UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 5 विश्वकविः रवीन्द्रः (गद्य – भारती)

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परिचय

रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मातृभाषा बांग्ला थी। ये अनेक वर्षों तक इंग्लैण्ड में रहे थे। इसलिए इन पर वहाँ की भाषा तथा संस्कृति का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा था। इन्होंने बांग्ला और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में साहित्य-रचना की है। ये नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रथम भारतीय थे। इनकी रचना ‘गीताञ्जलि’ पर इनको यह पुरस्कार प्राप्त हुआ था। ‘गीजाञ्जलि’ के पश्चात् इनकी दूसरी कृति या निर्माण ‘विश्वभारती है। इसमें प्राचीन भारतीय पद्धति (UPBoardSolutions.com) अर्थात् आश्रम पद्धति से शिक्षा दी जाती है। इन्होंने भारतीय और पाश्चात्य संगीत का समन्वय करके संगीत की एक नवीन शैली को जन्म दिया, जिसे ‘रवीन्द्र संगीत’ कहा जाता है। प्रस्तुत पाठ में रवीन्द्रनाथ जी के जीवन-परिचय के साथ-साथ इनकी साहित्यिक एवं सामाजिक उपलब्धियों पर भी प्रकाश डाला गया है।

पाठ-सारांश [2006, 07,08, 11, 12, 13, 15]

प्रसिद्ध महाकवि श्री रवीन्द्रनाथ का बांग्ला साहित्य में वही स्थान है जो अंग्रेजी-साहित्य में शेक्सपीयर का, संस्कृत-साहित्य में कविकुलगुरु कालिदास का और हिन्दी-साहित्य में तुलसीदास का। इनका नाम आधुनिक भारतीय कलाकारों में भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। ये केवल आध्यात्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में ही नहीं, वरन् रचनात्मक साहित्यकार के रूप में भी जाने जाते हैं।

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इन्होंने सांस्कृतिक क्षेत्र में संगीत और नृत्य की नवीन रवीन्द्र-संगीत-शैली प्रारम्भ की। शिक्षाविद् के रूप में इनके नवीन प्रयोगात्मक विचारों को प्रतीक ‘विश्वभारती है, जिसमें आश्रम शैली का नवीन शैली के साथ समन्वय है। ये दीन और दलित वर्ग की हीन दशा के महान् सुधारक थे।

वैभव में जन्म रवीन्द्रनाथ का जन्म कलकत्ती नगर में 7 मई, सन् 1861 ईस्वी को एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री देवेन्द्रनाथ एवं माता का नाम श्रीमती शारदा देवी था। इनके पास विपुल अचल सम्पत्ति थी। इनका प्रारम्भिक जीवन नौकर-चाकरों की देख-रेख में बीता। खेल और स्वच्छन्द विहार का समय न मिलने से इनका मन उदास रहता था।

प्रकृति-प्रेम इनके भवन के पीछे एक सुन्दर सरोवर था। उसके दक्षिणी किनारे पर नारियल के पेड़ और पूर्वी तट पर एक बड़ा वट वृक्ष था। रवीन्द्र अपने भवन की खिड़की में बैठकर इस दृश्य को देखकर प्रसन्न होते थे। वे सरोवर में स्नान करने के लिए आने वालों की चेष्टाओं और वेशभूषा को देखते रहते थे। शाम के समय सरोवर के किनारे बैठे बगुलों, हंसों और जलमुर्गों के स्वर को बड़े प्रेम से सुनते थे।

शिक्षा रवीन्द्र की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। इन्होंने घर पर ही बांग्ला के साथ गणित, विज्ञान और संस्कृत का अध्ययन किया। इसके बाद इन्होंने कलकत्ता के ‘ओरियण्टले सेमिनार स्कूल’ और ‘नॉर्मल स्कूल में प्रवेश लिया, लेकिन वहाँ अध्यापकों के स्वेच्छाचरण और सहपाठियों की हीन मनोवृत्तियों तथा अप्रिय स्वभाव को देखकर इनका मन वहाँ नहीं लगा। सन् 1873 ई० में पिता देवेन्द्रनाथ इन्हें अपने साथ हिमालय पर ले गये। वहाँ हिमाच्छादित पर्वत-श्रेणियों और सामने (UPBoardSolutions.com) हरे-भरे खेतों को देखकर इनका मन प्रसन्न हो गया। पिता देवेन्द्रनाथ इन्हें प्रतिदिन नवीन शैली में पढ़ाते थे। कुछ समय बाद हिमालय से लौटकर इन्होंने विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की।

सत्रह वर्ष की आयु में रवीन्द्र अपने भाई सत्येन्द्रनाथ के साथ कानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिए लन्दन गये, परन्तु वहाँ वे बैरिस्टर की उपाधि न प्राप्त कर सके और दो वर्ष बाद ही कलकत्ता लौट आये।

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साहित्यिक प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ में साहित्य-रचना की स्वाभाविक प्रतिभा थी। उनके परिवार में घर पर प्रतिदिन गोष्ठियाँ, चित्रकला की प्रदर्शनी, नाटक-अभिनय और देश-सेवा के कार्य होते रहते थे। इन्होंने अनेक कथाएँ और निबन्ध लिखकर उनको ‘भारती’, ‘साधना’, ‘तत्त्वबोधिनी’ आदि पारिवारिक पत्रिकाओं में प्रकाशित कराया।

रचनाएँ इन्होंने शैशव संगीत, प्रभात संगीत, सान्ध्य संगीत, नाटकों में रुद्रचण्ड, वाल्मीकि प्रतिभा (गीतिनाट्य), विसर्जन, राजर्षि, चोखेरबाली, चित्रांगदा, कौड़ी ओकमल, गीताञ्जलि आदि अनेक रचनाएँ लिखीं। इनकी प्रतिभा कथा, कविता, नाटक, उपन्यास, निबन्ध आदि में समान रूप से उत्कृष्ट थी। गीताञ्जलि पर इन्हें साहित्य का ‘नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

महात्मा गाँधी जी के प्रेरक गुरु सन् 1932 ई० में गाँधी जी पूना की जेल में थे। अंग्रेजों की हिन्दू-जाति के विभाजन की नीति के विरुद्ध वे जेल में ही आमरण अनशन करना चाहते थे। उन्होंने इसके लिए रवीन्द्र जी से ही अनुमति माँगी और उनको समर्थन प्राप्त करके आमरण अनशन किया। रवीन्द्रनाथ (UPBoardSolutions.com) का जीवन उनके काव्य के समान मनोहारी और लोक-कल्याणकारी था। उनकी मृत्यु 7 अगस्त, 1941 ई० को हो गयी थी, लेकिन उनकी वाणी आज भी काव्य रूप में प्रवाहित है।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
आङ्ग्लवाङ्मये काव्यधनः शेक्सपियर इव, संस्कृतसाहित्ये कविकुलगुरुः कालिदास इव, हिन्दीसाहित्ये महाकवि तुलसीदास इव, बङ्गसाहित्ये कवीन्द्रो रवीन्द्रः केनाविदितः स्यात्। आधुनिक भारतीयशिल्पिषु रवीन्द्रस्य स्थानं महत्त्वपूर्णमास्ते इति सर्वैः ज्ञायत एव। तस्य बहूनि योगदानानि पार्थक्येन वैशिष्ट्यं लभन्ते। न केवलमाध्यात्मिकसांस्कृतिकक्षेत्रेषु तस्य योगदान महत्त्वपूर्णमपितु रचनात्मकसाहित्यकारतयापि तस्य नाम लोकेषु सुविदितमेव सर्वैः।।

शब्दार्थ वाङ्मये = साहित्य में। काव्यधनः = काव्य के धनी। कवीन्द्रः = कवियों में श्रेष्ठ। केनाविदितः = किसके द्वारा विदित नहीं हैं, अर्थात् सभी जानते हैं। आस्ते = है। पार्थक्येन = अलग से। लोकेषु = लोकों में। सुविदितमेव = भली प्रकार ज्ञात है।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘विश्वकविः रवीन्द्रः’ शीर्षक पाठ से उधृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कवीन्द्र रवीन्द्र के महत्त्वपूर्ण योगदानों का उल्लेख किया गया है।

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अनुवाद अंग्रेजी-साहित्य में काव्य के धनी शेक्सपियर के समान, संस्कृत-साहित्य में कविकुलगुरु कालिदास के समान, हिन्दी-साहित्य में महाकवि तुलसीदास के समान बांग्ला-साहित्य में कवीन्द्र रवीन्द्र किससे अपरिचित हैं अर्थात् सभी लोगों ने उनका नाम सुना है। आधुनिक (UPBoardSolutions.com) भारतीय कलाकारों में रवीन्द्र का स्थान महत्त्वपूर्ण है, यह सभी जानते हैं। उनके बहुत-से योगदान अलग से विशेषता प्राप्त करते हैं। केवल आध्यात्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में ही उनका योगदान महत्त्वपूर्ण नहीं है, अपितु रचनात्मक साहित्यकार के रूप में भी उनका नाम संसार में सबको विदित ही है।

(2)
सांस्कृतिकक्षेत्रे सङ्गीतविधासु नृत्यविधासु च सः नूतनां शैली प्राकटयत्। सा शैली ‘रवीन्द्र सङ्गीत’ नाम्ना ख्यातिं लभते। एवं नृत्यविधासु परम्परागतशैलीमनुसरताऽनेन शिल्पिना नवीना नृत्यशैली आविष्कृता। अन्यक्षेत्रेष्वपि शिक्षाविद्रूपेण तेन नवीनानां विचाराणां सूत्रपातो विहितः। तेषां प्रयोगात्मकविचाराणां पुजीभूतः निरुपमः प्रासादः ‘विश्वभारती’ रूपेण सुसज्जितशिरस्कः राजते। यत्र आश्रमशैल्याः नवीनशैल्या साकं समन्वयो वर्तते। दीनानां दलितवर्गाणां दशासमुद्धर्तृरूपेणाऽसौ अस्माकं भारतीयानां पुरः प्रस्तुतोऽभवत्।

शब्दार्थ सांस्कृतिकक्षेत्रे = संस्कृति से सम्बद्ध क्षेत्र में विधासु = विधाओं में, प्रकारों में। प्राकटयत् = प्रकट की। ख्याति = प्रसिद्धि को। अनुसरता = अनुसरण करते हुए। आविष्कृता = खोज की। शिक्षाविद्रूपेण = शिक्षाशास्त्र के ज्ञाता के रूप में। पुञ्जीभूतः = एकत्र, समूह बना हुआ। प्रासादः = महला सुसज्जितशिरस्कः = भली-भाँति सजे हुए सिर वाला। साकं = हाथा समन्वयः = ताल-मेल। समुद्धर्तृरूपेण असौ = उद्धार करने वाले के रूप में यह पुरः = सामने।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश-द्वय में रवीन्द्र जी के सांस्कृतिक और शिक्षा के क्षेत्र में योगदान का उल्लेख किया गया है।

अनुवाद सांस्कृतिक क्षेत्र में संगीत-विधा और नृत्य-विधाओं में उन्होंने नवीन शैली प्रकट की। वह शैली ‘रवीन्द्र-संगीत’ के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है। इस प्रकार नृत्य-विधाओं में परम्परागत शैली का अनुसरण करते हुए इस कलाकार ने नवीन नृत्य शैली का आविष्कार किया। दूसरे क्षेत्रों में भी शिक्षाविद् के रूप में नवीन विचारों का सूत्रपात किया। उनके प्रयोगात्मक विचारों का एकत्रीभूत स्वरूप अनुपम भवन ‘विश्वभारती के रूप में सजे हुए सिर वाला होकर सुशोभित है, जहाँ पर आश्रम शैली का नवीन शैली के साथ समन्वय है। दीनों और दलित वर्गों की दशा के सुधारक के रूप में वे हम भारतीयों के सामने प्रस्तुत थे।

(3)
रवीन्द्रनाथस्य जन्म कलिकातानगरे एकषष्ट्यधिकाष्टादशशततमे खीष्टाब्दे मईमासस्य सप्तमे दिवसे (7 मई, 1861) अभवत्। अस्य जनकः देवेन्द्रनाथः, जननी शारदा देवी चास्ताम्। रवीन्द्रस्य जन्म एकस्मिन् सम्भ्रान्ते समृद्धे ब्राह्मणकुले जातम्। यस्य सविधे अचला विशाला सम्पत्तिरासीत्। अतो भृत्यबहुलं भृत्यैः परिपुष्टं संरक्षितं जीवनं बन्धनपूर्णमन्वभवत्। अतः स्वच्छन्दविचरणाय, क्रीडनाय सुलभोऽवकाशः नासीत्तेन मनः खिन्नमेवास्त।

रवीन्द्रनाथस्य जन्म ………………………………………………….. बन्धनपूर्णमन्वभवत्।।

शब्दार्थ एकषष्ट्यधिकोष्टादशशततमे = अठारह सौ इकसठ में। ख्रीष्टाब्दे = ईस्वी में। आस्ताम् = थे। सम्भ्रान्ते = सम्भ्रान्त। धनिके = धनी। सविधे = पास में। अचला = जो न चल सके। भृत्यबहुलं = नौकरों की अधिकता वाले। परिपुष्टं = सभी प्रकार से पुष्ट हुए। (UPBoardSolutions.com) बन्धनपूर्णमन्वभवत् = बन्धनपूर्ण अनुभव हुआ। नासीत्तेन = नहीं था, इस कारण से। खिन्नमेवास्त = दुःखी ही था।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्र के वैभवसम्पन्न प्रारम्भिक जीवन का वर्णन किया गया है।

अनुवाद रवीन्द्रनाथ का जन्म कलकत्ता नगर में सन् 1861 ईस्वी में मई मास की 7 तारीख को हुआ था। इनके पिता देवेन्द्रनाथ और माता शारदा देवी थीं। रवीन्द्र का जन्म एक सम्भ्रान्त और समृद्ध ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पास विशाल अचल सम्पत्ति थी; अतः उन्होंने नौकरों की अधिकता से पूर्ण, सेवकों से पुष्टे किये गये, देखभाल किये गये जीवन को बन्धनपूर्ण अनुभव किया। इसलिए स्वच्छन्द विचरण के लिए, खेलने के लिए उनके पास इच्छित समय नहीं था, इस कारण से उनका मन दुःखी रहता था। (4) वैभवशालिभवनस्य पृष्ठभागे एकं कमनीयं सरः आसीत्। यस्य दक्षिणतटे नारिकेलतरूणां पङ्क्ति राजते स्म। पूर्वस्मिन् तटे जटिलस्तपस्वी इव महान् जीर्णः पुरातनः एकः वटवृक्षोऽनेकशाखासम्पन्नोऽन्तरिक्षं परिमातुमिव समुद्यतः आसीत्।। भवनस्य वातायने समुपविष्टः बालकः दृश्यमिदं दशैं दशैं परां मुदमलभत। अस्मिन्नेव सरसि तत्रत्याः निवासिनः यथासमयं स्नातुमागत्य स्नानञ्च कृत्वा यान्ति स्म। तेषां परिधानानि विविधाः क्रियाश्च दृष्ट्वा बालः किञ्चित्कालं प्रसन्नः अजायत। मध्याह्वात् पश्चात् सरोवरेः शून्यतां भजति स्म। सायं पुनः बकाः हंसाः जलकृकवाकवः विहंगाः कोलहलं कुर्वाणाः स्थानानि लभन्ते स्म। तस्मिन् काले इदमेव कम्न सरः बालकस्य मनोरञ्जनमकरोत् । [2015]

वैभवशालिभवनस्य ………………………………………………….. समुद्यतः आसीत् ।।
भवनस्य वातायने ………………………………………………….. शून्यतां भजति स्म
भवनस्य वातायने ………………………………………………….. मनोरञ्जनमकरोत् । [2012]

शब्दार्थ वैभवशालिभवनस्य = ऐश्वर्य सामग्री से परिपूर्ण भवन के पृष्ठभागे = पिछले भाग में। कमनीयम् = सुन्दर। राजते स्म = सुशोभित थी। जटिलस्तपस्वी = जटाधारी तपस्वी। जीर्णः = पुराना। वटवृक्षः = बरगद का पेड़। परिमातुम् = मापने के लिए। समुद्यतः = तत्पर। वातायने = खिड़की में। समुपविष्टः = बैठा हुआ। परां मुदम् = अत्यन्त प्रसन्नता को। स्नातुं आगत्य = नहाने के लिए आकर। कृत्वा = करके। परिधानानि = वस्त्र। दृष्ट्वा = देखकर। शून्यतां भजति स्म = सूना हो जाता था। जलकृकवाकवः = जल के मुर्गे। कम्रम् =सुन्दर।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्र के प्रकृति-प्रेम का मनोहारी वर्णन किया गया है।

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अनुवाद वैभवपूर्ण भवन के पिछले भाग में एक सुन्दर तालाब था। जिसके दक्षिण किनारे पर नारियल के वृक्षों की पंक्ति सुशोभित थी। पूर्वी किनारे पर जटाधारी तपस्वी के समान बड़ा, बहुत पुराना एक वट का वृक्ष था। अनेक शाखाओं से सम्पन्न वह (वृक्ष) मानो आकाश को मापने के लिए तैयार था। भवन की खिड़की में बैठा हुआ बालक (रवीन्द्र) इस दृश्य को देख-देखकर अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त करता था। इसी सरोवर में वहाँ के निवासी समयानुसार स्नान के लिए आते और स्नान करके जाते थे। उनके वस्त्रों और विविध क्रियाओं को देखकर बालक कुछ समय के लिए प्रसन्न हो जाता था। दोपहर के बाद सरोवर निर्जन (जन-शून्य) हो जाता था। शाम को फिर बगुले, हंस, जलमुर्गे, पक्षी कोलाहल करते हुए (अपना-अपना) स्थान प्राप्त कर लेते थे। उस समय यही सुन्दर सरोवर बालक (रवीन्द्र) का मनोरंजन करता था।

(5)
शिक्षा-रवीन्द्रस्य प्राथमिकी शिक्षा गृहे एव जाता। शिक्षणं बङ्गभाषायं प्रारभत। प्रारम्भिकं विज्ञानं, संस्कृतं, गणितमिति त्रयो पाठ्यविषयाः अभूवन्। प्रारम्भिकगृहशिक्षायां समाप्तायां बालकः उत्तरकलिकातानगरस्य ओरियण्टल सेमिनार विद्यालये प्रवेशमलभत्। तदनन्तरं नार्मलविद्यालयं गतवान् परं कुत्रापि मनो न रमते स्म। सर्वत्र अध्यापकानां स्वेच्छाचरणं सहपाठिनां तुच्छारुचीः अप्रियान् स्वभावांश्च विलोक्य मनो न रेमे। अतः शून्यायां घटिकायां मध्यावकाशेऽपि च ऐकान्तिकं जीवनं बालकाय रोचते स्म। बालकस्य मनः विद्यालयेषु न रमते इति विचिन्त्य जनको देवेन्द्रनाथः त्रिसप्तत्यधिकाष्टादशशततमे खीष्टाब्दे (1873) सूनोरुपनयनसंस्कारं विधाय तं स्वेन सार्धमेव हिमालयमनयत्। तत्र पितुः सम्पर्केण बालकस्य मनः स्वच्छतामभजत्। तत्रत्यस्य भवनस्य पृष्ठभागे हिमाच्छादिताः पर्वतश्रेणयः आसन्। भवनाभिमुखं शोभनानि (UPBoardSolutions.com) सुशाद्वलानि क्षेत्राणि राजन्ते स्म। अत्रत्यं प्राकृतिकं जीवनं बालकस्य मनो नितरामरमयत्। जनको देवेन्द्रनाथः प्रतिदिवसं नवीनया पद्धत्या पाठयति स्म। पितुः पाठनशैली बालकाय रोचते स्म। कालान्तरं हिमालयात् प्रतिनिवृत्य पुनः विद्यालयीयां शिक्षा लेभे।

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प्रारम्भिक गृहशिक्षायां ………………………………………………….. रोचते स्म। [2006]

शब्दार्थ प्रारभत = प्रारम्भ हुआ। प्रवेशमलेभत्=प्रवेश प्राप्त किया। कुत्रापि= कहीं भी। नरमते स्म = नहीं लगता था। स्वेच्छाचरणं = अपनी इच्छा के अनुकूल (स्वतन्त्र) आचरण। तुच्छारुचीः = खराब आदतें। रेमे =रमा, लगा। शून्यायां घटिकायां = खाली घेण्टे में। ऐकान्तिकं = एकान्त से सम्बन्धित। त्रिसप्तत्यधिकाष्टादशशततमे = अठारह सौ तिहत्तर में। सूनोरुपनयनसंस्कारं (सूनोः + उपनयन संस्कारं)= पुत्र का यज्ञोपवीत संस्कार। विधाय= करके। स्वेन सार्धम्=अपने साथ। तत्रत्यस्य= वहाँ के। सुशाद्वलानि=सुन्दर घास से युक्त। राजन्ते स्म = सुशोभित थे। नितराम् = अत्यधिक। अरमयत् = रम गया। प्रतिनिवृत्य = वापस लौटकर। लेभे = प्राप्त किया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में बालक रवीन्द्र का पढ़ने में मन न लगने एवं पिता के साथ हिमालय पर जाकर पढ़ने का वर्णन है।

अनुवाद रवीन्द्र की प्राथमिक शिक्षा घर पर ही हुई। पढ़ाई बांग्ला भाषा में प्रारम्भ हुई। प्रारम्भ में विज्ञान, संस्कृत और गणित ये तीन पाठ्य-विषय थे। प्रारम्भिक गृह-शिक्षा समाप्त होने पर बालक ने उत्तरी कलकत्ता नगर के ‘ओरियण्टल सेमिनार स्कूल में प्रवेश लिया। इसके बाद नॉर्मल विद्यालय में गया, परन्तु कहीं भी (उसका) मन नहीं लगता था। सब जगह अध्यापकों के स्वेच्छाचरण, सहपाठियों की तुच्छ इच्छाओं और बुरे स्वभावों को देखकर (इनका) मन नहीं लगा। इसलिए खाली घण्टे और मध्य अवकाश में भी बालक को एकान्त का जीवन अच्छा लगता था। बालक का मन विद्यालयों में नहीं लगता है-ऐसा सोचकर पिता देवेन्द्रनाथ सन् 1873 ईस्वी में पुत्र का उपनयन संस्कार कराके उसे अपने साथ ही हिमालय पर ले गये। वहाँ पिता के सम्पर्क से बालक का मन स्वस्थ हो गया। वहाँ के भवन के पिछले भाग में बर्फ से ढकी पर्वत-श्रेणियाँ थीं। भवन के सामने सुन्दर हरी घास से युक्त खेत सुशोभित थे। यहाँ के प्राकृतिक जीवन ने बालक के मन को बहुत प्रसन्न कर दिया। पिता देवेन्द्रनाथ प्रतिदिन नवीन पद्धति द्वारा पढ़ाते थे। पिता की पाठन-शैली बालक को अच्छी लगती थी। कुछ समय पश्चात् हिमालय से लौटकर पुन: विद्यालयीय शिक्षा प्राप्त की।

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(6)
सप्तदशवर्षदेशीयो रवीन्द्रनाथः अष्टसप्तत्यधिकाष्टादशशततमे ख्रीष्टाब्दे सितम्बरमासे भ्रात्रा न्यायाधीशेन सत्येन्द्रनाथेन सार्धं विधिशास्त्रमध्येतुं लन्दननगरं गतवान्। दैवयोगाद् रवीन्द्रस्य बैरिस्टरपदवी पूर्णतां नागात्। सः पितुराज्ञया भ्रात्रा सत्येन्द्रनाथेन साकम् अशीत्यधिकाष्टादशशततमे (UPBoardSolutions.com) खीष्टाब्दे (1880) फरवरीमासे लन्दननगरात् कलिकातानगरमायातः। इङ्ग्लैण्डदेशस्य वर्षद्वयावासे पाश्चात्यसङ्गीतस्य सम्यक् परिचयस्तेन लब्धः।

