Class 10 Sanskrit Chapter 11 UP Board Solutions जीव्याद् भारतवर्षम् Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 11 Jivyad Bharatvarsham Question Answer (पद्य – पीयूषम्)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 11 हिंदी अनुवाद जीव्याद् भारतवर्षम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

डॉ० चन्द्रभानु त्रिपाठी संस्कृत के उत्कृष्ट कवि एवं नाटककार हैं। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जनपद में सन् 1925 ई० में हुआ था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर तथा उच्च शिक्षा प्रयाग में हुई। प्रयाग विश्वविद्यालय के द्वारा “व्याकरण-दर्शन के विशिष्ट अध्ययन” पर आपको डी० फिल्० की उपाधि प्रदान की गयी। इन्होंने अनेक आलोचनात्मक ग्रन्थ, शोध-लेख, कविताएँ, गीत तथा नाटक लिखे हैं। इनकी रचनाओं में सर्वत्र सरलता, सरसता, लालित्य (UPBoardSolutions.com) एवं स्वाभाविकता परिलक्षित होती है। प्रस्तुत गीत डॉ० चन्द्रभानु त्रिपाठी द्वारा रचित ‘गीताली’ नामक काव्य-संकलन से संकलित है। कवि ने प्रस्तुत गीत के तीन पदों में भारत को मनोरमता और भव्यता का तथा भारतीय समाज को एकजुट होकर देश की उन्नति करने का सन्देश दिया है। इनमें कवि की भारतीय संस्कृति के प्रति पूर्ण आस्था अभिव्यक्त हुई है।

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पाठ-सारांश

हमारा देश भारतवर्ष चिरकाल तक स्वाधीन राष्ट्र के रूप में विद्यमान रहे।
भारत की मनोरमता हिमालय भारत के सिर का मुकुट है। इस पर पड़ती हुई उदीयमान सूर्य की लाल-लाल किरणें मणियों की भ्रान्ति उत्पन्न करती हैं। समुद्र अपनी लहरों से सदैव इसके चरणों को धोता रहता है। नदियाँ इसके वक्षःस्थल पर पड़े हुए हार हैं, विन्ध्यपर्वत इसकी करधनी है तो सघन वनराशि इसके नवीन वस्त्र हैं।

समाज के नव-निर्माण की आवश्यकता सभी ज्ञानी, विद्वान्, सम्मानित लोग, पूँजीपति, श्रेष्ठ व्यापारी, (UPBoardSolutions.com) श्रमिक एवं वीर सभी वर्गों के लोग एक साथ मिलकर नये समाज का निर्माण करें। पुराने धर्म का परिष्कार करके मानवधर्म का यत्र-तत्र सर्वत्र प्रसार करें। भारत का प्रत्येक निवासी आत्म-बल से युक्त होकर उन्नति एवं प्रगति के नये-नये पाठों को पढ़ता रहे।

भारतीय संस्कृति में आस्था पवित्र लहरों वाली गंगा हमारे देश की महिमा को प्रसृत करती हुई सदैव प्रवाहित होती रहे। महावीर की अहिंसा, गौतम की करुणा और सत्य का सन्देश सर्वत्र फैले। भारतवासी गीता के कर्म के महत्त्व पर आस्था रखें और भारत के वीर सपूतों की गाथाओं का सर्वत्र गान हो। हमारे देश के लोग सुखी, स्वस्थ और दीन भाव से रहित हों तथा भारत एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में चिरकाल तक जीवित रहे।

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पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
भारतवर्ष राष्ट्रं जीव्याच्चिरकालं स्वाधीनम्।
सन्मित्रं भूयाच्च समृद्धं जीयाच्छत्रु-विहीनम् ॥

हिमगिरिरस्य किरीटो मौलेररुण-किरण-मणि-माली।
कर-कल्लोलैर्जलधिविलसति पादान्त-प्रक्षाली
सरितो वक्षसि हारा विन्ध्यो भाति मेखला-मानम्।
पल्लव-लसिता निबिड-वनाली रुचिरं नव-परिधानम् ॥
आस्ते कविकुलमस्य मनोरम-रूप-वर्णने लीनम्। [2006]

शब्दार्थ जीव्यात् = अमर रहे। चिरकालम् = चिरकाल तका स्वाधीनम् = स्वतन्त्र सन्मित्रं = सच्चा मित्र। समृद्धं = समृद्धिशाली। जीयात् = विजयी हो। शत्रु-विहीनम् = शत्रुरहित। हिमगिरिः = हिमालय पर्वत। अस्य = इसके। किरीटः = मुकुट। मौलेः = मस्तक का। (UPBoardSolutions.com) अरुण-किरण-मणि-| (सूर्य की) किरणरूपी मणियों की माला वाला। कर-कल्लोलैः = विशाल लहरोंरूपी हाथों से। जलधिः = समुद्रा विलसति = शोभित होता है। पादान्त प्रक्षाली = पैरों के अग्रभाग को धोने वाला। सरितः = नदियाँ। वक्षसि = वक्षःस्थल पर, छाती पर हारा = हार हैं। विन्ध्य = विन्ध्याचल। भाति = शोभित होता है, सुशोभित है। मेखलामानम् = करधनी की भाँति। पल्लव-लसिता = पत्तों से सुसज्जित। निबिडवनाली = घनी वनपंक्ति रुचिरम् = सुन्दर। परिधानम् = वस्त्र। आस्ते = है। कविकुलम् = कवियों का समूह। मनोरम-रूप-वर्णने = मनोहर सुन्दरता का वर्णन करने में। लीनम् = तल्लीन।

सन्दर्भ प्रस्तुत गीत-पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘जीव्याद् भारतवर्षम्’ शीर्षक गीत से लिया गया है।

[संकेत इस पाठ के शेष सभी पद्यों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत पद में भारत की मनोरमता और भव्यता का सुन्दर चित्र अंकित किया गया है।

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अन्वय भारतवर्ष राष्ट्रं चिरकालं स्वाधीनं जीव्यात्, (इदं) सन्मित्रं समृद्धं भूयात्, (इदं) शत्रुविहीनं जीयात्। अरुण-किरण-मणि-माली हिमगिरिः अस्य किरीटः (अस्ति)। जलधिः कर-कल्लोलैः (अस्य) पादान्त प्रक्षाली (सन्) विलसति। (अस्य) वक्षसि सरितः हाराः (सन्ति)। विन्ध्यः (अस्य) मेखलामानं भाति। पल्लवलसिता निबिडवनाली (अस्य) रुचिरं नवपरिधानम् अस्ति। कविकुलम् अस्य मनोरमरूपवर्णने लीनम् आस्ते।

व्याख्या हमारी राष्ट्र भारतवर्ष चिरकाल तक स्वाधीन होकर अमर रहे। यह अच्छे मित्रों वाला और वैभवपूर्ण हो, यह शत्रुरहित होकर विजयी रहे। सूर्य की लाल किरणों की मणियों की माला वाला हिमालय इसका ( भारतवर्ष का) मुकुट है। समुद्र अपने विशाल लहरोंरूपी हाथों से इसके पैरों के अग्रभाग को धोने वाला सुशोभित होता है। इसके वक्षस्थल पर नदियाँ हार के समान हैं। विन्ध्य पर्वत इसकी मेखला अर्थात् करधनी के समान शोभित होता है। कोमल पत्तों से शोभित घनी (UPBoardSolutions.com) वनपंक्ति इसका सुन्दर नया वस्त्र है। कवियों का समूह इसके सौन्दर्य के वर्णन में लीन हो रहा है।

(2)
सर्वे ज्ञान-धना बुध-वर्या मान-धना रण-धीराः ।।
स्वर्ण-धना व्यवसायि-धुरीणास्तथा श्रम-धना वीराः ॥

कुर्वन्त्वेकीभूय समेता नव-समाज-निर्माणम्।
मान्यो मानव-धर्मः प्रसरतु सम्परिशोध्य पुराणम् ॥
आत्मशक्ति-संवलित-मानवः पाठं पठेन्नवीनम् ॥

शब्दार्थ ज्ञान-धनाः = ज्ञानरूपी धन वाले। बुध-वर्याः = श्रेष्ठ विद्वान्। मानधनाः = यशरूपी धन वाले। रणधीराः = युद्ध में विचलित न होने वाले स्वर्ण-धनाः = स्वर्णरूपी धन वाले व्यवसायि-धुरीणाः = व्यापारियों में अग्रणी, श्रेष्ठ व्यवसायी। श्रमधनाः = परिश्रमरूपी धन वाले। एकीभूय = एक होकर समेताः = एक साथ मिलकर। मान्यः = सबके मानने योग्य मानव-धर्मः = मानवता के मूल्यों को सुरक्षित रखने वाला धर्म। प्रसरतु = फैले। सम्परिशोध्य = परिष्कार करके, सुधार करके। पुराणम् = पुराना। आत्मशक्ति-संवलित-मानवः = आत्मा की शक्ति से युक्त मनुष्य। पाठं पठेत् नवीनम् = नया पाठ पढ़े।

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प्रसंग प्रस्तुत पद में भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग को एकजुट होकर देश की उन्नति करने की सलाह दी गयी है।

अन्वय सर्वे ज्ञानधनाः, बुध-वर्याः, मानधनाः, रणधीराः, स्वर्णधनाः, व्यवसायिधुरीणाः तथा श्रमधंनाः वीराः समेताः एकीभूय नवसमाज-निर्माणः कुर्वन्तु। पुराणं सम्परिशोध्य मान्यः मानव-धर्मः प्रसरतु। आत्मशक्ति-संवलित-मानव: नवीनं पाठं पठेत्।।

व्याख्या सभी ज्ञान को धन समझने वाले (बौद्धिक वर्ग), श्रेष्ठ विद्वान्, प्रतिष्ठा को धन समझने वाले, युद्ध में विचलित न होने वाले, स्वर्णरूपी धन वाले, व्यापारियों में श्रेष्ठ तथा श्रम को धन समझने वाले (श्रमिक वर्ग), वीर लोग एक साथ मिलकर एकजुट होकर नये समाज का निर्माण करें। (UPBoardSolutions.com) (धर्म के) पुराने रूप का परिष्कार करके मानवता के मूल्यों को सुरक्षित रखने वाला धर्म (सर्वत्र) फैले। आत्मशक्ति से युक्त मानव नया पाठ पढ़े।

(3)
प्रवहतु गङ्गा पूततरङ्गा प्रथयन्ती महिमानम्।            [2007]
गायतु गीता कर्ममहत्त्वं योग-क्षेम-विधानम्॥           
भवेदहिंसा करुणासिक्ता तथा सूनृती वाणी।।
प्रसरे भारत-सद्वीराणां गाथा भुवि कल्याणी।।
देशे स्वस्थः सुखितो लोको भावं भजेन्न दीनम्।
भारतवर्षं राष्ट्रं जीव्याच्चिरकालं स्वाधीनम् ॥

शब्दार्थ प्रवहतु = बहे। पूततरङ्गा = पवित्र लहरों वाली। प्रथयन्ती = फैलाती हुई। महिमानम् = महिमा को। गायतु = गाये, गान करे। कर्ममहत्त्वं = कर्म के महत्त्व का। योगक्षेम-विधानम् = योग (अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा) की व्यवस्था वाले। अहिंसा = जीवों को न सताना। करुणासिक्ता = करुणा से युक्त। सूनृता = सत्य और मनोरम प्रसरेत् = फैल जाए। सद्वीराणाम् = श्रेष्ठ वीरों की। गाथा = कथा। भुवि = पृथ्वी पर कल्याणी = मंगलमयी। देशे = देश में। (UPBoardSolutions.com) सुखितः = सुखी। लोकः = जनता। भावं = भाव को। दीनं = दीनता को। न भजेत् = प्राप्त न हो।

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प्रसंग प्रस्तुत पद में कवि ने भारतीय संस्कृति में अपनी पूर्ण आस्था व्यक्त की है।

अन्वय पूततरङ्गा गङ्गा (भारतवर्षस्य) महिमानं प्रथयन्ती प्रवहतु। गीता योग-क्षेमविधानं कर्ममहत्त्वं गायतु। अहिंसा करुणासिक्ता तथा वाणी सूनृता भवेत्। भारत-सद्वीराणां कल्याणी गाथा भुवि प्रसरेत्। देशे स्वस्थ: सुखितः लोकः दीनं भावं न भजेत्। भारतवर्ष चिरकालस्वाधीनं राष्ट्रं जीव्यात्।।

व्याख्या पवित्र लहरों वाली गंगा (भारतवर्ष की) महिमा को फैलाती हुई प्रवाहित हो। गीता, योग और क्षेम की व्यवस्था वाले कर्म के महत्त्व का गान करे। (देशवासियों के हृदय में) अहिंसा की भावना करुणा से सिंचित हो तथा वाणी सत्य और मनोरम हो। भारत के श्रेष्ठ वीरों की कल्याणमयी कथा पृथ्वी पर फैल जाए। देश में स्वस्थ और सुखी लोग दीनता को प्राप्त न करें। भारतवर्ष एक स्वाधीन राष्ट्र के रूप में चिरकाल तक जीवित रहे।

सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) भारतवर्षं राष्ट्रं जीव्याच्चिरकालं स्वाधीनम्। [2008,09, 11, 14]

सन्दर्भ प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के जीव्याद् भारतवर्षम्’ नामक पाठ से अवतरित है।

प्रसंग इस सूक्ति में स्वतन्त्र भारत राष्ट्र के बहुमुखी विकास की कामना की गयी है।

अर्थ भारतवर्ष एक स्वाधीन राष्ट्र के रूप में चिरकाल तक जीवित रहे।

व्याख्या संसार का प्रत्येक व्यक्ति यही चाहता है कि वह और उसका देश बहुमुखी विकास करके अपनी कीर्ति सभी दिशाओं में फैलाये। अपनी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता चाहने के साथ-साथ वह यह भी चाहता है। कि वह जिस देश अथवा जाति का सदस्य है, वह भी स्वतन्त्र हो; अर्थात् उस पर किसी (UPBoardSolutions.com) का अंकुश न हो। उसका नाम सदैव के लिए संसार में अमर हो जाए। प्रस्तुत सूक्ति में भी कवि यही कामना कर रहा है कि हमारा देश भारत कभी किसी के अधीन न हो। वह सदैव स्वतन्त्र रहे और चिरकाल तक विश्व का सिरमौर बना रहे।

(2) आत्मशक्ति-संवलित-मानवः-पाठं-पठेन्नवीनम्। [2007, 14]

सन्दर्भ पूर्ववत्।।

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प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में आत्मा की शक्ति से युक्त मनुष्य को कुछ नया करने के लिए प्रेरित किया गया है।

अर्थ आत्मशक्ति से युक्त मानव नया पाठ पढ़े।

व्याख्या भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्तियों को एक साथ मिलकर नये समाज का निर्माण करना चाहिए। उन्हें धर्म के पुराने स्वरूप को परिष्कार करके मानवीय मूल्यों को संरक्षित करने वाले धर्म का प्रसार करना चाहिए। इसके लिए भारतीय समाज के प्रत्येक मनुष्य को आत्मशक्ति से युक्त होना आवश्यक है। साथ ही उसे प्रगति और समृद्धि के नित नवीन क्षेत्रों का ज्ञान करने के लिए अध्ययन करते रहना भी आवश्यक है, क्योंकि ज्ञान की नवीनता के बिना परिष्कार सम्भव नहीं है और परिष्कार के लिए व्यक्ति का आत्म-शक्ति से युक्त होना भी अत्यावश्यक है।

(3) गायतु गीता कर्ममहत्त्वं योगक्षेमविधानम्। [2014]

सन्दर्भ पूर्ववत्।।

प्रसंग प्रस्तुत पंक्ति में श्रीमद्भगवद्गीता के महत्त्व का प्रतिपादन .कया गया है।

अर्थ गीता योग और क्षेम की व्यवस्था वाले कर्म के महत्त्व का गान करे।

व्याख्या प्राचीन भारतीय वाङ्मय के समस्त ग्रन्थों में गीता अर्थात् श्रीमद्भगवद्गीता का स्थान सर्वोपरि है और इसे पूजनीय ग्रन्थ माना जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता मुख्य रूप से कर्म के महत्त्व और योग-क्षेम की व्यवस्था का प्रतिपादन करती है। श्रीमद्भगवद्गीता का कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति को उचित-अनुचित और कर्मफल की भावना को छोड़कर सतत कर्म करते रहना चाहिए। व्यक्ति को कभी भी अकर्म अथवा कर्महीनता की स्थिति में नहीं रहना चाहिए। कर्महीनता की स्थिति व्यक्ति (UPBoardSolutions.com) के लिए अत्यधिक घातक है। योग और क्षेम के अनेकानेक अर्थों को समाहित करते हुए भी गीता कर्म की श्रेष्ठता को ही सिद्ध करती है। स्वाभाविक है कि जब तक व्यक्ति कर्म में तत्पर नहीं होगा, तब तक स्वयं उसकी उन्नति सम्भव नहीं होगी। व्यक्ति की उन्नति में ही राष्ट्र की उन्नति निहित होती है। एक स्वाधीन राष्ट्र के रूप में भारत चिरकाल तक जीवित रहे, इसके लिए प्रत्येक भारतवासी को योग-क्षेम और कार्य की महत्ता का ज्ञान आवश्यक है।

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श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) भारतवर्ष राष्टं ………………………………………………………. जीयाच्छत्रुविहीनम् ॥ (श्लोक 1)
संस्कृतार्थः अस्मिन् पद्ये कविः कामनां करोति यत् अस्माकं भारतराष्ट्रं चिरकालं स्वाधीनं जीवेत्। अस्य राष्ट्रस्य सम्मित्राणि भवेयुः। राष्ट्रं शत्रुविहीनं समृद्धं च भूयात्।।

