Class 10 Sanskrit Chapter 6 UP Board Solutions नागाधीरजः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 6 Nagadhiraja Question Answer (पद्य – पीयूषम्)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 6 हिंदी अनुवाद नागाधीरजः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

महाकवि कालिदास संस्कृत-साहित्य में ‘कविकुलगुरु’ की उपाधि से समलंकृत तथा विश्व के कवि-समाज में सुप्रतिष्ठित हैं। इनकी जन्मभूमि भारतवर्ष थी। इन्होंने निष्पक्ष होकर भारतभूमि व उसके प्रदेशों के वैशिष्ट्य का वर्णन किया है। इनके काव्यों व नाटकों में हिमालय से लेकर समुद्रतटपर्यन्त भारत का दर्शन होता है। प्रस्तुत पाठ महाकवि कालिदास द्वारा विरचित ‘कुमारसम्भवम्’ नामक महाकाव्य से संगृहीत है। इस महाकाव्य (UPBoardSolutions.com) में सत्रह सर्ग हैं और इसका प्रारम्भ हिमालय-वर्णन से होता है। प्रस्तुत पाठ के आठ श्लोक उसी हिमालय-वर्णन से संगृहीत हैं।

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पाठ-सारांश

भारतवर्ष के उत्तर में नगाधिराज हिमालय, पूर्वी और पश्चिमी समुद्रों का अवगाहन करके पृथ्वी के मानदण्ड के समान स्थित है। सभी पर्वतों ने इसे बछड़ा और सुमेरु पर्वत को ग्वाला बनाकर पृथ्वीरूपी गाय से रत्नों और महौषधियों को प्राप्त किया। अनन्त रत्नों को उत्पन्न करने वाले हिमालय के सौन्दर्य को बर्फ कम नहीं कर सकी; क्योंकि गुणों के समूह में एक दोष चन्द्रमा की किरणों में उसके कलंक के समान ही छिप जाता है। सिद्धगण हिमालय के मध्यभाग में घूमने वाले मेघों की छाया में बैठकर वर्षा से पीड़ित होकर उसके धूप वाले शिखरों पर पहुँच जाते हैं। हाथियों को मारने से पंजों में लगे हुए रक्त के पिघली हुई बर्फ द्वारा धुल जाने पर यहाँ रहने वाले भील लोग सिंहों के नखों में से गिरे हुए गज-मोतियों से सिंहों के जाने के मार्ग को जान लेते हैं। हाथियों के द्वारा (UPBoardSolutions.com) अपने गालों की खाज को खुजाने के लिए चीड़ के वृक्षों से रगड़ने पर उनसे बहते दूध से हिमालय के शिखर सुगन्धित हो जाते हैं। हिमालय दिन में डरे हुए और अपनी शरण में आये हुए अन्धकार
को अपनी गुफाओं में शरण देकर सूर्य से उसकी रक्षा करता है। चमरी गायें, अपनी पूँछ को इधर-उधर हिलाने के कारण अपनी पूँछ के बालों के चँवरों से हिमालय के ‘गिरिराज’ शब्द को सार्थक करती हैं।

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पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
स्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः ॥ [2007,11, 14, 15]

शब्दार्थ अस्ति = है। उत्तरस्यां दिशि = उत्तर दिशा में। देवतात्मा = देवगण हैं आत्मा जिसकी। हिमालयः नाम = हिमालय नामका नगाधिराजः = पर्वतों का राजा। पूर्वापरौ = पूर्व और पश्चिम तोयनिधी = समुद्रों को। वगा= अवगाहन करके; प्रविष्ट होकर। स्थितः = स्थित है। पृथिव्याः = पृथ्वी के मानदण्डः इवे = मापने के दण्ड के समान

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘नगाधिराजः’ शीर्षक पाठ से लिया गया है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय की स्थिति और उसके भौगोलिक महत्त्व का वर्णन किया गया है।

अन्वय उत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयः नाम नगाधिराजः अस्ति, (यः) पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य पृथिव्याः (UPBoardSolutions.com) मानदण्डः इव स्थितः (अस्ति)।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि (भारतवर्ष की) उत्तर दिशा में देवताओं की आत्मा वाला पर्वतों का राजा हिमालय है, जो पूर्व और पश्चिम दोनों समुद्रों का अवगाहन करके पृथ्वी के मापने के दण्ड के समान स्थित है। तात्पर्य यह है कि हिमालय का विस्तार ऐसा है कि वह पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं के समुद्रों को छू रहा है।

(2)
यं सर्वशैलाः परिकल्प्य वत्सं मेरौ स्थिते दोग्धरि दोहदक्षे
भास्वन्ति रत्नानि महौषधींश्च पृथूपदिष्टां दुदुहुर्धरित्रीम् ॥ [2006]

शब्दार्थ यं = जिस हिमालय को। सर्वशैलाः = सभी पर्वतों ने परिकल्प्य = बनाकर। वत्सम् = बछड़ा। मेरी = सुमेरु पर्वत के स्थिते = स्थित होने पर दोग्धरि = दुहने वाला। दोहदक्षे = दुहने में निपुण। भास्वन्ति = देदीप्यमाना रत्नानि = रत्नों को। महौषधी (महा + ओषधी) = उत्तम जड़ी-बूटियों को। पृथूपदिष्टाम् = राजा पृथु के द्वारा आदेश दी गयी। दुदुहुः = दुहा। धरित्रीम् = पृथ्वी को।।

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प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय को बछड़ा, सुमेरु को दुहने वाला तथा पृथ्वी को गाय का प्रतीक मानकर उसके दोहन की कल्पना की गयी है।

अन्वय सर्वशैलाः यं वत्सं परिकल्प्य दोहदक्षे मेरौ दोग्धरि स्थिते पृथूपदिष्टां धरित्रीं भास्वन्ति रत्नानि महौषधीन् च दुदुहुः।।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि सभी पर्वतों ने जिस हिमालय को बछड़ा बनाकर दुहने (UPBoardSolutions.com) में निपुण सुमेरु पर्वत के दुहने वाले के रूप में स्थित रहने पर पृथु के द्वारा आदेश दी गयी पृथ्वीरूपी गाय से देदीप्यमान रत्नों और संजीवनी आदि महान् ओषधियों को दुहा।

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(3)
अनन्तरत्नप्रभवस्य यस्य हिमं न सौभाग्यविलोपि जातम्
एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः॥ [2007, 11]

शब्दार्थ अनन्तरत्नप्रभवस्य = अनन्त रत्नों को उत्पन्न करने वाले। यस्य = जिस (हिमालय) के। हिमम् = बर्फ। न = नहीं। सौभाग्यविलोपि = सौन्दर्य का विनाश करने वाली। जातम् = हुई। एकः = एक हि = निश्चित ही, क्योंकि दोषः = दोष। गुणसन्निपाते = गुणों के समूह में। निमज्जति = डूब जाता है, विलीन हो जाता है। इन्दोः = चन्द्रमा की। किरणेषु = किरणों में। इव = समान। अङ्कः = कलंक।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय के महान् यश का वर्णन किया गया है।

अन्वय हिमम् अनन्तरत्नप्रभवस्य यस्य सौभाग्यविलोपि न जातम्। हि एकः दोषः गुणसन्निपाते इन्दोः किरणेषु अङ्कः इव निमज्जति।

व्याख्या अनन्त रत्नों को उत्पन्न करने वाले जिस पर्वत की शोभा को उस पर सदा जमी रहने वाली बर्फ मिटा नहीं पायी है, क्योंकि गुणों के समूह में एक दोष उसी प्रकार छिप जाता है, जिस प्रकार चन्द्रमा की किरणों में कलंका तात्पर्य यह है कि हिमालय से अनन्त रत्नों की उत्पत्ति (UPBoardSolutions.com) होती है किन्तु उसके अन्दर एक ही दोष है कि वह सदैव हिमाच्छादित रहता है। उसके इस दोष से भी उसका महत्त्व कम नहीं होता; क्योंकि चन्द्रमा में स्थित कलंक उसके गुणों को कम नहीं करता।।

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(4)
आमेखलं सञ्चरतां घनानां छायामधः सानुगतां निषेव्य।
उद्वेजिता वृष्टिभिराश्रयन्ते शृङ्गाणि यस्यातपवन्ति सिद्धाः ॥ [2007]

शब्दार्थ आमेखलम् = पर्वत के मध्य भाग तक। सञ्चरताम् = घूमने वाले। घनानां = बादलों के छायां = छाया का। अधः = नीचे। सानुगताम् = नीचे के शिखरों पर पड़ती हुई। निषेव्य = सेवन करके। उद्वेजिताः = पीड़ित किये गये। वृष्टिभिः = वर्षा द्वारा आश्रयन्ते = आश्रय करते हैं। शृङ्गाणि = शिखरों का। आतपवन्ति = धूप से युक्त। सिद्धाः = सिँद्ध नामक देवता अथवा तपस्वी साधक।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय पर तपस्या करने वाले सिद्धगणों के क्रिया-कलापों का वर्णन किया गया

अन्वय सिद्धाः आमेखलं सञ्चरतां घनानाम् अधः सानुगतां छायां निषेव्य वृष्टिभिः उद्वेजिताः (सन्तः) यस्य आतपवन्ति शृङ्गाणि आश्रयन्ते।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि सिद्धगण (तपस्वी या साधक या सिद्ध नामक देव जाति के) हिमालय पर्वत के मध्य भाग तक घूमने वाले बादलों के नीचे शिखरों पर पड़ती हुई छाया का सेवन करके वर्षा के द्वारा पीड़ित किये जाते हुए हिमालय के धूप वाले शिखरों का आश्रय लेते हैं। तात्पर्य यह है कि बादलों की पहुँच हिमालय के मध्य भाग तक ही है। जब वे वर्षा करने लगते हैं, तब सिद्धगण धूप वाले ऊपर के शिखरों पर चले जाते हैं; अर्थात् उनकी पहुँच बादलों से भी ऊपर है।

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(5)
पदं तुषारसुतिधौतरक्तं यस्मिन्नदृष्ट्वाऽपि हतद्विपानाम्।
विदन्ति मार्गे नखरन्ध्रमुक्तैर्मुक्ताफलैः केसरिणां किराताः॥

शब्दार्थ पदम् = पैर (के निशान) को। तुषारसुतिधौतरक्तम् = बर्फ के पिघलकर बहने से धुले हुए रक्त वाले। यस्मिन्नदृष्ट्वाऽपि (यस्मिन् + अदृष्ट्वा + अपि) = जिस (हिमालय) पर बिना देखे भी। हतद्विपानां = हाथियों को मारने वाले। विदन्ति = जान जाते हैं। मार्गं = मार्ग को। नखरन्ध्रमुक्तैः = नखों के छिद्रों से गिरे हुए। मुक्ताफलैः = मोतियों के दानों जैसे। केसरिणाम् =सिंहों के। किराताः =(पहाड़ों पर रहने वाली) भील जाति के लोग।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में किरातों द्वारा हिमालय के बर्फीले भाग में भी मार्ग ढूँढ़ने के संकेतों का वर्णन किया गया है।

अन्वय किराताः यस्मिन् तुषारसुतिधौतरक्तं हतद्विपानां (सिंहानां) पदम् अदृष्ट्वा अपि नखरन्ध्रमुक्तैः मुक्ताफलैः केसरिणां मार्गं विदन्ति।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि भील जाति के लोग जिस हिमालय पर पिघली हुई बर्फ के बहने से धुले हुए रक्त वाले, हाथियों को मार डालने वाले सिंहों के पदचिह्नों को न देखकर भी उनके नाखूनों के मध्य भाग के छिद्रों से गिरते हुए मोतियों से सिंहों के (जाने के) मार्ग को जाने जाते हैं। तात्पर्य यह है कि हाथियों के मस्तक में मोती होते हैं। जब सिंह अपने पैरों से हाथी के मस्तक को विदीर्ण करता है तो उसके पंजे में मोती फँस जाते हैं और चलते समय वे (UPBoardSolutions.com) मार्ग में गिर जाते हैं। ऐसी स्थिति में उन सिंहों का शिकार करने वाले किरात उन गज-मुक्ताओं को देखकर ही उनके जाने के मार्ग का पता लगा लेते हैं क्योंकि रक्त के निशान तो बहती हुई बर्फ से धुल जाते हैं।

(6)
कपोलकण्डूः करिभिर्विनेतुं विघट्टितानां सरलद्माणाम्।
यत्र खुतक्षीरतया प्रसूतः सानूनि गन्धः सुरभीकरोति ॥

शब्दार्थ कपोलकण्डूः = गोलों की खुजली को। करिभिः = हाथियों के द्वारा। विनेतुम् = मिटाने के लिए। विघट्टितानाम् = रगड़े गये। सरलद्माणाम् = सरल (चीड़) के वृक्षों केा ‘तुतक्षीरतया = दूध के बहने के कारण। प्रसूतः = उत्पन्न। सानूनि = शिखरों को। गन्धः = गन्धा सुरभीकरोति = सुगन्धित करती है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हाथियों की रगड़ से छिले चीड़ के वृक्षों की गन्ध से पर्वत शिखरों के सुवासित होने का वर्णन है।

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अन्वय यत्र कपोलकंण्डू: विनेतुं करिभिः विघट्टितानां सरलद्माणां सुतक्षीरतया प्रसूतः गन्धः सानूनि सुरभीकरोति।।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि जहाँ गालों की खोज को मिटाने के लिए हाथियों के द्वारा रगड़े गये चीड़ के वृक्षों से दूध के बहने के कारण उत्पन्न हुई गन्ध हिमालय के शिखरों को सुगन्धित करती रहती है।

(7)
दिवाकराद्रक्षति सो गुहासु लीनं दिवा भीतमिवान्धकारम्।
क्षुद्रेऽपि नूनं शरणं प्रपन्ने ममत्वमुच्चैः शिरसां सतीव ॥ [2006, 09]

शब्दार्थ दिवाकरात् = सूर्य से। रक्षति = बचाता है। सः = वह। गुहासु = गुफाओं में लीनं = छिपे हुए। दिवा भीतम् इव = दिन में डरे हुए के समान| अन्धकारम् = अँधेरे को। क्षुद्रेऽपि = नीच मनुष्य के भी। नूनं = निश्चय ही। शरणं प्रपन्ने = शरण में पहुँचने पर। ममत्वम् = आत्मीयता, अपनापन। उच्चैः शिरसाम् = ऊँचे मस्तक वालों का, महापुरुषों का। सतीव = श्रेष्ठ पुरुष की तरह।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय को शरणागतवत्सल के रूप में प्रदर्शित किया गया है।

