UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi सूक्तिपरक निबन्ध

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name सूक्तिपरक निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi सूक्तिपरक निबन्ध

सूक्तिपरक निबन्य

जहाँ सुमति तहँ सम्पत्ति नाना [2016]

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना (सुमति से आशय),
  2. कुमति से तात्पर्य,
  3. विपत्ति एवं सम्पत्ति का अर्थ,
  4. सम्पत्ति का साधन : सुमति,
  5. सुमति एवं नैतिकता,
  6. सुमति और एकता,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना ( सुमति से आशय)-बुद्धि के कारण मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। बुद्धि के साथ विवेक केवल मनुष्य में पाया जाता है। विवेक और बुद्धि के समुचित समन्वय को ही सुमति के नाम से जाना जाता है। विवेक के बिना बुद्धि का कोई महत्त्व नहीं है; क्योंकि विवेक ही मनुष्य को उचित-अनुचित को ज्ञान कराता है। मनुष्य को किस परिस्थिति में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, यही विवेक कहलाता है। विवेकपूर्वक किया गया कार्य न केवल व्यक्ति विशेष अपितु प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारी होता है। बुद्धि विवेकपूर्वक किए जाने वाले कार्य की दशा और दिशा का निर्धारण करके उसे और अधिक कल्याणकारी बनाने में उत्प्रेरक का कार्य करता है। आशय यही है कि सुमति संसार में सुख-समृद्धि लाने का एक अकेला उपाय है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास ने ‘श्रीरामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में कहा है-

जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना।
जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना॥

कुमति से तात्पर्य–विवेक के अभाव में अर्थात् अविवेक से समन्वित बुद्धि बिगडैल हाथी के समान होती है जो केवल तोड़-फोड़, विध्वंस एवं संहार कर सकती है। इसी संहारक बुद्धि को कुमति कहा जाता है। जब मनुष्य अपनी बुद्धि को श्रेष्ठ कार्यों में लगाता है तो उसे बुद्धिमान कहते हैं और कहते हैं कि वह बड़ा सुबुद्धिवाला है। सुबुद्धि या सुमति की बड़ी महिमा है। जब तक मनुष्य में सुमति रहती है, वह अच्छे कार्यों में लगा होता है। कुमति का प्रभाव व्यक्ति पर शीघ्र पड़ता है और उससे उसकी सुमति कुमति में परिवर्तित हो जाती है; अतः मनुष्य निकृष्ट कार्यों को करता है और ये निकृष्ट कार्य ही उसके लिए दु:ख का कारण बन जाते हैं। इसीलिए कहा गया है-

कुमति कुंज तिन जेहि घर व्यापै सुमति सुहागिन जाय विलापै।

विपत्ति एवं सम्पत्ति का अर्थ-किसी कार्य को बिना सोचे-समझे नहीं करना चाहिए, क्योंकि अविवेक के कारण मनुष्य बड़ी विपत्ति (मुसीबत) में फँस जाता है। इसके विपरीत सोच-समझकर अर्थात् विवेक या सुमति से कार्य करने पर व्यक्ति के सभी कार्य सिद्ध होते हैं जिससे उसके जीवन में सुख-समृद्धि आती है। इन्हीं सुख-समृद्धियों को सम्पत्ति कहा जाता है। सम्पत्ति से आशय केवल धन-दौलत से नहीं होता आपति मन का चैन, शान्ति और सन्तोष भी सम्पत्ति के अभिन्न अंग हैं। कबीरदास जी ने तो सन्तोष को सबसे बड़ा धन (सम्पत्ति) कहा है–

गोधन, गजधन, बाजिधन, और रतन-धन खान।
जौ आवै सन्तोष-धन, सब धन धूरि समान॥

सम्पत्ति का साधन: सुमति–संसार में जो व्यक्ति सोच-समझकर अर्थात् विवेक अथवा सुमति से कार्य करता है, उसके पास विभिन्न प्रकार की सम्पत्तियाँ अपने आप आती हैं। स्पष्ट है कि जहाँ सुमति का साम्राज्य होता है, वहाँ सम्पत्ति स्वयं घर बनाकर रहती है। सुमति के अभाव में मनुष्य सोच-विचारकर कार्य नहीं करता; परिणामस्वरूप उसे अनेक कष्टों को भोगना पड़ता है–

बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय।

गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में कहा है-

जाको विधि दारुन दुख देई, ताकी मति पहलेहि हर लेई।

अर्थात् जिसे ईश्वर घोर कष्ट देना चाहता है, उसकी बुद्धि को वह पहले ही छीन लेता है। जब किसी व्यक्ति की बुद्धि उससे छिन जाती है तो वह कुबुद्धि के प्रभावस्वरूप अनैतिक आचरण करता है, जो उसके लिए महान् दु:ख का कारण बन जाता है। इसलिए इस बात में कोई संशय नहीं रह जाता है कि सुखों की प्राप्ति सुमति से ही सम्भव है।

सुमति हमें मानव-मूल्यों के पालन और संरक्षण की प्रेरणा देती है। प्रेम, मेल-मिलाप, भाईचारा, एकता, परोपकार, दया, करुणा आदि ऐसे ही जीवन-मूल्य हैं, जिन्हें सुमति पोषित करती है। जिस देश में लोग मिल-जुलकर कार्य करते हैं, उस देश में सर्वत्र सुख-समृद्धि फैली होती है। इसलिए हम सुमतिरूपी तलवार से दरिद्रता के बन्धनों को काट सकते हैं। सुमति हमारे कुविचारों पर नियन्त्रण रखती है, जिससे हम कोई अनुचित कार्य नहीं कर पाते। निकृष्ट कार्यों की जड़ कुमति होती है, इसलिए हमें सदैव सुमति से काम करना चाहिए।

सुमति से ही हमें विद्यारूपी धन की प्राप्ति होती है। सुमति हमें ज्ञानार्जन की ओर प्रेरित करती है, इसी की कृपा से हमें ज्ञान प्राप्त होता है। सुमति से रहित मनुष्य अँधेरे कुएँ में पड़े हुए मेंढक के समान होता है, जिसको कुएँ के बाहर के संसार का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं होता है। उसका संसार कुएँ की परिधि तक ही सीमित रहता है।
संसार के सभी सुख सुमति से ही प्राप्त होते हैं। परिवार हो या समाज, सुमति के बिना उनमें सुख का संचार हो ही नहीं सकता।
जिस देश और समाज में लोग सुमति से काम करते हैं, वह धन-धान्य एवं अनेक सुख से परिपूर्ण हो जाता है। जिस परिवार में पति और पत्नी सुमति से काम करते हैं, वह परिवार स्वर्ग के तुल्य हो जाता है, किन्तु जिन परिवारों में सुमति का अभाव होता है, उन परिवारों को वातावरण अत्यधिक तनाव एवं क्लेश के कारण नरकतुल्य हो जाता है।

सुमति एवं नैतिकता-यदि हम यह कहें कि सुमति ही शक्ति है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति न होगी। जिस देश या जाति में सुमति होती है, वही उन्नति की ओर अग्रसर होते हैं और उनका यश चारों दिशाओं में फैलता है। सुमति सफलता का मार्ग प्रशस्त करती है। जो व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में भी सुमति का आश्रय नहीं छोड़ते हैं, वे ही जीवन में उन्नति के शिखर पर पहुँचते हैं। सत्य बोलना, मीठा बोलना, बड़ों का आदर करना आदि मानवोचित गुण हमें सुमति द्वारा ही प्राप्त होते हैं। जिस व्यक्ति में सुमति का अ गव होता है, उसमें अभिमान, ईष्र्या, द्वेष आदि दोष प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। मनुष्य में सुमति का न होना उस, लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। जहाँ सुमति नहीं होती, वहाँ काम, क्रोध, मद, लोभ आदि का साम्राज्य होता है. सुमति के अभाव में मनुष्य ऐसे-ऐसे कार्य कर डालता है जो उसके एवं समाज दोनों के लिए हानिकार होते हैं। कुमति के कारण लोग परस्पर संघर्ष करते हैं एवं अपने आचरण से दूसरों को कष्ट पहुँचाते हैं। ‘सरों को कष्ट पहुँचाकर कोई भी व्यक्ति सुखी नहीं रह सकता; अतः कुमति के कारण दूसरों को पीड़ पहुंकर व्यक्ति स्वयं भी अपार पीड़ा को भोगता है।

सुमति और एकता-सुमति समाज को एकता के सूत्र में बाँधती है। एकता सुख एवं समृद्धि की जननी है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि एकता से समाज में शक्ति का संचार होता है और आपसी फूट तथा भेदभाव उसे छिन्न-भिन्नकर डालते हैं। इसीलिए हमारे राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है ।

घटे न हेल-मेल हा! बढ़े न भिन्नता कभी,
अतयं एक पन्थ के सतर्क पान्थ हों सभी।

उपसंहार-आज कुमति एवं अविवेक के कारण ही सम्पूर्ण संसार विनाश के ज्वालामुखी पर बैठा है। परमाणु अस्त्रों की होड़ ने उसके अस्तित्व पर ही प्रश्न-चिह्न खड़ा कर दिया है। उसकी कुमति अथवा अविवेक ने ही संसार में आतंकवाद को फैलाकर उसके मन का सुख-चैन एवं शान्ति भंग कर दी है। भ्रष्टाचार जैसे अनैतिक कार्य भी उसकी कुमति का ही परिणाम हैं। सुमति द्वारा ही मनुष्य का कल्याण सम्भव है। हम आज के समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, द्वेष एवं घृणा पर विजय केवल सुमति द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं। सुमति ही हमें अनीति, अन्याय एवं अत्याचार से निपटने का उपाय सुझाती है। इसी के द्वारा हम समाज में न्याय एवं नैतिकता की पुनस्र्थापना कर सकते हैं। यदि मनुष्य सुमति का आश्रय ले तो समाज में सत्यम्, शिवम् एवं सुन्दरम् के साम्राज्य की स्थापना होगी, इसमें किसी भी प्रकार को कोई संशय नहीं है।

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत [2014]

सम्बद्ध शीर्षक

  • इच्छा-शक्ति के चमत्कार
  • साहस जहाँ सिद्धि वहाँ [2016]
  • मन ही सफलता की कुंजी है।
  • मन की शक्ति का महत्त्व
  • नर हो न निराश करो मन को [2013]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. मन महाशक्तिवान् है,
  3. मन-विजयी अपने मार्ग पर अडिग रहता है,
  4. सफलता की कुंजी : मन की स्थिरता, धैर्य और सतत कर्म,
  5. मानसिक दुर्बलता का उपचार,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना--मनु महाराज ने कहा है-‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः’ अर्थात् मनुष्य का मन ही उसके बन्धन और मोक्ष का कारण है। आशय यह है कि यदि मानव अपने मन को सांसारिक विषय-भोगों में आसक्त रखे तो वह बन्धन में पड़ा रहेगा और आवागमन के चक्र में घूमता रहेगा, किन्तु यदि वह संसार से मुंह फेरकर ईश्वर की ओर उन्मुख हो जाए तो दुर्लभ मोक्ष प्राप्त कर लेगा। इस प्रकार मनुष्य की वास्तविक शक्ति उसके मन में निहित है, शरीर या बाह्य साधनों में नहीं। बाह्य साधन रखते हुए भी यदि आदमी का मन दुर्बल हो जाए तो वह हार जाता है और यदि मन सबल हो तो अल्प साधनों के बल पर भी वह दिग्विजय प्राप्त कर सकता है। वैदिक मन्त्रों में मन की प्रकृति को स्पष्ट किया गया है

यज्जागृतो दूरमुपैति दैवं यत्सुप्तस्य तथैवेति ।
दूरङ्गमं ज्योतिष ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिव संङ्कल्पमस्तु ।।

अर्थात् जो मन हमारे जागने पर दूर चला जाता है, सोने पर भी कहीं अन्य चला जाता है, जो बहुत दूर जाने की शक्ति रखता है, जो प्रकाशों का भी प्रकाश है, वह मन मेरे लिए कल्याणकारी चिन्तन करें।

शास्त्रकारों ने इन्द्रियों का स्वामी मन को माना है। गीता में मन को चंचल माना गया है। वेद भी कहते हैं कि मन सबसे अधिक शक्तिशाली है, इसकी शक्ति अपरिमित है। मनुष्य शारीरिक दृष्टि से चाहे कितना भी बलशाली क्यों न हो, यदि वह मानसिक रूप से क्षीण है तो वह अपने जीवन में प्रगति नहीं कर सकता। कबीर ने कहा है

सुख-दुःख सब कहँ परत हैं, पौरुष तजहुँ न मीत।
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत ॥

तात्पर्य यह है कि सुख और दुःख सभी पर आते हैं। मनुष्य को कभी भी दुःख से घबराकर पौरुष का त्याग नहीं करना चाहिए, क्योंकि मन के द्वारा हार स्वीकार किये जाने पर व्यक्ति की हार सुनिश्चित है। इसके विपरीत यदि मनुष्य का मन हार स्वीकार नहीं करता, तो विपरीत परिस्थितियों में भी विजयश्री उसके चरण चूमती है।

मन महाशक्तिवान् है—इतिहास के अनुसार मुहम्मद गोरी के एक सेनापति मुहम्मद-बिनबख्तियार ने सन् 1197 ई० में केवल 2000 सिपाहियों को लेकर बिहार को जीत लिया था और इससे भी कम सिपाहियों को लेकर बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन की राजधानी नदिया (नवद्वीप) पर आक्रमण किया था। बिना लड़े ही लक्ष्मणसेन भाग गया और बंगाल पराजित हो गया। स्पष्ट है कि बिहार और बंगाल के शासक लड़ाई के मैदान में हारने से पहले ही मन से हार चुके थे, इसलिए वे थोड़े-से आक्रमणकारियों का भी सामना न कर सके। इसी प्रकार जब भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कुरुक्षेत्र में कहते हैं

मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् !

अर्थात् हे अर्जुन! मैं इन कौरव-वीरों को पहले ही मार चुका हूँ, तू तो इन्हें मारने का बस निमित्तमात्र हो जा, तो उनका आशय यही है कि कुरुक्षेत्र के युद्ध में उतरने से पहले ही कौरव मन से हार चुके थे, मर चुके थे। उन्हें विश्वास हो गया था कि वे इस धर्मयुद्ध में पाण्डवों से नहीं जीत सकेंगे। बस, वे तो केवल दुर्योधन के हेठ के कारण लड़ रहे थे। इस प्रकार वास्तविक जय-पराजय, सफलता-असफलता तो मन की दृढ़ता या दुर्बलताओं पर निर्भर है, साधनों पर नहीं। यही बात लंका पर श्रीराम की विजय के दृष्टान्त से भी पुष्ट होती है। श्रीराम के पास वैसी सशस्त्र सेना भी न थी, फिर भी लंका जैसे दुर्जेय साम्राज्य को जीतना, रावण जैसे त्रैलोक्यविजयी अपराजेय शत्रु से मोर्चा लेना, दुर्लंघ्य सागर को केवल पैदल चलकर ही पार करना मन में अडिग विश्वास का ही परिणाम था और इसी से सम्पूर्ण राक्षस कुल का विनाश सम्भव हुआ। इससे स्पष्ट है कि महापुरुषों को सफलता साधनों के बल पर नहीं, अपने आत्मबल, अपनी दृढ़चित्तता, अपने अडिग निश्चय के बल पर मिलती है।

मन-विजयी अपने मार्ग पर अडिग रहता है--सर्वोच्च तथा गूढ़ तत्त्व के रूप में मन मनुष्य की उच्चतम श्रेष्ठ शक्तियों पर नियन्त्रण करने वाला होता है और उन शक्तियों को सबसे प्रखर रूप में वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जिसका मन पूर्णतया नियन्त्रित है। औरंगजेब ने महाराजा जयसिंह को काबुल-विजय के लिए भेजा। बीच में अटक का विकराल महानद रास्ता रोके अड़ा था। सेनापति बोला–“महाराज, अटक अटक रहा है।” जयसिंह ने कहा–

सबै भूमि गोपाल की, या में अटक कहाँ ।
जाके मन में अटक है, सोई अटक रहा ॥

और अपनी घोड़ा उफनते महानद में डाल दिया। उनके साथ ही सारी सेना भी अटक पार कर गयी। दृढ़चित्त महापुरुषों का व्यवहार ऐसा ही असाधारण होती है। उनके सामने कोई भय, कोई विपत्ति, कोई बाधा टिकती ही नहीं। अपने अपराजेय मन के बूते पर वे सब कुछ जीतते चले जाते हैं।

छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास ने उनकी परीक्षा लेने के लिए कहा-“शिवा, मैं उदरशूल (पेट के दर्द) से व्याकुल हूँ। यदि शेरनी का दूध मिले तो इसका उपचार हो।” गुरुभक्त शिवा ने एक क्षण की भी हिचकिचाहट दिखाये बिना तत्काल वन को प्रस्थान कर दिया और सिंहनी उनके सामने गाय बनकर चुपचाप खड़ी दूध दुहवाती रही। ऐसी दृढ़चित्तता के सामने पर्वत झुक जाते हैं, नदियाँ पट जाती हैं और समुद्र मार्ग दे देता है। संसार की कोई भी बाधा इसके सामने टिक नहीं पाती, परन्तु ऐसा तभी होता है, जब हम अपनी इन्द्रियोंसहित मन पर भी नियन्त्रण रखें; क्योंकि नियन्त्रण सरल नहीं है। मन के बारे में लिखा है-‘मनः शीघ्रतरं वातात्’ अर्थात् मन की गति हवा से भी अधिक तेज है। यहीं बैठे एक क्षण में ही मन पूरा विश्व घूमने की बात सोच सकता है।

मन की अस्थिरता हार का कारण बनती है और एकाग्रता जीत का। अर्जुन मछली की आँख पर निशाना इसीलिए साध सका; क्योंकि उसका मन एकाग्र था। सावित्री अपने दृढ़ मनोबल के कारण ही अपने मृत पति सत्यवान के प्राण यमराज से छुड़वा सकी।

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर एक ऐसे गरीब घर में पैदा हुए थे कि रात में पढ़ने के लिए दीपक में तेल तक नहीं रहता था। फलतः सड़क के किनारे लगी लालटेन की टिमटिमाती धीमी रोशनी के नीचे खड़े होकर रातभर पढ़ते रहते थे। जब नींद जोर मारती तो आँख में सरसों का तेल लगा लेते। बंगाल में एक-से-एक बढ़कर विद्वान् हुए हैं, लेकिन विद्यासागर केवल ईश्वरचन्द्र ही कहलाए।

सफलता की कुंजी: मन की स्थिरता, धैर्य एवं सतत कर्म-वास्तव में मन की स्थिरता ही सफलता की कुंजी है। मन को नियन्त्रित करके ही व्यक्ति प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त करता है। जब तक मन एकाग्र न हो, मनुष्य कोई भी विद्या ग्रहण नहीं कर सकता। मूर्ख कालिदास मन की एकाग्रता के कारण ही संस्कृत जगत् में महाकवि कालिदास के नाम से प्रसिद्ध हुए। ‘किंग ब्रूस और स्पाइडर’ की छोटी-सी कथा में भी यही सार निहित है कि मन से न हारने वाले, स्थिर, धैर्य और सतत कर्म में निरत व्यक्ति को एक-न-एक दिन सफलता अवश्य ही मिलती है। जीवन में सफलता और असफलताएँ अनेक बार आती हैं। मनुष्य सफलता पर प्रसन्न और असफलता परे दु:खी होता है। असफल होने पर भी हमें अपने मन को नियन्त्रित रखना चाहिए, उसके वशीभूत नहीं होना चाहिए। साहस और उत्साह से मन को पुनः कार्य में लगाकर असफलता को सफलता में बदल देना महानता का लक्षण है।

दृढ़चित्तता की एक प्रमुख विशेषता है—प्रत्येक परिस्थिति में अविचलित रहना। सुख-दु:ख, आशानिराशा, स्तुति-निन्दा, निर्धनता-सम्पन्नता, तत्काल प्राणनाश की आशंका या दीर्घायु कोई भी अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति ऐसे धीर को उसके द्वारा स्वीकृत न्याय-मार्ग से डिगा नहीं सकती-

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वो यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ॥ ( भर्तृहरि, नीतिशतक)

ऐसे दृढ़चित्त धीर पुरुष जब एक बार किसी काम को शुरू कर देते हैं, फिर चाहे लाखों विघ्न-बाधाएँ आकर बार-बार टकराएँ, वे काम पूरा करके ही दम लेते हैं। गीता में ऐसे धीर पुरुषों को स्थितप्रज्ञ कहा गया है, जो सुख-दुःख और जय-पराजय को समभाव से ग्रहण करते हैं—सुखदुखे समे कृत्वा, लाभालाभौ जयाजयौ।

मानसिक दुर्बलता का उपचार-मानसिक दुर्बलता को दूर करने के लिए अथवा मन को शक्तिसम्पन्न बनाने के लिए अपने मन में कभी भी निराशावादी विचारों को नहीं आने देना चाहिए। आशावादी व्यक्ति कर्म करते हुए अलभ्य वस्तु को भी पा लेता है और जगत् में प्रसिद्धि भी प्राप्त करता है। मैथिलीशरण गुप्त जी कहते हैं

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रहकर कुछ नाम करो
X               X                    X
समझो न अलभ्य किसी धन को

यदि हम अपने को विश्व में दूसरे से श्रेष्ठ और ऊँचा दिखाना चाहते हैं तो हमें अपने मनोबल को ऊँचा उठाकर अपनी आशा को बलवती बनाये रखना होगा। विद्वानों के अनुसार हर प्रकार की मानसिक दुर्बलता को दूर करने का व्यावहारिक उपचार यह है कि मनुष्य विपरीत दिशा में सोचना शुरू कर दे; उदाहरणार्थ“मेरा व्यक्तित्व अपूर्ण नहीं है। उसमें कोई त्रुटि या कमजोरी है तो मैं उसे दूर करके रहूँगा। मुझे ईश्वर ने अपना ही रूप बनाया है। उसने मुझे पूर्ण मनुष्य बनने की आज्ञा दी है। पूर्ण पुरुष परमात्मा की मैं रचना हूँ, फिर मैं अपूर्ण कैसे हो सकता हूँ? मेरे जीवन की पूर्णता ही सत्य है। बनाने वाले ने मुझे दीन-हीन-दुर्बल बनने के लिए पैदा नहीं किया। इस प्रकार के विचार निरन्तर अपने मन में दुहराते रहने से मनुष्य कर्म से अपने मन को सबल बनाता जाता है।

उपसंहार-सारांश यह है कि मानव-मन अजस्र शक्ति का स्रोत है। मन की इसी शक्ति को पहचानकर ऋग्वेद में कहा गया है–“अहमिन्द्रो न पराजिग्ये’, अर्थात् मैं शक्ति का केन्द्र हूँ और आजीवन पराजित नहीं हो सकता। आवश्यकता है इस शक्ति को पहचानने की। जो पुरुष स्वभाव से ही दृढ़चित्त होते हैं, वे संसार में महान् कार्य करके, इतिहास को नया मोड़ देकर, सदा के लिए अपना नाम अमर कर जाते हैं। ऐसों को ही महापुरुष, महामानव या महात्मा कहा जाता है।

दैव-दैव आलसी पुकारा

सम्बद्ध शीर्षक

  • परिश्रम का महत्त्व
  • करम प्रधान बिस्व करि राखा

प्रमुख विचार-विन्द

  1. प्रस्तावना,
  2. भाग्यवाद : अकर्मण्यता का सूचक,
  3. प्रकृति भी परिश्रम का पाठ पढ़ाती है,
  4. शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम,
  5. भाग्य और पुरुषार्थ,
  6. सफलता का रहस्य : श्रम,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना-जीवन के उत्थान में परिश्रम का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए, ऊँचा उठने के लिए और सुयश प्राप्त करने के लिए श्रम ही आधार है। श्रम से कठिन-से-कठिन कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं। जो श्रम करता है, भाग्य भी उसका ही साथ देता है। जो निष्क्रिय रहता है, उसका भाग्य भी विपरीत हो जाता है। श्रम के बल पर लोगों ने उफनती जलधाराओं को रोककर बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण कर दिया। इन्होंने श्रम के बल पर उत्तुंग, अगम्य पर्वत-चोटियों पर अपनी विजय का ध्वज फहरा दिया। श्रम के बल पर मनुष्य चन्द्रमा पर पहुँच गया। श्रम के द्वारा ही मानव समुद्र को लाँघ गया, खाइयों को पाट दिया तथा कोयले की खदानों से बहुमूल्य हीरे खोज निकाले। मानव सभ्यता और उन्नति का एकमात्र आधार श्रम ही है। श्रम के सोपानों का अवलम्ब लेकर मनुष्य अपनी मंजिल पर पहुँच जाता है। अतः परिश्रम ही मानव-जीवन का सच्चा सौन्दर्य है; क्योंकि परिश्रम के द्वारा ही मनुष्य अपने को पूर्ण बना सकता है। परिश्रम ही उसके जीवन में सभाग्य, उत्कर्ष और महानता लाने वाला है। जयशंकर प्रसाद जी ने भी कहा है

जितने कष्ट कण्टकों में है, जिनका जीवन-सुमन खिला,
गौरव-गन्ध उन्हें उतना ही, यत्र तत्र सर्वत्र मिला।

भाग्यवाद : अकर्मण्यता का सूचक-जिन लोगों ने परिश्रम का महत्त्व नहीं समझा; वे अभाव, गरीबी और दरिद्रता का दुःख भोगते रहे। जो लोग मात्र भाग्य को ही विकास का सहारा मानते हैं, वे भ्रम में हैं। आलसी और अकर्मण्य व्यक्ति सन्त मलूकदास का यह दोहा उधृत करते हैं-

अजगर करे न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम ॥

मेहनत से जी चुराने वाले दास मलूका के स्वर में स्वर मिलाकर भाग्य की दुहाई के गीत गा सकते हैं; लेकिन वे नहीं सोचते कि जो चलता है, वही आगे बढ़ता है और मंजिल को प्राप्त करता है। कहा भी गया है|

उद्यमेन ही सिद्ध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥

अर्थात् परिश्रम से सभी कार्य सफल होते हैं, केवल कल्पना के महल बनाने से व्यक्ति अपने मनोरथ को पूर्ण नहीं कर सकता। शक्ति और स्फूर्ति से सम्पन्न गुफा में सोया हुआ वनराज शिकार-प्राप्ति के ख्याली पुलाव पकाती रहे तो उसके उदर की अग्नि कभी भी शान्त नहीं हो सकती। सोया पुरुषार्थ फलता नहीं है। ऐसे ही अकर्मण्य व आलसी व्यक्ति के लिए कहा गया है

सकल पदारथ एहि जग माहीं। करमहीन नर पावत नाहीं॥

अर्थात् संसार में सुख के सकल पदार्थ होते हुए भी कर्महीन लोग उसका उपभोग नहीं कर पाते। जो कर्म करता है, फल उसे ही प्राप्त होता है और जीवन भी उसी का जगमगाता है। उसके जीवन उद्यान में ही रंग-बिरंगे सफलता के सुमन खिलते हैं।

परिश्रम से जी चुराना, आलस्य और प्रमोद में जीवन बिताने के समान बड़ा कोई पाप नहीं है। गाँधी जी का कहना है कि जो लोग अपने हिस्से का काम किये बिना ही भोजन पाते हैं, वे चोर हैं। वास्तव में काहिली कायरों और दुर्बल जनों की शरण है। ऐसे आलसी मनुष्य में न तो आत्म-विश्वास ही होता है और न ही अपनी शक्ति पर भरोसा। किसी कार्य को करने में न तो उसे कोई उमंग होती है और न स्फूर्ति। परिणामस्वरूप पग-पग पर असफलता और निराशा के कॉटे उसके पैरों में चुभते हैं।

प्रकृति भी परिश्रम का पाठ पढ़ाती है-प्रकृति के प्रांगण में झाँककर देखें तो चींटियाँ रात-दिन अथक परिश्रम करती हुई नजर आती हैं। पक्षी दाने की खोज में अनन्त आकाश में उड़ते हुए दिखाई देते हैं। हिरन आहार की खोज में वन-उपवन में कुलाँचे भरते रहते हैं। समस्त सृष्टि में श्रम का चक्र निरन्तर चलता ही रहता है। जो लोग श्रम को त्यागकर आलस्य का आश्रय लेते हैं वे जीवन में कभी सफल नहीं होते, क्योंकि ईश्वर भी उनकी सहायता नहीं करता–“God helps those who help themselves.” परिश्रमी व्यक्ति के लिए सफलता व स्वागत के द्वार स्वयमेव खुल जाते हैं-

कर्मवीर के आगे पथ का, हर पत्थर साधक बनता है।
दीवारें भी दिशा बतातीं, जब वह आगे को बढ़ता है।

वस्तुत: परिश्रम द्वारा प्राप्त हुई उपलब्धि से जो मानसिक सन्तोष व आत्मिक तृप्ति प्राप्त होती है वह निष्क्रिय व्यक्ति को कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। प्रकृति ने ही यह विधान बनाया है कि बिना परिश्रम के खाये हुए अन्न का पाचन भी सम्भव नहीं। व्यक्ति को विश्राम का आनन्द भी तभी प्राप्त होता है जब उसने भरपूर श्रम किया हो। वस्तुत: श्रम उन्नति, उत्साह, स्वास्थ्य, सफलता, शान्ति व आनन्द का मूलाधार है।

शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम-परिश्रम चाहे शारीरिक हो अथवा मानसिक दोनों ही श्रेष्ठ । सत्य तो यह है कि मानसिक श्रम की अपेक्षा शारीरिक श्रम कहीं अधिक श्रेयस्कर है। गाँधी जी की मान्यता है। कि स्वस्थ, सुखी और समुन्नत जीवन के लिए शारीरिक श्रम अनिवार्य है। शारीरिक श्रम प्रकृति का नियम है। और इसकी अवहेलना निश्चय ही हमारे जीवन के लिए बहुत ही दुःखदायी सिद्ध होगी। परन्तु यह बड़ी लज्जा और क्षोभ की बात है कि आज मानसिक श्रम की अपेक्षा शारीरिक श्रम को नीची निगाहों से देखा जाता है। लोग अपना काम अपने हाथों से करने में लज्जा का अनुभव करते हैं।

भाग्य और पुरुषार्थ-भाग्य और पुरुषार्थ जीवन के दो पहिये हैं। भाग्यवादी बनकर हाथ पर हाथ रखकर बैठना मौत की निशानी है। परिश्रम के बल पर ही मनुष्य अपने बिगड़े भाग्य को बदल सकता है। परिश्रम ने महा मरुस्थलों को हरे-भरे उद्यानों में बदल दिया तथा मुरझाये जीवन में यौवन का वसन्त खिला दिया। कवि ने इन भावों को कितनी सुन्दर अभिव्यक्ति दी है

प्रकृति नहीं डरकर झुकती कभी भाग्य के बल से।
सदा हारती वह मनुष्य के उद्यम से श्रम जल से ।

परिश्रम सुमन का सौरभ है, मनुष्य का भाग्य है, जीवन का नवनीत है व देवताओं के वरदान से बढ़कर है। परिश्रम जीवन को नन्दन वन बना देता है। कवि श्रम का यशोगान करता हुआ कहता है

जीवन एक सुमन मानो तो सौरभ उसका श्रम है।
देवों की वरदान शक्ति भी इसके आगे कम है॥

सफलता का रहस्य : श्रम-महापुरुष बनने का प्रथम सोपान परिश्रमशीलता है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं सभी कष्ट-सहिष्णुता और श्रम के कारण श्रद्धा, गौरव और यश के पात्र बने। वाल्मीकि, कालिदास, तुलसीदास आदि जन्म से महाकवि नहीं थे। उन्हें ठोकरें लगीं, ज्ञान-नेत्र खुले और अनवरत परिश्रम से महाकवि बने। गाँधी जी का सम्मान उनके परिश्रम एवं कष्ट-सहिष्णुता के कारण ही है। इन सबने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण श्रमरत रहकर बिताया। उसी का परिणाम था कि वे सफलता के उच्च शिखर तक पहुँच सके। महान् राजनेताओं, वैज्ञानिकों, कवियों, साहित्यकारों और ऋषि-मुनियों की सफलता का रहस्य एकमात्र परिश्रम ही है।

इतिहास साक्षी है कि भाग्य का आश्रय छोड़कर कर्म में तत्पर होने वाले लोगों ने ही इतिहास का निर्माण किया है, समय पर शासन किया है। कृष्ण यदि भाग्य के सहारे बैठे रहते तो एक ग्वाले का जीवन बिताकर ही काल-कवलित हो गये होते, नादिरशाह ईरान में जीवनपर्यन्त भेड़ों को ही चराता हुआ मर जाता, स्टालिन अपने वंश-परम्परागत व्यवसाय (जूते बनाने) को करता हुआ एक कुशल मोची बनता, खुश्चेव कोयले की खदान का मजदूर ही रह जाता, गोर्की कूड़े-कचरे के ढेर से चीथड़े ही बीनता रहता, बाबर समरकन्द से भागकर हिन्दूकुश की पर्वत-श्रेणियों में ही खो जाता, शेरशाह सूरी बिहार के गाँव में किसी किसान का हलवाहा होता, हैदरअली सेना का एक सामान्य सिपाही ही बना रहता, प्रेमचन्द एक प्राथमिक पाठशाला के अध्यापक के रूप में अज्ञात रह जाते और लाल बहादुर शास्त्री के लिए प्रधानमन्त्री का पद एक सुहावना सपना ही बना रहता। निश्चय ही इन्होंने जो कुछ पाया वह सब कुछ दृढ़ संकल्प शक्ति, साहस, धैर्य, अपने ध्येय में अटल विश्वास और कर्म शौर्य के कारण ही पाया। इनकी सफलता के पीछे किसी भाग्य अथवा संयोग का हाथ न था। दुष्यन्त कुमार ने कहा भी है–

कौन कहता है कि आसमाँ में सुराख नहीं होता।
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो ॥

ऊपर उल्लिखित पुरुषों ने सम्भवत: ऐसा ही कोई कथन अपने जीवन के प्रेरक के रूप में अपनाया होगा। संस्कृत में भी कहा गया है-

उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः।
दैवेन देयमिति का पुरुषा वदन्ति ।।
दैवं विहाय पौरुषमात्मकृत्या
यत्ने कृते यदि न सिद्ध्यति कोऽत्र दोषः ।।

तात्पर्य यह है कि उद्योगी पुरुष वास्तव में पुरुष-सिंह होता है, लक्ष्मी उसी का वरण करती है। ‘भाग्य देगा’ यह कायरों का कथन है। भाग्य को अलग रख कर परिश्रम करना चाहिए। यत्न करने पर भी यदि कुछ प्राप्त नहीं होता, तो इसमें तुम्हारा क्या दोष है ?

