UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 3 रसखान (काव्य-खण्ड)

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कवि-परिचय

प्रश्न 1.
रसखान का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं को स्पष्ट कीजिए। [2010]
या
कवि रसखान का जीवन-परिचय दीजिए तथा उनकी एक रचना का नाम लिखिए। [2011, 12, 13, 14, 15, 17]
उत्तर
हिन्दी काव्य की श्रीवृद्धि न जाने कितने ही मुसलमान कवियों के द्वारा की गयी, किन्तु इन सभी कवियों में रसखान जैसा सुकोमल, सरस और ललित काव्य किसी का भी नहीं है। इन्हें अत्यधिक भावुक कवि-हृदय मिला था, जिसके कारण ये श्रीकृष्ण के दीवाने हो गये थे। इनके हृदय से निकला हुआ समस्त काव्य रस और भाव से आकुल कर देने वाला है। कृष्ण-भक्ति शाखा के ये अद्वितीय कवि माने जाते हैं।

जीवन-परिचय—-रसखान दिल्ली के पठान सरदार थे। इनका पूरा नाम सैयद इब्राहीम रसखान था। इनके द्वारा रचित ‘प्रेम वाटिका’ ग्रन्थ से यह संकेत प्राप्त होता है कि ये दिल्ली के राजवंश में उत्पन्न हुए थे और इनका रचना-काल जहाँगीर का राज्य-काल था। इनका जन्म सन् 1558 ई० (सं० 1615 वि०) के लगभग दिल्ली में हुआ था। ‘हिन्दी-साहित्य का प्रथम इतिहास के अनुसार इनका जन्म सन् 1533 ई० में पिहानी, जिला हरदोई (उ०प्र०) में हुआ था। हरदोई में सैयदों की बस्ती भी है। डॉ० नगेन्द्र ने भी अपने ‘हिन्दी-साहित्य के इतिहास में इनका जन्म सन् 1533 ई० के आस-पास ही स्वीकार किया है। (UPBoardSolutions.com) ऐसा माना जाता है कि इन्होंने दिल्ली में कोई विप्लव होता देखा, जिससे व्यथित होकर ये गोवर्धन चले आये और यहाँ आकर श्रीनाथ की शरणागत हुए। इनकी रचनाओं से यह प्रमाणित होता है कि ये पहले रसिक-प्रेमी थे, बाद में अलौकिक प्रेम की ओर आकृष्ट हुए और कृष्णभक्त बन गये। गोस्वामी बिट्ठलनाथ ने पुष्टिमार्ग में इन्हें दीक्षा प्रदान की थी। इनका अधिकांश जीवन ब्रजभूमि में व्यतीत हुआ। यही कारण है कि ये कंचन धाम को भी वृन्दावन के करील-कुंजों पर न्योछावर करने और अपने अगले जन्मों में ब्रज में शरीर धारण करने की कामना करते थे। कृष्णभक्त कवि रसखान की मृत्यु सन् 1618 ई० (सं० 1675 वि०) के लगभग हुई।

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कृतियाँ (रचनाएँ)–रसखान की निम्नलिखित दो रचनाएँ प्रसिद्ध हैं—

(1) सुजान रसखान-इसकी रचना कवित्त और सवैया छन्दों में की गयी है। यह भक्ति और प्रेम-विषयक मुक्तक काव्य है। इसमें 139 भावपूर्ण छन्द हैं।
(2) प्रेमवाटिका—इसमें 25 दोहों में प्रेम के त्यागमय और निष्काम स्वरूप का काव्यात्मक वर्णन है। तथा प्रेम का पूर्ण परिपाक हुआ है।

साहित्य में स्थान-रसखान का स्थान भक्त-कवियों में विशेष महत्त्वपूर्ण है। इनके बारे में डॉ० विजयेन्द्र स्नातक ने लिखा है कि “इनकी भक्ति हृदय की मुक्त साधना है और इनका श्रृंगार वर्णन भावुक हृदय की उन्मुक्त अभिव्यक्ति है। इनके काव्य इनके स्वच्छन्द मन के (UPBoardSolutions.com) सहज उद्गार हैं। यही कारण है कि इन्हें स्वच्छन्द काव्य-धारा का प्रवर्तक भी कहा जाता है। इनके काव्य में भावनाओं की तीव्रता, गहनता और तन्मयता को देखकर भारतेन्दु जी ने कहा था-‘इन मुसलमान हरिजनन पैकोटिन हिन्दू वारिये।।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या सवैये

प्रश्न 1.
मानुष हौं तो वही रसखानि, बसौं बज गोकुल गाँव के ग्वारन ।
जौ पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन ॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यौ कर छत्र पुरंदर-धारन ।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल कदंब की डारन ॥ [2009, 11, 18]
उत्तर
[ मानुष = मनुष्य। ग्वारन = ग्वाले। धेनु = गाय। मॅझारन = मध्य में। पाहन = पाषाण, पत्थर। पुरंदर = इन्द्रा खग = पक्षी। बसेरो करौं = निवास करू। कालिंदी-कूल = यमुना का किनारा। डारन = डाल पर, शाखा पर।]
सन्दर्भ-प्रस्तुत पद्य रसखान कवि द्वारा रचित ‘सुजान-रसखान’ से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी के ‘काव्य-खण्ड में संकलित ‘सवैये’ शीर्षक से अवतरित है।

[ विशेष—इस शीर्षक के शेष सभी पद्यों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

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प्रसंग-इस पद्य में रसखान ने पुनर्जन्म में विश्वास व्यक्त किया है और अगले जन्म में श्रीकृष्ण की जन्म-भूमि (ब्रज) में जन्म लेने एवं उनके समीप ही रहने की कामना की है।

व्याख्या-रसखान कवि कहते हैं कि हे भगवान्! मैं मृत्यु के बाद अगले जन्म में यदि मनुष्य के रूप में जन्म प्राप्त करू तो मेरी इच्छा है कि मैं ब्रजभूमि में गोकुल के ग्वालों के मध्य निवास करूं। यदि मैं पशु योनि में जन्म ग्रहण करू, जिसमें मेरा कोई वश (UPBoardSolutions.com) नहीं है, फिर भी मेरी इच्छा है कि मैं नन्द जी की गायों के बीच विचरण करता रहूँ। यदि मैं अगले जन्म में पत्थर ही बना तो भी मेरी इच्छा है कि मैं उसी गोवर्धन पर्वत का पत्थर बनें, जिसे आपने इन्द्र का घमण्ड चूर करने के लिए और जलमग्न होने से गोकुल ग्राम की रक्षा करने के लिए अपनी अँगुली पर छाते के समान उठा लिया था। यदि मुझे पक्षी योनि में भी जन्म लेना पड़ा तो भी मेरी इच्छा है कि मैं यमुना नदी के किनारे स्थित कदम्ब वृक्ष की शाखाओं पर ही निवास करू।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. रसखान कवि की कृष्ण के प्रति असीम भक्ति को प्रदर्शित किया गया है। उनकी भक्ति इतनी उत्कट है कि वह अगले जन्म में भी श्रीकृष्ण के समीप ही रहना चाहते हैं।
  2. भाषा– ब्रज।
  3. शैली-मुक्तक
  4. रस-शान्त एवं भक्ति।
  5. छन्द-सवैया।
  6. अलंकार-‘कालिंदी-कुल कदंब की डारन’ में अनुप्रास।
  7. गुण–प्रसाद।

प्रश्न 2.
आजु गयी हुती भोर ही हौं, रसखानि रई बहि नंद के भौनहिं ।।
वाको जियौ जुग लाख करोर, जसोमति को सूख जात कह्यौ नहिं॥
तेल लगाइ लगाई कै अँजन, भौंहैं बनाई बनाई डिठौनहिं ।
डारि हमेलनि हार निहारत बारत ज्यौं पुचकारत छौनहिं ॥
उत्तर
[ हुती = थी। भोर = प्रात:काल। हौं = मैं। रई बहि = प्रेम में डूब गयी। भौनहिं = भवन में। वाको = उसका, यशोदा का। जुग = युग। डिठौनहिं == काला टीका। हमेलनि = हमेल (सोने का एक आभूषण) को। निहारत = देख रही थी। बारत = न्योछावर करते हुए। पुचकारत = पुचकार रही थी। छौनहिं = पुत्र को।]

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प्रसंग-इसे पद्य में कवि ने श्रीकृष्ण के प्रति यशोदा के वात्सल्य भाव का चित्रण किया है।

व्याख्या-एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि हे सखी ! आज प्रात:काल के समय श्रीकृष्ण के प्रेम में मग्न हुई मैं नन्द जी के घर गयी थी। मेरी कामना है कि उनका पुत्र श्रीकृष्ण लाखों-करोड़ों युगों तक जीवित रहे। यशोदा के सुख के बारे में (UPBoardSolutions.com) कुछ कहते नहीं बनता है; अर्थात् उनको अवर्णनीय सुख की प्राप्ति हो रही है। वे अपने पुत्र का श्रृंगार कर रही थीं। वे श्रीकृष्ण के शरीर में तेल लगाकर आँखों में काजल लगा रही थीं। उन्होंने उनकी सुन्दर-सी भौंहें सँवारकर बुरी नजर से बचाने के लिए माथे पर टीका (डिठौना) लगा दिया था। वे उनके गले में सोने का हार डालकर और एकाग्रता से उनके रूप को निहारकर अपने जीवन को न्योछावर कर रही थीं और प्रेमावेश में बार-बार अपने पुत्र को पुचकार रही थीं।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. प्रस्तुत छन्द में माता यशोदा के वात्सल्य-भाव और श्रीकृष्ण के प्रात:कालीन श्रृंगार का अनुपम वर्णन किया गया है।
  2. भाषा-ब्रज।
  3.  शैली-चित्रात्मक और मुक्तक।
  4. रसवात्सल्य
  5. छन्द-सवैया।
  6. अलंकार-यमक, अनुप्रास और पुनरुक्तिप्रकाश।
  7. गुण–प्रसाद।

प्रश्न 3.
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी ।
खेलत खात फिरै अँगनी, पग पैंजनी बाजति पीरी कछोटी ॥
वा छबि को रसखानि बिलोकत, वारत काम कला निज कोटी ।
काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ सों लै गयौ माखन-रोटी ॥ [2012, 15]
उत्तर
[ बनी = सुशोभित। पैंजनी = पायजेब। पीरी = पीला। कछोटी = कच्छा। सजनी = सखी।] |

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प्रसंग–इसे पद्य में कवि ने बालक कृष्ण के मोहक रूप का चित्रण किया है। श्रीकृष्ण के सौन्दर्य को देखकर एक गोपी अपनी सखी से उनके सौन्दर्य का वर्णन करती है।

व्याख्या–हे सखी! श्यामवर्ण के कृष्ण धूल से धूसरित हैं और अत्यधिक शोभायमान हो रहे हैं। वैसे ही उनके सिर पर सुन्दर चोटी सुशोभित हो रही है। वे खेलते और खाते हुए अपने घर के आँगन में विचरण कर रहे हैं। उनके पैरों में पायल बज रही है और (UPBoardSolutions.com) वे पीले रंग की छोटी-सी धोती पहने हुए हैं। रसखान कवि कहते हैं कि उनके उस सौन्दर्य को देखकर कामदेव भी उन पर अपनी कोटि-कोटि कलाओं को न्योछावर करता है। हे सखी! उस कौवे के भाग्य का क्या कहना, जो कृष्ण के हाथ से मक्खन और रोटी छीनकर ले गया। भाव यह है कि कृष्ण की जूठी मक्खन-रोटी खाने का अवसर जिसको प्राप्त हो गया, वह धन्य है।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. प्रस्तुत छन्द में श्रीकृष्ण के बाल-सौन्दर्य का बड़ा ही मोहक वर्णन ” किया गया है।
  2. भाषा-ब्रज
  3. शैली—चित्रात्मक और मुक्तक
  4. रसवात्सल्य और भक्ति।
  5. छन्द-सवैया।
  6. अलंकार-पद्य में सर्वत्र अनुप्रास, ‘वारत काम कला निज कोटी’ में प्रतीप।
  7. गुण-माधुर्य।
  8. भावसाम्य-गोस्वामी जी ने भी श्रीराम की धूल से भरी बाल छवि का ऐसा ही चित्र खींचा है-अति सुन्दर सोहत धूरि भरे, छवि भूरि अनंग की दूरि धरें।

प्रश्न 4.
जा दिन तें वह नंद को छोहरा, या बन धेनु चराई गयी है।
मोहिनी ताननि गोधन गावत, बेनु बजाइ रिझाइ गयौ है ॥
वा दिन सो कछु टोना सो कै, रसखानि हियै मैं समाई गयी है।
कोऊ न काहू की कानि करै, सिगरो ब्रज बीर बिकाइ गयौ है ।
उत्तर
[ छोहरा = पुत्र। धेनु = गाय। बेनु = वंशी। टोना = जादू। सिगरो = सम्पूर्ण।] |

प्रसंग-इस पद्य में ब्रज की गोपियों पर श्रीकृष्ण के मनमोहक प्रभाव का सुन्दर चित्रण हुआ है।

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व्याख्या–एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि हे सखी! जिस दिन से वह नन्द का लाड़ला बालक इस वन में आकर गायों को चरा गया है तथा अपनी मोहनी तान सुनाकर और वंशी बजाकर हम सबको रिझा गया है, उसी दिन से ऐसा जान पड़ता है (UPBoardSolutions.com) कि वह कोई जादू-सा करके हमारे मन में बस गया है। इसलिए अब कोई भी गोपी किसी की मर्यादा का पालन नहीं करती है, उन्होंने तो अपनी लज्जा एवं संकोच सब कुछ त्याग दिया है। ऐसा मालूम पड़ता है कि सम्पूर्ण ब्रज ही उस कृष्ण के हाथों बिक गया है, अर्थात् उसके वशीभूत हो गया है। ||

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. यहाँ गोपियों पर कृष्ण-प्रेम के जादू का सजीव वर्णन किया गया है।
  2. भाषा-ब्रज।
  3. शैली-मुक्तक।
  4. छन्द-सवैया।
  5. रस-शृंगार।
  6. अलंकार-‘कोऊ न काहु की कानि करै’, ‘ब्रज बीर बिकाइ गयौ’, ‘बेनु बजाइ’, ‘गोधन गावत’ में अनुप्रास।
  7. गुण-माधुर्य।
  8. भावसाम्य-रसखान ने अन्यत्र भी इसी प्रकार का वर्णन किया है कोऊ न काहु की कानि करै, कछु चेटक सो जु कियौ जदुरैया।

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प्रश्न 5.
कान्ह भये बस बाँसुरी के, अब कौन सखी, हमकौं चहिहै ।
निसद्यौस रहै सँग-साथ लगी, यह सौतिन तापन क्यौं सहिहै ॥
जिन मोहि लियौ मनमोहन कौं, रसखानि सदा हमकौं दहिहै ।
मिलि आओ सबै सखि, भागि चलें अब तो ब्रज मैं बँसुरी रहिहै ॥
उत्तर
[चहिहै = चाहेगा। निसद्यौस = रात-दिन। तापन = सन्तापों को। सहिहै = सहन करेगी। मोहि लियौ = मोहित कर लिया है। दहिहै = जलाती है।

प्रसंग-इन पंक्तियों में श्रीकृष्ण के वंशी-प्रेम एवं गोपियों के उसके प्रति सौतिया डाह का सजीव वर्णन किया गया है।

व्याख्या–एक गोपी अपनी सखी से कहती है कि हे सखी! श्रीकृष्ण अब बाँसुरी के वश में हो गये हैं, अब हमसे कौन प्रेम करेगा? श्रीकृष्ण हमसे बहुत प्रेम करते थे, किन्तु अब वे इस दुष्ट बाँसुरी से प्रेम करने लगे हैं। यह बाँसुरी रात-दिन उनके साथ लगी रहती है। यह अब गोपीरूपी सौत की ईष्र्या के सन्ताप को क्यों सहन करेगी? जिस बाँसुरी ने हमारे मन को मोहने वाले कृष्ण को अपने प्रेम से मोहित कर लिया है, वह हमें सदी ईर्ष्या से जलाती (UPBoardSolutions.com) रहेगी। हे सखी! आओ हम सब मिलकर ब्रज छोड़कर अन्यत्र चलें; क्योंकि यहाँ अब केवल बाँसुरी ही रह सकेगी अर्थात् कृष्ण के प्रेम से वंचित होकर हमारा अब ब्रज में निर्वाह नहीं हो सकता।

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काव्यगत सौन्दर्य-

  1. प्रस्तुत छन्द में गोपियों की मुरली के प्रति स्वाभाविक ईष्र्या का सजीव वर्णन किया गया है।
  2. भाषा-सुललित ब्रज।
  3. शैली—चित्रोपम मुक्तक
  4. रस- श्रृंगार।
  5. छन्द-सवैया
  6. अलंकार-अनुप्रास।
  7. भावसाम्य–महाकवि सूरदास ने भी मुरली के प्रति गोपियों की ऐसी ही ईष्र्या को व्यक्त किया है। उनकी गोपियाँ तो ईवश मुरली को ही चुरा लेना चाहती हैं

 सखी री, मुरली लीजै चोरि ।
जिनि गुपाल कीन्हें अपनें बस, प्रीति सबनि की तोरि॥

प्रश्न 6.
मोर-पखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरें पहिरौंगी।
ओढिपितम्बर लै लकुटी, बन गोधन ग्वारन संग फिरौंगी॥
भावतो वोहि मेरो रसखानि, सो तेरे कहै सब स्वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरींगी ॥
उत्तर
[ मोर-पखा = मोर के पंखों से बना हुआ मुकुट गरें = गले में। पितम्बर = पीताम्बर, पीला वस्त्र। लकुटी = छोटी लाठी। स्वाँग = श्रृंगार अभिनय। अधरान = होंठों पर। अधरा न= होंठों पर नहीं

प्रसंग-प्रस्तुत सवैये में कृष्ण के वियोग में व्याकुल गोपियों की मनोदशा का मोहक वर्णन किया गया है। कृष्ण-प्रेम में मग्न गोपियाँ कृष्ण का वेश धारणकर अपने हृदय को सान्त्वना देती हैं।

व्याख्या-एक गोपी अपनी दूसरी सखी से कहती है कि हे सखी! मैं तुम्हारे कहने से अपने सिर पर मोर के पंखों से बना मुकुट धारण करूंगी, अपने गले में गुंजा की माला पहन लूंगी, कृष्ण की तरह पीले वस्त्र पहनकर और हाथ में लाठी लिये हुए (UPBoardSolutions.com) ग्वालों के साथ गायों को चराती हुई वन-वने घूमती रहूंगी। ये सभी कार्य मुझे अच्छे लगते हैं और तेरे कहने से मैं कृष्ण के सभी वेश भी धारण कर लूंगी, परन्तु उनके होठों पर रखी हुई बाँसुरी का अपने होठों से स्पर्श नहीं करूंगी। तात्पर्य यह है कि कृष्ण गोपियों के प्रेम की परवाह न करके दिनभर बाँसुरी को साथ रखते हैं और उसे अपने होंठों से लगाये रहते हैं; अत: गोपियाँ उसे सौत मानकर उसका स्पर्श भी नहीं करना चाहती हैं; क्योंकि वह श्रीकृष्ण के ज्यादा ही मुँह लगी हुई है।

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काव्यगत सौन्दर्य-

  1. प्रस्तुत छन्द में कृष्ण के प्रति गोपियों के अनन्य प्रेम और बाँसुरी के प्रति स्त्रियोचित ईष्र्या का स्वाभाविक चित्रण किया गया है।
  2. भाषा-ब्रज।
  3. शैली-मुक्तक।
  4. गुणमाधुर्य।
  5. रस-शृंगार।
  6. छन्द-सवैया।
  7. अलंकार-‘या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरौंगी’ में अनुप्रास तथा यमक।

कवित्त

प्रश्न 1.
गोरज बिराजै भाल लहलही बनमाल,
आगे गैयाँ पाछे ग्वाल गावै मृदु बानि री।
तैसी धुनि बाँसुरी की मधुर-मधुर जैसी,
बंक चितवन मंद मंद मुसंकानि री ॥
कदम बिटप के निकट तटिनी के तट,
अटा चढ़ि चाहि पीत पट फहरानि री ।
रस बरसावै तन-तपनि बुझावै नैन,
प्राननि रिझावै वह आवै रसखानि री ॥
उत्तर
[ गोरज = गायों के पैरों से उड़ी हुई धूल। लहलही = शोभायमान हो रही है। बानि = वाणी। बंक = टेढ़ी। तटिनी = (यमुना) नदी। तन-तपनि = शरीर की गर्मी।]

सन्दर्भ-प्रस्तुत पंक्तियाँ रसखान कवि द्वारा रचित ‘सुजान-रसखान’ (UPBoardSolutions.com) से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड में संकलित ‘कवित्त’ शीर्षक से अवतरित हैं।

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प्रसंग-इन पंक्तियों में सायं के समय वन से गायों के साथ लौटते हुए कृष्ण की अनुपम शोभा का वर्णन एक गोपी अपनी सखी से कर रही है।

व्याख्या-गोपी कहती है कि हे सखी! वन से गायों के साथ लौटते हुए कृष्ण के मस्तक पर गायों के चलने से उड़ी धूल सुशोभित हो रही है। उनके गले में वन के पुष्पों की माला पड़ी हुई है। कृष्ण के आगे-आगे गायें चल रही हैं और पीछे मधुर स्वर में गाते हुए ग्वाल-बाल चल रहे हैं। जितनी मधुर और बाँकी श्रीकृष्ण की चितवन है, उतनी ही बाँकी उनकी धीमी-धीमी मुस्कान हैं। उनकी इस मधुर छवि के अनुरूप ही उनकी वंशी की मधुर-मधुर तान है। हे सखी! कदम्ब वृक्ष के पास यमुना नदी के किनारे खड़े कृष्ण के पीले वस्त्रों का फहराना, जरा अटारी पर चढ़कर तो देख लो। रस की खान वह श्रीकृष्ण चारों ओर सौन्दर्य (UPBoardSolutions.com) और प्रेम-रस की वर्षा करते हुए शरीर और मन की जलन को शान्त कर रहे हैं। उनका सौन्दर्य नेत्रों की प्यास को बुझा रहा है और प्राणों को अपनी ओर खींचकर रिझा रहा है।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. प्रस्तुत छन्द में गोचारण से लौटते हुए श्रीकृष्ण के अनुपम सौन्दर्य का मोहक चित्रण हुआ है।
  2. भाषा-सरल, सरस ब्रज।
  3.  शैली—मुक्तक।
  4.  रस-शृंगार।
  5.  छन्द-मनहरण कवित्त।
  6. अलंकार-‘भाल लहलही बनमाल’ में अनुप्रास, ‘मधुर-मधुर, मन्द-मन्द में पुनरुक्तिप्रकाश तथा ‘रसखानि री’ में श्लेष का मंजुल प्रयोग द्रष्टव्य है।
  7. गुण-माधुर्य।

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काव्य-सौन्दर्य एवं व्याकरण-बोध

प्रश्न 1
निम्नलिखित पंक्तियों में कौन-सा रस है, उसके स्थायी भाव का नाम लिखिए
(क) तेल लगाइ लगाह के अंजन, भाँहँ बनाइ बनाइ डिठौनहिं ।
(ख) जिन मोहि लियौ मनमोहन , रसखानि सदा हम दहिहै ।
मिलि आओ सबै सखि भागि चलें अब तो ब्रज में बँसुरी रहिहै ।।
उत्तर
(क) रसवात्सल्य, स्थायी भाव-स्नेह (रति)।
(ख) रस-श्रृंगार, स्थायी भाव–रति।

प्रश्न 2
निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार का नाम बताते हुए उसका स्पष्टीकरण दीजिए
(क) वा छबि को रसखानि बिलोकत, वारत काम कला निज कोटी।
(ख) या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धराँगी ।
(ग) रस बरसावे तन-तपनि बुझावै नैन,
प्राननि रिझावै वह आवै रसखानि री ॥
उत्तर
(क) अनुप्रास-‘क’ वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।

प्रतीप-“वारत काम कला निज कोटी’ यहाँ कृष्ण (UPBoardSolutions.com) के सौन्दर्य को देखकर कामदेव स्वयं अपनी करोड़ों कलाएँ निछावर कर रहा है। उपमान को उपमेय बना देने के कारण यहाँ प्रतीप अलंकार है।

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(ख) अनुप्रास, यमक-‘म’, ‘ध’, ‘र’ वर्गों की आवृत्ति के कारण अनुप्रास तथा एक ‘अधरान का अर्थ ‘होठों पर’ एवं दूसरे ‘अधरा न’ का अर्थ होठों पर नहीं होने के कारण यमक है।

(ग) श्लेष—यहाँ ‘रसखानि री’ के दो अर्थ–रस की खान श्रीकृष्ण तथा कवि रसखान हैं; अतः इसमें श्लेष है।

प्रश्न 3
सवैये और कवित्त का लक्षण लिखते हुए पाठ से एक-एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर
सवैया–बाइस से छब्बीस तक के वर्णवृत्त सवैया कहलाते हैं। उदाहरण पाठ से देखें। |

कवित्त—यह दण्डक वृत्त है। इसके प्रत्येक चरण में 31 वर्ण होते हैं। (UPBoardSolutions.com) 16-15 वर्षों पर यति होती है। अन्त में एक गुरु वर्ण होता है। इसे मनहरण कवित्त भी कहते हैं। उदाहरण पाठ से देखें।