अन्वये यः दिवा दिवाकरात् भीतम् इव गुहासु लीनम् अन्धकारम् रक्षति। नूनं क्षुद्रे अपि शरणं प्रपन्ने सतीव उच्चैः शिरसां ममत्वं (भवति एव)।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि जो (हिमालय) दिन में सूर्य से डरे हुए की तरह गुफाओं में छिपे (UPBoardSolutions.com) अन्धकार की रक्षा करता है। निश्चय ही नीच व्यक्ति के शरण में आने पर भी श्रेष्ठ पुरुष की तरह उच्चाशय वाले महापुरुषों का अपनापन होता ही है।

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(8)
लाङगूलविक्षेपविसर्पिशोभैरितस्ततश्चन्द्रमरीचिगौरैः ।।
यस्यार्थयुक्तं गिरिराजशब्दं कुर्वन्ति बालव्यजनैश्चमर्यः॥

शब्दार्थ लागूलविक्षेपविसर्पिशोभैः = पूँछ को हिलाने से फैलने वाली शोभा वाली। इतस्ततः = इधर-उधर। चन्द्रमरीचिगौरैः = चन्द्रमा की किरणों के समान उजले। यस्य = जिसके अर्थात् हिमालय के अर्थयुक्तं = अर्थ से युक्त सार्थका गिरिराजशब्दम् = गिरिराज शब्द को। कुर्वन्ति = कर रही हैं। बाल-व्यजनैः = बालों के पंखों अर्थात् चँवरों से। चमर्यः = चमरी गायें, सुरा गायें (इनके पूँछ के बालों की चँवर बनती है)।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय के पर्वतों का राजा होने की कल्पना को सार्थक अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है।

अन्वय चमर्यः इतस्तत: लागूलविक्षेपविसर्पिशोभैः चन्द्रमरीचिगौरै: बालव्यजनैः यस्य गिरिराजशब्दम् अर्थयुक्तं कुर्वन्ति।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि चमरी गायें; जिनकी शोभा पूँछों के हिलाने से इधर-उधर फैलती रहती है तथा जो चन्द्रमा की किरणों के समान श्वेत बालों के चँवरों से जिस हिमालय के ‘गिरिराज शब्द को सार्थक करती हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सिंहासन पर बैठे हुए राजा पर चँवर डुलाये जाते हैं, उसी प्रकार हिमालय पर ‘गिरिराज’ होने के कारण चमरी गायें अपने पूँछों के बालों के चँवर डुलाती रहती हैं।

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सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयों नाम नगाधिराजः।

सन्दर्भ प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘नगाधिराजः’ नामक पाठ से ली गयी है।

[ संकेत इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसग प्रस्तुत सूक्ति में हिमालय की महानता पर प्रकाश डाला गया है। अर्थ उत्तर दिशा में देवताओं की आत्मास्वरूप हिमालय नाम का पर्वतों का राजा स्थित है।

व्याख्या भारत की उत्तर दिशा में देवताओं की आत्मास्वरूप पर्वतों का राजा हिमालय नाम का पर्वत स्थित है। (UPBoardSolutions.com) हिमालय को क्योकि भगवान् शिव का निवासस्थान माना जाता है और भगवान् शिव समस्त देवताओं के आराध्य हैं; इसीलिए उसे देवताओं की आत्मा कहा गया है।

(2) स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः।। [2010, 12, 13, 15]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में हिमालय की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है।

अर्थ पृथ्वी पर स्थित मानदण्ड के समान है।

व्याख्या भारत की उत्तरी सीमा पर स्थित हिमालय पर्वत अत्यन्त महान् और सुविस्तृत है। इसको देखकर ऐसा लगता है कि यह पृथ्वी के एक छोर से आरम्भ होकर दूसरे छोर (किनारा) तक फैला हुआ है। हिमालय की इसी विशालता और सुविस्तार को व्यक्त करने के लिए कवि कल्पना करता है कि यह धरती की विशालता को मापने के लिए मापदण्ड (पैमाना) के रूप में पृथ्वी पर स्थित है। मापदण्ड के रूप में इसकी विशालता और महत्ता के आधार पर ही पृथ्वी की भी विशालता और महत्ता का अनुमान भली-भाँति लगाया जा सकता है।

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(3) एको हि दोषो गुणसन्निपाते, निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः। [2007, 11, 12, 14]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में कहा गया है कि किसी व्यक्ति के एकाध दोष उसके गुणों में ही छिप जाते हैं।

अर्थ गुणों के समूह में एक दोष उसी प्रकार छिप जाता है, जिस प्रकार चन्द्रमा की किरणों में उसका काला धब्बा।।

व्याख्या कविकुलगुरु कालिदास ने प्रस्तुत सूक्ति में बताया है कि यदि किसी व्यक्ति में बहुत-से गुण हों तो उसके एकाध दोष का पता भी नहीं लग पाता है; क्योंकि लोगों का ध्यान उसके गुणों की ओर होता है, उसके दोष पर उनका ध्यान ही नहीं जाता है। जैसे चन्द्रमा की किरणों के जाल में उसका काला धब्बा छिप जाता है; क्योंकि लोग चन्द्रमा की किरणों के सौन्दर्य में ही लीन हो जाते हैं। उसके काले धब्बे की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता है। जहाँ हिमालय में अनन्त रत्न और ओषधियाँ पायी जाती हैं, वहाँ उसके शिखरों पर सदैव भारी मात्रा में बर्फ का जमा रहना बड़ा दोष भी है, लेकिन अनन्त रत्नों को उत्पन्न करने वाले हिमालय पर गिरने (UPBoardSolutions.com) वाली बर्फ उसके महत्त्व को कम नहीं करती; क्योंकि गुणों के समूह में एक दोष नगण्य होता है।

(4) क्षुद्रेऽपि नूनं शरणं प्रपन्ने, ममत्वमुच्चैः शिरसां सतीव। [2010]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में कहा गया है कि यदि कोई क्षुद्र व्यक्ति उच्च आशय वाले व्यक्ति के पास जाता है। तो वे उसके प्रति भी श्रेष्ठ पुरुष की तरह ही आत्मीयता प्रकट करते हैं।

अर्थ क्षुद्र व्यक्ति के शरण में आने पर महान् व्यक्ति उन पर भी सज्जनों के समान ही स्नेह करते हैं।

व्याख्या महापुरुषों की शरण में छोटा-बड़ा या सज्जन-दुर्जन जो भी आता है, वे उस पर अत्यधिक ममता दिखलाते हैं। यदि उनकी शरण में कोई तुच्छ व्यक्ति भी जाता है तो वे उस पर भी उतनी ही ममता दिखाते हैं, जितनी शरण में आये हुए सज्जन व्यक्ति के प्रति उनके मन में छोटे-बड़े, अपने-पराये और सज्जन-दुर्जन का भेदभाव नहीं होता है। नगाधिराज हिमालय इसका आदर्श उदाहरण है। दिन के समय अन्धकार उसकी चोटियों पर नहीं रहता है, वरन् उसकी गुफाओं के भीतर रहता है। कवि की कल्पना है कि अन्धकार ने सूर्य के भय से हिमालय की चोटियों से भागकर उसकी गुफाओं में शरण प्राप्त की है और उन्नत शिखरों वाले हिमालय ने भी तुच्छ अन्धकार को अपनी गुफाओं में शरण देकर उसकी सूर्य से रक्षा की है। यहाँ हिमालय को महान् तथा अन्धकार को क्षुद्र बताया गया है। प्रस्तुत सूक्ति शरणागत की रक्षा के महत्त्व को भी प्रतिपादित करती है।

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श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) अस्त्युत्तरस्यां ………………………………………. इव मानदण्डः ॥ (श्लोक 1) (2010]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकविः कालिदासः कथयति यत् भारतस्य उत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयः नाम पर्वतानां नृपः अस्ति, यः पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य पृथिव्याः मानदण्डः इव स्थितः अस्ति अर्थात् तस्य विस्तारं इदृशं अस्ति यत् पूर्वस्य पश्चिमस्य च तोयनिधीः स्पर्शयति।

(2) अनन्तरत्नप्रभवस्य ………………………………………. किरणेष्विवाङ्कः॥ (श्लोक 3)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकविः कालिदासः हिमालयस्य सौन्दर्यं वर्णयन् कथयति यत् हिमालये बहूनि रत्नानि उत्पन्नं भवन्ति, तस्य शिखरेषु हिमम् अपि भवति, परम् तत् हिमं तस्य सौन्दर्यं क्षीणं न अकरोत्। तस्य हिमस्य अयं दोष: रत्नानां गुणेषु प्रभावरहितः अभवत्। गुणेषु एकः दोष: तथैव प्रभावहीनं भवति यथा चन्द्रस्य किरणेषु तस्य कलङ्क अदृश्यः भवति।।

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(3) दिवाकराद्रक्षति ………………………………………. शिरसां सतीव॥ (श्लोक 7)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकविः कालिदासः कथयति यत् हिमालयस्य गुहासु अन्धकारं वर्तते। अत्र कविः (UPBoardSolutions.com) उत्प्रेक्षां करोति यत्र दिवाकरात् भीत: अन्धकारः हिमालये शरणं प्राप्तवान्, अतएव हिमालयः अन्धकारस्य रक्षां करोति। इदं सत्यमेव यदि क्षुद्रः अपि महात्मनां शरणं प्राप्नोति तदा महात्मनां ममत्वं नूनम् एव उत्पन्नं भवति।

(4) लाङ्गूलविक्षेपविसर्पिशोभैः ………………………………………. बालव्यजनैश्चमर्यः ॥ (श्लोक 8)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकवि कालिदासः कथयति—-हिमालयः पर्वतानां राजा अस्ति, अतएव स: गिरिराजः इति कथ्यते। तत्र स्थिताः चमर्यः धेनवः स्वपुच्छविक्षेपविसर्पिशोमैः चन्द्रधवलगौरे: बालव्यजनैः तस्योपरि व्यजनं कृत्वा ‘गिरिराज’ शब्दं अर्थयुक्तं कुर्वन्ति।

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Class 10 Sanskrit Chapter 5 UP Board Solutions क्षान्ति – सौख्यम् Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 5 Kshanti Saukhyam Question Answer (पद्य – पीयूषम्)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 5 हिंदी अनुवाद क्षान्ति – सौख्यम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

प्रस्तुत पाठ महर्षि व्यास द्वारा प्रणीत महाभारत से संगृहीत है। धृतराष्ट्र के सारथी संजय को दिव्य-दृष्टि व्यास जी ने ही दी थी जिसके द्वारा उसने महाभारत के युद्ध का आँखों देखा वर्णन धृतराष्ट्र को सुनाया था। प्रस्तुत पाठ में महाभारत के युद्ध के अन्त में शर-शय्या पर (UPBoardSolutions.com) लेटे हुए भीष्म पितामह द्वारा युधिष्ठिर को दिये गये उपदेश का अंश है। इस अंश में क्षमा गुण का महत्त्व वर्णित है। क्षमा द्वारा ही मनुष्य को जीवन की सार्थकता प्राप्त होती है और यही उसका सर्वोपरि गुण भी है।

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पाठ-सारांश

युद्धभूमि में घायलावस्था में शर-शय्या पर पड़े हुए, भीष्म पितामह युधिष्ठिर को नैतिकता का उपदेश देते हुए कहते हैं कि मानव-जन्म संसार के समस्त जन्मों में श्रेष्ठ है। जो व्यक्ति इसे पाकर भी प्राणियों से द्वेष करता है, धर्म का अनादर करता है और वासनाओं में डूबा रहता है, वह अपने आपको धोखा देता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति दूसरों के दुःखों को समझकर उन्हें सान्त्वना देता है, दान इत्यादि कर्म करता हुआ सबसे मीठे वचन बोलता है, वह परलोक में भी प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।

क्षमाशील व्यक्ति गाली के प्रत्युत्तर में गाली नहीं देते, वरन् सहिष्णुता का परिचय देते हुए गाली देने वाले को भी क्षमा कर देते हैं। ऐसा करने पर गाली देने वाले का क्रोध स्वयं उसे ही जला डालता है। संसार के माया-मोह में फँसे व्यक्ति की चंचल बुद्धि उसे माया-मोह में और अधिक (UPBoardSolutions.com) लिप्त करती है और वह व्यक्ति इहलोक एवं परलोक में दुःख प्राप्त करता है।

सहनशील एवं क्षमाशील व्यक्ति कभी अभिमान नहीं करते। क्रोध दिलाये जाने पर व गाली दिये जाने पर भी मधुर और प्रिय वचन ही कहते हैं।

दु:ख से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय यह है कि व्यक्ति दु:ख की चिन्ता ही न करे; क्योंकि चिन्ता करने पर दु:ख घटता नहीं, वरन् बढ़ जाता है। संसार की प्रत्येक वस्तु नाशवान् है। संचय क्षय के द्वारा, ऊँचाई (उन्नति) पतन के द्वारा, संयोग वियोग के द्वारा और जीवन मृत्यु के द्वारा सभी नष्ट हो जाते हैं। इन्द्रियों को वश में रखना, क्षमा, धैर्य, तेज, सन्तोष, सत्य बोलना, लज्जा, हिंसा न करना, व्यसनरहित होना और कार्य में कुशल होना ही सुख के साधन हैं। क्रोध पर नियन्त्रण रखने वाले व्यक्ति समस्त विपत्तियों पर सरलता से विजय प्राप्त करते हैं। ऐसे अक्रोधी व्यक्ति क्रोधी को भी शान्त करने में समर्थ होते हैं। क्षमाशील एवं देहाभिमान से रहित व्यक्ति को संसार की किसी भी वस्तु से डर नहीं रहता।

पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
यो दुर्लभतरं प्राप्य मानुषं द्विषते नरः।
धर्मावमन्ता कामात्मा भवेत् स खलु वञ्चते ॥

शब्दार्थ यः = जो। दुर्लभतरं = कठिनाई से प्राप्त होने वाला प्राप्य = प्राप्त करके। मानुषम् = मनुष्य जन्म को। द्विषते = द्वेष करता है। धर्मावमन्ता = धर्म का अनादर करने वाला। कामात्मा = वासनाओं में आसक्त रहने वाला। खलु = निश्चय ही। वञ्चते = अपने को धोखा देता है।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तके ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘क्षान्ति-सौख्यम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

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प्रसग प्रस्तुत श्लोक में भीष्म पितामह युधिष्ठिर को उपदेश देते हैं कि इस संसार में मनुष्य जन्म पाकर व्यक्ति को धर्म का निरादर नहीं करना चाहिए।

