UP Board Solutions for Class 12 Civics राष्ट्रमण्डल के सदस्य के रूप में भारत

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter 22 a
Chapter Name राष्ट्रमण्डल के सदस्य के रूप में भारत
Number of Questions Solved 15
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics राष्ट्रमण्डल के सदस्य के रूप में भारत

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6अंक)

प्रश्न 1
राष्ट्रमण्डल क्या है? वर्तमान विश्व में इसके महत्व का मूल्यांकन कीजिए। [2013]
या
राष्ट्रमण्डल क्या है? इसके उद्देश्य क्या है? इसका सदस्य कौन हो सकता है? [2010, 14]
या
राष्ट्रमण्डल के गठन तथा कार्यों की विवेचना कीजिए। [2010]
या
राष्ट्रमण्डल क्या है? इसकी स्थापना कब हुई थी? इसमें कितने सदस्य हैं? इसका मुख्यालय कहाँ है? [2012]
या
राष्ट्रमण्डल क्या है? इसके उद्देश्य क्या हैं? राष्ट्रमण्डल के सदस्य के रूप में भारत के कार्यों की चर्चा कीजिए। [2013]
उत्तर :
राष्ट्रमण्डल उन देशों का संगठन है जो कभी अंग्रेजों के अधीन थे और जिन्होंने स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद ब्रिटेन के साथ लगभग बराबर के सम्बन्ध स्थापित कर लिये। वस्तुतः ‘ब्रिटिश साम्राज्य’, ‘ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल’ तथा ‘राष्ट्रमण्डल’ एक ही संस्था के नाम हैं, जो परिस्थितियों और आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित होते रहे हैं। 1887 ई० में महारानी विक्टोरिया की हीरक जयन्ती के अवसर पर साम्राज्य के प्रतिनिधियों की औपचारिक बैठक से इसका प्रारम्भ हुआ था। 1907 ई० के सम्मेलन में इसका नाम ‘इम्पीरियल कॉन्फ्रेंस’ निश्चित किया गया और 1931 ई० के वेस्टमिन्स्टर विधान में इसका नाम बदलकर ‘ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल’ कर दिया गया। 1947 ई० में भारत की स्वतन्त्रता के बाद जब भारत के द्वारा गणतन्त्र के साथ-साथ राष्ट्रमण्डल की सदस्यता प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की गयी तो अप्रैल, 1949 ई० के सम्मेलन में इसका नाम बदलकर ‘राष्ट्रमण्डल’ (Commonwealth of Nations) रखा गया और गणतन्त्रों के लिए सम्राट् के प्रति भक्ति की शर्त हटा दी गयी। इसका मुख्यालय मार्लबेरो हाउस लंदन (ग्रेट ब्रिटेन) में है। इसमें वर्तमान सदस्य देशों की संख्या 53 है।

राष्ट्रमण्डल कोई निश्चित उत्तरदायित्व वाला कठोर वैधानिक या सैनिक संगठन नहीं है, वरन् मैत्री, विश्वास, स्वातन्त्र्य-इच्छा और शान्ति की भावना पर आधारित मानवीय संगठन है जिसका कोई संविधान, सन्धि, समझौता, लिखित नियम या कानून नहीं हैं और जो केवल सदस्यों की पारस्परिक सद्भावना पर टिका हुआ है। राष्ट्रमण्डल के सभी राष्ट्र स्वतन्त्र और समान हैं और इसमें ब्रिटिश सम्राट् के प्रति किसी प्रकार की वफादारी होना जरूरी नहीं है। राष्ट्रमण्डल के राज्यों की पहचान यह है कि इनके राजदूत एक-दूसरे के देश में उच्चायुक्त’ (High Commissioner) कहे जाते हैं।

राष्ट्रमण्डल के सदस्य राष्ट्र अपनी इच्छानुसार राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय नीति को मानते हैं और व्यवहार में भी अन्तर्राष्ट्रीय मसलों पर उनमें विचार-भेद की स्थिति देखी जाती है।

राष्ट्रमण्डल के उद्देश्य

यद्यपि राष्ट्रमण्डल का कोई सामान्य बन्धन, लक्ष्य या ध्येय नहीं है तथापि इसमें सदस्य कुछ बातों पर प्रायः सहमत हैं जिन्हें राष्ट्रमण्डल के उद्देश्य कहा जाता है।

ये इस प्रकार हैं –

  1. प्रजातन्त्र का आदर्श और मौलिक मानवीय अधिकारों की प्राप्ति।
  2. प्रजातन्त्रीय राजनीति में अधिकारिक पारस्परिक सहयोग।
  3. आर्थिक कल्याण अथवा सामान्य हित के लिए अग्रसर होना।

राष्ट्रमण्डल के कार्य (महत्त्व)

राष्ट्रमण्डल के प्रमुख कार्य (महत्त्व) निम्नलिखित हैं –

  1. राष्ट्रमण्डल ने अनेक विषयों पर अपने सदस्य देशों के मध्य मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों को स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। छोटे सदस्य राष्ट्रों; जैसे–माल्टा, फिजी, कैमरून, न्यूगिनी, युगाण्डा, कीनिया आदि की अर्थव्यवस्था सुधार में सहयोग प्रदान करके उनके विकास को गति प्रदान करने में सहायता प्रदान की है।
  2. राष्ट्रमण्डल ने विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों तथा खेलों के आयोजनों से देशों के बीच आपसी सहयोग विकसित करने तथा उनकी प्रतिभाओं को आगे लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत ने अपनी विदेश नीति के मूल्यों एवं सिद्धान्तों के आधार पर राष्ट्रमण्डल के पारस्परिक सहयोग, शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व, नि:शस्त्रीकरण तथा आर्थिक सहयोग के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समय-समय पर उल्लेखनीय सहायता प्रदान की है।
  3. अक्टूबर, 2011 में ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय ने ऑस्ट्रेलिया में आयोजित सदस्य देशों की बैठक में खाद्य सुरक्षा, वित्त, जलवायु परिवर्तन तथा व्यापार क्षेत्र की कई नई वैश्विक चुनौतियों से निपटने का आग्रह किया।
  4. राष्ट्रमण्डल में इक्कीसवीं सदी में चोगम को ही एक अन्तर्राष्ट्रीय नेटवर्क बनाने की अपील की गई।

राष्ट्रमण्डल की आलोचना (मूल्यांकन)

भारत में जनता का एक बड़ा वर्ग सदैव ही राष्ट्रमण्डल की सदस्यता का विरोधी रहा है तथा राष्ट्रमण्डल की सदस्यता त्यागने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन जुटाया जा रहा है। यह वर्ग निम्नलिखित आधारों पर राष्ट्रमण्डल की सदस्यता का विरोध करता है –

  1. राष्ट्रमण्डल की सदस्यता अंग्रेजों के प्रति भारतीयों की गुलामी का द्योतक है, इसलिए दासता का प्रतीक है।
  2. राष्ट्रमण्डल की सदस्यता से भारत के आर्थिक हितों पर विपरीत प्रभाव पड़ने की आशंका है। क्योंकि ब्रिटेन ने ‘यूरोपीय साझा बाजार’ की पूर्ण सदस्यता स्वीकार कर ली है।
  3. भारत-पाक सम्बन्धों में ब्रिटेन का भारत-विरोधी दृष्टिकोण रहा है।
  4. ब्रिटेन की राष्ट्रमण्डल के आधारभूत सिद्धान्तों (प्रजातन्त्र तथा मानवीय अधिकारों) में एकनिष्ठ तथा सच्ची निष्ठा नहीं है।

राष्ट्रमण्डल, राष्ट्रों का एक ढीला-ढाला संगठन है। विश्व राजनीति में इस संगठन की स्थिति अधिक सन्तोषजनक नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ब्रिटेन की स्थिति कमजोर हो जाने के कारण यह अब इस पर अपना पूर्ण नियन्त्रण स्थापित करने में सक्षम नहीं है। अतः इस संगठन में ब्रिटेन की नीतियों के विरुद्ध भी विरोध के स्वर सुनाई देने लगे हैं। इस संगठन के सदस्य राष्ट्रों में भी पारस्परिक सहयोग की भावना का अभाव देखा जा रहा है।

[संकेत – राष्ट्रमण्डल के सदस्य के रूप में भारत की भूमिका (कार्य) हेतु लघु उत्तरीय प्रश्न 2 (150 शब्द) का अध्ययन करें।

लघू उत्तीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
राष्ट्रमण्डल का अर्थ व उद्देश्यों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
राष्ट्रमण्डल

कभी अंग्रेजी शासन के अधीन रहे देशों, जिन्होंने स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद ब्रिटेन के साथ लगभग समानता के सम्बन्ध स्थापित कर लिए हैं, ने मिलकर राष्ट्रमण्डल की स्थापना की। राष्ट्रमण्डल कोई निश्चित उत्तरदायित्वों वाला कठोर वैधानिक या सैनिक संगठन नहीं है। 1887 ई० में महारानी विक्टोरिया की हीरक जयन्ती के अवसर पर साम्राज्य के प्रतिनिधियों की औपचारिक बैठक में इसका प्रारम्भ हुआ। वर्ष 1949 में इस संगठन का नाम ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल से बदलकर राष्ट्रमण्डल कर दिया गया और गणतन्त्रों के लिए ब्रिटिश सम्राट के प्रति भक्ति की शर्त हटा दी गई। वर्ष 1949 में ही भारत इसका सदस्य देश बना। राष्ट्रमण्डल के राज्यों की पहचान यह है कि इनके राजदूत एक-दूसरे के देश में उच्चायुक्त कहलाते हैं। राष्ट्रमण्डल का मुख्यालय मार्लबोरो हाउस लन्दन (ग्रेट ब्रिटेन) में है। वर्तमान में राष्ट्रमण्डल की सदस्य संख्या 53 है।

राष्ट्रमण्डल के उद्देश्य

इसके प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं –

  1. प्रजातन्त्र का आदर्श और मौलिक मानवीय अधिकारों की प्राप्ति।
  2. प्रजातन्त्रीय राजनीति में पारस्परिक सहयोग।
  3. आर्थिक कल्याण अथवा सामान्य हित के लिए अग्रसर होना तथा अन्तर्राष्ट्रीय, आर्थिक, सामाजिक तथा मानव-कल्याण सम्बन्धी समस्याओं का निराकरण करना।
  4. सांस्कृतिक गतिविधियों का आदान-प्रदान करना तथा खेल-कूद आदि की प्रतियोगिताओं का आयोजन करना।
  5. सदस्य राष्ट्रों में मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध तथा अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग में वृद्धि करना।

प्रश्न 2.
राष्ट्रमण्डल के सदस्य के रूप में भारत की भूमिका स्पष्ट कीजिए। [2014]
उत्तर :
राष्ट्रमण्डल के सदस्य के रूप में भारत

स्वतन्त्रता आन्दोलन की कालावधि में कांग्रेस राष्ट्रमण्डल की सदस्यता को त्यागने की वकालत करती थी, परन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इसे सम्बन्ध में व्यावहारिक दृष्टिकोण से विचार किया गया तथा यह निश्चित किया गया कि भारत को राष्ट्रमण्डल का सदस्य रहना चाहिए क्योंकि इससे राजनीतिक तथा आर्थिक दोनों ही लाभ हैं। निम्नलिखित तथ्यों से इस बात की पुष्टि होती है कि भारत ने सदैव ही स्वतन्त्र विदेश नीति का संचालन किया है। जब सन् 1956 ई० में ब्रिटेन और मिस्र के बीच स्वेज नहर को लेकर संघर्ष आरम्भ हुआ, तब राष्ट्रमण्डल के सदस्य होते हुए भी भारत ने मिस्र का पक्ष लिया और ब्रिटेन की साम्राज्यवादी नीति का घोर विरोध करते हुए अपनी स्वतन्त्र विदेश नीति का प्रमाण दिया। इसी प्रकार मार्च 1962 ई० में आयोजित राष्ट्रमण्डलीय सम्मेलन में भारत ने दक्षिण अफ्रीका की रंग-भेद नीति की तीव्र आलोचना की। ब्रिटेन के यूरोपीय साझा बाजार में सम्मिलित होने के प्रश्न पर भी भारत ने अपने स्वतन्त्र विचार व्यक्त किए।

जब 1962 ई० में चीन ने भारत पर आक्रमण किया तो पाकिस्तान को छोड़कर अन्य सदस्यों ने भारत का ही समर्थन किया और भारत की विभिन्न प्रकार से सहायता की। ब्रिटेन ने भी चीन की साम्राज्यवादी नीति का विरोध किया और अस्त्र-शस्त्र तथा अन्य प्रकार से हमारी सहायता की। यद्यपि ब्रिटेन की नीतियों के अन्तर्गत समय-समय पर भारत का विरोध हुआ है, जिसके कारण हमारे देश में राष्ट्रमण्डल की सदस्यता त्यागने के लिए प्रतिक्रिया भी हुई है, किन्तु इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि राष्ट्रमण्डल की सदस्यता भारत के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है। और उसे सदस्य राष्ट्रों से अनेक क्षेत्रों में सहयोग प्राप्त होता रहा है। अतः भारत के राष्ट्रमण्डल से पृथक् होने की बात सर्वथा अनुचित है। इस समय भारत के ब्रिटेन के साथ सम्बन्ध काफी मधुर हैं। भारत के द्वारा जो परमाणु-परीक्षण किए गए हैं उनके सम्बन्ध में ब्रिटेन ने भारत पर अमेरिका की भाँति कोई आर्थिक प्रतिबन्ध आरोपित नहीं किए हैं।