प्रश्न 4
निम्नलिखित शब्दों के खड़ी बोली रूप लिखिए-
करोर, सिगरी, दुति, लकुटी, काग, अँगुरी, भाजति, संजम।
उत्तर
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UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 2 तुलसीदास (काव्य-खण्ड)

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कवि-परिचय

प्रश्न 1.
तुलसीदास की जीवनी पर प्रकाश डालते हुए उनकी कृतियों (रचनाओं) का उल्लेख कीजिए। [2009, 10]
या
कवि तुलसीदास का जीवन-परिचय दीजिए तथा उनकी एक रचना का नाम लिखिए। [2011, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
उतर
गोस्वामी तुलसीदास भक्तिकाल की रामभक्ति काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि थे। इनकी भक्ति दास्य भाव की थी। इन्होंने श्रीराम के शील, शक्ति और सौन्दर्य के समन्वित रूप की अवतारणा की। ये एक सिद्ध कवि थे जो देश और काल (UPBoardSolutions.com) की सीमाओं को लाँघ चुके थे। मानव प्रकृति के जितने रूपों का हृदयग्राही वर्णन इनके काव्य में मिलता है, वैसा अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। इनका ‘श्रीरामचरितमानस’ मानव संस्कृति का अमर-काव्य है।

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जीवन-परिचय–गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म सन् 1532 ई० (भाद्रपद, शुक्ल पक्ष, एकादशी, सं० 1589 वि०) में बाँदा जिले के राजापुर ग्राम में हुआ था। कुछ विद्वान् इनका जन्म एटा जिले के ‘सोरो’ ग्राम में मानते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने राजापुर का ही समर्थन किया है। तुलसी सरयूपारीण ब्राह्मण थे। इनके पिता आत्माराम दुबे और माता हुलसी ने अभुक्त मूल नक्षत्र में उत्पन्न होने के कारण इन्हें त्याग दिया था। इनका बचपन अनेकानेक आपदाओं के बीच व्यतीत हुआ। सौभाग्य से इनको बाबा नरहरिदास जैसे गुरु का वरदहस्त प्राप्त हो गया। इन्हीं की कृपा से इनको शास्त्रों के अध्ययन-अनुशीलन का अवसर मिला। स्वामी जी के साथ ही ये काशी आये थे, जहाँ परम विद्वान् महात्मा शेष सनातन जी ने इन्हें वेद-वेदांग, दर्शन, इतिहास, पुराण आदि में निष्णात कर दिया।

तुलसी का विवाह दीनबन्धु पाठक की सुन्दर और विदुषी कन्या रत्नावली से हुआ था। इन्हें अपनी रूपवती पत्नी से अत्यधिक प्रेम था। एक बार पत्नी द्वारा बिना कहे मायके चले जाने पर अर्द्धरात्रि में आँधी-तूफान का सामना करते हुए ये अपनी ससुराल जा पहुँचे। इस पर पत्नी ने इनकी भर्त्सना की

अस्थि चर्म मय देह मम, तामें ऐसी प्रीति।
तैसी जो श्रीराम महँ, होति न तौ भवभीति॥

अपनी पाली की फटकार से तुलसी को वैराग्य हो गया। अनेक तीर्थों का भ्रमण करते हुए ये राम के पवित्र चरित्र का गायन करने लगे। अपनी अधिकांश रचनाएँ इन्होंने चित्रकूट, काशी और अयोध्या में ही लिखी हैं। काशी के असी घाट पर सन् 1623 ई० (श्रावण, (UPBoardSolutions.com) शुक्ल पक्ष, सप्तमी, सं०1680 वि०) में इनकी पार्थिव लीला का संवरण हुआ। इनकी मृत्यु के सम्बन्ध में निम्नलिखित दोहा प्रसिद्ध है

संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर ॥

कृतियाँ (रचनाएँ)—तुलसीदास जी द्वारा रचित बारह ग्रन्थ प्रामाणिक माने जाते हैं, जिनमें श्रीरामचरितमानस प्रमुख है। इनकी रचनाओं का विवरण इस प्रकार है-

(1) श्रीरामचरितमानस-तुलसीदास जी का यह सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है। इसमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम के पावन चरित्र के द्वारा हिन्दू जीवन के सभी महान् आदर्शों की प्रतिष्ठा हुई है।
(2) विनयपत्रिका-इसमें तुलसीदास जी ने कलिकाल के विरुद्ध रामचन्द्र जी के दरबार में पत्रिका प्रस्तुत की है। यह काव्य तुलसी के भक्त हृदय का प्रत्यक्ष दर्शन है।
(3) कवितावली—यह कवित्त-सवैया में रचित श्रेष्ठ मुक्तक काव्य है। इसमें रामचरित के मुख्य प्रसंगों का मुक्तकों में क्रमपूर्वक वर्णन है। यह ब्रजभाषा में रचित ग्रन्थ है।
(4) गीतावली-यह गेय पदों में ब्रजभाषा में रचित सुन्दर काव्य है। इसमें प्राय: सभी रसों का सुन्दर परिपाक हुआ है तथा अनेक राग-रागिनियों का प्रयोग मिलता है। यह रचना 230 पदों में निबद्ध है।
(5) कृष्ण गीतावली—यह कृष्ण की महिमा को लेकर 61 पदों में लिखा गया ब्रजभाषा का काव्य है।
(6) बरवै रामायण-बरवै छन्दों में रामचरित का वर्णन करने वाला यह एक लघु काव्य है। इसमें अवधी भाषा का प्रयोग किया गया है।
(7) रामलला नहछू–संहलोकगीत शैली में सोहर छन्दों को लघु पुस्तिका है, जो इनकी प्रारम्भिक रचना मानी जाती है।
(8) वैराग्य संदीपनी-इसमें सन्तों के लक्षण दिये गये हैं। इसमें तीन प्रकाश हैं। पहले प्रकाश के 6 छन्दों में मंगलाचरण है। दूसरे प्रकाश में संत-महिमा का वर्णन और तीसरे में शान्तिभाव का वर्णन है।
(9) जानकी-मंगल-इसमें सीताजी और श्रीराम के शुभविवाह के उत्सव का वर्णन है।
(10) पार्वती-मंगल—इसमें पूर्वी अवधी में शिव-पार्वती के (UPBoardSolutions.com) विवाह का काव्यमय वर्णन है।
(11) दोहावली-इसमें दोहा शैली में नीति, भक्ति, नाम-माहात्म्य और राम-महिमा का वर्णन है।
(12) रामाज्ञा प्रश्न-यह शकुन-विचार की उत्तम पुस्तक है। इसमें सात सर्ग हैं।

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साहित्य में स्थान–गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी-साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इनके द्वारा हिन्दी कविता की सर्वतोमुखी उन्नति हुई। इन्होंने अपने काल के समाज की विसंगतियों पर प्रकाश डालते हुए उनके निराकरण के उपाय सुझाये। साथ ही अनेक मतों और (UPBoardSolutions.com) विचारधाराओं में समन्वय स्थापित करके समाज में पुनर्जागरण का मन्त्र फेंका। इसीलिए इन्हें समाज का पथ-प्रदर्शक कवि कहा जाता है। इनके सम्बन्ध में अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध’ जी ने उचित ही लिखा है

कविता करके तुलसी न लसे । कविता लसी पा तुलसी की कला ॥

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

धनुष-भंग

प्रश्न 1.
उदित उदयगिरि मंच पर, रघुबर बालपतंग।
बिकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन शृंग ॥ [2017]
उतर
[ उदयगिरि = उदयाचल पर्वत। बालपतंग = बाल सूर्य, प्रात:कालीन सूर्य। सरोज = कमल। लोचन = नेत्र। भुंग = भंवरे।]

सन्दर्भ-प्रस्तुत काव्य-पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड’ के ‘धनुष-भंग’ कविता शीर्षक से अवतरित हैं। यह अंश हमारी पाठ्य-पुस्तक में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाएड से संकलित है।

[विशेष—-इस शोक के शेष सभी पद्यांशों के लिए (UPBoardSolutions.com) यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग-प्रस्तुत पद्य में धनुष-भंग के लिए बने हुए मंच पर रामचन्द्र जी के चढ़ने का वर्णन किया गया है।

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व्याख्या-श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि उदयाचल पर्वत के समान बने हुए विशाल मंच पर श्रीरामचन्द्र जी के रूप में बाल सूर्य के उदित होते ही सभी सन्त रूपी कमल खिल उठे और नेत्ररूपी भंवरे हर्षित हो उठे। आशय यह है कि श्रीराम के मंच पर चढ़ते ही सभा में उपस्थित सभी सज्जन पुरुष अत्यधिक प्रसन्न हो गये।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. यहाँ पर मंच की विशालता और श्रीरामचन्द्र जी के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।
  2. भाषा–अवधी।
  3. शैली–प्रबन्ध और चित्रात्मक।
  4. रस-अद्भुत।
  5. छन्द-दोहा।।
  6. अलंकार-उपमा, रूपक और अनुप्रास अलंकार का मंजुल प्रयोग।
  7. गुण-माधुर्य।
  8. भावसाम्य–कविवर बिहारी ने भी श्रीकृष्ण के सौन्दर्य का चित्रण करते हुए लिखा है-“मनौ नीलमनि सैल पर, आतपु पर्यौ प्रभात।”

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प्रश्न 2.
नृपन्ह केरि आसा निसि नासी । बचन नखत अवलीन प्रकासी ॥
मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने ॥
भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरसहिं सुमन जनावहिं सेवा ॥
गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा॥
सहजहिं चले सकल जग स्वामी । मत्त मंजु बर कुंजर गामी ॥
चलत राम सब पुर नर नारी । पुलक पूरि तन भए सुखारी ॥
बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे । जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे ॥
तौं सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ रामु गनेस गोसाईं ॥
उतर
[ निसि = रात्रि। नखते = नक्षत्र, तारे। अवली = पंक्ति, समूह। मानी = (UPBoardSolutions.com) अभिमानी। लुकाने = छिपना। कोक = चकवा, कोयल। आयसु – आज्ञा। बर = श्रेष्ठ। कुंजर = हाथी। पुलक = रोमांच। पितर = पूर्वज। मृनाल = कमल की नाल।]।

प्रसंग—प्रस्तुत पद्य में सभा में उपस्थित कतिपय राजाओं की स्थिति, राम की विनम्रता तथा सम्पूर्ण नगरवासियों की मनोवृत्ति का वर्णन किया गया है।

व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीरामचन्द्र जी के मंच पर चढ़ते ही सभा में उपस्थित अन्य राजाओं की आशारूपी रात्रि नष्ट हो गयी और उनके वचनरूपी तारों के समूह का चमकना बन्द हो गया, अर्थात् वे मौन हो गये। अभिमानी राजारूपी कुमुद संकुचित हो गये और कपटी राजारूपी उल्लू छिप गये। मुनि और देवतारूपी चकवे शोकरहित अर्थात् प्रसन्न हो गये। वे फूलों की वर्षा करके अपनी सेवा-अनुग्रह प्रकट करने लगे। इसके पश्चात् श्रीरामचन्द्र जी ने अत्यधिक स्नेह के साथ अपने गुरु विश्वामित्र के चरणों की वन्दना करने के बाद वहाँ उपस्थित अन्य मुनियों से भी आज्ञा माँगी।

पुनः गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि समस्त चराचर जगत के स्वामी श्रीरामचन्द्र जी सुन्दर, मतवाले और श्रेष्ठ हाथी की चाल से चले जो कि उनकी स्वाभाविक चाल थी। श्रीरामचन्द्र जी के चलते ही सभा में उपस्थित नगर के सभी स्त्री-पुरुष प्रसन्न हो गये और उनके शरीर रोमांच से पुलकित हो गये। समस्त स्त्री-पुरुषों ने अपने पूर्वजों की वन्दना की और अपने पुण्य कर्मों का स्मरण करते हुए कहा कि हे गणेश जी! यदि हमारे किये हुए पुण्य कर्मों का किंचित् भी फल मिलता हो तो श्रीरामचन्द्र जी शिवजी के इस प्रचण्ड धनुष को कमल की नाल (दण्ड) के समान तोड़ डालें। आय यह है कि सभा में उपस्थित कुटिल और अभिमानी राजाओं के अतिरिक्त सभी व्यक्ति यह चाहते थे कि श्रीराम इस धनुष को तोड़ दें।

काव्यगत सौन्दर्य–

  1. प्रस्तुत पद्यांश में इस बात का स्पष्ट वर्णन किया गया है कि नगर के समस्त नर-नारी चाहते थे कि सीता को वर रूप में राम ही प्राप्त हों।
  2. भाषा-अवधी।
  3. शैली–प्रबन्ध और वर्णनात्मक।
  4. रस-भक्ति।
  5. छन्द–दोहा।
  6. अलंकार-रूपक और अनुप्रास (UPBoardSolutions.com) अलंकार का मनमोहक प्रयोग।
  7. गुण–प्रसाद।
  8. शब्दशक्ति-अभिधा और व्यंजना।

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प्रश्न 3.
रामहि प्रेम समेत लखि, सखिन्ह समीप बोलाइ।
सीता मातु सनेह बस, बचन कहइ बिलखाइ ।
उतर
[ लखि = देवकर। खस = वशीभूत होकर। बिलखाइ = विलाप करते हुए!]

प्रसंग-प्रस्तुत पद्य में सीताजी की माता का श्रीरामचन्द्र जी के प्रनि अन्दिय स्नेह व्यक्त हुआ है।

व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि मंच पर अवतरित हुए श्रीरामचन्द्र जी को अत्यधिक वात्सल्य भाव के साथ देखकर जनकनन्दिनी सीताजी की माता ने अपनी सभी सखियों-सहेलियों को अपने समीप बुला लिया और स्नेहवश (UPBoardSolutions.com) विलाप करते हुए के सदृश उनसे कहने लगीं।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. प्रस्तुत पद में सीताजी की माता का राम के प्रति वात्सल्य भाव का वर्णन हुआ है।
  2. भाषा-अवधी
  3. शैली–प्रबन्ध।
  4. रसवात्सल्य।
  5. छन्द-दोहा।
  6. अलंकार– अनुप्रास।
  7. गुण–प्रसाद।।

प्रश्न 4.
सखि सब कौतुकु देखनिहारे । जेउ कहावत हितू हमारे ॥
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं । ए बालक असि हठ भलि नाहीं ॥
रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा ॥
सो धनु राजकुर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं ।
भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी ॥
बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी ॥
कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥
रबि मंडल देखत लघु लागा। उदय तासु तिभुवन तम भागा ॥ [2015]
उतर
[ कौतुकु = तमाशा। हितू = हित की चिन्ता करने वाले। गुर = गुरु। भलि = अच्छा। चापा = धनुष। दापा = घमण्ड। कर = हाथ। मराल = हंस। मंदर = मन्दराचल पर्वत। सिरानी = समाप्त हो जाना। बिधि = भाग्य। तेजवंत = तेज से युक्त। कुंभज = कुम्भ से उत्पन्न, अगस्त्य ऋषि। सुजसु = सुयश। ]

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प्रसंग-प्रस्तुत पद्य में सीताजी की माता का राम के प्रति चिन्ता तथा उनकी सखी के द्वारा उन्हें समझाये जाने का वर्णन किया गया है। |

व्याख्या–गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि सीताजी की माता अपनी सखी से कह रही हैं कि हे सखी! ये जो हमारे हित की चिन्ता करने वाले लोग हैं, वे सब भी तमाशा ही देखने वाले हैं। कोई भी इनके गुरु (विश्वामित्र) को समझाकर यह नहीं कहता है कि ये श्रीराम बालक हैं और इनके लिए ऐसा हठ करना उचित नहीं है। रावण और बाण जैसे असुरों ने भी जिस धनुष को छुआ तक नहीं और यहाँ उपस्थित सभी राजा घमण्ड (UPBoardSolutions.com) करके पराजित हो गये, वही धनुष इस सुकुमार रामचन्द्र के हाथ में दे रहे हैं। कोई इन्हें यह क्यों नहीं समझाता कि हंस के बच्चे भी कहीं मन्दराचल पर्वत को उठा सकते हैं। आशय यह है कि महादेव के जिस धनुष को रावण और बाण जैसे जगद्विजयी वीरों ने छुआ तक नहीं और दूर से ही प्रणाम करके चल दिये, उसे तोड़ने के लिए विश्वामित्र का श्रीराम को आज्ञा देना और उनका उसे तोड़ने के लिए आगे बढ़ना उनका बोल-हठ जान पड़ा। इसीलिए वे कहती हैं कि गुरु विश्वामित्र को कोई समझाता क्यों नहीं है।

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि सीताजी की माता कहती हैं कि दूसरों की क्या कही जाये, राजा जनक तो स्वयं बड़े समझदार और ज्ञानी हैं, उन्हें तो गुरु विश्वामित्र को समझाने की चेष्टा करनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उनका भी समस्त ज्ञान और सयानापन समाप्त हो गया है। हे सखी ! क्या करू, विधाता (ब्रह्मा) की गति; अर्थात् वे क्या चाहते हैं; कुछ समझ में नहीं आ रही है। इतना कहकर जब वे चुप । हो जाती हैं तब उनकी एक चतुर; अर्थात् श्रीरामचन्द्र जी के महत्त्व को जानने वाली; सखी कोमल वाणी में उनसे कहती है कि “हे रानी ! देखने में छोटा होने पर भी तेज से युक्त मनुष्य को छोटा नहीं मानना चाहिए। कहाँ कुम्भज अर्थात् घड़े से उत्पन्न होने वाले छोटे से मुनि अगस्त्य और कहाँ विशाल समुद्र। लेकिन उन्होंने उस समुद्र को सोख लिया। इस कारण से उनका सुयश सम्पूर्ण संसार में छाया हुआ है। पुनः सूर्यमण्डल भी देखने में कितना छोटा लगता है, लेकिन उसके उदय होते ही तीनों लोकों (भूलोक, भुवक और स्वलोंक) का अन्धकार भाग जाता है।

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काव्यगत सौन्दर्य-

  1. छोटो जानकर योग्यता पर सन्देह नहीं किया जाना चाहिए, इसकी कवि ने तर्कयुक्त अभिव्यक्ति की है।
  2. भाषा-अवधी
  3. शैली-प्रबन्ध और विवेचनात्मक।
  4. रसवात्सल्य।
  5. छन्द-चौपाई।
  6. अलंकार-अनुप्रास।
  7. गुण–प्रसाद।।

प्रश्न 5.
मंत्र परम लघु जासु बस, बिधि हरि हर सुर सर्ब ।
महामत्त गजराज कहुँ, बस कर अंकुस खर्ब ।।। [2015, 16]
उतर
[ बस = वशीभूत। बिधि = ब्रह्मा। हरि = विष्णु। हर = शंकर। सुर = देवता। अंकुस = अंकुश। खर्ब = छोटा।]

प्रसंग—प्रस्तुत पद्य में मन्त्र और अंकुश के द्वारा सभी देवताओं और हाथी को नियन्त्रित किये जाने । का वर्णन है। |

व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि धनुष-भंग के समय जब सीताजी की माता श्रीराम को छोटा समझकर, धनुष तोड़ने में असमर्थ मानकर अपनी सखी से शंका प्रकट करती हैं, तब उनकी सखी विभिन्न उदाहरणों के द्वारा उनको (UPBoardSolutions.com) समझाती हुई कहती हैं कि, “जिस मन्त्र के वश में सभी देवता, ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि भी रहने को विवश होते हैं, वह मन्त्र भी अत्यधिक छोटा ही होता है।” अत्यधिक विशाल और मदमत्त गजराज को भी महावत छोटे से अंकुश के द्वारा अपने वश में कर लेता है। |

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. भाषा-अवधी।
  2. शैली–प्रबन्ध और उद्धरण।
  3. छन्द-दोहा।
  4. अलंकार-अनुप्रास।
  5. शब्द-शक्ति-अभिधा और लक्षणा।।

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प्रश्न 6.
काम कुसुम धनु सायक लीन्हे । सकल भुवन अपने बस कीन्हे ॥
देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुषु राम सुनु रानी ॥
सखी बचन सुनि भै परतीती । मिटा बिषादु बढी अति प्रीती ॥[2016]
तब रामहि बिलोकि बैदेही । सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही ॥
मनहीं मन मनाव अकुलानी । होहु प्रसन्न महेस भवानी ॥
करहु सफल आपनि सेवकाई । करि हितु हरहु चाप गरुआई ॥
गननायक बरदायक देवा । आजु लगें कीन्हिउँ तुझे सेवा ॥
बार बार बिनती सुनि मोरी । करहु चाप गुरुता अति थोरी ॥
उतर
[ कुसुम = पुष्प। सायक = बाण। संसउ = संशय। भंजब = तोड़ेंगे। बिषाद् = उदासी, निराशा। बिलोकि = देखकर। जेहि तेही = जिस किसी की। अकुलानी = व्याकुल होकर। सेवकाई = सेवा। हरहु = हरण कर लीजिए। गरुआई = गुरुता, भारीपन।]

प्रसंग-प्रस्तुत पद में सीताजी की माताजी का राम की क्षमता के सम्बन्ध में विश्वास और सीता द्वारा विभिन्न देवताओं की प्रार्थना किये जाने का वर्णन किया गया है। |

व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि पुनः सीताजी की माताजी की सहेली उनको समझाती हुई कहती है कि कामदेव ने फूलों का ही धनुष-बाण लेकर समस्त लोकों को अपने वशीभूत कर रखा है। हे देवी ! इस बात को अच्छी तरह से समझकर आप अपने सन्देह का त्याग कर दीजिए। हे रानी !

आप सुनिए, श्रीरामचन्द्र जी धनुष को अवश्य ही तोड़ देंगे। सखी के मुख से इस प्रकार के सान्त्वनादायक वचनों को सुनकर जनक-भामिनी को श्रीरामचन्द्र जी की सामर्थ्य के सम्बन्ध में विश्वास हो गया, उनकी उदासी समाप्त हो गयी और श्रीराम के (UPBoardSolutions.com) प्रति उनके मन में स्नेह और भी अधिक बढ़ गया। इसी समय श्रीरामजी को देखकर; अर्थात् उनके सुकोमल बाह्य व्यक्तित्व का अवलोकन कर; सीताजी जो भी देवता उनके ध्यान में आया, उससे रामजी की सहायता हेतु विनती करने लगीं।

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जनकनन्दिनी सीताजी व्याकुलचित्त होकर मन-ही-मन में प्रार्थना कर रही हैं कि “हे भगवान् शंकर ! हे माता पार्वती ! मुझ पर प्रसन्न हो जाइए और मैंने आपकी जो कुछ भी सेवा-आराधना की है उसका सुफल प्रदान करते हुए और मुझ पर कृपा करके धनुष की गुरुता अर्थात् भारीपन को बहुत ही कम कर दीजिए।” पुन: गणेश जी की प्रार्थना करती हुई कहती हैं कि “हे गणों के नायक और मन-वांछित वर देने वाले गणेश जी ! मैंने आज ही के दिन के लिए; अर्थात् श्रीराम जैसे पुरुष को पति-रूप में प्राप्त करने की इच्छा से; आपकी पूजा-अर्चना की थी। आप बार-बार की जा रही मेरी विनती को सुनिए और धनुष के भारीपन को बहुत ही कम कर दीजिए।”

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काव्यगत सौन्दर्य-

  1. मनवांछित प्राप्ति के लिए विभिन्न देवताओं की प्रार्थना करने की भारतीय परम्परा को स्पष्ट किया गया है।
  2. भाषा-अवधी।
  3. शैली-प्रबन्ध और वर्णनात्मक।
  4. रस— भक्ति।
  5. छन्द-चौपाई।
  6. अलंकार-अनुप्रास और पुनरुक्तिप्रकाश।
  7. गुण–प्रसाद।
  8. शब्दशक्ति-अभिधा और लक्षणा।

प्रश्न 7.
देखि देखि रघुबीर तन, सुर मनाव धरि धीर।
भरे बिलोचन प्रेम जल, पुलकावली सरीर ॥
उतर
[रघुबीर = रामचन्द्र जी। सुर = देवता। धीर = धैर्य। बिलोचन = नेत्रों में। पुलकावली = प्रेम और हर्ष से उत्पन्न रोमांच।]

प्रसंग-प्रस्तुत पद में सीताजी की श्रीराम के प्रति प्रेमानुरक्ति का वर्णन हुआ है।

व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि सीताजी बार-बार श्रीरामचन्द्र जी की ओर देख रही हैं और धैर्य धारण करके देवताओं को मनोवांछित वर प्रदान करने के लिए मनाती जा रही हैं; अर्थात् अनुनय-विनय कर रही हैं। उनके नेत्रों में (UPBoardSolutions.com) प्रेम के आँसू भरे हुए हैं और शरीर में रोमांच हो रहा है।

काव्यगत सौन्दर्य

  1. सीताजी का श्रीराम के प्रति प्रेम का सजीव चित्रण हुआ है।
  2. भाषाअवधी।
  3. शैली–प्रबन्ध और वर्णनात्मक।.
  4. रस-श्रृंगार।
  5. छन्द-दोहा
  6. अलंकारपुनरुक्तिप्रकाश, रूपक और अनुप्रास।
  7. गुण-माधुर्य।।

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प्रश्न 8.
नीके निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा ॥
अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी ॥
सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई ॥
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा । कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा ।।
बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा ॥
सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥
निज जड़ता लोगन्ह पर डारी । होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥
अति परिताप सीय मन माहीं । लव निमेष जुर्ग सय सम जाहीं।।
उतर
[ नीके = अच्छी तरह। निरखि = देखकर। पनु := प्रण। छोभा = क्षोभ, दु:ख। दारुनि = कठोर। कुलिसहु = हीरे के समान। उर = हृदय। सिरस = शिरीष। भोरी = भ्रम में पड़ना। जड़ता = कठोरता, मूर्खता। परिताप = सन्ताप, दु:ख। निमेष = पलक झपकने में लगने वाला समय।]

