रम प्रसारित करती है। इसका लक्ष्य ग्रामीण क्षेत्रों में वन-क्षेत्रों का विस्तार करना है।

3. नगर वानिकी – नगरीय वानिकी नगर क्षेत्र में, निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों में वृक्षारोपण से जुड़ी है। इसके अन्तर्गत नगरों में हरित पट्टी व सुरक्षा पट्टी विकसित करके नगरों में होने वाले प्रदूषण पर नियन्त्रण लगा है।

सामाजिक वानिकी की विशेषताएँ
सामाजिक वानिकी की परिभाषा एवं रूपों के विवेचन के आधार पर सामाजिक वानिकी में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं

  1. सामाजिक वानिकी में लाभार्थियों को कार्यक्रम के प्रारम्भिक स्तर पर ही भागीदार बनाया जाती
  2. इस कार्यक्रम के द्वारा भागीदारों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है।
  3. सामाजिक वानिकी में सामुदायिक एवं सार्वजनिक भूमि का उपयोग वृक्षारोपण के लिए कियो जाता है।
  4. सामाजिक वानिकी के अन्तर्गत लकड़ी, चारा, फल, रेशा, ईंधन तथा फर्नीचर की लकड़ी प्राप्त की जाती है।
  5. सामाजिक वानिकी के अन्तर्गत विकसित किये गये वन-क्षेत्रों पर सरकार का नियन्त्रण रहता है।
  6. सामाजिक वानिकी के पोषण हेतु व्यय करने के लिए वित्तीय सहायता पंचायत, सरकारी अंशदान अथवी स्वेच्छा से किये गये योगदान द्वारा उपलब्ध होती है।
  7. रेलवे-लाइनों, सड़कों और नहरों के किनारों पर वृक्ष लगाना इस कार्यक्रम का प्रमुख अंग है।
  8. तालाबों तथा जलाशयों के चारों ओर लताएँ और झुण्डों के रूप में वृक्ष लगाये जाते हैं।
  9. सामुदायिक क्षेत्रों तथा सार्वजनिक भूमि पर वन लगाकर वन-क्षेत्र विकसित किये जाते हैं।
  10. नष्ट हो चुके वनों के स्थान पर नये वृक्ष लगाकर वन-क्षेत्र विकसित किये जाते हैं।
  11. खेतों की मेड़ों पर फसलें उगाने के साथ-साथ वृक्ष भी लगाये जाते हैं।
  12. सामाजिक वानिकी ग्रामीण लोगों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति का माध्यम है।
  13. सामाजिक वानिकी ग्रामीणों की वनों पर निर्भरता में वृद्धि करती है।

सामाजिक वानिकी के उद्देश्य
ग्रामीण क्षेत्रों में वनों का विस्तार करने के लिए सामाजिक वानिकी को क्रियान्वित किया गया। सामाजिक वानिकी के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित रखे गये

  1. ग्रामवासियों में वृक्षों के प्रति लगाव उत्पन्न करना तथा वृक्षारोपण में उनकी सहभागिता सुनिश्चित करना।
  2.  गाँव के लोगों में एक व्यक्ति एक वृक्ष’ का लक्ष्य बनाने पर बल देना।
  3.  ग्रामवासियों तथा जनजातियों को वृक्षों की उपयोगिता से परिचित कराना।
  4.  वनों के विकास के माध्यम से ग्रामीण व्यक्ति की आर्थिक स्थिति में सुधार लाना।
  5.  वनों का वर्गीकरण उनकी उपयोगिता के आधार पर करना।
  6.  वन संरक्षण पर अधिक बल देना।
  7.  ग्रामीण क्षेत्रों में नये वन-क्षेत्रों के विकास पर बल देना।
  8.  सार्वजनिक हित और पर्यावरण संरक्षण के लिए सहयोग जुटाना।
  9.  ग्रामीण क्षेत्रों में लकड़ी की उपलब्धता बढ़ाना।।
  10.  वनों की अन्धाधुन्ध कटाई पर प्रभावी रोक लगाना।
  11. देश के 33% क्षेत्र पर वनों का विस्तार कराना।
  12.  पवन के झकोरों, वर्षा तथा बाढ़ से भू-क्षरण को रोकना।
  13.  ग्रामीण क्षेत्रों में ईंधन की उपलब्धता बढ़ाकर गोबर को खाद के रूप में प्रयुक्त कराना।
  14. स्थानीय जनसंख्या को आँधी, तूफान तथा वर्षा की तीव्रता से सुरक्षित रखना।
  15.  ग्रामीण क्षेत्रों में वनों पर आधारित उद्योग लगाकर रोजगार के अवसर बढ़ाना।
  16. ग्रामीण जनता के वृक्षारोपण कौशल का अधिकतम उपयोग करना।
  17. लाभार्जन के लिए उपयोगी वृक्षों के लगाने पर बल देना।।
  18.  समुदाय के लिए वृक्षारोपण करके वन लगाने के लिए व्यर्थ पड़ी भूमि का सदुपयोग करना।
  19. वन-क्षेत्रों में ग्रामीण जनता की भागीदारी सुनिश्चित करना।
  20.  रेलवे-लाइनों, सड़कों, नहर की पटरियों, नदियों के तटों तथा जलाशयों के चारों ओर वन क्षेत्रों का विकास करना।।
  21.  ग्रामीणों को लकड़ी के साथ-साथ पशुओं के लिए चारा भी उपलब्ध कराना।
  22.  बहु-उद्देशीय नदी-घाटी परियोजनाओं के क्षेत्रों में मिट्टी एवं जल-संरक्षण के प्रभावी उपाय करना।।

सामाजिक वानिकी का महत्त्व

वन राष्ट्र की अमूल्य निधि हैं। सामाजिक वानिकी का उद्देश्य वनों का संरक्षण करके इनमें वृद्धि करना तथा इन्हें समुदाय की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिक उपयोगी बनाना है। सामाजिक वानिकी के महत्त्व को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है

(अ) प्रत्यक्ष लाभ

  1. उपयोगी लकड़ी की प्राप्ति – वनों से फर्नीचर, रेल के डिब्बे, जहाज, माचिस आदि बनाने के लिए उपयोगी लकड़ी प्राप्त होती है।
  2. उद्योगों के लिए कच्चे माल – वनों से कागज, दियासलाई, रेशम, चमड़ा, तेल तथा फर्नीचर आदि उद्योगों के लिए कच्चे माल उपलब्ध होते हैं।
  3. रोजगार – वनों से लाखों लोगों को रोजगार मिलता है तथा ये 7.8 करोड़ लोगों को आजीविका प्रदान करते हैं।
  4.  सरकार को आय – सरकार को वनों से 400 करोड़ का राजस्व प्राप्त होता है।
  5.  पशुओं को चारा – वन चारा देकर पशुओं का पालन-पोषण करते हैं।
  6. विदेशी मुद्रा की प्राप्ति – वनों से प्राप्त उपजों का निर्यात करने से भारत को ₹ 50 करोड़ की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है।
  7. औषधियाँ – वनों से उपयोगी जड़ी-बूटियाँ व औषधियाँ प्राप्त होती हैं।

(ब) अप्रत्यक्ष लाभ।

  1. जलवायु पर नियन्त्रण – वन देश की जलवायु को समशीतोष्ण बनाये रखते हैं तथा भाप भरी हवाओं को आकर्षित कर वर्षा कराने में सहायक होते हैं।
  2. भूमि के कटाव पर रोक – वन वर्षा की गति को मन्द करके भूमि के कटाव को रोकते हैं।
  3. बाढों पर नियन्त्रण – वन वर्षा के जल-प्रवाह की गति को मन्द करते हैं तथा जल को स्पंज की तरह सोखकर बाढ़ों पर नियन्त्रण करते हैं।
  4. मरुस्थल-प्रसार पर रोक – वन मिट्टी के कणों को अपनी जड़ों से बाँधे रहते हैं तथा मरुस्थल के प्रसार को रोकते हैं।
  5. पर्यावरण सन्तुलन – वन कार्बन डाई-ऑक्साइड को ऑक्सीजन में बदलकर वायु-प्रदूषण रोकते हैं तथा पर्यावरण सन्तुलन बनाये रखते हैं।
  6. भूमिगत जल के स्तर में वृद्धि – वन अपनी जड़ों से जल सोखकर भूमिगत जल के स्तर को ऊँचा कर देते हैं।
  7. अन्य लाभ – फल-फूलों की प्राप्ति, आखेट, सौन्दर्य में वृद्धि और भूमि को उर्वरता प्रदान करके वन अन्य लाभ भी प्रदान करते हैं।

(स) आर्थिक लाभ
सामाजिक वानिकी से निम्नलिखित आर्थिक लाभ प्राप्त होते हैं

  1. ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार – सामाजिक वानिकी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार लाने को सर्वोत्तम माध्यम है। यह ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर उत्पन्न करके, ईंधन और चारे की आपूर्ति करके ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धनता की रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले लोगों की दशा सुधारने में महत्त्वपूर्ण योग देती है।
  2. ग्रामीण क्षेत्रों के औद्योगिक विकास में सहायक – सामाजिक वानिकी से प्राप्त लकड़ी, फल तथा अन्य उत्पादों पर अनेक उद्योग-धन्धे विकसित कर ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगिक विकास किया जा रहा है। इनसे कागज, परती लकड़ी, दियासलाई तथा फर्नीचर बनाने के उद्योग संचालित किये जा सकते हैं। औद्योगिक विकास के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में समृद्धि और विकास की लहर दौड़ जाएगी।
  3. प्रदूषण की समस्या का निराकरण – वर्तमान में प्रदूषण एक गम्भीर संकट बनकर उभर रहा है। इसके कारण बीमारियाँ, पर्यावरण की उपयोगिता का ह्रास तथा मानसिक तनावे जैसी समस्याएँ जन्म ले रही हैं। वृक्ष प्रदूषण की समस्या को हल करके प्रदूषण पर नियन्त्रण पाने में सक्षम हैं।
  4. वन-संरक्षण पर बल – सामाजिक वानिकी का लक्ष्य वन-संरक्षण है। यह कार्यक्रम राष्ट्रीय निधि को संरक्षित कर मानव-मात्र की महती सेवा करता है। वनों का संरक्षण करके भावी पीढ़ी को अनेक प्राकृतिक आपदाओं से बचाया जा सकता है। मानवता के संरक्षण के लिए वनों का संरक्षण नितान्त आवश्यक है।

सामाजिक वानिकी को सफल बनाने के लिए सुझाव
सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों को सफल बनाने की नितान्त आवश्यकता है। इनकी सफलता पर ग्रामों का सर्वांगीण विकास तथा राष्ट्र की आर्थिक प्रगति निर्भर है। सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों की सफलता के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं

  1.  सामाजिक वानिकी के लक्ष्य भली प्रकार सोच-समझ कर तय किये जाएँ।
  2. वृक्षारोपण के लक्ष्य निर्धारित करके उनके क्रियान्वयन के उपाय किये जाएँ।
  3.  वन-महोत्सव के लक्ष्य तथा उपयोगिता से जनसामान्य को परिचित कराया जाए, जिससे लोग सामाजिक वानिकी में सक्रिय भाग ले सकें।
  4. इस कार्यक्रम को लागू करने के लिए परिश्रमी, योग्य और निष्ठावान कर्मचारी भेजे जाएँ।
  5.  उत्तम कार्यों के लिए कर्मचारियों को पुरस्कृत किया जाए।
  6. ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि वानिकी के विस्तार पर अधिक ध्यान दिया जाए।
  7. ग्रामीण क्षेत्रों में जल्दी विकसित होने वाले वृक्ष लगाये जाएँ।
  8. सामाजिक वानिकी के अन्तर्गत ऐसे वृक्ष लगाने पर बल दिया जाए, जिनसे ईंधन के साथ फल, फूल तथा चारा भी प्राप्त होता रहे।
  9. वृक्ष काटने के स्थान पर लगाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जाए।
  10.  सड़कों, नहरों तथा रेलवे लाइनों के दोनों ओर वृक्षारोपण किया जाए।
  11. “एक व्यक्ति एक पेड़ के आदर्श को क्रियान्वित कराया जाए।
  12. वृक्षों के संरक्षण पर ध्यान दिया जाए। हरे वृक्षों के कटान को रोकने के लिए कड़े कानून बनाये जाएँ।।
  13. वृक्षों के विनाश को रोकने के लिए कानूनों का दृढ़ता से पालन कराया जाए।
  14. पर्वतीय क्षेत्रों में वृक्ष काटने पर कठोर प्रतिबन्ध लगाये जाएँ।
  15. पशुओं को वनों में चराने पर रोक लगा दी जाए।
  16. सामाजिक वानिकी के कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए कुशल और अनुभवी कार्यकर्ता तैयार किये जाएँ।
  17.  वृक्षों के प्रति जनसामान्य का लगाव पैदा किया जाए।
  18. सरकार द्वारा वृक्षों की पौध का मुफ्त वितरण किया जाए।
  19. ग्रामीण क्षेत्रों में पौधघर विकसित किये जाएँ।
  20. सामाजिक वानिकी कार्यक्रम को युद्ध स्तर पर लागू कराने के लिए इसे राष्ट्रीय कार्यक्रम का रूप दिया जाए।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक वानिकी का महत्त्व बताइए। [2016]
उत्तर:
सामाजिक वानिकी का महत्त्व
सामाजिक वानिकी का महत्त्व निम्नलिखित है

  1. सामाजिक वानिकी द्वारा वनों का विकास एवं संरक्षण किया जाता है, जिससे सरकारी आय में वृद्धि होती है।
  2. वन सम्पदा से कई वस्तुएँ; जैसे – बाँस, कागज, लुग्दी, गत्ता, लकड़ी, तारपीन, वार्निश व रंग, रबड़ के लिए गाढ़ा तरल पदार्थ, कत्था, चन्दन, केवड़ा आदि प्राप्त होती हैं।
  3. सामाजिक वानिकी द्वारा वनों का विकास किया जाता है। इसे ‘पुनर्वनीकरण’ कहा जाता है।वनों से मूल्यवान लकड़ी प्राप्त होती है।
  4.  सामाजिक वानिकी प्रदूषण नियन्त्रण में सहायक है। इससे जलवायु सन्तुलन बना रहता है। वनों का विकास जलवायु पर अनुकूल प्रभाव डालता है।
  5. वनों पर अनेक लघु उद्योग आधारित होते हैं; जैसे-शहद, रेशम, मोम, कत्था, बेंत इत्यादि इस तरह से सामाजिक वानिकी व्यावसायिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है।
  6. वनों में बहने वाले पानी को नियन्त्रित करने की अद्भुत क्षमता होती है।
  7. सीमाओं पर वनों का विकास राष्ट्रीय सुरक्षा में सहायक होता है।
  8. सामाजिक वानिकी का एक अन्य लाभ कृषि उत्पादन में वृद्धि करना है। वृक्षों के वाष्पोत्सर्जन की क्रिया, बादल निर्माण एवं वर्षा कराने में सहायक है।
  9. सामाजिक वानिकी वनों के विकास पर बल देती है, जिससे भूमि कटाव तथा भूस्खलनों पर नियन्त्रण होता है।
  10.  सामाजिक वानिकी मनोरंजन का भी प्रमुख साधन है। नगरीय क्षेत्रों में सामाजिक वानिकी के अन्तर्गत ऐसे मनोहारी पर्यटन स्थलों का विकास किया जाता है, जो अवकाश के समय नगरवासियों को तनाव मुक्त वातावरण प्रदान करते हैं।
  11. सामाजिक वानिकी औद्योगिक विकास में भी सहायक है, क्योंकि अनेक उद्योगों के लिए कच्चा माल वनों से ही उपलब्ध होता है।
  12. वनों पर आधारित उद्योग-धन्धों द्वारा ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार होता है।
  13. सामाजिक वानिकी द्वारा वन उत्पादों एवं कार्यों में रोजगार उत्पन्न होता है।

प्रश्न 2
सामाजिक वानिकी की वनों के रक्षण में क्या भूमिका है ?
उत्तर:
सामाजिक वानिकी के द्वारा वनों का रक्षण किया जाता है। वर्तमान में वन काफी उजाड़े गये हैं और वृक्षों की अत्यधिक कटाई ने वनों से प्राप्त होने वाले लाभों को कम कर दिया है। वर्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, बंजर भूमि एवं रेगिस्तान का विस्तार हुआ है। अत: वनों के संरक्षण की दृष्टि से भी सामाजिक वानिकी महत्त्वपूर्ण है।

सामाजिक वानिकी के कुछ अन्य लाभ इस प्रकार हैं

  1. वनों से ईंधन प्राप्त होता है।
  2. पशुओं के लिए चारा प्राप्त होता है।
  3. वन जलवायु में सन्तुलन बनाये रखते हैं तथा जलवृष्टि में सहायक होते हैं।
  4. पेड़ों की पत्तियाँ सड़कर मिट्टी को छूमस प्रदान करती हैं जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाती है और उपज में वृद्धि करती है।
  5. वन प्राकृतिक छटा में वृद्धि करते हैं।
  6.  वनों से भूमि का जल-स्तर ऊँचा उठ जाता है जिससे कुएँ खोदकर पानी निकालने में सुविधा रहती है तथा सिंचाई की सुविधाओं में वृद्धि होती है।
  7. वनों में कृषि की पूरक वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं।

प्रश्न 3
सामाजिक वानिकी भू-क्षरण एवं बाढ़ नियन्त्रण में कैसे सहायक है ?
उत्तर:
वर्तमान समय में देश के वनों का क्षेत्र कम होता जा रहा है व पेड़ों को निर्दयता से काटा जा रहा है। इसका प्रभाव यह पड़ा है कि मिट्टी का कटाव बढ़ा है और बाढ़ों की संख्या एवं मात्रा में वृद्धि हुई है। सामाजिक वानिकी के अन्तर्गत हवा के बहाव को रोकने के लिए पेड़ों की कतारों का विकास किया जाएगा, नदियों के दोनों ओर पेड़ों के झुण्डों का विकास किया जाएगा और उन क्षेत्रों में पेड़ उगाये जाएँगे जहाँ मिट्टी का कटाव अधिक होता है। इसके परिणामस्वरूप भूमि का कटाव भी रुकेगा और बाढ़ पर नियन्त्रण भी हो सकेगा। वृक्ष आँधी तथा मरुस्थल के विस्तार को भी रोकने में सहायक होंगे। चूंकि वन वायु की गति को रोकते हैं। अत: भयानक आँधी से होने वाली क्षति को भी कम किया जा सकेगा।

प्रश्न 4
सामाजिक वानिकी प्रदूषण पर नियन्त्रण में कैसे प्रभावकारी है ?
उत्तर:
सामाजिक वानिकी प्रदूषण को रोकने की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। पेड़ ऑक्सीजन प्रदान करते हैं, जो जीवों के लिए प्राण वायु है तथा बदले में पर्यावरण की कार्बन डाइऑक्साइड गैस ग्रहण करते हैं। इस प्रकार से पर्यावरण में दोनों प्रकार की गैसों का सन्तुलन बनाये रखते हैं। वे मिलों, फैक्ट्रियों, भट्टियों एवं चूल्हों से निकलने वाले धुएँ तथा मिट्टी के कणों को भी फैलने से रोकते हैं। वृक्ष घनी छाया देते हैं तथा वातावरण की अधिक गर्मी और ठण्ड को भी स्वयं आत्मसात कर तापक्रम में सन्तुलन बनाये रखते हैं। पेड़-पौधे ध्वनि-प्रदूषण को भी रोकने का कार्य करते हैं। पेड़ों पर आश्रय लेने वाले पक्षी कई हानिप्रद कीड़े-मकोड़ों को भी खा जाते हैं जो मानव के लिए। हानिकारक होते हैं। पेड़-पौधे तालाबों, नदियों एवं जलाशयों में उत्पन्न जल-प्रदूषण को भी रोकते हैं तथा जल की स्वच्छता बनाये रखने में सहायक होते हैं। इस प्रकार सामाजिक वानिकी ध्वनि, जल, वायु और जीवों से उत्पन्न प्रदूषण को रोकने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।

प्रश्न 5
सामाजिक वानिकी के आर्थिक लाभ बताइए।
उत्तर:
सामाजिक वानिकी का प्रमुख उद्देश्य ग्रामीण गरीबों की आर्थिक स्थिति को उन्नत करना है। वर्तमान में करीब 26.10 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इन्हें रोजगार के साधन उपलब्ध कराने में सामाजिक वानिकी सहायक सिद्ध होगी। वे पेड़ के पत्तों से बीड़ी एवं पत्तले बनाने, बीजों से तेल निकालने, लकड़ी से फर्नीचर व खिलौने बनाने तथा बाँस से रस्सी, चटाई व टोकरी बनाने का कार्य कर सकते हैं। वनों में ग्रामीणों को ओषधियाँ व फल-फूल प्राप्त होंगे जिन्हें बेचकर वे अपना जीवन-यापन कर सकेंगे। वनों से उन्हें जलाने के लिए ईंधन प्राप्त होगा। यदि ग्रामीण लोग अपने घर के अहाते, खेत एवं गाँव के पास पेड़ लगाएँ और गाँव की परती एवं बंजर भूमि पर पेड़ों के झुरमुट विकसित करें तो बेकार भूमि का तो उपयोग होगा ही, साथ ही उन्हें इससे आर्थिक लाभ भी प्राप्त होंगे। कई ऐसे वृक्ष हैं जो 7 वर्ष की अवधि के बीच तैयार हो जाते हैं और जो प्रतिवर्ष ₹ 200 से 500 तक की आमदनी दे सकते हैं। इस प्रकार वन ग्रामीणों को रोजगार प्रदान करने में सहायक होंगे।

प्रश्न 6
सामाजिक वानिकी के मार्ग में आने वाली बाधाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
यह एक तथ्य है कि सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर किये गये वन-संरक्षण और सामाजिक वानिकी के लिए किये गये विभिन्न प्रयत्नों के बाद भी हमें वांछित सफलता नहीं मिल सकी है। इसके लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं

