Class 10 Sanskrit Chapter 15 UP Board Solutions गजेन्द्रमोक्षः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 15 Gajendramoksha Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 15 हिंदी अनुवाद गजेन्द्रमोक्षः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

पुराणों में भगवान् विष्णु को सर्वत्र भक्तवत्सल के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इनकी भक्तवत्सलता की अनेक कथाएँ भारतीय जनमानस में प्रचलित हैं। इन्हीं में से एक कथा गजेन्द्र मोक्ष के नाम से भी प्रसिद्ध है। कथा के अनुसार, किसी हाथी को अपने बल का अत्यधिक घमण्ड था। वह हाथियों का राजा भी था। एक बार वह एक सरोवर पर जल पीने गया। वहाँ वह अपने साथी हाथियों और हथिनियों के साथ जल-क्रीड़ा करने लगा। अपने बल के प्रति गर्वित (UPBoardSolutions.com) और जल-क्रीड़ा में मग्न उस हाथी को किसी का भय नहीं था। सहसा एक मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। हाथी मगर को जल से बाहर खींच रहा था और मगर उसे जल के भीतर। हाथी जब लड़ते-लड़ते थक गया तब उसने भगवान् विष्णु को रक्षा के लिए पुकारा। भगवान् विष्णु ने हाथी को मगर से छुड़ा दिया। प्रस्तुत पाठ भगवान् विष्णु की भक्त-वत्सलता के साथ-साथ भक्त की निरभिमानता की पुष्टि भी करता है।

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पाठ-सारांश [2005,06,08,09,14]

वरुण के उद्यान का वर्णन प्रसिद्ध त्रिकूट पर्वत पर देवांगनाओं की क्रीड़ास्थली के रूप में भगवान् वरुण का ऋतुमत् नाम का उद्यान था। इस उद्यान में सुन्दर फल और पुष्पों वाले पारिजात, अशोक, आम, कचनार, अर्जुन, चन्दन आदि के वृक्ष लगे हुए थे।

सरोक्र का वर्णन उस उद्यान में अनेक कमल-पुष्पों से शोभित; हंस, सारस आदि के स्वर से गुञ्जित; कदम्ब, कुन्द, शिरीष आदि के पुष्पों; मल्लिका, माधवी आदि सुगन्धित लताओं से शोभित, सुन्दर ध्वनि वाले पक्षियों से घिरा हुआ, मगर कछुआ आदि जलचरों से युक्त एक सरोवर था।।

गजेन्द्र का वर्णन उस गिरिकानन में हथिनियों के साथ घूमता हुआ एक महागज कीचक (बाँस), वेणु और बेंत के झुरमुटों को तोड़ता रहता था। उसकी गन्धमात्र से सिंह, बाघ, शूकर, गैंडे, भेड़िये आदि भयानक और हिंसक जानवर भी डरकर भाग जाते थे। उसकी कृपा से हिरन, खरगोश आदि छोटे पशु निर्भय होकर विचरण करते थे। एक दिन धूप से सन्तप्त होकर वह हाथियों और हथिनियों के साथ, गजशावकों से अनुधावित; अर्थात् आगे चलता हुआ, भ्रमरों (UPBoardSolutions.com) से सेवित और अपनी गरिमा से पर्वत को हिलाता हुआ उस सरोवर के पास गया। वह उस सरोवर में डुबकी लगाकर, स्वच्छ पानी पीकर और स्नान करके थकावटरहित हो गया।

ग्राह से युद्ध अपनी सँड़ से पानी उठाकर हथिनियों और गज-शावकों को जल पिलाकर और स्नान कराकर जल-क्रीड़ा करते हुए उस महागज को एक बलवान् ग्राह ने क्रोध से पकड़ लिया और उसे बलपूर्वक बड़े वेग से खींचा। इस संकट से उसे दूसरे हाथी भी नहीं बचा सके। इस प्रकार मगर और हाथी में परस्पर बहुत वर्षों तक युद्ध चलता रहा। बहुत समय तक युद्ध करते हुए हाथी का मनोबल और शारीरिक बल क्षीण होता गया जब कि ग्राह का इससे विपरीत ही हुआ अर्थात् उसको आत्मबल और शारीरिक बल बढ़ता ही गया।

विष्णु द्वारा मुक्ति जब गजेन्द्र ग्रह की जकड़ से छूटने में असमर्थ हो गया और उसके प्राण संकट में पड़ गये तो उसने शरणागतों के रक्षक भगवान् विष्णु की स्तुति की। गजेन्द्र की करुण विनती सुनकर विष्णु स्वयं गरुड़ पर सवार होकर देवताओं के साथ उसके पास आये। गजेन्द्र को पीड़ित देखकर उन्होंने उसे ग्राहसहित तालाब से उठा लिया और देखते-ही-देखते अर्थात् अत्यधिक शीघ्र गजेन्द्र को ग्राह के मुख से छुड़ा दिया।
गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

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(1)
विश्रुते त्रिकूटगिरिवरे सुरयोषितामाक्रीडं सर्वतो नित्यं दिव्यैः पुष्पफलद्रुमैः मन्दारैः पारिजातैः पाटलाशोकचम्पकैः प्रियालैः पनसैरामैराम्रातकैः क्रमुकैर्नालिकेरैश्च बीजपूरकैः खर्जुरैः मधुकैः सालतालैस्तमालैः रसनार्जुनैररिष्टोदुम्बरप्लक्षैर्वटैः किंशुकचन्दनैः पिचुमन्दैः कोविदारैः सरलैः सुरदारुभिः द्राक्षेक्षुरम्माजम्बूभिर्बदर्यक्षाभयामलैः बिल्वैः कपित्थैर्जम्बीरैः भल्लातकादिभिः वृतं महात्मनो भगवतो वरुणस्योद्यानमृतुमन्नाम बभूव। [2014]

शब्दार्थ विश्रुते = प्रसिद्ध। सुरयोषिताम् = देवांगनाओं का। आक्रीडम् = क्रीड़ा का स्थान। मन्दारैः = आक के पौधे से। पाटलाशोकचम्पकैः = पाटल, अशोक और चम्पा के फूलों से। प्रियालैः = चिरौंजी से। पनसैः = कटहल से। आम्रातकैः = आँवला से। क्रमुकैः = सुपारी से। नारिकेलैः = नारियल के वृक्षों से। बीजपूरकैः = चकोतरे से। मधुकैः = मुलेठी, महुआ से। सालतालैस्तमालैः = साल, ताड़ और तमाल के वृक्षों से। उदुम्बर = गूलर। (UPBoardSolutions.com) प्लक्ष = पाकड़ वट = बरगदा किंशुक = ढाका पिचुमन्दैः = नीम से। कोविदारैः = कचनार से। सुरदारुभिः = देवदारु के वृक्षों द्वारा। द्राक्षा = अंगूर) इक्षु = ईख| रम्भा = केला। जम्बू = जामुन| बदरी = बेर। अभय = हरड़। कपित्थ = कैथ। जम्बीरैः = नींबू। भल्लातक = भिलावा। वृत्तम् = घिरा हुआ। वरुणस्योद्यानमृतुमन्नाम = वरुण का ऋतुमत नाम का उद्यान।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘गजेन्द्रमोक्षः’ शीर्षक पाठ से उधृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में वरुण के उद्यान के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।

अनुवाद प्रसिद्ध सुन्दर त्रिकूट पर्वत पर मन्दार, पारिजात, पाटल, अशोक, चम्पक, चिरौंजी, कटहल, आम, आँवला, सुपारी, नारियल, खजूर, महुआ, साल, ताड़, तमाल, रसनार्जुन, अरिष्ट, उदुम्बर, पीपल, बड़, ढाक, चन्दन, नीम, कचनार, सरल देवदारु के वृक्षों और अंगूर, ईख, केला, जामुन, बेर, अक्ष, हरड़, बेल, कैथ, नींबू, भलावाँ आदि दिव्य पुष्प और फलों आदि से युक्त वृक्षों वाला देवांगनाओं का क्रीड़ास्थल महात्मा भगवान् वरुणें का ऋतुमत् नाम का उद्यान था।

(2)
तस्मिन् सुविपुलं लसत्काञ्चनपङ्कजं कुमुदोत्पलकल्हारशतपत्रश्रियोर्जितं मत्तषट्पदनिर्घष्टं हंसकारण्डवाकीर्णं सारसजलकुक्कुटादिकुलकूजितं कदम्बवेतसनलनीपवजुलकैः कुन्दैरशोकैः शिरीषैः कुटजेदैः कुब्जकैः नागपुन्नागजातिभिः स्वर्णयुथीभिः मल्लिकाशतपत्रैश्च (UPBoardSolutions.com) माधवीजाल- कादिभिरन्यैः नित्यर्तुभिः तीरजैः द्रुमैः शोभितं कलस्वनैः शकुन्तैः परिवृतं मत्स्यकच्छपसञ्चार- चलत्पद्मपयः सरोऽभूत्।। [2014]

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शब्दार्थ लसत्काञ्चनपङ्कजम् = सुवर्ण (सुनहरे) कमलों से सुशोभित। उत्पल = कमला कल्हार = लाल कुमुद। श्रियोजितम् (श्रिया + ऊर्जितम्) = शोभा से ऊर्जित। मत्त = मतवाले। षट्पदनिर्युष्टम् = मौरों से गुंजायमान। कारण्डवाकीर्णम् = जल के पक्षियों से व्याप्त। सारंसजलकुक्कुटादिकुलकूजितं = सारस, जलमुर्गा इत्यादि के समूह के द्वारा शब्दायमान वेतस = बेंता नीप = कदम्बा शिरीषैः = सिरस वृक्षों के द्वारा। कुटजेङगुदैः = कुटज और इंगुदी वृक्षों द्वारा स्वर्णयुथीभिः = सोनजुही लताओं के द्वारा। मल्लिका = चमेली। शतपत्र = कमल। तीरजैः = किनारों पर उगे हुए। कलस्वनैः = मधुर ध्वनि वाले। शकुन्तैः = पक्षियों के द्वारा। परिवृतम् = घिरा हुआ। मत्स्यकच्छपसञ्चारचलत्पद्मपयः = मछली, कछुआ के वेग के कारण हिलते हुए कमलों से युक्त जल वाला।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में वरुण के उद्यान में स्थित सुन्दर सरोवर के सुरम्य वातावरण का मनोहारी वर्णन किया गया है।

अनुवाद उस (उद्यान) में स्वर्ण कमलों से शोभित; कुमुद, नीलकमल, लाल कुमुद, कमल की शोभा से अर्जित; मतवाले भौंरों की गुञ्जार से गुञ्जित, हंस और जल-पक्षियों से व्याप्त; सारस, जलमुर्गी आदि के समूह से शब्दयुक्त; कदम्ब, बेंत, कमलिनी, कुन्द, अशोक, शिरीष, कुटज, इङगुदी, कुब्जक, नागफनी, सोनजुही, मल्लिका, माधवी आदि लताओं के समूह से और दूसरी सभी ऋतुओं में पैदा होने वाले, किनारे के वृक्षों से शोभित; सुन्दर शब्द करने वाले पक्षियों से घिरा हुआ; मछली, कछुओं के चलने से हिलते हुए कमल वाला, स्वच्छ जल से युक्त अत्यन्त विशाल तालाब था।

(3)
अथ तदिगरिकाननाश्रयो वारणयूथपः करेणुभिश्चरन् कीचकवेणुवेत्रवद्विशालगुल्मं प्ररुजन्नासीत्। तस्य गन्धमात्राद्धरयो व्याघ्रादयो व्यालमृगाः सखङ्गाः सगौरकृष्णाः शरभाश्चमर्यः वृकाः वराहाः गोपुच्छशालातृकाः भयाद् द्रवन्ति। तस्यानुग्रहेण क्षुद्राः हरिणशशकादयोऽभीताश्चरन्ति। स एकदा घर्मतप्तः करिभिः करेणुभिः वृतो मदच्युत्कलभैरनुदुतः मदाशनैरलिकुलैः निषेव्यमाणः स्वगरिम्णा गिरिं परितः प्रकम्पयन् मदविहृलेक्षणः पङ्कजरेणुरुषितं सरोऽनिलं विदूराजिघ्रन् (UPBoardSolutions.com) तृषार्दितेन स्वयूथेन वृतः तत्सरोवराभ्याशं द्रुतमगमत्। तस्मिन् विगाह्य हेमारविन्दोत्पलरेणुवासितं निर्मलाम्बु निजपुष्करोदधृतं निकामं पपौ स्नपयन्तमात्मानमभिः गतक्लमो जातः।

शब्दार्थ अथ = इसके बाद। तदिगरिकाननाश्रयो = उस पर्वतीय वन में रहे वाला। वारणयूथपः = हाथियों के समूह का स्वामी। करेणुभिश्चरन् = हथिनियों के साथ चलता हुआ। कीचकवेणुवेत्रविशालगुल्मम् = बाँस, वेणु और बेंत वाले विशाल झुरमुट को। प्ररुजन् = तोड़ता हुआ, रौंदता हुआ। हरयः = शेर! व्याघ्रादयः = बाघ आदि। व्यालमृगाः = साँप और हिरन| सखङ्गाः = गेंडों सहित सगौरकृष्णाः शरभाः = गोरे और काले शरभ (आख्यायिकाओं में वर्णित आठ पैरों का जन्तु, जो सिंह से बलवान् होता है)। चमर्यः = चमरी हिरनियाँ। वृकाः = भेड़िये। वराहाः = सूअर गोपुच्छशालावृकाः = बन्दर, गीदड़ आदि। द्रवन्ति = भागते हैं। अभीताः = निडर होकर घर्मतप्तः = गर्मी में तपा हुआ। वृतः = घिरा हुआ। मदच्युतकलभैः = मदे टपकाने वाले हस्ति-शावकों के द्वारा। अनुतः = पीछा किया गया। मदाशनैः = मद का भक्षण करने वाले। (UPBoardSolutions.com) अलिकुलैः = भौरों के समूह के द्वारा। निषेव्यमाणः = सेवित, लगे हुए। गरिम्णा = भारीपन से। परितः = चारों ओर। मदविह्वलेक्षणः = मद के कारण व्याकुल नेत्रों वाला पङ्कजरेणुरुषितम् = कमल के पराग से सुगन्धित। विदूराज्जिघ्रन् = अधिक दूर से हूँघता हुआ। तृषादितेन = प्यास से व्याकुल अभ्याशम् = पास। विगाह्य = मथकर, नहाकर, डुबकी लगाकर। हेमारविन्दोत्पलरेणु = सुनहरे कमल के पराग। वासितम् = सुगन्धित निजपुष्करोधृतम् = अपनी सँड़ से उठाये गये। निकामं = पर्याप्त, अधिक गतक्लमः = थकानरहित।।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गजराज का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इसके अनन्तर उस पर्वतीय वन में रहने वाला, हाथियों के समूह का स्वामी, हथिनियों के साथ घूमता हुआ, कीचक, बाँस और बेंतों से युक्त विशाल झुरमुट को तोड़ रहा था। उसकी गन्धमात्र से शेर, व्याघ्र आदि; सर्प, हिरन, गेंडे, गोरे और काले शरभ, चमरी गाएँ, भेड़िये, शूकर, बन्दर, गीदड़ आदि भय से भाग जाते हैं। उसकी कृपा से छोटे (पशु) हिरन, खरगोश आदि निडर होकर घूमते हैं। वह एक दिन गर्मी से सन्तप्त, हाथियों और हथिनियों से घिरा हुआ, मदजल से युक्त हाथी के बच्चों से अनुगत, मदभक्षी भ्रमरों के समूह से सेवित, अपने भारीपन से पर्वत को चारों ओर से कॅपाता हुआ, मद से अधमुँदे नेत्रों वाला, कमल (UPBoardSolutions.com) की पराग से युक्त तालाब की वायु को दूर से ही सँघता हुआ, प्यास से व्याकुल अपने गजसमूह से घिरा हुआ, उस सरोवर के समीप तेजी से गया। उसमें डुबकी लगाकर, स्वर्ण कमल और नीलकमल की पराग से सुगन्धित, अपनी सँड़ से उठाये गये तालाब के स्वच्छ जल को उसने खूब पीया। जल से स्नान करके वह थकावटरहित हो गया।

(4)
स्वपुष्करोद्धृतशीकराम्बुभिः करेणूः कलभांश्च निपाययन् संस्नपयन् जलक्रीडारतोऽसौ महागजः केनचिबलीयसा ग्राहेण रुषा गृहीतः। बलीयसा तेन तरसा विकृष्यमाणं यूथपतिमातुरमपरे गजास्तं : तारयितुं नाशकन्। इत्थमिभेन्द्रनक्रयोर्मिथः नियुध्यतोरन्तर्बहिर्विकर्षतोर्बहुवर्षाणि व्यगमन्। ततो गजेन्द्रस्य सुदीर्घण कालेन नियुध्यतः मनोबलौजसा महान् व्ययोऽभूत्। जलेऽवसीदतो जलौकसः नक्रस्य तद्विपर्ययो जातः। ग्राहस्य पाशादात्मविमोक्षणेऽक्षमः गजेन्द्रो यदा प्राणसङ्कटमाप तदा सः तमीशं शरण्यं स्तोतुमुपचक्रमे। स एवेशः प्रचण्डवेगादभिधावतो बलिनोऽन्तकात् भृशं प्रपन्नं परिपाति, तस्यैव भयाच्चमृत्युः दूरमपसरति। गजेन कृतम् आर्तस्तोत्रं जगन्निवासः निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः गरुडेन समुह्यमानः चक्रायुधो गजेन्द्रमाशु अभ्यगमत्। पीडितं च तं वीक्ष्य सहसावतीर्य सरसः सग्राहमुज्जहार। विपाटितमुखाद ग्राहात दिविजानां सम्पश्यतां हरिः गजेन्द्रममूमुचत्।।

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ततो गजेन्द्रस्य ………………………………………… गजेन्द्रममूमुचत्। [2010]

शब्दार्थ शीकराम्बुभिः = पानी की बौछार से। करेणूः = हथिनियों को। कलभान् = हाथी के बच्चों को। निपाययन् = पिलाता हुआ| बलीयसा = शक्तिशाली। ग्राहेण = मगर के द्वारा रुषा = क्रोध से तरसा = वेग से। विकृष्यमाणं = खींचा जाता हुआ। यूथपतिमातुरम् = हाथियों के दुःखी स्वामी को। इत्थमिभेन्द्रनक्रयोः (इत्थम् + इभेन्द्र + नक्रयोः) = इस प्रकार हाथियों के सरदार और मगर के। मिथः = आपस में। नियुध्यतोः-अन्तः-बहिः-विकर्षतो:-बहुवर्षाणि = युद्ध करते हुए और भीतर-बाहर खींचते हुए बहुत वर्ष। व्यगमन् = बीत गये। नियुध्यतः = युद्ध करते हुए का। मनोबलौजसाम् = मनोबल और शक्ति का अवसीदतः = बैठे हुए। जलौकसः = जल में निवास करने वाले। आत्मविमोक्षणेऽक्षमः = अपने को छुड़ाने में असमर्थ। आप = प्राप्त किया। शरण्यम् = शरण देने वाले। स्तोतुम् उपचक्रमे = स्तुति करने वाला। (UPBoardSolutions.com) अन्तकात् = यमराज से। भृशम् = अधिक प्रपन्नम् = शरण में आये हुए को। परिपाति = रक्षा करता है। दूरमपसरति = दूर भाग जाती है। जगन्निवासः = परमात्मा। निशम्य = सुनकर। दिविजैः सह = देवताओं के साथ। समुह्यमानः = ढोये जाते हुए। चक्रायुधः = भगवान् विष्णु। अभ्यगमत् = पास में पहुँचे। वीक्ष्य = देखकर। अवतीर्य = उतरकर। संग्राहमुज्जहार = मगर सहित उठा लिया। विपाटितमुखात् = फटे हुए मुख वाले। सम्पश्यतां = देखते-देखते। गजेन्द्रममूमुचत् = गजेन्द्र को छुड़ा लिया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मगरमच्छ द्वारा गजराज को पकड़ने, दोनों में युद्ध होने और गजराज द्वारा प्रार्थना किये जाने पर विष्णु भगवान् द्वारा उसे छुड़ाये जाने का वर्णन है।

