UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 2 सत्य की जीत

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 2
Chapter Name सत्य की जीत (द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी)
Number of Questions 9
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 2 सत्य की जीत (द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी)

प्रश्न 1:
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य का कथानक (कथावस्तु) संक्षेप में लिखिए।
या
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में वर्णित अत्यधिक मार्मिक प्रसंग का निरूपण कीजिए।
या
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य के आधार पर द्रौपदी और दुःशासन के वार्तालाप को अपने शब्दों में लिखिए।
या
‘सत्य की जीत’ में धृतराष्ट्र ने लोकमंगल की जिस नीति की उदघोषणा की है, उसका सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
या
‘सत्य की जीत’ के आधार पर दुःशासन एवं विकर्ण के शस्त्र एवं शास्त्र सम्बन्धी विचारों की सम्यक विवेचना कीजिए।
या
“शस्त्र को सर्वस्व मानना विनाश का मूल है।” यह बात ‘सत्य की जीत’ में किस प्रकार अभिव्यक्त की गयी है ?
या
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य की प्रमुख घटनाओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
प्रस्तुत खण्डकाव्य की कथा द्रौपदी के चीर-हरण से सम्बद्ध है। यह कथानक महाभारत के सभापर्व में द्यूतक्रीड़ा की घटना पर आधारित है। यह एक अत्यन्त लघुकाव्य है, जिसमें कवि ने पुरातन आख्यान को वर्तमान सन्दर्भो में प्रस्तुत किया है। इसकी कथा संक्षेप में अग्रवत् है–

दुर्योधन पाण्डवों को द्यूतक्रीड़ा के लिए आमन्त्रित करता है। पाण्डव उसके निमन्त्रण को स्वीकार कर लेते हैं। युधिष्ठिर जुए में निरन्तर हारते रहते हैं और अन्त में अपना सर्वस्व हारने के पश्चात् द्रौपदी को भी हार जाते हैं। इस पर कौरव भरी सभा में द्रौपदी को वस्त्रहीन करके अपमानित करना चाहते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए। दुर्योधन दु:शासन को आदेश देता है कि वह बलपूर्वक द्रौपदी को भरी सभा में लाये। दु:शासन राजमहल से द्रौपदी के केश खींचते हुए सभा में लाता है। द्रौपदी को यह अपमान असह्य हो जाता है। वह सिंहनी के संमान गरजती हुई दुःशासन को ललकारती है। द्रौपदी की गर्जना से पूरा राजमहल हिल जाता है और समस्त सभासद स्तब्ध रह जाते हैं-

ध्वंस विध्वंस प्रलय का दृश्य, भयंकर भीषण हा-हाकार।
मचाने आयी हूँ रे आज, खोल दे राजमहल का द्वार ॥

इसके पश्चात् द्रौपदी और दु:शासन में नारी पर पुरुष द्वारा किये गये अत्याचार, नारी और पुरुष की सामाजिक समानता और उनके अधिकार, उनकी शक्ति, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, शस्त्र और शास्त्र, न्याय-अन्याय आदि विषयों पर वाद-विवाद होता है। अहंकारी दु:शासन भी क्रोध में आ जाता है। ‘भरी सभा में युधिष्ठिर अपना सर्वस्व हार चुके हैं तो मुझे दाँव पर लगाने का उन्हें क्या अधिकार रह गया है ? द्रौपदी के इस तर्क से सभी सभासद प्रभावित होते हैं। वह युधिष्ठिर की सरलता और दुर्योधन आदि कौरवों की कुटिलता का भी रहस्य प्रकट करती है। वह कहती है कि सरल हृदय युधिष्ठिर कौरवों की कुटिल चालों में आकर छले गये हैं; अतः सभा में उपस्थित धर्मज्ञ यह निर्णय दें कि क्या वे अधर्म और कपट की विजय को स्वीकार करते हैं अथवा सत्य और धर्म की हार को अस्वीकार करते हैं ?

कहता है कि यदि शास्त्र-बल से शस्त्र-बल ऊँचा और महत्त्वपूर्ण हो जाएगा तो मानवता का विकास अवरुद्ध . हो जाएगा; क्योंकि शस्त्र-बल मानवता को पशुता में बदल देता है। वह इस बात पर बल देता है कि द्रौपदी द्वारा प्रस्तुते तर्क पर धर्मपूर्वक और न्यायसंगत निर्णय होना चाहिए। वह कहता है कि द्रौपदी किसी प्रकार भी कौरवों द्वारा जीती हुई नहीं है।

किन्तु कौरव ‘विकर्ण की बात को स्वीकार नहीं करते। हारे हुए युधिष्ठिर अपने उत्तरीय वस्त्र उतार देते हैं। दुःशासन द्रौपदी के वस्त्र खींचने के लिए हाथ बढ़ाता है। उसके इस कुकर्म पर द्रौपदी अपने सम्पूर्ण आत्मबल के साथ सत्य का सहारा लेकर उसे ललकारती है और वस्त्र खींचने की चुनौती देती है। वह कहती है कि मैं किसी प्रकार भी विजित नहीं हैं और उसके प्राण रहते उसे कोई भी निर्वस्त्र नहीं कर सकता। यह सुनकर मदान्ध दु:शासन द्रौपदी का चीर खींचने के लिए पुन: हाथ बढ़ाता है। द्रौपदी रौद्र रूप धारण कर लेती है। उसके दुर्गा-जैसे तेजोद्दीप्त भयंकर रौद्र-रूप को देख दुःशासन घबरा जाता है और उसके वस्त्र खींचने में स्वयं को असमर्थ पाता है।

द्रौपदी कौरवों को पुनः चीर-हरण करने के लिए ललकारती है। सभी सभासद द्रौपदी के सत्य, तेज और सतीत्व के आगे निस्तेज हो जाते हैं। वे सभी कौरवों की निन्दा तथा द्रौपदी के सत्य और न्यायपूर्ण पक्ष का समर्थन करते हैं। मेदान्ध दुर्योधन, दु:शासन, कर्ण आदि को द्रौपदी पुन: ललकारती हुई कहती है-

और तुमने देखा यह स्वयं, कि होते जिधर सत्य और न्याय ।
जीत होती उनकी ही सदा, समय चाहे कितना लग जाय ॥

वहाँ उपस्थित सभी सभासद कौरवों की निन्दा करते हैं; क्योंकि वे सभी यह अनुभव करते हैं कि यदि पाण्डवों के प्रति होते हुए इस अन्याय को आज रोका नहीं गया तो इसका परिणाम बहुत बुरा होगा।

अन्त में धृतराष्ट्र उठते हैं और पाण्डवों को मुक्त करने तथा उनका राज्य लौटाने के लिए दुर्योधन को आदेश देते। हैं। इसके साथ ही चे द्रौपदी का पक्ष लेते हुए उसका समर्थन करते हैं तथा सत्य, न्याय, धर्म की प्रतिष्ठा तथा संसार का कल्याण करना ही मानवं-जीवन का उद्देश्य बताते हैं। वे पाण्डवों की कल्याण-कामना करते हुए कहते हैं-

तुम्हारे साथ तुम्हारी सत्य, शक्ति श्रद्धा, सेवा औ’ कर्म ।
यही जीवन के शाश्वत मूल्य, इन्हीं पर टिका मनुज का धर्म ॥
इन्हीं को लेकर दृढ़ अवलम्ब, चल रहे हो तुम पथ पर अभय ।
तुम्हारा गौरवपूर्ण भविष्य, प्राप्त होगी पग-पग पर विजय ॥

धृतराष्ट्र द्रौपदी के विचारों को उचित ठहराते हैं। वे उसके प्रति किये गये दुर्व्यवहार के लिए उससे क्षमा माँगते हैं। तथा कहते हैं-

जहाँ है सत्य, जहाँ है धर्म, जहाँ है न्याय, वहाँ है जीत।
तुम्हारे यश-गौरव के दिग्-दिगन्त में गूंजेंगे स्वर, गीत ॥

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इस खण्डकाव्य की कथा द्रौपदी के चीरहरण की अत्यन्त संक्षिप्त किन्तु मार्मिक घटना पर आधारित है। द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी ने इस कथा को अत्यधिक प्रभावी बनाया है और युग के अनुकूल बनाकर नारी के सम्मान की रक्षा करने के संकल्प को दुहराया है।

प्रश्न 2:
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
या
‘सत्य की जीत’ की कथावस्तु की समीक्षा कीजिए।
या
“वस्तु-सौष्ठव एवं संगठन की दृष्टि से ‘सत्य की जीत’ एक सफल खण्डकाव्य है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
या
खण्डकाव्य की दृष्टि से ‘सत्य की जीत’ काव्य की समीक्षा (आलोचना) कीजिए।
या
“सत्य की जीत’ खण्डकाव्य के रचना-कौशल पर प्रकाश डालिए।
या
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य की पात्र-योजना अथवा पात्रों की प्रतीकात्मकता पर अपनी दृष्टि डालिए।
उत्तर:
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य कथा-संगठन एवं उसके रचना-शिल्प के अनुसार निम्नलिखित विशेषताओं से युक्त है

(1) प्रसिद्ध पौराणिक घटना पर आधारित – ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य की कथावस्तु द्रौपदी के चीर-हरण’ की पौराणिक घटना पर आधारित है। महाभारत में वर्णित यह मार्मिक प्रसंग सभी युगों में विद्वानों द्वारा विवाद एवं निन्दात्मक समस्या का विषय बना रहा है। तत्कालीन युग में विदुर ने नारी के इस अपमान को भीषण विनाश का पूर्व संकेत माना था और अधिकांश समालोचकों के अनुसार महाभारत के युद्ध का कारण भी प्रमुख रूप से यही था। पाण्डवों को तत्कालीन समाज का भावनात्मक समर्थन भी इसी कारण मिला था। कवि ने इसी मार्मिक घटना को अपने खण्डकाव्य की कथावस्तु बनाया है।

(2) कथावस्तु का संगठन – ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में कवि ने संवादों के माध्यम से कथा का संगठन किया है। प्रसंग लघु होने के कारण संवाद-सूत्र में व्यक्त की गयी इस कथा का संगठन अत्यन्त उत्तम कोटि का है। कवि ने वातावरण, मनोवेग, आक्रोश आदि की अभिव्यक्ति जिन संवादों द्वारा की है, वह अपनी व्यंजना में पूर्णतया सफल रहे हैं। कथावस्तु में केवल राजसभा का एक दृश्य सामने आता है, किन्तु नाटकीय आरम्भ एवं कौतूहलपूर्ण मोड़ों से गुजरती हुई कथावस्तु स्वाभाविक रूप में तथा त्वरित गति से अपनी सीमा की ओर बढ़ी

(3) कथावस्तु की लघुता में विशालता – ‘सत्य की जीत’ का कथा-प्रसंग अत्यन्त लघु है। कवि ने द्रौपदी के चीर-हरण के प्रसंग पर अपने खण्डकाव्य की कथावस्तु-योजना तैयार की है। इस एक घटना को लेकर कवि ने प्रस्तुत खण्डकाव्य में विशद वस्तु-योजना की है, जिसमें महाभारत काल के साथ-साथ वर्तमान युग के समाज की विसंगतियों के प्रति आक्रोश की उद्घोषणा हुई है ।

पुरुष के पौरुष से ही सिर्फ, बनेगी धरा नहीं यह स्वर्ग।
चाहिए नारी का नारीत्व, तभी होगा पूरा.यह सर्ग।

(4) मौलिकता – यद्यपि ‘सत्य की जीत की कथा महाभारत की चीर-हरण घटना पर आधारित है, किन्तु कवि ने उसके प्रस्तुतीकरण में वर्तमान नारी की दशा को प्रस्तुत किया है और कुछ मौलिक परिवर्तन भी किये हैं। वे द्रौपदी के वस्त्र को श्रीकृष्ण द्वारा बढ़ाया जाता हुआ नहीं दिखाते, वरन् स्वयं द्रौपदी को ही अपने आत्मबल के प्रयोग के द्वारा दुःशासन को रोकते हुए दिखाते हैं। माहेश्वरी जी ने इस प्रसंग को स्वाभाविक एवं बुद्धिगम्य बना दिया है।

(5) देशकाल एवं वातावरण – इस खण्डकाव्य में महाभारतकालीन देशकाल एवं वातावरण का अनुभव अत्यन्त कुशलता से कराया गया है। दृश्य तो एक ही है, किन्तु पात्रों के संवाद एवं उनकी छवि के अंकन से इस देशकाल एवं वातावरण का पूर्ण स्वरूप सामने आ जाता है।

(6) नाटकीयती अथवा संवाद-योजना – ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में कवि ने कथोपकथनों के द्वारा कथा को प्रस्तुत किया है। इसके संवाद सशक्त, पात्रानुकूल तथा कथा-सूत्र को आगे बढ़ाने वाले हैं। कवि के इस प्रयास से काव्य में नाटकीयता का समावेश हो गया है, जिस कारण ‘सत्य की जीत काव्य अधिक आकर्षक बन गया है। द्रौपदी का यह संवाद उसकी निडर मनोवृत्ति का परिचायक हैं

अरे ओ दुर्योधन निर्लज्ज, करता यों बढ़-बढ़कर बात।
बाल बाँकी कर पाया नहीं, तुम्हारा वीर विश्वविख्यात ।।

(7) सुसम्बद्धता – ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य की कथावस्तु पात्रों के कथोपकथनों की कड़ियों से सुसम्बद्ध हैं। कवि की कल्पना-शक्ति, अद्भुत प्रस्तुतीकरण और प्रबन्धात्मकता सभी सराहनीय हैं। कथा में आदि से अन्त तक कहीं भी अव्यवस्था नहीं आयी है। इस प्रकार समस्त कथावस्तु सुसम्बद्ध एवं सुव्यवस्थित है।

(8) खण्डकाव्य का सन्देश और उद्देश्य – प्रस्तुत खण्डकाव्य में कवि ने पात्रों के कथोपकथनों तथा तर्कवितर्क द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि असत्य, क्रूरता, अहंकार, अन्याय और अत्याचार की पराजय अवश्य होती है। कवि का उद्देश्य प्रस्तुत खण्डकाव्य की कथा के द्वारा नारी-जागरण एवं शस्त्रों के भण्डारण के विरुद्ध मानवतावादी भावना को स्वर देना है। राष्ट्र या समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना भी इस खण्डकाव्य की कथावस्तु का उद्देश्य है।

(9) पात्रों की प्रतीकात्मकता – इस खण्डकाव्य में प्रस्तुत किये गये सभी पात्रों का प्रतीकात्मक महत्त्व है। द्रौपदी सत्य, न्याय, धर्म आदि के गुणों की पुंज एवं अपने अधिकारों के लिए सजग और प्रगतिशील नारी को प्रतीक है। दु:शासन और दुर्योधन अनैतिकता एवं हिंसावृत्ति के प्रतीक हैं। पाण्डवों की प्रतीकात्मकता निम्नलिखित पंक्तियों से स्पष्ट है

युधिष्ठिर सत्य, भीम हैं शक्ति, कर्म के अर्जुन हैं अवतार।
नकुल श्रद्धा, सेवा सहदेव, विश्व के हैं ये मूलाधार ॥

(10) पात्रों का चयन एवं समायोजन – कवि ने इस खण्डकाव्य की कथा-योजना में महाभारतकालीन उन्हीं प्रमुख पात्रों को लिया है, जिनका द्रौपदी के चीर-हरण प्रसंग में उपयोग किया जा सकता था। नवीनता यह है कि इन पात्रों में श्रीकृष्ण को किसी भी रूप में सम्मिलित नहीं किया गया है। प्रमुख पात्र द्रौपदी एवं दु:शासन हैं। अन्य पात्रों का उल्लेख केवल वातावरण एवं प्रसंग को उद्दीपन प्रदान करने के लिए हुआ है। पात्रों को चरित्र-चित्रण स्वाभाविक है और उनके मनोभावों की अभिव्यक्ति की बड़ी सुन्दर अभिव्यंजना हुई है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि वस्तु-संगठन की दृष्टि से खण्डकाव्य की कथा लघु होनी चाहिए, नायक या नायिका में उदात्त-गुणों का समावेश होना चाहिए और कथा का विस्तार क्रमिक एवं उद्देश्य आदर्शों की स्थापना होना चाहिए। इन सभी विशेषताओं का समावेश इस खण्डकाव्य में सफलतापूर्वक किया गया है; अतः यह एक सफल खण्डकाव्य है।।

प्रश्न 3:
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में निहित सन्देश (उद्देश्य) को स्पष्ट कीजिए।
या
‘सत्य की जीत’ में प्रतिपादित आदर्शों का सोदाहरण विवेचन कीजिए।
या
” ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में कवि ने मानवीय आदर्श एवं शाश्वत जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठा की है, इस कथन की पुष्टि कीजिए।
या
‘सत्य की जीत’ की प्रमुख विचारधारा पर प्रकाश डालिए।
या
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में कवि की सफलता पर प्रकाश डालिए।
या
‘सत्य की जीत’ के प्रमुख विचार-बिन्दुओं पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
या
” ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य की कथावस्तु पौराणिक होते हुए भी आधुनिक विचारधारा की पोषक है,” उद्धरण देकर सिद्ध कीजिए।
या
‘सत्य की जीत’ में जिन उदात्त जीवन-मूल्यों का चित्रण किया गया है, उन्हें सोदाहरण समझाइए।
या
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य से समाज को क्या सन्देश मिलता है ? ‘सत्य की जीत’ शीर्षक की सार्थकता को प्रमाणित कीजिए। ‘सत्य की जीत के आधार पर ‘जीओ और जीने दो’ की समीक्षा कीजिए।
या
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में नारी विषयक अवधारणा का चित्रण कीजिए।
उत्तर:
सत्य की जीत’ शीर्षक से स्वतः स्पष्ट है कि कवि द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी प्रस्तुत खण्डकाव्य में असत्य पर सत्य की विजय प्रतिष्ठित करना चाहते हैं। इसे खण्डकाव्य में द्रौपदी के चीर-हरण का प्रसंग वर्णित किया गया है, किन्तु इसमें कथा का रूप सर्वथा मौलिक है। अत्याचारियों के दमन को द्रौपदी झुककर स्वीकार नहीं करती, वरन् वह पूर्ण आत्म-बलं से अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करती है। उसकी पक्ष सत्य एवं न्याय का पक्ष है। अन्ततः उसकी ही जीत होती है और पूरी राजसभा उसके पक्ष में हो जाती है।
प्रस्तुत खण्डकाव्य में कवि का उद्देश्य असत्य पर सत्य की विजय को दर्शाना है तथा खण्डकाव्य का मुख्य आध्यात्मिक भाव भी यही है। इस दृष्टिकोण से इसे खण्डकाव्य का यह शीर्षक पूर्णरूप से उपयुक्त और सार्थक है। इस खण्डकाव्य में निम्नलिखित विचारों का प्रतिपादन हुआ है

(1) नैतिक मानव-मूल्यों की स्थापना – ‘सत्य की जीत’ में कवि ने दुःशासन और दुर्योधन के छल-कपट, दम्भ, ईष्र्या, अनाचार, शस्त्र-बल, परपीड़न आदि की पराजय दिखाकर उन पर सत्य, धर्म, न्याय, प्रेम, मैत्री, करुणा, श्रद्धा आदि शाश्वत मानव-मूल्यों की प्रतिष्ठा की है और कहा है

जहाँ है सत्य, जहाँ है धर्म, जहाँ है न्याय, वहाँ है जीत।

कवि का विचार है कि मानव को भौतिकवाद के गर्त से नैतिक मूल्यों की स्थापना के आधार पर ही निकाला जा सकता है।

(2) नारी की प्रतिष्ठा – कवि ने प्रस्तुत खण्डकाव्य में द्रौपदी को श्रृंगार व कोमलता की परम्परागत मूर्ति के रूप में नहीं, वरन् दुर्गा के नव रूप में प्रतिष्ठित किया है, जो अपने सतीत्व और मर्यादा की रक्षा के लिए चण्डी और दुर्गा भी बन जाती है। यही कारण है कि भारत में नारी की शक्ति को दुर्गा के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है। द्रौपदी दुःशासन से स्पष्ट कह देती है कि नारी पुरुष की सम्पत्ति या भोग्या नहीं है। उसका अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व है। पुरुष और नारी के सहयोग से ही विश्व का मंगल सम्भव है

पुरुष के पौरुष से ही सिर्फ, बनेगी धरा नहीं यह स्वर्ग।
चाहिए नारी का नारीत्व, तभी होगा पूरा यह सर्ग ॥

(3) प्रजातान्त्रिक भावना का प्रतिपादन – प्रस्तुत खण्डकाव्य का सन्देश है कि हम प्रजातान्त्रिक भावनाओं का आदर करें। किसी एक व्यक्ति की निरंकुश नीति को अनाचार की छूट न दें। राजसभा में द्रौपदी के प्रश्न पर जहाँ दुर्योधन, दु:शासन, कर्ण अपना तर्क प्रस्तुत करते हैं वहीं धृतराष्ट्र अपना निर्णय देते समय जन-भावनाओं की अवहेलना भी नहीं करते।

(4) स्वार्थ और ईष्र्या का उन्मूलन – आज का मनुष्य ईर्ष्या व स्वार्थ के चंगुल में फंसा हुआ है। ईर्ष्या और स्वार्थ संघर्ष को जन्म देते हैं। इनके वशीभूत होकर व्यक्ति सब कुछ कर बैठता है-इसे कवि ने कौरवों द्वारा द्रौपदी के चीर-हरण की घटना से व्यक्त किया है। दुर्योधन पाण्डवों से ईर्ष्या रखता है, जिसके कारण वह उन्हें द्यूतक्रीड़ा में हराकर उन्हें नीचा दिखाने तथा द्रौपदी को निर्वस्त्र करके उन्हें अपमानित करना चाहता है। कवि स्वार्थ और ईर्ष्या को पतन का कारण सिद्ध करता है और उनके स्थान पर मैत्री, त्याग और सेवा जैसे लोकमंगलकारी भावों को प्रतिष्ठित करना चाहता है।

(5) सहयोग, सह-अस्तित्व और विश्व-बन्धुत्व का सन्देश – ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में कवि ने आज के युग के अनुरूप यह सन्देश दिया है कि सहयोग और सह-अस्तित्व के विकास से ही विश्व-कल्याण होगा–जियें हम और जियें सब लोग। इससे सत्य, न्याय, मैत्री, करुणा और सदाचार को बल मिलेगा, जिससे व्यक्ति को समस्त संसार एक कुटुम्ब की भाँति प्रतीत होने लगेगा।

(6) शान्ति की कामना – प्रस्तुत खण्डकाव्य में कवि गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित है। वह शस्त्र बल पर सत्य, न्याय और शास्त्र की विजय दिखलाता है। धृतराष्ट्र भी शस्त्रों का प्रयोग स्थायी शान्ति की स्थापना के लिए किये जाने पर बल देते हैं

किये हैं जितने भी एकत्र, शस्त्र तुमने, उनका उपयोग।
युद्ध के हित नहीं, शान्ति हित करो, यही है उनका स्वत्व प्रयोग।

(7) निरंकुशवाद के दोषों का प्रकाशन – प्रस्तुत खण्डकाव्य के द्वारा कवि यह बताना चाहता है कि जब सत्ता निरंकुश हो जाती है तो वह अनैतिक कार्य करने में भी कोई संकोच नहीं करती। ऐसे राज्य में विवेक पूर्णतया कुण्ठित हो जाता है। भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र आदि भी दुर्योधन की सत्ता की निरंकुशता के आगे हतप्रभ हैं। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में भारतीय शाश्वत जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठा की गयी है। इस खण्डकाव्य के द्वारा कंवि अपने पाठकों को सदाचारपूर्ण जीवन की प्रेरणा देना चाहता है। वह उन्नत मानवीय जीवन का सन्देश देता हैं। धृतराष्ट्र की उदारतापूर्ण इस घोषणा में काव्य का उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है

