Class 9 Sanskrit Chapter 7 UP Board Solutions जडभरतः Question Answer

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 7
Chapter Name जडभरतः (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 25
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 7 Jada Bharata Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 7 हिंदी अनुवाद जडभरतः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय- भारतीय वाङमय में पुराणों का विशिष्ट स्थान है। इनकी संख्या कुल अठारह मानी गयी है। पुराणों में श्रीमद्भागवत पुराण एक अनुपम, ऐतिहासिक एवं धार्मिक ग्रन्थ है। इसमें समस्त पुराणों का सार संगृहीत है। इसीलिए अन्य पुराणों की तुलना में इसका सर्वाधिक प्रचार-प्रसार है। इसमें बारह स्कन्ध और अठारह हजार श्लोक हैं। प्रस्तुत कथा श्रीमद्भागवत् पुराण के पंचम स्कन्ध में वर्णित है।।
राजर्षि भरत एक महान् भक्त थे, किन्तु एक मृगशावक के मोह में पड़कर मृत्यु के समय भी उसी का स्मरण करते रहे और अगले जन्म में मृगयोनि में उत्पन्न हुए। भगवत्कृपा से पूर्वजन्म का स्मरण बना रहने से मृगयोनि को त्यागकर पुन: उच्च ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए और संसार से विरक्त रहकर (UPBoardSolutions.com) अवधूत वृत्ति से जीवन व्यतीत करते रहे। इन्होंने चोरों के सरदार का चण्डिका देवी के द्वारा विनाश कराया तथा राजा रहूगण को उपदेश देकर उनका अज्ञान दूर किया।

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पाठ-सारांश

राजा भरत– प्राचीनकाल में भारत में एक धर्मनिष्ठ और प्रजापालक भरत नाम के राजा हुए। बहुत समय तक राज्य करके, पुत्रों को राज्य-भार देकर वे स्वयं मुनि पुलह के आश्रम में हरिक्षेत्र चले गये। वहाँ वे भगवत्पूजा में सुखपूर्वक अपना जीवन बिताने लगे।

हरिण-शावक का मोह- एक दिन भरत गण्डकी नदी के किनारे ईश्वर-नाम का जप कर रहे थे। वहाँ जल पीने के लिए आयी हुई हिरनी सिंह के भयंकर शब्द को सुनकर नदी के पार चली गयी। नदी लाँघते समय उसका गर्भ नदी के प्रवाह में गिर पड़ा। जल-प्रवाह में बहते हुए मृगशिशु को उठाकर राजर्षि भरत अपने आश्रम में ले आये और बड़े प्रेम से उस्का पालन-पोषण करने लगे। जब वह मृगशावक बड़ा हुआ तो वह ऋषि को छोड़कर भाग गया। उसके वियोग में भरत इतने दु:खी हुए कि उसका स्मरण करते-करते ही उन्होंने प्राण (UPBoardSolutions.com) त्याग दिये और अपने अगले जन्म में मृगयोनि को प्राप्त किया। भगवदाराधना के कारण उनकी पूर्वजन्म की स्मृति नष्ट नहीं हुई थी। अपने मृगयोनि में जन्म लेने के मृगशावक के मोह के कारण को जानकर उन्हें बहुत दु:ख हुआ और वैराग्य-प्राप्त कर उन्होंने मृग-शरीर को त्याग दिया।

ब्राह्मण कुल में जन्म- भरत ने अगले जन्म में अंगिरा गोत्र के ब्राह्मण कुल में जन्म लिया। ब्राह्मण जाति में भी वह भगवान् का ध्यान करते हुए जड़, अन्धे, बहरे के समान आचरण करते थे। पिता की मृत्यु के बाद उनके भाइयों ने उन्हें जड़ (मूर्ख) जानकर घर से निकल दिया। घर छोड़ने के बाद वह मैले-कुचैले वस्त्र पहनकर तत्पश्चात् सर्दी, गर्मी, बरसात में बिना शरीर ढके और बिना स्नान किये घूमते रहते थे।

देवी के द्वारा, रक्षा- एक बार चोरों का सरदार पुत्र-प्राप्ति की इच्छा से देवी को बलि देने के लिए लाये गये पुरुष के भाग जाने पर भरत को चण्डी देवी के मन्दिर में बलि हेतु ले गया। (UPBoardSolutions.com) चोरों ने उन्हें देवी के सामने बैठाया और उनका सिर काटने के लिए तलवार उठायी। भद्रकाली ने ब्राह्मण को बलि के अयोग्य मानते हुए प्रकट होकर क्रोध से पापी चोरों के सिर काट दिये।

राजा रहूगण को उपदेश– एक बार सिन्धु-सौवीर देशों के राजा रहूगण ने कपिलाश्रम को जाते समय भरत को हृष्ट-पुष्ट समझकर पालकी ढोने के काम में लगा लिया। भरत पालकी ढोते समय भूमि को शुद्ध देखकर चल रहे थे; अतः पालकी को बार-बार ऊपर-नीचे होते देख रहूगण ने भरत को व्यंग्य भरे शब्द कहे। उपहास करते हुए रहूगण से जड़भरत ने कहा-“हे राजन्! आप ठीक कहते हैं। यदि कोई बोझ है तो वह शरीर का है, मेरा नहीं। मोटापा, दुबलापन, बीमारी आदि शरीर की हैं, मेरी नहीं; क्योंकि मैं देह के अभिमान से मुक्त हूँ।”

राजा ने ब्राह्मण के शास्त्रसम्मत वचन सुनकर पालकी से उतरकर उन्हें प्रणाम किया और पूछा कि आप दत्तात्रेय आदि में से कौन-से अवधूत हैं? मैं इन्द्र के वज्र से, शिव के शूल से, यम के दण्ड से भी इतना नहीं डरता, जितना ब्राह्मण कुल के अपमान से डरता हूँ। विज्ञान, रूप और प्रभाव को छिपाये जड़वत् घूमने वाले आप कौन हैं? तब जड़भरत ने राजा से कहा कि “हे राजन्! तुम अज्ञानी होते हुए भी ज्ञानी की तरह (UPBoardSolutions.com) बोल रहे हो। जब तक यह जीव माया को छोड़कर आत्म-तत्त्व को नहीं जानता, तब तक संसार में भटकता रहता है। इस प्रकार जड़भरत रहूगण को तत्त्व-ज्ञान का उपदेश देकर पुनः स्वच्छन्द विचरण करने लगे। राजा रहूगण ने भी देहाभिमान को त्याग दिया।

चरित्र चित्रण

जड़भरत

परिचय-जड़भरत का जन्म राजपरिवार में हुआ था। बाद में मृग-शिशु के मोह में पड़कर इन्होंने मृगयोनि में जन्म लिया। अन्त में अंगिरा गोत्र के ब्राह्मण कुल में जन्म लिया। इनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) महान् ईश्वर-भक्त–जड़भरत राजा होते हुए भी ईश्वर के परम भक्त थे। राज्य का सुख भोगकर ये भगवद्-भजन के लिए हरिक्षेत्र चले गये थे। ये अनेक पुष्प, तुलसी, जल से भगवान् की पूजा किया करते थे। मृग की योनि में भी इन्हें भगवत्कृपा से पूर्व जन्म का स्मरण था। ब्राह्मण कुल में (UPBoardSolutions.com) जन्म लेने पर इन्होंने अपने असली स्वरूप को छिपाकर जड़, अन्ध और बधिर के समाने आचरण किया। अपने तीनों ही जन्मों में ये पूर्वजन्म के ज्ञाता रहे और सद्भावक भी। सांसारिक मायाजन्य पापकर्म इन्हें किसी भी जन्म में छू तक नहीं पाया था। नर बलि दिये जाने के लिए प्रस्तुत किये जाने पर देवी द्वारा रक्षा किया जाना इनकी भगवद्-भक्ति का ही प्रभाव था।

(2) मृग-शावक के प्रति मोह- भगवत्पूजी में सुखपूर्वक जीवन बिताने पर भी भरत को मृर्ग-शावक का पालन करने के कारण उसके प्रति मोह हो गया था। उसके भाग जाने पर इन्होंने बहुत विलाप किया और उसी का स्मरण करते हुए देह-त्याग किया।

(3) समत्व योगी- जड़भरत की मान-अपमान में कोई रुचि नहीं थी। ब्राह्मण कुल में जन्म पाकर भी ये अपने वास्तविक स्वरूप को छिपाकर जड़, अन्ध और बधिरवत् आचरण करते रहे, जिसके परिणामस्वरूप भाइयों द्वारा घर से निकाल दिये गये। ये मैले-कुचैले वस्त्र पहनकर, सर्दी, गर्मी, वर्षा में शरीर को न ढककर, बिना स्नान किये विचरण करते थे। अज्ञ जनों के उपहास की इन्हें परवाह न थी। चोरों द्वारा नर बलि (UPBoardSolutions.com) के लिए ले जाने पर भी इन्होंने विरोध नहीं किया। ये राजा रहूगण द्वारा पालकी ढोने के काम में लगाये गये और इन्होंने उसके व्यंग्य-वचनों को ऐसे सह लिया, जैसे किसी ने कुछ कहा ही नहीं।

(4) अहिंसक वृत्ति- पालकी ढोते समय साफ भूमि देखकर चलना उनकी अहिंसक वृत्ति का परिचायक है।

(5) उच्च ज्ञानी एवं सदुपदेशक- जड़भरत परम ज्ञानी थे। रहूगण द्वारा अपमान किये जाने पर . भी उन्होंने उसे तत्त्व-ज्ञान की शिक्षा दी। उन्हें देहाभिमान नहीं था। सांसारिक माया को वे संसारपरिभ्रमण का कारण मानते थे। वे ब्रह्मनिष्ठ एवं आत्मज्ञानी पुरुष थे। उन्होंने राजा रहूगण को जिस उपदेशामृत का पान कराया उससे राजा रहूगण का देहाभिमान छूट गया और उसने सत्संगति के लिए ज्ञान के महत्त्व को (UPBoardSolutions.com) भली-भाँति जान लिया। अन्ततः उसने भी राज-पाठ को छोड़ दिया और देहाभिमान । से मुक्त हो गयी। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जड़भरत अहिंसक वृत्ति के, समत्वयोगी, अध्यात्मनिष्ठ, परम ज्ञानी एवं ईश्वर-भक्त पुरुष थे।

लघु उत्तरीय संस्कृत  प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित  प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए

प्रश्‍न 1
नृपः भरतः सर्वं विहाय कुत्र गतः?
उत्तर
नृपः भरतः सर्वं विहाय पुलहाश्रमं हरिक्षेत्रम् अगच्छत्।

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प्रश्‍न 2
राजर्षिः मृगयोनिं कथं प्राप्तः?
उत्तर
राजर्षे: मरणकाले मृगशावके आसक्तिः आसीत्, अतएव राजर्षिः मृगयोनिं प्राप्तः।

प्रश्‍न 3
भरतः मृगशरीरं विहाय कस्मिन् कुले जन्म लेभे?
उत्तर
भरत: मृगशरीरं विहाय अङ्गिरागोत्रस्य ब्राह्मणकुले जन्म लेभे?

प्रश्‍न 4
भद्रकाली देवी भरतस्य रक्षणाय किमकरोत्?
उत्तर
भद्रकाली देवी भरतस्य रक्षणाय पापिष्ठानां चौराणां वधमकरोत्।

प्रश्‍न 5
चौरराजः कस्माद् हेतोः पुरुषपशु भद्रकाल्यै दातुमियेष?
उत्तर
चौरराजः पुत्र कामनया पुरुषपशु भद्रकाल्यै दातुमियेष।

प्रश्‍न 6
रहूगणः कः आसीत्?
उत्तर
रहूगण: सिन्धुः सौवीरदेशयोः राजा आसीत्।।

प्रश्‍न 7
भरतः रहूगणाय किमुपादिशत्?
उत्तर
भरत: रहूगणाय देहाभिमानं त्यक्तुं मनोरूपं शत्रु हन्तुं हरेश्चरणोपासितुं च उपादिशत्।

वस्तुनिष्ठ प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए-

1. ‘जडभरतः’ नामक पाठ किस ग्रन्थ से लिया गया है?
(क) ‘अग्निपुराण’ से
(ख)’रामायण’ से
(ग) “श्रीमद्भागवत् पुराण’ से
(घ) ‘महाभारत’ से

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2. ‘श्रीमद्भागवत् पुराण’ के रचयिता कौन हैं?
(क) मनु
(ख) महर्षि अंगिरा
(ग) महर्षि वेदव्यास ।
(घ) महर्षि वाल्मीकि

3. ‘श्रीमद्भागवत्’ पुराण में कितने स्कन्ध और कितने श्लोक हैं?
(क) 12 स्कन्ध, 18 हजार श्लोक
(ख) 18 स्कन्ध, 12 हजार श्लोक
(ग) 18 स्कन्ध, 18 हजारे श्लोक
(घ) 5 स्कन्ध, 15 हजार श्लोक।

4. राजा भरत क्या करके पुलहाश्रम हरिक्षेत्र गये?
(क) बहुत काल तक राज्य-सुख भोगकर
(ख) पुत्रों में धन का विभाजन करके
(ग) सभी सम्पत्ति त्यागकर
(घ) उपर्युक्त तीनों कार्य करके

5. भरत किस नदी के तट पर प्रणव-जप कर रहे थे?
(क) गंगा के
(ख) नर्मदा के
(ग) गण्डकी के
(घ) गोमती के

6. भरत अगले जन्म में किस योनि में उत्पन्न हुए?
(क) देवयोनि में
(ख) गोयोनि में .
(ग) सिंहयोनि में ।
(घ) मृगयोनि में

7. चोरों के राजा द्वारा दी जा रही बलि से जड़भरत की रक्षा कैसे हुई?
(क) जड़भरत अवसर देखकर भाग आये
(ख) पुरोहित ने उन्हें बलि के अयोग्य बताया।
(ग) चोरों के राजा को जड़भरत पर दया आ गयी।
(घ) चण्डी ने प्रकट होकर जड़भरत की रक्षा की

8. ‘सिन्धसौवीर’ देश के राजा का नाम था
(क) भरत
(ख) रहूगण
(ग) पुलह
(घ) दत्तात्रेय

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9. रहूगण ने जडभरत की बातों से उनको क्या समझा?
(क) तत्त्वज्ञानी
(ख) असत्यभाषी
(ग) मूर्ख
(घ) पागल

10. रहूगण ने पालकी से उतरकर किसको प्रणाम किया?
(क) जड़भरत को ,
(ख) दत्तात्रेय को।
(ग) चोरों के सरदार को
(घ) भद्रकाली को

11. ‘त्वं सत्यं जानासि ज्ञानिनस्तु मिथ्यात्वेन जानन्ति’, में त्वं’ शब्द किसके लिए प्रयुक्त हुआ। है?
(क) जड़भरत के लिए।
(ख) रहूगण के लिए।
(ग) भद्रकालीन के लिए
(घ) चोरों के सरदार के लिए

12. ‘हे राजन्! त्वमविद्वानपि ज्ञानीव वदसि। अतस्त्वं ज्ञानिनां मध्ये श्रेष्ठो न भवसि।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) चौरराजः
(ख) रहूगणः
(ग) जडभरतः
(घ) भद्रकाली

13. ‘तं श्रुत्वा हरिणी •••••••••• सहसैव नदीमुल्लङ्कितवती।’ वाक्य में रिक्त-पद की पूर्ति होगी
(क) “वृकभयेन’ से ।
(ख) ‘गजभयेन से
(ग) ‘सिंहभयेन’ से
(घ) “शृगालभयेन’ से

14. ‘चौरराजः ••••••••••• सन् भद्रकाल्यै पुरुषपशुमालब्धं प्रवृत्तः।’ वाक्य में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी
(क) ‘सिद्धिकाम:’ से
(ख) अर्थकामः’ से
(ग) ‘राज्यकामःसे।
(घ) “पुत्रकाम: से

15. साधु गच्छत्, कथं यानं विषमं नीयते?’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) रहूगणः
(ख) चौरराजः
(ग) जडभरतः
(घ) वोढारः

16. “हे वीर! यदि कश्चिद् भारः स्यात् स हि वोढुः देहस्य न मम।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) रहूगणः
(ख) चौरराजः
(ग) जडभरतः
(घ) भद्रकाली

17. ‘हे राजन्! त्वमविद्वानपि ••••••••••वदसि।’ वाक्य में रिक्त-पद की पूर्ति होगी ।
(क) ज्ञानीव
(ख) अज्ञानीव
(ग) मूढेव
(घ) जडमिव

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18. ‘तव मुर्हतमात्रसङ्गात् मम अविवेको नष्टः।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति? ।
(क) रहूगणः
(ख) जडभरतः
(ग) चौरराजः
(घ) चण्डिका

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Class 10 Sanskrit Chapter 2 UP Board Solutions कारुणिको जीमूतवाहनः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 2 Karuniko Jimutvahan Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 2 हिंदी अनुवाद कारुणिको जीमूतवाहनः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

प्रस्तुत पाठ महाकवि हर्ष द्वारा विरचित ‘नागानन्द’ नामक नाटक से संगृहीत है। इसमें जीमूतवाहन नामक विद्याधर-राजकुमार के द्वारा आत्मोत्सर्ग करके शंखचूड़ नामक सर्प को गरुड़ से बचाने का वर्णन है। नाटक में पाँच अंक हैं। इस नाटक पर बौद्ध धर्म का (UPBoardSolutions.com) प्रभाव परिलक्षित होता हैं। बौद्ध धर्म में अहिंसा का बहुत अधिक महत्त्व है। यह नाटक भी अहिंसा, आत्म-बलिदान और परोपकार का उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस नाटक की भाषा अत्यधिक सरल और सुबोध है तथा भाव-सौन्दर्य की दृष्टि से भी यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इस नाटक में शान्त और करुण रस की प्रधानता है।

