Class 10 Sanskrit Chapter 8 UP Board Solutions आदिशङ्कराचार्यः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 8 Adi Shankaracharya Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 8 हिंदी अनुवाद आदिशङ्कराचार्यः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 8 आदिशङ्कराचार्यः (गद्य – भारती)

परिचय

आदि शंकराचार्य ‘जगद्गुरु’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। इन्होंने आठ वर्ष की अल्पायु में ही वेद-शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। मात्र 32 वर्ष की पूर्ण आयु में इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की, पूरे भारत का भ्रमण किया, विद्वानों से शास्त्रार्थ किये और भारत के चारों दिशाओं में चार पीठों की स्थापना की। जिस समय इनका जन्म हुआ उस समय भारत-भूमि बौद्ध धर्म के विकृत हो चुके स्वरूप से पीड़ित थी। इन्होंने बौद्धों को शास्त्रार्थ में पराजित (UPBoardSolutions.com) किया और पुन: वैदिक धर्म की स्थापना की। इन्होंने छठे दर्शन; वेदान्त दर्शन; को अद्वैत दर्शन का रूप प्रदान किया और अपने मत की पुष्टि के लिए उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता से प्रमाण प्रस्तुत किये। इन्हें ‘मायावाद’ का जनक माना जाता है। प्रस्तुत पाठ में शंकराचार्य के जन्म और उनके द्वारा किये गये कार्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।

पाठ-सारांश [2006, 07, 08, 09, 10, 11, 12, 13, 14, 15]

परमात्मा के अवतार मान्यता है कि धर्म की हानि होने पर साधुजनों की रक्षा करने और पापियों का विनाश करने के लिए भगवान् भारतभूमि पर किसी-न-किसी महापुरुष के रूप में अवश्य अवतार लेते हैं। जिस प्रकार त्रेता युग में राक्षसों का संहार करने के लिए राम के रूप में, द्वापर युग में कुनृपतियों के विनाश के लिए। कृष्ण के रूप में जन्म धारण किया था, उसी प्रकार कलियुग में भगवान् शिव ने देश में व्याप्त मोह-मालिन्यं को दूर करने और वैदिक धर्म की स्थापना के लिए शंकर के रूप में जन्म लिया।

UP Board Solutions

जन्म एवं वैराग्य शंकर का जन्म मालाबार प्रान्त में पूर्णा नदी के तट पर शलक ग्राम में सन् 788 ई० में हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम सुभद्रा था। इन्होंने 8 वर्ष की आयु में ही समस्त वेद-वेदांगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। बचपन में ही इनके पिता की मृत्यु हो गयी थी। पूर्वजन्म के संस्कार के कारण संसार को माया से पूर्ण जानकर इनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। इनका मन तत्त्व की खोज के लिए लालायित हो गया और इन्होंने संन्यास लेने की इच्छा की। माता के मना करने पर इन्होंने संन्यास नहीं लिया।

संन्यास-ग्रहण एक बार शंकर पूर्णा नदी में स्नान कर रहे थे कि एक शक्तिशाली ग्राह ने इनका पैर पकड़ लिया और तब तक इनके पैर को नहीं छोड़ा, जब तक माता ने इन्हें संन्यास लेने की आज्ञा न दे दी। माता की आज्ञा और ग्राह से मुक्ति पाकर ये योग्य गुरु की खोज में वन-वन भटकते रहे। वन में घूमते हुए एक दिन एक गुफा में बैठे हुए गौड़पाद के शिष्य गोविन्दपाद के पास गये। शंकर की अलौकिक प्रतिभा से प्रभावित होकर गोविन्दपाद ने इन्हें संन्यास की दीक्षा दी और विधिवत् वेदान्त के तत्त्वों का अध्ययन कराया।

भाष्य-रचना वैदिक धर्म के पुनरुद्धार के लिए शंकर गाँव-गाँव और नगर-नगर घूमते हुए अन्ततः काशी पहुंचे। (UPBoardSolutions.com) यहाँ उन्होंने व्याससूत्रों, उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्यों की रचना की।

शास्त्रार्थ में विजय एक दिन शंकर के मन में महान् विद्वान् मण्डन मिश्र से मिलने की इच्छा हुई। मण्डन मिश्र के घर जाकर शंकर ने उनसे शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित किया। बाद में मण्डन मिश्र की पत्नी शारदा के कामशास्त्र के प्रश्नों का उत्तर देकर उसे भी पराजित कर दिया। अन्त में मण्डन मिश्र ने आचार्य शंकर का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया।

वैदिक धर्म का प्रचार प्रयाग में शंकर ने वैदिक धर्म के उद्धार के लिए प्रयत्नशील कुमारिल भट्ट के दर्शन किये। कुमारिल भट्ट ने वैदिक धर्म के कर्मकाण्ड को लेकर सम्प्रदायवादियों को परास्त कर दिया था, लेकिन शंकर ने कर्मकाण्ड की मोक्ष में व्यर्थता प्रतिपादित कर कुमारिल के मत का खण्डन करके ज्ञान की महिमा का प्रतिपादन किया। इन्होंने ज्ञान को ही मोक्ष प्रदायक बताते हुए ज्ञानकाण्ड को ही वेद का सार बताया। इस प्रकार शंकर ने सेतुबन्ध से लेकर कश्मीर तक भ्रमण किया और अपनी अलौकिक प्रतिभा द्वारा विरोधियों को परास्त किया। अन्त में 32 वर्ष की अल्पायु में ही इन्होंने अपना पार्थिव शरीर त्याग दिया।

शंकर के सिद्धान्त शंकर ने महर्षि व्यास प्रणीत ब्रह्मसूत्र पर भाष्य की रचना की और व्यास के मत के आधार पर ही वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया। इन्होंने वेद और उपनिषदों के तत्त्व का ही निरूपण किया। इनके मत के अनुसार संसार में सुख-दु:ख भोगता हुआ जीव ब्रह्म ही है। मायाजन्य अज्ञान के कारण व्यापक ब्रह्म सुख-दुःख का अनुभव करता है। इन्होंने जीव और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन किया और बताया कि अनेक रूपात्मक सृष्टि का आधार ब्रह्म ही है।

UP Board Solutions

विश्व-बन्धुत्व की भावना शंकर का अद्वैत ब्रह्म विश्व-बन्धुत्व की भावना का मूल है। इस भावना के विकास से राष्ट्रीयता का उदय होता है और जाति, क्षेत्र आदि की संकीर्णता समूल नष्ट हो जाती है। शंकर ने राष्ट्रीय भावना को पुष्ट करने के लिए भारत के चारों कोनों में चार वेदान्त पीठों ( शृंगेरी पीठ, गोवर्धन पीठ, ज्योतिष्पीठ और शारदापीठ) की स्थापना की। ये चारों पीठ इस समय राष्ट्र की उन्नति, लोक-कल्याण और वैदिक मत के प्रचार में प्रयत्नशील हैं। शंकर यद्यपि अल्पायु थे, लेकिन उनके कार्य-उत्कृष्ट भाष्यग्रन्थ, अनेक मौलिक ग्रन्थ और उनका अद्वैत सिद्धान्त–हमेशा उनकी याद दिलाते रहेंगे।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
धन्येयं भारतभूमिर्यत्र साधुजनानां परित्राणाय दुष्कृताञ्च विनाशाय सृष्टिस्थितिलयकर्ता परमात्मा स्वमेव कदाचित्, रामः कदाचित् कृष्णश्च भूत्वा आविर्बभूव। त्रेतायुगे रामो धनुर्वृत्वा विपथगामिनां रक्षसां संहारं कृत्वा वर्णाश्रमव्यवस्थामरक्षत्। द्वापरे कृष्णो धर्मध्वंसिनः कुनृपतीन् उत्पाट्य (UPBoardSolutions.com) धर्ममत्रायत। सैषा स्थिति यदा कलौ समुत्पन्ना बभूव तदा नीललोहितः भगवान् शिवः शङ्कररूपेण पुनः प्रकटीबभूव। भगवतः शङ्करस्य जन्मकाले वैदिकधर्मस्य ह्रासः अवैदिकस्य प्राबल्यञ्चासीत्। अशोकादि नृपतीनां राजबलमाश्रित्य पण्डितम्मन्याः सम्प्रदायिकाः वेदमूलं धर्मं तिरश्चक्रुः। लोकजीवनमन्धतमिस्रायां तस्यां । मुहर्मुहुर्मुह्यमानं क्षणमपि शर्म न लेभे। तस्यां विषमस्थित भगवान् शङ्करः प्रचण्डभास्कर इव उदियाय, देशव्यापिमोहमालिन्यमुज्झित्वा वैदिकधर्मस्य पुनः प्रतिष्ठां चकार।

धन्येयं भारतभूमि ………………………………………… प्राबल्यञ्चासीत्। [2010]
भगवतः शङ्करस्य ………………………………………… प्रतिष्ठां चकार। [2010]

शब्दार्थ परित्राणाय = रक्षा करने के लिए। दुष्कृताम् = पापियों के कदाचित् = कभी। भूत्वा = होकर आविर्बभूव = प्रकट हुए। विपथगामिनां रक्षसाम् = कुमार्ग पर चलने वाले राक्षसों का। कुनृपतीन् = दुष्ट राजाओं को। उत्पाद्य = उखाड़कर। अत्रायत = रक्षा की। कलौ = कलियुग में। शङ्कररूपेण’= शंकराचार्य के रूप में। अवैदिकस्य = अवैदिक धर्म का। प्राबल्यञ्चासीत् = प्रबलता थी। पण्डितम्मन्याः = पण्डित माने जाने वाले। तिरश्चक्रुः = तिरस्कार करते थे। अन्धतमिस्रायाम् = अँधेरी रात्रि में अर्थात् अन्धविश्वासों के अन्धकार में। मुहुर्मुहुर्मुह्यमानम् (मुहुः + मुहुः + मुह्यमानम्) = बार-बार मुग्ध होता हुआ। शर्म = कल्याण, सुख, शान्ति। लेभे = पा रहा था। प्रचण्डभास्करः = प्रचण्ड सूर्य। उदियाय = उदित हुए। उज्झित्वा = छोड़कर, नष्ट करके।

UP Board Solutions

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘आदिशङ्कराचार्यः’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसग प्रस्तुत गद्यांश में परमात्मा के राम, कृष्ण, शंकराचार्य आदि के रूप में अवतार लेने और उस समय की भारत की परिस्थिति का वर्णन किया गया है।

अनुवाद यह भारतभूमि धन्य है, जहाँ साधु पुरुषों की रक्षा के लिए और पापियों के विनाश के लिए सृष्टि, स्थिति और प्रलय के करने वाले भगवान् स्वयं ही कभी राम और कभी कृष्ण होकर प्रकट हुए। त्रेतायुग में राम ने धनुष धारण करके कुमार्ग पर चलने वाले राक्षसों को मारकर वर्ण और आश्रम व्यवस्था की रक्षा की। द्वापर में कृष्ण ने धर्म को नष्ट करने वाले दुष्ट राजाओं को उखाड़कर धर्म की रक्षा की। वही स्थिति जब कलियुग में उत्पन्न हुई, तब नील-रक्तवर्ण भगवान् शिव शंकर रूप में फिर से प्रकट हुए। भगवान् शंकर के जन्म के समय वैदिक धर्म की हानि और वेद को न मानने वाले धर्म अर्थात् अवैदिकों की प्रबलता थी। अशोक आदि राजाओं की राजशक्ति का सहारा लेकर स्वयं को पण्डित मानने वाले सम्प्रदाय के लोगों ने वेदमूलक धर्म का तिरस्कार किया। लोक-जीवन (संसार) अन्धविश्वास के अन्धकार पर बार-बार मुग्ध होता हुआ क्षणभर भी सुख को प्राप्त नहीं कर रहा था। उस विषम परिस्थिति में भगवान् शंकर तेजस्वी सूर्य के समान उदित हुए और देश में फैली मोह की मलिनता को नष्ट करके वैदिक धर्म की पुनः स्थापना (प्रतिष्ठा) की।

(2)
शङ्करः केरलप्रदेशे मालावारप्रान्ते पूर्णाख्यायाः नद्यास्तटे स्थिते शलकग्रामे अष्टाशीत्यधिके सप्तशततमे खीष्टाब्दे नम्बूद्रकुले जन्म लेभे। तस्य पितुर्नाम शिवगुरुरासीत् मातुश्च सुभद्रा। शैशवादेव शङ्करः अलौकिकप्रतिभासम्पन्न आसीत्। अष्टवर्षदेशीयः सन्नपि परममेधावी असौ वेदवेदाङ्गेषु (UPBoardSolutions.com) प्रावीण्यमवाप। दुर्दैवात् बाल्यकाले एव तस्य पिता श्रीमान् शिवगुरुः पञ्चत्वमवाप। पितृवात्सल्यविरहितः मात्रैव लालितश्चासौ प्राक्तनसंस्कारवशात् जगतः मायामयत्वमाकलय्य तत्त्वसन्धाने मनश्चकार।। प्ररूढवैराग्यप्रभावात् स प्रव्रजितुमियेष, परञ्च परमस्नेहनिर्भरा तदेकतनयाम्बा नानुज्ञां ददौ। लोकरीतिपरः शङ्करः मातुरनुज्ञां विना प्रव्रज्यामङ्गीकर्तुं न शशाक।।

शङ्करः केरलप्रदेशे ………………………………………… पञ्चत्वमवाप। [2009]

शब्दार्थ पूर्णाख्यायाः = पूर्णा नाम की। अष्टाशीत्यधिके सप्तशततमे = सात सौ अठासी में। नम्बूद्रकुले = नम्बूदरी कुल में। अष्टवर्षदेशीयः = आठ वर्ष के। वेदवेदाङ्गेषु = वेद और वेद के अंगों (शास्त्रों) में। प्रावीण्यमवाप (प्राणीण्यम् + अवाप) = प्रवीणता प्राप्त कर ली। दुर्दैवात् = दुर्भाग्यवश। पञ्चत्वमवाप = मृत्यु को प्राप्त हुए, स्वर्गवासी हो गये। मात्रैव (माता + एव) = माता के द्वारा ही। प्राक्तनसंस्कारवशात् = पुराने संस्कारों के कारण। मायामयत्वमाकलय्य = माया से पूर्ण होना समझकर। तत्त्वसन्धाने = तत्त्वों की खोज में। मनः चकार = विचार बना लिया। प्ररूढवैराग्यप्रभावात् = उत्पन्न हुए वैराग्य के प्रभाव से प्रव्रजितुमियेषु (प्रव्रजितुम् +इयेषु) = संन्यास लेने की इच्छा की। तदेकतनयाम्बा (तद् + एकतनय + अम्बा) = उस एकमात्र पुत्रवती माता ने। नानुज्ञां = आज्ञा नहीं। प्रव्रज्यामङ्गीकर्तुम् (प्रव्रज्याम् + अङ्गीकर्तुम्) = संन्यास लेने के लिए। न शशाक = समर्थ नहीं हो सके।

UP Board Solutions

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर के जन्म एवं उनके मन में वैराग्य उत्पन्न होने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद शंकर ने केरल प्रदेश में मालाबार प्रान्त में पूर्णा नाम की नदी के किनारे स्थित शलक ग्राम में सन् 788 ईस्वी में नम्बूदरी कुल में जन्म लिया। उनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम सुभद्रा था। बचपन से ही शंकर असाधारण प्रतिभा से सम्पन्न थे। आठ वर्ष की आयु के होते हुए भी ये अत्यन्त मेधावी थे और इन्होंने वेद और वेदांगों में प्रवीणता प्राप्त कर ली थी। दुर्भाग्य से बेचपन में ही उनके पिता श्रीमान् शिवगुरु मृत्यु को प्राप्त हुए। पिता के प्रेम से वियुक्त माता के (UPBoardSolutions.com) ही द्वारा पालन किये गये उन्होंने पूर्व जन्म के संस्कार के कारण संसार को माया से पूर्ण जान करके तत्त्व की खोज में (अपमा) मन लगाया। वैराग्य के उत्पन्न होने के कारण उन्होंने संन्यास लेने की इच्छा की, परन्तु अत्यन्त स्नेह से पूर्ण एकमात्र पुत्र वाली माता ने आज्ञा नहीं दी। लोक की रीति पर चलने वाले शंकर माता की आज्ञा के बिना संन्यास स्वीकार करने में समर्थ नहीं हो सके।

(3)
एवं गच्छत्सु दिवसेषु एकदा शङ्करः पूर्णायां सरिति स्नातं गतः। यावत् स सरितोऽन्तः प्रविष्टः तावदेव बलिना ग्राहेण गृहीतः। शङ्करः आसन्नं मृत्युमवेक्ष्य आर्तस्वरेण चुक्रोश। तस्य वत्सला जननी स्वपुत्रस्य स्वरं परिचीय भृशं विललाप। तस्याः तादृशीं विपन्नामवस्थामनुभूय स तस्यै न्यवेदयत्-अम्ब! यदि (UPBoardSolutions.com) ते मम जीवितेऽनुरागः स्यात् तर्हि संन्यासाय मामनुजानीह तेनैव मे ग्राहान्मुक्तिर्भविष्यति। अनन्यगतिः माता तथेत्युवाच। सद्यस्तद्ग्राहग्रहात् मुक्तः स संन्यासमालम्ब्य पुत्रविरहसन्तप्तां मातरं सान्त्वयित्वा तया बान्धवैश्चानुज्ञातः यतिवेषधरः स्वजन्मभूमिं त्यक्त्वा देशानटितुं प्रवृत्तः। [2007, 10]

एवं गच्छत्सु ………………………………………… आर्तस्वरेण चुक्रोश।
एवं गच्छत्सु ………………………………………… ग्राहान्मुक्तिर्भविष्यति। [2006]