अनुवाद अपनी सँड़ द्वारा उठायी गयी जल की बूंदों से हथिनियों और गज-शावकों को पिलाते और स्नान कराते हुए, जल-क्रीड़ा में लगे हुए उस विशाल हाथी को किसी बलवान् मगर ने क्रोध से पकड़ लिया। उस बुलवान् के द्वारा वेग से घसीटे गये, व्याकुल यूथपति उस गजराज को दूसरे हाथी बचाने में समर्थ नहीं हुए। इस प्रकार गजेन्द्र और मगर के आपस में युद्ध करते हुए, अन्दर-बाहर खींचते हुए बहुत वर्ष बीत गये। तब गजेन्द्र की लम्बे समय तक युद्ध करते हुए मनोबल और शक्ति की पर्याप्त हानि हुई। जल में बैठे हुए, जल में रहने वाले मगर का इससे उल्टा हुआ अर्थात् उसकी शक्ति बढ़ गयी। मगर के फन्दे से स्वयं को छुड़ाने में असमर्थ गजराज जब प्राणों के संकट में पड़ गया, तब उसने उस शरणागतरक्षक श्रेष्ठ ईश्वर की स्तुति करनी प्रारम्भ की। वही भगवान्, जिनके भय से मृत्यु दूर भागती है, तेज गति से दौड़ते हुए, बलवान् यमराज से भयभीत शरण में आये हुए की रक्षा करते हैं। हाथी के द्वारा की गयी करुण स्तुति को लोकरक्षक (भगवान्) ने सुनकर देवताओं के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर गरुड़ पर सवार होकर चक्रपाणि भगवान् (UPBoardSolutions.com) विष्णु शीघ्र ही गजेन्द्र के पास आये। उसे पीड़ित देखकर शीघ्रता से तालाब में उतरकर मगरसहित उसे (गजेन्द्र को) उठा लिया। फटे हुए मुँह वाले मगर से देवताओं के देखते-देखते विष्णु ने गजेन्द्र को मुक्त करा दिया।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गजेन्द्र मोक्ष कैसे हुआ? [2007,08,09]
या
गजराज की रक्षा किस प्रकार हुई? [2007,09]
उत्तर :
सरोवर में स्नान करते हुए गजेन्द्र को मगर ने पकड़ लिया था। वर्षों तक गजेन्द्र और मगर में युद्ध होने के पश्चात् जब गजेन्द्र मगर की पकड़ से छूटने में असमर्थ हो गया और उसके प्राण संकट में पड़ गये तब उसने भगवान् विष्णु की स्तुति की। गजेन्द्र की करुण विनती सुनकर भगवान् विष्णु गरुड़ पर सवार होकर वहाँ आये। उन्होंने मगरसहित गजेन्द्र को तालाब से उठा लिया और देखते-ही-देखते गजेन्द्र को मगर के मुख से छुड़ा दिया।

प्रश्न 2.
वरुण के उद्यान का वर्णन ‘गजेन्द्रमोक्षः’ पाठ के आधार पर कीजिए।
या
वरुण के उद्यान में कौन-कौन से वृक्ष थे? [2006]
उत्तर :
[ संकेत गद्यांश सं० 1 के अनुवाद को अपने शब्दों में लिखें।

प्रश्न 3.
गजेन्द्रमोक्षः’ पाठ के आधार पर गजेन्द्र की जल-क्रीड़ा का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
एक दिन अत्यधिक गरमी से पीड़ित गजेन्द्र अपने समूह के हाथियों और हथिनियों से घिरा हुआ, मद-जल से युक्त गज-शावकों के आगे, मद का भक्षण करने वाले भौंरों के समूह से सेवित, अपने भारीपन से पर्वतों को कॅपाता हुआ कमल के पराग से (UPBoardSolutions.com) युक्त सरोवर की वायु को सँघता हुआ, प्यास से व्याकुल उस सरोवर के समीप आया। कमल के पराग से सुगन्धित सरोवर के जल में डुबकी लगाकर अपनी सँड़ से सरोवर के स्वच्छ जल को जी-भरकर पिया। जल से स्नान करके वह थकावटरहित हो गया। इसके पश्चात् वह जल-क्रीड़ा में लग गया। अपनी सँड़ में उठाये गये जल से उसने हथिनियों और गज-शावकों को स्नान कराया।

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प्रश्न 4.
वरुणदेव के उद्यान का नाम लिखिए। [2005,06, 12]
या
भगवान वरुण का उद्यान कहाँ स्थित था? [2006]
उत्तर :
वरुणदेव के उद्यान का नाम ऋतुमत् था। यह देवांगनाओं के प्रसिद्ध क्रीड़ास्थल त्रिकूट पर्वत पर स्थित था।

प्रश्न 5.
हरि गजेन्द्र के पास क्यों आये?
उत्तर :
जल-क्रीड़ा करते हुए गजेन्द्र को जब ग्राह ने बलपूर्वक पकड़ लिया और (UPBoardSolutions.com) गजेन्द्र उसकी पकड़ से छूटने में जब असमर्थ हो गया तो उसकी करुणा भरी पुकार सुनकर हरि गजेन्द्र के पास आये और उसे ग्राह से मुक्त करा दिया।

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Class 10 Sanskrit Chapter 2 UP Board Solutions वर्षवैभवम् Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 2 Versh Vaibhavam Question Answer (पद्य – पीयूषम्)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 2 हिंदी अनुवाद वर्षवैभवम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

प्रस्तुत पाठ महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ के किष्किन्धाकाण्ड से संगृहीत है। रामायण में राम-कथा के प्रसंग में स्थान-स्थान पर बड़े ही सरस, स्वाभाविक प्रकृति-वर्णन उपलब्ध होते हैं। सीता-हरण के बाद उनको खोजते हुए राम और (UPBoardSolutions.com) लक्ष्मण ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचते हैं। वहाँ उनकी भेंट सुग्रीव से होती है, जो अपने अग्रज बालि के भय से उस पर्वत पर रहता है। राम उसे अपना मित्र मानते हुए उसके अग्रज बालि को मारकर उसको किष्किन्धा का राजा बना देते हैं। तदनन्तर वर्षा ऋतु का आगमन हो जाता है। राम-लक्ष्मण भी माल्यवान् पर्वत पर वर्षा ऋतु का समय व्यतीत करने लगते हैं। यहीं राम ने लक्ष्मण से वर्षा के आगमन के दृश्यों का मनोहारी वर्णन किया है। किष्किन्धाकाण्ड का यह वर्षा-वर्णन अपने आप में अनुपम है।

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पाठ-सारांश

राम ने बालि को मारकर, सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य देकर माल्यवान् पर्वत के ऊपर रहते हुए वर्षा के आगमन को देखकर लक्ष्मण से कहा-हे लक्ष्मण! वर्षा का समय आ गया है। अब आकाश पर्वत के समान आकार वाले बादलों से ढक गया है। नीले मेघों के मध्य चमकती हुई बिजली रावण के पाश में छटपटाती हुई तपस्विनी सीता के समान मालूम पड़ रही है। धूल शान्त हो गयी है, वायु बर्फीली है, गर्मी की तेज धूप और चलती हुई गर्म हवाएँ नष्ट हो गयी हैं। राजाओं ने अपनी विजय-यात्राएँ स्थगित कर दी हैं और प्रवासी लोग। वापस घर लौट रहे हैं। बादलों से ढक जाने के कारण आकाश कहीं स्पष्ट और कहीं अस्पष्ट-सा दिखाई पड़ रहा है। जामुन के फल जो रस से भरे हुए हैं, खाये जा रहे हैं। अनेक अधपके आम हवा के तीव्र झोंकों से हिलकर पृथ्वी पर गिर रहे हैं। जामुन के वृक्षों की शाखाएँ फलों से लदी हुई भौंरों के द्वारा रस-पान की जाती हुई प्रतीत हो रही हैं। प्यासे पक्षी मोतियों के समान स्वच्छ जल की बूंदों को अपनी चोंच फैलाकर प्रसन्न होकर पी रहे हैं। प्रसन्न भौरे वर्षा की धारा से नष्ट हुई केसर वाले कमलों को (UPBoardSolutions.com) छोड़कर केसरयुक्त कदम्ब के

फूलों के रस का पान कर रहे हैं। वर्षा की बड़ी-बड़ी धाराएँ गिर रही हैं और तेज वायु चल रही है। नदियाँ मार्गों में फैलकर आकार में विस्तृत हो तेज गति से बह रही हैं। वर्षा की धारा से धुलकर पर्वतों की चोटियाँ बड़े-बड़े आकार वाले निर्झरों से लटकती हुई मोतियों की झालरों के समान अत्यधिक सुशोभित हो रही हैं।

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पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
स तदा बालिनं हत्वा सुग्रीवमभिषिच्य च।।
वसन् माल्यवतः पृष्ठे समो लक्ष्मणमब्रवीत् ॥ [2007, 11]

शब्दार्थ तदा = तब। हत्वा = मारकर अभिषिच्य = राजपद पर अभिषेक करके वसन् = रहते हुए।

माल्यवतः = माल्यवान् पर्वत। यह दक्षिण भारत में एक पर्वत है। पृष्ठे = पीठ पर, ऊपरी भाग पर। अब्रवीत् = बोले, कहा।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘वर्षावैभवम् शीर्षक पाठ से उधृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

अन्वय सः रामः तदा बालिनं हत्वा सुग्रीवम् (राज्ये) अभिषिच्य च माल्यवतः पृष्ठे वसन् लक्ष्मणम् अब्रवीत्।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में राम अपने मनोभावों को लक्ष्मण से व्यक्त कर रहे हैं।

व्याख्या राम ने उस समय अर्थात् सीता-हरण के पश्चात्; बालि को मारकर (UPBoardSolutions.com) और सुग्रीव को राज्य का अभिषेक करके अर्थात् राजतिलक करके माल्यवान् पर्वत के ऊपरी भाग पर निवास करते हुए लक्ष्मण से कहा।

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(2)
अयं स कालः सम्प्राप्तः समयोऽद्य जलागमः
सम्पश्य त्वं नभो मेघैः संवृत्तं गिरिसन्निभैः [2007, 10, 11, 14, 15]

शब्दार्थ सम्प्राप्तः = आ गया है। जलागमः = वर्षा ऋतु का आगमन सम्पश्य = अच्छी तरह देखो। नभः = आकाश को। मेधैः = बादलों से। संवृत्तम् = घिरे हुए। गिरिसन्निभैः = पर्वतों के समान।

अन्वय अद्य अयं सः कालः सम्प्राप्तः (य:) समय: जलागमः। त्वं गिरिसन्निभैः मेघैः संवृत्तं नभः सम्पश्य।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में राम लक्ष्मण से वर्षा ऋतु के आगमन की बात कह रहे हैं।

व्याख्या आज यह वह समय आ पहुँचा है, जो समय वर्षा ऋतु के आगमन का होता है। तुम पर्वतों के समान; अर्थात् विशालकाय आकार वाले बादलों से घिरे हुए आकाश को भली-भाँति देखो।

(3)
नीलमेघाश्रिता विद्युत् स्फुरन्ती प्रतिभाति मे।
स्फुरन्ती रावणस्याङ्के वैदेहीव तपस्विनी ॥ [2007,08, 10, 13]

शब्दार्थ नीलमेघाश्रिता = काले बादलों का आश्रय लेने वाली। विद्युत् = बिजली। (UPBoardSolutions.com) स्फुरन्ती = चमकती हुई। प्रतिभाति मे = मुझे प्रतीत होती है। स्फुरन्ती = छटपटाती हुई। रावणस्याङ्के= रावण की गोद में। वैदेही = सीता। तपस्विनी असहाय, बेचारी।

अन्वय नीलमेघाश्रिता स्फुरन्ती विद्युत् मे रावणस्य अङ्के स्फुरन्ती तपस्विनी वैदेही इव प्रतिभाति।

प्रसंग प्रस्तुते श्लोक में बादलों के मध्य चमकती बिजली की तुलना सीता से की गयी है।

व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि काले बादलों का आश्रय लेकर चमचमाती हुई बिजली मुझे ऐसी प्रतीत हो रही है, जैसे रावण की गोद में छटपटाती हुई असहाय सीता हो।

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(4)
रजः प्रशान्तं सहिमोऽद्य वायुः, निदाघदोषप्रसराः प्रशान्ताः।
स्थिता हि यात्रा वसुधाधिपानां, प्रवासिनो यान्ति नराः स्वदेशान् ॥ [2006, 09, 11, 15]

शब्दार्थ रजः = धूल। प्रशान्तम् = पूर्णतया शान्त हो गयी है। सहिमः = बर्फ के कणों से युक्त, अत्यन्त शीतल। निदाघदोषप्रसराः = गर्मी के तेज धूप, लू आदि दोषों का विस्तार स्थिता = रुक गयी है। वसुधाधिपानाम् (वसुधा + अधिपानाम्) = राजाओं की। प्रवासिनः = जीविका आदि के लिए विदेश में गये हुए। यान्ति = जा रहे हैं। स्वदेशान् = अपने देशों को।

अन्वय अद्य रज: प्रशान्तं, वायुः सहिमः (अस्ति), निदाघदोषप्रसरा: प्रशान्ताः (अभवन्), वसुधाधिपानां यात्रा हि स्थिता, प्रवासिनः नराः स्वदेशान् यान्ति।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वर्षाकालीन वातावरण का वर्णन किया गया है।

व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि आज धूल पूर्णतया शान्त हो गयी है। वायु बर्फ के कणों से युक्त अर्थात् अत्यन्त शीतल है। गर्मी के तेज धूप, लू आदि दोषों का विस्तार पूर्णतया शान्त हो गया है। राजाओं की (विजय) यात्राएँ रुक गयी हैं। प्रवासी अर्थात् जीविका (UPBoardSolutions.com) के लिए दूसरे स्थानों में जाकर बसने वाले लोग अपने स्थानों को अर्थात् घरों को (लौटकर) जा रहे हैं।

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(5)
क्वचित् प्रकाशं क्वचिदप्रकाश, नभः प्रकीर्णाम्बुधरं विभाति
क्वचित् क्वचित् पर्वतसन्निरुद्धं, रूपं यथा शान्तमहार्णवस्य॥ [2008]

शब्दार्थ क्वचित् = कहीं पर प्रकाशम् = स्पष्ट, स्वच्छ। अप्रकाशम् = अप्रकट, मलिन, अस्पष्ट नभः = आकाश। प्रकीर्णाम्बुधरं = बिखरे हुए बादलों को धारण करने वाला। विभाति = शोभित हो रहा है। पर्वत-सन्निरुद्धम् = पर्वतों से आच्छादित। रूपं = स्वरूप। यथा = जैसे। शान्तमहार्णवस्य = शान्त लहरों वाले महासागर के समान।

अन्वय प्रकीर्णाम्बुधरं नभः क्वचित् प्रकाशं क्वचित् (च) अप्रकाशं विभाति। क्वचित् क्वचित् । पर्वतसन्निरुद्धं शान्तमहार्णवस्य रूपं यथा विभाति।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वर्षाकालीन आकाश की शोभा का चित्रण हुआ है।

व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि बिखरे हुए बादलों वाला आकाश कहीं स्पष्ट दिखाई पड़ (UPBoardSolutions.com) रहा है। और कहीं अस्पष्ट सुशोभित हो रहा है। कहीं-कहीं यह पर्वतों से आच्छादित शान्त लहरों वाले महासागर के स्वरूप जैसा सुशोभित हो रहा है।

(6)
रसाकुलं षट्पदसन्निकाशं प्रभुज्यते जम्बुफलं प्रकामम्।
अनेकवर्णं पवनावधूतं भूमौ पतत्याम्नफलं विपक्वम्॥ [2006, 09, 11, 13]

शब्दार्थ रसाकुलम् = रस से पूर्णतया भरा हुआ। षट्पदसन्निकाशम् = भौंरे के समान आकार और रंग वाले; अर्थात् काले-काले)। प्रभुज्यते = खाया जा रहा है। जम्बुफलम् = जामुन का फल। प्रकामम् = अधिक मात्रा में। अनेकवर्णं = अनेक रंगों वाले। पवनावधूतम् = हवा के द्वारा हिलाये गये। भूमौ = पृथ्वी पर। पतति = गिरता है। आम्रफलं = आम का फल। विपक्वम् = विशेष रूप से पका हुआ।

अन्वय रसाकुलं षट्पद सन्निकाशं जम्बुफलं प्रकामं प्रभुज्यते। अनेकवर्णं पवनावधूतं विपक्वम् आम्रफलं भूमौ पतति।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वर्षाकाल में जामुन के फल की मनोहारी छटा का वर्णन किया गया है।

व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि रस से पूर्णतया भरे हुए भौंरों के समान काले रंग के जामुन के फल अत्यधिक मात्रा में खाये जा रहे हैं। अनेक रंगों वाले, वायु के झोंकों के द्वारा हिलाये गये, विशेष रूप से पके हुए आम के फल जमीन पर गिर रहे हैं।

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(7)
अङ्गारचूर्णोत्करसन्निकाशैः फलैः सुपर्याप्तरसैः समृद्धाः ।
 जम्बुद्वमाणां प्रविभान्ति शाखाः निपीयमाना इव षट्पदीर्घः ॥

शब्दार्थअङ्गारचूर्णोत्करसन्निकाशैः = कोयले के चूरे के समूह के समान; अर्थात् (UPBoardSolutions.com) काली कान्ति वाले। सुपर्याप्तरसैः = खूब अधिक रस वाले। समृद्धाः = सम्पन्न, युक्त। जम्बुद्माणां = जामुन के वृक्षों की। प्रविभान्ति = लग रही हैं। शाखाः = शाखाएँ। निपीयमाना इव = मानो पी जाती हुई। षट्पदीधैः = भौंरों के समूहों से।

अन्वय अङ्गारचूर्णोत्करसन्निकाशैः सुपर्याप्तरसैः फलैः समृद्धयः जम्बुद्रुमाणां शाखाः षट्पदौघैः निपीयमाना इव प्रविभान्ति।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में फलों से लदे जामुन के वृक्ष की सुन्दरता का वर्णन किया गया है।

व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि कोयलों के चूर्ण के ढेर के समान दीखने वाले; अर्थात् अत्यधिक काली कान्ति वाले, पर्याप्त रस से भरे हुए, फलों से लदी हुई जामुन के वृक्षों की शाखाएँ ऐसी लग रही हैं। मानो भौंरों के समूह जामुनों का रसपान कर रहे हों।