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पाठ-सारांश

जीमूतवाहन की खोज – जीमूतवाहनं समुद्र-तट को देखने के कुतूहल से समुद्र-तट पर गया हुआ था। वह बहुत देर तक लौटकर नहीं आता है; अतः महाराज विश्वावसु द्वारपाल को उसके घर यह पता करने के लिए भेजते हैं कि जीमूतवाहन वहाँ पहुँचा या नहीं। द्वारपाल वहाँ जाकर देखता है कि जीमूतवाहन के पिता जीमूतकेतु की सेवा उनकी पत्नी और पुत्रवधू द्वारा की जा रही है। वह जाकर कहता है कि महाराज विश्वावसु ने जीमूतवाहन का समाचार न मिल पाने के कारण उसे जानने के लिए आपके पास भेजा है। यह सुनकर जीमूतकेतु, उसकी पत्नी और पुत्रवधू अत्यन्त चिन्तित होते हैं कि जीमूतवाहन कहाँ गया? कहीं उसका कोई अमंगल तो नहीं हो गया? इसी समय अमंगलसूचक उनका बायाँ नेत्र भी फड़कता है।

चूड़ामणि की प्राप्ति – उसी समय गीले मांस और बालों से युक्त एक चूड़ामणि उनके पैरों पर आकर गिरती है।इस मणि को वे जीमूतवाहन का ही समझकर दुःखी हो जाते हैं। लेकिन द्वारपाल उन्हें सान्त्वना देते हुए कहता है कि ऐसे चूड़ामणि तो गरुड़ के द्वारा खाये गये सर्यों के गिरते हैं। (UPBoardSolutions.com)  इसके बाद जीमूतकेतु अपने पुत्र जीमूतवाहन का पता लगाने के लिए प्रतिहार को उसके ससुर के घर भेज देते हैं।

शंखचूड़ का आगमन – द्वारपाल के चले जाने के बाद रक्तवस्त्र पहने शंखचूड़ नामक सर्प वहाँ आता है। उसे देखकर और चूड़ामणि को उसी का समझकर सब निश्चिन्त हो जाते हैं। तब शंखचूड़ उनसे कहता है कि यह चूड़ामणि मेरा नहीं है। मुझे वासुकि ने पूर्व निश्चित शर्त के अनुसार गरुड़ के भोजन के लिए उसके पास भेजा था। किन्तु किसी दयालु विद्याधर ने गरुड़ को अपने प्राण देकर मेरी रक्षा की है। दूसरों का उपकार करने वाला वह जीमूतवाहन ही है, ऐसा सोचकर जीमूतवाहन के माता-पिता एवं पत्नी तीनों मूर्च्छित हो जाते हैं।

उन्हें ऐसी अवस्था में देखकर शंखचूड़ रोता हुआ सोचता है कि ये दोनों निश्चित ही उसे महाभाग के माता-पिता हैं। मैंने अप्रिय वचन कहकर इनके हृदय को दुःखी किया है। अब मेरा यह कर्तव्य हो जाता है कि मैं अपने प्राण दे ६ या इन दोनों को धैर्य दिलाऊँ? अन्ततः वह उन्हें धैर्य दिलाने का निश्चय करता है।

गरुड़ के पास जाना – इसके बाद शंखचूड़ उन्हें सान्त्वना देता हुआ कहता है कि उसे नाग न जानकर सम्भव है कि गरुड़ उसे न खाये। अत: हम खून की धारा का अनुसरण करते हुए गरुड़ के पास चलते हैं। शंखचूड़ के पीछे-पीछे जीमूतवाहन के माता-पिता भी गरुड़ के पास जाते हैं।

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अपने सम्मुख पड़े हुए जीमूतवाहन के पास गरुड़ बैठा हुआ है और सोच रहा है कि जन्म के बाद से मैंने अभी तक केवल नागों को ही खाया है, परन्तु यह महान् प्राणी कौन है, जो मेरे द्वारा खाया जाता हुआ भी प्रसन्न दिखाई दे रहा है। तब गरुड़ उसको खाना छोड़कर उससे पूछता है कि वह कौन है? जीमूतवाहन कहता है कि पहले तुम मेरे मांस और रक्त से अपनी भूख मिटा लो, परन्तु गरुड़ उसका मांस खाने का विचार छोड़ देता है।

इसके बाद गरुड़ के पास जाकर शंखचूड़ उससे कहता है कि यह नाग नहीं है; अत: तुम इसे छोड़कर मुझे ही खाओ, क्योंकि पूर्व शर्त के अनुसार वासुकि ने तुम्हारे खाने के लिए मुझे ही भेजा है।

जीमूतकेतु का आगमन – उसी समय जीमूतवाहन के पिता उसकी माता और पत्नी समेत वध-स्थल पर पहुँच जाते हैं। जीमूतवाहन उन्हें देखकर शंखचूड़ से चादर द्वारा अपने शरीर को ढकने के लिए कहता है, क्योंकि उसे आशंका है कि उसके माता-पिता उसे इस अवस्था में देखकर निश्चित ही अपने प्राण त्याग देंगे।

जीमूतवाहन की मृत्यु – इसके बाद जीमूतकेतु पत्नी व पुत्रवधू के साथ वहाँ आते हैं। गरुड़ जीमूतकेतु को आया हुआ देखकर अत्यधिक दु:खी और लज्जित होता है। पहले तो जीमूतवाहन को देखकर उसके माता-पिता प्रसन्न होते हैं परन्तु जब (UPBoardSolutions.com) जीमूतवाहन के उठने पर उसकी चादर गिर जाती है और जीमूतवाहन स्वयं मूच्छित हो जाता है तब उसकी उस अवस्था को देखकर उसके माता-पिता व पत्नी भी मूच्छित हो जाते हैं। जीमूतवाहन की माता लोकपालों से अमृत की वर्षा करने के लिए प्रार्थना करती है। गरुड़ इन्द्र की प्रार्थना करके अमृत को लाने तथा जीमूतवाहन और पहले खाये गये नागों को जीवित करने के लिए चला जाता है।

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जीमूतवाहन का जीवित होना इसके बाद पार्वती आकर जीमूतवाहन पर जल छिड़ककर उसे जीवित करती हैं। सभी पार्वती के चरणों में गिरते हैं। उसी समय गरुड़ के द्वारा जीमूतवाहन और सभी नागों को जीवित करने के लिए अमृत की वर्षा की जाती है। सभी नाग जीवित हो जाते हैं।

इस नाटक से हमें यह शिक्षा मिलती है कि दूसरे के प्राणों की रक्षा के लिए हमें अपने प्राणों की बाजी लगा देने में भी संकोच नहीं करना चाहिए, क्योंकि परोपकार सबका कल्याण करने वाला होता है। हमें किसी भी कार्य को करने से पूर्व भली-भाँति विचार लेना चाहिए तथा किये हुए अशुभ कार्य का प्रायश्चित्त अवश्य करना चाहिए।

चरित्र-चित्रण

जीमूतवाहन [2006,07,08, 10, 11, 12, 13, 15]

परिचय जीमूतवाहन विद्याधर जाति का और गन्धर्वराज जीमूतकेतु का पुत्र है। उसकी पत्नी का नाम मलयवती है। वह परोपकारी, दयालु, मातृ-पितृभक्त और असाधारण व्यक्तित्व का प्राणी है। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1.त्यागमय जीवन – जीमूतवाहन का जीवन त्यागमय है। गरुड़ के साथ वासुकि की यह शर्त थी कि वह गरुड़के भोजन के लिए प्रतिदिन एक सर्प को भेज दिया करेगा। क्रमशः शंखचूड़ नामक सर्प की बारी आती है। शंखचूड़ की माता की करुण-क्रन्दन सुनकर जीमूतवाहन शंखचूड़ के प्राणों की रक्षा करने हेतु वध के लिए निश्चित लाल वस्त्रों को पहनकर गरुड़ के पास वधस्थल पर चली जाती है और गरुड़ के द्वारा रक्त पिये जाते हुए भी तनिक विचलित नहीं होता, यह उसके महान् त्याग का परिचायक है।

2. निर्भीक – जीमूतवाहन निर्भीक व्यक्ति है। गरुड़ के भक्षणार्थ जाने के लिए वह तनिक भी विचलित नहीं होता। गरुड़ के द्वारा पेट फाड़ डालने पर भी उसकी मुखकान्ति मलिन नहीं होती। वह गरुड़ को अपने रक्तऔर मांस से तृप्त हो जाने के लिए कहता है। इससे उसकी निर्भीकता सिद्ध होती है।

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3. मातृ-पितृभक्त – जीमूतवाहन अपने माता-पिता का भक्त है। वह उन्हें दु:खी नहीं देखना चाहता। इसीलिए उनको वध-स्थल पर आया हुआ देखकर शंखचूड़ से अपने शरीर पर चादर डालने के लिए कहता है, क्योंकि वह नहीं चाहता है कि वे उसकी विपन्न दशा देखें। घायल होने पर भी (UPBoardSolutions.com) वह उनका अभिवादन करने के लिए उठता है। उसकी यह गुण उसके मातृ-पितृभक्त होने का परिचायक है।

4. दयालु – जीमूतवाहन स्वभाव से दयालु है। वह किसी के कष्ट को नहीं देख पाता। शंखचूड़ की माँ को विलाप सुनकर वह गरुड़ का भोजन बनने के लिए स्वयं वधस्थल पर पहुँच जाता है और उसे आसन्न मृत्यु से बचा लेता है।

5. प्रभावशाली – जीमूतवाहन एक प्रभावशाली युवक है। शंखचूड़ उसके अनुपम त्याग से तो प्रभावित होता ही है; गरुड़ के ऊपर भी उसका ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वह सदा के लिए हिंसा करना छोड़ अहिंसक बन जाता है तथा सभी नागों को जीवित करने के लिए अमृत की वर्षा करता है।

6. विनयशील – जीमूतवाहन विनम्र और विनयशील है। वह सभी के साथ विनम्रता का व्यवहार करता है। तथा अपने व्यवहार से किसी को भी कष्ट देना नहीं चाहता। उसके इसी गुण के कारण उसके पिता तथा श्वसुर दोनों ही उससे अपार स्नेह करते हैं।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जीमूतवाहन त्यागी, परोपकारी, मातृ-पितृभक्त, दयालु और प्रभावशाली व्यक्तित्व का स्वामी है।

गरुड़ [2010, 1]

परिचय गरुड़ पक्षीराज तथा विष्णु का वाहन है, ऐसी पौराणिक मान्यता है। गरुड़ का सर्वप्रिय खाद्य सर्प है। प्रस्तुत नाट्यांश में भी उसका इसी रूप में वर्णन आया है। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

1. दयालु – यद्यपि गरुड़ मांसाहारी जीव है, तथापि उसमें दया का अभाव नहीं है। अपने भक्ष्य के रूप में आये जीमूतवाहन को देखकर उसके हृदय में दया-भाव जाग्रत होता है और वह उसे खाना छोड़कर उसका परिचय पूछता है। जीमूतवाहन की मृत्यु से उसके माता-पिता-पत्नी (UPBoardSolutions.com) को मूर्च्छित होते देखकर वह दु:खी हो जाता है। इन्द्र से अमृत वर्षा कराकर समस्त सर्यों को जीवित कराने के पुनीत कार्य से भी उसकी दयालुता को भान होता है।

2. बलशाली – गरुड़ बलशाली पक्षी है। भगवान् विष्णु का वाहन होने के कारण उसके बलशाली होने का संकेत भी मिलता है। दूसरे सर्प जाति का विनाश करने और सर्पराज वासुकि द्वारा उससे समझौता कर स्वयं उसका भोज्य पदार्थ उसे उपलब्ध कराने के प्रसंग से भी उसके बलशाली होने की पुष्टि होती है।

3. प्रायश्चित्त करने वाला – सर्यों के राजा वासुकि के प्रार्थना करने पर वह सर्यों के अन्धाधुन्ध विनाश को रोक देता है और अपने भोजन हेतु प्रतिदिन एक सर्प देने के लिए वासुकि से कहता है। जीमूतवाहन के प्रसंग मे भी उसे अपने किये पर पश्चात्ताप होता है और वह उसके प्रायश्चित्त के लिए इन्द्र से अमृत वर्षा कराकर सभी सर्यों को पुनर्जीवित तो करता ही है, साथ ही प्रायश्चित्तस्वरूप सदैव के लिए अहिंसक भी बन जाता है।

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4. गुणग्राही और विवेकशील – गरुड़ गुणग्राही पक्षी है। जीमूतवाहन के त्याग, परोपकार एवं आत्म-बलिदान के गुणों को देखकर उसका हृदय द्रवित हो उठता है। उसके गुणों से प्रभावित होकर वह उसे खाना त्यागकर उसका परिचय पूछता है और अन्ततः अपने कर्म के अनौचित्य पर पश्चात्ताप करता हुआ सभी सर्यों को जीवित करा देता है। यह तथ्य उसके गुणग्राही और विवेकशील होने को इंगित करता है। निष्कर्ष रूमें कहा जा सकता है कि गरुड़ समझौतावादी, सिद्धान्तवादी, विवेकशील, गुणग्राही, क्षमाशील, दयालु और पराक्रमी पक्षी है।

शंखचूड़ [2009,10, 12, 15]

परिचय शंखचूड़ एक गुणग्राही सर्प है, जिसको सर्पराज वासुकि के समझौतानुसार गरुड़ का भोजन बनने के लिए उसके पास भेजा गया है। उसके माता-पिता का उस पर विशेष स्नेह है। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

1. दयावान् – शंखचूड़ एक दयावान् सर्प है। वह दूसरे के दुःखों को सहन नहीं कर (UPBoardSolutions.com) पाता है। जीमूतवाहन के माता-पिता एवं उसकी पत्नी की दीनदशा को देखकर उसका हृदय दया से भर जाता है। वह अपने को धिक्कारने लगता है कि यह मैंने क्या कर दिया।

2. बुद्धिमान्  जीमूतवाहन के माता-पिता जब उसके द्वारा सुनाये गये वृत्तान्त को सुनकर मूर्च्छित हो जाते हैं तो वह यह जान लेता है कि ये दोनों उस उपकारी के ही माता-पिता हैं। उसकी चेतना लौट आने पर वह उनसे कहता है कि गरुड़ ने जीमूतवाहन को सर्प न होने के कारण शायद न खाया हो और वह जीवित हो। हमें रक्त के चिह्नों का अनुसरण करते हुए उसकी खोज करनी चाहिए। अन्तत: वह उसे खोजने में सफल भी हो जाता है। ये दोनों ही घटनाएँ उसके बुद्धिमान् होने का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं।

3. सत्यवादी – शंखचूड़ सत्यवादी सर्प है। वह जीमूतवाहन के माता-पिता से सम्पूर्ण वृत्तान्त सही-सही बता देता है। इसके उपरान्त वह गरुड़ के पास पहुँचकर अपने प्राणों की चिन्ता न करते हुए उससे सच-सच बता देता है कि तुम्हारा भक्ष्य जीमूतवाहन नहीं, मैं हूँ। तुम मुझे खाकर अपनी क्षुधा शान्त करो।

4. आशावादी – शंखचूड़ एक आशावादी नाग है। उसे आशा है कि नाग न होने के कारण गरुड़ ने जीमूतवाहन को छोड़ दिया होगा। इसी आशा से वह जीमूतवाहन के शरीर से टपकते हुए रक्त के सहारे गरुड़ तक पहुँच जाता है।

5. निर्भीक – शंखचूड़ एक निर्भीक सर्प है। उसे मृत्यु का भय नहीं है। इसीलिए वह जीमूतवाहन को (UPBoardSolutions.com) बचाने के लिए गरुड़ के पास जाता है और उससे कहता है कि उसका (गरुड़ का) भोजन बनने की आज उसकी (शंखचूड़ की) बारी है। अतः वह जीमूतवाहन को छोड़कर उसे खा ले।

निष्कर्ष रूप में हमें कह सकते हैं कि शंखचूड़ एक दयावान्, निर्भीक, आशावादी, सत्यवादी और बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण चरित्र वाला एक नाग है, जो अन्तत: जीमूतवाहन के प्राण बचाने में सफल होता है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जीमूतवाहनस्य वार्तामन्चेष्टुं महाराजविश्वावसुना प्रतीहारः कुत्र प्रेषितः ?
उत्तर :
जीमूतवाहनस्य वार्ताम् अन्वेष्टुं महाराजविश्वावसुनी प्रतीहारः जीमूतकेतोः समीपं प्रेषितः।

प्रश्न 2.
जीमूतवाहनः कस्य पुत्रः आसीत् ? [2008, 09, 11]
उत्तर :
जीमूतवाहन: जीमूतकेतोः पुत्रः आसीत्।

प्रश्न 3.
शङ्खचूडः कः आसीत् ? [2006,09, 11, 12, 13, 14, 15]
उत्तर :
शङ्खचूड: एकः नागः आसीत्।

प्रश्न 4.
जीमूतवाहनः फणिनः प्राणान् परिरक्षितं किमकरोत् ?
उत्तर :
जीमूतवाहनः फणिनः प्राणान् रक्षितुं गरुडाय स्वदेहं समर्पयत्।

प्रश्न 5.
गरुडेनकः व्यापादितः ? [2006,07,09, 10]
उत्तर :
गरुडेन जीमूतवाहन: व्यापादितः।

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प्रश्न 6.
जीमूतवाहनः कथं प्रत्युज्जीवितः कृतः ? [2008]
उत्तर :
जीमूतवाहनः गौर्या कमण्डलु-उदकेन अभिषिच्य (UPBoardSolutions.com) प्रत्युज्जीवितः अभवत्।

प्रश्न 7.
अनभ्रा वृष्टिः कथम् अभवत् ? [2009, 15]
उत्तर : 
जीमूतवाहनम् अस्थिशेषान् उरगपतीन् च प्रत्युज्जीवयितुम् अनभ्रा वृष्टिः अभवत्।

प्रश्न 8.
जीमूतवाहनस्य पिता कः आसीत् ? [2006,07,08,09]
या
जीमूतवाहनः पितुः किं नाम? [2011]
उत्तर :
जीमूतवाहनस्य पिता जीमूतकेतुः आसीत्।

प्रश्न 9.
जीमूतवाहनः केन व्यापादितः ?
उत्तर :
जीमूतवाहनः गरुडेन व्यापादितः।

प्रश्न 10.
नागानन्दनाटकस्य प्रणेतुः किं नाम आसीत् ? [2011]
उत्तर :
नागानन्दनीटेकस्य प्रणेतुः नाम महाकवि हर्षः आसीत्।

प्रश्न 11.
जीमूतवाहनः कः आसीत् ? [2013]
उत्तर :
जीमूतवाहनः गन्धर्वराज जीमूतकेतोः पुत्रः विद्याधर-वंशतिलकः च आसीत्।

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प्रश्न 12.
नागानन्दस्य नाटकस्य रचयिता कः आसीत् ? [2014]
उत्तर :
नागानन्दस्य नाटकस्य रचयिता महाकविः (UPBoardSolutions.com) हर्षः आसीत्।

बहुविकल्पीय प्रश्न

अधोलिखित प्रश्नों में प्रत्येक प्रश्न के उत्तर-रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए –
[संकेत – काले अक्षरों में छपे शब्द शुद्ध विकल्प हैं।]

1. ‘कारुणिको जीमूतवाहनः’ शीर्षक पाठ किस कृति से संकलित है?