शब्दर्थ सरिति = नदी में स्नातुम् = स्नान के लिए। बलिना = शक्तिशाली। आसन्नं = समीप में आये। मृत्युमवेक्ष्य = मृत्यु को देखकर चुक्रोश = चिल्लाया। परिचीय = पहचानकर। विललाप = रोने लगी। विपन्नामवस्थामनुभूय = दुःखपूर्ण दशा का अनुभव करके। अनुजानीहि = आज्ञा दो। अनन्यगतिः = अन्य उपाय न देखकर। सद्यः = तुरन्त, उसी समय। ग्राहग्रहात् = मगर की पकड़ से। सान्त्वयित्वा = सान्त्वना देकर अटितुं प्रवृत्तः = घूमने लगा।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर को ग्राह द्वारा पकड़े जाने एवं माता द्वारा संन्यास लेने की आज्ञा देने पर उससे मुक्ति का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इस प्रकार कुछ दिनों के बीतने पर एक बार शंकर पूर्णा नदी में स्नान करने के लिए गये। ज्यों ही वे नदी के अन्दर प्रविष्ट हुए, त्यों ही शक्तिशाली ग्राह (घड़ियाल) के द्वारा पकड़ लिये गये। मृत्यु को निकट देखकर शंकर दु:ख-भरी आवाज में चिल्लाये। उनकी प्यारी माता अपने पुत्र की आवाज पहचानकर अत्यधिक रोने लगीं। उनकी उस तरह की दु:खी अवस्था का अनुभव करके उन्होंने उससे (माता से) निवेदन किया-हे माता! यदि तुम्हारा मेरे जीवन पर प्रेम है, तो मुझे संन्यास के लिए अनुमति दो। उससे ही मेरी ग्राह से मुक्ति होगी। अन्य उपायरहित माता ने ‘अच्छा’ ऐसा कहा। उसी समय उस ग्राह की पकड़ से मुक्त हुए उन्होंने संन्यास लेकर पुत्र के विरह से दु:खी माता को धैर्य देकर, उस (माता) के और अन्य बन्धुओं के द्वारा आज्ञा दिये जाने पर साधु का वेश धारण करके अपनी जन्मभूमि को छोड़कर अन्य देशों में भ्रमण के लिए निकल पड़े।

UP Board Solutions

(4)
वनवीथिकासु परिभ्रमन् स क्वचित् गृहान्तर्वर्तिनं गौडपादशिष्यं गोविन्दापादान्तिकं जगाम। यतिवेषधारिणं तं गोविन्दपादः पप्रच्छ—कोऽसि त्वं भोः? शङ्करः प्राह

मनोबुद्ध्यहङ्कारचित्तानि नाहं श्रोत्रं न जिह्वा न च प्राणनेत्रम्
न च व्योमभूमिर्न तेजो न वायुश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥

एतामलौकिकीं वाचमुपश्रुत्य गोविन्दपादः तमसाधारणं जनं मत्वा तस्मै संन्यासदीक्षां ददौ। गुरोः गोविन्दपादादेव वेदान्ततत्त्वं विधिवदधीत्य स तत्त्वज्ञो बभूव। सृष्टिरहस्यमधिगम्य गुरोराज्ञया स वैदिकधर्मोद्धरणार्थं दिग्विजयाय प्रस्थितः। ग्रामाद ग्रामं नगरान्नगरमटन् विद्वद्भिश्च सह शास्त्रचर्चा कुर्वन् स काशीं प्राप्तः। (UPBoardSolutions.com) काशीवासकाले स व्याससूत्राणामुपनिषदां श्रीमद्भगवद्गीतायाश्च भाष्याणि प्रणीतवान्।

एताम् अलौकिकीं ………………………………………… भाष्याणि प्रणीतवान् [2008, 14]

शब्दार्थ वनवीथिकासु = वन के मार्गों में परिभ्रमन् = घूमते हुए। गुहान्तर्वर्तिनम् (गुहा + अन्तर्वर्तिनम्) = गुफा के अन्दर रहने वाले। अन्तिकं = पास, समीप। जगाम = पहुँच गये। यतिवेषधारिणः = संन्यासी का वेश धारण करने वाले पप्रच्छ = पूछा। वाचम् = वाणी को। उपश्रुत्य = सुनकर। संन्यासदीक्षां = संन्यास धर्म की दीक्षा। अधीत्य = पढ़कर। तत्त्वज्ञः = तत्त्ववेत्ता। अधिगम्य = जानकर। दिग्विजयाय = दिग्विजय के लिए। प्रस्थितः = प्रस्थान किया। प्रणीतवान् = रचना की।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर द्वारा घर त्यागने, गोविन्दपाद के पास जाकर दीक्षा लेने, वेदान्त के तत्त्वों का अच्छी तरह से अध्ययन करने और अनेक भाष्यों की रचना करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद वन के मार्गों में भ्रमण करते हुए वे कहीं पर गुफा के अन्दर रहने वाले, गौड़पाद के शिष्य गोविन्दपाद के पास गये। संन्यासी के वेश को धारण करने वाले उनसे गोविन्दपाद ने पूछा–तुम कौन हो? शंकर बोलेमैं न मन हूँ, न बुद्धि हूँ, न अहंकार हूँ, न चित्त हूँ, न मैं कान हूँ, ने जीभ हूँ, न प्राण हूँ, न नेत्र हूँ, न आकाश हूँ, न भूमि हूँ, न तेज हूँ, न वायु हूँ। मैं चिद् व आनन्दस्वरूप शिव हूँ, शंकर हूँ। इस अलौकिक वाणी को सुनकर गोविन्दपाद ने उन्हें असाधारण मनुष्य समझकर संन्यास की दीक्षा दे दी। गुरु गोविन्दपाद से ही वेदान्त के तत्त्व का विधिपूर्वक अध्ययन करके वे तत्त्वज्ञाता हो गये। सृष्टि के रहस्य को जानकर गुरु की आज्ञा से उन्होंने वैदिक धर्म के उद्धार हेतु दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया। गाँव से गाँव में, नगर से नगर में घूमते हुए, विद्वानों के साथ शास्त्रे-चर्चा करते हुए वे काशी पहुँचे। काशी में निवास के समय उन्होंने व्यास सूत्रों, उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्यों की रचना की।

UP Board Solutions

(5)
अथ कदाचित् काश्यां प्रथितयशसः विद्वद्धौरेयस्य मण्डनमिश्रस्य दर्शनलाभाय स मनश्चकार। तद्गृहमन्वेष्टुकामः काञ्चिद् धीवरीमपृच्छत् क्वास्ति मण्डनमिश्रस्य धामेति। सा धीवरी प्रत्यवदत्

स्वत: प्रमाणं परतः प्रमाणं

कीराङ्गना यत्र गिरो गिरन्ति ।

द्वारस्य नीडान्तरसन्निबद्धाः

अवेहि तद्धाम हि मण्डनस्य ॥

इति धीवरीवचनं श्रुत्वा शङ्करः मण्डनमिश्रस्य भवनं गतः। तयोर्मध्ये तत्र शास्त्रार्थोऽभवत्।

स्व तः प्रमाणं ………………………………………… शास्त्रार्थोऽभवत्। [2012]

शब्दार्थ प्रथितयशसः = प्रसिद्ध यश वाले विद्वद्धौरेयस्य = विद्वानों में श्रेष्ठ, अन्वेष्टुकामः = ढूंढने की इच्छा करता हुआ। धाम = घर। कीराङ्गना = मादा तोता। गिरः गिरन्ति = वाणी बोलते हैं। नीडान्तरसन्निबद्धा = घोंसले के अन्दर बैठे हुए। अवेहि = जानो।।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर का काशी में मण्डन मिश्र के साथ शास्त्रार्थ करने का वर्णन है।

अनुवाद इसके बाद उन्होंने (शंकर ने) कभी काशी में प्रसिद्ध यश वाले, विद्वानों में श्रेष्ठ मण्डन मिश्र के दर्शन-लाभ प्राप्त करने की इच्छा की। उनका घर ढूँढ़ने की इच्छा वाले उन्होंने किसी धीवरी (केवट या मल्लाह की स्त्री) से पूछा-“मण्डन मिश्र का घर कहाँ है?” उस धीवरी ने उत्तर दिया-“जहाँ (UPBoardSolutions.com) द्वार पर स्थित घोसलों के भीतर पड़े हुए तोता और मैना स्वत: प्रमाण और परत: प्रमाण (शास्त्रीय प्रमाण के रूप में) की वाणी बोलते हैं, वही मण्डन मिश्र को घर समझिए।’ इस प्रकार धीवरी के वचन को सुनकर शंकर मण्डन मिश्र के घर गये। वहाँ उन दोनों के मध्य में शास्त्रार्थ हुआ।

(6)
निर्णायकपदे मण्डनमिश्रस्य सुमेधासम्पन्ना भार्या शारदा प्रतिष्ठापितासीत्। शास्त्रार्थे स्वस्वामिनः पराजयमसहमाना सा स्वयं तेन सह शास्त्रार्थं कर्तुं समुद्यताभवत्। सा शङ्करं कामशास्त्रीयान् प्रश्नान् पप्रच्छ| तान् दुरुत्तरान् प्रश्नान् श्रुत्वा स तूष्णीं बभूव। कियत्कालानन्तरं स परकायप्रवेशविद्यया कामशास्त्रज्ञो बभूवे पुनश्च मण्डनपत्नी शास्त्रार्थे पराजितवान्। जनश्रुतिरस्ति यत् स एव मण्डनमिश्रः आचार्यशङ्करस्य शिष्यत्वं स्वीचकार, सुरेश्वर इति नाम्ना प्रसिद्धिं च लेभे। [2012]

शब्दार्थ सुमेधासम्पन्ना = बुद्धिसम्पन्न प्रतिष्ठापितासीत् = स्थापित की गयी। असहमाना = सहन न करती हुई। कामशास्त्रीयान् = कामशास्त्र सम्बन्धी दुरुत्तरान् = कठिन उत्तर वाले। तूष्णीम् = मौन, चुप। कियत्कालानन्तरम् = कुछ समय के बाद। परकायप्रवेशविद्यया = दूसरे के शरीर में प्रवेश करने की विद्या से। पराजितवान् = पराजित किया। जनश्रुतिः अस्ति = जनश्रुति है, लोगों द्वारा कहा जाता है।

UP Board Solutions

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर द्वारा मण्डन मिश्र और उनकी पत्नी को शास्त्रार्थ में पराजित करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद निर्णायक के पद पर मण्डन मिश्र की अत्यन्त बुद्धिमती पत्नी शारदा बैठायी गयी थी। शास्त्रार्थ में अपने स्वामी की हार को सहन न करती हुई वह स्वयं उनके साथ शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार हो गयी। उसने शंकर से कामशास्त्र-सम्बन्धी प्रश्न पूछे। उन कठिन उत्तर वाले प्रश्नों को सुनकर वे चुप हो गये। कुछ समय (दिन या महीने) के पश्चात् दूसरों के शरीर में प्रवेश करने की विद्या से वे कामशास्त्र के ज्ञाता हो गये। और फिर मण्डन मिश्र की पत्नी को शास्त्रार्थ में पराजित किया। यह जनश्रुति है कि उन्हीं मण्डन मिश्र ने आचार्य शंकर की शिष्यता स्वीकार की और ‘सुरेश्वर’ नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त किया।

(7)
दिग्विजययात्राप्रसङ्गेनैव आचार्यप्रवरः प्रयागं प्राप्तः। तत्र वैदिकधर्मोद्धरणाय सततं यतमानं कुमारिलभई ददर्श। एकतः कुमारिलभट्टः वैदिकधर्मस्य कर्मकाण्डपक्षमाश्रित्य साम्प्रदायिकान्। पराजितवान् अपरतश्च श्रीमच्छङ्करः कर्मकाण्डस्य चित्तशुद्धिमात्रपर्यवसायिमाहात्म्यं स्वीकृत्यापि मोक्षे तस्य वैयर्थ्यं प्रतिपादयामास। एवं कुमारिलसम्मतमपि खण्डयित्वा स अज्ञाननिवृत्तये ज्ञानस्य महिमानं ख्यापयामास। तद् ज्ञानमेव मोक्षदायकम् भवति इति ज्ञानकाण्डमेव वेदस्य निष्कृष्टार्थं इति शङ्करः अमन्यत्। एवं शङ्करः आसेतोः कश्मीरपर्यन्तं समग्रदेशे परिबभ्राम, स्वकीययालौकिक्या बुद्धया च न केवलं विरोधिमतं समूलमुत्पाटयामास वरञ्च वैदिकधर्मानुयायिनां मध्ये तत्त्वस्वरूपमुद्दिश्य यद्वैमत्यमासीत् तस्यापि समन्वयः तेन समुपस्थापितः। अल्पीयस्येव वयसि महापुरुषोऽसौ चतुर्दिक्षु स्वकीर्तिकौमुदीं प्रसार्य द्वात्रिंशत्परमायुस्ते केदारखण्डे स्वपार्थिवशरीरं त्यक्त्वा पुनः कैलासवासी बभूव।

दिग्विजययात्राप्रसङ्गेनैव ………………………………………… प्रतिपादयामास

शब्दार्थ दिग्विजययात्राप्रसङ्गेनैव = दिग्विजय यात्रा के प्रसंग में ही। वैदिकधर्मोद्धरणाय = वैदिक धर्म के उद्धार के लिए। यतमानं = प्रयत्न करने वाले। एकतः = एक ओर पक्षमाश्रित्य = पक्ष का आश्रय लेकर अपरतश्च = और दूसरी ओर श्रीमच्छङ्करः (श्रीमत् + शंकरः) = श्रीमान् शंकर। चित्तशुद्धिमात्रपर्यवसायि = चित्त की शुद्धिमात्र उद्देश्य वाला। वैयर्थ्यम् = व्यर्थता। प्रतिपादयामास = सिद्ध की। ख्यापयामास = प्रसिद्ध किया। निष्कृष्टार्थम् = निष्कर्ष के लिए। आसेतोः = सेतुबन्ध (रामेश्वरम्) (UPBoardSolutions.com) से लेकर परिबभ्राम = भ्रमण किया। उत्पाटयामास = उखाड़ फेंका। तत्त्वस्वरूपमुद्दिश्य = तत्त्व के स्वरूप को समझाकर। यद्वैमत्यमासीत् (यत् + वैमत्यम् + आसीत्) = जो मत-विभिन्नता थी। समुपस्थापितः = उपस्थित किया। अल्पीयसी = थोड़ी-सी। चतुर्दिक्षु = चारों दिशाओं में प्रसार्य = फैलाकर।

UP Board Solutions

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर द्वारा कर्मकाण्ड की व्यर्थता और ज्ञान की उपयोगिता सिद्ध की गयी है।

अनुवाद दिग्विजय यात्रा के प्रसंग से ही आचार्य-श्रेष्ठ (शंकर) प्रयाग गये। वहाँ वैदिक धर्म के उद्धार के लिए निरन्तर प्रयत्न करते हुए कुमारिल भट्ट को देखा। एक ओर कुमारिल भट्ट ने वैदिक धर्म के कर्मकाण्ड के पक्ष का सहारा लेकर सम्प्रदायवादियों को पराजित किया और दूसरी ओर श्रीमान् शंकर ने कर्मकाण्ड; चित्त की शुद्धि करने मात्र तक उद्देश्य; की महत्ता स्वीकार करके भी मोक्ष में उसकी व्यर्थता प्रतिपादित की। इस प्रकार कुमारिल के द्वारा मान्य मत का खण्डन करके भी उन्होंने अज्ञान को दूर करने के लिए ज्ञान की महिमा बतायी। “वह ज्ञान ही मोक्ष को देने वाला होता है यह ज्ञानकाण्ड ही वेद का निष्कर्ष है, ऐसा शंकर मानते थे। इस प्रकार (UPBoardSolutions.com) शंकर ने सेतुबन्ध (रामेश्वरम्) से लेकर कश्मीर तक सम्पूर्ण देश में भ्रमण किया और अपनी अलौकिक बुद्धि से न केवल विरोधियों के मत को ही समूल नष्ट किया, वरन् वैदिक धर्म के मानने वालों के मध्य में तत्त्व के स्वरूप को लेकर जो मत की भिन्नता थी, उसमें भी उन्होंने समन्वय स्थापित किया। थोड़ी-सी आयु में यह महापुरुष चारों दिशाओं में अपनी कीर्ति फैलाकर 32 वर्ष की आयु में केदारखण्ड में अपने पार्थिव शरीर को छोड़कर पुनः कैलाशवासी हो गये।

(8)
शङ्कराविर्भावात् प्रागपि तत्रासन् व्यासवाल्मीकिप्रभृतयो बहवो मनीषिणः ये स्वप्रज्ञावैशारद्येन वैदिकधर्माभ्युदयाय प्रयतमाना आसन्। तेषु महर्षिव्यास-प्रणीतानि ब्रह्मसूत्राण्यधिकृत्य श्रीमच्छङ्करेण शारीरकाख्यं भाष्यं प्रणीतम्। एवं व्यासमतमेवावलम्ब्य भाष्यकृता तेन वैदिकधर्मः पुनरुज्जीवितः। तस्य दार्शनिक मतमद्वैतमतमिति लोके प्रसिद्धमस्ति। स स्वयं प्रतिज्ञानीते यत् वेदोपनिषत्सु सन्निहितं तत्त्वस्वरूपमेव स निरूपयति नास्ति तत्र किञ्चित् तदबुद्धिसमुद्भवम्। तन्मतेन जगदतीतं सत्यं (UPBoardSolutions.com) ज्ञानमनन्तं यत्तदेव ब्रह्म इति बोद्धव्यम्। ब्रह्माधिष्ठाय मायाविकारः एव एष संसारः अस्ति। संसारसरणौ सुखदुःखप्रवाहे उत्पीइयमानो जीवो ब्रह्मैवास्ति। विभूर्भूत्वापि मायाजन्याज्ञानप्रभावात् स आत्मनः कार्पण्यमनुभवति सन्ततं विषीदति च। एवं जीवब्रह्मैक्यं प्रतिपाद्य स सकलजीवसाम्यं स्थापयामास। “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति, नेह नानास्ति किञ्चन, यो वै भूमा तत्सुखम्” इति श्रुतीः अनुसृत्य शङ्करः वेदान्ततत्त्वस्वरूपं निर्धारयामास।

ब्रह्माधिष्ठाय मायाविकारः ………………………………………… निर्धारयायास [2009]

शब्दार्थ शङ्कराविर्भावात् = शंकर के जन्म लेने से। प्रागपि = पहले भी। मनीषिणः = विद्वान्। वैशारद्येन = निपुणता से। अभ्युदयाय = उन्नति के लिए। शारीरकाख्यम् = शारीरिक नाम वाला। व्यासमतमेवावलम्ब्य = व्यास के मत का सहारा लेकर ही प्रतिजानीते = घोषित करते हैं। सन्निहितं = छिपा हुआ है, निहित है। बुद्धिसमुद्भवम् = बुद्धि से उत्पन्न। जगदतीतं = संसार से परे, संसार से भिन्न। बोद्धव्यम् = जानना चाहिए। ब्रह्माधिष्ठाय = ब्रह्म का अधिष्ठान करके। संसार-सरणौ = संसाररूपी मार्ग पर। उत्पीड्यमानः = दुःखी होता हुआ। विभुर्भूत्वापि = व्यापक होकर भी। मायाजन्याज्ञानप्रभावात् = माया से उत्पन्न अज्ञान के प्रभाव से। कार्पण्यम् = दीनता का विषीदति = दुःखी होता है। विप्रा = विद्वान्। नेह = यहाँ पर नहीं। भूमा = अधिकता।

