UP Board Solutions for Class 10 Hindi समस्या-आधारित निबन्ध

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समस्या-आधारित निबन्ध

18. शिक्षा की वर्तमान समस्याएँ

सम्बद्ध शीर्षक

  • वर्तमान शिक्षा प्रणाली : गुण-दोष [2010]
  • 10 + 2 + 3 शिक्षा-प्रणाली
  • वर्तमान शिक्षा पालो [2011]
  • शिक्षा स्तर में गिरावट [2017]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रम में आकांक्षाओं के विपरीत परिवर्तन,
  3. कक्षा में अधिक छात्र-संख्या होना,
  4. शिक्षकों की कमी,
  5. शिक्षा को रोजगारपरक न होना,
  6. अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जुड़ाव न होना,
  7. अभिभावक-अध्यापक में अर्थपूर्ण विचार-विमर्श का अभाव,
  8. उपसंहार।

प्रस्तावना–शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व-विकास को एक समग्र और अनिवार्य प्रक्रिया है, जिससे शिक्षक और शिक्षार्थी ही नहीं, वरन् अभिभावक, समाज और राज्य भी सम्बद्ध हैं। शिक्षा वह प्रक्रिया है, जिससे मनुष्य का सन्तुलित रूप से शारीरिक, (UPBoardSolutions.com) मानसिक और आध्यात्मिक विकास तो होता ही है, साथ ही उसमें सामाजिकता का गुण भी विकसित होता है। यद्यपि शिक्षा-व्यवस्था में सुधार के लिए मुदालियर कमीशन, डॉ० राधाकृष्णन कमीशन और कोठारी आयोग जैसे अनेक आयोगों ने अपनी सिफारिशें प्रस्तुत की हैं, तथापि आजादी के छः दशक बीत जाने के क्लाद भी वर्तमान शिक्षा में अनेक • समस्याएँ आज भी बनी हुई हैं और जिस सीमा तक इसमें परिवर्तन होने चाहिए थे, वे अभी तक नहीं हो पाये हैं।

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विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रम में आकांक्षाओं के विपरीत परिवर्तन–आज जो विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रम हैं, वे वैसे ही नहीं हैं, जैसे आज से चार-पाँच दशक पहले हुआ करते थे। इसमें परिवर्तन हुए हैं, जैसे कि व्यवसायपरक शिक्षा, 10 + 2 + 3 को शिक्षा, तीन वर्षीय डिग्री कोर्स, एकीकृत कोर्स आदि। लेकिन हमारी मानसिकता शिक्षा के महत्त्व और हमारी आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं बन सकी। यह वर्तमान शिक्षा की प्रमुख समस्या है; क्योंकि जब तक समाज की मानसिकता और उसके दृष्टिकोण में आवश्यक और अनुकूल परिवर्तन नहीं होंगे, तब तक शासकीय स्तर पर लाख प्रयास करने के बाद भी हम सफल नहीं हो सकते। इसके लिए समुदाय अभिभावक, शिक्षक और प्रशासवः, सभी को शिक्षा की गुणवत्ता और महत्त्व के प्रति विशेष जागरूक होना पड़ेगा।

कक्षा में अधिक छात्र-संख्या होना-कक्षा में अधिक छात्र-संख्या का होना भी एक समस्या है। कभी-कभी 100 से 125 तक छात्र एक ही कक्षा में हो जाते हैं, जो शिक्षा के निर्धारित मानक से बहुत अधिक होते हैं। प्रायः विद्यालयों में इतने बड़े कमरे नहीं होते, जहाँ 100 से 125 छात्रों के बैठने की समुचित व्यवस्था हो सके। इससे अव्यवस्था फैलती है और शिक्षण-कार्य समुचित रूप से नहीं हो पाता।।

शिक्षकों की कमी-विद्यालयों में शिक्षकों की कमी भी आज की शिक्षा की मुख्य समस्या है। अब अधिकतर विद्यालयों में द्विपाली व्यवस्था में शिक्षण होता है, पर शिक्षक उतने ही हैं, जितने एक पाली व्यवस्था में थे। ऐसी स्थिति में उचित रूप से अध्यापन नहीं हो सकता है। अध्यापकों को अधिकांश समय पढ़ाना ही होता है; अत: उनके पास पर्याप्त समय नहीं बचता। अतः छात्रों में सुधार की सम्भावना नहीं रह जाती है।

शिक्षा का रोजगारपरक न होना–वर्तमान शिक्षा की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह छात्रों को रोजगार दिलाने में असमर्थ है। बी०ए० और एम०ए० करने के बाद छात्र शारीरिक श्रमयुक्त कार्यों को करना नहीं चाहते और उचित रोजगार की अपनी सीमितताएँ भी हैं। इस प्रकार छात्र दिग्भ्रमित होकर समाजविरोधी कार्यों में संलग्न होने लगते हैं।

अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जुड़ावन होना-अपनी मूल सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जुड़ाव न होना भी आज की शिक्षा की एक मुख्य समस्या है। आज समाज में और छात्रों में शिक्षकों के प्रति वैसी श्रद्धा नहीं है, जैसी हमारी प्राचीन संस्कृति में हुआ करती थी। आज शिक्षकों में भी वह त्याग-भाव नहीं है, जैसा पहले हुआ करता था। इसका कारण भौतिकवादी संस्कृति का बोलबाला है, जिससे छात्रों का चरित्र-निर्माण नहीं हो पा रहा है।

अभिभावक-अध्यापक में अर्थपूर्ण विचार-विमर्श का अभाव-एक बड़ी समस्या यह भी है। कि अभिभावकों को अध्यापकों से छात्रों के सम्बन्ध में उचित विचार-विमर्श नहीं हो पाता। आज का अभिभावक अपने पुत्र को विद्यालय में प्रवेश दिलाने के बाद कभी कक्षाध्यापक या विषयाध्यापक (UPBoardSolutions.com) से यह पूछने नहीं जाता कि उसका पाल्य विद्यालय में नियमित रूप से आ भी रहा है या नहीं ? उसकी प्रगति कैसी है। या हमें उसके लिए क्या करना चाहिए, जिससे वह सम्मानसहित उत्तीर्ण हो सके ? अपसंस्कृति के प्रचार में संलग्न दूरदर्शन के विदेशी चैनेलों ने छात्रों के भविष्य को अन्धकारमय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

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उपसंहार-यदि हमें शिक्षा की समस्याओं से छुटकारा पाना है तो इसके लिए सुविधा की उपलब्धता, सहभागिता, प्रक्रिया और प्रबन्धन में समन्वय स्थापित करना ही होगा। शिक्षकों को भी अपने कार्य के प्रति समर्पित होना होगा और ट्यूशन की महामारी से बचकर अपना पूरा ध्यान शिक्षण-कार्य में लगाना होगा। यदि शिक्षक अपने कार्य के प्रति समर्पित होगा, तो उसके हाथों से निर्मित नयी पीढ़ी के व्यक्तित्व का उचित विकास हो सकेगा और समस्याओं का समाधान भी हो जाएगा, किन्तु यह दायित्व केवल शिक्षक का नहीं है। यह छात्र, अभिभावक, प्रशासन, समाज और सरकार का भी दायित्व है कि शिक्षा की वर्तमान समस्याओं से अति शीघ्र निबटा जाए।

19. दहेज-प्रथा : एक आभशाप [2012, 13, 15]

सम्बद्ध शीर्षक

  • दहेज प्रथा का प्रभाव
  • दहेज-प्रथा : कारण और निवारण

रूपरेखा

  1. प्रस्तावना,
  2. दहेज-प्रथा का स्वरूप,
  3. दहेज-प्रथा की विकृति के कारण,
  4. दहेज-प्रथा से हानियाँ,
  5. दहेज-प्रथा को समाप्त करने के उपाय,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-दहेज-प्रथा यद्यपि प्राचीन काल से ही चली आ रही है, परन्तु वर्तमान काल में इसने जैसा विकृत रूप धारण कर लिया है, उसकी कल्पना भी किसी ने न की थी। हिन्दू समाज के लिए आज यह एक अभिशाप बन गया है, जो समाज को अन्दर से खोखला करता (UPBoardSolutions.com) जा रहा है। अनेक समाज-सुधारकों द्वारा इसे रोकने के भरसक प्रयत्न किये गये, परन्तु भौतिक उन्नति के साथ-साथ यह कुप्रथा विकराल रूप धारण करती जा रही है। अत: इस समस्या के स्वरूप, कारणों एवं समाधान पर विचार करना नितान्त आवश्यक है।

दहेज-प्रथा का स्वरूप-कन्या के विवाह के अवसर पर कन्या के माता-पिता वर-पक्ष के सम्मानार्थ जो दान-दक्षिणा भेटस्वरूप देते हैं, वह दहेज कहलाता है। यह प्रथा बहुत प्राचीन है। ‘श्रीरामचरितमानस’ के अनुसार, जानकी जी को विदा करते समय महाराज जनक ने भी प्रचुर दहेज दिया था, जिसमें धन-सम्पत्ति, हाथी-घोड़े, खाद्य-पदार्थ आदि के साथ दास-दासियाँ भी थीं। यही दहेज का वास्तविक स्वरूप है, किन्तु आज इसका स्वरूप अत्यधिक विकृत हो चुका है। आज वर-पक्ष अपनी माँगों की लम्बी सूची कन्या-पक्ष के सामने रखता है, जिसके पूरा न होने पर विवाह टूट जाता है। आज तो स्थिति यहाँ तक विकृत हो चुकी है कि इच्छित दहेज पाकर भी कई पति अपनी पत्नी को प्रताड़ित करते हैं और उसे आत्महत्या तक के लिए विवश कर देते हैं।

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दहेज-प्रथा की विकृति के कारण–दहेज-प्रथा का जो विकृततम रूप आज दीख पड़ता है, उसके अनेक कारण हैं, जिनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं–
(क) भौतिकवादी जीवन-दृष्टि–अंग्रेजी शिक्षा के अन्धाधुन्ध प्रचार के फलस्वरूप लोगों का जीवन पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होकर घोर भौतिकवादी बन गया है, जिसमें धन और सांसारिक सुख-भोग की ही प्रधानता हो गयी है। यही दहेज-प्रथा की विकृति का सबसे प्रमुख कारण है।
(ख) वर-चयन का क्षेत्र सीमित-हिन्दुओं में विवाह अपनी ही जाति में करने की प्रथा है। फलतः वर-चयन का क्षेत्र बहुत सीमित हो जाता है। अपनी कन्या के लिए अधिकाधिक योग्य वर प्राप्त करने की चाहत, लड़के वालों को दहेज माँगने हेतु प्रेरित करती है।
(ग) विवाह की अनिवार्यता–हिन्दू-समाज में कन्या का विवाह माता-पिता का पवित्र दायित्व माना जाता है। यदि कन्या अधिक आयु तक अविवाहित रहे तो समाज माता-पिता की निन्दा करने लगता है। फलतः कन्या के हाथ पीले करने की चिन्ता वर-पक्ष द्वारा उनके शोषण के रूप में सामने आती है।

दहेज-प्रथा से हानियाँ-दहेज-प्रथा की विकृति के कारण आज सारे समाज में एक भूचाल-सा आ गया है। इससे समाज को भीषण आघात पहुँच रहा है। इससे होने वाली प्रमुख हानियाँ निम्नलिखित हैं
(क) नवयुवतियों का प्राण-नाश-समाचार-पत्रों में प्राय: प्रतिदिन ही दहेज के कारण किसीन-किसी नवविवाहिता को जीवित जला डालने अथवा मार डालने के एकाधिक हृदयविदारक समाचार निकलते ही रहते हैं। इस कुप्रथा के कारण न जाने कितनी ललनाओं का जीवन नष्ट हो गया है।
(ख) ऋणग्रस्तता-दहेज जुटाने की विवशता के कारण कितने ही माता-पिताओं की कमर आर्थिक दृष्टि से टूट जाती है, उनके रहने के मकान बिक जाते हैं या वे ऋणग्रस्त हो जाते हैं और इस प्रकार कितने ही सुखी परिवारों की सुख-शान्ति सदा के लिए नष्ट हो जाती है।
(ग) भ्रष्टाचार को बढ़ावा-इस प्रथा के कारण भ्रष्टाचार को भी प्रोत्साहन मिला है। कन्या के दहेज के लिए अधिक धन जुटाने की विवशता में पिता भ्रष्टाचार का आश्रये लेता है।
(घ) अविवाहित रहने की विवशता-दहेजरूपी दानव के कारण कितनी ही सुयोग्य लड़कियाँ अविवाहित जीवन बिताने को विवश हो जाती हैं। अक्सर माता-पिता को अपनी सुन्दर-सुयोग्य-सुशिक्षिता कन्या को किसी कुरूप-अयोग्य अल्पशिक्षित युवक से ब्याहना पड़ता है जिससे उसका जीवन नीरस हो जाती है।

दहेज-प्रथा को समाप्त करने के उपाय-दहेज स्वयं में गर्हित वस्तु नहीं, यदि वह स्वेच्छया प्रदत्त हो। पर आज जो उसका विकृत रूप दीख पड़ता है, वह अत्यधिक निन्दनीय है। इसे मिटाने के लिए निम्नलिखिते उपाय उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं
(क) जीवन के भौतिकवादी दृष्टिकोण में परिवर्तन-जीवन के घोर भौतिकवादी दृष्टिकोण को बदलना होगा। अपरिग्रह और त्याग की भावना पैदा करनी होगी। इसके लिए हम बंगाल, महाराष्ट्र एवं दक्षिण का उदाहरण ले सकते हैं। ऐसी घटनाएँ इन प्रदेशों में प्रायः सुनने को नहीं मिलती।
(ख) कन्या को स्वावलम्बी बनाना–वर्तमान भौतिकवादी परिस्थिति में कन्या को उचित शिक्षा देकर आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनाना भी नितान्त प्रयोजनीय है। इससे यदि उसे योग्य और मनोनुकूल वर नहीं मिल पाता तो वह अविवाहित रहकर भी स्वाभिमानपूर्वक अपना जीवनयापन कर सकती है।
(ग) नवयुवकों को स्वावलम्बी बनाना-दहेज की माँग प्रायः युवक के माता-पिता करते हैं। इसलिए युवक को स्वावलम्बी बनने की प्रेरणा देकर उसमें आदर्शवाद जगाया जा सकता है। इससे वधू के मन में भी अपने पति के लिए सम्मान पैदा होगा।
(घ) वर-चयन में यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना-कन्या के माता-पिता को चाहिए कि वे अपनी कन्या के रूप, गुण, शिक्षा, समता एवं अपनी आर्थिक स्थिति का विचार करके ही यथार्थवादी दृष्टि से वर का चुनाव करें।
(ङ) विवाह-विच्छेद के नियम अधिक उदार बनाना–हिन्दू-विवाह के विच्छेद का कानून पर्याप्त जटिल और समयसाध्य है। नियम इतने सरल होने चाहिए कि पति-पत्नी में तालमेल न बैठने की स्थिति में दोनों को सम्बन्ध-विच्छेद सुविधापूर्वक हो सके।
(च) कठोर दण्ड और सामाजिक बहिष्कार—अक्सर देखने में आता है कि दहेज के अपराधी कानूनी जटिलताओं के कारण साफ बच जाते हैं। अत: समाज को भी इतना जागरूक बनना पड़ेगा कि जिस घर में बहू की हत्या की गयी हो उसका पूर्ण सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाए।

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उपसंहार-निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि दहेज-प्रथा एक अभिशाप है, जिसे मिटाने के लिए समाज और शासन के साथ-साथ प्रत्येक युवक और युवती को भी कटिबद्ध होना पड़ेगा। जब तक समाज में जागृति नहीं आएगी, दहेज-प्रथा के दैत्य से मुक्ति पाना कठिन है। (UPBoardSolutions.com) राजनेताओं, समाज-सुधारकों तथा युवक-युवतियों सभी के सहयोग से दहेज-प्रथा का अन्त हो सकता है। सम्प्रति, समाज में नव-जागृति आयी है और इस दिशा में सक्रिय कदम उठाये जा रहे हैं।

20. आतंकवाद

सम्बद्ध शीर्षक

  • मानवता के लिए एक चुनौती
  • भारत में आतंकवाद की समस्या
  • आतंकवाद और नागरिक सुरक्षा [2010]
  • आतंकवाद और देश की सुरक्षा [2010]
  • आतंकवाद से मुक्ति के उपाय [2010]
  • आतंकवाद का समाधान
  • आतंकवाद : कारण और निवारण [2011]

रूपरेखा—

  1. प्रस्तावना,
  2. आतंकवाद का अर्थ,
  3. आतंकवाद : एक विश्वव्यापी समस्या,
  4. भारत में आतंकवाद,
  5. आतंकवाद के विविध रूप,
  6. आतंकवाद का समाधान,
  7. उपसंहा।

प्रस्तावना – मनुष्य भय से निष्क्रिय और पलायनवादी बन जाता है, इसीलिए लोगों में भय उत्पन्न करके कुछ असामाजिक तत्त्व अपने नीच स्वार्थों की पूर्ति करने का प्रयास करने लगते हैं। इस कार्य के लिए वे हिंसापूर्ण साधनों का प्रयोग करते हैं। ऐसी स्थितियाँ ही आतंकवाद का आधार हैं। आतंक फैलाने वाले आतंकवादी कहलाते हैं। ये कहीं से बनकर नहीं आते; ये भी समाज के एक ऐसे अंग हैं जिनका काम आतंकवाद के माध्यम से किसी धर्म, समाज अथवा राजनीति का समर्थन कराना होता है। ये शासन को विरोध करने में बिलकुल नहीं हिचकते तथा जनता को अपनी बात मनवाने के लिए विवश करते रहते हैं।

आतंकवाद का अर्थ-‘आतंक + वाद’ से बने इस शब्द का सामान्य अर्थ है-आतंक का सिद्धान्त। यह्ग्रे जी के ‘टेररिज्म’ शब्द का हिन्दी रूपान्तर हैं। ‘आतंक’ का अर्थ होता है-पीड़ा, डर, आशंका। इस प्रकार आतंकवाद एक ऐसी विचारधारा है, जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के (UPBoardSolutions.com) लिए बल-प्रयोग में विश्वास रखती है। ऐसा वल-प्रयोग प्राय: विरोधी वर्ग, समुदाय या सम्प्रदाय को भयभीत करने और उस पर । अपनी प्रभुता स्थापित करने की दृष्टि से किया जाता है।

आतंकवाद : एक विश्वव्यापी समस्या–आज लगभग समस्त विश्व में आतंकवादी सक्रिय हैं। ये आतंकवादी समस्त विश्व में राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए सार्वजनिक हिंसा और हत्याओं का सहारा ले रहे हैं। भौतिक दृष्टि से विकसित देशों में तो आतंकवाद की इस प्रवृत्ति ने विकराल रूप ले लिया है। कुछ आतंकवादी गुटों ने तो अपने अन्तर्राष्ट्रीय संगठन बना लिए हैं। जे० सी० स्मिथ अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘लीगल कण्ट्रोल ऑफ इण्टरनेशनल टेररिज्म’ में लिखते हैं कि इस समय संसार में जैसा तनावपूर्ण वातावरण बना हुआ है, उसको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भविष्य में अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद में और तेजी आएगी, किसी देश द्वारा अन्य देशों में आतंकवादी गुटों को समर्थन देने की घटनाएँ बढ़ेगी; राजनीतिज्ञों की हत्याएँ, विमान-अपहरण की घटनाएँ बढ़ेगी और रासायनिक हथियारों का प्रयोग अधिक तेज होगा। जापान में रेड आर्मी, भारत में स्वतन्त्र कश्मीर चाहने वालों, माओवादियों, नक्सलवादियों आदि के हिंसात्मक संघर्ष जैसे क्रियाकलाप आतंकवाद की श्रेणी में आते हैं।

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भारत में आतंकवाद-स्वाधीनता के पश्चात् भारत के विभिन्न भागों में अनेक आतंकवादी संगठनों द्वारा आतंकवादी हिंसा फैलायी गयी। इन्होंने बड़े-बड़े सरकारी अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया और इतना आतंक फैलाया कि अनेक अधिकारियों ने सेवा से त्याग-पत्र दे दिये। भारत के पूर्वी राज्यों-नागालैण्ड, मिजोरम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश और असम (असोम) में भी अनेक बार उग्र आतंकवादी हिंसा फैली; किन्तु अब यहाँ असम (असोम) के बोडो आतंकवाद को छोड़कर शेष सभी शान्त हैं। बंगाल के नक्सलवाड़ी से जो नक्सलवादी आतंकवाद पनपा था, वह बंगाल से बाहर भी खूब फैला। बिहार तथा आन्ध्र प्रदेश अभी भी उसकी भयंकर आग से झुलस रहे हैं।

कश्मीर घाटी में भी पाकिस्तानी तत्त्वों द्वारा प्रेरित आतंकवादी प्राय: राष्ट्रीय पर्वो (15 अगस्त, 26 : जनवरी, 2 अक्टूबर आदि) पर भयंकर हत्याकाण्ड कर अपने अस्तित्व की घोषणा करते रहते हैं। स्वातन्त्र्योत्तर आतंकवादी गतिविधियों में सबसे भयंकर रहा पंजाब का आतंकवाद। बीसवीं शताब्दी की नवीं दशाब्दी में पंजाब में जो कुछ हुआ, उससे पूरा देश विक्षुब्ध और हतप्रभ हो उठा। श्रीमती इन्दिरा गाँधी की । हत्या के बाद श्री राजीव गाँधी को भी इसी प्रकार के आतंकवादी षड्यन्त्र का शिकार होना पड़ा। .

आतंकवाद के विविध रूप-भारत के ‘आतंकवादी गतिविधि निरोधक कानून, 1985 में । आतंकवाद पर विस्तार से विचार किया गया है और आतंकवाद को तीन भागों में बाँटा गया है–
(1) समाज के एक वर्ग-विशेष को अन्य वर्गों से अलग-थलग करने और समाज के विभिन्न वर्गों के बीच व्याप्त आपसी सौहार्द को खत्म करने के लिए की गयी हिंसा।।
(2) ऐसा कोई कार्य, जिसमें ज्वलनशील बम तथा आग्नेयास्त्रों का प्रयोग किया गया हो।
(3) ऐसी हिंसात्मक कार्यवाही, जिसमें एक या उससे अधिक व्यक्ति मारे गये हों या घायल हुए हों, आवश्यक सेवाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा हो तथा सम्पत्ति को हानि पहुँची हो।

आतंकवाद का समाधान-भारत में विषमतम स्थिति तक पहुँचे आतंकवाद के समाधान पर सम्पूर्ण देश के विचारकों और चिन्तकों ने अनेक सुझाव रखे, किन्तु यह समस्या अभी भी अनसुलझी ही है।

इस समस्या का वास्तविक हल ढूँढ़ने के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि साम्प्रदायिकता (UPBoardSolutions.com) का लाभ उठाने वाले सभी राजनीतिक दलों की गतिविधियों में परिवर्तन हो। साम्प्रदायिकता के दोष से आज भारत के सभी राजनीतिक दल न्यूनाधिक रूप में दूषित अवश्य हैं।

दूसरे, सीमा-पार से प्रशिक्षित आतंकवादियों के प्रवेश और वहाँ से भेजे जाने वाले हथियारों व विस्फोटक पदार्थों पर कड़ी चौकसी रखनी होगी तथा सुरक्षा बलों को आतंकवादियों की अपेक्षा अधिक अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से लैस करनी होगा।

तीसरे, आतंकवाद को महिमामण्डित करने वाली युवकों की मानसिकता बदलने के लिए आर्थिक सुधार करने होंगे।

चौथे, राष्ट्र की मुख्य धारा के अन्तर्गत संविधान का पूर्णतः पालन करते हुए पारस्परिक विचारविमर्श से सिक्खों, कश्मीरियों और असमियों की माँगों का न्यायोचित समाधान करना होगा और तुष्टीकरण की नीति को त्याग कर समग्र राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता की भावना को जाग्रत करना होगा।

यदि सम्बन्धित पक्ष इन बातों का ईमानदारी से पालन करें तो इस महारोग से मुक्ति सम्भव है।

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उपसंहार–यह एक विडम्बना ही है कि महावीर, बुद्ध, गुरु नानक और महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषों की जन्मभूमि पिछले कुछ दशकों से सबसे अधिक अशान्त हो गयी है। देश की 125 करोड़ जनता ने हिंसा की सत्ता को स्वीकार करते हुए इसे अपने दैनिक जीवन का अंग मान लिया है। भारत के विभिन्न भागों में हो। रही आतंकवादी गतिविधियों ने देश की एकता और अखण्डता के लिए संकट उत्पन्न कर दिया है। आतंकवाद का समूल नाश ही इस समस्या का समाधान है। टाडा के स्थान पर भारत सरकार द्वारा एक नया आतंकवाद निरोधक कानून लाया गया है। लेकिन ये सख्त और व्यापक कानून भी आतंकवाद को समाप्त करने की गारण्टी नहीं है। आतंकवाद पर सम्पूर्णता से अंकुश लगाने की इच्छुक सरकार को अपने उस प्रशासनिक तन्त्र को भी बदलने पर विचार करना चाहिए, जो इन कानूनों पर (UPBoardSolutions.com) अमल करता है, तब ही इस समस्या का स्थायी समाधान निकल पाएगा। .

21. जनसंख्या-वृद्धि की समस्या

सम्बद्ध शीर्षक

  • जनसंख्या वृद्धि : एक राष्ट्रीय समस्या
  • बढ़ती आबादी-घटती सुविधाएँ [2009, 16]
  • जनसंख्या नियोजन
  • बढ़ती आबादी : एक समस्या
  • जनसंख्या वृद्धि और पर्यावरण
  • भारत में बढ़ती जनसंख्या : एक विकराल समस्या [2016]

रूपरेखा

  1. प्रस्तावना,
  2. जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न समस्याएँ,
  3. जनसंख्या वृद्धि के कारण,
  4. जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करने के उपाय,
  5. उपसंहारी

प्रस्तावना-जनसंख्या वृद्धि की समस्या भारत के सामने विकराल रूप धारण करती जा रही है। सन् 1930-31 में अविभाजित भारत की जनसंख्या 20 करोड़ थी, जो अब केवल भारत में ही 125 करोड़ से ऊपर पहुँच चुकी है। जनसंख्या की इस अनियन्त्रित वृद्धि के साथ दो समस्याएँ मुख्य रूप से जुड़ी हुई हैं(1) सीमित भूमि तथा (2) सीमित आर्थिक संसाधन। अनेक अन्य समस्याएँ भी इसी समस्या से अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हैं; जैसे—समस्त नागरिकों की (UPBoardSolutions.com) शिक्षा, स्वच्छता, चिकित्सा एवं अच्छा वातावरण उपलब्ध कराने की समस्या। इन समस्याओं का निदान न होने के कारण भारत क्रमश: एक अजायबघर बनता जा रहा है जहाँ चारों ओर व्याप्त अभावग्रस्त, अस्वच्छ एवं अशिष्ट परिवेश से किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को विरक्ति हो उठती है और मातृभूमि की यह दशा लज्जा का विषय बन जाती है।

जनसंख्या-वृद्धि से उत्पन्न समस्याएँ-विनोबा जी ने कहा था, “जो बच्चा एक मुँह लेकर पैदा होती है, वह दो हाथ लेकर आता है।” आशय यह है कि दो हाथों से पुरुषार्थ करके व्यक्ति अपना एक मुँह तो भर ही सकता है। पर यह बात देश के औद्योगिक विकास से जुड़ी है। यदि देश की अर्थव्यवस्था बहुत सुनियोजित हो तो वहाँ रोजगार के अवसरों की कमी नहीं रहती। अब बड़ी मशीनों और उनसे भी अधिक शक्तिशाली कम्प्यूटरों के कारण लाखों लोग बेरोजगार हो गये और अधिकाधिक होते जा रहे हैं। आजीविका की समस्या के अतिरिक्त जनसंख्या वृद्धि के साथ एक ऐसी समस्या भी जुड़ी हुई है जिसका समाधान किसी के पास नहीं और वह है भूमि सीमितता की समस्या। भारत का क्षेत्रफल विश्व भू-भाग को कुल 2.4 प्रतिशत ही है, जब कि यहाँ की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या की लगभग 17 प्रतिशत है; अत: कृषि के लिए भूमि का अभाव हो गया है। इसके परिणामस्वरूप भारत की सुख-समृद्धि में योगदान देने वाले अमूल्य जंगलों को काटकर लोग उससे प्राप्त भूमि पर खेती करते जा रहे हैं, जिससे अमूल्य वन-सम्पदा का विनाश, दुर्लभ वनस्पतियों का अभाव, पर्यावरण प्रदूषण की समस्या, वर्षा पर कुप्रभाव एवं अमूल्य जंगली जानवरों के वंशलोप का भय उत्पन्न हो गया है।

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जनसंख्या-वृद्धि के कारण प्राचीन भारत में आश्रम-व्यवस्था द्वारा मनुष्य के व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन को नियन्त्रित कर व्यवस्थित किया गया था। सौ वर्ष की सम्भावित आयु का केवल चौथाई भाग (25 वर्ष) ही गृहस्थाश्रम के लिए था। व्यक्ति का शेष जीवन शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों के विकास तथा समाज-सेवा में ही बीतता था। गृहस्थ जीवन में भी संयम पर बल दिया जाता था। इस प्रकार प्राचीन भारत का जीवन मुख्यत: आध्यात्मिक और सामाजिक था, जिसमें व्यक्तिगत सुख-भोग की गुंजाइश कम थी। आज परिस्थिति उल्टी है। आश्रम-व्यवस्था के नष्ट हो जाने के कारण लोग युवावस्था से लेकर मृत्युपर्यन्त गृहस्थ ही बने रहते हैं, जिससे सन्तानोत्पत्ति में वृद्धि हुई है। दूसरे, हिन्दू धर्म में पुत्र-प्राप्ति को मोक्ष या मुक्ति में सहायक माना गया है। इसलिए पुत्र न होने पर सन्तानोत्पत्ति का क्रम जारी (UPBoardSolutions.com) रहता है तथा अनेक पुत्रियों का जन्म हो जाता है।

ग्रामों में कृषि-योग्य भूमि सीमित है। सरकार द्वारा भारी उद्योगों को बढ़ावा दिये जाने से हस्तशिल्प और कुटीर उद्योग चौपट हो गये हैं, जिससे गाँवों को आर्थिक ढाँचा लड़खड़ा गया है और ग्रामीण युवक नगरों की ओर भाग रहे हैं, जो कृत्रिम पाश्चात्य जीवन-पद्धति का प्रचार कर वासनाओं को उभारता है। इसके अतिरिक्त बाल-विवाह, गर्म जलवायु, रूढ़िवादिता, चिकित्सा-सुविधाओं के कारण मृत्यु-दर में कमी आदि भी जनसंख्या वृद्धि की समस्या को विस्फोटक बनाने में सहायक सिद्ध हुए हैं।