(क) “पुरुष-परीक्षा से
(ख)‘नागानन्दम्’ से
(ग) “बुद्धचरितम्’ से
(घ) “जातकमाला’ से

2. जीमूतवाहन के अनुपम त्याग को दर्शाने वाला नाटक ‘कारुणिको जीमूतवाहनः’ किस धर्म से सम्बद्ध है?

(क) बौद्ध धर्म
(ख) सिक्ख धर्म
(ग) जैन धर्म
(घ) पारसी धर्म

3. परोपकारी विद्याधर राजकुमार का क्या नाम है?

(क) विश्वावसु
(ख) शंखचूड़
(ग) जीमूतवाहन
(घ) जीमूतकेतु

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4. जीमूतवाहन और जीमूतकेतु का परस्पर क्या सम्बन्ध है ?

(क) पुत्र-पिता
(ख) पिता-पुत्र
(ग) भाई-भाई
(घ) स्वामी-सेवक

5. मलयवती जीमूतवाहन की कौन थी ?

(क) माता
(ख) पत्नी
(ग) पुत्री
(घ) दासी

6. जीमूतवाहन किसकी रक्षा करता है ?

(क) शंखचूड़ की
(ख) वासुकि की
(ग) गरुड़ की
(घ) विश्वावसु की

7. ‘कारुणिको जीमूतवाहनः’पाठ में सर्पराज किसे कहा गया है?

(क) वासुकि को
(ख) गरुड़ को
(ग) शंखचूड़ को
(घ) विश्वावसु को

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8. गरुड़ ने जीमूतवाहन का मांस क्यों खाया?

(क) उसकी जीमूतवाहन से शत्रुता थी
(ख) उसको जीमूतवाहन का मांस प्रिय था
(ग) उसने जीमूतवाहन को नाग समझा था
(घ) इनमें से कोई नहीं

9. ‘कारुणिको जीमूतवाहनः’ शीर्षक पाठ में ‘नायिका’ कौन है?

(क) शंखचूड़ की माता
(ख) जीमूतवाहन की सास
(ग) जीमूतवाहन की माता
(घ) जीमूतवाहन की पत्नी

10. ‘कारुणिको जीमूतवाहनः’ पाठ में ‘देवी’ के रूप में किसको प्रस्तुत किया गया है ?

(क) शंखचूड़ की माँ को
(ख) जीमूतवाहन की माँ को
(ग) पार्वती को।
(घ) जीमूतवाहन की पत्नी को

11. “वत्स! अवितथैषा तव भारती भवतु। वयमपि त्वरितमेवानुगच्छामः।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति ?

(क) शंखचूडः
(ख) जीमूतवाहनः
(ग) गरुडः
(घ) जीमूतकेतुः

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12. जीमूतवाहन को किसने जीवित किया?

(क) अमृत वर्षा ने
(ख) गौरी ने
(ग) गरुड़ ने
(घ) इन्द्र ने

13. अमृत लेने के लिए इन्द्र के पास कौन जाता है ?

(क) शंखचूड़
(ख) गरुड़
(ग) वासुकि
(घ) जीमूतकेतु

14. “सुनन्द! यावदनया वेलया ………………… सदनमेव गतो मे पुत्रको भविष्यति।” वाक्य में रिक्त स्थान की पूर्ति होगी –

(क) ‘वधू’ से
(ख) मातु से
(ग) श्वशुर’ से
(घ) “पितु से

15. “शङ्खचूडः नाम नागः खल्वहं वैनतेयस्याहारार्थमवसरप्राप्तो वासुकिना प्रेषितः। वाक्यस्य वक्ता कोऽस्ति?

(क) गरुडः
(ख) जीमूतकेतुः
(ग) मलयकेतुः
(घ) शंखचूडः

16. “अहं तव” ……………………… “प्रेषितोऽस्मि वासुकिना।” में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी

(क) ‘रक्षार्थम्’ से
(ख) ‘हन्तुम्’ से
(ग) ‘आहारार्थम्’ से
(घ) “नष्टार्थम्’ से

17. ‘‘शङ्खचूडः समुपविश्यानेनोत्तरीयेण आच्छादितशरीरं कृत्वा धारयमाम्।” वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति ?

(क) जीमूतवाहनः
(ख) जीमूतकेतुः
(ग) मलयकेतुः
(घ) मलयवती

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18. जीमूतवाहनस्य पिता …………………. आसीत्। [2008, 09, 10]

(क) शङ्खचूडः
(ख) मलयकेतुः
(ग) जीमूतकेतुः
(घ) सत्यकेतुः

19. नागानन्दस्य नाटकस्य रचयिता …………………… अस्ति। [2007]

(क) कालिदासः
(ख) हर्षवर्धनः
(ग) भवभूतिः
(घ) विशाखदत्तः

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20. विद्याधरेण केनानि ………………… आविष्ट चेतसा। [2009]

(क) क्रोध
(ख) भय
(ग) पीड़ा
(घ) करुणा

21. विद्याधरः ……………………… रक्षां करोति। [2009,11]

(क) गरुडस्य
(ख) शङ्खचूडस्य
(ग) वासुकेः
(घ) जीमूतकेतोः

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Class 9 Sanskrit Chapter 14 UP Board Solutions पुण्यसलिलागङ्गा Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 14 पुण्यसलिलागङ्गा (गद्य – भारती) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 14 पुण्यसलिलागङ्गा (गद्य – भारती).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 14
Chapter Name पुण्यसलिलागङ्गा (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 3
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 14 Punyasalila Ganga Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 14 हिंदी अनुवाद पुण्यसलिलागङ्गा के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांश

गंगा का महत्त्व-गंगा का संसार की सभी नदियों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह भारतीयों के लिए जीवनदायिनी है, सुख-शान्ति और समृद्धि प्रदान करने वाली है। इसमें स्नान करने, जल पीने अथवा इसका नाम लेने मात्र से भी मनुष्य धन्य हो जाता है। इसके सम्पर्क मात्र से मनुष्य के दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों ताप (कष्ट) नष्ट (समाप्त) हो जाते हैं।

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उद्गम-गंगा हिमालय के दो स्थानों से निकलती है। इसकी एक धारा उत्तरकाशी में गोमुख से उत्पन्न होकर भागीरथी कहलाती है और दूसरी धारा जो चमोली जिले के अलकापुरी में बर्फ पिघलने से निकलती है, ‘अलकनन्दा’ नाम से प्रसिद्ध हुई। देवप्रयाग में भागीरथी और अलकनन्दा की धारा ने एक होकर ‘गंगा’ नाम धारण कर लिया। । पौराणिक स्वरूप-पुराणों के अनुसार स्वर्ग में ‘देवी गंगा ब्रह्मा के कमण्डल में द्रवीभूत रूप में स्थित थी। फिर भगीरथ के तप के प्रभाव से राजा सागर के साठ हजार भस्मीभूत पुत्रों का उद्धार करने हेतु (UPBoardSolutions.com) पृथ्वी पर आयी और ‘भागीरथी’ कहलाने लगी। भगवान् विष्णु के चरणों के नखों से उत्पन्न होने के कारण इसे ‘विष्णु-नदी’ कहते हैं। भगीरथ के मार्ग का अनुसरण करते हुए महामुनि जह्न की यज्ञस्थली को डुबोने के कारण कुपित जह्न ने गंगा के जल को पी लिया था, लेकिन देवताओं और ऋषियों द्वारा प्रसन्न किये जाने पर उन्होंने इसे कर्ण-विवर से भूमि पर गिरा दिया था; अत: ‘जाह्नवी नाम से प्रसिद्ध हुई।

नाम की सार्थकता-‘गम्’ धातु में गन् प्रत्यय और स्त्रीलिंग के ‘टाप् प्रत्यय के योग से ‘गंगा’ शब्द बना है, जिसका अर्थ है–निरन्तर गतिशील रहना। निरन्तर बहते रहने के कारण ही इस नदी का ‘गंगा’ नाम सार्थक है।। | गंगा का उपकार-गंगा हिमालय की दुर्लंघ्य चट्टानों को चूर्ण करती हुई, सघन वनों की बाधाओं को पार कती हुई, गुफाओं में प्रवाहित होती हुई, पर्वत की तलहटियों में वेग से बहती हुई, ऊँचे-नीचे पर्वत प्रदेशों को लाँघती हुई हरिद्वार से समतल प्रदेश में आती है। भारतभूमि को धन-धान्यसम्पन्न बनाने के लिए गंगा का महान् उपकार है। गंगा कृषिप्रधान भारत देश में अन्नोत्पादन में जितनी सहायता करती हैं, उतनी सहायता अन्य कोई नदी नहीं करती। इसके तटीय प्रदेशों में उत्पन्न वनस्पतियों और ओषधियों के अवर्णनीय लाभ हैं। इस प्रकार गंगा हमारे लिए बहुत ही उपयोगी नदी है।

प्राकृतिक शोभा-गंगा की प्राकृतिक शोभा सबके चित्त को प्रसन्नता प्रदान करती है। इसके तटवर्ती देखने योग्य स्थानों को देखकर विदेशी पर्यटक भी इसकी प्रशंसा करते हैं। सूर्य की किरणों और चन्द्रमा की रश्मियों से इसके जल की शोभा अत्यधिक बढ़ जाती है। गंगा-तटों पर स्थित घाटों की निराली शोभा को देखकर अपरिमित सुख और शान्ति मिलती है।

तीर्थस्थल और गंगा की पवित्रता-गंगा के तट पर बदरीनाथ, पञ्चप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, पढ़मुक्तेश्वर, तीर्थराज प्रयाग, वाराणसी आदि तीर्थस्थान हैं। आदिकवि वाल्मीकि और ऋषि भरद्वाज के आश्रम भी गंगा के तट पर ही थे। गंगा-तट रामानुज, कबीर, तुलसी आदि महापुरुषों के प्रेरणा-स्थल रहे हैं। गुरु तेगबहादुर ने इसी के तट पर घोर तप किया था। श्रृंगेरी मठ में स्थित शिव-विग्रह पर गंगा का जल चढ़ाना (UPBoardSolutions.com) महान् पुण्य-कार्य समझा जाता है। । हिमालय से समुद्र तक गंगा के तट पर स्नान, देवाराधना, दान, यज्ञ आदि पुण्यप्रद कार्य होते हैं। हरिद्वार और प्रयाग में कुम्भ स्नान, वाराणसी में भगवान् विश्वनाथ के दर्शन का लाभ पुण्यात्मा ही प्राप्त करते हैं। इसके तीर्थों पर धर्मशास्त्र, वेद, पुराणादि का पठन-पाठन और व्याख्यान होता है। देश-देशान्तर से आये हुए धनी-निर्धन, साधारण-असाधारण भक्तजन एक ही घाट पर स्नान करते हैं-इस प्रकार यह गंगा भारत की एकता और अखण्डता को दृढ़ बनाती है।

ऐतिहासिक महत्त्व-गंगा के तट पर काशी में रघुवंशी राजाओं ने विश्व-विजय के बाद अश्वमेध यज्ञ किये थे। प्रयाग में इसी के तट पर आयोजित मेले में महाराज हर्षवर्धन अपने शरीर के वस्त्रों को छोड़कर याचकों को सर्वस्व दान दे देते थे। हस्तिनापुर, कन्नौज, प्रतिष्ठानपुर, पाटलिपुत्र (पटना), काशी आदि इसी के तटों पर स्थित नगर प्राचीनकाल में प्रसिद्ध राजाओं की राजधानी थे।

औद्योगिक महत्त्व-आधुनिक काल में गंगा के तट पर अनेक औद्योगिक संस्थान हैं जिनमें इसकी विशाल जलराशि का सदुपयोग होता है। इसके जल-प्रवाह की सहायता से विद्युत-निर्माण होता है। इसी के तट पर बुलन्दशहर जिले के नरौरा’ नामक स्थान पर अणुशक्ति से संचालित विद्युत्-गृह है।

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विशेषताएँ–गंगा का जल स्वच्छ, शीतल, प्यास बुझाने वाला, पीने में स्वादिष्ट और रुचिवर्द्धक, रोगनाशक और कभी खराब न होने वाला होता है। वैज्ञानिकों ने जल की परीक्षा करके सिद्ध कर दिया है कि गंगा-जल में रोग के जीवाणु स्वयं नष्ट हो जाते हैं। हिन्दू लोग गंगा के पवित्र जल को घरों में रखते हैं और देवी-देवताओं के पूजन-कार्य में इसका उपयोग करते हैं। यह जल बहुत समय तक भी दूषित नहीं होता है। मरणासन्न व्यक्ति के गले में इसके जल को औषध के रूप में डाला जाता है। । जल-प्रदूषण की समस्या–भारत देश का दुर्भाग्य है कि लोग स्वार्थ के कारण गंगा के जल को प्रदूषित करते जा रहे हैं। बड़े उद्योगों के रासायनिक अपशिष्ट इसके (UPBoardSolutions.com) जल में घुलकर इसे दूषित कर रहे हैं। बड़े नगरों की समस्त गन्दगी को गंगा के जल में ही मिला दिया जाता है। मरे हुए पशु और मानवों के शव गंगा के जल में प्रवाहित कर दिये जाते हैं। गंगा के तट पर स्थित मन्दिरों और धर्मशालाओं में समाज-विरोधी तत्त्व प्रवेश कर अनैतिक कार्य करते हैं। लोग प्रमाद और अज्ञान के कारण लोक-कल्याणकारी गंगा के जल को दूषित कर अमृत में विष घोल रहे हैं। सबको पवित्र करने वाली गगा अब अपनी शुद्धि के लिए मानवे का मुंह ताक रही है।

प्रदूषण दूर करने का प्रयास–प्रदूषित गंगा के जल के प्रदूषण को दूर करने के लिए भारत सरकार ने केन्द्रीय विकास प्राधिकरण की स्थापना की है। सिनेमा, दूरदर्शन, रेडियो, समाचार-पत्र आदि संचार माध्यमों के माध्यम से गंगा के प्रदूषण को रोकने के लिए जनचेतना जाग्रत की जा रही है, परन्तु सरकार ही अकेले इस महान् कार्य को नहीं कर सकती। इसमें बालक, वृद्ध, स्त्री-पुरुष सभी के सहयोग की परम आवश्यकता है।

यदि मन-वचन-काय और पूरी निष्ठा से गंगा के प्रदूषण को दूर करने का संकल्प करें तो गंगा की पावनता की रक्षा हो सकती है।

शोंगद्यां का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) गङ्गायाः न केवल भारतवर्षे, अपितु निखिलविश्वस्य नदीषु महत्त्वपूर्ण स्थानं क्र्तते। इयं खलु भारतीयप्राणिनां जीवनप्रदा सुखशान्तिसमृद्धिविधायिनी च नदीति नास्ति सन्देहकणिकावलेशः। यतो हि भारतीयानां मतानुसारमियं न केवलमैहिकानि सुखान्येव वितरति परञ्च -पारलौकिकं लक्ष्यमपि (UPBoardSolutions.com) पूरयति। सुरधुन्यामस्यामवगाहनेन जलस्पर्शेन अथ च नामसङ्कीर्तनमात्रेण मानवो धन्यो जायते। ‘गङ्गा तारयति वै पुंसां दृष्टा, पीताऽवगाहिता’ इति श्रद्धाभावनया मुमुक्षुः गङ्गातीरमाश्रित्य सर्वदास्याः कृपामीहते। सत्यम् , मनुजस्य दैहिकदैविक भौतिकतापत्रयमस्याः सम्पर्कमात्रेण विनश्यति। तथा चोक्तम्| गङ्गां पश्यति यः स्तौति स्नाति भक्त्या पिबेज्जलम् ।से स्वर्गज्ञानममलं योगं मोक्षं च विन्दति ॥

शब्दार्थ
निखिलविश्वस्य = सम्पूर्ण संसार की।
खलु = निश्चय ही।
जीवनप्रदा = जीवन प्रदान करने वाली।
विधायिनी = करने वाली।
कणिकावलेशः = कणभर भी।
यते हि = क्योंकि।
ऐहिकानि = सांसारिक।
पूरयति = पूरा करती है।
सुरधुन्याम् = गंगा में।
अगाहनेन = स्नान करने से।
सङ्कीर्तन = कथन, वर्णन।
मुमुक्षुः = मोक्ष-प्राप्त करने का इच्छुक।
ईहते = चाहता है।
विनश्यति = नष्ट हो जाता है।
अमलं = पवित्र
विन्दति = प्राप्त करता है।

