UP Board Solutions for Class 11 Sociology Understanding Society Chapter 1 Social Structure, Stratification and Social Processes in Society

UP Board Solutions for Class 11 Sociology Understanding Society Chapter 1 Social Structure, Stratification and Social Processes in Society (समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
कृषि तथा उद्योग के संदर्भ में सहयोग के विभिन्न कार्यों की आवश्यकता की चर्चा कीजिए।
उत्तर
कृषि तथा उद्योग के संदर्भ में यह महत्त्वपूर्ण है कि इनका संचालन कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता है। इसके लिए भिन्न-भिन्न योग्यताओं वाले व्यक्तियों में सहयोग की आवश्यकता होती है। समाज में श्रम-विभाजन का प्रारंभ इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हुआ है। श्रम-विभाजन द्वारा विभिन्न व्यक्ति अपने-अपने निर्धारित कार्य करते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सफल होते हैं। उदाहरणार्थ-कृषि के क्षेत्र में किसान हल तो चला सकता है परंतु उसे हल के लिए लुहार एवं बढ़ई के सहयोग की आवश्यकता होती है। फसल बोने एवं काटने के समय उसे कृषि श्रमिकों का सहयोग लेना पड़ता है। इस प्रकार के सहयोग के बिना कृषि उत्पादन संभव नहीं है। इसी भॉति, उद्योग भी सहयोग द्वारा ही संचालित होता है। किसी भी उद्योग में काम करने वाले श्रमिक एवं प्रबंधक श्रम-विभाजन के अनुसार अपने-अपने निर्धारित कार्यों को करते हुए उत्पादन को सुनिश्चित करते हैं। यदि किसी एक वर्ग का सहयोग बंद हो जाए तो उत्पादन प्रक्रिया मंद हो सकती है अथवा पूरी तरह से बंद भी हो सकती है। वस्तुतः मनुष्य अपनी सभी आवश्यकताओं के लिए अन्य लोगों पर आश्रित है। तथा वह इनकी पूर्ति अन्य लोगों के सहयोग द्वारा ही कर सकता है।

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प्रश्न 2.
क्या सहयोग हमेशा स्वैच्छिक अथवा बलातु होता है? यदि बलात् है, तो क्या मंजूरी प्राप्त होती है अथवा मानदंडों की शक्ति के कारण सहयोग करना पड़ता है? उदाहरण सहित चर्चा करें।
उत्तर
सहयोग स्वैच्छिक अथवा बालत् दोनों प्रकार का हो सकता है। श्रम-विभाजन में पाया जाने वाला सहयोग स्वैच्छिक होता है। यदि यह स्वैच्छिक सहयोग न हो तो मानव जाति का अस्तित्व कठिन हो सकता है। दुख़म जैसे प्रकार्यवादी समाजशास्त्रियों का मत है कि मानव जाति में भूख तथा प्यास जैसी मौलिक संतुष्टि भी सहयोग द्वारा ही संभव है। उन्होंने एकता को समाज का नैतिक बल माना है। तथा इसके आधार पर सहयोग को समझने का प्रयास किया है। श्रम-विभाजन में सहयोग निहित होता है तथा इसीलिए यह समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक है। श्रम-विभाजन एक ही समय में जहाँ प्रकृति का नियम है वहीं दूसरी ओर मनुष्य व्यवहार का नैतिक नियम भी है। दुर्चीम जैसे समाजशास्त्रियों का मत है कि मनुष्यों की अपनी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए। सहयोग करना होता है तथा अपने एवं अपनी दुनिया के लिए उत्पादन व पुनरुत्पादन करना पड़ता है। दुर्णीम के विपरीत माक्र्स ने इस तथ्य पर बल दिया है कि ऐसे समाज में, जहाँ वर्ग विद्यमान होते हैं, सहयोग स्वैच्छिक नहीं होता। इस प्रकार का सहयोग बलात् सहयोग कहलाता है। मार्क्स ने उन उत्पादक शक्तियों, जिन पर मनुष्य को किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं होता,,को बलात् सहयोग के लिए उत्तरदायी माना है। मानव को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी संघर्ष का सहारा लेना पड़ सकता है। कारखाने के मालिक तथा मजदूर अपने प्रतिदिन के कार्यों में सहयोग करते हैं परंतु कुछ हद तक उनके हितों में संघर्ष उनके संबंधी को परिभाषित करते हैं। प्रभावशाली समूहों द्वारा बार कई बार जबरदस्ती अथवा हिंसा द्वारा भी सहयोग लेने का प्रयास किया जाता है। संतुष्टि तथा सृजनात्मकता का भाव जो एक बुनकर या कुम्हार या लुहार को अपने काम से मिलता है। स्वैच्छिक सहयोग का उदाहरण है। दूसरी ओर, एक फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर जिसका एकमात्र कार्य पूरे दिन में लीवर खींचना या बटन दबाना होता है, आरोपित या बलात् सहयोग का उदाहरण है। इसी भाँति, परिवार के सदस्यों में पाया जाने वाला सहयोग स्वैच्छिक होता है, जबकि फैक्ट्री में काम करने वाले लोगों में पाया जाने वाला सहयोग आरोपित या बलात् प्रकृति का होता है।

प्रश्न 3.
क्या आप भारतीय समाज से संघर्ष के विभिन्न उदाहरण हुँढ सकते हैं? प्रत्येक उदाहरण में कौन-से कारण थे जिसने संघर्ष को जन्म दिया है? चर्चा कीजिए।।
उत्तर
भारतीय समाज में संघर्ष के अनेक उदाहरण हैं। सांप्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, आर्थिक असमानता अर्थात् उत्पादन के साधनों पर असामन नियंत्रण तथा नृजातीयता जैसे अनगिनत स्रोत भारतीय समाज में संघर्ष के लिए उत्तरदायी माने जाते हैं। सांप्रदायिकता धर्म के नाम पर होने वाले संघर्षों तथा दंगों के रूप में प्रतिफलित होती है। इसी भाँति, जातिवाद जातीय संघर्षों (जिनमें अधिकांशतः उच्च जातियाँ निम्न जातियों का शोषण करती हैं या उन पर अत्याचार करती हैं) तथा क्षेत्रवाद विभिन्न प्रदेशों में रहने वाले लोगों में होने वाले संघर्ष के रूप में देखा जा सकता है। यह संघर्ष जल के बँटवारे अथवा प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण आदि के आधार पर विकसित होता है। क्षेत्रवाद ऐसी भावनाओं को जन्म देता है जो अन्य क्षेत्रों के हितों को नुकसान पहुँचाने वाली होती हैं। उदाहरणार्थ-कई बार महाराष्ट्र या असम में अन्य प्रदेशों के लोगों को नौकरी देने का प्रबल विरोध क्षेत्रवाद की भावना के आधार पर ही किया जाता है। असम में अनेक गैर-असमी लोगों की हिंसा इसी प्रकार के संघर्ष का परिणाम है।

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प्रश्न 4.
संघर्ष को किस प्रकार कम किया जाता है इस विषय पर उदाहरण सहित निबंध लिखिए।
उत्तर
सहयोग एवं संघर्ष जीवन के दो अभिन्न पहलू माने जाते हैं। दोनों ही समाज के लिए अनिवार्य हैं परंतु संघर्ष का सहयोग के अंतर्गत होना समाज के अस्तित्व के लिए उपयोगी माना जाता है। इसीलिए प्रत्येक समाज संघर्ष को कम-से-कम करने का प्रयास करता है। यह दूसरी बात है कि संघर्ष के लिए उत्तरदायी कारण जब तक समाज में विद्यमान हैं तब तक संघर्ष को कम करना संभव नहीं है। उदाहरणार्थ-जब तक अमीर एवं गरीब में अत्यधिक अंतराल, विभिन्न क्षेत्रों में अत्यधिक आर्थिक असमता अथवा विकास, विभिन्न समूहों में राष्ट्र के स्थान पर अपने ही समूह के प्रति वफादारी होगी, तब तक समाज में संघर्ष कम नहीं हो सकते हैं। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि पहले उन सब कारणों का पता लगाया जाए जो संघर्ष के लिए उत्तरदायी हैं। इन सब कारणों को दूर करने का प्रयास किया जाए तथा विवादित मुद्दों पर सर्वसम्मति बनाने का भरसक प्रयास किया जाए। सरकार किसी भी संप्रदाय, प्रदेश अथवा जाति विशेष के प्रति राजनीतिक कारणों के किए जाने वाले भेदभाव की नीति न अपनाए तो संघर्ष को काफी सीमा तक कम किया जा सकता है।

सांप्रदायिकता के आधार पर होने वाले अधिकांश संघर्ष छोटी-छोटी बातों, भ्रम तथा अफवाहों पर आधरित होते हैं। कई बार तो शरारती तत्त्व अपनी या अपने राजनीतिक दल की स्वार्थ सिद्धि हेतु भी। इस प्रकार के संघर्षों को बढ़ावा देते हैं। ऐसे तत्त्वों पर निरंतर निगरानी रखे जाने की आवश्यकता है। तथा यह कार्य सरकार तभी कर सकती है जबकि सरकार का संचालन करने वाले सभी संबंधित राजनेता, अधिकारी तथा प्रशासक आदि स्वयं लौकिक राज्य के मूल्यों के प्रति समर्पित हों। निर्धनता, बेरोजगारी जैसी समस्याएँ भी संषर्घ का कारण होती हैं तथा इन पर भी अंकुश लगाए जाने की आवश्यकता है। संसाधनों का वितरण भी इस ढंग से किया जाना आवश्यक है कि विभिन्न वर्गों में किसी प्रकार का रोष या वंचना की भावना विकसित न हो।

वस्तुत: संघर्ष पर नियंत्रण करना अथवा इसे कम करना अत्यंत कठिन कार्य है तथा कोई भी समाज इस लक्ष्य को प्राप्त करने में पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया है। माक्र्सवादी विद्वानों का तो यह मत है कि समाज से संघर्ष समाप्त करना तब तक संभव नहीं है जब तक व्यक्तिगत संपत्ति की समाप्ति द्वारा साम्यवाद की स्थापना न हो। उनका यह तर्क ऐतिहासिक प्रमाणों की दृष्टि से सही साबित नहीं हुआ है। तथा सोवियत संघ के विघटन तथा पूर्वी यूरोप के देशों द्वारा उदारवादी अर्थव्यवस्था अपनाने के परिणमस्वरूप यह मत और भी अधिक कमजोर हो गया है।

प्रश्न 5.
ऐसे समाज की कल्पना कीजिए जहाँ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है, क्या यह संभव है? अगर नहीं तो क्यों?
उत्तर
आज प्रतिस्पर्धा को विश्वव्यापी तथा स्वाभाविक माना जाता है। इसीलिए समकालीन समाजों में प्रतिस्पर्धा एक मार्गदर्शक ताकत के रूप में विद्यमान है। पूँजीवादी समाजों में तो प्रतिस्पर्धा एक सशक्त विचाराधारी मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि परंपरागत समाजों में प्रतिस्पर्धा नहीं थी क्योंकि सभी व्यक्ति एक समान थे तथा एक जैसे कार्यों में लगे हुए थे। दुर्णीम के अनुसार, इस प्रकार के समाजों में ‘यांत्रिक एकता’ पायी जाती है। अनेक मार्क्सवादी विद्वान् संघर्ष एवं प्रतिस्पर्धा विहीन समाज की कल्पना को नकराते हैं तथा इस बात पर बल देते हैं कि सभी ज्ञात समाजों में किसी-न-किसी रूप में संघर्ष एवं प्रतिस्पर्धा विद्यमान थी। यदि देखें तो सरलतॆम समाजों में भी प्रतिस्पर्धा किसी-न-किसी रूप में प्रचलित थी। उदाहरणार्थ-जनजातियों में जीवनसाथी के चयन हेतु परीक्षा विवाहे, जिसमें विवाह के इच्छुक लड़कों को प्रतिस्पर्धा में भाग लेना अथवा प्राचीन समाजों में होने वाले खेलकूल मुकाबलों में विजेता को पुरस्कृत करना आदि प्रतिस्पर्धा के ही उदाहरण हैं। स्वाभाविक वृत्ति के रूप में भी प्रतिस्पर्धा के अस्तित्व को स्वीकार किया जाता है। इसलिए ‘विजेता तथा पराजित’ जैसे शब्दों का व्यक्ति अथवा समूह के लिए प्रचलन प्रतिस्पर्धा से ही संबंधित रहा है। इतना अवश्य है कि परंपरागत समाज प्रतिस्पर्धा को उस सीमा तक नहीं होने देते थे जहाँ यह संघर्ष का कारण बन जाए। जनजातियों में परंपरागत रूप से सबसे बड़े शिकारी या बहादुर का मुखिया होना भी इस बात का प्रतीक है कि उसके इस गुण का चयन किसी-न-किसी प्रतिस्पर्धा पर ही आधारित रहा होगा। अपनी भूख, प्यास जैसी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भी विभिन्न समूहों में प्रतिस्पर्धा एवं संघर्ष के उदाहरण मिलते हैं, इसीलिए पूरी तरह से प्रतिस्पर्धा-विहीन समाज की कल्पना करना संभव नहीं है।

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प्रश्न 6.
अपने माता-पिता, बड़े बुजुर्गों तथा उनके समकालीन व्यक्तियों से चर्चा कीजिए कि क्या आधुनिक समाज सही मायनों में प्रतिस्पर्धात्मक है अथक पहले की अपेक्षा संघर्षों से भरा है और अगर आपको ऐसा लगता है तो आप समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में इसे कैसे समझाएँगे?
उत्तर
निश्चित रूप से आधुनिक समाज प्रतिस्पर्धात्मक है तथा पहले से कहीं अधिक संघर्षों से भरा है। यदि हम अपने माता-पिता अथवा बड़े बुजुर्गों से बात करें तो इस तथ्य की पुष्टि सरलता से हो जाती है। आधुनिक युग के विपरीत पहले हर क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा का अभाव पाया जाता था। समाज में हितों में टकराव न्यूनतम था तथा संघर्ष को यथासंभव विकसित होने से पहले ही रोकने का प्रयास किया जाता था। व्यक्तियों के समूह अपनी जंगली जानवरों से रक्षा तथा न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति में परस्पर सहयोग करते थे तथा जो कुछ भी उनके पास उपलब्ध होता था उसे मिल-बाँटकर खा लेते थे। विभिन्न समूहों में सेवाओं अथवा वस्तुओं का विनिमय पाया जाता था जो प्रतिस्पर्धा एवं संघर्ष को न्यूनतम कर देता था। समाजशास्त्रीय दृष्टि से यदि इस स्थिति को देखा जाए तो व्यक्ति अपनी प्रस्थिति के बारे में यह सोचकर संतुष्ट हो जाता था कि शायद भगवान की ही ऐसी इच्छा है। वह अपनी वंचना अथवा उपलब्धि को भगवान का दिया हुआ आशीर्वाद मानकर ही संतोष कर लेता था। इतना अवश्य है कि तब भी विभिन्न समूहों में किसी-न-किसी बात को लेकर संघर्ष होते रहते थे। आधुनिक समाजों में व्यापार के विस्तार, श्रम-विभाजन, विशेषीकरण तथा बढ़ती उत्पादकता ने व्यक्तिवाद एवं प्रतिस्पर्धा को अत्यधिक बढ़ा दिया है। उदाहरणार्थ-आधुनिक समाजों में प्रतिस्पर्धा ही यह सुनिश्चित करती है कि सर्वाधिक कार्यकुशल फर्म ही बची रहेगी। प्रतिस्पर्धा ही यह सुनिश्चित करती है कि सर्वाधिक अंक प्राप्त करने वाला छात्र ही किसी प्रसिद्ध कॉलेज में दाखिला ले पाएगा और फिर बेहतरीन रोजगार भी प्राप्त कर सकेगा। प्रतिस्पर्धा में बेहतरीन होना सबसे बड़ा भौतिक पुरस्कार है। ऐसा माना जाता है कि प्रतिस्पर्धा मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति न होकर पूँजीवाद के जन्म के साथ ही प्रबल इच्छा के रूप में फली-फूली है। संसाधनों की कमी तथा प्रत्येक समूह द्वारा संसाधनों पर कब्जा करने का प्रयास संघर्ष को विकसित करता है। इसीलिए आज सभी क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा एवं संघर्ष बढ़ गए हैं। वर्ग अथवा जाति, जनजाति अथवा लिंग, नृजातीयता अथवा धार्मिक समुदायों में होने वाले संघर्ष आज की प्रस्थिति के द्योतक हैं।

आधुनिक समाजों में संघर्ष की वृद्धि का एक कारण सामाजिक परिवर्तन तथा लोकतांत्रिक अधिकारों पर सुविधा-वंचित तथा भेदभाव का सामना कर रहे समूहों द्वारा हक जताना तथा सामाजिक संरचना को परिवर्तित करना भी है। अत्यधिक संघर्ष को व्याधिको माना जाता है जो कि विकास को अवरुद्ध करती है। समाजशास्त्री परिप्रेक्ष्य संघर्ष एवं प्रतिस्पर्धा को स्वाभाविक प्रक्रियाएँ नहीं मानता है। यह उन्हें सामाजिक संरचना से जोड़कर देखने का प्रयास करता है तथा सामाजिक विकास से भी जोड़ता है।

क्रियाकलाप आधारित प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
अपने बड़े-बुजुर्गों( दादा-नाना) अथवा उनकी पीढी के अन्य लोगों से बातचीत कर यह पता कीजिए कि परिवारों/विद्यालयों में किस प्रकार का परिवर्तन आया है तथा किन-किन पक्षों में वे आज भी वैसे ही हैं। (क्रियाकलाप 1)
उत्तर
अपने बड़े-बुजुर्गों (दादा/नाना) अथवा उनकी पीढ़ी के अन्य लोगों से बातचीत कर यह सरलता से पता लगाया जा सकता है कि परिवारों एवं विद्यालयों में अत्यधिक परिवर्तन हुआ है। पहले परिवार समाजवादी विचारधारा पर आधारित थे तथा परिवारवाद के कारण न तो व्यक्तिवादी प्रवृत्ति विकसित होती थी और न ही संबंधों में औपचारिकता आने का डर रहता था। परिवार के सभी सदस्य अपने हितों की तुलना में अपने परिवार के हित को प्राथमिकता देते थे। सभी का यही प्रयास रहता था कि किसी भी सदस्य में असुरक्षा की भावना विकसित न होने पाए। परिवार का वयोवृद्ध सदस्य न केवल बच्चों के समाजीकरण में अहम भूमिका निभाता था अपितु सभी सदस्य उसके नियंत्रण में भी रहते थे। वही परिवार के सभी मामलों के बारे में निर्णय लेता था तथा कोई भी सदस्य उसके निर्देश की अवहेलना नहीं करता था। वह भी सभी सदस्यों का ध्यान रखता था तथा उनको उनकी योग्यता, आयु एवं लिंग के आधार पर कार्यों को सौंपता था। इसीलिए परंपरागत रूप में परिवार तथा घर सामंजस्यपूर्ण इकाई के रूप में देखे जाते रहे हैं जहाँ सहयोग, प्रभुत्व, प्रक्रिया तथा परार्थवाद मनुष्य के आचरण के प्रेरणात्मक सिद्धांत थे।

आधुनिक युग में परिवार का यह रूप परिवर्तित हो गया है। परिवार के सदस्यों में औपचारिकता आ गई है तथा सदस्यों पर इसका नियंत्रण शिथिल हो गया है। परिवार के अधिकांश कार्य अन्य संस्थाओं ने ले लिए हैं जिससे इसका महत्त्व भी पहले से कम हो गया है। परिवार के आर्थिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक एवं जैविक सभी प्रकार के कार्यों में परिवर्तन हुआ है। सहयोग एवं परार्थवाद को भी अब नारीवादी विश्लेषकों द्वारा चुनौती दी जाने लगी है। इन विद्वानों तथा अमर्त्य सेन ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि चूंकि संघर्षों को प्रत्यक्ष रूप से संप्रेषित नहीं किया जाता; अतः यह देखा गया है। कि मध्यम वर्ग में महिलाएँ संघर्षों में समायोजन तथा सहयोग पाने के लिए विभिन्न प्रकार की रणनीति बनाती रही हैं। उनकी यह सतत प्रयास रहता है कि संघर्षों को आपसी सहयोग द्वारा निपटाया जाए तथा साथ ही संघर्ष की विचलित व्यवहार के रूप में देखा जाए।

परिवार की भाँति विद्यालय का रूप भी अब पहले जैसा नहीं रहा है। न तो विद्यालयों में पढ़ने वाले पहले जैसे शिक्षार्थी हैं और न ही पढ़ाने वाले शिक्षक। अनुशासन की दृष्टि से आज विद्यालयों का माहौल पहले से कहीं खराब है। शिक्षक-शिक्षार्थी संबंध पहले जैसे नहीं रहे हैं। पहले बहुत कम लोग शिक्षा हेतु विद्यालयों में आते थे, जबकि अब विद्यालयों में प्रवेश लेना ही कठिन है। शिक्षक-शिक्षार्थी अनुपात अत्यधिक होने के कारण किसी भी विद्यालय में शिक्षक अपने शिष्यों को न तो पूरी तरह से जानता है और न ही उनका उचित विकास कर पाता है। विद्यालयों में भी नौकरशाही संगठन जैसी विशेषताएँ विकसित हो गई हैं तथा यह सर्वांगीण विकास का अभिकरण न होकर मात्र किताबी शिक्षा ग्रहण करने का माध्यम बनकर रह गया है। आज शिक्षक अपना ध्यान केवल निर्धारित पाठ्यक्रम पर ही केंद्रित करते हैं तथा बच्चों की रुचियों को विकसित करने की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं देते हैं।

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प्रश्न 2.
पुराने चलचित्रों/धारावाहिकों/उपन्यासों में परिवारों के प्रस्तुतीकरण की तुलना समकालीन प्रस्तुतियों से कीजिए। (क्रियाकलाप 1)
उत्तर
पुराने चलचित्रों/धारावाहिकों/उपन्यासों में परिवारों का प्रस्तुतीकरण संयुक्त परिवार के रूप में किया जाता था जिसमें सदस्यों के एक-दूसरे के प्रति स्नेह एवं त्याग को दिखाया जाता था। प्रत्येक को अपने कर्तव्यों का निर्वहन एक भाई, एक पति, एक पिता या दादा अथवा देश के नागरिक के रूप में करते हुए दर्शाया जाता था। परिवार में बड़े-बूढ़ों के सम्मान तथा श्रम-विभाजन की एक आदर्श व्यवस्था पर आधारित एक इकाई के रूप में इसका प्रस्तुतीकरण एक सामान्य बात थी। आधुनिक चलचित्रों/धारावाहिकों/उपन्यासों में परिवार का जो रूप प्रस्तुत किया जाता है वह पहले से पूरी तरह से भिन्न है। आज इनमें उच्च वर्ग के परिवारों को दर्शाया जाता है जिनमें महिलाओं एव लड़कियों को पूरी स्वतंत्रता होती है तथा वे अपनी परंपरागत भूमिका से भिन्न भूमिका निभाती हुई दर्शाई जाती हैं। समाज की मान्यताओं के आदर्शों को तोड़ना उनके लिए कोई बुरी बात नहीं है। अधिकांश परिवारों में बच्चों को बिगड़े हुए, माता-पिता को परस्पर या बच्चों से लड़ते-झगड़ते, भाइयों की संपत्ति पर अधिकार को लेकर एक-दूसरे पर आधिपत्य जमाने का प्रयास करते हुए और स्त्रियों को एक-दूसरे से ईर्ष्या करते हुए तथा विवाह-पूर्व एवं विवाहेतर संबंधों में लिप्त दिखाया जाना सामान्य बात है। टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले अनेक धारावाहिकों में कुछ चरित्र ऐसे दर्शाए गए हैं जो तीन-चार बार विवाह करते हैं, विवाहेतर संबंधों को प्राथमिकता देते हैं तथा अपने पैसे के बल पर अपने प्रतियोगी को किसी भी प्रकार का नुकसान पहुँचाने में संकोच नहीं करते हैं। स्त्रियों को भी एक-दूसरे के प्रति विद्वेष करते या षड्यंत्र रचते हुए दर्शाया जाता है। सास-बहू के संबंध या तो अत्यधिक मुधर या बहुधा संघर्षमयी दर्शाए जाते हैं। अधिकांश अमीर परिवारों का प्रस्तुतीकरण इस रूप में किया जाता है कि माता-पिता को एक-दूसरे का ध्यान रखने तथा अपने बच्चों को देखने का समय ही नहीं होता।

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प्रश्न 3.
क्या आप अपने परिवार में सामाजिक आचरण के प्रतिमानों (पैटर्स) और नियमितताओं | को समझते हैं? दूसरे शब्दों में, क्या आप अपने परिवार की संरचना का वर्णन कर सकते (क्रियाकलाप 1)
उत्तर
परिवार में आचरण के कुछ मानक स्तर, विवाह के तौर-तरीके, संबंधों के अर्थ, पारस्परिक उम्मीदें तथा उत्तरदायित्व होते हैं। परिवार को बच्चे की प्रथम पाठशाला माना गया है। ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि बच्चा ही शिशु को जैविक प्राणी से सामाजिक प्राणी बनाता है अर्थात् उसे सामाजिक मूल्यों, प्रतिमानों एवं आदर्शों से परिचय कराता है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, वैसे-वैसे परिवार के सदस्य उसे बोलना, चलना, बड़ों को नमस्ते करना, लिंगानुसार कपड़े पहनना आदि सिखाते हैं। समाजीकरण की यह प्रक्रिया एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक निरंतर नियमित रूप से होती रहती है। परिवार की अपनी एक संरचना होती है जिमसें प्रत्येक सदस्य का एक निश्चित स्थान (प्रस्थिति) एवं भूमिका होती है। वह अपनी निर्धारित प्रस्थिति के अनुरूप भूमिका का निर्वाह करते हुए परिवार को बनाए रखने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। सामाजिक प्रतिमानों के अनुरूप पुरुषों एवं महिलाओं की प्रस्थिति एवं क्रम निर्धारित होता है। विवाहोपरांत सामाजिक प्रतिमानों के अनुरूप लड़की लड़के के परिवार में चली जाती है, जबकि लड़के के विवाह के समय दूसरे परिवार की लड़की लड़के के परिवार की सदस्य बन जाती है। इसके साथ ही, परिवार में वृद्ध सदस्यों की मृत्यु एवं नए सदस्यों का प्रवेश निरंतर होता रहता है। इसीलिए परिवार निरंतर अपना अस्तित्व बनाए रखता है। ऐसा नहीं है कि परिवार में परिवर्तन नहीं होता, अपितु परिवर्तन के बावजूद परिवार की संरचना में निरंतरता पायी जाती है।

प्रश्न 4.
विद्यालय को एक संरचना के रूप में आपके शिक्षक कैसे लेते हैं। इस पर उनसे विचार-विमर्श कीजिए। क्या छात्रों, शिक्षकों तथा कर्मचारियों को इस संरचना को बनाए रखने के लिए कुछ विशेष रूप से काम करना पड़ता है? (क्रियाकलाप 1)
उत्तर
परिवार की भाँति विद्यालय की भी एक निश्चित संरचना होती है। विद्यालय का प्रबंधतंत्र, प्राचार्य/प्राचार्या, शिक्षकगण, गैर-शिक्षक कर्मचारी तथा छात्र-छात्राएँ इस संरचना के महत्त्वपूर्ण अंग होते हैं। वे सभी प्रकार निर्धारित भूमिका निभाते हुए विद्यालय की संरचना को बनाए रखते हैं। विद्यालय में कुछ विशिष्ट प्रकार के क्रियाकलाप वर्षों से दोहराए जाते हैं जो आगे जाकर संस्थाएँ बन जाते हैं; उदाहणार्थ-विद्यालय में दाखिले के तरीके, प्रात:कालीन सभा और कहीं-कहीं विद्यालयी गीत, आचरण संबंधी नियम, वार्षिकोत्सव इत्यादि। विद्यालय से पुराने विद्यार्थियों का चले जाना तथा उनके स्थान पर नए विद्यार्थियों का प्रवेश निरंतर होता रहता है। इसी भाँति, शिक्षक निर्धारित आयु पर सेवानिवृत्ति होते हैं तथा उनका स्थान नए शिक्षक ले लेते हैं। इस भॉति यह संस्था निरंतर चलती रहती है।

विद्यालय की संरचना बनाए रखने में छात्रों, शिक्षकों तथा कर्मचारियों को कुछ विशेष प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं जिन्हें उनकी भूमिका कहा जाता है। प्रत्येक को अपनी भूमिका का निर्वहन उचित ढंग से करना पड़ता है। छात्रों से आशा की जाती है कि वे विद्यालय में अनुशासन बनाए रखें, अपनी कक्षाओं में मन लगाकर पढ़े, खाली घंटे में खेलकूद एवं अन्य गतिविधियों में भाग लें तथा अपनी समस्याओं के समाधान में शिक्षकों का सहयोग लें। शिक्षकों से आशा की जाती है कि वे छात्रों को उचित शिक्षा एवं ज्ञान दें ताकि उनका सर्वांगीण विकास हो सके। उनसे यह भी आशा की जाती है कि वे विद्यालय में ऐसा व्यवहार करें जो छात्रों के लिए अनुकरणीय हो क्योंकि अधिकांश छात्र अपने शिक्षकों को ही अपना आदर्श मानते हैं। कई बार शिक्षकों की कही गई बातों का छात्रों पर प्रभाव उनके माता-पिता द्वारा कही गई बातों से भी अधिक पड़ता है। विद्यालय के अन्य कर्मचारियों से भी अपनी प्रस्थिति के अनुकूल भूमिका निष्पादन की आशा की जाती है। यदि कोई व्यक्ति लिपिक है तो वह उस निर्धारित कार्य को समय पर पूरा करे जो उसे दिया गया है। इसी भाँति, यदि कोई चपरासी है तो उसका उत्तरदायित्व है कि वह कक्षाओं को साफ-सुथरा रखे, समय पर घंटा लगाए तथा अन्य जो कार्य उसे सौंपा जाता है उसका ठीक प्रकार से निर्वहन करे।

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प्रश्न 5.
क्या आप अपने विद्यालय अथवा परिवार में किसी प्रकार के परिवर्तन के बारे में सोच सकते | हैं? क्या इन परिवर्तनों का विरोध हुआ? किसने इनका विरोध किया और क्यों? (क्रियाकलाप 1)
उत्तर
आधुनिक युग में विद्यालयों अथवा परिवारों में अनेक प्रकार के परिवर्तन हो रहे हैं। उदाहरणार्थ-विद्यालयों में अनुशासन बनाए रखने के लिए अनुशासन समिति का गठन किया जाता है। ही समिति बाहर घूम रहे छात्रों की जाँच कर उन्हें कक्षाओं में बैठने के लिए कहती है। न मानने पर उन पर अनुशासनात्मक कार्यवाही भी की जाती है। आजकल विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में अनेक छात्र-छात्राएँ मोबाइल फोन लेकर आने लगे हैं। उन पर बजने वाली घंटी न केवल कक्षाओं का माहौल बिगाड़ती है अपितु अनुशासन की अनेक समस्याएँ भी विकसित हो जाती हैं। इसलिए अनेक विद्यालय एवं महाविद्यालय मोबाइल फोन पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास करते हैं। इस प्रतिबंध का छात्र-छात्राएँ इस आधार पर विरोध करते हैं कि मोबाइल फोन तो उनके माता-पिता ने सुरक्षा की दृष्टि से देख रखा है ताकि किसी प्रकार की अप्रिय घटना होने पर वे उनसे संपर्क स्थापित कर सकें। उनके माता-पिता भी यही तर्क देते हैं। इस विरोध के कारण छात्रों को हड़ताल तक भी करनी पड़ी तथा शिक्षकों एवं प्रशासकों से अभद्र व्यवहार की घटनाएँ भी सामने आईं। पिछले कुछ वर्षों में अनेक प्रतिष्ठित विद्यालयों में; मोबाइल फोन में लगे कैमरे में न केवल अश्लील दृश्य कैद किए गए हैं, अपितु साथियों को उन्हें एस०एम०एस० के माध्यम से भेजकर उनका प्रसार भी किया गया है। इसी आधार पर विद्यालय इनके प्रयोग को विद्यालय परिसर में प्रतिबंधित करने का तर्क देते हैं।

प्रश्न 6.
ऐसे कुछ उदाहरण सोचिए जो दोनों स्थितियों को प्रकट करते हों-किस प्रकार मनुष्य सामाजिक संरचना से बाध्य होता है तथा जहाँ व्यक्ति सामाजिक संरचना की अवहेलना करता है और उसे बदल देता है। | (क्रियाकलाप 2)
उत्तर
प्रत्येक समाज की संरचना अपने सदस्यों की क्रियाओं पर सामाजिक प्रतिबंध लगाती है। दुम जैसे समाजशास्त्रियों का कहना है कि व्यक्ति पर समाज का प्रभुत्व होता है। समाज व्यक्ति की कुल क्रियाओं से कहीं अधिक है; इसमें ‘दृढ़ता’ अथवा ‘कठोरता है जो भौतिक पर्यावरण की संरचना के समान होती है। सोचिए कि एक व्यक्ति ऐसे कमरे में खड़ा है जहाँ बहुत सारे दरवाजे हैं। कमरे की संरचना उसकी संभावित क्रियाओं को बाध्य करती है। उदाहरणार्थ-दीवारों तथा दरवाजों की स्थिति प्रवेश तथा निकास के रास्तों को दर्शाती है। इसी भॉति, परिवार की सामाजिक संरचना प्रत्येक सदस्य के अनचाहे व्यवहार पर अंकुश लगाती है। परिवार के सदस्य न चाहते हुए भी पारिवारिक मान्यताओं का पालन करते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि अत्यधिक अंकुश सदस्यों को उन मान्यताओं को तोड़ने या पारिवारिक संरचना की अवहेलना करने पर विवश कर देता है। परंपरागत रूप से लड़के-लड़कियों हेतु जीवनसाथी का चयन परिवार के वृद्ध सदस्यों अथवा उनके माता-पिता द्वारा किया जाता है। आज लड़के-लड़कियाँ स्वयं अपने जीवनसाथी का चयन करने लगे हैं। यदि परिवार के वृद्ध सदस्य या माता-पिता उनकी इस स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का प्रयास करते हैं तो वे परिवार से अलग होकर अपना एकल परिवार बनाने की धमकी देकर परिवार के इस नियम की अवहेलना भी करने लगते हैं।

प्रश्न 7.
अपने प्रतिदिन के जीवन में सहयोग, प्रतिस्पर्धा तथा संघर्ष के उदाहरण हूँढिए। (क्रियाकलाप 3)
उत्तर
हममें से प्रत्येक अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अन्य लोगों पर आश्रित है। अन्य लोगों का अप्रत्यक्ष सहयोग ही इन आवश्यकताओं की पूर्ति को संभव बनाता है। उदाहरणार्थ-कपड़ों के लिए हम कपड़े के दुकानदार पर निर्भर हैं, इसकी सिलाई के लिए दर्जी पर, इसकी धुलाई के लिए साबुन या सर्फ बनाने वाली कंपनी पर तथा कपड़ों को इस्त्री करने के लिए धोबी या बिजली की प्रेस बनाने वाली कंपनी तथा बिजली पर। सहयोग की ही भाँति हमें निरन्तर प्रतिस्पर्धा भी करनी पड़ती है। कॉलेज में प्रवेश हेतु अन्य छात्रों से प्रतिस्पर्धा, अच्छे अंक प्राप्त करने के लिए अथवा नौकरी प्राप्त करने के लिए भी हमें अन्य लोगों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। खेलकूद के समय भी प्रत्येक खिलाड़ी का यह प्रयास रहता है कि वह अन्य की तुलना में अच्छा प्रदर्शन करे ताकि राज्य स्तर पर होने वाली खेल प्रतिस्पर्धाओं में उसकी टीम के सदस्य के रूप में चयन हो सके। कारखाने अथवा अन्य किसी व्यापारिक प्रतिष्ठान के मालिक तथा मजदूर या कर्मचारी अपने प्रतिदिन के कार्यों में एक-दूसरे का सहयोग करते हैं परंतु कुछ हद तक उनके हितों में संघर्ष उनके संबंधों को परिभाषित करता है। वास्तविकता यह है कि सहयोग, प्रतिस्पर्धा एवं संघर्ष के आपसी संबंध अधिकतर जटिल होते हैं तथा ये आसानी से अलग नहीं किए जा सकते।

प्रश्न 8.
क्या विस्तृत मानक बाध्यताओं के कारण महिलाएँ अपने आपको संघर्ष अथवा प्रतिस्पर्धा से अलग रखती हैं अथवा सहयोग देती हैं? क्या वे पुरुषों के उत्तराधिकार के मानदंड से सहयोग इसलिए करती हैं कि यदि वे ऐसा नहीं करेंगी तो भाइयों के प्रेम से वंचित हो जाएँगी? (क्रियाकलाप 4)
उत्तर
यह सही है कि विस्तृत मानक बाध्यताओं के कारण महिलाएँ अपने आप को संघर्ष अथवा प्रतिस्पर्धा से अलग रखती हैं अथवा सहयोग देती हैं। उनका यह सहयोग ‘स्वैच्छिक न होकर ‘बाध्य होता है। अपने जन्म के परिवार में संपत्ति पर महिला का अधिकार जैसे विवादास्पद मुद्दे का विश्लेषण करने पर यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है। महिलाएँ संपूर्ण अथवा अंशतः किसी भी प्रकार का अपने जन्म के परिवार की संपत्ति पर दावा नहीं करतीं, क्योंकि वे डरती हैं कि ऐसा करने से भाइयों के साथ उनके संबंधों में कड़वाहट आ जाएगी या भाभियाँ उनसे घृणा करने लगेंगी और परिणामस्वरूप अपने पिता के घर उनका आना-जाना बंद हो जाएगा। लीला दुबे ने अपने अध्ययन में यह पाया कि 41.7 प्रतिशत महिलाएँ इसी डर के कारण जन्म के परिवार (नेटल परिवार) से संपत्ति में अपने हिस्से की माँग नहीं करती हैं। संवेदनाओं में एक करीबी संपर्क होता है तथा प्रतिवर्ती रूप में महिलाएँ संपत्ति से अपना हिस्सा लेने से इनकार करने पर भी अपने जन्म के परिवार की उन्नति में सहायक होने और मुसीबत की घड़ी में काम आने की इच्छा रखती हैं। यह ऐसे सहयोगात्मक व्यवहार का उदाहरण है जो समाज के गहरे संघर्षों की उपज के रूप में भी देखा जा सकता है। जब तक ऐसे संघर्षों की खुलकर अभिव्यक्ति नहीं होती अथवा उन्हें खुली चुनौती नहीं दी जाती है, तब तक यह छवि बनी रहती है कि कहीं कोई संघर्ष नहीं है, केवल सहयोग ही विद्यमान है। प्रकार्यवादी समाजशास्त्री ऐसी परिस्थिति को व्यक्त करने हेतु ‘व्यवस्थापन’ शब्द का भी प्रयोग करते हैं।

प्रश्न 9.
कुछ अन्य सामाजिक व्यवहारों के बारे में सोचिए जो सहयोगात्मक दिखाई देते हों परंतु समाज के गहरे संघर्षों को अपने अंदर छिपाए हों। (क्रियाकलाप 5)
उत्तर
महिलाओं द्वारा अपने जन्म के परिवार की संपत्ति में अपने हिस्से की माँग न करने जैसे अनेक अन्य उदाहरण भी हैं जो सहयोगात्मक दिखाई देते हैं परंतु उनमें समाज के गहरे संघर्ष का आभास होता है। हम एक ऐसे परिवार का उदाहरण ले सकते हैं जिसमें दो भाई हैं जिनमें संपत्ति को लेकर मतभेद है तथा वे एक-दूसरे से अलग होना चाहते हैं। इस बात के डर से कि कहीं पिता उन दोनों को पैतृक संपत्ति से बेदखल न कर दे, वे पिता के जीते जी संपत्ति के बँटवारे की बात ही नहीं करते हैं। एक-दूसरे को न चाहते हुए अथवा गहरे मतभेद होते हुए भी वे एक ही परिवार के सदस्य के रूप में रहने के लिए तब तक विवश हो जाते हैं जब तक कि उनका पिता जीवित है। पिता की मृत्यु के पश्चात् संपत्ति बँटवारे को लेकर वे आपस में कोई समझौता कर लेते हैं अथवा बहुधा उनका यह छिपा हुआ संघर्ष सार्वजनिक भी हो सकता है। कई बार तो बँटवारे संबंधी संघर्ष इतना गहरा होता है कि वाद न्यायालय तक पहुँच जाता है।

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प्रश्न 10.
अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के सरकार के निर्णय के पक्ष तथा विपक्ष में दिए गए विभिन्न तर्को को एकत्रित कीजिए। (क्रियाकलाप 6)
उत्तर
शैक्षिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी हुई हिन्दू एवं मुस्लिम जातियों का पता लगाने हेतु 1953 ई० में एक पिछड़ा वर्ग कमीशन’ बनाया गया। इस कमीशन के अध्यक्ष काका कालेलकर थे। कमीशन ने चार आधारों पर पिछड़ेपन का पता लगाने का प्रयास किया–जातीय संस्तरण में निम्न स्थिति, शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ापन, सरकारी नौकरियों में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व तथा व्यापार, वाणिज्य व उद्योग के क्षेत्रों में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व। 1977 ई० में जनता पार्टी ने सत्ता प्राप्त करने पर अपने । घोषणा-पत्र के अनुरूप ‘मण्डल कमीशन’ नियुक्त किया। इस बहुचर्चित कमीशन ने देश की 52 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाले अन्य पिछड़े वर्गों हेतु सरकारी सेवाओं व शिक्षा संस्थाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण का सुझाव दिया जिसे अन्ततः श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रीत्व “काल में काफी विरोध के बावजूद स्वीकार कर लिया गया। अन्य पिछड़े वर्गों के उत्थाने हेतु भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय के अधीन 13 जनवरी, 1992 ई० को ‘राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग वित्त और विकास निगम का गठन किया गया जिसका प्रमुख उद्देश्य इन वर्गों के कल्याण के लिए आर्थिक विकास की गतिविधियों को बढ़ावा देना था।

अन्य पिछड़े वर्गों को दिया गया आरक्षण प्रारंभ से ही वाद-विवाद का विषय रहा है। इनके आरक्षण के पक्ष में यह तर्क दिया गया कि इन वर्गों का सामाजिक-आर्थिक एवं शैक्षिक उत्थान इसी के द्वारा सम्भव है। इनके आरक्षण का विरोध करने वाले लोगों का कहना है कि आर्थिक पिछड़ेपन का आधार जाति नहीं हो सकता। या तो सभी जातियों के आर्थिक दृष्टि से पिछड़े लोगों को आरक्षण का लाभ मिले या इस आरक्षण को रद्द कर दिया जाए। साथ ही, अन्य पिछड़े वर्गों में ‘क्रीमी लेयर’ का मुद्दा भी विवादास्पद रहा है। इससे यह अभिप्राय है कि अन्य पिछड़े वर्गों में जो परिवार आर्थिक रूप से संपन्न हैं क्या उनके बच्चों को भी आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए।

अभी हाल ही में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य पिछड़े वर्गों के आरक्षण पर यह कहते हुए रोक लगा दी है कि इस आरक्षण का लाभ उठाने वाली जातियों की जनंसख्या का पता नहीं है। 1931 ई० में जनगणना में भारत में जाति के आधार पर भी गणना की गई थी। आरक्षण में इसी को आधार बनाया गया है। सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि 1931 ई० की जनगणना को आरक्षण को आधार बनाया जाना अनुचित है। अभी स्थिति यह है कि शिक्षा संस्थाओं और नौकरियों में आरक्षण न्यायालय के आदेश के कारण स्थगित है तथा इस मुद्दे पर न्यायालय का एक बड़ा बैंच विचार-विमर्श कर रहा है।

प्रश्न 11.
विद्यालय में ड्रॉप आउट की दर, विशेषकर प्राइमरी विद्यालयों में, पर जानकारी हासिल कीजिए। (क्रियाकलाप 6)
उत्तर
विद्यालयों में ‘ड्रॉप आउट’ की दर से अभिप्राय उस अनुपात से है जिसमें प्रवेश लेने वाले छात्र-छात्राएँ अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़ देते हैं अर्थात् वे प्रवेश तो लेते हैं परंतु पूरी किए बिना विद्यालय छोड़ देते हैं। इस प्रकार के ‘ड्रॉप आउट’ पर अनेक अध्ययन हुए हैं। ब्रजराज चौहान द्वारा किए गए। अध्ययन से पता चलता है कि ड्रॉप आउट’ की दर अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के बच्चों में अधिक है। पहले तो अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों का शिक्षा संस्थाओं में नामांकन ही अपर्याप्त है तथा दूसरे, जो नामांकन में सफल भी हो जाते हैं उनमें ‘ड्रॉप आउट’ की दर भी अधिक है। इसका कारण इन जातियों की परंपरागत स्थिति एवं व्यवसाय है। अधिकांश निर्धन परिवारों में बच्चे को तनिक बड़ा होते ही रोजी कमाने के काम पर लगा दिया जाता है। पढ़ाई की तुलना में बच्चे का परिवार की आमदनी का स्रोत बनना अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। बहुत-से माता-पिता पढ़ाई पर होने वाले व्यय को भी वहन नहीं कर पाते। विशिष्ट व्यावसायिक संस्थानों में यह बात और भी अधिक स्पष्ट दिखाई देती है। ‘ड्रॉप आउट’ की यह दर 10 से 25 प्रतिशत तक हो सकती है। जैसे-जैसे अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की आर्थिक स्थिति अच्छी होती जा रही है, वैसे-वैसे ‘ड्रॉप आउट’ की यह दर कम होती जा रही है।

प्रश्न 12.
“प्रतिस्पर्धा समाज के लिए सकारात्मक तथा आवश्यक है।” इस विषय पर वाद-विवाद का आयोजन कीजिए। (क्रियाकलाप 7)
उत्तर
क्या आधुनिक समाजों में प्रतिस्पर्धा सकारात्मक एवं आवश्यक है? यह एक वाद-विवाद का प्रश्न है। एक तरफ इसका पक्ष लेने वाले लोगों का कहना है कि आधुनिक युग में प्रतिस्पर्धा के बिना समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। प्रतिस्पर्धा के संगठनात्मक दृष्टि से अच्छे परिणाम होते हैं। क्योंकि इससे प्रत्येक व्यवसाय में अच्छे लोगों को आगे आने का अवसर प्राप्त होता है। यदि समाज के द्वारा निर्धारित नियमों के भीतर प्रतिस्पर्धा होती है तो यह व्यक्तित्व के विकास में भी सहायता प्रदान करती है। प्रतिस्पर्धा में लगे व्यक्ति अन्यों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं जिससे उनका दृष्टिकोण विस्तृत बनता है, बोध शक्ति बढ़ती है और सहानुभूति गहरी होती है। ये सभी बातें व्यक्तित्व के विकास को प्रोत्साहन देती हैं। इससे समाज में प्रगति होती है तथा सामाजिक एकता बनाए रखने में भी सहायता मिलती है। यह व्यक्ति, समूह एवं समाज की दृष्टि से प्रकार्यात्मक है और इसी दृष्टि से यह एक संगठनात्मक प्रक्रिया मानी जाती है। प्रतिस्पर्धा कार्यों को अच्छी प्रकार से करने की प्रेरणा देती है, यह महत्त्वाकांक्षाओं में वृद्धि करती है तथा प्रतिद्वंद्वी की चुनौती को स्वीकार कर अपनी योग्यता दिखाने का अवसर प्रदान करती है।

प्रतिस्पर्धा की सकारात्मक भूमिका एवं आवश्यकता के विपक्ष में जो दिए जाते हैं उनमें बहुधा प्रतिस्पर्धा का कटु रूप धारण कर लेना प्रमुख है। प्रतियोगी अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सभी नियमों को तोड़कर अवैधानिक साधन अपनाने लगते हैं। कई बार कटुता इतनी अधिक हो जाती है कि प्रतिद्वद्वियों में संघर्ष तक हो जाता है। इसी दृष्टि से इसके असहयोगी परिणामी की विवेचना की जाती है। गिलिन तथा गिलिन जैसे समाजशास्त्रियों के मतानुसार प्रतिस्पर्धा सामाजिक विघटन के लिए भी कुछ सीमा तक उत्तरदायी है।

जे०एस० मिल जैसे उदारवादियों ने भी प्रतिस्पर्धा के प्रभाव को अधिकतर नुकसानदायक माना है। उनका तर्क है कि प्रतिस्पर्धात्मक संघर्ष की आवश्यकताओं को थोपने से समाज में व्यक्तिवाद का तीव्रता से विस्तार होता है।

इतना ही नहीं, प्रतिस्पर्धा आविष्कारों को प्रोत्साहन देती है और कई बार व्यक्ति उन आविष्कारों के कारण उत्पन्न परिवर्तन से अनुकूलन नहीं रख पाते। ऐसी नवीन परिस्थिति में सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन मिलता है क्योंकि इसमें असामंजस्य की स्थिति विकसित हो जाती है। सामाजिक एकता की बजाय सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन देकर यह अपनी असहयोगी भूमिका निभाती है। साथ ही, अनियंत्रित प्रतिस्पर्धा में घृणा और हिंसा की भावना आ जाती है। ऐसी परिस्थिति में प्रतिस्पर्धा हिंसा तथा संघर्ष में भी बदल जाती है और समाज, समूह तथा व्यक्ति के लिए विघटनकारी हो जाती है।

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प्रश्न 13.
प्रतिस्पर्धा का विभिन्न विद्यार्थियों पर क्या प्रभाव पड़ता है? इस विषय पर अपने स्कूल के अनुभवों के आधार पर निबंध लिखिए। (क्रियाकलाप 7)
उत्तर
आधुनिक युग में विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों में भी प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है। यह प्रतिस्पर्धा केवल शैक्षिक दृष्टि से सर्वोत्तम स्थान प्राप्त करने तक ही सीमित नहीं होती, अपितु विद्यालय की अन्य गतिविधियों में भी इसे स्पष्टतः देखा जा सकता है। खेल के मैदान में प्रत्येक छात्र एक अच्छा खिलाड़ी बनना चाहता है तथा इसलिए अपने खेल प्रदर्शन को बेहतर बनाने हेतु विद्यालय के अन्य छात्रों से प्रतिस्पर्धा करता है। अपनी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने हेतु अनेक छात्र प्रतिस्पर्धा में संलग्न रहते हैं। इस प्रकार की प्रतिस्पर्धा उन्हें अपने प्रतिस्पर्धा से आगे निकलते हेतु अधिक परिश्रम करने की प्रेरणा देती हैं कई बार छात्र यह चाहता है कि वह अपने नगर के सभी विद्यालयों के छात्रों से आगे निकले तथा प्रथम स्थान प्राप्त करे। इसके लिए वह परोक्ष रूप से अन्य विद्यालयों के उन छात्रों से भी प्रतिस्पर्धा करता है जिन्हें वह जानता तक नहीं। यह सोचकर कि अपने या अन्य किसी विद्यालय का छात्र उससे अधिक अंक प्राप्त न कर ले, वह दिन-रात एक करके अपने इस लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करता है। इस दृष्टि से यह कहा जाता है कि प्रतिस्पर्धा से बोध शक्ति बढ़ती है। विद्यालय के छात्रों पर प्रतिस्पर्धा का नकारात्मक प्रभाव भी देखा जा सकता है। कुछ प्रतियोगी छात्र यह मान लेते हैं। कि वे अमुक छात्र से आगे नहीं निकल सकते। इससे वे हतोत्साहित होते हैं तथा उतना कठिन परिश्रम नहीं करते जितना कि उन्हें करना चाहिए।

प्रश्न 14.
वे अवसर कौन-से हैं जिनमें हमारे समाज में एक व्यक्ति को प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है? (क्रियाकलाप 8)
उत्तर
आधुनिक युग में सभी स्तरों पर व्यक्ति को प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। किसी अच्छे विद्यालय में प्रवेश के उदाहरण द्वारा इसे समझा जा सकता है। पहले कभी विद्यालयों में छह वर्ष के बच्चों को प्रवेश दिया जाता था तथा इसके लिए उन्हें या उनके माता-पिता को किसी प्रकार का साक्षात्कार नहीं देना पड़ता था। अब सभी जानते हैं कि अंग्रेजी माध्यम के अच्छे विद्यालयों में प्रवेश की न्यूनतम आयु चार वर्ष से अधिक होती है तथा प्रवेश एल०के०जी० में होता है। प्रथम कक्षा में बच्चा तब प्रवेश करता है जब उसकी आयु छह वर्ष की हो जाती है। अनेक ‘प्ले स्कूल’ एवं ‘नर्सरी स्कूल बच्चों को कम आयु में प्रवेश देकर उनकी योग्यताओं को बढ़ाने का प्रयास करते हैं। ऐसे विद्यालयों का उद्देश्य बच्चों को अच्छे विद्यालय में प्रवेश हेतु योग्य बनाना है अर्थात् उसे इस लायक बनाना है कि वह अन्य उसी प्रकार के विद्यालयों के बच्चों से प्रवेश के समय अच्छा प्रदर्शन कर सके तथा उसका प्रवेश हो सके। यदि बच्चे का प्रवेश हो जाता है तो कम-से-कम इंटरमीडिएट कक्षा तक उसके माता-पिता उसकी शिक्षा के बारे में निश्चिन्त हो जाते हैं। प्रतिस्पर्धा की इस पहली सीढ़ी को पार करने वाले बच्चे अन्य बच्चों से कहीं आगे निकलने हेतु पुनः प्रतिस्पर्धा में लग जाते हैं। इंटरमीडिएट के बाद इंजीनियरिंग, मेडिकल, बी०बी०ए०, बी०सी०ए०, बी०ए०, बी-एस०सी०, बी० कॉम आदि में प्रवेश लेने के लिए उन्हें पुनः अन्य बच्चों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। यदि प्रवेश प्रवेश परीक्षा के माध्यम से होता है तो वही बच्चे प्रवेश पाते हैं जिनका क्रम मैरिट में ऊँचा होता है। शिक्षा प्राप्त करने के बाद रोजगार प्राप्त करने हेतु भी प्रतिस्पर्धा से ही गुजरना पड़ता है। इस प्रकार, आधुनिक युग में जीक्न के प्रत्येक स्तर पर व्यक्ति को किसी-न-किसी प्रकार की प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। अभी हमारे देश में ऐसे शिक्षा संस्थान नहीं हैं कि बच्चा नर्सरी में प्रतिस्पर्धा के आधार पर प्रवेश ले ले तथा वहीं से डॉक्टर या इंजीनियर बनकर निकले। इंग्लैण्ड जैसे देश में बच्चों को इस प्रकार के अवसर उपलब्ध होते हैं। इसके विपरीत, अमेरिका में प्रत्येक स्तर पर प्रवेश हेतु बच्चों को अन्य के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। यही व्यवस्था भारतीय शिक्षा पद्धति की है।

प्रश्न 15.
आज विश्व में वे कौन-से विभिन्न प्रकार के संघर्ष हैं जो विद्यमान हैं? (क्रियाकलाप 9)
उत्तर
आज विश्व में विविध प्रकार के संघर्ष विद्यमान हैं। व्यापारिक स्तर पर विभिन्न राष्ट्रों तथा राष्ट्रों के समूह के बीच संघर्ष है। प्रत्येक राष्ट्र का यह प्रयास रहता है कि वह व्यापारिक दृष्टि से अन्य राष्ट्रों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर सके। विभिन्न राष्ट्रों तथा राष्ट्रों के समूह के बीच संघर्ष का अन्य कारण नृजातीयता अथवा धर्म हो सकता है। इजराइल एवं अरब देशों में संघर्ष इसी श्रेणी का उदाहरणं है। इसी भाँति, एक ही राष्ट्र के अंदर अनेक प्रकार के संघर्ष विद्यमाने हैं। इन संघर्षों का आधार वर्ग, जाति, जनजाति, लिंग, नृजातीयता, सांप्रदायिकता, भाषा, क्षेत्र इत्यादि हो सकता है। भारत में सांप्रदायिकता पर आधारित दंगे-फसाद होते हैं, जाति के आधार पर संघर्ष देखे जा सकते हैं, जनजातियाँ अपनी आकांक्षाएँ पूरी न होने पर आंदोलनरत हो जाती हैं। लिंग समता हेतु महिला आंदोलन न केवल भारत में अपितु अन्य देशों में भी विकसित हुए हैं तथा इनका सामाजिक संरचना पर काफी प्रभाव पड़ा है। क्षेत्रीय आधार पर भी संघर्ष अनेक नए राज्यों के निर्माण में प्रतिफलित होता है। भाषा के आधार पर होने वाले संघर्षों के कारण ही आज भी हिन्दी मातृभाषा होने के बावजूद सभी राज्यों में नहीं बोली जाती है। विकासशील देशों में नए तथा पुराने के बीच संघर्ष स्पष्ट देखते जा सकते हैं। प्राचीन प्रणाली नवीन शक्तियों का मुकाबला नहीं कर पा रही है, न ही लोगों की नवीन आशाओं तथा आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। संघर्ष बेकार की बहस, विभ्रान्ति, विसंगति तथा कई मौकों पर खून-खराबे को जन्म देता है। ऐसा नहीं है कि पुरानी पद्धति संघर्षविहनी थी। पुरातन समय में भी जनसंख्या के बड़े भाग पर अमानुषिक अत्याचार किए जाते थे।

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प्रश्न 16.
भूमि-संघर्ष से संबंधित वितरण में विभिन्न सामाजिक वर्गों को पहचानिए तथा शक्ति एवं संसाधनों की भूमिका पर ध्यान दीजिए। (क्रियाकलाप 10)
उत्तर
भूमि-संघर्ष मुख्य रूप से भू-पतियों (भू-स्वामियों) तथा किसानों अथवा किसानों एवं साहूकारों के बीच होते रहे हैं। भारतीय कृषकों ने अंग्रेजी शासनकाल में भारतीय कृषकों का साहूकारों एवं जमींदारों के दमन और उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज उठाने का लम्बा इतिहास रहा है। सम्पन्न कृषकों एवं भूमिहीन कृषकों में संघर्ष हो रहे हैं। टी०के० ओमन ने भूदान-ग्रामदान आंदोलन के अध्ययन में एक कृषक एवं साहूकार के बीच भूमि-संघर्ष का उल्लेख किया। हरबक्श नामक एके राजपूत ने 1956 ई० में नत्थू अहीर (पटेल) से १ 100 कर्ज के रूप में लिए तथा इसके लिए उसे अपने दो एकड़ जमीन को गिरवी रखना पड़ा। उसी वर्ष हरबक्श की मृत्यु हो गई उसके उत्तराधिकारी गणपत ने 1958 ई में जमीन को वापस लेने का दावा किया। इसके लिए उसने 200 देने की पेशकश की। नत्थू ने गणपत को जमीन वापस करने से मना कर दिया। गणपत इसके लिए कानूनी कार्यवाही का सहारा नहीं ले सका क्योंकि इस लेन-देन का कोई रिकॉर्ड उसके पास नहीं था। इन परिस्थितियों के अधीन गणपत ने हिंसा का सहारा ले 1959 ई० (ग्रामदान के एक वर्ष पश्चात्) में जबरन भूमि पर अधिकार कर लिया। गणपत, चूंकि स्वयं एक पुलिस कांस्टेबल था अतः इस मामले में उसने अफसरों पर काफी प्रभाव डाला। पटेल को पुलिस थाने में गणपत को जमीन वापस करने हेतु जबरन राजी कर लिया। इसके पश्चात् ग्रामवासियों की एक सभा बुलाई गई जिसमें पटेल को पैसा दिया गया और गणपत को अपनी जमीन वापस मिल गई।

प्रश्न 17.
सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रिया के आषसी संबंधों पर परिचर्चा कीजिए। (क्रियाकलाप 11)
उत्तर
सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रिया में गहरा संबंध पाया जाता है। सामाजिक संरचना शब्द इस तथ्य को दर्शाता है कि समाज संरचनात्मक है अर्थात् अपने विशिष्ट रूप में वह क्रमवार तथा नियमित है। सामाजिक संरचना की संकल्पना लोगों के आचरण, एक-दूसरे से संबंध में अंतर्निहित नियमितताओं को व्यक्त करती है। सामाजिक स्तरीकरण से अभिप्राय समाज में समूहों के बीच संरचनात्मक असमानताओं के अस्तित्व से है। सामाजिक स्तरीकरण एक विस्तृत सामाजिक संरचना के भाग के रूप में असमानता के निश्चित प्रतिमान द्वारा पहचाना जाता है। जिस प्रकार का संबंध सामाजिक संरचना एवं सामाजिक स्तरीकरण में है, ठीक उसी प्रकार का संबंध सामाजिक स्तरीकरण एवं प्रक्रियाओं में भी है। लिंग अथवा वर्ग जैसे सामाजिक स्तरीकरण के विभिन्न आधार सामाजिक प्रक्रियाओं को बाधित करते हैं। व्यक्ति तथा वर्गों को मिलने वाले अवसर तथा संसाधने जो प्रतिस्पर्धा सहयोग अथवा संघर्ष के रूप में सामने आते हैं, उन्हें सामाजिक संरचना तथा सामाजिक स्तरीकण के द्वारा आकार दिया जाता है। साथ ही, व्यक्ति पूर्वस्थित संरचना तथा स्तरीकरण में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है।

प्रश्न 18.
क्रियाकलाप 11 तथा 12 में दिए गए उदाहरणों में जिस प्रकार की प्रतिस्पर्धा है उसकी असमानताओं को देशाईए। (क्रियाकलाप 12)
उत्तर
क्रियाकलाप 11 में संतोष एवं पुष्पा तथा क्रियाकलाप 12 में विक्रम एवं नितिन के उदाहरण दिए गए हैं जो सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रिया के आपसी संबंधों को दर्शाते हैं। संतोष एक भूमिहीन मजदूर का बेटा है जिसने अपनी पढ़ाई के लिए साहूकार र 8,000 का ऋण लिया। साहूकार के ऋण माँगने पर उसने गन्ने की फैक्ट्री के ठेकेदार से कुछ अग्रिम राशि आय के रूप में लेकर साहूकार के ऋण को चुकाया। ठेकेदार की ठेकेदारी के अंतर्गत काम करने के लिए उसने 14 वर्ष की पुष्पा से विवाह कर लिया। उसने ऐसा इसलिए किया कि ठेकेदार अकेले लड़कों की बजाय विवाहित दंपति को काम देना पंसद करते हैं क्योंकि वे फैक्ट्री में ज्यादा महीनों तक रुककर काम करते हैं। 16 वर्ष की आयु में संतोष ने 10वीं कक्षा तथा पुष्पा ने 12वीं कक्षा की पढ़ाई समाप्त की। पुष्पा अपनी पढ़ाई तथा अपने डेढ़ वर्ष के बच्चे की देखभाल दोनों कार्यों के बीच संतुलन बनाकर करती है। इसके अतिरिक्त घर-परिवार तथा खेतों में भी काम होता है। उसके ससुराल वालों का कहना है कि वे  कर सकते हैं जब उन्हें कोई छात्रवृत्ति मिले; अन्यथा यह दंपत्ति मुंबई के किसी निर्माण क्षेत्र में काम करने चले जाएँगे।

क्रियाकलाप 12 में तीव्र गति से आगे बढ़ती हुई भारतीय अर्थव्यवस्था में दिन-प्रतिदिन व्यापार के क्षेत्र . में बढ़ती हुई नौकरियों तथा काम के प्रति लोगों के बदलते हुए दृष्टिकोण का उदाहरण दिया गया है। कामकाजी वर्ग तुरंत अपने किए गए कार्यों के लिए इनाम चाहता है। उन्नति जल्दी-से-जल्दी मिलनी चाहिए और पैसा (अच्छी तनख्वाह, अतिरिक्त भत्ता तथा ऊँची वृद्धि) मुख्य उत्तेजक के रूप में कार्य करता है। 27 वर्ष के विक्रम सामन्त ने अभी-अभी बी०पी०ओ में कार्यभार सँभला है; अपनी पिछली नौकरी को छोड़ देने का मुख्य कारण वह बेहतरीन तनख्वाह को मानता है। उसका कहना है कि उसके नए मालिक अच्छी तरह से जानते हैं कि वह हर उस एक रुपये के लिए काबिल है जो वे उसे देते हैं। इस नई अर्थव्यवस्था में कॉरपोरेट जगत की सीढ़ी पर एक-एक सीढ़ी न चढ़ते हुए ऊँची छलाँगें मारने की भी प्रवृत्ति बढ़ी है। नितिन ने आई०सी०आई०सी०आई० को छोड़कर एक तरक्की ले पहले अपने आप को स्टैंडर्ड चार्टर्ड से जोड़ा तथा फिर ऑप्टिमिक्स में क्षेत्रीय मैनेजर का पद प्राप्त किया। नितिन का कहना है कि वह अगला पद जल्दी पाना चाहता है तथा इसके लिए बुढ़ापे तक इंजतार नहीं करना चाहता है।

उपर्युक्त दोनों उदाहरणों में आधुनिक युग में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण तथा सामाजिक प्रक्रियाओं में संबंध दर्शाया गया है। संतोष ने साहूकार का ऋण वापस करने हेतु गन्ने के ठेकेदार से पैसा लेकर पुष्पा से विवाह इसलिए किया ताकि ठेकेदार उसे ज्यादा दिनों तक नौकरी पर रख सके। पुष्पा पढ़ाई में होशियार होने के साथ-साथ अपने घर-परिवार तथा बाहर के कार्यों में तालमेल बनाए रखती है। संतोष का पुष्पा से विवाह करना उसकी मजबूरी थी तथा पुष्पा की मजबूरी कामकाजी होने के नाते बाहर तथा घर की भूमिका में संतुलन बनाए रखना था। दोनों में आगे बढ़ने के लिए प्रतिस्पर्धा के अवसर सीमित विक्रम तथा नितिन जिस प्रतिस्पर्धा में लगे हैं उसका एकमात्र उद्देश्य अच्छे वेतन के लिए बड़ी-बड़ी छलॉग लगाना है। वे जानते हैं कि इसके लिए उन्हें स्वयं इस योग्य बनना होगा ताकि मालिक पहली नौकरी की तुलना में अधिक वेतन दे सके। वे पूरी तरह से सोचते हैं कि आधुनिक अर्थव्यवस्था में मालिक अपने कर्मचारी को वेतन तथा वेतन वृद्धि उसकी योग्यता के आधार पर देता है। मालिक जानता है कि वह जो वेतन कर्मचारियों को दे रहा है, कर्मचारी उससे कहीं अधिक काम उसके लिए कर रहे हैं।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्न में से कौन-सा जाति को आधार है?
(क) जन्म
(ख) कर्म
(ग) भाग्य
(घ) धन
उत्तर
(क) जन्म

प्रश्न 2.
जाति की सदस्यता होती है
(क) अर्जित
(ख) जन्म से
(ग) दोनों
(घ) कोई नहीं
उत्तर
(ख) जन्म से

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में कौन-सा कथन सही है ?
(क) जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित नहीं होती
(ख) वर्ग की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है,
(ग) भारतीय संविधान ने जातिवाद का समर्थन किया है।
(घ) जाति-व्यवस्था प्रजातंत्र में बाधक है।
उत्तर
(घ) जाति-व्यवस्था प्रजातंत्र में बाधक है।

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प्रश्न 4.
“एक जाति एक अंतर्विवाही समूह या अंतर्विवाही समूहों का संकलन है।” यह परिभाषा किसने दी है ?
(क) पी० एच० प्रभु ने
(ख) ब्लण्ट ने
(ग) एन० के० दत्ता ने
(घ) रिज़ले ने
उत्तर
(ख) ब्लण्ट ने

प्रश्न 5.
जाति के लक्षणों में निम्नलिखित चार में कौन विशेष महत्त्वपूर्ण है ?
(क) श्रम-विभाजन
(ख) श्रेणीक्रम
(ग) अंतर्विवाह
(घ) खण्डनात्मकता
उत्तर
(ग) अंतर्विवाह

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में कौन-सी विशेषता जाति की नहीं है.?
(क) पेशा बदलने से जाति परिवर्तित हो जाती है।
(ख) जाति पेशे से संबंधित है।
(ग) जाति जन्म से निर्धारित होती है।
(घ) जाति अंतर्विवाही होती है।
उत्तर
(क) पेशा बदलने से जाति परिवर्तित हो जाती है।

प्रश्न 7.
जाति को निर्धारण किससे होता है ?
(क) व्यवसाय से
(ख) जन्म से
(ग) क्षेत्र से
(घ) विवाह से
उत्तर
(ख) जन्म से

प्रश्न 8.
‘कास्ट एंड सोशल स्ट्रेटिफिकेशन अमंग मुस्लिम इन इंडिया’ के लेखक हैं-
(क) अहमद इम्तियाज
(ख) जी0 एस0 घुरिये
(ग) राधा कमल मुखर्जी
(घ) सोरोकिन
उत्तर
(क) अहमद इम्तियाज

प्रश्न 9.
‘द पीपुल ऑफ इंडिया’ नामक पुस्तक के लेखक कौन हैं ?
(क) सर हरबर्ट रिज़ले
(ख) चार्ल्स कूले
(ग) डॉ० जी० एस० घुरिये
(घ) मजूमदार एवं मदान
उत्तर
(क) सर हरबर्ट रिज़ले

प्रश्न 10.
‘ब्रीफ व्यू ऑफ द कास्ट सिस्टम’ पुस्तक किसने लिखी है?
(क) के० एम० कपाड़िया
(ख) योगेन्द्र सिंह
(ग) एस० सी० दूबे
(घ) नेसफील्ड
उत्तर
(घ) नेसफील्ड

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प्रश्न 11.
निम्नलिखित में कौन-सा वर्ग है ?
(क) पूँजीपति
(ख) हरिजन
(ग) श्रमिक संघ
(घ) युवा वर्ग
उत्तर
(क) पूँजीपति

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में कौन-सा वर्ग नहीं है?
(क) श्रमिक
(ख) लिपिक
(ग) बुद्धिजीवी
(घ) महिलाएँ
उत्तर
(घ) महिलाएँ

प्रश्न 13.
‘कास्ट इन इंडिया’ पुस्तक का लेखक कौन है ?
(क) जे० एच० हट्टन
(ख) इरावर्ती कर्वे
(ग) एम0 एस0 दूबे
(घ) जी०एस० घुरिये
उत्तर
(क) जे० एच० हट्टन

निश्चित उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
हरबर्ट स्पेंसर ने सर्वप्रथम ‘सामाजिक संरचना’ शब्द का प्रयोग अपनी किस पुस्तक में किया था?
उत्तर
हरबर्ट स्पेंसर ने सर्वप्रथम ‘सामाजिक संरचना’ शब्द का प्रयोग अपनी पुस्तक ‘प्रिसिंपल्स ऑफ़ सोशियोलॉजी’ में किया था।

प्रश्न 2.
इमाइल दुर्णीम ने सर्वप्रथम ‘सामाजिक संरचना’ शब्द का प्रयोग अपनी किस पुस्तक में किया था?
उत्तर
इमाइल दुर्णीम ने सर्वप्रथम ‘सामाजिक संरचना’ शब्द का प्रयोग अपनी पुस्तक ‘दि रूल्स ऑफ सोशियोलॉजिकल मैथड’ में किया था।

प्रश्न 3.
‘कास्ट इन इंडिया’ पुस्तक के लेखक का नाम लिखिए।
उत्तर
‘कास्ट इन इंडिया’ पुस्तक के लेखक का नाम जे०एच० हट्टन है।

प्रश्न 4.
‘कास्ट एंड रेस इन इंडिया पुस्तक के लेखक का नाम लिखिए।
उत्तर
कास्ट एंड रेस इन इंडिया’ पुस्तक के लेखक का नाम जी०एस० घुरिये है।

प्रश्न 5.
‘कास्ट, क्लास एंड ऑक्यूपेशन’ पुस्तक के लेखक का नाम लिखिए।
उत्तर
कास्ट, क्लास एंड ऑक्यूपेशन’ पुस्तक के लेखक का नाम जी०एस० घुरिये है।

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प्रश्न 6.
‘सोशल चेंज इन मॉडर्न इंडिया’ पुस्तक के लेखक का नाम लिखिए।
उत्तर
‘सोशल चेंज इन मॉडर्न इंडिया’ पुस्तक के लेखक का नाम एम०एन० श्रीनिवास है।

प्रश्न 7.
‘कास्ट इन मॉडर्न इंडिया एंड अंदर ऐसेज’ पुस्तक के लेखक का नाम लिखिए।
उत्तर
इस पुस्तक के लेखक का नाम एम०एन० श्रीनिवास है।

प्रश्न 8.
‘रेसेज एंड कल्चर्स ऑफ इंडिया’ पुस्तक के लेखक का नाम लिखिए।
उत्तर
रेसेज एंड कल्चर्स ऑफ इंडिया’ पुस्तक के लेखक का नाम डी०एन० मजूमदार है।

प्रश्न 9.
‘कास्ट, क्लास एंड पावर’ पुस्तक के लेखक का नाम लिखिए।
उत्तर
‘कास्ट, क्लास एंड पावर’ पुस्तक के लेखक का नाम आंद्रे बेतेई है।

प्रश्न 10.
‘कास्ट इन कंटेम्परेरी इंडिया’ पुस्तक के लेखक का नाम लिखिए।
उत्तर
कास्ट इन कंटेम्परेरी इंडिया’ पुस्तक के लेखक का नाम पी० कोलंडा है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
सामाजिक संरचना की उपयुक्त परिभाषा दीजिए।
उत्तर
टॉलकॉट पारसंस के अनुसार, “सामाजिक संरचना से तात्पर्य परस्पर संबंधित संस्थाओं, एजेंसियों, सामाजिक प्रतिमानों और समूहों में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा ग्रहण किए जाने वाले पदों और भूमिकाओं की क्रमबद्धता से है। पारसंस की इस परिभाषा के अनुसार सामाजिक संरचना एक विशिष्ट क्रमबद्ध व्यवस्था है जिसकी प्रमुख इकाइयाँ संस्थाएँ, अभिकरण, प्रतिमान और समूह हैं जो एक-दूसरे से परस्पर संबंधित होते हैं। सामाजिक संरचना के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति की निश्चित स्थिति और भूमिका होती है। इस स्थिति और भूमिका को निर्धारण सामाजिक संस्थाएँ ही करती हैं। इन्होंने इसे एक अमूर्त धारणा के रूप में समझने का प्रयास किया है।

प्रश्न 2.
सामाजिक संरचना की.दो प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर
सामाजिक संरचना की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—

  1. अमूर्त अवधारणा–सामाजिक संरचना कोई वस्तु या व्यक्तियों का संगठन नहीं है। यह तो मात्र प्रतिमानों, संस्थाओं, नियमों, कार्यप्रणालियों व पारस्परिक संबंधों की एक क्रमबद्धता है। अतः यह एक अमूर्त धारणा है।
  2. समाज के बाह्य ढाँचे का बोध-सामाजिक संरचना से समाज के बाह्य स्वरूप मात्र का बोध होता है। यह इकाइयों की क्रमबद्धता से संबंधित है, न कि इनके कार्यों से।

प्रश्न 3.
सामाजिक प्रक्रिया किसे कहते हैं?
उत्तर
सामाजिक प्रक्रिया से अभिप्राय सामाजिक अंत:क्रिया के विभिन्न स्वरूपों से है। यह परस्पर संबंधित घटनाओं का एक क्रम है जिसे हम विशिष्ट परिणाम और परिवर्तन को जन्म देने वाला मानते हैं। फेयरचाइल्ड ने समाजशास्त्र के शब्दकोश में सामाजिक प्रक्रिया की परिभाषा इन शब्दों में दी है-“कोई भी सामाजिक परिवर्तन या अंत:क्रिया, जिसमें अवलोकनकर्ता एक सतत (निरत) गुण या दिशा देखता हो, जिसे एक वर्गीय नाम दिया जा सके, सामाजिक परिवर्तन या अंत:क्रिया का एक वर्ग जिसमें सामान्य रूप से सामान्य आदर्श देखा जा सके व नामांकित किया जा सके। उदाहरणार्थ-अनुकरण, पर-संस्कृतिग्रहण, संघर्ष, सामाजिक नियंत्रण, संस्तरण।”

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प्रश्न 4.
सामाजिक प्रक्रिया की कोई एक उपयुक्त परिभाषा दीजिए।
उत्तर
गिलिन एवं गिलिन के अनुसार, “सामाजिक प्रक्रिया से हमारा अभिप्राय अंत:क्रिया के उन तरीकों से है जिनका हम, जब व्यक्ति और समूह मिलते हैं और संबंधों की व्यवस्था करते हैं या जब जीवन के पूर्व-प्रचलित तरीकों में परिवर्तन के कारण अव्यवस्था उत्पन्न होती है, अवलोकन कर सकते हैं।”

प्रश्न 5.
सामाजिक प्रक्रियाओं के प्रमुख प्रकार कौन-से हैं?
उत्तर
सामाजिक प्रक्रियाओं के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं-

  1. सहयोगी सामाजिक प्रक्रियाएँ–सहयोगी प्रक्रियाओं को सहगामी प्रक्रियाएँ, संगठनात्मक प्रक्रियाएँ या एकीकरण लाने वाली प्रक्रियाएँ भी कहा जाता है क्योंकि इसका लक्ष्य सहयोग में वृद्धि करना है। सहयोग, व्यवस्थापन तथा सात्मीकरण इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
  2. असहयोगी सामाजिक प्रक्रियाएँ–असहयोगी सामाजिक प्रक्रियाओं को असहगामी, विघटनकारी या पृथक्करण करने वाली सामाजिक प्रक्रियाएँ भी कहते हैं। प्रतिस्पर्धा, प्रतिकूलन तथा संघर्ष इसके उदहारण हैं।

प्रश्न 6.
सहयोग एवं प्रतियोगिता की एक-एक उपयुक्त परिभाषा दीजिए।
उत्तर
फिचर के अनुसार, “सहयोग सामाजिक प्रक्रिया का वह स्वरूप है जिसमें दो या अधिक व्यक्ति या समूह एक सामान्य उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संयुक्त रूप से कार्य करते हैं।” ग्रीन के अनुसार, “प्रतियोगिता में दो या अधिक व्यक्ति या समूह समान लक्ष्य को प्राप्त करने का उपाय करते हैं जिसको कोई भी दूसरों के साथ बाँटने के लिए न तो तैयार होता है और न ही इसकी अपेक्षा की जाती है।”

प्रश्न 7.
संघर्ष किसे कहते हैं?
उत्तर
संघर्ष एक चेतन एवं असहयोगी प्रक्रिया है जिसमें दोनों पक्ष एक-दूसरे के हितों को नुकसान पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं तथा बलपूर्वक एक-दूसरे की इच्छा के विरुद्ध उनसे कोई काम लेना चाहते हैं। कोजर के अनुसार, “स्थिति, शक्ति और सीमित साधनों के मूल्यों और अधिकारों के लिए होने वाले संघर्ष को ही सामाजिक संघर्ष कहा जाता है जिनमें विरोधी दलों का उद्देश्य अपने प्रतिस्पर्धी को प्रभावहीन करना, हानि पहुँचाना अथवा समाप्त करना भी है।”

प्रश्न 8.
वर्ग किसे कहते हैं?
या
वर्ग का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
जब एक ही सामाजिक स्थिति के व्यक्ति समान संस्कृति के बीच रहते हैं तो वे एक सामाजिक वर्ग का निर्माण करते हैं। इस प्रकार, सामाजिक वर्ग ऐसे व्यक्तियों का समूह है जिनकी सामाजिक स्थिति लगभग समान हो और जो एक-सी ही सामाजिक दशाओं में रहते हों। एक वर्ग के सदस्य एक जैसी सुविधाओं का उपभोग करते हैं। अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सामाजिक वर्ग का निर्धारण व्यक्ति की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर होता है। एक-सी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के व्यक्तियों को एक वर्ग विशेष का नाम दे दिया जाता है; जैसे-पूँजीपति वर्ग, श्रमिक वर्ग आदि। ऑगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार, “सामाजिक वर्ग ऐसे व्यक्तियों का एक योग है जिनका किसी समाज में निश्चित रूप से एक समान स्तर होता है।”

प्रश्न 9.
जाति की कोई एक उपयुक्त परिभाषा लिखिए।
या
जाति के अर्थ को स्पष्ट करने वाली कोई सर्वाधिक उपयुक्त परिभाषा बताइए।
उत्तर
जाति’ शब्द जितना सरल लगता है इसकी परिभाषा देना उतना ही कठिन कार्य है। अधिकांश विद्वानों ने जाति की परिभाषा इसकी प्रमुख विशेषताओं को ध्यान में रखकर दी है। उदाहरणार्थ-बलंट के अनुसार, “एक जाति एक अंतर्विवाह वाला समूह है या अंतर्विवाह करने वाले समूहों का संकलन है जिसका एक सामान्य नाम होता है, जिसकी सदस्यता वंशानुगत होती है, जो अपने सदस्यों पर सामाजिक सहवास से संबंधित कुछ प्रतिबंध लगाता है, एक सामान्य परंपरागत व्यवसाय को करता है या एक सामान्य उत्पत्ति का दावा करता है और आमतौर से एक सजातीय समुदाय को बनाने वाला समझा जाता है। जाति की यह परिभाषा सर्वाधिक उपयुक्त मानी जा सकती है क्योंकि इसमें जाति की सभी प्रमुख विशेषताओं को ध्यान में रखा गया है।