नीति समझो मेरी यह स्पष्ट, जियें हम और जियें सब लोग।
बाँटकर आपस में मिले सभी, धरा का करें बराबर भोगे॥

प्रश्न 4:
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य के आधार पर नायिका द्रौपदी का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
” ‘सत्य की जीत’ में द्रौपदी के चरित्र में वर्तमान युग के नारी-जागरण का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।” स्पष्ट कीजिए।
या
“सत्य की जीत’ के किसी मुख्य पात्र की चरित्रगत विशेषताएँ लिखिए।
या
‘सत्य की जीत’ के आधार पर द्रौपदी के चरित्र-चित्रण की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
या
“नारी अबला नहीं, शक्तिरूपा है।” द्रौपदी के चरित्र के माध्यम से इस कथन की सार्थकता प्रमाणित कीजिए।
या
‘सत्य की जीत’ में कवि ने द्रौपदी के चरित्र में जो नवीनताएँ प्रस्तुत की हैं, उनका उदघाटन करते हुए उसके चरित्र-वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए।
या
‘सत्य की जीत के आधार पर द्रौपदी के संघर्षमय जीवन का चित्रण कीजिए।
या
‘सत्य की जीत’ की नायिका द्रौपदी के चरित्र में समाविष्ट मानवीय आदर्शों का विश्लेषण कीजिए।
या
द्रौपदी का पक्ष सत्य और न्याय का पक्ष है। इस बात को सिद्ध कीजिए।
उत्तर:
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य के आधार पर द्रौपदी के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं-

(1) नायिका:  द्रौपदी ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य की नायिका है। सम्पूर्ण कथा उसके चारों ओर घूमती है। वह राजा द्रुपद की पुत्री, धृष्टद्युम्न की बहन तथा युधिष्ठिर सहित पाँचों पाण्डवों की पत्नी है। ‘सत्य की जीत खण्डकाव्य में अत्यधिक विकट समय होते हुए भी वह बड़े आत्मविश्वास से दु:शासन को अपना परिचय देती हुई कहती है

जानता नहीं कि मैं हूँ कौन ? द्रौपदी धृष्टद्युम्न की बहन।
पाण्डुकुल वधू भीष्म, धृतराष्ट्र, विदुर को कब रे यह सहन॥

(2) स्वाभिमानिनी सबला – द्रौपदी स्वाभिमानिनी है। वह अपना अपमान नारी-जाति का अपमान समझती है। और वह इसे सहन नहीं करती। ‘सत्य की जीत की द्रौपदी महाभारत की द्रौपदी की भाँति असहाय, अबला और संकोची नारी नहीं है। यह द्रौपदी तो अन्यायी, अधर्मी पुरुषों से जमकर संघर्ष व विरोध करने वाली है। इस प्रकार उसका निम्नलिखित कथन द्रष्टव्य है

समझकर एकाकी, निशंक, दिया मेरे केशों को खींच।
रक्त का पैंट पिये मैं मौन, आ गयी भरी सभा के बीच ॥
इसलिए नहीं कि थी असहाय, एक अबला रमणी का रूप।
किन्तु था नहीं राज-दरबार, देखने मेरा भैरव-रूप ।।

(3) विवेकशीला – द्रौपदी पुरुष के पीछे-पीछे आँख बन्द कर चलने वाली नारी नहीं, वरन् विवेक से कार्य करने वाली नारी है। आज की नारी की भाँति वह अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए सजग है। द्रौपदी की स्पष्ट मान्यता है कि नारी में अपार शक्ति और आत्मबल विद्यमान है। पुरुष स्वयं को संसार में सर्वाधिक शक्तिसम्पन्न समझता है, किन्तु द्रौपदी इस अहंकारपूर्ण मान्यता का खण्डन करती हुई कहती है

नहीं कलिंका कोमल सुकुमार, नहीं रे छुई-मुई-सा गात !
पुरुष की है यह कोरी भूल, उसी के अहंकार की बात ॥

वह केवल दुःशासन ही नहीं वरन् अपने पति को भी प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर स्पष्टीकरण माँगती है। वह भरी सभा में यह सिद्ध कर देती है कि जुए में स्वयं को हारने वाले युधिष्ठिर को मुझे दाँव पर लगाने का कोई अधिकार नहीं है।-

द्रौपदी के वचन सुनकर सम्पूर्ण सभा, स्तब्ध और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती है और द्रौपदी के तर्को पर न्यायपूर्वक विचार करने के लिए विवशं हो जाती है। द्रौपदी के ये कथन उसकी वाक्पटुता एवं योग्यता के परिचायक हैं।

(4) साध्वी – द्रौपदी में शक्ति, ओज, तेज, स्वाभिमान और बुद्धि के साथ-साथ सत्य, शील और धर्म का पालन करने की शक्ति भी है। द्रौपदी के चरित्र की श्रेष्ठता से प्रभावित धृतराष्ट्र उसकी प्रशंसा करते हुए कहते हैं।

द्रौपदी धर्मनिष्ठ है सती, साध्वी न्याय सत्य साकार।
इसी से आज सभी से प्राप्त, उसे बल सहानुभूति अपार ॥

(5) ओजस्विनी – ‘सत्य की जीत’ की नायिका द्रौपदी ओजस्विनी है। वह अपना अपमान होने पर सिंहनी की भाँति दहाड़ती है

सिंहनी ने कर निडर दहाड़, कर दिया मौन सभा को भंग।

दुःशासन द्वारा केश खींचने के बाद वह रौद्र-रूप धारण कर लेती है। कवि कहती है

खुली वेणी के लम्बे केश, पीठ पर लहराये बन काल।।
उगलते ज्यों विष कालिया नाग, खोलकर मृत्यु-कणों का जाल ।

(6) सत्य, न्याय और धर्म की एकनिष्ठ साधिका – द्रौपदी सत्य और न्याय की अजेय शक्ति और असत्य तथा अधर्म की मिथ्या शक्ति का विवेचन बहुत संयत शब्दों में करती हुई कहती है

सत्य का पक्ष, धर्म का पक्ष, न्याय का पक्ष लिये मैं साथ।
अरे, वह कौन विश्व में शक्ति, उठा सकती जो मुझ पर हाथ॥

(7) नारी-जाति की पक्षधर – ‘सत्य की जीत की द्रौपदी आदर्श भारतीय नारी है। भारतीय संस्कृति के आधार वेद हैं और वेदों के अनुसार आदर्श नारी में अपार शक्ति, सामर्थ्य, बुद्धि, आत्म-सम्मान, सत्य, धर्म, व्यवहारकुशलता, वाक्पटुता, सदाचार आदि गुण विद्यमान होते हैं। द्रौपदी में भी ये सभी गुण विद्यमान हैं। अपने सम्मान को ठेस लगने पर वह सभा में गरज उठती है

मौन हो जा मैं सह सकतीन, कभी भी नारी का अपमान।
दिखा देंगी तुझको अभी, गरजती आँखों का तूफान ।।

द्रौपदी को पता है कि नारी में अपार शक्ति-सामर्थ्य, बुद्धि और शील विद्यमान हैं। नारी ही मानव-जाति के सृजन की अक्षय स्रोत है। वह नारी-जाति को पुरुष के आगे हीन सिद्ध नहीं होने देती है। नारी की गरिमा का वर्णन करती हुई वह कहती है

पुरुष उस नारी की ही देन, उसी के हाथों का निर्माण।

(8) वीरांगनां – वह पुरुष को विवश होकर क्षमा कर देने वाली असहाय अबला नहीं वरन् चुनौती देकर दण्ड देने को कटिबद्ध है

अरे ओ दुःशासन निर्लज्ज, देख तू नारी को भी क्रोध ।
किसे कहते उसका अपमान, कराऊँगी मैं उसका बोध ॥

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि द्रौपदी पाण्डव-कुलवधू, वीरांगना, स्वाभिमानी, आत्मगौरव- सम्पन्न, सत्य और न्याय की पक्षधर, सती-साध्वी, नारीत्व के स्वाभिमान से मण्डित एवं नारी जाति का आदर्श है।

प्रश्न 5:
‘सत्य की जीत के आधार पर दुःशासन का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘सत्य की जीत’ के एक प्रमुख पुरुष पात्र (दुःशासन) के चरित्र की विशेषताएँ बताइट।
या
‘सत्य की जीत’ में व्यक्त दुःशासन के चरित्र की समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत खण्डकाव्य में दुःशासन एक प्रमुख पात्र है जो दुर्योधन का छोटा भाई तथा धृतराष्ट्र का पुत्र है। उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं-

(1) अहंकारी एवं बुद्धिहीन – दुःशासन को अपने बल पर बहुत अधिक घमण्ड है। विवेक से उसे कुछ लेना-देना नहीं है। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण मानता है तथा पाण्डवों का भरी सभा में अपमान करता है। सत्य, प्रेम और अहिंसा की अपेक्षा वह पाशविक शक्तियों को ही सब कुछ मानता है

शस्त्र जो कहे वही है सत्य, शस्त्र जो करे वही है कर्म ।
शस्त्र जो लिखे वही है शास्त्र, शस्त्र-बल पर आधारित धर्म ॥

इसीलिए परिवारजन और सभासदों के बीच द्रौपदी को निर्वस्त्र करने में वह तनिक भी लज्जा नहीं मानता है।

(2) नारी का अपमान करने वाला – द्रौपदी के साथ हुए तर्क-वितर्क में दु:शासन का नारी के प्रति पुरातन और रूढ़िवादी दृष्टिकोण प्रकट हुआ है। दु:शासन नारी को पुरुष की दासी और भोग्या तथा पुरुष से दुर्बल मानता है। नारी की दुर्बलता का उपहास उड़ाते हुए वह कहता है

कहाँ नारी ने, ले तलवार, किया है पुरुषों से संग्राम ।
जानती है वह केवल पुरुष, भुजदण्डों में करना विश्राम ॥

(3) शस्त्र-बल विश्वासी – दु:शासन शस्त्र-बल को सब कुछ समझता है। उसे धर्म-शास्त्र और धर्मज्ञों में कोई विश्वास नहीं है। इन्हें तो वहें शस्त्र के आगे हारने वाले मानता है ।

धर्म क्या है और क्या है सत्य, मुझे क्षणभर चिन्ता इसकी न।
शास्त्र की चर्चा होती वहाँ, जहाँ नर होता शस्त्र-विहीन ।।

(4) दुराचारी – दु:शासन हमारे समक्ष एक दुराचारी व्यक्ति के रूप में आती है। वह मानवोचित व्यवहार भी नहीं जानता। वह अपने बड़ों व गुरुजनों के सामने भी अभद्र व्यवहार करने में संकोच नहीं करता। वह शास्त्रज्ञों, धर्मज्ञों व नीतिज्ञों पर कटाक्ष करता है और उन्हें दुर्बल बताता है

लिया दुर्बल मानव ने ढूँढ, आत्मरक्षा का सरल उपाय।
किन्तु जब होता सम्मुख शस्त्र, शास्त्र हो जाता निरुपाय ॥

(5) धर्म और सत्य का विरोधी – धर्म और सत्य का शत्रु दु:शासन आध्यात्मिक शक्ति का विरोधी एवं भौतिक शक्ति का पुजारी है। वह सत्य, धर्म, न्याय, अहिंसा जैसे उदार आदर्शों की उपेक्षा करता है।

(6) सत्य व सतीत्व से पराजित – दुःशासन की चीर-हरण में असमर्थता इस तथ्य की पुष्टि करती है कि सत्य की ही जीत होती है। वह शक्ति से मदान्ध होकर तथा सत्य, धर्म एवं न्याय की दुहाई देने को दुर्बलता का चिह्न बताता हुआ जैसे ही द्रौपदी का चीर खींचने के लिए हाथ आगे बढ़ाता है, वैसे ही द्रौपदी के शरीर से प्रकट होने वाले सतीत्व की ज्वाला से पराजित हो जाता है।

दुःशासन के चरित्र की दुर्बलताओं या विशेषताओं का उद्घाटन करते हुए डॉ० ओंकार प्रसाद माहेश्वरी लिखते हैं कि “लोकतन्त्रीय चेतना के जागरण के इस युग में अब भी कुछ ऐसे साम्राज्यवादी प्रकृति के दुःशासन हैं, जो दूसरों के बढ़ते मान-सम्मान को नहीं देख सकते तथा दूसरों की भूमि और सम्पत्ति को हड़पने के लिए प्रतिक्षण घात लगाये हुए बैठे रहते हैं। इस काव्य में दुःशासन उन्हीं का प्रतीक है।”

प्रश्न 6:
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य के आधार पर दुर्योधन का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर:
श्री द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी कृत ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में दुर्योधन एक प्रमुख पुरुष पात्र है जो दु:शासन का बड़ा भाई तथा धृतराष्ट्र का पुत्र है। उसकी प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) अभिमानी और विवेकहीन – दुर्योधन को अपने बाहुबल पर अत्यधिक घमण्ड है। विवेक से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। वह बाहुबल में विश्वास रखता है। नैतिकता में उसे बिल्कुल विश्वास नहीं है। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण मानता है, इसी कारण पाण्डवों का भरी सभा में अपमान करता है। दुर्योधन का नारी के प्रति पुरातन रूढ़िवादी दृष्टिकोण है। वह पाशविक शक्तियों को ही सब कुछ मानता है।

(2) नारी के प्रति उपेक्षा-भाव – द्रौपदी के द्वारा उपहास किये जाने पर वह उससे प्रतिशोध लेने की भावना में दग्ध रहता है। वह नारी को भोग्या और चरणों की धूल समझता है। इसी कारण भरी सभा में द्रौपदी का चीर-हरण करवाता है।

(3) दुराचारी – ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में दुर्योधन हमारे सामने एक दुराचारी पुरुष पात्र के रूप में आता है। वह मानवोचित व्यवहार भी नहीं जानता है। वह अपने बड़ों व गुरुजनों के सामने भी अभद्र व्यवहार करने में संकोच नहीं करता।

(4) ईष्र्यालु – दुर्योधन ईष्र्यालु प्रवृत्ति का पुरुष पात्र है, जो हमेशा ही पाण्डवों से ईर्ष्या रखता है। वह पाण्डवों की समृद्धि और मान सम्मान को सहन नहीं कर सकता है।

(5) छल-कपट में विश्वास – दुर्योधन यद्यपि वीर है लेकिन वह छल-कपट में विश्वास रखता है। छल-कपट से ही वह पाण्डवों को जुए के खेल में हरा देता है और उनके राज्य को हड़प लेता है। इस प्रकार उपर्युक्त गुणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि उसके चरित्र में वर्तमान साम्राज्यवादी शासकों की लोलुपता की झलक प्रस्तुत की गयी है।

प्रश्न 7:
‘सत्य की जीत के आधार पर युधिष्ठिर का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य के नायक का चरित्रांकन कीजिए।
या
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य के प्रधान पात्र का चरित्रांकन कीजिए।
उत्तर:
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में युधिष्ठिर का चरित्र धृतराष्ट्र और द्रौपदी के कथनों के माध्यम से उजागर हुआ है। उनकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) सत्य और धर्म के अवतार – युधिष्ठिर की सत्य और धर्म में अडिग निष्ठा है। उनके इसी गुण पर मुग्ध धृतराष्ट्र कहते हैं

युधिष्ठिर ! धर्मपरायण श्रेष्ठ, करो अब निर्भय होकर राज्य।

(2) सरल-हृदय व्यक्ति – युधिष्ठिर बहतं सरल-हृदय के व्यक्ति हैं। वे दसरों को भी सरल-हृदय समझते हैं। इसी सरलता के कारण वे शकुनि और दुर्योधन के कपटे जाल में फंस जाते हैं और उसका दुष्परिणाम भोगते हैं। द्रौपदी ठीक ही कहती है

युधिष्ठिर ! धर्मराज थे, सरल हृदय, समझे न कपट की चाल।

(3) सिन्धु-से धीर-गम्भीर – द्रौपदी का अपमान किये जाने पर भी युधिष्ठिर का मौन व शान्त रहने का कारण उनकी दुर्बलता नहीं, वरन् उनकी धीरता, गम्भीरता और सहिष्णुता है

खिंची है मर्यादा की रेखा, वंश के हैं वे उच्च कुलीन।।

(4) अदूरदर्शी – युधिष्ठिर यद्यपि गुणवान हैं, किन्तु द्रौपदी को दाँव पर लगाने जैसा अविवेकी कार्य कर बैठते हैं, जिससे जान पड़ता है कि वह सैद्धान्तिक अधिक किन्तु व्यवहारकुशल कम हैं। वह इस कृत्य का दूरगामी परिणाम दृष्टि से ओझल कर बैठते हैं

युधिष्ठिर धर्मराज का हृदय, सरल-निर्मल-निश्छल-निर्दोष।
भेरा अन्तर-सागर में अमित, भाव-रत्नों का सुन्दर कोष ॥

(5) विश्व-कल्याण के साधक – युधिष्ठिर का लक्ष्य विश्व-मंगल है, यह बात धृतराष्ट्र भी स्वीकार करते हैं

तुम्हारे साथ विश्व है, क्योंकि, तुम्हारा ध्येय विश्व-कल्याण।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि युधिष्ठिर इस खण्डकाव्य के ऐसे पात्र हैं, जो आरम्भ से लेकर अन्त तक मौन रहे हैं। कवि ने उनके मौन से ही उनके चरित्र की उपर्युक्त विशेषताएँ स्पष्ट की हैं।

प्रश्न 8:
‘सत्य की जीत’ की काव्यगत विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
या
‘सत्य की जीत’ की भाषा-शैली की विशेषताएँ बताइए।
या
काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से ‘सत्य की जीत का मूल्यांकन कीजिए।
या
एक खण्डकाव्य के रूप में सत्य की जीत का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
‘सत्य की जीत’ की काव्यगत विशेषताएँ निम्नवत् हैं

(अ) भावगत विशेषताएँ

(1) सुगठित कथावस्तु – ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य की कथावस्तु अत्यन्त स्पष्ट, सरल और सुगठित है। काव्य की सभी घटनाएँ परस्पर सुसम्बद्ध हैं। कथा में आदि से अन्त तक रोचकता एवं कौतूहल विद्यमान है। कथा में कहीं भी अस्वाभाविकता एवं अरोचकता नहीं है।

(2) विश्व-बन्धुत्व का सन्देश – कवि ने विश्व को ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में प्रेम, सत्य, न्याय, मैत्री, करुणा और सदाचार की शिक्षा देकर सम्पूर्ण संसार को मार्ग दिखाया है

न्याय समता मैत्री भ्रातृत्व, भावना, स्नेहित सह अस्तित्व।
इन्हीं शाश्वत मूल्यों से बने, विश्व का मंगलमय व्यक्तित्व ॥

(3) शान्ति की कामना – ‘सत्य की जीत’ गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित है। केवल शस्त्र-बल पर विश्वास रखने वाले दुर्योधन और दु:शासन दोनों सत्य, न्याय और शास्त्र से पराजित होते हैं। स्थायी शान्ति की स्थापना के लिए धृतराष्ट्र कहते हैं

किये हैं जितने भी एकत्र, शस्त्र तुमने, उनका उपयोग।
युद्ध के हित नहीं, शान्ति हित करो, यही है उनका स्वत्व प्रयोग।

(4) उदात्त आदर्शों का स्वर – प्रस्तुत खण्डकाव्य से नारियों के प्रति श्रद्धा, विनाशकारी आचरण, शस्त्रीकरण का विरोध, प्रजातान्त्रिक आदर्शो, असत्य की निर्बलता एवं सत्य के आत्मबल की शक्ति का स्वर मुखरित होता है। इस खण्डकाव्य में कवि ने द्रौपदी के चीर-हरण को प्रसंग बनाकर उदात्त आदर्शों की. भाव-धारा प्रवाहित की है। यह भाव-धारा ही इस खण्डकाव्य की आत्मा है।

(5) रस-निरूपण – प्रस्तुत खण्डकाव्य में वीर रस की प्रधानता है, किन्तु इसमें रौद्र, शान्त आदि रसों का भी सुन्दर परिपाक हुआ है। ओजस्विनी, वीरांगना, द्रौपदी की ओजमयी वाणी इस काव्य का केन्द्रीय आकर्षण है। रौद्र रस का एक उदाहरण द्रष्टव्य है:

मौन हो जा मैं सह सकती न, कभी भी नारी का अपमान।
दिखा देंगी तुझको अभी, गरजती आँखों का तूफान ।

(6) प्रतीकात्मकता – ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में सभी पुरुष तथा स्त्री पात्रों का चरित्र प्रतीकात्मक है। द्रौपदी सत्य, न्याय, धर्म आदि गुणों की प्रतीक और अपने अधिकारों के लिए सजग नारी है। पाण्डवों की प्रतीकात्मकता द्रष्टव्य है

युधिष्ठिर सत्य, भीम है शक्ति, कर्म के अर्जुन हैं अवतार।
नकुल श्रद्धा, सेवा सहदेव, विश्व के हैं ये मूलाधार ॥

इसके बाद भी पाण्डवों के सभी गुण द्रौपदी की तेजस्विता के सम्मुख हीन जान पड़ते हैं।

(ब) कलागत विशेषताएँ

(1) भाषा – ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य की भाषा सरल, सुबोध और परिष्कृत खड़ी बोली है। इसकी भाषा में प्रवाहमयता, प्रभावात्मकता, स्वाभाविकता, प्रसंगानुकूलता आदि गुण भी विद्यमान हैं। काव्य में संवादों की सजीवता एवं प्रभावपूर्णता निस्सन्देह सराहनीय है। भाषा में कहीं भी अस्वाभाविकता एवं दुरूहता के दर्शन नहीं होते; यथा

किया यदि शस्त्रों से ही मोह, न अपनाया विवेक का पन्थ।
मुझे लगता है, जो कुछ हुई, प्रगति अब तक, उसका रे अन्त ।।

(2) शैली – सारा खण्डकाव्य संवादात्मक शैली में रचित है। इसकी सम्पूर्ण कथावस्तु धृतराष्ट्र की राजसभा में पात्रों के कथोपकथनों के रूप में प्रस्तुत की गयी है। संवादों पर आधारित कथा की प्रगति शैली की प्रमुख विशेषता है

द्रौपदी बढ़-बढ़कर मत बोल, कहा उसने तत्क्षण तत्काल।
पीट मत री नारी का ढोल, उगल मत व्यर्थ अग्नि की ज्वाल॥

संवादों के कारण इस काव्य में नाटकीय-सौन्दर्य आ गया है। काव्य के समस्त घटना-व्यापार को सजीव, प्रवाहपूर्ण, सरल और विचारोत्तेजक संवादों के माध्यम से दृश्यांकित किया गया है। इन संवादों में कवि की अपूर्व मनोवैज्ञानिकता एवं सूझ-बूझ का परिचय मिलता है।

(3) अलंकार-योजना – ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में कवि ने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास आदि अलंकारों का प्रयोग किया है; यथा

रूपक – खोल जीवन-पुस्तक के पृष्ठ, मुस्कराते समरांगण बीच।
                  शस्त्र से लिखते सच्चे शास्त्र, रक्त के स्वर्णिम अक्षर खींच।
उपमा – माँग में सिन्दूर की यह रेख, मौन विद्युत-सी घन के बीच।
                कि जैसे अवसर पाकर शीघ्र, गिराएगी दुश्मन पर खींच ॥

(4) छन्द-विधान – ‘सत्य की जीत में कवि ने 16-16 मात्राओं के चार पंक्तियों वाले; मुक्त छन्द का प्रयोग किया है।

(5) भाव-चित्रण – मानव-हृदय में किसी भाव के उठने पर कुछ शारीरिक प्रतिक्रियाएँ होती हैं। इन्हें अनुभाव या संचारी भाव कहते हैं। ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में कवि ने विभिन्न-पात्रों के अनुभावों का चित्रण किया है। यहाँ क्रोधाभिभूत भीम की मुद्राओं का चित्रण देखिए