  1.  भूमि का नितान्त अभाव है। गाँव की बंजर भूमि पर पेड़ लगाना कठिन है, फिर इन पेड़ों को सार्वजनिक होने के कारण या तो पशुओं द्वारा नष्ट कर दिया जाता है या ग्रामीण ही उन्हें काट डालते हैं।
  2. अधिकांश ग्रामीण लोग अपनी भूमि वृक्ष लगाने हेतु सरकार को देने के लिए राजी नहीं होते, वे कोई संकट मोल लेना नहीं चाहते।।
  3.  योजना के संचालन का कार्य अनुभवी और कुशल कर्मचारियों द्वारा नहीं किया जाता और वे भी योजना के प्रति उदासीन होते हैं।
  4. वन एवं वृक्ष लगाने के लिए सरकार द्वारा दिया जाने वाला अनुदान एवं धनराशि भी पर्याप्त नहीं है। इन बाधाओं के बावजूद भी सामाजिक वानिकी के क्षेत्र में प्रगति के प्रयास जारी हैं।
  5. वृक्षारोपण कार्यक्रम का लाभ अधिकतर गाँव के धनी लोगों को ही मिलता है, जिससे कार्यक्रम के प्रति सामान्य लोगों की रुचि समाप्त हो जाती है।

प्रश्न 7
सामाजिक वानिकी का औद्योगिक महत्त्व बताइए।
उत्तर:
वन हमारी औद्योगिक जरूरतों को भी पूरा करते हैं। रेल उद्योग, जहाज-निर्माण उद्योग, कागज, दियासलाई, लकड़ी पर की जाने वाली कारीगरी एवं हस्त शिल्प उद्योग, फर्नीचर उद्योग, गृह-निर्माण, खिलौना उद्योग आदि सभी के लिए लकड़ी और कच्चा माल वनों से ही प्राप्त होता है। रबर, लाख, गोंद, कत्था, बिरोजा एवं तारपीन का तेल भी हमें वनों से ही प्राप्त होते हैं। वनों से प्राप्त होने वाली लुग्दी, घास, छालें, पत्ते, जड़े, तने और मुलायम लकड़ी पर ही देश के कई उद्योग निर्भर हैं। सेल्यूलोज, रेयॉन एवं नायलॉन से बनने वाले कृत्रिम धागे और वस्त्रों के लिए भी कच्चा माल वनों से ही प्राप्त होता है। इस प्रकार वन हमारे औद्योगिक विकास के मार्ग को प्रशस्त कर सकेंगे।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
कृषि वानिकी के अन्तर्गत कौन-से कार्यक्रम आते हैं ?
उत्तर:
कृषि वानिकी (Farm Forestry) के अन्तर्गत निम्नलिखित कार्यक्रम आते हैं

  1.  खेतों की मेंड़ एवं सीमाओं तथा व्यक्तिगत कृषि-भूमि पर पेड़ लगाना।
  2. हवा के तेज बहाव को रोकने के लिए पेड़ों की रक्षा कतारें विकसित करना।
  3. गाँव की खाली पड़ी भूमि पर पेड़ लगाना। कृषि वानिकी के द्वारा ग्रामवासियों को ईंधन और सामान्य उपयोग से सम्बन्धित लकड़ी उपलब्ध करायी जाती है।

प्रश्न 2
प्रसार वानिकी के अन्तर्गत कौन-से कार्यक्रम आते हैं ?
उत्तर:
प्रसार वानिकी (Extension Forestry) के अन्तर्गत निम्नलिखित कार्यक्रम सम्मिलित किये जाते हैं

  1. मिश्रित वानिकी अर्थात् अनुपयोगी भूमि, पंचायत की भूमि एवं गाँव की सामूहिक भूमि पर फलों, चारे, ईंधन आदि के पेड़-पौधे उगाना।
  2. सड़कों, रेलवे लाइनों एवं नहरों के किनारे दोनों ओर शीघ्र उगने वाले पेड़-पौधे लगाना।
  3.  विनष्ट वनों पर पुनः वन लगाना।।

प्रश्न 3
‘सामाजिक वानिकी के कार्य-क्षेत्र की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक वानिकी के कार्य-क्षेत्र में निम्नलिखित प्रयासों को सम्मिलित किया जाता है

  1.  खाली पड़ी भूमि पर समुदाय की दृष्टि से वृक्षारोपण करना।
  2. हवा को रोकने के लिए पेड़ लगाना।
  3. खेतों की सीमाओं तथा मेड़ों पर वृक्षारोपण करना।।
  4. फलों, चारे तथा ईंधन की आपूर्ति के लिए पेड़ लगाना।
  5. मनोरंजन हेतु वनों का विकास करना।
  6. पर्यावरण वानिकी दृष्टि से जल संग्रहण क्षेत्रों में पेड़ लगाना।
  7.  पेड़ों की कतारें लगाना।।

प्रश्न 4
सामाजिक वानिकी के उद्देश्य बताइए। [2009]
उत्तर:
सन् 1973 में राष्ट्रीय आयोग द्वारा सामाजिक वानिकी पर दी गयी अन्तरिम रिपोर्ट में सामाजिक वानिकी के निम्नलिखित उद्देश्य बताये गये हैं

  1. ग्रामीण क्षेत्रों में गोबर के स्थान पर ईंधन हेतु लकड़ी उपलब्ध कराना,
  2. इमारती लकड़ी उपलब्ध कराना,
  3.  पशुओं के लिए चारा उपलब्ध कराना,
  4.  हवा से कृषि-भूमि की रक्षा करना तथा
  5. मनोरंजनात्मक आवश्यकताओं को जुटाना।

प्रश्न 5
सामाजिक वानिकी की चार विशेषताएँ बताइए। [2012, 14]
उत्तर:
सामाजिक वानिकी की चार विशेषताएँ इस प्रकार हैं

  1.  सामुदायिक एवं सार्वजनिक भूमि का उपयोग वृक्षारोपण के लिए करना,
  2. रेलवे-लाइनों, सड़कों और नहरों के किनारों पर वृक्ष लगाना,
  3. तालाबों तथा जलाशयों के चारों ओर लताएँ और झुण्डों के रूप में वृक्ष लगाना तथा
  4. नष्ट हो चुके वनों के स्थान पर नये वृक्ष लगाकर वन-क्षेत्र विकसित करना।

प्रश्न 6
सामाजिक वानिकी के दो प्रमुख लाभों को लिखिए। [2012, 14]
उत्तर:
सामाजिक वानिकी के दो महत्त्वपूर्ण लाभ निम्नलिखित हैं

  1.  आर्थिक लाभ – सामाजिक वानिकी ग्रामीण क्षेत्रों के निर्धन व्यक्तियों को रोजगार के साधन उपलब्ध कराती है। वे पेड़ के पत्तों से बीड़ी एवं पत्तले बनाने, बीजों से तेल निकालने, लकड़ी से फर्नीचर व खिलौने बनाने, बॉस से चटाई व टोकरी बनाने का कार्य कर सकते हैं।
  2. प्रदूषण पर नियन्त्रण – सामाजिक वानिकी प्रदूषण को रोकने की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। पेड़ ऑक्सीजन प्रदान करते हैं जो जीवों के लिए प्राण वायु है तथा बदले में पर्यावरण की कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहण करते हैं। इस प्रकार वे पर्यावरण में दोनों प्रकार की गैसों का सन्तुलन बनाये रखते हैं। वृक्ष मिलों, फैक्ट्रियों, भट्टियों एवं चूल्हों से निकलने वाले धुएँ तथा धूल के कणों को भी फैलने से रोकते हैं।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
भारत में वनों का विस्तार बताइए।
उत्तर:
भारत में वनों का विस्तार 6.37 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर है, जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 19.39 प्रतिशत है।

प्रश्न 2
ब्रिटिश राज्यकाल में वनों को किन-किन भागों में बाँटा गया था ?
उत्तर:
ब्रिटिश राज्यकाल में वनों को तीन भागों में बाँटा गया था। ये तीन भाग हैं-आरक्षित वन, रक्षित वन तथा अवर्गीकृत वन।।

प्रश्न 3
वानिकी का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
वानिकी का अर्थ वनों और उनसे उपलब्ध होने वाली वस्तुओं के वैज्ञानिक प्रबन्ध से है।

प्रश्न 4
सामाजिक वानिकी की अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम कब हुआ? [2011]
या
सामाजिक वानिकी की अवधारणा कब आयी? [2016]
उत्तर:
सामाजिक वानिकी की अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम 1976 ई० में हुआ।

प्रश्न 5
सामाजिक वानिकी से क्या अभिप्राय है ? [2011, 15]
उत्तर:
समाज के द्वारा, समाज के लिए, समाज की ही भूमि पर समाज के स्तर को सुधारने के सामाजिक उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किये जाने वाले वृक्षारोपण को सामाजिक वानिकी कहते हैं।

प्रश्न 6
सामाजिक वानिकी के दो उद्देश्य बताइए। [2013]
उत्तर:
सामाजिक वानिकी के दो उद्देश्य हैं

  1. सामाजिक वानिकी का उद्देश्य ग्रामीण लोगों की गरीबी दूर करना तथा
  2. लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनकी शक्ति एवं प्रयत्नों को गति प्रदान करना है।

प्रश्न 7
सामाजिक वानिकी के अन्तर्गत किन तीन प्रकार के कार्यक्रमों को समन्वित रूप से क्रियान्वित किया जाता है ?
उत्तर:
ये तीन प्रकार के कार्यक्रम हैं – संरक्षण, उत्पादन तथा पर्यावरण।

प्रश्न 8
पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम कब बनाया गया ?
उत्तर:
पर्यावरण अधिनियम 1986 ई० में बनाया गया।

प्रश्न 9
‘प्रियदर्शनी वृक्षमित्र पुरस्कार’ किसको दिया जाता है ?
उत्तर:
1986 ई० से ‘प्रियदर्शनी वृक्षमित्र पुरस्कार’ वन लगाने व परती भूमि के विकास करने वाले व्यक्तियों एवं संगठनों को दिया जाता है।

प्रश्न 10
‘कजरी’ नामक वृक्षारोपण अनुसन्धानशाला कहाँ और क्यों स्थापित की गयी ?
उत्तर:
‘कजरी’ नामक वृक्षारोपण अनुसन्धानशाला जोधपुर (राजस्थान) में मरुभूमि में वृक्षारोपण की समस्याओं एवं उनके निदान हेतु स्थापित की गयी।

प्रश्न 11
चिपको आन्दोलन का नेतृत्व किसने किया था ? [2009]
या
सुन्दरलाल बहुगुणा ने वन संरक्षण हेतु ‘चिपको आन्दोलन चलाया। (सत्य/ असत्य) । [2007]
या
चिपको आन्दोलन किसने शुरु किया था? [2013, 14]
या
‘चिपको आन्दोलन से कौन सम्बन्धित है? [2015]
उत्तर:
‘चिपको आन्दोलन का नेतृत्व टिहरी-गढ़वाल के निवासी सुन्दरलाल बहुगुणा ने किया था।

प्रश्न 12
भारत में सर्वाधिक वन कौन-से प्रदेश में हैं ?
उत्तर:
भारत में सर्वाधिक वन मध्य प्रदेश में हैं।

प्रश्न 13
भारत में राष्ट्रीय वन-नीति कब घोषित की गयी ? [2012]
उत्तर:
भारत में वन-नीति 1952 ई० में घोषित की गयी।

प्रश्न 14
भारत में सामाजिक वानिकी कार्यक्रम का प्रारम्भ किस वर्ष में हुआ ? [2010]
उत्तर:
भारत में सामाजिक वानिकी’ कार्यक्रम का प्रारम्भ सन् 1976 में हुआ।

बहुविकल्पीय प्रज ( 1 अंक)

प्रश्न 1
सन् 1914 में वन अनुसन्धानशाला की स्थापना की गयी थी
(क) देहरादून में
(ख) नैनीताल में
(ग) लखनऊ में
(घ) कानपुर में

प्रश्न 2
सामाजिक वानिकी की अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम किया गया।
(क) सन् 1970 में
(ख) सन 1972 में
(ग) सन् 1974 में
(घ) सन 1976 में

प्रश्न 3
किस वानिकी के अन्तर्गत नहरों के किनारे, रेलवे लाइनों के किनारे तथा सड़कों के दोनों छोरों पर स्थित वृक्ष आते हैं ?
(क) कृषि वानिकी
(ख) प्रसार वानिकी
(ग) नगर वानिकी
(घ) इनमें से कोई नहीं

उत्तर
1. (क) देहरादून में, 2. (घ) सन् 1976 में, 3. (ख) प्रसार वानिकी।

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 2 Concept of Pollution Causes, Social Effects and Solution

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 2 Concept of Pollution Causes, Social Effects and Solution (प्रदूषण की अवधारण: कारण, सामाजिक प्रभाव और निराकरण) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 2 Concept of Pollution Causes, Social Effects and Solution (प्रदूषण की अवधारण: कारण, सामाजिक प्रभाव और निराकरण).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 2
Chapter Name Concept of Pollution Causes,
Social Effects and Solution
(प्रदूषण की अवधारण: कारण, सामाजिक
प्रभाव और निराकरण)
Number of Questions Solved 36
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 2 Concept of Pollution Causes, Social Effects and Solution (प्रदूषण की अवधारण: कारण, सामाजिक प्रभाव और निराकरण)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? प्रदूषण के समाज पर पड़ रहे दुष्प्रभावों की विवेचना कीजिए। [2007, 08, 10]
या
पर्यावरण प्रदूषण पर एक निबन्ध लिखिए। [2010]
या
प्रदूषण के उत्तर दायी कारकों की विवेचना कीजिए। पर्यावरण प्रदूषण क्या है? आधुनिक भारत में प्रदूषण की समस्या का कारण क्या है? [2016]
या
पर्यावरण प्रदूषण के कौन-कौन से प्रमुख कारण हैं? [2009, 10, 14, 16]
या
पर्यावरणीय प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? इसे समाप्त करने हेतु अपने सुझाव दीजिए। प्रदूषण के स्रोतों की विवेचना कीजिए। [2015]
या
प्रदूषण क्या है? प्रदूषण के कुप्रभावों का वर्णन कीजिए। [2010, 11]
या
पर्यावरण को जल-प्रदूषण से कैसे बचाया जा सकता है? [2017]
या
प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों को समझाते हुए इनके नियन्त्रण के उपायों को समझाइए। [2015]
या
मानव जीवन पर पर्यावरण प्रदूषण के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभावों का वर्णन कीजिए। [2016]
उत्तर :

पर्यावरण प्रदूषण का अर्थ एवं प्रकार

पर्यावरण प्रदषण का सामान्य अर्थ है – हमारे पर्यावरण का दूषित हो जाना। पर्यावरण का निर्माण प्रकृति ने किया है। प्रकृति-प्रदत्त पर्यावरण में जब किन्हीं तत्त्वों का अनुपात इस रूप में बदलने लगता है जिसको जीवन के किसी भी पक्ष पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका होती है, तब कहा जाता है कि पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। उदाहरण के लिए, यदि पर्यावरण के मुख्य भाग वायु में ऑक्सीजन के स्थान पर अन्य विषैली एवं अनुपयोगी गैसों का अनुपात बढ़ जाए तो कहा। जाएगा कि वायु प्रदूषण हो गया है। वायु के अतिरिक्त पर्यावरण के किसी भी भाग के दूषित हो जाने को पर्यावरण प्रदूषण ही कहा जाएगा।

पर्यावरण के मुख्य भागों या पक्षों को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण प्रदूषण के विभिन्न प्रकारों या स्वरूपों का निर्धारण किया गया है। पर्यावरण प्रदूषण के मुख्य प्रकार हैं-जल-प्रदूषण, वायुप्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण तथा मृदा-प्रदूषण।

1. जल-प्रदूषण

जल में जीव रासायनिक ऑक्सीजन तथा विषैले रसायन, खनिज, ताँबा, सीसा, अरगजी, बेरियम फॉस्फेट, सायनाइड आदि की मात्रा में वृद्धि होना ही जल-प्रदूषण है। जल-प्रदूषण दो प्रकार का होता है

  • दृश्य – प्रदूषण तथा
  • अदृश्य – प्रदूषण।

जल-प्रदूषण के कारण – जल-प्रदूषण निम्नलिखित कारणों से होता है–

  1. औद्योगीकरण जल-प्रदूषण के लिए सर्वाधिक उत्तर दायी है। चमड़े के कारखाने, चीनी एवं ऐल्कोहॉल के कारखाने, कागज की मिलें तथा अन्य अनेकानेक उद्योग नदियों के जल को प्रदूषित करते हैं।
  2. नगरीकरण भी जल-प्रदूषण के लिए उत्तर दायी है। नगरों की गन्दगी, मल व औद्योगिक अपशिष्टों के विषैले तत्त्व भी जल को प्रदूषित करते हैं।
  3. समुद्रों में जहाजरानी एवं परमाणु अस्त्रों के परीक्षण से भी जल प्रदूषित होता है।
  4. नदियों के प्रति भक्ति-भाव होते हुए भी तमाम गन्दगी; जैसे-अधजले शव, जानवरों की लाशें तथा अस्थि-विसर्जन आदि-भी नदियों में ही किया जाता है, जो नदियों के जल प्रदूषण का एक कारण है।
  5. जल में अनेक रोगों के हानिकारक कीटाणु मिल जाते हैं, जिससे प्रदूषण उत्पन्न हो जाता
  6. भूमिक्षरण के कारण मिट्टी के साथ रासायनिक उर्वरक तथा कीटनाशक पदार्थों के नदियों में पहुँच जाने से नदियों का जल प्रदूषित हो जाता है।
  7. घरों से बहकर निकलने वाला फिनायल, साबुन, सर्फ आदि से युक्त गन्दा पानी तथा शौचालय का दूषित मल नालियों में प्रवाहित होता हुआ नदियों और झील के जल में मिलकर उसे प्रदूषित कर देता है।
  8. नदियों और झीलों के जल में पशुओं को नहलाना, पुरुषों तथा स्त्रियों द्वारा स्नान करना वे साबुन आदि से गन्दे वस्त्र धोना भी जल-प्रदूषण का मुख्य कारण है।

जल-प्रदूषण रोकने के उपाय – जल की शुद्धता और उपयोगिता बनाये रखने के लिए प्रदूषण को रोकना आवश्यक है। जल-प्रदूषण को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय काम में लाये जा सकते हैं

  1. नगरों के दूषित जल और मल को नदियों और झीलों के स्वच्छ जल में मिलने से रोका जाए।
  2. कल-कारखानों के दूषित और विषैले जल को नदियों और झीलों के जल में न गिरने दिया जाए।
  3. मल-मूत्र एवं गन्दगीयुक्त जल का उपयोग बायोगैस बनाने या सिंचाई के लिए करके प्रदूषण को रोका जा सकता है।
  4. सागरों के जल में आणविक परीक्षण न कराए जाएँ।
  5. नदियों के तटों पर शव ठीक से जलाए जाएँ तथा उनकी राख भूमि में दबा दी जाए।
  6. पशुओं के मृतक शरीर तथा मानव शवों को स्वच्छ जल में प्रवाहित न करने दिया जाए।
  7. जल-प्रदूषण रोकने के लिए नियम बनाये जाएँ तथा उनका कठोरता से पालन किया जाए।
  8. नदियों, कुओं, तालाबों और झीलों के जल को शुद्ध बनाये रखने के लिए प्रभावी उपाय काम में लाये जाएँ।
  9. जल-प्रदूषण के कुप्रभाव तथा रोकने के उपायों का जनसामान्य में प्रचार-प्रसार कराया जाए।
  10. जल उपयोग तथा जल-संसाधन संरक्षण के लिए राष्ट्रीय नीति बनायी जाए।

जल-प्रदूषण का मानव-जीवन पर प्रभाव (हानियाँ) – जब से सृष्टि है-पानी है; यह सर्वाधिक बुनियादी और महत्त्वपूर्ण साधन है। ‘पानी नहीं तो जीवन नहीं।’ संसार का 4 प्रतिशत पानी पृथ्वी पर है, शेष पानी समुद्रों में है, जो खारा है। पृथ्वी पर जितना पानी है उसका केवल 0.3 प्रतिशत भाग ही साफ और शुद्ध है और इसी पर सारी दुनिया निर्भर है। आज शुद्ध पानी कम होता जा रहा है और प्रदूषित पानी दिन-प्रतिदिन अधिक। प्रदूषित जल मानव-जीवन को निम्नलिखित प्रकार से सर्वाधिक प्रभावित करता है

  1. जल, जो जीवन की रक्षा करता है, प्रदूषित हो जाने पर जीव की मृत्यु का सबसे बड़ा कारण बनता है और बनता जा रहा है।
  2. जल-प्रदूषण से अनेक बीमारियाँ; जैसे-हैजा, पीलिया, पेट में कीड़े, यहाँ तक कि टायफाइड भी प्रदूषित जल के कारण ही होता है, जिससे विकासशील देशों में पाँच में से चार बच्चे पानी की गन्दगी के कारण उत्पन्न रोगों से मरते हैं।
    राजस्थान के दक्षिणी भाग के आदिवासी गाँवों में गन्दे तालाबों का पानी पीने से “नारू’ नाम का भयंकर रोग होता है। इन गाँवों के 6 लाख 90 हजार लोगों में से 1 लाख 90 हजार लोगों को यह रोग है।
  3. प्रदूषित जल का प्रभाव जल में रहने वाले जन्तुओं और जलीय पौधों पर भी पड़ रहा है। जल-प्रदूषण के कारण मछली और जलीय पौधों में 30 से 50 प्रतिशत तक की कमी हो गयी है। जो व्यक्ति खाद्य-पदार्थ के रूप में मछली आदि का उपयोग करते हैं, उनके स्वास्थ्य को भी हानि पहुँचती है।।
  4. प्रदूषित जल का प्रभाव कृषि-उपजों पर भी पड़ता है। कृषि से उत्पन्न खाद्य-पदार्थों को मानव व पशुओं के उपयोग में लाते हैं, जिससे मानव व पशुओं के स्वास्थ्य को हानि होती
  5. जल-जन्तुओं के विनाश से पर्यावरण असन्तुलित होकर विभिन्न प्रकार के कुप्रभाव उत्पन्न करता है।

