UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 2 Shershah Suri: Rule and Achievements

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 2
Chapter Name Shershah Suri: Rule and Achievements (शेरशाह सूरी- शासन एवं उपलब्धियाँ)
Number of Questions Solved 22
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 2 Shershah Suri: Rule and Achievements (शेरशाह सूरी- शासन एवं उपलब्धियाँ)

अभ्यास

प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए
1. 1540 ई०
2. 1542 ई०
3. 1543 ई० से मई 1544 ई०
4. 1545 ई०
5. 1556 ई०
उतर.
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 36 पर ‘तिथि सार’ का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 2.
सत्य या असत्य बताइए
उतर.
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 36 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय
उतर.
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या-37 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय
उतर.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या-37 का अवलोकन कीजिए। लघु

उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
शेरशाह की प्रमुख विजयों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उतर.
शेरशाह सूरी की प्रमुख विजयों का संक्षिप्त विवरण निम्नवत् हैं

  1. गक्खर प्रदेश की विजय – सन् 1541 ई० में शेरशाह ने गक्खर सरदारों पर चढ़ाई कर उनके प्रदेश को बुरी तरक से रोंद डाला।
  2. बंगाल का विद्रोह और नई व्यवस्था – सन् 1541 ई० में शेरशाह ने खिज्र खाँ को कैद करके बंगाल को जिलों में बाँटकर प्रत्येक को एक छोटी सेना के साथ शिकदारों के नियंत्रण में दे दिया।
  3. मालवा की विजय – सन् 1542 ई० में शेरशाह ने मालवा के शासक कादिरशाह को हराकर वहाँ अपना अधिकार जमा लिया।।
  4. रायसीना की विजय – सन् 1542 ई० में शेरशाह ने रायसीना के शासक पूरनमल को हराया।
  5. मुल्तान व सिंध की विजय – सन् 1543 ई० में शेरशाह के सूबेदार हैबत खाँ ने फतह खाँ जाट को परास्त कर मुल्तान एवं सिंध पर अधिकार कर लिया।
  6. मारवाड़ पर विजय – सन् 1544 ई० में शेरशाह ने मालदेव के सेनापति नैता और कैंपा को हराया।
  7. मेवाड विजय – सन् 1544 ई० में मारवाड़ पर विजय प्राप्त करके वापस लौटते समय शेरशाह ने मेवाड़ को अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया।
  8. कालिंजर की विजय – सन् 1544 ई० में शेरशाह ने शासक कीरत सिंह को हराकर कालिंजर पर विजय प्राप्त की।

प्रश्न 2.
शेरशाह की सफलता के चार कारण लिखिए।
उतर.
शेरशाह की सफलता के चार प्रमुख कारण निम्न प्रकार हैं

  1. दृढ़-संकल्पी – शेरशाह दृढ़-संकल्पी व्यक्ति था। हुमायूँ को भारत की सीमा से बाहर निकालकर ही उसने चैन की साँस ली।
  2. हुमायूँ की चारित्रिक दुर्बलताएँ – हुमायूँ की चारित्रिक दुर्बलताओं का लाभ उठाकर, शेरशाह दिल्ली का सिंहासन अपनी योग्यता के द्वारा छीनने में सफल रहा।।
  3. सैनिक प्रतिभा – शेरशाह ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया, जिसमें उसकी सैनिक योग्यता की प्रमुख भूमिका थी।
  4. कूटनीतिज्ञ – चौसा और बिलग्राम के युद्धों में सैनिक प्रतिभा से अधिक शेरशाह ने अपनी कूटनीति से विजय प्राप्त की।

प्रश्न 3.
शेरशाह के शासन-प्रबन्ध की दो प्रमुख विशेषाएँ लिखिए।
उतर.
शेरशाह के शासन-प्रबन्ध की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. न्यायप्रियता – शेरशाह न्याय प्रिय सुल्तान था। उसके राज्य में न्याय निष्पक्ष था तथा नियम भंग करने वाले अपराधी को | कठोर दण्ड मिलता था, चाहे वह कितना ही बड़ा अधिकारी क्यों न हो।
  2. प्रजा का भौतिक एवं नैतिक विकास – शेरशाह हालाँकि निरकुंश सुल्तान था तदापि उसने अपने सम्मुख प्रजाहित का आदर्श रखा। उसका विश्वास था कि सुल्तान को भगवान ने प्रजा का प्रधान बनाकर भेजा है तथा प्रजा का सर्वांगीण विकास करने का भार सुल्तान पर है।

प्रश्न 4.
शेरशाह के द्वारा भू-राजस्व के क्षेत्र में किए गए सुधारों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उतर.
शेरशाह राज्य के किसानों की भलाई में ही राज्य की भलाई मानता था। उसकी लगान-व्यवस्था अच्छी मानी जाती थी। शेरशाह की लगान-व्यवस्था मुख्यतया रैवतवाडी थी, जिसमें किसानों से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित किया जाता था। उत्पादन के आधार पर ही भूमि को तीन श्रेणियों- उत्तम, मध्यम और निम्न में बाँटा गया। लगान निश्चित करने की प्रणालियाँ निर्धारित की गई थीं। किसान लगान नकद या जिन्स के रूप में दे सकते थे। यदि युद्ध के अवसर पर कृषि की कोई हानि हो जाती थी तो उसकी पूर्ति कर दी जाती थी।

प्रश्न 5.
शेरशाह के चरित्र पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उतर.
शेरशाह को भारत के इतिहास में उच्चतम् सम्राटों में स्थान दिया जाता है और चन्द्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त तथा अकबर महान् के साथ तुलना की जाती है। शेरशाह एक प्रजावत्सल सम्राट था। प्रजा के साथ वह उदारता एवं दयालुता पूर्ण व्यवहार करता था। उसके राज्य में प्रतिदिन भिखारियों का दान दिया जाता था। शेरशाह में उच्चकोटि की धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। शेरशाह मुस्लिम सम्राट था तदापि उसने हिन्दू व मुसलमानों के साथ समानता का व्यवहार किया। शेरशाह कर्तव्यपरायण सुल्तान था। वह अपने कर्तव्य को भली-भाँति जानता था तथा समुचित रूप से उनका पालन करता था। शेरशाह कठोर परिश्रमी था। वह शासन के समस्त विभागों पर नियत्रंण रखता था।

शेरशाह विद्यानुरागी था। सुल्तान बनने के बाद उसने विद्या प्रसार के लिए अनेक पाठशालाएँ एवं मकतब निर्मित करवाए। वह एक कुशल सेनापति एवं कूटनीतिज्ञ था। हुमायूं के साथ उसने उच्चकोटि के सेनापति की तरह युद्ध लड़े। चुनार, रोहतास तथा रायसीन पर उसने कूटनीति द्वारा विजय प्राप्त की। शेरशाह न्यायप्रिय सुल्तान था। न्याय के सम्मुख वह सबको समान समझता था तथा अपने पुत्र तक को साधारण व्यक्ति के समान दण्ड देता था। शेरशाह एक महत्वकांक्षी सुल्तान था, मुगलों को भारत से निकालकर ही उसने चैन की साँस ली।

प्रश्न 6.
शेरशाह को राष्ट्रीय सम्राट कहना कहाँ तक उचित है?
उतर.
शेरशाह को धार्मिक सहिष्णुता का सिद्धान्त अपनाया था। वह ऐसा प्रथम मुस्लिम शासक था, जिसकी दृष्टि में सम्पूर्ण प्रजा एक समान थी, चाहे वह किसी भी धर्म की अनुयायी क्यों न हो। एक दूरदर्शी राजनीतिज्ञ होने के नाते वह इस बात को भली-भाँति समझ चुका था कि हिन्दुओं के देश भारत में, जहाँ की अधिकांश जनता हिन्दू है, धार्मिक अत्याचारों के आधार पर राज्य को
स्थायी नहीं किया जा सकता इस नीति के आधार पर शेरशाह को राष्ट्रीय सम्राट कहना उचित है।

प्रश्न 7.
अकबर के अग्रगामी के रूप में शेरशाह का स्थान निर्धारित कीजिए।
उतर.
शेरशाह एक प्रजावत्सल सम्राट था। वह प्रजा के साथ उदारता एवं दयालुतापूर्ण व्यवहार करता था। यद्यपि दण्ड देने में वह कठोर एवं अनुदार था। अपनी दरिद्र जनता एवं कृषकों के प्रति वह अत्यन्त उदार था। शेरशाह में उच्चकोटि की धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। यद्यपि कुरान की आयतों का पाठ करता था तथा नमाज अदा करता था, तदापि भारत में हिन्दुओं व मुसलमानों के साथ उसने समानता का व्यवहार किया और उच्च पदों पर हिन्दुओं को भी आसीन किया तथा उनके बच्चों के पढ़ने की व्यवस्था की और एक सीमा तक उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की। इस दृष्टिकोण से हम उसे अकबर का अग्रगामी मान सकते हैं।

प्रश्न 8.
सूर-साम्राज्य के पतन के चार कारणों का उल्लेख कीजिए।
उतर.
भारत में दिल्ली पर प्रथम सूर (अफगान) साम्राज्य को लोदी वंश ने स्थापित किया था, किन्तु बाबर ने 1526 ई० में इब्राहीम लोदी को हराकर दिल्ली में मुगल साम्राज्य की स्थापना की। शेरशाह सूरी ने 1540 ई० में हुमायूँ को परास्त कर पुनः सूर साम्राज्य स्थापित किया। अफगानों का यह द्वितीय साम्राज्य लगभग 15 वर्षों तक रहा। सन् 1555 ई० में हुमायूँ ने मच्छीवाड़ा और सरहिन्द के युद्धों को जीतकर द्वितीय सूर साम्राज्य का पतन कर दिया। इस प्रकार सूर-साम्राज्य के पतन के चार प्रमुख कारण निम्नवत् हैं

  1. इस्लामशाह के उत्तराधिकारियों को अयोग्य होना।
  2. अफगानों का एक केन्द्रीय शासन-व्यवस्था को स्वीकार न करना।
  3. इस्लामशाह की मृत्यु के पश्चात शासन-व्यवस्था का नष्ट होना।
  4. अफगान सरदारों की महत्वकाक्षाएँ एवं स्वतन्त्र प्रवृत्ति।

प्रश्न 9.
शेरशाह सूरी द्वारा बनवाए गए दो प्रमुख राजमार्गों का वर्णन कीजिए।
उतर.
शेरशाह सूरी का नाम सड़कों और सरायों के निर्माण के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उसने व्यापार की सुविधा के लिए लम्बी-लम्बी सड़कों का निर्माण कराया तथा देश के प्रमुख नगरों को सड़कों के द्वारा जोड़ दिया। शेरशाह सूरी द्वारा बनवाए गए दो प्रमुख राजमार्ग अग्रलिखित हैं

  1. ग्रांड-ट्रंक रोड़ जो बंगाल के सोनारगाँव से आगरा, दिल्ली और लाहौर होती हुई सिंध प्रांत तक जाती है।
  2. आगरा से बुरहानपुर तक।

प्रश्न 10.
शेरशाह और हुमायूँ के बीच हुए दो प्रमुख युद्धों का उल्लेख कीजिए।
उतर.
शेरशाह और हुमायूं के बीच हुए दो प्रमुख युद्ध निम्न प्रकार हैं

  1. चौसा का युद्ध- सन् 1539 ई० में शेरशाह ने हुमायूँ को तोपखाने का प्रयोग करने का अवसर दिए बिना ही रणक्षेत्र से भागने को विवश कर दिया।
  2. कन्नौज ( बिलग्राम ) का युद्ध- सन् 1540 ई० में शेरशाह ने कन्नौज के युद्ध में हुमायूँ को पराजित कर उसे भारत से बाहर खदेड़ दिया।

प्रश्न 11.
शेरशाह ने जन-साधारण के लिए क्या-क्या कार्य किए?
उतर.
शेरशाह ने जन-साधारण के लिए निम्नलिखित कार्य किए

  1. उत्तम न्याय व्यवस्था
  2. भूमिकर अथवा लगान में सुधार
  3. जन साधारण के जीवन एवं सम्मान की रक्षा के लिए पुलिस प्रशासन की व्यवस्था
  4. शिक्षा के लिए पाठशालाओं एवं मकतबों का निर्माण
  5. जन साधारण को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करना
  6. सड़क एवं सरायों को निर्माण।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘शेरशाह की गणना मध्यकाल के महान् शासकों में की जाती है। इस कथन का विश्लेषण कीजिए।
उतर.
शेरशाह महान् विजेता था। जूलियस सीजर, आगस्टस, हेनरी द्वितीय, एडवर्ड प्रथम, लुई चतुर्दश, अकबर महान् तथा चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ उसकी तुलना की जा सकती है। वह एक महान् साम्राज्य का निर्माता था जिसे उसने अपनी योग्यता से प्राप्त किया था तथा जिसकी सुव्यवस्था के लिए उसने उच्च कोटि की शासन-व्यवस्था स्थापित की थी। पाँच वर्ष के अल्पकाल में उसने अराजकतापूर्ण एवं अव्यवस्थित देश को सुव्यवस्था एवं सुरक्षा प्रदान की थी।

मध्यकाल भारत के इतिहास में शेरशाह का अपना एक स्थान है। वह एक वीर सैनिक, चतुर सेनानायक और कुशल कूटनीतिज्ञ था। वह केवल विजय प्राप्त करने में विश्वास करता था और उसका मानना था कि अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भले-बुरे सभी साधनों का व्यवहार में लाना उचित है। वह एक सफल शासक था। उसे प्रजा के सुख का पूरा ध्यान था और उसकी भलाई के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करता था। शासन-व्यवस्था के पुनर्गठन, भूमि का बन्दोबस्त, लगान, मुद्रा और व्यापार वाणिज्य में उसके द्वारा किए गये सुधारों के कारण मध्यकाल के महान् शासन-प्रबन्धकों में उसकी गणना की जाती है। शेरशाह 68 वर्ष की आयु में राजा बना था किन्तु यह वृद्धावस्था भी उसके उत्साह और आकाँक्षाओं को ठण्डा नहीं कर सकी। इस राय पर सभी इतिहासकार एकमत हैं कि शेरशाह सोलह घण्टे प्रतिदिन राजकाज में लगाता था।

अशोक, चन्द्रगुप्त मौर्य अथवा अकबर की भाँति उसकी भी यही आदर्श वाक्य था कि महान् व्यक्ति को सदैव चैतन्य रहना आवश्यक है। शेरशाह में एक सैनिक और सेनापति के गुणों का अभाव न था। वह सभी यद्धों में शौर्य के साथ चालाकी का प्रयोग भी करता था। एक धार्मिक मुसलमान की दृष्टि से वह अपने धार्मिक कृत्यों को विषमपूर्वक करता था। डॉ० आर०पी० त्रिपाठी ने ठीक ही लिखा है “कोई भी इतिहासकार अकबर के पहले के मुस्लिम शासकों के मध्य महानता, बुद्धिमानी और कार्यक्षमता के नाते शेरशाह को सर्वोच्च पद से वंचित नही रख सकता।”

प्रश्न 2.
शेरशाह के प्रशासन की विवेचना कीजिए।
उतर.
शेरशाह का शासन-प्रबन्ध- इतिहासकारों ने शेरशाह को अकबर से भी श्रेष्ठ रचनात्मक बुद्धि वाला और राष्ट्र-निर्माता बताया है। सैनिक और असैनिक दोनों ही मामलो में शेरशाह ने संगठनकर्ता की दृष्टि से शानदार योग्यता का परिचय दिया। नि:सन्देह शेरशाह मध्य युग के महान् शासन-प्रबन्धकों में से एक था। उसने किसी नई शासन-व्यवस्था को जन्म नहीं दिया बल्कि उसने पुराने सिद्धान्तों और संस्थाओं को ऐसी कुशलता से लागू किया कि उनका स्वरूप नया दिखाई दिया। इस प्रकार योग्य शासन-प्रबन्ध की दृष्टि से इतिहास में शेरशाह का स्थान महत्वपूर्ण माना जाता है। शेरशाह का शासन-प्रबन्ध निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है
(i) प्रान्तीय शासन-प्रबन्ध
(क) इक्ता या सूबा – शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए शेरशाह ने साम्राज्य को अनेक भागों में बाँट रखा था। उस समय राज्य में ‘सरकार’ सबसे बड़ा खण्ड कहलाता था। सरकार ऐसे प्रशासकीय खण्ड थे जो कि प्रान्तों से मिलते-जुलते थे और जो इक्ता कहलाते थे और प्रमुख अधिकारियों के अधीन थे। शेरशाह के समय फौजी गवर्नरों की नियुक्तियाँ भी होती थीं। जिन राज्यों को शासन करने की स्वतन्त्रता दे दी गई थी, उन्हें सूबा या इक्ता कहा जाता था। सूबे का प्रमुख हाकिम अथवा फौजदार होता था। फिर भी शेरशाह के प्रान्तीय प्रशासन का विवरण स्पष्ट नहीं है।

(ख) सरकारें (जिले ) – प्रत्येक इक्ता या सूबा सरकारों में बँटा होता था। शेरशाह की सल्तनत में 66 सरकारें थीं। प्रत्येक सरकार में दो प्रमुख अधिकारी होते थे- ‘शिकदार-ए-शिकदारान’ और ‘मुन्सिफ-ए-मुनसिफान’। शिकदार-ए-शिकदारान सरकार के प्रशासन का अध्यक्ष होता था तथा विभिन्न परगनों के शिकदारों पर प्रशासनिक अधिकारी होता था। अपनी सरकार में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना करना तथा विद्रोही जमींदारों का दमन करना उसका प्रमुख कर्तव्य था। मुन्सिफ-ए-मुन्सिफान मुख्यतया न्याय-अधिकारी था। दीवानी मुकदमों का फैसला करना और अपने अधीन मुन्सिफों के कार्यों की देखभाल करना उसका दायित्व था।

(ग) परगने – प्रत्येक सरकार में कई परगने होते थे। शेरशाह ने प्रत्येक परगने में एक शिकदार, एक अमीन (मुन्सिफ), एक फोतदार (खजांची) और दो कारकून (लिपिक) नियुक्त किए गए थे। शिकदार के साथ एक सैनिक दस्ता होता था और उसका कर्तव्य परगने में शान्ति स्थापित करना था। मुन्सिफ का कार्य दीवानी मुकदमों का निर्णय करना और भूमि की नाप एवं लगान-व्यवस्था की देखभाल करना था। फोतदार परगने का खजांची था और कारकूनों का कार्य हिसाब-किताब लिखना था।

(घ) गाँव – शासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी। प्रत्येक गाँव में मुखिया, पंचायतें और पटवारी होते थे, जो स्थानीय प्रशासन की व्यवस्था करते थे। गाँव की अपनी पंचायत होती थी, जो गाँव में सुरक्षा, शिक्षा, सफाई आदि का प्रबन्ध करती थी। शेरशाह ने गाँव की परम्परागत व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया था परन्तु गाँव के इन अधिकारियों को अपने कर्तव्यों का पालन करना पड़ता था। अन्यथा इन्हें दण्ड दिया जाता था।

(ii) भू-राजस्व व्यवस्था – राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमिकर अथवा लगान था। इसके अतिरिक्त लावारिस सम्पत्ति, व्यापारिक कर, टकसाल, नमक-कर, अधीनस्थ राजाओं, सरदारों एवं व्यापारियों द्वारा दिए गए उपहार, युद्ध में लूटे गए माल का 1/5 भाग, जजिया इत्यादि आय के साधन थे। शेरशाह किसानों की भलाई में ही राज्य की भलाई मानता था। उसकी लगान-व्यवस्था बहुत अच्छी मानी जाती है, उसकी लगान-व्यवस्था निम्न प्रकार थी

(क) शेरशाह की लगान – व्यवस्था मुख्यतया रैयतवाड़ी थी, जिसमें किसानों से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित किया जाता था। इस कार्य में शेरशाह को पूर्ण सफलता नहीं मिली और जागीरदारी प्रथा भी चलती रही। मालवा और राजस्थान में यह व्यवस्था लागू नहीं की जा सकी।

(ख) उत्पादन के आधार पर ही भूमि को तीन श्रेणियों में बाँटा गया था- उत्तम, मध्यम और निम्न।

(ग) खेती योग्य सभी भूमि की नाप की जाती थी और पता लगाया जाता था कि किस किसान के पास कितनी और किस श्रेणी की भूमि है। उस आधार पर पैदावार का औसत निकाला जाता था।

(घ) लगान निश्चित करने की उस समय तीन प्रणालियाँ थीं – (अ) गल्ला बक्सी अथवा बँटाई (खेत बँटाई, लँक बँटाई और रास बँटाई), (ब) नश्क या कनकूत तथा (स) नकद अथवा जब्ती। सामान्यत: किसान बँटाई प्रणाली को ही पसन्द करता था।

(ड.) किसानों को सरकार की ओर से पट्टे दिए जाते थे, जिनमें स्पष्ट किया गया होता था कि उस वर्ष उन्हें कितना लगान देना है। किसान ‘कबूलियत-पत्र के द्वारा इन्हें स्वीकार करते थे।

(च) लगान के अलावा किसानों को जमीन की पैमाइश और लगान वसूल करने में संलग्न अधिकारियों के वेतन आदि के लिए सरकार को ‘जरीबाना’ और ‘महासीलाना’ नामक कर देने पड़ते थे जो पैदावार का 2.5% से 5% तक होता था। किसान को 2.5% अन्य कर भी देना पड़ता था, जिससे अकाल अथवा बाढ़ की दशा में जनता को सहायता मिलती थी।

(छ) शेरशाह का स्पष्ट आदेश था कि लगान लगाते समय किसानों के साथ सहानुभूति का बर्ताव किया जाए लेकिन लगान वसूल करते समय कोई नरमी न बरती जाए।

(ज) किसानों को यह सुविधा थी कि वे लगान नकद या जिन्स के रूप में दे सकते थे, लकिन सरकार नकद के रूप में लेना ज्यादा पसन्द करती थी।

(झ) शेरशाह यह ध्यान रखता था कि युद्ध के अवसर पर कृषि की कोई हानि न हो और जो हानि हो जाती थी, उसकी पूर्ति कर दी जाती थी।

(iii) केन्द्रीय शासन-प्रबन्ध – सुल्तान- दिल्ली सल्तनत के शासकों की भाँति शेरशाह भी एक निरंकुश शासक था और उसकी शक्ति एवं सत्ता अपरिमित थी। शासन नीति और दीवानी तथा फौजदारी मामलों के संचालन की शक्तियाँ उसी के हाथों में केन्द्रित थीं। उसके मन्त्री स्वयं निर्णय नहीं लेते थे बल्कि केवल उसकी आज्ञा का पालन और उसके द्वारा दिए गए कार्यों की पूर्ति करते थे।

इस कारण शासन की सुविधा की दृष्टि से शेरशाह को सल्तनतकाल की व्यवस्था के आधार पर चार मन्त्री विभाग बनाने पड़े थे। ये निम्नलिखित थे
(क) दीवाने वजारत – यह लगान और अर्थव्यवस्था का प्रधान था। राज्य की आय और व्यय की देखभाल करना इसका दायित्व था। इसे मन्त्रियों के कार्यों की देखभाल का भी अधिकार था।

(ख) दीवाने-आरिज – यह सेना के संगठन, भर्ती, रसद, शिक्षा और नियन्त्रण की देखभाल करता था, परन्तु यह सेना का सेनापति न था। शेरशाह स्वयं ही सेना का सेनापति था और स्वयं सेना के संगठन और सैनिकों की भर्ती आदि में रुचि रखता था।

(ग) दीवाने-रसालत – यह विदेश मन्त्री की भाँति कार्य करता था। अन्य राज्यों से पत्र-व्यवहार करना और उनसे सम्पर्क रखना इसका दायित्व था। कूटनीतिक पत्र-व्यवहार भी इसे ही सम्भालना होता था।

(घ) दीवाने – इंशा- इसका कार्य सुल्तान के आदेशों को लिखना, उनका लेखा रखना, राज्य के विभिन्न भागों में उनकी सूचना पहुँचाना और उनसे पत्र-व्यवहार करना था। इनके अतिरिक्त दो अन्य मन्त्रालय भी थे, ‘दीवाने-काजी’ और ‘दीवाने-बरीद’। दीवाने-काजी सुल्तान के पश्चात् राज्य के मुख्य न्यायाधीश की भॉति कार्य करता था और दीवाने-बरीद राज्य की गुप्तचर व्यवस्था और डाकव्यवस्था की देखभाल करता था। इसके अतिरिक्त बादशाह के महलों तथा नौकर-चाकरों की व्यवस्था के लिए एक अलग अधिकारी होता था।

(iv) सड़कें और सरायें – शेरशाह ने अपने समय में कई सड़कों का निर्माण कराया और पुरानी सड़कों की मरम्मत कराईं। शेरशाह ने मुख्यतया चार प्राचीन सड़कों की मरम्मत और निर्माण कराया। ये सड़कें निम्नलिखित थीं
(क) एक सड़क बंगाल के सोनारगाँव, आगरा, दिल्ली, लाहौर होती हुई पंजाब में अटक तक जाती थी अर्थात् (ग्रांड ट्रंक रोड), जिसे ‘सड़के-आजम’ के नाम से पुकारा जाता था।

(ख) दूसरी, आगरा से बुरहानपुर तक।

(ग) तीसरी, आगरा से जोधपुर और चित्तौड़ तक और

(घ) चौथी, लाहौर से मुल्तान तक जाती थी। शेरशाह ने इन सड़कों के दोनों ओर छायादार और फलों के वृक्ष लगवाए थे। उसने इन सभी सड़कों पर प्राय: दोदो कोस की दूरी पर सरायें बनवाई थीं। उसने अपने समय में करीब 1,700 सरायों का निर्माण कराया। इन सभी सरायों में हिन्दू और मुसलमानों के ठहरने के लिए अलग-अलग प्रबन्ध था। व्यापारी, यात्री, डाक-कर्मचारी आदि सभी यहाँ संरक्षण और भोजन प्राप्त करते थे।

(v) मुद्रा व्यवस्था – शेरशाह ने पुराने और घिसे हुए, पूर्व शासकों के प्रचलित सिक्के बन्द करके उनके स्थान पर सोने, चाँदी और ताँबे के नये सिक्के चलाए और उनका अनुपात निश्चित किया। उसके चाँदी के रुपए का वजन 180 ग्रेन था, जिसमें 175 ग्रेन शुद्ध चाँदी होती थी। सोने के सिक्के 166.4 ग्रेन और 168.5 ग्रेन के ढाले गए थे। ताँबे का सिक्का दाम कहलाता था। सिक्कों पर शेरशाह का नाम, उसकी पदवी और टकसाल का स्थान अरबी या देवनागरी लिपि में अंकित रहता था। शेरशाह के रुपए के बारे में इतिहासकार स्मिथ ने लिखा है “यह रुपया वर्तमान ब्रिटिश मुद्रा-प्रणाली का आधार है।”

(vi) पुलिस प्रशासन – शेरशाह के शासनकाल में सेना ही पुलिस का कार्य करती थी। इस विषय में शेरशाह ने स्थानीय उत्तरदायित्व के सिद्धान्त पर कार्य किया था। जिस क्षेत्र में जो अधिकारी था, उसी का उत्तरदायित्व उस क्षेत्र में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित रखना था। विभिन्न सैनिक अपने-अपने क्षेत्रों में शान्ति स्थापित करते थे, चोरों एवं लुटेरों को पकड़ते थे तथा जनसाधारण के जीवन और सम्मान की रक्षा करते थे।

(vii) व्यापार-वाणिज्य – शेरशाह ने स्थान-स्थान पर दिए जाने वाले करों को समाप्त कर दिया। उसने केवल आयात कर और ‘बिक्री कर लेने के आदेश दिए थे। उसके सभी अधिकारियों को यह भी आदेश था कि व्यापारियों की सुरक्षा की जाए और उनके साथ सद्व्यवहार किया जाए।

(viii) न्याय व्यवस्था – शेरशाह स्वयं राज्य का बड़ा न्यायाधीश था और प्रत्येक बुधवार की शाम को स्वयं न्याय के लिए बैठता था। वह न्यायप्रिय शासक था। शेरशाह कहा करता था कि “न्याय करना सभी धार्मिक क्रियाओं में सर्वोत्तम है। इस बात को मुसलमान और काफिर दोनों के बादशाह मानते हैं।” उसने अत्याचारियों का कभी पक्ष नहीं लिया, चाहे वे उसके रिश्तेदार हों, प्रिय पुत्र हों या उसके प्रमुख सरदार हों। अपराध की गम्भीरता के अनुसार कैद, कोड़े, हाथ-पैर काटना, जुर्माना, फाँसी आदि दण्ड दिए जाते थे। शेरशाह के न्याय का आदर्श था- इंसान से इंसान का बर्ताव। शेरशाह के नीचे काजी होता था, जो न्याय विभाग का प्रमुख होता था। प्रत्येक सरकार में मुख्य शिकदार फौजदारी मुकदमे तथा मुख्य मुन्सिफ दीवानी मुकदमों की सुनवाई करते थे। परगनों में यह कार्य अमीन करते थे।

(ix) शेरशाह की इमारतें – इमारतें बनवाने का शेरशाह को बहुत शौक था। उसने अपनी उत्तर-पश्चिम सीमा की सुरक्षा के लिए ‘रोहतासगढ़’ नाम का एक दुर्ग बनवाया। दिल्ली का पुराना किला शेरशाह का बनवाया हुआ ही माना जाता है। इसी किले में उसने एक ऊँची मस्जिद का निर्माण करवाया, जो भारतीय और इस्लामी कला का मिला-जुला एक अच्छा उदाहरण है। परन्तु शेरशाह की सर्वश्रेष्ठ कृति सासाराम (बिहार) में स्थित उसका स्वयं का मकबरा है। सहसराम (सासाराम) में झील के बीचोंबीच एक चबूतरे पर बना हुआ शेरशाह का यह मकबरा नि:सन्देह भारत की श्रेष्ठतम इमारतों में से एक है।

(x) गुप्तचर और सूचना विभाग – शेरशाह का गुप्तचर और सूचना विभाग बहुत श्रेष्ठ था। प्रजा की रक्षा के लिए वह अपने अमीरों की प्रत्येक टुकड़ी के साथ विश्वासपात्र गुप्तचर भेजता था। प्रत्येक नगर और राज्य के दूर-दूर भागों में भी गुप्तचर एवं समाचार भेजने वालों की नियुक्ति की गई थी। यह विभाग ऐसी कुशलता से कार्य करता था कि उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों को घटना का पता लगने से पहले ही शेरशाह को उसका पता चल जाता था। शेरशाह अपने गुप्तचरों और तेज चलने वाले सन्देशवाहकों के माध्यम से अपने सम्पूर्ण राज्य के शासन पर नियन्त्रण रखता था और यह काफी हद तक उनकी शासन-व्यवस्था की सफलता का आधार था।

(xi) शेरशाह का सैनिक-प्रबन्ध – शेरशाह ने एक शक्तिशाली सेना का गठन किया था। अलाउद्दीन की भाँति उसने केन्द्र पर एक शक्तिशाली सेना रखी, जो सुल्तान की सेना थी। केन्द्र की सेना में 1,50,000 घुड़सवार, 25,000 पैदल और 5,000 हाथी थे। उसकी घुड़सवार सेना में मुख्यतया अफगान थे। बाकी अन्य वर्गों के मुसलमान और हिन्दू भी उसकी सेना में थे। सैनिकों को वेतन नकद दिया जाता था यद्यपि सरदारों को जागीरें दी जाती थी। बेईमानी रोकने के लिए उसने घोड़ों को दागने और सैनिकों का हुलिया लिखे जाने की प्रथाओं को अपनाया। शेरशाह के पास एक अच्छा तोपखाना भी था। इस प्रकार हम देखते हैं कि शेरशाह ने कम समय में एक अच्छी व्यवस्था की स्थापना की। जो इतिहासकार बाबर की प्रशासकीय अयोग्यता को समय की कमी कहकर माफ कर देते हैं, शेरशाह उनके लिए एक श्रेष्ठ उदाहरण है। इस प्रकार शेरशाह ने अकबर के कार्य को भी सरल कर दिया क्योंकि अपने थोड़े समय में ही शेरशाह ने एक श्रेष्ठ शासन की पृष्ठभूमि का निर्माण किया, जिससे अकबर के लिए एक स्पष्ट रास्ता बन गया।

प्रश्न 3.
शेरशाह के प्रारम्भिक जीवन का उल्लेख कीजिए। वह भारत का शासक कैसे बना?
उतर.
शेरशाह का जन्म सासाराम शहर में हुआ था, जो अब बिहार के रोहतास जिले में है। शेरशाह सूरी के बचपन का नाम फरीद था उसे शेर खाँ के नाम से जाना जाता था क्योंकि उन्होंने कथित तौर पर कम उम्र में अकेले ही एक शेर को मारा था। उनका कुलनाम ‘सूरी’ उनके गृहनगर ‘सुर’ से लिया गया था। कन्नौज युद्ध में विजय के बाद शेर खाँ ने आगरा पर अधिकार किया ओर तभी से वह शेरशाह सूरी के नाम से भारत का सम्राट बना। शेरशाह सूरी के दादा इब्राहीम खान सूरी नारनौल क्षेत्र में एक जागीरदार थे, जो उस समय के दिल्ली के शासकों का प्रतिनिधित्व करते थे। उनके पिता हसन पंजाब में एक अफगान रईस जमाल खान की सेवा में थे।

शेरशाह के पिता की चार पत्नियाँ और आठ बच्चे थे। हसन अपनी चौथी पत्नी से अधिक प्रभावित था। शेरशाह को बचपन के दिनों में उसकी सौतेली माँ बहुत सताती थी, जिससे अप्रसन्न होकर उन्होंने घर छोड़ दिया और जौनपुर आकर अपनी पढ़ाई की। पढ़ाई पूरी कर शेरशाह 1522 ई० में जमाल खान की सेवा में चले गए, पर उनकी विमाता को यह पसंद नहीं आया। इसलिए उन्होंने जमाल खान की सेवा छोड़ दी और बिहार के स्वघोषित स्वतन्त्र शासक बहार खान लोहानी के दरबार में चले गए।

अपने पिता की मृत्यु के उपरान्त उनकी जागीर का उत्तराधिकारी बनकर वे पुन: सासाराम वापस आ गए। परन्तु अपने सौतेले भाई के षड्यन्त्र के कारण उन्हें अपनी जागीर पुनः त्यागनी पड़ी। शेर खाँ ने पहले बाबर के लिए एक सैनिक के रूप में काम किया था तथा पूर्व में उसने अफगानों के विरुद्ध बाबर की सहायता भी की थी, जिस कारण से अफगान शेर खाँ से अप्रसन्न हो गए थे। किन्तु इसी समय बहार खाँ की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र जलाल खाँ अभी अल्पव्यस्क था। जलाल खाँ की माता ने शेर खाँ को जलाल खाँ का संरक्षक नियुक्त कर दिया।

(i) जलाल खाँ के विरुद्ध विजय – शेर खाँ ने बिहार की इतनी अच्छी व्यवस्था की कि वहाँ की दरिद्र जनता पूर्ण रूप से शेर खाँ की समर्थक बन गई थी, परन्तु उसकी इस प्रसिद्धि से चिढ़कर कुछ सरदारों ने युवक जलाल खाँ के कान शेर खाँ के विरुद्ध भरने आरम्भ कर दिए अतः जलाल खा ने शेर खाँ से सत्ता वापस लेने का निश्चय किया, परन्त शेर खाँ वास्तविक शासक था और उसको सरलतापूर्वक दबाया नहीं जा सकता था। जलाल खाँ ने शेर खाँ से बिहार का राज्य प्राप्त करने के लिए उस पर आक्रमण कर दिया, परन्तु सूरजगढ़ के युद्ध (1534 ई०) में शेर खाँ ने जलाल खाँ को पराजित करके बिहार को पूर्णतया अपने अधिकार में ले लिया।

(ii) बंगाल पर आक्रमण – सूरजगढ़ की विजय से उत्साहित होकर शेर खाँ ने 1535 ई० में बंगाल के सुल्तान महमूद खाँ पर
आक्रमण कर दिया। इस बार महमूद खाँ ने शेर खाँ को धन देकर अपनी प्राण रक्षा की। परन्तु दो वर्ष के उपरान्त 1537 ई० में शेर खाँ ने पुनः बंगाल की राजधानी गौड़ पर घेरा डाल दिया तथा गौड़ पर विजय प्राप्त कर उसने सुल्तान महमूद को हुमायूं की शरण में जाने के लिए बाध्य कर दिया।

(iii) रोहतास के दुर्ग पर अधिकार – गौड़ को अधिकार में लेने के उपरान्त शेर खाँ ने रोहतास दुर्ग पर अधिकार किया। रोहतास दुर्ग उसने विश्वासघात के द्वारा प्राप्त किया। रोहतास दुर्ग के शासक हिन्दू राजा के साथ शेर खाँ के मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे, परन्तु रोहतास का राजनीतिक महत्व होने के कारण शेर खाँ उस पर अधिकार करना चाहता था। जब हुमायूँ ने गौड़ का घेरा डाला तब शेर खाँ ने राजा से रोहतास का दुर्ग उधार देने की प्रार्थना की। राजा ने शेर खाँ की शक्ति से भयभीत होकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। शेर खाँ ने दुर्ग में पहुँचकर किले के सरंक्षकों की हत्या करवा दी और सम्पूर्ण राजकोष पर अधिकार कर लिया।