(8)
मुक्तासकाशं सलिलं पतलै, सुनिर्मलं पत्रपुटेषु लग्नम्।
आवर्त्य चञ्चु मुदिता विहङ्गाः, सुरेन्द्रदत्तं तृषिताः पिबन्ति ॥

शब्दार्थ मुक्तासकाशम् = मोती के समान कान्ति वाला। सलिलं = जल। पतत् = गिरते हुए। सुनिर्मलं = अत्यन्त स्वच्छ। पत्रपुटेषु लग्नम् = पत्तों के मध्य भागों में लगे हुए। आवज्यं = फैलाकर। चञ्चु = चोंच को। मुदिताः = प्रसन्न होते हुए। विहगाः = पक्षी। सुरेन्द्रदत्तम् = इन्द्र के द्वारा दिये गये। तृषिताः = प्यासे। पिबन्ति = पी रहे हैं।

अन्वय मुक्तासकाशं, सुनिर्मलं पतत् वै पत्रपुटेषु लग्नं सुरेन्द्रदत्तं सलिलं तृषिताः (UPBoardSolutions.com) विहङ्गाः चञ्चुम् आवर्थ्य मुदिता (सन्तः) पिबन्ति।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में पत्तों पर स्थित जल-बिन्दुओं को पक्षियों द्वारा पीने का वर्णन है।

व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि मोती के समान कान्ति वाले, अत्यधिक स्वच्छ, गिरते हुए और पत्तों के मध्य भाग में लगे हुए, इन्द्र देवता द्वारा दिये गये उस जल को प्यासे पक्षी अपनी चोंच फैलाकर प्रसन्न होते हुए पी रहे हैं।

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(9)
नवाम्बुधाराहतकेसराणि द्रुतं परित्यज्य सरोरुहाणि।।
कदम्बपुष्पाणि सकेसराणि नवानि हृष्टा भ्रमराः पिबन्ति ॥

शब्दार्थ नवाम्बुधाराहतकेसराणि = नये वर्षा के जल की धारा से नष्ट हुए केसर वाले। द्रुतम् = शीघ्र। परित्यज्य= त्यागकर सरोरुहाणि = कमल के फूलों को कदम्बपुष्पाणि= कदम्ब के फूलों का। सकेसराणि = केसरों से युक्त। नवानि = नवीन। हृष्टा भ्रमराः = आनन्दित भौंरे। पिबन्ति = पी रहे हैं।

अन्वय हृष्टाः भ्रमरा: नवाम्बुधाराहतकेसराणि सरोरुहाणि द्रुतं परित्यज्य सकेसराणि नवानि कदम्बपुष्पाणि पिबन्ति।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में भौंरों द्वारा कमल-पुष्पों के स्थान पर कदम्ब-पुष्पों के रसपान का वर्णन हुआ है।

व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि आनन्दित भौरे; नये वर्षा के जल की धारा से जिन (UPBoardSolutions.com) कमल पुष्पों का केसर नष्ट हो गया है, उन पुष्पों को छोड़कर केसरयुक्त नये कदम्ब के पुष्प का रसपान कर रहे हैं।

(10)
वर्षप्रवेगा विपुलाः पतन्ति प्रवान्ति वाताः समुदीर्णवेगाः।
प्रनष्टकूला प्रवहन्ति शीघ्रं नद्यो जलं विप्रतिपन्नमार्गाः ॥ [2005,07]

शब्दार्थ वर्षप्रवेगा = अत्यन्त तेज वर्षा की धाराएँ। विपुलाः = अत्यधिक पतन्ति =गिर रही हैं। प्रवान्ति = चल रही हैं। वाताः = हवाएँ। समुदीर्णवेगाः = बढ़े हुए वेग वाली। प्रनष्टकुलाः = टूटे हुए किनारों वाली। प्रवहन्ति = बह रही हैं। शीघ्रं = तेजी से। जलम् = जल को। विप्रतिपन्नमार्गाः = मार्गों में इधर-उधर फैली हुई।

अन्वय विपुलाः वर्षप्रवेगाः पतन्ति। समुदीर्णवेगा: वाता: प्रवान्ति। प्रनष्टकूला: नद्यः जलं विप्रतिपन्नमार्गाः शीघ्रं प्रवहन्ति।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वर्षा की अधिकता और उससे प्रभावित वायु और नदियों का वर्णन किया गया है।

व्याख्या श्री राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि बहुत अधिक तेज वर्षा की धाराएँ गिर रही हैं। तेज गति वाली हवाएँ चल रही हैं। नदियों में वर्षा का अधिक जल भर जाने के कारण टूटे हुए किनारों वाली नदियों का जल मार्गों में चारों ओर फैलकर तेजी से बह रहा है।

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(11)
“हान्ति कुटानि महीधराणां धाराविधौतान्यधिकं विभान्ति।
महाप्रमाणैर्विपुलैः प्रपातैः मुक्ताकलापैरिव लम्बमानैः॥ [2005,09]

शब्दार्थ महान्ति = बड़े-बड़े। कुटानि = शिखर महीधराणां = पर्वतों के। धाराविधौतानि = वर्षा के जल की धारा से धुली हुई। अधिकं विभान्ति = अधिक शोभित हो रहे हैं। महाप्रमाणैः = महान् आकार वाले। विपुलैः = विशाल प्रपातैः = झरनों के द्वारा। मुक्ताकलापैः = मोतियों की लड़ियों से लम्बमानैः = लटकते हुए।

अन्वय धाराविधौतानि महीधराणां महान्ति कुटानि महाप्रमाणैः विपुलैः प्रपातैः लम्बमानैः मुक्ताकलापैः इव अधिकं विभान्ति।

प्रसंग प्रस्तुते श्लोक में वर्षाकाल के पर्वतों की शोभा वर्णित है।

व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि वर्षा की जलधारा से पर्वत धुल गये हैं। (UPBoardSolutions.com) पर्वतों के शिखरों से महान् आकार वाले झरने गिर रहे हैं। वे झरने मोती की लड़ियों के समान अत्यधिक शोभा को धारण कर रहे हैं।

सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) अयं स कालः सम्प्राप्तः समयोऽद्य जलागमः।
सन्दर्भ प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘वर्षावैभवम्’ नामक पाठ से ली गयी है।

[ संकेत इस पाठ की शेष समस्त सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में राम अपने भाई लक्ष्मण से वर्षा ऋतु के आगमन के विषय में बता रहे हैं।

अर्थ आज वह समय आ पहुँचा है, जो वर्षा के आगमन का है।

व्याख्या माल्यवान् पर्वत पर निवास करते हुए भगवान् श्रीराम ने बालि-वध के उपरान्त एक दिन पर्वत पर उठते हुए विशालकाय बादलों को देखा। उन्हीं बादलों को अपने छोटे भाई लक्ष्मण को दिखाते हुए राम कहते हैं कि पर्वत पर उमड़ते हुए इन बादलों से यह जान पड़ता है कि अब वर्षा ऋतु का आगमन हो गया है। यह इसलिए भी प्रतीत हो रहा है क्योंकि वातावरण में उड़ने वाली धूल शान्त हो गयी है, तेज और गर्म हवाओं (लू) का चलना बन्द हो गया है और बादलों के मध्य बिजली रह-रहकर चमक रही है।

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(2) स्फुरन्ती रावणस्याङ्के वैदेहीव तपस्विनी।। [2006,09, 14]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में राम वर्षा ऋतु में बादलों के बीच चमकती हुई बिजली की तुलना सीता से कर रहे हैं।

अर्थ जैसे रावण के अंक (पाश) में छटपटाती हुई सीता।

व्याख्या वर्षा ऋतु में आकाश में बादल छाये हुए हैं और बादलों के बीच बिजली रह-रहकर चमक रही है। श्रीराम उसको देखकर विचलित हो उठते हैं; क्योंकि वह बिजली उनको रावण की पाश (बन्धन) में तड़पती हुई सीता के समान दिखाई पड़ रही है। सीता (UPBoardSolutions.com) पतिव्रता नारी हैं, इसलिए वे परपुरुष का स्पर्श तक नहीं कर सकतीं। राम को भी उनकी पतिभक्ति-परायणता पर पूर्ण विश्वास है। इसीलिए वे कल्पना कर रहे हैं कि जिस प्रकार बादलों में चमकती बिजली मानो क्रोध, बेचैनी और आवेश में बादल के पाश से निकलकर भागना चाहती है, उसी प्रकार असहाय सीता भी रावण के पाश से छूटने का भरपूर प्रयास कर रही होंगी।

(3) रूपं यथा शान्तमहार्णवस्य। [2015)

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में वर्षाकालीन आकाश की तुलना शान्त समुद्र से की गयी है।

अर्थ
लहरों से रहित अर्थात् शान्त महासागर के समान स्वरूप।

व्याख्या
श्रीराम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि जो बादल वर्षा के पूर्व समग्र आकाश को आच्छादित किये हुए थे, वे वर्षा के हो जाने पर बिखर गये हैं। बिखरे हुए बादल आकाश में प्रकट और अप्रकट रूप से दिखाई पड़ रहे हैं। इस कारण आकाश पर्वतों से युक्त शान्त महासागर के समान दिखाई पड़ रहा है। आशय यह है कि जहाँ पर आकाश में बादलों की विद्यमानता है वहाँ ये बादल ऐसे प्रतीत हो रहे हैं जैसे किसी शान्त अर्थात् लहरों से रहित समुद्र में कोई पर्वत उठ आया हो।

(4) भूमौ पतत्याग्रफलं विपक्वं

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में भूमि पर गिरे हुए आम के फलों का वर्णन किया गया है।

अर्थ विशेष रूप से पंके हुए आम के फल पृथ्वी पर गिर रहे हैं।

व्याख्या श्रीराम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि वर्षा के होने के कारण आम के फल; जो पहले वृक्षों पर ही लगे हुए थे; विशेष रूप से पक जाने के कारण अर्थात् पूर्णरूपेण सुस्वादु हो जाने पर भूमि पर गिर जा रहे हैं। यह सब कुछ वर्षा के आगमन के कारण ही हो रहा है।

(5) निपीयमाना इव षट्पदीधैः। [2010]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में फलों से लदे जामुन के वृक्षों का वर्णन किया गया है।

अर्थ जैसे भौंरों के समूह रसपान कर रहे हों।

व्याख्या प्रस्तुत पंक्ति में श्रीराम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि वर्षा ऋतु में जामुन के वृक्षों की शाखाएँ जामुन के फलों से लदी हुई हैं; अर्थात् जामुन के फलों से वृक्ष भरे हुए हैं और इन फलों में रस भरे हुए हैं। रस से भरे ये काले रंग के जामुन के फल ऐसे लग रहे हैं, जैसे काले रंग (UPBoardSolutions.com) के भौंरों के समूह जामुन के वृक्ष से लगकर उसके रस का पान कर रहे हैं। इस सूक्ति में जामुन के फलों की उपमा भौरों से की गयी है।।

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श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) स तदा बालिनं …………………………………………………….. लक्ष्मणं अब्रवीत् ॥ (श्लोक 1) [2012]

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोके कविः कथयति यत् सः दशरथपुत्रः रामः बालिनं हत्वा तस्य भ्रातरं सुग्रीवं च राज्यशासने अभिषिच्य माल्यवत: पृष्ठे निवसन् स्व-भ्रातरं लक्ष्मणम् अब्रवीत्।

(2) अयं स कालः …………………………………………………….. संवृतं गिरिसन्तिभैः ॥ (श्लोक 2) [2006, 12, 13, 15]

संस्कृतार्थः
रामः लक्ष्मणं कथयति यत् अद्य अयं स समय: उपस्थितः, यदा वर्षर्तुः आगच्छति, यतः त्वं सम्पश्य नभः पर्वतसदृशैः मेघैः आच्छादितः।

(3) रजः प्रशान्तं …………………………………………………….. यान्ति नराः स्वदेशान्॥ (श्लोक 4)

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोके कविः वर्षायाः प्रभावः वर्णयति यत् अद्य रजः शान्तं वायुः शीतलः ग्रीष्मदोषाः समाप्ताः अभवन्। नृपाणां यात्रा स्थगिता। परदेशगता: नराः स्वदेशान् प्रत्यागच्छन्ति।

(4) क्वचित् प्रकाशं …………………………………………………….. यथा शान्तमहार्णवस्य ॥ (श्लोक 5) [2006]

संस्कृतार्थः रामः लक्ष्मणं दर्शयन् वदति, हे लक्ष्मण! गगने क्वचित् प्रकाशः क्वचित् अन्धकारः (UPBoardSolutions.com) च भवति। गगने मेघाः आच्छादिताः भवन्ति। क्वचित् शान्तसमुद्रस्य इव मेघाः सन्निरुद्धा: विभान्ति।

(5) रसाकुलं षट्पदसन्निकाशं …………………………………………………….. आम्रफलं विपक्वम्॥ (श्लोक 6)

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोके प्रावृट्कालसुषमा वर्णयन् कविः कथयति यत् वर्षर्ती भ्रमरसमानानि कृष्णवर्णानि सरसानि सुस्वादूनि जम्बुफलानि यथेच्छम् आस्वादयन्ति। वायुवेगेन आलोडितानि पक्वानि सुमधुराणि विविधवर्णानि आम्रफलानि धरायां पतन्ति।

(6) मुक्तासकाशं सलिलं ……………………………………………………..तृषिताः पिबन्ति ॥ (श्लोक 8)

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संस्कृतार्थः सुरेन्द्रेण दत्तम्, आकाशात् पतितं, मुक्तानिर्मलं, पत्राणां पुटेषु संलग्नं, जलं तृषिताः खगाः प्रसन्नं भूत्वा चञ्चु प्रसार्य पिबन्ति।

(7) नवाम्बुधारा …………………………………………………….. भ्रमराः पिबन्ति ॥ (श्लोक 9) [2007]

संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके रामः लक्ष्मणं कथयति यत् वर्षाकाले वर्षाजलं कमलानां केसराणि अपनयति। अतः प्रसन्नाः भ्रमराः तानि पुष्पाणि परित्यज्य सकेसराणि नवानि कदम्बस्य पुष्पाणि पिबन्ति।

(8) वर्षप्रवेगा विपुलाः …………………………………………………….. जलं विप्रतिपन्नमार्गाः ॥ (श्लोक 10) [2007]

संस्कृतार्थः श्रीरामः लक्ष्मणं प्रति वर्षत: वर्णयन् कथयति यत् अत्यधिका: वर्षाधारा: आकाशात् पतन्ति समुदीर्णवेगा: पवना: प्रवहन्ति। नद्यः स्वानि कुलानि नष्टं कृत्वा मार्गेषु जलम् इतस्ततः प्रसारयित्वा शीघ्र प्रवहन्ति।

(9) महान्ति कुटानि …………………………………………………….. कलापैरिव लम्बमानैः ॥ (श्लोक 11)

संस्कृतार्थः
रामः लक्ष्मणं कथयति यत् वर्षाकाले वर्षायाः जलेन विधा एतानि पर्वताः अधिकं शोभन्ते। पर्वतानां शिखरैः यदा विपुला: प्रपाता: पतन्ति तदा ते लम्बमानैः मुक्ताकलापैः इव अधिकं शोभन्ते।

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Class 9 Sanskrit Chapter 6 UP Board Solutions श्रम एव विजयते Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 6 श्रम एव विजयते (गद्य – भारती) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 6 श्रम एव विजयते (गद्य – भारती).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 6
Chapter Name श्रम एव विजयते (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 6
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 6 Shram Ev Vijayate Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 6 हिंदी अनुवाद श्रम एव विजयते के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पावसाश

श्रम की परिभाषा (अर्थ)-उद्देश्यपूर्वक किया गया प्रयत्न श्रम कहलाता है। कर्म के बिना मनुष्यों को ही नहीं, पशु-पक्षियों को भी जीवन-निर्वाह कठिन है। कर्म, बिना श्रम के नहीं हो सकता। इसीलिए कहा जाता है कि ‘श्रम ही जीवन है’ और श्रम का अभाव ‘निर्जीवता’। कर्म से ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्षादि पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती है। |

श्रम का महत्त्व–उत्साह मनुष्य को श्रम में लगाता है और श्रम मनुष्य को कर्म में प्रवृत्त करता है। इस प्रकार कर्म और श्रम इन दोनों की पारस्परिक सापेक्षता है। श्रमपरायण मानव भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति करता है। परिश्रमी मनुष्य ‘करो या मरो’ की भावना को प्रमाणित करता है। (UPBoardSolutions.com) इसीलिए श्रमपरायण मनुष्य को अपना लक्ष्य सदैव अधिक-से- अधिक समीप आता हुआ प्रतीत होता है। उद्यम के बिना तो भाग्य भी निरर्थक ही सिद्ध होता है। ,

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श्रम ही सन्मित्र है-श्रम मानव का उत्तम मित्र है। जैसे मित्र विपत्ति आने पर सहानुभूतिपूर्वक कष्टो को दूर करके मित्र का हित करता है, उसी प्रकार श्रम भी मनुष्य का मनोबल बढ़ाकर कल्याण करता है। श्रम योग से कम नहीं है। योग की तरह श्रम में भी चित्त की एकाग्रता आवश्यक है। श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ कहकर श्रम का ही महत्त्व बताया है। श्रमशील मानव कष्टों की परवाह न (UPBoardSolutions.com) करके अपने कार्य को पूर्ण करता हुआ योगी ही है। ऐसे मनुष्य की सफलता निश्चित ही होती है। “उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः” उक्ति भी इसी बात की पुष्टि करती है।

अमहीनता अभिशाप है-श्रमहीनता से ही मानव निर्बल, उदासीन, उत्साहरहित और अन्त में निराश हो जाता है। उसे अपने ऊपर भी भरोसा नहीं रहता। वह लोगों द्वारा केवल अपयश प्राप्त करता है। वह परालम्बन को श्रेष्ठ समझने लगता है। इस प्रकार आलस्य अर्थात् श्रमहीनता मनुष्य के शरीर में स्थित होकर उसका महाशत्रु बन जाता है।

कर्म और भाग्य-आलस्य ऐसा शत्रु है, जो किसी भी व्यक्ति की शक्ति को क्षीण करता है। जो व्यक्ति परिश्रम करने पर भी सफलता नहीं पाता, वह अपने भाग्य को कोसता हुआ परिश्रम को व्यर्थ मानने लगता है। वह यह नहीं जानता कि पूर्वजन्म में किया गया कर्म ही भाग्य होता है। अतः मनुष्य को श्रमपूर्वक (UPBoardSolutions.com) नियमित रूप से कर्म करते रहना चाहिए। कर्म से सहित मानवों से कर्मशील मनुष्य श्रेष्ठ होते :श्रमपूर्वक नियमित रूप से कर्म करते रहना चाहिए। कर्म से सहित मानवों से कर्मशील मनुष्य श्रेष्ठ होते

श्रम का शक्ति से सम्बन्ध–बलशाली ही कार्य करने में समर्थ है, यह विचार भ्रमपूर्ण है। छोटे-से शरीर वाले दीमक एक बड़ी बाँबी बना देते हैं और उससे थोड़ी-सी बड़ी मधुमक्खियाँ जरा-जरा-सा मधु लाकर मधु का एक भण्डारे संचित कर लेती हैं। अतः श्रम के लिए बल की नहीं, वरन् दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है। श्रम के लाभ-परिश्रम मनुष्य के अपने पोषण के लिए ही नहीं है, क्रन् मनुष्य किये गये कर्मो से (UPBoardSolutions.com) दूसरों का भी उपकार करता है। किसान परिश्रम से अन्न उत्पन्न कर लोगों का पोषण करता है। श्रमिक अपने परिश्रम से उत्पादन की वृद्धि करता है। मानव पाताल में, अगाध जल में, आकाश में, सुदुर्गम पर्वत पर, घने जंगल में भी श्रम से कठिन कार्य पूरे करता है। देश की प्रगति पसीने की बूंदों पर ही निर्भर है।