फड़कने लगे भीम के अंग, शस्त्र-बल की सुनकर ललकार।
नेत्र मुड़े धर्मराज की ओर, झुके पी, मौन रक्त की धार ।

निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि उदात्त आदर्शों के लिए सद्गुणी नायिका को आधार बनाकर लिखी गयी यह काव्य-रचना कथा की लघुती, क्रम-विस्तार आदि गुणों से युक्त है, अत: काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से ‘सत्य की जीत’ एक सफल खण्डकाव्य है।

प्रश्न 9:
” ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में आज की आधुनिक जाग्रत नारी का स्वर मुखर हुआ है।” इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
या
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में द्रौपदी द्वारा प्रतिपादित नारी की शक्ति एवं महत्ता पर प्रकाश डालिटी:
या
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य के आधार पर द्रौपदी और दुःशासन के वार्तालाप (संवाद) को अपने शब्दों में लिखिए।
या
” ‘सत्य की जीत’ में महाभारत युग के साथ वर्तमान युग भी बोल उठा है। इस कथन को समझाइट।
या
‘सत्य की जीत’ कथनक की वर्तमान सामाजिक प्रासंगिकता पर प्रकाश डालिए।
या
नारी जागरण की दृष्टि से सत्य की जीत’ खण्डकाव्य की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में कवि द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी ने द्रौपदी के परम्परागत चरित्र में नवीन उद्भावनाएँ करके आज की नारी का मार्गदर्शन किया है। दूसरे शब्दों में, हम यह भी कह सकते हैं कि माहेश्वरी जी ने द्रौपदी के माध्यम से आधुनिक नारी के उभरते स्वर को सशक्त अभिव्यक्ति दी है, जिसका विवेचन निम्नवत् है
दुःशासन द्वारा भरी-सभा में अपमानित हुई द्रौपदी अबला-सी बनकर केवल आँसू नहीं बहाती, वरन् वह साहसी आधुनिक स्त्री की भाँति सिंहनी के समान गरजती हुई क्रोधित होकर उसे चेतावनी देती है

अरे-ओ ! दुःशासन निर्लज्ज ! देख तू नारी का भी क्रोध।
किसे कहते उसका अपमान, कराऊँगी मैं इसका बोध ॥

द्रौपदी दु:शासन को अपमानित करती हुई बड़े आत्मविश्वास से कहती है कि तू मुझे बाल खींचकर भरी-सभा में ले तो अवश्य आया है, किन्तु मैं रक्त के बूंट पीकर केवल इसलिए चुप हूँ; क्योंकि नारी से मार खाकर तू संसार में मुंह दिखाने के योग्य नहीं रह जाएगा।

द्रौपदी के व्यंग्य बाणों से दु:शासन तिलमिला उठता है और कहता है कि “तू नारी की श्रेष्ठता के ढोल मत पीट। क्या कभी किसी नारी ने तलवार अपने हाथ में लेकर कहीं संग्राम किया है ? नारी तो पुरुष पर निर्भर रहती है। वह तो पुरुष के पैरों की धूल के समान है।”

इस पर द्रौपदी नारी-विषयक पुरातन मान्यताओं को तोड़ती हुई दु:शासन को फटकारती हुई कहती है कि “तू अभी नारी की शक्ति को पहचान ही नहीं पाया है। यद्यपि नारी दिखने में कोमल-कलिका के समान अवश्य होती है, परन्तु आवश्यकता पड़ने पर वह पापियों का संहार करने के लिए भैरवी का रूप भी धारण कर सकती है। पुरुष की यह भूल ही है कि वह सारे विश्व पर अपना अधिकार मानता है, नारी पर अकारण ही चोट करता है, जबकि नारी और पुरुष दोनों एक समान हैं।”

द्रौपदी के व्यंग्य-कटाक्षों को काटते हुए दु:शासन पुनः कहता है कि “नारीरूपी सरिताएँ क्या कभी पुरुषरूपी पहाड़ को हिला पायी हैं ? लहरों को तो भूधर के केवल चरण छूकर लौट जाना पड़ता है। स्त्रीरूपी लहर तो पुरुषरूपी किनारा पाकर शान्त हो जाती है।’ दुःशासन पुनः कहता है कि “तू हमारी दासी है, क्योंकि पाण्डव तुझे जुए में हार गये हैं। तू नारीत्व की बात मत कर।”

इस प्रकार द्रौपदी और दु:शासन के वार्तालाप द्वारा कवि ने यह सिद्ध किया है कि मानवता के विकास में नारी और पुरुष दोनों का ही समान महत्त्व है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। ‘पुरुष का स्थान उच्च और नारी का स्थान निम्न है’ ऐसा सोचना नारी के प्रति अन्याय व असत्य का द्योतक है। इस रूप में, ‘सत्य की जीत’ में स्थल-स्थल पर आज की जाग्रत नारी का स्वर ही मुखरित हुआ प्रतीत होता है। ऐसी जाग्रत नारी, जो अपनी सृजनात्मक महत्ता से भली-भाँति परिचित है और जो समय आने पर सीता ही नहीं चण्डी तथा काली भी बन सकती है

पुरुष उस नारी की ही देन, उसी के हाथों का निर्माण।

अन्तत: द्रौपदी और दु:शासन के वार्तालाप का अन्त ‘सत्य की जीत’ से होता है।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi काव्य-साहित्यका विकास अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 1
Chapter Name काव्य-साहित्यका विकास अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
Number of Questions 133
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi काव्य-साहित्यका विकास अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

सामान्य प्रश्न

प्रश्न 1
हिन्दी-काव्य-साहित्य के विविध कालों का समय बताइए।
उत्तर

  1. आदिकाल (वीरगाथाकाल) —– सन् 993 ई० से सन् 1318 ई० तक।
  2. पूर्व-मध्यकाल (भक्तिकाल) – सन् 1318 ई० से सन् 1643 ई० तक।
  3. उत्तर-मध्यकाल (रीतिकाल) – सन् 1643 ई० से सन् 1843 ई० तक।
  4. आधुनिककाल (गद्यकाल) – सन् 1843 ई० से अब तक।

उपर्युक्त काल-विभाजन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के ‘हिन्दी-साहित्य का इतिहास के आधार पर दिया गया है।

प्रश्न 2
कविता के बाह्य तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
कविता के बाह्य तत्त्व हैं—

  1. लय,
  2. तुक,
  3. छन्द,
  4. शब्द-योजना,
  5. चित्रात्मक भाषा तथा
  6. अलंकार

प्रश्न 3
कविता के आन्तरिक तत्त्व कौन-कौन से हैं ?
उत्तर
कविता के आन्तरिक तत्त्व हैं—

  1. अनुभूति की व्यापकता,
  2. कल्पना की उड़ान,
  3. रसात्मकता और सौन्दर्य-बोध तथा
  4. भावों का उदात्तीकरण।

प्रश्न 4 हिन्दी पद्य-साहित्य के इतिहास के विभिन्न कालों के नाम लिखिए।
उत्तर
हिन्दी-पद्य साहित्य के विभिन्न कालों के नाम हैं-

  1. वीरगाथाकाल (आदिकाल),
  2. भक्तिकाल (पूर्व-मध्यकाल),
  3. रीतिकाल (उत्तर-मध्यकाल) एवं
  4. आधुनिककाल।

प्रश्न 5
काव्य के कितने भेद होते हैं ?
उत्तर
काव्य के दो भेद होते हैं–

  1. श्रव्य काव्य और
  2. दृश्य काव्य।

प्रश्न 6
श्रव्य काव्य के कौन-कौन से भेद होते हैं ?
उत्तर
श्रव्य काव्य के दो भेद होते हैं—

  1. प्रबन्ध काव्य और
  2. मुक्तक काव्य।

प्रश्न 7
दृश्य काव्य तथा श्रव्य काव्य का अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
दृश्य काव्य का रंगमंच पर अभिनय किया जा सकता है, जब कि श्रव्य काव्य का अभिनय नहीं किया जा सकता। दृश्य काव्य का आनन्द उसे देखकर अथवा सुनकर लिया जा सकता है, जब कि श्रव्य काव्य का आनन्द केवल सुनकर ही लिया जा सकता है।

प्रश्न 8
प्रबन्ध काव्य के कितने भेद होते हैं ?
उत्तर
प्रबन्ध काव्य के दो भेद होते हैं—

  1. महाकाव्य और
  2. खण्डकाव्य।

प्रश्न 9
महाकाव्य और खण्डकाव्य में अन्तर बताइए।
उत्तर
महाकाव्य की कथा में जीवन की सर्वांगीण झाँकी होती है, जब कि खण्डकाव्य में जीवन के एक पक्ष का चित्रण होता है। महाकाव्य की विस्तृत कथावस्तु पर अनेक खण्डकाव्य लिखे जा सकते हैं।

प्रश्न 10
दो महाकाव्यों के नाम लिखिए।
उत्तर दो महाकाव्यों के नाम हैं—

  1. श्रीरामचरितमानस और
  2. कामायनी।

प्रश्न 11
दो खण्डकाव्यों के नाम लिखिए।
उत्तर
दो खण्डकाव्यों के नाम हैं-

  1. जयद्रथ-वध और
  2. हल्दीघाटी।

आदिकाल (वीरगाथाकाल)

प्रश्न 12
हिन्दी के आदिकाल का समय निर्देश कीजिए और हिन्दी के प्रथम कवि का नाम बताइए।
उत्तर
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार आदिकाल का समय 993 ई० से 1318 ई० तक माना जाता है। सरहपा को हिन्दी का प्रथम कवि माना जाता है।

प्रश्न 13
हिन्दी का प्रथम कवि किसे माना जाता है ? उनका रचना-काल कब से प्रारम्भ हुआ ?
उत्तर
सरहपा को हिन्दी का प्रथम कवि माना जाता है। उनका रचना-काल 769 ई० से प्रारम्भ हुआ। कुछ विद्वान् हिन्दी का प्रथम कवि ‘पृथ्वीराज रासो’ के रचयिता चन्दबरदाई को मानते हैं।

प्रश्न 14 आदिकाल (वीरगाथाकाल) की प्रमुख विशेषताएँ बताइए। [2009]
या
आदिकालीन हिन्दी-साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए।
या
आदिकाल (वीरगाथाकाल) की रचनाओं की दो प्रमुख काव्य-प्रवृत्तियाँ लिखिए।
या
आदिकाल के योगदान की किन्हीं दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
या
आदिकाल के रासो साहित्य की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
उत्तर
विशेषताएँ (प्रवृत्तियाँ)-

  1. आदिकाल में अधिकांश रासो ग्रन्थ लिखे गये; जैसेपृथ्वीराज रासो, परमाल रासो आदि। इनमें आश्रयदाताओं की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा है।
  2. वीर और श्रृंगार रस की प्रधानता है।
  3. युद्धों का सजीव वर्णन किया गया है।
  4. काव्यभाषा के रूप में डिंगल और पिंगल का प्रयोग हुआ है।
  5. काव्य-शैलियों में प्रबन्ध और गीति शैलियों का प्रयोग मिलता है।
  6. सामूहिक राष्ट्रीय भावना का अभाव रहा है।

प्रश्न 15
आदिकाल (वीरगाथाकाल) के प्रमुख कवियों और उनकी कृतियों के नाम बताइए। आदिकाल की रचना है। [2011]
या
आदिकाल के रचनाकार हैं। [2011]
या
आदिकाल के दो रचनाकारों के नाम लिखिए। [2015]
उत्तर
आदिकाल (वीरगाथाकाल) के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ इस प्रकार हैंचन्दबरदाई (पृथ्वीराज रासो), नरपति-नाल्ह (बीसलदेव रासो), दलपति विजय (खुमान रासो), जगनिक (परमाल रासो या आल्ह खण्ड), विद्यापति (पदावली), अब्दुल रहमान (सन्देश रासक), स्वयंभू (पउमचरिउ), धनपाल (भविसयत्तकहा), जोइन्दु (परमात्मप्रकाश), पुष्पदन्त (उत्तरपुराण) एवं अमीर खुसरो की फुटकर रचनाएँ।

प्रश्न 16
वीरगाथाकाल (आदिकाल) की रचनाओं में वर्णित विषय का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
आदिकाल के साहित्य में रणोन्मत्त राजपूत वीरों, रणबाँकुरों, राजपूत महिलाओं, रण-स्थल के रक्तरंजित क्रियाकलापों, गर्जन-तर्जन व हाहाकार का सजीव चित्रण है।

प्रश्न 17
वीरगाथाकाल (आदिकाल) में साहित्य रचना की प्रमुख धाराओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
इस काल की तीन प्रमुख काव्यधाराएँ निम्नलिखित हैं

  1. संस्कृत काव्यधारा,
  2. प्राकृत एवं अपभ्रंश काव्यधारा तथा
  3. हिन्दी काव्यधारा।

प्रश्न 18
आदिकाल के विभिन्न नाम बताइए।
या
‘वीरगाथाकाल’ के लिए प्रयुक्त दो अतिरिक्त नामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
वीरगोथाकाल, अपभ्रंशकाल, सन्धिकाल, आविर्भावकाल, चारणकाल, बीजवपनकाल एवं सिद्ध-सामन्त युग आदि।।

प्रश्न 19
वीरगाथाकाल में रचनाएँ कौन-कौन-से काव्य-रूपों (विधाओं) में लिखी गयीं ?
उत्तर
प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्यों के रूप में लिखी गयी हैं।।

प्रश्न 20
वीरगाथाकाल की रचनाओं में कौन-सी भाषा प्रयुक्त हुई है ?
उत्तर
डिंगल और पिंगल।

प्रश्न 21
आदिकाल के साहित्य को कितने वर्गों में विभाजित किया जा सकता है ?
उत्तर
पाँच वर्गों में—

  1. सिद्ध साहित्य,
  2. जैन साहित्य,
  3. नाथ साहित्य,
  4. रासो साहित्य,
  5. लौकिक साहित्य।

प्रश्न 22
जैन साहित्य का सबसे अधिक लोकप्रिय रूप किन ग्रन्थों में मिलता है ?
उत्तर
जैन साहित्य का सर्वाधिक लोकप्रिय रूप ‘रास’ ग्रन्थों में मिलता है।

प्रश्न 23
जैन धर्म के चार रास ग्रन्थों और उनके रचयिताओं के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. देवसेन रचित ‘श्रावकाचार रास’,
  2. मुनि जिनविजय कृत ‘भरतेश्वर बाहुबली रास’,
  3. जिनधर्मसूरि कृत ‘स्थूलभद्र रास’ तथा
  4. विजयसेन सूरि कृत रेवंतगिरि रास’।

प्रश्न 24
नाथ साहित्य के प्रणेता कौन थे ?
उत्तर
नाथ साहित्य के प्रणेता गोरखनाथ थे।

प्रश्न 25
कवियों तथा उनके ग्रन्थों का सही मेल करें-
कवि–दलपति विजय, चन्दबरदाई, नरपति नाल्ह, नल्हसिंह भाट तथा जगनिक।
ग्रन्थ—पृथ्वीराज रासो, बीसलदेव रासो, विजयपाल रासो, आल्ह खण्ड, खुमान रासो।
उत्तर
कवि ग्रन्थ
दलपति विजय – खुमान रासो [2011]
चन्दबरदाई – पृथ्वीराज रासो [2013]
नरपति नाल्ह बीसलदेव रासो
नल्हसिंह भाट – विजयपाल रासो
जगनिक – आल्ह खण्ड (परमाल रासो) [2014]

भक्तिकाल

प्रश्न 26
भक्तिकाल की सभी प्रमुख काव्यधाराओं का परिचय दीजिए।
उत्तर
भक्तिकाल में हिन्दी-कविता दो धाराओं में प्रवाहित हुई–निर्गुण भक्ति-धारा और सगुण भक्ति-धारा। निर्गुणवादियों में भी जिन्होंने ज्ञान को अपनाया, वे ज्ञानमार्गी और जिन्होंने प्रेम को अपनाया, वे प्रेममार्गी कहलाये।।

जिन कवियों ने भगवान् के दुष्टदलनकारी-लोकरक्षक रूप को सामने रखी, वे रामभक्ति शाखा से सम्बद्ध माने गये और जिन्होंने भगवान् के लोकरंजक रूप को सामने रखा, वे कृष्णभक्ति शाखा के कवि कहलाये।।

प्रश्न 27
भक्तिकाल की प्रमुख काव्यधाराओं और उनके कवियों के नाम लिखिए।
या
भक्तिकाल की विभिन्न धाराओं के नाम बताइट।
उत्तर
भक्तिकाल में दो प्रकार की काव्य-रचना हुई—

  1. निर्गुणमार्गीय तथा
  2. सगुणमार्गीय।

निर्गुण काव्य की दो धाराएँ हैं—
(क) ज्ञानाश्रयी-काव्यधारा तथा
(ख) प्रेमाश्रयी-काव्यधारा।

सगुण काव्य की भी दो धाराएँ हैं—
(क) कृष्णभक्ति-काव्यधारा तथा
(ख) रामभक्ति-काव्यधारा।

प्रश्न 28
सन्तकाव्य का अर्थ स्पष्ट कीजिए। इस धारा के प्रमुख कवि का नाम भी लिखिए।
उत्तर
सन्तकाव्य से आशय निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा से है। ये भक्त निर्गुण-निराकार की उपासना करते हैं और ज्ञान को उसकी प्राप्ति का साधन मानते हैं। इस धारा के प्रमुख कवि हैं—कबीर, रैदास, नानक, दादू, मलूकदास आदि।

प्रश्न 29
भक्तिकाल की निर्गुण तथा सगुण भक्तिधारा का परिचय दीजिए।
उत्तर
जिस धारा में भगवान् के निर्गुण-निराकार रूप की आराधना पर बल दिया गया, वह निर्गुण धारा कहलायी और जिसमें सगुण-साकार रूप की आराधना पर बल दिया गया, वह सगुण धारा कहलायी। निर्गुणवादियों में जिन्होंने भगवत्-प्राप्ति के साधन-रूप में ज्ञान को अपनाया, वे ज्ञानमार्गी और जिन्होंने प्रेम को अपनाया, वे प्रेममार्गी कहलाये। ज्ञानमार्गी शाखा के सबसे प्रमुख कवि कबीर और प्रेममार्गी (सूफी) शाखा के मलिक मुहम्मद जायसी हुए।

प्रश्न 30
ज्ञानाश्रयी निर्गुण (सन्त) काव्यधारा की मुख्य विशेषताएँ बताइए।
या
भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताओं (प्रवृत्तियों) का उल्लेख कीजिए।
या
ज्ञानाश्रयी भक्ति-शाखा की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए। भक्तिकाल की कोई एक विशेषता का उल्लेख कीजिए। [2016]
उत्तर

  1. सद्गुरु का महत्त्व सर्वाधिक; सत्संग पर भी बल।
  2. निर्गुण की उपासना एवं अवतारवाद का खण्डन।
  3. भगवान् के नाम-स्मरण तथा भजन पर बल।
  4. धर्म के क्षेत्र में रूढ़िवाद, बाह्याचार एवं आडम्बर का विरोध तथा सामाजिक क्षेत्र में विषमता, ऊँचे-नीच एवं छुआछूत का खण्डन।
  5. आन्तरिक शुद्धि एवं प्रेम साधना पर बल।
  6. ईश्वर की एकता पर बल; राम-रहीम अभिन्न हैं।

प्रश्न 31
ज्ञानाश्रयी शाखा के किसी एक कवि द्वारा रचित दो ग्रन्थों के नाम लिखिए।
उत्तर
कवि-कबीर; रचित ग्रन्थ-बीजक, कबीर-ग्रन्थावली।

प्रश्न 32
प्रेमाश्रयी भक्ति-शाखा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ (विशेषताएँ) लिखिए।
या
निर्गुण-पन्थ की प्रेमाश्रयी-शाखा की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर

  1. मुसलमान होकर भी हिन्दू प्रेमगाथाओं का वर्णन, जिनमें हिन्दू संस्कृति का चित्रण मिलता है।
  2. सूफी सिद्धान्तों का निरूपण।
  3. रहस्यवाद की चरम अभिव्यक्ति।
  4. लौकिक वर्णनों के माध्यम से अलौकिकता की व्यंजना।
  5. मसनवी शैली का प्रयोग।
  6. पूर्वी अवधी भाषा तथा दोहा-चौपाई छन्दों का प्रयोग।

प्रश्न 33
भक्तिकाल की सगुण भक्तिधारा का संक्षेप में परिचय दीजिए।
उत्तर
सगुण भक्ति में जिन्होंने भगवान् के लोकरंजक रूप को सामने रखा, वे कृष्णोपासक कहलाये तथा जिन्होंने भगवान् के दुष्ट-दलनकारी लोकरक्षक रूप को सामने रखा, वे रामभक्ति शाखा से सम्बद्ध माने गये।

प्रश्न 34
कृष्ण-काव्यधारा की प्रमुख विशेषताएँ बताइट। या भक्तिकाल की सगुण कृष्णभक्ति शाखा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ बताइट।
उत्तर

  1. श्रीमद्भागवत का आधार लेकर कृष्णलीला-गान।
  2. सख्य, वात्सल्य एवं माधुर्य भाव की उपासना एवं लोकपक्ष की उपेक्षा।
  3. काव्य में श्रृंगार एवं वात्सल्य रसों की प्रधानता; मूल आधार कृष्ण के बाल और किशोर रूप का लीला-वर्णन।
  4. ब्रज भाषा में मुक्तक काव्य-शैली की प्रधानता, जिसमें अद्भुत संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।

प्रश्न 35
कृष्णभक्ति-काव्य में वर्णित प्रमुख रसों का नामोल्लेख करते हुटे उस रचना का नाम भी बताइए, जिसमें उन सभी रसों का सर्वश्रेष्ठ चित्रण हुआ है।
उत्तर
कृष्णभक्ति-काव्य में श्रृंगार रस का सांगोपांग एवं वात्सल्य और भक्ति रसों का प्रयोग प्रमुखता से हुआ है। सूरदास के ‘सूरसागर’ में इन सभी रसों का सर्वश्रेष्ठ चित्रण है।

प्रश्न 36 कृष्ण-काव्यधारा के प्रमुख कवियों के नाम लिखिए। [2009]
या
अष्टछाप के किन्हीं दो कवियों का नाम लिखिए।
उत्तर
अष्टछाप के कवि ही कृष्ण-काव्यधारा के प्रमुख कवि थे। महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के चार शिष्यों एवं अपने चार शिष्यों को मिलाकर महाप्रभु के सुपुत्र गोसाईं विट्ठलनाथ जी ने अष्टछाप की स्थापना की, जिसके आठ कवि थे-सूरदास, कुम्भनदास, परमानन्ददास, कृष्णदास, छीतस्वामी, गोविन्ददास, चतुर्भुजदास, नन्ददास। इनके अतिरिक्त कृष्ण काव्यधारा के अन्य प्रमुख कवि हैं-मीरा, रसखान, हितहरिवंश और नरोत्तमदास।

प्रश्न 37
राम-काव्यधारा की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर

  1. लोकसंग्रह (लोकहित) की भावना के कारण मर्यादा की प्रबल भावना।
  2. राम का परब्रह्मत्व।
  3. दास्य भाव की उपासना।
  4. समन्वय की विराट् चेष्टा।
  5. स्वान्त:सुखाय काव्य-रचना।
  6. अवधी और ब्रज दोनों भाषाओं, प्रबन्ध और मुक्तक दोनों काव्य-शैलियों एवं विविध छन्दों का प्रयोग।