(iv) हुमायूँ के साथ संघर्ष – शेर खाँ तथा हुमायूँ का संघर्ष 1531 ई० से प्रारम्भ हुआ। 1531 ई० में दक्षिण बिहार पर शेर खाँ ने अधिकार करके सुप्रसिद्ध दुर्ग चुनार पर भी अधिकार कर लिया। जब हुमायूँ को यह सूचना मिली तो उसने शेर खाँ से चुनार त्यागने को कहा। लेकिन शेर खाँ ने चुनार दुर्ग का परित्याग नहीं किया, अतः अवज्ञा के कारण उसे दण्ड देने के लिए हुमायूं स्वयं सेना लेकर बिहार पहुँचा। शेर खाँ ने खुशामद के द्वारा हुमायूँ को राजी कर लिया और हुमायूँ ने चुनार उसी को सौंप दिया। ऐसा करने का कारण यह था कि हुमायूँ इस समय बहादुरशाह के साथ संघर्ष में संलग्न था। जब शेर खाँ ने सूरजगढ़ के युद्ध के द्वारा बिहार को पूर्णतया जीत लिया तथा 1537 ई० तक बंगाल पर भी उसका अधिकार हो गया तब हुमायूँ को उससे संघर्ष करना अनिवार्य हो गया। हुमायूँ ने चुनार पर घेरा डालकर उसे जीत लिया, किन्तु इसी बीच शेर खाँ ने गौड़ तथा रोहतास के दुर्गों को अपने अधिकार में ले लिया तथा वह दुर्ग में सुरक्षित पहुँच गया।

(v) चौसा और कन्नौज के युद्धों में विजय – अन्त में चौसा के युद्ध (1539 ई०) में शेर खाँ ने हुमायूँ को तोपखाने का प्रयोग करने का अवसर दिए बिना ही रणक्षेत्र से भागने को विवश कर दिया। चौसा का युद्ध शेर खाँ की शक्ति तथा प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए पर्याप्त था। इस युद्ध में विजय प्राप्त करके उसने ‘शेरशाह’ की उपाधि धारण की तथा अगले वर्ष 1540 ई० में कन्नौज के युद्ध में हुमायूँ को पराजित कर उसे भारत से बाहर खदेड़ दिया।

(vi) सूर वंश की स्थापना – 1540 ई० में हुमायूँ को देश निकाला देकर शेरशाह भारत का सम्राट बन गया और भारत में मुगल वंश के स्थान पर उसने सूर वंश की स्थापना की।

प्रश्न 4.
शेरशाह के चरित्र और उपलब्धियों का मूल्याकंन कीजिए तथा सूर-साम्राज्य के पतन के जिम्मेदार महत्वपूर्ण कारणों का भी उल्लेख कीजिए।
उतर.
शेरशाह को भारत के इतिहास में उच्चतम सम्राटों में स्थान दिया जाता है और चन्द्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त तथा अकबर महान् के साथ उसकी तुलना की जाती है। शेरशाह के चरित्र की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(i) उदारता एवं दयालुता – शेरशाह एक प्रजावत्सल सम्राट था। वह प्रजा के साथ उदारता एवं दयालुतापूर्ण व्यवहार करता था। वह दण्ड देने में यद्यपि कठोर एवं अनुदार था, किन्तु उस युग में कठोरता के बिना अपराध समाप्त नहीं किए जा सकते थे। अपनी दरिद्र जनता के लिए उसका व्यवहार बड़ा ही दयापूर्ण था। कृषकों के प्रति वह अत्यन्त उदार था तथा उसके | राज्य में प्रतिदिन भिखारियों को दान दिया जाता था।

(ii) धार्मिक सहिष्णुता – शेरशाह प्रथम मुस्लिम सम्राट था, जिसमें उच्चकोटि की धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। यद्यपि वह प्रतिदिन कुरान की आयतों का पाठ करता था तथा नमाज अदा करता था. तथापि उसने भारत में हिन्दुओं व मसलमानों के साथ समानता का व्यवहार किया और उच्च पदों पर हिन्दुओं को भी आसीन किया तथा उनके बच्चों के पढ़ने की व्यवस्था की और एक सीमा तक उन्हें धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की। इस दृष्टिकोण से हम उसे अकबर महान् का अग्रज मान सकते हैं।

(iii) कर्तव्यपरायण – शेरशाह कर्तव्यपरायण सुल्तान था। वह अपने कर्तव्यों को भली-भाँति जानता था तथा समुचित रूप से उनका पालन भी करता था। बाल्यकाल से ही उसमें यह गुण विद्यमान था। सुल्तान बनने के उपरान्त भी वह अपने कर्तव्यों के प्रति हमेशा सजग रहता था। वह दिन में 16 घण्टे कठोर परिश्रम करता था तथा अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिए सतत प्रयत्नशील रहता था।

(iv) कठोर परिश्रमी – शेरशाह कठोर परिश्रमी था। वह दिन-रात परिश्रम करता था। इसी कारण वह अपने विलासी शत्रु हुमायूँ को पराजित कर सका। जिस समय को हुमायूं ने उत्सव और विलासिता में व्यतीत किया, उसी समय का सदुपयोग करके शेरशाह अपनी शक्ति बढ़ाने में सफल हुआ। वह छोटे-से-छोटे राज-काज की स्वयं देखभाल करता था। शासन के समस्त विभागों पर नियन्त्रण रखता था। इसी कारण वह अपने राज्य में सुव्यवस्था बनाए रखने में सफल रहा।

(v) विद्यानुरागी – शेरशाह को अधिक समय विद्याध्ययन के लिए नहीं मिल सका था तथापि उसे अध्ययन का बड़ा शौक था। जौनपुर में रहकर उसने स्वयं अनेक पुस्तकों का अध्ययन किया तथा अनेक ऐतिहासिक एवं दार्शनिक पुस्तकों के विषय में उसे पर्याप्त ज्ञान था। सुल्तान बनने के उपरान्त उसने विद्या प्रसार के लिए अनेक पाठशालाएँ एवं मकतब निर्मित करवाए। उसके दरबार में अनेक विद्वानों को भी आश्रय प्राप्त था।

(vi) कुशल सेनापति एवं कूटनीतिज्ञ – वह एक कुशल सेनापति था। हुमायूं के साथ लड़े गए युद्धों में हमें उसके उच्चकोटि के सेनापति होने के गुण दृष्टिगोचर होते हैं। अपनी कूटनीति के कारण चौसा के युद्ध में कौशल प्रदर्शित किए बिना ही वह विजयी बना। बंगाल एवं बिहार के यद्धों में भी उसने अपने रण-कौशल का परिचय दिया। दिल्ली का सल्तान बनने के उपरान्त भी वह निरन्तर युद्धों में संलग्न रहा तथा अनेक छोटे-छोटे राज्यों पर उसने विजय प्राप्त की। युद्ध में वह छल एवं बल दोनों का उचित प्रयोग जानता था। चुनार, रोहतास तथा रायसीन पर उसने कूटनीति द्वारा ही विजय प्राप्त की थी।

(vii) न्यायप्रिय – शेरशाह न्यायप्रिय सुल्तान था। उसके राज्य में न्याय की समुचित व्यवस्था थी। न्याय के सम्मुख वह सबको समान समझता था तथा अपने पुत्र तक को साधारण व्यक्ति के समान दण्ड देता था। वह कठोर दण्ड में विश्वास करता था, जिससे अपराध सदा के लिए समाप्त हो जाएँ।

सूर साम्राज्य के पतन के कारण – भारत में दिल्ली पर प्रथम अफगान सत्ता को लोदी वंश ने स्थापित किया था, किन्तु बाबर ने 1526 ई० में इब्राहीम लोदी को परास्त करके दिल्ली में मुगल वंश की स्थापना की। शेरशाह सूरी ने 1540 ई० में बाबर के उत्तराधिकारी बादशाह हुमायूँ को दो युद्धों में परास्त करके दिल्ली में पुनः द्वितीय अफगान सत्ता स्थापित की। परन्तु अफगानों का यह द्वितीय साम्राज्य लगभग 15 वर्षों तक ही रहा। 1555 ई० में हुमायूँ ने क्रमश: ‘मच्छीवाड़ा’ और ‘सरहिन्द’ के युद्धों को जीतकर द्वितीय अफगान सत्ता को समाप्त कर दिया। इस प्रकार द्वितीय अफगान (सूर) साम्राज्य के पतन के निम्नलिखित कारण हैं

(i) इस्लामशाह के अयोग्य उत्तराधिकारी – इस्लामशाह का उत्तराधिकारी उसका अल्पायु पुत्र फीरोज था, जिसको तीन दिन पश्चात् ही उसके मामा मुबारिज खाँ ने मरवा डाला और आदिलशाह के नाम से स्वयं सुल्तान बन गया। परन्तु वह अयोग्य सिद्ध हुआ। इसी प्रकार इब्राहीम शाह और सिकन्दरशाह भी अयोग्य सिद्ध हुए। इनमें से कोई भी सूर साम्राज्य के विघटन को रोकने में सफल नहीं हुआ और सूर साम्राज्य खण्डित हो गया।

(ii) अफगानों की स्वतन्त्रता की प्रवृत्ति – सूर साम्राज्य की असफलता का मूल कारण अफगानों का एक केन्द्रीय शासन व्यवस्था को स्वीकार न करना था। अफगान आवश्यकता से अधिक अपने अधिकारों की स्वतन्त्रता पर बल देते थे, जिसके कारण वे एक सुल्तान के शासन के अधीन रहना पसन्द नहीं करते थे। इस कारण सुल्तान के दुर्बल या अयोग्य होते ही उनकी स्वतन्त्रता की महत्वाकाँक्षाएँ सम्मुख आ जाती थीं और वे पारस्परिक संघर्ष में फँस जाते थे। इससे साम्राज्य की एकता को क्षति पहुँचती थी, जो किसी भी साम्राज्य के पतन के लिए जिम्मेदार होती हैं।

(iii) प्रशासकीय कठिनाइयाँ – शेरशाह ने अपने शासनकाल में ही अपने विशाल साम्राज्य में श्रेष्ठ शासन-व्यवस्था स्थापित करने में सफलता प्राप्त की थी। किन्त उसकी और उसके उत्तराधिकारी इस्लामशाह की मृत्यु के पश्चात् अफगानों में सिंहासन को प्राप्त करने के लिए पारस्परिक संघर्ष आरम्भ हुआ, जिससे यह व्यवस्था नष्ट हो गई। इसके अतिरिक्त आर्थिक कठिनाइयाँ भी उत्पन्न हो गई थीं। अफगान साम्राज्य के विभाजित हो जाने के कारण दिल्ली के शासक सिकन्दर लोदी के पास पर्याप्त सैनिक साधन भी उलपब्ध नहीं हो सके। फलत: मुगल सेना अफगान सेना से श्रेष्ठ सिद्ध हुई तथा हुमायूँ ने सिकन्दर लोदी को सरलता से परास्त करके दिल्ली पर अधिकार कर लिया।

(iv) इस्लामशाह का उत्तरदायित्व – इस्लामशाह नि:सन्देह शेरशाह का योग्य उत्तराधिकारी था, परन्तु उसी के शासनकाल में अफगानों में आपस में तीव्र विभाजन हो गया। वह अपने सरदारों के प्रति शंकालु हो गया था और उसने अपने कई सरदारों को मरवा भी दिया। इसी कारण उसके विरुद्ध विद्रोह हो गया। वह विद्रोह को दबाने में तो सफल रहा किन्तु अफगान सरदारों की वफादारी पाने में असफल रहा। उसकी मृत्यु होते ही अफगान सरदारों की व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाएँ और स्वतन्त्र प्रवृत्ति स्पष्ट रूप में सामने आ गई, जिनकी परिणति सूर साम्राज्य के पतन के रूप में हुई।

प्रश्न 5.
शेरशाह एक कुशल विजेता एवं प्रशासक था।प्रस्तुत कथन के आलोक में उसकी उपलब्धियों की समीक्षा कीजिए।
उतर.
कुशल विजेता एवं प्रशासक के रूप में शेरशाह की उपलब्धियाँ निम्नलिखित थीं
(i) गक्खर प्रदेश की विजय (1541 ई०) – शेरशाह का उद्देश्य बोलन दरें और पेशावर से आने वाले मार्गों को मुगलों के आक्रमण से सुरक्षित करना था। अत: झेलम और सिन्धु नदी के उत्तर में स्थित गक्खर प्रदेश पर अधिकार करना आवश्यक था क्योंकि इसकी स्थिति बड़ी ही महत्वपूर्ण थी। शेरशाह ने गक्खर सरदारों पर चढ़ाई की और उनके प्रदेश को बुरी तरह रौंद डाला, परन्तु उनकी शक्ति को समाप्त न कर सका। अनेक गक्खर सरदार इसके बाद भी शेरशाह का विरोध करते रहे। शेरशाह ने वहाँ रोहतासगढ़ नामक एक विशाल दुर्ग बनाया, जिससे उत्तरी सीमा की रक्षा और गक्खों की रोकथाम कर सके। शेरशाह ने वहाँ हैबत खाँ और खवास खाँ के नेतृत्व में 50,000 अफगान सैनिकों की एक शक्तिशाली सेना तैनात की।

(ii) बंगाल का विद्रोह और नई व्यवस्था (1541 ई०) – शेरशाह की एक वर्ष से अधिक की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर बंगाल का गवर्नर खिज्र खाँ स्वतन्त्र शासक बनने के स्वप्न देखने लगा। उसने बंगाल के मृत सुल्तान महमूद की लड़की से शादी कर ली और एक स्वतन्त्र शासक की तरह व्यवहार करने लगा। शेरशाह शीघ्रता से बंगाल आया और गौड़ पहुँचकर उसने खिज्र खाँ को कैद कर लिया। बंगाल जैसे दूरस्थ और धनवान सूबे में विद्रोह की आशंकाओं को समाप्त करने के लिए शेरशाह ने वहाँ एक अन्य प्रकार की शासन-व्यवस्था स्थापित की। उसने बंगाल को सरकारों (जिलों) में बाँटकर उनमें से प्रत्येक को एक छोटी सेना के साथ शिकदारों के नियन्त्रण में दे दिया। इन शिकदारों की नियुक्ति बादशाह ही करता था। इन शिकदारों की देखभाल के लिए फजीलत नामक व्यक्ति को प्रान्त के प्रमुख के रूप में नियुक्त किया। इस व्यवस्था के अन्तर्गत बंगाल में किसी भी अधिकारी के पास एक बड़ी सेना न रही, जिससे उनमें से कोई भी विद्रोह की स्थिति में न रहा।

(iii) मालवा की विजय( 1542 ई०) – बहादुरशाह की मृत्यु के पश्चात् मालवा के सूबेदार मल्लू खाँ ने 1537 ई० में स्वयं को स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया और मालवा पर अधिकार करके कादिरशाह की उपाधि प्राप्त की। सारंगपुर, माण्डू उज्जैन और रणथम्भौर के मजबूत किले उसके अधिकार में थे। उसने शेरशाह के आधिपत्य को मानने से इन्कार कर दिया। शेरशाह ने अपने राज्य की सुरक्षा और एकता के लिए मालवा पर आक्रमण कर दिया। 1542 ई० में कादिरशाह ने डरकर सारंगपुर में आत्मसमर्पण कर दिया। शेरशाह ने मालवा पर अधिकार करके शुजात खाँ को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया और कादिरशाह को लखनौती व कालपी की जागीरें दीं। परन्तु कादिरशाह अपनी जान बचाकर गुजरात भाग गया। वापस आते समय शेरशाह ने रणथम्भौर पर आक्रमण कर उसे अपनी अधीनता में ले लिया। अतः ग्वालियर, माण्डू, उज्जैन, सारंगपुर, रणथम्भौर आदि शेरशाह के अधिकार में आ गए।

(iv) रायसीन की विजय (1543 ई०) – 1542 ई० में रायसीन के शासक पूरनमल ने शेरशाह की अधीनता स्वीकार कर ली थी किन्तु शेरशाह को सूचना मिली कि पूरनमल मुस्लिम लोगों से अच्छा व्यवहार नहीं करता। अत: 1543 ई० में शेरशाह ने रायसीन को घेरे में ले लिया। कई माह तक रायसीन के किले का घेरा पड़ा रहा परन्तु शेरशाह को सफलता न मिली। अन्त । में शेरशाह ने चालाकी से काम लिया। उसने कुरान पर हाथ रखकर शपथ ली कि यदि किला उसे सौंप दिया जाए तो वह पूरनमल, उसके आत्मसम्मान एवं जीवन को हानि नहीं पहुंचाएगा। इस पर पूरनमल ने आत्मसमर्पण कर दिया। किन्तु मुस्लिम जनता के आग्रह पर शेरशाह ने राजपूतों के खेमों को चारों ओर से घेर लिया। राजपूत जी-जान से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। अनेक राजपूत स्त्रियों ने जौहर (आत्मदाह) कर लिया किन्तु दुर्भाग्य से थोड़ी-सी राजपूत स्त्रियाँ और बच्चे जीवित रह गए, उन्हें गुलाम बना लिया गया। डा० ए०एल० श्रीवास्तव के अनुसार- पूरनमल के साथ शेरशाह का यह विश्वासघात उसके नाम पर बहुत बड़ा कलंक है।

(v) मुल्तान व सिन्धविजय(1543 ई०) – शेरशाह ने खवास खाँ को पंजाब से वापस बुलाकर वहाँ हैबत खाँ को सूबेदार के रूप में नियुक्त किया। हैबत खाँ ने फतह खाँ जाट को परास्त कर मुल्तान पर अधिकार कर लिया। शेरशाह ने हुमायूँ का पीछा करने के दौरान (1541ई०) ही सिन्ध पर अधिकार कर लिया था। इस प्रकार उत्तर-पश्चिम में शेरशाह के राज्य के अन्तर्गत पंजाब प्रान्त के अतिरिक्त मुल्तान और सिन्ध भी सम्मिलित हो गए।

(vi) मारवाड़ विजय( नवम्बर (1543 से मई 1544 ई० ) – मारवाड़ का शासक इस समय राजा मालदेव था। ईष्र्यांवश कुछ राजपूतों ने शेरशाह को मारवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भड़काया तथा इस युद्ध में उसकी सहायता करने का भी वचन दिया। शेरशाह ने तुरंत ही एक सेना लेकर मारवाड़ की ओर कूच किया तथा 1544 ई० में मारवाड़ की राजधानी जोधपुर को घेर लिया। दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ, किन्तु मालदेव के वीर सैनिकों के सम्मुख शेरशाह की एक न चली।। अन्त में बल से विजय प्राप्त करने में असमर्थ शेरशाह ने छल-कपट का आश्रय लिया। शेरशाह अन्त में विजयी रहा। लेकिन इस युद्ध के बाद शेरशाह को यह कहना पड़ा कि मैंने केवल दो मुट्ठी बाजरे के लिए अपना सम्पूर्ण साम्राज्य ही दाँव पर लगा दिया था।

(vii) मेवाड़ विजय (1544 ई०) – मेवाड़ के वीर सम्राट राणा साँगा इस समय मर चुके थे और उनके अल्पव्यस्क पुत्र उदयसिहं मेवाड़ के राजा थे, जिनकी अल्पायु से लाभ उठाकर बनबीर मेवाड़ का सर्वेसर्वा बन बैठा था। ऐसे समय में शेरशाह ने मेवाड़ पर आक्रमण कर उस पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

(viii) कालिंजर विजय (1545 ई०) – शेरशाह की अन्तिम विजय कालिंजर पर हुई। कालिंजर का दुर्ग बड़ा सुदृढ़ एवं अभेद्य माना जाता है। नवम्बर 1544 ई० में उसने दुर्ग के चारों ओर घेरा डाल दिया, लेकिन एक वर्ष तक घेरा डाले रखने पर भी शेरशाह उस पर अधिकार न कर सका। तब उसने दुर्ग की दीवारों को गोला-बारूद से उड़ाने का निश्चय किया तथा दुर्ग के चारों ओर मिट्टी एवं बालू के ऊँचे-ऊँचे ढेर लगवा दिए। जब ढेर दुर्ग की दीवारों से भी ऊँचे हो गए तब शेरशाह सूरी की आज्ञानुसार 22 मई, 1545 ई० को अफगान सैनिकों ने इन पर चढ़कर दुर्ग में स्थित राजपूतों का संहार करना आरम्भ कर दिया। इसी समय शेरशाह नीचे से तोपखाने का निरीक्षण कर रहा था, तभी एक गोला फटने से उसे बहुत चोट आई; तथापि उसने आक्रमण को निरन्तर जारी रखने की आज्ञा दी तथा शाम तक दुर्ग पर उसका अधिकार हो गया।

(ix) साम्राज्य का विस्तार – शेरशाह ने अपनी मृत्यु के समय तक असोम, कश्मीर और गुजरात को छोड़कर उत्तर-भारत के प्रायः सम्पूर्ण भू-प्रदेश पर अपनी सत्ता को स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। शेरशाह एक विस्तृत साम्राज्य के संस्थापक के अतिरिक्त एक महान शासन-प्रबन्धक भी था, जिसके कारण उसकी गिनती मध्य युग के श्रेष्ठ शासकों में होती है।

प्रश्न 6.
शेरशाह की शासन-व्यवस्था की रूपरेखा प्रस्तुत कीजिए। उसे अकबर का पथ-प्रदर्शक क्यों कहा गया?
उतर.
शेरशाह की शासन-व्यवस्था – शेरशाह की शासन-व्यवस्था के लिए विस्तृत उत्तरी प्रश्न संख्या-2 का अवलोकन कीजिए। शेरशाह अकबर का पथ-प्रदर्शक- एक शासन-व्यवस्था की दष्टि से शेरशाह को अकबर का अग्रणी (पथ-प्रदर्शक) माना गया है। शेरशाह के सैनिक प्रबन्ध, सरदारों पर उसके नियन्त्रण, उसकी न्याय की भावना, उसकी प्रजा के हित की भावना और शासन के मूल सिद्धान्त आदि सभी का अकबर ने पूर्ण लाभ उठाया। शेरशाह ने राजपूतों से अधीनता स्वीकार कराकर उनके राज्य उन्हें वापस कर दिये थे। अकबर ने इसको और विस्तार से अपनाया।

शेरशाह की लगान व्यवस्था भी अकबर के लिए मार्गदर्शक बनी। शेरशाह के किसानों, व्यापारियों और जन-हित के कार्यों को अकबर ने यथावत् रूप से स्वीकार कर लिया। नि:सन्देह शेरशाह ने अकबर के शासन की आधारशिला का निर्माण किया और उसका अग्रणी अथवा पथ-प्रदर्शक बना। डॉ० आर०पी० त्रिपाठी ने लिखा है “यदि शेरशाह अधिक समय तक जीवित रहता तो सम्भवतया वह अकबर से महान् हो जाता। नि:सन्देह, वह दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ सुल्तान-राजनीतिज्ञों में से एक था। निश्चय ही उसने अकबर की महान् उदार नीति के मार्ग का निर्माण किया और वह सही अर्थों में उसका अग्रणी था।”

प्रश्न 7.
शेरशाह सूरी के शासन-प्रबन्ध की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
उतर.
शेरशाह का शासन-प्रबन्ध- इतिहासकारों ने शेरशाह को अकबर से भी श्रेष्ठ रचनात्मक बुद्धि वाला और राष्ट्र-निर्माता बताया है। सैनिक और असैनिक दोनों ही मामलो में शेरशाह ने संगठनकर्ता की दृष्टि से शानदार योग्यता का परिचय दिया। नि:सन्देह शेरशाह मध्य युग के महान् शासन-प्रबन्धकों में से एक था। उसने किसी नई शासन-व्यवस्था को जन्म नहीं दिया बल्कि उसने पुराने सिद्धान्तों और संस्थाओं को ऐसी कुशलता से लागू किया कि उनका स्वरूप नया दिखाई दिया। इस प्रकार योग्य शासन-प्रबन्ध की दृष्टि से इतिहास में शेरशाह का स्थान महत्वपूर्ण माना जाता है। शेरशाह का शासन-प्रबन्ध निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है
(i) प्रान्तीय शासन-प्रबन्ध
(क) इक्ता या सूबा – शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए शेरशाह ने साम्राज्य को अनेक भागों में बाँट रखा था। उस समय राज्य में ‘सरकार’ सबसे बड़ा खण्ड कहलाता था। सरकार ऐसे प्रशासकीय खण्ड थे जो कि प्रान्तों से मिलते-जुलते थे और जो इक्ता कहलाते थे और प्रमुख अधिकारियों के अधीन थे। शेरशाह के समय फौजी गवर्नरों की नियुक्तियाँ भी होती थीं। जिन राज्यों को शासन करने की स्वतन्त्रता दे दी गई थी, उन्हें सूबा या इक्ता कहा जाता था। सूबे का प्रमुख हाकिम अथवा फौजदार होता था। फिर भी शेरशाह के प्रान्तीय प्रशासन का विवरण स्पष्ट नहीं है।

(ख) सरकारें (जिले ) – प्रत्येक इक्ता या सूबा सरकारों में बँटा होता था। शेरशाह की सल्तनत में 66 सरकारें थीं। प्रत्येक सरकार में दो प्रमुख अधिकारी होते थे- ‘शिकदार-ए-शिकदारान’ और ‘मुन्सिफ-ए-मुनसिफान’। शिकदार-ए-शिकदारान सरकार के प्रशासन का अध्यक्ष होता था तथा विभिन्न परगनों के शिकदारों पर प्रशासनिक अधिकारी होता था। अपनी सरकार में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना करना तथा विद्रोही जमींदारों का दमन करना उसका प्रमुख कर्तव्य था। मुन्सिफ-ए-मुन्सिफान मुख्यतया न्याय-अधिकारी था। दीवानी मुकदमों का फैसला करना और अपने अधीन मुन्सिफों के कार्यों की देखभाल करना उसका दायित्व था।

(ग) परगने – प्रत्येक सरकार में कई परगने होते थे। शेरशाह ने प्रत्येक परगने में एक शिकदार, एक अमीन (मुन्सिफ), एक फोतदार (खजांची) और दो कारकून (लिपिक) नियुक्त किए गए थे। शिकदार के साथ एक सैनिक दस्ता होता था और उसका कर्तव्य परगने में शान्ति स्थापित करना था। मुन्सिफ का कार्य दीवानी मुकदमों का निर्णय करना और भूमि की नाप एवं लगान-व्यवस्था की देखभाल करना था। फोतदार परगने का खजांची था और कारकूनों का कार्य हिसाब-किताब लिखना था।

(घ) गाँव – शासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी। प्रत्येक गाँव में मुखिया, पंचायतें और पटवारी होते थे, जो स्थानीय प्रशासन की व्यवस्था करते थे। गाँव की अपनी पंचायत होती थी, जो गाँव में सुरक्षा, शिक्षा, सफाई आदि का प्रबन्ध करती थी। शेरशाह ने गाँव की परम्परागत व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया था परन्तु गाँव के इन अधिकारियों को अपने कर्तव्यों का पालन करना पड़ता था। अन्यथा इन्हें दण्ड दिया जाता था।

(ii) भू-राजस्व व्यवस्था – राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमिकर अथवा लगान था। इसके अतिरिक्त लावारिस सम्पत्ति, व्यापारिक कर, टकसाल, नमक-कर, अधीनस्थ राजाओं, सरदारों एवं व्यापारियों द्वारा दिए गए उपहार, युद्ध में लूटे गए माल का 1/5 भाग, जजिया इत्यादि आय के साधन थे। शेरशाह किसानों की भलाई में ही राज्य की भलाई मानता था। उसकी लगान-व्यवस्था बहुत अच्छी मानी जाती है, उसकी लगान-व्यवस्था निम्न प्रकार थी

(क) शेरशाह की लगान – व्यवस्था मुख्यतया रैयतवाड़ी थी, जिसमें किसानों से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित किया जाता था। इस कार्य में शेरशाह को पूर्ण सफलता नहीं मिली और जागीरदारी प्रथा भी चलती रही। मालवा और राजस्थान में यह व्यवस्था लागू नहीं की जा सकी।

(ख) उत्पादन के आधार पर ही भूमि को तीन श्रेणियों में बाँटा गया था- उत्तम, मध्यम और निम्न।

(ग) खेती योग्य सभी भूमि की नाप की जाती थी और पता लगाया जाता था कि किस किसान के पास कितनी और किस श्रेणी की भूमि है। उस आधार पर पैदावार का औसत निकाला जाता था।

(घ) लगान निश्चित करने की उस समय तीन प्रणालियाँ थीं – (अ) गल्ला बक्सी अथवा बँटाई (खेत बँटाई, लँक बँटाई और रास बँटाई), (ब) नश्क या कनकूत तथा (स) नकद अथवा जब्ती। सामान्यत: किसान बँटाई प्रणाली को ही पसन्द करता था।

(ड.) किसानों को सरकार की ओर से पट्टे दिए जाते थे, जिनमें स्पष्ट किया गया होता था कि उस वर्ष उन्हें कितना लगान देना है। किसान ‘कबूलियत-पत्र के द्वारा इन्हें स्वीकार करते थे।

(च) लगान के अलावा किसानों को जमीन की पैमाइश और लगान वसूल करने में संलग्न अधिकारियों के वेतन आदि के लिए सरकार को ‘जरीबाना’ और ‘महासीलाना’ नामक कर देने पड़ते थे जो पैदावार का 2.5% से 5% तक होता था। किसान को 2.5% अन्य कर भी देना पड़ता था, जिससे अकाल अथवा बाढ़ की दशा में जनता को सहायता मिलती थी।

(छ) शेरशाह का स्पष्ट आदेश था कि लगान लगाते समय किसानों के साथ सहानुभूति का बर्ताव किया जाए लेकिन लगान वसूल करते समय कोई नरमी न बरती जाए।

(ज) किसानों को यह सुविधा थी कि वे लगान नकद या जिन्स के रूप में दे सकते थे, लकिन सरकार नकद के रूप में लेना ज्यादा पसन्द करती थी।

(झ) शेरशाह यह ध्यान रखता था कि युद्ध के अवसर पर कृषि की कोई हानि न हो और जो हानि हो जाती थी, उसकी पूर्ति कर दी जाती थी।

(iii) केन्द्रीय शासन-प्रबन्ध – सुल्तान- दिल्ली सल्तनत के शासकों की भाँति शेरशाह भी एक निरंकुश शासक था और उसकी शक्ति एवं सत्ता अपरिमित थी। शासन नीति और दीवानी तथा फौजदारी मामलों के संचालन की शक्तियाँ उसी के हाथों में केन्द्रित थीं। उसके मन्त्री स्वयं निर्णय नहीं लेते थे बल्कि केवल उसकी आज्ञा का पालन और उसके द्वारा दिए गए कार्यों की पूर्ति करते थे।

इस कारण शासन की सुविधा की दृष्टि से शेरशाह को सल्तनतकाल की व्यवस्था के आधार पर चार मन्त्री विभाग बनाने पड़े थे। ये निम्नलिखित थे
(क) दीवाने वजारत – यह लगान और अर्थव्यवस्था का प्रधान था। राज्य की आय और व्यय की देखभाल करना इसका दायित्व था। इसे मन्त्रियों के कार्यों की देखभाल का भी अधिकार था।

(ख) दीवाने-आरिज – यह सेना के संगठन, भर्ती, रसद, शिक्षा और नियन्त्रण की देखभाल करता था, परन्तु यह सेना का सेनापति न था। शेरशाह स्वयं ही सेना का सेनापति था और स्वयं सेना के संगठन और सैनिकों की भर्ती आदि में रुचि रखता था।

(ग) दीवाने-रसालत – यह विदेश मन्त्री की भाँति कार्य करता था। अन्य राज्यों से पत्र-व्यवहार करना और उनसे सम्पर्क रखना इसका दायित्व था। कूटनीतिक पत्र-व्यवहार भी इसे ही सम्भालना होता था।

(घ) दीवाने – इंशा- इसका कार्य सुल्तान के आदेशों को लिखना, उनका लेखा रखना, राज्य के विभिन्न भागों में उनकी सूचना पहुँचाना और उनसे पत्र-व्यवहार करना था। इनके अतिरिक्त दो अन्य मन्त्रालय भी थे, ‘दीवाने-काजी’ और ‘दीवाने-बरीद’। दीवाने-काजी सुल्तान के पश्चात् राज्य के मुख्य न्यायाधीश की भॉति कार्य करता था और दीवाने-बरीद राज्य की गुप्तचर व्यवस्था और डाकव्यवस्था की देखभाल करता था। इसके अतिरिक्त बादशाह के महलों तथा नौकर-चाकरों की व्यवस्था के लिए एक अलग अधिकारी होता था।

(iv) सड़कें और सरायें – शेरशाह ने अपने समय में कई सड़कों का निर्माण कराया और पुरानी सड़कों की मरम्मत कराईं। शेरशाह ने मुख्यतया चार प्राचीन सड़कों की मरम्मत और निर्माण कराया। ये सड़कें निम्नलिखित थीं
(क) एक सड़क बंगाल के सोनारगाँव, आगरा, दिल्ली, लाहौर होती हुई पंजाब में अटक तक जाती थी अर्थात् (ग्रांड ट्रंक रोड), जिसे ‘सड़के-आजम’ के नाम से पुकारा जाता था।

(ख) दूसरी, आगरा से बुरहानपुर तक।

(ग) तीसरी, आगरा से जोधपुर और चित्तौड़ तक और

(घ) चौथी, लाहौर से मुल्तान तक जाती थी। शेरशाह ने इन सड़कों के दोनों ओर छायादार और फलों के वृक्ष लगवाए थे। उसने इन सभी सड़कों पर प्राय: दोदो कोस की दूरी पर सरायें बनवाई थीं। उसने अपने समय में करीब 1,700 सरायों का निर्माण कराया। इन सभी सरायों में हिन्दू और मुसलमानों के ठहरने के लिए अलग-अलग प्रबन्ध था। व्यापारी, यात्री, डाक-कर्मचारी आदि सभी यहाँ संरक्षण और भोजन प्राप्त करते थे।

(v) मुद्रा व्यवस्था – शेरशाह ने पुराने और घिसे हुए, पूर्व शासकों के प्रचलित सिक्के बन्द करके उनके स्थान पर सोने, चाँदी और ताँबे के नये सिक्के चलाए और उनका अनुपात निश्चित किया। उसके चाँदी के रुपए का वजन 180 ग्रेन था, जिसमें 175 ग्रेन शुद्ध चाँदी होती थी। सोने के सिक्के 166.4 ग्रेन और 168.5 ग्रेन के ढाले गए थे। ताँबे का सिक्का दाम कहलाता था। सिक्कों पर शेरशाह का नाम, उसकी पदवी और टकसाल का स्थान अरबी या देवनागरी लिपि में अंकित रहता था। शेरशाह के रुपए के बारे में इतिहासकार स्मिथ ने लिखा है “यह रुपया वर्तमान ब्रिटिश मुद्रा-प्रणाली का आधार है।”

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UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 24 Foreign Trade

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography
Chapter Chapter 24
Chapter Name Foreign Trade (विदेशी व्यापार)
Number of Questions Solved 16
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 24 Foreign Trade (विदेशी व्यापार)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारत के विदेशी व्यापार का विवरण निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत दीजिए –
(i) निर्यात, (ii) आयात, (ii) व्यापार की दिशा। [2014]
या
विदेशी व्यापार का क्या आशय है? भारत में आयात की जाने वाली वस्तुओं का उल्लेख कीजिए। [2008]
या
भारत के विदेशी व्यापार की प्रमुख विशेषताएँ बताइए। [2011, 12]
या
भारत का निर्यात व्यापार पर टिप्पणी लिखिए। [2008, 16]
या
भारत के विदेशी व्यापार की प्रवृत्तियों पर एक निबन्ध लिखिए। [2011]
या
भारत के आयात-निर्यात व्यापार की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए। [2011]
या
भारत से निर्यात की जाने वाली प्रमुख वस्तुओं का विवरण दीजिए। [2014]
उत्तर

भारत का विदेशी व्यापार
Foreign Trade of India

विदेशी व्यापार की वृद्धि मानवीय सभ्यता के विकास का मापदण्ड होती है। विदेशी व्यापार द्वारा देश में उत्पादित अतिरिक्त वस्तुओं की खपत दूसरे देशों में हो जाती है, जबकि आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति अन्य देशों से मँगाकर कर ली जाती है। इससे आर्थिक विकास में तीव्रता आती है तथा जीवन-स्तर में वृद्धि हो जाती है।