वर्ष 1983 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रमण्डल शिखर सम्मेलन की 7वीं बैठक का आयोजन नई दिल्ली में किया गया। 13-15 नवम्बर, 1999 ई० तक डरबन (दक्षिण अफ्रीका) में राष्ट्रमण्डल देशों के शासनाध्यक्षों के चार दिवसीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। तत्कालीन प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में प्रतिनिधिमण्डल ने इसमें भाग लिया। इस सम्मेलन में अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के सैनिक शासन की कटु आलोचना की। भारत ने पाकिस्तान की राष्ट्रमण्डल देशों की सदस्यता से निलम्बन की माँग की तथा बैठक के पहले ही दिन राष्ट्रमण्डल के छह सदस्य देशों ने इस संगठन से पाकिस्तान के निलम्बन की माँग की पुष्टि कर दी।

5-7 दिसम्बर, 2003 ई० तक अबुजा (नाइजीरिया) सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् प्रस्ताव 1373 पर अमल सुनिश्चित करने के लिए बहुपक्षीय सहयेाग पर बल दिया।

वाजपेयी के निवर्तमान प्रधानमन्त्री डॉ० मनमोहन सिंह ने माल्टा (2005), यूगांडा (2007) तथा त्रिनिडाड एवं टोबैगो (2009) में आयोजित राष्ट्रमण्डलों के शिखर सम्मेलनों में भाग लिया। उपराष्ट्रपति मो० हामिद अंसारी ने वर्ष 2011 में पर्थ (ऑस्ट्रेलिया) में आयोजित शिखर सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया। 27-29 नवम्बर, 2015 के मध्य 24वें राष्ट्रमण्डल शिखर सम्मेलन का आयोजन भूमध्य सागरीय देश माल्टा में किया गया। विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने इसमें भारत का प्रतिनिधित्व किया। इस सम्मेलन का विषय था-‘वैश्विक मूल्यों को जोड़ना।। माल्टा सम्मेलन में भारत ने राष्ट्रमण्डल के गरीब देशों को स्वच्छ ऊर्जा का उपयोग शुरू करने और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने में मदद हेतु 25 लाख डॉलर उपलब्ध करवाने की घोषणा की। भारत ने इसके लिए राष्ट्रमण्डल जलवायु संकट हल’ बनाने का प्रस्ताव भी दिया। इससे पहले 23-26 नवम्बर, 2015 के मध्ये राष्ट्रमण्डल पीपुल्स फोरम का आयोजन किया गया। इसमें भारत की जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता वंदना शिवा ने सम्बोधित किया।

भारत राष्ट्रमण्डल के बजट में चौथा सबसे अधिक योगदान करने वाला देश है परंतु राष्ट्रमण्डल की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों में उल्लेखनीय भूमिका निभायी है, जैसे कि 1965 में इसके सचिवालय की स्थापना, 1971 की सिंगापुर घोषणा, 1991 की हरारे घोषणा तथा 1995 में मंत्री स्तरीय कार्य समूह की स्थापना। तथापि, भारत का सबसे उल्लेखनीय योगदान रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष के लिए अफ्रीका के सदस्य देशों के साथ एकता स्थापित करना है।

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प्रश्न 3.
राष्ट्रमण्डल की सदस्यता के भारतीय विरोध के चार कारण बताइए।
उत्तर :
भारत के अनेक विद्वानों तथा बुद्धिजीवियों द्वारा राष्ट्रमण्डल की सदस्यता का विरोध किया जा रहा है। इसके पीछे विचारकों ने निम्नलिखित मत दिये हैं –

  1. चूँकि ब्रिटेन ने सदियों तक हमें पराधीन रखा है तथा हमारा शोषण किया है; अतः राष्ट्रमण्डल की सदस्यता हमारी दास मनोवृत्ति की प्रतीक है। अतः हमें इसकी सदस्यता का परित्याग कर देना चाहिए।
  2. कश्मीर को लेकर भारत तथा पाकिस्तान में सदैव मतभेद रहे हैं, लेकिन राष्ट्रमण्डल के सबसे पुराने देश ब्रिटेन द्वारा सदैव आक्रमणकारी राष्ट्र पाकिस्तान का ही समर्थन किया गया है। अतः भारत के जनमानस में असन्तोष का होना स्वाभाविक है और उसका विचार है कि भारत को राष्ट्रमण्डल की सदस्यता से कोई लाभ नहीं है तथा यह भारत के लिए निरर्थक है।
  3. राष्ट्रमण्डल के ढाँचे की बुनियाद प्रजातन्त्र और मानवीय अधिकारों पर टिकी है। परन्तु वास्तविकता यह है कि उसने व्यवहार में कभी भी इन आदर्शों का अनुसरण नहीं किया है। राष्ट्रमण्डल ने रंगभेद की नीति का अनुसरण करने वाली दक्षिण अफ्रीकी सरकार पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया, उल्टे उसे परोक्ष रूप से समर्थन दिया। अत: राष्ट्रमण्डल की उपयोगिता पर ही प्रश्न-चिह्न लग जाता है।
  4. ब्रिटेन द्वारा यूरोपीय साझा बाजार की सदस्यता ग्रहण करने से पूर्व राष्ट्रमण्डल की सदस्यता आर्थिक दृष्टि से भारत के लिए महत्त्वपूर्ण थी, परन्तु सदस्यता ग्रहण करने के बाद भारत के आर्थिक हित प्रभावित होने की आशंका है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
राष्ट्रमण्डल के सदस्य राष्ट्रों के प्रमुख नामों को लिखिए।
उत्तर :
राष्ट्रमण्डल के सदस्य राष्ट्र वर्तमान समय में राष्ट्रमण्डल के सदस्य राष्ट्रों की संख्या 53 है। ये राज्य हैं-ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, उत्तरी आयरलैण्ड, भारत, श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर, पाकिस्तान, घाना, बांग्लादेश, जाम्बिया, मलावी, कीनिया, नाइजीरिया, तंजानिया, सियरालियोन, युगाण्डा, जंजीबार, साइप्रस, माल्टा, जमैका, त्रिनिदाद तथा टोबागो, सिचेलिस स्वतन्त्र गणराज्य, फगनाओ, फिजी रोंगा, मॉरीशस, स्वाजीलैण्ड, लेसोथो, बोत्सवाना, गाम्बिया, बारबाडोस, गुयाना आदि। द० अफ्रीका सरकार की रंगभेद नीति के कारण दे० अफ्रीका को वर्ष 1961 में राष्ट्रमण्डल की सदस्यता का त्याग करना पड़ा था। 1994 के प्रारम्भिक महीनों में द० अफ्रीका में लोकतन्त्र और मानवीय समानता पर आधारित सरकार स्थापित हो गई। अतः 31 मई, 1994 को द० अफ्रीका को राष्ट्रमण्डल की सदस्यता पुनः प्रदान कर दी गई। 1997 में मोजाम्बिक और कैमरून (जो भूतकाल में पुर्तगाल और फ्रेंच उपनिवेश थे) को राष्ट्रमण्डल सदस्यता प्रदान की गई।

प्रश्न 2.
चौदहवें राष्ट्रमण्डल शिखर सम्मेलन (डरबन 12 नवम्बर, 1999) में पाकिस्तान से सम्बन्धित कौन-सा निर्णय लिया गया था?
उत्तर :
12 नवम्बर, 1999 में राष्ट्रमण्डल का चौदहवाँ शिखर सम्मेलन दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर में आयोजित किया गया। यह सम्मेलन 12 नवम्बर से 15 नवम्बर, 1999 तक चला। इस सम्मेलन की समाप्ति पर जारी किये गये घोषणा-पत्र में पाकिस्तान में स्थापित सैनिक शासन को अवैध बताते हुए उसकी कटु आलोचना की गयी। सम्मेलन में लिये गये एक निर्णय के अनुसार पाकिस्तान को राष्ट्रमण्डल की सदस्यता से अनिश्चित काल के लिए निलम्बित कर दिया गया। घोषणा-पत्र में यह भी माँग की गयी कि पाकिस्तान में शीघ्र-से-शीघ्र लोकतन्त्र की स्थापना की जाए। पाकिस्तान को इस आशय की चेतावनी भी दी गयी है कि यदि पाकिस्तान के सैनिक शासकों ने पाकिस्तान में लोकतन्त्र की स्थापना के लिए त्वरित प्रयास नहीं किये तो उसके विरुद्ध प्रत्येक प्रकार के प्रतिबन्ध लगाये जाएँगे। घोषणा-पत्र में सदस्य राष्ट्रों से यह भी अनुरोध किया गया कि विश्व में फैल रहे आतंकवाद के विरुद्ध एकजुट होकर लड़े।

प्रश्न 3.
राष्ट्रमण्डल की सदस्यता से भारत को हुए चार लाभ बताइए।
उत्तर :
राष्ट्रमण्डल की सदस्यता से भारत को हुए चार लाभों को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा व्यक्त किया जा सकता है –

  1. राष्ट्रमण्डल की सदस्यता से भारत को विभिन्न सदस्य राष्ट्रों से विविध प्रकार का सहयोग मिला है।
  2. राष्ट्रमण्डल की सदस्यता से भारत के विदेशी व्यापार में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। आज भी भारत का 70-80% व्यापार राष्ट्रमण्डल के देशों के साथ हो रहा है।
  3. राष्ट्रमण्डल के विभिन्न सदस्य राष्ट्रों से भारत को तकनीकी और आर्थिक क्षेत्र में सहायता प्राप्त करने में सफलता मिली है।
  4. राष्ट्रमण्डल के सदस्य के रूप में भारत ने सैनिक ज्ञान प्राप्त किया है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
राष्ट्रमण्डल का मुख्य उद्देश्य लिखिए। [2010]
उत्तर :
राष्ट्रमण्डल का मुख्य उद्देश्य है – प्रजातन्त्र का आदर्श और मौलिक मानवीय अधिकारों की प्राप्ति करते हुए प्रजातन्त्रीय राजनीति में अधिकारिक पारस्परिक सहयोग।

प्रश्न 2
राष्ट्रमण्डल के दो सदस्य-राज्यों के नाम लिखिए। [2007, 08, 11, 14]
उत्तर :
राष्ट्रमण्डल के दो सदस्य-राज्यों के नाम हैं-भारत व कनाडा।

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प्रश्न 3.
डरबन सम्मेलन में राष्ट्रमण्डल में किस राज्य की वापसी हुई है?
उत्तर :
डरबन सम्मेलन में नाइजीरिया में लोकतन्त्र की बहाली के बाद, उसकी राष्ट्रमण्डल में वापसी हुई है।

प्रश्न 4.
डरबन में सम्पन्न हुए राष्ट्रमण्डल सम्मेलन में किस देश की सदस्यता निलम्बित की गयी थी और क्यों ?
उत्तर :
डरबन में सम्पन्न राष्ट्रमण्डल सम्मेलन में सैनिक शासन की स्थापना के कारण पाकिस्तान को सदस्यता से निलम्बित किया गया था।

प्रश्न 5.
राष्ट्रमण्डल की सदस्यता का विरोध होने के दो कारण बताइए।
उत्तर :

  1. राष्ट्रमण्डल की सदस्यता को दासता का प्रतीक माना जाता है।
  2. यह देश की आर्थिक प्रगति में बाधक माना जाता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
वर्तमान में राष्ट्रमण्डल के देशों की संख्या है –
(क) 50
(ख) 52
(ग) 53
(घ) 59

प्रश्न 2.
2005 ई० में राष्ट्रमण्डल देशों का सम्मेलन हुआ था –
(क) ओटावा (कनाडा) में
(ख) वैल्टा (माल्टा) में
(ग) नयी दिल्ली (भारत) में
(घ) इस्लामाबाद (पाकिस्तान) में

प्रश्न 3.
24वें राष्ट्रमण्डल शिखर सम्मेलन 2015 का आयोजन किस देश में किया गया?
(क) भारत
(ख) पाकिस्तान
(ग) कनाडा
(घ) माल्टा

उत्तर :

  1. (ग) 53
  2. (ख) वैल्टा (माल्टा) में
  3. (घ) माल्टा।

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UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi नाटक Chapter 1 कुहासा और किरण

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi नाटक Chapter 1 कुहासा और किरण (विष्णु प्रभाकर) are part of UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi नाटक Chapter 1 कुहासा और किरण (विष्णु प्रभाकर).