शब्दार्थ सप्तदशवर्षदेशीयो = सत्रह वर्षीय। अष्टसप्तत्यधिकोष्टादशशततमे = अठारह सौ अठहत्तर में। विधिशास्त्रम् = न्याय-शास्त्र, कानून शास्त्र। अध्येतुम् = पढ़ने के लिए। पूर्णतां नागात् = पूर्णता को प्राप्त नहीं हुई। सम्यक् = अच्छी तरह।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्रनाथ द्वारा लन्दन जाने और वकालत की शिक्षा प्राप्त न करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद सत्रह वर्ष की अवस्था में रवीन्द्रनाथ सन् 1878 ईस्वी में सितम्बर महीने में भाई न्यायाधीश सत्येन्द्रनाथ के साथ न्याय-शास्त्र (वकालत) पढ़ने के लिए लन्दन नगर गये। दैवयोग से रवीन्द्र की बैरिस्टर की उपाधि पूर्ण नहीं हुई। वे पिता की आज्ञा से भाई सत्येन्द्रनाथ के साथ सन् 1880 ईस्वी में फरवरी के महीने में लन्दन नगर से कलकत्ता नगर आ गये। इंग्लैण्ड देश के दो वर्ष के निवास में उन्होंने पाश्चात्य संगीत का अच्छी तरह ज्ञान प्राप्त कर लिया।

(7)
साहित्यिक प्रतिभायाः विकासः-रवीन्द्रस्य साहित्यिकरचनायां नैसर्गिकी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा तु प्रधानकारणमासीदेव। परं तत्रत्या पारिवारिकपरिस्थितिरपि विशिष्टं कारणमभूत्। यथा—गृहे। प्रतिदिनं साहित्यिकं वातावरणं, कलासाधनायाः गतिविधयः, नाटकानां मञ्चनानि, सङ्गीतगोष्ठ्यः, चित्रकलानां प्रदर्शनानि, देशसेवाकर्माणि सदैव भवन्ति स्म। किशोरावस्थायामेव रवीन्द्रः अनेकाः कथाः निबन्धाश्च लिखित्वा पारिवारिकपत्रिकासु भारती-साधना-तत्त्वबोधिनीषु मुद्रयति स्म। [2013]

शब्दार्थ नैसर्गिकी = स्वाभाविक नवनवोन्मेषशालिनी = नये-नये विकास वाली प्रतिभा = रचनाबुद्धि। कलासाधनायाः = कला-साधना की। गोष्ठ्यः = गोष्ठियाँ। मुद्रयति स्म = छपवाते थे।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्रनाथ की साहित्यिक रुचि एवं रचनात्मक प्रवृत्ति का वर्णन किया गया है।

अनुवाद रवीन्द्र की साहित्यिक रचना में स्वाभाविक नये-नये विकास वाली प्रतिभा तो प्रधान कारण थी ही, परन्तु वहाँ की पारिवारिक परिस्थिति भी विशेष कारण थी; जैसे—घर में प्रतिदिन साहित्यिक वातावरण, कला–साधना की गतिविधियाँ, नाटकों का अभिनय, संगीत-गोष्ठियाँ, (UPBoardSolutions.com) चित्रकलाओं का प्रदर्शन, देश-सेवा के कार्य सदा होते थे। किशोर अवस्था में ही रवीन्द्र अनेक कथाओं और निबन्धों को लिखकर पारिवारिक पत्रिकाओं ‘भारती’, ‘साधना’, ‘तत्त्वबोधिनी’ में छपवाते थे।

(8)
तेन च शैशवसङ्गीतम्, सान्ध्यसङ्गीतम्, प्रभातसङ्गीतम्, नाटकेषु रुद्रचण्डम्, वाल्मीकि-प्रतिभा गीतिनाट्यम्, विसर्जनम्, राजर्षिः, चोखेरबाली, चित्राङ्गदा, कौडी ओकमल, गीताञ्जलिः इत्यादयो बहवः ग्रन्थाः विरचिताः। गीताञ्जलिः वैदेशिकैः नोबलपुरस्कारेण पुरस्कृतश्च। एवं बहूनि प्रशस्तानि पुस्तकानि बङ्गसाहित्याय प्रदत्तानि। कवीन्द्ररवीन्द्रस्य प्रतिभा कथासु, कवितासु, नाटकेषु, उपन्यासेषु, निबन्धेषु समानरूपेण उत्कृष्टा दृश्यते। सत्यमेव गीताञ्जलिः चित्राङ्गदा च कलादृष्ट्या महाकवेरुभेऽपि रचने वैशिष्ट्यमावहतः।।

शब्दार्थ विरचिताः = लिखे। पुरस्कृतः = पुरस्कृत, पुरस्कार प्राप्त, सम्मानित किया। प्रशस्तानि = प्रशंसनीय। प्रदत्तानि = दिये। उत्कृष्टा = श्रेष्ठ, उन्नत उभेऽपि = दोनों ही। वैशिष्ट्यमावहतः = विशेषता धारण करते हैं।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्रनाथ की साहित्यिक कृतियों का विवरण दिया गया है।

अनुवाद उन्होंने (रवीन्द्रनाथ ने) शैशव संगीत, सान्ध्य संगीत, प्रभात संगीत, नाटकों में रुद्रचण्ड, वाल्मीकि-प्रतिभा (गीतिनाट्य), विसर्जन, राजर्षि, चोखेरबाली, चित्रांगदा, कौड़ी ओकमल, गीताञ्जलि इत्यादि बहुत-से ग्रन्थों की रचना की। गीताञ्जलि को विदेशियों ने नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत किया है। इस प्रकार बहुत-सी सुन्दर पुस्तकें उन्होंने बांग्ला-साहित्य को प्रदान कीं। कवीन्द्र रवीन्द्र की प्रतिभा कथाओं में, कविताओं में, नाटकों में, उपन्यासों और निबन्धों में समान रूप से उत्कृष्ट दिखाई देती है। वास्तव में महाकवि की दोनों ही रचनाएँ गीताञ्जलि और चित्रांगदा कला की दृष्टि से विशिष्टता को धारण करती हैं।

(9)
द्वात्रिंशदधिकैकोनविंशे शततमे खीष्टाब्दे महात्मागान्धी पुणे कारागारेऽवरुद्धः आसीत्। ब्रिटिशशासकाः अनुसूचितजातीयानां सवर्णहिन्दूजातीयेभ्यः पृथक् निर्वाचनाय प्रयत्नशीलाः आसन्।

यस्य स्पष्टमुद्देश्यं हिन्दूजातीयानां परस्परं विभाजनमासीत्। बहुविरोधे कृतेऽपि ब्रिटिशशासकाः शान्ति ने लेभिरे विभाजयितुं च प्रयतमाना एवासन्। तदा महात्मागान्धी हिन्दूजातिवैक्यं स्थापयितुं कारागारे आमरणम् अनशनं प्रारभत। गुरुदेवस्य रवीन्द्रनाथस्य चानुमोदनमैच्छत्। यतश्च महात्मागान्धी गुरुदेवस्य रवीन्द्रस्य केवलमादरमेव नाकरोत्, अपि तु यथाकालं समीचीनसम्मत्यै मुखमपि ईक्षते स्म। महात्मा एनं कवीन्द्र रवीन्द्र गुरुममन्यता रवीन्द्रनाथः तन्त्रीपत्रे ‘भारतस्य एकतायै सामाजिकाखण्डतायै च अमूल्य-जीवनस्य बलिदानं सर्वथा समीचीनं, परं जनाः दारुणायाः विपत्तेः गान्धिनः जीवनमभिरक्षेयुः इति लिखित्वा प्रत्युदतरत्। रवीन्द्रः आमरणस्य अनशनस्य समर्थनमेव न कृतवानपि तु प्रायोपवेशने प्रारब्धे पुणे कारागारञ्चागतवान्।

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शब्दार्थ द्वात्रिंशदधिकैकोनविंशे शततमे = उन्नीस सौ बत्तीस में अवरुद्धः = बन्दा स्पष्टमुद्देश्यं = स्पष्ट उद्देश्य। लेभिरे = प्राप्त कर रहे थे। समीचीनम् = उचित| मुखमपि ईक्षते स्म = मुख की ओर देखते थे, अपेक्षा करते थे। तन्त्रीपत्रे = तार (टेलीग्राम) में। अभिरक्षेयुः = रक्षा करें। प्रत्युदतरत् = उत्तर दिया। प्रायोपवेशने = अनशन के समय।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में महात्मा गाँधी द्वारा कवीन्द्र रवीन्द्र को गुरु मानने एवं उनसे सम्मति लेने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद सन् 1932 ईस्वी में महात्मा गाँधी पुणे में जेल में बन्द थे। ब्रिटिश शासक अनुसूचित जाति वालों का सवर्ण हिन्दू जाति वालों से अलग निर्वाचन कराने के लिए प्रयत्न में लगे थे, जिसका स्पष्ट उद्देश्य हिन्दू जाति वालों का आपस में बँटवारा करना था। बहुत विरोध करने पर भी अंग्रेजी शासक शान्ति को प्राप्त न हुए। अर्थात् अपने प्रयासों को बन्द नहीं किया और (देश एवं हिन्दू जाति को) विभाजित करने के लिए प्रयत्नशील रहे। तब महात्मा गाँधी ने हिन्दू जातियों (UPBoardSolutions.com) में एकता स्थापित करने के लिए जेल में आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के अनुमोदन की इच्छा की; क्योंकि महात्मा गाँधी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ का केवल आदर ही नहीं करते थे, अपितु समयानुसार सही सलाह के लिए उनसे अपेक्षा भी करते थे। महात्मा इन कवीन्द्र रवीन्द्र को गुरु मानते थे। रवीन्द्रनाथ ने तार में भारत की एकता और सामाजिक अखण्डता के लिए अमूल्य जीवन का बलिदान सभी प्रकार से सही है, परन्तु लोग भयानक विपत्ति से गाँधी जी के जीवन की रक्षा करें” लिखकर उत्तर दे दिया। रवीन्द्र ने आमरण अनशन का समर्थन ही नहीं किया, अपितु उपवास के प्रारम्भ होने पर पुणे जेल में आ गये।

(10)
एवं बहुवर्णिकं, गरिमामण्डितं साहित्यिक, सामाजिकं, दार्शनिकं, लोकतान्त्रिकं जीवनं तस्य काव्यमिव मनोहारि सर्वेभ्यः कल्याणकारि प्रेरणादायि चाभूत्। एकचत्वारिंशदधिकैकोनविंशे शततमे खीष्टाब्देऽगस्तमासस्य सप्तमे दिनाङ्के (7 अगस्त, 1941) रवीन्द्रस्य पार्थिव शरीरं वैश्वानरं प्राविशत्। अद्यापि गुरुदेवस्य रवीन्द्रस्य वाक् काव्यरूपेण अस्माकं समक्षं स्रोतस्विनी इव सततं प्रवहत्येव। अधुनापि करालस्य कालस्य करोऽपि वाचं मूकीकर्तुं नाशकत्।

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जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः ।
नास्ति येषां यशःकाये जरामरणजं भयम् ॥

शब्दार्थ बहुवर्णिकम् = बहुरंगी, अनेक प्रकार का। गरिमामण्डितम् = गरिमा (गौरव) से युक्त। एकचत्वारिंशदधिकैकोनविंशे शततमे = उन्नीस सौ इकतालिस में। पार्थिवम् = मिट्टी से बना, भौतिक वैश्वानरम् = अग्नि में। प्राविशत = प्रविष्ट हुआ। वाक् = वाणी। स्रोतस्विनी इव = नदी के समान। प्रवहत्येव = बहती ही है। वाचं मूकीकर्तुम् = वाणी को मौन करने के लिए। नाशकत् = समर्थ नहीं हुआ। सुकृतिनः = सुन्दर कार्य करने वाले रससिद्धाः = रस है सिद्ध जिनको। कवीश्वराः = कवियों में ईश्वर अर्थात् कवि श्रेष्ठ| यशःकाये = यशरूपी शरीर में जरामरणजे = वृद्धावस्था और मृत्यु से उत्पन्न।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कवीन्द्र रवीन्द्र के जीवन का मूल्यांकन किया गया है, उनके देहान्त की बात कही गयी है और सुन्दर रचनाकार के रूप में उनके यश का गान किया गया है।

अनुवाद इस प्रकार उनका बहुरंगी, गरिमा से मण्डित, साहित्यिक, सामाजिक, दार्शनिक, लोकतान्त्रिक जीवन उनके काव्य के समान सुन्दर, सबके लिए कल्याणकारी और प्रेरणाप्रद था। सन् 1941 ईस्वी में अगस्त महीने की 7 तारीख को रवीन्द्र का पार्थिव शरीर अग्नि में प्रविष्ट हो गया। आज भी गुरुदेव रवीन्द्र की वाणी काव्य के रूप में हमारे सामने नदी के समान निरन्तर बह रही है। आज भी भयानक मृत्यु का हाथ भी (उनकी) वाणी को चुप करने में समर्थ नहीं हो सका। पुण्यात्मा, (UPBoardSolutions.com) रससिद्ध वे कवीश्वर जयवन्त होते हैं, जिनके यशरूपी शरीर में बुढ़ापे और मृत्यु से उत्पन्न भय नहीं है। इसलिए कविगण हमेशा यशरूपी शरीर से ही जीवित रहते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना ‘गीताञ्जलि’ पर प्रकाश डालिए।
या
‘गीताञ्जलि’ के रचयिता का नाम लिखिए। [2006,07,14]
या
विश्वकवि रवीन्द्र की सबसे प्रसिद्ध रचना कौन-सी है? [2011]
या
रवीन्द्रनाथ को नोबेल पुरस्कार किस रचना पर मिला? [2007]
या
रवीन्द्रनाथ को किस पुस्तक पर कौन-सा पुरस्कार दिया गया था? [2010]
उत्तर :
गीताञ्जलि महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा बांग्ला भाषा में लिखे गये गीतों का संकलन है। यह महाकवि की एक अत्यधिक विशिष्ट रचना है। इसका अंग्रेजी अनुवाद; जो कि स्वयं रवीन्द्रनाथ के द्वारा ही। किया गया; को सन् 1913 ईस्वी में विदेशियों द्वारा ‘नोबेल पुरस्कार’ से पुरस्कृत किया गया।

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प्रश्न 2.
विश्वकवि रवीन्द्र का संक्षिप्त जीवन-परिचय दीजिए।
या
विश्वकवि रवीन्द्र का परिचय दीजिए। या कविवर रवीन्द्र का जन्म कब और कहाँ हुआ था? [2008]
या
विश्वकवि रवीन्द्र के माता-पिता का नाम लिखिए। [2010, 12, 13]
या
कवीन्द्ररवीन्द्र की प्रमुख रचनाओं/कृतियों के नाम लिखिए। [2006,08, 10]
उत्तर :
रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई, सन् 1861 ईस्वी में कलकत्ता नगर के एक सम्भ्रान्त और समृद्ध ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम देवेन्द्रनाथ तथा माता का नाम शारदा देवी था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। बाद में इन्होंने स्कूल में प्रवेश ले लिया, लेकिन वहाँ इनका मन नहीं लगा। 17 वर्ष की अवस्था में ये अपने बड़े भाई के साथ इंग्लैण्ड गये। वहाँ इन्होंने दो वर्ष के निवास में पाश्चात्य संगीत का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया। इन्होंने शैशव संगीत, प्रभात संगीत, (UPBoardSolutions.com) सान्ध्य संगीत (गीति काव्य); रुद्रचण्ड, वाल्मीकि-प्रतिभा (गीति नाट्य), विसर्जन, राजर्षि, चोखेरबाली, चित्रांगदा, कौड़ी ओकमल, गीताञ्जलि इत्यादि बहुत-से ग्रन्थों की रचना की। महात्मा गाँधी इन्हें अपना गुरु मानते थे। सन् 1941 ईस्वी में 7 अगस्त को इनका पार्थिव शरीर पंचतत्त्व में विलीन हो गया।

प्रश्न 3.
रवीन्द्रनाथ टैगोर के सांस्कृतिक और शिक्षा के क्षेत्र में योगदान का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सांस्कृतिक क्षेत्र में संगीत और नृत्य विधाओं में एक नवीन शैली का प्रचलन किया, जिसे रवीन्द्र-शैली के नाम से जाना जाता है। एक शिक्षाविद् के रूप में भी इन्होंने नवीन विचारों का प्रारम्भ किया। इनके विचारों का पुंजस्वरूप भवन ‘विश्वभारती के रूप में हमारे समक्ष विद्यमान है। यहाँ पर शिक्षा की आश्रम शैली, नवीन शैली के साथ समन्वित रूप में विद्यमान है।

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प्रश्न 4.
विश्वकवि रवीन्द्र के बाल्य-जीवन का उल्लेख कीजिए। या* * बचपन में बालक रवीन्द्रनाथ का मेन क्यों खिन्न रहता था? [2009]
उत्तर :
रवीन्द्रनाथ का जन्म अतुल धनराशि तथा वैभव से सम्पन्न एक अत्यधिक धनाढ्य ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सेवकों द्वारा पालित, पोषित और रक्षित होने के कारण ये अपने जीवन को बन्धनपूर्ण मानते थे। स्वतन्त्रतापूर्वक घूमने और खेलने का अवसर न मिलने के कारण ये पर्याप्त खिन्नता का अनुभव करते थे। इनके वैभवशाली भवन के पीछे एक सुन्दर सरोवर था जिसके एक ओर नारियल के वन और दूसरी ओर बरगद का वृक्ष था। भवन के झरोखे में बैठकर रवीन्द्रनाथ इस प्राकृतिक दृश्य को देखकर बहुत प्रसन्न होते थे। प्रात:काल के समय सरोवर में स्त्री-पुरुष स्नान के लिए आते थे। उनकी विविध रंग-बिरंगी पोशाकों को देखकर बालक रवीन्द्रनाथ प्रसन्न हो जाते थे। सायंकाल में यह सरोवर पक्षियों की चहचहाहट से गुंजित हो उठता था। यह सब कुछ बालक रवीन्द्रनाथ को बहुत सुखद प्रतीत होता था।

प्रश्न 5.
‘विश्वकवि’ संज्ञा किस आधुनिक कवि को दी गयी है? [2010,11]
उत्तर :
‘विश्वकवि’ संज्ञा आधुनिक कवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर को दी गयी है।

प्रश्न 6.
विधिशास्त्र का अध्ययन करने के लिए रवीन्द्रनाथ किसके साथ और कहाँ गये? [2006]
उत्तर :
विधिशास्त्र का अध्ययन करने के लिए रवीन्द्रनाथ अपने बड़े भाई न्यायाधीश सत्येन्द्रनाथ के साथ सन् 1878 ई० में लन्दन गये।

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प्रश्न 7.
विश्वकवि रवीन्द्र की तुलना किन-किन कवियों से की गयी है? [2010]
उत्तर :
विश्वकवि रवीन्द्र की तुलना अंग्रेजी कवि शेक्सपियर, संस्कृत कवि कालिदास और हिन्दी कवि गोस्वामी तुलसीदास से की गयी है।

प्रश्न 8.
‘विश्वभारती’ का परिचय दीजिए। [2009]
उत्तर :
एक शिक्षाविद् के रूप में रवीन्द्रनाथ ने नवीन विचारों का सूत्रपात किया था। उनके प्रयोगात्मकशिक्षात्मक विचारों का प्रतिफल विश्वभारती के रूप में अपना मस्तक उन्नत किये हुए आज भी सुशोभित हो रहा है। इस संस्था में अध्ययन-अध्यापन की आश्रम-व्यवस्था तथा नवीन (UPBoardSolutions.com) शैली का समन्वय है।।

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प्रश्न 9.
विश्वकवि रवीन्द्र की साहित्यिक प्रतिभा का परिचय दीजिए।
उत्तर :
[
संकेत ‘पाठ-सारांश’ के उपशीर्षकों’ ‘साहित्यिक प्रतिभा के धनी’ एवं ‘रचनाएँ की सामग्री को संक्षेप में लिखें।]

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi शैक्षिक निबन्ध

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शैक्षिक निंबन्ध

37. समाचार-पत्र

सम्बद्ध शीर्षक

  • समाचार-पत्रों का महत्त्व

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. समाचार-पत्रों का आविष्कार और विकास;
  3. समाचार-पत्रों के विविध रूप,
  4. समाचार-पत्रों का महत्त्व,
  5. समाचार-पत्रों से लाभ,
  6. समाचार-पत्रों से हानियाँ,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना जिज्ञासा एवं कौतूहल मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। अपने आस-पास की एवं सुदूर स्थानों की नित नवीन घटनाओं को सुनने व जानने की मनुष्य की प्रबल इच्छा रहती है। पहले प्रायः व्यक्ति दूसरों से सुनकर या पत्र आदि के द्वारा (UPBoardSolutions.com) अपनी जिज्ञासा का समाधान कर लेते थे, परन्तु अब विज्ञान के

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आविष्कार एवं मुद्रण-यन्त्रों के विकास से समाचार-पत्र व्यक्ति की जिज्ञासा को शान्त करने के प्रमुख साधन हो गये हैं। यह एक ऐसा साधन है, जिसके द्वारा हम घर बैठे अपने समाज, राष्ट्र एवं विश्व की नवीनतम घटनाओं से अवगत रह सकते हैं। समाचार-पत्रों से पूरा विश्व एक परिवार बन गया है, जिसमें सभीं देश एक-दूसरे के सुख-दु:ख में सम्मिलित होते हैं।

समाचार-पत्रों का आविष्कार और विकास समाचार-पत्र का आविष्कार सर्वप्रथम इटली में हुआ। तत्पश्चात् अन्य देशों में भी धीरे-धीरे समाचार-पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। भारत में समाचार-पत्र का प्रादुर्भाव अंग्रेजों के भारत आगमन पर प्रेस की स्थापना होने से माना जाता है। हिन्दी में ‘उदन्त मार्तण्ड’ नाम से पहला समाचार-पत्र निकला। शनैः-शनैः भारत में समाचार-पत्रों का विकास हुआ और हिन्दी, अंग्रेजी तथा विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं में अनगिनत समाचार-पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ। हिन्दी में आज नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, जनसत्ता, पंजाब केसरी, अमर उजाला, दैनिक जागरण, वीर अर्जुन, आज, दैनिक भास्कर आदि समाचार-पत्रों को चरम विकास उनकी बढ़ती हुई माँग का सूचक है।

समाचार-पत्रों के विविध रूप-आज देशी एवं विदेशी कितनी ही भाषाओं में समाचार-पत्र, प्रकाशित हो रहे हैं। इनमें से कुछ समाचार-पत्र प्रतिदिन प्रकाशित होते हैं, तो कुछ साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक, अर्द्ध-वार्षिक एवं वार्षिक। नये-नये समाचार-पत्र निकलते ही जा रहे हैं। आजकल प्रायः सभी समाचार-पत्र मनोरंजक सामग्री; यथा-लेख, कहानी, फैशन, स्वास्थ्य, खेल, ज्योतिष आदि; को अपने पत्र में नियमित स्थान देते हैं।

समाचार-पत्रों का महत्त्व-आज समाचार-पत्रों का महत्त्व सर्वविदित है। आज ‘प्रेस’ को लोकतन्त्र के चार स्तम्भों में से एक प्रमुख स्तम्भ माना जाता है। समाचार-पत्रों ने केवल भारतीय जनजीवन को ही प्रभावित नहीं किया है, अपितु भारतीयों में राष्ट्रीयता का संचार भी किया है। आधुनिक युग में समाचार-पत्रों की उपयोगिता ‘दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ गयी है। इनके द्वारा अपने देश के ही नहीं, विदेशों के समाचार भी घर बैठे प्राप्त होते हैं। सामाजिक उत्थान, राष्ट्रीय उन्नति तथा जन-कल्याण हेतु समाचार-पत्रों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ये सामाजिक कुरीतियों, अन्धविश्वासों और अपराधों का प्रकाशन कर उनकी रोकथाम में मदद करते हैं। ये विभिन्न राजनीतिक समस्याओं को जनता के सम्मुख लाकर राष्ट्रीय जागरण का तथा जनमत का निर्माण करके लोकतन्त्र के सच्चे रक्षक का कार्य करते हैं।