UP Board Solutions

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर द्वारा प्रतिपादित वैदिक सिद्धान्तों का संक्षिप्त वर्णन करके उनको समझाया गया है।

अनुवाद शंकर के जन्म से पूर्व भी व्यास, वाल्मीकि जैसे बहुत-से विद्वान् थे, जो अपनी बुद्धि की निपुणता से वैदिक धर्म की उन्नति के लिए प्रयत्न कर रहे थे। उनमें महर्षि व्यास के द्वारा रचित ब्रह्मसूत्रों के आधार पर श्रीमान् शंकर ने शारीरक’ नाम का भाष्य रचा। इस प्रकार व्यास के मत का सहारा लेकर ही उस भाष्यकार ने वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया। उनका दार्शनिक मत ‘अद्वैत’ इस नाम से संसार में प्रसिद्ध है। वे स्वयं घोषित करते हैं कि वेद और उपनिषदों में सन्निहित तत्त्व के स्वरूप का ही वे वर्णन कर रहे हैं, उसमें कुछ भी उनकी बुद्धि से उत्पन्न नहीं है। उनके मत के अनुसार जो संसार से अतीत और सत्य है, अनन्त ज्ञान है, वही ब्रह्म है, ऐसा समझना (UPBoardSolutions.com) चाहिए। ब्रह्म का आश्रय लेकर माया से उत्पन्न ही यह संसार है। संसार के मार्ग में सुख और दु:ख के प्रवाह में पीड़ित हुआ जीव ब्रह्म ही है। व्यापक होकर भी माया से उत्पन्न अज्ञान के प्रभाव से वह आत्मा की दीनता का ही अनुभव करता है और निरन्तर दु:खी रहता है। इस प्रकार जीव और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन करके उन्होंने सम्पूर्ण जीवों की समानता स्थापित की। “एक ही ब्रह्म सर्वशक्तिमान् है, इस तत्त्व को ब्राह्मण अनेक प्रकार से कहते हैं, इस संसार में कुछ भी भिन्न नहीं है। जो भूमा है, वही सुख है।” इस प्रकार वेदों का अनुसरण करके शंकर ने तत्त्व के स्वरूप को निर्धारित किया।

(9)
प्रतीयमानानेकरूपायाः सृष्टेः अधिष्ठानं ब्रह्म अद्वैतरूपमस्ति। एतदस्ति विश्वबन्धुत्व भावनायाः बीजम् । अस्याः भावनायाः पल्लवनेन न केवलं एकः राष्ट्रवृक्षः संवर्धते, अपितु जातिक्षेत्रादिमूला उच्चावचभावरूपा सङ्कीर्णता समूलोच्छिन्ना भवति। एतस्याः राष्ट्रियभावनायाः पुष्ट्यर्थं स स्वदेशस्य चतसृषु दिक्षु चतुर्णा वेदान्तपीठान स्थापनाञ्चकार। मैसूरप्रदेशे शृङ्गेरीपीठं, पुर्यां गोवर्धनपीठे, बदरिकाश्रमे ज्योतिष्पीठं, द्वारिकायाञ्च शारदापीठं साम्प्रतमपि राष्ट्रसमुन्नत्यै, लोकहितसाधनाय चाद्वैतमतस्य प्रचारे अहर्निशं प्रयतमानानि सन्ति। [2014]

प्रतीयमानानेकरूपायाः ………………………………………… स्थापनाञ्चकार। [2009]

शब्दार्थ प्रतीयमान = आभासित, कल्पित, दिखाई देती हुई। अधिष्ठानम् = आधार, स्थान। ब्रह्म अद्वैतरूपम् = ब्रह्म अद्वैत अर्थात् एक रूप है। बीजम् = मूल। उच्चावच = ऊँच-नीच। समूलोच्छिन्ना = जड़ से उखड़ी हुई। चतसृषु दिक्षु = चारों दिशाओं में। साम्प्रतमपि = इस समय भी। अहर्निशम् = दिन-रात।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर के द्वारा अद्वैतवाद सम्बन्धी प्रचार एवं राष्ट्रीय भावना के लिए चार वेदान्त पीठों की स्थापना के उद्देश्य के विषय में बताया गया है।

अनुवाद, आभासित होती हुई, अनेक स्वरूप धारण करती हुई सृष्टि का आश्रयभूत ब्रह्म अद्वैत रूप है। यह विश्व-बन्धुत्व की भावना का मूल है। इस भावना के प्रसार से केवल एक राष्ट्ररूपी वृक्ष ही नहीं बढ़ता है, अपितु जातिमूलक और स्थानमूलक ऊँच-नीच की भावना की संकीर्णता जड़ से नष्ट हो जाती है। इस राष्ट्रीय भावना की पुष्टि के लिए उन्होंने अपने देश की चारों दिशाओं में चार वेदपीठों की स्थापना की। मैसूर प्रदेश में शृंगेरीपीठ, पुरी में गोवर्धनपीठ, बदरिकाश्रम में ज्योतिष्पीठ और द्वारका में शारदापीठ अब भी राष्ट्र की उन्नति के लिए और संसार का कल्याण करने के लिए अद्वैत मत के प्रचार में दिन-रात प्रयत्नशील हैं।

UP Board Solutions

(10)
निष्कामकर्मयोगी शङ्करः यद्यपि अल्पायुरासीत् किन्तु तस्य कार्याणि, अत्युत्कृष्टभाष्यग्रन्थाः, अनेके मौलिकग्रन्थाः अद्वैतसिद्धान्तश्चैनम् अनुक्षणं स्मारयन्ति। धन्यः खल्वसौ महनीयकीर्तिः जगदगुरुः भगवान् शङ्करः।

शब्दार्थ अल्पायुरासीत् = थोड़ी आयु वाले। अनुक्षणम् = प्रतिक्षण। स्मारयन्ति = याद कराते हैं।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शंकर की विशेषता का वर्णन किया गया है।

अनुवाद निष्काम कर्मयोगी शंकर यद्यपि कम आयु के ही थे, किन्तु उनके कार्य अत्यन्त उत्तम भाष्य-ग्रन्थ (टीकाएँ), (UPBoardSolutions.com) अनेक मौलिक ग्रन्थ और अद्वैत सिद्धान्त इनकी प्रत्येक क्षण याद दिलाते हैं। वे (पूजनीय) महान् कीर्तिशाली जगद्गुरु भगवान् शंकर निश्चय ही धन्य हैं।

लघु उत्तरीयप्रश्न

प्रश्न 1.
शंकराचार्य का जन्म कब और कहाँ हुआ था? इनके माता-पिता का नाम भी बताइए।
या
शंकराचार्य के जन्म-वंशादि का उल्लेख कीजिए। [2010]
या
आदि शंकराचार्य का जन्म-स्थान लिखिए। [2007,08, 09, 13, 14]
या
आदि शंकराचार्य का जन्म किस प्रदेश में हुआ था? [2007,09]
या
आदि शंकराचार्य के माता-पिता और ग्राम का नाम लिखिए। [2010, 14]
उत्तर :
आदि शंकराचार्य का जन्म केरले प्रदेश के मालाबार प्रान्त में पूर्णा नदी के तट पर स्थित शलक ग्राम में सन् 788 ईस्वी में नम्बूदरी कुल में हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम सुभद्रा देवी था। 991 2 आचार्य शंकर क्यों प्रसिद्ध हैं? स्पष्ट कीजिए। उत्तर ‘ब्रह्म अद्वैतस्वरूप है।’ आदि शंकराचार्य को यह सिद्धान्त विश्वबन्धुत्व की भावना का मूलाधार है। यह सिद्धान्त क्षेत्रवाद, जातिवाद और ऊँच-नीच की भावनाओं को नष्ट करने वाला है। अज्ञानान्धकार को दूर करने (UPBoardSolutions.com) के लिए आचार्य शंकर ने चार वेदान्तपीठों की स्थापना की तथा व्यास सूत्र, उपनिषदों, भगवद्गीता पर सुन्दर भाष्य लिखे, जो निरन्तर गिरते जीवन-मूल्यों के उत्थान में आज भी सहायक हैं। इसलिए आचार्य शंकर जगत् में प्रसिद्ध हैं।

प्रश्न 3.
गोविन्दपाद ने शंकर से क्या पूछा और शंकर ने क्या उत्तर दिया?
उत्तर :
यति वेश को धारण करने वाले गोविन्दपाद ने शंकर से पूछा “तुम कौन हो?’ शंकर बोले-“मैं न मन हूँ, न बुद्धि हूँ, न अहंकार हूँ, न चित्त हूँ, न कान हूँ, न जीभ हूँ, न प्राण हूँ, न नेत्र हूँ, न आकाश हूँ, न भूमि हूँ, न तेज हूँ, न वायु हूँ। मैं चिद् व आन्दस्वरूप शिव हूँ, शंकर हूँ।”.

UP Board Solutions

प्रश्न 4.
आदि शंकराचार्य ने चार वेदपीठों की स्थापना कहाँ-कहाँ की और क्यों की ?
या
शंकराचार्य द्वारा स्थापित वेदान्तपीठों के नाम लिखिए। [2006,08,09, 10, 12]
उत्तर :
आचार्य शंकर ने जातिमूलक और स्थानमूलक ऊँच-नीच की संकीर्णता को जड़ से नष्ट करने और राष्ट्रीय भावना की पुष्टि के लिए देश के चारों दिशाओं में चार वेदपीठों-मैसूर प्रदेश में श्रृंगेरीपीठ, पुरी में गोवर्धनपीठ, बदरिकाश्रम में ज्योतिष्पीठ और द्वारका में शारदा पीठ की स्थापना की।

प्रश्न 5.
शंकराचार्य के संन्यास-ग्रहण की घटना का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
एक बार शंकर पूर्णा नदी में स्नान कर रहे थे कि एक शक्तिशाली ग्राह ने इनका पैर पकड़ लिया। ग्राह ने इन्हें तब तक नहीं छोड़ा, जब तक माता ने इन्हें संन्यास लेने की आज्ञा न दे दी। माता की आज्ञा और ग्राह से मुक्ति पाकर इन्होंने संन्यास ले लिया।

प्रश्न 6.
शंकराचार्य ने काशी में किन-किन ग्रन्थों का भाष्य लिखा और किससे शास्त्रार्थ करके पराजित [2009]
या
शंकराचार्य ने किन-किन ग्रन्थों के भाष्य लिखे? [2006, 08,09, 11]
उत्तर :
शंकराचार्य ने व्यास-सूत्रों, उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्यों की काशी में रचना की। इन्होंने काशी में मण्डन मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित किया, लेकिन उनकी पत्नी से शास्त्रार्थ में, प्रथम बार, पराजित हुए। कालान्तर में मण्डन मिश्र की पत्नी को भी शास्त्रार्थ में पराजित किया।

प्रश्न 7.
स्वतः प्रमाणं परत: प्रमाणं, कीराङ्गना यत्र गिरो गिरन्ति ।
द्वारस्थनीडान्तरसन्निरुद्धाः, अवेहि तधाम हि मण्डनस्य ॥
उपरिलिखित श्लोक किसने, किससे और क्यों कहा?
उत्तर :
ऊपर उल्लिखित श्लोक धीवरी ने शंकराचार्य से कहा क्योंकि शंकराचार्य ने उससे मण्डन मिश्र के घर का पता पूछा था। हुए?,

प्रश्न 8.
आदि शंकराचार्य का जीवन-परिचय संक्षेप में लिखिए। [2010]
उत्तर :
शंकराचार्य का जन्म मालाबार प्रान्त में पूर्णा नदी के तट पर शलक नामक ग्राम में सन् 788 ईस्वी में हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम सुभद्रा था। इन्होंने आठ वर्ष की आयु में ही समस्त वेद-वेदांगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इनके पिता की मृत्यु बचपन (UPBoardSolutions.com) में ही हो गयी थी। पूर्णा नदी में स्नान करते समय एक शक्तिशाली ग्राह ने इनके पैर को पकड़ लिया और तब तक नहीं छोड़ा, जब तक माता ने संन्यास की अनुमति न दे दी। गौड़पाद के शिष्य गोविन्दपाद ने इन्हें संन्यास की दीक्षा दी और वेदान्त-तत्त्वों का अध्ययन कराया। इन्होंने काशी में मण्डन मिश्र व उनकी पत्नी तथा प्रयाग में कुमारिल भट्ट को शास्त्रार्थ में पराजित किया। इन्होंने व्यास-सूत्रों, उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्यों की रचना की तथा राष्ट्रीय भावना को पुष्ट करने के लिए भारत के चारों कोनों में चार वेदान्तपीठों की स्थापना की। मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में ही इन्होंने अपने पार्थिव शरीर का त्याग कर दिया।

UP Board Solutions

प्रश्न 9.
वह महान् कर्मयोगी कौन थे, जिन्होंने वैदिक धर्म की पुनः स्थापना करायी? [2010, 11]
उत्तर :
आदि शंकराचार्य ही वह महान् कर्मयोगी थे, जिन्होंने वैदिक धर्म की पुन: स्थापना करायी।

प्रश्न 10.
शंकर ने किससे संन्यास-दीक्षा ली एवं वेदान्त-तत्त्व का ज्ञान प्राप्त किया? [2006]
उत्तर :
शंकर ने गौड़पाद के शिष्य गोविन्दपाद से संन्यास-दीक्षा ली और (UPBoardSolutions.com) वेदान्त-तत्त्व का ज्ञान प्राप्त किया।

Hope given UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 8 are helpful to complete your homework.
If you have any doubts, please comment below. UP Board Solutions try to provide online tutoring for you

Class 9 Sanskrit Chapter 12 UP Board Solutions यज्ञरक्षा Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 12 यज्ञरक्षा (कथा – नाटक कौमुदी) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 12 यज्ञरक्षा (कथा – नाटक कौमुदी).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 12
Chapter Name यज्ञरक्षा (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 26
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 12 Yagyaraksha Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 12 हिंदी अनुवाद यज्ञरक्षा के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय– महर्षि वाल्मीकि द्वारा विरचित ‘रामायण’ तथा महामुनि वेदव्यास द्वारा विरचित ‘महाभारत’ दोनों ही ग्रन्थ कवियों और नाटककारों के लिए, अति प्राचीन काल से ही, प्रेरणा-स्रोत रहे हैं। ये ग्रन्थ न केवल संस्कृत कवियों के लिए अपितु प्राकृत, अपभ्रंश आदि के कवियों के लिए भी आश्रय-ग्रन्थ रहे हैं। इनमें उल्लिखित चरित्रों को आधार बनाकर अगणित महाकाव्यों, खण्डकाव्यों, मुक्तककाव्यों, नाटकों आदि की रचना हुई है। (UPBoardSolutions.com) ‘अनर्घराघव’ भगवान् राम के जीवन को आधार बनाकर विरचित नाटक है। इसकी कथा वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ से ली गयी है। इसके रचयिता मुरारि हैं। इनके पिता का नाम वर्धमानक था। इनका जन्म-समय विद्वानों द्वारा सन् 800 ईसवी के लगभग स्वीकार किया गया है। यह सात अंकों वाला नाटक है, जो यत्र-तत्र कवि-कल्पना से समन्वित है। इससे नाटक की कथा अतिशय रोचक हो गयी है। भाषा पर कविवर मुरारि का असाधारण अधिकार है तथा नाटक में इन्होंने यत्र-तत्र अपने व्याकरण सम्बन्धी ज्ञान का सफल प्रदर्शन किया है।
प्रस्तुत पाठ ‘अनर्घराघव’ के प्रथम अंक से संकलित है।

UP Board Solutions

पाठ सारांश  

प्रस्तुत अंश में महर्षि विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा हेतु राक्षसों का  वध करने के लिए महाराज दशरथ से उनके दो पुत्रों, राम और लक्ष्मण, की याचना करते हैं। पुत्रों के वियोग का दु:ख अनुभव करते हुए भी दशरथ अपने दोनों पुत्रों को मुनि के साथ भेज देते हैं। राम विश्वामित्र के आश्रम में यज्ञ के रक्षार्थ दुष्टों का वध करना आवश्यक धर्म मानते हुए राक्षसों का संहार करते हैं। पाठ का सारांश इस प्रकार है

विश्वामित्र द्वारा राम की याचना– प्रतिहारी महाराज दशरथ को सूचना देता है कि द्वार पर मुनिवर विश्वामित्र आये हैं। वामदेव; जो कि दशरथ के कुल-पुरोहित हैं; यथोचित सम्मानपूर्वक विश्वामित्र को प्रवेश कराते हैं। विश्वामित्र प्रवेश करते ही कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ से उनका कुशलक्षेम पूछते हैं। दशरथ अपने आसन से उठकर विश्वामित्र का स्वागत करके उन्हें प्रणाम करते हैं। आवश्यक वार्तालाप के पश्चात् दशरथ विश्वामित्र से उनके आने का कारण पूछते हैं। विश्वामित्र बताते हैं कि वे यज्ञ की रक्षा के लिए राम को कुछ दिन तक अपने (UPBoardSolutions.com) आश्रम में ले जाना चाहते हैं। यह सुनकर राम का वियोग हो जाने की बात सोचकर दशरथ अत्यधिक उदास हो जाते हैं। विश्वामित्र दशरथ से कहते हैं। कि राम अब बालक नहीं रहे, वे सूर्य के समान तेजस्वी हैं। दशरथ वामदेव की सहमति से राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेजना स्वीकार कर लेते हैं। विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को अपने साथ लेकर आश्रम की ओर प्रस्थान करते हैं।
आश्रम में पहुँचकर राम और लक्ष्मण वहाँ की रमणीयता और पावनता को देखकर अत्यधिक प्रसन्न होते हैं। |