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Class Class 11
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 1
Chapter Name कुहासा और किरण (विष्णु प्रभाकर)
Number of Questions 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi नाटक Chapter 1 कुहासा और किरण (विष्णु प्रभाकर)

प्रश्न 1.
‘कुहासा और किरण’ नाटक की कथावस्तु (कथानक, सारांश) पर प्रकाश डालिए।
या
‘कुहासा और किरण’ नाटक के सर्वाधिक आकर्षक स्थल का वर्णन कीजिए।
या
‘कुहासा और किरण’ नाटक के प्रथम अंक की कथावस्तु लिखिए।
या
‘कुहासा और किरण’ नाटक के द्वितीय अंक की कथा का सारांश लिखिए।
या
‘कुहासा और किरण’ नाटक के तृतीय अंक की कथा पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
या
‘कुहासा और किरण’ नाटक का कथानक समस्यामूलक है, जो स्वाधीन भारत के सामाजिक और राजनीतिक जीवन से सम्बन्धित है। कथावस्तु के आधार पर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
या
‘कुहासा और किरण’ नाटक का सारांश लिखिए।

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प्रश्न 2.
‘कुहासा और किरण’ नाटक के उस पुरुष-पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए, जिसने आपको 
सबसे अधिक प्रभावित किया हो।
या
‘कुहासा और किरण’ नाटक के प्रमुख पुरुष पात्र (नायक) अमूल्य का चरित्र-चित्रण कीजिए।

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प्रश्न 3.
‘कुहासा और किरण’ के आधार पर कृष्ण चैतन्य का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘कुहासा और किरण’ नाटक के आधार पर कृष्ण चैतन्य की चारित्रिक विशेषताओं पर 
प्रकाश डालिए।

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi नाटक Chapter 1 कुहासा और किरण img-7

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UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi नाटक Chapter 1 कुहासा और किरण img-9

प्रश्न 4.
सुनन्दा के चरित्र की प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
या
‘कुहासा और किरण’ नाटक के प्रमुख नारी-पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘कुहासा और किरण’ की नायिका के चरित्र की विशेषताएँ उद्घाटित कीजिए।
या
‘कुहासा और किरण’ नाटक के आधार पर ‘सुनन्दा’ का चरित्रांकन कीजिए।

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UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi नाटक Chapter 1 कुहासा और किरण img-12

प्रश्न 5.
‘कुहासा और किरण’ नाटक के आधार पर अमूल्य और कृष्ण चैतन्य के चरित्रों की तुलना 
कीजिए।
उत्तर

अमूल्य और कृष्ण चैतन्य के चरित्रों की तुलना अमूल्य

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi नाटक Chapter 1 कुहासा और किरण img-13

[ संकेत–उपर्युक्त शीर्षकों के अन्तर्गत इस प्रश्न का विस्तार कीजिए। विस्तार के लिए प्रश्न संख्या 2 और 3 देखिए। ]

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UP Board Class 10 Commerce Model Papers Paper 2

UP Board Class 10 Commerce Model Papers Paper 2 are part of UP Board Class 10 Commerce Model Papers. Here we have given UP Board Class 10 Commerce Model Papers Paper 2.

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Class Class 10
Subject Commerce
Model Paper Paper 2
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 10 Commerce Model Papers Paper 2

समय : 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक : 70

निर्देश :

  • प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
  • सभी प्रश्नों के उत्तर देना अनिवार्य है।
  • सभी प्रश्न हेतु निर्धारित अंक उनके सम्मुख अंकित हैं।

प्रश्न 1.
निम्नलिखित प्रश्नों में सही विकल्प चुनकर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए। [1]
(i) व्यापार खाता बनाया जाता है।
(a) व्यापार से पूर्व
(b) चिट्ठे के बाद
(c) निर्माणी खाते के बाद
(d) इनमें से कोई नहीं

(ii) आर्थिक स्थिति के ज्ञान हेतु बनाया जाता है [1]
(a) लाभ-हानि खाता
(b) व्यापार खाता
(c) आर्थिक चिट्ठी
(d) इनमें से कोई नहीं

(iii) बैंक में रुपया जमा करने पर बैंक द्वारा ग्राहक को दी जाती है। [1]
(a) पास बुक
(b) चैक बुक
(C) प्रतिपर्ण ।
(d) इनमें से कोई नहीं

(iv) अधिविकर्ष की सुविधा किस खाता धारक को प्रदान की जाती है? [1]
(a) बचत बैंक खाता
(b) डाकघर जमा खाता
(C) चालू खाता
(d) इनमें से कोई नहीं

(v) हुण्डी है एक   [1]
(a) लिखित साख प्रलेख
(b) मौखिक साख प्रलेख
(c) ‘a’ और ‘b’ दोनों
(d) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 2.
(i) इलेक्ट्रॉनिक कैलकुलेटर क्या है? [1]
(ii) व्यापार के कितने प्रकार होते हैं? [1]
(iii) निर्ख यो कोटेशन किसे कहते हैं? [1]
(iv) सुपर बाजार किसे कहते हैं? [1]
(v) अदत्त व्यय क्या है?[1]

प्रश्न 3.
(i) बचत करने की विधियों का वर्णन कीजिए। [2]
(ii) चैक के रेखांकन के उद्देश्य बताइए। [2]
(iii) कुशल साहसी के दो गुणों को समझाइए। [1+1]
(iv) फेरी वाले फुटकर व्यापारी कौन होते हैं? इसके दो दोष बताइए। [1+1]
(v) रेलवे रसीद के लाभ बताइए। [2]
(vi) पूर्वदत्त व्यय से क्या आशय है? इसकी प्रविष्टि बताइए। [1+1]

प्रश्न 4.
निम्नलिखित विवरण से 31 मार्च, 2013 को बैंक समाधान विवरण तैयार कीजिए।  [4]

(i) रोकड़ पुस्तक को डेबिट शेष – ₹ 5000
(ii) चैक बैंक में वसूली हेतु भेजे गए लेकिन अभी तक बैंक द्वारा वसूल नहीं किए गए – ₹ 2000
(iii) बैंक द्वारा ब्याज दिया गया – ₹ 200
(iv) बैंक व्यय  – ₹ 100
(v) बैंक द्वारा वाहन किस्त के चुकाए गए, परन्तु ग्राहक को सूचित नहीं किया गया – ₹ 1500
(vi) चैक निर्गमित किए गए, परन्तु भुगतान हेतु प्रस्तुत नहीं किए गए – ₹ 5000

प्रश्न 5.
भारतीय रिज़र्व बैंक का प्रबन्ध किस प्रकार कार्य करता है? [2 + 2]

प्रश्न 6.
(अ) (i) बीजक किसे कहते हैं? बीजक एवं सूचनार्थ बीजक में अन्तर बताइए। (1+ 1)
(ii) रेलवे रसीद या बिल्टी से होने वाले दो लाभों का वर्णन कीजिए। [2]

(ब) (i) चैक का पृष्ठांकन क्या है? इसके पक्षकार बताइए। [1 + 1]
(ii) उपयोगिता ह्रास नियम के चार महत्त्व बताइए। । [2]

प्रश्न 7.
आर्थिक चिट्ठे से आप क्या समझते हैं? सम्पत्तियों एवं दायित्वों का वर्गीकरण कीजिए। [4 + 4]
अथवा
निम्नलिखित तेलपट से 31 मार्च, 2013 को समाप्त होने वाले वर्ष के लिए व्यापार एवं लाभ-हानि खाता तथा उसी तिथि का आर्थिक चिट्ठा तैयार कीजिए। [2 + 3 + 3]
UP Board Class 10 Commerce Model Papers Paper 2 image 1
UP Board Class 10 Commerce Model Papers Paper 2 image 2
अन्तिम रहतिये का मूल्य 31 मार्च, 2013 को ₹ 5,000 था।।

प्रश्न 8.
व्यापारिक बैंकों के प्रमुख दोष बताइए तथा सुधार हेतु सुझाव दीजिए। [6+2]
अथवा
हेवल्स इण्डिया प्रा. लि. गुरुग्राम ने निम्नलिखित माल भानू । इलेक्ट्रॉनिक्स लि., मेरठ को बेचा [8]
UP Board Class 10 Commerce Model Papers Paper 2 image 3
माल भेजने में निम्नलिखित व्यय हुए |
UP Board Class 10 Commerce Model Papers Paper 2 image 4
विक्रेता समस्त बेचे गए उत्पादों पर 10% व्यापारिक छूट प्रदान करता है।
एक सप्ताह में भुगतान करने पर 5% अतिरिक्त नकद छूट देता है।
उपरोक्त विवरण से उचित प्रारूप में एक बीजक तैयार कीजिए।

प्रश्न 9.
आधुनिक संचार के साधन कौन-कौन से हैं? इसके महत्त्वपूर्ण साधनों का संक्षिप्त में वर्णन कीजिए। [2+6]
अथवा
भारतीय स्टेट बैंक की स्थापना के क्या उद्देश्य थे? इन उद्देश्यों की प्राप्ति में यह बैंक कहाँ तक सफल रहा है? [8]

प्रश्न 10.
श्रृंखला अनुक्रमणिका व कार्ड अनुक्रमणिका का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। [4+4]
अथवा
भूमि क्या है? उत्पादन के साधन के रूप में भूमि के प्रमुख लक्षणों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [3+5]

Solutions

उत्तर 1.
(i) (c) निर्माणी खाते के बाद
(ii) (c) आर्थिक चिट्ठा
(iii) (c) प्रतिपर्ण
(iv) (c) चालू खाता
(v) (a) लिखित साख प्रलेख

उत्तर 2.
(i) इस मशीन की सहायता से जोड़ना, घटाना, गुणा, भाग व अन्य गणनाओं से सम्बन्धित कार्य शीघ्र किए जा सकते हैं।

(ii)व्यापार दो प्रकार का होता है

1. देशी व्यापार
2. विदेशी व्यापार

(iii) किसी ग्राहक से पूछताछ के सम्बन्ध में पत्र प्राप्त होने पर विक्रेता व्यापारी को उसके उत्तर में क्रेता व्यापारी को वस्तुओं की मूल्य सूची भेजनी होती है, इस तरह के पत्र को निर्ख-पत्र कहते हैं।

(iv) सुपर बाजार एक ऐसे फुटकर व्यापार को संगठन है, जहाँ विभिन्न प्रकार की दैनिक उपयोग की वस्तुएँ नकद एवं स्वयं सेवा के आधार पर बेची जाती हैं।

(v) ऐसे व्यय, जो चालू वर्ष से सम्बन्धित हैं लेकिन चुकाए नहीं गए हैं, अदत्त व्यय या बकाया व्यय कहलाते हैं।

उत्तर 3.
(i) बचत करने की विधियाँ निम्न प्रकार हैं

1. आय का एक निश्चित प्रतिशत बचाना इस पद्धति के अन्तर्गत मनुष्य अपनी आय का एक निश्चित भाग बचाकर शेष आय को वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए खर्च कर देता है। इससे एक निश्चित मात्रा में बचत की जा सकती है।
2. व्यय करने के बाद जो शेष रहे उसकी बचत करना इस पद्धति में मनुष्य अपनी आय को स्वतन्त्रतापूर्वक व्यय करने के बाद शेष बची आय को किसी बैंक या डाकघर में जमा करवा देता है। इस प्रकार के व्यक्ति वर्तमान आवश्यकताओं के अतिरिक्त भावी आवश्यकताओं पर
अधिक ध्यान देते हैं।

(ii) चैक के रेखांकन के उद्देश्य निम्नलिखित हैं

1. रेखांकित चैक का भुगतान बैंक को ही किया जाता है।
2. रेखांकित चैक के द्वारा भुगतान सुरक्षित रूप से किया जा सकता है।
3. रेखांकित चैक से भुगतान को प्रमाणित किया जा सकता है।
4. रेखांकित चैक न्यायालय द्वारा मान्य होता है।

(iii) कुशल साहसी के दो गुण निम्नलिखित हैं

1.नेतृत्व का गुण एक कुशल साहसी में नीति-निर्धारण करने व निर्णय | लेने का गुण होना चाहिए। साहसी में प्रोत्साहित व प्रेरित करने की योग्यता भी होनी चाहिए।
2.अच्छी साख साहसी की बाजार में अच्छी साख होनी चाहिए, जिससे उसे सरलता से पूँजी उपलब्ध हो सके।

(iv) फेरी वाले व्यापारी टोकरों एवं ठेलों में सामान भरकर तथा जगह-जगह घूमकर अपनी वस्तुएँ बेचते हैं। फेरी वालों की कोई स्थायी दुकान नहीं होती है। इनका नकद व्यापार होता है, इसलिए इनको कम पूँजी की आवश्यकता होती है। इसके दो दोष निम्नलिखित हैं—

1. नकली माल की सम्भावना
2. ठगे जाने की सम्भावना

(v) रेलवे रसीद के लाभ निम्नलिखित हैं–

1.अनुबन्ध यह रेलवे और माल के प्रेषक के मध्य माल ले जाने का अनुबन्ध होता है।
2.लिखित प्रमाण यह रेलवे द्वारा माल प्राप्त करने का लिखित प्रमाण होता है।
3.प्रतिभूति इसे प्रतिभूति के रूप में रखकर ऋण प्राप्त किया जा सकता है।
4 अधिकार पत्र इसके द्वारा माल को छुड़ाने का अधिकार प्राप्त किया जा सकता है।

(vi) पूर्वदत्त व्यय से आशय ऐसे व्यय से है, जिसका भुगतान अग्रिम रूप से चालू लेखी वर्ष में ही कर दिया गया है; जैसे-बीमा किस्त, वेतन, मजदूरी, आदि। पूर्वदत्त व्यय का जर्नल लेखा निम्नवत् किया जाता है– पूर्वदत्त व्यय खाता । व्यय खाते का । (व्यय का भुगतान अग्रिम किया गया) । पूर्वदत्त व्यय को व्यापार अथवा लाभ-हानि खाते के ऋणी पक्ष में सम्बन्धित व्यय में से घटाकर दिखाते हैं तथा आर्थिक चिट्ठे में सम्पत्ति पक्ष की ओर दिखाते हैं।

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UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi कथा भारती Chapter 4 समय

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi कथा भारती Chapter 4 समय (यशपाल) are part of UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi कथा भारती Chapter 4 समय (यशपाल).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 4
Chapter Name समय (यशपाल)
Number of Questions 3
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi कथा भारती Chapter 4 समय (यशपाल)

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प्रश्न 2.
कथावस्तु की दृष्टि से ‘समय’ कहानी की विशेषताएँ बताइए।
या
‘समय’ का कथानक लिखिए तथा उसके उद्देश्य को स्पष्ट कीजिए।
या
शीर्षक ‘समय’ कहानी के शीर्षक की सार्थकता पर प्रकाश डालिए।
या
‘समय’ कहानी के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।