समाचार-पत्रों से लाभ-
( क) ज्ञानवर्द्धन का साधन-देश-विदेश में घटित होने वाली घटनाओं की जानकारी तथा भौगोलिक-सामाजिक परिवर्तनों का ज्ञान समाचार-पत्रों के माध्यम से मिल जाता है। विज्ञान, साहित्य, राजनीति, इतिहास, भूगोल आदि अनेक क्षेत्रों में हुई प्रगति का ज्ञान समाचार-पत्र ही कराते हैं। समाचार-पत्रों का सूक्ष्म अध्ययन करने वाला व्यक्ति सामान्य ज्ञान में कभी पीछे नहीं रहता।।
(ख) मनोरंजन का साधन–समाचारों की जानकारी से मानसिक सन्तुष्टि प्राप्त होती है। इनमें प्रकाशित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक सामग्री विशेष रूप से मनोरंजन प्रदान करती है। यात्रा के समय पत्र-पत्रिकाएँ यात्रा को सुगम एवं मनोरंजक बनाती हैं।।
(ग) कुरीतियों की समाप्ति समाचार-पत्रों से सामाजिक कुरीतियों एवं बुराइयों को दूर करने में भी सहायता मिलती है। समाज में फैली अशिक्षा, दहेज, बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह आदि बुरी प्रथाओं का परिहार होता है। देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, शोषण, अनाचार और (UPBoardSolutions.com) अत्याचारों की घटनाओं को प्रकाशित कर असामाजिक तत्वों में भय उत्पन्न करने में सहायता मिलती है।
(घ) स्वस्थ जनमत का निर्माण-आज के प्रजातान्त्रिक युग में प्रत्येक राजनीतिक दल को अपनी विचारधारा जनता तक पहुँचानी होती है। स्वस्थ जनमत का निर्माण करने एवं राजनीतिक शिक्षा देने में समाचार-पत्रों का सर्वाधिक महत्त्व है। इस प्रकार समाचार-पत्र जनता और सरकार के बीच की कड़ी होते हैं।

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समाचार-पत्रों से हानियाँ–समाचार-पत्र जहाँ देश का कल्याण करते हैं; वहीं इनसे हानियाँ भी होती हैं। ये किसी पूँजीपति, राजनीतिक नेता और साम्प्रदायिक दल की सम्पत्ति होते हैं; अतः इनमें जो समाचार या सूचनाएँ प्रकाशित होती हैं, उन्हें वे अपनी स्वार्थ–पूर्ति के आधार पर भी तोड़-मरोड़कर प्रकाशित करते हैं। बहुत-से समाचार-पत्र अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए झूठी अफवाह, निराधार एवं सनसनीपूर्ण संमाचार, अभिनेत्रियों के अश्लील चित्र प्रकाशित करते हैं। इनमें प्रकाशित जातिगत, साम्प्रदायिक एवं प्रादेशिक विचार कभी-कभी राष्ट्रीय एकता में भी बाधक होते हैं।

उपसंहार-आज के युग में समाचार-पत्र को महत्त्वपूर्ण शक्ति-स्तम्भ माना जाता है। अतः समाचार-पत्रों को ऐसे लोगों के हाथ में केन्द्रित न होने दें, जो देश में गड़बड़ी, अव्यवस्था और विद्रोह फैलाना चाहते हैं। इनके अध्ययन से स्वतन्त्र चिन्तन में बाधा नहीं पहुँचनी चाहिए। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि समाचार-पत्रों के स्वामियों, सम्पादकों एवं पत्रकारों को किसी भी राजनीतिक दल के हाथों अपनी स्वतन्त्रता नहीं बेचनी चाहिए। ऐसा करने से ही वे अपनी लेखनी की स्वतन्त्रता को बचाये रख सकेंगे और अपना दायित्व निभाने में सफल होंगे। समाचार-पत्रों में निष्पक्ष और नि:स्वार्थ होकर पूरी ईमानदारी से विचार व्यक्त किये जाने चाहिए, जिससे समाज व राष्ट्र का कल्याण हो सके।

38. पुस्तकालय [2014]

सम्बद्ध शीर्षक

  • पुस्तकालय से लाभ [2012,13]
  • आदर्श पुस्तकालय
  • पुस्तकालय का महत्त्व [2014]
  • पुस्तकालय की उपयोगिता [2016]

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. पुस्तकालय का अर्थ,
  3. पुस्तकालयों के प्रकार,
  4. पुस्तकालय की उपयोगिता (लाभ),
  5. कुछ प्रसिद्ध पुस्तकालय,
  6. पुस्तकालयों के प्रति हमारे कर्तव्य,
  7. सुझाव,
  8. उपसंहार।

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प्रस्तावना-ज्ञान-पिपासा मानव का स्वाभाविक गुण है। इसी की तृप्ति के लिए वह पुस्तकों का अध्ययन करता है। पुस्तकालय वह भवन है, जहाँ अनेक पुस्तकों का विशाल भण्डार होता है। पुस्तकालय से बढ़कर ज्ञान-पिपासा को शान्त करने का कोई (UPBoardSolutions.com) अन्य उत्तम साधन नहीं है। यही पुस्तकें हमें असत् से सत् की ओर तथा अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ने की प्रेरणा देती हैं और अन्तत: हमारी अन्त:प्रकृति में यह ध्वनि गूंज उठती है-” असतो मा सद् गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय।”

पुस्तकालय का अर्थ–पुस्तकालय का अर्थ है-पुस्तकों की घर। इसमें विविध विषयों पर लिखित व संकलित पुस्तकों का विशाल संग्रह होता है। पुस्तकालय सरस्वती का पावन मन्दिर है, जहाँ जाकर मनुष्य सरस्वती की कृपा से ज्ञान का दिव्य आलोक पाता है। इससे उसकी मानसिक शक्तियाँ विकसित होती हैं तथा उसके ज्ञान-नेत्र खुल जाते हैं। निर्धन व्यक्ति भी पुस्तकालय में विविध विषयों की पुस्तकों का अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त कर सकता है। महान् व्यक्तियों ने उत्तम पुस्तकों को सदैव प्रेरणास्रोत माना है और इनके द्वारा अनुपम ज्ञान प्राप्त किया है।

पुस्तकालयों के प्रकार–पुस्तकालय चार प्रकार के होते हैं–

  1. व्यक्तिगत,
  2. विद्यालय,
  3. सार्वजनिक तथा
  4. सरकारी।

व्यक्तिगत पुस्तकालयों से अधिक व्यक्ति लाभ नहीं उठा सकते। उनसे वही व्यक्ति लाभान्वित होते हैं, जिनकी वे सम्पत्ति हैं। विद्यालयों के पुस्तकालयों का उपयोग विद्यालय के छात्र और अध्यापक ही कर पाते हैं। इनमें अधिकांशत: विद्यार्थियों के उपयोग की ही पुस्तकें होती हैं। सरकारी पुस्तकालयों का उपयोग राजकीय कर्मचारी या विधान-मण्डलों के सदस्य ही कर पाते हैं। केवल सार्वजनिक पुस्तकालयों का ही उपयोग सभी व्यक्तियों के लिए होता है। इनमें घर पर पुस्तकें लाने के लिए। इनका सदस्य बनना पड़ता है। पुस्तकालय का एक महत्त्वपूर्ण अंग ‘वाचनालय’ होता है, जहाँ दैनिक समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएँ प्राप्त होती हैं, जिसे वहीं बैठकर पढ़ना होता है।

पुस्तकालय की उपयोगिता ( लाभ)-पुस्तकालय मानव-जीवन की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता हैं। वे ज्ञान, विज्ञान, कला और संस्कृति के प्रसार-केन्द्र होते हैं। पुस्तकालयों से अनेक लाभ हैं, उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं
(क) ज्ञान-वृद्धि-पुस्तकालय ज्ञान के मन्दिर होते हैं। ज्ञान-वृद्धि के लिए पुस्तकालयों से बढ़कर अन्य उपयोगी साधन नहीं हैं। पुस्तकालयों के द्वारा मनुष्य कम धन खर्च करके बहुमूल्य ग्रन्थों का अध्ययन कर असाधारण ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
(ख) सदगुणों का विकास-विद्वानों की पुस्तकों को पढ़कर महान् बनने, नवीन विचारों और नवीन चिन्तन की प्रेरणा प्राप्त होती है। रुचिकर पुस्तकें पढ़ने से नवीन स्फूर्ति एवं नवीन चेतना प्राप्त होती है। तथा कुवासनाओं, कुसंस्कारों और अज्ञान का नाश होता है। (UPBoardSolutions.com) पुस्तकालय में बालकों के लिए बाल-साहित्य भी उपलब्ध होता है, जिसको पढ़कर बच्चे भी अपने समय का सदुपयोग कर सकते हैं।
(ग) समाज का कल्याण-पुस्तकालय से व्यक्ति को तो लाभ होता ही है, सम्पूर्ण समाज का भी कल्याण होता है। प्रत्येक समाज एवं राष्ट्र प्राचीन साहित्य का अध्ययन करके नये सामाजिक नियमों का निर्माण कर सकता है। रूस के एक महत्त्वपूर्ण नेता लेनिन; जो रूस की प्रचलित व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन लाने में सहायक हुए; का अधिकांश समय पुस्तकों के अध्ययन में ही व्यतीत होता था।
(घ) श्रेष्ठ मनोरंजन एवं समय का सदुपयोग–घर पर खाली बैठकर गप्पे मारने की अपेक्षा पुस्तकालय में जाकर पुस्तकें पढ़ना अधिक उपयोगी होता है। इससे श्रेष्ठ ज्ञानार्जन के साथ पर्याप्त मनोरंजन भी होता है। मनोरंजन से रुचि का परिष्कार एवं ज्ञान की वृद्धि होती है।
(ङ) सत्संगति का लाभ–पुस्तकालय में पहुँचकर एक प्रकार से महान् विद्वानों, विचारकों तथा महापुरुषों से अप्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है। यदि हमें गाँधी, सुकरात, राम, कृष्ण, ईसा, महावीर आदि के श्रेष्ठ विचारों की संगति प्राप्त करनी है तो पुस्तकालय से उत्तम कोई अन्य स्थान नहीं है।

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कुछ प्रसिद्ध पुस्तकालय-देश में पुस्तकालयों की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। .. नालन्दा और तक्षशिला में भारत के अति प्रसिद्ध पुस्तकालय थे, जो कि विदेशी आक्रान्ताओं के द्वारा; हमारी प्राचीन संस्कृति को नष्ट करने के उद्देश्य से; नष्ट-भ्रष्ट कर दिये गये। इस समय भारत में कोलकाता, दिल्ली, मुम्बई, पटना, वाराणसी आदि स्थानों पर भव्य पुस्तकालय हैं, जहाँ पर शोधार्थी व सामान्य अध्येता भी उचित औपचारिकताओं का निर्वाह करके अध्ययन कर सकते हैं।

पुस्तकालयों के प्रति हमारे कर्तव्य-पुस्तकालय समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। उनके विकास से देशवासियों में नवचेतना का उदय होता है। पुस्तकालयों को क्षति पहुँचाने की प्रवृत्ति समाज के लिए घातक है; अत: पाठकों का कर्तव्य है कि जो पुस्तकें पुस्तकालय से ली जाएँ, उन्हें निश्चित समय पर लौटाया जाए। उन पर नाम लिखना, स्याही के धब्बे डालना, पन्ने या कतरन फाड़ना, पुस्तकों की साज-सज्जा को नष्ट करना आदि अनैतिकता तथा पुस्तकालय की क्षति है। पुस्तकालयों के नियमों का पालन करना एवं उन्हें दिनानुदिन विकसित करने में सहायक होना हमारा परम कर्तव्य है।

सुझाव–हमारे देश के गाँवों में जहाँ लगभग दो-तिहाई जनसंख्या निवास करती है, पुस्तकालयों का नितान्त अभाव है। ग्रामवासियों की निरक्षरता ओर अज्ञानता का मूल कारण भी यही है। ग्रामविकास की योजनाओं के अन्तर्गत प्रत्येक गाँव में जनसंख्या के आधार पर पुस्तकालयों का निर्माण होना चाहिए।

उपसंहार-जीवन की सच्ची उन्नति इसी बात में है कि हम पुस्तकालय के महत्त्व को समझे और उनसे लाभ उठाएँ। सुयोग्य नागरिकों के चरित्र-निर्माण एवं समाज के उत्थान हेतु पुस्तकालयों के विकास के लिए सतत प्रयत्न किये जाने चाहिए। पुस्तकालयों में संग्रहीत पुस्तकों के (UPBoardSolutions.com) माध्यम से ही हम अपने पूर्वजों की गौरवपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर से प्रेरणा प्राप्त करते हैं और उनके द्वारा स्थापित तेज और पुरुषार्थ को भावी पीढ़ी में उतारने को सचेष्ट होते हैं। इसलिए नियमित रूप से पुस्तकालयों में बैठकर अध्ययन करना हमारे आचरण का आवश्यक अंग होना चाहिए।

39. महापुरुष की जीवनी

सम्बद्ध शीर्षक

  • राष्ट्रपिता : महात्मा गाँधी
  • मेरे प्रिय नेता
  • किसी महापुरुष के अनुकरणीय कार्य [2011]

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. जीवन-परिचय एवं शिक्षा,
  3. दक्षिण अफ्रीका-गमन,
  4. भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के कर्णधार,
  5. गाँधीजी की मृत्यु,
  6. गाँधीजी का आदर्श व्यक्तित्व,
  7. वर्तमान समय में गाँधीजी की प्रासंगिकता,
  8. उपसंहार।।

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प्रस्तावना–प्राचीन काल से लेकर आज तक हमारे देश में अनेक महान् विभूतियों, युगपुरुषों तथा सन्त-महात्माओं ने जन्म लिया। महात्मा गाँधी का जन्म भी यहीं की पवित्र-पावन भूमि पर हुआ था। सत्य और अहिंसा का सहारा लेकर सम्पूर्ण श्व को शान्ति का पाठ पढ़ाने (UPBoardSolutions.com) वाली महान् आत्मा, जिसने प्रेम का महान् आदर्श प्रस्तुत किया, ऐसे महात्मा का नाम सभी भारतीयों द्वारा बड़े आदर से लिया जाता है। भारतवासी उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ या ‘बापू’ कहकर पुकारते हैं। वे अहिंसा के अवतार, सत्य के देवता, अछूतों के प्राणाधार एवं राष्ट्र के पिता थे।

जीवन-परिचय एवं शिक्षा–महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर, सन् 1869 ई० को काठियावाड़ के अन्तर्गत पोरबन्दर नामक स्थान के एक सम्भ्रान्त परिवार में हुआ था। इनका पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गाँधी था। इनके पिता करमचन्द गाँधी राजकोट रियासत में दीवान थे। इनकी माता पुतलीबाई अत्यन्त धर्मपरायण, पूजा-पाठ में श्रद्धा रखने वाली एक आदर्श महिला थीं।

गाँधीजी की प्रारम्भिक शिक्षा राजकोट में हुई। वे मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करके सन् 1888 ई० में कानून का अध्ययन करने के लिए इंग्लैण्ड चले गये। सन् 1891 ई० में गाँधीजी बैरिस्टर होकर भारत लौटे और बम्बई में वकालत करना आरम्भ किया। ये झूठ से काम लेना पाप समझते थे और गरीबों के मुकदमों की पैरवी नि:शुल्क किया करते थे।

दक्षिण अफ्रीका-गमन—सन् 1893 ई० में एक गुजराती व्यवसायी के मुकदमे की पैरवी करने के लिए गाँधीजी को दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। वहाँ की सरकार द्वारा भारतीयों के साथ अपमान व भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता था। गाँधीजी को स्वयं नाना प्रकार की अवमाननाएँ सहन करनी पड़ीं।। उन्होंने भारतीयों की राजनीतिक और सामाजिक दशा सुधारने के लिए ‘नैटाल कांग्रेस की स्थापना की और इस भेदभाव के विरुद्ध सत्याग्रह आन्दोलन आरम्भ किया। वहाँ उन्हें अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा, परन्तु वे अपने दृढ़ संकल्प से अविचलित रहे। बीस वर्ष अफ्रीका में रहकर गाँधीजी भारत लौट आये।।

भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के कर्णधार–भारत लौटने पर गाँधीजी ने पराधीन भारतीयों की दुर्दशा देखी। उन्होंने पराधीन भारत की बेड़ियों को काटने का निश्चय किया और अहमदाबाद के निकट साबरमती के तट पर एक आश्रम की स्थापना की और यहीं रहकर करोड़ों भारतीयों का मार्गदर्शन किया। गाँधीजी ने यहाँ भी अंग्रेजों के विरुद्ध दक्षिण अफ्रीका में आजमाये गये सत्याग्रह और अहिंसा को असहयोग की नयी धार चढ़ाते हुए आजमाया। उनके नेतृत्व से भारतीयों में एक नयी स्फूर्ति आ गयी। उनके एक आह्वान पर लोग सत्याग्रह में भाग लेकर अपने प्राण निछावर करने के लिए स्वतन्त्रता-संग्राम में कूद पड़े

चल पड़े जिधर दो डगमग में, बढ़ गये कोटि पग उसी ओर।
पड़ गयी जिधर भी एक दृष्टि, गड़ गये कोटि दृग उसी ओर ॥

गाँधीजी ने मदनमोहन मालवीय, पं० मोतीलाल नेहरू, चितरंजन दास आदि के सहयोग से राष्ट्रव्यापी आन्दोलन छेड़ दिया। गाँधीजी को कांग्रेस का सभापति बनाया गया। इन्होंने कांग्रेस के सम्मुख खादी-प्रचार, अछूतोद्धार और मुस्लिम एकता की योजना रखी। सन् 1929 ई० में (UPBoardSolutions.com) ‘साइमन कमीशन’ का बहिष्कार किया गया। सन् 1930 ई० में गाँधीजी ने डाण्डी में नमक सत्याग्रह करके ‘नमक-कानून’ को तोड़ा।

तदनन्तरं गाँधीजी कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में ‘गोलमेज कॉन्फ्रेन्स’ में भाग लेने इंग्लैण्ड गये। वहाँ से उनके लौटने पर आन्दोलन ने पुनः जोर पकड़ा। सन् 1942 ई० में गाँधीजी ने अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ का नारा लगाया तथा भारतीयों के लिए ‘करो या मरो’ का आह्वान किया। गाँधीजी के आह्वान पर भारतीय लोगों ने प्रशासन-शिक्षा आदि सभी क्षेत्रों में असहयोग प्रारम्भ कर दिया। इससे अंग्रेजों को यह समझ में आने लगा। कि भारत को अब अधिक समय तक गुलाम नहीं रखा जा सकता। अन्ततः उन्होंने भारत का दो भागों में विभाजन करके 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत की स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी।

गाँधीजी की मृत्यु-गाँधीजी की मानवतावादी नीति को मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति समझकर एक भ्रान्त युवक नाथूराम गोडसे ने प्रार्थना को जाते समय 30 जनवरी, 1948 ई० को गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। ‘हे राम’ का उच्चारण करता हुआ मानवता का यह पोषक सदा के लिए सो गया।

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गाँधीजी का आदर्श व्यक्तित्व-गाँधीजी केवल राजनीतिक नेता ही नहीं थे, वरन् वे समाजसुधारक एवं ग्राम-सुधारक भी थे। उन्होंने समाज में हरिजनों की दयनीय दशा देखकर उनका उद्धार किया। समाज में नारी को सम्मानपूर्ण स्थान दिलाने का भरसक प्रयत्न किया। उनका विश्वास था कि भारत गाँवों में बसा हुआ है और गाँवों की उन्नति से ही देश की उन्नति हो सकती है।

गाँधीजी का व्यक्तित्व महान् था। उनकी ‘कथनी और करनी’ में कोई अन्तर नहीं था। ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ उनके जीवन का मूलमन्त्र था। ‘सत्य और अहिंसा’ उनके दिव्य अस्त्र थे। ‘प्रेम और शान्ति उनका सन्देश था। ‘रामराज्य’ उनका स्वप्न था। ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं उनके हृदय के उद्गार थे।

वर्तमान समय में गाँधीजी की प्रासंगिकता–आज महापुरुषों को उनकी जयन्ती अथवा पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि अर्पित करना एक औपचारिकता मात्र रह गयी है। गाँधीजी का अनुयायी होने का दम भरने वाले नेता ही आज छल-छद्म, धोखाधड़ी व रिश्वतखोरी जैसे भ्रष्टाचार के मामलों में आकण्ठ डूबे दिखाई दे रहे हैं। गाँधीजी के देश में ही उनका गाँधीवाद नष्ट हो रहा है और लोकतन्त्र लड़खड़ा रहा है।

गाँधीजी ने स्वाधीनता और स्वावलम्बन के लिए विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर उनकी होली जलायी थी और राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम से स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ी थी, पर आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, विदेशी भाषा और विदेशी वस्तुओं को कण्ठहार बनाया जा रहा है। (UPBoardSolutions.com) अहिंसा के पुजारी और शान्ति के दूत के ही देश में हिंसा, हत्या, अपहरण और बलात्कार आम हो गये हैं।

उपसंहार-संसार में अनेक महापुरुष हुए हैं, पर वस्तुतः गाँधीजी विश्व के सर्वश्रेष्ठ महापुरुषों में एक थे। यदि ईसा और बुद्ध धर्म-प्रचारक थे, वाशिंगटन तथा लेनिन कुशल राजनीतिज्ञ थे, कबीर और तुलसी जनता को भक्ति-रस में स्नान कराने वाले सन्त थे तो राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी एक साथ श्रेष्ठ सन्त, राजनीति विशारद, परम धर्मात्मा, समाज-सुधारक और मानवता के पोषक थे। गाँधीजी जैसे महापुरुष अमर होते हैं। तथा स्वार्थ, हिंसा और अनैतिकता के अन्धकार में भटकती मानवता के लिए प्रकाश-स्तम्भ के तुल्य होते हैं।

40. डॉ० ए०पी०जे० अब्दुल कलाम

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. शैक्षिक उपलब्धियाँ,
  3. जीवन की सफलताएँ,
  4. प्रेरणा के स्रोत,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना-तमिलनाडु के मध्यमवर्गीय परिवार में डॉ० ए०पी०जे० अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्टूबर, 1931 ई० को हुआ था। जिनका पूरा नाम-अबुल पाकिर जैनुलाब्दीन अबुल कलाम था। इनके पिता का नाम जैनुलाब्दीन था जो मछुआरों को किराये पर नाव देने का काम करते थे। इनको बचपन से ही पायलट बनकर आसमान की अनन्त ऊँचाइयों को छूने का सपना था। अपने इस सपने को साकार करने के लिए इन्होंने अखबार तक बेचा तथा (UPBoardSolutions.com) मुफलिसी में भी अपनी पढ़ाई जारी रखी और संघर्ष करते हुए उच्च शिक्षा हासिल कर पायलट की भर्ती परीक्षा में सम्मिलित हुए। उस परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बावजूद उनका चयन नहीं हो सका, क्योंकि उस परीक्षा के द्वारा केवल आठ पायलटों का चयन होना था और सफल अभ्यर्थियों की सूची में उनका नौंवा स्थान था। इस घटना से निराशा होने पर भी उन्होंने हार नहीं मानी और दृढ़-निश्चय के बल पर उन्होंने सफलता की ऐसी बुलन्दियाँ हासिल कीं, जिनके सामने सामान्य पायलटों की उड़ानें अत्यन्त तुच्छ नजर आती हैं।

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शैक्षिक उपलब्धियाँ-उनका व्यक्तित्व एक तपस्वी और कर्मयोगी का रहा। इन्होंने संघर्ष करते हुए प्रारम्भिक शिक्षा रामेश्वरम् के प्राथमिक स्कूल से प्राप्त करने के बाद रामनाथपुरम् के शवट्ज़ हाईस्कूल से मैट्रिकुलेशन किया। इसके बाद वे उच्च शिक्षा के लिए तिरुचिरापल्ली चले गए। वहाँ के सेन्ट जोसेफ कॉलेज से उन्होंने बी.एस-सी. की उपाधि प्राप्त की। बी. एस-सी. के बाद 1958 ई० में उन्होंने मद्रास इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से एयरोनॉटिकल इन्जीनियरिंग में डिप्लोमा किया।