(2)
प्रवहतु गङ्गा”………………………………………………………. कालं स्वाधीनम् ॥ (श्लोक 3)
प्रवहतु गङ्गा”………………………………………………………. योगक्षेमविधानम् ॥ [2008, 12, 13]
संस्कृतार्थः अस्मिन् पद्ये कविः श्री चन्द्रभानु त्रिपाठी कामनां करोति यत् भारतवर्षे भारत महिमानं वर्धन्ति, पवित्र गङ्गा नदी प्रवहतु, योग-क्षेम-विधान कर्म-महत्त्वं प्रतिपादिका गीता भवतु, करुणायुक्ता पवित्रा अहिंसा वाणी सर्वत्र प्रसरतु, भारतस्य वीराणां कल्याणकारी पवित्रा गाथा सर्वत्र प्रसरेत्। (UPBoardSolutions.com) भारतदेशे सर्वे जना: सुखिना: भवन्तु, कोऽपि दीनभावं न प्राप्नुयात्। एतादृशाः अस्माकं भारतवर्ष: स्वाधीन: सन् चिरञ्जीवी भूयात्।

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Class 10 Sanskrit Chapter 5 UP Board Solutions भोजस्य शल्यचिकित्सा Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 5 Bhojasya Shalya Chikitsa Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 5 हिंदी अनुवाद भोजस्य शल्यचिकित्सा के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

प्रस्तुत पाठ बल्लालसेन द्वारा रचित ‘भोज-प्रबन्ध’ नामक कृति से संगृहीत है। इस ग्रन्थ को ऐतिहासिक दृष्टि से कोई खास महत्त्व नहीं है, किन्तु साहित्यिक दृष्टि से इसे ग्रन्थ की महत्ता स्वीकार की गयी है। इस ग्रन्थ में संस्कृत के सभी प्रसिद्ध कवियों को राजा भोज (UPBoardSolutions.com) की सभा में उपस्थित दिखाया गया है। इसीलिए इतिहासकारों ने इसे अप्रामाणिक माना है। प्रस्तुत कथा में राजा भोज से मस्तिष्क की शल्य-चिकित्सा का परिचय दिया जाना यह प्रमाणित करता है कि भारत में प्राचीन काल में भी मस्तिष्क जैसे जटिल अंग की सफल शल्य-क्रिया किया जाना सम्भव था।

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पाठ-सारांश

भोज के सिर में पीड़ा – किसी समय राजा भोज अपने नगर से बाहर गये। वहाँ उन्होंने जल से कपाल-शोधन क्रिया की। उस समय कोई अत्यधिक छोटी मछली का बच्चा राजा के कपाल में घुस गया। तब से राजा के सिर में पीड़ा रहने लगी। श्रेष्ठ वैद्यों की चिकित्सा से भी वह पीड़ा किंचित् ठीक नहीं हुई। इस प्रकार राजा भयंकर बीमारी से पीड़ित हो गये।

रोग का ठीक न होना – एक वर्ष बीतने पर भी राजा भोज का रोग ठीक नहीं हुआ। वे अनेक ओषधियों के सेवन से तंग आ गये थे। तब उन्होंने अपने मन्त्री बुद्धिसागर से कहा कि आज के बाद कोई भी वैद्य नगर में न रहे। उनकी सभी ओषधियों की शीशियों को नदी में डलवा दिया जाये। अब मेरा मृत्यु-समय निकट आ गया है। यह सुनकर सभी नगरवासी अत्यधिक दुःखी हुए।

नारद-कथन – इसके बाद कभी देवसभा में गये हुए नारदमुनि से इन्द्र ने पृथ्वीलोक का समाचार पूछा। नारद ने कहा कि महाराज भोज किसी रोग से बहुत पीड़ित हैं। उनका रोग किसी भी चिकित्सक की चिकित्सा से ठीक नहीं हुआ; अतः राजा ने सभी वैद्यों को देश से निकाल दिया है और वैद्यकशास्त्र भी झूठा है, ऐसा कहकर उसे भी निरस्त कर दिया है।

इन्द्र द्वारा अश्विनीकुमारों से प्रश्न – तब इन्द्र ने पास बैठे हुए अश्विनीकुमारों (देवताओं के वैद्य या चिकित्सक) से कहा कि यह धन्वन्तरिशास्त्र कैसे झूठा है ? तब अश्विनीकुमारों ने कहा कि देवेश! धन्वन्तरिशास्त्र झूठा नहीं है, किन्तु इस रोग की चिकित्सा तो देवता ही कर सकते हैं। (UPBoardSolutions.com) कपाल-शोधन के समय भोज के कपाल में एक अत्यधिक छोटी मछली का बच्चा घुस गया था, उसी के कारण यह रोग है।

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अश्विनीकुमारों द्वारा राजा भोज की शल्य-चिकित्सा  तब इन्द्र के आदेश से वे दोनों अश्विनीकुमार ब्राह्मण का वेश बनाकर धारानगरी में गये और वहाँ अपना परिचय काशी नगरी से आये वैद्यों के रूप में दिया। वैद्यों का नगर में प्रवेश निषिद्ध है, यह जानकर वे दोनों बुद्धिसागर के साथ राजा के पास गये। राजा ने मुख के तेज से उन्हें देवता रूप में पहचानकर उनका सम्मान किया। राजा से दोनों ने कहा–राजन्, डरो मत, रोग को गया हुआ समझो। राजा को एकान्त (UPBoardSolutions.com) में ले जाकर और बेहोश करके राजा के कपाल से मछली निकालकर, पात्र में रखकर, उनके कपाल को ज्यों-का-त्यों जोड़कर राजा को होश में लाकर उन्हें मछली दिखा दी और बताया कि कपाल-शोधन के समय यह मछली कपाल में चली गयी थी। राजा के पथ्य पूछने पर, उन्होंने गर्म जल से स्नान, दुग्धपान और श्रेष्ठ स्त्रियों को ही मानवों का पथ्य बताया।

अश्विनीकुमारों का प्रस्थान – राजा ने बीच में ‘मानवों का वाक्यांश सुनकर पूछा कि आप कौन हैं ? राजा ने उनको हाथों से पकड़ा, लेकिन वे कालिदास अपना श्लोक का चौथा चरण ‘स्निग्धमुष्णञ्च भोजनम्’ पूरा करें कहकर अन्तर्धान हो गये। राजा ने भी कालिदास को लीला-मानुष मानकर उनका अत्यधिक सम्मान किया।

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चरित्र-चित्रण

भोज [2007,08,09, 10, 12, 13, 14, 15)

परिचय महाराज भोज ऐतिहासिक महापुरुष के रूप में भारतीय विद्वत् समाज में प्रतिष्ठित हैं। ये वीर, साहसी एवं महादानी थे। एक बार कपालकशोधन (मस्तिष्क की वह क्रिया, जिसमें पानी के द्वारा मस्तिष्क को साफ किया जाता है) क्रिया करते समय एक अत्यधिक छोटी मछली का बच्चा इनके मस्तिष्क में प्रवेश कर गया, जिससे उनके मस्तिष्क में निरन्तर पीड़ा रहने लगी। मर्त्यलोक के वैद्यों के रोग-निदान में असफल रहने पर अश्विनीकुमार शल्य-चिकित्सा से पीड़ा का निवारण कर देते हैं। यहाँ भोज को देव-प्रिय राजा के रूप में भी चित्रित किया गया है। उनकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

1. निराशावादी – इतिहास में राजा भोज को अधिकांश स्थानों पर धैर्यशाली एवं आशावादी के रूप में चित्रित किया गया है, किन्तु यहाँ पर उन्हें सामान्य मानव की भाँति निराशाबादी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। बैद्यों द्वारा अपने मस्तिष्क की पीड़ा का कोई निदाम न पाकर वह जीवन (UPBoardSolutions.com) से निराश हो जाते है उनके “मम देवसमागमसमयः समागतः इति” (मेरा देवताओं के पास जाने का समय हो गया है) वाक्य से उनका निराशावादी दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है। इतना ही नहीं उनका वैद्यकशास्त्र से भी विश्वास उठ जाता है और वह अपने मन्त्री को समस्त वैद्यों को राज्य से निष्कासित करने तथा सम्पूर्ण ओषधियों को नदी में फिंकवाने का आदेश देते हैं।

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2. बुद्धिमान् एवं तत्त्वद्रष्टा – महाराज भोज यहाँ पर तत्त्वद्रष्टा के रूप में भी चित्रित किये गये हैं। अश्विनीकुमारों के मुख-मण्डल के तेज को देखकर ही वे समझ जाते हैं कि वैद्य के रूप में ये देव-पुरुष हैं। तथा देवता मानकर ही वे उनका सत्कार भी करते हैं। अपने बुद्धि-चातुर्य से वे अश्विनीकुमारों के एतदवो मानुषापथ्यमिति’ कथन से उनका देवलोकवासी होना जान लेते हैं और अन्तत: उनसे पूछ ही लेते हैं कि यदि हम मनुष्य हैं तो आप दोनों कौन हैं? यह तथ्य उनके बुद्धिमान् एवं तत्त्वद्रष्टा होने की पुष्टि करते हैं।

3. सर्वलोकप्रिय राजा – महाराजा भोज इस लोक में ही प्रसिद्ध नहीं हैं, वरन् देवलोक में भी उनकी प्रसिद्धि है। प्रजा तो उन्हें चाहती ही है, देवता भी पृथ्वी पर उनकी सकुशल उपस्थिति चाहते हैं। नारद से उनकी मस्तिष्क-पीड़ा की बात सुनकर इन्द्र स्वयं अश्विनीकुमारों को भूलोक में जाकर भोज की चिकित्सा करने का आदेश देते हैं।

4. कपाल-स्वच्छता के ज्ञाता – राजा भोज कपल-स्वच्छता की विधि से परिचित हैं। वे कपाल की आन्तरिक स्वच्छता का भी पूर्ण ज्ञान रखते हैं। कपाल की स्वच्छता करते समय ही एक अत्यधिक छोटी मछली का बच्चा कपाल में प्रवेश कर जाता है।

5. गुणग्राही – गुणवान् ही गुणवानों का सम्मान करता है। यह बात राजा भोज पर चरितार्थ होती है। मानवों के लिए पथ्य बताते समय अश्विनीकुमार श्लोक के तीन चरण ही कह पाते हैं कि राजा भोज ‘मानुषाः’ शब्द सुनकर उनका हाथ पकड़ लेते हैं और उनसे पूछते हैं कि आप दोनों कौन हैं ?’ तब चौथे चरण की पूर्ति कालिदास करेंगे, यह कहकर अश्विनीकुमार अन्तर्धान हो जाते हैं। तब कालिदास द्वारा स्निग्धमुष्णञ्च भोजनम्’ कहकर चरण-पूर्ति करने पर (UPBoardSolutions.com) और अश्विनीकुमारों द्वारा कालिदास की विद्वत्ता की ओर संकेतमात्र करने से वह कालिदास को लीला-पुरुष मानकर उनका भी अत्यधिक सम्मान करते हैं।

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निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि राजा भोज प्रजावत्सल, सर्वगुणसम्पन्न, बुद्धिमान् और सर्वलोकप्रिय राजा हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भोजः कः आसीत् ? [2006, 07, 10, 12, 15]
या
भोजः कस्याः नगर्याः राजा आसीत्? [2011, 13]
उत्तर :
भोज: धारानगर्याः राजा आसीत्।

प्रश्न 2.
द्वारस्थौः भिषजौ किमाहुः ?
उत्तर :
द्वारस्थौ भिषजौ आहु–भो विप्रौ ? न कोऽपि भिषग्प्रवरः प्रवेष्टव्यः इति राज्ञोक्तम्।

प्रश्न 3.
सः कुत्र अगच्छत् ?
उत्तर :
स: नगरात् बहिरगच्छत्।

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प्रश्न 4.
मानुषा पथ्यं किम् अस्ति ?
या
मानुषाणां पथ्यं किमस्ति ? [2015]
उत्तर :
उष्णजलेन स्नानं, पयः पानं, वरास्त्रियः, स्निग्धम् उष्णं च भोजनम् एतद् मानुषां पथ्यम्।

प्रश्न 5.
भोजस्य चिकित्सा काभ्यां कृता कुतः चतौ समागतौ ? [2010]
उत्तर :
भोजस्य चिकित्सा अश्विनीकुमाराभ्यां कृता, (UPBoardSolutions.com) तौ च स्वर्गात् समागतौ।

प्रश्न 6.
श्लोकस्य तुरीयं चरणं केन पूरितम् ?
उत्तर :
श्लोकस्य तुरीयं चरणं कालिदासेन पूरितम्।

प्रश्न 7.
राज्ञः कपाले वेदना किमर्थम् जाता ? [2008]
उत्तर :
कपालशोधनकाले राज्ञः कपाले एकः शफरशाव: प्रविष्टः। अत: कपाले वेदना अभवत्।

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प्रश्न 8.
पुरन्दरः नारदं किमाह ?
उत्तर :
पुरन्दर: नारदम् आह—भो मुने! इदानीं भूलोके का नाम वार्ता ? इति।

प्रश्न 9.
कालिदासः चतुर्थ चरणं केन रूपेण पूरितवान् ? [2006]
उत्तर :
कालिदास चतुर्थ चरणं “स्निग्धम् उष्णं च भोजनम्” इति रूपेण पूरितवान्।

प्रश्न 10.
भोजः कालिदासं कं मत्वा परं सम्मानितवान् ? [2013]
उत्तर :
भोजः कालिदासं लीलामानुषं मत्वा (UPBoardSolutions.com) परं सम्मानितवान्।

प्रश्न 11.
भोजस्य कस्मिन् स्थाने वेदना जाता? [2009, 15]
उत्तर :
भोजस्य कपाले वेदना जाता।

प्रश्न 12.
भोजस्य मन्त्री कः आसीत्? [2012, 13, 14]
उत्तर :
भोजस्य मन्त्री बुद्धिसागरः आसीत्।

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प्रश्न 13. 
राजा बुद्धिसागरं किम् अकथयत्? [2014]
उत्तर :
राजा बुद्धिसागरं अकथयत् “मम देवसमागम समय: समागतः।”

बहुविकल्पीय प्रश्न

अधोलिखित प्रश्नों में प्रत्येक प्रश्न के उत्तर-रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। (UPBoardSolutions.com) इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए
[संकेत – काले अक्षरों में छपे शब्द शुद्ध विकल्प हैं।]

1. ‘भोजस्य शल्यचिकित्सा’ शीर्षक पाठ किस संस्कृत ग्रन्थ से उधृत है?

(क) ‘महाभारत’ से
(ख) ‘हितोपदेश’ से
(ग) ‘पञ्चतन्त्रम्’ से
(घ) ‘भोज-प्रबन्ध’ से

2. राजा भोज ने अपने कपाल का शोधन किस जल से किया था ?

(क) कुएँ के जल से
(ख) तालाब के जल से
(ग) घड़े के जल से
(घ) नदी के जल से

3. राजा भोज के सिर की पीड़ा का मुख्य कारण क्या था ?

(क) अयोग्य वैद्य
(ख) कपाले में प्रविष्ट शफरशाव
(ग) कार्य का दबाव
(घ) गलत ओषधि का प्रयोग

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4. पुरन्दर की सभा में भोज की पीड़ा के विषय में किस मुनि ने बताया ?

(क) वीणामुनि ने
(ख) भरद्वाज मुनि ने
(ग) विश्वामित्र ने
(घ) अगस्त्य मुनि ने

5. “भोजस्य शल्यचिकित्सा” पाठ में ‘वीणामुनि’ के द्वारा किस मुनि का संकेत किया गया है?

(क) वाल्मीकि का
(ख) नारद को
(ग) व्यास का
(घ) वशिष्ठ का

6. पुरन्दर (इन्द्र) ने अश्विनीकुमारों को राजा भोज की चिकित्सा के लिए भेजा था, क्योंकि –

(क) राजा भोज इन्द्र के मित्र थे
(ख) भोज ने उन्हें बुलाया था
(ग) भोज से प्रभूत धन मिलने की आशा थी
(घ) भिषक् शास्त्र की असिद्धि हो रही थी

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7. अश्विनीकुमारों ने भोज की शिरो-वेदना की चिकित्सा कहाँ की ?

(क) राजदरबार में
(ख) राजमहल में
(ग) एकान्त स्थल पर
(घ) देवता के मन्दिर में

8. …………………….. वरास्त्रियः एतद्वो मानुषापथ्यमिति” को सुनकर भोज ने अश्विनीकुमारों –

(क) को मरवा दिया
(ख) के हाथों को अपने हाथों में पकड़ लिया
(ग) को भगा दिया।
(घ) को बन्दी बना लिया।

9. अश्विनीकुमारों के कथनानुसार कालिदास श्लोक का कौन-सा चरण पूरा करेंगे ?

(क) चतुर्थ
(ख) तृतीय
(ग) द्वितीय
(घ) प्रथम

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10. …………………….. “वासी श्री भोजभूपालरोगपीडितो नितरामस्वस्थो वर्तते।”वाक्य में रिक्त-स्थान में आएगा –

(क) मिथिलानगर
(ख) चित्रपूरनगर
(ग) उज्जयिनी
(घ) धारानगर

11. ‘भो स्वर्वैद्यौ! कथमनृतं धन्वन्तरीयं शास्त्रम् ?” वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति ?

(क) राजा भोज:
(ख) पुरन्दरः
(ग) नारदः
(घ) कालिदासः

12. …………………….. अम्भसा स्नानं, पयःपानं, वरास्त्रियः एतद्वो मानुषापथ्यमिति।” वाक्य में रिक्त-स्थान की पूर्ति के लिए उपयुक्त पद है –

(क) शीतेन
(ख) तटाका
(ग) कूपेन
(घ) अशीतेन

13. स्निग्धमुष्णञ्च भोजनम् इति।” वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?