प्रसंग-प्रस्तुत पद में श्रीराम के प्रति सीताजी की अनुरक्ति का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया गया है। |,

व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीरामचन्द्र जी की शोभा-सौन्दर्य को जी भरकर देख लेने के पश्चात् और पिताश्री के प्रण का स्मरण करके सीताजी का मन दु:खी हो जाता है। वे मन-हीमन विचार करने लगती हैं; अर्थात् स्वयं से ही कहने लगती हैं कि “ओह ! पिताजी ने बहुत ही कठोर हठ ठान ली है और वे इसको कुछ भी लाभ-हानि समझ नहीं पा रहे हैं। भयभीत होने के कारण (राजपद से) कोई भी मन्त्री उन्हें उचित सलाह नहीं दे रहा है। वस्तुतः विद्वानों की सभा में यह बड़ा ही अनुचित कार्य हो रहा है। यह धनुष तो वज्र से भी अधिक कठोर है, जिसके समक्ष ये कोमल शरीर वाले श्याम वर्ण किशोर की क्या तुलना; (UPBoardSolutions.com) अर्थात् कोई समानता ही नहीं है। | गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि, जनकनन्दिनी सीताजी ब्रह्मा से कहती हैं कि “भाग्य को लिखने वाले हे विधाता ! मैं अपने हृदय में किस तरह से धैर्य धारण करू, अर्थात् मैं धैर्य भी धारण नहीं कर सकती, क्योंकि सारी सभा की बुद्धि ही फिर गयी है। वे यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि कहीं शिरीष के फूल के कण से हीरे को छेदा जा सकता है। अत: सब ओर से निराश होकर हे शिवजी के धनुष ! अब मुझे केवल तुम्हारा ही सहारा है। अब तुम अपनी कठोरता लोगों पर डाल दो और श्रीरामचन्द्र जी के सुकुमार शरीर को देखकर उतने ही हल्के हो जाओ। इस प्रकार विचार करते-करते सीताजी के मन में इतना सन्ताप हो रहा है कि पलक झपकने में लगने वाले समय (निमेष) का एक अंश भी सौ युगों (समये-मापन का अत्यधिक दीर्घ परिमाण) के समान व्यतीत हो रहा है।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. राम के शरीर की कोमलता का अनुभव कर ईश्वर से उन पर अनुग्रह करने की प्रार्थना की गयी है।
  2. भाषा-अवधी
  3. शैली–प्रबन्ध।
  4. रस-शृंगार और भक्ति।
  5. छन्द– दोहा।
  6. अलंकार-अनुप्रास और उपमा।
  7. गुण–माधुर्य और प्रसाद।।

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प्रश्न 9.
प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि, राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिज मीन जुग, जनु बिधु मंडल डोल ।।
उतर
[ चितइ व चितव = देखकर। महि = पृथ्वी। राजत = सुशोभित। लोचन = नेत्र। मनसिज = कामदेव। मीन = मछली। बिधु = चन्द्रमा। ]

प्रसंग-प्रस्तुत पद में सीता जी के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।

व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी सीता जी की वाणी की असमर्थता को व्यक्त करते हुए आलंकारिक रूप में कह रहे हैं कि पहले प्रभु श्रीरामचन्द्र जी की ओर देखकर और तत्पश्चात् लज्जा से पृथ्वी की ओर देखती हुई सीताजी के चंचल नेत्र इस प्रकार (UPBoardSolutions.com) सुशोभित हो रहे हैं मानो चन्द्रमण्डल रूपी डोल में कामदेव की दो मछलियाँ क्रीड़ा कर रही हों।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. नेत्रों की चंचलता की तुलना मछलियों से की गयी है।
  2. भाषा-अवधी।
  3. शैली-प्रबन्ध और वर्णनात्मक।
  4. रस-शृंगार।
  5. छन्द- दोहा
  6. अलंकार-उत्प्रेक्षा और अनुप्रसि।
  7. गुण-माधुर्य।

प्रश्न 10.
गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी ॥
लोचन जल रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना ॥
सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रीतिति उर आनी ॥
तन मन बचन मोर पनु साचा । रघुपति पद सरोज चितु राचा ॥
तौ भगवानु सकल उर बासी । करिहि मोहि रघुबर कै दासी ॥
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू । सो तेहि (UPBoardSolutions.com) मिलइ न कछु संदेहू ॥
प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सब जाना॥
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे । चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे ॥ (2015)
उतर
[ गिरा = वाणी। अलिनि = भ्रमर का स्त्रीलिंग। कृपन = कंजूस। साचा = सच्चा। राचा = अनुरक्त। तकेउ = देखकर। गरुरु = गरुड़ पक्षी। ब्यालहिं = सर्प।]

प्रसंग-प्रस्तुत पद में सीताजी की राम के प्रति प्रगाढ़ प्रेमानुरक्ति का अत्यधिक सजीव वर्णन किया गया है। |

व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी सीताजी की वाणी की असमर्थता को व्यक्त करते हुए आलंकारिक रूप में कह रहे हैं कि सीताजी की वाणी रूपी भ्रमरी को उनके मुख रूपी कमल ने रोक रखा है। आशय यह है कि उनके मुख से आवाज ही नहीं निकल पा रही है। लज्जा रूपी रात्रि को सम्मुख देखकर भी वह प्रकट नहीं हो पा रही है। नेत्रों का जल नेत्रों के कोने में उसी प्रकार रुक गया है जैसे अत्यधिक कंजूस का गड़ा हुआ सोना गड़ा ही रह जाता है। आशय यह है कि सीता जी अपनी असमर्थता को आँसुओं के द्वारा प्रकट करने में भी अक्षम हैं। अपनी इस बढ़ी हुई व्याकुलता को समझकर सीताजी प्रीतिपूर्वक संकोच करने लगीं। तत्पश्चात् उन्होंने हृदय में धैर्य धारण करके मन में विश्वास किया कि यदि तन, मन और वन से मेरा प्रण सच्चा है और श्रीरामचन्द्र जी के चरण-कमलों में मेरा हृदय वास्तव में अनुरक्त है तो सभी के हृदय में निवास करने वाले ईश्वर मुझे उन रघुकुल श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्र जी की दासी अवश्य ही बनाएँगे; क्योंकि जिस किसी पर भी जिस किसी का सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि प्रभु श्रीरामचन्द्र जी की ओर देखकर सीताजी ने शरीर के द्वारा अपने प्रेम का निश्चय कर लिया; अर्थात् इस बात का निश्चय कर लिया कि अब यह शरीर या तो इन्हीं (श्रीराम) का होकर रहेगा या रहेगा ही नहीं। उनके इस (UPBoardSolutions.com) निश्चय को कृपानिधान श्रीरामचन्द्र जी तुरन्त जान गये। इसके पश्चात् उन्होंने सीताजी की ओर देखकर धनुष की ओर इस प्रकार देखा जैसे गरुड़ छोटे से सर्प की ओर देखता है। |

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काव्यगत सौन्दर्य

  1. राम के प्रति सीता की अनुरक्ति का आलंकारिक वर्णन है।
  2. भाषाअवधी
  3. शैली–प्रबन्ध और चित्रात्मक।
  4. रस-शृंगार व भक्ति।
  5. छन्द-दोहा।
  6. अलंकार-सर्वत्र अनुप्रास, रूपक व उपमा का मंजुल प्रयोग।
  7. गुण-माधुर्य और प्रसाद।
  8. शब्द-शक्ति-अभिधा और लक्षणा।।

प्रश्न 11.
लखन लखेउ रघुबंसमनि, ताकेउ हर कोदंडु। पुलकि गात बोले बचन, चरने चापि ब्रह्मांडु॥ [2018]
उतर
[ लखेउ = देखा। ताकेउ = देखा। कोदंडु = धनुष। गात = शरीर। चरन = चरण, पैर। चापि = दबाकर। ब्रह्मांडु = ब्रह्माण्ड।]

प्रसंग-प्रस्तुत पद में लक्ष्मण का श्रीराम के प्रति स्नेह और उनकी स्वयं की बलवत्ता का वर्णन किया गया है। |

व्याख्या–-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जब लक्ष्मण (UPBoardSolutions.com) जी ने देखा कि रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्र जी ने शिवजी के धनुष की ओर देखा है तो उनका शरीर अत्यधिक पुलकित हो उठा और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने दोनों चरणों से दबाकर वे इस प्रकार बोले।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. लक्ष्मण की सामर्थ्य का वर्णन किया गया है।
  2. भाषा-अवधी।
  3. शैली-प्रबन्ध।
  4. रस-वीर।
  5. छन्द-दोहा।
  6. अलंकार-अनुप्रास का मोहक प्रयोग और अतिशयोक्ति।
  7. गुण-ओज।।

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प्रश्न 12.
दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला ॥
राम चहहिं संकर धनु तोरा । होहु सजग सुनि आयसु मोरा ॥
चाप समीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥
सब कर संसउ अरु अग्यानू । मंद महीपन्ह कर अभिमानू ॥
भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदाई ॥
सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिह कर दारुन दुख दावा ॥
संभुचाप बड़ बोहितु पाई। चढे जाइ सब संगु बनाई ॥
राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहिं कोउ कड़हारू॥ [2018]
उतर
[ दिसिकुंजरहु = दिशाओं के रक्षक हाथी। कमठ = कच्छप। अहि = सर्प यहाँ शेषनाग। कोला = वाराह, सूअर। सजग = सचेत। आयसु = आदेश। चाप = धनुष। सुकृत = पुण्य कर्म। भृगुपति = परशुराम। कदराई = कायरता। कड़हारू = केवट।].

प्रसंग-प्रस्तुत पद में लक्ष्मण की सामर्थ्य और राम के ईश्वरत्व गुणों से युक्त होने का वर्णन किया गया है। |

व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कह रहे हैं कि लक्ष्मण जी ने कहा-हे दिग्गजो ! हे कच्छप ! हे शेषनाग ! हे वाराह ! धैर्य धारण करके इस पृथ्वी को इस प्रकार पकड़े रखो, जिससे यह हिलने न पाये। श्रीरामचन्द्र जी शंकर जी के धनुष को तोड़ना चाहते हैं, इसलिए आप सभी लोग मेरी इस आज्ञा को सुनकर सावधान हो जाइए। श्रीरामचन्द्र जी जब शंकर जी के धनुष के समीप आये तब सभी उपस्थित स्त्री-पुरुषों ने देवताओं और (UPBoardSolutions.com) अपने पुण्यों को मनाया; अर्थात् उनका स्मरण किया। सभी का सन्देह और अज्ञान, मामूली । अर्थात् तुच्छ राजाओं का अभिमान, परशुराम जी के गर्व की गुरुता, देवताओं और श्रेष्ठ मुनियों की भय कातरता, सीता जी का विचार, जनक का पश्चात्ताप और समस्त रानियों के दारुण दु:ख का दावानल; ये सभी शिवजी के धनुष रूपी बड़े जहाज को प्राप्त करके समूह बनाकर उसके ऊपर चढ़कर और श्रीरामचन्द्र जी की भुजाओं के बले रूपी अपारे समुद्र के पार जाना चाहते हैं, लेकिन उनके साथ कोई नाविक नहीं है। |

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काव्यगत सौन्दर्य

  1. राम-लक्ष्मण देवत्व के गुणों से युक्त थे, इसका आभास कराया गया है।
  2. भाषा-अवधी।
  3. शैली–प्रबन्ध।
  4. रस-वीर और शान्त।
  5. छन्द-चौपाई।
  6. अलंकारअनुप्रास।
  7. शब्दशक्ति-अभिधा और लक्षणा।
  8. गुण-ओज और प्रसाद।

प्रश्न 13.
राम बिलोके लोग सब, चित्र लिखे से देखि।।
चितई सीय कृपायतन, जानी बिकल बिसेषि ॥
उतर
[ बिलोके = देखे। चित्र लिखे = चित्र के समान, मूर्तिवत्। सीय = सीता। बिकल= व्याकुल। बिसेषि = विशेष।]

प्रसंग–प्रस्तुत पद में समस्त सभा के साथ-साथ सीताजी की स्थिति का वर्णन किया गया है।

व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीरामचन्द्र जी ने सभा में उपस्थित सभी लोगों की ओर देखा। ये सभी लोग उन्हें चित्र में लिखे हुए के समान अर्थात् मूर्तिवत दिखाई पड़े। इसके पश्चात् कृपानिधान श्रीरामचन्द्र जी ने सीताजी की (UPBoardSolutions.com) ओर देखा और उनको इन सबसे अधिक अर्थात् विशेष रूप से व्याकुल अनुभव किया।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. भाषा-अवधी।
  2. शैली–प्रबन्ध व चित्रात्मक।
  3. रस—शान्त और श्रृंगार।
  4. छन्द-दोहा।
  5. अलंकार-उपमा और अनुप्रास।
  6. शब्दशक्ति–अभिधा और लक्षणा।
  7. गुण–प्रसाद और माधुर्य।

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प्रश्न 14.
देखी बिपुल बिकल बैदेही । निमिष बिहात कलप सम तेही ॥
तृषित बारि बिन जो तनु त्यागा। मुएँ करइ को सुधा तड़ागा ॥
का बरषा जब कृषी सुखाने । समय चुके पुनि का पछिताने ॥
असे जियें जानि जानकी देखी । प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी ।।
गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा। अति लाघव उठाइ धनु लीन्हा॥
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ ।
लेत चढ़ावत बँचत गाढे। काहुँ न लखा देख सबु ठाढे ॥
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा ॥
उतर
[ निमिष = पलक झपकने का समय। तृषित = प्यासा। तड़ागा = तालाब। जिय = हृदय में। लखि = देखकर। लाघव = शीघ्रता से। दामिनि = बिजली। ठाढ़े = खड़े हुए। भुवन = संसार। धुनि = ध्वनि।]

प्रसंग-प्रस्तुत पद में सीता जी का राम के प्रति प्रेम (UPBoardSolutions.com) और शिव-धनुष के टूटने का वर्णन किया गया है। |

व्याख्या—गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीरामचन्द्र जी ने सीताजी को बहुत ही व्याकुल देखा। उन्होंने अनुभव किया कि उनका एक-एक क्षण एक-एक कल्प (चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष : 4,32,00,00,000) के समान व्यतीत हो रहा था। यदि प्यासा व्यक्ति पानी न मिलने पर अपना शरीर छोड़ दे, तो उसके चले जाने पर अमृत का तालाब भी क्या करेगा, सारी खेती के सूख जाने पर वर्षा किस काम की, समय के बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ। आशय यह है कि समय के व्यतीत होने पर सब कुछ व्यर्थ हो जाता है। अपने हृदय में ऐसा विचार करके श्रीरामचन्द्र जी ने सीताजी की ओर देखा और उनका अपने प्रति विशेष प्रेम देखकर वे हर्ष से विह्वल हो उठे। मन-ही-मन उन्होंने गुरु विश्वामित्र को प्रणाम किया और अत्यधिक स्फूर्ति के साथ धनुष को उठा लिया। जैसे ही उन्होंने धनुष को अपने हाथ में उठाया, वह उनके हाथ में बिजली की तरह चमका और आकाश में मण्डलाकार हो गया। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि सभा में उपस्थित लोगों में से किसी ने (UPBoardSolutions.com) भी श्रीरामचन्द्र जी को धनुष उठाते, चढ़ाते और जोर से खींचते हुए नहीं देखा; अर्थात् ये तीनों ही काम इतनी शीघ्रता से हुए कि इसका किसी को पता ही नहीं लगा। सभी ने श्रीरामचन्द्र जी को मात्र खड़े देखा और उसी क्षण उन्होंने धनुष को बीच से तोड़ डाला। धनुष के टूटने की ध्वनि इतनी भयंकर हुई कि वह तीनों लोकों में व्याप्त हो गयी। |

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. राम-सीता के पारस्परिक प्रेम की सार्थक अभिव्यक्ति हुई है।
  2. भाषाअवधी।
  3. शैली–प्रबन्ध और सूक्तिपरक।
  4. रस-शृंगार और अद्भुत।
  5. छन्द-दोहा।
  6. अलंकार-अनुप्रास और उत्प्रेक्षा।
  7. गुण-माधुर्य।
  8. शब्दशक्ति–अभिधा और लक्षणा।

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प्रश्न 15.
भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले ॥
सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं ॥ [2011, 13]
उतर
[ रव = ध्वनि। बाजि = घोड़ा। महि = पृथ्वी। अहि = शेषनाग, सर्प। कोल = वाराह। कूरुम = कच्छप। कोदंड = धनुष। खंडेउ = तोड़ दिया।]

प्रसंग-प्रस्तुत पदे में तुलसीदास जी ने धनुष टूटने के बाद उत्पन्न हुई स्थिति का अत्यधिक आलंकारिक वर्णन किया है। |

व्याख्या—गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि धनुष टूटने का घोर-कठोर शब्द त्रैलोक्य में व्याप्त हो गया जिससे सूर्य के घोड़े अपना नियत मार्ग छोड़कर चलने लगे, आठों दिशाओं में स्थित आठ दिग्गज अर्थात् दिशाओं की रक्षा करने वाले (UPBoardSolutions.com) आठ हाथी चिंघाड़ने लगे, सम्पूर्ण पृथ्वी डोलने लगी; शेषनाग, वाराह और कछुआ भी बेचैन हो उठे; देवता, राक्षसगण और मुनिजन कानों पर हाथ रखकर (जिससे ध्वनि सुनाई न पड़े) व्याकुल होकर विचार करने लगे कि यह क्या हो रहा है। अन्तत: जब सभी को इस बात का निश्चय हो गया कि श्रीरामचन्द्र जी ने शंकर जी के धनुष को तोड़ दिया है तब सब उनकी जय-जयकार करने लगे।

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काव्यगत सौन्दर्य

  1. धनुष टूटने के बाद की स्थिति का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है।
  2. भाषा-अवधी
  3. शैली–प्रबन्ध व चित्रात्मक।
  4. रसे—अद्भुत।
  5. छन्द-सवैया।
  6. अलंकार-अनुप्रास और अतिशयोक्ति।
  7. गुण-ओज।
  8. शब्दशक्ति-अभिधा और लक्षणा।।

वन-पथ पर
प्रश्न 1.
पुर ते निकसी रघुबीर-बधू, धरि धीर दये मर्ग में डग है ।
झलक भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गये मधुराधर वै ॥
फिरि बूझति हैं-”चलनो अब केतिक, पर्णकुटी करिहौ कित है?”
तिय की लखि आतुरता पिय की अँखिया अति चारु चलीं जल च्वै॥ (2016)
उतर
[ पुर = शृंगवेरपुर। रघुबीर-बधू = सीता जी। धरि धीर = धैर्य धारण करके। मग = रास्ता। द्वै = दोनों। मधुराधर = सुन्दर होंठ। केतिक = कितना। पर्णकुटी = पत्तों से निर्मित झोंपड़ी। तिय = पत्नी। चारु = सुन्दर। च्वै = चूने लगा। ]

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित ‘कवितावली’ (UPBoardSolutions.com) से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड’ में संकलित ‘वन-पथ पर’ शीर्षक कविता से अवतरित है।

[ विशेष—इस शीर्षक के शेष सभी पद्यांशों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग-कवि ने इन पंक्तियों में अयोध्या से पैदल ही वन को जाती हुई सीताजी की थकावट का मार्मिक वर्णन किया है।

व्याख्या-राम, लक्ष्मण और सीता बड़े धीरज के साथ श्रृंगवेरपुर से आगे दो कदम ही चले थे कि सीताजी के माथे पर पसीने की बूंदें झलकने लगीं और उनके सुन्दर होंठ थकान के कारण सूख गये। तब सीताजी ने अपने प्रियतम राम से पूछा–अभी (UPBoardSolutions.com) हमें कितनी दूर और चलना पड़ेगा? कितनी दूरी पर पत्तों की कुटिया बनाकर रहेंगे? अन्तर्यामी श्रीराम, सीताजी की व्याकुलता का कारण तुरन्त समझ गये कि वे बहुत थक चुकी हैं और विश्राम करना चाहती हैं। राजमहल का सुख भोगने वाली अपनी पत्नी की ऐसी दशा देखकर श्रीराम के सुन्दर नेत्रों से आँसू टपकने लगे।

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काव्यगत सौन्दर्य-

  1. प्रस्तुत पद में सीताजी की सुकुमारता का मार्मिक वर्णन किया गया है।
  2. सीता के प्रति राम के प्रेम की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है।
  3. भाषा–सरस एवं मधुर ब्रज। ‘दये मग में डग द्वै’ मुहावरे का उत्कृष्ट प्रयोग है। इसी के कारण अत्युक्ति अलंकार भी है।
  4. शैली-चित्रात्मक और मुक्तक।
  5. छन्द-सवैया।
  6. लंकार-माथे पर पसीने की बूंदों के आने, होंठों (UPBoardSolutions.com) के सूख जाने में स्वभावोक्ति तथा ‘केतिक पर्णकुटी करिहौ कित’ में अनुप्रास।
  7. शब्दशक्ति–लक्षण एवं व्यंजना।
  8. रस-शृंगार।
  9. गुण–प्रसाद एवं माधुर्य।

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प्रश्न 2.
“जल को गए लक्खन हैं लरिका, परिखौ, पिय ! छाँह घरीक है ठाढ़े।
पछि पसेउ बयारि करौं, अरु पार्दै पखरिहौं भूभुरि डाढ़े ॥
तुलसी रघुबीर प्रिया स्रम जानि कै बैठि बिलंब ल कंटक काढ़े ।
जानकी नाह को नेह लख्यौ, पुलको तनु बारि बिलोचन बाढे ॥ [2016]
उतर
[ परिखौ = प्रतीक्षा करो। घरीक = एक घड़ी के लिए। ठाढ़े = खड़े होकर। पसेउ = पसीना। बयारि = हवा। भूभुरि = रेत (धूल)। डाढ़े = तपे हुए। बिलंब लौं = देर तक। काढ़े = निकाले। नाह = नाथ, स्वामी। पुलको तनु = शरीर रोमांचित हो गया। बिलोचन := नेत्र।

प्रसंग-इन पंक्तियों में गोस्वामी जी ने सीताजी की सुकुमारता और उनके प्रति राम के असीम प्रेम का सहज चित्रण किया है।

व्याख्या–सीताजी श्रृंगवेरपुर से आगे चलने पर थक जाती हैं। वे विश्राम करने की इच्छा करती हैं। वे श्रीराम से कहती हैं कि लक्ष्मण पानी लेने गये हैं, इसलिए घड़ी भर किसी पेड़ की छाया में खड़े होकर उनकी प्रतीक्षा कर लेनी चाहिए। इतनी देर मैं आपका पसीना पोंछकर हवा कर देंगी तथा गर्म रेत पर चलने से आपके पाँव जल गये होंगे, उन्हें मैं धो देंगी। श्री रामचन्द्र जी यह सुनकर समझ गये कि सीताजी थक चुकी हैं। और (UPBoardSolutions.com) स्वयं विश्राम करने के लिए कहने में सकुची रही हैं। इसलिए वे बैठ गये और बड़ी देर तक (सीताजी को अधिक समय विश्राम देने के उद्देश्य से) बैठकर उनके पैरों में चुभे हुए काँटे निकालते रहे। अपने प्रति पति का ऐसा प्रेम देखकर सीताजी पुलकित हो गयीं और उनकी आँखों से प्रेम के आँसू टपकने लगे। |

काव्यगत सौन्दर्य–

  1. तुलसीदास जी ने विपत्ति के समय श्रीराम और सीता के एक-दूसरे के प्रति प्रेम और समर्पित भाव का बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है, जो कि दाम्पत्य जीवन का एक आदर्श उपस्थित करता है।
  2. गोस्वामी जी ने सीताजी और श्रीराम की भावनाओं का पारस्परिक आदान-प्रदान बहुत दक्षता से प्रस्तुत किया है।
  3. भाषा-ब्रज।
  4. शैली-मुक्तक।
  5. छन्द-सवैया।
  6. रस-शृंगार।
  7. अलंकार-अनुप्रास।
  8.  गुण-माधुर्य।
  9. शब्दशक्ति–लक्षणा एवं व्यंजना।

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प्रश्न 3.
रानी मैं जानी अजानी महा, पबि पाहन हूँ ते कठोर हियो है ।
राजहु काज अकाज न जान्यो, कह्यो तिय को जिन कान कियो है।
ऐसी मनोहर मूरति ये, बिछुरे कैसे प्रीतम लोग जियो है ?
आँखिन में, सखि ! राखिबे जोग, इन्हें किमि कै बनबास दियो है ?॥ [2010, 12, 15]
उतर
[ अजानी = अज्ञानी। पबि = वज्र। पाहन = पत्थर। (UPBoardSolutions.com) हियो = हृदय। काज अकाज = कार्य-अकार्य या उचित-अनुचित कार्य। तिय = स्त्री। कान कियो है = मान लिया है। प्रीतम = स्नेह करने वाले। जोग = योग्य। किमि = क्यों।]

प्रसंग-इन पंक्तियों में कवि ने ग्रामीण स्त्रियों के द्वारा कैकेयी और राजा दशरथ की निष्ठुरता पर व्यक्त प्रतिक्रिया को चित्रित किया है।

व्याख्या-वन-गमन के समय रास्ते में स्थित एक गाँव की स्त्रियाँ राम, लक्ष्मण और सीता के सौन्दर्य तथा कोमलता को देखकर रानी कैकेयी को अज्ञानी और वज्र तथा पत्थर से भी कठोर हृदय वाली नारी बताती हैं; क्योंकि उसे सुकुमार राजकुमारों को वनवास देते समय तनिक भी दया न आयी। वे राजा दशरथ को भी विवेकहीन समझकर पत्नी के कहे अनुसार कार्य करने वाला ही समझती हैं और राजा में उचित-अनुचित के ज्ञान की कमी मानती हैं। उन्हें आश्चर्य है कि इन सुन्दर मूर्तियों से बिछुड़कर इनके प्रियजन कैसे जीवित रहेंगे ? हे सखी! ये तीनों तो आँखों में बसाने योग्य हैं, तब इन्हें किस कारण वनवास दिया गया है ?