उपसंहार–परिश्रमी व्यक्ति राष्ट्र की बहुमूल्य पूँजी है। श्रम वह महान् गुण है, जिससे व्यक्ति को विकास और राष्ट्र की उन्नति होती है। संसार में महान् बनने और अमर होने के लिए परिश्रमशीलता अनिवार्य है। श्रम से अपार आनन्द मिलता है। महात्मा गाँधी ने हमें श्रम की पूजा का पाठ पढ़ाया। उन्होंने कहा-“श्रम से स्वावलम्बी बनने का सौभाग्य मिलता है। हम अपने देश को श्रम और स्वावलम्बन से ही ऊँचा उठा सकते हैं।” श्रम की अद्भुत शक्ति को देखकर ही नेपोलियन ने कहा था कि, “संसार में असम्भव कोई काम नहीं। असम्भव शब्द को तो केवल मूर्खा के शब्दकोष में ही हूँढ़ा जा सकता है।”

आधुनिक युग विज्ञान का युग है। प्रत्येक बात को तर्क की कसौटी पर कसा जा सकता है। भाग्य जैसी काल्पनिक वस्तुओं से अब जनता का विश्वास उठता जा रहा है। वास्तव में भाग्य श्रम से अधिक कुछ भी नहीं। श्रम का ही दूसरा नाम भाग्य है। जीवन में श्रम की महती आवश्यकता है। बिना श्रम के मानव-जाति का कल्याण नहीं, दुःखों से त्राण नहीं और समाज में उसका कहीं भी सम्मान नहीं। हमें सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अपने भाग्य के विधाता हम स्वयं हैं। जब हम कर्म करेंगे तो समय आने पर हमें उसका फल अवश्य ही मिलेगा। उसमें प्रकृति के नियमानुसार कुछ समय लगना स्वाभाविक ही है। कबीरदास ने ठीक ही कहा है-

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींच सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय ॥

को न कृसंगति पाई नसाई [2016, 18]

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना,
  2. कुसंगति का मानव-जीवन पर प्रभाव,
  3. कुसंगति की छूत,
  4. कुसंगी व्यक्ति की समाज में स्थिति,
  5. कुसंगति से हानि,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-“को न कुसंगति पाई नसाई’ का अर्थ है-कुसंगति में पड़कर कौन नष्ट नहीं हो जाता। इसका तात्पर्य बुरे लोगों की संगति में आकर बुरे व्यवहार व आचरण को अनुसरण करने से है। इस प्रकार व्यक्ति जो कुसंगति में आकर बुरा व्यवहार करने लगता है, उसका मानसिक विकास रुक जाता है। तथा कुसंगति के कारण ऐसे मनुष्य का यश, धन, वैभव आदि सभी कुछ नष्ट हो जाता है। समाज में ऐसे कई जीवंत उदाहरण देखे जा सकते हैं। कई कुसंगी मनुष्यों को समय रहते काफी कुछ खोना पड़ता है। कुसंगी व्यक्ति अपने बुरे चरित्र के कारण ही दूसरों को हानि पहुँचाने वाले होते हैं तथा ऐसे व्यक्ति के साथ जो पुरुष मित्रता करता है, वह भी शीघ्र ही बुराइयों से प्रभावित हो जाता है। आचार्य चाणक्य का कहना है-“मनुष्य को कुसंगति से बचना चाहिए। उनके अनुसार मनुष्य की भलाई इसी में है कि वह जितनी जल्दी हो सके कुसंगी व्यक्तियों का साथ छोड़ दे। कुसंगी व्यक्तियों के सन्दर्भ में निम्न सूक्ति दी गई है—

हानि कुसंग सुसंगति लाहू, लोकहुँ वेद विदित सब काहू।।
बिनसहू उपजइ ज्ञान जिमि, पाई कुसंग सुसंग॥

कुसंगति का मानव-जीवन पर प्रभाव-कुसंगति का मुख्य रूप एक ही है-दूषित विचारों का संग। मनुष्य के शरीर का संचालन मन-मस्तिष्क के ही सांकेतिक निर्देशों से होता है। जैसा विचार और जैसी भावनाएँ होंगी वैसी ही कर्म प्रेरणा होगी और तीनों के सम्मिलित प्रभाव से व्यक्तित्व विनिर्मित होगा। विचारों का संग दो प्रकार से होता है—पहला साहित्य के अध्ययन से तथा दूसरा व्यक्तियों के सम्पर्क से। संगति दोनों की ही प्रभावकारी होती है। सस्ता साहित्य, सनसनीखेज खबरें और बातें, अश्लील साहित्य तथा गपोड़बाजी, नशेबाजी, जुआरी, सटोरिया, कलही, दुव्यसनी व्यक्ति अपना दुष्प्रभाव अन्य व्यक्तियों पर भी डालते हैं। भली-बुरी दोनों ही प्रकार की प्रवृत्तियाँ प्रोत्साहन से पनपती हैं। प्रोत्साहन और अवसर न मिलने पर मुरझाकरे धीरे-धीरे मृतप्राय अवस्था में जा पहुँचती हैं। कुसंगति दुष्प्रवृत्तियों को बढ़ाती है और सत्प्रवृत्तियाँ उसकी प्रचण्ड आँच से झुलसती जाती हैं। इन प्रवृत्तियों से मानव प्रभावित होता है, क्योंकि दुष्प्रवृत्तियों का प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति पर पड़े बिना नहीं रहता। समाज में सदाचारी और दुराचारी दोनों प्रकार के लोग रहते हैं। दोनों ही समाज को प्रभावित करते हैं। समाज में रहने वाले अन्य व्यक्ति किसी सदाचारी व्यक्ति से इतनी जल्दी प्रभावित नहीं होते जितना कि दुराचारी व्यक्ति से प्रभावित होते हैं। भविष्य में जिसका विपरीत प्रभाव उनके क्रियाकलापों को देखने से स्पष्ट होता है।

कुसंगति की छुत-कुसंगति (बुरी संगति) को कीचड़ के समान बताया गया है कि इस कीचड़ से बचकर रहना चाहिए, अन्यथा यह हमारे आचरण को दूषित कर देगा। यदि कोई मनुष्य एक बार बुरी संगत में फँस गया है और कलंकित हो गया तो वह फिर बार-बार कलंकित होने से नहीं डरता और धीरे-धीरे बुरी आदतों का अभ्यस्त हो जाता है। जब बुराई आदत बन जाती है तब वह उससे घृणा भी नहीं करता और न बुरा कहने से चिढ़ता ही है।

कुसंगति में पड़े हुए व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है और उसे भले-बुरे की पहचान भी नहीं रह जाती। उसे बुराई ही भलाई दीखने लगती है और वह इतना गिर जाता है कि बुराई की पूजा भक्त की तरह करने लगता है। इसलिए यदि अपने हृदय और आचरण को निष्कलंक और उज्ज्वल बनाये रखना है तो कुसंगति की छूत से बचना चाहिए।

कुसंगी व्यक्ति की समाज में स्थिति–कुसंगी व्यक्ति की समाज में स्थिति घृणापूर्ण होती है। क्योंकि उसके कुमार्ग पर पैर रखते ही उसके शरीर में तेज, बल, बुद्धि लेशमात्र भी नहीं रह जाती है। आत्मबल में कमी आ जाती है; जैसे-सीता जी का अपहरण करने से पहले रावण इधर-उधर देखता रहा और भयग्रस्त होकर कुत्ते की तरह उसने आश्रम में प्रवेश किया। कुसंगी व्यक्ति की बुराइयाँ भयानक बीमारी की तरह होती हैं, जो बहुत कम समय में ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को अपनी चपेट में ले लेती हैं, जिससे कुसंगी व्यक्ति की संगत में आने वाला हर व्यक्ति उसके ही सामान रोगी हो जाता है जो समाज को बहुत बुरी तरह से आहत करते हैं। इससे समाज का भविष्य भी बुराइयों के अँधेरे में डूब जाता है। इसी कारण कुसंगी व्यक्तियों को समाज से बाहर ही रखा जाता है या समाज के लोगों को सूचित कर दिया जाता है कि ऐसे लोगों से दूर रहकर अपना व अपने बच्चों का भविष्य खराब होने से बचाएँ, जिससे आपकी आने वाली पीढ़ियों को भी उसके दुष्परिणामों से सुरक्षित रखा जा सके। इन सब कारणों के कारण कुसंगी व्यक्ति को समाज से मिलने वाली बहुत सी प्रताड़नाओं को झेलना पड़ता है।

कुसंगति से हानि–कुसंगति बहुत ही हानिकारक होती है। यदि किसी व्यक्ति पर कुसंगति का कोई प्रभाव न पड़ रहा हो, फिर भी कुसंगी व्यक्तियों के साथ रहने के कारण उसे बुरा ही समझा जाता है। कोई चोरी न भी करे लेकिन यदि वह चोरों के साथ मिलता-जुलता भी है, तो लोग उसे भी चोर ही कहेंगे। विद्यार्थियों के लिए तो कुसंगति विनाश को जन्म देती है। इसमें पड़कर विद्यार्थी बहुत-सी बुराइयों को ग्रहण कर लेते हैं।

कुसंगति में रहने से कोई भी सुख प्राप्त नहीं होता, बल्कि थोड़ा-बहुत सुख-चैन होता भी है, वह भी नष्ट हो जाता है। अत: कुसंगति समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व को नष्ट करती है, जो भविष्य में उसके लिए हानिप्रद होती है।

उपसंहार-कुसंगति मानव-जीवन के लिए एक अभिशाप है क्योंकि कुसंगति का मानव-जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है और इससे सदैव हानि ही होती है। मनुष्य कितना ही सतर्क और सावधान रहे कुसंगति काजल की कोठरी के समान होती है जिसकी चपेट में व्यक्ति कभी-न-कभी आ ही जाता है, जिससे उसके जीवन का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति को उसके खुद के परिवार के साथ-साथ समाज के अन्य व्यक्ति भी स्वीकार नहीं करते हैं और हर तरफ से सिर्फ प्रताड़नाएँ मिलती हैं। इससे कुसंगी व्यक्ति के मन में सभी के प्रति गलत भावनाएँ घर कर लेती हैं जो दूसरों की हानि देखकर उसे प्रसन्नता प्रदान करती हैं। ऐसे व्यक्ति अपना शरीर त्याग करके भी दूसरों का अहित करने का पाठ पढ़ाते हैं; अतः कुसंगति से दूर ही रहना चाहिए। छात्रों के लिए तो कुसंगति विनाश लेकर आती है। इसमें पड़कर छात्र अनेक व्यसन सीख जाते हैं। कुसंगति के कारण महान-से-महान व्यक्ति भी पतन के गर्त में गिरता चला जाता है। कुसंगति व्यक्ति की बुद्धि को जड़ करती है, उसे पग-पग पर मान-हानि उठानी पड़ती है तथा व्यक्ति स्वार्थी हो जाता है; इसलिए सदैव कुसंगति से बचकर रहना चाहिए।

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UP Board Class 10 Home Science Model Papers Paper 2

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 10
Subject Home Science
Model Paper Paper 2
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 10 Home Science Model Papers Paper 2

समय : 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक : 70

निर्देश :
प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
सामान्य निर्देश :

  • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
  • प्रश्न-पत्र में बहुविकल्पीय, अतिलघु उत्तरीय, लघु उत्तरीय और दीर्घ उत्तरीय चार प्रकार के प्रश्न हैं। उनके उत्तर हेतु निर्देश प्रत्येक प्रकार के प्रश्न के पहले दिए गए हैं।

निर्देश :
प्रश्न संख्या 1 तथा 2 बहुविकल्पीय हैं। निम्नलिखित प्रश्नों में प्रत्येक के चार-चार वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। उनमें से सही विकल्प चुनकर उन्हें क्रमवार अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए।

प्रश्न 1.
(क) बजट बनाने से पहले आवश्यक है। [ 1 ]

  1. आय का पूर्वानुमान
  2. आय पर नियन्त्रण
  3. व्यय पर नियन्त्रण
  4. ये सभी

(ख) जल की कठोरता दूर की जा सकती है। [ 1 ]

  1. सौड़ा डालकर
  2. नमक डालकर
  3. चूना डालकर
  4. ब्लीचिंग पाउडर डालकर

(ग) टायफाइड के जीवाणु का नाम है। [ 1 ]

  1. ट्यूबरकुलोसिस बैसिलस
  2. कॉमा बैसिलस
  3. साल्मोनेला टाइफी
  4. वैरिओला वायरस

(घ) सूती तन्तु प्राप्त होता है। [ 1 ]

  1. बिनौलों से
  2. कीड़ों से
  3. निम्बौरी से
  4. इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 2.
(क) पौधे वायुमण्डल का शुद्धीकरण करते हैं। [ 1 ]

  1. नाइट्रोजन द्वारा
  2. ऑक्सीजन द्वारा
  3. कार्बन डाइऑक्साइड द्वारा
  4. जल द्वारा

(ख) पोषक तत्त्व नष्ट नहीं होते। [ 1 ]

  1. भूनकर पकाने से
  2. पानी में उबालने से
  3. तलने से
  4. भाप द्वारा पकाने से

(ग) बेरी-बेरी रोग किस विटामिन की कमी से होता है? [ 1 ]

  1. विटामिन ‘A’
  2. विटामिन ‘B’
  3. विटामिन ‘C’
  4. विटामिन ‘D’

(घ) नील का प्रयोग किस वस्त्र पर करते हैं? [ 1 ]

  1. रेशमी वस्त्र
  2. ऊनी वस्त्र
  3. सफेद सूती वस्त्र
  4. रंगीन वस्त्र

निर्देश :
प्रश्न संख्या 3 तथा 4 अतिलघु उत्तरीय हैं। प्रत्येक खण्ड का उत्तर अधिकतम 25 शब्दों में लिखिए।

प्रश्न 3.
(क) नाड़ी की गति पर किन बातों का प्रभाव पड़ता है? [ 2 ]
(ख) पारिवारिक बजट से आप क्या समझती हैं? [ 2 ]
(ग) जीवन रक्षक घोल (ओआरएस) किस रोगी को दिया जाता [ 2 ]
(घ) चल और अचल सन्धि में क्या अन्तर है? उदाहरण दीजिए [ 2 ]
(ङ) मल-मूत्र निकास की जल-संवहन विधि क्या है? [ 2 ]

प्रश्न 4.
(क) मृदा-प्रदूषण का जन-जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? [ 2 ]
(ख) मच्छरों से बचाव के कोई दो प्रमुख उपाय लिखिए। [ 2 ]
(ग) सिलाई किट की क्या उपयोगिता है? [ 2 ]
(घ) फ्रिज की सुरक्षा आप कैसे करेंगी? [ 2 ]
(ङ) जल में घुलनशील विटामिनों को पकाने में आप क्या सावधानी बरतेंगी? [ 2 ]

निर्देश :
प्रश्न संख्या 5 से 7 तक लघु उत्तरीय हैं, इसके प्रत्येक खण्ड का उत्तर 50 शब्दों के अन्तर्गत लिखिए।

प्रश्न 5.
(क) पारिवारिक बजट सम्बन्धी प्रमुख मद कौन-सी हैं? आय-व्यय के सन्तुलन के लिए बजट बनाना क्यों आवश्यक हैं? [ 1 + 3 ]
अथवा
पारिवारिक आय की परिभाषा लिखिए। प्रत्यक्ष आय तथा अप्रत्यक्ष आय में क्या अन्तर है? [ 2 + 2 ]

(ख) जल की अशुद्धियों से आप क्या समझती हैं? जल में कितने प्रकार की अशुद्धियाँ पाई जाती हैं।  [ 2 + 2 ]
अथवा
पर्यावरण प्रदूषण किसे कहते हैं? मानव जीवन पर पर्यावरण प्रदूषण के प्रभावों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए। [ 1 + 3 ]

प्रश्न 6.
(क) हड्डी की टूट एवं मोच में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [ 4 ]
अथवा
उचित श्वसन क्रिया से क्या तात्पर्य है? नाक से साँस लेने के प्रमुख लाभ स्पष्ट कीजिए। [ 1 + 3 ]

(ख) घायल के स्थानान्तरण से क्या आशय है? घायल व्यक्ति का स्थानान्तरण करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? [ 1 + 3 ]
अथवा
पुल्टिस की क्या उपयोगिता है? किन्हीं दो प्रकार की पुल्टिस बनाने की विधि लिखिए। [ 1 + 3 ]

प्रश्न 7.
(क) डूबने पर किस कृत्रिम श्वसन विधि का प्रयोग करते हैं? इस विधि का वर्णन कीजिए। [ 1 + 3 ]
अथवा
ममता  ₹ 1500 लेकर बाजार गई, उसने ₹ 250 के फल ₹ 150.50 की चीनी तथा ₹ 282 की चाय की पत्ती खरीदी। उसने कितना धन खर्च किया तथा कितना शेष रहा?