अन्वय यः नरः दुर्लभतरं मानुषं (जन्म) प्राप्य द्विषते, धर्मावमन्ता कामात्मा (च) भवेत्, सः खलु (आत्मनं) वञ्चते।।

व्याख्या जो मनुष्य अन्य जन्मों से अधिक दुर्लभ मनुष्य के जन्म को पाकर प्राणियों (UPBoardSolutions.com) से द्वेष करता है, धर्म का अनादर करने वाला और वासनाओं में आसक्ति रखने वाला होता है, वह निश्चय ही अपने आप को धोखा देता है।

(2)
सान्त्वेनानप्रदानेन प्रियवादेन चाप्युत।
समदुःखसुखो भूत्वा स परत्र महीयते ॥ [2013, 14]

शब्दार्थ सान्त्वेन = सान्त्वना के द्वारा। अन्नप्रदानेन = अन्न (भोजन) देकर। प्रियवादेन = प्रिय वचन बोलकर। समदुःखसुखःभूत्वा = दुःख और सुख में समान भाव रखने वाला होकर। परत्र = परलोक में। महीयते = प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में भीष्म पितामह इहलोक और परलोक में प्रतिष्ठा-प्राप्ति के साधनों के विषय में बता रहे हैं।

अन्वय सः सान्त्वेन अन्न प्रदानेन उत प्रियवादेन च अपि समदु:खसुख: भूत्वा परत्र महीयते।

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व्याख्या वृह मनुष्य सान्त्वना (तसल्ली बँधाने वाले शब्दों) से, अन्न (भोजन) के दान से अथवा प्रिय वचन के बोलने से भी सुख और दुःख को समान समझने वाला होकर परलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति सांसारिक प्राणियों के कष्ट दूर करके स्वयं समभाव में स्थित हो जाता है, (UPBoardSolutions.com) उसे परलोक में भी सम्मान मिलता है।

(3)
आक्रुश्यमानो नाक्रुश्येन्मन्युरेनं तितिक्षतः।
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं च तितिक्षतः॥

शब्दार्थ आक्रुश्यमानः = गाली दिया (अपशब्द कहा) जाता हुआ। न आक्रुश्येत् = गाली नहीं देनी चाहिए। मन्युः = दबा हुआ क्रोध। एनं = इस। तितिक्षतः = क्षमाशील व्यक्ति का। आक्रोष्टारम् = गाली देने वाले को। निर्दहति = जला देता है। सुकृतम् = पुण्य च = और।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में भीष्म पितामह द्वारा क्षमाशील व्यक्ति के पुण्य-संचय का उल्लेख किया गया है।

अन्वय आक्रुश्यमानः न आक्रुश्येत्। तितिक्षत: मन्युः एनम् आक्रोष्टारं निर्दहति, तितिक्षत: च सुकृतम् (भवति)।

व्याख्या दूसरों के द्वारा गाली दिये जाने पर भी व्यक्ति को बदले में गाली नहीं देनी चाहिए। (गाली को) क्षमा (सहन) केर देने वाले व्यक्ति को क्रोध उस गाली देने वाले को पूर्णतया जला देता है और क्षमा करने वाले का पुण्य होता है। तात्पर्य यह है कि गाली देने वाला व्यक्ति नष्ट हो जाता है और गाली सह लेने वाले को पुण्य होता है।

(4)
सक्तस्य बुद्धिश्चलति मोहजालविवर्धिनी।
मोहजालावृतो दुःखमिह चामुत्र चाश्नुते ॥

शब्दार्थ सक्तस्य = संसार के प्रति आसक्ति रखने वाले का। बुद्धिः = बुद्धि। चलति = चलायमान रहती है, अस्थिर रहती है, भटकती रहती है। मोहजालविवर्धिनी = मोहजाल को बढ़ाने वाली। मोहजालावृतः = मोहरूपी जाल में फँसकर यह व्यक्ति। इह = इस लोक में। (UPBoardSolutions.com) अमुत्र = परलोक में। अश्नुते = प्राप्त करता है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में भीष्म पितामह द्वारा सुख-दु:ख प्राप्ति के कारणों पर प्रकाश डाला गया है।

अन्वय सक्तस्य मोहजालविवर्धिनी बुद्धिः चलति। मोहजालावृतः (सह) इह च अमुत्र च दु:खम् अश्नुते।

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व्याख्या संसार से अत्यधिक लगाव (आसक्ति) रखने वाले व्यक्ति की मोहजाल को बढ़ाने वाली बुद्धि गतिशील रहती है, अर्थात् भटकती रहती है। मोहजाल में फंसा हुआ व्यक्ति इसे लोक में और परलोक में भी दुःख प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि सुख चाहने वाले व्यक्ति को संसार में आसक्त नहीं होना चाहिए।

(5)
अतिवादस्तितिक्षेत नाभिमन्येत कञ्चन।
क्रोध्यमानः प्रियं ब्रूयादाक्रुष्टः कुशलं वदेत्॥

शब्दार्थ अतिवादान् = कटु वचनों को। तितिक्षेत = सहन करना चाहिए। न अभिमन्येत = अभिमान प्रकट नहीं करना चाहिए। कञ्चन = किसी के प्रति क्रोध्यमानः = क्रोध का शिकार होने पर भी अर्थात् किसी के द्वारा क्रोध दिलाये जाने पर भी। प्रियं ब्रूयात् = प्रिय बोलना चाहिए। आक्रुष्टः =गाली दिये जाने पर कुशलं वदेत् =हितकर वचन बोलना चाहिए।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सज्जनों के स्वभाव का उल्लेख किया गया है।

अन्वय अतिवादान् तितिक्षेत। कञ्चन न अभिमन्येत। क्रोध्यमानः प्रियं ब्रूयात्। आक्रुष्टः कुशलं वदेत्।।

व्याख्या सज्जनों को कटु वचनों को सहन करना चाहिए। किसी के प्रति अभिमान प्रकट नहीं करना चाहिए; अर्थात् स्वयं को बड़ा और अन्य को छोटा मानकर व्यवहार नहीं करना चाहिए। क्रोध दिलाये जाने पर भी प्रिय वचन बोलना चाहिए; अर्थात् दूसरों के द्वारा उत्तेजित किये जाने (UPBoardSolutions.com) पर भी मधुर वचन ही बोलना चाहिए। गाली दिये जाने पर; अर्थात् अपशब्द कहे जाने पर भी कुशल वचन बोलना चाहिए।

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(6)
भैषज्यमेतद् दुःखस्य यदेतन्नानुचिन्तयेत्।
चिन्त्यमानं हि नव्येति भूयश्चापि प्रवर्धते ॥ [2007]

शब्दार्थ भैषज्यम् = औषध। एतत् = यह दुःखस्य = दुःख की। यत् = कि। एतत् = इसके बारे में। न अनुचिन्तयेत् = चिन्तन नहीं करना चाहिए। चिन्त्यमानम् = सोचा जाता हुआ। हि = क्योंकि नव्येति = कम नहीं होता है, घटता नहीं है। भूयश्चापि (भूयः + च + अपि) = वरन् और भी (अधिक)। प्रवर्धते = बढ़ता है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में दु:ख-निवारण के उपाय के विषय में बताया गया है।

अन्वय एतद् दुःखस्य भैषज्यम् (अस्ति) यत् एतत् न अनुचिन्तयेत् हि चिन्त्यमानम् (दुःखम्) न व्येति, भूयः च अपि प्रवर्धते।।

व्याख्या यह दुःख की औषध है कि इसकी (इसके बारे में) चिन्ता (सोचना) नहीं करनी चाहिए: क्योंकि चिन्तन किया गया दु:खे कम नहीं होता है, अपितु और भी बढ़ जाता है। तात्पर्य यह है कि दुःख को भूलने का प्रयास करना चाहिए।

(7)
सर्वे क्षयान्ताः निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्याः।
संयोगाः विप्रयोगान्ताः मरणान्तं हि जीवितम् ॥ [2009, 10]

शब्दार्थ सर्वे = सभी। क्षयान्ताः = क्षय में अन्त वाले; अर्थात् अन्त में नष्ट हो जाने वाले। निचयाः = संग्रह। पतनान्ताः = पतन में अन्त वाले; अर्थात् अन्त में नीचे गिरने वाले। समुच्छ्याः = ऊँचाइयाँ, उत्थान, उन्नति। संयोगाः = संयोग, मिलन। विप्रयोगान्ताः = वियोग में अन्त वाले; अर्थात् अन्त में बिछुड़ जाने वाले मरणान्तम् = मरण में अन्त वाला; अर्थात् अन्त में मर जाने वाला हि = निश्चय ही। जीवितम् = जीवित, जन्म।

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प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में जीवन में सुख-दुःख से सम्बन्धित स्थितियों के साथ-साथ रहने तथा अन्तत: सभी स्थितियों का पर्यवसान होने की बात कही गयी है।

अन्वय सर्वे निचयाः क्षयान्ताः (सन्ति); (सर्वे) समुच्छुयाः पतनान्ताः (सन्ति)। (सर्वे) संयोगा: विप्रयोगान्ताः (सन्ति)। (सर्वेषां) जीवितं हि मरणान्तम् (अस्ति)।

व्याख्या सभी संग्रह क्षय में अन्त वाले हैं; अर्थात् नष्ट हो जाने वाले हैं। सभी ऊँचाइयाँ पतन में अन्त वाली हैं; अर्थात् सभी पतन को प्राप्त हो जाने वाले हैं। सभी संयोग वियोग में अन्त वाले हैं; अर्थात् सभी मिलने वाले अन्त में बिछुड़ जाने वाले हैं। सभी जीवन निश्चित ही मृत्यु में अन्त वाले हैं; (UPBoardSolutions.com) अर्थात् सभी जीवधारी अन्ततः मृत्यु को प्राप्त हो जाएँगे। तात्पर्य यह है कि जब सब कुछ एक दिन समाप्त हो ही जाने वाला है तब इसके लिए व्यक्ति को नाना प्रकार के कुकर्म नहीं करने चाहिए।

(8)
दमः क्षमा धृतिस्तेजः सन्तोषः सत्यवादिता ।।
ह्रीरहिंसाऽव्यसनिता दाक्ष्यं चेति सुखावहाः ॥ [2008, 13]

शब्दार्थ दमः = इन्द्रियों को वश में रखना। धृतिः = धैर्य, धीरता। सत्यवादिता = सत्य बोलना। हीः = लज्जा। अव्यसनिता = दुर्व्यसनों से रहित होना। दाक्ष्यम् = कार्य की कुशलता। सुखावहाः = सुख देने वाले।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में मानव-जीवन को सुखी बनाने वाले गुणों पर प्रकाश डाला गया है।

अन्वय दमः, क्षमा, धृतिः, तेजः, सन्तोषः, सत्यवादिता, ह्रीः, अहिंसा, अव्यसनिता दाक्ष्यम् च-इति (दश गुणाः) सुखावहाः (सन्ति)।

व्याख्या मन और इन्द्रियों को वश में रखना, क्षमा, धैर्य, तेज, सन्तोष, सत्य बोलना, लज्जा, हिंसा न करना, व्यसनों से रहित होना और कार्य की कुशलता-ये दस गुण सुख देने वाले हैं। तात्पर्य यह है कि इन गुणों से युक्त व्यक्ति कभी दुःखी नहीं होता।

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(9)
ये क्रोधं सन्नियच्छन्ति क्रुद्धान् संशमयन्ति च।
न कुप्यन्ति च भूतानां दुर्गाण्यति तरन्ति ते ॥

शब्दार्थ ये = जो लोग। क्रोधं = क्रोध को। सन्नियच्छन्ति =नियन्त्रित रखते हैं। क्रुद्धान् = क्रोधित हुए व्यक्तियों को। संशमयन्ति = शान्त करते हैं। न कुप्यन्ति = क्रोध नहीं करते हैं। च = और। भूतानि = प्राणियों पर। ते = वे। दुर्गाणि = दुर्गम स्थानों को, विषम परिस्थितियों को। अति तरन्ति = पार कर जाते हैं।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में क्रोध पर नियन्त्रण करने का सन्देश दिया गया है।

अन्वय ये क्रोधं सन्नियच्छन्ति, क्रुद्धान् च संशमयन्ति, भूतानां च न कुप्यन्ति, ते दुर्गाणि अतितरन्ति।

व्याख्या जो लोग क्रोध को वश में रखते हैं तथा क्रोधित हुओं को शान्त करते हैं और प्राणियों पर क्रोध नहीं करते हैं, वे अत्यधिक कठिनाइयों; अर्थात् विषम परिस्थितियों को पार कर लेते हैं। तात्पर्य यह है कि क्रोध सबसे बड़ा शत्रु होता है। उसे अपने से दूर रखना चाहिए।

(10)
अभयं यस्य भूतेभ्यो भूतानामभयं यतः।
तस्य देहाविमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन ॥ [2006,09,14]

शब्दार्थ अभयं = भय नहीं है। यस्य = जिसको भूतेभ्यः = प्राणियों से। भूतानाम् = प्राणियों को। यतः = जिससे। तस्ये = उसका। देहाद् विमुक्तस्य = शरीर से मुक्ति प्राप्त हुए; अर्थात् देह अभिमान से रहित। भयं नास्ति = भय नहीं रहता है। कुतश्चन = कहीं से भी।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में भयमुक्ति का उपाय बताया गया है।

अन्वय यस्य भूतेभ्यः अभयम् (अस्ति), यतः भूतानाम् अभयम् (अस्ति)। देहाद् विमुक्तस्य तस्य कुतश्चन भयं न अस्ति।।

व्याख्या जिसको प्राणियों से भय नहीं है, जिससे प्राणियों को भय नहीं है। शरीर से मुक्ति प्राप्त किये हुए; अर्थात् देह-अभिमान से रहित हुए व्यक्ति को कहीं से या किसी से भय नहीं है।

सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) यो दुर्लभतरं प्राप्य मानुषं द्विषते नरः। [2009]

सन्दर्भ प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘क्षान्ति-सौख्यम्’ पाठ से अवतरित है।

[ संकेत इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में मनुष्य-जन्म को दुर्लभ बताने के साथ-साथ द्वेषरहित होना भी (UPBoardSolutions.com) आवश्यक बताया गया है। अर्थ जो मनुष्य दुर्लभतर मनुष्य जीवन को प्राप्त करके द्वेष करता है (वह स्वयं को धोखा देता है)।