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(3) उद्देश्य-यशपाल प्रगतिशील साहित्यकार हैं। प्रस्तुत कहानी में यशपाल जी ने यह दर्शाया है कि प्रत्येक व्यक्ति को समय का महत्त्व समझना चाहिए और समय के परिवर्तन के साथ-साथ अपने में भी परिवर्तन ले आना चाहिए। यह सत्य है कि अधिक उम्र का व्यक्ति युवा के साथ रहकर स्वयं को भी युवावत अनुभव करता है। लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि युवा स्वयं को उम्रदराज के साथ कैसा अनुभव करता होगा। अत: सभी को समय के साथ स्वयं में परिवर्तन ले आना चाहिए। लेखक ने इस बात को कहानी के अन्त में स्पष्ट भी कर दिया है-

“हाँ, यह तो बहुत अच्छी बात है।”पापा ने छड़ी की मूठ पर हाथ फेरकर कहा और छड़ी टेकते हुए किसी की ओर देखे बिना घूमने के लिए चले गये; मानो हाथ की छड़ी को टेककर उन्होंने समय को स्वीकार कर लिया।

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 26 Guidance Educational and Vocational

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 26 Guidance Educational and Vocational (निर्देशन शैक्षिक तथा व्यावसायिक) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 26 Guidance Educational and Vocational (निर्देशन शैक्षिक तथा व्यावसायिक).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 26
Chapter Name Guidance Educational and Vocational
(निर्देशन शैक्षिक तथा व्यावसायिक)
Number of Questions Solved 47
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 26 Guidance Educational and Vocational (निर्देशन शैक्षिक तथा व्यावसायिक)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
निर्देशन से आप क्या समझते हैं ? निर्देशन की आवश्यकता, महत्त्व एवं उपयोगिता का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
निर्देशन का अर्थ
‘निर्देशन’ सामाजिक सम्पर्को पर आधारित एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसमें किसी व्यक्ति द्वारा अन्य किसी व्यक्ति को इस प्रकार से सहायता प्रदान की जाती है कि वह अपनी जन्मजात और अर्जित योग्यताओं व क्षमताओं को समझते हुए अपनी समस्याओं का स्वतः समाधान करने में उपयोग कर सके।

निर्देशन की परिभाषा
प्रमुख विद्वानों के अनुसार निर्देशन को निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया जा सकता है।

  1. स्किनर के शब्दों में, “निर्देशन एक प्रक्रिया है जो कि नवयुवकों को स्वयं अपने से, दूसरे से तथा परिस्थितियों से समायोजन करना सिखाती है।
  2. जोन्स के अनुसार, “निर्देशन एक ऐसी व्यक्तिगत सहायता है जो एक व्यक्ति द्वारा दूसरे को, जीवन के लक्ष्यों को विकसित करने व समायोजन करने और लक्ष्यों की प्राप्ति में आयी हुई समस्याओं को हल करने के लिए प्रदान की जाती है।”
  3. मॉरिस के मतानुसार, “निर्देशन व्यक्तियों की स्वयं अपने प्रयत्नों से सहायता करने की एक क्रिया है जिसके द्वारा वे व्यक्तिगत सुख और सामाजिक उपयोगिता के लिए अपनी समस्याओं का पता लगाते हैं। तथा उनका विकास करते हैं।’
  4. हसबैण्ड के अनुसार, “निर्देशन व्यक्ति को उसके भावी जीवन के लिए तैयार करने, समाज में उसको अपने स्थान के उपयुक्त बनाने में सहायता देने की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।”
  5. शिक्षा मन्त्रालय भारत सरकार के अनुसार, “निर्देशन एक क्रिया है जो व्यक्ति को शिक्षा, जीविका, मनोरंजन तथा मानव क्रियाओं के समाज सेवा सम्बन्धी कार्यों को चुनने, तैयार करने, प्रवेश करने तथा वृद्धि करने में सहायता प्रदान करती है।”

निर्देशन की आवश्यकता, महत्त्व एवं उपयोगिता
निर्देशन की आवश्यकता हर युग में महसूस की जाती है । सदा-सर्वदा से उसके महत्त्व एवं योगदान को मान्यता प्राप्त हुई है तथा मानव-जीवन के लिए उसकी उपयोगिता भी सन्देह की दृष्टि से दूर एक सर्वमान्य तथ्य है, किन्तु मनुष्य की अनन्त इच्छाओं ने उसकी आवश्यकताओं को बढ़ाकर उसके व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा व्यावसायिक जीवन में अभूतपूर्व संकट और जटिलता उत्पन्न कर दी है। शायद इन्हीं कारणों से वर्तमान काल के सन्दर्भ में निर्देशन की आवश्यकता निरन्तर बढ़ती जा रही है। चिन्तन-मनन करने पर जीवन में निर्देशन की आवश्यकता हम अग्रलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत करते हैं

1. व्यक्ति के दृष्टिकोण से निर्देशन की आवश्यकता :
मानव-जीवन की जटिलता ने पग-पग पर नयी-नयी समस्याओं और संकटकालीन परिस्थितियों को जन्म दिया है। मनुष्य का कार्य-क्षेत्र विस्तृत हो रहा है और उसकी नित्यप्रति की आवश्यकमाओं में वृद्धि हुई है। बढ़ती हुई आवश्यकताओं तथा धार्मिक विषमताओं ने मनुष्य को व्यक्तिगत, धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से प्रभावित किया है। जीवन के हर एक क्षेत्र में समस्याओं के मोर्चे खुले हैं, जिनसे निपटने के लिए भौतिक एवं मानसिक दृष्टि से निर्देशन की अत्यधिक आवश्यकता है।

2. औद्योगीकरण से उत्पन्न समस्याएँ :
मनुष्य प्राचीन समय में अधिकांश कार्य अपने हाथों से किया करता था, किन्तु आधुनिक युग मशीनों का युग’ कहा जाता है। तरह-तरह की मशीनों के
आविष्कार से उद्योग-धन्धों का उत्पादन बढ़कर कई गुना हो गया है, किन्तु उत्पादन की प्रक्रिया जटिल-से-जटिल होती जा रही है। औद्योगिक दुनिया के विस्तार से नये-नये मानव सम्बन्ध विकसित हुए हैं जिनके मध्य सन्तुलन स्थापित करने की दृष्टि से निर्देशन बहुत आवश्यक है।

3. नगरीकरण से उत्पन्न समस्याएँ :
क्योंकि अधिकांश उद्योग-धन्धे तथा कल-कारखाने बड़े-बड़े नगरों में कायम हुए, इसलिए पिछले अनेक दशकों में लोगों का प्रवाह गाँवों से नगरों की ओर हुआ। नगरों में तरह-तरह की सुख-सुविधाओं, मनोरंजन के साधनों, शिक्षा की व्यवस्था, नौकरी के अवसर तथा सुरक्षा की भावना ने नगरों को आकर्षण का केन्द्र बना दिया। फलस्वरूप नगरों की संरचना में काफी जटिलता आने से समायोजन सम्बन्धी बहुत प्रकार की समस्याएँ भी उभरीं। नगरीय जीवन से उपयुक्त समायोजन करने हेतु निर्देशन की परम आवश्यकता महसूस होती है।

4. जाति-प्रथ का विघटन :
आजकल जाति और व्यवसाय का आपसी सम्बन्ध टूट गया है। इसका प्रमुख कारण जाति-प्रथा का विघटन है। पहले प्रत्येक जाति के बालकों को अपनी जाति के व्यवसाय का प्रशिक्षण परम्परागत रूप से उपलब्ध होता था।
उदाहरणार्थ :
ब्राह्मण का बेटा पण्डिताई व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करता था, लोहार का बेटा लोहारी और बनिये का बेटा व्यापार। यह व्यवस्था अब प्राय: समाप्त हो गयी है। इन परिवर्तित दशाओं ने व्यवसाय के चुनाव तथा प्रशिक्षण दोनों ही क्रियाओं के लिए निर्देशन की आवश्यकताओं को जन्म दिया है।

5. व्यावसायिक बहुलता :
वर्तमान समय में अनेक कारणों से व्यवसायों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप कार्य के प्रत्येक क्षेत्र में विशेषीकरण की समस्या भी बढ़ी है। व्यावसायिक बहुलता और विशेषीकरण के विचार ने प्रत्येक बालक और किशोर के सम्मुख यह एक गम्भीर समस्या खड़ी कर दी है कि वह इतने व्यवसायों के बीच से सम्बन्धित प्रशिक्षण किस प्रकार प्राप्त करे,? निश्चय ही, इस समस्या का हल निर्देशन से ही सम्भव है।

6. मन के अनुकूल व्यवसाय का न मिलना :
बेरोजगारी की समस्या आज न्यूनाधिक विश्व के प्रत्येक देश के सम्मुख विद्यमान है। आज हमारे देश में नवयुवक को मनोनुकूल, अच्छा एवं उपयुक्त व्यवसाय मिल पाना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। हर कोई उत्तम व्यवसाय प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षा रखता है, किन्तु रोजगार के अवसरों का अभाव उसे असफलता और निराशा के अतिरिक्त कुछ नहीं दे पाता। आज निराश, चिन्तित, तनावग्रस्त तथा उग्र बेरोजगार युवकों को सही दिशा दिखलाने की आवश्यकता है। उन्हें देश की आवश्यकताओं के अनुकूल तथा जीवन के लिए हितकारी शारीरिक कार्य करने की प्रेरणा देनी होगी। यह कार्य निर्देशन द्वारा ही सम्भव है।

7. विशेष बालकों की समस्याएँ :
विशेष बालकों से हमारा अभिप्राय पिछड़े हुए/मन्दबुद्धि या प्रतिभाशाली ऐसे बालकों से है जो सामान्य बालकों से हटकर होते हैं। ये असामान्य व्यवहार प्रदर्शित करते हैं तथा सामाजिक परिस्थितियों में स्वयं को आसानी से अनुकूलित नहीं कर पाते। कुसमायोजन के कारण … इनके सामने नित्यप्रति नयी-नयी समस्याएँ आती रहती हैं। ऐसे असामान्य एवं विशेष बालकों की समस्याएँ निर्देशन के माध्यम से ही पूरी हो सकती हैं।

8. शैक्षिक विविधता सम्बन्धी समस्याएँ :
शिक्षा के विविध क्षेत्रों में हो रहे अनुसन्धान कार्यों के कारण ज्ञान की राशि निरन्तर बढ़ती जा रही है, जिससे एक ओर ज्ञान की नवीन शाखाओं का जन्म हुआ है। तो दूसरी ओर हर सत्र में नये पाठ्यक्रमों का समावेश करना पड़ रहा है। इसके अतिरिक्त, सामान्य शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त प्रत्येक बालक के सामने यह समस्या आती है कि वह शिक्षा के विविध क्षेत्रों में से किस क्षेत्र को चुने और उसमें विशिष्टीकरण प्राप्त करे।

समाज की निरन्तर बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जो नये एवं विशेष व्यवसाय जन्म ले रहे हैं उनके लिए किन्हीं विशेष पाठ्य-विषयों का अध्ययन अनिवार्य है। विभिन्न व्यवसायों की सफलता भिन्न-भिन्न बौद्धिक एवं मानसिक स्तर, रुचि, अभिरुचि, क्षमता व योग्यता पर आधारित है। व्यक्तिगत भिन्नताओं का ज्ञान प्राप्त करके उनके अनुसार बालक को उचित शैक्षिक मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए निर्देशन की जबरदस्त माँग है।

9. पाश्चात्य सभ्यता से समायोजन :
आज के वैज्ञानिक युग में दो देशों के मध्य दूरी कम होने से पृथ्वी के दूरस्थ देश, उनकी सभ्यताएँ, संस्कृतियाँ, परम्पराएँ तथा रीति-रिवाज एक-दूसरे के काफी नजदीक आ गये हैं। अंग्रेजों के पदार्पण एवं शासन ने भारतीयों के मस्तिष्क पाश्चात्य सभ्यता में रंग डाले थे। वर्तमान समय में टी० बी० के विभिन्न चैनलों के माध्यम से पश्चिमी देशों के भौतिकवादी आकर्षण ने भारतीय युवाओं को इस सीमा तक सम्मोहित किया है कि वे अपने पुराने रीति-रिवाज और परम्पराएँ भुला बैठे हैं—एक प्रकार से भारतीय मूल्यों की अवमानना व उपेक्षा हो रही है। इससे असंख्य विसंगतियाँ तथा कुसमायोजन के दृष्टान्त दृष्टिगोचर हो रहे हैं। इनके दुष्प्रभाव से भारतीय युवाओं को बचाने लिए विशिष्ट निर्देशन की आवश्यकता है।

10. यौन सम्बन्धी समस्याएँ :
काम-वासना एक नैसर्गिक मूल-प्रवृत्ति हैं जो युवावस्था में विषमलिंगी व्यक्तियों में एक-दूसरे के प्रति अपूर्व आकर्षण पैदा करती है, किन्तु समाज की मान-मर्यादाओं तथा रीति-रिवाजों की सीमाओं को लाँघकर पुरुष एवं नारी का पारस्परिक मिलन नाना प्रकार की अड़चनों से भरा हैं। सम्मज ऐसे मिलन का घोर विरोध करता है। आमतौर पर काम-वासना की इस मूल-प्रवृत्ति का अवदेमने होने से व्यक्ति में ग्रन्थियाँ बन जाती हैं तथा उसका व्यवहार असामान्य हो जाता है। यौन सम्बन्धों के कारण जनित विकृतियों में सुधार लाने के लिए तथा व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी निर्देशन की आवश्यकता होती है।