स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व भारत का विदेशी व्यापार एक उपनिवेश एवं कृषि पदार्थों तक ही सीमित था। इसका अधिकांश व्यापार ग्रेट ब्रिटेन तथा राष्ट्रमण्डलीय देशों से ही होता था। देश से प्राथमिक उत्पादों का निर्यात किया जाता था, जबकि तैयार वस्तुओं का आयात किया जाता था। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भारत के विदेशी व्यापार में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। आज देश के व्यापारिक सम्बन्ध लगभग सभी देशों से हो गये हैं। वर्तमान में भारत 180 देशों को लगभग 7,500 वस्तुओं से भी अधिक का निर्यात करता है, जबकि 6,000 से अधिक वस्तुएँ 140 देशों से आयात करता है। औद्योगिक एवं आर्थिक विकास की आवश्यकताओं ने आयात में भारी वृद्धि की है। उन्नत मशीनें, अलभ्य कच्चे माल, पेट्रोलियम पदार्थ, रासायनिक उर्वरकों आदि के आयात ने वर्तमान विदेशी व्यापार का सन्तुलन विपरीत दिशा में कर दिया है। वर्ष 2006-2007 में देश ने 5,638 अरब की वस्तुएँ विदेशों को निर्यात की थीं, अब यह बढ़कर 18,941 अरब हो गयी है। जबकि आयात १ 8,206 अरब का था, अब यह बढ़कर 27,141 अरब हो गया है।

भारत की प्रमुख आयातक एवं निर्यातक वस्तुएँ
Major Imports and exports of India

आयातक वस्तुएँ Importing Goods
भारत में आयात की जाने वाली वस्तुओं का विवरण निम्नलिखित है
(1) पेट्रोल एवं पेट्रोलियम उत्पाद – भारत के आयात में पेट्रोल एवं पेट्रोलियम उत्पादों का विशिष्ट स्थान है। यह आयात बहरीन द्वीप, फ्रांस, इटली, अरब, सिंगापुर, संयुक्त राज्य, ईरान, इण्डोनेशिया, संयुक्त अरब अमीरात, मैक्सिको, अल्जीरिया, म्यांमार, इराक, रूस आदि देशों से किया जाता है। वर्तमान समय में खाड़ी संकट के कारण पेट्रोल एवं पेट्रोलियम उत्पाद के मूल्य में और अधिक वृद्धि हुई है जिससे इसका आयात मूल्य बढ़ गया है।

(2) मशीनें – देश के आर्थिक एवं औद्योगिक विकास के लिए भारी मात्रा में मशीनों का आयात किया जा रहा है। इनमें विद्युत मशीनों का आयात सबसे अधिक किया जाता है। सूती वस्त्र उद्योग की मशीनें, कृषि मशीनें, बुल्डोजर, शीत भण्डारण, चमड़ा कमाने की मशीनें, चाय एवं चीनी उद्योग की मशीनें, वायु-संपीडक, खनिज उद्योग की मशीनें आदि अनेक प्रकार की मशीनों का आयात किया जाता है। मशीनें 46% ब्रिटेन से, 21% जर्मनी से, 14% संयुक्त राज्य अमेरिका से तथा शेष अन्य देशों; जैसे- बेल्जियम, फ्रांस, जापान एवं कनाडा आदि से आयात की जाती हैं।

(3) कपास एवं रद्दी रूई – भारत में उत्तम सूती वस्त्र तैयार करने के लिए लम्बे रेशे वाली कपास तथा विभिन्न प्रकार के कपड़ों के लिए रद्दी रूई विदेशों से आयात की जाती है। यह कपास एवं रूई मिस्र, संयुक्त राज्य अमेरिका, तंजानिया, कीनिया, सूडान, पीरू, पाकिस्तान आदि देशों से मँगायी जाती है।

(4) धातुएँ, लोहे तथा इस्पात का सामान – इन वस्तुओं का कुल आयातित माल में दूसरा स्थान है। ऐलुमिनियम, पीतल, ताँबा, काँसा, सीसा, जस्ता, टिन आदि धातुएँ विदेशों से अधिक मात्रा में मँगायी जाती हैं। इन वस्तुओं का आयात प्रायः ब्रिटेन, कनाडा, स्विट्जरलैण्ड, स्वीडन, संयुक्त राज्य अमेरिका, बेल्जियम, कांगो गणतन्त्र, मोजाम्बिक, ऑस्ट्रेलिया, म्यांमार, सिंगापुर, मलेशिया, रोडेशिया, जापान आदि देशों से किया जाता है।

(5) खाद्यान्न – देश में जनसंख्या की तीव्र वृद्धि तथा खाद्यान्न उत्पादन की कमी इसके आयात को आकर्षित करती है। परन्तु पिछले कुछ वर्षों से खाद्यान्न उत्पादन में आशातीत सफलता मिलने के कारण इनका आयात कम कर दिया गया है तथा देश निर्यात करने की स्थिति में आ गया है। थाइलैण्ड सदृश देशों को गेहूँ का मैदा निर्यात किया जा रहा है।

(6) रासायनिक पदार्थ – रासायनिक पदार्थों के आयात में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। इसमें अमोनियम सल्फेट, नाइट्रेट ऑफ सोडा, सुपर फॉस्फेट, एसेटिक एसिड, नाइट्रिक एसिड, बोरिक एवं टार्टरिक एसिड, सोडा-ऐश, ब्लीचिंग पाउडर, गन्धक, अमोनियम क्लोराइड आदि वस्तुएँ मुख्य हैं। इनका आयात सं० रा० अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, जर्मनी, जापान, बेल्जियम आदि देशों से किया जाता है। दवाइयों का आयात मुख्यतः ब्रिटेन, स्विट्जरलैण्ड, कनाडा एवं संयुक्त राज्य अमेरिका से किया जाता है।

(7) कागज व स्टेशनरी – देश में साक्षरता की वृद्धि तथा अन्य आवश्यकताओं के कारण कागज की माँग बढ़ रही है। इसका आयात नॉर्वे, स्वीडन, कनाडा, जर्मनी, फ्रांस, संयुक्त राज्य अमेरिका, ऑस्ट्रिया, फिनलैण्ड एवं ब्रिटेन से किया जाता है।
अन्य आयातक वस्तुओं में विद्युत उपकरण, काँच का सामान, सूती वस्त्र, ऊनी वस्त्र, मोटरसाइकिलें, रबड़ का सामान, जूट एवं रेशमी वस्त्र मुख्य हैं।

निर्यातक वस्तुएँ Exporting Goods
भारत से निम्नलिखित प्रमुख वस्तुओं का निर्यात किया जाता है –

  1. जूट का सामान – भारत के निर्यात व्यापार में जूट का सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि इसके निर्यात से विदेशी मुद्रा का 35% भाग प्राप्त होता है। इससे निर्मित बोरे, टाट, मोटे कालीन, फर्श, गलीचे, रस्से, तिरपाल आदि निर्यात किये जाते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, अर्जेण्टीना, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, रूस, अरब गणराज्य आदि देश इसके मुख्य ग्राहक हैं।
  2. चाय – कुल चाय का 59% भाग ब्रिटेन को निर्यात किया जाता है, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका4%, रूस 12%, कनाडा 3%, ईरान 1%, अरब गणराज्य 6%, नीदरलैण्ड्स.2% तथा सूडान एवं जर्मनी अन्य प्रमुख ग्राहक हैं।
  3. चमड़ा – भारतीय चमड़े की माँग मुख्यतः ब्रिटेन 45%, जर्मनी 10%, फ्रांस 7% एवं संयुक्त राज्य अमेरिका 9% देशों में रहती है। अन्य ग्राहकों में इटली, जापान, बेल्जियम और यूगोस्लाविया आदि देश हैं।
  4. तम्बाकू – भारत द्वारा ब्रिटेन, जापान, पाकिस्तान, अदन, चीन, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों को तम्बाकू का निर्यात किया जाता है।
  5. तिलहन – भारत से विभिन्न प्रकार के तिलहन एवं तेलों का निर्यात किया जाता है। इसमें मूंगफली, अलसी, तिल एवं अरण्डी का तेल प्रमुख हैं। तिलहन के उत्पादन में कमी के कारण अब खली का निर्यात अधिक किया जाता है। ब्रिटेन, फ्रांस, संयुक्त राज्य अमेरिका, पाकिस्तान, इराक, कनाडा, इटली, बेल्जियम, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, हंगरी, सऊदी अरब, श्रीलंका, मॉरीशस आदि देश मुख्य आयातक हैं।
  6. लाख – लाख के आयातक ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका एवं ऑस्ट्रेलिया आदि देश हैं।
  7. सूती वस्त्र – भारत मोटा एवं उत्तम, दोनों ही प्रकार का कपड़ा निर्यात करता है। ईरान, इराक, सऊदी अरब, पूर्वी अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, दक्षिणी अफ्रीका, श्रीलंका, म्यांमार, पाकिस्तान, थाइलैण्ड, मिस्र, तुर्की, चीन, सिंगापुर, मलेशिया, इण्डोनेशिया इन वस्त्रों के प्रमुख ग्राहक हैं।
  8. मसाले – भारत में काली मिर्च, इलायची, सुपारी, हल्दी, अदरख आदि अनेक मसालों का निर्यात संयुक्त राज्य अमेरिका, स्वीडन, सऊदी अरब, ब्रिटेन, पाकिस्तान, श्रीलंका, चीन, इटली, डेनमार्क एवं कनाडा को किया जाता है।
  9. धातु-निर्मित वस्तुएँ – धातु-निर्मित वस्तुओं के अन्तर्गत देश से बिजली के पंखे, बल्ब, लोहे एवं ताँबे के तार, बैटरियाँ, धातु की चादरों से बने बरतन, सिलाई की मशीनें, रेजर, ब्लेड, कागज बनाने, प्लास्टिक की ढलाई करने, छपाई करने, जूता सीने, चीनी एवं चाय बनाने की मशीनें, मोटरगाड़ियाँ एवं उनके पुर्जे, ताले, साँकलें एवं चटकनियाँ, छाते, लोहे से ढालकर बनाई गयी वस्तुएँ, गैस-बत्तियाँ, रेगमाल आदि वस्तुएँ निर्यात की जाती हैं।

भारत से निर्यात की जाने वाली अन्य वस्तुओं में सूखे मेवे-कोजू एवं अखरोट, फल एवं तरकारियाँ, अभ्रक, मैंगनीज, ऊन, कोयला, कहवा, नारियल एवं उससे निर्मित पदार्थ, रासायनिक पदार्थ तथा ऊनी कम्बल आदि प्रमुख हैं।

भारत के विदेशी व्यापार की मुख्य विशेषताएँ
Main Characteristics of India’s Foreign Trade

भारत के विदेशी व्यापार की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
(1) अधिकांश भारतीय विदेशी व्यापार लगभग (90%) समुद्री मार्गों द्वारा किया जाता है। हिमालय पर्वतीय अवरोध के कारण समीपवर्ती देशों एवं भारत के मध्य धरातलीय आवागमन की सुविधा उपलब्ध नहीं है। इसी कारण देश का अधिकांश व्यापार पत्तनों द्वारा अर्थात् समुद्री मार्गों द्वारा ही किया जाता है।

(2) भारत के निर्यात व्यापार का 27% पश्चिमी यूरोपीय देशों, 20% उत्तरी अमेरिकी देशों, 51% एशियाई एवं ऑसिआनियाई देशों तथा 2% अफ्रीकी एवं दक्षिणी अमेरिकी देशों को किया जाता है। कुल निर्यात व्यापार का 61.1% भाग विकसित देशों (सं० रा० अमेरिका–17.4%, जापान-7.2%, जर्मनी–6.8% एवं ब्रिटेन-5.8%) को किया जाता है।
इसी प्रकार आयात व्यापार में 26% पश्चिमी यूरोपीय देशों, 39% एशियाई एवं ऑसिओनियाई देशों, 13% उत्तरी अमेरिकी देशों तथा 11% अफ्रीकी देशों का स्थान है।

(3) यद्यपि भारत में विश्व की 16% जनसंख्या निवास करती है, परन्तु विश्व व्यापार में भारत का भाग लगभग 10% से भी कम है, जबकि अन्य विकसित एवं विकासशील देशों का भाग इससे कहीं अधिक है। इस प्रकार देश के प्रति व्यक्ति विदेशी व्यापार का औसत अन्य देशों से कम है।
(4) भारत के विदेशी व्यापार का भुगतान सन्तुलन स्वतन्त्रता के बाद से ही हमारे पक्ष में नहीं रहा है। वर्ष 1960-61 तथा 1970-71 में भुगतानं सन्तुलन हमारे पक्ष में रहा है। वर्ष 1980-81 में घाटा 58.3 अरब था, वर्ष 1990-91 में यह घाटा १ 106.4 अरब तक पहुँच गया है। वर्ष 2013-14 में भारत के पास ₹8200 अरब से अधिक का विदेशी भुगतान शेष था। घाटे में वृद्धि का प्रमुख कारण आयात में भारी वृद्धि का होना है। आयात में भारी वृद्धि पेट्रोलियम पदार्थों के आयात के कारण हुई है।

(5) देश का अधिकांश विदेशी व्यापार लगभग 35 देशों के मध्य होता है, जो विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के आधार पर किया जाता है।
(6) भारत के विदेशी व्यापार में खाद्यान्नों के आयात में निरन्तर कमी आयी है, जिसका प्रमुख कारण खाद्यान्न उत्पादन में उत्तरोत्तर वृद्धि का होना है। वर्ष 1989-90 से देश खाद्यान्नों को निर्यात करने की स्थिति में आ गया है तथा उसने पड़ोसी देशों को खाद्यान्न निर्यात भी किये हैं।
(7) भारत अपनी विदेशी मुद्रा संकट का हल अधिकाधिक निर्यात व्यापार से ही कर सकता है; अतः उन्हीं कम्पनियों को आयात की छूट दी जाती है जो निर्यात करने की स्थिति में हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
विदेशी व्यापार का क्या अभिप्राय है? भारत से निर्यात की जाने वाली दो प्रमुख वस्तुओं का उल्लेख कीजिए। [2010]
उत्तर
विदेशी व्यापार – वह व्यापार जिसके माध्यम से एक देश की अतिरिक्त वस्तुएँ दूसरे देश में खपती हैं, विदेशी व्यापार कहलाता है। आयात व निर्यात विदेशी व्यापार के दो प्रमुख पहलू हैं। जब एक देश दूसरे देश से कोई वस्तु मँगाता है, उसे आयात कहते हैं। एक देश से दूसरे देश को भेजी जाने वाली वस्तु के व्यापार को निर्यात कहा जाता है।
भारत से निर्यात की जाने वाली दो प्रमुख वस्तुएँ हैं-सिले-सिलाए परिधान तथा अभियान्त्रिकी माल।

प्रश्न 2
भारत के विदेशी व्यापार की नवीनतम प्रवृत्तियाँ क्या हैं?
या
भारतीय विदेशी व्यापार की प्रवृत्तियों का वर्णन कीजिए। [2010, 15]
उत्तर
(1) आयातों की प्रकृति में परिवर्तन – पहले भारत में निर्मित माल का अधिक आयात किया जाता था, अब कच्चे (अशुद्ध) पेट्रोलियम, कच्चे माल तथा पूँजीगत वस्तुओं का आयात होने लगा है।

(2) गैर-परम्परागत वस्तुओं के निर्यात में वृद्धि – भारत परम्परागत निर्यात पदार्थों (खाद्य पदार्थ, चमड़ा, अभ्रक, मैंगनीज, लौह धातु) के अतिरिक्त साइकिलें, मशीनें, पंखे, इन्जीनियरिंग का सामान, मशीनरी, उपकरण, रेल के इंजन तथा उपकरण, इस्पात का फर्नीचर, चीनी, सीमेण्ट, हौज़री, फल, हस्त- निर्मित वस्तुओं आदि का निर्यात करने लगा है।

(3) विदेशी व्यापार की दिशा में परिवर्तन – विगत चार दशकों में भारत के विदेशी व्यापार की। दिशा में भारी परिवर्तन हुए हैं। 1960 के दशक में जहाँ ब्रिटेन तथा कॉमनवेल्थ के देशों तथा यूरोपीय संघ के देशों से अधिक व्यापार होता था, अब अल्पविकसित एशियाई तथा अफ्रीकी देशों तथा पेट्रोलियम उत्पादक देशों से आयातों में वृद्धि हुई है। आयातों के स्रोत के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका का वर्चस्व घट गया है, किन्तु निर्यातों में वृद्धि हुई है। सन् 1970 तक जहाँ रूस को अधिक निर्यात होते थे, 1991 ई० में उसके विघटन के बाद निर्यात एकदम घट गये हैं।

प्रश्न 3
भारत से निर्यात की जाने वाली दो प्रमुख वस्तुओं के नाम बताइए। वे किन-किन देशों को निर्यात की जाती हैं? [2008, 11]
उत्तर

  1. चाय – चाय भारत के प्रमुख निर्यातों में से एक है। ब्रिटेन भारतीय चाय का सबसे बड़ा ग्राहक है। इसके अतिरिक्त अमेरिका, ईरान, संयुक्त अरब गणराज्य, रूस, जर्मनी, सूडान आदि देशों को भारत चाय का निर्यात करता है।
  2. जूट – जूट भारत का परम्परागत निर्यात है। भारतीय जूट का सबसे बड़ा ग्राहक अमेरिका है। इसके अतिरिक्त क्यूबा, संयुक्त अरब गणराज्य, हांगकांग, रूस, ब्रिटेन, कनाडा, अर्जेण्टीना आदि देशों को भारत जूट का निर्यात करता है।

प्रश्न 4
भारत के विदेश व्यापार में अभिनव प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए। [2016]
उत्तर
भारत के विदेश व्यापार की अभिनव प्रवृत्तियाँ
भारत के विदेश व्यापार की अभिनव प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. विगत वर्षों में भारत का निर्यात व्यापार अपेक्षाकृत पूर्व वर्षों से बढ़ा है जो एक अच्छा संकेत है। भारत की निर्यात वस्तुओं में भी अब परिवर्तन देखा गया है। इनमें रेडीमेड गारमेण्ट्स, इलेक्ट्रोनिक्स उत्पाद, सॉफ्टवेयर और आभूषण आदि मुख्य हैं।
  2. उदारीकरण के दौर में आयात-निर्यात नीति में उदारवादी एवं मित्रवत् परिवर्तन लाकर जहाँ एक ओर भारतीय निर्यातों के लिए विस्तृत परिक्षेत्र तैयार किया गया है। वहीं विश्व व्यापार संगठन (WTO) को किए गए वादे के अनुरूप परिमाणात्मक नियन्त्रणों को भी समाप्त करने का दौर भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी से लागू कर दिया गया है।
  3. भारत सरकार ने देश के निर्यातों में वृद्धि के उद्देश्य से चार परम्परागत निर्यात संवर्द्धन क्षेत्रों (EPzs) को विशेष आर्थिक परिक्षेत्र (SEZs) में रूपान्तरित कर दिया है। कांडला (गुजरात), सान्ताक्रुज (महाराष्ट्र), कोच्चि (केरल) तथा सूरत (गुजरात) विशेष आर्थिक परिक्षेत्र इसमें सम्मिलित हैं।
  4. भारत का विदेश व्यापार अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के आधार पर किया जाता है। भारत का अधिकांश देशों से विदेश व्यापार होता है।
  5. भारत के अधिकांश आयात-निर्यात (व्यापार) देश के पूर्वी तथा पश्चिमी तट पर स्थित 13 बड़े पत्तनों द्वारा ही सम्पन्न किए जाते हैं।

प्रश्न 5
भारत के विदेशी व्यापार की चार विशेषताएँ लिखिए। [2013]
उत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 के अन्तर्गत ‘भारत के विदेशी व्यापार की मुख्य विशेषताएँ शीर्षक देखें।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
व्यापार के असन्तुलन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
जब किसी देश में निर्यात की अपेक्षा आयात अधिक होते हैं तब इसे व्यापार का असन्तुलन कहते हैं।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 24 Foreign Trade

प्रश्न 2
भारत के विदेशी व्यापार की दो नवीन प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. गैर-परम्परागत वस्तुओं के निर्यात में वृद्धि
  2. विदेशी व्यापार की दिशा में परिवर्तन।

प्रश्न 3
भारत में किस पदार्थ का आयात सबसे अधिक मूल्य का होता है?
उत्तर
भारत में पेट्रोलियम तथा इसके पदार्थों का आयात सर्वाधिक मूल्य का होता है।

प्रश्न 4
भारत के व्यापार असन्तुलन का क्या प्रमुख कारण है?
उत्तर
भारत को पेट्रोलियम, मशीनरी, रसायन आदि के आयात पर भारी विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है तथा निर्यात कम मूल्य के होते हैं जिससे व्यापार असन्तुलित हो जाता है।

प्रश्न 5
भारत की दो प्रमुख निर्यात वस्तुओं का वर्णन कीजिए। [2010, 15]
उत्तर

  1. हस्तनिर्मित सामान तथा सिले-सिलाए वस्त्र।
  2. कच्चे खाद्य पदार्थ।

प्रश्न 6
भारत में आयात की जाने वाली किन्हीं दो वस्तुओं के नाम लिखिए। वे किन-किन देशों से आयात की जाती हैं? [2010, 11]
उत्तर

  1. मशीनें – मशीनें मुख्यतः ब्रिटेन, जर्मनी तथा संयुक्त राज्य अमेरिका से आयात की जाती हैं।
  2. रासायनिक पदार्थ – इन्हें मुख्यत: संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस, इटली, जर्मनी तथा जापान से आयात किया जाता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1
जिन वस्तुओं के विश्व व्यापार में भारत का लगभग 10% भाग है, वे हैं –
(क) चावल
(ख) मसाले
(ग) बहुमूल्य रत्न
(घ) ये सभी।
उत्तर
(घ) ये सभी।

प्रश्न 2
मूल्य की दृष्टि से भारत सबसे अधिक आयात करता है –
(क) मोती का
(ख) पेट्रोलियम और लुब्रिकेट्स का
(ग) अनाजों का
(घ) अधात्विक खनिजों का।
उत्तर
(ख) पेट्रोलियम और लुब्रिकेट्स का।

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प्रश्न 3
निम्नलिखित में से भारत किस वस्तु का निर्यात नहीं करता है।
(क) समुद्री उत्पाद
(ख) चाय
(ग) मसाले
(घ) पेट्रोलियम।
उत्तर
(घ) पेट्रोलियम।

प्रश्न 4
भारतीय कॉफी का सबसे बड़ा खरीदार है।
(क) रूस
(ख) जापान
(ग) ऑस्ट्रेलिया
(घ) इटली।
उत्तर
(घ) इटली।

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UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 2 Methods of the Study of Psychology

UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 2 Methods of the Study of Psychology (मनोविज्ञान के अध्ययन की पद्धतियाँ) are part of UP Board Solutions for Class 11 Psychology. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 2 Methods of the Study of Psychology (मनोविज्ञान के अध्ययन की पद्धतियाँ).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Psychology
Chapter Chapter 2
Chapter Name Methods of the Study of Psychology
(मनोविज्ञान के अध्ययन की पद्धतियाँ)
Number of Questions Solved 50
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 2 Methods of the Study of Psychology मनोविज्ञान के अध्ययन की पद्धतियाँ

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के लिए अपनायी जाने वाली अन्तर्दर्शन विधि का अर्थ स्पष्ट कीजिए। इस विधि के गुण-दोषों का भी उल्लेख कीजिए।
या
अन्तर्दर्शन विधि द्वारा अध्ययन करते समय प्रस्तुत होने वाली कठिनाइयों का उल्लेख कीजिए तथा स्पष्ट कीजिए कि इन कठिनाइयों को किस प्रकार दूर किया जा सकता है।
या
मनोविज्ञान की अध्ययन विधियों से आप क्या समझते हैं? अन्तर्दर्शन विधि के गुण अथवा दोष बताइए।
या
अन्तर्दर्शन विधि का विस्तार से वर्णन कीजिए तथा वर्तमान में इसकी उपयोगिता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
मनोविज्ञान के अध्ययन की प्रमुख पद्धतियाँ
(Main Methods of the Study of Psychology)

मनोविज्ञान एके क्रमबद्ध विज्ञान है जिसके अन्तर्गत मानव-व्यवहार को अध्ययन वैज्ञानिक विधियों के आधार पर किया जाता है। गार्डनर मर्फी ने उचित ही कहा है, “मनोविज्ञान अपने अध्ययन (विकास) के लिए बहुत-सी विधियों का प्रयोग करता है।”

आधुनिक मनोविज्ञान अपनी विषय-वस्तु अर्थात् व्यवहार तथा मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करने के लिए जिन प्रमुख विधियों को अपनाता है, उनमें से चार प्रमुख विधियाँ निम्न प्रकार हैं

  1. अन्तर्दर्शन विधि (Introspection Method)
  2. निरीक्षण विधि (Observation Method)
  3. प्रयोगात्मक विधि (Experimental Method) तथा
  4. नैदानिक विधि (Clinical Method)

अन्तर्दर्शन विधि
(Introspection Method)

अन्तर्दर्शन विधि, मनोवैज्ञानिक अध्ययन की सबसे प्राचीन एवं विशिष्ट विधि है, जिसे ‘अन्तर्निरीक्षण’ या ‘आन्तरिक प्रत्यक्षीकरण के नाम से भी जाना जाता है। इस विधि का प्रयोग प्रारम्भ में मनोवैज्ञानिकों द्वारा किसी नयी मनोवैज्ञानिक घटना की खोज के लिए किया जाता था।

अन्तर्दर्शन का अर्थ – अन्तर्दर्शन का अर्थ है-‘अपने अन्दर झाँककर देखना’ या अपनी मन:-स्थिति को गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करना।’ अन्तर्दर्शन विधि के माध्यम से कोई व्यक्ति स्वयं की मानसिक क्रियाओं, अनुभवों अथवा व्यवहारों का आत्म-निरीक्षण कर सकता है तथा उनका वर्णन प्रस्तुत कर सकता है। उदाहरण के लिए—कोई व्यक्ति चिन्ता या शंकाग्रस्त है या आनन्द का अनुभव कर रहा है, इन तथ्यों का विवरण व्यक्ति स्वयं अन्तर्दर्शन द्वारा ही प्रस्तुत करता है।

अन्तर्दर्शन की परिभाषा – मनोवैज्ञानिकों द्वारा अन्तर्दर्शन को अग्र प्रकार परिभाषित किया गया है –
(1) टिचनर के मतानुसार, “अन्तर्दर्शन अन्दर झाँकना है।”
(2) मैक्डूगल के शब्दों में, “अन्तर्दर्शन करने का अर्थ है-क्रमबद्ध रूप से अपने मन की कार्य-प्रणाली का सुव्यवस्थित अध्ययन करना।”
(3) स्टाउट ने लिखा है, “क्रमबद्ध रीति से अपने मस्तिष्क के कार्य व्यापारों का निरीक्षण करना ही अन्तर्निरीक्षण (अन्तर्दर्शन) है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि अन्तर्दर्शन विधि में व्यक्ति अपने अन्दर की क्रियाओं का स्वयं ही निरीक्षण करता है। निरीक्षण के उपरान्त वह क्रिया-प्रतिक्रिया की अनुभूति का प्रकटीकरण भी स्वयं ही करता है। अन्तर्दर्शन विधि का एक सही अर्थ विस्तारपूर्वक वुडवर्थ ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है-“जब कोई व्यक्ति हमें अपने विचारों, भावनाओं तथा उद्देश्यों के विषय में आन्तरिक सूचना प्रदान करती है कि वह क्या देखता है, सुनता है। जानती है तो वह अपनी प्रतिक्रियाओं का अन्तर्दर्शन कर रहा होता है।” स्पष्ट है कि अन्तर्दर्शन विधि में किसी बाहरी अध्ययनकर्ता या उपकरण आदि की आवश्यकता नहीं होती है।

अन्तर्दर्शन विधि के गुण या लाभ
(Merits of Introspection Method)

मनोवैज्ञानिक अध्ययन की पद्धतियों में अन्तर्दर्शन विधि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह मनोवैज्ञानिक अध्ययन की एक मौलिक विधि है। इस विधि के गुण अथवा लाभों को निम्न प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है

(1) मानसिक क्रियाओं के ज्ञान में सहायक – मनोवैज्ञानिक अध्ययन के लिए पात्र (व्यक्ति) की मानसिक क्रियाओं का ज्ञान होना आवश्यक है। पात्र की विभिन्न मानसिक क्रियाओं; जैसे– कल्पना, स्मृति, अवंधान एवं चिन्तन का सुव्यवस्थित ज्ञान प्राप्त करने में अन्तर्दर्शन विधि ही सर्वाधिक उपयुक्त विधि मानी जाती है।

(2) अनुभवों तथा भावनाओं के ज्ञान में सहायक – किसी व्यक्ति के अनुभवों तथा भावनाओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अन्तर्दर्शन विधि का सहारा लिया जाता है। मनुष्य के जीवन से जुड़ी अनेक समस्याओं के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तथा समाधान तक पहुँचने के लिए उसके निजी अनुभवों तथा भावनाओं को जानना आवश्यक है। निजी अनुभव तथा भाव नितान्त व्यक्तिगत एवं आन्तरिक तथ्य हैं। जिन्हें निरीक्षण अथवा प्रयोग विधि के माध्यम से ज्ञात नहीं किया जा सकता, केवल अन्तर्दर्शन विधि ही इन्हें जानने की एकमात्र उपयुक्त उपाय है।

(3) अतृप्त इच्छाओं तथा कुण्ठाओं के ज्ञान में सहायक – मनुष्य की इच्छाओं का कोई अन्त नहीं है और इच्छाओं की सन्तुष्टि के साधन सीमित हैं। इस प्रकारे मनुष्य की कुछ इच्छाएँ सन्तुष्ट हो जाती हैं तो बहुत-सी इच्छाएँ अतृप्त रह जाती हैं। इन अतृप्त इच्छाओं या दमित इच्छाओं का ज्ञान अन्तर्दर्शन विधि के द्वारा ही सम्भव है। ठीक उसी प्रकार अन्तर्दर्शन की सहायता से विषयपात्र में पायी जाने वाली कुण्ठाओं को भी ज्ञान हो जाता है।

(4) मितव्ययी, सरल तथा परीक्षणहीन विधि – अन्तर्दर्शन विधि मितव्ययी समझी जाती है, क्योकि इस विधि में निरीक्षक, अध्ययन-सामग्री या किसी बाहरी उपकरण की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसके अतिरिक्त इस विधि के द्वारा अध्ययन हेतु किसी विशेष परीक्षण की भी आवश्यकता नहीं होती। इसका प्रयोग भी सरलता से किया जा सकता है।

(5) तुलनात्मक अध्ययन एवं सामान्यीकरण के लिए उपयोगी – अन्तर्दर्शन विधि के माध्यम से किसी विशिष्ट समस्या का तुलनात्मक अध्ययन सम्भव है। साथ-ही-साथ, यदि दो प्रणालियों को अध्ययन करके उनसे प्राप्त परिणामों की तुलना की जाए तो प्रयोगकर्ता एक विश्वसनीय सामान्यीकरण पर पहुँच सकता है। सामान्यीकरण की प्रक्रिया हमें मनोविज्ञान के सर्वमान्य नियम यो सिद्धान्त प्रदान करती है।

(6) मौलिक एवं अपरिहार्य विधि – अन्तर्दर्शन विधि मनोविज्ञान की एक मौलिक विधि है। इसमें निहित विशिष्टताएँ अन्य पद्धतियों में दृष्टिगोचर नहीं होतीं। आलोचकों द्वारा अन्तर्दर्शन विधि की भले ही कितनी भी आलोचनाएँ प्रस्तुत की गयी हों, किन्तु अन्तर्दर्शन विधि मनोवैज्ञानिक अध्ययन के लिए अपरिहार्य है और इसे नकारा नहीं जा सकता।

अन्तर्दर्शन विधि के दोष अथवा कठिनाइयाँ तथा उनके निवारण के उपाय
(Demerits of Introspection Method and their Remedies)

नि:सन्देह अन्तर्दर्शन विधि मनोवैज्ञानिक अध्ययन की एक मौलिक एवं विशिष्ट विधि है, परन्तु व्यक्ति के व्यवहार के अध्ययन के लिए इस विधि को अपनाते समय कुछ कठिनाइयों का सामना अवश्य करना पड़ता है। अन्तर्दर्शन विधि की इन कठिनाइयों को इस विधि के दोष भी कहा जाता है। विभिन्न विद्वानों ने अन्तर्दर्शन विधि की कठिनाइयों के निवारण के उपायों का भी उल्लेख किया है। अन्तर्दर्शन विधि की मुख्य कठिनाइयों तथा उनके निवारण के उपायों का विवरण निम्नलिखित है –

(1) मानसिक क्रियाओं पर पूर्ण रूप से ध्यान केन्द्रित नहीं किया जा सकता – मानव-मन को किसी एक बिन्दु या लक्ष्य पर केन्द्रित करना अत्यन्त कठिन कार्य है। परिवर्तनशील एवं गतिमान मन की क्रियाएँ भी अपनी प्रकृति के कारण नितान्त परिवर्तनशील, अमूर्त तथा अप्रत्यक्ष होती हैं। मन की क्रियाओं को स्वरूप जड़ वस्तुओं या प्रघटनाओं से सर्वथा भिन्न होता है। अत: मानसिक क्रियाओं के अध्ययन करने वाले के लिए यह सम्भव नहीं होता कि वह अपना ध्यान पूर्ण रूप से केन्द्रित रख सके। यही कारण है कि अन्तर्दर्शन विधि द्वारा मानसिक क्रियाओं का अध्ययन एक बहुत ही कठिन कार्य समझा जाता है।

कठिनाई निवारण के उपाय – निरन्तर अभ्यास के माध्यम से उपर्युक्त कठिनाई को दूर किया जा सकता है। अन्तर्दर्शन विधि की सफलता पर्याप्त प्रशिक्षण पर निर्भर करती है। निरन्तर अभ्यास एवं प्रशिक्षण से अमूर्तकरण की क्षमता में वृद्धि होगी और इस भाँति मन की एकाग्रता उत्तरोत्तर बढ़ती जायेगी। मन की अधिकाधिक एकाग्रता मानसिक क्रियाओं के अध्ययन में सहायक होगी।

(2) मानसिक प्रक्रियाओं की प्रकृति गत्यात्मक एवं चंचल होती है – मानव की अनुभूतियाँ, मनोवृत्तियाँ, भावनाएँ, विचार एवं इच्छाएँ हर समय एकसमान नहीं रहतीं। इन प्रक्रियाओं की तीव्रता में लगातार उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। निरीक्षण के लिए निरीक्षण के विषय का स्थिर होना पहली और आवश्यक शर्त है। हम अपने चारों ओर विभिन्न स्थिर वस्तुएँ पाते हैं जिनका निरीक्षण सहज रूप से सम्भव है। किन्तु मानसिक प्रक्रियाएँ तो निरन्तर बदलती रहती हैं, जिनका निरीक्षण एक दुष्कर कार्य है। और इनका अन्तर्दर्शन के माध्यम से ज्ञान भी पर्याप्त रूप से कठिन है। उदाहरण के लिए माना एक व्यक्ति किसी कारणवश भयभीत हो उठा। मनोवैज्ञानिक उस व्यक्ति के भय की दशा का ज्ञान अन्तर्दर्शन विधि से करना चाहेंगे, परन्तु यह एक कठिन कार्य है। क्योंकि व्यक्ति का भय के कारण पर नियन्त्रण नहीं था; अत: एक तो वह चाहकर भी पुन: उसी कारण से भयभीत नहीं हो सकता और दूसरे भय की यह दशा हमेशा बनी नहीं रह सकती। इसलिए सम्भव है कि निरीक्षण करते-करते भय की अवस्था ही समाप्त हो जाए अथवा उसकी तीव्रता में हास आ जाए। भय की ऐसी परिवर्तनशील अवस्था में कोई उचित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। इस भाँति चंचल एवं परिवर्तनशील मानसिक प्रक्रियाओं का अन्तर्दर्शनएक कठिन समस्या है।

कठिनाई निवारण के उपाय – अन्तर्दर्शन विधि में मानसिक प्रक्रियाओं की चंचल प्रकृति सम्बन्धी कठिनाई पर स्मृति के माध्यम से अंकुश लगाया जा सकता है। स्मृति की मदद से किसी समय-विशेष की मानसिक दशा का विश्लेषण करना सम्भव होता है। इसके अतिरिक्त; अभ्यास, प्रशिक्षण, मानसिक सावधानी तथा विविध अभिलेखों की तुलना द्वारा अन्तर्दर्शन के अन्तर्गत मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जा सकता है।

(3) अन्तर्दर्शन में मन विभाजित हो जाता है – मनुष्य एक ‘मनप्रधान प्राणी है और मनोविज्ञान के अन्तर्गत मनोवैज्ञानिक मन की क्रियाओं का अध्ययन करते हैं। किन्तु यदि मन ही विभाजित हो गया हो तो क्या ऐसे विभाजित मन द्वारा वैज्ञानिक अध्ययन सम्भव है-यह आरोप अन्तर्दर्शन विधि के विरुद्ध लगाया जाता है। सच तो यह है कि अन्तर्दर्शन’ विधि में मन अपनी क्रियाओं का निरीक्षण स्वयं ही करता है। इस प्रकार कार्य करने के कारण वह दो भागों में बँट जाता है – एक मन जो निरीक्षण कार्य करता है तथा दूसरो मन जिसका निरीक्षण किया जाता है। किसी विशिष्ट समर्थ में एक ही मन ज्ञाता और ज्ञेय’ दोनों नहीं हो सकता। इस स्थिति में अन्तर्दर्शन विधि द्वारा वैज्ञानिक अध्ययन कैसे सम्भव हो सकता है?