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व्याख्या भारतीय वाङमय के अनुसार समस्त जीवधारियों की चौरासी लाख (84,00,000) योनियाँ अर्थात् जन्म माने गये हैं, जिनके अण्डज, स्वेदज, उभिज और जरायुज चार विभाग हैं। इन समस्त योनियों अर्थात् जन्मों में मनुष्य-जन्म को दुर्लभतर की श्रेणी में रखा गया है। इस दुर्लभ श्रेणी के व्यक्ति को द्वेष से । रहित होना चाहिए। द्वेष को व्यक्ति का अति सामान्य दुर्गुण माना जाता है। इसीलिए अत्यन्त दुर्लभ मानव शरीर प्राप्त करने वाला लोगों से द्वेष करता रहे और अपने कर्तव्यों के प्रति ध्यान न रखे तो ऐसा जीवन प्राप्त करना व्यर्थ है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति स्वयं को ही धोखा देता है।

(2) धर्मावमन्ता कामात्मा भवेत् स खलु वञ्चते। [2006]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में कामनाओं में आसक्त रहने वाले और धर्म की निन्दा करने वाले व्यक्ति की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ धर्म का अनादर करने वाला और वासनाओं में आसक्त रहने वाला स्वयं को ही धोखा देता है।

व्याख्या जो व्यक्ति विषय-वासनाओं अथवा कामनाओं में आसक्त रहकर धर्म की उपेक्षा करता है, उसका अनादर करता है, ऐसा करके वह किसी दूसरे की हानि नहीं करता वरन् स्वयं अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारता है, अर्थात् अपनी ही हानि करता है। इसका कारण यह है कि धर्म व्यक्ति में कर्तव्य-अकर्तव्य तथा औचित्य-अनौचित्य का विवेक उत्पन्न करता है। इससे व्यक्ति पापकर्मों से विरत रहता है और सदैव पुण्य कर्म करने का प्रयास करता है। इसके परिणामस्वरूप वह (UPBoardSolutions.com) उच्च से उच्चतर और अन्तत: परमपद का अधिकारी बनता है। इसके विपरीत धर्म का अनादर करने वाला और विषयी व्यक्ति केवल पापकर्मों का संचय करता है तथा जीवन-मरण के चक्र में फँसा ही रहता है, उससे कभी निकल नहीं पाता। अत: ऐसा करने वाला व्यक्ति स्वयं को ही धोखा देता है, किसी अन्य को नहीं।

(3) मोहजालावृतो दुःखमिह चामुत्र चाश्नुते।।

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में सुख-दु:ख प्राप्ति के कारणों पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ मोह के जाल में फंसा हुआ प्राणी दोनों ही लोकों में दुःख भोगता है।

व्याख्या माया-मोह के जाल में फंसे हुए व्यक्ति को प्रत्येक क्षण और अधिक धन-सम्पत्ति अर्जित करने की चाह बनी रहती है और वह उसकी प्राप्ति के लिए सभी प्रकार के उचित-अनुचित उपायों का प्रयोग करता है। इस प्रकार और अधिक धन प्राप्त करने की चाह में वह अर्जित साधनों और धन-सम्पत्ति का उपयोग करते हुए भी उनसे कोई सुख प्राप्त नहीं कर पाता। परलोक में सुख प्राप्त करने के लिए भी वह कोई सद्कर्म नहीं कर पाता; क्योंकि उसके मन से माया-मोह का जाल नहीं हट पाता। इस प्रकार से माया-मोह में हँसा व्यक्ति ने तो इस लोक में सुख प्राप्त कर सकता है और न परलोक में।

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(4) भैषज्यमेतद् दुःखस्य यदेतन्नानुचिन्तयेत्।।

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में दु:ख-निवारण का उपाय बताया गया है।

अर्थ यह दुःख की औषध है कि उसका चिन्तन नहीं करना चाहिए।

व्याख्या सुख और दुःख व्यक्ति के अपने हाथ में नहीं होते और न ही इनको किसी प्रकार से नियन्त्रित किया जा सकता है। दुःख की जितनी अधिक चिन्ता की जाती है, वह बढ़ता ही जाता है। उसे किसी औषध के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता। औषध भी तभी कार्य करती है, जब व्यक्ति मानसिक रूप से दुःख से लड़ने के लिए उद्यत हो। इसलिए यदि व्यक्ति अपने दुःख को दूर करना चाहता है तो उसे दु:ख के विषय में सोचना छोड़ देना चाहिए। जब वह दु:ख के विषय में न सोचकर सुख के विषय में सोचेगा और यह अनुभव करेगा कि वह अन्य बहुत-से लोगों से सुखी है तो निश्चित रूप से उसके मन को सुख-शान्ति मिलेगी। वास्तव में सुख-दु:ख कुछ भी नहीं हैं, ये तो केवल मन के विकल्प हैं। व्यक्ति जैसा सोचेगा, उसे वैसा ही अनुभव होगा। यदि वह अपने मन में स्वयं को सुखी मानेगा तो उसे सुख का अनुभव होगा और दुःखी मानेगा तो उसे दु:ख का अनुभव होगा।

(5) सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्याः। [2009, 11, 12, 15]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में संसार की क्षणभंगुरता पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ सभी संग्रह नाशवान् और सभी ऊँचाइयाँ पतन में अन्त वाली हैं।

व्याख्या इस संसार में जितने भी संग्रह हैं, वे सब एक-न-एक दिन समाप्त अवश्य होंगे, अर्थात् उनका नाश अवश्यम्भावी है। जितनी भी ऊँची-ऊँची वस्तुएँ और भवन आदि हमें दिखाई देते हैं, एक दिन वे सब भी धराशायी हो जाएँगे। हमने उन्नतिरूपी जितनी भी ऊँचाइयाँ प्राप्त की हैं, एक दिन उनका (UPBoardSolutions.com) पतन भी अवश्य होगा। आशय यह है कि यहाँ कुछ भी शाश्वत नहीं है, वरन् क्षणभंगुर है। अतः व्यक्ति को इस संसार में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए।

(6)
संयोगाः विप्रयोगान्ताः मरणान्तं हि जीवितम्। [2006, 08,09,11]
मरणान्तं हि जीवितम्।।

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में मृत्यु की शाश्वतता पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ मिलन की अवधि वियोग और जीवन की अवधि मृत्यु है।

व्याख्या यह संसार दुःखप्रधान है। इसमें संयोग के क्षण अत्यल्प हैं, जब कि वियोग चिरकालीन है। प्रत्येक सुख का अन्त::दु:ख है, किन्तु प्रत्येक दुःख का अन्त सुख नहीं है। जो आज है, वह कल नहीं रहेगा और जो कल रहेगा वह आगे नहीं रह जाएगा। जो मिला है, वह बिछुड़ता भी अवश्य है और जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; अर्थात् जीवन की अन्तिम परिणति मृत्यु है; अत: व्यक्ति को इस संसार में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए।

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श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) यो दुर्लभतरं ……………………………………………………………….. खलु वञ्चते ॥ (श्लोक 1) [2013]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महापुरुष: भीष्मः युधिष्ठिरम् उपदिशति-य: नरः दुर्लभतरं मनुष्य-जन्म प्राप्य जीवेभ्यः द्वेषं केरोति, स: धर्मस्य अवमन्ता कामात्मा च भवेत्, सः खलु स्व-आत्मानं वञ्चते।

(2) आक्रुश्यमानो ……………………………………………………………….. च तितिक्षतः ॥ (श्लोक 3)
संस्कृतार्थः महात्मा भीष्मः कथयति—यः पुरुषः आक्रुष्यमानः अपि क्रोधं न कुर्वति क्रोधमपि सहते, आक्रुष्टारम् अपि क्षमा करोति; सः क्षमाशील: पुरुष: पुण्यशाली भवति।

(3) भैषज्यमेतद् दुःखस्य ……………………………………………………………….. भूयश्चापि प्रवर्धते ॥ (श्लोक 6) (2009)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके भीष्मपितामहः युधिष्ठिरम् उपदिशः–अस्मिन् संसारे दुःखस्य निवृत्तेः एकमात्र उपायः अस्ति यत् तस्य चिन्तनं न कुर्यात। एतत् दुःखस्य औषधम् अस्ति। यतः चिन्त्यमानं दुःखम् अल्पतां न प्राप्नोति, अपितु अत्यधिकं वृद्धि प्राप्नोति।

(4) सर्वे क्षयान्ताः ……………………………………………………………….. हि जीवितम् ॥ (श्लोक 7) [201]
संस्कृतार्थः महर्षिः वेदव्यासः कथयति यत् संसारे ये सङ्ग्रहा: सन्ति, अन्ते तेषां विनाशः (UPBoardSolutions.com) भवति, ये चे उत्तुङ्गाः सन्ति, अन्ते तेषां पतनम् अवश्यं भवति। संयोगा: अन्ते वियोगरूपे परिणताः भवन्ति, एवमेव जीवितम् अपि अन्ते मृत्युं प्राप्नोति।।

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(5) दमः क्षमा ……………………………………………………………….. चेति सुखावहाः ॥ (श्लोक 8) [2008, 15]
संस्कृतार्थः महात्मा भीष्मः कथयति यत् जीवने इन्द्रियाणां नियन्त्रणः, क्षमा, धैर्यं, तेजः, सन्तोषः सत्यवादिता, लज्जा, अहिंसा, दुर्व्यसनरहिता, कार्यदक्षता च इति सुखसाधनाः सन्ति।

(6) ये क्रोधं ………………………………………………………………..“तरन्ति ते ॥ (श्लोक 9) [2007, 10, 15)
संस्कृतार्थः महात्मा भीष्मः कथयति यत् ये जनाः क्रोधं सन्नियच्छन्ति, क्रुद्धान् च संशमयन्ति, जीवानां च क्रोधं न कुर्वन्ति, ते जना: दुर्गाणि अतितरन्ति। क्रोध: मनुष्यस्य महद्रिपुः अस्ति; अतः मनुष्यः क्रोधं न कुर्यात् अत्र इति भावः।।

(7) अभयं यस्य ……………………………………………………………….. कुतश्चन ॥ (श्लोक 10) [2006, 08, 12]
संस्कृतार्थः महात्मा भीष्मः कथयति यत् यस्य भूतेभ्यः अभयं भवति, यतः भूतानाम् अभयं प्राप्नोति, (UPBoardSolutions.com) तस्मात् देहात् विमुक्तस्य पुरुषस्य कुतश्चन भयं न भवति।

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Class 9 Sanskrit Chapter 1 UP Board Solutions मङ्गलाचरणम् Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 1 मङ्गलाचरणम् (पद्य-पीयूषम्) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 1 मङ्गलाचरणम् (पद्य-पीयूषम्).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 1
Chapter Name मङ्गलाचरणम् (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 1 Manglacharan Question Answer (पद्य-पीयूषम्)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 1 हिंदी अनुवाद मङ्गलाचरणम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय
विश्व-साहित्य में भारत के ‘वेद’ सबसे प्राचीन ग्रन्थ माने जाते हैं। वेदत्रयी’ के आधार पर वेद तीन माने गये-ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद। कालान्तर में कभी ‘अथर्ववेद’ को भी इनके जोड़ दिया गया। वेदों में ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्रों में सम्बन्धित अथाह सामग्री भरी हुई है। प्रस्तुत पाठ में संकलित मन्त्र (UPBoardSolutions.com) इन्हीं वेदों से लिये गये। ये मन्त्र हमारे जीवन के लिए अत्यधिक उपयोगी हैं। विद्यार्थियों द्वारा इन्हें कण्ठस्थ किया जाना चाहिए। इनकी भाषा का स्वरूप संस्कृत का प्राचीनतर रूप है, जिसे विज्ञ जनों द्वारा ‘वैदिक संस्कृत’ नाम दिया गया है।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

(1) (क) आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः

शब्दार्थ
आयन्तु = आयें।
नः = हमारे लिए।
भद्राः = कल्याणकारी।
क्रतवः = विचार, संकल्प।
विश्वतः = चारों ओर (दिशाओं) से।।

सन्दर्य
प्रस्तुत मन्त्र हमारी पाठ्य पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘मङ्गलाचरणम्’ पाठ से उद्धृत है, जो ‘ऋग्वेद’ से लिया गया है।

प्रसंग
प्रस्तुत मन्त्र में देवताओं से अपने कल्याण की प्रार्थना की गयी है।

अन्वय
भद्राः क्रतवः नः विश्वतः आयन्तु।।

व्याख्या
कल्याणकारी विचार हमारे मन में चारों ओर से आयें। तात्पर्य यह है कि कल्याणकारी विचार एवं संकल्प सभी दिशाओं से हमारे हृदय में आये।

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(ख) भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।।

शब्दार्थ
भद्रं = शुभ।
कर्णेभिः = कानों से।
शृणुयाम = सुनें।
पश्येम = देखें।
अक्षिभिः = आँखों से।
यजत्राः = यज्ञ करने वाले हम लोग।

सन्दर्भ
पूर्ववत्।।

प्रसंग
प्रस्तुत मन्त्र में याज्ञिक (यज्ञ करने वाले) देवताओं से प्रार्थना कर रहे हैं कि वे उन्हें बुरे कार्यों से बचाते रहें।

अन्वय
देवाः! यजत्राः (वयंम्) कर्णेभिः भद्रं शृणुयाम। अक्षिभिः भद्रं पश्येम।।

व्याख्या
हे देवो! यज्ञ करने वाले हम लोग कानों से कल्याणकारी वचनों को सुनें, आँखों से शुभ कार्यों को देखें। तात्पर्य यह है कि ईश्वर की उपासना करते हुए ईश्वर के प्रति हमारा भक्ति-भाव 
 निरन्तर बना रहे। हम अपने कानों से सदा अच्छे समाचार सुनते रहें तथा आँखों से अच्छी घटनाएँ। |’, देखते रहें।

(2)
मधु नक्तमुतोषसो मधुमत् पार्थिवं रजः।।
मधुः द्यौरस्तु नः पिता ॥
मधुमान् नो वनस्पतिर्मधुमान् अस्तु सूर्यः । ।
माध्वीर्गावो भवन्तु नः ॥

शब्दार्थ
मधु = मधुर, कल्याणकारी।
नक्तम् = रात्रि।
उत = और।
उषसः = उषाएँ, प्रभात, दिन।
मधुमत् = मधुमय, आनन्दपूर्ण।
पार्थिवं = पृथ्वी (भूमि) से सम्बन्धित, पृथ्वी की।
रजः = मिट्टी, धूल।
द्यौः = आकाश।
अस्तु = हो।
नः = हमारे लिए।
वनस्पतिः = वृक्ष, वृक्ष-समूह, वन।
माध्वीः = आनन्दकारिणी।
गावः = गाएँ।
भवन्तु = हों। |