जनसंख्या-वृद्धि को नियन्त्रित करने के उपाय-जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करने का सबसे स्वाभाविक और कारगर उपाय तो संयम या ब्रह्मचर्य ही है; किन्तु वर्तमान भौतिकवादी युग में, जहाँ अर्थ और काम ही जीवन का लक्ष्य बन गये हैं, ब्रह्मचर्य-पालन आकाश-कुसुम सदृश हो गया है। अशिक्षा और बेरोजगारी इसे हवा दे ही रही हैं। फलतः सबसे पहले आवश्यकता इस बात की है कि भारत अपने प्राचीन स्वरूप को पहचानकर अपनी प्राचीन संस्कृति को उज्जीवित करे। इससे नैतिकता को बल मिलेगा।

भारी उद्योग उन्हीं देशों के लिए उपयोगी हैं जिनकी जनसंख्या बहुत कम है। भारत जैसे विपुल जनसंख्या वाले देश में लघु एवं कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है, जिससे अधिकाधिक लोगों को रोजगार मिल सके। इससे लोगों की आय बढ़ने के साथ-साथ उनका जीवन-स्तर भी सुधरेगा और सन्तानोत्पत्ति में पर्याप्त कमी आएगी।

जनसंख्या-वृद्धि को नियन्त्रित करने के लिए लड़के-लड़कियों की विवाह-योग्य आयु बढ़ाना भी उपयोगी रहेगा। पुत्र-प्राप्ति के लिए सन्तानोत्पत्ति का क्रम बनाये रखने की अपेक्षा छोटे परिवार को ही सुखी जीवन का आधार बनाया जाना चाहिए।

वर्तमान युग में जनसंख्या की अति त्वरित-वृद्धि पर तत्काल प्रभावी नियन्त्रण के लिए गर्भ-निरोधक ओषधियों एवं उपकरणों का प्रयोग आवश्यक हो गया है। सरकार ने अस्पतालों और चिकित्सालयों में नसबन्दी की व्यवस्था की है तथा परिवार नियोजन से सम्बद्ध कर्मचारियों के प्रशिक्षण के लिए केन्द्र एवं राज्य स्तर पर अनेक प्रशिक्षण संस्थान भी खोले हैं।

उपसंहार-जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करने का वास्तविक स्थायी उपाय तो सरल और सात्त्विक जीवन-पद्धति अपनाने में ही निहित है, जिसे प्रोत्साहित करने के लिए सरकार को ग्रामों के आर्थिक विकास पर विशेष ध्यान देना चाहिए। वस्तुत: ग्रामों के सहज प्राकृतिक वातावरण में संयम जितना सरल है, उतना शहरों के घुटन भरे आडम्बरयुक्त जीवन में नहीं । शहरों में भी प्रचार माध्यमों द्वारा प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रचार एवं स्वदेशी भाषाओं की शिक्षा पर ध्यान देने के साथ-साथ ही परिवार नियोजन के कृत्रिम उपायों . पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जनसंख्या-वृद्धि की दर घटाना (UPBoardSolutions.com) आज के युग की सर्वाधिक जोरदार माँग है, जिसकी उपेक्षा आत्मघाती होगी।

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22. बेरोजगारी की समस्या [2016]

सम्बद्ध शीर्षक

  • बेकारी : कारण और निवारण
  • बेकारी : एक अभिशाप
  • बेरोजगारी की समस्या और समाधान [2011,16]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. बेरोजगारी से तात्पर्य,
  3. समस्या के कारण,
  4. समस्या का समाधान,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना-स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद से ही हमारे देश को अनेक समस्याओं का सामना करना • पड़ा है। इनमें से कुछ समस्याओं का तो समाधान कर लिया गया है, किन्तु कुछ समस्याएँ निरन्तर विकट रूप लेती जा रही हैं। बेरोजगारी की समस्या भी ऐसी ही एक समस्या है। हमारे यहाँ अनुमानत: लगभग 50 लाख व्यक्ति प्रति वर्ष बेरोजगारों की पंक्ति में खड़े हो जाते हैं। हमें शीघ्र ही ऐसे उपाय करने होंगे, जिससे इस समस्या की तीव्र गति को रोका जा सके।

बेरोजगारी से तात्पर्यबेरोजगारी एक ऐसी स्थिति है, जब व्यक्ति अपनी जीविका के उपार्जन के । लिए काम करने की इच्छा और योग्यता रखते हुए भी काम प्राप्त नहीं कर पाता। यह स्थिति जहाँ एक ओर पूर्ण बेरोजगारी के रूप में पायी जाती है, वहीं दूसरी ओर यह अल्प बेरोजगारी या मौसमी बेरोजगारी के रूप में भी देखने को मिलती है। अल्प तथा मौसमी बेरोजगारी के अन्तर्गत या तो व्यक्ति को, जो सामान्यत: 8 घण्टे कार्य करना चाहता है, 2 या 3 (UPBoardSolutions.com) घण्टे ही कार्य मिलता है या वर्ष में 3-4 महीने ही उसके पास काम रहता है। दफ्तरों में कार्य पाने के इच्छुक शिक्षित बेरोजगारों की संख्या भी करोड़ों में है, जिसमें लगभग एक करोड़ स्नातक तथा उससे अधिक शिक्षित हैं।

समस्या के कारण-भारत में बेरोजगारी की समस्या के अनेक कारण हैं, जो निम्नलिखित हैं
(क) जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि–बेरोजगारी का पहला और सबसे मुख्य कारण जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि का होना है, जब कि रिक्तियों की संख्या उस अनुपात में नहीं बढ़ पाती है। भारत में जनसंख्या लगभग 2.0% वार्षिक की दर से बढ़ रही है, जिसके लिए 50 लाख व्यक्तियों को प्रतिवर्ष रोजगार देने की आवश्यकता है, जबकि रोजगार प्रतिवर्ष केवल 5-6 लाख लोगों को ही उपलब्ध हो पाता है।
(ख) दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली—हमारी शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है, जिसके कारण, शिक्षित बेरोजगारों की संख्या बढ़ रही है। यहाँ व्यवसाय-प्रधान शिक्षा का अभाव है। हमारे स्कूल और कॉलेज केवल लिपिकों को पैदा करने वाले कारखाने-मात्र बन गये हैं।
(ग) लघु तथा कुटीर उद्योगों की अवनति–बेरोजगारी की वृद्धि में लघु और कुटीर उद्योगों की अवनति का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है। अंग्रेजों ने अपने शासन-काल में ही भारत के कुटीर उद्योगों को पंगु बना दिया था। इसलिए इन कामों में लगे श्रमिक धीरे-धीरे इन उद्योगों को छोड़ रहे हैं। इससे भी बेरोजगारी की समस्या बढ़ रही है।
(घ) यन्त्रीकरण और औद्योगिक क्रान्ति–यन्त्रीकरण ने असंख्य लोगों के हाथों से काम छीनकर उन्हें बेरोजगार बना दिया है। अब देश में स्वचालित मशीनों की बाढ़-सी आ गयी है। एक मशीन कई श्रमिकों को कार्य स्वयं निपटा देती है। हमारा देश कृषिप्रधान देश है। कृषि में भी यन्त्रीकरण हो रहा है, जिसके फलस्वरूप बहुत बड़ी संख्या में कृषक-मजदूर भी रोजगार की तलाश में भटक रहे हैं।

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उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त और भी अनेक कारण इस समस्या को विकराल रूप देने में उत्तरदायी रहे हैं; जैसे—त्रुटिपूर्ण नियोजन, उद्योगों व व्यापार का अपर्याप्त विकास तथा विदेशों से भारतीयों का निकाला जाना। महिलाओं द्वारा नौकरी में प्रवेश से भी पुरुषों में बेरोजगारी बढ़ी हैं।

समस्या का समाधान–बेरोजगारी की समस्या को दूर करने के लिए निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये जा सकते हैं
(क) जनसंख्या-वृद्धि पर नियन्त्रण बेरोजगारी को कम करने का सर्वप्रमुख उपाय जनसंख्यावृद्धि पर रोक लगाना है। इसके लिए जन-साधारण को छोटे परिवार की अच्छाइयों की ओर आकर्षित किया जाना चाहिए। ऐसा करने पर बेरोजगारी की बढ़ती गति में अवश्य ही कमी आएगी।
(ख) शिक्षा-प्रणाली में परिवर्तन-भारत में शिक्षा-प्रणाली को परिवर्तित कर उसे रोजगारउन्मुख बनाया जाना चाहिए। इसके लिए व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा का विस्तार किया जाना चाहिए, जिससे शिक्षा पूर्ण करने के बाद विद्यार्थी को अपनी योग्यतानुसार जीविकोपार्जन (UPBoardSolutions.com) का कार्य मिल सके।
(ग) कुटीर और लघु उद्योगों का विकास–बेरोजगारी कम करने के लिए यह अति आवश्यक है। कि कुटीर तथा लघु उद्योगों का विकास किया जाए। सरकार द्वारा धन, कच्चा माल, तकनीकी सहायता देकर तथा इनके तैयार माल की खपत कराकर इन उद्योगों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
(घ) कृषि के सहायक उद्योग-धन्धों का विकास–कृषिप्रधान देश होने के कारण भारत में कृषि में अर्द्ध-बेरोजगारी वे मौसमी बेरोजगारी है। इसको दूर करने के लिए मुर्गी पालन, मत्स्य पालन, दुग्ध व्यवसाय, बागवानी आदि को कृषि के सहायक उद्योग-धन्धों के रूप में विकसित किया जाना चाहिए।
(ङ) निर्माण कार्यों का विस्तार–सरकार को सड़क निर्माण, वृक्षारोपण, सिंचाई के लिए नहरों के निर्माण आदि की योजनाओं को कार्यान्वित करते रहना चाहिए, जिससे बेरोजगार व्यक्तियों को काम मिल सके और देश भी विकास के पथ पर अग्रेसर हो सके।

इनके अतिरिक्त, बेरोजगारी की समस्या को दूर करने के लिए सरकार को प्राकृतिक साधनों और भण्डारों की खोज करनी चाहिए और उन सम्भावनाओं का पता लगाना चाहिए, जिनसे नवीन उद्योग स्थापित किये जा सकें। गाँवों में बिजली की सुविधाएँ प्रदान की जाएँ, जिससे वहाँ छोटे-छोटे लघु उद्योग पनप सकें।

उपसंहार-संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जन्म-दर में कमी करके, शिक्षा का व्यवसायीकरण करके तथा देश के स्वायत्तशासी ढाँचे और लघु उद्योग-धन्धों के प्रोत्साहन से ही बेरोजगारी की समस्या का स्थायी समाधान सम्भव है। जब तक इस समस्या का उचित समाधान नहीं होगा, तब तक समाज में न तो सुख-शान्ति रहेगी और ने राष्ट्र का व्यवस्थित एवं अनुशासित ढाँचा खड़ा हो सकेगा। अत: इस दिशा में प्रयत्न कर रोजगार बढ़ाने के स्रोत खोजे जाने चाहिए; क्योंकि आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ नागरिक ही एक प्रगतिशील राष्ट्र के निर्माणकर्ता होते हैं।

23. भारत में भ्रष्टाचार की समस्या [2013, 14, 15]

सम्बद्ध शीर्षक

  • सामाजिक बुराई : भ्रष्टाचार [2014]
  • भ्रष्टाचार : एक राष्ट्रीय समस्या [2011]
  • भ्रष्टाचार : कारण और निवारण [2012, 13, 14]
  • भ्रष्टाचार के निराकरण के उपाय [2011, 12]
  • भ्रष्टाचार उन्मूलन [2012, 14]
  • भ्रष्टाचार देश के विकास में बाधक है। [2017]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. भ्रष्टाचार के विविध रूप,
  3. भ्रष्टाचार के कारण,
  4. भ्रष्टाचार दूर करने के उपाय,
  5. उपसंहार।

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प्रस्तावना–भ्रष्टाचार देश की सम्पत्ति की आपराधिक दुरुपयोग है। ‘भ्रष्टाचार का अर्थ है–‘भ्रष्ट आचरण’ अर्थात् नैतिकता और कानून के विरुद्ध आचरण। जब व्यक्ति को न तो अन्दर की लज्जा या धर्माधर्म का ज्ञान रहता है (जो अनैतिकता है) और न बाहर का डर रहता है (UPBoardSolutions.com) (जो कानून की अवहेलना है) तो वह संसार में जघन्य-से-जघन्य पाप कर सकता है, अपने देश, जाति व समाज को बड़ी-से-बड़ी हानि पहुँचा सकता है और मानवता को भी कलंकित कर सकता है। दुर्भाग्य से आज भारत इस भ्रष्टाचाररूपी सहस्रों मुख वाले दानव के जबड़ों में फंसकर तेजी से विनाश की ओर बढ़ता जा रहा है।

भ्रष्टाचार के विविध रूप-पहले किसी घोटाले की बात सुनकर देशवासी चौंक जाते थे, आज नहीं चौंकते। पहले घोटालों के आरोपी लोक-लज्जा के कारण अपना पद छोड़ देते थे, पर आज पकड़े जाने पर भी वे इस शान से जेल जाते हैं, जैसे किसी राष्ट्र-सेवा के मिशन पर जा रहे हों। इसीलिए समूचे प्रशासन-तन्त्र में भ्रष्ट आचरण धीरे-धीरे सामान्य बनता जा रहा है। आज भारतीय जीवन का कोई भी क्षेत्रं सरकारी या गैर-सरकारी, सार्वजनिक या निजी ऐसा नहीं जो भ्रष्टाचार से अछूता हो। यद्यपि भ्रष्टाचार इतने अगणित रूपों में मिलता है कि उसे वर्गीकृत करना सरल नहीं है, फिर भी उसे मुख्यत: निम्नलिखित वर्गों में बाँटा जा सकता है ।

(क) राजनीतिक भ्रष्टाचार–भ्रष्टाचार का सबसे प्रमुख रूप राजनीति है जिसकी छत्रछाया में भ्रष्टाचार के शेष सारे रूप पनपते और संरक्षण पाते हैं। संसार में ऐसा कोई भी कुकृत्य, अनाचार या हथकण्डा नहीं है, जो भारतवर्ष में चुनाव जीतने के लिए न अपनाया जाता हो। देश की वर्तमान दुरवस्था के लिए ये भ्रष्ट राजनेता ही दोषी हैं, जिनके कारण अनेकानेक घोटाले हुए हैं।
(ख) प्रशासनिक भ्रष्टाचार-इसके अन्तर्गत सरकारी, अर्द्ध-सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं, संस्थानों, प्रतिष्ठानों या सेवाओं में बैठे वे सारे अधिकारी आते हैं जो जातिवाद, भाई-भतीजावाद, किसी प्रकार के दबाव या अन्यान्य किसी कारण से अयोग्य व्यक्तियों की नियुक्तियाँ करते हैं, उन्हें पदोन्नत करते हैं, स्वयं अपने कर्तव्य की अवहेलना करते हैं और ऐसा करने वाले अधीनस्थ कर्मचारियों को प्रश्नय देते हैं। या अपने किसी भी कार्य या आचरण से देश को किसी मोर्चे पर कमजोर बनाते हैं।
(ग) व्यावसायिक भ्रष्टाचार-इसके अन्तर्गत विभिन्न पदार्थों में मिलावट करने वाले, घटियां माल तैयार करके बढ़िया के मोल बेचने वाले, निर्धारित दर से अधिक मूल्य वसूलने वाले, वस्तु-विशेष का कृत्रिम अभाव पैदा करके जनता को दोनों हाथों से लूटने वाले, कर चोरी करने वाले तथा अन्यान्य भ्रष्ट तौर-तरीके अपनाकर देश और समाज को कमजोर बनाने वाले व्यवसायी आते हैं।
(घ) शैक्षणिक भ्रष्टाचार-शिक्षा जैसा पवित्र क्षेत्र भी भ्रष्टाचार के संक्रमण से अछूता नहीं रहा। आज योग्यता से अधिक सिफारिश व चापलूसी का बोलबाला है। परिश्रम से अधिक बल धन में होने के कारण शिक्षा का निरन्तर पतन हो रहा है।

भ्रष्टाचार के कारण-भ्रष्टाचार सबसे पहले उच्चतम स्तर पर पनपता है और तब क्रमशः नीचे की ओर फैलता जाता है। कहावत है-‘यथाराजा तथा प्रजा’। आज यह समस्त भारतीय जीवन में ऐसा व्याप्त हो गया है कि लोग ऐसे किसी कार्यालय या व्यक्ति की कल्पना तक नहीं कर पाते, जो भ्रष्टाचार से मुक्त हो।

भ्रष्टाचार का कारण है-वह भौतिकवादी जीवन-दर्शन, जो अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से पश्चिम से आया है। यह जीवन-पद्धति विशुद्ध भोगवादी है—‘खाओ, पीओ और मौज करो’ ही इसका मूलमन्त्र है। सांसारिक सुख-भोग के लिए सर्वाधिक आवश्यक वस्तु है धन-अकूत धन, (UPBoardSolutions.com) किन्तु धर्मानुसार जीवनयापन करता हुआ कोई भी व्यक्ति अमर्यादित धन कदापि एकत्र नहीं कर सकता। किन्तु जब वह देखती है कि हर वह व्यक्ति, जो किसी महत्त्वपूर्ण पद पर बैठा है, हर उपाय से पैसा बटोरकर चरम सीमा तक विलासिता का जीवन जी रहा है, तो उसका मन भी डाँवाँडोल होने लगता है।

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भ्रष्टाचार दूर करने के उपाय-भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाये जाने चाहिए—
(क) प्राचीन भारतीय संस्कृति को प्रोत्साहन-जब तक अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से भोगवादी पाश्चात्य संस्कृति प्रचारित होती रहेगी, भ्रष्टाचार कम नहीं हो सकता। अत: सबसे पहले देशी भाषाओं की शिक्षा अनिवार्य करनी होगी, जो जीवन-मूल्यों की प्रचारक और पृष्ठपोषक हैं। इससे भारतीयों में धर्म का भाव सुदृढ़ होगा और सभी लोग धर्मभीरु व ईमानदार बनेंगे।
(ख) चुनाव प्रक्रिया में परिवर्तन-वर्तमान चुनाव पद्धति के स्थान पर ऐसी पद्धति अपनानी पड़ेगी, जिसमें जनता स्वयं अपनी इच्छा से भारतीय जीवन-मूल्यों के प्रति समर्पित ईमानदार व्यक्तियों को चुने सके। अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को चुनाव लड़ने से रोका जाए, जो विधायक या सांसद अवसरवादिता के कारण दल बदलें, उनकी सदस्यता समाप्त कर दी जाए, जाति और धर्म के नाम पर वोट माँगने वालों को प्रतिबन्धित कर दिया जाए। विधायकों-सांसदों के लिए भी (UPBoardSolutions.com) अनिवार्य योग्यता निर्धारित की जानी चाहिए।
(ग) कर-प्रणाली का सरलीकरण–सरकार ने हजारों प्रकार के कर और कोटा-परमिट प्रतिबन्ध लगा रखे हैं। फलतः व्यापारी को अनैतिक हथकण्डे अपनाने को विवश होना पड़ता है; अतः सैकड़ों करों और प्रतिबन्धों को समाप्त करके कुछ गिने-चुने कर ही लगाने चाहिए। कर-वसूली की प्रक्रिया भी इतनी सरल बनानी चाहिए कि अल्पशिक्षित व्यक्ति भी अपना कर सुविधापूर्वक जमा कर सके।
(घ) शासन और प्रशासन व्यय में कटौती-आज देश के शासन और प्रशासन (जिसमें विदेशों में स्थित भारतीय दूतावास भी सम्मिलित हैं), पर इतना अन्धाधुन्ध व्यय हो रहा है कि जनता की कमर टूटती जा रही है। इस व्यय में तत्काल कटौती की जानी चाहिए।
(ङ) देशभक्ति को प्रेरणा देना सबसे महत्त्वपूर्ण है कि वर्तमान शिक्षा-पद्धति में आमूल-चूल परिवर्तन कर विद्यार्थी को, चाहे वह किसी भी धर्म, मत या समुदाय का अनुयायी हो, उसे देशभक्ति का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए।
(च) आर्थिक क्षेत्र में स्वदेशी चिन्तन अपनाना-पंचवर्षीय योजनाओं, विराट बाँधों, बड़ी विद्युत्-परियोजनाओं आदि के साथ-साथ स्वदेशी चिन्तन-पद्धति अपनाकर अपने देश की प्रकृति, परम्पराओं और आवश्यकताओं के अनुरूप विकास-योजनाएँ बनायी जानी चाहिए।
(छ) कानून को अधिक कठोर बनाना–भ्रष्टाचार के विरुद्ध कानून को भी अधिक कठोर बनाया जाए और प्रधानमन्त्री तक को उसकी जाँच के घेरे में लाया जाना चाहिए।

उपसंहार-भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे को आता है, इसलिए जब तक राजनेता देशभक्त और सदाचारी न होंगे, भ्रष्टाचार का उन्मूलन असम्भव है। उपयुक्त राजनेताओं के चुने जाने के बाद ही पूर्वोक्त सारे उपाय अपनाये जा सकते हैं, जो भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने में पूर्णत: प्रभावी सिद्ध होंगे। यह तभी सम्भव है जब चरित्रवान् तथा सर्वस्व-त्याग और देश-सेवा की भावना से भरे लोग राजनीति में आएँगे और लोक-चेतना के साथ जीवन को जोड़ेंगे।

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24. प्राकृतिक आपदाएँ

रूपरेखा-

  1. भूमिका,
  2. आपदा का अर्थ,
  3. प्रमुख प्राकृतिक आपदाएँ : कारण और निवारण,
  4. आपदा प्रबन्धन हेतु संस्थानिक तन्त्र,
  5. उपसंहार।

भूमिका-पृथ्वी की उत्पत्ति होने के साथ मानव सभ्यता के विकास के समान प्राकृतिक आपदाओं का इतिहास भी बहुत पुराना है। मनुष्य को अनादि काल से ही प्राकृतिक प्रकोपों का सामना करना पड़ा है। ये प्रकोप भूकम्प, ज्वालामुखीय उद्गार, चक्रवात, सूखा (अकाल), बाढ़, भू-स्खलन, हिम-स्खलन आदि विभिन्न रूपों में प्रकट होते रहे हैं तथा मानव-बस्तियों के विस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करते रहे हैं। इनसे हजारों-लाखों लोगों की जाने चली जाती हैं तथा उनके मकान, सम्पत्ति आदि को पर्याप्त क्षति पहुँचती है। आज हम वैज्ञानिक रूप से कितने ही उन्नत क्यों न हो गये हों, प्रकृति के विविध प्रकोप हमें बार-बार यह स्मरण कराते हैं कि उनके समक्ष मानव कितना असहाय है।

आपदा का अर्थ—प्राकृतिक प्रकोप मनुष्यों पर संकट बनकर आते हैं। इस प्रकार संकट प्राकृतिक या मानवजनित वह भयानक घटना है, जिसमें शारीरिक चोट, मानव-जीवन की क्षति, सम्पत्ति की क्षति, दूषित वातावरण, आजीविका की हानि होती है। इसे मनुष्य द्वारा संकट, विपत्ति, विपदा, आपदा आदि अनेक रूपों में जाना जाता है। आपदा का सामान्य अर्थ संकट या विपत्ति है, जिसका अंग्रेजी पर्याय ‘disaster’ है, जो फ्रेन्च भाषा के शब्द ‘desastre’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है-बुरा या अनिष्टकारी तारा। हम प्राकृतिक खतरे (natural hazard) तथा प्राकृतिक आपदा (natural disaster) शब्दों का प्रयोग प्रायः एक ही अर्थ में करते हैं, (UPBoardSolutions.com) परन्तु इन दोनों शब्दों में पर्याप्त अन्तर है। किसी निश्चित स्थान पर भौतिक घटना का घटित होना, जिसके कारण हानि की सम्भावना हो, प्राकृतिक खतरे के रूप में जाना जाता है; जैसे–भूकम्प, भू-स्खलन, त्वरित बाढ़, हिम-स्खलन, बादल फटना आदि। प्राकृतिक आपदा का अर्थ उन प्राकृतिक घटनाओं से है, जो मनुष्य के लिए विनाशकारी होती हैं और सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचों एवं विद्यमान व्यवस्था को ध्वस्त कर देती हैं।

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प्रमुख प्राकृतिक आपदाएँ : कारण और निवारण–प्राकृतिक आपदाएँ अनेक हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं
(क) भूकम्प–भूकम्प भूतल की आन्तरिक शक्तियों में से एक है। भूगर्भ में प्रतिदिन कम्पन होते हैं; लेकिन जब ये कम्पन अत्यधिक तीव्र होते हैं तो ये भूकम्प कहलाते हैं। साधारणतया भूकम्प एक प्राकृतिक एवं आकस्मिक घटना है, जो भू-पटल में हलचल अथवा लहर पैदा कर देती है।
भूगर्भशास्त्रियों ने ज्वालामुखीय उद्गार, भू-सन्तुलन में अव्यवस्था, जलीय भार, भू-पटल में सिकुड़न, प्लेट विवर्तनिकी आदि को भूकम्प आने के कारण बताये हैं।
भूकम्प ऐसी प्राकृतिक आपदा है जिसे रोक पाना मनुष्य के वश में नहीं है। मनुष्य केवल भूकम्पों की भविष्यवाणी करने व सम्पत्ति को होने वाली क्षति को कम करने में कुछ अंशों तक सफल हुआ है।
(ख) ज्वालामुखी–ज्वालामुखी एक आश्चर्यजनक व विध्वंसकारी प्राकृतिक घटना है। यह भूपृष्ठ पर प्रकट होने वाली एक ऐसी विवर (क्रेटर या छिद्र) है जिसका सम्बन्ध भूगर्भ से होता है। इससे तप्त लावा, पिघली हुई शैलें तथा अत्यन्त तप्त गैसें समय-समय पर निकलती रहती हैं। इससे निकलने वाले पदार्थ भूतल पर शंकु (Cone) के रूप में एकत्र होते हैं, जिन्हें ज्वालामुखी पर्वत कहते हैं। ज्वालामुखी एक आकस्मिक तथा प्राकृतिक घटना है जिसकी रोकथाम करना मानव के वश में नहीं है।
(ग) भू-स्खलन-भूमि के एक सम्पूर्ण भाग अथवा उसके विखण्डित एवं विच्छेदित खण्डों के रूप में खिसक जाने अथवा गिर जाने को भू-स्खलन कहते हैं। यह भी बड़ी प्राकृतिक आपदाओं में से एक है। भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में, भू-स्खलन एक व्यापक प्राकृतिक आपदा है।

भू-स्खलन अनेक प्राकृतिक और मानवजनित कारकों के परस्पर मेल के परिणामस्वरूप (UPBoardSolutions.com) होता है। वानस्पतिक आवरण में वृद्धि इसको नियन्त्रित करने का सर्वाधिक प्रभावशाली, सस्ता व उपयोगी रास्ता है, क्योंकि यह मृदा अपरदन को रोकता है।
(घ) चक्रवात–चक्रवात भी एक वायुमण्डलीय विक्षोभ है। चक्रवात का शाब्दिक अर्थ हैचक्राकार हवाएँ। वायुदाब की भिन्नता से वायुमण्डल में गति उत्पन्न होती है। अधिक गति होने पर वायुमण्डल की दशा अस्थिर हो जाती है और उसमें विक्षोभ उत्पन्न होता है। चक्रवातों का व्यास सैकड़ों मीलों से लेकर हजारों मीलों तक का हो सकता है। इसकी गति सौ किलोमीटर प्रति घण्टा से भी अधिक हो सकती है।
चक्रवात मौसम से जुड़ी आपदा है। इसके वेग को बाधित करने के लिए इसके आने के मार्ग में ऐसे वृक्ष लगाये जाने चाहिए जिनकी जड़ें मजबूत हों तथा पत्तियाँ नुकीली व पतली हों।
(ङ) बाढ़-वर्षाकाल में अधिक वर्षा होने पर प्रायः नदियों को जल तटबन्धों को तोड़कर आस-पास के निचले क्षेत्रों में फैल जाता है, जिससे वे क्षेत्र जलमग्न हो जाते हैं। इसी को बाढ़ कहते हैं। बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है। भारी मानसूनी वर्षा तथा चक्रवातीय वर्षा बाढ़ों के प्रमुख कारण हैं।
बाढ़ की स्थिति से बचाव के लिए जल-मार्गों को यथासम्भव सीधी रखना चाहिए तथा बाढ़ सम्भावित क्षेत्रों में कृत्रिम जलाशयों तथा आबादी वाले क्षेत्रों में बाँध का निर्माण किया जाना चाहिए।
(च) सूखा-सूखा वह स्थिति है जिसमें किसी स्थान पर अपेक्षित तथा सामान्य वर्षा से कम वर्षा होती है। यह गर्मियों में भयंकर रूप धारण कर लेता है। यह एक मौसम सम्बन्धी आपदा है, जो किसी अन्य विपत्ति की अपेक्षा धीमी गति से आता है।

प्रकृति तथा मनुष्य दोनों ही सूखे के मूल कारणों में हैं। अत्यधिक चराई, जंगलों की कटाई, ग्लोबल वार्मिंग, कृषियोग्य समस्त भूमि का अत्यधिक उपयोग तथा वर्षा के असमान वितरण के कारण सूखे की स्थिति पैदा हो जाती है। हरित पट्टियों के निर्माण के लिए भूमि का आरक्षण, कृत्रिम उपायों द्वारा जल संचय, विभिन्न नदियों को आपस में जोड़ना आदि सूखे के निवारण के प्रमुख उपाय हैं।।
(छ) समुद्री लहरें-समुद्री लहरें कभी-कभी विनाशकारी रूप धारण कर लेती हैं और इनकी ऊँचाई कभी-कभी 15 मीटर तथा इससे भी अधिक तक होती है। ये तट के आस-पास की बस्तियों को तबाह कर देती हैं। इन विनाशकारी समुद्री लहरों को ‘सूनामी’ कहा जाता है।

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समुद्र तल के पास या उसके नीचे भूकम्प आने पर समुद्र में हलचल पैदा होती है और यही हलचल विनाशकारी सूनामी का रूप धारण कर लेती है।

सूनामी लहरों की उत्पत्ति को रोकना मनुष्य के वश में नहीं है। सूनामीटर के द्वारा समुद्र तल में होने वाली (UPBoardSolutions.com) हलचलों का पता लगाकर एवं समय से इसकी चेतावनी देकर जान व सम्पत्ति की रक्षा की जा सकती

आपदा प्रबन्धन हेतु संस्थानिक तन्त्र-प्राकृतिक आपदाओं को रोक पाना सम्भव नहीं है, परन्तु जोखिम को कम करने वाले कार्यक्रमों के संचालन हेतु संस्थानिक तन्त्र की आवश्यकता व कुशल संचालन के लिए सन् 2004 में भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन नीति’ बनायी गयी है, जिसके अन्तर्गत केन्द्रीय स्तर पर राष्ट्रीय आपात स्थिति प्रबन्धन प्राधिकरण तथा सभी राज्यों में राज्य स्तरीय आपात स्थिति प्रबन्ध प्राधिकरण’ का गठन किया गया है। ये प्राधिकरण केन्द्र व राज्य स्तर पर आपदा प्रबन्धन हेतु समस्त कार्यों की दृष्टि से शीर्ष संस्था हैं। ‘राष्ट्रीय संकट प्रबन्धन संस्थान, दिल्ली भारत सरकार का एक संस्थान है, जो सरकारी अफसरों, पुलिसकर्मियों, विकास एजेन्सियों, जन-प्रतिनिधियों तथा अन्य व्यक्तियों को संकट प्रबन्धन हेतु प्रशिक्षण प्रदान करता है।