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प्रश्न 10.
जाति तथा वर्ग में पाए जाने वाले दो प्रमुख अंतर बताइए।
उत्तर
जाति तथा वर्ग में पाए जाने वाले दो प्रमुख अंतर निम्न प्रकार हैं—

  1. प्रकृति में अंतर-वर्ग में मुक्त संस्तरण होता है अर्थात् व्यक्ति वर्ग परिवर्तन कर सकता है। जाति में बंद संस्तरण होता है अर्थात् जाति का परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।
  2. सदस्यता में अंतर-वर्ग की सदस्यता व्यक्तिगत योग्यता, जीवन के स्तर एवं हैसियत आदि पर आधारित होती है। जातिं की सदस्यता जन्म से ही निश्चित हो जाती है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
सामाजिक संरचना से आप क्या समझते हैं?
या
सामाजिक संरचना किसे कहते हैं?
उत्तर
सामाजिक संरचना की अवधारणा समाजशास्त्र की प्रमुख अवधारणा मानी जाती है। संमाज विभिन्न संस्थाओं, समूहों, वर्गों, परंपराओं और रीति-रिवाजों के योग से बनता है। ये सभी बातें मिलकर समाज को एक क्रमबद्ध और व्यवस्थित रूप प्रदान करती हैं। इसी क्रमबद्ध स्वरूप को ‘सामाजिक संरचना का नाम दिया जाता है। अन्य शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि सामाजिक संरचना समाज के विभिन्न अंगों की वह व्यवस्थित क्रमबद्धता है जो समाज विशेष में और एक समय विशेष पर सामाजिक संस्थाओं, स्थितियों, भूमिकाओं आदि के एक निश्चित ढंग से संबद्ध हो जाने के फलस्वरूप उत्पन्न होती है। अतः संरचना से तात्पर्य व्यवस्थित ढाँच से है। सामाजिक संरचना में संगठन का होना जरूरी है। बिना संगठन के सामाजिक संरचना की कल्पना तक नहीं की जा सकती। सामाजिक संरचना में किसी वस्तु या समाज के विभिन्न अंगों के बीच पायी जाने वाली सुव्यवस्था का बोध होता है। सामाजिक संबंधों का व्यवस्थित जाल, जिससे समाज का निर्माण होता है, सामाजिक संरचना का मूल आधार है। रैडक्लिफ-ब्राउन के अनुसार, “सामाजिक संरचना की परिभाषा इकाइयों के पारस्परिक संबंधों के पुंज के रूप में की जा सकती है।”

प्रश्न 2.
जाति किसे कहते हैं?
या
जाति का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
समाज में व्यक्ति की स्थिति उसके जन्म लेने वाले समूह से निर्धारित होती है। जाति भी व्यक्तियों का एक समूह है। जाति कुछ विशिष्ट सांस्कृतिक प्रतिमानों को मानने वाला वह समूह है। जिसके सदस्यों में रक्त शुद्धि होने का विश्वास पाया जाता है, जिसकी सदस्यता व्यक्ति जन्म से ही प्रापत कर लेता है और आजन्म उसकी सदस्यता को त्याग नहीं सकता है। इस प्रकार का समूह सामान्य संस्कृति का अनुसरण करता है। इस समूह के सदस्य अन्य किसी समूह के सदस्य नहीं होते हैं और न कोई बाहर के समूह के सदस्य इस समूह के सदस्य हो सकते हैं। इस प्रकार जाति एक बंद वर्ग है। ‘जाति’ शब्द अंग्रेजी के ‘कास्ट’ (Caste) शब्द का हिंदी अनुवाद है जो पुर्तगाली भाषा के ‘कास्टा (casta) शब्द से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है नस्ल, प्रजाति या भेद। इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1565 ई० में गार्सिया दी ओरटा ने किया था। समाजशास्त्र में इस शब्द का प्रयोग विशिष्ट अर्थ में किया जाता है। रिजले के अनुसार, जाति ऐसे परिवारों या परिवार-समूहों का संकलन है, जिनका उनके विशिष्ट पेशों के अनुसार एक सामान्य नाम हो, जो एक ही पौराणिक पितामह-मनुष्य या देवता से अपनी उत्पत्ति मानते हों तथा जो एक ही व्यवसाय करते हों।”

प्रश्न 3.
लैगिक असमता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
जन्म के समय शिशु के लिंग को लेकर यदि समाज किसी प्रकार का भेदभाव करता है तो उसे हम लैंगिक असमता कहते हैं। यह लैंगिक असमता एक सार्वभौमिक सामाजिक तथ्य बन चुकी है क्योकि सभी समाजों में इसका कोई-न-कोई रूप देखा जा सकता है। लड़का या लड़की होना तो एक जैवकीय तथ्य है, परंतु इनमें से किसी एक को ऊँचा या नीचा स्थान देना एक सामाजिक तथ्य है।

अधिकांश समाजों के पितृसत्तात्मक होने के कारण जन्म के साथ ही लिंग के आधार पर भेदभाव की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। अधिकांशतया लड़के को लड़की से ऊँचा स्थान दिया जाता है। इसी का परिणाम है कि लड़के के जन्म पर अधिकांश लोग खुशियों मनाते हैं तथा दावतें देते हैं, जबकि लड़की के जन्म पर ऐसा बहुत कम किया जाता है। लैंगिक असमता के कारण ही पितृसत्तात्मक समाजों में लड़के को ऊँचा माना जाता है, तो मातृसत्तात्मक परिवारों में लड़की को लड़के से ऊँचा स्थान दिया जाता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
सामाजिक संरचना किसे कहते हैं? इसके प्रमुख तत्त्व एवं विशेषताएँ बताइए।
या
सामाजिक संरचना की परिभाषा दीजिए। इसके प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
या
सामाजिक संरचना की संकल्पना स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
सामाजिक संरचना समाज के विभिन्न अंगों की वह व्यवस्थित क्रमबद्धता है जो कि समाज विशेष में और एक समय में सामाजिक संस्थाओं, स्थितियों, भूमिकाओं आदि के एक निश्चित ढंग से संबंद्ध हो जाने के फलस्वरूप उत्पन्न होती है। अतः संरचना से तात्पर्य व्यवस्थित ढाँचे से है। सामाजिक संरचना में संगठन का होना जरूरी है। बिना संगठन के सामाजिक संरचना की कल्पना तक नहीं की जा सकती।

सामाजिक संरचना का अर्थ एवं परिभाषाएँ

सामाजिक संरचना से किसी वस्तु या समाज के विभिन्न अंगों के बीच पायी जाने वाली सुव्यवस्था की बोध होता है। सामाजिक संबंधों का व्यवस्थित जाल, जिससे समाज का निर्माण होता है, सामाजिक संरचना का मूल आधार है। इसे विद्वानों ने निम्न प्रकारे से परिभाषित किया है-

रैडक्लिफ-ब्राउन (Radcliffe-Brown) के अनुसार-“संरचना की परिभाषा इकाइयों के पारस्परिक संबंधों के पुंज के रूप में की जा सकती है।” रैडक्लिफ-ब्राउन के अनुसार, “सामाजिक संरचना के प्रमुख अंग मनुष्य ही हैं। व्यक्तियों के संस्थागत रूप से परिभाषित तथा नियमित संबंधों की क्रमबद्ध व्यवस्था को ही सामाजिक संरचना कहलाती है।

टॉलकट पारसन्स (Talcott Parsons) के अनुसार-“सामाजिक संरचना से तात्पर्य परस्पर संबंधित संस्थाओं, एजेंसियों, सामाजिक प्रतिमानों और समूहों में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा ग्रहण किए जाने वाले पदों और भूमिकाओं की क्रमबद्धता से है।”

पारसंस के अनुसार, सामाजिक संरचना एक विशिष्ट क्रमबद्ध व्यवस्था है जिसकी प्रमुख इकाइयाँ संस्थाएँ, अधिकरण, प्रतिमान और समूह हैं जो एक-दूसरे से परस्पर संबंधित होते हैं। सामाजिक संरचना के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति की निश्चित स्थिति और भूमिका होती है। इस स्थिति और भूमिका का-निर्धारण सामाजिक संस्थाएँ ही करती हैं। इन्होंने इसे एक अमूर्त धारणा के रूप में समझने का प्रयास किया है।

कार्ल मैनहिम (Karl Mannheim) के अनुसार-“सामाजिक संरचना अंत:क्रियात्मक सामाजिक शक्तियों का जाल है जिससे विभिन्न प्रकार की अवलोकन और विचार-पद्धतियों का जन्म हुआ है।” मैनहिम के अनुसार, संरचना अंत:क्रियात्मक शक्तियों का जाल है। सामाजिक शक्तियों से तात्पर्य उन नियमों या नियंत्रण के साधनों से है जो व्यक्ति और समूह के सामाजिक जीवन को नियमित और नियंत्रित करते हैं और स्थायित्व प्रदान करते हैं। इन सामाजिक शक्तियों की पारस्परिक अंत:क्रिया से ही सामाजिक ढाँचे का निर्माण होता है जिसे मैनहिम सामाजिक संरचना कहता है।

जिंसबर्ग (Ginsberg) के अनुसार-“सामाजिक संरचना सामाजिक संगठन के प्रमुख स्वरूपों, अर्थात् समितियों, समूह तथा संस्थाओं के प्रकार एवं इनकी सम्पूर्ण जटिलता, जिससे कि समाज का निर्माण होता है, से संबंधित है।” जिंसबर्ग ने मैनहिम के विपरीत सामाजिक संरचना की परिभाषा में इसकी निर्णायक इकाईयों को आधार माना है। सामाजिक संरचना समितियों, समूहों तथा संस्थाओं के सुव्यवस्थित योग को कहते हैं। यह एक जटिल संकुल है।

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एस०एफ० नैडल (S.F Nadel) के अनुसार-“सामाजिक संरचना शब्द की चर्चा हरबर्ट स्पेंसर व दुर्णीम की रचनाओं में मिलती है। साथ ही आधुनिक साहित्य में भी इसकी चर्चा को नहीं छोड़ा गया है। किंतु इसका प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया गया है जिससे समाज को निर्मित करने वाली किसी एक अथवा समस्त विशेषताओं का बोध होता है। इस प्रकार यह शब्द किसी व्यवस्था, संगठन संकुल, प्रतिमान या प्रारूप, यहाँ तक कि समग्र समाज का पर्यायवाची हो जाता है। नैडल ने सामाजिक संरचना को अनेक अंगों की एक क्रमबद्धता कहा है। यह संरचना तुलनात्मक रूप से तो स्थिर होती है परंतु इसका निर्माण करने वाले अंग स्वयं परिवर्तित होते रहते हैं। यद्यपि यह एक विरोधाभास प्रतीत होता है फिर भी इस परिभाषा को काफी मान्यता प्राप्त है। वास्तव में नैडल के अनुसार सामाजिक संरचना कुछ विशिष्ट प्रकार के सामाजिक प्रतिमानों अथवा सामाजिक संबंधों की एक क्रमबद्धता है जिसमें बहुत ही कम परिवर्तन होने की संभावना होती है।

मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार-“समूह निर्माण के विभिन्न स्वरूप संयुक्त रूप से सामाजिक संरचना के जटिल प्रतिमान की रचना करते हैं। सामाजिक संरचना के विश्लेषण में सामाजिक श्रेणियों की विभिन्न मनोवृत्तियों तथा रुचियों के कार्य प्रदर्शित होते हैं। मैकाइवर एवं पेज के अनुसार सामाजिक समूहों के निर्माण के विभिन्न तरीकों के सम्मिलित रूप को सामाजिक संगठन कहा गया है और यही संगठन सामाजिक संरचना का आधार माना जाता है। इन्होंने इसे एक अमूर्त अवधारणा माना है। जिस प्रकार हम समाज को नहीं देख सकते हैं, उसी प्रकार हम इसकी संरचना को भी नहीं देख सकते हैं। संपूर्ण संरचना एक अखंड व्यवस्था न होकर विभिन्न अंगों से निर्मित होने वाली व्यवस्था है।

हैरी एम० जॉनसन (Harry M. Johnson) के अनुसार-“किसी भी वस्तु की संरचना उसके अंगों में पाए जाने वाले अपेक्षाकृत स्थायी अंत:संबंधों को कहते हैं।’

जॉनसन के अनुसार भी सामाजिक संरचना अखंड व्यवस्था नहीं है अपितु इसका निर्माण विभिन्न अंगों से मिलकर होता है। इसके निर्णायक अंग परस्पर क्रमबद्ध रूप से संबद्ध होते हैं और इसी कारण संरचना में अपेक्षाकृत स्थायित्व पाया जाता है। सामाजिक संरचना के अंग भी अधिक परिवर्तनशील नहीं होते हैं। अत: सामाजिक संरचना यद्यपि परिवर्तनशील प्रकृति की हो सकती है परंतु फिर भी यह एक अपेक्षाकृत स्थिर अवधारणा है जो विभिन्न अंगों से मिलकर निर्मित होती है।

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक संरचना से अभिप्राय किसी इकाई के अंगों की क्रमबद्धता है। समाज में व्यक्ति आपसी संबंधों में बँधकर उपसमूहों का निर्माण करते हैं तथा विभिन्न उपसमूह आपस में बाँधकर समूहों का निर्माण करते हैं।

सामाजिक संरचना के प्रमुख तत्त्व

सामाजिक संरचना के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं-

  1. सामाजिक आदर्श–बिना आदर्शों के हम सामाजिक संरचना की कल्पना नहीं कर सकते हैं। इन्हीं से व्यक्तियों का व्यवहार निर्देशित होता है।
  2. सामाजिक स्थिति इसे सामाजिक संरचना की लघुतम इकाई कहा गया है। यह समूह द्वारा व्यक्ति को दिया गया पद है।
  3. सामाजिक भूमिका—यह स्थिति का गत्यात्मक पहलू है जिससे व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले आचरण का पता चलता है।

सामाजिक संरचना की प्रमुख विशेषताएँ

विभिन्न परिभाषाओं से सामाजिक संरचना की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं-

  1. अर्भूत अवधारणा–सामाजिक संरचना कोई वस्तु या व्यक्तियों का संगठन नहीं है। यह तो केवल मात्र प्रतिमानों, संस्थाओं, नियमों, कार्यप्रणालियों व पारस्परिक संबंधों की एक क्रमबद्धता है। अतः यह एक अर्मूत धारणा है।
  2. समाज के बाह्य ढाँचे का बोध-सामाजिक संरचना से समाज के बाह्य स्वरूप मात्र का बोध होता है। यह इकाइयों की क्रमबद्धती संबंधित है, न कि इसके कार्यों से। जिस प्रकार शरीर की संरचना से तात्पर्य उसके अंगों की क्रमबद्धता से है उनके क्रियाकलापों से नहीं, उसकी प्रकार सामाजिक संरचना का संबंध इसकी इकाइयों की क्रमबद्धता से है।
  3. स्थिर धारणा–सामाजिक संरचना अपेक्षाकृत एक स्थिर धारणा है क्योंकि इसकी निर्माणक इकाइयाँ अपेक्षाकृत स्थिर होती हैं और उनमें परिवर्तन बहुत धीमी गति से होता है। जॉनसन जैसे विद्वान् इसे परिवर्तनशील प्रकृति का मानते हुए भी इसे एक स्थिर अवधारणा कहते हैं।
  4. प्रत्येक समाज की संरचना में भिन्नता–सभी समाजों की सामाजिक संरचना एक जैसी नहीं होती है अपितु प्रत्येक समाज की अपनी एक विशिष्ट संरचना होती है। इसीलिए समाजों की संस्थाओं व रीति-रिवाजों में भी अंतर होता है।
  5. सामाजिक व्यवस्था का आधार स्तंभ-सामाजिक संरचना को सामाजिक व्यवस्था का मूलाधार माना जाता है। जब संरचना की इकाइयाँ अपनी भूमिका ठीक प्रकार से निभाती हैं तो सामाजिक व्यवस्था में स्थायित्व बना रहता है। जैसे ही इकाइयाँ अपनी स्थिति के अनुकूल भूमिका निभाता बंद कर देती हैं तो सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है। सामाजिक संरचना इस प्रकार सामाजिक संगठन को सुदृढ़ भी बनाती है।
  6. अनेक उपसंरचनाएँ-सामाजिक संरचना कोई अखंड व्यवस्था न होकर अनेक उपसंरचनाओं द्वारा निर्मित होती है। विभिन्न उपसंरचनाएँ मिलकर सम्पूर्ण सामाजिक संरचना का निर्माण करती हैं। इसकी उपसंरचनाओं अथवा अंगों की स्वयं में भी एक विशिष्ट संरचना हो सकती है।
  7. विभिन्न अंगों को योग-संरचना के विभिन्न अंग होते हैं जिनमें सामाजिक संस्थाओं, सामाजिक प्रतिमानों, सामाजिक स्थितियों व भूमिकाओं इत्यादि को सम्मिलित किया जाता है। सामाजिक संरचना के विभिन्न अंग निश्चित ढंग से व्यवस्थित रहते हैं और एक-दूसरे से संबंधित होते हैं।

निष्कर्ष–सामाजिक संरचना की विभिन्न परिभाषाओं तथा इसकी प्रमुख विशेषताओं से यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि यह समाज के विभिन्न अंगों की व्यवस्थित क्रमबद्धता है जो किसी समाज में समय विशेष में विभिन्न सामाजिक संस्थाओं, प्रस्थितियों, भूमिकाओं उपकरणों तथा सामाजिक प्रतिमानों के एक निश्चित ढंग से संबद्ध हो जाने के फलस्वरूप विकसित होती है।

प्रश्न 2.
सामाजिक प्रक्रिया किसे कहते हैं? सामाजिक प्रक्रियाएँ कौन-सी हैं
या
सामाजिक प्रक्रिया को परिभाषित कीजिए तथा इसका वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
जब समूह, समुदाय या समाज के सदस्य परस्पर व्यवहार करते हैं तो उनमें निश्चित व अर्थपूर्ण अंत:क्रियाएँ विकसित होती हैं। समूह के सदस्यों में पायी जाने वाली अंत:क्रियाएँ सहयोग के रूपमें हो सकती हैं अथवा संघर्ष के रूप में भी हो सकती हैं। उनमें प्रतियोगिता हो सकती है और समायोजन तथा व्यवस्थापन भी हो सकता है। सामाजिक अंत:क्रिया के इन विभिन्न स्वरूपों को ही सामाजिक प्रक्रिया कहा जाता है। सामाजिक प्रक्रियाएँ सामाजिक संबंधों के अध्ययन की जानकारी प्राप्त करने में सहायता प्रदान करती हैं तथा विभिन्न प्रकार के संबंधों को बताती हैं। सामाजिक प्रक्रिया के लिए सामाजिक संबंधों का होना जरूरी है। वास्तव में, सामाजिक संबंध परिवर्तनशील होते हैं परन्तु फिर भी इनमें निरंतरता पायी जाती है। इसीलिए सामाजिक संबंध, परिवर्तनशीलता तथा निरंतरता; सामाजिक प्रक्रिया का निर्माण करने वाले तीन तत्त्व माने जाते हैं।

सामाजिक प्रक्रिया का अर्थ एवं परिभाषाएँ

प्रमुख विद्वानों ने सामाजिक प्रक्रिया को निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया है-

  1. फेयरचाइल्ड (Fairchild) ने समाजशास्त्र के शब्दकोश में सामाजिक प्रक्रिया की परिभाषा इन शब्दों में दी है-“कोई भी सामाजिक परिवर्तन या अंत:क्रिया जिसमें अवलोकनकर्ता एक सतत (निरत) गुण या दिशा देखता हो, जिसे एकवर्गीय नाम दिया जा सके, सामाजिक परिवर्तन या अंत:क्रिया का एक वर्ग जिसमें सामान्य रूप से सामान्य आदर्श देखा जा सके व नामांकित किया जा सके। उदाहरण के लिए अनुकरण, परसंस्कृतिग्रहण, संघर्ष सामाजिक नियंत्रण संस्तरण।”
  2. मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार-“एक प्रक्रिया से तात्पर्य परिस्थिति में पहले से विद्यमान शक्तियों के कार्यरत होने से एक निश्चित तरीके से होने वाले निरंतर परिवर्तन से है।”
  3. लंडबर्ग एवं सहयोगियों (Lundberg and Others) के अनुसार--“प्रक्रिया से तात्पर्य एक अपेक्षाकृत विशिष्ट और पूर्वानुमानित परिणाम की ओर से जाने वाली संबंधित घटनाओं के क्रम से है।”
  4. गिलिन एवं गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार–“सामाजिक प्रक्रिया से हमारी अभिप्राय अंत:क्रिया के उन तरीकों से है जिनका हम, जब व्यक्ति और समूह मिलते हैं और संबंधों की व्यवस्था स्थापित करते हैं या जब जीवन के पूर्व प्रचलित तरीकों में परिवर्तन के कारण अव्यवस्था उत्पन्न होती है, अवलोकन कर सकते हैं।”
  5. वान वीज (Von Wiese) के शब्दों में-“सामाजिक प्रक्रिया किसी भी सामाजिक संबंध का परिवर्तनशील पहलू है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि जब हम सामाजिक प्रक्रिया की बात करते हैं तो हम उस तरीके की बात करते हैं जिससे समूह के सदस्यों के संबंध में निश्चित तथा विशिष्ट लक्षण प्राप्त कर लेते हैं। प्रक्रिया के अध्ययन में हम एक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिवर्तन की श्रृंखला देखते हैं। सामाजिक प्रक्रियाएँ उन्नति लाने वाली या पतन को प्रोत्साहन देने वाली, प्रगति या अवनति लाने वाली अथवा एकीकरण या विघटन की ओर ले जाने वाली होती हैं।

सामाजिक प्रक्रिया की विशेषताएँ

सामाजिक प्रक्रिया के अर्थ तथा विभिन्न विद्वानों के विचारों से इसकी जो प्रमुख विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं वे निम्नलिखित हैं-

  1. घटनाओं से संबंधित सामाजिक प्रक्रियाओं का संबंध सामाजिक घटनाओं या सामाजिक संबंधों से है। बिना सामाजिक घटनाओं या सामाजिक संबंधों के हम सामाजिक प्रक्रिया की , कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।
  2. निश्चित क्रम-सामाजिक प्रक्रिया केवल सामाजिक घटनाओं से ही संबंधित नहीं होती अपितु सामाजिक प्रक्रिया के लिए घटनाओं का एक निश्चित क्रम का होना भी जरूरी है। किसी एक घटना को सामाजिक प्रक्रिया नहीं कहा जा सकता।
  3. पुनरावृत्ति-सामाजिक घटनाओं तथा सामाजिक संबंधों के क्रम में पुनरावृत्ति होती रहती है। अर्थात् इनमें क्रिया-प्रतिक्रिया होती रहती है। पुनरावृत्ति के बिना किसी घटना को सामाजिक प्रक्रिया नहीं कहा जा सकता।
  4. पारस्परिक संबद्धता–सामाजिक प्रक्रिया के लिए घटनाओं अथवा संबंधों का परस्पर संबद्ध होना भी जरूरी है। उनकी प्रकृति तथा क्षेत्र अलग-अलग होते हैं परन्तु उनका परस्पर संबद्ध होना सामाजिक प्रक्रिया के लिए जरूरी है।
  5. निरंतरता-सामाजिक प्रक्रिया के लिए घटनाओं तथा संबंधों में निरंतरता होना भी आवश्यक है। अगर इसमें पुनरावृत्ति होती है परंतु निरंतरता नहीं पायी जाती तो इसे सामाजिक प्रक्रिया नहीं कहा जाएगा।
  6. विशिष्ट परिणाम-सामाजिक प्रक्रियाएँ मानवीय अंत:क्रियाओं का अवश्यम्भावी परिण्षम होती हैं। इनके कुछ-न-कुछ परिणाम अवश्य होते हैं चाहे वे संगठन के लिए उपयोगी हों अथवा नहीं।
  7. अनेक रूप-सामाजिक प्रक्रियाओं के अनेक रूप होते हैं। जिन प्रक्रियाओं द्वारा समाज में सहयोग व संगठन बना रहता है उन्हें सहयोगी प्रक्रियाएँ कहते हैं और जिनके द्वारा पृथक्करण की प्रवृत्ति विकसित होती है, उन्हें असहयोगी प्रक्रियाएँ कहा जाता है।
  8. अन्योन्याश्रितता–सामाजिक प्रक्रियाओं की एक अन्य विशेषता अन्योन्याश्रितता है। इसका अभिप्राय यह है कि अभी प्रक्रियाएँ परस्पर अंत:संबंधित और एक दूसरे पर निर्भर होती हैं।
  9. संरचना और कार्यों से संबंधित सामाजिक प्रक्रियाएँ सामाजिक संरचना और कार्यों से सबंधित होती हैं क्योंकि इनका प्रत्यक्ष प्रभाव सामाजिक संरचना तथा इसका निर्माण करने वाली इकाइयों के कार्यों पर पड़ता है।

सामाजिक प्रक्रियाओं के प्रकार

सामाजिक प्रक्रियाओं का कोई रूप नहीं है अपितु ये अनेक प्रकार की होती हैं। इनके परिणामों के आधार पर समाजशास्त्रियों ने इन्हें दो प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया है–

(अ) सहयोगी सामाजिक प्रक्रियाएँ तथा
(ब) असहयोगी सामाजिक प्रक्रियाएँ।

सहयोगी प्रक्रियाओं को सहभागी प्रक्रियाएँ, संगठनात्मक प्रक्रियाएँ या एकीकरण लाने वाली प्रक्रियाएँ भी कहा जाता है क्योंकि इसका लक्ष्य सहयोग में वृद्धि करना है। सहयोग, व्यवस्थापन तथा सात्मीकरण इसके प्रमुख उदाहरण हैं। असहयोगी सामाजिक प्रक्रियाओं को असहगामी, विघटनकारी या पृथक्करण करने वाली सामाजिक प्रक्रियाएँ भी कहते हैं। प्रतिस्पर्धा, प्रतिकूलन तथा संघर्ष इसके उदाहरण हैं। सामाजिक प्रक्रियाओं के प्रमुख प्रकारों को निम्नांकित चार्ट द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है-

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सहयोगी व्यवस्थापन सात्मीकरण प्रतिस्पर्धा प्रतिकूलन संघर्ष सहयोग (Co-operation) वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अथवा समूह अपने संयुक्त प्रयत्नों को अधिक या कम संगठित रूप से, सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संगठित करते हैं। यह सामान्य उद्देश्य के लिए मिलकर कार्य करना है। समाज का विशाल भवन सहयोग की मजबूत नींव पर खड़ा है। सहयोगी या सहगामी सामाजिक प्रक्रियाओं में सहयोग सर्वोपरि व अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। सहयोग के बिना न तो पीढ़ियों का समाजीकरण ही ठीक प्रकार से हो सकता है और न ही व्यक्तियों के व्यक्तित्व का विकास। जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रत्येक व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों से किसी-न-किसी रूप में सहयोग की आवश्यकता पड़ती हैं। सहयोग द्वारा ही सामाजिक संगठन सुदृढ़ होता है।

फेयरचाइल्ड (Fairchild) ने समाजशास्त्रीय शब्दकोश में सहयोग की परिभाषा इन शब्दों में दी है, “सामाजिक अंत:क्रिया का कोई भी वह स्वरूप; जिसमें व्यक्ति या समूह अपनी क्रियाओं को संयुक्त कर लेते हैं या पारस्परिक सहायता से, कम या अधिक रूप में संगठित, तरीके से किसी सामान्य उद्देश्य या लक्ष्य या प्राप्ति के लिए साथ-साथ कार्य करते हैं; सहयोग कहलाता है।”

व्यवस्थापन (Accommodation) भी सामाजिक अंत:क्रिया का एक स्वरूप तथा सहयोगी प्रक्रिया का एक प्रमुख प्रकार है। यह वह प्रक्रिया है जिसमें प्रतियोगी व्यक्ति या संघर्षरत समूह हितों में विरोध व संघर्ष से उत्पन्न कठिनाइयों को दूर करने के लिए अपने संबंधों को एक-दूसरे से समायोजित कर लेते हैं। यह एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है जो प्रत्येक देश तथा संस्कृति में पायी जाती है। यह सात्मीकरण (Assimilation) की ओर पहला कदम है क्योंकि इसमें एक संस्कृति दूसरी को आत्मसात् करने की अपेक्षा उससे अनुकूलन कर लेती है। अनुकूलन और समायोजन की इस प्रक्रिया को ही व्यवस्थापन कहा जाता है।

व्यवस्थापन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य अपने पर्यावरण से सामंजस्य की भावना उत्पन्न कर लेता है। इसके द्वारा और समुह सहयोगी एकता की स्थापना के लिए विरोधपूर्ण प्रक्रियाओं से सामंजस्य कर लेते हैं। यह एक दशा भी है क्योंकि व्यवस्थापन संबंधों की वह स्वीकृति या मान्यता है जिसके द्वारा समूह में व्यक्ति की स्थिति अथवा सम्पूर्ण सामाजिक संगठन में समूह की स्थिति को परिभाषित किया जाता है। मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार, “व्यवस्थापन से अभिप्राय विशेष रूप से उस प्रक्रिया से है जिससे मनुष्य अपने पर्यावरण से सामंजस्य की भावना उत्पन्न कर लेता है।’

सात्मीकरण या आत्मसात् (Assimilation) एक सहयोगी प्रक्रिया है तथा वह सामाजिक संपर्को का अंतिम प्रतिफल है। इस प्रक्रिया द्वारा व्यक्तियों या समूहों में पारस्परिक मतभेद दूर होते हैं तथा उनके दृष्टिकोणों में समानता विकसित होती है। वास्तव में, इस प्रक्रिया द्वारा दो समूह या संस्कृतियाँ एक-दूसरे में इस प्रकार घुल-मिल जाती हैं कि उनमें किसी प्रकार का अंतर ही नहीं रहता। इसीलिए सात्मीकरण को दृष्टिकोण और मूल्यों का संपूर्ण मिश्रण तथा सामाजिक संपर्को का अंतिम प्रतिफल कहा गया है। यह प्रक्रिया व्यवस्थापन से अगला चरण है क्योंकि इससे अस्थायी समझौता न होकर दो समूह या संस्कृतियाँ पूरी तरह से एक-दूसरे में घुल-मिल जाती हैं।

जब दो व्यक्ति, समूह या संस्कृतियाँ एक-दूसरे के व्यवहार और आदर्शों को स्वीकार कर लेते हैं तथा एक-दूसरे से इस प्रकार घुल-मिल जाते हैं कि उनमें कोई अंतर ही न रहे तो उसे हम सात्मीकरण कहते हैं। यह दो भिन्न समूहों या संस्कृतियों के दृष्टिकोणों एवं मूल्यों का संपूर्ण सम्मिश्रण है।

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ऑगबर्न एवं निमकॉफ (Ogburn and Nimkoff) के अनुसार, “सात्मीकरण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा असमान व्यक्ति या समूह समान हो जाते हैं अर्थात् वे अपने स्वार्थों और दृष्टिकोणों में समान हो जाते हैं। ऑगर्बन एवं निमकॉफ की इस परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि सात्मीकरण भावनाओं, उद्देश्यों, मूल्यों व दृष्टिकोणों में समानता लाने की प्रक्रिया है। इसके परिणामस्वरूप दो भिन्न समूह एक समान हो जाते हैं। इनके अनुसार यह संस्कृतियों या उनको धारण करने वाले व्यक्तियों का एक समान इकाई के रूप में घुल-मिल जाना हैं। इसके परिणामस्वरूप विभिन्न संस्कृतियाँ एक हो जाती हैं।

प्रतिस्पर्धा (Competition) असहयोगी प्रक्रिया है। यह निर्मित वस्तुओं के उपयोग या अधिकार के लिए किया जाने वाला संघर्ष है। किसी ऐसी वस्तु को प्राप्त करने की होड़, जो इतनी अपर्याप्त मात्रा में है जिससे माँग की पूर्ति नहीं हो सकती है, प्रतिस्पर्धा कहलाती है। यह अवैयक्तिक, अचेतन और निरंतर होने वाला संघर्ष है।

प्रतिकूलन या विरोध (Contravention) भी असहयोगी सामाजिक प्रक्रिया है जो प्रतिस्पर्धा और संघर्ष के बीच की स्थिति है। इसके द्वारा व्यक्ति विरोधी वातावरण में दुविधा की स्थिति में पड़ जाता है। और इससे वह मानसिक तनाव से ग्रस्त हो जाता है।

संघर्ष (Conflict) एक अंसहयोगी प्रक्रिया है जिससे दो या दो से अधिक व्यक्ति या समूह एक-दूसरे के उद्देश्यों को क्षति पहुँचाते हैं, एक-दूसरे के हितों की संतुष्टि पर रोक लगाना चाहते है, भले हो इसके लिए उन्हें दूसरों को चोट पहुँचानी पड़े या नष्ट करना पड़े। यह एक प्रकार से दूसरों का, दूसरों की इच्छा का जानबूझकर विरोध करना, रोकना तथा उसे (उन्हें) बलपूर्वक रोकने का प्रयास है। सहयोग की तरह संघर्ष भी सामाजिक जीवन की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सहयोग के बिना संघर्ष तथा संघर्ष के बिना सहयोग की कल्पना केवले सैद्धांतिक रूप में ही की जा सकती है। यह एक ऐसी असहयोगी प्रक्रिया है जिसमें प्रतिद्वंद्वी समूह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हिंसा तक का सहारा लेते हैं। वास्तव में यह दूसरों को उनकी इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक रोकने का प्रयास है। फेयरचाइल्ड (Fairchild) ने समाजशास्त्रीय शब्दकोश में संघर्ष की परिभाषा इन शब्दों में दी है, “संघर्ष एक प्रक्रिया या परिस्थिति है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति या समूह एक-दूसरे के उद्देश्यों को क्षति पहुँचाते हैं, एक-दूसरे के हितों की संतुष्टि पर रोक लगाना चाहते हैं, भले ही इसके लिए दूसरों को चोट पहुँचानी पड़े या नष्ट करना पड़े।”

निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक प्रक्रिया का अर्थ सामाजिक अंत:क्रिया का वह स्वरूप है जो विशिष्ट होता है तथा जिसमें निरंतरता पायी जाती है। प्रक्रियाएँ सहयोगी व असहयोगी दोनों प्रकार की होती हैं।

प्रश्न 3.
सहयोग किसे कहते हैं इसके प्रमुख प्रकार बताइए।
या
सहयोग को परिभाषित कीजिए तथा समाज में इसका महत्त्व समझाइए।
उत्तर
सहयोग को समाज की एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक प्रक्रिया माना जाता है। यद्यपि समाज के लिए सहयोग के साथ-साथ संघर्ष भी महत्त्वपूर्ण होता है, तथापि समाज के अस्तित्व के लिए सहयोग प्राथमिक है। सहयोग द्वारा ही हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है तथा यह परिवार से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय जीवन तक देखा जा सकता है। आज के जटिल समाजों में बढ़ती हुई प्रतियोगिता व संघर्ष के कारण सहयोग का महत्त्व और भी अधिक हो गया। प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग के बिना हम आधुनिक समाजों में सामाजिक जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकते हैं।

सहयोग का अर्थ एवं परिभाषाएँ

सहयोग के सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संयुक्त रूप से प्रयास करते हैं। समाज का विशाल सहयोग की मजबूत नींव पर ही खड़ा होता है। मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति सहयोग के बिना संभव नहीं है। सहयोग को प्रमुख विद्वानों ने निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया है-

फेयरचाइल्ड (Fairchild) ने समाजशास्त्रीय शब्दकोश में सहयोग की परिभाषा इन शब्दों में दी है-“सामाजिक अंतःक्रिया का कोई भी वह स्वरूप; जिसमें व्यक्ति या समूह अपनी क्रियाओं को संयुक्त कर लेते हैं या पारस्परिक सहायता से, कम या अधिक रूप में संगठित तरीके से किसी सामान्य उद्देश्य या लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साथ-साथ कार्य करते हैं; सहयोग कहलाता है।”

सदरलैंड एवं वुडवर्ड (Sutherland and woodward) के अनुसार विभिन्न व्यक्तियों या समूहों द्वारा किसी सामान्य उद्देश्य के लिए परस्पर मिलकर कार्य करना सहयोग है।

ग्रीन (Green) के अनुसार-“दो या दो से अधिक व्यक्तियों के किसी कार्य को करने या किसी उद्देश्य, जो कि समान रूप से इच्छित होता है, तक पहुँचने के निरंतर और सामान्य प्रयत्न को सहयोग कहते हैं। सहयोग हमेशा एक सामूहिक कार्य होता है।”

फियर (Fichter) के अनुसार-“सहयोग एक सामाजिक प्रकिया का वह स्वरूप है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति या समूह एक सामान्य उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संयुक्त रूप से कार्य करते हैं।”

लुडबर्ग एवं सहयोगियों (Lundberg and Others) के अनुसार–-‘सहयोग से तात्पर्य दो या दो से अधिक व्यक्तियों या समूह को लक्ष्य-प्राप्ति के लिए इस प्रकार साथ-साथ कार्य करना कि एक व्यक्ति या समूहों द्वारा लक्ष्य की प्राप्ति दूसरे व्यक्ति या समूह की भी लक्ष्य प्राप्ति में सहायक हो।”

अकोलकर (Akolkar) के अनुसार-‘सहयोगी व्यवहार का सारतत्त्व यह है कि संबंधित व्यक्तियों या समूह को एक सामान्य लक्ष्य होता है और अपने व्यवहार का अनुकूलन एक-दूसरे के साथ इस भाँति करते हैं कि लक्ष्य की प्राप्ति हो सके।

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि सहयोग सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए व्यक्तियों को मिलजुलकर कार्य करना है। यह सामाजिक अंतःक्रिया का एक प्रमुख स्वरूप है जिसके द्वारा दो या दो से अधिक व्यक्ति एक सामान्य उद्देश्य की प्राप्ति के लिए साथ-साथ कार्य करते हैं।

सहयोग की प्रमुख विशेषताएँ

सहयोग के बारे में विभिन्न विद्वानों के विचारों से इसकी निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं-

  1. सहयोग एक प्रमुख सहयोगी प्रक्रिया है।।
  2. यह एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है जो कि संघर्ष से विपरीत है।
  3. सहयोग द्वारा व्यक्ति या समूह सामान्य लक्ष्य प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
  4. सहयोग में सदस्यों के कार्यों का संयुक्तीकरण होता है।
  5. सहयोग में सदस्य एक-दूसरे की सहायता करते हैं।
  6. सहयोग में सदस्यों में हम की भावना पायी जाती है।
  7. सहयोग में मिलकर काम करने की भावना पायी जाती है।
  8. सहयोग में सदस्य संगठित रूप से सामान्य लक्ष्य की प्राप्ति करने का प्रयास करते हैं।
  9. सहयोग एक सामूहिक प्रयास है।
  10. सहयोग करने वाले एक-दूसरे के प्रति जागरूक होते हैं।

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किंबल यंग (Kimball Young) ने सहयोग के तीन प्रमुख पहलू बताए हैं-

  1. सदस्यों में सामान्य लक्ष्य की प्राप्ति की इच्छा,
  2. प्राप्त लक्ष्यों या उद्देश्यों का समान अनुपात में विभाजन, तथा
  3. सदस्यों में महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं एवं कामनाओं में समानता, सहानुभूति तथा मित्रता का पाया जाना।

सहयोग के विभिन्न स्वरूप

सहयोग एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया है जो कि सार्वभौमिक है क्योंकि कोई भी समाज सहयोग के बिना अपना अस्तित्व नहीं बनाए रख सकता। सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों में सहयोग पाया जाता है। इसे प्रमुख विद्वानों द्वारा निम्नांकित रूपों में वर्गीकृत किया गया है–

(अ) मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) द्वारा वर्गीकरण
मैकाइवर एवं पेज ने सहयोग को निम्नलिखित दो प्रमुख श्रेणियों में विभाजन किया है-

  1. प्रत्यक्ष सहयोग-प्रत्यक्ष सहयोग आमने-सामने के संबंधों में पाया जाता है। इसमें लोग मिलजुलकर एक-दूसरे की सहायता करते हैं। जिन कार्यों को व्यक्ति अकेला भी कर सकता है। उनको प्रत्यक्ष सहयोग द्वारा अधिक सरलता से पूरा किया जा सकता है। टीम के खिलाड़ियों का , एक-दूसरे से सहयोग, किसानों का साथ-साथ खेत जोतना, एक साथ अनेक लोगों का श्रम करना आदि प्रत्यक्ष सहयोग के कुछ उदाहरण हैं। आदिम तथा जनजातीय समाजों में अधिकांश कार्यों में प्रत्यक्ष सहयोग पाया जाता है।
  2. अप्रत्यक्ष सहयोग-इस प्रकार का सहयोग द्वितीयक समूहों तथा आधुनिक जटिल समाजों की प्रमुख विशेषता है। इसमें व्यक्तियों द्वारा समान उद्देश्यों की पूर्ति असमान कार्यों के द्वारा की जाती। है अर्थात् एक ही लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अनेक लोगों द्वारा अलग-अलग कार्य करना अप्रत्यक्ष सहयोग है। औद्योगिक क्षेत्र में, अंधिकारीतंत्र (नौकरशाही) में, अनुसंधान कार्यों में, अस्पतालों में तथा महाविद्यालयों आदि में पाया जाने वाला श्रम-विभाजन; इस प्रकार के सहयोग के प्रमुख उदाहरण हैं। आज अप्रत्यक्ष सहयोग का महत्त्व निरंतर बढ़ता जा रहा है।

(ब) ग्रीन (Green) द्वारा वर्गीकरण
एडब्ल्यू० ग्रीन ने सहयोग की प्रकृति, सामूहिक संगठन और दृष्टिकोण के आधार पर सहयोग को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया है-

  1. प्राथमिक सहयोग–इस प्रकार का सहयोग मुख्यतः प्राथमिक समूहों में पाया जाता है जिनमें व्यक्ति और समूह वास्तविक रूप से एकीभूत हो जाते हैं तथा जिनमें व्यक्ति, समूह और किए जाने वाले कार्य का पारस्परिक समीकरण (Identification) हो जाता है। इस प्रकार के सहयोग में व्यक्ति के स्वार्थ तथा समूह के स्वार्थ इतने अधिक हो जाते हैं कि उनके क्षेत्रों में किसी प्रकार का अंतर नहीं रहता। प्राथमिक सहयोग के उद्देश्य और साधन भी एक हो जाते हैं। और उनमें कोई अंतर नहीं रहता। परिवार, पड़ोस, क्रीड़ा-समूह, मित्र-मंडली इत्यादि समूहों में प्रत्यक्ष व प्राथमिक सहयोग ही मुख्य रूप से पाया जाता है।
  2. द्वितीयक सहयोग–यह सहयोग द्वितीयक समूहों में पाया जाता है जो कि आधुनिक जटिल समाजों की प्रमुख विशेषता हैं। द्वितीयक सहयोग अत्यधिक विशिष्ट और औपचारिक होता है। इसमें लक्ष्य और साधन दोनों का बँटवारा होता है, परंतु संयुक्त रूप से नहीं। प्रत्येक व्यक्ति अपना कार्य करके दूसरों के कार्यों को सहायता पहुँचाता है। इस व्यक्ति की दृष्टि से हितप्रधान होता है क्योंकि व्यक्ति अपने हितों को ध्यान में रखते हुए ही सहयोग प्रदान करता है। श्रम-विभाजन द्वितीयक सहयोग को प्रमुख उदहारण है जिनमें प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग कार्य करता हुआ भी दूसरों को सहयोग प्रदान करता है।
  3. तृतीयक सहयोग-ग्रीन के अनुसार, इस प्रकार के सहयोग में सहयोग करने वाले व्यक्तियों का दृष्टिकोण शुद्ध रूप से अवसरवादी होता है। इसकी प्रकृति अस्थिर होती है तथा सहयोग करने वालों में संगठन ढीला और शीघ्र टूट जाने वाला होता है। यह एक प्रकार से सहयोग न होकर अनुकूलन मात्र है क्योंकि इसमें लक्ष्य और साधनों का सामान्य प्रयत्नों द्वारा बँटवारा नहीं हो सकता। श्रमिकों एवं व्यवस्थापकों में सहयोग व संबंध इस श्रेणी का उदाहरण है।

(स) ऑगबर्न एवं निमकॉफ (Ogburn and Nimkoff) द्वारा वर्गीकरण
ऑगबर्न एवं निमकॉफ ने सहयोग की निम्नलिखित तीन श्रेणियों का उल्लेख किया है-

  1. सामान्य सहयोग–इस प्रकार के सहयोग में अनेक व्यक्ति एक जैसा कार्य करते हैं और एक-दूसरे को सहयोग देते हुए लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं। उदाहरण के लिए मजदूरों का ईंटों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना अथवा किसी सांस्कृतिक या धार्मिक उत्सव के सम लोगों में जो सहयोग पाया जाता है, वह सामान्य सहयोग ही होता है।
  2. मित्रवत सहयोग-मित्रवत् सहयोग मुख्यत: आनन्द और सुख के लिए किया जाता है। मित्रों तथा संबंधियों के कार्यों में हाथ बँटाना इस प्रकार के सहयोग का उदाहरण है क्योंकि ऐसा करने में व्यक्ति सुख की अनुभूति करता है। इस प्रकार के सहयोग में स्वार्थ की मात्रा भी कुछ सीमा तक हो सकती है। सामूहिक नृत्य एवं गायन भी मित्रवत् सहयोग के ही उदाहरण हैं।।
  3. सहायक सहयोग–इस प्रकार के सहयोग में सहायता का तत्त्व प्रमुख होता है। जो बड़े-बड़े काम अकेले व्यक्तियों द्वारा नहीं हो सकते, उन्हें सामान्यत: सहायक सहयोग द्वारा ही पूरा किया जाता है। उदाहरण के लिए अनेक लोगों का मिलकर बाँध बनाना, पीड़ितों को सहायता प्रदान करना आदि सहायक सहयोग के ही उदाहरण हैं।

सहयोग का महत्त्व

सहयोग अत्यधिक महत्त्वपूर्ण व मूलभूत सामाजिक प्रक्रिया है जिसके बिना हम सामाजिक जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकते। समाज का सारा ढाँचा, उसकी स्थिरता व निरंतरता सहयोग पर ही टिकी हुई होती है। सहयोग की आवश्यकता तथा महत्त्व को निम्नांकित क्षेत्रों में देखा जा सकता है-

  1. मनोवैज्ञानिक आवश्यकता-ग्रीन (Green) के अनुसार, सहयोग मनोवैज्ञानिक रूप से भी आवश्यक है। प्रारंभ से मुनष्य सहयोग करता आया है। स्त्री और पुरुष के सहयोग से बच्चा पैदा होता है। माता-पिता व अन्य सदस्यों द्वारा उसका पालन-पोषण किया जाता है और व्यक्तित्व को विकास किया जाता है। नवजात बालक बिना सहयोग के एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता है। अत: यह आवश्यक है कि माता-पिता व अन्य उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति में सहयोग दें।।
  2. समाजीकरण-समाजीकरण सीख की एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव प्राणी को सामाजिक प्राणी बनाया जाता है। समाजीकरण सहयोग द्वारा ही संभव है। प्राथमिक और द्वितीयक समूहों में बच्चों के समाजीकरण में पाए जाने वाले सहयोग के कारण ही सांस्कृतिक निरंतरता बनी रहती है। अतः समाजीकरण का मूलाधार भी सहयोग ही है।
  3. सामाजिक प्रगति प्रत्येक समाज में प्रगति के लिए सहयोग की अत्यधिक आवश्यकता होती है। सहयोग व्यक्तिगत हितों के स्थान पर समहूवाद की भावनाओं का विकास करता है और इस प्रकार सामूहिक प्रयासों द्वारा प्रगति को संभव बनाता है। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले अनुसंधान, जो कि सामाजिक प्रगति के लिए अनिवार्य हैं, सहयोग द्वारा ही संभव हो पाते हैं।
  4. आर्थिक महत्त्व-आर्थिक क्षेत्र में भी सहयोग का अत्यधिक महत्त्व है क्योंकि समाज को आर्थिक ढाँचा सहयोग पर ही टिका होता है। अगर आर्थिक जगत में सहयोग न हो तो हमारी आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो सकतीं।
  5. अन्य क्षेत्रों में महत्त्व-सहयोग का अनेक अन्य क्षेत्रों में भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। उदाहरण के लिए युद्धकाल में बिना सहयोग के समाज का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। साथ ही आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में भी सहयोग का अपना अलग महत्त्व है। इसलिए यह कहा जाता है कि समाज का संपूर्ण ढाँचा सहयोग पर टिका हुआ है।

निष्कर्ष–उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सहयोग मानव जीवन की अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। समाज में कोई भी व्यक्तिगत यो सामूहिक लक्ष्य बिना सहयोग के संभव नहीं है। अत: आज हम सहयोग के बिना सामाजिक जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकते।

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प्रश्न 4.
प्रतियोगिता किसे कहते हैं। इसके स्वरूपों की विवेचना कीजिए तथा समाज में इसका महत्त्व बताइए।
या
आधुनिक समाजों में प्रतियोगिता के आधारों एवं महत्त्व की विवेचना कीजिए।
उत्तर
प्रतियोगिता एक असहयोगी सामाजिक प्रक्रिया है जो कि आधुनिक समाजों की एक प्रमुख विशेषता बनती जा रही है। यह एक प्रकार से अप्रत्यक्ष संघर्ष है क्योंकि इसमें सीमित वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए विभिन्न व्यक्ति या समूह एक साथ प्रयास करते हैं। इसीलिए प्रतियोगिता को सीमित क्स्तुओं के आधिपत्य के लिए किया जाने वाला संघर्ष कहा जाता है। प्रतियोगिता एक ओर संघर्ष को कम करने का प्रयास है तो दूसरी ओर कई बार यह संघर्ष को बढ़ावा देने में भी सहायक प्रक्रिया है। सभी व्यक्ति चेतन या अचेतन रूप से सीमित वस्तुओं को प्राप्त करने का प्रयास करते रहते हैं। अत्यधिक प्रतियोगिता समाज में विघटन ला सकती है परंतु यह प्रतिभाओं के चयन और समाज की प्रगति की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण भूमिका भी निभा सकती है। संघर्ष के विपरीत, प्रतियोगिता के कुछ नियम होते हैं तथा इसमें सामान्यतः हिंसा का सहारा नहीं लिया जाता है।

प्रतियोगिता का अर्थ एवं परिभाषाएँ

प्रतियोगिता को प्रमुख विद्वानों ने निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-

  1. फैयरचाइल्ड (Fairchild) के अनुसार–(प्रतियोगिता सीमित वस्तुओं के उपयोग या अधिकार के लिए किया जाने वाला संघर्ष है।”
  2. ग्रीन (Green) के अनुसार-“प्रतियोगिता में दो या अधिक व्यक्ति या समूह समान लक्ष्य को | प्राप्त करने का उपाय करते हैं जिसको कोई भी दूसरों के साथ बाँटने के लिए न तो तैयार होता | है और न ही इसकी अपेक्षा की जाती है।”
  3. बीसेंज एवं बीसेंज (Biesanz and Biesanz) के अनुसार-“प्रतियोगिता दो या दो से अधिक व्यक्तियों के समान उद्देश्य, जो कि इतना सीमित हैं कि सब उसके भागीदार नहीं बन सकते, को पाने के प्रयत्न को कहते हैं।”
  4. बोगार्डस (Bogardus) के अनुसार-“प्रतियोगिता किसी ऐसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए होड़ है, जो कि इतनी अपर्याप्त मात्रा में है जिससे माँग की पूर्ति नहीं की जा सकती।”
  5. सदरलैंड एवं सहयोगियों (Sutherland and Others) के अनुसार-“प्रतियोगिता कुछ व्यक्तियों या समूहों के बीच उन संतुष्टियों, जिनकी पूर्ति सीमित होने के कारण सभी व्यक्ति उन्हें प्राप्त नहीं कर सकते, को प्राप्त करने के लिए होने वाला अवैयक्तिक, अचेतन और निरंतर होने वाला संघर्ष है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि प्रतियोगिता दो या अधिक व्यक्तियों या समूहों में किसी सीमित वस्तु को प्राप्त करने के लिए होने वाला अचेतन, अवैयक्तिक और निरंतर संघर्ष है। इन परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाती है कि–

  1. प्रतियोगिता सामाजिक अंत:क्रिया का रूप है।
  2. यह एक विघटनकारी प्रक्रिया मानी जाती है।
  3. प्रतियोगिता तभी होती है जब साधन तो सीमित हैं परंतु उन्हें प्राप्त करने वाले अधिक हैं।
  4. प्रतियोगिता अप्रत्यक्ष संघर्ष का रूप है।
  5. यह व्यक्ति या समूह के अपने-अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होती है।
  6. यह उस परिस्थिति में भी होती है जबकि प्रतियोगी इस सीमित वस्तु को आपस में बाँटना नहीं चाहते हैं।

प्रतियोगिता की प्रमुख विशेषताएँ

प्रतियोगिता के बारे में विभिन्न विद्वानों के विचारों से इसकी अनेक विशेषताएँ भी स्पष्ट होती हैं जिनमें से प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. दो या अधिक व्यक्ति या समूह–प्रतियोगिता के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों या समूहों का होना जरूरी है। दो या अधिक पक्षों में सीमित साधनों को प्राप्त करने की होड़ को ही प्रतियोगिता कहते हैं।
  2. असहयोगी प्रक्रिया-प्रतियोगिता अंत:क्रिया का रूप होने के कारण एक सामाजिक प्रक्रिया है। इसे एक असहयोगी अथवा विघटनकारी सामाजिक प्रक्रिया माना जाता है।
  3. अचेतन प्रक्रिया–प्रतियोगितता को अचेतन सामाजिक प्रक्रिया माना जाता है क्योंकि इसमें उन्हें प्रतिस्पर्धियों का न तो ज्ञान रहता है और न ही उनके द्वारा अपनाए जाने वाले प्रयत्नों के बारे में ही वे सचेत होते हैं। इसमें तो केवल उद्देश्य के प्रति ही चेतना पायी जाती है।
  4. अवैयक्तिक प्रक्रिया–प्रतियोगिता अचेतन प्रक्रिया होने के साथ एक अवैयक्तिक प्रक्रिया भी है। क्योंकि प्रतियोगी एक-दूसरे को नहीं जानते। सामान्यतः प्रतियोगिता में विभिन्न प्रतियोगियों में (कुछ परिस्थितियों को छोड़कर) सीधा संपर्क नहीं होता है। उदाहरण के लिए मेरठ विश्वविद्यालय की बी०ए० प्रथम वर्ष की परीक्षा में बैठने वाले हजारों प्राथी एक-दूसरे को न जानते हुए भी दूसरों से अधिक अंक प्राप्त करने लिए प्रयत्नशील होते हैं।
  5. निरंतर होने वाली प्रक्रिया-प्रतियोगिता संघर्ष के विपरीत निरंतर होने वाली प्रक्रिया है क्योंकि यह कभी रुकती नहीं है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रतियोगिता महत्त्वपूर्ण रूप में अपनी भूमिका निभाती रहती है। जीवन का एक भी पक्ष इससे अछूता नहीं है।
  6. सार्वभौमिक प्रक्रिया–प्रतियोगिता एवं सार्वभौमिक प्रक्रिया है क्योकि यह सभी देशों में तथा सभी कालों में किसी-न-किसी रूप में विद्यमान रहती है। आज के आधुनिक समाजों में तो यह प्रायः सभी समाजों में तथा समाज के सभी पक्षों में देखी जा सकती है।

प्रतियोगिता की परिभाषाओं तथा विशेषताओं से पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि यह किसी सामान्य लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास है जो इतना सीमित है कि सभी प्रतियोगी उसे प्राप्त नहीं कर सकते हैं। वास्तव में, इसी संदर्भ में बीसेज एवं बीसेज (Biesanz and Biesanz) ने जो परिभाषा दी है वह पूरी तरह से प्रतियोगिता का अर्थ स्पष्टं करती हैं। उनके अनुसार, प्रतिस्पर्धा दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा ऐसी एक ही वस्तु को प्राप्त करने लिए किए गए प्रयास को कहते हैं जो इतनी सीमित है कि सब उसके भागीदार नहीं हो सकते।”

प्रतियोगिता के प्रमुख स्वरूप

प्रतियोगिता एक सार्वभौमिक, निरंतर, वैयक्तिक तथा अचेतन रूप में होने वाली प्रक्रिया है। इसके अनेक प्रकार या स्वरूप हैं जिनमें से प्रमुख स्वरूप निम्नलिखित हैं-
(अ) गिलिन एवं गिलिन (Gillin and Gillin) ने प्रतियोगिता के चार प्रमुख स्वरूप बताए हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है-

  1. आर्थिक प्रतियोगिता–आर्थिक प्रतिस्पर्धा आज के युग में सर्वाधिक व्यापक प्रतियोगिता है। व्यापारियों और उद्योगपतियों में यह प्रतियोगिता देखी जा सकती है। वस्तुओं की माँग जितनी अधिक होती है उतनी ही प्रतियोगिता अधिक होती है। यह उत्पादन, उपभोग, वितरण तथा विनिमय जैसे पक्षों में पायी जाती है।
  2. सांस्कृतिक प्रतियोगिता-जब दो संस्कृतियाँ परस्पर संपर्क में आती हैं तो उनमें विविध प्रकार की प्रतियोगिता विकसित होती है। प्रत्येक संस्कृति अपने तत्त्वों को श्रेष्ठ मानकर उसे दूसरों पर थोपने का प्रयास करती है। कई बार सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धा सांस्कृतिक संघर्ष में बदल जाती है। मूल्यों, विश्वासों, दृष्टिकोणों, व्यवसाय के तरीकों तथा विभिन्न संस्थाओं में पायी जाने वाली प्रतियोगिता सांस्कृतिक प्रतियोगिता ही कही जाती है।
  3. भूमिका या स्थिति के लिए प्रतियोगिता–गिलिन एवं गिलिन के अनुसार, प्रतियोगिता को तीसरा स्वरू। भूमिका या स्थिति के होने वाली होड़ है। प्रत्येक व्यक्ति तथा समूह उन भूमिकाओं को करना चाहता है जो अन्य भूमिकाओं से महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं। इसी प्रकार उच्च सामाजिक स्थिति के लिए भी होड़ पायी जाती है। कला, साहित्य, संगीत आदि क्षेत्रों में इस प्रकार की प्रतियोगिता देखी जा सकती है।
  4. प्रजातीय प्रतियोगिता–एक प्रजाति दूसरी प्रजातियों से शारीरिक लक्षणों एवं अन्य क्षमताओं की दृष्टि से भिन्न होती है। कई उपजातियाँ अपने को अन्य प्रजातियों से श्रेष्ठ मानती हैं। यह श्रेष्ठता या निम्नता का भाव विभिन्न क्षेत्रों में प्रतियोगिता को जन्म देता है। प्रजातीय प्रतियोगिता ही कई बार प्रजातीय संघर्ष का रूप ग्रहण कर लेती है।

(ब) अन्य प्रकार की प्रतियोगिताएँ-गिलिन एवं गिलिन ने उपर्युक्त केवल चार प्रकार की प्रतियोगिता का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य स्वरूप भी हैं जिनमें से प्रमुख स्वरूप अग्रलिखित हैं-

  1. वैयक्तिक प्रतियोगिता–इसे चेतन प्रतियोगिता भी कहते हैं तथा इसमें प्रतियोगी एक-दूसरे को जानते हैं। उदाहरणार्थ-खेल जगत में पायी जाने वाली प्रतियोगिता वैयक्तिक प्रतियोगिता होती है क्योंकि इसमें प्रतियोगी एक-दूसरे को भली-भाँति जानते हैं।
  2. अवैयक्तिक प्रतियोगिता-इसे अचेतन प्रतियोगिता भी कहा जाता है क्योंकि इसमें भाग लेने वाले प्रतियोगी एक-दूसरे को नहीं जानते तथा उनमें किसी प्रकार का व्यक्तिगत संपर्क नहीं होता है। परीक्षाओं में बैठने वाले हजारों परीक्षार्थियों के मध्य प्रतियोगिता, इस प्रकार की प्रतियोगिता का प्रमुख उदाहरण है क्योंकि वे अचेतन रूप में अन्य परीक्षार्थियों की तुलना में आगे निकलने का प्रयास करते हैं।
  3. जातीय प्रतियोगिता–भारत में परंपरागत रूप से विभिन्न जातियाँ प्रकार्यात्मक संबंधों द्वारा एक-दूसरे से बँधी हुई थी परंतु आज नौकरियों को प्राप्त करने या समाज में प्रतिष्ठित पदों को प्राप्त करने में विभिन्न जातियों में प्रतियोगिता देखी जा सकती है।
  4. राजनीतिक प्रतियोगिता–विभिन्न नेता तथा राजनीतिक दल सत्ता प्राप्त करने के एक-दूसरे से राजनीतिक प्रतियोगिता करते हैं। प्रत्येक दल का नेता अपनी एक निश्चित स्थिति बनाना चाहता है ताकि चुनाव के समय वह इसका लाभ उठा सके।
  5. धार्मिक प्रतियोगिता–प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय अपने को अन्य संप्रदायों से श्रेष्ठ मानता है और इसका प्रचार व प्रसार भी करता है। धार्मिक प्रतियोगिता अगर घृणित भावनाओं के आधार पर होने लगती है तो सांप्रदायिक दंगे तक उभर सकते हैं।
  6. अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता-आज संसार के विभिन्न देशों में आर्थिक तथा सैनिक क्षेत्रों में प्रतियोगिता स्पष्टतः देखी जा सकती है क्योंकि प्रत्येक देश अन्य देशों की तुलना में आर्थिक तथा सैनिक दृष्टि से आगे निकलने का प्रयास करता है। फलस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता संघर्ष का कारण भी बन जाती है।

प्रतियोगिता के आधार

गिलिन एवं गिलिन ने प्रतियोगिता के दो प्रमुख आधार अथवा निर्धारक कारक बताए हैं जो कि निम्नलिखित हैं-

  1. मूल्यों की व्यवस्था तथा
  2. समूह की संरचना।

किसी भी समाज या समूहों में पाए जाने वाले मूल्यों की व्यवस्था ही यह निर्धारिण करती है कि अंत:क्रिया का स्वरूप सहयोग, प्रतियोगिता, संघर्ष आदि में से किस प्रकार का होगा। अगर व्यक्तिवाद पर आधारित भौतिकवादी मूल्ये व्यवस्था किसी समाज में है तो वहाँ प्रतियोगिता अधिक पायी जाती है। अगर आध्यात्मिक संस्कृति है तो प्रतियोगिता की मात्रा कम होती है। सामूहिक जीवन से संबंधित मूल्यों की व्यवस्था का प्रतियोगिता पर सीधा प्रभाव पड़ता है।

मूल्यों की व्यवस्था के साथ-साथ समूह की संरचना भी प्रतियोगिता की मात्रा को निर्धारित करती है। अगर कोई समाज या समूह बंद है तो उनमें प्रतियोगिता को संस्थागत रूप से नियंत्रित कर लिया जाता है। अगर समाज या समूह खुले प्रकार का है तो ऐसी संरचना स्वयं प्रतियोगिता को प्रोत्साहन देने वाली होती है। भारतीय समाज में परंपरागत रूप से प्रतियोगिता का अभाव इसकी बंद सामाजिक संरचना का ही परिणाम माना जाता है। साथ ही पश्चिमी समाजों में तथा आज भारत में अत्यधिक प्रतियोगिता, खुली सामाजिक व्यवस्था का ही परिणाम है। अगर संरचना प्रतियोगिता के अवसर ही प्रदान नहीं करती तो प्रतियोगिता हो ही नहीं सकती और अगर प्रतियोगिता को प्रोत्साहन देने वाली संरचना है तो सभी क्षेत्रों में प्रतियोगिता देखी जा सकती है।

प्रतियोगिता का महत्त्व तथा परिणाम

प्रतियोगिता यद्यपि एक असहयोगी प्रक्रिया मानी जाती है फिर भी यह परिणामों की दृष्टि से सदैव विघटनकारी नहीं होती अपितु समाज में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। प्रतियोगिता, योग्यता एवं कुशलता में वृद्धि करने वाली प्रक्रिया है। अगर व्यक्ति को पता हो कि उसे उद्देश्य पूर्ति के लिए अनेक अन्य लोगों से प्रतियोगिता करनी है है तो वह अपनी योग्यता और कुशलता में पहले से ही तैयार करना शुरू कर देता है। प्रतियोगिता सामाजिक चुनाव की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इस प्रक्रिया के माध्यम से श्रेष्ठ व्यक्ति का चुनाव करना संभव हो जाता है। गिलिन एवं गिलिन (Gillin and Gillin) ने इस प्रक्रिया के विविध परिणामों का उल्लेख किया है जिससे इसका महत्त्व स्पष्ट होता है। इसके प्रमुख परिणाम निम्नलिखित हैं-

  1. सहयोगात्मक परिणाम-अगर किसी समाज में स्वस्थ प्रतियोगिता पायी जाती है तो संगठनात्मक दृष्टि से इसके अच्छे परिणाम निकलते हैं क्योंकि इससे प्रत्येक व्यवसाय में अच्छे लोगों को आगे आने का अवसर प्राप्त होता है। प्रतियोगिता के कारण अनेक व्यावसायिक संगठनों का भी विकास होता है जो अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करते हैं। गिलिने एवं गिलिन ने इसी दृष्टि से प्रतियोगिता जैसी असहयोगी प्रक्रिया को सहयोगी प्रक्रिया कहा है।
  2. असहयोगात्मक परिणाम-कई बार, बल्कि, बहुधा, प्रतियोगिता बड़ा कटु रूप धारण कर लेती है क्योंकि प्रतियोगी अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सभी नियमों को तोड़कर अवैधानिक साधन अपनाने लगते हैं। कई बार यह कटुता इतनी अधिक हो जाती है कि प्रतिद्वंद्वियों में संघर्ष तक हो जाता है। इसी दृष्टि से इसके असहयोगी परिणामों की विवेचना की जाती है।
  3. व्यक्तित्व संबंधी परिणाम-अगर समाज के द्वारा निर्धारित नियमों के भीतर प्रतियोगिता होती है तो यह व्यक्तित्व के विकास में भी सहायता प्रदान करती है। प्रतियोगिता में लगे व्यक्ति अन्यों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं जिससे उनका दृष्टिकोण विस्तृत बनता है, बोध शक्ति बढ़ती है और सहानुभूति की भावना गहरी होती है। ये सभी बातें व्यक्तित्व के विकास को प्रोत्साहन देती हैं।
  4. प्रगति संबंधी परिणाम-गिलिन एवं गिलिन के अनुसार, प्रतियोगिता के प्रगति संबंधी परिणाम भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। एक तो प्रतियोगिता परिवर्तित परिस्थितियों में समायोजन में सहायता देती है तो दूसरी ओर यह व्यक्ति को नवीन तरीके खोजने तथा अपने कार्य को अत्यधिक उत्तम तरीके से करने के लिए प्रेरणा देती है। प्रतियोगिता आविष्कारों की भी जननी है। तथा इसीलिए यह विधि प्रकार से समाज की प्रगति में सहायता प्रदान करती है।
  5. सामूहिक दृढ़ता संबंधी परिणाम–प्रतियोगिता सामूहिक एकता तथा दृढ़ता की दृष्टि से भी हत्त्वपूर्ण है क्योंकि नियमों के भीतर स्वस्थ प्रतियोगिता योग्यतानुसार कार्य करने की प्रेरित करती है तथा इसका अवसर प्रदान करती है। यह सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में योगदान देती है क्योंकि उचित ढंग से कार्य करने पर समूह की एकता बनी रहती है। प्रतियोगिता समूह की एकता के लिए तभी खतरा बन सकती है जबकि प्रतियोगिता अव्यवस्थित व नियम-विहीन हो जाती है और घृणा तथा संघर्ष का रूप ले लेती है।
  6. विघटन-संबंधी परिणाम-गिलिन एवं गिलिन के अनुसार, प्रतियोगिता सामाजिक विघटन के लिए भी कुछ सीमा तक उत्तरदायी है। प्रतियोगिता आविष्कारों को प्रोत्साहन देती है और कई बार व्यक्ति इन आविष्कारों के कारण उत्पन्न परिवर्तन से अनुकूलन नहीं रख पाते। ऐसी नवीन परिस्थिति में सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन मिलता है क्योंकि इसमें असामंजस्य की स्थिति विकसित हो जाती है। सामाजिक एकता की बजाय सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन देकर यह अपनी असहयोगी भूमिका निभाती है।

निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रतियोगिता समाज के लिए प्रकार्यात्मक ही नहीं है अपितु यह व्यक्ति और समूह की दृष्टि से प्रकार्यात्मक है और इसी दृष्टि से यह एक संगठनात्मक प्रक्रिया भी है। प्रतियोगिता कार्यों को अच्छी प्रकार से करने की प्रेरिणा देती है, यह महत्त्वकांक्षाओं में वृद्धि करती है तथा प्रतिद्वंद्वी की चुनौती को स्वीकार कर अपनी योग्यता दिखाने का अवसर प्रदान करती है। अतः स्वस्थ एवं नियंत्रित प्रतियोगिता को कम विघटनकारी प्रक्रिया नहीं कर सकते हैं। यह विघटनकारी तभी कही जाती है जबकि यह अनियंत्रित हो जाती है और प्रतियोगिता में घृणा और हिंसा की भावना आ जाती है। ऐसी परिस्थिति में प्रतियोगिता हिंसा तथा संघर्ष में भी बदल जाती है और समाज, समूह तथा व्यक्ति के लिए विघटनकारी हो जाती है। अतः यह दोनों प्रकार की प्रक्रिया है तथा समाज में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है।

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प्रश्न 5.
संघर्ष किसे कहते हैं? इसके प्रमुख प्रकार बताइए।
या
संघर्ष को परिभाषित कीजिए तथा समाज में इसका महत्व समझाइए।
या
संघर्ष क्या है? इसके कारणों की विवेचना कीजिए।
या
संघर्ष से आप क्या समझते हैं? संघर्ष एवं सहयोग तथा संघर्ष एवं प्रतियोगिता में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
सहयोग की तरह संघर्ष भी सामाजिक जीवन की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सहयोग को एक प्रमुख सहयोगी प्रक्रिया माना जाता है, जबकि संघर्ष को एक प्रमुख असहयोगी प्रक्रिया माना जाता है। सहयोग और संघर्ष को अधिकतर लोग एक-दूसरे की विरोधी प्रक्रियाएँ मानते हैं, जबकि इनको विरोधी न कहकर एक-दूसरे की परक एवं सहगामी प्रक्रियाएँ कहना अधिक उचित है। इसका कारण यह है कि सहयोग के बिना संघर्ष के बिना सहयोग की कल्पना केवल सैद्धांतिक रूप में ही की जा सकती है। यह एक ऐसी असहयोगी प्रक्रिया है जिसमें प्रतिद्वंद्वी समूह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हिंसा तक का सहारा लेते हैं। वास्तव में यह दूसरों को उनकी इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक रोकने का प्रयास है।

संघर्ष का अर्थ एवं परिभाषाएँ

संघर्ष को प्रमुख विद्वानों ने निम्नलिखित रूप से परिभाषित करने का प्रयास किया है-

फेयरचाइल्ड (Fairchild) के अनुसार-“संघर्ष एक प्रक्रिया या परिस्थिति है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति या समूह एक-दूसरे के उद्देश्यों को क्षति पहुँचाते हैं, एक-दूसरे के हितों की संतुष्टि पर रोक लगाना चाहते हैं, भले ही इसके लिए दूसरों को चोट पहुँचानी पड़े या नष्ट करना पड़े।

ग्रीन (Green) के अनुसार–“संघर्ष दूसरे या दूसरों की इच्छा का जानबूझकर विरोध करना, रोकना तथा उसे बलपूर्वक रोकने के प्रयास को कहते हैं।”

पार्क एवं बर्गेस (Park and Burgess) के अनुसार-“संघर्ष और प्रतियोगिता विरोध के दो रूप हैं जिनमें प्रतिस्पर्धा सतत एवं अवैयक्तिक होती है, जबकि संघर्ष का रूप असतत वे वैयक्तिक होता है।”

फिचर (Fichter) के अनुसार--‘संघर्ष पारस्परिक अंतःक्रिया का वह रूप है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति एक-दूसरे को दूर रखने का प्रयास करते हैं।”

गिलिन एवं गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार-“संघर्ष वह सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति या समूह अपने उद्देश्यों की प्राप्ति विरोधी की हिंसा या हिंसा के भय के द्वारा करते हैं।”

कोजर (Coser) के अनुसार–‘स्थिति, शक्ति और सीमित साधनों के मूल्यों और अधिकारों के लिए होने वाले संघर्ष को ही सामाजिक संघर्ष कहा जाता है जिनमें विरोधी दलों का उद्देश्य अपने प्रतिस्पर्धी को प्रभावहीन करना, हानि पहुँचाना अथवा समाप्त करना भी है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि संघर्ष वह सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति या समूह अपने उद्देश्यों की प्राप्ति अपने विरोधी को हिंसा का प्रयोग करके या हिंसा का भय देकर करते हैं। यह प्रत्यक्ष और चेतन प्रक्रिया है जिसमें सामान्यत: दूसरे पक्ष को किसी-न-किसी प्रकार की हानि पहुँचाने का प्रयास किया जाता है।

संघर्ष की प्रमुख विशेषताएँ

संघर्ष के बारे में विभिन्न विद्वानों के विचारों से इसकी प्रमुख विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. सामाजिक प्रक्रिया-संघर्ष एक सामाजिक प्रक्रिया है क्योंकि इसके लिए दो व्यक्तियों अथवा समूहों का होना जरूरी है। यह एक प्रमुख असहयोगी प्रक्रिया है जो प्रत्येक समाज में किसी-न-किसी रूप में पायी जाती है।।
  2. हिंसा या धमकी का प्रयोग-संघर्ष एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक पक्ष दूसरे के हितों को नुकसान पहुँचाने के लिए हिंसा का प्रयोग करता है अथवा ऐसा करने की धमकी देता है।
  3. चेतन प्रक्रिया-संघर्ष को एक चेतन प्रक्रिया माना जाता है क्योंकि इसमें दोनों पक्ष एक-दूसरे का पूरा ध्यान रखते हैं। इसमें लक्ष्य को प्राप्त करने के साथ-साथ विरोधी के हितों को नुकसान पहुँचाना या उसे समाप्त कर देने का भी प्रयास किया जाता है।
  4. वैयक्तिक प्रक्रिया-संघर्ष एक वैयक्तिक प्रक्रिया है जिसमें दो व्यक्ति या समूह किसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर संघर्ष करते हैं। जब एक समूह दूसरे से संघर्ष करता है तो यह प्रतिद्वंद्वियों पर केंद्रित न होकर समूह विशेष पर केंद्रित होता है।
  5. अनिरंतर प्रक्रिया संघर्ष अनिरंतर होने वाली प्रक्रिया है अर्थात् संघर्ष निरंतर न होकर रुक-रुककर होता रहता है। इसका कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति या समूह सदैव संघर्षरत नहीं रह सकता। उसे कुछ समय बाद पुन: अपनी शक्ति संचित करनी पड़ती है।
  6. सार्वभौमिक प्रक्रिया संघर्ष एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है क्योंकि यह प्रत्येक समाज में किसी-न-किसी रूप में पायी जाती है। यह सामाजिक जीवन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है।

संघर्ष के विभिन्न स्वरूप

संघर्ष अनेक प्रकार का होता है। इसे विद्वानों ने अनेक श्रेणियों में विभाजित किया है। इस संबंध में प्रमुख विद्वानों के विचार निम्नलिखित हैं-
(अ) मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) द्वारा वर्गीकरण मैकाइवर एवं पेज ने संघर्ष को दो प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया है1. प्रत्यक्ष संघर्ष-प्रत्यक्ष संघर्ष दो पक्षों में आमने-सामने होने वाला संघर्ष है। इस प्रकार के संघर्ष को प्रत्यक्ष रूप में देखा जा सकता है। जातीय दंगे, सांप्रदायिक दंगे इत्यादि प्रत्यक्ष संघर्ष के ही उदाहरण हैं।
2. अप्रत्यक्ष संघर्ष—इस प्रकार के संघर्ष में व्यक्ति या समूह आमने-सामने नहीं आते हैं अपितु अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे से संघर्ष करते हैं। इस प्रकार के संघर्ष में विरोधी के प्रति घृणा, अविश्वास तथा शत्रुता की भावनाएँ पायी जाती हैं। असीमित प्रतिस्पर्धा तथा शीत युद्ध प्रत्यक्ष संघर्ष के उदाहरण हैं।

( अ ) किंग्सले डेविस (Kingsley Davis) द्वारा वर्गीकरण
किंग्सले डेविस ने भी संघर्ष को दो प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया है

  1. आंशिक संघर्ष-यह कम मात्रा में पाया जाने वाला संघर्ष होता है। जब दो समूहों में लक्ष्यों के बारे में तो सहमति हो परंतु उनको प्राप्त करने के साधनों के बारे में मतभेद हो जाए तो इसे आंशिक संघर्ष कहते हैं।
  2. पूर्ण संघर्ष—इस प्रकार के संघर्ष में विभिन्न संघर्षरत समूहों में न तो उद्देश्यों (लक्ष्यों) के बारे में और न ही इन्हें प्राप्त करने के बारे में सहमति होती है। उद्देश्यों को प्राप्त करने का एकमात्र साधन, ऐसी स्थिति में, बल प्रयोग द्वारा अथवा इसकी धमकी द्वारा रह जाता है। आंशिक और पूर्ण संघर्ष में अंतर केवल अंशों का है।

(स) गिलिन एवं गिलिन (Gilin and Gillin) द्वारा वगीकरण, गिलिन एवं गिलिन ने संघर्ष को प्रमुख पाँच प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया है जो कि निम्नलिखित
हैं-

  1. वैयक्तिक संघर्ष-वैयक्तिक संघर्ष में दो व्यक्तियों के हितों में टकराव होने के फलस्वरूप उत्पन्न संघर्ष को सम्मिलित किया जाता है। वैयक्तिक संघर्ष प्रत्यक्ष संघर्ष होता है जिसमें दोनों पक्षों में गाली-गलौज, मार-पीट या घृणा के भाव सम्मिलित होते हैं। यह मुख्यत: स्त्री, धन या जमीन को लेकर होता है।
  2. प्रजातीय संघर्ष–प्रजाति सामान्य शारीरिक लक्षणों वाला एक समूह है। इन्हीं शारीरिक लक्षणों के आधार पर एक प्रजाति अपने को दूसरी प्रजाति से भिन्न समझती है तथा इसी आधार पर उनमें श्रेष्ठता या निम्नता के भाव भी विकसित होते हैं। यह भाव एवं अंतर दोनों में कई बार संघर्ष के कारण भी बन जाते हैं। अमेरिका में सफेदपोश और नीग्रो प्रजातियों में संघर्ष प्रजातीय संघर्ष के प्रमुख उदाहरण है। प्रजातीय श्रेष्ठता के आधार पर शोषण भी किया जाता है।
  3. वर्ग संघर्ष–वर्ग आधुनिक समाजों का प्रमुख लक्षण है। यद्यपि इसका प्रमुख आधार आर्थिक है। | फिर भी यह सामाजिक, धार्मिक या राजनीतिक हितों तथा प्रतिष्ठा से भी जुड़ा होता है। विभिन्न वर्ग हितों में विरोधाभास के कारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संघर्ष करने लगते हैं। पूँजीपति तथा श्रमिक वर्ग में पाए जाने वाले संघर्ष इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
  4. राजनीतिक संघर्ष–राजनीतिक संघर्ष भी वर्तमान युग की देन है क्योंकि राजनीतिक क्षेत्र में आए दिन संघर्ष देखे जा सकते हैं। राजनीतिक दलों में उद्देश्यों के टकराव के कारण होने वाला अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष संघर्ष भी राजनीतिक संघर्ष का एक उदाहरण है। विश्व के दो विभिन्न राष्ट्रों में होने वाले संघर्ष को भी राजनीतिक संघर्ष कहते हैं जिसमें हजारों, लाखों लोगों की जाने जा सकती हैं।
  5. अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष-संघर्ष स्थानीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं होते, अपितु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देखे जा सकते हैं। आज सभी राष्ट्र कई गुटों में विभाजित हैं। इन गुटों में भी विभिन्न मुद्दों को लेकर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष टकराव की स्थिति बनी रहती है। आज दो राष्ट्रों में होने वाला संघर्ष केवल उन्हीं राष्ट्रों तक सीमित नहीं रहता, अपितु अनेक अन्य राष्ट्र भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस संघर्ष में सहायता देते हैं।