सन्दर्भ
पूर्ववत्।। प्रसंग-प्रस्तुत मन्त्र में अपने चारों ओर के वातावरण को आनन्दपूर्ण बनाने की प्रार्थना की गयी है।

अन्वयनः
नक्तम् उत उषसः मधु अस्तु। (न:) पार्थिवं रज: मधुमत् (अस्तु)। नः पिताः द्यौः मधु (अस्तु)। (न:) वनस्पतिः मधुमान् (अस्तु)। (नः) सूर्यः मधुमान् अस्तु। न: गावः माध्वीः भवन्तु।|

व्याख्या
हमारी रात्रि और ऊषाकाल (सवेरा) आनन्दमय एवं प्रसन्नता से भरी हों। हमारी मातृभूमि की धूल मधुरता से भरी हो। हमारे पिता आकाश आनन्ददायक हों। हमारे देश की वृक्षादि वनस्पति आनन्ददायक हो। हमारा सूर्य आनन्द प्रदान करने वाला हो। हमारे देश की गायें मधुर (दूध देने वाली) हों। तात्पर्य यह है कि हमारा सम्पूर्ण पर्यावरण हमारे लिए कल्याणकारी हो।

(3)
सं गच्छध्वं सं वदध्वं, सं वो मनांसि जानताम् ।।
समानो मन्त्रः समितिः समानी, समानं मनः सह चित्तमेषाम् ॥

शब्दार्थ
सं गच्छध्वम् = साथ-साथ चलो।
सं वदध्वम् = साथ-साथ (मिलकर) बोलो।
सं जानताम् = अच्छी तरह जानो।
वः = तुम सभी।
मनांसि = मनों को।
मन्त्रः = मन्त्रणा, निश्चय।
समितिः = सभा, गोष्ठी।
समानी = एक समान।
चित्तं = मन।

सन्दर्भ
पूवर्वत्।। प्रसंग-प्रस्तुत मन्त्र में सह-अस्तित्व की भावना पर बल दिया गया है।

अन्वय
(यूयम्) सं गच्छध्वम् , सं वदध्वम् , वः मनांसि सं जानताम्। मन्त्रः समानः (अस्तु), समितिः समानी (अस्तु), मनः समानं (अस्तु), एषां चित्तं सह (अस्तु)। |

व्याख्या
तुम सब एक साथ मिलकर चलो, एक साथ मिलकर बोलो और अपने-अपने मनों को अच्छी तरह समझो। तुम सबका समान विचार हो, समिति (संगठन) समान हो, सबका मन समान हो, इनका चित्त भी एक साथ (एक जैसा) हो।।

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(4)
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान् नेनीयतेऽभीषुभिर् वाजिन इव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु

शब्दार्थ
सुषारथिः (सु + सारथिः) = अच्छा सारथी।
इव = समान, तरह।
नेनीयते = ले जाता है (इच्छानुसार)।
अभीषुभिः = लगामों से।
वाजिनः = घोड़ों को।
हृत्प्रतिष्ठम् = हृदय में प्रतिष्ठित अर्थात् हृदय में
स्थित अजिरं = कभी बूढ़ा न होने वाला।
जविष्ठम् = तीव्र वेग वाला।
शिवसङ्कल्पमस्तु (शिव + सङ्कल्पम् + अस्तु) = कल्याणकारी विचार हो।

सन्दर्भ
प्रस्तुत मन्त्र हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘मङ्गलाचरणम्’ पाठ से उद्धृत है, जो कि शुक्ल यजुर्वेद’ से लिया गया है।

प्रसंग
प्रस्तुत मन्त्र में मन को नियन्त्रित करने एवं शुभ संकल्पों वाला बनाने के लिए प्रार्थना की गयी है।

अन्वय
यत् (मन) मनुष्यान् सुषारथिः अश्वान् इव अभीषुभिः वाजिन इव नेनीयते, यत् हृत्प्रतिष्ठम् , यत् अजिरं जविष्ठम् (चे अस्ति) तत् मे मनः शिवसङ्कल्पम् अस्तु।

व्यख्या
जो (मन) मनुष्यों को उसी प्रकार नियन्त्रित करके ले जाता है, जैसे अच्छा सारथि घोड़ों को लगाम से (नियन्त्रित करके) सही दिशा की ओर ले जाता है। जो मन हृदय में स्थित है, जो बुढ़ापे से रहित अर्थात् वृद्धावस्था में भी युवावस्था के समान अनेक सुखों को भोगने की इच्छा करता है, तीव्र (UPBoardSolutions.com) वेगगामी है; वह मेरा मन सुन्दर विचारों से सम्पन्न बने अर्थात् वह मेरा मन इस प्रकार की कामना करे, जिससे हमारा कल्याण हो सके।

(5)
यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति ।
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥

शब्दार्थ
यः = जो।
भूतम् (भूतकाल में उत्पन्न) = हो चुका है।
भव्यम् = आगे होने वाला है।
अधितिष्ठति = व्याप्त कर स्थित है।
स्वः = स्वर्गलोक।
ज्येष्ठाय = सबसे महान्।
ब्रह्मणे = परमब्रह्म परमात्मा को।
नमः = नमस्कार है।

सन्दर्भ
प्रस्तुतः मन्त्र हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘मङ्गलाचरणम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है, जो कि. ‘अथर्ववेद’ से लिया गया है।

प्रसंग
प्रस्तुत मन्त्र में ब्रह्मा की महिमा बताकर उसे नमस्कार किया गया है। |

अन्वय
यः भूतं च भव्यं च (अस्ति), यः च सर्वम् अधितिष्ठति, स्वः केवलं यस्य (अस्ति) तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः।

व्याख्या
जो भूतकाल में उत्पन्न हुए तथा भविष्यकाल में उत्पन्न होने वाले सभी पदार्थों को व्याप्त करके स्थित है, दिव्य प्रकाश वाला स्वर्ग केवल जिसको है; अर्थात् जिसकी कृपा से ही मनुष्य परमपद को प्राप्त कर सकता है, उस महनीय परमब्रह्म को नमस्कार है।

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सूक्तिपरक वाक्यांशों की याख्या

(1) सं गच्छध्वं सं वदथ्वं।

सन्दर्भ
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्‘ के ‘मङ्गलाचरणम्’ पाठ से ली गयी है।

प्रसंग
ऋग्वेद से संकलित इस सूक्ति में ईश्वर से प्रार्थना की गयी है कि हम सब आपस में प्रेम-भाव से मिलकर कार्य करें।

अर्थ
(हम) साथ-साथ मिलकर चलें और साथ-साथ मिलकर बोलें।

अनुवाद
व्यक्तिगत और सामाजिक उन्नति के लिए आवश्यक है कि हम सभी आपस में प्रेम-भाव से रहें। आपस में प्रेम-भाव होने से एक-दूसरे के प्रति द्वेष और घृणा की भावना स्वतः ही समाप्त हो जाती है। साथ-ही-साथ अहंकार और स्वार्थ की भावना भी नहीं रहती, क्योंकि ये दोनों भाव परस्पर कटुता और कलह उत्पन्न करते हैं। इसीलिए ऋग्वेद में शिक्षा दी गयी है कि हे ईश्वर! इस संसार में हम प्रेम-भाव से मिलकर साथ-साथ चलें और साथ-साथ मिलकर बोलें।

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Class 10 Sanskrit Chapter 6 UP Board Solutions ज्ञानं पूततरं सदा Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 6 Gyanam Puttaram Sada Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 6 हिंदी अनुवाद ज्ञानं पूततरं सदा के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

संस्कृत कथा-साहित्य के शिरोमणि, कश्मीरी पण्डित सोमदेव की अनुपम रचना ‘कथासरित्सागर’ है। इनके स्थिति-काल और परिवार का कोई भी परिचय अद्यावधि उपलब्ध नहीं है। इन्हें कश्मीर के राजा अनन्त का आश्रित माना जाता है तथा उन्हीं के स्थिति-काल से इनके स्थिति-काल का भी अनुमान किया जाता है। ‘कथासरित्सागर’ नाम से ही इस ग्रन्थ में अनेक कथाओं का होना स्पष्ट है। इसकी अधिकांश कथाएँ गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’ (UPBoardSolutions.com) से ली गयी हैं। ‘कथासरित्सागर’ में 18 लम्बक, 124 तरंग और 21,389 पद्य हैं। ‘पञ्चतन्त्र’ और ‘हितोपदेश’ के समान ही इसकी कथाओं में भी मुख्य कथा के भीतर अनेक छोटी-छोटी अन्तर्कथाएँ निहित हैं। इसमें पशु-पक्षियों, भूत-पिशाचों, मायावी कन्याओं, जादू-टोने, राजाओं, राज्यतन्त्र के षड्यन्त्रों इत्यादि विषयों को लेकर अनेकानेक कथाएँ लिखी गयी हैं, जिनमें से कुछ सत्य पर आधारित हैं तो कुछ नितान्त कपोल-कल्पित। रचना की भाषा-शैली के रोचक, सरल और प्रवाहपूर्ण होने के कारण कहानियाँ व तत्सम्बन्धित ज्ञान हृदयग्राही हैं।

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पाठ-सारांश

दीपकर्णि को शंकर द्वारा पुत्र-प्राप्ति का उपाय बताना – प्राचीनकाल में दीपकर्णि नाम के एक पराक्रमी राजा थे। उनकी शक्तिमती नाम की पत्नी थी। एक दिन उपवन में सोते हुए उसको साँप ने काट लिया और उसकी मृत्यु हो गयी। प्राणों से अधिक प्रिय रानी के दु:ख से दु:खी होकर पुत्रहीन होने पर भी दीपकर्ण ने दूसरा विवाह नहीं किया। एक बार स्वप्न में भगवान् शंकर ने उसे आदेश दिया कि “दीपकर्णि वन में घूमते हुए सिंह पर सवार जिस बालक को तुम देखोगे, उसे लेकर घर आ जाना। वही तुम्हारा पुत्र होगा।”

राजा को पुत्र की प्राप्ति – एक दिन वह राजा शिकार खेलने के लिए जंगल में गया। वहाँ उसने सूर्य के समान तेजस्वी एक बालक को सिंह पर आरूढ़ देखा। राजा ने स्वप्न के अनुसार जल पीने के इच्छुक उस सिंह को बाण से मार दिया। तब सिंह उस शरीर को छोड़कर पुरुष की (UPBoardSolutions.com) आकृति का हो गया।

पुरुषाकृति द्वारा राजा को अपना वृत्तान्त सुनाना – राजा के पूछने पर उसने बताया कि मैं कुबेर का मित्र ‘सात’ नाम का यक्ष हूँ। मैंने पहले एक ऋषि कन्या को गंगा के समीप देखा था और उससे गान्धर्व विधि से विवाह कर अपनी पत्नी बना लिया। उसके बन्धुओं ने क्रोध में आकर शाप दिया कि तुम दोनों सिंह हो जाओ। उसके शाप से हम दोनों सिंह हो गये। सिंहनी तो पुत्र को जन्म देते ही मृत्यु को प्राप्त हो गयी। मैंने इस पुत्र का दूसरी सिंहनियों के दूध से पालन किया है। अब आपका बाण लगने से मैं भी शाप-मुक्त हो गया हूँ। अब आप इस पुत्र को स्वीकार कीजिए, यह कहकर वह यक्ष अन्तर्हित हो गया।

बालक का नामकरण – राजा उस बालक को लेकर घर आ गया और सात नामक यक्ष पर आरूढ़ होने के कारण उसका नाम सातवाहन रख दिया। कालान्तर में दीपकर्णि के वन चले जाने पर अर्थात् वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करने पर सातवाहन सार्वभौम राजा हो गया।

रानी द्वारा सातवाहन का अपमान – इसके बाद किसी समय सातवाहन देवी के उद्यान में बहुत समय तक घूमता हुआ जल-क्रीड़ा करने के लिए वापी में उतर गया। वहाँ पत्नी के साथ परस्पर जल डालकर क्रीड़ा करता रहा। उसकी एक कोमलांगी रानी जल-क्रीड़ा करती हुई थक गयी और राजा से बोली-राजन्! ‘मोदकै ताडय’ (मुझे जल से मत मारो)। राजा ने इसका अर्थ ‘मुझे लड्डुओं से मारो’ समझकर बहुत-से लड्डू मँगवाये। तब रानी (UPBoardSolutions.com) हँसकर बोली-राजन्! जल में लड्डुओं का क्या काम? मैंने तो मुझे जल से मत मारो’ ऐसा कहा था। तुम कैसे अल्पज्ञ हो, जो ‘मा’ और ‘उदकैः’ की सन्धि और प्रकरण भी नहीं जानते हो। यह सुनकर राजा अत्यधिक लज्जित हुआ और उसी क्षण जल-क्रीड़ा छोड़कर घर आ गया और पूछने पर कुछ भी नहीं बोला। मैं पाण्डित्य या मृत्यु को प्राप्त करूंगा, इस प्रकार सोचते हुए वह दु:खी हो गया।

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गुणाढ्य और शर्ववर्मा का राजा के पास जाना – राजा की ऐसी दशा देखकर सब सेवक घबरा गये। गुणाढ्य और शर्ववर्मा उसकी उस दशा को जान गये। उन्होंने राजहंस नाम के सेवक को भेजकर अन्य रानियों से कारण जान लिया कि विष्णुशक्ति की पुत्री ने उसकी यह दशा की है। यह सुनकर शर्ववर्मा ने सोचते हुए जान लिया कि राजा के सन्ताप का कारण बुद्धिमान न होना है। वह हमेशा पाण्डित्य चाहता रहा है। इसी कारण राजा अपमानित है। इस प्रकार आपस में विचार करते हुए शर्ववर्मा और गुणाढ्य प्रातः होते ही राजा के भवन में गये और उसके पास बैठकर उसकी उदासी का कारण पूछा।