उपसंहार-‘विद्यार्थियों को आपदा प्रबन्धन का ज्ञान दिया जाना चाहिए इस विचार के अन्तर्गत सभी पाठ्यक्रमों में आपदा प्रबन्धन को सम्मिलित किया जा रहा है। यह प्रयास है कि पारिस्थितिकी के अनुकूल आपदा प्रबन्धन में विद्यार्थियों का ज्ञानवर्धन होता रहे; क्योंकि आपदा प्रबन्धन के लिए विद्यार्थी उत्तम एवं प्रभावी यन्त्र है, जिसका योगदान आपदा प्रबन्धन के विभिन्न चरणों; यथा-आपदा से पूर्व, आपदा के समय एवं आपदा के बाद; की गतिविधियों में लिया जा सकता है। इसके लिए विद्यार्थियों को जागरूक एवं संवेदनशील बनाना चाहिए।

25. प्रदूषण की समस्या और समाधान [2014, 15, 16, 17]

सम्बद्ध शीर्षक

  • पर्यावरण प्रदूषण [2010, 11, 12, 14]
  • पर्यावरण की सुरक्षा [2014]
  • जनसंख्या-वृद्धि और पर्यावरण
  • पर्यावरण एवं स्वास्थ्य [2016]
  • पर्यावरण संरक्षण [2009, 10, 13]
  • प्रदूषण : कारण और निवारण [2011, 12, 13]
  • प्रदूषण : पर्यावरण और मानव-जीवन [2012, 13]
  • प्रदूषण : एक अभिशाप [2016]

रूपरेखा

  1. प्रस्तावना,
  2. प्रदूषण का अर्थ,
  3. प्रदूषण के प्रकार,
  4. प्रदूषण की समस्या तथा इससे हानियाँ,
  5. समस्या का समाधान,
  6. उपसंहार।

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प्रस्तावना-आज का मानव औद्योगीकरण के जंजाल में फँसकर स्वयं भी मशीन का एक ऐसा . निर्जीव पुर्जा बनकर रह गया है कि वह अपने पर्यावरण की शुद्धता का ध्यान भी न रख सका। अब एक और नयी समस्या उत्पन्न हो गयी है-वह है प्रदूषण की समस्या। इस समस्या की ओर आजकल सभी देशों का ध्यान केन्द्रित है। इस समय हमारे समक्ष सबसे बड़ी चुनौती पर्यावरण को बचाने की है; क्योंकि पानी, हवा, जंगल, मिट्टी आदि सब कुछ प्रदूषित हो चुका है। इसलिए (UPBoardSolutions.com) प्रत्येक व्यक्ति को पर्यावरण का महत्त्व बताया जाना चाहिए, क्योंकि यही हमारे अस्तित्व का आधार है। यदि हमने इस असन्तुलन को दूर नहीं किया तो आने वाली पीढ़ियाँ अभिशप्त जीवन जीने को बाध्य होंगी और पता नहीं, तब मानव-जीवन होगा भी या नहीं।

प्रदूषण का अर्थ-सन्तुलित वातावरण में ही जीवन का विकास सम्भव है। पर्यावरण का निर्माण प्रकृति के द्वारा किया गया है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त पर्यावरण जीवधारियों के अनुकूल होता है। जब वातावरण में कुछ हानिकारक घटक आ जाते हैं तो वे वातावरण का सन्तुलन बिगाड़कर उसको दूषित कर देते हैं। यह गन्दा वातावरण जीवधारियों के लिए अनेक प्रकार से हानिकारक होता है। इस प्रकार वातावरण के दूषित हो जाने को ही प्रदूषण कहते हैं। जनसंख्या की असाधारण वृद्धि और औद्योगिक प्रगति ने प्रदूषण की समस्या को जन्म दिया है और आज इसने इतना विकराल रूप धारण कर लिया है कि उससे मानवता के विनाश का संकट उत्पन्न हो गया है।

प्रदूषण के प्रकार-आज के वातावरण में प्रदूषण निम्नलिखित रूपों में दिखाई देता है
(अ) वायु प्रदूषण-वायु जीवन का अनिवार्य स्रोत है। प्रत्येक प्राणी को स्वस्थ रूप से जीने के लिए शुद्ध वायु अर्थात् ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है, जिस कारण वायुमण्डल में इसकी विशेष अनुपात में उपस्थिति आवश्यक है। जीवधारी साँस द्वारा ऑक्सीजन ग्रहण करता है और कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ता है। पेड़-पौधे कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहण कर हमें ऑक्सीजन प्रदान करते हैं। इससे वायुमण्डल में शुद्धता बनी रहती है। आजकल वायुमण्डल में ऑक्सीजन गैस का सन्तुलन बिगड़ गया है। और वायु अनेक हानिकारक गैसों से प्रदूषित हो गयी है।
(ब) जल प्रदूषण-जल को जीवन कहा जाता है और यह भी माना जाता है कि जल में ही सभी देवता निवास करते हैं। इसके बिना जीव-जन्तु और पेड़-पौधों का भी अस्तित्व नहीं है। फिर भी बड़े-बड़े नगरों के गन्दे नाले और सीवर नदियों में मिला दिये जाते हैं। कारखानों का सारा मैला बहकर नदियों के जल में आकर मिलता है। इससे जल प्रदूषित हो गया है और उससे भयानक बीमारियाँ उत्पन्न हो रही हैं, जिससे लोगों का जीवन ही खतरे में पड़ गया है।
(स) ध्वनि प्रदूषण-ध्वनि-प्रदूषण भी आज की नयी समस्या है। इसे वैज्ञानिक प्रगति ने पैदा किया है। मोटरकार, ट्रैक्टर, जेट विमान, कारखानों के सायरन, मशीनें तथा लाउडस्पीकर ध्वनि के सन्तुलन को बिगाड़कर ध्वनि प्रदूषण उत्पन्न करते हैं। अत्यधिक ध्वनि-प्रदूषण से मानसिक विकृति, तीव्र क्रोध, अनिद्रा एवं चिड़चिड़ापन जैसी मानसिक समस्याएँ तेजी से बढ़ रही हैं।
(द) रेडियोधर्मी प्रदूषण-आज के युग में वैज्ञानिक परीक्षणों का (UPBoardSolutions.com) जोर है। परमाणु परीक्षण निरन्तर होते ही रहते हैं। इसके विस्फोट से रेडियोधर्मी पदार्थ सम्पूर्ण वायुमण्डल में फैल जाते हैं और अनेक प्रकार से जीवन को क्षति पहुँचाते हैं।
(य) रासायनिक प्रदूषण-कारखानों से बहते हुए अपशिष्ट द्रव्यों के अतिरिक्त रोगनाशक तथा कीटनाशक दवाइयों से और रासायनिक खादों से भी स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ये पदार्थ पानी के साथ बहकर जीवन को अनेक प्रकार से हानि पहुँचाते हैं।

प्रदूषण की समस्या तथा इससे हानियाँ-बढ़ती हुई जनसंख्या और औद्योगीकरण ने विश्व के सम्मुख प्रदूषण की समस्या पैदा कर दी है। कारखानों के धुएँ से, विषैले कचरे के बहाव से तथा जहरीली गैसों के रिसाव से आज मानव-जीवन समस्याग्रस्त हो गया है। इस प्रदूषण से मनुष्यं जानलेवा बीमारियों का शिकार हो रहा है। कोई अपंग होता है तो कोई बहरा, किसी की दृष्टि-शक्ति नष्ट हो जाती है तो किसी का जीवन। विविध प्रकार की शारीरिक विकृतियाँ, मानसिक कमजोरी, असाध्य कैंसर आदि सभी रोगों का मूल कारण विषैला वातावरण ही है।

समस्या का समाधान वातावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए वृक्षारोपण सर्वश्रेष्ठ साधन है। वृक्षों के अधिक कटान पर भी रोक लगायी जानी चाहिए। कारखाने और मशीनें लगाने की अनुमति उन्हीं लोगों को दी जानी चाहिए, जो औद्योगिक कचरे और मशीनों के धुएँ को बाहर निकालने की समुचित व्यवस्था कर सकें। संयुक्त राष्ट्र संघ को चाहिए कि वह परमाणु परीक्षणों को नियन्त्रित करने की दिशा में उचित कदम उठाये। तेज ध्वनि वाले वाहनों पर साइलेन्सर आवश्यक रूप से लगाये जाने चाहिए तथा सार्वजनिक रूप से लाउडस्पीकरों आदि के प्रयोग को नियन्त्रित किया जाना चाहिए। जल-प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए औद्योगिक संस्थानों में ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि व्यर्थ पदार्थों एवं जल को उपचारित करके ही बाहर निकाला जाए तथा इनको जल-स्रोतों में मिलने से रोका जाए।

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उपसंहार–प्रसन्नता की बात है कि भारत सरकार प्रदूषण की समस्या के प्रति जागरूक है। उसने सन् 1974 ई० में ‘जल-प्रदूषण निवारण अधिनियम’ लागू किया था। इसके अन्तर्गत एक ‘केन्द्रीय बोर्ड तथा प्रदेशों में प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड’ गठित किये गये हैं। इसी प्रकार नये उद्योगों को लाइसेन्स देने और वनों की कटाई रोकने की दिशा में कठोर नियम बनाये गये हैं। इस बात के भी प्रयास किये जा रहे हैं कि नये वन-क्षेत्र बनाये जाएँ और जन-सामान्य को वृक्षारोपण के लिए प्रोत्साहित किया जाए। न्यायालय द्वारा प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को महानगरों से बाहर ले जाने के आदेश दिये गये हैं। यदि जनता भी अपने ढंग से इन कार्यक्रमों में सक्रिय सहयोग दे और यह संकल्प ले कि जीवन में आने वाले प्रत्येक शुभ अवसर पर कम-से-कम एक वृक्ष अवश्य लगाएगी तो निश्चित ही हम प्रदूषण के दुष्परिणामों से बच सकेंगे और आने वाली पीढ़ी को भी इसकी (UPBoardSolutions.com) काली छाया से बचाने में समर्थ हो सकेंगे।

26. गंगा प्रदूषण

सम्बद्ध शीर्षक

  • जल-प्रदूषण [2014]

रूपरेखा

  1. प्रस्तावना,
  2. गंगा-जल के प्रदूषण के प्रमुख कारण-औद्योगिक कचरा व रसायन तथा मृतक एवं उनकी अस्थियों का विसर्जन
  3. गंगा प्रदूषण दूर करने के उपाय,
  4. उपसंहार।

प्रस्तावना-देवनदी गंगा ने जहाँ जीवनदायिनी के रूप में भारत को धन-धान्य से सम्पन्न बनाया है। वहीं माता के रूप में इसकी पावन धारा ने देशवासियों के हृदयों में मधुरता तथा सरसता का संचार किया है। गंगा मात्र एक नदी नहीं, वरन् भारतीय जन-मानस के साथ-साथ समूची भारतीयता की आस्था का जीवंत प्रतीक है। हिमालय की गोद में पहाड़ी घाटियों से नीचे कल्लोल करते हुए मैदानों की राहों पर प्रवाहित होने वाली गंगा पवित्र तो है ही, वह मोक्षदायिनी के रूप में भी भारतीय भावनाओं में समाई है। भारतीय सभ्यता-संस्कृति का विकास गंगा-यमुना जैसी अनेकानेक पवित्र नदियों के आसपास ही हुआ है। गंगा-जल वर्षों तक बोतलों, डिब्बों (UPBoardSolutions.com) आदि में बन्द रहने पर भी खराब नहीं होता था। आज वही भारतीयता की मातृवत पूज्या गंगा प्रदूषित होकर गन्दे नाले जैसी बनती जा रही है, जोकि वैज्ञानिक परीक्षणगत एवं अनुभवसिद्ध तथ्य है। गंगा के बारे में कहा गया है

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नदी हमारी ही है गंगा, प्लावित करती मधुरस-धारा,
बहती है क्या कहीं और भी, ऐसी पावन कल-कल धारा।।

गंगा-जल के प्रदूषण के प्रमुख कारण–पतितपावनी गंगा के जल के प्रदूषित होने के बुनियादी कारणों में से एक कारण तो यह है कि प्राय: सभी प्रमुख नगर गंगा अथवा अन्य नदियों के तट पर और उसके आस-पास बसे हुए हैं। उन नगरों में आबादी का दबाव बहुत बढ़ गया है। वहाँ से मूल-मूत्र और गन्दे पानी की निकासी की कोई सुचारु व्यवस्था न होने के कारण इधर-उधर बनाये गये छोटे-बड़े सभी गन्दे नालों के माध्यम से बहकर वह गंगा या अन्य नदियों में आ मिलता है। (UPBoardSolutions.com) परिणामस्वरूप कभी खराब न होने वाला गंगाजल भी आज बुरी तरह से प्रदूषित होकर रह गया है।

औद्योगिक कचरा व रसायन-वाराणसी, कोलकाता, कानपुर आदि न जाने कितने औद्योगिक नगर गंगा के तट पर ही बसे हैं। यहाँ लगे छोटे-बड़े कारखानों से बहने वाला रासायनिक दृष्टि से प्रदूषित पानी, कचरा आदि भी ग़न्दे नालों तथा अन्य मार्गों से आकर गंगा में ही विसर्जित होता है। इस प्रकार के तत्त्वों ने जैसे वातावरण को प्रदूषित कर रखा है, वैसे ही गंगाजल को भी बुरी तरह प्रदूषित कर दिया है।

मृतक एवं उनकी अस्थियों का विसर्जन-वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि सदियों से आध्यात्मिक भावनाओं से अनुप्राणित होकर गंगा की धारा में मृतकों की अस्थियाँ एवं अवशिष्ट राख तो बहाई जा ही रही है, अनेक लावारिस और बच्चों के शव भी बहा दिये जाते हैं। बाढ़ आदि के समय मरे पशु भी धारा में से मिलते हैं। इन सबने भी गंगा-जल-प्रदूषण की स्थितियाँ पैदा कर दी हैं। गंगा के प्रवाह स्थल और आसपास से वनों का निरन्तर कटाव, वनस्पतियों, औषधीय तत्त्वों का विनाश भी प्रदूषण का एक बहुत बड़ा कारण है। गंगा-जल को प्रदूषित करने में न्यूनाधिक इन सभी का योगदान है।

गंगा प्रदूषणं दूर करने के उपाय–विगत वर्षों में गंगा-जल का प्रदूषण समाप्त करने के लिए एक योजना बनाई गई थी। योजना के अन्तर्गत दो कार्य मुख्य रूप से किए जाने का प्रावधान किया गया था। एक , तो यह कि जो गन्दे नाले गंगा में आकर गिरते हैं या तो उनकी दिशा मोड़ दी जाए या फिर उनमें जलशोधन करने वाले संयन्त्र लगाकर जल को शुद्ध साफ कर गंगा में गिरने दिया जाए। शोधन से प्राप्त मलबा बड़ी उपयोगी खाद का काम दे सकता है। दूसरा यह कि (UPBoardSolutions.com) कल-कारखानों में ऐसे संयन्त्र लगाए जाएँ जो उस जल का शोधन कर सकें तथा शेष कचरे को भूमि के भीतर दफन कर दिया जाए। शायद ऐसा कुछ करने का एक सीमा तक प्रयास भी किया गया, पर काम बहुत आगे नहीं बढ़ सका, जबकि गंगा के साथ जुड़ी भारतीयता का ध्यान रख इसे पूर्ण करना बहुत आवश्यक है।

आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टि अपनाकर तथा अपने ही हित में गंगा-जल में शव बहाना बन्द किया जा सकता है। धारा के निकास स्थल के आसपास वृक्षों, वनस्पतियों आदि का कटाव कठोरता से प्रतिबंधित कर कटे स्थान पर उनका पुनर्विकास कर पाना आज कोई कठिन बात नहीं रह गई है। अन्य ऐसे कारक तत्त्वों का भी थोड़ा प्रयास करके निराकरण किया जा सकता है, जो गंगा-जल को प्रदूषित कर रहे हैं। भारत
सरकार भी जल-प्रदूषण की समस्या के प्रति जागरूक है और इसने सन् 1974 में ‘जल-प्रदूषण निवारण अधिनियम’ भी लागू किया है।

उपसंहार- आध्यात्मिक एवं भौतिक प्रकृति के अद्भुत संगम भारत के भूलोक को गौरव तथा प्रकृति का पुण्य स्थल कहा गया है। इस भारत- भूमि तथा भारतवासियों में नये जीवन तथा नयी शक्ति का संचार करने का श्रेय गंगा नदी को जाता है।

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गंगा आदि नदियों के किनारे भीड़ छवि पाने लगी।
मिलकर जल-ध्वनि में गल-ध्वनि अमृत बरसाने लगी।
सस्वर इधर श्रुति-मंत्र लहरी, उधर जल लहरी कहाँ
तिस पर उमंगों की तरंगें, स्वर्ग में भी क्या रहा?”

गंगा को भारत की जीवन-रेखा तथा गंगा की कहानी को भारत की कहानी माना जाता है। गंगा की महिमा (UPBoardSolutions.com) अपार है। अत: गंगा की शुद्धता के लिए प्राथमिकता से प्रयास किये जाने चाहिए।

27. साम्प्रदायिकता : एक अभिशाप

सम्बद्ध शीर्षक

  • साम्प्रदायिक सद्भाव  [2014]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. भारत में साम्प्रदायिकता का इतिहास,
  3. विदेशी साम्प्रदायिकता का प्रभाव,
  4. साम्प्रदायिकता : एक अभिशाप,
  5. भारत में साम्प्रदायिकता का ताण्डव,
  6. देश की अखण्डता को खतरा,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावनी–भारत में विभिन्न सम्प्रदायों के लोग रहते हैं। जब एक सम्प्रदाय के लोग अपने को श्रेष्ठ समझकर उसका गुणगान करने लगते हैं तथा अन्य सम्प्रदायों की अनदेखी करते हैं अथवा उसे हीन समझते हैं तो यह साम्प्रदायिकता कहलाती है। साम्प्रदायिकता देश व राष्ट्रीयता के लिए भयंकर समस्या है और मानव-समाज के लिए कलंक है।

भारत में साम्प्रदायिकता का इतिहास-भारत में साम्प्रदायिकता का इतिहास बहुत पुराना है। इसके पीछे मुख्य कारण देश में कई सम्प्रदाय के लोगों का रहना है। प्राचीन काल में भारत में बौद्धों, हिन्दुओं, वैष्णव तथा शैवों व शाक्तों के मध्य वाद-विवाद तथा हिंसा होती रहती थी। विभिन्न सम्प्रदायों के लोग अपने धर्म व आचार-विचार को श्रेष्ठ समझ दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को हेय दृष्टि से देखते रहे हैं। आजकल भारत में साम्प्रदायिकता की एक नयी व्याख्या पनपी है। (UPBoardSolutions.com) धर्म धीरे-धीरे सम्प्रदाय का रूप ले रहा है। हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई अब धर्म नहीं सम्प्रदाय बन गये हैं। यदि देश में कोई दंगा हो तो उसे साम्प्रदायिक दंगा ही कहा जाता है।

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विदेशी साम्प्रदायिकता का प्रभाव-मुगल काल में इस्लाम के नाम पर हिन्दुओं पर इतने जुल्म ढाये गये थे कि उनको इतिहास पढ़कर आज भी आँखें भर आती हैं। राणा प्रताप या शिवाजी की कहानी हममें एक नयी स्फूर्ति का संचार करती है। राष्ट्रीयता का समर्थक कभी भी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता। राष्ट्र का समर्थक प्रत्येक जाति, धर्म, प्रान्त और भाषा-भाषी को एक ही परिवार और समान दृष्टि से देखेगा। भारत में अनादिकाल से ही विभिन्न जातियों या धर्म के लोग रहते हैं। इनमें से कुछ भारत की भूमि से आकर्षित हो यहीं रह गये और कुछ यहाँ आक्रान्ता बनकर आए। अरब व इंग्लैण्ड के लोग यहाँ की सम्पत्ति लूटने के लिए ही आए थे जिनमें से अधिकांश अपने देश वापस चले गये लेकिन भारत को कमजोर करने के लिए साम्प्रदायिक की विष-बेल को रोप गये, जो अब वटे-वृक्ष का रूप ले चुकी है।

साम्प्रदायिकता : एक अभिशाप-साम्प्रदायिकता हमारे देश के लिए अभिशाप है। हर धर्म की अपनी मान्यताएँ हैं और उनके आपस में टकराव हैं। आज धार्मिक कट्टरता के साथ राजनीति जुड़ चुकी है। धर्म के अन्धे भक्त तथा चालाक राजनीतिज्ञ इस साम्प्रदायिकता से लाभ उठाते हैं। साधारण, अज्ञानी तथा निरीह-निर्दोष लोग हिंसा, आगजनी, लूट तथा विध्वंस के शिकार बनते हैं। ऐसे कथित धर्मात्मा तथा समाज के अपराधी वर्ग मिलकर देश में सदैव नये विध्वंस की तैयारी छिपे तथा खुले रूप से करते रहते हैं।

भारत में साम्प्रदायिकता का ताण्डव–स्वतन्त्रता-प्राप्ति से अब तक साम्प्रायिकता की आग में लाखों लोग भस्म हो चुके हैं। अरबों की सम्पत्ति नष्ट हुई है। लाखों बच्चे अनाथ हो गये हैं, लाखों औरतें विधवा हो गयी हैं तथा एक बार में हजारों लोग हताहत हो रहे हैं। मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे आदि के झगड़े में इस देश को साम्प्रदायिक शक्तियाँ तहस-नहस कर रही हैं और हमारे ही नेता ऐसी शक्तियों की सहायता करते हैं। इस देश का बँटवारा केवल साम्प्रदायिकता के आधार पर हुआ था तथा पाकिस्तान की नींव रखी। गयी थी। लोगों का यह विचार था कि इस बँटवारे से साम्प्रदायिकता का शैतान दफन होगा, लेकिन सारी बातें विपरीत हो गयीं।

देश की अखण्डता को खतरा-इस साम्प्रदायिकता के चलते हिन्दू, मुसलमान तथा सिख धर्म के अनुयायियों में भाईचारा समाप्त हो रहा है। देश की एकता-अखण्डता नष्ट हो रही है, परस्पर अविश्वास का वातावरण पैदा हो रहा है, देश की सुख-शान्ति छिन रही है तथा सारा वातावरण हिंसक घटनाओं से दूषित हो रहा है।

उपसंहार–साम्प्रदायिकता से छुटकारा पाने के लिए सरकार के साथ-साथ नागरिकों का भी कर्तव्य है कि वह इसके विरोध में विशेष रूप से सजग रहे। राजनीतिक दल भी वोटों की राजनीति के चलते साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं तथा जाति, धर्म, क्षेत्रीयता और भाषा के नाम पर राष्ट्रीय (UPBoardSolutions.com) निष्ठा को अँगूठा दिखा रहे हैं। धर्मनिरपेक्ष गणतन्त्र में राजनीतिज्ञों की यह नीति देश के लिए घातक है।

साम्प्रदायिकता मानव जाति के लिए अभिशाप तथा देश के लिए भयंकर समस्या है। इसके लिए विभिन्न राजनीतिक दलों को वोटों की राजनीति छोड़कर कड़े प्रबन्ध करने होंगे अन्यथा धर्मनिरपेक्ष भारत में लोगों को धर्म, जाति, भाषा अथवा क्षेत्रीयता के नाम पर राष्ट्रीय निष्ठा के साथ खिलवाड़ देश की स्वतन्त्रता के लिए घातक सिद्ध होगा।

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28. धरती का रक्षा-कवच : ओजोन

रूपरेखा—

  1. प्रस्तावना,
  2. पृथ्वी पर बढ़ता तापमान,
  3. ओजोन की आवश्यकता,
  4. रासायनिक संघटन,
  5. मुख्य कारण,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-हमारे सौर परिवार में धरती एक विशिष्ट ग्रह है जिस पर जीवनोपयोगी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति में सूर्य का सबसे अधिक योगदान है। सूर्य ने ही प्रकाश-संश्लेषण से ऑक्सीजन को वायुमण्डल में फैलाया और इसी ने ऑक्सीजन को ओजोन में बदल कर धरती के चारों ओर सोलह से पैंतीस किलोमीटर के बीच फैला दिया। धरातल से तेईस किलोमीटर ऊपरं यह गैस सबसे अधिक सघन है। इसी ओजोन को हमारे जीवन की रक्षक गैस के रूप में जाना जा सकता है। हल्के नीले रंग की तीखी गन्ध वाली यह गैस सूर्य की पराबैंगनी किरणों को धरती पर आने से रोकती है जिससे हानिकारक ऊष्मा से धरतीवासियों का बचाव होता है।

पृथ्वी पर बढ़ता तापमान-मनुष्य अपने जीवन में सुखों की प्राप्ति के लिए तरह-तरह के प्रयोग करता रहा है। अन्य ग्रहों तथा अन्तरिक्ष की खोज करने के लिए उसने आकाश में रॉकेट भेजे हैं जिसके कारण धरती के रक्षा-कवच को गहरी क्षति पहुँची है। इसमें कई जगह बड़े-बड़े छिद्र हो गये हैं जिनसे सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणें बिना रोक-टोक सीधी धरती पर आने लगी हैं। यदि यह क्रिया अनवरत कुछ वर्षों तक चलती रही तो धरती के चारों ओर का तापमान (UPBoardSolutions.com) बढ़ जाएगा। पिछले दस वर्षों में धरती के चारों ओर की वायु का तापमान एक डिग्री सेण्टीग्रेड बढ़ चुका है। इसके निरन्तर बढ़ने से खेत और वनस्पतियाँ झुलसने लगेंगी, ध्रुवों पर जमी बर्फ के पिघलने से समुद्रों का जलस्तर बढ़ने लगेगा, जिससे समुद्र के समीप स्थित स्थलीय क्षेत्र पानी में डूबने लगेंगे।

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ओजोन की आवश्यकता-धरती पर जीवन के लिए ओजोन की उपस्थिति बहुत आवश्यक है। इसकी कमी से हमारा जीवन दूभर हो जाएगा। सबसे पहले ओजोन की मोटी परत में छिद्र अण्टार्कटिका के ऊपर पाये गये थे, लेकिन अब इन छिद्रों को उत्तरी गोलार्द्ध की घनी बस्ती वाले क्षेत्रों में भी पाया गया है। वैज्ञानिकों की मान्यता है कि मनुष्य अपने वैज्ञानिक अन्वेषणों तथा सुख-सुविधाओं के लिए जिन रसायनों का प्रयोग करता है, उससे क्लोरीन निकलकर धरती के ऊपरी मण्डल में इकट्ठी होती जाती है, जो ओजोन । की तह को नष्ट करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। यदि ऐसा ही होता रहा तो सारे विश्व के लिए गम्भीर संकट उत्पन्न हो जाएगा। |

रासायनिक संघटन–ओजोन ऑक्सीजन का अस्थिर रूप है। इसमें ऑक्सीजन के तीन परमाणु परस्पर संयोजित होते हैं। वास्तव में ओजोन गैस मनुष्य के लिए जहरीली है। यदि यह शरीर में प्रवेश कर जाए तो दमा, कैंसर जैसी बीमारियाँ हो सकती हैं लेकिन धरती के चारों ओर रहकर यह हमारे लिए
रक्षा-कवच का कार्य करती है। सूर्य की किरणों में उपस्थित पराबैंगनी किरणें जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधों तथा जलीय-जीवन को गहरा प्रभावित करती हैं। इसके प्रभाव से हमारे शरीर की रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है। जो पराबैंगनी किरणें हमारे लिए इतनी हानिकारक हैं, वे ही ओजोन की सृष्टि करती हैं। पराबैंगनी किरणों के द्वारा बाह्य वायुमण्डल में विद्यमान ऑक्सीजन के अणु दो मुक्त (UPBoardSolutions.com) परमाणुओं में विघटित हो जाते हैं। और शीघ्र ही एक और ऑक्सीजन के परमाणु को साथ मिलाकर ओजोन का रूप ले लेते हैं। यही ओजोन सूर्य की पराबैंगनी किरणों को रोकने का कार्य करने लगती है।

मुख्य कारण-रेफ्रीजिरेटरों, वायुयानों, कारों, रेलों, मोटरों, सैनिक शस्त्रों, प्रसाधन सामग्रियों आदि ने जहाँ हमारे जीवन को सुख प्रदान किया है, वहाँ ओजोन की परत को कम करने में भी हाथ बँटाया है। विज्ञान की यह नयी दुनिया ही ओजोन को कम करने के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है।

ओजोन को कम करने वाले अनेक कारण हैं, लेकिन सबसे खतरनाक कारण क्लोरो-फ्लोरो कार्बन नामक रासायनिक पदार्थ है, जिसका प्रयोग अनेक उपकरणों में होता है। एयरकण्डीशनर्स से इसे डिफ्यूज्ड अवस्था में वायुमण्डल में छोड़ा जाता है, जिससे ओजोन की परत गहरी प्रभावित होती है। सन् 1970 में इसका उत्पादन छः लाख टन था जबकि सन् 1981 में एक अरब टन। यदि इसी गति से इस रासायनिक पदार्थ का प्रयोग होता रहा तो ओजोन की परत में शीघ्र बहुत-से छिद्र हो जाएँगे। विश्व के अधिकांश विकसित देश ही इस समस्या के कारण हैं। चीन और भारत में सारी दुनिया की लगभग एक-तिहाई जनसंख्या रहती है लेकिन ये दोनों देश केवल तीन प्रतिशत क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का प्रयोग करते हैं जबकि अमेरिका, रूस, जापान तथा पश्चिमी देश इसका 97%।।

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उपसंहार–सन् 1992 में ब्राजील की राजधानी रियो डि जेनेरो में एक भूमण्डलीय शिखर सम्मेलन हुआ था, जिसमें इस रासायनिक पदार्थ पर नियन्त्रण के लिए अनेक सुझाव दिये गये थे लेकिन अधिकांश विकसित देश इससे कन्नी काट रहे हैं; क्योंकि क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का विकल्प बहुत महँगा है। फिर भी 115 देशों द्वारा मिलकर इस पर नियन्त्रण पाने हेतु, अनेक योजनाएँ बनायी गयी हैं। देखना यह है कि बनायी गयी योजनाओं को कितने प्रभावशाली ढंग से पूरा किया जाता है। भारत सरकार ने भी इस दिशा में कुछ महत्त्वपूर्ण कदम उठाये हैं। आशा है कि सारे विश्व के सामूहिक प्रयत्नों से धरती के रक्षा-कवच ‘ओजोन की रक्षा की जा सकेगी, जिससे धरती का भविष्य सुरक्षित रहेगा।

29. मूल्य-वृद्धि की समस्या [2010]

सम्बद्ध शीर्षक

  • महँगाई की समस्या : कारण, परिणाम और निदान [2013]
  • बढ़ती महँगाई : समस्या और समाधान [2014]

रूपरेखा

  1. भूमिका,
  2. मूल्य वृद्धि के कारण,
  3. मूल्य वृद्धि से हानि,
  4. दूर करने के उपाय,
  5. उपसंहार।