सन्दर्थ
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘पुण्यसलिला गङ्गा’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।
[संकेत–इस पाठ के शेष गद्यांशों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा की महिमा का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
गंगा का केवल भारतवर्ष में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण संसार की नदियों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह निश्चय ही भारतीय प्राणियों को जीवन, सुख, शान्ति और समृद्धि को प्रदान करने वाली  
नदी है, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है; क्योंकि भारतीयों के मत के अनुसार यह केवल ऐहिक (सांसारिक) सुखों को ही नहीं देती है, अपितु पारलौकिक लक्ष्य को भी पूर्ण करती है। इस गंगा नदी में स्नान करने से, जल का स्पर्श करने से और नाम का उच्चारण करनेमात्र से मनुष्य धन्य हो जाता है। | ‘निश्चय ही पुरुषों की देखी गयी, पान की गयी, स्नान की गयी गंगा (UPBoardSolutions.com) सांसारिक कष्टों से छुटकारा देकर मोक्ष प्रदान करती है। ऐसा श्रद्धा की भावना से मोक्ष-प्राप्त करने का इच्छुक व्यक्ति गंगा के तट पर पहुँचकर सदा इसकी कृपा चाहता है। सत्य ही, मनुष्य के दैहिक (शारीरिक), दैविक और भौतिक तीनों ताप इसके समागम से नष्ट हो जाते हैं। जैसा कि कहा है–

जो (मनुष्य) भक्ति से गंगा को देखता है, स्तुति करता है, स्नान करता है और जल पीता है; वह निर्मल स्वर्ग, ज्ञान, योग और मोक्ष को प्राप्त करता है। |

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(2) सुरधुनीयम् आदौ हिमवतः स्थानद्वयात् निःसृता। धारैका भारतस्योत्तराखण्डे उत्तरकाशीजनपदे गोमुखात् प्रसूता भागीरथी। द्वितीया’चमोली’ जनपदे अलकापुर्या हिमप्रस्रवणात् निर्गतालकनन्देति विदिता। गङ्गोत्रीभागीरथ्योः उद्गमस्थले विस्तृता सुरम्या वनस्थली प्रथिता। देवप्रयागे भागीरथ्यलकनन्दयोः सङ्गमानन्तरं संयुक्तधारा ‘गङ्गा’ इति लोके प्रसिद्धा। वेदपुराणादीनां मतेन पुरा देवी’ रूपा गङ्गा स्वर्गे एव वसति स्म।द्रवीभूताचसा विधातुः कमण्डलौ संस्थिता। कपिलमुनिशापेन भस्मीभूतषष्टिसहस्रसगरपुत्रान् समुद्धर्तु (UPBoardSolutions.com) भगीरथस्य तपःप्रभावेण वसुन्धरामानीता लोके भागीरथी’ इति नाम्ना ख्याता। भगवतः विष्णोः पदनखोद्भूता अतः विष्णुनही इति ज्ञाता। भगीरथस्य वत्मनुसरतीयं गिरिगह्वरकोनननगरग्रामान्प्लावयन्ती महामुनेः जह्रोः यज्ञस्थली प्लवयितुमारभत। सञ्जातक्रोधः मुनिः निखिलं जलप्रवाहे क्षणमात्रेणापिबत्। भग्नमनोरथः नृपः रुष्टं महामुनिं प्रसादयितुं प्रायतत। देवानामृषीणां तस्या- राधनेन च विगतक्रोधो महात्मा कर्णरन्ध्राभ्यामशेषमुदकं निष्कास्य वसुन्धरायां पातयामास, अतएव जाह्नवीति प्रसिद्धा।

शब्दार्थ
सुरधुनी = गंगा का एक.नाम।
आदौ = प्रारम्भ में।
हिमवतः = हिमालय के।
धारैका = एक धार।
प्रसूता = उत्पन्न हुई।
प्रस्रवणात् = पिघलने से।
निर्गता = निकली।
प्रथिता = प्रसिद्ध
विधातुः = ब्रह्माजी के।
षष्टिसहस्र = साठ हजार।
वसुन्धराम् आनीता = धरती पर लायी गयी।
ख्याता = प्रसिद्ध हुई।
ज्ञाता = जानी गयी।
वत्र्मानुसरन्ती = मार्ग का अनुसरण करती हुई।
प्लावयन्ती = डुबोती हुई।
जह्रोः = जह्न की।
सञ्जतक्रोधः = क्रोधित हुए।
निखिलं = सम्पूर्ण को।
रुष्टम् = क्रोधित हुए।
प्रसादयितुम् = प्रसन्न करने के लिए।
प्रायुतत = प्रयत्न किया।
कर्णरन्ध्राभ्यामशेषमुदकं (कर्ण + रन्ध्राभ्याम् + अशेषम् + उदकम्) = कानों के दोनों क्षिद्रों से पूरे जल को।
निष्कास्य = निकालकर
पातयामास = गिरा दिया।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा के उद्गम स्थान के साथ-साथ भागीरथी, अलकनन्दा, विष्णुनदी, जाह्नवी, आदि नामों के प्रसिद्ध होने का कारण बताया गया है।

अनुवाद
यह गंगा प्रारम्भ में हिमालय के दो स्थानों से निकली। एक धारा भारत के उत्तराखण्ड में उत्तरकाशी जिले में गोमुख (स्थान का नाम) से उत्पन्न हुई ‘भागीरथी’ कहलायी। दूसरी (धारा) चमोली जिले में अलकापुरी में बर्फ के पिघलने से निकली ‘अलकनन्दा’ जानी गयी। गंगोत्री और भागीरथी के उद्गम स्थान पर फैली हुई सुन्दर वनस्थली प्रसिद्ध है। ‘देवप्रयाग में भागीरथी और अलकनन्दा के मिलने के पश्चात् मिली हुई धारा ‘गंगा’ इस नाम से संसार में प्रसिद्ध है। वेद, पुराण

आदि के मतानुसार पहले देवी के रूप में गंगा स्वर्ग में ही रहती थी। पिघली हुई वह ब्रह्माजी के ‘कमण्डल में स्थित थी। कपिल मुनि के शाप से भस्म हुए साठ हजार सगर के पुत्रों का उद्धार करने के लिए भागीरथ के तप के प्रभाव से पृथ्वी पर लायी हुई ‘भागीरथी’ इस नाम से संसार में प्रसिद्ध हुई। भगवान् विष्णु के पैरों के नाखूनों से उत्पन्न हुई, अतः ‘विष्णुनदी’ जानी गयी। भगीरथ के मार्ग का अनुसरण करती हुई, यह (UPBoardSolutions.com) पर्वतों, गुफाओं, वनों, नगरों और ग्रामों को डुबोती हुई इसने महामुनि जहू की यज्ञस्थली को डुबोना प्रारम्भ कर दिया। क्रोधित हुए मुनि ने सम्पूर्ण जल के प्रवाह को क्षणभर में ही पी लिया। मनोरथ नष्ट हुए राजा ने क्रुद्ध महामुनि को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया। देवों और ऋषियों की उसकी (जह्न) आराधना से क्रोधरहित हुए महात्मा ने कानों के छिद्र से सम्पूर्ण जल को निकालकर पृथ्वी पर गिरा दिया। इसीलिए ‘जाह्नवी’ नाम से प्रसिद्ध हुई।।

(3) गङ्गेति नाम सहजं सार्थकञ्च। गम् धातोः औणादिकं गन् प्रत्यये सति स्त्रीत्वात् टापि ‘गङ्गा’ शब्दा निष्पद्यते। अतः सततगमशीलत्वात् ‘गङ्गा’ इति नाम सर्वथाऽन्वर्थम्।

शब्दार्थ
निष्पद्यते = निष्पन्न (पूर्ण) होता है, सिद्ध होता है।
सर्वथान्वर्थम् (सर्वथा + अनु +अर्थम्) = सभी प्रकार अर्थ के अनुसार।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा का व्युत्पत्तिपरक अर्थ दिया गया है।

अनुवाद
‘गंगा’ यह नाम स्वाभाविक और सार्थक है। ‘गम्’ धातु से औणादिक ‘गन्’ प्रत्यय लगाने पर स्त्रीलिंग होने से ‘टाप् प्रत्यय लगाने पर ‘गंगा’ शब्द निष्पन्न होता है। अतः निरन्तर | गमनशील होने के कारण ‘गंगा’ यह नाम अर्थ के अनुसार है। |

(4) इयञ्च गङ्गा हिमालयस्य दुर्लङ्घ्यप्रस्तरखण्डानि चूर्णयन्ती सघनवनानामवरोधं त्रोटयन्ती, गिरिगह्वरेषु प्रविशन्ति उपत्यकाधित्यकासु द्रुतगत्या विहरन्ती नतोन्नतपर्वत-प्रदेशान् लड्यन्ती हरिद्वारे समतलप्रदेशे निर्बाधतया प्रवहति। आर्यावर्तस्य धरित्रीं शस्य-श्यामलां निर्मातुं गङ्गायाः उपकारः अनिर्वचनीयः।।

शब्दार्थ
दुर्लङ्घ्य = कठिनाई से लाँघने योग्य।
प्रस्तरखण्डानि = पत्थर के टुकड़े।
चूर्णयन्ती = चूर-चूर करती हुई।
त्रोटयन्ती = तोड़ती हुई।
गिरिगह्वरेषु = पर्वत की गुफाओं में।
द्रुतगत्या = तेज चाल से।
नतोन्नतपर्वतप्रदेशान् = नीचे-ऊँचे पर्वत के भागों को।
लङ्घयन्ती = लाँघती हुई।
निर्माते = बनाने के लिए।
अनिर्वचनीयः = कहा न जा सकने वाला, अकथनीय

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में दुर्लंघ्य पत्थरों को चूर्ण करके, रुकावटों को हटाकर बहती हुई गंगा के | उपकारों का वर्णन किया गया है

अनुवाद
और यह गंगा हिमालय के कठिनाई से लाँगने  योग्य पत्थरों के टुकड़ों को चूर्ण करती. – हुई, घने वनों की रुकावट को तोड़ती हुई, पर्वतों की गुफाओं में प्रवेश करती हुई, पर्वतों की निचली = और ऊपरी भूमि पर तीव्रगति से विहार करती हुई, नीचे-ऊँचे पर्वत के प्रदेशों को लाँघती हुई हरिद्वार में = समतल भाग में बाधारहित होकर बहती है। आर्यावर्त (भारतवर्ष) की भूमि को हरा-भरा बनाने में गंगा 
का उपकार कहा नहीं जा सकता। 

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(5) वस्तुतः देहः अन्नमयः कोषः कृषिश्चान्नस्य मूलम्। कृषिप्रधाने भारते देश गङ्गा – कृषिभूमिं सिञ्चन्ती अन्नोत्पादने यावत् साहाय्यं वितरति तावन्नान्या कापि सरित्। अस्याः क्षेत्रे  समुत्पन्नानां वनस्पतीनामुपकाराः ओषधीनां लाभाश्च अनिवर्चनीय।

शब्दार्थ
समुत्पन्नानां वनस्पतीनाम् = उत्पन्न हुई वनस्पतियों का।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा की कृषि-उपज में वृद्धि करने के गुण का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
वास्तव में शरीर अन्नमय कोष है और कृषि अन्न का मूल है। कृषिप्रधान भारत देश में = गंगा कृर्षि की भूमि को सींचती हुई अन्न के उत्पादन में जितनी सहायता देती है, उतनी दूसरी कोई नदी नहीं। इसके क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले वनस्पतियों के उपकार और ओषधियों के लाभ अकथनीय हैं। |

(6) गङ्गायाः प्रकृतिमनोहारिणी नैसर्गिकी च शोभा सर्वेषां चित्तमाह्लादयति। हृदयहरिणीमम्बुछटा दशैं दशैं मनः मुग्धं भवति। तटवर्तिनां दर्शनीयस्थानानां शोभां द्रष्टुं देशीयाः। विदेशीयाश्च पर्यटकाः नित्यमिमां सेवन्ते। दिवाकरकिरणैः निशाकररश्मिभिश्च जलस्य शोभा | नितरां वर्धते। गङ्गायाः कूले हरिद्वारे, प्रयागे काश्याञ्च घट्टेषु जलसौन्दर्यं मुहुर्मुहुः वीक्षमाणाः – जनाः अनिवर्चनीयं सुखं शान्ति चानुभवन्ति।

शब्दार्थ
नैसर्गिकी = स्वाभाविक, प्राकृतिक।
आह्लादयति = प्रसन्न करती है।
अम्बुच्छटाम् = जल की शोभा को।
रश्मिभिः = किरणों से।
नितराम् = अत्यधिक।
कूले = किनारे।
मुहुर्मुहुः = बार-बार।
वीक्षमाणाः = देखते हुए।
अनुभवन्ति = अनुभव करते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा की शोभा का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
गंगा की प्रकृति से ही मनोहारिणी और स्वाभाविक शोभा सबके चित्त को प्रसन्न करती है। हृदय को आकृष्ट करने वाली जल की शोभा को देख-देखकर मन प्रसन्न हो जाता है। तट पर | स्थित देखने योग्य स्थानों की शोभा को देखने के लिए देश-विदेश के पर्यटक सदा इसके पास बने (UPBoardSolutions.com) रहते हैं (अर्थात् इसके तटीय स्थलों पर ही रहते हैं)। सूर्य की किरणों और चन्द्रमा की रश्मियों में जल 
की सुन्दरता बहुत अधिक बढ़ जाती है। गंगा के किनारे हरिद्वार, प्रयाग और काशी में घाटों पर जल के सौन्दर्य को बारम्बार देखते हुए लोग अकथनीय सुख और शान्ति का अनुभव करते हैं।

(7) गङ्गायाः पावने कूले नैकानि तीर्थस्थानानि वर्तन्ते। तत्र बदरीनाथः, विष्णुनन्दकर्णरुद्रदेवादिपञ्चप्रयागाः ऋषिकेशहरिद्वारगढमुक्तेश्वरतीर्थराजप्रयागवाराणसीत्यादीनि तपः पूतानि अनेकानि तीर्थस्थानानि चिरकालाद् अध्यात्मचिन्तकांनृषींश्च आकर्षयन्ति। आदिकवेः । वाल्मीकेः भरद्वाजर्वेश्चाश्रमौ अस्याः तीरे आस्ताम्। श्रद्धाभाजनानां रामानुज-वल्लभ-कबीरतुलसी-प्रभृति महापुरुषाणां गङ्गातटमेव प्रेरणास्थलम्। वन्दनीयो गुरुतेग-बहादुरः अस्याः पावने पुलिने घोर तपश्चचार। शङ्कराचार्यसंस्थापिते शृङ्गेरीमठे विघ्नेश्वरीय शिवाय गङ्गोदकार्पण महत्पुण्यमिति सर्वेऽपि श्रद्धया स्वीकुर्वन्ति। |

शब्दार्थ
नैकानि = अनेक।
तपःपूतानि = तपस्या से पवित्र।
अध्यात्मचिन्तकान् = आध्यात्मिक (ईश्वर से सम्बद्ध) चिन्तन करने वालों को।
आकर्षयन्ति = आकर्षित करते हैं।
आस्ताम् = थे।
पुलिने = किनारे पर।
विघ्नेश्वराय = विघ्न-बाधाओं के ईश्वर (शंकर) के लिए।
गङ्गोदकार्पणम् (गङ्गा + उदक + अर्पणम्) = गंगा-जल का अर्पण।
स्वीकुर्वन्ति = स्वीकार करते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा के किनारे पर स्थित तीर्थ-स्थानों और उसके माहात्म्य का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
गंगा के पवित्र किनारे पर अनेक तीर्थस्थान हैं। उनमें बद्रीनाथ, विष्णु-नन्द-कर्णरुद्र-देव आदि पाँच प्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, तीर्थराज प्रयाग, वाराणसी आदि तप से पवित्र अनेक तीर्थस्थान चिरकाल से अध्यात्म का चिन्तन करने वालों और ऋषियों को आकृष्ट करते हैं। आदिकवि वाल्मीकि और भरद्वाज ऋषि के आश्रम इसके किनारे पर थे। श्रद्धा के पात्र रामानुज, वल्लभाचार्य, कबीर, तुलसी आदि महापुरुषों का प्रेरणा का स्थान गंगा का तट ही रहा है। वन्दना के योग्य गुरु तेगबहादुर ने इसके पवित्र रेत के तट (टीले) पर घोर तप किया था। शंकराचार्य के द्वारा स्थापित शृंगेरी मठ में विघ्नों का नाश करने वाले शिव को गंगा का जल चढ़ाना महान् पुण्य है’, ऐसी सभी श्रद्धा से स्वीकार करते हैं। |

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(8) यद्यपि आहिमालयात् सागरपर्यन्तं गङ्गाजले सर्वत्रापि स्नानं तीरे च देवाराधनयज्ञदानादिकर्माणि श्रेयस्कराणि किन्तु तीर्थस्थानेषु सम्पादितं कृत्यं तु बहुपुण्यप्रदम्। हरिद्वारे, त्रिवेण्याः सङ्गमे च कुम्भस्नानं वाराणस्यां दशाश्वमेधघट्टे जलावगाहानन्तरं गङ्गचूडविश्वनाथस्य दर्शनं केचित् सुकृतिनः एव लभन्ते। तीर्थस्थानेषु प्रतिदिनं वेदपुराणशास्त्रादिमानवकल्याणकारिणां ग्रन्थानामध्ययनमध्यापनं व्याख्यानं च भवन्ति। धर्मशास्त्रविषयकालापेषु सद्विचारस्य सौहार्दस्य मानवैकतायाः च आदर्शः पदे पदे (UPBoardSolutions.com) दृश्यते। देशदेशान्तरागतः सधनः निर्धनः सामान्यो विशिष्टो वा सर्वे एकस्मिन्नेव घट्टे स्नानं कुर्वन्ति। एवंविधायाः भारतीयसंस्कृतेः सभ्यतायाश्च समाजवादं विलोक्य विदेशीयाः आश्चर्यान्विताः भवन्ति। गङ्गा समस्तं भारतं राष्ट्रियैक्यस्याखण्डतायाश्च सूत्रे बद्ध्वा राष्ट्रं सुदृढीकर्तुं महती भूमिका निर्वहति।।