राम द्वारा राक्षसों का विनाश-
नेपथ्य से राक्षसों द्वारा यज्ञ में विघ्न डालने की ध्वनि सुनाई पड़ती है। राम धनुष लेकर वायव्य अस्त्र का सन्धान कर राक्षसों का संहार करते हैं, लेकिन उनके साथ आयी हुई ताड़का (स्त्री जाति) का वध करने के कारण राम अत्यन्त लज्जित और दुःखी होते हैं। विश्वामित्र (UPBoardSolutions.com) राम को गले लगाकर उनके इस वीरोचित कार्य को उचित बताते हुए उन्हें आशीर्वाद देते हैं। अन्त में मुनि विश्वामित्र को प्रणाम कर राम और लक्ष्मण समेत सभी अपने-अपने स्थान को चले जाते हैं।

चरित्र चित्रण

राम 

परिचय–श्रीराम अयोध्या के महाराज दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र हैं। वे विनीत, धीर, साहसी, वीर, आज्ञाकारी, पितृभक्त और गुरुभक्त हैं। विश्वामित्र राम को यज्ञ के रक्षार्थ अपने साथ आश्रम में ले जाने के लिए दशरथ से माँगते हैं। वे वहाँ पहुँचकर विघ्नकर्ता राक्षसों का वध करते हैं। उनकी चारित्रिक विशेषताएँ अग्र प्रकार हैं

(1) विनीत– श्रीराम स्वभाव से विनीत और शिष्ट हैं। वे पिता और गुरुजन के आज्ञापालक हैं। दशरथ का आदेश पाते ही वे शीघ्र राजसभा में पहुँच जाते हैं। महाराज दशरथ के कहने से वे महामुनि विश्वामित्र को प्रणाम करते हैं। विश्वामित्र के साथ जाने के लिए कहने पर वे अपना कोई मत प्रकट नहीं करते, वरन् वामदेव और पिताजी उनके लिए जैसा कहें, वे वैसा करने को तैयार हैं। इससे राम की नम्रता और शिष्टता प्रकट होती है। |

(2) अनुपम वीर- श्रीराम अतुलित वीर और पराक्रमशाली हैं। वे विश्वामित्र के साथ उनके आश्रम में जाकर वीरतापूर्वक दुष्टों का संहार करते हैं। मारीच और ताड़का जैसे अनेक राक्षसों को मात्र एक बाण (वायव्य शस्त्र) से धराशायी कर देते हैं। इससे उनकी अनुपम वीरता प्रकट होती है।

(3) अद्वितीय धनुर्धर- राम बाण-सन्धान में अद्वितीय हैं। जब दशरथ राम को किशोर मानते हुए विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा हेतु भेजने में संकोच करते हैं तब विश्वामित्र राम के अद्वितीय धनुर्धर रूप को उनके सामने प्रस्तुत करते हुए उन्हें सूर्य के समान तेजस्वी बताते हैं। एक बाण से कई राक्षसों का वध करना भी उनके अद्वितीय धनुर्धर होने की पुष्टि करता है। |

(4) धर्मभीरु– श्रीराम मर्यादापालक हैं। वे ताड़का (स्त्री जाति) का वध करने के बाद दु:खी हो जाते हैं। यद्यपि ताड़का का वध उन्होने विश्वामित्र की आज्ञा से किया है, फिर भी वे स्त्री के वध से दु:खी हैं और उसको मारने से लज्जा और कष्ट का अनुभव करते हैं। विश्वामित्र के कहने पर; “तुमने (UPBoardSolutions.com) अपने कर्तव्य का पालन किया है और तुम्हारा यह कार्य वीरोचित है, तुम्हें लज्जा नहीं करनी चाहिए।’ धैर्य धारण करते हैं। |

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि राम का चरित्र एक आदर्श मानवीय चरित्र है। वे योग्य पुत्र, धर्मभीरु, अद्वितीय धनुर्धर और परम विनीत हैं।

वामदेव 

परिचय- अयोध्या नरेश दशरथ के कुल-पुरोहित पद को विभूषित करने वाले वामदेव ऋषियों के आदर्श हैं। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के आश्रम में उनका निवास है। उनकी चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं

(1) प्रतिष्ठाप्राप्त ऋषि- वामदेव एक प्रतिष्ठाप्राप्त ऋषि हैं। विश्वामित्र भी उन्हें ‘सखा’ कहकर सम्बोधित करते हैं। इससे उनकी विश्वामित्र से समकक्षता भी सिद्ध होती है। दशरथ के प्रतिनिधि रूप में वे ही विश्वामित्र का स्वागत करने और उन्हें राजमहल में ले जाने हेतु उपस्थित होते हैं। इससे उनकी विश्वसनीयता और राजकुल द्वारा बहुमानिता स्पष्ट होती है। |

(2) महाज्ञानी– महर्षि वामदेव ज्ञानपुंज हैं। वे प्रत्येक बात को गम्भीरता से सोचकर उस पर अपना निर्णय देते हैं। विश्वामित्र द्वारा राम-लक्ष्मण को माँगे जाने पर दशरथ पुत्र-मोह के कारण उन्हें विश्वामित्र को देना नहीं चाहते, तब महर्षि वामदेव ही अपने उपदेश से उन्हें कर्तव्य का बोध कराते हैं। वामदेव के कहने पर दशरथ राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के हाथों सौंप देते हैं।

(3) सत्परामर्शदाता- दशरथ के कुल-पुरोहित होने के कारण उनका कर्तव्य है कि वे राजा को उचित-अनुचित का बोध कराकर उसे उचित मार्ग पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करें। वे अपने इस कर्तव्य को बड़ी कुशलता से पूर्ण करते हैं। दशरथ जब-जब दुविधा में पड़ते हैं, तब-तब वे उनको (UPBoardSolutions.com) अपने परामर्श से कर्तव्य-विमुख होने से रोकते हैं। राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेजने के सन्दर्भ में वे कहते हैं कि “हे राजन्! महर्षि विश्वामित्र याचक हैं और आप दाता। महायज्ञ की रक्षा करनी है और राम उसकी रक्षा करेंगे। मैं राम को भेजने की अनुमति प्रदान करता हूँ।” ऐसा कहकर वे दशरथ को दुविधा के अथाह सागर से उबार लेते हैं।

(4) विवेकशील- वामदेव की विवेकशीलता अनुकरणीय है। महाराज दशरथ किसी भी कार्य में ऊहापोह की स्थिति उत्पन्न होने पर वामदेव की शरण में जाते हैं और उनके विवेकनिमज्जित परामर्श को पाकर स्वयं को धन्य मानते हैं। अपने पुत्रों को राक्षसों के आंतक से आच्छादित अरण्य में भेजने जैसे महत्त्वपूर्ण ल्पर दशरथ वामदेव जैसे विवेकी की सहमति-असहमति जानकर ही उन्हें विश्वामित्र के साथ भेजते हैं।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि वामदेव राजकुल तथा ऋषियों में लब्धप्रतिष्ठ हैं। उनके ज्ञान, विवेक और परामर्श के सभी अभिलाषी हैं।

UP Board Solutions

विश्वामित्र

परिचय- जन्म से क्षत्रिय तथा कर्म-योग से ब्राह्मण महर्षि विश्वामित्र त्रिकालदर्शी ऋषि हैं। वे जिस कार्य को करने की अपने मन में ठान लेते हैं, उसे पूर्ण करके ही चैन की साँस लेते हैं। अपने यज्ञ में राक्षसों द्वारा विघ्न डालने की आशंका पर वे यज्ञ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए दशरथ के पास उनके पुत्र राम-लक्ष्मण को माँगने जाते हैं। राम को शाश्वत यश दिलाने की पृष्ठभूमि में निश्चित ही इनकी भूमिको प्रशंसनीय है। इनके चरित्र की विशेषताएँ इस प्रकार हैं|

(1) महर्षियोचित सौम्य- क्षत्रिय होते हुए भी विश्वामित्र सौम्य की मूर्ति हैं। वे प्रत्येक से बड़ी सौम्यता के साथ मिलते हैं। वे जहाँ महर्षि वामदेव के लिए ‘सखे वामदेव!’ का सम्बोधन प्रयुक्त करते हैं, वहीं दशरथ को भी वे सखे दशरथ!’ कहकर सम्बोधित करते हैं; यह उनकी सौम्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वामदेव से महर्षि वशिष्ठ की सपरिवार कुशलता को पूछा जाना उनके व्यवहार-ज्ञान का परिचायक है।

(2) वात्सल्य-प्रेम से ओत-प्रोत- महर्षि विश्वामित्र वात्सल्य-प्रेम के मानो सतत प्रवाह हैं। राम-लक्ष्मण को वे पुत्रवत् मानते हैं। राम द्वारा ताड़का-वध पर पश्चात्ताप करने पर वे स्नेहसिक्त वचनों से उन्हें यह विश्वास दिलाते हैं कि ताड़का-वध किसी भी दृष्टि से निन्दनीय नहीं है। इतना ही नहीं, वे राम के कार्य को उचित ठहराते हैं और पुत्रवत् वात्सल्य प्रदर्शित करते हुए भाव-विभोर होकर राम को गले से लगा लेते हैं।

(3) महान् गुणज्ञ- स्वयं गुणों की खान विश्वामित्र गुणों के महान् पारखी और उनका सम्मान करने वाले हैं। वे राम के गुणों से परिचित हैं तभी तो दशरथ के द्वारा अल्पवय राम को वन में भेजने की शंका का निवारण करते हुए वे दशरथ से राम के गुणों का बखान करते हैं। राम के लिए यह कहना कि ‘वह (UPBoardSolutions.com) तो सूर्य के समान अपने तेज से समस्त भूमण्डल को प्रकाशित करने वाले तेजस्वी हैं, उनके गुणज्ञ होने का ही साक्ष्य है।

(4) सम्यक् प्रयोक्ता – विश्वामित्र समयोचित तथा व्यक्ति से उसकी शक्ति एवं गुणोचित कार्य कराने के पक्षधर हैं। स्वयं महर्षि होने के कारण वे महान् यज्ञ प्रयोक्ती भी हैं। राम-लक्ष्मण को वे अपने क्षत्रियोचित गुणों के कारण ही राक्षसों का विनाश करने के लिए प्रेरित करते हैं।

निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि विश्वामित्र ब्रह्म एवं क्षात्र तेज-सम्पन्न, व्यवहार- कुशल, गुणज्ञ, सम्यक् प्रयोक्ता एवं वात्सल्यमय स्वभाव के लब्धप्रतिष्ठित महर्षि हैं।

लघु-उतरीय संस्कृत प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए

प्रश्‍न 1
वामदेवः कः आसीत्?
उत्तर
वामदेवः दशरथस्य कुलपुरोहितः आसीत्।

प्रश्‍न 2
रामलक्ष्मणौ कौशिकेन सह कुत्र अगच्छताम्?
उत्तर
रामलक्ष्मणौ कौशिकेन सह तस्य आश्रमम् अगच्छताम्।

UP Board Solutions

प्रश्‍न 3
विश्वामित्रः दशरथं किमकथयत्?
उत्तर 
रामभद्रेण कतिपयरात्रम् अस्माकम् आश्रमपदं सनाथी करिष्यते’ इति विश्वामित्रः दशरथम् अकथयत्।

प्रश्‍न 4
आश्रमं दृष्ट्वा लक्ष्मणः रामं प्रति किमकथयत्?
उत्तर
आश्रमं दृष्ट्वा लक्ष्मणः रामं प्रति अकथयत् यत् आर्य! रमणीयमितो वर्तते, अहो पशूनामप्यपत्यवात्सल्यम्।

प्रश्‍न 5
रामः कामताडयत्?
उत्तर
राम: ताडकाम् अताडयत्।

प्रश्‍न 6
वशिष्ठस्य अन्यत् किन्नामासीत्?
उत्तर
वशिष्ठस्य अन्यत् नाम मैत्रावरुणिः आसीत्।

प्रश्‍न 7
विश्वामित्रः कस्मात् कारणात् दशरथमुपागतः?
उत्तर
विश्वामित्र: यज्ञरक्षार्थं रामं याचितुं दशरथमुपागतः।

प्रश्‍न 8
ताडकामारणं कथम् अनुचितम् आसीत्?
उत्तर
ताडका एका नारी आसीत्। अत: ताडकामारणम् अनुचितम् आसीत्। .

प्रश्‍न 9
सुबाहुमारीचौ की आस्ताम्?
उत्तर
सुबाहुमारीचौ हिंस्रा: राक्षसाः आस्ताम्।।

प्रश्‍न 10
विश्वामित्र आश्रमे गत्वा रामेण किं कृतम्?
उत्तर
विश्वामित्रस्य आश्रमे गत्वा रामेण राक्षसबलम् उन्मूलयति स्म।

वस्तुनिष्ठ प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उतर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए

1. ‘यज्ञ-रक्षा’ पाठ के लेखक कौन हैं?
(क) आचार्य विष्णुभट्ट
(ख) मुरारि
(ग) महाकवि कालिदास
(घ) महर्षि वाल्मीकि

UP Board Solutions

2. ‘यज्ञ-रक्षा’ नामक नाट्यांश किस ग्रन्थ से संकलित किया गया है? |
(क) उत्तर रामचरितम्’ से ।
(ख) अनर्घराघव’ से।
(ग) “रावणवधम्’ से
(घ) “प्रतिमानाटकम्’ से

3. विद्वानों के द्वारा मुरारि का समय क्या निर्धारित किया गया है? |
(क) 800 ई०
(ख) 400 ई०
(ग) 600 ई०
(घ) 750 ई०

4. ‘यज्ञ-रक्षा’ पाठ में किस ऋषि के यज्ञ की रक्षा की बात कही गयी है?
(क) विश्वामित्र के
(ख) वशिष्ठ के
(ग) वामदेव के
(घ) श्रृंगी के

5. विश्वामित्र राम-लक्ष्मण को अपने आश्रम में क्यों ले आना चाहते थे?
(क) क्योंकि उन्हें उनसे बहुत प्रेम था
(ख) क्योंकि वे उनकों शिक्षा देना चाहते थे
(ग) क्योंकि वे उनसे अपनी सेवा कराना चाहते थे।
(घ) क्योंकि वे उनसे यज्ञ की रक्षा कराना चाहते थे।

6. ‘देव भगवान्कौशिको द्वारमध्यास्ते’ वाक्यांश में ‘कौशिक’ शब्द किसके लिए प्रयुक्त हुआ
(क) “वामदेव’ के लिए।
(ख) वशिष्ठ’ के लिए
(ग) “विश्वामित्र के लिए
(घ) “दशरथ’ के लिए

7. ‘श्रवणानामलङ्कारः कपोलस्य तु कुण्डलम्।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति? |
(क) वामदेवः
(ख) राम-लक्ष्मणः
(ग) दशरथः
(घ ) विश्वामित्रः

8. ‘शिवाः सन्तु पन्थानो वत्सयो रामलक्ष्मणयोः।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) वामदेवः
(ख) दशरथः
(ग) विश्वामित्रः
(घ) वशिष्ठः

UP Board Solutions

9. ‘मैत्रावरुण’ किसको कहा गया है?
(क)विश्वामित्र को
(ख) दशरथ को
(ग) वशिष्ठ को
(घ) वामदेव को ,

10. राम ने राक्षसों का वध किससे किया?
(क) वरुणास्त्र’ से
(ख) ब्रह्मास्त्र’ से
(ग) “पाशुपतास्त्र’ से
(घ) “वायव्यास्त्र’ से

11. राम ने विश्वामित्र के आश्रम में किन राक्षसों पर बाण चलाये?
(क) मारीच पर
(ख) सुबाहु पर
(ग) ताड़का पर
(घ) उपर्युक्त तीनों पर

12. ‘सखे वामदेव! चिरेण दशरथो द्रष्टव्य इति सर्वमनोरथानामुपरि वर्तामहे।’ वाक्यस्य वक्ता | कः अस्ति ?
(क) वशिष्ठः
(ख) मैत्रावरुणिः
(ग) कौशिकः
(घ) दशरथः

13. ‘न खलु प्रकाशमन्तरेणं तुहिन ••••••••••••• उज्जिहीते।’ वाक्य में रिक्त-पद की पूर्ति होगी
(क) चन्द्रः’ से
(ख) ‘नक्षत्र:’ से
(ग) “भानु:’ से
(घ) “उडुपति:’ से

14. ‘कौशिकोऽर्थी भवान्दाता रक्षणीयो…………..।’ श्लोक की चरण-पूर्ति होगी .
(क) ‘महाहनुः’ से
(ख) “महाक्रतुः’ से
(ग) “महाऋतुः’ से
(घ) “महातपः’ से।

15. भगवन्विश्वामित्र! सावित्रौ रामलक्ष्मणावभिवादयेते।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) वशिष्ठः
(ख) दशरथः
(ग) रामलक्ष्मणः
(घ) वामदेवः

UP Board Solutions

16. ‘अहो विचित्रमिदमायतनं •••••••••••• पदं नाम भगवतो गाधिनन्दनस्य।’ में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी
(क) ‘सिद्धाश्रम’ से
(ख) “कौशिकाश्रम’ से
(ग) “सुराश्रम’ से ‘
(घ) “वशिष्ठाश्रम’ से।

We hope the UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 12 यज्ञरक्षा (कथा – नाटक कौमुदी)  help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 12 यज्ञरक्षा (कथा – नाटक कौमुदी), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

Class 10 Sanskrit Chapter 12 UP Board Solutions लोकमान्य तिलकः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 12 Lokmanya Tilak Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 12 हिंदी अनुवाद लोकमान्य तिलकः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 12 लोकमान्य तिलकः (गद्य – भारती)

परिचय

बाल गंगाधर तिलक ने एक सामान्य परिवार में जन्म लिया और ‘लोकमान्य’ की उपाधि पाकर अमर हो गये। जिस बालक के माता और पिता का स्वर्गवासे क्रमशः दस और सोलह वर्ष की अवस्था में हो गया हो, उसको अपने सहारे उच्च शिक्षा प्राप्त करना, निश्चय ही आश्चर्य का विषय है। तिलक जी को सरकारी नौकरी भी मिल सकती थी और वे वकालत भी कर सकते थे; किन्तु उन्होंने सुख-सुविधा को जीवन-लक्ष्य स्वीकार नहीं किया वरन् (UPBoardSolutions.com) सामान्यजन की सेवा और भारतमाता की स्वतन्त्रता को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। मराठी में ‘केसरी’ और अंग्रेजी में ‘मराठा’ पत्र निकालकर इन्होंने अपने दोनों ही लक्ष्यों को प्राप्त करने का सार्थक प्रयास किया। “स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, इस सिंह-गर्जना हेतु तिलक जी को सदा याद रखा जाएगा। प्रखर देशभक्त तिलक जी एक प्रतिभाशाली लेखक भी थे। इनकी लिखी पुस्तकें-‘गीता रहस्य’, ‘वेदों का काल-निर्णय’ और ‘आर्यों का मूल निवास-स्थान’ आज भी विद्वज्जनों के मध्य समादृत हैं। प्रस्तुत पाठ लोकमान्य तिलक जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से छात्रों को पूर्णरूपेण परिचित कराता है और उससे प्रेरणा प्राप्त करने को प्रेरित करता है।