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉ० कलाम ने हावरक्राफ्ट परियोजना एवं विकास संस्थान में प्रवेश किया। इसके बाद 1962 ई० में वे भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन में आए, जहाँ उन्होंने सफलतापूर्वक कई उपग्रह प्रक्षेपण परियोजनाओं में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। परियोजना निदेशक के रूप में भारत के पहले स्वदेशी उपग्रह प्रक्षेपण यान एसएलवी 3 के निर्माण में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसी प्रक्षेपण यान से जुलाई, 1980 ई० में रोहिणी उपग्रह का अन्तरिक्ष में सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया गया। 1982 ई० में वे भारतीय रक्षा अनुसन्धान एवं विकास संगठन में वापस निदेशक के तौर पर आए तथा अपना सारा ध्यान गाइडेड मिसाइल के विकास पर केन्द्रित किया। अग्नि मिसाइल एवं पृथ्वी मिसाइल के सफल परीक्षण का श्रेय भी इन्हीं को जाता है। उस महान व्यक्तित्व ने भारत को अनेक मिसाइलें प्रदान कर इसके सामरिक दृष्टि से इतना सम्पन्न कर दिया कि पूरी दुनिया इन्हें ‘मिसाइल मैन’ के नाम से जानने लगी।

जीवन की सफलताएँ-जुलाई, 1992 ई० में वे भारतीय रक्षा मन्त्रालय में वैज्ञानिक सलाहकार नियुक्त हुए। उनकी देखरेख में भारत ने 1998 ई० में पोखरण में दूसरा सफल परमाणु परीक्षण किया और परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों की सूची में शामिल हुआ। वर्ष 1963-64 के दौरान कलाम ने अमेरिका के अन्तरिक्ष संगठन नाशा की भी यात्रा की। वैज्ञानिक के रूप में कार्य करने के दौरान अलग-अलग प्रणालियों को एकीकृत रूप देना उनकी विशेषता थी। उन्होंने अन्तरिक्ष एवं सामरिक प्रौद्योगिकी का उपयोग कर नए उपकरणों का निर्माण भी किया।

डॉ० कलाम की उपलब्धियों को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें 1981 ई० पद्मभूषण और 1990 ई० में पदम् विभूषण से सम्मानित किया। इसके बाद उन्हें विश्वभर के 30 से अधिक विश्वविद्यालयों ने डॉक्टरेट की मानद उपाधि से विभूषित किया। 1997 ई० में भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया।

एक दिन ऐसा भी आया जब उन्होंने भारत के सर्वोच्च पद पर 26 जुलाई, 2002 को ग्यारहवें राष्ट्रपति के रूप में पदभार ग्रहण किया। उन्होंने इस पद को 25 जुलाई, 2007 तक सुशोभित किया। वे राष्ट्रपति भवन को सुशोभित करने वाले प्रथम वैज्ञानिक हैं। राष्ट्रपति के रूप में (UPBoardSolutions.com) अपने कार्यकाल में उन्होंने कई देशों का दौरा किया एवं भारत का शान्ति का सन्देश दुनिया भर को दिया। इस दौरान उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया एवं अपने व्याख्यानों द्वारा देश के नौजवानों का मार्गदर्शन करने एवं उन्हें प्रेरित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया।

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सीमित संसाधनों एवं कठिनाइयों के होते हुए भी उन्होंने भारत को अन्तरिक्ष अनुसन्धान एवं प्रक्षेपास्त्रों के क्षेत्र में एक ऊँचाई प्रदान की। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कलाम जी का व्यक्तिगत जीवन बेहद अनुशासित रहा। वे शाकाहारी थे तथा कुरान एवं भगवद्गीता दोनों का अध्ययन करते थे। संगीत से उनका बेहद लगाव था। कलाम ने तमिल भाषा में कविताएँ भी लिखीं। जिनका अनुवाद विश्व की कई भाषाओं में हो चुका है। इसके अतिरिक्त उन्होंने कई प्रेरणास्पद पुस्तकों की भी रचना की है। भारत 2020 : नई सहस्राब्दी । के लिए एक दृष्टि’, ‘इग्नाइटेड माइण्ट्स : अनलीशिंग द पावर विदिन इण्डिया’, ‘इण्डिया माय ड्रीम’, ‘विंग्स ऑफ फायर’ उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। उनकी पुस्तकों का कई भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनका मानना है कि भारत तकनीकी क्षेत्र में पिछड़ जाने के कारण ही अपेक्षित उन्नति-शिखर पर नहीं पहुंच पाया है। इसलिए अपनी पुस्तक ‘भारत 2020 : नई सहस्राब्दी के लिए एक दृष्टि’ के द्वारा उन्होंने भारत के विकास-स्तर को 2020 तक विज्ञान के क्षेत्र में अत्याधुनिक करने के लिए देशवासियों को एक विशिष्ट दृष्टिकोण प्रदान किया। यही कारण है कि वे देश की नई पीढ़ी के लोगों के बीच काफी लोकप्रिय रहे हैं।

प्रेरणा के स्रोत–पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम हमेशा से युवाओं को ऊर्जावान बनाने के लिए उनका हौंसला बढ़ाते रहते थे। युवाओं के उज्ज्वल भविष्य के लिए उनकी कहीं कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें अपनाकर कोई भी छात्र बुलन्दियों को छू सकता है। उनकी कही बातें हमेशा युवाओं का मार्गदर्शन करती रहेंगी।

कलाम ने कहा था

चलो हम अपना आज कुर्बान करते हैं जिससे हमारे बच्चों को बेहतर कल मिले।.।।
भगवान उन्हीं की मदद करता है जो कड़ी मेहनत करते हैं। यह सिद्धान्त स्पष्ट होना आवश्यक है।
सपने सच हों, इसके लिए सपने देखना जरूरी है।
छात्रों को प्रश्न जरूर पूछना चाहिए, यह छात्र का सर्वोत्तम गुण है।
अगर एक देश को भ्रष्टाचार मुक्त होना है तो मैं यह महसूस करता हूँ कि हमारे समाज में तीन ऐसे लोग हैं जो ऐसा कर सकते हैं, ये हैं-पिता, माता और शिक्षक।
युवाओं के लिए कलाम का विशेष संदेश था—अलग ढंग से सोचने का साहस करो, आविष्कार का साहस करो. अज्ञात पथ पर चलने का साहस करो. असम्भव को खोजने का साहस करो और समस्याओं को जीतो और सफल बनो। ये वे महान गुण हैं जिनकी दिशा में तुम अवश्य काम करो।
हमें हार नहीं माननी चाहिए और समस्याओं को हम पर हावी नहीं होना चाहिए।

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उपसंहार-डॉ० कलाम के निधन से समाज को जो अपूरणीय क्षति हुई है, उसे भर पाना नामुमकिन है, परन्तु उनके आदर्शों पर चलकर हम उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि अवश्य दे सकते हैं। ऐसे युगपुरुष, महान वैज्ञानिक, दार्शनिक, कर्मयोगी और खुशहाल भारत के स्वप्नदृष्टा, जिनके व्यक्तित्व से देश की आने वाली पीढ़ियाँ प्रेरणा लेती रहेंगी।

41. छात्र और अनुशासन [2013, 14, 15, 16]

सम्बद्ध शीर्षक

  • विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का महत्त्व [2013]
  • विद्यार्थी जीवन में अनुशासन [2011, 16]
  • जीवन में अनुशासन का महत्त्व [2018]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. विद्यार्थी और विद्या,
  3. अनुशासन का स्वरूप और महत्त्व,
  4. अनुशासनहीनता के कारण,
  5. निवारण के उपाय,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना विद्यार्थी देश का भविष्य हैं। देश के प्रत्येक प्रकार का विकास विद्यार्थियों पर ही निर्भर है। विद्यार्थी जाति, समाज और देश का निर्माता होता है; अतः विद्यार्थी का चरित्र उत्तम होना बहुत आवश्यक है। उत्तम चरित्र अनुशासन से ही बनता है। अनुशासन जीवन का प्रमुख (UPBoardSolutions.com) अंग और विद्यार्थी जीवन की आधारशिला है। व्यवस्थित जीवन व्यतीत करने के लिए मात्र विद्यार्थी ही नहीं अपितु प्रत्येक मनुष्य के लिए अनुशासित होना अति आवश्यक है। आज विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता की शिकायत सामान्य-सी बात हो गयी है। इससे शिक्षा-जगत् ही नहीं, अपितु सारा समाज प्रभावित हुआ है।

विद्यार्थी और विद्या-‘विद्यार्थी’ का अर्थ है-‘विद्या का अर्थी’ अर्थात् विद्या प्राप्त करने की कामना करने वाला। विद्या लौकिक या सांसारिक जीवन की सफलता का मूल आधार है, जो गुरु-कृपा से प्राप्त होती है।

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संसार में विद्या सर्वाधिक मूल्यवान् वस्तु है, जिस पर मनुष्य के भावी जीवन का सम्पूर्ण विकास तथा सम्पूर्ण नति निर्भर करती है। इसी कारण महाकवि भर्तृहरि विद्या की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि “विद्या ही मनुष्य का श्रेष्ठ स्वरूप है, विद्या भली-भाँति छिपाया हुआ धन है (जिसे दूसरा चुरा नहीं सकता) । विद्या ही सांसारिक भोगों को तथा यश और सुख को देने वाली है, विद्या गुरुओं की भी गुरु है। विद्या ही श्रेष्ठ ५. देवता है। राजदरबार में विद्या ही आदर दिलाती है, धन नहीं। अत: जिसमें विद्या नहीं, वह निरा पशु है। इस अमूल्य विद्यारूपी रत्न को पाने के लिए इसका जो मूल्य चुकाना पड़ता है, वह है तपस्या। इस तपस्या का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कवि कहता है

सुखार्थिनः कुतो विद्या, कुतो विद्यार्थिनः सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्या, विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥

अनुशासन का स्वरूप और महत्त्व-‘अनुशासन’ का अर्थ है-बड़ों की आज्ञा (शासन) के पीछे (अनु) चलना। ‘अनुशासन का अर्थ वह मर्यादा है जिनका पालन ही विद्या प्राप्त करने और उसका उपयोग करने के लिए अनिवार्य होता है। अनुशासन का भाव सहज रूप से विकसित किया जाना चाहिए। थोपे जाने पर अथवा बलपूर्वक पालन कराये जाने पर यह लगभग अपना उद्देश्य खो देता है। विद्यार्थियों के प्रति प्रायः सभी को यह शिकायत रहती है कि वे अनुशासनहीन होते जा रहे हैं, किन्तु शिक्षक वर्ग को भी इसका कारण ढूंढ़ना चाहिए कि क्यों विद्यार्थियों की उनमें श्रद्धा विलुप्त होती जा रही है।

अनुशासनहीनता के कारण-वस्तुत: विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता एक दिन में पैदा नहीं हुई है। इसके अनेक कारण हैं, जिन्हें मुख्यत: निम्नलिखित चार वर्गों में बाँटा जा सकता है
(क) पारिवारिक कारण–बालक की पहली पाठशाला उसका परिवार है। माता-पिता के आचरण का बालक पर गहरा प्रभाव पड़ता है। आज बहुत-से ऐसे परिवार हैं जिनमें माता-पिता दोनों नौकरी करते हैं या अलग-अलग व्यस्त रहते हैं। इससे बालक उपेक्षित होकर विद्रोही बन जाता है।
(ख) सामाजिक कारण–विद्यार्थी जब समाज में चतुर्दिक् व्याप्त भ्रष्टाचार, घूसखोरी, सिफारिशबाजी, (UPBoardSolutions.com) भाई-भतीजावाद, फैशनपरस्ती, विलासिता और भोगवाद अर्थात् हर स्तर पर व्याप्त अनैतिकता को देखता है तो वह विद्रोह कर उठता है और अध्ययन की उपेक्षा करने लगता है।
(ग) राजनीतिक कारण-छात्र-अनुशासनहीनता का एक बहुत बड़ा कारण दूषित राजनीति है। आज राजनीति जीवन के हर क्षेत्र पर छा गयी है। सारे वातावरण को उसने इतना विषाक्त कर दिया है कि स्वस्थ वातावरण में साँस लेना कठिन हो गया है।
(घ) शैक्षिक कारण—छात्र-अनुशासनहीनता का कदाचित् सबसे प्रमुख कारण यही है। अध्ययन के लिए आवश्यक अध्ययन-सामग्री, भवन एवं अन्यान्य सुविधाओं का अभाव, कर्तव्यपरायण एवं चरित्रवान् शिक्षकों के स्थान पर अयोग्य, अनैतिक और भ्रष्ट अध्यापकों की नियुक्ति, अध्यापकों द्वारा छात्रों की कठिनाइयों की उपेक्षा करके ट्यूशन आदि के चक्कर में लगे रहना या मनमाने ढंग से कक्षाएँ लेना आदि छात्र-अनुशासनहीनता के प्रमुख शैक्षिक कारण हैं।

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निवारण के उपाय-यदि शिक्षकों को नियुक्त करते समय सत्यता, योग्यता और ईमानदारी का आकलन अच्छी प्रकार कर लिया जाए तो प्राय: यह समस्या उत्पन्न ही न हो। प्रभावशाली, गरिमामण्डित, विद्वान् और प्रसन्नचित्त शिक्षक के सम्मुख विद्यार्थी सदैव अनुशासनबद्ध रहते हैं। पाठ्यक्रम को अत्यन्त सुव्यवस्थित वे सुनियोजित, रोचक, ज्ञानवर्धक एवं विद्यार्थियों के मानसिक स्तर के अनुरूप होना चाहिए।

छात्र-अनुशासनहीनता के उपर्युक्त कारणों को दूर करके ही हम इस समस्या का समाधान कर सकते हैं। सबसे पहले वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था को इतना व्यावहारिक बनाया जाना चाहिए कि शिक्षा पूरी करके विद्यार्थी अपनी आजीविका के विषय में पूर्णत: निश्चिन्त हो सके। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी के स्थान पर मातृभाषा हो। शिक्षा सस्ती की जाए और निर्धन किन्तु योग्य छात्रों को नि:शुल्क उपलब्ध करायी जाए। परीक्षा-प्रणाली स्वच्छ हो, जिससे योग्यता का सही और निष्पक्ष मूल्यांकन हो सके।

उपसंहार—छात्रों के समस्त असन्तोषों का जनक अन्याय है। इसलिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से अन्याय को मिटाकर ही देश में सच्ची सुख-शान्ति लायी जा सकती है। छात्र-अनुशासनहीनता का मूल भ्रष्ट राजनीति, समाज, परिवार और दूषित शिक्षा-प्रणाली में निहित है। इनमें सुधार लाकर ही हम विद्यार्थियों में व्याप्त अनुशासनहीनता की समस्या का स्थायी समाधान ढूंढ़ सकते हैं।

42. शिक्षा में क्रीड़ा का महत्त्व

सम्बद्ध शीर्षक

  • राष्ट्रीय जीवन में क्रीड़ा का महत्त्व
  • जीवन में खेलकूद का महत्त्व [2011, 12]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. जीवन में खेलों का महत्त्व,
  3. शिक्षा में खेलों का महत्त्व,
  4. राष्ट्रीय जीवन में खेलों का महत्त्व,
  5. भारत में खेलों की स्थिति,
  6. कुछ सुझाव,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना-मानव ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है। इसलिए समग्र मानवता को स्वस्थ, सबल और कर्म-निरत रखने के लिए खेलों को महत्त्व देना अत्यावश्यक है। महर्षि चरक का कथन है-‘ धर्मार्थकाम-मोक्षाणां आरोग्यं मूलकारणम्’; अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—ये चारों (UPBoardSolutions.com) सिद्धियाँ तभी प्राप्त होती हैं जब शरीर स्वस्थ रहे और शरीर को स्वस्थ रखने के लिए खेल आवश्यक हैं। खेलों की उपेक्षा करके जीवन के सन्तुलित विकास की कल्पना करना व्यर्थ है। यही कारण है कि प्रत्येक देश में स्वाभाविक रूप से खेलकूद (क्रीड़ा) और व्यायाम का महत्त्व होता है।

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जीवन में खेलों का महत्त्व–महाकवि कालिदास ने कहा है कि ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। तात्पर्य यह है कि किसी धर्म-साधना के लिए अथवा कर्तव्य-निर्वाह के लिए स्वस्थ और पुष्ट शरीर का होना अति आवश्यक है और शरीर को पुष्ट करने में खेलों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। खिलाड़ी का शरीर स्वस्थ होता है और जब शरीर स्वस्थ रहेगा तो मन और मस्तिष्क भी स्वस्थ रहेंगे। एक कहावत हैं— ‘A healthy mind is in a healthybody’; अर्थात् स्वस्थ मस्तिष्क स्वस्थ शरीर में ही सम्भव है। अतः स्पष्ट है कि जीवन में खेलों का अत्यधिक महत्त्व है। खेलों से भाईचारा तथा आत्मविश्वास बढ़ता है, सहिष्णुता आती है और मिलकर रहने की या जीवन जीने की भावना उत्पन्न होती है।

शिक्षा में खेलों का महत्त्व-शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का सर्वांगीण विकास करना है। सर्वांगीण विकास के अन्तर्गत शरीर, मन और मस्तिष्क भी आते हैं। खेलों से शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों का विकास होता है। विद्यार्थी ही नहीं, अपितु प्रत्येक व्यक्ति एक ही जैसी दिनचर्या व काम से ऊब जाता है। इसलिए ऐसी स्थिति में उसे परिवर्तन की जरूरत महसूस होती है। छात्रों की मन भी पुस्तकीय शिक्षा से अवश्य ही ऊबता है; अत: छात्रों की मानसिक स्थिति में परिवर्तन के लिए छात्रों को खेल खिलाना आवश्यक हो जाता है। इससे उनका मनोरंजन हो जाता है और एकरसता भी टूट जाती है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उनका शरीर पुष्ट और स्वस्थ हो जाता है।

खेलकूद अप्रत्यक्ष रूप से आध्यात्मिक विकास में भी सहायक होते हैं। खेलकूद से प्राप्त प्रफुल्लता और उत्साह से जीवन-संग्राम में जूझने की शक्ति प्राप्त होती है। इतना ही नहीं, सच्चा खिलाड़ी तो हानिलाभ, यश-अपयश, सफलता-असफलता को समान भाव से ग्रहण करने का भी अभ्यस्त हो जाता है।

राष्ट्रीय जीवन में खेलों का महत्त्व—किसी भी राष्ट्र का निर्माण भूमि, मनुष्य तथा उसकी संस्कृति के समन्वित रूप से होता है। इन सभी तत्त्वों में संस्कृति का विशेष महत्त्व है और खेल हमारी सांस्कृतिक विरासत भी हैं। सहयोग, प्रेम, अहिंसा, सहिष्णुता और एकता का इसमें विशेष महत्त्व है। ये सभी गुण खेलों के माध्यम से ही उत्पन्न होते हैं। खेल खेलते समय हमारी संकीर्ण मनोवृत्तियाँ; यथा-अस्पृश्यता, जातिवाद, धार्मिक विभेद, क्षेत्रवाद, भाषावाद आदि (UPBoardSolutions.com) अलगाववादी भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं और शुद्ध एकता की अनुभूति होती है। खेलों से राष्ट्रीयता की जड़े मजबूत होती हैं।

भारत में खेलों की स्थिति—हमें यह देखकर बहुत दु:ख होता है कि हमारे देश में खेलों की स्थिति बहुत दयनीय है। अन्तर्राष्ट्रीय खेलों में जब कभी अपने देश का नाम देखने का मन करता है तो दुर्भाग्यवश हमें अन्त से प्रारम्भ की ओर देखना पड़ता है। कभी हॉकी में सिरमौर रहा हमारा देश आज वहाँ भी शून्यांक पर दिखाई देता है। जसपाल राणा, पी० टी० उषा, लिएण्डर पेस के बाद कुछ ही आशा की किरणें हैं, जो कभी-कभी अन्धकार में प्रकाश बिखेरती हैं। खेलों में राजनीति के प्रवेश ने उनका स्तर घटिया कर दिया है।

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कैसी विडम्बना है कि विश्व की सर्वाधिक आबादी रखने वाले देशों में द्वितीय स्थान वाला भारत, ओलम्पिक खेलों में मात्र कुछ-एक काँस्य और रजत पदक ही प्राप्त कर पाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में एक से बढ़कर एक एथलीट्स मिल सकते हैं और यदि उन्हें उचित प्रशिक्षण दिया जाए तो वे अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में बहुत-सा सोना बटोर सकते हैं, पर ऐसा नहीं होता। पहुँच वालों के चहेते ही सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी बनकर देश को अपमान का पूँट पीने को विवश करते हैं।

कुछ सुझाव-शरीर में स्फूर्ति और मन में उल्लास भरकर सामाजिक सद्भाव और राष्ट्रीय एकता की भावना जगाने वाले खेलों की उपेक्षा करना उचित नहीं है। खेल मनुष्य में सहिष्णुता, साहस, धैर्य और सरसता उत्पन्न करते हैं; अतः विद्यालय समय में ही कक्षावार खेल खिलाने तथा प्रतिस्पर्धात्मक मैच खिलाने की अनिवार्य व्यवस्था होनी चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में ब्लॉक स्तर पर जो क्रीड़ा प्रतियोगिताएँ होती हैं, उनमें छात्रों के अलावा अन्य ग्रामीण युवक-युवतियों की प्रतिभागिता भी सुनिश्चित होनी चाहिए। हमारी सरकार ऐसी खेल नीति बनाये, जिसमें सभी प्रकार के खेलों के गिरते स्तर को सुधारने के लिए केवल नगरों में ही नहीं, अपितु ग्रामीण क्षेत्रों (UPBoardSolutions.com) में भी अच्छे कोच तथा खेल के मैदान उपलब्ध कराये जाएँ।

उपसंहार—जीवन के प्रत्येक भाग में खेलों का अपना विशेष महत्त्व है, चाहे विद्यार्थी जीवन हो या सामाजिक। इन खेलों से स्फूर्ति, आनन्द, उल्लास, एकता, सद्भाव, सहयोग और सहिष्णुता जैसे मानवीय गुणों का विकास होता है, बन्धुत्व की भावना बढ़ती है और शरीर स्वस्थ रहता है। इसलिए खेलों के प्रति रुचि जगाने तथा खेलों के गिरते स्तर को उन्नत बनाने के लिए क्रीड़ा प्रतियोगिताओं का समय-समय पर आयोजन होना ही चाहिए। यदि सच्चे मन से और निष्पक्ष भाव से खेलों के विकास की ओर ध्यान दिया जाएगा तो ओलम्पिक के साथ-साथ अन्य राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में भी देश को मान-सम्मान अवश्य मिलेगा।

43. जनतन्त्र और शिक्षा

सम्बद्ध शीर्षक

  • सार्वजनिक शिक्षा अभियान

रूपरेखा—

  1. प्रस्तावना,
  2. जनतन्त्र का अर्थ,
  3. जनतन्त्र का उद्देश्य,
  4. जनतन्त्र के आधार,
  5. जनतन्त्र और शिक्षा,
  6. जनतन्त्र में शिक्षा,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना–शिक्षा जनतन्त्र के लिए संजीवनी और अमृत तुल्य है। जनतन्त्र में शिक्षा की समुचित व्यवस्था जनतन्त्र को प्रभावी और प्रोन्नत बनाती है। जनतन्त्र जीवन की एक पद्धति है, जिसमें व्यक्ति के अस्तित्व को महत्त्व प्रदान किया जाता है। शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व की विधायक है।

जनतन्त्र का अर्थ–जनतन्त्र एक व्यापक व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत व्यक्ति से सम्बन्धित राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक सभी क्षेत्र आते हैं। जनतन्त्र शासन का वह रूप है, जिसमें शासन की शक्ति सम्पूर्ण जन-समाज के सदस्यों में निहित होती है। राजनीतिक दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति इसमें भाग लेने का अधिकारी है। यह जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता के प्रतिनिधियों का शासन है। केण्डेल के अनुसार, “जनतन्त्र एक आदर्श के रूप में जीवन की एक विधि है, जो व्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं उसके उत्तरदायित्व पर आधारित है।” शिक्षा के क्षेत्र में जनतन्त्र के अनुसार व्यक्ति को समान सुविधा, स्वतन्त्रता एवं व्यक्तित्व-विकास के समान अवसर प्राप्त होते हैं।