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. यहाँ कवि ने ग्रामीण बालाओं की श्रीराम के प्रति सहृदयता का सुन्दर चित्रण किया है।
  2. भाषा-ब्रज।
  3. ‘कान भरना’ और ‘आँखों में रखना’ जैसे मुहावरों का समावेश।
  4. शैली-मुक्तक।
  5. छन्द-सवैया।
  6. रस–करुण एवं श्रृंगार।
  7. अलंकार-‘जानी अजानी महा’ में अनुप्रास,काज अकोज’ में सभंगपद यमक।
  8. गुण-माधुर्य।
  9. शब्दशक्ति—अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना।।

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प्रश्न 4.
सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछी सी भौंहैं।
तून सरासन बान धरे, तुलसी बन-मारग में सुठि सोहैं ॥
सादर बारहिं बार सुभाय चितै, तुम त्यों हमरो मन मोहैं ।
पूछति ग्राम बधूसिय सों’कहौ साँवरे से, सखि रावरे को हैं?’ ॥ [2012, 14, 18]
उतर
[ बिलोचन = नेत्र। तून = तरकस। सरासन = धनुष। सुठि = सुन्दर। सुभाय = स्वाभाविक रूप से। तुम त्यों = तुम्हारी ओर। रावरे = तुम्हारे।]

प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में ग्रामवधुएँ सीता जी को घेरकर (UPBoardSolutions.com) एक ओर बैठे हुए श्रीराम के विषय में विनोद करती हुई उनसे प्रश्न पूछ रही हैं।

व्याख्या-ग्रामवधुएँ सीताजी से पूछ रही हैं कि जो सिर पर जटा धारण किये हुए हैं, जिनके वक्षस्थल और भुजाएँ विशाल हैं, नेत्र लाल हैं तथा भौंहें तिरछी-सी हैं। जो तरकस, धनुष और बाण धारण किये हुए इस वन-मार्ग में बहुत शोभायमान हो रहे हैं, जो सहज-स्वाभाविक रूप में बड़े सम्मान के साथ बार-बार तुम्हारी ओर देखते हुए हमारी मन भी आकर्षित कर रहे हैं। हे सखी! तुम हमें यह बताओ कि ये ” सुन्दर साँवले रूप वाले (राम) तुम्हारे कौन लगते हैं?

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. ग्रामवधुओं ने सीताजी से बहुत सात्विक विनोद से परिपूर्ण स्वाभाविक प्रश्न किया है। ग्राम-वधूटियों का वाक्-चातुर्य दर्शनीय है। स्त्रियों की बातों में जो स्वाभाविक व्यंजना होती है, उसका बड़ा ही मनोवैज्ञानिक चित्रण है।
  2. यहाँ श्रीराम के रूप और मुद्रा का सुन्दर वर्णन हुआ है।
  3. भाषा-सुकोमल ब्रज।
  4. शैली-मुक्तक।
  5. छन्द-सवैया।
  6. रस-शृंगार।
  7. अलंकार– सर्वत्र अनुप्रास।
  8. गुण-माधुर्य।
  9. शब्दशक्ति-व्यंजना।

प्रश्न 5.
सुनि सुन्दर बैन सुधारस-साने, सयानी हैं जानकी जानी भली।
तिरछे करि नैन दै सैन तिन्हें, समुझाइ कछू मुसकाइ चली ॥
तुलसी तेहि औसर सोहै सबै, अवलोकति लोचन-लाहु अली।
अनुराग-तड़ाग में भानु उदै, बिगसीं मनो मंजुल कंज-कली ॥ [2009, 11, 13, 15, 17]
उतर
[ बैन = शब्द। सुधारस-साने = अमृत-रस में सने हुए। सयानी = चतुर। भली = अच्छी तरह से। सैन = संकेत। अवलोकति = देखती है। लाहु = लाभ। अली = सखी। अनुराग-तड़ाग = प्रेम रूपी सरोवर। बिगसीं = खिल रही हैं। मंजुल = सुन्दर। कंज (UPBoardSolutions.com) = कमल।]

प्रसंग-इन पंक्तियों में ग्रामवधुओं के प्रश्न का उत्तर देती हुई सीताजी अपने हाव-भावों से ही राम के विषय में सब कुछ बता देती हैं।

व्याख्या-ग्रामवधुओं ने राम के विषय में सीताजी से पूछा कि ये साँवले और सुन्दर रूप वाले तुम्हारे क्या लगते हैं?’ ग्रामवधुओं के अमृत जैसे मधुर वचनों को सुनकर चतुर सीताजी उनके मनोभाव को समझ गयीं। सीताजी ने उनके प्रश्न का उत्तर अपनी मुस्कराहट तथा संकेत भरी दृष्टि से ही दे दिया, उन्हें मुख से कुछ बोलने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। उन्होंने स्त्रियोचित लज्जा के कारण केवल संकेत से ही राम के विषय (UPBoardSolutions.com) में यह समझा दिया कि ये मेरे पति हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि सीताजी के संकेत को समझकर सभी सखियाँ राम के सौन्दर्य को एकटक देखती हुई अपने नेत्रों का लाभ प्राप्त करने लगीं। उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो प्रेम के सरोवर में रामरूपी सूर्य का उदय हो गया हो और ग्रामवधुओं के नेत्ररूपी कमल की सुन्दर कलियाँ खिल गयी हों।

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काव्यगत सौन्दर्य

  1. सीता जी का संकेतपूर्ण उत्तर भारतीय नारी की मर्यादा तथा ‘लब्धः नेत्र . निर्वाण:’ की भावना के अनुरूप है।
  2. प्रस्तुत पद में ‘नाटकीयता और काव्य’ का सुन्दर योग है।
  3. भाषा-सुललित ब्रज।
  4. शैली—चित्रात्मक व मुक्तक।
  5. छन्द-सवैया।
  6. रस-श्रृंगार।
  7. अलंकार–‘सुनि सुन्दर बैन सुधारस साने, सयानी हैं (UPBoardSolutions.com) जानकी जानी भली में अनुप्रास, ‘अनुराग-तड़ाग में भानु उदै बिगसीं मनो मंजुल कंज कली’ में रूपक, उत्प्रेक्षा और अनुप्रास की छटा है।
  8. गुणमाधुर्य।
  9. शब्दशक्ति–व्यंजना।।

काव्य-सौदर्य एवं व्याकरण-बोध

प्रश्न 1
निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकारों का नाम लिखकर उनका स्पष्टीकरण भी दीजिए-
(क)
भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कुरुम कलमले ॥
सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं ॥
(ख)
सुनि सुन्दर बैन सुधारस-साने, सयानी हैं जानकी जानी भली ।
तिरछे करि नैन दै सैन तिन्हें, समुझाई कछू मुसकाइ चली ॥
तुलसी तेहि औसर सोहैं, सबै अवलोकति लोचन-लाहु अली ।।
अनुराग-तड़ाग में भानु उदै, बिगसीं मनो मंजुल कंज-कली ॥ ॥
उत्तर
(क) विभिन्न वर्गों; यथा—भ, र, ज, ह, क, ल आदि; की आवृत्ति होने के कारण इस पद में सर्वत्र अनुप्रास अलंकार है। मात्र धनुष टूटने के कारण त्रैलोक्य में खलबली मच गयी। इस वर्णन को अत्यधिक बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करने के कारण अतिशयोक्ति अलंकार है।

(ख) विभिन्न वर्गों; यथा-स, न, ज, ल, त आदि; की (UPBoardSolutions.com) आवृत्ति होने के कारण इस पद में सर्वत्र अनुप्रास अलंकार है। “अनुराग-तड़ाग में भानु उदै’ में उपमेय और उपमान की अभिन्नता के कारण रूपक तथा ‘‘बिगसीं मनो मंजुल’ में उपमेय की उपमान के रूप में सम्भावना के कारण उत्प्रेक्षा अलंकार है।

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प्रश्न 2
निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त रस और उसका स्थायी भाव लिखिए
(क)
देखि देखि रघुबीर तन सुर मराव धरि, धीर।
भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर ॥
(ख)
भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
चिक्करहिं दिग्गज डोले महि अहि कोल कुरुम कलमले ॥
सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं ॥
उत्तर
(क) रस-शृंगार, स्थायी भाव–रति।
(ख) रस–अद्भुत, स्थायी भाव-आश्चर्य।

प्रश्न 3
‘वन-पथ पर’ कविता किस छन्द में लिखी गयी है, सलक्षण लिखिए।
उत्तर
यह कविता सवैया छन्द में लिखी गयी है। बाइस से (UPBoardSolutions.com) छब्बीस तक के वर्णवृत्त ‘सवैया’ कहलाते हैं। मत्तगयन्द तथा सुन्दरी इसके भेद हैं।

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प्रश्न 4
निम्नलिखित पदों में सनाम समास-विग्रह कीजिए-
पद कमल, चारिभुज, सुलोचनि, मखशाला, त्रिभुवन, दस बदन, राम-लषन।
उतर
UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 2 तुलसीदास (काव्य-खण्ड) img-1

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UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 15 (Section 1)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 15 क्रान्तिकारियों का योगदान (अनुभाग – एक)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Social Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 15 क्रान्तिकारियों का योगदान (अनुभाग – एक)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय स्वतन्त्रता संघर्ष में क्रान्तिकारियों की भूमिका की विवेचना कीजिए। [2013]
उत्तर :
स्पष्ट राजनीतिक आन्दोलन के अतिरिक्त बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में देश के विभिन्न भागों में अनेक क्रान्तिकारी संगठन भी बने। इन संगठनों का संघर्ष सशस्त्र था। इनकी संवैधानिक आन्दोलन में कोई आस्था नहीं थी। इनका मुख्य उद्देश्य था—ब्रिटिश अधिकारियों को आतंकित करके पूरे सरकारी तन्त्र का मनोबल तोड़ना तथा स्वतन्त्रता प्राप्त करना। इन क्रान्तिकारियों की वीरता और आत्म-बलिदान ने। जनता को प्रेरणा दी और इस तरह जनता में राष्ट्रवादी भावनाओं का विकास किया। स्वतन्त्रता आन्दोलन के तीन प्रमुख क्रान्तिकारियों का संक्षिप्त जीवन परिचय नीचे दिया जा रहा है –

1. चन्द्रशेखर आजाद – देश की स्वतन्त्रता के मार्ग पर हँसते-हँसते शहीद हो जाने वाले क्रान्तिकारियों की प्रथम श्रेणी में चन्द्रशेखर आजाद का नाम आता है। इनका जन्म 23 जुलाई, 1906 ई० में मध्य प्रदेश के भाँवरा नामक ग्राम में हुआ था। चन्द्रशेखर आजाद ने काकोरी काण्ड व साण्डर्स की हत्या में भाग लेकर अपनी प्रतिभा की धाक जमा दी थी। उन्होंने क्रान्तिकारी दल का नेतृत्व बड़ी सफलता से किया। (UPBoardSolutions.com) ब्रिटिश सरकार उनसे परेशान हो गयी थी और उन्हें गिरफ्तार करने के लिए सक्रिय हो गयी थी। सन् 1931 ई० को वे इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अपने साथियों के साथ बैठक कर रहे थे। वहाँ पर पुलिस से इनकी मुठभेड़ हुई। इन्होंने पुलिस के हाथों में आने से पहले ही स्वयं को गोली मारकर वीरगति प्राप्त की।

2. भगतसिंह – शहीद भगतसिंह भारत के सच्चे देशभक्त और महान क्रान्तिकारी थे। इनका जन्म 27 दिसम्बर, 1907 ई० को पंजाब के लायलपुर जिले में हुआ था। ब्रिटिश सरकार इनके क्रान्तिकारी कार्यों से बुरी तरह घबरा गयी थी। इन्होंने सबसे पहले चन्द्रशेखर आजाद के साथ मिलकर लाला लाजपत राय पर लाठी बरसाने वाले अंग्रेज अधिकारी साण्डर्स की हत्या की। इसके उपरान्त सुखदेव व राजगुरु के साथ मिलकर 8 अप्रैल, 1929 ई० को केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंककर सनसनी फैला दी। देश की जनता को स्वतन्त्रता के प्रति जागरूक करने के लिए इन्होंने स्वयं को गिरफ्तार करवा दिया। 23 मार्च, 1931 ई० को लाहौर जेल में इन्हें और इनके साथियों को फाँसी दे दी गयी, किन्तु अपने बलिदान से ये भारतीय इतिहास में अमर हो गये।

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3. खुदीराम बोस – खुदीराम बोस भारत के परम देशभक्त और महान क्रान्तिकारी थे। इनका जन्म 3 दिसम्बर, 1889 ई० को बंगाल के मिदनापुर जिले में हुआ था। शिक्षा पूर्ण करके ये बंगाल के क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित हो गये। इन्होंने मुजफ्फरपुर में जस्टिस किंग्सफोर्ड की गाड़ी पर बम फेंका। वे उस गाड़ी में मौजूद न होने के कारण बच गये, किन्तु दो निर्दोष स्त्रियाँ मारी गयीं। ये बाद में कैद कर लिये गये तथा सन् 1908 ई० में उन्हें फाँसी दे दी गयी। खुदीराम बोस ने देश की स्वाधीनता और सम्मान के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी।

महत्त्व – इन क्रान्तिकारियों की गतिविधियाँ समय-समय पर अंग्रेजी सरकार को हिलाती रहती थीं। जिसके परिणामस्वरूप सरकार किसी भी कार्य का उचित फैसला नहीं ले पाती थी। अगर क्रान्तिकारी आन्दोलन भारत में न हुए होते तो भारत को 15 अगस्त, 1947 ई० को (UPBoardSolutions.com) स्वतन्त्रता प्राप्त करना मुश्किल ही नहीं असम्भव भी था। इसलिए क्रान्तिकारी आन्दोलनों ने स्वतन्त्रता-प्राप्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।

प्रश्न 2.
पंजाब तथा बंगाल की प्रमुख क्रान्तिकारी गतिविधियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
क्रान्तिकारी आन्दोलन उन्नीसवीं सदी के अन्त तथा बीसवीं सदी के शुरू में भारत में चला। यह आन्दोलन तिलक-पक्षीय राजनीतिक उग्रवाद से बिल्कुल भिन्न था। क्रान्तिकारी लोग अपीलों, प्रेरणाओं और शान्तिपूर्ण संघर्षों में विश्वास नहीं रखते थे। उनका यह निश्चित मत था कि पशु बल से स्थापित किये गये साम्राज्यवाद को हिंसा के बिना उखाड़ फेंकना सम्भव नहीं। ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रियावादी और दमन नीति ने उन्हें निराश कर दिया थी। वे प्रशासन और उसके हिन्दुस्तानी सहायकों की हिम्मत पस्त करने के लिए हिंसात्मक कार्य में विश्वास रखते थे। वे अपने आन्दोलन को चलाने के लिए सशस्त्र आक्रमण करना तथा राजकोषों पर डकैती डालने के कार्य को बुरा नहीं समझते थे। इस आन्दोलन में विदेशों में स्थित राष्ट्रवादी भारतीयों ने भी खुलकर भाग लिया।

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क्रान्तिकारी आन्दोलन के केन्द्र एवं गतिविधियाँ

क्रान्तिकारी राष्ट्रवादियों का सर्वप्रथम केन्द्र महाराष्ट्र था। सन् 1899 ई० में जनता की घृणा के पात्र रैण्ड और रिहर्स्ट की हत्या कर दी गयी जिसमें श्यामजी कृष्ण वर्मा का हाथ था। वह भागकर लन्दन पहुँच गये। जहाँ उन्होंने सन् 1905 ई० में इण्डियन होमरूल सोसायटी की स्थापना की। उनकी सहायता से विनायक दामोदर सावरकर भी लन्दन पहुँचकर ‘इण्डिया हाउस’ में क्रान्तिकारी दल के नेता हो गये। वी० डी० सावरकर ने ‘अभिनव भारत’ सोसायटी के सदस्यों के लिए पिस्तौलें भेजने की व्यवस्था की। विनायक सावरकर के भाई गणेश सावरकर पर अभियोग चलाया गया तथा सन् 1909 ई० में उन्हें गोली से उड़ा दिया गया।

बंगाल में क्रान्तिकारियों का नेतृत्व अरविन्द घोष के भाई वी०के० घोष ने किया। उन्होंने ‘युगान्तर’ अखबार के माध्यम से जनता को राजनीतिक और धार्मिक शिक्षा देना आरम्भ किया। वी०एन० दत्त और वी०के० घोष के नेतृत्व में अनेक क्रान्तिकारी समितियाँ बनायी गयीं जिनमें ‘अनुशीलन समिति’ प्रमुख थी। इस समिति की शाखाएँ कलकत्ता (कोलकाता) तथा ढाका में थीं। इस समिति ने आतंकवादी कार्यक्रम शुरू किया। सन् 1907 ई० में लेफ्टिनेण्ट गवर्नर की गाड़ी को बम से उड़ाने का विफल प्रयास किया गया। प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस इस समिति के महत्त्वपूर्ण सदस्य थे। चाकी ने स्वयं को गोली से उड़ा लिया, खुदीराम बोस को फाँसी दे दी गयी।

कलकत्ता (कोलकाता) षड्यन्त्र में अरविन्द घोष, वी०के० घोष, हेमचन्द्र दास, नरेन्द्र गोसाईं, के०एल० दत्त, एस०एन० बोस आदि को गिरफ्तार करके मुकदमे चलाये गये। के०एल० दत्त तथा एस०एन० बोस को फाँसी पर लटका दिया गया। क्रान्तिकारियों ने चुन-चुनकर पुलिस अफसरों, मजिस्ट्रेटों, सरकारी वकीलों, विरोधी गवाहों, गद्दारों, देशद्रोहियों आदि को गोली से उड़ा दिया।

मदनलाल ढींगरा ने इंग्लैण्ड में, भारत में आक्रमणकारियों को दी गयी अमानुषिक (UPBoardSolutions.com) सजाओं के विरोध में सरं विलियम कर्जन वायली को गोली से उड़ा दिया। इस कारण उन्हें फाँसी दे दी गयी।

पॉण्डिचेरी (पुदुचेरी) भी क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र था। एम०पी० तिरुमल आचार्य और वी०वी०एस० अय्यर यहाँ के मुख्य कार्यकर्ता थे। उनके एक शिष्य वाँची अय्यर को जिला मजिस्ट्रेट को गोली से उड़ाने के अपराध में फाँसी पर चढ़ा दिया गया।

क्रान्तिकारी गतिविधियों का एक केन्द्र अमेरिका के पैसिफिक तट पर था।’इण्डो-अमेरिकन एसोसिएशन तथा ‘यंग इण्डिया एसोसिएशन के मुख्य कार्यालय कैलिफोर्निया में थे तथा अन्य स्थानों पर इनकी शाखाएँ थीं। इनके कार्यकर्ता मुख्यत: बंगाली छात्र थे जिन्हें आयरिश-अमेरिकन छात्रों का सहयोग प्राप्त था। बंगाल और पंजाब में सन् 1913-16 ई० के दौरान क्रान्तिकारी आन्दोलन उग्र रूप में था। पंजाब के कुछ क्रान्तिकारियों ने भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग की जान लेने की कोशिश की। दिल्ली षड्यन्त्र केस में अमीरचन्द, अवध बिहारी, बालमुकुन्द, बसन्त कुमार और विश्वास को मौत की सजा हुई। कनाडा के सिक्ख लोगों के लौटने से पंजाब में क्रान्तिकारी आन्दोलन को बल मिला।

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक पार्टी ने सरकार के दमन और आतंक का मुकाबला करते हुए क्रान्तिकारी आन्दोलन को बल दिया। सरदार भगतसिंह, यतीन्द्रनाथ दास और चन्द्रशेखर आजाद जैसे क्रान्तिकारियों ने देश के लिए अपना जीवन दे दिया।

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित घटनाओं के कारण तथा परिणामों का संक्षेप में वर्णन कीजिए – [2016]
(क) काकोरी काण्ड, (ख) सेन्ट्रल असेम्बली (केन्द्रीय विधानसभा बम प्रहार), (ग) लाहौर काण्ड।
या
काकोरी हत्याकाण्ड कब और कहाँ घटित हुआ था? [2018]
उत्तर :

(क) काकोरी काण्ड

अगस्त, 1925 ई० में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्यों ने (UPBoardSolutions.com) लखनऊ के निकट काकोरी नामक स्थान लखनऊ जाने वाली गाड़ी के एक डिब्बे में रखे सरकारी खजाने को लूट लिया। इस घटना में 29
क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार कर उन पर काकोरी षड्यन्त्र काण्ड में दो वर्ष तक मुकदमा चलाया गया।

क्रान्तिकारियों में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ, रोशन लाल तथा राजेन्द्र लाहिडी को फाँसी दे दी गयी।

काकोरी काण्ड में “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के अधिकांश नेता गिरफ्तार कर लिए गए। जिसके परिणामस्वरूप इस संगठन का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया। कुछ समय पश्चात् इस काण्ड के एकमात्र बचे क्रान्तिकारी सदस्य चन्द्रशेखर आजाद ने सन् 1928 में दिल्ली के ‘फीरोजशाह कोटला मैदान में एक बैठक आयोजित की और उन्होंने यहीं पर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की। ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ का पहला क्रान्तिकारी कार्य लाहौर के सहायक पुलिस अधीक्षक ‘साण्डर्स’ की हत्या थी। यह हत्या 30 अक्टूबर, 1928 को साइमन कमीशन के विरोध के कारण एवं लाला लाजपत राय की पुलिस द्वारा की गयी पिटाई का प्रतिशोध थी। साण्डर्स की हत्या में भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद और राजगुरु शामिल थे।

साण्डर्स की हत्या के बाद क्रान्तिकारी तो भूमिगत हो गए परन्तु ब्रिटिश पुलिस निर्दोष अथवा सामान्य जनता को परेशान करने लगी। पुलिस का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए भगतसिंह एवं बटुकेश्वर दत्त ने (1929 ई० में) विधानसभा (सेण्ट्रल असेम्बली) में बम फेंका, जिसमें इन तीनों को गिरफ्तार कर लिया गया तथा मुकदमा चलाया गया।

भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त की गिरफ्तारी के साथ ही अन्य अनेक क्रान्तिकारी गिरफ्तार किये गये और उन पर लाहौर षड्यन्त्र काण्ड में संयुक्त रूप से मुकदमा चला गया। जेल में बन्द इन कैदियों ने राजनीतिक बन्दियों का दर्जा प्राप्त करने के लिए भूख हड़ताल (UPBoardSolutions.com) प्रारम्भ कर दी। इनमें ‘जतिन दास’ भी शामिल थे। हड़ताल के 64वें दिन जतिन दास का देहान्त हो गया। लाहौर काण्ड में अधिकांश क्रान्तिकारियों को दोषी पाया गया और उनमें से तीन भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को 23 मार्च, 1931 को लाहौर में फॉसी दे दी गयी।

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(ख) असेम्बली में बम विस्फोट

ब्रिटिश सरकार द्वारा सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली में सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम’ (पब्लिक सेफ्टी बिल) तथा व्यापार विवाद अधिनियम’ (ट्रेड डिस्प्यूट बिल) पेश किये गये थे। इन अधिनियमों के तहत अंग्रेज सरकार तथा पुलिस को भारतीय क्रान्तिकारियों तथा स्वतन्त्रता सेनानियों के विरुद्ध अधिक अधिकार दिये गये थे। असेम्बली में इन अधिनियमों को मात्र एक वोट से हरा दिया गया। इन अधिनियमों की स्वीकृति हेतु चर्चा के दौरान हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के कार्यकर्ताओं ने सेण्ट्रल (UPBoardSolutions.com) लेजिस्लेटिव असेम्बली में बम विस्फोट करने की योजना बनायी। क्रान्तिकारी आन्दोलन के नेता चन्द्रशेखर आजाद, बम-विस्फोट के पक्ष में नहीं थे। किसी प्रकार से एसोसिएशन के अन्य नेताओं ने भगतसिंह की इस योजना में सम्मिलित होने के लिए चन्द्रशेखर आजाद को सहमत कर लिया। आजाद ने बम विस्फोट का कार्य बटुकेश्वर दत्त तथा भगतसिंह के सुपुर्द कर दिया।