2. वायु-प्रदूषण

वायु में विजातीय तत्त्वों की उपस्थिति चाहे गैसीय हो या पार्थक्य या दोनों का मिश्रण, जो कि मानव के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए हानिकारक हो, वायु-प्रदूषण कहलाता है।
वायु-प्रदूषण मुख्य रूप से धूलकण, धुआँ, कार्बन-कण, सल्फर डाइऑक्साइड, सीसा, कैडमियम आदि घातक पदार्थों के वायु में मिलने से होता है। ये सब उद्योगों एवं परिवहन के साधनों के माध्यम से वायुमण्डल में मिलते हैं।

वायु-प्रदूषण के कारण – वायु-प्रदूषण निम्नलिखित कारणों से होता है

  1. नगरीकरण, औद्योगीकरण एवं अनियन्त्रित भवन-निर्माण से वायु प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो रही है।
  2. परिवहन के साधनों (ऑटोमोबाइलों) से निकलता धुआँ वायु-प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण
  3. नगरीकरण एवं नगरों की बढ़ती गन्दगी भी वायु को प्रदूषित कर रही है।
  4. वनों की अनियमित एवं अनियन्त्रित केटाई से भी वायु प्रदूषण बढ़ रहा है।
  5. रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशक औषधियों के कृषि में अधिकाधिक उपयोग से भी वायु-प्रदूषण बढ़ रहा है।
  6. रसोईघरों तथा कारखानों की चिमनियों से निकलते धुएँ के कारण वायु प्रदूषण बढ़ रहा है।
  7. विभिन्न प्रदूषकों के भूमि पर फेंकने से वायु-प्रदूषण उत्पन्न हो रहा है।
  8. दूषित जल-मल के एकत्र होकर दुर्गन्ध फैलाने से वायु प्रदूषित हो रही है।
  9. युद्ध, आणविक विस्फोट तथा दहन की क्रियाएँ वायु-प्रदूषण उत्पन्न करती हैं।
  10. कीटनाशक पदार्थों के छिड़काव के कारण वायुमण्डल प्रदूषित हो जाता है।

वायु-प्रदूषण रोकने के उपाय – वायु मानव-जीवन का मुख्य आधार है। वायु का प्रदूषण मानव-जीवन के अस्तित्व के लिए खतरा बनता जा रहा है। वायु प्रदूषण रोकने के लिए प्रभावी उपाय ढूंढ़ना आवश्यक है। वायु प्रदूषण रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय काम में लाये जा सकते

  1. कल-कारखानों को नगरों से दूर स्थापित करना तथा उनसे निकलने वाले धुएँ, गैस तथा राख पर नियन्त्रण करना।
  2. परिवहन के साधनों पर धुआं-रहित यन्त्र लगाना।
  3. नगरों में हरित पट्टी के रूप में युद्ध स्तर पर वृक्षारोपण कराना।
  4. नगरों में स्वच्छता, जल-मल निकास तथा अवशिष्ट पदार्थों के मार्जन की उचित व्यवस्था करना।
  5. वन लगाने तथा वृक्ष संरक्षण पर बल देना।
  6. रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के प्रयोग को नियन्त्रित करना।
  7. घरों में बायोगैस, पेट्रोलियम गैस या धुआँ-रहित चूल्हों का प्रयोग करना।
  8. खुले में मैला, कूड़ा-करकट तथा अवशिष्ट पदार्थ सड़ने के लिए न फेंकना।
  9. गन्दा जल एकत्र न होने देना।
  10. वायु-प्रदूषण रोकने के लिए कठोर नियम बनाना और दृढ़ता से उनका पालन कराना।

वायु-प्रदूषण का मानव-जीवन पर प्रभाव – वायु-प्रदूषण के मानव-जीवन पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं

  1. वायु-प्रदूषण से जानलेवा बीमारियाँ; जैसे-छाती और साँस की बीमारियाँ, ब्रांकाइटिस, फेफड़ों के कैंसर आदि बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं।
  2. वायु-प्रदूषण मानव-शरीर, मानव की खुशियों और मानव की सभ्यता के लिए खतरा बना हुआ है। नीला, भूरा, सफेद, तरह-तरह का परिवहन के साधनों का धुआँ पूँघता हुआ आदमी जब सड़कों पर चलता है तो वह नहीं जानता कि यह धुआँ उसकी आँखों में ही डंक नहीं मार रहा है, उसके गले को भी दबाता है और उसके फेफड़ों को भी जहरीले नाखूनों से नोच रहा है।
  3. वायु प्रदूषण न केवल चारों ओर फैले खेतों, हरे-भरे पेड़ों, रमणीक दृश्यों को भी धुंधला करता है व उन पर झीनी चादर डालता है, बल्कि खेतों, तालाबों व जलाशयों को अपने – कृमिकणों से विषाक्त करता रहता है, जिसका सीधा प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर पड़ता है।
  4. डॉक्टरों ने परीक्षण कर देखा है कि जहाँ वायु-प्रदूषण अधिक है वहाँ बच्चों की हड्डियों का विकास कम होता है, हड्डियों की उम्र घट जाती है तथा बच्चों में खाँसी और सॉस फूलना तो देखा ही जा सकता है।
  5. वायु-प्रदूषण का प्रभाव वृक्षों पर भी देखा जा सकता है। चण्डीगढ़ के पेड़ों और लखनऊ के दशहरी आमों पर वायु-प्रदूषण के बढ़ते हुए खतरे को देखा गया है, जिससे मानव को फल तो कम मात्रा में मिल ही रहे हैं, किन्तु जो मिल रहे हैं वे भी विषाक्त हैं, जिसको सीधा प्रभाव मानव पर पड़ रहा है।
  6. दिल्ली के वायुमण्डल में व्याप्त प्रदूषण का प्रभाव आम नागरिकों के स्वास्थ्य पर तो पड़ा ही, दिल्ली की परिवहन पुलिस पर भी पड़ा है और यही दशा कोलकाता और मुम्बई की | भी है, अर्थात् इससे मानव का जीवन (आयु) घट रहा है।
  7. वायु-प्रदूषण के कारण ही फेफड़ों का कैंसर, टी० बी० तथा अन्य घातक रोग फैल रहे हैं।
  8. वायु-प्रदूषण के कारण ओजोन की परत में छेद होने की सम्भावना व्यक्त होने से सम्पूर्ण विश्व भयाक्रान्त हो उठा है।
  9. शुद्ध वायु न मिलने से शारीरिक विकास रुक गया है तथा शारीरिक क्षमता घटती जा रही है।
  10. वायु-प्रदूषण मानव अस्तित्व के सम्मुख एक गम्भीर समस्या बन कर खड़ा हो गया है, जिसे रोकने में भारी व्यय करना पड़ रहा है।

3. ध्वनिप्रदूषण

पर्यावरण प्रदूषण का एक रूप ध्वनि-प्रदूषण भी है। ध्वनि-प्रदूषण की समस्या नगरों में अधिक है। ध्वनि-प्रदूषण को साधारण शब्दों में शोर बढ़ने के रूप में स्पष्ट किया जा सकता है। पर्यावरण में शोर अर्थात् ध्वनियों का बढ़ जाना ही ध्वनि-प्रदूषण है। अब प्रश्न उठता है कि शोर क्या है? वास्तव में, प्रत्येक अनचाही तथा तीव्र आवाज शोर है। शोर का बढ़ना ही ध्वनि-प्रदूषण का बढ़ना कहा जाता है।

ध्वनि-प्रदूषण के कारण – ध्वनि-प्रदूषण के लिए निम्नलिखित कारक उत्तर दायी हैं

  1. ध्वनि-प्रदूषण परिवहन के साधनों; जैसे—बसों, ट्रकों, रेलों, वायुयानों, स्कूटरों आदि के द्वारा होता है। धड़धड़ाते हुए वाहन कर्कश स्वर देकर शोर उत्पन्न करते हैं, जिससे ध्वनि प्रदूषण उत्पन्न होता है।
  2. कारखानों की विशालकाय मशीनें, कल-पुर्जे, इंजन आदि भयंकर शोर उत्पन्न करके ध्वनि प्रदूषण के स्रोत बने हुए हैं।
  3. मस्जिदों में ध्वनि-विस्तारक यन्त्रों से होने वाली अजान, मन्दिरों में भजन, कीर्तन तथा गुरुद्वारों में शबद कीर्तन भी प्रदूषण के कारण हैं।
  4. विभिन्न प्रकार के विस्फोटक भी ध्वनि-प्रदूषण के जन्मदाता हैं।
  5. घरों पर जोर से बजने वाले रेडियो, टेलीविजन, टेपरिकॉर्डर, कैसेट्स तथा बच्चों की चिल्ल-पौं की ध्वनि भी प्रदूषण उत्पन्न करने के मुख्य साधन हैं।
  6. वायुयान, सुपरसोनिक विमान व अन्तरिक्ष यान भी ध्वनि-प्रदूषण फैलाते हैं।
  7. मानव एवं पशु-पक्षियों द्वारा उत्पन्न शोर भी ध्वनि-प्रदूषण का मुख्य कारण है।
  8. आँधी, तूफान तथा ज्वालामुखी के उद्गार के फलस्वरूप भी ध्वनि-प्रदूषण उत्पन्न होता

ध्वनि-प्रदूषण रोकने के उपाय-डॉ० पी० सी० शर्मा ने ध्वनि प्रदूषण निवारण के लिए निम्नलिखित उपाय सुझाये हैं

  1. ध्वनि-प्रदूषण निरोधक कानूनों को बनाना तथा उन्हें अमल में लाना।।
  2. कम शोर करने वाली मशीनों को बनाना।
  3. इमारतों के बाहर पेड़-पौधों, घास-झाड़ियों तथा घरों के अन्दर ध्वनि-शोषक साज-सज्जा एवं भवन निर्माण सामग्री का उपयोग करके ध्वनि-प्रदूषण के प्रभाव को कम करना।
  4. सामाजिक दबाव बनाकर ध्वनि-प्रदूषण फैलाने वाले यन्त्रों को प्रयोग में लाने वाले व्यक्तियों को आवासीय बस्तियों तथा मनोरंजन के स्थानों से पृथक् करना।
  5. जिन उद्योगों में तीव्र ध्वनि को नियन्त्रित करना सम्भव नहीं है, वहाँ कामगारों को श्रवणेन्द्रियों की रक्षा हेतु कान में लगायी जाने वाली उपयुक्त रक्षा-डाटों को उपलब्ध कराना।
  6. जनसाधारण को ध्वनि-प्रदूषण के कुप्रभावों के प्रति जन-जागरण कार्यक्रमों के माध्यम से सचेत करना तथा संवेदनशील बनाना।।
  7. स्कूलों में ध्वनि-प्रदूषण के विषय में ज्ञान देना।

ध्वनि-प्रदूषण का मानव-जीवन पर प्रभाव – ध्वनि-प्रदूषण का मानव-जीवन पर निम्नलिखित कुप्रभाव पड़ता है–

  1. ध्वनि-प्रदूषण मानव के कानों के परदों पर, मस्तिष्क और शरीर पर इतना घातक आक्रमण करता है कि संसार के सारे वैज्ञानिक तथा डॉक्टर इससे चिन्तित हो रहे हैं।
  2. ध्वनि-प्रदूषण वायुमण्डल में अनेक समस्याएँ उत्पन्न करता है और मानव के लिए एक गम्भीर खतरा बन गया है। जर्मन नोबेल पुरस्कार विजेता रॉबर्ट कोक ने कहा है कि वह दिन दूर नहीं जब आदमी को अपने स्वास्थ्य के इस सबसे नृशंस शत्रु ‘शोर’ से पूरे जी-जान से लड़ना पड़ेगा।
  3. ध्वनि-प्रदूषण के कारण व्यक्ति की नींद में बाधा उत्पन्न होती है। इससे चिड़चिड़ापन बढ़ता है तथा स्वास्थ्य खराब होने लगता है।
  4. शोर के कारण सुनने की शक्ति कम होती है। बढ़ते हुए शोर के कारण मानव समुदाय बहरेपन की ओर बढ़ रहा है।
  5. ध्वनि-प्रदूषण के कारण मानसिक तनाव बढ़ने से स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता है।
  6. ध्वनि-प्रदूषण मनुष्य के आराम में बाधक बनता जा रहा है।

ध्वनि-प्रदूषण की समस्या दिन-प्रति – दिन बढ़ती जा रही है। इस अदृश्य समस्या का निश्चित समाधान खोजना नितान्त आवश्यक है। विक्टर गुएन ने ध्वनि प्रदूषण के दुष्प्रभावों को इन शब्दों में व्यक्त किया है, “शोर मृत्यु का मन्द गति अभिकर्ता है। यह मानव-मात्र का एक अदृश्य शत्रु है।”

वास्तव में, जल, वायु और ध्वनि-प्रदूषण आज के सामाजिक जीवन की एक गम्भीर चुनौती है। यह अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बनकर उभरा है। बढ़ते प्रदूषण ने मानव सभ्यता, संस्कृति तथा अस्तित्व पर प्रश्न-चिह्न लगा दिया है। भावी पीढ़ी को इस विष-वृक्ष से बचाये रखने के लिए प्रदूषण का निश्चित समाधान खोजना आवश्यक है।

4. मृदा-प्रदूषण

भूमि पेड़-पौधों की वृद्धि एवं विकास के लिए आवश्यक लवण, खनिज तत्त्व, जल, वायु तथा कार्बनिक पदार्थ संचित रखती है। भूमि में उपर्युक्त पदार्थ प्रायः निश्चित अनुपात में पाये जाते हैं। इन पदार्थों की मात्रा में किन्हीं प्राकृतिक अथवा अप्राकृतिक कारणों से उत्पन्न होने वाला अवांछनीय परिवर्तन मृदा-प्रदूषण कहलाता है। दूसरे शब्दों में, “भूमि के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में ऐसा कोई भी अवांछित परिवर्तन जिसका हानिकारक प्रभाव मनुष्य तथा अन्य जीवों पर पड़ता है। अथवा जिससे भूमि की प्राकृतिक गुणवत्ता तथा उपयोगिता नष्ट हो जाती है, मृदा-प्रदूषण कहलाता है।”

मृदा-प्रदूषण के कारण मृदा-प्रदूषण के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  1. नगरों द्वारा ठोस कूड़ा-करकट फेंकने से तथा खानों के पास बेकार पदार्थों के ढेर जमा होने से भूमि अन्य कार्यों के लिए उपयुक्त नहीं रहती।
  2. दूषित क्षेत्रों से बहकर आया जल नदियों को प्रदूषित करता है। इन्हीं क्षेत्रों से जल का रिसाव भूमिगत जल में प्रदूषण फैलाता है।
  3. सिंचाई से भी भूमि का प्रदूषण होने लगा है। सिंचित भूमि पर नमक या नमकीन परत जम जाती है, ऐसी भूमि खेती योग्य नहीं रहती।
  4. अर्द्धमरुस्थलीय प्रदेशों में पवनें भारी मात्रा में बालू उड़ाकर पास-पड़ोस के खेतों में जमा कर देती हैं और खेत कृषि के लिए बेकार हो जाते हैं।
  5. बाढ़ के दौरान कंकड़, पत्थर तथा रेत जमा हो जाने से खेत बर्बाद हो जाते हैं।
  6. प्रदूषित जल तथा वायु के कारण मृदा भी प्रदूषित हो जाती है। वर्षा इत्यादि के जल के साथ ये प्रदूषक पदार्थ मिट्टी में आ जाते हैं; जैसे-वायु में SO, वर्षा के जल के साथ मिलकर H,SO, अम्ल बना लेती है।
  7. इसी प्रकार जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ अधिक फसल पैदा करने के लिए भूमि की उर्वरता बढ़ाने या बनाये रखने के लिए उर्वरकों का उपयोग किया जाता है। विभिन्न प्रकार के कीटाणुनाशक पदार्थ (Pesticides), अपतृणनाशी पदार्थ (weedicides) आदि फसलों पर छिड़के जाते हैं। ये सभी पदार्थ मृदा के साथ मिलकर हानिकारक प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं।

मृदा-प्रदूषण रोकने के उपाय – जैव-पदार्थ पौधे तथा मृदा के लिए उपयोगी हैं। खेती करने, वर्षा, भूमि का कटाव तथा कुछ अन्य कारणों से भूमि में जैव-पदार्थों की कमी होने लगती है। मृदा-प्रदूषण रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय करने चाहिए

  1. मृदा में कार्बनिक खादों का प्रयोग करना चाहिए।
  2. खेत में सदैव कम सिंचाई करनी चाहिए।
  3. खेत में जल-निकास का उचित प्रबन्ध होना चाहिए।
  4. खेतों की मेड़बन्दी करनी चाहिए, जिससे वर्षा के पानी से या भूमि के कटाव से जीवांश पदार्थ बहकर न निकल जाएँ।
  5. विभिन्न प्रकार के कीटनाशक, साबुन व अपमार्जक, अपतृणनाशक व अन्य रासायनिक पदार्थ आदि सामान्य मृदा प्रदूषक होते हैं। अतः इन पदार्थों से भूमि को बचाना चाहिए।

मृदा-प्रदूषण का मानव-जीवन पर प्रभाव – मृदा-प्रदूषण से मानव-जीवन पर मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं

  1. दूषित-मृदा में रोगों के जीवाणु पनपते हैं, जिनसे मनुष्यों व अन्य जीवों में रोग फैलते हैं।
  2. मृदा-प्रदूषण से पौधों की वृद्धि रुक जाती है, जिससे पूरी फसल ही बर्बाद हो जाती है।
  3. फसल की बर्बादी से जीव-जन्तुओं तथा मनुष्यों को अनेक प्रकार की मुसीबतों का सामना करना पड़ता है।

यह स्पष्ट है कि अभी बताये गये उपायों को लागू करना केवल एक व्यक्ति के द्वारा सम्भव नहीं है। इस कार्य के लिए सरकार, विधिवेत्ताओं, वास्तुकारों, ध्वनि-अभियन्ता, नगर-परियोजना-अधिकारियों, पुलिस, मनोवैज्ञानिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा शिक्षकों सभी के सहयोग की आवश्यकता होगी।

प्रश्न 2
पर्यावरण प्रदूषण का सर्वप्रथम कारण मानव सभ्यता का विकास ही है।’ स्पष्ट कीजिए। [2007, 12]
या
‘पारिस्थितिक-तन्त्र का पतन एवं पर्यावरण प्रदूषण’ पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2011]
या
पर्यावरण प्रदूषण के कारणों को व्यक्त कीजिए। [2012, 14, 16]
या
वायु-प्रदूषण में मानव-जनित प्रदूषण की भूमिका पर प्रकाश डालिए। प्रदूषण के दो कारकों का उल्लेख कीजिए। [2017]
उत्तर :
जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास होता गया, वैसे-वैसे मानव की आवश्यकताएँ भी बढ़ती गयीं। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य ने जंगल काटकर खेती करना प्रारम्भ किया। जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के कारण अब इस खेती को नष्ट करके मनुष्य उस पर मकान बनाने लगा है और फैक्ट्रियों में कार्य करके आज अपनी आजीविका कमा रहा है। विकास की तेज गति से मनुष्य को जहाँ लाभ पहुंचे हैं, वहाँ दूसरी ओर कई नुकसान भी हुए हैं। प्रकृति का सन्तुलन डगमगाने लगा है, उसकी सादगी और पवित्रता नष्ट हो रही है। अपनी बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए मकान बनाने, खेती करने, ईंधन प्राप्त करने, पैसा बनाने तथा अन्य उपयोगों के लिए पेड़ों और जंगलों का सफाया आज भी लगातार हो रहा है। प्रतिदिन नयी-नयी सड़कें, गगनचुम्बी इमारते, मिल, कारखाने आदि बन रहे हैं और इस प्रक्रिया में प्राकृतिक साधनों का बहुत अधिक दोहन हो रहा है, हानिकारक रसायनों, गैसों व अन्य चीजों का बहुत इस्तेमाल हो रहा है। इससे पर्यावरण की प्राकृतिकता नष्ट हो रही है और प्रदूषण पनप रहा है। हजारों वर्षों से मानव-जीवन पर्यावरण के सन्तुलन के सहारे चलता रहा है। मानव ने अपनी सुख-सुविधाओं में वृद्धि हेतु पर्यावरण में इतना अधिक परिवर्तन कर दिया है कि इससे पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गयी है। निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि पर्यावरण प्रदूषण का सर्वप्रमुख कारण मानव सभ्यता का विकास ही है

1. दहन – लकड़ी व विभिन्न प्रकार के खनिज ईंधनों (पेट्रोल, कोयला, मिट्टी का तेल आदि) की भट्टियों, कारखानों, बिजलीघरों, मोटरगाड़ियों, रेलगाड़ियों आदि में जलाने से कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाई-ऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, धूल तथा अन्य यौगिकों के सूक्ष्म कण प्रदूषक के रूप में वायु में मिल जाते हैं। मोटरगाड़ियाँ या ऑटोमोबाइल एक्सहॉस्ट (Automobile Exhaust) को सबसे बड़ा प्रदूषणकारी माना गया है। इससे कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रिक ऑक्साइड तथा अन्य विषैली गैसें निकलती हैं। ये विषैली गैसें सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में परस्पर क्रिया करके अन्य पदार्थ बनाती हैं, जो अत्यन्त हानिकारक होते हैं।

2. औद्योगिक अवशिष्ट – बड़े नगरों में कल-कारखानों से निकलने वाली अनेक गैसें, धातु के कण, विभिन्न प्रकार के फ्लुओराइड, कभी-कभी रेडियोसक्रिय पदार्थों के कण, कोयले के अज्वलनशील खनिज आदि वहाँ की वायु को इतना प्रदूषित कर देते हैं कि लोगों का जीना मुश्किल हो जाता है। यह इसलिए होता है क्योंकि विभिन्न प्रकार के उद्योगों में अनेक प्रकार के रसायन प्रयोग में लाये जाते हैं।