(क) अश्विनीकुमारः
(ख) कालिदासः
(ग) राजा भोजः
(घ) पुरन्दरः

14. “ततो भोजोऽपि …………………….. लीलामानुषं मत्वा परं सम्मानितवान्।” वाक्य में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी –

(क) अश्विनीकुमारौ’ से
(ख) कालिदासम्’ से
(ग) “वीणामुनिम्’ से
(घ) “बुद्धिसागरम्’ से

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15. हर्षचरितस्य रचयिता …………………….. अस्ति।

(क) भट्टनारायणः
(ख) बाणभट्टः
(ग) आर्यशूरः
(घ) बल्लालसेनः

16. ‘भोजप्रबन्धस्य’ प्रणेता (रचयिता) …………………….. आसीत्। [2008,09, 12, 13, 14]

(क) बल्लालसेनः
(ख) चरकः
(ग) भोजः
(घ) कालिदासः

17. भोजः …………………….. नृपः आसीत्।

(क) धारानगर्याः
(ख) मथुरानगर्याः
(ग) काशीनगर्याः
(घ) अलकानगर्याः

18. मोजस्य चिकित्सकः …………………….. आसीत्। [2007,08]

(क) चरकः
(ख) अश्विनीकुमारः
(ग) धन्वन्तरिः
(घ) हरिहरः

19. भोजस्य …………………….. वेदना जाता। [2007,08,09]

(क) उदरे
(ख) कपाले
(ग) वक्षस्थले
(घ) पृष्ठभागे

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20. अथ कदाचित् …………………….. नगराद बहिः निर्गतः। [2009]

(क) भोजो
(ख) श्रीहर्षों
(ग) जनको
(घ) शिववीरः

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Class 9 Sanskrit Chapter 10 UP Board Solutions क्रियाकारक-कतूहलम् Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 10 क्रियाकारक-कतूहलम् (पद्य-पीयूषम्) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 10 क्रियाकारक-कतूहलम् (पद्य-पीयूषम्).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 10
Chapter Name क्रियाकारक-कतूहलम् (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 10 Kriyakarak Kutuhalam Question Answer (पद्य-पीयूषम्)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 10 हिंदी अनुवाद क्रियाकारक-कतूहलम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय-कोरक और क्रिया के सम्बन्ध से वाक्य का निर्माण होता है। अतः कारक और क्रिया-पदों के भली-भाँति ज्ञान से ही वाक्य का ज्ञान सम्भव है। वाक्य-रचना के समुचित ज्ञान से ही किसी भाषा को समझने एवं बोलने की शक्ति मिलती है। संस्कृत भाषा के लिए तो इस ज्ञान का होना और भी आवश्यक है, क्योंकि इसमें परिस्थिति-विशेष में विभक्ति-विशेष के प्रयोग के अतिरिक्त नियम भी हैं। कारक और क्रिया के अतिरिक्त संस्कृत भाषा के ज्ञान के लिए क्रिया के कालों अर्थात् लकारों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। । प्रस्तुत पाठ में सरल एवं मनोरम ढंग से सात विभक्तियों एवं पाँच लकारों का प्रयोग किया गया है। प्रारम्भ में ऐसे सात श्लोक हैं, जिनमें प्रथम, (UPBoardSolutions.com) द्वितीया, तृतीया आदि विभक्तियों का अधिक प्रयोग किया गया है। बाद में पाँच श्लोक ऐसे हैं, जिनमें विभिन्न लकारों में क्रियाओं का प्रयोग है। संस्कृत में कुल दस लकार होते हैं, लेकिन लकारों से सम्बन्धित केवल पाँच श्लोक ही दिये गये हैं, क्योंकि पाठ्यक्रम में मात्र पाँच लकार ही निर्धारित हैं। इससे सातों विभक्तियों और पाँचों लकारों के प्रयोग का ज्ञान सरलता से हो जाएगा। प्रस्तुत पाठ के सभी श्लोक नीति-सम्बन्धी भी हैं।

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पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या
विभक्ति-परिचयः

(1)
उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहायकृत् ॥

राख्दार्थ
उद्यमः = परिश्रम।
षडेते (षट् + एते) = ये छः।
वृर्तन्ते = रहते हैं।
देवः = ईश्वर।
सहायकृत् = सहायता करने वाला।

सन्दर्य
प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के क्रियाकारककुतूहलम्’ पाठ के अन्तर्गत ‘विभक्ति-परिचयः’ शीर्षक से उद्धृत है।

[संकेत-श्लोक संख्या 2 से 7 तक के छ: श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगी।]

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में मनुष्य के लिए आवश्यक छः गुणों का वर्णन तथा प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया गया है।

अन्वय
उद्यमः, साहस, धैर्य, बुद्धिः, शक्तिं, पराक्रमः एते षट् यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहायकृत् (भवति)।

व्याख्या
उद्योग, साहस, धीरज, बुद्धि, बल और पराक्रम-ये छः गुण जिस व्यक्ति में होते हैं, उसकी ईश्वर सहायता करने वाला होता है। तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति में ये छः गुण नहीं होते, उसकी सहायता ईश्वर भी नहीं करता है।

(2)
विनयो वंशमाख्याति देशमाख्याति भाषितम्।
सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति वपुराख्याति भोजनम् ॥

शब्दार्थ
वंशम् = वंश को, कुल को।
आख्याति = बतलाती है।
भाषितम् = बोली।
सम्भ्रमः = क्रियाशीलता, हड़बड़ी।
स्नेहम् = प्रेम को। वपुः = शरीर।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक किसी के बाह्य-व्यक्तित्व से उसके

अन्तः-
व्यक्तित्व का ज्ञान कराता है। तथा इसमें द्वितीया विभक्ति का सुन्दर प्रयोग किया गया है।

अन्वय
विनयः वंशम् आख्याति, भाषितं देशम् आख्याति, सम्भ्रमः स्नेहम् आख्याति, वपुः भोजनम् आख्याति।

व्याख्या
किसी व्यक्ति की विनयशीलता को देखकर यह पता लग जाता है कि वह कैसे वंश में उत्पन्न हुआ है। बोलने से उसके स्थान का ज्ञान हो जाता है। क्रियाशीलता (किसी के प्रति उसके) स्नेह को बता देती है तथा शरीर को देखकर पता लग जाता है कि मनुष्य कैसा भोजन करता है।

(3)
मृगाः मृगैः सङ्गमनुव्रजन्ति गावश्च गोभिस्तुरगास्तुरङ्ग।
मूर्खाश्च मूर्खः सुधियः सुधीभिः समानशील-व्यसनेषु सख्यम् ॥

शब्दार्थ
मृगाः = हिरन।
सङ्गम् = साथ।
अनुव्रजन्ति.= साथ-साथ चलते हैं।
गावः = गायें।
तुरगाः = घोड़े।
तुरङ्ग = घोड़ों के साथ।
सुधियः = बुद्धिमान्।
समानशीलव्यसनेषु = जिनके स्वभाव और रुचियाँ एक समान हों, उनमें
सख्यम् = मित्रता।

प्रसंग
तृतीया विभक्ति के प्रयोग के माध्यम से प्रस्तुत श्लोक में समान स्वभाव, आदत वाले व्यक्तियों की मित्रता उदाहरण देकर बतायी गयी है।

अन्वय
मृगाः मृगैः (सङ्गम्) गावः (च) गोभिः (सङ्गम्), तुरगाः तुरङ्गैः (सङ्गम्) मूर्खाः (च) मूर्खः (सङ्गम्), सुधिय: सुधीभिः सङ्गम् अनुव्रजन्ति। समानशील-व्यसनेषु सख्यम् (भवति)।

व्याख्यो
हिरन हिरनों के साथ और गायें गायों के साथ, घोड़े घोड़ों के साथ और मूर्ख मूर्खा के साथ, बुद्धिमान् बुद्धिमानों के साथ-साथ चलते हैं। समान अथवा एक जैसे स्वभाव और आदत वालों में मित्रता होती है।

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(4)
विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतद् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥

शब्दार्थ
विवादाय = झगड़े के लिए।
मदाय = घमण्ड करने के लिए।
परेषां = दूसरों को।
परिपीडनाये = सताने के लिए।
खलस्य = दुष्ट की।
साधोः = सज्जन।
विपरीतम् = उल्टा।
एतद् = इसके।
ज्ञानाय = ज्ञान के लिए।
दानाय = दान के लिए।
रक्षणाय = रक्षा के लिए।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में चतुर्थी विभक्ति के प्रयोग के माध्यम से दुष्ट और सज्जन पुरुष के अन्तर को बताया गया है।

अन्वय
खलस्य विद्या विवादाय (भवति), धनं मदाय (भवति), शक्ति परेषां परिपीडनाय (भवति)। एतद् विपरीतं साधोः (विद्या) ज्ञानाय (भवति),(धनं) दानाय (भवति), (शक्तिः ) परेषां रक्षणाय च (भवति)।

व्याख्या
दुष्ट की विद्या विवाद के लिए होती है, धन घमण्ड करने के लिए होता है और शक्ति दूसरों को पीड़ित करने के लिए होती है। इसके विपरीत सज्जन की विद्या ज्ञाने के लिए होती है, धन दान देने के लिए होता है और शक्ति दूसरों की रक्षा करने के लिए होती है।

(5)
क्रोधात् भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः।।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ॥

शब्दार्थ
क्रोधात् = क्रोध से।
सम्मोहः = अज्ञान।
स्मृतिविभ्रमः = स्मरण-शक्ति का नाश।
स्मृतिभ्रंशात् = स्मरण शक्ति के नाश से।
बुद्धिनाशः = बुद्धि का नाश।
प्रणश्यति = नष्ट हो जाता है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में पंचमी विभक्ति के प्रयोग के माध्यम से क्रोध को नाश का मूल कारण बताया गया है।

अन्वय
क्रोधात् सम्मोहः भवति। सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः (भवति)। स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशः (भवति)। बुद्धिनाशात् (जन:) प्रणश्यति।।

व्याख्या
क्रोध से व्यक्ति को अज्ञान होता है। अज्ञान से स्मरण-शक्ति का नाश होता है। स्मृति के नष्ट हो जाने से बुद्धि का नाश होता है। बुद्धि के नष्ट हो जाने से मनुष्य ही नष्ट हो जाता है।

(6)
अलसस्य कुतो विद्यो अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रम् अमित्रस्य कुतः सुखम् ॥ 

शब्दार्थ
अलसस्य = आलसी व्यक्ति के पास।
कुतः = कहाँ।
अविद्यस्य = विद्याहीन के पास।
अधनस्य = धनहीन के पास।
अमित्रस्य = मित्रहीन के पास।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में षष्ठी विभक्ति के प्रयोग के माध्यम से सुख की प्राप्ति न होने का मूल : कारण आलस्य को बताया गया है।

अन्वय
अलसस्य विद्या कुतः? अविद्यस्य धनं कुतः? अधनस्य मित्रं कुतः? अमित्रस्य सुखं 
कुतः?

व्यख्या
आलसी मनुष्य के पास विद्या कहाँ? विद्याहीन के पास धन कहाँ? धनहीन अर्थात् निर्धन के पास मित्र कहाँ? मित्रहीन को सुख कहाँ? तात्पर्य यह है कि आलसी मनुष्य सुखी नहीं हो सकता। .

(7)
शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकंन गजे गजे।।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ॥

शब्दार्थ
शैले शैले = प्रत्येक पर्वत पर।
माणिक्यं = माणिक्य नामक रत्न।
मौक्तिकम् = मोती।
गजे गजे = प्रत्येक हाथी के (मस्तक में)।
साधवः = सज्जन।
सर्वत्र = सभी स्थानों पर।
वने वने = प्रत्येक वन में।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में सप्तमी विभक्ति के प्रयोग के माध्यम से बताया गया है कि उत्तम वस्तुओं की प्राप्ति सभी जगह नहीं हो सकती।।

अन्वय
शैले शैले माणिक्यं न (भवति)। गजे गजे मौक्तिकं न (भवति)। साधवः सर्वत्र न (भवति)। चन्दनं वने वने न (भवति)।

व्याख्या
प्रत्येक पर्वत पर माणिक नहीं होता है। प्रत्येक हाथी के मस्तक में मोती नहीं होता है। सज्जन लोग सभी स्थानों पर नहीं होते हैं। चन्दन का वृक्ष प्रत्येक वन में नहीं होता है।

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लकार-परिचय

(1)
पापान्निवारयति योजयते हिताय गुह्यं निगूहति गुणान् प्रकटीकरोति ।
आपद्गतं च ने जहाति ददाति काले सन्मित्र-लक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः ॥

शब्दार्थ
पापात् = पाप से।
निवारयति = रोकता है।
योजयते = लगाता है।
हिताय = भलाई में।
गुह्यम् = छिपाने योग्य को।
निगूहति = छिपाता है।
प्रकटीकरोति = प्रकट करता है।
आपद्गतं = विपत्ति में पड़े हुए को।
जहाति = छोड़ता है।
काले = समय पर।
सन्मित्र- लक्षणम् = अच्छे मित्र के लक्षण।
प्रवदन्ति = कहते हैं।
सन्तः = सज्जन पुरुष।।

सन्दर्य
प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के क्रियाकारककुतूहलम्’ पाठ के अन्तर्गत ‘लकार-परिचयः’ शीर्षक से उद्धृत है।

[संकेत-श्लोक संख्या 2 से 5 तक के शेष चार श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में लट् लकार (वर्तमान काल) के प्रयोग से अच्छे मित्र के लक्षण बताये गये हैं।

अन्वय
पापात् निवारयति, हिताय योजयते, गुह्यं निगूहति, गुणान् प्रकटीकरोति, आपद्गतं न जहाँति, काले च ददाति सन्तः इदं सन्मित्र लणं अवदन्ति।

व्याख्या
(अच्छा मित्र अपने मित्र को) पाप करने से रोकता है, (उसको) कल्याण के लिए (कामों में) लगाता है, (उसकी) गोपनीय बात को (दूसरों से) छिपाता है, (उसके) गुणों को (दूसरों पर) प्रकट करता है। आपत्ति में पड़े हुए उसुको नहीं छोड़ता है तथा समय आने पर उसे बहुत कुछ (धनादि) देता है। सज्जन पुरुष इसे अच्छे मित्र का लक्षण कहते हैं।

(2)
निन्दन्तु नीतिनिपुणाः यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वी मरणमस्तु युगान्तरे बा न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥

शब्दार्थ
निन्दन्तु = निन्दा करें।
नीलिनिपुणाः = नीति में कुशल व्यक्ति।
स्तुवन्तु = स्तुति या प्रशंसा करें।
समाविशतु = प्रवेश करे।
गच्छतु = जाए।
यथेष्टम् = इच्छानुसार।
अद्यैव = आज ही।।
मरणम् = मृत्यु।
युगान्तरे = दूसरे युग में, बहुत समय बाद।
न्याय्यात् पथः = न्याय के मार्ग से।
प्रविचलन्ति = विचलित नहीं होते हैं।
पदम् = पगभर भी।
धीराः = धैर्यवान् पुरुष।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में लोट् लकार (आज्ञासूचक) के प्रयोग के माध्यम से धीर पुरुषों की . विशेषता बतायी गयी है।

अन्वय
यदि नीतिनिपुणाः निन्दन्तु स्तुवन्तु वा, लक्ष्मी: (गृह) समाविशतु यथेष्टं वा (अन्यत्र) गच्छतु। अद्य एव मरणम् अस्तु, युगान्तरे वा (मरणम् अस्तु), (परञ्च) धीराः न्याय्यात् पथः पदं न प्रविचलन्ति।

व्याख्या
चाहे नीति में कुशल पुरुष निन्दा करें अथवा प्रशंसा, लक्ष्मी (घर में) प्रवेश करे अथवा इच्छानुसार दूसरी जगह चली जाए, आज ही मृत्यु हो जाए अथवा बहुत समय बाद हो, परन्तु धीर पुरुष न्याय के मार्ग से पगभर भी नहीं डिगते हैं; अर्थात् कितनी ही विपत्तियाँ क्यों न आ जाएँ धीर पुरुष न्याय मार्ग से कभी विचलित नहीं होते।

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(3)
अपठद्योऽखिला विद्याः कलाः सर्वा अशिक्षत।
अजानात् सकलं वेद्यं स वै योग्यतमो नरः ॥

शब्दार्थ
अपठत् = पढ़ लिया।
यः = जिसने।
अखिलाः = समस्त।
अशिक्षत = सीखा है।
अजानात् = जान लिया है।
सकलम् = समस्त।
वेद्यम् = जानने योग्य को।
वै = निश्चय से।
योग्यतमः = सबसे योग्य।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में लङ् लकार (भूतकाल) के प्रयोग के माध्यम से योग्य व्यक्ति की विशेषताएँ बतायी गयी हैं। |

अन्वय
यः अखिलाः विद्याः अपठत् , सर्वाः कलाः अशिक्षत, सकलं वेद्यम् अजानात्, सः नरः योग्यतमः वै (अस्ति)। |

व्याख्या

जिसने समस्त विद्याएँ पढ़ी हैं, समस्त कलाओं को सीखा है, सब जानने योग्य को जान लिया है, वह निश्चय ही सबसे योग्य मनुष्य है। तात्पर्य यह है कि अध्ययन करने वाला, कलाकार और जानने योग्य को जानने वाला व्यक्ति ही योग्य होता है।

(4)
दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् ।
सत्यपूतां वदे वाचं मनःपूतं समाचरेत् ॥