(ख) तरकारियों के छिलके छीलने से क्या हानि होती है?
अथवा
पाक क्रिया का वसा पर क्या प्रभाव पड़ता है?

निर्देश :

प्रश्न संख्या 8 से 10 तक दीर्घ उत्तरीय हैं। प्रश्न संख्या 8 एवं 9 में विकल्प दिए गए हैं। प्रत्येक प्रश्न के एक ही विकल्प, का उत्तर लिखना है। प्रत्येक प्रश्न का उत्तर, 100 शब्दों के अन्तर्गत लिखिए।

प्रश्न 8.
हैजा किस प्रकार फैलता है? इस रोग के लक्षण तथा बचने के उपायों का वर्णन कीजिए। [ 2 + 2 + 2 ] 
अथवा
संक्रामक रोग कैसे फैलते हैं? इन्हें फैलने से कैसे रोका जा सकता है? [ 3 + 3 ] 

प्रश्न 9.
फेफड़ों की रचना एवं कार्यों का सचित्र वर्णन कीजिए। [ 6 ] 
अथवा
आधुनिक रसोईघर में समय और शक्ति के बचाव के लिए कौन- कौन से उपकरण उपयोग में लाए जाते हैं? विवेचना कीजिए। [ 6 ] 

प्रश्न 10.
दाग-धब्बे छुड़ाने की विधियाँ लिखिए। पान अथवा कॉफी के दाग कैसे छुड़ाएँगी। [ 2 + 2 + 2 ] 

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 13 Public Finance

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 13 Public Finance (राजस्व) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 13 Public Finance (राजस्व).

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Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 13
Chapter Name Public Finance (राजस्व)
Number of Questions Solved 20
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 13 Public Finance (राजस्व)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
राजस्व या लोकवित्त का अर्थ एवं परिभाषाएँ बताइए तथा लोकवित्त का अध्ययन-क्षेत्र स्पष्ट कीजिए। [2006, 08]
उत्तर:
राजस्व या लोकवित्त अर्थशास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण विभाग है, जिसका अभिप्राय “सरकारी प्रक्रिया में आयगत व्यय के चारों और जटिल समस्याओं के केन्द्रीकरण से है।” यह अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र की मध्य सीमा पर स्थित अर्थविज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण अंग है, जो राज्यों के वित्तीय पक्ष का विधिवत् अध्ययन करता है।
राजस्व की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

प्रो० डाल्टन के अनुसार, “राजस्व के अन्तर्गत सार्वजनिक सत्ताओं से आय व व्यय एवं उनका एक-दूसरे से समायोजन एवं समन्वय का अध्ययन किया जाता है।”
एडम स्मिथ के अनुसार, “राज्य व्यय तथा आय के सिद्धान्त एवं स्वभाव के अनुसन्धान को राजस्व कहते हैं।”
फिण्डले शिराज के अनुसार, “राजस्व ऐसे सिद्धान्त का अध्ययन है जो कि सार्वजनिक सत्ताओं के व्यय एवं कोषों की प्राप्ति से सम्बन्धित है।”
लुट्ज के अनुसार, “राजस्व उन साधनों की प्राप्ति, संरक्षण और वितरण कर अध्ययन करता है। जो राजकीय या प्रशासन सम्बन्धी कार्यों को चलाने के लिए आवश्यक है।”

राजस्व या लोकवित्त का अध्ययन-क्षेत्र
राज्य द्वारा वित्तीय व्यवस्था से सम्बन्धित जो भी नीतियाँ एवं सिद्धान्त निर्मित किये जाते हैं वे सभी राजस्व की विषय-सामग्री के अन्तर्गत सम्मिलित किये जाते हैं। राजस्व के अन्तर्गत निम्नलिखित बिन्दुओं का अध्ययन किया जाता है

1. सार्वजनिक आय – राजस्व के अन्तर्गत सरकार की आय के विभिन्न स्रोतों, आय के स्रोतों के सिद्धान्तों, आय के साधनों का क्रियान्वयन एवं उनके पड़ने वाले प्रभावों आदि का अध्ययन किया जाता है। संक्षेप में, राजस्व के अन्तर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है कि सरकार की आय के प्रमुख स्रोत कौन-कौन से हैं? इसमें कर, कर के सिद्धान्त एवं करों के प्रभावों आदि का अध्ययन किया जाता है।

2. सार्वजनिक व्यय – सार्वजनिक व्यय के अन्तर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है कि सरकार द्वारा प्राप्त आय को जनता के कल्याण हेतु किस प्रकार व्यय किया जाए ? व्यय के सिद्धान्त क्या होने चाहिए, सार्वजनिक व्यय का समाज के उत्पादन, उपभोग, वितरण तथा आय व रोजगार पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?

3. सार्वजनिक ऋण – जब सरकार की आय, व्यय की अपेक्षा कम होती है तब सार्वजनिक व्ययों की पूर्ति हेतु सरकार को ऋण लेने पड़ते हैं। ये ऋण आन्तरिक एवं बाह्य दोनों साधनों से प्राप्त किये जा सकते हैं। सार्वजनिक ऋण कहाँ से प्राप्त किये जाएँ, ऋण लेने के उद्देश्य, ऋणों को किस प्रकार लौटाना है व ऋणों पर ब्याज की दरें क्या होनी चाहिए आदि बातों का अध्ययन सार्वजनिक ऋण के अन्तर्गत किया जाता है।

4. संघीय वित्त – भारत में संघात्मक वित्तीय प्रणाली को अपनाया गया है अर्थात् केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारों एवं केन्द्रशासित प्रदेशों के बीच आय का बंटवारा किन सिद्धान्तों के आधार पर किया जाए तथा केन्द्र सरकार राज्यों को किस अनुपात में अनुदान आदि का वितरण करे आदि का अध्ययन संघात्मक वित्त-व्यवस्था के अन्तर्गत आता है।

5. वित्तीय प्रशासन – वित्तीय प्रशासन के अन्तर्गत सम्पूर्ण वित्तीय व्यवस्था का अध्ययन किया जाता है। बजट किस प्रकार बनाया जाए, बजट को पारित करना, करों का निर्धारण एवं करों का संग्रह करना, सार्वजनिक व्ययों का संचालन व नियन्त्रण तथा सार्वजनिक व्यय की अंकेक्षण (Audit) वित्तीय प्रशासन में सम्मिलित हैं।

6. राजकोषीय नीति एवं आर्थिक सन्तुलन – राजकोषीय नीति के द्वारा अर्थव्यवस्था में आर्थिक स्थायित्व (Economic Stability) एवं आर्थिक विकास (Economic Development) से सम्बन्धित कार्यक्रम तैयार किया जाता है अर्थात् अर्थव्यवस्था को स्थिरता प्रदान करने के लिए देश के तीव्र आर्थिक विकास हेतु कर, आय, व्यय, ऋण एवं घाटे की अर्थव्यवस्था को किस प्रकार क्रियान्वित किया जाये जिससे कि देश में आर्थिक स्थिरता बनी रहे तथा देश का तीव्र गति से आर्थिक विकास हो सके। सुदृढ़ एवं संगठित वित्तीय नीति आर्थिक विकास व आर्थिक स्थिरता प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है।

प्रश्न 2
राजस्व के महत्त्व का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। [2010]
उत्तर:
वर्तमान समय में प्रत्येक देश की अर्थव्यवस्था में राजस्व की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो गयी है और इस महत्त्व में निरन्तर वृद्धि हो रही है। वास्तविकता यह है कि ज्यों-ज्यों सरकार का कार्य-क्षेत्र बढ़ रहा है, राजस्व का महत्त्व भी बढ़ता जा रहा है।
राजस्व के महत्त्व का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है

1. सरकार के बढ़ते हुए कार्यों की पूर्ति में सहायक – वर्तमान समय में लोकतान्त्रिक सरकार होने के कारण राज्य के कार्यों में तेजी से वृद्धि हुई है। सरकार को विकास सम्बन्धी बहुआयामी और अनेक कार्य सम्पादित करने पड़ते हैं। परिवहन ऊर्जा, स्वास्थ्य, बीमा, बैंकिंग आदि अनेक क्षेत्रों में सरकार के दायित्व दिन-प्रतिदिन बढ़े हैं जिसके कारण सरकार के खर्चे में भी वृद्धि हुई है। इसके लिए सरकार के आय-स्रोतों में वृद्धि करना आवश्यक हो गया है। सार्वजनिक व्यय और आय के बढ़ते क्षेत्र ने राजस्व के महत्त्व को बढ़ा दिया है।

2. आर्थिक नियोजन में महत्त्व – प्रत्येक देश अपने सन्तुलित एवं तीव्र आर्थिक विकास के नियोजन को अपना रहा है। आर्थिक नियोजन की सफलता बहुत कुछ राजस्व की उचित व्यवस्था पर निर्भर है।

3. आय एवं सम्पत्ति के वितरण में विषमताओं को कम करने में सहायक – वर्तमान समय में सामाजिक और आर्थिक समस्याओं में एक महत्त्वपूर्ण समस्या आय और सम्पत्ति के वितरण में विषमता है। इस समस्या के समाधान में राजस्व की विशिष्ट भूमिका है।

4. पुँजी-निर्माण में सहायक –  विकासशील देशों में आर्थिक विकास के क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण समस्या पूँजी-निर्माण की धीमी गति ही रही है। इन देशों में आय और फलस्वरूप बचत का स्तर नीचा रहने के कारण पूँजी-निर्माण धीमी गति से हो पाता है। इस समस्या के समाधान के विभिन्न उपायों में राजस्व उपायों का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

5. राष्ट्रीय आय में वृद्धि – विकासशील देशों में राष्ट्रीय आय बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर दिया जाता है। इस दृष्टि से भी राजस्व का विशिष्ट महत्त्व है।

6. मूल्य-स्तर में स्थिरता या आर्थिक स्थिरता – अर्थव्यवस्था स्थायित्व के राजकीय हस्तक्षेप अर्थात् राजस्व-नीति की विशिष्ट भूमिका होती है। करारोपण, लोक-व्यय और लोक-ऋण की नीतियों के मध्य उचित समायोजन करके मूल्य स्तर में स्थिरता या आर्थिक स्थायित्व के उद्देश्य की प्राप्ति की जा सकती है।

7. रोजगार में वृद्धि – प्रत्येक देश में अधिकतम रोजगार उपलब्ध कराने के उद्देश्य पर जोर दिया जाता है। इस उद्देश्य की पूर्ति में भी राजस्व क्रियाएँ सहायक होती हैं। इनके द्वारा जब देश में उत्पादन एवं राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है तब रोजगार के अवसरों का सृजन होता है।

8. देश के संसाधनों का अनुकूलतम प्रयोग – आर्थिक संसाधनों का विभिन्न उत्पादन क्षेत्रों में उपयोग और इनका सर्वोत्तम प्रयोग सरकार की उचित और प्रभावशाली मौद्रिक एवं राजस्व नीतियों से ही सम्भव है। सरकार अपनी बजट नीति के द्वारा उपभोग, उत्पादन तथा वितरण को वांछित दिशा में प्रवाहित कर सकती है।

9. सरकारी उद्योगों के संचालन में सुविधा – आज प्रत्येक देश में किसी-न-किसी मात्रा में लोक उद्यमों का संचालन किया जा रहा है। इन उद्योगों में विशाल मात्रा में पूँजी का विनियोजन करना पड़ता है। इस पूँजी की व्यवस्था करने तथा सामाजिक हित में हानि पर चलने वाले सरकारी उद्योगों की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति की दृष्टि से राजस्व की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है।

10. राजनैतिक क्षेत्र में महत्त्व – राजनैतिक क्षेत्र में भी राजस्व का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। सरकार अपनी राजनीतिक नीतियों को उचित प्रकार से क्रियान्वित तभी कर सकती है, जबकि उसके पास पर्याप्त वित्तीय साधन हों और उन साधनों का प्रयोग करने के लिए उसके पास उचित राजस्व नीति हो।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
सार्वजनिक आय के साधनों को समझाइए।
उत्तर:
सार्वजनिक आय के साधन
सार्वजनिक आय के अनेक साधन हैं, जिन्हें निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 13 Public Finance 1

कर से प्राप्त आय – सरकार को सर्वाधिक आय करों से प्राप्त होती है। सरकार दो प्रकार के कर लगाती है-प्रत्यक्ष कर एवं परोक्ष कर। प्रत्यक्ष करों के अन्तर्गत आयकर, उपहार कर, मनोरंजन कर, मालगुजारी, मृत्यु कर, सम्पत्ति कर तथा परोक्ष कर के अन्तर्गत उत्पादन कर, बिक्री कर, तट कर आदि आते हैं। प्रत्येक देश की सरकार अपनी अधिकांश आय करों से ही प्राप्त करती है।

गैर-कर आय – सरकार को करों के अतिरिक्त अन्य साधनों से भी आय प्राप्त होती है, जिन्हें गैर-कर आय कहते हैं। इस प्रकार की आय निम्नलिखित है

  1. शुल्क – सरकार व्यक्तियों से विभिन्न प्रकार के शुल्क प्राप्त करती है; जैसे-न्यायालय शुल्क, लाइसेन्स शुल्क, अनुज्ञापन बनवाने की फीस आदि।
  2. दरें – स्थानीय सरकारें; जैसे-नगर-निगम, नगर पंचायतें, जिला पंचायत, ग्राम पंचायत आदि अपनी-अपनी सीमाओं के अन्तर्गत बनी अचल सम्पत्ति पर जो कर लगाती हैं, उन्हें दरें कहते हैं। इससे भी सरकार को आय प्राप्त होती है।
  3. दण्ड – सरकारी नियमों का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों पर सरकार दण्डं लगाती है, जिससे सरकार को आय प्राप्त होती है।
  4. उपहार – समय-समय पर आवश्यकता पड़ने पर देश की जनता द्वारा सरकार को उपहार प्रदान किये जाते हैं; जैसे – युद्ध के समय युद्ध कोष में दान, राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में दान, अकाल पीड़ितों के लिए सहायता, भूकम्प के समय सहायता आदि। इससे भी सरकार को आय प्राप्त होती है।
  5. पत्र-मुद्रा – आजकल प्रायः सभी सरकारों ने पत्र-मुद्रा को अपनाया हुआ है। पत्र-मुद्रा से भी सरकार को आय प्राप्त होती है।
  6. सार्वजनिक सम्पत्ति से आय – देश की विभिन्न प्रकार की सम्पत्तियों; जैसे-वन, खान इत्यादि पर सरकार को स्वामित्व होता है। इस प्रकार की सम्पत्ति को पट्टे पर या किराये पर देकर सरकार आय प्राप्त करती है।
  7.  मूल्य – सरकार कुछ व्यवसायों को संचालित करती है। सरकार अपने उद्योगों में निर्मित वस्तुओं और सेवाओं का विक्रय करके मूल्य प्राप्त करती है; जैसे- रेल, डाक-तार, सरकारी कारखानों में उत्पन्न वस्तुओं से आय प्राप्त होती है।