8 अप्रैल, 1929 को बटुकेश्वर दत्त और भगतसिंह असेम्बली की दर्शक-दीर्घा में पहुँच गए। वहाँ पहुँचकर उन्होंने ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ का नारा लगाया और बटुकेश्वर दत्त ने असेम्बली के रिक्त स्थान (जहाँ पर कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं था) पर कुछ बम फेंके। भगतसिंह ने कुछ छपे हुए पर्चे (पैम्फ्लेट्स) असेम्बली में उपस्थित सदस्यों के ऊपर फेंके जिन पर लिखा था “बहरों को कोई बात सुनाने के लिए अधिक कोलाहल की आवश्यकता पड़ती है।” बम फेंकने का उद्देश्य किसी की हत्या करना नहीं था। तत्पश्चात् बटुकेश्वर दत्त तथा भगतसिंह को गिरफ्तार करके अदालत में पेश किया गया, जहाँ दोनों ने अपने किये गये (UPBoardSolutions.com) जुर्म को स्वीकार कर लिया। ब्रिटिश फोरेंसिक विशेषज्ञों ने भी इस बात की पुष्टि की कि बम इतने शक्तिशाली नहीं थे, जिनसे किसी को घायल भी किया जा सकता हो। यह घटना इतनी बड़ी नहीं थी, जिसके लिए उन्हें फाँसी दी जा सके। इसलिए 12 जून, 1929 ई० को दिल्ली के सेशन जजों ने विस्फोटकजन्य पदार्थ ऐक्ट की धारा चार तथा इण्डियन पीनल कोड की धारा 307 के तहत उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनायी।

बटुकेश्वर दत्त को अण्डमान में स्थित सेल्युलर जेल, जो कि काला पानी’ नाम से कुख्यांत थी, भेज दिया गया। उन्हें लाहौर षड्यन्त्र केस में भी अदालत में पेश किया गया जिसमें उनको निर्दोष सिद्ध कर दिया गया। उन्होंने मई, 1933 तथा जुलाई, 1937 में सेल्युलर जेल में दो बार ऐतिहासिक भूख हड़ताल की। सन् 1937 में ही बटुकेश्वर दत्त को हिन्दुस्तान भेज दिया गया, जहाँ पर पटना की बाँकीपुर जेल से उन्हें सन् 1938 ई० में रिहा कर दिया गया।

(ग) लाहौर काण्ड

भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त की गिरफ्तारी के कारण अनेक एच० एस० आर० ए० क्रान्तिकारी भी गिरफ्तार किये गये और उन पर लाहौर षड्यन्त्र काण्ड में संयुक्त रूप से मुकदमा चलाया गया। जेल में रहते हुए जिन कैदियों पर मुकदमा चलाया जा रहा था, उन्होंने साधारण अपराधियों के बजाय राजनीतिक बन्दियों का दर्जा प्राप्त करने के लिए भूख हड़ताल की थी। इन भूख-हड़तालियों में जतिन दास भी थे, जिनका 13 सितम्बर, 1929 ई० को अनशन के 64वें दिन देहान्त हो गया। लाहौर षड्यन्त्र काण्ड में अधिकांश क्रान्तिकारियों को दोषी पाया गया और उनमें से तीन भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को 23 मार्च, 1931 ई० क फाँसी दे दी गई।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की शाखाएँ किन-किन जगहों पर स्थापित की गयी ?
उत्तर :
अक्टूबर, 1924 ई० में सभी क्रान्तिकारी दलों ने लखनऊ में एक सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में शचीन्द्रनाथ सान्याल, जगदीशचन्द्र चटर्जी, रामप्रसाद बिस्मिल, योगेश चटर्जी आदि सम्मिलित हुए। नये नेताओं में भगतसिंह, शिव वर्मा, सुखदेव, भगवतीचरण बोहरा, चन्द्रशेखर आजाद आदि शामिल थे। नये क्रान्तिकारी राष्ट्रभक्तों ने कुछ नवीन संगठनों की स्थापना की। ये संगठन संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश), दिल्ली, पंजाब तथा बंगाल आदि केन्द्रों में बनाये गये।

हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना सन् 1924 ई० में कानपुर में की गयी। इसके मुख्य कार्यकर्ता शचीन्द्रनाथ सान्याल, रामप्रसाद बिस्मिल, योगेश चटर्जी, अशफाक उल्ला खाँ, रोशन सिंह आदि थे। बंगाल, बिहार, उ०प्र०, दिल्ली, पंजाब, मद्रास (चेन्नई) आदि (UPBoardSolutions.com) प्रान्तों में इसकी शाखाएँ स्थापित की गयीं। इस संगठन के प्रमुख विचार निम्नलिखित थे –

  1. भारतीय जनता में गांधी जी की अहिंसावाद की नीतियों की निरर्थकता के प्रति जागृति उत्पन्न करना।
  2. पूर्ण स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिए प्रत्यक्ष कार्यवाही तथा क्रान्ति की आवश्यकता का प्रदर्शन करना।
  3. अंग्रेजी साम्राज्यवाद के स्थान पर समाजवादी विचारधारा से प्रेरित भारत में संघीय गणतन्त्र की स्थापना करना।
  4. इन्होंने अपने कार्यों के लिए धन एकत्रित करने हेतु सरकारी कोषों को अपना निशाना बनाने का निश्चय किया।

प्रश्न 2.
देश को स्वतन्त्रता दिलाने में मौलाना आजाद का क्या योगदान रहा ? [2011, 16]
उतर :
मौलाना अबुल कलाम आजाद का देश को स्वतन्त्रता दिलाने में महत्त्वपूर्ण योगदान था। उन्होंने ‘मुस्लिम लीग’ की नीतियों का विरोध करते हुए भारतीय मुसलमानों को राष्ट्रीय धारा में जोड़ने का अथक् प्रयास किया। उन्होंने अंग्रेजों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति का प्रबल विरोध किया। भारतीय मुसलमानों को जागृत करने के लिए आजाद ने ‘अल हिलाल’ नामक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। यह पत्र मुसलमानों में अत्यधिक लोकप्रिय था। 1916 ई० में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के आपसी समझौते में उनका सराहनीय सहयोग था। उन्होंने असहयोग आन्दोलन में भाग लिया, जिसके फलस्वरूप उन्हें 1 वर्ष की सजा हुई। 1923 ई० के कांग्रेस अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष चुन लिया गया। 1930 ई० में जब गांधी जी ने ‘सविनय अवज्ञा-आन्दोलन’ चलाया तो आजाद ने सक्रिय सहयोग प्रदान किया। 1940 (UPBoardSolutions.com) ई० से 1946 ई० तक वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सभापति रहे। 1947 ई० की अन्तरिम सरकार में वे शिक्षामंत्री रहे। स्वतंत्र भारत में 1958 ई० तक वे लगातार शिक्षामंत्री के पद पर बने रहे। उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तक ‘इण्डिया विन्स. फ्रीडम’ थी।

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प्रश्न 3.
भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में सुभाषचन्द्र बोस के योगदान की विवेचना कीजिए। [2015, 18]
उतर :

सुभाषचन्द्र बोस

सुभाषचन्द्र बोस ने राष्ट्रीय आन्दोलन में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आर०सी० मजूमदार के शब्दों में–“गाँधी जी के बाद भारतीय स्वतन्त्रता संघर्ष में सबसे प्रमुख व्यक्ति नि:सन्देह सुभाषचन्द्र बोस ही थे।” सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 ई० को उड़ीसा के कटक नगर में हुआ था। सुभाषचन्द्र बोस एक महान् देशभक्त थे। वे राजनीतिक यथार्थवाद से अनुप्राणित थे। उन्होंने लाहौर अधिवेशन में 1929 ई० मे पं० जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत ‘पूर्ण स्वराज्य’ के प्रस्ताव का समर्थन किया। यहीं पर इनके विचारों में अचानक क्रान्तिकारी विचारधारा उत्पन्न हुई। वे 1929 ई० के लाहौर कांग्रेस के अधिवेशन से जब बाहर निकले तो उन्होंने कांग्रेस प्रजातन्त्र पार्टी का निर्माण किया। इसके बाद उन्होंने फारवर्ड ब्लॉक नामक एक अन्य दल की स्थापना की। इन्होंने गाँधी जी के स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लिया, किन्तु सुभाष और गांधी दोनों के विचार एक-दूसरे से सर्वथा विपरीत थे। गांधी जी शान्तिपूर्ण तरीकों से स्वराज्य-प्राप्ति में विश्वास करते थे, जबकि बोस क्रान्तिकारी नीतियों में विश्वास करते थे, किन्तु साध्य दोनों का स्वराज्य-प्राप्ति ही था। सुभाषचन्द्र बोस का विचार था कि गांधी जी की नीति से स्वराज्य कभी नहीं पाएगी, क्योंकि अंग्रेज इतने सीधे व सरल नहीं थे कि वे भारत को सहज ही स्वतन्त्रता प्रदान कर देते। अत: वे क्रान्तिकारी साधनों में विश्वास करते थे। जब द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था तो उन्होंने कहा था, “यह स्वतन्त्रता-प्राप्ति (UPBoardSolutions.com) का अच्छा अवसर है। हमको संगठित होकर ब्रिटिश सरकार से सत्ता छीनने का प्रयत्न करना चाहिए। किन्तु इस समय कांग्रेस ने उनका साथ नहीं दिया। वे 1941 ई० में वेश बदलकर भारत से बाहर चले गए और गुप्त रहकर भारत को स्वतन्त्र कराने का प्रयत्न करते रहे। इन्होंने एक सेना संगठित कर उसका नाम ‘आजाद हिन्द फौज’ रखा। इनका उद्देश्य भारत को परतन्त्रता की बेड़ियों से मुक्त कराना था। बोस इस सेना के प्रधान सेनापति थे। उनका उद्घोष था-‘दिल्ली चलो।’ सुभाष बाबू ने सैनिकों को सम्बोधित करते हुए कथा था-“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।” इस सेना ने अंग्रेजों की सेना में अनेक बार सफल मोर्चा लिया। उन्होंने एक अस्थायी सरकार का गठन भी किया। सुभाष का व्यक्तित्व इतना विशाल था कि उस काल की विश्व-शक्तियों ने उन्हें भारत की अस्थायी सरकार का प्रथम राष्ट्रपति घोषित किया था। जिसे जापान एवं जर्मनी ने भी मान्यता दे दी थी, किन्तु 1945 ई० में एक वायुयान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई।

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अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ की स्थापना कब की गयी थी ?
उत्तर :
‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना सन् 1924 ई० में कानपुर में की गयी थी ?

प्रश्न 2.
काकोरी काण्ड के अन्तर्गत कितने क्रान्तिकारियों को फाँसी की सजा दी गयी ?
उत्तर :
काकोरी काण्ड में रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिडी, अशफाक (UPBoardSolutions.com) उल्ला खाँ तथा रोशन लाल को फाँसी की सजा दी गयी।

प्रश्न 3.
लाला लाजपत राय के ऊपर लाठी चार्ज किस प्रदर्शन के दौरान किया गया ?
उत्तर :
लाहौर में साइमन कमीशन का विरोध-प्रदर्शन करते समय लाला लाजपत राय के ऊपर लाठी चार्ज किया गया।

प्रश्न 4.
सी०आर० दास की मृत्यु के बाद बंगाल में कांग्रेसी नेतृत्व कितने गुटों में विभक्त हो गया था ?
उत्तर :
सी०आर० दास की मृत्यु के बाद बंगाल में कांग्रेसी नेतृत्व दो गुटों में विभक्त हो गया था।

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प्रश्न 5.
साण्डर्स की हत्या में कौन-कौन से क्रान्तिकारी शामिल थे?
उत्तर :
साण्डर्स की हत्या में भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद और राजगुरु शामिल थे।

प्रश्न 6.
बंगाल में क्रान्तिकारी गतिविधियों का नेतृत्व किस-किसने किया?
उत्तर :
बंगाल में क्रान्तिकारी गतिविधियों का नेतृत्व सुभाषचन्द्र बोस (UPBoardSolutions.com) और जे०एम० सेन गुप्त ने किया।

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. काकोरी काण्ड किस जगह घटित हुआ ?

(क) वाराणसी में
(ख) गोरखपुर में
(ग) लखनऊ में
(घ) पंजाब में

2. चन्द्रशेखर आजाद ने ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” की स्थापना कहाँ पर की थी ?

(क) पंजाब में
(ख) इलाहाबाद में
(ग) दिल्ली में
(घ) लखनऊ में

3. भगतसिंह, सुखदेव एवं राजगुरु को फाँसी कहाँ दी गयी ?

(क) पेशावर में
(ख) लाहौर में
(ग) दिल्ली में
(घ) मुम्बई में

4. भगतसिंह को फाँसी दी गयी [2011]

(क) 23 मार्च, 1925 ई० को
(ख) 23 मार्च, 1927 ई० को
(ग) 23 मार्च, 1931 ई० को
(घ) 23 मार्च, 1935 ई० को

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5. वह स्थान जहाँ चन्द्रशेखर आजाद शहीद हुए [2012]

(क) कानपुर
(ख) इलाहाबाद
(ग) लखनऊ
(घ) झाँसी

6. ‘इण्डिया विन्स फ्रीडम’ पुस्तक का लेखक कौन है?

(क) महात्मा गांधी
(ख) सुभाषचन्द्र बोस
(ग) मौलाना अबुल कलाम आजाद
(घ) जवाहरलाल नेहरू

7. लाला हरदयाल थे एक [2015, 16]

(क) वैज्ञानिक
(ख) समाज सुधारक
(ग) शिक्षाविद्
(घ) क्रान्तिकारी

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8. हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का संस्थापक निम्नलिखित में से कौन था? (2017)

(क) अशफाक उल्ला खाँ
(ख) शचीन्द्रनाथ सान्याल
(ग) चन्द्रशेखर आजाद
(घ) योगेश चटर्जी।

9. भगत सिंह को कब फाँसी दी गयी? (2018)

(क) 23 मार्च, 1927
(ख) 23 मार्च, 1931
(ग) 23 मार्च, 1935
(घ) 23 मार्च, 1937

उत्तरमाला

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 15 क्रान्तिकारियों का योगदान 1

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UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 16 (Section 1)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 16 भारत-विभाजन एवं स्वतन्त्रता-प्राप्ति (अनुभाग – एक)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Social Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 16 भारत-विभाजन एवं स्वतन्त्रता-प्राप्ति (अनुभाग – एक)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत-विभाजन एवं स्वतन्त्रता-प्राप्ति की प्रक्रिया को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर :

भारत-विभाजन एवं स्वतन्त्रता-प्राप्ति

अगस्त, 1946 ई० में वायसराय ने पं० जवाहरलाल नेहरू को अन्तरिम सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित किया। इससे नाराज होकर मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान निर्माण के लिए 16 अगस्त, 1946 ई० को सीधी कार्यवाही (Direct Action) करने का निश्चय किया। मुस्लिम लीग का नारा था—-‘मारेंगे या मरेंगे, पाकिस्तान बनाएँगे।” इससे कलकत्ता (कोलकाता) व नोआखाली में दंगे भड़क उठे। भयंकर रक्तपात । हुआ। अनेक हिन्दू व मुसलमान इन दंगों में मारे गये। ये दंगे धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में शुरू हो गये। 2 सितम्बर, 1946 को पं० जवाहरलाल नेहरू पाँच राष्ट्रवादी मुसलमानों को साथ लेकर अन्तरिम सरकार बनाने में सफल हुए, परन्तु आन्तरिक झगड़ों के कारण यह अन्तरिम सरकार असफल हो समाप्त हो गयी।

ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री एटली ने घोषणा की कि ब्रिटेन जून, 1948 ई० तक भारत का शासन छोड़ देगा। लेकिन मिलने वाली स्वाधीनता की खुशियों पर अगस्त, 1946 ई० के बाद भड़कने वाले व्यापक साम्प्रदायिक दंगों ने पानी फेर दिया। हिन्दू और मुस्लिम सम्प्रदायवादियों ने इस जघन्य संघर्ष का दोषी एक-दूसरे को ठहराया। मानव मूल्यों का इस तरह उल्लंघन होते और सत्य-अहिंसा का गला घोंटे जाते (UPBoardSolutions.com) देखकर महात्मा गांधी दु:ख से द्रवित हो उठे। साम्प्रदायिकता की आग को बुझाने में दूसरे अनेक हिन्दू-मुसलमानों ने भी प्राणों से हाथ धोये लेकिन साम्प्रदायिक तत्त्वों ने इसके बीज विदेशी सरकार की सहायता से बहुत गहरे बोये थे जिन्हें उखाड़ फेंकना आसान नहीं था।

मार्च, 1947 ई० को माउण्टबेटन ने भारत के वायसराय के पद को ग्रहण किया। उसे इस बात का पता था कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग में समझौता होना अत्यन्त कठिन है। माउण्टबेटन को ज्ञात था कि पाकिस्तान बनाने की योजना उचित नहीं है और न ही इससे साम्प्रदायिकता की समस्या को दूर किया जा सकता है परन्तु फिर भी उसने भारत को विभाजित करने का निर्णय लिया।

गांधी जी व कांग्रेस के अन्य नेता किसी भी शर्त पर भारत के विभाजन को मानने के लिए तैयार नहीं थे। माउण्टबेटन ने पं० जवाहरलाल नेहरू व सरदार वल्लभभाई पटेल को पाकिस्तान बनाने की आवश्यकता के विषय में समझाने का प्रयास किया। हालाँकि प्रारम्भिक दौर में उन्होंने इस (UPBoardSolutions.com) बात को मानने से इन्कार कर दिया लेकिन साम्प्रदायिकता की आग को रोकने के लिए कांग्रेस के नेताओं ने इस योजना को अनमने मन से स्वीकार कर लिया। सरदार वल्लभभाई पटेल ने कहा कि “यदि हम एक पाकिस्तान स्वीकार नहीं करते हैं। तो भारत में सैकड़ों पाकिस्तान होंगे।”

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इस प्रकार माउण्टबेटन ने कूटनीति का परिचय देते हुए कांग्रेस के नेताओं को मानसिक रूप से भारत के विभाजन के लिए तैयार कर लिया। उन्होंने एक योजना बनायी जिसे वे शीघ्र लागू करना चाहते थे। इस नयी योजना के विषय में माउण्टबेटन, नेहरू, मुहम्मद अली जिन्ना एवं बलदेवसिंह ने आकाशवाणी से घोषणा की।

प्रश्न 2.
भारत-विभाजन के कारणों पर प्रकाश डालिए। [2017]
उत्तर :

भारत-विभाजन के कारण

भारत-विभाजन के निम्नलिखित कारण थे –

1. ब्रिटिश शासकों की नीति – भारत-विभाजन के लिए ब्रिटिश शासकों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति मुख्य रूप से उत्तरदायी थी। इस नीति का अनुसरण करके उन्होंने भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों में साम्प्रदायिकता का विष घोल दिया था। इसके अतिरिक्त ब्रिटिश शासकों की सहानुभूति भी पाकिस्तान के साथ थी। शायद इसीलिए वायसराय लॉर्ड वेवेल के संवैधानिक परामर्शदाता वी०पी० मेनन ने सरदार पटेल से कहा था कि “गृह-युद्ध की ओर बढ़ने के बजाय देश का विभाजन स्वीकार कर लेना अच्छा है।” लॉर्ड वेवेल ने अन्तरिम सरकार में भी मुस्लिम लीग को कांग्रेस के विरुद्ध कर दिया था।

2. मुस्लिम लीग को प्रोत्साहन – ब्रिटिश सरकार आरम्भ से ही कांग्रेस के विरुद्ध रही, क्योंकि कांग्रेस ने अपनी स्थापना के बाद से ही सरकार की आलोचना करनी शुरू कर दी थी और सरकार के सामने ऐसी माँगें रख दी थीं, जिन्हें सरकार स्वीकार करने (UPBoardSolutions.com) के लिए तत्पर नहीं थी। इसीलिए सरकार ने मुस्लिम लीग को प्रोत्साहन देने के लिए सन् 1909 ई० के अधिनियम में मुसलमानों को साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया और आगे भी वह मुसलमानों को कांग्रेस के विरुद्ध भड़काती रही।

3. जिन्ना की जिद – जिन्ना प्रारम्भ से ही द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त के समर्थक थे। पहले वे बंगाल और सम्पूर्ण असम (असोम) को पाकिस्तान में मिलाना चाहते थे तथा पश्चिमी पाकिस्तान में समस्त पंजाब, उत्तर-पश्चिमी सीमा-प्रान्त, सिन्ध और बलूचिस्तान को मिलाना चाहते थे। अपनी जिद के कारण जिन्ना ने निरन्तर गतिरोध बनाये रखा और समस्या के निराकरण के लिए बनायी गयी सभी योजनाओं को अस्वीकार कर दिया। परन्तु 3 जून, 1947 ई० की योजना में उन्हें दिया गया पाकिस्तान उस पाकिस्तान से अच्छा नहीं था, जिसे उन्होंने सन् 1944 ई० में अपूर्ण, अंगहीन तथा दीमक लगा कहकर अस्वीकार कर दिया था। अब जो पाकिस्तान उनको दिया गया, वह (UPBoardSolutions.com) उनकी आशाओं से बहुत छोटा था, जिसे जिन्ना ने लॉर्ड माउण्टबेटन के दबाव के कारण स्वीकार कर लिया था।

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4. साम्प्रदायिक दंगे – जिन्ना की प्रत्यक्ष कार्यवाही की नीति के कारण भारत के कई भागों में हिन्दू-मुस्लिमों के बीच दंगे-फसाद हो रहे थे, जिनमें हजारों की संख्या में निर्दोष लोग मारे जा रहे थे और अपार धन-सम्पत्ति नष्ट हो रही थी। कांग्रेसी नेताओं ने इन दंगों को रोकने के लिए भारत का विभाजन स्वीकार करना ही उचित समझा।

5. भारत को शक्तिशाली बनाने की इच्छा – कांग्रेसी नेता इस बात का अनुभव कर रहे थे कि विभाजन के बाद भारत बिना किसी बाधा के चहुंमुखी.उन्नति कर सकेगा, अन्यथा भारत सदैव गृह-संघर्ष में ही फँसा रहेगा। 3 जून, 1947 ई० को पं० जवाहरलाल नेहरू ने विभाजन को स्वीकार करने के लिए जनता से अपील करते हुए कहा था कि “कई पीढ़ियों से हमने स्वतन्त्रता व संयुक्त भारत के लिए संघर्ष किया तथा स्वप्न देखे हैं, (UPBoardSolutions.com) इसलिए उस देश के विभाजन का विचार भी बहुत कष्टदायक है, परन्तु फिर भी मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमारा.वर्तमान निर्णय सही है। यह समझना आवश्यक है कि तलवारों द्वारा भी अनैच्छिक प्रान्तों को भारतीय संघ राज्य में रख सकना सम्भव नहीं है। यदि उन्हें जबरन भारतीय संघ में रखा भी जा सके तो कोई प्रगति और नियोजन सम्भव न होंगे। राष्ट्र में संघर्ष और परस्पर झगड़ों के जारी रहने से देश की प्रगति रुक जाएगी। भोली-भाली जनता के कत्ल से तो विभाजन ही अच्छा है।

6. हिन्दू महासभा का प्रभाव – प्रारम्भ में हिन्दू महासभा ने कांग्रेस को हर प्रकार का सहयोग दिया, किन्तु सन् 1930 ई० के उपरान्त हिन्दू महासभा पर प्रतिक्रियावादी तत्त्वों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। हिन्दू महासभा के अधिवेशन में भाषण देते हुए श्री सावरकर ने स्पष्ट रूप से कहा कि “भारत एक और एक सूत्र में बँधा राष्ट्र नहीं माना जा सकता, अपितु यहाँ दो राष्ट्र हैं-हिन्दू और मुसलमान। भविष्य में हमारी राजनीति विशुद्ध हिन्दू राजनीति होगी। इस प्रकार हिन्दू सम्प्रदायवाद ने भी मुसलमानों को पाकिस्तान बनाने के लिए प्रेरित किया।

7. भारतीयों को सत्ता देने में सरकार का रुख – सन् 1929 ई० से 1945 ई० की अवधि में ब्रिटिश सरकार और भारतीयों के सम्बंधों में काफी कटुता आ गयी थी। ब्रिटिश सरकार यह अनुभव करने लगी थी कि भारत स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल को सदस्य कदापि नहीं रहेगा। इसलिए उसने विचार किया कि यदि स्वतन्त्र भारत अमैत्रीपूर्ण है तो उसे निर्बल बना देना ही उचित है। पाकिस्तान का निर्माण अखण्ड भारत को विभाजित कर देगा और कालान्तर में भारत उपमहाद्वीप (UPBoardSolutions.com) में ये दोनों देश आपस में लड़कर अपनी शक्ति को क्षीण करते रहेंगे।

8. भारत के विभाजन के स्थायीकरण में सन्देह – अनेक राष्ट्रीय नेताओं को भारत के विभाजन के स्थायी रहने में सन्देह था, उनका कहना था कि भौगोलिक, राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक दृष्टिकोण से पाकिस्तान एक स्थायी राज्य नहीं हो सकता और आज अलग होने वाले क्षेत्र कभी-न-कभी फिर से भारतीय संघ में सम्मिलित हो जाएँगे।

9. कांग्रेसी नेताओं का सत्ता के प्रति आकर्षण – माइकल ब्रेचर ने लिखा है कि कांग्रेसी नेताओं के सभक्ष सत्ता के प्रति आकर्षण भी था। इन नेताओं ने अपने राजनैतिक जीवन का अधिकांश भाग ब्रिटिश शासन के विरोध में ही बिताया था और अब वे (UPBoardSolutions.com) स्वाभाविक रूप से सत्ता के प्रति आकर्षित हो रहे थे। कांग्रेसी नेता सत्ता का रसास्वादन कर चुके थे और विजय की घड़ी में इससे अलग होने के इच्छुक नहीं थे।