प्रश्न 38
रामाश्रयी शाखा के दो प्रमुख कवियों का नाम दीजिए।
या
राम को नायक मानकर रचना करने वाले दो कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर
गोस्वामी तुलसीदास और आचार्य केशवदास रामाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि हैं। इन दोनों ने राम को नायक मानकर अपने काव्यों की रचना की है।

प्रश्न 39
भक्तिकालीन काव्य को ‘हिन्दी कविता का स्वर्ण युग’ क्यों कहा जाता है ? स्पष्ट कीजिए।
या
हिन्दी साहित्य के विकास में भक्तिकाल के योगदान का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
भावों की उदात्तता, महती प्रेरकता, अनुभूति-प्रवणता, लोकहित का मुखरित स्वर, भारतीय संस्कृति का मूर्तिमान रूप, समन्वय की विराट् चेष्टा तथा कलापक्ष की समृद्धि इस काल की ऐसी विशेषताएँ हैं, जो किसी अन्य काल के काव्य में इतनी उच्च कोटि की नहीं मिलतीं। इसीलिए भक्तिकाल को हिन्दी काव्य को स्वर्ण युग कहा जाता है।

प्रश्न 40
भक्तिकाल में भक्तिभावना के कौन-से दो रूप मिलते हैं ?
उत्तर
निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति।

प्रश्न 41
भक्तिकाव्य की दो प्रमुख शाखाओं के नाम लिखिए।

  1. निर्गुण भक्ति-शाखा और
  2. सगुण भक्ति-शाखा।

प्रश्न 42
भक्तिकाल के चार प्रमुख कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर
कबीरदास, मलिक मुहम्मद जायसी, सूरदास और तुलसीदास।

प्रश्न 43
भक्तिकालीन विभिन्न काव्यधाराओं में किस धारा का काव्य सर्वश्रेष्ठ है और उसका सर्वश्रेष्ठ कवि कौन है ?
उत्तर
सर्वश्रेष्ठ काव्यधारा–रामाश्रयी काव्यधारा तथा सर्वश्रेष्ठ कवि–गोस्वामी तुलसीदास।

प्रश्न 44
भक्तिकाल की चार प्रमुख काव्यकृतियों के नाम लिखिए। भक्ति काव्यधारा की दो पुस्तकों के नाम लिखिए। [2009]
उत्तर
बीजक, पद्मावत, सूरसागर तथा श्रीरामचरितमानस।

प्रश्न 45
निर्गुण काव्यधारा की दो शाखाएँ कौन-सी हैं ?
उत्तर

  1. ज्ञानाश्रयी (सन्त) काव्यधारा तथा
  2. प्रेमाश्रयी (सूफी) काव्यधारा।

प्रश्न 46
निर्गुण-काव्यधारा की कोई एक प्रमुख विशेषता बताइए और उसके प्रमुख कवि का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर
निर्गुण काव्य में परम ब्रह्म के निराकार स्वरूप की उपासना हुई तथा ज्ञान एवं प्रेम तत्त्व की प्रधानता रही। कबीर एवं जायसी इस धारा के प्रमुख कवि हैं।

प्रश्न 47
सन्त काव्यधारा के चार प्रमुख कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर
कबीरदास, रैदास, दादू तथा नानक।

प्रश्न 48
प्रेममार्गी निर्गुण (सूफी) काव्यधारा के प्रमुख कवि का नाम तथा उनकी प्रमुख रचना का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
कवि-मलिक मुहम्मद जायसी। रचना-पद्मावत।।

प्रश्न 49
सूफी काव्यधारा की कुछ प्रमुख कृतियों के नाम लिखिए।
उत्तर
पद्मावत, मृगावती (कुतुबन), मधुमालती (मंझन), चित्रावली (उसमान) आदि।

प्रश्न 50
सगुण कृष्णभक्ति-शाखा के चार प्रमुख कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर
सूरदास, मीरा, रसखान, कुम्भनदास, गोविन्ददास, नरोत्तमदास एवं परमानन्ददास।

प्रश्न 51
कृष्णभक्ति-शाखा के किन्हीं दो कवियों की एक-एक रचना का नाम लिखिए।
या
प्रेमाश्रयी अथवा कृष्णकाव्य की दो प्रमुख काव्य-रचनाओं के नाम बताइट।
या
महाकवि सूरदास की दो रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. सूरदास-सूरसागर व साहित्यलहरी तथा
  2. मीराबाई नरसी जी का मायरा।

प्रश्न 52
राम-काव्यधारा के दो प्रमुख कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर
तुलसीदास राम-काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि हैं। अन्य प्रमुख कवि हैं–केशवदास, नाभादास एवं अग्रदास।।

प्रश्न 53
राम-काव्यधारा की रचना किन भाषाओं में हुई है ?
उत्तर
राम-काव्यधारा की रचना अवधी तथा ब्रजभाषा में हुई है।

प्रश्न 54
ब्रजभाषा तथा अवधी भाषा के मध्यकालीन एक-एक प्रसिद्ध महाकाव्य का नाम लिखिए।
उत्तर

  1. ब्रजभाषा–सूरसागर तथा
  2. अवधी भाषा-श्रीरामचरितमानस।

प्रश्न 55
रामभक्ति-शाखा के किसी एक कवि तथा उसके द्वारा रचित दो ग्रन्थों के नाम लिखिए।
या
सगुण भक्तिधारा के किसी एक कवि द्वारा रचित दो ग्रन्थों के नाम लिखिए।
उत्तर
तुलसीदास जी के चार ग्रन्थों के नाम हैं–

  1. श्रीरामचरितमानस,
  2. विनयपत्रिका,
  3. कवितावली तथा
  4. गीतावली।

प्रश्न 56
उत्तर भारत में भक्ति-भावना को प्रवाहित करने का श्रेय किसको है ?
उत्तर
स्वामी रामानन्द तथा महाप्रभु वल्लभाचार्य को।

प्रश्न 57
हिन्दी काव्य के भक्तिकाल की दो प्रमुख धाराओं के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. निर्गुण काव्यधारा (ज्ञानमार्गी तथा प्रेममार्गी)।
  2. सगुण काव्यधारा (रामभक्ति तथा कृष्णभक्ति)।

प्रश्न 58
ज्ञानमार्गी शाखा के दो कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. कबीर तथा
  2. नानक

प्रश्न 59
हिन्दी-साहित्य की भक्तिकालीन ज्ञानाश्रयी शाखा की दो विशेषताएँ संक्षेप में लिखिए।
उत्तर

  1. ज्ञानाश्रयी शाखा में निर्गुण ब्रह्म की उपासना हुई तथा
  2. जाति-पाँति, रूढ़ियों और मिथ्याडम्बरों का विरोध हुआ।

प्रश्न 60
निर्गुण भक्ति की प्रेमाश्रयी शाखा की दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर

  1. यह फारसी की मसनवी शैली में रचित है तथा
  2. अवधी भाषा में काव्य-रचना हुई।

प्रश्न 61
भक्तिकाल की प्रेमाश्रयी शाखा के एक प्रमुख कवि और उसकी एक प्रमुख रचना (महाकाव्य) का नाम लिखिए।
या
प्रेमाश्रयी शाखा के किसी एक कवि द्वारा रचित दो ग्रन्थों के नाम लिखिए। [2009]
उत्तर
कवि–मलिक मुहम्मद जायसी और उनकी रचना का नाम है पद्मावत (महाकाव्य) और अखरावट।

प्रश्न 62
रामभक्ति शाखा की दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर

  1. श्रीराम की प्रतिष्ठा पूर्ण ब्रह्म के रूप में हुई है तथा
  2. यह काव्य ब्रज तथा अवधी दोनों ही भाषाओं में रचा गया।

प्रश्न 63
भक्तिकाल की तीन सामान्य प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. जीव की नश्वरता का समान रूप से वर्णन है।
  2. प्रभु के नाम स्मरण तथा गुरु की महत्ता का वर्णन सभी कवियों ने किया है।
  3. कवियों के नामोल्लेख की प्रवृत्ति रही है।

प्रश्न 64
तुलसीदास द्वारा विरचित दो प्रसिद्ध काव्यकृतियों के नाम लिखिए जिनमें एक अवधी तथा दूसरी ब्रजभाषा की हो।
उत्तर

  1. श्रीरामचरितमानस–अवधी भाषा तथा
  2. विनयपत्रिका-ब्रजभाषा।

रीतिकाल

प्रश्न 65
रीतिकालीन काव्य की प्रमुख विशेषताएँ (प्रवृत्तियाँ) लिखिए।
या
रीतिकाल की दो प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए। [2015]
उत्तर

  1. राज्याश्रित कवियों द्वारा लक्षण-लक्ष्य पद्धति पर काव्य-रचना की गयी, ये कवि रीतिबद्ध कहलाये। जिन्होंने रीति पद्धति का तिरस्कार कर स्वतन्त्र काव्य-रचना की, वे रीतिमुक्त कवि कहलाये।
  2. श्रृंगार रस की प्रधानता, परन्तु वीर रस का भी ओजस्वी वर्णन।
  3. मुख्यत: मुक्तक शैली एवं ब्रज भाषा का प्रयोग।
  4. भाव पक्ष की अपेक्षा कला पक्ष पर बल।

प्रश्न 66
रीतिबद्ध काव्य के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए इस प्रवृत्ति की किन्हीं दो रचनाओं और उसके रचयिताओं के नाम लिखिए।
उत्तर
जिस काव्य में काव्य-तत्त्वों का लक्षण देकर उदाहरण रूप में काव्य-रचना प्रस्तुत की जाती है, उसे ‘रीतिबद्ध काव्य’ कहते हैं। इस प्रवृत्ति के दो कवियों की रचनाओं के नाम निम्नलिखित हैं-

  1. रस-विलास–आचार्य चिन्तामणि तथा
  2. कविप्रिया-आचार्य केशवदास।

प्रश्न 67
हिन्दी में रीतिबद्ध और रीतिमुक्त कविता का अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
रीतिबद्ध काव्य के अन्तर्गत वे ग्रन्थ आते हैं, जिनमें काव्य-तत्त्वों के लक्षण देकर उदाहरण के रूप में काव्य-रचनाएँ की जाती हैं, जब कि रीतिमुक्त काव्यधारा की रचनाओं में रीति–परम्परा के साहित्यिक बन्धनों एवं रूढ़ियों से मुक्त; स्वच्छन्द रचनाएँ। इस काव्यधारा के कवियों में घनानन्द का प्रमुख स्थान है और रीतिबद्ध काव्यकारों में आचार्य चिन्तामणि का प्रथम स्थान है।

प्रश्न 68
रीतिकाल में कौन-कौन-सी काव्यधाराएँ मिलती हैं ?
उत्तर

  1. रीतिबद्ध काव्यधारा तथा
  2. रीतिमुक्त काव्यधारा।

प्रश्न 69
रीतिकाल के चार प्रमुख कवियों के नाम लिखिए। [2011]
उत्तर
केशवदास, बिहारीलाल, देव एवं घनानन्द।

प्रश्न 70
रीतिकाल में वीर रस का प्रमुख कवि कौन था ? उसकी रचनाओं के नाम लिखिए। [2011]
उत्तर
रीतिकाल में वीर रस में रचना करने वाले प्रमुख कवि ‘भूषण’ थे। उनकी प्रमुख रचनाओं के नाम है-‘शिवराज भूषण’, ‘शिवा बावनी’, ‘शिवा शौर्य’, ‘छत्रसाल दशक आदि।

प्रश्न 71
केशवदास की दो प्रमुख काव्य-रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर

  1.  रामचन्द्रिका तथा
  2. कविप्रिया।

प्रश्न 72
रीतिकाल की दो काव्यकृतियों और उनके रचनाकारों के नाम लिखिए। [2008]
उत्तर

  1. सतसई-बिहारी तथा
  2. रामचन्द्रिका–केशवदास।

प्रश्न 73
रीतिकाल की पाँच प्रमुख काव्यकृतियों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. बिहारी-सतसई,
  2. रसराज (मतिराम),
  3. शिवराजभूषण (भूषण),
  4. भावविलास (देव) तथा
  5. घनानन्द कवित्त।

प्रश्न 74
रीतिकाल के चार रीतिबद्ध कवियों के नाम लिखिए।
या
रीतिकालीन किसी एक कवि का नाम लिखिए। [2011]
उत्तर

  1. चिन्तामणि,
  2. मतिराम,
  3. भूषण तथा
  4. देव

प्रश्न 75
रीतिकाल के चार रीतिमुक्त कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. घनानन्द,
  2. ठाकुर,
  3. बोधा तथा
  4. आलम।

प्रश्न 76
निम्नलिखित कवियों में से रीतिबद्ध तथा रीतिमुक्त कवियों का चुनाव कीजिए
(क) भूषण,
(ख) घनानन्द,
(ग) बिहारी,
(घ) बोधा ठाकुर,
(ङ) आचार्य केशवदास।
उत्तर
(1) रीतिबद्ध कवि-(ङ) आचार्य केशवदास, (ग) बिहारी, (क) भूषण।
(2) रीतिमुक्त कवि-(ख) घनानन्द तथा (घ) बोधा ठाकुर।

प्रश्न 77
रीतिकाव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. आश्रयदाताओं की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा।
  2. श्रृंगार और वीर रस की प्रधानता।
  3. रीतिकाल की कविता का प्रमुख स्वर श्रृंगार का था।
  4. रीतिकाल के कवियों ने नारी को भोग्या रूप में प्रस्तुत किया।

प्रश्न 78
रीतिमुक्त काव्य से आप क्या समझते हैं ? इस काव्यधारा की मुख्य प्रवृत्तियाँ लिखिए।
उत्तर
रीतिकालीन परम्परा पर आधारित रूढ़ियों एवं साहित्यिक बन्धनों से मुक्त काव्य को रीतिमुक्त काव्य कहा जाता है। इस काव्यधारा की मुख्य प्रवृत्तियाँ हैं—

  1. शास्त्रीय मान्यताओं एवं रूढ़ियों से मुक्त स्वच्छन्द काव्य-रचना,
  2. कल्पना की प्रचुरता एवं सांकेतिकता,
  3. अनुभूति, आवेश आदि को विशेष महत्त्व इत्यादि।

प्रश्न 79
रीतिकाल के किन्हीं दो आचार्य कवियों के नाम लिखिए।
या
रीतिकाल के किसी आचार्य कवि की एक रचना का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. आचार्य केशव-रामचन्द्रिका तथा
  2. आचार्य चिन्तामणि-रस-विलास।

प्रश्न 80
रीतिकाल में काव्य-रचना जिन छन्दों में की गयी है उनमें से किन्हीं दो प्रमुख छन्दों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. कवित्त तथा
  2. सवैया।

आधुनिककाल

प्रश्न 81
कविता के आधुनिककाल के प्रथम युग का नाम लिखिए तथा उस युग के एक प्रमुख कवि का नाम बताइट।
उत्तर
कविता के आधुनिककाल का प्रथम युग–भारतेन्दु युग। प्रमुख कवि-भारतेन्दु हरिश्चन्द्र।

प्रश्न 82
पुनर्जागरण काल (भारतेन्दु युग) का समय लिखिए।
उत्तर
सन् 1857 से 1900 ई० तक।

प्रश्न 83
भारतेन्दु युग के दो कवियों के नाम उनकी एक-एक रचनासहित लिखिए।
या
भारतेन्दु युग के किन्हीं दो कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र-प्रेम माधुरी तथा
  2. श्रीधर पाठक–वनाष्टक।

प्रश्न 84
निम्नलिखित में से किन्हीं दो की एक-एक प्रसिद्ध काव्य-रचना का नाम लिखिए
(1) महादेवी वर्मा,
(2) सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’,
(3) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र,
(4) केशवदास।
उत्तर
(1) महादेवी वर्मा-‘दीपशिखा’।
(2) सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’-‘परिमल’।
(3) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र-‘प्रेम-फुलवारी’।
(4) केशवदास-‘रामचन्द्रिका’।

प्रश्न 85
द्विवेदीकालीन दो प्रमुखतम महाकाव्यों के नाम लिखिए।
या
आधुनिककाल के दो महाकाव्यों और उनके रचयिताओं के नाम बताइए।
उत्तर

  1. साकेत – मैथिलीशरण गुप्त।
  2. प्रियप्रवास – अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’।

प्रश्न 86
द्विवेदीयुगीन कविता की दो प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर
द्विवेदी युग के काव्य की दो विशेषताएँ (प्रवृत्तियाँ) निम्नलिखित हैं-

  1. काव्य में ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली की प्रतिष्ठा हुई।
  2. स्वदेश प्रेम तथा स्वदेशी गौरव पर काव्य-रचनाएँ की गयीं।

प्रश्न 87
कविता के आधुनिककाल के द्वितीय युग का नाम तथा उस युग के एक प्रमुख कवि तथा एक रचना का नाम लिखिए।
उत्तर
आधुनिककाल के द्वितीय युग का नाम द्विवेदी युग’ है। कवि–मैथिलीशरण गुप्त; रचना–साकेत।

प्रश्न 88
द्विवेदी युग के दो प्रमुख कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. मैथिलीशरण गुप्त तथा
  2. अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’।

प्रश्न 89
द्विवेदी युग की समय-सीमा बताइए।
उत्तर
द्विवेदी युग की समय-सीमा 1900 ई० से 1918 ई० तक है।

प्रश्न 90
द्विवेदीयुगीन काव्यधारा के किन्हीं दो कवियों की दो-दो रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. श्री मैथिलीशरण गुप्त; रचनाएँ–भारत-भारती तथा यशोधरा,
  2. श्री अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध’; रचनाएँ—रुक्मिणी परिणय तथा वैदेही वनवास।

प्रश्न 91
कविता के आधुनिककाल के तृतीय युग का नाम लिखिए तथा उस युग के एक प्रमुख कवि का नाम लिखिए।
उत्तर
कविता के आधुनिककाल के तृतीय युग का नाम ‘छायावादी युग’ है तथा इस युग के प्रमुख कवि श्री जयशंकर प्रसाद जी हैं।

प्रश्न 92
छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषताओं (प्रवृत्तियों) का उल्लेख करते हुए किन्हीं दो छायावादी कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. मूलतः सौन्दर्य और प्रेम का काव्य,
  2. प्रकृति का मानवीकरण,
  3. अज्ञात के प्रति जिज्ञासा (रहस्यवादी प्रवृत्ति),
  4. नारी की महिमा का वर्णन,
  5. राष्ट्रीयता की भावना,
  6. वैराग्य, वेदना और पलायनवादिता,
  7. प्रतीकात्मकता और लाक्षणिकता,
  8. चित्रात्मकता,
  9. प्रगतिमयता तथा
  10. खड़ी बोली का अतिशय परिमार्जन।

दो छायावादी कवियों के नाम-

  1. जयशंकर प्रसाद तथा
  2. सुमित्रानन्दन पन्त।

प्रश्न 93
छायावादी कविता के हास के कारण लिखिए।
उत्तर
विदेशी शासन के दमन के कारण जनसाधारण की निरन्तर बढ़ती पीड़ा छायावाद के ह्रास का मुख्य कारण बनी। इस दमन को देखकर कविगण कल्पना लोक से उबरकर यथार्थ के कठोर धरातल पर आ गये। पूँजी की वृद्धि तथा दीनता का प्रसार भी छायावाद के ह्रास का कारण बना।

प्रश्न 94
छायावाद काल की समय-सीमा बताइए।
उत्तर
सन् 1918 से 1938 ई० तक का समय छायावाद के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 95
छायावाद के चार कवि और उनकी दो-दो रचनाएँ लिखिए।
या
पायावाद के दो प्रमुख कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. जयशंकर प्रसाद कामायनी; आँसू,
  2. सुमित्रानन्दन पन्त-पल्लव; ग्राम्या,
  3. सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला’–परिमल; गीतिका,
  4. महादेवी वर्मा–दीपशिखा; सान्ध्य-गीत।।

प्रश्न 96
दो रहस्यवादी कवि और उनकी रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. सुमित्रानन्दन पन्त कृत ‘पल्लव’ तथा
  2. महादेवी वर्मा कृत ‘दीपशिखा’।

प्रश्न 97
छायावादी कविता के हास के कारण संक्षेप में लिखिए।
उत्तर

  1. छायावादी कविता में सूक्ष्म और वायवीय कल्पनाओं की अधिकता थी।
  2. स्थूल जगत की कठोर वास्तविकता से उसका कोई सम्बन्ध नहीं रह गया था।
  3. समाज में पूँजी के विरुद्ध आवाज उठ रही थी, इसलिए अतिशय कल्पना को छोड़ रोटी, कपड़ा और मकान कविता का विषय बनने लगे थे।

प्रश्न 98
निम्नलिखित कवियों की एक-एक प्रमुख रचना का नाम लिखिए जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’, सुमित्रानन्दन पन्त, रामधारी सिंह ‘दिनकर’।
उत्तर

  1. जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’, रचना-गंगावतरण।
  2. सुमित्रानन्दन पन्त, रचना-चिदम्बरी।
  3. रामधारी सिंह ‘दिनकर’, रचना–उर्वशी।

प्रश्न 99
निम्नलिखित कवियों में से किन्हीं दो द्वारा रचित एक-एक महाकाव्य का नाम लिखिए
(1) चन्दबरदाई,
(2) तुलसीदास,
(3) अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’,
(4) रामधारी सिंह ‘दिनकर’।।
उत्तर
(1) पृथ्वीराज रासो,
(2) श्रीरामचरितमानस,
(3) प्रियप्रवास तथा
(4) कुरुक्षेत्र।

प्रश्न 100
बिहारी, मैथिलीशरण गुप्त, अज्ञेय, रत्नाकर, पन्त, दिनकर में से किन्हीं दो की एक-एक रचना का नाम लिखिए।
उत्तर
अज्ञेय–आँगन के पार द्वार। जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’-उद्धवशतक।

प्रश्न 101
आधुनिक युग (छायावादी काव्यधारा) के किसी एक महाकाव्य और उसके रचनाकार का नाम लिखिए।
या
‘कामायनी’ महाकाव्य के सर्गों के नाम लिखिए। [2013]
उत्तर
महाकाव्य-कामायनी; रचनाकार–जयशंकर प्रसाद।
‘कामायनी’ महाकाव्य के सर्गों के नाम हैं—

  1. चिन्ता,
  2. आशा,
  3. श्रद्धा,
  4. काम,
  5. वासना,
  6. लज्जा ,
  7. कर्म,
  8. ईष्र्या,
  9. इडा,
  10. स्वप्न,
  11. संघर्ष,
  12. निर्वेद,
  13. दर्शन,
  14. रहस्य तथा
  15. आनन्द

प्रश्न 102
प्रगतिवादी काव्य का परिचय दीजिए।
उत्तर
प्रगतिवादी काव्य का उद्भव छायावादी काव्य की काल्पनिक एवं भावुकतापूर्ण अभिव्यक्ति के विद्रोहस्वरूप हुआ। इस वाद के काव्यों में स्थूल जगत् की वास्तविकता, सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों एवं वर्ग-शोषण के स्वर को अलंकारविहीन तथा सरल रूप में अभिव्यक्ति दी गयी।

प्रश्न 103
प्रगतिवादी कविता की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
या
प्रगतिवादी काव्य की दो प्रमुख प्रवृत्तियों (विशेषताओं) का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. साम्यवाद का काव्यात्मक रूपान्तर (अर्थात् मार्क्स और रूस का गुणगान, पूँजीवाद का विरोध एवं कृषक-मजदूर-राज्य की स्थापना का स्वप्न),
  2. यथार्थवाद,
  3. परम्पराओं और रूढ़ियों का विरोध,
  4. धर्म और ईश्वर में अविश्वास,
  5. श्रम की महत्ता की स्थापना,
  6. शोषितों के प्रति सहानुभूति,
  7. वेदना और निराशा,
  8. नारी के प्रति आधुनिक यथार्थवादी दृष्टिकोण,
  9. जन-भाषा का आग्रह तथा
  10. छन्दों और अलंकारों का बहिष्कार।