प्रश्न 2
आर्थिक विकास हेतु साधन जुटाने में राजस्व के महत्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
आर्थिक विकास हेतु साधन जुटाने में राजस्व का महत्त्व

आर्थिक विकास हेतु साधन जुटाने में राजस्व के महत्त्व को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

1. पूँजी निर्माण –  किसी देश के आर्थिक विकास में पूँजी निर्माण का अत्यधिक महत्त्व होता है। अत: राजस्व की कार्यवाहियों का उद्देश्य यह होना चाहिए कि उपभोग व अन्य गैर-विकास कार्यों की ओर से पूँजी निर्माण अर्थात् बचत व विनियोग की ओर साधनों का अन्तरण हो। सरकार पूँजी निर्माण में वृद्धि हेतु निम्नलिखित उपाय अपना सकती है

(अ) प्रत्यक्ष भौतिक नियन्त्रण – प्रत्यक्ष भौतिक नियन्त्रण द्वारा विशिष्ट उपभोग व अनुत्पादक विनियोगों को कम किया जा सकता है।
(ब) वर्तमान करों की दरों में वृद्धि – इस दृष्टि से कर की संरचना इस प्रकार हो सकती है

  •  धनी वर्ग के उन साधनों को जो निष्क्रिय पड़े हों अथवा जिनका राष्ट्र की दृष्टि से लाभप्रद उपयोग न होता हो, आय-कर व सम्पत्ति-कर आदि लगाकर प्राप्त करना।
  •  ऐसी सरकारी वस्तुओं पर कर लगाना जिनकी माँग बेलोच है।
  • कृषक वर्ग की बढ़ती हुई आय पर कर लगाना।

(स) सार्वजनिक उद्योगों से बचत प्राप्त करना – सार्वजनिक उद्योगों को दक्षता व कुशलता से चलाया जाना चाहिए ताकि उनसे अतिरेक प्राप्त किया जा सके और उसका अधिक उत्पादन कार्यों में उपयोग किया जा सके।

(द) सार्वजनिक ऋण – सरकार ऐच्छिक बचतों को ऋण के रूप में प्राप्त कर सकती है। विशेष रूप से विकासशील देशों में लघु बचतों का विशेष महत्त्व होता है। वर्तमान समय में अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ; जैसे – विश्व बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय विकास संघ आदि; विकासशील देशों को पर्याप्त ऋण प्रदान करती है।

(य) घाटे का बजट – जब सरकार के व्यय उसकी आय से अधिक हो जाते हैं, तो सरकार घाटे की व्यवस्था अपनाती है। सरकार को इस राशि का उपयोग अत्यधिक सतर्कता के साथ करना चाहिए, ताकि राजनीतिक स्थितियाँ उत्पन्न न हों।

2. उत्पादन के स्वरूप में परिवर्तन करके – सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार करके सरकार ऐसे उद्योगों का विस्तार कर सकती है, जिन्हें वह राष्ट्रीय हित की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण समझती है। इसके अतिरिक्त, लोक वित्त कार्यवाहियों का उद्देश्य निजी निवेश को वांछित दिशाओं की ओर गतिशील करने के लिए भी किया जा सकता है।

3. बेरोजगारी दूर करना – विकासशील देशों में व्यापक बेरोजगारी, अदृश्य बेरोजगारी एवं अर्द्ध-बेरोजगारी पाई जाती है। इसका समाधान दीर्घकालिक विकास नीति द्वारा ही किया जा सकता है। देश में करारोपण, सार्वजनिक व्यय व ऋण सम्बन्धी नीतियों के द्वारा निवेश में वृद्धि करके रोजगार के अवसरों का विस्तार किया जा सकता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
सार्वजनिक आय-व्यय एवं ऋण से आप क्या समझते हैं ? लिखिए।
उत्तर:

  • सार्वजनिक आय – सरकार को विभिन्न प्रकार के स्रोतों से जो आय प्राप्त होती है वह सार्वजनिक आय कहलाती है। सार्वजनिक आय के अन्तर्गत कर, शुल्क, कीमत, अर्थदण्ड, सार्वजनिक उपक्रमों से प्राप्त आय, सरकारी एवं गैर-सरकारी बचते आदि आते हैं।
  • सार्वजनिक व्यय – सरकार विभिन्न प्रकार के स्रोतों से जो आय प्राप्त करती है, वह जनता के हित में योजनानुसार व्यय करती है, इस व्यय को सार्वजनिक व्यय कहते हैं। सरकार अपनी आय को बजट बनाकर व्यय करती है।
  • सार्वजनिक ऋण – सरकार को अनेक मदों पर व्यय करना पड़ता है। जब सरकार की आय, व्यय से कम होती है तो अतिरिक्त सार्वजनिक व्ययों की पूर्ति हेतु सरकार द्वारा जो ऋण लिये जाते हैं, उन्हें सार्वजनिक ऋण कहते हैं।

प्रश्न 2
लोक-वित्त के विषय-क्षेत्र (विषय-वस्तु) का वर्णन कीजिए। [2007]
या
लोक-वित्त की विषय-वस्तु के चार प्रमुख भागों का वर्णन कीजिए। [2015]
उत्तर:
राज्य द्वारा वित्तीय व्यवस्था से सम्बन्धित जो भी नीतियाँ एवं सिद्धान्त निर्मित किये जाते हैं। वे सभी राजस्व की विषय-सामग्री के अन्तर्गत सम्मिलित किये जाते हैं। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित का अध्ययन किया जाता है

  1.  सार्वजनिक आय,
  2. सार्वजनिक व्यय,
  3.  सार्वजनिक ऋण,
  4. संघीय वित्त,
  5.  वित्तीय प्रशासन,
  6. राजकोषीय नीति एवं आर्थिक सन्तुलन।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
राजस्व की परिभाषा लिखिए। [2009]
उत्तर:
प्रो० डाल्टन के अनुसार, “राजस्व के अन्तर्गत सार्वजनिक सत्ताओं से आय व व्यय एवं उनका एक-दूसरे से समायोजन एवं समन्वय का अध्ययन किया जाता है।”

प्रश्न 2
“राजस्व का सम्बन्ध सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा आय प्राप्त करने व व्यय करने के तरीके से है।” यह परिभाषा किस अर्थशास्त्री की है?
उत्तर:
प्रो० फिण्डले शिराज की।

प्रश्न 3
राज्य व्यय तथा आय के सिद्धान्त एवं स्वभाव के अनुसन्धान को राजस्व कहते हैं। यह परिभाषा किस अर्थशास्त्री की है?
उत्तर:
एडम स्मिथ की।

प्रश्न 4
सार्वजनिक आय के दो साधन बताइए।
उत्तर:
सार्वजनिक आय के दो साधन हैं

  1. कर तथा
  2.  सार्वजनिक सम्पत्ति से आय।

प्रश्न 5
संघीय वित्त क्या है?
उत्तर:
भारत में संघात्मक वित्तीय प्रणाली को अपनाया गया है। केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों के बीच वित्तीय साधनों के विभाजन के सिद्धान्त एवं आधारों से सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 6
सार्वजनिक व्यय से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आय को सरकार जनता के हित में विभिन्न योजनान्तर्गत व्यय करती है। यह व्यय सार्वजनिक व्यय कहलाता है।

प्रश्न 7
प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने राजस्व को कैसा विज्ञान माना है?
उत्तर:
व्यय तथा आय के सिद्धान्त एवं स्वभाव का विज्ञान।

प्रश्न 8
राजस्व की विषय-सामग्री के तत्त्वों को बताइए।
उत्त:
राजस्व की विषय-सामग्री के तत्त्व हैं

  1.  सार्वजनिक आय तथा
  2. सार्वजनिक व्यय।

प्रश्न 9
सरकार की आय के दो प्रमुख स्रोत लिखिए।
उत्तर:
सरकार की आय के दो स्रोत हैं

  1.  कर तथा
  2. सरकारी उपक्रमों से प्राप्त आय।

प्रश्न 10
सार्वजनिक ऋण कहाँ से प्राप्त किये जा सकते हैं ?
उत्तर:
सार्वजनिक ऋण आन्तरिक एवं बाह्य दोनों साधनों से प्राप्त किये जा सकते हैं।

प्रश्न 11
वित्तीय प्रशासन में क्या अध्ययन किया जाता है?
उत्तर:
वित्तीय प्रशासन में बजटों के निर्माण व प्रशासन तथा लेखा परीक्षण के कार्यों का अध्ययन किया जाता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
राजस्व उन साधनों की प्राप्ति, संरक्षण और वितरण का अध्ययन करता है, जो राजकीय या प्रशासन सम्बन्धी कार्यों को चलाने के लिए आवश्यक होते हैं।” यह परिभाषा है
(क) लुट्ज की।
(ख) प्रो० फिण्डले शिराज की
(ग) प्रो० बेस्टेबल की
(घ) श्रीमती हिक्स की
उत्तर:
(क) लुट्ज की।

प्रश्न 2
राजस्व की विषय-सामग्री में सम्मिलित है
(क) सार्वजनिक आय
(ख) सार्वजनिक व्यय
(ग) सार्वजनिक ऋण
(घ) ये सभी
उत्तर:
(घ) ये सभी

प्रश्न 3
सार्वजनिक आय के साधन हैं
(क) कर
(ख) शुल्क
(ग) उपहार
(घ) ये सभी
उत्तर:
(घ) ये सभी।

प्रश्न 4
लोक वित्त की विषय-वस्तु सम्बन्धित है
(क) सरकार के व्यय से
(ख) सरकार की आय से
(ग) सरकार ने ऋण से
(घ) सरकार के व्यय, आय, ऋण तथा राजकोषीय नीति से
उत्तर:
(घ) सरकार के व्यय, आय, ऋण तथा राजकोषीय नीति से।

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 12 Profit

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 12
Chapter Name Profit (लाभ)
Number of Questions Solved 32
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 12 Profit (लाभ)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
लाभ क्या है ? सकल लाभ एवं निवल लाभ की व्याख्या कीजिए।
या
लाभ को परिभाषित कीजिए तथा लाभ प्राप्त करने की विशेषताएँ लिखिए। कुल लाभ के विभिन्न अंग (अवयव) क्या हैं ? बताइए।
उत्तर:
लाभ का अर्थ एवं परिभाषाएँ
उत्पादन के पाँच उपादान हैं – भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन और उद्यम। इनमें उद्यम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। उद्यमी (साहसी) ही उत्पादन के उपादानों को जुटाता है, उपादानों के स्वामियों को उनके प्रतिफल का भुगतान करता है और उत्पादन सम्बन्धी सभी प्रकार की जोखिम उठाता है। उत्पादन के सभी उपादानों का भुगतान करने के बाद जो कुछ भी शेष बचती है, वही उसको प्रतिफल या लाभ (Profit) होता है। अत: राष्ट्रीय आय का वह अंश, जो उद्यमी को प्राप्त होता है, ‘लाभ’ कहलाता है।

एस० ई० थॉमस के अनुसार, “लाभ उद्यमी का पुरस्कार है।”
प्रो० हेनरी ग्रेसन के अनुसार, “लाभ को नवप्रवर्तन करने का पुरस्कार, जोखिम उठाने का पुरस्कार तथा बाजार से अपूर्ण प्रतियोगिता के कारण उत्पन्न अनिश्चितताओं का परिणाम कहा जा सकता है। इसमें से कोई भी दशा अथवा दशाएँ आर्थिक लाभ को उत्पन्न कर सकती हैं।”
प्रो० वाकर के अनुसार, “लाभ योग्यता को लगान है।” क्लार्क के अनुसार, “लाभ आर्थिक उन्नति का प्रत्यक्ष फल है।’
प्रो० मार्शल के अनुसार, “राष्ट्रीय लाभांश का वह भाग जो उद्यमी को व्यवसाय का जोखिम उठाने के उपलक्ष्य में प्राप्त होता है, लाभ कहलाता है।”

लाभ की विशेषताएँ

  1. लाभ एक अनिश्चित अवशिष्ट है। इसे किसी अनुबन्ध के रूप में निश्चित नहीं किया जा सकता।
  2.  लाभ ऋणात्मक भी हो सकता है। ऋणात्मक लाभ का अर्थ है-उद्यमी को हानि होना।
  3. उत्पत्ति के अन्य साधनों की अपेक्षा लाभ की दर में उतार-चढ़ाव अधिक होता है।

लाभ के प्रकार
लाभ दो प्रकार का होता है
(अ) सकल लाभ या कुल लाभ तथा
(ब) निवल लाभ या शुद्ध लाभ।

(अ) कुल लाभ (Gross Profit) – साधारण बोलचाल की भाषा में जिसे हम लाभ कहते हैं, अर्थशास्त्र में उसे कुल लाभ कहा जाता है। एक उद्यमी को अपने व्यवसाय अथवा फर्म में प्राप्त होने वाली कुल आय (Total Revenue) में से उसके कुल व्यय को घटाकर जो शेष बचता है वह कुल लाभ होता है। अत: कुल लाभ किसी उद्यमी को अपनी कुल आय में से कुल व्यय को घटाने के पश्चात् प्राप्त अतिरेक होता है। कुल लाभ उद्यमी के केवल जोखिम उठाने का प्रतिफल ही नहीं, बल्कि उसमें उसकी अन्य सेवाओं का प्रतिफल भी सम्मिलित रहता है।

कुल आय में से उत्पत्ति के साधनों को दिये जाने वाले प्रतिफल (लगाने, मजदूरी, वेतन तथा ब्याज) तथा घिसावट व्यय को निकालने के पश्चात् जो शेष बचता है, उसे ही कुल लाभ कहते हैं।
कुल लाभ ज्ञात करने के लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है
कुल लाभ = कुल आय – स्पष्ट लागते
(Gross Profit) = (Total Revenue) – (Explicit Costs)
सरल शब्दों में, किसी वस्तु की कुल उत्पत्ति और कुल उत्पादन व्यय में जो अन्तर होता है, वही उद्यमी का ‘कुल लाभ’ कहा जाता है।

कुल लाभ के अंग (अवयव)
कुल लाभ के निम्नलिखित अंग है।

1. उत्पादक के निजी साधनों का पुरस्कार – उद्यमी उत्पादन-कार्य में अपने निजी साधन भी लगाता है जिन्हें अस्पष्ट लागत’ कहते हैं। कुल लाभ में निजी साधनों का पुरस्कार भी सम्मिलित रहता है। अत: शुद्ध लाभ ज्ञात करते समय उत्पादक के कुल लाभ में से निम्नलिखित निजी साधनों के व्यय घटा देने चाहिए

  1. उद्यमी की निजी भूमि का लगान।
  2. साहसी की अपनी पूंजी का ब्याज।
  3. उद्यमी के व्यवस्थापक अथवा निरीक्षक के रूप में पुरस्कार।

2. संरक्षण व्यय – इसके अन्तर्गत दो प्रकार के व्यय शामिल होते हैं।

  • मूल्य ह्रास व्यय – आजकल उत्पादन-कार्य हेतु विशाल मशीनों तथा यन्त्रों का सहारा लिया जाता है। इन मशीनों का धीरे-धीरे ह्रास (टूट-फूट) होता रहता है और निश्चित समय के पश्चात् इन्हें पूर्णतः बदलना पड़ता है। इन कार्यों के लिए उद्यमी को कुछ धनराशि अलग से संचित करनी पड़ती है। इसे ‘ह्रास निधि’ अथवा ‘अनुरक्षण निधि’ कहते हैं। अत: असल लाभ ज्ञात करने के लिए कुल लाभ में से अनुरक्षण निधि में डाले जाने वाले मूल्य के ह्रास प्रभार को घटा दिया जाना चाहिए।
  • बीमा व्यय – उद्यमी चल और अचल सम्पत्ति का आग, वर्षा, भूकम्प, चोरी, दंगे-फसाद आदि के विरुद्ध बीमा कराता है, ताकि उसे इन आपदाओं से हानि न उठानी पड़े। इस कार्य हेतु उद्यमी को प्रतिवर्ष प्रीमियम देना होता है। यह बीमा व्यय भी कुल लाभ में सम्मिलित रहता है। अतः शुद्ध लाभ को ज्ञात करते समय कुल लाभ में से बीमा व्यय को घटा दिया जाना चाहिए।