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जनतन्त्र का उद्देश्य-जनतन्त्र एक जीवन-दर्शन है। मानव के विकास एवं समाज के कल्याण में जनतन्त्र की सफलता निहित है। जनतन्त्र का लक्ष्य समाज की सभी क्रियाओं में व्यक्ति को समान रूप से अधिकार दिलाना है। उत्तम नागरिक का निर्माण जनतन्त्र का मुख्य कर्तव्य है। शिक्षा के आधार पर ही जनतन्त्र के व्यवहार एवं आदर्श निश्चित होते हैं।

जनतन्त्र के आधार–शिक्षा के क्षेत्र में जनतन्त्र की भावना को सफल बनाने के लिए (UPBoardSolutions.com) कुछ उपाय बताये गये हैं, जो निम्नलिखित हैं

  1. मानव व्यक्तित्व की सुरक्षा तथा आदर,
  2. प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्रता, समानता तथा सामाजिक न्याय की प्राप्ति,
  3. व्यक्ति की जनतन्त्र में आस्था, जागरूकता, क्षमता तथा योग्यता,
  4. अधिकार के साथ उत्तरदायित्व का निर्वाह,
  5. शान्तिपूर्ण विचार-विनिमय द्वारा समस्या का समाधान,
  6. अल्पसंख्यकों की सुरक्षा तथा धर्मनिरपेक्षता,
  7. सहयोग, सहिष्णुता तथा बन्धुत्व की भावना,
  8. विरोधी-विचारों तथा मत प्रकाशन के अधिकार तथा
  9. स्वस्थ एवं स्वतन्त्र जीवन-दर्शन।

जनतन्त्र व्यक्ति के आचरण द्वारा ही जीवित रहता है। शिक्षा द्वारा ही मनुष्य में वे सभी गुण आ सकते हैं, जिनकी जनतन्त्र में अपेक्षा की जाती है। अतः जनतन्त्र की सफलता हेतु अच्छी शिक्षा-व्यवस्था आवश्यक है। जनतन्त्र में अनिवार्य नि:शुल्क शिक्षा का प्रावधान होना चाहिए।

जनतन्त्र और शिक्षा–सुयोग्य नागरिकों के ऊपर ही जनतन्त्र की सफलता आधारित होती है। शिक्षा द्वारा नागरिकों में विवेक का प्रादुर्भाव होता है। शिक्षा द्वारा ही मानव की भावनाओं को परिष्कृत कर मानवीय गुणों का विकास किया जाता है। जनतन्त्र में शिक्षा वह साधन है, जिससे व्यक्ति समाज के क्रिया-कलापों में सक्रिय भाग लेने में समर्थ होता है। समाज का निर्माण व्यक्ति करता है और व्यक्ति का निर्माण शिक्षा। शिक्षा जीवन की समस्याओं का समाधान करने के लिए साधन है। जनतन्त्र में जन-शिक्षा को प्रोत्साहन मिलता है।

शिक्षा का आदर्श स्वस्थ समाज का निर्माण करना है। जनतान्त्रिक शिक्षा व्यक्ति और समाज (UPBoardSolutions.com) में सन्तुलन स्थापित करती है। जनतन्त्र में शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का शारीरिक, बौद्धिक तथा नैतिक विकास करना है। समाज का यह दायित्व है कि वह व्यक्ति को प्रगति का वातावरण प्रदान करे, जिससे वह स्वहित साधन के साथ सामाजिक हित का भी संवर्द्धन करे। इस प्रकार जनतन्त्र और शिक्षा एक-दूसरे के पूरक हैं।।

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जनतन्त्र में शिक्षा—
(क) उद्देश्य-जनतन्त्र की शिक्षा एक सन्तुलित शिक्षा है, जिसमें बौद्धिक विकास के साथ-साथ सामाजिक गुणों तथा व्यावहारिक कुशलता का विकास भी होता है। शिक्षा समाज में तथा विद्यालय में सम्पर्क स्थापित करने का कार्य करती है। जनतन्त्र में शिक्षा का उद्देश्य होता है-व्यक्ति को योग्य (आदर्श) नागरिक बनाना।
(ख) पाठ्यक्रम-जनतन्त्र में शैक्षिक पाठ्यक्रम व्यापक होता है। एच० के० हेनरी के अनुसार, पाठ्यक्रम के अन्तर्गत सम्पूर्ण विद्यालय का वातावरण आता है, जिनका सम्बन्ध बालकों से होता है।” वास्तव में पाठ्यक्रम के अन्तर्गत विद्यालय की वे सभी बहुमुखी क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं, जिनका अनुभव छात्र को विद्यालये, कक्षा, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, खेल आदि के द्वारा उपलब्ध होता है। पाठ्यक्रम का निर्धारण करते समय इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि बालकों में स्वतन्त्र चिन्तन तथा विचारशक्ति उत्पन्न हो और उनकी निर्णयात्मक शक्ति का विकास हो।।
(ग) विद्यालय का उत्तरदायित्व–समाज में जनतन्त्रीय आदर्शों की स्थापना में विद्यालय का महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व है। एच० जी० वेल्स के अनुसार, “विद्यालय संसार के लघु प्रतिरूप होने चाहिए, जिन्हें ग्रहण करने के हम इच्छुक हों।” विद्यालय छात्रों तथा समाज के जीवन में एकता लाता है तथा सामाजिक भावना का विकास करता है। विद्यालय के प्रशासन में राज्य का हस्तक्षेप जनतन्त्र के लिए बाधक होता है तथा विद्यालय को राजनीतिक व्यक्तियों की (UPBoardSolutions.com) दुर्भावना का शिकार होना पड़ता है, जिससे विद्यालयों की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है।
(घ) अनुशासन–जनतन्त्र में अनुशासन का तात्पर्य बालक-बालिकाओं को जनतन्त्र के सामाजिक जीवन के लिए तैयार करना है। जनतन्त्र का सामाजिक जीवन स्वच्छन्दता का नहीं होता, अपितु उसमें एक व्यवस्था होती है, अच्छा आचरण और अनुशासन होता है। अनुशासन की परीक्षा बालकों के व्यवहार से होती है। अच्छे आचरण और अच्छे व्यवहार से तात्पर्य अच्छे चरित्र से होता है। इस कार्य में विद्यालय, समाज, अध्यापक तथा अभिभावक सबको प्रयास करना चाहिए।

उपसंहार-इस प्रकार जनतन्त्र और शिक्षा की मूलभूत बातों पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इनका मानव-जीवन में विशिष्ट महत्त्व है। टैगोर के अनुसार, “सफल शिक्षा समग्र जीवन को पूर्ण रूप से प्रभावित करती है।” जनतन्त्र और शिक्षा दोनों एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं। शिक्षा जनतन्त्र की अनुजा है तथा शिक्षा और जनतन्त्र समान रूप से इस युग में पूजित तथा प्रतिष्ठित हैं।

44. जीवन में शिक्षा का महत्त्व

रूपरेखा

  1. प्रस्तावना,
  2. शिक्षा का उद्देश्य,
  3. शिक्षा की आवश्यकता,
  4. शिक्षा से ही समाज का उत्थान सम्भव,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना-शिक्षा-विहीन व्यक्ति सींग और पूँछरहित जानवर के समान होता है। शिक्षा मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाती है। मनुष्य के भीतर विकास की जो सम्भावनाएँ होती हैं, उन्हें विकसित करना ही शिक्षा का मुख्य कार्य है। शिक्षा के अभाव में मनुष्य ने अपने लिए और न ही समाज के लिए उपयोगी हो पाता है। मानव सभ्यता का विकास, शिक्षा का ही विकास है। प्राचीन काल की शिक्षा में गुरु का अधिक महत्त्व रहता था। गुरुजनों ने जो सत्य उपलब्ध किया, उसे शिष्यों तक पहुँचाना वे अपना कर्तव्य समझते थे। पुस्तकीय ज्ञान को विद्यार्थियों के मस्तिष्क में ढूंस देना ही शिक्षा का मुख्य लक्ष्य स्वीकार नहीं किया जा सकता।

शिक्षा का उद्देश्य–शिक्षा का उद्देश्य है-संस्कार देना। मनुष्य के शारीरिक, मानसिक तथा भावात्मक विकास में योगदान देना शिक्षा का मुख्य कार्य है। शिक्षित व्यक्ति अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहता है, स्वच्छता को जीवन में महत्त्व देता है और उन सभी बुराइयों से दूर रहता है, जिनसे स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है। रुग्ण शरीर के कारण शिक्षा में बाधा पड़ती है। शिक्षा हमारे ज्ञान का विस्तार करती है। ज्ञान का प्रकाश जिन खिड़कियों से प्रवेश करता है, (UPBoardSolutions.com) उन्हीं से अज्ञान और रूढ़िवादिता का अन्धकार निकल भागता है। शिक्षा के द्वारा मनुष्य अपने परिवेश को पहचानने और समझने में सक्षम होता है। विश्व में ज्ञान का जो विशाल भण्डार है, उसे हम शिक्षा के माध्यम से ही प्राप्त कर सकते हैं। सृष्टि के रहस्यों को खोलने की कुंजी शिक्षा ही है। अशिक्षित व्यक्ति रूढ़ियों, अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों का शिकार हो सकता है। शिक्षा हमारी भावनाओं का संस्कार करती है और हमारे दृष्टिकोण को उदार बनाती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य मानव का सर्वांगीण विकास करना है।

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शिक्षा की आवश्यकता–समाजे मानवीय सम्बन्धों का ताना-बाना है। व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध अत्यन्त गहरा है। व्यक्ति के अभाव में समाज का अस्तित्व और समाज के अभाव में सभ्य मनुष्य की कल्पना कर सकना भी असम्भव है। समाज का स्वास्थ्य, व्यक्तियों के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। यदि समाज में रहने वाले व्यक्ति स्वस्थ, सुशिक्षित, उदार, संवेदनशील एवं परोपकारी होंगे, तो समाज अवश्य उन्नति करेगा। प्रत्येक सभ्य समाज की प्रमुख चिन्ता यही होती है कि वह किसी प्रकारे अपने नागरिकों की क्षमता को बढ़ा सके। समाज का प्रत्येक व्यक्ति समाज से जितना लेता है उससे अधिक देने में सक्षम हो सके तभी समाज का विकास सम्भव है। शिक्षित व्यक्ति में ही यह क्षमता विकसित हो सकती है। शिक्षित व्यक्ति ही एक अच्छा व्यापारी, कर्मचारी, डॉक्टर, अध्यापक, इंजीनियर अथवा नेता हो सकता है। शिक्षित व्यक्ति समाज में रहने के लिए बेहतर स्थान बना सकता है।

शिक्षा से ही समाज का उत्थान सम्भव–शिक्षा के प्रसार द्वारा ही समाज में समता, सहयोग एवं शोषणरहित व्यवस्था का निर्माण सम्भव है। आज भारत में साक्षरता अभियान पर बल दिया जा रहा है; क्योंकि साक्षर और शिक्षित नागरिक ही सामाजिक कुरीतियों से लड़ सकते हैं। रूढ़िबद्ध समाज में परिवर्तन लाने का साधन शिक्षा ही हो सकती है। शिक्षित व्यक्ति अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझ सकता है। वह आसानी से शोषण का शिकार नहीं हो सकता; क्योंकि प्राय: अज्ञानता ही मनुष्य को असहाय बनाती है।

शिक्षित व्यक्ति ही प्रजातन्त्र की सफलता में सहयोग दे सकते हैं। प्रजातन्त्र का आधार प्रबुद्ध जनमत है। (UPBoardSolutions.com) शिक्षित व्यक्ति ही राष्ट्रीय समस्याओं को ठीक प्रकार से समझ सकता है। इस प्रकार शिक्षा प्रजातन्त्र की सफलता के लिए अत्यधिक आवश्यक है।

नारी मुक्ति आन्दोलन में भी शिक्षा का अत्यधिक महत्त्व है। शिक्षित नारी अपने परिवार तथा समाज के लिए उपयोगी भूमिका निभा सकती है। वह बच्चों को अच्छे संस्कार दे सकती है, घर को सजा-सँवार सकती है, आत्म-निर्भर हो सकती है, अपने अधिकारों के लिए लड़ सकती है और शोषण का विरोध कर सकती है।

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उपसंहार-निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सामाजिक परिवर्तन में शिक्षित नागरिकों की भूमिका ही महत्त्वपूर्ण हो सकती है। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का सर्वांगीण विकास है। व्यक्ति के विकास में ही समाज का विकास निहित है। 45. मेरे प्रिय साहित्यकार

45. मेरे प्रिय साहित्यकार (जयशंकर प्रसाद) [2010, 15]

सम्बद्ध शीर्षक

  • मेरे प्रिय कवि [2013, 14]
  • मेरे प्रिय लेखक [2009]

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. साहित्यकार का परिचय,
  3. साहित्यकार की साहित्य-सम्पदा,
  4. छायावाद के श्रेष्ठ कवि,
  5. श्रेष्ठ गद्यकार,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना–संसार में सबकी अपनी-अपनी रुचि होती है। किसी व्यक्ति की रुचि चित्रकारी में है तो किसी की संगीत में। किसी की रुचि खेलकूद में है तो किसी की साहित्य में। मेरी अपनी रुचि भी साहित्य में रही है। साहित्य प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में इतना अधिक रचा गया है कि उन सबका पारायण तो एक जन्म में सम्भव ही नहीं है। फिर साहित्य में भी अनेक विधाएँ हैं–कविता, उपन्यास, नाटक, कहानी, निबन्ध आदि। अतः मैंने सर्वप्रथम हिन्दी-साहित्य (UPBoardSolutions.com) को यथाशक्ति अधिकाधिक अध्ययन करने का निश्चय किया और अब तक जितना अध्ययन हो पाया है, उसके आधार पर मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकार हैं-जयशंकर प्रसाद प्रसाद जी केवल कवि ही नहीं, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार और निबन्धकार भी हैं। प्रसाद जी ने हिन्दी-साहित्य में युगान्तरकारी परिवर्तन किये हैं। उन्होंने हिन्दी भाषा को एक नवीन अभिव्यंजनाशक्ति प्रदान की है। इन सबने मुझे उनका प्रशंसक बना दिया है और वे मेरे प्रिय साहित्यकार बन गये हैं।

साहित्यकार का परिचय–श्री जयशंकर प्रसाद जी का जन्म सन् 1889 ई० में काशी के प्रसिद्ध सुँघनी साहु परिवार में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री बाबू देवी प्रसाद था। लगभग 11 वर्ष की अवस्था में ही जयशंकर प्रसाद ने काव्य-रचना आरम्भ कर दी थी। सत्रह वर्ष की अवस्था तक इनके ऊपर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। इनके पिता, माता के बड़े भाई का देहान्त हो गया और परिवार का समस्त उत्तरदायित्व इनके सुकुमार कन्धों पर आ गया। गुरुतर उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए एवं अनेकानेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना करने के उपरान्त 15 नवम्बर, 1937 ई० को आपका देहावसान हुआ। अड़तालीस वर्ष के छोटे-से जीवन में इन्होंने जो बड़े-बड़े काम किये, उनकी कथा सचमुच अकथनीय है।

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साहित्यकार की साहित्य-सम्पदा–प्रसाद जी की रचनाएँ सन् 1907-08 ई० में सामयिक पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। ये रचनाएँ ब्रजभाषा की पुरानी शैली में थीं, जिनका संग्रह ‘चित्राधार’ में हुआ। सन् 1913 ई० में ये खड़ी बोली में लिखने लगे। प्रसाद जी ने पद्य और गद्य दोनों में साधिकार रचनाएँ कीं। इनकी रचनाओं का वर्गीकरण अग्रवत् है
(क) काव्य-कानन-कुसुम, प्रेम पथिक, महाराणा का महत्त्व, झरना, आँसू, लहर और कामायनी (नामाव्य)।
(ख) नाटक इन्होंने कुल मिलाकर 13 नाटक लिखे। इनके प्रसिद्ध नाटक हैं–चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ, कामना और ध्रुवस्वामिनी।।
(ग) उपन्यास–कंकाल, तितली और इरावती।।
(घ) कहानी–प्रसाद जी की विविध कहानियों के पाँच संग्रह हैं—छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी और इन्द्रजाल।
(ङ) निबन्ध–प्रसाद जी ने साहित्य के विविध विषयों से सम्बन्धित निबन्ध लिखे, जिनका संग्रह है-काव्य और कली तथा अन्य निबन्ध।

छायावाद के श्रेष्ठ कवि–छायावाद हिन्दी कविता के क्षेत्र का एक आन्दोलन है, जिसकी अवधि सन् 1920-36 ई० तक मानी जाती है। ‘प्रसाद’ जी छायावाद के जन्मदाता माने जाते हैं। छायावाद एक आदर्शवादी काव्यधारा है, जिसमें वैयक्तिकता, रहस्यात्मकता, प्रेम, सौन्दर्य तथा स्वच्छन्दतावाद की सबल अभिव्यक्ति हुई है। प्रसाद की ‘आँसू’ नाम की कृति के साथ हिन्दी में छायावाद का जन्म हुआ। आँसू का प्रतिपाद्य है–विप्रलम्भ श्रृंगार। प्रियतम के वियोग की (UPBoardSolutions.com) पीड़ा वियोग के समय आँसू बनकर वर्षा की भाँति उमड़ पड़ती है

जो घनीभूत पीड़ा थी, स्मृति सी नभ में छायी।
दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आयी।

प्रसाद जी के काव्य में छायावाद अपने पूर्ण उत्कर्ष पर दिखाई देता है। इनकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण . रचना है-‘कामायनी’ महाकाव्य, जिसमें प्रतीकात्मक शैली पर मानव-चेतना के विकास का काव्यात्मक निरूपण किया गया है।

श्रेष्ठ गद्यकार-प्रसाद जी की सर्वाधिक ख्याति नाटककार के रूप में है। इन्होंने गुप्तकालीन भारत को आधुनिक परिवेश में प्रस्तुत करके गाँधीवादी अहिंसामूलक देशभक्ति का सन्देश दिया है। साथ ही अपने समय के सामाजिक आन्दोलनों को सफल चित्रण किया है। नारी की स्वतन्त्रता एवं महिमा पर उन्होंने सर्वाधिक बल दिया है। इनके प्रत्येक नाटक का संचालन सूत्र किसी नारी पात्र के हाथ में ही रहता है। इनके उपन्यास और कहानियों में भी सामाजिक भावना का प्राधान्य है, जिनमें दाम्पत्य-प्रेम के आदर्श रूप का चित्रण किया गया है। इनके निबन्ध विचारात्मक एवं चिन्तनप्रधान हैं।

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उपसंहार-पद्य और गद्य की सभी रचनाओं में इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ एवं परिमार्जित हिन्दी है। इनकी शैली आलंकारिक एवं साहित्यिक है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इनकी गद्य-रचनाओं में भी इनका छायावादी कवि हृदय झाँकता हुआ दिखाई देता है। मानवीय भावों और आदर्शों में उदारवृत्ति का सृजन विश्व-कल्याण के प्रति इनकी विशाल-हृदयता का सूचक है। हिन्दी-साहित्य के लिए प्रसाद जी की यह बहुत बड़ी देन है। अपनी विशिष्ट कल्पना-शक्ति, मौलिक अनुभूति एवं नूतन अभिव्यक्ति के फलस्वरूप प्रसाद जी हिन्दी-साहित्य में मूर्धन्य स्थान पर प्रतिष्ठित हैं। समग्रत: यह कहा जा सकता है कि प्रसाद जी का साहित्यिक व्यक्तित्व बहुत महान् है, जिस कारण वे मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकार रहे हैं।

46. मेरे प्रिय कवि : तुलसीदास [2016, 17]

सम्बद्ध शीर्षक

  • लोकनायक तुलसीदास
  • मेरा प्रिय कवि [2009, 10, 13]
  • मेरा प्रिय साहित्यकार [2010]

रूपरेखा—

  1. प्रस्तावना,
  2. जन्म की परिस्थितियाँ,
  3. लोकनायक तुलसीदास,
  4. तुलसी के राम,
  5. निष्काम भक्ति-भावना,
  6. धर्म-समन्वय की भावना पर बल–
    1. सगुण-निर्गुण का समन्वय,
    2. कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय,
    3. युगधर्म समन्वय,
    4. सामाजिक समन्वय,
    5. साहित्यिक समन्वय,
    6. उपसंहार।

प्रस्तावना–संसार में अनेक प्रसिद्ध साहित्यकार हुए हैं, जिनकी अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। यदि मुझसे पूछा जाए कि मेरा प्रिय साहित्यकार कौन है? तो मेरा उत्तर होगा-महाकवि तुलसीदास। यद्यपि तुलसी के काव्य में भक्ति-भावना प्रधान है, परन्तु उनका काव्य कई सौ वर्षों के बाद भी भारतीय जनमानस में रचा-बसा हुआ है और उनका मार्ग-दर्शन कर रही है, इसलिए तुलसीदास मेरे प्रिय साहित्यकार हैं। उनकी भक्ति-भावना, समन्वयात्मक दृष्टिकोण तथा काव्य सौष्ठव ने मुझे अनायास अपनी ओर आकृष्ट किया है।

जन्म की परिस्थितियाँ—तुलसीदास जी का जन्म अत्यन्त विषम परिस्थितियों में हुआ था। हिन्दू समाज अशक्त होकर मुगलों के चंगुल में फंसा हुआ था। हिन्दू-समाज की संस्कृति और सभ्यता पर निरन्तर आघात हो रहे थे। कहीं पर कोई भी उचित आदर्श नहीं था। इस युग में मन्दिरों का विध्वंस और ग्रामों व नगरों का नाश दे रहा था। अच्छे संस्कार समाप्त हो रहे थे। तलवार के बल पर हिन्दुओं को मुसलमान बनाया जा रहा था। सर्वत्र धार्मिक विषमता व्याप्त थी। (UPBoardSolutions.com) विभिन्न सम्प्रदायों ने अपनी इफली, अपना राग अलापना आरम्भ कर दिया था। ऐसी स्थिति में भोली-भाली जनता यह समझने में असमर्थ थी कि वह किस सम्प्रदाय का आश्रय ले। दिग्भ्रमित जनता को ऐसे नाविक की आवश्यकता थी, जो उनकी जीवन-नौका को सँभाल सके। गोस्वामी तुलसीदास ने निराशा के अन्धकार में डूबी हुई जनता के समक्ष भगवान् राम का लोकमंगलकारी रूप प्रस्तुत किया। इस प्रकार उन्होंने जनता में अपूर्व आशा एवं शक्ति का संचार किया। युगद्रष्टा तुलसी ने अपनी रचना ‘श्रीरामचरितमानस’ के द्वारा विभिन्न मतों, सम्प्रदायों एवं धाराओं का समन्वय किया। उन्होंने अपने युग को नवीन दिशा, नई गति एवं नवीन प्रेरणा दी। सच्चे लोकनायक के समान उन्होंने लोगों को मानवता के सूत्र में बाँधने का सफल प्रयास किया।

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लोकनायक तुलसीदास-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन है-“लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके। भारतीय समाज में विभिन्न प्रकार की परस्पर विरोधी संस्कृतियाँ, जातियाँ, आचार, निष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे, ‘गीता’ ने समन्वय की चेष्टा की और तुसलीदास भी समन्वयकारी थे।”

तुलसी के राम-तुलसीदास उन राम के उपासक थे, जो सच्चिदानन्द परब्रह्म हैं तथा जिनका भूमि पर पापरूपी हरण करने के लिए अवतार होता है।

जब-जब होइ धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी ॥
तब-तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ।।

तुलसीदास जी ने अपने काव्य में सभी देवी-देवताओं की स्तुति की है, लेकिन अन्त में वे यही कहते तुलसीद हैं।

माँगत तुलसीदास कर जोरे। बसहिं रामसिय मानस मोरे॥

निम्नलिखित पंक्तियों में भगवान राम के प्रति उनकी अनन्यता और भी अधिक पुष्ट हुई है–

एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास ।
एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास ॥

तुलसीदास के समक्ष ऐसे राम का जीवन था, जो मर्यादाशील थे तथा शक्ति एवं सौन्दर्य के अवतार थे।