प्रश्न 104
प्रगतिवाद के प्रमुख कवियों और उनकी रचनाओं के नाम लिखिए।
या
प्रगतिवादी काव्यधारा के किन्हीं दो कवियों की एक-एक रचना का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
नागार्जुन (युगधारा), केदारनाथ अग्रवाल (युग की गंगा), शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ (प्रलयसृजन), त्रिलोकचन्द शास्त्री (धरती)।

प्रश्न 105
प्रगतिवादी युग के दो कवियों तथा उनकी एक-एक रचना का नाम लिखिए।
उत्तर

  1. रामधारी सिंह ‘दिनकर’-उर्वशी तथा
  2. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’–विन्ध्य हिमालय से।।

प्रश्न 106
छायावादोत्तर काल की कविता का काल-विभाजन लिखिए।
उत्तर
(क) प्रगतिवाद, प्रयोगवाद (1938-1959 ई०);
(ख) नयी कविता का काल (1959 ई० से वर्तमान तक)।।

प्रश्न 107
प्रयोगवादी कविता की मुख्य विशेषताएँ बताइए। या छायावादोत्तर काल की काव्य-प्रवृत्तियाँ लिखिए।
उत्तर

  1. अति वैयक्तिकता,
  2. निराशा, कुण्ठा और घुटन,
  3. फ्रायड के प्रभाववश नग्न यौन-चित्रण,
  4. अतियथार्थवाद (नग्न यथार्थ),
  5. पराजय, पलायन और वेदना,
  6. बौद्धिकता,
  7. क्षण का महत्त्व,
  8. अवचेतन के यथावत् प्रकाशन का आग्रह,
  9. अनगढ़ भाषा का प्रयोग एवं
  10. नया शिल्पविधान (नये उपमानों, बिम्बों, प्रतीकों का प्रयोग तथा छन्दहीनता का आग्रह)।

प्रश्न 108
प्रयोगवाद से आप क्या समझते हैं ? ‘नयी कविता’ क्या है ?
उत्तर
सन् 1943 में प्रकाशित ‘तारसप्तक’ की कविताओं में नये बिम्ब-विधानों, नये अलंकारों और नयी भावाभिव्यक्ति को अपनाया गया। काव्य की इसी नयी विधा को ‘प्रयोगवादी काव्य’ के नाम से अभिहित किया गया। नयी कविता इस प्रयोगवादी कविता का ही विकसित रूप है।

प्रश्न 109
प्रयोगवादी काव्यधारा का नेतृत्व करने वाले कवि का नामोल्लेख कीजिए और उनके एक प्रमुख प्रकाशन का नाम लिखिए। [2011]
उत्तर
प्रयोगवादी काव्यधारा का नेतृत्व करने वाले कवि सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय हैं। इन्होंने ‘तारसप्तक’ नामक एक काव्य-संकलन सन् 1943 ई० में प्रकाशित किया। ‘कितनी नावों में कितनी बार इनकी एक प्रमुख रचना है, जिस पर इन्हें ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार की प्राप्ति हुई है।

प्रश्न 110
प्रथम तारसप्तक के कवियों के नाम लिखिए।
या
हिन्दी में प्रयोगवादी काव्यधारा के किन्हीं चार कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर
सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, गजानन माधव मुक्तिबोध’, गिरिजाकुमार माथुर, प्रभाकर माचवे, नेमिचन्द्र जैन, भारत भूषण और रामविलास शर्मा। सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने इन सात कवियों की रचनाएँ ‘तारसप्तक’ के नाम से सन् 1943 ई० में प्रकाशित कीं।

प्रश्न 111
‘तारसप्तक’ का प्रकाशन किसने और किस समय किया? इसके सम्पादक कौन थे ?
उत्तर
श्री सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने सन् 1943 ई० में अपनी पीढ़ी के अन्य छ: कवियों के सहयोग से ‘तारसप्तक’ का प्रकाशन किया। इसके सम्पादक श्री सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ स्वयं थे।

प्रश्न 112
‘तारसप्तक’ की कविताएँ किस काव्यधारा से सम्बन्धित हैं ?
उत्तर
‘तारसप्तक’ की कविताएँ प्रयोगवादी काव्यधारा से सम्बन्धित हैं।।

प्रश्न 113
‘दूसरा सप्तक’ के कवियों के नाम लिखिए। यह कब प्रकाशित हुआ ? [2016]
उत्तर
‘दूसरा सप्तक’ में भवानी प्रसाद मिश्र, शकुन्त माथुर, हरिनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय तथा धर्मवीर भारती की कविताएँ संकलित थीं। इस सप्तक की रचनाओं में आत्मान्वेषण पर बल दिया गया था तथा यह सन् 1951 ई० में प्रकाशित हुआ।

प्रश्न 114
‘तीसरा सप्तक’ के कवियों के नाम लिखिए। यह कब प्रकाशित हुआ ? या तीसरा सप्तक के प्रकाशन-वर्ष का उल्लेख कीजिए। | [2012, 14, 17]
उत्तर
‘तीसरा सप्तक’ के अन्तर्गत प्रयागनारायण त्रिपाठी, कीर्ति चौधरी, मदन वात्स्यायन, केदारनाथ सिंह, कुंवर नारायण, विजयदेव नारायण साही तथा सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की रचनाएँ संकलित हैं। इस सप्तक की कविताओं में सौन्दर्यवादी प्रवृत्ति के साथ-साथ युगीन सत्य की भी निश्छल अभिव्यक्ति मिलती है। इसका प्रकाशन सन् 1959 ई० में हुआ।

प्रश्न 115
‘चौथा सप्तक’ कब प्रकाशित हुआ ? इसके कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर
सन् 1979 ई० में चौथा सप्तक प्रकाशित हुआ। इसमें अवधेश कुमार, राजकुमार कुम्भज, स्वदेश भारती, नन्दकिशोर आचार्य, सुमन राजे, श्रीराम वर्मा, राजेन्द्र किशोर की रचनाएँ संकलित हैं।

प्रश्न 116
प्रयोगवादी काव्य की पाँच रचनाओं और रचयिताओं के नाम लिखिए।
या
प्रयोगवादी काव्यधारा के किन्हीं दो कवियों की एक-एक रचना का उल्लेख कीजिए। उत्तर भग्नदूत (सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’), चाँद का मुँह टेढ़ा (गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’); ओ अप्रस्तुत मन (भारतभूषण अग्रवाल), धूप के धान (गिरिजाकुमार माथुर), गीतफरोश (भवानीप्रसाद मिश्र)।।

प्रश्न 117
आधुनिक युग की कविता की चार मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर

  1. यथार्थ का उन्मुक्त चित्रण,
  2. नारी-मुक्ति का आह्वान,
  3. लघुता के प्रति सजगता और
  4. गेय तत्त्व की अवहेलना।

प्रश्न 118
आधुनिक कविता के प्रमुख वादों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, हालावाद, स्वच्छन्दतावाद आदि आधुनिक कविता के प्रमुख वाद हैं।

प्रश्न 119
नयी कविता से आप क्या समझते हैं ? इसके आरम्भ होने का समय लिखिए। [2013]
उत्तर
इसका आरम्भ सन् 1954 ई० में जगदीश गुप्त और डॉ० रामस्वरूप चतुर्वेदी के सम्पादन में ‘नयी कविता’ के प्रकाशन से हुआ। यह कविता किसी वाद से बँधकर नहीं चलती।

प्रश्न 120
नयी कविता को अकविता क्यों कहा जाता है ?
उत्तर
नयी कविता परम्परागत कविता के स्वरूप से नितान्त भिन्न हो गयी है। यह किसी वाद या दर्शन से जुड़ी नहीं है, इसलिए इसे अकविता कहा जाता है।

प्रश्न 121
नयी कविता की किन्हीं दो प्रमुख रचनाओं का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. युग की गंगा-केदारनाथ अग्रवाल तथा
  2. बूंद एक टपकी-भवानीप्रसाद मिश्र।।

प्रश्न 122
‘नयी कविता’ से सम्बन्धित किन्हीं दो पत्रिकाओं के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. कल्पना’ तथा
  2. ‘ज्ञानोदय’।

प्रश्न 123
नयी कविता के पाँच प्रमुख कवियों के नाम बताइए।
उत्तर
जगदीश गुप्त, धर्मवीर भारती, नरेश मेहता, लक्ष्मीकान्त वर्मा तथा सर्वेश्वरदयाल सक्सेना।

प्रश्न 124
नयी कविता की विशेषताओं (प्रवृत्तियों) का उल्लेख करते हुए किन्हीं दो प्रतिनिधि कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर
नयी कविता की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. यथार्थता,
  2. वर्जनाओं से मुक्ति (अर्थात् सामाजिक मर्यादाओं एवं बन्धनों का तिरस्कार करके नि:संकोचे अश्लील चित्रण),
  3. हृदयपक्ष की अपेक्षा बुद्धिपक्ष की प्रधानता,
  4. निराशा तथा अवसाद (खिन्नता) की प्रबलता,
  5. खिचड़ी भाषा, जिसमें हिन्दी की विभिन्न बोलियों, प्रादेशिक भाषाओं एवं अंग्रेजी आदि के शब्दों का घालमेल तथा
  6. प्रतीकों, बिम्बों एवं मुक्त छन्द पर बल। | नयी कविता के दो प्रतिनिधि कवि हैं-जगदीश गुप्त और सर्वेश्वरदयाल सक्सेना।।

प्रश्न 125
नवगीत’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर
‘नवगीत’ छायावादी एवं प्रगतिवादी दोनों ही काव्यों की कई विशेषताओं से युक्त ऐसा काव्य है, जिसमें आधारभूत चेतना, जीवन-दृष्टि, भाव-भूमि एवं अभिव्यंजना शैली की व्यापकता, सूक्ष्मता, विविधता, यथार्थता एवं लौकिकता का एकान्तिक संयोग है।

प्रश्न 126
‘नवगीत’ की किन्हीं दो आधारभूत विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
नवगीत की दो आधारभूत विशेषताएँ हैं-

  1. सर्वत्र भावानुकूल भाषा का प्रयोग तथा
  2. स्वस्थ बिम्ब एवं प्रतीक विधान।।

प्रश्न 127
नवगीत’ के दो महत्त्वपूर्ण गीतकारों और उनकी रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर
नवगीत’ के दो महत्त्वपूर्ण गीतकार और उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. शम्भूनाथ सिंह (‘उदयाचल’, ‘दिवालोक’, ‘समय की शिला पर’, ‘जहाँ दर्द नील हैं’ आदि।) तथा
  2. वीरेन्द्र मिश्र (‘गीतम’, ‘लेखनी बेला’, ‘अविराम चल मधुवन्ति’ आदि।)

प्रश्न 128
नवगीतधारा के प्रमुख कवियों के नाम बताइए।
उत्तर
रमानाथ अवस्थी, डॉ० शम्भूनाथ सिंह, श्रीपाल सिंह ‘क्षेम’, गुलाब खण्डेलवाल, सुमित्राकुमारी सिन्हा, शान्ति मेहरोत्रा, हंसकुमार तिवारी, सोम ठाकुर, गोपालदास नीरज’, वीरेन्द्र मिश्र तथा डॉ० कुँवर बेचैन।

प्रश्न 129
साठोत्तरी कविता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर
साठोत्तरी कविता मोह-भंग, आक्रोश, अस्वीकार, तनाव और विद्रोह की कविता है। इसको मुहावरा नया है, शैली बेपर्द है और इसमें जिजीविषा का गहरा रंग है।

प्रश्न 130
साठोत्तरी कविता की किन्हीं दो आधारभूत विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
साठोत्तरी कविता की दो आधारभूत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—

  1. अन्याय के विरुद्ध और शासन द्वारा कही जाने वाली चिकनी-चुपड़ी बातों की आक्रोशयुक्त स्वर में अभिव्यक्ति तथा
  2. व्यक्ति और उसके परिवेश की हर परत की बेपर्द अभिव्यक्ति।

प्रश्न 131
साठोत्तरी कविता के किन्हीं दो प्रमुख कवियों और उनकी रचनाओं के नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर
साठोत्तरी कविता के दो महत्त्वपूर्ण कवि और उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं–

  1. धूमिल (‘संसद से सड़क तक’, ‘कल सुनना मुझे’, ‘सुदामा पाण्डे का प्रजातन्त्र’ आदि) तथा
  2. रामदरश मिश्र (‘पथ के गीत’, ‘बैरंग बेनाम चिट्ठियाँ’, ‘पक गयी है धूप’, ‘कन्धे पर सूरज’ आदि)।

प्रश्न 132
‘नया दोहा’ के प्रमुख संकलनों के नाम लिखिए।
उत्तर
नया दोहा’ के प्रमुख संकलनों के नाम निम्नलिखित हैं

  1. अमलतास की छाँव (पाल भसीन),
  2. आँखों खिले पलाश (पं० देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’),
  3. कटुक सतसई (विश्वप्रकाश दीक्षित ‘बटुक’),
  4. कालाय तस्मै नमः (भारतेन्दु मिश्र) आदि।

प्रश्न 133
वर्तमान युग के पाँच जीवित कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर
वर्तमान युग के पाँच जीवित कवियों के नाम हैं—पं० देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’, पाल भसीन, विश्वप्रकाश दीक्षित ‘बटुक, भारतेन्दु मिश्र और दिवाकर आदित्य शर्मा।।

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UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 3 Man and His Environment

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 3 Man and His Environment (मानव एवं उसका पर्यावरण) are part of UP Board Solutions for Class 12 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 3 Man and His Environment (मानव एवं उसका पर्यावरण).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography
Chapter Chapter 3
Chapter Name Man and His Environment (मानव एवं उसका पर्यावरण)
Number of Questions Solved 19
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 3 Man and His Environment (मानव एवं उसका पर्यावरण)

विस्तृत उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पर्यावरण से क्या अभिप्राय है? पर्यावरण के तत्त्वों पर प्रकाश डालिए। [2007]
या
प्राकृतिक पर्यावरण के तत्त्वों का वर्णन कीजिए। [2007]
या
भौतिक पर्यावरण के चार क्षेत्रों का उल्लेख कीजिए। [2009] पर्यावरण के दो प्रमुख संघटकों का उल्लेख कीजिए। (2010, 13, 14, 15, 16)
या
पर्यावरण के प्रमुख तत्त्वों की विवेचना कीजिए तथा मानव के क्रियाकलापों पर उनके प्रभावों की व्याख्या कीजिए। (2014)
उत्तर

पर्यावरण का अर्थ Meaning of Environment

पर्यावरण भूगोल का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। पर्यावरण’ भूतल पर चारों ओर का वह आवरण है जो मानव को प्रत्येक ओर से घेरे हुए है और उसके जीवन तथा क्रियाकलापों पर प्रभाव डालता है तथा संचालित करता है। इस दशा में मानव से सम्बन्धित समस्त बाह्य तथ्य, वस्तुएँ, स्थितियाँ तथा दशाएँ शामिल होती हैं, जिनकी क्रिया-प्रतिक्रियाएँ मानव के जीवन-विकास को प्रभावित करती हैं। प्राकृतिक पर्यावरण द्वारा मानव के सभी । क्रियाकलाप निर्धारित होते हैं। ये प्राकृतिक परिस्थितियाँ–धरातलीय बनावट, जलवायु, वनस्पति, मिट्टी, खनिज-सम्पदा तथा जैविक तत्त्व-किसी-न-किसी प्रकार मानव को प्रभावित करते हैं; अर्थात् मानव इस प्राकृतिक पर्यावरण की देन है। पर्यावरण के सम्बन्ध में सभी भूगोलवेत्ता एकमत नहीं हैं। अत: पर्यावरण को समझने के लिए निम्नांकित विद्वानों द्वारा दी गयी परिभाषाओं का अध्ययन एवं विश्लेषण करना आवश्यक होगा –

जर्मन वैज्ञानिक फिटिंग ने पर्यावरण को परिभाषित करते हुए कहा है कि, “जीव के परिस्थिति कारकों का योग पर्यावरण है; अर्थात् जीवन की परिस्थिति के समस्त तथ्य मिलकर पर्यावरण कहलाते हैं।”
ए० जी० तांसले के अनुसार, “प्रभावकारी दशाओं का वह सम्पूर्ण योग जिसमें जीव निवास करते हैं, पर्यावरण कहलाता है।”
एम० जे० हर्सकोविट्ज के अनुसार, “पर्यावरण उन समस्त बाह्य दशाओं और प्रभावों का योग है। जो प्राणी के जीवन एवं विकास पर प्रभाव डालते हैं।”
प्रो० डेविस के अनुसार, “मानव के सम्बन्ध में भौगोलिक पर्यावरण से अभिप्राय भूमि अथवा मानव के चारों ओर फैले उन भौतिक स्वरूपों से है, जिनमें वह निवास करता है, जिनका उसकी आदतों और क्रियाओं पर प्रभाव पड़ता है।”

पर्यावरण के प्रकार एवं तत्त्व
Elements and Types of Environment

पर्यावरण को निम्नलिखित दो मुख्य भागों में बाँटा जा सकता है –
1. भौतिक या प्राकृतिक पर्यावरण (Physicalor Natural Environment) – इसके अन्तर्गत वे समस्त भौतिक शक्तियाँ, तत्त्व एवं क्रियाएँ सम्मिलित की जा सकती हैं जिनको प्रत्यक्ष प्रभाव मानव के क्रियाकलापों पर पड़ता है। भौतिक शक्तियों में पृथ्वी की गतियाँ, सूर्यातप, गुरुत्वाकर्षण बल, भूकम्प एवं ज्वालामुखी क्रिया, भू-पटल की गतियाँ तथा प्राकृतिक तथ्यों से सम्बन्धित सभी दृश्य सम्मिलित किये जाते हैं। इन शक्तियों द्वारा भू-तल पर अनेक क्रियाओं का जन्म होता है, जिनसे पर्यावरण के तत्त्वों का जन्म होता है। इन शक्तियों अथवा क्रियाओं और तत्त्वों का सम्मिलित प्रभाव मानव के क्रियाकलापों पर पड़ता है।

भौतिक क्रियाओं में भूमि का अपक्षय, अपरदन, निक्षेपण, ताप विकिरण, संचालन, संवाहन, वायु एवं जल की गतियाँ, जीवधारियों की उत्पत्ति तथा उनका विकास एवं विनाश आदि क्रियाएँ सम्मिलित हैं। इन प्रक्रियाओं से प्राकृतिक वातावरण अपनी अनेक क्रियाओं का क्रियान्वयन करता है, जिनका प्रत्यक्ष । प्रभाव मानव के क्रियाकलापों पर पड़ता है।
भौतिक पर्यावरण के तत्त्व – इनकी उत्पत्ति एवं विकास धरातल पर विभिन्न शक्तियों और प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप होता है। भौतिक पर्यावरण के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं –

  1. भौगोलिक स्थिति
  2. महासागर और तट
  3. नदियाँ और झीलें
  4. मिट्टियाँ, खनिज पदार्थ
  5. उच्चावच
  6. भूमिगत जल
  7. देशों का आकार एवं विस्तार
  8. जलवायु (तापमान, वर्षा, आर्द्रता आदि)
  9. प्राकृतिक वनस्पति तथा
  10. जैविक तत्त्व।

उपर्युक्त सभी तत्वों द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण का निर्माण होता है। इन सभी का सम्मिलित एवं व्यापक प्रभाव मानव-जीवन पर अवश्य ही पड़ता है। ये सभी तत्त्व मानव के लिए महत्त्वपूर्ण नि:शुल्क प्राकृतिक उपहार हैं। प्रो० हरबर्टसन के अनुसार, “भौतिक शक्तियों को मानव पर इतना अधिक प्रभाव पड़ता है कि वे मानव-जीवन एवं उसके क्रियाकलापों में स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं।”

2. सांस्कृतिक या मानव-निर्मित पर्यावरण (Cultural or Man-made Environment) – प्राकृतिक पर्यावरण को मनुष्य ज्ञान-विज्ञान एवं तकनीकी विकास द्वारा परिवर्तित कर उन्हें अपने अनुरूप ढालने का प्रयास करता है; क्योकि वह (मानव) एक सजीव तथा क्रियाशील इकाई है। भूमि को जोतकर कृषि करना, उसमें नहरें, रेलपथ एवं सड़कें बनाना, वनों को साफ करना, पर्वतों को काटकर सुरंगें बनाना, नवीन बस्तियाँ बसाना, विभिन्न इमारतों का निर्माण करना, भू-गर्भ से खनिज पदार्थों का शोषण करना, उद्योग-धन्धे स्थापित करना आदि मानवीय क्रियाओं के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं। इस प्रकार मानव एक केन्द्रीय कारक है। मानव-निर्मित इस प्रकार के पर्यावरण को सांस्कृतिक या प्राविधिक पर्यावरण के नाम से पुकारा जाता है।

मानव-निर्मित वातावरण में भी विभिन्न शक्तियाँ, तत्त्व एवं प्रक्रियाएँ क्रियाशील रहती हैं। सांस्कृतिक वातावरण की शक्तियों में क्षेत्र-विशेष के जनसमूह के विभिन्न पहलुओं; जैसे-जनसंख्या, वितरण, लिंग, स्वास्थ्य, शिक्षा, तकनीकी आदि को सम्मिलित किया जाता है। सांस्कृतिक प्रक्रियाओं के अन्तर्गत पोषण, समूहीकरण, पुन: उत्पादन, प्रभुत्व स्थापन, प्रवास, पृथक्करण, अनुकूलन, समाचौर्जन, विशेषकरण तथा अनुक्रमण आदि सम्मिलित किये जाते हैं।
साँस्कृतिक वातावरण के तत्त्व – सांस्कृतिक वातावरण के तत्त्व मानव एवं उसके समूह दोनों की प्रभावित करते हैं। ये तत्त्व निम्नलिखित हैं –

  1. प्राथमिक या अनिवार्य आवश्यकताएँ – भोजन, वस्त्र एवं आवास।
  2. आर्थिक व्यवसाय के प्रतिरूप – प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक व्यवसाय; जैसे-खाद्यान्न संग्रहण, आखेट करना, मछली पकड़ना, निर्माण उद्योग, परिवहन, वाणिज्य एवं व्यापार विभिन्न सेवाएँ आदि।
  3. तकनीकी प्रतिरूप – यन्त्र, उपकरण, यातायात एवं संचार के साधन।
  4. सामाजिक आवश्यकताएँ – शिक्षा, भाषा, धर्म, दर्शन, कला एवं साहित्य।
  5. सामाजिक संगठन – समुदाय, प्रबन्ध, सहकारिता, घर-परिवार, सामाजिक प्रथाएँ, लोक-रीतियाँ आदि।
  6. राजनीतिक संगठन – राज्य, सरकार, सम्पत्ति, कानून, शक्तियाँ, जनमत एवं अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध आदि।

प्राकृतिक पर्यावरण का मानव के क्रियाकलापों से सम्बन्ध
Relation between Natural Environment and Human Activities

प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक दोनों ही वातावरणों का सामूहिक प्रभाव मानव के क्रियाकलापों पर पड़ता है। इसके अन्तर्गत समय तत्त्व भी महत्त्वपूर्ण है। मानव भूगोल में दोनों ही प्रकार के वातावरण का विशेष महत्त्व है। वातावरण के सभी प्राकृतिक तत्त्व, सांस्कृतिक तत्त्वों से जुड़े हुए हैं। कुमारी सेम्पुल के शब्दों में, “मानव पृथ्वी के धरातल की उपज है। सभी जड़ एवं चेतन पदार्थों में भौगोलिक वातावरण का प्रभाव अन्तिम है।” प्रो० वायने सांस्कृतिक पर्यावरण को मानव-क्रियाओं और भौतिक पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्धों की अभिव्यक्ति मानते हैं। उनके अनुसार, “मानवीय क्रियाएँ जो विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सम्पन्न की जाती हैं, भौतिक वातावरण से सामंजस्य स्थापित करती हैं। इनके फलस्वरूप भौतिक पर्यावरण परिवर्तित होता है और सांस्कृतिक पर्यावरण का विकास होता है। मनुष्य स्वयं भी इस पर्यावरण का अभिन्न अंग बन जाता है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि मानव भूगोल के अध्ययन के लिए पर्यावरण के दोनों अंगों अर्थात् प्राकृतिकसांस्कृतिक पर्यावरण का प्रारम्भिक ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है।
[ मानव के क्रियाकलापों पर प्रभाव – इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 2 का उत्तर देखें।