3. धातुकर्मी प्रक्रम – खान से निकाले गये खनिजों (अयस्कों) से धातु प्राप्त करना धातु कर्म कहलाता है। इस प्रक्रम से जो धूल व धुआं निकलता है, उसमें क्रोमियम, बेरीलियम, आर्सेनिक, बैनेडियम, जस्ता, सीसा, ताँबा आदि के कण होते हैं, जो वायु को प्रदूषित करते हैं।

4. कृषि रसायन – कीटों व खरपतवारों को नष्ट करने के लिए फसलों पर जो रसायन (ऐल्ड्रीन, गैमेक्सीन आदि) छिड़के जाते हैं, उनमें से भी अनेक विषाक्त पदार्थ वायु में पहुँचते हैं, जो उसे विषाक्त कर देते हैं।

5. वृक्षों तथा वनों को काटा जाना – हरे पेड़-पौधे वायुमण्डल से कार्बन डाइऑक्साइड को लेकर उसके बदले ऑक्सीजन छोड़ते हैं जिससे वायुमण्डल में इन गैसों का सन्तुलन बना रहता है। अतः वनस्पतियों द्वारा पर्यावरण की शुद्धि होती है। आज हमने वनों तथा अन्य स्थानों के वृक्षों व झाड़ियों को अन्धाधुन्ध काटा है जिससे वायुमण्डल में उपस्थित गैसों का सन्तुलन बिगड़ गया है।

6. मृत पदार्थ – मरे हुए वनस्पति, जानवर या मनुष्य आदि वायुमण्डल में खुले छोड़ दिये जाएँ तो उन पर अनेक प्रकार के रोगों के कीटाणु, जीवाणु व विषाणु उगेंगे जो वायु-प्रदूषण उत्पन्न करेंगे।

7. जनसंख्या विस्फोट – पर्यावरण प्रदूषण का यदि एक सबसे प्रमुख कारण देना हो तो हम जनसंख्या विस्फोट कह सकते हैं। यदि संसार की जनसंख्या इतनी अधिक नहीं हुई होती तो आज प्रदूषण की बात भी नहीं उठती। यह अनुमान किया जाता है कि गत 100 वर्षों में केवल मनुष्य ने ही वायुमण्डल में 36 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ी है। यह मात्रा दिन-प्रति-दिन बढ़ती ही जा रही है।

8. परमाणु ऊर्जा – परमाणु ऊर्जा की प्राप्ति हेतु अनेक देश परमाणु विस्फोट कर रहे हैं और बहुत-से देश ऐसा करने के प्रयत्न में लगे हुए हैं। इस प्रयास के प्रक्रम में रेडियोसक्रिय पदार्थों को उठाने, चूरा करने, छानने, पीसने से कुछ वायु प्रदूषक (जैसे—यूरेनियम, बेरीलियम, क्लोराइड, आयोडीन, ऑर्गन, स्ट्रीशियम, सीजियम, कार्बन आदि) वायु में आ – मिलते हैं।

9. युद्ध – छोटे या बड़े देशों के मध्य जहाँ कहीं भी युद्ध होता है वहाँ का वातावरण गोलियाँ चलने, बम फटने एवं विषैले अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग से दूषित हो जाता हैं।

प्रश्न 3
पर्यावरण को शुद्ध रखने के सम्बन्ध में केन्द्र सरकार तथा उत्तर : प्रदेश सरकार ने कौन-कौन से उपाय किये हैं ? [2007]
या
पर्यावरण शुद्धि के लिए केन्द्र सरकार तथा उत्तर : प्रदेश सरकार ने कौन-से उपाय किए हैं? [2015]
उत्तर :

पर्यावरण को शुद्ध रखने के उपाय

पर्यावरण प्रदूषण की समस्या आज इतनी विस्फोटक हो चुकी है कि मानव अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो गया है। वर्तमान समय में हमें न तो शुद्ध वायु, जल तथा भोजन मिल रहा है और न शुद्ध पर्यावरण प्रदूषण की समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। वास्तव में, पर्यावरण के अशुद्ध होने से इस समस्या का जन्म हुआ है। अत: पर्यावरण को शुद्ध रखकर ही प्रदूषण की घातक समस्या का मुकाबला किया जा सकता है। पर्यावरण को निम्नलिखित उपायों द्वारा शुद्ध रखा जा सकता है

(क) वायु-प्रदूषण के उपाय – पर्यावरण प्रदूषण में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वायु-प्रदूषण है। वायु-प्रदूषण मनुष्य के जीवन और स्वास्थ्य के लिए सबसे अधिक हानिकारक है। वायु-प्रदूषण सबसे अधिक परिवहन के साधनों, उद्योगों व वनों की कटाई से होता है। अतः वायु-प्रदूषण को रोकने के लिए आवश्यक है कि
1. भारत जैसे विकासशील देश में, जहाँ नगरीकरण और औद्योगीकरण बढ़ रहा है, वायु प्रदूषण पर नियन्त्रण पाने के लिए वायुमण्डल की जाँच कराना प्रथम आवश्यक कार्य है, जिससे कि प्रदूषण के संकेन्द्रण को सीमा से अधिक बढ़ने से रोका जा सके।

2. धुआँ उगलने वाले परिवहन के साधनों की वृद्धि को रोका जाए तथा परिवहन के धुएँ की माप धुआँ मीटरों से की जाए। मोटर-परिवहन एक्ट को सख्ती से लागू किया जाए।

3. धुआँ उगलने वाली सरकारी व गैर-सरकारी गाड़ियों के लाइसेन्स तुरन्त जब्त कर लिये जाएँ और उन्हें शिकायत दूर करने और पूरी जाँच के बाद ही दोबारा प्रमाण-पत्र दिया जाए। रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशक दवाइयों का उपयोग आवश्यकतानुसार सीमित मात्रा में ही किया जाना चाहिए।

4. पर्यावरण में सन्तुलन बनाये रखने एवं वायु-प्रदूषण को दूर करने के लिए वन-क्षेत्र में वृद्धि की जाए तथा सामाजिक वानिकी को महत्त्व दिया जाए। इसके साथ-साथ वनों की अनियमित एवं अनियन्त्रित कटाई पर रोक लगायी जाए।

5. पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले उद्योगों को नगरों के मध्य स्थापित करने की अनुमति न दी जाए। बड़े कल-कारखाने नगरों से दूर स्थापित कराए जाएँ तथा उनसे प्रदूषण मुक्त सभी आवश्यक शर्तों का कठोरता से पालन कराया जाए। इसके साथ ही कल-कारखानों से धुआँ उगलने वाली चिमनियों पर प्रदूषण-रोधक यन्त्र (फिल्टर) लगाना अनिवार्य किया जाए।

6. नगरों के मध्य कूड़ा-करकट, मल, व्यर्थ पदार्थ, औद्योगिक अवशिष्ट व अपमार्जक आदि न डाले जाएँ। उनका उपयोग विद्युत बनाने में कराया जाए।
7. भारत सरकार का वायु प्रदूषण नियन्त्रण अधिनियम, 1981, जो उत्तर : प्रदेश में भी लागू है, का कड़ाई से पालन कराया जाए।

(ख) जल-प्रदूषण के उपाय – पर्यावरण को अशुद्ध करने में जल-प्रदूषण भी सबसे बड़ी समस्या है। जल को प्रदूषण से मुक्त करने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए –
ग्रामीण अंचल में –

  1. शौचालय तथा मल के गड्ढे खोदकर बनाये जाएँ।
  2. मल को नदियों व तालाबों में न बहाया जाए। इससे बेहतर खाद मिलेगा और जल-प्रदूषण की समस्या का स्वत: हल मिल जाएगा।
  3. कुओं पर जगत अवश्य बनायी जाए।
  4. जल को उबालकर तथा कुओं में दवाएँ डालकर शुद्ध किया जाए।

नगरीय क्षेत्रों में –

  1. जल संयन्त्रों से पानी साफ किया जाए और उनकी समुचित देखभाल की व्यवस्था की जाए।
  2. नदियों में कूड़ा-करकट, मल, व्यर्थ पदार्थ, औद्योगिक अवशिष्ट वे अपमार्जक न डाले जाएँ।
  3. नदियों में गिराये जाने वाले अवशिष्ट का उपचार किया जाए। प्रत्येक कारखाने पर औद्योगिक अवशिष्ट के लिए उपचार संयन्त्र लगाने की पाबन्दी लगायी जाए। इसके लिए कानून बनाये जाएँ और उनका कड़ाई से पालन कराया जाए।
  4. नदियों में अधजले शवों को बहाना रोका जाए और उनके लिए विद्युत शवदाह-गृहों का निर्माण किया जाए।
  5. देश में जल-प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम, 1974 बना हुआ है, जो उत्तर प्रदेश में भी लागू है। इसको प्रभावी ढंग से लागू करने की आवश्यकता है।
  6. जल-प्रदूषण रोकने के लिए उसकी चौकसी एवं निगरानी के लिए समितियाँ गठित हों, जिनमें सामाजिक कार्यकर्ता, सरकारी अधिकारी, प्रदूषण निरोधक समितियों के सदस्य तथा प्रदूषित क्षेत्रों के नागरिक होने चाहिए।
  7. जन-सामान्य को इस समस्या के प्रति जाग्रत किया जाए और उनकी सक्रिय साझेदारी प्राप्त की जाए।
  8. नदियों में पशुओं को ने नहलाया जाए तथा नदी इत्यादि में वस्त्रों की धुलाई पर रोक लगायी जाए।
  9. कुओं को ढककर रखा जाए तथा ढके हुए नल लगाकर पेयजल की व्यवस्था की जाए।
  10. नगरों में पेयजल का वितरण जल को शुद्ध करके किया जाए।

(ग) ध्वनि-प्रदूषण के उपाय – पर्यावरण को ध्वनि प्रदूषण भी प्रदूषित कर रहा है। ध्वनिप्रदूषण को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं

  1. वायुयानों, रेलों, बसों, कारों, स्कूटरों एवं मोटर साइकिलों आदि में शोर-शमन यन्त्र (साइलेंसर) ठीक काम करते हैं या नहीं इसकी पूरी देख-रेख की जाए। जहाँ ये ठीक काम न कर रहे हों वहाँ इनका सड़क पर चलना तुरन्त बन्द कराया जाए और इस व्यवस्था को न मानने वालों को दण्डित किया जाए।
  2. विदेशों की भाँति व्यर्थ एवं अनावश्यक रूप से हॉर्न बजाना रोका जाए। अनिवार्य स्थिति में ही हॉर्न बजाने की अनुमति हो। शहरों में ‘खामोश क्षेत्र घोषित किया जाए।
  3. कल-कारखाने व रेलवे स्टेशन आदि आवासीय क्षेत्रों से बाहर स्थापित कराए जाएँ तथा ध्वनि उत्पन्न करने वाली मशीनों के प्रयोग को सीमित किया जाए।
  4. वाद्य-यन्त्रों व लाउडस्पीकरों आदि के प्रयोग तथा उनकी तीव्र ध्वनि को नियन्त्रित एवं प्रतिबन्धित किया जाए।

(घ) अन्य उपाय-

  1. पर्यावरण को अशुद्ध करने में जनसंख्या में तीव्र वृद्धि भी मुख्य कारण है। अतः जनसंख्या-वृद्धि पर नियन्त्रण किया जाए।
  2. प्राकृतिक पर्यावरण के साथ अधिक छेड़छाड़ न की जाए, क्योंकि प्राकृतिक पर्यावरणीय कारकों के सन्तुलन को सीमा से अधिक बिगाड़ने पर भारी क्षति उठानी पड़ती है। वनों की अन्धाधुन्ध कटाई को रोका जाए।
  3. नगरीकरण के विस्तार को रोका जाए।
  4. पर्यावरणीय शिक्षा का प्रचार एवं जागृति जन-मानस में की जाए।
  5. उद्योग एवं नगर के विकास में पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी सम्बन्धी नीति का समावेश किया जाए।
  6. प्राकृतिक संसाधनों का शोषण योजनाबद्ध ढंग से किया जाए।
  7. पर्यावरण सन्तुलन को बिगड़ने से बचाया जाए।
  8. पर्यावरण सुरक्षा के नियम अधिक कठोर बनाये जाएँ।

पर्यावरण को शुद्ध बनाये रखने के सम्बन्ध में केन्द्र
सरकार द्वारा किये गये प्रयास

पर्यावरण को शुद्ध रखने के सम्बन्ध में केन्द्र सरकार ने निम्नलिखित उपाय किये हैं

  1. जल-प्रदूषण निवारण के लिए केन्द्र सरकार ने जल-प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम, 1974 बनाया है।
  2. केन्द्र सरकार ने गंगा को प्रदूषण से बचाने के लिए सन् 1986 में एक महत्त्वाकांक्षी योजना प्रारम्भ की, जिसके अन्तर्गत ‘गंगा प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड का गठन किया गया लगभग डेढ़ करोड़ रुपये की योजना बनायी जिससे नयीं सीवर लाइन, सीवेज पम्पिंग स्टेशन आदि का निर्माण कराया गया। कारखानों के मालिकों को औद्योगिक अवशिष्ट उपचार के यन्त्र लगाने को कहा गया।
  3. भारत की अन्य नदियों; जैसे यमुना, गोमती तथा अन्य प्रदेशों; जैसे केरल, ओडिशा, महाराष्ट्र और राजस्थान की कुछ नदियाँ, जो प्रदूषित हो गयी हैं; को प्रदूषण मुक्त करने के लिए भी योजना बनायी गयी, जिसके अन्तर्गत विद्युत शवदाह-गृहों का निर्माण, कारखानों के अवशिष्ट पदार्थों को नदियों में न गिराना आदि कार्यों पर बल दिया गया।
  4. परमाणु अस्त्रों को परीक्षण जो समुद्र में किया जाता है, उसको सीमित एवं नियन्त्रित करना।
  5. वायु-प्रदूषण हेतु वायु-प्रदूषण नियन्त्रण अधिनियम, 1981 बनाया हुआ है। वायु-प्रदूषण पर नियन्त्रण करने के लिए मोटर परिवहन ऐक्ट, नूयी औद्योगिक नीति एवं 1978 ई० में घोषित देश की नवीन वन नीति में पर्यावरण संरक्षण, वन क्षेत्रफल में वृद्धि एवं वनों की अनियमित एवं अनियन्त्रित कटाई को रोकना आदि पर विशेष बल दिया गया है।
  6. शुद्ध पर्यावरण बनाये रखने के लिए केन्द्र सरकार ने पर्यावरण मन्त्रालय की स्थापना की हुई है, जो पर्यावरण को संरक्षण प्रदान करने का कार्य करता है।
  7. केन्द्र सरकार को परिवार कल्याण मन्त्रालय’ जनसंख्या शिक्षा पर विशेष बल दे रहा
    है, जिससे प्रदूषण की समस्या हल हो सके, क्योंकि पर्यावरण प्रदूषण की समस्या का महत्त्वपूर्ण कारण तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या ही है।
  8. सन् 1985 में बहुप्रतिष्ठित कार्य योजना ‘गंगा एक्शन प्लान’ प्रारम्भ की गयी, जिसमें है 261 करोड़ व्यय करने का प्रावधान किया गया था। गंगा की योजना के दूसरे चरण हेतु केन्द्र सरकार ने 421 करोड़ स्वीकृत किये थे। इस योजना के अन्तर्गत यमुना, गोमती तथा दामोदर नदियों को प्रदूषण से मुक्त करना है। उक्त योजना जून, 1993 से प्रारम्भ की गयी
    थी, साथ ही राज्य सरकारों से योजना को कार्यरूप प्रदान करने हेतु कहा गया था।

इस योजना के अन्तर्गत हरियाणा के यमुना नगर, जगाधरी, करनाल, पानीपत, सोनीपत, गुड़गाँव, फरीदाबाद; उत्तर : प्रदेश के सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, गाजियाबाद, नोएडा, मथुरा, वृन्दावन, आगरा, इटावा, लखनऊ, सुल्तानपुर तथा जौनपुर और दिल्ली में यमुना नदी, हिंडन तथा गोमती नदियों की सफाई के लिए योजनाएँ चलाई जाती हैं।

9. वायु-प्रदूषण नियन्त्रण हेतु केन्द्रीय नियन्त्रण बोर्ड ने 1993 ई० तक देश के 92 प्रमुख नगरों में वायु गुणवत्ता की नियमित चेकिंग के लिए 290 स्टेशन      स्थापित किये हैं।

नयी रणनीति – पहली बार सरकार ने बढ़ते वाहन-प्रदूषण को रोकने के लिए नयी रणनीति बनायी है, जिसके अन्तर्गत निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं|

  1. वाहन उत्सर्जन मानक कड़े बनाये गये थे जिन्हें दो चरणों में सन् 1996 व 2000 ई० से लागू करने का प्रस्ताव था।
  2. वाहन-प्रदूषण को कम करने के लिए लेड मुक्त पेट्रोल, कैटालिटिक कन्वर्टर व कम्प्रेस्ड नेचुरल गैस (सी० एन० जी०) के पहलुओं पर तेजी से विचार किया गया है।

पर्यावरण को शुद्ध बनाये रखने के लिए उत्तर : प्रदेश सरकार
द्वारा किये गये प्रयास

पर्यावरण को शुद्ध बनाये रखने के लिए उत्तर : प्रदेश सरकार ने निम्नलिखित प्रयास किये हैं
1. उत्तर प्रदेश शासन ने पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने तथा उसके निदान के लिए पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी निदेशालय की स्थापना की।

2. शासन को पर्यावरण एवं प्रदूषण सम्बन्धी परामर्श देने के लिए मुख्यमन्त्री जी की अध्यक्षता में एक बोर्ड का गठन किया गया है। इसके सदस्य विभिन्न विभागों से सम्बन्धित विशेषज्ञ तथा मन्त्रिगण हैं। इस बोर्ड को जलवायु एवं मिट्टी के प्रदूषण, खनन, वातावरण की गन्दगी, नये उद्योगों की स्थापना, शहरों का विकास, ऐतिहासिक इमारतों की प्रदूषण से सुरक्षा इत्यादि कार्य निर्दिष्ट किये गये हैं। यह बोर्ड पर्यावरण सम्बन्धी ऐसे नीति-निर्धारण में शासन को आवश्यक परामर्श भी देता है जो विकास कार्यों के तालमेल में हो। इस बोर्ड तथा इसकी कार्यकारिणी समिति ने शासन को कई परामर्श दिये हैं, जिन पर सरकार कार्य कर रही है, जिनमें से निम्नलिखित कार्य उल्लेखनीय हैं

  1. विकास विभागों की वृहत् योजनाओं का पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी सन्तुलन की दृष्टि से पर्यवेक्षण किया जाए।
  2. पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के सन्तुलन हेतु वर्तमान अधिनियमों एवं नियमों में संशोधन किया जाए।
  3. उद्योग एवं नगर विकास में पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी सम्बन्धी नीति का समावेश किया जाए।
  4. पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी निदेशालय द्वारा प्रदेश के पर्यावरण संरक्षण के लिए एक वृहत् कार्यक्रम तैयार किया गया है। इस कार्यक्रम के मुख्य अंग निम्नवत् हैं

(क) भूमि एवं जल प्रबन्ध।
(ख) प्राकृतिक संसाधन, ऐतिहासिक इमारतों, सांस्कृतिक एवं पर्यटन स्थलों का संरक्षण।
(ग) पर्यावरण सम्बन्धी प्रदूषण।
(घ) मानव बस्ती।
(ङ) पर्यावरणीय शिक्षा एवं तत्सम्बन्धी ज्ञान की जन-मानस में जागृति।
(च) पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के दृष्टिकोण से नियमों एवं अधिनियमों में संशोधन।

संक्षेप में, प्रदेश सरकार पर्यावरण को संरक्षण प्रदान करने के लिए उपर्युक्त सभी कार्य कर रही है। भारत सरकार का वायु प्रदूषण अधिनियम, 1981 जो अपने प्रदेश में भी लागू है, वायु-प्रदूषण पर नियन्त्रण कर रहा है। इसी प्रकार जल-प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम, 1974 बना हुआ है, जो जल-प्रदूषण पर नियन्त्रण कर रहा है। प्रदेश में मोटर परिवहन ऐक्ट भी लागू है, जो धुआँ उगलने वाले एवं शोर करने वाले परिवहनों पर नियन्त्रण करके पर्यावरण को शुद्ध करने में सहायक है। पर्यावरण को शुद्ध रखने एवं पर्यावरण को संरक्षण प्रदान करने के लिए पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी विभाग, उत्तर : प्रदेश कार्यरत है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
प्रदूषण के चार प्रकार बताइए। [2007, 11, 13]
उत्तर :
वैज्ञानिकों ने प्रदूषण के पाँच प्रकार बताये हैं, जिनमें से चार निम्नलिखित हैं
1. वायु-प्रदूषण – वायु जीवन का एक प्रमुख तत्त्व है, जो सभी प्राणियों और वनस्पतियों के जीवन के लिए परम आवश्यक है। वायुमण्डल में हाइड्रो-कार्बनिक गैसों, विषैले धूलकणों तथा कल-कारखानों से निकलने वाले धुएँ के कारण जब वायु में हानिकारक तत्त्व बढ़ जाते हैं तो वायु का प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। इसे वायु-प्रदूषण कहते हैं।

2. जल-प्रदूषण – अनेक भौतिक, प्रौद्योगिक तथा मानवीय कारणों से जब जल का रूप प्राकृतिक नहीं रह जाता तथा उसमें गन्दे पदार्थों तथा विषाणुओं का समावेश हो जाता है, उसे जल-प्रदूषण कहते हैं।

3. ध्वनि-प्रदूषण – वातावरण में बहुत तेज और असहनीय आवाज से जो शोर उत्पन्न होता है, वही ध्वनि-प्रदूषण कहलाता है। शोर से उत्पन्न होने वाले इस प्रदूषण ने बड़े शहरों में। विकराल रूप धारण कर लिया है। मृदा-प्रदूषण-मृदा की रचना विभिन्न तरीके के लवण, गैस, खनिज पदार्थ, जल, चट्टानों एवं जीवाश्म आदि के मिश्रण से होती है। इन पदार्थों के अनुपात में जब हानिकारक परिवर्तन होने लगता है, तो उसी दशा को मृदा-प्रदूषण कहा जाता है। इसका मुख्य कारण। कीटनाशक दवाइयों और रासायनिक उर्वरकों का बढ़ता हुआ प्रयोग है।