कठिनाई निवारण के उपाय – व्यावहारिक दृष्टि से उपर्युक्त कठिनाई का निराकरण भी सम्भव है। अवधान को इस प्रकार अभ्यस्त एवं प्रशिक्षित बनाया जा सकता है कि मनुष्य बाह्य वस्तुओं के अनुरूप अपनी आन्तरिक प्रवृत्तियों का भी सही-सही निरीक्षण कर सके। मन एक साक्षी सत्ता है। और यह साक्षी सत्ता विभक्त होते हुए भी सुख-दुःख, प्रेम-घृणा, काम और क्रोध आदि भावनाओं का अनुभव कर सकती है। प्रत्येक मनुष्य का मन अपने ही अन्दर इस प्रकार की भावनाओं का अनुभव करता है। फलतः वह ज्ञाता भी बनता है और ज्ञेय भी।

(4) कई मनोवैज्ञानिक एक ही मानसिक प्रक्रिया का अध्ययन नहीं कर सकते – वैज्ञानिक अध्ययन की एक आधारभूत मान्यता यह है कि सम्बन्धित विषय अथवा घटना का एक से अधिक वैज्ञानिकों द्वारा एक ही समय में अवलोकन किया जाए। मनोविज्ञान की अन्तर्दर्शने विधि इस शर्त को पूरा नहीं करती, क्योंकि किसी व्यक्ति की आन्तरिक दशाओं का अध्ययन अन्य व्यक्तियों द्वारा नहीं किया जा सकता। इस प्रकार अन्तर्दर्शन विधि पर अवैज्ञानिकता का आरोप लगाया जाता है।

कठिनाई निवारण के उपाय – अन्तर्दर्शन, विधि के विरुद्ध यह आरोप निराधार है। उक्त कठिनाई के निराकरण के लिए मनोवैज्ञानिकों को चाहिए कि वे परस्पर सहयोग से कार्य करें। सर्वप्रथम, प्रत्येक मनोवैज्ञानिक किसी मानसिक प्रक्रिया का अलग से अध्ययन करेगा और फिर इस सन्दर्भ में अपने अनुभवों को एक-दूसरे से कहेगा। जब कई मनोवैज्ञानिक अपने-अपने अनुभवों की परस्पर तुलना करेंगे तो वे इस भाँति प्राप्त निष्कर्षों से एक सामान्य नियम तक पहुँच सकते हैं। सामान्यीकरण की पद्धति पर आधारित ऐसे नियम सार्वभौमिक (Universal) होते हैं।

(5) मनोदशा और वस्तु का एक साथ निरीक्षण नहीं किया जा सकता – यदि अन्तर्दर्शन में किसी ऐसी मानसिक अवस्था या वृत्ति पर ध्यान केन्द्रित करना पड़े जो किसी बाह्य वस्तु के कारण उत्पन्न हुई हो तो उस परिस्थिति में अन्तर्दर्शन सम्भव नहीं होता। इसका कारण यह है कि व्यक्ति द्वारा मनोदशा पर ध्यान लगने से उसका ध्यान वस्तु से हट जाता है। यदि वह वस्तु पर ध्यान लगाता है तो उसका ध्यान मनोदशा से हट जाता है। फलतः दोनों पर एक साथ ध्यान नहीं लग पाता। व्यक्ति का ध्यान एक समय में एक ही स्थान पर केन्द्रित हो सकता है।

कठिनाई निवारण के उपाय – इस कठिनाई पर अभ्यास के माध्यम से विजय प्राप्त की जा सकती है। इसके लिए ध्यान के अभ्यास एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता होगी। कुछ देर तक वस्तु पर तथा कुछ देर तक मानसिक क्रिया पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। अभ्यास का यह कार्य बारी-बारी से लगातार करने पर वस्तु और उससे उत्पन्न मनोदशा का एक साथ निरीक्षण करना सम्भव हो सकता है।

(6) अन्तर्दर्शन द्वारा प्राप्त ज्ञान आत्मगत एवं व्यक्तिगत होता है – अन्तर्दर्शन में एक कठिनाई यह है कि इस विधि के द्वारा जो भी अध्ययन किये जाते हैं वे नितान्त व्यक्तिगत तथा आत्मगत (Subjective) होते हैं, वस्तुनिष्ठ (Objective) नहीं। यही कारण है कि अन्तर्दर्शन से प्राप्त परिणामों में वैज्ञानिकता तथा विश्वसनीयता का प्रायः अभाव रहता है; अतः इस विधि के माध्यम से सामान्य निष्कर्ष निकालना कठिन है।

कठिनाई निवारण के उपाय – इसके लिए परामर्श दिया जाता है कि अन्तर्दर्शन को अभ्यास एवं प्रशिक्षण के माध्यम से अधिकाधिक वस्तुनिष्ठ बनाया जाये ताकि इसके ज्ञान पर आधारित कुछ सामान्य नियम प्रतिपादित हो सकें। इसके अतिरिक्त विभिन्न मनोवैज्ञानिकों के अनुभवों की तुलना करके सामान्यीकरण की विधि से सर्वमान्य सिद्धान्त भी बनाये जा सकें।

(7) अन्तर्दर्शन में तथ्यों को छिपाने की सम्भावना है – अन्तर्दर्शन विधि में एक मुख्य कठिनाई यह आती है कि विषय-पात्र उन तथ्यों को सरलता से छिपा सकता है जो सच्चाई के अधिक निकट होते हैं, क्योंकि प्रयोगकर्ता के पास विषय-पात्र के अतिरिक्त कोई अन्य ऐसा स्रोत नहीं होता जिससे तथ्यों की प्रामाणिकता सिद्ध हो सके; अत: इस पद्धति के माध्यम से सत्यान्वेषण का कार्य नहीं हो सकता।

कठिनाई निवारण के उपाय – विषय-पात्र को यह विश्वास दिलाकर कि उससे प्राप्त सूचनाओं को गुप्त रखा जाएगा, यथार्थ स्थिति का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के अन्तर्दर्शनं विवरण से मिलान करके ही तथ्यों की प्रामाणिकता पुष्ट की जानी चाहिए।

प्रश्न 2.
निरीक्षण विधि से आप क्या समझते हैं? निरीक्षण विधि के गुण-दोषों का उल्लेख कीजिए।
या
निरीक्षण विधि का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। इस विधि के गुण-दोषों का उल्लेख करते हुए तटस्थ मूल्यांकन कीजिए।
या
आधुनिक मनोविज्ञान के विकास में निरीक्षण विधि की भूमिका का विवेचन इसके गुण-दोषों के आलोक में कीजिए।
उत्तर :
निरीक्षण विधि
(Observation Method)

निरीक्षण का अर्थ – मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के लिए अपनायी जाने वाली एक मुख्य विधि निरीक्षण विधि (Observation Method) भी है। यह विधि मनोविज्ञान एक महत्त्वपूर्ण विधि है। निरीक्षण का अर्थ है-“घटनाओं का बारीकी और क्रमबद्ध तरीके से अवलोकन करना।” अन्य शब्दों में; देखकर तथा सुनकर काम करने अथवा किसी निष्कर्ष तक पहुँचने की विधि को निरीक्षण कहते हैं। निरीक्षण विधि के अन्तर्गत व्यक्ति अथवा किसी अन्य प्राणी के व्यवहार का ज्ञान केवल उसके बाहरी क्रियाकलापों को देखकर ही प्राप्त किया जा सकता है। उदाहरणार्थ-यदि रमेश की आँखें लाल हैं, भौंहें तनी हैं, चेहरा तमतमा रहा है, शरीर काँप रहा है तथा वह चीख-चीखकर हाथों को इधर-उधर फेंक रहा है तो यह देखकर हम समझ जाते हैं कि रमेश क्रोधित है। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि जब प्राणी (जैसे शिशु, असामान्य व्यक्ति या पशु) न तो अपने अनुभवों को प्रकट कर सके और उस पर प्रयोग करना भी कठिन हो तो उसके विषय में तथ्यों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए निरीक्षण विधि ही सर्वोत्तम है।

निरीक्षण की परिभाषा – निरीक्षण को निम्न प्रकार परिभाषित किया जा सकता है –

  1. ऑक्सफोर्ड कन्साइज डिक्शनरी (Oxford Concise Dictionary) के अनुसार, निरीक्षण से अभिप्राय प्रघटनाओं के, जिस प्रकार कि वे प्रकृति में पाई जाती हैं, कार्य एवं कारण या आपसी सम्बन्ध की दृष्टि से अवलोकन तथा लिख लेने से है।”
  2. गुडे तथा हाट के अनुसार, “विज्ञान निरीक्षण से प्रारम्भ होता है और अपने तथ्यों की पुष्टि के लिए अन्त में निरीक्षण का ही सहारा लेता है।’
  3. पी० बी० यंग का मत है, “निरीक्षण स्वाभाविक घटनाओं का, उनके घटित होने के समय, नेत्र के माध्यम से क्रमबद्ध तथा विचारपूर्ण अध्ययन है।”

उपर्युक्त वर्णित परिभाषाओं द्वारा निरीक्षण विधि का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। इस विधि के अन्तर्गत व्यक्ति अथवा प्राणी के व्यवहार का अध्ययन मुख्य रूप से देखकर ही किया जाता है। वैसे तो इस विधि को -हर प्रकार के व्यवहार के अध्ययन के लिए अपनाया जा सकता है परन्तु बच्चों, असामान्य व्यक्तियों तथा पशु के व्यवहार के अध्ययन के लिए निरीक्षण विधि को अधिक उपयोगी माना जाता है। निरीक्षण विधि अपने आप में एक व्यवस्थित विधि है जिसके कुछ निश्चित एवं निर्धारित चरण हैं। सर्वप्रथम अध्ययन की निश्चित योजना तैयार की जाती है। इसके उपरान्त योजनानुसार व्यवहार का प्रत्यक्ष अवलोकन किया जाता है। अवलोकित व्यवहार को साथ-साथ नोट कर लिया जाता है। इसके उपरान्त नोट किये गये व्यवहार का विश्लेषण करके उसकी समुचित व्याख्या प्रस्तुत की जाती है। इस समस्त अध्ययन के आधार पर ही अभीष्ट सामान्य सिद्धान्त प्रतिपादित किये जाते हैं।

निरीक्षण विधि के गुण या लाभ (महत्त्व)
(Merits of Observation Method)

निरीक्षण विधि एक महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी विधि है। इस विधि के गुणों अथवा लाभ का संक्षिप्त विवरण अग्रलिखित है –

(1) विषय के व्यवहार का दूर से अध्ययन – निरीक्षण विधि में विषय (अर्थात् या श्रेणी जिसका अध्ययन किया जाना है) के व्यवहार का पृथक् एवं दूर से अध्ययन किया जाता है। इस विधि के माध्यम से कोई भी प्रशिक्षित मनोवैज्ञानिक अन्य व्यक्तियों के व्यवहारों और मानसिक क्रियाओं का सरलता से अध्ययन कर सकता है।

(2) नवजात शिशुओं, पशुओं, मूक तथा पागल लोगों का अध्ययन – नवजात शिशु, पशु, मूक तथा पागल अपने विचारों या अनुभवों को व्यक्त करने में असमर्थ रहते हैं। इनकी क्रियाओं एवं व्यवहार का अध्ययन केवल निरीक्षण विधि के माध्यम से ही सम्भव है।

(3) विविध आन्तरिक दशाओं का ज्ञान – विभिन्न प्रकार की अच्छी या बुरी आन्तरिक दशाओं तथा गुण-दोषों का ज्ञान निरीक्षण विधि के माध्यम से किया जा सकता है। सुख-दु:ख, राग-द्वेष, प्रसन्नता-क्रोध, शत्रु-मित्र, अच्छे-बुरे तथा अपने-पराए का ज्ञान सूक्ष्म एवं प्रत्यक्ष अवलोकन के माध्यम से ही किया जा सकता है।

(4) मानव स्वभाव एवं व्यवहार पर प्रभाव का ज्ञान – मनुष्य के मनोविज्ञान पर पर्यावरण का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। जलवायु, पर्यावरण, भौतिक तथा प्राकृतिक घटनाएँ मानव स्वभाव एवं व्यवहार को प्रभावित करते हैं। इनके ज्ञान हेतु अध्ययन की निरीक्षण विधि अत्यन्त उपयोगी समझी जाती है।

(5) लोक जीवन के लिए उपयोगी – निरीक्षण विधि की सहायता से लोक जीवन का परिचय प्राप्त किया जा सकता है। लोक गीत, लोक नृत्य, लोक कथाओं, चित्रकला, ललित कलाओं तथा संगीत से सम्बन्धित अध्ययन में मात्र निरीक्षण विधि ही सहायक सिद्ध होती है।

(6) सामूहिक घटनाओं तथा प्रतिक्रियाओं का ज्ञान – समाज के अन्तर्गत घटित होने वाली घटनाओं तथा प्रतिक्रियाओं का अध्ययन निरीक्षण विधि के बिना सम्भव नहीं है। सामूहिक एवं साम्प्रदायिक तनाव, भीड़ का व्यवहार, समूह का स्वभाव; कक्षागत परिस्थितियों में छात्रों का स्वभाव, परीक्षा के दौरान छात्रों का व्यवहार तथा आन्दोलनकारियों की प्रतिक्रियाएँ निरीक्षण विधि द्वारा ज्ञात की जाती हैं।

(7) वस्तुनिष्ठ निरीक्षण – मनोविज्ञान एक विज्ञान है; अतः समस्त मनोवैज्ञानिक अध्ययन वस्तुनिष्ठ होने चाहिए। वस्तुनिष्ठ निरीक्षण से प्राप्त सूचनाएँ विश्वसनीय होती हैं जिनकी जाँच किसी भी विशेषज्ञ के द्वारा कराई जा सकती है। इस भाँति प्राप्त सूचनाओं को वैज्ञानिक प्रक्रिया के सन्दर्भ में प्रयोग किया जा सकता है।

निरीक्षण विधि के दोष एवं कठिनाइयाँ
(Demerits of Observation Method)

अनेक गुणों से ओत-प्रोत होते हुए भी निरीक्षण विधि दोष या कठिनाइयों से अछूती नहीं है। इसके प्रमुख दोष इस प्रकार हैं

(1) क्रमबद्धता का अभाव – निरीक्षण विधि में घटनाओं की क्रमबद्धता का अभाव पाया जाता है। अध्ययनकर्ता को घटनाओं के घटित होने के क्रम में निरन्तर रूप से अवलोकन करना पड़ता है। यदि एक बार घटनाओं का प्राकृतिक क्रम टूट जाए तो पुनः घटना का शुद्ध निरीक्षण नहीं हो सकता, न ही वह घटना दोबारा उसी प्रकार घटित हो सकती है।

(2) घटनाओं पर नियन्त्रण नहीं – जिन घटनाओं का अवलोकन किया जाना है, उन पर निरीक्षणकर्ता का कोई नियन्त्रण नहीं होता। वस्तुतः, घटनाएँ तो अपने स्वाभाविक ढंग में घटित होती हैं। जिनके अज्ञात कारणों का पता लगाना कठिन हो जाता है।

(3) पक्षपात की सम्भावना – प्रत्येक निरीक्षणकर्ता किन्हीं पूर्वाग्रहों से ग्रसित होता है जिनके कारण वह किसी विशेष घटना के प्रति आत्मगत (Subjective) हो जाता है। ऐसी परिस्थितियों में पक्षपात की सम्भावना अधिक होती है।

(4) निरीक्षणकर्ता की व्यक्तिगत रुचि – निरीक्षणकर्ता की कुछ विशेष रुचियाँ हो सकती हैं। जिनसे सम्बन्धित बातों पर वह अवलोकन के समय अधिक ध्यान दे सकता है। फलस्वरूप कुछ आवश्यक एवं वांछित तथ्यों की अवलोकन के दौरान उपेक्षा कर दी जाती है। इससे अध्ययन की वस्तुनिष्ठता तथा विश्वसनीयता पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। वस्तुतः किसी भी वैज्ञानिक प्रयोग में तटस्थता (निष्पक्षता) संर्वोपरि मानी जाती है जिस पर निरीक्षणकर्ता की व्यक्तिगत रुचि का गहरा प्रभाव पड़ता है।

(5) प्रशिक्षण एवं अभ्यास का अभाव – साधारणतया निरीक्षण विधि के अन्तर्गत प्रयोगकर्ता न तो पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित होते हैं और न ही उन्हें निरीक्षण के विभिन्न पदों का समुचित अभ्यास ही होता है। सही निष्कर्ष प्राप्त करने के लिए निरीक्षणकर्ता को अनिवार्य रूप से प्रशिक्षित, अभ्यासी एवं कुशल निरीक्षक होना चाहिए।

(6) अप्राकृतिक व्यवहार – जब निरीक्षण के लिए चुने गए प्राणियों को यह जानकारी हो जाती है कि उनका अवलोकन या निरीक्षण किया जा रहा है तो उनका व्यवहार प्राकृतिक नहीं रह जाता है। इस प्रकार के अध्ययन से प्राप्त निष्कर्षों की विश्वसनीयता समाप्त हो जाती है।

उपर्युक्त विवरण द्वारा निरीक्षण विधि के अर्थ एवं गुण-दोषों का सामान्य परिचय प्राप्त हो जाता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि निरीक्षण विधि मनोविज्ञान की एक उपयोगी विधि है। यदि इस विधि को सावधानीपूर्वक कुशल एवं प्रशिक्षित अध्ययनकर्ताओं द्वारा अपनाया जाए तो निश्चित रूप से पर्याप्त प्रामाणिक निष्कर्ष प्राप्त किये जा सकते हैं।

प्रश्न 3.
प्रयोगात्मक विधि का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा इस विधि के गुण-दोषों का उल्लेख कीजिए।
या
प्रयोग विधि के प्रमुख चरण क्या हैं? उदाहरण देकर लिखिए।
या
प्रयोगात्मक विधि के गुण-दोषों का विवेचन कीजिए।
या
मनोविज्ञान में प्रयोग विधि का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
या
स्वतंत्र चर और आश्रित चर का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्रयोगात्मक विधि
(Experimental Method)

आधुनिक मनोविज्ञान की मुख्य अध्ययन विधि प्रयोगात्मक विधि (Experimental Method) है। अब प्रयोगात्मक विधि को मनोविज्ञान की सर्वाधिक उपयोगी, महत्त्वपूर्ण तथा सर्वोत्तम अध्ययन विधि माना जाता है। प्रयोगात्मक विधि प्रयोगशाला में आयोजित प्रयोग के माध्यम से कार्य करती है।

प्रयोगात्मक विधि अन्तर्दर्शन तथा निरीक्षण विधि से अधिक विकसित तथा वैज्ञानिक है। प्रयोग के समय प्रयोगकर्ता का दशाओं या घटनाओं पर नियन्त्रण रहता है, जबकि निरीक्षण के अन्तर्गत ऐसा नहीं होता है। उन्नीसवीं शताब्दी में वुण्ट नामक मनोवैज्ञानिक द्वारा मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला की स्थापना के साथ प्रयोग विधि का श्रीगणेश हुआ था।

प्रयोग का अर्थ-वुडवर्थ के अनुसार प्रयोग का पहला अर्थ है- प्रकृति से प्रश्न करना। इसका अभिप्राय यह है कि प्रयोग करने वाले व्यक्ति के सामने एक स्पष्ट प्रश्न या समस्या होती है, जिसका उचित उत्तर पाने के लिए वह प्रकृति के सामने प्रयोग का आयोजन करता है। यह प्रश्न या समस्या किसी युक्ति से निकली उपकल्पना (सम्भावित उत्तर) पर आधारित होती है। इस उपकल्पना को प्रयोग के माध्यम से सिद्ध अथवा असिद्ध करना होता है। प्रयोग करते समय वस्तुओं को एक निश्चित क्रम में व्यवस्थित किया जाता है जिससे प्राप्त परिणाम उस प्रश्न का उत्तर देते हैं जिसे प्रकृति से पूछा गया था।

अपने दूसरे अर्थ में प्रयोग नियन्त्रित वातावरण में किया गया निरीक्षण है। प्रयोग की आवश्यक शर्त के अनुसार नियन्त्रित एवं उपयुक्त परिस्थितियों में प्राणी की मानसिक क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है तथा परिणाम निकाले जाते हैं। इस प्रक्रिया को बार-बार दोहराने पर भी प्रयोग के परिणाम पहले के समान ही प्राप्त होते हैं। इस प्रकार नियन्त्रित निरीक्षण ही प्रयोग कहलाता है।

प्रयोग की परिभाषा – प्रयोग को निम्न प्रकार परिभाषित किया जा सकता है –

  1. गैरेट के मतानुसार, “प्रकृति से पूछा गया प्रश्न प्रयोग है।”
  2. जहोदा के अनुसार, “प्रयोग परिकल्पना के परीक्षण की एक विधि है।”
  3. जे० सी० टाउनशैण्ड के अनुसार, “नियन्त्रित दशाओं में किये गये निरीक्षण को प्रयोग कहा जाता है।”
  4. फेस्टिगर के मतानुसार, “प्रयोग का मूल आधार स्वतन्त्र चर में परिवर्तन करने से परतन्त्र चर पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करना है।”

प्रयोगात्मक विधि के चरण
(Steps of Experimental Method)

प्रयोगात्मक विधि अपने आप में एक व्यवस्थित अध्ययन विधि है। इस विधि के कुछ निश्चित चरण हैं जो निम्नलिखित हैं

(1) समस्या का निर्धारण – प्रयोगात्मक विधि का प्रथम चरण अध्ययन की समस्या का निर्धारण है। प्रयोग आरम्भ करने से पहले प्रयोगकर्ता समस्या का निर्धारण करता है। इसके लिए वह किसी उपयुक्त मनोवैज्ञानिक समस्या का चुनाव करता है। उदाहरण के लिए, समाज में नशे का व्यसन । बुरा समझा जाता है। प्रायः देखने में आता है कि अधिकांश ट्रक-ड्राइवर नशाखोरी करते हैं। माना जाता है कि नशा न करने वाले ड्राइवर, नशा करने वाले ड्राइवरों से सन्तुलित, विश्वसनीय एवं अच्छी गाड़ी चलाते हैं अथवा नशा करने से चरित्र पर बुरा प्रभाव पड़ता है। कुछ लोगों का कहना है कि नशा करने से ध्यान एकाग्र होता है और इससे गाड़ी चलाने में मदद मिलती है। जो लोग न तो नशाखोरी के पक्ष में हैं और न ही विपक्ष में, उनके अनुसार असन्तुलित एवं अविश्वसनीय गाड़ी चलाने का कारण नशे की आदत न होकर ड्राइवर का व्यक्तित्व है। उच्च जीवन-स्तर यापन करने वाले बहुत-से लोग नशा करते हैं। ये सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित हैं, चरित्रवान समझे जाते हैं और आर्थिक रूप से भी सम्पन्न हैं। इस तर्क-वितर्क से इस समस्या का जन्म होता है कि शारीरिक या मानसिक क्षमता पर नशाखोरी का क्या प्रभाव पड़ता है।

(2) परिकल्पनाका निर्माण – समस्या का निर्धारण करने के उपरान्त प्रयोगकर्ता परिकल्पना (Hypothesis) का निर्माण करता है। परिकल्पना चुनी गयी समस्या का सम्भावित समाधान होता है, जिसकी रचना से प्रयोग को कार्य निश्चित और नियन्त्रित दशाओं में होता है। उपर्युक्त प्रस्तुत किये गये उदाहरण में, शारीरिक तथा मानसिक क्षमता पर नशाखोरी के प्रभाव की समस्या को परिकल्पना के रूप में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-“नशा (अफीम का सेवन) करने से शारीरिक तथा मानसिक क्षमता का ह्रास होता है।” इस परिकल्पना को प्रयोगों के आधार पर सिद्ध या असिद्ध किया जाएगा।

(3) स्वतन्त्र तथा आश्रित चरों को पृथक करना – किसी प्रयोग में दो या उससे अधिक ‘चर’ या परिवर्त्य (Variables) हो सकते हैं। ये चर दो प्रकार से वर्णित हैं—स्वतन्त्र चर तथा आश्रित चर। स्वतन्त्र चर (Independent Variable) को सामान्यत: ‘उद्दीपन कहा जाता है और आश्रित चर (Dependent Variable) को प्रतिक्रियाएँ कहा जाता है। स्वतन्त्र चर को प्रयोगकर्ता नियन्त्रित करके प्रस्तुत करता है। इन्हें बिना किसी अन्य चर पर प्रभाव डाले घटाया-बढ़ाया जा सकता है। आश्रित चर स्वतन्त्र ज्वरों के बदले जाने पर बदल जाते हैं और प्रयोगात्मक परिस्थितियों पर आश्रित होते हैं। उपर्युक्त उदाहरण में, नशाखोरी स्वतन्त्र चर है, क्योंकि प्रयाग में नशा करने और न करने के प्रभाव की परीक्षा की जाती है। शारीरिक और मानसिक क्षमता आश्रित चर है क्योंकि यह नशाखोरी की उपस्थिति या अनुपस्थिति के अनुसार परिवर्तित होगा।

(4) परिस्थितियों पर नियन्त्रण – मनोवैज्ञानिक प्रयोग में परिस्थितियों (दशाओं) पर नियन्त्रण एक आवश्यक तत्त्व है। इसके लिए प्रयोगकर्ता को सभी सम्भावित चरों का ज्ञान होना चाहिए। उसे उन अवांछित चरों या उद्दीपनों पर नियन्त्रण रखना पड़ता है जो वातावरण में उत्पन्न हो जाते हैं। और जिनकी प्रयोगकर्ता को आवश्यकता नहीं होती है। प्रस्तुत उदाहरण में सम्भव है कि प्रयोग का पात्र व्यक्ति यह सिद्ध करने की चेष्टा करे कि नशा करने से उसकी शारीरिक-मानसिक क्षमता पर कोई असर नहीं पड़ता। यह एक अवांछित सम्भावना है जिसे निर्मूल करने के लिए प्रयोग में परिस्थिति पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है।

(5) प्रयोगफल का विश्लेषण – प्रयोग द्वारा प्राप्त परिणामों का विश्लेषण प्रयोगात्मक विधि का पाँचवाँ एवं महत्त्वपूर्ण चरण है। विश्लेषण के लिए सांख्यिकीय प्रविधियों का प्रयोग किया जा सकता है। प्रयोग के दौरान अधिक पात्र होने पर उन्हें दो समूहों में विभाजित किया जा सकता है(i) प्रायोगिक समूह (Experimental Group) तथा (ii) नियन्त्रित समूह (Controlled Group)। अक्सर स्वतन्त्र चर, प्रायोगिक समूह कहलाता है और आश्रित चर, नियन्त्रित समूह। इस प्रयोग में नशे की वस्तु (माना अफीम) स्वतन्त्र चर है जिसके प्रयोग से प्राप्त परिणामों की तुलना अफीमरहित परिणामों के साथ की जाएगी।

(6) परिकल्पना की जाँच – प्रयोग के परिणाम यदि निर्माण की गयी परिकल्पना के पक्ष में होते हैं तो परिकल्पना सिद्ध मान ली जाती है, किन्तु विपरीत परिणामों की स्थिति में परिकल्पना को रद्द या अस्वीकृत घोषित कर दिया जाता है तब नयी परिकल्पना का निर्माण किया जाता है। प्रस्तुत प्रयोग के परिणाम यदि परिकल्पना अर्थात् “नशा (अफीम का सेवन करने से शारीरिक तथा मानसिक क्षमता का ह्रास होता है”–के पक्ष में जाते हैं तो हमारी परिकल्पना सिद्ध मानी जाएगी। स्पष्टत: इस दशा में अफीम का सेवन ड्राइवरों की शारीरिक-मानसिक क्षमता में ह्रास लाएगा। यदि परिणामों से यह ज्ञात हो कि अफीम के सेवन से ड्राइवरों की शारीरिक-मानसिक क्षमता पर धनात्मक (अच्छा) प्रभाव पड़ा तो हमारी परिकल्पना रद्द समझी जाएगी।

(7) सामान्यीकरण – एकसमान परिस्थितियों में तथा निरन्तर प्रयोगों के माध्यम से स्वतन्त्र चर का आश्रित चर पर प्रभाव देखकर जो परिणाम प्राप्त होते हैं उनके विश्लेषण एवं व्याख्या के आधार पर सामान्य नियम निकाले जाते हैं। यही सामान्यीकरण है जो प्रयोगात्मक विधि का अन्तिम चरण है।

प्रयोगात्मक विधि के गुण या लाभ (महत्त्व)
(Merits of Experimental Method)

प्रयोगात्मक विधि एक वैज्ञानिक विधि है जिसके द्वारा सुचारु रूप से अध्ययन किये जा सकते हैं। और निश्चित पेरिणामों तक पहुँचा जा सकता है। ये परिणाम अधिक शुद्ध और विश्वसनीय होते हैं। इसके अन्य गुणों (विशेषताएँ) या लाभ निम्नलिखित हैं –

(1) परिस्थिति सम्बन्धी आत्म-निर्भरता – प्रयोगात्मक विधि में, निरीक्षण विधि की तरह, प्रयोगकर्ता प्राकृतिक परिस्थितियों पर आश्रित नहीं रहता। वह आवश्यकतानुसार कृत्रिम परिस्थितियों का निर्माण कर प्रयोग कर लेता है जिससे समय और शक्ति की बचत होती है।

(2) पूर्ण वैज्ञानिक विधि – यह एक पूर्ण वैज्ञानिक विधि है जिसके अन्तर्गत नियन्त्रित परिस्थितियों में प्रयोग के माध्यम से वांछित परिणाम एवं निष्कर्ष निकाले जाते हैं। अन्य विधियों की तुलना में इस विधि के निष्कर्ष अधिक शुद्ध एवं विश्वसनीय होते हैं।

(3) नियन्त्रित परिस्थितियाँ – इस विधि का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसमें प्रयोग की परिस्थितियाँ (दशाएँ) पूरी तरह प्रयोगकर्ता के नियन्त्रण में रहती हैं। प्रयोगशाला में परिस्थितियों पर नियन्त्रण रखकर ही सही निष्कर्ष प्राप्त किये जा सकते हैं।

(4) दोहराना – प्रयाग की एक विशेषता यह है कि इसको सुविधानुसार दोहराया जा सकता है। प्रयोगकर्ता अपनी आवश्यकतानुसार पूरी घटना को दोहरा सकता है या घटना के किसी एक पक्ष की पुनरावृत्ति भी कर सकता है।

(5) उद्देश्यानुसार एवं समुचित प्रयोग योजना – प्रयोगात्मक विधि में प्रयोगकर्ता निर्धारित उद्देश्य के अनुसार आसान प्रयोग योजना तैयार कर सकता है। वह उसमें वांछित परिवर्तन भी कर सकता है। इसके अतिरिक्त, समुचित प्रयोग योजना के माध्यम से मानव स्वभाव के विविध पक्षों का अध्ययन सम्भव है।

(6) पशुओं पर प्रयोग सम्भव – सभी प्रकार के प्रयोगों को मानव-स्वभाव पर लागू करके निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते। पशुओं पर मनोवैज्ञानिक प्रयोग करने में प्रयोग विधि हमारी अत्यधिक सहायता करती है। इससे प्राप्त परिणामों को लागू करने से पूर्व इनकी मानव-स्वभाव से तुलना करके देखा जाता है।

(7) कार्य-कारण सम्बन्धों का अध्ययन – प्रयोग विधि के माध्यम से कार्य और कारण सम्बन्धों का शुद्धतापूर्वक अध्ययन किया जा सकता है। इसके अन्तर्गत समस्या से सम्बन्धित विभिन्न कारकों के प्रभाव को पृथक् से भी जाना जा सकता है। प्रयोग में हम जिस कारक के प्रभाव की जाँच करना चाहते हैं, उसके अतिरिक्त अन्य कारकों को नियन्त्रित रखकर प्रभाव का स्पष्ट एवं शुद्ध ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।

(8) वस्तुनिष्ठ, विश्वसनीय एवं सम्पूर्ण विधि – प्रयोगात्मक विधि से प्राप्त निष्कर्ष वस्तुनिष्ठ, विश्वसनीय, वैध तथा सार्वभौमिक होते हैं। एक ओर जहाँ अन्तर्दर्शन विधि केवल आन्तरिक दशाओं का अध्ययन करती है और निरीक्षण विधि व्यवहार की बाह्य दशाओं का, वहीं दूसरी ओर प्रयोग विधि प्राणी के आन्तरिक एवं बाह्य दोनों पक्षों का अध्ययन करती है। इस प्रकार यह मनोवैज्ञानिक अध्ययन की एक सम्पूर्ण विधि है।

प्रयोगात्मक विधि के दोष अथवा कठिनाइयाँ (कमियाँ)
(Demerits of Experimental Method)

भले ही प्रयोगात्मक विधि को मनोवैज्ञानिक अध्ययन के लिए सर्वोत्तम विधि माना जाता है, परन्तु अन्य विधियों के ही समान इस विधि में भी कुछ दोष या कमियाँ हैं, जिनका सामान्य विवरण निम्नवत् है –

(1) प्रयोगशाला की कृत्रिम परिस्थिति – प्रयोग किसी विशेष अध्ययन के लिए प्रयोगशाला की विशिष्ट परिस्थितियों में आयोजित किये जाते हैं। ये विशिष्ट परिस्थितियाँ प्राकृतिक परिस्थितियों के समान न होकर कृत्रिम होती हैं और कृत्रिम व्यवहार से शुद्ध परिणाम प्राप्त करना कठिन है। नियन्त्रित एवं बनावटी परिस्थितियों में कोई भी प्रयोज्य (Subject) या व्यक्ति स्वाभाविक व्यवहार प्रदर्शित नहीं कर सकता। इससे प्रयोग के मध्य त्रुटियाँ उत्पन्न होने लगती हैं।

(2) विषय-पान्न की रुचियों पर नियन्त्रण कठिन – मानव की मन:स्थिति तथा उसकी रुचियाँ परिवर्तनशील होती हैं जिन पर नियन्त्रण यदि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। प्रयोग के दौरान ज्यादातर विषय-पात्र अपनी-अपनी मन:स्थिति या रुचियों से प्रेरित होकर ही व्यवहार करते हैं। इससे प्रयोग के परिणाम पक्षपातपूर्ण एवं भ्रामक प्राप्त होते हैं।

(3) विषय-पात्र के सहयोग की समस्या  प्रयोगात्मक पद्धति में विषय-पात्र जब तक प्रयोगकर्ता को अपना पूर्ण सहयोग प्रदान नहीं करता, तब तक प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाती। असहयोग की अवस्था में न केवल अवरोध उत्पन्न होता है, वरन् प्रयोग ही व्यर्थ हो जाता है। यदि किसी प्रयोग में व्यक्ति के व्यक्तित्व का अध्ययन किया जा रहा है तो वह व्यक्ति कभी-कभी ऐसा व्यवहार प्रदर्शित करने लगता है कि उसके व्यक्तित्व का नितान्त त्रुटिपूर्ण स्वरूप प्रस्तुत हो जाता है। कभी-कभी प्रयोगकर्ता पात्र की प्रक्रियाओं की प्रतीक्षा ही करता रह जाता है। इससे समय और शक्ति की हानि होती है।

(4) संदिग्ध परिणाम – यदि प्रयोगकर्ता प्रशिक्षित नहीं है तो वह प्रयोग सम्बन्धी प्रक्रिया में वस्तुनिष्ठता नहीं ला सकता जिससे परिणाम की शुद्धता संदिग्ध हो जाती है।

(5) सामाजिक घटनाओं सम्बन्धी समस्या – समाज का स्वरूप अत्यन्त व्यापक है; अत: सामाजिक घटनाओं को अध्ययन हेतु किसी प्रयोगशाला में उपस्थित नहीं किया जा सकता। वस्तुतः सामाजिक घटनाओं के मनोवैज्ञानिक प्रभाव का अध्ययन करने के लिए प्रयोगकर्ता को समाज की वास्तविक परिस्थितियों में रहकर काम करना होगा। इन परिस्थितियों में प्रयोगशाला एवं उसके उपकरण व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं।

(6) सीमित क्षेत्र की कठिनाई – प्रयोगात्मक विधि का कार्य-क्षेत्र अत्यन्त सीमित है। इस विधि का प्रयोग हम उन सभी दशाओं में नहीं कर सकते जिनमें हम करना चाहते हैं। अनेक मनोवैज्ञानिक अध्ययन प्रयोग द्वारा नहीं किये जा सकते। उदाहरण के लिए-स्मृति पर शराब के प्रभाव को समझने के लिए बालकों, स्त्रियों या दूसरे पात्रों को शराब नहीं पिलायी जा सकती है। इसी प्रकार प्रेम, घृणा तथा यौन क्रियाओं सम्बन्धी क्रियाकलापों पर न तो नियन्त्रण रखा जा सकता है और न ही इन्हें प्रयोगशाला में समुचित रूप में आयोजित किया जा सकता है।