शब्दार्थ
दृष्टिपूतम् = दृष्टि से भली-भाँति देखकर पवित्र किये गये (स्थान पर)।
न्यसेत् = रखनी चाहिए।
पादं = पैर को।
वस्त्रपूतम् = वस्त्र से (छानकर) शुद्ध किये गये।
सत्यपूताम् = सत्य के प्रयोग से पवित्र की गयी।
वदेत् = बोलना चाहिए।
वाचं = वाणी।
मनःपूतम् = मन से पवित्र किये गये (आचरण को)।
समाचरेत् = भली-भाँति व्यवहार करना चाहिए।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में विधिलिंग लकार के प्रयोग के माध्यम से विभिन्न दैनिक कार्यों को करने की विधि बतायी गयी है।

अन्वय
दृष्टिपूतं पादं न्यसेत्। वस्त्रपूतं जलं पिबेत्। सत्यपूतां वाचं वदेत्। मन:पूतं समाचरेत्। व्याख्या-दृष्टि से (भली-भाँति देखकर) पवित्र किये गये (स्थान पर) पैर को रखना चाहिए अर्थात् सोच-समझकर ही कदम रखना चाहिए। वस्त्र से (छानकर) पवित्र किये गये जेलं को पीना चाहिए। सत्य के (व्यवहार) से पवित्र की गयी वाणी को बोलना चाहिए तथा मन द्वारा भली-भाँति विचार करने के बाद जो आचरण पवित्र हो, उचित हो, उसका ही व्यवहार करना चाहिए।

(5)
रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पङ्कजश्रीः।
“इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे हा हन्त हन्त नलिन गज उज्जहार ॥

शब्दार्थ
रात्रिः = रात्रि।
गमिष्यति = बीतेगी।
भविष्यति = होगा।
सुप्रभातम् = सुन्दर प्रात:काल।
भास्वान् = सूर्य।
उदेष्यति = उदित होंगे।
हसिष्यति = खिलेंगी, हँसेगी।
पङ्कजश्रीः = कमल की शोभा।
इत्थम् = इस प्रकार से।
विचिन्तयति = सोचते रहने पर।
कोशगते = कमल के मध्य भाग के बैठे हुए।
द्विरेफे= भ्रमर के।
नलिनीम् = कमलिनी को।
उज्ज़हार = उखाड़ दिया। ।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में लृट् लकार (भविष्यत्काल) के प्रयोग के माध्यम से ऐसे महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति के प्रति उक्ति कंही गयी है, जिसकी आशाओं पर एकाएक तुषारापात हो गया है।

अन्वय
रात्रिः गमिष्यति, सुप्रभातं भविष्यति, भास्वान् उदेष्यति, पङ्कजश्री: हसिष्यतिकोशगते द्विरेफे इत्थं विचिन्तयति नलिनीं गजः उज्जहार। हो हन्त! हन्त!!

व्याख्या
“रात्रि बीतेगी, सुन्दर प्रभात होगा, सूर्य निकलेगा, कमल की शोभा खिलेगी-कमल के मध्य भाग में बैठे हुए भौरे के ऐसा सोचते रहने पर कमलिनी को हाथी ने उखाड़ डाला। हाय खेद है! खेद है!! तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को भविष्य (आने वाले कल) के बारे में अधिक नहीं।’ सोचना चाहिए। अन्यत्र कहा भी गया है–‘को वक्ता तारतम्यस्य तमेकं वेधसं विना।’

सूक्तिपरक वाक्य की व्याख्या


(1)
विनयो वंशमाख्याति देशमाख्याति भाषितम्।।

सन्दर्य :
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के क्रियाकारककुतूहलम्’ पाठ से ली गयी है।

[संकेत-इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में विनय और भाषा के महत्त्व को समझाया गया है।

अर्थ
विनय वंश को बताती है और भाषा देश को।।

व्याख्या
प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व अपने माता-पिता तथा कुल के लोगों के संस्कारों से अवश्य प्रभावित होता है। ऐसा देखने में आता है कि परिवार अथवा वंश के लोगों के अच्छे अथवा बुरे संस्कार बच्चे में अवश्य ही आते हैं। यदि माता-पिता तथा कुल के लोग सभ्य-सुसंस्कृत होते हैं तो व्यक्ति भी संस्कारवान होता है तथा इसके विपरीत होने पर बच्चे भी वैसा ही दुर्गुण ग्रहण कर लेते हैं। विशेष रूप से व्यक्ति को विनयशीलता तो कुल-परंम्परा से ही प्राप्त होती है। इसीलिए किसी व्यक्ति के आचार-व्यवहार तथा विनयशीलता को देखकर अनुमान (UPBoardSolutions.com) लगाया जा सकता है कि वह उच्च कुल से सम्बन्ध रखता है अथवा निम्न कुल से।। | इसी प्रकार से किसी व्यक्ति की भाषा से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यक्ति किस देश, प्रदेश अथवा स्थान-विशेष का रहने वाला है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक क्षेत्र-विशेष की भाषा में कुछ-न-कुछ परिवर्तन अवश्य देखने को मिलता है। इसीलिए लोक में एक उक्ति प्रचलित है-‘कोस-कोस पर बदले पानी, चारकोस पर बानी।।

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(2)
वपुराख्याति भोजनम्।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में शरीर के लिए भोजन के महत्त्व को बताया गया है।

अर्थ
शरीर भोजन को बता देता है कि कौन कैसा भोजन करता है। |

व्याख्या
मनुष्य के शरीर की सुन्दरता, सुडौलता और हृष्ट-पुष्टता को देखकर उसके ग्रहण | किये गये भोजन की गुणवत्ता का पता लग जाता है। यदि किसी व्यक्ति का शरीर निस्तेज और निर्बल है, तो इसका अर्थ है कि वह अच्छा भोजन नहीं करता है। यदि किसी का शरीर हृष्ट-पुष्ट एवं तेजस्वी है। तो वह क्तम भोजन करता है, ऐसा उसके शरीर को देखकर ही अनुमान लग जाता है। खिलाड़ियों व पहलवानों के शरीर को देखकर ही पता लग जाता है कि वे कैसा भोजन करते हैं। तात्पर्य यह है कि शरीर की सर्वविध पुष्टता उत्तम भोजन पर ही निर्भर करती है।

(3)
समानशील-व्यसनेषु सख्यम्।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में मित्रता के आधार पर प्रकाश डालते हुए बताया गया है कि मित्रता कैसे लोगों में होती है।

अर्थ
समान स्वभाव और आदत वालों में मित्रता हो जाती है।

व्याख्या
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसके बहुत कुछ कार्य दूसरों की सहायता से सम्पन्न होते हैं; अतः वह ऐसे व्यक्ति को अपना मित्र बनाता है, जो उससे मिल-जुलकर रह सके। देखा जाता है कि समान स्वभाव और समान आदत वालों में जल्दी मित्रता हो जाती है। पशु, पशुओं के साथ घूमते हैं; मूर्ख, (UPBoardSolutions.com) मूर्खा के साथ और बुद्धिमान, बुद्धिमानों के साथ रहते हैं; क्योंकि उनकी आदतें और स्वभाव आपस में समान होते हैं; अतः उनमें जल्दी मेल हो जाता है। इसी प्रकार उत्तम और आदर्श छात्र भी अपने समान छात्रों को तलाश कर मित्रता कर लेते हैं। विरोधी स्वभाव वालों में या तो मित्रता होती ही नहीं और यदि होती भी है तो अधिक समय तक स्थिर नहीं रहती।

(4)
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम्।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में कहा गया है कि आलसी और विद्याहीन व्यक्ति निर्धन होता है।

अर्थ
आलसी व्यक्ति को विद्या कहाँ और विद्याहीन को धन कहाँ।

व्याख्या
कोई भी व्यक्ति किसी भी कार्य में तभी सफल हो सकता है जब कि उसके मन में उस कार्य को करने की लगन हो तथा परिश्रम करने की क्षमता हो। बिना परिश्रम के व्यक्ति को इस संसार में कुछ भी नहीं मिलता। विद्या और धन तो अत्यधिक परिश्रम से ही प्राप्त होते हैं। आलसी

व्यक्ति में न तो किसी कार्य को करने की लगन होती है और न ही परिश्रम करने की क्षमता। इसलिए आलसी व्यक्ति को विद्या प्राप्त नहीं हो सकती और धन तो गुणी अर्थात् विद्या से सम्पन्न व्यक्ति को ही मिलता है। तात्पर्य यह है कि यदि व्यक्ति धनवान होना चाहता है तो उसे आलस्य का त्याग करना ही पड़ेगा। उसे यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ‘न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखें मृगाः।

(5)
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में धीर और न्यायप्रिय व्यक्तियों के चरित्र पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ
धीर पुरुष न्याय के रास्ते से अपने कदम को नहीं हटाते हैं।

व्याख्या
इस संसार में प्रत्येक मनुष्य सुख-दुःख व हानि-लाभ से प्रभावित होता रहता है, लेकिन जो धीर पुरुष होते हैं, वे सदा न्याय के मार्ग पर अग्रसर रहते हैं। उनकी कोई प्रशंसा करे या निन्दा, उनको धन प्राप्त हो या उनका धन नष्ट हो जाए, उनकी उम्र अधिक लम्बी हो, या उनकी उसी दिन मृत्यु हो जाए, वे कभी न्याय के मार्ग से विचलित नहीं होते। धीर पुरुष के ऊपर किसी प्रलोभन का भी प्रभाव नहीं होता।

(6)
सत्यपूतां वदेद्वाचं मनःपूतं समाचरेत्।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में व्यक्ति के लिए श्रेष्ठ आचरण को बताया गया है।

अर्थ
सत्य से पवित्र वचन बोलना चाहिए और पवित्र मन से भली-भाँति आचरण करना चाहिए।

व्याख्या
मनुष्य को कोई बात कहने से पूर्व उसे सत्य की कसौटी पर जाँच लेना चाहिए। जो कोई बात सत्य जान पड़ती हो, उसे ही कहना चाहिए तथा जो बात सत्य प्रतीत न होती हो, उसे नहीं | बोलना चाहिए। मनुष्य को समाज में रहकर अपने कार्य करने होते हैं। कुछ कार्यों को वह मन से करता है तो कुछ को दिखावे के लिए; कुछ बातें वह दूसरों को प्रसन्न करने के लिए करता है तो कुछ अपने कार्य को सिद्ध करने (UPBoardSolutions.com) के लिए। इस प्रकार मनुष्य को सत्यपूर्ण वाणी और मन से पवित्र आचरण ही करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि हमारा अन्त:करण जिस बात को ठीक समझे, उसे ही करना चाहिए और मन जो बात करने की अनुमति नहीं देता, उसे नहीं करना चाहिए। अत: किसी कार्य के विषय में करने या करने का सन्देह होने पर अन्त:करण को प्रमाण मानना चाहिए। 

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) विद्या विवादाय •••••••••••• दानायचे रक्षणाय॥ (विभक्ति-परिचय, श्लोक 4)
संस्कृतार्थः
कविः खल-सज्जनयोः अन्तरं वर्णयति-दुर्जनस्य विद्या कलहाय भवति, तस्य धनं गर्वाय भोगाय च भवति, तस्य बलम् अन्येषां जनानां पीडनाये भवति, एतद् विपरीतं सज्जनस्य विद्या ज्ञानाय भवति, तस्य वित्तं दानाय भवति, तस्य बलं च अन्येषां रक्षणाय भवति।

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(2) अलसस्य कुतो•••••••••••••••••• कुतः सुखम्॥ (विभक्ति-परिचय, श्लोक 6)
संस्कृतार्थ-
श्रमहीनः जनः विद्यां प्राप्तुं न शक्नोति, विद्याहीनः जनः धनं प्राप्तुम् असमर्थः अस्ति, धनहीनः जनः मित्रं कर्तुं न क्षमोऽस्ति, मित्रहीनस्य सुखं न भवति।।

(3) शैले शैले ••••••••••••••••••••”चन्दनं न वने वने। (विभक्ति-परिचय, श्लोक 7)
संस्कृतार्थः-
प्रत्येकं पर्वते माणिक्यं न भवति, केषुचित् पर्वतेषु एव भवति। प्रत्येकं गजस्य मस्तके मौक्तिकं न भवति, केषाञ्चित् गजानां मस्तके एव भवति। साधुपुरुषाः सर्वेषु स्थानेषु न भवन्ति। प्रत्येकं वने चन्दनं वृक्षं न भवति। अल्पीयेषु वनेषु एव चन्दनं भवति।।

(4) पापान्निवारयति •••••••••••••••••••••”प्रवदन्ति सन्तः॥ (लकार-परिचय, श्लोक 1)
संस्कृतार्थः–
कविः श्रेष्ठस्य मित्रस्य लक्षणानि कथयति-श्रेष्ठमित्रं स्वसुहृदं दुष्कर्मणः दूरीकरोति, सः स्वमित्रं हितकार्येषु संलग्नं करोति, सः स्वमित्रस्य अप्रकाश्यान् दोषान् आच्छादयति, तस्य गुणान् च प्रकाशयति, सः विपत्तौ निमग्नं स्वसुहृदं न परित्यजति, सन्मित्रं स्वमित्रस्य अभावसमये व्ययपूर्त्यर्थं तस्मै धनं प्रयच्छति, सज्जनाः एतत् श्रेष्ठस्य मित्रस्य लक्षणं कथयन्ति। |

(5) निन्दन्तु नीतिनिपुणाः ••••••••••••••••••• पदं न धीराः॥ (लकार-परिचय, श्लोक 2)
संस्कृतार्थः-
कविः धीराणां पुरुषाणां न्यायप्रिंयत्वं वर्णयति। यत् नीतिकुशलाः पुरुषाः धीराणां पुरुषाणां निन्दां कुर्वन्तु ते तेषां प्रशंसां वा कुर्वन्तु, तेषां गृहे धनम् आगच्छेत् तेषां समीपात् वा धनं यथेच्छं गच्छतु, ते निर्धनतां प्राप्नुवन्तु, तेषां मृत्युः तस्मिन्नेव दिने भवतु, युगान्तरं यावत् जीवनं धारयन्तु वा परं धीराः पुरुषाः न्यायपूर्णात् मार्गात् किञ्चिदपि च्युताः न भवन्ति, ते त्यायमार्गम् एव अनुसरन्ति। ।

(6) रात्रिर्गमिष्यति •••••••••••••••••••••••• गज उज्जहार॥ (लकार-परिचय, श्लोक 5) 
संस्कृतार्थः-
कविः मृत्योः समयस्य अनिश्चित्वं वर्णयति यत् रात्रौ कमलपुटे स्थितः एकः अलिः स्वमनसि इत्थं विचारयति स्म यत् इयं घोरा निशा समाप्ती भविष्यति, स्वर्णिमः सुखदः प्रभातकालः भविष्यति, सूर्य उद्गमिष्यति, कमलानां शोभायाः विकासो भविष्यति। सः भ्रमरः तत्र स्थितः विचारयन् एवासीत् यत् एतस्मिन्नेव काले तस्य दैवदुर्विपाकात् एकः गजः तत्र आगच्छत् तां कमलिनीं च उत्पाट्य अनयत् इति खेदस्य विषयः।

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Class 9 Sanskrit Chapter 8 UP Board Solutions बन्धुत्वस्य सन्देष्टा रविदासः Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 8 बन्धुत्वस्य सन्देष्टा रविदासः (गद्य – भारती) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 8 बन्धुत्वस्य सन्देष्टा रविदासः (गद्य – भारती).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 8
Chapter Name बन्धुत्वस्य सन्देष्टा रविदासः (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 3
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 8 Bandhutvasya Sandeshta Ravidas Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 8 हिंदी अनुवाद बन्धुत्वस्य सन्देष्टा रविदासः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांश

परिचय एवं जन्म-रविदास को स्वामी रामानन्द के बारह शिष्यों में से एक माना जाता है। उनका नाम रैदास लोक-प्रचलित है। उनका जन्म काशी के मण्डुवाडीह ग्राम में विक्रमी संवत् 1471 में माघ मास की पूर्णिमा तिथि को रविवार के दिन हुआ था। रविवार को जन्म होने के कारण ही उनका नाम रविदास’ पड़ा।

तत्कालीन परिस्थितियाँ-रविदास के समय में भारतवासी यवनों के शासन से पीड़ित थे और भारतीय राजा आपस में लड़ रहे थे। भारतवासी सभी तरह से उपेक्षित थे और विद्यमान सम्प्रदायों में। धार्मिक द्वेष बढ़ रहा था। ऐसी दशा में दु:खी होकर महात्माओं ने ईश्वर को ही शरण मानते हुए लोगों को ईश्वर की व्यापकता और सर्वशक्तिमत्ता समझायी। भारतवासी उन्हीं लोगों का सन्त कहकर आदर करते थे, जो दीन-दुःखियों की सेवा में तत्पर तथा दलितों और शोषितों के प्रति दयावान थे।

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जीवन-प्रणाली एवं सिद्धान्त-रविदास अपने कर्म में लगे रहकर दु:खी लोगों के प्रति दयावान बने रहे। वे धर्म के बाह्य आचरणों को परस्पर द्वेष का कारण मानते थे। ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा यह उनका विचार था। रविदास किसी पाठशाला में नहीं पढ़े। उन्होंने गुरु की कृपा से संसार की क्षणभंगुरता एवं ईश्वर की नित्यता और व्यापकता का जो ज्ञान प्राप्त किया, उसी का लोगों को उपदेश . दिया। | रविदास ने न किसी जंगल में जाकर तपस्या की ओर न ही किसी पर्वत की गुफा में बैठकर साधना की। वे जल में रहते हुए भी जल (UPBoardSolutions.com) से भिन्न रहने वाले कमल-पत्र की तरह संसार के बन्धन से मुक्त थे। उनका विश्वास था कि अपना कर्म करते हुए घर पर रहकर भी ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सकता है। वे ईश्वर को मन्दिरों, वनों और एकान्त में ढूंढ़ने की अपेक्षा अपने हृदय के भीतर ढूंढ़ना अधिक उचित समझते थे। वे ईश्वर की प्राप्ति में अहंकार को सबसे बड़ा बाधक मानते थे। यह मैं करता हूँ, यह मेरा है-इस भ्रम को छोड़कर ही ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सकता है; ऐसा उनका मानना था।