UP Board Solutions

पाठ-सारांश [2006,07, 09, 10, 11, 12, 13, 15]

नामकरण लोकमान्य तिलक भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम के सैनिकों में अग्रगण्य थे। इनका नाम ‘बाल’, पिता का नाम ‘गंगाधर’, वंश का नाम ‘तिलक’ तथा यश ‘लोकमान्य’ था—इस प्रकार इनका पूरा नाम लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक था। इनके जन्म का नाम ‘केशवराव’ था तथा इनकी प्रसिद्धि ‘बलवन्तराव’ के नाम से थी।

जन्म, माता-पिता एवं स्वभाव तिलक जी का जन्म विक्रम संवत् 1913 में आषाढ़ मास की कृष्ण पक्ष की षष्ठी के दिन रत्नगिरि जिले के ‘चिरबल’ नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम रामचन्द्र गंगाधरराव तथा माता का नाम पार्वतीबाई था। इनकी माता सुशीला, धर्मपरायणा, पतिव्रता और ईश्वरभक्तिनी थीं। तिलक उग्र राष्ट्रीयता के जन्मदाता थे। इन्होंने महाराष्ट्र के युवकों में राष्ट्रीयता उत्पन्न करने के लिए देशहित के अनेक कार्य किये। इनका स्वभाव धीर, गम्भीर और निडर था।

शिक्षा तिलक जी का बचपन कष्टमय था। दस वर्ष की अवस्था में माता का और सोलह वर्ष की अवस्था में पिता का स्वर्गवास हो गया था। फिर भी इन्होंने अपना अध्ययन नहीं छोड़ा। ये तीक्ष्ण बुद्धि के थे और अपनी कक्षा में सबसे आगे रहते थे। संस्कृत और गणित इनके प्रिय विषय थे। ये गणित के कंठिन प्रश्नों को भी मौखिक ही हल कर लिया करते थे। दस वर्ष की आयु में इन्होंने संस्कृत में श्लोक-रचना सीख ली थी। कॉलेज में पढ़ते समय ये दुर्बल शरीर के थे। बाद में इन्होंने तैरने, नौका चलाने आदि के द्वारा अपना शरीर पुष्ट कर लिया था। इन्होंने बीस वर्ष की आयु में बी०ए० और तेईस वर्ष की आयु में एल-एल०बी० की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। सरकारी नौकरी और वकालत छोड़कर ये देशसेवा और लोकसेवा के कार्य में लग गये। इन्होंने पीड़ित भारतीयों के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर दिया था। इन्होंने आजीवन अपना मन पीड़ित प्राणियों के उद्धार में लगाया और प्रिय-अप्रिय किसी भी घटना से कभी विचलित नहीं हुए।

UP Board Solutions

स्वतन्त्रता के लिए प्रयास तिलक जी ने हमें स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया। ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है यह उनका प्रिय नारा था। इन्होंने राजनीतिक जागरण के लिए केसरी (मराठी) और मराठा (अंग्रेजी) दो पत्र प्रकाशित किये। इन पत्रों के माध्यम से इन्होंने अंग्रेजी शासन की सच्ची आलोचना, राष्ट्रीयता की शिक्षा, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग के लिए भारतीयों को प्रेरित करने के कार्य किये। यद्यपि सरकार की तीखी आलोचना के कारण इन्हें कड़ा दण्ड मिलता था तथापि किसी भी भय से इन्होंने सत्य-मार्ग को नहीं छोड़ा।

‘केसरी’ पत्र में प्रकाशित इनके तीखे लेखों के कारण इन्हें सरकार ने अठारह मास के सश्रम कारावास का कठोर दण्ड दिया। इस दण्ड के विरोध में भारत में जगह-जगह पर सभाएँ हुईं और आन्दोलन भी हुए। सम्मानित लोगों ने सरकार से प्रार्थना की, परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। सन् 1908 ई० में सरकार ने इन्हें राजद्रोह के अपराध में छ: वर्ष के लिए माण्डले जेल में भेज दिया। वहाँ इन्होंने बहुत कष्ट सहे।

रचनाएँ माण्डले जेल में रहकर इन्होंने गीता पर ‘गीता रहस्य’ नाम से भाष्य लिखा। इनकी अन्य रचनाएँ ‘वेदों का काल-निर्णय’ तथा ‘आर्यों का मूल निवास स्थान हैं। जेल से छूटकर ये पुनः देशसेवा के कार्य में लग गये।

मृत्यु राष्ट्र के लिए अनेक कष्टों को सहन करते हुए तिलक जी का 1977 विक्रम संवत् में स्वर्गवास हो गया। इन्होंने भारत के उद्धार के लिए जो किया, वह भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने योग्य है।

UP Board Solutions

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
लोकमान्यो बालगङ्गाधरतिलको नाम मनीषी भारतीयस्वातन्त्र्ययुद्धस्य प्रमुखसेनानीष्वन्यतमे, आसीत्। ‘बालः’ इति वास्तविकं तस्याभिधानम्। पितुरभिधानं, ‘गङ्गाधरः’ इति वंशश्च ‘तिलकः’ एवञ्च ‘बालगङ्गाधर तिलकः’ इति सम्पूर्णमभिधानं, किन्तु ‘लोकमान्य’ विरुदेनासौ विशेषेण (UPBoardSolutions.com) प्रसिद्धः। यद्यप्यस्य जन्मनाम ‘केशवराव’ आसीत् तथापि लोकस्तं ‘बलवन्तराव’ इत्यभिधया एव ज्ञातवान्। शब्दार्थ मनीषी = विद्वान्। अन्यतमः = अद्वितीय, प्रमुख अभिधानम् = नाम। विरुदेन = यश से, प्रसिद्धि से। अभिधया = नाम से। ज्ञातवान् = जाना।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘लोकमान्य तिलकः’ पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यावतरण में तिलक के ‘लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक’ नाम पड़ने का कारण बताया गया है।

अनुवाद लोकमान्य बालगंगाधर तिलक नाम के विद्वान् भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के प्रमुख सेनानियों में एक थे। उनका ‘बाल’ वास्तविक नाम था। पिता का नाम ‘गंगाधर’ और वंश ‘तिलक था। इस प्रकार ‘बाल गंगाधर तिलक’ यह पूरा नाम था, किन्तु ‘लोकमान्य’ के यश से ये विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। यद्यपि इनका जन्म का नाम ‘केशवराव’ था, तथापि लोग उन्हें ‘बलवन्तराव’ इस नाम से भी जानते थे।

UP Board Solutions

(2)
एष महापुरुषस्त्रयोदशाधिकनवदशशततमे विक्रमाब्दे (1913) आषाढमासे कृष्णपक्षे षष्ठ्यां तिथौ सोमवासरे महाराष्ट्रप्रदेशे रत्नगिरिमण्डलान्तर्गत ‘चिरवल’ संज्ञके ग्रामे जन्म लेभे। चितपावनः दाक्षिणात्यब्राह्मणकुलोत्पन्नस्य पितुर्नाम ‘श्री रामचन्द्रगङ्गाधर राव’ इत्यासीत्। सः कुशलोऽध्यापकः आसीत्। गङ्गाधरः स्वपुत्रं तिलकं बाल्ये एव गणितं मराठीभाषां संस्कृतचापाठयत्। अस्य जननी ‘श्रीमती पार्वतीबाई’ परमसुशीला, पतिव्रतधर्मपरायणा, ईश्वरभक्ता, सूर्योपासनायाञ्च रता बभूव। येनायं बालस्तेजस्वी बभूव इति जनाश्चावदन्। अस्य कार्यक्षेत्रं महाराष्ट्रप्रदेशः विशेषेणासीत्। स महाराष्ट्र उग्रराष्ट्रियतायाः जन्मदाता वर्तते स्म। तिलको महाराष्ट्र-नवयुवकेषु देशभक्ति-आत्मबलिदान आत्मत्यागस्य भावनां जनयितुं देशहितायानेकानि कार्याणि सम्पादितवान्। तस्य स्वभावः धीरः गम्भीरः निर्भयश्चासीत्। तस्य जीवने वीरमराठानां प्रभावः पूर्णरूपेणाभवत्।।

शब्दार्थ त्रयोदशाधिकनवदशशततमे = उन्नीस सौ तेरह में। संज्ञके ग्रामे = नाम वाले गाँव में चितपावनः = परम पवित्र। संस्कृतञ्चापाठयत् = और संस्कृत पढ़ायी। सूर्योपासनायाञ्च = और सूर्य की पूजा में। जनयितुम् = उत्पन्न करने के लिए। सम्पादितवान् = किये। निर्भयश्चासीत् = और निर्भय था।।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के जन्म, माता-पिता का नाम एवं उनके स्वभाव का उन पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इस महापुरुष ने 1913 विक्रम संवत् में आषाढ़ महीने में कृष्णपक्ष में षष्ठी तिथि को सोमवार के दिन महाराष्ट्र प्रदेश में रत्नगिरि जिले के अन्तर्गत ‘चिरबल’ नामक ग्राम में जन्म लिया था। हृदय को पवित्र करने वाले दाक्षिणात्य ब्राह्मण कुल में उत्पन्न पिताजी का नाम श्री रामचन्द्र गंगाधरराव’ था। वे कुशल अध्यापक थे। गंगाधर ने अपने पुत्र तिलक को बचपन में ही गणित, मराठी भाषा और संस्कृत भाषा पढ़ायी। इनकी माता श्रीमती पार्वतीबाई अत्यन्त सुशीला, पातिव्रत धर्म में परायणा, ईश्वरभक्तिनी और सूर्योपासना में लगी रहती थीं। इसी से यह बालक तेजस्वी हुआ, ऐसा लोग कहते थे। इनका कार्य-क्षेत्र विशेष रूप से महाराष्ट्र प्रदेश था। वे महाराष्ट्र में उग्र राष्ट्रीयता के जन्मदाता थे। तिलक ने महाराष्ट्र के नवयुवकों में देशभक्ति, आत्म-बलिदान, आत्म-त्याग की भावना उत्पन्न करने के लिए देशहित के अनेक कार्य किये। (UPBoardSolutions.com) उनका स्वभाव धीर, गम्भीर और निडर था। उनके जीवन पर पूर्णरूप से वीर मराठों का प्रभाव था।

UP Board Solutions

(3)
अस्य बाल्यकालोऽतिकष्टेन व्यतीतः। यदा स दशवर्षदेशीयोऽभूत तदा तस्य जननी परलोकं गता। षोडशवर्षदेशीयो यदा दशम्यां कक्षायामधीते स्म तदा पितृहीनो जातोऽयं शिशुः। एवं नानाबाधाबाधितोऽपि सोऽध्ययनं नात्यजत्। विपद्वायुः कदापि तस्य धैर्यं चालयितुं न शशाक। अस्मिन्नेव वर्षे तेन प्रवेशिका परीक्षा समुत्तीर्णा। इत्थमस्य जीवनं प्रारम्भादेव सङ्घर्षमयमभूत्। [2006, 12]

शब्दार्थ पुरलोकंगता = स्वर्गवास हो गया। अधीते स्म = पढ़ते थे। नानाबाधाबाधितोऽपि = अनेक प्रकार की बाधाओं से बाधित होते हुए भी। नात्यजत् = नहीं छोड़ा। विपद्-वायुः = विपत्तिरूपी वायु। चालयितुम् = चलाने के लिए, डिगाने के लिए। अस्मिन्नेव वर्षे = इसी वर्ष में।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के प्रारम्भिक जीवन के संघर्षमय होने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इनका बाल्यकाल अत्यन्त कष्ट से बीता। जब वे दस वर्ष के थे, तब उनकी माता परलोक सिधार गयी थीं। सोलह वर्ष के जब यह दसवीं कक्षा में पढ़ते थे, तब यह पिता से विहीन हो गये। इस प्रकार अनेक बाधाओं के आने पर भी उन्होंने अध्ययन नहीं छोड़ा। विपत्तिरूपी वायु कभी उनके धैर्य को नहीं डिगा सकी। इसी वर्ष उन्होंने प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण की। इस प्रकार इनका जीवन प्रारम्भ से ही संघर्षपूर्ण था।

UP Board Solutions

(4)
बाल्यकालादेवायं पठने कुशाग्रबुद्धिः स्वकक्षायाञ्च सर्वतोऽग्रणीरासीत्। संस्कृत-गणिते तस्य प्रियविषयौ आस्ताम्। छात्रावस्थायां यदाध्यापकः गणितस्य प्रश्नं पट्टिकायां लेखितुमादिशति तदा से कथयति स्म। किं पट्टिकायां लेखनेन, मुखेनैवोत्तरं वदिष्यामि। स गणितस्य कठिनप्रश्नानां (UPBoardSolutions.com) मौखिकमेवोत्तरमवदत्। परीक्षायां पूर्वं क्लिष्टप्रश्नानां समाधानमकरोत्। दशमे वर्षेऽयं शिशुः संस्कृतभाषायां नूतनश्लोकनिर्माणशक्ति प्रादर्शयत्। [2008,09,12,14]

शब्दार्थ कुशाग्रबुद्धिः = तेज बुद्धि वाला। सर्वतोऽग्रणीः = सबसे आगे। पट्टिकायां = पट्टी (स्लेट) पर। लेखितुमादिशति = लिखने के लिए आज्ञा देते थे। मुखेनैवोत्तरं = मुख से ही उत्तर। नूतनश्लोकनिर्माणशक्ति = नये श्लोकों को बनाने (रचना करने) की शक्ति प्रादर्शयत् = प्रदर्शित की।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के कुशाग्रबुद्धि होने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद बचपन से ही ये पढ़ने में तीक्ष्ण बुद्धि और अपनी कक्षा में सबसे आगे थे। संस्कृत और गणित उनके प्रिय विषय थे। छात्रावस्था में जब अध्यापक इन्हें गणित के प्रश्न पट्टी (स्लेट) पर लिखने के लिए आज्ञा देते थे, तब वे कहते थे—स्लेट पर लिखने से क्या (लाभ)? मैं मौखिक ही उत्तर बता दूंगा। वह गणित के कठिन प्रश्नों का मौखिक ही उत्तर बता देते थे। परीक्षा में वे पहले कठिन प्रश्नों को हल करते थे। दसवें वर्ष में इस बालक ने संस्कृत में नये श्लोक रचने की शक्ति प्रदर्शित कर दी थी।

(5)
महाविद्यालये प्रवेशसमये स नितरां कृशगात्र आसीत्। दुर्बलशरीरेण स्वबलं वर्धयितुं नदीतरणनौकाचालनादि विविधक्रियाकलापेन स्वगात्रं सुदृढं सम्पादितवान्। सहजैव चास्य महाप्राणताऽऽविर्बभूव। तत आजीवनं नीरोगतायाः निरन्तरमानन्दमभजत्। [2012]

शब्दार्थ नितरां = अत्यधिक कृशगात्र = दुर्बल शरीर वाले। वर्धयितुम् = बढ़ाने के लिए। नदीतरणनौकाचालनादि विविधक्रियाकलापेन = नदी में तैरने, नाव चलाने आदि अनेक क्रिया-कलापों से। महाप्राणताऽऽविर्बभूव = अत्यधिक शक्तिशालित उत्पन्न हो गयी। निरन्तरमानन्दमभजत् = लगातार आनन्द को प्राप्त किया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के व्यायाम आदि द्वारा स्वास्थ्य-लाभ करने का वर्णन किया गया है।

UP Board Solutions

अनुवाद महाविद्यालय में प्रवेश के समय वे अत्यधिक दुर्बल शरीर के थे। कमजोर शरीर से अपना बल बढ़ाने के लिए नदी में तैरना, नाव चलाना आदि अनेक प्रकार के क्रिया-कलापों से उन्होंने अपने शरीर को बलवान् बनाया। इनमें स्वाभाविक रूप से ही महान् शक्ति उत्पन्न हो गयी। तब जीवनभर नीरोगिता का निरन्तर आनन्द प्राप्त किया।

(6)
विंशतितमे वर्षे बी०ए० ततश्च वर्षत्रयानन्तरम् एल-एल०बी० इत्युभे परीक्षे सबहुमानं समुत्तीर्य , देशसेवानुरागवशाद् राजकीय सेवावृत्तिं अधिवक्तुः (वकालत) वृत्तिञ्च विहाय लोकसेवाकार्ये.. संलग्नोऽभवत्। भारतभूमेः पीडितानां भारतीयानाञ्च कृतेऽयं स्वजीवनमेव समर्पयत्। (UPBoardSolutions.com) पीडितानां करुणारवं श्रुत्वा स नग्नपादाभ्यामेवाधावत्। एतादृशा ऐव महोदया ऐश्वर्यशालिनो भवन्ति। पठनादारभ्याजीवनं स स्वधियं सर्वसत्त्वोदधृतौ निदधे। प्रिययाप्रियया वा कयापि घटनया स स्वमार्गच्युतो न बभूव। “सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता” इति तस्य आदर्शः।

शब्दार्थ उभे = दोनों। सबहुमानम् = सम्मानसहित देशसेवानुरागवशात् = देशसेवा के प्रेम के कारण। अधिवक्तुः = वकालता वृत्तिम् = आजीविका को। विहाय = छोड़कर। कृते = के लिए। करुणारवम् = करुण स्वर नग्नपादाभ्यामेवाधावत् = नंगे पैरों ही दौड़ते थे। पठनादारभ्याजीवनं = पढ़ने से लेकर जीवन भर स्वधियम् = अपनी बुद्धि को। सर्वसत्त्वोधृतौ = सब प्राणियों के उद्धार में निदधे = लगाया। प्रिययाप्रियया = प्रिय और अप्रिय से। स्वमार्गच्युतः = अपने मार्ग से च्युत होने वाले।