शर्ववर्मा द्वारा प्रतिज्ञा करना – राजा के उत्तर न देने पर शर्ववर्मा ने कहा कि मैंने आज स्वप्न में आकाश से गिरे हुए एक कुसुम में से निकल कर श्वेतवस्त्रधारिणी एक सुन्दर स्त्री को आपके मुख में प्रवेश करते देखी है। मुझे तो वह साक्षात् सरस्वती जान पड़ी। निश्चय ही आप शीघ्र विद्वान् हो जाएँगे। मन्त्री गुणाढ्य ने कहा कि “राजन्! मनुष्य सभी विद्याओं में प्रमुख व्याकरण का बारह वर्षों में ज्ञाता हो जाता है। परन्तु मैं आपको छः वर्षों में ही इसका (UPBoardSolutions.com) ज्ञान करा सकता हूँ।” ऐसा सुनकर वहीं पर खड़े शर्ववर्मा ने छः महीने में ही सिखाने को कहा। यह सुनकर क्रोध से गुणाढ्य ने कहा कि यदि महाराज को तुमने छः महीने में ही शिक्षित कर दिया तो मैं संस्कृत, प्राकृत और देशभाषा तीनों का व्यवहार नहीं करूंगा। शर्ववर्मा ने कहा कि यदि मैं छ: महीने में न सिखा सका तो बारह वर्ष तक आपकी खड़ाऊँ ढोऊँगा। शर्ववर्मा ने अपनी उस कठोर प्रतिज्ञा को अपनी पत्नी से बताया।

राजा का विद्वान् होना  अपनी पत्नी की सलाह पर शर्ववर्मा मौन धारण करके कार्तिकेय के मन्दिर में जाकर कठोर तपस्या करने लगा। कार्तिकेय ने प्रसन्न होकर वरदान दिया। उसने राजा को समस्त विद्याएँ प्रदान कर दीं। राजा विद्वान् हो गया और (UPBoardSolutions.com) उसने प्रसन्न होकर शर्ववर्मा को भरुकच्छ प्रदेश का राज्य दे दिया। विष्णुशक्ति की पुत्री को भी उसने अपनी प्रधान रानी बना लिया।

चरित्र-चित्रण

शर्ववर्मा [2006]

परिचय शर्ववर्मा राजा सातवाहन का विश्वासपात्र मन्त्री है। वह राजा का कल्याण चाहने वाला, विद्याओं में निपुण एवं बुद्धिमान व्यक्ति है। उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. राजा का शुभचिन्तक – शर्ववर्मा अपने स्वामी राजा सातवाहन का कल्याण चाहने वाला सच्चा शुभचिन्तक मन्त्री है। यही कारण है कि वह राजा की अस्वस्थता का समाचार सुनते ही प्रधान अमात्य गुणाढ्य के साथ राजा के पास पहुँच जाता है। राजा की आन्तरिक (UPBoardSolutions.com) पीड़ा को समझकर कमल में से सरस्वती के निकलने और राजा के मुख में प्रवेश करने का स्वप्न सुनाकर राजा को विद्वान् होने के लिए पूर्ण आश्वस्त कर देता है। उसकी इस सान्त्वना से राजा की चिन्ता दूर हो जाती है।

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2. बुद्धिमान् – शर्ववर्मा अत्यन्त बुद्धिमान है। उसकी बुद्धि दुरूह विषयों को भी सरलता से हल कर देती है। वह मानव-मनोविज्ञान का पारंगत वेत्ता मन्त्री है। वह राजा की चिन्ता का कारण उसका विद्वान् न होना जान लेता है। जैसा कि उसके कथन-“अहं जानाम्यस्य राज्ञः मौख्नु तापतः मन्युः” से स्पष्ट होता है। वह बुद्धि के बल पर राजा को छ: मास में संस्कृत व्याकरण का ज्ञान कराकर उसे श्रेष्ठ विद्वानों की श्रेणी में बिठाता है।

3. तपस्वी एवं कर्मनिष्ठ – राजा को विद्वान् बनाने के लिए शर्ववर्मा कार्तिकेय के मन्दिर में मौन धारण करके निराहार कठोर तपस्या करता है और कार्तिकेय के वरदान से प्राप्त समस्त विद्याओं के ज्ञान को वह राजा सातवाहन को प्रदत्त कर देता है।

4. दृढ़-प्रतिज्ञ – शर्ववर्मा राजा को छ: मास में ही विद्वान् बनाने की कठोर प्रतिज्ञा करता है और अपनी प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए कार्तिकेय के मन्दिर में घोर तपस्या करता है तथा छः माह के अन्दर राजा को समस्त विद्याएँ सिखाकर अपनी प्रतिज्ञा का पालन करता है।

5. साहसी – शर्ववर्मा सारी विद्याएँ राजा को छ: माह में सिखाने की बात कहकर अपूर्व साहस का परिचय देता है। वह नम्रतापूर्वक सारी बात अपनी पत्नी से बताता है और उसके बताये उपाय के अनुसार निराहार रहकर कार्तिकेय के मन्दिर में तपस्या करता है। (UPBoardSolutions.com) उसकी यह घोषणा कि वह राजा को छ: माह में ही विद्वानों की श्रेणी में ला देगा, उसके अपूर्व साहस का ही परिचायक है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शर्ववर्मा राजा का शुभचिन्तक; योग्य मन्त्री, दृढ़-प्रतिज्ञ, विद्वान्, साहसी और कर्मनिष्ठ व्यक्ति है।

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सातवाहन [2006, 09, 10, 13, 14, 15]

परिचय सात नामक यक्ष को अपना वाहन बनाये जाने के कारण इसका नाम सातवाहन रखा गया था। यह वीर, साहसी और लोक-व्यवहार में निपुण था, किन्तु इसे संस्कृत भाषा का कोई विशेष ज्ञान नहीं था। इसके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगत होती हैं

1. वीर और साहसी – बचपन में सिंह आदि वन्यप्राणियों के मध्य पाले जाने के कारण राजा सातवाहन परम वीर और साहसी है। अपने इसी साहस और वीरता के कारण वह आगे चलकर सार्वभौम राजा बनता है। कथा में उसके सार्वभौम राजा होने का वर्णन इस प्रकार किया गया है-”भूपतिः सातवाहनः सार्वभौमो संवृत्तः।”

2. प्राकृत भाषा का ज्ञाता – राजा सातवाहन के राज्य की अधिकांश प्रजा प्राकृत भाषा बोलती है; अत: राजा सातवाहन भी इसी भाषा में पारंगत है। संस्कृत भाषा का उसे बहुत अधिक ज्ञान नहीं है। यही कारण है। कि मोदकैः’ का शुद्ध विच्छेद नहीं कर पाने के कारण वह अपनी रानी के द्वारा अपमानित होता है।

3. प्रेमी – राजा सातवाहन सच्चे प्रेमी हैं। वे अपनी प्रिय रानी की इच्छा को पूर्ण करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। उसके मुख से किसी बात के निकलने के साथ ही राजा उसे पूर्ण करने का उपक्रम कर देते हैं। यही कारण है कि स्नान के समय रानी (UPBoardSolutions.com) के द्वारा ”मौदकै परिताडय” कहते ही राजा तुरन्त लड्डू मँगवाते हैं।

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4. भावुक और मानी – भावुक व्यक्ति को मान-अपमान की बातें अधिक लगती हैं। यही स्थिति राजा सातवाहन की भी है। अपनी रानी द्वारा उपहास का पात्र बनाये जाने पर वे उसी समय प्रतिज्ञा करते हैं कि या तो संस्कृत में पाण्डित्य प्राप्त करूंगा या मृत्यु का वरण कर लूंगा और अन्तत: वे पाण्डित्य प्राप्त करके अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करते हैं। यह घटना उनके भावुक और मानी होने की परिचायक है।

5. कुशाग्रबुद्धि – राजा सातवाहन कुशाग्रबुद्धि हैं, यही कारण है कि वे संस्कृत व्याकरण जैसे कठिन विषय में भी छ: माह में पाण्डित्य प्राप्त कर लेते हैं, जब कि विद्वानों का मानना है कि सतत अध्ययन करने पर व्यक्ति बारह वर्ष में संस्कृत व्याकरण में निपुणता प्राप्त कर लेता है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कुशाग्रबुद्धि, वीर, साहसी और स्वाभिमानी होने के साथ-साथ राजा सातवाहन में एक श्रेष्ठ व्यक्ति के समस्त गुण विद्यमान हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वप्ने भगवानिन्दुशेखरः राजानं किमादिदेश?
उत्तर :
भगवान् इन्दुशेखरः स्वप्ने राजानम् आदिदेश यत् अटव्यां (UPBoardSolutions.com) भ्राम्यन् सिंहारूढं कुमारकं द्रक्ष्यसि, तं गृहीत्वा गृहं गच्छे: सः ते पुत्रो भविष्यति।

प्रश्न 2.
सिंहः राजानं किमवदत्? [2006, 15]
उत्तर :
सिंह: राजानम् अवदत् यत् भूपते! अहं धनदस्य सखा सातीनामा यक्षोऽस्मि।

प्रश्न 3.
सिंहारूढं बालकं दृष्ट्वा राजा किमकरोत्। [2009, 13]
उत्तर :
सिंहारूढं बालकं दृष्ट्वा राजा बाणेन सिंहं जघान।

प्रश्न 4.
‘मोदकैर्देव’ इत्यस्य कोऽभिप्रायः?
उत्तर :
‘मोदकैर्देव’ इत्यस्य अभिप्राय: अस्ति–“हे देव! उदकैः मा।”

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प्रश्न 5.
शर्ववर्मणः भार्या स्वपतये किं न्यवेदयत्?
उत्तर :
शर्ववर्मणः भार्या स्वपतये न्यवेदयत् यत् प्रभो! सङ्कटेऽस्मिन् (UPBoardSolutions.com) स्वामिकुमारेण विना तव गतिरन्या न दृश्यते।

प्रश्न 6.
राजा सातवाहनः कथं सर्वाः विद्याः प्राप्तवान्?
उत्तर :
राजा सातवाहनः शर्ववर्मणः माध्यमेन परमेश्वरप्रसादात् सर्वाः विद्याः प्राप्तवान्।

प्रश्न 7.
दीपकर्ण कस्मात् हेतोः अटवीं गतः?
उत्तर :
दीपकर्णि पुत्र प्राप्ति हेतोः अटवीं गतः

प्रश्न 8.
सिंहः कः आसीत्?
उत्तर :
सिंहः धनदस्य सखा ‘सात’ नामकः एकः यक्षः आसीत्।

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प्रश्न 9.
राजानं मूर्ख कथितवती राज्ञी कस्या तनया आसीत्?
उत्तर :
राजानं मूर्ख कथितवती राज्ञी विष्णुशक्त्याः तनया आसीत्।

प्रश्न 10.
कः राजानं सातवाहनं विद्यायुक्तं चकार?
उत्तर :
शर्ववर्मणः राजानं सातवाहनं (UPBoardSolutions.com) विद्यायुक्तं चकार।

प्रश्न 11.
दीपक भार्यायाः किं नाम आसीत्? [2007, 10]
या
‘दीपकणिः’ इति प्राज्यविक्रमस्य राज्ञः भार्यानाम किम्? [2010]
उत्तर :
दीपक भार्यायाः नाम शक्तिमती आसीत्।

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बहुविकल्पीय प्रश्न

अधोलिखित प्रश्नों में प्रत्येक प्रश्न के उत्तर-रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए –
[संकेत – काले अक्षरों में छपे शब्द शुद्ध विकल्प हैं।]

1. ‘ज्ञानं पूततरं सदा’नामक कथा लोककथा साहित्य के किस ग्रन्थ से संकलित है? [2008]

(क) ‘कथासरित्सागर’ से
(ख) ‘जातकमाला’ से
(ग) ‘पञ्चतन्त्रम्’ से
(घ) “हितोपदेशः’ से

2. ‘कथासरित्सागर’ के रचयिता का क्या नाम है? [2007, 09, 12]

(क) बल्लाल सेन
(ख) सोमदेव
(ग) विष्णु शर्मा
(घ) विद्यापति

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3. कश्मीर के निवासी सोमदेव किस राजा के आश्रित कवि थे?

(क) पृथ्वीराज चौहान के
(ख) जयसिंह के
(ग) हर्षवर्द्धन के
(घ) अनन्त के

4. “तं स्वप्ने भगवानन्दुशेखरः इत्यादिदेश।” में भगवानिन्दुशेखरेः’ से कौन संकेतित हैं?

(क) भगवान् इन्द्र
(ख) भगवान् विष्णु
(ग) भगवान् शंकर
(घ) भगवान् ब्रह्मा

5. “तत्रनन्दने महेन्द्रइव सुचिरं विहरन्”:”।”वाक्य में’ महेन्द्र’ से किसका अर्थबोध होता है?

(क) सातवाहन का
(ख) इन्द्रका
(ग) दीपकर्ण का
(घ) शंकर का

6. राजमहिषी द्वारा कहे गये’मौदकैर्देव मां परिताडय।” कथन में ‘मोदकैः’ का क्या अर्थ है?

(क) पानी से नहीं
(ख) पानी द्वारा
(ग) लड्डूओं से
(घ) लड्डूओं से नहीं

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7. गुणाढ्य ने राजा सातवाहन को कितने वर्षों में व्याकरण सिखाने की बात कही?

(क) चार वर्ष में
(ख) पाँच वर्ष में
(ग) छः वर्ष में
(घ) सात वर्ष में

8. शर्ववर्मा ने राजा सातवाहन को कितने मासों में व्याकरण सिखाने की बात कही?

(क) चार मास में
(ख) पाँच मास में
(ग) छः मास में
(घ) सात मास में

9. सातवाहन ने मन्त्री शर्ववर्मा को कहाँ का राजा बनाया?