निर्गुणोपासक-रविदास, कबीरदास, नानक आदि महात्माओं ने यद्यपि निर्गुण ब्रह्म की उपासना की, फिर भी उन्होंने सगुणोपासकों से कभी द्वेष नहीं किया। वे निराकार ब्रह्म के साक्षात्कार के साथ-साथ दु:खियों, दीनों, दरिद्रों और दलितों के प्रति भी अपने मन में अगाध प्रेम रखते थे।

रविदास दीनों, दरिद्रों और दलितों में ईश्वर के दर्शन करते थे। उनके विचार में ईश्वर ने सबको समान बनाया है; अतः सभी आपस में भाई-भाई हैं। मनुष्य जाति में जाति, वर्ण और सम्प्रदाय के भेद : मनुष्य ने बनाये हैं। वे कहते थे-‘हरि को भजे, सो हरि का होई।’ हरि के भजन में जाति या वर्ण नहीं पूछा जाता है। उन्होंने राष्ट्र की अखण्डता और एकता को बनाये रखने का सदैव प्रयत्न किया।

स्वर्गारोहण-रविदास 126 वर्ष की आयु में संवत् 1597 वि० राजस्थान के चित्तौड़गढ़ नामक स्थान पर परमात्मा में विलीन हो गये थे। वे अपने यशः शरीर से आज भी जीवित हैं।

गधाशों का सन्दर्भ अनुवाद 

(1) परमोपासकस्य रामानन्दस्य द्वादशशिष्या आसन्निति भण्यते। तेषु शिष्येषु रविदासो लोके रैदास इति संज्ञया ख्यात एकः शिष्यः आसीदित्युच्यते। रविदासस्य जन्म काश्यां माण्डूरनाम्नि (मण्डुवाडीह) ग्रामे एकसप्तत्युत्तरचतुर्दशशततमे (1471 वि०) विक्रमाब्दे माघमासस्य पूर्णिमायान्तिथौ रविवासरेऽभवत्। रविवासरे तस्य जन्म इति हेतोः रविदास इति नाम जातमित्यनुमीयते। |

शब्दार्थ-
भण्यते = कहा जाता है। संज्ञया = नाम से।
ख्यात = प्रसिद्ध।
आसीत् इति उच्यते = थे, ऐसा कहा जाता है।
हेतोः = कारण से।
जातमित्यनुमीयते (जातम् + इति + अनुमीयते) = हुआ, ऐसा अनुमान किया जाता है।

सन्दर्भ
प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तके ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘बन्धुत्वस्य सन्देष्टा रविदासः’ शीर्षक पाठ से अवतरित है।

संकेत
इस पाठ के शेष गद्यांशों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में रविदास के शिष्यत्व एवं जन्म की बात कही गयी है।

अनुवाद
महान् उपासक रामानन्द के बारह शिष्य थे, ऐसा कहा जाता है। उन शिष्यों में रविदास संसार में रैदास नाम के प्रसिद्ध एक शिष्य थे, ऐसा कहा जाता है। रविदास का जन्म काशी में | मांडूर (मण्डुवाडीह) नामक ग्राम में विक्रम संवत् 1471 में माघ मास की पूर्णिमा तिथि को रविवार के दिन हुआ था। रविवार के दिन उनका जन्म हुआ, इस कारण ‘रविदास’ यह नाम हुआ, ऐसा अनुमान किया जाता है।

(2) पञ्चदश्यां शताब्दी भारतीयजनजीवनमतीवक्लेशक्लिष्टमासीत्। यवनशासकैराक्रान्तो देशो, मिथः कलहायमाना भारतीयाः राजानः दुःखदैन्यग्रस्ताः, सर्वथोपेक्षिताः भारतीयजनाः विविधधमानुयायिषु प्रवृत्तो विद्वेषो जातिवर्णेषु विभक्तो भारतीयसमाज इति देशदशां दर्श दर्श दूयमानहृदयाः (UPBoardSolutions.com) तदानीन्तनाः महात्मानः सन्तश्चेश्वर एव शरणमिति मन्यमाना ईश्वरम्प्रति समर्पिताः सन्त परमात्मनो व्यापकत्वं तस्य सर्वशक्तिमत्त्वञ्च बोधयति स्म। |

शब्दार्थ-
अतीव = अत्यधिक।
क्लेशक्लिष्टम् = दुःखों से दु:खी।
मिथः = आपस में।
कलहायमाना = कलह करते हुए।
सर्वथोपेक्षिताः = सब प्रकार से उपेक्षित।
दर्श दर्शम् = देख-देखकर।
दूयमान हृदयाः = दुःखी हृदय वाले।
तदानीन्तनाः = उस समय के।
व्यापकत्वं = व्यापक होना।
बोधयन्ति स्म = समझते थे।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में पन्द्रहवीं शताब्दी में भारतीयों की दीन दशा तथा उस दशा से उन्हें उबारने के लिए भारतीय सन्तों द्वारा किये जा रहे जन-जागरण आन्दोलन का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
पन्द्रहवीं शताब्दी में भारतीय लोगों का जीवन कष्टों से अत्यधिक दुःखी था। मुसलमान शासकों से देश आक्रान्त (पीड़ित) था, आपस में झगड़ते हुए भारतीय राजा दुःख और दीनता से ग्रसित थे, भारतीय लोग सभी तरह से उपेक्षित थे, विविध धर्म के अनुयायियों में शत्रुता बढ़ी हुई थी, भारतीय समाज जातियों और वर्गों में बँटा हुआ था इस प्रकार देश की दशा को देख-देखकर दुःखित हृदय वाले तत्कालीन महात्मा और सन्त (UPBoardSolutions.com) ईश्वर ही शरण है ऐसा मानते हुए ईश्वर के प्रति समर्पित सन्त परमात्मा की व्यापकता और उसकी सर्वशक्तिमत्ता को समझाते थे।

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(3) वस्तुतस्तु, तादृशा एव महापुरुषाः ‘सन्त’ शब्देन भारतीयजनमानसे समादृता अभवन्, ये परदुःखकातराः परहितरताः दुःखिजनसेवापरायणाः दलितान् शोषितान्प्रति सदयाः स्वसुखमविगणयन्तः यदृच्छालाभसन्तुष्टा आसन्।

शब्दार्थ-
वस्तुतस्तु = वास्तव में।
तादृशा एव = उस प्रकार के ही।
समादृताः = सम्मान प्राप्त।
परहितरताः = दूसरों की भलाई में लगे हुए।
सदयाः = दयालु।
अविगणयन्तः = न गिनते हुए, उपेक्षा करते हुए।
यदृच्छालाभः = इच्छानुसार जो प्राप्त हो जाए।

प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में तत्कालीन भारतीय समाज में सन्तों की स्थिति का वर्णन किया गया है। | अनुवाद–वास्तव में भारतीय लोगों के मन में उसे प्रकार के महापुरुषों ने ही ‘सन्त’ शब्द से आदर प्राप्त किया, जो दूसरों के दु:खों, दूसरों की भलाई में लगे हुए, दुःखी लोगों की सेवा करने वाले, दलितों और शोषितों के प्रति दयावान्, अपने सुखों की परवाह न करके जैसा मिल गया, उस लाभ से सन्तुष्ट थे।’

(4) सत्पुरुषो महात्मा रविदासः स्वकर्मणि निरतः सन् परमात्मनो माहात्म्यमुपवर्णयन् दुःखितान् जनान्प्रति सदयहृदयः कर्मणः प्रतिष्ठां लोकेऽस्थापयत्। धर्मस्य बाह्याचारः एवं परस्परवैरस्य हेतुरिति स विश्वसिति स्म। अतो बाह्याचारान् परिहाय धर्माचरणं विधेयम्। गङ्गास्नानाच्छरीरशुद्धेरपेक्षया मनसा शुद्धिरावश्यकीति तेनोक्तम्। पूते तु मनसि काष्ठस्थाल्यामेव गङ्गेति तस्योक्ति प्रसिद्धैवास्ति।

शब्दार्थ-
निरतः सन् = लगे हुए।
माहात्म्यम् उपवर्णयन् = महत्त्व का वर्णन करते हुए।
लोकेऽस्थापयत् = लोक में स्थापित की।
विश्वसिति स्म = विश्वास करते थे।
परिहाय = छोड़कर।
विधेयम् = करना चाहिए।
गङ्गस्नानाच्छरीरशुद्धेरपेक्षया (गङ्गा + स्नानात् + शरीर + शुद्धेः + अपेक्षया) = गंगा में स्नान से शरीर की शुद्धि की अपेक्षा।
पूते तु मनसि = मन पवित्र होने पर।
काष्ठस्थाल्यामेव (काष्ठः + स्थाल्याम् + एव) = काठ की थाली (कठौती) में ही।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में रविदास के धर्म के बाह्यचारों के सम्बन्ध में व्यक्त विचारों का वर्णन • किया गया है।

अनुवाद
सत् पुरुष महात्मा रविदास ने अपने कर्म में लगे हुए रहकर परमात्मा की महिमा का वर्णन करते हुए, दु:खी लोगों के प्रति दयालु हृदय होकर संसार में कर्म की प्रतिष्ठा स्थापित की। वे ‘धर्म के बाहरी आचरण ही आपसी वैर के कारण ऐसा विश्वास करते थे। इसलिए बाहरी आचारे को छोड़कर धर्म का (UPBoardSolutions.com) आचरण करना चाहिए। गंगा स्नान से शरीर की शुद्धि की अपेक्षा मन की शुद्धि आवश्यक है, ऐसा उन्होंने बतलाया। मन के पवित्र रहने पर कठौती में ही गंगा है, ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’, उनकी यह उक्ति ही प्रसिद्ध है।

(5) रविदासः कस्याञ्चिदपि पाठशालायां पठितुं न गतोऽतस्तस्य ज्ञानं पुस्तकीयं नासीत्। जगतो नश्वरत्वं परमात्मनोऽनश्वरत्वं व्यापकत्वमित्यादिदार्शनिकं ज्ञानं गुरोरनुकम्पया तेन लब्धं प्रेरणयैव तथाभूतस्य ज्ञानस्योपदेशो जनेभ्यस्तेन दत्तः।।

शब्दार्थ-
कस्याञ्चिदपि = किसी भी।
पुस्तकीयम् = पुस्तक सम्बन्धी।
नश्वरत्वम् = नाशवान् होने का भाव।
गुरोरनुकम्पया = गुरु की कृपा से।
तथाभूतस्य = उस प्रकार का।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में रविदास द्वारा गुरु की कृपा से दार्शनिक ज्ञान अर्जित करने का वर्णन

अनुवाद
रविदास किसी भी पाठशाला में पढ़ने के लिए नहीं गये, इसलिए उनका ज्ञान पुस्तकीय नहीं था। उन्होंने संसार की नश्वरता, ईश्वर की नित्यता और व्यापकता आदि का दार्शनिक ज्ञान गुरु की कृपा से प्राप्त किया था। गुरु की प्रेरणा से ही उन्होंने लोगों को उस प्रकार के ज्ञान का उपदेश दिया।

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(6) सः तपस्तप्तुं गहनं वनं न जगाम न वा गिरिगुहायमुपविश्य साधनरतः ज्ञानमधिगन्तुं चेष्टते स्म। वीतरागभयक्रोधोऽसौ जगति निवसन्नपि जगतः बन्धनात् पद्मपत्रमिव मुक्तः व्यवहरति स्म। स्वकर्मणि निरतः फलम्प्रति निराकाङ्क्षः स्वगृहेऽपि परमात्मा साक्षात्कर्तुं शक्यते इति रविदासः प्रत्येति। (UPBoardSolutions.com) अतो विभिन्नोपासनास्थलेषु वनेषु रहसि वा ईश्वरानुसन्धानादपेक्षया स्वहृदये एवानुसन्धातुमुचितम्। ईश्वरप्राप्तावहङ्कार एवं बाधकोऽस्ति।’अहमिदं करोमि’ ममेदमिति बोधः भ्रमात्मकः। भ्रममपहायैव ईश्वरप्राप्तिः सम्भवा। रविदासः स्वरचिते पद्ये गायति—यदा अहमस्मि तदा त्वं नासि, यदा त्वमसि तदा अहं नास्मि।

शब्दार्थ-
गिरिगुहायामुपविश्य = पर्वत की गुफा में बैठकर।
अधिगन्तुम् = प्राप्त करने के लिए।
चेष्टते स्म = प्रयत्न किया।
निविसन्नपि = निवास करते हुए भी।
पद्मपत्रमिव = कमल के पत्ते के समान।
व्यवहरति स्म = व्यवहार करते थे।
निरतः = लगे हुए।
निराकाङ्क्षः = इच्छारहित। प्रत्येति = विश्वास करते थे।
रहसि = एकान्त में।
ईश्वरानुसन्धानादपेक्षया = ईश्वर को खोजने की अपेक्षा।
अनुसन्धातुम् = खोजने के लिए।
ईश्वर-प्राप्तावहङ्कारः (ईश्वर + प्राप्तौ + अहङ्कारः) = ईश्वर की प्राप्ति में घमण्ड।
बोधः = ज्ञान। भ्रममपहायैव = भ्रम को छोड़कर ही। नासि (न + असि) = नहीं हो।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में रविदास द्वारा ईश्वर-प्राप्ति के साधन रूप में ईश्वर को हृदय में खोजने और अहंकार को त्यागने पर बल दिया गया है।

अनुवाद
वे तपस्या करने के लिए घने जंगल में नहीं गये, न ही पर्वतों की गुफा में बैठकर साधना में लीन होकर ज्ञान को प्राप्त करने की चेष्टा की। राग, भय, क्रोध से रहित वे संसार में रहते हुए भी संसार के बन्धन से उसी प्रकार व्यवहार करते थे, जैसे कमल का पत्ता; अर्थात् जो जल में रहकर भी गीला नहीं होता है। अपने कर्म में लगे हुए फल के प्रति इच्छारहित होकर अपने घर में भी परमात्मा का साक्षात्कार किया जा (UPBoardSolutions.com) सकता है, रविदास ऐसा विश्वास करते थे। इसलिए विभिन्न पूजा-स्थलों में, वन में या एकान्त में ईश्वर को खोजने की अपेक्षा अपने हृदय में ही खोजना उचित है। ईश्वर की प्राप्ति में अहंकार ही बाधक है। मैं यह करता हूँ, यह मेरा है, यह ज्ञान भ्रमपूर्ण है। भ्रम को छोड़कर ही ईश्वर की प्राप्ति सम्भव है। रविदास अपने रचित पद्य में गाते हैं-“जब मैं हूँ, तब तुम नहीं हो, जब तुम हो, तब मैं नहीं हूं।”

(7) रविदासः कबीरदासो नानकदेवप्रभृतयः सन्तो महात्मानः निर्गुणमेवेश्वरं गायन्ति स्म। परन्ते सगुणसम्प्रदायावलम्बिनः प्रति विद्वेषिणो नासन्। तैः रचितेषु पदेषु यत्र-तत्र भक्तिभावस्य तत्त्वमवलोक्यते। निराकारब्रह्मणः गहनभूते सुविस्तृते साक्षात्कारविचारनभसि विचरन्नपि रविदासः ।। पृथिवीतले विद्यमानतेषु दुःखितेषु, दरिद्रेषु दलितेषु च सुतरां रमते स्म।।

शब्दार्थ-
प्रभृतयः = आदि।
परं ते = किन्तु वे।
विद्वेषिणः = द्वेष रखने वाले। नासन् (न +आसन्) = नहीं थे।
तत्त्वमवलोक्यते = तत्त्व देखा जाता है।
गहनभूते = गम्भीर बने हुए में।
साक्षात्कार विचारनभसि = साक्षात्कार के विचार रूपी आकाश में
विचरन्नपि = विचरण करते हुए। भी।
रमते स्म = रमता था।

प्रसंग
रविदास निर्गुण ब्रह्म की उपासना के साथ-साथ दु:खी-दलितों के प्रति भी दयावान थे। इसी का वर्णन प्रस्तुत गद्यांश में किया गया है।

अनुवाद
रविदास, कबीरदास, नानक देव आदि सन्त-महात्मा निर्गुण ईश्वर का ही गान करते थे, परन्तु वे सगुण मत को मानने वालों के प्रति द्वेष नहीं रखते थे। उनके द्वारा बनाये गये पदों में यहाँ-वहाँ (स्थान-स्थान) पर भक्तिभावना का तत्त्व देखा जाता है।

निराकार ब्रह्म के घने, अत्यन्त विस्तृत साक्षात्कार के विचाररूपी आकाश में विचरण करते हुए भी रविदास पृथ्वी तल पर विद्यमान दु:खी, दरिद्र और दलितों में अत्यधिक रमण (घूमते अर्थात् प्रेम) करते थे; अर्थात् निर्गुण ब्रह्म के साधक होते हुए भी दीन-दुःखियों से उतना ही प्रेम करते थे, जितना परमात्मा से।।