निष्काम भक्ति-भावना-सच्ची भक्ति वही है, जिसमें आदान-प्रदान का भाव नहीं होता। भक्त के (UPBoardSolutions.com) लिए भक्ति का आनन्द ही उसका फल है। इस सन्दर्भ में तुलसी का तो यही कथन है

मो सम दीन ने दीन हित, तुम्ह समान रघुबीर।।
अस बिचारि रघुबंस मनि, हरहु विषम भवं भीर।।

धर्म-समन्वय की भावना-तुलसीदासजी के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता धर्म-समन्वय है। इसे प्रवृत्ति के कारण वे वास्तविक अर्थों में लोकनायक कहलाए। उनके काव्य में धर्म-समन्वय के अग्रलिखित रूप दृष्टिगोचर होते हैं

(i) सगुण-निर्गुण का समन्वय ईश्वर के सगुण और निर्गुण दोनों रूपों का विवाह दर्शन एवं भक्ति दोनों ही क्षेत्रों में प्रचलित था। तुलसीदास ने कहा है सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥

(ii) कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय-तुलसीदास जी की भक्ति मनुष्य को संसार से विमुख करके अकर्मण्य बनाने वाली नहीं है, अपितु सत्कर्म की प्रबल प्रेरणा देने वाली है। उनका सिद्धान्त है कि राम के समान आचरण करो, रावण सदृश नहीं—

भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव सम्भव खेदा॥

तुलसी ने ज्ञान और भक्ति के धागे में राम के नाम का मोती पिरो दिया है, जो सबके लिए मान्य है–

हिय निर्गुन नयनन्हे सगुन, रसना राम सुनाम।
मनहुँ पुरट सम्पुट लसत, तुलसी ललित ललाम॥

(iii) युगधर्म समन्वय-भगवान को प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार के बाह्य तथा आन्तरिक (UPBoardSolutions.com) साधनों की आवश्यकता होती है। ये साधन प्रत्येक युग के अनुसार बदलते रहते हैं और इन्हीं को युगधर्म की संज्ञा दी जाती है। तुलसीदास जी ने इनका भी समन्वय प्रस्तुत किया है

कृतयुग त्रेता द्वापर, पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि, नाम ते पावहिं लोग।

(iv) सामाजिक समन्वय-तुलसीदास जी के समय में भारतीय समाज अनेक प्रकार की विषमताओं तथा कुरीतियों से ग्रस्त था। आपस में भेदभाव की खाई चौड़ी होती जा रही थी। ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, स्त्री-पुरुष तथा गृहस्थ व संयासो का अन्तर बढ़ता जा रहा था। रामकथा की चित्रात्मकता एवं विषय-सम्बन्धी अभिव्यक्ति इतनी व्यापक और सक्षम थी कि उससे तुलसीदास जी के दोनों उद्देश्य सिद्ध हो जाते थे। सन्त-असन्त का समन्वय, व्यक्ति और समाज का समन्वय तथा व्यक्ति और परिवार का समन्वय आदि तुलसीदास के काव्य में सर्वत्र दृष्टिगोचर हुआ है।

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(v) साहित्यिक समन्वय-साहित्य की दृष्टि से भी तुलसी का काव्य अद्वितीय है। इनके काव्य में सभी रसों को स्थान मिला है जिनका प्रभाव इनके काव्य में देखने को मिलता है। साहित्यिक क्षेत्र में भाषा, छन्द, सामग्री, रस, अलंकार आदि की दृष्टि से भी तुलसी ने अनुपम समन्वय स्थापित किया। उस समय साहित्यिक क्षेत्र में विभिन्न भाषाएँ विद्यमान थीं तथा विभिन्न छन्दों में रचनाएँ की जाती थीं। तुलसी ने अपने काव्य में संस्कृत, अवधी तथा ब्रजभाषा का अद्भुत समन्वय किया।

उपसंहार—तुलसी ने अपने युग और भविष्य, स्वदेश और विश्व, व्यष्टि सभी के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण सामग्री दी है। तुलसीदास जी को ‘आधुनिक दृष्टि ही नहीं, हर युग की दृष्टि मूल्यवान् मानेगी; क्योंकि मणि की चमक अन्दर से आती है बाहर से नहीं।।

कवि तुलसीदास जी की भाषा अत्यन्त सरल और सरस है। उन्होंने श्रीरामचरितमानस का जितना सरल गेयरूप में वर्णन किया है वह अतुलनीय है। यद्यपि मैंने जितने भी साहित्यों का अध्ययन किया है मानस जैसा सरलीकरण और शब्दों की अभिव्यक्ति किसी में नहीं पायी। (UPBoardSolutions.com) अतैव इनकी अतुलनीय साहित्यिक विशेषताओं के कारण इनके बारे में यही कहा जा सकता है-

“कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला।”

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UP Board Solutions for Class 9 English Grammar Chapter 4 Primary Auxiliaries [Be, Have, Do]

UP Board Solutions for Class 9 English Grammar Chapter 4 Primary Auxiliaries [Be, Have, Do]

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SOLVED EXERCISES BASED ON TEXT BOOK
EXERCISE ::
Fill in the blanks with the correct form of the ‘Auxiliary Verbs’ given in the brackets in the following sentences :
Questions.

  1. She must ……………………………. received the marksheet by now. (has, have)
  2.  You ……………………………… not go to school today. (are, did, have)
  3.  He …………………………………………….. not work hard nowadays. (is, does, has)
  4.  He ………………. not beat his sister. (is, do, did)
  5. The milkman…………….. not come. (are, has, have)
  6.  Why ……………………. she weeping bitterly? (are, was, were)
  7. When………………… she going to the temple? (is, was, were)
  8.  He ……………….. not do his duty. (does, did, has)
  9. She ………………. not help her friend in difficulty. (does, do, did)
  10. We………………….. not go there yesterday. (do, does, did)

Answer:

  1. have
  2.  did
  3. does
  4. did
  5.  has
  6. was
  7. was
  8. does
  9.  does
  10. did.

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EXERCISE :: 2
Fill in the blanks with the correct form of the ‘Auxiliary Verbs’ given in the brackets in the following sentences :
Questions.

  1. When I ……………………. entered the room,
    the teacher started teaching…………………(have)
  2. It was a winter night. We … ………. sitting round the fire.
  3. (be)……………… he know your address? (do)
  4. He must …… … received my parcel by now.(have)
  5. Man ……………………….. the only animal that can laugh. (be)
  6. The Head-Master ………………….. very disappointed. (be)
  7. I… ………….. my homework at seven o’clock this morning. (do)
  8. As he…………………. not there, I spoke to his brother. (be)
  9.  You ……………………… guilty. (be)
  10.  Since we……………….. late, we were not admitted. (be

Answer:

  1. had
  2.  were
  3.  Does
  4.  have
  5.  is
  6.  is
  7. did
  8.  was
  9.  are
  10. were.

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UP Board Solutions for Class 8 Hindi Chapter 4 पेड़ों के संग बढ़ना सीखो (मंजरी)

UP Board Solutions for Class 8 Hindi Chapter 4 पेड़ों के संग बढ़ना सीखो (मंजरी)

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समस्त पथों की व्याख्या

बहुत दिनों से ………………….…………………………………….. अंग भिगो लें।
संदर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक मंजरी-8 में संकलित कविता-‘पेड़ों के संग बढ़ना सीखो’ से उधृत है। इस कविता के कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हैं। कविता के माध्यम (UPBoardSolutions.com) से कवि ने पर्यावरण संरक्षण की प्रेरणा दी है।
व्याख्या-कवि कहता है कि बहुत दिनों से मैं सोच रहा हूँ कि थोड़ी-सी जमीन लेकर उस पर बाग-बगीचा लगाऊँ। जिसमें फल-फूल खिलें, चिड़ियाँ बोलें और सर्वत्र सुगंध बिखरे। बगीचे में एक जलाशय भी हो जिसमें ताजी हवा अपना अंग भिगोकर और भी ठंडी हो जाए।

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हो सकता है ……….…………………………………………….. चिड़ियों को रोना।
संदर्भ एवं प्रसंग-पूर्ववत्।
व्याख्या-कवि बच्चों से कहता है कि संभव है तुम्हारे पास तुम्हारी अपनी ज़मीन हो, फल-फूल से लदे बगीचे हों या अपनी खाली जमीन हो; या हो सकता है छोटी-सी क्यारी ही हो जो फूलों के खुश्बू से महक रही हो या फिर कुछ खेत हों जिसमें फसलें लगी हों। यह भी संभव है कि उनमें चौपाए यानी पशु घूमते हों या आँगन में पक्षी चहकते हों तो तुमसे विनती है कि तुम इनको मत मिटने देना, पेड़ों को कभी मत कटने देना। क्योंकि ऐसा करने से चिड़ियों का आश्रय छिन जाएगा और तुम्हें चिड़ियों के लिए तरसना पड़ जाएगा।

एक-एक पत्ती ……………………..………………………………….. संग हिलना।
संदर्भ एवं प्रसंग-पूर्ववत्।
व्याख्या-कवि कहता है कि पेड़ों-वनस्पतियों की एक-एक पत्ती हमारे लिए मूल्यवान हैं, क्योंकि वे हमारे सपनों को आधार देते हैं। जब पेड़ों की शाखाएँ कटती हैं तो वे भी शिशुओं की तरह रोते हैं। इसलिए अपने जीवन में पेड़ों के महत्व को समझते हुए पेड़ों के संग बढ़ना, इतराना और हिलना सीखो। यानी पेड़ों को अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा बना लो।

बच्चे और पेड़ …………………………………………………………… बाँट रही है।
संदर्भ एवं प्रसंग-पूर्ववत्।
व्याख्या-कवि के अनुसार इस संसार की हरियाली और खुशहाली का आधार पेड़ व बच्चे हैं। जो इस बात को नहीं समझते, उन्हें पछताना पड़ता है। वर्तमान समय में सभ्यता वहशी बनी हुई है। अर्थात शहरीकरण व औद्योगीकरण ने मानवों को पेड़ों का दुश्मन बना दिया है। वे पेड़ों को काटते जा रहे हैं। पेड़ों के कटने से हवा जहरीली हो रही है, जिससे मनुष्य बीमार हो रहा है।

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प्रश्न-अभ्यास

कुछ करने को-

प्रश्न 1.
नोट- विद्यार्थी स्वयं करें।

प्रश्न 2.
नीचे लिखे गये शब्दों की सहायता से आप भी एक तुकान्त कविता बनाइएखोना, रोना, काट, बाँट, हरा, भरा।
उत्तर-
मानव! तू यदि नहीं चाहता
अपना जीवन खोना,
शुद्ध हवा, हरियाली, चिड़ियाँ
और खुशबू को रोना,|
तो सावधान हो जा अब भी
पेड़ों को मत काट,

जहरीली हवा स्वयं के
बच्चों को मत बाँट,
जब तक तेरे उपवन में
पेड़ रहेगा हरा,
तब तक रहेगा संसार तुम्हारा
खुशियों से भरा।

नोट- उपरोक्त कविता उदाहरण स्वरूप दी गई है। बच्चे अपनी रचनात्मकता का उपयोग करते हुए कविता स्वयं लिखने का प्रयास करें।

प्रश्न 3.
नोट- विद्यार्थी स्वयं करें।
विचार और कल्पना-
प्रश्न 1.
अगर पेड़ न होंगे तो मनुष्य का जीवन कैसा हो जायेगा? इस संबंध में अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर-
पेड़-पौधे प्रकृति का अनुपम उपहार हैं। आज जंगलों को अंधाधुंध काटा जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप मौसम में परिवर्तन, तापमान में वृद्धि, ओजोन परत में छेद आदि समस्याओं में वृद्धि हुई है। बढ़ती आबादी, शहरीकरण और औद्योगिकरण के कारण मानव जंगलों को लगातार काटती जा रहा है, जिससे न केवल पर्यावरण असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो गई है वरन् वन्य जीवों का अस्तित्व भी खतरे में है। कई वन्य-प्राणी तो लुप्त हो चुके हैं। वृक्ष पहाड़ियों की सतह को (UPBoardSolutions.com) बनाए रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं तथा तेजी से बढ़ते बारिश के पानी में प्राकृतिक बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। परंतु वृक्षों के अभाव में नदी का जलस्तर बढ़ जाता है, जिससे बातें आती हैं। हम जानते हैं कि बाढ़ के अपने दुष्प्रभाव हैं।  वनों की कटाई के परिणाम बहुत गंभीर हैं। इसका सबसे बड़ा नुकसान वायु प्रदूषण के रूप में देखने को मिलता है। जहाँ पेड़ों की कमी होती है वहाँ हवा प्रदूषित हो जाती है और साँस से संबंधित अनेक प्रकार की बीमारियाँ हो जाती हैं।

वनों के विनाश के कारण वन्य-जीवों का अस्तित्व भी संकट में है। ग्लोबल वार्मिंग का खतरा अलग बढ़ रहा है। जंगलों के कटने से भूमि क्षरण के कारण रेगिस्तान बड़े पैमाने पर फैल रहा है। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से वर्षा कम होने लगी है। अपर्याप्त वर्षा से जल स्रोत दूषित हो रहा है। हवा में जहरीली गैसों के बढ़ने से पर्यावरण में प्रदूषण की मात्रा अत्यधिक बढ़ गई है। यदि समय रहते मनुष्य नहीं सँभला और उसने पेड़ों के संरक्षण व संवर्धन की तरफ उचित ध्यान नहीं दिया तो यह (UPBoardSolutions.com) धरती पेड़-पौधों एवं वनस्पतियों से विहीन हो जाएगी। मनुष्य साँस-साँस को तरसेगा। सूखा, अकाल या बाढ़ की भयावह स्थिति उत्पन्न हो जाएगी, वन्य-जीव मनुष्यों के निवास पर धावा बोलेंगे और या तो मारे जाएँगे या मनुष्यों को मारेंगे। कुल मिलाकर पेड़ों के बिना मनुष्य जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। मनुष्य बिना वृक्षों के नहीं जी सकता। वृक्ष नहीं रहे तो सबसे पहले मानव का अस्तित्व पृथ्वी से समाप्त होगा।

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प्रश्न 2.
यदि पेड़ पौधे बोलने लगें तो वे अपनी कौन-कौन सी समस्या बतायेंगे? ।
उत्तर-
यदि पेड़ बोलने लगें तो वे अपनी बहुत-सी समस्या हम मनुष्यों से बाँटेंगे। जैसे कि  हम मनुष्य उनका ख्याल नहीं रखते। उनकी शाखाओं को काटने पर उन्हें भी दर्द होता है। वे हमें फल-फूल, लकड़ी जैसी अनेक वस्तुएँ उपहार में देते हैं परंतु हम इन सबके बदले उन्हें तकलीफ पहुँचाते हैं।

कविता से
प्रश्न 1.
“बहुत दिनों से सोच रहा था, थोड़ी-सी धरती पाऊँ” से कवि का क्या आशय है ?
उत्तर-
“बहुत दिनों से सोच रहा था, थोड़ी-सी धरती पाऊँ” से कवि का आशय यह है कि वे काफी समय से इस प्रयास में लगे हुए हैं कि बाग-बगीचा लगाने के लिए थोड़ी-सी ज़मीन कहीं खरीदें।

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प्रश्न 2.
कविता में कवि की क्या चिन्ता है?
उत्तर-
कविता में कवि की चिन्ता यह है कि मनुष्य यदि इसी तरह पेड़-पौधे काटते जाएँगे तो पशु-पक्षियों को आश्रय छिन जाएगा और मनुष्य उन्हें देखने के लिए तरस जाएगा, साथ ही हवा जहरीली 
हो जाएगी और धरती पर जीवन का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

प्रश्न 3.
कवि क्या विनती कर रहा है?
उत्तर-
कवि सभी लोगों से विनती कर रहा है कि वे पेड़ों को न काटें। साथ ही कवि यह भी विनती कर रहा है कि लोग अधिक से अधिक पेड़ लगाएँ और धरती को हरा-भरा रखें।

प्रश्न 4.
बच्चे और पेड़ संसार को हरा-भरा किस प्रकार रखते हैं।
उत्तर-
बच्चों से ही दुनिया में खुशहाली है। जिन घरों में बच्चे नहीं होते, वहाँ सन्नाटा और मातम-सा माहौल होता है। उसी प्रकार पेड़ संसार को हरियाली प्रदान करते हैं। पेड़ों के बिना यह धरती (UPBoardSolutions.com) प्राणहीन और बंजर हो जाएगी। बच्चों की हँसी, शरारतें और पेड़ों की हरियाली तथा शुद्ध हवा ही इसे संसार को हरा-भरा रखते हैं। 

भाषा की बात-
प्रश्न 1.
क्रिया के जिस रूप से ज्ञात होता है कि कर्ता स्वयं कार्य न करके किसी दूसरे को कार्य करने के लिए प्रेरित कर रही है, उसे ‘प्रेरणार्थक क्रिया कहते हैं, जैसे-पढ़ना-पढ़वाना।

निम्नलिखित क्रियो शब्दों से प्रेरणार्थक क्रिया बनाइए
खेलना, रखना, घूमना, काटना, बनाना, लिखना, देखना, पिलाना।
उत्तर-
खेलना – खिलवाना                               
रखना – रखवाना
घूमना – घुमवाना                                  काटना – कटवाना
बनाना – बनवाना                                  लिखना – लिखवाना
देखना – दिखवाना                                पिलाना – पिलवाना 

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प्रश्न 2.
जहाँ पर वर्गों की आवृत्ति से काव्य की शोभा बढ़ती हो वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। उदाहरण के लिए-संग-संग, एक-एक, बाग-बगीचा, फूल-फल आदि। आप अपनी पुस्तक से खोजकर अनुप्रास अलंकार के दो अन्य उदाहरण लिखिए
उत्तर-
(i) वरदे वीणावादिनी वरदे – ‘व’ अक्षर की आवृत्ति।
(ii) पोथी पढ़ि-पढि जग मुवा, पंडित भया न कोय। (‘प’ वर्ण की आवृत्ति)

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi सामाजिक निबन्ध

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सामाजिक निबन्ध

30. दूरदर्शन का सामाजिक जीवन पर प्रभाव

सम्बद्ध शीर्षक

  • दूरदर्शन का महत्त्व
  • दूरदर्शन का जीवन पर प्रभाव
  • दूरदर्शन से लाभ एवं हानि [2012]
  • दूरदर्शन : गुण और दोष [2010]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. दूरदर्शन का आविष्कार,
  3. विभिन्न क्षेत्रों में दूरदर्शन का योगदान,
  4. दूरदर्शन से हानियाँ,
  5. उपसंहार।

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प्रस्तावना-विज्ञान द्वारा मनुष्य को दिया गया एक सर्वाधिक आश्चर्यजनक उपहार है—दूरदर्शन। आज व्यक्ति जीवन की आपाधापी से त्रस्त है। वह दिन-भर अपने काम में लगा रहता है, चाहे उसका कार्य शारीरिक हो या मानसिक। शाम को (UPBoardSolutions.com) थक कर चूर हो जाने पर अपनी थकावट और चिन्ताओं से मुक्ति के लिए व्यक्ति कुछ मनोरंजन चाहता है। दूरदर्शन मनोरंजन का सर्वोत्तम साधन है। आज यह जनसामान्य के जीवन का केन्द्रीय अंग हो चला है। इससे जीवन के विविध क्षेत्रों में व्यक्ति का ज्ञानवर्द्धन हुआ है। दूरदर्शन ने व्यक्ति में जनशिक्षा का संचार करके उसे समय के साथ चलने की चेतना दी है। यह रेडियो, सिनेमा और समाचार-पत्रों से अधिक अच्छा और प्रभावी माध्यम सिद्ध हुआ है।

दूरदर्शन का आविष्कार-दूरदर्शन का आविष्कार अधिक पुराना नहीं है। 25 जनवरी, 1926 ई० को इंग्लैण्ड के एक इंजीनियर जॉन बेयर्ड ने इसको रॉयल इंस्टीट्यूट के सदस्यों के सामने पहली बार प्रदर्शित किया। भारत में दूरदर्शन का पहला केन्द्र 1959 ई० में नयी दिल्ली में चालू हुआ था। आज तो लगभग सारे देश में दूरदर्शन का प्रसार हो गया है और इसका प्रसारण-क्षेत्र धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा है। कृत्रिम उपग्रहों ने तो दूरदर्शन के कार्यक्रमों को समस्त विश्व के लोगों के लिए और भी सुलभ बना दिया है। ।

विभिन्न क्षेत्रों में दूरदर्शन का योगदान–दूरदर्शन अनेक दृष्टियों से हमारे लिए लाभकारी सिद्ध हो रहा है। कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में दूरदर्शन के योगदान, महत्त्व एवं उपयोगिताओं का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है
(क) शिक्षा के क्षेत्र में-दूरदर्शन से अनेक शैक्षिक सम्भावनाएँ जीवन्त हुई हैं। वह कक्षा में प्रभावशाली ढंग से पाठ की पूर्ति कर सकता है तथा विविध विषयों में यह विद्यार्थी की रुचि विकसित कर सकता है। दृश्य होने के कारण इसका प्रभाव दृढ़ होता है। देश-विदेश के अनेक स्थानों को देखकर भौगोलिक ज्ञान बढ़ता है।
(ख) वैज्ञानिक अनुसन्धान तथा अन्तरिक्ष के क्षेत्र में वैज्ञानिक अनुसन्धान की दृष्टि से भी दूरदर्शन (UPBoardSolutions.com) का विशेष महत्त्व रहा है। चन्द्रमा, मंगल व शुक्र ग्रहों पर भेजे गये अन्तरिक्ष यानों में दूरदर्शन यन्त्रों का प्रयोग किया गया था, जिन्होंने वहाँ के बहुत सुन्दर और विश्वसनीय चित्र पृथ्वी पर भेजे। विभिन्न वैज्ञानिक अनुसन्धानों को प्रदर्शित करके दूरदर्शन ने विज्ञान का उच्चतर ज्ञान कराया है।

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(ग) तकनीक और चिकित्सा के क्षेत्र में तकनीक और चिकित्सा के क्षेत्र में भी दूरदर्शन बहुत शिक्षाप्रद रहा है। दूरदर्शन ने एक सफल और प्रभावशाली प्रशिक्षक की भूमिका निभायी है। यह अधिक। प्रभावशाली और रोचक विधि से मशीनी प्रशिक्षण के विभिन्न पक्ष शिक्षार्थियों को समझा सकता है।
(घ) कृषि के क्षेत्र में–भारत एक कृषिप्रधान देश है। यहाँ अधिकांश कृषक अशिक्षित हैं। दूरदर्शन ने अपने कार्यक्रमों के माध्यम से किसानों को फसल बोने की आधुनिक तकनीक, उत्तम बीज तथा रासायनिक खाद के प्रयोग और उसके परिणामों को प्रत्यक्ष दिखाकर इस क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया है।
(ङ) सामाजिक चेतना की दृष्टि से विविध कार्यक्रमों के माध्यम से दूरदर्शन ने लोगों को ‘छोटा परिवार-सुखी परिवार की ओर आकर्षित किया है। इसने बाल-विवाह, दहेज-प्रथा, छुआछूत व साम्प्रदायिकता के विरुद्ध जनमत तैयार किया है। यह बाल-कल्याण और नारी-जागरण में भी उपयोगी सिद्ध हुआ है। यह दर्शकों को कानून और व्यवस्था के विषय में भी शिक्षित करता है।
(च) राजनीतिक दृष्टि से दूरदर्शन राजनीतिक दृष्टि से भी जनसामान्य को शिक्षित करता है। वह प्रत्येक व्यक्ति को, उसके अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक करता है तथा मताधिकार के प्रति रुचि जात करके उसमें राजनतिक चेतना लाता है।

दूरदर्शन के सीधे प्रसारण ने कुश्ती, तैराकी, बैडमिण्टन, फुटबॉल, हॉकी, क्रिकेट आदि खेलों को लोकप्रियता की बुलन्दियों पर पहुँचा दिया है। दूरदर्शन के इस सुदृढ़ प्रभाव को देखते हुए उद्योगपति और व्यवसायी अपने उत्पादनों के प्रचार के लिए इसे प्रमुख माध्यम के रूप में अपना रहे हैं।