प्रश्न 2
जल-प्रदूषण की रोकथाम के सन्दर्भ में ‘अवशिष्ट जल के उपचार’ एवं ‘पुनः चक्रण का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
अवशिष्ट जल का उपचार – कल-कारखानों के अवशिष्ट जल को नदी में भेजने से पहले उसका उपयुक्त उपचार करना आवश्यक होता है जिससे प्रदूषक नदी, झील या तालाब के जल को प्रदूषित न कर सकें, क्योंकि हमारे वाटर वर्ल्स इन्हीं से जल लेकर हमें पीने को देते हैं। सीवर के जल को भी शहर के बाहर दोषरहित बनाकर ही नदियों में छोड़ना चाहिए। कारखानों के जल से विषैले पदार्थ को ही नहीं बल्कि ऊष्मा को निकालकर ही उसे नदी में डालना चाहिए।

पुनः चक्रण – शहरी और औद्योगिक गन्दे जल को नदियों में मिलाने से पहले साफ करना और निथारना एक बड़ा खर्चीला काम है। अत: ठोस अवशिष्ट पदार्थों; जैसे-कूड़ा-करकट, सीवेज (मल-मूत्र) और अवशिष्ट जल से रासायनिक विधियों द्वारा अन्य उपयोगी पदार्थ बनाये जा सकते हैं। इस प्रकार हानि को लाभ में बदला जा सकता है। उदाहरणार्थ-पटना में मल-मूत्र व गन्दे जल से बायोगैस बन रही है जिससे पूरा मुहल्ला प्रभावित हो रहा है। बंगलुरू शहर में भी प्रदूषित जल से बायोगैस बनायी जा रही है।

प्रश्न 3
कार्बन मोनोऑक्साइड का वायुमण्डल में बढ़ता प्रवाह किस प्रकार की सामाजिक समस्याओं को जन्म दे रहा है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
वायुमण्डल को प्रदूषित करने में वाहनों से छोड़े जाने वाली कार्बन मोनोऑक्साइड गैस का प्रमुख हाथ है। नगरों में बसों, मोटरों, ट्रकों, टैम्पों तथा स्कूटर-मोटर साइकिलों से इतना अधिक कार्बन मोनोऑक्साइड धुआँ निकलता है कि सड़क पर चलने वाले लोगों का दम घुटने लगता है। यही कारण है कि बड़े नगरों में लोग विशेषकर बच्चे, श्वास रोगों से पीड़ित पाये जाने लगे हैं। इस प्रकार कार्बन मोनोऑक्साइड गैस स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न करती है।

स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के अतिरिक्त, कार्बन मोनोऑक्साइड निम्नलिखित सामाजिक समस्याओं को जन्म दे रहा है
1. पारिवारिक विघटन कार्बन मोनोऑक्साइड के कारण पर्यावरण प्रदूषण अप्रत्यक्ष रूप से हमारे जीवन को विघटित करने वाला एक प्रमुख स्रोत है। जैसे-जैसे पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि होती है, व्यक्ति की कार्यक्षमता तथा उसके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगता है। इससे परिवार में आर्थिक समस्याएँ पैदा हो जाती हैं तथा आजीविका अर्जित करने वाले व्यक्तियों में मानसिक तनाव बढ़ने लगता है। परिवार के सदस्यों में सम्बन्ध मधुर नहीं रहते, बल्कि वे तनावग्रस्त हो जाते हैं। धीरे-धीरे परिवार में बढ़ते हुए तनाव पारिवारिक विघटन का कारण बन जाते हैं।

2. अपराधों में वृद्धि-मनोवैज्ञानिकों तथा समाजशास्त्रियों के सर्वेक्षण से यह भी स्पष्ट हुआ है कि जो व्यक्ति अधिक मानसिक तनाव में रहते हैं, वे सरलता से अपराधों की ओर बढ़ जाते हैं। यही कारण है कि गाँव की अपेक्षा बड़े नगरों में अपराध की दर अधिक होती है।

प्रश्न 4
प्रदूषण नियन्त्रण हेतु चार प्रमुख उपायों की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
प्रदूषण नियन्त्रण हेतु चार प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं

  1. पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम, 1986 के द्वारा केन्द्र और राज्य बोर्डो को पर्यावरण के अतिरिक्त उत्तर :दायित्व सौंपे गये हैं।
  2. जल (प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण) उपकर अधिनियम, 1977 के तहत जल का उपभोग करने वाले उद्योगों से उपकर वसूल किया जाता है। यह उपकर राज्यों को बाँटा जाता है।
  3. जल गुणवत्ता का मूल्यांकन-नदियों की जल गुणवत्ता की निगरानी हेतु 170 निगरानी केन्द्र स्थापित किये गये हैं।
  4. राष्ट्रीय परिवेश वायु-गुणवत्ता निगरानी नेटवर्क-ये केन्द्र वायु में व्याप्त धूल-कणों, सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन के ऑक्साइडों के सम्बन्ध में वायु-गुणवत्ता की निगरानी करते हैं।

प्रश्न 5
ध्वनि-प्रदूषण क्या है ? इसके प्रकार बताइए। या शोर (ध्वनि) प्रदूषण के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर :
कम्पन्न करने वाली प्रत्येक वस्तु ध्वनि उत्पन्न करती है और जब ध्वनि की तीव्रता अधिक हो जाती है तो वह कानों को अप्रिय लगने लगती है। इस अप्रिय अथवा उच्च तीव्रता वाली ध्वनि को शोर कहा जाता है। तीखी ध्वनि या आवाज को शोर कहते हैं। ध्वनि की तीव्रता नापने की इकाई डेसीबेल (decibel or dB) है जिसका मान 0 से लेकर 120 तक होता है। डेसीबेल पैमाने पर ‘शून्य’ ध्वनि की तीव्रता का वह स्तर है जहाँ से ध्वनि सुनाई देनी आरम्भ होती है। 85 से 95 डेसीबेल शोर सहने लायक और 120 डेसीबेल या उससे अधिक का शोर असह्य होता है।

ध्वनि-प्रदूषण के स्रोत – ध्वनि-प्रदूषण मुख्यत: दो प्रकार के स्रोतों से होता है-
1. प्राकृतिक स्रोत – बिजली की कड़क, बादलों की गड़गड़ाहट, तेज हवाएँ, ऊँचे स्थान से गिरता जल, आँधी, तूफान, ज्वालामुखी का फटना एवं उच्च तीव्रता वाली जल-वर्षा।
2. कृत्रिम स्रोत – ये स्रोत मानवजनित हैं; उदाहरणार्थ-मोटर वाहनों से उत्पन्न होने वाला शोर, वायुयान, रेलगाड़ी तथा उसकी सीटी से होने वाला शोर, लाउडस्पीकर एवं म्यूजिक सिस्टम से होने वाला शोर, टाइपराइटर की खड़खड़ाहट, टेलीफोन की घण्टी आदि से होने वाला शोर।।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
संक्षेप में बताइए कौन-सी वस्तुएँ हमारे लिए पर्यावरण का निर्माण करती हैं ?
उत्तर :
संक्षेप में, जिस मिट्टी में पेड़-पौधे उगते और बढ़ते हैं, हम जिस धरती पर रहते हैं, जो पानी हम सब पीते हैं, जिस हवा में साँस लेकर सारे जीवधारी जीवित रहते हैं और जिन वस्तुओं को खाकर हम अपनी भूख मिटाते हैं, वे सब वस्तुएँ हमारे लिये पर्यावरण का निर्माण करती हैं।

प्रश्न 2
पर्यावरण प्रदूषण से आप क्या समझते हैं ? [2010]
उत्तर :
पर्यावरण के घटकों; जैसे-वायु, जल, भूमि, ऊर्जा के विभिन्न रूप के भौतिक, रासायनिक या जैविक लक्षणों का वह अवांछनीय परिवर्तन जो मानव और उसके लिए लाभदायक है, दूसरे जीवों, औद्योगिक प्रक्रमों, जैविक दशाओं, सांस्कृतिक विरासतों एवं कच्चे माल के साधनों को हानि पहुँचाता है, पर्यावरण प्रदूषण कहलाता है।

प्रश्न 3
प्रदूषण के चार कुप्रभाव बताइए। [2015, 16, 17]
उत्तर :

  1. वायु-प्रदूषण का कुप्रभाव-ओजोन-परत में छेद होने की सम्भावना से सारा विश्व भयाक्रांत हो उठा है।
  2. जल-प्रदूषण के कुप्रभाव-जल-प्रदूषण से अनेक बीमारियाँ; जैसे-हैजा, पीलिया, पेट में कीड़े, टायफाइड फैलती हैं।
  3. ध्वनि-प्रदूषण का कुप्रभाव-यह प्रदूषण मानव के कानों के परदों पर, मस्तिष्क और शरीर पर इतना घातक आक्रमण करता है कि विश्व के सारे डॉक्टर और वैज्ञानिक इससे चिन्तित हैं।
  4. मृदा-प्रदूषण का कुप्रभाव–दूषित मृदा में रोगों के जीवाणु पनपते हैं जिनसे मनुष्यों और अन्य जीवों में रोग फैलते हैं।

प्रश्न 4
प्रदूषण रोकने में वृक्षारोपण की भूमिका बताइए।
उत्तर :
वृक्षारोपण और वनों को लगाने से वायुमण्डल में ऑक्सीजन व कार्बन डाइऑक्साइड का सन्तुलन नहीं बिगड़ता। आधुनिक वैज्ञानिकों का मत है कि यदि आबादी का 23% वन हों तो वायु-प्रदूषण से हानि नहीं पहुँचती है। वनों का काटा जाना तत्परता से रोका जाना चाहिए। ऐसे कानून बनाये जाने चाहिए जिनसे वनोन्मूलन को दण्डनीय अपराध करार दिया जा सके।

प्रश्न 5
जल-प्रदूषण के क्या कारण हैं?
उत्तर :
औद्योगीकरण, नगरीकरण, समुद्रों में अस्त्रों का परीक्षण, नदियों में अधजले शवों, जानवरों की लाश व अस्थि-विसर्जन करना, रासायनिक उर्वरक व कीटनाशकों का जल में मिलना, घरों से निकलने वाले विभिन्न प्रकार से दूषित जल का जलाशयों व नदियों आदि में मिलना जलप्रदूषण के प्रमुख कारण हैं।

प्रश्न 6
जल-प्रदूषण से किन-किन रोगों के होने की सम्भावना रहती है ?
उत्तर :
प्रदूषित जल के उपयोग से अनेक रोगों के होने की सम्भावना रहती है; जैसे-पक्षाघात, पोलियो, पीलिया (Jaundice), मियादी बुखार (Typhoid), हैजा, डायरिया, क्षय रोग, पेचिश, इन्सेफेलाइटिस, कन्जंक्टीवाइटिस आदि। यदि जल में रेडियोसक्रिय पदार्थ और लेड, क्रोमियम, आर्सेनिक जैसी विषाक्त धातु हों तो कैंसर तथा कुष्ठ जैसे भयंकर रोग हो सकते हैं। वर्ष 1988 में केवल दिल्ली में प्रदूषित जल सेवन से एक हजार से अधिक लोगों की मृत्यु हुई।

प्रश्न 7
वायु-प्रदूषण के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
नगरीकरण, औद्योगीकरण एवं अनियन्त्रित भवन-निर्माण, परिवहन के साधन (ऑटोमोबाइल), वनों का बड़ी मात्रा में कटान, रसोईघरों व कारखानों की चिमनियों से निकलने वाला धुआँ तथा युद्ध, आणविक विस्फोट एवं दहन की क्रियाएँ आदि वायु प्रदूषण के कारण हैं।

प्रश्न 8
वायु-प्रदूषण निराकरण के कोई चार उपाय बताइए।
उत्तर :
वायु प्रदूषण निराकरण के चार उपाय निम्नलिखित हैं|

  1. परिवहन के साधनों पर धुआँ रहित यनत्र लगाना।
  2. बड़ी मात्रा में वृक्षारोपण करना।।
  3. रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के प्रयोग को नियन्त्रित करना।
  4. घरों में बायोगैस, पेट्रोलियम गैस या धुआँ रहित चूल्हों का प्रयोग करना।

प्रश्न 9
प्राकृतिक प्रदूषक से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर :
कुछ प्रदूषक; जैसे-परागकण, कवक, निम्नतर पौधों के बीजाणु, ज्वालामुखी पर्वतों से निकलने वाली गैसें, मार्श गैस, तटीय प्रदेश में नमक के अत्यन्त सूक्ष्म कण आदि प्राकृतिक रूप में वायु में आ मिलते हैं और उसे प्रदूषित कर देते हैं। इन्हें प्राकृतिक प्रदूषक कहते हैं।

प्रश्न 10
प्रदूषक के रूप में कार्बन मोनोक्साइड का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
मोटरगाड़ियों, औद्योगिक संयन्त्रों, घर के चूल्हों तथा सिगरेट के धुएँ से कार्बन मोनोक्साइड व कार्बन डाइऑक्साइड वायु में मिलती हैं, जो श्वसन की क्रिया में रक्त के हीमोग्लोबिन के साथ मिलकर ऑक्सीजन के उचित संचरण के कार्य को रोक देती हैं। शरीर की सभी कोशिकाओं को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन नहीं मिलने के कारण, थकान, सिरदर्द, काम करने की अनिच्छा, दृष्टि-संवेदनशीलता में कमी तथा हृदय व रक्त-संचार में शिथिलता आदि विकार उत्पन्न होते हैं। इन गैसों (विशेषकर CO) की अधिकता से मनुष्य की मृत्यु तक हो सकती है।

प्रश्न 11
‘जनसंख्या विस्फोट कैसे प्रदूषक है ?
उत्तर :
पर्यावरण प्रदूषण का यदि एक सबसे प्रमुख कारण बताना हो तो नि:सन्देह जनसंख्या विस्फोट को माना जा सकता है। यदि संसार की जनसंख्या इतनी अधिक नहीं हुई होती तो आज प्रदूषण की बात भी नहीं उठती। यह अनुमान किया जाता है कि गत 100 वर्षों में केवल मनुष्य ने ही वायुमण्डल में 36 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ी है। यह मात्रा दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
प्रदूषण से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
जब पर्यावरण में असन्तुलन पैदा हो जाता है और निर्भरता नष्ट हो जाती है, तो उसे प्रदूषण कहते हैं।

प्रश्न 2
प्रदूषक किसे कहते हैं ?
उत्तर :
जिन पदार्थों की कमी या अधिकता के कारण प्रदूषण उत्पन्न होता है, उन्हें प्रदूषक कहते हैं; जैसे-धूल, धुआँ।

प्रश्न 3
पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम कब बना था ?
उत्तर :
पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम 1986 ई० में बना था।

प्रश्न 4
भारत में पानी के मुख्य स्रोत क्या हैं ?
उत्तर :
भारत में पानी के मुख्य स्रोत कुएँ, तालाब, झरने और नदियाँ हैं।

प्रश्न 5
समुद्रों में प्रदूषण कैसे होता है ?
उत्तर :
समुद्रों में जहाजरानी, परमाणु अस्त्रों के परीक्षण, समुद्र में फेंकी गयी गन्दगी, मल-विसर्जन एवं औद्योगिक अवशिष्टों के विषैले तत्त्वों के कारण समुद्री जल निरन्तर प्रदूषित होता रहता है।

प्रश्न 6
जल-प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम कब बना था ?
उत्तर :
जल-प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम 1974 ई० में बना था।

प्रश्न 7
वायु-प्रदूषण क्या है ?
उत्तर :
वायु के भौतिक, रासायनिक या जैविक घटकों का वह परिवर्तन जो मानव व उसके लाभदायक जीवों व वस्तुओं पर प्रतिकूल प्रभाव डाले, वायु-प्रदूषण कहलाता है।

प्रश्न 8
ओजोन परत क्या है और इसकी क्या महत्ता है ?
उत्तर :
ओजोन परत पृथ्वी का ऐसा रक्षा-कवच है जो सूर्य तथा अन्य आकाशीय पिण्डों से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी विकिरणों से हमारी रक्षा करती है।

प्रश्न 9
स्वचालित वाहनों से कौन-सी गैस निकलती है ?
उत्तर :
स्वचालित वाहनों से कार्बन मोनोऑक्साइड गैस निकलती है।

प्रश्न 10
भारत में सर्वाधिक ध्वनि-प्रदूषण वाला नगर कौन-सा है ?
उत्तर :
मुम्बई भारत का सर्वाधिक ध्वनि-प्रदूषण वाला नगर है।

प्रश्न 11
ध्वनि की तीव्रता मापने की इकाई क्या है ?
उत्तर :
ध्वनि की तीव्रता मापने की इकाई डेसीबेल है।

प्रश्न 12
‘मानव परमाणु शक्ति के योग्य नहीं है।’ यह कथन किसका है ?
उत्तर :
यह कथन अलबर्ट आइन्सटाइन का है।

प्रश्न 13
प्रदूषण की श्रृंखला में सबसे बड़ा अभिशाप क्या और क्यों है ?
उत्तर :
परमाणु की श्रृंखला में रेडियोधर्मी-प्रदूषण सबसे बड़ा अभिशाप है, क्योंकि परमाणु रिऐक्टरों में आणविक प्रक्रमों से बचे कचरे को नष्ट करना एक समस्या है।

प्रश्न 14
रेडियोधर्मी-प्रदूषण को कम करने का क्या तरीका है ?
उत्तर :
रेडियोधर्मी-प्रदूषण को कम करने तरीका है कि परमाणु ऊर्जा की होड़ विश्व में समाप्त कर दी जाए।

प्रश्न 15
चिपको आन्दोलन का प्रणेता कौन है ? [2013, 15]
उत्तर :
सुन्दरलाल बहुगुणा चिपको आन्दोलन के प्रणेता हैं।

प्रश्न 16
चिपको आन्दोलन किससे सम्बन्धित है ? [2014]
उत्तर :
चिपको आन्दोलन वन-संरक्षण से सम्बन्धित है।

प्रश्न 17
प्रदूषण के चार प्रमुख प्रकार बताइए। [2015, 16, 17]
उत्तर :

  1. जल-प्रदूषण,
  2. वायु-प्रदूषण,
  3. ध्वनि-प्रदूषण तथा
  4. मृदा-प्रदूषण।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अक)

1. विश्व पर्यावरण दिवस कब मनाया जाता है ?
(क) 5 जून को
(ख) 24 अक्टूबर को
(ग) 24 जनवरी को
(घ) 15 अगस्त को

2. सूर्य की पराबैंगनी किरणों से पृथ्वी की रक्षा करती है|
(क) ऑक्सीजन परत
(ख) वायु में उपस्थित जल-कण
(ग) वायु में उपस्थित धूल-कण
(घ) ओजोन परत

3. प्रदूषण की श्रृंखला में सबसे बड़ा अभिशाप है [2013]
(क) मृदा प्रदूषण
(ख) ध्वनि प्रदूषण
(ग) रेडियोधर्मी प्रदूषण
(घ) जल प्रदूषण

4. मानव समाज में रोगों का कारण है [2013]
(क) प्रदूषित भोजन
(ख) प्रदूषित वायु
(ग) प्रदूषित जल
(घ) ये सभी

उत्तर:

  1. (क) 5 जून को,
  2. (घ) ओजोन परत,
  3. (ग) रेडियोधर्मी प्रदूषण,
  4. (घ) ये सभी

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 26 Problems of Scheduled Castes and Tribes

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 26 Problems of Scheduled Castes and Tribes (अनुसूचित जातियों और जनजातियों की समस्याएँ) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 26 Problems of Scheduled Castes and Tribes (अनुसूचित जातियों और जनजातियों की समस्याएँ).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 26
Chapter Name Problems of Scheduled Castes and Tribes (अनुसूचित जातियों और जनजातियों की समस्याएँ)
Number of Questions Solved 54
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 26 Problems of Scheduled Castes and Tribes (अनुसूचित जातियों और जनजातियों की समस्याएँ)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
अनुसूचित जाति से क्या आशय है ? इनकी समस्याओं का उल्लेख करते हुए भारत सरकार द्वारा किये गये निराकरण के प्रयास बताइए। [2010, 15]
या
भारत में अनुसूचित जातियों की दशाओं का वर्णन कीजिए। [2016]
या
अनुसूचित जातियों की प्रमुख समस्याओं को स्पष्ट कीजिए। [2007, 08, 09, 10, 11, 12, 13]
या
अनुसूचित जातियों की प्रगति के लिए चार सुझाव दीजिए। [2011]
या
भारत में अनुसूचित जनजातियों को समस्याओं की व्याख्या कीजिए। [2015]
या
भारत में अनुसूचित जातियों की स्थिति सुधारने के प्रमुख उपायों को लिखिए। [2010, 11]
या
अनुसूचित जातियों की प्रमुख समस्याओं के उन्मूलन के लिए किए गये प्रयासों को बताइए। [2011, 12]
या
अनुसूचित जनजातियों के विकास सम्बन्धी कार्यक्रमों का मूल्यांकन कीजिए। भारत में अनुसूचित जातियों की मुख्य समस्याएँ बताइए। [2014]
या
भारत में अनुसूचित जातियों की प्रमुख समस्याएँ क्या हैं? स्पष्ट कीजिए। [2015, 16]
या
अनुसूचित जातियों की प्रगति के लिए प्रमुख उपायों का सुझाव दें। [2015, 16]
या
जनजातियों की समस्याओं को दूर करने के महत्त्वपूर्ण उपायों का वर्णन कीजिए। [2016]
या
भारत में अनुसूचित जनजातियों की प्रमुख समस्याओं का विवेचन कीजिए। [2016]
उत्तर:
अनुसूचित जाति का अर्थ एवं परिभाषाएँ
भारत अनेक धर्मों और जातियों का देश है। समाज में व्याप्त विसंगतियों के कारण यहाँ की कुछ जातियाँ आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में पिछड़ गयीं। इन जातियों की नियोग्यताओं के कारण इन्हें अछूत या अस्पृश्य कहा गया। 2011 ई० की जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जातियाँ और अनुसूचित जनजातियाँ राष्ट्र की कुल जनसंख्या का लगभग एक-चौथाई भाग थीं। आर्थिक-धार्मिक नियोग्यताएँ लाद देने के कारण अनुसूचित जातियाँ राष्ट्र की मुख्य धारा से कट गयीं। सुख-सुविधाओं से वंचित रह जाने के कारण ये जातियाँ आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में पिछड़ गयीं। इन्हें समाज से बहिष्कृत कर दूर एक कोने में रहने के लिए बाध्य कर दिया गया। भारतीय संविधान में इन पिछड़ी और दुर्बल जातियों को सूचीबद्ध किया गया तथा इन्हें अनुसूचित जाति कहकर सम्बोधित किया गया। अनुसूचित जाति को विभिन्न विद्वानों ने निम्नवत् परिभाषित किया है|