प्रसंग” प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के देश-प्रेम एवं मानवता की सेवा किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद बीसवें वर्ष में बी०ए० और उसके तीन वर्ष पश्चात् एल-एल० बी० ये दोनों परीक्षाएँ सम्मानसहित उत्तीर्ण करके, देशसेवा के प्रेम के कारण सरकारी नौकरी और वकालत के पेशे को छोड़कर, लोकसेवा के कार्य में संलग्न हो गये। भारत-भूमि के पीड़ित भारतीयों के लिए इन्होंने अपना जीवन ही अर्पित कर दिया। पीड़ितों के करुण स्वर को सुनकर वे नंगे पैर ही दौड़ पड़ते थे। इस प्रकार के ही महापुरुष ऐश्वर्यसम्पन्न होते हैं। पढ़ने से लेकर जीवनपर्यन्त उन्होंने अपनी बुद्धि को सभी प्राणियों के उद्धार में लगाया। प्रिय या अप्रिय किसी घटना से वे कभी अपने मार्ग से च्युत (हटे) नहीं हुए। “सम्पत्ति (सुख) में और विपत्ति (दुःख) में महापुरुष एक-से रहते हैं, यह उनका आदर्श था।

UP Board Solutions

(7)
सोऽस्मान् स्वतन्त्रतायाः पाठमपाठयत्”स्वराज्यमस्माकं जन्मसिद्धोऽधिकारः” इति घोषणामकरोत्। स्वराज्यप्राप्त्यर्थं घोरमसौ क्लेशमसहत लोकमान्यो राजनीतिकजागर्तेरुत्पादनार्थं देशभक्तैः सह मिलित्वा मराठीभाषायां ‘केसरी’ आङ्ग्लभाषायाञ्च ‘मराठा’ साप्ताहिकं पत्रद्वयं प्रकाशयामास। तेन (UPBoardSolutions.com) स्वप्रकाशितपत्रद्वयद्वारा आङ्ग्लशासनस्य सत्यालोचनं राष्ट्रियशिक्षणं वैदेशिकवस्तूनां बहिष्कारः स्वदेशीयवस्तूनामुपयोगश्च प्रचालिताः। स स्वराज्यमस्माकं जन्मसिद्धोऽधिकार इति सिद्धान्तञ्च प्रचारयामास। एतयोः साप्ताहिकपत्रयोः सम्पादने सञ्चालने चायं यानि दुःखानि सहते स्म तेषां वर्णनं सुदुष्करम्। शासनस्य तीव्रालोचनेन पुनः पुनरयं शासकैर्दण्डयते स्म। कदापि कथमपि लोभेन, भयेन, मदेन, मात्सर्येण वा सत्पक्षस्यानुसरणं नात्यजत्। एवं शासकैः कृतानि स बहूनि कष्टानि असहत।

सोऽस्मान् स्वतन्त्रतायाः …………………………………………….. प्रचारयामास। [2006]

शब्दार्थ पाठमपाठयत् = पाठ पढ़ाया। स्वराज्यमस्माकं जन्मसिद्धोऽधिकारः = स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। क्लेशम् = कष्ट| जागर्तेरुत्पादनार्थं = जागृति को उत्पन्न करने के लिए प्रकाशयामास = प्रकाशित किया| सत्यालोचनं = सच्ची आलोचना। स्वदेशीयवस्तूनामुपयोगश्च = और स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग। प्रचालिताः = प्रचलित किये गये। प्रचारयामास = प्रचार किया। सुदुष्करम् = अत्यन्त कठिन है। पुनः पुनः अयं = बार-बार ये। मात्सर्येण = ईर्ष्या के द्वारा। सत्पक्षस्य = सत्य के पक्ष का। नात्यजत् = नहीं छोड़ा।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के द्वारा स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिए किये गये कार्यों और सहे गये कष्टों का मार्मिक वर्णन है।

अनुवाद उन्होंने हमें स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया। स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ यह घोषणा की। स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए इन्होंने भयानक कष्ट सहे। लोकमान्य ने राजनीतिक जागृति उत्पन्न करने के लिए देशभक्तों के साथ मिलकर मराठी भाषा में ‘केसरी’ और अंग्रेजी भाषा में ‘मराठा’ ये दो साप्ताहिक पत्र प्रकाशित किये। उन्होंने अपने द्वारा प्रकाशित दोनों पत्रों द्वारा अंग्रेजी शासन की सच्ची आलोचना, राष्ट्रीयता की शिक्षा, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और अपने देश की वस्तुओं का उपयोग प्रचलित किया (चलाया)। उन्होंने ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ इस सिद्धान्त का प्रचार किया। इन दोनों साप्ताहिक पत्रों के सम्पादन और संचालन में उन्होंने जिन कष्टों को सहा, उनका वर्णन करना अत्यन्त कठिन है। शासन की तीव्र आलोचना से वे बार-बार शासकों के द्वारा दण्डित हुए। (उन्होंने) कभी किसी प्रकार लोभ, भय, अहंकार या ईर्ष्या से सच्चे पक्ष का अनुसरण करना नहीं छोड़ा। इस प्रकार उन्होंने शासकों के द्वारा किये गये बहुत से कष्टों को सहा।।

(8)
‘केसरी’ पत्रस्य तीक्ष्णैर्लेखैः कुपिताः शासकाः तिलकमष्टादशमासिकेन सश्रम-कारावासस्य दण्डेनादण्डयन्। अस्य दण्डस्य विरोधाय भारतवर्षे अनेकेषु स्थानेषु सभावर्षे सभा सजाता। देशस्य सम्मान्यैः पुरुषैः लोकमान्यस्य मुक्तये बहूनि प्रार्थनापत्राणि प्रेषितानि। अयं सर्वप्रयासः विफलो जातः। शासकः पुनश्च 1908 खीष्टाब्दे तिलकमहोदयं राजद्रोहस्यापराधे दण्डितं कृतवान्। षड्वर्षेभ्यः दण्डितः स द्वीपनिर्वासनदण्डं बर्मादेशस्य माण्डले कारागारे कठोरकष्टानि सोढवा न्याय्यात् पथो न विचचाल।।

शब्दार्थ तीक्ष्णैः = तीखे। अष्टादशमासिकेन = अठारह महीने के। मुक्तये = छुटकारे के लिए। प्रेषितानि = भेजे। राजद्रोहस्यापराधे = राजद्रोह के अपराध में। सोढ्वा = सहकर। न्याय्यात् पथः = न्याय के मार्ग से। न विचचाल = विचलित नहीं हुए।

UP Board Solutions

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के द्वारा स्वतन्त्रता के लिए सहे गये कष्टों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद ‘केसरी’ पत्र के तीखे लेखों से क्रुद्ध हुए शासकों ने तिलक जी को अठारह मास के सश्रम कारावास के दण्ड से दण्डित किया। इस दण्ड के विरोध के लिए भारतवर्ष में अनेक स्थानों पर सभाएँ हुईं। देश के सम्मानित लोगों ने लोकमान्य जी की मुक्ति के लिए बहुत-से (UPBoardSolutions.com) प्रार्थना-पत्र भेजे। यह सारा प्रयास विफल हो गया। शासकों ने फिर से सन् 1908 ईस्वी में तिलक जी को राजद्रोह के अपराध में दण्डित किया। छ: वर्षों के लिए दण्डित वे (भारत) द्वीप से निकालने (निर्वासन) के दण्ड को बर्मा देश की माण्डले जेल में कठोर कष्टों को सहकर भी न्याय के मार्ग से विचलित नहीं हुए।

(9)
अत्रैव निर्वासनकाले तेन विश्वप्रसिद्धं गीतारहस्यं नाम गीतायाः कर्मयोग-प्रतिपादकं नवीनं भाष्यं रचितम्। कर्मसु कौशलमेव कर्मयोगः, गीता तमेव कर्मयोगं प्रतिपादयति। अतः सर्वे जनाः कर्मयोगिनः स्युः इति तेन उपदिष्टम्। कारागारात् विमुक्तोऽयं देशवासिभिरभिनन्दितः। तदनन्तरं स ‘होमरूल’ सत्याग्रहे सम्मिलितवान्। इत्थं पुनः स देशसेवायां संलग्नोऽभूत्। ‘गीता रहस्यम्’, ‘वेदकालनिर्णयः’, ‘आर्याणां मूलवासस्थानम्’ इत्येतानि पुस्तकानि तस्याध्ययनस्य गाम्भीर्यं प्रतिपादयन्ति।

अत्रैव निर्वासनकाले …………………………………………….. अभिनन्दितः।
अत्रैव निर्वासनकाले …………………………………………….. संलग्नोऽभूत्। [2012]

शब्दार्थ निर्वासनकाले = देश-निकाले के समय में। प्रतिपादयति = सिद्ध करती है। कर्मयोगिनः = कर्मयोगी। विमुक्तोऽयं = छूटे हुए थे। गाम्भीर्यम् = गम्भीरता को। प्रतिपादयन्ति = बतलाती हैं।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कारावास के समय में तिलक जी के द्वारा रचित ग्रन्थों का वर्णन किया गया है।

UP Board Solutions

अनुवाद यहीं पर निर्वासन के समय में उन्होंने ‘गीता-रहस्य’ नाम का कर्मयोग का प्रतिपादन करने वाला गीता का नया भाष्य रचा। कर्मों में कुशलता ही कर्मयोग है। गीता उसी कर्मयोग का प्रतिपादन करती है। अत: सभी लोगों को कर्मयोगी होना चाहिए, ऐसा उन्होंने उपदेश दिया। कारागार से छूटे हुए इनका देशवासियों ने अभिनन्दन किया। इसके बाद वे ‘होमरूल’ सत्याग्रह में सम्मिलित हुए। इस प्रकार पुनः वे देशसेवा में लग गये। ‘गीता रहस्य’, ‘वेदों का काल-निर्णय’, आर्यों का मूल-निवास स्थान’-ये पुस्तकें उनके अध्ययन की गम्भीरता को बताती हैं।

(10)
देशोद्धारकाणामग्रणीः स्वराष्ट्रायानेकान् क्लेशान् सहमानः लोकमान्यः सप्तसप्तत्यधिक नवदशशततमे विक्रमाब्दे (1977) चतुष्पष्टिवर्षावस्थायामगस्तमासस्य प्रथमदिनाङ्के नश्वरं शरीरं परित्यज्य दिवमगच्छत। एवं कर्तव्यनिष्ठो निर्भयः तपस्विकल्पो महापुरुषो लोकमान्य तिलको (UPBoardSolutions.com) भारतदेशस्योद्धरणाय यदकरोत् तत्तु वृत्तं स्वर्णाक्षरलिखितं भारतस्वातन्त्र्येतिहासे सदैव प्रकाशयिष्यते। केनापि कविना सूक्तम् दानाय लक्ष्मीः सुकृताय विद्या, चिन्ता परेषां सुखवर्धनाय। परावबोधाय वचांसि यस्य, वन्द्यस्त्रिलोकी तिलकः स एव ।

शब्दार्थ देशोद्धारकाणामग्रणीः = देश का उद्धार करने वालों में प्रमुख सहमानः = सहते हुए। सप्तसप्तत्यधिकनवदशशततमे = उन्नीस सौ सतहत्तर में। परित्यज्य = छोड़कर। दिवम् = स्वर्ग को। अगच्छत् = गये। तपस्विकल्पः = तपस्वी के समान। वृत्तम् = वृत्तान्त स्वर्णाक्षरलिखितम् = सोने के अक्षरों में लिखा गया है। प्रकाशयिष्यते = प्रकाशित करेगा। सूक्तम् = ठीक कहा है। सुकृताय = पुण्य करने के लिए, उत्तम कर्मों के लिए। परावबोधाय = दूसरों के ज्ञान के लिए। वन्द्यः = नमस्कार के योग्य

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के जीवन के अन्तिम दिनों और उनके राष्ट्रीय महत्त्व का वर्णन किया गया है।

अनुवाद देश का उद्धार करने वालों में अग्रणी, अपने राष्ट्र के लिए अनेक कष्टों को सहते हुए लोकमान्य तिलक विक्रम संवत् 1977 में 64 वर्ष की अवस्था में 1 अगस्त को नश्वर शरीर को छोड़कर स्वर्ग सिधार गये। इस प्रकार कर्तव्यनिष्ठ, निडर, तपस्वी के समान महापुरुष लोकमान्य तिलक ने भारत देश के उद्धार के लिए जो किया, वह वृत्तान्त स्वर्णाक्षरों में लिखा हुआ भारत की स्वतन्त्रता के इतिहास में सदा ही चमकता रहेगा। किसी कवि ने ठीक कहा हैजिसकी लक्ष्मी दान के लिए, विद्या शुभ कार्य के लिए, चिन्ता दूसरों का सुख बढ़ाने के लिए, वचन दूसरों के ज्ञान के लिए होते हैं, वही तीनों लोकों का तिलक (श्रेष्ठ) व्यक्ति वन्दना के योग्य है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लोकमान्य तिलक के प्रारम्भिक जीवन के विषय में लिखिए।
या
तिलक के पिता का क्या नाम था? [2008]
या
तिलक का जन्म कब और कहाँ पर हुआ था? [2009]
उत्तर :
तिलक जी को जन्म विक्रम संवत् 1913 में आषाढ़ कृष्णपक्ष षष्ठी के दिन रत्नगिरि जिले के ‘चिरबल’ नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम रामचन्द्रगंगाधर राव तथा माता का नाम पार्वतीबाई था। बचपन में ही माता-पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण इनका प्रारम्भिक (UPBoardSolutions.com) जीवन बड़े कष्ट से बीता। इसके बावजूद इन्होंने अध्ययन नहीं छोड़ा। संस्कृत और गणित इनके प्रिय विषय थे। गणित के प्रश्नों को ये
मौखिक ही हल कर लिया करते थे। इन्होंने बीस वर्ष की आयु में बी०ए० और तेईस वर्ष की आयु में एल-एल०बी० की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। सरकारी नौकरी और वकालत छोड़कर इन्होंने देश-सेवा की
और पीड़ित भारतीयों के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया।

प्रश्न 2.
तिलक जी द्वारा लिखी गयी प्रमुख पुस्तकों के नाम लिखिए।
या
‘गीता-रहस्य’ किसकी रचना है? [2007,11]
या
लोकमान्य के गीता भाष्य का क्या नाम है? [2007]
उत्तर :
सन् 1908 ई० में अंग्रेजी सरकार ने तिलक जी को राजद्रोह के अपराध में छः वर्ष के लिए माण्डले जेल भेज दिया। जेल में इन्होंने ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ पर ‘गीता-रहस्य’ नाम से भाष्य लिखा। इसके अतिरिक्त इन्होंने ‘वेदों का काल-निर्णय’ और ‘आर्यों का मूल निवासस्थान’ शीर्षक पुस्तकें भी लिखीं।

UP Board Solutions

प्रश्न 3.
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में तिलक जी के योगदान को ‘लोकमान्य तिलकः’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
या
लोकमान्य तिलक के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
या
तिलक के सामाजिक कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2009]
उत्तर :
उच्च शिक्षा प्राप्त करके भी तिलक जी सरकारी नौकरी और वकालत का लोभ छोड़कर देश-सेवा के कार्य में लग गये। इन्होंने अनेक आन्दोलनों का संचालन किया तथा जेल-यात्राएँ भी कीं। तिलक जी ने भारतवासियों को स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया। “स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’, यह इनका प्रिय नारा था। राजनीतिक जागरण के लिए इन्होंने केसरी (मराठी में) और मराठा (अंग्रेजी में) दो पत्र प्रकाशित किये। इन पत्रों के द्वारा इन्होंने अंग्रेजी शासन की तीखी आलोचना करने के साथ-साथ भारतीयों को राष्ट्रीयता की शिक्षा, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने के लिए प्रेरित किया। इन्होंने भारत के उद्धार के लिए जो कार्य किये वे भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे रहेंगे।

प्रश्न 4.
तिलक का पूरा नाम व उनकी घोषणा लिखिए। [2012, 13]
उत्तर :
तिलक का पूरा नाम “लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक’ था। इनके जन्म का नाम ‘केशवराव’ था तथा इनकी प्रसिद्धि बलवन्तराव’ के नाम से थी। इनकी घोषणा थी-“स्वराज्यम् अस्माकं जन्मसिद्धः अधिकारः”, अर्थात् स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

प्रश्न 5.
‘गीतारहस्यम्’ कस्य रचना अस्ति? [2013]
उत्तर :
‘गीतारहस्यम्’ लोकमान्य-बालगङ्गाधर-तिलकस्य रचना अस्ति।। [ ध्यान दें-‘गद्य-भारती’ से संस्कृत-प्रश्न पाठ्यक्रम में निर्धारित नहीं हैं।]

प्रश्न 6.
तिलक का स्वभाव कैसा था? [2006]
या
तिलक जी के जीवन पर किनका प्रभाव था? [2008,09, 14]
उत्तर :
तिलक का स्वभाव, धीर, गम्भीर एवं निडर था। उनके जीवन पर पूर्ण रूप से वीर मराठों का प्रभाव था।

प्रश्न 7.
तिलक के किस पत्र के लेखों से कुपित अंग्रेजों ने उनको 18 मास का सश्रम कारावास दिया था? [2010]
उत्तर :
तिलक जी के ‘केसरी’ (मराठी भाषा) में प्रकाशित तीखे लेखों के कारण (UPBoardSolutions.com) अंग्रेजी सरकार ने इन्हें अठारह मास के सश्रम कारावास को दण्ड दिया था। इसके विरोध में देशभर में सभाएँ और आन्दोलन हुए।

UP Board Solutions

प्रश्न 8.
‘स्वराज्यमस्माकं जन्मसिद्धोऽधिकारः’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने यह नारा भारतीयों को जाग्रत करने के लिए दिया था। उनका मानना था कि ईश्वर ने सबको समान रूप से जन्म देकर उनके समान पोषण की व्यवस्था की है, अर्थात् ईश्वर ने सभी को समान रूप से स्वतन्त्र बनाया है। तब हमारे समान ही जन्म लेने वाले मनुष्यों को हम पर शासन करने का अधिकार कैसे हो सकता है। स्वतन्त्रता तो प्रकृति प्रदत्त अधिकार है, जिसे हमें जन्म से ही प्रकृति ने प्रदान किया है। अतः हम सबको इस अधिकार को प्रत्येक स्थिति में प्राप्त करना ही चाहिए।

Hope given UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 12 are helpful to complete your homework.
If you have any doubts, please comment below. UP Board Solutions try to provide online tutoring for you