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(8) सः दलितेषु, दीनेषु, दरिद्रेष्वेवेश्वरमपश्यत्। तेषां सेवा, तान्प्रति सहानुभूतिः प्रेमप्रदर्शनं चेश्वरार्चनमिति तस्य विचारः। सामाजिकवैषम्यं न वास्तविकं प्रत्युत परमात्मना सर्वे समाना एव रचिताः, सर्वे च तस्येश्वरस्य सन्ततयोऽतः परस्परं बान्धवाः। मनुष्येषु तर्हि मिथः कथं वैरभावः? इत्थं समत्वस्य बन्धुतायाश्चोपदेशं जनेभ्योऽददात्। जातिवर्णसम्प्रदायादिभेदा अपि मनुष्यरचिताः परमात्मन इच्छाप्रतिकूलम्। इत्थं रविदासेन (UPBoardSolutions.com) मनुष्यजातौ स्पृश्यास्पृश्यादिदोषाणामुच्चावचभेदानां चातीवतीव्रस्वरेण विरोधः कृतः। हरि भजति स हरेर्भवति। हरिभजने ने कश्चित्पृच्छति जातिं वर्णं वेति सत्यं प्रतिपादयन् देशस्याखण्डतायाः राष्ट्रस्यैक्यस्य च रक्षणे स प्रायतते। महात्मा रविदासोऽध्यात्म, भक्ति, सामाजिकाभ्युन्नतिं च युगपदेव संसाधयन् सप्तनवत्युत्तरपञ्चदशशततमे वैक्रमे राजस्थानप्रान्ते चित्तौडगढनाम्नि स्थाने षड्विंशत्युत्तरशतिमते वयसि परमात्मनि विलीनः यशःशरीरेणाद्यापि जीवतितराम्।। |

शब्दार्थ
दरिद्रेष्वेवेश्वरमपश्यत् (दरिद्रेषु + एव + ईश्वरम् + अपश्यत्) = दरिद्रों में ही ईश्वर को देखते थे।
चेश्वरार्चनमिति (च + ईश्वर + अर्चनम् + इति) = और ईश्वर की पूजा है, ऐसा।
वैषम्यम् = असमानता को।
इच्छा-प्रतिकूलम् = इच्छा के विपरीत।
इत्थं = इस प्रकार।
स्पृश्यास्पृश्यादिदोषाणां = छुआछूत इत्यादि दोषों का।
उच्चावच = ऊँचे-नीचे।
चातीवतीव्रस्वरेण (च + अतीव + तीव्र + स्वरेण) = और अधिक तीखे स्वर से।
कश्चित् पृच्छति = कोई पूछता है।
प्रतिपादयन् = प्रतिपादन करते हुए।
प्रायतत = प्रयत्न किया। युगपदेव = एक साथ ही।
संसाधयन् = सिद्ध करते हुए।
वयसि = अवस्था में।
शरीरेणाद्यापि = (शरीरेण + अद्य + अपि) शरीर से आज भी।
जीवतितराम् = जीवित हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में रविदास ने दोनों, दुःखियों, दरिद्रों और दलितों में ईश्वर के रूप को दर्शाया है।

अनुवाद
उन्होंने दलितों, दीनों और दरिद्रों में ईश्वर के दर्शन किये। उनकी सेवा, उनके प्रति सहानुभूति और प्रेम-प्रदर्शन ईश्वर की पूजा है, ऐसा उनका विचार था। सामाजिक असमानता वास्तविक नहीं है, अपितु ईश्वर ने सबको समान बनाया है और सब उस ईश्वर की सन्तान हैं; अतः आपस में भाई हैं। फिरे मनुष्यों में आपस में कैसी शत्रुता? इस प्रकार उन्होंने लोगों को समानता और बन्धुता का उपदेश दिया। जाति, वर्ण, सम्प्रदाय आदि के भेद भी मनुष्य के बनाये हैं, परमात्मा की इच्छा के विपरीत हैं। इस प्रकार रविदास ने मनुष्य जाति में छुआछूत आदि दोषों का, ऊँच-नीच के भेदों का अत्यन्त जोरदार शब्दों में खण्डन किया। जो हरि को भजता है, वह हरि का (UPBoardSolutions.com) होता है। हरि के भजने में कोई जाति या वर्ण को नहीं पूछता है-इस सत्य को बतलाते हुए देश की अखण्डता और राष्ट्र की एकता की रक्षा करने के लिए उन्होंने प्रयत्न किया। महात्मा रविदास अध्यात्म (आत्मा, परमात्मा का ज्ञान), भक्ति सामाजिक उन्नति को एक साथ ही सिद्ध करते हुए 1597 विक्रम संवत् में राजस्थान प्रान्त में चित्तौड़गढ़ नाम के स्थान पर 126 वर्ष की आयु में परमात्मा में विलीन हो गये, वे अपने यशः शरीर से आज भी जीवित हैं।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
रविदास का जीवन-परिचय लिखिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत दी गयी सामग्री को अपने शब्दों में संक्षेप में लिखें।] ।

प्ररन 2
रविदास की ईश्वर सम्बन्धी विचारधारा पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
रविदास का ऐसा विश्वास था कि फल के प्रति इच्छारहित होकर अपने कर्म मे लगा हुआ व्यक्ति अपने घर में भी परमात्मा को साक्षात्कार कर सकता है। उनका कहना था कि ईश्वर को अपने हृदय में खोजना ही उचित है। ईश्वर की प्राप्ति में यह मैं हूँ, यह मेरा है’ यह ज्ञान भ्रमपूर्ण है। इस भ्रम का त्याग किये बिना ईश्वर की प्राप्ति असम्भव है।

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प्ररन 3
रविदास के जीवन-परिचय एवं जीवन-दर्शन का वर्णन करते हुए तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों पर प्रकाश डालिए
उत्तर
[संकेत-“पाठ-सारांश” मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत दिये गये शीर्षकों ‘परिचय एवं जन्म’, ‘जीवन-प्रणाली एवं सिद्धान्त’ तथा ‘तत्कालीन परिस्थितियाँ’ की सामग्री को संक्षेप में अपने शब्दों में लिखें।]।

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Class 9 Sanskrit Chapter 15 UP Board Solutions पर्यावरणशुद्धि Question Answer

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 15
Chapter Name पर्यावरणशुद्धि (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 2
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 15 Paryavaran Shuddhi Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 15 हिंदी अनुवाद पर्यावरणशुद्धि के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांश

पर्यावरण का स्वरूप-अन्य प्राणियों की भाँति मनुष्य ने भी प्रकृति की गोद में जन्म लिया है। प्रकृति के तत्त्व उसको चारों ओर से घेरे हुए हैं। इन्हीं प्राकृतिक तत्त्वों को पर्यावरण कहा जाता है। मिट्टी, जल, वायु, वनस्पति, पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े आदि जीवाणु पर्यावरण के अंग हैं।.विकास के लिए उतावलापन दिखाते हुए मानव ने पर्यावरण के प्रति जो अनाचार किया है, उससे पर्यावरण अत्यधिक असन्तुलित हो गया है। जिन कारणों से पर्यावरण का असन्तुलन हुआ है, वे कारण निम्नलिखित हैं

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वनस्पति का विनाश-वनों में वनस्पति का अमित भण्डार भरा हुआ है। वनों से मानव को लकड़ी, ओषधि, फल-फूल आदि बहुत-सी दैनिक उपयोग की वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। वृक्ष सूर्य की गर्मी को रोकते हैं, वायु को शुद्ध करते हैं, भूमि के कटाव को रोकते हैं तथा वर्षा कराते हैं। इनकी पत्तियों से खाद बनती है। लकड़ी के लोभ से मनुष्य ने असंख्य वृक्षों को काट डाला है। वृक्षों के अभावु  में वनों की मिट्टी बह जाती है, जिससे भूमि की उर्वरता नष्ट हो जाती है। भूस्खलन से खेत-के-खेत जमीन में धंस जाते हैं। नदियाँ उथली हो जाती हैं, जिसके कारण बाढ़ का संकट उपस्थित हो जाता है। |

वृक्षों के अनेक उपकार-प्राणवायु के उत्पादन में वृक्षों का महान् योगदान है। वृक्ष विषाक्त वायु के विष तत्त्व को पीकर स्वास्थ्य के लिए लाभदायक प्राणवायु को उत्पन्न करते हैं। हमारे पूर्व ऋषि-मुनियों ने वनों में योग और अध्यात्म की साधना की है। वृक्ष सूर्य की गर्मी को दूर करते हैं, वातावरण में आर्द्रता उत्पन्न करते हैं, अपने पत्तों को गिराकर खाद बनाते हैं, भूक्षरण को रोकते हैं। इस प्रकार वे मानव मन के लिए महान् उपकारी हैं। मनुष्य उनको काटकर अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारता है। एक वृक्ष अपने पचास वर्ष के जीवन में मनुष्य का पच्चीस लाख रुपये का उपकार करता है, लेकिन मानव सौ या हजार रुपये की लकड़ी प्राप्त करने के लिए उसे काटकर अपनी ही हानि करता है।

वायु का प्रदूषण-एक ओर तो मानव वायु-प्रदूषण के निवारक वृक्षों को काट रहा है, दूसरी ओर वायु-प्रदूषण के कारणों को उत्पन्न कर रहा है। फैक्ट्रियों की चिमनियों से निकला हुआ धुआँ, खनिजों के अणु, रसायनों के अंश और दुर्गन्धयुक्त वायु वातावरण को दूषित करते हैं। तेल से चालित वाहनों के तेल मिले हुए धुएँ से वायु दूषित होती है। दूषित वायु में श्वास लेने से फेफड़ों का कार्यभार बढ़ जाता है और वायु को शुद्ध करने के लिए उन्हें अधिक कार्य करना पड़ता है। वायु-प्रदूषण को रोकने के लिए अधिकाधिकं वृक्ष लगाने चाहिए, लकड़ी के कोयलों का कम-से-कम प्रयोग, डीजल से चलने वाले वाहनों के स्थान पर विद्युत से चलने वाले वाहनों का प्रयोग करना चाहिए।

ध्वनि-प्रदूषण-रेलगाड़ियों, मोटरों, बड़ी-बड़ी मशीनों, लाउडस्पीकरों, तेज वाद्यों की आवाज से ध्वनि का प्रदूषण होता है। नगरों में ध्वनि-प्रदूषण की बड़ी समस्या है। ध्वनि-प्रदूषण से बहरापन और कानों के अनेक दूसरे दोष उत्पन्न होते हैं। मस्तिष्क में अनेक दोष उत्पन्न होकर पागलपन तक हो जाता है। ध्वनि-प्रदूषण को रोकने के लिए लाउडस्पीकरों का अनावश्यक प्रयोग रोकना चाहिए तथा मशीनों में ध्वनिशामक यन्त्र (साइलेन्सर) का प्रयोग करना चाहिए। पेड़ों के लगाने और संवर्द्धन से भी ध्वनि की सघनता कम हो जाती है।

पशु-पक्षियों से पर्यावरण में सन्तुलने-सभी पशु-पक्षी पर्यावरण के सन्तुलन में सहायक होते हैं। सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक पशु हरिण आदि की वृद्धि को सीमित कर देते हैं; सर्प, अजगर आदि चूहों और खरगोशों को खाते हैं। पक्षी बीजों को इधर-उधर बिखेर देते हैं, जिससे विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों का स्वयमेव विकास होता रहता है। जीवो जीवस्य भोजनम्’ इस प्राकृतिक नियम के अनुसार हिंसक पशु, तृणभक्षी पशुओं को खाकर पर्यावरण का सन्तुलन बनाये रखते हैं।

जल-प्रदूषण-मनुष्य ने जीवन के लिए परमोपयोगी जल को अपने अविवेक से दूषित कर दिया है। गंगा-यमुना जैसी नदियों में बड़े नगरों का अपशिष्ट फेंका जाता है। पशुओं और मनुष्यों के शव तथा विषैला रासायनिक जल उनमें बहाया जाता है, जिससे जल विषाक्त और अपेय हो जाता है तथा अनेक रोगाणु जल में पलने लगते हैं। सरकार ने जल के प्रदूषण को दूर करने के लिए प्राधिकरण की स्थापना की है, लेकिन जनता के सहयोग के बिना इस कार्य में सफलता सम्भव नहीं है।

ताप का प्रदूषण-मानव की अनेक क्रियाओं से उत्पन्न ताप भी पर्यावरण दूषित करता है; जैसे-उद्योगशालाओं का ताप, वातावरण के ताप को बढ़ाता है। पक्की ईंटों के मकान, वर्कशॉप और, सड़कें ताप को स्वयं में संचित करती हैं और स्वयं से सम्बद्ध वातावरण को ताप प्रदान कर पर्यावरण को असन्तुलित करती हैं, जिसका मानव के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

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पर्यावरण के असन्तुलन को रोकने के उपाय-आज के युग में पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या समाज और सरकार दोनों के लिए ही चिन्तनीय सिद्ध होती जा रही है। इसके रोकने का एकमात्र साधन वृक्षारोपण ही है; क्योंकि वृक्षों की सघनता ताप को नियन्त्रित करती है। मनुष्य को प्राणवायु वृक्षों से ही प्राप्त होती है; अतः मानवों के कल्याण के लिए अधिकाधिक वृक्ष लगाये जाने चाहिए।

शोंगद्यां का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) यथान्ये प्राणिनस्तथैव मनुष्योऽपि प्रकृत्याः क्रोडे जनुरधत्तः। प्रकृत्या एव तत्त्वजातं सर्वमपि परितः आवृत्य संस्थितम्। अतः कारणात् तत्पर्यावरणमित्युच्यते। मनुष्येण स्वबुद्ध्याः प्रभावेण जीवनमुन्नेतुं प्रयतमानेन नानाविधा आविष्काराः कृताः। बहुविधं सौविध्यं सौ फर्यं चाधिगतं किन्तु विकासस्य प्रक्रियायां नैको उपलब्धीः प्राप्तवता तेन यद् हारितं तदपि अन्यूनम्। मृत्स्ना-जल-वायु-वनस्पति-खग-मृग-कीट-पतङ्ग-जीवाणव इति पर्यावरणस्य घटकाः विद्यन्ते। विकासहेतवे क्षिप्रकारिणा मानवेन तान् प्रति विहितेनातिचारेण प्राकृतिकपर्यावरणस्य सन्तुलनमेव नितरां दोलितम्।

शब्दार्थ
क्रोडे = गोद में।
जनुः = जन्म।
अधत्तः = धारण किया है।
परितः = चारों ओर।
आवृत्य = घेरकर।
उन्नेतुम् = उन्नत बनाने के लिए।
सौविध्यं = सुविधा।
सौर्यम् = सरलता।
अधिगतम् = प्राप्त किया।
नैका = अनेक।
हारितम् = खोया।
अन्युनम् = बहुत।
मृत्स्ना : मिट्टी।
घटकाः = इकाइयाँ।
क्षिप्रकारिणा = शीघ्रता करने वाले।
विहितेनातिचारेण = किये गये अत्याचार से।
नितराम् = अत्यधिक।
दोलितम् = विचलित कर दिया।

सन्दर्भ
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ के ‘पर्यावरणशुद्धिः शीर्षक पाठ से उद्धृत है।
[संकेत-इस पाठ के शेष गद्यांशों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में पर्यावरण का स्वरूप और मानव से उसके घनिष्ठ सम्बन्धों को बताते हुए मानव द्वारा पर्यावरण को असन्तुलित करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
जिस प्रकार दूसरे प्राणियों ने, उसी प्रकार मनुष्य ने भी प्रकृति की गोद में जन्म धारण किया। प्रकृति ही, जो तत्त्व समूह है, उसको भी चारों ओर से घेरकर स्थित है। इस कारण से इसे पर्यावरण कहा जाता है। मनुष्य ने अपनी बुद्धि के प्रभाव से जीवन को उन्नत बनाने का प्रयत्न करते हुए नाना प्रकार के आविष्कार किये। बहुत तरह की सुविधा और सरलता प्राप्त की, किन्तु विकास की प्रक्रिया में अनेक उपलब्धियाँ प्राप्त करते हुए उसने जो खोया है, वह भी कम नहीं है। मिट्टी, जल, वायु, वनस्पति, पक्षी, पशु, कीड़े, पतंगे, जीवाणु ये पर्यावरण के अंग (इकाईयाँ) हैं। विकास के लिए शीघ्रता करने वाले मानव ने उनके प्रति किये गये अत्याचार से प्राकृतिक पर्यावरण के सन्तुलन को अत्यधिक हिला दिया। |

(2) सर्वाधिकोऽत्ययस्तु वनस्पतीनां जातः। एकपदे एव बहुलाभलोभी मानवो वनानि च क्रर्ति तथा प्रवृत्तो यदधुना वनानां सुमहान् भाग उच्छिन्नः। वनेभ्यो मनुष्यः काष्ठम्, ओषधीः, फलानि, पुष्पाणि एवंविधानि बहूनि वस्तूनि दैनन्दिनजीवनोपयोगीनि प्राप्नोति, किन्तु काष्ठस्य लोभाद् असङ्ख्या हरिता वृक्षा कर्तिताः। मन्ये पर्वतानां पक्षी एव छिन्नाः। येन तेषां मृत्स्ना वर्षाजलेन बलात् प्रबाह्यपनीयते। पर्वतप्रदेशीयभूप्रदेशानामुर्वरत्वं तु विनश्यत्येवं भूस्खलनेन केदाराः अपि लुप्ता भवन्ति, धनजनहानिर्भवति। ग्रामा अपि ध्वंस्यन्ते। वर्षाजलेन नीता मृत्स्ना नदीनां तलमुत्थलं करोति। येन जलप्लावनानि भवन्ति। जनया महांस्त्रास उत्पद्यते।।