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प्रश्न 2
उदाहरण देकर मानव की आर्थिक क्रियाओं पर प्राकृतिक पर्यावरण के प्रभाव की विवेचना कीजिए।
या
उदाहरण देते हुए मानवीय क्रियाकलापों पर भौतिक वातावरण के प्रभाव को समझाइए।
या
मैदानों को सभ्यता का पालना” क्यों कहा जाता है ?
उत्तर
मानव भूगोल में उन प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक तथ्यों का अध्ययन किया जाता है जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध मानव और उसके जीवन के क्रियाकलापों से होता है। ये तथ्य पर्यावरण से सम्बन्धित होते हैं। पर्यावरण के दो भेद हैं-

  1. प्राकृतिक पर्यावरण एवं
  2. सांस्कृतिक पर्यावरण।

प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण के तत्त्व एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं तथा उनका सम्मिलित प्रभाव मानवीय जीवन एवं उसके कार्यों पर पड़ता है। यह भौगोलिक पर्यावरण ही होता है जो मानव के क्रियाकलापों एवं उसकी आदतों को निर्धारित करता है। इस सम्बन्ध में रैटजेल ने कहा है कि पर्यावरण एवं मानव के पारस्परिक सम्बन्धों में पर्यावरण अधिक शक्तिशाली है, यहाँ तक कि संसार के विभिन्न प्रदेशों में मनुष्यों के रहन-सहन, आर्थिक, औद्योगिक, सामाजिक एवं संस्कृति को वातावरण की ही देन माना गया है। कुमारी सेम्पुल ने इनके साथ-साथ मानने के विचारों, भावनाओं एवं धार्मिक विश्वासों पर भी प्राकृतिक़ पर्यावरण का प्रभाव बताया है। कार्ल रिट्र का मत था कि पृथ्वी और उसके निवासियों में परस्पर गहनतम सम्बन्ध होता है तथा एक के बिना दूसरे का वर्णन नहीं हो सकता। इस प्रकार-इस विचारधारा के समर्थकों को वातावरण निश्चयवाद‘ के प्रतिपादक के रूप में जाना जाता है। इस आधार पर प्राकृतिक पर्यावरण का प्रभाव मानव पर अनेक रूपों में पड़ता है, जिसे निम्नलिखित रूपों में समझा जा सकता है –

1. भौगोलिक स्थिति एवं मानव – पृथ्वीतल पर भिन्न-भिन्न क्षेत्रों और स्थानों की स्थिति की विभिन्नता देखी जाती है तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के पर्यावरण का प्रभाव मानव-जीवन पर भी भिन्न-भिन्न होता है। भौगोलिक स्थिति का प्रभाव उस प्रदेश के निवासियों के रूप, रंग, आकृति, भोजन, वस्त्र, आवास, रहन-सहन और रीति-रिवाजों पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। यही कारण है कि द्वीपीय स्थिति मानव-निवास के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है, क्योंकि यहाँ पर सम जलवायु एवं बन्दरगाहों द्वारा व्यापार की सुविधाएँ रहती हैं। इन्हीं कारणों से जापान एवं ब्रिटेन ने अपनी द्वीपीय स्थिति का लाभ उठाया है तथा उनके निवासी प्रगति के चरम बिन्दु पर पहुँचे हैं। महाद्वीपीय स्थिति किसी प्रदेश के आर्थिक विकास में बाधक होती है। यही कारण है कि मंगोलिया एवं अफगानिस्तान सदृश देश आर्थिक प्रगति में अभी भी बहुत पीछे हैं। व्यापारिक मार्गों एवं उन्नत संसाधन-प्रदेशों के निकट स्थित देश भी विकास की गति में आगे रहते हैं। सिंगापुर एवं कोरिया इसके महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि भौगोलिक स्थिति का मानव पर्यावरण पर अत्यन्त गहरा प्रभाव पड़ता है। तथा यह उसके आर्थिक विकास में सहायक होती है।

2. जलवायु एवं मानव – प्राकृतिक पर्यावरण का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व जलवायु है। मानवीय जीवन को प्रभावित करने और दिशा निर्धारित करने में जलवायु सबसे शक्तिशाली कारक है। मानव के लिए भोजन, वस्त्र, मकानों की आकृति तथा कृषि-फसलों को जलवायु ही निर्धारित करती है। पृथ्वीतल पर मानव का निवास जलवायु द्वारा निश्चित होता है। मानसूनी, उपोष्ण कटिबन्धीय तथा सम-शीतोष्ण जलवायु प्रदेशों में विश्व की 98% जनसंख्या निवास करती है। इसके विपरीत शीत-प्रधान टुण्ड्रा, उष्ण मरुस्थलों तथा आर्कटिक एवं हिमाच्छादित प्रदेशों के अस्थायी निवासों में विरल जनसंख्या निवास करती है। जलवायु द्वारा मानव-जीवन के निम्नलिखित पक्ष प्रभावित होते हैं –

  1. मानव का स्वास्थ्य एवं किसी प्रदेश में रह सकने की क्षमता तथा मानवीय भौतिक शक्ति
  2. मानव की खाद्य पूर्ति और पेयजल की उपलब्धि
  3. वस्त्र एवं उनके प्रकार
  4. मकान व उनके निर्माण की सामग्री तथा उनकी आकृति
  5. मानवीय क्रियाकलाप अर्थात् व्यवसाय तथा
  6. मानवीय संस्कृति।

जलवायु द्वारा ही मानव के व्यवसाय एवं कृषि-फसलें निर्धारित होती हैं। उदाहरण के लिए, भारतवर्ष में 100 सेमी से अधिक वर्षा वाले भागों में चावल एवं गन्ने का उत्पादन किया जाता है, जब कि 50 से 100 सेमी वर्षा वाले भागों में मिश्रित खाद्यान्न फसलें निर्धारित हुई हैं। अनुकूल जलवायु के कारण ही भूमध्यसागरीय प्रदेशों में गेहूं व फलों आदि की कृषि की जाती है। कठोर एवं विषम जलवायु के कारण विषुवतेरेखीय प्रदेशों में प्राकृतिक संसाधनों का बाहुल्य है, परन्तु औद्योगिक पिछड़ापन पाया जाता है।

उष्ण कटिबन्धीय एवं उपोष्ण कटिबन्धीय जलवायु प्रदेशों में सूती वस्त्र पहने जाते हैं, परन्तु शीत-प्रधान देशों में वर्ष-भर ऊनी या समूर के वस्त्र पहने जाते हैं। अधिक वर्षा वाले भागों में मकानों की छतें ढलवाँ बनाई जाती हैं, जिससे वर्षा का जल नीचे को बह जाए। हिम प्रदेशों में मकानों की छतें चौरस बनाई जाती हैं। टुण्ड्रा प्रदेशों के निवासी अपने मकानों के दरवाजे बहुत छोटे बनाते हैं जिससे उनमें बर्फीली वायु प्रवेश न कर सके। इसीलिए हंटिंगटन ने जलवायु को ही मानव संस्कृति का कारक और द्योतक बताया है।

3. स्थलाकृतियाँ एवं मानव – धरातल पर स्थलाकृतियाँ, पहाड़ी, पठारी, मरुस्थलीय तथा मैदानी प्रतिरूपों में मिलती हैं। मानव-आवास के लिए सर्वोत्तम क्षेत्र मैदान हैं। यहाँ पर जीविका चलाने के लिए कृषि, सिंचाई, पशुपालन, निर्माण उद्योग, परिवहन, संचार आदि सभी सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। अतः जनसंख्या तथा मानव-आवासों के लिए मैदान सबसे अधिक उपयुक्त होते हैं।

मैदानों की अपेक्षा पठारी भूमि पर कृषि एवं आवासों की सुविधाएँ कम होती हैं। पठारी व पहाड़ी क्षेत्रों में ऊँची-नीची भूमि से मानवीय जीवन में बाधा पड़ती है तथा आर्थिक विकास की गति भी धीमी रहती है। परिवहन साधनों के अभाव के कारण वृहत् उद्योगों का अभाव होता है। मानव जीवन-निर्वाह कृषि, पशुचारण एवं फलों की कृषि पर निर्भर करता है। पर्वतों का मानव को सबसे बड़ा लाभ हिम क्षेत्रों द्वारा नदियों को प्राप्त होने वाली जल की मात्रा है। संत्त वाहिनी नदियों के ऊपर जल-विद्युत शक्ति का उत्पादन किया जाता है। इसी कारण जापान, स्विट्जरलैण्ड, नॉर्वे, स्वीडन आदि देशों में उद्योग-धन्धों का पर्याप्त विकास हुआ है। मैदानों में मानवीय आवास तथा आर्थिक विकास के निम्नलिखित कारण हैं –

  1. कृषि के लिए समतल एवं उपजाऊ भूमि
  2. सिंचाई के लिए नहरें तथा कुओं आदि की सुविधा
  3. कृर्षि-कार्यो के लिए उपजाऊ भूमि की प्राप्ति
  4. परिवहन के लिए सड़क एवं रेलमार्गों के निर्माण की सुविधा तथा
  5. उद्योग, वाणिज्य एवं व्यापार की बड़े पैमाने पर प्राप्त सुविधाएँ।

उपर्युक्त कारणों से ही विश्व की 97 प्रतिशत जनसंख्या मैदानों में निवास करती है। चीन, भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, पश्चिमी यूरोपीय देश, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका आदि देशों में अधिकांश जनसंख्या मैदानों में निवास करती है तथा ये मैदान’जनसंख्या का पालना’ (Cradle of Mankind) कहे जाते हैं। विश्व की प्राचीन सभ्यताओं का विकास भी इन्हीं मैदानों में हुआ है।

4. मिट्टियाँ और मानव – विश्व के सभी प्राणियों का भोजन प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से मिट्टी पर निर्भर करता है। शाकाहारी मानव को भोजन कृषि उत्पादन से प्राप्त होता है, जबकि मांसाहारी लोगों को भोजन पशुओं से प्राप्त होता है। इस प्रकार मानव के साथ-साथ पशुओं के भोज्य पदार्थों में भी मिट्टी को होथ रहता है। कांप एवं लावा मिट्टियों की उत्पादकता के कारण इनमें अधिक मानव आवास मिलते हैं; जैसे-सतलुज-गंगा का मैदान, यांगटिसीक्यांग का मैदान, डेन्यूब, राइन, डॉन, वोल्गा नदियों की घाटियों तथा मिसीसिपी के बेसिन में।
पर्वतीय मिट्टियों की अपेक्षा मैदानों की मिट्टियाँ अधिक उपजाऊ होती हैं, क्योंकि मैदानी मिट्टियाँ अधिक बारीक होती हैं तथा उनकी परतें भी अधिक गहरी होती हैं एवं उनमें पोषक तत्त्व भी अधिक होते हैं। इसके विपरीत पर्वतीय मिट्टियों में अपरदन के कारण पोषक तत्त्व बह जाते हैं तथा उत्पादकता की कमी के कारण कम मानव निवास करते हैं।

5. प्राकृतिक वनस्पति एवं मानव – प्राकृतिक वनस्पति जलवायु की देन होती है। प्रत्येक प्रकार की वनस्पति का मानव-जीवन पर अपना अलग-अलग प्रभाव होता है। वनों में निवास करने वाले लोगों को लकड़ी पर्याप्त मात्रा में मिल जाती है; अत: उनके मकानों में लकड़ी का प्रयोग अधिक होता है। पेड़-पौधों द्वारा वायु-प्रदूषण कम होता है तथा मानव को पर्याप्त प्राणदायिनी ऑक्सीजन प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त इनसे बाढ़, जलवृष्टि, अपरदन तथा मरुस्थलों के प्रसार जैसी समस्याओं पर नियन्त्रण पाया जा सकता है एवं वे आर्थिक विकास में सहायक होते हैं। वन नमीयुक्त पवनों के मार्ग में बाधा उपस्थित कर वर्षा कराने में सहायक होते हैं। ये कृषि-कार्यों में भी सहायक हैं एवं पशुओं को चार उपलब्ध कराते हैं। इनसे उद्योग-धन्धों को कच्चा माल प्राप्त होता है। विषुवत्रेखीय प्रदेशों में वन ही आजीविका के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। घास के मैदानों में पशुपालन का कार्य अधिक किया जाता है। इसीलिए प्रेयरी, स्टेप्स, पम्पाज आदि घास के मैदानों में कृषि के बड़े-बड़े फार्म हैं। इस प्रकार प्राकृतिक वनस्पति किसी-न-किसी रूप में मानव को प्रभावित करती है।

6. जन्तु-जगत् एवं मानव-मानव पशु – जगत् की सहायता से अपने पर्यावरण के साथ समायोजन में लगा रहता है। वास्तव में मानव और जन्तु एक-दूसरे को सहायता एवं सहयोग देकर, दूसरे का सहयोग प्राप्त कर सह-जीवन द्वारा अपने सहअस्तित्व की स्थापना करते हैं। पशुओं से मानव को दूध, मांस, खाल, ऊन, समूर, सवारी तथा सुरक्षा प्राप्त होती है। खिरगीज लोगों की अर्थव्यवस्था का आधार पशु ही हैं। डेनमार्क में दुधारू पशु पाले जाने के कारण यह विश्व का महत्त्वपूर्ण दुग्ध उत्पादक, देश बन गया है। ऑस्ट्रेलिया में उत्तम नस्ल की भेड़े पाले जाने के कारण वह विश्व का मुख्य ऊन उत्पादक देश बन गया है। पश्चिमी यूरोपीय तट व मध्य-पूर्वी प्रशान्त सागरीय तटे मछली के अक्षय भण्डार होने के कारण जनसंख्या को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। मरुस्थलों में ऊँट परिवहन का एकमात्र साधन है तथा ‘रेगिस्तान का जहाज‘ कहलाता है, परन्तु यहाँ पर कम जनसंख्या निवास करती : है। पर्वतीय एवं उच्च पठारी क्षेत्रों में याक नामक पशु बोझा एवं सवारी ढोने के काम आता है। एस्किमो प्रजाति अपने आर्थिक विकास के लिए पूर्णत: पशुओं पर आधारित है।

बहुत-से पशु एवं छोटे जीव मानव के लिए हानिकारक भी होते हैं। वन्य पशुओं में शेर, चीता, भालू आदि हिंसक होते हैं, जबकि रेंगकर चलने वाले जीवों में सर्प आदि प्राणघातक होते हैं। उड़ने वाले जन्तुओं में टिड्डी सबसे अधिक हानिकारक है। इस प्रकार जीव-जन्तु प्रकृति के सन्तुलन को बनाये रखने में सहायक होते हैं।

7. शैल एवं खनिज पदार्थ तथा मानव – मानव सभ्यता का विकास खनिजों द्वारा हुआ है। पाषाण युग से लेकर अणु युग तक मानव ने विकास की अनेक सीढ़ियाँ पार की हैं। कुछ खनिज पदार्थ शक्ति के स्रोत होते हैं; जैसे- कोयला एवं पेट्रोलियम। इनसे कारखाने चलाये जाते हैं। यूरेनियम, थोरियम आदि खनिज़ों से परमाणु शक्ति गृहों का संचालन किया जाता है।

वर्तमान काल में खनिज पदार्थ किसी राष्ट्र की शक्ति का पर्याय माने जाते हैं। जिस देश के पास जितने अधिक कोयला, पेट्रोल, यूरेनियम, लोहा, ताँबा, जस्ता, ऐलुमिनियम आदि खनिजों के भण्डार होते हैं, वह देश उतना ही अधिक शक्तिशाली एवं विकसित माना जाता है। ब्रिटेन ने उन्नीसवीं शताब्दी में लोहे एवं कोयले के बल पर ही औद्योगिक क्रान्ति का श्रीगणेश किया था। खनिज पदार्थों की समाप्ति पर आर्थिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। कुछ खनिज पदार्थ मानव समुदाय के लिए घातक होते हैं। इनमें अणु एवं परमाणु खनिजों का प्रमुख स्थान है। द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका द्वारा किये गये अणु बम प्रहार से जापान के हिरोशिमा एवं नागासाकी नगरों का विनाश हो गया था तथा बहुत-से लोग। काल-कवलित हो गये थे। इस प्रकार के अणु एवं परमाणु युद्ध विश्व शान्ति के लिए एक स्थायी खतरा बन गये हैं, परन्तु फिर भी खनिज उत्पादक क्षेत्र विषम परिस्थितियों को रखते हुए भी जनसंख्या के संकेन्द्रण बने हुए हैं।

8. महासागर एवं मानव – पृथ्वीतल के भाग पर जलमण्डल (सागर एवं महासागर) का विस्तार है। महासागर और उसका तट मानव-जीवन के लिए बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। इनके प्रभाव निम्नलिखित हैं-

  1. जलवायु में परिवर्तन एवं उसका समकारी प्रभाव
  2. मानव के भोज्य पदार्थों की उपलब्धि
  3. खनिज संसाधनों की प्राप्ति
  4. औद्योगिक प्रोत्साहन
  5. यात्रा एवं व्यापारिक मार्गों की सुविधा
  6. शक्ति संसाधनों की प्राप्ति
  7. सभ्यता का विकास तथा
  8. स्वास्थ्य-मनोरंजन के केन्द्र।

सागरों एवं महासागरों में प्रवाहित गर्म एवं ठण्डे जल की धाराएँ किसी स्थान अथवा प्रदेश की जलवायु में परिवर्तन ला देती हैं। महासागरे मत्स्य उत्पादन के अक्षय भण्डार हैं; जैसे- ग्रान्ड बैंक्स (Grand Banks) एवं डॉगर बैंक्स। इनमें नमक, पोटाश, मैग्नीशियम, मोती, मूंगा, सीप आदि बहुमूल्य खनिज पदार्थ प्राप्त होते हैं। स्वेज एवं पनामा नहर मार्गों ने विश्व को एक-दूसरे के समीप ला दिया है। महासागरीय ज्वार-भाटे से जल-विद्युत शक्ति का उत्पादन भी किया जाता है। बहुत-से समुद्र तटवर्ती नगर एवं पत्तन पर्यटन केन्द्र के रूप में विकसित हुए हैं। इस प्रकार महासागर मानव के लिए बहुत उपयोगी हैं एवं उनकी भावी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के महत्त्वपूर्ण स्रोत बन सकने की सामर्थ्य रखते हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राकृतिक पर्यावरण मानवीय क्रियाकलापों को बहुत अधिक प्रभावित करता है तथा पर्यावरण में उसकी केन्द्रीय भूमिका है, क्योंकि प्राकृतिक पर्यावरण के तत्त्वों का मानव वर्ग द्वारा ही उपभोग किया जाता है अथवा उपयोगिता प्राप्त की जाती है।

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प्रश्न 3
“मानव ने प्राकृतिक भू-दृश्य में परिवर्तन कर सांस्कृतिक भू-दृश्य का निर्माण किया है।” तर्क एवं उदाहरणों सहित अपने उत्तर की पुष्टि कीजिए।
या
“मानव एवं प्राकृतिक पर्यावरण एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं।” उपयुक्त उदाहरणों की सहायता से इस कथन की पुष्टि कीजिए।
या
मानव और पर्यावरण के सम्बन्ध की विवेचना कीजिए। [2011, 14, 15, 16]
उत्तर
भौगोलिक पर्यावरण के दो महत्त्वपूर्ण अंग हैं- प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक। दोनों ही प्रकार के वातावरणों का प्रभाव मानवीय जीवन एवं उनके क्रियाकलापों पर पड़ता है, परन्तु मानव अपने बुद्धि-बल के प्रयास से इन दोनों ही पर्यावरणों में कुछ परिवर्तन करता है, जिससे वह अपनी सत्ता बनाये रख सके एवं उन्नति के मार्ग पर बढ़ता रहे। प्राकृतिक पर्यावरण मानव को अनेक रूपों में प्रभावित करता है तथा आर्थिक एवं सामाजिक क्रियाओं का समन्वय करता है।
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सांस्कृतिक पर्यावरण मानव द्वारा निर्मित भू-दृश्य होता है। इसके द्वारा मानव अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति विभिन्न प्रकार के पर्यावरण में रहता हुआ पूरी करता है। प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण के तत्त्व मानव के भोजन, वस्त्र, आवास, व्यवसाय एवं सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यों पर व्यापक रूप से अपना प्रभाव डालते हैं। इसी प्रभाव के कारण वह अपने रहन-सहन का अनुकूलन करती है। इन क्रियाओं को ‘पर्यावरण समायोजन’ कहते हैं। इसे निम्नलिखित रूपों में प्रस्तुत किया जा सकता है –
अनुकूलन से तात्पर्य मानव को स्वयं पर्यावरण के अनुकूल बनाने का प्रयास है। इसे स्वयं द्वारा किया हुआ परिवर्तन भी कह सकते हैं। अनुकूलन में मानव दो प्रकार की क्रियाएँ करता है-

  1. आन्तरिक एवं
  2. बाह्य। आन्तरिक अनुकूलन भी दो प्रकार का होता है –
    1. ऐच्छिक एवं
    2. अनैच्छिक या प्राकृतिक रूपान्तरण भी दो प्रकार का होता है –
      • प्राकृतिक पर्यावरण का रूपान्तरण एवं
      • सांस्कृतिक पर्यावरण का रूपान्तरण।

यदि यूरोप के किसी देश; जैसे नार्वे, स्वीडन या ब्रिटेन का कोई मानव समुदाय भारत में आकर दक्षिण तमिलनाडु राज्य में निवास करने लगता है तो तमिलनाडु राज्य की जलवायु उसे अपने देश की जलवायु की अपेक्षा बहुत गर्म लगती है तथा ग्रीष्म काल में सूर्यातप भी अधिक असहनीय हो जाता है। इसीलिए गर्मी से बचने के लिए वह यूरोपियन समुदाय कुछ कृत्रिम साधनों; जैसे वातानुकूलित कमरों एवं रेफ्रीजरेटर तथा कूलर का प्रयोग करता है। धूप से बचाव के लिए ऊनी कपड़ों के स्थान पर सूती कपड़े, छाते आदि का प्रयोग करने लगता है; अर्थात् अपने को प्राकृतिक पर्यावरण के अनुसार ढाल लेता है तथा तदनुसार अपना अनुकूलन कर लेता है।

एक यूरोपियन परिवार ने दक्षिणी भारत में आने के बाद अपने आपको पर्यावरण के अनुकूल बनाने के लिए तमिल भाषा के कुछ शब्द सीखे हैं। नमस्कार की विधि तथा खान-पान की नयी प्रणालियाँ सीखने के साथ-साथ कुछ भोज्य-पदार्थों में अपनी रुचि जाग्रत की है। यह कार्य उनका ऐच्छिक अथवा आन्तरिक अनुकूलन है, परन्तु उस यूरोपियन परिवार के कई पीढ़ियों तक निवास करते-करते उसकी सन्तान की त्वचा में श्याम वर्ण के कण बनने लगेंगे तथा सूर्यातप को सहन करने में भी समर्थ होने लगेंगे। इस प्रकार यह क्रिया उन लोगों का अनैच्छिक आन्तरिक अनुकूलन या प्राकृतिक अनुकूलन कहलाएगी। उन्होंने तमिल समाज में अपना मेल-जोल बैठाने के लिए भारतीय वेशभूषा के कुछ अंश भी अपना लिये हैं, यह उनका बाह्य अनुकूलन है। जलवायु की विषमता से बचने के लिए उन्होंने वातानुकूलित मकान, कूलर, रेफ्रीजरेटर एवं छातों का प्रयोग किया है। यह कार्य प्राकृतिक पर्यावरण को रूपान्तरण कहलाएगा।