मूल्यांकन – वस्तुत: प्रयोगात्मक विधि की उपर्युक्त सीमाओं के ज्ञान से उसके महत्त्व को कम नहीं आँका जा सकता। टी० जी० एण्ड्यू ज का कथन है, “प्रयोग ही मनोविज्ञान का केन्द्रीय आधार है। इस पद्धति की वैज्ञानिकता के परिणामस्वरूप ही मनोविज्ञान एक शुद्ध विज्ञान बन सका है। प्रयोगों की सफलता एवं उपयोगिता ने आधुनिक मनोविज्ञान को ‘परीक्षणशाला मनोविज्ञान का नाम प्रदान कर दिया।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अन्तर्दर्शन विधि को तटस्थ मूल्यांकन प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
अन्तर्दर्शन विधि मनोवैज्ञानिक अध्ययन की एक मौलिक विधि है। भले ही इस विधि की कुछ सीमाएँ एवं कमियाँ हैं, परन्तु इन कमियों को अभ्यास, स्मृति एवं प्रशिक्षण के माध्यम से कम किया जा सकता है तथा इस विधि को अधिक विश्वसनीय, वैज्ञानिक एवं लाभप्रद बनाया जा सकता है। इस विधि के माध्यम से पशुओं, बालकों और असामान्य तथा मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्तियों का अध्ययन नहीं किया जा सकता। इस विधि के माध्यम से प्राप्त होने वाले निष्कर्ष आत्मगत होते हैं; अतः इस विधि द्वारा किये गये अध्ययन को कम वस्तुनिष्ठ तथा कम तथ्यात्मक माना जाता है। यही कारण है। कि मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में अन्तर्दर्शन विधि की तुलना में निरीक्षण तथा प्रयोगात्मक विधियों को अधिक विश्वसनीय माना जाता है। वैसे यह सत्य है कि मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में अन्तर्दर्शन विधि का सैद्धान्तिक महत्त्व है तथा व्यवहार में इसे एक पूरक विधि के रूप में अपनाया जाता है।

प्रश्न 2.
निरीक्षण विधि की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के लिए अपनायी जाने वाली निरीक्षण विधि की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. निरीक्षण विधि के अन्तर्गत सम्बन्धित विषय, व्यवहार या घटना का अध्ययन पूर्ण सावधानीपूर्वक किया जाता है।
  2. इस विधि में अध्ययनकर्ता नेत्रों का पूर्णरूपेण उपयोग करता है और अध्ययन में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेता है।
  3. निरीक्षण विधि की सहायता से प्रायः मनोविज्ञान की अनेक समस्याओं को प्राथमिक निरीक्षण के आधार पर चुन लिया जाता है।
  4. व्यक्तिगत व्यवहार के अतिरिक्त सामाजिक विकास तथा सामूहिक व्यवहार का भी अध्ययन किया जा सकता है।
  5. यह विधि अकेली स्वतन्त्र विधि के रूप में प्रयुक्त होती है और सहायक विधि के रूप में भी।
  6. इस विधि के माध्यम से अध्ययन की प्राथमिक सामग्री तथा महत्त्वपूर्ण आँकड़े एकत्र किये जा सकते हैं।

प्रश्न 3.
निरीक्षण विधि के मुख्य चरणों अथवा पदों का उल्लेख कीजिए।
या
निरीक्षण विधि के चरणों को सोदाहरण समझाइए।
उत्तर :
निरीक्षण विधि के प्रमुख चरण अथवा पद निम्नलिखित हैं

(1) उपयुक्त योजना को निर्माण – अध्ययन को उद्देश्यपूर्ण बनाने की दृष्टि से अध्ययनकर्ता को सबसे पहले समस्या के सम्बन्ध में उपयुक्त योजना बना लेनी चाहिए। इससे यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि किन व्यक्तियों के किस प्रकार के व्यवहार का निरीक्षण किया जाना है। अध्ययन का समय, आवश्यक यन्त्र तथा क्षेत्र आदि का निश्चय भी पहले से ही कर लेना चाहिए।

(2) व्यवहार का प्रत्यक्ष अवलोकन – निरीक्षण विधि के अन्तर्गत व्यवहार का प्रत्यक्ष रूप से अवलोकन किया जाना चाहिए। अध्ययनकर्ता समस्या से सम्बन्धित प्रत्येक पक्ष का सूक्ष्म एवं प्रत्यक्ष अध्ययन करता है। यह अध्ययन उसी स्थान पर किया जाता है जहाँ व्यवहार स्वाभाविक रूप में विद्यमान है।

(3) व्यवहार का लेखन – व्यवहार का अवलोकन करते समय उसे नोट करते जाना चाहिए; अन्यथा अध्ययनकर्ता तत्सम्बन्धी तथ्यों को या तो बाद में भूल जायेगा या उन्हें यथार्थ से भिन्न करके याद रख पायेगा। व्यवहार को संचित करने के लिए टेपरिकॉर्डर या मूवी कैमरा जैसे उपकरणों का भी प्रयोग किया जा सकता है। व्यवहार को नोट करते समय उन पक्षों पर अधिकाधिक ध्यान रखा जाना चाहिए जिनका सम्बन्ध उस समस्या से होता है।

(4) व्यवहार का विश्लेषण एवं व्याख्या – व्यवहार को नोट करने के पश्चात् उसका विश्लेषण किया जाता है। सुविधा की दृष्टि से लिखित व्यवहार को अंकों (Scores) में बदल लेना चाहिए तथा उनका सारणीयन (Tabulation) करके सांख्यिकीय विधियों की सहायता से विश्लेषण करना चाहिए। विश्लेषण कार्य से प्राप्त परिणामों की व्याख्या के उपरान्त जो सामान्य निष्कर्ष निकाले जाते हैं, उन्हें वर्ग विशेष या जाति विशेष की समस्त जनसंख्या के लिए सामान्यीकृत कर दिया जाता है। इसका अर्थ यह है कि इन्हें ऐसे सामान्य सिद्धान्तों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जो सामान्य रूप से सही स्वीकार कर लिये गये हों। मनोविज्ञान के नियम सामान्यीकृत होते हैं।

प्रश्न 4.
निरीक्षण विधि के दोषों का निवारण किस प्रकार किया जा सकता है?
उत्तर :
भले ही निरीक्षण विधि को मनोवैज्ञानिक अध्ययन की एक उत्तम विधि माना जाता है, परन्तु अन्य विधियों के ही समान इस विधि में भी कुछ दोष हैं; जैसे—कि घटनाओं की क्रमबद्धता का अभाव, घटनाओं का नियन्त्रित न होना, पक्षपात की आशंका, निरीक्षणकर्ता की व्यक्तिगत रुचियों का प्रभाव, निरीक्षणकर्ता का प्रशिक्षित न होना तथा सम्बन्धित व्यक्ति के व्यवहार का अस्वाभाविक होना। निरीक्षण विधि के इन मुख्य दोषों के निवारण के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं –

  1. निरीक्षण कार्य करते समय प्रयोगकर्ता को चाहिए कि वह अपनी व्यक्तिगत भावनाओं पर नियन्त्रण रखे ताकि तथ्य आत्मगत अवलोकन से दूषित न हों तथा अध्ययन की वस्तुनिष्ठता बनी रहे।
  2. निरीक्षण प्रक्रिया का पर्याप्त प्रशिक्षण तथा अनुभव प्रदान करने के उपरान्त ही निरीक्षणकर्ता को क्षेत्रीय निरीक्षण के लिए भेजना चाहिए।
  3. निरीक्षणकर्ता अपनी कल्पना अथवा अनुभव का समावेश कर तथ्यों को अविश्वसनीय ने बना दे; अत: वह जैसा अवलोकन करे वैसा ही लिखे भी—इससे निरीक्षण वैज्ञानिकप्रकृति का बन सकेगा।
  4. प्रयोग से पहले अपनी पूर्वधारणाओं, राग-द्वेष, पक्षपातों तथा अन्य व्यक्तिगत प्रवृत्तियों को प्रभाव न्यूनतम करने की दृष्टि से निरीक्षक को अपनी मनोवृत्तियों का विश्लेषण कर लेना चाहिए।
  5. निरीक्षण विधि से प्राप्त परिणामों की तुलना अन्तर्दर्शन एवं प्रयोगात्मक विधि से प्राप्त परिणामों से करना अपेक्षाकृत लाभकारी सिद्ध होगा।

प्रश्न 5.
नैदानिक विधि अथवा नैदानिक निरीक्षण (Clincial Observation) का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
हम जानते हैं कि मनोविज्ञान द्वारा सामान्य तथा असामान्य दोनों प्रकार के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। मनोविज्ञान के अन्तर्गत व्यक्ति के असामान्य व्यवहार के अध्ययन के लिए अपनायी जाने वाली एक मुख्य विधि को नैदानिक विधि अथवा नैदानिक निरीक्षण कहा जाता है। इस विधि को सामान्य रूप से सम्बन्धित व्यक्ति के असामान्य व्यवहार या मानसिक रोग के निदान के लिए अपनाया जाता है। इस विधि को मुख्य रूप से मनोविकारों की चिकित्सा के क्षेत्र में अपनाया जाता है। इस विधि को अपनाने का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति के मनोविकारों के निहित कारणों को ज्ञात करना होता है। नैदानिक निरीक्षण के अर्थ को जी० मर्फी ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “नैदानिक विधि व्यक्ति के उस मनोवैज्ञानिक पक्ष का अध्ययन करती है जिसमें उसके जीवन की प्रसन्नता एवं उसके प्रभावपूर्ण सामंजस्य का कार्य निर्भर करता है; यह विधि उसकी क्षमताओं तथा परिसीमाओं, सफलता और असफलता के कारण तथा जीवन की समस्याओं का अध्ययन करती है। इस विधि में उन कारणों का अध्ययन सम्मिलित है जो व्यक्ति के जीवन का निर्माण करते हैं या उसे बिगाड़ देते हैं।”

प्रश्न 6.
नैदानिक विधि के गुण-दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के लिए अपनायी जाने वाली नैदानिक विधि के मुख्य गुण-दोषों का संक्षिप्त विवरण अग्रलिखित है –

गुण – मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में नैदानिक विधि का विशेष महत्त्व है। इस विधि को मुख्य रूप से व्यक्ति के असामान्य व्यवहार अथवा मनोविकारों के अध्ययन के लिए अपनाया जाता है। सामान्य रूप से व्यक्ति के असामान्य व्यवहार के कारणों के निदान के लिए इस विधि को अपनाया जाता है। एक बार असामान्य व्यवहार के कारण ज्ञात हो जाने पर उसका उपचार सरल हो जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि नैदानिक विधि मनोचिकित्सा के क्षेत्र में विशेष उपयोगी है। हम कह सकते हैं कि व्यावहारिक दृष्टिकोण से नैदानिक विधि का अधिक महत्त्व है।

दोष – नैदानिक विधि का मुख्य दोष यह है कि यह विधि एक अत्यधिक जटिल विधि है तथा इस विधि के माध्यम से अध्ययन करने के लिए पर्याप्त अनुभवी, धैर्यवान तथा विशेषज्ञ अध्ययनकर्ता की आवश्यकता होती है। यदि नैदानिक विधि के प्रयोग में कोई त्रुटि हो जाती है तो इसके गम्भीर परिणाम हो सकते हैं।

प्रश्न 7.
मनोविज्ञान द्वारा अपनायी जाने वाली निरीक्षण विधि तथा नैदानिक निरीक्षण विधि में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
मनोवैज्ञानिक अध्ययन के लिए अपनायी जाने वाली दो मुख्य विधियाँ हैं–निरीक्षण विधि तथा नैदानिक निरीक्षण विधि। ये दोनों दो भिन्न विधियाँ हैं तथा इनमें स्पष्ट अन्तर है। किसी व्यक्ति के किसी सामान्य व्यवहार के अध्ययन के लिए सामान्य निरीक्षण विधि को अपनाया जाता है। इस प्रकार से निरीक्षण विधि मनोविज्ञान की एक सामान्य अध्ययन विधि है। इससे भिन्न नैदानिक निरीक्षण विधि को मुख्य रूप से मनोचिकित्सा के क्षेत्र में अपनाया जाता है। इस विधि के माध्यम से व्यक्ति के असामान्य व्यवृहार के कारणों को जानने का प्रयास किया जाता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि नैदानिक निरीक्षण विधि को अध्ययन-क्षेत्र सामान्य निरीक्षण विधि की तुलना में सीमित है। निरीक्षण विधि तथा नैदानिक निरीक्षण विधि में एक अन्य अन्तर भी है। निरीक्षण विधि को केवल सम्बन्धित व्यक्ति के व्यवहार के अध्ययन के लिए अपनाया जाता है। इससे भिन्न नैदानिक निरीक्षण विधि द्वारा सम्बन्धित व्यक्ति के असामान्य व्यवहार के कारणों को ज्ञात किया जाता है तथा साथ ही उस असामान्य व्यवहार के उपचार के उपाय भी सुझाये जाते हैं। इस प्रकार निरीक्षण विधि सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है, जबकि नैदानिक निरीक्षण विधि सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों दृष्टिकोणों से महत्त्वपूर्ण है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अन्तर्दर्शन विधि एक वैज्ञानिक विधि क्यों नहीं है?
उत्तर :
यह सत्य है कि अन्तर्दर्शन विधि मनोविज्ञान की एक पुरानी तथा मौलिक अध्ययन विधि है, परन्तु आधुनिक मान्यताओं के अनुसार, अन्तर्दर्शन विधि को अवैज्ञानिक विधि माना जाता है। इनका मुख्य कारण यह है कि इस विधि के माध्यम से एक समय में एक से अधिक मनोवैज्ञानिकों द्वारा वस्तुनिष्ठ ढंग से अध्ययन नहीं किया जा सकता। इसके साथ ही अन्तर्दर्शन विधि एक व्यक्तिगत अध्ययन विधि है। इससे प्राप्त होने वाला ज्ञान आत्मगत तथा व्यक्तिनिष्ठ होता है। वैज्ञानिक ज्ञान का वस्तुनिष्ठ होना आवश्यक है। अतः अन्तर्दर्शन विधि को वैज्ञानिक विधि मानना सम्भव नहीं है।

प्रश्न 2.
निरीक्षण विधि के कोई दो गुण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
(i) निरीक्षण विधि में पर्याप्त वस्तुनिष्ठता पायी जाती है तथा इसके माध्यम से व्यापक क्षेत्र में अध्ययन किया जा सकता है। इसके साथ इस विधि के माध्यम से स्वाभाविक परिस्थितियों में अध्ययन किया जाता है।
(ii) मनोविज्ञान सामान्य व्यक्तियों के साथ-ही-साथ असामान्य व्यक्तियों के व्यवहार का भी अध्ययन करता है। यह अध्ययन निरीक्षण विधि द्वारा ही किया जा सकता है। इसी प्रकार पशु व्यवहार का अध्ययन भी निरीक्षण विधि द्वारा ही किया जाता है।

प्रश्न 3.
नैदानिक विधि की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
मनोचिकित्सा के क्षेत्र में अपनायी जाने वाली मुख्य अध्ययन विधि नैदानिक विधि है। इसे नैदानिक निरीक्षण विधि भी कहते हैं। इस विधि की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. नैदानिक विधि मानसिक रोगियों तथा असामान्य व्यक्तियों के व्यवहार के अध्ययन के लिए अपनायी जाने वाली विधि है।
  2. इस विधि के माध्यम से एक समय में केवल एक व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है।
  3. नैदानिक विधि द्वारा होने वाले अध्ययन का उद्देश्य मनोविकार के कारणों को जानना तथा उसके उपचार के उपाय सुझाना होता है।

प्रश्न 4
अन्तर्दर्शन विधि तथा निरीक्षण विधि में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
अन्तर्दर्शन तथा निरीक्षण विधि में अन्तर
UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 2 Methods of the Study of Psychology 1
प्रश्न 5.
निरीक्षण विधि तथा प्रयोग विधि में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
निरीक्षण विधि तथा प्रयोग विधि में अन्तर
UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 2 Methods of the Study of Psychology 2
प्रश्न 6.
शैक्षिक समस्या के निदान के लिए आप किस विधि का उपयोग उचित समझते हैं? समझाइए।
उत्तर :
शैक्षिक समस्या से आशय है किसी बालक के शैक्षिक परिस्थितियों में व्यवहार की असामान्यता; जैसे—बालक का प्रतिदिन स्कूल से भाग जाना या गृह-कार्य को बिल्कुल नहीं करना। इस प्रकार के असामान्य व्यवहार अर्थात् शैक्षिक समस्या के निदान के लिए नैदानिक निरीक्षण विधि को उपयोग में लाना उचित होता है। नैदानिक निरीक्षण द्वारा असामान्य व्यवहार का उचित निदान हो जाता है तथा इस निदान के आधार पर ही उस असामान्य व्यवहार का सुधार भी किया जा सकता है।

प्रश्न 7.
सामान्यतः पशु-व्यवहार का अध्ययन आप किस विधि से करेंगे और क्यों?
उत्तर :
व्यवहार के अध्ययन के लिए मुख्य रूप से अन्तर्दर्शन विधि, निरीक्षण विधि तथा प्रयोग विधि को अपनाया जाता है। पशु-व्यवहार के अध्ययन के लिए सामान्यत: इनमें से निरीक्षण विधि को ही अपनाया जाता है। वास्तव में, अन्तर्दर्शन विधि द्वारा पशु-व्यवहार के अध्ययन का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि पशुओं द्वारा अपनी मनोस्थिति को प्रकट नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त प्रयोग विधि द्वारा पशु-व्यवहार का अध्ययन तो किया जा सकता है, परन्तु प्रयोगशाला में पशुओं का व्यवहार स्वाभाविक न रहकर कृत्रिम हो जाता है; अत: यह अध्ययन भी कुछ हद तक अयथार्थ ही होता है। इस स्थिति में स्वाभाविक पशु-व्यवहार के अध्ययन के लिए उनके मुक्त वातावरण में निरीक्षण विधि को ही अपनाना सर्वोत्तम माना जाता है।

निश्चित उतरीय प्रश्न

प्रश्न I.
निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए –

  1. मनोविज्ञान के विकास के प्रथम चरण में अध्ययन की मुख्य विधि …………………. ही थी।
  2. जब व्यक्ति अपनी मानसिक क्रियाओं को स्वयं अनुभव एवं विश्लेषण करता है, तो अध्ययन की यह विधि …………………. कहलाती है।
  3. मनोविज्ञान की अन्तर्दर्शन विधि को …………………. भी कहा जाता है।
  4. …………………. अध्ययन विधि का प्रमुख दोष आत्मगत परिणाम का होना है।
  5. अन्तर्दर्शन विधि को …………………. नहीं माना जा सकता।
  6. अन्तर्दर्शन विधि द्वारा प्राप्त होने वाली जानकारी सदैव …………………. ही होती है।
  7. एक अबोध बालक के व्यवहार के अध्ययन के लिए …………………. को नहीं अपनाया जा सकता।
  8. सम्बन्धित व्यक्ति के व्यवहार का प्रत्यक्ष अध्ययन करने वाली विधि को …………………. कहते हैं।
  9. छोटे बच्चों, असामान्य व्यक्तियों तथा पशुओं के व्यवहार के अध्ययन के लिए …………………. ही सर्वोत्तम घिधि मानी जाती है।
  10. सामान्य रूप से …………………. परिस्थितियों में निरीक्षण विधि द्वारा अध्ययन किया जाता है।
  11. निरीक्षणकर्ता की …………………. से निरीक्षण विधि द्वारा प्राप्त निष्कर्षों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
  12. निरीक्षणकर्ता के पूर्वाग्रह निरीक्षण विधि द्वारा किये गये अध्ययन के निष्कर्षों पर …………………. प्रभाव डालते हैं।
  13. मनोविज्ञान के आधुनिक विद्वानों के अनुसार मनोविज्ञान की सर्वोत्तम अध्ययन विधि …………………. है।
  14. मनोविज्ञान की अध्ययन विधियों में सबसे अधिक वैज्ञानिक …………………. विधि है।
  15. मनोविज्ञान को विज्ञान का दर्जा दिलाने का श्रेय इसकी …………………. अध्ययन विधि का है।
  16. सामान्यत: चर …………………. और …………………. प्रकार के होते हैं।
  17. प्रहस्तन द्वारा जिस चर को घटा-बढ़ाकर व्यवहार पर उसका प्रभाव ज्ञात किया जाता है, उसे …………………. चर कहते हैं।
  18. मनोविज्ञान की प्रथम प्रयोगशाला …………………. विश्वविद्यालय में …………………. द्वारा स्थापित की गई।
  19. 1879 में लिपजिंग में मनोविज्ञान की प्रथम प्रयोगशाला की स्थापना …………………. ने की थी।
  20. प्रयोग विधि के माध्यम से अध्ययन करने के लिए सर्वप्रथम एक …………………. का निर्माण किया जाता है।
  21. असामान्य व्यवहार तथा मनोविकारों के कारणों को जानने के लिए …………………. विधि को अपनाया जाता है।
  22. निरीक्षण विधि की तुलना में नैदानिक विधि का क्षेत्र …………………. है।
  23. प्रयोगात्मक विधि एक वैज्ञानिक विधि है तथा अन्तर्दर्शन विधि …………………. है।

उत्तर :

  1. अन्तर्दर्शन विधि
  2. अन्तर्दर्शन विधि
  3. आन्तरिक निरीक्षण
  4. अन्तर्दर्शन
  5. वैज्ञानिक विधि
  6. व्यक्तिनिष्ठ
  7. अन्तर्दर्शन विधि
  8. निरीक्षण विधि
  9. निरीक्षण विधि
  10. स्वाभाविक
  11. रुचियों
  12. प्रतिकूल
  13. प्रयोगात्मक विधि
  14. प्रयोग
  15. प्रयोगात्मक
  16. स्वतन्त्र, अग्रित
  17. स्वतन्त्र
  18. लिपजिंग,विलियम वुण्ट,
  19. वुण्ट
  20. उपकल्पना
  21. नैदानिक विधि
  22. सीमित
  23. अवैज्ञानिक।

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए 

प्रश्न II.

प्रश्न 1.
मनोवैज्ञानिक अध्ययन के लिए मुख्य रूप से कौन-कौन सी विधियाँ अपनायी जाती हैं?
उत्तर :

  1. अन्तर्दर्शन विधि
  2. निरीक्षण विधि तथा
  3. प्रयोगात्मक विधि।

प्रश्न 2.
अन्तर्दर्शन विधि द्वारा किस प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है?
उत्तर :
अन्तर्दर्शन विधि के अन्तर्गत सम्बन्धित व्यक्ति के आत्म-निरीक्षण के माध्यम से ही उसकी मानसिक क्रियाओं तथा अनुभवों आदि की जानकारी प्राप्त की जाती है।

प्रश्न 3.
किन-किन विषय पात्रों का अध्ययन अन्तर्दर्शन विधि द्वारा नहीं किया जा सकता?
उत्तर :
अबोध बालकों, असामान्य व्यक्तियों, मानसिक रोगियों तथा पशुओं के व्यवहार का अध्ययन अन्तर्दर्शन विधि द्वारा नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 4.
निरीक्षण विधि द्वारा किन-किन विषय-पात्रों के व्यवहार का अध्ययन सफलतापूर्वक किया जा सकता है?
उत्तर :
अबोध बालकों, असामान्य व्यक्तियों, मानसिक रोगियों तथा पशुओं के व्यवहार का अध्ययन निरीक्षण विधि द्वारा सफलतापूर्वक किया जा सकता है।

प्रश्न 5.
निरीक्षण विधि के मुख्य चरण अथवा पद कौन-कौन से हैं?
उत्तर :

  1. उपयुक्त योजना का निर्माण
  2. व्यवहार का प्रत्यक्ष अवलोकन
  3. व्यवहार का लेखन
  4. व्यवहार का विश्लेषण एवं व्याख्या तथा
  5. सामान्यीकरण।

प्रश्न 6.
मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में प्रयोग विधि को सर्वप्रथम किसने और कब अपनाया था?
उत्तर :
मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में प्रयोग विधि को 1879 ई० में वुण्ट ने अपनाया था।

प्रश्न 7.
निरीक्षण विधि तथा अन्तर्दर्शन विधि में मुख्य अन्तर क्या है?
उत्तर :
निरीक्षण विधि एक वस्तुनिष्ठ विधि है, जबकि अन्तर्दर्शन विधि एक व्यक्तिनिष्ठ विधि है।

प्रश्न 8.
प्रयोग विधि तथा निरीक्षण विधि में विद्यमान एक मुख्य अन्तर बताइए।
उत्तर :
प्रयोग विधि में एक उपकल्पना का निर्माण किया जाता है, जबकि निरीक्षण विधि में उपकल्पना का निर्माण नहीं किया जाता।

प्रश्न 9.
नैदानिक विधि को अपनाने का मुख्य उद्देश्य क्या होता है?
उत्तर :
नैदानिक विधि को अपनाने को मुख्य उद्देश्य किसी असामान्य व्यवहार के कारणों को जानना होता है।

प्रश्न 10.
नैदानिक विधि को मुख्य रूप से किस क्षेत्र में अपनाया जाता है?
उत्तर :
नैदानिक विधि को मुख्य रूप से मनोचिकित्सा के क्षेत्र में अपनाया जाता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1.
मनोवैज्ञानिक अध्ययन की किस विधि के अन्तर्गत विषय-पात्र स्वयं अपनी मनोदशा आदि का विवरण प्रस्तुत करता है?
(क) निरीक्षण विधि
(ख) अन्तर्दर्शन विधि
(ग) प्रयोग विधि
(घ) ये सभी विधियाँ

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से किस मनोवैज्ञानिक पद्धति में सबसे कम वस्तुनिष्ठता पायी जाती है?
(क) निरीक्षण
(ख) नैदानिक निरीक्षण
(ग) प्रयोग
(घ) अन्तर्दर्शन

प्रश्न 3.
किस विधि से व्यक्ति स्वयं की मानसिक क्रियाओं और अनुभवों का अध्ययन कर सकता है?
(क) अन्तर्दर्शन
(ख) निरीक्षण
(ग) नैदानिक निरीक्षण,
(घ) प्रयोगात्मक

प्रश्न 4.
अन्तर्दर्शन विधि को इस्तेमाल नहीं किया जा सकता
(क) किसी भी व्यक्ति के व्यवहार के अध्ययन के लिए
(ख) महिलाओं के व्यवहार के अध्ययन के लिए।
(ग) बच्चों, असामान्य व्यक्तियों तथा पशुओं के व्यवहार के अध्ययन के लिए
(घ) बौद्धिक व्यक्तियों के व्यवहार के अध्ययन के लिए

प्रश्न 5.
किस अध्ययन विधि में बालक व पशु के व्यवहार का अध्ययन सम्भव नहीं होता?
(क) अन्तर्दर्शन विधि में
(ख) नैदानिक निरीक्षण विधि में
(ग) सामान्य निरीक्षण में
(घ) प्रयोग विधि में

प्रश्न 6.
“अन्तर्दर्शन करने का अर्थ है–क्रमबद्धे रूप से अपने मन की कार्यप्रणाली का सुव्यवस्थित अध्ययन करना।”—यह परिभाषा किस मनोवैज्ञानिक ने दी है?
(क) टिचनर
(ख) मैक्डूगल
(ग) स्टाउट
(घ) गार्डनर मर्फी

प्रश्न 7.
निरीक्षण विधि द्वारा व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है
(क) स्वाभाविक परिस्थितियों में
(ख) कृत्रिम परिस्थितियों में
(ग) नियन्त्रित परिस्थितियों में
(घ) हर प्रकार की परिस्थितियों में

प्रश्न 8.
निरीक्षण विधि के गुण हैं
(क) अध्ययन में पर्याप्त वस्तुनिष्ठता
(ख) व्यवहार का स्वाभाविक परिस्थितियों में अध्ययन
(ग) बच्चों तथा असामान्य व्यक्तियों के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है।
(घ) उपर्युक्त सभी गुण

प्रश्न 9.
निरीक्षण विधि को नहीं अपनाया जा सकता
(क) व्यक्ति के व्यवहार सम्बन्धी किसी तथ्य को जानने के लिए
(ख) सम्बन्धित व्यक्ति की सामाजिक गतिविधियों को जानने के लिए
(ग) किसी व्यक्ति के मन में निहित प्रेम, ईर्ष्या तथा द्वेष आदि आन्तरिक भावों को जानने के लिए
(घ) व्यक्ति के क्रियाकलापों को जानने के लिए

प्रश्न 10.
निरीक्षण विधि का दोष है
(क) घटनाओं का अनियन्त्रित होना
(ख) पक्षपात एवं निरीक्षणकर्ता की रुचियों का प्रभाव
(ग) प्रशिक्षण एवं अभ्यास का अभाव
(घ) उपर्युक्त सभी दोष

प्रश्न 11.
नियन्त्रित परिस्थिति में किये गये निरीक्षण को कहते हैं
(क) नैदानिक निरीक्षण
(ख) प्रयोग
(ग) आत्म-निरीक्षण
(घ) मूल्यांकन

प्रश्न 12.
किस विधि के द्वारा स्वाभाविक परिस्थिति में व्यवहार का अध्ययन सम्भव है?
(क) अन्तर्दर्शन
(ख) निरीक्षण
(ग) नैदानिक निरीक्षण
(घ) प्रयोगात्मक

प्रश्न 13.
प्रयोग विधि द्वारा अध्ययन करने के लिए आवश्यक है
(क) वातावरण तैयार करना
(ख) उपकल्पना का निर्माण
(ग) अनुमान लगाना
(घ) ये सभी

प्रश्न 14.
मनोवैज्ञानिक अध्ययन की प्रयोग विधि की विशेषता है
(क) शुद्ध वैज्ञानिक विधि है
(ख) अध्ययन को दोहराना सम्भव है।
(ग) वस्तुनिष्ठ, विश्वसनीय एवं सम्पूर्ण विधि है।
(घ) उपर्युक्त सभी विशेषताएँ।

प्रश्न 15.
नैदानिक निरीक्षण सम्बन्धित है –
(क) स्वयं को समझने से
(ख) समस्यात्मक लोगों के अध्ययन से
(ग) नियन्त्रित दशा में किये गये निरीक्षण से
(घ) व्यक्ति को शिक्षित करने से

प्रश्न 16.
विद्यार्थी की व्यक्तिगत समस्या समाधान के लिए उनका अध्ययन करेंगे
(क) अन्तर्दर्शन विधि से
(ख) निरीक्षण विधि से
(ग) प्रयोगात्मक विधि से
(घ) नैदानिक विधि से

प्रश्न 17.
मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में नैदानिक विधि द्वारा अध्ययन किया जाता है
(क) व्यक्ति के दैनिक क्रियाकलापों का
(ख) परिवार के सदस्यों के आपसी व्यवहार का
(ग) असामान्य व्यवहार या मानसिक रोग के निदान के लिए व्यवहार को
(घ) हर प्रकार के व्यवहार का

प्रश्न 18.
निम्नलिखित में से किस स्थिति में नैदानिक विधि को अपनाया जाएगा?
(क) सामान्य रूप से झूठ बोलने अथवा चोरी करने वाले छात्र के अध्ययन के लिए
(ख) क्रीड़ा-स्थल पर बच्चों के व्यवहार को जानने के लिए।
(ग) परीक्षा में उत्तम अंक प्राप्त करने वाले छात्र के व्यवहार को जानने के लिए
(घ) उपर्युक्त सभी प्रकार के अध्ययनों के लिए

प्रश्न 19.
मनोविज्ञान को विज्ञान का दर्जा दिये जाने का श्रेय किस विधि को दिया जाता है?
(क) अन्तर्दर्शन विधि
(ख) निरीक्षण विधि
(ग) नैदानिक निरीक्षण विधि
(घ) प्रयोग विधि

प्रश्न 20.
कौन मनोवैज्ञानिक मनोविज्ञान की प्रथम प्रयोगशाला से सम्बन्धित है?
(क) फ्रायड
(ख) वाटसन
(ग) वुण्ट
(घ) टिचनर

प्रश्न 21.
1879 में लिपजिंग में मनोविज्ञान की प्रथम प्रयोगशाला किसने स्थापित की?
(क) मन
(ख) टिचनर
(ग) विलियम वुण्ट
(घ) ऐबिंगहास

प्रश्न 22.
मनोविज्ञान की पहली प्रयोगशाला स्थापित की गई थी
(क) इंग्लैण्ड में
(ख) वियना में
(ग) जर्मनी में
(घ) इनमें से कोई नहीं

उत्तर :

  1. (ख) अन्तर्दर्शन विधि
  2. (घ) अन्तर्दर्शन
  3. (क) अन्तर्दर्शन
  4. (ग) बच्चों, असामान्य व्यक्तियों तथा पशुओं के व्यवहार के अध्ययन के लिए
  5. (क) अन्तर्दर्शन विधि में,
  6. (ख) मैक्डूगल
  7. (क) स्वाभाविक परिस्थितियों में
  8. (घ) उपर्युक्त सभी गुण
  9. (ग) किसी व्यक्ति के मन में निहित प्रेम, ईष्र्या तथा द्वेष आदि आन्तरिक भावों को जानने के लिए
  10. (घ) उपर्युक्त सभी दोष
  11. (ख) प्रयोग
  12. (घ) प्रयोगात्मक
  13. (ख) उपकल्पना का निर्माण
  14. (घ) उपर्युक्त सभी विशेषताएँ
  15. (ख) समस्यात्मक लोगों के अध्ययन से
  16. (घ) नैदानिक विधि से
  17. (ग) असामान्य व्यवहार या मानसिक रोग के निदान के लिए व्यवहार का
  18. (क) सामान्य रूप से झूठ बोलने अथवा चोरी करने वाले छात्र के अध्ययन के लिए
  19. (घ) प्रयोग विधि
  20. (ग) वुण्ट
  21. (ग) विलियम वुण्ट
  22. (ग) जर्मनी में।

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 6 Social Group Primary and Secondary Groups

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 6 Social Group Primary and Secondary Groups are part of (सामाजिक समूह प्राथमिक एवं द्वितीयक समूह) UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 6 Social Group Primary and Secondary Groups (सामाजिक समूह प्राथमिक एवं द्वितीयक समूह)

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 1
Chapter Name Social Group Primary and
Secondary Groups
(सामाजिक समूह प्राथमिक
एवं द्वितीयक समूह)
Number of Questions Solved 58
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 6 Social Group Primary and Secondary Groups (सामाजिक समूह प्राथमिक एवं द्वितीयक समूह)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक समूह का अर्थ व परिभाषा दीजिए तथा प्राथमिक एवं द्वितीयक समूह की विशेषताएँ बताइए।
या
सामाजिक समूह किसे कहते हैं ? प्राथमिक समूह के सामाजिक महत्त्व को स्पष्ट कीजिए। [2008]
या
प्राथमिक समूह किसे कहते हैं ? प्राथमिक समूह की चार विशेषताएँ बताइए। [2007, 13]
या
प्राथमिक समूह और द्वितीयक समूह के मध्य अन्तर बताइए। [2007, 09, 12, 13,]
या
प्राथमिक समूह को परिभाषित करते हुए इसकी विशेषताएँ लिखिए। [2015, 16]
या
द्वितीयक समूह की चार विशेषताएँ बताइए। [2011, 13, 15]
या
सामाजिक समूह को परिभाषित करते हुए इसकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2015, 16]
या
प्राथमिक समूह और द्वितीयक समूह के मध्य अन्तर बताइए। [2007, 09, 12, 13]
या
प्राथमिक समूह और द्वितीयक समूह में दो अन्तरों की व्याख्या कीजिए। [2016]
उत्तर:

सामाजिक समुह का अर्थ

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समूह में रहकरे जीवन व्यतीत करना चाहता है। समूह के बिना मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसी भावना ने सामाजिक समूह को जन्म दिया है। सामाजिक समूह का सामान्य अर्थ व्यक्तियों के संग्रह से लगाया जाता है। वास्तव में, व्यक्तियों का संग्रह ही समूह नहीं है, वरन् कुछ व्यक्तियों द्वारा संगठित होकर परस्पर सम्बन्ध स्थापित करना तथा एक-दूसरे के व्यवहारों को प्रभावित करने का नाम सामाजिक समूह है। सामाजिक समूह एक ऐसा संगठन है जिसके सदस्य परस्पर जान-पहचान रखते हुए एकरूपता स्थापित करते हैं। परिवार, क्रीड़ा-समूह, पड़ोस, मित्र-मण्डली और राज्य ऐसे ही सामाजिक समूह हैं।

सामाजिक समूह की परिभाषा

विभिन्न समाजशास्त्रियों द्वारा दी गयी सामाजिक समूह की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नवत् हैं| ऑगबर्न और निमकॉफ के अनुसार, “जब कभी दो या दो से अधिक व्यक्ति एकत्रित होकर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं तो वे एक सामाजिक समूह का निर्माण करते हैं।”

बोगार्ड्स के अनुसार, “एक सामाजिक समूह का अर्थ हम व्यक्तियों के ऐसे संग्रह से लगा सकते हैं, जिनके सामान्य स्वार्थ होते हैं, जो एक-दूसरे को प्रेरणा देते हैं, जिनमें सामान्य वफादारी पायी जाती है और जो सामान्य क्रियाओं में भाग लेते हैं।”