उपर्युक्त संघर्ष के प्रकारों के अतिरिक्त कई बार पारिवारिक संघर्ष, सामुदायिक संघर्ष, जातीय व उपजातीय संघर्ष, धार्मिक एवं सांप्रदायिक संघर्ष का भी उल्लेख किया जा सकता है।

संघर्ष के प्रमुख कारण

संघर्ष का कोई एक कारण नहीं है, अपितु यह अनेक कारणों से होते हैं। वास्तव में, संघर्ष के विभिन्न स्वरूपों से ही इसके कारणों का पता चल जाता है। गिलिन एवं गिलिन ने इसके प्रमुख कारणों को चारै श्रेणियों में विभाजित किया है–

  1. व्यक्तिगत भिन्नताएँ-व्यक्तिगत, भिन्नताएँ, वैयक्तिक संघर्ष तथा सामूहिक संघर्ष को जन्म | देती हैं। व्यक्तिगत मनोवृत्तियों, मूल्यों आदतों, क्षमताओं, दृष्टिकोणों तथा स्वभाव में अंतर अनेक परिस्थितियों में संघर्ष का कारण बन जाता है।
  2. सांस्कृतिक भिन्नताएँ–सांस्कृतिक भिन्नताओं का संबंध विभिन्न प्रकार की संस्कृतियों में पाए जाने वाले अंतर से है। संस्कृति के आधार पर भी राष्ट्रों में श्रेष्ठता या भिन्नता की भावना पायी जा सकती है। विभिन्न प्रजातियों, जातियों, वर्गों या राष्ट्रों में सांस्कृतिक भिन्नताओं के आधार पर संघर्ष पैदा होते रहते हैं।
  3. परस्पर विरोधी हितों या स्वार्थों का टकराव-परस्पर विरोधी हिंतों व स्वार्थों का टकराव | वैयक्तिक, सामूहिक, प्रांतीय, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय किसी भी स्तर पर हो सकता है। पूँजीपतियों तथा श्रमिकों में पाए जाने वाले संघर्ष का प्रमुख कारण परस्पर विरोधी हितों का पाया जाना ‘तथा इनमें टकराव ही है।
  4. सामाजिक परिवर्तन—यह भी संघर्ष का एक प्रमुख कारण है। किसी भी समाज के विभिन्न समूहों में परिवर्तन एक समान गति से नहीं होता है। अगर एक समूह परिवर्तन के परिणामस्वरूप आधुनिकीकृत हो जाता है और दूसरा पीछे रह जाता है तो उनमें मूल्यों को लेकर संघर्ष उत्पन्न हो सकता है। विभिन्न पीढ़ियों में पाया जाने वाला संघर्ष भी सामाजिक परिवर्तन की ही देन है।

संघर्ष का महत्त्व

यद्यपि संघर्ष एक असहयोगी व विघटनकारी प्रक्रिया है फिर भी यह एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया है। जिसका जीवन में अपना अलग महत्त्वपूर्ण स्थान है। आज तो प्रकार्यवादी विद्वान् भी इसके प्रकार्यात्मक महत्त्व को स्वीकार करने लगे हैं। इसके महत्त्व को निम्नलिखित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. चेतना का विकास संघर्ष मानवीय चेतना का प्रमुख आधार है क्योंकि इसी से व्यक्ति में अपने प्रति, समूह के प्रति अथवा राष्ट्र के प्रति चेतना की भावना का विकास होता है। रयूटर एवं हार्ट (Reuter and Hart) ने इस संदर्भ में लिखा है-“संघर्ष समस्त चेतन जीवन का आधार है। आत्म-चेतना तथा सामूहिक चेतना संघर्ष के द्वारा ही उत्पन्न हो सकती है।”
  2. व्यक्तित्व का निर्माण–संघर्ष व्यक्तित्व के निर्माण में भी सहायक है क्योंकि अगर व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में संघर्ष न करें तो वे न तो पर्यावरण से अनुकूलन ही कर सकते हैं और न ही वे अपनी आंतरिक क्षमता का विकास ही कर सकते हैं।
  3. एकीकरण को बढ़ावा-संघर्ष को एक दृष्टि से प्रकार्यात्मक माना जाता है कि यह एकीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा देता है। अगर बाहरी समूह में संघर्ष होता है तो समूह के सदस्यों में | आंतरिक एकीकरण अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है।
  4. मानव जीवन का संगठन संघर्ष मानव जीवन को संगठित करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। संघर्षों का सामना करने के लिए मानव अपनी आंतरिक शक्ति का पूर्ण विकास करते हैं। संघर्षपूर्ण जीवन के कारण ही व्यक्ति विभिन्न समस्याओं का सरलता से सामना कर लेता है।

उपर्युक्त विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि संघर्ष एक प्रमुख असहयोगी प्रक्रिया है। परन्तु संघर्ष एक विघटनकारी प्रक्रिया होते हुए भी समाज की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया मानी जाती है। मैकाइवर एवं पेज ने इस दृष्टि से उचित ही कहा है कि संघर्ष के द्वारा ही सहयोग की भावना का विकास होता है।

सहयोग एवं संघर्ष में अंतर

सहयोग और संघर्ष दोनों सामाजिक प्रक्रियाएँ हैं तथा सामाजिक जीवन की अभिन्न प्रक्रियाएँ होने के नाते एक-दूसरे के साथ जुड़ी हुई हैं। दोनों में पाए जाने वाले प्रमुख अंतर निम्नलिखित हैं-
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प्रतियोगिता और संघर्ष में भेद

प्रतियोगिता और संघर्ष को आधुनिक समाजों में पायी जाने वाली दो प्रमुख सहयोगी प्रक्रियाएँ माना गया। है। यद्यपि संघर्ष परंपरागत समाजों में भी पाया जाता था परंतु इसकी मात्रा कहीं कम थी। प्रतियोगिता और संघर्ष दोनों एक नहीं हैं अपितु इनकी प्रकृति में काफी अंतर पाया जाता है। पार्क एलं बर्गेस (Park and Burgess) ने लिखा है-“संघर्ष और प्रतियोगिता विरोध के दो रूप हैं। जिनमें प्रतियोगिता सतत और अवैयक्तिक होती है, जबकि संघर्ष का रूप अनिरंतर और वैयक्तिक होता है। दोनों में निम्नलखित प्रमुख अंतर पाए जाते हैं-
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उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाती है कि प्रतियोगिता और संघर्ष दोनों असहयोगी सामाजिक प्रक्रियाएँ हैं परंतु दोनों की प्रकृति में काफी अंतर पाया जाता है।

प्रश्न 6.
सामाजिक स्तरीकरण क्या है? भारतीय समाज के उदाहरणों द्वारा स्पष्ट कीजिए।
या
सामाजिक स्तरीकरण की संकल्पना स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
सामाजिक स्तरीकरण (संस्तरण) एवं सामाजिक गतिशीलता ऐसी सार्वभौमिक प्रक्रियाएँ हैं जो किसी-न-किसी रूप में प्रत्येक समाज में पायी जाती हैं। आपने देखा होगा कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी जाति तथा एक निश्चित आय वाले समूह, जिसे वर्ग कहा जाता है, का सदस्य है। विभिन्न जातियों एवं वर्गों को सामाजिक स्तर एक जैसा नहीं होता है। इनमें एक निश्चित संस्तरण पाया जाता है। इसी को हम सामाजिक स्तरीकरण कहते हैं। समाजशास्त्र में सामाजिक स्तरीकरण का अध्ययन विशेष महत्त्व रखता है क्योंकि इसी के आधार पर समाज में तनाव तथा विरोध विकसित होते हैं। इसी के अध्ययन से हमें पता चलता है कि किसी समाज के व्यक्तियों को उपलब्ध जीवन अवसरों, सामाजिक प्रस्थिति एवं राजनीतिक प्रभाव में कितनी असमानता है।

स्तरीकरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ

सामाजिक स्तरीकरण समाज का विभिन्न स्तरों में विभाजन है। इन स्तरों में ऊँच-नीच या संस्तरण पाया जाता है। इसके अंतर्गत कुछ विशेष स्थिति वाले व्यक्तियों या समूहों को अधिक अधिकार, प्रतिष्ठा एवं जीवन अवसर उपलब्ध होते हैं, जबकि इससे निम्न स्थिति वाले व्यक्तियों या समूहों को ये सब कम मात्रा में उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार, समाज के विभिन्न समूहों में पायी जाने वाली आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक असमानता को ही स्तरीकरण कहा जाता है। यह वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्यों और समूहों को प्रस्थिति के पदानुक्रम में न्यूनाधिक स्थायी रूप से श्रेणीबद्ध किया जाता है। यह एक दीर्घकालीन उद्देश्य वाली सचेतन प्रक्रिया है। समाजशास्त्रियों द्वारा सामाजिक स्तरीकरण को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया गया है प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-

जिस्बर्ट (Gisbert) के अनुसार-“सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ समाज को कुछ ऐसी स्थायी श्रेणियों तथा समूहों में बाँटने की व्यवस्था से है जो कि उच्चता एवं अधीनता के संबंधों से परस्पर संबद्ध होते हैं। इस परिभाषा में उच्चता एवं अधीनता के आधार पर समूह को विभाजित किया जाना ही स्तरीकरण माना गया है। इसमें दो बातें महत्त्वपूर्ण हैं—प्रथम, यह किस जिस आधार से समूह को स्तरीकृत किया जाता है वह स्थिर रहती है, तथा द्वितीय, उच्चता तथा निम्नता के आधार पर विभिन्न समूह प्रतिष्ठित होते हैं और वे परस्पर संबंध रखते हुए सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखते हैं।

सदरलैण्ड एवं वुडवर्ड (Sutherland and Woodward) के अनुसार-“साधारणतः स्तरीकरण अंत:क्रिया अथवा विभेदीकरण की वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कुछ व्यक्तियों को दूसरों की तुलना में उच्च स्थिति प्राप्त हो जाती है। इस परिभाषा से स्पष्ट हो जाता है कि स्तरीकरण का आधार प्रस्थिति है। समाज को प्रस्थिति के आधार पर विभाजित किया जाता है। उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सामाजिक स्तरीकरण से तात्पर्य भौतिक या प्रतीकात्मक लाभों तक पहुँच के आधार पर समाज में समूहों के बीच की संरचनात्मक असमानताओं के अस्तित्व से है। इसकी तुलना धरती की सतह में चट्टानों की परतों से की जाती है। समाज को एक ऐसे अधिक्रम के रूप में देखा जाता है जिसमें कई परतें शामिल हैं। इस अधिक्रम में अधिक सुविधापात्र शीर्ष पर तथा कम सुविधापात्र तल के निकट हैं।

भारतीय समाज में स्तरीकरण के उदाहरण

भारतीय समाज में जब हम अपने आस-पड़ोस का प्रेक्षण करते हैं तो हमें जाति के आधार पर ऊँच-नीच दिखाई देती है। जाति पर आधारित स्तरीकरण की व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति पूरी तरह से जन्म पर आधारित होती है। विभिन्न जातियों की सामाजिक प्रतिष्ठता में अंतर होता है तथा उनमें ऊँच-नीच के आधार पर खान-पान, विवाह, सामाजिक सहवास इत्यादि पर भी प्रतिबन्ध पाए जाते हैं। परंपरागत रूप से प्रत्येक जाति का एक निश्चित व्यवसाय होता था। अस्पृश्यता से जाति व्यवस्था में पायी जाने वाली ऊँच-नीच का पता चलता है। अस्पृश्य जातियों को अपवित्र माना जाता था तथा उनसे अन्य जातियाँ दूरी बनाए रखती थीं। समकालीन भारतीय समाज में यद्यपि जाति व्यवस्था में अनेक परिवर्तन हुए हैं, तथापि जातिगत भेदभाव आज भी स्पष्ट देखे जा सकते हैं।

भारत में समाजिक स्तरीकरण का दूसरा आधार, आर्थिक आधार पर निर्मित होने वाले वर्ग हैं। भू-पति एवं कारखानों के मालिक भूमिहीन एवं श्रमिक वर्ग से कहीं अधिक सुविधा संपन्न होते हैं तथा विविध रूपों में अधीनस्थ वर्गों का शोषण करते हैं। बहुत-से विद्वान् अब यह मानने लगे हैं कि जातिगत भेदभाव के साथ-साथ भारत में आर्थिक आधार पर ऊँच-नीच भी अधिक हो गई है। इसीलिए आस-पड़ोस में रहने वाले अनेक परिवार न केवल अन्य जातियों के अपितु हमसे अधिक अमीर या गरीब भी हो सकते हैं।

प्रश्न 7.
सामाजिक वर्ग क्या है? इसकी प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
या
सामाजिक स्तरीकरण के एक स्वरूप के रूप में वर्ग व्यवस्था की विवेचना कीजिए।
उत्तर
जाति तथा वर्ग सामाजिक स्तरीकरण के दो प्रमुख स्वरूप माने जाते हैं। जाति से अभिप्राय एक ऐसे. समूह से है जिसकी सदस्यता व्यक्ति को जन्म से मिलती है तथा जीवन-पर्यंत वह इस सदस्यता को नहीं बदल सकता। वर्ग एक खुली व्यवस्था है जिसकी सदस्यता व्यक्ति को उसकी योग्यता व गुणों के आधार पर मिलती है तथा वह इसे परिवर्तित कर सकता है। अमेरिका तथा पश्चिमी समाजों में सामाजिक स्तरीकरण का प्रमुख रूप वर्गीय स्तरीकरण ही है। भारत में जैसे-जैसे आर्थिक आधार पर सामाजिक स्तरों का निर्माण हो रहा है तथा चेतना में वृद्धि होती जा रही है, वैसे-वैसे वर्ग व्यवस्था विकसित होने लगी है।

सामाजिक वर्ग का अर्थ एवं परिभाषाएँ

जब एक ही सामाजिक स्थिति के व्यक्ति समान संस्कृति के बीच रहते हैं तो वे एक सामाजिक वर्ग का निर्माण करते हैं। इस प्रकार, सामाजिक वर्ग ऐसे व्यक्तियों का समूह हैं जिनकी सामाजिक स्थिति लगभग समान हो और जो एक-सी ही सामाजिक दशाओं में रहते हों। एक वर्ग के सदस्य एक जैसी सुविधाओं का उपभोग करते हैं। अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सामाजिक वर्ग का निर्धारण व्यक्ति की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर होता है। एक-सी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के व्यक्तियों को एक वर्ग विशेष का नाम दे दिया जाता है; जैसे-पूँजीपति वर्ग, श्रमिक वर्ग आदि। प्रमुख विद्वानों ने सामाजिक वर्ग की परिभाषाएँ इस प्रकार से दी हैं-

मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार-“एक सामाजिक वर्ग एक समुदाय का कोई भी भाग है जो सामाजिक स्थिति के आधार पर अन्य लोगों से भिन्न है।’ लेपियर (LaPiere) के अनुसार-“एक सामाजिक वर्ग सुस्पष्ट सांस्कृतिक समूह है जिसको संपूर्ण जनसंख्या में एक विशेष स्थान अथवा पद प्रदान किया जाता है।”

ऑगबर्न एवं निमकॉफ (Ogburn and Nimkoff) के अनुसार–“सामाजिक वर्ग ऐसे व्यक्तियों का एक योग है जिनका किसी समाज में निश्चित रूप से एक समान स्तर होता है।”

क्यूबर (Cuber) के अनुसार-“एक सामाजिक वर्ग अथवा सामाजिक स्तर जनसंख्या का एक बड़ा भाग अथवा श्रेणी है जिसमें सदस्यों का एक ही पद अथवा श्रेणी होती है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि सामाजिक वर्ग लगभग समान स्थिति वाले व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जिसके सदस्य समूह के प्रति जागरूक हैं। विभिन्न वर्गों की सामाजिक स्थिति भिन्न होती है।

सामाजिक वर्ग की प्रमुख विशेषताएँ

सामाजिक वर्ग की परिभाषाओं से इसकी अनेक मुख्य विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं जो कि निम्नलिखित हैं-

  1. निश्चित संस्तरण-वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति कुछ श्रेणियों में विभाजित होते हैं। यद्यपि वर्गों की संख्या के बारे में विद्वानों में सहमति नहीं है। फिर भी यह निश्चित है कि कुछ वर्गों का स्थान ऊँचा और कुछ का नीचा होता है।
  2. हर्र की सर्वव्यापकता-वर्ग मानव समाज की एक सर्वव्यापी प्रघटना है। मार्क्स के अनुसार, वर्ग व्यवस्था प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल में भी किसी-न-किसी रूप में सदैव विद्यमान रही है। यद्यपि इन्होंने वर्गविहीन समाज की कल्पना की थी, परंतु अधिकांश विद्वान् वर्गविहीन समाज को केवल एक दिवास्वप्न मानते हैं क्योंकि मानव जीवन के इतिहास में इसकी उपलब्धि संभव नहीं है।
  3. वर्ग चेतना-वर्ग चेतना के कारण वर्ग विशेष के सदस्यों में समानता की भावना प्रोत्साहित होती है व उस वर्ग को स्थायित्व प्राप्त होता है। कार्ल मार्क्स ने वर्ग चेतना को वर्ग के निर्माण की एक अनिवार्य विशेषता माना है क्योंकि केवल समान आर्थिक स्थिति ही वर्ग के निर्धारण में पर्याप्त नहीं है।
  4. अर्जित सदस्यता-वर्ग की सदस्यता जन्म द्वारा नहीं वरन् योग्यता और कुशलता द्वारा अर्जित होती है। व्यक्ति अपनी क्षमता एवं योग्यता से वर्ग की सदस्यता प्राप्त कर सकता है। एक व्यक्ति, जो निम्न वर्ग का सदस्य है, प्रयत्न करने से उच्च वर्ग का सदस्य बन सकता है। ठीक उसी प्रकार, एक उच्च वर्ग का सदस्य अपनी अयोग्यता के कारण निम्न वर्ग का सदस्य बन्न सकता है।
  5. मुक्त व्यवस्था-वर्ग जाति के समान बंद व्यवस्था न होकर मुक्त व्यवस्था है। किसी व्यक्ति का वर्ग उसकी परिस्थिति के अनुसार परिर्वितत भी हो सकता है। इसी गतिशीलता के कारण इसे मुक्त व्यवस्था कहा गया है। प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर उपलथ्ध हैं जिससे कि वह अपने गुणों, योग्यता तथा क्षमता के आधार पर उच्च वर्ग का सदस्य बन सके। उदाहरण के लिए एक सामान्य श्रमिक अपनी मेहनत, लगन व योग्यता से उसी फैक्ट्री का संचालक तक बन सकता है। जिसमें कि वह काम करता है।
  6. सीमित सामाजिक संबंध–प्रत्येक वर्ग के समुदाय अपने ही वर्ग के सदस्यों से संबंध रखते हैं। सामान्यतः उच्च वर्ग के सदस्य निम्न वर्ग के सदस्यों से संबंध स्थापित करने में सम्मान की हानि समझते हैं अर्थात् उनमें उच्चता की भावना होती है। ठीक इसके विपरीत, निम्न वर्ग के लोगों में निम्नता की भावना होने के कारण, वे उच्च वर्ग के लोगों से मिलने या संबंध बढ़ाने में झिझक महसूस करते हैं। इसका यह अभिप्राय नहीं है कि वर्ग व्यवस्था में भी जाति की तरह अन्य समूहों के साथ रखने एवं खाने-पीने पर प्रतिबंध पाए जाते हैं। इसमें केवल अपने वर्ग के सदस्यों के साथ संपर्कों को प्राथमिकता दी जाती है।
  7. आर्थिक आधार-वर्ग निर्माण में आर्थिक आधार को ही प्रधानता दी जाती है। विशेषकर माक्र्स ने वर्ग निर्माण में आर्थिक आधार को प्रधानता दी है। सामान्यतः समाज तीन प्रमुख वर्गों में विभक्त होता है—
    1. उच्च वर्ग,
    2. मध्यम वर्ग तथा
    3. निम्न वर्ग। इन वर्गों को पुनः

      निम्नलिखित तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
      UP Board Solutions for Class 11 Sociology Understanding Society Chapter 1 Social Structure, Stratification and Social Processes in Society 4
  8. सामान्य जीवन-यद्यपि प्रत्येक वर्ग के सदस्य को किसी भी प्रकार के जीवन-यापन की स्वतंत्रता होती है। फिर भी, वर्ग के सदस्यों से यह आशा की जाती है कि जिस प्रकार का वर्ग हो उसकी के अनुरूप सदस्य जीवन-यापन करें। उच्च,मध्यम एवं निम्न, तीनों वर्गों में से प्रत्येक का एक विशिष्ट जीवन प्रतिमान होता है और उससे संबंधित सदस्य उसे अपनाते हैं। इतना ही नहीं, एक वर्ग के सदस्यों के जीवन अवसरों में भी समानता पायी जाती है।
  9. सामाजिक प्रस्थिति का निर्धारण–वर्ग सामाजिक प्रस्थिति का निर्धारण करता है। व्यक्ति जिस वर्ग का सदस्य होता है उसी के अनुरूप समाज में उसकी प्रस्थिति निर्धारित हो जाती है। पंतु यह प्रस्थिति स्थायी नहीं होती है, क्योंकि मुक्त व्यवस्था होने के कारण स्वयं वर्ग की सदस्यता व्यक्ति की योग्यता के आधार पर परिवर्तित हो सकती है।

प्रश्न 8.
जाति किसे कहते हैं? इसकी प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
या
जाति को परिभाषित कीजिए तथा वर्ग से इसका अंतर बताइए।
या
जाति से आप समझते हैं? इसे बंद वर्ग क्यों कहा जाता है? विवेचना कीजिए।
उत्तर
भारतीय समाज में सामाजिक स्तरीकरण की एक अनुपम व्यवस्था पायी जाती है जिसे जाति प्रथा कहते हैं। जाति की सदस्यता व्यक्ति को जन्म से ही मिल जाती है तथा वह संपूर्ण जीवन उसी का सदस्य बना रहता है अर्थात् जाति की सदस्यता को किसी भी कार्य से बदला नहीं जा सकता। इसीलिए इसे सामाजिक स्तरीकरण की बंद व्यवस्था भी कहा जाता है। जातियों की सामाजिक स्थिति में काफी अंतर पाया जाता है अर्थात् इनमें संस्तरण पाया जाता है।

जाति का अर्थ एवं परिभाषाएँ

समाज में व्यक्ति की स्थिति उसके जन्म लेने के स्थान व समुह से निर्धारित होती है। जाति भी व्यक्तियों का एक समूह है। जाति कुछ विशिष्ट सांस्कृतिक प्रतिमानों को मानने वाला वह समूह है जिसके सदस्यों में रक्त शुद्धि होने का विश्वास किया जाता है, जिसकी सदस्यता व्यक्ति जन्म से ही प्राप्त कर लेता है। और जन्म भर उस सदस्यता का त्याग नहीं करता है। इस प्रकार का समूह सामान्य संस्कृति का अनुसरण करता है। इस समूह के सदस्य अन्य किसी समूह के सदस्य नहीं होते हैं और न किसी बाहर के समूह के सदस्य इस समूह के सदस्य हो सकते हैं। इस प्रकार जाति एक बंद वर्ग है।

‘जाति’ शब्द अंग्रेजी के ‘कास्ट’ (Caste) शब्द का हिंदी अनुवाद है जो पुर्तगाली भाषा के ‘कास्टा’ (casta) शब्द से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘नस्ल’, ‘प्रजाति’ या ‘भेद’। इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1965 में गार्सिया दी ओरटा (Garcia de Orta) ने किया था। विद्वानों ने जाति की परिभाषा भिन्न-भिन्न आधारों पर की है। प्रमुख विद्वानों द्वारा प्रस्तुत परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-

चार्ल्स कूल (Charles Cooley) के अनुसार-जब एक वर्ग आनुवंशिक होता है तो हम उसे जाति कहते हैं।”

हॉबेल (Hoebel) के अनुसार-“अंतर्विवाह तथा आनुवंशिकता द्वारा थोपे हुए पदों को जन्म देना ही जाति व्यवस्था है।”

मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार-“जब सामाजिक पद पूर्णत: निश्चित हो, जो जन्म से ही मनुष्य के भाग्य को निश्चित कर दे, जीवन-पर्यंत उसके परिवर्तन की कोई आशा न हो, तब वह जन वर्ग जाति का रूप धारण कर लेते हैं।”

केतकर (Ketkar) के अनुसार-“जाति की सदस्यता उन्हीं व्यक्तियों तक सीमित होती है जो उसी जाति में जन्म लेते हैं तथा एक कठोर सामाजिक नियम अपनी जाति के बाहर विवाह करने से रोकता है।”

दत्त (Dutta) के अनुसार-“एक जाति के सदस्य जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकते हैं। …….. अनेक जातियों में कुछ निश्चित व्यवसाय हैं। …………. मनुष्य की जाति का निर्णय जन्म से होता है।”

ऊपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि जाति व्यक्तियों का एक अंतर्विवाही समूह है जिसका एक सामान्य नाम होता है, एक परंपरागत व्यवसाय होता है, जिसके सदस्य एक ही स्रोत से अपनी उत्पत्ति का दावा करते हैं तथा काफी सीमा तक सजातीयता का प्रदर्शन करते हैं।

जाति की प्रमुख विशेषताएँ

जाति के प्रमुख लक्षणों या विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है-

1. भारतीय समाज का खंडात्मक विभाजन-जाति व्यवस्था से भारतीय समाज खंडों में विभाजित हो गया है और यह विभाजन सूक्ष्म रूप में हुआ है। प्रत्येक खंड के सदस्यों की स्थिति तथा भूमिका सुस्पष्ट व सुनिश्चित रूप से परिभाषित हुई है। घुरिये ने इसे सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता माना है। उनके शब्दों में, “इसका तात्पर्य यह है कि जाति व्यवस्था द्वारा बँधे समाज में हमारी भावना भी सीमित होती है, सामुदायिक भावना संपूर्ण मनुष्य समाज के प्रति न होकर केवल जाति के सदस्यों तक सीमित होती है तथा जातिगत आधार पर सदस्यों को प्राथमिकता दी जाती है। इस प्रकार, यह विभाजन एक नैतिक नियम है और प्रत्येक सदस्य इसके प्रति सचेत होता है। यह उन्हें अपने कर्तव्यों का ज्ञान कराता है जिसके आधार पर वे अपने पद और कार्यों में दृढ़ होते हैं। साधारणतः कर्तव्य-पालन न करने पर जाति से निष्कासन की व्यवस्था होती है। या आर्थिक दंड दिया जाता है।

2. ऊँच-नीच की परंपरा अथवा संस्तरण-जाति व्यवस्था में ऊँच-नीच की परंपरा मान्य होती है जिसमें ब्राह्मणों का स्थान सर्वोच्च होता है और निम्न स्तर शूद्र लोगों का होता है। क्षत्रिय व वैश्य लोगों की स्थिति क्रमशः इसके मध्य की होती है। पुन: ये चार वर्ण अनेक जातियों एवं उपजातियों में विभक्त हो गए हैं। हम की भावना सीमित होने से सदस्य केवल अपने वर्ण या जाति के लोगों को ही महत्त्व देते हैं और उनमें श्रेष्ठता की भावना भी जन्म लेती है। परंतु कुछ ऐसी भी जातियाँ हैं जिनमें सामाजिक दूरी इतनी कम है कि उनमें ऊँच-नीच के आधार पर जो सामाजिक संरचना स्पष्ट हुई है वही संस्तरण परंपरा है। जातीय संस्तरण रक्त की पवित्रता, पूर्वजों के व्यवसाय के प्रति आस्था व अन्यों के साथ भोजन व पानी के प्रतिबंध आदि विचारों पर आधारित होती है।

3. जन्म से जाति का निर्धारण-जाति व्यवस्था का निश्चय जन्म के साथ ही हो जाता है। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसी जाति समूह में वह जीवनपर्यंत रहता है। इस निश्चय, को न तो धनाढ्यता बदल सकती है, न निर्धनता, न सफलता और न असफलता ही। जाति के ही वंशधर उस जाति के सदस्य माने जाते हैं। जाति से बहिष्कार द्वारा ही व्यक्ति निम्न जाति में जाता है,अन्य किसी भी कारक द्वारा व्यक्ति अपनी जाति की सदस्यता परिवर्तित नहीं कर सकता है। इस संदर्भ में ए०आर० वाडिया ने कहा है-“हिन्दू जन्म से ही हिंदू हो सकता है। रूढ़िवादी जाति व्यवस्था के अंतर्गत कोई भी व्यक्ति परिवर्तन के द्वारा हिंदू नहीं हो सकता है।”

4. भोजन और सामाजिक सहवास संबंधी निषेध-भारतीय जाति व्यवस्था प्रत्येक जाति के सदस्यों के लिए अपने समूह के बाहर भोजन और सामाजिक सहवास पर नियंत्रण रखती है। इन नियमों का बड़ी कठोरता से पालन किया जाता है। नगरीकरण और आवागमन के साधनों के विकास के कारण अब यह नियंत्रण नगरों एवं औद्योगिक क्षेत्रों में ढीला होता जा रहा है, पर गाँवों में यह नियंत्रण आज भी काफी मात्रा में देखा जा सकता है। प्रत्येक जाति में ऐसे नियम बड़े सूक्ष्म रूप से बनाए गए हैं जो यह निर्धारित करते हैं कि किसी जाति के सदस्य को (मुख्यतः जो ऊँची जातियों के हैं) कहाँ कच्चा भोजन करना है, कहाँ पक्का तथा कहाँ केवल जल ग्रहण करना है और कहाँ जल पीना भी निषिद्ध है। आधुनिक युग में यातायात के साधनों व शिक्षा में विकास के कारण और शासकीय प्रयत्नों आदि के कारण ये निषेध कमजोर होते जा रहे हैं। फिर भी, ग्रामीण भारत में आज की परिस्थिति में काफी हद तक ये सीमाएँ या निषेध प्रचलित हैं।

5. अंतर्विवाह–सभी जातियाँ अंतर्विवाही होती हैं अर्थात् जाति के सदस्यों को अपनी ही जाति में विवाह करना पड़ता है। यह निषेध आज बहुत जगहों में जाति तक नहीं वरन् उपजाति तक सीमित हो गया है। जाति व्यवस्था के अनुसार अंतर्जातीय विवाह अस्वीकृत हैं। वेस्टरमार्क (Westermarck) ने जाति व्यवस्था की इस विशेषता को इसका सार-तत्त्व माना है। घुरिये (Ghurye) का भी यही मत है कि जाति व्यवस्था का अंतर्विवाही सिद्धांत इतना कठोर है कि समाजशास्त्री इसे जाति व्यवस्था का प्रमुख तत्त्व मानते हैं। व्यावहारिक रूप में यह अंतर्विवाह भी भौगोलिक सीमा के अंतर्गत बँधा हुआ है। एक जाति की कई उपजातियाँ होती हैं और प्रायः एक ही प्रांत में रहने वाली उपजातियों में विवाह होते हैं।

6. परंपरागत पेशों का चुनाव-मुख्यतः सभी जातियों के कुछ निश्चित पेशे होते हैं और जाति के सदस्य अपने उन्हीं पैतृक पेशों को स्वीकार करते हैं। उन्हें छोड़ना उचित नहीं समझा जाता। जाति का परंपरागत पेशा; चाहे वह व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति करे या न करे, उसे मानसिक संतोष हो या न हो; व्यक्ति को ही अपनाना पड़ता है। साधारणतः लोग अपने पैतृक पेशे को ही अपनाना उचित समझते रहे हैं। पेशों का भी निर्धारण ऊँच-नीच के आधार पर होता रहा है। यदि उच्च जाति को कोई व्यक्ति निम्न जाति के पेशों को अपमाता था तो उनका जातीय विरोध होता था। इसी प्रकार, निम्न जाति का सदस्य जब उच्च जाति के पेशों को अपनाता था तो उसका भी विरोध होता था। परंतु आजकल इन नियमों में भी शिथिलता आ गई है।

7. धार्मिक और सामाजिक निर्योग्यताएँ एवं विशेषाधिकार—जिस प्रकार जाति व्यवस्था में संस्तरण है ठीक उसी प्रकार इसमें धर्म और समाज संबंधी निर्योग्यताएँ भी हैं। प्रत्येक मानव निवास की जगह में, मुख्यतः गाँवों में, यदि देखा जाए तो अछूतों और अन्य निम्न जातियों की निवास व्यवस्था गाँव के छोर पर रहती थी। उनके धार्मिक और नागरिक अधिकार भी सीमित होते थे। इसके विपरीत, ऊँची जातियों को सभी अधिकार प्राप्त रहे हैं तथा धर्म की पूरी छूट थी। साधारणत: शारीरिक श्रम करने वाली जातियाँ निम्न समझी जाती रही हैं। त्रावनकोर के वैकर्म (Vaikam) गाँव की विशिष्ट गलियों में अछूत जातियों ने प्रवेश करने की स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए आंदोलन किया था। परंपरागत रूप से दक्षिण भारत में तो ये निर्योग्यताएँ अपनी चरम सीमा पर रही हैं। वहाँ अछूतों को कुछ विशेष सड़कों पर चलने की मनाही थी। इतिहास इस बात का उदाहरण है कि पेशवाओं और मराठों ने पूना शहर के दरवाजों के भीतर मसार और मूंग जाति के लोगों का शाम तीन बजे से सुबह नौ बजे तक प्रवेश वर्जित कर दिया था। इसके अतिरिक्त, दक्षिण भारत में अछूत सवर्णो के ऊपर अपनी छाया नहीं डाल सकते थे तथा उनके सामने नहीं जा सकते थे। ब्लेंट (Blunt) ने कहा कि गुजरात में दलित जातियाँ अपने विशिष्ट चिह्न के रूप में सींग पहना करती थीं।

8. आर्थिक असमानता-जाति व्यवस्था में आर्थिक असमानता का भी समावेश है। जाति व्यवस्था के निर्माण के साथ-साथ यह भावना भी चली कि जो निम्न है उसे कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। निम्न जाति के कार्य, चाहे वह जीवन-यापन के लिए कितने ही उपयोगी क्यों न हों, मूल्यों की दृष्टि से हीन समझे जाते रहे हैं। इस प्रकार उनकी आय, संपत्ति और सांस्कृतिक उपलब्धियों भी बहुत कम रही हैं। उनकी शिक्षा-दीक्षा आदि का सदा से अभाव रहा है। परंपरागत रूप से भारतीय जाति व्यवस्था की यह विशेषता रही है कि सामान्यतः उच्च जातियों की आर्थिक स्थिति भी उच्च रही है और निम्न जातियों की आर्थिक स्थिति भी निम्न रही है।

जाति एवं वर्ग में अंतर

जाति एवं वर्ग में निम्नलिखित अंतर पाए जाते हैं-

  1. स्थायत्वि में अंतर-वर्ग में सामाजिक बंधन स्थायी व स्थिर नहीं रहते हैं। कोई भी सदस्य अपनी योग्यता से वर्ग की सदस्यता परिवर्तित कर सकता है। जाति में सामाजिक बंधन अपेक्षाकृत स्थायी व स्थिर रहते हैं। जाति की सदस्यता किसी भी आधार पर बदली नहीं जा सकती है।
  2. सामाजिक दूरी में अंतर-वर्ग में अपेक्षाकृत सामाजिक दूरी कम पायी जाती है। कम दूरी के कारण ही विभिन्न वर्गों में खान-पान इत्यादि पर कोई विशेष प्रतिबंध नहीं पाए जाते हैं। विभिन्न जातियों में, विशेष रूप से उच्च एवं निम्न जातियों में अपेक्षाकृत अधिक सामाजिक दूरी पायी जाती है। इस सामाजिक दूरी को बनाए रखने हेतु प्रत्येक जाति अपने सदस्यों पर अन्य जातियों के सदस्यों के साथ खान-पान, रहन-सहन इत्यादि के प्रतिबंध लगाती है।
  3. स्वतंत्रता की मात्रा में अंतर-वर्ग में व्यक्ति को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता रहती है। इसीलिए वर्ग को ‘खुली व्यवस्था’ भी कहा जाता है। जाति व्यवस्था में व्यक्ति पर खान-पान, विवाह आदि से संबंधित अपेक्षाकृत कहीं अधिक बंधन होते हैं। जाति इन्हीं बंधनों के कारण ‘बंद व्यवस्था’ कही जाती है।
  4.  प्रकृति में अंतर-वर्ग में मुक्त संस्तरण होता है अर्थात् व्यक्ति वर्ग परिवर्तन कर सकता है। जाति में बंद संस्तरण होता है अर्थात् जाति का परिवर्तन नहीं किया जाता है।
  5. सदस्यता में अंतर-वर्ग की सदस्यता व्यक्तिगत योग्यता, जीवन के स्तर एवं हैसियत आदि पर आधारित होती है। जाति की सदस्यता जन्म से ही निश्चित हो जाती है।
  6. चेतना में अंतर-वर्ग के सदस्यों में वर्ग चेतना रहती है। जाति के सदस्यों में यद्यपि अपनी जाति के प्रति चेतना तो पायी जाती है परंतु किसी. प्रतीक के प्रति चेतना की आवश्यक
  7.  राजनीतिक अंतर-वर्ग की व्यवस्था प्रजातंत्र में अपेक्षाकृत अधिक, बाधक नहीं है। जाति व्यवस्था प्रजातंत्र में अपेक्षाकृत बाधक है। जाति असमानता पर आधारित है, जबकि प्रजातंत्र समानता के मूल्यों पर आधारित व्यवस्था है।
  8. व्यावसायिक आधार पर अंतर-वर्गों में परंपरागत व्यवसाय पर जोर नहीं दिया जाता और न ही विभिन्न वर्ग परंपरागत व्यवसायों से संबंधित हैं। इसके विपरीत, जाति में परंपरागत व्यवसाय पर विशेष जोर दिया जाता है। परंपरागत रूप से प्रत्येक जाति का एक निश्चित व्यवसाय होता था। यह व्यवसाय पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता रहता था और इसे बदलना सरल नहीं था।
  9. संस्तरण में अंतर-वर्ग में मुक्त संस्तरण में होता है अर्थात् व्यक्ति अपना वर्ग परिवर्तित करे सकता है। इसके विपरीत, जाति एक बंद संस्तरण है जिसमें किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। जो व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है, जीवन भर उसे उसी जाति का सदस्य बनकर रहना पड़ता है।

निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि वर्ग पश्चिमी समाज में पायी जाने वाली ऊँच-नीच की व्यवस्था है जिसमें अपेक्षाकृत खुलोपन पाया जाता है। इसीलिए यह कहा जाता है कि जाति एक बंद व्यवस्था है, जबकि वर्ग एक खुली व्यवस्था है। जाति एक बंद व्यवस्था इसलिए है। क्योंकि इसकी सदस्यता बदली नहीं जा सकती है। वर्ग इसलिए खुली व्यवस्था है क्योंकि इसकी सदस्यता बदली जा सकती है। यदि वर्ग में भी जाति जैसे बंधन लग जाएँ तो यह एक जाति बन जाएगा। इसलिए मजूमदार का यह कहना है कि “जाति एक बंद वर्ग है” पूर्णतया सही है।

प्रश्न 9.
प्रजाति किसे कहते हैं? प्रजाति की विशेषताएँ बताइए।
या
प्रजाति किस प्रकार सामाजिक स्तरीकरण को एक स्वरूप है? समझाइए।
या
भारत को प्रजातियों का अजायबघर क्यों कहा जाता है? विवचेना कीजिए।
उत्तर
प्रजाति एक जैविक अवधारणा है। यह मानवों के उस समूह को प्रकट करती है जिसमें शारीरिक व मानसिक लक्षण समान होते हैं तथा ये लक्षण उन्हें पैतृकता के आधार पर प्राप्त होते हैं। शरीर के रंग, खोपड़ी और नासिका की बनावट व अन्य अंगों की बनावट के आधार पर विभिन्न प्रजाति समूहों को देखते ही पहचाना जा सकता है। प्रजातीय दृष्टि से भी भारतीय समाज अनेक वर्गों में विभक्त हो गया है। भारतवर्ष में संसार की सभी प्रमुख प्रजातियों की विशेषताओं वाले लोग पाए जाते हैं। आदिकाल से ही भारत विभिन्न प्रजातियों का निवास स्थल रही है। तभी से सभी का अपना अलग-अलग अस्तित्व भी रही है। शारीरिक दृष्टि से विभिन्न प्रजातियाँ परस्पर एक-दूसरे से अलग-अलग रही हैं, परंतु सभी लोग एक-दूसरे का अस्तित्व मानते रहे हैं और अमेरिका आदि की तरह यहाँ कभी भी रंगभेद पर आधारित प्रजातीय संघर्ष देखने को नहीं मिलता है। यद्यपि यह सच है कि आज प्रजातिवाद की समस्या भारत के सामने नहीं है परंतु प्राचीन समय से लेकर आज तक मनुष्य का रंग अर्थात् वर्ण एक सामाजिक महत्त्व का विषय रहा है। वैदिक काल में द्रास, दस्यु, असुर, राक्षस सभी काले वर्ण के थे जबकि देवता, आर्य, श्रेष्ठजन सभी गौर वर्ण के थे। आज भी वैवाहिके विज्ञापनों में गौरवर्ण वधू की माँग की जाती है। गोरा रंग सौंदर्य, शांति एवं पवित्रता का प्रतीक है।

प्रजाति का अर्थ एवं परिभाषाएँ

प्रजाति एक जैविक अवधारणा है। ‘प्रजाति’ शब्द का प्रयोग सामान्यत: उस वर्ग के लिए किया जाता है। जिसके अंदर सामान्य गुण हैं अथवा कुछ गुणों द्वारा शारीरिक लक्षणों में समानता पायी जाती है। प्रमुख विद्वानों ने प्रजाति की परिभाषा निम्न प्रकार से की है–

हॉबेल (Hoeble) के अनुसार-“प्रजाति एक प्राणिशास्त्रीय अवधारणा है। यह वह समूह है जो कि शारीरिक विशेषताओं का विशिष्ट योग धारण करता है।”

रेमंड फिर्थ (Raymond Firth) के अनुसार-“प्रजाति व्यक्तियों का वह समूह है जिसके कुछ, वंशानुक्रमण द्वारा निर्धारित सामान्य लक्षण होते हैं।”

क्रोबर (Kroeber) के अनुसार-“प्रजाति एक प्रमाणित प्राणिशास्त्रीय अवधारणा है। यह वह समूह है जो कि वंशानुक्रमण, नस्ल या प्रजातीय गुणों या उपजातियों के द्वारा जुड़ा है।”

बेनेडिक्ट (Benedict) के अनुसार–“प्रजाति पैतृकता द्वारा प्राप्त लक्षणों पर आधारित एक वर्गीकरण है।” उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि प्रजाति व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जिसे आनुवंशिक शारीरिक लक्षणों के आधार पर पहचाना जा सकता है।

प्रजाति की विशेषताएँ

विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर प्रजाति की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं-

  1. प्रजाति का अर्थ जन-समूह से होता है। अतः इसमें पशुओं की नस्लों को सम्मिलित नहीं किया जाता है।
  2. इस मानव समूह से तात्पर्य कुछ व्यक्तियों से नहीं है वरन् प्रजाति में मनुष्यों का वृहत् संख्या में होना अनिवार्य है।
  3. इस मानव समूह में एक समान शारीरिक लक्षणों का होना अनिवार्य है। ये लक्षण वंशानुक्रमण के द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होते रहते हैं। शारीरिक लक्षणों के आधार पर इन्हें दूसरी प्रजातियों से पृथक् किया जाता है।
  4. प्रजातीय विशेषताएँ प्रजातीय शुद्धता की स्थिति में अपेक्षाकृत स्थायी होती हैं अर्थात् भौगोलिक पर्यावरण के बदलने से भी किसी प्रजाति के मूल शारीरिक लक्षण नहीं बदलते हैं।

प्रजाति के तत्त्व

प्रजाति कुछ विशेष तत्त्वों से मिलकर बनती है। यह विशेष तत्त्व उसके अस्तित्व को दूसरी प्रजातियों से भिन्न करते हैं। इन विशेष तत्त्वों के आधार पर ही प्रजाति का वर्गीकरण होता है। सामान्य रूप से प्रजातियों में तीन प्रकार के तत्त्व पाए जाते हैं-

  1. अंतर्नस्ल के तत्त्व-एक प्रजाति के लोग दूसरी प्रजाति के लोगों से विवाह नहीं करते हैं। इसका कारण पहले काफी सीमा तक भौगोलिक स्थिति रहा है। भौगोलिक स्थितियों के कारण एक प्रजाति के लोग दूसरों से कम मिल पाते हैं। दूसरे प्रत्येक प्रजाति स्थायित्व रखने का प्रयत्न करती है। गतिशीलता के अभाव में अंतर्नस्ल का तत्त्व (Elements of inbreeding) उग्र रूप से पाया जाता है; जैसे–टुंड्रा प्रदेश के लैप, सेमीयड और एस्कीमी मानव। इनमें अंतर्रजातीय विवाह होता है। यही कारण है कि इनमें अंतर्नस्ल के तत्त्व उग्र रूप से मिलते हैं। इस प्रकार के विवाह से रक्त की शुद्धता, संस्कृति की रक्षा तथा समान प्रजातीय लक्षणों को स्थायित्व होता है। ऊँची प्रजातियाँ भी अपनी रक्त की पवित्रता को बनाए रखने के लिए अंतर्रजातीय विवाह करती हैं।
  2. विशेष शारीरिक लक्षणों के तत्त्व-प्रजातियों का वर्गीकरण शारीरिक लक्षणों के आधार पर भी किया जाता है। प्रत्येक प्रजाति में कुछ विशेष शारीरिक लक्षण (Distinctive physical traits) पाए जाते हैं; जैसे-शरीर का रंग, बाल, आँख, खोपड़ी, नासिका, कद, जबड़ों की बनावट आदि। वर्तमान समय में यातायात के साधनों में वृद्धि होने से शारीरिक लक्षण धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं।
  3. वंशानुक्रमण के लक्षणों के तत्त्व-प्रजाति का तीसरा तत्त्व वंशानुक्रमण के लक्षणों (Inheritance of traits) से संबंधित है। मेंडल के सिद्धांत से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सहवास से रक्त में उन्हीं लक्षणों का अस्तित्व होता है जो पैतृक होते हैं या वंश परंपरा से चले आ रहे होते हैं। शारीरिक लक्षण एक श्रृंखला के समान होते हैं जो वंश परंपरा के कारण अनेक पीढ़ियों तक चलते हैं, जैसे कि नीग्रो का पुत्र नीग्रो ही होता है। वह कभी भी श्वेत प्रजाति के लक्षणों से युक्त नहीं होता है। प्रजाति की पवित्रता और संस्कृति की रक्षा पैतृक गुणों के द्वारा ही। होती है।

भारत में प्रजाति विविधता

भारत एक प्राचीन देश है। जब आर्य प्रजाति के लोग भारत में आए तो द्रविड़ प्रजाति के लोग पहले से ही अनेक आधारों पर ऊँच-नीच की श्रेणियों में बँटे हुए थे। समय-समय पर भारत में अनेक प्रजातियों के लोग आए और यहीं पर बस गए। इन सभी प्रजातियों के पारस्परिक मिलन व मिश्रण से अनेक नवीन प्रजातियाँ विकसित हुईं तथा साथ ही इस मिश्रण के कारण विशुद्ध प्रजातीय लक्षणों के स्थान पर मिश्रित लक्षण महत्त्वपूर्ण होते गए। आज भारत में विश्व की सभी प्रमुख प्रजातियों के लोग निवास करते हैं तथा इसीलिए उचित ही भारतवर्ष को प्रजातियों को अजायबघर कहा गया है। भारत में निवास करने वाली प्रमुख प्रजातियाँ निम्नांकित हैं-

  1. द्रविडयन-द्रविड़ या द्रविडयन (Dravidians) भारत की अत्यंत प्राचीन प्रजाति है। इस प्रजाति के लोग गंगा नदी के निचले हिस्सों में पाए जाते हैं। चेन्नई, हैदराबाद, मध्य प्रदेश और नागपुर में इस प्रजाति के लोग अधिक पाए जाते हैं। ये लोग कद में छोटे, बाल सामान्य व लहरदार, रंग काला, भारी चौड़ी नाक, काली तथा गहरी आँखें और लंबे सिर वाले होते हैं।
  2. इंडो-आर्यन-पंजाब, राजस्थान, कश्मीर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इंडो-आर्यन . (Indo-Aryans) प्रजाति के लोग अधिकतर देखे जा सकते हैं। इनके सदस्य लंबे कद, गोरे और गेहुँए रंग, लंबे सिर, पतली और लंबी नाक तथा काली आँखों वाले होते हैं। इन लोगों के शरीर पर काले और घने बाल भी पाए जाते हैं।
  3. मंगोलॉयड-मंगोलॉयड (Mangoloid) प्रजाति के लोग संपूर्ण भारत में काफी अधिक क्षेत्र में फैले हुए हैं। हिमालय की तलहटी, हिमालय प्रदेश, बिहार और असम के उत्तरी सीमा प्रांत में ये लोग निवास करते हैं। ये लोग चौड़े सिर, औसत कद, कुछ पीला रंग, गोल चेहरा, शरीर पर बाल, भारी और अधखुली आँखें आदि शारीरिक विशेषताएँ लिये होते हैं। इन लोगों की नाक चपटी होती है।
  4. आर्यों-द्रविडयन-आय-द्रविडियन (Aryo-Dravidians) प्रजाति के लोग आर्य और द्रविड़ प्रजाति के मिश्रण का प्रतिफल हैं तथा राजस्थान, बिहार, दक्षिण-पश्चिम, असम, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश व पंजाब के क्षेत्रों में ये लोग फैले हुए हैं। इन लोगों का कद मध्यम होता है। गेहुंआ रंग अथवा साँवले रंग के ये लोग लंबी नाक और काले बालों वाले होते हैं।
  5.  मंगोलो-द्रविडयन-मंगोलो-द्रविडयन (Mangolo-Dravidians) प्रजाति के लोग चौड़े सिर वाले होते हैं तथा सिर पीछे से कुछ चपटा होता है। इन लोगों का प्राय: काला रंग होता है। इनका कद मध्यम होता है, चेहरे पर घने बाल होते हैं तथा ये लोग पश्चिम बंगाल और ओडिशा में अधिक पाए जाते हैं। विद्वानों का विचार है कि ये लोग मंगोल और द्रविड़ प्रजातियों के मिश्रण का परिणाम हैं।
  6.  सीथो-द्रविडयन-सीथो-द्रविडियन (Scytho-Dravidians) प्रजाति के लोगों के संबंध में विद्वानों का विचार है कि ये लोग मध्य एशिया से भारत में आने वाली सिथियन प्रजाति और भारत के मूल निवासी द्रविड़ों की मिश्रित शाखा के हैं। कुर्ग, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की पहाड़ियों में ये लोग अधिक फैले हुए हैं। प्राय: महाराष्ट्र के ब्राह्मण इस प्रजाति के प्रमुख प्रतिनिधि समझे जाते हैं। इनका रंग गोरा, सिर चौड़ा, मध्यम कद, नाक चौड़ी व सुंदर होती है। शरीर पर कम बाल होना इस प्रजाति के लोगों की विशेष शारीरिक विशेषता है।
  7. चौड़े सिर वाली प्रजाति–चौड़े सिरवाली (Brachycephalic) प्रजाति के ये लोग संपूर्ण । भारत में फैले हुए हैं। इनकी तीन उपशाखाएँ हैं-
    •  अल्पाइन (Alpine),
    •  डिनारिक (Dinaric) तथा
    •  आमनॉयड (Armonoid)।

अल्पाइन प्रजाति के लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में पाए जाते हैं। इनका रंग पीलापन लिए हुए भूरा होता है, कंधे चौड़े और नाक छोटी होती है। ये मध्यम कद के होते हैं। डिनारिक प्रजाति के लोग प्राय: आल्पस पर्वतमाला में रहते हैं। वे ढलवाँ माथे वाले होते हैं। इनकी उठी हुई ठोड़ी होती है, होंठ पतले होते हैं, गर्दन मोटी होती है, रंग काला होता है और सिर का पिछला भाग कुछ चपटापन लिए हुए होता है। पश्चिम बंगाल, ओडिशा तथा दक्षिण भारत में ये लोग विशेष रूप से फैले हुए हैं। आर्मोनॉयड प्रजाति के लोग लगभग मंगोली-द्रविड़ियन प्रजाति की तरह होते हैं। मुंबई में ये लोग अधिकतर पाए जाते हैं।

निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में विभिन्न प्रकार की प्रजातियाँ भिन्न-भिन्न प्रदेशों में रहती हैं। प्रत्येक प्रजाति की संस्कृति दूसरी प्रजाति की संस्कृति से भिन्नता लिए हुए है। कुछ प्रजातियाँ एक-दूसरे के संसर्ग से बनी हैं। सभी भारतीय प्रजातियाँ सदियों से एक-दूसरे से मिलती रही हैं, परस्पर अपनी-अपनी संस्कृति लेती और देती रही हैं। इस प्रकार, किसी भी प्रजाति के संबंध में निश्चितता के साथ यह नहीं कहा जा सकता है कि कौन-सी प्रजाति शुद्ध रह गई और कौन-सी प्रजाति अशुद्ध। हाँ, इतना अवश्य निश्चितता के साथ कहा जा सकता है कि भारतभूमि आदिकाल से विभिन्न प्रजातियों के अजायबघर या संग्रहालय के रूप में विद्यमान है।

प्रश्न 10.
सामाजिक स्तरीकरण में लिंग की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
या
लैगिक असमता के प्रमुख प्रकारों की विवेचना कीजिए।
या
भारत में लैगिक असमता के प्रमुख पहलू बनाइए।
उत्तर
वर्तमान समय में लिंग असमता (लैंगिक असमता) संबंधी अध्ययन किसी एक राष्ट्र की सीमाओं के अंतर्गत उत्पन्न होने वाली समस्याओं में सम्मिलित विषय नहीं रहा है, वरन् यह एक अंतर्राष्ट्रीय विषय हो गया है क्योंकि आधुनिक समय में विश्व का आकार लघु होता जा रहा है। वैश्वीकरण (Globalization) एवं उदारीकरण (Liberalization) की प्रक्रियाओं ने सभी राष्ट्रों की समस्याओं को एकबद्ध कर दिया है; अत: समाजशास्त्र जैसे विषय में लिंग संबंधी असमता एवं समस्याओं का अध्ययन और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। यह विषय इस तथ्य पर बल देता है कि शारीरिक संरचना के आधार पर पुरुष तथा स्त्री के मध्य विद्यमान प्राकृतिक असमानताओं को तो स्वीकार किया जा सकता है, परंतु सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक आधार पर पुरुष तथा स्त्री में भेदभाव करने का कोई औचित्य नहीं है। ऐसा करना मानवता तथा मानव अधिकारों की धारणा के नितांत विपरीत है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार पूरे विश्व में स्त्रियाँ यद्यपि विश्व जनसंख्या के आधे भाग का प्रतिनिधित्व करती हैं तथा संपूर्ण कार्य के दो-तिहाई भाग को पूरा करती हैं, परंतु इनके पास विश्व की संपत्ति का केवल दसवाँ भाग ही है। वर्तमान समय में विश्व बैंक के द्वारा प्रतिपादित सद्-शासन (Good Governances) के सिद्धांत का संपूर्ण विश्व में जोरदार प्रचार तथा प्रसार किया जा रहा है। कानून का शासन लिंग पर आधारित भेदभाव को स्वीकार नहीं करता है। यह कानून के समक्ष सभी नागरिकों की समानता के विचार का समर्थन करता है, चाहे वे स्त्री हो या पुरुष।

लैगिक असमता का अर्थ

पुल्लिग तथा स्त्रीलिंग एक जैवकीय तथ्य है। यदि इस तथ्य के साथ किसी प्रकार की असमानता जोड़ दी जाती है तो यह एक सामाजिक तथ्य बन जाता है जिसे लैंगिक असमता’ कहा जाता है। लिंग (Gender) शब्द का प्रयोग पुरुषों तथा स्त्रियों के गुणों के कुलक तथा समाज द्वारा उनसे अपेक्षित व्यवहारों के लए किया जाता है। किसी भी व्यक्ति की सामाजिक पहचान इन्हीं अपेक्षाओं से होती है। ये अपेक्षाएँ इस विचार पर आधारित हैं कि कुछ गुण, व्यवहार, लक्षण, आवश्यकताएँ तथा भूमिकाएँ पुरुषों के लिए प्राकृतिक हैं, जबकि कुछ अन्य गुण एवं भूमिकाएँ स्त्रियों के लिए प्राकृतिक हैं। यह बात ध्यान देने योग्य है कि लिंग केवल जैवकीय तथ्य नहीं है क्योंकि लड़का या लड़की जन्म के समय यह नहीं जानते हैं कि उन्हें क्या बोलना है, किस प्रकार का व्यवहार करना है, क्या सोचना है अथवा किस प्रकार से प्रतिक्रिया करनी है। प्रत्येक समाज में पुल्लिग तथा स्त्रीलिंग के रूप में उनकी लैंगिक पहचान तथा सामाजिक भूमिकाएँ समाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से निश्चित की जाती हैं। इसी प्रक्रिया द्वारा उन्हें उन सांस्कृतिक अपेक्षाओं का ज्ञान दिया जाता है जिनके अनुसार उन्हें व्यवहार करना है। ये सामाजिक भूमिकाएँ एवं अपेक्षाएँ एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में अथवा एक ही समाज़ के विभिन्न युगों में भिन्न-भिन्न होती हैं। पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचनाएँ एवं संस्थाएँ उन मूल्य व्यवस्थाओं एवं सांस्कृतिक नियमों द्वारा सुदृढ़ होती हैं जो स्त्रियों की हीन भावना की धारणा को प्रचारित करती हैं। प्रत्येक संस्कृति में अनेक प्रथाओं के ऐसे उदाहरण विद्यमान हैं जो स्त्रियों को दिए जाने वाले निम्न मूल्य स्थिति को परिलक्षित करते हैं। पितृसत्तात्मकता स्त्रियों को अनेक प्रकार से शक्तिहीन बना देती है। इनमें स्त्रियों के पुरुषों की तुलना में निम्न होने, उन्हें साधनों तक पहुँचने से रोकने तथा निर्णय लेने वाले पदों में सहभागिता को सीमित करने जैसी परिस्थितियाँ प्रमुख हैं। नियंत्रण के यह स्वरूप स्त्रियों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक प्रक्रियाओं से दूर रखने में सहायता प्रदान करते हैं। स्त्रियों की अधीनता, सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति (जैसे उनके स्वास्थ्य, आय एवं शिक्षा का स्तर) तथा उनके पद अथवा स्वायत्तता एवं अपने जीवन पर नियंत्रण के अंश के रूप में देखी जा सकती है। इस प्रकार, लिंग असमान वर्तमान समय में जीवन का सार्वभौमिक तत्त्व बन गया है। विश्व के अनेक समाजों में; विशेषकर विकासशील देशों में स्त्रियों के साथ समाज में प्रचलित विभिन्न कानूनों, रूढ़िगत नियमों के आधार पर विभेद किया जाता है तथा उनको पुरुषों के समान राजनीतिक तथा सामाजिक अधिकारों से वंचित रखा जाता है। स्त्री या फेमिनिस्ट विद्वानों के अनुसार लैंगिक असमता को स्त्री-पुरुष विभेद के सामाजिक संगठन अथवा स्त्री-पुरुष के मध्य असमान संबंधों की व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।

लैगिक असमता के प्रकार

प्रत्येक समाज में लैंगिक असमता अनेक रूपों में विद्यमान रहती है। अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त अमर्त्य सेन (Amartya Sen) के अनुसार, लैंगिक असमता विश्व के-जापान से जांबिया, यूक्रेन से संयुक्त राज्य अमेरिका–सभी देशों में पायी जाती है, परंतु पुरुषों एवं स्त्रियों में असमता अनेक रूपों में होती है। यह एक सजातीय प्रघटना न होकर अनेक अंतर्संबंधित समस्याओं से जुड़ी प्रघटना है। इनके अनुसार लैंगिक असमता को सामान्यत: निम्नलिखित सात रूपों में देखा जा सकता है-

  1. मृत्यु दर में असमता–विश्व के अनेक क्षेत्रों में स्त्रियों एवं पुरुषों में असमता का एक प्रमुख प्रकार सामान्यता स्त्रियों की उच्च मृत्यु दर में परिलक्षित होता है जिसके परिणामस्वरूप कुल जनसंख्या में पुरुषों की संख्या अधिक हो जाती है। मृत्यु असमती अत्यधिक मात्रा में उत्तरी अफ्रीका तथा एशिया (चीन एवं दक्षिण एशिया सहित) में देखी जा सकती है।
  2. प्रासूतिक असमता-गर्भ में ही बच्चे के लिंग को ज्ञात करने संबंधी आधुनिक तकनीकी की उपलब्धता ने लैंगिक असमता के इस रूप को जन्म दिया है। लिंग परीक्षण द्वारा यह पता लगाकर कि होने वाला शिशु लड़की है, गर्भपात करा दिया जाता है। अनेक देशों में, विशेष रूप से पूर्व एशिया, चीन एवं दक्षिण कोरिया, सिंगापुर तथा ताईवान के अतिरिक्त भारत एवं दक्षिण एशिया में भी यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। यह उच्च तकनीक पर आधारित असमता है।
  3. मौलिक सुविधा असमता–मौलिक सुविधाओं की दृष्टि से भी अनेक देशों में पुरुषों एवं स्त्रियों में असमता स्पष्टतया देखी जा सकती है। कुछ वर्ष पहले तक अफगानिस्तान में लड़कियों की शिक्षा पर पाबंदी थी। एशिया तथा अफ्रीका के अनेक देशों के साथ-साथ लैटिन अमेरिका में लड़कियों को लड़कों की तुलना में शिक्षा सुविधाएँ बहुत कम उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त अनेक अन्य मौलिक सुविधाओं के अभाव के कारण स्त्रियों को अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने के अवसर ही प्राप्त नहीं हो पाते हैं और न ही वे अनेक सामुदिायक कार्यक्रमों में सहभागिता कर सकती हैं।
  4. विशेष अवसर असमता-यूरोप तथा अमेरिका जैसे अत्यधिक विकसित एवं अमीर देशों के साथ-साथ अधिकांश अन्य देशों में उच्च शिक्षा तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण में लैंगिक पक्षपात स्पष्टतया देखा जा सकता है।
  5. व्यावसायिक असमता–व्यावसायिक असमता भी लगभग सभी समाजों में पायी जाती है। जापान जैसे देश में, जहाँ जनंसख्या को उच्च शिक्षा प्राप्त करने एवं अन्य सभी प्रकार की मौलिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं, वहाँ पर भी रोजगार एवं व्यवसाय प्राप्त करना स्त्रियों के लिए पुरुषों की तुलना में काफी कठिन कार्य माना जाता है।
  6. स्वामित्व असमता-अनेक समाजों में संपत्ति पर स्वामित्व भी पुरुषों एवं स्त्रियों में असमान रूप से वितरित है। गृह एवं भूमि संबंधी स्वामित्व में भी स्त्रियाँ पुरुषों की तुलना में काफी पिछड़ी हुई हैं। इसी के परिणामस्वरूप स्त्रियाँ वाणिज्यिक, आर्थिक तथा कुछ सामाजिक क्रियाओं से वंचित रह जाती हैं।
  7. घरेलू असमता–परिवार अथवा घर के अंदर ही लैंगिक संबंधी में अनेक प्रकार की मौलिक असमानताएँ पायी जाती हैं। घर की संपूर्ण देखरेख से लेकर बच्चों के पालन-पोषण का पूरा दायित्व महिलाओं का होता है। अधिकांश देशों में पुरुष इन कार्यों में स्त्रियों की किसी प्रकार की सहायता नहीं करते हैं। पुरुषों का कार्य घर से बाहर काम करना माना जाता है। यह एक ऐसा श्रम-विभाजन है जो स्त्रियों को पुरुषों के अधीन कर देता है।

भारतीय समाज में लैगिक असमता के विभिन्न पहलू

प्रत्येक समाज में लैंगिक विषमता जीवन के लगभग सभी पहलुओं में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। भारतीय समाज के उपयुक्त उदाहरणों द्वारा लैंगिक असमान के विभिन्न पहलुओं को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

1. सामाजिक पहलू-सर्वप्रथम लैंगिक असमता सामाजिक पहलुओं में परिलक्षित होती हैं। सामाजिक पहलुओं में पायी जाने वाली लैंगिक असमता समाजीकरण में लिंग भेदभाव, महिलाओं का यौन शोषण एवं उत्पीड़न, शिक्षा में पिछड़ापन, अज्ञानता एवं अंधविश्वास, कुपोषण, वैधव्य एवं विवाह-विच्छेद की समस्या तथा महिलाओं के प्रति हिंसा के रूप में देखा जा सकता है। महिलाओं के प्रति हिंसा परिवार के भीतर तथा परिवार से बाहर दोनों रूपों में देखी जा सकती है। महिलाओं के प्रति हिंसा का एक अन्य गंभीर रूप बालिका वध की समस्या के रूप में प्रचलित है। दक्षिण में आज भी अनेक बालिकाओं की जन्म लेने से पहले अथवा जन्म लेने के पश्चात् हत्या कर दी जाती है। दहेज न ला पाने के कारण महिलाओं पर होने वाला अत्याचार भी उनके प्रति हिंसा का ही प्रतीक माना जा सकता है। इस प्रकार, आज भी भारतीय महिलाएँ विविध प्रकार की हिंसा का शिकार हैं।

2. आर्थिक पहलू-रोजगार में भी महिलाएँ लैंगिक असमता के कारण पुरुषों से पिछड़ी हुई हैं। उदाहरणार्थ-परंपरागत रूप से भारतीय महिलाओं का कार्यक्षेत्र घर की चहारदीवारी तक ही सीमित था। इसलिए उनके बाहर कार्य करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। केवल कुछ निम्न जातियों की महिलाएँ घर से बाहर कृषि कार्य अथवा अन्य घरेलू कार्य करती थीं। अंग्रेजी शासनकाल में महिलाओं में भी शिक्षा का प्रचलन हुआ तथा उन्हें घर से बाहर नौकरी करने के अवसर उपलब्ध हुए। यद्यपि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् महिलाओं के रोजगार की ओर विशेष ध्यान दिया गया है, तथापि सभी प्रयासों के बावजूद आज भी भारतीय महिलाएँ रोजगार की समस्या का शिकार हैं। उन्हें पुरुषों के बराबर वेतन नहीं दिया जाता है, मातृत्व के समय अवकाश एवं अन्य सुविधाओं से उन्हें वंचित रखा जाता है तथा कई बार वे अपने सेवायोजकों के द्वारा यौन शोषण का शिकार हो जाती हैं। असंगठित क्षेत्र में ठेकेदार, कारखानों के मालिक तथा सेवायोजक उनकी निर्धनता का नाजायज लाभ उठाते हैं तथा उनका यौन शोषण करने का प्रयास करते हैं।

3. राजनीतिक पहलू-लैंगिक असमता का परिणाम राजनीतिक पहलू में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। राजनीतिक में महिलाओं को आगे आने के उतने अवसर उपलब्ध नहीं है जितने कि पुरुषों को हैं। अब जब भारतीय महिलाओं को हर प्रकार से पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हो चुके हैं तथा शिक्षा-प्रसार ने उन्हें अंधकार से प्रकाश में लाकर खड़ा कर दिया है तब ऐसी दशा में उन्हें राजनीतिक तथा सार्वजनिक क्षेत्र में कार्य करने से रोकना कहाँ की बुद्धिमता है? स्वतंत्रता से पूर्व भी भारतीय महिलाएँ अपने पूर्ण तन-मन से राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेती थीं। भारतीय संविधान ने उन्हें हर प्रकार के राजनीतिक और सामाजिक अधिकार प्रदान किए हैं तो उनका उपयोग करने की स्वतंत्रता देना भी आवश्यक है।

परंतु साथ ही यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि वह एक महिला माँ, पत्नी तथा बहू पहले है। और बाकी सब बाद में। उसका कर्तव्य सर्वप्रथम अपने पारिवारिक उत्तरदायत्वि को निभाना है। यदि वह अपने बाल-बच्चों की उपेक्षा करके राजनीतिक क्षेत्र में भाग लेती है तो वह अपने कर्तव्य-पथ से विमुख हो जाएगी। पारिवारिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने के पश्चात् ही किसी महिला का राजनीति यो सार्वजनिक क्षेत्र में कार्य करना अधिक उचित प्रतीत होता है। यह एक ऐसा दृष्टिकोण है जो लैंगिक असमता पर आधारित है तथा कार्य विभाजन के आधार पर महिलाओं को घर की चहारदीवारी तक ही सीमित रखना चाहता है।

महिलाओं की स्थिति में सुधार विविध प्रकार के कारण एवं सरकारी प्रयासों द्वारा संभव हो पाया है। अब जब भारतीय महिलाओं को हर प्रकार से पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हो चुके हैं। तथा शिक्षा-प्रसार ने उन्हें अंधकार से प्रकाश में लाकर खड़ा कर दिया है तब ऐसी दशा में उन्हें राजनीतिक तथा सार्वजनिक क्षेत्र में कार्य करने से रोकना कहाँ की बुद्धिमत्ता है? स्वतंत्रता से पूर्व भी भारतीय स्त्रियाँ अपने पूर्ण तन-मन से राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेती थीं। भारतीय संविधान ने उन्हें हर प्रकार के राजनीतिक और सामाजिक अधिकार प्रदान किए हैं तो उनका उपयोग करने की स्वतंत्रता देना भी आवश्यक है।

UP Board Solutions for Class 11 Sociology Understanding Society Chapter 1 Social Structure, Stratification and Social Processes in Society

आज लैंगिक असमता के कारण ही भारत में राज्य विधानसभाओं एवं लोकसभा में महिलाओं के लिए एक-तिहाई स्थान सुरिक्षत रखने संबंधी विधेयक बार-बार पेश किए जाने के बावजूद पारित नहीं हो पाया है। वैसे तो उनके लिए आधे स्थान सुरक्षित होने चाहिए परंतु अनेक राजनीतिक दल उन्हें एक-तिहाई स्थान देने में भी किसी-न-किसी कारण से आना-कानी कर रहे हैं।

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UP Board Solutions for Class 11 Economics Statistics for Economics Chapter 5 Measures of Central Tendency

UP Board Solutions for Class 11 Economics Statistics for Economics Chapter 5 Measures of Central Tendency (केंद्रीय प्रवृत्ति की माप)

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
निम्नलिखित स्थितियों में कौन-सा औसत उपयुक्त होगा
(क) तैयार वस्त्रों के औसत आकार।
उत्तर :
बहुलक।
(ख) एक कक्षा में छात्रों की औसत बौद्धिक प्रतिभा।
उत्तर :
मध्यिका।
(ग) एक कारखाने में प्रति पाली औसत उत्पादन।
उत्तर :
बहुलक या समान्तर माध्य।
(घ) एक कारखाने में औसत मजदूरी।
उत्तर :
बहुलक या समान्तर माध्य।
(ङ) जब औसत से निरपेक्ष विचलनों का योग न्यूनतम हो।
उत्तर :
समान्तर माध्य।
(च) जब चरों की मात्रा अनुपात में हो।
उत्तर :
मध्यिका।
(छ) मुक्तांत बारम्बारता बंटन के मामले में।
उत्तर :
मध्यिका

प्रश्न 2.
प्रत्येक प्रश्न में दिए गए बहुविकल्पों में से सर्वाधिक उचित विकल्प को चिह्नित करें
(i) गुणात्मक मापन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त औसत है
(क) समान्तर माध्य।
(ख) मध्यिका
(ग) बहुलक
(घ) ज्यामितीय माध्य
(ङ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(ख) मध्यिका।

(ii) चरंम मदों की उपस्थिति से कौन-सा औसत सर्वाधिक प्रभावित होता है
(क) मध्यिका
(ख) बहुलक
(ग) समान्तर माध्य
(घ) ज्यामितीय माध्य
(ङ) हरात्मक माध्ये
उत्तर :
(ग) समान्तर माध्य।

(iii) समान्तर माध्य से मूल्यों के किसी समुच्चय के विचलन का बीजगणितीय योग है

(क) दें
(ग) 1
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(ग) 1

प्रश्न 3.
बताइए कि निम्नलिखित कथन सही हैं या गलत
(क) मध्यिका से मदों के विचलनों का योग शून्य होता है।
उत्तर :
गलत।

(ख)
श्रृंखलाओं की तुलना के लिए मौत्र औसत ही पर्याप्त नहीं है।
उत्तर :
सही

(ग)
समान्तर माध्ये एक स्थैतिक मूल्य है।
उत्तर :
गलत।

(घ)
उच्च चतुर्थक शीर्ष 25 प्रतिशत मदों का निम्नतम मान है।
उत्तर :
सही।

(ङ)
मध्यिका चरम प्रेक्षणों द्वारा अनुचित रूप से प्रभावित होती है।
उत्तर :
गलत।

प्रश्न 4.
यदि नीचे दिए गए आँकड़ों का समान्तर माध्य 28 है तो
(क) लुप्त आवृत्ति का पता करें
(ख) श्रृंखला की मध्यिका ज्ञात करना
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उत्तर :
(क) लुप्त आवृत्ति ज्ञात करना-
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(ख) श्रृंखला की मध्यिका ज्ञात करना
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लुप्त आवृत्ति A का मान 20 और मध्यिका का मान 27.41 है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित सूचना 150 परिवारों की दैनिक आय से सम्बद्ध है। समान्तर माध्य का परिकल कीजिए।
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हल :
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प्रश्न 6.
नीचे एक गाँव के 380 परिवारों की जोतों का आकार दिया गया है। जोत का मध्यिका आकार ज्ञात कीजिए।
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हल :
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प्रश्न 7.
निम्नांकित श्रृंखला किसी कम्पनी में नियोजित मजदूरी की दैनिक आय से सम्बद्ध है। अभिकलन कीजिए
(क) निम्नतम 50 प्रतिशत मजदूरों की उच्चतम आय
(ख) शीर्ष 25 प्रतिशत मजदूरों द्वारा अर्जित न्यूनतम आय और
(ग) निम्नतम 25 प्रतिशत मजदूरों द्वारा अर्जित अधिकतम आय।
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हल :
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(क) निम्नतम 50 प्रतिशत मजदूरों की उच्चतम आय ज्ञात करने के लिए हमें मध्यिका का मान ज्ञात करना चाहिए
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निम्नतम 50 प्रतिशत मजदूरों की उच्चतम आय = ₹ 25.11॥

(ख) उच्चतम 25 प्रतिशत श्रमिकों की न्यूनतम आय ज्ञात करने के लिए चतुर्थक Qj को ज्ञात करना चाहिए।
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उच्चतम 25 प्रतिशत श्रमिकों द्वारा अर्जित न्यूनतम आय = ₹ 19.92

(ग) निम्नतम 25 प्रतिशत श्रमिकों की उच्चतम आय ज्ञात करने के लिए उच्च चतुर्थक Q3 ज्ञात करना चाहिए
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निम्नतम 25 प्रतिशत मजदूरों द्वारा अर्जित अधिकतम आय = ₹ 29.19

प्रश्न 8.
निम्नांकित सारणी में किसी गाँव में 150 खेतों में गेहूं की प्रति हेक्टेयर पैदावार दी गई है। उत्पादित फसलों का समान्तर माध्य, मध्यिका तथा बहुलक परिकलित कीजिए

उत्पादित फसले
(प्रति हेक्टे० किग्रा में) :     50-53   53-56   56-59   59-62   62-65   65-68   68-71   71-74   74-77
खेतों की संख्या :                  3            8           14         30        36          28          16         10          5
हल :
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बहुलक ज्ञात करने के लिए निम्नांकित सँरणी बनाएँगे
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परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1. समान्तर माध्य का दोष है
(क) इसे निकालते समय समूह के सभी पदों का प्रयोग होता है।
(ख) समूह के सभी पदों को उनके आकार के अनुपात में बाँट दिया जाता है।
(ग) यह निश्चित और सदा एक ही होता है।
(घ) इसकी गणना में असाधारण एवं सीमान्त मूल्य का अधिक प्रभाव रहता है।
उत्तर :
(घ) इसकी गणना में असाधारण एवं सीमान्त मूल्य का अधिक प्रभाव रहता है।

प्रश्न 2.
“समान्तर माध्य किसी वितरण का केन्द्रीय मूल्य है।” यह कथन है
(क) किंग का
(ख) मिल का
(ग) मेहता का
(घ) पीगू का
उत्तर :
(ख) मिल की।

प्रश्न 3.
समंकमाला के पदों के जोड़ में उनकी संख्या 6, 2, 5, 3 का भाग देने से जो मूल्य प्राप्त होता है वह ………………………………….. कहलाता है।
(क) बहुलक
(ख) मध्यिका
(ग) समान्तर माध्य
(घ) कल्पित माध्य
उत्तर :
(ग) समान्तर माध्य।

प्रश्न 4.
बहुलक का गुण नहीं है
(क) कभी-कभी एक समूह में दो-या-दो से अधिक बहुलक भी हो सकते हैं।
(ख) गुणात्मक तथ्यों का भी बहुलक ज्ञात किया जा सकता है।
(ग) यह अति सीमान्त पदों से प्रभावित नहीं होता।
(घ) प्रर्तिदर्श के परिवर्तन के साथ बहुलक में परिवर्तन नहीं होता।
उत्तर :
(क) कभी-कभी एक समूह में दो-या-दो से अधिक बहुलक भी हो सकते हैं।

प्रश्न 5.
“औसत वह संख्या है जो समस्त वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है।’ कथन है
(क) प्रो० कॉनर का
(ख) प्रो० यूल का
(ग) बोडिंगटन का
(घ) क्लार्क का
उत्तर :
(घ) क्लार्क को

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप किसे कहते हैं?
उत्तर :
केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप एक ऐसा प्रतिरूपी मूल्य है जिसका प्रयोग श्रेणी के सभी मूल्यों का प्रतिनिधित्व करने के लिए किया जाता है।

प्रश्न 2.
समांन्तर माध्य किसे कहते हैं?
उत्तर :
समान्तर माध्ये वह मूल्य है जो किसी श्रेणी के समस्त पदों के मूल्य के योग में उनकी संख्या का भाग देने से प्राप्त होता है।

प्रश्न 3.
समान्तर माध्य के दो गुण बताइए।
उत्तर :

  • इसमें बीजगणित का प्रयोग सम्भव है। दो-या-दो से अधिक श्रेणियों का सामूहिक औसत इनके अलग-अलग औसतों की सहायता से निकाला जा सकता है।
  • समूह के सभी पदों को उनके आकार के अनुपात में बाँट दिया जाता है।

प्रश्न 4.
समान्तर माध्य के दो दोष बताइए।
उत्तर :

  • समंकमाला की आकृति देखकर इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
  • समंकमाला का कोई भी मूल्य ज्ञात न होने पर इसकी गणना नहीं की जा सकती।

प्रश्न 5.
पद विचलन रीति में समान्तर माध्य निकालने का सूत्र लिखिए।
उत्तर :
X = A + [latex s=2]\frac { \Sigma fdx }{ N } \times i[/latex]

प्रश्न 6.
श्रेणी के प्रत्येक मूल्य को समान भार देने की दिशा में सरल व भारित समान्तर माध्या कैसे होते हैं?
उत्तर :
बराबर।

प्रश्न 7.
मध्यिका के दो गुण बताइए।
उत्तर :

  • इसका निर्धारण निश्चित और शुद्ध होता है।
  • गुणात्मक विशेषताओं का अध्ययन करने में यह अन्य माध्यों से श्रेष्ठ है।

प्रश्न 8.
मध्यिका की दो सीमाएँ बताइए।
उत्तर :

  • मध्यिका के पदों की संख्या से गुणा करने पर पदों का कुल योग मालूम नहीं होता।
  • इसे ज्ञात करने के लिए समस्त पदों को आरोही या अवरोही क्रम में व्यवस्थित करना पड़ता है।

प्रश्न 9.
अविच्छिन्न श्रेणी में मध्यिका का सूत्र दीजिए।
उत्तर :
सर्वप्रथम
(i) m = Size of [latex s=2]\frac { N }{ 2 }[/latex] th item की सहायता से निकाला जाएगा। तत्पश्चात् यह सूत्र लगाया जाएगा M = l1 [latex s=2]\frac { i }{ f }[/latex] (m -c)।

प्रश्न 10.
भूयिष्ठक का अर्थ एवं परिभाषा दीजिए।
उत्तर :
किसी भी समंकमाला में जो पद सबसे अधिक बार आता है अथवा जिसकी आवृत्ति सबसे अधिक होती है, वही बहुलक कहलाता है। काउडेन के शब्दों में “एक वितरण का बहुलक वह मूल्य है, जिसके निकट श्रेणी की इकाइयाँ अधिक-से-अधिक केन्द्रित होती हैं। उसे मूल्यों की श्रेणी का सबसे अधिक प्रतिरूपी माना जाता है।”

प्रश्न 11.
बहुलक के दो गुण बताइए।
उत्तर :

  • यह अति सीमान्त पदों से प्रभावित नहीं होता।
  • कभी-कभी एक समूह में दो-या-दो से अधिक बहुलके भी हो सकते हैं।

प्रश्न 12.
बहुलक के दो दोष बताइए।
उत्तर :