11. व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास :
व्यक्तिगत एवं सामाजिक हित में मानव-शक्ति का सही दिशा में अधिकतम उपयोग अनिवार्य है, जिसके लिए व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की आवश्यकता है। बालकों के व्यक्तित्व के सर्वांगीण तथा सन्तुलित विकास के लिए उन्हें घर-परिवार, पास-पड़ोस, विद्यालय तथा समाज में प्रारम्भिक काल से ही निर्देशन प्रदान करने की अतीव आवश्यकता है।

प्रश्न 2
शैक्षिक निर्देशन से आप क्या समझते हैं ? शैक्षिक निर्देशन की प्रक्रिया का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
शैक्षिक निर्देशन का अर्थ
शैक्षिक निर्देशन बालक की अपने कार्यक्रम को बुद्धिमत्तापूर्वक नियोजित कर पाने में सहायता करता है। यह बालकों को ऐसे पाठ्य विषयों का चुनाव करने में सहायता देता है जो उनकी बौद्धिक क्षमताओं, रुचियों, योग्यताओं तथा व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं के अनुकूल हों। यह उन्हें इस योग्य बना देता है। कि वे शिक्षा सम्बन्धी कुछ विशेष समस्याओं तथा विद्यालय की विभिन्न परिस्थिति से भली प्रकार समायोजन स्थापित कर अपने शैक्षिक लक्ष्यों को प्राप्त कर सकें। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शैक्षिक पर्यावरण से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान तथा शैक्षिक परिस्थितियों में समायोजित होने के लिए दिये जाने वाले विशिष्ट निर्देशन को शैक्षिक निर्देशन कहते हैं।

शैक्षिक निर्देशन की परिभाषाएँ
विभिन्न मनोवैज्ञानिकों एवं विद्वानों ने शैक्षिक निर्देशन की अग्रलिखित परिभाषाएँ दी हैं

  1. आर्थर जे० जोन्स के अनुसार, “शैक्षिक निर्देशन का तात्पर्य उस व्यक्तिगत सहायता से है जो विद्यार्थियों को इसलिए प्रदान की जाती हैं कि वे अपने लिए उपयुक्त विद्यालय, पाठ्यक्रम, पाठ्य विषय एवं विद्यालय जीवन का चयन कर सकें तथा उनसे समायोजन स्थापित कर सकें।”
  2. रूथ स्ट्रांग के कथनानुसार, “व्यक्ति को शैक्षिक निर्देशन प्रदान करने का मुख्य लक्ष्य उसे समुचित कार्यक्रम के चुनाव तथा उसमें प्रगति में सहायता प्रदान करना है।”
  3. एलिस के शब्दों में, “शैक्षिक निर्देशन से तीन विशेष क्षेत्रों में सहायता मिलती है
    • कार्यक्रम और पाठ्य-विषयों का चयन
    • चालू पाठ्यक्रम में कठिनाइयों का मुकाबला करना तथा
    • अगले प्रशिक्षण हेतु विद्यार्थियों का चुनाव।

शैक्षिक निर्देशन सम्बन्धी उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि यह प्रक्रिया बालकों के पाठ्यक्रम चयन की सर्वोत्तम विधि है। उसमें बालकों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं, शैक्षिक उपलब्धियों, प्राप्तांकों, अभिभावकों की आशाओं, महत्त्वाकांक्षाओं तथा मनोवैज्ञानिकों के परामर्श को मुख्य रूप से ध्यान में रखा जाता है। इसके अन्तर्गत एक निर्देशक द्वारा प्राप्त किये गये निर्देशन की जाँच भी सम्भव है, इसलिए यह विधि वैज्ञानिक एवं प्रामाणिक भी है।

शैक्षिक निर्देशन की प्रक्रिया
पाठ्य विषयों के चयन सम्बन्धी शैक्षिक निर्देशन के निम्नलिखित तीन मुख्य पहलू हैं।
(अ) बालक के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना
(ब) पाठ्य विषयों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना और
(स) पाठ्य विषयों से सम्बन्धित व्यवसायों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना।

(अ)
बालक के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना।
जिस बालक/व्यक्ति को शैक्षिक निर्देशन देना है, उसके सम्बन्ध में निर्देशक को निम्नलिखित सूचनाएँ प्राप्त कर लेनी चाहिए।

1. बौद्धिक स्तर :
शैक्षिक निर्देशन में बालक में बौद्धिक स्तर का पता लगाना अति आवश्यक है। तीव्र बुद्धि वाला बालक कठिन विषयों का अध्ययन करने के योग्य होता है और इसीलिए विज्ञान एवं गणित जैसे विषयों का चुनाव कर सकता है। वह उच्च कक्षाओं तक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों के साथ सुगमतापूर्वक पहुँच जाता है। कला-कौशल और रचनात्मक कार्यों में अपेक्षाकृत कम बुद्धि की आवश्यकता पड़ती है। इस भाँति बालक के लिए पाठ्य विषयों का चुनाव करने में उसके बौद्धिक-स्तर का ज्ञान बहुत आवश्यक है।

2. शैक्षिक सम्प्राप्ति :
शैक्षिक सम्प्राप्ति अथवा शैक्षिक उपलब्धि की सूचना, अक्सर पिछली कक्षाओं के प्राप्तांकों द्वारा मिलती है, लेकिन निर्देशन की प्रक्रिया के अन्तर्गत सम्प्राप्ति परीक्षणों तथा सम्बन्धित अध्यापकों द्वारा भी शैक्षिक उपलब्धियों का ज्ञान कर लिया जाता है। किसी खास विषय में अधिक प्राप्तांकों की प्रवृत्ति बालक की उस विषय में रुचि एवं योग्यता का संकेत करती है। माना एक विद्यार्थी आठवीं कक्षा तक विज्ञान में सर्वाधिक अंक लेकर उत्तीर्ण हुआ है तो कहा जा सकता है कि भविष्य में भी विज्ञान में अधिक अंक प्राप्त करेगा। इन प्राप्तांकों या उपलब्धियों को आधार मानकर माध्यमिक स्तर पर विषय चुनने का परामर्श दिया जाना चाहिए।

3. मानसिक योग्यताएँ :
शिक्षा-निर्देशक को बालक की मानसिक योग्यताओं को भी समुचित ज्ञान होना चाहिए, क्योंकि विभिन्न प्रकार के पाठ्य विषयों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की मानसिक योग्यताएँ उपयोगी सिद्ध होती हैं। उदाहरण के लिए-साहित्यकार, अधिवक्ता, व्याख्याता, नेता तथा शिक्षक बनने में ‘शाब्दिक योग्यता’; गणितज्ञ में, वैज्ञानिक तथा इन्जीनियर बनने में ‘सांख्यिकी योग्यता’, दार्शनिक, विचारक, गणितज्ञ, अधिवक्ता बनने में ‘तार्किक योग्यता’ सहायक होती है। मानसिक योग्यताओं का ज्ञान तत्सम्बन्धी मनोवैज्ञानिक परीक्षणों तथा शिक्षकों की सूचना द्वारा लगाया जा सकता है।

4. विशिष्ट मानसिक योग्यताएँ एवं अभिरुचियाँ :
बालक के लिए पाठ्य विषय का चयन करते . समय बालक की विशिष्ट मानसिक योग्यताओं तथा अभिरुचियों का ज्ञान परमावश्यक है। विभिन्न पाठ्य विषयों की सफलता अलग-अलग प्रकार की विशिष्ट योग्यताओं या अभिरुचियों पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए संगीत एवं कला की विशिष्ट तथा अभियोग्यता वाले बालक-बालिकाओं को प्रारम्भ से ही संगीत एवं कला विषयों का चुनाव कर लेना चाहिए।

5, रुचियाँ :
बालक की जिस विषय में अधिक रुचि होगी, उस विषय के अध्ययन में वह अधिक ध्यान लगाएगा। अत: निर्देशक को बालक की रुचि का ज्ञान अवश्य लेना चाहिए। रुचियों का ज्ञान रुचि परीक्षणों तथा रुचि परिसूचियों के अतिरिक्त अभिभावकों, शिक्षकों तथा दैनिक निरीक्षण के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।

6. व्यक्तित्व की विशेषताएँ :
माध्यमिक स्तर पर किसी बालक को विषयों के चयन सम्बन्धित परामर्श देने के लिए उसके व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताओं का ज्ञान आवश्यक है। व्यक्तित्व विभिन्न प्रकार की विशेषताओं और गुणों; जैसे – आत्मविश्वास, धैर्य, लगन, मनन, अध्यवसाय आदि का संगठन है। साहित्यिक विषयों का चयन भावुक व्यक्ति को, विज्ञान और गणित का चयन तर्कयुक्त एवं दृढ़ निश्चयी व्यक्ति को तथा रचनात्मक विषयों का चयन उद्योगी एवं क्रिया-प्रधान व्यक्तियों को करना चाहिए। व्यक्तित्व के गुणों का ज्ञान जिन व्यक्तित्व परीक्षणों से किया जाता है। उनमें साक्षात्कार, व्यक्तित्व परिसूचियाँ, प्रश्नसूची, व्यक्ति-इतिहास और निर्धारण मान अदि प्रमुख हैं।

7. शारीरिक दशा :
कुछ विषयों का चयन करते समय निर्देशक को बालक की शारीरिक रचना तथा स्वास्थ्य की दशाओं का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। कृषि विज्ञान एवं प्राविधिक विषय इन्हीं के अन्तर्गत आते हैं। कृषि सम्बन्धी अध्ययन जमीन के साथ कठोर श्रम पर निर्भर हैं, जिसके लिए हुष्ट-पुष्ट शरीर होना आवश्यक है। इसी प्रकार प्राविधिक विषयों का प्रयोगात्मक ज्ञान कार्यशाला में कई घण्टे काम करके ही उपलब्ध किया जा सकता है। अतः पाव्य विषय के चयन से पूर्व चिकित्सक से शारीरिक विकास की जाँच करा लेनी
चाहिए तथा रुग्ण या दुर्बल शरीर वाले बालकों को ऐसे विषय का चुनाव नहीं करना चाहिए।

8. पारिवारिक स्थिति :
पारिवारिक परिस्थितियों, विशेषकर आर्थिक स्थिति, को ध्यान में रखकर शिक्षा-निर्देशक उन्हीं विषयों के चयन को परामर्श देता है जिन्हें निजी परिस्थितियों के अन्तर्गत आसानी से पढ़ा जा सके। माध्यमिक स्तर पर कुछ ऐसे विषय निर्धारित हैं जिनमें उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अभिभावकों को अत्यधिक धन खर्च करना पड़ता है; जैसे—विज्ञान पढ़ने के बाद योग्य बनाता है मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश।

बालक की योग्यताओं, उच्च बौद्धिक स्तर तथा अभिरुचि के बावजूद भी इन कॉलेजों में अपने बच्चों को भेजना हर एक माता-पिता के बस में नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में विद्यार्थियों के लिए पाठ्य विषयों के चयन में उसके परिवार की आर्थिक दशा को ध्यान में रखना आवश्यक है।

(ब)
पाठ्य विषयों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना

निर्देशन एवं परामर्श प्रदान करने वाले विशेषज्ञ को बालक के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने के उपरान्त पाठ्य विषयों से सम्बन्धित विस्तृत जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। इस सम्बन्ध में अग्रलिखित दो प्रकार की जानकारियाँ आवश्यक हैं

1. पाठ्य विषयों के विभिन्न वर्ग :
जूनियर स्तर से निकलकर माध्यमिक स्तर में प्रवेश पाने वाले विद्यार्थियों के लिए पाठ्यक्रम को कई वर्गों में विभक्त किया गया है; जैसे।

  1. साहित्यिक
  2. वैज्ञानिक
  3. वाणिज्य
  4. कृषि सम्बन्धी
  5. प्रौद्यौगिक
  6. रचनात्मक तथा
  7. कलात्मक।

इन वर्गों के विकास में ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त यह जानना आवश्यक है कि सम्बन्धित विद्यालय में कौन-कौन-से वर्ग के पाठ्य विषय पढ़ाये जाते हैं और विद्यार्थी की रुचि के विषय भी वहाँ उपलब्ध हो सकेंगे या नहीं।

2. विविध पाठ्य विषयों के अध्ययन हेतु आवश्यक मानसिक योग्यताएँ :
किन विषयों के लिए कौन-सी योग्यताएँ आवश्यक हैं और उस विद्यार्थी में कौन-कौन-सी योग्यताएँ विद्यमान हैं ? इन सभी बातों की विस्तृत जानकारी शिक्षा निर्देशक को होनी चाहिए, तभी वह उपयुक्त पाठ्य विषयों के चयन में विद्यार्थियों की सहायता कर सकता है।

(स)
पाठ्य विषयों से सम्बन्धित व्यवसायों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना
प्रत्येक विद्यार्थी अपनी शिक्षा से निवृत्त होकर जीवन-यापन के लिए किसी-न-किसी व्यवसाय का चयन करता है। आजकल ज्यादातर व्यवसायों में विशेषीकरण होने से तत्सम्बन्धी प्रशिक्षण पहले से ही प्राप्त करना पड़ता है। अत: निर्देशक को पाठ्य विषयों से सम्बन्धित व्यवसायों के बारे में ये निम्नलिखित दो सूचनाएँ प्राप्त करना बहुत आवश्यक है-

1. व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए किन पाठ्य विषयों का अध्ययन आवश्यक है :
सबसे पहले निर्देशक को यह जानना चाहिए कि किसी खास व्यवसाय से सम्बन्धित प्रशिक्षण कोर्स में प्रवेश पाने के लिए अध्ययन की शुरुआत के लिए किन विषयों का ज्ञान आवश्यक है। उदाहरणार्थ-डॉक्टर बनने के लिए 9वीं कक्षा से जीव विज्ञान पढ़ना चाहिए, जब कि इन्जीनियर बनने के . लिए विज्ञान वर्ग में गणित पढ़ना चाहिए।