उद्योगों में श्रमिकों की स्थिति-जिस राष्ट्र में श्रम में निष्ठा रखने वाले लोग होते हैं, वहाँ उत्पादन बढ़ता है और किसी वस्तु का अभाव नहीं होता है। आजकल अनेक वस्तुओं के उत्पादन के लिए उद्योगशालाओं (फैक्ट्रियों) में हजारों श्रमिक कार्य करते हैं। हमारे देश में दो प्रकार के कारखाने हैं–सरकारी और व्यक्तिगत (प्राइवेट)। सरकारी उद्योगों का लक्ष्य लौह आदि कच्चा माल तैयार करना, बड़ी मशीनें बनाना तथा रसायन तैयार करना है। यहाँ लाभ कमानी उद्देश्य नहीं है। प्राइवेट फैक्ट्रियों में तो लाभ कमाना ही (UPBoardSolutions.com) उद्देश्य होता है, क्योंकि उनमें धनी अपनी पूँजी और श्रमिक अपना श्रम लगाते हैं। उद्योगशालाओं का प्रबन्ध धनिकों के हाथ में ही होती है; अतः वे अधिक लाभ लेते हैं, श्रमिकों को थोड़ा देता है। इससे पूँजीपतियों और श्रमिकों में अनेक विवाद उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार के विवादों को निपटाने के लिए सरकार ने ‘श्रम मन्त्रालय तथा ‘श्रम न्यायालय की स्थापना की है। श्रमिकों के अधिकारों और हितों की रक्षा हेतु सरकार अनेक नियम-कानून भी बना चुकी है; फिर भी विकसित देशों की तुलना में हमारे देश के श्रमिकों की दशा नहीं सुधरी है और न ही उत्पादन बढ़ा है। जब तक हम पवित्र मन से श्रम नहीं करेंगे, तब तक सफलता प्राप्त नहीं हो सकती है।

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गद्यांशों को ससन्दर्भ अनुवाद 

(1) सोद्देश्यं कर्मणि क्रियमाणः प्रयत्नः श्रम। निखिलमपि विश्वं कर्मणि प्रतिष्ठितम्। कर्म विना न केवलं मानवस्य अपितु पशुपक्षिणामपि जीवननिर्वाहः सुदुष्करः। धर्मार्थकाममोक्षादिपुरुषार्थाः कर्मणैव लब्धं शक्यन्ते। क्षमेण विना तु साफल्यं खपुष्पायितमेव। अतएव श्रम एवं जीवनं तदभावश्च अस्तित्वभयमिति निश्चीयते। ।

शब्दार्थ-
सोद्देश्यं = उद्देश्य के साथ।
निखिलम् = सम्पूर्ण।
प्रतिष्ठितम् = आधारित, स्थित।
सुदुष्करः = अत्यधिक कठिन।
कर्मणैव = कर्म के द्वारा ही।
खपुष्पायितम् = आकाश-कुसुम के समान, असम्भव।

सन्दर्थ
प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘श्रम एव विजयते’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

संकेत
इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में श्रम के अर्थ तथा महत्त्व को बताया गया है।

अनुवाद
उद्देश्यपूर्वक कर्म के लिए किया गया प्रयत्न श्रम कहलाता है। सम्पूर्ण संसार ही कर्म पर आधारित है। कर्म के बिना केवल मानव का ही नहीं, अपितु पशु-पक्षियों का भी जीवन-निर्वाह अत्यन्त कठिन है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि पुरुषार्थ कर्म से ही प्राप्त हो सकते हैं। श्रम के बिना तो सफलता आकाश-कुसुम के समान असम्भव है। इसलिए श्रम ही जीवन है और उसका अभाव अर्थात् श्रम का न होना (जीवन के) अस्तित्व को खतरा है, यह निर्विवाद सत्य है।

(2) कर्मण्युत्साह श्रमस्य प्रयोजकः श्रमश्च कर्मणि, नियोजकः इत्यनयोः परस्परम् अपेक्षित्वम्। श्रमो न केवलं भौतिक क्षमतां तनोति अपितु आत्मशक्तेरप्युत्कर्ष जनयति। (UPBoardSolutions.com) श्रमशीलो जनः ‘कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्’ इति भावनामेव सततं प्रमाणयति। येन लक्ष्यं स्वयमेव समीपतरम् आगच्छदिव प्रतिभाति। उद्यमहीनं तु मन्ये कर्मफलप्रदाता विधिरपि अजोगलस्तनमिव निरर्थकं मन्यते। यथोक्तञ्च

उद्यमः साहसं धैर्यं, बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र साहाय्यकृत् विभुः॥

शब्दार्थ-
प्रयोजकः = प्रयोक्ता (कराने वाला)।
अपेक्षित्वं = अपेक्षित होना।
तनोति = बढ़ाता है।
उत्कर्षम् = उन्नति को।
जनयति = उत्पन्न करता है।
प्रमाणयति = प्रमाणित करता है।
समीपतरम् = अत्यधिक निकट।
आगच्छदिव = आता हुआ-सा।
प्रतिभाति = प्रतीत होता है।
प्रदाता = देने वाला।
विधिः = ब्रह्मा।
अजागलस्तनमिव = बेकरी के गले के स्तन के समान।
साहाय्यकृत = सहायक, सहयोगी।
विभुः = ईश्वर, व्यापक।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में श्रम के महत्त्व को बताया गया है।

अनुवाद
कर्म में उत्साह श्रम का कराने वाला है और श्रम कर्म में लगाने वाला है। इस प्रकार दोनों की आपस में आवश्यकता (निर्भरता) है। श्रम केवल भौतिक योग्यता को ही नहीं बढ़ाता, अपितु 
आत्मबल की उन्नति को भी उत्पन्न करता है। परिश्रमी मनुष्य “कार्य पूरा करूंगा या शरीर को नष्ट कर दूंगा।” इस भावना को ही निरन्तर प्रमाण मानता है, जिससे लक्ष्य स्वयं ही समीप आता हुआ-सा प्रतीत होता है। उद्यमहीन मनुष्य को कर्म के फल को देने वाले ब्रह्मा भी बकरी के गले के स्तन के समान व्यर्थ. ही समझता है। जैसा कि कहा गया है| उद्यम, साहस, धीरज, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम-ये छः जहाँ होते हैं, वहाँ ईश्वर भी सहायता करता है।

(3) श्रम एव जीवनस्य सन्मित्रम्।यथा सन्मित्रं विपन्नदशायां मित्रं प्रति सहानुभूतिं प्रकटयति, तस्य कष्टान्यपहाय सर्वथा हितसाधनं करोति तस्य जीवनं च जीवितुं काम्य- माकलयति तथैवे अमोऽपि मानवस्य मनोबलं वर्धयित्वा कल्याणं वितनोति। श्रमेण विना क्व कर्मकौशलम्? यथा योगे (UPBoardSolutions.com) चित्तस्यैकाग्रताऽपरिहार्या तथैव श्रमेऽपि। श्रीमद्भगवद्गीतायां योगः कर्मसु कौशलम्’ इति प्रमाणयता योगिराजेन श्रीकृष्णेन प्रकारान्तरेण श्रमस्यैव महिमा प्रतिष्ठापितः। कष्टान्यविगणय्य स्वकार्यं पूरयितुं यतमानः श्रमशीलः नरः वस्तुतः युञ्जानो योगी एव भवति। साफल्यं तत्र सुनिश्चितमेव।’उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः’ इति उक्तिस्तदेव द्रढयति। |

शब्दार्थ-
सन्मित्रम् = उत्तम मित्र।
विपन्नदशायाम् = विपत्ति की हालत में प्रकटयति = प्रकट करता है।
अपहाय = दूर करके।
काम्यमाकलयति (काम्यम् + आकलयति) = कामना (चाहने) का आकलन करता है।
वर्धयित्वा = बढ़ाकर।
वितनोति = विस्तार करता है।
क्व = कहाँ।
अपरिहार्या = न छोड़ने योग्य।
अविगणय्य = न गिनकर, परवाह न करके।
यतमानः = प्रयत्नशील, प्रयास करता हुआ।
युञ्जानः = योगाभ्यास में लगा हुआ।
उपैति = पास जाती है।
द्रढयति = मजबूत बनाता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में श्रम को प्राणियों का मित्र बताते हुए उसे योग के सदृशं कहा गया है।

अनुवाद
श्रम ही जीवन का उत्तम मित्र है। जैसे अच्छा मित्र विपत्ति की दशा में मित्र के प्रति सहानुभूति प्रकट करता है, उसके कष्टों को दूर कर सब प्रकार से उसका हित करता है, उसके जीवन को जीने के लिए चाहने योग्य समझता है, उसी प्रकारे श्रम भी मनुष्य के मनोबल को बढ़ाकर कल्याण को करता है। श्रम के बिना कर्म में कुशलता कहाँ? अर्थात् परिश्रमपूर्वक जो कर्म नहीं किया जाता, वह सुफल नहीं होता है। जिस प्रकार योग में चित्त की एकाग्रता छोड़ी नहीं जा सकती, उसी प्रकार श्रम में भी। श्रीमद्भगवद्गीता में “कर्म में कुशलता ही (UPBoardSolutions.com) योग है’ यह प्रमाणित करते हुए योगिराज श्रीकृष्ण ने दूसरे प्रकार से श्रमकी ही महिमा स्थापित की है। कष्टों की गिनती (गणना) न करके अपने कार्य को पूरा करने के लिए प्रयत्न करता हुआ मनुष्य वस्तुतः (वास्तव में) योग में लगा हुआ योगी ही होता है। उसमें (व्यक्ति की) सफलता तो निश्चित है ही। ‘लक्ष्मी उद्योगी पुरुष के पास जाती है’ यह उक्ति उसी (पूर्वोक्त कथन) की पुष्टि करती है।

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(4) श्रमेण हीनः मानवः निर्बलः उदासीनः उत्साहहीनः अन्ते च सर्वत्र निराशो भवति। शरीरस्थबलमजानन् स्वस्मिन्नपि न विश्वसिति। विषण्णमनाः जनेभ्यः केवलमपकीर्तिमेवार्जयति। स्वावलम्बमविगणय्य परावलम्बं श्रेयस्करं मनुते। कश्चित् समर्थोऽपि जने आलस्यात् श्रमं न कुरुते। यत्किञ्चिदवाप्यापि तुष्यति। शरीरस्थेन आलस्यरूपिणा शत्रुणा तस्य शक्तिः शनैः-शनैः क्षीयते। यः कश्चित् परिश्रमे कृतेऽपि सिद्धि न लभते; मन:कामना न पूर्यते; तर्हि ‘विधिरनतिक्रमणीयः’ इति मत्वा भाग्यं कुत्सयन् प्रयत्नं परिश्रमञ्च व्यर्थमाकलयति। से

तथ्यमिदं न वेत्ति यत् प्राग्विहितं कर्म एव भाग्यमिति सर्वैः स्वीक्रियते। वस्तुतः कर्मविरतेभ्यो जनेभ्यः कर्मशीलाः मानवाः श्रेष्ठा। तथा चोक्तम् श्रीमद्भगवद्-गीतायाम्

नियतं कुरु कर्म त्वं, कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिध्येदकर्मणः॥

शब्दार्थ-
केवलमपकीर्तिमेवार्जयति (केवलम् + अपकीर्तिम् + एव + अर्जयति) = केवल . अयश ही कमाता है।
स्वावलम्बमविगणय्ये (स्व + अवलम्बम् + अविगणय्य) = अपने सहारे की गणना न करके।
मनुते = मानता है।
यत्किञ्चिदवाप्यापि (यत् + किञ्चिद् + अवाप्य + अपि) = जो कुछ प्राप्त करके भी।
तुष्यति = सन्तोष करता है।
क्षीयते = कम हो जाती है।
विधिः अनतिक्रमणीयः = भाग्य का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता।
कुत्सयन् = कोसता हुआ।
व्यर्थम् आकलयति = बेकार समझता है।
प्राग्विहितम् = पूर्व (जन्म) में किया गया।
कर्मविरतेभ्यः = कर्म से उदासीन।
नियतं = निश्चित रूप से।
ज्यायः = बड़ा।
शरीरयात्रा = जीवन-निर्वाह।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में श्रमहीनता से श्रमशीलता को श्रेष्ठ बताया गया है।

अनुवाद
श्रम से हीन मनुष्य कमजोर, उदासीन, उत्साहरहित और अन्त में सभी स्थानों पर निराश हो जाता है। शरीर की शक्ति को न जानता हुआ अपने पर ही विश्वास नहीं करता है। दु:खी मन होकर लोगों से केवल बदनामी को ही प्राप्त करता है। स्वावलम्बन की उपेक्षा करके दूसरे पर निर्भरता (परावलम्बन) को ही कल्याणकारी मानता है। कोई व्यक्ति समर्थ होता हुआ भी आलस्य के कारण श्रम नहीं करता है। थोड़ा-सा पाकर भी सन्तुष्ट हो जाता है। शरीर में स्थित आलस्य-रूपी शत्रु उसकी शक्ति को धीरे-धीरे नष्ट कर देता है। जो कोई (UPBoardSolutions.com) परिश्रम करने पर भी सफलता को नहीं प्राप्त करता है, उसके मन की इच्छा पूरी नहीं होती है, तब ‘भाग्य न टालने योग्य होता है, ऐसा मानकर भाग्य को कोसता हुआ प्रयत्न और परिश्रम को व्यर्थ समझ लेती है। वह इस तथ्य को नहीं जानता कि “पूर्व (जन्म) में किया गया कर्म ही भाग्य होता है, यह सभी स्वीकार करते हैं। निश्चय ही (वास्तव में) कर्म से उदासीन लोगों से परिश्रमी मनुष्य श्रेष्ठ । जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है

तुम निश्चित कर्म को करो; क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म न करने से तुम्हारा जीवन-निर्वाह भी असम्भव है।

(5) ऐतरेयब्राह्मणे सुराधिपः पुरन्दरः राज्ञः हरिश्चन्द्रस्यात्मजहितमुपदिशन् सुखैश्वर्यमवाप्तुं परिश्रमस्यावश्यकतां वैशद्येन प्रकाशयति। यथा हि

चरन्चै मधु विन्दति चरन् स्वादुमुदुम्बरम्।।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो ने तन्द्रयते चरन्॥

बलिष्ठतनुः एव महत् कार्य सम्पादयितुं समर्थ इति भ्रमात्मको विचारः यतो हि क्षुद्रा पिपीलिका महान्तं वल्मीकं निर्माति। स्तोकं स्तोकं कृत्वा क्षुद्रा मधुमक्षिका विपुलं मधुराशिं सञ्चिनोति। अतएव श्रमस्य कृते दृढसङ्कल्पः यथोपेक्ष्यते न तथा शारीरिकस्य बलस्यापेक्षा। |

शब्दार्थ—
सुराधिपः = देवताओं के राजा।
पुरन्दरः = इन्द्र।
अवाप्तुम् = प्राप्त करने के लिए।
वैशद्येन = स्पष्ट रूप से, विस्तार से प्रकाशयति = प्रकाशित (प्रकट) करता है।
चरन् = चलता हुआ।
विन्दति = प्राप्त करता है।
स्वादुम् उदुम्बरम् = स्वादिष्ट गूलर फल को।
तन्द्रयते = आलस्य करता है।
बलिष्ठतनुः =.शक्तिशाली शरीर वाला।
सम्पादयितुं = पूरा करने के लिए।
पिपीलिका = चींटी।
वल्मीकम् = मिट्टी का ढेर।
स्तोकं स्तोकं कृत्वा = थोड़ा-थोड़ा करके।
विपुलं = अधिक।
मधुराशिं = अत्यधिक शहद को।
सञ्चिनोति = एकत्र करती है।
यथा अपेक्ष्यते = जिस प्रकार आवश्यक है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में इस बात को भ्रमात्मक बताया गया है कि शक्तिशाली शरीर वाला ही महान् कार्य कर सकता है।

अनुवाद
ऐतरेय ब्राह्मण में देवताओं के राजा इन्द्र राजा हरिश्चन्द्र के पुत्र को (उसके) हित का उपदेश देते हुए सुख और ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिए परिश्रम की आवश्यकता को विस्तार से प्रकट करते (कहते) हैं। जैसा कि
निश्चय से अर्थात् निरन्तर चलता हुआ (प्राणी) मधु (जिस परिणामरूपी मीठे फल को) प्राप्त करता है। (निरन्तर) चलता हुआ (प्राणी) स्वादिष्ट गूलर के फल को प्राप्त करता है। सूर्य के प्रकाश को देखो, जो चलता हुआ आलस्य नहीं करता है।

बलवान् शरीर वाला ही महान् कार्य को करने में समर्थ है’ यह भ्रमपूर्ण विचार है; क्योंकि तुच्छ चींटी बड़े मिट्टी के ढेर (बाँबी) को बनाती है। तुच्छ मधुमक्खी थोड़ा-थोड़ा करके बहुत अधिक.शहद को इकट्ठा करती है। अतएव श्रम के लिए दृढ़ संकल्प की जितनी आवश्यकता है, उतनी शारीरिक बल की नहीं।

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(6) परिश्रमः मनुजस्यं न केवलं स्वस्यैव पोषणाय, अपितु अपरेषां कृतेऽपि महान् उपकारकः। कृषिप्रधाने देशे कृषकः प्रचण्डग्रीष्मकालस्योष्णतां शीतकालस्य शैत्यञ्च सहभानः। यावद्दिनं कार्यं करोति, महता श्रमेण अन्नान्युत्पाद्य जनानां पोषणं करोति। औद्योगिकप्रतिष्ठानेषु कार्यालयेषु च श्रमिकः श्रमं सम्पाद्योत्पादनस्य वृद्धि करोति। मानवः पृथिव्या अन्तस्तले, अगाधे जले, विस्तृते आकाशे, सुदुर्गमे पर्वते, गहने काननेऽपि श्रमैकसाध्यं दुष्करं कार्यं करोति। श्रमस्वेदबिन्दुभिः पृथ्वीमातुरर्चनं करोति। श्रमस्वेदबिन्दवः एवामूल्यानि मौक्तिकानि येषु देशस्य प्रगतिराश्रिता।

शब्दार्थ-
स्वस्यैव = अपने ही।
अपरेषां कृतेऽपि = दूसरों के लिए भी।
यावद्दिनम् = दिनभर उत्पाद्य = उत्पन्न करके। सम्पाद्य = करके।
अन्तस्तले = भीतर।
अगाधेजले = गहरे पानी में।
श्रमैकसाध्यम् = केवल परिश्रम से होने वाला।
दुष्करं = कठिन।
श्रमस्वेदबिन्दुभिः = पसीने की बूंदों से।
पृथ्वीमातुरर्चनं (पृथ्वी + मातुः + अर्चनम्) = धरती माता की पूजा।
मौक्तिकानि = मोती।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में बताया गया है कि मनुष्य परिश्रम से केवल अपना ही नहीं, अपितु दूसरों का भी उफ्फार करता है। |