  • सभी पदों पर आधारित न होने के कारण इसका बीजीय विवेचन सम्भव नहीं है।
  • कभी-कभी एक समूह में दो-या-दो से अधिक बहुलक भी हो सकते हैं।

प्रश्न 13.
बहुलक के दो उपयोग बताइए। अथवा बहुलक का क्या व्यावहारिक प्रयोग है?
उत्तर :

  • उद्योग व प्रशासन के क्षेत्र में इसकी सहायता से औसत उत्पादन ज्ञात किया जाता है तथा विभिन्न विभागों की कार्यक्षमता की तुलना की जाती है।
  • मौसम सम्बन्धी पूर्वानुमानों में भी इसी का प्रयोग होता है।

प्रश्न 14.
अविच्छिन्न श्रेणी में बहुलक का सूत्र दीजिए।
उत्तर :
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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
केन्द्रीय प्रवृत्ति क्या है? परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
केन्द्रीय प्रवृत्ति से आशय किसी सांख्यिकी श्रृंखला के केन्द्रीय मूल्य या प्रतिनिधि मूल्य से है। किसी भी मनुष्य के लिए आँकड़ों के एक बहुत बड़े समूह को समझना या अपनी स्मृति में रखना कठिन होता है। इसलिए वह ऐसे मूल्य का ज्ञान प्राप्त करना पसन्द करेगा जो किसी श्रेणी के सभी आँकड़ों की विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करता हो। इस प्रकार के मूल्य को केन्द्रीय प्रवृत्ति के माप’ अथवा औसत या माध्य कहा जाता है। उदाहरण के लिए भारत के करोड़ों लोगों के आय सम्बन्धी आँकड़ों को समझना तथा याद रखना कठिन कार्य होगा परन्तु यदि यह कहा जाए कि वर्ष 2012 में भारत के लोगों की औसत आय १ 23,000 प्रतिवर्ष है तो हम सरलता से भारत के अधिकतर लोगों की आर्थिक स्थिति का अनुमान लगा सकेंगे। इस औसत मूल्य को ही श्रृंखला का केन्द्रीय माप कहा जाता है। इसे स्थिति सम्बन्धी माप भी कहते हैं। अत: केन्द्रीय प्रवृत्ति के माप से आशय सांख्यिकीय विश्लेषण की उन विधियों से है जिनके द्वारा किसी श्रेणी के चर को ऐसा मूल्य अर्थात् औसत ज्ञात किया जाता है जो समस्त श्रेणी का प्रतिनिधित्व करता है।

1. क्रोक्सटन तथा काउडेन के अनुसार – “आँकड़ों के विस्तार के अन्तर्गत स्थित एक ऐसे मूल्य को जिसका प्रयोग श्रृंखला के सभी मूल्यों का प्रतिनिधित्व करने के लिए किया जाता है, औसत कहा जाता है। चूंकि औसत श्रृंखला के विस्तार के अन्तर्गत स्थित होता है इसलिए इसे केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप भी कहा जाता है।
2. क्लार्क के अनुसार – “औसत वह संख्या है जो समस्त वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है।”

प्रश्न 2.
मध्यिका का अर्थ व गुण बताइए।
उत्तर :
मध्यिका का अर्थ-मध्यिका आरोही अथवा अवरोही क्रम में अनुविन्यसित समंकमाला के विभिन्न पदों के मध्य का मूल्य होती है और वह समंकमाला को दो भागों में इस प्रकार बाँटती है कि उसके एक ओर के सभी पद उससे कम मूल्य के तथा दूसरी ओर के सब पद उससे अधिक मूल्य के होते हैं।
मध्यिका के गुण – मध्यिका के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं

  • यह बहुत सरल है और इसको बड़ी सुगमता से समझा जा सकता है।
  • इसका निर्धारण निश्चित और शुद्ध होता है।
  • इसे पदों की कुल संख्या मात्र से ज्ञात किया जा सकता है।
  • मध्यिका को बिन्दु रेखाओं द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है।
  • मध्यिका पर चर मूल्यों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
  • मध्य विचलन की गणना में मध्यिका का और अधिक बीजीय विवेचन सम्भव है।
  • गुणात्मक विशेषताओं को अध्ययन करने में यह अन्य माध्यों से श्रेष्ठ है।
  • मध्यिका से पदों के विचलनों का योग अन्य किसी भी विधि से निकाले गए विचलनों के योग से कम होता है।

प्रश्न 3.
मध्यिका के प्रमुख दोष बताइए। मध्यिका के क्या उपयोग हैं?
उत्तर :
मध्यिका के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं

  • मध्यिका के पदों की संख्या से गुणा करने पर पदों का कुल योग मालूम नहीं होता।
  • यदि पदों के विस्तार में असाधारण भिन्नता हो तो यह भ्रामक निष्कर्ष देती है।
  • इसे ज्ञात करने के लिए समस्त पदों को आरोही (ascending) या अवरोही (descending) क्रम में व्यवस्थित करना पड़ता है।
  • इसको ज्ञात करने के लिए समस्त समंकों का प्रयोग नहीं होता।
  • यदि मध्यपद दो वर्गों के बीच आता है तो मध्यिका को ठीक-ठीक ज्ञात करना कठिन हो जाता है।
  • सरल गणितीय सूत्र से इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
  • यदि पदों की संख्या सम (even) है तो मध्यिका वास्तविक मूल्य नहीं होता।
  • यदि पदों की संख्या कम हो या मध्य पद के ऊपर अथवा नीचे पदों का फैलाव अनियमित हो तो मध्यिका एक प्रतिनिधि माप नहीं रहता।

मध्यिका के उपयोग – मध्यिका समझने में सरल है; अत: व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए इसका बहुत अधिक उपयोग होता है। इसके द्वारा गुणात्मक तथ्यों जैसे—बुद्धिमत्ता, स्वास्थ्य आदि; का भी अध्ययन : किया जा सकता है। इसी कारण सामाजिक समस्याओं के विश्लेषण में यह अत्यधिक उपयोगी है। यही उन दशाओं में अधिक उपयोगी है, जहाँ अति सीमान्त पदों को महत्त्व नहीं दिया जाता अथवा वितरण विषम होता है।

प्रश्न 4.
बहुलक क्या है? बहुलक के गुण बताइए।
उत्तर :
बहुलक का अर्थबहुलक वह मूल्य है जो समंकमाला में सबसे अधिक बार आता है अथवा जिसकी आवृत्ति सबसे अधिक होती है। बहुलक के गुण-बहुलक के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं

  • यह एक सरल एवं लोकप्रिय माध्य है। कुछ दशाओं में तो यह केवल निरीक्षण द्वारा ही ज्ञात किया जा सकता है।
  • इसका मूल्य रेखाचित्र द्वारा भी निर्धारित किया जा सकता है।
  • यह वितरण में सर्वाधिक सम्भावित मूल्य होता है।
  • गुणात्मक तथ्यों का भी बहुलक ज्ञात किया जा सकता है।
  • यह अति सीमान्त पदों से प्रभावित नहीं होता।
  • यह श्रेणी के एक महत्त्वपूर्ण भाग का वास्तविक मूल्य होता है।
  • यह समूह की सर्वोत्तम प्रतिनिधि होता है।
  • प्रतिदर्श के परिवर्तन के साथ बहुलक में परिवर्तन नहीं होता।

प्रश्न 5.
बहुलक के दोष बताइए। इसके क्या उपयोग हैं?
उत्तर :
बहुलक के दोष-बहुलक के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं–

  • यदि श्रेणी के सभी पदों की आवृत्तियाँ समान हैं तो बहुलक का निर्धारण नहीं किया जा सकता।
  • कभी-कभी एक समूह में दो-या-दो से अधिक बहुलक भी हो सकते हैं।
  • यदि श्रेणी का वितरण अनियमित है तो इसे शुद्ध रूप में नहीं निकाला जा सकता।
  • यह चरम सीमाओं की उपेक्षा करता है जो कि गणितीय दृष्टि से उचित नहीं है।
  • सभी पदों पर आधारित न होने के कारण इसका बीजीय विवेचन सम्भव नहीं है।
  • यह श्रेणी का पूर्ण रूप से प्रतिनिधित्व नहीं करता।।
  • वर्ग विस्तार में परिवर्तन कर देने पर बहुलक भी बदल जाएगा।

बहुलक के उपयोग – उपर्युक्त दोषों के बावजूद दैनिक जीवन तथा व्यापारिक क्षेत्र में बहुलक का बहुत अधिक उपयोग किया जाता है। यह शीघ्रता व सरलता से समझ में आ जाता है, इसलिए व्यावसायिक जीवन में इसका प्रयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। व्यापारिक पूर्वानुमानों में यह एक महत्त्वपूर्ण पथ-प्रदर्शक है। उद्योग व प्रशासन के क्षेत्र में इसकी सहायता से औसत उत्पादन ज्ञात किया जाता है तथा विभिन्न विभागों की कार्यक्षमता की तुलना की जाती है। किसी वस्तु के उत्पादन में उसकी लागत का अनुमान बहुलक समय के निर्धारण द्वारा आसानी से लगाया जा सकता है। विभिन्न वस्तुओं की लोकप्रिंयता का अध्ययन बहुलक द्वारा ही किया जाता है। मौसम सम्बन्धी पूर्वानुमानों में भी इसी का प्रयोग होता है।

प्रश्न 6.
एक आदर्श माध्य के गुण बताइए।
उत्तर :

एक आदर्श माध्य के गुण

  • माध्य स्पष्ट तथा स्थिर होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, माध्य श्रेणी के न्यूनतम तथा अधिकतम मूल्यों से कम-से-कम प्रभावित होना चाहिए।
  • माध्य समग्र का प्रतिनिधि होना चाहिए।
  • माध्य निकालने तथा समझने में सरल होना चाहिए।
  • वह समंकमाला के समस्त पदों पर आधारित होना चाहिए।
  • वह सीमान्त पदों को समुचित महत्त्व देता हो।
  • उस पर संख्याओं के परिवर्तन का कम-से-कम प्रभाव पड़ना चाहिए।
  • वह एक निरपेक्ष संख्या होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, वह प्रतिशत में या अन्य कोई सापेक्ष रीति में व्यक्त नहीं होनी चाहिए।
  • वह एक निश्चित संख्या होनी चाहिए।
  • उसका प्रयोग अंकगणितीय व बीजगणितीय विधियों द्वारा किया जा सके।

प्रश्न 7.
सरल व भारित समान्तर माध्य की तुलना कीजिए।
उत्तर :

सरल व भारित समान्तर माध्य की तुलना

1. श्रेणी के प्रत्येक मूल्य को समान भार देने की दशा में सरल व भारित समान्तर माध्य बराबर होते हैं।

[latex s=2]\overline { X }[/latex] = [latex s=2]\overline { X }[/latex]w

2. जब श्रेणी के छोटे मूल्यों को अधिक भार और बड़े मूल्यों को कम भार दिया जाता है, तब सरल समान्तर माध्य भारित समान्तर माध्य से अधिक होता है।

[latex s=2]\overline { X }[/latex] > [latex s=2]\overline { X }[/latex]w

3. जब श्रेणी के छोटे मूल्यों को कम भार तथा बड़े मूल्यों को अधिक भार दिया जाता है, तब सरल समान्तर माध्य भारित समान्तर माध्य से कम होता है।

[latex s=2]\overline { X }[/latex] < [latex s=2]\overline { X }[/latex]w

प्रश्न 8.
समान्तर माध्य, मध्यिका एवं बहुलक में परस्पर सम्बन्ध दर्शाइए।
उत्तर :
समान्तर माध्य ([latex s=2]\overline { X }[/latex]), मध्यिका (M) तथा बहुलक (Z) में सम्बन्ध आवृत्ति वितरण की प्रकृति पर निर्भर करता है। आवृत्ति वितरण दो प्रकार का होता है
1. सममित आवृत्ति वितरण – इस स्थिति में X, M तथा Z के मूल्य एक-दूसरे के समान होते हैं

[latex s=2]\overline { X }[/latex] = M = Z

2. असममितीर्य आवृत्ति वितरण – इस स्थिति में (X – Z) सामान्यत: 3(X – M) के बराबर होते हैं अर्थात्

([latex s=2]\overline { X }[/latex] – Z) = 3([latex s=2]\overline { X }[/latex] – M)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समान्तर माध्य किसे कहते हैं? समान्तर माध्य के गुण-दोषों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर :

समान्तर माध्य का अर्थ

समान्तर माध्य (Arithmetic Mean) केन्द्रीय प्रवृत्ति का सबसे सरल एवं लोकप्रिय माप है। सामान्यतः औसत शब्द का प्रयोग इसी माध्य के लिए किया जाता है। यह सभी माध्यों में उत्तम माना जाता है। इसको इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है-“किसी भी श्रेणी के समस्त पदों के मूल्य के योग में उनकी संख्या का भाग देने से समान्तर मध्य प्राप्त होता है।”

साधारण शब्दों में, समंकमाला के पदों के जोड़ में उनकी संख्या का भाग देने से जो राशि प्राप्त होती है, उसे माध्य के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।

किंग के अनुसार-“किसी श्रेणी के पदों के मूल्यों के योग में उनकी संख्या का भाग देने से जो मूल्य प्राप्त होता है, उसे समान्तर माध्य के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।” मिल के अनुसार-“समान्तर माध्य किसी वितरण का केन्द्रीय मूल्य है।”

समान्तर माध्य के गुण

  • इसका अर्थ एक सामान्य व्यक्ति के लिए भी समझना आसान है।
  • उपलब्ध आँकड़ों की सहायता से इसकी गणना बहुत सरल है। ।
  • इसमें बीजगणित का प्रयोग सम्भव है। दो-या-दो से अधिक श्रेणियों का सामूहिक औसत इनके अलग-अलग औसतों की सहायता से निकाला जा सकता है।
  • इसे निकालते समय समूह के सभी पदों का प्रयोग होता है।
  • समूह के सभी पदों को उनके आकार के अनुपात में बाँट दिया जाता हैं।
  • यह निश्चित और संदा एक ही होता है।
  • तुलनात्मक अध्ययन के लिए यह अधिक लोकप्रिय है।

समान्तर माध्य के दोष

  • समंकमाला में समान्तर माध्य हो, यह आवश्यक नहीं है।
  • समंकमाला की आकृति देखकर इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
  • इसकी गणना में असाधारण एवं सीमान्त मूल्य का अधिक प्रभाव रहता है।
  • समंकमाला का कोई भी मूल्य ज्ञात न होने पर इसकी गणना नहीं की जा सकती।
  • गुणात्मक सामग्री के लिए इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता।
  • इसे लेखाचित्र द्वारा प्रदर्शित नहीं किया जा सकता।
  • अनुपात वे दर आदि के अध्ययन के लिए यह अनुपयुक्त है।

उपर्युक्त दोषों के होते हुए भी इसका प्रयोग सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं के अध्ययन में किया जाता है।

प्रश्न 2.
सरल समान्तर माध्य की गणना प्रक्रिया को उदाहरण सहित समझाइए।
उत्तर :
सरल समान्तर माध्य की गणन क्रिया सरल समान्तर माध्य की गणना तीन प्रकार से करते हैं
(I) व्यक्तिगत श्रेणी,
(II) खण्डित श्रेणी एवं
(III) अविच्छिन्न श्रेणी।
(1) व्यक्तिगत श्रेणी
व्यक्तिगत श्रेणी द्वारा समान्तर माध्य निकालने की दो रीतियाँ हैं
(अ) प्रत्यक्ष रीति तथा
(ब) लघु रीति।
(अ) प्रत्यक्ष रीति – इस रीति में श्रेणी के सभी पदों का योग करने के बाद उनको पदों की संख्या से भाग दिया जाता है।

सूत्र रूप में, [latex s=2]\overline { X }[/latex] = [latex]\frac { \Sigma X }{ N }[/latex]
यहाँ, [latex s=2]\overline { X }[/latex] = समान्तर माध्य
∑X = पद मूल्यों का योग
N = पदों की संख्या

गणन क्रिया –

  • पद मूल्यों का योग (∑X) ज्ञात करते हैं।
  • पद संख्या (N) ज्ञात करते हैं।
  • पद मूल्यों के योग में पद संख्या (N) का भाग देते हैं। परिणाम समान्तर माध्य होता है।

(ब) लघु रीति – इस रीति में गणन क्रिया निम्नलिखित प्रकार से की जाती है

  • किसी संख्या को कल्पित माध्य (A) मान लेते हैं।
  • कल्पित माध्य (A) की पद मूल्यों (X) से तुलना करके विचलन मालूम करते हैं d = X – A
  • विचलनों (d) का योग (d) ज्ञात करते हैं।
  • पदों की संख्या (N) ज्ञात करते हैं। फिर निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग करते हैं [latex s=2]\overline { X }[/latex] = A + [latex]\frac { \Sigma d }{ N }[/latex]

उदाहरण 1. 15 पदों का आकार निम्नलिखित है। प्रत्यक्ष व लघु रीति द्वारा समान्तर माध्य का परिकलन कीजिए।
रोल नं० :   1    2    3    4    5   6    7   8    9    10
प्राप्तांक :  30 28 32  12  18 20 25 15  26   14
हल :
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(II) खण्डित श्रेणी
खण्डित श्रेणी द्वारा समान्तर माध्य निकालने की दो रीतियाँ हैं
(अ) प्रत्यक्ष रीति तथा
(ब) लघु रीति।
(अ) प्रत्यक्ष रीति – इस रीति में गणन क्रिया निम्नलिखित प्रकार से की जाती है–

  • पद मूल्यों (X) और आवृत्ति (ƒ) का गुणा करते हैं (X × ƒ)
  • गुणनफलों (ƒ × X) का योग ज्ञात करते हैं (∑fX)
  • आवृत्तियों का योग (∑ƒ) या (N) ज्ञात करते हैं।
  • निम्नांकित सूत्र का प्रयोग करते हैं

[latex]\overline { X } \frac { SfX }{ NSf }[/latex]

उदाहरण 2. प्रति परिवार जन्म लेने वाले औसत बच्चों की संख्या ज्ञात कीजिए-
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हल :
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(ब) लघु रीति – इस रीति में गणन क्रिया निम्नलिखित प्रकार से की जाती है

  • मूल्यों में से किसी एक को कल्पित माध्य (A) मान लेते हैं।
  • कल्पित माध्य (A) से श्रेणी प्रत्यक्ष मूल्य का विचलन (dx) निकालते हैं d = (x – A)
  • विचलनों को उनकी आवृत्तियों से गुणा करते हैं–(d × f)
  • इन गुणनफलों का योग निकालते हैं। अन्त में निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग करते हैं
    [latex s=2]\overline { X }[/latex] = A + [latex s=2]\frac { \Sigma fd }{ N }[/latex]

उदाहरण 3. निम्नलिखित समंकों में से प्रत्यक्ष व लघु रीति द्वारा समान्तर माध्य परिकलित कीजिए
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हल :
UP Board Solutions for Class 11 Economics Statistics for Economics Chapter 5 Measures of Central Tendency 33
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(III) अविच्छिन्न श्रेणी
इसमें सर्वप्रथम श्रेणी में वर्गों के मध्यमान (X) ज्ञात किए जाते हैं। समान्तर मध्य ज्ञात करने की मुख्य रीतियाँ निम्नलिखित हैं–
(अ) प्रत्यक्ष रीति – सर्वप्रथम वर्गों के मध्य मूल्य (M.V.) निकाले जाते हैं। इसके बाद वही क्रिया अपनाई जाती है, जो खण्डित श्रेणी में प्रयुक्त की जाती है।
(ब) लघु रीति – इसके अन्तर्गत सर्वप्रथम वर्गों के मध्य मूल्य ज्ञात किए जाते हैं। फिर वही क्रिया अपनाई जाती है, जो खण्डित श्रेणी में प्रयुक्त की जाती है।

उदाहरण 4.
निम्नलिखित समंकों से समान्तर मध्य ज्ञात कीजिए
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हल :
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उदाहरण 5. निम्नांकित सारणी में प्रत्यक्ष व लघु रीति द्वारा समान्तर माध्य ज्ञात कीजिए
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हल :
UP Board Solutions for Class 11 Economics Statistics for Economics Chapter 5 Measures of Central Tendency 39
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(स) पद विचलन रीति – गणन क्रिया निम्नलिखित प्रकार से की जाती है

(i) सर्वप्रथम सभी वर्गान्तरों के मध्य बिन्दु ज्ञात करते हैं।
(ii) मध्य बिन्दुओं में से किसी एक को कल्पित माध्य (A) मान लेते हैं।
(iii) कल्पित माध्य (A) में से प्रत्येक मध्य मूल्य के विचलन ज्ञात करते हैं।
(iv) विचलनों में वर्ग विस्तार से भाग देकर पद विचलन ज्ञात करते हैं। (d)
(v) पद विचलन की आवृत्तियों से गुणा करके गुणनफलों का योग कर लेते हैं (Σƒd’) और इस योग में N से भाग देते हैं।
(vi) निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग करते हैं
[latex s=2]\overline { X }[/latex] = A + [latex s=2]\frac { \Sigma fd }{ N }[/latex] × i

उदाहरण 6. निम्नांकित सारणी में पद विचलन रीति द्वारा समान्तर माध्य ज्ञात कीजिए–
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हल :
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प्रश्न 3.
भारित समान्तर माध्य से क्या आशय है? इसकी गणना विधि समझाइए। उपयुक्त उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर :

भारितसमान्तर माध्य

जब माध्य निकालते समय कुछ पदों को अन्य पदों की अपेक्षा अधिक महत्त्व दिया जाता है तो उसे ‘भार’ कहते हैं और वह माध्य भारित माध्य कहलाता है।

बोडिंगटन के शब्दों में – “भारित माध्य वह है, जिसे निकालने के लिए प्रत्येक पद को भार से गुणा किया जाता है और इस प्रकार प्राप्त की गई संख्याओं को जोड़कर भार के योग से भाग दे दिया जाता है।”
भारित समान्तर माध्य की गणना करना – भारित समान्तर माध्य की गणन क्रिया निम्नलिखित प्रकार से की जाती है
प्रत्यक्ष रीति-

  • श्रेणी के प्रत्येक पद को उसके महत्त्व के अनुसार भार प्रदान किया जाता है।
  • श्रेणी के मूल्यों तथा उनके तत्सम्बन्धी भारों की गुणा की जाती है तथा इनका योग निकाल लिया जाता है।
  • इस योग को भारों के योग से विभाजित कर दिया जाता है।
  • अन्त में निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है
    [latex]\overline { X } w=\frac { \Sigma XW }{ \Sigma W }[/latex]

यहाँ, [latex s=2]\overline { X }[/latex]w = भारित समान्तर माध्य
ΣXW = मूल्य व भारों के गुणनफलों का योग
ΣW = भारों का योग

लघु रीति –

  • श्रेणी के प्रत्येक पद को उसके महत्त्व के अनुसार भार प्रदान किया जाता है।
  • काल्पनिक भारित माध्य मानकरे मूल्यों से विचलन लिए जाते हैं।
  • विचलनों तथा तत्सम्बन्धी भारों के गुणनफल का योग ज्ञात किया जाता है।
  • अन्त में इस योग को भारों के योग से भाग दे दिया जाता है। जो मूल्य आता है, उसे काल्पनिक भारित माध्य (A) में जोड़ दिया जाता है।
  • अन्त में निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है|
    [latex s=2]\overline { X }[/latex]w = A + [latex s=2]\frac { \Sigma Wd }{ \Sigma W }[/latex]

उदाहरण 7. एक कारखाने के कर्मचारियों का मासिक वेतन और उनकी संख्या निम्नांकित सारणी में वर्णित हैं मासिक वेतन का प्रत्यक्ष व लघु रीति द्वारा भारत मध्य ज्ञात कीजिए
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हल :
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प्रश्न 4.
मध्यिका को परिभाषित कीजिए तथा उसके गुण, दोष व उपयोग बताइए। अथवा मध्यिका के गुण-दोषों पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :

मध्यिका

अर्थ एवं परिभाषा – मध्यिका आरोही अथवा अवरोही क्रम में अनुविन्यसित समंकमाला के विभिन्न पदों के मध्य का मूल्य (middle item) होती है और वह समंकमाला को दो भागों में इस प्रकार बाँटती है। कि उसके एक ओर के सब पद उससे कम मूल्य के तथा दूसरी ओर के सब पद उससे अधिक मूल्य के होते हैं।

प्रो० कॉनर के शब्दों में – “मध्यिका समंक श्रेणी का वह पद है, जो समूह को दो समान भागों में इस प्रकार विभक्त करता है कि एक भाग में समस्त मूल्य मध्यिका से अधिक और दूसरे भाग में अन्य मूल्य मध्यिका से कम हों।”

प्रो० युल एवं केण्ड्राल के शब्दों में – “मध्यिका केन्द्रीय या मध्य मूल्य होता है, जबकि समूह के मूल्यों अर्थात् आवृत्तियों को इनके परिमाण के अनुसार क्रम से लिखा जाए या इस प्रकार लिखा जाए कि बड़े तथा छोटे मूल्य समाप्त आवृत्तियों में बँट जाएँ।”

डॉ० बाउले के शब्दों में – “यदि एक समूह के पदों को उनके मूल्यों के अनुसार क्रमबद्ध किया जाए, तब लगभग मध्य पद का मूल्य ‘मध्यिका’ होता है।”

मध्यिका के गुण

  • यह बहुत सरल है और इसको बड़ी सुगमता से समझा जा सकता है।
  • इसका निर्धारण निश्चित और शुद्ध होता है।
  • इसे पदों की कुल संख्या मात्र से ज्ञात किया जा सकता है।
  • मध्यिका को बिन्दु रेखाओं द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है।
  • मध्यिका पर चरम मूल्यों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
  • माध्य विचलन की गणना में मध्यिका का और अधिक बीजीय विवेचन सम्भव है।
  • गुणात्मक विशेषताओं को अध्ययन करने में यह अन्य माध्यों से श्रेष्ठ है।
  • मध्यिका से पदों के विचलनों का योग अन्य किसी भी विधि से निकाले गए विचलनों के योग से कम होता है।

मध्यिका के दोष या सीमाएँ

  • मध्यिका के पदों की संख्या से गुणा करने पर पदों का कुल योग मालूम नहीं होता।
  • यदि पदों के विस्तार में असाधारण भिन्नता हो तो यह भ्रामक निष्कर्ष देता है।
  • इसे ज्ञात करने के लिए समस्त पदों को आरोही (ascending) या अवरोही (descending) क्रम में व्यवस्थित करना पड़ता है।
  • इसको ज्ञात करने के लिए समस्त समंकों का प्रयोग नहीं होता।
  • यदि मध्यपद दो वर्गों के बीच आता है, तो मध्यिका को ठीक-ठीक ज्ञात करना कठिन हो जाता है।
  • सरल गणितीय सूत्रे से इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
  • यदि पदों की संख्या सम (even) है तो मध्यिका वास्तविक मूल्य नहीं होता।
  • यदि पदों की संख्या कम हो या मध्य पद के ऊपर अथवा नीचे पदों का फैलाव अनियमित हो तो मध्यिका एक प्रतिनिधि माप नहीं रहता।

मध्यिका के उपयोग
मध्यिका समझने में सरल है; अत: व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए इसका बहुत अधिक उपयोग होता है। इसके द्वारा गुणात्मक तथ्यों जैसे बुद्धिमत्ता, स्वास्थ्य आदि का भी अध्ययन किया जा सकता है। इसी कारण सामाजिक समस्याओं के विश्लेषण में यह अत्यधिक उपयोगी है। यह उन दशाओं में अधिक उपयोगी है, जहाँ अति सीमान्त पदों को महत्त्व नहीं दिया जाता अथवा वितरण विषम होता है।

प्रश्न 5.
विभाजन मूल्य चतुर्थकों (Qi , Qs) की गणना प्रक्रिया समझाइए।
उत्तर :
किसी श्रृंखला को दो से अधिक भागों में बाँटने वाले मूल्य को विभाजन मूल्य कहते हैं। मध्यिका एक श्रेणी को दो भागों में बाँटती है। यदि किसी श्रृंखला को चार बराबर भागों में बाँटा जाता है। तो प्रत्येक भाग की अन्तिम इकाई चतुर्थक (Quartile) कहलाती है। इसे अंग्रेजी भाषा के Q अक्षर द्वारा प्रकट किया जाता है। पहले चतुर्थक की प्रथम अथवा निम्न चतुर्थक’ Q), तीसरे चतुर्थक को उच्च चतुर्थक (Q3) कहते हैं। दूसरा चतुर्थक मध्यिका कहलाता है।

चतुर्थकों की गणन क्रिया

व्यक्तिगत व खण्डित श्रेणी में – इन शृंखलाओं में चतुर्थक मूल्य ज्ञात करने के लिए निम्नांकित सूत्रों का प्रयोग किया जाता है
UP Board Solutions for Class 11 Economics Statistics for Economics Chapter 5 Measures of Central Tendency 47उदाहरण 8. विद्यार्थियों द्वारा सांख्यिकी में प्राप्तांक निम्नलिखित हैं18, 10, 4, 31, 25, 20, 24, 17, 35, 15, 2, 8, 19, 21, 11, 13, 22, 24, 30 उपर्युक्त में Q व Qs ज्ञात कीजिए।
हल :
सर्वप्रथम, प्राप्तांकों को आरोही क्रम में व्यवस्थित किया जाएगा
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उदाहरण 9. निम्नलिखित समंकों से Q व Qs ज्ञात कीजिए
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हल :
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अखण्डित अथवा अविच्छिन्न श्रेणी – अखण्डित श्रेणी में Q; तथा Q5 के आकार को निम्नलिखित सूत्रों की सहायता से ज्ञात किया जाता है|
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फिर निम्नलिखित सूत्र की सहायता से इनका मान ज्ञात किया जाता है
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उदाहरण 10. निम्नलिखित समंकमाला में Q व Qs ज्ञात कीजिए
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हल :
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प्रश्न 6.
बहुलक (भूयिष्ठक) को परिभाषित कीजिए। इसके गुण व दोष बताइए।
उत्तर :

बहुलक या भूयिष्ठक का अर्थ एवं परिभाषाएँ

किसी भी समंकमाला में जो पद सबसे अधिक बार आता है अथवा जिसकी आवृत्ति सबसे अधिक होती है, वही ‘बहुलक’ कहलाता है। यह ‘सर्वाधिक घनत्व की स्थिति का द्योतक है और इसे प्रायः मूल्यों के ‘अधिकतम संकेन्द्रण का बिन्दु’ भी कहते हैं। काउडेन के शब्दों में-“एक वितरण को बहुलक वह मूल्य है, जिसके निकट श्रेणी की इकाइयाँ अधिक-से-अधिक केन्द्रित होती हैं। उसे मूल्यों की श्रेणी का सबसे अधिक प्रतिरूपी माना जाता है।” जिजेक के अनुसार-“बहुलक वह मूल्य है, जो पदों की श्रेणी अथवा समूह में सबसे अधिक बार

आता है तथा जिसके चारों ओर सबसे अधिक घनत्व के पदों का वितरण रहता है।” कैने तथा कीपिंग के अनुसार-“बहुलक वह मूल्य है जो श्रेणी में सबसे अधिक बार आता हो अर्थात् जिसँकी सर्वाधिक आवृत्ति हो।” डॉ० बाउले के अनुसार–‘किसी सांख्यिकीय समूह में वर्गीकृत मात्रा का वह मूल्य, जहाँ पर पंजीकृत संख्याएँ सबसे अधिक हों, ‘बहुलक’ या ‘सबसे अधिक घनत्व का स्थान’ अथवा ‘सबसे महत्त्वपूर्ण मूल्य’ कहलाता है।”

बहुलक के गुण

  • यह एक सरल एवं लोकप्रिय माध्य है। कुछ दशाओं में यह केवल निरीक्षण द्वारा ही ज्ञात किया जा सकता है।
  • इसका मूल्य रेखाचित्र द्वारा भी निर्धारित किया जा सकता है।
  • यह वितरण में सर्वाधिक सम्भावित मूल्य होता है।
  • गुणात्मक तथ्यों का भी बहुलक ज्ञात किया जा सकता है।
  • यह अति सीमान्त पदों से प्रभावित नहीं होता।
  • यह श्रेणी के एक महत्त्वपूर्ण भाग का वास्तविक मूल्य होता है।
  • यह समूह का सर्वोत्तम प्रतिनिधि होता है।
  • प्रतिदर्श के परिवर्तन के साथ बहुलक में परिवर्तन नहीं होता।

बहुलक के दोष

  • यदि श्रेणी के सभी पदों की आवृत्तियाँ समान हैं तो बहुलक का निर्धारण नहीं किया जा सकता।
  • कभी-कभी एक समूह में दो-या-दो से अधिक बहुलक भी हो सकते हैं।
  • यदि श्रेणी का वितरण अनियमित है तो इसे शुद्ध रूप में नहीं निकाला जा सकता।
  • यह चरम सीमाओं की उपेक्षा करता है जो कि गणितीय दृष्टि से उचित नहीं है।
  • सभी पदों पर आधारित न होने के कारण इसका बीजीय विवेचन सम्भव नहीं है।
  • यह श्रेणी का पूर्ण रूप से प्रतिनिधित्व नहीं करता।
  • वर्ग विस्तार में परिवर्तन कर देने पर बहुलक भी बदल जाएगा।

बहुलक के उपयोग
उपर्युक्त दोषों के बावजूद दैनिक जीवन तथा व्यापारिक क्षेत्र में बहुलक का बहुत अधिक उपयोग किया जाता है। यह शीघ्रता व सरलता से समझ में आ जाता है, इसलिए व्यावसायिक जीवन में इसका प्रयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। व्यापारिक पूर्वानुमानों में यह एक महत्त्वपूर्ण पथ-प्रदर्शक है। उद्योग व प्रशासन के क्षेत्र में इसकी सहायता से औसत उत्पादने ज्ञात किया जाता है तथा विभिन्न विभागों की कार्यक्षमता की तुलना की जाती है। किसी वस्तु के उत्पादन में उसकी लागत का अनुमान बहुलक समय के निर्धारण द्वारा आसानी से लगाया जा सकता है। विभिन्न वस्तुओं की लोकप्रियता का अध्ययन बहुलक द्वारा ही किया जाता हैं मौसम सम्बन्धी पूर्वानुमानों में भी इसी का प्रयोग होता है।

प्रश्न 7.
बहुलक निर्धारण की विधि समझाइए।
उत्तर :

बहुलक का निर्धारण

(अ) व्यक्तिगत श्रेणी – व्यक्तिगत श्रेणी में बहुलक निकालने की निम्नलिखित विधियाँ हैं|
(i) निरीक्षण द्वारा – निरीक्षण द्वारा यह निश्चित किया जाता है कि कौन-सा मूल्य सबसे अधिक बार आया है। जो मूल्य सबसे अधिक बार आता है, वही बहुलक होता है।

उदाहरण 11. निम्नांकित जूतों की आकार संख्या से बहुलक आकार ज्ञात कीजिए
जूतों की आकार संख्या – 2, 4, 1, 2, 7, 7, 6, 6, 6, 5, 4, 2, 6, 6, 6, 3, 3
हल :
उपर्युक्त संख्याओं में 6 संख्या सबसे अधिक बार प्रयुक्त हुई है। अत: यही संख्या बहुलक होगी।
z = 6 यहाँ  Z = बहुलक
(ii) व्यक्तिगत श्रेणी को खण्डित श्रेणी में परिवर्तित करके – जब व्यक्तिगत श्रेणी के अनेक पद दो-या-दो से अधिक बार आते हैं तो उन्हें आरोही क्रम में रखकर उनके सामने उनकी आवृत्ति लिख दी जाती है। सर्वाधिक आवृत्ति वाला पद बहुलक होता है।

उदाहरण 12. यदि 10 अधिकारियों को प्रारम्भिक वेतन निम्नलिखित हो तो उन अधिकारियों का बहुलक वेतन ज्ञात कीजिए
625, 500, 480, 500, 460, 500, 525, 575, 525, 500.
हल :
पहले इन्हें खण्डित श्रेणी में इस प्रकार रखा जाएगा
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उपर्युक्त उदाहरण में सर्वाधिक पदाधिकारियों (4) का प्रारम्भिक वेतन ₹ 500 है। अतः Z = ₹ 500

(iii) व्यक्तिगत श्रेणी को अविच्छिन्न श्रेणी में बदलकर – जब श्रेणी में किसी भी पद की आवृत्ति एक से अधिक बार नै हो, तो उसे अविच्छिन्न श्रेणी में बदलकर अधिकतम आवृत्ति वाला वर्गान्तर कर लेना चाहिए और फिर सूत्र द्वारा ‘बहुलक’ निकालना चाहिए।
नोट – इस विधि के लिए उदाहरण 21 देखिए।
(iv) मध्यिका व समान्तर माध्य के आधार पर बहुलक का निर्धारण – यदि व्यक्तिगत श्रेणी में मध्यिका व समान्तर माध्य के आधार पर बहुलक का मूल्य ज्ञात करना हो तो निम्नलिखित सूत्रे द्वारा बहुलक का मूल्य ज्ञात किया जा सकता है – z = 3 M – 2 X
(ब) खण्डित श्रेणी – खण्डित श्रेणी में बहुलक निम्नलिखित दो रीतियों द्वारा ज्ञात किया जा सकता है
(i) निरीक्षण रीति – इस रीति के अनुसार, जिस पद की सबसे अधिक आवृत्ति होगी, वही पद मूल्य ‘बहुलक’ होगा। लेकिन यह तब ही सम्भव है, जब पदमाला नियमित हो तथा उसके सभी पद सजातीय हों।
उदाहरण 13. निम्नलिखित श्रेणी में से बहुलक का आकार ज्ञात कीजिए

उदाहरण 14. निम्नलिखित सारणी में बहुलक ज्ञात कीजिए
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हल :
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उदाहरण 14.
निम्नलिखित सारणी में से बहुलक आयु ज्ञात कीजिए
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हल :
उपर्युक्त श्रेणी में 180 सेमी पद मूल्य की आवृत्ति सबसे अधिक है। अतः Z = 180 सेमी
(ii) समूहीकरण रीति – आवृत्तियों का वितरण अनियमित होने पर समूहन रीति द्वारा आवृत्तियों के घनत्व बिन्दु का पता लगाया जाता है। समूहन विधि इस प्रकार हैसर्वप्रथम एक सारणी बनाई जाती है, जिसमें चर मूल्यों के अतिरिक्त आवृत्ति के 6 खाने बनाए जाते हैं। इन खानों में आवृत्तियों को निम्नलिखित प्रकार से रखा जाता है
Coln. (i) में प्रश्न में दी हुई आवृत्तियाँ लिखी जाती हैं।
Coln. (ii) में आरम्भ से दो-दो आवृत्तियों के जोड़ लिखे जाते हैं।
Coln. (iii) में Coln. (i) की सबसे पहली आवृत्ति को छोड़कर, दो-दो आवृत्तियों के जोड़ लिखे जाते हैं।
Coln. (iv) में Coin. (i) की तीन-तीन आवृत्तियों के जोड़ लिखे जाते हैं।
Coln. (v) में Coln. (i) की प्रथम आवृत्ति को छोड़कर आगे की तीन-तीन आवृत्तियों के जोड़ लिखे जाते हैं।
Coln. (vi) में Coln. (i) की पहली दो आवृत्तियों को छोड़कर तीन-तीन आवृत्तियों के जोड़ लिखे जाते हैं।

इसके पश्चात् प्रत्येक कॉलम की अधिकतम आवृत्ति को रेखांकित कर लिया जाता है तथा उन अधिकतम आवृत्तियों के चर मूल्यों पर चिह्न लगाकर उनकी गणना कर ली जाती है। जिस मूल्य के सामने अधिकतम चिह्न होते हैं, वही बहुलक का मूल्य होता है। इसका विश्लेषण सारणी (Analysis table) बनाकर भी किया जा सकता है।
उदाहरण 15. निम्नलिखित सारणी में से बहुलक आयु ज्ञात कीजिए
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हल :
सर्वप्रथम समूहुन रीति द्वारा बहुलक वर्ग ज्ञात किया जाएगा।
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उपर्युक्त सारणी के अनुसार बहुलक 40-45 वर्ग में है। सूत्रानुसार,

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शून्य से भाग न दिए जा सकने के कारण, इस सूत्र द्वारा निकाला गया बहुलक शुद्ध रूप में निर्धारित नहीं किया जा सकता। अत: बहुलक मूल्य वैकल्पिक सूत्र द्वारा निर्धारित किया जाएगा। सूत्रानुसार,
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UP Board Solutions for Class 11 Sociology Introducing Sociology Chapter 5 Doing Sociology: Research Methods

UP Board Solutions for Class 11 Sociology Introducing Sociology Chapter 5 Doing Sociology: Research Methods (समाजशास्त्र-अनुसंधान पद्धतियाँ)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Sociology Introducing Sociology Chapter 5 Doing Sociology: Research Methods (समाजशास्त्र-अनुसंधान पद्धतियाँ).

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
वैज्ञानिक पद्धति का प्रश्न विशेषतः समाजशास्त्र में क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर
समाजशास्त्र एक विज्ञान है क्योंकि इसमें वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जाता है। समाजशास्त्र में वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग का प्रश्न इसलिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि कुछ विद्वान् इस विषय को विज्ञान मानने से इंकार करते हैं। वे समझते हैं कि समाजशास्त्र की विषय-वस्तु के बारे में उन्हें अपने अनुभवों के द्वारा ही काफी ज्ञान प्राप्त है। वास्तव में ऐसा नहीं है। जो ज्ञान हमें अपने अनुभवों से मिलता है जरूरी नहीं है कि वह वैज्ञानिक ज्ञान ही हो। उदाहरणार्थ-मित्रता या धर्म या बाजारों में मोल-भाव करने जैसी सामाजिक प्रघटनाओं का अध्ययन करते समय समाजशास्त्री केवल दर्शकों का अवलोकन ही नहीं करते अपितु इसमें सम्मिलित लोगों की भावनाओं तथा विचारों को भी जानना चाहते हैं। समाजशास्त्री विश्व को उनकी आँखों से देखना चाहते हैं। विभिन्न संस्कृतियों में लोगों के लिए मैत्री का अर्थ क्या है? जब कोई व्यक्ति विशेष अनुष्ठान करता है तो किस प्रकार के धार्मिक विचार उसके मन में आते हैं? एक दुकानदार तथा ग्राहक बेहतर मूल्य पाने के लिए शब्दों तथा भावभंगिमाओं को परस्पर कैसे समझते हैं? ऐसे प्रश्नों का उत्तर केवल वैज्ञानिक पद्धति द्वारा ही दिया। जा सकता है।

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प्रश्न 2.
सामाजिक विज्ञान में विशेषकर समाजशास्त्र जैसे विषय में ‘वस्तुनिष्ठता के अधिक जटिल होने के क्या कारण हैं?
उत्तर
समाजशास्त्रीय अध्ययनों में प्राकृतिक विज्ञानों की भाँति प्रामाणिकता लाना कठिन है। समाज विज्ञानों के नियम प्राकृतिक विज्ञानों के नियमों की भाँति अटल नहीं होते, वे तो सामाजिक व्यवहार के संबंध में संभावित प्रवृत्ति को प्रकट करते हैं। ऐसी स्थिति के लिए अनेक कारक उत्तरदायी हैं; जैसे-सामाजिक प्रघटना का स्वभाव, ठोस मापदंडों को विकसित न होना आदि। इन्हीं कारणों में एक प्रमुख समस्या वस्तुनिष्ठता की भी है। किसी भी वैज्ञानिक अध्ययन एवं अनुसंधान की सफलता की। पूर्वापेक्षित शर्त वस्तुनिष्ठता है। इसके अभाव में अनुसंधान के द्वारा प्राप्त निष्कर्षों की विश्वसनीयता एवं प्रामाणिकता संदिग्ध हो जाती है। यही कारण है कि समाजशास्त्र में प्रारंभ से ही इस समस्या पर विचार किया जाता रहा है। वस्तुनिष्ठता का अभिप्राय घटना का यथार्थ या वास्तविक रूप में अर्थात् उसी रूप, में, जिसमें वे हैं, वर्णन करना है। यह एक तरह से वैज्ञानिक भावना है जो अनुसंधानकर्ता को उसके पूर्व दृष्टिकोणों से उसके अध्ययन को प्रभावित करने से रोकती है। यदि कोई अनुसंधानकर्ता किसी घटना का वर्णन उसी रूप में करता है जिसमें कि वह विद्यमान है, चाहे उसके बारे में अनुसंधानकर्ता के विचार कुछ भी क्यों न हों, तो हम इसे वस्तुनिष्ठ अध्ययन कह सकते हैं।

सामाजिक विज्ञान में; विशेषकर समाजशास्त्र जैसे विषय में ‘वस्तुनिष्ठता के अधिक जटिल होने के अनेक कारण हैं। एक तो अनुसंधानकर्ता स्वयं अपने मूल्य रखता है तथा उसका अध्ययन उसके मूल्यों एवं पूर्वाग्रहों द्वारा प्रभावित होता है। दूसरे, सामाजिक घटनाएँ जटिल होती हैं तथा उनका तटस्थ रूप से अध्ययन करना सम्भव नहीं है। कुछ विद्वानों (जैसे-मैक्स वेबर) , का कहना है कि सामाजिक-सांस्कृतिक घटनाओं की प्रकृति ही ऐसी है कि इनका पूर्ण रूप से वस्तुनिष्ठ अध्ययन किया। ही नहीं जा सकता, जबकि अनेक अन्य विद्वानों (जैसे-दुखम) का विचार है कि समाजशास्त्रीय अध्ययनों में वस्तुनिष्ठता रखना सम्भव है। दुर्णीम ने इस बात का दावा ही नहीं किया अपितु धर्म, श्रम-विभाजन एवं आत्महत्या जैसे सामाजिक तथ्यों का वस्तुनिष्ठ अध्ययन करने में सफलता भी प्राप्त की; परंतु फिर भी आज अनेक विद्वान यह मानते हैं कि सामाजिक घटनाओं की प्रकृति प्राकृतिक घटनाओं की प्रकृति से भिन्न है जिसके कारण इनको पूर्ण वस्तुनिष्ठ अध्ययन सम्भव नहीं है। हाँ, अनुसंधानकर्ता अनेक सावधानियों का प्रयोग कर अपने विचारों के प्रभावों अर्थात् व्यक्तिनिष्ठता या व्यक्तिपरकता को कम-से-कम करने का प्रयास कर सकता है।

प्रश्न 3.
वस्तुनिष्ठता को प्राप्त करने के लिए समाजशास्त्री को किस प्रकार की कठिनाइयों और प्रयत्नों से गुजरना पड़ता है?
उत्तर
प्रत्येक विज्ञान अपनी विषय-वस्तु का अध्ययन वस्तुनिष्ठ रूप से करने का प्रयास करता है, परंतु सामाजिक घटनाओं की प्रकृति के कारण समाजशास्त्र जैसे विषय में वस्तुनिष्ठता रख पाना एक कठिन कार्य है। इसमें आने वाली प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

  1. समस्या का चयन मूल्य-निर्णयों द्वारा प्रभावित–सामाजिक अनुसंधान में वस्तुनिष्ठता न रख पाने का सर्वप्रथम कारण अनुसंधान समस्या का चयन है जो कि अंवेषणकर्ता के मूल्यों तथा रुचियों द्वारा प्रभावित होता है। समस्या का चयन सदैव मूल्यों से संबंधित होता है और इसीलिए सामाजिक-सांस्कृतिक घटनाओं को पूर्ण रूप से वस्तुनिष्ठ अथवा वैज्ञानिक अध्ययन सम्भव नहीं है।
  2. अध्ययन से तटस्थता असंभव–सामाजिक अनुसंधान में जब हम व्यक्तियों एवं समूहों का अध्ययन करते हैं तो स्वयं एक सामाजिक प्राणी होने के कारण हम अध्ययन से अपने आप को तटस्थ अथवा पृथक् नहीं रख पाते। प्राकृतिक विज्ञानों में ऐसा इसलिए संभव हो जाता है क्योंकि उनमें जड़ या निर्जीव वस्तुओं का अध्ययन किया जाता है। स्वयं सामाजिक समूह, विशेष जाति एवं संप्रदाय का सदस्य होने के कारण अनुसंधानकर्ता का पक्षपात या किसी विशेष बात की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक ही है; अतः सामाजिक विज्ञानों में निष्कर्षों के अनुसंधानकर्ता की मनोवृत्तियों या मूल्यों द्वारा प्रभावित होने की संभावना अधिक होती है।
  3. बाह्य हितों द्वारा बाधा–सामाजिक विज्ञानों में वस्तुनिष्ठता से संबंधित तीसरी बाधा अनुसंधानकर्ता के बाह्य हित हैं। जब वह अपने समूह का अध्ययन करता है तो बहुत-सी बातों की, जिन्हें वह अनुचित मानता है, उपेक्षा कर देती है। दूसरी ओर, जब वह किसी दूसरे समूह को अध्ययन करता है तो वह ऐसी बातों की ओर अधिक ध्यान देता है। इससे अध्ययन की वस्तुनिष्ठता प्रभावित होती है।
  4. सामाजिक घटनाओं की प्रकृति-सामाजिक घटनाओं की प्रकृति भी सामाजिक विज्ञानों में वस्तुनिष्ठ अध्ययनों में एक बाधा है, क्योंकि इनकी प्रकृति गुणात्मक होती है और कई बार अनुसंधानकर्ता को समूह के सदस्यों की मनोवृत्तियों, मूल्यों एवं आदर्शों आदि का अध्ययन करना पड़ता है। इसीलिए उसके लिए परिशुद्ध एवं यथार्थ रूप में घटनाओं का निष्पक्ष अध्ययन . करना सम्भव नहीं रह पाती।
  5. संजातिकेंद्रवाद–अनुसंधानकर्ता स्वयं एक सामाजिक प्राणी है तथा वह किसी विशेष जाति, प्रजाति, वर्ग, लिंग समूह का सदस्य होने के नाते विभिन्न मानवीय क्रियाओं एवं सामाजिक पहलुओं के बारे में अपने विचार एवं मूल्ये रखता है। उसके ये विचार एवं मूल्य उसके अध्ययन को प्रभावित करते हैं। कुंडबर्ग (Lundberg) के अनुसार अनुसंधानकर्ता के नैतिक मूल्य का उसके अध्ययन पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है।

उपर्युक्त बाधाओं के अतिरिक्त अनेक अन्य ऐसे कारण भी हैं जो समाजशास्त्र जैसे सामाजिक विज्ञानों में होने वाले अध्ययनों में पक्षपात या अभिनति (Bias) लाते हैं। अभिनति के ऐसे प्रमुख स्रोत निम्नांकित हैं—

  1. अनुसंधानकर्ता के अपने मूल्यों से संबंधित अभिनति,
  2. सूचनादाता की अभिनति,
  3. निदर्शन के चुनाव में अभिनति,
  4. सामग्री संकलन करने की दोषपूर्ण प्रविधियाँ तथा
  5. सामग्री के विश्लेषण एवं निर्वचन में अभिनति।

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प्रश्न 4.
प्रतिबिंबता का क्या तात्पर्य है तथा यह समाजशास्त्र में क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर
समाजशास्त्र में अनुसंधानकर्ता के अपने मूल्यों एवं पूर्वाग्रहों द्वारा प्रभावित होने तथा इस नाते वस्तुनिष्ठ अध्ययन न कर पाने की समस्या का समाधान करने के अनेक उपाय खोजने का प्रयास किया गया है। इसकी पहली पद्धति अनुसंधान के विषय के बारे में अपनी भावनाओं तथा विचारों को लगातार कठोरता से जाँचना है। अधिकांशत: समाजशास्त्री अपने कार्य के लिए किसी बाहरी व्यक्ति के दृष्टिकोण को ग्रहण करने का प्रयास करते हैं वे अपने आपको तथा अपने अनुसंधान कार्यों को दूसरों की आँखों से देखने का प्रयास करते हैं। इसी पद्धति को प्रतिबिंबता’ अथवा ‘स्व-प्रतिबिंबता’ कहा जाता है। समाजशास्त्री लगातार अपनी मनोवृत्तियों तथा मतों की स्वयं जाँच करते रहते हैं। वह अपने अनुसंधान से संबंधित अन्य व्यक्तियों के मतों को सावधानीपूर्वक अपनाते रहते हैं। प्रतिबिंबता का एक व्यावहारिक पहलू किसी व्यक्ति द्वारा किए जा रहे कार्य का सावधानीपूर्वक वर्णन करना है। भले ही समाजशास्त्री वस्तुनिष्ठ होने का भरसक प्रयास क्यों न करें, तथापि अवचेतन पूर्वाग्रह की संभावना सदैव बनी रहती है। पाठकों को अपने पूर्वाग्रह की संभावना से सचेत कर उन्हें मानसिक रूप से इसकी क्षतिपूर्ति करने के लिए तैयार किया जा सकता है।

प्रश्न 5.
सहभागी प्रेक्षण के दौरान समाजशास्त्री और मानवविज्ञानी क्या कार्य करते हैं?
उत्तर
समाजशास्त्र तथा सामाजिक मानवशास्त्र में सहभागी अवलोकन (प्रेक्षण) एक लोकप्रिय पद्धति है जिसके द्वारा उस समाज, संस्कृति तथा उन लोगों के बारे में सीखने का प्रयास किया जाता है। जिनका कि अनुसंधानकर्ता अध्ययन कर रहा होता है। सहभागी अवलोकन के दौरान अनुसंधान के विषय के साथ लंबी अवधि की अंतक्रिया सम्मिलित होती है। अनुसंधानकर्ता कई महीने या लगभग एक वर्ष तक उन लोगों के बीच उनकी तरह बनकर रहता है जिनका वह अध्ययन कर रहा होता है। इस अवधि में वह उनका विश्वास प्राप्त करने का प्रयास करता है ताकि उसे ‘बाहरी व्यक्ति’ न माना जाए। यदि अध्ययन कर रहे लोगों को अनुसंधानकर्ता पर पूर्ण विश्वास न हो तो वे उसे सही सूचनाएँ प्रदान नहीं करते हैं। सहभागी अवलोकन का लक्ष्य समुदाय के जीने के संपूर्ण तरीके सीखना होता है। सहभागी अवलोकन को क्षेत्रीय कार्य भी कहा जाता है।

प्रश्न 6.
एक पद्धति के रूप में सहभागी प्रेक्षण की क्या-क्या खूबियाँ और कमियाँ हैं?
उत्तर
अध्ययन की किसी अन्य पद्धति की भॉति सहभागी प्रेक्षण की कुछ खूबियाँ भी हैं तथा कुछ कमियाँ भी। एक पद्धति के रूप में सहभागी प्रेक्षण की प्रमुख खूबियाँ निम्नलिखित हैं-

  1. सूक्ष्म रूप से घटना का अध्ययन–सहभागी प्रेक्षण में अनुसंधानकर्ता समुदाय के सदस्यों के साथ घुल-मिल जाता है, इसलिए यह प्रविधि सामाजिक घटनाओं का प्रत्यक्ष तथा सूक्ष्म रूप से गंभीरता से अध्ययन करती है। प्रेक्षणकर्ता को समूह की सदस्यता ग्रहण करने में ही अनेक महीने लग जाते हैं। वह घटनाओं को धैर्यपूर्ण ढंग से समझ सकता है।
  2. समूह के सदस्यों का सहयोग–सहभागी प्रेक्षण में अनुसंधानकर्ता समूह में काफी देर तक रहता है तथा उसका सदस्य बन जाता है। इसलिए अध्ययन-कार्य में उसे समूह के सदस्यों का सहयोग प्राप्त हो जाता है।
  3. विश्वसनीय सूचनाओं की प्राप्ति-सहभागी प्रेक्षण में निरीक्षणकर्ता व्यक्तिगत रूप से समुदाय का सदस्य रहता है। इसलिए समुदाय से संबंधित जो भी सूचनाएँ’ वह प्राप्त करता है वे विश्वसनीय होती हैं।
  4. विधि की सरलता सहभागी प्रेक्षण विधि किसी समुदाय या समूह का अध्ययन करने की | सरलतम विधि है, जिमसें किसी प्रकार का कोई अपव्यय नहीं होता।
  5. सूचनाओं की परीक्षा–सहभागी प्रेक्षण में जो सूचनाएँ प्राप्त की जाती हैं, उनकी परीक्षा कभी भी की जा सकती है। इसमें केवल सूचनाओं का संकलन ही सम्भव नहीं है, अपितु उनके अर्थ के संबंध में भी जानकारी प्राप्त होती है।
  6. रीति-रिवाजों का ज्ञान–सहभागी प्रेक्षण में अनुसंधानकर्ता अध्ययन किए जाने वाले समूह के सदस्यों के बीच जाकर बस जाता है, जिससे समूह के रीति-रिवाजों का अनुसंधानकर्ता को पूरा-पूरा ज्ञान हो जाता है। यह ज्ञान उसे सामाजिक घटनाओं को समझने में सहायता प्रदान करता है।

एक पद्धति के रूप में सहभारी प्रेक्षण की प्रमुख कमियाँ निम्नलिखित हैं-

  1. व्ययशील पद्धति–सहभागी प्रेक्षण एक खर्चीली पद्धति है, जिसमें अनुसंधानकर्ता को समूह का सदस्य बनने के लिए काफी समय सदस्यों का विश्वास प्राप्त करने में ही लग जाता है। अनुसंधानकर्ता को समस्या का अध्ययन करने के लिए अधिक समय और धन लगाना पड़ता है।
  2. अनुसंधानकर्ता पर निर्भरता-सहभागी प्रेक्षण की सफलता अनुसंधानकर्ता पर आधारित होती है; क्योंकि इसमें केवल एक ही व्यक्ति अनुसंधानकर्ता के रूप में कार्य करता है। यदि वह समूह के सदस्यों का ठीक प्रकार से विश्वास प्राप्त नहीं कर पाता तो वह अपने उद्देश्य में पूरी तरह से सफल नहीं हो सकता।
  3. वस्तुनिष्ठता का अभाव-सहभागी प्रेक्षण में तटस्थता का अभाव पाया जाता है, क्योंकि अनुसंधानकर्ता स्वयं ही समूह का सदस्य बन जाता है। वह निष्पक्ष भाव से समस्या का अध्ययन नहीं कर सकता। सहभागी प्रेक्षणकर्ता का समूह के साथ अनेक प्रकार का भावात्मक लगाव भी हो जाता है जो अध्ययन एवं प्रेक्षणकर्ता की वस्तुनिष्ठता को कम कर देता है।
  4. समस्याओं के विश्लेषण का अभाव-सहभागी प्रेक्षण में अनुसंधानकर्ता समुदाय का सदस्य। होने के कारण समुदाय की अनेक समस्याओं से परिचित हो जाता है, इसलिए बहुत-सी समस्याओं का विश्लेषण ही नहीं कर पाता। अनुसंधानकर्ता का प्रेक्षण उचित स्तर को नहीं रहता; क्योंकि वह समूह की विपत्तियों, प्रसन्नताओं तथा लड़ाई-झगड़ों से निरंतर प्रभावित होता रहता है, इसलिए उनका विश्लेषण भी नहीं कर पाता।
  5. पूर्ण सहभागिता संभव नहीं-बाहरी सदस्य के लिए प्रेक्षणित समूह अथवा समुदाय में पूर्ण रूप से भाग लेना सम्भव नहीं है क्योंकि बाहरी व्यक्ति होने के नाते उसे सदा संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। भिन्न संस्कृति होने के कारण भी समुदाय के सदस्यों में घुल-मिल जाना तथा ‘दिल की धड़कनें एक कर लेना’ सरल नहीं है। कुछ विद्वानों का कहना है कि समूह के सदस्यों * के विभिन्न प्रकार के कार्यों में सहायता करके, उनको अनिवार्य वस्तुएँ बाँटकर, उन्हें प्रभावित करके उनका विश्वास प्राप्त किया जा सकता है। परंतु यदि ऐसा किया जाता है तो प्रेक्षणकर्ता वास्तविक व्यवहार का अध्ययन ने करके कृत्रिम व्यवहार का अध्ययन ही कर पाएगा, क्योंकि इसमें पक्षपातपूर्ण अध्ययन हो सकता है।
  6. अनेक परिस्थितियों में सहभागिता असंभव–अनेक परिस्थितियाँ ऐसी हैं, जिनका सहभागी प्रेक्षण द्वारा अध्ययन नहीं किया जा सकता; क्योंकि प्रेक्षणकर्ता के लिए उनकी सदस्यता ग्रहण करना संभव नहीं है। उदाहरणार्थ-अगर हमें डाकूओं का अध्ययन करना है अथवा जेल के कैदियों या पुलिस के अफसरों अथवा लोकसभा के सदस्यों का अध्ययन करना है तो न तो हम डाकू बन सकते हैं, न जेल के कैदी, न पुलिस अफसर और न लोकसभा के सदस्य। इसलिए सहभागी प्रेक्षण का प्रयोग केवल सीमित परिस्थिति में ही किया जा सकता है।
  7. लघु समूहों का अध्ययन–सहभागी प्रेक्षण तभी प्रभावशाली हो सकता है जबकि समूह अथवा | समुदाय का आकार छोटा हो। विस्तृत क्षेत्र होने पर इस प्रविधि का प्रयोग करना संभव नहीं है; अतः क्षेत्र की दृष्टि से भी इसकी उपयोगिता सीमित है।
  8. भूमिका संतुलन की समस्या सहभागी प्रेक्षण में प्रेक्षणकर्ता को एक वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ता तथा समूह के सक्रिय सदस्य की दो भिन्न प्रकार की भूमिकाएँ निभानी पड़ती हैं। ऐसा अनिवार्य नहीं है कि वह इन विपरीत भूमिकाओं में संतुलन रख ही पीएं। यदि संतुलन नहीं रख पाता तो अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो सकती हैं।

उपर्युक्त कमियों के बावजूद सहभागी प्रेक्षण प्राचीन समाजों तथा जनजातियों के अध्ययन में लोकप्रिय तथा सबसे अधिक प्रचलित प्रविधि बनी हुई है।

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प्रश्न 7.
सर्वेक्षण पद्धति के आधारभूत तत्त्व क्या हैं? इस पद्धति का प्रमुख लाभ क्या है?
उत्तर
सामाजिक सर्वेक्षण अब तक ज्ञात सबसे अच्छी समाजशास्त्रीय पद्धति मानी जाती है। सर्वेक्षण आधुनिक सार्वजनिक जीवन का एक सामान्य हिस्सा बन गया है। सर्वेक्षण में संपूर्ण तथ्यों का पता लगाने का प्रयास किया जाता है। यह किसी विषय पर सावधानीपूर्वक चयन किए गए लोगों के प्रतिनिधि समग्र से प्राप्त सूचना का व्यापक दृष्टिकोण होता है। इसमें उत्तरदाता अनुसंधानकर्ता के समूह द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देते हैं। उत्तरदाताओं का चयन निदर्शन (प्रतिदर्श) द्वारा किया जाता है तथा इसीलिए इसे कई बार ‘प्रतिदर्श सर्वेक्षण’ भी कहा जाता है। प्रतिदर्श सर्वेक्षण पद्धति के प्रमुख लाभ निम्न प्रकार हैं-

  1. परिमाणात्मक सूचनाएँ-सामाजिक सर्वेक्षण विस्तृत सामग्री के संबंध में परिमाणात्मक सूचनाएँ प्रदान करने का मुख्य स्रोत है जिसमें सांख्यिकीय प्रविधियों को भी विस्तार से लागू किया जा सकता है।
  2. गुणात्मक सूचनाएँ-सामाजिक सर्वेक्षण परिमाणात्मक सूचनाओं के साथ-साथ गुणात्मक सूचनाओं के संकलन का भी एक अति उपयोगी साधन है।
  3. वैज्ञानिक परिशुद्धता-सामाजिक सर्वेक्षण द्वारा प्राप्त परिणाम एवं निष्कर्ष सूक्ष्म, उपयुक्त और विश्वसनीय होते हैं क्योंकि इसमें वैज्ञानिकता का गुण पाया जाता है अर्थात् संपूर्ण सर्वेक्षण वैज्ञानिक पद्धति द्वारा किया जाता है।
  4. वस्तुनिष्ठता-सामाजिक सर्वेक्षण में क्योंकि सामान्यत: अनेक सर्वेक्षणकर्ता कार्यरत होते हैं। अतः अध्ययन को उनके व्यक्तिगत विचारों एवं मनोभावनाओं द्वारा प्रभावित होने या किसी प्रकार का पक्षपात होने की संभावना बहुत कम होती है। वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करने तथा विषय-वस्तु से प्रत्यक्ष एवं निकट का संपर्क होने के कारण सर्वेक्षण द्वारा एकत्रित सूचनाएँ अधिक वस्तुनिष्ठ होती हैं।
  5. उपकल्पना का निर्माण एवं परीक्षण सामाजिक सर्वेक्षण उपकल्पना या प्रकल्पना के निर्माण में सहायता देते हैं तथा इतना ही नहीं अपितु इनसे संबंधित आँकड़े एकत्रित करके उनकी प्रामाणिकता की जाँच करने में भी सहायक होते हैं।

प्रश्न 8.
प्रतिदर्श प्रतिनिधित्व चयन के कुछ आधार बताएँ।
उत्तर
प्रतिदर्श प्रतिनिधित्व से अभिप्राय किसी विस्तृत समूह के एक अपेक्षाकृत लघु प्रतिनिधि से है। यह वह प्रतिदर्श है जिसमें समान संभावना या संयोग को महत्त्व दिया जाता है। दैव प्रतिदर्श (Random Sampling) संभावित प्रतिदर्श का प्रमुख प्रकार है। दैव प्रतिदर्श वह प्रतिदर्श है जिसमें समग्र की प्रत्येक इकाई के चुने जाने की संभावना या संयोग (Chance) एक समान होता है; अत: यह प्रतिदर्श पक्षपातरहित एवं समग्र का प्रतिनिधित्व करने वाला होता है। गुड एवं हैट (Goode and Hatt) के अनुसार, “दैव प्रतिदर्श में समग्र की इकाइयों को इस प्रकार से क्रमबद्ध किया जाता है कि चुनाव प्रक्रिया समग्र की प्रत्येक इकाई को चयन का समान अवसर प्रदान करती है। प्रतिदर्श प्रतिनिधित्व चयन के प्रमुख आधार अग्रांकित हैं-

  1. लाटरी पद्धति–यदि समग्र का आकार छोटा है तो सभी इकाइयों, को एक-से काजज की छोटी-छोटी पर्चियों पर लिखकर किसी ड्रम इत्यादि में डालकर हिलाया जाता है ताकि, पर्चियाँ आपस में इस प्रकार मिल जाएँ कि पक्षपात की कोई संभावना न रहे। फिर आँख बंद करके या किसी बच्चे की सहायता से एक-एक पर्ची निकाली जाती है। जितनी निदर्शने चाहिए उतनी पर्चियाँ एक-एक करके निकाल ली जाती हैं। कार्ड या निकट पद्धति भी इसी को ही कहते हैं, परंतु इसमें प्रत्येक पर्ची निकालने के बाद डुम को काफी हिलाया जाता है।
  2. ग्रिड पद्धति–इसे भौगोलिक क्षेत्र के किसी भाग को चुनने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। प्रस्तावित क्षेत्र पर एक पारदर्शी प्लेट रखी जाती है जिस पर विभिन्न भागों को संख्याओं के रूप में दिखाया जाता है। निदर्शन द्वारा संख्या एवं क्षेत्र का चयन किया जाता है।
  3. दैव संख्या सारणी पद्धति-जब समग्र का आकार बड़ा होता है तो लाटरी पद्धति को अपनाना एक कठिन कार्य हो जाता है; अतः दैव संख्या सारणी का प्रयोग किया जाता है। इन संख्याओं को वैज्ञानिक पद्धति द्वारा निर्धारित किया जाता है। सामान्यतः टिप्पेट (Tippet) अथवा फिशर | एवं येट्स (Fisher and Yates) की देव संख्या सारणी का प्रयोग किया जाता है। इस सारणी द्वारा निर्धारित संख्या इकाईयों का चयन किया जाता है। इसमें भी प्रत्येक इकाई चुने जाने की बराबर संभावना होती है।

प्रश्न 9.
सर्वेक्षण पद्धति की कुछ कमजोरियों का वर्णन करें।
उत्तर
सर्वेक्षण पद्धति की निम्नलिखित प्रमुख कमजोरियाँ हैं-

  1. अमूर्त घटनाओं का अध्ययन असंभव-सामाजिक सर्वेक्षण द्वारा केवल अवलोकनीय घटनाओं को ही अध्ययन संभव हो पाता है; हम इससे अमूर्त घटनाओं या किसी प्रकार की आंतरिक सूचना प्राप्त नहीं कर सकते हैं। विचारों, विश्वासों एवं व्यवहारों की जटिलता को समझने में अनेक विद्वानों ने सामाजिक सर्वेक्षणों को अनुपयुक्त बताया है।
  2. अत्यधिक समय एवं धन-सामाजिक सर्वेक्षण हेतु अत्यधिक समय एवं धन की आवश्यकता होती है। विविध प्रकार के साधनों (जैसे–अनुसूचियों, प्रश्नावलियों, साक्षात्कार, सांख्यिकीय विश्लेषण आदि) के प्रयोग के कारण सामाजिक सर्वेक्षण में पैसा ही अधिक खर्च नहीं होता अपितु अनेक सर्वेक्षण कई-कई साल तक चलते रहते हैं।
  3. निदर्शन त्रुटि–सामान्यतः निदर्शन सर्वेक्षणों में निदर्शन त्रुटि की संभावना अधिक होती है। क्योंकि बड़े एवं व्यापक स्तर पर होने वाले सर्वेक्षणों में निदर्शन की विश्वसनीयता की जाँच कराना एक कठिन कार्य होता है।
  4. अवास्तविक सूचनाएँ-सामाजिक सर्वेक्षण के अंतर्गत यह संभावना अधिक रहती है कि उत्तरदाता अपनी वास्तविक स्थिति से हटकर समाज द्वारा स्वीकृत मूल्यों एवं मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए यथार्थ सूचनाएँ न देकर गलत सूचनाएँ दे। सर्वेक्षण में व्यक्तिगत भिन्नता के कारण भी निष्कर्षों में पक्षपात हो सकता है।
  5. अध्ययन का सीमित क्षेत्र–सामाजिक सर्वेक्षण द्वारा किए जाने वाले अध्ययनों का क्षेत्र सीमित होता है, जिससे कई बार सामान्यीकरण करना तक कठिन हो जाता है। किसी एक सर्वेक्षण द्वारा हम किसी समस्या या समूह के एक ही पहलू या भाग का अध्ययन कर सकते हैं।
  6. पर्याप्त ज्ञान एवं प्रशिक्षण सामाजिक सर्वेक्षण के संचालन के लिए पर्याप्त ज्ञान एवं विशेषीकरण की आवश्यकता होती है। यदि बड़े पैमाने पर सर्वेक्षण किया जा रहा है तो उनके (सर्वेक्षकों के) प्रशिक्षण की समस्या आ सकती है क्योंकि प्रशिक्षित सर्वेक्षक बहुत कम मिलते हैं।
  7. सूचनाएँ सँभालने की समस्या सामाजिक सर्वेक्षण द्वारा काफी मात्रा में सूचनाओं या आँकड़ों का संकलन किया जाता है परंतु संकलन करने के पश्चात् इन्हें सँभालना तथा इनका समुचित प्रयोग करना एक कठिन कार्य हो जाता है। यदि सूचनाएँ गुणात्मक प्रकृति की हैं तो यह कार्य और भी कठिन हो जाता है।
  8. सूचनाएँ प्राप्त करने में कठिनाई-सामाजिक सर्वेक्षण में सूचनाएँ एकत्रित करना भी एक कठिन कार्य है। यदि अनुसंधान उपकरण जैसे कि अनुसूची अधिक विस्तृत एवं लंी है तो सूचनादाता उत्तर देते-देते उकता जाते हैं और बिना सोचे-समझे उत्तर देने लगते हैं। साथ ही, युवा अविवाहित लड़कियों तथा नवविवाहित स्त्रियों तक पहुँच पाना और उनसे सूचनाएँ एकत्रित कर पाना भी एक कठिन कार्य है।

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प्रश्न 10.
अनुसंधान पद्धति के रूप में साक्षात्कार के प्रमुख लक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर
साक्षात्कार दो या दो से अधिक व्यक्तियों की आमने-सामने होने वाली एक बैठक है। इसमें एक पक्ष तो साक्षात्कारकर्ता का है, जबकि दूसरा पक्ष एक या अधिक सूचनादाताओं की है। आज इसका प्रयोग निरंतर बढ़ता जा रहा है। अनुसंधान पद्धति के रूप में साक्षात्कार के प्रमुख लक्षण निम्नांकित हैं-

  1. अनुसंधान की प्रविधि-साक्षात्कार सामाजिक अनुसंधान एवं सर्वेक्षणों में प्रयोग की जाने वाली एक प्रविधि है, जिसका उद्देश्य समस्या की प्रकृति के अनुरूप सूचनादाताओं से सूचना एकत्रित करने में सहायता प्रदान करना है। यह आँकड़े एकत्रित करने की अपने में पूर्ण प्रविधि है; यद्यपि इसका प्रयोग एक सहायक अथवा पूरक प्रविधि के रूप में भी किया जाता है।
  2. प्रत्यक्ष संपर्क–साक्षात्कार, जैसाकि इसकी परिभाषाओं से ही स्पष्ट है, आमने-सामने की एक बैठक है, जिसमें साक्षात्कारकर्ता एवं सूचनादाता प्रत्यक्ष संपर्क स्थापित करते हैं; अर्थात् आमने-सामने बैठकर समस्या के बारे में वार्तालाप द्वारा साक्षात्कारकर्ता सूचनादाता से सूचनाएँ एकत्रित करता है।
  3. सर्वाधिक प्रचलित प्रविधि–साक्षात्कार सामाजिक अन्वेषण एवं सर्वेक्षणों में प्रयोग होने वाली सर्वाधिक प्रचलित प्रविधि है। आज अधिकांश अध्ययनों से इसे एक स्वतंत्र प्रविधि के रूप में अथवा सहायक या पूरक प्रविधि के रूप में अपनाया जा रहा है।
  4. अधिकतम जानकारी-प्रत्यक्ष या आमने-सामने का संपर्क होने के कारण साक्षात्कार प्रविधि द्वारा साक्षात्कारकर्ता सूचनादाता से अधिकतम सूचनाएँ एकत्रित कर लेता है। यदि संपर्क ठीक प्रकार से हुआ है तो सूचनादाता समस्या के सभी पहलुओं के बारे में विस्तृत जानकारी दे देता है।
  5. प्रमाणिक सूचनाएँ-साक्षात्कार द्वारा एकत्रित सूचनाएँ अधिक प्रमाणित होती हैं। मोजर (Moser) ने अपनी परिभाषा में ही इस तथ्य की महत्ता पर बल दिया है। बड़े सर्वेक्षणों में यह निश्चित रूप से अन्य प्रविधियों की तुलना में अधिक प्रमाणित सूचनाएँ एकत्रित करने में सहायक है।
  6. सभी प्रकार के सूचनादाताओं के लिए उपयोगी–साक्षात्कार एक ऐसी प्रविधि है, जो सभी प्रकार के सूचनादाताओं से सूचना एकत्रित करने में सहायक है। इसमें सूचनादाताओं को पढ़ा-लिखा होना अनिवार्य नहीं है (जैसा कि प्रश्नावली में है), अपितु यह सभी प्रकार की पृष्ठभूमि के सूचनादाताओं से सूचना एकत्रित करने में सहायक है।

क्रियाकलाप आधारित प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्या आप दूसरों को जैसे देखते हैं, उसी तरह अपने आपको भी देख सकते हैं? (क्रियाकलाप 1)
उत्तर
समाजशास्त्र में वस्तुनिष्ठता बनाए रखने के लिए जिन पद्धतियों को अपनाया जाता है उनमें से एक अपने आप को दूसरों की नजरों से देखना है। यह एक प्रकार से अन्य लोगों (जैसे अपने श्रेष्ठ मित्रों, अपने विरोधियों, अपने शिक्षकों आदि) के दृष्टिकोण से अपने आपको देखना है। प्रत्येक छात्र इस पद्धति द्वारा अपना स्वमूल्यांकन कर सकता है अर्थात् यह जान सकता है कि दूसरे उसके बारे में क्या सोचते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि यदि हमें इस बात का आभास हो जाए कि दूसरे हमारे बारे में कोई अच्छी छवि नहीं रखते तो हम अपने आचरण में सुधार लाने का भी प्रयास करते हैं।

प्रश्न 2.
क्षेत्रीय कार्य जिन स्थानों पर हुए हैं उनमें क्या समान है? एक मानवविज्ञानी के लिए इन ‘अनजानी संस्कृतियों में रहना कैसा रहा होगा? उन्होंने क्या-क्या कठिनाइयाँ सहन की होंगी? (क्रियाकलाप 2)
उत्तर
क्षेत्रीय कार्य से अभिप्राय अध्ययन के क्षेत्र में जाकर अनुसंधान संबंधी आँकड़े संकलन करने से है। यह पद्धति सहभागी अवलोकन के रूप में भी हो सकती है अथवा असहभागी अवलोकन के रूप में भी। जेम्स फ्रेजर, इमाईल दुर्णीम तथा मेनिस्लाव मैलिनोव्स्की द्वारा किए गए क्षेत्रीय अध्ययन में सबसे प्रमुख समानता यह रही है कि ऐसे सभी अध्ययन आदिम या जनजातियों से संबंधित हैं। इन अध्ययनों में सहभागी अवलोकन पद्धति का प्रयोग किया गया है। सहभागी अवलोकन पद्धति में जब कोई मानवविज्ञानी जनजातीय संस्कृति में रहता है तो उसे अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उसे भाषा समझने, खान-पान तथा जनजातीय लोगों का विश्वास जीतने जैसी अनेक समस्याओं से जूझना पड़ता है। जनजातीय लोग बाहरी लोगों को शक की निगाहों से देखते हैं तथा सरलता से उन पर विश्वास नहीं करते हैं। इसलिए मानवविज्ञानी को पहले कुछ महीने बिना किसी प्रकार का अध्ययन किए इन लोगों का विश्वास प्राप्त करना होता है। कई बार ऐसा करने के लिए मानवविज्ञानी अपने आपको पर्यावरणवादी या संगीतकार या समाज-सुधारक के रूप में भी प्रस्तुत कर सकता है।

प्रश्न 3.
यदि आप गाँव में रहते हैं तो अपने गाँव के बारे में ऐसे व्यक्ति को बताने की कोशिश करें जो वहाँ कभी न गया हो। गाँव में आपके जीवन के वे कौन-से मुख्य लक्षण होंगे जिन्हें आप महत्त्व देना चाहेंगे? (क्रियाकलाप 3)
उत्तर
गाँव में रहने वाले व्यक्ति के लिए अपने गाँव के बारे में किसी अन्य व्यक्ति को बताने में ज्यादा सोचना नहीं पड़ता है। वह अपने गाँव की भौगोलिक स्थिति, जनसंख्या, जातीय संरचना, भू-स्वामित्व के प्रतिमान, व्यवसाय, आवास के प्रकार, खेतों में उगाई जाने वाली फसलों, ग्रामीण परिवारों, ग्रामवासियों में पाए जाने वाले पारस्परिक संबंधों, ग्राम पंचायत की गतिविधियों इत्यादि के बारे में विस्तार में बता सकता है। ऐसा करते समय बताए जाने वाले व्यक्ति को यह अहसास होना चाहिए कि उसने वास्तव में गाँव न देखकर भी गाँव की झलक प्राप्त कर ली है। गाँव में कच्चे एवं पक्के दोनों प्रकार के घर पाए जाते हैं। मुख्य सड़क से गाँव तक का रास्ता पक्का या खड्जे वाला हो। सकता है। गलियों में भी दोनों तरफ नालियाँ तथा बीच में खड़ेजा या कच्चा रास्ता हो सकता है। नालियों में प्रायः गंदगी रहती है तथा गलियों में भी नाली का पानी इधर-उधर से बाहर निकला हुआ दिखाई दे सकता है। ग्रामवासी कृषि से संबंधित क्रियाओं पर ही अपना ध्यान अधिक केंद्रित करते हैं। अधिकांश परिवारों की प्रकृति संयुक्त परिवार पद्धति वाली होती है तथा परिवारों का आकार भी अपेक्षाकृत बड़ा होता है। बड़े-बूढ़े छोटों का न केवल समाजीकरण करते हैं, अपतुि प्रत्येक सदस्य पर नियंत्रण भी रखते हैं। प्रत्येक सदस्य का प्रयास यह होता है कि वह कोई ऐसा कार्य न करे जिससे परिवार की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचे। ग्रामवासियों में संबंध प्रत्यक्ष एवं व्यक्तिगत होते हैं तथा उनमें सामुदायिक भावना पाई जाती है। गाँव में विभिन्न जातियों में पाया जाने वाला सामाजिक स्तरीकरण एवं भेदभाव स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। हो सकता है कि विभिन्न जातियों में सेवाओं का विनिमय भी पाया जाता है जिसे समाजशास्त्र में जजमानी व्यवस्था’ कहा जाता है। गाँव में उपलब्ध सुविधाओं का जिक्र भी किया जा सकता है जिससे बताने वाले को पता चल सके कि गाँव किस सीमा तक सार्वजनिक सुविधाओं की दृष्टि से पिछड़े हुए हैं।