2. विभिन्न वर्गों के पाठ्य विषयों का अध्ययन किन व्यवसायों के योग्य बनाता है :
पाठ्य विषयों के चयन में व्यवसाय सम्बन्धी जानकारी आवश्यक है। निर्देशक को पहले ही यह ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए कि किसी व्यवसाय-विशेष का सीधा सम्बन्ध किन-किन विषयों से है ताकि व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त न करके भी उन विषयों का ज्ञान उसके कार्य में मदद दे सके। उदाहरण के लिए-कॉमर्स लेकर कोई विद्यार्थी वाणिज्य या व्यापार के क्षेत्र में प्रवेश कर सकता है, किन्तु डॉक्टरी या इंजीनियरिंग के क्षेत्र में नहीं।
बालक को शैक्षिक निर्देशन प्रदान करने से पूर्व उपर्युक्त समस्त बातों की विस्तृत एवं वास्तविक जानकारी एक सफल शिक्षा निर्देशक (Educational Guide) को होनी चाहिए।

प्रश्नु 3
शैक्षिक निर्देशन की उपयोगिता एवं महत्त्व का उल्लेख कीजिए। [2011, 13]
या
शैक्षिक निर्देशन से आप क्या समझते हैं ? इसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
या
शैक्षिक निर्देशन की क्या आवश्यकता है? स्पष्ट कीजिए। [2013]
उत्तर :
नोट :
शैक्षिक निर्देशन का अर्थ
शैक्षिक निर्देशन बालक की अपने कार्यक्रम को बुद्धिमत्तापूर्वक नियोजित कर पाने में सहायता करता है। यह बालकों को ऐसे पाठ्य विषयों का चुनाव करने में सहायता देता है जो उनकी बौद्धिक क्षमताओं, रुचियों, योग्यताओं तथा व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं के अनुकूल हों। यह उन्हें इस योग्य बना देता है। कि वे शिक्षा सम्बन्धी कुछ विशेष समस्याओं तथा विद्यालय की विभिन्न परिस्थिति से भली प्रकार समायोजन स्थापित कर अपने शैक्षिक लक्ष्यों को प्राप्त कर सकें। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शैक्षिक पर्यावरण से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान तथा शैक्षिक परिस्थितियों में समायोजित होने के लिए दिये जाने वाले विशिष्ट निर्देशन को शैक्षिक निर्देशन कहते हैं।

शैक्षिक निर्देशन की परिभाषाएँ
विभिन्न मनोवैज्ञानिकों एवं विद्वानों ने शैक्षिक निर्देशन की अग्रलिखित परिभाषाएँ दी हैं

  1. आर्थर जे० जोन्स के अनुसार, “शैक्षिक निर्देशन का तात्पर्य उस व्यक्तिगत सहायता से है जो विद्यार्थियों को इसलिए प्रदान की जाती हैं कि वे अपने लिए उपयुक्त विद्यालय, पाठ्यक्रम, पाठ्य विषय एवं विद्यालय जीवन का चयन कर सकें तथा उनसे समायोजन स्थापित कर सकें।”
  2. रूथ स्ट्रांग के कथनानुसार, “व्यक्ति को शैक्षिक निर्देशन प्रदान करने का मुख्य लक्ष्य उसे समुचित कार्यक्रम के चुनाव तथा उसमें प्रगति में सहायता प्रदान करना है।”
  3. एलिस के शब्दों में, “शैक्षिक निर्देशन से तीन विशेष क्षेत्रों में सहायता मिलती है
    • कार्यक्रम और पाठ्य-विषयों का चयन
    • चालू पाठ्यक्रम में कठिनाइयों का मुकाबला करना तथा
    • अगले प्रशिक्षण हेतु विद्यार्थियों का चुनाव।

शैक्षिक निर्देशन सम्बन्धी उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि यह प्रक्रिया बालकों के पाठ्यक्रम चयन की सर्वोत्तम विधि है। उसमें बालकों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं, शैक्षिक उपलब्धियों, प्राप्तांकों, अभिभावकों की आशाओं, महत्त्वाकांक्षाओं तथा मनोवैज्ञानिकों के परामर्श को मुख्य रूप से ध्यान में रखा जाता है। इसके अन्तर्गत एक निर्देशक द्वारा प्राप्त किये गये निर्देशन की जाँच भी सम्भव है, इसलिए यह विधि वैज्ञानिक एवं प्रामाणिक भी है।

शैक्षिक निर्देशन के लाभ, उपयोगिता एवं महत्त्व
वर्तमान शिक्षा पद्धति एक जटिल व्यवस्था है, जिसमें बालकों की क्षमताएँ, शक्तियाँ, योग्यताएँ समये तथा धन आदि का अपव्यय होता है और वे अपने शैक्षिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में असफल रहते हैं। इन असफलताओं तथा निराशाओं के बीच शैक्षिक निर्देशन आशा की किरणों के साथ शिक्षा के क्षेत्र में अवतरित होता है, जिसकी उपयोगिता या महत्त्व सन्देह से परे है। इसमें लाभों की पुष्टि अग्रलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत हो जाती है

1. पाठ्य विषयों का चयन :
माध्यमिक विद्यालयों में विभिन्न व्यवसायों से सम्बन्धित विविध पाठ्य विषयों के अध्ययन की व्यवस्था है। निर्देशन की सहायता से विद्यार्थी अपने बौद्धिक-स्तर, क्षमताओं, योग्यताओं तथा रुचियों के अनुसार पाठ्य-विषयों का चुनाव कर सकता है। इस भॉति वह अपने मनोनुकूल व्यवसाय की प्राप्ति कर सुखी जीवन व्यतीत कर सकता है।

2. भावी शिक्षा का सुनिश्चय :
हाईस्कूल स्तर के पश्चात् विद्यार्थियों के लिए यह सुनिश्चित कर पाना दूभर हो जाता है कि उनकी भावी शिक्षा का लक्ष्य एवं स्वरूप क्या होगा, अर्थात् वे किस व्यावसायिक विद्यालय में प्रवेश लें, व्यापारिक विद्यालय में या औद्योगिक विद्यालय में? यदि किन्हीं कारणों से वे अनुपयुक्त शिक्षा संस्थान में भर्ती हो जाते हैं तो कुसमायोजन के कारण उन्हें बीच में ही संस्था छोड़नी पड़ सकती है, जिसके फलस्वरूप काफी हानि उठानी पड़ती है। इसके सन्दर्भ में निर्देशक सही पथ-प्रदर्शन करते है।

3. नवीन विद्यालय में समायोजन :
शैक्षिक निर्देशन उन विद्यार्थियों की सहायता करता है जो किसी नये विद्यालय में प्रवेश पाते हैं और वहाँ के वातावरण के साथ समायोजित नहीं हो पाते।

4. पाठ्यक्रम का संगठन :
विद्यार्थियों की व्यक्तिगत भिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए उनका पाठ्यक्रम निर्धारित एवं संगठित किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम-संगठन का कार्य शैक्षिक निर्देशन के माध्यम से किया जाता है।

5. परिवर्तित विद्यालयी प्रबन्ध, पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधि के सन्दर्भ में :
विद्यालय एक लघु समाज है। समाज की प्रजातान्त्रिक व्यवस्था का सीधा प्रभाव विद्यालय प्रबन्ध एवं व्यवस्थाओं पर पड़ा है। प्रजातान्त्रिक शिक्षा समाज के सभी व्यक्तियों को समान अवसर प्रदान करती है। व्यक्तिगत विभिन्नता के सिद्धान्त पर आधारित गत्यात्मक प्रकार की प्रशासन्त्रिक विद्यालय व्यवस्था पाठ्यक्रम तथा शिक्षण-विधियों की आवश्यकताओं की और पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए। इन परिवर्तित दशाओं के कारण पैदा होने वाली समस्याओं का समाधान एकमात्र शैक्षिक निर्देशन की सहायता से ही सम्भव है।

6. मन्दबुद्धि, पिछड़े तथा मेधावी बालक :
शैक्षिक निर्देशन की प्रक्रिया के अन्तर्गत मन्दबुद्धि, पिछड़े तथा मेधावी बालकों की पहचान करके उनकी क्षमतानुसार शिक्षा की व्यवस्था की जाती है। इस विशिष्ट व्यवस्था का लाभ अलग-अलग तीनों ही वर्गों के बालकों अर्थात् मन्दबुद्धि, पिछड़े तथा मेधावी बालकों को प्राप्त होता है।

7. अभिभावकों की सन्तुष्टि :
कभी-कभी अभिभावकों की महत्त्वाकांक्षाओं तथा बालकों की । मानसिक योग्यताओं व क्षमताओं के मध्य गहरा अन्तर होता है। निर्देशंन के माध्यम से वे बालक की विशेषैताओं की सही वास्तविक झलक पाकर तदनुकूल शिक्षा की व्यवस्था कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षा संस्थानों के कार्यक्रमों से परिचित होकर उन्हें अपना योगदान प्रदान कर सकते हैं।

8. अनुशासन की समस्या का समाधान :
क्योंकि शैक्षिक निर्देशन की प्रक्रिया में बालक की क्षमताओं, रुचियों तथा अभिरुचियों को ध्यान में रखकर उसकी शिक्षा सम्बन्धी व्यवस्था की जाती है; अतः पाठ्यकम बालक को भार-स्वरूप नहीं लगता। इसके विपरीत वह चयनित विषयों में रुचि लेकर अनुशासित रूप में अध्ययन करता है, जिससे अनुशासन की समस्या का किसी हद तक समाधान निकल आता है।

9. जीविकोपार्जन का समुचित ज्ञान :
प्रायः विद्यार्थियों को विभिन्न पाठ्य विषयों से सम्बन्धित एवं आगे चलकर उपलब्ध हो सकने वाले व्यावसायिक अवसरों की जानकारी नहीं होती। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति किसी खास व्यवसाय में जानकारी व रुचि न होने के कारण बार-बार अपना पेशा बदलते हैं, जिससे व्यावसायिक अस्थिरता में वृद्धि के कारण हानि होती है। अत: रोजगार के अवसरों का ज्ञान प्राप्त करने तथा जीविकोपार्जन सम्बन्धी समुचित ज्ञान पाने की दृष्टि से शैक्षिक निर्देशन अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है।

10. अपव्यय एवं अवरोधन की समस्या का अन्त :
अपव्यय एवं अवरोधन की समस्या के अन्तर्गत अनेक बालक-बालिकाएँ विभिन्न कारणों से स्थायी साक्षरता प्राप्त किये बिना ही विद्यालय का त्याग कर देते हैं, जिससे प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर अत्यधिक अपव्यय हो रहा है। इसके अतिरिक्त परीक्षा में फेल होने वाले विद्यार्थियों की संख्या भी निरन्तर बढ़ रही है। इस समस्या का अन्त शैक्षिक निर्देशन के माध्यम से ही सम्भव है।

प्रश्न 4
सामूहिक शैक्षिक निर्देशन विधि और प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
या
वैयक्तिक शैक्षिक निर्देशन और सामूहिक शैक्षिक निर्देशन विधियों का आलोचनात्मक वर्णन कीजिए।
या
शैक्षिक निर्देशन की कितनी विधियाँ हैं ? उन्हें संक्षेप में समझाइए। [2007]
उत्तर :
शैक्षिक निर्देशन की विधि शैक्षिक निर्देशन की दो विधियाँ प्रचलित हैं
I. वैयक्तिक शैक्षिक निर्देशन तथा
II. सामूहिक शैक्षिक निर्देशन

I. वैयक्तिक शैक्षिक निर्देशन

1. भेंट या साक्षात्कार :
निर्देशक या परामर्शदाता बालक से भेंट करके या साक्षात्कार द्वारा उसके सम्बन्ध में आवश्यक सूचनाएँ एकत्र करता है तथा निर्देशन की प्रक्रिया में सहायक विभिन्न तथ्यों की जानकारी उपलब्ध कराता है।

2. प्रश्नावली :
बालक के सम्बन्ध में तथ्यों का पता लगाने अथवा उसके व्यक्तिगत विचारों से परिचित होने के उद्देश्य से एक प्रश्नावली निर्मित की जाती है, जिसके उत्तर स्वयं बालक को देने होते हैं। प्रश्नावली के माध्यम से बालक की आदतों, पारिवारिक वातावरण, अवकाशकालीन क्रियाओं, शिक्षा और व्यवसाय सम्बन्धी योजनाओं के विषय में ज्ञान हो जाता है।

3. व्यक्तिगत्र इतिहास :
व्यक्तिगत इतिहास के माध्यम से बालक को व्यक्तिगत, सामाजिक व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की जानकारी प्राप्त की जाती हैं। इसके अतिरिक्त चालक के अभिभावक, मित्र, परिवार के सदस्य एवं आस-पड़ोस के लोग भी उसके विषय में बताते हैं, जिनमें उसकी समस्याओं का निदान एवं समाधान किया जाता है।

4. संचित अमितेख :
विद्यालय में हर एक विद्यार्थी से सम्बन्धित एक ‘संचित अभिलेख’ होता है। इस अभिलेख में विद्यार्थी की प्रगति, योग्यता, बौद्धिक स्तर, रुचि, पारिवारिक दशा तथा शारीरिक स्वास्थ्य सम्बन्धी सूचनाएँ संगृहीत रहती हैं। इन अभिलेखों को अध्ययन कर परामर्शदाता, निर्देशन की दिशा निर्धारित करता है।