3. अव्यक्तिगत लाभ – उद्यमी को ऐसे लाभ भी प्राप्त होते हैं जिनका सीधा सम्बन्ध उद्यमी की स्वयं की योग्यता से नहीं होता। इसके अन्तर्गत दो प्रकार के लाभ शामिल होते हैं

  •  एकाधिकारी लाभ – जब उत्पादन के क्षेत्र में एकमात्र उत्पादक होता है तो उसको वस्तु की पूर्ति पर पूर्ण नियन्त्रण होता है। ऐसी दशा में वह अतिरिक्त आय अर्जित करने में सफल हो जाता है। यह अतिरिक्त आय कुल लाभ में शामिल रहती है। इसे निकालकर शुद्ध लाभ ज्ञात किया जा सकता है।
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  •  आकस्मिक लाभ – प्राकृतिक संकट, युद्ध तथा फैशन एवं माँग की दशाओं में अचानक परिवर्तन हो जाने से कभी-कभी उत्पादकों को अप्रत्याशित लाभ होने लगता है। यह लाभ कुल लाभ में शामिल होता है।

4. शुद्ध लाभ – यह उद्यमी की योग्यता, चतुराई, जोखिम उठाने की शक्ति व सौदा करने की क्षमता का पारिश्रमिक है। अतः उद्यमी के पूर्वानुमान, जोखिम वहन करने की शक्ति तथा सौदा करने की शक्ति के फलस्वरूप जो धनराशि उसे प्राप्त होती है, उसे शुद्ध लाभ कहते हैं। यह कुल लाभ’ का ही अंग है। संक्षेप में कुल लाभ पिछले पृष्ठ पर दिखाया गया है।

कुल आगम में से स्पष्ट तथा अस्पष्ट लागतों को घटा देने के पश्चात् जो शेष बचता है, वही ‘शुद्ध लाभ है।

सूत्र रूप में,
शुद्ध लाभ = कुल लाभ-(स्पष्ट लागतें + अस्पष्ट लागते)

परिभाषाएँ – शुद्ध लाभ को विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने निम्नवत् परिभाषित किया है

  1.  जे० के० मेहता के अनुसार, “अनिश्चिता के कारण इस प्रकार प्रावैगिक संसार में उत्पादन कार्यों में चौथी श्रेणी का त्याग उत्पन्न हो जाता है। यह श्रेणी है-जोखिम उठाना अथवा अनिश्चितता वहन करना। लाभ इसी का पुरस्कार होता है।”
  2. थॉमस के अनुसार, “लाभ उद्यमी का पुरस्कार उस जोखिम के लिए है, जिसे वह दूसरों पर नहीं टाल सकता है।”
  3. फिशर के अनुसार, “शुद्ध लाभ सभी जोखिम उठाने का पुरस्कार नहीं, बल्कि अनिश्चितता की जोखिम को उठाने का पुरस्कार है।”

शुद्ध लाभ में निम्नलिखित तत्त्व शामिल होते हैं

  1. जोखिम तथा अनिश्चितता उठाने का पुरस्कार। उत्पादक, उत्पादन की मात्रा का निर्धारण अर्थव्यवस्था की भावी माँग का अनुमान लगाकर करता है। यदि उसका अनुमान सही सिद्ध होता है, तो उसे लाभ होता है अन्यथा हानि। उद्यमी के अतिरिक्त उत्पादन के अन्य साधनों का प्रतिफल तो निश्चित होता है और उन्हें उनके प्रतिफल का भुगतान प्राय: उत्पादन के विक्रय से पूर्व ही कर दिया जाता है। केवल उद्यमी को प्रतिफल ही अनिश्चित रहता है।
  2. सौदा करने की मान्यता का पुरस्कार।
  3. नवप्रवर्तनों (innovations) का पुरस्कार।
  4. बाजार की अपूर्णताओं के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाला पुरस्कार।

प्रश्न 2
लाभ का निर्धारण किस प्रकार होता है ? सचित्र व्याख्या कीजिए।
या
लाभ के माँग व पूर्ति के सिद्धान्त को समझाइए।
उत्तर:
लाभ का निर्धारण या लाभ का माँग व पूर्ति का सिद्धान्त
आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार लाभ का निर्धारण भी उद्यमियों की माँग एवं पूर्ति के द्वारा किया जा सकता है अर्थात् लाभ का निर्धारण उद्यमियों की माँग एवं पूर्ति की शक्तियों के द्वारा उस बिन्दु पर होता है जहाँ पर साहसी की माँग और पूर्ति एक-दूसरे के ठीक बराबर होती हैं, यही सन्तुलन बिन्दु होता है। इस सन्तुलन द्वारा जो लाभ की दर निश्चित होती है, इसे लाभ की सन्तुलन दर कहा जा सकता है।

उद्यम की पूर्ति – उद्यम की पूर्ति निम्नलिखित बातों पर निर्भर करती है|

1. देश में औद्योगिक विकास की स्थिति – देश में जितना औद्योगिक विकास होगा, उतनी ही अधिक उद्यमियों की पूर्ति होगी।
2. जनसंख्या का आकार, उसका चरित्र एवं मनोवृत्ति – यदि देश में जनसंख्या अधिक होगी तो उद्यमियों की पूर्ति अधिक होगी। यदि देश के लोगों की मनोवृत्ति जोखिम उठाने की है तब भी उद्यमियों की पूर्ति अधिक होगी।
3. आय का असमान वितरण – यदि राष्ट्रीय लाभांश का वितरण असमान है तब भी देश में उद्यमियों की पूर्ति अधिक होगी।
4. लाभ की आशा – लाभ की आशा उद्यमियों को जोखिम उठाने के लिए प्रेरित करती है। लाभ की दर जितनी अधिक ऊँची होगी साहसी की पूर्ति उतनी ही अधिक होगी।
5. समाज द्वारा सम्मान – यदि समाज में साहसी के कार्य का सम्मान किया जाता है और उन्हें राष्ट्रीय लाभांश में से अधिक भाग दिया जाता है, तब उद्यमियों की पूर्ति अधिक होगी।
6. उपयुक्त शिक्षा एवं ट्रेनिंग की व्यवस्था – विशेष वर्ग के साहसियों के विकास के लिए उपयुक्त शिक्षा एवं ट्रेनिंग की व्यवस्था भी उद्यमियों की पूर्ति में वृद्धि करती है।

उद्यम की माँग व पूर्ति का सन्तुलन या लाभ का निर्धारण
लाभ का निर्धारण उद्यमियों की माँग एवं पूर्ति की शक्तियों द्वारा उस बिन्दु पर होता है जहाँ पर उद्यमी की माँग एवं पूर्ति एक-दूसरे के ठीक बराबर होती हैं अर्थात् लाभ की दर उस बिन्दु पर निर्धारित होगी जहाँ पर उद्यमी का सीमान्त आय उत्पादकता वक्र उद्यमी के पूर्ति वक्र को काटता है। यदि किसी समय-विशेष पर उद्यमी की माँग, पूर्ति की अपेक्षा अधिक हो जाती है तो उद्यमियों को अधिक लाभ मिलने लगता है। इसके विपरीत, यदि उद्यमी की पूर्ति उसकी माँग की अपेक्षा अधिक हो जाती है तब लाभ की दर कम हो जाती है। दीर्घकाल में लाभ की दर की प्रवृत्ति सन्तुलन बिन्दु पर रहने की होती है।

दिये गये चित्र में OX-अक्ष पर उद्यमी की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर लाभ की दर दिखायी गयी है। चित्र में DD उद्यमी का माँग वक्र तथा SS उद्यमी का पूर्ति वक्र है। मॉग एवं पूर्ति वक्र परस्पर EE बिन्दु पर काटते हैं। E सन्तुलन बिन्दु है तथा N रेखा सामान्य लाभ 6 ME (Normal Proft) को दर्शाती है। OM लाभ की सन्तुलन दर है।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 12 Profit 2

आलोचनाएँ

  1. उद्यमी की माँग और पूर्ति ब्याज की दर को प्रभावित कर सकती है, किन्तु उन्हें लाभ का निर्धारक नहीं कहा -X जा सकता। लाभ का वास्तविक निर्धारक उद्यमियों के द्वारा उद्यमी की माँग एवं पूर्ति । आकस्मिक जोखिम का सहन किया जाना है।
  2.  इस सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप में प्रयोग करना कठिन है, क्योंकि अन्य साधनों की माँग उद्यमी करता है, किन्तु उद्यमी की माँग कौन करता है ? प्रो० जे० के० मेहता ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि उत्पत्ति के अन्य साधन उद्यमी की माँग करते हैं।

यद्यपि यह सिद्धान्त दोषपूर्ण है, फिर भी सामान्य लाभ के निर्धारण का सबसे अच्छा सिद्धान्त माँग और पूर्ति का सिद्धान्त है। वर्तमान युग में अधिकांश अर्थशास्त्री इस सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
सकल लाभ तथा शुद्ध लाभ में अन्तर बताइए। [2013]
उत्तर:
सकल लाभ एवं शुद्ध लाभ में अन्त
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प्रश्न 2
लाभ का लगान सिद्धान्त समझाइए।
उत्तर:
लाभ का लगान सिद्धान्त
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रमुख अमेरिकन अर्थशास्त्री प्रो० वाकर (Walker) ने किया था। इनके अनुसार, लाभ एक प्रकार का लगान है। प्रो० वाकर ने लाभ को योग्यता का लगाने (Rent of Ability) माना है जो साहसियों की योग्यता में भिन्नता होने के कारण उन्हें प्राप्त होता है। योग्यता का लगान (लाभ) अधिसीमान्त और सीमान्त साहसियों की योग्यता के अन्तर के कारण उत्पन्न होता है। जिस प्रकार सीमान्त भूमि पर कोई लगान नहीं होता अर्थात् भूमि लगानरहित होती है, उसी प्रकार सीमान्त साहसी (Marginal Entrepreneur) भी होता है। इस सीमान्त साहसी से अधिक योग्य एवं श्रेष्ठ साहसी अधिसीमान्त साहसी होते हैं। इनकी योग्यता को प्रतिफल सीमान्त साहसी के द्वारा नापा जाता है। सीमान्त साहसी लाभ के रूप में किसी प्रकार का अतिरेक प्राप्त नहीं करता। प्रो० वाकर के शब्दों में, “लाभ योग्यता का लगीन है। जिस प्रकार बिना लगान की भूमि होती है जिसकी उपज केवल मूल्य को पूरा करती है, उसी प्रकार बिना लाभ की फर्म अथवा साहसी होता है जिसकी आय केवल उत्पादन को पूरा करती है। जिस प्रकार एक भूमि के टुकड़े का लगान बिना लगान की भूमि के ऊपर अतिरेक होता है और मूल्य में सम्मिलित नहीं होता, उसी प्रकार किसी फर्म का लाभ बिना मुनाफे की फर्म के ऊपर अतिरेक होता है। अधिक योग्यता वाले व्यवसायी सीमान्त व्यावसायियों के ऊपर लाभ प्राप्त करते हैं।

आलोचनाएँ

  1. यह सिद्धान्त लाभ की प्रकृति को ठीक नहीं बताता। व्यवसाय में अधिक लाभ सदैव साहसी की उत्तम योग्यता के कारण नहीं, बल्कि उद्यमी को आकस्मिक लाभ तथा एकाधिकारी लाभ भी प्राप्त हो सकते हैं।
  2.  प्रो० मार्शल के अनुसार, लाभ को लगाने की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। लगान सदैव धनात्मक होता है, जिन लाभ ऋणात्मक भी हो सकता है।
  3.  भूमि बिना लगान की हो सकती है, किन्तु साहसी बिना लाभ के नहीं हो सकता; क्योंकि साहसी की पूर्ति तभी होती है जब उसे लाभ मिलता है।
  4. मिश्रित पूँजी वाली कम्पनियों के हिस्सेदारों को बिना किसी विशेष योग्यता के ही लाभ प्राप्त । होता है।

प्रश्न 3
“लाभ जोखिम उठाने का पुरस्कार है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
या
लाभ के जोखिम सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2014, 16]
उत्तर:
‘लाभ जोखिम उठाने का पुरस्कार है’ इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो० हॉले ने किया था। उनके अनुसार लाभ व्यवसाय में जोखिम के कारण उत्पन्न होता है। प्रत्येक व्यवसाय में जोखिम होता है। जोखिम को उठाने के लिए उत्पत्ति का कोई भी अन्य साधन तैयार नहीं होता है। इसलिए प्रत्येकव्यवसाय में जोखिम उठाने वाला होना चाहिए और जोखिम वहन करने के लिए उचित प्रतिफल मिलना चाहिए। बिना इस प्रतिफल के कोई भी साधन व्यवसाय की जोखिम नहीं उठाएगा। जो साधन जोखिम उठाता है उसे साहसी (Entrepreneur) कहते हैं। साहसी व्यवसाय में जोखिम उठाकर महत्त्वपूर्ण कार्य करता है।

जोखिम उठाने का कार्य लोग पसन्द नहीं करते; क्योंकि भूमि, श्रम, पूँजी एवं प्रबन्ध का पुरस्कार निश्चित होता है, किन्तु साहसी का पुरस्कार अनिश्चित होता है। इस कारण साहसी को उसकी सेवाओं के बदले में प्रतिफल मिलना आवश्यक है। लाभ ही वह प्रतिफल हो सकता है जो साहसी को जोखिम उठाने के लिए प्रेरित करता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि लाभ जोखिम उठाने का प्रतिफल है। जिस व्यवसाय में जोखिम जितनी अधिक होती है, उतना ही अधिक लाभ उद्यमी को मिलना चाहिए।

आलोचना – यद्यपि सभी अर्थशास्त्री इस बात को स्वीकार करते हैं कि लाभ जोखिम उठाने का प्रतिफल है, फिर भी लाभ के जोखिम सिद्धान्त की आलोचनाएँ की गयी हैं, जो निम्नलिखित हैं

  1. प्रो० नाईट के अनुसार, “सभी प्रकार के जोखिम से लाभ प्राप्त नहीं होता है। कुछ जोखिम का पूर्वानुमान के आधार पर बीमा आदि कराकर जोखिम से बचा जा सकता है। इस कारण इस प्रकार के जोखिम के लिए लाभ प्राप्त नहीं होता है। लाभ केवल अज्ञात जोखिम को सहन करने के कारण ही उत्पन्न होता है।”
  2. प्रो० कारवर का मत है कि, “लाभ इसलिए प्राप्त नहीं होता कि जोखिम उठायी जाती है, बल्कि इसलिए मिलती है कि जोखिम नहीं उठायी जाती। श्रेष्ठ साहसी जोखिम को कम कर देते हैं, इसलिए उन्हें लाभ मिलता है।”

प्रश्न 4
लाभ नवप्रवर्तन के कारण उत्पन्न होता है। संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
या
लाभ का नवप्रवर्तन सिद्धान्त क्या है ? समझाइए।
उत्तर:
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री शुम्पीटर का मत है कि लाभ नवप्रवर्तन के कारण उत्पन्न होता है। शुम्पीटर ने ‘लाभ का नवप्रवर्तन सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

प्रो० शुम्पीटर के अनुसार, “लाभ साहसी के कार्य का प्रतिफल है अथवा वह जोखिम, अनिश्चितता तथा नवप्रवर्तन के लिए भुगतान है।”
प्रो० हेनरी ग्रेसन के अनुसार, “लाभ को नवप्रवर्तन करने का पुरस्कार कह सकते हैं।”
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि एक उद्यमी को लाभ नवप्रवर्तन के कारण प्राप्त होता है। एक उद्यमी का उद्देश्य अधिकतम लाभ अर्जित करना होता है, अत: वह उत्पादन प्रक्रिया में परिवर्तन करता रहता है। उत्पादन प्रक्रिया में परिवर्तन से अभिप्राय उत्पादन कार्य में नयी मशीनों का प्रयोग, उत्पादित वस्तुओं के प्रकार में परिवर्तन, कच्चे माल में परिवर्तन, वस्तु को विक्रय विधि एवं बाजार में परिवर्तन व नये-नये आविष्कार हो सकते हैं; अत: नवप्रवर्तन एकं विस्तृत अवधारणा है।

एक उद्यमी अधिक लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से नये-नये आविष्कार एवं नयी-नयी उत्पादन रीतियों का उपयोग करता रहता है, जिसका परिणाम उत्पादन लागत को कम करना तथा लागत और कीमत के अन्तर को बढ़ाना होता है, जिससे लाभ का जन्म होता है। लाभ की भावना से प्रेरित होकर उद्यमी नवप्रवर्तन का उपयोग करता है। इस प्रकार लाभ नवप्रवर्तन को प्रोत्साहित करता है तथा नवप्रवर्तन के कारण ही लाभ अर्जित होता है। अतः लाभ व नवप्रवर्तन में घनिष्ठ सम्बन्ध है। ये परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार लाभ नवप्रवर्तन का कारण एवं परिणाम दोनों है।