भूमिका—प्रत्येक स्थिति और अन्नस्था के दो पक्ष होते हैं-आन्तरिक और बाह्य। बाह्य स्थिति को तो मनुष्य कृत्रिमता अथवा बनावटीपन से सुधार भी सकता है; परन्तु आन्तरिक स्थिति के बिगड़ने पर मनुष्य का । सर्वनाश ही हो जाता है। बाहर के शत्रुओं की मानव उपेक्षा भी कर सकता है परन्तु आन्तरिक शत्रु को वश में करना बड़ा आवश्यक हो जाता है। यह नियम हमारे देश की स्थिति के साथ भी लागू होता है। हमारे देश की बाह्य स्थिति चाहे कितनी ही सुन्दर क्यों न हो, विदेशों में हमारा कितना ही सम्मान क्यों न हो, हमारी विदेशनीति कितनी ही सफल क्यों न हो, हमारी सीमा सुरक्षा कितनी ही दृढ़ क्यों न हो, परन्तु यदि देश की आन्तरिक स्थिति मजबूत (UPBoardSolutions.com) नहीं है, तो निश्चय ही एक-न-एक दिन देश पतन के गर्त में गिर जाएगा। देश की आन्तरिक स्थिति धन-धान्य और अन्न-वस्त्र पर निर्भर करती है। आज मानव-जीवन के दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुओं की महार्य्यता (बढ़ी हुई कीमतें) देश के सामने सबसे बड़ी समस्या है। समस्त देश का जीवन अस्त-व्यस्त हुआ जा रहा है। वस्तुओं के मूल्य उत्तरोत्तर बढ़ते जा रहे हैं, अत: आज के मनुष्य के समक्ष जीवन-निर्वाह भी एक मुख्य समस्या बनी हुई है।

मूल्य-वृद्धि के कारण–दीर्घकालीन परतन्त्रता के बाद हमें अपना देश बहुत ही जर्जर हालत में मिला। हमें नये सिरे से सारी व्यवस्था करनी पड़ रही है। नयी-नयी योजनाएँ बनाकर अपने देश को सँभालने में समय लगता ही है। कुछ लोग इस स्थिति का लाभ उठाने का प्रयत्न करते हैं, जिसके कारण सबको हानि उठानी पड़ती है। सरकार इस विषय में सतत प्रयास कर रही है। इस देश में काले धन की भी कमी नहीं है। उस धन से लोग मनमानी मात्रा में वस्तु खरीद लेते हैं और फिर मनमाने भावों पर बेचते हैं। अत: निहित स्वार्थ वाले जमाखोरों, मुनाफाखोरों और चोर बाजारी करने वालों के एक विशेष वर्ग ने समाज को भ्रष्टाचार का अड्डा बना रखा है। उन्होंने सामाजिक जीवन को तो दूभर बना ही दिया है, राष्ट्रीय और जातीय जीवन को भी दूषित कर दिया है। समूचे देश के इस नैतिक पतन ने ही आज मूल्यवृद्धि की भयानक समस्या खड़ी कर दी है। यह तो रहा मूल्यवृद्धि का मुख्य कारण, इसके साथ-साथ अन्य कई कारण और भी हैं। राष्ट्र की आय का साधन विभिन्न राष्ट्रीय उद्योग एवं व्यापार ही होते हैं। देश की उन्नति के लिए विगत सभी पंचवर्षीय योजनाओं में बहुत-सा धन लगा। कुछ हमने विदेशों से लिया और कुछ देश में से ही एकत्र किया। सरकारी कर्मचारियों के वेतन बढ़े, पड़ोसी शत्रुओं से देश के सीमान्त की रक्षा के लिए सुरक्षा पर अधिक व्यय करना पड़ा, इस सबके ऊपर देश के विभिन्न भागों में सूखा और बाढ़ों का प्राकृतिक प्रकोप तथा देश में खाद्यान्नों की कमी आदि बहुत-सी बातें ऐसी हैं, जिन पर हमने अपनी शक्ति से अधिक धन लगाया है और लगा रहे हैं। सरकार के पास यह धन करों के रूप में जनता से ही आता है। इन सबके परिणामस्वरूप मूल्यों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है।

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मूल्य-वृद्धि से हानि–आज जनता में असन्तोष बहुत बढ़ गया है। देश के एक कोने से दूसरे कोने तक मूल्य वृद्धि से लोग परेशान हैं। विरोधी दल इस स्थिति से लाभ उठा रहे हैं। कहीं वे मजदूरों को भड़काकर हड़ताल कराते हैं, तो कहीं मध्यम वर्ग को भड़काकर जुलूस और जलसे करते हैं। लेकिन इससे भी कोई फायदा नहीं हो रहा है। इस देश की आम जनता जो खेती नहीं करती, शहरों में निवास करती है और शारीरिक-मानसिक श्रम करके सामान्य रूप से अपना (UPBoardSolutions.com) जीवनयापन करती है, उसकी स्थिति तो सर्वाधिक विषम है। छठे वेतन आयोग को लागू किये जाने के बाद बढ़ी भीषणतम महँगाई ने तो निम्न मध्यम वर्ग, जो देश की जनसंख्या में सबसे अधिक है, की तो आर्थिक रूप से कमर ही तोड़कर रख दी है।

दूर करने के उपाय–वर्तमान मूल्य वृद्धि की समस्या को रोकने का एकमात्र उपाय यही है कि जनता का नैतिक उत्थान किया जाए। उसको ऐसी शिक्षा दी जाए, जिसका हृदय पर प्रभाव हो। बिना हृदयपरिवर्तन के यह समस्या सुलझने की नहीं। अपना-अपना स्वार्थ-साधन ही आज प्रायः प्रत्येक भारतीय का प्रमुख जीवन-लक्ष्य बना हुआ है। उसे न राष्ट्रीय भावना का ध्यान है और न देशहित का। दूसरा उपाय है, शासक दल का कठोर नियन्त्रण। जो भी भ्रष्टाचार करे, मिलावट करे या ज्यादा भाव में सामान बेचे उसे कठोर दण्ड दिया जाए। जिस अधिकारी का आचरण भ्रष्ट पाया जाए, उसे नौकरी से हटा दिया जाए या फिर कठोर कारावास दे दिया जाए। मूल्य वृद्धि के सम्बन्ध में जनसंख्या की वृद्धि या जीवन-स्तर आदि कारण भी महत्त्वपूर्ण हैं।।

वर्तमान मूल्यवृद्धि पर हर स्थिति में नियन्त्रण लगाना चाहिए। इसके लिए सरकार भी चिन्तित है और बड़ी तत्परता से इसको रोकने के उपाय सोचे जा रहे हैं, परन्तु उन्हें कार्य रूप में परिणत करने का प्रयत्न ईमानदारी से नहीं किया जा रहा है। वास्तविकता यह है कि यदि सरकार देश की स्थिति में सुधार और , स्थायित्व लाना चाहती है, तो उसे अपनी नीतियों में कठोरता और स्थिरता लानी होगी, तभी वर्तमान मूल्य-वृद्धि पर विजय पाना सम्भव है अन्यथा नहीं।

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उपसंहार-इस दिशा में सरकारी प्रयत्नों को और गति देने की (UPBoardSolutions.com) आवश्यकता है, जिससे शीघ्र ही जनता को राहत मिल सके। यदि देश में अन्न-उत्पादन इसी गति से होता रहा, जन-कल्याण के लिए शासन का अंकुश कठोर न रहा और जनता में जागरूकता न रही तो मूल्यवृद्धि को रोका नहीं जा सकता।

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UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 6 (Section 3)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 6 वन एवं जीव संसाधन (अनुभाग – तीन)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Social Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 6 वन एवं जीव संसाधन (अनुभाग – तीन).

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जैव विविधता से क्या अभिप्राय है ? भारत में जैव विविधता की सुरक्षा तथा संरक्षण के लिए क्या उपाय किये जा रहे हैं ?
उत्तर :

जैव विविधता

जैव विविधता से अभिप्राय जीव-जन्तुओं तथा पादप जगत् में पायी जाने वाली विविधता से है। संसार के अन्य देशों की भॉति हमारे देश के जीव-जन्तुओं में भी विविधता पायी जाती है। हमारे देश में जीवों की 81,000 प्रजातियाँ, मछलियों की 2,500 किस्में तथा पक्षियों की 2,000 प्रजातियाँ विद्यमान हैं। इसके अतिरिक्त 45,000 प्रकार की पौध प्रजातियाँ भी पायी जाती हैं। इनके अतिरिक्त उभयचरी, सरीसृप, स्तनपायी तथा छोटे-छोटे कीटों एवं कृमियों को मिलाकर भारत में विश्व की लगभग 70% जैव विविधता पायी जाती है।

जैव विविधता की सुरक्षा तथा संरक्षण के उपाय

वन जीव-जन्तुओं के प्राकृतिक आवास होते हैं। तीव्र गति से होने वाले वन-विनाश का जीव-जन्तुओं के आवास पर दुष्प्रभाव पड़ा है। इसके अतिरिक्त अनेक जन्तुओं के अविवेकपूर्ण तथा गैर-कानुनी आखेट के कारण अनेक (UPBoardSolutions.com) जीव-प्रजातियाँ दुर्लभ हो गयी हैं तथा कई प्रजातियों का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। अतएव उनकी सुरक्षा तथा संरक्षण आवश्यक हो गया है। इसी उद्देश्य से भारत सरकार ने अनेक प्रभावी कदम उठाये हैं, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं

1. देश में 14 जीव आरक्षित क्षेत्र (बायोस्फियर रिजर्व) सीमांकित किये गये हैं। अब तक देश में आठ जीव आरक्षित क्षेत्र स्थापित किये जा चुके हैं। सन् 1986 ई० में देश का प्रथम जीव आरक्षित क्षेत्र नीलगिरि में स्थापित किया गया था। उत्तर प्रदेश के हिमालय पर्वतीय क्षेत्र में नन्दा देवी, मेघालय में नोकरेक, पश्चिम बंगाल में सुन्दरवन, ओडिशा में सिमलीपाल तथा अण्डमान- निकोबार द्वीप समूह में जीव आरक्षित क्षेत्र स्थापित किये गये हैं। इस योजना में भारत के विविध प्रकार की जलवायु तथा विविध वनस्पति वाले क्षेत्रों को भी सम्मिलित किया गया है। अरुणाचल प्रदेश में पूर्वी हिमालय क्षेत्र, तमिलनाडु में मन्नार की खाड़ी, राजस्थान में थार का मरुस्थल, गुजरात में कच्छ का रन, असोम में काजीरंगा, नैनीताल में कॉर्बेट नेशनल पार्क तथा मानस उद्यान को जीव आरक्षित क्षेत्र बनाया गया है। इन जीव आरक्षित क्षेत्रों की स्थापना का उद्देश्य पौधों, जीव-जन्तुओं तथा सूक्ष्म जीवों की विविधता तथा एकता को बनाये रखना तथा पर्यावरण-सम्बन्धी अनुसन्धानों को प्रोत्साहन देना है।

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2. राष्ट्रीय वन्य-जीव कार्य योजना वन्य-जीव संरक्षण के लिए कार्य, नीति एवं कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत करती है। प्रथम वन्य-जीव कार्य-योजना, 1983 को संशोधित कर अब नयी वन्य-जीव कार्य योजना (2002-16) स्वीकृत की गयी है। इस समय संरक्षित क्षेत्र के अन्तर्गत 89 राष्ट्रीय उद्यान एवं 490 अभयारण्य सम्मिलित हैं, जो देश के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र के 1 लाख 56 हजार वर्ग किमी क्षेत्रफल पर विस्तृत हैं।

3. वन्य जीवन (सुरक्षा) अधिनियम, 1972 जम्मू एवं कश्मीर को छोड़कर (इसका अपना पृथक् अधिनियम है) शेष सभी राज्यों द्वारा लागू किया जा चुका है, जिसमें वन्यजीव संरक्षण तथा विलुप्त होती जा रही प्रजातियों के संरक्षण के लिए दिशानिर्देश दिये गये हैं। दुर्लभ एवं समाप्त होती जा रही प्रजातियों के व्यापार पर इस अधिनियम द्वारा रोक लगा दी गयी है। राज्य सरकारों ने भी ऐसे ही कानून बनाये हैं।

4. जैव-कल्याण विभाग, जो अब पर्यावरण एवं वन मन्त्रालय का अंग है, ने जानवरों को अकारण दी जाने वाली यन्त्रणा पर रोक लगाने सम्बन्धी शासनादेश पारित किया है। पशुओं पर क्रूरता पर रोक सम्बन्धी 1960 के अधिनियम में दिसम्बर, 2002 ई० में नये नियम सम्मिलित किये गये हैं। अनेक वन-पर्वो के साथ ही देश में प्रति वर्ष 1-7 अक्टूबर तक वन्य जन्तु संरक्षण सप्ताह मनाया जाता है, जिसमें वन्य-जन्तुओं की रक्षा तथा उनके प्रति जनचेतना जगाने के लिए विशेष प्रयास किये जाते हैं। इन सभी प्रयासों के अति सुखद परिणाम भी सामने आये हैं। आज राष्ट्र-हित में इस बात की आवश्यकता है कि वन्य-जन्तु संरक्षण (UPBoardSolutions.com) का प्रयास एक जन-आन्दोलन का रूप धारण कर ले।

प्रश्न 2.
वनस्पति और जीव-जन्तुओं के अन्तर्सम्बन्ध पर एक निबन्ध लिखिए।
उत्तर :

वनस्पति और जीव-जन्तुओं में अन्तर्सम्बन्ध

वनस्पति से तात्पर्य धरातल पर उगे हुए पेड़-पौधों (वृक्षों), घास व झाड़ियों से होता है। इसके उत्पादन में मानव का कोई योगदान नहीं होता। यह स्वत: उगती एवं विकसित होती हैं। सामान्य बोलचाल की भाषा में इसे ‘प्राकृतिक वनस्पति’ या ‘वन’ कहते हैं। पृथ्वी पर सभी जीवधारियों को भोजन वनस्पति से ही प्राप्त होता है। पेड़-पौधे सूर्य से प्राप्त की गई ऊर्जा को खाद्य ऊर्जा में परिणत करने में समर्थ होते हैं।

इस प्रकार विभिन्न पर्यावरणीय एवं पारितन्त्रीय परिवेश में जो कुछ भी प्राकृतिक रूप से उगता है, उसे प्राकृतिक वनस्पति कहते हैं। प्राकृतिक वनस्पति पौधों का वह समुदाय है जिसमें लम्बे समय तक किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं हुआ है। मानव हस्तक्षेप से रहित प्राकृतिक वनस्पति को अक्षत वनस्पति कहते हैं। भारत में अक्षत वनस्पति हिमालय, थार मरुस्थल और बंगाल डेल्टा के सुन्दरवन के अगम्य क्षेत्रों में पाई जाती है।

इसी प्रकार असोम में एक सींग वाला गैंडा, हाथी, कश्मीर हंगुल (हिरण), गुजरात के गिर क्षेत्र में शेर (सिंह), बंगाल के सुन्दरवन क्षेत्र में बाघ (भारत का राष्ट्रीय पशु), राजस्थान में ऊँट आदि विभिन्न पर्यावरणीय और पारितन्त्रीय परिवेश के अनुरूप पाए जाते हैं।

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वन एवं वन्य जीव हमारे दैनिक जीवन में इतने गुथे हुए हैं कि हम इनकी उपयोगिता का सही प्रकार से अनुमान नहीं लगा पाते हैं। उदाहरण के लिए नीम की छाल, रस और पत्तियों का उपयोग कई प्रकार की दवाइयों में किया जाता है। नीम पर्यावरणीय दृष्टि से सुरक्षित होने के साथ-साथ लगभग 200 कीट प्रजातियों के नियन्त्रण में प्रभावशाली है। अभी भी लोग गाँवों में फोड़ा-फुसी होने पर उसके घाव को नीम की पत्तियों (UPBoardSolutions.com) के उबले पानी से धोकर साफ करते हैं तथा घाव को सुखाने के लिए उसकी छाल को पीसकर उसका लेप लगाते हैं। इसी प्रकार तुलसी का पौधा विषाणुओं को नष्ट करने में सहायक है और उसकी पत्तियों का प्रयोग कई चीजों में किया जाता है। इसी तरह सतावर, अश्वगंधा, घृतकुमारी आदि औषधीय पौधों का प्रयोग औषधियाँ बनाने में किया जाता है।

पेड़-पौधे कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहण करते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं। हम इस ऑक्सीजन को सॉस के रूप में ग्रहण करते हैं। अगर पृथ्वी पर पेड़-पौधे न रहें तो हमें ऑक्सीजन कहाँ से प्राप्त होगी और हम कैसे जीवित रह सकेंगे? हमें लकड़ी, छाल, पत्ते, रबड़, दवाइयाँ, भोजन, ईंधन, चारा, खाद इत्यादि प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से वनों से ही प्राप्त होती हैं। वन वर्षा करने, मिट्टी का कटाव रोकने और भूजल के पुनर्भरण में भी सहायक होते हैं। इस प्रकार वनों से हमें अनेक लाभ हैं।

वनों की भाँति ही जीवों का भी हमारे दैनिक जीवन में महत्त्व है। वन और जीव, पर्यावरण को स्वच्छ और सन्तुलित रखने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। उदाहरण के लिए वर्तमान में गिद्ध पक्षी हमारे परिवेश में कम दिखाई पड़ रहे हैं। ये मरे हुए जानवरों का मांस खाकर पर्यावरण को स्वच्छ रखने में हमारी सहायता करते हैं। इनके विलुप्त हो जाने पर मरे जानवरों के शवों के इधर-उधर सड़ने से, वायु प्रदूषित होती है। गिद्ध हमारे पर्यावरण को स्वच्छ करते हैं पर अब ये विलुप्त होने की कगार पर हैं। बड़े जीवों की भाँति ही . छोटे-छोटे कीट-पतंगों का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है। उदाहरण के लिए कई कीट महत्त्वपूर्ण पदार्थ; जैसे-शहद, रेशम और लाख बनाते हैं।

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प्रश्न 3.
भारत में कितने प्रकार के प्राकृतिक वन पाये जाते हैं ? प्रत्येक का वितरण तथा आर्थिक महत्त्व बताइट। भारत के किन्हीं दो प्रकार के वनों का वर्णन कीजिए। [2010]
या
भारतीय वनों का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए [2010]
(क) वनों के प्रकार, (ख) क्षेत्र, (ग) आर्थिक महत्त्व।
या
भारतीय वनों का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कीजिए [2016]
(क) वनों के प्रकार, (ख) वनों का महत्त्व, (ग) वन संरक्षण।
या
भारतीय वनों के किन्हीं छः लाभों का वर्णन कीजिए। [2016]
या

वनों के महत्त्व पर प्रकाश डालिए तथा वन विनाश रोकने के लिए कोई चार उपाय सुझाइए। [2016]
या

वनों के तीन आर्थिक महत्त्व बताइए। [2018]
उत्तर :

वनों के प्रकार तथा क्षेत्र

भारत में प्राकृतिक वनस्पति के सभी रूप (वन, घास-भूमियाँ, झाड़ियाँ आदि) मिलते हैं। (UPBoardSolutions.com) इन विविध रूपों में वन सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। भारत में वनों का वितरण निम्नलिखित है—

1. उष्ण कटिबन्धीय वर्षा वन,
2. उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती (मानसूनी) वन,
3. कॅटीले वन,
4. ज्वारीय वन तथा
5. हिमालय के वन (पर्वतीय वन)

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1. उष्ण कटिबन्धीय वर्षा वन- ये वन पश्चिमी घाट, मेघालय तथा उत्तर-पूर्वी भारत में मिलते हैं। इन क्षेत्रों में 250 सेमी से अधिक वार्षिक वर्षा होती है। अत: इन वनों में सदापर्णी, सघन तथा 60 मीटर से भी अधिक ऊँचाई तक के वृक्ष होते हैं। इन वृक्षों में महोगनी, ऐबोनी, रोज़वुड आदि किस्में मुख्य हैं। दुर्गम होने के कारण उत्तर-पूर्वी भारत में इनका समुचित आर्थिक उपयोग नहीं हो सका है।

2. उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती (मानसूनी) वन- 
ये वन भारत में सर्वाधिक विस्तृत हैं। ये शिवालिक श्रेणियों तथा प्रायद्वीपीय भारत में पाये जाते हैं। इन क्षेत्रों में 75 से 200 सेमी तक वार्षिक वर्षा होती है। इन वनों के वृक्ष शुष्क ग्रीष्म काल में अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं। इन वनों में आर्थिक महत्त्व वाले साल, सागौन, शीशम, चन्दन, बॉस आदि किस्मों के बहुमूल्य लकड़ी के वृक्ष मुख्य रूप से पाये जाते हैं।

3. कॅटीले वन- 
ये वन 50 सेमी से कम वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में पाये जाते हैं। ये वन दक्षिणी प्रायद्वीप के शुष्क पठारी भागों, गुजरात, महाराष्ट्र तथा राजस्थान में मिलते हैं। ये वन छितरे हुए तथा कॅटीले होते हैं। इन वनों में कीकर, बबूल, खैर, कैक्टस आदि प्रमुख वृक्ष पाये जाते हैं।

4. ज्वारीय वन- 
ये वन नदियों के डेल्टाई भागों में पाये जाते हैं। बंगाल में ‘सुन्दरवन डेल्टा’ में ये | मुख्यतः पाये जाते हैं। इन वनों में ‘सुन्दरी वृक्ष तथा मैंग्रोव मुख्य हैं। ताड़, बेंत, केवड़ा अन्य उपयोगी वृक्ष हैं।

5. हिमालय के वन (पर्वतीय वन)- 
हिमालय में उच्चावच के अनुसार वनों के कटिबन्ध मिलते हैं। 1,000 मीटर तक की ऊँचाई पर उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती वन मिलते हैं। 1,000 से 2,000 मीटर तक उपोष्ण कटिबन्धीय सदापर्णी वन मिलते हैं। 1,600 से 3,300 (UPBoardSolutions.com) मीटर की ऊँचाई तक शीतोष्ण कटिबन्धीय शंकुधारी वन मिलते हैं। 3,600 मीटर के ऊपर अल्पाइन वन पाये जाते हैं।

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वनों का आर्थिक महत्त्व

प्राकृतिक वनस्पति (वनों) से हमें अनेक प्रकार के लाभ होते हैं, जो वनों के आर्थिक महत्त्व के सूचक हैं। इनकी उपयोगिता निम्नलिखित है

  • वनों से अनेक प्रकार की लकड़ियाँ प्राप्त होती हैं, जिनको उपयोग इमारतें बनाने, वन-उद्योग तथा ईंधन के रूप में होती है। साल, सागौन, शीशम, देवदार तथा चीड़ प्रमुख इमारती लकड़ी की किस्में हैं।
  • वनों से प्राप्त लकड़ियाँ वनोद्योगों के लिए कच्चा माल प्रदान करती हैं। कागज, दियासलाई, प्लाइवुड, रबड़, लुगदी तथा रेशम उद्योग वनों पर ही आधारित हैं।
  • वनों से सरकार को राजस्व तथा रॉयल्टी के रूप में आय होती है।
  • वनों से लगभग 80 लाख व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त होता है।
  • वनों से अनेक प्रकार के गौण उत्पाद प्राप्त होते हैं, जिनमें कत्था, रबड़, मोम, कुनैन तथा जड़ी-बूटियाँ मुख्य हैं।
  • वनों का उपयोग पशुओं के चरागाह के रूप में भी होता है।
  • वनों से अनेक जीव-जन्तुओं को संरक्षण मिलता है।
  • वनों में अनेक जनजातियाँ निवास करती हैं, जिनकी आजीविका भी वनों पर आधारित है।
  • वन जलवायु के नियन्त्रक तथा बाढ़ नियन्त्रण में सहायक होते हैं।
  • ये वर्षा कराने में सहायक होते हैं तथा इनसे मृदा में उत्पादकता बढ़ती है।
  • वन पर्यावरण प्रदूषण को रोकते हैं तथा कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण करते हैं।
  • वन मरुस्थल के प्रसार को रोकते हैं।
  • वनों से पर्यटक उद्योग में वृद्धि होती है। नोट-वन संरक्षण के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 6 देखें।

प्रश्न 4. पारिस्थितिकीय सन्तुलन में वन्य-जीवों के योगदान को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
या
पारिस्थितिकी सन्तुलन बनाये रखने में जैव-विविधता के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :

पारिस्थितिकीय सन्तुलन में वन्य-जीवों का योगदान
अथवा जैव-विविधता का महत्त्व

पारिस्थितिकीय जैव सन्तुलन के लिए वन्य-जीवों का योगदान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इनके द्वारा पर्यावरण के बहुत-से प्रदूषित पदार्थों को समाप्त किया जाता है, जिससे पर्यावरण को स्वस्थ बनाये रखने में ये सहयोग प्रदान करते हैं।

भारत में अनेक प्रकार के वन्य जीव-जन्तु पाये जाते हैं, परन्तु उचित संरक्षण के अभाव के कारण उनकी अनेक प्रजातियाँ या तो नष्ट हो चुकी हैं अथवा लुप्तप्राय हैं। इसका एक प्रमुख कारण वन्य-जीवों का संहार है। कुछ व्यक्ति अपने मनोरंजन तथा अवशेषों (दाँत, खाल, मांस एवं पंख) की प्राप्ति हेतु उनका संहार करते हैं। परिणामस्वरूप इनकी अनेक प्रजातियाँ ही विलुप्त हो गयी हैं। विगत सौ वर्षों में विलुप्त होने वाले पक्षियों में अमेरिकी सुनहरी ईगल, सफेद चोंच वाला वुडपेकर, जंगली टर्की, हुपिंग क्रेन, टेम्पेटर हंस आदि प्रमुख हैं। सफेद शेर, हाथी, दरियायी घोड़ा, कस्तूरी मृग, श्वेत मृग आदि अब भारत के दुर्लभ जीव हैं। मस्क (UPBoardSolutions.com) बैल एवं नीली ह्वेल लुप्त होने की सीमा पर हैं। मोर तथा पश्चिमी राजस्थान में पाया जाने वाला गोंडावन (बस्टर्ड) पक्षी भी कम होते जा रहे हैं। औद्योगिक संस्थानों से निकलने वाले विषाक्त जल से भी बड़ी संख्या में मछलियों एवं अन्य छोटे जलीय जीवों की मृत्यु हो जाती है। इससे जलीय पौधों की भी अनेक प्रजातियाँ नष्ट हो चुकी हैं। जब जीव की कोई प्रजाति विलुप्त होती है, तो सजीव जगत् के एक अंश को हम सदैव के लिए खो देते हैं। इससे खाद्य-श्रृंखला पर गहरा प्रभाव पड़ता है तथा पर्यावरण एवं जन्तु-जगत् का सन्तुलन गड़बड़ा जाता है। यह विचारणीय है कि यदि खाद्य-श्रृंखला ही नष्ट हो गयी तो पर्यावरण को भी नष्ट होने से नहीं बचाया जा सकेगा। परिणामस्वरूप मनुष्य स्वयं भी विलुप्त हो जाएगा। अधोलिखित उदाहरणों से इसे और भी स्पष्ट किया जा सकता है

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  • कुल्लू घाटी में सेबों की फसल पर एक प्रकार का कीड़ा लग गया, जिसने सम्पूर्ण सेबों की फसल को चौपट कर दिया। कीटनाशकों के छिड़काव से भी कोई आशातीत लाभ नहीं हुआ। अन्तत: वहाँ एक विशेष प्रकार का कीड़ा लाकर छोड़ा गया तब उन हानिकारक कीड़ों पर काबू पाया जा सका।
  • अण्डमान-निकोबार द्वीप समूहों के जंगलों में एक बार सभी शेरों को मार डाला गया। परिणाम यह हुआ कि वहाँ हिरणों की संख्या बढ़ गयी और लोगों को खेती करना मुश्किल हो गया। अन्तत: वहाँ के जंगलों में फिर शेर छोड़े गये।

उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि मानवे तथा वन्य-प्राणी एक-दूसरे पर आश्रित हैं और संसार के सभी जीव-जन्तु प्रकृति की श्रृंखलाओं से जुड़े हुए हैं। यदि इनमें से एक भी श्रृंखला टूट जाती है तो पूरे जीवमण्डल का सन्तुलन लड़खड़ा जाता है। प्राकृतिक सन्तुलन के बिगड़ने से मनुष्य के समक्ष अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। यही कारण है कि इससे बचाव हेतु पारिस्थितिक सन्तुलन, जीवों के आर्थिक महत्त्व, जीवों के विभिन्न रूप-रंग, स्वभाव तथा व्यवहार के आकर्षण ने वन्य-जीव संरक्षण को राष्ट्रीय उत्तरदायित्व की विषय-वस्तु बना दिया है।

प्रश्न 5.
“वन राष्ट्र की अमूल्य निधि है।” इस कथन की पुष्टि करते हुए वनों के महत्व को सविस्तार लिखिए। वनों के कोई दो प्रत्यक्ष लाभ लिखिए। [2009, 11]
या
वनों के तीन महत्त्वों का वर्णन कीजिए। [2013]
या

वनों से होने वाले तीन लाभ लिखिए। [2013]
या

भारतीय वनों के किन्हीं चार लाभों का उल्लेख कीजिए। [2013]
या

वनों का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है ? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए। [2014]
या
भारतीय वनों के दो महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2015]
उत्तर :

भारत में वनों का महत्त्व

वन किसी भी राष्ट्र की अमूल्य सम्पत्ति होते हैं, जो वहाँ की जलवायु, भूमि की बनावट, वर्षा, जनसंख्या के घनत्व, कृषि, उद्योग आदि को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। इसीलिए के०एम० मुन्शी ने लिखा है, “वृक्ष का अर्थ है पानी, पानी का अर्थ है रोटी और रोटी ही जीवन है। भारत जैसे कृषिप्रधान देश के लिए तो वनों का महत्त्व और भी अधिक हो जाता है। भारत में वनों के महत्त्व को इनसे मिलने वाले लाभों से भली-भाँति समझा जा सकता है। वनों से प्राप्त होने वाले लाभों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है

1. प्रत्यक्ष लाभ तथा
2. अप्रत्यक्ष लाभ।

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I. प्रत्यक्ष लाभ
वनों से हमें निम्नलिखित प्रत्यक्ष लाभ प्राप्त होते हैं