5. बुद्धि एवं ज्ञानार्जन परीक्षण :
इन फ्रीक्षणों के माध्यम से निर्देशक इस बात की जाँच करता है। कि विद्यार्थी ने विभिन्न पाठ्य विषयों में कितना ज्ञानार्जन किया है, उसको बौद्धिक स्तर कितना है, शिक्षके ने उसे कितने प्रभावकारी ढंग से पढ़ाया है तथा उसकी योग्यताएँ व दुर्बलताएँ क्या हैं ? इन सभी बातों का ज्ञान विद्यार्थी की भावी प्रगति के सन्दर्भ में अनुमान लगाने में निर्देशक की सहायता करता है।

6. परामर्श :
निर्देशक विद्यार्थियों की समस्या का ज्ञान करके तथा उनके विषय में समस्त तथ्यों का संकलन करके उन्हें शिक्षा सम्बन्धी परामर्श प्रदान करता है। यह परामर्श उनकी समस्याओं का उचित समाधान करने में सहायक होता है।

7. अनुगामी कार्यक्रम :
निर्देशन प्रदान करने के उपरान्त अनुगामी कार्य द्वारा यह जाँच की जाती है। कि निर्देशन के बाद विद्यार्थी की प्रगति सन्तोषजनक रही है अथवा नहीं। असन्तोषजनक प्रगति इस बात की द्योतक है कि विद्यार्थी के बारे में निर्देशक के अनुमान गलत थे तथा निर्देशक ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर पाया। इसलिए उसमें संशोधन करके पुन: निर्देशन प्रदान किया जाना चाहिए। वैयक्तिक शैक्षिक निर्देशन की विधि के उपर्युक्त सोपान किसी विद्यार्थी की शैक्षिक समस्याओं के सम्बन्ध में समुचित परामर्श एवं समाधान प्रस्तुत करने में सहायक सिद्ध होते हैं। लेकिन इस विधि की कुछ परिसीमाएँ हैं; जैसे-एक ही विद्यार्थी के लिए विशेषज्ञ या मनोवैज्ञानिक की आवश्यकता होती है तथा इसमें अधिक समय और धन का व्यय भी होता है। सामूहिक शैक्षिक निर्देशन में इन कमियों को पूरा करने का प्रयास किया गया है।

II. सामूहिक शैक्षिक निर्देशन

सामूहिक शैक्षिक निर्देशन की विधि के विभिन्न सोपानों का संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है।

1. अनुस्थापने वार्ताएँ :
सामूहिक निर्देशन के अन्तर्गत, सर्वप्रथम, मनोवैज्ञानिक विद्यालय में जाकर बालकों को वार्ता के माध्यम से निर्देशन का महत्त्व समझाता है। ये वार्ताएँ विद्यार्थियों को स्वयं अपनी आवश्यकताओं, क्षमताओं, शैक्षिक उद्देश्यों, रुचियों इत्यादि के सम्बन्ध में सोचने-समझने हेतु प्रेरित व उत्साहित करती हैं।

2. मनोवैज्ञानिक परीक्षण :
विद्यार्थियों को उचित दिशा में निर्देशित करने के उद्देश्य से मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का प्रयोग किया जाता है। इन परीक्षणों की सहायता से विद्यार्थियों की सामान्य एवं विशिष्ट बुद्धि, मानसिक योग्यता, रुचि, अभिरुचि, भाषा एवं व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं का ज्ञान होता है। इससे निर्देशन का कार्य सुगम हो जाता है।

3. साक्षात्कार :
व्यक्तिगत निर्देशन के समान ही साक्षात्कार का प्रयोग सामूहिक निर्देशन में भी किया जाता है। इसके लिए निर्देशक या निर्देशन समिति स्वयं बालकों से भेंट करके विभिन्न पाठ्य विषयों के प्रति उनकी रुचि, भावी शिक्षा और व्यवसाय-योजना आदि के सम्बन्ध में सूचनाएँ एकत्र करते हैं। इसके लिए स्वयं-परिसूची’ (Self-Inventory) का भी प्रयोग किया जाता है।

4. विद्यालय से तथ्य संकलन :
मनोवैज्ञानिक, बालकों की विभिन्न पाठ्य विषयों की ‘शैक्षुिक-सम्प्राप्ति की जानकारी के लिए, पूर्व परीक्षाओं के प्राप्तांकों पर विचार करता है। इस सम्बन्ध में ‘संचित-लेखा (Cumulative Record) के साथ-साथ अध्यापकों की राय लेना भी जरूरी एवं महत्त्वपूर्ण है।

5. सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का अध्ययन :
शिक्षा से सम्बन्धित समुचित निर्देशन प्रदान करने की दृष्टि से विद्यार्थियों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का अध्ययन आवश्यक है। निर्देशक को समाज, आस-पड़ोस, घर-गृहस्थी, मित्र-मण्डली, परिचितों तथा अभिभावकों से उनके विषय में पूरी-पूरी सामाजिक व आर्थिक जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए।

6. परिवार से सम्पर्कमाता :
पिता ने बालकों को जन्म दिया है, पालन-पोषण किया है, उन्हें शनैः-शनैः विकसित होते हुए देखा हैं तथा उनकी भावी उन्नति व व्यवसाय का स्वप्न देखा है। अतः मनोवैज्ञानिक को बालकों के माता-पिता के विचारों को अवश्य समझना चाहिए। इसके लिए पत्र-व्यवहार द्वारा या माता-पिता से व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करके तथ्यों का संकलन किया जा सकता है।

7. पाश्र्व-चित्र :
अनेकानेक स्रोतों से एकत्रित की गयी सूचनाओं व तथ्यों को एक पार्श्व चित्र (Profile) में व्यक्त किया जाता है। इस प्रयास में उनकी विभिन्म योग्यताओं, क्षमताओं तथा भिन्न-भिन्न परीक्षण स्तर के चित्र अंकित किये जाते हैं। पार्श्व-चित्र को देखकर बालकों के सम्बन्ध में एक साथ ही ढेर सारी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ ज्ञात हो जाती हैं। इन सूचनाओं के आधार पर विद्यार्थियों को पाठ्य विषयों के चुनाव के सम्बन्ध में निर्देशन दिया जाता है जो प्रायः लिखित रूप में होता है।

8. अनुगामी कार्य :
अनुगामी कार्य का एक नाम अनुवर्ती अध्ययन (Follow-up Study) भी है। निर्देशन से सम्बन्धित यह अन्तिम सोपान या कार्य है। निर्देशन पाने के बाद जब बालक किसी विषय का चयन करके उसका अध्ययन शुरू कर देता है तो मनोवैज्ञानिक या निर्देशक को यह जाँच करनी होती है। कि बालक उस विषय का सफलता से अध्ययन कर रहा है अथवा नहीं। बालक की ठीक प्रगति का अभिप्राय है कि निर्देशन सन्तोषजनक रहा अन्यथा उसे फिर से निर्देशन प्रदान किया जाता है।

प्रश्न 5
व्यावसायिक निर्देशन का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। व्यावसायिक निर्देशन की प्रक्रिया का भी विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
व्यावसायिक निर्देशन का क्या अर्थ है? माध्यमिक विद्यालयों में व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता की विवेचना कीजिए। [2007]
उत्तर :
व्यावसायिक निर्देशन का अर्थ
व्यावसायिक निर्देशन एक ऐसी मनोवैज्ञानिक सहायता है जो व्यक्ति (विद्यार्थी) को जीवन के एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य ‘जीविकोपार्जन की प्राप्ति में सहायक है। इसका मुख्य उद्देश्य व्यक्ति को यह निर्णय करने में मदद देना है कि वह जीविकोपार्जन के लिए कौन-सा उपयुक्त व्यवसाय चुने जो उसकी बुद्धि, अभिरुचि तथा व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं के अनुकूल हो।

व्यावसायिक निर्देशन की परिभाषा

  1. क्रो एवं क्रो के अनुसार, “व्यावसायिक निर्देशन की व्याख्या सामान्यत: उसे सहायता के रूप में की जाती है, जो विद्यार्थियों को किसी व्यवसाय को चुनने, उसके लिए तैयारी करने तथा उसमें उन्नति प्रदान करने के लिए दी जाती है।”
  2. अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, “व्यावसायिक निर्देशन वह सहायता है जो एक व्यक्ति को व्यवसाय चुनने से सम्बन्धित समस्या के समाधान हेतु प्रदान की जाती है, जिससे व्यक्ति की क्षमताओं का तत्सम्बन्धी व्यवसाय-सुविधाओं के साथ समायोजन हो सके।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि व्यावसायिक निर्देशन, उपयुक्त व्यवसाय के चुनाव में किसी व्यक्ति की सहायता करने की प्रक्रिया है। यह उसे व्यावसायिक परिस्थितियों से स्वयं को अनुकूलित करने में मदद देती है, जिससे कि समाज की मानव-शक्ति का सदुपयोग हो सके तथा अर्थव्यवस्था में समुचित सलन स्थापित हो सके।

व्यावसायिक निर्देशन की प्रक्रिया : व्यवसाय का चयन
किसी व्यक्ति के लिए उपयुक्त व्यवसाय चुनने की दृष्टि से व्यावसायिक निर्देशन की प्रक्रिया प्रारम्भ की जाती है। यह प्रक्रिया निर्देशक से निम्नलिखित दो प्रकार की जानकारियों की माँग करती है|
(A) व्यक्ति के विषय में जानकारी।
(B) व्यवसाय जगत् सम्बन्धी जानकारी।

(A) व्यक्ति के विषय में जानकारी।
व्यावसायिक निर्देशन के अन्तर्गत उपयुक्त व्यवसाय का चुनाव करते समय सर्वप्रथम व्यक्ति के शारीरिक विकास, उसके बौद्धिक स्तर, मानसिक योग्यताओं, रुचियों, अभिरुचियों तथा व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं का अध्ययन करना आवश्यक है। व्यक्ति के इस भॉति अध्ययन को व्यक्ति-विश्लेषण (Individual Analysis) का नाम दिया गया है। व्यक्ति-विश्लेषण में अग्रलिखित बातें जानना आवश्यक समझा जाता है।

1. शैक्षिक योग्यता :
किसी व्यवसाय के चयन में उसके लिए शिक्षा के स्तर तथा शैक्षणिक योग्यता की जानकारी आवश्यक होती है। कुछ व्यवसायों के लिए प्रारम्भिक स्तर, कुछ के लिए माध्यमिक स्तर, तो कुछ के लिए उच्च स्तर की शिक्षा अपेक्षित हैं। प्रोफेसर, इंजीनियर, डॉक्टर, वकील तथा प्रशासक आदि के व्यवसाय हेतु उच्च शिक्षा की आवश्यकता होती है, किन्तु ओवरसियर, कम्पाउण्डर, स्टेनोग्राफर, क्लर्क, मिस्त्री तथा प्राथमिक स्तर के शिक्षक हेतु सामान्य शिक्षा ही पर्याप्त है।

कृषि, निजी व्यापार, दुकानदारी आदि के लिए थोड़ी बहुत शिक्षा से ही काम चल जाता है। वैसे अव परिस्थितियाँ बदल रही हैं। इसके अतिरिक्त अनेक व्यवसायों में शैक्षिक योग्यताओं के साथ-साथ विशेष परीक्षण-प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए इंजीनियर और ओवरसियर तथा कम्पाउडर बनने के लिए विशेष प्रशिक्षण में शामिल होना पड़ता है।

2, बुद्धि :
यह बात सन्देह से परे है कि भिन्न-भिन्न व्यवसायों में सफलता प्राप्त करने के लिए भिन्न-भिन्न बौद्धिक स्तर की आवश्यकता होती है। निर्देशक या परामर्शदाता को व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता का ज्ञान निम्नलिखित तालिका से हो सकता है।
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3. मानसिक योग्यताएँ :
अलग-अलग व्यवसायों के लिए विशिष्ट मानसिक योग्यताओं की आवश्यकता होती है। निर्देशक को चाहिए कि वह सम्बन्धित व्यक्ति में विशिष्ट योग्यता की जाँच कर उसे तत्सम्बन्धी व्यवसाय चुनने का परामर्श दे। उदाहरण के लिए संगीत की विशेष योग्यता संगीतज्ञ के लिए, यान्त्रिक (Mechanical) व आन्तरिक्षक (Spatial) योग्यता इंजीनियर और मिस्त्रियों के लिए, शाब्दिक व शब्द-प्रवाह सम्बन्धी योग्यताएँ वकील, अध्यापक और लेखक आदि के लिए आवश्यक समझी जाती हैं।

4. अभियोग्यताएँ :
विभिन्न प्रकार के व्यवसायों की सफलता हेतु विभिन्न प्रकार की अभियोग्यताएँ। या अभिरुचियाँ आवश्यक हैं। सर्वमान्य रूप से, प्रत्येक व्यक्ति में किसी विशेष प्रकार का कार्य करने से सम्बन्धित योग्यता जन्म से ही होती है। यदि जन्म से चली आ रही योग्यता को ही प्रशिक्षण देकर अधिक। परिष्कृत एवं प्रभावशाली बनाया जाए तो व्यक्ति की व्यावसायिक कार्यकुशलता में अभिवृद्धि हो सकती है। यान्त्रिक कार्य के लिए यान्त्रिक अभिरुचि, कला सम्बन्धी कार्य के लिए कलात्मक अभिरुचि तथा लिपिक के लिए लिपिक अभिरुचि आवश्यक है।