इस प्रकार मानव ने अपने ज्ञान, विज्ञान, तकनीकी तथा नवीन प्रविधियों द्वारा पर्यावरण में परिवर्तन के प्रयास किये हैं तथा उसे अपने अनुकूल ढाला है; अत: मानव द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण को अपने अनुकूल ढालने की प्रक्रिया समायोज़न कहलाती है। मानव अब निराशावादी नहीं है, वह अपनी परिस्थितियों का दास मात्र भी नहीं है। जॉर्ज टैथम ने भी कहा है कि पर्यावरण.मानव को निःसन्देह प्रभावित करता है, परन्तु प्रतिक्रिया-स्वरूप वह भी अपने पर्यावरण को प्रभावित करता है। मानव द्वारा चन्द्रतल पर पदार्पण, बड़ी-बड़ी नदियों पर बाँध बनाकर जल-प्रवाह को व्यवस्थित करना, साइबेरिया के उत्तर में स्थित टुण्ड्रा प्रदेशों में समूर फार्मों की स्थापना तथा आर्कटिक प्रदेशों में काँच के घरों का निर्माण कर सब्जियों का उत्पादन करना आदि सभी कार्य प्राकृतिक पर्यावरण को अपने अनुकूल बनाने का ही प्रयास है।

इस प्रकार प्राकृतिक पर्यावरण की सीमा में किसी प्रदेश का मानव-वर्ग अपनी आवश्यकताओं, क्षमताओं और छाँट के अनुसार, पर्यावरण के साथ समायोजन कर, उन प्रदेशों का क्षेत्र संगठन करता है। मानव प्राकृतिक पर्यावरण का प्रयोग कर सांस्कृतिक पर्यावरण का निर्माण करता है। सांस्कृतिक पर्यावरण के तत्त्व भी प्रभावशाली होते हैं; उनका प्रभाव प्राकृतिक तत्त्वों पर तो होता ही है। इसके साथ-साथ वे एक-दूसरे को भी प्रभावित करते हैं। अत: पर्यावरण एवं मानवीय क्रियाएँ एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं तथा संगठित एवं मिश्रित रूप में ही उनको अध्ययन किया जाना चाहिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मानव प्राकृतिक पर्यावरण पर विजय प्राप्त कर चुका है।” आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
उत्तर
वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान तथा प्रविधियों द्वारा मानव ने प्राकृतिक पर्यावरण पर विजय प्राप्त करने का प्रयास किया है। उसने ऊँचे-ऊँचे पर्वतों को पार कर लिया है, नदियों के प्रवाह मार्ग को अपनी इच्छानुसार मोड़ लिया है। वह अन्तरिक्ष में गया है तथा अनेक नवीन नक्षत्रों की खोज की है। जो अभी उससे अछूते हैं, उन्हें खोजने का प्रयास अभी जारी है। भौगोलिक पर्यावरण मानवे पर अपना व्यापक प्रभाव डालता है। उसे जहाँ पर भी परिवर्तन की सम्भावनाएँ दिखलाई पड़ती हैं, वह अपनी आवश्यकतानुसार परिवर्तन कर लेता है, परन्तु पर्यावरण का प्रत्यक्ष प्रभाव मानव के क्रियाकलापों पर पड़ता है। अतः मानव सबसे उत्तम भौगोलिक कारक है, वह उसका उपयोग अपने ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर करता है। इस सम्बन्ध में बोमैन ने भी कहा है कि “वातावरण के भौगोलिक तत्त्व मानव का सम्पर्क पाकर परिवर्तनशील हो जाते हैं।’

यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि मानव ने प्राकृतिक पर्यावरण पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त नहीं की है। उस पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त करना सम्भव नहीं है। उदाहरण के लिए, ध्रुवीय शीत प्रदेशों में चावल का उत्पादन तथा विषुवत्रेखीय प्रदेशों में रेण्डियर का पालना आज भी असम्भव है, परन्तु उन्होंने अनुकूलन द्वारा कुछ प्रायोगिक प्रयास किये हैं। उसे अनुकूलता के लिए कुछ समय प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है तथा परिस्थितियाँ अनुकूल होते ही वह इन तत्त्वों को अपने पक्ष में कर लेगा। कुमारी सेम्पुल ने कहा है, “मानव प्रकृति पर विजय उसकी आज्ञा मानकर ही प्राप्त कर सकता है। मानव अपनी बुद्धि एवं शक्ति का प्रयोग करता है, क्योंकि पर्यावरण उसे उन्नति का अवसर प्रदान करता है। अत: मानव तथा पर्यावरण का सम्बन्ध बहुत ही घनिष्ठ है।”

प्रश्न 2
पर्यावरण से क्या तात्पर्य है? [2014]
उत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 के अन्तर्गत ‘पर्यावरण का अर्थ’ शीर्षक देखें।

प्रश्न 3
“मानव और जन्तु एक-दूसरे के पूरक है” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 2 के अन्तर्गत शीर्षक (6) देखें।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भौतिक अथवा प्राकृतिक पर्मवरण से का तात्पर्य है?
या
भौतिक पर्यावरण को परिभाषित कीजिए। (2012, 13, 16)
उत्तर
प्राकृतिक पर्यावरण से तात्पर्य उन समस्त भौतिक शक्तियों (सूर्यातप, पृथ्वी की गतियाँ, गुरुत्वाकर्षण, ज्वालामुखी आदि), प्रक्रियाओं (भूमि अपक्षय अवसादीकरण, विकिरण, चालन, संवहन, वायु-जल की गति, जीवन-मरण विकास आदि) से है; जिनका प्रत्यक्ष प्रभाव मानव-जीवन पर पड़ता है।

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प्रश्न 2
द्वीपीय स्थिलि मानव-विकास के लिए कैसी मानी गयी है?
उत्तर
द्वीपीय स्थिति मानव-विकास के लिए सर्वोत्तम मानी गयी है, क्योंकि यहाँ पर सम जलवायु एवं बन्दरगाहों पर व्यापार की व्यापक सुविधाएँ रहती हैं। उदाहरणार्थ- जापान एवं ब्रिटेन।

प्रश्न 3
कौन-सी सिट्टियाँ अधिक उपजाऊ हैं-पर्वतीय मिट्टियाँ या मैदानी मिट्टियाँ?
उत्तर
मैदानी मिट्टियाँ अधिक उपजाऊ हैं, क्योंकि ये अधिक बारीक होती हैं तथा इनकी परतें भी अधिक गहरी होती हैं। इनमें पोषक तत्त्व भी अधिक पाये जाते हैं।

प्रश्न 4
प्राकृतिक वनस्पति किसकी देन है?
उत्तर
प्राकृतिक वनस्पति जलवायु की देन है।

प्रश्न 5
वर्तमान काल में किसी राष्ट्र की शक्ति का पर्याय किसे माना जाता है?
उत्तर
वर्तमान काल में जो देश अपनी खनिज सम्पदा का जितना अधिक दोहन कर रहा है वह शक्तिशाली होता जा रहा है। अत: किसी राष्ट्र की शक्ति का पर्याय उस राष्ट्र की खनिज सम्पदा है।

प्रश्न 6
पर्यावरण के दो प्रकार बताइए। [2009]
उत्तर
पर्यावरण के दो प्रकार निम्नवत् हैं –

  1. भौतिक या प्राकृतिक पर्यावरण तथा
  2. सांस्कृतिक या मानवनिर्मित पर्यावरण।

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1
“पर्यावरण उन समस्त बाह्य दशाओं और प्रभावों का योग है जो प्राणी के जीवन एवं विकास पर प्रभाव डालते हैं। पर्यावरण की यह परिभाषा दी है –
(क) प्रो० डेविस ने
(ख) जर्मन वैज्ञानिक फिटिंग ने
(ग) ए०जी० तांसले ने
(घ) एमजे० हर्सकोविट्ज ने
उत्तर
(घ) एम०जे० हर्सकोविट्ज ने।

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प्रश्न 2
पर्वतों का मानव को सबसे बड़ा लाभ है-
(क) प्राकृतिक वनस्पति की प्राप्ति
(ख) प्राकृतिक पर्यावरण की प्राप्ति
(ग) हिम क्षेत्रों द्वारा नदियों को प्राप्त होने वाले जल की मात्रा
(घ) (क) एवं (ख) दोनों की प्राप्ति
उत्तर
(ग) हिम क्षेत्रों द्वारा नदियों को प्राप्त होने वाले जल की मात्रा।

प्रश्न 3
वर्तमान काल में किसी राष्ट्र की शक्ति का पर्याय माना जाता है –
(क) उस राष्ट्र की सैनिक क्षमता
(ख) उस राष्ट्र का कृषि उत्पादन
(ग) उस राष्ट्र की जनसंख्या
(घ) उस राष्ट्र की खनिज सम्पदा
उत्तर
(घ) उस राष्ट्र की खनिज सम्पदा।

प्रश्न 4
निम्नांकित में कौन भौतिक पर्यावरण का तत्त्व नहीं है ?
(क) भूमि के रूप
(ख) मिट्टियाँ
(ग) खनिज पदार्थ
(घ) अधिवास
उत्तर
(घ) अधिवास।

प्रश्न 5
निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा कथन असत्य है। [2016]
(क) पर्यावरण की कार्यप्रणाली प्राकृतिक नियमों से संचालित होती है।
(ख) पर्यावरण जैविक संसाधनों का भण्डार है।
(ग) पर्यावरणीय व्यवस्था में स्वयं संवर्द्धन की क्षमता है।
(घ) पर्यावरणीय तत्त्वों में पार्थिव एकता विद्यमान है।
उत्तर
(ख) पर्यावरण जैविक संसाधनों का भण्डार है।

प्रश्न 6
पर्यावरण ज्ञान के लिए प्रयुक्त होने वाले पारिस्थितिकी शब्द का अंग्रेजी पर्याय ‘इकोलॉजी सर्वप्रथम किस जर्मन जैव वैज्ञानिक ने प्रस्तावित किया था? [2016]
(क) ओडम
(ख) अर्नस्ट हैकल
(ग) डेविस
(घ) हरबर्टसन
उत्तर
(ख) अर्नस्ट हैकल

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 3 Man and His Environment

प्रश्न 7
“मानव पृथ्वी के धरातल की उपज है।” यह कथन निम्नलिखित में से किस विद्वान का है। [2016]
(क) डिमाजियाँ
(ख) रेटजैल
(ग) हेटनर
(घ) कुमारी सेम्पुल
उत्तर
(घ) कुमारी सेम्पुल।

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UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 1 मुक्तियज्ञ

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 1 मुक्तियज्ञ (सुमित्रानन्दन पन्त) are part of UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi . Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 1 मुक्तियज्ञ (सुमित्रानन्दन पन्त).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 1
Chapter Name मुक्तियज्ञ (सुमित्रानन्दन पन्त)
Number of Questions 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 1 मुक्तियज्ञ (सुमित्रानन्दन पन्त)

प्रश्न 1:
‘मुक्तियज्ञ’ की कथावस्तु (कथानक) संक्षेप में लिखिए।
या
” ‘मुक्तियज्ञ’ की राष्ट्रीयता और देशभक्ति संकुचित नहीं है।” समीक्षा कीजिए।
या
” ‘मुक्तियज्ञ’ में गांधी युग के स्वर्ण-इतिहास का काव्यात्मक आलेख है।” प्रस्तुत कथन के आधार पर ‘मुक्तियज्ञ’ की कथावस्तु की व्याख्या कीजिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ के आधार पर स्वतन्त्रता-प्राप्ति और उससे उत्पन्न समस्याओं पर प्रकाश डालिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ का क्या आशय है? स्वपठित खण्डकाव्य ‘मुक्तियज्ञ’ के आधार पर उत्तर दीजिए।
या
‘दमन-चक्र चल पड़ा निरंकुश’, ‘मुक्तियज्ञ’ के इस कथन की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
या
” ‘मुक्तियज्ञ’ में पन्त जी ने सत्याग्रह आन्दोलन का चित्रण काव्यात्मक ढंग से किया है।” इस कथन की सोदाहरण विवेचना कीजिए।
या
“‘मुक्तिय’ में भारत के स्वतन्त्रता-युद्ध का आद्योपान्त वर्णन है।” इस कथन के पक्ष में अपना विचार लिखिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ में वर्णित मुख्य घटनाओं का वर्णन कीजिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य में वर्णित राजनैतिक घटनाओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा विरचित ‘लोकायतन’ महाकाव्य का एक अंश है। इस अंश में भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन की गाथा है। ‘मुक्तियज्ञ’ की कथावस्तु संक्षेप में निम्नवत् है
गांधी जी साबरमती आश्रम से अंग्रेजों के नमक-कानून को तोड़ने के लिए चौबीस दिनों की यात्रा पूर्ण करके डाण्डी गाँव पहुँचे और सागरतट पर नमक बनाकर नमक कानून तोड़ा

वह प्रसिद्ध डाण्डी यात्रा थी, जन के राम गये थे फिर वन।
सिन्धु तीर पर लक्ष्य विश्व का, डाण्डी ग्राम बना बलि प्रांगण।

गांधी जी का उद्देश्य नमक बनाना नहीं था, वरन् इसके माध्यम से वे अंग्रेजों के इस कानून का विरोध करना और जनता में चेतना उत्पन्न करना चाहते थे। यद्यपि उनके इस विरोध के आधार सत्य और अहिंसा थे, किन्तु अंग्रेजों का दमन-चक्र पहले की भाँति ही चलने लगा। गांधी जी तथा अन्य नेताओं को अंग्रेजों ने कारागार में डाल दिया। जैसे-जैसे दमन-चक्र बढ़ता गया, वैसे-वैसे ही मुक्तियज्ञ भी तीव्र होता गया। गांधी जी ने भारतीयों को स्वदेशी वस्तु के प्रयोग और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिए प्रोत्साहित किया। सम्पूर्ण देश में यह आन्दोलन फैल गया। समस्त देशवासी स्वतन्त्रता आन्दोलन में एकजुट होकर गांधी जी के पीछे हो गये। इस प्रकार गांधी जी ने भारतीयों में एक अपूर्व उत्साह एवं जागृति उत्पन्न कर दी।

गांधी जी ने अछूतों को समाज में सम्मानपूर्ण स्थान दिलवाने के लिए आमरण अनशन आरम्भ किया। महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीयों ने अंग्रेजों से संघर्ष का निर्णय किया। सन् 1927 ई० में साइमन कमीशन भारत आया। भारतीयों द्वारा इस कमीशन का पूर्ण बहिष्कार किया गया। सन् 1942 ई० में गांधी जी ने अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का नारा लगा दिया। उसी रात्रि में गांधी जी व अन्य नेतागण बन्दी बना लिये गये और अंग्रेजों ने बालकों, वृद्धों और स्त्रियों तक पर भीषण अत्याचार आरम्भ कर दिये। इन अत्याचारों के कारण भारतीयों में और अधिक आक्रोश उत्पन्न हो उठा। चारों ओर हड़ताल और तालाबन्दी हो गयी। सब कामकाज ठप्प हो गया। अंग्रेजी शासन इस आन्दोलन से हिल गया। कारागार में ही गांधी जी की पत्नी कस्तूरबा का देहान्त हो गया। पूरे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध प्रबल आक्रोश एवं हिंसा भड़क उठी थी। सन् 1942 ई० में भारत की पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग की गयी। अंग्रेजों के प्रोत्साहन पर मुस्लिम लीग ने भारत विभाजन की माँग की। अन्तत: 15 अगस्त, 1947 ई० को अंग्रेजों ने भारत को मुक्त कर दिया।

अंग्रेजों ने भारत और पाकिस्तान के रूप में देश का विभाजन करवा दिया। एक ओर तो देश में स्वतन्त्रता का उत्सव मनाया जा रहा था, दूसरी ओर नोआखाली में हिन्दू और मुसलमानों के बीच संघर्ष हो गया। गांधी जी ने इससे दु:खी होकर आमरण उपवास रखने का निश्चय किया।

30 जनवरी, 1948 ई० को नाथूराम गोडसे ने गांधी जी की गोली मारकर हत्या कर दी। इस दु:खान्त घटना के पश्चात् कवि द्वारा भारत की एकता की कामना के साथ इस काव्य का अन्त हो जाता है। इस प्रकार इस खण्डकाव्य का आधारे-फलक बहुत विराट् है और उस पर कवि पन्त द्वारा बहुत सुन्दर और प्रभावशाली चित्र खींचे गये हैं। इसमें उस युग का इतिहास अंकित है, जब भारत में एक हलचल मची हुई थी और सम्पूर्ण देश में क्रान्ति की आग सुलग रही थी। इसमें व्यक्त राष्ट्रीयता और देशभक्ति संकुचित नहीं है। निष्कर्ष रूप में मुक्तियज्ञ गांधी-युग के स्वर्णिम इतिहास का काव्यात्मक आलेख है।

प्रश्न 2:
‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य की कथावस्तु की समीक्षा कीजिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य के कथानक का विश्लेषण कीजिए।
या
” ‘मूक्तियज्ञ’ के आख्यान में काल्पनिक तत्त्वों का समावेश नहीं है।” इस कथन को सिद्ध कीजिए।
या
” ‘मुक्तियज्ञ’ व्यक्तिप्रधान न होकर समष्टिप्रधान है।” सोदाहरण समझाइए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ की राष्ट्रीयता और देशभक्ति सम्बन्धी भावनाओं पर प्रकाश डालिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ के कवि ने अपनी दृष्टि प्राचीन इतिहास और पुराण से हटाकर आधुनिक इतिहास से काव्य-सामग्री ग्रहण की है-इस कथन को ध्यान में रखते हुष्ट इस खण्डकाव्य की कथावस्तु का विवेचन कीजिए। ”
या
‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य में देशभक्ति की भावना रूपायित है।” इस कथन की सोदाहरण समीक्षा कीजिए।
या
” ‘मुक्तियज्ञ’ भौतिकता और अध्यात्मपरक चिन्तन के संघर्ष की कथा है।” इस कथन पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
या
“मुक्तिंय की आत्मा में एक महाकाव्य जैसी गरिमा है’, सावित्री सिन्हा के इस कथन की मीमांसा कीजिए।
या
“मूवितयश’ में अभिव्यक्त गांधीदर्शन की आत्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि को स्पष्ट कीजिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ की राष्ट्रीयता और देशभक्ति संकुचित नहीं हैं। कथन के परिप्रेक्ष्य में मुक्तियज्ञ की कथा-वस्तु की विवेचना कीजिए।
या
‘मुक्तियन’ खण्डकाव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
तर पन्त जी द्वारा रचित ‘मुक्तियज्ञ’ की कथावस्तु की मुख्य विशेषताएँ निम्नवत् हैं

(1) विराट् ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
‘मुक्तियज्ञ’ में (सन् 1921 से 1947 ई० तक के) भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का इतिहास विद्यमान है। इस प्रकार इस काव्य की कथावस्तु की पृष्ठभूमि अत्यन्त विस्तृत और ऐतिहासिक है। इसके साथ ही इसमें द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान पर गिराये गये परमाणु बमों को भी उल्लेख है। इस समयावधि में घटित घटनाचक्रों में परिस्थितियों की विभिन्नता एवं अनेकरूपता है। इसकी व्यापकता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इसकी कथावस्तु किसी महाकाव्य में ही समाहित हो सकती थी, किन्तु पन्त जी ने अत्यधिक कुशलता से इस विशाल पृष्ठभूमि को एक छोटे-से खण्डकाव्य में समेट लिया है, जो स्वयं में भारतीय स्वतन्त्रता, संग्राम एवं विश्व-मानवता की व्यापकता को समाहित किये हुए है।

(2) संक्षेपीकरण:
‘मुक्तियज्ञ’ की कथावस्तु में यद्यपि विस्तृत घटनाएँ हैं; किन्तु उन्हें बहुत ही संक्षिप्त रूप दिया गया है। सन् 1930 ई० की डाण्डी-यात्रा से कथा का आरम्भ होता है। गांधी जी सत्य और अहिंसा के बल पर अंग्रेज सरकार के विरुद्ध संघर्ष करते हैं। ‘गोलमेज सम्मेलन’ से भारत को कोई लाभ नहीं होता। द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत मित्र-राष्ट्रों की सहायता करता है। सन् 1942 ई० में अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का नारा लगता है। अंग्रेज और अधिक अत्याचार करते हैं। सम्पूर्ण देश में विद्रोह भड़क जाता है, अंग्रेजों को यहाँ से भागना पड़ता है और 1947 ई० में भारत स्वतन्त्र हो जाता है। अन्त में 1948 ई० में गांधी जी ‘नाथूराम गोडसे की गोली से मारे जाते हैं।

(3) प्रमुख घटनाओं का काव्यात्मक आलेख:
‘मुक्तियज्ञ सुनियोजित ढंग से सर्गबद्ध कथा नहीं है, वरन् इसमें सन् 1921 से 1947 ई० के बीच घटित भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम की प्रमुख घटनाओं का सुन्दर चित्रण है। ‘मुक्तियज्ञ से पूर्व हिन्दी में जितने भी खण्डकाव्य लिखे गये, उन सभी की कथावस्तु इतिहास एवं पुराणों से ली गयी थी। यद्यपि इन खण्डकाव्यों के रचयिताओं ने इनमें आधुनिक विचारधारा एवं दृष्टिकोण को भी स्थान दिया था, तथापि इनकी कथाओं का आधार प्राचीन इतिहास एवं पुराणों से ही सम्बन्धित रहा। ‘मुक्तियज्ञ’ प्रथम खण्डकाव्य है जिसमें पहली बार किसी कवि ने आधुनिक युग में घटित कुछ ही वर्ष पूर्व की घटनाओं पर दृष्टि डाली। इस प्रकार ‘मुक्तियज्ञ’ गांधी-युग के स्वर्णिम इतिहास का काव्यात्मक आलेख है।

(4) गांधीवाद की राष्ट्रीय विचारधारा को चिन्तन:
‘मुक्तियज्ञ’ की कथावस्तु इतिहास पर आधारित है। कथा में काव्यात्मकता और भावात्मकता का मिश्रण है, फिर भी इसमें गांधीवादी विचारधारा का समावेश है। वस्तुतः यह भौतिकवादी, आध्यात्मिक और राष्ट्रीयता के विचारों का संग्रह है। इसमें सत्य, अहिंसा, हरिजनोद्धार, नशाबन्दी, नारी-जागरण, आत्म-स्वातन्त्र्य आदि गांधीवादी चिन्तन और विचारधाराओं को सुन्दर काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है।

(5) विचारप्राधान्य:
‘मुक्तियज्ञ’ में गांधीवादी वैचारिकता का भावात्मक वर्णन एवं चित्रण हुआ है। यह भौतिकवादी और आध्यात्मिक विचारों के संघर्ष का काव्ये बन गया है। प्रकट विचारों में उत्कृष्टता विद्यमान है। इस प्रकार ‘मुक्तियज्ञ’ पूर्णतया सत्य आधारित, सार्थक और राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत खण्ड-काव्य है। यह वास्तव में व्यक्तिप्रधान काव्य न होकर समष्टिप्रधान काव्य है; क्योंकि इसके नायक महात्मा गांधी का कोई भी कार्य उनके अपने लिए नहीं था, वरन् उन्होंने जो कुछ भी किया, राष्ट्र, समाज और मानवता की उन्नति के लिए ही किया।