1. लकड़ी की प्राप्ति- वनों से हमें विभिन्न प्रकार की इमारती तथा जलाने वाली लकड़ियाँ प्राप्त होती | हैं, जो फर्नीचर, इमारतों, उद्योग-धन्धों, कृषि-यन्त्रों के निर्माण आदि के काम आती हैं।
2. उद्योगों को कच्चा माल- माचिस, कागज, प्लाइवुड, रबड़ आदि उद्योगों का विकास वनों पर निर्भर करता है। वनों से विभिन्न उद्योगों के लिए बाँस, लकड़ी, तारपीन का तेल, रंग, रबड़, लाख, वृक्षों की छाल आदि कच्चा माल प्राप्त होता है।
3. पशुओं के लिए चारा- वनों से पशुओं के चारे के रूप में घास-फूस प्राप्त होती है, जिससे चारे की फसलों की आवश्यकता घट जाती है और अधिक भूमि पर खाद्य-फसलें उगायी जा सकती हैं।
4. रोजगार- लगभग 80 लाख व्यक्तियों को वनों से रोजगार प्राप्त होता है।
5. कुटीर व लघु उद्योगों के विकास में सहायक- शहद, रेशम, मोम, कत्था, बेंत आदि के उद्योग वनों पर आधारित हैं। इसके अतिरिक्त बीड़ी, रस्सी, टोकरियाँ आदि बनाने के उद्योगों के विकास में भी वन सहायक होते हैं।
6. औषधियाँ- आयुर्वेदिक, यूनानी तथा एलोपैथी चिकित्सा-प्रणालियों में काम आने वाली विभिन्न पत्तियाँ, टहनियाँ, जड़े, फल-फूल आदि वनों से प्राप्त होते हैं। भारतीय वनों से लगभग 500 प्रकार की औषधियाँ प्राप्त होती हैं।
7. सुगन्धित तथा अन्य तेल- तारपीन, चन्दन, नीम, महुआ आदि तेलों का उत्पादन वनों से प्राप्त सामग्रियों पर ही आधारित है।
8. शिकारगाह- अनेक जंगली जानवर वनों में रहते हैं, जिनका शिकार करके खालें, हड्डियाँ, सींग आदि प्राप्त किये जाते हैं। इन वस्तुओं का निर्यात भी किया जाता है। वर्तमान में भारत सरकार द्वारा वन्य जन्तुओं के अनधिकृत शिकार पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है।
9. सरकार को आय- वनों से केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सरकारों को पर्याप्त धनराशि आय के रूप में प्राप्त होती है।
10. पर्यटन के सुन्दर स्थान- वन प्राकृतिक सौन्दर्य में वृद्धि करते (UPBoardSolutions.com) हैं। भ्रमण के इच्छुक व्यक्ति वनों के सुन्दर स्थलों पर घूमने के लिए जाते हैं।

II. अप्रत्यक्ष लाभ
वनों से प्राप्त होने वाले अप्रत्यक्ष लाभ निम्नलिखित हैं
1. वर्षा में सहायक- वन बादलों को रोककर निकटवर्ती स्थानों में वर्षा कराने में सहायक होते हैं। जिन क्षेत्रों में वन अधिक होते हैं, वहाँ वर्षा अधिक होती है।
2. भूमि कटाव पर रोक- वनों की घास-फूस तथा वृक्ष पानी के वेग को कम कर देते हैं, जिससे पानी उपजाऊ मिट्टी को अपने साथ बहाकर ले जाने में अधिक सफल नहीं हो पाता।
3. बाढ़-नियन्त्रण में सहायक- वन वर्षा के जल-प्रवाह की गति को कम करके तथा जल को स्पंज की भाँति सोखकर बाढ़ों की भीषणता को कम कर देते हैं।
4. जलवायु पर नियन्त्रण- वन जलवायु की विषमताओं को रोककर उसे समशीतोष्ण बनाये रखते हैं। घने वन तीव्र हवाओं को रोकते हैं, जिससे निकटवर्ती स्थानों में अधिक गर्म व अधिक ठण्डी हवाएँ। नहीं आ पातीं।
5. पर्यावरण सन्तुलन- वन कार्बन डाइऑक्साइड को ऑक्सीजन में बदलकर वायु-प्रदूषण को रोकते हैं और पर्यावरण का सन्तुलन बनाये रखते हैं।
6. खाद की प्राप्ति- वनों की निकटवर्ती भूमि उपजाऊ होती है, क्योंकि वनों के वृक्षों की पत्तियाँ व घास-फूस गल-सड़कर खाद का कार्य करते हैं। मिट्टी में वनस्पति का अंश मिल जाने से उसकी उपजाऊ शक्ति बढ़ जाती है।
7. विदेशी आक्रमणों से सुरक्षा- शत्रु घने जंगलों से गुजरकर आक्रमण करने का साहस नहीं कर पाते।।
8. अन्य लाभ-

  • वन विभिन्न पशु-पक्षियों को रहने के लिए स्थान प्रदान करते हैं।
  • जंगलों में रहने वाले जंगली जाति के लोगों को वन फल-फूल तथा (UPBoardSolutions.com) जानवरों के मांस के रूप में भोजन भी प्रदान करते हैं।

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प्रश्न 6.
वनों के ह्रास के कोई तीन कारण लिखिए। वनों के संरक्षण के लिए तीन उपायों का सुझाव दीजिए। [2013]
या
वन संरक्षण क्या है? इसके दो उपायों का सुझाव दीजिए। [2014]
या

भारत में वनों के हास के दो कारण बताइए। [2014, 15]
या

भारत में वनों के हास के क्या कारण हैं ? उनके हास से उत्पन्न समस्याओं की विवेचना कीजिए।
या
वनों की हानि से होने वाले किन्हीं तीन प्रभावों का उल्लेख कीजिए। [2011]
या

वनों के हास से क्या आशय है? भारत में वनों के हास से होने वाले दो प्रभाव बताइए। [2013]
या

वन संरक्षण के तीन उपाय सुझाइए। [2013]
उत्तर :

वनों के हास के कारण

उपग्रहों से लिये गये चित्रों से ज्ञात हुआ है कि भारत में प्रति वर्ष 13 लाख हेक्टेयर क्षेत्र के वन नष्ट हो रहे हैं। वनों के विनाश में मध्य प्रदेश सबसे आगे है। यहाँ लगभग 20 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में वनों का विनाश हुआ है। आन्ध्र प्रदेश, ओडिशा, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र में (UPBoardSolutions.com) लगभग 10 लाख हेक्टेयर तथा राजस्थान व हिमाचल में लगभग 5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में वन विनाश हुआ है। भारत में अब (2015) के अनुसार, 21.34% क्षेत्र पर वन हैं। इन वनों के विनाश के निम्नलिखित कारण हैं

  • निरन्तर बढ़ती जनसंख्या व सामाजिक आवश्यकताएँ।
  • वन भूमि का खेती के लिए उपयोग।
  • उद्योग-धन्धों व मकानों का निर्माण।
  • ईंधन व इमारती लकड़ी की बढ़ती माँग।
  • बाँधों के निर्माण से वनों का जलमग्न होना।
  • सड़कों व रेलमार्गों का निर्माणं।
  • अनियन्त्रित पशुचारण के कारण।
  • जनता में वृक्षों के संवर्धन के प्रति चेतना के अभाव के कारण।
  • स्थानान्तरणशील या झूमिंग कृषि के कारण।
  • दावानल, आँधी, भूस्खलन के कारण।
  • वन-आधारित शक्तिगृहों के लिए वनों की अन्धाधुन्ध कटाई।

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हास से उत्पन्न समस्याएँ या प्रभाव

भारत में वनों के अन्धाधुन्ध ह्रास के निम्नलिखित हानिकारक प्रभाव पड़े हैं

  • वनों के अविवेकपूर्ण दोहन से बाढ़ों की आवृत्ति बढ़ी है, जिससे भूमि का अपरदन हुआ है। इन दोनों का दुष्प्रभाव कृषि पर पड़ता है।
  • वनों के कटाव से वर्षा की मात्रा में कमी आयी है, जिससे सूखे का संकट पैदा हुआ है।
  • वन अनेक जीव-जन्तुओं के प्राकृतिक आवास होते हैं। वनों के विनाश से जीव-जन्तुओं के प्राकृतिक आवास नष्ट हुए हैं।
  • वनों के विनाश का प्रभाव सम्पूर्ण पारिस्थितिक तन्त्र पर पड़ता है। इसके दीर्घकालीन दुष्परिणाम होते हैं, जिनसे मानव भी अछूता नहीं रह सका है।
  • वन वायु को शुद्ध करते हैं। वनों के अत्यधिक दोहन से वायु प्रदूषण बढ़ा है।
  • वनों के ह्रास से रोग तथा अन्य बीमारियों का प्रतिशत बढ़ा है।
  • वनों के ह्रास से औषधीय वनस्पति का अत्यधिक विनाश हुआ है।
  • वनों के विनाश से भू-क्षरण, अतिवृष्टि, (UPBoardSolutions.com) बाढ़ तथा भूमिगत जल की कमी की समस्या उत्पन्न हुई है।

वन संरक्षण

वनों को नष्ट होने से बचाने व उनके विकास के लिए किया जाने वाला प्रयास वन संरक्षण कहलाता है।

वनों के विकास हेतु सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयास
(वन संरक्षण के उपाय)

देश में वनों के सुनियोजित विकास के लिए सरकार ने समय-समय पर अनेक कदम उठाये हैं। अपनी वन-नीति के अन्तर्गत सरकार ने वनों के संरक्षण तथा विकास के लिए निम्नलिखित मुख्य कार्य किये हैं
1. वन महोत्सव- सन् 1950 ई० में केन्द्रीय वन मण्डल की स्थापना की गयी। सन् 1950 ई० में ही भारत सरकार के तत्कालीन कृषि मन्त्री के०एम० मुन्शी ने ‘अधिक वृक्ष लगाओ’ आन्दोलन प्रारम्भ किया, जिसे ‘वन महोत्सव’ का नाम दिया गया। यह आन्दोलन अब भी चल रहा है। यह प्रत्येक वर्ष पूरे देश में 1 जुलाई से 7 जुलाई तक मनाया जाता है। इस आन्दोलन का उद्देश्य वन-क्षेत्र में वृद्धि तथा जनता में वृक्षारोपण की प्रवृत्ति पैदा करना है।

2. वन-नीति की घोषणा- 
भारत सरकार ने 1952 ई० में अपनी वन-नीति की घोषणा की, जिसमें इन बातों का निश्चय किया गया–

  • देश में वनों का क्षेत्र बढ़ाकर 33% किया जाएगा।
  • वनों पर सरकारी नियन्त्रण होगा।
  • नहरों, नदियों व सड़कों के किनारे वृक्ष लगाये जाएँगे।
  • राजस्थान के रेगिस्तान को रोकने के लिए इसकी सीमा पर वृक्ष लगाये जाएँगे आदि।

3. केन्द्रीय वन आयोग की स्थापना- सरकार ने इसकी स्थापना 1965 ई० में की। इस आयोग का कार्य वन सम्बन्धी आँकड़े व सूचनाएँ एकत्रित करना तथा उन्हें प्रोत्साहित करना था। यह आयोग बाजारों का अध्ययन करके वनों के विकास में लगी विभिन्न (UPBoardSolutions.com) संस्थाओं के कार्यों में तालमेल बैठाता है।

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4. सर्वेक्षण कार्य-
वनों के सर्वेक्षण के लिए सरकार ने एक पृथक् संगठनं बनाया है, जो लगभग
2 लाख वर्ग किमी वन-क्षेत्र का सर्वेक्षण कर चुका है।

5. राष्ट्रीय वन अनुसन्धान संस्थान- 
इसकी स्थापना देहरादून में की गयी है, जिसका मुख्य कार्य वनों तथा वनों से प्राप्त वस्तुओं के सम्बन्ध में अनुसन्धान करना है। यह संस्थान कर्मचारियों को वन सम्बन्धी शिक्षा देकर प्रशिक्षित करता है। वन सम्बन्धी शिक्षा देने के लिए देहरादून तथा चेन्नई में फॉरेस्ट कॉलेज खोले गये हैं।

6. काष्ठ-कला प्रशिक्षण केन्द्र-
इसकी स्थापना 1965 ई० में देहरादून में की गयी थी। यह केन्द्र लकड़ी काटने व उसे प्राप्त करने के आधुनिक तरीकों सम्बन्धी प्रशिक्षण प्रदान करता है।

7. पंचवर्षीय योजनाओं में वन- 
विकास-सन् 1951 ई० में प्रथम योजना के लागू होने के बाद से वन-विकास के लिए निरन्तर प्रयास किये गये हैं। छठी योजना के अन्तर्गत वनों के विकास पर 1,168 करोड़ व्यय किये गये। सातवीं योजना में वनों के विकास के (UPBoardSolutions.com) लिए १ 1,203 करोड़ तथा आठवीं पंचवर्षीय योजना में हैं 1,200 करोड़ व्यय करने का प्राक्धान था। अब तक वन-क्षेत्र में 67.8 हजार किमी लम्बी सड़कों का निर्माण किया जा चुका है।

8. अन्य प्रयास-

  • वनों को ठेके पर देने की प्रथा को समाप्त करने के उद्देश्य से विभिन्न राज्यों में वन-विकास निगमों की स्थापना की गयी है।
  • सन् 1978 ई० में अहमदाबाद में भारतीय वन प्रबन्ध संस्थान की स्थापना की गयी, जिसका कार्य वन विभाग के कर्मचारियों को वन-प्रबन्ध की आधुनिक विधियों से अवगत कराना है।
  • वनों के विकास के लिए भारत को हरा-भरा बनाओ आन्दोलन’ प्रारम्भ किया गया है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वन्य-जीव संरक्षण का महत्त्व बताइए।
उत्तर :
भारत में वन्य-जीवों का संरक्षण एक दीर्घकालिक परम्परा रही है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि ईसा से 6000 वर्ष पूर्व के आखेट-संग्राहक समाज में भी प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग पर विशेष ध्यान दिया जाता था। प्रारम्भिक काल से ही मानव समाज कुछ जीवों को विनाश से बचाने के प्रयास करते रहे हैं। हिन्दू महाकाव्यों, धर्मशास्त्रों, पुराणों, जातकों, पंचतन्त्र एवं जैन धर्मशास्त्रों सहित प्राचीन भारतीय साहित्य में छोटे-छोटे जीवों के प्रति हिंसा के लिए भी दण्ड का प्रावधान था। इससे स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति में वन्य-जीवों को कितना सम्मान दिया जाता था। आज भी अनेक समुदाय वन्य-जीवों के संरक्षण के प्रति पूर्ण रूप से सजग एवं समर्पित हैं। विश्नोई समाज के लोग पेड़-पौधों तथा जीव-जन्तुओं के संरक्षण के लिए उनके द्वारा निर्मित सिद्धान्तों का पालन करते हैं। महाराष्ट्र में भी मोरे समुदाय के लोग मोर एवं चूहों की सुरक्षा में विश्वास रखते हैं। कौटिल्य द्वारा लिखित ‘अर्थशास्त्र में कुछ पक्षियों की हत्या पर महाराजा अशोक द्वारा लगाये गये प्रतिबन्धों का भी उल्लेख मिलता है।

प्रश्न 2.
भारतीय वनों की किन्हीं चार विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2011]
उत्तर :
भारतीय वनों की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. भारत में जलवायु की विभिन्नता के कारण विविध प्रकार के वन पाये जाते हैं। यहाँ विषुवत्रेखीय सदाबहार वनों से लेकर शुष्क, कॅटीले वन व अल्पाइन कोमल लकड़ी वाले) वन तक मिलते
  2. भारत में कोमल लकड़ी वाले वनों का क्षेत्र कम पाया जाता है। यहाँ कोमल लकड़ी वाले वन हिमालय के अधिक ऊँचे ढालों पर मिलते हैं, जिन्हें काटकर उपयोग में लाना अत्यन्त कठिन है।
  3. भारत के मानसूनी वनों में ग्रीष्म ऋतु से पूर्व वृक्षों की पत्तियाँ नीचे गिर जाती हैं; जिसे पतझड़ कहते हैं।
  4. भारत के वनों में विविध प्रकार के वृक्ष मिलते हैं। अत: उनकी कटाई के सम्बन्ध में विशेषीकरण नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 3.
यव वृक्ष कहाँ पाया जाता है? इससे कौन-सी औषधि बनायी जाती है ?
उत्तर :
हिमालयन यव (चीड़ की प्रजाति का सदाबहार वृक्ष) एक औषधीय पौधा है जो हिमाचल प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश के कई क्षेत्रों में पाया जाता है। इसके पेड़ की छाल, पत्तियों, टहनियों और जड़ों से टकसोल (Taxol) नामक रसायन निकाला जाता है जिसे कैंसर के उपचार में प्रयोग किया जाता है। इससे बनायी गयी दवाई विश्व में सबसे अधिक बिकने वाली कैंसर औषधि है। इसके रस के अत्यधिक निष्कासन से इस वनस्पति जाति को (UPBoardSolutions.com) खतरा उत्पन्न हो गया है। पिछले एक दशक में हिमाचल प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में यव के हजारों पेड़ सूख गये हैं।

भारत में बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकता की पूर्ति हेतु कृषि क्षेत्र एवं औद्योगीकरण के विस्तार के कारण जिस प्रकार वनों की अन्धाधुन्ध कटाई हो रही है, वह एक गम्भीर चिन्ता का विषय है। देश में वन आवरण के अन्तर्गत अनुमानित 6,78,333 वर्ग किमी क्षेत्रफल है। यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 20.60 प्रतिशत है। इसमें सघन वन क्षेत्र तो केवल 3,90,564 वर्ग किमी ही है। राष्ट्रीय वननीति के अनुसार देश में वन क्षेत्र का विस्तार 33 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र पर होना चाहिए। हमारे प्रदेश में तो वनों का क्षेत्रफल कुल क्षेत्रफल का केवल 6,98 प्रतिशत ही है।

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प्रश्न 4.
वन्य जीवन के संरक्षण की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर :
वन्य जीवन संरक्षण की आवश्यकता निम्नलिखित दो कारणों से होती है

  1. प्राकृतिक सन्तुलन में सहायक-वन्य जीवन वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिए प्रकृति का अनुपम उपहार हैं। किन्तु वर्तमान समय में अत्यधिक वन दोहन तथा अनियन्त्रित और गैर-कानूनी आखेट के कारण भारत की वन्य जीव-सम्पदा का तेजी से ह्रास हो रहा है। अनेक महत्त्वपूर्ण पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ विलोप के कगार पर हैं। प्राकृतिक सन्तुलन बनाये रखने के लिए वन्य-जीव संरक्षण की बहुत आवश्यकता है।
  2. पर्यावरण प्रदूषण-पर्यावरण प्रदूषण पर प्रभावी रोक लगाने के लिए भी पशुओं एवं वन्य-जीवों का संरक्षण आवश्यक है, क्योंकि इनके द्वारा पर्यावरण में उपस्थित बहुत-से प्रदूषित पदार्थों को नष्ट कर दिया जाता है। इसके साथ ही वन्य-जीव पर्यावरण को स्वच्छ बनाये रखने में अपना अमूल्य योगदान देते हैं।

प्रश्न 5.
पारितन्त्र किसे कहते हैं ? [2014]
उत्तर :
किसी क्षेत्र के पेड़-पौधे तथा जीव-जन्तु परस्पर इतने जुड़े होते हैं तथा एक-दूसरे पर इतने आश्रित होते हैं कि एक के बिना दूसरे के अस्तित्व की कल्पना तक नहीं की जा सकती। ये एक-दूसरे पर आश्रित पेड़-पौधे और जीव-जन्तु मिलकर एक पारितन्त्र का निर्माण करते हैं। उदाहरण के लिए-जीवजन्तु भोजन, ऑक्सीजन आदि के लिए पेड़-पौधों पर आश्रित होते हैं। वर्षा, पर्यावरण आदि के लिए भी वे पेड़-पौधों पर आश्रित हैं। जीव-जन्तु भी (UPBoardSolutions.com) पेड़-पौधों के लिए उपयोगी हैं, क्योंकि वे इनको बनाये रखने और इनकी वृद्धि करने में अनेक प्रकार से सहायक हैं। इस पारितन्त्र का विकास लाखों-करोड़ों वर्षों में हुआ है। इससे छेड़छाड़ के गम्भीर परिणाम हो सकते हैं।

प्रश्न 6.
राष्ट्रीय उद्यान तथा वन्य-जीव अभयारण्य को परिभाषित करते हुए इनमें किसी एक अन्तर का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
राष्ट्रीय उद्यान एक या एक से अधिक पारितन्त्रों वाला वृहत् क्षेत्र होता है। विशिष्ट वैज्ञानिक शिक्षा तथा मनोरंजन के लिए इसमें पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं की प्रजातियों, भू-आकृतिक स्थलों और आवासों को संरक्षित किया गया है। राष्ट्रीय उद्यान की ही भाँति, वन्य-जीव अभयारण्य भी वन्य-जीवों की सुरक्षा के लिए स्थापित किये गये हैं। अभयारण्य एवं राष्ट्रीय उद्यानों में सूक्ष्म अन्तर हैं। अभयारण्य में बिना अनुमति शिकार करना वर्जित है, परन्तु चराई एवं गो-पशुओं का आवागमन नियमित होता है। राष्ट्रीय उद्यानों में शिकार एवं चराई पूर्णतया वर्जित होते हैं। अभयारण्यों में मानवीय क्रियाकलापों की अनुमति होती है, जबकि राष्ट्रीय उद्यानों में मानवीय हस्तक्षेप पूर्णतया वर्जित होता है।

प्रश्न 7.
वन और वन्यजीव संरक्षण में सहयोगी रीति-रिवाजों पर एक निबन्ध लिखिए।
उत्तर :
भारत में प्रकृति की पूजा सदियों से चला आ रहा परम्परागत विश्वास है। इस विश्वास का उद्देश्य प्रकृति के स्वरूप की रक्षा करना है। विभिन्न समुदाय कुछ विशेष वृक्षों की पूजा करते हैं और प्राचीनकाल से उनका संरक्षण भी करते चले आ रहे हैं। उदाहरण के लिए—छोटा नागपुर क्षेत्र में मुंडा और संथाल जनजातियाँ महुआ और कदम्ब के पेड़ों की पूजा करती हैं। ओडिशा और बिहार की जनजातियाँ। विवाह के दौरान इमली और आम के पेड़ों की पूजा करती हैं। बहुत-से लोग पीपल और बरगद के वृक्षों की पूजा आज भी करते हैं।

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अंतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्राकृतिक वनस्पति क्या है ? [2009]
उत्तर :
किसी भी क्षेत्र में व्याप्त घास से लेकर बड़े-बड़े वृक्षों तक को उस क्षेत्र की प्राकृतिक वनस्पति कहते हैं।

प्रश्न 2.
 प्राकृतिक वनस्पति को प्रभावित करने वाले कारकों के नाम बताइए।
उत्तर :
प्राकृतिक वनस्पति को प्रभावित करने वाले कारकों के नाम इस प्रकार हैं-मृदा, तापमान, वर्षा की मात्रा और समय (अवधि)

प्रश्न 3.
राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार देश के कितने प्रतिशत क्षेत्र पर वनावरण होना चाहिए?
उत्तर :
राष्ट्रीय वन-नीति के अनुसार देश के 33.3% क्षेत्र पर वन होने चाहिए।

प्रश्न 4.
भारत के राष्ट्रीय पशु तथा पक्षी के नाम लिखिए।
उत्तर :
भारत का राष्ट्रीय पशु ‘शेर’ तथा राष्ट्रीय पक्षी ‘मोर’ है।

प्रश्न 5.
भारत में प्रथम जीव आरक्षित क्षेत्र कब और कहाँ स्थापित किया गया ?
उतर :
सन् 1986 ई० में केरल, कर्नाटक तथा (UPBoardSolutions.com) तमिलनाडु राज्यों के सीमावर्ती 5,500 वर्ग किमी क्षेत्र में नीलगिरि पर प्रथम जीव आरक्षित क्षेत्र स्थापित किया गया।

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प्रश्न 6.
जैव संरक्षण की क्यों आवश्यकता है ? कोई दो कारण बताइए।
उत्तर :
जैव संरक्षण की आवश्यकता निम्नलिखित दो कारणों से होती है

  • मनुष्य के चारों ओर विद्यमान पारिस्थितिक तन्त्र को सन्तुलन प्रदान करने के लिए।
  • विभिन्न जीव-जन्तुओं तथा वनस्पतियों के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए।

प्रश्न 7.
शेर संरक्षित परियोजना भारत के किस राज्य में लागू है?
उतर :
शेर संरक्षित परियोजना भारत के पश्चिम बंगाल राज्य में लागू है।

प्रश्न 8.
भारत के दो प्रमुख राष्ट्रीय उद्यानों के नाम बताइए।
उतर :
भारत के दो प्रमुख राष्ट्रीय उद्यान हैं

  • जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान,
  • सुन्दरवन राष्ट्रीय उद्यान।

प्रश्न 9.
भारत के दो प्रमुख पक्षी विहारों के नाम बताइए।
उतर :
सरिस्का तथा भरतपुर में पक्षी विहार हैं।

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प्रश्न 10.
चार औषधीय पौधों के नाम बताइए।
उत्तर :
चार औषधीय पौधे हैं-चन्दन, (UPBoardSolutions.com) अशोक, नीम तथा महुआ।

प्रश्न 11.
बाघ परियोजना कब से लागू की गई है?
उत्तर :
बाघ परियोजना 1973 ई० से लागू की गई है।

प्रश्न 12.
वनों पर आधारित किन्हीं दो उद्योगों का उल्लेख कीजिए। [2013, 14, 17]
उत्तर :
वनों पर आधारित दो उद्योग हैं-कागज-उद्योग तथा बीड़ी उद्योग।

प्रश्न 13.
वनों की हानि से क्या आशय है? [2011]
उत्तर :
वनों की हानि से आशय वनों को तेजी से काटे जाने से है, जिससे वन क्षेत्र कम होता जा रहा है। और वनों का ह्रास होता जा रहा है।

प्रश्न 14.
पारिस्थितिकीय तन्त्र को परिभाषित कीजिए। [2015]
उत्तर :
समस्त वनस्पति जगत, जन्तु जगत एवं भौतिक पर्यावरण (UPBoardSolutions.com) का सम्मिलन पारिस्थितिकीय तन्त्र कहलाता है।

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प्रश्न 15.
‘वन महोत्सव’ से आप क्या समझते हैं? [2016]
उत्तर :
वन महोत्सव–राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के प्रति जनजागरण के लिए सरकार ने प्रतिवर्ष 5 दिसम्बर को वन महोत्सव मनाये जाने का निर्णय लिया। यह दिन प्रत्येक राज्य में पेड़ लगाने के, रूप में मनाया जाता है। इस दिन लाखों की संख्या में (UPBoardSolutions.com) वृक्षारोपण किया जाता है। इस योजना का सही क्रियान्वयन न होने से भी इसके विकास में सही गति नहीं पकड़ी जिसकी अपेक्षा की गयी है।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1. सुन्दरवन उगते हैं [2012]

(क) गंगा के डेल्टा में
(ख) दक्कन के पठार पर
(ग) गोदावरी के डेल्टा में
(घ) महानदी के डेल्टा में

2. निम्नलिखित में कौन सदाबहारी वन है? [2012]
या
निम्नलिखित में से कौन वृक्ष सदाबहारी जंगलों में पाया जाता है? [2015]

(क) महोगनी
(ख) शीशम
(ग) अपेशिया
(घ) आम

3. मानसूनी वनों का प्रमुख वृक्ष है|

(क) रबड़
(ख) आम
(ग) महोगनी
(घ) शीशम

4. कॉर्बेट नेशनल पार्क कहाँ पर है?

(क) रामनगर (नैनीताल)
(ख) दुधवा (लखीमपुर)
(ग) बाँदीपुर (राजस्थान)
(घ) काजीरंगा (असोम)

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5. सागौन का वृक्ष कहाँ पाया जाता है?

(क) सदाबहार वनों में
(ख) डेल्टाई वनों में
(ग) मानसूनी वनों में
(घ) पर्वतीय वनों में

6. वन महोत्सव कब प्रारम्भ हुआ था?

(क) 1950 ई० में
(ख) 1955 ई० में
(ग) 1960 ई० में
(घ) 1945 ई० में

7. वन हमारी सहायता करते हैं

(क) मिट्टी का कटाव रोककर
(ख) बाढ़ रोककर
(ग) वर्षा की मात्रा बढ़ाकर
(घ) इन सभी प्रकार से

8. ‘काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान’ कहाँ स्थित है?

(क) उत्तर प्रदेश में
(ख) असोम में
(ग) ओडिशा में
(घ) गुजरात में

9. ज्वारीय वन कहाँ पाये जाते हैं? [2012, 14, 16]

(क) डेल्टाई भागों में
(ख) मरुस्थलीय भागों में
(ग) पठारी भागों में
(घ) पर्वतीय भागों में

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10. वह राज्य जहाँ सर्वाधिक शेर पाये जाते हैं

(क) उत्तर प्रदेश
(ख) गुजरात
(ग) मध्य प्रदेश
(घ) आन्ध्र प्रदेश

11. भारत का राष्ट्रीय पक्षी है [2017]

(क) कबूतर
(ख) मोर
(ग) गौरैया
(घ) हंस

12. किस राज्य में सुन्दरवन स्थित है? [2013]

(क) ओडिशा
(ख) मेघालय
(ग) पश्चिम बंगाल
(घ) अरुणाचल प्रदेश

13. भारत में कितने प्रतिशत भू-भाग पर वन हैं? [2014]

(के) 22.8%
(ख) 23.6%
(ग) 25.9%
(घ) 24.05%

उत्तरमाला.