यदि एक उद्यमी लाभ अर्जित करने के लिए नवप्रवर्तन का उपयोग करता है और वह इस उद्देश्य में सफल हो जाता है, तब अन्य उद्यमी भी लाभ से आकर्षित होकर अपने उत्पादन कार्य में नवप्रवर्तन को उपयोग में लाते हैं। इस प्रकार नवप्रवर्तन के कारण लाभ प्राप्त होता रहता है।

शुम्पीटर का यह मत कि लाभ नवप्रवर्तन के कारण उत्पन्न होता है, सत्य प्रतीत होता है।
आलोचनाएँ – लाभ के नवप्रवर्तन सिद्धान्त की यह कहकर आलोचना की जाती है कि शुम्पीटर के अनुसार लाभ जोखिम उठाने का पुरस्कार नहीं है, लाभ तो नवप्रवर्तन का परिणाम है, उचित प्रतीत नहीं होता; क्योंकि यदि हम ध्यानपूर्वक मनन करें तो पता लगता है कि नवप्रवर्तन भी जोखिम का अभिन्न अंग है। नवप्रवर्तन करने में भी उद्यमी को जोखिम रहती है। अतः लाभ निर्धारण में से जोखिम व अनिश्चितता को निकाल देने के पश्चात् लाभ का सिद्धान्त अधूरा रह जाता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
लाभ का मजदूरी सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
प्रो० टॉजिग और डेवनपोर्ट के अनुसार, “साहसी की सेवाएँ भी एक प्रकार का श्रम हैं; अतः साहसी को मजदूरी के रूप में लाभ प्राप्त होता है। अतः लाभ को एक प्रकार की मजदूरी समझना ही अधिक उपयुक्त होगा। प्रो० टॉजिग के अनुसार, “लाभ केवल अवसर के कारण उत्पन्न नहीं होता, बल्कि विशेष योग्यता के प्रयोग का परिणाम होता है जो एक प्रकार का मानसिक श्रम है और वकीलों तथा जजों के श्रम से अधिक भिन्न नहीं है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि लाभ । व्यवसायी के मानसिक श्रम की मजदूरी होती है।

आलोचनाएँ

  1.  यह सिद्धान्त लाभ और मजदूरी के मौलिक अन्तर को नहीं समझ पाया है। साहसी व्यवसाय में जोखिम उठाता है, किन्तु मजदूर को जोखिम नहीं उठानी पड़ती है।
  2. मजदूरी सर्वदा परिश्रम का प्रतिफल है, किन्तु लाभ बिना परिश्रम के भी मिल जाता है।
  3.  प्रो० कार्वर के अनुसार, “लाभ तथा मजदूरी का पृथक् रूप से अध्ययन करना एक वैज्ञानिक आवश्यकता है।”

प्रश्न 2
लाभ के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
लाभ का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त-जिस प्रकार उत्पादन के अन्य साधनों का प्रतिफल उनकी सीमान्त उत्पत्ति के द्वारा निश्चित होता है उसी प्रकार साहस का पुरस्कार (लाभ) भी साहसी की सीमान्त उत्पादन शक्ति के द्वारा निश्चित होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, साहसी का सीमान्त उत्पादन जितना अधिक होता है उसे उतना ही अधिक लाभ प्राप्त होता है।

आलोचनाएँ

  1. व्यवसायी की सीमान्त उपज का पता लगाना कठिन होता है। एक फर्म में एक ही साहसी होता है; अतः सीमान्त साहसी की सीमान्त उत्पादिता ज्ञात करना असम्भव है।
  2. यह सिद्धान्त साहसी के माँग पक्ष पर ध्यान देता है, पूर्ति पक्ष पर नहीं; अत: यह एकपक्षीय है।
  3. यह सिद्धान्त आकस्मिक लाभ का विश्लेषण नहीं करता जो पूर्णतया संयोग पर निर्भर होता है। साहसी का सीमान्त उत्पादकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता।

प्रश्न 3
लाभ का समाजवादी सिद्धान्त क्या है ? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
लाभ का समाजवादी सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के जन्मदाता कार्ल माक्र्स हैं। उनके अनुसार लाभ इसलिए उत्पन्न होता है कि श्रमिकों को उचित मजदूरी नहीं दी जाती। इस प्रकार लाभ श्रमिकों का शोषण करके अर्जित किया जाता है। लाभ एक प्रकार के साहसी द्वारा श्रमिकों की छीनी हुई मजदूरी है। इस कारण कार्ल मार्क्स ने लाभ को कानूनी डाका (Legalised Robbery) कहा है।

आलोचनाएँ

  1.  आलोचकों का मत है कि लाभ उद्यमी की योग्यता तथा जोखिम सहन करने का प्रतिफल है, न कि श्रमिकों का शोषण। ।
  2. उत्पादन कार्य में श्रम के अतिरिक्त अन्य उपादान; जैसे-भूमि, पूँजी, प्रबन्ध वे साहस भी योगदान करते हैं; अत: लाभ को कानूनी डाका कहना उपयुक्त नहीं है।
  3.  समाजवादी अर्थव्यवस्था में भी लाभ का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। समाजवादी देशों में लाभ पूर्णतया समाप्त नहीं हो पाया है।

प्रश्न 4
लाभ के प्रावैगिक सिद्धान्त को समझाइए।
उत्तर:
लाभ का प्रावैगिक सिद्धान्त – इस सिद्धान्त का प्रतिपादन जे० बी० क्लार्क ने किया है। उनके अनुसार, लाभ का एकमात्र कारण समाज का गतिशील परिवर्तन है। यदि समाज गतिशील है। अर्थात् जनसंख्या, पूँजी की मात्रा, रुचि, उत्पत्ति के तरीकों आदि में परिवर्तन होता रहता है तब समाज गतिशील माना जाता है और लाभ केवल गतिशील समाज में ही उत्पन्न होता है। इसलिए कहा जा सकता है कि लाभ इसलिए प्राप्त होता है, क्योंकि समाज प्रावैगिक अवस्था में है।

आलोचनाएँ

  1.  प्रो० नाइट ने इस सिद्धान्त की आलोचना इन शब्दों में की है-“प्रावैगिक परिवर्तन स्वयं लाभ को उत्पन्न नहीं करते, बल्कि लाभ वास्तविक दशाओं की उन दशाओं से, जिनके अनुसार व्यावसायिक प्रबन्ध किया जा चुका है, भिन्न हो जाने के कारण उत्पन्न होता है।”
  2.  टॉजिग के अनुसार, “पुराने तथा स्थायी व्यवसायों में प्रबन्ध सम्बन्धी दैनिक समस्याओं को सुलझाने के लिए निर्णय-शक्ति और कुशलता की आवश्यकता होती है। आधुनिक प्रगतिशील तथा शीघ्र परिवर्तनीय काल में इन गुणों के लाभपूर्ण उपयोग की अधिक आवश्यकता होती है।
    उपर्युक्त कारणों से यह कहना त्रुटिपूर्ण है कि लाभ का कारण प्रावैगिक अवस्था है।

प्रश्न 5:
‘लाभ अनिश्चितता उठाने का प्रतिफल है।’ समझाइए।
या
लाभ का अनिश्चितता सिद्धान्त क्या है ?
या
लाभ के अनिश्चितता वहन सिद्धान्त का वर्णन कीजिए। [2014]
या
लाभ के अनिश्चितता वहन सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2014, 15, 16]
उत्तर:
लाभ का अनिश्चितता उठाने का सिद्धान्त–इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो० नाइट ने किया है। उनके अनुसार, लाभ जोखिम उठाने का प्रतिफल नहीं, वरन् अनिश्चितता को सहन करने के प्रतिफल के रूप में प्राप्त होता है। प्रो० नाइट के अनुसार, व्यवसाय में कुछ जोखिम ऐसी होती है। जिनका पूर्वानुमान लगाया जा सकता है तथा बीमा आदि कराकर उन जोखिमों से बचा जा सकता है। इन्हें निश्चित एवं ज्ञात जोखिम कहा जाता है। इन ज्ञात व निश्चित खतरों को उठाने के लिए लाभ प्राप्त नहीं होता है। इसलिए लाभ को जोखिम का प्रतिफल नहीं कहा जा सकता । अन्य दूसरे प्रकार की जोखिम जिसका पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता और जिससे बचने के लिए भी कोई प्रबन्ध नहीं किया जा सकता, प्रो० नाइट ने इन्हें अनिश्चितता माना है। इस अनिश्चितता को उठाने के लिए साहसी को लाभ मिलता है। इस प्रकार लाभ अनिश्चितता सहन करने के लिए मिलने वाला पुरस्कार है।

आलोचनाएँ

  1. साहसी का कार्य केवले अनिश्चितता सहन करना ही नहीं, अपितु वह उत्पादन से सम्बन्धित अन्य कार्य; जैसे—प्रबन्ध, मोलभाव आदि भी करता है। अतः लाभ साहसी को इन सेवाओं के बदले में मिलता है।
  2. अनिश्चितता को उत्पत्ति का एक पृथक् साधन नहीं माना जा सकता।

प्रश्न 6
कुल लाभ में किन भुगतानों को सम्मिलित किया जाता है ?
उत्तर:
कुल लाभ के अन्तर्गत निम्नलिखित भुगतानों को सम्मिलित किया जाता है

  1. साहसी की अपनी भूमि को लगान।
  2. साहसी की पूँजी का ब्याज।
  3.  साहसी की प्रबन्ध तथा निरीक्षण सम्बन्धी सेवाओं की मजदूरी।
  4. साहसी की योग्यता का लगान।

प्रश्न 7
लाभ-निर्धारण के लाभ को लगान सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
इस सिद्धान्त के अनुसार लाभ एक प्रकार का लगान है। वाकर ने लाभ को व्यवसायियों की योग्यता का लगान माना है। जिस प्रकार सीमान्त भूमि अथवा बिना लगान भूमि होती है उसी प्रकार सीमान्त साहसी भी होता है। जिस प्रकार भूमि की उपजाऊ शक्ति में अन्तर होता है उसी प्रकार साहसियों की योग्यता में भी अन्तर पाया जाता है। जिस प्रकार भूमि के लगान का निर्धारण सीमान्त भूमि और अधिसीमान्त भूमि की उपज के अन्तर के द्वारा होता है, उसी प्रकार लाभ का निर्धारण सीमान्त साहसी और अधिसीमान्त साहसी के द्वारा होता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
शुद्ध लाभ किसे कहते हैं?
उत्तर:
शुद्ध लाभ वह लाभ होता है जो साहसी को जोखिम उठाने के लिए मिलता है । इसमें कोई अन्य प्रकार का भुगतान सम्मिलित नहीं होता।

प्रश्न 2
लाभ की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
लाभ की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. लाभ ऋणात्मक (Negative) भी हो सकता है।
  2.  लाभ की दर में पर्याप्त उतार-चढ़ाव पाये जाते हैं।
  3.  लाभ पहले से निश्चित नहीं होता। उसके सम्बन्ध में काफी अनिश्चितता पायी जाती है।

प्रश्न 3
‘कुल लाभ’ व ‘शुद्ध लाभ में अन्तर कीजिए।
उत्तर:
कुल लाभ में उद्यमी के केवल जोखिम उठाने का प्रतिफल ही नहीं, अपितु उसमें उसकी अन्य सेवाओं का प्रतिफल भी सम्मिलित रहता है। जबकि निवल लाभ कुल लाभ का एक छोटा अंश होता है। यह उद्यमी को जोखिम उठाने के लिए मिलता है। इसमें किसी अन्य प्रकार का भुगतान सम्मिलित नहीं होता है।

प्रश्न 4
लाभ के दो प्रकार लिखिए।
उत्तर:
(1) सकल लाभ या कुल लाभ तथा
(2) निवल लाभ या शुद्ध लाभ

प्रश्न 5
सामान्य लाभ क्या है? [2007, 15]
उत्तर:
वितरण की प्रक्रिया में राष्ट्रीय आय का वह भाग जो साहसी को प्राप्त होता है, सामान्य लाभ कहलाता है।

प्रश्न 6
लाभ का जोखिम सिद्धान्त किसका है ? [2006]
उत्तर:
लाभ का जोखिम सिद्धान्त प्रो० हॉले का है।

प्रश्न 7:
लाभ का लगान सिद्धान्त किस अर्थशास्त्री ने प्रतिपादित किया था?
उत्तर:
लाभ का लगान सिद्धान्त प्रो० वाकर ने प्रतिपादित किया था।

प्रश्न 8:
लाभ का मजदूरी सिद्धान्त के प्रतिपादक कौन हैं ?
उत्तर:
प्रो० टॉजिग।

प्रश्न 9
लाभ का अनिश्चितता का सिद्धान्त किसका है ? [2008]
या
लाभ का अनिश्चितता वहन करने सम्बन्धी सिद्धान्त किसने दिया था? [2013, 15, 16]
उत्तर:
प्रो० नाइट ने।

प्रश्न 10
लाभ का गतिशील (प्रावैगिक) सिद्धान्त किस अर्थशास्त्री का है ?
उत्तर:
जे० बी० क्लार्क का।

प्रश्न 11
लाभ किसे प्राप्त होता है? [2014]
उत्तर:
उद्यमी या साहसी को।

प्रश्न 12
लाभ को परिभाषित कीजिए। या लाभ क्या है? [2014]
उत्तर:
प्रो० वाकर के अनुसार, “लाभ योग्यता का लगान है।”

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
लाभ का लगान सिद्धान्त के प्रतिपादक हैं
(क) प्रो० वाकर
(ख) प्रो० कीन्स
(ग) प्रो० हॉले
(घ) प्रो० टॉजिग
उत्तर:
(क) प्रो० वाकर।

प्रश्न 2
लाभ का मजदूरी सिद्धान्त के समर्थक हैं
(क) प्रो० वाकर
(ख) प्रो० टॉजिग और डेवनपोर्ट
(ग) प्रो० हॉले।
(घ) प्रो० नाइट
उत्तर:
(ख) प्रो० टॉजिग और डेवनपोर्ट।

प्रश्न 3
‘लाभ का जोखिम सिद्धान्त निम्न में से किसके द्वारा प्रतिपादित किया गया ? [2007, 28, 11]
(क) प्रो० हॉले।
(ख) प्रो० वाकर
(ग) प्रो० टॉजिग
(घ) प्रो० नाईट
उत्तर:
(क) प्रो० हॉले।

प्रश्न 4
निम्नलिखित में कौन-सा लाभ सिद्धान्त शुम्पीटर का है ? [2006, 09]
(क) लाभ का लगान सिद्धान्त
(ख) लाभ का नवप्रवर्तन सिद्धान्त
(ग) लाभ का अनिश्चितता सिद्धान्त
(घ) लाभ का जोखिम सिद्धान्त
उत्तर:
(ख) लाभ का नवप्रवर्तन सिद्धान्त।

प्रश्न 5
लाभ का समाजवादी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है
(क) कार्ल मार्क्स ने
(ख) प्रो० टॉजिग ने
(ग) प्रो० नाइट ने
(घ) प्रो० शुम्पीटर ने
उत्तर:
(क) कार्ल मार्क्स ने।

प्रश्न 6
निम्नलिखित में से किस लाभ के सिद्धान्त को प्रो० नाइट ने प्रतिपादित किया है ? [2015]
या
नाइट का लाभ का सिद्धान्त कहलाता है [2016]
(क) अनिश्चितता का सिद्धान्त
(ख) समाजवादी सिद्धान्त
(ग) जोखिम का सिद्धान्त
(घ) मजदूरी सिद्धान्त
उत्तर:
(क) अनिश्चितता का सिद्धान्त।

प्रश्न 7
वितरण में उद्यमी को हिस्सा प्राप्त होता है
(क) सबसे बाद में
(ख) सबसे पहले
(ग) बीच में
(घ) कभी नहीं
उत्तर:
(क) सबसे बाद में।

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 9 Administrative Policy of Company and Constitutional Development 1773 – 1858 AD

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 9
Chapter Name Administrative Policy of
Company and Constitutional
Development 1773-1858 AD
(कम्पनी की शासन-नीति
एवं वैधानिक विकास (1773-1858 ई०)
Number of Questions Solved 13
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 9 Administrative Policy of Company and Constitutional Development 1773 – 1858 AD (कम्पनी की शासन-नीति एवं वैधानिक विकास (1773 – 1858 ई०)