शब्दार्थ
आहिमालयात् = हिमालय से लेकर।
श्रेयस्कराणि = कल्याण करने वाले।
कृत्यम् = कार्य।
बहुपुण्यप्रदम् = अत्यन्त पुण्य देने वाला।
जलावगाहानन्तरम् = जल में स्नान करने के बाद।
गङ्गचूड = जिसके मस्तक पर गंगा है (शिव)।
सुकृतिनः = पुण्यात्मा।
पदे-पदे दृश्यते = कदम-कदम पर दिखाई देता है।
घट्टे = घाट पर।
बद्ध्वा = बाँधकर।
सुदृढीकर्तुम् = सुदृढ़ करने के लिए।
निर्वहति = निभाती है।

प्रसंग
गंगा के तंटों और घाटों पर स्थित तीर्थों पर स्नान करना पुण्यप्रद है। गंगा भारत को एक सूत्र में बाँधने का महत्त्वपूर्ण कार्य करती है, प्रस्तुत गद्यांश में इन्हीं तथ्यों को आलोकित किया गया है।

अनुवाद
यद्यपि हिमालय से समुद्र तक गंगा के जल में सभी जगह स्नान करना और किनारे पर देवों की आराधना, यज्ञ, दान आदि कार्य (सम्पन्न करना) कल्याणकारी हैं, किन्तु तीर्थस्थानों पर किया गया कार्य बहुत पुण्य देने वाला है। हरिद्वार में और त्रिवेणी के स्नान, वाराणसी में दशाश्वमेध घाट पर जल में स्नान करने के बाद भगवान् गंगचूड़ (गंगा है मस्तक पर जिसके) विश्वनाथ के दर्शन कुछ पुण्यात्मा ही प्राप्त करते हैं। तीर्थस्थानों पर प्रतिदिन वेद, पुराण, शास्त्र आदि मानवों का कल्याण करने वाले ग्रन्थों का पठन-पाठन और व्याख्यान होता है। (UPBoardSolutions.com) धर्मशास्त्र के विषयों में सद्विचार, सौहार्द और मानव की एकता को आदर्श पद-पद पर दिखाई देता है। देश-देशान्तरों से आये हुए धनी, निर्धन, साधारण या असाधारण संब एक ही घाट पर स्नान करते हैं। इस प्रकार की भारतीय संस्कृति और सभ्यता को समाजवाद देखकर विदेशी लोग आश्चर्यचकित हो जाते हैं। गंगा समस्त भारत को राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के सूत्र में बाँधकर राष्ट्र को सुदृढ़ करने के लिए बड़ी भूमिका निभाती है।

 (9) गङ्गायाः तटे नैकाः विशिष्टाः ऐतिहासिकस्मरणीयाश्च घटनाः सञ्जाताः। रघु-वंशीयाः नृपतयः निखिलविश्वविजयानन्तरं काश्यां दशाश्वमेधघट्टे अश्वमेधः यज्ञानकुर्वन्। तीर्थराजे प्रयागे आयोजिते मेलापके हर्षवर्धनः स्वपरिधानं व्यतिरिच्य सर्वसम्पदं याचकेभ्यः ददाति स्म।अस्या क्रोडे विविधानि राज्यानि उत्कर्षस्य पराकाष्ठां सम्प्राप्य ह्रासमुपगतानि, हस्तिनापुरकान्यकुब्ज-प्रतिष्ठानपुर-काशी-पाटलिपुत्रादीनि नगराणि राजधानीगौरवमावहन्ति स्म। ऐति- ।। हासिकनगराणां निर्माणे विशिष्टघटनानां सङ्टने च गङ्गाप्रवाहस्य भूमिको नाल्पीयसी।

शब्दार्थ
नैकाः = बहुत से।
स्मरणीयाः = स्मरण करने योग्य।
सञ्जाताः = हुई।
निखिलविश्वविजयानन्तरं = समस्त विश्व की विजय के पश्चात्।
मेलापके = मेले में।
स्वपरिधानम् = अपने वस्त्रों को।
व्यतिरिच्य = अतिरिक्त, छोड़कर।
क्रोडे = गोद में।
उत्कर्षस्य = उन्नति का।
पराकाष्ठां = अन्तिम सीमा को।
ह्रासम् = अवनति।
आवहन्ति स्म = धारण करते ते।
सङ्टने = घटने में।
नाल्पीयसी (न + अल्पीयसी) = कम नहीं है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा के तट पर घटित ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
गंगा के तट पर अनेक विशिष्ट, ऐतिहासिक और स्मरण के योग्य घटनाएँ हुईं। रघुवंश के राजाओं ने सम्पूर्ण संसार की विजय के पश्चात् काशी में दशाश्वमेध घाट पर अश्वमेध यज्ञ किये। तीर्थराज प्रयाग में आयोजित मेले में हर्षवर्धन अपने वस्त्रों को छोड़कर सारी सम्पत्ति याचकों को दे देते थे। इसकी गोद में अनेक राज्य उन्नति की चरमसीमा को प्राप्त करके अवनति को प्राप्त हुए। हस्तिनापुर, कन्नौज, प्रतिष्ठानपुर, काशी, पाटलिपुत्र (पटना) आदि नगर राजधानी के गौरव को धारण करते थे। ऐतिहासिक नगरों के निर्माण में और विशेष घटनाओं के घटने में गंगा के प्रवाह की भूमिका कम नहीं है।

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(10) आधुनिककाले गङ्गातटे नानाविधानि औद्योगिककेन्द्राण्यपि वर्तन्ते। इयं विविधौद्योगिकविकासांयानुकूलमवसरं संयोजयति। रेलमोटरयानाविष्कारपूर्वं नदीमार्गाः गमनागमनसाधनान्यसासन्। अस्मिन् क्षेत्रेऽपि गङ्गायाः लब्धं सौविध्यमवर्णनीयम्। औद्योगिकप्रतिष्ठानानां कृते अस्याः (UPBoardSolutions.com) महान् जलराशिः नित्यं प्रयुज्यते। जलप्रवाहसाहाय्येन विद्युद्धारायाः प्रचुरमुत्पादनं सम्पाद्यते येन देशस्य नवनिर्माणं जायते। बुलन्दशहरनामके जनपदे ‘नरौरा’ नामस्थाने गङ्गातटे एतादृशमणुशक्तिसञ्चालितविद्युद्गृहं वर्तते यत्राणु-शक्त्याः समुपयोगः सुतरां क्रियते। ।

शब्दार्थ
संयोजयति = प्राप्त कराती है।
सौविध्यम् अवर्णनीयम् = सुविधा अवर्णनीय है।
प्रयुज्यते = प्रयुक्त होती है।
प्रचुरम् उत्पादनम् = अधिक मात्रा में उत्पादन करना।
सम्पाद्यते = सम्पादित किया जाता है।
जनपदे = जिले में।
सुतरां = अच्छी तरह से।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा के औद्योगिक महत्त्व को स्पष्ट किया गया है।

अनुवाद
आधुनिक समय में गंगा के तट पर विविध प्रकार के औद्योगिक केन्द्र भी हैं। यह विविध औद्योगिक विकास के लिए अनुकूल अवसरों को जुटाते हैं। रेलों और मोटरों के आविष्कार से पूर्व नदी के मार्ग गमन और आगमन के साधन थे। इस क्षेत्र में भी गंगा से प्राप्त सुविधा वर्णन से परे है। औद्योगिक कारखानों के लिए इसकी महान् जलराशि नित्य प्रयोग की जाती है। जल के प्रवाह की सहायता से बिजली का प्रचुर उत्पादन (UPBoardSolutions.com) किया जाता है, जिससे देश का नवनिर्माण होता है। बुलन्दशहर नामक जिले में ‘नरौरा’ नामक स्थान पर गंगा के किनारे अणु-शक्तिचालित ऐसा बिजलीघर है, जहाँ अणु-शक्ति का समुचित उपयोग भली-भाँति होता है।

(11) गङ्गाजलस्य वैशिष्ट्यं वैज्ञानिकविश्लेषणेनापि प्रमाणीभूतम्। गङ्गोदकं स्वच्छ, शीतलं, तृषाशामकं, रुचिवर्धकं सुस्वादु रोगापहारि च भवति। तत्र रोगकारकाः जीवाणवः अनायासेन नश्यन्तीति, पाश्चात्यवैज्ञानिकैरपि गङ्गाजलपरीक्षणानिर्विवादतया समुद्घुष्टम्। गङ्गोदकं सर्वविधं पवित्रमिति मत्वा हिन्दुगृहे लघुपात्रे आनीय समादरधिया रक्ष्यते। इदं दीर्घकालेनापि विकृतिं न लभते। मुमूर्षोरपि कण्ठे ‘औषधं जाह्नवीतोयं वैद्यो नारायणो हरिः’ इति मत्वा । गङ्गाजलमेव दीयते। अस्याः महदुपकारमनुभवन्तः जना इमां ‘गङ्गामाता’ इति सम्बोधयन्ति सकलमनोरथसिद्ध्यर्थं पुष्पदीपवस्त्रादीनि समर्पयन्ति च।

शब्दार्थ
वैशिष्ट्यम् = विशिष्टता।
प्रमाणीतम् = प्रमाणित है, सिद्ध है।
तृषाशामकम् = प्यास बुझाने वाला।
रोगापहारि = रोग को दूर करने वाला।
अनायासेन = बिना प्रयत्न के।
निर्विवादतया = विवादरहित रूप से।
समुदघुष्टम् = घोषणा की है।
गङ्गोदकम् = गंगा का जल।
आनीय = लाकर।
समादरधिया = आदर के विचार से।
रक्ष्यते = रखा जाता है।
विकृतिम् = खराब।
मुमूर्षोंः = मरने वाले के।
जाह्नवीतोयम् = गंगा का जल।
दीयते = दिया जाता है।
सम्बोधयन्ति = पुकारते हैं।
समर्पयन्ति = अर्पित करते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा के जल की विशेषता और उपयोगिता बतायी गयी है।

अनुवाद
गंगा के जल की विशेषता वैज्ञानिक विश्लेषण से भी सिद्ध हो चुकी है। गंगा का जल स्वच्छ, शीतल, प्यास बुझाने वाला, रुचि बढ़ाने वाला, स्वादिष्ट और रोग को दूर करने वाला है। उसमें रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणु बिना प्रयत्न किये नष्ट हो जाते हैं। ऐसा पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने भी गंगा, के जल की परीक्षा करके विवादरहित रूप से घोषणा की है। गंगा का जल सब प्रकार से पवित्र है, ऐसा मानकर हिन्दुओं के घर में छोटे बर्तन में लाकर आदर के विचार से रखा जाता है। यह बहुत समय तक भी खराब नहीं होती है। मरते हुए के भी कण्ठ (UPBoardSolutions.com) में गंगा का जल औषध, वैद्य, नारायण हरि हैं’ ऐसा मानकर गंगा का जल ही डाला जाता है। इसके महान् उपकार का अनुभव करते हुए लोग इसे ‘गंगामाता’ नाम से पुकारते हैं और सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने के लिए पुष्प, दीप, वस्त्र आदि चढ़ाते हैं।

(12) हन्त! दौर्भाग्यमिदं यत् साम्प्रतं मनुष्यादेव गङ्गाजलस्य पवित्रताया भयमुपस्थितम्। स्वार्थवशादस्यां तेन बहुविकारा उत्पाद्यन्ते। तटेषु संस्थापितानामौद्योगिकप्रतिष्ठानानां रासायनिकद्रवा अस्याः जले प्रवाह्यन्ते। विपुलजनसङ्ख्याभारतमुवहतां नगराणां मालिन्यं प्रणालिकाभिः गङ्गायाम् प्रक्षिप्यते। घातकरोगाक्रान्तानां मानवानां पशूनाञ्च शवाः वारिधारायां निलीयन्ते। कुलेषु पवित्रमनसा श्रद्धया च निर्मितेष्वैकान्तिकमन्दिरेषु धर्मशालायाञ्च समाजविरोधीनि तत्त्वानि सङ्गच्छन्ते। अज्ञानवशात् ‘प्रमादाच्च मानवः सर्वकल्याणकारिणीं गङ्ग प्रदूषयति, तस्याः जलं प्रदूषयति अमृते विषं मिश्रयति च। हन्त! कीदृशीयं विडम्बना या गङ्गा सर्वशुद्धिकरी प्रख्याता सा सम्प्रति स्वशुद्धये मानवमुखमपेक्षते। मानवस्यैवायं दोषो न गङ्गायाः।

शब्दार्थ
दर्भाग्यमिदम् = यह दुर्भाग्य है।
साम्प्रतम् = इस समय।
उत्पाद्यन्ते = उत्पन्न किये जा रहे हैं।
प्रवाह्यन्ते = बहाये जाते हैं।
मालिन्यम् = मैला, गन्दगी।
प्रणालिकाभिः = नालियों के द्वारा।
निलीयन्ते = डुबाये जाते हैं।
सङ्गच्छन्ते = पहुँचते हैं।
मिश्रयति = मिलाता है।
कीदृशीयं = कैसी यह।
विडम्बना = निन्दनीय बात।
प्रख्याता = प्रसिद्ध है।
मानवमुखमपेक्षते = मनुष्य का मुख देख रही है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में मनुष्यों द्वारा गंगा को प्रदूषित किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
खेद है! यह दुर्भाग्य ही है कि अब मनुष्य से ही गंगा जल की पवित्रता का भय उपस्थित हो गया है। स्वार्थ के कारण वह इसमें बहुत-से-विकार उत्पन्न कर रहा है। तटों पर स्थापति औद्योगिक कारखानों के रासायनिक घोल इसके जल में प्रवाहित किये जाते हैं अधिक जनसंख्या के भार वाले नगरों का मैला नालियों द्वारा गंगा में डाला जाता है। घातक रोग से आक्रान्त मनुष्यों और पशुओं के शव जल की धारा में डुबोये जाते हैं। किनारों पर पवित्र मन और श्रद्धा से बनाये गये एकान्त मन्दिरों और धर्मशालाओं में समाज-विरोधी (UPBoardSolutions.com) तत्त्व मिल जाते हैं। अज्ञान के कारण और प्रमाद से मनुष्य सबका कल्याण करने वाली गंगा को प्रदूषित कर रहा है, उसके जल को प्रदूषित कर रहा है और अमृत में विष घोल रहा है। खेद! यह कैसी विडम्बना (निन्दित बात) है कि जो गंगा सबको पवित्र करने वाली प्रसिद्ध है, वह अब अपनी शुद्धता के लिए मानव का मुँह देख रही है। यह मानव का ही दोष है, गंगा का नहीं।।

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(13) सौभाग्यात् भारतीयशासेन गङ्गाप्रदूषणस्य विनाशाय महती योजना सञ्चालिता। केन्द्रीयुविकासप्राधिकरणेन प्रदूषणमपाकर्तुं शुचिताञ्च प्रतिष्ठापयितुं योजनाबद्ध (UPBoardSolutions.com) कार्यमारब्धम्। चलचित्रदूरदर्शनाकाशवाणीसमाचारपत्रादिसञ्चारमाध्यमैः गङ्गाप्रदूषणं निवारयितुं जनचेतना प्रबोध्यते। परं महानयं राष्ट्रियः कार्यक्रमः क्षेत्रञ्च विशालम्। स्वल्पैः जनैः शासनतन्त्रैर्वा तदनुष्ठातुं न शक्यते। तत्र आबालवृद्धानां स्त्रीपुरुषाणां सक्रियसहयोगस्य अहर्निशमावश्यकता वर्तते। यदा सर्वे जनाः मनसा वाचा कर्मणा निष्ठया च गङ्गायाः प्रदूषणमपसारयितुं कृतसङ्कल्पास्तदनुरूपेवाचरणशीलश्च भविष्यन्ति तदैवास्याः नैर्मल्यं रक्षिष्यते पुण्यसलिला गङ्गा जगद्धात्री भविष्यत्येव।

अपरञ्च अहो गङ्गा जगद्धात्री स्नानपानादिभिर्जगत्।
 पुनाति पावनीत्येषा न कथं सेव्यते नृभिः॥

शब्दार्थ
अपाकर्तुं = दूर करने के लिए।
शुचितां = पवित्रता को।
प्रतिष्ठापयितुम् = पुनः लाने के लिए।
योजनाबद्धम् = योजना बनाकर।
निवारयितुम् = मिटाने के लिए।
प्रबोध्यते = जाग्रत की ।जा रही है।
तदनुष्ठातुम् = वह पूरा करने के लिए।
आबालवृद्धानाम् = बच्चों से लेकर बूढ़ों तक का।
अहर्निशं = दिन-रात (चौबीस घण्टे)।
निष्ठया = श्रद्धा से।
अपसारयितुम् = दूर करने के लिए।
नैर्मल्यम् = पवित्रता को।
जगद्धात्री = संसार का पालन करने वाली।
पुनाति = पवित्र करती है।
नृभिः = मनुष्यों के द्वारा।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गंगा के प्रदूषण को रोकने के लिए सरकारी प्रयत्नों और जनता के सहयोग की आवश्यकता का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
सौभाग्य से भारत की सरकार ने गंगा-प्रदूषण समाप्त करने के लिए बड़ी योजन चलायी है। केन्द्रीय विकास प्राधिकरण ने प्रदूषण को दूर करने और पवित्रता को पुनः लाने के लिए योजना बनाकर कार्य आरम्भ कर दिया है। सिनेमा, दूरदर्शन, आकाशवाणी, समाचार-पत्र आदि संचारमाध्यमों के द्वारा गंगा के प्रदूषण को दूर करने के लिए जनचेतना जगायी जा रही है, परन्तु यह राष्ट्रीय कार्यक्रम बड़ा है और क्षेत्र विशाल है। थोड़े लोगों अथवा शासनतन्त्र के द्वारा यह पूरा नहीं किया जा सकता है। उसमें बच्चों से लेकर बूढ़े, स्त्री-पुरुषों तक के (UPBoardSolutions.com) सक्रिय सहयोग की रात-दिन आवश्यकता है। जब सब मनुष्य मन से, वचन से, कार्य से और लगन से गंगा के प्रदूषण को दूर करने के लिए संकल्प (प्रतिज्ञा) करेंगे और उसके अनुसार आचरण करेंगे, तभी इसकी पवित्रता की रक्षा की जा सकेगी। पवित्र जल वाली गंगा संसार का पालन करने वाली होगी ही। और यह 
जगत् का पालन करने वाली गंगा स्नान, जलपान आदि द्वारा संसार को पवित्र करती है। इस प्रकार पवित्र करने वाली यह लोगों के द्वारा कैसे नहीं सेवन की जाती है; अर्थात् अवश्य ही सेवन की जाती है।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
गंगा किस प्रकार धरती पर आयी, इसका वर्णन कीजिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत आये शीर्षक ‘उद्गम’ और ‘पौराणिक स्वरूप की सामग्री को अपने शब्दों में लिखें।