डॉ० जी० एस० घुरिये के अनुसार, “मैं अनुसूचित जातियों को उस समूह के रूप में परिभाषित कर सकता हूँ जिनका नाम इस समय अनुसूचित जातियों के अन्तर्गत आदेशित है।”

डॉ० डी० एन० मजूमदार के अनुसार, “वे सभी समूह जो अनेक सामाजिक एवं राजनीतिक निर्योग्यताओं से पीड़ित हैं तथा जिनके प्रति इन निर्योग्यताओं को समाज की उच्च जातियों ने परम्परागत तौर पर लागू किया था, अस्पृश्य जातियाँ कही जा सकती हैं।”
“संविधान की धारा 341 और 342 में सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से जिन जातियों को सूचीबद्ध करके राष्ट्रपति द्वारा विज्ञप्ति जारी करके अनुसूचित घोषित किया है, अनुसूचित जातियाँ कहलाती हैं।”

संविधान की पाँचवीं अनुसूची में विशेष कार्यक्रम के लिए जिन जातियों का चुनाव किया गया है, उन्हें अनुसूचित जाति कहा जाता है। भारतीय संविधान में उत्तर प्रदेश की 66 जातियों को सूचीबद्ध करके अनुसूचित जाति घोषित किया गया है। इनमें घुसिया, जाटव, वाल्मीकि, धोबी, पासी और खटीक मुख्य हैं।

अनुसूचित जातियों की समस्याएँ
भारत की अनुसूचित जातियाँ अनेक समस्याओं और कठिनाइयों से ग्रसित हैं। ये समस्याएँ इनके विकास-मार्ग की प्रमुख बाधाएँ हैं। अनुसूचित जातियों की मुख्य समस्याएँ निम्नलिखित हैं

1. अस्पृश्यता की समस्या – भारत में अनुसूचित जातियों के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या अस्पृश्यता की रही है। उच्च जाति के व्यक्ति कुछ व्यवसायों; जैसे-चमड़े का काम, सफाई का काम, कपड़े धोने का काम आदि करने वाले व्यक्तियों को अपवित्र मानते थे। उनके साथ भोजन-पानी का सम्बन्ध नहीं रखते थे। इन्हें लोग अछूत कहते थे। अनुसूचित जाति अर्थात् नीची जाति की छाया पड़ना तक बुरा माना जाता था। पूजा-पाठ के स्थानों पर इनके जाने पर प्रतिबन्ध था, कहीं-कहीं पर तो अन्तिम-संस्कार के लिए भी इनका स्थान अलग निर्धारित किया जाता था। अत: अनुसूचित जातियों को अस्पृश्यता की समस्या का सामना करना पड़ता था।

2. निर्धनता की समस्या – अनुसूचित जाति के लोग आर्थिक दृष्टि से बहुत अधिक पिछड़ी स्थिति में रहे हैं। इनके पास स्वयं के साधन (खेती, व्यापार आदि) नहीं थे। अत: अधिकांशतः। इन्हें किसानों के यहाँ अथवा अन्य स्थानों पर मजदूरी करनी पड़ती थी। कृषि-क्षेत्र में इन्हें फसल का बहुत ही कम भाग मिल पाता था तथा मजदूरी भी नाम-मात्र की मिल पाती थी। आज भी अनुसूचित जाति के लोग निर्धनता की रेखा के नीचे अपना जीवन-यापन कर रहे हैं। निर्धनता के कारण अनुसूचित जाति के सदस्य ऋणों के भार से दब गये हैं। निर्धनता इनके लिए एक अभिशाप बनी हुई है।

3. अशिक्षा की समस्या – अनुसूचित जाति के लोग अज्ञानी व अशिक्षित हैं। सामान्य जनसंख्या के अनुपात में इनमें साक्षरता भी आधी है। परिवार के छोटे-छोटे बच्चों को ही काम पर लगा दिया जाता है, वे स्कूल से दूर रहते हैं और यदि स्कूल जाते भी हैं तो उनमें से आधे प्राथमिक स्तर पर ही रुक जाते हैं। अशिक्षा और अज्ञानता सभी बुराइयों का आधार होती है। इस कारण अनुसूचित जाति के लोगों में अनेक प्रकार की बुराइयों ने घर बना लिया है। अशिक्षा इनके विकास के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है।।

4. ऋणग्रस्तता की समस्या – अनुसूचित जाति के लोग निर्धन हैं, इसलिए ऋणग्रस्तता से पीड़ित हैं। ऋणग्रस्तता के कारण ये जिस किसान के यहाँ एक बार काम पर लग जाते हैं, पूरे जीवन वहीं पर बन्धक बने रहते हैं तथा जीवन भर ऋण-मुक्त नहीं हो पाते हैं। ऋण चुकाने का काम पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है, परन्तु उन्हें ऋण से मुक्ति ही नहीं मिल पाती। ऋणों से छुटकारा न मिल पाना इनकी नियति बन जाती है।

5. रहन-सहन का स्तर नीचा – अनुसूचित जाति के लोगों का जीवन-स्तर निम्न है। वे आधा पेट खाकर व अर्द्ध-नग्न रहकर जीवन व्यतीत करते हैं। निर्धनता और बेरोजगारी इनके रहनसहन के नीचे स्तर के लिए उत्तरदायी हैं।

6. आवास की समस्या – अनुसूचित जाति के निवास स्थान भी बहुत ही शोचनीय दशा में हैं। ये लोग गाँव के सबसे गन्दे और खराब भागों में ऐसी झोंपड़ियों में रहते हैं जहाँ सफाई का नामोनिशान नहीं होता। बरसात में ये झोंपड़े चूने लगते हैं। कच्चा फर्श और वर्षा का जल मिलकर इनके जीवन को नारकीय बना देता है। धन के अभाव में ये लोग कच्ची मिट्टी के घास-फूस के ढके आवास ही बना पाते हैं।

7. शोषण की समस्या – अनुसूचित जाति के लोगों को बेगार करनी पड़ती है। उच्च जाति के लोग उन्हें बिना मजदूरी दिये अनेक प्रकार के कार्य कराते हैं, इन लोगों के पास ऋण लेते समय गिरवी रखने के लिए भी कुछ नहीं होता। इसलिए वे ऋण के बदले में अपने परिवार के स्त्री तथा बच्चों की स्वतन्त्रता को गिरवी रख देते हैं। यह दोसती पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। शोषण इनके जीवन को अभावमय और खोखला बना देता है। शोषण की समस्या के कारण इनका जीवन दुःखपूर्ण हो जाता है।

8. बेरोजगारी की समस्या – अनुसूचित जाति के सामने बेकारी और अर्द्ध-बेकारी की समस्या भी गम्भीर है। रोजगार के अभाव में अनुसूचित जाति के लोग अपना गाँव छोड़कर अपने परिवार के सदस्यों के साथ नगरीय क्षेत्रों की ओर पलायन कर जाते हैं, जिसके कारण उनके बच्चों की शिक्षा नहीं हो पाती तथा उनका चारित्रिक व नैतिक पतन भी होता है। बेरोजगारी के कारण निर्धनता का जन्म होता है, जो उनके जीवन में विष घोल देती है।

भारत सरकार द्वारा निराकरण (विकास) के लिए किये गये प्रयत्न (सुविधाएँ)

सरकार द्वारा अनुसूचित जाति व जनजाति की समस्याओं का निराकरण कर उन्हें सामान्य सामाजिक स्तर तक लाने के लिए अनेक प्रयत्न किये जा रहे हैं, जो निम्नवत् हैं

1. लोकसभा व विधानमण्डलों में स्थान आरक्षित – अनुसूचित जातियों के लिए लोकसभा में 545 सीटों में से 79 सीटें और 41 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। विधानसभाओं में भी अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित हैं।

2. सरकारी सेवाओं में स्थान सुरक्षित –
सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जातियों के लिए 15 प्रतिशत स्थान सुरक्षित रखे गये हैं।

3. पंचायतों में आरक्षण की व्यवस्था –
अनुसूचित जाति/जनजाति के सदस्यों के लिए जनसंख्या के अनुपात में तीनों स्तरों की पंचायतों (अर्थात् ग्राम-पंचायतों, क्षेत्र-समितियों तथा जिला परिषदों) में आरक्षण की व्यवस्था की गयी है, जिससे सामाजिक न्याय का मार्ग प्रशस्त हुआ है।

4. अनुसूचित जातियों के लिए अस्पृश्यता निवारण सम्बन्धी कानून –
संविधान में भी अस्पृश्यता को अपराध घोषित किया गया है। अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955 को और अधिक प्रभावशाली बनाने एवं दण्ड-व्यवस्था कठोर करने के लिए इसमें संशोधन कर 19 नवम्बर, 1976 से इसका नाम नागरिक अधिकार सुरक्षा अधिनियम, 1955 कर दिया गया है। इस अधिनियम के अनुसार किसी भी प्रकार से अस्पृश्यता के बारे में प्रचार करना या ऐतिहासिक व धार्मिक आधार पर अस्पृश्यता को व्यवहार में लाना अपराध माना जाएगा। इस अधिनियम का उल्लंघन करने पर जेल और दण्ड दोनों का प्रावधान है।

5. शैक्षिक कार्यक्रम –
अनुसूचित जाति/जनजातियों के छात्रों को नि:शुल्क शिक्षा, छात्रवृत्ति तथा पुस्तकीय सहायता दी जाती है। इन जातियों के छात्र-छात्राओं के लिए छात्रावासों की व्यवस्था के अतिरिक्त इनके लिए नि:शुल्क प्रशिक्षण की भी व्यवस्था है। मेडिकल कॉलेजों, इन्जीनियरिंग कॉलेजों व अन्य प्राविधिक शिक्षण-संस्थानों में अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के छात्रों के लिए स्थान सुरक्षित हैं।

6. आर्थिक उत्थान योजना –
अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के आर्थिक उत्थान और कुटीर उद्योगों व कृषि आदि के लिए सरकार द्वारा सहायता प्रदान की जाती है। अनुसूचित जनजाति के बहुलता वाले क्षेत्रों में विशेष विकास खण्ड खोले जा रहे हैं, जहाँ सामान्य से दोगुनी धनराशि विकास कार्यों के लिए व्यय की जाती है। मेडिकल, इन्जीनियरिंग तथा कानून के स्नातकों को आत्मनिर्भर बनाने हेतु निजी व्यवसाय करने के लिए राज्य द्वारा आर्थिक अनुदान प्रदान किया जाता है। भारत सरकार ने कुछ ऐसे आर्थिक कार्यक्रम प्रारम्भ भी किये हैं जिनका उद्देश्य अनुसूचित जातियों के लिए विशेष ऋण की सुविधा उपलब्ध कराना है।

7. स्वास्थ्य, आवास एवं रहन –
सहन के उत्थान की योजनाएँ – अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों की दीन दशा के कारण सरकार द्वारा इन्हें भूमि और अंनुदान प्रदान किया जाता है। भूमिहीन श्रमिकों को नि:शुल्क कानूनी सहायता भी दी जाती है। उत्तर प्रदेश सरकार ने वर्ष 1993 में निर्णय लिया था कि अनुसूचित जाति बाहुल्य क्षेत्रों में 47 और अनुसूचित जनजाति बाहुल्य क्षेत्रों में 5 राजकीय होम्योपैथिक चिकित्सालय स्थापित किये जाएँगे। अनुसूचित जाति/जनजाति के सदस्यों की जमीन जिलाधिकारी के पूर्वानुमोदन के बिना गैरअनुसूचित जाति/जनजाति के सदस्य को हस्तान्तरित करने सम्बन्धी नियम का कड़ाई के साथ पालन कराया जाएगा।
ग्रामीण क्षेत्रों में निर्बल वर्ग आवास-निर्माण तथा इन्दिरा आवास निर्माण और मलिन बस्ती सुधार कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। यही नहीं, भूमिहीनों को सीलिंग भूमि का आवंटन किया जा रहा है। एकीकृत ग्राम्य विकास कार्यक्रम, जवाहर रोजगार योजना, लघु औद्योगिक इकाइयों की स्थापना, समस्याग्रस्त ग्रामों में पेयजल व्यवस्था, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना के माध्यम से अनुसूचित जाति-जनजाति के स्वास्थ्य, रहन-सहन एवं आवास आदि के उत्थान के लिए सरकार द्वारा प्रयास किये जा रहे हैं।

8. अन्य उपाय – अनुसूचित जाति में सामाजिक चेतना जाग्रत करने के भी प्रयास किये जा रहे हैं। विभिन्न उत्सवों पर सामूहिक भोज, सांस्कृतिक कार्यक्रमों व प्रचार के अन्य माध्यमों द्वारा समानता का सन्देश पहुँचाया जा रहा है। राष्ट्रीय पर्वो को सामूहिक रूप से मनाने, सार्वजनिक खान-पान तथा अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन देकर अनुसूचित जातियों की समस्याओं का निराकरण किया जा रहा है।

प्रश्न 2
भारत में जनजातियों की समस्याओं का वर्णन कीजिए। [2016]
या
भारतीय जनजातियों की मुख्य समस्याएँ क्या हैं? उनके निवारण के सुझाव दीजिए। [2014]
या
अनुसूचित जनजातियों की मुख्य आर्थिक समस्याएँ बताइए। [2007]
या
जनजातियों की प्रमुख समस्याओं पर प्रकाश डालिए। [2013, 15]
या
अनुसूचित जनजातियों की चार मुख्य समस्याएँ लिखिए। [2015]
उत्तर:
जनजातीय नर – नारी भारतीय समाज के अभिन्न अंग हैं। भारत की जनजातियों की समस्याएँ बहुत ही जटिल और विस्तृत हैं, क्योंकि आधुनिक विज्ञान और प्रगति से दूर रहने के कारण ये भारतीय समाज के पिछड़े हुए वर्ग हैं। भारतीय संविधान की छठी अनुसूची में जनजातियों को उल्लेख है। उन्हें अनुसूचित जनजातियाँ कहा गया है। भारतीय जनजातियों की समस्याएँ निम्नवत् हैं

(अ) सांस्कृतिक समस्याएँ – भारतीय जनजातियाँ बाहरी संस्कृतियों के सम्पर्क में आती जा रही हैं, जिसके कारण जनजातियों के जीवन में अनेक गम्भीर सांस्कृतिक समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं और उनकी सभ्यता के सामने एक गम्भीर स्थिति उत्पन्न हो गयी है। मुख्य सांस्कृतिक समस्याएँ निम्नलिखित हैं

1. भाषा सम्बन्धी समस्या – भारतीय जनजातियाँ बाहरी संस्कृतियों के सम्पर्क में आ रही हैं, जिसके कारण दो भाषावाद’ की समस्या उत्पन्न हो गयी है। अब जनजाति के लोग अपनी भाषा बोलने के साथ-साथ सम्पर्क भाषा भी बोलने लगे हैं। कुछ लोग तो अपनी भाषा के प्रति इतने उदासीन हो गये हैं कि वे अपनी भाषा को भूलते जा रहे हैं। इससे विभिन्न जनजातियों के लोगों में सांस्कृतिक आदान-प्रदान में बाधा उपस्थित हो रही है। इस बाधा के उत्पन्न होने से जनजातियों में सामुदायिक भावना में कमी आती जा रही है तथा सांस्कृतिक मूल्यों और आदतों का पतन होता जा रहा है।

2. जनजाति के लोगों में सांस्कृतिक विभेद, तनाव और दूरी की समस्या – जनजाति के कुछ लोग ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में आकर ईसाई बन गये हैं तथा कुछ लोगों ने हिन्दुओं की जाति-प्रथा को अपना लिया है, परन्तु ऐसा सभी लोगों ने नहीं किया है, जिसके कारण जनजाति के लोगों में आपसी सांस्कृतिक विभेद, तनाव और सामाजिक दूरी या विरोध उत्पन्न हुआ है। अन्य संस्कृति को अपनाने वाले व्यक्ति अपने जातीय समूह और संस्कृति से दूर होते गये, साथ-ही-साथ वे उस संस्कृति को भी पूरी तरह नहीं अपना पाये जिस संस्कृति को उन्होंने ग्रहण किया था।

3. युवा-गृहों का नष्ट होना-जनजातियों की अपनी संस्थाएँ व युवा – गृह, जो कि जनजातीय सामाजिक जीवन के प्राण थे, धीरे-धीरे नष्ट होते जा रहे हैं; क्योंकि जनजातीय लोग ईसाई तथा हिन्दू लोगों के सम्पर्क में आते जा रहे हैं, जिससे युवा-गृह’ नष्ट होते जा रहे हैं।

4. जनजातीय ललित कलाओं का ह्रास – ओज जैसे-जैसे जनजातियों के लोग बाहरी संस्कृतियों के प्रभाव में आते जा रहे हैं, उससे जनजातीय ललित कलाओं का ह्रास होता जा रहा है। नृत्य, संगीत, ललित कलाएँ, कलाएँ. वे लकड़ी पर नक्काशी आदि का काम दिन प्रतिदिन कम होता जा रहा है। जनजातियों के लोग अब इन ललित कलाओं के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं।

(ब) धार्मिक समस्याएँ – जनजातियों के लोगों पर ईसाई धर्म व हिन्दू धर्म का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। राजस्थान के भील लोगों ने हिन्दू धर्म के प्रभाव के कारण एक आन्दोलन चलायो, जिसका नाम था ‘भगत आन्दोलन’ और इस आन्दोलन ने भीलों को भगृत तथा अभगत दो वर्गों में विभाजित कर दिया। इसी प्रकार बिहार और असम की जनजातियाँ ईसाई धर्म से प्रभावित हुईं, जिसके परिणामस्वरूप एक ही समूह में नहीं, वरन् एक ही परिवार में धार्मिक भेद-भाव दिखाई पड़ने लगा। आज जनजातीय लोगों में धार्मिक समस्या ने विकट रूप धारण कर लिया है, क्योंकि नये धार्मिक दृष्टिकोण के कारण सामुदायिक एकता और संगठन टूटने लगे हैं और परिवारिक तनाव, भेद-भाव व लड़ाई-झगड़े बढ़ते जा रहे हैं। इसी के साथ-साथ जनजाति के लोग अपनी अनेक आर्थिक व सामाजिक समस्याओं का समाधान अपने धर्म के द्वारा कर लेते थे, परन्तु नये धर्मों के नये विश्वास और नये संस्कारों ने उन पुरानी मान्यताओं को भी समाप्त कर दिया है, जिसके कारण जनजातियों में असन्तोष की भावना व्याप्त होती जा रही है।

(स) सामाजिक समस्याएँ – जनजातियाँ सभ्य समाज के सम्पर्क में आती जा रही हैं, जिनके कारण उनके सम्मुख अनेक सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं, जो निम्नलिखिते हैं

1. कन्या-मूल्य – हिन्दुओं के प्रभाव में आने के कारण जनजातियों में कन्या-मूल्य रुपये के रूप में माँगा जाने लगा है। दिन-प्रतिदिन यह मूल्य अधिक तीव्रता के साथ बढ़ता जा रहा है, जिसका परिणाम यह हो रहा है कि सामान्य स्थिति के पुरुषों के लिए विवाह करना कठिन हो गया है। इस कारण जनजातीय समाज में ‘कन्या-हरण’ की समस्या बढ़ती जा रही है।

2. बाल-विवाह – जनजातीय समाज में बाल-विवाह की समस्या भी उग्र रूप धारण करती जा रही है। जिस समय से जनजाति के लोग हिन्दुओं के सम्पर्क में आये हैं, तभी से बाल-विवाह की प्रथा भी बढ़ी है।

3. वैवाहिक नैतिकता का पतन –
जैसे- जैसे जनजातियों के लोग सभ्य समाज के सम्पर्क में
आते जा रहे हैं, वैसे-वैसे विवाह-पूर्व और विवाह के पश्चात् बाहर यौन सम्बन्ध बढ़ते जा रहे हैं, जिससे विवाह-विच्छेद की संख्या भी बढ़ रही है।

4. वेश्यावृत्ति, गुप्त रोग आदि –
जनजातीय समाज में वेश्यावृत्ति, गुप्त रोग आदि से सम्बन्धित सामाजिक समस्याएँ बढ़ती जा रही हैं। जनजातीय लोगों की निर्धनता से लाभ उठाकर विदेशी व्यापारी, ठेकेदार, एजेण्ट आदि रुपयों का लोभ दिखाकर उनकी स्त्रियों के साथ अनुचित यौन-सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं। इन्हीं औद्योगिक केन्द्रों में काम करने वाले जनजातीय श्रमिक वेश्यागमन आदि में फंस जाते हैं और गुप्त रोगों के शिकार हो जाते हैं।

(द) आर्थिक समस्याएँ – आज भारत की जनजातियों में सबसे गम्भीर आर्थिक समस्या है, क्योंकि उनके पास पेटभर भोजन, तन ढकने के लिए वस्त्र और रहने के लिए अपना मकान नहीं है। कुछ प्रमुख आर्थिक समस्याएँ निम्नलिखित हैं