1. (क), 2. (क), 3. (घ), 4. (क), 5. (ग), 6. (क) 7. (घ), 8. (ख), 9. (क), 10. (ख), 11. (ख), 12. (ग), 13. (घ)

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi सांस्कृतिक निबन्ध : सूक्तिपरक

UP Board Solutions for Class 10 Hindi सांस्कृतिक निबन्ध : सूक्तिपरक

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सांस्कृतिक निबन्ध: सूक्तिपरक

12. परहित सरिस धरम नहिं भाई [2010, 14, 16, 17]

सम्बद्ध शीर्षक

  • वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे
  • परोपकार का महत्त्व [2011, 14]
  • परोपकार ही जीवन है। [2012, 13]

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. परोपकार का अर्थ,
  3. परोपकार : एक स्वाभाविक गुण,
  4. परोपकार : मानव का धर्म,
  5. परोपकार : आत्मोत्थान का मूल,
  6. परोपकारी महापुरुषों के उदाहरण,
  7. प्रेम : परोपकार का प्रतिरूप,
  8. उपसंहार

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प्रस्तावना–संसार में परोपकार से बढ़कर कोई धर्म नहीं हैं। सन्त-असन्त और अच्छे-बुरे व्यक्ति का अन्तर परोपकार से प्रकट होता है। जो व्यक्ति परोपकार के लिए अपने शरीर की बलि दे देता है, वह सन्त या अच्छा व्यक्ति है। अपने संकुचित (UPBoardSolutions.com) स्वार्थ से ऊपर उठकर मानव-जाति का नि:स्वार्थ उपकार करना ही मनुष्य का प्रधान कर्तव्य है। जो मनुष्य जितना पर-कल्याण के कार्य में लगा रहता है, वह उतना ही महान् बनता है। जिस समाज में दूसरे की सहायता करने की भावना जितनी अधिक होती है, वह समाज उतना ही सुखी और समृद्ध होता है। इसलिए तुलसीदास जी ने कहा है

परहित सरिस धरम नहिं भाई ।पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।

परोपकार का अर्थ-परोपकार से तात्पर्य है-दूसरों का हित करना। जब हम स्वार्थ से प्रेरित होकर दूसरे का हित साधन करते हैं, तब वह परोपकार नहीं होता। परोपकार स्वार्थपूर्ण मन से नहीं हो सकता है। उसके लिए हृदय की पवित्रता और शुद्धता आवश्यक है। परोपकार क्षमा, दया, त्याग, बलिदान, प्रेम, ममता आदि गुणों का व्यक्त रूप है। महर्षि व्यास ने परोपकार को पुण्य की संज्ञा दी है; यथा—

अष्टादश पुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम्।।
परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥

परोपकारः एक स्वाभाविक गुण–परोपकार की भावना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। यह भावना मनुष्य में ही नहीं, पशु-पक्षियों, वृक्ष और नदियों तक में पायी जाती है। प्रकृति भी सदा परोपकारयुक्त दिखाई देती है। मेघ वर्षा का जल स्वयं नहीं पीते, वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते, नदियाँ दूसरों के उपकार के लिए ही बहती हैं। सूर्य सबके लिए प्रकाश वितरित करता है, चन्द्रमा अपनी शीतल किरणों से सबको शान्ति देता है, सुमन सर्वत्र अपनी सुगन्ध फैलाते हैं, गाय हमारे पीने के लिए ही दूध देती है। कवि रहीम का कथन है–

तरुवर फल नहिं खाते हैं, सरवर पियहिं न पान ।
कहि रहीम परकाज हित, सम्पति सँचहिं सुजान ॥

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परोपकार : मानव का धर्म-परोपकार मनुष्य का धर्म है। भूखों को अन्न, प्यासे को पानी, वस्त्रहीन को वस्त्र, पीड़ितों और रोगियों की सेवा-सुश्रुषा मानव का परम धर्म है। संसार में ऐसे ही व्यक्तियों के नाम अमर होते हैं, जो दूसरों के लिए मरते और जीवित रहते हैं। (UPBoardSolutions.com) तुलसीदास की ये पंक्तियाँ कितनी महत्त्वपूर्ण

परहित बस जिनके मन माहीं । तिन्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥

परोपकार को इतनी महत्ता इसलिए दी गयी है, क्योंकि इससे मनुष्य की पहचान होती है। इस प्रकार सच्चा मनुष्य वही है जो दूसरों के लिए अपना सर्वस्व निछावर करने को तत्पर रहता है।

परोपकार : आत्मोत्थान की मूल-मनुष्य क्षुद्र से महान् और विरल से विराट तभी बनता है जब उसकी परोपकार-वृत्ति विस्तृत होती जाती है। भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि उसने प्राणिमात्र के हित को मानव-जीवन का लक्ष्य बताया है। एक धर्मप्रिय व्यक्ति की जीवनचर्या पक्षियों को दाना और पशुओं को चारा देने से प्रारम्भ होती है। यही व्यक्ति का समष्टिमय स्वरूप है। ज्यों-ज्यों आत्मा में उदारता बढ़ती जाती है, उतनी ही अधिक आनन्द की उपलब्धि होती जाती है और अपने समस्त कर्म जीव-मात्र के लिए समर्पित करने की भावना तीव्रतर होती जाती है

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः ।।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत् ॥

अर्थात् सभी लोग सुखी हों, निरोगी हों, कल्याणयुक्त हों। दुःख-कष्ट कोई न भोगे। यही सर्व कल्याणमय भावना सन्तों का मुख्य लक्षण है।

परोपकारी महापुरुषों के उदाहरण-महर्षि दधीचि ने राक्षसों के विनाश के लिए अपनी हड्डियाँ देवताओं को दे दी। राजा शिवि ने कबूतर की रक्षा के लिए बाज को अपने शरीर का मांस काट-काटकर दे दिया। गुरु गोविन्द सिंह हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपने बच्चों सहित बलिदान हो गये। राजकुमार सिद्धार्थ ने संसार को दु:ख से छुड़ाने के लिए राजसी सुख-वैभव का त्याग कर दिया। लोक-हित के लिए महात्मा ईसा सूली पर चढ़ गये और सुकरात ने विष (UPBoardSolutions.com) का प्याला पी लिया। महात्मा गाँधी ने देश की अखण्डता के लिए अपने सीने पर गोलियाँ खायीं। इस प्रकार इतिहास का एक-एक पृष्ठ परोपकारी महापुरुषों की पुण्यगाथाओं से भरा पड़ा है।

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प्रेम: परोपकार का प्रतिरूप—प्रेम और परोपकार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्राणिमात्र के प्रति स्नेह-वात्सल्य की भावना परोपकार से ही जुड़ी हुई है। प्रेम में बलिदान और उत्सर्ग की भावना प्रधान होती है। जो पुरुष परोपकारी होता है, वह दूसरों के हित के लिए अपने सर्वस्व निछावर हेतु तत्पर रहता है। परोपकारी व्यक्ति कष्ट उठाकर, तकलीफ का अनुभव करके भी परोपकार वृत्ति का त्याग नहीं करता। जिस प्रकार मेहदी लगाने वाले के हाथ में भी अपना रंग रचा देती है, उसी प्रकार परोपकारी व्यक्ति की संगति सदा सबको सुख देने वाली होती है।

उपसंहार–परोपकार मानव-समाज का आधार है। समाज में व्यक्ति एक-दूसरे की सहायता व सहयोग की सदा आकांक्षी रहता है। परोपकार सामाजिक जीवन की धुरी है, उसके बिना सामाजिक जीवन गति नहीं कर सकता। परोपकार मानव-जाति का आभूषण है। ‘परोपकाराय सतां विभूतयः’ अर्थात् सत्पुरुषों का अलंकार तो परोपकार ही है। हमारा कर्तव्य है कि हम परोपकारी महात्माओं से प्रेरित होकर अपने जीवन-पथ को प्रशस्त करें और कवि मैथिलीशरण (UPBoardSolutions.com) गुप्त के इस लोक-कल्याणकारी पावन सन्देश को चारों दिशाओं में प्रसारित करें

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

13. पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं

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  • स्वतन्त्रता का महत्त्व

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. स्वतन्त्रता का सुख
  3. परतन्त्रता का दुःख,
  4. पराधीनता के विविध रूप-राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक,
  5. स्वाधीनता की महत्ता,
  6. स्वाधीनता के लिए संघर्ष,
  7. उपसंहार

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प्रस्तावना–स्वाधीनता में महान् सुख है और पराधीनता में किंचित्-मात्र भी सुख नहीं। पराधीनता दु:खों की खान है। स्वाभिमानी व्यक्ति एक दिन भी परतन्त्र रहना पसन्द नहीं करता। उसका स्वाभिमान परतन्त्रता के बन्धन को तोड़ देना चाहता है। पराधीन व्यक्ति को चाहे कितना ही सुख, भोग और ऐश्वर्य प्राप्त हो, वह उसके लिए विष तुल्य ही है। पराधीन व्यक्ति की बुद्धि कुण्ठित हो जाती है, उसकी योग्यता का विकास अवरुद्ध हो जाता है, स्वतन्त्र चिन्तन का प्रवाह रुक जाता है और उसको पग-पग पर अपमानित व प्रताड़ित होना पड़ता है।

स्वतन्त्रता का सुख-मुक्त गगन में उन्मुक्त उड़ान भरने में जो आनन्द है, वह पिंजरे में कहाँ ? कल-कल नाद करने वाली नदियाँ भी पर्वतों की छाती को चीरकर आगे बढ़ जाती हैं। सिंह और चीते जैसे हिंसक पशु भी कठघरा तोड़कर बाहर निकलने को बेचैन रहते हैं। (UPBoardSolutions.com) हिरन, खरगोश आदि वन्य जीव तो मुक्त विचरण कर प्रसन्न रहते हैं। जब पशु-पक्षी-फूल-पत्ती आदि को भी स्वतन्त्रता से इतना उन्मुक्त प्यार है तो विवेकशील व्यक्ति परतन्त्र रहना कैसे पसन्द करेगा ? एक अंग्रेज लेखक का यह कथन कितना सत्य है– ‘It is better to be in hell than to be a slave in heaven.’ अर्थात् स्वर्ग में दास बनकर रहने से नरक में रहना कहीं अधिक अच्छा है। महर्षि व्यास ने भी प्रकारान्तर से यही बात कही है-‘पारतन्त्र्यं महोदुःखं स्वातन्त्र्यं परमं सुखम्।

परतन्त्रता का दुःख-परतन्त्रता वास्तव में मानव के लिए कलंक है। उसे जीवन के हर क्षेत्र में पराश्रित रहना पड़ता है। उसकी प्रतिभा, कला-कौशल और योग्यता दूसरों के लिए होती है। उसका लाभ वह स्वयं नहीं ले पाता। वह पराधीनता के बन्धन में जकड़ा हुआ होने से आत्महीनता और तुच्छता का अनुभव करता है। वह अपने जीवन को उपेक्षित और पीड़ित समझता है और ऐसे जीवन को स्वप्न में भी नहीं चाहता।

पराधीनता अभिशाप है। पराधीनता मानव, समाज अथवा राष्ट्र के लिए कभी हितकर नहीं हो सकती। पराधीनता से उन्नति और विकास के सभी मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। पराधीन राष्ट्र सभी सुख-साधनों से हीन होकर दूसरे शासकों की कठपुतली बन जाते हैं।

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पराधीनता के विविध रूप-पराधीनता चाहे व्यक्ति की हो या राष्ट्र की दोनों ही गर्हित हैं। जिस प्रकार व्यक्तिगत पराधीनता से व्यक्ति का विकास रुक जाता है, उसी प्रकार राष्ट्र की पराधीनता से राष्ट्र पंगु बन जाता है। पराधीनता के अनेकानेक रूप होते हैं, जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं–
(क) राजनीतिक-राजनीतिक पराधीनता सबसे भयावह हैं। इसके अन्तर्गत एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र का गुलाम बनकर रहना पड़ता है। राजनीतिक पराधीनता शासित देश के गौरव व सम्मान को खत्म कर उसे उपहास व घृणा का पात्र बना देती है।
(ख) आर्थिक–आज किसी देश को पराधीन रख पाना बहुत कठिन है। इसलिए शक्तिशाली राष्ट्रों; विशेषकर अमेरिका ने एक नया तरीका अपनाया है। वह राष्ट्रों को आर्थिक सहायता यो ऋण देकर उनके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करता है। यह पराधीनता भविष्य में बहुत कष्टकर होती है।
(ग) सांस्कृतिक—इसका तात्पर्य यह है कि किसी देश पर अपनी भाषा और साहित्य थोपकर (UPBoardSolutions.com) मानसिक दृष्टि से उसे अपना गुलाम बना लिया जाए। अंग्रेजों ने भारत में अंग्रेजी का प्रचलन कर तथा पाश्चात्य संस्कृति के प्रचार के माध्यम से देश को मानसिक गुलामी प्रदान की है।
(घ) सामाजिक-सामाजिक पराधीनता से आशय है–विभिन्न वर्गों में असमानता का होना। अंग्रेजों ने इसके लिए विभिन्न वर्गों में भेदभाव को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने जातीयता, प्रान्तीयता व छुआछूत को भड़काकर देश में सर्वत्र अशान्ति और द्वेष-भावना को जाग्रत किया।

स्वाधीनता की महत्ता–स्वाधीनता का कोई सानी नहीं। स्वाधीनता की शीतल छाया में संस्कृति, सभ्यता और समृद्धि बढ़ती है। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इसकी अनुभूति करते हुए ईश्वर से कामना की है-“जहाँ मन में कोई डर न हो और मस्तक गर्व से ऊँचा हो, जहाँ ज्ञान के प्रवाह पर कोई प्रतिबन्ध न हो और स्पष्ट विचारों की निर्मल सरिता निरर्थक रूढ़िग्रस्तता के मरुस्थल में लुप्त न हो जाए, हे परमपिता! ऐसी स्वाधीनता के स्वर्ग में मेरा देश जाग्रत हो।”

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स्वाधीनता के लिए संघर्ष-स्वतन्त्रता मनुष्य को जन्मसिद्ध अधिकार है। इस अधिकार को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक समाज और प्रत्येक राष्ट्र को सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। आज हम भारतवासी राजनीतिक दृष्टिकोण से स्वाधीन हैं, परन्तु हम आज भी मानसिक रूप से विदेशियों (अंग्रेजों) के गुलाम हैं। हमें शीघ्र ही इस मानसिक गुलामी से भी मुक्त होना चाहिए।

उपसंहार-आज हमारा सौभाग्य है कि हम मुक्त भूमि पर मुक्त गगन के नीचे मुक्ति-गीत गा रहे हैं। हमारा देश चिर स्वतन्त्र बना रहे, इसके लिए हमें आपसी द्वेषभाव व वर्ग-विद्वेष को भूलकर राष्ट्रीय चेतना जाग्रत कर देश के गौरव और अक्षुण्णता को कायम रखने के लिए संकल्प लेना चाहिए। कश्मीर से कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण देश एक है; अत: एकत्व की भावना को दृढ़ और मूर्त रूप देकर हमें गौरवशाली राष्ट्र का निर्माण करना चाहिए।

14. आचारः परमो धर्मः

सम्बद्ध शीर्षक

  • सदाचार का महत्त्व
  • जीवन में सदाचार का महत्त्व [2014]

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. सदाचार का अर्थ,
  3. सच्चरित्रता,
  4. धर्म की प्रधानता,
  5. शील : सदाचार की शक्ति,
  6. सदाचार : सम्पूर्ण गुणों का सार,
  7. उपसंहार

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प्रस्तावना-सदाचार मनुष्य का लक्षण है। सदाचार को धारण करना मानवता को प्राप्त करना है। सदाचारी व्यक्ति समाज में पूजित होता है। आचारहीन का कोई भी सम्मान नहीं करता, कोई भी उसका साथ नहीं देता, वेद भी उसका कल्याण नहीं करते।’ (UPBoardSolutions.com) आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः’-अर्थात् वेद भी आचारहीन व्यक्ति का उद्धार नहीं कर सकते।

सदाचार का अर्थ-सदाचार’ शब्द संस्कृत के ‘सत्’ और ‘आचार’ शब्दों से मिलकर बना है। इसका अर्थ है-सज्जन का आचरण अथवा शुभ आचरण। सत्य, अहिंसा, ईश्वर-विश्वास, मैत्री-भाव, महापुरुषों का अनुसरण करना आदि बातें सदाचार में गिनी जाती हैं। इस सदाचार को धारण करने वाला व्यक्ति सदाचारी कहलाता है। इसके विपरीत आचरण करने वाले व्यक्ति को दुराचारी कहते हैं।

सच्चरित्रता-सदाचार का महत्त्वपूर्ण अंग सच्चरित्रता है। सच्चरित्रता सदाचार का सर्वोत्तम साधन है। प्रसिद्ध कहावत है कि “यदि धन नष्ट हो जाए तो मनुष्य का कुछ भी नहीं बिगड़ता, स्वास्थ्य बिगड़ जाने पर कुछ हानि होती है और चरित्रहीन होने पर मनुष्य का सर्वस्व नष्ट हो जाता है। मनुष्य में जो कुछ भी मनुष्यत्व है, उसका प्रतिबिम्ब उसका चरित्र है। आचारहीन मनुष्य तो निरा पशु या राक्षस है।

सच्चरित्रता की सबसे आवश्यक बात है-भय की प्रवृत्ति पर नियन्त्रण करना। भय की प्रवृत्ति को वश में करके ही हमारे हृदय में ऊँचे आदर्श और स्वस्थ प्रेरणाएँ पनप सकती हैं। जो भय के वश में हो गया। हो, उसके चरित्र का विकास नहीं होता। उसकी शक्ति, आत्मबल और महत्त्वाकांक्षाएँ दुर्बल हो जाती हैं। इसी भय के कारण वह सत्य बात नहीं कर पाता और कदम-कदम पर कायरों की भाँति दूसरों के सामने घुटने टेकता है।

जीवन में अच्छे चारित्रिक संस्कारों का विकास हो सके, इसके लिए आवश्यक है कि बुरे वातावरण से स्वयं को दूर रखा जाए। यदि आपका वातावरण दूषित है तो आपका चरित्र भी गिर जाएगा। इसीलिए अपने चरित्र-निर्माण के लिए सदैव भले या बुद्धिमान् लोगों को संग करना चाहिए, बुरे लोगों का साथ छोड़ देना चाहिए तथा शुभ विचारों को मन में लाना चाहिए।

धर्म की प्रधानता–भारत एक आध्यात्मिक देश है। यहाँ की संस्कृति एवं सभ्यता धर्मप्रधान है। धर्म से मनुष्य की लौकिक एवं आध्यात्मिक उन्नति होती है। लोक और परलोक की भलाई धर्म से ही सम्भव है। धर्म आत्मा को उन्नत करता है और उसे पतन की ओर जाने से रोकता है। धर्म के यदि इस रूप को ग्रहण किया जाए तो धर्म को सदाचार का पर्यायवाची भी कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में सदाचार में वे गुण हैं,
जो धर्म में हैं। सदाचार के आधार पर ही धर्म की स्थिति सम्भव है। जो आचरण (UPBoardSolutions.com) मनुष्य को ऊँचा उठाये, उसे चरित्रवान् बनाये, वह धर्म है, वही सदाचार है। सदाचारी होना ही धर्मात्मा होना है। महाभारत में कहा गया है-‘आचारः धर्मः’ अर्थात् धर्म की उत्पत्ति आचार से ही होती है।

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शील : सदाचार की शक्ति-शील मानसिक उच्छंखलता के लिए अंकुश है। सदाचार मनुष्य की काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि वृत्तियों से रक्षा करता है। अहिंसा की भावना से मन की क्रूरता समाप्त होती है। और उसमें करुणा, सहानुभूति एवं दया की भावना जाग्रत होती है। क्षमा, सहनशीलता आदि गुणों से मनुष्य का नैतिक उत्थान होता है और मानव से लेकर पशु-पक्षी तक के प्रति उदारता की भावना पैदा होती है। इस प्रकार सदाचार का गुण धारण करने से मनुष्य का चरित्र उज्ज्वल होता है, उसमें कर्तव्यनिष्ठा एवं धर्मनिष्ठा पैदा होती है जो उसे अलौकिक शक्ति की प्राप्ति कराने में सहायक होती है।

सदाचार : सम्पूर्ण गुणों का सार-सदाचार मनुष्य के सम्पूर्ण गुणों का सार है, जो उसके जीवन को सार्थकता प्रदान करता है। इसकी तुलना में विश्व की कोई भी मूल्यवान् वस्तु नहीं टिक सकती। व्यक्ति चाहे संसार के वैभव का स्वामी हो या सम्पूर्ण विद्याओं का पण्डित अथवा शस्त्र-संचालन में कुशल योद्धा, यदि वह सदाचार से रहित है तो कदापि पूजनीय नहीं हो सकता। सदाचार का बल संसार की सबसे बड़ी शक्ति है, जो कभी भी पराजित नहीं हो सकती। सदाचार के बल से मनुष्य मानसिक दुर्बलताओं का नाश करता है। जिस प्रकार दिग्दर्शक यन्त्र के बिना जहाज निर्दिष्ट स्थान पर नहीं पहुँच सकता, उसी प्रकार सदाचार के बिना मनुष्य कभी भी अपने जीवन-लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता।

उपसंहार-वर्तमान युग में पाश्चात्य पद्धति की शिक्षा के प्रभाव से भारत के युवक-युवतियाँ सदाचार को निरर्थक समझने लगे हैं तथा सदाचार-विरोधी जीवन को आदर्श मानने लगे हैं। इसी कारण युवा वर्ग पतन की ओर बढ़ रहा है तथा उसके जीवन में विश्रृंखलता, (UPBoardSolutions.com) अनुशासनहीनता, उच्छृखलता बढ़ती जा रही है। लुटते हुए आचरण की रक्षा के लिए युवा वर्ग को सचेत होना चाहिए। उन्हें राम, कृष्ण, हरिश्चन्द्र, युधिष्ठिर, गाँधी एवं नेहरू के चरित्र को आदर्श मानकर सदाचरणप्रिय होना चाहिए। राष्ट्र का वास्तविक अभ्युत्थान तभी हो सकेगा, जब हमारे देशवासी सदाचारी बनेंगे।

15. का बरखा जब कृषी सुखाने

सम्बद्ध शीर्षक

  • समय का सदुपयोग
  • अब पछताये होत क्या, जब चिड़ियाँ चुग गयीं खेत
  • मन पछितैहैं अवसर बीते

रूपरेखा

  1. प्रस्तावना,
  2. समय का महत्त्व,
  3. समय का सदुपयोग,
  4. समय के सदुपयोग से लाभ,
  5. समय के दुरुपयोग से हानि,
  6. समय के सदुपयोग के कुछ उदाहरण,
  7. समय के दुरुपयोग की समस्या,
  8. उपसंहार

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प्रस्तावना—समय सबसे बड़ा धन है। जिसने समय के प्रवाह को जाना, समय की चाल को पहचाना; वह लघु से महान् और रंक से राजा बन गया। जो समय के मूल्य को नहीं पहचानता, वह समय के बीत जाने पर पछताता है। जो समय पर जागा नहीं, निद्रा-तन्द्रा-आलस्यवश पड़ा रहा, निश्चय ही उसका भाग्य भी सोया रहा। समय पर न किया जाने वाला कार्य उसी प्रकार व्यर्थ है, जिस प्रकार दीपक बुझ जाने पर तेल डालना अथवा चोर के भाग जाने पर सावधान होना।

प्रकृति के समस्त कार्य समय पर संचालित होते हैं। सूर्य और चन्द्रमा निश्चित समय पर उदय और अस्त होते हैं तथा ऋतुओं को आगमन निश्चित समय पर होता है, परन्तु मानव ही ऐसा प्राणी है, जो समय के मूल्य को नहीं पहचानता और समय के बीत जाने पर (UPBoardSolutions.com) पछताता है। कहा गया है–

समय चूकि पुनि का पछताने। का बरखा जब कृषी सुखाने ।

समय का महत्त्व-मानव-जीवन में समय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कई क्षण मिलकर जीवन का रूप लेते हैं। एक क्षण को नष्ट करने का अर्थ है, जीवन के एक अंश को नष्ट करना। जीवन में समय बहुत थोड़ा है। यदि इसका उपयोग न किया गया तो जीवन व्यर्थ ही चला जाएगा। समय के सदुपयोग से ही जीवन सार्थक बनता है। समय के एक क्षण को संसार के समस्त ऐश्वर्य से भी क्रय नहीं किया जा सकता

आयुषः क्षण एकोऽपि, न लभ्यः स्वर्णकोटिकैः।
सचेन्निरर्थकं नीतः, का नु हानिस्ततोऽधिकाः॥

समय का सदुपयोग-समय के सदुपयोग का अर्थ है–निर्धारित समय पर नियमपूर्वक काम करना। जो लोग समय का सदुपयोग करते हैं, वे जीवन में सफल होते हैं। नियत समय काम करने से कठिन-से-कठिन काम भी सरल हो जाते हैं तथा ठीक समय पर कार्य न करने से सुगम कार्य भी कठिन हो जाते हैं। जो लोग आज का काम कल पर छोड़ते हैं, वे आलसी हैं। ऐसे ही लोगों के लिए एक विद्वान् ने कहा है-‘Yesterday never comes’, अर्थात् बीता हुआ कल कभी वापस नहीं आता।।

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प्रत्येक कार्य की महत्ता के अनुसार उसका समय निर्धारित करना चाहिए। एक क्षण भी व्यर्थ की बातों के लिए नहीं छोड़ना चाहिए; क्योंकि “An empty mind, is devil’s workshop.” यदि हम अच्छे कार्यों में समय लगाते हैं तो हम उसका सदुपयोग करते हैं। यद्यपि समय के सदुपयोग की कोई निर्णायक रेखा नहीं होती, तथापि सामान्य रूप से उचित समय पर काम करने को समय का सदुपयोग कहा जाता है।

समय के सदुपयोग से लाभ-समय का सदुपयोग करने के अनेकानेक लाभ हैं। जो विद्यार्थी समय को सदुपयोग कर लेते हैं, वे परीक्षा में प्रथम आते हैं। समय के सदुपयोग से दरिद्र धनवान् बन जाते हैं। यदि हम किसी महापुरुष के जीवन को देखें तो हमें ज्ञात होगा कि वे समय के सदुपयोग से ही महान् बने हैं। मनुष्य समय के सदुपयोग से अपनी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक; अर्थात् सर्वांगीण उन्नति कर सकता है। समय के सदुपयोग से आत्मविश्वास की भावना जाग्रत होती है।

समय के दुरुपयोग से हानि–समय को व्यर्थ खोकर कोई भी सुखी नहीं हो सका। (UPBoardSolutions.com) जिन्होंने समय को नष्ट किया, समय ने उन्हें नष्ट कर दिया। अपनी सेना के कुछ मिनट देर से पहुँचने के कारण नेपोलियन बोनापार्ट को नेल्सन से पराजित होना पड़ा था। समय का दुरुपयोग करने वाला जीवन में आस्था और आत्मविश्वास खो बैठता है। वह अकर्मण्य व असफलता से पीड़ित होकर जीवन से निराश हो जाता है।

समय के सदुपयोग के उदाहरण—इतिहास इस बात का साक्षी है कि जो व्यक्ति समय का ध्यान रखता है, समय उसका ध्यान रखता है। समय की उपेक्षा करने वाला समय से भी उपेक्षित रहता है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए, सभी ने समय के महत्त्व को समझा और उसका पूर्ण उपयोग किया। महावीर स्वामी ने अपने शिष्य से कहा था-“हे गौतम! क्षण का भी प्रमोद मत कर। जो रात्रियाँ जा रही हैं, वे वापस लौटने वाली नहीं हैं; अत: शुभ संकल्पपूर्वक उनका उपयोग आत्म-साधना के लिए कर।’

समय के दुरुपयोग की समस्या-समय को व्यर्थ खोने वालों में भारतीयों की तुलना नहीं। कार्यालयों में सभी कर्मचारी पास-पास कुर्सियाँ डालकर गप्पों में समय बिता देते हैं। यहाँ पर हिन्दुस्तानी समय के अनुसार काम होता है; अर्थात् निर्धारित समय से दो, तीन, चार घण्टे बाद तक। देश के उच्चकोटि के नेता किसी सभा में समय पर नहीं पहुँचते। भारत में समय के इस अपव्यय से समय का सदुपयोग करने वालों को बड़ी परेशानी होती है। समय को गंवाना हमारे चरित्र का अंग बन गया है। इस दोष को दूर किये बिना राष्ट्र की उन्नति सम्भव ही नहीं है।

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उपसंहार-समय बड़ा अमूल्य है। जो समय का सदुपयोग करता है, वह अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है तथा जो समय का दुरुपयोग करता है, वह अपने जीवन को नष्ट करता है। माता-पिता, अभिभावक, अध्यापक तथा नेताओं का परम कर्तव्य है कि वे छात्रों को समय के सदुपयोग की प्रेरणा प्रदान करें; क्योंकि राष्ट्र के सम्यक् उत्थान के लिए समय का सदुपयोग नितान्त आवश्यक है। समय का सदुपयोग करके ही अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य को सुरक्षित और प्रगतिशील बनाये रखा जा सकता है। कबीर ने समय की गति को समझा था, इसलिए उन्होंने जीवन की सफलता का राज बताते हुए कहा था

काल्हि करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलै होयगी, बहुरि करैगो कब ।।

16. उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः

सम्बद्ध शीर्षक

  • परिश्रम से लाभ [2013]
  • श्रम का महत्त्व [2011, 15]
  • श्रम ही सफलता की कुंजी है [2014]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. स्वावलम्बी की विशेषताएँ,
  3. स्वावलम्बन के लाभ,
  4. स्वावलम्बियों के उदाहरण,
  5. स्वावलम्बन की शिक्षा,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना–स्वावलम्बन जीवन के लिए परमावश्यक हैं। यह प्रतिभावान मनुष्य का लक्षण है, उन्नति को मूल है, बड़प्पन का साधन है और सुखमय जीवन का स्रोत है। स्वावलम्बन का अर्थ अपना सहारा या अपने ऊपर निर्भर होना है। स्वावलम्बी व्यक्ति या राष्ट्र ही (UPBoardSolutions.com) स्वतन्त्र रह सकता है। जो देश या व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं के लिए दूसरों का मुंह ताकते हैं, वे स्वतन्त्र नहीं रह सकते। यह शारीरिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का साधन है। अंग्रेजी की एक प्रसिद्ध कहावत है-“God helps those who help themselves.” अर्थात् ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। प्रसिद्ध कहावत ‘बिना मरे स्वर्ग किसने देखा’ भी सही अर्थों में स्वावलम्बन की ही शिक्षा देती है।

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स्वावलम्बी की विशेषताएँ-स्वावलम्बी व्यक्ति स्वतन्त्र होता है। उसका अपने पर अधिकार होता है। वह बड़े-बड़े धनिकों तथा शक्तिवानों की भी परवाह नहीं करता। तानसेन के गुरु स्वामी हरिदास ने ‘सन्तन को कहा सीकरी सो काम’ कहकर अकबर का निमन्त्रण ठुकरा दिया था। स्वावलम्बी व्यक्ति सबके साथ विनम्रता का व्यवहार करके अपने काम में संलग्न रहता है। उस पर चाहे कितनी भी विपत्ति क्यों न आ जाए, किसी भी बाधा के सामने वह हार नहीं मानता तथा हमेशा अपने कार्य में सफल होता है। स्वावलम्बी सरलता का व्यवहार करता है, किसी के साथ छल-कपट नहीं करता। उसमें त्याग, तपस्या और सेवाभाव होता है, लालच नहीं होता। वह स्वाभिमान की रक्षा के लिए बड़े-से-बड़े वैभव को तिनके के समान त्याग देता है। उसमें असीम उत्साह और आत्मविश्वास होता है।

स्वावलम्बन के लाभ-स्वावलम्बन का गुण प्रत्येक परिस्थिति में लाभकारी होता है। स्वावलम्बी व्यक्ति आत्मविश्वास के कारण उन्नति कर सकता है। उसमें स्वयं काम करने एवं सोचने-विचारने की सामर्थ्य होती है। वह किसी भी काम को करने के लिए किसी के सहारे की प्रतीक्षा नहीं करता। वह अकेला ही कार्य करने के लिए आगे बढ़ता है। उसे अपना काम करने में सच्चा आनन्द मिलता है। जिस प्रकार बैसाखी के सहारे चलने वाले व्यक्ति की बैसाखी छीन ली जाए तो उसका चलना बन्द हो जाता है; उसी प्रकार जो व्यक्ति दूसरों के सहारे की आशा करता है, उसका मार्ग निश्चित ही अवरुद्ध होता है।

नेपोलियन बोनापार्ट के कथनानुसार, ‘असम्भव शब्द मूर्खा के शब्दकोश में होता है।’ विघ्न-बाधाएँ स्वावलम्बियों के मार्ग को अवरुद्ध नहीं कर पातीं। महापुरुषों ने स्वावलम्बन के कारण ही उन्नति की है। स्वावलम्बी की सभी प्रशंसा करते हैं। उसे यश और गौरव की प्राप्ति होती है।