दूरदर्शन से हानियाँ-दूरदर्शन से होने वाले लाभों के साथ-साथ इससे होने वाली कुछ हानियाँ भी हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। कोमल आँखें घण्टों तक टी० वी० स्क्रीन पर केन्द्रित रहने से अपनी स्वाभाविक शोभा क्षीण कर लेती हैं। इससे निकलने वाली विशेष प्रकार की किरणों का प्रतिकूल प्रभाव नेत्रों के साथ-साथ त्वचा पर भी पड़ता है। इसके कारण हमें अपने आवश्यक कार्यों के लिए भी समय का प्रायः अभाव ही बना रहता है।

केबल टी० वी० पर प्रसारित होने वाले कुछ कार्यक्रमों ने तो अल्पवयस्क बुद्धि के किशोरों को वासना के पंक में धकेलने का कार्य किया है। इनसे न केवल हमारी युवा पीढ़ी पर विदेशी अपसंस्कृति का प्रभाव पड़ रहा है अपितु हमारे अबोध और नाबालिग बच्चे भी इसके दुष्प्रभाव से बच नहीं पा रहे हैं।

उपसंहार-इस प्रकार हम देखते हैं कि दूरदर्शन मनोरंजन के साथ-साथ जन-शिक्षा का भी एक . सशक्त माध्यम है। आवश्यकता है कि इसे केवल मनोरंजन का साधन ही न समझा जाए, वरन् यह जन-शिक्षा एवं प्रचार का माध्यम भी बने। इस उद्देश्य के लिए इसके विविध कार्यक्रमों में अपेक्षित सुधार होने चाहिए। इसके माध्यम से तकनीकी और व्यावहारिक शिक्षा का प्रसार किया जाना चाहिए। दूरदर्शन से होने वाली हानियों के लिए एक विशेष तन्त्र एवं दर्शक (UPBoardSolutions.com) जिम्मेदार हैं। इसके लिए दूरदर्शन के निदेशकों, सरकार एवं सामान्यजन को संयुक्त रूप से प्रयास करने होंगे, जिससे दूरदर्शन के कार्यक्रमों को दोषमुक्त बनाकर उन्हें वरदान के रूप में ग्रहण किया जा सके।

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31. वनों (वृक्षों) का महत्त्व [2009, 13, 17]

सम्बद्ध शीर्षक

  • हमारी वन सम्पदा
  • वन और पर्यावरण
  • वन-महोत्सव की उपयोगिता
  • वृक्ष हमारे जीवन-साथी
  • वृक्षारोपण का महत्त्व [2009, 11]
  • वृक्षों की रक्षा : पर्यावरण सुरक्षा [2012, 13]
  • वृक्षारोपण [2013, 18]
  • वृक्ष : मानव के सच्चे हितैषी [2016]

रूपरेखा—

  1. प्रस्तावना,
  2. वनों को प्रत्यक्ष योगदान,
  3. वनों का अप्रत्यक्ष योगदान,
  4. भारतीय बन-सम्पदा के लिए उत्पन्न समस्याएँ,
  5. वनों के विकास के लिए सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयास,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-वन मानव-जीवन के लिए बहुत उपयोगी हैं, किन्तु सामान्य व्यक्ति इसके महत्त्व को नहीं समझ पा रहे हैं। जो व्यक्ति वनों में रहते हैं या जिनकी आजीविका वनों पर आश्रित है, वे तो वनों के महत्त्व को समझते हैं, लेकिन जो लोग वनों में नहीं रह रहे हैं, वे इन्हें प्राकृतिक शोभा का साधन मानते हैं। वनों का मनुष्यों के जीवन से कितना गहरा सम्बन्ध है, इसके लिए विभिन्न क्षेत्रों में उनका योगदान क्रमिक रूप से द्रष्टव्य है।

वनों का प्रत्यक्ष योगदान :
(क) मनोरंजन का साधन-वन, मानव को सैर-सपाटे के लिए रमणीक क्षेत्र प्रस्तुत करते हैं। वृक्षों के अभाव में पर्यावरण शुष्क हो जाता है और सौन्दर्य नष्ट। ग्रीष्मकाल में लोग पर्वतीय क्षेत्रों की यात्रा करके इस प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द लेते हैं।
(ख) लकड़ी की प्राप्ति-वनों से हम अनेक प्रकार की बहुमूल्य लकड़ियाँ प्राप्त करते हैं। इन्हें ईंधन के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। कुछ लकड़ियाँ व्यापारिक दृष्टिकोण से भी बहुत उपयोगी होती हैं,
जिनमें साल, सागौन, देवदार, चीड़, शीशम, चन्दन, (UPBoardSolutions.com) आबनूस आदि की लकड़ियाँ मुख्य हैं। इनका प्रयोग फर्नीचर, इमारती सामान, माचिस, रेल के डिब्बे, जहाज आदि बनाने में किया जाता है।

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(ग) विभिन्न उद्योगों के लिए कच्चे माल की पूर्ति–वनों से लकड़ी के अतिरिक्त अनेक उपयोगी सहायक वस्तुओं की प्राप्ति होती है, जिनका अनेक उद्योगों में कच्चे माल के रूप में उपयोग किया जाता है। इनमें गोंद, शहद, जड़ी-बूटियाँ, कत्था, लाख, बाँस, बेंत आदि मुख्य हैं। इनका कागज, फर्नीचर, दियासलाई, टिम्बर, ओषधि आदि उद्योगों में कच्चे माल के रूप में उपयोग किया जाता है।
(घ) प्रचुर फलों की प्राप्ति-वन प्रचुर मात्रा में फल उत्पन्न करके मानव का पोषण करते हैं। ये फल अनेक बहुमूल्य खनिज लवणों व विटामिनों के स्रोत हैं।
(ङ) जीवनोपयोगी जड़ी-बूटियाँ-वन अनेक जीवनोपयोगी जड़ी-बूटियों के भण्डार हैं। वनों में ऐसी अनेक वनस्पतियाँ पायी जाती हैं, जिनसे अनेक असाध्य रोगों का निदान सम्भव हो सका है। विजयसार की लकड़ी मधुमेह की अचूक औषध है।
(च) वन्य पशु-पक्षियों को संरक्षण–वन्य पशु-पक्षियों की सौन्दर्य की दृष्टि से अपनी एक विशिष्ट उपयोगिता है। वन अनेक वन्य पशु-पक्षियों को संरक्षण प्रदान करते हैं। ये हिरन, नीलगाय, गीदड़, रीछ, शेर, चीता, हाथी आदि वन्य पशुओं की क्रीड़ास्थली हैं। ये पशु वनों में स्वतन्त्र विचरण करते हैं, भोजन प्राप्त करते हैं और संरक्षण पाते हैं। पालतू पशुओं के लिए भी वन विशाल चरागाह उपलब्ध कराते हैं।
(छ) आध्यात्मिक लाभ–मानव-जीवन के भौतिक पक्ष के अतिरिक्त उसके मानसिक एवं (UPBoardSolutions.com) आध्यात्मिक पक्षों के लिए भी वनों का महत्त्व कुछ कम नहीं है। सांसारिक जीवन से क्लान्त मनुष्य यदि वनों में कुछ समय निवास करते हैं तो उन्हें सन्तोष तथा मानसिक शान्ति प्राप्त होती है।

उपर्युक्त के अतिरिक्त सरकार को राजस्व और वनों के ठेकों के रूप में करोड़ों रुपये की आय होती है। साथ ही सरकार चन्दन के तेल, उसकी लकड़ी से बनी कलात्मक वस्तुओं, फर्नीचर, लाख, तारपीन के तेल आदि के निर्यात से प्रति वर्ष करोड़ों रुपये की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा अर्जित करती है।

वनों का अप्रत्यक्ष योगदान :

(क) वर्षा–भारत एक कृषिप्रधान देश है। कृषि की मानसून पर निर्भरता की दृष्टि से वनों का बहुत महत्त्व है। वन वर्षा में सहायता करते हैं। इन्हें वर्षा का संचालक कहा
जाता है।
(ख) पर्यावरण सन्तुलन (शुद्धीकरण)-वन-वृक्ष वातावरण से दूषित वायु (कार्बन डाइऑक्साइड) ग्रहण करके अपना भोजन बनाते हैं और ऑक्सीजन छोड़कर पर्यावरण को शुद्ध बनाते हैं। इस प्रकार वन पर्यावरण में सन्तुलन बनाये रखने में सहायक होते हैं।
(ग) जलवायु पर नियन्त्रण-वनों से वातावरण का तापक्रम, नमी और वायु प्रवाह नियन्त्रित होता है, जिससे जलवायु में सन्तुलन बना रहता है। वन जलवायु की भीषण उष्णता को सामान्य बनाये रखते हैं। ये आँधी-तूफानों से हमारी रक्षा करते हैं तथा जलवायु को भी प्रभावित करते हैं।
(घ) जल के स्तर में वृद्धि–वन वृक्षों की जड़ों के द्वारा वर्षा के जल को सोखकर भूमि के नीचे के जल-स्तर को बढ़ाते रहते हैं। इससे दूर-दूर तक के क्षेत्र हरे-भरे रहते हैं, साथ ही भूमिगत जल का स्तर घटने नहीं पाता। पहाड़ों पर बहते चश्मे, वनों की पर्याप्तता के ही परिणाम हैं।
(ङ) भूमि-कटाव पर रोक–वनों के कारण वर्षा का जल मन्द गति से प्रवाहित होता है; अतः भूमि का कटाव कम होता है। वर्षा के अतिरिक्त जल को वन सोख लेते हैं और नदियों के प्रवाह को नियन्त्रित करके भूमि के कटाव को रोकते हैं, जिसके फलस्वरूप भूमि की उर्वरा-शक्ति भी बनी रहती है।
(च) रेगिस्तान के प्रसार पर रोक-वन तेज आँधियों को रोकते हैं तथा वर्षा को आकर्षित करते हैं, जिससे मिट्टी के कण उनकी जड़ों में बँध जाते हैं। इससे रेगिस्तान का प्रसार नहीं होने पाती।।

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भारतीय वन-सम्पदा के लिए उत्पन्न समस्याएँ-वनों के योगदान से स्पष्ट है कि वन हमारे जीवन में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूप से बहुत उपयोगी हैं। वनों में अपार सम्पदा पायी जाती थी, किन्तु जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती गयी, वनों को मनुष्य के प्रयोग के लिए काटा जाने लगा। अनेक अद्भुत और घने वन आज समाप्त हो गये हैं। वन-सम्पदा के इस संकट ने व्यक्ति और सरकार को वन-संरक्षण की ओर सोचने पर विवश कर दिया है। (UPBoardSolutions.com) आज हमारे देश में वनों का क्षेत्रफल केवल 20 प्रतिशत से भी कम रह गया है, जो कम-से-कम एक-तिहाई होना चाहिए था। वनों के पर्याप्त दोहन, नगरीकरण, वनों की अन्धाधुन्ध कटाई ने भारतीय वन-सम्पदा के लिए अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर दी हैं।

वनों के विकास के लिए सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयास सरकार ने वनों के महत्त्व को दृष्टिगत रखते हुए समय-समय पर वनों के संरक्षण और विकास के लिए अनेक कदम उठाये हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नवत् है

  1. सन् 1956 ई० में वन महोत्सव का आयोजन किया गया, जिसका मुख्य नारा था-‘अधिक वृक्ष लगाओ’, तभी से यह उत्सव प्रति वर्ष 1 से 7 जुलाई तक मनाया जाता है।
  2. सन् 1965 ई० में सरकार ने केन्द्रीय वन आयोग की स्थापना की जो वनों से सम्बन्धित आँकड़े और सूचनाएँ एकत्रित करके वनों के विकास में लगी हुई संस्थाओं के कार्य में ताल-मेल बैठाता है।
  3. विभिन्न राज्यों में वन निगमों की रचना की गयी है, जिससे वनों की अनियन्त्रित कटाई को रोका जा सके।

व्यक्तिगत स्तर पर भी अनेक आन्दोलनों का संचालन करके समाज-सेवियों द्वारा समय-समय पर सरकार को वनों के संरक्षण और विकास के लिए सचेत किया जाता रहा है।

उपसंहार-निस्सन्देह वन हमारे लिए बहुत उपयोगी हैं। इसलिए वनों का संरक्षण और संवर्द्धन बहुत आवश्यक है। इसलिए आवश्यकता है कि सरकार वन-संरक्षण नियमों को कड़ाई से पालन कराकर आने वाली पीढ़ी की भावी प्राकृतिक विपदाओं से रक्षा करे। इसके लिए सरकार के (UPBoardSolutions.com) साथ-साथ सामान्य जनता का सहयोग भी अपेक्षित है। यदि प्रत्येक व्यक्ति वर्ष में एक बार एक वृक्ष लगाने और उसको भली प्रकार संरक्षण करने का संकल्प लेकर उसे क्रियान्वित भी करे तो यह राष्ट्र के लिए आगे आने वाले कुछ एक वर्षों में अमूल्य योगदान हो सकता है।

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32. ग्राम्य-जीवन [2010]

सम्बद्ध शीर्षक

  • भारत गाँवों में बसता है।
  • भारतीय किसान का जीवन
  • भारतीय किसान की समस्याएँ

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. ग्रामीणों का सरल और सात्त्विक जीवन,
  3. ग्राम्य-जीवन का आनन्द,
  4. भारतीय ग्रामों की दुर्दशा,
  5. सरकार के सुधार और प्रयत्न,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना–भारत ग्रामप्रधान देश है। यहाँ की 70% जनसंख्या ग्रामों में निवास करती है। गाँधीजी का कथन था कि, “भारत ग्रामों में बसता है।’ कवीन्द्र रवीन्द्र का कथन है कि ‘‘यदि तुम्हें ईश्वर के दर्शन करने हैं तो वहाँ जाओ, जहाँ किसान जेठ की दुपहरी में हल जोतकर एड़ी-चोटी का पसीना एक करता है। इन कथनों से स्पष्ट होता है कि भारत का सच्चा सौन्दर्य ग्रामों में है। भारत में ग्रामों की संख्या अधिक है। ग्रामों में लोग झोपड़ियों में निवास करते हैं, जबकि नगरों के लोग उच्च अट्टालिकाओं और दिव्य प्रासादों में। फिर भी वास्तविक आनन्द ग्रामों में ही प्राप्त होता है, नगरों में नहीं।

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ग्रामीणों का सरल और सात्त्विक जीवन–ग्रामों के लोग बाहर से अधनंगे, अनाकर्षक और अशिक्षित होते हुए भी हृदय से सीधे, सच्चे और पवित्र होते हैं। भारत की सच्ची सभ्यता के दर्शन ग्रामों में ही होते हैं। ग्रामवासी ईमानदार और अतिथि-सत्कार करने वाले होते हैं। ग्रामीणों का जीवन कृत्रिमता, बाह्यआडम्बर, छल, धोखा आदि से दूर रहता है। ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ की झलक सरल ग्राम्य-जीवन में ही मिलती है। ग्रामीणों में अधिक व्यय की भावना नहीं होती। वे कृत्रिम साधनों से दूर तथा सिनेमा, नाटक , और नाच-रंग से अछूते रहते हैं।

ग्रामीण लोग रूखा-सूखा, जो कुछ मिल जाता है, खा लेते हैं। मोटा और सस्ता कपड़ा पहनते हैं। अतिथि का दिल खोलकर स्वागत करते हैं। खुली हवा और खुली धूप में प्रकृति के ये नौजवान साधु खेतों में काम करते हैं। प्रात:काल की ऊषा की लालिमा से लेकर (UPBoardSolutions.com) सन्ध्या तक ये खेतों में कठिन परिश्रम करते हैं। सन्ध्या-पूजा से अनभिज्ञ इन लोगों के हृदय में ईश्वर निवास करता है। इनमें परमात्मा के प्रति अटूट विश्वास, मानवता से प्रेम तथा भाईचारा, दया, करुणा, सहयोग आदि की उच्च भावनाएँ पायी जाती हैं। गाय-भैंस के ताजे दूध और मक्खन, अपने खेत में उत्पन्न अन्न और सब्जियों, ग्राम-वधुओं के हाथ से पीसे गये आटे और उनके द्वारा बिलोये गये मट्टे में जो आनन्द और सन्तोष मिलता है, वह नगरों के चटनी, अचार, मुरब्बों और पकवानों में कहाँ ?

ग्राम्य-जीवन का आनन्द–ग्रामवासियों का जीवन सरल, शान्त और आनन्दमय होता है। नगरों की विशाल अट्टालिकाओं, चौड़ी-चिकनी सड़कों, बिजली की चकाचौंध, सिनेमा, नाट्यधरों और अन्य विलासिता की सामग्री में वह आनन्द नहीं, जो शान्त, एकान्त, कोलाहल से दूर प्रकृति की सुरम्य गोद अर्थात् ग्रामों के वातावरण में है। कल-कल नाद करके बहती हुई नदी की धारा, घनी अमराइयों, पुष्पित लताओं, दूर तक फैली हरीतिमा और लहलहाते खेतों से जो मानसिक शान्ति और आत्म-सन्तोष मिलता है, वह धुआँ उगलती चिमनियों, क्लोरीन मिले पानी, सड़कों पर घर-घर्र और पों-पों के कोलाहल, हवा की पहुँच से दूर घने बसे घरों के वातावरण से पूर्ण नगरों में कहाँ ? गाँवों में प्रकृति का शुद्ध रूप देखने को मिलता है।

भारतीय ग्रामों की दुर्दशा-सरलता, सादगी और प्रकृति की सुरम्य गोद अर्थात् भारतीय ग्रामों की एक अपनी करुण कहानी है। शताब्दियों से इन दीन-हीन किसानों का शोषण होता आ रहा है। आज ग्रामों में जो विकट समस्याएँ मुँह बाये खड़ी हुई हैं, वे भारत जैसे देश के लिए कलंक की बात हैं। अधिकांश ग्रामीण अशिक्षा के भयंकर रोग, दरिद्रता के दुर्दान्त दानव एवं अन्धविश्वास के भूत से ग्रसित हैं। भारत की स्वतन्त्रता से पूर्व कृषक का जन्म दरिद्रता और अज्ञान के मध्य होता था, वे अन्धविश्वास और ऋण की गोद में पलते थे, दु:ख और दरिद्रता में बड़े होते थे। भारत की लोकप्रिय सरकार ने ग्रामों की दशा में उल्लेखनीय सुधार किये हैं।

वर्तमान समय में गाँव दुर्गुणों, बुराइयों, रूढ़ियों एवं हानिकारक रीति-रिवाजों के अड्डे बन गये हैं। भोले किसानों को सूदखोर महाजनों एवं मुनाफाखोर व्यापारियों के शोषण का शिकार होना पड़ता है। ग्रामों में स्नेह, स्वावलम्बन, सहयोग, सरलता, पवित्रता आदि गुणों को लोप होता जा (UPBoardSolutions.com) रहा है। बढ़ती हुई बेकारी ने ग्रामीणों के जीवन को कुण्ठित और निराशामय बना दिया है। जातिवाद, लड़ाई-झगड़े एवं मुकदमेबाजी के कारण उनका जीवन नरकतुल्य बन गया है; अतः ग्रामों के देश भारत की सर्वांगीण उन्नति करने के लिए ग्रामों के सुधार की नितान्त आवश्यकता है।

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सरकार के सुधार और प्रयत्न-हमारी लोकप्रिय सरकार ग्रामों के सुधार की ओर विशेष ध्यान दे रही है। ग्रामों में रोगों से मुक्ति दिलाने के लिए अस्पताल तथा अशिक्षा को दूर करने के लिए स्कूल खोले जा रहे हैं। ग्रामों के आर्थिक विकास के लिए उन्हें सड़कों और रेलमार्गों से जोड़ा जा रहा है। नलकूपों, बिजली, उत्तम बीज, रासायनिक खाद तथा कृषि-यन्त्रों को सुलभ कराके ग्रामों की दशा सुधारी जा रही है। ग्राम पंचायतों के माध्यम से रेडियो, टेलीविजन आदि के द्वारा मनोरंजन के साधन सुलभ कराये जा रहे हैं।

उपसंहार–स्वतन्त्रता से पूर्व ग्रामों की दशा अत्यन्त शोचनीय थी। सरकार के प्रयत्नों से ग्रामों की दशा में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। ग्राम-सुधार और विकास कार्यक्रमों में तेजी लाने के लिए ग्राम के उत्साही युवकों का सहयोग अपेक्षित है। वह दिन दूर नहीं है, जब भारत के ग्राम पुन: ‘पृथ्वी का स्वर्ग’ कहलाएँगे।

33. चलचित्र : लाभ और हानियाँ

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. चलचित्रों की व्यापकता,
  3. मनोरंजन का साधन,
  4. समाज पर कुप्रभाव,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, जो समाज में रह कर ही अपने मनोरंजन के माध्यम हूँढ़ने का यत्न करता है। समय और परिस्थिति के अनुसार उसके मनोरंजन के साधन बदलते रहते हैं। जब तक विज्ञान का पूर्ण विकास नहीं हुआ था, तब तक वह मेले-तमाशे आदि के माध्यम से अपना मनोरंजन करता था, परन्तु वैज्ञानिक विकास के साथ उसने अपनी सुख-सुविधाओं के नवीन साधनों का भी आविष्कार किया है। उसने दृश्य और (UPBoardSolutions.com) श्रव्य की सहायता से अनेक आविष्कार किये हैं और इन्हीं के संयोग से चलचित्र का निर्माण किया है। सन् 1929 तक बने चलचित्रों में फोटोग्राफी तो सचल थी पर उनमें ध्वनि की कमी थी। सवाक् चलचित्रों का निर्माण सन् 1930 से आरम्भ हो गया था। पिछले वर्षों में इसने जो भी उन्नति की है, उसी के कारण मानव-मनोरंजन के क्षेत्र में इनको प्रमुख स्थान हो गया है।

चलचित्रों की व्यापकता–चलचित्रों ने समाज को अत्यधिक प्रभावित किया है। प्रारम्भ में जनता ने कौतूहल के साथ इस मनोरंजन का आस्वादन किया। धीरे-धीरे उसको इसमें कथा, नाटक, प्रहसन आदि का आनन्द भी मिलने लगा। इससे सिनेमा के दर्शकों की संख्या में वृद्धि होने लगी। जनता के प्रत्येक वर्ग में इसके प्रति मोह बढ़ने लगा। आज भारत में अमेरिका के बाद दूसरे नम्बर पर चलचित्रों का निर्माण होता है। प्रतिवर्ष भारत में बनने वाले चलचित्रों की संख्या लगभग एक हजार है। इनके निर्माण पर अरबों रुपये खर्च होते हैं। यह एक सफल व्यवसाय बन चुका है, जिसमें न जाने कितने लागों को रोजगार के अवसर प्राप्त होते हैं।

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मनोरंजन का साधन–सिनेमा आज मनोरंजन का प्रमुख, सर्वसुलभ एवं सस्ता माध्यम माना जाता है। दिन भर विभिन्न कार्यों में लगे रहने के कारण लोगों का मन श्रान्त-क्लान्त रहता है। अपनी शारीरिक एवं मानसिक थकान को दूर करने के लिए वे थोड़ी-सी राशि व्यय करके सिनेमा देखते हैं तथा इसे देखते हुए आनन्द की धारा में बहकर अपनी समस्त पीड़ाओं को भूल जाते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें जो मानसिक सन्तुष्टि प्राप्त होती है, उससे वे अपने अगले दिन के कार्यों के लिए उत्साह प्राप्त करते हैं।

सिनेमा शिक्षा के प्रचार का साधन भी स्वीकार किया जाता है। इसके द्वारा हमें अनेक प्रकार की शिक्षाएँ प्राप्त होती हैं। जिनके आधार पर दर्शक अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए अपने जीवन से विभिन्न बुराइयों को दूर कर अपना जीवन ‘आदर्श जीवन’ बना सकते हैं। अनेक समस्याओं के सहज, स्वाभाविक समाधान भी चलचित्रों के माध्यम से सुझाये जा सकते हैं, जो समाज में नवचेतना उत्पन्न कर सकते हैं। वीरों एवं देशभक्तों के चरित्रों पर बनी फिल्में राष्ट्रीय भावना को जाग्रत करती हैं।