वास्तव में, सामाजिक समूह मनुष्यों का वह संग्रह या झुण्ड है जिसके मध्य पारस्परिक सम्बन्ध पाये जाते हैं। पारस्परिक सम्बन्धों के द्वारा ही समूह के सदस्य परस्पर एकरूपता प्रकट करते हैं।
ओल्सेन (Olsen) के शब्दों में, “सामाजिक समूह एक प्रकार का संगठन है जिसके सदस्य एक दूसरे को जानते हैं अथवा एक-दूसरे से अपनी एकरूपता स्थापित करते हैं।” सदस्य-संख्या के आधार पर सामाजिक समूहों के निम्नलिखित दो भेद होते हैं

  1. प्राथमिक समूह–इस प्रकार के समूह की सदस्य-संख्या अपेक्षाकृत कम होती है। इसके सदस्यों में घनिष्ठ एवं प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है तथा ये पारस्परिक क्रियाओं में सहभागी रहते हैं। परिवार, पड़ोस तथा खेल आदि प्राथमिक समूह के उदाहरण हैं।
  2. द्वितीयक समूह–इसकी सदस्य-संख्या, अपेक्षाकृत अधिक होती है। इसके सदस्यों में आमने-सामने के सम्बन्ध न होकर अप्रत्यक्ष सम्बन्ध रहते हैं; जैसे–नगर, विद्यालय, राष्ट्र आदि।

प्राथमिक समूह की विशेषताएँ

प्राथमिक समूह को पूरी तरह से समझ लेने के लिए उनकी विशेषताओं से परिचित होना अनिवार्य है।  प्राथमिक समूह में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं
1. शारीरिक समीपता-सदस्यों के मध्य निकटता और शारीरिक समीपता होना प्राथमिक समूहों की प्रमुख विशेषता है। शारीरिक समीपता के कारण ही प्राथमिक समूह के सदस्यों के मध्य आमने-सामने के सम्बन्ध पाये जाते हैं। प्राथमिक समूह के सदस्यों में अपनापन पाया जाता है। अतः यह समूह अधिक स्थायित्व लिये होता है।

2. लघु आकार-प्राथमिक समूह के सदस्यों के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध पाये जाते हैं। प्रत्यक्ष सम्बन्ध तभी स्थापित हो सकते हैं जब समूह का आकार बहुत छोटा हो। प्राथमिक समूह के सदस्य एक-दूसरे से परिचित होते हैं तथा समीप रहते हैं। डेविस ने लघु आकार को प्राथमिक समूह की प्रमुख विशेषता स्वीकार किया है।

3. सम्बन्धों की घनिष्ठता-प्राथमिक समूह के सदस्यों के मध्य पाये जाने वाले सम्बन्ध बड़े घनिष्ठ होते हैं। इसमें सम्बन्धों में निरन्तरता और स्थिरता होने के कारण घनिष्ठता पनप जाती है, जो प्राथमिक समूह की प्रमुख विशेषता है।

4. समान उद्देश्य-प्राथमिक समूह के सदस्य समान उद्देश्यों के कारण परस्पर जुड़े रहते हैं। एक निवास-स्थान और एक जैसी संस्कृति उनमें समरूपता भर देती है, जिससे उनके उद्देश्य एकसमान हो जाते हैं। प्राथमिक समूह के सदस्य सबके हित की सोचते हैं। त्याग और बलिदान की भावना उन्हें व्यक्तिगत स्वार्थ त्यागकर समूह के हित में कार्य करने को विवश कर देती

5. हम की भावना-प्राथमिक समूह एक लघु समूह है। उनके सदस्यों में निकटता के कारण घनिष्ठता पायी जाती है। परस्पर घनिष्ठता उनमें ‘हम की भावना का संचार कर देती हैं। इसमें व्यक्ति समष्टि के कल्याण की बात सोचता है।

6. स्वाभाविक सम्बन्ध-प्राथमिक समूह के सदस्यों के मध्य स्वैच्छिक सम्बन्ध पाये जाते हैं। ये सम्बन्ध स्वतः उत्पन्न होते हैं, उनके मध्य कोई शर्त नहीं रहती। ये सम्बन्ध स्वाभाविक और प्राकृतिक होते हैं।

7. स्वतः विकास-प्राथमिक समूह का निर्माण न होकर स्वत: विकास होता है। इनके निर्माण में कोई शक्ति या दबाव काम नहीं करता, वरन् ये स्वाभाविक रूप से स्वतः विकसित हो जाते हैं। परिवार इसका सुन्दर उदाहरण है।

8. प्राथमिक नियन्त्रण-प्राथमिक समूह के सदस्य एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप में जुड़े होते हैं। पारस्परिक जान-पहचान के कारण इनके व्यवहारों पर प्राथमिक नियन्त्रण बना रहता है। परिवार में वृद्ध पुरुषों का भय ही बच्चों को गलत रास्ते पर जाने से रोके रखता है। प्रत्येक सदस्य अवचेतन ढंग से प्राथमिक समूह के आदर्शों एवं नियमों का पालन करता रहता है।

9. स्थायित्व प्राथमिक समूह शनै-शनैः स्वतः विकसित होने के कारण स्थायी प्रकृति वाले होते हैं। व्यक्तिगत और घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण व्यक्ति इन समूहों की सदस्यता छोड़ना नहीं चाहता। स्थायी प्रकृति भी प्राथमिक समूहों की प्रमुख विशेषता मानी जाती है।

10. साध्य सम्बन्ध-प्राथमिक समूह के सदस्यों के सम्बन्ध स्व:साध्य होते हैं, सम्बन्ध उन पर थोपे नहीं जाते। स्वार्थपरता न होने के कारण इनके सम्बन्ध, लक्ष्य और मूल्य समझे जाते हैं। प्राथमिक समूह के सम्बन्ध साधन न होकर साध्य होते हैं। सम्बन्ध साध्य होने के कारण प्रत्येक सदस्य उन्हें पूरा करना अपना परम कर्तव्य मानता है।

द्वितीयक समूह की विशेषताएँ

द्वितीयक समूह की परिभाषाओं का अध्ययन करने से हमें उसकी निम्नलिखित विशेषताओं का ज्ञान होता है

  1. द्वितीयक समूह में आमने-सामने के सम्बन्ध न होने के कारण सदस्यों के बीच घनिष्ठता नहीं पायी जाती।
  2. द्वितीयक समूहों में समीपता का अभाव होने के कारण सदस्यों के मध्य दूरसंचार के माध्यम से सम्बन्ध स्थापित होते हैं।
  3. द्वितीयक समूह का निर्माण विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जान-बूझकर किया जाता है।
  4. द्वितीयक समूह जीवन के किसी एक पहलू से सम्बन्ध रखते हैं; अत: इनका प्रभाव व्यक्ति के किसी एक पक्ष पर ही विशेष पड़ता है।
  5. द्वितीयक समूह में सम्बन्ध शर्ते या समझौते के आधार पर निश्चित किये जाते हैं।
  6. द्वितीयक समूह में व्यक्ति के स्थान पर उसकी परिस्थिति का विशेष महत्त्व होता है। अत: यहाँ सम्बन्धों में औपचारिकता पायी जाती है।
  7. द्वितीयक समूह के सदस्यों के मध्य “छुओ और जाओ’ (Touch and go) का सम्बन्ध होने के कारण घनिष्ठता का नितान्त अभाव पाया जाता है।
  8. द्वितीयक समूहों का निर्माण किया जाता है; इनमें स्वत: विकास का अभाव रहता है। आवश्यकताओं की प्रकृति परिवर्तित होने पर इन समूहों की प्रकृति में भी परिवर्तन आ जाता है।
  9. द्वितीयक समूह का संचालन नियमानुसार होता है।
  10. द्वितीयक समूह में सदस्यों का सम्बन्ध आमने-सामने का न होने के कारण इनके दायित्व भी सीमित हो जाते हैं।
  11. द्वितीयक समूह में सदस्य स्वहित की सोचते हैं। अत: इनके सदस्यों में स्वार्थपरता पायी जाती है। ये दूसरे सदस्यों के साथ उतना ही सम्बन्ध रखते हैं जितना इनके हितों के लिए लाभप्रद और आवश्यक होता है।
  12. इस समूह के सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से सम्बन्ध स्थापित करना आवश्यक नहीं है। बहुत दूर रहने वाले व्यक्ति भी इसके सदस्य बन सकते हैं।
  13. द्वितीयक समूह के सदस्यों में आत्मनिर्भरता की विशेषता पायी जाती है।
  14. द्वितीयक समूह में नियन्त्रण बाह्य और औपचारिक होता है।
  15. द्वितीयक समूह के सदस्यों के मध्ये प्रायः एकता का अभाव पाया जाता है।
  16. द्वितीयक समूह सम्पूर्ण सामाजिक जीवन की व्यवस्थाओं से वंचित रहते हैं।

प्राथमिक समूह और द्वितीयक समूह में अन्तर

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प्राथमिक समूहों का सामाजिक महत्त्व

प्राथमिक समूहों का सामाजिक महत्त्व निम्नवत् है
1. व्यक्तित्व का विकास--प्राथमिक समूह व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में अभूतपूर्व योग देते हैं। नवजात शिशु एक मांस का लोथड़ा और निरीह जीव मात्र होता है। वह परिवार की सुरम्य पृष्ठभूमि में पलता और बड़ा होता है तथा परिवाररूपी पाठशाला उसमें गुणों का विकास करके उसके व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती है। यही कारण है कि चार्ल्स कूले ने प्राथमिक समूहों को मानव समूह की नर्सरी’ कहकर सम्बोधित किया है। प्राथमिक समूह
व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में अपनी प्रमुख भूमिका निभाते हैं।

2. समाजीकरण में सहायक-प्राथमिक समूह अपने सदस्यों को समाज के साथ अनुकूलन करने में सक्षम बनाते हैं। ये बालक में सहयोग, दया, त्याग, प्रेम, सहानुभूति एवं सहिष्णुता के गुणों का समावेश कराकर समाजीकरण की प्रक्रिया में सहायक होते हैं। ये व्यक्ति में सामाजिक आदर्शों एवं नियमों के पालन का भाव जाग्रत कर उसे सामाजिक दशाओं के साथ अनुकूलन का पाठ पढ़ाते हैं।

3. संस्कृति का हस्तान्तरण-प्राथमिक समूह संस्कृति के वाहक हैं। ये सदस्यों को सांस्कृतिक प्रतिमानों एवं मूल्यों से परिचित कराने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। प्राथमिक समूह व्यक्ति को धर्म, नैतिकता, रूढ़ियों और परम्पराओं का ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुँचाते रहते हैं। इस प्रकार सांस्कृतिक प्रतिमान के पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होने के कारण उनमें सांस्कृतिक निरन्तरता बनी रहती है।

4. आवश्यकताओं की सन्तुष्टि-प्राथमिक समूह व्यक्ति की मूल आवश्यकताओं को पूरा करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। परिवार, विद्यालय, राजनीतिक दल, क्रीड़ा-समूह, पड़ोस, चिकित्सालय और छविगृह मानव की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति में सहयोगी बनकर उसे आन्तरिक सन्तोष प्रदान करते हैं।

5. पशु-प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण-प्राथमिक समूह व्यक्ति में मानवता का समावेश कर उसे दुर्गुणों से मुक्त रखते हैं। वे व्यक्तियों की दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश रखकर उसमें सद्गुणो का संचार करते हैं। परिवार मनुष्य को सत्य, अहिंसा, धर्म, नैतिकता, त्याग और सहानुभूति का पाठ पढ़ाकर उसे पशु-प्रवृत्तियों से बचाता है। कूले के शब्दों में, “पशु-प्रवृत्तियों का मानवीकरण ही सम्भवतः सबसे बड़ी सेवा है, जो प्राथमिक समूह करते हैं।’

6. मनोरंजन-जीवन के दो पहलू हैं—कार्य और मनोरंजन। प्राथमिक समूह हारे-थके व्यक्ति को मनोरंजन की सुविधाएँ प्रदान कर उसे स्वस्थ और प्रसन्न बनाते हैं। परिवार में रहकर व्यक्ति गपशप, हँसी-मजाक, नाचकूद और खेलकूद की सुविधाओं का लाभ उठाकर अपना दिल बहलाता है। मनोरंजन से उसके जीवन में सरसता उत्पन्न होती है।

7. कार्यक्षमता में वृद्धि-प्राथमिक समूह व्यक्ति को उसकी रुचि और क्षमता के अनुरूप कार्य देकर उन्हें कुशल बनाते हैं। व्यक्ति के विभिन्न कार्यों में उसका मार्गदर्शन करके उसकी कार्यक्षमता बढ़ाते हैं। प्राथमिक समूह में व्यक्ति को अपने कौशल दिखाने का पूरा-पूरा अवसर दिया जाता है। अतः उसमें आत्मविश्वास जाग उठता है जो उसकी कार्यक्षमता को द्विगुणित कर देता है।

8. सुरक्षा-प्राथमिक समूह व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक सुरक्षा प्रदान करते हैं। ये व्यक्ति में यह विश्वास कूट-कूट कर भर देते हैं कि विपत्ति के समय उसे पूरी-पूरी सहायता प्राप्त होगी। सुरक्षा की भावना व्यक्ति को आत्मसन्तोष और निश्चिन्तता के भाव से ओत-प्रोत कर देती है। प्राथमिक समूह का प्रत्येक सदस्य स्वयं को मानसिक दृष्टि से पूर्णत: सुरक्षित मानता है।

9. सामाजिक नियन्त्रण में सहायक-प्राथमिक समूह सामाजिक नियन्त्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये सामाजिक नियन्त्रण के प्रमुख साधन हैं। प्राथमिक समूह सदस्यों में सद्गुणों का विकास कर समाज को नियन्त्रित करने में सहायक बनते हैं।

10. समाज का आधार-प्राथमिक समूह समाज के अभिन्न अंग होते हैं। व्यक्ति प्राथमिक समूह में उत्पन्न होकर समाज के अस्तित्व का आधार बनता है। प्राथमिक समूहों में समाज की निरन्तरता बनी रहती है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राथमिक समूह का सामाजिक महत्त्व बहुत अधिक है।

प्रश्न 2
अन्तःसमूह तथा बाह्य समूह से आप क्या समझते हैं ? इनके अन्तर को स्पष्ट कीजिए।
या
अन्तःसमूह एवं बाह्य समूह का वर्गीकरण किसने किया ? इसे स्पष्ट कीजिए। [2007, 09, 12, 13, 14]
उत्तर:

अन्तःसमूह तथा बाह्य समूह

मनुष्य का सारा जीवन ही समूहों में व्यतीत होता है। वह स्वभावतः सामूहिक प्राणी है। किन्तु विभिन्न समूहों के प्रति उसके दृष्टिकोण और अन्य सदस्यों के साथ उसके सम्बन्धों की गुणवत्ता में भिन्नता पायी जाती है। इसी आधार पर समनर (Sumner) ने अपने ग्रन्थ ‘जनरीतियाँ’ (Folkways) में बताया कि मानव-समाज में दो प्रकार के समूह होते हैं-अन्त:समूह एवं बाह्य समूह।

अन्तःसमूह In-Group
एक अन्त:समूह वह समूह है जिससे हम सम्बन्धित होते हैं, अर्थात् उनके साथ अपनत्व की भावना महसूस करते हैं। हमारा परिवार, मित्र-मण्डली, खेल-समूह, प्रजाति, कबीला और आधुनिक सभ्य समाजों में राष्ट्र ऐसे ही समूह हैं। इसलिए उन समूहों को अपना समूह’ (We-Group) भी कहा गया है।

अन्त:समूहों में सम्बन्धों की गुणवत्ता इसमें व्याप्त अपेक्षाकृत शान्ति और व्यवस्था है। उसके सदस्य एक-दूसरे के प्रति सहयोग, शुभकामना, परस्पर-विश्वास और सहयोग प्रदर्शित करते हैं। अन्त:समूह में सदस्य एक-दूसरे के अधिकारों का सम्मान ही नहीं करते, वरन् एक-दूसरे के लिए बलिदान करने की भावना व तत्परता भी रखते हैं। इसीलिए उनमें एकता की भावना तथा समूह के प्रति निष्ठा पायी जाती है। इस प्रकार अन्त:समूह के बीच अभिन्न समरूपता, समानता और सहिष्णुता होती है।

बाह्य समूह Out-Group
अन्त:समूह के सदस्य के लिए अन्य सभी समूह बाह्य समूह होते हैं। बाह्य समूह के प्रति व्यक्ति में अविश्वास और शंका रहती है। उसके सदस्य व्यक्ति के लिए ‘पराये’ या ‘दूसरे लोग हैं। इसीलिए इन्हें ‘अन्य समूह’ (Other Group) या उनका समूह’ या ‘वे-लोग’ (They-Group) भी कहा जाता है। इसीलिए उनके प्रति व्यक्ति घृणा या शत्रु-भाव रखता है।

समाजशास्त्र की दृष्टि से, अन्त:समूह और बाह्य समूह का वर्गीकरण बड़ा महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में, व्यक्ति अपने जीवन के दौरान इसी सन्दर्भ में लोगों को देखता है तथा व्यवहार करता है। कुछ व्यक्ति और समूह उसके अपने लोग होते हैं और कुछ व्यक्ति और समूह उसके अपनों के दायरे से बाहर होते हैं, उसके लिए वे ही बाह्य समूह हैं।

अन्त:समूह और बाह्य समूह के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि समनर द्वारा समूहों का यह वर्गीकरण व्यक्तिनिष्ठ (Subjective Classification) है, क्योंकि यह व्यक्ति को दृष्टि में रखकर किया गया है। तद्नुरूप जो समूह एक व्यक्ति के लिए अन्त:समूह है; जैसे उसका अपना परिवार, वह किसी अन्य व्यक्ति के लिए बाह्य समूह होगा। इसी प्रकार उस अन्य व्यक्ति के लिए जो अन्त:समूह होगा वह उससे पहले व्यक्ति के लिए बाह्य समूह। उदाहरणार्थ-मेरा परिवार मेरे लिए अन्त:समूह है, किन्तु मेरे पड़ोसी के लिए बाह्य समूह। इसी प्रकार मेरे पड़ोसी का परिवार उसके लिए अन्त:समूह है, किन्तु मेरे लिए बाह्य समूह है।।

अन्तःसमूह और बाह्य समूह के बीच अन्तर

अन्त:समूह और बाह्य समूह की व्याख्या से ही दोनों के बीच अन्तर स्पष्ट हो जाता है। संक्षेप में उनके बीच अन्तर के बिन्दु निम्नलिखित हैं
1. अपनत्व की भावना में अन्तर-अन्त:समूह से व्यक्ति जुड़ा होता है, उसका सदस्य होता है। इसके सदस्य परस्पर ‘हम-भावना’ में बँधे होते हैं। दूसरी ओर, बाह्य समूह का न तो व्यक्ति सदस्य होता है और न ही उसके प्रति व्यक्ति के मन में अपनत्व की भावना होती है। वे उसके लिए ‘वे-लोग होते हैं।
2. एकता की आवश्यकता-अन्त:समूह के लिए आवश्यक है कि उसके सदस्यों के बीच एकता के सूत्र मजबूत हों। आन्तरिक एकता, शान्ति और सहयोग के अभाव में अन्त:समूह का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा, जब कि बाह्य समूह के प्रति व्यक्ति कामचलाऊ दृष्टिकोण रख सकता है।
3. अन्तर का आधार कोई भी होना सम्भव-जॉर्ज सिमेल का कहना है व्यक्ति के लिए समूहों को अन्त:समूह या बाह्य समूह में श्रेणीबद्ध करने का कोई भी ऐसा गुण हो सकता है जो बाहरी व्यक्तियों के लिए बिल्कुल ही अर्थहीन हो। प्रायः देखा गया है कि धर्म, आयु, जाति, बिरादरी, प्रजाति अन्त:समूह और बाह्य समूह के बीच विभेदीकरण के आधार बन जाते हैं। यही कारण है कि लोग विभिन्न राजनीतिक दल के सदस्य होते हैं या एक ही राजनीतिक दल में विभिन्न गुट बन जाते हैं। इस भाँति, अन्त:समूह और बाह्य समूह की अवधारणा समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसकी सहायता से सामाजिक जीवन के यथार्थ को समझना सुगम हो जाता है।

प्रश्न 3
सामाजिक समूह के प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
समाजशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न आधारों पर सामाजिक समूह के विभिन्न रूपों को समझाने का प्रयत्न किया है। प्रस्तुत विवेचन में हम सभी विद्वानों के वर्गीकरण की व्याख्या न करके कुछ प्रमुख वर्गीकरण की रूपरेखा को ही स्पष्ट करेंगे।

मैकाइवर एवं पेज द्वारा समूहों का वर्गीकरण

मैकाइवर एवं पेज ने सभी सामाजिक समूहों को तीन प्रमुख भागों और अनेक उपविभागों में प्रस्तुत किया है। इस वर्गीकरण की जटिलता और विस्तृत प्रकृति को ध्यान में रखते हुए हम मैकाइवर के वर्गीकरण को संक्षेप में निम्नलिखित चार्ट द्वारा समझ सकते हैं

सामाजिक संरचना में प्रमुख समूहों की योजना
UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 6 Social Group Primary and Secondary Groups 4
UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 6 Social Group Primary and Secondary Groups 5

मिलर द्वारा वर्गीकरण

मिलर ने सभी सामाजिक समूहों को उदग्र तथा समतल दो भागों में विभाजित किया है
1. उदग्र समूह-ये वे समूह हैं जो एक-दूसरे से कुछ दूरी प्रदर्शित करते हैं। यद्यपि उदग्र समूह सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था से सम्बन्धित हैं, लेकिन इनकी सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि ऐसे समूह अनेक खण्डों में विभाजित होते हैं और प्रत्येक खण्ड की स्थिति दूसरे की तुलना में उच्च अथवा निम्न है। उदाहरण के लिए, संयुक्त परिवार को एक उदग्र समूह कहा जा सकता है। इस समूह में सभी सदस्यों की सामाजिक स्थिति एक-दूसरे से भिन्न होती है और सभी व्यक्तियों को एक-दूसरे की स्थिति का ध्यान रखते हुए ही अपने कर्तव्यों को पूरा करना आवश्यक होता है।

2. समतल समूह-यह समूह इस अर्थ में समतल है कि इसके सभी सदस्यों की सामाजिक स्थिति लगभग समान होती है। सदस्यों के बीच न तो कोई ऊँच-नीच होती है और न ही उन्हें कम या अधिक अधिकार प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिए, श्रमिक-वर्ग अथवा लेखक-वर्ग समतल समूह हैं जिनके सभी सदस्य इस भावना से प्रभावित रहते हैं कि उन सबका स्तर लगभग एक समान है।

अन्तःसमूह और बाह्य समूह

समनर (Sumner) ने अपनी पुस्तक ‘Folkways’ में समूह के सदस्यों में घनिष्ठता तथा सामाजिक दूरी के आधार पर सभी समूहों को अन्त:समूह और बाह्य समूह जैसे दो प्रमुख भागों में विभाजित किया है। इन दोनों प्रकार के समूहों की प्रकृति को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है|

अन्तःसमूह-इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम समनर ने सन् 1907 में किया और इसके बाद लगभग सभी समाजशास्त्रियों ने किसी-न-किसी रूप में ऐसे समूहों का उल्लेख अवश्य किया है। मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि आरम्भिक समय से ही वह कुछ वस्तुओं अथवा व्यक्तियों को अच्छा समझने लगता है और उनकी तुलना में दूसरी वस्तुओं अथवा व्यक्तियों की अवहेलना करता है। वास्तव में, अन्त:समूह की धारणा व्यक्ति की इसी मनोवृत्ति से सम्बन्धित है।

बाह्य समूहबाह्य-समूह, अन्त:समूह से पूर्णतया विपरीत भावनाएँ प्रदर्शित करता है। जिस समूह को हम बाह्य समूह कहते हैं, उसके प्रति हमारी मनोवृत्ति कम सौजन्यपूर्ण और भेदभाव से युक्त होती है। हम कह सकते हैं कि जब बिना किसी विशेष कारण के ही हम कुछ व्यक्तियों से सामाजिक दूरी का अनुभव करते हैं और इसलिए उन्हें अपने से हीन मानकर उनकी अवहेलना करते हैं, तब ऐसे व्यक्तियों के समूह को ‘बाह्य समूह’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है।

प्राथमिक तथा द्वितीयक समूह

समूह के सभी वर्गीकरणों में चार्ल्स कूले द्वारा प्रस्तुत वर्गीकरण सबसे अधिक संक्षिप्त, वैज्ञानिक और मान्य है। अमेरिकन समाजशास्त्री चार्ल्स कूले (Charles Cooley) ने सन् 1909 में अपनी पुस्तक ‘Social Organisation’ में सर्वप्रथम ‘प्राथमिक समूह’ शब्द का प्रयोग किया। बाद में ऐसे समूहों से भिन्न विशेषताएँ प्रदर्शित करने वाले समूहों को द्वितीयक समूह’ कहा जाने लगा। यह वर्गीकरण समूह के आकार (size), महत्त्व और सदस्यों में पाये जाने वाले सम्बन्धों की प्रकृति के आधार पर प्रस्तुत किया गया है।

प्राथमिक समूह का अर्थ तथा उदाहरण-चार्ल्स कूले ने प्राथमिक समूहों को मानव स्वभाव की पोषिका’ (nursery of human nature) कहा है। कुले ने कुछ समूहों को प्राथमिक इसलिए कहा है क्योंकि महत्त्व के दृष्टिकोण से इनका स्थान प्रथम और प्रभाव प्राथमिक है। जब कभी भी कुछ व्यक्ति घनिष्ठता अथवा ‘हम की भावना से बँधकर अन्तक्रिया करते हैं तथा समूह के हित के सामने निजी स्वार्थों का बलिदान करने के लिए तैयार रहते हैं, तब ऐसे समूह को हम एक प्राथमिक समूह कहते हैं।

कूले ने आरम्भ में परिवार, क्रीड़ा-समूह और पड़ोस के लिए प्राथमिक समूह’ शब्द का प्रयोग किया था। जीवन के आरम्भिक काल में परिवार व्यक्ति के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई होती है, जिसे कूले ने प्राथमिक समूह का सबसे अच्छा उदाहरण माना है।

द्वितीयक समूह का अर्थ तथा उदाहरण-चार्ल्स कूले ने आरम्भ में द्वितीयक समूह’ जैसे किसी शब्द का उल्लेख नहीं किया था, लेकिन प्राथमिक समूह से विपरीत विशेषताएँ प्रदर्शित करने वाले समूहों को जब द्वितीयक समूह (Secondary group) के रूप में स्पष्ट किया जाने लगा, तब कूले ने भी इसे स्वीकार करते हुए कहा, “ये वे समूह हैं जिनमें घनिष्ठता, प्राथमिक तथा अर्द्धप्राथमिक (quasi-primary) विशेषताओं का पूर्ण अभाव रहता है। लगभग इसी प्रकार ऑगबर्न तथा निमकॉफ (Ogburm and Nimkoff) के अनुसार, “द्वितीयक समूह वे समूह हैं जो घनिष्ठता की कमी का अनुभव करते हैं।’ ऑगबर्न ने कहा है कि, “द्वितीयक समूहों का तात्पर्य व्यक्तियों के उन समूहों से है जो द्वितीयक सम्बन्धों द्वारा संगठित होते हैं। द्वितीयक सम्बन्धों का अर्थ ऐसे सामाजिक सम्बन्धों से है जो प्राथमिक नहीं हैं अथवा जो आकस्मिक और औपचारिक (formal) हैं।” द्वितीयक समूहों में घनिष्ठता का अभाव और औपचारिकता होने के कारण ही लैण्डिस (H. H. Landis) ने इन्हें ‘शीत जगत’ (cold world) के नाम से सम्बोधित किया है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
प्राथमिक समूहों को प्राथमिक क्यों कहा जाता है ?  इनके तीन उदाहरण दीजिए।
या
प्राथमिक समूह के दो उदाहरण दीजिए। [2015]
उत्तर:
कूले ने प्राथमिक समूहों को समय एवं महत्त्व की दृष्टि से प्राथमिक माना है। समय की दृष्टि से सर्वप्रथम बच्चा प्राथमिक समूहों; जैसे–परिवार, पड़ोस एवं मित्र-मण्डली के सम्पर्क में आता है। अन्य समूहों का सदस्य तो वह बाद में बनता है। चूंकि प्राथमिक समूह का व्यक्तित्व के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है, इसलिए महत्त्व की दृष्टि से भी ये प्राथमिक हैं। कूले लिखते हैं, “वैसे तो वे अनेक अर्थों में प्राथमिक हैं, किन्तु मुख्यतः इस कारण से कि वे व्यक्तियों की सामाजिक प्रकृति एवं आदर्शों के निर्माण में मौलिक हैं।” समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा प्राथमिक समूह ही बच्चे को सर्वप्रथम संस्कृति, प्रथाओं, रीति-रिवाजों, आदर्शो, मूल्यों आदि का ज्ञान कराते हैं और उसे सामाजिक आदर्शों के अनुरूप ढालने एवं आचरण करने में योग देते हैं। प्राथमिक समूह ही बच्चे में विभिन्न परिस्थितियों से अनुकूलन करने की क्षमता पैदा करते हैं जिससे कि वह अपने जीवन में आने वाली विभिन्न कठिनाइयों एवं संकटों का मुकाबला कर सके। प्राथमिक समूह ही व्यक्ति में आत्म-नियन्त्रण की भावना पैदा करते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्राथमिक समूह महत्त्व, समाजीकरण, व्यक्तित्व-निर्माण, सामाजिक नियन्त्रण, मौलिकता एवं प्राचीनता आदि की दृष्टि से प्राथमिक हैं। चार्ल्स कूले परिवार, क्रीड़ा-समूह और पड़ोस को प्राथमिक समूह मानते

प्रश्न 2
द्वितीयक समूह की उपयोगिता की विवेचना कीजिए। [2007, 11, 15]
उत्तर:
व्यक्तित्व के विकास और सामाजिक अनुकूलन के क्षेत्र में द्वितीयक समूहों के महत्त्व को अग्रलिखित रूप से समझा जा सकता है
1. विशेषीकरण को प्रोत्साहन-वर्तमान युग श्रम-विभाजन और विशेषीकरण को सबसे अधिक महत्त्व देता है। विशेषीकरण की योजना व्यक्ति को द्वितीयक समूहों से ही प्राप्त होती है, क्योंकि द्वितीयक समूहों की प्रकृति अपने आप में विशेषीकृत होती है। उदाहरण के लिए, एक प्राथमिक समूह अपने किसी सदस्य को एक कुशल नेता, डॉक्टर, प्रोफेसर अथवा अभिनेता नहीं बना सकता। व्यक्ति को ये स्थितियाँ केवल द्वितीयक समूह ही प्रदान कर सकते हैं।

2. सामाजिक परिवर्तन द्वारा प्रगति-द्वितीयक समूह व्यक्ति को भविष्य के प्रति आशावान बनाकर परिवर्तन को प्रोत्साहन देते हैं। वास्तविकता यह है कि हमारे समाज में आज यदि प्रथाओं, परम्पराओं, रूढ़ियों और अन्धविश्वासों का प्रभाव कुछ कम हो सका है तो इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि द्वितीयक समूहों ने हमें नये व्यवहारों को ग्रहण करने की प्रेरणा दी है।

3. जागरूकता में वृद्धि-द्वितीयक समूह परम्परा पर आधारित न होकर विवेक और तर्क को अधिक महत्त्व देते हैं। इस कारण इन समूहों में रहकर व्यक्ति का दृष्टिकोण अधिक तार्किक बन जाता है। आज द्वितीयक समूहों के प्रभाव से ही अनेक उपनिवेशवादी समाजों को अपनी दमनकारी नीति को छोड़ना पड़ा है। इसके अतिरिक्त, स्त्रियों की वर्तमान उन्नति और श्रमिक वर्ग को प्राप्त होने वाले अधिकार भी द्वितीयक समूहों के कारण ही सम्भव हो सके हैं।

4. आवश्यकताओं की पूर्ति-औद्योगीकरण के युग में व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति केवल द्वितीयक समूह में रहकर ही सम्भव है। वर्तमान युग में कार्य करना आवश्यक हो गया है। उदाहरण के लिए, शिक्षा प्राप्त करना, किसी कारखाने या कार्यालय में नौकरी करना, राजनीतिक संगठनों से सम्बन्ध बनाये रखना, अनेक कल्याण संगठनों में रहकर कार्य करना, स्थानीय अथवा राष्ट्रीय मामलों में रुचि लेना आदि व्यक्ति की प्रमुख आवश्यकताएँ हैं। इन सभी आवश्यकताओं को केवल द्वितीयक समूह ही पूरा करते हैं।

5. श्रम को प्रोत्साहन-द्वितीयक समूहों ने श्रम को सर्वोच्च मानवीय मूल्य के रूप में स्वीकार करके सामाजिक प्रगति में विशेष योगदान दिया है। द्वितीयक समूह व्यक्ति को श्रम का वास्तविक पुरस्कार देकर उसे अधिक-से-अधिक काम करने की प्रेरणा देते हैं। इससे व्यक्ति का जीवन कर्मठ बनता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
निश्चित संगठन वाले समूह से क्या अर्थ है ?
उत्तर:
निश्चित संगठन वाले समूह इस प्रकार के होते हैं जिनमें एक निश्चित संगठन पाया जाता है। तथा जिनके सदस्य अपने हितों के प्रति जागरूक होते हैं। मैकाइवर इन्हें भी दो भागों में बाँटते हैं

  • वे समूह जिनकी सदस्यता की सीमा निश्चित होती है; जैसे–परिवार, क्लब, पड़ोस, क्रीड़ा समूह आदि।
  • वे समूह जिनकी सदस्यता तुलनात्मक दृष्टि से असीमित होती है; जैसे—राज्य, चर्च, आर्थिक संगठन, श्रमिक संगठन आदि।

प्रश्न 2
अनिश्चित संगठन वाले समूह से क्या तात्पर्य है ? [2009, 10, 15, 16]
उत्तर:
अनिश्चित संगठन वाले समूह ऐसे होते हैं, जिनमें संगठन का अभाव पाया जाता है। तथा वे अस्थिर प्रकृति के होते हैं। वे किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए यकायक बन जाते एवं संगठित हो जाते हैं तथा उद्देश्य की पूर्ति के बाद तुरन्त समाप्त हो जाते हैं। इनके अन्तर्गत श्रोता-समूह एवं भीड़ आते हैं, जो शीघ्र ही संगठित, एकत्रित एवं तितर-बितर हो जाते हैं।

प्रश्न 3
सामाजिक समूह की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए। [2009, 10]
या
सामाजिक समूह की चार विशेषताएँ लिखिए। [2014, 15, 16]
उत्तर:
सामाजिक समूह की विशेषताएँ निम्नवत् हैं

  1. समूह-निर्माण के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों का होना आवश्यक है।
  2. समूह का निर्माण करने वाले लोगों के हित एवं रुचियाँ सामान्य होते हैं।
  3. समूह के सदस्यों के बीच सामाजिक सम्बन्ध पाये जाते हैं।
  4. प्रत्येक समूह के कुछ नियम होते हैं जिनके अनुसार सदस्यों के व्यवहारों को नियन्त्रित किया |

प्रश्न 4
बाह्य समूह की दो विशेषताएँ लिखिए। [2007, 08, 11]
उत्तर:
बाह्य समूह की दो विशेषताएँ निम्नवत् हैं

  1. बाह्य समूह के हम सदस्य नहीं होते हैं और उनके प्रति हम की भावना नहीं पायी जाती।
  2. बाह्य समूह के सदस्यों के प्रति विरोधी भावना पायी जाती है, उनके प्रति भय, सन्देह, घृणा आदि के भाव होते हैं।

प्रश्न 5
प्राथमिक समूह की चार विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2008, 11]
उत्तर:
प्राथमिक समूह की विशेषताएँ निम्नवत् हैं

  1. प्राथमिक समूह का आकार बहुत छोटा होता है।
  2. प्राथमिक समूह के सदस्यों के मध्य बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध होते हैं।
  3. ये समूह किसी विशेष हित या स्वार्थपूर्ति के लिए होते हैं।
  4. प्राथमिक समूहों में सामाजिक नियमों का ही पालन किया जाता है।

प्रश्न 6
बाह्य समूह की अवधारणा किसकी है? इसकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2007]
उत्तर:
बाह्य समूह की अवधारणा समनर नामक समाजशास्त्री ने दी है। समनर ने बाह्य समूह की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है