शब्दार्थ
अत्ययः = हानि।
एकपदे एव = एक बार में ही।
च कर्तितुम् = अधिक मात्रा में ।
काटने के लिए।
तथा प्रवृत्तो = ऐसा लगा।
उच्छिन्नः = कट गया है।
दैनन्दिनजीवनोपयोगीनि = दैनिकें जीवन के लिए उपयोगी।
कर्तिताः = काटे,गये।
पक्षाः = पंख।
प्रवाह्य = बहाकर।
अपनीयते = दूर ले जायी जाती है।
उर्वरत्वं = उर्वरता, उपजाऊ शक्ति।
भूस्खलनेन = भूमि के खिसकने सै।
केदाराः = खेतों की क्यारियाँ।
ध्वंस्यन्ते = नष्ट कर दिये जाते हैं।
तलमुत्थलम् = तल को उथला।
जलप्लावनानि = बाढ़े।
महांस्त्रास = महान् भय।
उत्पद्यते = उत्पन्न होता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में वनों से लाभ एवं उनके काटने से होने वाली हानियाँ बतायी गयी हैं।

अनुवाद
सबसे अधिक हानि तो वनस्पतियों की हुई है। एक बार में ही बहुत लाभ के लोभी मानवों ने वनों को ऐसा काटना शुरू किया कि आज वनों का बहुत बड़ा भाग कट चुका है। मनुष्य वनों से लकड़ी, ओषधियाँ, फल, फूल इसी प्रकार की बहुत-सी दैनिक जीवन के उपयोग की वस्तुएँ प्राप्त करता है, किन्तु लकड़ी के लोभ से असंख्य हरे वृक्ष काट डाले गये हैं। मैं समझता हूँ, पर्वतों के पंख ही काट डाले, जिससे उनकी मिट्टी को वर्षा का जल बलपूर्वक दूर बहाकर ले जाता है। पहाड़ी प्रदेशों के भू-भागों की उपजाऊ शक्ति तो नष्ट हो ही रही है, भूमि के खिसकने से खेत भी समाप्त हो जाते हैं ।

तथा धन और जन की हानि होती है। गाँव भी नष्ट हो रहे हैं। वर्षा के जल से बहाकर ले जायी गयी मिट्टी दियों के तल को उथला कर देती है, जिससे बाढ़ आ जाती हैं तथा मनुष्य के लिए भारी भय पैदा हो जाता है।

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(3) एततु सर्वे जानन्त्येव यत् प्राणवायु (ऑक्सीजनेति प्रसिद्धम् ) विना मनुष्यः कतिपयक्षणपर्यन्तमेव जीवितुं शक्नोति। प्राणवायोरुत्पादने वृक्षाणां महान् योगः केन विस्मर्यते। विषाक्तवायोर्विषतत्त्वं नीलकण्ठ इव स्वयं पायं पायं, मानवस्याकारणसुहृदो वृक्षास्तस्य कृते निर्मलं स्वास्थ्यकरं प्राणवायुं समुत्पाद्यन्ति। प्राणायामेन प्राणानां नियमनस्य योगमार्गः,आध्यात्मिकसाधना च वनानां मध्य एवास्माकं पूर्वजैर्महर्षिभिः यद् अनुत्रियते स्म तदस्मादेव कारणात्। प्रत्येकं वृक्षः एका महती प्रयोगशालेव भवति। एष सूर्यस्य तापं हरति, वायुमालिन्यमपनयति, वाष्पोत्सर्गेण वातावरणे आर्द्रतां जनयति, प्रतिवर्षं निजपत्राणि निपात्य उर्वरकमुत्पादयति भूक्षरणं निरुणद्धि, जलवर्षणे कारणं च भवति। एवं स मनुजस्य महानुपकारी भवति तथाविधमुयकारिणमपि मनुष्य उच्छिनत्ति, किन्नासी स्वपादे एवं कुठारं प्रयुनक्ति।

शब्दार्थ
प्राणवायु = ऑक्सीजन।
विस्मर्यते = भुलाया जाता है।
विषाक्तवायोर्विषतत्त्वं (विषाक्तवायोः + विषतत्त्वम्) = जहरीली वायु के विषैले तत्त्व को।
नीलकण्ठः = शिव।
पायंपायं = पी-पीकर।
प्राणायाम = देवगुणों का मन से पाठ करते हुए साँस रोकना।
नियमन = नियन्त्रण करना।
अनुस्रियते स्म = आश्रय (अनुसरण) किया जाता था।
अपनयति = दूर करता है।
वाष्पोत्सर्गेण = भाप निकालने के द्वारा।
आर्द्रताम् =-गीलापन।
निपात्य = गिराकर।
उर्वरकम् = खाद।
निरुणद्धि = रोकता है।
उच्छिनत्ति = नष्ट करता है।
स्वपादे एवं कुठारं प्रयुनक्ति = अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मारता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में वृक्षों के महान् योगदान और उपकार का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
यह सभी जानते ही हैं कि ऑक्सीजन (प्राणवायु) के बिना मनुष्य कुछ क्षणों तक ही जीवित रह सकता है। ऑक्सीजन के उत्पन्न करने में वृक्षों के महान् योग को कोई नहीं भूल सकता है। विषाक्त (विषैली) वायु के विष-तत्त्व को शिव के समान पी-पीकर मनुष्य के बिना कारण के मित्र वृक्ष उसके लिए साफ, स्वास्थ्यकारी प्राणवायु (ऑक्सीजन) को पैदा करते हैं। प्राणायम से प्राणों के नियमन का योगमार्ग और वनों के मध्य ही आध्यात्मिक साधना हमारे पूर्वज महर्षियों द्वारा जो अनुसरण की गयी थी, वह भी इसी कारण है। प्रत्येक वृक्ष एक बड़ी प्रयोगशाला के समान होता है। यह सूर्य की गर्मी का हरण करता है, हवा की गन्दगी को दूर करता है, भाप छोड़ने से वातावरण में नमी उत्पन्न करता है, प्रत्येक वर्ष अपने पत्ते गिराकर खाद उत्पन्न करता है, पृथ्वी के कटाव को रोकता है और जल बरसाने में कारण बनता है। इस प्रकार वह मनुष्य का बड़ा उपकारी होता है, इस तरह के उपकारी को भी मनुष्य काटता है। क्या वह अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी नहीं चलाता है? |

(4) एको वृक्षः स्वपञ्चाशद्वर्षजीवनकाले मानवजातेः पञ्चविंशतिलक्षरूप्यक- परिमाणाय लाभाय कल्पते, तस्मात्प्राप्तस्योर्वरकस्यैव मूल्यं पञ्चदशलक्षथरिमितं भवति, वायुशुद्धीकरणं पञ्चलक्षरूप्यकतुल्यं, प्रोटीनोत्पादन-माईताजननं वर्षासाहय्यमिति त्रितयमपि पञ्चलक्षरूप्यकार्तम्। एतत्सर्वमपि कलिकाताविश्वविद्यालयीयेन डॉ० टी० एम० दासाभिधानेन वैज्ञानिकेन सुतरां विवेच्य प्रतिपादितमास्ते। तथामहिमानं तरुं निपात्य लुब्धो मानवः किं प्राप्नोति? शतं सहस्त्रं वा रूप्यकाणाम्। सत्यम्, अल्पस्य हेतोर्बहातुमिच्छन्नसौ प्रथमश्रेणीको विचारमूढे एव। पर्यावरणरक्षणायापरपर्यायाय आत्मरक्षणाय मनुष्येणेयं मूढता यथा सत्वरं त्यक्ता स्यात् तथैव वरम्।

शब्दार्थ
पञ्चाशद् = पचास।
कल्पते = समर्थ होता है।
तुल्यम् = बराबर।
रूप्यकाम् = रुपये मूल्य के बराबर।
सुतराम् = अच्छी तरह से।
विवेच्य = विवेचन करके।
लुब्धो = लालची।
अल्पस्य हेतोर्बहुहातुमिच्छन् = थोड़े-से के लिए बहुत छोड़ने की इच्छा करता हुआ।
विचारमूढ = मूर्ख।
यथासत्वरम् = जितना जल्दी।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में वृक्ष का उसके जीवनकाल में लाभ रुपयों में आँककर मनुष्य को. उसके महत्त्व का यथार्थ ज्ञान कराया गया है।

अनुवाद
एक वृक्ष अपने पचास वर्ष के जीवनकाल में मानव-जाति का पचीस लाख रुपयों के बराबर लाभ करने में समर्थ होता है। उससे प्राप्त खाद का मूल्य ही पन्द्रह लाख रुपयों के बराबर होता है। वायु को शुद्ध करना पाँच लाख रुपयों के बराबर, प्रोटीन उत्पन्न करना, नमी पैदा करना, वर्षा में 
सहायता करना तीनों ही पाँच लाख रुपयों के मूल्य के बराबर होता है। यह सब कलकता ‘ विश्वविद्यालय के डॉ० टी० एम० दास नाम के वैज्ञानिक ने अच्छी तरह विवेचन करके सिद्ध किया है। ऐसी महिमा वाले वृक्ष को गिराकर लालची मनुष्य क्या प्राप्त करता है? सौ यो हजार रुपये। वास्तव में थोड़े-से लाभ के लिए बहुत छोड़ने की इच्छा करता हुआ वह प्रथम श्रेणी का मूर्ख है, जो सोचने-समझने में असमर्थ है। पर्यावरण की रक्षा के लिए, दूसरे शब्दों में आत्मरक्षा के लिए, मनुष्य इस मूर्खता को जितना जल्दी छोड़ दे, उतना ही अच्छा है।

(5) एवमेकतो मनुष्यो वायुप्रदूषणनिवारकाणां वृक्षाणां हत्यां विदधाति अपरतश्च विविधैः प्रकारैः स्वयं वायुप्रदूषणस्य कारणान्युत्तरोत्तरमाविष्करोति। उद्योगशालाभ्यो निस्सृता धूमाः,खनिजाणवः, रासायनिकाः, लवाः, पूतिगन्धा वायवो वातावरणं दूषयन्तः प्राणवायुं विशेषतो विकारयन्ति। प्रत्यहं तैलतश्चालितवाहनानां सङ्ख्या सुरसाया मुखमिव परिवर्धते विषमयं तैलधूममुद्गिरभिस्तैरपि वायुरतिशयेन विक्रियते। दूषितवायौ श्वसनाद् अस्मत्फुस्फुसकार्यभारः प्रवर्धते, येन तत्रत्यरोगा हृदयरोगाश्च जायन्ते। अतिप्रदूषितवायोः शुद्धीकरणे पादपैरपि अत्यधिकं कार्यं करणीयं भवति तत्राक्षमत्वात्तेऽपि रुग्णा जायन्ते। एवं वायुप्रदूषणं दुष्चक्रं निरोधातीतं गच्छति। वृक्षाणां प्राचुर्येणारोपणं काष्ठेङ्गालानां न्यूनतमः प्रयोगः पेट्रोलडीजलादितैलवाहनानां स्थाने विद्युद्वाहनानामुपयोगः प्रदूषणरहितशक्तिसाधनानां विकासः, इत्येवं प्रायैरुपायैरिदमुपरोद्धं शक्यते।।

शब्दार्थ
एकतो = एक ओर।
विदधाति = करता है।
आविष्करोति = उत्पन्न करता है।
निस्सृताः = निकले हुए।
लवाः = अंश।
पूतिगन्धाः = दूषित गन्ध वाली।
विकारयन्ति = दूषित करती हैं।
प्रत्यहम् = प्रतिदिन।
सुरसायाः मुखमिव = सुरसा के मुख के समान।
परिवर्धते = बढ़ता है।
उद्गिरभिः = उगलने वाले।
विक्रियते = दूषित की जाती है।
फुफ्फुस कार्यभारः = फेफड़ों पर कार्य का भार।
दुष्चक्रम् = दूषित चक्र।
निरोधातीतम् = नियन्त्रण से बाहर।
आरोपणम् = जमाना, लगाना।
काष्ठेङ्गालानाम् = लकड़ी के कोयलों का।
उपरोधुं शक्यते = रोका जा सकता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में वायु को प्रदूषित करने वाले कारणों, उनसे होने वाले रोगों और प्रदूषण को रोकने के उपायों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
इस प्रकार एक ओर मनुष्य वायु के प्रदूषण को रोकने वाले वृक्षों की हत्या करता है, दूसरी ओर स्वयं अनेक प्रकार से वायु प्रदूषण के कारणों को लगातार उत्पन्न कर रहा है। फैक्ट्रियों से निकले धुएँ, खनिजों के अणु, रासायनिक अंश, दूषित गन्ध वाली हवाएँ वातावरण को दूषित करती हुई विशेष रूप से प्राणवायु (ऑक्सीजन) को दूषित करती हैं। प्रतिदिन तेल से चलने वाले वाहनों की संख्या सुरसा के मुख के समान बढ़ रही है। विषैले तेल के धुएँ को उगलते हुए उनसे भी वायु अत्यधिक रूप से दूषित की जा रही है। दूषित हवा में श्वास लेने से हमारे फेफड़ों पर कार्य का बोझ बढ़ जाता है, जिससे वहाँ (फेफड़ों) के रोग और हृदय रोग उत्पन्न होते हैं। अत्यन्त दूषित वायु को शुद्ध करने में वृक्षों को भी अधिक काम करना पड़ता है, उसको करने में असमर्थ होने के कारण (वे भी) बीमार हो जाते हैं। इस प्रकार वायु के प्रदूषण का दुष्चक्र नियन्त्रण से बाहर हो जाता है। वृक्षों को अधिक मात्रा में लगाना, लकड़ी के कोयलों का कम-से-सम प्रयोग, पेट्रोल, डीजल आदि तेल से चलने वाले वाहनों की जगह बिजली से चलने वाले वाहनों का उपयोग, प्रदूषण के रहित शक्ति के साधनों का विकास। इस प्रकार के उपायों से इसे रोका जा सकता है।

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(6) कोलाहलेनापि पर्यावरणे बहवो दोषी उत्पद्यन्ते, रेलयानानां, मोटरवाहनानां, उद्योगशालासु बृहतां यन्त्राणां, यत्र तत्र सर्वत्र अवसरेऽनवसरे ध्वनिविस्तारकयन्त्रण, उत्सवेषु अतिमुखरवाद्यानां च घोषः, जनसम्मर्दकलकलेन मिलितो महान् कोलाहलः सम्पद्यते। विशेषतो नगरेषु ध्वनिप्रदूषणं महती समस्या। अतिकोलाहलेन श्रवणदोषस्तदनं बाधिर्यं च सम्पद्यते। नैतावतैव मुक्तिः , मस्तिष्कदोषा अपि अनेन उत्पाद्यन्ते यच्चरमापरिणतिरुन्मादो भवति। रक्तचापरोगोऽपि पदं निदधाति येन हृदयं रुग्णं जायते। अस्याः समस्यायाः समाधानार्थं ध्वनिविस्तारकयन्त्राणामनावश्यकः प्रयोग रोधनीयः, यन्त्राणां कोलाहलो नव-नव साइलेन्सराणामाविष्कारेण उपलब्धानां च सम्यगनिवार्यप्रयोगेण परिहरणीयः। कोलाहलदोषान् जनसामान्यं सम्बोध्य तद्विरुद्धं जनाः प्रशिक्षणीया जनमतं च प्रवर्तितव्यम्। ,अत्रापि वनस्पतीनामारोपणेन, संवर्धनेन रक्षणेन च सुखकराः परिणामाः कलयितुं शक्याः । एवं खलु दृश्यते यद् वृक्षाणां द्वादशव्यामपरिणाहमिता राजयः कोलाहलस्य सघनतां प्रकामं न्यूनयन्ति। अतः सर्वत्रापि राजपथमभितः, मध्ये-मध्ये चोपनगराणां वनस्पतयः आरामश्च आरोपणीयाः।

शब्दार्थ
उत्पद्यन्ते = उत्पन्न होते हैं।
बृहताम् = बड़े।
अवसरेऽनवसरे = समय-बेसमय
अतिमुखर = तेज आवाज वाले।
घोषः = ध्वनि।
जनसम्पर्दकलकलेन = जन-समूह के कोलाहल से।
सम्पद्यते = उत्पन्न होता है।
महती = बड़ी।
तदनु = उसके बाद।
बाधिर्यम् = बहरापन।
नैतावतैव = इतने से ही नहीं।
चरमपरिणतिः = अन्तिम परिणाम।
उन्मादः = पागलपन।
रक्तचापरोगः = ब्लडे प्रेशर की बीमारी।
पदं निदधाति = स्थान बना लेता है।
रोधनीयः = रोकना चाहिए।
नव-नव साइलेन्सराणामाविष्कारेण = नये-नये ध्वनिशामक यन्त्रों के आविष्कार से।
परिहरणीयः = दूर करना चाहिए।
बोध्य = समझाकर।
प्रशिक्षणीया = प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
प्रवर्तितव्ययम् = प्रवर्तन करना चाहिए।
वनस्पतीनां आरोपणेन = वनस्पतियों के लगाने से।
कलयितुं शक्याः = प्राप्त किये जा सकते हैं।
द्वादशव्यामपरिणाहमिताः = बारह चौके अर्थात् अड़तालीस हाथ की लम्बाई के बराबर।
राजयः = पंक्तियाँ।
प्रकामम् = अधिक।
न्यूनयन्ति = कम करती हैं।
राजपथम् अभितः = राजमार्ग के दोनों ओर।
उपनगराणाम् = क्षेत्रों या मुहल्लों के।
आरामाः = बगीचे, उपवन।
आरोपणीयाः = लगाने चाहिए।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में ध्वनि-प्रदूषण के कारणों, उससे उत्पन्न रोगों और प्रदूषण की रोकथाम के उपायों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
शोर से ही पर्यावरण में बहुत-से दोष उत्पन्न होते हैं। रेलगाड़ियों, मोटर सवारियों, फैक्ट्रियों में बड़ी-बड़ी मशीनों का, जहाँ-तहाँ सब जगह समय-बेसमय पर लाउडस्पीकरों का और उत्सवों में अत्यन्त तेज बजने वाले बाजों का शब्द, लोगों की भीड़ के कोलाहल से मिला हुआ बहुत शोर उत्पन्न हो जाता है। विशेष रूप से नगरों में ध्वनि के प्रदूषण की अत्यधिक समस्या है। अत्यधिक शोर से सुनने में कमी और उसके बाद बहरापन उत्पन्न हो जाता है। इतने से ही छुटकारा नहीं है, मस्तिष्क की गड़बड़ियाँ भी इसके द्वारा पैदा कर दी जाती हैं, जिसका अन्तिम परिणाम पागलपन होता है। ब्लड प्रेशर की बीमारी भी घर कर लेती है, जिससे हृदय रुग्ण हो जाता है। इस समस्या को सुलझाने के लिए लाउडस्पीकरों का अनावश्यक प्रयोग रोका जाना चाहिए। मशीनों के शोर को भी नये-नये ध्वनिशामक यन्त्रों (साइलेन्सरों) के आविष्कारों से प्राप्त साधनों के उचित और अनिवार्य प्रयोग से रोकना चाहिए। जनसाधारण को शोर की खराबियों को समझाकर, उसके विरुद्ध लोगों को प्रशिक्षित करना चाहिए और जनमत जाग्रत करना चाहिए। इसमें भी वनस्पतियों के लगाने, बढ़ाने और रक्षा करने से सुखद परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। निश्चय ही ऐसा देखा जाता है कि अड़तालीस हाथ की लम्बाई के बराबर वृक्षों की पंक्तियाँ शोर के घनेपन को अत्यधिक कम कर देती हैं; अतः सभी जगह सड़क के दोनों ओर तथा मोहल्लों के बीच-बीच में वनस्पतियाँ और उपवन लगाये जाने चाहिए।