Class 9 Sanskrit Chapter 1 UP Board Solutions माङ्गलिकम् Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 1 माङ्गलिकम् (गद्य – भारती) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 1 माङ्गलिकम् (गद्य – भारती).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 1
Chapter Name माङ्गलिकम् (गद्य – भारती)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 1 Mangalikam Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 1 हिंदी अनुवाद माङ्गलिकम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद 

आब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रेराजन्यः
शूरऽइषव्योऽति व्याधि महारथो। जायतां दोग्धी धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णुः रथेष्ठा

सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे-निकामे नः
पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम्।

UP Board Solutions

शब्दार्थ:
ब्रह्मवर्चसी = वेद-विद्या से प्रकाशित।
जायताम् = उत्पन्न हो।
राष्ट्रे = राष्ट्र में। शूरः = वीर।
इषव्यः = बाण-विद्या में कुशल।
दोग्धी = दुधारू, अधिक दूध देने वाली।
वोढा = भार ले जाने में समर्थ।
अनड्वान् = बलवान् बैल।
सप्तिः = घोड़ा।
पुरन्धिः = रूप-गुणसम्पन्न।
योषाः = स्त्रियाँ।
जिष्णुः = शत्रुओं को जीतने वाले।
रथेष्ठाः = रथ पर बैठने वाला।
सभेयः = सभा के योग्य, श्रेष्ठ नागरिक।
निकामे-निकामे = समय-समय पर।
नः = हमारे लिए।
पर्जन्यः = बादल।
फलवत्यः = उत्तम फल वाली।
पच्यन्ताम् = पकें।
योगक्षेमः = अप्राप्त को प्राप्त करना और प्राप्त की रक्षा करना।
कल्पताम् = (समर्थ) हों।।
सन्दर्भ-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य भारती’ में ‘शुक्ल यजुर्वेद’ की माध्यन्दिनी शाखा के अध्याय 22, कण्डिका 22 से संगृहीत और ‘माङ्गलिकम्’ शीर्षक पाठ से उधृत है।

UP Board Solutions 

प्रसंग:
प्रस्तुत अंश में वैदिक ऋषि देश के लिए मंगलकामना करता है।

अनुवाद
:
हे ब्रह्मन्! हमारे देश में वेद और ईश्वर को जानने वाले ब्राह्मण उत्पन्न हों। बाण-विद्या में कुशल, शत्रुओं की अत्यन्त ताड़ना करने वाले महायोद्धा, वीर क्षत्रिय उत्पन्न हों। अधिक दूध देने वाली गायें, भार को ढोने वाले बलवान् बैल, शीघ्रगामी घोड़े, रूपादि गुणसम्पन्न, भरण-पोषण करने वाली स्त्रियाँ, रथ पर (UPBoardSolutions.com) बैठने वाले विजेता, सभा में बैठने की योग्यता रखने वाले उत्तम युवक, विद्वानों का आदर करने और सुख देने वाले तथा शत्रुओं को भगाने वाले वीर उत्पन्न हों। समय-समय पर हमारे लिए बादल बरसे। हमारे लिए उत्तम फल वाली औषधियाँ पके, हमारे लिए अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति तथा प्राप्त वस्तु की रक्षा हो। .

We hope the UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 1 माङ्गलिकम् (गद्य – भारती) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 1 माङ्गलिकम् (गद्य – भारती), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

Class 9 Sanskrit Chapter 7 UP Board Solutions गणतन्त्रदिवसः Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 7 गणतन्त्रदिवसः (गद्य – भारती) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 7 गणतन्त्रदिवसः (गद्य – भारती).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 5
Chapter Name गणतन्त्रदिवसः (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 3
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 7 Ganatantra Dinotsavam Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 7 हिंदी अनुवाद गणतन्त्रदिवसः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांश

‘गणतन्त्र’ से आशय- हमारे देश में प्रतिवर्ष 26 जनवरी को गणतन्त्र महोत्सव मनाया जाता है। सन् 1950 ई० में इसी दिन हमारा देश ‘गणतन्त्र घोषित हुआ था। इसी दिन से भारतीय संविधान देश में लागू हुआ और उसके अनुसार देश का शासन चलाया जाने लगा। इसी दिन,हमें ज्ञात हुआ कि देश की प्रभुसत्ता जनता में निहित है और जनता के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। जनतन्त्र का यह सार्वभौम सिद्धान्त भी इसी दिन चरितार्थ हुआ। यही ‘गणतन्त्र’ का तात्पर्य है।

महत्त्व-26-  जनवरी का दिन राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। सन् •1930 ई० में 26 जनवरी को ही राष्ट्रीय नेताओं ने पंजाब में रावी नदी के तट पर ‘कॉग्रेस के महाधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करने की प्रतिज्ञा की थी। तब से यह दिन स्वतन्त्रता-दिवस के रूप में मनाया जाने (UPBoardSolutions.com) लगा था, किन्तु सन् 1947 ई० में भारत के स्वतन्त्र होने पर 15 अगस्त का दिन स्वतन्त्रता-दिवस के रूप में प्रसिद्ध हो गया। इससे 26 जनवरी का महत्त्व किसी तरह कम नहीं हुआ। राष्ट्रीय नेताओं ने 26 जनवरी, 1950 ई० को भारतीय संविधान लागू करके इसके महत्त्व की रक्षा की। इस प्रकार स्वतन्त्रता की पूर्णरूपेण पुष्टि इसी दिन हुई।

UP Board Solutions

मनाने का ढंग– यह महोत्सव प्रतिवर्ष सम्पूर्ण देश में अत्यधिक हर्षोल्लासपूर्वक मनाया जाता है। इस दिन भवनों पर तिरंगा झण्डा फहराया जाता है और जन-सभाएँ की जाती हैं। विद्यालयों में बालक-बालिकाएँ राष्ट्रगीत गाते हैं, कविता-पाठ और भाषण प्रतियोगिताएँ होती हैं। छोटे-छोटे बच्चे झण्डियाँ लेकर सड़कों पर राष्ट्रगीत गाते हुए और मातृभूमि की जय बोलते हुए प्रभात-फेरियाँ निकालते हैं। इसे देखकर राष्ट्र के लिए आत्म-समर्पण करने वाले राष्ट्र-प्रेमियों की याद तरोताजा हो जाती है।

दिल्ली में मनाने का ढंग- यद्यपि यह महोत्सव प्रत्येक गाँव में, प्रत्येक नगर में, विद्यालय में और कार्यालय में मनाया जाता है, फिर भी मुख्य उत्सव देश की राजधानी दिल्ली में लालकिले के मैदान में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन दिल्ली नववधू के समान सजायी जाती है।

निश्चित समय पर राष्ट्रपति सुसज्जित बग्घी में चढ़कर आते हैं। उनके अंगरक्षक विशिष्ट वेशभूषा में उनके आगे-आगे चलते हैं। राष्ट्रपति लालकिले की प्राचीर पर राष्ट्रीय (UPBoardSolutions.com) ध्वज फहराते हैं और उपस्थित नर-नारी जयघोष करते हुए हर्ष व्यक्त करते हैं। पंक्ति बनाये बालक-बालिकाएँ राष्ट्रपति का अभिवादन करते हैं। इसके बाद स्थल सेना, जल सेना और नभ सेना के जवान अभिनन्दन करते हैं।

इस अवसर पर आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों और सामरिक वाहनों का प्रदर्शन किया जाता है। आंकाश में उड़ते हुए वायुयान क्षणभर में कभी तिरछे होकर, कभी ऊपर, कभी नीचे आकर अपना उड्डयन-कौशल दिखाते हैं और पुष्प वर्षा करके राष्ट्र का अभिनन्दन करते हैं। | यह उत्सव किसी धर्म, जाति अथवा सम्प्रदाय का नहीं है। यह सम्पूर्ण राष्ट्र की प्रगति के लिए किये गये त्याग और बलिदान का स्मारक है। यह हमें परस्पर प्रेम, सहिष्णुता और सर्वप्रथम समभाव से रहने की प्रेरणा देता है।

राष्ट्रीयता का पोषक-यह महोत्सव हममें राष्ट्रीय भावना जाग्रत करता है। भूमि, जन और संस्कृति–राष्ट्र के इन तीन तत्त्वों का तादात्म्य ही राष्ट्रीयता है। भारतभूमि पर जन्म लेकर उसके अन्न और वायु से हम जीवित रहते हैं। वह हमारी माता के समान पालन-पोषण करती है; अंतः भारतभूमि (UPBoardSolutions.com) हमारी माता और हम उसके पुत्र हैं। भारतभूमि के हम सब निवासी आपस में भाई हैं। वर्ण, जाति, भाषा, धर्म आदि स्थान का भेद होते हुए भी हम भारतमाता के ही पुत्र हैं; अतः हम सभी को मातृभूमि की सेवा में तत्पर होना चाहिए-गणतन्त्र दिवस हमें इसी की याद दिलाता है।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) प्रतिवर्ष जनवरीमासस्य षड्विंशे दिनाङ्केऽस्माकं देशे गणतन्त्रोत्सवः आयोजितो भवति। एतस्मिन्नेव दिनाङ्के पञ्चाशदुत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे (1950) देशोऽयमस्माकं गणतन्त्रो जातः। अस्मिन्नैव दिनाङ्केऽस्माभिर्निर्मितं संविधानं व्यवहारे आगतम्। एतस्माद्दिनादेवास्य देशस्य शासनं स्वनिर्मितेन विधानेन सञ्चाल्यमानमभूत्। राष्ट्रस्य प्रभुत्वशक्तिः जनेषु निहितेति संविधान प्रतिपादितः सिद्धान्तः तद्दिन एव प्रतिफलितः। जननिर्वाचिताः प्रतिनिधयो जनताम्प्रत्येवोत्तरदायिन इति जनतन्त्रस्य सार्वभौमः सिद्धान्तः तद्दिन एवं चरितार्थो जातः। अयमेव गणतन्त्रस्याशयोऽस्ति।

शाब्दार्थ-
षड्विंशे दिनाङ्के = छब्बीसवें दिन।
आयोजितो भवति = मनाया जाता है।
जातः = बना।
व्यवहारे आगतम् = व्यवहार में आया।
सञ्चाल्यमानम् = संचालित होने वाला।
प्रभुत्वशक्तिः = प्रभुसत्ता की शक्ति।
निहिता = स्थित है।
प्रतिपादितः = स्वीकार किया, विवेचित किया।
प्रतिफलितः = कार्यान्वित किया।
निर्वाचिताः = चुने गये।
उत्तरदायिनः = उत्तरदायी।
सार्वभौमः = सारे संसार का।
चरितार्थः = सफल।
आशयः अस्ति = अभिप्राय है।

सन्दर्थ
प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘गणतन्त्रदिवसः’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

संकेत
इस पाठ के शेष गद्यांशों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गणतन्त्र का आशय स्पष्ट किया गया है।

अनुवाद
प्रतिवर्ष जनवरी महीने की 26 तारीख को हमारे देश में गणतन्त्र का उत्सव मनाया जाता है। सन् 1950 ईसवी में इसी दिन हमारा यह देश गणतन्त्र हुआ था। इसी तारीख को हमारे द्वारा बनाया गया संविधान व्यवहार में आया था। इसी दिन से इस देश का शासन अपने द्वारा निर्मित कानून से चलाया गया। (UPBoardSolutions.com) राष्ट्र की प्रभुत्वशक्ति जनता में निहित है, यह संविधान के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त रस दिन ही प्रतिफलित हुआ था। जनता के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि जनता के प्रति ही उत्तरदायी होते हैं। जनतन्त्र का यह सार्वभौम सिद्धान्त उसी दिन चरितार्थ (लागू) हुआ था। यही गणतन्त्र का आशय है।

UP Board Solutions

(2) जनवरीमासस्य षड्विंशदिनाङ्के भारतस्य राष्ट्रियान्दोलनस्यैतिहासिको दिवसो वर्तते। त्रिंशदुत्तरैकोनविंशतिशततमेऽस्मिन्नेव दिनाङ्के श्रीजवाहरलालनेहरूमहोदयस्य नेतृत्वे पञ्चनदप्रदेशे रावीनद्यस्तटे सम्पन्ने भारतीयराष्ट्रियकॉङ्ग्रेसमहाधिवेशने पूर्णस्वराज्यस्य सङ्कल्पो गृहीतोऽस्मन्नेतृवर्गौः। तत आरभ्य प्रतिवर्षमेष दिवसः स्वतन्त्रतादिवस इति नाम्ना समग्रे देशे समायोजितो भवति। सप्तचत्वारिंशदुत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे अगस्तमासस्य पञ्चदशदिनाङ्के भारतं स्वातन्त्र्यमलभत्। (UPBoardSolutions.com) अतोऽगस्तमासस्य पञ्चदशदिनाङ्के एव स्वतन्त्रतादिवसरूपेण ख्यातोऽभूत्। जनवरीमासस्य षड्विंशदिनाङ्कस्य महिमा न हीयेत इति राष्ट्रियनेतार नेतृभिः एतस्मिन् दिनाङ्के स्वनिर्मितं संविधानं प्रयुज्य तस्य महत्त्वं संरक्षितं किञ्च ततोऽप्यधिकं महत्त्वं तस्मै तैः प्रदत्तम्।

शब्दार्थ-
आन्दोलनस्य = आन्दोलन का।
ऐतिहासिको दिवसो = इतिहास से सम्बद्ध महत्त्व वाला दिन।
पञ्चनदप्रदेशे = पंजाब प्रदेश में सम्पन्ने = पूर्ण हुए।
सङ्कल्पः = निश्चित प्रतिज्ञा।
समायोजितो भवति = मनाया जाता है।
अलभत्= प्राप्त किया।
ख्यातः = प्रसिद्ध।
हीयते = कम होती है।
प्रयुज्य = प्रयोग करके, लागू करके।
प्रदत्तं = प्रदान किया गया।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में बताया गया है कि 26 जनवरी के महत्त्व को बनाये रखने के लिए इस दिन स्वनिर्मित संविधान को लागू किया गया।

अनुवाद
जनवरी महीने की 26 तारीख भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का ऐतिहासिक दिन (तारीख) है। सन् 1930 ई० में इसी तारीख को श्री जवाहरलाल नेहरू महोदय के नेतृत्व में पंजाब में रावी नदी के किनारे पर हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महाधिवेशन में हमारे नेताओं ने पूर्ण स्वराज्य की प्रतिज्ञा की थी। तब से लेकर प्रतिवर्ष यह दिन स्वतन्त्रता दिवस (के), इस नाम से सारे देश में मनाया जाता रहा। सन् 1947 ईसवी में (UPBoardSolutions.com) अगस्त महीने की 15 तारीख को भारत ने स्वतन्त्रता प्राप्त की थी; अतः अगस्त महीने की 15 तारीख ही स्वतन्त्रता दिवस के रूप में प्रसिद्ध हुई। जनवरी महीने की 26 तारीख की महिमा कम न हो जाये, इसलिए राष्ट्रीय नेताओं ने इस तिथि को अपने द्वारा निर्मित संविधान को प्रयोग कर (लागू करके) उसके महत्त्व की उन्होंने रक्षा की और क्या, उन्होंने उसे (26 जनवरी को) उससे (15 अगस्त से) अधिक महत्त्व प्रदान किया।

(3) महोत्सवोऽयं महोल्लासेन समग्रे च देशे जनैः प्रतिवर्षमायोज्यते। पूर्वाह्नत्रिवर्णोऽस्माकं राष्ट्रध्वजो भवनेषु समुच्छुितो भवति, जनसभाश्च विधीयन्ते। तासु सभासु राष्ट्रं प्रति कर्त्तव्यं बोधयन्ति विशिष्टाः जनाः नेतारो विद्वांसश्च। विद्यालयेषु बालकाः बालिकाश्चानेकराष्ट्रियकार्यक्रमान् सोत्साहं सोल्लासं च सम्पादयन्ति, राष्ट्रियगीतानि गायन्ति, कवितापाठं कुर्वन्ति, भाषणप्रतियोगितासु सम्मिलिताः भवन्ति। प्रातः शिशुच्छात्राः (UPBoardSolutions.com) स्वप्रमाणानुरूपान् लघुलघून, ध्वजान् गृहीत्वा पङक्तिबद्धाः सन्तः वीथीषु राष्ट्रगीतं गायन्तः मातृभूमेः जयघोष कुर्वन्तः जनानुबोधयन्तः परिभ्रमन्ति। अदभुतं मनोहरं दृश्यमिदं जनमानसं बलादाकर्षदिवे राष्ट्रभावान् हदि-हृदि सञ्चारयत् स्मारयति तान् युवकान् महापुरुषान् यैः स्वतन्त्रतामाप्तुं, स्वातन्त्र्यान्दोलनाग्नौ स्वसुखं स्ववैभवं स्वप्राणा अपि सानन्दं सर्वं हुतम्।

शब्दार्थ-
महोल्लासेन (महा + उल्लासेन) = अत्यधिक प्रसन्नता से।
आयोज्यते = मनाया जाता है।
पूर्वाह्न = दिन के पूर्वभाग में।
समृच्छुितो भवति = फहराया जाता है।
विधीयन्ते = की जाती हैं।
बोधयन्ति = बताते हैं।
स्वप्रमाणानुरूपान् = अपने प्रमाण के अनुरूप।
लघु-लघून् = छोटे-छोटों को।
वीथीषु = गलियों में परिभ्रमन्ति = घूमते हैं।
बलादाकर्षदिव = बलपूर्वक आकर्षित करता हुआ।
हृदि-हृदि = प्रत्येक हृदय में।
स्मारयति = याद दिलाता है।
आप्तुम् = पाने के लिए।
आन्दोलनाग्नौ = आन्दोलन रूपी अग्नि में।
हुतम् = उत्सर्ग कर दिया।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में सम्पूर्ण देश में गणतन्त्र दिवस मनाये जाने की विधि का वर्णन किया। गया है।