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प्ररन 2
गंगा के प्रदूषित होने और प्रदूषण से मुक्ति पर प्रकाश डालिए
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत आये शीर्षकों-‘जल-प्रदूषण की समस्या’ और ‘प्रदूषण दूर करने के प्रयास’–से सम्बन्धित सामग्री को संक्षेप में अपने शब्दों में लिखें।]

प्ररन 3
गंगा के तट पर बसे नगरों, निवास करने वाले धर्माचार्यों तथा लगने वाले मेलों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
गंगा के तट पर बदरीनाथ, पंचप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, तीर्थराज प्रयाग, वाराणसी आदि तीर्थस्थान (नगर) हैं। वाल्मीकि और भरद्वाज के आश्रम भी गंगा के तट पर ही थे। रामानुज, कबीर, तुलसी आदि महापुरुषों के प्रेरणास्थल भी गंगा के तट ही रहे हैं। प्रयाग में गंगा के तट पर लगने वाले मेले में ही हर्षवर्धन अपना सर्वस्व दान किया करते थे।

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Class 9 Sanskrit Chapter 5 UP Board Solutions अन्योक्तिमौक्तिकानि Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 5 अन्योक्तिमौक्तिकानि (पद्य-पीयूषम्) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 5 अन्योक्तिमौक्तिकानि (पद्य-पीयूषम्).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 5
Chapter Name अन्योक्तिमौक्तिकानि (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 5 Anyokti Mauktikani Question Answer (पद्य-पीयूषम्)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 5 हिंदी अनुवाद अन्योक्तिमौक्तिकानि के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय–प्रस्तुत को कुछ कहने के लिए जब किसी अप्रस्तुत को माध्यम बनाया जाता है, तब उसे अन्योक्ति कहते हैं। संस्कृत-साहित्य में इसे अप्रस्तुत-प्रशंसा अलंकार भी कहा जाता है। इस कथन में जिस पर बात सार्थक होती है उसे प्रस्तुत’ और जिस किसी पर बात रखकर कही जाती है, वह अप्रस्तुत कहलाता है। इसकी आवश्यकता इसलिए होती है कि कभी किसी को सीधे कोई बात कह देने से उसे अपने विषय में कही गयी बात बुरी लग सकती है या अच्छी लगने पर उसे अपने पर अहंकार भी हो सकता है; अतः किसी की बुराई और (UPBoardSolutions.com) प्रशंसा करने का अच्छा एवं प्रभावशाली माध्यम ‘अन्योक्ति’ ही होता है। अन्योक्तियों का प्रयोग साहित्यिक दृष्टि से बहुत प्रभावकारी होता है। अन्योक्तियों में प्रस्तुत की कल्पना अपने अनुभव के आधार पर भी की जा सकती है। प्रस्तुत पाठ में संकलित अन्योक्तियाँ ‘अन्योक्तिमाला’ से ली गयी हैं। इन अन्योक्तियों में प्रस्तुत की कल्पना छात्र स्वयं सरलता से कर सकते हैं।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या 

(1)
आपो विमुक्ताः क्वचिदाप एव क्वचिन्न किञ्चिद् गरलं क्वचिच्च।
यस्मिन् विमुक्ताः प्रभवन्ति मुक्ताः पयोद! तस्मिन् विमुखः कुतस्त्वम्॥

शब्दार्थ
आपः = जल।
विमुक्ताः = छोड़े गये, बरसाये गये।
क्वचित् = कहीं परे।
किञ्चित् = कहीं भी।
गरलम् = विष।
प्रभवन्ति = हो जाते हैं।
मुक्ताः = मोती।
पयोद = हे बादल!।
विमुखः = उदासीन।
कुतः = किस कारण से।

सन्दर्थ
प्रस्तुत अन्योक्ति श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘अन्योक्तिमौक्तिकानि’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत-इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। |

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में बादल के माध्यम से ऐसे धनी व्यक्ति की ओर संकेत किया गया है, जो सत्पात्र को दान न देकर अयोग्य व्यक्ति को दान देता है।

अन्वय
पयोद! (त्वया) विमुक्ता: आपः क्वचित् आपः एव (भवति)। क्वचित् किञ्चित् न (भवति) क्वचित् च गरलं (भवति) यस्मिन् विमुक्ताः (आप) मुक्ताः प्रभवन्ति तस्मिन् त्वं कुतः विमुखः (असि)?

व्याख्या
हे बादल! तुम्हारे द्वारा बरसाया गया जल कहीं (जल में) जल ही रहता है, कहीं (गर्म तवे आदि पर) कुछ भी नहीं रहता है और कहीं पर (सर्प आदि के मुख में) विष हो जाता है। जिसमें (सीपी में) बरसाये गये वे (जल), मोती बन जाते हैं, उस सीपी में अपना जल बरसाने से तुम किस कारण से उदासीन हो। तात्पर्य यह है कि हे दानी व्यक्तियो! तुम्हें सत्पात्र को ही दान देना चाहिए।

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(2)
जलनिधौ जननं धवलं वपुर्मुररिपोरपि पाणितले स्थितिः ।।
इति समस्त-गुणान्वित शङ्ख भोः! कुटिलता हृदयान्न निवारिता ॥

शब्दार्थ
जलनिधौ = समुद्र में।
जननं = उत्पत्ति।
धवलं = श्वेत।
वपुः = शरीर।
मुररिपोः = मुर नामक दैत्य के शत्रु अर्थात् विष्णु के।
पाणितले = हथेली अर्थात् हाथ में।
समस्तगुणान्वितः = सभी गुणों से युक्त।
कुटिलता = टेढ़ापन।
न निवारिता = दूर नहीं की गयी।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में शंख के माध्यम से ऐसे व्यक्ति के प्रति उक्ति है, जो उच्च कुल में जन्म लेकर और अच्छी संगति पाकर भी दुष्टता नहीं छोड़ता है।

अन्वय
भो शङ्ख! (तव) जननं जलनिधौ (अभवत्), वपुः धवलं (अस्ति), स्थितिः अपि मुररिपोः पाणितले (अस्ति), इति समस्त गुणान्वित (भो शङ्ख तव) हृदयात् कुटिलता ने निवारिता।

व्याख्या
हे शंख! तुम्हारा जन्म समुद्र में हुआ है, तुम्हारा शरीर श्वेत वर्ण का है, तुम्हारा निवास भी मुर के शत्रु अर्थात् विष्णु की हथेली में है। इस प्रकार सभी गुणों से युक्त हे शंख! तुम्हारे हृदय से कुटिलता (टेढ़ापन) दूर नहीं हुआ है। तात्पर्य यह है कि दुष्ट मनुष्य में चाहे कितनी ही अच्छाइयाँ क्यों न हों, वह अपनी दुष्टता को नहीं छोड़ता है।

(3)
अलिरयं नलिनी-दल-मध्यगः कमलिनी-मकरन्द-मदालसः ।
विधिवशात् परदेशमुपागतः कुटजपुष्प-रसं बहु मन्यते ॥

शब्दार्थ
अलिः = भौंरा।
नलिनीदलमध्यगः = कमलिनी की पंखुड़ियों के मध्य में स्थित।
मकरन्दमदालसः = कमल के रस के पान करने में अलसाया हुआ।
विधिवशात् = दैवयोग से।
परदेशमुपागतः = पराये देश में आया हुआ।
कुटजपुष्प-रसं = कुटज के फूल के रस को।
बहु मन्यते = बहुत सम्मान देता है, सम्मान के साथ पान करता है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में भ्रमर के माध्यम से ऐसे व्यक्ति के प्रति उक्ति है, जो सभी प्रकार की सुविधाओं में पला-बढ़ा है। वह विदेश में विषम परिस्थिति को पाकर तुच्छ वस्तु से भी सन्तुष्ट रहता है। |

अन्वय
‘नलिनीदलमध्यगः’ कमलिनी मकरन्द मदालसः अयम् अलिः विधिवशात् परदेशम्। उपागतः (सन्) कुटजपुष्परसं बहु मन्यते।।

व्याख्या
कमलिनी की पंखुड़ियों के मध्य में विचरण करने वाला, कमलिनी के रस को पीकर नशे में अलसाया हुआ यह भौंरा भाग्य से परदेश में आकर कुटज के फूल के रस को ही (UPBoardSolutions.com) बहुत सम्मान दे रहा है। तात्पर्य यह है कि सम्भ्रान्त व्यक्ति चाहे जितनी सुख-सुविधाओं के बीच रहा हो, विपरीत समय आने पर वह तुच्छ वस्तु को भी अत्यधिक महत्त्व देता है।

(4)
उरसि फणिपतिः शिखी ललाटे शिरसि विधुः सुरवाहिनी जटायाम्।।
प्रियसखि! कथयामि किं रहस्यं पुरमथनस्य रहोऽपि संसदेव ॥

शब्दार्थ
उरसि = वक्षःस्थल पर।
फणिपतिः = सर्यों का राजा वासुकि।
शिखी = अग्नि।
ललाटे = मस्तक पर।
शिरसि = सिर पर।
विधुः = चन्द्रमा।
सुरवाहिनी = गंगा।
जटायाम् = जटाओं में।
पुरमथनस्य = त्रिपुर दैत्य को मारने वाले अर्थात् शंकर का।
रहोऽपि = एकान्त भी।
संसदेव = सभा।।

प्रसंग
यह श्लोक ऐसे व्यक्ति को लक्ष्य करके कहा गया है, जो सदा अन्य व्यक्तियों से घिरा रहता है और उसे पत्नी से गोपनीय बात करने के लिए भी एकान्त नहीं मिलता।

अन्वय
प्रिय सखि! उरसि फणिपतिः, ललाटे शिखी, शिरसि विधुः, जटायां सुरवाहिनी (अस्ति), यस्य पुरमथनस्य, रहः अपि संसद् एव, तस्य रहस्यं किं कथयामि?

व्याख्या
(पार्वती जी अपनी प्रिय सखी से कह रही हैं)—हे प्रिय सखि! (मेरे पति के) वक्षःस्थल पर सर्पो का राजा वासुकि, मस्तक पर तीसरा नेत्ररूपी अग्नि, सिर पर चन्द्रमा, जटा में गंगा है, जिस शंकर का एकान्त भी संभा ही है, मैं उनसे अपनी गोपनीय बात कैसे कह सकती हूँ? तात्पर्य यह है कि उन्हें कभी एकान्त मिलता ही नहीं, जिससे कि उनसे अपनी गोपनीय बात कही जा सके।

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(5)
एकेन राजहंसेन या शोभा सरसो भवेत् ।
न सा वक-सहस्त्रेण परितस्तीरवासिनी॥

शब्दार्थ
एकेन = एक द्वारा, अकेले।
राजहंसेन = राजहंस के द्वारा।
या = जो।
सरसः = तालाब की।
वक-सहस्रेण = हजारों बगुलों से।
परितः = चारों ओर।
तीरवासिना = तट पर निवास करने वाले से।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यह बताया गया है कि एक गुणवान् व्यक्ति से जो शोभा होती है, वह हजारों गुणहीन व्यक्तियों से भी नहीं होती।

अन्वय
एकेन राजहंसेन सरस: या शोभा भवेत् सा परितः तीरवासिना वर्क-सहस्रेण न भवति)।

व्याख्या
अकेले राजहंस के द्वारा तालाब की जो शोभा होती है, वह तालाब के चारों ओर किनारे पर रहने वाले हजारों बगुलों से भी नहीं होती। तात्पर्य यह है कि एक अत्यन्त विद्वान् व्यक्ति से सभा की जो शोभा हो जाती है, वह हजारों भूख से भी नहीं हो पाती है। |

(6)
अहमस्मि नीलकण्ठस्तव खलु तुष्यामि शब्दमात्रेण।
नाहं जलधर! भवतश्चातक इव जीवनं याचे ॥

शब्दार्थ
नीलकण्ठः = मोर।
तव = तुम्हारे।
खलु = निश्चय ही।
तुष्यामि = सन्तुष्ट होता हैं।
शब्दमात्रेण = शब्दमात्र से।
जलधर = हे बादल।
भवतः = आपके।
इव = समान।
जीवनम् = जल, जीवन।
न याचे = नहीं माँगता हूँ।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में नि:स्वार्थ प्रेम की श्रेष्ठता का वर्णन किया गया है।

अन्वय
जलधर! अहं नीलकण्ठः अस्मि। तव शब्दमात्रेण खलु तुष्यामि। अहं चातकः इव भवतः जीवनं न याचे।

व्याख्या
(मोर बादल से कहता है कि) हे बादल! मैं मोर हूँ। मैं निश्चय ही तुम्हारे शब्दमात्र (गर्जन) से सन्तुष्ट हो जाता हूँ। मैं आपके प्रिय चातक की तरह आपके जीवन (प्राण, जल) को नहीं माँगता हूँ। तात्पर्य यह है कि एक श्रेष्ठ मित्र को अपने किसी सामर्थ्यवान् मित्र से भी अत्यन्त बहुमूल्य वस्तु की मॉग नहीं करनी चाहिए।

(7)
अग्निदाहे न मे दुःखं छेदे न निकषे न वा। 
यत्तदेव महददुःखं गुञ्जया सह तोलनम् ॥

शब्दार्थ
अग्निदाहे = अग्नि में जलाने पर।
छेदे = काटने पर।
निकषे = कसौटी पर कसे जाने पर।
वा = अथवा।
महुद्दुःखं = बड़ा दुःख।
गुञ्जया सह = गुंजा (रत्ती) के साथ।
गुंजा (घंघची) जंगल में पायी जाती है। इसका वजन 1 रत्ती के बराबर माना जाता है। सोना तोलने में पहले इसी के दानों का प्रयोग होता था।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में उस मनस्वी व्यक्ति की मनोव्यथा व्यक्त की गयी है, जिसकी तुलना नीच व्यक्ति से की जाती है।

अन्वय
अग्निदाहे, छेदे निकषे वा मे दु:खं न (अस्ति), यत् गुञ्जया सह तोलनं तद् एव महद् । दुःखम् (अस्ति)।

व्याख्या
सुवर्ण कहता है कि आग में जलाने में,काटने में अथवा कसौटी पर कसे जाने में मुझे दुःख ‘ नहीं है, जो गुंजा (घंघची) के साथ मुझे तोलना है, वही मेरा सबसे बड़ा दुःख है। तात्पर्य यह है कि एक 
मनस्वी व्यक्ति कठिन-से-कठिन परीक्षा देने को सदैव तत्पर रहता है। वह कितने भी कष्टं में रहे, (UPBoardSolutions.com) उसे कोई चिन्ता नहीं होती; लेकिन अपना अवमूल्यन अर्थात् नीचों के साथ तुलना उसे किसी भी स्थिति में सह्य नहीं है।

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(8)
सुमुखोऽपि सुवृत्तोऽपि सन्मार्गपतितोऽपि सन्।
सतां वै पादलग्नोऽपि व्यथयत्येव कण्टकः ॥

शब्दार्थ
सुमुखः = सुन्दर मुख वाला (सुन्दर नोक वाला)।
अपि = भी।
सुवृत्तः = अच्छे आचरण वाला, अच्छा गोलाकार।
सन्मार्गपतितः = अच्छे रास्ते अर्थात् साफ-सुथरे मार्ग पर पड़ा हुआ।
सन् = होते हुए।
सतां = सज्जनों के।
पादलग्नः = पैर में लगा हुआ।
व्यथयति = कष्ट देता है।
एव = ही।
कण्टकः = काँटा।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक उस दुष्ट व्यक्ति को लक्ष्य करके कहा गया है, जो सुन्दर मुख वाला, अच्छे आचरण वाला, सज्जनों के मार्ग पर लगा हुआ तथा सज्जनों के आश्रय में पड़ा हुआ होने पर भी उन्हें कष्ट देता है।

अन्वय
सुमुखः अपि, सुवृत्त: अपि, सन्मार्गपतितः अपि, (सन्) सतां पादलग्नः अपि कण्टकः वै व्यथयति एव। | व्याख्या-सुन्दर नोक वाला, अच्छी गोल आकृति वाला, साफ-सुथरे मार्ग में पड़ा हुआ तथा सज्जनों के पैर में गड़ा हुआ होते हुए भी कॉटा सज्जनों को केवल दु:ख ही देता है। तात्पर्य यह है कि दुष्ट चाहे जितने भी भले लोगों के बीच में रहे, वह अपने दुष्ट स्वभाव को नहीं छोड़ता।

(9)
अयि त्यक्तासि कस्तूरि! पामरैः पङ्क-शङ्कया।
अलं खेदेन भूपालाः किं न सन्ति महीतले ।।