प्रश्न 3:
‘मुक्तियज्ञ’ के नायक (प्रमुख पात्र) का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ के आधार पर गांधी जी की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
या
” ‘मुक्तियज्ञ’ में महात्मा गांधी के व्यक्तित्व का वही अंश उभारा गया है, जो भारतीय जनता को शक्ति और प्रेरणा देता है।” सतर्क प्रमाणित कीजिए।
या
” ‘मुक्तियज्ञ’ में व्यक्ति गांधी का चित्रण कवि का ध्येय नहीं है, राष्ट्रपिता और राष्ट्रनायक गांधी ही ‘मुक्तियज्ञ’ के मुख्य पुरोधा हैं।” इस कथन के आधार पर गांधी जी के समष्टिप्रधान चरित्र का उद्घाटन कीजिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए उसके नायक के कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ के प्रमुख नायक के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिए।
या
“गांधी जी राष्ट्र के लिए एक समर्पित व्यक्ति हैं।” उक्ति पर प्रकाश डालिए।
या
” ‘मुक्तियज्ञ’ में महात्मा गांधी का यशोमय चित्रण किया गया है।” इस कथन की युक्तिसंगत पुष्टि कीजिए।
या
“गाँधीजी का सम्पूर्ण जीवन विश्वबन्धुत्व व लोकमंगल के लिए था।” इस कथन के आलोक में उनकी चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
‘मुक्तियज्ञ’ काव्य के आधार पर गांधी जी की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नवत् हैं

(1) प्रभावशाली-व्यक्तित्व: गांधी जी का आन्तरिक व्यक्तित्व बहुत अधिक प्रभावशाली है। उनकी वाणी में अद्भुत चुम्बकीय प्रभाव था। उनकी डाण्डी यात्रा के सम्बन्ध में कवि ने लिखा है

वह प्रसिद्ध डाण्डी यात्रा थी, जन के राम गये थे फिर वन ।
सिन्धु तीर पर लक्ष्य विश्व का, डाण्डी ग्राम बना बलि प्रांगण ॥

(2) सत्य, प्रेम और अहिंसा के प्रबल समर्थक – ‘मुक्तियज्ञ’ में गांधी जी के जीवन के सिद्धान्तों में सत्य, प्रेम और अहिंसा प्रमुख हैं। अपने इन तीन आध्यात्मिक अस्त्रों के बल पर ही गांधी जी ने अंग्रेज सरकार की नींव हिला दी। इन सिद्धान्तों को वे अपने जीवन में भी अक्षरश: उतारते थे। उन्होंने कठिन-से-कठिन परिस्थिति में भी सत्य, अहिंसा और प्रेम का मार्ग नहीं छोड़ा।

(3) दृढ़-प्रतिज्ञ – ‘मुक्तियज्ञ’ के नायक गांधी जी ने जो भी कार्य आरम्भ किया, उसे पूरा करके ही छोड़ा। वे अपने निश्चय पर अटल रहते हैं और अंग्रेजी सत्ता के दमन चक्र से तनिक भी विचलित नहीं होते। उन्होंने नमक कानून तोड़ने की प्रतिज्ञा की तो उसे पूरा भी कर दिखाया

प्राण त्याग दूंगा पथ पर ही, उठा सका मैं यदि न नमक-कर।
लौट न आश्रम में आऊँगा, जो स्वराज ला सका नहीं घर ॥

(4) जातिवाद के विरोधी – गांधी जी का मत था कि भारत जाति-पाँति के भेदभाव में पड़कर ही शक्तिहीन हो । रहा है। उनकी दृष्टि में न कोई छोटा था, न अस्पृश्य और न ही तुच्छ। इसी कारण वे जातिवाद के कट्टर विरोधी थे

भारत आत्मा एक अखण्डित, रहते हिन्दुओं में ही हरिजन।
जाति वर्ण अघ्र पोंछ, चाहते, वे संयुक्त रहें भू जनगण ।।

(5) जन-नेता – ‘मुक्तियज्ञ’ के नायकं गांधी जी सम्पूर्ण भारत में जन-जन के प्रिय नेता हैं। उनके एक संकेत मात्र पर ही लाखों नर-नारी अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर रहते हैं; यथा

मुट्ठी-भर हड्डियाँ बुलातीं, छात्र निकल पड़ते सब बाहर।
लोग छोड़ घर-द्वार, मान, पद, हँस-हँस बन्दी-गृह देते भर॥

भारत की जनता ने उनके नेतृत्व में ही स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ी और अंग्रेजों को भगाकर ही दम लिया।

(6) मानवता के अग्रदूत – ‘मुक्तियज्ञ’ के नायक गांधी जी अपना सम्पूर्ण जीवन मानवता के कल्याण में ही लगा देते हैं। उनका दृढ़ विश्वास है कि मानव-मन में उत्पन्न घृणा, घृणा से नहीं अपितु प्रेम से मरती है। वे आपस में प्रेम उत्पन्न कर घृणा एवं हिंसा को दूर करना चाहते थे। वे हिंसा का प्रयोग करके स्वतन्त्रता भी नहीं चाहते थे; क्योंकि उनका मानना था कि हिंसा पर टिकी हुई संस्कृति मानवीयता से रहित होगी

घृणा, घृणा से नहीं मरेगी, बल प्रयोग पशु साधन निर्दय।
हिंसा पर निर्मित भू-संस्कृति, मानवीय होगी न, मुझे भय॥

(7) लोक-पुरुष – मुक्तियज्ञ में गांधी जी एक लोक-पुरुष के रूप में पाठकों के समक्ष आते हैं। इस सम्बन्ध में कवि कहता है

संस्कृति के नवीन त्याग की, मूर्ति, अहिंसा ज्योति, सत्यव्रत ।
लोक-पुरुष स्थितप्रज्ञ, स्नेह धन, युगनायक, निष्काम कर्मरत ॥

(8) साम्प्रदायिक एकता के पक्षधर – स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय देश में हिन्दुओं और मुसलमानों में भीषण संघर्ष हुआ। इससे गांधी जी का हृदय बहुत दु:खी हुआ। साम्प्रदायिक दंगा रोकने के लिए गांधी जी ने आमरण अनशन कर दिया। गांधी जी सोच रहे हैं

मर्म रुधिर पीकर ही बर्बर, भू की प्यास बुझेगी निश्चय।

(9) समद्रष्टा –  गांधी जी सबको समान दृष्टि से देखते थे। उनकी दृष्टि में न कोई बड़ा था और न ही कोई छोटा। छुआछूत को वे समाज का कलंक मानते थे। उनकी दृष्टि में कोई अछूत नहीं था

छुआछूत का भूत भगाने, किया व्रती ने दृढ़ आन्दोलन,
हिले द्विजों के रुद्र हृदय पर, खुले मन्दिरों के जड़ प्रांगण।

इस प्रकार ‘मुक्तियज्ञ’ के नायक गांधी जी महान् लोकनायक; सत्य, अहिंसा और प्रेम के समर्थक; दृढ़-प्रतिज्ञ, निर्भीक औंरं साहसी पुरुष के रूप में सामने आते हैं। कवि ने गांधी जी में सभी लोक-कल्याणकारी गुणों का समावेश करते हुए उनके चरित्र को एक नया स्वरूप प्रदान किया है।

प्रश्न 4:
‘मुक्तियज्ञ’ के काव्य कौशल पर प्रकाश डालिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ के काव्य-सौन्दर्य पर अपना पक्ष प्रस्तुत कीजिए।
या
खण्डकाव्य की दृष्टि से मुक्तियज्ञ’ की समीक्षा कीजिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ की भाषा-शैली की क्या विशेषताएँ हैं ?
या
‘मुक्तियज्ञ’ की भाषा-शैली पर उदाहरण सहित प्रकाश डालिए।
या
आकार की लघुता के बावजूद ‘मुक्तियज्ञ’ की आत्मा में एक महाकाव्य जैसी गरिमा है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य के रचना-विधान पर एक टिप्पणी लिखिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ की कथावस्तु खण्डकाव्य की दृष्टि से कितनी सफल है ? स्पष्ट कीजिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य की रचना में कवि की सफलता का विश्लेषण कीजिए।
या
खण्डकाव्य के लक्षणों (विशेषताओं) का ध्यान रखते हुए सिद्ध कीजिए कि ‘मुक्तियज्ञ’ एक सफल खण्डकाव्य है।
या
” ‘मुक्तियज्ञ’ में कवि की दृष्टि कथा पर अधिक व कथन की शैली पर कम टिकी है।” इस बात से आप कहाँ तक सहमत हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
किसी भी साहित्यिक रचना का काव्य-सौन्दर्य दो प्रकार का होता है – भावपक्षीय तथा कलापक्षीय। यहाँ ‘मुक्तियज्ञ का काव्य-सौन्दर्य निम्नवत् प्रस्तुत है-

(अ) भावगत विशेषताएँ
‘मुक्तियज्ञ काव्य की प्रमुख भावगत् विशेषताएँ निम्नवत् हैं

(1) विचारप्रधानता – ‘मुक्तिधज्ञ’ एक विचारप्रधान काव्य है। इस काव्य में गांधी-दर्शन की विशद् व्याख्या की गयी है। कवि ने गांधी जी के विचारों को बड़े ही सरस, सरल और रुचिकर ढंग से प्रस्तुत किया है। कवि ने गांधी जी की विचारधारा को सत्य, अहिंसा, प्रेम, नारी-जागरण, हरिजनोद्धार, भारतीय कला और संस्कृति की रक्षा, अतिभौतिकता का विरोध, मदिरा के विरुद्ध आन्दोलन तथा स्वदेशी वस्तुओं पर बल आदि रूपों में प्रस्तुत किया है। सम्पूर्ण काव्य में गरिमा एवं गम्भीरता है। गांधी दर्शन एवं भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के भावों को सरल ढंग से प्रस्तुत करते हुए उसका सम्बन्ध विश्व-मानवतावाद से जोड़ा है

प्रतिध्वनित होता जगती में, भारत आत्मा को नैतिक पण,
नयी चेतना शिखा जगाता, आत्म-शक्ति से लोक उन्नयन।

(2) युग चित्रण – ‘मुक्तियज्ञ’ काव्य में भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम का इतिहास पूरी तरह वर्णित है। गांधी जी के नेतृत्व में स्वाधीनता आन्दोलन, अंग्रेजों के अत्याचार और अन्त में भारतीयों द्वारा स्वराज्य-प्राप्ति इन सभी घटनाओं का आद्योपान्त वर्णन ‘मुक्तियज्ञ’ में हुआ है। डॉ० सावित्री सिन्हा के अनुसार-आकार की लघुता के बावजूद ‘मुक्तियज्ञ’ की आत्मा में एक महाकाव्य जैसी गरिमा है।”

(3) रस-योजना – रस-निष्पत्ति की दृष्टि से मुक्तियज्ञ’ वीर रसप्रधान काव्य है। इसमें गांधी जी तथा अन्य लोगों के त्याग और बलिदान की साहसपूर्ण कथा लिखी गयी है। भारतीयों के अंग्रेजों के विरुद्ध अहिंसात्मक संघर्ष में वीर रस के दर्शन होते हैं

गूँज रहा रण शंख, गरजती, भेरी, उड़ता, सुर धनु केतन।
ऊर्ध्व असंख्य पदों से धरती, चलती, यह मानवता का रण ॥

कवि ने वीर रस के साथ-साथ अंग्रेजों के दमन में तथा अकाल-चित्रण आदि के मार्मिक स्थलों पर करुण और शान्त रस की भी सुन्दर व्यंजना की है।

(4) प्रकृति-चित्रण की न्यूनता – कविवर सुमित्रानन्दन पन्त प्रकृति के सुकुमार कवि हैं। उनकी प्रायः प्रत्येक काव्य-रचना में प्रकृति का अनेक रूपों में चित्रण हुआ है, किन्तु ‘मुक्तियज्ञ’ में लगता है कि उन्हें प्रकृतिचित्रण का कहीं अवकाश ही नहीं मिला; क्योंकि मुक्तियज्ञ एक विचार एवं समस्या प्रधान काव्य-रचना है।

(ब) कलागत विशेषताएँ

यद्यपि ‘मुक्तियज्ञ’ में पन्त जी की कलात्मक काव्य-प्रतिभा का उपयोग नहीं के बराबर हुआ है, तथापि इस दृष्टि से भी इनकी कलात्मकता के निम्नवत् कई रूपों में दर्शन होते हैं

(1) भाषा – ‘मुक्तियज्ञ की भाषा संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली और सरल हिन्दी है। यह परिपक्व और व्यंजना-शक्ति से परिपूर्ण है। भाषा में अभिव्यक्ति की सरलता, बोधगम्यता और चित्रात्मकता के साथ-साथ सरसता और सुकुमारता के दर्शन भी होते हैं। कवि ने अनेक स्थलों पर कठिन शब्दावली का भी प्रयोग किया है, जिस कारण कहीं-कहीं भाषा बोझिल-सी बन गयी है। भाषा में ओज, माधुर्य और प्रसाद गुण विद्यमान है। भाषा भावात्मक एवं दार्शनिक विचाराभिव्यक्ति में समर्थ है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है

झोंक आग में तन के कपड़े, गिरते पद पर पागल स्त्री-नर।
भेद कभी इतिहास कहेगा, कौन पुरुष चला युग-भू पर॥

कवि की बिम्ब-योजनाओं का एक उदाहरण द्रष्टव्य है

चरु की स्निग्ध घृताहुतियाँ ज्यों, हों उठतीं मुख-वह्नि प्रज्वलित।
विंनत अहिंसा की नर-बलियाँ, पशु का दर्प हुआ उत्तेजित ॥

(2) शैली – कवि ने ‘मुक्तियज्ञ’ में सीधी-सादी अभिधाप्रधान मूर्त शैली अपनायी है। इसमें गाम्भीर्य है, प्रौढ़ता है और साथ ही संरलता भी है। इसमें कवि ने किसी प्रकार की कलात्मकता अथवा काल्पनिकता का चमत्कारपूर्ण समावेश नहीं किया है। कवि की दृष्टि कथ्य के महत्त्व पर अधिक और कथन की शैली पर कम टिकी है। इनकी भाषा-शैली में इनकी परिपक्व व्यंजना-शैली का परिचय मिलता है; उदाहरणार्थ

मुखर तर्क के शब्द-जाल में, भटक न खो जाए अन्तः स्वर,
गुरुता से सौजन्य, बुद्धि से, हृदय-बोध था उनको प्रियतर।

(3) अलंकार-योजना – ‘मुक्तियज्ञ’ में क़वि ने अलंकारों का प्रयोग विषय की स्पष्टता के लिए ही किया है; क्योंकि उनकी दृष्टि कथन के ढंग पर न होकर कथ्य पर लगी रही है। फिर भी कवि ने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, मानवीकरण आदि अलंकारों का प्रयोग किया है; उदाहरणार्थ

उपमा: उन्नत जन वर देवदारु-से, स्वर्णछत्र सिर पर तारक नभ।
सौम्य आस्य, उन्मुक्त हास्यमय, प्रातः रवि-सा स्निग्ध स्वर्णप्रभ॥
मानवीकरण – जगे खेत खलिहान, बाग फड़, जगे बैल हँसिया हल विस्मित ।
हाट बाट गोचर घर-आँगन, वापी पनघट जगे चमत्कृत ।।

(4) छन्द-विधान – ‘मुक्तियज्ञ’ में कवि ने भावात्मक मुक्त छन्द का प्रयोग किया है। सम्पूर्ण काव्य की रचना में 16 मात्राओं की चार-चार पंक्तियों वाले छन्द का प्रयोग किया गया है। कवि ने कुछ स्थानों पर छन्द-परिवर्तन भी किया है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मुक्तियज्ञ’ की कथा की पृष्ठभूमि का विस्तार अधिक है, फिर भी कवि ने उसके मुख्य प्रसंगों को इस प्रकार क्रमबद्ध किया है कि कथा के क्रमिक विकास में बाधा नहीं आयी है। इस रचना में एक ही रस और एक ही छन्द का प्रयोग किया गया है, इस दृष्टि से भी यह रचना खण्डकाव्य के लिए अपेक्षित विशेषताओं से विभूषित है।

प्रश्न 5:
‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य में निहित रचनाकार के प्रयोजन को स्पष्ट कीजिए।
या
” ‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य का उद्देश्य मानव जाति में भाईचारा और एकता की भावना जगाना है।” इस कथन पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
या
” ‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की पावन भावना प्रतिपादित हुई है।” इस कथन की पुष्टि कीजिए।
या
‘मूक्तियज्ञ’ के नामकरण की सार्थकता पर प्रकाश डालिए। ”
या
‘मुक्तियज्ञ’ में भारतीय समाज के उच्च आदर्शों का निरूपण हुआ है।” इस कथन को सिद्ध कीजिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य के शीर्षक की सार्थकता पर प्रकाश डालिए। ”
या
‘मुक्तियज्ञ’ में गांधी-युग के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पक्ष को ऐतिहासिक और सामाजिक पृष्ठभूमि पर उतारा गया है। इस कथन की समीक्षा कीजिए।
या
” ‘मुक्तियज्ञ’ में गांधीवादी विचारधारा के माध्यम से विश्वबन्धुत्व और मानवतावाद की रतिष्ठा की गयी है।” सोदाहरण विवेचना कीजिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ में अभिव्यक्त सामाजिक चेतना पर प्रकाश डालिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य में “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना का प्रतिपादन किया गया है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य राष्ट्रीयता और देशभक्ति का प्रतिपादन करने वाला खण्डकाव्य है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य की कथावस्तु की आधुनिकता पर प्रकाश डालिए।
या
” ‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य में विश्व-एकता तथा विश्व-कल्याण का स्वर मुखरित हुआ है।” सिद्ध कीजिए।
या
‘मुक्तियज्ञ’ से क्या सन्देश मिलता है ?
उत्तर:
कविवर सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘मुक्तियज्ञ’ एक उद्देश्यप्रधान रचना है। इस खण्डकाव्य में अनेक प्रयोजन मुखर हुए हैं। इसके मुख्य उद्देश्य निम्नवत् हैं

(1) तत्कालीन परिस्थितियों से परिचय – पन्त जी ने ‘मुक्तियज्ञ’ रचना के माध्यम से जन-मानस को भारत के परतन्त्र युग की उन भीषण परिस्थितियों से अवगत कराया है, जो क्रूर सामन्तवाद की निर्दयता का परिचय देती हैं। इस उद्देश्य में कवि पूरी तरह सफल रहा है।

(2) भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम की झलक – प्रस्तुत खण्डकाव्य में कवि ने भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम की झलक प्रस्तुत की है। कवि संघर्ष को प्रेरणादायक मानता है। इसलिए वह चाहता है कि इसकी झलक जनमानस तक पहुँच जाए। कवि कहता है कि अन्यायी क्रूरता से जब भीषण विद्रोह भड़कता है तो वह किसी भी शक्ति के रोके नहीं रुकता

अन्यायी के क्रूर कृत्य से, जब विद्रोह भड़कता है भीषण।
उस अन्तर्गत विप्लव को, रोक नहीं पाते शत रावण ।।

(3) शाश्वत मूल्यों की स्थापनों – इस काव्य-रचना में पन्त जी अराजकता के तत्कालीन एवं आधुनिक युग में भी सत्य, अहिंसा, प्रेम, न्याय और करुणा जैसे शाश्वत गुणों को आधार मानकर जीवन-मूल्यों की स्थापना करते हैं। कवि ने पश्चिमी भौतिकवादी दर्शन और गांधीवादी मूल्यों के बीच संघर्ष का चित्रण किया है और अन्त में गांधीवादी जीवन-मूल्यों की विजय का शंखनाद किया है

मानव आत्मा की विमुक्ति की, भारत मुक्ति प्रतीक असंशय ।
करे विश्व मन के जड़ बन्धन, हुआ चेतना का अरुणोदय ॥

(4) लोक-मंगल का सन्देश –  पन्त जी ने ‘मुक्तियज्ञ’ के माध्यम से संसार को लोक-मंगल का सन्देश दिया है। वे भारत की स्वतन्त्रता में समस्त संसार की मुक्ति को निहारते हैं। कवि ने काव्य के नायक गांधी जी को लोकपुरुष के रूप में चित्रित किया है, जो जातिवाद, साम्प्रदायिकता और रंगभेद के कट्टर विरोधी हैं तथा इन बुराइयों को दूर करने के लिए कृतसंकल्प हैं।

(5) विश्वबन्धुत्व और मानवतावाद को प्रसार – कवि ने प्रस्तुत रचना में सत्य की असत्य पर और अहिंसा की हिंसा पर विजय दिखाकर मानवता के प्रति सच्ची आस्था व्यक्त की है। इससे विश्वबन्धुत्व, प्रेम एवं सहयोग की भावना को बल मिलेगा और विश्व में एकता स्थापित होगी। कवि का यह जीवन-दर्शन भारतीय स्वतन्त्रता के आन्दोलन की पृष्ठभूमि में तथा गांधीवादी दर्शन के रूप में भारतीय परतन्त्रता के परिप्रेक्ष्य में मुखरित होता है और ‘मुक्तियज्ञ’ का यह पावन धुआँ विश्व-मानवता एवं विश्व-प्रेम का विराट स्वरूप धारण कर लेता है

हिरोशिमा नागासाकी पर, भीषण अणुबम का विस्फोटन,
मानवता के मर्मस्थल का, कभी भरेगा क्या दुःसह व्रण।.

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि उपर्युल्लिखित उद्देश्य ही ‘मुक्तियज्ञ’ की रचना के मर्म हैं और कवि ने इसी सैद्धान्तिक पक्ष को व्यावहारिक रूप में सामाजिक पृष्ठभूमि पर उतारा है। गांधीवादी दर्शन को माध्यम बनाकर कवि ने विश्व-बन्धुत्व और मानवतावाद की स्थापना की है।

नामकरण की सार्थकता – ‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य का सम्पूर्ण कथानक भारत के स्वतन्त्रता संग्राम से जुड़ा हुआ है। इस खण्डकाव्य के नायक महात्मा गांधी हैं, जिनके लक्षण परम्परागत नायकों से हटकर हैं। इनका यही व्यक्तित्व भारतीय जनता को शक्ति और प्रेरणा देता है। भारत को स्वतन्त्र कराने के लिए इन्होंने एक प्रकार से एक यज्ञ का ही आयोजन किया था, जिसमें देश के अनेकानेक देशभक्त नवयुवक अपने प्राणों की आहुति देते हैं। देश की मुक्ति के लिए आयोजित किये गये यज्ञ के कारण ही इस खण्डकाव्य का नाम ‘मुक्तियज्ञ’ पूर्णतया सटीक एवं सार्थक है।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य-साहित्यका विकास हिन्दी गद्य के विकास की परीक्षोपयोगी प्रमुख बातें

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 7
Chapter Name गद्य-साहित्यका विकास हिन्दी गद्य के विकास की परीक्षोपयोगी प्रमुख बातें
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य-साहित्यका विकास हिन्दी गद्य के विकास की परीक्षोपयोगी प्रमुख बातें

हिन्दी गद्य के विकास की परीक्षोपयोगी प्रमुख बातें

(क) हिन्दी-गद्य का काल-विभाजन

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(ख) विभिन्न विधाओं की प्रथम रचना और रचनाकार

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(ग) विभिन्न गद्य-विधाओं के दो-दो प्रसिद्ध रचनाकार एवं उनकी रचनाएँ

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(घ) युगानुसार प्रमुख विधाओं के दो-दो रचनाकार और उनकी एक-एक रचनाएँ

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(ङ) हिन्दी गद्य-साहित्य का इतिहास : एक दृष्टि में

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विशेष-
(1) भारतेन्दु युग का प्रारम्भ उनकी प्रथम पत्रिका ‘कवि वचन सुधा’ के प्रकाशन से माना गया है।
(2) एक ही लेखक दो विभिन्न युगों में भी लिखते रहे हैं, इसीलिए उनका नाम दोनों युगों में दिया गया है।

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