अभ्यास

प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए|
1. 1773 ई०
2. 1784 ई०
3. 1793 ई०
4. 1833 ई०
5. 1853 ई०
उतर:
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या-174 पर तिथि सार का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 2.
सत्य या असत्य बताइए
उतर:
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 174 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय प्रश्न
उतर:
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 175 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
उतर:
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 175 का अवलोकन कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
1833 ई० के चार्टर ऐक्ट की दो विशेषताएँ लिखिए।
उतर:
1833 ई० के चार्टर ऐक्ट की दो विशेषताएँ निम्न्वत् हैं

  1. इस ऐक्ट द्वारा कम्पनी के भारतीय प्रशासन का केन्द्रीकरण किया गया। प्रादेशिक सरकारों की बहुत-सी शक्तियाँ छीनकर गवर्नर की कौंसिल को प्रदान की गई।
  2. इस ऐक्ट द्वारा कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को पूर्णतया समाप्त कर दिया गया और उसे सुविधापूर्वक अपना हिसाब किताब चुकाने तथा माल आदि समेटने का आदेश दिया गया।

प्रश्न 2.
1833 ई० के चार्टर ऐक्ट का वैधानिक महत्व बताइए।
उतर:
सन् 1833 ई० का चार्टर ऐक्ट भारत के संवैधानिक इतिहास में एक विशेष स्थान रखता है। इसके द्वारा ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के प्रशासन में बड़े एवं महत्वपूर्ण परिवर्तन किए और भारतीयों के प्रति उदार नीति अपनाने की भी घोषणा की। इसके अतिरिक्त, इस ऐक्ट ने कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को पूर्णता समाप्त कर दिया।

प्रश्न 3.
पिट्स इण्डिया ऐक्ट,1784 ई० की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उतर:
पिट्स इण्डिया ऐक्ट, 1784 ई० की दो विशेषताएँ निम्नवत् हैं

  1. इस ऐक्ट द्वारा कमिश्नरों की एक समिति बनाई गई, जिसका भारत के शासन सेना तथा लगान सम्बन्धी कार्यों पर नियन्त्रण होता था। इस समिति के सदस्यों को इंग्लैण्ड का सम्राट मनोनित करता था।
  2. संचालक मंडल को नियन्त्रण बोर्ड के अधीन कर दिया गया। भारत में गोपनीय आज्ञा भेजने के लिए तीन सदस्यों की एक गुप्त समिति का गठन हुआ।

प्रश्न 4.
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट की दो प्रमुख धाराओं का उल्लेख कीजिए।
उतर:
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट की दो प्रमुख धाराएँ निम्नवत् हैं

  1. कम्पनी के डायरेक्टरों का कार्यकाल एक वर्ष की जगह 4 वर्ष कर दिया गया तथा उनकी संख्या बढ़ाकर 24 कर दी गई। इनमें से एक-चौथाई सदस्यों की प्रतिवर्ष अवकाश ग्रहण करने की व्यवस्था की गई।
  2. इस ऐक्ट द्वारा यह निश्चित किया गया कि कम्पनी का कोई भी कर्मचारी भविष्य में लाइसेंस लिए बिना व्यापार नहीं करेगा और वह किसी से भेंट अथवा उपहार भी नहीं लेगा।

प्रश्न 5.
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के दो दोष लिखिए।
उतर:
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के दो दोष निम्नवत् हैं

  1. यद्यपि कम्पनी पर इंग्लैण्ड की सरकार ने अपना अधिकार कर लिया, तदापि व्यावहारिक रूप से उससे कोई लाभ नहीं हुआ। इसका कारण यह था कि ब्रिटिश मंत्रिमंडल को अपने ही कार्यों से फुरसत नहीं थी।
  2. रेग्यूलेटिंग ऐक्ट’ द्वारा कम्पनी के कर्मचारियो के व्यक्तिगत व्यापार करने, उपहार अथवा भेंट लेने पर तो प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, परन्तु उनकी आय में वृद्धि के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। अत: प्रशासन में रिश्वत व भ्रष्टचार का समावेश हो गया था।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए तथा उसके गुण-दोष की विवेचना कीजिए।
उतर:
रेग्यूलटिंग ऐक्ट की विशेषताएँ- इस ऐक्ट की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. कम्पनी के डायरेक्टरों का कार्यकाल एक वर्ष की जगह 4 वर्ष कर दिया गया तथा उनकी संख्या बढ़ाकर 24 कर दी गई। इनमें से एक-चौथाई सदस्य प्रतिवर्ष अवकाश ग्रहण करेंगे।
  2. कम्पनी के संचालकों के चुनाव में वही व्यक्ति मत देने का अधिकारी होगा, जिसके पास कम्पनी के 1,000 पौण्ड के शेयर होंगे।
  3. बंगाल के गवर्नर को अब गवर्नर जनरल कहा जाने लगा तथा उसका कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित कर दिया। बम्बई (मुम्बई) तथा मद्रास (चेन्नई) के गवर्नर उसके अधीन कर दिए गए।
  4. शासन कार्य में गवर्नर जनरल की सहायता के लिए चार सदस्यों की एक कौंसिल बनाई गई। कौंसिल के सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष रखा गया तथा यह भी कहा गया कि कौंसिल के निर्णय बहुमत के आधार पर होंगे।
  5. गवर्नर जनरल का वेतन 25,000 पौण्ड प्रतिवर्ष निश्चित किया गया।
  6. ऐक्ट में यह भी निश्चित किया गया कि कम्पनी का कोई भी कर्मचारी भविष्य में लाइसेंस लिए बिना निजी व्यापार नहीं करेगा और वह किसी से भेंट अथवा उपहार भी नहीं लेगा।
  7. कलकत्ता (कोलकाता) में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई, जिसमें मुख्य न्यायाधीश व तीन अन्य न्यायाधीश होंगे। इनके फैसलों के विरुद्ध केवल इंग्लैण्ड स्थित प्रिवी कौंसिल में ही अपील की जा सकती थी।
  8. कम्पनी के संचालकों व भारत में स्थित कम्पनी के बीच में जो भी पत्र-व्यवहार होगा, उसकी एक प्रति इंग्लैण्ड की सरकार के पास भेजी जाएगी।

रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के दोष- रेग्यूलेटिंग ऐक्ट’ द्वारा इंग्लैण्ड की सरकार ने भारत में वैधानिक विकास का सूत्रपात किया, किन्तु यह अनेक दोषों के कारण एक अपूर्ण कानून था। इसके मुख्य दोष निम्न प्रकार थे

(i) यद्यपि कम्पनी पर इंग्लैण्ड की सरकार ने अपना अधिकार कर लिया, तथापि व्यावहारिक रूप से उससे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। इसका कारण यह था कि ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल को अपने ही कार्यों से फुरसत नहीं मिलती थी।

(ii) यद्यपि इस अधिनियम के अनुसार गवर्नर जनरल ब्रिटिश सरकार का सर्वोच्च अधिकारी था, परन्तु वह कौंसिल के बहुमत की कृपा पर निर्भर था। इस कानून के अनुसार गवर्नर जनरल कार्यकारिणी के निर्णयों को स्वीकार करने के लिए बाध्य था। उसको यह अधिकार नहीं दिया गया था कि वह अपनी कार्यकारिणी’ (कौंसिल) के बहुमत को अस्वीकार कर सके। ऐसी स्थिति में वह अनेक बार उपयुक्त कार्यों को करना चाहकर भी नहीं कर पाता था। चार सदस्यों में से तीन सदस्य समकालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के प्रत्येक कार्य में बाधा डालते थे। इन सदस्यों ने उस पर अनेक झूठे आरोप भी लगाए थे, जिसके कारण वारेन हेस्टिंग्स को कई बार त्याग-पत्र तक देने के विषय में सोचना पड़ा। अतः इस कानून का मुख्य दोष यही था कि इसमें गवर्नर जनरल के अधिकार सीमित रखे गए थे, जबकि वह शासन-प्रबन्ध में सर्वोच्च अधिकारी था।

(iii) मद्रास और बम्बई प्रान्तों के केवल विदेशी मामले ही गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारिणी के अधीन रखे गए थे, आन्तरिक मामलों में वहाँ की स्थानीय सरकारें अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिए स्वतन्त्र थीं। यह एक व्यावहारिक दोष था।

(iv) सर्वोच्च न्यायालय से सम्बन्धित अनेक तथ्य अस्पष्ट थे। कानून में यह विस्तृत रूप से वर्णित नहीं किया गया था कि न्यायालय किस प्रकार के मुकदमों का निर्णय करेगा। न्याय करने में न्यायालय ब्रिटिश कानूनों का पालन करेगा या भारतीय कानूनों का, यह भी स्पष्ट नहीं किया गया था। इसके अतिरिक्त न्यायालय और गवर्नर जनरल तथा कार्यकारिणी में समन्वय स्थापित नहीं किया गया था। अधिकार क्षेत्र के मामले में इनमें प्राय: संघर्ष हो जाता था।

(v) रेग्यूलेटिंग ऐक्ट’ द्वारा कम्पनी के कर्मचारियों के व्यक्तिगत व्यापार करने, उपहार एवं भेंट लेने पर तो प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, परन्तु उनकी आय में वृद्धि के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। अतएव प्रशासन में रिश्वत व भ्रष्टचार का समावेश हो गया था।

(vi) इस अधिनियम में कम्पनी के संचालकों के चुनाव में मतदाता बनने की योग्यता का मापदण्ड 500 पौण्ड से 1,000 पौण्ड कर दिए जाने से कम्पनी पर कुछ धनी व्यक्तियों का ही आधिपत्य हो गया।

रेग्यूलेटिंग ऐक्ट’ की त्रुटियों को भारतीय संवैधानिक सुधारों पर प्रतिवेदन में निम्न प्रकार वर्णित किया गया हैइसने (1773 ई० के ऐक्ट ने) ऐसा गवर्नर जनरल बनाया, जो अपनी कौंसिल के समक्ष अशक्त था। इसने ऐसी ‘कार्यकारिणी’ बनाई जो सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अशक्त थी और ऐसा न्यायालय बनाया, जिस पर देश की शान्ति तथा हित का कोई स्पष्ट उत्तरदायित्व नहीं था।”

एडमण्ड बर्क ने ‘रेग्यूलेटिंग ऐक्ट’ को एक अधूरा कदम बताया है, जिसने कई महत्वपूर्ण प्रश्नों को अस्पष्ट ही छोड़ दिया। उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि यह कानून अनेक दोषों से परिपूर्ण था, तथापि इंग्लैण्ड के संवैधानिक इतिहास में ‘रेग्युलेटिंग ऐक्ट’ का महत्वपूर्ण स्थान है।

ऐक्ट के गुण- यद्यपि रेग्यूलेटिंग ऐक्ट में अनेक दोष विद्यमान थे, तथापि यह सर्वथा गुणरहित भी नहीं था। यह पहला अवसर था जब कम्पनी पर संसद के नियन्त्रण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। इस ऐक्ट के आधार पर ही धीरे-धीरे कम्पनी पर कठोर नियन्त्रण किया गया और इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप 1858 ई० तक तो कम्पनी की सत्ता ही समाप्त कर दी गई। अतः इस अधिनियम के परिणाम बड़े ही दूरगामी व स्थायी सिद्ध हुए। कम्पनी के कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, निजी व्यापार तथा उपहार लेने पर लगाया गया प्रतिबन्ध भी कम महत्वपूर्ण नहीं था। यद्यपि इस ऐक्ट में गुण व दोष दोनों ही विद्यमान थे। इस ऐक्ट के बारे में सप्रे ने ठीक ही लिखा है, “यह अधिनियम संसद द्वारा कम्पनी के कार्यों में प्रथम हस्तक्षेप था, अतः उसकी नम्रतापूर्वक आलोचना की जानी चाहिए।’

प्रश्न 2.
“रेग्यूलेटिंग ऐक्ट एक अधूरा कानून था।” स्पष्ट कीजिए।
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरी प्रश्न संख्या-1 के उत्तर में रेग्युलेटिंग ऐक्ट के दोष का अवलोकन कीजिए। |

प्रश्न 3.
पिट्स इण्डिया ऐक्ट ने रेगयुलेटिंग ऐक्ट के दोषों को किस सीमा तक दूर किया? क्या इसे रेग्यूलेटिंग ऐक्ट का पूरक कहना उचित है?
उतर:
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के दोषों को दूर करने के लिए फाक्स ने 1783 ई० में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट के समक्ष एक इण्डिया बिल प्रस्तुत किया परन्तु यह बिल अस्वीकृत हो गया। अन्त में 1784 ई० में ब्रिटिश प्रधानमन्त्री विलियम पिट ने कुछ संशोधन के साथ इण्डिया बिल पारित किया। इसे ही पिट्स इण्डिया ऐक्ट कहा जाता है। इस ऐक्ट के द्वारा रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के अनेक दोष दूर कर दिए गए। इस ऐक्ट में निम्नालिखित प्रावधान किए गए

  1. सर्वप्रथम गवर्नर जनरल की कौंसिल के सदस्यों की संख्या घटाकर तीन कर दी गई, जिसमें एक सेनापति भी सम्मिलित होना निश्चित हुआ।
  2. बम्बई तथा मद्रास के गवर्नरों को सन्धि, युद्ध तथा लगान के सम्बन्ध में पूर्णतया गवर्नर जनरल के अधीन कर दिया गया।
  3. गृह-सरकार में भी इस ऐक्ट द्वारा कुछ संशोधन किए गए।
  4. कमिश्नरों की एक समिति बनाई गई, जिसका भारत के शासन, सेना तथा लगान सम्बन्धी कार्यों पर नियन्त्रण होता था। इस समिति के सदस्यों को इंग्लैण्ड का सम्राट मनोनीत करता था।
  5. संचालक मण्डल को नियन्त्रण बोर्ड के अधीन कर दिया गया।

भारत में गोपनीय आज्ञाएँ भेजने के लिए एक गुप्त समिति का गठन हुआ, जिसमें तीन सदस्य होते थे। पिट के इण्डिया ऐक्ट में भी कुछ दोष थे। इसके द्वारा द्वैध शासन प्रणाली का जन्म हुआ। संचालक मण्डल तथा नियन्त्रण बोर्ड दोनों के नियन्त्रण तथा अनुशासन में गवर्नर जनरल को कार्य करना पड़ता था। यह व्यवस्था 1886 ई० तक चलती रही। परन्तु इस ऐक्ट को रेग्यूलेटिंग ऐक्ट का पूरक माना जा सकता है क्योंकि रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के अनेक दोषों को इस
ऐक्ट ने दूर कर दिया था।

प्रश्न 4.
भारत शासन अधिनियम, 1858 ई० पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उतर:
भारत शासन अधिनियम, 1858 ई०- इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे
(i) गृह सरकार
(क) नियन्त्रण परिषद् तथा निदेशक मण्डल समाप्त कर दिए गए और उनका स्थान भारत सचिव ने ले लिया।
(ख) भारत में सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक ‘भारत परिषद् होगी।
(ग) इन सदस्यों में से कम-से-कम आधे ऐसे व्यक्ति होने चाहिए, जो भारत में कम-से-कम दस वर्ष तक सेवा कर चुके हों।
(घ) भारत में सचिव परिषद् की बैठकों की अध्यक्षता करेगा।
(ङ) भारत में सचिव प्रतिवर्ष भारत की प्रगति की रिपोर्ट संसद के समक्ष प्रस्तुत करेगा।

(ii) भारत सरकार
(क) भारत के शासन का उत्तरदायित्व ब्रिटिश क्राउन ने अपने ऊपर ले लिया है और इसकी घोषणा रानी के द्वारा भारतीय राजा-महाराजाओं के समक्ष कर दी जाएगी।
(ख) कम्पनी की सभी सन्धियाँ, समझौते और देनदारियाँ क्राउन पर लागू होंगी।
(ग) भारत के बाहर सैनिक कार्यवाहियों के लिए भारतीय कोष से ब्रिटिश संसद की अनुमति के बिना धन व्यय नहीं किया जाएगा।

अधिनियम का मूल्यांकन- इसमें सन्देह नहीं कि 1858 ई० का अधिनियम आधुनिक भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी। वास्तव में 1858 के भारत-शासन अधिनियम ने भारतीय इतिहास में एक युग को समाप्त कर दिया और भारत में एक नए युग का आरम्भ हुआ। रेम्जे म्योर के अनुसार, “भारतीय साम्राज्य का क्राउन को जो हस्तान्तरण किया गया, उसमें ऊपरी दृष्टि से जितना परिवर्तन दिखाई देता था, उतना वास्तव में नहीं था, बल्कि उससे बहुत कम था। वस्तुतः क्राउन कम्पनी के हाथों में प्रादेशिक प्रभुत्व आने के समय से ही उसके मामलों पर अपने नियन्त्रण को निरन्तर कड़ा करता आया था।

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