1. स्थानान्तरित खेती सम्बन्धी समस्या – जनजातीय व्यक्ति प्राचीन ढंग की खेती करते हैं, ‘ जिसे स्थानान्तरित खेती कहते हैं। इस प्रकार की खेती से किसी प्रकार की लाभप्रद आय उन्हें प्राप्त नहीं होती है। इस प्रकार की खेती से केवल भूमि का दुरुपयोग ही होता है। अत: खेती में अच्छी पैदावार नहीं होती है, जिससे वे खेती करना छोड़ देते हैं और भूखे मरने की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
2. भूमि-व्यवस्था सम्बन्धी समस्या – पहले जनजातियों का भूमि पर एकाधिकार था, वे मनमाने ढंग से उसका उपयोग करते थे। अब भूमि सम्बन्धी नये कानून आ गये हैं, अब वे मनमाने ढंग से जंगल काटकर स्थानान्तरित खेती नहीं कर सकते।

3. वनों से सम्बन्धित समस्याएँ – पहले जनजातियों को वनों से पूर्ण एकाधिकार प्राप्त था। वे जंगल की वस्तुओं, पशु, वृक्ष आदि का उपयोग स्वेच्छापूर्वक करते थे, परन्तु अब ये सब वस्तुएँ सरकारी नियन्त्रण में हैं।
4. अर्थव्यवस्था सम्बन्धी समस्याएँ – जनजाति के लोग अब मुद्रा-रहित अर्थव्यवस्था से मुद्रा-युक्त अर्थव्यवस्था में आ रहे हैं; अत: उनके सम्मुख नयी-नयी समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं।
5. ऋणग्रस्तता की समस्या – सेठ, साहूकार, महाजन उनकी अशिक्षा, अज्ञानता तथा निर्धनता का लाभ उठाकर उन्हें ऊँची ब्याज दर पर ऋण देते हैं, जिससे वे सदैव ऋणी ही बने रहते हैं।
6. औद्योगिक श्रमिक समस्याएँ – चाय बागानों, खानों और कारखानों में काम करने वाले जनजातीय श्रमिकों की दशा अत्यन्त दयनीय है। उन्हें उनके कार्य के बदले में उचित मजदूरी नहीं मिलती है, उनके पास रहने के लिए मकान नहीं हैं, काम करने की स्थिति एवं वातावरण भी ठीक नहीं है। जनजाति के श्रमिकों को अपने अधिकारों के विषय में भी ज्ञान नहीं है, वे पशुओं की भाँति कार्य करते हैं और उनके साथ पशुओं जैसा ही व्यवहार होता है।

(य) स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ – जनजाति के लोगों के सम्मुख स्वास्थ्य सम्बन्धी अनेक. समस्याएँ हैं, जो निम्नवत् हैं

1. खान-पान – निर्धनता के कारण जनजाति के लोगों को सन्तुलित व पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता है। वे शराब आदि मादक पदार्थों का सेवन करते हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ता है।

2. वस्त्र – जनजाति के लोग अब नंगे (वस्त्रहीन) न रहकर वस्त्र धारण करने लगे हैं, परन्तु निर्धनता के कारण उनके पास पर्याप्त वस्त्र उपलब्ध नहीं होते हैं। वस्त्रों के अभाव में वे लगातार एक ही वस्त्र को धारण किये रहते हैं, जिससे अनेक प्रकार के चर्म रोग आदि हो जाते हैं तथा वे बीमार भी हो जाते हैं।

3. रोग व चिकित्सा का अभाव – अनुसूचित जनजाति के लोग हैजा, चेचक, तपेदिक आदि अनेक प्रकार के भयंकर रोगों से ग्रस्त रहते हैं। इसके अतिरिक्त चाय बागानों व खानों में काम करने वाले स्त्री-पुरुष श्रमिकों में व्यभिचार बढ़ता जा रहा है। वे अनेक प्रकार के गुप्त रोगों से ग्रस्त होते जा रहे हैं। निर्धनता व चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में जनजाति के लोगों के सम्मुख स्वास्थ्य सम्बन्धी गम्भीर समस्याएँ हैं।

4. शिक्षा सम्बन्धी समस्याएँ – जनजातियाँ आज भी अशिक्षा तथा अज्ञानता के वातावरण में रह रही हैं। कुछ लोग ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में आकर अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं। अशिक्षा समस्त समस्याओं का आधार है। अशिक्षा के कारण ही जनजातीय समाज में आज भी अनेक प्रकार के अन्धविश्वास पनप रहे हैं। (निवारण के सुझाव-इसके लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या 4 का उत्तर देखें।

प्रश्न 3
भारत में अल्पसंख्यकों अर्थात् अल्पसंख्यक वर्गों की कुछ समस्याओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
भारत एक विभिन्नताओं वाला देश है। इस देश में विभिन्न प्रकार की भूमि, विभिन्न प्रकार की जलवायु, विभिन्न धर्म, विभिन्न जातियाँ, विभिन्न भाषाएँ एवं विभिन्न प्रकार के रीतिरिवाज पाये जाते हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि यहाँ के लोग विभिन्न आधारों पर अनेक समूहों में विभाजित रहते हैं। यह विभाजन धर्म, सम्प्रदाय, जाति, व्यवसाय, आयु, लिंग, शिक्षा आदि किसी भी आधार पर हो सकता है। इन सभी समूहों की सदस्य संख्या समान नहीं है। किसी समूह में अधिक लोग रहते हैं और किसी में सदस्यों की संख्या बहुत कम होती है।

इस प्रकार किसी विशेष आधार पर बने सामाजिक समूहों में, जिनकी संख्या अपेक्षाकृत कम होती है, उन्हें हम अल्पसंख्यक समूह अथवा अल्पसंख्यक (Minorities) कहते हैं। भारत में मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध, जैन, पारसी आदि धर्मावलम्बियों तथा जनजातियों को अल्पसंख्यकों की श्रेणी में रखा जाता है। भारतीय समाज में पाया जाने वाला सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समूह मुस्लिम है। दूसरा प्रमुख अल्पसंख्यक सम्प्रदाय ईसाइयों का है। सिक्खों का भी अल्पसंख्यक वर्गों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके अतिरिक्त बौद्ध, जैन, पारसी एवं जनजातियाँ अन्य अल्पसंख्यक समूह हैं।

अल्पसंख्यकों की समस्या

भारत में रहने वाले अल्पसंख्यक समूहों की अनेक समस्याएँ हैं। यद्यपि संविधान द्वारा अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को सुरक्षित रखने का पूर्ण अधिकार दिया गया है, किन्तु संविधान में तथा प्रचलित कानूनों में उपलब्ध संरक्षणों के बावजूद भी अल्पसंख्यकों में यह भावना बनी हुई है कि उनके साथ समानता का व्यवहार नहीं किया जाता। यहाँ हम भारत के प्रमुख अल्पसंख्यकों की कुछ प्रमुख समस्याओं पर प्रकाश डालेंगे

1. मुसलमानों की समस्याएँ – समकालीन भारत में मुसलमानों की कुछ प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं

  1.  यद्यपि संविधान में कहा गया है कि धार्मिक आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता, किन्तु सामान्य मुसलमान स्वयं को मानसिक दृष्टि से असुरक्षित समझता है।
  2. मुस्लिम समुदाय का अधिकांश भाग अपने रूढ़िवादी विचारों के कारण अशिक्षित रह गया है जिसके कारण उन्हें विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ता है। अशिक्षी एवं रूढ़िवादिता के कारण उन्हें आर्थिक विकास के पूर्ण अवसर उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। आमतौर पर वे परम्परागत व्यवसायों को ही अपनाते हैं तथा सरकारी नौकरियों व श्वेतवसन व्यवसायों में नहीं जा पाते।।
  3.  मुस्लिम समाज सांस्कृतिक दृष्टि से भी स्वयं को बहुसंख्यक वर्गों से भिन्न समझता है। उनकी यह भावना पृथकता के भाव को प्रोत्साहित करती है।
  4. स्वाधीन भारत का मुस्लिम सम्प्रदाय राजनीतिक दृष्टि से दिशाहीन प्रतीत होता है। योग्य मुस्लिम नेतृत्व का अभाव दिखायी देता है। जिन नेताओं ने स्वयं को राजनीतिक मंच पर प्रतिष्ठित किया है, वे कठिनता से ही मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं।

2. ईसाइयों की समस्याएँ – ईसाइयों की कुछ प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं

  1.  ईसाइयों का रहन-सहन, मौज-मस्ती को होता है। यह प्रवृत्ति उनमें ऋणग्रस्तता को जन्म देती है।
  2.  यद्यपि ईसाई लोग स्वयं को अंग्रेजों से सम्बन्धित मानते हैं, किन्तु वे किसी निश्चित जीवन शैली (अंग्रेजी अथवा भारतीय) को नहीं अपना पाते। एक से उनका लगाव नहीं है, तो दूसरा उनके लिए सम्भव नहीं है।
  3.  चूंकि ईसाइयों में विवाह-विच्छेद (Divorce) एक आम-बात है, इसलिए इसका बुरा प्रभाव स्त्रियों की स्थिति और आश्रितों पर पड़ता है।

3. सिक्खों की समस्याएँ – सिक्खों की प्रमुख समस्याएँ निम्न प्रकार हैं

  1. सिक्खों का एक वर्ग अधिक सम्पन्न है, तो दूसरा वर्ग दरिद्र भी है।
  2.  सिक्खों के साथ भारत के अन्य भागों के लोग अन्त:क्रिया के पक्ष में नहीं हैं।
  3.  सिक्खों के एक वर्ग द्वारा धर्म को राजनीति से जोड़ने का प्रयत्न किया गया है। अतः
    उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती धर्म को राजनीति से पृथक् करने की है।

प्रश्न 4
भारत में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के विकास के लिए सामाजिक चेतना संवैधानिक आरक्षण से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। सविस्तार वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अनुसूचित जातियाँ तथा जनजातियाँ भारत के एक विशाल वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं। समाज के इतने बड़े वर्ग की उपेक्षा करके उन्हें मानवोचित अधिकारों से वंचित रखकर, दीन-हीन और दासों के समान जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य करके सामाजिक प्रगति और राष्ट्र को समृद्ध एवं वैभवशाली बनाने की कल्पना नहीं की जा सकती।
यद्यपि शासकीय स्तर पर इन जातियों व जनजातियों के उत्थान के लिए आरक्षण जैसे कदम उठाये जा रहे हैं, तथापि आवश्यकता इस बात की है कि इनकी समस्याओं के प्रति जनसाधारण को जाग्रत किया जाए।

अनुसूचित जातियों व जनजातियों के विकास हेतु यह आवश्यक है कि अधिकांश हिन्दुओं के हृदय परिवर्तित हों। हमें सही रूप से इनकी वर्तमान स्थिति का विश्लेषण करना चाहिए तथा निष्कर्ष निकालना चाहिए कि हमने तथा हमारे पूर्वजों ने क्यों इनके प्रति अन्यायपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया? हमें इनके प्रति पाली गयी सभी भ्रान्तियों से अपने-आप को मुक्त करना चाहिए। यह एक वास्तविकता है कि इनके प्रति अस्पृश्यता का भाव रखने का सम्बन्ध हिन्दू धर्म के मौलिक ग्रन्थों से नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे भी हमारी तरह इन्सान हैं तथा केवल शोर मचाने, नारे लगाने, हरिजन दिवस मनाने तथा आरक्षण से इनका विकास नहीं हो सकता। इनके विकास के लिए जनसाधारण में इनके प्रति न्यायपूर्ण एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार होना अति आवश्यक है।

विश्लेषकों का कहना है कि अनुसूचित जाति व जनजातियों की समस्याएँ प्रमुखतः आर्थिक व सामाजिक हैं। यदि इन्हें गन्दे पेशों से मुक्त होने का अवसर दिया जाए, इनके लिए विभिन्न क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ाए जाएँ, सवर्णो की बस्तियों में मकान बनाने और रहने की सुविधा दी जाए तो सवर्णो तथा इन जातियों के बीच भेदभाव को कम किया जा सकता है। यह दृष्टिकोण भी इनके विकास में सहायक सिद्ध होगा। जनसाधारण का इनके प्रति समझदारी तथा प्रेम से भरा व्यवहार इन लोगों में सामाजिक सुरक्षा की भावना का विकास करेगा जिससे इनमें आत्मविश्वास बढ़ेगा तथा जागृति आएगी।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1:
राष्ट्रीय जीवन में अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के योगदान का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
या
‘भारतीय जनजातीय जीवन का बदलता दृश्य पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए।[2010]
या
राष्ट्रीय जीवन में जनजातियों के योगदान का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों का राष्ट्रीय जीवन में योगदान निम्नलिखित रूपों में दर्शाया जा सकता है
1. भारतीय राजनीति में प्रभावक भूमिका – संसद और राज्य विधानमण्डलों में अनुसूचित जनजातियों की सदस्य संख्या, विभिन्न चुनावों में उनकी सक्रिय भागीदारी तथा उच्च राजनीतिक पदों पर उनकी नियुक्ति से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि देश के राष्ट्रीय जीवन में इनका सक्रिय सहभाग अर्थात् योगदान बढ़ रहा है और इनमें राजनीतिक चेतना तेजी से बढ़ रही है। वर्तमान में लोकसभा में अनुसूचित जातियों के 79 एवं जनजातियों के 41 स्थान तथा राज्यों की विधानसभाओं में क्रमशः 557 तथा 527 सीटें आरक्षित की गयी हैं। पंचायतों एवं स्थानीय निकायों में जनसंख्या के अनुपात में इनकी सीटें आरक्षित की गयी हैं।

2. राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं में वृद्धि – अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को आरक्षण एवं संवैधानिक रियायतें प्राप्त हैं जिनका एक परिणाम यह सामने आया है कि इनके नेताओं की महत्त्वाकांक्षाओं में वृद्धि हुई है। अब वे राजनीतिक और प्रशासन के प्रत्येक स्तर पर ऊँची जातियों के लोगों से प्रतिस्पर्धा करने एवं आगे बढ़ने की आकांक्षा रखते हैं।

3. दबाव समूहों के रूप में संगठित होने की प्रवृत्ति – आरक्षण के परिणामस्वरूप जाति का राजनीति में प्रभाव बढ़ा है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद बनने वाले जातीय समुदायों में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों द्वारा निर्मित दबाव गुटों का विशेष महत्त्व है। जिला स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक इन जातियों एवं जनजातियों के संगठन पाये जाते हैं। इन्हीं संगठनों की माँग एवं संगठित प्रयासों के फलस्वरूप आरक्षण की अवधि सन् 2020 तक के लिए बढ़ा दी गयी थी।

4. निर्वाचनों में संगठित भूमिका – यह माना जाता है कि विभिन्न आम चुनावों में कांग्रेस दल के विजयी होने और सत्ता में आने का मुख्य कारण इन्हें हरिजनों, अन्य अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को मिलने वाला समर्थन है। इन जातियों ने अपनी संख्या की शक्ति को पहचाना है और राजनीति में संगठित रूप में भूमिका निभाते हैं। इससे राष्ट्रीय जीवन में इनकी भूमिका बढ़ी है। आज तो सभी राजनीतिक दल यह महसूस करने लगे हैं कि सत्ता में आने के लिए इन जातियों का समर्थन प्राप्त करना आवश्यक है।

5. भारतीय राजनीति में सन्तुलनकर्ता की भूमिका – अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की देश में कुल जनसंख्या 25 करोड़ है, जो देश की कुल जनसंख्या का 24.35 प्रतिशत है। इस संख्या के बल पर ही ये जातियाँ भारतीय राजनीति में शक्ति-सन्तुलन की स्थिति में हैं। जिस राजनीतिक दल को इनका समर्थन प्राप्त हो जाता है, उसकी राजनीतिक स्थिति काफी मजबूत हो जाती है।

6. अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के कई लोगों ने स्वतन्त्रता – आन्दोलन में भाग लिया। उन्होंने महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन में योग दिया। इससे उनमें राजनीतिक चेतना बढ़ी है। अनेक नेताओं ने अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की स्थिति को उन्नत करने और उन्हें राष्ट्रीय जीवन-धारा में सम्मिलित करने हेतु प्रयास किये हैं।

7. देश के आर्थिक विकास में भी अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों का काफी योगदान रहा है। खेतों, कारखानों, चाय-बागानों एवं खानों में इन जातियों के लोग ही उत्पादन के कार्य में प्रमुख भूमिका निभाते रहे हैं। हाथ से काम करने वाले या मेहनतकश लोगों में अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गों का योगदान ही सर्वाधिक रहा है। वर्तमान में अनेक अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लोग व्यापारी एवं उद्यमी के रूप में आगे बढ़ने लगे हैं।

प्रश्न 2:
अनुसूचित जाति व जनजाति की भारतीय राजनीति में सन्तुलनकर्ता के नाते क्या भूमिका है ?
उत्तर:
अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की देश में कुल जनसंख्या वर्तमान में 25 करोड़ है, जो देश की कुल जनसंख्या का 24.35 प्रतिशत है। इस संख्या के बल पर ही ये जातियाँ भारतीय राजनीति में शक्ति-सन्तुलन की स्थिति में हैं। जिस राजनीतिक दल को इनका समर्थन प्राप्त हो जाता है, उसकी राजनीतिक स्थिति पर्याप्त मजबूत हो जाती है। इन जातियों ने अपने हितों को ध्यान में रखकर पहले कांग्रेस दल को समर्थन दिया था। वर्तमान में कांग्रेस के अलावा अन्य राजनीतिक दलों ने भी अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों में अपना नाम बढ़ाया है और अपने जनाधार को मजबूत किया है। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है वर्तमान समय में भारतीय राजनीति में अनुसूचित जाति और जनजाति की सन्तुलनकर्ता के रूप में एक प्रभावशाली भूमिका है, जिसके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता।

प्रश्न 3:
सीमाप्रान्त जनजातियों की समस्याएँ बताइए।
उत्तर:
उत्तर-पूर्वी सीमाप्रान्तों में निवास करने वाली जनजातियों की समस्याएँ देश के विभिन्न भागों की समस्याओं से कुछ भिन्न हैं। देश के उत्तर-पूर्वी प्रान्तों के नजदीक चीन, म्याँमार एवं बाँग्लादेश हैं। चीन से हमारे सम्बन्ध पिछले कुछ वर्षों से मधुर नहीं रहे हैं। बाँग्लादेश, जो पहले पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था, भारत का कट्टर शत्रु रहा है। चीन एवं पाकिस्तान ने सीमाप्रान्तों की जनजातियों में विद्रोह की भावना को भड़काया है, उन्हें अस्त्र-शस्त्रों से सहायता दी है एवं विद्रोही नागा और अन्य जनजातियों के नेताओं को भूमिगत होने के लिए अपने यहाँ शरण दी है। शिक्षा एवं राजनीतिक जागृति के कारण इस क्षेत्र की जनजातियों ने स्वायत्त राज्य की माँग की है। इसके लिए उन्होंने आन्दोलन एवं संघर्ष किये हैं। आज सबसे बड़ी समस्या सीमावर्ती क्षेत्रों में निवास करने वाली जनजातियों की स्वायत्तता की माँग से निपटना है। ।

प्रश्न 4
जनज़ातियों की प्रगति के लिए प्रमुख उपायों का सुझाव दीजिए। [2009, 13]
उत्तर:
जनजातियों की प्रगति के लिए निम्नलिखित प्रमुख उपाय किये जा सकते हैं
1. जनजातियों के पेशे गन्दे होते हैं। इनको पेशों से मुक्त होने का अवसर दिया जाए।
2. विभिन्न क्षेत्रों में काम करने के लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध कराए जाएँ।
3. कुटीर उद्योग लगाने के लिए ब्याज मुक्त ऋण उपलब्ध कराया जाए।
4. भूमिहीन किसानों को भूमि उपलब्ध करायी जाए तथा फसल को बोने के लिए उत्तम बीज व खाद उपलब्ध करायी जाए।
5. इन्हें सवर्णो के साथ बस्तियों में मकान बनाने की सुविधा उपलब्ध करायी जाए।
6. अन्य जातियों के साथ उत्पन्न होने वाले मतभेदों को दूर किया जाए।
7. जनजातियों की स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाया जाए।
8. इन्हें शिक्षित बनाने के लिए मुफ्त शिक्षा और प्रौढ़ शिक्षा व्यवस्था को कारगर बनाया जाए।
9. सरकारी सेवाओं में इनके लिए कुछ स्थान सुरक्षित किये जाएँ।
10. जनजातियों की प्रगति के लिए सामाजिक सुरक्षा योजना चलाने की भी आवश्यकता है।

प्रश्न 5
अनुसूचित जनजातियों पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए किये गये उपायों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों पर अत्याचार रोकने के प्रभावी उपाय के लिए, भारत सरकार ने अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989′ 30 जनवरी, 1990 से लागू किया। इसमें अत्याचार की श्रेणी में आने वाले अपराधों के उल्लेख के साथ-साथ उनके लिए कड़े दण्ड की भी व्यवस्था की गयी। वर्ष 1995 में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अन्तर्गत व्यापक नियम भी बनाये गये, जिनमें अन्य बातों के अतिरिक्त प्रभावित लोगों के लिए राहत और पुनर्वास की भी व्यवस्था है।

राज्यों से कहा गया कि वे इस तरह के अत्याचारों की रोकथाम के उपाय करें और पीड़ितों के आर्थिक तथा सामाजिक पुनर्वास की व्यवस्था करें। अरुणाचल प्रदेश और नागालैण्ड को छोड़कर अन्य सभी राज्यों तथा केन्द्रशासित प्रदेशों में इस तरह के मामलों में इस कानून के तहत मुकदमा चलाने के लिए विशेष अदालतें बनायी गयी हैं। अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लोगों पर अत्याचारों की रोकथाम के कानून के तहत आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में विशेष अदालतें गठित की जा चुकी हैं।
केन्द्र द्वारा प्रायोजित योजना के अन्तर्गत इस कानून को लागू करने पर आने वाले खर्च का आधा राज्य सरकारें और आधा केन्द्र सरकार वहन करेंगी। केन्द्रशासित प्रदेशों को इसके लिए शत-प्रतिशत केन्द्रीय सहायता दी जाती है।