अनुवाद
परिश्रम मनुष्य के केवल अपने ही पोषण के लिए नहीं है, अपितु दूसरों के लिए भी महान् उपकार करने वाला है। कृषि-प्रधान देश में किसान भयंकर ग्रीष्म ऋतु की गर्मी को और शीतकाल की ठण्ड को सहन करता हुआ दिनभर कार्य करता है। बड़े (अधिक) श्रम से अन्न पैदा करके लोगों को पोषण करता है। औद्योगिक कारखानों में और कार्यालयों में मजदूर परिश्रम करके उत्पादन को बढ़ाता है। मनुष्य पृथ्वी (UPBoardSolutions.com) के गर्भ में, गहरे जल में, विस्तृत आकाश में, अत्यन्त दुर्गम पर्वत | पर, घने जंगल में भी केवल श्रम से ही हो सकने वाले कठिन कार्य को करता है। पसीने की बूंदों से पृथ्वी माता की पूजा करता है। पसीने की बूंदें ही अमूल्य मोती हैं, जिन पर देश की उन्नति निर्भर करती

(7) यस्मिन् राष्ट्रे श्रमे निष्ठां दधानाः जीविकोपार्जनस्यानुकूलावसरान् लभन्ते, कुटुम्बस्योत्कर्षाय प्रभवन्ति तत्रोत्पादनं रात्रिन्दिवं वर्धते। तत्र कस्यचिद् वस्तुनः अभावो न जायते। निरन्तरमुत्पादनस्य वृद्धिः राष्ट्रस्यार्थिक स्थितिं सुदृढीकृत्य अप्रतिहतविकासाय प्रेरणां ददाति।। |

शब्दार्थ-
निष्ठां = विश्वास, आदर।
दधानाः = धारण करने वाले।
प्रभवन्ति = समर्थ होते हैं।
रात्रिन्दिवम् = रात और दिन।
कस्यचिद् = किसी की।
जायते = होता है।
सुदृढीकृत्य = भली प्रकार दृढ़ (मजबूत) करके।
अप्रतिहतविकासाय = न रुकने वाले (निरन्तर) विकास के लिए।

प्रसंग
प्रस्तुत पद्यांश में श्रम की महत्ता को बताया गया है।

अनुवाद
जिस राष्ट्र में श्रम में निष्ठा रखने वाले लोग जीविका उपार्जन के अनुकूल अवसर पाते हैं, कुटुम्ब की उन्नति के लिए समर्थ होते हैं, वहाँ उत्पादन रात-दिन बढ़ता है। वहाँ किसी वस्तु का अभाव नहीं होता है। निरन्तर उत्पादन की वृद्धि राष्ट्र की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करके बिना रुके विकास की प्रेरणा देती है।

(8) अद्यत्वे सर्वत्रापि नैकप्रकाराणां पदार्थानामुत्पादनं कर्तुं बढ्यः उद्योगशालाः कार्यशालाश्च स्थापिताः सन्ति यत्र सहस्रशः श्रमिकाः कार्य कुर्वन्ति। द्विविधास्तावदिमा उद्योगशालाः। सर्वकारीयक्षेत्रे संस्थापिता वैयक्तिकक्षेत्रे च कृताः। तत्र सर्वकारीयाणाम् उद्योगशालानां मुख्य लक्ष्यं तु अन्यान्योद्योगानामाधारभूतपदार्थानां यथा लौहादिधातून, गुरुणां यन्त्राणां, विविधानां रसायनानामुत्पादनं न तु लाभार्जनम्। किन्तु वैयक्तिक्य उद्योगशालास्तु लाभार्जनोद्देश्येनैव प्रायशः स्थाप्यन्ते। धनिकाः स्वधनं नियोजयन्ति, धनहीनाश्च स्वश्रमम्। (UPBoardSolutions.com) प्रबन्धस्तु धनिकानां तेषां प्रतिनिधीनां वा हस्ते निहितोऽतस्ते अधिकाधिकं लाभांशं जिघृक्षवः श्रमिकेभ्योऽल्पमेव वितरन्ति। एवञ्च धननियोक्तृणां श्रमिकाणां च मध्येऽनेकशः कलहाः भवन्ति, लाभस्यासमानवितरणकारणात्। एवं विधानामन्यासां च, सम्बन्धिनीनां समस्यानां समाधानार्थं श्रमिकाणां कल्याणकृते चास्माकं राष्ट्रे प्रदेशेषु च श्रममन्त्रालयाः श्रमन्यायालयाश्च श्रमिकाणामधिकाराणां रक्षणार्थं विधिसंहिता निर्मिता वर्तते। यदि कश्चिच्छमिकः । कार्यरतो दुर्घटनाग्रस्तो जायते तर्हि क्षतिपूयँ नियमानुसारेण धनराशिर्देयो, भवति।

श्रमिकस्य भविष्यनिधावपि नियोक्त्रा अंशतो धनं देयं भवति। एवं सत्यपि अस्माकं देशे न तु श्रमिकाणामेव दशा तथा ऋद्धिमती वर्तते नापि उद्योगानामुत्पादनं तादृशं भवति यथा यादृशं च जापानामेरिकाब्रिटेनादि विकसितेषु देशेषु, वस्तुतः सत्स्वपि नियमेषु तेषां पूर्णतया पालनस्य वाञ्चैव यावन्नं भवति शुचिमनसा च श्रमेणोत्पादनं न क्रियते तावदुभयमपि कथं सिद्ध्येत्। यथा समन्वितं सैन्यं समन्वितेन प्रयासेन युद्धं जेतुं शक्नोति तथैव प्रबन्धकानां श्रमिकाणां च मध्ये विश्वासानुसरः समन्वय एवं उत्पादनलक्ष्य प्राप्तुं प्रभवति। सारांशोऽयं यत् अमो नाम जयति परं परस्परं सहयोगेन तु सत्वरं सुतरां च विजयते।।

शब्दार्थ-
अद्यत्वे = आजकल।
नैकप्रकाराणाम् = अनेक प्रकारों का।
बढ्यः = बहुत-सी।
द्विविधाः = दो प्रकार की।
सर्वकारीयक्षेत्रे = सरकारी क्षेत्र में।
वैयक्तिकक्षेत्रे = व्यक्तिगत क्षेत्र में।
गुरुणां यन्त्राणां = भारी मशीनों का।
लाभार्जनम् = लाभ कमाना।
नियोजयन्ति = लगाते हैं।
निहितोऽतस्ते (निहितः + अतः + ते) = रखा रहता है, इसलिए वे।
जिघृक्षवः = लेने की (हड़पने) इच्छा करने वाले।
धननियोक्तृणाम् = धन लगाने वालों।
समाधानार्थम् = समाधान के लिए।
विविधसंहिता = तरह-तरह के कानून।
नियोक्त्रा = नियुक्ति देने वाले के द्वारा।
ऋद्धिमती = धन-धान्य वाली।
तादृशं = वैसा।
यादृशं = जैसा।
संत्स्वपि = (सत्सु + अपि) = होने पर भी।
वाञ्छैव = इच्छा ही। यावत् = जब तक।
शुचिमनसा = पवित्र मन से।
समन्वितम् = मिला-जुला।
समन्वयः = एकता।
प्रभवति = समर्थ होता है।
सत्वरम् = शीघ्र। सुतरां = अच्छी तरह।
विजयते = विजय होती है। 

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में उद्योगशाला में कार्यरत श्रमिकों की दशा को सुधारने के उपाय बताये गये हैं।

अनुवाद
आजकल सभी जगह अनेक प्रकार के पदार्थों का उत्पादन करने के लिए बहुत-सी उद्योगशालाएँ एवं कारखाने स्थापित हैं, जहाँ हजारों मजदूर कार्य करते हैं। ये उद्योगशालाएँ दो प्रकार की हैं–सरकारी क्षेत्र में स्थापित और निजी क्षेत्र में बनायी गयी। उनमें सरकारी उद्योगों का मुख्य उद्देश्य (लक्ष्य) तो अन्य दूसरे उद्योगों के आधारभूत पदार्थों; जैसे-लोहा आदि धातुओं का, भारी मशीनों का, अनेक प्रकार के रसायनों का उत्पादन करना है, लाभ कमाना नहीं; किन्तु निजी उद्योग तो प्रायः लाभ कमाने के उद्देश्य से ही स्थापित किये (UPBoardSolutions.com) जाते हैं। धनी लोग अपनी पूँजी को और निर्धन अपने श्रम को लगाते हैं। प्रबन्ध तो धनिकों या उनके प्रतिनिधियों के हाथ में रहता है; अतः वे अधिक-से-अधिक लाभांश लेने (हड़पने) के इच्छुक होते हैं, श्रमिकों को थोड़ी मजदूरी ही बाँटते हैं।

इस प्रकार पूँजी लगाने वाले और मजदूरों के बीच लाभ के असमान वितरण के कारण अनेक प्रकार के झगड़े होते हैं। इस प्रकार की और दूसरे प्रकार की श्रम सम्बन्धी समस्याओं के समाधान के लिए, श्रमिकों की भलाई के लिए हमारे राष्ट्र में और प्रदेशों में श्रम मन्त्रालय और श्रम न्यायालय हैं। मजदूरों के अधिकारों की रक्षा के लिए अनेक कानून बने हुए हैं। यदि कोई मजदूर काम करते हुए दुर्घटनाग्रस्त हो (UPBoardSolutions.com) जाता है तो क्षतिपूर्ति के लिए नियम के अनुसार धनराशि देय होती है। मजदूर की भविष्यनिधि में भी नियोक्ता को आंशिक धन देना होता है। ऐसा होने पर भी हमारे देश में श्रमकिों की दशा उतनी धन-धान्युपूर्ण नहीं है और न ही उद्योगों का उत्पादन वैसा होता है, जैसा कि जापान, ब्रिटेन, अमेरिका

आदि विकसित देशों में। वास्तव में नियमों के होते हुए भी उनके पूर्णरूप से पालन की इच्छा ही जब तक नहीं होती है और पवित्र मन से परिश्रम से उत्पादन नहीं किया जाता है, तब तक दोनों ही बातें कैसे सिद्ध हो सकती हैं; अर्थात् नहीं हो सकती हैं। जिस प्रकार संगठित सेना एकजुट होकर युद्ध को जीत सकती है, उसी प्रकार प्रबन्धकों और श्रमिकों के बीच विश्वास के अनुसार सहयोग ही उत्पादन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। सारांश यह है कि श्रम की जीत होती है, परन्तु आपस में सहयोग से शीघ्र और अच्छी तरह जीत होती है।

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लय उत्तरीय प्ररन 

प्ररन 1
श्रम की परिभाषा लिखकर उसका जीवन में महत्त्व बताइए। |
उत्तर
किसी उद्देश्य से युक्त कर्म के लिए किये जाने वाले प्रयत्न को श्रम कहा जाता है। श्रम मनुष्य के जीवन में भौतिक क्षमता के साथ-साथ आत्मशक्ति का उत्कर्ष भी करता है। परिश्रमी मनुष्य

करो या मरो’ की भावना को प्रभावित करता है। इसीलिए श्रम-परायण मनुष्य को अपना लक्ष्य अधिक-से-अधिक समीप आता हुआ प्रतीत होता है।

प्ररन 2
श्रम को सन्मित्र क्यों कहा गया है?
उत्तर-
एक सन्मित्र (अच्छा मित्र) आपत्ति में पड़े हुए अपने मित्र के प्रति सहानुभूति प्रकट करता है, उसके कष्टों को दूर कर उसका हितसाधन करता है और उसके अच्छे जीवन की कामना करता है। इसी प्रकार श्रम भी मनुष्य के मनोबल को बढ़ाकर उसको कल्याण करता है। इसीलिए श्रम को सन्मित्र कहा गया है।

प्ररन 3
श्रम से होने वाले लाभों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
परिश्रमी मनुष्य के लिए श्रम तो आवश्यक है ही, किन्तु श्रमशील मनुष्य द्वारा किये गये श्रम से दूसरों का भी भला होता है; उदाहरणार्थ-किसान अपने श्रम से उत्पन्न किये गये अन्न से अपने साथ-साथ दूसरों का भी पोषण करता है तथा श्रमिक द्वारा किसी उद्योगशाला में उत्पादित अनेकानेक वस्तुओं से जहाँ उसको स्वयं लाभ होता है, वहीं दूसरे लोगों को भी लाभ पहुँचता है। संस्कृत में एक उक्ति है कि, ‘उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः’, अर्थात् श्रमशील मनुष्यों को ही लक्ष्मी प्राप्त होती है।

प्ररन 4
इन्द्र ने हरिश्चन्द्र के पुत्र को क्या उपदेश दिया?
उत्तर
इन्द्र ने हरिश्चन्द्र के पुत्र को बताया कि सुख एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए परिश्रम की आवश्यकता होती है; क्योंकि निरन्तर चलता हुआ प्राणी मीठा फल प्राप्त करता है। निरन्तर चलता हुआ प्राणी ही स्वादिष्ट गूलर के फल को चखता है। सूर्य का प्रकाश भी निरन्तर चलता हुआ कभी आलस्य नहीं करता।

प्ररन 5
हमारे देश में कितने प्रकार के कारखाने हैं और उनका क्या उद्देश्य है?
उत्तर
हमारे देश में दो प्रकार के कारखाने हैं–
(1) सरकारी क्षेत्र में स्थापित और
(2) व्यक्तिगत क्षेत्र में स्थापित। सरकारी क्षेत्र में स्थापित कारखानों का उद्देश्य लाभ अर्जित करना नहीं होता। इनका उद्देश्य दूसरे उद्योगों के लिए आधारभूत पदार्थों; जैसे-लोहा, भारी मशीनों, विभिन्न रसायनों आदि; का उत्पादन करना होता है। व्यक्तिगत क्षेत्र में प्रायः लाभ कमाने के उद्देश्य से ही कारखाने स्थापित किये जाते हैं।

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प्ररन 6
श्रमिकों के कल्याण के लिए सरकार द्वारा किये गये कार्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
श्रमिकों के कल्याण के लिए सरकार द्वारा निम्नलिखित कार्य किये गये हैं

  1. श्रमिकों की धन सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाने के लिए राष्ट्र और प्रदेशों में श्रम मन्त्रालय’ और ‘श्रम न्यायालय स्थापित किये गये हैं। |
  2. श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए अनेक कानून बनाये गये हैं।
  3. श्रमिकों के दुर्घटनाग्रस्त होने की स्थिति में नियोक्ता द्वारा उसे नियमानुसार धनराशि देनी होती है।
  4. श्रमिकों के लिए भविष्य-निधि का भी प्रावधान किया गया है, जिसमें नियोक्ता को भी श्रमिक के बराबर का अंशदान करना पड़ता है।

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Class 10 Sanskrit Chapter 3 UP Board Solutions नैतिकमूल्यानि Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 3 Naitikmulyani Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 3 हिंदी अनुवाद नैतिकमूल्यानि के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

‘नयन’, ‘नीति’ और ‘न्याय’ तीनों समानार्थक शब्द हैं। इनमें अन्तर केवल इतना ही है कि ‘नयन नपुंसकलिंग है, ‘नीति’ स्त्रीलिंग और ‘न्याय’ पुंल्लिग। ये तीनों शब्द संस्कृत की ‘नी’ धातु से निष्पन्न हैं, जिसका अर्थ है–आगे बढ़ना या ले जाना। ‘नीति’ न्याय का ही दूसरा रूप है। यह समाज और व्यक्ति दोनों को ही उन्नति की ओर ले जाती है। यह धर्म से भिन्न है, लेकिन धर्म से कम कल्याण करने वाली नहीं है। इसका सम्बन्ध इसी लोक के जीवन से है। बहुत-से (UPBoardSolutions.com) ऐसे कार्य जो न तो धर्म के अन्तर्गत आते हैं और न ही न्याय की सीमा में, इनकी गणना नीति के अन्तर्गत की जाती है और इन्हें ही नैतिक मूल्य कहा जाता है। प्रस्तुत पाठ में नैतिक मूल्यों को विस्तार से समझाया गया है तथा उनका धर्म से सम्बन्ध भी बताया गया है। प्रत्येक व्यक्ति को नैतिक मूल्यों को जानकर व समझकर उनका पालन करना चाहिए।

पाठ-सारांश [2006, 08, 10, 11, 12, 13, 14]

नीति का स्वरूप एवं नीति-ग्रन्थ जिस मार्ग से कार्य करने से मनुष्य का जीवन सुन्दर और सफल होता है, उसे नीति कहते हैं। नीतिपूर्वक व्यवहार से केवल मनुष्य या समाज का ही कल्याण नहीं होता अपितु इसके अनुरूप आचरण करने से प्रजा, शासक और सम्पूर्ण संसार का कल्याण होता है। प्राचीन काल से ही नीतिकारों ने नीति-वाक्यों की रचना की; अतः साधारण लोग भी व्यवहार के लिए नीति वाक्यों और श्लोकों को कण्ठस्थ करते हैं। चाणक्यनीति’, ‘विदुरनीति’, ‘विदुलोपाख्यान’, ‘पञ्चतन्त्र’, शुक्रनीति’, ‘नीतिसार’, नैतिकमूल्यानि ‘नीतिद्विषष्टिका’, ‘भल्लाटशतक’, ‘नीतिशतक’, ‘बल्लालशतक’, ‘दृष्टान्तशतक’ आदि संस्कृत के प्रमुख नीतिग्रन्थ हैं।

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नीति : काव्य का मुख्य प्रयोजन किसी भी राष्ट्र के साहित्य में उसके प्रारम्भिक काल से ही यह विश्वास प्रचलित था कि नीति-परितोष’ काव्य को एक मुख्य प्रयोजन है। इसीलिए प्लेटो, अरस्तू, पेटर, होरेस इत्यादि पाश्चात्य विद्वानों ने भी काव्य के अनेकानेक प्रयोजनों में नैतिक विकास एवं सन्तोष को काव्य का एक मुख्य साधन माना है।

नैतिकता की आवश्यकता नैतिक मूल्यों से व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ती है। नैतिकता से ही व्यक्ति, समाज, देश और विश्व का कल्याण होता है। नैतिक आचरण से मानव में त्याग, तप, विनय, सत्य, न्यायप्रियता आदि गुणों का विकास होता है। इसके साथ ही (UPBoardSolutions.com) व्यक्ति और समाज ईष्र्या, द्वेष, छल, कलह आदि दोषों से मुक्त होते हैं।

दूसरों का हित नैतिक आचरण का मुख्य उद्देश्य परहित-साधन है। नैतिक आचरण से युक्त मनुष्य अपनी हानि करके भी दूसरों का कल्याण करता है। समाज में प्रचलित रूढ़ियाँ सबके हित के लिए नहीं होती हैं। इसलिए प्रबुद्ध विद्वान् उसका विरोध करते हैं और नवीन आदर्श स्थापित करते हैं, परन्तु उनके ऐसा करने पर भी नैतिक मूल्यों में कोई परिवर्तन नहीं होता है। शाश्वत धर्म सदैव अपरिवर्तनीय होता है और नीति की अपेक्षा अधिक व्यापक भी होता है। नीति से केवल लौकिक कल्याण होता है, जब कि धर्म लौकिक और पारलौकिक दोनों तरह का कल्याण करता है।