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10. लॉर्ड माउण्टबेटन का प्रभाव – भारत-विभाजन के लिए लॉर्ड माउण्टबेटन का व्यक्तिगत प्रभाव भी उत्तरदायी था। उन्होंने कांग्रेसी नेताओं को भारत-विभाजन के प्रति तटस्थ कर दिया था। मौलाना आजाद ने लिखा है कि “लॉर्ड माउण्टबेटन के भारत आने के एक (UPBoardSolutions.com) माह के अन्दर पाकिस्तान के प्रबल विरोधी नेहरू विभाजन के समर्थक नहीं तो कम-से-कम इसके प्रति तटस्थ अवश्य हो गये।

प्रश्न 3.
भारत का विभाजन किन परिस्थितियों में हुआ? नव-स्वतंत्र भारत को नि समस्याओं का सामना करना पड़ा? किन्हीं दो को समझाकर लिखिए। [2014]
             या
स्वतन्त्र भारत के समक्ष क्या चुनौतियाँ हैं ? उनमें से किन्हीं दो के निराकरण के उपाय बताइए। [2013]
             या
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भारत को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा ? (2013)
             या
साम्प्रदायिकता की भावना किस प्रकार लोकतन्त्र के सिद्धान्तों के विपरीत है ? इस भावना को दूर करने के कोई दो उपाय लिखिए। [2013]
उत्तर :
[संकेत – भारत का विभाजन किन परिस्थितियों में हुआ ? प्रश्न के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 2 का उत्तर देखें।]

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आतंकवाद

वर्तमान में आतंकवाद विश्व की एक गम्भीर और अत्यन्त भयावहं समस्या है। यह गुमराह और भटके हुए व्यक्तियों द्वारा आम जनता को भयभीत करने के लिए तथा सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं आर्थिक तनाव उत्पन्न करने हेतु संचालित किया जाता है। शान्ति एवं सद्भाव भंग करने की दृष्टि से गोलाबारी, बन्दूक; आत्मघाती हमले, सार्वजनिक स्थलों पर बम विस्फोट आदि माध्यमों को अपनाया जाता है। विगत तीन-चार दशकों में भारत निरन्तर आतंकवाद से ग्रसित है। 1980 ई० के दशक में पंजाब आतंकवाद का शिकार रहा। इसके बाद इसकी आग जम्मू-कश्मीर में फैल गयी और आज तक भारत आतंकवाद (UPBoardSolutions.com) की इस ज्वाला में झुलस रहा है। भारत के 220 जनपदों में देश की कुल भूमि का लगभग 45 प्रतिशत भाग आन्तरिक विद्रोह, अशान्ति एवं आतंकवाद से ग्रस्त है। गत कुछ वर्षों में ही हजारों की संख्या में लोग आतंकवाद की भेट चढ़ चुके हैं। नक्सलवादियों से देश को खतरा लगातार बढ़ती जा रहा है। देश के किसी-न-किसी भाग में आतंकवाद की छिटपुट घटनाएँ प्रायः होती ही रहती हैं। मुम्बई में बम विस्फोट, गुजरात में अक्षरधाम पर आक्रमण और गोधरा काण्ड इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। यहाँ तक कि संसद भवन भी आतंकवाद के निशाने पर रह चुका है। अयोध्या के विवादित राम मन्दिर के परिसर में आतंकवादियों का प्रवेश उनके दुस्साहस का अनूठा उदाहरण है। जम्मू-कश्मीर, असोम, नागालैण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा, झारखण्ड जैसे उत्तरी-पूर्वी राज्यों में आतंकवाद एवं नक्सलवाद का प्रभाव अधिक है। विश्व के अन्य देश भी इससे अछूते नहीं हैं। 11 सितम्बर, 2011 ई० को न्यूयार्क में विश्व व्यापार केन्द्र तथा वाशिंगटन में पेंटागन पर हुआ आतंकवादी हमला अत्यन्त भयावह था। भारत की पूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गाँधी, उनके पुत्र राजीव गाँधी आतंकवाद के ही शिकार बने। (UPBoardSolutions.com) कहने का तात्पर्य यह है कि आतंकवाद देश के लिए एक गम्भीर खतरा तथा समस्या बन चुका है, अत: प्रत्येक नागरिक को इससे सावधान रहने की आवश्यकता है।

साम्प्रदायिकता

साम्प्रदायिकता की प्रवृत्ति लोकतन्त्र के आधारभूत सिद्धान्तों के विपरीत है। यह प्रवृत्ति समाज में घृणा, तनाव तथा संघर्ष को जन्म देती है। लोकतन्त्र तो धार्मिक सद्भाव अथवा धर्मनिरपेक्षता पर आधारित होता है। धार्मिक सम्प्रदायवाद समाज में विघटन उत्पन्न करके समाज को विभिन्न वर्गों में विभाजित कर देता है। यह विकृत स्थिति भारत में सदियों से व्याप्त है तथा यह लोकतन्त्र के लिए एक चुनौती है।

साम्प्रदायिकता को दूर करने के उपाय

  1. साम्प्रदायिक सद्भाव विकसित करके विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के व्यक्तियों को एक-साथ रहने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए तथा इसके लिए कोई राष्ट्रीय नीति बनायी जानी चाहिए।
  2. गिरते हुए नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की पुनस्र्थापना का प्रयास किया जाना चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में इस प्रकार से परिवर्तन किया जाना चाहिए कि नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों को प्रोत्साहन मिले।
  3. सभी त्योहारों को राष्ट्रीय स्तर पर मनाने के लिए प्रयास किये जाने चाहिए, (UPBoardSolutions.com) ताकि विभिन्न सम्प्रदाय एक साथ मिलकर इनमें सम्मिलित हो सकें।
  4. धर्मनिरपेक्षता (लौकिकता) को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
  5. भाषा के सम्बन्ध में एक स्पष्ट व सर्वमान्य राष्ट्रीय नीति बनायी जानी चाहिए।
  6. शिक्षा के माध्यम से धार्मिक कट्टरवाद के दोषों को दूर करके लौकिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
  7. सार्वजनिक शान्ति-समितियों व प्रार्थना सभाओं का गठन व आयोजन किया जाना चाहिए तथा इनमें | सभी धर्मों के व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाना चाहिए।
  8. साम्प्रदायिक तत्त्वों पर कड़ी नजर रखी जानी चाहिए।
  9. गुप्तचर एजेन्सियों को और अधिक चुस्त बनाया जाना चाहिए, ताकि वे कूटरचित साम्प्रदायिक गुप्त-मन्त्रणाओं की सूचना पहले से ही दे सकें।
  10. समाज-विरोधी तत्त्वों और साम्प्रदायिक तत्त्वों के विरुद्ध कठोर (UPBoardSolutions.com) कार्यवाही की जानी चाहिए।

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क्षेत्रवाद

राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या पिछले दशकों में चिन्तनीय बन पड़ी है। संकीर्ण क्षेत्रीयता न सिर्फ हिंसक टकरावों में अभिव्यक्त हुई है, बल्कि पृथक्तावादी आन्दोलनों के रूप में भी सामने आयी है। अति महत्त्वाकांक्षी राजनेताओं ने भी कई बार धर्म, जाति, भाषा जैसे विघटनकारी तत्त्वों का सहारा लेकर क्षेत्रीय भावनाएँ भड़काई हैं। तो क्या क्षेत्रवाद की इस नकारात्मक प्रवृत्ति पर किसी प्रकार का नियन्त्रण स्थापित किया जा सकता है। यह नियन्त्रण संभव तो है, लेकिन आसान बिल्कुल नहीं है। इसके लिए निष्पक्ष कर्मछता और ‘बहुजन-सुखाय’ की मानसिकता की दरकार है।

यदि सरकारी नीतियों के माध्यम से विशिष्ट जातीय एवं उप-सांस्कृतिक क्षेत्रों की संस्कृति और अस्मिता को ध्यान में रखते हुए संतुलित (क्षेत्रीय व आर्थिक) विकास को प्रोत्साहन दिया जा सके, तो क्षेत्रवाद को बल नहीं मिल सकेगा। विशेषत: पिछड़े क्षेत्रों के आर्थिक विकास का अधिक ख्याल रखना होगा (दुर्भाग्यवश निजीकरण के दौर में इन क्षेत्रों की उपेक्षा की जा रही है)। यदि केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच सौहार्दपूर्ण सामंजस्य रह सके और भिन्न-भिन्न क्षेत्रीय भाषाओं को उचित सम्मान दिया जा सके, तो क्षेत्रवाद भड़काने के प्रयासों को निरुत्साहित किया जा सकता है। इसी प्रकार सक्षम प्रशासन के माध्यम से (UPBoardSolutions.com) संकीर्ण क्षेत्रवादी आन्दोलनों की हिंसक प्रवृत्ति को दृढ़पूर्वक दबाया जाना आवश्यक है।

भाषावाद

भाषा के आधार पर पृथक् राजनीतिक पहचान ने भाषावादी राजनीति को जन्म दिया। इसके कारण उग्र राजनीतिक आन्दोलन हुए। किन्हीं समर्थकों व हिन्दी विरोधियों के बीच दूरियाँ बढ़ीं और रोष उत्पन्न हुआ। हिंसात्मक व तोड़-फोड़ की गतिविधियों ने अव्यवस्था फैलायी। राष्ट्र की उन्नति व विकास के प्रयास व ऊर्जा , में बाधा पहुँची। यहाँ तक कि छात्रों ने भी भाषायी राजनीति में खुलकर भाग लिया। 1967 में चेन्नई में छात्रों ने हिन्दी विरोधी आन्दोलन किया, जिसकी आग कर्नाटक व आन्ध्र प्रदेश तक फैल गयी।

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देश की आन्तरिक सुरक्षा को कायम रखने के लिए निम्न बिन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक है –

  1. आतंकवाद को खत्म करने के लिए कड़ाई से निपटा जाए।
  2. आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने वाले को कठोर दण्ड की व्यवस्था की जाए।
  3. क्षेत्रवाद एवं सम्प्रदायवाद की राजनीति करने वाले लोगों को दण्डित किया जाए।
  4. सी०आर०पी०एफ० एवं आर०ए०एफ० को सदैव सतर्क रहना चाहिए।
  5. प्रत्येक राज्य की पुलिस व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त होनी चाहिए।
  6. भाषा के नाम पर यदि कोई विवाद हो तो उसे आपसी बातचीत से हल करना चाहिए।

मूल्यांकन – यदि देश की आन्तरिक सुरक्षा ठीक नहीं है तो यह देश के लिए खतरनाक सिद्ध होगा। देश की राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा उत्पन्न हो जायेगा। देश टुकड़ों में विभाजित हो जायेगा। देश की एकता एवं अखण्डता कायम नहीं रह पायेगी। इसके लिए आवश्यक है कि देश की सुरक्षा-व्यवस्था सुदृढ़ हो।

देश की आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने के उपाय –

  1. भारतीयों में राष्ट्रीय सुरक्षा की भावना होना अनिवार्य है। भारतीय नागरिक विभिन्न प्रकार के आपसी मतभेदों और राष्ट्र पर किसी प्रकार के संकट का सामना करने के लिए तैयार रहें।
  2. आन्तरिक सुरक्षा को सुदृढ़ करने के लिए नागरिकों को प्रशिक्षण (UPBoardSolutions.com) देना अनिवार्य है, इसके लिए सरकार ने नागरिक सुरक्षा संगठन का भी गठन किया है। =
  3. देश में उत्पन्न संकट का सामना करने के लिए सुरक्षाकर्मियों को उचित प्रशिक्षण देना अनिवार्य है, जिससे किसी संकट का सामना आसानी से किया जा सके।
  4. रक्षा बजट में सरकार प्रतिवर्ष वृद्धि करती है जिससे सुरक्षाकर्मियों एवं सेना को चुस्त-दुरुस्त रखा जा सके।
  5. सरकार को चाहिए कि जो राष्ट्र की सुरक्षा में लगे हैं, उन्हें आधुनिक तकनीक तथा अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित रखना चाहिए।

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प्रश्न 4.
लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन क्यों किया ? भारतीयों ने इसका विरोध कैसे व्यक्त किया ? [2012]
उत्तर :
एक ओर राष्ट्रीय आन्दोलन ने भारतीयों में एकता लाने के प्रयास पर बल दिया, परन्तु सम्प्रदायवाद ने इस प्रयास को दुष्कर बना दिया। यह 20वीं शताब्दी का एक ऐसा परिवर्तन था जिसने लोगों को ‘धार्मिक समुदायों और धार्मिक राष्ट्रों के झूठे अवरोधों के आधार पर बाँटने का प्रयास किया। इस प्रवृत्ति को आधुनिक काल के राजनीतिक तथा आर्थिक घटनाक्रम, ब्रिटिश शासन के सामाजिक व सांस्कृतिक प्रभाव और 19वीं शताब्दी के समाज तथा राजनीति में उभरते रुझानों के सन्दर्भ में समझा जाना चाहिए।

कर्जन की साम्राज्यवादी तथा ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का सबसे बड़ा परिणाम बंगाल विभाजन के रूप में सामने आया। इस नीति ने साम्प्रदायिक समस्या को कई गुना बढ़ा दिया था। सामान्यत: तत्कालीन सरकार द्वारा बंगाल-विभाजन का कारण शासकीय आवश्यकता’ बताया गया, परन्तु यथार्थ में विभाजन का मुख्य कारण शासकीय न होकर राजनीतिज्ञ था। बंगाल राष्ट्रीय गतिविधियों का केन्द्र बनता जा रहा था। कर्जन कलकत्ता (कोलकाता) (UPBoardSolutions.com) और अन्य राजनीतिक षड्यन्त्रों के केन्द्रों को नष्ट करना चाहता था। कलकत्ता केवल ब्रिटिश भारत की राजधानी ही नहीं, बल्कि व्यापार-वाणिज्य का स्थल और न्याय का प्रमुख केन्द्र भी था। यहीं से अधिकतर समाचार-पत्र निकलते थे, जिससे लोगों में विशेषकर शिक्षित वर्ग में राष्ट्रीय भावना उदित हो रही थी। विभाजन का उद्देश्य बंगाल में राष्ट्रवाद को दुर्बल करना तथा इसके विरुद्ध एक मुस्लिम गुट खड़ा करना था। जैसा कि कर्जन ने कहा, “इस विभाजन से पूर्वी बंगाल के मुसलमानों को ऐसी एकता प्राप्त होगी जिसकी अनुभूति उन्हें पूर्व के मुसलमान राजाओं और वायसरायों के काल के पश्चात् कभी नहीं हुई।

कर्जन अपने भारतीय कार्यकाल के दौरान अप्रैल, 1904 में कुछ समय के लिए इंग्लैण्ड चला गया। वापस लौटने पर 19 जुलाई, 2004 को भारत सरकार ने बंगाल के दो टुकड़े करने का प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव के अनुसार पूर्वी बंगाल और असम को नया प्रान्त बनाना तय किया गया। जिसमें चटगाँव, ढाका और राजेशाही के डिवीजन शामिल थे। नए प्रान्त का क्षेत्रफल एक लाख छ: हजार पाँच सौ चालीस वर्ग मील निर्धारित किया गया, जिसकी आबादी तीन करोड़ दस लाख थी, जिसमें एक करोड़ अस्सी लाख मुसलमान और एक करोड़ बीस लाख हिन्दू थे। नए प्रान्त में एक विधानसभा और बोर्ड ऑफ रेवेन्यू की व्यवस्था थी और इसकी राजधानी ढाका निर्धारित की गई। दूसरी ओर पश्चिम बंगाल, बिहार और उड़ीसा (ओडिशा) थे। इसका क्षेत्रफल एक लाख इकतालीस हजार पाँच सौ अस्सी वर्ग मील था (UPBoardSolutions.com) और इसकी आबादी पाँच करोड़ चालीस लाख, जिसमें चार करोड़ बीस लाख हिन्दू और नब्बे लाख मुसलमान थे। भारतीय मन्त्री ब्रॉडरिक ने उपर्युक्त प्रस्ताव में मामूली संशोधन करके इसकी स्वीकृति दे दी। भारत सरकार ने इस सारी योजना को ‘प्रशासकीय सीमाओं का निर्धारण मात्र’ कहा। परिणामस्वरूप कर्जन ने 16 अक्टूबर, 1905 को बंगाल विभाजन की घोषणा कर दी। वस्तुत: यह कर्जन का सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी कानून था, जिसका सर्वत्र विरोध हुआ और जिसने शीघ्र ही एक आन्दोलन का रूप ले लिया।

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स्वदेशी व बहिष्कार आन्दोलन

लॉर्ड कर्जन के बंगाल विभाजन (बंग-भंग) के बहुत दूरगामी परिणाम हुए। इसने भारतीयों में एक नई राष्ट्रीय चेतना भर दी और विभाजन विरोधी व स्वदेशी आन्दोलन को जन्म दिया। यह, आन्दोलन तब तक चलाया रहा, जब तक भारत सरकार ने 1911 ई० में बंगाल का एकीकरण नहीं कर दिया।

बंगाल विभाजन की घटनाओं से भारतीयों ने जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई। भारत के सभी जन-नेताओं ने एक स्वंर में इसकी कटु आलोचना की। इसे राष्ट्रीय एकता पर कुठराघात कहा गया। इसे हिन्दू-मुसलमानों को आपस में लड़ाने का षड्यन्त्रं कहा गया। इसका उद्देश्य पूर्वी बंगाल को जो सरकारी गुप्त दस्तावेजों में षड्यन्त्रकारियों का अड्डा था, नष्ट करना बताया गया। इस बंग विभाजन को चुनौती के रूप में लिया गया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने विभाजन की घोषणा को एक बम विस्फोट की भाँति बताया और कहा कि इसके द्वारा हमें अपमानित किया गया है। साथ ही इससे बंगाली परम्पराओं, इतिहास और भाषा पर सुनियोजित आक्रमण किया गया है। गोपालकृष्ण गोखले ने एक ही वाक्य द्वारा बंगाल को शान्त करने की कोशिश की। गोखले ने इसे स्वीकार किया कि नवयुवके यह पूछने लगे हैं कि संवैधानिक (UPBoardSolutions.com) उपायों को क्या लाभ है ? क्या इसका परिणाम बंगाल का विभाजन है ? भारत के प्रमुख समाचार-पत्रों ‘स्टेट्समैन’ और ‘इंग्लिशमैन’ ने भी बंग विभाजन का विरोध किया। स्टेट्समैन ने लिखा, “ब्रिटिश भारत के इतिहास में कभी भी ऐसा समय नहीं आया जबकि सुप्रीम सरकार ने जन-भावनाओं और जनमत को इतना कम महत्त्व दिया हो जैसा कि वर्तमान शासन ने।”

अरविन्द घोष जो स्वदेशी आन्दोलन के प्रमुख प्रणेता थे, ने शान्तिपूर्ण प्रतिरोध अथवा प्रतिरक्षात्मक विरोध का एक व्यापक कार्यक्रम तैयार किया। इस कार्यक्रम का सम्बन्ध सभी प्रकार के सरकारी कार्यों से था; जैसे- भारतीय शिक्षण संस्थाओं की स्थापना, प्रशासन, न्याय व्यवस्था तथा समाज सुधार की योजना आदि। इस कार्यक्रम में रचनात्मक पहलू पर बल दिया गया। इसका उद्देश्य था कि जब सरकारी व्यवस्था भारतीयों के असहयोग से गिर जाये तब उसकी वैकल्पिक व्यवस्था की जा सके।

16 अक्टूबर, 1905 को बंगाल का विभाजन किया गया। इस दिन से ही इसका प्रतिक्रियावादी स्वरूप दिखाई देने लगा था। इस दिन को सम्पूर्ण भारत में शोक दिवस के रूप में मनाया गया। लोगों ने व्रत रखा, गंगा स्नान किया, एक-दूसरे के हाथों में एकता का सूत्र राखी बाँधी, जूलूस और प्रभात फेरियाँ निकालीं। समस्त बंगाल वन्देमातरम् के उद्घोष से गूंज उठा। सभी ने स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करने का प्रण लिया, साथ ही विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार भी किया। अत: बंग-भंग विरोधी शीघ्र ही स्वदेशी आन्दोलन और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आन्दोलन बन गया। इस आन्दोलन में सभी वर्गों और सम्प्रदायों ने भाग लिया। नवयुवक, स्त्री-पुरुष, (UPBoardSolutions.com) शिक्षित-अशिक्षित सभी इससे प्रेरित हुए। यह आन्दोलन केवल बंगाल तक ही सीमित न रहा, बल्कि बंगाल की सीमाओं को लाँघकर अन्य प्रान्तों में भी फैला। उदाहरणत: पंजाब में रावलपिण्डी और अमृतसर जैसे स्थानों पर स्वेदेशी व विशेषकर ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार के लिए अनेक सभाएँ हुईं। लाजपत राय ने स्वदेशी आन्दोलन के बारे में लिखा कि “जब सैकड़ों वर्षों के कोरे शाब्दिक आन्दोलन और कागजी आन्दोलन फेल हो गए तो इस छ: महीने या बौरह महीने के सही काम ने सफलता प्राप्त की।”

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कैबिनेट मिशन का मुख्य उद्देश्य क्या था ? इसमें कौन-कौन से सदस्य सम्मिलित थे ?
             या
कैबिनेट मिशन क्या था ? क्या इसने पाकिस्तान बनाये जाने की सिफारिश की थी ?
उत्तर :
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् इंग्लैण्ड में लेबर पार्टी की सरकार बनी। उधर अमेरिका एवं मित्रराष्ट्र भारत को स्वतन्त्र करने के लिए इंग्लैण्ड पर जोर डाल रहे थे। अत: 24 मार्च, 1946 ई० में ब्रिटिश सरकार द्वारा भेजा हुआ तीन सदस्यीय कैबिनेट मिशन भारत आया। इस मिशन के तीन (UPBoardSolutions.com) सदस्य थे-लॉर्ड पेथिक लॉरेन्स, सर स्टेफर्ड क्रिप्स तथा ए०वी० एलेक्जेण्डर। इस समय ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री क्लीमेण्ट एटली थे। इस मिशन ने भारतीयों के समक्ष दो योजनाएँ प्रस्तुत की। एक योजना (मई 16) के अनुसार भारत के समस्त प्रान्तों को तीन भागों में बाँटा गया तथा सम्पूर्ण देश के लिए एक संविधान सभा बनायी गयी।

संविधान सभा में कुल 389 सीटें रखने का निश्चय किया गया, जिसमें 296 सीटों प्रान्तों की व 93 रियासतों की थीं। जुलाई, 1996 ई० में संविधान सभा के लिए चुनाव हुए। प्रान्तों की कुल 296 सीटों में से कांग्रेस को 205, मुस्लिम लीग को 73 और स्वतन्त्र उम्मीदवारों को 18 सीटें प्राप्त हुईं। कैबिनेट मिशन की दूसरी योजना (जून 16) के अनुसार भारत का विभाजन–हिन्दू बहुल भारत व मुस्लिम बहुल पाकिस्तान के रूप में—होना था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को प्रथम योजना भी कुछ शर्तों के साथ स्वीकार थी, दूसरी तो थी ही नहीं।

मुस्लिम लीग ने इसका विरोध किया, क्योंकि उसका कहना था कि अलग-अलग दो राष्ट्र बनेंगे तो उनकी संविधान सभा भी अलग-अलग होनी चाहिए। ब्रिटिश सरकार ने भी मुस्लिम लीग को प्रोत्साहन दिया और कहा कि संविधान तभी लागू किया जाएगा; जब सभी दलों को मान्य होगा। अगस्त, 1946 ई० में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने पण्डित जवाहरलाल नेहरू को अन्तरिम सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित किया।

2 सितम्बर, 1946 ई० को अन्तरिम सरकार भी बन गयी। लॉर्ड वेवेल के आग्रह पर मुस्लिम लीग इस अन्तरिम सरकार में प्रतिनिधि भेजने के लिए तैयार हुई; परन्तु निरन्तर इस माँग पर अडिग रही कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के संविधान के निर्माण के लिए, (UPBoardSolutions.com) पृथक्-पृथक् संविधान सभाओं का गठन होना चाहिए। आन्तरिक झगड़ों के कारण शीघ्र ही यह अन्तरिम सरकार असफल होकर समाप्त हो गयी।

सन् 1947 ई० में लॉर्ड वेवेल के उत्तराधिकारी लॉर्ड माउण्टबेटन भारत आये। उन्होंने भारतीय कांग्रेसी नेताओं और लीग के नेताओं से वार्तालाप किया और एक योजना उनके समक्ष रखी। इस माउण्टबेटन योजना में देश के विभाजन एवं देश की स्वतन्त्रता की घोषणा की गयी थी। देश का विभाजन भारत के दुर्भाग्य के कारण होना निश्चित ही हो चुका था, इसलिए कांग्रेस ने इसे न चाहते हुए भी स्वीकार कर लिया।

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प्रश्न 2.
माउण्टबेटन योजना क्या थी ?
उत्तर :
24 मार्च, 1947 ई० को लॉर्ड माउण्टबेटन भारत के वायसराय नियुक्त किये गये और ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि वह अधिक-से अधिक जून, 1948 ई० तक भारतीयों को सत्ता सौंप देगी।

3 जून, 1947 ई० को लॉर्ड माउण्टबेटन ने प्रस्ताव रखा कि भारत को दो भागों में विभाजित करके भारतीय संघ व पाकिस्तान नामक अलग-अलग राज्य बनाये जाएँ। भारतीय नरेशों के सामने यह विकल्प रखा गया कि वे अपना-अपना भविष्य स्वयं तय करें। कश्मीर के तत्कालीन महाराज हरिसिंह ने 26 अक्टूबर, 1947 ई० को भारत सरकार से प्रार्थना की कि वह कश्मीर के भारत में विलय को स्वीकार कर लें।