सिनेमा से विभिन्न प्रकार के दृश्यों का आनन्द प्राप्त होता है। सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक चलचित्रों के माध्यम से हमें अपनी प्राचीन समृद्धि और परम्परा का ज्ञान होता है, जिससे प्रेरणा प्राप्त कर हम अपने वर्तमान को भी महान् बना सकते हैं।

समाज पर कुप्रभाव-सिनेमा ने आधुनिक समाज को जहाँ अत्यधिक प्रभावित करते हुए उसमें नव-चेतना जाग्रत की है, वहीं उसे पर्याप्त हानि भी पहुँचाई है। धन के लोभी फिल्म-निर्देशकों ने भद्दी-अश्लील और फूहड़ फिल्में बनानी आरम्भ कर दी हैं। इस प्रकार के चलचित्रों से दर्शकों के आचरण पर बुरा प्रभाव पड़ता है। श्रृंगार एवं फैशन के प्रति आकर्षण भी चलचित्रों के प्रभाव से बढ़ रहा है। जिन लोगों को इसका व्यसन लग जाता है, (UPBoardSolutions.com) वे अपनी आर्थिक स्थिति की चिन्ता किये बिना अपना सर्वस्व इसी में स्वाहा कर देते हैं। फिल्मों से मानवीय मूल्य नष्ट हो रहे हैं। लोगों को दृष्टिकोण हीन और कामुक होने लगा है तथा जीवन की वास्तविकता के प्रति उनकी आस्था समाप्त होने लगी है। कम आयु के बालक जब चलचित्र में अश्लील, अमानवीय और अतिमानवीय व्यवहार देखते हैं तो वे भविष्य में वैसा ही करने की प्रेरणा लेकर घर आते हैं।

आज स्थिति ऐसी हो गयी है कि सिनेमाघर बच्चों के बिगड़ने के अड्डे बन गये हैं। बच्चों के आयु से पहले परिपक्व हो जाने के पीछे भी सिनेमा का प्रमुख हाथ है। फिल्मों ने भारतीय समाज को ‘प्रेम-संस्कृति प्रदान की है जिसमें ‘गर्ल फ्रेण्ड’ और ‘ब्वॉय फ्रेण्ड’ का प्रचलन बढ़ा है, पति-पत्नी में मानसिक प्रतिरोध बढ़ा है तथा सामाजिक और पारिवारिक सम्बन्धों में विकार उत्पन्न हुए हैं।

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उपसंहार–सिनेमा सैद्धान्तिक रूप से ज्ञानवर्द्धक है। इसका व्यावसायिक रूप अत्यन्त हानिकारक है। आज हमें इस प्रकार के चलचित्रों की आवश्यकता है जो सामाजिक, राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना जगाने वाली हों। फिल्म निर्माण में संलग्न निर्माता, निर्देशकों, अभिनेताओं आदि को भी अपना उत्तरदायित्व समझते हुए समाज-सुधार एवं राष्ट्र-निर्माण में योगदान देना चाहिए। दर्शकों को सिनेमा मनोरंजन के लिए देखना चाहिए, व्यसन के रूप में नहीं तभी सिनेमा की सार्थकता सिद्ध होगी।

34. नारी-शिक्षा (2010, 13]

सम्बद्ध शीर्षक

  • नारी-शिक्षा का महत्त्व [2011, 12, 14]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. स्त्री-शिक्षा का अतीत और वर्तमान,
  3. नारी शिक्षा की ओवश्यकता,
  4. नारी-शिक्षा को रूप,
  5. आधुनिक शिक्षा,
  6. उपसंहार : भारत में नारी-शिक्षा की वर्तमान स्थिति।

प्रस्तावना-एक समय था, जब कि भारतवर्ष जगद्गुरु कहलाता था। विश्व के कोने-कोने से शिक्षार्थी यहाँ के विश्वविद्यालयों में विद्या ग्रहण करने आते थे। परन्तु परिस्थितियों के चक्रवात में भारत ऐसा फैसा कि आज यहाँ अशिक्षा और अज्ञान का साम्राज्य (UPBoardSolutions.com) व्याप्त हो गया है। आज विश्व के निरक्षरों का एक बड़ा प्रतिशत भारत में विद्यमान है। यहाँ की नारियों की स्थिति और भी दयनीय है। अक्षर-ज्ञान, स्कूली शिक्षा, तकनीकी शिक्षा आदि के क्षेत्र में वे बहुत पिछड़ी हुई हैं।

स्त्री-शिक्षा का अतीत और वर्तमान-ऐसा नहीं है कि भारतीय नारियाँ सदा-से ही अशिक्षित रही हों। प्राचीन काल में स्त्रियों को भी पुरुषों के समान शिक्षा दी जाती थी। अनुसूया, गार्गी, लीलावती आदि विदुषियों ने अपने ज्ञान से समाज को प्रभावित किया था। आचार्य मण्डन मिश्र की पत्नी ने जगद्गुरु शंकराचार्य से शास्त्रार्थ करके स्त्रियों के गौरव को बढ़ाया था। परन्तु दुर्भाग्य से भारतवर्ष को शताब्दियों तक आक्रमणकारियों के युद्ध झेलने पड़े। अस्तित्व के लिए जूझने हमारे देश का शैक्षिक विकास रुक गया। भारतीय नारी को अपनी लाज बचाने के लिए घर की दहलीज में सीमित रहना पड़ा। परिणामस्वरूप अशिक्षा उसकी विवशता बन गयी।

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उल्लेखनीय बात यह है कि युगों तक विद्यालयी शिक्षा से वंचित रहने पर भी भारतीय नारी ने पुरुषसमाज को सुसंस्कारित करने का बीड़ा उठाया। शिवाजी को महान बनाने वाली जीजाबाई थीं। ‘तुलसीदास को ‘रामबोला’ बनाने वाली उनकी अर्धांगिनी रत्नावली’ थीं। सैकड़ों वर्षों के युद्धों में अपने धर्म और संस्कृति को बचाये रखने वाली भारत की नारियाँ ही थीं। इस कारण हम यहाँ की नारियों को अशिक्षित होते हुए भी असंस्कारित नहीं कह सकते।

नारी-शिक्षा की आवश्यकता–नारी और पुरुष दोनों समाज रूपी रथ के दो पहिये हैं। दोनों का समान रूप से शिक्षित होना आवश्यक है। समाज के कुछ पुरातनपन्थी लोग स्त्री-शिक्षा के विरोधी हैं। वे स्त्री को ‘पराया-धन’ या ‘पाँव की जूती’ या ‘अनुत्पादक’ मानकर पुरुषों के समकक्ष नहीं आने देना चाहते। वे भूल जाते हैं कि मनुष्य-जीवन की सबसे मूल्यवान शक्ति नारी के हाथों में ही है। नारियाँ ही माँ बनकर बच्चों को पालती हैं, उन्हें गुणवान बनाती हैं। वे ही उस कच्ची मिट्टी को अपने कल्पित साँचे में ढालती हैं। वह उसे देवता भी बना सकती हैं और राक्षस भी। यदि नारी में ही विवेक न होगा तो उसकी सन्तानें कैसे विवेकवान होंगी। अतः सर्वप्रथम नारी को शिक्षित, संस्कारित एवं ज्ञान-समृद्ध बनाना आवश्यक है।

अरस्तू के कथनानुसार, “नारी की उन्नति तथा अवनति पर ही राष्ट्र की उन्नति या (UPBoardSolutions.com) अवनति निर्भर करती है।’ प्रसिद्ध दार्शनिक बर्नार्ड शॉ का कहना है कि “किसी व्यक्ति का चरित्र कैसा है, यह उसकी माता को देखकर बताया जा सकता है।”

नारी-शिक्षा का रूप–प्रश्न यह है कि नारी-शिक्षा का स्वरूप क्या होना चाहिए ? क्या नारी और पुरुष की शिक्षा में कोई अन्तर होना चाहिए ? उत्तर है–हाँ, होना चाहिए। जब प्रकृति ने उन्हें स्वभावतया पुरुष से भिन्न बनाया है तो उनकी शिक्षा भी भिन्न होनी चाहिए। नारी स्वभाव से कोमल होती है। उसमें समस्त रचनात्मक क्षमताएँ होती हैं। जयशंकर प्रसाद ने नारी-हृदय के गुणों की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है

दया माया ममता लो आज, मधुरिमा लो अगाध विश्वास।
हमारा हृदय-रत्न निधि स्वच्छ, तुम्हारे लिए खुला है पास ॥

नारी में दया, ममता, मधुरिमा, विश्वास, स्वच्छता, समर्पण, त्याग आदि उदात्त वृत्तियाँ होती हैं। अतः उसकी शिक्षा भी ऐसी होनी चाहिए जिससे उसकी इन शक्तियों का उत्तरोत्तर विकास हो। एक नारी चिकित्सा, शिक्षा, सेवा, पालन-पोषण, सौन्दर्य-बोध, कला आदि क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। वह चिकित्सक, शिक्षिका, प्रशिक्षक, परिधान-विशेषज्ञ आदि के रूप में कुशल सिद्ध हो सकती है। ये कार्य उसकी शक्तियों और रुचियों के अनुरूप हैं।

आधुनिक शिक्षा-आज की नारी पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने की होड़ में इंजीनियरिंग, वाणिज्य, सेना, पायलट, पुलिस आदि सेवाओं में जा रही है। आज के इस समानता-समर्थक युग में इस दौड़ को उचित कहा जा रहा है, परन्तु ये क्षेत्र स्त्रियोचित नहीं हैं। सेना-पुलिस जैसे क्षेत्र पुरुषोचित हैं। इनके लिए चित्त की कठोरता और अनथक भागदौड़ की आवश्यकता होती है। स्त्री के लिए वैसी शिक्षा और नौकरी चाहिए जिससे उसका स्त्रैण स्वभाव अक्षुण्ण बना रहे। फिर भी यदि नारी-समाज का अल्पांश कानून, पुलिस, सेना, वाणिज्य जैसे क्षेत्रों में जाना चाहे तो उसे पुरुषवत् अधिकार दिये जाने चाहिए; क्योंकि रानी लक्ष्मीबाई, इन्दिरा गाँधी, सरोजिनी नायडू, किरण बेदी आदि प्रतिभाओं ने कठोर क्षेत्रों में आकर जनसमाज को क्रान्तिकारी दिशा प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है।

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उपसंहार : भारत में नारी-शिक्षा की वर्तमान स्थिति-यद्यपि भारत में नारी-शिक्षा की स्थिति सन्तोषजनक नहीं है, किन्तु आशाजनक अवश्य है। सरकार और समाज के प्रयत्नों से नारी-शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। हरियाणा में स्नातक स्तर तक ग्रामीण नारियों की शिक्षा मुफ्त कर दी गयी है। लड़कियों ने कला, चिकित्सा, विज्ञान, वाणिज्य, प्रशासनिक सेवा सभी क्षेत्रों में लड़कों को जबरदस्त चुनौती दी है। लड़कियों की उत्तीर्णता प्रतिशत और गुणवत्ता (UPBoardSolutions.com) प्रतिशत लड़कों से अधिक है। इससे स्पष्ट है कि भारत नारी-शिक्षा और प्रतियोगिता के क्षेत्र में उत्तरोत्तर प्रगति कर रहा है। यह एक शुभ संकेत है।

35. परिवार नियोजन

सम्बद्ध शीर्षक

  • बढ़ती जनसंख्या : संसाधनों पर बोझ
  • बढ़ती हुई जनसंख्या और हमारी प्रगति

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. भारत की स्थिति,
  3. जनसंख्या : समस्या क्यों?,
  4. जनसंख्यावृद्धि के कारण,
  5. जनसंख्या-वृद्धि रोकने के उपाय,
  6. उपसंहार : शिक्षा तथा प्रोत्साहन।

प्रस्तावना–परिवार-नियोजन का तात्पर्य है-परिवार को सीमित रखना, दूसरे शब्दों में कम सन्तान को जन्म देना या जनसंख्या पर रोक लगाना। भारतवर्ष बीसवीं-इक्कीसवीं सदी में जिस सबसे बड़े और • भयानक संकट के दौर से गुजर रहा है, वह है-जनसंख्या-विस्फोट।

भारत की स्थिति-भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या के आँकड़े चौंका देने वाले हैं। यहाँ की आबादी एक अरंब बीस करोड़ का आँकड़ा पार कर चुकी है। हर मिनट में कई बच्चे जन्म ले लेते हैं। इस प्रकार प्रतिवर्ष सवा करोड़ की वृद्धि होती चली जाती है। दूसरे शब्दों में, भारत में हर वर्ष एक नया ऑस्ट्रेलिया समा जाता है।

जनसंख्या : समस्या क्यों ?–बढ़ती हुई जनसंख्या भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा इसलिए है, क्योंकि भारत के पास बढ़ती हुई आबादी को खिलाने-पिलाने, काम देने और बसाने की सुविधाएँ नहीं हैं। बढ़ती आबादी और साधनों का सन्तुलन बुरी तरह टूट चुका है। भारत की आबादी विश्व की कुल आबादी का लगभग 17% है, जब कि भूमि केवल 2% ही है। इस भूमि को बढ़ाने का कोई तरीका हमारे पास नहीं है।

दूसरी समस्या यह है कि देश में खाद्यान्न 4 +4 = 8 की दर से बढ़ते हैं तो जनसंख्या 4 x 4 = 16 की दर से। इस भाँति भूमि पर नित्य अभाव, गरीबी और भूख का दबाव बढ़ता चला जाता है। आजीविका के साधनों का भी यही हाल है। आजादी के बाद देश में कुछ लाख ही बेरोजगार थे, जिनकी संख्या बढ़कर आज कई करोड़ तक पहुँच चुकी है।

जनसंख्या-विस्फोट से सारा देश भयाक्रान्त है। जहाँ भी जाइए लोगों की अनन्त भीड़ दिखायी देती है। महानगरों में तो लोग मधुमक्खी के छत्तों की भाँति मँडराते नजर आते हैं। इससे प्रत्येक प्राणी पर मानसिक तनाव बढ़ता है। लोगों के लिए पैदल चलना तक कठिन हो (UPBoardSolutions.com) गया है। इसके अतिरिक्त बेकार लोगों की भीड़ चोरी, उपद्रव, अपराध आदि में रुचि लेती है। अधिक जनसंख्या से देश का जीवन-स्तर कदापि नहीं उठ सकता; क्योंकि जीवन-स्तर का सीधा सम्बन्ध समृद्धि से है। जनसंख्या-वृद्धि से परिवार की सम्पन्नता में वृद्धि की जगह बिखराव आता है। इसलिए खाते-पीते परिवार भी गरीब होते चले जाते हैं। भारत में जनसंख्या वृद्धि के कारण स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास की समस्या दिनोंदिन बढ़ती चली जा रही है जिससे देश का आर्थिक ढाँचा बुरी तरह चरमरा रहा है।

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जनसंख्या-वृद्धि के कारण-जनसंख्या-विस्फोट का सबसे बड़ा कारण है जन्म-दर और मृत्यु-दर का सन्तुलन बिगड़ना। भारत की मृत्यु-दर निरन्तर कम होती जा रही है, जब कि जन्म-दर वहीं-की–वहीं है। मृत्यु-दर इसलिए कम हुई है, क्योंकि स्वास्थ्य-सेवाओं में पर्याप्त सुधार हुआ है। हैजा, टी० बी०, मलेरिया, चेचक आदि जानलेवा बीमारियों का शत-प्रतिशत उपचार हुँढ़ लिया गया है। वैज्ञानिक उन्नति के कारण बाढ़, सूखा, अकाल, प्राकृतिक प्रकोपों पर भी पर्याप्त नियन्त्रण कर लिया गया है, परन्तु । जन्म-दर को रोकने में उतनी अधिक सफलता नहीं मिली है।

जनसंख्या-वृद्धि रोकने के उपाय-जनसंख्या-वृद्धि को रोकने का सबसे कारगर उपाय यह है कि नर-नारी को सीमित परिवार की शिक्षा दी जाए। शहरों में यह कार्य लगभग पूरा हो चुका है। शहरी आबादी सीमित परिवार के प्रति सचेत है, परन्तु ग्रामीण आबादी अभी भी इस विषय में लापरवाह है। जब तक सामाजिक संस्थाएँ सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर सीमित परिवार की चेतना नहीं जगाएँगी, तब तक जनसंख्या की बाढ़ आती रहेगी। शहरों में भी अभी लोग पुत्र-मोह के कारण दो लड़कियों के पश्चात् तीसरी-चौथी सन्तान पैदा कर देते हैं। अभी कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अन्धविश्वास के कारण सन्तान को रोकने में बुराई मानते हैं। इसका उपचार लगातार शिक्षा देने से ही हो सकता है।

जहाँ तक सन्तान को रोकने के वैज्ञानिक साधनों का प्रश्न है, भारत में साधनों की कमी नहीं है। इन साधनों का निस्संकोच प्रयोग करने से जनसंख्या पर निश्चित रूप से नियन्त्रण किया जा सकता है।

उपसंहार : शिक्षा तथा प्रोत्साहन-जनसंख्या को सीमित करने के लिए औपचारिक शिक्षा के साथ-साथ परिवार-नियोजन की शिक्षा भी दी जानी चाहिए। उन माता-पिताओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जिन्होंने परिवार को सीमित किया है। सरकार ने अपनी ओर से ऐसे अनेक उपाय किये हैं, परन्तु आवश्यकता इस बात की है कि परिवार को सीमित बनाने सम्बन्धी कठोर कानून बनाये जाएँ तभी हर मिनट बढ़ता हुआ खतरा रुक सकता है। इस विषय में (UPBoardSolutions.com) यदि कोई जाति, धर्म या सम्प्रदाय आड़े भी आता है तो उसकी परवाह नहीं करनी चाहिए। अब तो जनसंख्या-वृद्धि जीवन और मरण का प्रश्न बन चुका है। डॉ० चन्द्रशेखर ने सच ही कहा है-“हम एक रात की भी प्रतीक्षा नहीं कर सकते। परिवार-नियोजन के बिना हर रात एक भयावह स्वप्ने की तरह है।’

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36. सत्संगति का महत्त्व [2016, 18]

सम्बद्ध शीर्षक

  • कबिरा संगत साधु की, हरे और व्याधि
  • कुसंग का ज्वर भयानक होता है।

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. संगति का प्रभाव,
  3. सत्संगति का अर्थ,
  4. सत्संगति से लाभ,
  5. कुसंगति से हानि,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना–“संसर्ग से ही मनुष्य में गुण-दोष आते हैं।” मनुष्य का जीवन अपने आस-पास के वातावरण से प्रभावित होता है। मूलरूप से मानव के विचारों और कार्यों को उसके संस्कार व वंश-परम्पराएँ ही दिशा दे सकती हैं। यदि उसे स्वच्छ वातावरण मिलता है तो वह कल्याण के मार्ग पर चलता है और यदि वह दूषित वातावरण में रहता है तो उसके कार्य भी उससे प्रभावित हो जाते हैं।

संगति का प्रभाव-मनुष्य जिस वातावरण एवं संगति में अपना अधिक समय व्यतीत करता है, उसका प्रभाव उस पर अनिवार्य रूप से पड़ता है। मनुष्य ही नहीं, वरन् पशुओं एवं वनस्पतियों पर भी इसका असर होता है। मांसाहारी पशु को यदि शाकाहारी (UPBoardSolutions.com) प्राणी के साथ रखा जाए तो उसकी आदतों में स्वयं ही परिवर्तन हो जाएगा। यही नहीं, मनुष्य को भी यदि अधिक समय तक मानव से दूर पशु-संगति में रखा जाए। तो वह भी शनैः-शनै: मनुष्य-स्वभाव छोड़कर पशु-प्रवृत्ति को ही अपना लेगा।।

सत्संगति का अर्थ-सत्संगति का अर्थ है-‘अच्छी संगति’। वास्तव में ‘सत्संगति’ शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है-‘सत्’ और ‘संगति’ अर्थात् ‘अच्छी संगति’। अच्छी संगति का अर्थ है-ऐसे सत्पुरुषों के साथ निवास, जिनके विचार अच्छी दिशा की ओर ले जाएँ।

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सत्संगति से लाभ–सत्संगति के अनेक लाभ हैं। सत्संगति मनुष्य को सन्मार्ग की ओर अग्रसर करती है। सत्संगति व्यक्ति को उच्च सामाजिक स्तर प्रदान करती है, विकास के लिए सुमार्ग की ओर प्रेरित करती है, बड़ी-से-बड़ी कठिनाइयों का सफलतापूर्वक सामना करने की शक्ति प्रदान करती है और सबसे बढ़कर व्यक्ति को स्वाभिमान प्रदान करती है। सत्संगति के प्रभाव से पापी पुण्यात्मा और दुराचारी सदाचारी हो जाते हैं। ऋषियों की संगति के प्रभाव से ही, वाल्मीकि जैसे भयानक डाकू महान कवि बन गए तथा अंगुलिमाल ने महात्मा बुद्ध की संगति में आने से हत्या, लूटपाट के कार्य छोड़कर सदाचार के मार्ग को अपनाया। सन्तों के प्रभाव से आत्मा के मलिन भाव दूर हो जाते हैं तथा वह निर्मल बन जाती है।

सत्संगति एक प्राण वायु है, जिसके संसर्ग मात्र से मनुष्य सदाचरण का पालक बन जाता है; दयावान, विनम्र, परोपकारी एवं ज्ञानवान बन जाता है। इसलिए तुलसीदास ने लिखा है कि

सठ सुधरहिं सत्संगति पाई,
पारस परस कुधातु सुहाई।”

एक साधारण मनुष्य भी महापुरुषों, ज्ञानियों, विचारवानों एवं महात्माओं की संगत से बहुत ऊँचे स्तर को प्राप्त करता है। वानरों-भालुओं को कौन याद रखता है, लेकिन हनुमान, सुग्रीव, अंगदं, जाम्बवन्त आदि श्रीराम की संगति पाने के कारण अविस्मरणीय बन गए।

सत्संगति ज्ञान प्राप्त की भी सबसे बड़ी साधिका है। इसके बिना तो ज्ञान की कल्पना तक नहीं की जा सकती

‘बिनु सत्संग विवेक न होई।।

जो विद्यार्थी अच्छे संस्कार वाले छात्रों की संगति में रहते हैं, उनका चरित्र श्रेष्ठ होता है एवं उनके सभी कार्य उत्तम होते हैं। उनसे समाज एवं राष्ट्र की प्रतिष्ठा बढ़ती है।

कुसंगति से हानि–कुसंगति से लाभ की आशा करना व्यर्थ है। कुसंगति से पुरुष का विनाश निश्चित है। कुसंगति के प्रभाव के मनस्वी पुरुष भी अच्छे कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं। कुसंगति में बँधे रहने के कारण वे चाहकर भी अच्छा कार्य नहीं कर पाते। कुसंगति के कारण ही दानवीर कर्ण अपना उचित सम्मान खो बैठा। जो छात्र कुसंगति में पड़ जाते हैं वे अनेक व्यसन सीख जाते हैं, जिनका प्रभाव उनके जीवन पर बहुत बुरा पड़ता है। उनके लिए प्रगति के मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। उनका मस्तिष्क अच्छे-बुरे का भेद करने में असमर्थ हो जाता है। उनमें अनुशासनहीनता आ जाती है। गलत दृष्टिकोण रखने के कारण ऐसे छात्र पतन के गर्त में गिर जाते हैं। वे देश के प्रति अपने उत्तरदायित्व भी भूल जाते हैं।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ठीक ही लिखा है-“कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। किसी युवा पुरुष की संगति बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-पर-दिन अवनति के गड्डे में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने (UPBoardSolutions.com) वाली बाहु के समान होगी, जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जाएगी।”

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उपसंहार–सत्संगति का अद्वितीय महत्त्व हैं जो सचमुच हमारे जीवन को दिशी प्रदान करती है। सत्संगति का पारस है, जो जीवनरूपी लोहे को कंचन बना देती है। मानव-जीवन की सर्वांगीण उन्नति के लिए सत्संगति आवश्यक है। इसके माध्यम से हम अपने लाभ के साथ-साथ अपने देश के लिए भी एक उत्तरदायी तथा निष्ठावान नागरिक बन सकेंगे।

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