स्वावलम्बियों के उदाहरण—संसार के सभी महापुरुष स्वावलम्बन के कारण ही महान् बने हैं। छत्रपति शिवाजी ने थोड़े-से मराठों को एकत्र कर हिन्दुओं की निराशा से रक्षा की थी। एक लकड़हारे का लड़का’ अब्राहम लिंकन स्वावलम्बन से ही अमेरिका का राष्ट्रपति बना था। बेंजामिन फ्रेंकलिन ने स्वावलम्बन का पाठ पढ़ा और विज्ञान के क्षेत्र में नाम कमाया। माइकल फैराडे प्रारम्भ में जिल्दसाजी का कार्य किया करते थे, पर स्वावलम्बन के (UPBoardSolutions.com) बल पर ही वे संसार के महान् वैज्ञानिक बने। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर दीन ब्राह्मण की सन्तान थे, किन्तु भारत में उन्होंने जो यश अर्जित किया, उसका रहस्य स्वावलम्बन ही है। कवीन्द्र रवीन्द्र ने नदी के तट पर मात्र दस विद्यार्थियों को बैठाकर ही शान्ति-निकेतन की स्थापना की थी। गाँधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में स्वावलम्बन के बल पर गोरे शासकों के अत्याचारों का दमन कियाथा। उन्होंने
आत्मबल के द्वारा ही भारत को परतन्त्रता के पाश से मुक्त कराया था। नेताजी सुभाषचन्द्र बोले ‘आजाद हिन्द फौज का संगठन करके अंग्रेजों के छक्के छुड़ाये थे।

स्वावलम्बन की शिक्षा–स्वावलम्बन का गुण वैसे तो किसी भी आयु में हो सकता है, परन्तु बालकों में यह शीघ्र उत्पन्न किया जा सकता है। उन्हें ऐसी परिस्थिति में डालकर जहाँ कोई सहारा देने वाला न हो, स्वावलम्बन का पाठ सिखाया जा सकता है। आजकल स्वावलम्बन की विशेष आवश्यकता है। प्रकृति से भी हमें स्वावलम्बन की शिक्षा मिलती है। पशु-पक्षियों के बच्चे जैसे ही चलने-फिरने लगते हैं, वे अपना । रास्ता स्वयं खोज लेते हैं और अपना घर स्वयं बनाते हैं। हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है कि हम बात-बात में सरकार का मुंह ताकते हैं और आवश्यकता की पूर्ति न होने पर हम उसे दोषी तो ठहराते हैं, पर अपनी उन्नति के लिए स्वयं कुछ नहीं करते। किसी विचारक ने ठीक ही कहा है कि “पतन से भी महत्त्वपूर्ण पतन यह है कि किसी को स्वयं पर ही भरोसा न हो।”

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उपसंहार-इस प्रकार स्वावलम्बन उन्नति की प्रथम सीढ़ी है। स्वावलम्बन से जीवन-भर शान्ति और सन्तोष प्राप्त होता है। इससे निडरता, परिश्रम और धैर्य आदि गुणों का विकास होता है। इसी से समाज और राष्ट्र की उन्नति होती है। स्वावलम्बन पर सब प्रकार का वैभव निछावर किया जा सकता है। गुप्त जी ने कहा भी है

‘स्वावलम्बन की एक झलक पर, निछावर है कुबेर का कोष।’

17. पर उपदेश कुशल बहुतेरे [2014, 18]

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. पर उपदेश द्वारा अहं की सन्तुष्टि,
  3. विचार से आचार श्रेष्ठ,
  4. आचरण का ही प्रभाव पड़ता है,
  5. अनाचरित उपदेश प्रभावक नहीं होता,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-दूसरों को उपदेश देना बहुत ही आसान कार्य है; क्योंकि दूसरों को उपदेश देने में स्वयं का कुछ नहीं लगता; बस जरा-सी जीभ ही हिलानी पड़ती है। परन्तु इसे आचरण में उतारना कोई हँसी-खेल नहीं है। यह हवा में गाँठ लगाने के सदृश कठिन ही नहीं, अपितु अति कठिन है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने ‘श्रीरामचरितमानस में मानव-जीवन को प्रेरणा देने वाली व योग्य दिशा-निर्देश करने वाली कितनी ही सूक्तियाँ सँजो रखी हैं, जिनमें से एक यह भी है। मेघनाद जब युद्ध में मारा जाता है तो मन्दोदरी आदि रावण की रानियाँ विलाप (UPBoardSolutions.com) कर रोने लगती हैं। उस समय रावण जगत् की नश्वरता आदि का बखानकर उन्हें समझाने लगता है। इसी अवसर पर गोस्वामी जी लिखते हैं

तिन्हहिं ग्यान उपदेसा रावन। आपुन मंद कथा सुभ पावन ॥
पर उपदेश कुशल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥

अर्थात् रावण उन्हें तो उपदेश देने लगा, पर स्वयं उसका आचरण क्या था? एक असहाय परायी नारी को बलपूर्वक उठा लाना, उसके लिए समस्त लंका-राज्य, बन्धु-बान्धव, स्वजन-परिजन को विनष्ट करा डालना। इस प्रकार वह स्वयं तो था पापाचारी, पर बातें बड़ी ऊँची और शुभ करता था। ऐसे ही व्यक्तियों को लक्ष्य करते हुए कबीर ने लिखा है

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अपना मन निश्चल नहीं, और बँधावत धीर।
पानी मिले न आप को, औरहु बकसत हीर॥

सचमुच दूसरों को उपदेश देने में बहुत-से लोग बड़े कुशल होते हैं; पर उसे स्वयं अपने आचरण में उतारकर दिखाने वाले बिरले ही होते हैं।

पर उपदेश द्वारा अहं की सन्तुष्टि—किसी विद्वान् व्यक्ति का कथन है कि “परोपदेश पाण्डित्यं’, अर्थात् दूसरों को उपदेश देने में लोग अपनी पण्डिताई अथवा विद्वत्ता का प्रदर्शन करते हैं।

वस्तुत: मनुष्य में दूसरों को उपदेश देने की प्रवृत्ति बहुत सामान्य है। इसका कारण यह है कि इस प्रकार वह दूसरों पर अपनी श्रेष्ठता, अपनी विद्वत्ता की धाक जमाकर अपने अहं को सन्तुष्ट करना चाहता है। यह भी देखने में आता है कि जो जितना खोखला होता है, आचरण से गिरा होता है, दूसरों को उपदेश देने में वह उतना ही उत्साह प्रकट करता है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण कदाचित् यही है कि आचरण-हीनता से उसके अन्दर हीनता की जो एक ग्रन्थि बन जाती है, उसे वह इस प्रकार के आडम्बर से दबाना चाहता है।

विचार से आचार श्रेष्ठ-किसी विचारक का कथन है, “आचरण का एक कण सम्पूर्ण भाषण से कहीं अधिक श्रेष्ठ है।” एक लघुकथा से यह बात अधिक स्पष्ट हो जाती है—कौरव-पाण्डव बाल्यावस्था में गुरुजी के पास विद्याध्ययन के लिए गये। गुरुजी ने पहला पाठ दिया, (UPBoardSolutions.com) ‘सत्यं वद’ (सत्य बोलो)। अन्य बच्चों ने तो पाठ तत्काल याद करके सुना दिया, पर युधिष्ठिर न सुना सके। एक-एक करके कई दिन बीत गये। युधिष्ठिर यही कहते रहे-“पाठ अभी ठीक से याद नहीं हुआ। एक दिन बोले-“याद हो गया।” गुरुजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा-“युधिष्ठिर, जरा-सा पाठ याद करने में तुम्हें इतना समय कैसे लग गया?’ युधिष्ठिर ने नम्रतापूर्वक कहा-“गुरुदेव! आपके दिये पाठ के शब्द रटने थोड़े ही थे, उन्हें तो व्यवहार में उतारना था। मुझसे कभी-कभी असत्य भाषण हो जाता था। अब इतने दिनों के अभ्यास से ही उस दुर्बलता को दूर कर सका हूँ। इसी से कहता हूँ कि पाठ याद हो गया।” गुरुदेव युधिष्ठिर की ऐसी निष्ठा देखकर गद्गद हो गये। उन्होंने उन्हें गले से लगा लिया। इसी आचरण के बल पर युधिष्ठिर आगे चल कर धर्मराज कहलाये।

आचरण का ही प्रभाव पड़ता है-आज के नेताओं में उपदेश देने की कला प्रचुरता से विद्यमान है। वे मंच पर खड़े होकर भोली-भाली जनता के समक्ष मितव्ययिता का उपदेश देते हैं, परन्तु स्वयं पाँच सितारा । होटलों में आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त वैभव का उपभोग करते हैं। सत्य ही कहा है-

कथनी मीठी खाँड़ सी, करनी विष की लोय।
कथनी तज करनी करै, तो विष से अमृत होय॥

महापुरुषों के लक्षण बताते हुए एक विचारक ने कहा है, “ने जैसा सोचते हैं, वे कहते हैं और जैसा कहते हैं, वैसा ही करते हैं।’ मन से, वचन से और कर्म से वे क रूप होते हैं। जो केवल कहते ही हैं, तदनुरूप आचरण नहीं करते, उनकी बातो का लोगों पर कोई प्रभाव नहीं होता। आदरणीय बापू जी उपदेश देने से पूर्व स्वयं आचरण करते थे। स्वयं आचरण करके ही उसे दूसरों से करने के लिए कहते थे। यह है उन असाधारण पुरुषों की बात, जो वाक्शुरता में नहीं, आचरण की शूरता में विश्वास रखते थे। ऐसे लोगों की वाणी से ऐसा ओज प्रकट होता है कि सुनने वाला प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यह है कथनी और करनी की एकता का प्रभाव। (UPBoardSolutions.com) वास्तव में कथनी को करनी में परिणत करके दिखाने वाले लोग असाधारण होते हैं। ऐसे ही आचारनिष्ठ लोगों से जन-जीवन प्रभावित होता है।

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अनाचरित उपदेश प्रभावक नहीं होता–जो व्यक्ति अपनी लच्छेदार भाा में प्रभावोत्पादक उपदेश देता है, लेकिन स्वयं उस उपदेश के अनुसार आचरण नहीं करता: ऐसे लोगों की प्रभावकता अधिक समय तक नहीं टिकती। ‘ढोल की पोल’ भन्ना कितने दिनों तक छिपी रह सकती हैं। ऐसे लोगों का उपदेश ‘थोथा चना बाजे घना’ के अनुसार कोरी बकवास ही समझा जाता है। सफेद पोशाक पहनकर, मुग्धकारी और मनमोहक वाणी में बोलने वालों की जब कलई खुल जाती है तो जनता में ऐसे लोग घृणा के पात्र बन जाते हैं।

उपसंहार-समाज में ऐसे लोगों की भरमार है, जिनकी कथनी और करन में कोई तालमेल ही नहीं। ऐसे ही लोगों से समाज में पाखण्ड और मिथ्याचार पनपते हैं तथा सच्चाई छिप जाती है। फलतः इनसे समाज का हित होना तो दूर, अहित ही होता है। तोला भर आचरण सेर (UPBoardSolutions.com) खोखले उपदेश से बढ़कर है, इसीलिए एक विद्वान् ने लिखा है-‘Example is better than precept.’ (उपदेश से आचरण भला)।

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi सांस्कृतिक निबन्ध : धार्मिक

UP Board Solutions for Class 10 Hindi सांस्कृतिक निबन्ध : धार्मिक

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सांस्कृतिक निबन्ध : धार्मिक

8. मेरी प्रिय पुस्तक (श्रीरामचरितमानस) [2011, 12, 15, 17, 18]

सम्बद्ध शीर्षक

  • तुलसी और उनकी अमर कृति
  • हिन्दी का लोकप्रिय ग्रन्थ

रूपरेखा

  1. प्रस्तावना,
  2. श्रीरामचरितमानस का परिचय,
  3. श्रीरामचरितमानस का महत्त्व,
  4. श्रीरामचरितमानस का वण्र्य-विषय,
  5. श्रीरामचरितमानस की विशेषताएँ,
  6. उपसंहार

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प्रस्तावना-पुस्तकें मनुष्य के एकाकी जीवन की उत्तम मित्र हैं, जो घनिष्ठ मित्र की तरह सदैव सान्त्वना प्रदान करती हैं। अच्छी पुस्तकें मानव के लिए सच्ची पथ-प्रदर्शिका होती हैं । मनुष्य को पुस्तकें पढ़ने में आनन्द की उपलब्धि होती है। वैसे तो (UPBoardSolutions.com) सभी पुस्तकें ज्ञान का अक्षय भण्डार होती हैं और उनसे

मस्तिष्क विकसित होता है, परन्तु अभी तक पढ़ी गयी अनेक पुस्तकों में मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया है। ‘श्रीरामचरितमानस’ ने। इसके अध्ययन से मुझे सर्वाधिक सन्तोष, शान्ति और आनन्द की प्राप्ति हुई है।

श्रीरामचरितमानस का परिचय-‘श्रीरामचरितमानस’ के प्रणेता, भारतीय जनता के सच्चे प्रतिनिधि गोस्वामी तुलसीदास जी हैं। उन्होंने इसकी रचना संवत् 1631 वि० से प्रारम्भ करके संवत् 1633 वि० में पूर्ण की थी। यह अवधी भाषा में लिखा गया उनका सर्वोत्तम ग्रन्थ है। इसमें महाकवि तुलसी ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र के जीवन-चरित को सात काण्डों में प्रस्तुत किया है। तुलसीदास जी ने इस महान् ग्रन्थ की रचना ‘स्वान्तः सुखाय’ की है।

श्रीरामचरितमानस का महत्त्व-‘श्रीरामचरितमानस’ हिन्दी-साहित्य को सर्वोत्कृष्ट और अनुपम ग्रन्थ है। यह हिन्दू जनता को परम पवित्र धार्मिक ग्रन्थ है। अनेक विद्वान् अपने वार्तालाप को इसकी सूक्तियों का उपयोग करके प्रभावशाली बनाते हैं। श्रीरामचरितमानस की लोकप्रियता का सबसे सबल प्रमाण यही है कि इसका अनेक विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यह मानव-जीवन को सफल बनाने के लिए मैत्री, प्रेम, करुणा, शान्ति, तप, त्याग और कर्तव्य-परायणता का महान् सन्देश देता है। |

‘श्रीरामचरितमानस’ का वर्य-विषय-‘श्रीरामचरितमानस की कथा मर्यादा-पुरुषोत्तम राम के सम्पूर्ण जीवन पर आधारित है। इसकी कथावस्तु का मूल स्रोत वाल्मीकिकृत ‘रामायण’ है। तुलसीदास ने अपनी कला एवं प्रतिभा के द्वारा इसे नवीन एवं मौलिक रूप प्रदान किया है। इसमें राम की रावण पर विजय दिखाते हुए प्रतीकात्मक रूप से सत्य, न्याय और धर्म की असत्य, अन्याय और अधर्म पर विजय प्रदर्शित की है। इस महान् काव्य में राम के शील, शक्ति और सौन्दर्य का मर्यादापूर्ण चित्रण है।

श्रीरामचरितमानस की विशेषताएँ—
(क) आदर्श चरित्रों को भण्डार—‘श्रीरामचरितमानस आदर्श चरित्रों को पावन भण्डार है। कौशल्या मातृप्रेम की प्रतिमा हैं। भरत में भ्रातृभक्ति, निलभिता और तप-त्याग का उच्च आदर्श है। सीता पतिपरायणा आदर्श पत्नी हैं। लक्ष्मण सच्चे भ्रातृप्रेमी और अतुल बलशाली हैं। निषाद, सुग्रीव, विभीषण आदि आदर्श मित्र एवं हनुमान सच्चे उपासक हैं।।
(ख) लोकमंगल का आदर्श—तुलसी का ‘श्रीरामचरितमानस’ लोकमंगल की भावना का आदर्श है। तुलसी ने अपनी लोकमंगल-साधना के लिए जो भी आवश्यक समझा, उसे अपने इष्टदेव राम के चरित्र में निरूपित कर दिया।
(ग) भारतीय समाज का दर्पण—तुलसी के ‘श्रीरामचरितमानस में तत्कालीन भारतीय समाज मुखरित हो उठा है। यह ग्रन्थ उस काल की रचना है, जब हिन्दू जनता पतन के गर्त में जा रही थी। वह भयभीत और चारों ओर से निराश हो चुकी थी। उस समय तुलसीदास जी ने जनता को सन्मार्ग दिखाने के लिए नाना पुराण और आगमों (नानापुराणनिगमागम सम्मतं यद्) में बिखरी हुई भारतीय संस्कृति को जनता की भाषा में जनता के कल्याण के लिए प्रस्तुत किया।
(घ) नीति, सदाचार और समन्वय की भावना-‘श्रीरामचरितमानस’ में श्रेष्ठ नीति, (UPBoardSolutions.com) सदाचार के विभिन्न सूत्र और समन्वय की भावना मिलती है। शत्रु से किस प्रकार व्यवहार किया जाये, सच्चा मित्र कौन है, अच्छे-बुरे की पहचान आदि पर भी इसमें विचार हुआ है। तुलसीदास उसी वस्तु या व्यक्ति को श्रेष्ठ बतलाते हैं, जो सर्वजनहिताय हो। इसके अतिरिक्त धार्मिक, सामाजिक और साहित्यिक सभी क्षेत्रों में व्याप्त विरोधों को दूर कर कवि ने समन्वय स्थापित किया है।

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(ङ) रामराज्य के रूप में आदर्श राज्य की कल्पना-कवि ने ‘श्रीरामचरितमानस’ में आदर्श राज्य की कल्पना रामराज्य के रूप में लोगों के सामने रखी। इन्होंने व्यक्ति के स्तर से लेकर समाज और राज्य तक के समस्त अंगों का आदर्श रूप प्रस्तुत किया और निराश जन-समाज को नवीन प्रेरणा देकर । रामराज्य के चरम आदर्श तक पहुँचने का मार्ग दिखाया।
(च) कला का उत्कर्ष-‘श्रीरामचरितमानस’ में कला की चरम उत्कर्ष है। यह अवधी भाषा में दोहा-चौपाई शैली में लिखा महान् ग्रन्थ है। इसमें सभी रसों और काव्यगुणों का सुन्दर समावेश हुआ है। इस प्रकार काव्यकला की दृष्टि से यह एक अनुपम कृति है।

उपसंहार-मेरे विचार में कालिदास और शेक्सपियर के ग्रन्थों का जो साहित्यिक महत्त्व है; चाणक्य-नीति का राजनीतिक क्षेत्र में जो मान है, बाइबिल, कुरान, वेदादि का जो धार्मिक सत्य है, वह सब कुछ अकेले ‘श्रीरामचरितमानस में समाविष्ट है। यह हिन्दू धर्म की ही नहीं, भारतीय समाज की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक है। यही कारण है कि इसने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया है। मेरा विश्वास है कि मैं इस पुस्तक से जीवन-निर्माण के लिए सर्वाधिक प्रेरणा प्राप्त करता रहूंगा।

9. होली [2011, 12]

सम्बद्ध शीर्षक

  • किसी प्रिय त्योहार का वर्णन
  • मेरा प्रिय पर्व [2018]

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. प्राकृतिक वातावरण,
  3. धार्मिक एवं ऐतिहासिक दृष्टिकोण,
  4. होली का राग-रंग,
  5. त्योहार के कुछ दोष,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-हमारे देश में अनेक धर्मों व सम्प्रदायों के (UPBoardSolutions.com) मानने वाले व्यक्ति निवास करते हैं। सभी की अपनी-अपनी परम्पराएँ, मान्यताएँ, रहन-सहन व वेशभूषा हैं। सभी के द्वारा मनाये जाने वाले त्योहार भी। भिन्न-भिन्न हैं। यही कारण है कि हर मास किसी-न-किसी धर्म से सम्बन्धित त्योहार आते ही रहते हैं। कभी हिन्दू दीपावली की खुशियाँ मनाते हैं तो ईसाई प्रभु यीशु के जन्म-दिवस पर चर्च में प्रार्थना करते हैं तो मुसलमान ईद के अवसर पर गले मिलते व नमाज अदा करते दिखाई देते हैं। रंगों में सिमटा, खुशियों का त्योहार होली भी इसी प्रकार देश-भर में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। यह शुभ पर्व प्रतिवर्ष फाल्गुन मास की पूर्णिमा के सुन्दर अवसर की शोभा बढ़ाने आता है।

प्राकृतिक वातावरण-रंगों का त्योहार होली वसन्त ऋतु का सन्देशवाहक है। इस ऋतु में मानव-मात्र के साथ-साथ प्रकृति भी इठला उठती है। चारों ओर प्रकृति के रूप और सौन्दर्य के दृश्य दृष्टिगत होते हैं। पुष्प-वाटिका में पपीहे की तान सुनने से मन-मयूर नृत्य कर उठता है। आम के झुरमुट से कोयल की कूक सुनकर तो हृदय भी झंकृत हो उठता है। ऋतुराज वसन्त का स्वागत अत्यधिक शान से सम्पन्न होता है। चारों ओर हर्ष और उल्लास छा जाता है।

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धार्मिक एवं ऐतिहासिक दृष्टिकोण-होलिकोत्सव धार्मिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। एकता, मिलन और हर्षोल्लास के प्रतीक इस त्योहार को मनाने के पीछे अनेक पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं। प्रमुखतः इस उत्सव का आधार हिरण्यकशिपु नामक अभिमानी राजा और उसके ईश्वर-भक्त पुत्र प्रह्लाद की कथा है। कहते हैं कि हिरण्यकशिपु बड़ा अत्याचारी था, किन्तु उसी का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर का अनन्य भक्त था। जब हिरण्यकशिपु ने यह बात सुनी तो वह बड़ा ही क्रोधित हुआ। उसने अपनी बहन होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश करे। होलिका को यह वरदान था कि अग्नि उसको जला नहीं सकती थी, (UPBoardSolutions.com) किन्तु ‘जाको राखे साइयाँ, मारन सकिहैं कोय’ के अनुसार होलिका तो आग में जल गयी और प्रह्लाद को बाल भी बॉका नहीं हुआ। उसी समय से परम्परागत रूप से होली के त्योहार के एक दिन पूर्व होलिका-दहन का आयोजन होता है। होली के शुभ अवसर पर जैन धर्मावलम्बी आठ दिन तक सिद्धचक्र की पूजा करते हैं। यह ‘अष्टाह्निका’ पर्व कहलाता है।

होली का राग-रंग-प्रथम दिन होलिका का दहन होता है। बच्चे घर-घर से लकड़ियाँ एकत्रित करके चौराहों पर होली तैयार करते हैं। सन्ध्या समय महिलाएँ इसकी पूजा करती हैं और रात्रि में यथा मुहूर्त होलिका दहन करते हैं। होलिका दहन के समय लोग जौ की बालों को भूनकर खाते भी हैं। होलिका का दहन इस बात का द्योतक है कि मानव अपने क्रोध, मान, माया और लोभ को भस्म कर अपने दिल को उज्ज्वल व निर्मल बनाये। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय है।

होलिंका के अगले दिन दुल्हैंडी मनायी जाती है। इस दिन मनुष्य अपने आपसी बैर-विरोध को भुलाकर आपस में एक-दूसरे पर रंग डालते हैं, गुलाल लगाते हैं और गले मिलते हैं। चारों तरफ हँसीमजाक का वातावरण फैल जाता है। क्या अमीर और क्या गरीब, सभी होली के रंगों से सराबोर हो उठते हैं। सारा वातावरण ही रंगमय प्रतीत होता है। बच्चे, औरतें व युवक सभी आनन्द व उमंग से भर उठते हैं। ब्रज की होली बड़ी मशहूर है। देश-विदेश के असंख्य लोग इसे देखने आते हैं। नगरों में सायंकाल अनेक स्थानों पर होली मिलन समारोह का आयोजन होता है जिसमें हास्य-कविताएँ, लतीफे व अन्य रंगारंग कार्यक्रम भी होते हैं।

त्योहार के कुछ दोष-होली के इस पवित्र व प्रेमपूर्ण त्योहार को कुछ लोग अश्लील आचरण और गलत हरकतों द्वारा गन्दा बनाते हैं। कुछ लोग एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते हैं और गन्दगी फेंकते हैं। चेहरों पर कीचड़, पक्के रंग (UPBoardSolutions.com) या तारकोल पोतने तथा राहगीरों पर गुब्बारे फेंकते हैं। कुछ लोग भाँग, शराब आदि पीकर हुड़दंग करते हैं। ऐसी अनुचित व अनैतिक हरकतें इस पर्व की पवित्रता को दूषित करती हैं।

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उपसंहार-होली प्रेम का त्योहार है, गले मिलने का त्योहार है, बैर और विरोध को मिटाने का त्योहार है। इस दिन शत्रु भी अपनी शत्रुता भुलाकर मित्र बन जाते हैं। यह त्योहार अमीर और गरीब के भेद को कम करके वातावरण में प्रेम की ज्योति को प्रज्वलित करता है। इसे एकता के त्योहार के (UPBoardSolutions.com) रूप में मनाया जाना चाहिए। निस्सन्देह होली का पर्व हमारी सांस्कृतिक धरोहर है और इस परम्परा का पूर्ण निर्वाह करना। हमारा दायित्व है।

10. दीपावली

सम्बद्ध शीर्षक

  • किसी प्रिय त्योहार का वर्णन
  • मेरा प्रिय पर्व

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. अन्य देशों में दीपावली,
  3. ऐतिहासिक व धार्मिक दृष्टिकोण
  4. दीपावली का आयोजन,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना-भारत देश विभिन्न त्योहारों एवं पर्वो का देश है। यहाँ ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ त्योहारों की निराली छटा भी देखने को मिल जाती है। ये त्योहार हमारे देश की संस्कृति एवं सभ्यता के प्रतीक हैं। इन त्योहारों को मनाने से मन स्वस्थ एवं मानव-समाज (UPBoardSolutions.com) प्रेम की भावना से युक्त हो जाता है। इन त्योहारों में दीपावली अत्यन्त हर्षोल्लास का त्योहार माना जाता है। यह दीपों का अथवा प्रकाश का त्योहार है। दीपावली कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को मनायी जाती है। इसके स्वागत में लोग कहते हैं

पावन पर्व दीपमाला का, आओ साथी दीप जलाएँ।
सब आलोक मन्त्र उच्चारै, घर-घर ज्योति ध्वजा फहराएँ॥

अन्य देशों में दीपावली–दीपावली केवल भारत में ही नहीं अपितु संसार के विभिन्न देशों बर्मा (म्यांमार), मलाया, जावा, सुमात्रा, थाईलैण्ड, हिन्द-चीन, मॉरीशस आदि में भी मनायी जाती है। अमेरिका के एक राष्ट्र गुयाना में दीपावली को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाता है। इन देशों में कुछ स्थानों पर इस दिन भारत की ही तरह लक्ष्मी-पूजन भी किया जाता है।

ऐतिहासिक व धार्मिक दृष्टिकोण—दीपावली मनाने के पीछे अनेक पौराणिक कथाएँ भी प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार इस दिन भगवान् राम रावण का वध करने के पश्चात् अयोध्या लौटे थे और अयोध्यावासियों ने उनके आगमन की प्रसन्नता में दीप जला कर अपनी भावनाओं को व्यक्त किया था। एक अन्य कथा के अनुसार इस दिन भगवान् कृष्ण ने नरकासुर का वध करके उसके चंगुल से सोलह हजार युवतियों को मुक्त कराया था। इस कारण प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए लोगों ने दीप जलाये थे। एक अन्य मान्यता के अनुसार इस दिन समुद्र मन्थन से लक्ष्मी जी प्रकट हुई थीं तथा देवताओं ने उनकी अर्चना की थी। इसीलिए आज भी इस दिन लोग सुख, समृद्धि एवं ऐश्वर्य की कामना से लक्ष्मी-पूजन करते हैं। यह भी माना जाता है कि इस दिन भगवान् विष्णु ने नृसिंह अवतार धारण कर भक्त प्रह्लाद की रक्षा की थी।

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जैन तीर्थंकर भगवान् महावीर ने इस दिन जैनत्व की प्राण प्रतिष्ठा करते हुए महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था तथा इसी दिन महर्षि दयानन्द ने भी निर्वाण प्राप्त किया था। सिक्ख सम्प्रदाय के छठे गुरु हरगोविन्द जी को भी इस दिन बन्दीगृह से मुक्ति मिली थी। ये सभी किंवदन्तियाँ यही सिद्ध करती हैं कि दीपावली के त्योहार का भारतवासियों के सामाजिक जीवन में बहुत महत्त्व है।

दीपावली का आयोजन–दीपावली स्वच्छता एवं साज-सज्जा का सुन्दर सन्देश लेकर आती है। दशहरे के बाद से ही लोग दीपावली मनाने की तैयारियाँ प्रारम्भ कर देते हैं। समाज के सभी वर्गों के लोग अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने घरों की सफाई (UPBoardSolutions.com) करते हैं तथा रंग-रोगन से अपने घरों को चमका देते हैं। इस सफाई से घरों में वर्षा ऋतु में आयी सीलन आदि भी दूर हो जाती है।

दीपावली से पूर्व धनतेरस का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन लोग बर्तन आदि खरीदते हैं। दीपावली के दिन बाजार बहुत सजे हुए होते हैं। लोग मिठाई, खील-बताशे आदि खरीदते तथा एक-दूसरे को उपहार देते हैं। इस दिन सभी बच्चे नवीन वस्त्र धारण करते हैं। रात को लक्ष्मी-गणेश की पूजा के पश्चात् बच्चे और बूढ़े मिलकर पटाखे, आतिशबाजी आदि छोड़ते हैं। घरों को दीपकों, बिजली के बल्बों, मोमबत्तियों आदि से सजाया जाता है। समस्त दृश्य अत्यन्त मनोरम एवं हृदयग्राही प्रतीत होता है। सभी लोग पारस्परिक बैर-भाव को त्याग कर प्रेम से एक-दूसरे को दीपावली की शुभ-कामनाएँ देते हैं।

उपसंहार-दीपावली के शुभ अवसर पर कुछ लोग जुआ खेलते हैं तथा जुए में पराजित होने पर एक-दूसरे को भला-बुरा भी कहते हैं। इससे उल्लास एवं उमंग का यह त्योहार विषाद में बदल जाता है। मार-पीट होने से अनेक व्यक्ति घायल हो जाते हैं। पटाखे और आतिशबाजी छोड़ने के कारण हुई दुर्घटना में अनेक व्यक्ति अपने प्राणों से भी हाथ धो बैठते हैं। हमें दीपावली के इस त्योहार को उसके सम्पूर्ण वैभव के साथ उस ढंग से मनाना (UPBoardSolutions.com) चाहिए जिससे समाज में पारस्परिक सद्भाव उत्पन्न हो सके।

11. भारत के प्रमुख पर्व

रूपरेखा-

  1. भूमिका,
  2. राष्ट्रीय जातीय पर्व,
  3. प्रमुख राष्ट्रीय पर्व,
  4. प्रमुख जातीय पर्व,
  5. हिन्दुओं के प्रमुख पर्व,
  6. सिक्खों के प्रमुख पर्व,
  7. ईसाइयों के प्रमुख पर्व,
  8. मुसलमानों के प्रमुख ‘पर्व,
  9. उपसंहार।

भूमिका-मानव एक सामाजिक प्राणी है। वह अपने सुख-दुःख का विभाजन अपने समाज के साथ करता है। वह हमेशा अपने कार्य में लीन रहता है तथा अपने बँधे-बँधाये जीवन में परिवर्तन की अपेक्षा रखता है। यह इसीलिए कि वह चाहता है कि दैनिक कार्यों में स्फूर्ति, (UPBoardSolutions.com) आनन्द तथा उत्साह का संचार होता रहे। इस परिवर्तन को वह विविध पर्वो के रूप में मनाता है। इन पर्वो पर वह समाज के सभी लोगों के साथ मिलकर समाज के उत्थान के लिए प्रयासरत रहता है।