(क) प्रयाग का
(ख) धारानगरी का
(ग) उज्जयिनी का
(घ) भरुकच्छ का

10. “तं ………………… भगवानिन्दुशेखरः इत्यादिदेश।”वाक्य के रिक्त-स्थान की पूर्ति के लिए उचित शब्द है

(क) उद्याने
(ख) अटव्यां
(ग) प्रासादे
(घ) स्वप्ने

11. ‘अयं मया अन्यासां सिंहीनां ……………………. वर्धितो।”वाक्य में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी

(क) पयसा’ से
(ख) रक्तेन’ से
(ग) “वयसेन’ से
(घ) “पयसेन’ से

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12. अद्य त्वया बाणाहतोऽहं ……………………. विमुक्तोऽस्मि।

(क) “तापाद्’ से
(ख) “शापाद्’ से
(ग) व्याध्यात्’ से
(घ) ‘पीडात्’ से

13. ‘तत्छुत्वा राजा द्रुतं बहून् ………………. आनयनादिदेश।’ वाक्य में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी –

(क) ‘मिष्टान्न’ से
(ख) ‘पक्वान्न’ से
(ग) मोदकान्’ से
(घ) “मूलान्’ से

14. ‘तस्य राजचेटस्य मुखादेतत् श्रुत्वा ……………… संशयादित्यचिन्तयत्।”वाक्य-पूर्ति के लिए उपयुक्त शब्द है –

(क) दीपकर्ण
(ख) शक्तिमती
(ग) गुणाढ्य
(घ) शर्ववर्मा

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15. “सङ्कटेऽस्मिन् …………………….. विना तव गतिरन्या न दृश्यते।” वाक्य-पूर्ति के लिए उपयुक्त शब्द है|

(क) स्वामिकुमारेण
(ख) स्वामीन्द्रेण
(ग) स्वामिस्कन्देन
(घ) स्वामिलम्बोदरेण

16. पुरा ……………….. इति ख्यातो प्राज्य विक्रमः राजाभूत्। [2006]

(क) गुणाढ्यः
(ख) दीपकणिः
(ग) शर्ववर्मा
(घ) वीरवरः

17. राजा सिंहारूढं ……………….. अपश्यत्। [2015]

(क) पुरुषं
(ख) बालकम्
(ग) नारीम्

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Class 9 Sanskrit Chapter 3 UP Board Solutions आदिकविः वाल्मीकिः Question Answer

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 5
Chapter Name आदिकविः वाल्मीकिः (गद्य – भारती)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 3 Adikavi Valmiki Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 3 हिंदी अनुवाद आदिकविः वाल्मीकिः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांशु

पूर्व जीवन-संस्कृत के आदिकवि वाल्मीकि हैं। इन्होंने भगवान् राम का लोक-कल्याणकारी चरित्र काव्य रूप में लिखा। राम का जीवन-चरित्र हमारे देश और संस्कृति का प्राण है। वाल्मीकि द्वारा लिखित ‘रामायण’ को संस्कृत का आदिकाव्य माना जाता है।

‘स्कन्दपुराण’ और ‘अध्यात्मरामायण के अनुसार, इनका नाम अग्निशर्मा था तथा ये जाति के ब्राह्मण थे। पूर्व जन्म के कर्मफल स्वरूप ये वन में पथिकों का धन लूटकर जीविका चलाते थे और धन न मिलने पर हत्या करने में भी संकोच नहीं करते थे।

एक बार इन्होंने वन-पथ पर आते हुए एक मुनि को देखा और कड़े स्वर में उससे कहा-“जो कुछ तुम्हारे पास है, सब मुझे दे दो।’ मुनि ने कहा-“मेरे पास कुछ नहीं है, परन्तु तुम इस पापकर्म को क्यों करते हो? इस लूटे गये धन से तुम जिन परिवार वालों का पालन करते हो, क्या वे तुम्हारे (UPBoardSolutions.com) पापकर्म के फल में भी सहभागी होंगे?’ वाल्मीकि ने मुनि के इस प्रश्न का उत्तर परिवार वालों से पूछकर देने के लिए कहा और मुनि को रस्सियों से बाँधकर परिवारजनों से पूछने के लिए चले गये। .
उनके कुटुम्बी उनके प्रश्न को सुनकर क्रुद्ध हुए और बोले-“हमने तुम्हें पापकर्म करने के लिए : नहीं कहा; अत: हम तुम्हारे पाप के फल के भागीदार नहीं होंगे।”

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हृदय-परिवर्तन-परिवारजनों को उत्तर सुनकर वाल्मीकि बहुत दु:खी हुए। उनके शोक को दूर करने के लिए मुनि ने इन्हें ‘राम’ का नाम जपने का उपदेश दिया, परन्तु अपने हिंसक स्वभाव के कारण वे ‘मरा-मरा’ जपने लगे। इस प्रकार वर्षों तक इन्होंने इतना कठोर तप किया कि इनके शरीर के आसपास दीमकों की बॉबी बेने गयी और उसकी मिट्टी से इनका सारा शरीर ढक गया। एक समय वरुणदेव के द्वारा निरन्तर वर्षा (UPBoardSolutions.com) से इनके शरीर से वह मिट्टी बह गयी और ये आँखें खोलकर छठ खड़े हुए। दीमकों की मिट्टी अर्थात् ‘वल्मीक’ से प्रकट होने के कारण ये ‘वाल्मीकि’ नाम से प्रसिद्ध हुए। वरुण का एक अन्य नाम प्रचेता भी है। “प्रचेतसा उत्थापितः इति प्राचेतसः’ इस कारण वरुणदेव के द्वारा मिट्टी बहाये जाने के कारण ये ‘प्रचेतस्‘ कहलाये।

आदिकविता–एक बार वाल्मीकि ने ब्रह्मर्षि नारद से भगवान् राम का कल्याणकारी चरित्र सुना और उसे काव्यबद्ध करने की इच्छा की। इसके बाद किसी दिन ये मध्याह्न-स्नान के लिए तमसा नदी के तट पर गये हुए थे। वहाँ इन्होंने एक क्रौञ्च युगल को प्रेम-क्रीड़ा करते हुए देखा। उनके देखते-ही-देखते एक शिकारी ने उसमें से नरक्रौञ्चे को बाण से घायल कर दिया। खून से लथपथ, पृथ्वी पर धूल-धूसरित होते क्रौञ्च को (UPBoardSolutions.com) देखकर क्रौञ्ची करुण विलाप करने लगी। क्रौञ्ची के करुण विलाप को सुनकर मुनि का हृदय शोक से द्रवित हो गया और उनके हृदय से शिकारी के प्रति श्राप रूप में ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः’ छन्द फूट पड़ा। यही छन्द संस्कृत की पहली कविता अथवा पहला
छन्द बना।।

रामायण की रचना-श्राप रूप में श्लोक के निकलते ही महामुनि के हृदय में महती चिन्ता हुई। तब ब्रह्माजी ने इनके पास आकर कहा-“श्लोक बोलते हुए आपने दुःखियों पर दया करने के धर्म का पालन किया है। अब सरस्वती की आप पर कृपा हुई है। अब आप नारदजी से सुने अनुसार भगवान् राम के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन करें। मेरी कृपा से आपको सम्पूर्ण रामचरित स्मरण हो जाएगा।” ऐसा कहकर ब्रह्मा अन्तर्धान हो गये। तब वाल्मीकि ने सात काण्डों में आदिकाव्य रामायण की रचना की। इनके दो आश्रम थे-एक चित्रकूट में और दूसरा ब्रह्मावर्त (बिठूर) में। यहीं पर लव और कुश का जन्म हुआ था।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) संस्कृतवाङ्मयस्यादिकविः महामुनिः वाल्मीकिरिति सर्वैः विद्वद्भिः स्वीक्रियते। महामुनिना रम्यारामायणी-कथा स्वरचिते काव्यग्रन्थे निबद्धा। भगवतो रामस्य चरितमस्माकं देशस्य (UPBoardSolutions.com) संस्कृतेश्च प्राणभूतं तिष्ठति। वस्तुतस्तु, महामुनेः वाल्मीकेरेवैतन्माहात्म्यमस्ति। यत्तेन रामस्य लोककल्याणकारकं रम्यादर्शभूतं रूपं जनानां समक्षमुपस्थापितम्। वयं च तेन रामं ज्ञातुं अभूम।।

शाब्दार्थ-
वाङ्मय = साहित्य स्वीक्रियते = स्वीकार किया जाता है।
रम्या = सुन्दर।
निबद्धा = गुंथी हुई है।
प्राणभूतम् = प्राणस्वरूप।
वस्तुतस्तु = वास्तव में।
वाल्मीकेरेवैतन्माहात्म्यमस्ति (वाल्मीकेः + एव + एतत् + माहात्म्यम् + अस्ति) = वाल्मीकि का ही यह माहात्म्य है।
आदर्शभूतम् = आदर्शस्वरूप।
उपस्थापितम् = उपस्थित किया गया।
ज्ञातुं अभूम = जानने में समर्थ हुए।

सन्दर्थ
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘आदिकविः वाल्मीकिः’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

संकेत
इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।] ।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में आदिकवि वाल्मीकि की यशः कीर्ति पर प्रकाश डाला गया है।

अनुवाद
सभी विद्वान् यह स्वीकार करते हैं कि महामुनि वाल्मीकि संस्कृत-साहित्य के आदिकवि हैं। महामुनि ने रामायण की सुन्दर कथा को अपने द्वारा रचित काव्यग्रन्थ मे गुँथा है। भगवान् राम का चरित हमारे देश की संस्कृति का प्राणस्वरूप है। वास्तव में महामुनि वाल्मीकि का ही यह माहात्म्य है कि उन्होंने राम का लोक कल्याणकारी, सुन्दर, आदर्शभूत स्वरूप लोगों के सामने उपस्थित किया (रखा) और उससे हम राम को जानने में समर्थ हुए। .

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(2) स्कन्दपुराणाध्यात्मपरामायणयोरनुसारात् अयं ब्राह्मणजातीयः अग्निशर्मा- भिधश्चासीत्। पूर्वजन्मनः विपाकात् परधनलुण्ठनमेवास्य कर्माभूत्। वनान्तरे पथिकानां धनलुण्ठनमेव तस्य जीविकासाधनमासीत्। लुण्ठनव्यापारे, संशयश्चेत् प्राणघातेऽपि स सङ्कोचं नाऽकरोत्। इत्थं हिंसाकर्मणि लिप्तः एकदा वनपथे पथिकमाकुलतया प्रतीक्षमाणोऽसौ । मुनिवरमेकमागच्छन्तमपश्यत्, दृष्ट्वा च हर्षेण प्रफुल्लो जातः। समीपमागते मुनिवरे रक्ते । अक्षिणी श्रीमयन् भीमेन रवेण तमवोचत् यत्किञ्चित्तवास्ति तत्सर्वं मह्यं देहि नो चेत्तव (UPBoardSolutions.com) प्राणसंशयों भविष्यति। मुनिना प्रत्युक्तं, लुण्ठक! मत्पाश्र्वे तु किञ्चिदपि नास्ति, परं त्वां पृच्छामि किं करोषि लुण्ठितेन धनेन? इदं पापकर्म किमिति न जानासि? जानामि, तथापि करोमि। लुण्ठितेन धनेन परिवारजनस्य पोषणरूपं महत्कार्यं करोमीति तेनोक्तम्। मुनिः पुनरपृच्छत्-. पापकर्मणार्जितेन वित्तेन पोषितास्तव परिवारसदस्याः किं तव पापकर्मण्यपि सहभागिनः। स्युरिति। सोऽवोचत् वक्तुं न शक्नोमि परं तान् पृष्ट्वा वदिष्यामि। त्वं तावदत्रैव विरम यावदहं तान् सम्पृच्छ्यागच्छामि। इत्युक्त्वा तं मुनिवरं रज्जुभिः दृढं बद्ध्वा स्वकुटुम्बिनः प्रष्टुं जगाम।

शाब्दार्थ-
अनुसारोत् = अनुसार।
अभिधः = नाम वाला।
विपाकात् = फल या परिपाक, दुष्परिणाम से।
लुण्ठनम् = लूटना।
प्राणघातेऽपि = प्राणनाश में भी।
लिप्तः = लगा हुआ।
प्रतीक्षमाणः = प्रतीक्षा करता हुआ।
मुनिवरमेकमागच्छन्तमपश्यत् (मुनिवरम् + एकम् + आगच्छन्तम् + अपश्यत्) = एक श्रेष्ठ मुनि को आता हुआ देखा।
प्रफुल्लः = प्रसन्न।
रक्ते अक्षिणी = लाल-लाल आँखें।
भ्रामयन् = घुमाता हुआ।
भीमेन रवेण = भयंकर आवाज से।
प्रत्युक्तम् (प्रति + उक्तम्) = उत्तर दिया। लुण्ठक = हे लुटेरे!
सहभागिनः = साथ में भाग लेने वाले अर्थात् हिस्सेदार।
विरम = ठहर। सम्पृच्छ्यागच्छामि (सम्पृच्छ्य + आगच्छामि) = पूछकर आता हूँ।
रज्जुभिः = रस्सियों से।
प्रष्टुम् = पूछने के लिए।
जगाम = चला गया।

प्रसंग
इस गद्यांश में वाल्मीकि के आपराधिक जीवन पर प्रकाश डाला गया है।

अनुवाद
ये वाल्मीकि स्कन्द पुराण और अध्यात्म रामायण के अनुसार ब्राह्मण जाति के थे और इनका नाम अग्निशर्मा था। पूर्व जन्म के परिपाक (फल) से दूसरों के धन को लूटना ही इनका कर्म था। वन के मध्य में पथिकों का धन लूटना ही उनकी जीविका का साधन था। यदि लूटने के काम में सन्देह हो तो वे हत्या करने में भी संकोच नहीं करते थे। इस प्रकार हिंसा के काम में लगे हुए एक बार वन के पथ पर राहगीर की बेचैनी से प्रतीक्षा करते हुए उन्होंने एक मुनिवर को आते हुए देखा और देखकर हर्ष से खिल उठे। मुनिवर के पास आने पर लाल-लाल नेत्रों को घुमाते हुए भयंकर स्वर में उनसे बोले—“जो कुछ तुम्हारे पास है वह सब मुझे दो, नहीं तो तुम्हारे प्राणों का संकट होगा।” मुनि ने उत्तर दिया-“लुटेरे! मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, परन्तु तुमसे पूछता हूँ-“लूटे हुए धन से तुम क्या करते हो? (UPBoardSolutions.com) यह पाप का कर्म है, क्या तुम यह नहीं जानते हो?” “ज्ञानता हूँ तो भी करता हूँ। लूटे हुए धन से मैं परिवार वालों का पालन रूप महान् कार्य करता हूँ।” ऐसा उससे (मुनि से) कहा। मुनि ने फिर पूछा-‘पापकर्म से कमाये गये धन से पाले हुए तुम्हारे परिवार के सदस्य क्या तुम्हारे पापकर्म में भी हिस्सेदार होंगे?” वह बोला-“कह नहीं सकता, परन्तु उनसे पूछकर बताऊँगा। तुम तब तक यहीं रुको, जब तक मै उनसे पूछकर आता हूँ।” यह कहकर उस मुनिवर को रस्सियों से कसकर बाँधकर अपने कुंटुम्बियों से पूछने चले गये।

(3) अथ तस्य कुटुम्बिनः तस्य प्रश्नं श्रुत्वा भृशं चुकुपुरूचुश्च कथं वयं तव पापकर्माणि | सहभागिनो भवेम? वयं किं जानीमहे त्वं किं करोषि कया वा रीत्या धनार्जनं विदधासि? नास्माभिः तवं पापकर्म कर्तुमादिष्टः।