अनुवाद
यह महान् उत्सव लोगों के द्वारा अत्यधिक उत्साह से सारे देश में प्रतिवर्ष मनाया जाता है। सवेरे के समय हमारा तिरंगा झण्डा भवनों पर फहराया जाता है और जन-सभाएँ की जाती हैं। उन सभाओं में विशेष लोग, नेता और विद्वान राष्ट्र के प्रति कर्तव्य समझाते हैं। विद्यालयों में बालक और बालिकाएँ अनेक राष्ट्रीय कार्यक्रमों को उत्साह और प्रसन्नता से सम्पन्न करते हैं। वे राष्ट्रीय गीत गाते हैं, कविता पाठ करते हैं, भाषण-प्रतियोगिताओं में सम्मिलित होते हैं। सवेरे के समय छोटे बच्चे अपने (शरीर के) परिमाण के अनुसार छोटे-छोटे ध्वजों (UPBoardSolutions.com) को लेकर पंक्ति बनाकर रास्तों में राष्ट्रगीत गाते हुए, मातृभूमि की जय बोलते हुए लोगों को जाग्रत करते हुए घूमते हैं। यह अद्भुत मनोहर दृश्य लोगों के मनों को बलपूर्वक खींचता हुआ, हृदय-हृदय में राष्ट्रीय भावों का संचार करता हुआ, उन युवक महापुरुषों की याद दिलाता है, जिन्होंने स्वतन्त्रता को प्राप्त करने के लिए स्वतन्त्रता के आन्दोलन की आग में अपने समस्त सुख, वैभव और प्राणों को भी आनन्दपूर्वक होम कर दिया था।

(4) यद्यपि महोत्सवोऽयं ग्रामे-ग्रामे, नगरे-नगरे प्रतिविद्यालयं प्रतिकार्यालयं सर्वत्र समायोजिता भवति, तथापि मुख्योत्सवो देशस्य राजधान्यां दिल्लीनगरे स्थितस्य प्रख्यातस्य ‘लालकिलाख्यस्य’ महादुर्गस्य विशाले प्राङ्गणे महता समारम्भेण सम्पन्नो भवति। अमुं महोत्सव द्रष्टुं देशस्य सुदूराञ्चलेभ्यो जनास्तत्र समुपयान्ति। वैदेशिकाः तत्रोपस्थितास्तन्महोत्सवस्य भव्यं रूपमवलोक्य चकितास्तिष्ठन्ति। दिल्लीनगरी तद्दिने नवोढयुवतिरिव सज्जिताऽलङ्कृता च सुशोभते।।

शब्दार्थ-
प्रख्यातस्य = विख्यात।
समारम्भेण = तैयारी के साथ।
समुपयान्ति = आते हैं।
नवोढयुवतिरिव = नव-विवाहिता वधू के समान।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में दिल्ली नगर में गणतन्त्र दिवस का उत्सव मनाये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
यद्यपि यह महोत्सव गाँव-गाँव में, नगर-नगर में, प्रत्येक विद्यालय में, प्रत्येक कार्यालय में सभी जगह मनाया जाता है तो भी मुख्य उत्सवं देश की राजधानी दिल्ली नगरी में स्थित प्रसिद्ध ‘लालकिला’ नाम के बड़े किले के विशाल प्रांगण में बड़ी तैयारी के साथ सम्पन्न होता है। इस महोत्सव को देखने के लिए देश के दूर के स्थानों से लोग वहाँ आते हैं। वहाँ आये हुए विदेशी भी उस महोत्सव के भव्य रूप को देखकर चकित रह जाते हैं। दिल्ली नगरी उस दिन नव-विवाहिता वधू के समान सुसज्जित, अलंकृत और सुशोभित होती है।

UP Board Solutions

(5) सुनिश्चित कालेऽस्माकं राष्ट्रपतिः विभूषितमश्वयानमारुह्य महोत्सवस्थलं प्रयाति। अश्वारोहास्तस्याङ्गरक्षकाः प्रभावोत्पादकाः विशिष्टभूषाभूषिताः राष्ट्रपतेरश्वयानस्य पुरतोऽग्रेसरन्ति। राष्ट्रपतिः दुर्गप्राचीरं प्राप्तय राष्ट्रप्रतीकभूतं राष्ट्रध्वजं तत्र समुच्छ्यति। तां भव्य दिव्यां शोभां दर्श-दर्श (UPBoardSolutions.com) तत्र समवेताः नराः नार्यः बालाः वृद्धाश्च जयघोषं कुर्वन्तः स्वहृदयहर्ष व्यञ्जयन्ति। बालकाः बालिकाश्च पङ्क्तिबद्धाः पुरस्सरन्तः राष्ट्रपतये आनतिमर्पयन्ति। ततोऽस्माकं स्थल-सैनिकाः जनसैनिकाः नभस्सैनिकाश्च तं नमन्तोऽग्रेसरन्ति।

शब्दार्थ-
विभूषितम् अश्वयानम् आरुह्य = सजी हुई बग्घी पर चढ़कर।
प्रयाति = जाते हैं।
पुरतोओसरन्ति (पुरतः + अग्रेसरन्ति) = आगे बढ़ते हैं।
दुर्गप्राचीरं प्राप्य = किले की चहारदीवारी पर पहुँचकर समुच्छ्य ति = फहराता है।
समवेताः = इकड़े हुए।
व्यञ्जयन्ति = प्रकट करते हैं।
पुरस्सरन्तः = आगे बढ़ते हुए।
आनतिम् = नमस्कार।
नमन्तोऽग्रेसरन्ति = झुकते हुए आगे बढ़ते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में देश की राजधानी दिल्ली में गणतन्त्र दिवस मनाये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
निश्चित समय पर हमारे राष्ट्रपति सजी हुई बग्घी पर चढ़कर महोत्सव के स्थान पर जाते हैं। उनके घुड़सवार अंगरक्षक प्रभाव डालने वाली विशेष वर्दी पहने हुए राष्ट्रपति की बग्घी के सामने आगे चलते हैं। राष्ट्रपति दुर्ग की प्राचीर पर पहुँचकर वहाँ राष्ट्र के प्रतीकस्वरूप राष्ट्रध्वज को फहराते हैं। उस भव्य, दिव्य शोभा को देख-देखकर वहाँ एकत्रित हुए स्त्री-पुरुष, बालक और वृद्ध जय बोलते हुए अपने हृदय के हर्ष को (UPBoardSolutions.com) व्यक्त करते हैं। बालक और बालिकाएँ पंक्ति बनाकर आगे चलते हुए राष्ट्रपति को अभिवादन करते हैं। इसके बाद हमारे स्थल सैनिक, जल सैनिक और नभ सैनिक उन्हें नमस्कार करते हुए आगे चलते हैं।

(6) अस्मिन्नवसरे विशालानां विलक्षणानाञ्चात्याधुनिकास्त्रशस्त्राणां युद्धायुधानां सामरिकवाहनानाञ्च राष्ट्रपतेः पुरतः प्रदर्शनं क्रियते। आयुधयानानि यदा मन्थरंगत्या राष्ट्रपतिसमक्षमायान्ति तदानीमेव ध्वनितोऽप्यधिकवेगेन गगने क्षणमूर्ध्वं क्षणमधः क्षणं तिर्यग् उड्डीयमानानि वायुयानानि चेतश्चमत्कारकं स्वक्रियाकौशलं प्रदर्शयन्ति पुष्पवर्षाभिः राष्ट्रमभिनन्दन्ति देशरक्षाविधौ स्वसामर्थ्यञ्च साधु प्रकटयन्ति।

शब्दार्थ-
युद्धायुधानाम् = युद्ध के शस्त्रों का।
सामरिकवाहनानाम् = युद्ध के सामान को ढोने वाले।
पुरतः = सामने।
मन्थरगत्या = धीमी चाल से।
आयान्ति = आते हैं।
ऊर्ध्वम् = ऊपर।
तिर्यग् = तिरछे।
उड्डीयमानानि = उड़ते हुए।
चेतः चमत्कारकं = मन को चमत्कृत करने वाले।
साधु = अच्छी तरह।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में दिल्ली नगर में आयोजित गणतन्त्र समारोह का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
इसी अवसर पर विशाल और विलक्षण आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों का, युद्ध के आयुधों का और युद्ववाहनों का राष्ट्रपति के सामने प्रदर्शन किया जाता है। युद्धवाहने जब धीमी गति से राष्ट्रपति के सामने आते हैं, तभी ध्वनि से भी अधिक गति से आकाश में क्षणभर ऊपर, क्षणभर नीचे और (UPBoardSolutions.com) क्षणभर तिरछे उड़ते हुए वायुयान हृदय को चमत्कृत करने वाले अपने कौशल को दिखाते हैं, पुष्प-वर्षा से राष्ट्र का सम्मान करते हैं और देश की रक्षा-विधि में अपनी क्षमता को अच्छी तरह प्रकट करते हैं।

(7) महोत्सवोऽयं न कस्यचिद्धर्मस्य सम्प्रदायस्य वर्णस्य जातेर्वाऽस्ति। समग्रस्य राष्ट्रस्य रक्षायै राष्ट्रस्य संवर्धनाय च विहितस्य त्यागस्य बलिदानस्य संस्मारकोऽयमस्माकं राष्ट्रियोत्सवः प्रतिवर्ष परस्परं प्रेम्णां सहिष्णुतया सर्वधर्मसमभावतया स्थातुमस्मान् प्रेरयति।

शब्दार्थ
संवर्धनाय = बढ़ाने के लिए।
विहितस्य = किये गये।
संस्मारकः = स्मारक।
प्रेरयति = प्रेरित करती है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गणतन्त्र दिवस के उत्सव से मिलने वाली प्रेरणा का वर्णन किया गया हैं।

अनुवाद
यह महोत्सव किसी धर्म, सम्प्रदाय, वर्ण या जाति का नहीं है। सारे राष्ट्र की रक्षा के : लिए और राष्ट्र की प्रगति के लिए किये गये त्याग और बलिदान की याद कराने वाला हमारा यह राष्ट्रीय उत्सव प्रतिवर्ष आपस में प्रेम, सहिष्णुता और सर्वधर्म समभाव से रहने के लिए हमें प्रेरणा देता है।

UP Board Solutions

(8) राष्ट्रियमहोत्सवोऽयं राष्ट्रभावमस्मासु जागरयति। राष्ट्रभावो राष्ट्रं प्रति जनानां तादात्म्यभावः। भूमिः जनाः संस्कृतिरिति त्रयाणां समुच्चय एव राष्ट्रम्। राष्ट्रस्यैतानि त्रीणि तत्त्वानीत्यपि वक्तुं शक्यते। भारतभूमिः भारतीयजनाः भारतीयसंस्कृतिरितित्रयाणां तादात्म्यमेव भारतराष्ट्रमिति संज्ञेयम्। भारतभूमौ वयं जन्म लब्ध्वा निवसामः तदन्नेन, तज्जलेन, तद्वायुना च जीवामः विविधभोगोपयुक्तवस्तूनि सो (UPBoardSolutions.com) अस्मभ्यं प्रयच्छन्ती मातृवदस्मान् पालयति पुष्णाति वर्धयति च। अतएव सा भूमिः मातृभूमिरित्युच्यते। ‘माताभूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ इति श्रुतिर्वदति। मातृभूमिं प्रति समादरं प्रदर्शयन् श्रीरामोऽपि ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ इत्यवोचत्। मातुः मातृभूमेश्च महिमा केनं न स्वीक्रियते? |

शब्दार्थ-
जागरयति = जगाता है।
समुच्चय = समूह।
वक्तुं शक्यते = कहा जा सकता है।
तादात्म्यम् एव = मिश्रित रूप ही।
संज्ञेयम् = जानना चाहिए।
लब्ध्वा = पाकर। जीवायः = जीते हैं।
अस्मभ्यम् = हम सबके लिए।
प्रयच्छन्ती = देती हुई।
मातृवत् अस्मान् = माता के समान हमको।
पुष्णाति = पुष्ट करती है।
श्रुतिः वदति = वेद कहता है।
स्वर्गादपि = स्वर्ग से भी।
गरीयसी = अधिक श्रेष्ठ है।
स्वीक्रियता = स्वीकार करता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश मे राष्ट्र के तत्त्व बताये गये हैं और जन-समुदाय को पृथ्वी का पुत्र बताया। गया है।

अनुवाद
यह राष्ट्रीय महोत्सव हममें राष्ट्रभावना जाग्रत करता है। लोगों का राष्ट्र के प्रति अपनापन ही राष्ट्रभावना है। भूमि, जन् और संस्कृति इन तीनों का समूह ही राष्ट्र है। ये राष्ट्र के तीन तत्त्व हैं, ऐसा कहा जाता सकता है। भारतभूमि, भारत के लोग और भारत की संस्कृति इन तीनों का मिश्रित रूप ही भारत राष्ट्र है, ऐसी जानना चाहिए। हम भारतभूमि पर जन्म लेकर रहते हैं, उसके अन्न से, उसके जल से और उसकी वायु से जीवित रहते हैं। अनेक प्रकार की भोग के योग्य वस्तुओं को वह .

हमें प्रदान करती हुई हमारा पालन करती है, पोषण करती है और बड़ा करती है। इसलिए उस भूमि को ‘मातृभूमि’ ऐसा कहा जाता है। ‘माता भूमि है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ’, ऐसा वेद कहते हैं। मातृभूमि के प्रति आदर दिखाते हुए श्रीराम ने भी ‘माता और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान् है’, ऐसा कहा था। माता। और मातृभूमि की महिमा को कौन स्वीकार नहीं करता है?

(9) मातृभूमौ जनाः निवसन्ति। सर्वे जना एकमातुः सन्ततयोऽतस्ते मिथो भ्रातरः सन्ति। एकमातृजेषु भ्रातृषु सहजः स्नेहो भवति। तेषु भवतु नाम वर्णभेद, भाषाभेदः, धर्मभेदः, क्षेत्रभेदो वापरं सर्वे ते भारतभूतनया एव। पुष्पोद्याने प्रस्फुटितानि विविधवणकारभूतानि यथा स्ववैविध्येनोद्यानस्य सुषमामेव वर्धयन्ति तथैवेते बाह्यभेदाः अस्माकं मातृभूमेः दिव्यस्वरूपं व्यञ्जयन्ति। यथा सर्वेषु वर्णाकारस्वरूपभेदेषु सत्सु भूमेः (UPBoardSolutions.com) प्राप्त एक एव रसः प्रवहति, तस्मिन् से न कश्चिद्भेदः तथैव सर्वेषु जनेषु बाह्यभेदेषु सत्सु भारतीय संस्कृतिः रसरूपेण प्रवहति। स एव । संस्कृतिरसोऽस्मान् मिथः एकसूत्रे प्रतिबध्नाति। अतः सर्वे वयं भारतीयाः भारतपुत्राः पुत्र्यश्च सततं स्वमातृसेवापरा भवेम इति गणतन्त्रमहोत्सवः प्रतिवर्षमस्मान् स्मारयति।

शब्दार्थ
सन्ततयः = सन्तान।
मिथः = आपस में।
एकमातृजातेषु = एक माता से जन्म लेने वालों में।
सहजः = स्वाभाविक।
भवतु नाम = भले ही हो।
वापरं (वा + अपरं) = अथवा अन्य।
भारतभूतनयाः = भारतभूमि में उत्पन्न हुए पुत्र।
प्रस्फुटितानि = खिले हुए।
स्ववैविध्येन = अपनी विविधता से।
उद्यानस्य = बगीचे की।
सुषमाम् = सुषमा को।
तथैवेते (तथा + एव + एते) = उसी प्रकार ये।
बाह्यभेदाः = बाहरी भेद।
व्यञ्जयन्ति = प्रकट करते हैं।
एकसूत्रे = एक सूत्र में।
प्रतिबध्नाति = बाँधती है।
संततम् = सदा, लगातार।
स्मारयति = याद दिलाता है। |

प्रसंग
भारत में रहने वाले लोगों में अनेक विविधताएँ होते हुए भी सभी एक हैं। हम सभी मातृभूमि के पुत्र हैं; अतः हमें मातृभूमि की सेवा करनी चाहिए। प्रस्तुत गद्यांश में यही बताया गया है।

अनुवाद
मातृभूमि पर लोग रहते हैं। सब लोग एक ही माता की सन्तान हैं; अतः वे आपस में भाई हैं। एक माता से उत्पन्न हुए भाइयों में स्वाभाविक स्नेह होता है। उनमें भले ही वर्णभेद, भाषाभेद, धर्मभेद अथवा स्थान भेद हो, परन्तु वे सब भारतभूमि के पुत्र ही हैं। पुष्पों के उद्यान में खिले हुए अनेक रंगों और आकारों के होते हुए भी पुष्प अपनी विविधता से उद्यान की शोभा ही बढ़ाते हैं, उसी प्रकार (हमारे) बाहरी भेदभाव हमारी मातृभूमि के दिव्य (सुन्दर) स्वरूप को प्रकट करते हैं। जिस प्रकार रंग, आकार, स्वरूप का भेद होते हुए भी सभी (वनस्पतियों) (UPBoardSolutions.com) में भूमि से प्राप्त एक ही रस बहता है, उसमें (रस में) कोई भी अन्तर नहीं (होता), वैसे ही बाहरी भेदभाव होते हुए भी सभी (भारतीय) लोगों में भारतीय संस्कृति रस रूप में बहती है। वही संस्कृति रस हमें आपस में एक सूत्र में बाँधती है; अत: हम सभी. भारत के रहने वाले भारत के पुत्र और पुत्रियाँ निरन्तर अपनी माता की सेवा में लगे रहें। .. । गणतन्त्र महोत्सव प्रतिवर्ष हमें इसकी याद दिलाता है।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
गणतन्त्र दिवस के महत्त्व पर एक निबन्ध लिखिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत दी गयी सामग्री को ध्यानपूर्वक पढ़कर अपने शब्दों में लिखिए।]

UP Board Solutions

प्ररन 2
गणतन्त्र दिवस का आशय स्पष्ट करते हुए इसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत ‘गणतन्त्र से आशय’ और ‘महत्त्व शीर्षकों की सामग्री को पढ़िए और अपने शब्दों में लिखिए।]

प्ररन 3
गणतन्त्र दिवस को लाल किले पर क्या कार्यक्रम होता है और राष्ट्रपति को किस प्रकार सलामी दी जाती है।
उत्तर
गणतन्त्र दिवस के दिन राष्ट्रपति निश्चित समय पर बग्घी में चढ़कर आते हैं और लाल किले की प्राचीन पर राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं। उपस्थित स्त्री-पुरुष जयघोष करते हुए हर्ष व्यक्त करते हैं। पंक्तिबद्ध बालक-बालिकाएँ राष्ट्रपति का अभिवादन करते हैं। इसके पश्चात् तीनों सेनाओं (जल, थल और नभ) के जवान राष्ट्रपति का अभिवादन करते हैं।

We hope the UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 7 गणतन्त्रदिवसः (गद्य – भारती)help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 7 गणतन्त्रदिवसः (गद्य – भारती), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.