धर्म की परिभाषा धर्माचार्यों ने ”यतोऽभ्युदयनिःश्रेयस् सिद्धिः स धर्मः” कहकर धर्म की व्याख्या की है। जिस कर्म से मानव का इस लोक में कल्याण होता है और परलोक में उसे उच्च स्थान प्राप्त होता है, वह धर्म है। मनुस्मृति में धर्म के दस अंग बताये गये हैं–धृति (धैर्य), क्षमा, दान, अस्तेय (चोरी न करना), शौच (पवित्रता), इन्द्रियनिग्रह, धी (बुद्धि), विद्या, सत्य और अक्रोध।

धर्म और नीति तीर्थयात्रा, पवित्र नदियों में स्नान, यज्ञ करना और कराना, गुरु-माता-पिता की सेवा, सन्ध्या-वन्दना और सोलह संस्कार मुख्य रूप से धर्म के वाचक हैं। इन कर्मों में नीति का मिश्रण नहीं है; अतः धर्म व्यापक है। धैर्य, दया, सहनशीलता, सत्य, परोपकार आदि के आचरण में धर्म और नीति दोनों का मिश्रण है। दोनों का समान रूप से आचरण करने से संसार का परम कल्याण होता है। नीतिकारों के मतानुसार-जीव-हिंसा और परधनापहरण से निवृत्ति, सत्यभाषण, चुगलखोरी से मुक्ति, सत्पात्रों और दोनों को दान, लोभ का त्याग, दया, सहनशीलता, परोपकार, श्रद्धा, गुरुजनों में अनुराग, विनयशीलता आदि नैतिकता (UPBoardSolutions.com) के गुण हैं। गर्वहीनता, अतिथि-सत्कार, न्याय से अर्जित जीविका, ईर्ष्या का अभाव, सत्संग, प्रेम, दुर्जन-संगतिं का त्याग, धैर्य, क्षमा, वाक्-पटुता, समय का सदुपयोग इत्यादि नैतिकता के आचरणों से व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व का कल्याण होता है।

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अत: व्यक्ति को नैतिक आचरण करके अपना, समाज का, देश का और विश्व का कल्याण करना चाहिए।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) नयनं नीतिः, नीतेरिमानि मूल्यानि नैतिकमूल्यानि। यथा सरण्या कार्यकरणेन मनुष्यस्य जीवन सुचारु सफलञ्च) भवति सा नीतिः कथ्यते। इयं नीतिः केवलस्य जनस्य समाजस्य कृते एव न भवति, अपितु जनानां, नृपाणां समेषां चे व्यवहाराय भवति। नीत्या चलनेन, व्यवहरणेन, प्रजानां शासकानां समस्तस्य लोकस्यापि कल्याणं भवति। [2006]

शब्दार्थ नयनं = ले जाना। नीतेरिमानि = नीति के ये। सरण्या = मार्ग से। सुचारु = सुन्दर। कथ्यते = कही जाती है। कृते = हेतु, लिए। समेषाम् = सबके। कल्याणं = कल्याण, भला।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘नैतिकमूल्यानि’ शीर्षक पाठ से उधृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में नीति के स्वरूप एवं प्रयोजन के विषय में बताया गया है।

अनुवाद ले जाना’ नीति कहलाता है। नीति के ये मूल्य (ही) नैतिक मूल्य कहलाते हैं। जिस मार्ग से कार्य करने से मनुष्य का जीवन सुन्दर और अच्छी प्रकार से सफल होता है, वह नीति कहलाता है। यह नीति केवल मनुष्य और समाज के लिए ही नहीं है, अपितु मनुष्यों और (UPBoardSolutions.com) राजाओं सभी के व्यवहार के लिए होती है। नीति के द्वारा चलने से, व्यवहार करने से, प्रजा का, शासकों का, सारे संसार को भी कल्याण होता है।

(2) पुरातनकालादेव भारते कवयः नीतिकाराः मनोरमया सरसया गिरा नीतिंवाक्यानि, कथाभिः श्लोकैश्च व्यरचयन्। इत्थं नीतिशास्त्राणि व्यवहारविदे, कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे बभूवुः। फलन्त्विदं सम्पन्नं साधारणाः अपि जनाः व्यवहाराय नीतिवाक्यानि नीतिश्लोकांश्च गलबिलाधः कुर्वन्ति स्म। यथा च चाणक्यनीतिः, विदुरनीतिः, विदुलोपाख्यानम्, पञ्चतन्त्रम्, शुक्रनीतिः, घटकर्परकृतः नीतिसारः, सुन्दरपाण्डेयेन कृता ‘नीतिद्विषष्टिका’, भल्लाटशतकम्, भर्तृहरिकृतं नीतिशतकम्, ‘बल्लालशतकम्’, ‘दृष्टान्तशतकम्’ इत्यादि बहूनि नीतिपुस्तकानि संस्कृते उपलभ्यन्ते। [2012, 15]

शब्दार्थ पुरातनकालादेव = प्राचीन काल से ही। गिरा = वाणी के द्वारा, भाषा के द्वारा। कथाभिः = कथाओं के द्वारा। व्यरचन् = रचना की है। इत्थम् = इस प्रकार व्यवहारविदे = व्यवहार को जानने के लिए। कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे (कान्ता + सम्मिततया + उपदेशयुजे) = स्त्री से सम्मित होने से उपदेश के लिए। गलबिलाधः (गल + बिल + अधः) = गले के छेद के नीचे अर्थात् कण्ठस्था उपलभ्यन्ते = प्राप्त होती हैं।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में नीति के स्वरूप और प्रयोजन को बताते हुए प्रमुख नीति-ग्रन्थों के नाम दिये गये हैं।

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अनुवाद प्राचीन काल से ही भारत में कवियों और नीतिकारों ने सुन्दर और सरस वाणी द्वारा कथाओं, श्लोकों से नीति-वाक्यों की रचना की। इस प्रकार नीतिशास्त्र व्यवहार को जानने के लिए, स्त्री से सम्मित होने से उपदेश से युक्त होने के लिए हुए। परिणाम यह हुआ कि सम्पन्न, साधारण लोगों ने भी व्यवहार के लिए नीति-वाक्यों और नीति-श्लोकों को कण्ठस्थ कर लिया था। जैसे कि चाणक्यनीति, विदुरनीति, विदुलोपाख्यान, पञ्चतन्त्र, शुक्रनीति, घटकर्पर द्वारा रचित नीतिसार, सुन्दरपाण्डेय द्वारा रचित नीतिद्विषष्टिका, भल्लाटशतक, भर्तृहरि द्वारा रचित नीतिशतक, बल्लालशतक, दृष्टान्तशतक इत्यादि बहुत-सी नीति पुस्तकें संस्कृत में = प्राप्त होती हैं।

(3) विचार्यमाणे साहित्ये आदिकालादेव सर्वेष्वपि राष्ट्रेषु अयं विश्वासः प्रचलितः आसीत्, यत् काव्यास्योन्येषु (UPBoardSolutions.com) प्रयोजनेषु सत्स्वपि एकं मुख्यं प्रयोजनं नैतिकः परितोषः। प्लेटो, अरस्तू, पेटर, होरेसादि सर्वैः विचारकैः काव्यस्य मुख्यं प्रयोजनं नैतिकविकासः एव स्वीकृतः।

शब्दार्थ विचार्यमाणे साहित्ये = विचार करने पर साहित्य में। आदिकालादेव = आदिकाल से ही। सत्स्वपि (सत्सु + अपि) = होते हुए भी। प्रयोजनम् = प्रयोजन, कारण, हेतु। परितोषः = सन्तोष। स्वीकृतः = स्वीकार किंया गया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में नीति का प्रयोजन तथा कुछ पाश्चात्य नीतिकारों का उल्लेख किया गया है।

अनुवाद साहित्य में विचार किये जाने पर आदिकाल से ही सभी राष्ट्रों में यह विश्वास प्रचलित था कि काव्य के अन्य प्रयोजनों के होने पर भी एक मुख्य प्रयोजन नैतिक सन्तोष था। प्लेटो, अरस्तू, पेटर, होरेस आदि। सभी विचारकों ने काव्य का मुख्य प्रयोजन नैतिक विकास ही स्वीकार किया है।

(4) नैतिकमूल्यैः व्यक्तेः सामाजिक प्रतिष्ठाभिवर्धते। मानवकल्याणाय नैतिकता आवश्यकी। नैतिकतैव व्यक्तेः, समाजस्य, राष्ट्रस्य, विश्वस्य कल्याणं कुरुते। नैतिकताचरणेनैव मनुष्येषु त्यागः, तपः, विनयः, सत्यं, न्यायप्रियता एवमन्येऽपि मानवीयाः गुणाः उत्पद्यन्ते। नैतिकतया मनुष्योऽन्यप्राणिभ्यः भिन्नः जायते। लदाचरणेन व्यक्तेः समाजस्य च जीवनम् अनुशासितं निष्कण्टकं च भवति। व्यक्तेः समाजस्य, वर्गस्य, देशस्य च समुन्नयनावसरो लभ्यते। समाजः ईष्र्या-द्वेषच्छल-कलहादिदोषेभ्यः मुक्तो भवति। अस्माकं सामाजिकाः, अन्ताराष्ट्रियाः सम्बन्धाः नैतिकताचरणेन दृढाः भवन्ति। अतः नैतिकताशब्दः सच्चरित्रतावाचकः, सुखमयमानवजीवनस्याधारः अस्ति।

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नैतिकमूल्यैः व्यक्तेः ……………………………………….. उत्पद्यन्ते ।
नैतिकमूल्यैः व्यक्तेः …………………………………… मुक्तो भवति [2010,12]

शब्दार्थ अभिवर्धते = बढ़ती है। व्यक्तेः = व्यक्ति का। नैतिकताचरणेनैव = नैतिकता के आचरण से ही। उत्पद्यन्ते = उत्पन्न होते हैं। अन्यप्राणिभ्यः = दूसरे प्राणियों से। समुन्नयनावसरः = ठीक उन्नति का अवसर। मुक्तो भवति = छूट जाता है। सच्चरित्रतावाचकः = सदाचार का वाचक अर्थात् बताने वाला। जीवनस्याधारः = जीवन का आधार

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में नैतिक मूल्यों के आचरण का महत्त्व बताया गया है।

अनुवाद नैतिक मूल्यों से व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ती है। मानव-कल्याण के लिए नैतिकता आवश्यक है। नैतिकता ही व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व का कल्याण करती है। नैतिकता के आचरण से ही मनुष्यों में त्याग, तप, विनय, सत्य, न्यायप्रियता एवं इसी प्रकार के दूसरे भी मानवीय (UPBoardSolutions.com) गुण उत्पन्न होते हैं। नैतिकता से मनुष्य दूसरे प्राणियों से भिन्न हो जाता है। उसके आचरण से व्यक्ति और समाज का जीवन अनुशासित और निष्कण्टक होता है। व्यक्ति, समाज, वर्ग और देश की उन्नति का अवसर प्राप्त होता है। समाज ईष्र्या, द्वेष, छल, कलह आदि दोषों से मुक्त होता है। हमारे सामाजिक और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध नैतिकता के आचरण से मजबूत होते हैं। अतः ‘नैतिकता’ शब्द सच्चरित्रता का वाचक, सुखमय मानव-जीवन का आधार है।

(5) इदन्तु सम्यक् वक्तुं शक्यते यत् नैतिकताचरणस्य, नैतिकतायाश्च मुख्यमुद्देश्यं स्वस्य अन्यस्य च कल्याणकरणं भवति। कदाचित् एवमपि दृश्यते यत् परेषां कल्याणं कुर्वन् मनुष्यः स्वीयां हानिमपि कुरुते। एवंविधं नैतिकाचरणं विशिष्टं महत्त्वपूर्णं च मन्यते। परेषां हितं नैतिकतायाः प्राणभूतं तत्त्वम्। [2008]

शब्दार्थ इदन्तु = यह तो। सम्यक् = भली प्रकार कल्याणकरणम् = कल्याण करना। कदाचित् = कभी। एवमपि = ऐसा भी। कुर्वन् = करते हुए। स्वीयाम् = अपनी।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में नैतिक मूल्यों के आचरण का महत्त्व बताया गया है।

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अनुवाद यह तो भली प्रकार कहा जा सकता है कि नैतिकता के आचरण का और नैतिकता का मुख्य उद्देश्य अपना और दूसरों का कल्याण करना होता है। कभी ऐसा भी देखा जाता है कि दूसरों का कल्याण करता हुआ मनुष्य अपनी हानि भी करता है। इस प्रकार का नैतिक आचरण विशेष और महत्त्वपूर्ण माना जाता है। दूसरों का हित नैतिकता का प्राणभूत तत्त्व है।

(6) कदाचित् एवमपि दृश्यते यत्समाजे प्रचलिता रूढिः सर्वेषां कृते हितकरी न भवति। अतः प्रबुद्धाः विद्वांसः तस्याः रूढः विरोधमपि कुर्वन्ति। परं तैः आचरणस्य व्यवहारे नवीनः आदर्शः स्थाप्यते। यः कालान्तरे समाजस्य कृते हितकरः भवति। एवं सदाचरणेऽपि परिवर्तनं दृश्यते। परं वस्तुतः यानि नैतिकमूल्यानि सन्ति। तेषु परिवर्तनं न भवति। यथा सनातनो धर्मः न परिवर्तते तथा नैतिकमूल्यान्यपि स्थिराणि एव। एवं धर्मे नीतौ च दृढीयान् सम्बन्धो दृश्यते। परं द्वयो भेदोऽपि वर्तते। (UPBoardSolutions.com) धर्मशब्दः व्यापकः अस्ति। नीतिस्तु व्याप्या धर्मे एव विलीयते। यानि अवश्यकरणीयानि कर्त्तव्यानि यैः पुण्यानि नोपलभ्यन्ते तेषामपि गणना धर्मे कृता मेहर्षिभिः धर्माचार्यैः। नीतिः लौकिकं कल्याणं कुरुते। धर्मस्तु लौकिकं पारलौकिकञ्च कल्याणं कुरुते। उभयोः कुत्रापि साङ्कर्त्यमपि प्राप्यते। धर्मः अलौकिक शक्ति प्रकटयति। सः मुक्तेः मार्गमपि प्रशस्तं करोति। परलोकमपि प्रदर्शयति कल्पयति च। नीतिः लौकिकं हितं साधयति। परं नीतिधर्मयोः साहचर्यं सर्वैरेव स्वीक्रियते।

कदाचित् एवमपि …………………………………. स्थिराणि एवं। [2013]
धर्मशब्दः व्यापकः …………………………………… संर्वैरेव स्वीक्रियते। [2009]

शब्दार्थ रूढिः = पहले से प्रचलित परम्परा प्रबुद्धाः = जगे हुए, जागरूका स्थाप्यते = स्थापित किया जाता है। दृश्यते = दिखाई देता है। कालान्तरे = समय बीतने पर। परिवर्तते = बदलता है। नीतौ = नीति में। दृढीयान् = अधिक छ। व्यापकः = विस्तृत, फैला हुआ। व्याप्या = व्याप्त होने वाली, सीमित स्थान में रहने वाली। विलीयते = विलीन हो जाती है, मिल जाती है। नोपलभ्यन्ते = नहीं प्राप्त होते हैं। पारलौकिकम् = परलोक से सम्बन्धित। कुत्रापि = कहीं भी। साङ्कर्यमपि = मिश्रण भी। प्रशस्तम् = सुन्दर। कल्पयति = कल्पना करता है। साधयति = साधता है, पूरा करता है। स्वीक्रियते = स्वीकार किया जाता है।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में नैतिक आचरण, नीति और धर्म के अन्तर तथा साहचर्य पर प्रकाश डाला गया है।

अनुवाद कभी ऐसा भी देखा जाता है कि समाज में प्रचलित रूढ़ि (प्राचीन परम्परा) सबके लिए हितकारी नहीं होती है; अतः जागरूक विद्वान् उस रूढ़ि का विरोध भी करते हैं, परन्तु उनके आचरण के व्यवहार में नवीन आदर्श स्थापित किया जाता है, जो कालान्तर में समाज के लिए हितकारी होता है। इस प्रकार सदाचरण करने में भी परिवर्तन दिखाई देता है, परन्तु वास्तव में जो नैतिक मूल्य हैं, उनमें परिवर्तन नहीं होता है। जैसे सनातन (सदा बना रहने वाला, शाश्वत) धर्म नहीं बदलता है, उसी प्रकार नैतिक मूल्य भी स्थिर ही हैं। इस प्रकार धर्म और नीति में दृढ़ सम्बन्ध दिखाई देता है, परन्तु दोनों में अन्तर भी है। धर्म शब्द व्यापक है, नीति तो व्याप्त है, जो धर्म में ही विलीन हो जाती है। जो अवश्य करने योग्य कर्तव्य हैं, जिनसे पुण्य की प्राप्ति नहीं होती है, उनकी गणना महर्षियों और धर्माचार्यों ने धर्म में की है। नीति लौकिक कल्याण करती है, धर्म लौकिक और पारलौकिक कल्याण करता है। दोनों में कहीं मिश्रण भी प्राप्त होता है। धर्म तो अलौकिक शक्ति को प्रकट करता है। वह मुक्ति के मार्ग को भी प्रशस्त करता है। (UPBoardSolutions.com) परलोक को दिखाता है। और कल्पना करता है। नीति सांसारिक हित करती है, परन्तु नीति और धर्म का साथ सभी स्वीकार करते हैं।

(7) दार्शनिकैः, धर्माचार्यैः पौराणिकैश्च धर्मः परिभाषितः यथा-“यतोऽभ्युदयनिःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः” यतः यस्मात् कर्मणः, इहलोके कल्याणं जायते, परत्र परलोके च शोभनं स्थानं जनैः लभ्यते नरकापातो न भवेत् येन, स धर्मः। एवं महाभारते-ध्रियते धर्मः, धारणाद्धर्मः यतः धारयते प्रजाः। धर्मशास्त्रकारेण मनुना –

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीविद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥

इति मनुस्मृतौ दशस्वरूपको धर्मः उपवर्णितः। इत्थं धर्माचरणे नैतिकताचरणे च साङ्कर्यमुपलभ्यते। शब्दार्थ दार्शनिकैः = दर्शन (शास्त्र) के ज्ञाता। पौराणिकैः = पुराण को जानने वाले परिभाषितः = परिभाषित किया गया। अभ्युदय = उन्नति, समृद्धि। निःश्रेयस् सिद्धिः = कल्याण की प्राप्ति होती है। परत्र = दूसरे स्थान पर, परलोक में। लभ्यते = प्राप्त किया जाता है। नरकापातः = नरक में गिरना। धियते = धारण किया जाता है। धृतिः = धैर्य। दमः = दमन करना। अस्तेयम् = चोरी करना। शौचः = पवित्रता। धीः = बुद्धि। उपवर्णितः = उल्लिखित, वर्णित। साङ्कर्यम् = मिश्रण।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में धर्म की परिभाषा दी गयी है तथा धर्म के दस लक्षणों का उल्लेख भी किया गया है।

अनुवाद दार्शनिकों, धर्माचार्यों और पौराणिकों ने धर्म की परिभाषा दी है; जैसे-“जिससे उन्नति और कल्याण की प्राप्ति होती है, वह धर्म है। जिस कर्म से इस संसार में कल्याण होता है, परलोक और इस लोक में जिससे लोगों को सुन्दर स्थान प्राप्त होता है, नरक में पतन नहीं होता है, वह धर्म है। इसी प्रकार : महाभारत में कहा गया है कि “धारण किया जाता है, वह धर्म है। जिसे प्रजा को धारण कराया जाता है, वह धर्म है।” धर्मशास्त्रों के रचयिता मनु ने कहा है-“धैर्य, क्षमा, संयम, अचौर्य, शौच (पवित्रता), इन्द्रिय-निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, अक्रोध-ये दस धर्म के लक्षण हैं।”