प्रश्न 3.
माउण्टबेटन योजना के तीन सिद्धान्त लिखिए। (2017)
उत्तर :
माउण्टबेटन योजना के तीन सिद्धान्त निम्नांकित थे –

1. पाकिस्तान की माँग अस्वीकार – जिन्ना सारा बंगाल और असम पूर्वी पाकिस्तान में मिलाना चाहते थे। इसी तरह सारे पंजाब और पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त तथा सिन्ध और बलूचिस्तान को पश्चिम पाकिस्तान में मिलाना चाहते थे। लॉर्ड माउण्टबेटन तथा कांग्रेसी नेता इस बात के लिए बिल्कुल भी सहमत नहीं थे। वे पंजाब और बंगाल के हिन्दू-बहुल क्षेत्रों को पाकिस्तान से निकालना चाहते थे। इसलिए माउण्टबेटन योजना के अनुसार असम को पाकिस्तान से बाहर निकाल दिया गया और पंजाब तथा बंगाल के बँटवारे की व्यवस्था की गई। इस हेतु प्रत्येक हिन्दू-बहुल जिले को भारत में और प्रत्येक मुस्लिम बहुल जिले को पाकिस्तान में शामिल किया जाना था।

2, असेम्बलियों में बैठक व्यवस्था का विभाजन – पंजाब और बंगाल की असेम्बलियों के सदस्य अलग-अलग हिन्दू-बहुल और मुस्लिम-बहुल जिलों के हिसाब से बैठने की व्यवस्था करेंगे। यदि पंजाब के हिन्दू-बहुल जिलों के सदस्य पंजाब के बँटवारे के लिए प्रस्ताव पारित कर देंगे, तो पंजाब का बँटवारा कर दिया जाएगा। इसी प्रकार की व्यवस्था बंगाल में भी की गई थी।

3. सिलहट में जनमत संग्रह – चूँकि असम के सिलहट में मुसलमानों की जनसंख्या (UPBoardSolutions.com) अधिक थी, इसलिए यह व्यवस्था की गई कि वहाँ जनमत द्वारा यह निर्णय किया जाएगा कि वहाँ के नागरिक भारत में शामिल होना चाहते हैं अथवा पूर्वी पाकिस्तान में।

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प्रश्न 4.
क्या भारत-विभाजन टाला जा सकता था ? संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर :
भारत का विभाजन अनिवार्य था या इसे टाला जा सकता था, इस प्रश्न पर विद्वानों के दो विरोधी मत हैं। मौलाना आजाद का मत है कि भारत का विभाजन अनिवार्य नहीं था, वरन् पं० जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल तथा कुछ राष्ट्रवादी नेताओं ने अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए स्वेच्छा से विभाजन को स्वीकार किया था। दूसरे पक्ष के समर्थकों का कहना है कि उस समय की राजनीतिक परिस्थिति ऐसी बन चुकी थी कि विभाजन के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं था। यदि कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार न किया होता तो देश का सर्वनाश तक हो सकता था।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इसमें सन्देह नहीं है कि भारत का विभाजन एक सीमा तक अनुचित ही था, क्योंकि हम आज उसके दुष्परिणाम प्रत्यक्षतः देख रहे हैं। गांधी जी ने भी कहा था, “भारत का विभाजन मेरे 32 वर्ष के सत्याग्रह का लज्जाजनक परिणाम है।”

प्रश्न 5.
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के तीन प्रमुख प्रावधानों का उल्लेख कीजिए। [2014]
उत्तर :
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 की तीन प्रमुख प्रावधान निम्नवत् हैं –

  1. ब्रिटिश भारत का दो नये एवं सम्प्रभुत्व वाले दो देशों-भारत एवं पाकिस्तान में विभाजन जो 15 अगस्त, 1947 से प्रभावी हो।
  2. बंगाल और पंजाब रियासतों का इन दोनों नये देशों में विभाजन।
  3. दोनों नये देशों में गवर्नर जनरल के कार्यालय की स्थापना जो इंग्लैण्ड (UPBoardSolutions.com) की महारानी का प्रतिनिधि होता।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लॉई वेवेल ने किस स्थान पर सम्मेलन को बुलाया ?
उत्तर :
लॉर्ड वेवेल ने शिमला में एक सम्मेलन बुलाया।

प्रश्न 2.
कैबिनेट मिशन को किस ब्रिटिश प्रधानमन्त्री ने भारत भेजा था ?
उत्तर :
कैबिनेट मिशन को ब्रिटिश प्रधानमन्त्री क्लीमेण्ट ने भारत भेजा था।

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भारत का प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल कौन था ? [2010, 17]
उत्तर :
सी० राजगोपालाचारी।

प्रश्न 4.
क्लीमेण्ट एटली ने किस बात की घोषणा की थी ?
उत्तर :
क्लीमेण्ट एटली ने घोषणा की थी कि ब्रिटिश सरकार भारत के साम्प्रदायिक एवं राजनीतिक गतिरोध को दूर करने के लिए कैबिनेट मिशन भारत भेजेगी।

प्रश्न 5.
भारत का विभाजन किस योजना के तहत हुआ ?
उत्तर :
भारत का विभाजन माउण्टबेटन योजना के तहत हुआ।

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प्रश्न 6.
सम्प्रदायवाद से आप क्या समझते हैं ? इसके निराकरण का कोई एक उपाय बताइए। [2012]
उत्तर :
अन्य सम्प्रदायों और मजहबों के विरुद्ध द्वेष और भेदभाव पैदा करना सम्प्रदायवाद है। साम्प्रदायिक सद्भाव विकसित करके विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के व्यक्तियों को एक-साथ रहने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए तथा इसके लिए कोई राष्ट्रीय नीति बनायी जानी चाहिए।

बहुविकल्पीय प्रशन

1. कांग्रेस को विधानसभा के चुनाव में कितने प्रान्तों में सफलता मिली ?

(क) 5 प्रान्तों में
(ख) 4 प्रान्तों में
(ग) 11 प्रान्तों में
(घ) 7 प्रान्तों में

2. भारत में अन्तरिम मन्त्रिमण्डल का गठन किसके नेतृत्व में किया गया ?

(क) पं० जवाहरलाल नेहरू के
(ख) सरदार वल्लभभाई पटेल के
(ग) मुहम्मद अली जिन्ना के
(घ) सुभाषचन्द्र बोस के

3. भारत किस सन् में आजाद हुआ ?

(क) 1942 ई० में
(ख) 1947 ई० में
(ग) 1948 ई० में
(घ) 1950 ई० में

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4. निम्नलिखित में से किसने भारत में आर्थिक नियोजन की नीति प्रारम्भ की ? [2013]

(क) पं० जवाहरलाल नेहरू
(ख) डॉ० बी०आर० अम्बेडकर
(ग) सरदार वल्लभभाई पटेल
(घ) महात्मा गांधी

5. भारत की स्वतन्त्रता और विभाजन की घोषणा की गई [2016]
             या
भारत के विभाजन के समय भारत में वाइसराय कौन थे?

(क) माउण्टबेटन योजना द्वारा
(ख) कैबिनेट मिशन द्वारा
(ग) वेवेल द्वारा
(घ) क्रिप्स योजना द्वारा

6. भारत में लिखित संविधान कब लागू हुआ? [2016]

(क) 15 अगस्त को
(ख) 14 अगस्त को
(ग) 10 दिसम्बर को
(घ) 26 जनवरी को

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7. देशी रियासतों के एकीकरण में किसने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया? [2018]

(क) महात्मा गाँधी
(ख) सरदार वल्लभभाई पटेल
(ग) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(घ) सुभाष चन्द्र बोस

उत्तरमाला 

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 16 भारत-विभाजन एवं स्वतन्त्रता-प्राप्ति 1

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 1 सूरदास (काव्य-खण्ड)

UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 1 सूरदास (काव्य-खण्ड)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 1 सूरदास (काव्य-खण्ड).

कवि-पस्यिय

प्रश्न 1.
सूरदास के जीवन-परिचय और रचनाओं पर प्रकाश डालिए। [2009, 10]
या
कवि सूरदास का जीवन-परिचय एवं उनकी रचनाओं के नाम लिखिए। [2011, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
उत्तर
सूरदास हिन्दी-साहित्य-गगन के ज्योतिर्मान नक्षत्र और भक्तिकाल की सगुणधारा के कृष्णोपासक कवि हैं। इन्होंने अपनी संगीतमय वाणी से कृष्ण की भक्ति तथा बाल-लीलाओं के रस का ऐसा सागर प्रवाहित कर दिया है, जिसको मथकर भक्तजन भक्ति-सुधा और आनन्द-मौक्तिक प्राप्त करते हैं।

जीवन-परिचय-सूरदास जी का जन्म सन् 1478 ई० (वैशाख शुक्ल पंचमी, सं० 1535 वि०) में आगरा-मथुरा मार्ग पर स्थित रुनकता नामक ग्राम में हुआ था। कुछ विद्वान् दिल्ली के निकट ‘सीही ग्राम को भी इनका जन्म-स्थान मानते हैं। सूरदास जी जन्मान्ध थे, (UPBoardSolutions.com) इस विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं। इन्होंने कृष्ण की बाल-लीलाओं का, मानव-स्वभाव का एवं प्रकृति का ऐसा सजीव वर्णन किया है, जो आँखों से प्रत्यक्ष देखे बिना सम्भव नहीं है। इन्होंने स्वयं अपने आपको जन्मान्ध कहा है। ऐसा इन्होंने आत्मग्लानिवश, लाक्षणिक रूप में अथवा ज्ञान-चक्षुओं के अभाव के लिए भी कहा हो सकता है।

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सूरदास की रुचि बचयन से ही भगवद्भक्ति के गायन में थी। इनसे भक्ति का एक पद सुनकर पुष्टिमार्ग के संस्थापक महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इन्हें अपना शिष्य बना लिया और श्रीनाथजी के मन्दिर में कीर्तन का भार सौंप दिया। श्री वल्लभाचार्य के पुत्र बिट्ठलनाथ ने ‘अष्टछाप’ नाम से आठ कृष्णभक्त कवियों का जो संगठन किया था, सूरदास जी इसके सर्वश्रेष्ठ कवि थे। वे गऊघाट पर रहकर जीवनपर्यन्त कृष्ण की लीलाओं का गायन करते रहे।

सूरदास जी का गोलोकवास (मृत्यु) सन् 1583 ई० (सं० 1640 वि०) में गोसाईं बिट्ठलनाथ के सामने गोवर्द्धन की तलहटी के पारसोली नामक ग्राम में हुआ। ‘खंजन नैन रूप रस माते’ पद का गान करते हुए इन्होंने अपने भौतिक शरीर का त्याग किया।
कृतियाँ (रचनाएँ)–महाकवि सूरदास की अग्रलिखित तीन रचनाएँ ही उपलब्ध हैं-

(1) सूरसागर-श्रीमद्भागवत् के आधार पर रचित ‘सूरसागर’ के सवा लाख पदों में से अब लगभग दस हजार पद ही उपलब्ध बताये जाते हैं, जिनमें कृष्ण की बाल-लीलाओं, गोपी-प्रेम, गोपी-विरह, उद्धव-गोपी संवाद का बड़ा मनोवैज्ञानिक और सरस (UPBoardSolutions.com) वर्णन है। सम्पूर्ण ‘सूरसागर’ एक गीतिकाव्य है। इसके पद तन्मयता के साथ गाये जाते हैं तथा यही ग्रन्थ सूरदास की कीर्ति का स्तम्भ है।
(2) सूर-सारावली-इसमें 1,107 पद हैं। यह ‘सूरसागर’ का सारभाग है।
(3) साहित्य-लहरी-इसमें 118 दृष्टकूट पदों का संग्रह है। इस ग्रन्थ में किसी एक विषय की विवेचना नहीं हुई है, वरन् मुख्य रूप से नायिकाओं एवं अलंकारों की विवेचना की गयी है। इसमें कहीं-कहीं पर श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन हुआ है तो एकाध स्थलों पर महाभारत की कथा के अंशों की झलक भी मिलती है।

साहित्य में स्थान-भक्त कवि सूरदास का स्थान हिन्दी-साहित्याकाश में सूर्य के समान ही है। इसीलिए कहा गया है–

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सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केशवदास ।
अब के कवि खद्योत सम, जहँ तहँ करत प्रकास ।।

पद्यांशों की सुन्दर्भ व्याख्या

प्रश्न 1.
चरन-कमल बंद हरि राई ।।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंधै, अंधे कौ सब कुछ दरसाई॥
बहिरौ सुनै, गैंग पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराई ।
सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंद तिहिं पाई ॥ [2012, 15, 17]
उत्तर
[ हरि राई = श्रीकृष्ण पंगु = लँगड़ा। लंधै = लाँघ लेता है। गैंग = पूँगा। रंक = दरिद्र। पाई = चरण।।
सन्दर्भ-यह पद्य श्री सूरदास द्वारा रचित ‘सूरसागर’ नामक ग्रन्थ से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी के ‘काव्य-खण्ड’ में संकलित ‘पद’ शीर्षक से उद्धृत है।
[ विशेष—इस पाठ के शेष सभी पद्यांशों की व्याख्या में यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग-इस पद्य में भक्त कवि सूरदास जी ने श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन करते हुए उनके चरणों की वन्दना की है। |

व्याख्या-भक्त-शिरोमणि सूरदास श्रीकृष्ण के कमलरूपी चरणों की वन्दना करते हुए कहते हैं। कि इन चरणों का प्रभाव बहुत व्यापक है। इनकी कृपा हो जाने पर लँगड़ा व्यक्ति भी पर्वतों को लाँघ लेता है। और अन्धे को सब कुछ दिखाई देने लगता (UPBoardSolutions.com) है। इन चरणों के अनोखे प्रभाव के कारण बहरा व्यक्ति सुनने लगता है और गूंगा पुनः बोलने लगता है। किसी दरिद्र व्यक्ति पर श्रीकृष्ण के चरणों की कृपा हो जाने पर वह राजा बनकर अपने सिर पर राज-छत्र धारण कर लेता है। सूरदास जी कहते हैं कि ऐसे दयालु प्रभु श्रीकृष्ण के चरणों की मैं बार-बार वन्दना करता हूँ।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. श्रीकृष्ण के चरणों का असीम प्रभाव व्यंजित है। कवि का भक्ति-भाव अनुकरणीय है।
  2. भाषा-साहित्यिक ब्रज।
  3. शैली-मुक्तक
  4. छन्द-गेय पद।
  5. रस-भक्ति।
  6. शब्दशक्ति –लक्षणा।
  7. गुण–प्रसाद।
  8. अलंकार-चरन-कमल’ में रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश तथा अन्यत्र अनुप्रास।

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प्रश्न 2.
अबिगत-गति कछु कहत न आवै ।
ज्यौं गूंगे मीठे फल को रस, अंतरगत ही भावै ॥
परम स्वाद सबही सु निरंतर, अमित तोष उपजावै ।
मन-बानी कौं अगम-अगोचर, सो जानैं जो पावै ॥
रूप-रेख-गुन जाति-जुगति-बिनु, निरालंब कित धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं तातें, सूर सगुन-पद गावै ॥ [2012, 14]
उत्तर
[ अबिगत =निराकार ब्रह्म। गति = दशा। अंतरगत = हृदय में। भावै = अच्छा लगता है। परम = बहुत अधिक। अमित = अधिक। तोष = सन्तोष। उपजावै = उत्पन्न करता है। अगम = अगम्य, पहुँच से बाहर। अगोचर = जो इन्द्रियों (नेत्रों) से न जाना (UPBoardSolutions.com) जा सके। रेख = आकृति। जुगति = युक्ति। निरालंब = बिना किसी सहारे के। धावै = दौड़े। तातै = इसलिए। सगुन = सगुण ब्रह्म।]

प्रसंग–इस पद्य में सूरदास जी ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना में कठिनाई बताते हुए सगुण ईश्वर (कृष्ण) की लीला के गाने को ही श्रेष्ठ बताया है।

व्याख्या-सूरदास जी कहते हैं कि निर्गुण ब्रह्म का वर्णन करना अत्यन्त कठिन है। उसकी स्थिति के विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। निर्गुण ब्रह्म की उपासना का आनन्द किसी भक्त के लिए उसी प्रकार अवर्णनीय है, जिस प्रकार गूंगे के लिए मीठे फल का स्वाद। जिस प्रकार पूँगा व्यक्ति मीठे फल के स्वाद को कहकर नहीं प्रकट कर सकता, वह मन-ही-मन उसके आनन्द का अनुभव किया करता है, उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म की भक्ति के आनन्द का केवल अनुभव किया जा सकता है, उसे वाणी द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकता। यद्यपि निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति से निरन्तर अत्यधिक आनन्द प्राप्त होता है और उपासक को उससे असीम सन्तोष भी प्राप्त होता है, परन्तु वह प्रत्येक की सामर्थ्य से बाहर की बात है। उसे इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता। निर्गुण ब्रह्म का न कोई रूप है, (UPBoardSolutions.com) न कोई आकृति, न उसकी कोई निश्चित विशेषता है, न जाति और न वह किसी युक्ति से प्राप्त किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में भक्त का मन बिना किसी आधार के कहाँ भटकता रहेगा? क्योंकि निर्गुण ब्रह्म सभी प्रकार से पहुँच के बाहर है। इसी कारण सभी प्रकार से विचार करके ही सूरदास जी ने सगुण श्रीकृष्ण की लीला के पद गाना अधिक उचित समझा है।

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काव्यगत सौन्दर्य

  1. निराकार ईश्वर की उपासना को कठिन तथा साकार की उपासना को तर्कसहित सरल बताया गया है।
  2. भाषा-साहित्यिक ब्रज।
  3. शैली-मुक्तक
  4. छन्द-गेय पद।
  5. रस-भक्ति और शान्त।
  6. लंकार-‘अगम-अगोचर’ तथा ‘जाति-जुगति’ में अनुप्रास, ‘ज्यौ गूंग …………. उपजावै’ में दृष्टान्त तथा ‘सब विधि ……………… पद गावै’ में हेतु अलंकार है।
  7. शब्दशक्ति-लक्षणा।
  8. गुण–प्रसाद।
  9. वसाम्य-कबीर ने लिखा है-गूंगे केरी सर्करा, खाक और मुसकाई। तुलसीदास जी ने भी निर्गुण ब्रह्म का वर्णन करते हुए कहा है

बिनु पग चले सुनै बिनु काना, कर बिनु कर्म करै बिधि नाना ।
आनन रहित सकल रस भोगी, बिनु पानी वक्ता बड़ जोगी ॥

प्रश्न 3.
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।।
मनिमय कनक नंद कैं आँगन, बिम्ब पकरिबैं धावत ॥
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह कौं, कर सौं पकरने चाहत ।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत ॥
कनक-भूमि पर कर-पग छाया, यह उपमा इक राजति ।
करि-करि प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति ।।
बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावति ।
अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु को दूध पियावति ॥
उत्तर
[मनिमय = मणियों से युक्त। कनक = सोना। पकरिबैं = पकड़ने को। धावत = दौड़ते हैं। निरखि = देखकर। राजत = सुशोभित होती हैं। दतियाँ = छोटे-छोटे दाँत। तिहिं = उनको। अवगाहत = पकड़ते हैं। कर-पग = हाथ और पैर। राजति (UPBoardSolutions.com) = शोभित होती है। बसुधा = पृथ्वी। बैठकी = आसन। साजति = सजाती हैं। अँचरा तर = आँचल के नीचे।]

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प्रसंग—इस पद में कवि ने मणियों से युक्त आँगन में घुटनों के बल चलते हुए बालक श्रीकृष्ण की शोभा का वर्णन किया है।

व्याख्या-श्रीकृष्ण के सौन्दर्य एवं बाल-लीलाओं का वर्णन करते हुए सूरदास जी कहते हैं कि . बालक कृष्ण अब घुटनों के बल चलने लगे हैं। राजा नन्द का आँगन सोने का बना है और मणियों से जटित है। उस आँगन में श्रीकृष्ण घुटनों के बल चलते हैं तो किलकारी भी मारते हैं और अपना प्रतिबिम्ब पकड़ने के लिए दौड़ते हैं। जब वे किलकारी मारकर हँसते हैं तो उनके मुख में दो दाँत शोभा देते हैं। उन दाँतों के प्रतिबिम्ब को भी वे पकड़ने का प्रयास करते हैं। उनके हाथ-पैरों की छाया उस सोने के फर्श पर ऐसी प्रतीत होती है, मानो प्रत्येक मणि में उनके बैठने के लिए पृथ्वी ने कमल का आसन सजा दिया है (UPBoardSolutions.com) अथवा प्रत्येक मणि पर उनके कमल जैसे हाथ-पैरों का प्रतिबिम्ब पड़ने से ऐसा लगता है कि पृथ्वी पर कमल के फूलों का आसन बिछा हुआ हो। श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को देखकर माता यशोदा जी बहुत आनन्दित होती हैं और बाबा नन्द को भी बार-बार वहाँ बुलाती हैं। इसके बाद माता यशोदा सूरदास के प्रभु बालक कृष्ण को अपने आँचल से ढककर दूध पिलाने लगती हैं।

काव्यगत सौन्दर्य

  1. प्रस्तुत पद में श्रीकृष्ण की सहज स्वाभाविक हाव-भावपूर्ण बाल-लीलाओं का सुन्दर और मनोहारी चित्रण हुआ है।
  2. भाषा-सरस मधुर ब्रज।
  3. शैली-मुक्तक।
  4. छन्द– गेय पद।
  5. रस-वात्सल्य।
  6. शब्दशक्ति-‘करि करि प्रति-पद प्रति-मनि बसुधा, कमल बैठकी साजति’ में लक्षणा।
  7. गुण–प्रसाद और माधुर्य
  8. अलंकार-‘किलकत कान्ह’, ‘दै दतियाँ’, ‘प्रतिपद प्रतिमनि’ में अनुप्रास, ‘कमल-बैठकी’ में रूपक, ‘करि-करि’, ‘पुनि-पुनि’ में पुनरुक्तिप्रकाश।
  9. भावसाम्य-तुलसीदास ने भी भगवान् श्रीराम के बाल रूप की कुछ ऐसी ही झाँकी प्रस्तुत की है

आँगन फिरत घुटुरुवनि धाये।।
नील जलज-तनु-स्याम राम सिसु जननि निरख मुख निकट बोलाये ॥

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प्रश्न 4.
मैं अपनी सब गाई चरैहौं।
प्रात होत बल कैं संग जैहौं, तेरे कहैं न रैहौं ॥
ग्वाल बाल गाइनि के भीतर, नैकहुँ डर नहिं लागत ।
आजु न सोव नंद-दुहाई, रैनि रहौंगौ जागत ॥ और ग्वाल सब गाई चरैहैं, मैं घर बैठो रैहौं ।
सूर स्याम तुम सोइ रहौ अब, प्रात जान मैं दैहौं ।
उत्तर
[ जैहौं = जाऊँगा। गाइनि = गायों के। नैकहुँ = थोड़ा-भी। सोइ रहौ = सो जाओ। जान मैं दैहौं = मैं जाने देंगी।]

प्रसंग–इस पद में बालक श्रीकृष्ण की माता यशोदा से किये जा रहे स्वाभाविक बाल-हठ का वर्णन किया गया है।

व्याख्या-श्रीकृष्ण अपनी माता यशोदा से हठ करते हुए कहते हैं कि हे माता! मैं अपनी सब गायों को चराने के लिए वन में जाऊँगा। प्रात: होते ही मैं अपने बड़े भाई बलराम के साथ गायें चराने चला जाऊँगा और तुम्हारे रोकने पर भी न रुकेंगा। मुझे ग्वाल-बालों और गायों के बीच में रहते हुए जरा भी भय नहीं लगता। मैं नन्द बाबा की कसम खाकर कहता हूँ कि आज रात्रि में सोऊँगा भी नहीं, मैं रातभर जागता ही रहूंगा। (UPBoardSolutions.com) कहीं ऐसा न हो कि सवेरा होने पर मेरी आँखें ही न खुलें और मैं गायें चराने न जा सकें। हे माता! ऐसा नहीं हो सकता कि सब ग्वाले तो गायें चराने चले जायें और मैं अकेला घर पर बैठा रहूँ। सूरदास जी कहते हैं कि बालक श्रीकृष्ण की बात सुनकर माता यशोदा उनसे कहती हैं कि मेरे लाल! अब तुम निश्चिन्त होकर सो जाओ। प्रात:काल मैं तुम्हें गायें चराने के लिए अवश्य जाने देंगी।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. प्रस्तुत पद्य में गायें चराने जाने के लिए किये गये श्रीकृष्ण के बाल-हठ का सुन्दर और मनोहारी वर्णन हुआ है।
  2. भाषा-सरस और सुबोध ब्रज।
  3. शैली-मुक्तक।
  4. छन्द-गेय पद।
  5. रसवात्सल्य।
  6. अलंकार-अनुप्रास।
  7. गुण-माधुर्य।

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प्रश्न 5.
मैया हौं न चरैहौं गाइ।
सिगरे ग्वाल घिरावत मोसों, मेरे पाईं पिराइ ॥
जौं न पत्याहि पूछि बलदाउहिं, अपनी सौंहँ दिवाइ ।
यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ ॥
मैं पठेवति अपने लरिका कौं, आवै मन बहराइ ।
सूर स्याम मेरौ अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ ॥ [2009]
उत्तर
[ हौं = मैं। सिगरे = सम्पूर्ण। पिराई = पीड़ा। पत्याहि = विश्वास। सौंहें = कसम। रिसाइ = गुस्सा।। ।। पठवति = भेजती हूँ। रिंगाइ = दौड़ाकर।]