प्रश्न 4.
आपने फिल्मों या टेलीविजन पर दिखाए गए गाँवों अथवा कस्बों को भी अवश्य देखा होगा। आप इन गाँवों अथवा कस्बों के बारे में क्या सोचते हैं तथा ये आपके गाँव अथवा कस्बे से किस प्रकार भिन्न हैं? क्या आप इनमें रहना पसंद करेंगे? अषमे उत्तर के पक्ष में कारण बताएँ। (क्रियाकलाप 3)
उत्तर
फिल्मों या टेलीविजन पर दिखाए गए गाँवों अथवा कस्बों को यथासंभव वास्तविक गाँव अथवा कस्बे के रूप में दर्शाने का प्रयास किया जाता है। फिर भी, अनेक फिल्मों में अधिकांश दृश्य स्टूडियों में फिल्माए जाते हैं इसलिए कृत्रिम रूप से गाँव एवं कस्बे के दृश्यों को भी दिखाया जा सकता है। इसीलिए अधिकांशतः फिल्मों या टेलीविजन पर दिखाए गए गाँवों अथवा कस्बों को जिस रूप में दर्शाया जाता है वह वास्तविक गाँवों एवं कस्बों के वास्तविक रूप से भिन्न होता है। वस्तुत: भारत में गाँव एवं कस्बे भी एक जैसे नहीं हैं। आकार की दृष्टि से वे बड़े, मध्यम अथवा छोटे हो सकते हैं तथा सुविधाओं की दृष्टि से पूर्ण सुविधायुक्त, आंशिक सुविधायुक्त अथवा असुविधायुक्त भी हो सकते हैं। बहुत-से-गाँव नगरीकृत अथवा अर्द्ध-नगरीकृत भी हो सकते हैं। इन गाँवों में अन्य गाँवों की तुलना में अधिक साफ-सफाई एवं सुविधाएँ हो सकती हैं। ऐसे ही खेतों के आकार में भी अंतर हो सकता है। इसी भाँति, कस्बे भी आकार में बड़े, मध्यम एवं छोटे तथा सुविधाओं से दृष्टि से पूर्ण सुविधायुक्त, आंशिक सुविधायुक्त अथवा असुविधायुक्त हो सकते हैं। फिल्मों या टेलीविजन पर दिखाए गए गाँवों अथवा कस्बों में प्राय: वास्तविक गाँवों एवं कस्बों से अधिक साफ-सफाई एवं सुविधाएँ दिखाई जाती हैं। कोई भी ग्राम या कस्बे में रहने वाला व्यक्ति यह सोच सकता है कि काश उसका गाँव या कस्बा भी फिल्मों या टेलीविजन पर दिखाए गए गाँवों अथवा कस्बों की भाँति होता। न रहने वाला व्यक्ति भी फिल्म से प्रोत्साहित होकर वहाँ रहने की इच्छुक हो सकता है। इस प्रकार, फिल्मों या टेलीविजन पर दिखाए गए गाँव अथवा कस्बे संदर्भ भी भूमिका भी निभाते हैं।

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प्रश्न 5.
अपने समूह में उन सर्वेक्षणों के बारे में चर्चा कीजिए जिनके बारे में आप जानते हैं। (क्रियाकलाप 4)
उत्तर
चुनाव के समय अनेक टेलीविजन चैनलों एवं अनुसंधान संस्थानों द्वारा अलग-अलग अथवा संयुक्त रूप से चुनाव सर्वेक्षण करवाए जाते हैं। यह सर्वेक्षण किसी अन्य समस्या (जैसे भारत में बढ़ती हुई हिंसा, भ्रष्टाचार, महँगाई इत्यादि) को लेकर समाचार-पत्रों या टेलीविजन माध्यमों द्वारा किए गए अन्य लघु सर्वेक्षण भी हो सकते हैं। अभी उत्तराखंड तथा पंजाब विधानसभाओं के लिए चुनाव से संबंधित जो चुनाव सर्वेक्षण किए गए थे उनमें कांग्रेस की पराजय का अनुमान सामने उभरकर आया था। जब मतों की गिनती द्वारा नतीजों की घोषणा की गई तो यह अनुमान काफी सीमा तक सही पाया गया। यदि सर्वेक्षण में सम्मिलित सूचनादाताओं का चयन प्रतिनिधित्व प्रतिदर्श द्वारा किया गया है तो अनुमान सही होने की काफी संभावना बनी रहती है। जब इन चुनाव सर्वेक्षण के परिणाम घोषित किए गए तो इनमें रही सीमांत त्रुटि के बारे में भी विश्लेषकों ने विस्तार से बताया था। चूंकि कुछ सर्वेक्षणों में सम्मिलित सूचनादाताओं का आकार समग्र की दृष्टि से अत्यंत छोटा होता है तथा चयन की पद्धति भी संभावित प्रतिदर्श जैसी नहीं होती, इसलिए इन सर्वेक्षणों के परिणाम त्रुटिपूर्ण भी हो सकते हैं।

प्रश्न 6.
यदि आपके सर्वेक्षण का उद्देश्य यह पता लगाना है कि जिन विद्यार्थियों के अनेक भाई तथा बहन हैं, वे विद्यार्थियों की तुलना में, जिनका एक भाई या बहन (या कोई भी नहीं है, पढाई में अच्छे हैं या बुरे तो आप अपने स्कूल के सभी विद्यार्थियों में से प्रतिनिधि प्रतिदर्श का चयन करने के लिए क्या करेंगे? (क्रियाकलाप 5)
उत्तर
पहले स्कूल में पढ़ने वाले सभी विद्यार्थियों के बारे में अनेक भाई-बहनों की जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया जाएगा। फिर इन विद्यार्थियों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जाएगा। पहली श्रेणी उन विद्यार्थियों की होगी जिनके अनेक भाई तथा बहन हैं। दूसरी श्रेणी उन विद्यार्थियों की होगी जिनका केवल एक भाई या बहन है अथवा कोई भी बहन-भाई नहीं है। इन दोनों श्रेणियों के विद्यार्थियों के पढ़ाई के स्तर को भी ज्ञात करने का प्रयास किया जाएगा। यदि दोनों श्रेणियों के विद्यार्थियों की संख्या अधिक होगी तो उपयुक्त पद्धति द्वारा प्रतिदर्श प्रतिनिधित्व चयन करने का प्रयास किया जाएगा। इसके लिए लाटरी पद्धति, ग्रिड पद्धति अथवा दैव संख्या सारणी पद्धति का प्रयोग किया जा सकता है। यदि आप इनमें से किसी एक पद्धति द्वारा उनमें से 10 प्रतिशत छात्राओं के चयन करते हैं तो चयनित प्रतिदर्श को प्रतिनिधि प्रतिदर्श कहा जाएगा।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
‘डिक्शनरी ऑफ सोशियोलोजी पुस्तक के लेखक कौन हैं?
(क) फेयरचाइल्ड
(ख) लिंडमैन
(ग) वेल्स
(घ) गुड एंड हैट
उत्तर
(क) फेयरचाइल्ड

प्रश्न 2.
अवलोकन में मुख्य रूप से कौन-सी ज्ञानेंद्रिय का प्रयोग किया जाता है?
(क) हाथों को
(ख) कानों का
(ग) आँखों का
(घ) मुंह का
उत्तर
(ग) आँखों का

प्रश्न 3.
‘सोशल डिस्कवरी’ नामक पुस्तक के लेखक हैं-
(क) फेयरचाइल्ड
(ख) मैकाइवर एवं पेज।
(ग) रोबर्ट के० मर्टन
(घ) लिंडमैन
उत्तर
(घ) लिंडमैन

प्रश्न 4.
निम्न में से कौन-सा साक्षात्कार किसी सामाजिक घटना के कारणों की खोज करने से संबंधित है?
(क) उपचार-संबंधी साक्षात्कार
(ख) कारक-परीक्षक साक्षात्कार
(ग) अनौपचारिक साक्षात्कार
(घ) पुनरावृत्ति साक्षात्कार
उत्तर
(ख) कारक-परीक्षक साक्षात्कार

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प्रश्न 5.
अण्डमान निकोबार द्वीपों का अध्ययन किसने किया?
(क) ईवान्स प्रिचार्ड।
(ख) विलियम वाइजर
(ग) रैडक्लिफ ब्राउन
(घ) एस०सी० दुबे
उत्तर
(ग) रेडक्लिफ ब्राउन

प्रश्न 6.
इंडियन विलेज’ नामक पुस्तक के लेखक कौन हैं?
(क) एस०सी० दुबे
(ख) फेयरचाइल्ड
(ग) एम०एन० श्रीनिवा
(घ) ऑस्कर लेविस
उत्तर
(क) एस०सी० दुबे

प्रश्न 7.
“साक्षात्कार मौखिक रूप से सामाजिक अंतः क्रिया की एक प्रक्रिया है, यह कथन किसका
(क) एम०एन० बसु,
(ख) पी०वी० यंग
(ग) सी०ए० मोजर
(घ) गुड एवं हैट
उत्तर
(घ) गुड एवं हैट

निश्चित उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
अनुसंधानकर्ता को सामाजिक अनुसंधान में विशिष्ट नजरिया किसके द्वारा प्रदान किया जाता है।
उत्तर
अनुसंधानकर्ता को सामाजिक अनुसंधान में विशिष्ट नजरिया पद्धति द्वारा प्रदान किया जाता है।

प्रश्न 2.
‘पद्धति’ शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से किस अर्थ में किया जाता है?
उत्तर
‘पद्धति’ शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से वैज्ञानिक पद्धति के अर्थ में किया जाता है।

प्रश्न 3.
सामाजिक अनुसंधान में सूचनाएँ किसके द्वारा संकलित की जाती हैं?
उत्तर
सामाजिक अनुसंधान में सूचनाएँ यंत्र या तकनीक द्वारा संकलित की जाती हैं।

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प्रश्न 4.
अवलोकने का प्रयोग किस प्रकार की सामग्री के संकलन के लिए किया जाता है?
उत्तर
अवलोकन का प्रयोग प्राथमिक सामग्री के संकलन के लिए किया जाता है।

प्रश्न 5.
अवलोकन में मुख्य रूप से किस ज्ञानेंद्रिय द्वारा सामग्री का संकलन किया जाता है?
उत्तर
अवलोकन में आँखों द्वारा सामग्री का संकलन किया जाता है।

प्रश्न 6.
सामाजिक, प्राकृतिक एवं भौतिक विज्ञानों में सर्वाधिक प्रचलित प्रविधि कौन-सी है?
उत्तर
सामाजिक, प्राकृतिक एवं भौतिक विज्ञानों में सर्वाधिक प्रचलित प्रविधि अवलोकन है।

प्रश्न 7.
सहभागी तथा असहभागी अवलोकन शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किस विद्वान ने किया था?
उत्तर
सहभागी तथा असहभागी अवलोकन शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम लिंडमैन ने किया था।

प्रश्न 8.
‘सर्वेक्षण का शाब्दिक अर्थ क्या है?
उत्तर
‘सर्वेक्षण’ अंग्रेजी के सर्वे शब्द का हिंदी रूपान्तरण है जिसका शाब्दिक अर्थ ‘ऊपर देखना है।

प्रश्न 9.
किस विद्वान ने सामाजिक घटनाओं के वर्णन को सामाजिक सर्वेक्षण का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य बताया है?
उत्तर
मोजर एवं कैल्टन ने सामाजिक घटनाओं के वर्णन को सामाजिक सर्वेक्षण का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य बताया है।

प्रश्न 10.
बर्गेस ने सामाजिक सर्वेक्षण के किस उद्देश्य को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना है?
उत्तर
बर्गेस ने रचनात्मक कार्यक्रम बनाने को सामाजिक सर्वेक्षण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य माना है।

प्रश्न 11.
टेलीफोन पर सूचनाएँ संकलित किए जाने वाले सर्वेक्षण को क्या कहा जाता है?
उत्तर
टेलीफोन पर सूचनाएँ संकलित किए जाने वाले सर्वेक्षण को टेलीफोन सर्वेक्षण’ कहा जाता है।

प्रश्न 12.
सामाजिक सर्वेक्षण में मुख्य रूप से किस पद्धति का प्रयोग किया जाता है?
उत्तर
सामाजिक सर्वेक्षण में मुख्य रूप से वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जाता है।

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प्रश्न 13.
साक्षात्कार का शाब्दिक अर्थ क्या है?
उत्तर
साक्षात्कार का शाब्दिक अर्थ ‘सूचनादाता के आंतरिक जीवन को देखना है।

प्रश्न 14.
सूचनादाताओं की भावनाओं, अनुभवों, संवेगों तथा मनोवृत्तियों के अध्ययन में कौन-सी प्रविधि सर्वाधिक उपुयक्त है?
उत्तर
साक्षात्कार सूचनादाताओं की भावनाओं, अनुभवों, संवेगों तथा मनोवृत्तियों के अध्ययन में सर्वाधिक उपयुक्त प्रविधि है।

प्रश्न 15.
साक्षात्कार की उपयुक्त परिभाषा लिखिए।
उत्तर
गुड एवं हैट के शब्दों में, “साक्षात्कार मौखिक रूप से सामाजिक अंतक्रिया की एक प्रक्रिया है।”

प्रश्न 16.
वह कौन-सा साक्षात्कार है जो किसी सामाजिक घटना के कारणों की खोज करने से संबंधित है?
उत्तर
वह साक्षात्कार ‘कारक-परीक्षक साक्षात्कार’ कहलाता है।

प्रश्न 17.
वह कौन-सा साक्षात्कार है जो किसी सामाजिक समस्या को दूर करने के उपायों की खोज करने से संबंधित है?
उत्तर
वह साक्षात्कार ‘उपचार-संबंधी साक्षात्कार’ कहलाता है।

प्रश्न 18.
वह कौन-सा साक्षात्कार है, जिसमें अनुसंधानकर्ता सूचनादाता से पूर्वनिर्मित प्रश्न नहीं पूछता है?
उत्तर
वह साक्षात्कार ‘अनौपचारिक साक्षात्कार’ है।

प्रश्न 19.
वह कौन-सा साक्षात्कार है, जिसमें अनुसंधानकर्ता सूचनादाताओं से एक से अधिक बार साक्षात्कार करके सूचना संकलित करता है?
उत्तर
वह साक्षात्कार ‘पुनरावृत्ति साक्षात्कार’ है।।

प्रश्न 20.
मैलिनोव्स्की किसके लिए प्रसिद्ध हैं?
उत्तर
मैलिनोव्स्की ट्रोबियाण्ड द्वीपों में रहने वाले निवासियों के क्षेत्रीय कार्य करने के लिए प्रसिद्ध हैं।

प्रश्न 21.
मैलिनोव्स्की कहाँ के रहने वाले थे?
उत्तर
मैलिनोव्स्की पोलैंड में जन्मे मानवशास्त्री थे जो ब्रिटेन में बसे हुए थे।

प्रश्न 22.
मानवशास्त्रियों ने जनजातियों के अध्ययन हेतु किस पद्धति को अपनाया है?
उत्तर
मानवशास्त्रियों ने जनजातियों के अध्ययन हेतु मुख्य रूप से सहभागी अवलोकन की पद्धति को अपनाया है।

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प्रश्न 23.
भारत में क्षेत्रीय कार्य पर आधारित ग्रामीण समाज को समझने वाले किसी एक समाजशास्त्री का नाम लिखिए।
उत्तर
एम०एन० श्रीनिवास ने क्षेत्रीय कार्य पर आधारित ग्रामीण समाज को समझने का प्रयास किया है। उन्होंने मैसूर के निकट रामपुरा गाँव का अध्ययन किया है।

प्रश्न 24.
एस०सी० दुबे ने किस गाँव का अध्ययन किया है?
उत्तर
एस०सी० दुबे ने आंध्र प्रदेश में सिकंदराबाद के निकट समीरपेट नामक गाँव का अध्ययन किया है।

प्रश्न 25.
प्रतिदर्श किसे कहते हैं?
उत्तर
किसी बड़ी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाले छोटे भाग को प्रतिदर्श कहते हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
पद्धति किसे कहते हैं?
उत्तर
अध्ययन-वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने हेतु जिन निश्चित तरीकों का प्रयोग किया जाता है उन्हें सामाजिक अनुसंधान में पद्धति कहा जाता है।

प्रश्न 2.
स्वाभाविकता के आधार पर नियंत्रित एवं अनियंत्रित अवलोकन में क्या अंतर है?
उत्तर
अनियंत्रित अवलोकन में स्वाभाविक व्यवहार का अवलोकन किया जाता है, जबकि नियंत्रित अवलोकन कृत्रिम होता है क्योंकि यह अस्वाभाविक परिस्थितियों में किया जाता है।”

प्रश्न 3.
पुनरावृत्ति की दृष्टि से नियंत्रित एवं अनियंत्रित अवलोकन में क्या अंतर है?
उत्तर
अनियंत्रित अवलोकन की पुनरावृत्ति नहीं की जा सकती, जबकि नियंत्रित अवलोकन में पुनरावृत्ति सम्भव है।

प्रश्न 4.
पक्षपात की दृष्टि से नियंत्रित एवं अनियंत्रित अवलोकन में क्या अंतर है?
उत्तर
अनियंत्रित अवलोकन में पक्षपात की संभावना रहती है, जबकि नियंत्रित अवलोकन में पक्षपात की कोई संभावना नहीं होती है।

प्रश्न 5.
समय एवं धन की दृष्टि से सामाजिक सर्वेक्षण को क्या दोष है?
उत्तर
समय एवं धन की दृष्टि से सामाजिक सर्वेक्षण का दोष यह है कि इसमें समय भी अधिक लगता है तथा धन भी अधिक व्यय होता है।

प्रश्न 6.
अध्ययन-क्षेत्र की दष्टि से सामाजिक सर्वेक्षण एवं सामाजिक अनुसंधान में क्या अंतर है?
उत्तर
सामाजिक सर्वेक्षण का अध्ययन-क्षेत्र सीमित होता है, जबकि सामाजिक अनुसंधान का व्यापक होता है।

प्रश्न 7.
प्रकृति के आधार पर सामाजिक सर्वेक्षण एवं सामाजिक अनुसंधान में क्या अंतर है?
उत्तर
सामाजिक सर्वेक्षण की प्रकृति मूल रूप से व्यावहारिक होती है, जबकि सामाजिक अनुसंधान की प्रकृति मुख्यतया सैद्धांतिक होती है।

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प्रश्न 8.
जनगणना किसे कहते हैं?
उत्तर
जनगणना एक व्यापक सर्वेक्षण है जिसमें किसी देश की जनसंख्या का प्रत्येक सदस्य सम्मिलित रहता है।

प्रश्न 9.
वंशावली किसे कहते हैं?
उत्तर
वंशावली से अभिप्राय एक विस्तृत वंशवृक्ष से है जो विभिन्न पीढ़ियों के सदस्यों के पारिवारिक संबंधों को दर्शाता है।

प्रश्न 10.
प्रतिबिंबता किसे कहते हैं?
उत्तर
प्रतिबिंबता से अभिप्राय किसी अनुसंधानकर्ता की उस क्षमता से है जिसमें वह स्वयं का प्रेक्षण और विश्लेषण अन्य लोगों की दृष्टि से करता है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
अवलोकन किसे कहते हैं?
या
अवलोकन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
‘अवलोकन’ का शाब्दिक अर्थ ‘देखना है। इसे ‘निरीक्षण’ भी कहते हैं। अवलोकन, निरीक्षण अथवा प्रेक्षण का सभी प्रकार के विज्ञानों में महत्त्वपूर्ण स्थान है; क्योंकि हम सभी प्रकार की समस्याओं एवं घटनाओं को आँखों से देखकर पहचान सकते हैं। इस प्रकार अवलोकन किसी अध्ययन-वस्तु को निष्पक्ष भाव से देखने की वह प्रणाली है, जिसके द्वारा अनुसंधानकर्ता अध्ययन-वस्तु के संबंध में कुछ ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करता है। मोजर के अनुसार, “अवलोकन को सुंदर ढंग से वैज्ञानिक जाँच-पड़ताल की पद्धति कहा जा सकता है। ठोस अर्थों में अवलोकन में कानों तथा वाणी की अपेक्षा आँखों का प्रयोग होता है।”

प्रश्न 2.
अवलोकन की दो प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर
अवलोकन की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. मानव-इंद्रियों, विशेष रूप से आँखों का प्रयोग–अवलोकन में मानव इंद्रियों; विशेष रूप से आँखों का प्रयोग किया जाता है। इसलिए इसे ‘आँखों द्वारा देखने की एक कला’ कहा गया है, जिससे अध्ययन-वस्तु से संबंधित प्राथमिक सामग्री का संचय किया जात है। मोजर ने ठीक ही कहा है कि “ठोस अर्थ में अवलोकन में कानों और वाणी की अपेक्षा आँखों का अधिक प्रयोग होता है।’
  2. मूलभूत वैज्ञानिक पद्धति–अवलोकन को एक मूलभूत वैज्ञानिक पद्धति माना गया है; क्योंकि यह प्रत्येक विषय (चाहे वह प्राकृतिक विज्ञान है अथवा सामाजिक विज्ञान) में सामान्य रूप से प्रयोग की जाती है। एक मौलिक पद्धति होने के नाते इसके द्वारा विश्वसनीय सूचनाएँ एकत्रित की जा सकती हैं।

प्रश्न 3.
अनियंत्रित अथवा साधारण अवलोकन किसे कहते हैं?
उत्तर
जब अनुसंधानकर्ता किन्हीं प्राकृतिक अवस्थाओं का अध्ययन करने हेतु कुछ क्रियाओं का निरीक्षण करता है तो वह अपने निरीक्षण कार्य में पूर्ण स्वतंत्र होता है। उसके इस कार्य में किसी बाह्य शक्ति या आंतरिक भावना का कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। इस प्रकार की स्वतंत्र निरीक्षण विधि में अनुसंधानकर्ता को आंतरिक या बाह्य किसी भी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं होता। इसलिए इस अवलोकन को समाजशास्त्रियों ने ‘अनियंत्रित अवलोकन’ की संज्ञा दी है। इस प्रकार क अवलोकन से अनुसंधानकर्ता अध्ययन-वस्तु से संबंधित सम्पूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर लेता है। पी०वी० यंग ने लिखा है। कि “अनियंत्रित अवलोकनों में जीवन की वास्तविक दशाओं को सावधानीपूर्वक परीक्षा की जाती है। तथा अवलोकित घटना की यथार्थता की जाँच करने अथवा यथार्थता के परीक्षण-हेतु यंत्रों के प्रयोग करने का कोई प्रयत्न नहीं किया जाता।” अनियंत्रित अवलोकन में घटना का वास्तविक रूप में अध्ययन किया जाता है तथा उस घटना पर अथवा अवलोकनकर्ता पर किसी प्रकार का नियंत्रण रखने का प्रयास नहीं किया जाता है।

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प्रश्न 4.
नियंत्रित अथवा व्यवस्थित अवलोकन किसे कहते हैं?
उत्तर
नियंत्रित या व्यवस्थित अवलोकन में अनुसंधानकर्ता पर अनेक नियंत्रण लगे रहते हैं। यह नियंत्रण अनेक प्रविधियों के रूप में लगा होता है। दूसरे शब्दों में, नियंत्रित अवलोकन के अंतर्गत अनुसंधानकर्ता को अवलोकन कार्यों में अनेक सीमाओं का ध्यान रखना पड़ता है। ये सीमाएँ सामाजिक घटनाओं के लिए और साथ-ही-साथ अनुसंधानकर्ता के लिए लगाई जाती हैं। क्योंकि सामाजिक घटनाओं में घटना पर नियंत्रण रखना कठिन है, इसलिए अधिकांशतया अनुसंधानकर्ता को स्वयं पर ही नियंत्रण रखना पड़ता है। अनुसंधानकर्ता को अवलोकन करने की योजनाओं को बनाना पड़ता है। इसके अतिरिक्त अपनी डायरी में अवलोकित तथ्यों को लिखना पड़ता है या उन्हें टेपरिकॉर्डर द्वारा रिकॉर्ड करना पड़ता है। इस प्रकार नियंत्रित अवलोकन में अवलोकनकर्ता को निश्चित सिद्धांतों की सीमाओं में रहकर ही अवलोकन का कार्य करना पड़ता है।

प्रश्न 5.
नियंत्रित तथा अनियंत्रित अवलोकन में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
नियंत्रित तथा अनियंत्रित अवलोकन में निम्नलिखित प्रमुख अंतर पाए जाते हैं-

  1. नियंत्रित अवलोकन में सामान्यतः यांत्रिक उपकरणों का प्रयोग किया जाता है, जबकि अनियंत्रित अवलोकन में यांत्रिक उपकरणों का प्रयोग नहीं होता है।
  2. नियंत्रित अवलोकन में वास्तविक घटनाओं का अवलोकन नहीं किया जा सकता है, क्योंकि उसमें कृत्रिमता आ सकती है; जबकि अनियंत्रित अवलोकन में वास्तविक घटनाओं का अवलोकन किया जाता है।
  3. नियंत्रित अवलोकन में अनुसंधान का विषय नियंत्रित होता है, जबकि अनियंत्रित अवलोकन में अनुसंधान का विषय नियंत्रणहीन होता है।
  4. नियंत्रित अवलोकन में पहले से ही योजना बना ली जाती है, जबकि अनियंत्रित अवलोकन में पहले से ही कोई योजना नहीं बनाई जाती है।
  5. नियंत्रित अवलोकन का उद्देश्य पूर्वनिर्धारित होता है, जबकि अनियंत्रित अवलोकन का उद्देश्य पूर्वनिश्चित नहीं होता है।
  6. नियंत्रित अवलोकन की पुनरावृत्ति सम्भव होती है,जबकि अनियंत्रित अवलोकन की पुनरावृत्ति नहीं की जा सकती।
  7. नियंत्रित अवलोकन सदैव क्रमबद्ध होता है, किन्तु अनियंत्रित अवलोकन क्रमबद्ध नहीं होता है।

प्रश्न 6.
सहभागी अवलोकन किसे कहते हैं?
उत्तर
इस प्रकार के अवलोकन में अनुसंधानकर्ता उस समूह में जाकर बस जाता है, जिसका वह अध्ययन करता है। अनुसंधानकर्ता समूह की सभी क्रियाओं में सक्रिय भाग लेता है और अपने आप को समूह के सदस्य के रूप में स्वीकार होने योग्य बना देता है। इस प्रकार सहभांगी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता अध्ययन किए जाने वाले समूह के लोगों से घुलमिलकर समूह की गतिविधियों व समस्या का अध्ययन करता है। किन्तु इस संबंध में अनुसंधानकर्ता को काफी सतर्क रहना पड़ता है। जिससे किसी भी स्तर पर समूह के सदस्यों को उस पर किसी प्रकार की शंका न होने पाए, अन्यथा समूह के सदस्यों के व्यवहार में औपचारिकता एवं कृत्रिमता आ जाएगी और अनुसंधानकर्ता अपने उद्देश्य की पूर्ति करने में असफल रहेगा। गुड तथा हैट के अनुसार, “इस प्रविधि का प्रयोग तभी किया जा सकता है जबकि अवलोकनकर्ता अपने उद्देश्य को प्रकट किए बिना उसी समूह का सदस्य मान लिया जाता है।”

प्रश्न 7.
असहभागी अवलोकन किसे कहते हैं?
उत्तर
इस प्रकार के अवलोकन में अनुसंधानकर्ता अध्ययन किए जाने वाले समूह का सदस्य नहीं बनता और न वह उस समूह की क्रियाओं में कोई भाग ही लेता है। वह दूर से ही समूह की क्रियाओं का अध्ययन करता है और साथ-ही-साथ समूह के सदस्यों को अपना परिचय देकर यह भी बतला देता है। कि उसका उद्देश्य समूह की क्रियाओं का स्वतंत्र एवं निष्पक्ष भाव से अध्ययन करना है। इस प्रकार असहभागी अवलोकन सहभागी अवलोकन का विपरीत रूप है। पी०एच० मन के अनुसार, ‘असहभागी अवलोकन एक ऐसी विधि है जिसमें अवलोकन करने वाला अवलोकित से छिपा रहता है।’

प्रश्न 8.
असहभागी अवलोकन के दो प्रमुख गुण बताइए।
उत्तर
असहभागी अवलोकन के दो प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  1. मितव्ययिता-असहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता कम समय में तथा कम खर्च करके अवलोकन का अपना कार्य पूरा करता है; अतः यह सहभागी अवलोकन की तुलना में कम खर्चीला प्रविधि है। अधिकांश अध्ययन इसी प्रविधि से पूरे कर लिए जाते हैं।
  2. निष्पक्षता-असहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता समूह का सदस्य नहीं होता इसलिए वह निष्पक्ष भाव से तथा वस्तुनिष्ठ रूप से समस्या का अध्ययन करता है तथा विश्वसनीय आँकड़े एकत्रित करता है। क्योंकि इसमें अवलोकनकर्ता एक तटस्थ प्रेक्षक के रूप में निरीक्षण करता है। तथा समूह के साथ किसी प्रकार का भावात्मक लगाव नहीं रखता; अतः इस प्रकार किया गया अध्ययन अधिक निष्पक्ष एवं वस्तुनिष्ठ होता है।

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प्रश्न 9.
असहभागी अवलोकन के दो प्रमुख दोष बताइए।
उत्तर
असहभागी अवलोकन के दो प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं-

  1. पूर्ण असहभागिता असंभव-असहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता समूह के सदस्यों के कार्यों में भाग नहीं लेता है, किंतु विशुद्ध रूप से असहभागी अवलोकन संभव नहीं है। | अनुसंधानकर्ता अवलोकित सदस्यों की क्रियाओं से कुछ-न-कुछ प्रभावित हुए बिना अध्ययन नहीं कर सकता है। इसलिए गुड तथा हैट का कहना है कि पूर्ण सहभागिता की तरह पूर्ण असहभागिता भी संभव नहीं है।
  2. गहन अध्ययन असंभव-असहभागी अवलोकन गहन अध्ययनों में अधिक सहायक नहीं है। क्योंकि इससे अनुसंधानकर्ता समूह में सहभागिता नहीं करता तथा अपेक्षाकृत कम समय के लिए समूह में रहता है, इसलिए वह समस्या के विभिन्न पहलुओं का गहराई से अध्ययन नहीं कर पाता है। इसके द्वारा केवल सतही अध्ययन ही संभव है।

प्रश्न 10.
सामाजिक सर्वेक्षण से आप क्या समझते हैं?
या
सामाजिक सर्वेक्षण का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
सामाजिक सर्वेक्षण सामाजिक अनुसंधान का एक ऐसा तत्त्व है जो कि बड़ी संख्या में व्यक्तियों के विश्वासों, मनोवृत्तियों, विचारधाराओं तथा व्यवहारों के अध्ययन, उन्हें प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों तथा उनके पारस्परिक संबंधों का विश्लेषण एवं विवेचन करने के लिए तथ्यों के संकलन से संबंधित है। ‘डिक्शनरी ऑफ सोशियोलोजी’ में फेयरचाइल्ड ने एक समुदाय के संपूर्ण जीवन अथवा इसके किसी एक विशेष पक्ष; जैसे–स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन आदि से संबंधित व्यवस्थित एवं पूर्ण तथ्य-विश्लेषण को ही सर्वेक्षण कहा है। वेल्स के अनुसार, “श्रमिक वर्ग की निर्धनता तथा समुदाय की प्रकृति और समस्याओं संबंधी तथ्य खोजने वाला अध्ययन ही सामाजिक सर्वेक्षण है।”

प्रश्न 11.
सामाजिक सर्वेक्षण के दो प्रमुख गुण बताइए।
उत्तर
सामाजिक सर्वेक्षण के दो प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  1. परिमाणात्मक सूचनाएँ–सामाजिक सर्वेक्षण विस्तृत सामग्री के संबंध में परिमाणात्मक सूचनाएँ प्रदान करने का मुख्य स्रोत है, जिसमें सांख्यिकीय प्रविधियों को भी विस्तार से लागू किया जा सकता है।
  2. वैज्ञानिक परिशुद्धता-सामाजिक सर्वेक्षण द्वारा प्राप्त परिणाम एवं निष्कर्ष सूक्ष्म, उपयुक्त और विश्वसनीय होते हैं, क्योंकि इसमें वैज्ञानिकता का गुण पाया जाता है; अर्थात् संपूर्ण सर्वेक्षण वैज्ञानिक पद्धति द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 12.
सामाजिक सर्वेक्षण एवं सामाजिक अनुसंधान में पाई जाने वाली दो समानताएँ बताइए।
उत्तर
सामान्यतः लोग सामाजिक सर्वेक्षण और सामाजिक अनुसंधान को एक ही मान लेते हैं। इस भ्रम का प्रमुख कारण दोनों में पायी जाने वाली कुछ समानताएँ हैं। सामाजिक सर्वेक्षण एवं सामाजिक अनुसंधान में निम्नलिखित दो समानताएँ पायी जाती हैं

  1. सामाजिक घटनाओं का अध्ययन–सामाजिक सर्वेक्षण तथा सामाजिक अनुसंधान दोनों के अंतर्गत सामाजिक घटनाओं का अध्ययन किया जाता है।
  2. मानव-व्यवहार को समझना–दोनों का उद्देश्य मानव-व्यवहार की यथार्थता को समझना है। मुख्य रूप से दोनों में मानव-व्यवहार के सामाजिक पक्ष को समझने एवं उसको नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता है।

प्रश्न 13.
सामाजिक सर्वेक्षण एवं सामाजिक अनुसंधान में पाए जाने वाले दो अंतर लिखिए।
उत्तर
सामाजिक सर्वेक्षण सामाजिक अनुसंधान एक नहीं हैं। इनमें पाए जाने वाले दो प्रमुख अंतर निम्नलिखित हैं-

  1. अध्ययन-क्षेत्र में अंतर-सामाजिक सर्वेक्षण का अध्ययन-क्षेत्र सीमित होता है, क्योंकि यह . सामान्यतः किसी विशेष व्यक्ति, विशेष समस्या या परिस्थिति से संबंधित होता है; जबकि सामाजिक अनुसंधान का क्षेत्र व्यापक होता है, क्योंकि इसमें सामान्य एवं अमूर्त घटनाओं तक का अध्ययन किया जाता है।
  2. प्रकृति में अंतर–सामाजिक सर्वेक्षण एवं सामाजिक अनुसंधान की प्रकृति में काफी अंतर है; क्योंकि पहला (सर्वेक्षण) मूल रूप से व्यावहारिक है, जबकि अनुसंधान की प्रकृति मुख्य रूप से सैद्धांतिक है।

प्रश्न 14.
साक्षात्कार किसे कहते हैं?
या
साक्षात्कार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
साक्षात्कार का अर्थ साक्षात्कारकर्ता तथा उत्तरदाता के बीच आमने-सामने संपर्क स्थापित करके कुछ ऐसे रहस्यों का पता लगाने या उनकी जानकारी प्राप्त करना है जिनको उत्तरदाता के अतिरिक्त कोई नहीं जानता। इस प्रकार की जानकारी अन्य किसी प्रविधि के द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती। इस प्रकार की जानकारी प्रायः प्रत्यक्ष में प्रश्नोत्तर प्रणाली द्वारा की जाती है। उत्तरदाता से साक्षात्कारकर्ता सामने बैठकर प्रश्न पूछता है और साक्षात्कारकर्ता उत्तरदाता द्वारा किए गए कुछ उत्तरों को नोट कर लेता है तथा शेष जानकारी मौखिक रूप से ही कर ली जाती है। गुड एवं हैट के अनुसार, साक्षात्कार मौखिक रूप से सामाजिक अंतःक्रिया की एक प्रक्रिया है।”

प्रश्न 15.
औपचारिकता के आधार पर साक्षात्कार के प्रमुख प्रकार कौनसे हैं?
उत्तर
औपचारिकता के आधार पर साक्षात्कार के अग्रलिखित दो प्रमुख हैं

  1. औपचारिक साक्षात्कार-इस प्रकार के साक्षात्कार को नियंत्रित साक्षात्कार’ भी कहते हैं। इसमें अनुसंधानकर्ता साक्षात्कारदाता से पूर्वनिश्चित प्रश्नों को ही पूछ सकता है। इन प्रश्नों को पूछने में अनुसंधानकर्ता किसी प्रकार का संशोधन नहीं कर सकता और न ही इन प्रश्नों से हटकर दूसरे प्रश्न पूछ सकता है।
  2. अनौपचारिक साक्षात्कार-अनौपचारिक साक्षात्कार में साक्षात्कारकर्ता पर किसी प्रकार के पूर्वनिर्मित प्रश्नों को पूछने पर कोई नियंत्रण नहीं होता और साक्षात्कारदाता भी प्रश्नों के उत्तर स्वतंत्र रूप से देता है। यह एक प्रकार से मुक्त वार्तालाप के रूप में होता है, जिसमें अनुसंधानकर्ता सूचनादाता से समस्या के विभिन्न पहलुओं पर सूचना प्राप्त करने का प्रयास करता है।

प्रश्न 16.
केंद्रीय साक्षात्कार किसे कहते हैं?
उत्तर
इस प्रकार का साक्षात्कार उत्तरदाता की उन परिस्थतियों के संबंध में किया जाता है, जिनमें उत्तरदाता पहले रहे चुका हो। इस प्रकार के साक्षात्कार में साक्षात्कारकर्ता का ध्यान उसी परिस्थिति पर केंद्रित रहता है, जिसका पूर्वज्ञान साक्षात्कारदाता को है। साक्षात्कारकर्ता यह जानने का प्रयास करता है। कि अमुक परिस्थिति का उत्तरदाता पर क्या प्रभाव पड़ा है। इस प्रकार के साक्षात्कार को केंद्रित साक्षात्कार इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इसमें किसी घटना या इसके किसी विशेष अंग पर ही ध्यान । केद्रित करके प्रश्न पूछे जाते हैं। उदाहरणार्थ-एक साक्षात्कारदाता ने कोई फिल्म देखी है; तो साक्षात्कारकर्ता केंद्रित साक्षात्कार में यह जानने का प्रयास करता है कि साक्षात्कारदाता पर उस फिल्म का क्या प्रभाव पड़ा है। इस प्रकार के साक्षात्कार में अनुसंधानकर्ता साक्षात्कारदाता को किसी प्रकार का कोई निर्देश नहीं देता,, वह निश्चित विषय या परिस्थति के अतिरिक्त अन्य किसी विषय या परिस्थिति पर केंद्रित नहीं रहता। इसके अतिरिक्त, इसमें साक्षात्कारकर्ता विषय का व्यक्तिगत रूप में गहन अध्ययन करता है। इस प्रकार के साक्षात्कार का प्रयोग रोबर्ट के० मर्टन ने रेडियो के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए किया था। आज केंद्रित साक्षात्कार, जनसंचार, अनुसंधान में एक प्रमुख प्रविधि बन चुका है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
अवलोकन की संकल्पना स्पष्ट कीजिए तथा इसके विभिन्न प्रकारों को संक्षेप में बताइए।
या
अवलोकन से आप क्या समझते हैं? अवलोकन के विभिन्न स्वरूपों का उल्लेख कीजिए।
या
“विज्ञान अवलोकन से आरंभ होता है और अपनी अंतिम वैधता के लिए इसे अवलोकन पर ही लौटना होता है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
उत्तर
वैज्ञानिक अध्ययन में तथ्यों के संकलन के लिए अपनाई जाने वाली विभिन्न पद्धतियों में अवलोकन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसे सामाजिक तथा प्राकृतिक दोनों प्रकार के विज्ञानों में समान रूप से अपनाया जाता है। इसीलिए यह एक सार्वभौम पद्धति मानी जाती है। वास्तव में, प्रत्येक विज्ञान को प्रारंभ अवलोकन द्वारा होता है तथा अंत में सत्यापन का परीक्षण भी अवलोकन द्वारा ही होता है। अवलोकन को एक प्राचीन तथा अति आधुनिक अनुसंधान पद्धति कंहा गया है। अवलोकन में अधिकांशतः ज्ञानेंद्रियों तथा मुख्य रूप से आँखों द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जाता है। यह अत्यंत विश्वसनीय पद्धति मानी जाती है। इसीलिए इसका प्रयोग सर्वाधिक होता है।

अवलोकने का अर्थ एवं परिभाषाएँ

‘अवलोकन’ का शाब्दिक अर्थ ‘देखना’ है। इसे ‘निरीक्षण’ भी कहते हैं। ‘अवलोकन’, ‘निरीक्षण अथवा ‘प्रेक्षण’ को सभी प्रकार के विज्ञानों में महत्त्वपूर्ण स्थान है; क्योंकि हम सभी प्रकार की समस्याओं एवं घटनाओं को आँखों से देखकर पहचान सकते हैं। इस प्रकार अवलोकन किसी अध्ययन-वस्तु को निष्पक्ष भाव से देखने की वह प्रणाली है, जिसके द्वारा अनुसंधानकर्ता अध्ययन-वस्तु के संबंध में कुछ ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करता है।
प्रमुख विद्वानों ने अवलोकन की परिभाषाएँ निम्न प्रकार दी हैं-

ऑक्सफोर्ड कंसाइज डिक्शनरी’ (Oxford Concise Dictionary) में अवलोकन को इन शब्दों में परिभाषित किया गया है-“अवलोकन का अर्थ है घटनाओं को, जैसे कि वे प्रकृति में होती हैं, कार्य तथा कारण अथवा परस्पर संबंध की दृष्टि से यथातथ्य देखना और नोट करना।’

मोजर (Moser) के अनुसार-“अवलोकनको सुंदर ढंग से वैज्ञानिक जाँच-पड़ताल की पद्धति कहा जा सकता है। ठोस अर्थों में अवलोकन में कानों तथा वाणी की अपेक्षा आँखों का प्रयोग होता है।”

यंग (Young) के अनुसार—अवलोकन आँखों के द्वारा किया गया विचारपूर्ण अध्ययन है, जिसका प्रयोग सामूहिक व्यवहार तथा जटिल सामाजिक संस्थाओं के साथ-साथ संपूर्णता का निर्माण करने वाली पृथक्-पृथक् इकाइयों का सूक्ष्म निरीक्षण करने की एक पद्धति के रूप में किया जा सकता है।”

अवलोकन की प्रमुख विशेषताएँ

अवलोकन की संकल्पना को इसकी निम्नलिखित विशेषताओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. मानव-इंद्रियों, विशेष रूप से आँखों का प्रयोग–अवलोकन में मानव इंद्रियों का; विशेष रूप से आँखों का प्रयोग किया जाता है। इसलिए इसे ‘आँखों द्वारा देखने की एक कला’ कहा गया है, जिससे अध्ययन-वस्तु से सम्बन्धित प्राथमिक सामग्री का संचय किया जाता है। मोजर ने ठीक ही कहा है कि “ठोस अर्थ में अवलोकन में कानों और वाणी की अपेक्षा आँखों का अधिक प्रयोग होता है।”
  2. मूलभूत वैज्ञानिक पद्धति–अवलोकन को एक मूलभूत वैज्ञानिक पद्धति माना गया है; क्योंकि – यह प्रत्येक विषय (चाहे वह प्राकृतिक विज्ञान है अथवा सामाजिक विज्ञान) में सामान्य रूप से प्रयोग की जाती है। इस प्रविधि के द्वारा विश्वसनीय सूचनाएँ एकत्रित की जा सकती हैं।
  3. अध्ययन-वस्तु का प्रत्यक्ष निरीक्षण–अवलोकन एक वैज्ञानिक पद्धति है, जिसमें अध्ययन-वस्तु का प्रत्यक्ष निरीक्षण किया जा सकता है। यह एक ऐसी पद्धति है जिसमें अनुसंधानकर्ता अपनी सभी इंद्रियों का प्रयोग करके अध्ययन-वस्तु से संबंधित तथ्यों की प्रत्यक्ष रूप से खोज करता है।
  4. उद्देश्यपूर्ण अध्ययन–अवलोकन पद्धति इसलिए भी वैज्ञानिक मानी जाती है क्योंकि यह उद्देश्यपूर्ण अध्ययनों में सहायक है। इसके द्वारा अनुसंधानकर्ता अपनी सभी इंद्रियों का प्रयोग केवल उन्हीं घटनाओं के अवलोकन के लिए करता है, जो अध्ययन की समस्या के अनुकूल हैं।
  5.  गहन अध्ययन–अवलोकन केवल उद्देश्यपूर्ण अध्ययन करने में ही सहायक नहीं है, अपितु गहन अध्ययन करने में भी सहायक है। यह सामाजिक मानवशास्त्र तथा मानवशास्त्र जैसे विषयों में एकमात्र ऐसी प्रविधि है, जो विश्वसनीय सूचनाओं को गहन रूप से संकलित करने में सहायक है। समाजशास्त्र में भी इसका प्रयोग एक पूर्ण अथवा पूरक प्रविधि के रूप में बढ़ता जा रहा है।
  6. कार्य-कारण संबंधों की व्याख्या-अवलोकन द्वारा विभिन्न घटनाओं में पाए जाने वाले कार्य-कारण संबंधों की व्याख्या की जा सकती है। प्राकृतिक विज्ञानों में यह कार्य-कारण संबंधों की व्याख्या करने की एकमात्र पद्धति है। समाजशास्त्र में भी इसका प्रयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।
  7. विश्वसनीयता–अवलोकन द्वारा एकत्रित सूचनाएँ अधिक विश्वसनीय होती हैं। इसमें क्योंकि अनुसंधानकर्ता स्वयं देखकर अध्ययन करता है, इसलिए वस्तुनिष्ठ एवं विश्वसनीय सूचनाएँ ही संकलित होती हैं। इसमें किसी घटना एवं समस्या का अध्ययन उसी रूप में किया जाता है, जिस रूप में वह विद्यमान होती है।
  8. सामूहिक व्यवहार का अध्ययन–अवलोकन सामूहिक व्यवहार का अध्ययन करने में भी सहायक है। क्योंकि इसमें अवलोकनकर्ता सरलता से अवलोकित समूह के सदस्यों से घुल-मिल जाता है, इसलिए वह बिना अपना उद्देश्य बताए समूह के सदस्यों के सामूहिक व्यवहार का अध्ययन कर सकता है।

अवलोकन के प्रमुख प्रकार

सामाजिक अनुसंधान में अवलोकन का प्रयोग विविध रूपों में किया जाता है। प्रमुख रूप से अवलोकन को निम्नलिखित प्रकारों में बाँटा जा सकता है-

1. अनियंत्रित अथवा साधारण अवलोकन-जब अनुसंधानकर्ता किन्हीं प्राकृतिक अवस्थाओं का अध्ययन करने हेतु कुछ क्रियाओं का निरीक्षण करता है तो वह अपने निरीक्षण कार्य में पूर्ण स्वतंत होता है। उसके इस कार्य में किसी बाह्य शक्ति या आंतरिक भावना का कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। इस प्रकार की स्वतंत्र निरीक्षण विधि में अनुंसधानकर्ता का आंतरिक या बाह्य किसी भी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं होता, इसलिए इस अवलोकन को समाजशास्त्रियों ने अनियंत्रित अवलोकन की संज्ञा दी है। इस प्रकार के अवलोकन से अनुसंधानकर्ता अध्ययन-वस्तु से संबंधित संपूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर लेता है। इसलिए गुड एवं हैट (Goode and Hatt) का कहना है, “व्यक्तियों के पास सामाजिक संबंधों के बारे में जो कुछ भी ज्ञान है,वह अनियंत्रित निरीक्षण के द्वारा ही प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार पी०वी० यंग (PV. Young) ने लिखा है, “अनियंत्रित अवलोकनों में जीवन की वास्तविक दशाओं की सावधानीपूर्वक परीक्षा की जाती है तथा अवलोकित घटना की यथार्थता की जाँच करने अथवा यथार्थता के परीक्षण-हेतु यंत्रों के प्रयोग करने का कोई प्रयत्न नहीं किया जाता।” इस प्रकार, अनियंत्रित अवलोकन में घटना का वास्तविक रूप में अध्ययन किया जाता है तथा उस घटना पर अथवा अवलोकतनकर्ता पर किसी प्रकार का नियंत्रण रखने का प्रयास नहीं किया जाता। अनियंत्रित अवलोकन के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं-

  • सहभागी अवलोकन-इस प्रकार के अवलोकन में अनुसंधानकर्ता उस समूह में जाकर बस जाती है जिसका वह अध्ययन करता है। अनुसंधानकर्ता समूह की सभी क्रियाओं में सक्रिय भाग लेता है और अपने आपको समूह के सदस्य के रूप में स्वीकार होने योग्य बना देता है। इस प्रकार सहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता अध्ययन किए जाने वाले समूह के लोगों से घुल-मिलकर समूह की गतिविधियों व समस्या का अध्ययन करता है। किन्तु इस संबंध में अनुसंधानकर्ता को काफी सतर्क रहना पड़ता है ताकि किसी भी स्तर पर समूह के सदस्यों को उस पर किसी प्रकार की शंका न होने पाए, अन्यथा समूह के सदस्यों के व्यवहार में औपचारिकता एवं कृत्रिमता आ जाएगी और अनुसंधानकर्ता अपने उदृदेश्य की पूर्ति करने में असफल रहेगा।
  • असहभागी अवलोकन-इस प्रकार के अवलोकन में अनुसंधानकर्ता अध्ययन किए जाने वाले समूह का सदस्य नहीं बनता और न वह उस समूह की क्रियाओं में कोई भाग ही लेता है। वह दूर से ही समूह की क्रियाओं का अध्ययन करता है और साथ-ही-साथ समूह के सदस्यों को अपना परिचय देकर यह भी बतला देता है कि उसका उद्देश्य समूह की क्रियाओं का स्वतंत्र एवं निष्पक्ष भाव से अध्ययन करना है। इस प्रकार असहभागी अवलोकन, सहभागी अवलोकन का विपरीत रूप है।
  • अर्द्ध-सहभागी अवलोकन-इस प्रकार के अवलोकन में अनुसंधानकर्ता समुदाय के कुछ कार्यों में भाग लेकर और कुछ कार्यों में वह भाग न लेकर समूह का तटस्थ रूप से अध्ययन करता है। इस प्रकार कुछ सीमा तक अनुसंधानकर्ता सहभागी अवलोकन द्वारा समुदाय का अध्ययन करता है। यह सहभागी तथा असहभागी अवलोकन दोनों का मिश्रित रूप है तथा वास्तव में अधिक, उपयोगी है।

2. नियंत्रित अथवा व्यवस्थित अवलोकन-इस प्रकार के अवलोकन में अनुसंधानकर्ता पर अनेक नियंत्रण लगे रहते हैं। यह नियंत्रण अनेक प्रविधियों के रूप में लगा होता है। दूसरे शब्दों में, नियंत्रित अवलोकन के अंतर्गत अनुसंधानकर्ता को अवलोकन कार्यों में अनेक सीमाओं का ध्यान रखना पड़ता है। ये सीमाएँ सामाजिक घटनाओं के लिए और साथ-ही-साथ अनुसंधानकर्ता के लिए लगाई जाती हैं। क्योंकि सामाजिक घटनाओं में घटना पर नियंत्रण रखना कठिन है, इसलिए अधिकांशतया अनुसंधानकर्ता को स्वयं पर ही नियंत्रण रखना पड़ता है। अनुसंधानकर्ता को अवलोकन करने की योजनाओं को बनाना पड़ता है। इसके अतिरिक्त अपनी डायरी में अवलोकित तथ्यों को लिखना पड़ता है या उन्हें टेपरिकॉर्डर द्वारा रिकॉर्ड करना पड़ता। है। इस प्रकार नियंत्रित अवलोकन में अवलोकनकर्ता को निश्चित सिद्धांतों की सीमाओं में रहकर ही अवलोकन का कार्य करना पड़ता है।

3. सामूहिक अवलोकन-इस प्रकार के अवलोकन में एक ही समस्या का अवलोकन कई अनुसंधानकर्ता एक साथ सामूहिक रूप से करते हैं। ये अनुसंधानकर्ता सामाजिक घटना के विभिन्न पक्षों के विशेषज्ञ होते हैं। अवलोकन करने के उपरांत ये सब अनुसंधानकर्ता विचार-विमर्श करके समस्या से संबंधित उपकल्पना निर्माण करते हैं। इस प्रकार के अवलोकन | में व्यक्तिगत पक्षपात होने तथा किसी पक्ष के छूट जाने की संभावना पूर्णतया समाप्त हो जाती है।

निष्कर्ष–उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि अवलोकन एक ऐसी प्रविधि है,जिसमें अनुसंधानकर्ता अपनी आँखों से देखकर किसी समस्या का विचारपूर्वक अध्ययन करता है। इस प्रकार का अवलोकन अनियंत्रित, नियंत्रित तथा सामूहिक हो सकता है। जब अनुसंधानकर्ता समस्या से संबंधित समुदाय का सदस्य बनकर समुदाय के कार्य में सक्रिय भाग लेता है तो वह सहभागी अवलोकन कहलाता है और जब वह समुदाय के कार्य में भाग न लेकर दूर से ही समुदाय को अध्ययन करता है तो वह असहभागी अवलोकन कहलाता है। कभी-कभी अनुसंधानकर्ता कुछ कार्यों में भाग लेकर और कुछ दूर से ही देखकर समस्या का अध्ययन करता है। ऐसी स्थिति को समाजशास्त्रियों ने अर्द्ध-सहभागी अवलोकन कहा है। सभी प्रकार के अवलोकन समुदाय और उसकी समस्याओं का पूर्ण ज्ञान प्रदान करने में सहायक होते हैं, इसलिए कहा गया है, जो कुछ भी किसी समस्या का हमें ज्ञान है, वह अवलोकन का ही प्रतिफल है।”

प्रश्न 2.
पद्धति एवं यंत्र (तकनीक) से आप क्या समझते हैं? पद्धति एवं यंत्र में अंतर स्पष्ट कीजिए। “अंतिम ध्येय तक का संपूर्ण मार्ग पद्धति है, जबकि उस संपूर्ण मार्ग को पूरा करने में प्रयुक्त उपकरण यंत्र है।” इस कथन की पुष्टि करते हुए ‘पद्धति’ तथा ‘यंत्र में सोदाहरण अंतर स्पष्ट कीजिए।
या
‘पद्धति’ तथा ‘यंत्र का अर्थ बताते हुए दोनों में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
समाजशास्त्र तथा अन्य सभी सामाजिक विज्ञानों में कुछ पद्धतियों (Method) एवं यंत्रों (Tool or Technique) का प्रयोग किया जाता है। पद्धति हमारे अनुसंधान को दृष्टिकोण प्रदान करती है तथा अनुसंधान के सभी चरणों में सहायता प्रदान करती है। यह अनुसंधान करने वाले का मार्गदर्शन करती है। तथा उसे वास्तविकता को देखने तक एक विशिष्ट नजरिया प्रदान करती है। इसके विपरीत, यंत्र अथवा तकनीक केवल आँकड़ों के संकलन का एक माध्यम मात्र है। यह केवल अनुसंधान के एक चरण अर्थात् तथ्यों या आँकड़ों के संकलन से संबंधित है।

पद्धति का अर्थ एवं परिभाषाएँ

पद्धति वह तरीका है, जिसको अपनाकर एक अनुसंधानकर्ता अपना अध्ययन करता है। विभिन्न विद्वानों ने पद्धति को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है–

वुल्फ (Wolfe) के मतानुसार-“विस्तृत अर्थ में कोई भी अनुसंधान पद्धति, जिसके द्वारा विज्ञान का निर्माण हुआ हो अथवा उसका विस्तार किया जा रहा हो, वैज्ञानिक पद्धति कहलाती है।”

लुडबर्ग (Lundberg) के विचारानुसार-“वैज्ञानिक पद्धति में समंकों का क्रमबद्ध अवलोकन, वर्गीकरण तथा निर्वाचन सम्मिलित है। हमारे प्रतिदिन के निष्कर्षों तथा वैज्ञानिक पद्धति में अंतर; उसके स्वरूप, दृढ़ता, सत्यापन किए जाने की शक्ति, योग्यता तथा विश्वसनीयता के आधार हैं।”

एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ (Encyclopaedia Britanica) के अनुसार-“वैज्ञानिक पद्धति एवं विभिन्न प्रक्रियाओं का संकेत करने वाला एक समूहवाचक पद है, जिसकी सहायता से विज्ञान बनाए गए हैं। विस्तृत अर्थों में खोज की कोई भी विधि वैज्ञानिक पद्धति कहला सकती है, जिसके द्वारा वैज्ञानिक तटस्थ और व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त कर सकता है।”

बर्टेड (Bertrand) के अनुसार-“प्रकृति में नियमितता के निर्धारण और वर्गीकरण में प्रयुक्त प्रणाली को वैज्ञानिक पद्धति कहा जाता है।”

गुड एवं हैट (Goode and Hatt) के अनुसार–“जब विज्ञान की आधारभूत बातों को समाजशास्त्र के क्षेत्र में लागू किया जाता है तो उसे समाजशास्त्र की अध्ययन पद्धति कहते हैं।’

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि पद्धति एक ऐसा उपकरण या माध्यम है, जिसके द्वारा वैज्ञानिक अपना अध्ययन करता है। यह संपूर्ण अध्ययन को दृष्टिकोण प्रदान करती है।

पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ

पद्धति में निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ पायी जाती हैं-

  1. सत्यापन तथा उसकी परीक्षा-वैज्ञानिक पद्धति द्वारा जो भी निष्कर्ष निकाले जाते हैं, वे सत्य होते हैं। किसी भी प्रकार का संदेह होने पर भविष्य में भी उनकी सत्यता की परीक्षा की जाती है।
  2. सुनिश्चितता–वैज्ञानिक पद्धति पूर्णत: सुनिश्चित होती है और उसका प्रयोग कोई भी व्यक्ति कर सकता है। इसके सुस्पष्ट चरण हैं, जिनके बारे में किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं पाया जाता है।
  3. निष्पक्षता–वैज्ञानिक पद्धति में अध्ययनकर्ता अपने स्वयं के विचारों से प्रभावित नहीं होता वरन् वह निष्पक्ष भाव से अपने अवलोकन के आधार पर ही निष्कर्षों का निर्माण करता है।
  4. सार्वभौमिकता-वैज्ञानिक पद्धति तथ्य विशेष पर लागू नहीं होती बल्कि वह वर्ग विशेष परे लागू होती है, इसलिए वह सार्वभौमिक होती है। दूसरे शब्दों में, वैज्ञानिक पद्धति का रूप सभी विषयों में एक समान होता है।
  5. निष्कर्षों का पूर्वानुमान-वैज्ञानिक पद्धति में जिन निष्कर्षों को प्राप्त किया जाता है उनके संबंध में पूर्व अनुमान लगा लिया जाता है। उपकल्पना का निर्माण एक प्रकार से पूर्वानुमान ही है। यदि यह (पूर्वानुमान) प्रमाणित हो जाता है तो निष्कर्ष बन जाता है।
  6. भविष्यवाणी–वैज्ञानिक पद्धति के अंतर्गत किसी तथ्य के संबंध में भविष्यवाणी की जा सकती है। क्योंकि इसमें कार्य-कारण संबंधों का पता चल जाता है इसलिए आने वाले समय में अनुमान भी लगाया जा सकता है।

समाजशास्त्र में प्रयुक्त प्रमुख पद्धतियाँ

आज समाशास्त्र में निम्नलिखित पद्धतियों का मुख्यत: प्रयोग किया जाता ह-

  1. ऐतिहासिक पद्धति-इस पद्धति के द्वारा अध्ययन की विषय-वस्तु के इतिहास तथा उसके विकास का पूर्ण अध्ययन किया जाता है और उस अध्ययन के आधार पर ही विषय-वस्तु के संबंध में अनेक नवीन खोजें की जाती हैं। यह विधि अतीत का अध्ययन करने की सर्वोत्तम पद्धति है।
  2. तुलनात्मक पद्धति–इस पद्धति के द्वारा विभिन्न विषयों पर परस्पर तुलना की जाती है। इस तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर विषयों से संबंधित अनेक नवीन तथ्यों की खोज की जाती है।
  3. आगमन तथा निगमन पद्धति-आगमन पद्धति में विशिष्ट इकाइयों का अध्ययन करके सामान्य सिद्धांतों का निर्माण किया जाता है और निगमन पद्धति में सामान्य सिद्धांतों को विशिष्ट इकाइयों पर लागू किया जाता है।
  4. संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक पद्धति–संरचनात्मक पद्धति में किसी विषय की संरचना का विश्लेषण करके उन तत्त्वों की खोज की जाती है, जो विषय की संरचना में मुख्य रूप से योगदान देते हैं। प्रकार्यात्मक पद्धति में किसी समग्र के किसी एक विशेष अंग या भाग का अध्ययन किया जाता है। वह अंग उस समग्र को बनाए रखने में जो योगदान देता है,उसे ही उसका प्रकार्य कहते हैं।

इन पद्धतियों के अतिरिक्त, समाजशास्त्र में संघर्ष पद्धति, व्यवस्थात्मक पद्धति, व्यवहारात्मक पद्धति, अंत-क्रियात्मक पद्धति इत्यादि का भी प्रयोग किया जाता है।

यंत्र या तकनीक का अर्थ एवं परिभाषा

यंत्र एक प्रकार से एक ऐसी युक्ति है, जिसका सहारा लेकर एक वैज्ञानिक अथवा समाजशास्त्री अपनी अध्ययन-वस्तु के संबंध में अनेक तंथ्यों का संकलन करता है। इसलिए गुड तथा हैट ने कहा है कि यंत्रों में वे विशिष्ट प्रणालियाँ सम्मिलित हैं जिनके द्वारा समाजशास्त्री अपने समंकों को एकत्रित और व्यवस्थित करता है। इस प्रकार यंत्र शोध कार्य में सहायता देने वाले तथ्यों को संकलन करने की एक प्रणाली का नाम है।

यंत्र यो तकनीक की प्रमुख विशेषताएँ

यंत्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1.  विषय-सामग्री के संकलन में सहायता-यंत्र एक उपकरण का नाम है, जिसके द्वारा एक समाजशास्त्री अपने क्षेत्र की विषय-सामग्री को संकलित एवं व्यवस्थित करता है। प्रश्नावली, अनुसूची, अवलोकन, साक्षात्कार, वैयक्तिक अध्ययन, समाजमिति इत्यादि ऐसे ही कुछ उपकरण हैं।
  2. अध्ययन की विषय-वस्तु के अनुसार भिन्नता–यंत्र भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न प्रकार का भी हो सकता है। सामाजिक परिस्थितियों के आधार पर यह निर्णय लेना पड़ता है कि कौन-से यंत्र द्वारा तथ्यों का संकलन किया जाए। उदाहरणार्थ-जनजातियों के अध्ययन में सहभागी अवलोकन यंत्र उपयुक्त माना गया है, जबकि शिक्षित लोगों के अध्ययन में प्रश्नावली सर्वाधिक उपयुक्त यंत्र है।
  3. सामाजिक विज्ञानों से भिन्नता–भौतिक विज्ञानों की पद्धतियों और सामाजिक विज्ञानों के यंत्रों में अंतर पाया जाता है। क्योंकि सामाजिक-सांस्कृतिक तथा भौतिक घटनाओं की प्रकृति में अंतर है अतः दोनों की अध्ययन पद्धतियाँ भी भिन्न हैं।
  4. अंतर की कम संभावना-सामाजिक विज्ञानों में प्रयोग किए जाने वाले यंत्रों में बहुत कम अंतर देखने को मिलता है। परस्पर संबंधित विषय होने के कारण इनमें प्रयुक्त यंत्रों में समानता होना स्वाभाविक ही है।
  5. अनिश्चित प्रकृति-यंत्र अनिश्चित होते हैं। नई-नई समस्याओं का अध्ययन करने के लिए नए-नए यंत्रों का विकास होता है।
  6. असार्वभौमिकता-यंत्रों का प्रयोग सभी विज्ञानों में नहीं किया जाता और यंत्रों के स्वरूपों में अंतर पाया जाता है।
  7.  सामग्री का संकलन-यंत्र का उद्देश्य केवल सामग्री को एकत्रित करना ही नहीं है अपितु उसको व्यवस्थित करना भी है।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यंत्र एक ऐसा उपकरण है जो अनुसंधान में आँकड़े एकत्रित करने में सहायता प्रदान करता है।

पद्धति और यंत्र में अंतर

कुछ लोग पद्धति तथा यंत्र को एक ही समझ लेते हैं जोकि उचित नहीं है। दोनों में निम्नलिखित प्रमुख अंतर पाए जाते हैं-
UP Board Solutions for Class 11 Sociology Introducing Sociology Chapter 5 Doing Sociology Research Methods 1
UP Board Solutions for Class 11 Sociology Introducing Sociology Chapter 5 Doing Sociology Research Methods 2
निष्कर्ष–उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि पद्धति तथा यंत्र दो भिन्नं संकल्पनाएँ हैं। पद्धति अनुसंधान को दृष्टिकोण प्रदान करती है तथा अनुसंधान के सभी चरणों में सहायक होती है। यंत्र का संबंध केवल आँकड़ों के संकलन के उपकरण से है।

प्रश्न 3.
अवलोकन कार्य के मार्ग में आने वाली बाधाओं का उल्लेख कीजिए और उनको दूर करने के उपायों का वर्णन कीजिए।
या
अवलोकन को वैज्ञानिक बनाने हेतु सुझाव दीजिए।
उत्तर
अवलोकन प्रविधि सामाजिक अनुसंधान में प्रयोग की जाने वाली सर्वाधिक प्रचलित प्रविधि है, परंतु यह जितनी सरल लगती है, वास्तव में इसके द्वारा ऑकड़े एकत्रित करना उतना ही कठिन कार्य है। अवलोकन अनेक रूपों में प्रभावित होता है, जिन्हें हम इसके मार्ग में आने वाली बाधाएँ कह सकते हैं।
अवलोकन के मार्ग की प्रमुख बाधाएँ अवलोकन के मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधाएँ इस प्रकार हैं-

1. नेत्रों के कार्य में पक्षपात–अवलोकन का कार्य करने में हमारी ज्ञानेंद्रियाँ महत्त्वपूर्ण कार्य करती हैं। इन ज्ञानेंद्रियों में सर्वप्रथम स्थान नेत्रों का है। नेत्रों के द्वारा ही हम अपना निरीक्षण कार्य करते हैं, किंतु कई परीक्षणों से यह सिद्ध हो चुका है कि नेत्रों द्वारा देखा गया दृश्य भी कभी-कभी विश्वसनीय नहीं होता है। दूसरे शब्दों में, हमारे नेत्रों की अवलोकन शक्ति भी अचूक नहीं होती है। हम कभी-कभी अत्यंत पक्षपातपूर्ण ढंग से या अपने मूल्यों वे शंकाओं के अनुरूप किसी वस्तु का निरीक्षण करते हैं; अतः हम अपने अवलोकन के कार्य में सफल नहीं होते। इसीलिए कहा गया है कि हम अपनी ज्ञानेंद्रियों के पक्षपातपूर्ण कार्यों के कारण भी अवलोकन को विश्वसनीय नहीं कह सकते।

2. व्यवहार की अनिश्चितता–अवलोकन के कार्य में एक मुख्य बाधा अवलोकन किए जाने वाले समूह के व्यक्तियों के व्यवहार की अनिश्चितता भी है। व्यक्ति अपने व्यवहार में वास्तविक नहीं होते। जब किसी समूह के व्यक्तियों को यह पता चलता है कि उनके व्यवहार का अवलोकन किया रहा है तो उनके व्यवहार में कृत्रिमता आ जाती है और इस व्यवहार की कृत्रिमता के कारण उनके द्वारा किए गए क्रिया-कलापों का अवलोकन विश्वसनीय नहीं होता। ऐसी दशा में सदस्यों के व्यवहार की कृत्रिमता अवलोकन के कार्य में बाधा पहुँचाती है।

3. पूर्वज्ञान का महत्त्व–अनुसंधानकर्ता पूर्वज्ञान के आधार पर भी बहुत-सी वस्तुओं के संबंध में अनुमान कर लेता है। इसलिए वह केवल अवलोकन पर ही आश्रित नहीं रहता। उसका पूर्वज्ञान कभी-कभी अध्ययन-वस्तु के संबंध में उसे धोखा भी दे सकता है या अपने पूर्वज्ञान के आधार पर वह वस्तु के संबंध में अपनी कल्पनाएँ बना लेता है और अवलोकन की उपेक्षा करके वस्तु के संबंध में कल्पनाओं के आधार पर प्राप्त ज्ञान को ही सत्य मान लेता है। इस प्रकार पूर्वज्ञान भी अवलोकन के मार्ग में बाधा उपस्थित करता है।

4. अनुसंधानकर्ता का स्वार्थ-अवलोकन के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा अनुसंधानकर्ता का व्यक्तिगत पक्षपात है। अनुसंधानकर्ता अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण से किसी विषय-वस्तु का अध्ययन करता है। सभी समस्याओं का अध्ययन अनुसंधानकर्ता अपने-अपने दृष्टिकोण से भिन्न-भिन्न रूप में करते हैं। इसके अतिरिक्त अनुसंधानकर्ता जिन समस्याओं का अध्ययन करना चाहता है, वह स्वयं भी उन्हीं घटनाओं से अथवा व्यक्तिगत पक्षपात से प्रभावित रहता है। अनुसंधानकर्ता का व्यक्तिगत पक्षपात भी अवलोकन के मार्ग में बाधक है।

5. घटनाओं के पूर्ण ज्ञान में कमी-अवलोकन के कार्य में सबसे बड़ी बाधा यह भी है कि अवलोकन के द्वारा घटनाओं का पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। जिन घटनाओं का हम अध्ययन कर रहे हैं, यह सम्भव है कि वे घटनाएँ किन्हीं विशेष परिस्थितियों में घटित हों। इन विशेष परिस्थितियों में घटित होने के कारण उनमें अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं।

अवलोकन को वैज्ञानिक बनाने के लिए सुझाव

अवलोकन की सीमाओं को यदि सामने रखा जाए तो इसको वैज्ञानिक बनाने के मार्ग में पक्षपात, व्यवहार में कृत्रिमता तथा अवलोकनकर्ता के स्वार्थ आदि प्रमुख समस्याएँ आती हैं, लेकिन इन्हें थोड़ी सावधानी बरतकर दूर किया जा सकता है। अवलोकन को निम्नलिखित उपायों द्वारा अधिक विश्वसनीय बनाया जा सकता है-

  1. अवलोकन योजना–अवलोकन करने से पहले अनुसंधानकर्ता को चाहिए कि वह किसी कार्य का अवलोकन करने से पूर्व अपनी अध्ययन-वस्तु के संबंध में पूर्ण योजना बना ले, जिससे अवलोकन को कार्य सरल हो जाता है तथा अवलोकनकर्ता निर्धारित योजना के अनुसार केवल संबंधित तथ्यों का ही अवलोकन करता है।
  2. निष्पक्षता–अवलोकनकर्ता को चाहिए कि वह उन तथ्यों को निष्पक्ष एवं भाव से चयन करे, जिनका उसे अध्ययन करना है। इस अध्ययन में उसके विचार पक्षपात का स्रोत हो सकते हैं। इसलिए अपने विचारों से प्रभावित हुए बिना उसे निष्पक्ष रूप से अपना अध्ययन करना चाहिए।
  3. अवलोकन पथप्रदर्शिका तथा अनुसूची का प्रयोग–अवलोकन में यदि अवलोकन पथप्रदर्शिका तथा अनुसूची का प्रयोग किया जाए तो वह अधिक सूक्ष्म तथा अर्थपूर्ण हो सकती है। अनुसूची इस प्रकार तैयार की जानी चाहिए कि उसके आधार पर अध्यय-वस्तु के संबंध में पूर्ण ज्ञान हो सके।
  4. उपकल्पना का निर्माण–अवलोकन कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए सुनिश्चित उपकल्पना का निर्माण करना अत्यन्त आवश्यक है; क्योंकि ऐसा करने से अनुसंधान कार्य केंद्रित हो जाता है।
  5. निश्चित समस्या का निर्माण–अवलोकन की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि अध्ययन के लिए किसी निश्चित समस्या का निर्माण किया जाए और साथ-ही-साथ समस्या के अध्ययन का क्षेत्र भी निश्चित किया जाए। सामान्य समस्याओं का वैज्ञानिक अध्ययन एक कठिन कार्य है।
  6. यांत्रिक साधनों का प्रयोग–अवलोकन को फोटो-फिल्म (कैमरा) तथा टेप-रिकॉर्डर इत्यादि का प्रयोग करके अधिक सूक्ष्म और विश्वसनीय बनाया जा सकता है। यांत्रिक साधन मानवीय इंद्रियों के प्रयोग की कमी को दूर करने में सहायता प्रदान करते हैं।
  7. समाजमिति पैमानों का प्रयोग-समाजमिति पैमानों का प्रयोग करके गुणात्मक सामाजिक तथ्यों को ठीक प्रकार से मापा जा सकता है तथा अवलोकित सूचना की प्रामाणिकता की जाँच की जा सकती है। समाजमिति लघु समूहों में अवलोकन को अधिक विश्वसनीय एवं वैज्ञानिक बनाने में सहायक है।
  8. निष्पक्ष व्यवहार—अवलोकनकर्ता के कार्य में पक्षपातपूर्ण व्यवहार नहीं करना चाहिए। यदि वह निष्पक्ष रूप से व्यवहार का अवलोकन करेगा तो उसके निष्कर्ष अधिक प्रामाणिक, विश्वसनीय एवं वैज्ञानिक होंगे। यद्यपि यह एक कठिन कार्य है, तथापि अवलोकन-योजना बनाकर निष्पक्षता बनाए रखी जा सकती है।
  9. अवलोकन का सामूहिक रूप-अवलोकन को अधिक सफल बनाने के लिए आवश्यक है कि अवलोकन का कार्य सामूहिक रूप से किया जाए, क्योंकि अनेक क्षेत्रों के विशेषज्ञों के द्वारा अवलोकन निष्पक्ष तथा त्रुटिहीन होता है। इसके लिए अनुसंधानकर्ताओं को एक दल सामूहिक रूप से घटनाओं को अवलोकन करता है। किसी एक अनुसंधानकर्ता की कमी अन्य अनुसंधानकर्ताओं के अवलोकन द्वारा दूर हो जाती है। इसलिए आजकल अवलोकन में सामूहिक दलों का महत्त्व निरंतर बढ़ता जा रहा है।

निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचने से यह स्पष्ट हो जाता है कि अवलोकन के मर्ग में आने वाली प्रमुख धाएँ वास्तव में अवलोकन पद्धति की कमियाँ नहीं हैं, अपितु अनुसंधानकर्ता द्वारा इस पद्धति का दोषपूर्ण रूप से प्रयोग करना है। इसलिए इसे वैज्ञानिक बनाने में अवलोकनकर्ता को ही अपने पर नियंत्रण रखना पड़ता है तथा उन सभी स्रोतों के प्रति सावधान रहना पड़ता है, जो अध्ययन को प्रभावित करके इसे अवैज्ञानिक बना देते हैं। सामूहिक दलों द्वारा अवलोकने का निरंतर बढ़ता हुआ उपयोग इस बात को प्रमाणित करता है कि यदि व्यक्तिगत पक्षपात पर नियंत्रण कर लिया जाए तो अवलोकन को काफी सीमा तक वैज्ञानिक बनाया जा सकता है।

प्रश्न 4.
सहभागी अवलोकन की संकल्पना स्पष्ट कीजिए।
या
सहभागी तथा असहभागी अवलोकन में अन्तर बताइए।
उत्तर
सामाजिक अनुसंधान में जिन पद्धतियों द्वारा आँकड़ों को संकलन किया जाता है, उनमें अवलोकन का प्रमुख स्थान है। यह सर्वाधिक प्रचलित पद्धति है, जिसमें आँखों का अधिकतर प्रयोग किया जाता है। सहभागी तथा असहभागी अवलोकन इसके प्रमुख प्रकार हैं।

सहभागी अवलोकन का अर्थ एवं परिभाषाएँ

सहभागी अवलोकन में अवलोकनकर्ता अध्ययन की जाने वाली परिस्थितियों में स्वयं भाग लेता है और इस समूह का औपचारिक सदस्य बन जाता है। समूह में पूर्ण रूप से घुल-मिलकर तथा सभी क्रिया-कलापों में भाग लेकर अपना उद्देश्य प्रकट किए बिना वह समूह के सदस्यों का अवलोकन करता है। सहभागी अवलोकन का प्रयोग तब किया जाता है जबकि अनुसंधानकर्ता उस समूह में स्वयं घुल-मिल जाता है जिसका कि वह अध्ययन करना चाहता है। प्रमुख विद्वानों ने इसे निम्न प्रकार परिभाषित किया है–

सोजर एवं कैल्टन (Moser and Kalton) के अनुसार—“इस विधि द्वारा अवलोकनकर्ता अध्ययन किए जाने वाले समूह अथवा संगठन के दैनिक जीवन में प्रवेश करता है।”

यंग (Young) के अनुसार–‘सहभागी अवलोकन में अवलोकनकर्ता किसी समूह की अस्थायी सदस्यता ग्रहण कर लेता है और समूह के सदस्यों के साथ मिलकर समूह के कार्यों में भाग लेता है, किंतु वह समूह के किसी भी सदस्य को यह आभास नहीं होने देता कि वह समूह का अध्ययन करने के उद्देश्य से समूह के कार्यों में समूह के सदस्य के साथ घुल-मिलकर भाग ले रहा है।”

गुड एवं हैट (Goode and Hatt) के अनुसार-“इस प्रविधि का प्रयोग तभी किया जा सकता है। जबकि अवलोकनकर्ता अपने उद्देश्य को प्रकट किए बिना उसी समूह का सदस्य मान लिया जाता है।” उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सहभागी अवलोकन में अवलोकनकर्ता उसी समूह का एक सदस्य बन जाता है जिसका कि उसे अवलोकन करना है। समूह में पूर्ण रूप से घुल-मिलकर तथा सभी क्रियाकलापों में भाग लेकर अपना उद्देश्य प्रकट किए बिना वह समूह के सदस्यों का अवलोकन करता है।

असहभागी अवलोकन का अर्थ एवं परिभाषाएँ

असहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता समस्या से संबंधित समूह का न हो अस्थायी सदस्य बनता है। और न समूह के कार्यों में सक्रिय भाग लेता है, बल्कि वह दूर से ही एक तटस्थ निरीक्षणकर्ता के रूप में समस्याओं का अध्ययन करता है। इस अवलोकन में अवलोकनकर्ता अधिक गहराई तक पहुँचने का प्रयत्न नहीं करता। प्रमुख विद्वानों ने इसे इस प्रकारे परिभाषित किया

हैपी०एच० मन (PH, Mann) के अनुसार–‘असहभागी अवलोकन एक ऐसी विधि है जिसमें अवलोकन करने वाला अवलोकित से छिपा रहती है।” इस प्रकार असहभागी अवलोकन समूह के सदस्यों में सहभागिता किए बिना किया जाने वाला अवलोकन है। यह अवलोकन ही अधिकांश अध्ययनों में प्रयोग किया जाता है।

सहभागी तथा असहभागी अवलोकन में अंतर

सहभागी तथा असहभागी अवलोकन दो विपरीत प्रकार के अवलोकन हैं, जिनकी अपनी-अपनी उपयोगिताएँ तथा सीमाएँ हैं। दोनों में प्रमुख अंतर इस प्रकार से किया जा सकता है-

  1. सहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता समूह का अस्थायी सदस्य होता है, किन्तु असहभागी अवलोकन मे अनुसंधानकर्ता समूह का सदस्य नहीं होता।
  2. सहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता तटस्थ निरीक्षक के रूप में कार्य नहीं करता, परंतु असहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता तटस्थ दर्शक के रूप में समस्या का अध्ययन करता है।
  3. सहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता एक प्रकार से परिचित व्यक्ति होता है, जबकि असहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता एक अपरिचित व्यक्ति होता है।
  4. सहभागी अवलोकन के अंतर्गत अनुसंधानकर्ता स्वयं समूह का सदस्य रहता है, अतएव उसको अधिक समय तथा अधिक धन व्यय करना पड़ता है, जबकि असहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता समूह की अस्थायी सदस्यता ग्रहण नहीं करता, अतएव उसके अनुसंधान कार्य करने में समय तथा धन कम लगता है।
  5. सहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता प्राप्त सूचनाओं की सत्यता की जाँच कर सकता है, परंतु असहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता प्राप्त सूचनाओं की सत्यता की जाँच नहीं कर सकता।
  6. सहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता समूह का अस्थायी सदस्य होता है, जबकि असहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता समूह का. सदस्य न होने के कारण एक अपरिचित तथा प्रतिष्ठित व्यक्ति होता है।

निष्कर्ष–उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सहभागी एवं असहभागी अनुसंधान में प्रयोग किए जाने वाले दो भिन्न प्रकार के अवलोकन हैं। प्रथम में अनुसंधानकर्ता को अवलोकित समूह का अस्थायी सदस्य बनना पड़ता है। असहभागी अवलोकन में वह समूह में जाकर तटस्थ दर्शक के रूप में अवलोकन करता है।