तेषां स्वपरिवारजनानामुत्तरमाकर्त्य सोऽतीव विषण्णोऽभवत्। द्रुतं मुनिवरमुपगम्य सर्वं च तत्परिवारजनोख्यातमसावभाषत। परं निर्विण्णं तं मुनिः तस्य हृदयशोकशमनाय ‘राम’ इति जप्तुमुपादिशत्। ‘राम’ इति समुच्चारेणऽक्षमः स्ववृत्त्यनुसारं ‘मरा’ इत्येव जप्तुमारभत। इत्थमसौ बहुवर्षाणि यावत् समाधौ लीनः तीव्र तपश्चचार। तपसि रतस्य तस्य शरीरं वल्मीकमृत्तिकाभिः आवृत्तं जातम्। अथ कदाचित् प्रचेतसा निरन्तरजलधारया तस्य शरीरात् वल्मीकमृत्तिक परिस्राविता अभवन्। (UPBoardSolutions.com) मृत्तिकाभिः तिरोहितं तस्य शरीरं पुनः प्रकटितम्। ततो मुनिभिः स संस्तुतोऽभ्यर्थितश्च चक्षुषी उन्मील्योदतिष्ठत्। वल्मीकात् प्रोद्भूतत्वाद् वाल्मीकिरिति, प्रचेतसा जलधारया मृत्तिकायाः परित्रुतत्वाद् प्रचेतस इति तस्य नामद्वयं जातम्।रामायणे मुनिना स्वपितुः
नाम प्रचेताः तस्य दशमः पुत्रोऽहमित्त्थमुल्लिलेखे। यथा च–’प्रचेतसोऽहं दशमः पुत्रो.. राघवनन्दन।’

शब्दार्थ-
भृशम् = बहुत। चुकुपुरूचुश्च (चुकुपः + ऊचुः + च). = क्रोधित हुए और बोले।
विदधासि = करते हो।
आदिष्टः = आदेश दिया, कहा।
विषण्णः = उदास, दु:खी।
द्रुतं = शीघ्र।
शोकशमनाय = दु:ख की शान्ति के लिए।
निर्विण्णं = दु:खी।
अक्षमः = असमर्थ स्ववृत्त्यनुसारम् = अपने स्वभाव के अनुसार।
जप्तुमारभत = जपना आरम्भ कर दिया।
इत्थं = इस प्रकार।
तपश्चचारः (तपः + चचारः) = तप करता रहा।
आवृत्तं जातम् = ढक गया।
प्रचेतसा = वरुण देव के द्वारा।
परिस्राविता अभवन् = धुल गयी, गीली होकर बह गयी।
तिरोहितम् = छिपा हुआ।
उन्मल्योदतिष्ठत (उन्मील्य + उत् + अतिष्ठत्) = खोलकर उठ बैठे।
प्रोद्भूतत्वात् = प्रकट होने के कारण।
परिवृतत्वाद = बहाये जाने के कारण से।
स्वपितुः = अपने पिता का।
वल्मीकमृत्तिकाभिः = दीमक की मिट्टी से।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में अग्निशर्मा के तपस्या करने एवं वाल्मीकि तथा प्राचेतस ये दो नाम धारण करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
इसके बाद उनके कुटुम्बी उनके प्रश्न को सुनकर अत्यन्त क्रुद्ध हुए और बोले-“हम तुम्हारे पाप कर्म में क्यों हिस्सेदार होंगे? हम क्या जानें, तुम क्या करते हो अथवा किसी रीति से धन कमाते हो? हमने तुम्हें पाप कर्म करने को नहीं कहा था।” .. उन अपने परिवार के लोगों के उत्तर को सुनकर वह अत्यन्त दुःखी हुआ। शीघ्र ही मुनिवर के पास आकर उसने परिवारजनों का कहा हुआ वह सब बता दिया। अत्यन्त दु:खी हुए उससे (अग्निशर्मा से) मुनि ने उसके हृदय के शोक को शान्त करने के लिए ‘राम’ जपने का उपदेश दिया। ‘राम’ शब्द के उच्चारण में असमर्थ उसने अपने स्वभाव के अनुसार ‘मरा’ जपना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार उन्होंने बहुत वर्षों तक समाधि में लीन होकर कठोर तप किया। तप में लीन उनका शरीर दीमकों की मिट्टी से ढक गया। इसके बाद किसी (UPBoardSolutions.com) समय वरुण के द्वारा लगातार जल की धारा से उनके शरीर से दीमकों की मिट्टी धूल गयी (बह गयी) और मिट्टी से छिपा हुआ उनका शरीर पुनः प्रकट हो गया। तब मुनियों ने उनकी स्तुति और पूजा की तथा वे आँखें खोलकर उठ बैठे। दीमकों की मिट्टी से निकलने के कारण ‘वाल्मीकि’, प्रचेता (वरुण) के द्वारा जलधारा से मिट्टी के धुल जाने के कारण ‘प्रचेतस’ इसे प्रकार उनके दो नाम हो गये। रामायण (उत्तरकाण्ड) में मुनि (वाल्मीकि) ने अपने पिता का नाम ‘प्रचेता “मैं उसका दसवाँ पुत्र” ऐसा लिखा है। जैसे-“हे राघव पुत्र! मैं प्रचेता का दसवाँ पुत्र हूँ।”

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(4) अथ कदाचित् सः ब्रह्मर्षेः नारदात् भगवतो रामस्य लोककल्याणकरं वृत्तं शुश्राव। तदाप्रभृत्येव रामचरितं काव्यबद्धं कर्तुमाकाङ्क्षते स्म। अथैकदा महर्षिः माध्यन्दिनसंवनाय प्रयागमण्डलान्तर्गतां तमसानदीं गच्छन्नासीत्। तत्र वनश्रियं निरीक्षमाणो महामुनिः स्वच्छन्दं विरचत् कौञ्चमिथुनमेकमपश्यत्। पश्यत एव तस्य कश्चित् पापनिश्चयो व्याधः तस्मान् मिथुनादेकं बाणेन विजघानां बाणेन विद्धं महीतले लुण्ठन्तं (UPBoardSolutions.com) शोणितपरीताङ्गं तं विलोक्य क्रौञ्ची करुणया गिरा रुराव। क्रौञ्च्याः करुणारावं आवं आवं मुनिहृदयालीनः शोकानलपरिद्रुतः करुणरसः श्लोकच्छलाद् हृदयादेवं निर्गतोऽभवत्

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥

शब्दार्थ-
लोककल्याणकरम् = संसार का कल्याण करने वाला।
वृत्तम् = चरित्र।
आकाङ्क्षते स्म = इच्छा की।
माध्यन्दिनसवनाय = दोपहर के स्नान के लिए।
विचरत् = विचरण करते हुए।
मिथुनं = जोड़े को।
पापनिश्चयः = पापी।
व्याधः = शिकारी।
विजेघान = मार दिया।
लुण्ठन्तम् = लेटते हुए।
शोणितपरीताङ्गम् = खून से लथपथ शरीर वाले।
गिरा = वाणी से।
रुराव = रोने लगी।
करुणरवं = दु:खपूर्ण रुदन को।
श्रावं आवम् = सुन-सुनकर।
शोकानलः= शोक रूपी अग्नि।
परिद्रुतः = भड़क उठी।
निषाद = शिकारी।
शाश्वतीः समाः = चिरकाल तक।
अवधीः = मार, डाला।
काममोहितम् = काम से मुग्ध होने वाले को।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में क्रौञ्च के जोड़े में से नर क्रौञ्च को शिकारी के द्वारा मारे जाते देखकर वाल्मीकि के हृदय से छन्द फूट पड़ने का वर्णन है। यही छन्द आदि कविता कहलाया।

अनुवाद
इसके बाद कभी उन्होंने (वाल्मीकि ने) ब्रह्मर्षि नारद से भगवान् राम का लोक-कल्याणकारी चरित्र सुना। तब से ही उन्होंने राम के चरित्र को काव्यबद्ध करने की इच्छा की थी।
इसके बाद एक दिन महर्षि दोपहर के स्नान के लिए प्रयागमण्डल के अन्तर्गत तमसा नदी पर गये हुए। थे। वहाँ वन की शोभा को देखते हुए महामुनि ने स्वच्छन्द घूमते हुए एक कौञ्च पक्षी-युगल को देखा। उनके देखते हुए ही किसी पापपूर्ण निश्चय वाले शिकारी ने उस जोड़े में से एक को बाण (UPBoardSolutions.com) से मार दिया। बाण से बिंधे, भूमि पर गिरे हुए, खून से लथपथ शरीर वाले उसे देखकर क्रौञ्ची (चकवी) ने करुण वाणी से रुदन किया। क्रौञ्ची के करुण-विलाप को सुन-सुनकर मुनि के हृदय में छिपी शोकाग्नि से पिघला हुआ करुण रस श्लोक के बहाने से हृदय से इस प्रकार निकल पड़ा

“हे निषाद! तू चिरकाल तक रहने वाली स्थिति (सुख) को मत प्राप्त कर; क्योंकि तूने क्रौञ्च के जोड़े में से काम से मुग्ध अर्थात् काम-क्रीड़ा में रत एक(नर क्रौञ्च ) को मार डाला।”

(5) श्लोकोऽयमाम्नायादन्यत्र छन्दसां नूतनोऽवतार आसीत्। एवं बुवतस्तस्य हृदि महती चिन्ता बभूव-अहो! शकुनिशोकपीडितेन मया किमिदं व्याहृतम्। अत्रान्तरे, वेदमूर्तिश्चतुर्मुखो भगवान् ब्रह्मा महामुनिमुपगम्य सस्मितमुवाच महामुने, आपन्नानुकम्पनं हि महतां सहजो धर्मः। श्लोकं ब्रुवता त्वया त्वेष एवं धर्मः पालितः। तन्नात्र विचारणा कार्या। सरस्वती मच्छन्दादेव त्वयि प्रवृत्ता। साम्प्रतं यथा नारदाच्छूतं तथा त्वं श्रीमद्भगवतो रामचन्द्रस्य कृत्स्नं चरितं वर्णय। मत्प्रसादात् निखिलं च रामचरितं तव विदितं भविष्यति। किं बहुना, यावन्महीतले गिरिसरित्समुद्राः स्थास्यन्ति तावल्लोके रामायणकथा ‘प्रचलिष्यतीत्यादिश्य (UPBoardSolutions.com) भगवानब्जयोनिरन्तर्हितोऽभवत्। ततो योगबलेन नारदोक्तं समग्रं रामचरितमधिगम्य गङ्गातमसयोरन्तराले तटे, सप्तकाण्डात्मकं रामायणाख्यमादिमहाकाव्यं रचयामास, तदनन्तरं मुनेः विश्रामार्थं द्वौ अपराश्रमौ अभूताम्। एकश्चित्रकूटे अपरश्च कानपुरमण्डलान्तर्गत ब्रह्मावर्तान्तः आधुनिके बिठूरनाम्नि स्थाने आसीत् अत्रैव लवकुशयोः ज़नुरभूत्। एवमादिकविर्यशसा ख्यातोऽभवल्लोके महामुनिः ब्रह्मर्षिः।

शब्दार्थ-
आम्नायात् = वेद से।
बुवतस्तस्य = कहते हुए उनके।
शकुनिशोकपीडितेन = पक्षी के शोक से दुःखित हुए।
महामुनिमुपगम्य = महामुनि के पास जाकर।
व्याहृतम् = कह दिया।
सस्मितम् = मुस्कराते हुए।
आपन्नानुकम्पनं = पीड़ितों पर दया या कृपा।
सहजः = स्वाभाविक।
बुवता = बोलते हुए।
साम्प्रतं = अब (इस समय)।
नारदाच्छुतम् (नारदात् + श्रुतम्) = नारद से सुने हुए। कृत्स्नम् = सम्पूर्ण।
निखिलम् = पूरा। यावत् = जब तक।
स्थास्यन्ति = स्थित रहेंगे।
तावत् = तब तक।
प्रचलिष्यतीत्यादिश्य (प्रचलिष्यति + इति + आदिश्य) = प्रचलित रहेगी, ऐसी आदेश देकर।
अब्जयोनिः = कमल से उत्पन्न ब्रह्माजी।
अन्तर्हितः = अन्तर्धान।
अधिगम्य = जानकर।
अन्तराले = बीच में।
अपराश्रमौ (अपर + आश्रमौ) = अन्य आश्रम।
ब्रह्मावर्तान्तः = ब्रह्मावर्त में।
अत्रैव (अत्र + एव) = यहाँ ही।
जनुरभूत् (जनु: + अभूत्) = जन्म हुआ।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में श्राप देने से दु:खीं वाल्मीकि को ब्रह्माजी द्वारा सान्त्वना देने तथा रामचरित का वर्णन करने की प्रेरणा दी गयी है।

अनुवाद
यह श्लोक वेद से पृथक्-लोक में छन्दों का नया जन्म था। इस प्रकार कहते हुए उनके हृदय में महान् चिन्ता हो गयी। “ओह! पक्षी के शोक से पीड़ित मैंने यह क्या कह दिया।” इसी बीच वेदमूर्ति चतुर्मुख ब्रह्मा ने महामुनि के पास जाकर मुस्कराते हुए कहा-“हे महामुने! पीड़ितों पर दया करेंना महापुरुषों का स्वाभाविक धर्म है। श्लोक बोलते हुए तुमने इसी धर्म का पालन किया है। तो इस विषय में सोच नहीं करना चाहिए। सरस्वती मेरी इच्छा से ही तुममें प्रवृत्त हुई हैं। अब जैसा तुमने नारद जी से सुना है, वैसा तुम भगवान् रामचन्द्रजी के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन करो। मेरी कृपा से तुम्हें सम्पूर्ण रामचरित ज्ञात हो जाएगा। अधिक क्या? जब तक पृथ्वी (UPBoardSolutions.com) पर पर्वत, नदी और समुद्र रहेंगे, तब तक संसार में राम की कथा चलती रहेगी।’ ऐसा आदेश देकर भगवान् ब्रह्मा अन्तर्धान हो गये। तब योगबल से नारद जी के द्वारा बताये गये सम्पूर्ण रामचरित को जानकर गंगा और तमसा के मध्य स्थित तट पर सात काण्डों वाले ‘रामायण’ नाम के इस महाकाव्य की रचना की। इसके अतिरिक्त मुनि के विश्राम के लिए दो दूसरे आश्रम थे। एक चित्रकूट पर, दूसरा कानपुर मण्डल के अन्तर्गत ब्रह्मावर्तान्त (ब्रह्मावर्त्त) आधुनिक नाम बिठूर के स्थान पर था। यहीं पर लव-कुश का जन्म हुआ था। इस प्रकार महामुनि ब्रह्मर्षि (वाल्मीकि) संसार में आदिकवि के यश से प्रसिद्ध हो गये।

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