(7) खगमृगाणां मांसादिलोभिना मानवेन एतादृशी जाल्मता अङ्गीकृता यदधुना तेषां नैकाः प्रजातयो लुप्ता एव, वस्तुतः सर्वेऽपि पशुपक्षिणः पर्यावरणसन्तुलननिर्वाहे यथायोगमुपकारका भवन्ति। सिंहव्याघ्रादयो मांसभक्षका हरिणादीनां वृद्धि परिसमयन्ति। आशीविषाजगरादयो मूषकशशकादीनां भक्षणेन कृषिकराणां सुहृद् एव। पक्षिणो बीजानां विकिरणं कुर्वन्ति, कीटपतङ्गादयः पुष्पाणां प्रजननक्रियायां सहायका भवन्ति येन फलानि बीजानि चोत्पद्यन्ते। पशुपक्षिणां पुरीषेण भूमिरुर्वरा भवति येन वनस्पतीनां विकासो भवति।’जीवो जीवस्य भोजनम्’ इति प्रकृतिनियमस्यानुसारं पक्षिणः कीटपतङ्गान् , केऽपि हिंस्राः पशवश्च तृणचरान् भक्षयन्तः पर्यावरणसन्तुलनं स्वत एव विदधति, तत्रं मनुष्यकृतो लोभप्रवर्तितो हस्तक्षेपो विकारमेवोत्पादयति, स्वैर वधो विध्वंसमेव जनयति।

शब्दार्थ
खगमृगाणां = पक्षियों और पशुओं का।
जाल्मता = नीचता।
परिसीमयन्ति = सीमित कर देते हैं।
आशीविष = सर्प।
कृषिकराणां = किसानों के।
विकिरणम् = बिखेरना।
पुरीषेण = विष्ठा से।
विदधति = करते हैं।
स्वैरं = ब्रिना रोक-टोक के।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में पर्यावरण के सन्तुलन में पशु-पक्षियों के योगदान का वर्णन किया गया

अनुवाद
पशु-पक्षियों के मांस आदि के लोभी मानव ने ऐसी नीचता स्वीकार कर रखी है कि आजकल उनकी अनेक प्रजातियाँ समाप्त प्राय ही हैं। वास्तव में सभी पशु-पक्षी पर्यावरण के सन्तुलन के निर्वाह में शक्ति के अनुसार उपकार करने वाले होते हैं। सिंह, व्याघ्र आदि,मांसभक्षी जीव हिरन 
आदि की वृद्धि को सीमित कर देते हैं। सर्प, अजगर आदि चूहे, खरगोश आदि को खाने के कारण किसानों के मित्र ही हैं। पक्षी बीजों को बिखेर देते हैं। कीड़े, पतंगे आदि फूलों की प्रजनन-क्रिया में ।

सहायक होते हैं, जिससे फल और बीज उत्पन्न होते हैं। पशु-पक्षियों के मल (विष्ठा) से भूमि उपजाऊ ‘होती है, जिससे वनस्पतियों का विकास होता है। ‘जीव, जीव का भोजन है, इस प्रकृति के नियम के अनुसार पक्षी, कीड़े और पतंगों को और कुछ हिंसक पशु घास खाने वाले पशुओं को खाते हुए पर्यावरण का सन्तुलन स्वयं ही करते हैं। उसमें मनुष्यों के द्वारा किया गया लोभ से प्रेरित हस्तक्षेप गड़बड़ी ही उत्पन्न करता है। बुद्धिहीन वध (बिना रोक-टोक के किया गया) विध्वंस को ही उत्पन्न करता है।

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(8) मनुजस्यातिचारो नैतावता परिसमाप्यते नास्ति।. जलं यद्धि जीवनयात्यावश्यकत्वज्जीवनमेव कथ्यते तदपि मनुजस्याविवेकेन दूषितम्। गङ्गायमुनासदृशीषु स्वादुपवित्रपेयसलिलासु नदीषु तटीयतटस्थनगराणां मलमूत्रादिकं सर्वप्रकारकं मालिन्यं नदीषु निंपात्यते। औद्योगिक विषमयरसायनदूषितजलं तासु निपात्यते। नराणां पशूनां च शवास्तत्र प्रवाह्यन्ते। सर्वमेतदतिभीतिकरं प्रदूषणं कुरुते। जलं तथा विषाक्तं जायते यन्मत्स्या अपि म्रियन्ते। तथाविधं जलं मानवानां स्नान-पानादिजनितं रोगमेव प्रकुरुते। यतस्तत्र रोगकारकस्तद्वाहकाश्च जीवाणवः परमं पोषमाप्नुवन्ति। सौभाग्येन सम्प्रति शासेन गङ्गाप्रदूषणनिवारकं प्राधिकरणं घटितं। एष खलु प्रारम्भ एव। अन्यासां नदीनां शोधनाय जलोपलब्धेरन्यान्यपि साधनानि विशोधयितुं च लोकस्य रुचिरुत्साहनीया। जनतायाः स्वयं साहाय्येन विना न अभीप्सितं प्राप्तुं शक्यते।

शब्दार्थ
मनुजस्यातिचारः = मनुष्य का अत्याचार।
नैतावती = इतने से नहीं।
परिसमाप्यते = समाप्त होना।
स्वादुपवित्रपेयसलिलासु = स्वादिष्ट, पवित्र और पीने योग्य जल वाली में।
मालिन्यं = मैला, गन्दगी।
निपात्यते. = गिराया जाता है।
प्रवाह्यन्ते = बहाये जाते हैं।
भीतिकरम् = भय उत्पन्न करने वाले।
विषाक्तम् = विषैला।
पोषम् आप्नुवन्ति = पोषण प्राप्त करते हैं।
सम्प्रति = इस समय।
घटितम् = बनाया गया है।
अभीप्सितम् = इच्छित लक्ष्य। |

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश’ में मानव द्वारा जल को दूषित करने एवं उससे उत्पन्न हानि का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
मनुष्य का अत्याचार यहीं तक समाप्त नहीं होता है। जल को जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक होने के कारण जीवन ही कहा जाता है, वह भी मनुष्य की मूर्खता से दूषित हो गया है। गंगा, यमुना जैसी स्वादिष्ट, पवित्र, पीने योग्य जल वाली नदियों में उनके किनारे पर स्थित नगरों की मल-मूत्र आदि सब प्रकार की गन्दगी डाल दी जाती है। उद्योगों का विषैले रसायनों से दूषित जल उनमें डाल दिया जाता है। मनुष्यों और पशुओं के शव उनमें बहा दिये जाते हैं। यह सब अत्यन्त भयानक प्रदूषण कर देता है। जल इतना विषैला हो जाता है कि मछलियाँ भी मर जाती हैं। इस प्रकार का जल मानवों के स्नान और पीने आदि के रोग को ही उत्पन्न करता है; क्योंकि उसमें रोग उत्पन्न करने वाले 
और उनको (रोग को) लाने वाले जीवाणु खूब पुष्ट हो जाते हैं। सौभाग्य से अब सरकार ने गंगा के प्रदूषण को रोकने वाला प्राधिकरण बनाया है। यह तो प्रारम्भ ही है। दूसरी नदियों को शुद्ध करने के लिए और जल-प्राप्ति के दूसरे भी साधनों को शुद्ध करने के लिए लोगों की रुचि को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। जनता की स्वयं सहायता के बिना इच्छित लक्ष्य प्राप्त होना असम्भव है।

(9) मानवस्य विविधक्रियाभिरुत्पन्नस्तापोऽपि पर्यावरणं दूषयति। परमाणुपरीक्षणैर्महती तापविकृतिर्निष्पाद्यतेऽन्ये च मानवप्राणहरा दोषा उत्पाद्यन्ते। उद्योगशालानां तापोऽपि वातावरणस्य तापं वर्धयति। ग्रीमष्काले पक्वेष्टिकासीमेण्टकङ्क्रीट-निर्मितानि भवनानि, कार्यशालाः, राजमार्गा एवंविधानि चान्यानि लौहनिर्माणानि तापमात्मसात्कृत्य संरक्षन्ति यस्य मानवजीवनेऽस्वास्थ्यकरः प्रभावो भवति। अत्रापि वनस्पतयो मानवस्य त्राणं चर्कर्तुं प्रभवः सन्ति। तेषां यथाप्रसरं सघनमारोपणं तापं नियमयत्येव। प्रतिव्यक्ति सार्धत्रयोदशकिलोपरिमितः प्राणवायुः स्वस्थजीवनयापेक्षते, तस्यैकमात्रं प्राकृतिक स्रोतस्तु वनस्पतिजातम्। अतएवमेव मुहुर्मुहुरनुरुध्यते यन्यानवेनात्मकल्यणाय अधिकाधिकं वृक्षा आरोपणीयाः। समयश्च कार्यों यत्प्रत्येक व्यक्तिरेकं वृक्षमवश्यमारोप्य वर्धयिष्यति, रक्षयिष्यत्यन्यांश्च तथाकर्तुं प्रवर्तयिष्यतीति।।

शब्दार्थ
दूषयति = दूषित करता है।
निष्पाद्यते = की जाती है।
पक्वेष्टिका = पक्की ईंट।
तापम् आत्मसात्कृत्य = गर्मी को अपने में मिलाकर।
त्राणम् = रक्षा।
चर्कर्तुम् = बार-बार करने के लिए।
प्रभवः = समर्थ।
नियमयत्येव = नियमित ही करता है।
अपेक्षते = आवश्यकता है।
वनस्पतिजातम् = वृक्षों का समूह।
अनुरुध्यते = अनुरोध किया जाता है।
आरोपणीयाः = लगाने |
चाहिए। समयः = निश्चय, प्रतिज्ञा।
प्रवर्तयिष्यति = प्रेरित करेगा।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में तोप के प्रदूषण, उससे उत्पन्न हानियों एवं उनको दूर करने के उपाय बताये गये हैं।

अनुवाद
मानव की विविध क्रियाओं से उत्पन्न ताप भी पर्यावरण को दूषित करता है। एएमाणु के परीक्षणों से ताप में बड़ा विकार उत्पन्न किया जाता है, जिससे मनुष्य के प्राणघातक अन्य दोष उत्पन्न होते हैं। उद्योगशालाओं का ताप भी वातावरण के ताप को बढ़ाता है। ग्रीष्म ऋतु में पक्की ईंटों, सीमेंट, कंक्रीट से बने हुए घर, कार्यशालाएँ, सड़कें और इस प्रकार के अन्य लोहे से निर्मित स्थान ताप को अपने में समेटकर रखते हैं, जिसका मानव के जीवन पर अस्वास्थ्यकारी प्रभाव होता है। इसमें भी वनस्पतियाँ मानव की बार-बार रक्षा करने में समर्थ हैं। उनका (वनस्पतियों का) उचित प्रसार और अधिक घनत्व में रोपना ताप को रोकता है। प्रत्येक व्यक्ति को साढ़े तेरह किलो भार के बराबर प्राणवायु की स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यकता होती है। उसका एकमात्र प्राकृतिक स्रोत तो वनस्पतियाँ हैं; अतः ऐसा बार-बार अनुरोध किया जाता है कि मानव को अपने कल्याण के लिए अधिक-से-अधिक वृक्ष लगाने चाहिए और प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति एक वृक्ष अवश्य लगाकर बढ़ाएगा, रक्षा करेगा और ऐसा करने के लिए दूसरों को भी प्रेरित करेगा।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1 
विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों और मनुष्य पर पड़ने वाले उनके दुष्परिणामों को समझाइए।।
उत्तर
विभिन्न प्रकार के प्रदूषण और मनुष्य पर पड़ने वाले उनके दुष्परिणामों का विवरण इस प्रकार है

(क) वायु-प्रदूषण-कारखानों की चिमनियों से निकलते धुएँ, खनिजों के अणु, रसायनों के अंश, तेल-चालित वाहनों के तेल मिले धुएँ और दुर्गन्धयुक्त वायु वातावरण को दूषित करते हैं। दूषित वायु में साँस लेने से फेफड़ों पर कार्यभार बढ़ जाता है, जिससे मनुष्य सॉस सम्बन्धी बीमारियों का शिकार हो जाता है।

(ख) ध्वनि-प्रदूषण-रेलगाड़ियों, मोटरों, बड़ी-बड़ी मशीनों, तेज वाद्यों की आवाज से ध्वनि का प्रदूषण होता है। ध्वनि-प्रदूषण से बहरापन और कानों के अनेक दोषों के साथ-साथ मस्तिष्क में विकार उत्पन्न हो जाता है, जिससे मनुष्य पागल हो सकता है।

(ग) जल-प्रदूषण-गंगा, यमुना आदि नदियों में महानगरों की गन्दगी, पशुओं-मनुष्यों के शव, रासायनिक जल आदि बहाये जाने के कारण जल विषाक्त और अपेय तो हो ही गया है, साथ ही इसमें अनेक रोगाणु भी पलने लगे हैं।

(घ) ताप-प्रदूषण-मानव की अनेक क्रियाओं; यथा-पारमाणविक; आदि के द्वारा वातावरण का ताप बढ़ता है। पक्की ईंटों-कंकरीट के आवासीय वे कार्य-परिसर, सड़कें आदि स्वयं में ताप को संचित करती हैं। इसका भी मनुष्य के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।

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प्ररन 2 
‘पर्यावरणशुद्धिः पाठ के आधार पर निम्नलिखित पर प्रकाश डालिए
(क) पर्यावरण का आशय,(ख) पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार, (ग) प्रदूषण को रोकने के उपाय। |
उत्तर
(क) पर्यावरण का आशय-सभी जीवधारियों की भाँति मनुष्य ने भी प्रकृति की गोद में जन्म लिया है। प्रकृति के तत्त्व-मिट्टी, जल, वायु, वनस्पति आदि उसको चारों ओर से घेरे हुए हैं। इन्हीं प्राकृतिक तत्त्वों को पर्यावरण कहा.जाता है।

(ख) पर्यावरण प्रदूषण के प्रमुर-पर्यावरण प्रदूषण के निम्नलिखित चार प्रकार हैं(अ) वायु प्रदूषण (ब) ध्वनि-प्रदूषण(स) जल-प्रदूषण और (द) ताप-प्रदूषण।।
[संकेत-विस्तार के लिए प्रश्न सं० 1 देखिए।]

(ग) प्रदूषण को रोकने के उपाय—सभी प्रकार के प्रदूषणों को रोकने का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपाय अधिकाधिक वृक्षारोपण है। वृक्ष विषाक्त वायु के विष-तत्त्व को पीकर स्वास्थ्य के लिए लाभदायक प्राणवायु को उत्पन्न करते हैं। वायु-प्रदूषण को दूर करने में वृक्षों का महान् योगदान है। वृक्षारोपण करने और उनका भली-भाँति संवर्द्धन करने से ध्वनि की सघनता अर्थात् ध्वनि-प्रदूषण कम होता है। जल-प्रदूषण को रोकने में भी अप्रत्यक्ष रूप से वृक्षारोपण का अत्यधिक योगदान है। वृक्ष वातावरण में आर्द्रता उत्पन्न करते हैं, अपने पत्तों को गिराकर खाद बनाते हैं तथा भू-क्षरण को रोकते . हैं। वृक्षों के माध्यम से ही पृथ्वी के गर्भ में जल का संचय होता है, जो मानव के लिए अत्यधिक उपयोगी है। वृक्ष सूर्य की गरमी को दूर करते हैं। अनेकानेक कारणों से वातावरण का जो ताप बढ़ता है, उसे वृक्षों की सघनता नियन्त्रित कर देती है।। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि एकमात्र वृक्षारोपण ही अनेक प्रकार के पर्यावरण प्रदूषण को रोकने में सहायक है। सरकार के साथ-साथ सामान्य जनता का सक्रिय सहयोग इस कार्य में अत्यधिक सहायक सिद्ध होगा।

We hope the UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 15 पर्यावरणशुद्धि (गद्य – भारती) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 15 पर्यावरणशुद्धि  (गद्य – भारती), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.