प्रश्न 5.
एक अच्छे अवलोकनकर्ता के मुख्य गुणों का विवेचन कीजिए।
या
“अवलोकन की सफलता एक अच्छे अवलोकनकर्ता पर निर्भर करती है।” इस कथन के संदर्भ में एक अच्छे अवलोकनकर्ता के मुख्य गुणों की विवचेना कीजिए।
उत्तर
एक अच्छे अवलोकनकर्ता के गुण अवलोकन इतना सरल कार्य नहीं है जितना कि यह ऊपर से देखने में लगता है; अत: इसे ठीक प्रकार से करने के लिए तथा सही व वस्तुनिष्ठ सूचनाएँ एकत्रित करने के लिए एक कुशल अवलोकनकर्ता की आवश्यकता होती है। एक अच्छे अवलोकनकर्ता में निम्नांकित प्रमुख गुण पाए जाते हैं-

  1. बुद्धिबल—एक अच्छे अवलोकनकर्ता में बुद्धिबल होना अत्यंत अनिवार्य है। इसी बुद्धिमानी के आधार पर क्ह अपनी समस्या से संबंधित अर्थपूर्ण व वस्तुनिष्ठ सूचनाओं का संकलन करता
  2. विभिन्न साधनों व पद्धतियों का ज्ञान-एक अच्छे अवलोकनकर्ता को शोध कार्य को सफल बनाने के लिए विभिन्न साधनों व पद्धतियों का भी ज्ञान होना अनिवार्य है। वह अनेक अन्य पद्धतियों का प्रयोग सहायक पद्धतियों के रूप में करके अवलोकन द्वारा एकत्रित सूचनाओं को अधिक विश्वसनीय बना सकता है।
  3. सामाजिक जटिलता का ज्ञान-एक अच्छे अवलोकनकर्ता अथवा अनुसंधानकर्ता को सामाजिक व्यवहार तथा सामाजिक घटनाओं की जटिलता का भी पूर्ण ज्ञान होना चाहिए ताकि वह सभी सूचनाएँ एकत्रित कर सके। बिना इस ज्ञान के अधिक अर्थपूर्ण सूचनाएँ एकत्रित नहीं की जा सकतीं।
  4. सामाजिक मनोविज्ञान का ज्ञान-एक अच्छे व कुशल अवलोकनकर्ता का एक अच्छा मनोवैज्ञानिक होना भी अनिवार्य है ताकि वह अवलोकित समूह के सदस्यों को ठीक प्रकार से समझकर तथा उनका विश्वास प्राप्त करके ठीक सूचनाएँ एकत्रित कर सके।
  5. आवश्यक सूचनाओं के संकलन की क्षमता-एक अच्छे अनुसंधानकर्ता को अवलोकित विषय-क्षेत्र तथा समस्या के संबंध में पूर्ण ज्ञान होना चाहिए ताकि वह आवश्यक सूचनाओं का संकलन कर सके।
  6. दूरदर्शिता तथा व्यवहारकुशलता–एक अवलोकनकर्ता को दूरदर्शी होना चाहिए। उसे बहुत हो साच-समझकर कार्य करना चाहिए और अपने व्यवहार को परिस्थितियों के अनुकूल नियंत्रित रखना चाहिए। उसमें इतनी व्यवहारकुशलता होनी चाहिए कि वह दूसरों को अपनी ओर आकर्षित कर सके तथा सदस्यों से पूर्ण सहयोग प्राप्त कर सके।

निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अगर सभी गुणों से संपन्न व्यक्ति एक कुशल अवलोकनकर्ता अथवा अनुसंधानकर्ता होगा तो वह अवलोकन के दोषों, जिनमें से अधिकांश अवलोकनकर्ता से ही संबंधित हैं, को दूर कर सकता है। आजकल सामूहिक अवलोकन द्वारा यह कार्य संभव हो गया है।

प्रश्न 6.
अवलोकन-पद्धति के गुणों एवं दोषों की विवेचना कीजिए।
या
सामाजिक अन्वेषण में प्रयोग की जाने वाली पद्धति के रूप में अवलोकन के गुण-दोषों की विवेचना कीजिए।
या
समाजशास्त्री अनुसंधान में अवलोकन-पद्धति के महत्त्व की व्याख्या कीजिए।
उत्तर

अवलोकन का मूल्यांकन

अवलोकन का अर्थ देखना है, अर्थात् आँखों के प्रयोग द्वारा घटनाओं की जाँच-पड़ताल करने की पद्धति को अवलोकन कहा जाता है। यह आँकड़े एकत्रित करने की एक विश्वसनीय एवं प्रामाणिक पद्धति मानी जाती है। अवलोकन का मूल्यांकन इसके गुणों एवं दोषों के आधार पर किया जा सकता है। किसी भी अनुसंधान पद्धति के अपने कुछ गुण तथा सीमाएँ होती हैं। अवलोकन के गुण-दोषों की विवचेना इस प्रकार से की जाती है-

अवलोकन के प्रमुख गुण

अवलोकन पद्धति में पाए जाने वाले प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  1. सरल अध्ययन–अवलोकन पद्धति का प्रयोग अत्यंत सरल कार्य है। इसमें अनुसंधानकर्ता को आँखों से निरीक्षण-मात्र करना होता है तथा घटना के बारे में तथ्य एकत्रित करने होते हैं। इस प्रकार के कार्य में अन्य किसी प्रकार के साधन की आवश्यकता नहीं होती है। क्योंकि सारे तथ्यों का संकलन देखकर किया जाता है, इसलिए अनुसंधानकर्ता तथ्यों के संकलन में भी सफल रहता है।
  2. सही सूचनाओं का संकलन–अवलोकन का अभिप्राय देखना है। व्यक्ति जिस वस्तु को स्वयं देखता है, वह उसके बारे में संपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है। इसके अतिरिक्त ‘आँखों द्वारा देखकर एकत्रित सूचनाएँ अधिक विश्वसनीय होती हैं। किसी सूचनादाता द्वारा बताई गई बातें तो पक्षपातपूर्ण एवं गलत हो सकती हैं, परंतु आँखों द्वारा देखकर एकत्रित सूचनाएँ सदैव सही होती हैं।
  3. पुनः जाँच संभव–अवलोकन द्वारा प्राप्त निष्कर्षों के संबंध में यदि कोई शंका किसी समय होने लगे तो उसकी पुनः जाँच कभी भी की जा सकती है। पुनः जाँच द्वारा पहले से एकत्रित सूचनाओं की प्रामाणिकता को सिद्ध किया जा सकता है तथा तथ्यों की जाँच की जा सकती है।
  4. सार्वभौमिक पद्धति-अवलोकन एक सार्वभौमिक पद्धति है; क्योंकि एक तो इसका प्रयोग सभी विज्ञानों में होता है और दूसरे, विद्वानों का विचार है कि विज्ञान का कार्य अवलोकन द्वारा प्रारम्भ होता है और प्रामाणिकता की जाँच भी अवलोकन द्वारा ही होती है; अतः सभी सामजिक व प्राकृतिक विज्ञानों में ज्ञान प्राप्त करने की प्रथम श्रेणी अवलोकन हीं है और इसलिए इसे एक सार्वभौमिक पद्धति भी माना जाता है।
  5. ज्ञान में आशातीत वृद्धि—-अवलोकन पद्धति द्वारा ज्ञान में आशातीत वृद्धि होती है। हमारे ज्ञान में वृद्धि का प्रमुख स्रोत हमारा दैनिक घटनाओं का अवलोकन ही है। किसी भी वस्तु या दृश्य | को आँखों से देखकर वस्तु या प्रश्न के संबंध में पूर्ण ज्ञान हो सकता है।
  6. सर्वाधिक प्रचलित पद्धति-अवलोकन एक सर्वाधिक प्रचलित पद्धति है; क्योकि कोई भी ऐसा विज्ञान नहीं है जिसमें अवलोकन पद्धति का सर्वप्रथम प्रयोग नहीं किया जाता हो। इस पद्धति का प्रयोग केवल सूचनाएँ एकत्रित करने के लिए ही नहीं किया जाता, अपितु सूचनाओं की प्रामाणिकता की जाँच करने के लिए भी किया जाता है। इसलिए यह सर्वाधिक प्रचलित पद्धति है।
  7. उपकल्पनाओं का निर्माण–अवलोकन पद्धति उपकल्पनाओं के निर्माण का भी एक प्रमुख स्रोत है; क्योंकि अधिकांश उपकल्पनाओं का निर्माण व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर ही किया जाता है जो कि हमें अवलोकन द्वारा प्राप्त होता है।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अवलोकन सूचनाओं के संकलन एवं संकलित सूचनाओं की प्रामाणिकता की जाँच करने की एक महत्त्वपूर्ण पद्धति है।

अवलोकन के प्रमुख दोष

एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण पद्धति होने के बावजूद यह पूर्ण रूप से दोषरहित नहीं है। इसमें पाए जाने वाले प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं-

  1. अवलोकनकर्ता का वैयक्तिक दृष्टिकोण–प्रत्येक व्यक्ति की घटनाओं एवं वास्तविकता को देखने का अपना पृथक् दृष्टिकोण होता है तथा वह इस दृष्टिकोण से,अध्ययन के समय अधिक विमुख नहीं हो सकता। उसका यह वैयक्तिक दृष्टिकोण अवलोकन को अवैज्ञानिक बना देता है। तथा इससे एकत्रित सूचनाओं की विश्वसनीयता प्रभावित होती है।
  2. निष्पक्षता का अभाव-व्यक्ति अपने पूर्वजों की संस्कृति को विरासत में प्राप्त करता है और उसी संस्कृति को जीवन-पर्यंत पालन भी करता है। इसी संस्कृति द्वारा प्राप्त मूल्यों, विश्वासों व मनोवृत्तियों के आधार पर वह घटनाओं का अध्ययन भी करता है। अवलोकन करते समय वह अवलोकित घटना की व्याख्या अपने इन्हीं मूल्यों, मनोवृत्तियों एवं पूर्वाग्रहों के संदर्भ में करता है। जिससे संकलित आंकड़ों की विश्वसनीयता प्रभावित होती है।
  3. समय का अपव्यय-अवलोकन पद्धति में अवलोकनकता को घटना का अवलोकन करने के लिए स्वयं घटनास्थल पर जाना पड़ता है। वहाँ अनेक बार जाने व घटना का अवलोकन करने में काफी समय लग जाता है। यदि सहभागी अवलोकन द्वारा सूचना एकत्रित की जा रही है तो अवलोकनकर्ता को समूह के सदस्यों का विश्वास प्राप्त करने में ही काफी समय लग जाता है।।
  4. सदस्यों के व्यवहार में कृत्रिमता–यदि किसी समूह के सदस्यों को यह पता चल जाता है कि कोई अजनबी उनके बीच उपस्थित है और उनके व्यवहार का अवलोकन कर रहा है तो उनके व्यवहार में कृत्रिमता आ जाती है। इस दशा में अवलोकतनकर्ता सदस्यों के वास्तविक व्यवहार के बारे में ज्ञान प्राप्त करने में सफल नहीं हो पाता।
  5. घटनाओं की अमूर्तता–समाजशास्त्र में अनेक घटनाएँ अमूर्त होती हैं, जिनका अवलोकन संभव नहीं है और इस प्रकार ऐसी घटनाओं के अवलोकन का अवसर अवलोकनकर्ता को प्राप्त ही नहीं होता है।
  6. घटनास्थल से दूरी-अवलोकन पद्धति का एक अन्य दोष अवलोकनकर्ता की घटनास्थल से दूरी है। क्योंकि पहले से यह पता नहीं होता है कि कौन-सी घटना कैब, कहाँ और किस रूप में घटित होगी, इसलिए अवलोकनकर्ता समय पर पहुँचकर उसका अध्ययन नहीं कर सकता।।
  7. घटनाओं की अनिश्चितता–घटनाओं के घटने के समय व स्थान निश्चित नहीं होते हैं। इसलिए अवलोकनकर्ता अधिकतर प्राथमिक स्तर पर आँकड़े एकत्रित करने में सफल नहीं हो पाता है। अनिश्चितता के कारण वह उनके संबंध में पूर्वानुमान नहीं लगा सकता है।
  8. भूतकालीन घटनाओं का अध्ययन अंसभव—अवलोकन पद्धति द्वारा भूतकालीन घटनाओं का अध्ययन नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अतीत की घटनाओं को देखा नहीं जा सकता। अतः अवलोकन का प्रयोग केवल सीमित परिस्थितियों में ही किया जा सकता है।
  9. ज्ञानेंद्रियों की अपूर्ण क्षमता-ज्ञानेंद्रियों की क्षमता का पूर्ण न होना भी अवलोकन पद्धति का एक प्रमुख दोष है। यदि किसी घटना के कुछ पहलुओं को अवलोकनकर्ता देख न पाए अथवा जो वह देख रहा है उसे अर्थपूर्ण ढंग से समझ न सके तो प्राप्त सूचनाएँ दोषपूर्ण हो सकती हैं।

निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अवलोकन एक महत्त्वपूर्ण पद्धति है, परंतु फिर भी यह पूरी तरह दोषरहित नहीं है। यदि दोषों को अवलोकनकर्ता के स्तर पर नियंत्रित करके कम कर दिया जाए तो यह एक अच्छी व अत्यंत विश्वसनीय पद्धति हो सकती है।

प्रश्न 7.
सामाजिक सर्वेक्षण के प्रमुख प्रकारों की विवचेना कीजिए।
उत्तर

सामाजिक सर्वेक्षणों के प्रकार

आज सामाजिक सर्वेक्षणों का विषय-क्षेत्र इतना अधिक विस्तृत है कि सामाजिक सर्वेक्षणों के कितने प्रकार हैं, यह बताना कठिन हो गया है। उद्देश्यों, विषय-वस्तु, प्रकृति एवं समयावधि के अनुसार सामाजिक सर्वेक्षणों का वर्गीकरण करने का प्रयास किया गया है।
वेल्स (Wells) ने सामाजिक सर्वेक्षणों को दो श्रेणियों में विभाजित किया है-

  1. प्रचार सर्वेक्षण-इस प्रकार के सर्वेक्षण सामान्यत: सरकारी योजनाओं अथवा सरकार द्वारा बनाए गए सामाजिक विधानों का प्रचार करने के उद्देश्य से किए जाते हैं। अन्य शब्दों में, इनका उद्देश्यं जनता में किसी बात के बारे में जागृति पैदा करना होता है।।
  2. तथ्य संकलन सर्वेक्षण—इस प्रकार के सर्वेक्षणों का उद्देश्य सामाजिक जीवन अथवा सामाजिक घटनाओं के बारे में तथ्यों का पता लगाना होता है। अगर इस कार्य में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जाता है तो ऐसे सर्वेक्षण ‘वैज्ञानिक सर्वेक्षण’ कहे जाते हैं। अगर तथ्यों के संकलन के आधार पर किसी समस्या का समाधान बताना है तो ऐसे सर्वेक्षण व्यावहारिक सर्वेक्षण कहे जाते हैं।

यंग (Young) ने सामाजिक सर्वेक्षणों के निम्नांकित दो प्रकारों का उल्लेख किया है-

  1. प्रसंगात्मक सर्वेक्षण-इस प्रकार के सर्वेक्षणों का उद्देश्य सामाजिक जीवन के किसी एक पक्ष (जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, आर्थिक स्थिति आदि) के बारे में सूचना प्राप्त करना होता है। क्योंकि | ऐसे सर्वेक्षणों का एक ही प्रसंग होता है, इसलिए इन्हें प्रसंगात्मक सर्वेक्षण कहा जता है।।
  2. सामान्य सर्वेक्षण-इस प्रकार के सर्वेक्षण बहुपक्षीय विस्तृत अध्ययन पर आधारित होते हैं। राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा इस प्रकार के सर्वेक्षण अधिकतर किए जाते हैं। इन सर्वेक्षणों का उद्देश्य व्यक्तियों के सामान्य जीवन को समझना होता है।

हाइमन (Hyman) ने सामाजिक सर्वेक्षणों को निम्नलिखित दो प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया है-

  1. वर्णनात्मक सर्वेक्षण—इस प्रकार के सर्वेक्षणों को ‘विवरणात्मक सर्वेक्षण’ भी कहा जाता है, क्योंकि इनका उद्देश्य सामाजिक जीवन, सामाजिक घटना, सामाजिक दशा अथवा सामाजिक प्रक्रिया का विवरण प्राप्त करना होता है। इन सर्वेक्षणों में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जाता
  2. अन्वेषणात्मक सर्वेक्षण-इस प्रकार के सर्वेक्षणों को व्याख्यात्मक सर्वेक्षण’ भी कहा जाता है; क्योंकि इनमें किसी घटना के विभिन्न कारकों की व्याख्या करने का प्रयास किया जाता है। अगर इनको उद्देश्य किसी कार्यक्रम का मूल्यांकन करना है तथा उसे प्रभावित करने वाले कारकों का पता लगाना है तो ऐसे सर्वेक्षण को ‘कार्यक्रम संबंधी सर्वेक्षण’ कहा जाता है। अगर सर्वेक्षण का उद्देश्य किसी समस्या के कारणों का पता लगाकर उसका निदान बताना है तो । ऐसे सर्वेक्षण को ‘निदानात्मक सर्वेक्षण’ कहा जाता है। अगर सर्वेक्षण का उद्देश्य भावी नीति बनाना है तो उसे ‘भविष्य निर्देशित सर्वेक्षण’ कहा जाता है। कुछ सर्वेक्षण ऐसे भी होते हैं, जिनका उद्देश्य पहले से किए गए सर्वेक्षणों से प्राप्त जानकारी की सत्यता की जाँच करना होता है। ऐसे सर्वेक्षणों को द्वितीयक सर्वेक्षण’ कहा जाता है।

सर्वेक्षणों को प्रकृति, उद्देश्यों एवं विषय-वस्तु के आधार पर निम्नांकित श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. जनगणना सर्वेक्षण-इस प्रकार के सर्वेक्षण संपूर्ण समाज अथवा संपूर्ण समुदाय की इकाइयों का अध्ययन करते हैं। भारत में हर दस वर्ष बाद होने वाली जनगणना इस प्रकार के सर्वेक्षण का ही उदाहरण है।
  2. निदर्शन सर्वेक्षण-इस प्रकार के सर्वेक्षण में संपूर्ण समाज अथवा समुदाय का अध्ययन न करके उनका प्रतिनिधित्व करने वाली इकाइयों का अध्ययन किया जाता है। आजकले अधिकांश सर्वेक्षण निदर्शन पर ही आधारित होते हैं।
  3. मूल्यांकन सर्वेक्षण-इस प्रकार के सर्वेक्षणों का उद्देश्य सामाजिक जीवन अथवा सामाजिक घटना के विभिन्न पक्षों का मूल्यांकन करना होता है।
  4. मनोवृत्ति सर्वेक्षण-इस प्रकार के सर्वेक्षणों का उद्देश्य किसी समस्या अथवा घटना के बारे में – लोगों की मनोवृत्तियों का पता लगाना होता है।

उपर्युक्त सर्वेक्षणों के अतिरिक्त ग्रामीण सर्वेक्षण, नगरीय सर्वेक्षण, सरकारी सर्वेक्षण, अर्द्ध-सरकारी सर्वेक्षण, गैर-सरकारी सर्वेक्षण, गोपनीय सर्वेक्षण, सहकारी सर्वेक्षण, गुणात्मक सर्वेक्षण, गणनात्मक सर्वेक्षण, सामान्य सर्वेक्षण, विशिष्ट सर्वेक्षण, नियमित सर्वेक्षण, कार्यवाहक सर्वेक्षण, अंतिम सर्वेक्षण आदि सर्वेक्षणों का भी प्रयोग आधुनिक समाजों में किया जाने लगा है।

निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि समाजशास्त्र में अनेक प्रकार के सर्वेक्षणों का प्रयोग किया जाता है। वस्तुतः सर्वेक्षणों का प्रयोग समाजशास्त्र तक ही सीमित नहीं है। लगभग सभी विषयों में सर्वेक्षणों का किसी-न-किसी रूप में प्रयोग किया जाने लगा है।

प्रश्न 8.
सामाजिक सर्वेक्षण किसे कहते हैं? इसके प्रमुख उद्देश्य बताइए।
या
सामाजिक सर्वेक्षण की परिभाषा दीजिए तथा इसकी विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
या
सामाजिक सर्वेक्षण से आप क्या समझते हैं। इसका क्या महत्त्व है?
उत्तर
सामाजिक सर्वेक्षण आज के वैज्ञानिक युग की एक प्रमुख विशेषता है। यह वैज्ञानिक अध्ययन की एक प्रमुख पद्धति है जिसके द्वारा सामाजिक जीवन, सामाजिक संबंधों अथवा सामाजिक दशाओं की बड़ी सावधानीपूर्वक जाँच-पड़ताल की जाती है। इस जाँच-पड़ताल का उद्देश्य सामाजिक जीवन के बारे में जानकारी प्राप्त करके उसे अधिक सार्थक बनाना है। साथ ही इसका उद्देश्य सामाजिक दशाओं, घटनाओं एवं समस्याओं से संबंधित सामग्री का संकलन करना है तथा इनका आलोचनात्मक निरीक्षण करना है। सामाजिक सर्वेक्षण कोई आधुनिक बात नहीं है अपितु इसका इतिहास काफी लंबा रहा है। वस्तुतः सामाजिक सर्वेक्षण ने मानव सभ्यता का विकास करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

सामाजिक सर्वेक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएँ

‘सामाजिक सर्वेक्षण सामाजिक अनुसंधान की एक प्रमुख पद्धति मानी जाती है। सर्वेक्षण’ को अंग्रेजी , में ‘सर्वे’ (Survey) कहा जाता है, जो दो शब्दों से बना है-‘सर’ (sur) अथवा ‘सोर’ (sor) ‘वियर’ (veeir or veoir)। प्रथम शब्द का अर्थ ‘ऊपर’ (over) है जबकि दूसरे शब्द का अर्थ ‘देखना’ (see) है, अर्थात् ‘सर्वेक्षण’ शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘किसी घटना को ऊपर से देखना’ है। इस प्रकार ‘सामाजिक सर्वेक्षण’ का अर्थ हुआ ‘किसी सामाजिक घटना को ऊपर से देखना।’ परंतु ‘सामाजिक सर्वेक्षण’ शब्द का प्रयोग आज विशेष अर्थ में किया जाता है। इसका अर्थ सामाजिक अनुसंधान की उस पद्धति से है, जिसके द्वारा अनुसंधानकर्ता घटना स्थल पर जाकर उसका वैज्ञानिक रूप में अवलोकन करता है तथा उसके संबंध में जानकारी प्राप्त करता है।

प्रमुख विद्वानों ने इसे निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया है-
यांग (Yang) के अनुसार-“सामाजिक सर्वेक्षण सामान्यतया लोगों के एक समूह की रचना, क्रियाओं तथा रहन-सहन की दशाओं में छानबीन है।”

मोजर (Moser) के अनुसार-“समाजशास्त्रियों को सामाजिक सर्वेक्षण को एक तरीके, जो अत्यधिक व्यवस्थित है, के रूप में देखना चाहिए, जिसके द्वारा किसी क्षेत्र की खोज करने तथा अध्ययन विषय से प्रत्यक्ष संबंध रखने वाली सूचनाएँ एकत्रित करने में उपयोगी है जिससे समस्या पर प्रकाश पड़ता है और आवश्यक सुझावों की ओर संकेत किया जाता है।”

केलाँग (Kellong) के अनुसार-“सामाजिक सर्वेक्षण सामान्यतया वे सहकारी प्रयास माने गए हैं, जो वैज्ञानिक पद्धतियों का उपयोग ऐसी सामाजिक समस्याओं के अध्ययन में करते हैं, जो इतनी गंभीर हैं कि जनमत को तथा समस्या के समाधान की इच्छा को जाग्रत करती हैं।”

बर्गेस (Burgess) के अनुसार-“एक समुदाय का सर्वेक्षण एवं सामाजिक विकास एक रचनात्मक योजना प्रस्तुत करने के उद्देश्य से किया गया उसे समुदाय की दशाओं और आवश्यकताओं का वैज्ञानिक अध्ययन है।”

अब्रामस (Abrams) के अनुसार—“सामाजिक सर्वेक्षण एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा एक समुदाय की संरचना एवं क्रियाओं के सामाजिक पहलुओं के बारे में संख्यात्मक तथ्य एकत्रित किए जाते हैं।”

बोगार्डस (Bogardus) के अनुसार-“एक सामाजिक सर्वेक्षण किसी विशेष क्षेत्र के लोगों के रहन-सहन तथा कार्य करने की दशाओं से संबंधित तथ्य एकत्रित करने को कहते हैं।’

यंग (Young) के अनुसार-“सामाजिक सर्वेक्षण

  1. किसी सुधार की क्रियात्मक योजना के निरूपण और
  2.  निश्चित भौगोलिक सीमाओं में व्याप्त तथा निश्चित सामाजिक परिणामों और महत्त्व की किसी प्रचलित यो तात्कालिक व्याधिकीय अवस्था के सुधार से संबंधित है,
  3. इन अवस्थाओं की माप व तुलना किन्हीं ऐसी परिस्थितियों के साथ हो सके जो कि आदर्श रूप में स्वीकार की जाती हैं।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक सर्वेक्षण को समुदाय के सामान्य जीवन के अध्ययन के रूप में, सामाजिक समस्याओं व समाज सुधार के रूप में तथा एक वैज्ञानिक पद्धति के रूप में परिभाषित किया गया है। अधिकांशतः इसे वैज्ञानिक अन्वेषण की एक शाखा के रूप में देखा जाता है। इसके अंतर्गत निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में निवास करने वाली वृहत् एवं कम आकार वाली जनसंख्याओं (समग्रों) की जीवन दशाओं, क्रियाओं; समस्याओं तथा व्याधिकीय दशाओं का अध्ययन किया जाता है ताकि समाज सुधार एवं सामाजिक प्रगति हेतु रचनात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जा सकें।

सामाजिक सर्वेक्षण की प्रमुख विशेषताएँ

सामाजिक सर्वेक्षण की संकल्पना को इसकी निम्नलिखित विशेषताओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. निश्चित पद्धति–सामाजिक सर्वेक्षण सामाजिक जीवन एवं सामाजिक समस्याओं के अध्ययन की एक निश्चित पद्धति है।।
  2. वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग-सामाजिक सर्वेक्षण में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जाता है, | जिससे अध्ययन वस्तु के संबंध में किसी प्रकार के पक्षपात की संभावना नहीं रहती।
  3. सामाजिक पक्षों का अध्ययन–सामाजिक सर्वेक्षण के अंतर्गत सामान्यतः किसी समुदाय की संरचना, उसमें रहने वाले व्यक्तियों की जीवन दशाओं तथा उनकी क्रियाओं के सामाजिक पक्षों का अध्ययन किया जाता है। कई बार इसमें आर्थिक एवं सांस्कृतिक पक्षों को भी सम्मिलित किया जाता है।
  4. निश्चित भौगोलिक क्षेत्र–सामाजिक सर्वेक्षण का संबंध एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र तक ही सीमित होता है। अन्य शब्दों में, सर्वेक्षण के लिए किसी क्षेत्र-विशेष में रहने वाले व्यक्तियों का अध्ययन हेतु चयन किया जाना अनिवार्य है।
  5. प्रत्यक्ष एवं मूर्त पहलुओं का अध्ययन सामाजिक सर्वेक्षण में सामाजिक जीवन के प्रत्यक्ष एवं ।। मूर्त पहलुओं का अध्ययन किया जाता है।
  6. वस्तुनिष्ठ, तटस्थ तथा पक्षपातरहित अध्ययन सामाजिक सर्वेक्षण का संबंध सामाजिक जीवन के वस्तुनिष्ठ, तटस्थ तथा पक्षपातरहित अध्ययन से है। यह वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग के कारण संभव हो पाता है।
  7. सामाजिक समस्याओं के अध्ययन पर बल–सामाजिक सर्वेक्षण के अंतर्गत सामाजिक समस्याओं के अध्ययन पर बल दिया जाता है। ये समस्याएँ व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामुदायिक, सामाजिक, स्थानीय, राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय स्तर की हो सकती हैं।
  8. सहकारी अध्ययन–सामाजिक सर्वेक्षण मुख्य रूप से सहकारी अध्ययन होता है, क्योंकि इसमें एक से अधिक सर्वेक्षणकर्ता अध्ययन क्षेत्र में जाकर चुने हुए सूचनादाताओं से सूचनाएँ एकत्रित करते हैं।
  9. सुधारात्मक प्रकृति-सामाजिक सर्वेक्षण की प्रकृति सुधारात्मक होती है, अर्थात् इसका प्रयोग मुख्य रूप से सामाजिक सुधार अथवा सामाजिक प्रगति हेतु किया जाता है। अन्य शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि सामाजिक सर्वेक्षण रचनात्मक जीवन से संबंधित होता है।
  10. तुलनात्मक अध्ययन-सामाजिक सर्वेक्षण के अंतर्गत सामाजिक जीवन तथा सामाजिक घटनाओं के तुलनात्मक अध्ययन पर बल दिया जाता है।

सामाजिक सर्वेक्षण के उद्देश्य एवं महत्त्व

आधुनिक युग में सामाजिक सर्वेक्षण का महत्त्व निरंतर बढ़ता जा रही है। इसके महत्त्व को इसके . निम्नलिखित उद्देश्यों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. तथ्यों का संकलन--सामाजिक सर्वेक्षण का उद्देश्य अध्ययन हेतु चुने गए सूचनादाताओं से उनके सामाजिक जीवन अथवा सामाजिक समस्या के संबंध में तथ्यों का संकलन करना है। उदाहरणार्थ-अगर सामाजिक सर्वेक्षण का उद्देश्य गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों की जीवन दशाओं का अध्ययन करना है तो हम चयनित गंदी बस्ती में रहने वालों से उन्हीं के बारे में तथ्यों का संकलन करने का प्रयास करते हैं।
  2. समस्याओं का अध्ययन–सामाजिक सर्वेक्षण का उद्देश्य अधिकतर उपयोगितावादी होता है, क्योंकि इसके द्वारा सामाजिक एवं व्यावहारिक समस्याओं का अध्ययन किया जाता है तथा उनके समाधान हेतु रचनात्मक कार्यक्रम बनाए जाते हैं। प्रत्येक समाज में निर्धनता, बेरोजगारी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, अपराध, बाल अपराध आदि विविध प्रकार की समस्याएँ पाई जाती हैं जो कि समाज की स्थिरता एवं निरंतरता को चुनौती देती रहती हैं। इन समस्याओं का अध्ययन सामाजिक सर्वेक्षण द्वारा ही किया जाता है।
  3. कार्य-कारण संबंधों की खोज–सामाजिक सर्वेक्षण सामाजिक समस्याओं के कारणों तथा उनके परिणामों का अध्ययन करने में सहायक है। किसी समस्या का समाधान तब तक संभव नहीं है, जब तक कि हमें उसके कारणों का विस्तृत ज्ञान न हो। सामाजिक सर्वेक्षण द्वारा सामाजिक समस्याओं की उत्पत्ति के कारणों तथा समाज पर पड़ने वाले प्रभावों का पता लगाया जाता है। इस ज्ञान को सामाजिक, समस्याओं के निराकरण हेतु प्रयोग में लाया जाता है।
  4. जनसाधारण की भावनाओं का अध्ययन–सामाजिक सर्वेक्षण का उद्देश्य समाज में प्रचलित विवादों, संस्थाओं, कुप्रथाओं तथा प्रगतिशील योजनाओं के बारे में जनसाधारण की भावनाओं का पता लगाना है। इससे हम जनसाधारण की रुचियों अथवा किसी विकास नीति के बारे में प्रतिक्रियाओं का अध्ययन भी कर सकते हैं।
  5. श्रमिक वर्गों का अध्ययन–सामाजिक सर्वेक्षण का प्रयोग मुख्य रूप से श्रमिक वर्गों की जीवन दशाओं तथा समस्याओं का अध्ययन करने के लिए ही किया गया है। वास्तव में, सामाजिक सर्वेक्षण की उत्पत्ति ही ऐसे अध्ययनों से हुई है। इन अध्ययनों के आधार पर श्रमिकों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान हेतु कार्यक्रम बनाए जाते हैं। कुछ समाजशास्त्री तो सामाजिक सर्वेक्षण का उद्देश्य ही श्रमिक वर्गों की समस्याओं का अध्ययन करना बताते हैं।
  6. उपकल्पनाओं का निर्माण एवं परीक्षण सामाजिक सर्वेक्षण का उद्देश्य उपकल्पनाओं के निर्माण में सहायता प्रदान करना है। सामाजिक सर्वेक्षण उपकल्पनाओं की सत्यता की जाँच करने में भी सहायक है। यद्यपि उपकल्पना का निर्मण करना सामाजिक सर्वेक्षण का अनिवार्य चरण नहीं है, तथापि अधिकांश सर्वेक्षणों में अध्ययन को अधिक निर्देशित करने हेतु उपक़ल्पनाओं का निर्माण किया जाता है।
  7. सामाजिक सिद्धांतों का परीक्षण–मानव व्यवहार परिवर्तनशील है। जैसे-जैसे समाज में परिवर्तन होता है, व्यवहार के बारे में पूर्व-निर्मित सिद्धांतों के परीक्षण की आवश्यकता महसूस की जाने लगती है। इस कार्य में सामाजिक सर्वेक्षण सहायता प्रदान करता है तथा सामाजिक सिद्धांतों का परीक्षण करके उनमें सुधार एवं संशोधन करता है।
  8. सामाजिक नियोजन में सहायक–सामाजिक सर्वेक्षण द्वारा प्राप्त किया गया ज्ञान सामाजिक नियोजन में सहायता प्रदान करता है। इसके द्वारा विभिन्न विकास योजनाओं का मूल्यांकन भी किया जाता है जिससे नियोजन के मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधाओं का पता चल सके तथा उन्हें समय रहते दूर किया जा सके।
  9. नीति-निर्धारण एवं मार्गदर्शन में सहायक–सामाजिक सर्वेक्षण द्वारा समाज के विभिन्न पक्षों के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त की जाती है। यह जानकारी नीति-निर्धारण तथा समाज को अपने निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने में मार्गदर्शन का कार्य करती है।
  10. पूर्वानुमान में सहायक–सामाजिक सर्वेक्षण द्वारा विभिन्न सामाजिक घटनाओं एवं सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों में पाए जाने वाले कार्य-कारण संबंधों की खोज की जाती है। जो जानकारी इनके बारे में प्राप्त होती है, उसके आधार पर सर्वेक्षणकर्ता पूर्वानुमान लगाने का प्रयास करता है। अनेक बाजार सर्वेक्षणों को उद्देश्य आने वाले समय में किसी विशेष वस्तु की बिक्री का अनुमान लगाना होता है।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक सर्वेक्षण आज के आधुनिक युग में अपने महत्त्व के कारण अत्यधिक लोकप्रिय होता जा रहा है। वास्तव में यह इतने उद्देश्यों की पूर्ति करता है। कि जीवन के किसी भी पक्ष में आज सामाजिक सर्वेक्षणों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।

प्रश्न 9.
साक्षात्कार के प्रमुख प्रकारों की विवचेना कीजिए।
या
सामाजिक शोध में साक्षात्कार के जिन प्रकारों का प्रयोग किया जाता है उनकी संक्षिप्त विवचेना कीजिए।
उत्तर
साक्षात्कार के विभिन्न प्रकार सामाजिक अनुसंधान में साक्षात्कार पद्धति का प्रयोग विभिन्न रूपों में किया जाता है। इसका प्रमुख रूप से वर्गीकरण अनेक आधारों पर किया गया है। वर्गीकरण के प्रमुख आधार तथा उनके अनुरूप, साक्षात्कार के प्रकार अग्रलिखित हैं-
(अ) उद्देश्यों या कार्यों के आधार पर वर्गीकरण
उद्देश्यों तथा कार्यों के आधार पर साक्षात्कार को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. कारक-परीक्षक साक्षात्कार-इस प्रकार के साक्षात्कार में गंभीर सामाजिक घटना के कारणों की समीक्षा की जाती है। समाज में घटित होने वाली विभिन्न घटनाओं अथवा परिस्थितियों के कुछ विशेष कारक या तत्त्व होते हैं। इन कारकों की खोज करना ही कारक-परीक्षक साक्षात्कार का प्रमुख उद्देश्य है।।
  2. उपचार-संबंधी साक्षात्कार-समाज में, चाहे वह आदिम हो या आधुनिक, किसी-न-किसी प्रकार की समस्याएँ रहती ही हैं। उपचार संबंधी साक्षात्कार इसी प्रकार की समस्याओं को दूर करने के उपायों की खोज से संबंधित है। इस प्रकार के साक्षात्कार में, जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, अनुसंधानकर्ता का उद्देश्य किसी समस्या का उपचार करना होता है।
  3. अनुसंधान-संबंधी साक्षात्कार–इस प्रकार के साक्षात्कार का उद्देश्य नवीन ज्ञान की खोज करना है। यह नवीन ज्ञान सामाजिक समस्याओं और सामाजिक घटनाओं से संबंधित होता है। अनुसंधान-संबंधी साक्षात्कार में विषयों एवं घटनाओं से संबंधित तथ्यों तथा कारकों की खोज की जाती है। इस प्रकार के साक्षात्कार का उद्देश्य पहले दोनों प्रकार के साक्षात्कारों से विस्तृत है।

(ब) औपचारिकता के आधार पर वर्गीकरण
औपचारिकता के आधार पर साक्षात्कार को निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. औपचारिक साक्षात्कार–इस प्रकार के साक्षात्कार को नियंत्रित साक्षात्कार’ भी कहते हैं। इसमें अनुसंधानकर्ता साक्षात्कारदाता से पूर्वनिश्चित प्रश्नों को ही पूछ सकता है। इन प्रश्नों को पूछने में अनुसंधानकर्ता किसी प्रकार का संशोधन नहीं कर सकता और न ही इन प्रश्नों से हटकर दूसरे प्रश्न पूछ सकता है। इसे संचालित साक्षात्कार’, ‘व्यवस्थित साक्षात्कार’ अथवा ‘नियोजित साक्षात्कार’ भी कहा जा सकता है।
  2. अनौपचारिक साक्षात्कार-अनौपचारिक साक्षात्कार को ‘अनियंत्रित साक्षात्कार , ‘असंचालित साक्षात्कार’, ‘अव्यवस्थित साक्षात्कार’ अथवा ‘नियोजित साक्षात्कार’ भी कहा जाता है। इसमें साक्षात्कारकर्ता पर किसी प्रकार के पूर्वनिर्मित प्रश्नों को पूछने का कोई नियंत्रण नहीं होता और साक्षात्कारदाता भी प्रश्नों के उत्तर स्वतंत्र रूप से देता है। यह एक प्रकार से मुक्त वार्तालाप के रूप में होता है, जिसमें अनुसंधानकर्ता सूचनादाता से समस्या के विभिन्न पहलुओं पर सूचना प्राप्त करने का प्रयास करता है।

(स) उत्तरदाताओं की संख्या के आधार पर वर्गीकरण
उत्तरदाताओं की संख्या के आधार पर साक्षात्कार के निम्नलिखित दो प्रकार हैं-

  1. व्यक्तिगत साक्षात्कार–व्यक्तिगत साक्षात्कार में, जैसाकि इसके नाम से ही स्पष्ट है, किसी व्यक्ति के बारे में विस्तृत सूचनाएँ प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। इसमें सूचनादाता से औपचारिक अथवा अनौपचारिक रूप से समस्या की प्रकृति के अनुकूल एक के बाद एक प्रश्न पूछा जाता है। इस प्रकार के साक्षात्कार में केवल सूचनादाता और अंवेषणकर्ता ही उपस्थित रहते हैं।
  2. सामूहिक साक्षात्कार–व्यक्तिगत साक्षात्कार के विपरीत सामूहिक साक्षात्कार, जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, एक ही समय में अनेक सूचनादाताओं से सूचना एकत्रित करने से संबंधित साक्षात्कार है। इसमें व्यक्तिगत साक्षात्कार के दोष समाप्त हो जाते हैं। जब एक सदस्य उत्तर देता है तो अन्य सदस्य उसकी पुष्टि करते हैं। इस प्रकार के साक्षात्कार से प्राप्त सूचनाएँ अधिक विश्वसनीय मानी जाती हैं।

(द) अध्ययन-पद्धति के आधार पर वर्गीकरण
अध्ययन-पद्धति के आधार पर साक्षात्कार को निम्नांकित चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. गैर-निर्देशित साक्षात्कार—यह साक्षात्कार अनियंत्रित अथवा अनौपचारिक साक्षात्कार के समान है। इस प्रकार के साक्षात्कार में साक्षात्कारकर्ता अथवा उत्तरदाता पर न तो किसी प्रकार का नियंत्रण ही होता है और न ही पहले से निर्मित कोई प्रश्नावली इत्यादि। साक्षात्कारकर्ता सूचनादाता को विषये के संबंध में एक कहानी के रूप में अपने मनोभाव व्यक्त करने के लिए प्रेरित करता है और सूचनादाता स्वतंत्र रूप से उसका विवरण प्रस्तुत करता है। यह स्वतंत्र एवं मुक्त प्रकार का वार्तालाप है।
  2. केंद्रित साक्षात्कार-इस प्रकार का साक्षात्कार उत्तरदाता की उन परिस्थितियों के संबंध में | किया जाता है, जिनमें उत्तरदाता पहले रह चुका हो। इस प्रकार के साक्षात्कार में साक्षात्कारकर्ता। का ध्यान उसी परिस्थिति पर केंद्रित रहता है, जिसका पूर्वज्ञान साक्षात्कारदाता को है। साक्षात्कारकर्ता यह जानने का प्रयास करता है कि अमुक परिस्थिति का उत्तरदाता पर क्या प्रभाव पड़ा है। इस प्रकार के साक्षात्कार को केंद्रित साक्षात्कार इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इसमें किसी घटना या इसके किसी विशेष अंमं पर ही ध्यान केंदित करके प्रश्न पूछे जाते हैं। उदाहरण के लिए एक साक्षात्कारदाता ने कोई फिल्म देखी है; तो साक्षात्कारकर्ता केंद्रित साक्षात्कार में यह जानने का प्रयास करता है कि साक्षात्कारदाता पर उस फिल्म का क्या प्रभाव पड़ा है। इस प्रकार के साक्षात्कार में अनुसंधानकर्ता साक्षात्कारदाता को किसी प्रकार का कोई निर्देश नहीं देता, वह निश्चित विषय या परिस्थिति के अतिरिक्त अन्य किसी विषय या । परिस्थिति में केंद्रित नहीं रहता। इसके अतिरिक्त, इसमें साक्षात्कारक़र्ता विषय का व्यक्तिगत रूप से गहन अध्ययन करता है। इस प्रकार के साक्षात्कार का प्रयोग रोबर्ट के० मर्टन ने रेडियो के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए किया था। आज केंद्रित साक्षात्कार, जनसंचार अनुसंधान में एक प्रमुख प्रविधि बन चुका है।
  3. पुनरावृत्ति साक्षात्कार—यह साक्षात्कार, जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, एक से अधिक बार साक्षात्कार करने से संबंधित है। जब सूचनादाताओं से एक से अधिक बार साक्षात्कार करके सूचनाएँ एकत्रित की जाती हैं तो उसे पुनरावृत्ति साक्षात्कार कहा जाता है। इस प्रकार के साक्षात्कार का प्रयोग अधिकतर व्यक्तियों के मूल्यों एवं मनोवृत्तियों में होने वाले परिवर्तनों के अध्ययनों के लिए किया जाता है। यदि कुछ चुने हुए सूचनादाताओं (निश्चित संख्या में) से एक से अधिक बार साक्षात्कार करके सूचना एकत्रित की जाती है तो उसे हम ‘पैनल (Panel) अध्ययन’ कहते हैं।
  4. गहन साक्षात्कार–इस प्रकार के साक्षात्कार का प्रयोग वैयक्तिक अध्ययन तथा ऐसे अन्य अध्ययनों में किया जाता है, जिनमें अत्यधिक विस्तृत व गहन सूचनाएँ एकत्रित करनी होती हैं। इसमें औपचारिक साक्षात्कार द्वारा संबंधित घटना के बारे में (उसके सभी पक्षों के बारे में) गहन व विस्तृत सूचनाएँ एकत्रित की जाती हैं। सामाजिक समस्याओं की प्रकृति जानने के लिए भी इस प्रकार के साक्षात्कार का प्रयोग किया जाता है।

साक्षात्कार के उपर्युक्त प्रकारों के अतिरिक्त कुछ विद्वानों ने अल्पकालीन साक्षात्कार’ तथा ‘दीर्घकालीन साक्षात्कार का भी उल्लेख किया है। अल्पकालीन साक्षात्कार में साक्षात्कारकर्ता एक बार में सबसे सूचनाएँ प्राप्त करने का प्रयास करता है और सभी कार्य थोड़े ही समय में पूरा करता है। इसके विपरीत, दीर्घकालीन साक्षात्कार में साक्षात्कारकर्ता को उत्तरदाता के पास कई बार जाना पड़ता है।

और सूचना प्राप्ति का कार्य देर तक करना पड़ता है। निष्कर्ष–उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि, साक्षात्कार पद्धति में साक्षात्कारकर्ता सूचनादाता के आमने-सामने की परिस्थति में सूचना प्राप्त करने का प्रयास करता है।

इसके विविध प्रकार हैं, परंतु अधिकांशत: औपचारिक एवं अनौपचारिक साक्षात्कार का ही प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 10.
साक्षात्कार क्या है? साक्षात्कार के प्रमुख उद्देश्यों की विवेचना कीजिए।
या
साक्षात्कार से आप क्या समझते हैं? सामाजिक अनुसंधान की प्रविधि के रूप में साक्षात्कार के उद्देश्य बताइए।
उत्तर
सामाजिक अनुसंधान की पद्धतियों में सर्वाधिक प्रयोग की जाने वाली पद्धति साक्षात्कार है। आज यह एक सर्वप्रचलित एवं सर्वोपरि पद्धति मानी जाती है तथा मुख्य रूप में प्रयोग होने के साथ-साथ यह अन्य पद्धतियों (जैसे अवलोकन, अनुसूची इत्यादि) में एक सहायक पद्धति या पूरक पद्धति के रूप में भी प्रयोग होती है। इसमें अंवेषणकर्ता सूचनादाता से आमने-सामने की परिस्थिति में समस्या से संबंधित प्रश्न पूछता है और उनके उत्तर प्राप्त करता है। इससे सूचनादाताओं की मनोवृत्तियों एवं दृष्टिकोणों का भी पता चल जाता है।

साक्षात्कार का अर्थ एवं परिभाषाएँ

साक्षात्कार का अर्थ कार्यकर्ता तथा उत्तरदाता के बीच आमने-सामने सम्पर्क स्थापित करके कुछ ऐसे रहस्यों का पता लगाना या उनकी जानकारी प्राप्त करना है, जिनको उत्तरदाता के अतिरिक्त कोई नहीं जानता। इस प्रकार की जानकारी अन्य किसी प्रविधि के द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती। इस प्रकार की जानकारी प्रायः प्रत्यक्ष रूप में प्रश्नोत्तरी प्रणाली द्वारा की जाती है। उत्तरदाता से कार्यकर्ता सामने बैठकर प्रश्न पूछता है और कार्यकर्ता उत्तरदाता द्वारा दिए गए कुछ उत्तरों को नोट कर लेता है तथा शेष जानकारी मौखिक रूष से ही प्रापत कर ली जाती है।
प्रमुख विद्वानों ने इसे निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-

गुड एवं हैट (Goode and Hatt) के अनुसार-“साक्षात्कार मौखिक रूप से सामाजिक अंत:क्रिया की एक प्रक्रिया है।”

पी०वी० यंग (PV. Young) के अनुसार-“साक्षात्कार को एक व्यवस्थित पद्धति माना जा सकता है, जिसके द्वारा एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के आंतरिक जीवन में अधिक या कम कल्पनात्मक रूप से प्रवेश करता है, जो साधारणतया उसके लिए तुलनात्मक दृष्टि से अपरिचित है।”

वी०एम० पामर (VM. Palmer) के अनुसार-“साक्षात्कार दो व्यक्तियों में सामाजिक स्थिति बताता है, जिनमें निहित मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के लिए यह आवश्यक है कि दोनों व्यक्ति परस्पर प्रत्युत्तर करते रहें, यद्यपि साक्षात्कार में सामाजिक खोज के उद्देश्य से संबंधित दलों से बहुत भिन्न प्रत्युत्तर प्राप्त होते हैं।”

एम०एन० बसु (M.N. Basu) के अनुसार-“एक साक्षात्कार को कुछ विषयों पर व्यक्तियों के आमने-सामने की भेंट के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।”

सी०ए० मोजर (C.A. Moser) के अनुसार-“औपचारिक साक्षात्कार, जिसमें कि पहले से निर्मित प्रश्नों को पूछा जाता है तथा उत्तरों को प्रमाणीकृत रूप में संकलित किया जाता है, बड़े सर्वेक्षणों में निश्चित रूप से सामान्य है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि साक्षात्कार सामाजिक अनुसंधान की वह पद्धति है, जिसके द्वारा साक्षात्कारकर्ता वार्तालाप के द्वारा सूचनादाता के विचारों और भावनाओं में प्रवेश करके तथ्यों का संकलन करता है। यह साक्षात्कारकर्ता एवं सूचनादाता के बीच आमने-सामने की मीटिंग है, जो साक्षात्कारकर्ता को सूचनादाता के मन के भीतर छिपे विचारों को जानने में भी सहायता प्रदान करती है।

साक्षात्कार के प्रमुख उद्देश्य

साक्षात्कार पद्धति का प्रयोग विविध प्रकार के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। इसके प्रमुख उद्देश्य अग्रलिखित हैं-

  1. प्रत्यक्ष संपर्क साक्षात्कार का सबसे प्रमुख उद्देश्य साक्षात्कारकर्ता का सूचनादाता से प्रत्यक्ष संपर्क स्थापित करना है जिससे उस अनुसंधान समस्या से परिचित कराकर उससे सहयोग लिया | जा सके। प्रत्यक्ष संपर्क अधिक विश्वसनीय सूचनाएँ एकत्रित करने में सहायक है।
  2. व्यक्तिगत सूचनाएँ-साक्षात्कार का दूसरा प्रमुख उद्देश्य सूचनादाता से प्रत्यक्ष संपर्क स्थापित करके उससे समस्या एवं उसकी पृष्ठभूमि के बारे में व्यक्तिगत सूचनाएँ प्राप्त करना है। इसमें | साक्षात्कारकर्ता सूचनादाता की भावनाओं को भी जानने का प्रयास करता है।
  3. पूर्ण जानकारी–साक्षात्कार का एक अन्य उद्देश्य सूचनादाताओं से अनुसंधान की समस्या के बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त करना है। कई बार साक्षात्कार अनौपचारिक वार्तालाप के रूप में होता है, जिसमें सूचनादाता काफी जानकारी दे देते हैं।
  4. विभिन्न पहलुओं की जानकारी-साक्षात्कार का उद्देश्य विभिन्न प्रकार के पहलुओं की विस्तृत जानकारी प्राप्त कर समस्या की प्रकृति को ठीक प्रकार से समझने में सहायता प्रदान करना है। साक्षात्कार के विभिन्न प्रकार; जैसे-केंद्रित साक्षात्कार, औपचारिक व अनौपचारिक साक्षात्कार इत्यादि; समस्या के सभी पहलुओं के विषय में जानकारी प्रदान करने में सहायता प्रदान करते हैं।
  5. अवलोकन संभव-साक्षात्कार का एक उद्देश्य अवलोकन को भी संभव बनाना है। साक्षात्कार के समय साक्षात्कारकर्ता सूचनादाता से समस्या के बारे में बातचीत ही नहीं करता, अपितु उसके चेहरे पर आने वाले मनोभावों से उसके द्वारा बताई गई सूचना की सत्यता के बारे में अनुमान भी लगता है; अतः इसमें अवलोकने प्रविधि एक पूरक प्रविधि की भूमिका निभाती है।
  6. आंतरिक भावनाओं का ज्ञान–साक्षात्कार का एक अन्य उद्देश्य सूचनादाताओं की आंतरिक भावनाओं का पता लगाना है। यंग (Young) का कहना है कि साक्षात्कार को एक ऐसी क्रमबद्ध पद्धति माना जा सकता है, जिसके द्वारा साक्षात्कारकर्ता सूचनादाता के आंतरिक जीवन में अधिक या कम काल्पनिक रूप से प्रवेश करता है। इससे उसे सूचनादाता की आंतरिक भावनाओं का काफी सीमा तक पता चल जाता है। वह उसके चेहरे पर आने वाले उतार-चढ़ाव को सरलता से देख सकता है और इस बात का अनुमान लगा सकता है कि सूचनादाता सही सूचना दे रहा है या नहीं।
  7. उपकल्पनाओं का निर्माण–साक्षात्कार का अंतिम उद्देश्य साक्षात्कारकर्ता को उपकल्पनाओं के निर्माण में सहायता प्रदान करना है। साक्षात्कार को उपकल्पनाओं को एक महत्त्वपूर्ण स्रोत माना गया है; क्योंकि इससे समस्या के विभिन्न पक्षों के बारे में यथेष्ट जानकारी प्राप्त होती है। यह जानकारी उपकल्पना के निर्माण का स्रोत होती है।

प्रश्न 11.
एक अच्छे साक्षात्कारकर्ता के गुणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
किसी भी समस्या पर अनुसंधान करना इतना सरल नहीं है जितना कि यह ऊपर से प्रतीत होता है। वास्तव में, यह एक ऐसी कला है, जिसमें हर कोई व्यक्ति पारंगत नहीं हो सकता। इसके लिए कुशल अनुसंधानकर्ता अथवा साक्षात्कारकर्ता की आवश्यकता होती है। एक अच्छा अनुसंधानकर्ता ही अच्छी तरह से सूचनाएँ एकत्रित कर सकता है और सही निष्कर्ष निकाल सकता है।

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एक अच्छे साक्षात्कारकर्ता के गुण

सामाजिक अंवेषण में वास्तविक सूचनाएँ एकत्रित करना एक कठिन कार्य है। सफल अनुसंधानकर्ता अथवा साक्षात्कारकर्ता अपनी सूझ-बूझ के आधार पर इसे अधिक सरल बना देता है। एक अच्छे अनुसंधानकर्ता अथवा साक्षात्कारकर्ता में निम्नलिखित गुण होने अनिवार्य हैं

  1. उच्च व्यक्तित्व–एक अच्छे साक्षात्कारकर्ता या अनुसंधानकर्ता का सबसे प्रथम गुण उसका अच्छा एवं उच्च व्यक्तित्व है। उसके व्यक्तित्व का इतना प्रभाव होना चाहिए कि सूचनादाता उसे सूचनाएँ देने के लिए तत्पर हो जाए।
  2. उन्मुक्त वार्तालाप की क्षमता साक्षात्कारकर्ता में उन्मुक्त वार्तालाप करने की क्षमता होनी चाहिए। साक्षात्कारकर्ता को चाहिए कि वह सूचनादाता को वार्तालाप करने की पूर्ण सुविधा दे। यदि साक्षात्कारकर्ता में समय-समय पर सूचनादाता को प्रोत्साहन देने की क्षमता हो तो वह सूचनादाता से पूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकता है।
  3. सत्यता की खोज की क्षमता-साक्षात्कारदाता अथवा सूचनादाता विविध प्रकार के व्यक्ति होते हैं, जो कई बार भावावेश में आकर बढ़-चढ़कर बातें बनाने लगते हैं या पक्षपातपूर्ण तथ्यों को प्रस्तुत करते हैं या कुछ तथ्यों को छिपाने का प्रयास करते हैं। इन परिस्थितियों में सही सूचना की प्राप्ति की संभावना अत्यधिक कम रहती है। ऐसी परिस्थितियों में एक सफल वे कुशल साक्षात्कारकर्ता में ऐसे गुणों का होना आवश्यक है, जिनके आधार पर वह दी गई सूचनाओं में से सत्यता का अंश निकाल सके तथा वह इस बात का अनुमान लगा सके कि सूचनादाता द्वारा दी गई सूचनाओं में सत्यता का अंश कितना है।।
  4. उच्च कोटि की मनोवैज्ञानिकता–-एक अच्छे साक्षात्कारकर्ता में उच्च कोटि की मनोवैज्ञानिकता होना भी अनिवार्य है। यह मनोवैज्ञानिकता साक्षात्कारदाताओं के हृदय को पहचानने में तथा उन्हें मनोवैज्ञानिक रूप से उत्तर एवं सूचना देने के लिए तत्पर करने में तथा बीच-बीच में प्रेरणा देने में सहायता प्रदान करती है।
  5. सक्रिय सहयोग लेने की क्षमता–साक्षात्कारकर्ता में इतनी क्षमता एवं योग्यता का होना आवश्यक है कि वह सूचनादाताओं से अधिक-से-अधिक सहयोग ले सके। यदि साक्षात्कारदाता साक्षात्कारकर्ता से मिलकर कार्य नहीं करेगा या उसको सहयोग नहीं देगा तो साक्षत्कारकर्ता अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता।।
  6. निष्पक्षता तथा ईमानदारी–एक सफल साक्षात्कारकर्ता का एक अन्य विशिष्ट गुण निष्पक्षता तथा ईमानदारी है। एक साक्षात्कारकर्ता को निष्पक्ष भाव से सूचनादाताओं के पास जाना चाहिए और अपनी ईमानदारी व चरित्र की पवित्रता से साक्षात्कारदाताओं को सूचना देने के लिए राजी करना चाहिए।
  7. कुशलता एवं चतुराई–एक अच्छे साक्षात्कारकर्ता का कुशल एवं चतुर होना भी अनिवार्य है। एक कुशल एवं चतुर साक्षात्कारकर्ता ही सूचनादाताओं, जो कि विविध प्रकार की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के होते हैं, से ठीक प्रकार से सूचना प्राप्त कर सकता है। उसमें परिस्थितियों के अनुरूप वे सभी सूचनाएँ लेने की क्षमता होनी चाहिए।

निष्कर्ष–उपर्युक्त विवेचन से यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि साक्षात्कार करना एक कला है। इस कला में निपुण होने के लिए साक्षात्कारकर्ता को विविध प्रकार के गुणों से युक्त होना अनिवार्य है।

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प्रश्न 12.
साक्षात्कार पद्धति के गुण एवं दोषों का वर्णन कीजिए।
या
तथ्यों के संकलन में साक्षात्कार पद्धति की महत्ता एवं सीमाओं को बताइए।
उत्तर
साक्षात्कार को सभी प्रकार के अनुसंधानों में मुख्य अथवा पूरक प्रविधि के रूप में अपनाया जाता है। यह इसके महत्त्व का द्योतक है परंतु सामग्री अथवा आँकड़े संकलन करने की अन्य पद्धतियों की भाँति साक्षात्कार के कुछ दोष भी हैं। इसके विभिन्न गुण-दोषों के आधार पर ही इसका मूल्यांकन किया जा सकता है।

साक्षात्कार का महत्त्व या गुण साक्षात्कार के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  1. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उपयोगी–इस पद्धति का सबसे बड़ा महत्त्व इसकी मनोवैज्ञानिक उपयोगिता है। इसमें व्यक्ति के मनोभावों का अध्ययन करने का अवसर प्राप्त होता है। साक्षात्कारकर्ता सूचनादाता से समस्या से संबंधित सूचनाएँ ही प्राप्त नहीं करता अपितु वह साक्षात्कारदाता (उत्तरदाता या सूचनादाता) के मन के भावों को भी ‘पहचानने का प्रयास करता है और साथ ही उसके व्यवहार का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करता है। इसलिए इस प्रविधि को साक्षात्कारकर्ता द्वारा सूचनादाता, जो कि अपेक्षाकृत अपरिचित व्यक्ति है, के मन में प्रवेश करने की प्रविधि कहा गया है। अन्य किसी पद्धति द्वारा इस प्रकार का अध्ययन संभव नहीं है।
  2. अमूर्त घटनाओं का अध्ययन–साक्षात्कार प्रविधि के अंतर्गत मूर्त तथा अमूर्त दोनों प्रकार की घटनाओं का अध्ययन किया जा सकता है। समाज में व्यक्ति की भावनाओं तथा उसके संवेगों एवं मनोवृत्तियों का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये भावनाएँ एवं संवेग अमूर्त होते हैं। इनका अध्ययन करने के लिए साक्षात्कार प्रविधि के अतिरिक्त अन्य कोई प्रविधि उपयुक्त नहीं है, क्योंकि इस प्रविधि में साक्षात्कारकर्ता तथा साक्षात्कारदाता का प्रत्यक्ष संपर्क होता है, इसलिए दोनों एक-दूसरे के मनोभावों तथा संवेगों को जानने का प्रयास करते हैं। दोनों एक-दूसरे के व्यवहार को भी जानने का प्रयास करते हैं। साक्षात्कारकर्ता क्योंकि प्रशिक्षित होता है, इसलिए उत्तरदाता के मनोभावों तथा संवेगों का सरलता से अनुमान लगा सकता है।
  3. मर्मभेदी अध्ययन–समस्या से संबंधित अनेक पहलू अथवा घटनाएँ ऐसी हो सकती हैं, जो मर्मभेदी होने के कारण नहीं देखी जा सकतीं। सामान्यतया सूचनादाता के व्यक्तिगत जीवन से संबंधित अनेक बातों की जानकारी अवलोकन इत्यादि द्वारा प्राप्त नहीं हो सकती, अपितु ऐसे गोपनीय विषयों के बारे में सूचना प्राप्त करने की एकमात्र पद्धति साक्षात्कार ही है।
  4. भूतकालीन घटनाओं का अध्ययन–साक्षात्कार प्रविधि में भूतकालीन घटनाओं का अध्ययन करना भी संभव है। साक्षात्कारदाता के जीवन में बहुत-सी घटनाएँ घटित होती हैं, जिनकी पुनरावृत्ति भी संभव नहीं है। इन घटनाओं का अध्ययन करने के लिए साक्षात्कार प्रविधि ही सर्वोत्तम है। साक्षात्कारदाता साक्षात्कारकर्ता से अपनी भूतकालीन घटनाओं का वर्णन कर सकता है। इस प्रकार के वर्णन से वह साक्षात्कारकर्ता को भूतकालीन घटनाओं से परिचित कराता है। यदि साक्षात्कारदाता इस प्रकार की घटनाओं से साक्षात्कारकर्ता को परिचित न कराए तो उन घटनाओं का अध्ययन करना ही अंसभव हो जाए; क्योंकि उन घटनाओं का अन्य किसी व्यक्ति को पता नहीं होता है और उनके पुनः घटित होने की संभावना भी बहुत कम होती है।
  5. विस्तृत सूचनाओं की प्राप्ति–साक्षात्कार प्रविधि में व्यक्तियों से विस्तृत सूचनाएँ एकत्रित की जा सकती हैं, चाहे वे समाज के किसी भी वर्ग से संबंधित क्यों न हों। इसलिए इस प्रकार का अध्ययन शिक्षित, अशिक्षित, ग्रामीण, नगरीय सभी स्तर के लोगों में किया जा सकता है। साक्षात्कार प्रविधि विस्तृत सूचनाओं की प्राप्ति की सबसे सरल मार्ग है, क्योंकि जो सूचनादाता प्रश्नों को नहीं समझते, अनुसंधानकर्ता उन प्रश्नों को उन्हें समझाकर उनके उत्तर प्राप्त कर लेता है।
  6. सभी स्तर के व्यक्तियों का अध्ययन–विस्तृत सूचनाओं की प्राप्ति के साथ-साथ साक्षात्कार * सभी प्रकार के सूचनादाताओं से सूचना एकत्रित करने की एक प्रमुख प्रविधि है। क्योंकि इसमें साक्षात्कारकर्ता को ही साक्षात्कार से प्राप्त सूचनाएँ अंकित करनी होती हैं, इसलिए सूचनादाताओं को पढ़ा-लिखा होना अनिवार्य नहीं है। यह प्रविधि वास्तव में सभी स्तर के तथा सभी प्रकार की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के व्यक्तियों से सूचना संकलित करने में अत्यंत उपयोगी है।
  7. विचारों के आदान-प्रदान की सुविधा-साक्षात्कार प्रविधि में साक्षात्कारकर्ता तथा साक्षात्कारदाता के बीच विचारों का आदान-प्रदान होता है। सूचनाओं की प्राप्ति में जो भी विलंब यो शंका होती है, उसका समाधान साथ-ही-साथ हो जाता है। विचारों के आदान-प्रदान से इस प्रकार के संत्य सामने आ जाते हैं, जिनका परिचय अन्य किसी प्रविधि से नहीं हो सकता है। इस प्रकार साक्षात्कार प्रविधि में द्वंद्ववाद के माध्यम से साक्षात्कारदाता तथा साक्षात्कारकर्ता एक-दूसरे के विचारों से अवगत होते हैं और विचार-विमर्श करके किसी एक निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं।
  8. सूचनाओं की विश्वसनीयता-साक्षात्कार प्रविधि में साक्षात्कारदाता से जो सूचनाएँ प्राप्त की जाती हैं उनकी विश्वसनीयता की परीक्षा भी की जा सकती है। इन सूचनाओं की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए साक्षात्कारकर्ता साक्षात्कारदाता से विभिन्न के अन्वेषक प्रश्न पूछता है और उनके उत्तरों से पूर्व दिए गए उत्तरों की जाँच कर लेता है। साक्षात्कारकर्ता साक्षात्कारदाता के मन के भाव को पहचानकर सूचनाओं की सत्यता की परीक्षा कर सकता है। साथ ही वह साक्षात्कार के समय थोड़ा-बहुत अवलोकन करके सूचनाओं की विश्वसनीयता को परख लेता है।
  9. पारस्परिक प्रेरणा—नए तथ्यों की प्राप्ति के लिए पारस्परिक प्रेरणा का तत्त्व महत्त्वपूर्ण होता है। साक्षात्कार में साक्षात्कारकर्ता सूचनादाता के सामने होता है, इसलिए वह निरंतर सूचनादाता को वार्तालाप की प्रेरणा देकर विषय से संबंधित सूचनाएँ प्राप्त करता है। सूचनादाता भी साक्ष्ज्ञात्कारकर्ता को अनेक ऐसे पहलुओं की जानकारी देता है, जिनके बारे में हो सकता है कि वह पहले से न जानता हो। अतः यह पारस्परिक प्रेरणा पर आधारित होने के कारण एक अत्यंत उपयोग प्रविधि है।

साक्षात्कार की सीमाएँ या दोष

सामाजिक अनुसंधान में साक्षात्कार पद्धति अत्यंत महत्त्वपूर्ण होते हुए भी पूर्णतया दोषमुक्त नहीं है। इसकी कुछ अपनी ही सीमाएँ हैं, जो निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत स्पष्ट की जा सकती हैं-

  1. दोषपूर्ण स्मरण-शक्ति–साक्षात्कार पद्धति में सामान्यतः साक्षात्कार के परिणामों को घटनास्थल पर ही नहीं लिखा जाता। यदि अनौपचारिक व गहन अध्ययन के उद्देश्य से साक्षात्कार किया जा रहा है तो वार्तालाप को उसी समय नहीं लिखा जाता। जब साक्षात्कारकर्ता बाद में इन्हें लिखने बैठता है तो हो सकता है कि दोषपूर्ण स्मरण-शक्ति के कारण वह महत्त्वपूर्ण तथ्यों को लिखना ही भूल जाए।
  2. अप्रमाणित सूचनाएँ—यदि साक्षात्कारदाता गलत सूचनाएँ देता है तो उन्हें प्रमाणित करने का कोई उपाय नहीं है। कई बार साक्षात्कारकर्ता भी सूचनादाता के साथ पक्षपात करने के कारण उसके द्वारा दी गई सूचनाओं को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करता है।
  3. अवैज्ञानिक पद्धति–साक्षात्कार को ‘अनेक विद्वान वैज्ञानिक पद्धति स्वीकार नहीं करते हैं। एक तो इसमें अमूर्त तत्त्वों; जैसे सूचनादाता के संवेगों व भावनाओं का विश्लेषण किया जाता है। जो कि वैज्ञानिक नहीं हो सकता। दूसरे, साक्षात्कार करने तथा प्रतिवेदन तैयार करने में होने वाली देरी भी इसे अवैज्ञानिक बना देती है; क्योंकि कई बार महत्त्वपूर्ण तथ्य छूट जाते हैं। तीसरे, इसमें सूचनादाता की इधर-उधर की बातें ज्चादा सुननी पड़ती हैं।
  4. कुशल साक्षात्कारकर्ताओं का अभाव–साक्षात्कार पद्धति का एक अन्य दोष कुशल साक्षात्कारकर्ताओं का अभाव है। एक तो अच्छे व प्रशिक्षित साक्षात्कारकर्ता मिलते ही नहीं हैं। और दूसरे यदि उन्हें प्रशिक्षण देकर कुशल बनाया भी जाता है तो वे बची में ही अपना काम छोड़कर चले जाते हैं। इससे एकत्रित सूचनाओं की विश्वसनीयता कम हो जाती है।
  5. साक्षात्कारदाता की हीनता-कई बार साक्षात्कारकर्ता का व्यक्तित्व सूचनादाताओं पर इस प्रकार का प्रभाव छोड़ता है कि उनमें हीनता की भावना आ जाती है। इस हीनता की भावना के कारण वे बहुत-सी बातों को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं। इससे सूचनाओं की विश्वसनीयता प्रभावित होती है।
  6. सामाजिक स्थिति में अंतर–सामाजिक अनुसंधान में साक्षात्कारकर्ता तथा साक्षात्कारदाता की सामाजिक स्थिति में यदि समानता है तो उत्तर ही सरलता से प्राप्त नहीं हो जाते, अपितु वे अधिक विश्वसनीय भी होते हैं। परंतु अधिकतर साक्षात्कारकर्ता और साक्षात्कारदाता की सामाजिक स्थिति में अत्यधिक अंतर पाया जाता है, इसके कारण उपयुक्त स्तर पर वार्तालाप करने में अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ पैदा हो जाती हैं।
  7. महत्त्वपूर्ण अनुभवों की उपेक्षा–साक्षात्कार द्वारा अध्ययन करने में अनुसंधानकर्ता को सूचनादाताओं पर ही निर्भर रहना पड़ता है। वे कई बार महत्त्वपूर्ण पक्षों पर सूचना ही नहीं देते और कई बार साक्षात्कारकर्ता ही प्रशिक्षित व अनुभवी न होने के कारण महत्त्वपूर्ण तथ्यों की उपेक्षा कर देता है। इससे निष्कर्ष प्रभावित होते हैं।
  8. अधिक समय-साक्षात्कार पद्धति में साक्षात्कारकर्ता को प्रत्येक सूचनादाता से प्रत्यक्ष एवं व्यक्तिगत संपर्क स्थापित करना पड़ता है। अनेक बार एक सूचनादाता के पास जाने के बाद वह साक्षात्कार के लिए राजी हो पाता है। कई बार तो निर्धारित समय पर वह मिलता ही नहीं है। इस सारी प्रक्रिया में अनुसंधानकर्ता का अत्यधिक समय बरबाद हो जाता है।
  9. अधिक खर्चीली-अत्यधिक समय के साथ-साथ साक्षात्कार पद्धति अधिक खर्चीली भी है, क्योंकि प्रत्येक सूचनादाता से सम्पर्क स्थापित करने के लिए बार-बार जाने में पैसा भी काफी खर्च हो जाता है। निदर्शन के लिए जिस स्रोत का प्रयोग किया गया है, उसमें लिखे पते भी कई बार बदल गए होते हैं; अर्थात् कई सूचनादाता अपना निवास बदल लेते हैं, जिससे उनके साथ संपर्क स्थापित करने में काफी पैसा लग जाता है।
  10. सूचनादाता द्वारा अनुपयोगी भाषण–साक्षात्कार पद्धति में अनुसंधानकर्ता पूरी तरह से सूचनादाताओं पर निर्भर रहता है। कई सूचनादाता अनुपयोगी भाषण अधिक देते हैं और काम की बात कम करते हैं।

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निष्कर्ष–उपर्युक्त दोषों का अर्थ यह कदापि नहीं है कि साक्षात्कार एक अनुपयोगी पद्धति है। यदि अनुसंधानकर्ता प्रशिक्षित व कुशल है, सूचनादाता से ठीक प्रकार से संपर्क स्थापित करता है तो इसके अनेक दोष स्वत: ही दूर हो जाते हैं। साक्षात्कार आज तक अत्यंत उपयोगी पद्धति मानी जाती रही है।

प्रश्न 13.
क्षेत्रीय कार्य किसे कहते हैं? समाजशास्त्र में क्षेत्रीय कार्य का महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
क्षेत्रीय कार्य को एक कठोर वैज्ञानिक पद्धति के रूप में स्वीकार किया जाता है। समाजशास्त्र तथा सामाजिक मानवशास्त्र में आज क्षेत्रीय कार्य पर आधारित अध्ययनों को प्राथमिकता दी जाने लगी है। पहले मानवशास्त्र में जो अध्ययन किए जाते थे वे क्षेत्रीय कार्य पर आधारित न होकर पुस्तकालय में उपलब्ध द्वितीयक स्रातों पर आधारित होते थे। इन स्रोतों के आधार पर किए गए अध्ययनों को पुस्तकीय दृष्टिकोण द्वारा किए गए अध्ययन कहा जाता है। अध्ययन का यह दृष्टिकोण आदर्शात्मक दृष्टिकोण, दर्शनशास्त्रीय दृष्टिकोण या भारतीय विद्याशास्त्रीय दृष्टिकोण भी कहा जाता है। क्षेत्रीय कार्य के आधार पर किए गए अध्ययनों को क्षेत्राधारित दृष्टिकोण द्वारा किए गए अध्ययन कहते हैं।

क्षेत्रीय कार्य का अर्थ

क्षेत्रीय कार्य अध्ययन की वह पद्धति है जो समाज की वर्तमान यथार्थता को क्षेत्र में जाकर समझने पर महत्त्व देती है। उदाहरणार्थ-यदि भारतीय समाज को समझने हेतु क्षेत्रीय वास्तविकता को आधार माना जाता है अर्थात् जिस प्रकार का समाज विद्यमान है उसका उसी यथार्थ रूप में चित्रण करने का प्रयास किया जाता है तो यह चित्रण क्षेत्रीय कार्य पर होगा। क्षेत्रीय कार्य में आनुभविक अनुसंधान पर आधारित अध्ययनों की महत्ता को स्वीकार किया जाता है। इसमें आनुभविक या प्रयोगसिद्ध अनुसंधान के आधार पर जो क्षेत्रीय आँकड़े संकलित किए जाते हैं जिन्हें प्राथमिक आँकड़े भी कहा जाता है। प्राथमिक आँकड़े वे सूचनाएँ होती हैं, जिन्हें अनुसंधानकर्ता प्रयोग में लाने के लिए पहली बार स्वयं एकत्रित करता है। ये आँकड़े मौलिक होते हैं। प्राथमिक आँकड़े अनुसंधानकर्ता द्वारा स्वयं अनुसंधान क्षेत्र में जाकर एकत्रित किए जाते हैं। अध्ययनकर्ता इस प्रकार के आँकड़ों का संकलन सहभागी एवं असहभागी अवलोकन, साक्षात्कार, अनुसूची तथा प्रश्नावली इत्यादि के माध्यम से करता है। प्राथमिक आँकड़े अधिक प्रमाणित एवं विश्वसनीय माने जाते हैं।

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समाजशास्त्र में क्षेत्रीय कार्य का महत्त्व

समाजशास्त्र एवं सामाजिक मानवशास्त्र में बहुत-से समुदाय या भौगोलिक स्थान क्षेत्रीय कार्य के प्रतिष्ठित उदाहरणों से संबंधित होने के कारण इन विषयों में काफी लोकप्रिय बन गए हैं। क्षेत्रीय कार्य में सामान्यत: अनुसंधानकर्ता अध्ययनरत् समुदाय में रह रहे सभी लोगों के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करता है। क्षेत्रीय कार्य की पद्धति को प्रतिस्थापित करने का श्रेय मैलिनोव्स्की को दिया जाता है जिन्होंने प्रथम युद्ध के समय ऑस्ट्रेलिया की जनजातियों तथा दक्षिणी प्रशांत के द्वीपों (मुख्य रूप से ट्रोबियाण्ड द्वीपों) के मूल निवासियों का अध्ययन किया। इसके पश्चात् रैडक्लिफ-ब्राउन ने अंडमान व निकाबोर द्वीपों का अध्ययन किया। ईवान्स प्रिचार्ड द्वारा सूडान में न्यूर, फ्रांज बोआस द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका में विभिन्न मूल अमेरिकन जनजातियों, मारग्रेट मीड द्वारा समोआ तथा क्लीफोर्ड गीट्स द्वारा बाली में किए गए अध्ययन भी क्षेत्रीय कार्य के आधार पर किए गए अध्ययनों में प्रमुख माने जाते हैं। विलियम वाइजर, ऑस्कर लेविस जैसे विदेशी विद्वानों तथा एम०एन० श्रीनिवास एवं एस०सी० दुबे इत्यादि भारतीय समाजशास्त्रियों द्वारा भी गाँव के क्षेत्रीय कार्य पद्धति द्वारा अध्ययन किए गए हैं। इन अध्ययनों तथा मानवशास्त्री अध्ययनों में मूल अंतर यह है कि समाजशास्त्री अध्ययनों में असहभागी अवलोकन पद्धति अथवा अर्द्ध-सहभागी अवलोकन पद्धति को अपनाया गया है, जबकि मानवशास्त्री अध्ययनों में सहभागी अवलोकन की पद्धति को। समाजशास्त्र में क्षेत्रीय कार्य पर आधारित अध्ययन गाँव को समझने तथा उनको यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने में काफी सहायक रहे हैं।

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UP Board Solutions for Class 11 Sociology Introducing Sociology Chapter 4 Culture and Socialisation

UP Board Solutions for Class 11 Sociology Introducing Sociology Chapter 4 Culture and Socialisation (संस्कृति तथा समाजीकरण)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
सामाजिक विज्ञान में संस्कृति की समझ, दैनिक प्रयोग के शब्द संस्कृति से कैसे भिन्न है?
उत्तर
संस्कृति’ समाजशास्त्र की शब्दावली में प्रयुक्त की जाने वाली एक विशिष्ट संकल्पना है। इस नाते इसका एक सुस्पुष्ट अर्थ है, जो इस संकल्पना के दैनिक प्रयोग में लगाए गए अर्थ से भिन्न होता है। रोजमर्रा की बातों अथवा दैनिक प्रयोग में संस्कृति’ शब्द को कला तक सीमित कर दिया जाता है। अथवा इसका अर्थ कुछ वर्गों या देशों की जीवन-शैली से लगाया जाता है। कला के रूप में संस्कृति शब्द का प्रयोग शास्त्रीय संगीत, नृत्य अथवा चित्रकला में परिष्कृत रुचि का ज्ञान प्राप्त करने के संदर्भ में किया जाता है। यह परिष्कृत रुचि लोगों को असांस्कृतिक अर्थात् आम लोगों से भिन्न करती है। समाजशास्त्र में संस्कृति को व्यक्तियों में विभेद करने वाला साधन नहीं माना जाता है, अपितु इसे जीवन जीने का एक तरीका माना जाता है जिसमें समाज के सभी सदस्य भाग लेते हैं। टायलर (Tylor) ने संस्कृति की एक विस्तृत परिभाषा देते हुए लिखा है, “संस्कृति वह जटिल संपूर्ण व्यवस्था है जिसमें समस्त ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, कानून, प्रथाएँ तथा अन्य समस्त क्षमताएँ एवं आदतें सम्मिलित हैं जिन्हें व्यक्ति समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है। इसी भाँति, मैलिनोव्स्की (Malinowski) के शब्दों में, “संस्कृति में उत्तराधिकार में प्राप्त कलाकृतियाँ, वस्तुएँ, तकनीकी प्रक्रिया, विचार, आदतें तथा मूल्य सम्मिलित होते हैं। इन विद्वानों द्वारा सूचीबद्ध वस्तुओं की प्रकृति भौतिक एवं अभौतिक दोनों प्रकार की है। भौतिक वस्तुओं को सभ्यता कहा जाता है तथा यह संस्कृति का भौतिक पक्ष है। अभौतिक पक्ष मूल्यों, ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, कानून इत्यादि को सम्मिलित किया जाता है।

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प्रश्न 2.
हम कैसे दर्शा सकते हैं कि संस्कृति के विभिन्न आयाम मिलकर समग्र बनाते हैं।
उत्तर
संस्कृति के तीन प्रमुख आयाम होते हैं-संज्ञानात्मक, आदर्शात्मक (मानकीय) तथा भौतिक। संज्ञानात्मक आयाम को संदर्भ हमारे द्वारा देखे या सुने गए को व्यवहार में लाकर उसे अर्थ प्रदान करने क्री प्रक्रिया से हैं। किसी नेता की कार्टून की पहचान करना अथवा अपने मोबाइल फोन की घंटी को पहचानना इसके उदाहरण हैं। आदर्शात्मक आयाम का संबंध आचरण के नियमों से हैं। अन्य व्यक्तियों के पत्रों को न खोलना, निधन पर अनुष्ठानों का निष्पादन करना ऐसे ही आचरण के नियम हैं। भौतिक आयाम में भौतिक साधनों के प्रयोग संबंधों क्रियाकलाप सम्मिलित होते हैं। इंटरनेट पर चैटिंग करना इसका उदाहरण है। इन तीनों आयामों के समग्र से ही संस्कृति का निर्माण होता है। व्यक्ति अपनी पहचान अपनी संस्कृति से ही करता है तथा संस्कृति के आधार पर ही अपने को अन्य संस्कृतियों के लोगों से अलग समझता है।