  1. व्यक्ति, बाह्य समूह; जैसे-शत्रु सेना, अन्य गाँव आदि को पराया समूह मानता है अर्थात्इ सके सदस्यों के प्रति अपनत्व की भावना का अभाव पाया जाता है।
  2. बाह्य समूह के प्रति द्वेष, घृणा, प्रतिस्पर्धा एवं पक्षपात के भाव पाए जाते हैं।
  3. बाह्य समूह के सदस्यों के प्रति घनिष्ठता नहीं पाई जाती है।
  4. बाह्य समूह के प्रति उदासीन अथवा निषेधात्मक दृष्टिकोण विकसित होता है।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
समूह-निर्माण के लिए कम-से-कम कितने व्यक्तियों (सदस्यों) का होना आवश्यक
उत्तर:
समूह-निर्माण के लिए कम-से-कम दो या दो से अधिक व्यक्तियों का होना आवश्यक

प्रश्न 2
“भीड़ को जिधर चाहें उधर भगाकर ले जाया जा सकता है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
यह कथन रस्किन का है।

प्रश्न 3
‘समूह मन के सिद्धान्त (Group-mind Theory) के प्रतिपादक कौन हैं ?
उत्तर:
समूह मन के सिद्धान्त’ (Group-mind Theory) के प्रतिपादक मैक्डूगल हैं।

प्रश्न 4
सन्दर्भ समूह की अवधारणा किस समाजशास्त्री से सम्बन्धित है ? [2011]
उत्तर:
सन्दर्भ समूह की अवधारणा रॉबर्ट के० मर्टन से सम्बन्धित है।

प्रश्न 5
क्षेत्रीय समूह की अवधारणा किस समाजशास्त्री से सम्बन्धित है ?
उत्तर:
क्षेत्रीय समूह की अवधारणा मैकाइवर से सम्बन्धित है।

प्रश्न 6
अन्तःसमूह किसे कहते हैं? इसके दो उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर:
जिस समूह के सदस्यों में हम’ की भावना पायी जाती है, उसे अन्त:समूह कहते हैं ‘परिवार’ एवं ‘कक्षा’ अन्त:समूह के उदाहरण हैं।

प्रश्न 7
बाह्य समूह किसे कहते हैं? इसके दो उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर:
जिस समूह के हम सदस्य नहीं होते और जिसके प्रति ‘हम’ की भावना नहीं पायी जाती, वह हमारे लिए बाह्य समूह होता है। राजनीतिक एवं श्रमिक संगठन इसके उदाहरण हैं।

प्रश्न 8
फोकवेज़ (Folkways) नामक पुस्तक के लेखक का नाम बताइए। [2007, 09]
उत्तर:
फोकवेज़’ नामक पुस्तक के लेखक अमेरिकी समाजशास्त्री समनर हैं।

प्रश्न 9
अन्तःसमूह तथा बाह्य समूह की अवधारणा किसने दी ? [2007, 11]
उत्तर:
अन्त:समूह तथा बाह्य समूह की अवधारणा समनर ने दी।

प्रश्न 10
प्राथमिक समूह की अवधारणा का उल्लेख करने वाले विद्वान का नाम बताइए। [2007, 08, 09, 10, 11, 12, 13, 16]
या
प्राथमिक समूह की अवधारणा किसने की है? [2016]
उत्तर:
प्राथमिक समूह की अवधारणा का उल्लेख करने वाले विद्वान् का नाम है-सी० एच० कूले। प्रश्न 11 किन्हीं चार प्राथमिक समूहों के नाम बताइए। उत्तर: चार प्राथमिक समूह हैं-परिवार, पड़ोस, मित्रमण्डली एवं क्रीडा समूह।

प्रश्न 12
प्राथमिक समूह के दो उदाहरण तथा दो लक्षण बताइए। [2007, 08]
या
प्राथमिक समूह के दो उदाहरण दीजिए। [2015, 16]
उत्तर:
परिवार एवं बच्चों के खेल समूह प्राथमिक समूह के उत्तम उदाहरण हैं। प्राथमिक समूह के दो मुख्य लक्षण हैं-भावनात्मक लगाव तथा निकट सहयोगी सम्बन्ध।

प्रश्न 13
द्वितीयक समूह के दो उदाहरण देते हुए उसके दो लक्षण भी बताइए। [2008, 12]
या
द्वितीयक समूह के दो उदाहरण दीजिए। [2012]
उत्तर:
द्वितीयक समूह के दो उदाहरण हैं-सेना तथा विश्वविद्यालय। प्रतियोगी सम्बन्ध तथा अन्त:क्रिया में घनिष्ठता का अभाव इसके लक्षण हैं।

प्रश्न 14
क्या छात्र-संघ द्वितीयक समूह है ? हाँ/नहीं में उत्तर: दीजिए। [2008, 16]
उत्तर:
हाँ।

प्रश्न 15
द्वितीयक समूह में किस प्रकार के सम्बन्धों की प्रधानता पायी जाती है ?
उत्तर:
द्वितीयक समूह में औपचारिक सम्बन्धों की प्रधानता पायी जाती है।

प्रश्न 16
किसने द्वितीयक समूह को प्राथमिक समूह के विपरीतार्थक समूह के रूप में परिभाषित किया? [2011]
उत्तर:
सी० एच० कूले ने।

प्रश्न 17
सामूहिक प्रतिनिधान की अवधारणा किसकी है? [2013]
उत्तर:
दुर्चीम महोदय की।।

प्रश्न 18
सकारात्मक एवं नकारात्मक समूह की अवधारणा किसने प्रतिपादित की थी ?
उत्तर:
सकारात्मक एवं नकारात्मक समूह की अवधारणा न्यू कॉम्ब ने प्रतिपादित की थी।

प्रश्न 19
किस विद्वान ने समूहों को ‘औपचारिक’ एवं ‘अनौपचारिक’ में वर्गीकृत किया है ?
उत्तर:
बोगास नामक विद्वान् ने समूहों को औपचारिक एवं ‘अनौपचारिक’ में वर्गीकृत किया है।

प्रश्न 20
द्वितीयक समूह की परिभाषा दो उपयुक्त उदाहरणों के साथ दीजिए। [2008, 12, 16]
या
द्वितीयक समूह के दो उदाहरण दीजिए। [2012]
उत्तर:
परिभाषा-वे समूह जो आकार में बड़े होते हैं, जिसके सदस्यों में घनिष्ठता का अभाव होता है, जिनमें अवैयक्तिक सम्बन्ध पाए जाते हैं तथा औपचारिक सम्बन्धों के कारण हम की भावना का प्रायः अभाव होता है, द्वितीयक समूह कहलाते हैं उदाहरण-महाविद्यालय, श्रमिक संघ, राष्ट्र, नगर व व्यावसायिक संघ आदि।

प्रश्न 21
समूहों के दो प्रकार क्या हैं? [2016]
उत्तर:

  • अन्तः समूह तथा
  • बाह्य समूह।

प्रश्न 22
सोशल रिसर्च पुस्तक के लेखक का नाम लिखिए। [2016]
उत्तर:
सोशल रिसर्च पुस्तक के लेखक का नाम जॉर्ज लुण्डबर्ग है।

प्रश्न 23
“समाज वहीं होता है जहाँ जीवन होता है।” यह कथन किसने कहा है? [2017]
उत्तर:
मैकाइवर ने।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
समूह के लिए आवश्यक है
(क) दो या दो से अधिक व्यक्तियों का होना।
(ख) दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच सामाजिक चेतना का होना
(ग) अधिक व्यक्तियों का एकत्र होना
(घ) व्यक्तियों के बीच संचारविहीनता का होना

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कौन-सा एक अस्थायी समूह नहीं है ?
(क) भीड़
(ख) परिवार
(ग) श्रोतागण
(घ) जनता

प्रश्न 3.
अन्तःसमूह तथा बाह्य समूह की अवधारणाएँ किस समाजशास्त्री से सम्बन्धित हैं? [2008]
या
बाह्य समूह की अवधारणा को किसने दिया ?
(क) चार्ल्स कूले ने
(ख) समनर ने
(ग) रॉबर्ट मर्टन ने
(घ) लुण्डबर्ग ने

प्रश्न 4.
निम्नलिखित पुस्तकों में से कूले की पुस्तक कौन-सी है?
(क) फोकवेज़ :
(ख) ए हैण्ड बुक ऑफ सोशियोलॉजी
(ग) सोशल ऑर्गेनाइजेशन
(घ) दे सोशल ऑर्डर

प्रश्न 5.
किस समूह का आकार अपेक्षाकृत छोटा है ? [2008]
(क) अन्तःसमूह
(ख) बाह्य समूह
(ग) भीड़
(घ) श्रोता समूह

प्रश्न 6.
प्राथमिक समूह में सदस्यों के सम्बन्ध होते हैं।
(क) भौतिक
(ख) नैतिक
(ग) वैयक्तिक
(घ) आर्थिक

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में से कौन-सी प्राथमिक समूह की विशेषता नहीं है ?
(क) अनिवार्य सदस्यता
(ख) बड़ा आकार
(ग) शारीरिक समीपता
(घ) आर्थिक स्थिरता

प्रश्न 8.
प्राथमिक समूह की अवधारणा किसने दी है ? [2007, 08, 16]
(क) एल०एफ० वार्ड।
(ख) सी०एच० कले
(ग) मैकाइवर व पेज
(घ) ऑगस्त कॉम्टे

प्रश्न 9.
सामाजिक सम्बन्धों के जाल को कहा गया है
(क) समुदाय
(ख) समिति
(ग) समूह
(घ) समाज

प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से कौन-सा प्राथमिक समूह है ? [2012, 14]
(क) व्यापार संघ
(ख) विद्यालय
(ग) पड़ोस
(घ) भीड़

प्रश्न 11.
प्राथमिक समूह की सही विशेषता बताइए [2012]
(क) बड़ा आकार
(ख) औपचारिक नियन्त्रण
(ग) सदस्यों की भिन्नता
(घ) समान उद्देश्य

प्रश्न 12.
आकार में कौन-सा समूह छोटा होता है ? [2012]
(क) प्राथमिक समूह
(ख) द्वितीयक समूह
(ग) क्षेत्रीय समूह
(घ) तृतीयक समूह

प्रश्न 13.
निम्नलिखित में कौन-सा प्राथमिक समूह है ?
(क) राजनीतिक दल
(ख) श्रमिक संघ
(ग) राष्ट्र
(घ) परिवार

प्रश्न 14.
निम्नलिखित में से कौन प्राथमिक समूह नहीं है ? [2007]
(क) परिवार
(ख) आमने-सामने के सम्बन्ध
(ग) राज्य
(घ) पड़ोस

प्रश्न 15.
निम्नलिखित में कौन-सी विशेषता प्राथमिक समूह की है ?
(क) शारीरिक समीपता
(ख) सदस्यों की अधिक संख्या
(ग) बाह्य नियन्त्रण की भावना
(घ) अल्प अवधि

प्रश्न 16.
सन्दर्भ समूह की अवधारणा किसने दी? [2011, 14, 15]
(क) पीटर बर्जर
(ख) आर० के० मर्टन
(ग) बोटोमोर
(घ) टायनबी

प्रश्न 17.
निम्नांकित में से प्राथमिक समूह कौन है? [2014]
(क) छात्र संघ
(ख) पड़ोस
(ग) सिनेमाघर
(घ) बाजार

प्रश्न 18.
निम्नलिखित में से कौन-सा द्वितीयक समूह है ?
(क) पड़ोस
(ख) नगर
(ग) क्लब
(घ) पति-पत्नी का समूह

प्रश्न 19.
द्वितीयक समूह के सदस्यों के पारस्परिक उत्तर:दायित्व की प्रकृति होती है
(क) स्थिर
(ख) सरल
(ग) जटिल
(घ) सीमित

प्रश्न 20.
निम्नलिखित में से कौन-सा द्वितीयक समूह है ?
(क) परिवार
(ख) क्रीडा समूह
(ग) राजनीतिक दल
(घ) पड़ोस

प्रश्न 21.
द्वितीयक समूह किससे सम्बन्धित है ?
या
द्वितीयक समूह को किसने प्रतिपादित किया? [2015]
(क) समनर से”
(ख) कूले से
(ग) ऑगबर्न से
(घ) पारसन्स से

प्रश्न 22.
द्वितीयक समूह की विशेषता है|
(क) सादृश्य हित
(ख) आमने-सामने का सम्बन्ध
(ग) सामान्य हित
(घ) भौतिक निकटता

प्रश्न 23.
निम्नलिखित में से कौन द्वितीयक समूह की विशेषता नहीं है ?
(क) अल्प अवधि
(ख) छोटा आकार
(ग) सदस्यों का सीमित ज्ञान
(घ) ‘मैं’ की भावना

प्रश्न 24.

निम्नलिखित में द्वितीयक समूह कौन-सा है ? [2013]
(क) परिवार
(ख) मित्रमण्डली
(ग) पड़ोस
(घ) इनमें से कोई नहीं

उत्तर:
1. (क) दो या दो से अधिक व्यक्तियों का होना, 2. (ख) परिवार, 3. (ख) समनर ने, 4. (ग) सोशल ऑर्गेनाइजेशन,
5. (क) अन्त:समूह, 6. (ग) वैयक्तिक, 7. (ख) बड़ा आकार, 8. (ख) सी०एच०कूले, 9. (ग) समूह, 10. (ग) पड़ोस,
11. (घ) समान उद्देश्य, 12. (क) प्राथमिक समूह, 13. (घ) परिवार, 14. (ग) राज्य, 15. (क) शारीरिक समीपता,
16. (ख) आर० के० मर्टन, 17. (ख) पड़ोस, 18. (ख) नगर, 19. (घ) सीमित, 20, (ग) राजनीतिक दल, 21. (ख) कूले से,
22. (क) सादृश्य हित, 23. (ख) छोटा आकार, 24. (घ) इनमें से कोई नहीं।

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UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 23 Means of Transport

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 23 Means of Transport (यातायात के साधने) are part of UP Board Solutions for Class 12 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 23 Means of Transport (यातायात के साधने).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography
Chapter Chapter 23
Chapter Name Means of Transport (यातायात के साधने)
Number of Questions Solved 30
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 23 Means of Transport (यातायात के साधने)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारत में सड़क मार्गों के प्रकार तथा मुख्य सड़क मार्गों का वर्णन करते हुए पंचवर्षीय योजनाओं में इनके विकास पर प्रकाश डालिए।
या
टिप्पणी लिखिए-भारत में सड़क-यातायात। [2010]
या
भारत में सड़क परिवहन के विकास का विवरण दीजिए। [2011, 13]
उत्तर
भारत में सड़क परिवहन – आदिकाल से ही भारत के परिवहन पथों में सड़कों का सर्वाधिक महत्त्व है। भारतीय सड़कों का जाल विश्व का सबसे बड़ा सड़क जाल है। यात्री एवं सामान, दोनों दृष्टियों से सड़क यातायात का कुल यातायात में प्रतिशत बहुत तीव्रता से बढ़ा है। सड़कें राष्ट्रीय जीवन की धमनियाँ हैं। प्रमुख वस्तुओं को लाने-ले जाने, निर्यातक वस्तुओं को पत्तनों तक पहुँचाने, आयात की गयी वस्तुओं को देश के आन्तरिक भागों में भेजने आदि ऐसे कार्य हैं जो सड़क मार्गों द्वारा ही सम्भव हो पाये हैं। सड़क परिवहन के प्रमुख गुण उसकी लचक, सेवा का व्यापक क्षेत्र, माल की सुरक्षा, समय की बचत और बहुमुखी एवं सस्ती सेवा को होना है।

सड़कों के प्रकार
Types of Roads

भारत में 41 लाख किमी से अधिक लम्बे सड़कमार्ग हैं जो विश्व के विशालतम सड़क जालों में से एक है। इनमें निम्नलिखित प्रकार के सड़क मार्ग सम्मिलित हैं –
(1) राष्ट्रीय राजमार्ग (National Highways) – ये मार्ग आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इन सड़कों द्वारा राज्य की राजधानियों, बड़े-बड़े औद्योगिक तथा व्यापारिक नगरों और पत्तनों को परस्पर मिला दिया गया है। सन् 1980 तक 4,269 किमी लम्बी सड़कें बनायी गयी थीं जो राष्ट्रीय राजमार्गों को परस्पर जोड़ती हैं। वर्ष 2001-2002 में इन मार्गों की लम्बाई 58,112 किमी हो गयी थी। देश को म्यांमार, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान और तिब्बत से भी ये सड़कें मिलाती हैं। इस प्रकार राष्ट्रीय राजमार्ग देश की कुल सड़कों का केवल 4% है। वर्ष 2011-12 के अनुसार इनकी कुल लम्बाई 70,934 किमी है तथा इन मार्गों पर देश का लगभग 40% सड़क परिवहन होता है। केन्द्र सरकार द्वारा 15 जून, 1989 ई० को राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण का गठन किया गया है।

(2) प्रान्तीय राजमार्ग (State Highways) – ये सड़कें राष्ट्रीय राजमार्गों अथवा निकटवर्ती राज्यों की सड़कों से जोड़ दी गयी हैं। इन सड़कों के निर्माण तथा उन्हें ठीक दशा में रख-रखाव का दायित्व राज्य सरकारों पर होता है। इनकी कुल लम्बाई 1,54,522 हजार किमी है।

(3) स्थानीय अथवा जिले की सड़कें (Local or District Roads) – ये सड़कें जिले के विभिन्न भागों को जोड़ती हैं। इनकी लम्बाई लगभग 4.68 लाख किमी है। इन सड़कों को राष्ट्रीय राजमार्गों, प्रान्तीय राजमार्गों तथा रेलमार्गों से भी जोड़ा गया है। इनके निर्माण एवं रख-रखाव का दायित्व जिला सार्वजनिक अथवा लोक निर्माण विभाग का होता है।

(4) गाँव की सड़कें (Village Roads) – विभिन्न ग्रामों को परस्पर मिलाने के साथ-साथ ये सड़कें अपने जिले तथा राजमार्गों से भी मिली हैं। ये ग्रामीण जीवन की गतिशीलता के लिए अति महत्त्वपूर्ण हैं। देश की लगभग 26.5 लाख किमी लम्बी ग्रामीण सड़कें हैं जो अधिकतर कच्ची हैं। इनका रख-रखाव एवं निर्माण जिला परिषदों एवं ग्राम पंचायतों द्वारा किया जाता है।

भारत के प्रमुख सड़क मार्ग
Major Road Routes of India

भारत के प्रमुख सड़क मार्ग निम्नलिखित हैं –

  1. ग्राण्ड ट्रंक रोड (Grand Trunk Highway) – भारत की यह सबसे प्रमुख एवं प्राचीन सड़क है, जो कोलकाता को अमृतसर से जोड़ती है। यह कोलकाता से आसनसोल, धनबाद, सासाराम, वाराणसी, इलाहाबाद, कानपुर, अलीगढ़, दिल्ली, करनाल, अम्बाला, लुधियाना, जालन्धर होती हुई अमृतसर तक चली गयी है। इसकी एक शाखा जालन्धर से श्रीनगर तक जाती है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पूर्व यह अमृतसर को पेशावर से जोड़ती थी।
  2. कोलकाता-चेन्नई राजमार्ग (Kolkata-Chennai Highway) – यह मार्ग कोलकाता से खड़गपुर, सम्बलपुर, विजयवाड़ा और गुण्टूर होते हुए चेन्नई तक गया है।
  3. मुम्बई-आगरा राजमार्ग (Mumbai-Agra Highway) – यह सड़क मार्ग मुम्बई से नासिक, धूलिया, इन्दौर और ग्वालियर होता हुआ आगरा तक जाता है।
  4. ग्रेट दक्कन रोड (Great Deccan Highway) – यह सड़क मार्ग मिर्जापुर से जबलपुर, नागपुर, हैदराबाद होते हुए बंगलुरु तक चला गया है। मिर्जापुर से एक छोटे सड़क मार्ग द्वारा इसे माधो सिंह के समीप ग्राण्ड ट्रंक रोड से मिला दिया गया है। इसे वाराणसी-कन्याकुमारी राजमार्ग भी कहते हैं।
  5. कोलकाता-मुम्बई राजमार्ग (Kolkata-Mumbai Highway) – यह राजमार्ग कोलकाता से खड़गपुर, सम्बलपुर, नागपुर, धूलिया, आमलनेर होते हुए मुम्बई-आगरा राजमार्ग से मिल जाता है।
  6. चेन्नई-मुम्बई राजमार्ग (Chennai-Mumbai Highway) – यह मार्ग मुम्बई से पूना, बेलगाम, बंगलुरु होते हुए चेन्नई तक गया है।
  7. पठानकोट-जम्मू राजमार्ग (Pathankot-Jammu Highway) – यह सड़क मार्ग पठानकोट से जम्मू तक जाता है। यहाँ से इसका सम्बन्ध श्रीनगर जाने वाली सड़क से है।
  8. गुवाहाटी-चेरापूँजी राजमार्ग (Guwahati-Cherrapunji Highway) – यह सड़क मार्ग गुवाहटी से शिलांग होते हुए चेरापूंजी तक गया है।
  9. दिल्ली-मुम्बई राजमार्ग (Delhi-Mumbai Highway) – यह मार्ग दिल्ली से जयपुर, अजमेर, उदयपुर, अहमदाबाद, सूरत होते हुए मुम्बई तक जाता है।
  10. लखनऊ-बरौनी राजमार्ग (Lucknow-Barauni Highway) – यह मार्ग लखनऊ से गोरखपुर, मुजफ्फरपुर होते हुए बरौनी तेक जाता है। इसकी एक शाखा मुजफ्फरपुर से नेपाल सीमा तक जाती है।
  11. दिल्ली-लखनऊ राजमार्ग (Delhi-Lucknow Highway) – यह मार्ग दिल्ली से गाजियाबाद, हापुड़, गढ़, गजरौला, मुरादाबाद, रामपुर, बरेली व हरदोई होते हुए लखनऊ तक गया है।

पंचवर्षीय योजनाओं में सड़क मार्गों का विकास
Development of Road Routes in Five Year Plans

पंचवर्षीय योजनाओं में सड़क मार्गों का विकास एवं उनके पुनर्निर्माण पर अधिक ध्यान दिया गया है। सन् 1991 में भारत में राष्ट्रीय राजमार्गों की लम्बाई 34,058 किमी थी। कुल-सड़कों की लम्बाई में राष्ट्रीय सड़कें 2% हैं। इनके द्वारा देश का 35% से 40% तक सड़क परिवहन होता है। इस समय पक्की संडंकों की लम्बाई 262,700 किमी से बढ़कर 6,23,402 किमी तक पहुँच गयी है। इससे स्पष्ट होता है कि राष्ट्रीय राजमार्गों के विकास को प्रमुखता दिया जाना अति आवश्यक हैं। इनके अतिरिक्त निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण सड़कों को भी प्राथमिकता देने का प्रावधान किया गया था –

  1. सामरिक महत्त्व की सड़कें,
  2. अन्तर्राज्यीय अथवा आर्थिक महत्त्व की सड़कें एवं
  3. सीमान्त क्षेत्रों में सड़क संचार की सुविधा।

देश में राज्यों की सडेकों के विकास के लिए न्यूनतम आवश्यकताकार्यक्रम स्वीकार किया गया है। जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क निर्माण का कार्यक्रम सम्मिलित है। इस परियोजना के अनुसार ऐसा ग्राम जिसकी जनसंख्या 1,500 या उससे अधिक है, राजमार्गों से जोड़े जाने का प्रावधान रखा गया है। देश के पिछड़े क्षेत्रों तथा पर्वतीय, जनजातीय, मरुस्थलीय एवं तटीय क्षेत्रों में, जहाँ बिखरी जनसंख्या निवास करती है, वहाँ एक समूह के रूप में सड़कों का विकास किया जाएगा। इस आधार पर 20,000 ग्रामों को जिला मुख्यालयों से मिलाने वाली सड़कों से जोड़ा जाएगा। इस विकास के लिए हैं 1164.90 करोड़ का प्रावधान रखा गया है।

नागपुर सड़क योजना (Nagpur Road Plan) – इस योजना के अन्तर्गत सन् 1943 में सड़कों के विकास की एक दीर्घकालीन योजना तैयार की गयी थी, जिसे ‘नागपुर सड़क योजना’ के नाम से पुकारा जाता है। आगामी 20 वर्षों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर कुछ लक्ष्य निर्धारित किये गये थे। संशोधित योजना के अनुसार 5.2 लाख किमी लम्बी सड़कें बनाने का निश्चय किया गया था।

बीस-वर्षीय सड़क विकास योजना (Twenty-Year Road Development Programme) – द्वितीय पंचवर्षीय योजना के अन्त में नागपुर सड़क योजना में निर्धारित लक्ष्यों की समीक्षा की गयी तथा पाया गया कि इन लक्ष्यों को प्राप्त करना कठिन होगा। अत: राज्य सरकारों की एक समिति ने सन् 1960 से एक 20 वर्षीय सड़क योजना निर्धारित की, जिसके अन्तर्गत राष्ट्रीय सड़कों में 132%, राज्य सड़कों में 100%, जनपद सड़कों में 80% एवं ग्राम सड़कों में 43% वृद्धि के लक्ष्य अपनाये गये। इस योजना में देश के चहुंमुखी विकास का ध्यान रखा गया है। इसमें दो प्राथमिकताएँ रखी गयी थी –

  • सभी प्रमुख सड़कों पर जहाँ-जहाँ पुल छूटे हैं, इन्हें तैयार किया जाए तथा सड़कों को डामर से पक्का किया जाए।
  • नगरों को निकटवर्ती ग्रामों से जोड़ने वाली सड़कों को न केवल चौड़ा बनाया जाए, बल्कि उन पर एक तरफा यातायात की सुविधा भी प्रदान की जाये।

सड़क विकास की इस दीर्घकालीन योजना के पूर्ण होने पर भारत के प्रति 100 वर्ग किमी क्षेत्रफल के पीछे 32 किमी लम्बी सड़क होगी। कोई भी केन्द्र समीपवर्ती राष्ट्रीय राजमार्ग से 60 से 96 किमी से अधिक दूरी पर नहीं होगा। इस योजना पर १ 5,200 करोड़ के व्यय का अनुमान किया गया था। इस योजना के कार्यान्वित हो जाने पर देश में 10,51,200 किमी लम्बी सड़कें हो जाएँगी, परन्तु इनका विकास हो जाने के उपरान्त भी जनसंख्या के अनुपात में सड़क परिवहन विकसित रूप में नहीं हो सकेगी।

प्रश्न 2
भारत की रेलों पर एक भौगोलिक निबन्ध लिखिए।
या
टिप्पणी लिखिए-भारत में रेल यातायात।
या
भारत में रेलमार्गों के विकास तथा महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
किसी देश के आर्थिक विकास में एक यातायात के साधनों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।
कृषि एवं औद्योगिक उत्पादन तथा व्यापार आदि यातायात साधनों के विकास से प्रत्यक्ष रूप से सम्बद्ध होते हैं। वास्तव में यातायात के साधन स्वयं उत्पादन की एक प्रक्रिया है, क्योंकि इसके द्वारा देश भर के उपभोक्ताओं को वस्तुओं एवं सेवाओं को भेजने के लिए परिवहन साधनों एवं मार्गों की आवश्यकता पड़ती है। मानव एक स्थान से दूसरे स्थान तक आवागमन के लिए इन्हीं साधनों का उपयोग करता है। भारत में यातायात साधनों में सड़कों, रेलों, आन्तरिक जलमार्गों एवं वायुमार्गों का महत्त्व अत्यधिक है। संलग्न तालिका इनके सापेक्षिक महत्त्व को प्रकट करती है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 23 Means of Transport 1

रेलमार्ग
Railways

देश के आन्तरिक परिवहन में रेलों का महत्त्व सर्वाधिक है। रेलों द्वारा प्रतिदिन बहुत-सा माल एवं यात्री ढोये जाते हैं। भारतीय रेलें (31 मार्च, 2013 ई० तक) 65,000 किमी की दूरी तय कर रही हैं। इस दृष्टिकोण से यह एशिया में प्रथम तथा विश्व में चौथे स्थान पर है। देश में रेलों द्वारा प्रतिदिन 14.5 लाख किमी दूरी तय की जाती है। रेलवे के पास 9,549 इंजन, 59,713 यात्री-डिब्बे, 4,827 अन्य सवारी के डिब्बे (कोच) तथा 2,39,281 माल डिब्बे (वैगन) है तथा 20,838 रेले हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के इस प्रतिष्ठान में र8,882.2 करोड़ की पूँजी लगी है। देश में 7,500 रेलवे स्टेशन हैं। वर्ष 2013 तक 23,541 किमी रेलमार्गों का विद्युतीकरण कर दिया गया है।

भारत में रेलमार्गों का विकास
Development of Railways in India

भारत में रेलमार्गों का विकास 19वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ है। पहला रेलमार्ग सन् 1853 में ग्रेट इण्डियन पेनिनसुला था जो थाणे से मुम्बई के मध्य 34 किमी लम्बाई में बनाया गया। दूसरा रेलमार्ग 1854 में ही कोलकाता से पंडुवा के मध्य 63 किमी लम्बाई में बनाया गया। सन् 1950-51 में देश में रेलमार्गों की लम्बाई 59,315 किमी थी जो सन् 2002 में बढ़कर 82,354 किमी हो गयी थी। अब बढ़कर 1,15,000 किमी है। अब इनमें 56% बड़ी लाईन, 37% छोटी लाइन तथा 7% सँकरी लाइन हैं। बड़ी लाइन की चौड़ाई 1,676 मीटर, छोटी लाइन की चौड़ाई 1 मीटर तथा सँकरी लाइन की चौड़ाई 0.762 मीटर होती है। इनमें से सँकरी लाइन को समाप्त किये जाने के प्रयास किये जा रहे हैं।

भारतीय रेलों की प्रशासनिक व्यवस्था – भारतीय रेलों का संचालन केन्द्र सरकार के आधिपत्य में है। सन् 1949 तक भारतीय रेल व्यवस्था के अन्तर्गत 9 सरकारी और 28 देशी रियासतों की रेलवे प्रणालियाँ थीं जबकि वर्तमान में भारत में 17 रेल-क्षेत्र हैं। आर्थिक एवं प्रशासनिक दृष्टिकोण से इन छोटे-बड़े रेलमार्गों को सन् 1950 में 8 भागों में बाँटा गया। सन् 1966 में एक क्षेत्र और बढ़ा दिया गया। भारतीय रेलवे का 1,15,000 किमी का एक विस्तृत नेटवर्क है। वर्तमान समय में देश के रेलमार्गों को 17 भागों में बाँटकर संचालित किया जा रहा है, जिनमें प्रमुख का विवरण निम्नलिखित है –

(1) उत्तर रेलवे (Northern Railway) – उत्तर रेलवे देश का सबसे बड़ा एवं महत्त्वपूर्ण रेल क्षेत्र है। यह 10.977 किमी लम्बा है। इसका प्रधान कार्यालय नई दिल्ली में है। यह रेलमार्ग सघन बसे एवं उपजाऊ क्षेत्रों से निकलने के कारण इस पर यात्रियों की भीड़ सर्वाधिक रहती है। पश्चिम में राजस्थान से लेकर पूर्व में मुगलसराय तक तथा उत्तर में जम्मू से लेकर दक्षिण में तुगलकाबाद तक इस रेलमार्ग का विस्तर है। इस प्रकार यह रेलमार्ग जम्मू एवं कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश राज्यों के अधिकांश भागों पर विस्तृत है। दिल्ली, आगरा, कानपुर, मेरठ, अमृतसर, पठानकोट, बीकानेर, जोधपुर, रिवाड़ी, जालन्धर, जम्मू, अम्बाला, लुधियाना, शिमला, चण्डीगढ़, हरिद्वार, बरेली, इलाहाबाद, लखनऊ, वाराणसी आदि इसी रेलमार्ग के सहारे स्थित प्रमुख रेलवे स्टेशन हैं।

(2) उत्तर-पूर्व रेलवे (North-East Railway) – यह एक मीटर गेज रेलमार्ग है, जिसकी लम्बाई 5,163 किमी है। इसका प्रधान कार्यालय गोरखपुर में है। यह रेलमार्ग हिमालय के पर्वतपदीय प्रदेश में स्थित नगरों को जोड़ने का कार्य करता है। गन्ना, चाय, जूट, तम्बाकू, चीनी, चमड़ा एवं चावल का व्यापार इसी रेलमार्ग द्वारा किया जाता है। गोरखपुर, बरेली, मथुरा, काठगोदाम, कासगंज, लखनऊ, गाजीपुर, कटिहार, सोनपुर, बरौनी आदि प्रमुख नगर इसी रेलमार्ग के सहारे स्थित प्रमुख रेलवे स्टेशन हैं। इस रेलमार्ग द्वारा उत्तर प्रदेश से असोम राज्य तक की यात्रा की जा सकती है। यह सम्पूर्ण रेलमार्ग कानपुर, लखनऊ एवं वाराणसी में उत्तरी रेलमार्ग से मिल जाता है।

(3) पूर्वोत्तर सीमान्त रेलवे (North-East Frontier Railway) – यह उत्तरी-पूर्वी रेलमार्ग को ही पूर्वी भाग है जो सामरिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसकी लम्बाई 3,763 किमी है। इसका प्रधान कार्यालय मालीगाँव (गुवाहाटी) में है। यह रेलमार्ग असोम एवं उसके पड़ोसी राज्य, पश्चिम बंगाल एवं बिहार राज्यों के कुछ भागों से होकर निकलता है। इसके द्वारा पेट्रोलियम, चाय, कोयला, लकड़ी, जूट, चावल आदि पदार्थ ढोये जाते हैं। यह मीटर गेज एवं नैरो गेज मिश्रित रेलमार्ग है। दार्जिलिंग, पूर्णिया, मनिहारी, जोरहाट, सिलचर, डिब्रूगढ़, गुवाहाटी आदि इस रेलमार्ग के सहारे स्थित प्रमुख नगर एवं रेलवे स्टेशन हैं।

(4) पूर्वी रेलवे (Eastern Railway) – यह रेलमार्ग मुगलसराय और हुगली के मध्य गंगा के निम्न मैदान में संचालित होता है। इसका प्रधान कार्यालय कोलकाता में है तथा इसकी लम्बाई 4,281 किमी है। यह रेलमार्ग पश्चिम में मुगलसराय से आरम्भ होकर पूर्व में बांग्लादेश की सीमा तक विस्तृत है। इस पर सबसे अधिक यात्री यात्रा करते हैं तथा सबसे अधिक माल ढोया जाता है। कोयला, लोहा, मैंगनीज, जूट, अभ्रक, सीमेण्ट, चावल, कागज, बॉक्साइट, सूती वस्त्र, रासायनिक उर्वरक आदि वस्तुओं का व्यापार इसी रेलमार्ग द्वारा किया जाता है। इस प्रदेश में कृषि एवं खनिज पदार्थों पर आधारित अनेक उद्योग-धन्धे विकसित हुए हैं।

(5) दक्षिण-पूर्वी रेलवे (South-Eastern Railway) – यह देश का तीसरा बड़ा रेलमार्ग है। इसका प्रधान कार्यालय कोलकाता में है। इस रेलमार्ग की लम्बाई 7,075 किमी है। यह पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार तथा मध्य प्रदेश राज्यों की सेवा करता है। इस रेलमार्ग द्वारा विशाखापट्टनम् तथा कोलकाता पत्तन जुड़े हैं। इस पर हीराकुड बहुउद्देशीय परियोजना, विशाखापट्टनम् में जलयान-निर्माण एवं तेल शोधनशाला तथा बर्नपुर, राउरकेला, आसनसोल, भिलाई और जमशेदपुर के इस्पात कारखाने स्थित हैं, क्योंकि इसके पृष्ठ प्रदेश में लौह-अयस्क, अभ्रक, कोयला, ताँबा, मैंगनीज, चूना, बॉक्साइट आदि खनिज पदार्थ पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं।

(6) पश्चिमी रेलवे (Western Railway) – यह देश का दूसरा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रेलमार्ग है। इसकी लम्बाई 10,293 किमी है। इसका प्रधान कार्यालय चर्चगेट (मुम्बई) में है। यह राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र एवं मध्य प्रदेश राज्यों से होकर गुजरता है। यहाँ बड़ी एवं मीटर गेज लाइन दोनों ही हैं। इस मार्ग के द्वारा कपास एवं सूती वस्त्र, खाद्यान्न, नमक, तिलहन, अभ्रक, खालें, ऊनी वस्त्र, ताँबा, पेट्रोलियम, सीमेण्ट, रासायनिक उर्वरक का व्यापार अधिक होता है। मुम्बई, अहमदाबाद, भड़ौंच, अजमेर, बड़ोदरा, आगरा, जयपुर, उदयपुर, रतलाम, फतेहपुर-सीकरी, उज्जैन आदि इसी रेलमार्ग के सहारे प्रमुख नगर एवं रेलवे स्टेशन विकसित हैं। द्वारका, सोमनाथ, अजमेर, नाथद्वारा, मथुरा, उज्जैन, ओंकारेश्वर आदि धार्मिक एवं पवित्र स्थान इसी रेलमार्ग के सहारे स्थित हैं जो तीर्थयात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।