राष्ट्रीय-जातीय पर्व-भारत देश अनेकता में एकता लिये हुए है। विभिन्न जातियों, धर्मों और वर्गों के व्यक्तियों ने इस महान देश का निर्माण किया है। इसलिए यहाँ अनेक पर्व वर्ष भर मनाये जाते हैं। इन पर्वो में देश के सभी सहृदय निवासी सहर्ष भाग लेते हैं और आपस में मित्रता, सद्भाव, एकता आदि का परिचय देते हैं। हमारे पर्व–राष्ट्रीय तथा जातीय-दो तरह के हैं। राष्ट्रीय पर्वो के अन्तर्गत स्वतन्त्रता दिवस, गणतन्त्र दिवस और विभिन्न राष्ट्रीय नेताओं के जन्मदिन आते हैं और जातीय पर्यों में भारत में रहने वाले विभिन्न सम्प्रदायों द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर मनाये जाने वाले पर्वो की गणना होती है।

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प्रमुख राष्ट्रीय पर्व-राष्ट्रीय पर्वो में सबसे पहला पर्व है-स्वतन्त्रता दिवस। हमारा भारत अनेक वर्षों की परतन्त्रता से 15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्र हुआ था। उसी की याद में प्रति वर्ष 15 अगस्त को सारे देश में स्वतन्त्रता दिवस बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। मुख्य समारोह का प्रारम्भ दिल्ली के लाल किले पर प्रधानमन्त्री द्वारा झण्डा फहराने से होता है। देश के प्रमुख नगरों और गाँवों में भी यह पर्व उत्साह के साथ मनाया जाता है।

गणतन्त्र दिवस हमारा दूसरा प्रमुख राष्ट्रीय पर्व है। 26 जनवरी, 1950 को हमारे देश में संविधान लागू किया गया था और इसी दिन भारत को सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न गणराज्य घोषित किया गया था। इसी कारण सम्पूर्ण देश में प्रति वर्ष 26 जनवरी को यह राष्ट्रीय पर्व अत्यन्त उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। इस पर्व का मुख्य समारोह दिल्ली में होता है, जहाँ विशाल झाँकियों से जुलूस निकाला जाता है और राष्ट्रपति सलामी लेते हैं।

हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने हमें स्वाधीनता दिलाने में अपना सर्वस्व न्योछावर कर (UPBoardSolutions.com) दिया था। उनकी याद में उनके जन्म दिवस 2 अक्टूबर को प्रति वर्ष यह राष्ट्रीय पर्व मनाया जाता है। इसके मुख्य समारोह दिल्ली स्थित राजघाट पर और उनके जन्म-स्थान पोरबन्दर पर होते हैं।

इसी प्रकार हमारे प्रथम प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन 14 नवम्बर को बाल दिवस के रूप में; डॉ० राधाकृष्णन का जन्मदिवस 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इन पर्वो को छोटे-बड़े सभी भारतवासी मिल-जुलकर धूमधाम से मनाते हैं।

प्रमुख जातीय पर्व-भारत के प्रमुख जातीय पर्यों में सभी जातियों के विभिन्न पर्व देश में समयसमय पर मनाये जाते हैं। इन जातियों में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख और ईसाई मुख्य हैं।

हिन्दुओं के प्रमुख पर्व-हिन्दुओं में प्रचलित प्रमुख पर्व हैं-होली, दीपावली, दशहरा, रक्षाबन्धन आदि। रक्षाबन्धन को श्रावणी भी पुकारते हैं। प्राचीन परम्परा के अनुसार इस दिन ब्राह्मण दूसरे वर्ग के लोगों को रक्षा-सूत्र बाँधते थे, जिससे रक्षा-सूत्र बँधवाने वाला, देश तथा जाति की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझता था। कालान्तर में बहनें अपने भाइयों को रक्षा-सूत्र बाँधने लगीं। मध्यकाल में हिन्दू बहनों ने मुसलमान भाइयों को रक्षा-सूत्र बाँधकर सांस्कृतिक एकता का परिचय दिया था। यह पर्व श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है।

दशहरा या विजयदशमी हिन्दुओं का राष्ट्रव्यापी पर्व है। इस पर्व से पूर्व रामलीलाओं तथा दुर्गापूजा का आयोजन किया जाता है। इस दिन रावण-वध के द्वारा बुरी प्रवृत्तियों पर सदगुणों की विजय प्रदर्शित की जाती है। यह पर्व वीरता, दया, सहानुभूति, आदर्श मैत्री, भक्ति-भावना आदि उच्च गुणों की प्रेरणा देता है।

दीपावली कार्तिक कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाया जाने वाला दीपों का पर्व है। इस दिन लक्ष्मीगणेश जी की पूजा की जाती है और घर-आँगन में दीपों से प्रकाश किया जाता है।

होली हर्षोल्लास का पर्व है। फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को होलिका-दहन होता है और चैत्र (UPBoardSolutions.com) कृष्ण प्रतिपदा को होली खेली जाती है। इस दिन लोग परस्पर रंग लगाकर मिलते हैं। होली के दिन अपने-पराये का भेद समाप्त हो जाता है।

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सिक्खों के प्रमुख पर्व-सिक्खों का प्रमुख पर्व है-गुरु-पर्व। इसमें गुरु नानक, गुरु गोविन्द सिंह
आदि विभिन्न गुरुओं के जन्मदिन धूमधाम से मनाये जाते हैं, गुरु ग्रन्थ-साहब की वाणी का पाठ किया जाता है, जुलूस निकाले जाते हैं और लंगर (सामूहिक भोज) होते हैं।

ईसाइयों के प्रमुख पर्व–प्रति वर्ष 25 दिसम्बर को क्रिसमस का पर्व अत्यन्त उत्साह से मनाया जाता है। यह महात्मा ईसा मसीह की पुण्य जयन्ती का पर्व है। ईसाइयों का दूसरा प्रमुख पर्व है-ईस्टर, जो 21 मार्च के बाद जब पहली बार पूरा चाँद दिखाई पड़ता है तो उसके पश्चात् आने वाले रविवार को मनाया जाता है। इनके अतिरिक्त दो प्रमुख पर्व हैं-गुड फ्राइडे तथा प्रथम जनवरी (नववर्ष)। ।

मुसलमानों के प्रमुख पर्व-मुसलमानों के पर्वो में रमजान, मुहर्रम, ईद, बकरीद आदि प्रमुख हैं।

उपसंहार–पर्व हमारी सभ्यता तथा संस्कृति के प्रतीक हैं। सैकड़ों वर्षों से ये (UPBoardSolutions.com) हमारे सामाजिक जीवन में नित नवीन प्रेरणा का संचार करते रहे हैं। अत: इन पर्वो का मनाना हमारे लिए उपादेय तथा आवश्यक है।

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UP Board Solutions for Class 11 History Chapter 3 An Empire Across Three Continents

UP Board Solutions for Class 11 History Chapter 3 An Empire Across Three Continents (तीन महाद्वीपों में फैला हुआ साम्राज्य)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर
संक्षेप में उत्तर दीजिए

प्रश्न 1.
यदि आप रोम साम्राज्य में रहे होते तो कहाँ रहना पसन्द करते-नगरों में या ग्रामीण क्षेत्रों में? कारण बताइए।
उत्तर :
यदि मैं रोम साम्राज्य में निवास कर रहा होता तो नगरीय क्षेत्र में ही रहना पसन्द करता, क्योंकि
(i) राम साम्राज्य नगरों का साम्राज्य था। ऐसे में वहाँ गाँवों का बहुत कम महत्त्व था।
(ii) रोम साम्राज्य में नगरों का शासन स्वतन्त्र होता था। इससे व्यक्तित्व के विकास में सहायता मिलती।
(iii) सबसे बड़ा लाभ यह होता कि वहाँ खाद्य पदार्थों की कमी नहीं होती और अकाल के दिनों में भी भोजन प्राप्त हो सकता था।
(iv) नगरों में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अन्य सुविधाएँ अधिक और अच्छी थीं।

प्रश्न 2.
इस अध्याय में उल्लिखित कुछ छोटे शहरों, बड़े नगरों, समुद्रों और प्रान्तों की सूची बनाइए और उन्हें नक्शों पर खोजने की कोशिश कीजिए। क्या आप अपने द्वारा बनाई गईसूची में संकलित किन्हीं  3  विषयों के बारे में कुछ कह सकते हैं?
उत्तर :
शहरों की सूची :
गॉल, मकदूनिया, रोम, इफेसस, हिसपेनिया, बेटिका, तांजियर मोरक्को, दमस्कस, अलेक्जेण्ड्रिया, कार्थेज, कुस्तुनतुनिया, फिलिस्तीन, मदीना, मक्का, बगदाद, समरकन्द, बुखारा, अफगानिस्तान, सीरिया।
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इस प्रकार छात्र अध्यापक की सहायता से समुद्रों, पत्तनों, प्रांतों की और सूची बना सकते हैं। आपकी सहायता के लिए उपयुक्त नक्शे प्रस्तुत किए गए हैं।

प्रश्न 3.
कल्पना कीजिए कि आप रोम की एक गृहिणी हैं जो घर की जरूरत की वस्तुओं की खरीदारी की सूची बना रही हैं? अपनी सूची में आप कौन-सी वस्तुएँ शामिल करेंगी?
उत्तर :
यदि मैं रोम की गृहिणी होती तो अपने परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए निम्नलिखित वस्तुएँ मॅगाती

  1.  रोटी और मक्खन
  2.  सब्जियाँ
  3.  दूध
  4. अण्डे तथा मांस
  5. चीनी
  6.  तेल
  7. बच्चों के लिए आवश्यक वस्तुएँ
  8. सौन्दर्य प्रसाधन
  9. कपड़े धोने तथा नहाने का साबुन
  10. कपड़े, दवाइयाँ आदि

प्रश्न 4.
आपको क्या लगता है कि रोमन सरकार ने चाँदी में मुद्रा को ढालना क्यों बन्द किया होगा और वह सिक्कों के उत्पादन के लिए कौन-सी धातु का उपयोग करने लगे?
उत्तर :
रोमन सरकार द्वारा चाँदी में मुद्रा ढालना इस धातु की कमी तथा मूल्यवान होने के कारण बन्द किया होगा। तत्कालीन शासन में स्पेन में चाँदी की खाने समाप्त हो गई थीं तथा सरकार के पास.चाँदी के भण्डार रिक्त हो गए थे। कॉन्स्टेनटाइन ने सोने पर आधारित नई मौद्रिक प्रणाली स्थापित की और परवर्ती सम्पूर्ण पुराकाल में सोने की मुद्राओं का भारी मात्रा में प्रचलन रहा। वस्तुत: रोम में सोने के कई भण्डार थे। ।

संक्षेप में निबन्ध लिखिए

प्रश्न 5.
अगर सम्राट त्राजान भारत पर विजय प्राप्त करने में वास्तव में सफल रहे होते और रोमवासियों का इस देश पर अनेक सदियों तक कब्जा रहा होता तो क्या आप सोचते हैं कि भारत वर्तमान समय के देश से किस प्रकार भिन्न होता?
उत्तर :
त्राजान भारत पर विजय प्राप्त करने के लिए निकला था किन्तु सफल नहीं हो सका। यदि वह सफल हो जाता और रोमवासियों का अनेक सदियों तक कब्जा होता तो ऐसा भारत वर्तमान भारत से बिल्कुल अलग होता। वह भारत वैसा होता जैसा ब्रिटिश शासनकाल में था। रोम के निवासी एक गुलाम देश के समान व्यवहार करते और भारत के संसाधनों का दोहन करते। भारतीयों को किसी प्रकार का अधिकार प्रदान नहीं किया जाता उन्हें अपमानजनक दशाओं में जीवन व्यतीत करना पड़ता। उल्लेखनीय है कि उस काल में सोना रोम से भारत आता था और भारत सम्पन्न देश था। रोमवासियों की अधीनता स्वीकार हो जाने पर यह सम्भव नहीं होता। भारत के सभी क्षेत्रों में विकास रुक जाता।

प्रश्न 6.
अध्याय को ध्यानपूर्वक पढ़कर उसमें से रोमन समाज और अर्थव्यवस्था को आपकी दृष्टि में आधुनिक दर्शाने वाले आधारभूत अभिलक्षण चुनिए।
उत्तर :
रोमन समाज और अर्थव्यवस्था में दिखने वाले आधारभूत अभिलक्षण निम्नलिखित हैं

  1. रोमन समाज में नाभिकीय परिवारों (Nuclear Family) का चलन था। वयस्क पुत्र परिवारों के साथ नहीं रहते थे।
  2. पत्नी अपनी सम्पत्ति को अपने पति को हस्तांतरित नहीं करती थी, वह अपने पैतृक परिवार की सम्पत्ति में अपने पूरे अधिकार बनाए रखती थी। अपने पिता की मुख्य उत्तराधिकारी बनी रहती थी और पिता की मृत्यु होने पर उस सम्पत्ति की स्वतंत्र मालिक बन जाती थी।
  3. रोम में साक्षरता थी। सभी नगरों में साक्षरता की दर भिन्न-भिन्न थी।
  4.  जैतून के तेल का निर्यात किया जाता था।
  5. रोम में व्यापार एवं वाणिज्य उन्नति पर था। बैंकिंग व्यवस्था भी प्रचलित थी।
  6. रोम के विविध प्रांतों में जलशक्ति से कारखाने चलाए जाते थे।
  7.  सोने-चाँदी की खदानों में भी जलशक्ति का उपयोग किया जाता था।

परीक्षोपयोगी अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
तीन महाद्वीपों में फैला हुआ साम्राज्य कौन-सा था?
(क) रोम साम्राज्य
(ख) ब्रिटिश साम्राज्य
(ग) भारतीय साम्राज्य
(घ) रूसी साम्राज्य
उत्तर :
(क) रोम साम्राज्य

प्रश्न 2.
रोम साम्राज्य की प्रमुख भाषा थी
(क) लैटिन
(ख) अंग्रेजी
(ग) स्पेनिश
(घ) रूसी
उत्तर-
(क) लैटिन

प्रश्न 3.
ऑगस्टस का एक अन्य नाम क्या था?
(क) जूलियस सीजर
(ख) ब्रूटस
(ग) ऑक्टेवियन
(घ) एलन
उत्तर :
(ग) ऑक्टेवियन

प्रश्न 4.
कॉन्स्टेनटाइन ने अपनी दूसरी राजधानी कहाँ बनाई?
(क) कुस्तुनतुनिया में
(ख) वेनिस में
(ग) इटली में
(घ) गैलीनस में
उत्तर :
(क) कुस्तुनतुनिया में

प्रश्न 5.
हिप्पो शहर के प्रमुख बिशप कौन थे?
(क) मार्टिन लूथर
(ख) सेंट ऑगस्टाइन
(ग) कोलूमेल्ला
(घ) कॉन्स्टेनटाइन
उत्तर :
(ख) सेंट ऑगस्टाइन

प्रश्न 6.
ऑगस्टस कब शासक बना था?
(क) 27 ई० पू० में
(ख) 26 ई० पू० में
(ग) 507 ई० पू० में
(घ) 230 ई० पू० में
उत्तर :
(क) 27 ई० पू० में

प्रश्न 7.
पैपाइरस पत्र को प्रयोग किस रूप में किया जाता था?
(क) ईंधन के रूप में
(ख) कागज के रूप में
(ग) औषधि के रूप में
(घ) कलम के रूप में
उत्तर :
(ख) कागज के रूप में

प्रश्न 8.
टॉलमी किस विषय का ज्ञाता था?
(क) खगोल व भूगोल
(ख) गणित
(ग) भाषा
(घ) आयुर्वेद
उत्तर :
(क) खगोल व भूगोल

प्रश्न 9.
सॉलिड्स सिक्का किसने चलाया था?
(क) कॉन्स्टेनटाइन
(ख) प्लिनी
(ग) कोलुमेल्ला
(घ) बिलकिस
उत्तर :
(क)कॉन्स्टेनटाइन्

प्रश्न 10.
ऑगस्टस के साम्राज्य को कहते थे
(क) प्रिन्सिपेट
(ख) गणतन्त्र
(ग) यूनियन
(घ) संघ
उत्तर :
(क) प्रिन्सिपेट

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
रोमन साम्राज्य को कब और क्यों दो भागों में बाँटा गया ?
उत्तर :
350-400 ई० पू० में शासन को बेहतर ढंग से चलाने के लिए रोमन साम्राज्य को पूर्वी तथा , पश्चिमी दो भागों में बाँट दिया गया।

प्रश्न 2.
वर्ष वृत्तान्त से क्या आशय है?
उत्तर :
समकालीन इतिहासकारों द्वारा लिखा गया इतिहास वर्ष वृत्तान्त कहलाता है। ये वृत्तान्त वार्षिक आधार पर प्रतिवर्ष लिखे जाते थे।

प्रश्न 3.
रोम में गणतंत्र दिवस कब तक चला?
उत्तर :
रोम में गणतंत्र दिवस 509 ई० पू० से 27 ई० पू० तक चला।

प्रश्न 4.
ऑगस्टस का शासनकाल क्यों याद किया जाता है?
उत्तर :
ऑगस्टस का शासनकाल शान्ति के लिए याद किया जाता है।

प्रश्न 5.
एम्फोरा क्या थे?
उत्तर :
एम्फोरा ढुलाई के ऐसे मटके अथवा कन्टेनर्स थे जिनमें शराब, जैतून का तेल और दूसरे तरल पदार्थ लाए व ले जाए जाते थे।

प्रश्न 6.
बहुदेववाद का क्या अर्थ है?
उत्तर :
बहुदेववाद का अर्थ है अनेक देवी-देवताओं की पूजा-उपासना करना

प्रश्न 7.
सीनेट क्या है?
उत्तर :
सीनेट धनी कुलीन वर्ग का समूह था जो शासन चलाता था।

प्रश्न 8.
रोम के तीन बड़े शहरी केंद्रों के नाम बताइए।
उत्तर :
(i) कॉर्थेज
(ii) सिकंदरिया
(iii) एंटिऑक

प्रश्न 9.
रोम के शहरी जीवन की दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :

  1.  प्रत्येक शहर में सार्वजनिक स्नानगृह होता था।
  2.  लोगों को उच्च स्तर के मनोरंजन उपलब्ध थे।

प्रश्न 10.
सेंट ऑगस्टाइन कौन था?
उत्तर :
सेंट ऑगस्टाइन उत्तरी अफ्रीका के हिप्पो नामक नगर का बिशप था और चर्च के बौद्धिक इतिहास में उसका उच्चतम स्थान था।

प्रश्न 11.
रोमवासी किन-किनं देवताओं की पूजा करते थे?
उत्तर :
(i) जुपीटर
(ii) जूना
(iii) मिनर्वा
(iv) मार्स

प्रश्न 12.
पैपाइरस पत्र का प्रयोग किस कार्य में होता था?
उत्तर :
पैपाइरस पत्र का प्रयोग लेखन कार्य के लिए होता था।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
चौथी सदी ईसवी के उत्तरार्द्ध में सिकंदर के सैन्य अभियानों का क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर :
चौथी सदी ईसवी के उत्तरार्द्ध में मेसीडोन राज्य के शासक सिकंदर ने कई सैन्य अभियान किए। सिकंदर के नियंत्रण में सभी क्षेत्रों में यूनानी संस्कृति, विचार तथा आदर्शों को सम्मिश्रण हो गया। पूरे क्षेत्र का यूनानीकरण हो गया। सिकंदर ने उत्तर अफ्रीका, पश्चिम एशिया तथा ईरान के अनेक भागों को जीत लिया। उसके इन अभियानों के फलस्वरूप ईरानी तथा मिस्त्री क्षेत्रों के साथ सिन्धु घाटी तक विस्तृत प्रांत एक हो गए।

प्रश्न 2.
पैपाइरस के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर :
पैपाइरस एक सरकण्डे जैसा पौधा था। यह पौधा मिस्र में नील नदी के किनारे उगता था। इस । पौधे से लेखन सामग्री तैयार की जाती थी। इसका उपयोग व्यापक रूप में किया जाता था। पैपाइरस पत्रों पर हजारों संविदाएँ, लेख, पत्र तथा सरकारी दस्तावेज लिखे हुए पाए गए हैं। इन्हें पैपाइरस विज्ञानियों द्वारा प्रकाशित किया गया है।

प्रश्न 3.
सीनेट नामक संस्था के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर :
रोम में सीनेट कुलीन वर्ग के लोगों का एक समूह था जिसमें धनी परिवारों के लोग शामिल थे। गणतंत्र की वास्तविक सत्ता सीनेट नामक निकाय में ही निहित थी। कुलीन वर्ग के लोग सीनेट के माध्यम से ही सरकार चलाते थे। सीनेट की सदस्यता जीवन भर चलती थी। इसके लिए जन्म के स्थान पर धन और पद प्रतिष्ठा को अधिक महत्त्व दिया जाता था। जूलियस सीजर के दत्तक पुत्र तथा उत्तराधिकारी ऑक्टेवियन ने गणतंत्र को समाप्त कर दिया।

प्रश्न 4.
रोम समाज में महिलाओं की दशा कैसी थी?
उत्तर :
रोम के समाज में महिलाओं की दशा :

  1.  रोम के समाज में महिलाओं की स्थिति सुदृढ़ थी। पत्नी अपनी सम्पत्ति अपने पति को हस्तान्तरित नहीं करती थी और पैतृक सम्पत्ति पर उसका अधिकार बना रहता था।
  2.  महिलाएँ अपने पिता की मुख्य उत्तराधिकारी बनी रहती थीं और अपने पिता की मृत्यु होने पर उसकी सम्पत्ति की स्वतंत्र मालिक बन जाती थीं। इस प्रकार महिलाओं को पर्याप्त अधिकार प्राप्त थे।
  3. विवाह-अनुच्छेद आसान था। पति अथवा पत्नी द्वारा विवाह भंग करने के उद्देश्य से सूचना देना पर्याप्त था।
  4. लड़के-लड़कियों के विवाह की आयु में पर्याप्त अन्तर था फिर भी महिलाएँ पुरुषों पर अधिकार रखती थीं।

प्रश्न 5.
कॉन्स्टेनटाइन के प्रमुख सुधार लिखिए।
उत्तर :
कॉन्स्टेनटाइन के प्रमुख सुधार निम्नखित थे :

  1. इसका प्रमुख सुधार मौद्रिक क्षेत्र में है। उसने ‘सॉलिड्स’ नामक एक नया सिक्का चलाया जो 4.5 ग्राम शुद्ध सोने का बना था। यह सिक्का रोम साम्राज्य के पतन के बाद भी चलता रहा।
  2. ये सॉलिड्स सिक्के बड़े पैमाने पर ढाले जाते थे और करोड़ों की संख्या में चलन में थे।
  3. कॉन्स्टेनटाइन की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि कुस्तुनतुनिया नगर का निर्माण है। यह नवीन राजधानी तीन ओर से समुद्र से घिरी हुई और सुरक्षित थी।
  4. उसके काल में तेल मिलों और शीशे के कारखानों सहित ग्रामीण उद्योग-धंधों स्क्रूप्रेसों आदि का विकास हुआ।
  5. इन सबसे उसके साम्राज्य में व्यापार की खूब उन्नति हुई।

प्रश्न 6.
“रोमवासी बहुदेववादी थे।” इस कथन को समझाइए।
उत्तर :
यूनान और रोमवासियों की पारम्परिक धार्मिक संस्कृति बहुदेववादी थी। ये लोग अनेक पन्थों एवं उपासना पद्धतियों में विश्वास रखते थे और जुपीटर, जूनो, मिनर्वा और मॉर्स जैसे अनेक रोमन इतालवी देवों और यूनानी तथा पूर्वी देवी-देवताओं की पूजा किया करते थे जिसके लिए उन्होंने साम्राज्य भर में हजारों मंदिर-मठ और देवालय बना रखे थे। ये बहुदेववादी स्वयं को किसी एक नाम से नहीं पुकारते थे।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित के विषय में आप क्या जानते हैं?

  1. जूलिसय सीजर
  2.  ऑगस्टस
  3.  मार्कस ओरिलियस

उत्तर :

  1. जूलियस सीजर (46 ई० पू० से 44 ई० पू०) : जूलियस सीजर मौलिक रूप से रोम का एक महान् सेनापति था जिसने अनेक युद्धों तथा रोमन दासों के विद्रोह को कुचलने के पश्चात् अपने प्रतिद्वंद्वी पाम्पी की मिस्र में हत्या करा दी। उसने 46 ई० पू० में एक तानाशाह के रूप में रोम की गद्दी को प्राप्त किया था।
  2. ऑगस्टस : ऑगस्टस या ऑक्टेवियन जूलियस सीजर का ही वंशज था। वह 37 ई० पू० में | रोम साम्राज्य का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति हो गया। उसने ऑगस्टस (पवित्र) और इम्पेरेटर  (राज्य का प्रथम नागरिक) नामक पदवियाँ ग्रहण कीं और 24 वर्ष तक रोम पर शासन-किया।
  3. मार्कस ओरिलियस : ऑगस्टस के पश्चात् के शासकों में सबसे योग्य शासक मार्कस | ओरिलियस थी। उसने लगभग 20 वर्षों तक राज्य किया। वह योग्य सेनापति, कुशल प्रशासक व महान् दार्शनिक था।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
रोम साम्राज्य की सामाजिक संरचना के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर :
इतिहासकार टैसिटस ने जिन प्रारम्भिक साम्राज्य के प्रमुख सामाजिक समूहों का उल्लेख किया है; वे हैं—सीनेटर, अश्वारोही वर्ग, जनता का सम्माननीय वर्ग, निम्नतम वर्ग। तीसरी सदी के प्रारम्भिक वर्षों में सीनेटर की सदस्य संख्या लगभग 1000 थी तथा कुल सीनेटरों में लगभग आधे सीनेटर इतालवी परिवारों के थे। साम्राज्य के परवर्तीकाल में, जो चौथी सदी के प्रारम्भिक भाग में कॉन्स्टेनटाइन प्रथम के शासनकाल में आरम्भ हुआ, टैसिटस द्वारा बताए गए प्रथम दो समूह (सीनेटर और अश्वारोही) एकीकृत होकर विस्तृत कुलीन वर्ग बन गए थे। इनके कुल परिवारों में से कम-से-कम आधे परिवार अफ्रीकी अथवा पूर्वी मूल के थे। यह ‘परवर्ती रोम’ कुलीन वर्ग अत्यधिक धनी थी। मध्यम वर्गों में नौकरशाही और सेना की सेवा से जुड़े लोग थे किन्तु इनमें अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध सौदागर और किसान भी शामिल थे जिनमें बहुत-से लोग पूर्वी प्रान्तों के निवासी थे। टैसिटस ने इस सम्माननीय मध्यम वर्ग को सीनेट गृहों के आश्रितों के रूप में उल्लेख किया है। बड़ी संख्या में निम्न वर्गों के समूह थे जिन्हें ह्युमिलिओरिस अर्थात् ‘निम्नतर वर्ग’ कहा जाता था। इनमें ग्रामीण श्रमिक बल शामिल था जिनमें बहुत से लोग स्थायी रूप से मिलों में काम करते थे।

प्रश्न 2.
विजेण्टाइन साम्राज्य के नारे में संक्षेप में लिखिए।
उत्तर :
मध्य युग में रोमन सम्राट कॉन्स्टेनटाइन ने रोमन साम्राज्य के पूर्वी प्रदेशों को संगठित करके 330 ई० में पश्चिमी विजेण्टाइन साम्राज्य की स्थापना की। इस साम्राज्य की राजधानी यूनानी नगर ‘विजेण्टाइन’ थी। 476 ई० में जब रोमन साम्राज्य का पतन हो गया, तब विजेण्टाइन साम्राज्य ने पर्याप्त प्रसिद्धि प्राप्त की। अब उसकी राजधानी कॉन्स्टेनटिनोपल (कुस्तुनतुनिया) थी। इस साम्राज्य पर अनेक राजाओं ने शासन किया। फलस्वरूप कुस्तुनतुनिया संसार का सबसे अधिक वैभवशाली नगर बन गया। इस साम्राज्य के अंतर्गत व्यापार, वाणिज्य, शासन-प्रणाली, कानून आदि के क्षेत्र में अभूतपूर्व उन्नति हुई।
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इस साम्राज्य में सामन्तवाद का विकास हुआ और समाज में ‘सर्फ प्रथा’ (Serf System) प्रर्चा हुई। इस साम्राज्य में ग्रीक ऑथ्रोडॉक्स (नास्तिक) चर्च का बहुत विकास हुआ और राजा ही धर्म अध्यक्ष बने। इस काल में अनेक भवनों, नाटकघरों, गिरजाघरों आदि का निर्माण हुआ, जिन कुस्तुनतुनिया में बना ‘सेण्ट सोफिया का गिरजाघर’ बहुत प्रसिद्ध है। सन् 1453 ई० में तुर्को : कुस्तुनतुनिया पर आक्रमण करके विजेण्टाइन साम्राज्य को नष्ट कर दिया।

प्रश्न 3.
कला, भाषा, दर्शन साहित्य और विज्ञान के क्षेत्र में रोम की क्या देन है?
उत्तर :
कला के क्षेत्र में देन :

  1.  रोम ने कंकरीट को प्रयोग सर्वप्रथम किया।
  2.  वे ईंट-पत्थरों को बड़ी मजबूती से जोड़ सकते थे, इस शिल्पकला को रोम ने ही विश्व को सिखाया।
  3.  डाट का प्रयोग रोम ने सम्भवतः सर्वप्रथम किया। वे मजबूत डाटों के सहारे कई मंजिले मकान बना सकते थे।
  4.  वे मजबूत व सुंदर नहरें बनाना जानते थे।
  5. उन्होंने अपने सम्राटों की मूर्तियाँ बनाकर महत्त्वपूर्ण स्थानों पर लगाई।

भाषा, दर्शन, साहित्य तथा विज्ञान के क्षेत्र में देन

भाषा : रोम के लोगों ने यूनानियों से वर्णमाला सीखकर अपनी वर्णमाला और भाषा का विकास किया। उनकी लैटिन भाषा सारे पश्चिमी यूरोप के पढ़े-लिखे लोगों की भाषा बन गई। कई आधुनिक यूरोपीय भाषाएँ; जैसे–फ्रांसीसी, स्पेनिश, इतालवी उनकी लैटिन भाषा पर आधारित हैं।

दर्शन : एषीक्यूरिन तथा स्टोक दर्शन रोम में बहुत प्रसिद्ध थे। रोम में ल्यूकीट्स, सिसरो, मार्कस, ओरीलियस आदि प्रसिद्ध दार्शनिक हुए।

साहित्य : रोम ने साहित्य के क्षेत्र में कुछ प्रसिद्ध कवि दिए। होरेश और वर्जिल उनके महानतम कवि थे।

विज्ञान : रोम के प्रसिद्ध वैज्ञानिक सेल्सस ने चिकित्साशास्त्र के क्षेत्र में एक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी जिसमें शल्य चिकित्सा का विस्तृत वर्णन किया गया। गैलेन नामक वैज्ञानिक ने चिकित्साशास्त्र को विशेष कोष तैयार किया। उसने रक्त संचालन का पता लगाया। खगोल तथा भूगोल के क्षेत्र में टॉलमी नामक विद्वान् नेविशेष कार्य किया। उसने तारों व ग्रहों की स्थिति का अध्ययन किया।

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