प्रश्न 3.
उन दो संस्कृतियों की तुलना करें जिनसे आप परिचित हों। क्या अनृजातीयता (नृजातीय नहीं बनना) कठिन नहीं है?
उत्तर
व्यक्ति अपनी पहचान अपनी संस्कृति से करता है। समानं भाषा, क्षेत्र, धर्म, प्रजाति, अंतर्विवाह, रीति-रिवाज और धार्मिक विश्वासों के आधार पर बने सांस्कृतिक समूहों को नृजातीय समूह भी कहा जाता है। प्रत्येक नृजातीय समूह की अपनी नृजातीय अस्मिता होती है जिसका अर्थ समानता और अनन्यता से है। एक ओर, नृजातीय अस्मिता इस बात की ओर संकेत करती है कि । नृजातीय समूहों के सदस्यों में कौन-सी विशेषताएँ समान हैं तथा दूसरी ओर, इससे उन विशेषताओं का भी पता चलता है जो उन्हें दूसरे नृजातीय समूह से अलग करती है। जब हम दो संस्कृतियों की तुलना करते हैं तो हम दो नृजातीय समूहों में भेद करने का प्रयास करते हैं। उदाहरणार्थ-जब हम हिंदु संस्कृति की तुलना मुस्लिम संस्कृति से करने का प्रयास करते हैं तो दोनों में नृजातीय समानता एवं असमानता का पता लगाने का प्रयास करते हैं। चूँकि नृजातीय अस्मिता ही संस्कृति की पहचान होती है। इसलिए अनुजातीयता अर्थात् नृजातीय नहीं बनना बहुत कठिन होता है। वस्तुतः राष्ट्रीयता, भाषा, धर्म, क्षेत्र, प्रजाति, जाति, अहम् आदि की भावनाएँ नृजातीयता से जुड़ी होती हैं। इन्हें छोड़कर दो नृजातीय समूह या दो संस्कृतियों के लोग एक हों जाएँ, ऐसा असंभव तो नहीं है परंतु अत्यधिक कठिन है। जनजातियों में विभिन्न संस्कृतियों में आमनप्रदान से जनजातीय अस्मिता कम हुई है तथा सात्मीकरण की प्रक्रिया द्वारा अनेक जनजातियाँ अपनी संस्कृति खोकर हिंदू संस्कृति में आत्मसात् कर दी गई हैं।

प्रश्न 4.
सांस्कृतिक परिवर्तनों का अध्ययन करने के लिए दो विभिन्न उपागमों की चर्चा करें।
उत्तर
संस्कृति के विभिन्न पक्षों में होने वाले परिवर्तन को सांस्कृतिक परिवतर्न कहते हैं। सांस्कृतिक परिवर्तन समाज के आदर्शों और मूल्यों की व्यवस्था में होने वाला परिवर्तन है। सांस्कृतिक परिवर्तन वह तरीका है जिसके द्वारा समाज अपनी संस्कृति के प्रतिमानों को बदलता है। रूथ बेनेडिक्ट (Ruth Benedict) ने संस्कृति के प्रतिमानों की चर्चा करते हुए स्पष्ट लिखा है कि उनमें परिवर्तन सदैव होते रहते हैं। उन्हीं के शब्दों में, “हमें याद रखना चाहिए कि परिवर्तन से, चाहे उसमें कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों न हों, बचा नहीं जा सकता।” सास्कृतिक परिवर्तन की संकल्पना सामाजिक परिवर्तन की संकल्पना से अधिक विस्तृत मानी जाती है। डेविस (Davis) के अनुसार, सामाजिक परिवर्तन, वास्तव में, सांस्कृतिक परिवर्तन नहीं अपितु इसका एक अंग है। सांस्कृतिक परिवर्तन के अंतर्गत संस्कृति की किसी भी शाखा, जैसे कला, विज्ञान, दर्शन तथा तकनीकी में परिवर्तन को सम्मिलित किया जा सकता है।’ भौतिक संस्कृति में परिवर्तन यद्यपि सामाजिक परिवर्तन ला सकता है परंतु वह स्वयं सामाजिक परिवर्तन नहीं है। सांस्कृतिक परिवर्तन संस्कृति से संबंधित होते हैं, सार्वभौम होते हैं, इनका क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत होता है, इनकी प्रकृति जटिल होती है तथा सभी समाजों में इनकी गति एक समान नहीं होती। सांस्कृतिक परिवर्तन का अध्ययन करने की दो पद्धतियाँ ‘सर्वसम्मत समाधन की पद्धति’ तथा ‘संघर्ष की पद्धति है। पहली पद्धति के अंतर्गत सांस्कृतिक अंत: संबंधों को प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है। आत्मसात् करने का सिद्धांत, जिसे मैल्टिग पॉट का सिद्धांत भी कहा जाता है, इसका उदाहरण है। इस सिद्धांत के अनुसार एक समूह अपनी सांस्कृतिक अस्मिता खोकर दूसरे सांस्कृतिक समूह में पूर्णतः आत्मसात हो जाता है। संघर्ष की पद्धति सांस्कृतिक समूहों को हित समूह के रूप में देखती है जो सदैव असमानता की स्थिति में होते हैं तथा किसी समान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। दक्षिण अफ्रीका में गोरे लोगों द्वारा काले लोगों से प्रजातीय भेदभाव अथवा श्रीलंका में अप्रवासी तमिलों और स्थानीय सिंहलियों के बीच धार्मिक संघर्ष सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित संघर्ष ही हैं।

प्रश्न 5.
क्या विश्वव्यापीकरण को आप आधुनिकता से जोड़ते हैं? नृजातीयता का प्रेक्षण करें तथा उदाहरण दें।
उत्तर
नृजातीयता में सांस्कृतिक श्रेष्ठता की भावना निहित होती है। नृजातीयता का प्रयोग अपने सांस्कृतिक मूल्यों का अन्य संस्कृतियों के लोगों के व्यवहार तथा आस्थाओं के मूल्यांकन करने के लिए। किया जाता है। प्रत्येक नृजातीय समूह अपने सांस्कृतिक मूल्यों को अन्य समूहों के सांस्कृतिक मूल्यों से श्रेष्ठ मानता है। इसी भावना के कारण नृजातीयता की भावना को विश्व-बंधुत्व एवं विश्वव्यापीकरण के विपरीत माना जाता है विश्वव्यापीकरण में व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के मूल्यों एवं आस्थाओं का मूल्यांकन अपने मूल्यों एवं आस्थाओं के अनुसार नहीं करता। विश्वव्यापीकरण विभिन्न सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को मान्यता प्रदान करता है तथा इन्हें अपने अंदर समायोजित करता है। इसमें संस्कृति को समृद्ध बनाने हेतु सांस्कृतिक विनिमय तथा लेम-देन पर भी बल दिया जाता है। विश्वव्यापीकरण को निश्चित रूप से आधुनिकता के साथ जोड़ा जा सकता है क्योंकि एक आधुनिक समाज सांस्कृतिक विभिन्नता का प्रशंसक होता है तथा बाहर से पड़ने वाले सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने दरवाजे बंद नहीं करता। ऐसे सभी प्रभावों को सदैव इस प्रकार सम्मिलित किया जाता है कि ये देशीय संस्कृति के तत्त्वों के साथ मिल सकें। एक विश्वव्यापी पर्यवेक्षण प्रत्येक व्यक्ति को अपनी संस्कृति को विभिन्न प्रभावों द्वारा सशक्त करने की स्वतंत्रता देता है।

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प्रश्न 6.
आपके अनुसार आपकी पीढी के लिए समाजीकरण का सबसे प्रभावी अभिकरण क्या है? यह पहले अलग कैसे था, आप इस बारे में क्या सोचते हैं।
उत्तर
समाजीकरण का अर्थ सीखने की उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा व्यक्ति को एक सामाजिक प्राणी बनाया जाता है तथा जिससे वह सांस्कृतिक मूल्यों का आंतरीकरण करता है। बच्चे का सामाजीकरण अनेक अभिकरणों एवं संस्थाओं द्वारा किया जाता है जिनमें वह भाग लेता है। परिवार, विद्यालय, समकक्ष समूह, पड़ोस, व्यावसायिक समूह तथा सामाजिक वर्ग/जाति, धर्म आदि ऐसे ही प्रमुख अभिकरण हैं। पहले कभी परिवार को समाजीकरण का प्रमुख माध्यम माना जाता था। यद्यपि आज भी समाजीकरण में परिवार को अत्यंत महत्त्व है, तथापि जन माध्यमों को आज समाजीकरण का सबसे प्रभावी अभिकरण माना जाने लगा है। इन माध्यमों में टेलीविजन प्रमुख है। बच्चा माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों तथा समकक्ष समूह से बहुत-सी बातों को सीखता ही है, टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले कार्टूनों एवं बच्चों के लिए कार्यक्रमों का भी उस पर गहरा प्रभाव पड़ता है। बहुत-से शब्द, खान-पान के ढंग एवं बातचीत के तरीके आज बच्चे टेलीविजन के माध्यम से सीखने लगे हैं। ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन में पाया गया है कि बच्चों द्वारा टेलीविजन देखने पर व्यय किया गया समय एक साल में एक सौ स्कूली दिवसों के समान है तथा इसमें बड़े भी पीछे नहीं हैं। टेलीविजन के परदे पर हिंसा तथा बच्चों के बीच आक्रमण व्यवहार में संबंध की पुष्टि भी अनेक अध्ययनों से हुई है।

क्रियाकलाप आधारित प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
आप किसी अन्य व्यक्ति को अपनी संस्कृति में कैसे अभिवादन करेंगे? (क्रियाकलाप 1)
उत्तर
प्रत्येक संस्कृति में दूसरे का अभिवादन करने का अपना एक विशिष्ट ढंग होता है। भारतीय संस्कृति में बड़ों के पैर छूकर या हाथ जोड़कर नमस्ते द्वारा उनका अभिवादन किया जाता है। हमउम्र में अब मुस्कराकर, हाथ मिलाकर, हैलो कहकर भी अभिवादन किया जाने लगा है। पश्चिमी देशों में अभिवादन को ढंग बिना आयु के भेदभाव के हाथ मिलाने का है। यदि आप किसी अंग्रेज का हाथ जोड़कर अभिवादन करते हैं तो हो सकता है वह भारतीय संस्कृति के इस ढंग से अनभिज्ञ होने के नाते इसका अर्थ न समझ पाए। उसे इसका अर्थ बताने पर यही समझ में आएगा कि भारतीय संस्कृति में बड़ों का अभिवादन इसी ढंग से किया जाता है।

प्रश्न 2.
अपने क्षेत्र के अतिरिक्त कम-से कम किसी एक क्षेत्र के बारे में पता लगाएँ कि प्राकृतिक वातावरण खाने-पीने की आदतों, रहने के ढंग, कपड़ों तथा देवी-देवताओं की पूजा करने के तरीकों को कैसे प्रभावित करता है? (क्रियाकलाप 2)
उत्तर
यदि हम अपने निकटवर्ती पर्वतीय स्थलों पर रहने वाले लोगों को देखें तो भिन्न प्राकृतिक पर्यावरण के प्रभावों को सरलता से समझ सकते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले लोग सर्दी होने के कारण या बर्फ पड़ने के कारण खाने में दाल, सब्जी के अतिरिक्त अंडों एवं मांस का सेवन भी काफी मात्रा में करते हैं। वे सोचते हैं कि मांसाहारी खाना उनके शरीर को गर्म रखने में अधिक सक्षम होता है। रहने के ढंग में भी अंतर स्पष्ट देखा जा सकता है। उनके मकानों की बनावट भिन्न होती है तथा पहाड़ी लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर पैदल ही जाते हैं क्योंकि रिक्शा-तॉगे न तो उपलब्ध होते हैं और न ही वे पहाडी क्षेत्रों में चल सकते हैं। सर्दी से बचने के लिए वे गर्म कपड़ों का इस्तेमाल अधिक करते हैं। कठिन जीवन होने के कारण ऐसा ही माना जाता है कि पहाड़ों पर रहने वाले अधिक धार्मिक प्रवृत्ति के होते हैं। वे देवी-देवताओं पर अधिक विश्वास करते हैं।

प्रश्न 3.
भारतीय भाषाओं में संस्कृति शब्द के समतुल्य शब्दों की पहचान कीजिए। वे किस प्रकार से संबंधित हैं? (क्रियाकलाप 3)
उत्तर
‘संस्कृति’ शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है-‘सम’ तथा ‘कृति’। संस्कृत में ‘सम’ उपसर्ग का अर्थ है ‘अच्छा’ तथा ‘कृति’ शब्द का अर्थ है ‘करना’। इस अर्थ में यह ‘संस्कार’ का समानार्थक है। हिंदू जीवन में जन्म से मृत्यु तक अनेक संस्कार होते हैं जिससे जीवन परिशुद्ध होता है। व्यक्ति की आंतरिक व बाह्य क्रियाएँ संस्कारों के अनुसार ही होती है। मध्यकाल में इस शब्द का प्रयोग फसलों के उत्तरोत्तर परिमार्जन के लिए किया जाता था। इसी से खेती करने की कला के लिए ‘कृषि (Agriculture) शब्द बना है परंतु अठारहवीं तथा उन्नीसवीं शताब्दियों में इस शब्द का प्रयोग व्यक्तियों के परिमार्जन के लिए भी किया जाने लगा। जो व्यक्ति परिष्कृत अथवा पढ़ा-लिखा था, उसे सुसंस्कृत कहा जाता था। इस युग में यह शब्द अभिजात वर्गों के लिए प्रयोग होता था। जिन्हें असंस्कृत जनसाधारण से अलग किया जाता था।

प्रश्न 4.
संस्कृति की विभिन्न परिभाषाओं की तुलना करें तथा सबसे संतोषजनक परिभाषा का पता लगाएँ। (क्रियाकलाप 4)
उत्तर
क्रोबर एवं क्लूखोन नामक अमेरिकी मानवशास्त्रियों ने संस्कृति की परिभाषा जिन शब्दों द्वारा देने का प्रयास किया है उन्हें निम्न प्रकार से सूचीबद्ध किया है-

  1. संस्कृति सोचने, अनुभव करने तथा विश्वास करने का एक तरीका है।
  2. संस्कृति लोगों के जीने का एक संपूर्ण तरीका है।
  3. संस्कृति व्यवहार का सारांश है।
  4. संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है।
  5. संस्कृति सीखी हुई चीजों का एक भंडार है।
  6. संस्कृति सामाजिक धरोहर है जो कि व्यक्ति अपने समूह से प्राप्त करता है।
  7. संस्कृति बार-बार घट रही समस्याओं के लिए मानकीकृत दिशाओं का एक समुच्चय है।
  8.  संस्कृति व्यवहार के मानकीय नियमितीकरण हेतु एक साधन है।

उपर्युक्त अर्थों में संस्कृति को उस सामाजिक धरोहर के रूप में स्वीकार करना उचित है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांरित होती रहती है। यह सीखा हुआ व्यवहार है। जब हम अठारहवीं शताब्दी में लखनऊ की संस्कृति, अतिथि सत्कार की संस्कृति या सामान्यतया प्रयुक्त शब्द ‘पाश्चात्य संस्कृति का प्रयोग करते हैं तो हमारा तात्पर्य व्यवहार के मानकीकृत ढंग से ही होता है। व्यवहार के भिन्न ढंग के कारण ही आज भी हम लखनऊ की संस्कृति को अन्य शहरों की संस्कृतियों से भिन्न मानते हैं।

प्रश्न 5.
क्या आपको अपने आस-पास में बने किसी उप-सांस्कृतिक समूह की जानकारी है? आप ” इनको पहचानने में कैसे सफल हुए? (क्रियाकलाप 5)
उत्तर
आपके आस-पास यदि निर्माण कार्य में लगे हुए बिहारी मजदूर अथवा रिक्शाचालक बिहारी एक स्थान पर रहते हैं तो आप इस उम-सांस्कृतिक समूह की सरलता से पहचान कर सकते हैं। उनकी बोलचाल से ही आप यह अनुमान लगा सकते हैं कि वे बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश के हैं। इसी भाँति, यदि आपके आस-पड़ोस या किसी अन्य मुहल्ले में शहर से थोड़ा बाहर कूड़ा बीनने वाले परिवारों का झुंड रहता है तो उन्हें भी आप न केवल कार्य के आधार पर अपितु उनके रहन-सहन के आधार पर भी अलग उप-सांस्कृतिक समूह के रूप में पहचान सकते हैं।

प्रश्न 6.
वे बातें बताएँ जिनमें एक घरेलू नौकर का बच्चा अपने आपको उस बच्चे से अलग समझे, जिसके परिवार में उसकी माँ काम करती है। साथ ही उन वस्तुओं के बारे में बताएँ जिन्हें वह आपस में बाँट सकते हैं या बदल सकते हैं? (क्रियाकलाप 6)
उत्तर
एक घरेलू नौकर का बच्चा अपने आपको उस बच्चे से, जिसके परिवार में उसकी माँ काम करती है, कई बातों में अलग समझ सकता है। वह सापेक्षिक वंचना की भावना से भी ग्रसित हो सकता है क्योंकि खाने-पीने के लिए जो सामान मालिक के बच्चे को उपलब्ध है अथवा खेलने के लिए जो खिलौने मालिक के बच्चे के पास है वह उसके पास नहीं है। नौकर के बच्चे के पास न तो वैसे कपड़े पहनने के लिए हो सकते हैं और हो सकता है कि वह स्कूल में भी पढ़ने नहीं जाता हो। उसकी बोलचाल का ढंग भी मालिक के बच्चे से अलग हो सकता है। नौकरानी के बच्चे की भाषा थोड़ी-बहुत अशिष्ट भी हो सकती है। इससे हमें यह पता चलता है कि विभिन्न पारिवारिक परिस्थितियों में होने वाले समाजीकरण से बच्चों की सीख में भी अंतर हो सकता है। हो सकता है कि मालिक की लड़की सुंदर कपड़े अधिक पहनती हो, जबकि नौकरानी की लड़की काँच की चूड़ियाँ अधिक पहनती हो। इसी भाँति उनकी अन्य रुचियों में भी अंतर हो सकता है। हो सकता है कि दोनों बच्चों में आपस में बाँटने के लिए कोई वस्तु न हो, तथापि वे किसी फिल्म के गाने के बारे में आपस में विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। मालिक का बच्चा अपने पुराने कपड़ों या खिलौनों को नौकरानी के बच्चों को दे सकता है अथवा अपने सामान्य खिलौनों के साथ. उससे खेल भी सकता है।

प्रश्न 7.
टेलीविजन, जगह, समय, सुअवसर, आपके आस-पास के लोग इत्यादि में किस चीज की उपस्थिति या अनुपस्थिति आपको व्यक्तिगत रूप से ज्यादा प्रभावित करेगी? (क्रियाकलाप 7)
उत्तर
यह परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है। हो सकता है कि किसी बच्चे को अपना मकान न होने का गम ही सबसे अधिक प्रभावित कर रहा हो तो दूसरे को अपना मकान होने के बावजूद टेलीविजन न होने का। किसी निम्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले बच्चे को, जिसे की अपनी माता का हाथ बँटाने अनेक परिवारों में झाड़े-पोंछा या बर्तन साफ करने हेतु साथ जाता है, घर के कार्यों या विद्यालय के समय में सामंजस्य बैठाने की समस्या हो सकती है। छोटे घरों में रहने वाले बच्चे को अपनी पढ़ाई हेतु अलग कमरा उपलब्ध न होने की समस्या का सामना करना पड़ता है।

प्रश्न 8.
अपने मित्रों के साथ की गई अपनी अंतःक्रिया की तुलना अपने माता-पिता तथा अन्य बड़ों से की गई अंतःक्रिया से करने पर क्या अंतर स्पष्ट होता है? (क्रियाकलाप 8)
उत्तर
मित्रों की गणना समवयस्क समूह के रूप में होती है। समवयस्क समूह के सदस्यों का एक-दूसरे पर प्रभाव अधिक होता है। हमउम्र या एक व्यवसाय में लगे होने के कारण वे अपने विचारों को खुलकर एक-दूसरे को बता सकते हैं तथा विचारों में भिन्नता पर खुलकर वाद-विवाद कर सकते हैं। ऐसे समूह व्यक्ति की मनोवृत्ति तथा व्यवहार को निर्धारित करने में प्रायः महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। माता-पिता तथा अन्य बड़ों के साथ अंत:क्रिया समकक्ष समूहों के सदस्यों के साथ होने वाली अंतःक्रियाओं से भिन्न होती है। अक्सर बच्चे अपने माता-पिता या बड़ों के दृष्टिकोण को बिना किसी विवाद के अपना लेते हैं। इसीलिए यदि माता-पिता द्वारा किए जाने वाले समाजीकरण तथा समवयस्क समूह या विद्यालय द्वारा किए जाने वाले समाजीकरण में अधिक अंतर हो जाए तो बच्चे के सामने दुविधा की स्थिति पैदा हो सकती है कि वह माता-पिता द्वारा बताई गई बात को उचित माने या अपने दोस्तों व प्राध्यापकों द्वारा बताई गई बात को। इसलिए आज समाजीकरण के विभिन्न अभिकरणों में जीवन के लक्ष्यों के प्रति एवं व्यक्तित्व के निर्माण के प्रति सामंजस्य स्थापित करने की बात पर अधिक बल दिया जाने लगा है।

प्रश्न 9.
लोग अपने आस-पास के परिवेश के विपरीत परिवेशों में बने धारावाहिकों से खुद को कैसे जोड़ते हैं? यदि बच्चे अपने दादा-दादी के साथ टेलीविजन देख रहे हैं तो कौन-से कार्यक्रम देखने योग्य हैं, क्या इस पर उनमें असहमति है? यदि ऐसा है तो उनके दृष्टिकोण में क्या अंतर पाया गया? क्या इन अंतरों में क्रमशः संशोधन होता है (क्रियाकलाप 9)
उत्तर
आज टेलीविजन समाजीकरण का एक प्रमुख अभिकरण बन गया है। इसमें अनेक धारावाहिक़ दिखाए जाने लगे हैं। बहुत-से धारावाहिकों में किसी कॉलेज में अमीर परिवारों के छात्र-छात्राओं का प्रदर्शन बिगड़ते हुए बच्चों के रूप में भी हो सकता है। इन विपरीत परिवेशों में बने धारावाहिकों से बच्चा खुद को आँकने का प्रयास करता है। वह यह भी सोच सकता है कि धारावाहिकों में दिखाए जाने वाले ऐसे बिगड़े हुए बच्चे बनना अच्छी बात नहीं है। इसके विपरीत, यह भी हो सकता है कि उन बच्चों की जीवन-शैली का उस पर गहरा प्रभाव पड़े तथा वह उस शैली को अपने जीवन में भी अपनाने का प्रयास करने लगे। धारावाहिक देखते समय सामान्यत बच्चों एवं दादा-दादी में मतभेद हो सकता है क्योंकि पीढ़ी अंतर होने के कारण दोनों की रुचियों में काफी अंतर हो सकता है। पढ़ने वाले बच्चे हो सकता है कि विभिन्न विद्यालयों के बच्चों में दिखाए जाने वाले क्विज जैसे कार्यक्रम देखने या क्रिकेट का मैच देखने में अधिक रुचि रखते हों, जबकि दादा-दादी की इन दोनों प्रकार के कार्यक्रमों में कोई रुचि न हो और वे टेलीविजन पर उस समय प्रदर्शित की जाने वाली किसी पुरानी फिल्म को देखने के लिए उत्सुक हों। आजकल छोटी आयु में ही बच्चे कार्टून आधारित कार्यक्रम देखने के आदी हो जाते हैं तथा वे नहीं चाहते कि इन कार्यक्रमों के अतिरिक्त टेलीविजन पर कोई अन्य कार्यक्रम भी देखे जाएँ। दादा-दादी की ऐसे कार्यक्रमों में हो सकता है कि कोई रुचि ही न हो। इस प्रकार के अंतर पीढ़ी अंतराल के द्योतक हैं तथा दोनों पक्षों में इस बात को लेकर समझौता हो सकता है कि जिस समय बच्चे कार्यक्रम देखें उस समय उन्हें अपनी रुचि का कार्यक्रम देखने की अनुमति प्रदान की जाए तथा जब दादा-दादी कार्यक्रम देखें तो बच्चे अपना कार्यक्रम देखने पर जोर न दें। अन्य शब्दों में, समय निर्धारित कर दृष्टिकोण में अंतर को कम किया जा सकता है।

प्रश्न 10.
कस्बों तथा गाँवों में संस्कृति के मानकीय आयाम कैसे अलग हैं? (क्रियाकलाप 11)
उत्तर
कस्बों एवं गाँव के मानकीय आयामों में काफी भिन्नता पाई जाती है। कस्बों की जनसंख्या अधिक होने के कारण संबंध आमने-सामने के, व्यक्तिगत एवं घनिष्ठ नहीं होते हैं। औपचारिक नियंत्रण अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है तथा अनौपचारिक नियंत्रण का प्रायः अभाव पाया जाता है। इसके विपरीत, गाँव में आमने-सामने के प्रत्यक्ष एवं घनिष्ठ संबंध पाए जाते हैं तथा अनौपचारिक नियंत्रण ही अनुपालन के लिए पर्याप्त होता है। कस्बे एवं गाँव में रहने वाले लोगों का जीवन का ढंग, खान-पान, पहनावा, धार्मिक प्रवृत्ति एवं विश्व के प्रति दृष्टिकोण भी भिन्न-भिन हो सकता है। कस्बे में असुरक्षा का वातावरण भी अधिक हो सकता है। इसी के फलस्वरूप हो सकता है कि लड़की यदि किसी कार्य से कहीं बाहर जाती है तो उसके साथ उसका भाई या परिवार का अन्य बड़ा सदस्य जरूर जाए। हो सकता है कि यह स्थिति संबंधित लड़की को काफी उपहासजनके लगे क्योंकि वह विद्यालय में तो अकेली ही जाती है परंतु माता-पिता किसी अन्य कार्य हेतु उसे अकेले जाने से क्यों रोकते हैं। गाँव में इस प्रकार की परिस्थितियाँ ही विकसित नहीं होती हैं।

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प्रश्न 11.
पुजारी की बेटी को घंटी छूने की अनुमति जैसी प्रदत्त प्रस्थिति पर प्रश्न अन्य लड़कियों में किस प्रकार की प्रतिक्रिया विकसित कर सकता है? (क्रियाकलाप 11)
उत्तर
प्रदत्त प्रस्थिति कई बार समाज में प्रचलित मूल्यों के प्रति विद्रोह अथवा समतावादी व्यवहार की प्रतिक्रिया उत्पन्न कर सकती है। उदाहरणार्थ-यदि एक लड़की मंदिर में जाकर घंटी बजाने को उत्सुक है परंतु उसके माता-पिता उसे यह कहकर रोक रहे हैं कि लड़कियाँ मंदिर में घंटी नहीं बजा सकती है तो ऐसी स्थिति में लड़की के मन में अनेक प्रकार के विचार आ सकते हैं। वह माता-पिता को यह तर्क दे सकती है कि पिछली बार उसने मंदिर के पुजारी की लड़की को घंटी बजाते हुए देखा था तो फिर वह घंटी क्यों नहीं बजा सकती। माता-पिता यह तर्क दे सकते हैं कि चूंकि वह मंदिर के पुजारी की लड़की है इसलिए उसे घंटी बजाने का अधिकार प्राप्त है। हो सकता है लड़की इस तर्क को न माने तथा माँ-बाप को कहे कि जब भगवान की नजरों में सब एकसमान हैं तो इस प्रकार का भेदभाव कहाँ तक उचित है। बड़े लोग सदैव यह सोचते हैं कि वे जो तर्क बच्चों को देंगे वे चुपचाप उन्हें स्वीकार कर लेंगे।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
व्यक्ति और समाज एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं और एक-दूसरे पर आश्रित हैं। यह कथन किसका है?
(क) दुर्वीम’
(ख) चार्ल्स कूले
(ग) मैकाइवर एवं पेज
(घ) प्लेटो
उत्तर
(ग) मैकाइवर एवं पेज

प्रश्न 2.
‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।’ यह कथन है-
(क) रूसो का
(ख) हरबर्ट स्पेन्सर का
(ग) मैकाइवर व पेज का
(घ) अरस्तू को
उत्तर
(घ) अरस्तू का

प्रश्न 3.
किसने कहा है कि समाज एक अधि-जैविक व्यवस्था है?
(क) मैकाइवर और पेज
(ख) किंग्सले डेविस
(ग) हरबर्ट स्पेन्सर
(घ) ऑगबर्न
उत्तर
(ग) हरबर्ट स्पेन्सर

प्रश्न 4.
संस्कृति के भौतिक पक्ष को कहा जाता है-
(क) समाज
(ख) सामाजिक व्यवस्था
(ग) सभ्यता
(घ) मानव समाज
उत्तर
(ग) सभ्यता

प्रश्न 5.
“सभ्यता संस्कृति का वाहक है।” यह कथन किसका है?
(क) क्लाइव बेल
(ख) मैकाइवर एवं पेज
(ग) फेयरचाइल्ड
(घ) ऑगबर्न एवं निमकॉफ
उत्तर
(ख) मैकाइवर एवं पेज

प्रश्न 6.
रॉबर्ट बीरस्टीड ने सामाजिक आदर्शों को कितनी श्रेणियों में विभाजित किया है?
(क) दो।
(ख) तीन
(ग) चार
(घ) पाँच
उत्तर
(ख) तीन

प्रश्न 7.
किसके अनुसार सामाजिक मूल्य प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक संगठन व सामाजिक व्यवस्था से संबंधित होते हैं?
(क) इलियट एवं मैरिल
(ख) सी०एम०केस
(ग) राधाकमल मुखर्जी
(घ) जॉनसन
उत्तर
(ग) राधाकमल मुखर्जी

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प्रश्न 8.
ह्यूमन नेचर एंड दि सोशल ऑर्डर’ पुस्तक के लेखक कौन हैं?
(क) फ्रॉयड
(ख) कूले
(ग) मैकाइवर एवं पेजं
(घ) मीड
उत्तर
(ख) कुले

निश्चित उत्तरीय प्रश्नोत्तरे

प्रश्न 1.
संस्कृति के भौतिक पक्ष को क्या कहा जाता है?
उत्तर
संस्कृति के भौतिक पक्ष को सभ्यता कहा जाता है।

प्रश्न 2.
उन भौतिक साधनों को क्या कहा जाता है जिनमें उपयोगिता का तत्व पाया जाता है?
उत्तर
जिन भौतिक साधनों में उपयोगिता का तत्त्व पाया जाता है उन्हें सभ्यता कहते हैं।

प्रश्न 3.
निम्न कथन किसने कहा है “अधिजैविक संस्कृति के बाद की अवस्था के रूप में सभ्यता की परिभाषा दी जा सकती है?
उत्तर
यह कथन ऑगबर्न तथा निमकॉफ का है।

प्रश्न 4.
“सभ्यता संस्कृति का वाहक हैं” किसने कहा है?
उत्तर
यह कथन मैकाइवर और पेज का है।

प्रश्न 5.
उच्चस्तरीय मानदंडों को क्या कहा जाता है?
उत्तर
उच्चस्तरीय मानदंडों को सामाजिक मूल्य कहा जाता है।

प्रश्न 6.
वह कौन-सी प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति पहले से सीखे हुए व्यवहारों को भुला देता है?
उत्तर
व्यक्ति द्वारा पहले से सीखे हुए व्यवहारों को भुला देने की प्रक्रिया को वि-समाजीकरण कहा जाता है।

प्रश्न 7.
उस प्रक्रिया को क्या कहा जाता है जिसमें व्यक्ति समाज द्वारा अस्वीकृत व्यवहारों (जैसी चोरी करना, अपराध करना आदि) को सीखता है?
उत्तर
समाज द्वारा अस्वीकृत व्यवहारों को सीखने की प्रक्रिया को नकारात्मक समाजीकरण कहते हैं।

प्रश्न 8.
इड, इगो एवं सुषर इगो के आधार पर समाजीकरण की व्याख्या करने वाले विद्वान कौन हैं?
उत्तर
इड, इगो एवं सुपर इगो के आधार पर समाजीकरण की व्याख्या करने वाले विद्वान् फ्रॉयड हैं।

प्रश्न 9.
‘ह्यूमन नेचर एण्ड दि सोशल ऑर्डर’ पुस्तक के लेखक कौन हैं?
उत्तर
‘ह्यूमन, नेचर एण्ड दि सोशल ऑर्डर’ पुस्तक के लेखक का नाम कूले है।

प्रश्न 10.
‘माइण्ड, सेल्फ एण्ड सोसाइटी पुस्तक के लेखक कौन हैं?
उत्तर
‘माइण्ड, सेल्फ एण्ड सोसाइटी’ पुस्तक के लेखक का नाम मीड है।

प्रश्न 11.
अपनी पहली जीवन पद्धति के स्थान पर दूसरी जीवन पद्धति को अपनाने से संबंधित सीख की प्रक्रिया को क्या कहते हैं?
उत्तर
पहली जीवन पद्धति के स्थान पर दूसरी जीवन पद्धति को अपनाने से संबंधित सीख की प्रक्रिया को पुनर्समाजीकरण कहते हैं।

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प्रश्न 12.
‘लिबिडो किस विद्वान की संकल्पना है?
उत्तर
‘लिबिडो’ फ्रॉयड द्वारा प्रतिपादित संकल्पना है।

प्रश्न 13.
कौन-सा विद्वान समाजीकरण की प्रक्रिया को काम प्रवृत्तियों (लिबिडो) द्वारा निर्धारित प्रक्रिया मानता है?
उत्तर
समाजीकरण की प्रक्रिया को काम प्रवृत्तियों (लिबिडो) द्वारा निर्धारित प्रक्रिया मानने वाले विद्वान का नाम फ्रॉयड है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
सभ्यता किसे कहते हैं?
उत्तर
संस्कृति के भौतिक पक्ष को सभ्यता कहा जाता है। सभ्यता का संबंध उस कला-विन्यास से है। जिसे मनुष्य ने अपने जीवन की दशाओं को नियंत्रित करने हेतु रचा है। यह संस्कृति का अधिक जटिल व विकसित रूप है जिसमें मानव-निर्मित भौतिक वस्तुएँ सम्मिलित होती हैं। मैकाइवर तथा पेज के अनुसार, “सभ्यता से हमारा अर्थ उस संपूर्ण प्रविधि तथा संगठन से हैं जिसे कि मनुष्य ने अपने जीवन की दशाओं को नियंत्रित करने के उद्देश्य से बनाया है।

प्रश्न 2.
भौतिक तथा अभौतिक संस्कृति में दो अंतर बताइए।
उत्तर
भौतिक एवं अभौतिक संस्कृति में पाए जाने वाले दो अंतर निम्नलिखित हैं|

  1. भौतिक संस्कृति के अंतर्गत मनुष्य द्वारा निर्मित वे सभी वस्तुएँ आ जाती हैं जिनका उनकी उपयोगिता द्वारा मूल्यांकन किया जाता है, जबकि अभौतिक संस्कृति का संबंध मूल्यों, विचारों व ज्ञान से है।
  2. भौतिक संस्कृति मानव द्वारा निर्मित वस्तुओं का योग है, जबकि अभौतिक संस्कृति रीति-रिवाजों, रूढ़ियों, प्रथाओं, मूल्यों, नियमों का उपनियमों का योग है।

प्रश्न 3.
संस्कृति और सभ्यता में दो प्रमुख अंतर बताइए।
उत्तर
संस्कृति और सभ्यता में पाए जाने वाले दो प्रमुख अंतर निम्नलिखित हैं-

  1. उपयोगिता के आधार पर अंतर-सभ्यता के अंतर्गत मनुष्य द्वारा निर्मित वे सभी वस्तुएँ आ जाती हैं जिनका इनकी उपयोगिता द्वारा मूल्यांकन किया जाता है, किंतु संस्कृति का संबंध उस ज्ञाने से है जिसके आधार पर वस्तुओं का निर्माण किया जाता है।
  2. स्वरूप में अंतर-सभ्यता का संबंध व्यक्ति की बाहरी दशा से होता है जो व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति करती है, किंतु संस्कृति का संबंध व्यक्ति की आंतरिक अवस्था से है जो व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित करती है। संस्कृति से व्यक्ति सर्वांग रूप से प्रभावित होता है।

प्रश्न 4.
सामाजिक मूल्यों के दो प्रमुख कार्य बताइए।
उत्तर
सामाजिक मूल्यों के दो प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं—

  1. मानव समाज में व्यक्ति सामाजिक मूल्यों के आधार पर समाज द्वारा स्वीकृत नियमों का पालन करता है। वह उनके अनुकूल अपने व्यवहार को ढालकर अपना जीवन व्यतीत करता है। इस प्रकार सामाजिक मूल्य सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में सहायता प्रदान करते हैं।
  2. मनुष्य अपनी अनंत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सतत् प्रयत्न करता रहता है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति में उसे सामाजिक मूल्यों से पर्याप्त सहायता प्राप्त होती है।

प्रश्न 5.
सभ्यता की परिभाषा लिखिए।
उत्तर
क्लाइव बेल के शब्दों में, “वह (सभ्यता) मूल्यों के ज्ञान के आधार पर स्वीकृत किया गया तर्क और तर्क के आधार पर कठोर व भेदनशील बनाया गया मूल्यों का ज्ञान है।”

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
संस्कृति से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
संस्कृति को सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों तथा सामाजिक विरासत के आधार पर समझाने का प्रयास किए गया है। प्रत्येक समाज की अपनी भिन्न संस्कृति होती है। संस्कृति वह संपूर्ण जटिलता है। जिसमें वे सभी वस्तुएँ सम्मिलित हैं जिन पर हम विचार करते हैं, कार्य करते हैं और समाज का सदस्य होने के नाते अपने पास रखते हैं। संस्कृति पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांरित होती रहती है। प्रत्येक पीढ़ी ने अपने पूर्वजों से प्राप्त ज्ञान एवं कला का और अधिक विकास किया है। अन्य शब्दों में, प्रत्येक पीढी ने अपने पूर्वजों के ज्ञान को संचित किया है। और इस ज्ञान के आधार पर नवीन ज्ञान और अनुभव का भी। ज्ञान अर्जन किया है। इस प्रकार के ज्ञान व अनुभव के अंतर्गत यंत्र, प्रविधियाँ, प्रथाएँ, विचार और मूल्य आदि आते हैं। ये मूर्त और अमूर्त वस्तुएँ संयुक्त रूप से संस्कृति’ कहलाती हैं। इस प्रकार वर्तमान पीढ़ी ने अपने पूर्वजों तथा स्वयं के प्रयासों से जो अनुभव व व्यवहार सीखा है वहीं संस्कृति है।

मैकाइवर एवं पेज के शब्दों में, “संस्कृति हमारे दैनिक व्यवहार में कला, साहित्य, सीखा है वहीं संस्कृति है। मैकाइवर एवं पेज’ के शब्दों में, “संस्कृति हमारे दैनिक व्यवहार में कला, साहित्य, धर्म, मनोरंजन और आनंद में पाए जाने वाले रहन-सहन और विचार के ढंगों से हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है।”

प्रश्न 2.
भौतिक संस्कृति से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
मनुष्यों ने अपनी आवश्यकताओं के कारण अनेक आविष्कारों को जन्म दिया है। ये आविष्कार हमारी संस्कृति के भौतिक तत्त्व माने जाते हैं। इस प्रकार भौतिक संस्कृति उन आविष्कारों का नाम है। जिनको मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं के कारण जन्म दिया है। यह भौतिक संस्कृति मानव-जीवन के बाह्य रूप से संबंधित है। भौतिक संस्कृति को ही सभ्यता कहा जाता है। मोटर, रेलगाड़ी, हवाईजहाज, मेज-कुर्सी, बिजली का पंखा आदि सभी भौतिक तत्त्व; भौतिक संस्कृति अथवा सभ्यता के ही प्रतीक है। संस्कृति के भौतिक पक्ष को मैथ्यू आरनोल्ड, अल्फर्ड, वेबर तथा मैकाइवर एवं पेज ने ही सभ्यता कहा है। भौतिक संस्कृति अथवा सभ्यता की परिभाषा करते हुए मैकाइवर और पेज ने लिखा है कि “मनुष्य ने अपने जीवन की दशाओं को नियंत्रित करने के प्रयत्न से जिस संपूर्ण कला-विन्यास की रचना की है, उसे सभ्यता कहते हैं।”

प्रश्न 3.
अभौतिक संस्कृति किसे कहते हैं?
उत्तर
मानव जीवन को संगठित करने के लिए मनुष्य ने अनेक रीति-रिवाजों, प्रथाओं, रूढ़ियों आदि को जन्म दिया है। ये सभी तत्त्व मनुष्य की अभौतिक संस्कृति के रूप हैं। ये तत्त्व अमूर्त हैं। इसलिए ‘संस्कृति मानव-जीवन के उन अमूर्त तत्त्वों का योग है जो नियमों, उपनियमों, रूढ़ियो, रीति-रिवाजों आदि के रूप में मानव व्यवहार को नियंत्रित करते हैं। इस प्रकार संस्कृति जीवन के अमूर्त तत्त्वों को कहते हैं वास्तव में संस्कृति के अंतर्गत वे सभी चीजें सम्मिलित की जा सकती हैं जो व्यक्ति की आंतरिक व्यवस्था को प्रभावित करती हैं। दूसरे शब्दों में, संस्कृति में वे पदार्थ सम्मिलित किए जा सकते हैं जो मनुष्य के व्यवहारों को प्रभावित करते हैं। टॉयलर ने लिखा है, “संस्कृति वह जटिल समग्रता है जिसमें समस्त ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता के सिद्धांत, विधि-विधान, प्रथाएँ एवं अन्य समस्त योग्यताएँ सम्मिलित हैं जिन्हें व्यक्ति समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है।”

प्रश्न 4.
संस्कृति और सभ्यता में संबंध स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
संस्कृति तथा सभ्यता के मध्य एक विभाजन-रेखा खींच देना बहुत अधिक वैज्ञानिक नहीं है। वास्तविकता यह है कि समाज का बाह्य व्यवहार (सभ्यता) तथा आंतरिक व्यवहार (संस्कृति) एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं। ऐसी चीजों, जिन्हें हम सभ्यता की संज्ञा देते हैं, में कुछ अंशों में सांस्कृतिक पहलू भी होता है। यही बात संस्कृति के संबंध में लागू होती है। सांस्कृतिक पदार्थ कही जाने वाली वस्तुओं में उपयोगिता का तत्त्व निश्चित रूप से सम्मिलित होता है। जब भी कोई वस्तु, जिसमें आवश्यकता पूर्ति की जाती है, खरीदी जाती है तो उसकी उपयोगिता के साथ-साथ उसके सौंदर्य पर भी विचार किया जाता है। उदाहरणार्थ-स्कूटर या टेलीविजन खरीदते समय उसकी उपयोगिता को तो हम देखते ही हैं, साथ ही उसमें कलात्मकता कितनी है इस पर भी ध्यान देते हैं।

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प्रश्न 5.
संस्कृति सभ्यता को क्या योगदान करती है?
उत्तर
संस्कृति सभ्यता को निम्नलिखित योगदान करती है–

  1. संस्कृति सभी वस्तुओं एवं विषयों का अंतिम माप है-संस्कृति केवल विचारों और आचारों का माप मात्र नहीं है वरन् इसके मूल्यों व आदर्शों के आधार पर ही संसार की हर वस्तु या घटना का अर्थ लगाया जाता है। उदाहरणार्थ-सिक्खों में ‘कृपाण धार्मिक आवश्यकता है जो सभ्यता का भाग होते हुए भी आज के युग में केवल सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में प्रचलित है।
  2. सभ्यता में संस्कृति की भूमिका–समाज अपनी शक्तियों, साधनों व आविष्कारों का निर्माण व प्रयोग संस्कृति द्वारा निर्धारित दिशा के अनुसार ही करता है। मैकाइवर तथा पेज ने लिखा है कि “सभ्यता संबंधी साधनों को उस एक जहाज के रूप में देखा जा सकता है जो कि विभिन्न बंदरगाहों पर जा सकता है; परंतु वह बंदरगाह, जिधर हम बढ़ते हैं, सांस्कृतिक वरण है।”

प्रश्न 6.
सभ्यता संस्कृति को क्या योगदान करती है?
उत्तर
सभ्यता संस्कृति को निम्नलिखित योगदान करती है-

  1. सभ्यता संस्कृति की वाहक है–संस्कृति को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करने का कार्य सभ्यता करती है। रवींद्रनाथ ठाकुर की कविताएँ, विचार, लेख, गीत (जो संस्कृति के तत्त्व हैं)–पुस्तक (जो सभ्यता का तत्त्व है) रूप में छपे हैं और उनके विचारों से अन्य लोग आज भी लाभांवित होते हैं।
  2. सभ्यता संस्कृति के प्रसार में सहायक है-संस्कृति के तत्त्व सभ्यता के द्वारा प्रसारित होते हैं। उदाहरणार्थ-मार्क्स के विचार दुनिया के कोने-कोने में प्रसारित हुए हैं। इनका प्रसार संचार के साधनों; जैसे-प्रेस तथा रेडियो (जोकि सभ्यता के प्रतीक हैं) के माध्यम से किया गया है।
  3. सभ्यता संस्कृति का वातावरण है—सभ्यता में विकास के साथ-साथ संस्कृति को सभ्यता के अनुसार सामंजस्य स्थापित करना पड़ता है। उदाहरणार्थ-औद्योगीकरण के कारण हमारा जीवन बहुत व्यस्त हो गया है जिसके परिणामस्वरूप विवाह की प्रक्रिया बहुत छोटी हो गई है। जो विवाह संस्कार पहले आठ-नौ घंटे में संपन्न होता था वह आज आधा घंटे में ही पूरा हो जाता है।

प्रश्न 7.
राधाकमल मुखर्जी ने किन चार प्रकार के मूल्यों का उल्लेख किया है?
उत्तर
राधाकमल मुखर्जी ने निम्नलिखित चार प्रकार के मूल्यों का उल्लेख किया है-

  1. वे मूल्य जो सामाजिक संगठन व व्यवस्था को सृदृढ़ बनाने के लिए समाज में समानता व सामाजिक न्याय का प्रतिपादन करते हैं।
  2. वे मूल्य जिनके आधार पर सामान्य सामाजिक जीवन के प्रतिमानों व आदर्शों का निर्धारण होता है। इन मूल्यों के अंतर्गत एकता व उत्तरदायित्व की भावना आदि समाहित होती है।
  3. वे मूल्य जिनका संबंध आदान-प्रदान व सहयोग आदि से होता है। इन मूल्यों के आधार पर आर्थिक जीवन की उन्नति होती है व आर्थिक जीवन संतुलित होता है।
  4. वे मूल्य जो समाज में उच्चता लाने व नैतिकता को विकसित करने में सहायता प्रदान करते हैं।

प्रश्न 8.
समाजीकरण क्या है? समाजीकरण का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
या
समाजीकरण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
मनुष्य का जन्म समाज में होता है। समाज में जन्म लेने के पश्चात् वह धीरे-धीरे आसपास के वातावण के संपर्क में आता है और उससे प्रभावित होता है। प्रारंभ में मनुष्य एक प्रकार से जैविक प्राणी मात्र ही होता है; क्योंकि आहार, निद्रा आदि के अतिरिक्त उसे और किसी बात का ज्ञान नहीं होता; अत: उसकी अवस्था बहुत-कुछ पशुओं के ही समान होती है। इसके अतिरिक्त, जन्म के समय बालक में सभी प्रकार के सामाजिक गुणों का भी अभाव होता है और समाजिक गुणों के अभाव में कोई भी बालक एक जैविक प्राणी मात्र ही होता है। माता-पिता के संपर्क में आकर वह मुस्कराना और पहचानना सीखता है। धीरे-धीरे वह अपने परिवार के अन्य सदस्यों के संपर्क में आता है और उनसे सामाजिक शिष्टाचार की अनेक बातें सीखता है। आगे चलकर और बड़े होने पर उसके संपर्क का क्षेत्र और अधिक व्यापक हो जाता है तथा वह विभिन्न सामाजिक तरीकों से अपने कार्यों का संचालन करना सीख लेता है। इस प्रकार वह जैविक प्राणी से सामाजिक प्राणी बन जाता है और समाजशास्त्र में बच्चे के सामाजिक बनने की इस प्रक्रिया को ही समाजीकरण कहा जाता है। अतः समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है। इसी के परिणामस्वरूप व्यक्ति समाज में रहना सीखता है अर्थात् एक सामाजिक प्राणी बनता हैं। संस्कृति का हस्तांतरण भी इसी प्रक्रिया के माध्यम से होता है। ग्रीन (Green) के अनुसार, समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बच्चा सांस्कृतिक विशेषताओं, स्वानुभूति और व्यक्तित्व प्राप्त करता है।”

प्रश्न 9.
व्यक्ति को समाजीकरण की क्यों आवश्यकता होती है?
उत्तर
समाजीकरण एक अत्यंत अनिवार्य प्रक्रिया है जिसकी आवश्यकता व्यक्ति को निम्नलिखित कारणों से होती है-

  1. ‘स्व’ का विकास-मानव चरित्र का विकास व्यक्ति के ‘स्व’ या ‘अहं’ के विकास पर निर्भर है। जब तक व्यक्ति के ‘स्व’ का विकास नहीं हो जाता, तब तक व्यक्ति को भले-बुरे का ज्ञान नहीं होता। व्यक्ति के ‘स्व’ का विकास करने के लिए व्यक्ति को शिष्टाचार, बोलचाल तथा उठने-बैठने के तरीकों को जानना चाहिए। इन तरीकों को जानना ही समाजीकरण कहलाता है। इसलिए समाजीकरण मानव जीवन में ‘स्व’ के विकास के लिए नितांत आवश्यक है। वस्तुतः समाजीकरण का अर्थ ही ‘स्व’ का विकास करना है।
  2. व्यक्तित्व के विकास में सहायक–व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास समाज में रहकर ही कर सकता है। जो व्यक्ति किसी कारणवश समाज के बाहर रहे, उनमें व्यक्ति के उचित गुणों का विकास नहीं हो पाता। ऐसे अनेक बालकों का अध्ययन किया गया है जो भेड़ियों की माँद में पाए गए थे या किन्हीं कारणवश माता-पिता से बिछुड़करे जंगलों पशुओं के साथ रहे। उन बच्चों का व्यवहार भेड़िए या जंगली पशु जैसा ही था, क्योंकि मानव समाज से उनका कोई संबंध नहीं बन पाया था। फलस्वरूप उनमें व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाया था तथा वे समाज से अलग रहने के कारण पशुतुल्य ही रहे। इससे यह सिद्ध होता है कि व्यक्तित्व का विकास करने के लिए व्यक्ति को समाजीकरण की अत्यंत आवश्यकता है।

प्रश्न 10.
समाजीकरण में कौन-से कारक सहायक माने जाते हैं?
उत्तर
अमेरिकी समाजशास्त्री क्यूबर ने समाजीकरण में निम्नलिखित तीन कारकों को सहायक माना है-

  1. पैतृक गुण-मनुष्य में जो कुछ भी गुण पाए जाते हैं वे अपने पूर्वजों के कारण पाए जाते हैं। व्यक्ति अपने पूर्वजों के अनुसार ही खाता-पीता तथा जीवन-यापन करता है। अपने समूह के अनुरूप ही वह अपने को ढालता है तथा मान्यताओं का निर्माण करता है।
  2. सांस्कृतिक पर्यावरण-सांस्कृतिक पर्यावरण में व्यक्ति पलता है और उसी में उसका पोषण होता है। सांस्कृतिक पर्यावरण प्रत्येक स्थान पर अलग-अलग प्रभाव डालता है। इस कारण ही भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में रहने वाले व्यक्तियों के व्यवहारों में भिन्नता पायी जाती है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी भिन्नता के अनुसार ही समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा व्यवहार करना सीखता है। तथा उसके आदर्शों के अनुसार अपने जीवन को ढालता है।
  3. नवीनतम अनुभव–प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कुछ-न-कुछ नवीन अनुभवों को अवश्य प्राप्त करता रहता है। ये अनुभव ही उसे सीखने में सहायता देते हैं। चाहे और अनचाहे अनुभव मनुष्य का समाजीकरण करने में अपना योग देते हैं।

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प्रश्न 11.
आनुवंशिकता अथवा वंशानुक्रमण किस प्रकार से मानव जीवन को प्रभावित करते हैं?
उत्तर
व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण एवं विकास को प्रभावित करने वाले एक मुख्य कारक को आनुवंशिकता अथवा वंशानुक्रमण कहा जाता है। हिंदी के ‘वंशानुक्रमण’ शब्द के अंग्रेजी पर्यायवाची ‘हेरेडिटी’ (Heredity) है। यह शब्द वास्तव में लैटिन शब्द ‘हेरिडिटास’ (Heriditas) से व्युत्पन्न हुआ है। लैटिन भाषा में इस शब्द का आशय उस पूँजी से होता है, जो बच्चों को माता-पिता से उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त होती है। प्रस्तुत संदर्भ में वंशानुक्रमण का आशय व्यक्तियों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित होने वाले शारीरिक, बौद्धिक तथा अन्य व्यक्तित्व संबंधी गुणों से है। इस मान्यता के अनुसार बच्चों या संतान के विभिन्न गुण एवं लक्षण अपने माता-पिता के समान होते हैं।
उदाहरणार्थ-गोरे माता-पिता की संतान गोरी होती है। लंबे कद के माता-पिता की संतान भी. लंबी होती है। इसी तथ्य के अनुसार प्रजातिगत विशेषताएँ सदैव बनी रहती हैं। घंशानुक्रमण के ही कारण मनुष्य की प्रत्येक संतान मनुष्य ही होती है। कभी भी कोई बिल्ली कुत्ते को जन्म नहीं देती। ऐसा माना जाता है कि लिंग-भेद, शारीरिक लक्षणों, बौद्धिक प्रतिभा, स्वभाव पर वंशानुक्रमण का गंभीर प्रभाव पड़ता हैं। वंशानुक्रमण एक प्रबल एवं महत्त्वपूर्ण कारक हैं, परंतु इसे एकमात्र कारक मानना अंसंगत है। इसके अतिरिक्त पर्यावरण भी एक महत्त्वपूर्ण कारक है, जिसकी अवहेलना नहीं करनी चाहिए।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
सभ्यता को परिभाषित कीजिए तथा इसकी प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
या
सभ्यता की संकल्पना को स्पष्ट कीजिए। यह संस्कृति से किस प्रकार अलग है? समझाइए।
उत्तर
प्रायः संस्कृति और सभ्यता के अर्थों में भ्रम पैदा हो जाती है। अधिकतर लोगों द्वारा इनको एक-दूसरे के पर्यायवाची के रूप में प्रयोग किया जाता है, परंतु यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो दोनों में स्पष्ट अंतर दिखाई देता है। गंग्वृति के दो पक्ष होते हैं—अभौतिक एवं भौतिक। संज्ञानात्मक एवं आदर्शात्मक पक्ष को संस्कृति कहते हैं, जबकि भौतिक पक्ष को अधिकतर सभ्यता के नाम से जाना जाता है।

सभ्यता का अर्थ तथा परिभाषाएँ

संस्कृति के भौतिक पक्ष को सभ्यता कहा जाता है। सभ्यता में औजारों, तकनीकों, यंत्रों, भवनों तथा यातायात के साधनों के साथ-साथ उत्पादन तथा संप्रेक्षण के उपकरणों को सम्मिलित किया जाता है। मानव ने अपनी सुख-सुविधा के लिए जिन वस्तुओं का उत्पादन किया है उन्हें हम सभ्यता कहते हैं। सभ्यता को उत्पादन बढ़ाने तथा जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने के लिए महत्त्वपूर्ण माना जाता है। प्रमुख विद्वानों ने सभ्यता को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है-

  1. मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार-सभ्यता से हमारा अर्थ उस संपूर्ण प्रविधि तथा संगठन से है जिसे कि मनुष्य ने अपने जीवन की दशाओं को नियंत्रित करने के उद्देश्य से बनाया हैं।”
  2. ग्रीन (Green) के अनुसार-“एक संस्कृति तभी सभ्यता बनती है जब उसके पास एक लिखित भाषा, विज्ञान, दर्शन, अत्यधिक विशेषीकरण वाला श्रम-विभाजन, एक जटिल प्रविधि तथा राजनीतिक पद्धति हो।”
  3. ऑगबर्न एवं निमकॉफ (Ogburn and Nimkoff) के अनुसार-“अधिजैविक संस्कृति के बाद की अवस्था के रूप में सभ्यता की परिभाषा दी जा सकती है।”
  4. क्लाइव बेल (Cliye Bell) के अनुसार-“वह (सभ्यता) मूल्यों के ज्ञान के आधार पर स्वीकृत किया गया तर्क और तर्क के आधार पर कठोर और भेदनशील बनाया गया मूल्यों का ज्ञान है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि सभ्यता का संबंध उस कला विन्यास से है जिसे मनुष्य ने अपने जीवन की दशाओं को नियंत्रित करने हेतु रचा है। यह संस्कृति का अधिक जटिल व विकसित रूप है जिसमें मानव निर्मित भौतिक वस्तुएँ सम्मिलित होती हैं।

सभ्यता की प्रमुख विशेषताएँ

सभ्यता की प्रमुख परिभाषाओं से इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं-

  1. सभ्यता संस्कृति के विकास का उच्च व जटिल स्तर है।
  2. सभ्यता में परिवर्तनशीलता का गुण पाया जाता है।
  3. सभ्यता भौतिक संस्कृति है, क्योंकि इसमें मानव निर्मित भौतिक वस्तुएँ ही सम्मिलित की जाती हैं।
  4. भौतिक वस्तुओं से संबंधित होने के कारण सभ्यता की प्रकृति मूर्त होती है।
  5. सभ्यता में उपयोगिता का गुण पाया जाता है अर्थात् यह मनुष्यों के लिए किसी-न-किसी प्रकार से उपयोगी होती है।
  6. सभ्यता में प्रगतिशीलता का गुण पाया जाता है।
  7. सभ्यता मानव आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन है। इनसे मानव आनंद व संतुष्टि प्राप्त करता है।
  8. सभ्यता में एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रसारित होने की क्षमता पाई जाती है। इसलिए जो कोई वस्तु किसी एक देश में बनती व विकसित होती है उसका अन्य देशों में शीघ्र ही प्रसार हो जाता है।
  9. सभ्यता मानव कार्यों को सरल बनाती है।
  10. सभ्यता सांस्कृतिक क्रियाओं को शक्ति प्रदान करती है तथा संस्कृति के विकास के उत्थान में सहायता देती है।

सभ्यता एवं संस्कृति में अंतर

सभ्यता और संस्कृति में पाए जाने वाले प्रमुख अंतर निम्न प्रकार हैं-

  1. गिलिन एवं गिलिन के मत में, “सभ्यता, संस्कृति को अधिक जटिल तथा विकसित रूप है।”
  2. ए० डब्ल्यू० ग्रीन सभ्यता और संस्कृति के अंतर को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि “एक संस्कृति तभी सभ्यता बनती है जब उसके पास लिखित भाषा, विज्ञान, दर्शन, अत्यधिक विशेषीकरण वाला श्रम-विभाजन, एक जटिल प्रविधि और राजनीतिक पद्धति हो।”
  3. संस्कृति का संबंध आत्मा से है और सभ्यता का संबंध शरीर से है।
  4. सभ्यता को सरलता से समझा जा सकता है, लेकिन संस्कृति को हृदयंगम करना कठिन है।
  5. सभ्यता को कुशलता के आधार पर मापना चाहें तो मापा जा सकता है, परंतु संस्कृति को नहीं।
  6. सभ्यता में फल प्राप्त करने का उद्देश्य होता है, परंतु संस्कृति में क्रिया ही साध्य है।
  7. मैकाइवर एवं पेज के अनुसार-संस्कृति केवल समान प्रवृत्ति वालों में ही संचारित रहती है। कलाकार की योग्यता के बिना कोई भी कला के गुण की परख नहीं कर सकता, न ही संगीतकार के गुण के बिना ही कोई संगीत का मजा ले सकता। सभ्यता सामान्य तौर पर ऐसी माँग नहीं करती। हम उसको उत्पन्न करने वाली सामर्थ्य में हिस्सा लिए बिना ही उसके उत्पादकों का आनंद ले सकते हैं।”
  8. सभ्यता का संपूर्ण हस्तांतरण हो सकता है, परंतु संस्कृति का हस्तांतरण पूर्ण रूप से कभी नहीं ” हो सकता।
  9. सभ्यता का रूप बाह्य होता है, जबकि संस्कृति का आंतरिक।
  10. सभ्यता बिना प्रयास के प्रसारित होती है, जबकि संस्कृति ज्यों-की-त्यों प्रसारित नहीं होती।
  11. सभ्यता सदा प्रगति करती है, जबकि संस्कृति सदैव प्रगति नहीं करती।।

निष्कर्ष–उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृति एवं सभ्यता दो भिन्न संकल्पनाएँ हैं, यद्यपि दोनों में परस्पर घनिष्ठ संबंध पाया जाता है। सभ्यता संस्कृति का भौतिक पक्ष है। इसलिए ठीक ही कहा जाता है कि “हमारे पास जो कुछ है वह सभ्यता है, हम जो कुछ हैं वह संस्कृति है।”

प्रश्न 2.
संस्कृति को परिभाषित कीजिए तथा इसकी प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
या
संस्कृति का अर्थ समझाते हुये, संस्कृति की संकल्पना को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
संस्कृति समाजशास्त्र की प्रमुख संकल्पना है। समाजशास्त्र में संस्कृति को सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों तथा सामाजिक विरासत के आधार पर समझाने का प्रयास किया जाता है। प्रत्येक समाज की अपनी भिन्न संस्कृति होती है। संस्कृति में समाजशास्त्रियों की रुचि इसलिए है क्योंकि संस्कृति तथा सांस्कृतिक परिवर्तन समाज और सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करते हैं। इसलिए, संस्कृति की संकल्पना इसके आयामों तथा भेदों का अध्ययन समाजशास्त्र की विषय-वस्तु में सम्मिलित किया जाता है। वैसे संस्कृति का अध्ययन मानवशास्त्र में किया जाता है। संस्कृति का समाजशास्त्र में अध्ययन करने का एक अन्य कारण इसका व्यक्तित्व पर पड़ने वाला गहरा प्रभाव है।

संस्कृति का अर्थ तथा परिभाषाएँ

मनुष्य प्राकृतिक वातावरण में अनेक सुविधाओं का उपभोग करता है तो दूसरी ओर उसे अनेक असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। परंतु मनुष्य ने आदिकाल से प्राकृतिक बाधाओं को दूर करने के लिए वे अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक समाधानों की खोज की है। इन खोजे गए उपायों को मनुष्य ने आगे आने वाली पीढ़ी को भी हस्तांतरित किया। प्रत्येक पीढ़ी ने अपने पूर्वजों से प्राप्त ज्ञान और कला को और अधिक विकास किया है। अन्य शब्दों में, प्रत्येक पीढ़ी ने अपने पूर्वजों के ज्ञान को संचित किया है और इस ज्ञान के आधार पर नवीन ज्ञान और अनुभव का भी ज्ञान अर्जन किया है। इस प्रकार के ज्ञान व अनुभव के अंतर्गत यंत्र, प्रविधियाँ, प्रथाएँ, विचार और मूल्य आदि आते हैं। ये मूर्त और अमूर्त वस्तुएँ संयुक्त रूप से ‘संस्कृति’ कहलाती हैं। इस प्रकार, वर्तमान पीढ़ी ने अपने पूर्वजों तथा स्वयं के प्रयासों से जो अनुभव व व्यवहार सीखा है वही संस्कृति है। प्रमुख विद्वानों ने संस्कृति को निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया है-

  1. हॉबल (Hoebel) के अनुसार-संस्कृति संबंधित सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों का संपूर्ण योग है जो कि एक समाज के सदस्यों की विशेषताओं को बतलाता है और जो इसलिए प्राणिशास्त्रीय विरासत का परिणाम नहीं होता।”
  2. बीरस्टीड (Bierstedt) के अनुसार-“संस्कृति वह संपूर्ण जटिलता है जिसमें वे सभी वस्तुएँ सम्मिलित हैं जिन पर हम विचार करते हैं, कार्य करते हैं और समाज का सदस्य होने के नाते अपने पास रखते हैं।”
  3. मैकाइवर एवं पेंज (Maclver and Page) के शब्दों में—“संस्कृति हमारे दैनिक व्यवहार में कला, साहित्य, धर्म, मनोरंजन और आनन्द में पाए जाने वाले रहन-सहन और विचार के ढंगों में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है।”
  4. पिडिंगटन (Piddington) के अनुसार-संस्कृति उन भौतिक एवं बौद्धिक साधनों या उपकरणों का संपूर्ण योग है जिनके द्वारा मानव अपनी जैविक एवं सामाजिक आवश्यकताओं की संतुष्टि तथा अपने पर्यावरण से अनुकूलन करता है।”
  5. मजूमदार (Mazumdar) के अनुसार-“संस्कृति मानव-उपलब्धियों, भौतिक तथा अभौतिक, * का संपूर्ण योग है जो समाजशास्त्रीय रूप से, अर्थात् परंपरा एवं संचरण द्वारा, क्षितिजीय एवं लंबे रूप में हस्तांतरणीय है।”
  6. कोनिग (Koenig) के अनुसार-“संस्कृति मनुष्य द्वारा स्वयं को अपने पर्यावरण के साथ अनुकूलित करने एवं अपने जीवन के ढंगों को उन्नत करने के प्रयत्नों का संपूर्ण योग है।”
  7.  रैडफील्ड (Redfield) के अनुसार-संस्कृति ऐसे परंपरागत विश्वासों के संगठित समूह को कहते हैं जो कला एवं कलाकृतियों में प्रतिबिंबित होते हैं तथा जो परंपरा द्वारा चलते रहते हैं। और किसी मानव समूह की विशेषता को चित्रित करते हैं।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृति में दैनिक जीवन में पाई जाने वाली समस्त वस्तुएँ आ जाती हैं। मनुष्य भौतिक, मानसिक तथा प्राणिशास्त्रीय रूप में जो कुछ पर्यावरण से सीखता है उसी को संस्कृति कहा जाता है। यह सीखने की प्रक्रिया (समाजीकरण) द्वारा पूर्व पीढ़ियों से प्राप्त सामाजिक विरासत है जो शुक्राणुओं द्वारा स्वचालित रूप से हस्तांतरित जैविक विरासत से पूर्णतः भिन्न है। वस्तुतः संस्कृति पर्यावरण का मानव-निर्मित भाग है। यह उन तरीकों को कुल योग है जिनके द्वारा मनुष्य अपना जीवन व्यतीत करता है।

संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ

संस्कृति की संकल्पना को इसकी निम्नलिखित विशेषताओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

1. परिवर्तनशीलता-संस्कृति सदा परिवर्तनशील है। इसमें परिवर्तन होते रहते हैं, चाहे वे परिवर्तन धीरे-धीरे हों या आकस्मिक रूप में। वास्तव में, संस्कृति मनुष्य की विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति की विधियों का नाम हैं। चूंकि समाज में परिस्थितियाँ सदा एक-सी नहीं रहती हैं इसलिए आवश्यकताओं की पूर्ति की विधियों में भी परिवर्तन करना पड़ता है। पहले तलवार से युद्ध किया जाता था, परंतु अब बंदूकों, तोपों, बमों द्वारा यह काम किया जाता हैं। पहले लोग बैलगाड़ियों से और पैदल यात्रा करते थे, अब वे हवाई जहाजे और मोटरों से यात्रा करते हैं। जब इस प्रकार की पद्धतियाँ समाज द्वारा स्वीकृत हो जाती हैं और आने वाली पीढ़ियों में हस्तांतरित कर दी जाती हैं तो संस्कृति में परिवर्तन हो जाता है। यह तो स्पष्ट ही है। कि प्रत्येक समाज के रहन-सहन में कुछ-न-कुछ परिवर्तन होता ही रहता है; अत: यह कहना ठीक ही है कि संस्कृति सदा परिवर्तनशील है।

2. आदर्शात्मक-संस्कृति में सामाजिक विचार, व्यवहार-प्रतिमान आदि आदर्श रूप में होते हैं। इनके अनुसार कार्य करना सुसंस्कृत होने का प्रतीक माना जाता है। सभी मनुष्य संस्कृति के आदर्श प्रतिमानों के अनुसार अपने जीवन को बनाने का प्रयास करते हैं। इसीलिए संस्कृति की प्रकृति आदर्शात्मक होती है।

3. सामाजिकता का गुण-संस्कृति का जन्म समाज में तथा समाज के सदस्यों द्वारा होता है। इसीलिए यह कहा जाता है कि मानव स्वयं अपनी संस्कृति का निर्माता होता है। मानव समाज के बाहर संस्कृति की रक्षा नहीं की जा सकती। पशु समाज संस्कृति-विहीन समाज है क्योंकि इसमें किसी प्रकार की संस्कृति नहीं होती है।

4. सीखा हुआ आचरण-व्यक्ति समाजीकरण की प्रक्रिया में कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है। ये सीखे हुए अनुभव, विचार-प्रतिमान आदि ही संस्कृति के तत्त्व होते हैं। इसलिए संस्कृति को सीखा हुआ व्यवहार कहा जाता है। बाल कटवाना, लाइन में खड़ा होना, अच्छे कपड़े पहनना, अभिवादन करना, नाचना-गाना आदि सीखे हुए व्यवहार के उदाहरण हैं। इस संबंध में ध्यान रखने की एक बात यह है कि मनुष्य समाज में रहकर अज्ञात रूप से भी अनेक बातें सीखता है। जिनको सीखने को वह स्वयं प्रयत्न नहीं करता। परिवार में रहकर व्यक्ति अनेक बातें अपना माता-पिता तथा अन्य व्यक्तियों से धीरे-धीरे सीखती है तथा अनेक बातें ऐसी होती हैं जिनकी उसको समुचित रूप से शिक्षा दी जाती है। मनुष्य जो कुछ भी ज्ञात-अज्ञात से समाज से सीखता। है वह सब संस्कृति में सम्मिलित होता है।

5. संगठित प्रतिमान-संस्कृति में सीखे हुए आचरण संगठित प्रतिमानों के रूप में होते हैं। संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति के आचरणों की इकाइयों में एक व्यवस्था और सबंध होता है। किसी भी मनुष्य का आचरण उसके पृथक्-पृथक् आचरणों की सूची नहीं होता। उदाहरण के लिए-बच्चा परिवार में जन्म लेता है। परिवार में उसे प्रारंभ से ही उसकी संस्कृति का ज्ञान कराया जाता है। बच्चे का बोलना, चलना-फिरना, व्यवहार करना आदि ऐसे प्राथमिक आचरण हैं जो आजीवन चलते रहते हैं। हमारे मस्तिष्क में इन सब वर्गों के व्यवहारों की जो एक संगठित रूपरेखा या स्वरूप है उसी को हम प्रतिमान कहते हैं। संस्कृति के अंतर्गत सीखे हुए व्यवहारों के इसी प्रकार के संगठित प्रतिमान सम्मिलित होते हैं।

6. पार्थिव या अपार्थिव दोनों तत्वों का विद्यमान रहना–संस्कृति के अंतर्गत दो प्रकार के तत्त्व आते हैं-एक, पार्थिव और दूसरे, अपार्थिव। ये दोनों ही तत्त्व संस्कृति का निर्माण करते हैं। अपार्थिव स्वरूप को हम आचरण या क्रिया कह सकते हैं अर्थात् जिन्हें छुआ या देखा न जा सके या जिनका कोई स्वरूप नहीं; जैसे-बोलना, गाना, अभिवादन करना आदि। जिन् पार्थिव या साकार वस्तुओं का मनुष्य सृजन करता है वे पार्थिव तत्त्वों के अंतर्गत आती हैं; जैसे—रेडियो, मोटर, टेलीविजन, सिनेमा आदि।

7. भिन्नता–प्रत्येक समाज की संस्कृति भिन्न होती हैं अर्थात् प्रत्येक समाज की अपनी पृथक् प्रथाएँ, परंपराएँ, धर्म, विश्वास, कला का ज्ञान आदि होते हैं। संस्कृति में भिन्नता के कारण ही विभिन्न समाजों में रहने वाले लोगों का रहन-सहन, खान-पान, मूल्य, विश्वास एवं रीति-रिवाज भिन्न-भिन्न होते हैं।

8. हस्तातंरण की विशेषता-संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित हो जाती है। संस्कृति का अस्तित्व हस्तांतरण के कारण स्थायी बना रहता है। हस्तांतरण की यह प्रक्रिया निरंतर होती रहती है। संस्कृति का हस्तांतरण माता-पिता, वयोवृद्धों, अध्यापकों आदि के द्वारा होता है। यहाँ हस्तांतरण का आशय केल यही है कि एक पीढ़ी अपने आचरणों को दूसरी पीढ़ी को सिखा देती है अर्थात् ये एक पीढ़ी से दूसरी में स्वतः हस्तांतरित होते रहते हैं। यह हस्तांतरण या सीखना अज्ञात या आकस्मिक रूप में भी हुआ करता है। इस प्रकार, संस्कृति की यह एक और विशेषता है कि वह युगों से हस्तांतरित होती आती है।

प्रश्न 3.
सामाजिक आदर्श की परिभाषा दीजिए तथा सामाजिक आदर्शों के प्रमुख प्रकार एवं विशेषताएँ बताइए।
या
सामाजिक आदर्श से आप क्या समझते हैं? सामाजिक आदर्शों का महत्त्व बताइए।
उत्तर
किसी समाज में व्यवहार करने के जो नियम हैं उन्हें सामाजिक आदर्श कहा जाता है। इन्हीं आदर्शो से हमें उचित-अनुचित का पता चलता है और इन्हीं से समाज की आचरण संबंधी प्रत्याक्षाएँ विकसित होती हैं। सामाजिक आदर्शों से ही हमें पता चलता है किससे, किन परिस्थितियों में, किसके द्वारा, क्या कार्य करने या न करने की आशा की जाती है तथा इनको पालन न करने पर क्या दंड दिया जाता है।

सामाजिक आदर्शों का अर्थ एवं परिभाषाएँ

सामाजिक आदर्श व्यवहार के वे नियम हैं जो समाज द्वारा स्वीकृति के कारण संस्थागत हो जाते हैं तथा स्वीकृत व्यवहार के नियम आदर्श कहलाते हैं। इन्हें निम्न प्रकार से परिभाषित किया जा सकता हैं-

  1. रॉबर्ट बीरस्टीड (Robert Bierstedt) के अनुसार-“एक आदर्श, संक्षेप में प्रक्रिया को मानकी प्रतिरूप है। अपने समाज के लिए स्वीकार करने योग्य कुछ करने का तरीका है।”
  2. किंग्स्ले डेविस (Kingsley Davis) के अनुसार–“आदर्श नियंत्रण हैं। ये वे तत्त्व हैं जिनके द्वारा मानव समाज अपने सदस्यों के व्यवहारों का नियमन इस प्रकार करता है कि वे सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए अपनी क्रियाओं का संपादन करते रहें और कभी-कभी सावयवी आवश्यकताओं के मूल्य पर भी।”
  3. ग्रीन (Green) के अनुसार-“सामाजिक आदर्श मानकीकृत सामान्यीकरण है जिनके परिणामस्वरूप सदस्यों से एक निश्चित व्ययवहार करने की आशा की जाती है।”
  4. शेरिफ एवं शेरिफ (Sheriff and Sheriff) के अनुसार-“जीवन और उसके उन्नयन के विविध कार्यों में संलग्न व्यक्तियों की अंतक्रिया के बीच समूह की संरचना का जन्म होता है, व्यक्ति विभिन्न कार्य करते हैं और प्रत्येक की एक सापेक्ष परिस्थिति हो जाती है। कार्य संचालन का क्रम और उनके नियमों का स्वरूप स्थिर हो जाता है। इस प्रकार नियम, व्यवहार के तरीके तथा अनुकरणीय जीवन मूल्य आदि सामूहिक अंतःक्रिया के ही सह-उत्पादन हैं, नियमों, मानकों और मूल्यों के इस विशिष्ट गठन को समूह के सामाजिक आदर्शों के रूप में जाना जाता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक आदर्श समाज के वे नियम हैं जो सदस्यों के व्यवहार को नियंत्रित करते हैं तथा समाज द्वारा अनुमोदित होते हैं।

सामाजिक आदर्शों की विशेषताएँ

सामाजिक आदर्श की संकल्पना को इसकी निम्नलिखित विशेषताओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. संस्कृति के प्रतिनिधि–सामाजिक आदर्शों को संबंधित संस्कृति अथवा समूह का प्रतिनिधि माना जाता है। इन आदर्शों की प्रकृति से हम उस समाज या समूह की प्रकृति के बारे में अनुमान लगा सकते हैं।
  2. सामाजिक अनुमोदन–सामाजिक आदर्शों की दूसरी विशेषता समाज अथवा संबंधित समूह द्वारा इनको प्राप्त स्वीकृति है। सामूहिक स्वीकृति के कारण ही इनमें स्थायित्व का गुण पाया जाता है। अतः आदर्श में वे व्यवहार नियम नहीं आते जिनको सामूहिक अनुमोदन प्राप्त नहीं है।
  3. स्थायी प्रकृति-सामाजिक आदर्शों की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि इनमें स्थायित्व पाया जाता है, क्योंकि इनका विकास शनैःशनैः होता है और ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होते रहते हैं। इसलिए इनमें परिवर्तन लाना कठिन है। इस स्थायी प्रकृति के कारण ही आदर्श समूह के सदस्यों का अंग बन जाते हैं।
  4. लिखित व अलिखित स्वरूप-सामाजिक आदर्शों का स्वरूप लिखित एवं अलिखित दोनों प्रकार का हो सकता है। अधिकांशतः आदर्श दोनों ही रूपों में समाज में विद्यमान होते हैं तथा व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित करते हैं।
  5. कर्तव्य की भावना–सामाजिक आदर्शों का पालन इसलिए किया जाता है क्योंकि इनके साथ । कर्त्तव्य की भावना जुड़ी होती है। सामान्यतः इनका पालन करना सदस्य अपना गौरव समझते
  6. रूढ़िवादी प्रकृति-यद्यपि सामाजिक आदर्श हमारे व्यवहार के प्रमुख आधार हैं फिर भी इनकी । प्रकृति रूढ़िवादी होती है। इस रूढ़िवादी प्रकृति के कारण ही इनमें परिवर्तन सरलता से नहीं किया जा सकता है।
  7. दोहरी प्रकृति-सामाजिक आदर्शों की प्रकृति दोहरी होती है। ये एक ओर व्यक्तियों को प्रभावित करते हैं और उन पर नियंत्रण रखते हैं तो दूसरी ओर स्वयं व्यक्तियों से प्रभावित होते रहते हैं।
  8.  कल्याणकारी प्रकृति–सामाजिक आदर्श सामूहिक होते हैं तथा इनकी प्रकृति कल्याणकारी होती है। इसी प्रकृति के कारण इनमें स्थायित्व होता है और सदस्य इन्हें अपने व्यक्तित्व का अंग बना लेते हैं।

सामाजिक आदर्शों के प्रकार

सामाजिक आदर्श सामाजिक परिस्थितियों की देन हैं, समाज द्वारा अनुमोदित होते हैं तथा व्यक्तियों के व्यवहार को नियंत्रित करते हैं। आदर्श अनेक प्रकार के होते हैं। रॉबर्ट बीरस्टीड (Robert Bierstedt) ने सामाजिक आदर्शों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया है–

  1. जनरीतियाँ (Folkways),
  2. रूढ़ियाँ (Mores) तथा
  3. कानून (Law)

किंग्स्ले डेविस (Kingsley Davis) ने सामाजिक आदर्शों के अग्रलिखित प्रकारों का उल्लेख किया है–

  1. रूढ़ियाँ (Mores),
  2. प्रथागत कानून (Customary law),
  3. जनरीतियाँ (Folkways),
  4. फैशन तथा सनक (Fashion and fad),
  5. संस्थाएँ (Institutions),
  6. परिपाटी एवं शिष्टाचार (Convention and etiquette) तथा
  7. प्रथा, नैतिकता तथा धर्म (Custom, morality and religion)।

आदर्शों को सकारात्मक एवं नकारात्मक में भी विभाजित किया गया है। प्रथम प्रकार के आदर्श व्यक्तियों के अनुपालन हेतु निर्देश देते हैं, जबकि दूसरे प्रकार के आदर्श किसी व्यवहार का न करने पर बल देते हैं।