शाख्दार्थ
अयि = अरी।
त्यक्तासि = त्यागी गयी।
पामरैः = मूर्खा ने।
पङ्कशङ्कया = कीचड़ की शंका से।
अलं खेदेन = खेद मत करो।
भूपालाः = राजा।
महीतले = पृथ्वी पर।

प्रसंग
इस श्लोक में बताया गया है कि गुणवान् व्यक्ति को अज्ञानियों के द्वारा सम्मान न मिलने पर दु:खी नहीं होना चाहिए, क्योंकि संसार में गुणज्ञों की कमी नहीं है, जो उनके गुणों का आदर करेंगे।

अन्वय
अयि कस्तूरि! पामरैः पङ्कशङ्कया त्यक्ता असि, खेदेन अलम्। किं महीतले भूपालाः न 
सन्ति ।

व्याख्या
हे कस्तूरी! मूर्खा ने तुझे कीचड़ समझकर त्याग दिया है, इसका तुम खेद मत करो। क्या पृथ्वी पर (संसार में) तुम्हारा मूल्य समझने वाले राजी नहीं हैं? तात्पर्य यह है कि हे गुणवान् पुरुष! यदि तुम्हारा दुष्टों के मध्य सम्मान नहीं है तो इसके लिए तुम्हें दु:ख नहीं करना चाहिए। तुम्हारे चाहने वाले अन्यत्र अवश्य हैं।

सूक्तिपरक वाक्य की व्याख्या

(1) सतां वै पादलग्नोऽपि व्यथयत्येव कण्टकः।
सन्दर्य
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के अन्योक्तिमौक्तिकानि’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।।

प्रसंग
इस सूक्ति में अन्योक्ति के माध्यम से सुन्दर, किन्तु दुष्ट व्यक्ति के दुष्टता करते रहने के स्वभाव को बताया गया है।

अर्थ
सज्जनों के पैर में चुभा हुआ काँटा भी पीड़ा ही देता है।

व्याख्या
जिस प्रकार से काँटा सज्जन के पैर में चुभने पर भी उसे कष्ट ही देता है, वह उसके गुणों या सज्जनता से तनिक भी प्रभावित नहीं होता है, उसी प्रकार दुर्जन सज्जनों की संगति में रहने पर भी उनके साथ दुर्जनता ही करता है। चाहे दुर्जन कितना भी सुन्दर, सच्चरित्र और सज्जनों के मार्ग का अनुसरण करता हो, वह अपनी दुर्जनता; अर्थात् दूसरों को हानि पहुँचाने का कार्य नहीं छोड़ सकता।।

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श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) आपो विमुक्ताः ••••• ••••••••••••••• कुतस्त्व म् ॥ (श्लोक 1)
संस्कृता
वारिदं संलक्ष्य कश्चिद् विज्ञः कथयति–हे वारिद! त्ववियुक्तानि जलानि । क्वचित् जलानि एव तिष्ठन्ति, क्वचिच्च तान्येव जुलानि क्वचित् महत्त्वहीनान्येव भवन्ति क्वचिच्च 
तान्येव जलानि विषरूपेण प्राणहारकानि भवन्ति, परन्तु त्वं स्वजलानि तत्र कथं न पातयसि यंत्र पदं . लब्ध्वा जलानि मुक्तारूपेण महानिधयो भवन्ति।

(2) अलिरयं नलिनी •••••••••••••••••••••••••••••बह मन्यते ॥ (श्लोक 3 )
संस्कृतार्थः-
अस्यां अन्योक्तौ भ्रमरस्य माध्यमेन एतादृशं जनं प्रति उक्तिः अस्ति, यः सर्वविधासु सुविधासु पालितः अभवत् , पुरं विदेशेऽपि सः विषमायां परिस्थितौ सत्यां सन्तुष्टः भवति। यथा भ्रमर: नलिनीनां दलानां मध्ये स्थित्वा पुष्परसं पीत्वा अलसित: भूत्वा अपि विधिवशात् परदेशगमने कुटजस्य पुष्पाणां रसं पीत्वा तथैव तुष्यति।।

(3) एकेन राजहंसेन •••••••••••••••••••••••••••••परितस्तीरवासिना॥ (श्लोक 5)
संस्कृतार्थः-
कविः कथयति यत् कस्यापि सरोवरस्य या शोभा तस्य तीरे वासिना मरालेन भवति, सा शोभा सरोवरं परित: वसतां वकानां सहस्रेण न भवति। एवमेव एकेन सुपुत्रेण एव कुलस्य या शोभा भवति, सा मूर्खशतैः पुत्रैः न भवति।।

(4) अग्निदाहे न मे •••••••••••••••••••••••सह तोलनम् ॥ (श्लोक 7)
संस्कृतार्थः-
सुवर्णः स्वमनोव्यथां प्रकटयन् कथमपि यत् स्वर्णकारः माम् अग्नौ क्षिपति, तस्य मां दु:खं न अस्ति, स: मां छेदयति तस्य अपि दुःखम् अहं न मन्ये, सः मां निकषे घर्षति, सा पीडा अपि मां न व्यथयति। अहं तदा महद् दुःखम् अनुभवामि, यदा सः मम मूल्यं महत्त्वम् अगण्यन् मां गुञ्जया। सह तोलयति। एवम् एव विद्वान् पुरुषः अनेकानि कष्टानि सोढ्वा तथा दुःखं न अनुभवन्ति यथा कोऽपि निपुणः जनन तस्य मूर्खः सह तुलनां करोति।

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Class 10 Sanskrit Chapter 9 UP Board Solutions गीतामृतम् Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 9 Geetamritam Kalidas Question Answer (पद्य – पीयूषम्)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 9 हिंदी अनुवाद गीतामृतम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

समस्त उपनिषदों की सारभूत ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ भारतीय दर्शन की अमूल्य निधि है। यह महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित अनुपम ग्रन्थ; ‘महाभारत’ जिसे पंचम वेद भी माना जाता है; के अन्तर्गत सात-सौ श्लोकों का संकलन है। श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया; निष्काम कर्म करने का; उपदेश ही इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ का एक भी वाक्य सदुपदेश से रहित नहीं है। यह भारत के समस्त आध्यात्मिक (UPBoardSolutions.com) ग्रन्थों की चरम परिणति है। प्रस्तुत श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता से ही संगृहीत हैं।

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पाठ-सारांश

श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि तुम्हारा अधिकार कर्म करने में है, फल की प्राप्ति में नहीं: अतः तुम निरन्तर कर्म करते रहो। हे अर्जुन! सफलता और असफलता को एक समान मानकर कर्म करो; ऐसा करने की बुद्धि रखने वाला व्यक्ति ही योगी कहलाता है। कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है; क्योंकि बिना कर्म किये तो जीवन ही सम्भव नहीं है। इसलिए अपने निर्धारित कर्मों को करो। हे भरतवंशी अर्जुन! लोक-कल्याण को चाहने वाले विद्वान् तो राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करते हैं। जो ऐसा नहीं करते, वे मूर्ख हैं। प्रकृति से प्राप्त वस्तुओं से सन्तुष्ट, ईर्ष्या से रहित, सफलता-असफलता को एक समान मानकर कार्य करने वाला और सुख-दु:ख में तटस्थ व्यक्ति सांसारिक बन्धनों में नहीं बँधता है। श्रद्धावान्, प्रयत्नशील और इन्द्रियों को संयमित रखने वाला मनुष्य ही ज्ञान को प्राप्त कर परम शान्ति को प्राप्त करता है। इसके विपरीत ज्ञानहीन, श्रद्धाहीन और संशय से युक्त मन वाला व्यक्ति न तो इहलोक में और न ही परलोक में सुख-शान्ति प्राप्त करता है।

पाण्डुपुत्र अर्जुन! जो व्यक्ति मुझे बड़ा मानकर, कुसंगति एवं विद्वेषरहित होकर कर्म करता है, वह मुझे प्राप्त कर लेता है। जो व्यक्ति प्रसन्नता, द्वेष, शोक, शुभ-अशुभ में तटस्थ रहकर त्याग एवं भक्ति का जीवन बिताता है, जो शत्रु-मित्र, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी एवं सुख-दु:ख को एकसमान मानता है (UPBoardSolutions.com) और आसक्ति से रहित है; जो निन्दा-प्रशंसा में समान भाव रखता है, प्राप्त वस्तु से सन्तुष्ट रहता है, गृह-त्यागी, स्थिर बुद्धि और भक्ति में लीन रहता है, वह मनुष्य मुझे प्रिय है।

पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ [2008]

शब्दार्थ कर्मणि एव = कर्म करने में ही। अधिकारः = अधिकार है। ते = तुम्हारा। मा = नहीं है। फलेषु =(कर्म, के) फलों पर। कदाचन = कभी। कर्मफलहेतुः = कर्मफल के निमित्त। मा भूः = मत बनो। सङ्गः = आसक्ति। अस्तु = हो। अकर्मणि = कर्म न करने में।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘गीतामृतम्’ पाठ से उद्धृत है।

[संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

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प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि तुम्हारी अधिकार केवल कर्म करने में ही है।

अन्वय ते अधिकारः कर्मणि एव (अस्ति), फलेषु कदाचन मा (अस्ति)। कर्मफलहेतुः मा भूः। अकर्मणि ते सङ्गः मा अस्तु।

व्याख्या श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन! तुम्हारा अधिकार मात्र कर्म करने में ही है, उसके फल की प्राप्ति में कभी नहीं है। इसलिए तुम कर्मफल के हेतु मत बनो तथा कर्म न करने में अर्थात् कर्महीन होकर बैठे रहने में तुम्हारी आसक्ति न हो। तात्पर्य यह (UPBoardSolutions.com) है कि कर्म पर तुम्हारा अधिकार है, इसलिए तुम्हारा कर्महीन हो जाना एक अनुचित प्रवृत्ति है। अतः तुम्हें कर्महीनता की ओर उन्मुख नहीं होना चाहिए।

(2)
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ [2006]

शब्दार्थ योगस्थः = योग में स्थित रहते हुए। कुरु कर्माणि = कर्मों को करो। सङ्गम् = फल के प्रति आसक्ति को। त्यक्त्वा = त्यागकर। धनञ्जय = अर्जुन का एक नाम। सिद्ध्यसिद्ध्योः = सफलता और असफलता को। समः भूत्वा = समान रहकर। समत्वं = सदा समान स्थिति में रहना ही। योगः = योग। उच्यते = कहा जाता है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में अर्जुन को योग-भाव से कर्म करने का उपदेश दिया गया है।

अन्वय धनञ्जय! सङ्गं त्यक्त्वा सिद्ध्यसिद्ध्योः समः भूत्वा योगस्थः कर्माणि कुरु। समत्वं योग उच्यते।

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व्याख्या श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! फल के प्रति आसक्ति को छोड़कर सफलता और असफलता को समान समझकर योग में स्थित होकर कर्म करो। सफलता और असफलता को समान समझकर कार्य करना ही योग कहलाता है।

(3)
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥ [2008, 14]

शब्दार्थ नियतम् = निर्धारित कुरु = करो। त्वं = तुम। ज्यायः = श्रेष्ठ है। हि = क्योंकि (UPBoardSolutions.com) अकर्मणः = कर्म न करने से। शरीरयात्रापि = शरीर-निर्वाह भी। प्रसिद्ध्येत् = पूर्ण नहीं हो सकता है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में कर्म को जीवन के लिए आवश्यक बताया गया है।

अन्वय त्वं नियतं कर्म कुरु हि अकर्मणः कर्म ज्याय: (अस्ति)। अकर्मण: ते शरीरयात्रा अपि न प्रसिद्ध्येत्।

व्याख्या श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम निर्धारित कर्म करो अर्थात् अपने कर्तव्यों का पालन करो; क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना अधिक श्रेष्ठ है। कर्म न करने वाले, तुम्हारा जीवन-निर्वाह भी सिद्ध नहीं हो सकता है। तात्पर्य यह है कि कर्म के बिना तो जीवन (जीवित रहना) ही असम्भव है।

(4)
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ॥

शब्दार्थ सक्ताः = आसक्त रहने वाले कर्मणि = क़र्म में। अविद्वांसः = अज्ञानी लोग। यथा = जैसे। कुर्वन्ति = करते हैं। भारत = भरत-वंश में उत्पन्न होने वाले अर्जुन कुर्यात् = करना चाहिए। विद्वान् = विवेकी। तथा = उसी प्रकार। असक्तः = अनासक्त रहकर चिकीर्षुः = करने की इच्छा रखने वाला। लोकसङ्ग्रहम् = लोक-कल्याण।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है कि विद्वान् को कर्म का त्याग न करके उसकी (UPBoardSolutions.com) आसक्ति का त्याग करना चाहिए। अन्वय भारत! कर्मणि सक्ताः अविद्वांसः यथा कुर्वन्ति, लोकसङ्ग्रहं चिकीर्षुः विद्वान् असक्तः (सन्) तथा कुर्यात्।।

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व्याख्या श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे भरतवंशी अर्जुन! कर्म करने में आसक्त अर्थात् राग-द्वेष से लिप्त हुए अज्ञानीजन जैसा कार्य करते हैं, लोक-कल्याण करने की इच्छा रखने वाला विद्वान् अनासक्त रहकर अर्थात् राग-द्वेष में लिप्त न होकर वैसा कार्य करता है। तात्पर्य यह है कि कर्म को विवेकी और अविवेकी दोनों ही करते हैं किन्तु अविवेकी कर्म में आसक्ति के कारण कर्म करता है और विवेकी लोकशिक्षा की दृष्टि से।।

(5)
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥

शब्दार्थ यदृच्छालाभसन्तुष्टः = स्वभावतः प्राप्त होने वाली वस्तुओं से सन्तुष्ट रहने वाला। द्वन्द्वातीतः = सुख और दुःख के द्वन्द्वों से रहित। विमत्सरः = ईष्र्या (मत्सर) से रहित। समः = समान रहने वाला। सिद्धौ असिद्धौ च= सफलता (सिद्धि) और असफलता (असिद्धि) में। कृत्वा अपि = कर्म करके भी। ननिबध्यते =(कर्मबन्धन में) नहीं बँधता है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है कि कर्मफल भोगने के लिए कौन बाध्य नहीं होता।

अन्वय यदृच्छालाभसन्तुष्टः, द्वन्द्वातीतः, विमत्सरः, सिद्धौ असिद्धौ च समः (पुमान्) (कर्म) कृत्वा अपि न निबध्यते।

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व्याख्या श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो मनुष्य उसी लाभ से सन्तुष्ट होता है, जो उसे मिलता रहता है, जो सुख में प्रसन्न और दुःख में दु:खी नहीं होता है, ईर्ष्या से रहित, सफलता और असफलता में एक-सा रहने वाला पुरुष कर्म करके भी कर्मबन्धन में नहीं बँधता है।

(6)
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ [2009, 11, 12, 13]

शब्दार्थ श्रद्धावान् = श्रद्धावाला, श्रद्धालु। लभते ज्ञानं = ज्ञान को प्राप्त करता है। तत्परः = उसमें लगा हुआ, तल्लीन। संयतेन्द्रियः = इन्द्रियों को वश में रखने वाला, जितेन्द्रिय। ज्ञानं = ज्ञान को। लब्ध्वा = प्राप्त करके। परां शान्ति = अत्यधिक शान्ति (UPBoardSolutions.com) को। अचिरेण = शीघ्र ही। अधिगच्छति = प्राप्त हो जाता है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को शीघ्र शान्ति प्राप्त करने का उपाय बता रहे हैं।

अन्वय श्रद्धावान्, तत्परः, संयतेन्द्रियः ज्ञानं लभते। ज्ञानं लब्ध्वा अचिरेण परां शान्तिम् अधिगच्छति।

व्याख्या श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो मनुष्य श्रद्धालु हो, सदैव ज्ञान प्राप्त करने का इच्छुक हो, अपनी इन्द्रियों को वश में करने वाला अर्थात् जितेन्द्रिय हो, वही पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है और ज्ञान प्राप्त करके शीघ्र ही परम शान्ति अर्थात् लोकोत्तर शान्ति को प्राप्त कर लेता है।

(7)
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति
नायं लोकोऽस्ति नपरोन सुखं संशयात्मनः॥ [2010, 11, 12]

शब्दार्थ अज्ञः = ज्ञानहीना च = और अश्रद्दधानः = श्रद्धा न रखने वाला; अश्रद्धालु। संशयात्मा = संशय से युक्त मन वाला। विनश्यति = नष्ट हो जाता है। न अयं लोकः अस्ति =न यह संसार है। न परः =न परलोक है। न सुखं = न सुख है। संशयात्मनः = संशययुक्त मन वाले का।

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प्रसंग प्रस्तुत लोक में संशय में पड़े हुए मनुष्य की दुर्गति के विषय में बताया गया है।

अन्वय अज्ञः च अश्रद्दधानः संशयात्मा च विनश्यति। संशयात्मन: अयं लोकः न अस्ति, परः (लोकः) न अस्ति, सुखं न (अस्ति)।

व्याख्या श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि ज्ञानहीन, श्रद्धा न रखने वाला और संशय से युक्त मनवाला पुरुष नष्ट हो जाता है। संशय में पड़े हुए मनुष्य का न यह लोक है, न परलोक है और न ही सुख है।

(8)
मत्कर्म कृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव! ॥

शब्दार्थ मत्कर्म कृत् = मेरे लिये कर्म करने वाला। मत्परमः = मुझे ही सबसे बड़ा मानने वाला। मद्भक्तः = मेरा भक्त। सङ्गवर्जितः = आसक्तिरहित, दुर्जनों के साथ से रहित। निर्वैरः = शत्रुता से रहित; अर्थात् वैर न करने वाला। सर्वभूतेषु = सभी जीवों में। यः = जो। सः = वह। माम् = मुझको। एति = प्राप्त करता है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को मोक्ष-प्राप्ति का उपाय बताया गया है।

अन्वये पाण्डव! यः मत्कर्म कृत्, मत्परमः, मद्भक्त: सङ्गवर्जितः, सर्वभूतेषु (च) निर्वैरः (अस्ति), सः माम् एति।।

व्याख्या श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे पाण्डुपुत्र अर्जुन! जो मेरे लिए कर्म करने वाला, मुझे ही सबसे बड़ा मानने वाला, मेरा भक्त (किसी भी व्यक्ति या वस्तु की) आसक्ति से रहित और सब जीवों पर शत्रुता-भाव से रहित है, वह पुरुष मुझे प्राप्त कर लेता है अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर (UPBoardSolutions.com) लेता है। यह श्लोक श्रीकृष्ण के परमब्रह्म स्वरूप को दर्शाता है।

(9)
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥ [2009, 12, 13, 14]

शब्दार्थ यः न हृष्यति = जो न प्रसन्न होता है। द्वेष्टि = द्वेष करता है। शोचति = शोक करता है। काङ्क्षति = इच्छा करता है। शुभाशुभपरित्यागी = शुभ और अशुभ का परित्याग करने वाला। भक्तिमान् = भक्त) मे प्रियः = मेरा प्रिय है।

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प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है कि भगवान् को कौन प्रिय ?