मनुस्मृति में ऐसे दस स्वरूप वाले धर्म का वर्णन है। इस प्रकार धर्माचरण और नैतिकता के आचरण में मिश्रण प्राप्त होता है।

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(8) तीर्थाटनं, पावनासु नदीषु स्नानं, यजनं, याजनं, गुरुसेवा, मातृपितृसेवा, सन्ध्यावन्दनं, षोडशसंस्काराः एते मुख्यरूपेण धर्मपदवाच्याः। एषु कर्मसु नीतेः मिश्रणं नास्ति। अतः धर्मो व्यापकः। धृति-दया-सहिष्णुता-सत्य-परोपकाराद्याचरणेषु द्वयोः साङ्कर्यमस्ति। परमेतत् निश्चितं यत् द्वयोराचरणेन लोकस्य परमं कल्याणं जायते एव। नीतिकाराणां मते इमे नैतिकतायाः गुणाः यथा–जीवहिंसायाः विरक्तिः, परधनापहरणान्निवृत्तिः, सत्यभाषणं, पैशुन्यात् निवृत्तिः, सत्पात्रेभ्यः दीनेभ्यश्च दानं, (UPBoardSolutions.com) अतिलोभात् वितृष्णा, दया, सहिष्णुता, परोपकारः, गुरुजनेष्वनुरागः, श्रद्धा, विनयशीलता च। अनुत्सेकः, आतिथ्यं, न्याय्यावृत्तिः, परगुणेभ्यः ईष्र्याऽभावः, सत्सङ्गानुरक्तिः, दुष्टसङ्गान्निवृत्तिः, विपदि धैर्यम्, अभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता, समयस्य सदुपयोगः इत्यादयः नैतिकताचाराः एषामाचरणेनैव व्यक्तेः समाजस्य, राष्ट्रस्य विश्वस्य च सर्वथा कल्याणं सम्पद्यते।

तीर्थाटनं, पावनासु ……………………………………… विनयशीलता च। [2009]
तीर्थाटनं, पावना …………………………………. जायते एव।

शब्दार्थ पावनासु = पवित्रों में। यजनम् = यज्ञ करना। याजनं = यज्ञ कराना| नास्ति = नहीं है। परमेतत् = किन्तु यहा विरक्तिः = त्याग, छोड़ना। परधनापहरणात् = दूसरों का धन छीनने से। निवृत्तिः = छुटकारा। पैशुन्यात् = चुगली करने से। वितृष्णा = विरक्ति, अनिच्छा। अनुत्सेकः = गर्वहीनता। न्याय्यावृत्तिः = न्याय से अर्जित जीविका। विपदि = विपत्ति में। अभ्युदये = उन्नति में। सदसि = सभा में। वाक्पटुता = बोलने की कुशलता। सम्पद्यते = सम्पन्न होता है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में धर्म और नैतिकता के गुणों को बताया गया है और उन्हें अपनाने की प्रेरणा दी गयी है।

अनुवाद तीर्थयात्रा, पवित्र नदियों में स्नान, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, गुरु-सेवा, माता-पिता की सेवा, सन्ध्या-वन्दना आदि सोलह संस्कार-ये मुख्य रूप से धर्म शब्द के वाचक हैं। इन कामों में नीति का मिश्रण नहीं है; अत: धर्म व्यापक है। धैर्य, दया, सहनशीलता, सत्य, परोपकार आदि के आचरणों में दोनों (धर्म और नीति) का मिश्रण है। परन्तु यह निश्चित है कि दोनों के आचरण से संसार का अत्यधिक कल्याण होता ही है। नीतिकारों के मत में ये नैतिकता के गुण हैं; जैसे—जीवों की हिंसा से वैराग्य, दूसरों के धन के चुराने से छुटकारा, सत्य बोलना, चुगलखोरी से छुटकारा, सत्पात्रों और दोनों को दान देना, अधिक लोभ से विरक्ति, दयो, सहनशीलता, परोपकार, गुरुजनों पर अनुराग, श्रद्धा और विनयशीलता, गर्वहीनता, अतिथि-सत्कार, न्याय से अर्जित आजीविका, दूसरों के गुणों में ईष्र्या का अभाव, सत्संग में अनुरक्ति, दुर्जनों की संगति (UPBoardSolutions.com) से छुटकारा, विपत्ति में धैर्य धारण करना, उन्नति में क्षमाभाव, सभा में बोलने की चतुराई, समय का सदुपयोग इत्यादि नैतिकता के कार्य हैं। इनके आचरण से ही व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और संसार का सब तरह का कल्याण होता है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मनु द्वारा निर्धारित धर्म के दस लक्षण कौन-कौन-से हैं? [2006, 11]
या
मनु ने धर्म के क्या लक्षण बताये हैं? [2012, 13]
उत्तर :
धर्मशास्त्रों के रचयिता मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं –

  1. धैर्य
  2. क्षमा
  3. संयम
  4. अचौर्य
  5. शौच (पवित्रता)
  6. इन्द्रिय-निग्रह
  7. बुद्धि
  8. विद्या
  9. सत्य तथा
  10. अक्रोध।

प्रश्न 2.
नीति से सम्बन्धित संस्कृत साहित्य में उपलब्ध किन्हीं पाँच पुस्तकों व उनके लेखकों के नाम लिखिए।
उत्तर :
नीति से सम्बन्धित पाँच पुस्तकों व उनके लेखकों के नाम हैं –

  1. चाणक्य द्वारा रचित ‘चाणक्य-नीतिः
  2. विदुरकृत ‘विदुर-नीतिः
  3. भर्तृहरिकृत ‘नीतिशतकम्’
  4. घटकर्परकृत ‘नीतिसार:’ तथा
  5. सुन्दर पाण्डेय कृत ‘नीतिद्विषष्टिका।

प्रश्न 3.
मनुष्य के लिए नैतिक मूल्यों की क्या आवश्यकता है? [2007,09]
या
नैतिक मूल्यों का महत्त्व लिखिए।
उत्तर :
नैतिक मूल्यों से व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ती है। नैतिकता से ही व्यक्ति, समाज, देश और विश्व का कल्याण होता है। नैतिक आचरण से मानव में त्याग, तप, विनय, सत्य, न्यायप्रियता आदि गुणों का विकास होता है तथा समाज ईष्र्या, द्वेष, छल, कलह आदि दोषों से मुक्त होता है।

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प्रश्न 4.
धर्म और नीति का पारस्परिक सम्बन्ध बताइए। [2006]
या
धर्म को परिभाषित कीजिए।
या
नीति और धर्म का अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2011]
उत्तर :
उन्नति और कल्याण की प्राप्ति जिससे होती है, वह धर्म है। धर्म और नीति परस्पर एक भी हैं और अलग-अलग भी। धर्म लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार का कल्याण करता है, किन्तु नीति मात्र लौकिक कल्याण ही करती है। दोनों में परस्पर भेद होते हुए भी विद्वान् धर्म (UPBoardSolutions.com) और नीति के साहचर्य को स्वीकार करते हैं। धर्म व्यापक शब्द है और नीति व्याप्य। इस प्रकार सभी नैतिक गुण धर्म में निहित होते हैं। और नैतिकतापूर्ण आचरण ही व्यक्ति को समाज में विशिष्ट स्थान दिलाता है।

प्रश्न 5.
प्रमुख नीति-ग्रन्थों के नाम लिखिए। [2006,07,08]
या
नीतिशास्त्र के प्रमुख तीन ग्रन्थों के नाम लिखिए। [2013]
उत्तर :
नीति से सम्बन्धित कुछ प्रमुख ग्रन्थ हैं –

  1. चाणक्य-नीति
  2. विदुर-नीति
  3. विदुला-उपाख्यान
  4. पञ्चतन्त्र
  5. शुक्रनीति
  6. घटकर्पर नीतिसार
  7. सुन्दरपाण्डेय-नीतिद्विषष्टिका
  8. भल्लाट-शतकम्
  9. भर्तृहरि-नीतिशतकम्
  10. बल्लाल-शतकम्
  11. दृष्टान्तशतकम् इत्यादि।

प्रश्न 6.
नैतिकता का प्राणभूत तत्त्व क्या है? [2010, 11, 13, 14]
उत्तर :
दूसरों का हित करना की नैतिकता का प्राणभूत तत्त्व है।

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प्रश्न 7.
नैतिकता का मुख्य उद्देश्य क्या है? [2012]
उत्तर :
नैतिकता का मुख्य उद्देश्य है-अपना और दूसरों का कल्याण करना। कभी-कभी दूसरों का कल्याण करता हुआ मनुष्य अपनी हानि भी कर बैठता है। इस प्रकार का आचरण विशेष और महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

प्रश्न 8.
‘नैतिकमूल्यानि’ पाठ के आधार पर मानव-जीवन में नीति के महत्त्व को बताइए।
उत्तर :
जिस मार्ग से कार्य करने से मनुष्य का जीवन सुन्दर और सफल होता है, वह नीति कहलाता है। (UPBoardSolutions.com) नीति केवल मनुष्य और समाज के लिए ही नहीं अपितु मनुष्यों और राजाओं सभी के व्यवहार के लिए होती है। नीति के अनुसार चलने से प्रजा का, शासकों और समस्त संसार का कल्याण होता है।

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Class 10 Sanskrit Chapter 2 UP Board Solutions उद्भिज्ज परिषद् Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 2 Udbhij Parishad Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 2 हिंदी अनुवाद उद्भिज्ज परिषद् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

वृक्ष मनुष्य के सबसे बड़े हितैषी हैं और मनुष्य ने सबसे अधिक अत्याचार भी वृक्षों पर ही किया है। प्रस्तुत पाठ में यह कल्पना की गयी है कि यदि मनुष्यों द्वारा किये जा रहे अत्याचार के विरोध में वृक्ष सभा करें तो उनके सभापति का भाषण कैसा होगा? वह मनुष्यों की भाषा में वृक्षों को किस रूप में सम्बोधित करेगा? प्रस्तुत पाठ में अश्वत्थ (पीपल) को वृक्षों और लताओं की सभा का सभापति बनाया गया है, जिसने मनुष्यों की हिंसा-वृत्ति और लालची स्वभाव के (UPBoardSolutions.com) कारण मनुष्य को पशुओं से ही नहीं तिनकों से भी निकृष्ट सिद्ध किया है और अपनी बात की पुष्टि में तर्क और प्रमाण भी दिये हैं।

पाठ-सारांश [2007, 10, 11, 14]

उद्भिज्जों की सभा में अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष वृक्षों और लताओं को सम्बोधित करते हुए मानवों की निकृष्टता बता रहा है –

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मानव की हिंसा-वृत्ति जीवों की सृष्टि में मनुष्य के समान धोखेबाज, स्वार्थी, मायावी, कपटी और हिंसक प्राणी कोई नहीं है; क्योंकि जंगली पशु तो मात्र पेट भरने के लिए हिंसाकर्म करते हैं। पेट भर जाने पर वे वन-वन घूमकर दुर्बल पशुओं को नहीं मारते, जब कि मानव की हिंसावृत्ति की सीमा का अन्त नहीं है। वह अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए अपनी स्त्री, पुत्र, मित्र, स्वामी और बन्धु को भी खेल-खेल में मार डालता है। वह मन बहलाने के लिए जंगल में जाकर निरीह पशुओं को मारता है। उसकी पशु-हिंसा को देखकर तो जड़ वृक्षों का भी हृदय फट जाता है। दूसरे पशुओं की भक्ष्य वस्तुएँ नियमित हैं। मांसभक्षी पशु मांस ही खाते हैं, तृणभक्षी तृण (UPBoardSolutions.com) खाकर ही जीवन-निर्वाह करते हैं, परन्तु मनुष्यों में इस प्रकार के भक्ष्याभक्ष्य पदार्थों के सम्बन्ध में कोई निश्चित नियम नहीं हैं।

मानव का असन्तोष अपनी अवस्था में सन्तोष न प्राप्त करके मनुष्य-जाति स्वार्थ साधन में निरत है। वह धर्म, सत्य, सरलता आदि मनुष्योचित व्यवहार को त्यागकर झूठ, पापाचार और परपीड़न में लगी हुई है। उनकी विषय-लालसा बढ़ती ही रहती है, जिससे उन्हें शान्ति एवं सुख नहीं मिल पाता है। अपनी अवस्था में सन्तुष्ट रहने वाले पशुओं से मानव भला कैसे श्रेष्ठ हो सकता है; क्योंकि वह घोर-से-घोर पापकर्म करने में भी नहीं हिचकिचाता।

पशु से निकृष्ट और तृणों से भी निस्सार मानव मनुष्य केवल पशुओं से निकृष्ट ही नहीं है, वरन् वह तृणों से भी निस्सार है। तृण आँधी-तूफान के साथ निरन्तर संघर्ष करते हुए वीर पुरुषों की तरह शक्ति क्षीण होने पर ही भूमि पर गिरते हैं। वे कायर पुरुषों की तरह अपना स्थान छोड़कर नहीं भागते। लेकिन मनुष्य मन में भावी विपत्ति की आशंका करके कष्टपूर्वक जीते हैं और प्रतिकार का उपाय सोचते रहते हैं। निश्चित ही मनुष्ये पशुओं से भी निकृष्ट और (UPBoardSolutions.com) तृणों से भी निस्सार है। विधाता ने उसे बनाकर अपनी बुद्धि की कैसी श्रेष्ठता दिखायी है? तात्पर्य यह है कि मनुष्य को बनाकर विधाता ने कोई बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य नहीं किया है।

इस प्रकार अश्वत्थ (सभापति) ने हेतु और प्रमाणों द्वारा विशद् व्याख्यान देकर वृक्षों की सभा को विसर्जित कर दिया।

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गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) अथ सर्वविधविटपिनां मध्ये स्थितः सुमहान् अश्वत्थदेवः वदति-भो भो वनस्पतिकुलप्रदीपा महापादपाः, कुसुमाकोमलदन्तरुचः लताकुलललनाश्च। सावहिताः शृण्वन्तु भवन्तः। अद्य मानववार्तव अस्माकं समालोच्यविषयः। सर्वासु सृष्टिधारासु निकृष्टतमा मानवा सृष्टिः, जीवसृष्टिप्रवाहेषु मानवा इव परप्रतारका, स्वार्थसाधनापरा, मायाविनः, कपटव्यवहारकुशला, हिंसानिरता जीवा न विद्यन्ते। भवन्तो नित्यमेवारण्यचारिणः सिंहव्याघ्रप्रमुखान् हिंस्रत्वभावनया प्रसिद्धान् श्वापदान् अवलोकयन्ति प्रत्यक्षम्। ततो भवन्त एव सानुनयं पृच्छ्यन्ते, कथयन्तु भवन्तो यथातथ्येन किमेते हिंसादिक्रियासु मनुष्येभ्यो भृशं गरिष्ठाः? श्वापदानां हिंसाकर्म जठरानलनिर्वाणमात्रप्रयोजनकम्। प्रशान्ते तु जठारानले, सकृद् उपजातायां स्वोदरपूर्ती, न हि ते करतलगतानपि हरिणशशकादीन् उपघ्नन्ति। न वा तथाविध दुर्बलजीवघातार्थम् (UPBoardSolutions.com) अटवीतोऽटवीं परिभ्रमन्ति। [2007]

अथ सर्वविध ………………………… भृशं गरिष्ठाः [2008]
सर्वासु सृष्टिधारासु …………………….. भृशं गरिष्ठाः [2007]

शब्दार्थ अथ = इसके बाद विटपिनाम् = वृक्षों के अश्वत्थदेवः = पीपल देवता। कुसुमकोमलदन्तरुचः = फूलों के समान कोमल दाँतों की कान्ति वाली। लताकुलललनाश्च = और बेलों के वंश की नारियों। सावहिताः = सावधानी से। मानववातैव = मनुष्य की बात ही। समालोच्यविषयः = आलोचना करने योग्य विषय। निकृष्टतमाः = निकृष्टतम, सर्वाधिक निम्न। परप्रतारकाः = दूसरों को ठगने वाले। मायाविनः = कपट (माया) से भरे हुए। हिंसानिरताः = हत्या करने में लगे हुए। नित्यमेवारण्यचारिणः (नित्यम् + एव + अरण्यचारिणः) = नित्य ही वन में घूमने वालों को। श्वापदान् = हिंसक पशुओं को। अवलोकयन्ति = देखते हैं। सानुनयम् = विनयपूर्वका पृच्छ्य न्ते = पूछे जा रहे हैं। यथातथ्येन = वास्तविक रूप में। भृशम् = अत्यधिक गरिष्ठाः = कठोर। जठरानलनिर्वाणमात्रप्रयोजनकम् = पेट की क्षुधा शान्त करने (UPBoardSolutions.com) मात्र के प्रयोजन वाला। सकृत् = एक बार। करतलगतानपि = हाथ में आये हुओं को भी। उपघ्नन्ति = मारते हैं। अटवीतः अटवीम् = जंगल से जंगल में। परिभ्रमन्ति = घूमते हैं।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘उदिभज्ज-परिषद्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में पीपल के वृक्ष द्वारा मनुष्यों की निकृष्टता का वर्णन किया जा रहा है।

अनुवाद इसके बाद सभी प्रकार के वृक्षों के मध्य में स्थित अत्यन्त विशाल पीपल देवता कहता है कि हे वनस्पतियों के कुल के दीपकस्वरूप बड़े वृक्षो! फूलों के समान कोमल दाँतों की कान्ति वाली लतारूपी कुलांगनाओ! आप सावधान होकर सुनें। आज मानवों की बात ही हमारी आलोचना का विषय है। सृष्टि की सम्पूर्ण धाराओं में मानवों की सृष्टि सर्वाधिक निकृष्ट है। जीवों के सृष्टि प्रवाह में मानवों के समान दूसरों को धोखा देने वाले, स्वार्थ की पूर्ति में लगे हुए, मायाचारी, कपट-व्यवहार में चतुर और हिंसा में लीन जीव नहीं हैं। आप सदैव ही जंगल में घूमने वाले सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक भावना से प्रसिद्ध हिंसक जीवों को प्रत्यक्ष देखते हैं। इसलिए आपसे ही विनयपूर्वक पूछते हैं कि वास्तविक रूप में आप ही बताएँ, क्या हिंसा आदि कार्यों में ये मनुष्यों से अधिक कठोर हैं? हिंसक जीवों का हिंसा-कर्म पेट की भूख मिटानेमात्र के प्रयोजन वाला है। पेट की क्षुधाग्नि के (UPBoardSolutions.com) शान्त हो जाने पर, एक बार अपने पेट के भर जाने पर, वे हाथ में आये हुए हिरन व खरगोश आदि को भी नहीं मारते हैं और न ही उस प्रकार के कमजोर जीवों को मारने के लिए एक जंगल से दूसरे जंगल में घूमते रहते हैं।