सामाजिक आदर्शों का महत्त्व

सामाजिक आदर्श समाज द्वारा अनुमोदित व्यवहार के वे नियम होते हैं जिनका पालन करना व्यक्ति अपना कर्तव्य मानते हैं; अत: समाज में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। इनके महत्त्व को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. सामाजिक आदर्श समाज के सदस्यों के व्यवहार में अनुरूपता लाने में सहायक है।
  2. सामाजिक आदर्श समाज के सदस्यों को उचित तथा अनुचित का ज्ञान कराते हैं और इस प्रकार उनका मार्गदर्शन करते हैं।
  3. सामाजिक आदर्श समाज को संगठित करने तथा इस प्रकार समाज की व्यवस्था को बनाए रखने ‘ व एकता लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  4. सामाजिक आदर्श नागरिक नियंत्रण के प्रमुख साधन हैं तथा वे केवल व्यक्तियों के व्यवहार को ही नियंत्रित नहीं करते अपितु समूहों के व्यवहार को भी नियंत्रित करते हैं।
  5. सामाजिक आदर्श सामाजिक विरात के रूप में संस्कृति की रक्षा करते हैं तथा इसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित करते हैं।
  6. सामाजिक आदर्श व्यक्तित्व के विकास की प्रक्रिया में सहायक होते हैं।
  7. सामाजिक आदर्श सामाजिक प्रतिष्ठा का निर्धारण करते हैं तथा साथ ही इसकी रक्षा करते हैं।

UP Board Solutions for Class 11 Sociology Introducing Sociology Chapter 4 Culture and Socialisation

प्रश्न 4.
सामाजिक मूल्य क्या हैं? सामाजिक मूल्यों के प्रकार तथा महत्त्व की विवेचना कीजिए।
या
सामाजिक मूल्यों की संकल्पना स्पष्ट कीजिए तथा सामाजिक मूल्यों की विशेषताएँ बताइएं।
उत्तर
सामाजिक मूल्य समाज के प्रमुख तत्त्व हैं तथा इन्हीं मूल्यों के आधार पर हम किसी समाज की प्रगति, उन्नति, अवनति अथवा परिवर्तन की दिशा निर्धारित करते हैं। इन्हीं मूल्यों द्वारा व्यक्तियों की क्रियाएँ निर्धारित की जाती हैं तथा इससे समाज का प्रत्येक पक्ष प्रभावित होता है। सामाजिक मूल्यों के बिना न तो समाज की प्रगति की कल्पना की जा सकती है और न ही भविष्य में प्रगतिशील क्रियाओं का निर्धारण ही संभव है। मूल्यों के आधार पर ही हमें यह पता चलता है कि समाज में किस चीज को अच्छा अथवा बुरा समझा जाता है। अतः सामाजिक मूल्य मूल्यांकन का भी प्रमुख आधार हैं। विभिन्न समाजों की आवश्यकताएँ तथा आदर्श भिन्न-भिन्न होते हैं; अतः सामाजिक मूल्यों के मापदंड भी भिन्न-भिन्न होते हैं।
किसी भी समाज में सामाजिक मूल्य उन उद्देश्यों, सिद्धांतों अथवा विचारों को कहते हैं जिनको समाज के अधिकांश सदस्य अपने अस्तित्व के लिए आवश्यक समझते हैं और जिनकी रक्षा के लिए बड़े-से-बड़ा बलिदान करने को तत्पर रहते हैं। मातृभूमि, राष्ट्रगान, धर्म निरपेक्षता, प्रजातंत्र इत्यादि हमारे सामाजिक मूल्यों को ही व्यक्त करते हैं।

सामाजिक मूल्यों का अर्थ तथा परिभाषाएँ

सामाजिक मूल्य प्रत्येक समाज के वातावरण और परिस्थितियों के वैभिन्न्य के कारण अलग-अलग होते हैं। ये मानव मस्तिष्क को विशिष्ट दृष्टिकोण प्रदान करते हैं, जो सामाजिक मूल्यों के निर्माता होते हैं। प्रत्येक समाज की सांस्कृतिक विशेषताएँ अपने समाज के सदस्यों में विशिष्ट मनोवृत्तियों उत्पन्न कर देती हैं जिनके आधार पर भिन्न-भिन्न विषयों और परिस्थितियों का मूल्यांकन किया जाता है। यह संभव है कि जो ‘आदर्श’ और ‘मूल्य एक समाज के लिए मान्य हैं, वे ही दूसरे समाज में अक्षम्य अपराध माने जाते हों। उदाहरणार्थ-भारत के सभ्य समाजों में विवाहेतर यौन संबंध मूल्यों की दृष्टि से घातक हैं किंतु जनजातियों के ये सर्वोच्च लाभदायी मूल्य हैं। अतः मूल्यों का निर्धारण समाज की विशेषता पर आधारित है। प्रमुख विद्वानों ने सामाजिक मूल्यों की परिभाषाएँ निम्न प्रकार से दी हैं–

  1. राधाकमल मुखर्जी (R.K. Mukherjee) के अनुसार-“मूल्य समाज द्वारा मान्यता प्राप्त वे। इच्छाएँ तथा लक्ष्य हैं जिनका आंतरीकरण समाजीकरण की प्रक्रिया क माध्यम से होता है और जो व्यक्पितरक अधिमान्यताएँ, मानदंड (मानक) तथा अभिलाषाएँ बन जाती हैं।”
  2. रॉबर्ट बीरस्टीड (Robert Bierstedt) के अनुसार-“जब किसी समाज के स्त्री-पुरुष अपने ही तरह के लोगों के साथ मिलते हैं, काम करते हैं या बात करते हैं, तब मूल्य ही उनके क्रमबद्ध सामाजिक संसर्ग को संभव बनाते हैं।”
  3. एच० एम० जॉनसन (H.M. Johnson) के अनुसार-“मूल्य को एक धारणा या मानक के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। यह सांस्कृतिक हो सकता है या केवल व्यक्तिगत और इसके द्वारा चीजों की एक-दूसरे के साथ तुलना की जाती है, इसे स्वीकृत या अस्वीकृति प्राप्त । होती है, एक-दूसरे की तुलना में उचित अनुचित, अच्छा या बुरा, ठीक अथवा गलत माना जाता है।”
  4. वुड्स (Woods) के अनुसार-“मूल्य दैनिक जीवन के व्यवहार को नियंत्रित करने के सामान्य सिद्धांत हैं। मूल्य न केवल मानव व्यवहार को दिशा प्रदान करते हैं अपितु वे अपने आप में आदर्श एवं उद्देश्य भी हैं। जहाँ मूल्य होते हैं वहाँ न केवल यह देखा जाता है कि क्या चीज होनी चाहिए बल्कि यह भी देखा जाता है कि वह सही है या गलत है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह स्पष्ट हो होता है कि मूल्य का एक सामाजिक आधार होता है। और वे समाज द्वारा मान्यता प्राप्त लक्ष्यों की अभिव्यक्ति करते हैं। मूल्य हमारे व्यवहार का सामान्य तरीका है। मूल्यों द्वारा ही हम अच्छे या बुरे, सही या गलत में अंतर करना सीखते हैं।

मूल्यों का समाजशास्त्रीय महत्त्व

सामाजिक मूल्य समाज के सदस्यों की आंतरिक तथा मनोवैज्ञानिक भावनाओं पर आधारित होते हैं। इसीलिए समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से मूल्यों का अत्यधिक महत्त्व होता है। इनके आधार पर ही सामाजिक घटनाओं एवं समस्याओं का मूल्यांकन किया जाता है। मूल्य व्यक्तिगत, सामाजिक और अंतर्राष्ट्रीय जीवन को भी अपने अनुरूप बनाने का प्रयास करते हैं।

सामाजिक मूल्य सामाजिक एकरूपता के जनक हैं, क्योंकि मूल्य व्यवहार के प्रतिमान अथवा मानकों को प्रस्तुत करते हुए समाज के सदस्यों से अपेक्षा करते हैं कि वे अपने आचरण द्वारा मूल्यों का स्तर बनाए रखेंगे। इस तरह सामाजिक प्रतिमानों के रूप में मूल्यों का निर्धारण होता है।

सामाजिक मूल्यों से ही विभिन्न प्रकार की मनोवृत्तियों का निर्धारण होता है तथा व्यक्ति को उचित एवं अनुचित का ज्ञान होता है। शिल्स तथा पारसन्स (Shils and Parsons) के अनुसार, सामाजिक मूल्य सामाजिक व्यवहार के कठोर नियंत्रक हैं। इनके अनुसार, सामाजिक मूल्यों के बिना सामाजिक जीवन असंभव है, सामाजिक व्यवस्था सामूहिक लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सकती तथा व्यक्ति अन्य व्यक्तियों को अपनी आवश्यकताओं एवं जरूरतों को भावात्मक रूप से नहीं बता पाएँगे। संक्षेप में सामाजिक मूल्यों का निम्नलिखित महत्त्व हैं-

  1. मानव समाज में व्यक्ति इन मूल्यों के आधार पर समाज द्वारा स्वीकृत नियमों का पालो करता | है। वह उनके अनुकूल अपने व्यवहार को ढालकर अपना जीवन व्यतीत करता है।
  2. सामाजिक मूल्यों के आधार पर सामाजिक तथ्यों और घटनाओं; जैसे-विचार, अनुभव तथा क्रियाओं आदि का ज्ञान प्राप्त होता है। अतः सामाजिक तथ्यों को समझने के लिए सामाजिक मूल्यों का ज्ञान होना आवश्यक है।
  3. समाज के सदस्यों की प्रवृत्तियाँ व मनोवृत्तियाँ सामाजिक मूल्यों के आधार पर निर्धारित की जाती
  4. मनुष्य अपनी अनंत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सतत प्रयत्न करता रहता है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति में उसे सामाजिक मूल्यों से पर्याप्त सहायता प्राप्त होती है।
  5. सामाजिक मूल्य व्यक्तियों को अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं व उद्देश्यों को वास्तविकता प्रदान करने का आधार प्रस्तुत करते हैं।
  6. समाज सामाजिक संबंधों का जाल है। सामाजिक मूल्य संबंधों के इस जाल को संतुलित करने व समाज़ के सदस्यों में सामंजस्य बनाए रखने में सहयोग प्रदान करते हैं।
  7. सामाजिक मूल्य व्यक्ति के समाजीकरण एवं विकास में सहायक होते हैं।
  8. सामाजिक मूल्यों के आधार पर ही सामाजिक क्रियाओं एवं कार्यकलापों का ज्ञान होता है।

सामाजिक मूल्यों की प्रमुख विशेषताएँ

सामाजिक मूल्यों की प्रमुख विशेषताएँ अथवा लक्षण निम्नलिखित हैं-

  1. किसी भी समाज के मूल्य वहाँ की संस्कृति द्वारा निर्धारित होते हैं; अत: मूल्य संस्कृति की उपज हैं तथा वे संस्कृति को बनाए रखने में भी सहायक होते हैं।
  2. सामाजिक मूल्य मानसिक धारणाएँ हैं; अतः जिस प्रकार समाज अमूर्त है उसी प्रकार मूल्य भी अमूर्त होते हैं। अन्य शब्दों में, सामाजिक मूल्यों को न तो देखा जा सकता है और न ही इनको स्पर्श किया जा सकता है, इनका केवल अनुभव किया जा सकता है।
  3. मूल्य व्यवहार करने के विस्तृत तरीके ही नहीं है अपितु समाज द्वारा वांछित तरीकों के प्रति व्यक्त की जाने वाली प्रतिबद्धता भी है।
  4. प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक मूल्यों को अपने ढंग से लेता है और उनका निर्वाचन करता है। एक सन्यासी एवं व्यापारी के लिए ईमानदारी’ (जो कि एक सामाजिक मूल्य है) का अर्थ भिन्न-भिन्न हो सकता है।
  5. सामाजिक मूल्य मानव व्यवहार के प्रेरक अथवा चालक के रूप में कार्य करते हैं।
  6. सामाजिक मूल्य व्यक्ति पर थोपे नहीं जाते अपितु वह समाजीकरण द्वारा स्वयं इनका अंतरीकरण कर लेता है और इस प्रकार वे उसके व्यक्तित्व के ही अंग बन जाते हैं।
  7. सामाजिक मूल्य व्यक्ति के लक्ष्यों, साधनों व तरीकों के चयन के पैमाने हैं। हम सामाजिक मूल्यों के आधार पर ही किसी एक लक्ष्य को अन्य की अपेक्षा अधिक प्राथमिकता देते हैं।
  8. सामाजिक मूल्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होते रहते हैं और इसलिए इनमें परिवर्तन करना कठिन होता है। व्यक्तियों की इनके प्रति प्रतिबद्धता या वचनबद्धता के कारण भी इनमें परिवर्तन करना कठिन होता है।
  9. सामाजिक मूल्यों में संज्ञानात्मक, आदर्शात्मक तथा भौतिक तीनों प्रकार के तत्त्व निहित होते हैं।
  10. किसी भी समाज की प्रगति का मूल्यांकन सामाजिक मूल्यों के आधार पर ही किया जाता है।
  11. सामाजिक मूल्य ही नैतिकता-अनैतिकता अथवा उचित-अनुचित के मापंदड होते हैं।

सामाजिक मूल्यों के प्रकार

सामाजिक मूल्य विभिन्न प्रकार के होते हैं तथा विद्वानों ने इनका वर्गीकरण विविध प्रकार से किया है। प्रमुख विद्वानों द्वारा प्रस्तुत वर्गीकरण इस प्रकार हैं—
(अ) राधाकमल मुखर्जी (Radhakamal Mukherjee) के अनुसार सामाजिक मूल्य प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक संगठन व सामाजिक व्यवस्था से संबंधित होते हैं। इन्होंने चार प्रकार के मूल्यों का उल्लेख किया है-

  1. वे मूल्य जिनका संबंध आदान-प्रदान व सहयोग आदि से होता है। इन मूल्यों के आधार पर आर्थिक जीवन की उन्नति होती है व आर्थिक जीवन संतुलित होता है।
  2. वे मूल्य जिनके आधार पर सामान्य सामाजिक जीवन के प्रतिमानों व आदर्शों का निर्धारण होता है। इन मूल्यों के अंतर्गत एकता व उत्तरदायित्व भी भावना आदि समाहित होती है।
  3. वे मूल्य जो सामाजिक संगठन व व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए समाज में समानता व सामाजिक न्याय का प्रतिपादन करते हैं।
  4. वे मूल्य जो समाज में उच्चता लाने व नैतिकतों को विकसित करने में सहायता प्रदान करते हैं।

(ब) इलियट एवं मैरिल (Elliott and Merrill) ने अमेरिकी समाज के संदर्भ में तीन प्रकार के सामाजिक मूल्यों का उल्लेख किया है-

  1. आर्थिक सफलता
  2. मानवीय स्नेह तथा
  3. देशभक्ति या राष्ट्रीयता की भावना।

(स) सी० एम० केस (C.M. Case) ने सामाजिक मूल्यों को चार भागों में विभाजित किया है–

  1. सामाजिक मूल्य-ये मूल्य सामाजिक जीवन से संबंधित होते हैं। सहयोग, दान, सेवा, निवास, भूमि, समूह इत्यादि के निर्धारित मूल्य इस कोटि में आते हैं।
  2. सांस्कृतिक मूल्य-इन मूल्यों की उत्पत्ति व्यक्ति के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में नियमितता और नियंत्रण के लिए हुई। परंपरा, लोक कला, रीति-रिवाज, धार्मिक क्रियाएँ, गायन, नृत्य सभी सांस्कृतिक मूल्य कहे जाते हैं।
  3. विशिष्ट मूल्य–इनका निर्धारण परिस्थितियों के लिए किया जाता है। अवसर-विशेष के लिए जिन मूल्यों का प्रचलन किया जाता है वे ही विशिष्ट मूल्य कहलाते हैं, जैसे—ब्रिटिश सत्ता को | उखाड़ फेंकने के लिए भारतीय जनता एक साथ कृत संकल्प हुई थी।
  4. जैविक या सावयवी मूल्य–ये मूल्य व्यक्ति की शरीर रक्षा के लिए निर्धारित किए जाते हैं। जैसे-‘शराब मत पियो’ सावयवी मूल्य ही है क्योंकि शराब के परिणाम खराब स्वास्थ्य, विभिन्न बीमारियों तथा मानसिक असमर्थता आदि हैं जिनको प्रभाव व्यक्ति के शरीर के साथ ही भावी संतान पर भी पड़ता है तथा समाज में भी शराब के दुष्परिणाम देखे जा सकते हैं।

प्रश्न 5.
अनुपालन को परिभाषित कीजिए तथा इसकी प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
या
अनुपालन के अर्थ को समझाते हुए अनुपालन की संकल्पना को स्पष्ट कीजिए।
या
अनुपालन किसे कहते हैं? इसके प्रमुख कारण बताइए।
उत्तर
‘अनुपालन’ समाजशास्त्र की प्रमुख संकल्पना है। अनुपालन का अर्थ व्यक्तियों द्वारा समाज की मान्यताओं के अनुकूल व्यवहार करना है। इसकी विपरीत स्थिति को ‘विचलन’ कहते हैं जिसका अर्थ समाज के आदर्शों एवं मान्यताओं से हटकर व्यवहार करना है। यद्यपि समाज के अधिकांश व्यक्ति समाज की मान्यताओं एवं आदर्शों के अनुरूप व्यवहार करते हैं, तथापि प्रत्येक समाज में कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो कि समाज की मान्यताओं व आदर्शों से हटकर व्यवहार करते हैं। उनके इसी व्यवहार को विचलन कहा जाता है। इस अर्थ में ये दोनों संकल्पनाएँ एक-दूसरे के विपरीत हैं।

अनुपालन का अर्थ तथा परिभाषाएँ

प्रत्येक समाज में व्यवहार करने के कुछ आदर्श प्रतिमान होते हैं। जब बच्चा पैदा होता है तो उसे समाज में प्रचलित आदर्शो, मान्यताओं, मूल्यों, प्रथाओं, रूढ़ियों आदि का कोई ज्ञान नहीं होता। समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा समाज अपने सदस्यों को इनका ज्ञान प्रदान करता है। इसी प्रकार के माध्यम से व्यक्तेि उनका अपने व्यक्तित्व में आंतरीकरण कर लेते हैं और उन्हीं के अनुकूल व्यवहार करने लगते हैं। इसी को हम अनुपालन कहते हैं। अतः समाज द्वारा स्वीकृत आदर्श नियमों के अनुरूप व्यवहार करना ही अनुपालन है। इसे विद्वानों ने निम्नवर्णित प्रकार से परिभाषित किया है-

  1. मर्टन (Merton) के अनुसार-“इस शब्द का सामान्य अर्थ यह है कि व्यक्ति जिस समूह का सदस्य है उसमें प्रचलित आदर्शों एवं प्रत्याशाओं के अनुरूप व्यवहार करें।
  2.  जॉनसन (Johnson) के अनुसार-“अनुपालन वह क्रिया है जो (1) सामाजिक आदर्श या आदर्शों की ओर अभिमुख होती है और (2) सामाजिक आदर्श द्वारा स्वीकृत व्यवहार के अनुसार होती है। अन्य शब्दों में, अनुपालन केवल मान्य सामाजिक आदर्शों के अनुसार व्यवहार करना ही नहीं है। संबंधित आदर्श भी क्रिया करने वाले कर्ता की प्रेरणा के अंग हैं, चाहे वह अनिवार्य रूप से इनके बारे में एक समय विशेष पर अथवा सदैव जागरूक नहीं होता।”
  3. कुले (Cooley) के अनुसार-“अनुपालन एक समूह द्वारा निर्धारित प्रतिमानों को बनाए रखने ” का प्रयत्न है। यह क्रिया के स्वरूपों का एक स्वैच्छिक अनुकरण है।”
  4.  थियोडोरसन एवं थियोडोरसन (Theodorson and Theodorson) के अनुसार “सामाजिक समूह की प्रत्याशाओं के अनुसार व्यवहार करना ही अनुपालन है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि किसी समाज के सदस्यों द्वारा स्वीकृत आदर्शो या प्रतिमानों के अनुसार व्यवहार करना ही अनुपालन है। वास्तव में, समाज के आदर्शों एवं मूल्यों में समाज या समूह की दबाव की शक्ति होती है जो व्यक्ति को इनके अनुसार व्यवहार करने के लिए प्रेरित करती है। समाजीकरण तथा सामाजिक नियंत्रण द्वारा व्यक्तियों के व्यवहार में अनुपालन लाने का प्रयास किया जाता है।

अनुपालन की विशेषताएँ

अनुपालन की संकल्पना को इसकी निम्नलिखित विशेषताओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. सामाजिक आदर्शों से संबंधित सामाजिक आदर्श, प्रथाएँ, रूढ़ियाँ जनरीतियाँ अथवा कानून वे मानदंड हैं जो व्यक्ति को समाज द्वारा स्वीकृत व्यवहार करने के लिए प्रेरित करते हैं। अनुपालन का संबंध व्यवहार के इन्हीं मानदंडों से है क्योंकि इनके अनुसार व्यवहार करना ही अनुपालन कहलाता है।
  2. कर्तव्यों का ज्ञान–अनुपालन का संबंध कर्तव्यों के ज्ञान से हैं अर्थात् अनुपालन में व्यक्ति से यह आशा की जाती है कि वह अपने कर्तव्यों व अधिकारों के अनुसार ही समाज द्वारा स्वीकृत व्यवहार करेगा।
  3. मूर्त क्रियाएँ-अनुपालन की दूसरी विशेषता यह है कि इसका संबंध मानदंडों के अनुरूप मूर्त क्रियाओं से है अर्थात् व्यक्ति की क्रियाओं से ही हम इस बात का पता लगा सकते हैं कि व्यक्ति में अनुपालन पाया जाता है अथवा नहीं।
  4. संगठन से संबंधित–अनुपालन का एक अन्य लक्षण यह है कि इससे किसी समाज में संगठन तथा व्यवस्था बनाए रखने में सहायता मिलती है। अगर किसी समाज के व्यक्ति मान्यताओं के अनुरूप व्यवहार नहीं करेंगे तो उस समाज में विघटन की स्थिति पैदा हो सकती है।
  5. मानदंडों में भिन्नता–अनुपालन की प्रकृति में भिन्नता पाई जाती है अर्थात् यह सभी समाजों के एक समान व्यवहार से संबंधित नहीं है। इसलिए इसके मानदंडों में भी भिन्नता पाई जाती है।

अनुपालन के प्रमुख कारण

प्रत्येक समाज यह, चाहता है कि उसके सभी सदस्य समाज द्वारा स्वीकृत आदर्शों के अनुसार ही व्यवहार करें ताकि इससे अनुपालन बना रहे और समाज में स्थायित्व व संगठन भी बना रहे। अतः प्रत्येक समाज अनेक ऐसे उपाय करता है जो अनुपालन को प्रोत्साहन दें तथा इसकी विपरीत स्थिति (अर्थात् विचलन) पर अंकुश लगाए रखें। अनुपालन को बनाए रखने में सहायक प्रमुख कारण अग्रांकित हैं–

  1. समाजीकरण-अनुपालन में सहायक सर्वप्रथम कारण समाजीकरण की प्रक्रिया है। इसी प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्ति में सामाजिक आदशों व मानदंडों के अनुरूप व्यवहार करने का ज्ञान प्रदान किया जाता है। वास्तव में समाजीकरण द्वारा ही सामाजिक आदर्शों व प्रतिमानों का आंतरीकरण होता है और वे व्यक्तित्व का अंग बन जाते हैं।
  2. पद-सोपान–पद-सोपान भी व्यक्ति के व्यवहार में अनुपालन लाता है। इससे हमें यह पता चलता है कि सामाजिक आदर्शों में किस प्रकार का क्रम पाया जाता है और अगर एक व्यक्ति किसी परिस्थिति में एक आदर्श के अनुरूप व्यवहार नहीं कर पाए तो उसे उसके बाद किस आदर्श को मानना होता। आदर्शों के विकल्पों में पदे-सोपान पाया जाता है।
  3. आवश्यकताओं की पूर्ति-व्यक्तियों के अनुपालन का एक अन्य कारण आवश्यकताओं की पूर्ति भी है। अनुपालन से जिन आवश्यकताओं की पूर्ति होती है वह विचलन से नहीं हो सकती और अगर होती भी है तो वह समाज द्वारा स्वीकृत नहीं होती।
  4. समूह का दबाव-समूह के दबाव के कारण भी व्यक्तियों में अनुपालन अधिक पाया जाता है। अगर व्यक्ति को यह अनुभव होता है कि सामूहिक मान्यताओं का उल्लंघन करने पर उसे समूह द्वारा दंड दिया जाएगा तो वह मान्यताओं व आदर्शों के अनुरूप ही व्यवहार करने का प्रयास करता है।
  5. विचारधारा–विचारधारा व्यक्तियों के व्यवहार में अनुपालन बनाए रखने में सहायता प्रदान करती है। अगर समाज में प्रचलित विचारधाराएँ सामाजिक आदर्शों व मूल्यों का ही समर्थन करने वाली हैं तो व्यक्तियों के व्यवहार में अनुपालन की संभावना अधिक होती है।
  6. निहित स्वार्थ-व्यक्ति निहित स्वार्थों के कारण भी सामाजिक आदर्शों का अनुकरण करता है। ताकि उसे इनसे सामाजिक सुरक्षा मिलती रहे। अनुपालन के कारण ही समाज व्यक्तियों के अधिकारों की सुरक्षा करते हैं।
  7. सामाजिक नियंत्रण-जो व्यक्ति समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा आदर्शों के अनुरूप व्यवहार करना नहीं सीखते और इनके विरुद्ध व्यवहार करते हैं, उन पर समाज राज्य व कानून द्वारा नियंत्रण रखता है तथा उनके द्वारा बलपूर्वक उन्हें सामाजिक आदर्शों के अनुकूल व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है।
  8. विसंवाहन–विसंवाहन का संबंध व्यक्तियों द्वारा विभिन्न भूमिकाओं के संपादन से है। व्यक्ति को अनेक भूमिकाएँ निभानी पड़ती हैं और कई बार कुछ भूमिकाएँ परस्पर विरोधी भी होती हैं। विसंवाहन द्वारा व्यक्ति अपनी भूमिकाओं को इस प्रकार से निभाता है कि उसके व्यवहार में अनुपालन बना रहता है।

UP Board Solutions for Class 11 Sociology Introducing Sociology Chapter 4 Culture and Socialisation

प्रश्न 6.
समाजीकरण क्या है? इसके प्रमुख अभिकरणों की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
या
समाजीकरण क्या है? संक्षेप में समाजीकरण के प्रमुख अभिकरणों का उल्लेख कीजिए।
या
समाजीकरण की प्रक्रिया में परिवार तथा विद्यालय की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
या
“परिवार समाजीकरण का प्रमुख आधार है।” इस कथन की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
उत्तर
मनुष्य का जन्म समाज में होता है। समाज में जन्म लेने के पश्चात् वह धीरे-धीरे आस-पास के वातावरण के संपर्क में आता है और उससे प्रभावित होता है। प्रारंभ में मनुष्य एक प्रकार से जैविक प्राणी मात्र होता है; क्योंकि आहार, निद्रा आदि के अतिरिक्त उसे और किसी बात का ज्ञान नहीं होता। और उसकी अवस्था बहुत-कुछ पशुओं के समान होती है। इसके अतिरिक्त जन्म के समय बालक में सभी प्रकार के सामाजिक गुणों का भी अभाव होता है। सामाजिक गुणों के अभाव में बालक एक जैविक प्राणी मात्र ही होता है। माता-पिता के संपर्क में आकर वह मुस्कराना और पहचानना सीखता है। धीरे-धीरे वह अपने परिवार के अन्य सदस्यों के संपर्क में आता है और उनसे सामाजिक शिष्टाचार की अनेक बातें सीखता हैं। आगे चलकर और बड़े होने पर उसके सपंर्क का क्षेत्र और अधिक व्यापक हो जाता है तथा वह विभिन्न सामाजिक तरीकों से अपने कार्यों का संचालन करना सीख लेता है तथा उसका प्रत्येक व्यवहार समाज के नियमों के अनुसार होने लगता है। इस प्रकार, वह प्राणी से सामाजिक प्राणी बन जाता है और समाजशास्त्र में बच्चे के सामाजिक बनने की इस प्रक्रिया को ही समाजीकरण कहा जाता है।

समाजीकरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ

समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है। इसी के परिणामस्वरूप व्यक्ति समाज में रहना सीखता है। अर्थात् एक सामाजिक प्राणी बनता है। संस्कृति का हस्तांतरण भी इसी प्रक्रिया के माध्यम से होता है। विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रतिपादित समाजीकरण की परिभाषाएँ निम्नवर्णित हैं-

  1. ऑगबर्न एवं निमकॉफ (Ogburn and Nimkoff) के अनुसार-“समाजीकरण से समाजशास्त्रियों का तात्पर्य है वह प्रक्रिया जिससे व्यक्ति का मानवीकरण होता है।”
  2. ग्रीन (Green) के अनुसार--“समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बच्चा अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं, आत्मपन और व्यक्तित्व प्राप्त करता है।”
  3. जॉनसन (Johnson) के अनुसार–“समाजीकरण एक प्रकार का सीखना है जो सीखने वाले को सामाजिक कार्य करने योग्य बनाता है।”
  4.  बोगार्ड्स (Bogardus) के अनुसार–“समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति एक-दूसरे पर निर्भर रहकर व्यवहार करना सीखता है और इसके द्वारा सामाजिक आत्म-नियंत्रण सामाजिक उत्तरदायित्त्व तथा संतुलित व्यक्तित्व का अनुभव प्राप्त करता है।”
  5. डेविस (Davis) के अनुसार-“परिवर्तन की इस प्रक्रिया के बिना, जिसे हम समाजीकरण कहते हैं, समाज एक पीढ़ी से भी आगे स्वयं को संतुलित नहीं कर सकता है और न ही संस्कृति जीवित रह सकती है। इसके बिना व्यक्ति सामाजिक प्राणी भी नहीं बन सकता है।’
  6. कोनिग (Koenig) के अनुसार-“समीकरण से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसमें एक व्यक्ति अपने समाज, जिसमें वह जन्मा है, जो कार्यरत (या उपयोगी) सदस्य बनता है अर्थात् समाज | की जनरीतियों एवं रूढ़ियों के अनुसार व्यवहार एवं कार्य करता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि समाजीकरण की प्रक्रिया जीवन भर किसी-न-किसी रूप में चलती रहती है। इसी प्रक्रिया के माध्यम से संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्सांतरित होती है।

समाजीकरण के प्रमुख अभिकरण

समाज की विभिन्न संस्थाएँ व्यक्ति के समाजीकरण में योगदान देती आई हैं। ये संस्थाएँ अथवा अभिकरण निम्नलिखित हैं-
1. परिवार–बालक का समाजीकरण करने वाली प्रथम तथा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संस्था परिवार है। परिवार में ही बच्चे का जन्म होता है तथा सबसे पहले वह माता-पिता व अन्य परिवारजनों के ही संपर्क में आता है। परिवार के सदस्य बालक के समाजीकरण में अपना प्रथम तथा स्थायी योगदान प्रदान करते हैं। परिवार के सदस्यों का परस्पर सहयोग और प्रेम-भाव बालक को समाजीकरण के लिए प्रेरित करता है। किम्बाल यंग (Kimball Young) के शब्दों में, “समाज के अंतर्गत समाजीकरण की भिन्न-भिन्न संस्थाओं में परिवार’ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।” प्रत्येक बालक अपने माता-पिता से रीति-रिवाज, सामाजिक परंपराओं तथा सामाजिक शिष्टाचार का ज्ञान प्राप्त करता है। वह परिवार में ही रहकर आज्ञाकारिता, सामाजिक अनुकूलन तथा सहनशीलता की प्रवृत्ति को विकसित करता है। संभवतः इसलिए परिवार को बच्चे की प्रथम पाठशाला कहा गया है जो कि ठीक भी है। समाजीकरण में परिवार के महत्त्व को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-

  1. माता-पिता के व्यवहार का प्रभाव-बच्चों के साथ माता-पिता का क्या और कैसा व्यवहार है, इस बात से ही बच्चे के सामाजिक जीवन का अनुमान लगाया जा सकता है। माता-पिता के व्यवहार को बालक के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अधिक लाड़-प्यार में पला बालक प्रायः बिगड़ जाता है। इसके साथ ही साथ माता-पिता से प्यार न मिलने पर बालक में हीन भावना ग्रन्थियाँ बनने लगती हैं और उसका व्यक्तित्व ठीक प्रकार से विकसित नहीं हो पाता।
  2. माता-पिता के चरित्र का प्रभाव-समाजीकरण में माता-पिता के चरित्र का विशेष प्रभाव पड़ता है। चरित्रहीन माता-पिता के बालकों के व्यक्तित्व के संतुलित होने की कोई संभावना नहीं होती। जुआरी व शराबी माता-पिता की संतान नियंत्रणहीन हो जाती है और वह समाज-विरोधी कार्य करने लगती है। इसके विपरीत, चरित्रवान माता-पिता की संतान पर रीति-रिवाजों और प्रतिमानों द्वारा सामाजिक नियंत्रण की संभावना बनी रहती है।
  3. भाई-बहनों का प्रभाव-परिवार में रहने वाले भाई-बहनों को भी बालक के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है। भाई-बहनों में बालक का जो स्थान होता है उससे बालक का व्यक्तित्व प्रभावित होता है। यदि उसका स्थान परिवार में सबसे प्रथम है तो वह अपने आचरण को संतुलित रखने का प्रयास करता है ताकि उसके छोटे भाई-बहन उसका सम्मान करें। एक ही पीढ़ी के होने के कारण भाई-बहनों का प्रभाव समाजीकरण में अत्यधिक पड़ता है।
  4. पारिवारिक नियंत्रण का प्रभाव-माता-पिता के निंयत्रण का भी बच्चों अथवा परिवार के युवक-युवतियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। नियंत्रणहीन परिवार में युवक-युवितयों के बिगड़ने की संभावना अधिक बनी रहती है। इसके विपीरत, जो परिवार नियंत्रित रहते हैं। उनके बच्चे पूर्ण से सुयोग्य एवं नियंत्रित रहते हैं।
  5. परिवार की आर्थिक स्थिति का प्रभाव-परिवार की आर्थिक स्थिति भी बच्चे के समाजीकरण को प्रभावित करती है। यदि परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है तो बच्चे की संभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर दी जाती है जिससे बच्चा अपराधों की ओर आकर्षित नहीं होता। इसके विपरीत, निर्धन परिवार के बच्चों की आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती। इन परिवारों के बच्चों में हीन-भावना ग्रथियों का निर्माण हो जाता है और वे समाज-विरोधी कार्य करने लगते हैं।
  6.  नागरिक गुणों की पाठशाला—परिवार को ही नागरिक गुणों की प्रथम पाठशाला कहो गया है। परिवार में रहकर ही बच्चा सर्वप्रथम सहानुभूति, प्रेम, त्याग, सहिष्णुता, आज्ञापालन आदि गुणों को सीख जाता है। इन्हीं से व्यक्ति का समाजीकरण संभव होता है।

2. पड़ोस-परिवार के पश्चात् बालक अपने पड़ोस के संपर्क में आता है। पड़ोस के वातावरण से बालक पर्याप्त प्रभावित होता है। पड़ोसियों का परस्पर प्रेम, सहयोग तथा सद्भाव बालक के समाजीकरण में विशेष योगदान करता है। पड़ोस के बालक परस्पर मिलकर खेलते हैं। इस खेल में या तो बालक अन्य बालकों का नेतृत्व करता है या किसी बालक के नेतृत्व में कार्य करता है।

इस प्रकार, बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया चलती रहती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए अच्छे पड़ोस में रहना पसंद किया जाता है। यदि पड़ोस अच्छा नहीं है तो बच्चों के समाजीकरण की प्रक्रिया भी दूषित हो जाती है।

3. विद्यालय परिवार तथा पड़ोस के पश्चात बालक के समाजीकरण में विद्यालय महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करता है। विद्यालय समाज का लघु रूप होता है; अतः बालक को वहाँ अनेक सामाजिक अनुभव होते हैं और अनेक सामाजिक क्रियाओं में भाग लेने के अवसर मिलते हैं। बालक के परस्पर मिलने-जुलने, उठने-बैठने, खेलने-कूदने तथा सहयोगपूर्वक श्रमदान आदि में भाग लेने से उसमें सामाजिकता की भावना का विकास होता है। समाज के नियमों और व्यवहारों का प्रायोगिक ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से विद्यालय का सर्वोच्च स्थान है यह समाजीकरण का महत्त्वपूर्ण औपचारिक अभिकरण है। विद्यालय के महत्त्व को निम्नलिखित तथ्यों से समझा जा सकता है-

  1. स्कूल के वातावरण का प्रभाव-स्कूल का वातावरण भी बच्चों के जीवन को प्रभावित करता है। यदि स्कूल में अनुशासन ठीक है और सभी अध्यापक अपने उत्तरदायित्व का पूरा ध्यान रखते हैं तो बच्चे का जीवन भी सुधरता है और उनमें जीवन को अनुशासित एवं संतुलित करने की क्षमता विकसित होती है। यदि स्कूल का वातावण दूषित हो तो इसके प्रभाव के कारण बच्चों के व्यक्तित्व का ठीक प्रकार से विकास नहीं हो पाता है।
  2. शिक्षक के व्यक्तित्व का प्रभाव-बालक के जीवन पर उसके अध्यापकों तथा गुरुओं के व्यक्तित्व और चरित्र का गहरा प्रभाव पड़ता है। अध्यापक के आदर्श बच्चों के जीवन को पूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं। बच्चों के सोचने-विचारन, उठने-बैठने, बोलने तथा हाव-भाव आदि पर अध्यापकों के व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव दोनों ही प्रकार का हो सकता है। सुयोग्य अध्यापक बालकों में लोकप्रिय होकर अपना आदर्श बच्चों के अनुभव के लिए छोड़ जाते हैं। इसके विपरीत, कुछ अध्यापक अपने प्रति घृणा
    के भाव भी बच्चों के मन में छोड़ जाते हैं।
  3. सहपाठियों का प्रभाव-बच्चों के व्यक्तित्व पर उनके सहपाठियों का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। यदि सभी छात्र योग्य परिवार के हों तो बालकों की आदत पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और यदि छात्रों की अधिकतर संख्या टूटे हुए (भग्न) परिवारों से संबंधित है। तो बच्चों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।
  4. अध्यापकों के व्यवहार का प्रभाव-अध्यापकों के व्यवहार का भी बच्चों के चरित्र एवं व्यक्तित्व पर विशेष प्रभाव पड़ता है। बच्चों के साथ यदि अध्यापकों का व्यवहार उचित हो तो बच्चे मन लगाकर कार्य करते हैं। इसके विपरीत, यदि बच्चों के साथ कठोर व्यवहार हो तो वे कक्षा में उपस्थित होने से मन चुराने लगते हैं तथा विद्यालय के समय को बुरी संगति में बिताकर छुट्टी के समय घर पहुँच जाते हैं। इस प्रकार कुसंगति में पड़कर वे समाज-विरोधी कार्य करने लगते हैं और उनके समाजीकरण की प्रक्रिया में बाधा पड़ती है।

4. मित्र-मण्डली–अपनी मित्र-मंडली में रहना प्रत्येक बालक पसंद करता है। मित्र-मंडली एक ऐसा प्राथमिक समूह है जिसमें बालक अनेक बातें सीखता है। मित्रों का परस्पर व्यवहार तथा शिष्टाचार भी समाजीकरण में सहायक होता है। बच्चा अपने मित्रों से बहुत कुछ सीखता है। क्योंकि एक ही आयु-समूह होने के कारण बच्चे एक-दूसरे को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। परंतु बुरी मित्र-मंडली का प्रभाव बालक को असामाजिक बना देता है। परिवार के बाद मित्र-मंडली ही एक ऐसा प्राथमिक अभिकरण है जिसकी बच्चे के समाजीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

5. क्रीड़ा-समूह-मित्र-मंडली के समान बालक के समाजीकरण में क्रीड़ा-समूह भी अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। बड़े होने पर बालक अपने साथी-समूह में खेलता है तो वह अनेक परिवारों से आए बालको के संपर्क में आता है और उनके बोलचाल तथा शिष्टाचार के ढंगों को सीखता है। प्रत्येक बालक एक-दूसरे को कुछ-न-कुछ सामाजिक व्यवहार के पाठ का शिक्षण देता है। क्रीड़ा-समूह बालकों में सामाजिक अनुशासन भी उत्पन्न करता है। क्रीड़ा-समूह में रहकर बालक सहयोग, न्याय, अनुकूलन तथा प्रतिस्पर्धा आदि सामाजिक गुणों को अर्जित करता है तथा ये गुण क्रमशः विकसित होकर जीवन भर उसके काम आते हैं।

6. जाति–जाति’ (Caste) से भी व्यक्ति को समाजीकरण होता है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी जाति के प्रति श्रद्धा की भावना रखता है और उसके प्रति कर्तव्य का पालन करना सीखता है। प्रत्येक जाति को अपनी प्रथाएँ परंपराएँ और सांस्कृतिक उपलब्धियाँ होती हैं। व्यक्ति इनको किसी-न-किसी रूप में ग्रहण करता है। जाति के नियम पालन, उसके अनुशासन में रहना आदि व्यक्ति के समाजीकरण में योगदान देते हैं।

7. जन-माध्यम-आज के इलेक्ट्रॉनिक युग में जन-माध्यम हमारे दैनिक जीवन का अनिवार्य अंग बन गए हैं। इसमें पत्र-पत्रिकाएँ, रेडियो, टेलीविजन, फिल्मों इत्यादि को सम्मिलित किया जाता है। बच्चों को संस्कृति तथा इसमें हो रहे परिवर्तनों का ज्ञान देने में जन-माध्यमों की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो गई है। बच्चों तथा बड़ों पर हुए अध्ययनों से यह पता चलता है कि विभिन्न जन-माध्यमों को उनके मूल्यों, आदर्शो, व्यवहार प्रतिमानों, दृष्टिकोण इत्यादि पर गहरा प्रभाव पड़ता है। रामायण तथा महभारत जैसे धारावाहिकों ने बच्चों को परंपरागत भारतीय संस्कृति के आदर्शों से परिचित कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि समाजीकरण की प्रक्रिया में अनेक अभिकरण महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। इन अभिकरणों के अतिरिक्त संस्थाएँ, आर्थिक संस्थाएँ एवं राजनीतिक संस्थाएँ भी समाजीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इन सभी के सामूहिक योगदान के परिणामस्वरूप ही व्यक्ति सामाजिक विरासत को ग्रहण कर पाता है।

प्रश्न 7.
व्यक्तित्व किसे कहते हैं? इसको प्रभावित करने वाले कारक बताइए।
या
व्यक्तित्व को परिभाषित कीजिए तथा इसकी प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
या
व्यक्तित्व की संकल्पना स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
‘व्यक्तित्व’ शब्द का साधारण बोल-चाल में बहुत अधिक प्रयोग होता है। प्रत्येक बालक भी अपने व्यक्तित्व के विकास एवं निखार के प्रति सजग रहता है। अन्य व्यक्तियों के व्यक्तित्व का भी भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से निरंतर मूल्यांकन किया जाता रहता है। फिल्मी कलाकारों, राजनीतिक नेताओं, शिक्षकों तथा अभिभावकों तक के व्यक्तित्व की चर्चा की जाती है। इसके अतिरिक्ति व्यवसाय वरण करने वाले युवक भी व्यक्तित्व परीक्षण की बात किया करते हैं; यथा-इंटरव्यू में व्यक्तित्व का विशेष प्रभाव पड़ता है’ आदि। स्पष्ट है कि व्यक्तित्व’ शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है।

व्यक्तित्व का अर्थ एवं परिभाषाएँ

सामान्य बोलचाल की भाषा में प्रयोग होने वाले शब्द ‘व्यक्तित्व’ का आशय संबंधित व्यक्ति के बाहरी पक्ष से होता है। इस दृष्टिकोण से यदि व्यक्ति (स्त्री या पुरुष) समय के अनुकूल वस्त्र धारण करे, अच्छे तथा सौम्य ढंग का फैशन करे तो माना जाता है कि अमुक व्यक्ति का व्यक्तित्व श्रेष्ठ है। इस दृष्टिकोण से व्यक्तित्व के निर्धारण में शारीरिक पक्ष को ही महत्त्व दिया जाता है। इस प्रचलित अर्थ के अतिरिक्ति दार्शनिक दृष्टिकोण से भी व्यक्तित्व का विवेचन किया जाता है। दार्शनिक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व से आशय व्यक्ति के आंतरिक रूप से होता है। इस दृष्टिकोण से व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारण उसकी आत्मा या आध्यात्मिक गुणों के आधार पर किया जाता है। यदि तटस्थ भाव से देखा जाए तो मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व संबंधी उपर्युक्त दोनों ही मत एकांगी तथा अपने आप में अपूर्ण हैं। व्यक्तित्व की पूर्ण व्याख्या के लिए इस शब्द के शाब्दिक अर्थ के साथ-साथ वास्तविक अर्थ एवं परिभाषाओं का भी विवेचन करना होगा।

व्यक्तित्व की अवधारणा एक जटिल अवधारणा है। व्यक्तित्व’ शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द *Personality’ का हिंदी रूपांतर है जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के persona’ शब्द से हुई है। इसका पारंपरिक अर्थ वेशभूषा है, जो नाटकों के समय कलाकरों द्वारा धारण की जाती थी। उदाहरणार्थ-यदि कोई कलाकार सम्राट की वेशभूषा धारण करके रंगमंच पर प्रस्तुत होता था तो उस रूप को विशिष्ट व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया जाता था। इस पारंपरिक अर्थ को ही आधार पर आगे चलकर व्यक्ति के गुणों को ‘पर्साना’ (व्यक्तित्व) के रूप में जाना जाने लगा। व्यक्तित्व के वास्तविक अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा जाता है कि व्यक्ति की जितनी भी विशेषताएँ अथवा विलक्षणताएँ होती हैं, उन सबका समन्वित अथवा संगठित (Integrated) रूप ही व्यक्तित्व है। यह एक प्रकार का गत्यात्मक संगठन (Dynamic organisation) होता है। शरीर से संबंधित विशेषताओं को व्यक्तित्व का बाहरी पक्ष माना जाता है। इससे भिन्न व्यक्ति की बुद्धि, योग्यताएँ, आदतें, रुचियाँ, दृष्टिकोण, चरित्र आदि विशेषताएँ व्यक्तित्व के आंतरिक पक्ष का प्रतिनिधित्व करती हैं।

व्यक्तित्व को निम्न प्रकार से परिभाषित करते हैं।

  1. ऑलपोर्ट के अनुसार-“व्यक्तित्व व्यक्ति के भीतर उन मनोदैहिक गुणों का गत्यात्मक संगठन है जो परिवेश के प्रति होने वाले अपूर्व अभियोजनों का निर्णय करते हैं।”
  2. मन के अनुसार-“व्यक्तित्व की परिभाषा एक व्यक्ति के ढाँचे, व्यवहार के रूपों, रुचियों, अभिवृत्तियों, सामथ्र्यो, योग्यताओं तथा अभिरुचियों के सबसे अधिक लाक्षणिक संकलन के रूप में की जा सकती है।”
  3. मार्टन प्रिन्स के शब्दों में-“व्यक्तित्व समस्त शारीरिक, जन्मजात तथा अर्जित प्रवृत्तियों का योग है।” प्रकार के आंतरिक एवं बाहरी गुणों का समावेश होता है। व्यक्ति के व्यवहार से जो कुछ भी प्रकट होता है, वह सब उसके व्यक्तित्व का ही परिणाम होता है। इन समस्त परिभाषाओं से ज्ञात होता है कि व्यक्ति के केवल बाहरी रूप को ही नहीं बल्कि बाहरी व आंतरिक अर्थात् शारीरिक व मानसिक गुणों के योग को व्यक्तित्व के रूप में परिभाषित किया जाता है।

व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारक

व्यक्ति अथवा बालक के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों के अभीष्ट विकास के लिए मुख्य रूप से दो कारकों को उत्तरदायी ठहराया जाता है, ये कारक हैं-वंशानुक्रमण (Heredity) तथा पर्यावरण (Environment)। भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से इन दोनों की भूमिका तथा महत्त्व का वर्णन किया है। कुछ विद्वान् व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास के लिए केवल आनुवंशिकता को ही महत्त्व देते हैं तथा स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जैसी वंश परंपरा एवं विशेषताएँ होंगी, वैसी ही उनकी संतानें भी होंगी। इस मत के समर्थक विद्वान् पर्यावरण को गौण मानते हैं तथा उनके अनुसार व्यक्ति स्वयं अपने अनुकूल पर्यावरण को तैयार कर लेता है। इसके विपरीत, विद्वानों का एक अन्य वर्ग व्यक्ति के विकास में पर्यावरण के कार्य भाग को अधिक महत्त्व देता है। इस मत के समर्थक एक विद्वान का कहना है, “नवजात शिशु अनिश्चित रूप से लचीला होता है। उसके अनुसार, “मुझे एक दर्जन बच्चे दे दीजिए, मैं आपकी माँग के अनुसार उनमें से किसी को भी चिकित्सक, वकील, व्यापारी अथवा चोर बना सकता हूँ। मनुष्य कुछ नहीं है, वह पर्यावरण का दास है, उसकी उपज है। इस कथन के अनुसार स्पष्ट है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण में उसके वंश-परंपरा का कोई महत्त्व नहीं है, केवल पर्यावरण ही उसके व्यक्तित्व का निर्धारण करता है। आज यह स्वीकार किया जाने लगा है कि व्यक्तित्व के निर्माण में वंशानुक्रमण एवं पर्यावरण दोनों का ही प्रभाव पड़ता है। इसलिए इन दोनों को थोड़ा विस्तारपूर्वक समझ लेना अनिवार्य है-

1. वंशानुक्रमण-व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण एवं विकास को प्रभावित करने वाले एक मुख्य कारक को आनुवंशिकता अथवा वंशानुक्रमण कहा जाता है। हिंदी के वंशानुक्रमण’ शब्द के अंग्रेजी पर्यायवाची ‘हेरेडिटी’ (Heredity) है। यह शब्द वास्तव में लैटिन शब्द ‘हेरिडिस’ (Heriditas) से व्युत्पन्न हुआ है। लैटिन भाषा में इस शब्द का आशय उस पूँजी से होता है, जो बच्चों को माता-पिता से उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त होती है। प्रस्तुत संदर्भ में वंशानुक्रमण का आशय व्यक्तियों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित होने वाले शारीरिक, बौद्धिक तथा अन्य व्यक्तित्व संबंधी गुणों से है। इस मान्यता के अनुसार बच्चों या संतान के विभिन्न गुण एवं लक्षणे अपने माता-पिता के समान होते हैं। उदाहरणार्थ-गोरे माता-पिता की संतान गोरी होती हैं। लंबे कद के माता-पिता की संतान भी लंबी होती है। इसी तथ्य के अनुसार प्रजातिगत विशेषताएँ सदैव बनी रहती है। वंशानुक्रमण के ही कारण मनुष्य की प्रत्येक संतान मनुष्य ही होती है। कभी भी कोई बिल्ली कुत्ते को जन्म नहीं देती। ऐसा माना जाता है कि लिंग-भेद, शारीरिक लक्षणों, बौद्धिक प्रतिभा, स्वभाव पर वंशानुक्रमण का गंभीर प्रभाव पड़ता है। वंशानुक्रमण एक प्रबल एवं महत्त्वपूर्ण कारक है, परंतु इसे एकमात्र कारक मानना अंसगत है। इसके अतिरिक्त पर्यावरण भी एक महत्त्वपूर्ण कारक है, जिसकी अवहेलना नहीं करनी चाहिए।

2. पर्यावरण-व्यक्ति को गंभीर रूप से प्रभावित करने वाला एक मुख्य कारक पर्यावरण भी है। पर्यावरण का प्रभाव केवल मनुष्यों पर ही नहीं, वरन् विश्व की प्रत्येक जड़-चेतन वस्तू पर पड़ता है। मनुष्य के साथ-साथ पेड़-पौधे, पशु-पक्षी एवं भौतिक पदार्थ भी पर्यावरण के प्रभाव से मुक्त नहीं हैं। वनस्पतिशास्त्रियों ने सिद्ध कर दिया है कि अनेक पेड़-पौधे केवल एक विशिष्ट प्रकार के पर्यावरण (जलवायु आदि) में ही उग सकते हैं। इसी प्रकार पशु-पक्षी भी पर्यावरण पर निर्भर करते हैं। पहाड़ों पर रहने वाला सफेद भालू गर्म मैदानों में नहीं रह सकता। जहाँ तक मनुष्य का प्रश्न है वह भी पर्यावरण से अत्यधिक प्रभावित होता है। वैसे यह सत्य है। कि मनुष्य पूर्णतया पर्यावरण का दास नहीं है। मनुष्य में अपने पर्यावरण को एक सीमा तक नियंत्रित एवं परिवर्तित करने की भी क्षमता है, परंतु इस क्षमता के होते हुए भी सामान्य रूप से व्यक्ति को पर्यावरण के प्रभाव से मुक्त नहीं माना जा सकता। पर्यावरण मनुष्य को कहाँ तक प्रभावित करता है तथा पर्यावरण को मनुष्य कहाँ तक नियंत्रित कर सकता है, यह एक भिन्न प्रश्न है। इस विवाद से बचते हुए यह स्वीकार किया जा सकता है कि व्यक्ति का जीवन पर्यावरण से प्रभावित अवश्य होता है। हिंदी के ‘पर्यावरण’ शब्द का अंग्रेजी पयार्यवाची Environment है। पर्यावरण’ शब्द, दो शब्दों ‘परि + आवरण’ से मिलकर बना है। ‘परि शब्द का अर्थ है ‘चारों ओर’ तथा ‘आवरण’ शब्द का अर्थ है ‘ढके हुए। इस प्रकार से * ‘पर्यावरण’ को अर्थ हुआ चारों ओर ढके हुए’ या ‘चारों ओर से घिरे हुए। इस स्थिति में व्यक्ति का पर्यावरण वह समस्त क्षेत्र है जो व्यक्ति को घेरे रहता है; अर्थात् विश्व में व्यक्ति के अतिरिक्त जो कुछ भी है, वह उसका पर्यावरण है। पर्यावरणविदों को तो यहाँ तक कहना है कि व्यक्ति केवल अपने पर्यावरण की ही उपज है।” इस वर्ग के विद्वानों का कहना है कि पर्यावरण व्यक्ति को अनेक प्रकार से प्रभावित करता है। व्यक्ति के जीवन के विभिन्न पक्ष पर्यावरण के ही परिणामस्वरूप विकसित होते हैं। इस मत के अनुयायिओं के अनुसार मानव शिशु को इच्छानुसार विकसित किया जा सकता है, केवल अनुकूल पर्यावरण उपलब्ध कराना अनिवार्य होगा। पर्यावरणविदों के अनुसार यदि कोई समूह अपने पर्यावरण को नियंत्रित करने में सफल हो जाये तो वह अपने सदस्यों को सरलता से अभीष्ट रूप से विकसित कर सकता है। वातावरण के बहुपक्षीय तथा निश्चित प्रभावों को प्रमाणित करने के लिए अनेक सफल परीक्षण भी किए जा चुके हैं।

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व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताएँ

व्यक्तित्व का निर्माण मुख्य रूप से कुछ शीलगुणों की समग्रता के द्वारा होता है जिन्हें इसकी प्रमुख विशेषताएँ भी कहा गया है। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. मानसिक गुण या तत्त्व-व्यक्तित्व का निर्माण करने वाले मानसिक तत्त्वों (Mental Traits) को मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा जा सकता है। इन तीनों का संक्षिप्त परिचय निम्नवत् हैं-

  1. स्वभाव-व्यक्तित्व के निर्माण में व्यक्ति के स्वभाव का भी विशेष महत्त्व एवं योगदान होता है। स्वभाव के अनुसार ही व्यक्तित्व का निर्माण भी हो जाता है। सामान्य रूप से स्वभाव के आधार पर व्यक्तियों के चार वर्ग निर्धारित किए जाते हैं, जिन्हें क्रमशः आशावादी, निराशावादी, चिड़चिड़े तथा अस्थिर स्वभाव वाले कहा जाता है। स्वभाव के आधार पर व्यक्तियों के कुछ अन्य वर्ग भी निर्धारित किए जा सकते हैं, जैसे कि मिलनसार या संकोची स्वभाव वाले। सामान्य रूप से आशवादी तथा मिलनसार स्वभाव वाले व्यक्तियों के व्यक्तित्व को उत्तम माना जाता है।
  2. ज्ञान एवं बुद्धि-व्यक्तित्व के निर्माण में व्यक्ति के ज्ञान एवं बुद्धि का विशेष योगदान होती है। बुद्धि ज्ञान-प्राप्ति का साधन है। उच्च बौद्धिक स्तर वाले व्यक्ति का व्यक्तिव निश्चित रूप से प्रभावशाली एवं उत्तम माना जाता है। इससे भिन्न औसत बौद्धिक स्तर वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व भी सामान्य श्रेणी का होता है। मंदबुद्धि वाले व्यक्तियों में ज्ञान का भी प्रायः अभाव ही पाया जाता है। ऐसे व्यक्तियों का व्यक्तित्व निम्न स्तर का होता है तथा समाज में उनका किसी प्रकार का प्रभाव नहीं होता।
  3. संकल्प-शक्ति एवं चरित्र-व्यक्तित्व के निर्माण में व्यक्ति की संकल्प-शक्ति तथा चरित्र का भी विशेष योगदान होता है। व्यक्तित्व के निर्माण का एक मुख्य तत्त्व व्यक्ति का चरित्र है। चरित्र एक ऐसा तत्त्व है, जिसे प्रत्यक्ष रूप में नहीं देखा जा सकता, परंतु व्यवहार में यह शीघ्र ही प्रकट हो जाता है। उच्च एवं सृदृढ़ चरित्र वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व उत्तम एवं सराहनीय होता है। इसके विपरीत निम्न चरित्र एवं दुर्बल। संकल्प-शक्ति वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व निम्न एवं निंदनीय होता है।

2. शारीरिक गुण एवं तत्व-व्यक्तित्व के निर्माण में व्यक्ति के शारीरिक गुणों एवं तत्त्वों को भी विशेष योगदान होता है। शारीरिक गुण एवं तत्त्व व्यक्ति के व्यक्तित्व के बाहरी पक्ष का निर्माण करते हैं। व्यक्तित्व का निर्माण करने वाले शारीरिक तत्त्वों को प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है। व्यक्तित्व का निर्माण करने वाले शारीरिक तत्त्वों में मुख्य हैं-शरीर की आकृति, लंबाई, गठन, वाणी, मुख-मुद्रा तथा भाव-भंगिमाएँ आदि। इसके अतिरिक्त शरीर पर धारण की जाने वाली वेशभूषा तथा शरीर को सजाने-सँवारने के ढंग आदि भी व्यक्तित्व के निर्माण में योगदान देते हैं। भिन्न-भिन्न शारीरिक लक्षणों वाले व्यक्तियों के व्यक्तित्व की भी भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ निर्धारित की गई हैं। आकर्षक शारीरिक लक्षणों वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रथम दृष्टि से ही आकर्षक प्रतीत होती है, परंतु यदि मानसिक गुण अनुकूल न हों तो शारीरिक पक्ष आकर्षक होते हुए भी। क्रमशः व्यक्ति का व्यक्तित्व अपनी गरिमा खो बैठता है तथा प्रथम दृष्टि में पड़ने वाला उसका प्रभाव घटने लगता है।

3. सामाजिकता—यह सत्य है कि प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास सामाजिक पर्यावरण में ही होता है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर कहा जा सकता है कि व्यक्तित्व का निर्माण करने वाले तत्त्वों में सामाजिकता का भी विशेष स्थान है। व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास उसकी सामाजिक अभिवृत्ति के ही अनुकूल होता है। सामाजिकता को अधिक महत्त्व देने वाले व्यक्तियों का व्यक्तित्व भिन्न प्रकार का होता है। इसके विपरीत, जो व्यक्ति सामाजिक कार्यकलापों में कम भाग लेते हैं, उनको व्यक्तित्व कुछ भिन्न रूप में विकसित होता है। अनेक व्यक्ति सामाजिक दृष्टिकोण से कुछ आक्रामक वृत्ति के होते हैं। ऐसे व्यक्तियों का व्यक्तित्व समाज में निंदनीय माना जाता है। स्पष्ट है कि सामाजिकता की मात्रा तथा स्वरूप भी व्यक्तित्व के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

4. दृढ़ता–व्यक्तित्व के निर्माण में उपर्युक्त तीन तत्त्वों के अतिरिक्त दृढ़ता (Persistence) को भी विशेष योगदान है। दृढ़ता से आशय है व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व संबंधी गुणों के प्रति स्थिर रहना। व्यक्तित्व संबंधी गुणों में दृढ़ता रहने पर ही व्यक्तित्व में स्थायित्व आता है तथा उसका प्रभाव पड़ता है। व्यक्तित्व की दृढ़ता से ही जीवन में अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। तथा सफलता प्राप्त होती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि व्यक्तित्व के चारों आवश्यक तत्त्वों में सर्वाधिक महत्त्व दृढ़ता का ही है।

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UP Board Solutions for Class 11 Biology Chapter 20 Locomotion and Movement

UP Board Solutions for Class 11 Biology Chapter 20 Locomotion and Movement (गमन एवं संचलन)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Biology . Here we  given UP Board Solutions for Class 11 Biology Chapter 20 Locomotion and Movement (गमन एवं संचलन)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
कंकाल पेशी के एक सार्कोमियर का चित्र बनाइए और विभिन्न भागों को चिह्नित कीजिए।
उत्तर :
कंकाल पेशी के सार्कीमियर की संरचना
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प्रश्न 2.
पेशी संकुचन के सप तन्तु सिद्धान्त को परिभाषित कीजिए।
उत्तर :
हक्सले (Huxley,1954)
ने रेखित पेशी तन्तुओं का इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी द्वारा अध्ययन करके इनमें उपस्थित एक्टिन तथा मायोसिन छड़ों (actin and myosin filaments) का विशिष्ट विन्यास देखा। इस विन्यास को देखते हुए इन्होंने पेशी तन्तु संकुचन का सप तन्तु या छड़ विसर्पण सिद्धान्त (UPBoardSolutions.com) (sliding filament theory) दिया।

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रेखित पेशियों के संकुचन की कार्य-विधि

रेखित पेशियों में संकुचन तन्त्रिका उद्दीपन के फलस्वरूप होता है। एक्टिन छड़े मायोसिन छड़ों के ऊपर फिसलकर इनके भीतर (सामियर के केन्द्र की ओर) प्रवेश कर जाती हैं, जिससे पेशी तन्तु में संकुचन हो जाता है।

पेशी संकुचन का सप तन्तु या छड़ विसर्पण सिद्धान्त

सामान्य अवस्था में सार्कोमियर (sarcomere) में ATP तथा मैग्नीशियम आयन होते हैं; कैल्सियम आयन भी सूक्ष्म मात्रा में होते हैं। एक्टिन छड़े ट्रोपोमायोसिन (tropomyosin) के साथ इस प्रकार जुड़ी रहती हैं कि ये मायोसिन छड़ों के साथ नहीं जुड़ सकतीं। जब पेशी तन्तु को तन्त्रिका आवेग द्वारा श्रेशहोल्ड उद्दीपन (threshold stimulus) प्राप्त होता है, तब पेशी तन्तु के अन्तर्द्रव्यीय जाल (ER) से Ca++ (कैल्सियम आयन) सार्कोमियर में मुक्त हो जाते हैं। ये कैल्सियम आयन ट्रोपोमायोसिन के साथ संयुक्त (bind) हो जाते हैं और एक्टिन छड़े (actin filaments) स्वतन्त्र हो जाती हैं। इसी समय ATP के जल विघटन (hydrolysis) के फलस्वरूप (UPBoardSolutions.com) ऊर्जा मुक्त होती है। इस ऊर्जा की उपस्थिति में एक्टिने तथा मायोसिन सक्रिय हो जाते हैं और नए सेतु बन्धों (across bridges) की रचना होती है। इसके फलस्वरूप एक्टिन छड़े मायोसिन छड़ों के ऊपर फिसलकर साकमियर के केन्द्र की ओर चली जाती हैं। एक्टिन तथा मायोसिन मिलकर एक्टोमायोसिन (actomyosin) की रचना करते हैं।
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इस प्रक्रिया में पेशी तन्तु की लम्बाई कम हो जाती है अर्थात् संकुचन हो जाता है। जब उद्दीपन समाप्त हो जाता है, तब सक्रिय पम्पिंग द्वारा कैल्सियम आयनों को अन्तर्रव्यीय जाल में पम्प कर दिया जाता है। ट्रोपोमायोसिन स्वतन्त्र हो जाता है, इससे एक्टिन व मायोसिन के बीच के सेतु बन्ध टूट जाते हैं। एक्टिन फिर ट्रोपोमायोसिन के साथ संयुक्त (bind) हो जाता है। पेशी तन्तु वापस अपनी पुरानी लम्बाई में लौट आता है। मृत्यु के पश्चात् ATP के न बनने के कारण Ca++ वापस सार्कोप्लाज्मिक जाल में नहीं जा सकते; अतः पेशियाँ सिकुड़ी रह जाती हैं और शरीर अकड़ा रह जाता

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ऊर्जा आपूर्ति (Energy supply) :
पेशी संकुचन के लिए ऊर्जा की आपूर्ति ATP द्वारा होती है। पेशियों में ATP का निर्माण ग्लाइकोजन के अपचय (catabolism) के फलस्वरूप होता है।

पेशी संकुचन के समय ATP के जल विघटन (hydrolysis) से ऊर्जा की प्राप्ति होती है।
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पेशियों में एक और उच्च ऊर्जा यौगिक उपस्थित होता है, जिसे क्रिएटिन फॉस्फेट (creatine phosphate-PCr) कहते हैं। इसका प्रयोग भी ATP निर्माण में होता है।
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विश्रामावस्था में ATP द्वारा फिर से क्रिएटिन फॉस्फेट का निर्माण हो जाता है।
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इस प्रकार पेशी में क्रिएटिन फॉस्फेट का भण्डार बना रहता है, जो आवश्यकता पड़ने पर ATP प्रदान कर सकता है।

प्रश्न 3.
पेशी संकुचन के प्रमुख चरणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
[संकेत-कृपया उपर्युक्त प्रश्न 2 का उत्तर देखें]

प्रश्न 4.
‘सही’ या ‘गलत लिखें
(क) एक्टिन पतले तन्तु में स्थित होता है।
(ख) रेखित पेशी रेशे का H-क्षेत्र मोटे और पतले, दोनों तन्तुओं को प्रदर्शित करता है।
(ग) मानव कंकाल में 206 अस्थियाँ होती हैं।
(घ) मनुष्य में 11 जोड़ी पसलियाँ होती हैं।
(ङ) उरोस्थि शरीर के अधर भाग में स्थित होती है।
उत्तर :
(क) सही
(ख) गलत
(ग) सही
(घ) गलत
(ङ) सही।

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प्रश्न 5.
इनके बीच अन्तर बताइए
(क) एक्टिन और मायोसिन
(ख) लाल और श्वेत पेशियाँ
(ग) अंस और श्रोणि मेखला।
उत्तर :
(क)
एक्टिन और मायोसिन में अन्तर

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(ख)
लाल तथा श्वेत पेशियों में अन्तर

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(ग)
अंस तथा श्रोशिमेखला में अन्तर

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प्रश्न 6.
स्तम्भ I का स्तम्भ II से मिलान करें
स्तम्भ-I                      स्तम्भ-II
(i) चिकनी पेशी         (क) मायोग्लोबिन
(ii) ट्रोपोमायोसिन     (ख) पतले तन्तु
(iii) लाल पेशी          (ग) सीवन (suture)
(iv) कपाल               (घ) अनैच्छिक
उत्तर :
(i) (घ)
(ii) (ख)
(iii) (क)
(iv) (ग)

प्रश्न 7.
मानव शरीर की कोशिकाओं द्वारा प्रदर्शित विभिन्न गतियाँ कौन-सी हैं?
उत्तर :
मानव शरीर की कोशिकाओं में मुख्यत: निम्नलिखित तीन प्रकार की गतियाँ होती हैं

1. अमीबीय या कूटपादी गति (Amoeboid or Pseudopodial Movement) :
मानव शरीर में पाई जाने वाली श्वेत रुधिराणु (leucocytes) एवं महाभक्षकाणु (macrophages) कोशिकाएँ कूटपाद द्वारा अमीबा की भाँति गति करती हैं।

2. पक्ष्माभी गति (Ciliary movement) :
स्तनियों (मानव) में शुक्रवाहिनियों, अण्डवाहिनियों, श्वास नाल में पक्ष्माभ (cilia) पाए (UPBoardSolutions.com) जाते हैं। इनकी गति से शुक्रवाहिनियों में शुक्राणु और अण्डवाहिनियों में अण्डाणु का परिवहन होता है। श्वासनाल के पक्ष्माभ श्लेष्मा को बाहर की ओर धकेलते हैं।

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3. पेशीय गति (Muscular Movement) :
हमारे उपांगों (अग्रपाद, पश्चपाद), जबड़ों, जिह्वा, नेत्रपेशियों, आहारनाल, हृदय आदि में पेशीय गति होती है। पेशीय गति में कंकाल, पेशियाँ तथा तन्त्रिकाएँ सम्मलित होती हैं।

  1. नेत्र गोलक-नेत्र कोटर में अरेखित पेशियों द्वारा गति करता है। आइरिस तथा सिलियरी काय (iris and ciliary body) पेशियाँ नेत्र में जाने वाले प्रकाश की मात्रा का नियमन करती हैं।
  2. हृदय की हृदपेशियाँ तथा रक्त वाहिनियों की अरेखित पेशियाँ रक्त परिसंचरण में सहायक होती हैं।
  3. डायफ्राम तथा पसलियों के मध्य स्थित अरेखित पेशियों के संकुचन एवं शिथिलन के फलस्वरूप श्वास क्रिया (breathing) सम्पन्न होती है।
  4. आहारनाल की पेशियों में क्रमाकुचन गतियों के कारण भोजन आगे खिसकता है। भोजन की लुगदी (chyme) बनती है।
  5. कंकालीय पेशियाँ (skeletal muscles) कंकाल से जुड़ी होती हैं। प्रचलन एवं अंगों की गति से ये सीधे सम्बन्धित होती हैं। कंकाल या रेखित पेशियों के संकुचन एवं शिथिलन के कारण प्रचलन/गति होती है।

प्रश्न 8.
आप किस प्रकार से एक कंकाल पेशी और हृद पेशी में विभेद करेंगे?
उत्तर :
कंकाल (रेखिल):मेशी.और हृद पेशी में अन्तर
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प्रश्न 9.
निम्नलिखित जोड़ों के प्रकार बताइए

(क) एटलस/अक्ष (एक्सिस)
(ख) अंगूठे के कार्पल/मेटाकार्पल
(ग) फैलेंजेज के बीच
(घ) फीमर/एसीटेबुलम
(ङ) कपालीय अस्थियों के बीच
(च) श्रोणि मेखला की प्यूबिक अस्थियों के बीच
उत्तर :
(क) उपास्थिमय संधि
(ख) सेडल संधि
(ग) कब्जा संधि
(घ) कंदुक खल्लिका संधि
(ङ) सीवन
(च) उपास्थिमय संधि।

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प्रश्न 10.
रिक्त स्थानों में उचित शब्दों को भरिए
(क) सभी स्तनधारियों में (कुछ को छोड़कर)………..ग्रीवा कशेरुक होते हैं।
(ख) प्रत्येक मानव पाद में फैलेंजेज की संख्या………है।
(ग) मायोफाइब्रिले के पतले तन्तुओं में 2 ‘F’ एक्टिन और दो अन्य दूसरे प्रोटीन, जैसे……..और…….होते हैं।
(घ) पेशी रेशे में कैल्सियम……….में भण्डारित रहता है।
(च) ……..मनुष्य का कपाल……..अस्थियों से बना होता है।
उत्तर :
(क) सात।
(ख) 14 फैलेंजेज।
(ग) ट्रोपोनिन (troponin), ट्रोपोमायोसिन (tropomyosin)
(घ) सार्कोप्लाज्मिक जालक (sarcoplasmic reticulum)
(च) 11वीं, 12वीं।
(छ) 8

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
एक पेशी एक भाग को दूसरे पर झुकाती है, वह है
(क) फ्लेक्सर
(ख) एक्सटेन्सर
(ग) एबडेक्टर
(घ) एडेक्टर
उत्तर :
(क) फ्लेक्सर

प्रश्न 2.
मानव शरीर में प्लावी पसलियों की संख्या है
(क) 6 जोड़ी
(ख) 5 जोड़ी
(ग) 3 जोड़ी
(घ) 2 जोड़ी
उत्तर :
(घ) 2 जोड़ी

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प्रश्न 3.
अंसमेखला का भाग कौन-सा है?
(क) ग्लीनॉएड गुहा
(ख) उरोस्थि
(ग) इलियम
(घ) श्रोणि उलूखने
उत्तर :
(क) ग्लीनॉएड गुहा

प्रश्न 4.
मानव करोटि की हड्डियों के बीच संधि है
(क) कब्जा संधि
(ख) साइनोवियल संधि
(ग) उपास्थिमय संधि
(घ) तन्तुमय संधि
उत्तर :
(घ) तन्तुमय संधि

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अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पेशियों में पाये जाने वाले दो प्रकार की प्रोटीन्स के नाम लिखिए।
उत्तर :
ऐक्टिन, तथा मायोसीन प्रोटीन।

प्रश्न 2.
मनुष्य के अन्तःकंकाल तन्त्र को कितने भागों में बाँटा गया है? उनके नाम लिखिए।
उत्तर :
मनुष्य के अन्तः कंकाल को दो भागों में बाँटते हैं

(क)
अक्षीय कंकाल :
इसके अन्तर्गत खोपड़ी, कशेरुक दण्ड, पसलियाँ एवं स्टर्नम आते हैं।

(ख)
उपांगीय कंकाल :
इसके अन्तर्गत मेखलाएँ तथा हाथ-पैर की अस्थियाँ आती हैं।

प्रश्न 3.
शशक के निचले जबड़े की मुख्य अस्थि का नाम लिखिए।
उत्तर :
मैन्डिबल (mandible)

प्रश्न 4.
सैडल संधि (saddle joint) कहाँ पायी जाती हैं?
उत्तर :
अंगूठे के कार्पल और मेटा कार्पल के बीच।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गति के पक्ष्माभी (सिलिअरी) तथा कशाभि (फ्लैजेलर) प्रकारों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।
उत्तर :
मानव के शरीर की अनेक कोशिकाएँ: जैसे-श्वासनली के भीतरी स्तर की दीवार की (UPBoardSolutions.com) कोशिका, मादा अंग अंडवाहिनी (oviduct) की भीतरी दीवार की कोशिका में महीन रोम, पक्ष्माभ (cilia) पाए जाते हैं, जो पैरामीशियम की पक्ष्माभी गति को प्रदर्शित करते हैं। इसके विपरीत नर में निर्मित शुक्राणु (sperm) अपनी पूंछ (tail) द्वारा कशाभि गति (flagellar movement) प्रदर्शित करते हैं।

प्रश्न 2.
मनुष्य की ग्रीवा की प्रथम कशेरुका को स्वच्छ एवं नामांकित चित्र बनाइए (वर्णन की आवश्यकता नहीं)।
उत्तर :
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प्रश्न 3.
अंसमेखला तथा उसके कार्यों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर :

अंसमेखला

मनुष्य में अंसमेखला पूरी तरह अलग-अलग दो अर्द्ध-भागों से मिलकर बनी होती है, जिसका प्रत्येक अर्द्ध-भाग मुख्यतः एक तिकोनी और चपटी अस्थि से बना होता है। इसे अंसफलक या स्कैपुला (scapula) कहते हैं और यह पीठ व गर्दन के दोनों ओर तथा पसलियों के पीछे स्थित (UPBoardSolutions.com) होता है। अस्थि का चौड़ा भाग ऊपर की ओर तथा नुकीला भाग नीचे की ओर रहता है। स्कैपुला के पश्च भाग में एक उभार होता है, जो एक उठी हुई छोटी-सी भित्ति के समान दिखाई देता है तथा कण्टक (spine) कहलाता है। इसी के कारण अंसमेखला दो भागों में विभाजित दिखाई देती है। कण्टक का बाहर निकला हुआ ऊपरी भाग चपटा हो जाता है। इसे ऐक्रोमियन प्रवर्ध (acromian process) कहते हैं।

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इसी प्रवर्ध से हॅसली की अस्थि या क्लैविकल (collar bone or clavicle) जुड़ी रहती है, जिससे हमारे उठे हुए कन्धे (shoulders) बनते हैं। इस प्रवर्ध के पास स्कैपुला में एक गड्ढा अंस उलूखल (glenoid cavity) होता है। अंस उलूखेल में अग्रबाहु की प्रगण्डिका (humerus) का गोल सिर स्थित रहता है और कन्दुक-खल्लिका सन्धि बनाता है। इस सन्धि के कारण ही हमारी भुजाएँ चारों ओर सुविधापूर्वक घूम सकती हैं। अंसमेखला पसलियों के साथ केवल मांसपेशियों से ही जुड़ी रहती है। (UPBoardSolutions.com) हॅसली की अस्थि अंसमेखला की दूसरी अस्थि है, जो ‘F’ अक्षर की भाँति दिखाई देती है। यह एक ओर अंसकूट प्रवर्ध (acromian process) और दूसरी ओर उरोस्थि से जुड़ी रहती है। यह अस्थि बाहु के भार को सम्भाले रखती है।

अंसमेखला के कार्य

अंसमेखला के द्वारा ही कन्धे का निर्माण होता है। इसकी हँसली की अस्थि बाहु को सम्भालने में सहायता करती है तथा अंस उलूखल में अग्रबाहु (प्रगण्डिका) का सिर कन्दुक-खल्लिका सन्धि बनाता है। इस सन्धि के होने से ही बाहु चारों ओर आसानी से घुमायी जा सकती है।

प्रश्न 4.
मानव की श्रोणि मेखला का नामांकित चित्र बनाइए।
उत्तर :
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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पेशी ऊतंक कितने प्रकार के होते हैं? अरेखित पेशी ऊतक की संरचना चित्र सहित समझाइए।
उत्तर :

पेशी ऊतक तथा उनके प्रकार

पेशी ऊतक की उत्पत्ति भ्रूण (embryo) के मध्य जनन स्तर या मीसोडर्म (mesodem) से होती है। पेशी ऊतक शरीर को 40-50% भाग बनाता है। पेशी ऊतक का निर्माण लम्बी, सँकरी, तरूपी, सकुंचनशील कोशिकाओं या तन्तुओं से होता है। पेशी ऊतक तीन प्रकार के होते हैं

  1. अरेखित (Unstriped or Smooth)
  2. रेखित (Striped or Striated) तथा
  3.  C (Cardiac)

अरेखित पेशी ऊतक

अरेखित पेशियों के आकुंचन पर जन्तु की इच्छा का कोई नियन्त्रण नहीं होता। ये शरीर की कार्यिकी (physiology) तथा आन्तरिक वातावरण के प्रभाव से स्वतः ही क्रियाशील होती हैं; अतः इन्हें अनैच्छिक पेशियाँ (involuntary muscles) भी कहते हैं। इन पेशियों को (UPBoardSolutions.com) सम्बन्ध आंतरांगों से होने के कारण इन्हें आंतरांगी (visceral) पेशियाँ भी कहते हैं सामान्यतः खोखले आंतरांगों की भित्तियों; जैसे-आहारनाल (alimentary canal), श्वास नली, गर्भाशय, रुधिर वाहिनियों, चित्र-अरेखित पेशी या अनैच्छिक पेशी तन्तु। पित्ताशय, पित्त नली, शिश्न आदि, में उपस्थित होती हैं।
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संरचना 
इनकी संरचना सरल होती है। इनके तन्तु (fibres) 100-200µ तथा 10µ व्यास के पतले (सँकरे) तथा तरूप होते हैं। इन कोशिकाओं के बीच-बीच में कोशिकाविहीन, तन्तुमय संयोजी ऊतक (connective tissue) होता है। पेशी तन्तु या पेशी कोशिका सार्कोलेमा (sarcolemma) नामक कोशिका कला से घिरी होती है। कोशिका के पेशीद्रव्य (sarcoplasm) में एक्टोमायोसिन (actomyocin) प्रोटीन के बने समानान्तर पेशी तन्तुक (myofibrils) तथा एक बड़ा केन्द्रक (nucleus) होता है। पेशी की सकुंचनशीलता इन्हीं तन्तुओं के कारण होती है।

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अरेखित पेशियाँ अपने समूहीकरण के आधार पर एकल इकाई (single unit) अथवा बहु-इकाई (multi-unit) के रूप में होती हैं। बहु-इकाई अरेखित पेशियों में तन्तु स्वतन्त्र रूप में कार्य करते हैं, जबकि एकल इकाई में ये आपस में बँधे रहते हैं तथा मिलकर कार्य करते हैं। नेत्रों में सिलियरी पेशियाँ, (UPBoardSolutions.com) उपतारा की पेशियाँ आदि बहु-इकाई पेशियाँ हैं। आंतरांगों में अरेखित पेशियाँ एकल प्रकार की होती हैं। छिद्र के चारों ओर ये पेशियाँ संवरणी (sphincter) बनाती हैं।

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