प्रश्न 6
अनुसूचित जातियों की प्रगति हेतु अपने सुझाव लिखिए। [2016]
उत्तर:
अनुसूचित जातियों की प्रगति हेतु निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं ।
अनुसूचित जातियों की प्रगति हेतु सुझाव
अनुसूचित जातियों की प्रगति हेतु निम्न कदम उठाए जा सकते हैं।

  1. अनुसूचित जातियों में शिक्षा के स्तर में सुधार करके उनके दृष्टिकोण व आर्थिक स्थिति को सुधारा जाना चाहिए।
  2. इनके जीवन स्तर को उठाना चाहिए जिससे इन्हें बेहतर अवसरों की प्राप्ति हो सके।
  3. अस्पृश्यता निवारण के लिए विभिन्न माध्यमों का प्रयोग कर जनमत का निर्माण किया जाना चाहिए।
  4. समाज में इनके विरुद्ध असमान नीति अपनाने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जानी चाहिए।
  5. सरकार द्वारा विभिन्न नीतियों के माध्यम से अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
  6. इन्हें अन्य जातियों के समान धार्मिक व सामाजिक स्वतन्त्रता और समानता व्यावहारिक रूप में प्रदान करनी चाहिए।
  7. सभी जाति के बच्चों को एक समान व्यवहार व शिक्षा प्रदान कर उनमें आपसी सद्भाव की भावना का विकास किया जाना चाहिए।
  8. राजनीतिक स्तर पर सरकार द्वारा इनको प्रोत्साहन प्रदान करना इनकी राजनीतिक निम्न स्थिति में सुधार के लिए आवश्यक है।

प्रश्न 7
अनुसूचित जातियों की चार समस्याएँ बताइए। [2007, 09, 11]
या
अनुसूचित जातियों की दो समस्याएँ बताइए। [2009, 16]
उत्तर:
अनुसूचित जातियों की चार समस्याएँ निम्नवत् हैं

  1. अस्पृश्यता की समस्या – अनुसूचित जातियों के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या अस्पृश्यता कीरही है। उच्च जाति के कुछ व्यक्ति कुछ व्यवसायों; जैसे-चमड़े का काम, सफाई का काम, कपड़े धोने का काम आदि करने वालों को आज भी अपवित्र मानते हैं।
  2. अशिक्षा की समस्या – अनुसूचित जाति के अधिकांश लोग अशिक्षित तथा अज्ञानी हैं। इस कारणे अनेक बुराइयों ने इन लोगों में घर कर लिया है। निर्धनता के कारण इनके बालक भी शिक्षा शुरू कर पाने में असमर्थ होते हैं।
  3. रहन-सहन का नीचा स्तर – इनका जीवन स्तर निम्न होता है तथा वे आधा पेट खाकर तथा अर्द्धनग्न रहकर जीवन व्यतीत करते हैं। निर्धनता तथा बेरोजगारी इनके रहन-सहन के निम्न स्तर के लिए उत्तरदायी हैं।
  4. आवास की समस्या – इनके आवास की दशा भी शोचनीय होती है। ये ऐसे स्थानों में रहते हैं जहाँ सफाई का नामोनिशान भी नहीं होता। बरसात में इनकी दशा दयनीय हो जाती है। ये लोग बहुधा झोंपड़ी या कच्चे मकानों में रहते हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
संविधान के अनुच्छेद 46 में समाज के दलित, दुर्बल और कमजोर वर्गों के लोगों के सम्बन्ध में क्या कहा गया है ?
उत्तर:
संवैधानिक दृष्टि से कमजोर, दुर्बल या दलित वर्ग के अन्तर्गत अनुसूचित जातियाँ, अनुसूचित जनजातियाँ तथा कुछ अन्य पिछड़े हुए समूह आते हैं। इसमें समाज के साधन-हीन वर्ग को सम्मिलित किया गया है। भारतीय संविधान भ्रातृत्व एवं समानता पर जोर देता है। अतः संविधाननिर्माताओं ने सोचा कि यदि समानता को एक वास्तविक रूप प्रदान करना है, तो समाज के इन दलित, दुर्बल और कमजोर वर्गों को ऊँचा उठाना होगा और उन्हें विकास की सुविधाएँ प्रदान करनी होंगी। संविधान के अनुच्छेद 46 में इस सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि राज्य जनता के दुर्बलतर अंगों के, विशेषतः अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के, शिक्षा तथा अर्थ सम्बन्धी (आर्थिक) हितों की विशेष सावधानी से रक्षा करेगा और सामाजिक अन्याय तथा सभी प्रकार के शोषण से उनकी रक्षा करेगा।

प्रश्न 2
अनुसूचित जाति से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
भारतीय संविधान में अछूत, दलित, बाहरी जातियों, हरिजन आदि लोगों को कुछ विशेष सुविधाएँ प्रदान करने की दृष्टि से एक अनुसूची तैयार की गयी जिसमें विभिन्न अस्पृश्य जातियों को सम्मिलित किया गया। इस अनुसूची के आधार पर वैधानिक दृष्टिकोण से इन जातियों के लिए अनुसूचित जाति (Schedule Caste) शब्द को काम में लिया गया। वर्तमान में सरकारी प्रयोग में इनके लिए ‘अनुसूचित जाति’ शब्द को ही काम में लिया जाता है। इनके लिए तैयार की गयी सूची में जिन अस्पृश्य जातियों को रखा गया उन्हें अनुसूचित जातियाँ कहा गया।

प्रश्न 3
अस्पृश्यता को दूर करने एवं अनुसूचित जातियों के कल्याण की दृष्टि से कार्य कर रहे चार ऐच्छिक संगठनों के नाम लिखिए।
उत्तर:
अस्पृश्यता को दूर करने एवं अनुसूचित जातियों के कल्याण की दृष्टि से अनेक ऐच्छिक संगठन कार्य कर रहे हैं, जिनमें प्रमुख हैं

  1. अखिल भारतीय हरिजन सेवक संघ, दिल्ली;
  2. भारतीय दलित वर्ग लीग, दिल्ली;
  3. ईश्वर सरन आश्रम, इलाहाबाद तथा
  4. भारतीय रेडक्रॉस सोसाइटी, दिल्ली।।

प्रश्न 4
अनुसूचित जातियों के लोगों को कौन-सी शिक्षा सम्बन्धी सुविधाएँ दी गयी हैं ?
उत्तर:
अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लोगों को अन्य लोगों के समान स्तर पर लाने और प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने में सहायता करने के उद्देश्य से शिक्षा का विशेष प्रबन्ध किया गया। देश की सभी सरकारी शिक्षण संस्थाओं में इन जातियों के विद्यार्थियों के लिए नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था की गयी है। वर्ष 1944-45 से अस्पृश्य जातियों के छात्रों को छात्रवृत्तियाँ देने की योजना प्रारम्भ की गयी तथा इनके लिए पृथक् छात्रावासों की व्यवस्था भी की गयी है। बुक बैंक के माध्यम से इनके छात्रों के लिए पाठ्य-पुस्तकें भी उपलब्ध करायी जाती हैं।

प्रश्न 5
अनुसूचित जातियों की मुख्य आर्थिक समस्याएँ बताइए।
उत्तर:
गरीबी, बेरोजगारी, स्थानान्तरित खेती, ऋणग्रस्तता तथा आधारभूत संरचना का अभाव आदि अनुसूचित जातियों की मुख्य आर्थिक समस्याएँ हैं।।

प्रश्न 6
अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लोगों को सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व कैसे दिया गया है ?
उत्तर:
अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लोगों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने, अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार करने तथा उच्च जाति के लोगों के सम्पर्क में आने को प्रोत्साहित करने के लिए सरकारी नौकरियों में स्थान सुरक्षित रखे गये हैं। खुली प्रतियोगिता द्वारा अखिल भारतीय आधार पर की जाने वाली नियुक्तियों में इनके लिए क्रमश: 15 एवं 7.5 प्रतिशत स्थान सुरक्षित रखे गये हैं।

प्रश्न 7
डॉ० अम्बेडकर ने अनुसूचित जाति परिसंघ की स्थापना क्यों की तथा इसका क्या लक्ष्य था ?
उत्तर:
राजनीति में अनुसूचित जातियों के हितों की रक्षा के लिए डॉ० अम्बेडकर ने अनुसूचित जाति परिसंघ’ की स्थापना की थी। इसका लक्ष्य अनुसूचित जातियों के राजनीतिक आन्दोलन को आगे बढ़ाना था। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद अम्बेडकर के नेतृत्व में इस दल का उद्देश्य यह देखना रह गया था कि संविधान में वर्णित आरक्षण के प्रावधानों का समुचित रूप से क्रियान्वयन किया जा रहा है या नहीं।

प्रश्न 8
जनजाति क्या है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जनजाति एक ऐसा क्षेत्रीय मानव समूह है जिसकी एक सामान्य संस्कृति, भाषा, राजनीतिक संगठन एवं व्यवसाय होता है तथा जो सामान्यतः अन्तर्विवाह विवाह के नियमों का पालन करता है। गिलिन और गिलिन के अनुसार, “स्थानीय आदिम समूहों के किसी भी संग्रह को जोकि एक सामान्य क्षेत्र में रहता हो, एक सामान्य भाषा बोलता हो और एक सामान्य संस्कृति का अनुसारण करता हो, एक जनजाति कहते हैं।”

प्रश्न 9
जनजातियों की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
जनजातियों की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. अन्तर्विवाही – एक जनजाति के सदस्य केवल अपनी ही जनजाति में विवाह करते हैं, जनजाति के बाहर नहीं।
  2. सामान्य संस्कृति – एक जनजाति में सभी सदस्यों की सामान्य संस्कृति होती है, जिससे उनके रीति-रिवाजों, खान-पान, प्रथाओं, नियमों, लोकाचारों, धर्म, कला, नृत्य, जादू, संगीत, भाषा, रहन-सहन, विश्वासों, विचारों, मूल्यों आदि में समानता पायी जाती है।

प्रश्न 10
जनजातीय परिवार की दो मुख्य विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
जनजातीय परिवार की दो मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. जनजातीय परिवार में बाल-विवाह का प्रचलन होता है तथा कन्या-मूल्य की प्रथा भी है। विवाह के समय वर-पक्ष कन्या-पक्ष को कन्या-मूल्य देता है।
  2. जनजातीय परिवारों में वेश्यावृत्ति आम बात है। जनजातीय परिवार निर्धन होने के कारण अपनी स्त्रियों को अनुचित यौनसम्बन्ध स्थापित करने की प्रेरणा देते हैं।

प्रश्न 11
अनुसूचित जनजातियों की शिक्षा सम्बन्धी क्या समस्याएँ हैं ?
उत्तर:
जनजातियों में शिक्षा का अभाव है और वे अज्ञानता के अन्धकार में पल रही हैं। अशिक्षा के कारण वे अनेक अन्धविश्वासों, कुरीतियों एवं कुसंस्कारों से घिरी हुई हैं। आदिवासी लोग वर्तमान शिक्षा के प्रति उदासीन हैं, क्योंकि यह शिक्षा उनके लिए अनुत्पादक है। जो लोग आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर लेते हैं, वे अपनी जनजातीय संस्कृति से दूर हो जाते हैं और अपनी मूल संस्कृति को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। आज की शिक्षा जीवन-निर्वाह का निश्चित साधन प्रदान नहीं करती; अतः शिक्षित व्यक्तियों को बेकारी को सामना करना पड़ता है।

प्रश्न 12
दुर्गम निवासस्थान में रहने के कारण अनुसूचित जनजातियों को क्या हानि है ?
या
जनजातियों में ‘दुर्गम निवास स्थल : एक समस्या विषय पर प्रकाश डालिए।[2007]
उत्तर:
लगभग सभी जनजातियाँ पहाड़ी भागों, जंगलों, दलदल-भूमि और ऐसे स्थानों में निवास करती हैं, जहाँ सड़कों का अभाव है और वर्तमान यातायात एवं संचार के साधन अभी वहाँ उपलब्ध नहीं हो पाये हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि उनसे सम्पर्क करना एक कठिन कार्य हो गया है। यही कारण है कि वैज्ञानिक आविष्कारों के मधुर फल से वे अभी अपरिचित ही हैं और उनकी आर्थिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य सम्बन्धी एवं राजनीतिक समस्याओं का निवारण नहीं हो पाया है।

प्रश्न 13
पर-संस्कृतिग्रहण के परिणामस्वरूप जनजातियों के सामने कौन-सी समस्या उत्पन्न हुई है ?
उत्तर:
पर-संस्कृतिग्रहण के परिणामस्वरूप जनजातियों के सामने निम्नलिखित समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं
भाषा की समस्या, सांस्कृतिक विभेद, तनाव और दूरी की समस्या, जनजातीय ललित कलाओं का ह्रास, बाल-विवाह, वेश्यावृत्ति एवं गुप्त रोग की समस्या, स्थानान्तरित खेती सम्बन्धी समस्या, खान-पान व वस्त्रों की समस्या, धार्मिक समस्याएँ आदि।

प्रश्न 14
अनुसूचित जाति विकास निगम क्यों बनाये गये ?
उत्तर:
वर्तमान में अनुसूचित जातियों के विकास एवं कल्याण हेतु विभिन्न राज्यों में अनुसूचित जाति विकास निगम’ बनाये गये हैं, जो अनुसूचित जातियों के परिवारों तथा वित्तीय संस्थाओं के बीच सम्बन्ध स्थापित कराने तथा उन्हें आर्थिक साधन उपलब्ध कराने में सहयोग देते हैं।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
भारत में अनुसूचित जातियों के लोगों की वर्तमान में कितनी संख्या है ?
उत्तर:
भारत में अनुसूचित जातियों के लोगों की वर्तमान में संख्या अनुमानतः 17 करोड़ हो गयी है।

प्रश्न 2
डॉ० भीमराव अम्बेडकर की जन्मतिथि क्या है ?
उत्तर:
डॉ० भीमराव अम्बेडकर की जन्मतिथि है-14 अप्रैल, 1891।

प्रश्न 3
अनुसूचित जातियों के लोगों के लिए कितने प्रतिशत स्थान नौकरियों में आरक्षित है?
उत्तर:
अनुसूचित जातियों के लोगों के लिए नौकरियों में 22.5 प्रतिशत स्थान आरक्षित है।

प्रश्न 4
‘हरिजन सेवक संघ कहाँ स्थित है ?
उत्तर:
‘हरिजन सेवक संघ दिल्ली में स्थित है।

प्रश्न 5
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम किस वर्ष पारित किया गया था? [2011]
उत्तर:
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम 1955 ई० में पारित किया गया था।

प्रश्न 6
जनजाति को परिभाषित कीजिए। [2007, 08, 11, 13, 14]
उत्तर:
जनजाति एक ऐसा क्षेत्रीय मानव-समूह है, जिसकी एक सामान्य संस्कृति, भाषा, राजनीतिक संगठन एवं व्यवसाय होता है तथा जो सामान्यत: अन्तर्विवाह के नियमों का पालन करता है।

प्रश्न 7
किन्हीं दो जनजातियों के नाम लिखिए। [2013]
उत्तर:
दो जनजातियों के नाम हैं
(1) मुण्डा (बिहार) तथा
(2) नागा (नागालैण्ड)।

प्रश्न 8
अनुसूचित जनजातियों के लिए नौकरियों में कितने प्रतिशत स्थान सुरक्षित है?
उत्तर:
अनुसूचित जनजातियों के लिए नौकरियों में 7.5 प्रतिशत स्थान सुरक्षित है।

प्रश्न 9
राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए कब तक स्थान सुरक्षित रखे गये हैं ?
उत्तर:
राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए सन् 2020 तक स्थान सुरक्षित रखे गये हैं।

प्रश्न 10
1951 ई० की जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या कितनी थी ? [2011]
उत्तर:
लगभग 1 करोड़ 91 लाख।

प्रश्न 11
संविधान के कौन-से अनुच्छेद अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए लोकसभा, विधानसभाओं तथा स्थानीय निकायों में स्थान सुरक्षित करने पर जोर देते हैं ? [2007]
उत्तर:
अनुच्छेद 243, 330 एवं 332 अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए लोकसभा विधानसभाओं तथा स्थानीय निकायों में स्थान सुरक्षित करने पर जोर देते हैं।

प्रश्न 12
जनजातियों की समस्याओं के समाधान हेतु ‘राष्ट्रीय उपवन की अवधारणा किसने दी ? [2007]
उत्तर:
यह अवधारणा रॉय तथा एल्विन ने दी।

प्रश्न 13
जनजातियों में जीवन-साथी चुनने के तरीके का उल्लेख कीजिए। [2007, 13]
उत्तर:
जनजातियों में ‘टोटम बहिर्विवाह’ का प्रचलन है जो कि बहिर्विवाह का ही एक रूप

प्रश्न14
सन 1980 में मण्डल कमीशन की रिपोर्ट पर आधारित अन्य पिछड़े वर्ग को कितने प्रतिशत आरक्षण दिया गया है ? [2007]
उत्तर:
27 प्रतिशत।

प्रश्न 15
क्या केरल के नायर एक जनजाति हैं ? [2007]
उत्तर:
हाँ।

प्रश्न16
निम्नलिखित पुस्तकों से सम्बन्धित लेखकों/विचारकों के नाम लिखिए
(क) सामाजिक मानवशास्त्र,
(ख) एन इण्ट्रोडक्शन टू सोशल ऐन्थ्रोपोलॉजी,
(ग) मैन इन प्रिमिटिव वर्ल्ड।
उत्तर:
इन पुस्तकों के लेखक के नाम हैं
(क) मजूमदार एवं मदान,
(ख) मजूमदार एवं मदान,
(ग) हॉबेल।

प्रश्न 17
अनुसूचित नामक शब्द किसके द्वारा बनाया गया था ?
उत्तर:
अनुसूचित नामक शब्द साइमन कमीशन द्वारा 1927 ई० में बनाया गया था।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
‘ओरिजिन ऑफ स्पीसीज’ (Origin of Species) किसके द्वारा लिखी गयी ?
(क) चार्ल्स डार्विन के
(ख) हरबर्ट स्पेन्सर के
(ग) कार्ल मॉनहीन के
(घ) जॉर्ज सिमैल के।

प्रश्न 2
खासी जनजातीय समाज किस प्रकार का कार्य करता है ?
(क) पौध-उत्पादक का
(ख) खेती का
(ग) पशुपालन का
(घ) कुटीर उद्योग का

प्रश्न 3
हिमाचल प्रदेश की किस जनजाति के पुरुष अपनी पत्नियों के वेश में रहते हैं ?
(क) संथाल के
(ख) थारू के
(ग) नागी के
(घ) कोटा के

प्रश्न 4
निम्नलिखित में कौन-सी जनजाति उत्तराखण्ड के गढ़वाल एवं कुमाऊँ क्षेत्र की है ?
(क) लुसाई
(ख) बिरहोर
(ग) भोटिया
(घ) गारो

प्रश्न 5
निम्नलिखित में कौन-सी जनजातीय समाज की एक विशेषता है ?
(क) जटिल सामाजिक सम्बन्ध
(ख) क्षेत्रीय समूह
(ग) औपचारिकता
(घ) व्यक्तिवादिता

प्रश्न 6
निम्नलिखित में से किसको भारतीय संविधान द्वारा एक जनजाति को अनुसूचित जनजाति के रूप में निर्दिष्ट करने का अधिकार है ?
(क) उस राज्य का राज्यपाल जहाँ जनजाति निवास करती है।
(ख) भारत का राष्ट्रपति
(ग) आयुक्त अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति
(घ) समाज कल्याण मन्त्रालय

प्रश्न 7
भारतीय संविधान की कौन-सी धारा किसी भी प्रकार की अस्पृश्यता पर रोक लगाती है ?
(क) धारा 17
(ख) धारा 22
(ग) धारा 45
(घ) धारा 216

प्रश्न 8
‘नागरिक अधिकार संरक्षण कानून’ किस वर्ष में लागू किया गया ?
(क) 1950 ई० में
(ख) 1956 ई० में
(ग) 1970 ई० में
(घ) 1986 ई० में

प्रश्न 9
लोकसभा के कुल 542 स्थानों में से कितने स्थान अनुसूचित जनजातियों के लिए सुरक्षित हैं ?
(क) 30 स्थान
(ग) 50 स्थान
(ख) 40 स्थान
(घ) 60 स्थान

प्रश्न 10
जनजातियों को ‘पिछड़े हिन्दू किसने कहा है ?
(क) जी० एस० घुरिए
(ख) एस० सी० दुबे
(ग) एस० सी० राय
(घ) जे० एच० हट्टन

प्रश्न 11
‘अस्पृश्य वे जातियाँ हैं जो अनेक सामाजिक और राजनीतिक निर्योग्यताओं की शिकार हैं। इसमें से अनेक निर्योग्यताएँ उच्च जातियों द्वारा परम्परात्मक तौर पर निर्धारित और सामाजिक तौर पर लागू की गई हैं।” यह परिभाषा किसने दी है ? [2011]
(क) जी० एस० घुरिये
(ख) डी० एन० मजूमदार
(ग) जे० एन० हट्टन
(घ) एम० एन० श्रीनिवासन

प्रश्न 12
ओ० बी० सी० का अर्थ है [2015]
(क) अन्य पिछड़ा वर्ग
(ख) अन्य पिछड़ी जातियाँ
(ग) सभी पिछड़ी जातियाँ
(घ) इनमें से कोई नहीं

उत्तर:
1. (क) चार्ल्स डार्विन के, 2. (क) पौध-उत्पादक का, 3. (ख) थारू के, 4. (ग) भोटिया, 5, (ख) क्षेत्रीय समूह, 6. (ख) भारत का राष्ट्रपति, 7. (क) धारा 178. (ख) 1956 ई० में, 9. (ख) 40 स्थान, 10. (क) जी० एस० घुरिये, 11. (ख) डी० एन० मजूमदार, 12. (क) अन्य पिछड़ा वर्ग। .

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