(2) मनुष्याणां हिंसावृत्तिस्तु निरवधिः निरवसाना च। यतोयत आत्मनोऽपकर्षः समाशङ्कयते तत्र-तत्रैव मानवानां हिंसावृत्तिः प्रवर्तते। स्वार्थसिद्धये मानवाः दारान् मित्रं, प्रभु, भृत्यं, स्वजनं, स्वपक्षं, चावलीलायें उपघ्नन्ति। पशुहत्या तु तेषामाक्रीडनं, केवलं चित्तविनोदाय महारण्यम् उपगम्य ते यथेच्छ निर्दयं च पशुघातं कुर्वन्ति। तेषां पशुप्रहारव्यापारम् आलोक्य जडानामपि अस्माकं विदीर्यते हृदयम्, अन्यच्च पशूनां भक्ष्यवस्तूनि प्रकृत्या नियमितान्येव न हि पशवो भोजनव्यापारे प्रकृतिनियममुल्लङ्घयन्ति। तेषु ये मांसभुजः ते मांसमपहाय नान्यत् आकाङ्क्षन्ति। ये पुनः फलमूलाशिनस्ते तैरेव जीवन्ति। मानवानां न दृश्यते तादृशः कश्चिन्निर्दिष्टो नियमः। [2007, 14, 15)

पशुहत्या तु ………………………………… नियममुल्लङ्घयन्ति। [2007]
मनुष्याणां हिंसावृत्तिस्तु ………………………………….. प्रकृत्या नियमितान्येव। [2010]
स्वार्थसिद्धये मानवः …………………………………… निर्दिष्टो नियमः।

शब्दार्थ निरवधिः = सीमारहित निरवसाना = समाप्तिरहित। यतोयतः = जहाँ-जहाँ से। अपकर्षः = पतन। शङ्कयते = शंका करता है। तत्र-तत्रैव = वहाँ-वहाँ ही। प्रवर्तते = बढ़ती है। दारान् = पत्नियों को। प्रभुम् = स्वामी को भृत्यम् = सेवक को। लीलायै = मनोरंजन के लिए। उपघ्नन्ति = मार देते हैं। आक्रीडनम् = खेल। चित्तविनोदाय =मन के बहलाव के लिए। उपगम्य = पहुँचकर। पशु-धातम् = पशु-हत्या। आलोक्य = देखकर विदीर्यते = फटता है। अन्यच्च (अन्यत् + च) = और दूसरी ओर। मांसभुजः = मांस खाने वाले। अपहाय = छोड़कर। नान्यत् = अन्य नहीं। फलमूलाशिनस्ते (फल + मूल + अशिनः + ते) = फल और जड़ खाने वाले थे। तैरेव (तैः + एव) = उनसे ही।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मनुष्यों की हिंसावृत्ति की असीमता और अनियमितता का वर्णन किया गया है।

अनुवाद मनुष्यों की हिंसावृत्ति तो सीमारहित और समाप्त न होने वाली है। मनुष्य जिस-जिससे अपने पतन की आशंका करता है, वहीं-वहीं मनुष्यों की हिंसावृत्ति प्रारम्भ हो जाती है। स्वार्थ पूरा करने के लिए मनुष्य स्त्री, मित्र, स्वामी, सेवक, अपने सम्बन्धी और अपने पक्ष वाले को अत्यधिक सरलता से मार देता है। पशुओं की हिंसा तो उनका खेल है। केवल मनोरंजन के लिए बड़े जंगल में जाकर वे इच्छानुसार निर्दयता से पशुओं को मारते हैं। उनके पशुओं को मारने के कार्य को देखकर हम जड़ पदार्थों का भी हृदय फट जाता है। दूसरे, पशुओं की खाद्य वस्तुएँ स्वभाव (प्रकृति) से नियमित ही हैं। निश्चय ही पशु भोजन के कार्य में प्रकृति के नियम का उल्लंघन नहीं करते हैं। (UPBoardSolutions.com) उनमें जो मांसभोजी हैं, वे मांस को छोड़कर दूसरी वस्तु नहीं चाहते हैं। और जो फल-मूल खाने वाले हैं, वे उन्हीं से जीवित रहते हैं। मनुष्यों का उस प्रकार का कोई निश्चित नियम नहीं दिखाई पड़ता है।

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(3) स्वावस्थायां सन्तोषमलभमाना मनुजन्मानः प्रतिक्षणं स्वार्थसाधनाय सर्वात्मना प्रवर्तन्ते, न धर्ममनुधावन्ति, न सत्यमनुबध्नन्ति तृणवदुपेक्षन्ते स्नेहम्, अहितमिव परित्यजन्ति आर्जवम्, किञ्चिदपिलज्जन्ते अनृतव्यवहारात्, न स्वल्पमपि बिभ्यति पापाचरेभ्यं, न हि क्षणमपि विरमन्ति परपीडनात्। यथा यथैव स्वार्थसिद्धर्घटते परिवर्धते विषयपिपासा। निर्धनः शतं कामयते, शती दशशतान्यभिलषति, सहस्राधिपो लक्षमाकाङ्क्षति, इत्थं क्रमश एव मनुष्याणामाशा वर्धते। विचार्यतां तावत्, ये खलु स्वप्नेऽपि तृप्तिसुखं नाधिगच्छन्ति, सर्वदैव नवनवाशाचित्तवृत्तयो भवन्ति, सम्भाव्यते तेषु कदाचिदपि स्वल्पमात्रं शान्तिसुखम्? येषु क्षणमपि शान्तिसुखं नाविर्भवति ते खलु दुःखदुःखेनैव समयमतिवाहयन्ति इत्यपि किं वक्तव्यम्? कथं वा निजनिजावस्थायामेव तृप्तिमनुभवद्भ्यः पशुभ्यस्तेषां श्रेष्ठत्वम्? यद्धि विगर्हितं कर्म सम्पादयितुं पशवोऽपि लज्जन्ते तत्तु मानवानामीषत्करम् । नास्तीह किमपि अतिघोररूपं महापापकर्म यत्कामोपहतचित्तवृत्तिभिः मनुष्यैः नानुष्ठीयते। निपुणतरम् अवलोकयन्नपि अहं न तेषां पशुभ्यः कमपि उत्कर्षम् परमतिनिकृष्टत्वमेव अवलोकयामि।

स्वावस्थायां सन्तोषम् …………………………………. परपीडनात्। [2008]
स्वावस्थायां सन्तोषम् …………………………………. मनुष्याणाम् आशा वर्धते। [2011, 14]

शब्दार्थ अलभमाना = न प्राप्त करते हुए। मनुजन्मानः = मनुष्य योनि में जन्मे। सर्वात्मना = पूरी तौर से। प्रवर्तन्ते = लगे रहते हैं। अनुबध्नन्ति = अनुसरण करते हैं। तृणवदुपेक्षन्ते = तिनके के समान उपेक्षा करते हैं। आर्जवम् = सरलता को। अपलज्जन्ते = लज्जित होते हैं। अनृत = झूठे, असत्य। बिभ्यति = डरते हैं। विरमन्ति = रुकते हैं। घटते = पूरी होती है। परिवर्धते = बढ़ती है। कामयते = चाहता है। लक्षम् = लांख को। आकाङ्क्षति = चाहता है। विचार्यताम् = विचार कीजिए। नाधिगच्छन्ति (न + अधिगच्छन्ति) = नहीं प्राप्त करते हैं। कदाचिदपि (कदाचिद् + अपि) = कभी भी। आविर्भवति = उत्पन्न होता है। अतिवाहयन्ति = व्यतीत करते हैं। (UPBoardSolutions.com) विगर्हितम् = निन्दित। सम्पादयितुम् = पूरा करने के लिए। ईषत्करम् = तुच्छ कार्य। कामोपहतचित्तवृत्तिभिः = अभिलाषा से दूषित मनोवृत्ति वालों के द्वारा अनुष्ठीयते = किया जाता है। अवलोकयन् = देखते हुए। उत्कर्षम् = श्रेष्ठता को। परमतिनिकृष्टत्वमेव = अपितु अधिक नीचता को ही। अवलोकयामि = देखता हूँ।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में पीपल द्वारा मनुष्यों के जघन्य कृत्यों को बताया जा रहा है।

अनुवाद अपनी अवस्था में सन्तोष को न प्राप्त करने वाले मनुष्य प्रति क्षण स्वार्थसिद्धि के लिए पूरी तरह से लगे रहते हैं, धर्म के पीछे नहीं दौड़ते हैं, सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, स्नेह की तृण के समान उपेक्षा करते हैं, सरलता को अहित के समान त्याग देते हैं, झूठे व्यवहार से कुछ भी लज्जित नहीं होते हैं, पापाचारों से थोड़ा भी नहीं डरते हैं, दूसरों को पीड़ित करने से क्षणभर भी नहीं रुकते हैं। जैसे-जैसे स्वार्थसिद्धि पूर्ण होती जाती है, विषयों की प्यास बढ़ती जाती है। धनहीन सौ रुपये की इच्छा करता है, सौ रुपये वाला हजार रुपये चाहता है, हजार रुपये का स्वामी लाख रुपये चाहता है, इस प्रकार क्रमशः (UPBoardSolutions.com) मनुष्य की इच्छा बढ़ती जाती है। विचार तो कीजिए, जो निश्चित रूप से स्वप्न में भी तृप्ति के सुख को प्राप्त नहीं करते हैं, सदा ही नयी-नयी इच्छा से जिनका मन भरा रहता है, क्या उनमें कभी भी थोड़ी भी शान्ति के सुख की सम्भावना होती है? जिनमें क्षणभर भी शान्ति के सुख का उदय नहीं होता है, वे निश्चय ही महान् दु:खों में अपना समय बिताते हैं। इस विषय में भी क्या कहना चाहिए? अपनी-अपनी अवस्था में ही तृप्ति का अनुभव करने वाले पशुओं से उनकी श्रेष्ठता कैसे हो सकती है? जिस निन्दित कार्य को करने के लिए पशु भी लज्जित होते हैं, वह मनुष्यों के लिए तुच्छ काम है। इस संसार में अत्यन्त भयानक ऐसा कोई बड़ा पापकर्म नहीं है, जो लालसा से दूषित चित्तवृत्ति वाले मनुष्यों के द्वारा न किया जाता हो। अच्छी तरह देखता हुआ भी मैं पशुओं से उनके किसी उत्कर्ष को नहीं, अपितु अत्यन्त नीचता को ही देखता हूँ।

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(4) न केवलमेते पशुभ्यो निकृष्टास्तृणेभ्योऽपि निस्सारा इव। तृणानि खलु वात्यया सह स्वशक्तितः अभियुध्य वीरपुरुषा इव शक्तिक्षये क्षितितले पतन्ति, न तु कदाचित्, कापुरुषा इव स्वस्थानम् अपहाय प्रपलायन्ते। मनुष्याः पुनः स्वचेतसाग्रत एव भविष्यत्काले सङ्घटिष्यमाणं कमपि विपत्पातम् आकलय्य (UPBoardSolutions.com) दुःखेन समयमतिवाहयन्ति, परिकल्पयन्ति च पर्याकुला बहुविधान् प्रतीकारोपायान्, येन मनुष्यजीवने शान्तिसुखं मनोरथपथादपि क्रान्तमेव। अथ ये तृणेभ्योऽप्यसाराः पशुभ्योऽपि निकृष्टतराश्च, तथा च तृणादिसृष्टेरनन्तरं तथाविधं जीवनिर्माणं विश्वविधातुः कीदृशं बुद्धिप्रकर्षं प्रकटयति।

इत्येवं हेतुप्रमाणपुरस्सरं सुचिरं बहुविधं विशदं च व्याख्याय सभापतिरश्वत्थदेव उद्भिज्जपरिषदं विसर्जयामास।।

न केवलमेते। ……………………….. प्रपलायन्ते।
तृणानि खलु ……………………… पथादपि क्रान्तमेव। [2007]

शब्दार्थ निकृष्टतरास्तृणेभ्योऽपि =अधिक नीच हैं, तिनकों से भी। निस्साराः = सारहीन| वात्यया सह = आँधी के साथ। स्वशक्तितः = अपनी शक्ति से। अभियुध्य = युद्ध करके। शक्तिक्षये = शक्ति के नष्ट हो जाने पर। कापुरुषाः = कायर। अपहाय = छोड़कर। प्रपलायन्ते = भागते हैं। सङ्कटिष्यमाणम् = भविष्य में घटित होने वाले। विपत्पातम् = विपत्ति के आगमन को। आकलय्य = विचार करके। अतिवाहयन्ति = व्यतीत करते हैं। प्रतीकारोपायान् = रोकने के उपायों को। मनोरथपथादपि = इच्छा के मार्ग अर्थात् मन से भी। क्रान्तम् = हट गया। विश्वविधातुः = संसार की रचना करने वाले ब्रह्माजी के बुद्धिप्रकर्षम् = बुद्धि की श्रेष्ठता। प्रकटयति = प्रकट करता है। इत्येवम् = इस प्रकार हेतुप्रमाणपुरस्सरं = कारण के प्रमाणों को सामने रखकर। सुचिरं =अधिक समय तक विशदम् = विस्तृत, विस्तारपूर्वक व्याख्याय = व्याख्यायित करके विसर्जयामास = समाप्त कर दी।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मानव को पशुओं से ही नहीं, अपितु तृणों से भी निकृष्ट बताकर मनुष्य की निस्सारता का दिग्दर्शन कराया गया है।

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अनुवाद ये केवल पशुओं से ही निकृष्ट नहीं हैं, तृणों से भी सारहीन हैं। तिनके निश्चय ही आँधी के साथ अपनी शक्ति से युद्ध करके वीर पुरुषों की तरह शक्ति के नष्ट हो जाने पर ही पृथ्वी पर गिरते हैं, कभी भी कायर पुरुषों की तरह अपने स्थान को छोड़कर नहीं भागते हैं। मनुष्य अपने चित्त में पहले ही भविष्यकाल में घटित होने वाली किसी विपत्ति के आने (पड़ने) का विचार करके कष्ट से समय बिताते हैं और व्याकुल होकर अनेक प्रकार के उपायों को सोचते हैं, जिससे मनुष्य जीवन में शान्ति और सुख मनोरथ के रास्ते से भी हट जाता है। इस प्रकार जो तृणों से भी सारहीन हैं और पशुओं से भी नीच हैं तथा तृणादि की सृष्टि के बाद उस प्रकार के जीव का निर्माण करना, संसार के निर्माता की किस प्रकार की बुद्धि की श्रेष्ठता को प्रकट करता है? इस प्रकार हेतु और प्रमाण देकर बहुत देर तक अनेक प्रकार से विशद् व्याख्या करके सभापति पीपल ने वृक्षों की सभा को विसर्जित (समाप्त) कर दिया।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मनुष्यों की हिंसा-वृत्ति कैसी होती है?
उत्तर :
मनुष्यों की हिंसावृत्ति की सीमा का कोई अन्त नहीं है। मनुष्य स्वार्थसिद्धि के लिए स्त्री, पुत्र, स्वामी और बन्धु को भी अनायास मार डालता है और केवल मन बहलाने के लिए जंगल में जाकर पशुओं को मारता है। इनकी पशु-हिंसा को देखकर तो जड़ वृक्षों का हृदय भी फट जाता है।

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प्रश्न 2.
मनुष्य को किनसे निकृष्ट और किनसे निस्सार बताया गया है?
उत्तर :
मनुष्य केवल पशुओं से ही निकृष्ट नहीं है, वरन् वह तृणों से भी निस्सार है। तृण आँधी के साथ निरन्तर लड़ते हुए वीर पुरुषों की तरह शक्ति क्षीण होने पर ही भूमि पर गिरते हैं। वे कायर पुरुषों की तरह अपना स्थान छोड़कर नहीं भागते। लेकिन मनुष्य पहले ही मन में भावी विपत्ति की आशंका (UPBoardSolutions.com) करके कष्टपूर्वक जीते हैं और उसके प्रतिकार का उपाय सोचते रहते हैं।

प्रश्न 3.
‘उद्भिज्ज-परिषद्’ पाठ के आधार पर वृक्षों के महत्त्व पर आलेख लिखिए। [2012]
उत्तर :
[संकेत प्रस्तुत प्रश्न का उत्तर ‘जीवनं निहितं वने” नामक पाठ के आधार पर लिखा जा सकता है, प्रस्तुते पाठ के आधार पर नहीं। इस प्रश्न का उत्तर ‘जीवनं निहितं वने’ नामक पाठ से ही पढ़े।]

प्रश्न 4.
मनुष्य पशुओं से निकृष्ट क्यों है?
उत्तर :
मनुष्य पशुओं से निकृष्ट इसलिए है, क्योंकि पशु तो मात्र अपना पेट भरने के लिए हिंसा-कर्म करते हैं। लेकिन मनुष्य तो पेट भर जाने पर मात्र मनोरंजन के लिए वन-वन घूमकर दुर्बल पशुओं को मारता रहता है।

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प्रश्न 5.
वृक्षों की सभा का सभापतित्व किसने किया? उसने मनुष्यों में क्या-क्या दोष गिनाये हैं?
या
वृक्षों की सभा में सभापति कौन था? [2010, 11, 12, 14]
उत्तर :
वृक्षों की सभा को सभापतित्व अश्वत्थ (पीपल) के एक विशाल वृक्ष ने किया। उसने कहा कि मनुष्य अपनी अवस्था से सन्तुष्ट न रहकर सदैव स्वार्थ-साधन में लगा रहता है। वह सत्य, धर्म, सरलता आदि व्यवहारों को छोड़कर झूठ, पापाचार, परपीड़न आदि में लगा रहता है। उसकी विषय-लालसा (UPBoardSolutions.com) निरन्तर बढ़ती ही रहती है, जिससे उसे शान्ति व सुख की प्राप्ति नहीं होती। वह घोर-से-घोर पापकर्म करने में भी नहीं हिचकिचाता। ये ही दोष वृक्षों की सभा में सभा के सभापति द्वारा गिनाये गये।

प्रश्न 6.
हिंसक जीवों की हिंसा और मनुष्य की हिंसा में क्याअन्तर है? भोजन के विषय में पशु-पक्षियों के नियम बताइए। [2007]
या
मनुष्यों एवं पशुओं के हिंसा-कर्म का क्या प्रयोजन है? [2012, 15]
उत्तर :
हिंसक जीवों की हिंसा केवल पेट की भूख शान्त करने के लिए ही होती है। भूख शान्त हो जाने पर वे हिंसा नहीं करते। लेकिन मनुष्य अपनी भूख शान्त करने के लिए तो हिंसा करता ही है अपितु उसके बाद वह मनोरंजन के लिए भी हिंसा करता है। हिंसा तो उसके लिए खेल के समान है। भोजन के विषय में पशु-पक्षियों के निश्चित नियम हैं। मांसाहारी पशु मांस को छोड़कर दूसरी वस्तु नहीं खाते और फल-मूल खाने वाले उसी को खाते हैं, वे मांस नहीं खाते।

प्रश्न 7.
वृक्षों की सभा का विषय क्या है? [2011,14]
उत्तर :
वृक्षों की सभा का विषय मनुष्यों की हिंसा-वृत्ति और उनका लालची स्वभाव है। इस कारण वृक्षों ने मनुष्यों को पशुओं से ही नहीं वरन् तिनकों से भी निकृष्ट सिद्ध किया है।

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प्रश्न 8.
उद्भिज्ज-परिषद् में निकृष्टतम जीव किसको माना गया है? [2010]
उत्तर :
‘उद्भिज्ज-परिषद्” पाठ में निकृष्टतम जीव मनुष्य को माना गया है।

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