अन्वय यः न हृष्यति, ने द्वेष्टि, न शोचति, न काङ्क्षति, शुभाशुभ परित्यागी, यः भक्तिमान् (चे अस्ति) स मे प्रियः (अस्ति)।

व्याख्या श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो पुरुष न प्रसन्न होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न इच्छा करता है, शुभ और अशुभ पदार्थों का त्याग करने वाला और जो भक्तियुक्त है, वह मुझे प्रिय है।।

(10)
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥ [2014]

शब्दार्थ समः = समान। शत्रौ = शत्रु में। मित्रे = मित्र से। मानापमानयोः = मान और अपमान में।। शीतोष्णसुखदुःखेषु = सर्दी, गर्मी, सुख और दुःख में भी। सङ्गविवर्जितः = आसक्ति से रहित।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है कि भगवान् को कौन प्रिय है?

अन्वय (यः जनः) शत्रौ मित्रे च समः (अस्ति), तथा मानापमानयोः (समः अस्ति), शीतोष्ण सुखदुःखेषु समः (अस्ति), सङ्गविवर्जितः (च अस्ति), (स में प्रियः अस्ति)।

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व्याख्या श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन! जो मनुष्य शत्रु और मित्र में एक समान, सम्मान तथा अपमान में एक समान, सर्दी-गर्मी में एक समान और सुख-दुःख में एक समान आचरण करने वाला और आसक्ति से रहित होता है, वह मुझे प्रिय है। तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य शत्रु से घृणा और मित्र से प्रेम नहीं करता, सम्मान से जिसे प्रसन्नता नहीं होती, अपमान से मानसिक कष्ट नहीं होता, गर्मी-सर्दी और सुख-दु:ख में जो समान है तथा इन्द्रियादि विषयों की (UPBoardSolutions.com) आसक्ति से रहित है, वह मुझे प्रिय है।

(11)
तुल्यनिन्दास्तुतिमनी सन्तुष्टो येन केनचित्
अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥ [2008, 10, 12]

शब्दार्थ तुल्यनिन्दास्तुतिः = जो निन्दा और प्रशंसा में समान है। मौनी = मौन रहने वाला अर्थात् मननशील। सन्तुष्टः = सुप्रसन्ना येन केनचित् = जिस-किसी वस्तु से, अर्थात् जो कुछ मिले उसी से। अनिकेतः = गृहरहित। स्थिरमतिः = स्थिर बुद्धि वाला। भक्तिमान् = भक्ति से युक्त। मे = मुझे। प्रियः = प्रिय है। नरः = मनुष्य।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है कि भगवान् को कौन प्रिय है?

अन्वय (य: नर:) तुल्यनिन्दास्तुतिः, मौनी, येन केनचित् (वस्तुना) सन्तुष्टः, अनिकेतः, स्थिरमतिः, भक्तिमान् (च अस्ति), (सः) नरः मे प्रियः (अस्ति)।

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व्याख्या जो मनुष्य निन्दा और स्तुति में समान रहता है, मौन रहता है, जो कुछ मिल जाये उसी में सन्तुष्ट रहता है, गृहविहीन, स्थिर बुद्धि वाला और भक्ति से युक्त मुझे प्रिय है। तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य अपनी निन्दा सुनकर दुःखी नहीं होता, प्रशंसा सुनकर आनन्दित नहीं होता, वाणी पर जिसका संयम है, जो कुछ भी उसे प्राप्त हो जाता है, उसी में वह सन्तुष्ट हो जाता है, अपने घर का त्याग कर देता है, स्थिर बुद्धि वाला और भक्तियुक्त है, वह मनुष्य मुझे प्रिय है।

सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। [2007, 13, 14]

सन्दर्भ प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘गीतामृतम्’ नामक पाठ से अवतरित है।

[संकेत इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को कर्म करने के लिए प्रेरित किया गया है।

अर्थ तुम्हारा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फल की प्राप्ति में नहीं।

व्याख्या श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि तुम्हारे अधिकार में केवल कर्म करना है, उसके फल के विषय में सोचना नहीं। कर्म के फल पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है। इसलिए तुम्हें अकर्मण्य भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि बिना कर्म किये तो व्यक्ति वित भी नहीं रह सकता। इसलिए जो (कर्म-फल) तुम्हारे वश में नहीं है, उस पर विचार करना छोड़ दो और कर्म करने में लग जाओ।

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(2) ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।। [2009]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में कृष्ण अर्जुन को उपदेश दे रहे हैं कि कर्महीनता में तुम्हारी आसक्ति नहीं होनी चाहिए।

अर्थ तुम्हारी अकर्म में आसक्ति न हो।

व्याख्या श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि व्यक्ति को कभी भी आलस्य के वशीभूत होकर, कर्महीन होकर नहीं रहना चाहिए, क्योंकि कर्महीनता की स्थिति में व्यक्ति को जीवित रहना ही सम्भव नहीं। व्यक्ति को कभी इस बात से निराश होकर भी कर्महीन नहीं होना चाहिए कि वह जो कर्म करता है, उसको फल उसे नहीं मिलता। व्यक्ति का अधिकार तो केवल कर्म करने का ही है, अत: उसे अपने कर्तव्य का निर्वाह निरन्तर करते रहना चाहिए। व्यक्ति को उसके (UPBoardSolutions.com) कर्मों का फल कब और कितना मिलना है, यह सोचने का विषय तो केवल परमेश्वर का ही है।

(3) योगस्थः कुरु कर्माणि। [2008, 10, 15]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में कर्म के तरीके पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ योग में स्थित होकर कर्म करो।

व्याख्या, सफलता तथा असफलता में समान भाव रखना ही योग कहलाता है। कार्य करते समय मनुष्य को कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि वह सफल होगा अथवा असफल। सफलता मिलने पर प्रसन्न न होना और असफलता में दुःखी न होना ही समान भाव अर्थात् योग है। अत: व्यक्ति को सदैव योग अर्थात् समान भाव में स्थित होकर ही कोई भी कर्म करना चाहिए।

(4)
समत्वं योग उच्यते।। [2006, 07, 08,09, 10, 12, 14, 15]
सिध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में समत्व-योग को स्पष्ट किया गया है।

अर्थ सिद्धि और असिद्धि में समान रहने वाले समत्व को योग कहा जाता है।

व्याख्या श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्य को कर्म करते समय यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि मुझे इस कार्य में सफलता मिलेगी या असफलता। सफलता मिलने पर प्रसन्न न होना और असफलता मिलने पर दु:खी न होना अर्थात् सफलता और असफलता में समान भाव रखनी ही योग कहलाता है। तात्पर्य यह है। कि मनुष्य को आसक्तिरहित होकर अर्थात् सुख और दुःख में समभाव रखते हुए कर्म करना चाहिए।

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(5) ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति। [2009, 10, 11, 12]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में भगवान् कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं कि ज्ञान से चिरशान्ति प्राप्त होती है।

अर्थ व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करके शीघ्र ही परमशान्ति को प्राप्त करता है।

व्याख्या इस संसार में अज्ञान ही दु:खों का कारण है और जब तक व्यक्ति दु:खों का अनुभव करता रहेगा, उसे शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। व्यक्ति को जैसे ही ज्ञान प्राप्त होता और वह यह जान लेता है कि संसार के सभी सुखोपभोग मिथ्या हैं, उनसे वास्तविक सुख-शान्ति (UPBoardSolutions.com) की प्राप्ति नहीं हो सकती, तब वह परम शान्ति की प्राप्ति के लिए ईश्वर-भक्ति में अपना समय लगाता है। संसार के सुखोपभोगों से उसे विरक्ति होने लगती है। जब व्यक्ति संसार से पूर्णरूपेण विरक्त होकर अपना सर्वस्व ईश्वर को समर्पित कर देता है, तब वह परम शान्ति का अनुभव करता है। इसीलिए उचित ही कहा गया है कि ज्ञान ही परम-शान्ति को प्रदान करने वाला है।

(6) श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् तत्परः संयतेन्द्रियः। [2006, 12]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में कहा गया है कि श्रद्धालु व्यक्ति ही ज्ञानी होता है।

अर्थ, श्रद्धावान्, संलग्न और इन्द्रियों को वश में रखने वाला ही ज्ञान को प्राप्त करता है।

व्याख्या ज्ञान गुरु से प्राप्त होता है और ज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरु के प्रति श्रद्धा की भावना अवश्य होनी चाहिए। श्रद्धा का भाव उसी व्यक्ति में होता है, जो विनयशील होता है। जिस व्यक्ति के हृदय में श्रद्धा का भाव नहीं होता है, वह विनयशील नहीं हो सकता; क्योंकि उसके हृदय में अहंकार का वास होता है और अहंकारी व्यक्ति कभी भी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। अत: कृष्ण का यह कथन कि श्रद्धा से ही ज्ञान प्राप्त होता है पूर्ण रूप से व्यावहारिक और स्वाभाविक है। विनयशील म य ज्ञान को प्राप्त करके परम शान्ति को प्राप्त करता है।

(7)
संशयात्मा विनश्यति।
न सुखं संशयात्मनः।। [2011, 13, 14]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में संशययुक्त व्यक्ति की दुर्गति के विषय में बताया गया है।

अर्थ संशययुक्त मन वाला विनष्ट हो जाता है। संशययुक्त व्यक्ति को कोई सुख प्राप्त नहीं होता।

व्याख्या ये दोनों ही सूक्तियाँ श्रीमद्भगवद्गीता के निम्नलिखित श्लोक की अंश हैं

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अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥

अर्थात् अज्ञानी, श्रद्धा से रहित और संशय से युक्त मने वाला व्यक्ति नष्ट हो जाता है। ऐसे व्यक्ति के लिए न तो यह संसार है, न परलोक है और न तो सुख ही है। श्रीकृष्ण ने ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के इस श्लोक में नष्ट होने वाले व्यक्ति के तीन लक्षण बताये हैं—प्रथम लक्षण है-‘ज्ञान का न होना’, दूसरा लक्षण है-“श्रद्धा का न होना और तीसरा लक्षण है-‘संशय से युक्त मन वाला होना। व्यक्ति का अज्ञानी होना उसके लिए। कितना घातक है, यह तो वर्तमान (UPBoardSolutions.com) परिवेश में जीवन व्यतीत करने वाला सामान्य व्यक्ति भी जानता है। श्रद्धा का भाव सदैव अपने से बड़ों के प्रति होता है। जिस व्यक्ति में अपने से बड़ों के प्रति श्रद्धा नहीं होती, निश्चित ही उसके मन में अहंकार का भाव विद्यमान होता है और अहंकारी व्यक्ति का विनाश होना तो अवश्यम्भावी ही है। गीता में ही अन्यत्र कहा गया है कि श्रद्धावान् व्यक्ति को ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। संशययुक्त मन वाला अर्थात् द्विविधा में पड़ा हुआ व्यक्ति सदैव करणीय और अकरणीय के द्वन्द्व से ग्रस्त होने के कारण कुछ भी नहीं कर पाता। कहा भी गया है-“दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम।” निश्चित ही ज्ञानहीन के लिए इस लोक में कोई स्थान नहीं, श्रद्धाहीन व्यक्ति के लिए उसे लोक (परलोक) में कोई स्थान नहीं और संशयग्रस्त व्यक्ति को तो कभी सुख प्राप्त हो ही नहीं सकता। श्रीकृष्ण के कहने का आशय यह है कि इहलोक और परलोक में सुख-प्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति को इनका-अज्ञान, अश्रद्धा, संशय-त्याग कर देना चाहिए।

(8) निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डवः। [2006]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में प्राणिमात्र से प्रेम को उचित बताया गया है।

अर्थ जो सभी प्राणियों के प्रति वैररहित होता है, वही मुझे प्राप्त करता है।

व्याख्या श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पाण्डुपुत्र! जो व्यक्ति सभी प्राणियों से प्रेम करता है, किसी से वैरभाव नहीं रखता है, वह व्यक्ति मुझे सबसे अधिक प्रिय है। सभी प्राणियों को ईश्वर ने बनाया है, फिर उसके द्वारा बनायी वस्तु के प्रति बैर अथवा ईष्र्या-द्वेष रखना उचित नहीं है। जो प्राणी ईश्वर द्वारा बनायी गयी वस्तुओं से प्रेम नहीं कर सकता, ईश्वर को वह प्राणी कैसे प्रिय हो सकता है। यदि हम चाहते हैं कि हम पर ईश्वर की कृपा-दृष्टि बनी रहे तो हमें ईष्र्या-द्वेष आदि भावनाओं को अपने हृदय से निकालकर प्राणिमात्र से प्रेम करना चाहिए।

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(9) शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।

प्रसंग प्रस्तुत पंक्ति में भक्ति और समभाव के महत्त्व को बताया गया है।

अर्थ शुभ और अशुभ का परित्याग करने वाला भक्तिमान् व्यक्ति मुझे प्रिय है।

व्याख्या श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति–जो शुभ और अशुभ अर्थात् पवित्र और अपवित्र का विचार किये बिना समस्त भोग्य वस्तुओं का समान भाव से परित्याग करता है; अर्थात् उसे शुभ वस्तुओं के प्रति जरा-भी लगाव और अशुभ के प्रति जरा-भी दुराव नहीं होता; जो मेरी भक्ति; अर्थात् परमात्मा की भक्ति; में मन लगाता है, वही मुझे; अर्थात् परमात्मा को; प्रिय होता है।

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) कर्मण्येवाधिकारस्ते ……………………………………………….. सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ (श्लोक 1) (2008, 15]
संस्कृतार्थः गीतायां भगवान् कृष्णः अर्जुनं कर्म कर्तुम् उपदिशति यत् भोः अर्जुन! कर्मकरणे एवं तव अधिकारः अस्ति, कर्मणः फले तव अधिकारः न अस्ति। अतः त्वं कर्मणः फलस्य कारणं मी भव। कर्मणां फलस्येच्छां त्यक्त्वा कर्म कर्त्तव्यम्। कर्म न करणे तव आसक्तिः अपि न स्यात्। अत: त्वं कर्म एव कुरु, तस्य फलस्य इच्छां मा करु।

(2) योगस्थः कुरु ……………………………………………….. योग उच्यते ॥ (श्लोक 2) 2011, 12]
संस्कृतार्थः गीतायां भगवान् कृष्णः अर्जुनम् उपदिशति यत् हे अर्जुन! सफलता-असफलतयोः समं भूत्वा, रागं त्यक्त्वा, योगस्थः भूत्वा च कर्माणि कुरु। यः पुरुषः सिद्ध्यसिद्ध्यो: समं मत्वा कार्यं कुरुते तस्य समत्वं योगः उच्यते।

(3) श्रद्धावान् लभते ……………………………………………….. अचिरेणाधिगच्छति ॥ (श्लोक 6) [2007,09, 12]
संस्कृतार्थः गीतायां भगवान् कृष्णः अर्जुनम् उपदिशति यत् यः व्यक्ति श्रद्धावान् भवति, ज्ञानम् (UPBoardSolutions.com) आप्तुं सदैव तत्परः भवति, इन्द्रियाणि संयमते, सः व्यक्तिः सद्ज्ञानं प्राप्य शीघ्रम् एव परां शान्ति प्राप्य सुखी भवति।।

(4) यो न हृष्यति ……………………………………………….. स मे प्रियः ॥ (श्लोक 9) [2007,08, 11, 14]
संस्कृतार्थः गीतायां भगवान् श्रीकृष्णः अर्जुनम् उपदिशति यत् यः पुरुषः सुखे न प्रसन्नं भवति, कस्मै न ईष्र्ण्यति, दु:खे न शोकं करोति, कस्मै न स्पृह्यति, शुभम् अशुभम् च परित्यजति, यः मां भजति, सः पुरुषः मे प्रियः अस्ति।

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(5) समः शत्रौ च ……………………………………………….. समः सङ्गविवर्जितः ॥ (श्लोक 10) [2009]
संस्कृतार्थः श्रीकृष्णः अर्जुनं कथयति–यः नर: रिपो सुहृदि च समानं व्यवहरति, आदरे अनादरे च तुल्यरूपः भवति, शीतम् उष्णं सुखं दुःखं च समानं मन्यते, एवेषु किमपि भेदं न करोति, आसक्तिहीनः च भवति, सः नरः मम (भगवत:) प्रियः भवति।

(6) तुल्यनिन्दास्तुतिः ……………………………………………….. प्रियो नरः ॥ (श्लोक 11)
संस्कृतार्थः गीतायां भगवान् श्रीकृष्ण: अर्जुनम् उपदिशति यत् यः पुरुषः निन्दायां स्तुतौ च समः भवति, मौनी तथा सर्वासु अवस्थासु सन्तुष्टः, गृहे ममत्वरहितः, स्थिरमतिः अस्ति, स एव भक्तिमान् पुरुष: मे प्रियः भवति।

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