प्रसंग-इस पद में श्रीकृष्ण माता यशोदा से ग्वाल-बालों की शिकायत करते हुए कह रहे हैं कि वे अब गाय चराने के लिए नहीं जाएँगे। |

व्याख्या-बाल-स्वभाव के अनुरूप श्रीकृष्ण माता यशोदा से कहते हैं कि हे माता! मैं अब गाय चराने नहीं जाऊँगा। सभी ग्वाले मुझसे ही अपनी गायों को घेरने के लिए कहते हैं। इधर से उधर दौड़तेदौड़ते मेरे पाँवों में पीड़ा होने लगी है। यदि तुम्हें मेरी (UPBoardSolutions.com) बात का विश्वास न हो तो बलराम को अपनी सौगन्ध दिलाकर पूछ लो। यह सुनकर माता यशोदा ग्वाल-बालों पर क्रोध करती हैं और उन्हें गाली देती हैं। सूरदास जी कहते हैं कि माता यशोदा कह रही हैं कि मैं तो अपने पुत्र को केवल मन बहलाने के लिए वन में भेजती हूँ और ये ग्वाल-बाल उसे इधर-उधर दौड़ाकर परेशान करते रहते हैं।

काव्यगत सौन्दर्य

  1. प्रस्तुत पद में बालक कृष्ण की दु:ख भरी शिकायत और माता यशोदा का ममता प्रेरित क्रोध-दोनों का बहुत ही स्वाभाविक चित्रण किया गया है। निश्चित ही सूरदास जी बाल मनोविज्ञान को जानने वाले कवि हैं।
  2. भाषा-सरल और स्वाभाविक ब्रज।
  3. शैली-मुक्तक।
  4. छन्द-गेय पद।
  5. रसवात्सल्य
  6. शब्दशक्ति–अभिधा।
  7. अलंकार-‘पाइँ पिराइ तथा ‘सूर स्याम’ में अनुप्रास।
  8. गुण-माधुर्य।।

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प्रश्न 6.
सखी री, मुरली लीजै चोरि ।
जिनि गुपाल कीन्हें अपनें बस, प्रीति सबनि की तोरि ॥
छिन इक घर-भीतर, निसि-बासर, धरतन कबहूँ छोरि।
कबहूँ कर, कबहूँ अधरनि, कटि कबहूँ खोंसत जोरि ॥
ना जानौं कछु मेलि मोहिनी, राखे अँग-अँग भोरि ।
सूरदास प्रभु को मन सजनी, बँध्यौ राग की डोरि ॥
उत्तर
[ छिन इक = एक क्षण । निसि-बासर = रात-दिन। कर = हाथ। कटि = कमर। खोंसत = लगी लेते हैं। मोहिनी = जादू डालकर। भोरि = भुलावा। राग = प्रेम।]

प्रसंग-इस पद में सूरदास जी ने वंशी के प्रति गोपियों के ईष्य-भाव को व्यक्त किया है।

व्याख्या-गोपियाँ श्रीकृष्ण की वंशी को अपनी वैरी सौतन समझती हैं। एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि हे सखी! अब हमें श्रीकृष्ण की यह मुरली चुरा लेनी चाहिए; क्योंकि इस मुरली ने गोपाल को अपनी ओर आकर्षित कर अपने वश में कर लिया है और श्रीकृष्ण ने भी मुरली के वशीभूत होकर हम सभी को भुला दिया है। कृष्ण घर के भीतर हों या बाहर, कभी क्षणभर को भी मुरली नहीं छोड़ते। कभी हाथ में । रखते हैं तो कभी होंठों (UPBoardSolutions.com) पर और कभी कमर में खोंस लेते हैं। इस तरह से श्रीकृष्ण उसे कभी भी अपने से दूर नहीं होने देते। यह हमारी समझ में नहीं आ रहा है कि वंशी ने कौन-सा मोहिनी मन्त्र श्रीकृष्ण पर चला दिया है, जिससे श्रीकृष्ण पूर्ण रूप से उसके वश में हो गये हैं। सूरदास जी कहते हैं कि गोपी कह रही है कि हे सजनी ! इस वंशी ने श्रीकृष्ण का मन प्रेम की डोरी से बाँध कर कैद कर लिया है।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. प्रेम में प्रिय पात्र के दूसरे प्रिय के प्रति ईष्र्या का भाव होना एक स्वाभाविक और मनोवैज्ञानिक तथ्य है। इसी तथ्य का बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया गया है।
  2. भाषा–सहज-सरल ब्रजी
  3. शैली-मुक्तक और गीतात्मक।
  4.  छन्द-गेय पद।
  5. रस-श्रृंगार।
  6. शब्दशक्ति– ‘बँध्यौ राग की डोरि’ में लक्षणा।
  7. गुण-माधुर्य।
  8. अलंकार—राग की डोरि’ में रूपक तथा सम्पूर्ण पद में अनुप्रास।

प्रश्न 7.
ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।।
बृन्दावन गोकुल बने उपबन, सघन कुंज की छाँहीं ॥
प्रात समय माता जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत ।
माखन रोटी दह्यौ सजायौ, अति हित साथ खवावत ॥
गोपी ग्वाले बाल सँग खेलत, सब दिन हँसत सिरात ।
सूरदास धनि-धनि ब्रजवासी, जिनस हित जदु-तात ॥ [2010, 11, 13, 17]
उत्तर
[ बिसरत = भूलना। सघन = गहन। कुंज = छोटे वृक्षों का समूह। छाँहीं = छाया। दह्यौ = दही। सजायौ = सजा हुआ, सहित। हित = स्नेह, प्रेम। सिरात = बीत जाना। जदु-तात = कृष्ण।]

प्रसंग-प्रस्तुत पद में उद्धव ने मथुरा पहुँचकर श्रीकृष्ण को वहाँ की सारी स्थिति बतायी, जिसे सुनकर श्रीकृष्ण भाव-विभोर हो गये। इस पर वे उद्धव से अपनी मनोदशा व्यक्त करते हैं।

व्याख्या-श्रीकृष्ण ने उद्धव से ब्रजवासियों की दीन दशा सुनी और उन्हीं के ध्यान में खो गये। वे उद्धव से कहते हैं कि मैं ब्रज को भूल नहीं पाता हूँ। वृन्दावन और गोकुल के वन-उपवन संभी मुझे याद आते रहते हैं। वहाँ के घने कुंजों की छाया को (UPBoardSolutions.com) भी मैं भूल नहीं पाता। नन्द बाबा और यशोदा मैया को देखकर मुझे जो सुख मिलता था, वह मुझे रह-रहकर स्मरण हो आता है। वे मुझे मक्खन, रोटी और भली प्रकार जमाया हुआ दही कितने प्रेम से खिलाते थे ? ब्रज की गोपियों और ग्वाल-बालों के साथ खेलते हुए मेरे सभी दिन हँसते हुए बीता करते थे। ये सभी बातें मुझे बहुत याद आती हैं। सूरदास जी ब्रजवासियों को धन्य मानते हैं। और उनके भाग्य की सराहना करते हैं; क्योंकि श्रीकृष्ण को उनके हित की चिन्ता है और श्रीकृष्ण इन ब्रजवासियों को प्रति क्षण ध्यान करते हैं।

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काव्यगत सौन्दर्य-

  1. यद्यपि कृष्ण का व्यक्तित्व अलौकिक है किन्तु प्रेमवश वह भी प्रियजनों की याद में साधारण मनुष्य की भाँति द्रवित हो रहे हैं। ब्रज की स्मृति उन्हें अत्यधिक भाव-विह्वल कर रही है।
  2. भाषा-सरल-सरस ब्रज।
  3. शैली-मुक्तक।
  4. छन्द-गेय पदः
  5. रस-शृंगार।
  6. शब्दशक्ति-अभिधा और व्यंजना।
  7. गुण-माधुर्य।
  8. अलंकार-‘ब्रज बिसरत’, बृन्दाबन गोकुल बन उपबन’ में अनुप्रास, उद्धव के द्वारा योग का सन्देश भेजने तथा यह कहने में कि ‘मुझसे ब्रज नहीं भूलता’ में विरोधाभास है।
  9. भावसाम्य–यही भाव रत्नाकर जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है

सुधि ब्रजवासिनी की, दिवैया सुखरासिनी की,
उधौ नित हमकौं बुलावन कौं आवती।

प्रश्न 8.
ऊधौ मन न भये दस बीस।।
एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, कौ अवराधै ईस ॥
इंद्री सिंथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस।
आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस ॥
तुम तौ सखा स्याम सुन्दर के, सकल जोग के इंस। सूर हमारें नंद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस ॥ [2011, 13, 17]
उत्तर
[ हुतौ = हुआ करता था। अवराधै = आराधना करे। ईस = निर्गुण ब्रह्म। देही = शरीरधारी। बरीस = वर्ष। सखा = मित्र। जोग के ईस = योग के ज्ञाता, मिलन कराने में निपुण।]

प्रसंग–प्रस्तुत पद भ्रमर-गीत प्रसंग का एक सरस अंश है। श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोपियाँ अत्यधिक व्याकुल हैं। उद्धव जी गोपियों को योग का सन्देश देने मथुरा से गोकुल आये हैं। गोपियाँ योग की शिक्षा ग्रहण करने में अपने को असमर्थ बताती हैं और अपनी मनोव्यथा को उद्धव के समक्ष व्यक्त करती हैं।

व्याख्या-गोपियाँ उद्धव जी से कहती हैं कि हे उद्धव! हमारे मन दस-बीस नहीं हैं। सभी की तरह हमारे पास भी एक मन था और वह श्रीकृष्ण के साथ चला गया है; अत: हम मन के बिना तुम्हारे बताये गये निर्गुण ब्रह्म की आराधना कैसे करें? अर्थात् बिना मन के ब्रह्म की आराधना सम्भव नहीं है। श्रीकृष्ण के बिना हमारी सारी इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो गयी हैं और हमारी दशा बिना सिर के प्राणी जैसी हो गयी है। हम कृष्ण के बिना मृतवत् हो (UPBoardSolutions.com) गयी हैं, जीवन के लक्षण के रूप में हमारी श्वास केवल इस आशा में चल रही है कि श्रीकृष्ण मथुरा से अवश्य लौटेंगे और हमें उनके दर्शन प्राप्त हो जाएँगे। श्रीकृष्ण के लौटने की आशा के सहारे तो हम करोड़ों वर्षों तक जीवित रह लेंगी। गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव! तुम तो कृष्ण के अभिन्न मित्र हो और सम्पूर्ण योग-विद्या तथा मिलन के उपायों के ज्ञाता हो। यदि तुम चाहो तो हमारा योग (मिलन) अवश्य करा सकते हो। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हम तुम्हें यह स्पष्ट बता देना चाहती हैं कि नन्द जी के पुत्र श्रीकृष्ण को छोड़कर हमारा कोई आराध्य नहीं है। हम तो उन्हीं की परम उपासिका हैं।।

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काव्यगत सौन्दर्य-

(1) प्रस्तुत पद में गोपियों की विरह दशा और श्रीकृष्ण के प्रति उनके एकनिष्ठ प्रेम का मार्मिक वर्णन है।
(2) भाषा-सरल, सरस और मधुर ब्रज।
(3) शैली–उक्ति वैचित्र्यपूर्ण मुक्तक।
(4) छन्द-गेय पद।
(5) रस-श्रृंगार रस (वियोग)।
(6) अलंकार-‘सखा स्याम सुन्दर के’ में अनुप्रास ‘जोग’ में श्लेष तथा ‘ज्यौं देही बिनु सीस’ में उपमा
(7) गुण-माधुर्य।
(8) शब्दशक्ति–व्यंजना।
(9) इन्द्रियाँ दस होती हैं—

  1. पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ–
    • नासिका,
    • रसना,
    • नेत्र,
    • त्वचा,
    • श्रवण;
  2. पाँच कर्मेन्द्रियाँ–
    • हाथ,
    • पैर,
    • वाणी,
    • गुदा,
    • लिंग।

(10) एकनिष्ठ प्रेम का ऐसा ही भाव तुलसीदास ने भी व्यक्त किया है

एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास।
एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास ॥

प्रश्न 9.
ऊधौ जाहु तुमहिं हम जाने।
स्याम तुमहिं स्याँ कौं नहिं पठयौ, तुम हौ बीच भुलाने ॥
ब्रज नारिनि सौं जोग कहत हौ, बात कहत न लजाने ।
बड़े लोग न बिबेक तुम्हारे, ऐसे भए अयाने ॥
हमसौं कही लई हम सहि कै, जिय गुनि लेह सयाने ।
कहँ अबला कहँ दसा दिगंबर, मष्ट करौ पहिचाने ॥
साँच कहाँ तुमक अपनी सौं, बूझति बात निदाने ।
सूर स्याम जब तुमहिं पठायौ, तब नैकहुँ मुसकाने ।
उत्तर
[ पठयौ = भेजा है। अयाने = अज्ञानी। दिगंबर = दिशाएँ ही जिसके वस्त्र हैं; अर्थात् नग्न। मष्ट करौ = चुप हो जाओ। सौं = सौगन्ध। निदाने = आखिर में नैकहूँ = कुछ।]

प्रसंग-इस पद में गोपियाँ उद्धव के साथ परिहास करती हैं (UPBoardSolutions.com) और कहती हैं कि श्रीकृष्ण ने तुम्हें यहाँ नहीं भेजा है, वरन् तुम अपना मार्ग भूलकर यहाँ आ गये हो या श्रीकृष्ण ने तुम्हें यहाँ भेजकर तुम्हारे साथ मजाक किया है।

व्याख्या-गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि तुम यहाँ से वापस चले जाओ। हम तुम्हें समझ गयी हैं। श्याम ने तुम्हें यहाँ नहीं भेजा है। तुम स्वयं बीच से रास्ता भूलकर यहाँ आ गये हो। ब्रज की नारियों से योग की बात करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आ रही है। तुम बुद्धिमान् और ज्ञानी होगे, परन्तु हमें ऐसा लगता है कि तुममें विवेक नहीं है, नहीं तो तुम ऐसी अज्ञानतापूर्ण बातें हमसे क्यों करते? तुम अच्छी प्रकार मन में विचार लो कि हमसे ऐसा कह दिया तो कह दिया, अब ब्रज में किसी अन्य से ऐसी बात न कहना। हमने तो सहन भी कर लिया, कोई दूसरी गोपी इसे सहन नहीं करेगी। कहाँ तो हम अबला नारियाँ और कहाँ योग की नग्न अवस्था, अब तुम चुप हो जाओ और सोच-समझकर बात कहो। हम तुमसे एक अन्तिम सवाल पूछती हैं, सच-सच बताना, तुम्हें अपनी कसम है, जो तुम सच न बोले। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव से पूछ रही हैं कि जब श्रीकृष्ण ने उनको यहाँ भेजा था, उस समय वे थोड़ा-सा मुस्कराये थे या नहीं ? वे अवश्य मुस्कराये होंगे, तभी तो उन्होंने तुम्हारे साथ उपहास करने के लिए तुम्हें यहाँ भेजा है।

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काव्यगत सौन्दर्य-

  1. यहाँ गोपियों की तर्कशीलता और आक्रोश का स्वाभाविक चित्रण हुआ है। गोपियाँ अपनी तर्कशक्ति से उद्धव को परास्त कर देती हैं और गोकुल आने के उनके उद्देश्य को ही समाप्त कर देती हैं।
  2. यहाँ नारी-जाति के सौगन्ध खाने और खिलाने के स्वभाव का यथार्थ अंकन हुआ है।
  3. भाषा-सरल-सरस ब्रज।
  4. शैली-मुक्तक।
  5. छन्द-गेय पद।
  6. रस-श्रृंगार।
  7. अलंकार-‘दसा दिगंबर’ में अनुप्रास।
  8. गुण-माधुर्य।
  9. शब्दशक्ति–व्यंजना की प्रधानता।
  10. भावसाम्य–प्रेम के समक्ष ज्ञान-ध्यान व्यर्थ है। कवि कोलरिज ने भी लिखा है-“समस्त भाव, विचार व सुख प्रेम के सेवक हैं।”

प्रश्न 10.
निरगुन कौन देस कौ बासी ?
मधुकर कहि समुझाइ सौंह दै, बुझति साँच न हाँसी ॥
को है जनक, कौन है जननी, कौन नारि, को दासी ?
कैसे बरन, भेष है कैसौ, किहिं रस मैं अभिलाषी ?
पावैगौ पुनि कियौ आपनौ, जौ रे करैगौ गाँसी ।
सुनत मौन है रह्यौ बावरी, सूर सबै मति नासी ॥ [2009, 12, 14, 17]
उत्तर
[ मधुकर = भ्रमर, किन्तु यहाँ उद्धव के लिए प्रयोग हुआ है। सौंह = शपथ। साँच = सत्य। हाँसी = हँसी। जनक = पिता। बरन = रंग, वर्ण। गाँसी = छल-कपट। बावरी = बावला, पागल। नासी = नष्ट हो गयी।]

प्रसंग-इस पद में सूरदास ने गोपियों के माध्यम से (UPBoardSolutions.com) निर्गुण ब्रह्म की उपासना का खण्डन तथा सगुण कृष्ण की भक्ति का मण्डन किया है।

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व्याख्या-गोपियाँ ‘भ्रमर’ की अन्योक्ति से उद्धव को सम्बोधित करती हुई पूछती हैं कि हे उद्धव! तुम यह बताओ तुम्हारा वह निर्गुण ब्रह्म किस देश का रहने वाला है? हम तुमको शपथ दिलाकर सच-सच पूछ रही हैं, कोई हँसी (मजाक) नहीं कर रही हैं। तुम यह बताओ कि उस निर्गुण का पिता कौन है? उसकी माता का क्या नाम है? उसकी पत्नी और दासियाँ कौन-कौन हैं? उस निर्गुण ब्रह्म का रंग कैसा है, उसकी वेश-भूषा कैसी है और उसकी किस रस में रुचि है? गोपियाँ उद्धव को चेतावनी देती हुई कहती हैं कि हमें सभी बातों का ठीक-ठीक उत्तर देना। यदि सही बात बताने में जरा भी छल-कपट करोगे तो अपने किये का फल अवश्य पाओगे। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों के ऐसे प्रश्नों को सुनकर ज्ञानी उद्धव ठगे-से रह गये और उनका सारा ज्ञान-गर्व अनपढ़ गोपियों के सामने नष्ट हो गया।

काव्यगत सौन्दर्य-

  1. सगुणोपासक सूर ने गोपियों के माध्यम से निर्गुण ब्रह्म का उपहासपूर्वक खण्डन कराया है।
  2. गोपियों के प्रश्न सीधे-सादे होकर भी व्यंग्यपूर्ण हैं। यहाँ कवि की कल्पना-शक्ति और स्त्रियों की अन्योक्ति में व्यंग्य करने की स्वभावगत प्रवृत्ति का बड़ा ही मनोवैज्ञानिक चित्रण हुआ है।
  3. भाषा-सरल ब्रज।
  4. शैली-मुक्तक।
  5. रस-वियोग शृंगार एवं हास्य।
  6. छन्द–गेय पद।
  7. गुण-माधुर्य।
  8. अलंकार–‘समुझाइ सौंह दै’, ‘पावैगौ पुनि’ में अनुप्रास, मानवीकरण तथा ‘मधुकर’ के माध्यम से उद्धव को सम्बोधन करने में अन्योक्ति।

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प्रश्न 11.
सँदेसौ देवकी सौं कहियौ ।
हौं तो धाइ तिहारे सुत की, दया करत ही रहियौ ॥
जदपि टेव तुम जानति उनकी, तऊ मोहिं कहि आवै ।।
प्रात होत मेरे लाल लडैडौँ, माखन रोटी भावै ॥
तेल उबटनौ अरु तातो जल, ताहि देखि भजि जाते ।
जोइ-जोइ माँगत सोइ-सोइ देती, क्रम-क्रम करि कै न्हाते ॥
सूर पथिक सुन मोहिं रैनि दिन, बढ्यौ रहत उर सोच ।
मेरौ अलक लडैतो मोहन, हैहै करत सँकोच ॥ [2009]
उत्तर
[ धाइ = आया, सेविका। टेव = आवत। लडैतें = लाड़ले। तातो = गर्म। क्रम-क्रम = धीरे-धीरे। रैनि = रात। उर = हृदय। अलक लड़तो = दुलारे।]

प्रसंग-श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर माता यशोदा बहुत दु:खी हो जाती हैं। उनके मन में विभिन्न आशंकाएँ और चिन्ताएँ होने लगती हैं। प्रस्तुत पद में देवकी को सन्देश भेजते समय वह अपने मन की पीड़ा को व्यक्त कर रही हैं।

व्याख्या-यशोदा जी श्रीकृष्ण की माता देवकी को एक पथिक द्वारा सन्देश भेजती हैं कि कृष्ण तुम्हारा ही पुत्र है, मेरा पुत्र नहीं है। मैं तो उसका पालन-पोषण करने वाली मात्र एक सेविका हूँ। पर वह मुझे मैया कहता रहा है, इसलिए मेरा उसके (UPBoardSolutions.com) प्रति वात्सल्य भाव स्वाभाविक है। यद्यपि तुम उसकी आदतें तो जानती ही होगी, फिर भी मेरा मन तुमसे कुछ कहने के लिए उत्कण्ठित हो रहा है। सवेरा होते ही मेरे लाड़ले श्रीकृष्ण को माखन-रोटी अच्छी लगती है। वह तेल, उबटन और गर्म पानी को पसन्द नहीं करता था, अत: इन वस्तुओं को देखकर ही भाग जाता था। उस समय वह जो कुछ माँगता था, वही उसे देती थी, तब वह धीरे-धीरे नहाता था। सूरदास जी कहते हैं कि यशोदा पथिक से अपने मन की दशा व्यक्त करती हुई कहती हैं कि मुझे तो रात-दिन यही चिन्ता सताती रहती है कि मेरा लाड़ला श्रीकृष्ण अभी तुमसे कुछ माँगने में बहुत संकोच करता होगा।

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काव्यगत सौन्दर्य-

  1. माता के वात्सल्य भाव का सरसे वर्णन हुआ है।
  2. यहाँ कवि ने बाल मनोविज्ञान की सुन्दर अभिव्यक्ति की है कि बच्चे अपरिचित स्थान पर किसी चीज की इच्छा होते हुए भी संकोच के कारण चुप रह जाते हैं, जबकि अपने घर पर जिद कर लेते हैं।
  3. भाषा-सरल-सरस ब्रज।
  4. शैली-मुक्तक।
  5. छन्द-गेय पद।
  6. रसवात्सल्य।
  7. शब्दशक्ति–व्यंजना।
  8. गुणमाधुर्य।
  9. अलंकार-‘लाल लड़तें’ में अनुप्रास तथा ‘जोइ-जोइ’, ‘सोइ-सोइ’, ‘क्रम-क्रम में पुनरुक्तिप्रकाश।

काव्य-सौन्दर्य एवं व्याकरण-बोध

प्रश्न 1
निम्नलिखित पंक्तियों में अलंकार को पहचानकर लक्षणसहित उसका नाम लिखिए
(क) चरन-कमल बंद हरि राई ।
(ख) करि-करि प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति ।
(ग) जोइ-जोइ माँगत, सोइ-सोड़ देती, क्रम-क्रम करि के हाते ।
उत्तर
(क) रूपक अलंकारे।
(ख) अनुप्रास एवं पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार।
(ग) अनुप्रास एवं पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार।

लक्षण-उपर्युक्त अलंकारों में से रूपक एवं अनुप्रास के लक्षण ‘काव्य-सौन्दर्य के तत्त्वों के अन्तर्गत देखें।
पुनरुक्तिप्रकाश-जब एक ही शब्द की लगातार (UPBoardSolutions.com) पुनरावृत्ति होती है, तब वहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार होता है; जैसे उपर्युक्त पद ‘ख’ में करि-करि।

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प्रश्न 2
जहाँ सन्तान के प्रति माता-पिता का वात्सल्य उमड़ पड़ता है, उन स्थानों पर वात्सल्य रस होता है । पाठ के जिन-जिन पदों में वात्सल्य रस है, उनका उल्लेख कीजिए |
उत्तर
पद संख्या 3, 4, 5, 11 पदों में वात्सल्य रस है।

प्रश्न 3
निम्नलिखित पंक्तियों में कौन-सा रस है ?
(क) अबिगत गति कछु कहत न आवै.
(ख) निरगुन कौन देस को बासी।।
उत्तर
(क) भक्ति रस,
(ख) वियोग शृंगार।

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प्रश्न 4
निम्नलिखित शब्दों में से तत्सम, तदभव और देशज शब्द छाँटकर अलग-अलग लिखिए-
चरन, पंगु, कान्ह, अँचरा, छोटा, गृह, करि, नैन, पानि, सखा, जोग, साँच, जननी, गाँसी, धाई, टेव, अलक-लईतो, ठाढ़े, ग्वाल, बिम्ब, यति, विधु, इंद्री।
उत्तर
तत्सम-पंगु, गृह, करि, जननी, ग्वाल, बिम्ब, यति, विधु।
तद्भव-चरन, अँचरा, नैन, पानि, सखा, (UPBoardSolutions.com) जोग, इंद्री।।
देशज-कान्ह, साँच, छोटा, गाँसी, धाइ, टेव, अलक-लड़तो, ठाढ़े।

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