(7) मध्य रेलवे (Central Railway) – यह रेलमार्ग मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र एवं आन्ध्र प्रदेश के पश्चिमी भाग तथा दक्षिणी उत्तर प्रदेश की सेवा करता है। इसकी लम्बाई 6,486 किमी है। इसका प्रधान कार्यालय विक्टोरिया टर्मिनस (मुम्बई) में है। केपास, मैंगनीज, ताँबा, लोहा, ऐलुमिनियम, सीमेण्ट, चूना-पत्थर, कोयला, सन्तरे, लकड़ी, पेट्रोल, रासायनिक उर्वरक इसी रेलमार्ग द्वारा ढोये जाते हैं। भुसावल, खण्डवा, इटारसी, भोपाल, झाँसी, ग्वालियर, आगरा, मथुरा, रायचूर, विजयवाड़ा, नागपुर, वर्धा, काजीपेट आदि इस रेलमार्ग के सहारे प्रमुख नगर एवं रेलवे स्टेशन विकसित हुए हैं।

(8) दक्षिणी रेलवे (Southern Railway) – इस रेलमार्ग में छोटी एवं बड़ी लाइन दोनों ही सम्मिलित हैं। इसका विस्तार केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक एवं दक्षिणी आन्ध्र प्रदेश राज्यों पर है। इस रेलमार्ग की लम्बाई 6,729 किमी है। इसका प्रधान कार्यालय चेन्नई में स्थित है। खाद्यान्न, कपास, नमक, तिलहन, चीनी, तम्बाकू, रबड़, गर्म मसाले, लकड़ी, खालें, चमड़ा, चाय, कहवा, मशीनें, ऐलुमिनियम, सीमेण्ट, सूती वस्त्र आदि इस मार्ग में ढोये जाने वाली प्रमुख वस्तुएँ हैं। इस रेलमार्ग के सहारे चेन्नई, कोयम्बटूर, मदुराई, कोचीन, बंगलुरू, त्रिवेन्द्रम, मंगलौर, रामेश्वरम् आदि महत्त्वपूर्ण नगर तथा रेलवे स्टेशन स्थित हैं।

भारतीय रेल-खण्ड
Railway Zones of India
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 23 Means of Transport 2
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 23 Means of Transport 3

अन्य भाग हैं – पूर्वी (मध्य (तटीय) रेलवे, उत्तर मध्य रेलवे, पूर्वी मध्य रेलवे, उत्तर-पश्चिम रेलवे, दक्षिण-पश्चिम रेलवे, पश्चिम मध्य रेलवे, दक्षिण-पूर्व-मध्य रेलवे हैं।

(9) दक्षिणी-मध्य रेलवे (South-Central Railway) – यह एक नवीन रेल क्षेत्र है। इसकी लम्बाई 7,138 किमी है तथा प्रधान कार्यालय सिकन्दराबाद में स्थित है। यह रेलमार्ग आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं गोआ राज्यों को मिलाता है। इस रेलमार्ग द्वारा पश्चिमी तट पर स्थित नगर, पूर्वी तट पर स्थित नगरों से जोड़े गये हैं। इस रेलमार्ग द्वारा तिलहन, चावल, तम्बाकू, कपास, चीनी, लौह-अयस्क, सूती वस्त्र आदि ढोये जाते हैं।

रेलों का महत्त्व
Importance of Trains

  1. रेल परिवहन लम्बी दूरी के लिए विशेषत: उपयुक्त है।
  2. रेलों द्वारा भारी माल का परिवहन सुगमता से होता है, जो सड़क परिवहन द्वारा सम्भव नहीं है।
  3. रेल परिवहन, सड़क परिवहन की अपेक्षा सस्ता होता है।
  4. सड़क परिवहन की अपेक्षा रेल परिवहन तथा यात्रा अधिक सुरक्षित है। रेल यात्रा में दुर्घटनाओं की सम्भावना कम रहती है।
  5. रेलों द्वारा देश के परस्पर दूरस्थ स्थान एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं, जिससे देश की एकता तथा अखण्डता सम्भव हो पाती है।
  6. देश के औद्योगीकरण में रेलों का बहुत महत्त्व है।
  7. पत्तनों के विकास एवं व्यापार में रेलों का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
  8. भारतीय रेल देश का सबसे बड़ा औद्योगिक प्रतिष्ठान है। इसमें भारी पूँजी लगी है तथा लाखों व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त होता है।

प्रश्न 3
भारतीय जल-यातायात पर प्रकाश डालिए। [2007]
उत्तर
जलमार्ग यातायात का सबसे पुराना, सुगम और सस्ता साधन है। लगभग 90% भारतीय विदेशी व्यापार जलमार्ग द्वारा किया जाता है। क्षेत्रीय विस्तार की दृष्टि से भारतीय जल-यातायात को दो भागों में विभाजित किया गया है – (1) आन्तरिक जलमार्ग तथा (2) समुद्री जलमार्ग।
(1) आन्तरिक जलमार्ग – भारत में नाव्य नदियों की लम्बाई केवल 5,200 किमी है, जिसमें 1,800 किमी जलमार्ग का वास्तविक रूप में उपयोग किया जाता है। प्रमुख जलमार्ग इस प्रकार हैं-गंगा, ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियाँ, गोदावरी, कृष्णा और इनकी सहायक नदियाँ, केरल की पश्चिमी तटीय नहरें तथा आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडु में बकिंघम नहर, ओडिशा में मन्दाकिनी में डेल्टा नहरें तथा गोआ में जौरी नहर। इस समय देश में नाव्य नहरों की कुल लम्बाई 4,300 किमी है जिसमें केवल 485 किमी लम्बी नहरों में आसानी से स्टीमर चलाये जा सकते हैं।

(2) समुद्री परिवहन – समुद्री जलमार्ग की दृष्टि से भारत की भौगोलिक स्थिति पूरी तरह अनुकूल है। भारत की जहाजरानी का स्थान विश्व में 17वाँ तथा एशिया में दूसरा है। भारतीय जलयान विश्व के सभी समुद्री मार्गों पर चलते हैं। 31 मार्च, 2003 को देश में 616 जलयान थे, जिनकाG.R.T.61.7 लाख टन था। 31 मार्च, 2003 तक देश में लगभग 140 जहाजी कम्पनियाँ थीं जिनमें से दो सार्वजनिक क्षेत्र में हैं। भारतीय जहाजरानी निगम देश की सबसे महत्त्वपूर्ण जहाजी इकाई है। मुगल लाइन्स हज यात्रियों के यातायात के लिए है। निजी क्षेत्र में ग्रेट इस्टर्न शिपिंग कम्पनी, एस्सार शिपिंग क०, चौगुले स्टीम शिप लि०, वरुण शिपिंग क० आदि महत्त्वपूर्ण हैं।
भारत के समुद्री मार्ग निम्नलिखित हैं –

  1. स्वेज नहर मार्ग – इस मार्ग द्वारा भारतीय जलयान लाल सागर, स्वेज नहर तथा भूमध्ये सागर होते हुए यूरोपीय देशों को जाते हैं।
  2. उत्तमाशा अन्तरीप मार्ग – इस मार्ग द्वारा भारतीय जलयान दक्षिणी तथा पश्चिमी अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका को चले जाते हैं।
  3. सिंगापुर मार्ग-इस मार्ग द्वारा भारतीय जलयान सिंगापुर होते हुए दक्षिणी-पूर्वी एशिया के देशों को जाते हैं।
  4. ऑस्ट्रेलिया मार्ग – इस मार्ग द्वारा भारतीय जलयान ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड की ओर जाते है।

तटीय जहाजरानी – देश के ही विभिन्न पत्तनों के बीच समुद्रतटीय व्यापार पूर्णतः भारतीय जलयानों द्वारा किया जाता है। अप्रैल, 2002 ई० में 98 जहाजी कम्पनियाँ तटीय व्यापार में संलग्न थीं।

जल-यातायात का महत्त्व
Importance of Water Transport

  1. सस्ता साधन – समुद्री परिवहन प्रकृति-प्रदत्त सुलभ एवं सस्ता साधन है। इसके निर्माण और रख-रखाव पर कोई खर्च नहीं करना पड़ता है। इसलिए रेलों व सड़कों की अपेक्षा जलमार्ग सस्ती यातायात सेवा प्रदान करते हैं।
  2. कम पोषण व्यय – एक अनुमान के अनुसार गंगा नदी का पोषण व्ययेर 350 प्रति किमी आता है, जबकि रेलमार्ग का पोषण व्यय 12 हजार से 17 हजार प्रति किमी और सड़क का 8 हजार से9 हजार प्रति किमी आता है।
  3. अधिक वाहन क्षमता – जलयान का भार खींचने की क्षमता भी अधिक होती है, क्योंकि जल परिवहन का घर्षण बहुत कम होता है।
  4. कुछ क्षेत्रों के लिए एकमात्र साधन – बर्फीले स्थानों, पहाड़ी ढालों और सघन वनों में जलमार्ग ही यातायात का एकमात्र साधन होता है।
  5. नवीन देशों की खोज – कोलम्बस और वास्कोडिगामा जैसे नाविकों ने जलमार्ग से यात्रा करके ही नये देशों और द्वीपों का पता लगाया था।
  6. थोक ढुलाई के लिए उपयुक्त – थोक माल की ढुलाई के लिए जल-यातायात सर्वाधिक सस्ता, सुविधाजनक और उपयुक्त साधन सिद्ध होता है।
  7. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण – भारत के आयात-निर्यात व्यापार का लगभग 92% भाग जलमार्ग से होता है।
  8. राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से महत्त्व – राष्ट्रीय प्रतिरक्षा की दृष्टि से भी जलमार्गों का बहुत अधिक महत्त्व है, क्योंकि पुलों को नष्ट करके शत्रु रेलमार्ग और सड़क-मार्ग को तो सरलता से सेवा के अयोग्य बना सकता है, परन्तु जलमार्गों में नदी, नहर और समुद्र का ऐसा विध्वंस सम्भव नहीं होता।

जल-यातायात की कठिनाइयाँ
Difficulties of Water Transport

  1. जलमार्ग में स्थल मार्ग की अपेक्षा जोखिम का अंश अधिक रहता है।
  2. मोटर वाहनों अथवा रेलगाड़ी की अपेक्षा जल-वाहन की चाल बहुत धीमी होती है।
  3. नदियाँ बहुत टेढ़ी-मेढ़ी होती हैं। कुछ नदियाँ तो अपना मार्ग बदल देती हैं। इससे धन, समय और शक्ति का दुरुपयोग होता है।
  4. जलमार्ग की सेवा केवल तट तक सीमित होने के कारण स्थल मार्ग की तुलना में अपूर्ण होती है। अतः इसकी सेवाएँ एक सीमित क्षेत्र को ही प्राप्त हो सकती हैं।
  5. अधिकांश ठण्डे प्रदेशों में जलमार्ग बर्फ से ढके रहते हैं। वर्षाकाल में नदियों में प्राय: बाढ़े आ जाती हैं तथा ग्रीष्मकाल में अनेक नदियाँ सूख जाती हैं, फलतः जलमार्गों का प्रयोग कम होता है।

प्रश्न 4
भारत में वायु-परिवहन का वर्णन कीजिए तथा प्रमुख वायुमार्गों पर प्रकाश डालिए। टिप्पणी लिखिए-भारत में वायु-यातायात।
उत्तर
भारत में वायु-परिवहन (Air-Transport in India) – आधुनिक परिवहन साधनों में वायु-परिवहन सबसे तीव्रगामी साधन है। भारत में भौगोलिक दूरियों की अधिकता तथा दक्षिणी–पूर्वी एशिया में पूर्व एवं पश्चिम के मध्य इसकी स्थिति केन्द्रीय स्थान रखती है। दुर्गम क्षेत्रों; जैसे–पर्वत, सघन वन एवं मरुस्थलीय क्षेत्रों में रेल एवं सड़क मार्गों का विकास करना असम्भव लगता है, परन्तु वायु-परिवहन द्वारा इन क्षेत्रों को सरलता से जोड़ा जा सकता है।

वायु-परिवहन का विकास – भारत में पहली हवाई उड़ान सन् 1911 में प्रारम्भ हुई। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद देश में वायु-परिवहने का वास्तविक विकास हुआ। सन् 1929-30 में ब्रिटेन, फ्रांस और डच देशों ने भारत में वायु-परिवहन को विकसित करने में सहायता प्रदान की। सन् 1934 में इण्डियन नेशनल एयरवेज कम्पनी बनायी गयी जिसके विमान कराँची एवं लाहौर के मध्य उड़ान भरते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सरकार ने इस परिवहन सेवा को अपने अधीन कर लिया था। स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व देश में 11 वायु कम्पनियाँ तथा 61 हवाई अड्डे थे जिनमें से 4 हवाई अड्डे अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व रखते थे।

स्वतन्त्रता -प्राप्ति के बाद सरकार ने वायु-परिवहन के विकास हेतु एक समिति का गठन किया, जिसके सुझाव पर सन् 1953 में वायु-परिवहन का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया तथा सभी विमान कम्पनियों को निम्नलिखित दो निगमों में सम्मिलित कर दिया गया –
(i) इण्डियन (इण्डियन एयर लाइन्स) – इसका प्रमुख कार्य देश के भीतरी भागों में वायु सेवाओं का संचालन करना है। इसे पड़ोसी देशों से भी वायु सेवा सम्पर्क का दायित्व सौंपा गया है।
(ii) एयर इण्डिया इण्टरनेशनल – इस निगम को लम्बी दूरी के अन्तर्राष्ट्रीय मार्गों पर वायु सेवाओं के संचालन का दायित्व सौंपा गया है।

1972 में अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों के विकास के लिए भारत में अन्तर्राष्ट्रीय वायु अड्डा प्राधिकरण (International Airport Authority of India) की स्थापना की गयी थी। इस प्राधिकरण का प्रमुख कार्य चार अन्तर्राष्ट्रीय वायु अड्डों-मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता तथा दिल्ली–के विकास एवं व्यवस्था को सुचारु बनाये रखना है। इन वायु अड्डों के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय एवं घरेलू उड़ानों के 40% भाग का उत्तरदायित्व वहन किया जाता है।

वायु-परिवहन को संचालित करने वाले निगम
Controlling Agencies of Air Transport

वायु-परिवहन का संचालन अग्रलिखित दो निगमों द्वारा किया जाता है –
(1) इण्डियन एयरलाइन्स निगम (Indian Airlines Corporation) – यह निगम देश के आन्तरिक भागों तथा समीपवर्ती देशों-पाकिस्तान, म्यांमार, नेपाल, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव एवं श्रीलंका के साथ वायुमार्गों की व्यवस्था करता है। सन् 1979 में इस निगम द्वारा 54.1 लाख यात्रियों को ले जाया गया तथा इसकी कार्यक्षमता 40.68 करोड़ टन हो गयी। इसके बेड़े में 11 एयर बसें (एक पट्टे पर), 27 B-737(2 पट्टे पर), 7 HS-748, 5 फोकर फ्रेण्डशिप F-27 विमान हैं, जो देश के प्रमुख केन्द्रों को 31,782 किमी लम्बे मार्गों पर जोड़ते हैं।
इस निगम का प्रधान कार्यालय नई दिल्ली में है। मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता एवं नई दिल्ली से इसकी सेवाएँ संचालित होती हैं।

(2) एयर इण्डिया निगम (Air India Corporation) – यह निगम विदेशों के लिए वायुमार्गों की व्यवस्था करता है। यह लगभग 50 देशों के साथ भारत का सम्बन्ध स्थापित करता है जो 37,790 किमी लम्बे वायुमार्ग हैं। इस निगम के अधिकार में कुल 55 विमान हैं जिनमें 9 बोइंग 707 और 27 बोइंग 737 (जम्बो जेट) विमान, 11 एयर बसें, 7 HS-748, F-27 सम्मिलित हैं। एयर इण्डिया ने खाड़ी युद्ध (1991) के दौरान अपने उड्डयन इतिहास में 1,07,822 भारतीयों को कुवैत से सुरक्षित भारत पहुँचाकर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है।

हवाई केन्द्र/उड्डयन केन्द्र
Air Centres

भारत में हवाई परिवहन का संचालन उपर्युक्त दोनों निगमों द्वारा किया जाता है। भारतीय नागरिक उड्डयन विभाग के अन्तर्गत 90 वायु अड्डे हैं। भारत का अन्तर्राष्ट्रीय हवाई प्राधिकरण देश के चार बड़े अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों का प्रबन्ध करता है, जब कि राष्ट्रीय हवाई अड्डा प्राधिकरण 86 देशीय हवाई अड्डों और रक्षा हवाई अड्डों पर असैनिक उड़ान पट्टियों का प्रबन्ध करता है। सन् 1992 में तिरुवनन्तपुरम् से अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानें आरम्भ कर दी गयी हैं तथा यह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का वायु पत्तन हो गया है। विमानों द्वारा उड़ान भरने अथवा उतरने की सुविधाओं को दृष्टिगत रखते हुए भारतीय वायु अड्डों को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है –
(1) अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे (International Airports) – भारत में अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व के पाँच अड्डे हैं—सहर (मुम्बई), दमदम (कोलकाता), मीनाम्बक्कम् (चेन्नई), इन्दिरा गांधी इण्टरनेशनल . (नई दिल्ली) तथा तिरुवनन्तपुरम् (केरल) को भी इसमें सम्मिलित कर लिया गया है।

(2) प्रधान हवाई अड्डे (Major Airports) – इसके अन्तर्गत 11 हवाई अड्डे हैं, जहाँ छोटे-बड़े वायुयान उतर-चढ़ सकते हैं। अगरतला, अहमदाबाद, बेगमपेट (हैदराबाद), सफदरजंग (दिल्ली), गुवाहाटी, चेन्नई, नागपुर, जयपुर, लखनऊ, पटना, वाराणसी एवं तिरुचिरापल्ली ऐसे ही हवाई अड्डे हैं।

(3) मध्यम श्रेणी के हवाई अड्डे (Intermediate Airports) – औरंगाबाद, बेहाना, बेलगाम, भावनगर, कुल्लू, भोपाल, भुवनेश्वर, भुज, जुहू (मुम्बई), कोयम्बटूर, गया, इन्दौर, जूनागढ़, खजुराहो, कोटा, कुम्भी ग्राम, मदुराई, मंगलौर, मोहनवाड़ी, मुजफ्फरपुर, नादिरगुल (हैदराबाद), उत्तरी लखीमपुर, पन्नागढ़, पन्तनगर, पोरबन्दर, पोर्ट ब्लेयर, रायपुर, राजकोट, राँची, तिरुपति, इम्फाल, उदयपुर, बड़ोदरा, विजयवाड़ा एवं विशाखापट्टनम् आदि वायु अड्डे इस प्रकार के हैं।

(4) लघु श्रेणी के हवाई अड्डे (Minor Airports) – इन हवाई अड्डों की संख्या 31 है। अकोला, बूलरघाट, बड़ापानी (असोम), बिलासपुर, चकुलिया (बिहार), कूचबिहार, कुडप्पा, दोनाकोण्डा, हसन, झाँसी, जबलपुर, कानपुर, खण्डवा, कोल्हापुर जोगबानी, ललितपुर, माल्दा, मैसूर, सतना, पालमपुर, राजमहेन्द्री, रामनाथपुरम्, सरसावा (सहारनपुर), शोलापुर, पन्ना, पासीघाट, रूपसी, वेलूर, वारंगल आदि स्थानों पर इस श्रेणी के वायु अड्डे स्थापित हैं।

(5) उड्यन क्लब एवं ग्लाइडिंग केन्द्र (Flying Clubs and Gliding Centres) – हमारे देश में 2.5% सहायता प्राप्त उड्डयन क्लब अर्थात् उड्डयन प्रशिक्षण केन्द्र हैं। इसके प्रमुख केन्द्र अमृतसर, वनस्थली, बंगलुरु, भुवनेश्वर, मुम्बई, कोलकाता, कोयम्बटूर, गुवाहाटी, हिसार, हैदराबाद, इन्दौर, जयपुर, जमशेदपुर, जालन्धर, करनाल, लखनऊ, लुधियाना, चेन्नई, नागपुर, नई दिल्ली, पटियाला, पटना, रायपुर, त्रिवेन्द्रम् एवं बड़ोदरा में स्थित हैं। पुणे में एक विभागीय ग्लाइडिंग केन्द्र है। इसके अतिरिक्त 14 सहायता प्राप्त ग्लाइडिंग क्लब हैं जो आगरा, अहमदाबाद, अमृतसर, देवलाली, हिसार, जयपुर, जालन्धर, कानपुर, लुधियाना, नई दिल्ली, पटियाला, पटना, पिलानी और रायपुर में स्थित हैं।

(6) वायुदूत – भारत में 105 स्थानों से वायुदूत सेवाएँ आरम्भ की गयी हैं। देश के उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र की वायु परिवहन माँग को पूरा करने के लिए जनवरी, 1981 से इस सेवा को आरम्भ किया गया है।

भारत के प्रमुख वायुमार्ग
Major Air Routes of India

भारत के वायुमार्गों को दो निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है –
(अ) अन्तर्देशीय वायुमार्ग (Internal Airways) – देश में वायु परिवहन का विकास बड़े-बड़े नगरों तक सीमित है। देश के अधिकांश पूर्वी एवं उत्तरी पर्वतीय राज्य में वायु सेवाओं का विस्तार बहुत ही कम है। देश के आन्तरिक वायुमार्ग निम्नलिखित हैं –

  1. दिल्ली-इलाहाबाद-वाराणसी-कोलकाता।
  2. दिल्ली-लखनऊ-पटना-कोलकाता।
  3. दिल्ली-चण्डीगढ़-जम्मू-श्रीनगर।
  4. दिल्ली -अमृतसर-जम्मू-श्रीनगर।
  5. दिल्ली-ग्वालियर-भोपाल-इन्दौर-मुम्बई।
  6. दिल्ली-जयपुर-उदयपुर-अहमदाबाद-मुम्बई।
  7. दिल्ली-काठमाण्डू-पटना-राँची-कोलकाता।
  8. मुम्बई-मंगलौर-चेन्नई।
  9. मुम्बई-बेलगाम।
  10. मुम्बई-दावोलिम (गोआ)।
  11. मुम्बई-मंगलौर।
  12. मुम्बई-पोरबन्दर।
  13. मुम्बई-भुज।
  14. मुम्बई-राजकोट।
  15. मुम्बई-हैदराबाद-विजयवाड़ा-विशाखापट्टनम्-कोलकाता।
  16. कोचीन-तिरुवनन्तपुरम्-मुम्बई।
  17. मुम्बई-नागपुर-कोलकाता।
  18. कोलकाता-पोर्टब्लेयर।
  19. कोलकाता-गुवाहाटी-तेजपुर-जोरहाट-लीलावाड़ी-मोहनवाड़ी।
  20. कोलकाता-अगरतला-खोवाई-कमालपुर-कैलाशहर।
  21. कोलकाता-अगरतला-गुवाहाटी।
  22. चेन्नई-हैदराबाद-दिल्ली।
  23. चेन्नई-बंगलुरु-कोयम्बटूर-कोचीन-तिरुवनन्तपुरम्।

(ब) अन्तर्राष्ट्रीय वायुमार्ग (International Airways) – एयर इण्डिया द्वारा भारत से विदेशों को विमान सेवाओं का संचालन किया जाता है। इस समय इस निगम द्वारा 44 देशों के साथ वायु-सेवा समझौते किये गये हैं। एयर इण्डिया के वायुयान निम्नलिखित वायुमार्गों पर संचालित होते हैं –

  1. मुम्बई-काहिरा-रोम-जेनेवा-पेरिस-लन्दन।
  2. दिल्ली-अमृतसर-काबुल-मॉस्को।
  3. कोलकाता-सिंगापुर-सिडनी-पर्थ।
  4. मुम्बई-काहिरा-रोम-डुसैलडर्फ-पेरिस-लन्दन-न्यूयॉर्क।

भारत से ब्रिटिश ओवरसीज कॉरपोरेशन, एयरसिलोन लि०, एयर फ्रांस KLM (रॉयल डच एयरलाइन्स), पान अमेरिकन वर्ल्ड एयरवेज, ट्रांसवर्ड एयरलाइन्स, क्वेटास एम्पायर एयरवेज, स्केण्डैनेवियन एयरवेज, मिडिल-ईस्ट एयरलाइन्स, ईस्ट अफ्रीकन . एयरवेज, एलीटैलिया, चेकोस्लोवाकिया एयरलाइन्स, जापान एयरलाइन्स के वायुयान विभिन्न वायु अड्डों से होकर गुजरते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
राष्ट्रीय राजमार्ग विकास परियोजना पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
यह एक महत्त्वपूर्ण सड़क विकास परियोजना है जिसमें मौजूदा दो लेन वाले राजमार्गों को चार लेनों, छः लेनों तक विस्तृत करना तथा लगभग 13,000 किमी की मौजूदा लेनों को मजबूत किया जाना सम्मिलित है। यह परियोजना विश्व में सबसे बड़ी एकल राजमार्ग परियोजनाओं में से एक है। इस परियोजना में 5,846 किमी का स्वर्ण चतुर्भुज (G.2.) जो दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई और कोलकाता महानगरों को जोड़ता है तथा 7,300 किमी लम्बा उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम गलियारा शामिल है जो श्रीनगर से कन्याकुमारी तथा सिलचर से पोरबन्दर को जोड़ता है। इस परियोजना का कार्यान्वयन भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI) द्वारा किया जा रहा है। इस परियोजना के प्रथम चरण में स्वर्ण चतुर्भुज जो दिसम्बर, 2000 ई० में शुरू हुआ था, 2004 ई० तक पूर्ण होने की आशा थी। इसके निर्माण के लिए विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक तथा जापान बैंक से ऋण प्राप्त किये गये हैं।

प्रश्न 2
भारत में मेट्रो रेल परिवहन प्रणाली के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर
भारत में मेट्रो रेल प्रणाली ( भूमिगत रेल सेवाएँ) अभी तक केवल कोलकाता में एसप्लेनेड से भवानीपुर तथा दमदम व बेलगछिया के मध्य विकसित है। दिल्ली में भी मेट्रो रेल प्रणाली केन्द्रीय सरकार तथा दिल्ली सरकार के संयुक्त उपक्रम में निर्माणाधीन हुई। परियोजना के प्रथम चरण में तीन मार्गों का समावेशन है जो 62.16 किमी लम्बा था। इस परियोजना से प्रतिदिन होने वाली यात्रियों की सवारी से सड़कों पर से दबाव घट गया है तथा सड़कों पर बसों की गति बढ़ गई है। प्रदूषण में भी भारी गिरावट आई है तथा दुर्घटनाएँ भी कम हुई हैं।

प्रश्न 3
भारत में रेल यातायात के विकास की समीक्षा कीजिए।
उत्तर
भारत में रेलों का विकास 19वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ है। सन् 1853 में ग्रेट इण्डियन पेनिनसुला रेलमार्ग बोरीबन्दर (मुम्बई) से थाणे के बीच 34 किमी लम्बा पहला रेलमार्ग बनाया गया। दूसरा रेलमार्ग सन् 1854 में कोलकाता और पंडुआ के बीच 63 किमी लम्बा बनाया गया। सन् 1970 में देश में रेलमार्गों की लम्बाई 6,840 किमी थी। यह सन् 1980 में बढ़कर 13,680 किमी थी जो सन् 1990 में बढ़कर 39,843 किमी हो गयी। वर्ष 2000-2001 में यह लम्बाई 82,354 किमी हो गयी थी वर्तमान में यह बढ़कर 1,15,000 किमी हो गया है। वर्तमान में रेलमार्गों में से 56% बड़ी लाइन,37% छोटी लाइन तथा 7% सँकरी लाइन हैं।

आर्थिक एवं प्रशासनिक दृष्टिकोण से इन छोटे-बड़े रेलमार्गों को 1950 ई० में 8 भागों में बाँटा गया। 1966 ई० में एक क्षेत्र और बढ़ा दिया गया। 14,856 किमी मार्ग का विद्युतीकरण हो चुका है जो कुल रेलमार्गों की लम्बाई का 18.8% है। इन रेलमार्गों पर 11,900 रेलगाड़ियाँ 7500 स्टेशनों पर प्रतिदिन आती-जाती हैं। इन रेलगाड़ियों द्वारा प्रतिदिन 14.5 लाख किमी की दूरी तय की जाती है। यात्री-गाड़ियों की दृष्टि से प्रतिदिन लगभग 12,617 यात्री-गाड़ियाँ चलती हैं तथा 41,530 लाख यात्री लगभग 62,300 किमी से भी अधिक दूरी की यात्रा करते हैं। वर्तमान समय में देश के रेलमार्गों को 17 भागों में बाँटकर संचालित किया जा रहा है।

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प्रश्न 4
भारत की अर्थव्यवस्था में रेल यातायात का महत्त्व बताइए।
उत्तर

  1. रेल परिवहन लम्बी दूरी के लिए विशेषत: उपयुक्त है।
  2. रेलों द्वारा भारी माल का परिवहन सुगमता से होता है, जो सड़क परिवहन द्वारा सम्भव नहीं है।
  3. रेल परिवहन, सड़क परिवहन की अपेक्षा सस्ता होता है।
  4. सड़क परिवहन की अपेक्षा रेल परिवहन तथा यात्रा अधिक सुरक्षित है। रेल यात्रा में दुर्घटनाओं की सम्भावना कम रहती है।
  5. रेलों द्वारा देश के परस्पर दूरस्थ स्थान एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं, जिससे देश की एकता तथा अखण्डता सम्भव हो पाती है।
  6. देश के औद्योगीकरण में रेलों का बहुत महत्त्व है।
  7. पत्तनों के विकास एवं व्यापार में रेलों का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
  8. भारतीय रेल देश का सबसे बड़ा औद्योगिक प्रतिष्ठान है। इसमें भारी पूँजी लगी है तथा लाखों व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त होता है।

प्रश्न 5
भारत में सड़क परिवहन के महत्त्व की विवेचना कीजिए। [2011, 16]
उत्तर
आदिकाल से ही भारत के परिवहन पथों में सड़कों का सर्वाधिक महत्त्व है। भारतीय सड़कों का जाले विश्व का सबसे बड़ा सड़क जाल है। यात्री एवं सामान, दोनों दृष्टियों से सड़क यातायात का कुल यातायात में प्रतिशत बहुत तीव्रता से बढ़ा है। सड़कें राष्ट्रीय जीवन की धमनियाँ हैं। प्रमुख वस्तुओं को लाने-ले जाने, निर्यातक वस्तुओं को पत्तनों तक पहुँचाने, आयात की गयी वस्तुओं को देश के आन्तरिक भागों में भेजने आदि ऐसे कार्य हैं जो सड़क मार्गों द्वारा ही सम्भव हो पाये हैं। सड़क परिवहन के प्रमुख गुण उसकी लचक, सेवा का व्यापक क्षेत्र, माल की सुरक्षा, समय की बचत और बहुमुखी एवं सस्ती सेवा का होना है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारत में यातायात के प्रमुख साधन बताइए।
उत्तर
भारत में यातायात के प्रमुख साधन निम्नलिखित हैं –

  1. सड़क यातायात
  2. रेल यातायात
  3. जल यातायात तथा
  4. वायु यातायात

प्रश्न 2
भारत में कुल कितने प्रकार के सड़क मार्ग पाये जाते हैं?
उत्तर
सन् 1943 की नागपुर सड़क योजना के अनुसार, भारतीय सड़कों का वर्गीकरण निम्नवत् है –

  1. राष्ट्रीय राजमार्ग
  2. प्रान्तीय राजमार्ग
  3. जिले की सड़कें तथा
  4. ग्रामीण सड़कें।

प्रश्न 3
अन्तर्राष्ट्रीय राजमार्ग से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
जहाँ दो या दो से अधिक पड़ोसी देशों के राजमार्ग परस्पर एक-दूसरे की राजधानियों या नगरों को जोड़ते हैं, ऐसे राजमार्ग अन्तर्राष्ट्रीय राजमार्ग कहलाते हैं; जैसे-मुख्य मार्ग भारत को पाकिस्तान में लाहौर से तथा म्यांमार में मांडले से जोड़ता है।

प्रश्न 4
देश में जल यातायात कितने प्रकार का है?
उत्तर
देश में जल यातायात को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

  1. आन्तरिक जल यातायात तथा
  2. सामुद्रिक जल यातायात।

प्रश्न 5
भारत में हवाई यातायात का राष्ट्रीयकरण कब हुआ?
उत्तर
भारत में हवाई यातायात का राष्ट्रीयकरण सन् 1953 में हुआ।

प्रश्न 6
भारत में अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व के हवाई अड्डों की कुल संख्या क्या है?
उत्तर
भारत में अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व के कुल 15 हवाई अड्डे हैं।

प्रश्न 7
भारत में निजी एयरलाइन्स की किन्हीं दो कम्पनियों के नाम लिखिए।
उत्तर
भारत में निजी एयरलाइन्स की दो कम्पनियाँ हैं-

  1. जेट एयर लाइन्स तथा
  2. किंग फिशर एयर लाइन्स।

प्रश्न 8
भारत में प्रथम रेलमार्ग कब बनाया गया?
उत्तर
भारत में प्रथम रेलमार्ग सन् 1853 में मुम्बई-थाणे के मध्य बनाया गया।

प्रश्न 9
राष्ट्रीय राजमार्गों की लम्बाई लगभग कितनी है?
उत्तर
52,000 किमी।

प्रश्न 10
राष्ट्रीय राजमार्गों को जोड़ने वाला मार्ग क्या कहलाता है?
उत्तर
राष्ट्रीय राजमार्ग विकास परियोजना के अन्तर्गत देश के चार महानगरों (दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, मुम्बई) को जोड़ने वाला सड़क मार्ग ‘स्वर्ण चतुर्भुज’ कहलाता है, जो 5,846 किमी लम्बा है।

प्रश्न 11
भारत में इस समय कौन-सी पंचवर्षीय योजना चल रही है?
उत्तर
भारत में इस समय बारहवीं पंचवर्षीय योजना चल रही है। इसकी कार्य-अवधि2012-2017 है।

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प्रश्न 12
भारत में आन्तरिक जल परिवहन के विकास में बाधक दो भौगोलिक कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. वर्षाकाल में नदियाँ बाढ़ग्रस्त हो जाती हैं तथा शुष्क ऋतु में सूख जाती हैं।
  2. दक्षिण भारत की नदियाँ, विषम पठारी धरातल पर बहने के कारण प्रपाती हैं; अत: नौगम्य नहीं हैं।

प्रश्न 13
भारत में सड़क यातायात के दो महत्व बताइए।
उत्तर

  1. देश के दूरस्थ तथा दुर्गम क्षेत्र भी सड़कों द्वारा जुड़े हैं।
  2. सड़क परिवहन लघु दूरी के लिए शीघ्रतम तथा सस्ता साधन है।

प्रश्न 14
भारतीय अर्थव्यवस्था में वायु-यातायात के दो महत्त्व (लाभ) बताइए। [2016]
उत्तर

  1. भारतीय निर्यातकों की सहायता करने और उनके निर्यात को अधिक प्रतिस्पर्धात्मक बनाने के लिए सरकार ने ‘ओपने स्काई पॉलिसी’ अर्थात् मुक्त आकाश नीति’ की घोषणा की है।
  2. वायु-यातायात पर्यटन को बढ़ावा देता है। पर्यटन रोजगार के अवसर पैदा करने तथा निर्धनता को दूर करने में सहायक सिद्ध हुआ है।

प्रश्न 15
पंजाब की प्रमुख यातायात नहर कौन-सी है?
उत्तर
पंजाब की प्रमुख यातायात नहर सरहिन्द नहर है, जिसमें हिमालय पर्वत की लकड़ियाँ बहाकर लायी जाती हैं।

प्रश्न 16
उत्तमाशा अन्तरीप भारत को किससे मिलाता है?
उत्तर
उत्तमाशा अन्तरीप भारत को दक्षिण अफ्रीका और पश्चिमी अफ्रीका से मिलाता है।

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प्रश्न 17
सिंगापुर जलमार्ग भारत को किससे जोड़ता है?
उत्तर
सिंगापुर जलमार्ग भारत को चीन और जापान से जोड़ता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1
आगरा-ग्वालियर-हैदराबाद-बंगलुरु से धनुषकोटि तक का मार्ग है –
(क) राष्ट्रीय राजमार्ग
(ख) अन्तर्राष्ट्रीय राजमार्ग
(ग) (क) और (ख) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ख) अन्तर्राष्ट्रीय राजमार्ग।

प्रश्न 2
भारत के शिरोभाग को तल भाग से जोड़ने वाली भारतीय रेल है –
(क) नालाचल एक्सप्रेस
(ख) शताब्दी एक्सप्रेस
(ग) जम्मू तवी एक्सप्रेस
(घ) छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस
उत्तर
(ग) जम्मू-तवी एक्सप्रेस।

प्रश्न 3
अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व का दमदम हवाई अड्डा स्थित है –
(क) मुम्बई में
(ख) नई दिल्ली में
(ग) गुजरात में
(घ) कोलकाता में
उत्तर
(घ) कोलकाता में।

प्रश्न 4
निम्नलिखित में से कौन-सा जोड़ा सही नहीं है? (2009)
(क) मिजोरम – इटानगर
(ख) मणिपुर – इम्फाल
(ग) मेघालय – शिलांग
(घ) नागालैण्ड – कोहिमा
उत्तर
(क) मिजोरम – इटानगर।

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