5. रुचियाँ :
किसी कार्य की सफलता के लिए उस कार्य में व्यक्ति को रुचि का लेना आवश्यक है। किसी ऐसे कार्य को करना उचित है जिसमें पहले से व्यक्ति की रुचि हो, अन्यथा मिले हुए कार्य में बाद की रुचि विकसित की जा सकती है। प्रायः, योग्यता और रुचि साथ-साथ पाये जाते हैं और कम योग्यता वाले क्षेत्र में व्यक्ति रुचि प्रदर्शित नहीं करता। ऐसी दशा में रुचि और योग्यता में से किसे प्रमुखता दी जाए – यह बात विचारणीय बन जाती है।

6. व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताएँ :
अनेक व्यवसायों की सफलता व्यक्तित्व सम्बन्धी विशिष्ट गुणों पर आधारित होती है। अत: निर्देशक को व्यवसाय के चयन सम्बन्धी परामर्श प्रदान करते समय व्यक्तित्व की विशेषताओं पर भी ध्यान देना चाहिए। एजेण्ट या सेल्समैन के लिए मिलनसार, आत्मविश्वासी, खुशमिजाज, व्यवहार-कुशल तथा बहिर्मुखी व्यक्तित्व का होना परमावश्यक है। कुछ व्यवसाय ऐसे होते हैं जिनमें संवेगात्मक स्थिति, धैर्य, एकाग्रता, सामाजिकता आदि गुणों की आवश्यकता होती है; जैसे-डॉक्टर, इंजीनियर, बैंक लिपिक तथा ड्राइवर इत्यादि। लेखक, विचारक और समीक्षक का व्यक्तित्व चिन्तनशील एवं अन्तर्मुखी होता है।

7. शारीरिक दशा :
प्रत्येक कार्य में शारीरिक शक्ति का उपभोग होता ही है। अतः सभी व्यवसायों के चयन में शारीरिक विकास, स्वास्थ्य आदि शारीरिक दशाओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए। कुछ व्यवसायों; जैसे-पुलिस, सेना आदि में अधिक शारीरिक क्षमता की आवश्यकता होती है और उनके लिए शारीरिक दृष्ट्रि से क्षमतावान व्यक्तियों को ही चुना जाता है। ऐसे व्यवसायों में कम क्षमता वाले, अस्वस्थ या रोगी व्यक्तियों को कदापि नहीं लिया जा सकता, चाहे वे कितने ही बुद्धिमान क्यों न हों।

8. आर्थिक स्थिति :
बालक को व्यवसाय चुनने सम्बन्धी परामर्श प्रदान करने में उसके परिवार की आर्थिक दशा का ज्ञान निर्देशक को अवश्य रहना चाहिए। कुछ व्यवसाय ऐसे हैं जिनके प्रशिक्षण में अधिक समय और अधिक धन दोनों की आवश्यकता होती है, उदाहरणार्थ–डॉक्टरी और इंजीनियरिंग। लम्बे समय तक शिक्षा पर भारी धन व्यय करना प्रत्येक परिवार के वश की बात नहीं है। अतएव अनेक योग्य एवं प्रतिभाशाली युवक-युवतियाँ धनाभाव के कारण से इन व्यवसायों का चयन नहीं कर पाते।

9. लिंग :
लैंगिक भेद के कारण व्यक्तियों के कार्य-क्षेत्र में अन्तर आ जाता है, इसलिए व्यवसाय चयन की प्रक्रिया में निर्देशक को व्यक्ति के लिंग का भी ध्यान रखना चाहिए। सेना और पुलिस जैसे विभाग पुरुषों के लिए ही उपयुक्त समझे जाते हैं, जब कि अध्यापन, परिचर्या, लेखन आदि स्त्रियों के लिए अधिक ठीक रहते हैं। वस्तुतः स्त्रियाँ बौद्धिक कार्य तो पुरुषों के समान कर सकती हैं, लेकिन उनमें पुरुषों के समान कठोर शारीरिक श्रम की क्षमता नहीं होती। यह कारक भी अब कुछ हद तक कम महत्त्वपूर्ण हो गया है क्योंकि प्रायः सभी व्यवसायों में किसी-न-किसी रूप में महिलाएँ पदार्पण कर रही हैं।

10. आयु :
बहुत से व्यवसायों में राज्य की ओर से सेवाओं में प्रवेश पाने की आयु सीमाएँ निर्धारित कर दी गयी हैं। प्रशिक्षण प्राप्त करने की भी सीमाएँ सुनिश्चित कर दी गयी हैं। अत: किसी व्यवसाय के चयन हेतु निर्देशक को व्यक्ति की आयु सीमा पर भी विचार कर लेना चाहिए।

(B) व्यवसाय-जगत सम्बन्धी जानकारी
व्यावसायिक निर्देशक को व्यवसाय-जगत् की पूरी जानकारी होनी चाहिए। विश्वभर में कितने प्रकार के व्यवसाय हैं, किन्तु किन क्षेत्रों में कौन-से व्यवसाय उपलब्ध हैं, किसी व्यवसाय की विभिन्न शाखाओं व उपशाखाओं का ज्ञान, व्यवसाय-विशेष के लिए आवश्यक शैक्षिक-बौद्धिक-मानसिक योग्यताएँ तथा व्यक्तिगत भिन्नता के साथ अपनाये गये व्यवसाय का समायोजन-इन सभी बातों को लेकर जानकारी आवश्यक है। व्यवसाय-जगत् से पूर्ण परिचय के लिए निर्देशक का अग्रलिखित तथ्यों से अवगत होना परमावश्यक है।

व्यवसायों का वर्गीकरण :
व्यावसायिक निर्देशन के लिए व्यवसायों के प्रकारों को समझना सबसे पहला और अनिवार्य कदम है। व्यवसायों को कई आधारों पर वर्गीकृत किया गया है। तीन प्रमुख आधार ये हैं

  1. कार्य के स्वरूप की दृष्टि से व्यवसायों का वर्गीकरण
  2. शिक्षा बौद्धिक स्तर, प्रशिक्षण तथा सामाजिक सम्मान आदि की दृष्टि से व्यवसायों का वर्गीकरण तथा
  3. रुचियों की दृष्टि से व्यवसायों का वर्गीकरण।

1. कार्य के स्वरूप की दृष्टि से व्यवसायों का वर्गीकरण :
इस आधार पर व्यवसायों को चार वर्गों में रखा गया है

(i) पढ़ने :
लिखने तथा मौलिक विचारों से सम्बन्धित व्यवसाय-इन व्यवसायों में सूक्ष्म बातों की खोज करके नवीन विचारों का प्रतिपादन किया जाता है। साहित्यकार, कवि, निबन्धकार, कथाकार, लेखक, नाटककार, वैज्ञानिक तथा दार्शनिक आदि सभी प्रकार के व्यवसाय इसी कोटि में आते हैं।

(ii) सामाजिक व्यवसाय :
इस प्रकार के व्यवसायों में सामाजिक सम्पर्को व सम्बन्धों को आधार बनाया जाता है। डॉक्टर, वकील, नेता, दुकानदार, जीवन बीमा निगम के एजेण्ट आदि सभी के व्यवसाय सामाजिक सम्बन्धों पर आधारित होते हैं।

(iii) कार्यालय से सम्बन्धित व्यवसाय :
आय-व्यय का हिसाब रखना, फाइलों को समझना, उन पर टिप्पणी लिखना तथा व्यावसायिक-पत्रों के उत्तर देना आदि कार्यों का समावेश इस प्रकार के व्यवसायों में होता है। क्लर्क, मुनीम, कार्यालय अधीक्षक, मैनेजर, एकाउण्टेट आदि इसी वर्ग के व्यवसाय हैं।

(iv) हस्त-कौशल सम्बन्धी व्यवसाय :
इन व्यवसायों में विभिन्न यन्त्रों की सहायता से किसी-न-किसी चीज का निर्माण किया जाता है; जैसे-लुहार, मिस्त्री, बढ़ई, चर्मकार, जिंल्दसाज, ओवरसियर व इंजीनियर आदि।

2. शिक्षा, बौद्धिक स्तर, प्रशिक्षण तथा सामाजिक सम्मान आदि की दृष्टि से व्यवसायों का वर्गीकरण :
इस आधार पर बैकमैन (Backman) ने व्यवसायों को निम्नलिखित पाँच श्रेणियों में विभाजित किया है।

(i) प्रशासकीय एवं उच्च स्तरीय व्यवसाय :
इसके तीन उपवर्ग हैं
(क) भाषा सम्बन्धी व्यवसाय; जैसे – विश्वविद्यालय के प्राध्यापक, लेखक, वकील, सम्पादक, जज आदि।
(ख) विज्ञान सम्बन्धी व्यवसाय; जैसे-डॉक्टरी, इन्जीनियर, वैज्ञानिक, शोधकर्ता, ऑडीटर तथा एकाउण्टेन्ट आदि।
(ग) प्रशासकीय व्यवसाय; जैसे-प्रशासक तथा मैनेजर आदि।

(ii) व्यापार एवं मध्यम :
स्तरीय व्यवसाय–इसके दो उपवर्ग हैं
(क) व्यापार सम्बन्धी व्यवसाय; जैसे-व्यापारी, विज्ञापन के एजेण्ट, दुकानदार आदि।
(ख) मध्यम स्तर के व्यवसाय; जैसे-डिजाइनर, अभिनेता व फोटोग्राफर आदि।

(iii) कुशलतापूर्ण व्यवसाय :
इनमें किसी-न-किसी कौशल की आवश्यकता होती है। इसके अन्तर्गत दो प्रकार के कौशल हैं
(क) शारीरिक कौशल सम्बन्धी व्यवसाय; जैसे-रंगाई, छपाई, बढ़ईगिरी, दर्जीगिरी, मिस्त्री आदि।
(ख) बौद्धिक कौशल सम्बन्धी व्यवसाय; जैसे-लिपिक, स्टेनोग्राफर तथा खजांची आदि।

(iv) अर्द्ध-कुशलतापूर्ण व्यवसाय :
इनमें कुछ कौशल और कुछ यन्त्रवत् कार्य शामिल हैं; जैसे—गार्ड, कण्डक्टर, पुलिस और ट्रैफिक का सिपाही, कार या ट्रक का ड्राइवर आदि।

(v) निम्न-स्तरीय व्यवसाय :
इन व्यवसायों में बुद्धि का सबसे कम प्रयोग किया जाता है; जैसे-चपरासी, चौकीदार, रिक्शाचालक, कृषि-कार्य, बोझा ढोना तथा मिल-मजदूर आदि।

3. रुचियों की दृष्टि से व्यवसायों का वर्गीकरण :
व्यक्ति की रुचियों के अनुसार व्यवसायों को इन वर्गों में विभक्त किया गया है

  • यान्त्रिक व्यवसाय
  • गणनात्मक व्यवसाय
  • बाह्य जीवन से सम्बन्धित व्यवसाय
  • वैज्ञानिक व्यवसाय
  • कलात्मक व्यवसाय
  • प्रभावात्मक व्यवसाय
  • साहित्यिक व्यवसाय
  • संगीतात्मक व्यवसाय
  • समाज सेवा सम्बन्धी व्यवसाय तथा
  • लिपिक सम्बन्धी व्यवसाय।

वर्तमान युग में व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से पड़ती है।

1. व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी एवं मौलिक कारक व्यक्तिगत भिन्नता है। किसी व्यक्ति विशेष के लिए कौन-सा व्यवसाय उपयुक्त होगा, इसके लिए व्यावसायिक निर्देशन का कार्यक्रम अपेक्षित एवं अपरिहार्य है।

2. विभिन्न व्यक्तियों में शरीर, मन या बुद्धि, योग्यता, स्वभाव, रुचि, अभिरुचि तथा व्यक्तित्व के अनेकानेक तत्त्वों की दृष्टि से पर्याप्त अन्तर दृष्टिगोचर होता है। व्यक्ति द्वारा चुने गये व्यवसाय एवं इन वैयक्तिक भिन्नताओं के मध्य समायोजन की दृष्टि से व्यावसायिक निर्देशन आवश्यक है।

3. व्यक्ति और उसके समाज की दृष्टि से भी व्यवसाय में निर्देशन की आवश्यकता महसूस की जाती है। व्यक्ति द्वारा चयन किया गया व्यवसाय यदि उसकी वृत्तियों के अनुकूल हो और उसके माध्यम से वह अपना समुचित विकास स्वयं कर सके तो उसका जीवन सुखी हो सकता है। व्यावसायिक निर्देशन व्यक्ति की आजीविका के सम्बन्ध में अभीष्ट सहायता कर उसके हित में कार्य करता है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति । का सुख मिलकर ही समूचे समाज को सुखी बनाता है।

4. मानव संसाधनों का संरक्षण तथा व्यक्तिगत साधनों का समुचित उपयोग व्यावसायिक निर्देशन के बिना सम्भव नहीं है। व्यक्ति का आर्थिक विकास, प्रगति एवं समृद्धि उसके जीवन में प्रसन्नता उत्पन्न करती है, जिसके लिए व्यावसायिक निर्देशन की सबसे अधिक आवश्यकता होती है।

5. अनेक व्यवसायों के लिए भिन्न-भिन्न क्षमताओं व योग्यताओं से युक्त व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। व्यावसायिक निर्देशन के माध्यम से किसी विशेष व्यवसाय के लिए विशेष क्षमता व योग्यता वाले उपयुक्त व्यक्तियों का सुगम व प्रभावशाली चयन किया जा सकता है।

6. समाज गत्यात्मक एवं क्रियाशील है जिसकी परिस्थितियाँ एवं कार्य द्रुत गति से परिवर्तित हो रहे हैं। नये-नये परिवर्तनों के साथ तालमेल बिठाने के लिए भी व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है।

निष्कर्षत :
व्यक्तिगत भिन्नता, व्यावसायिक बहुलता, विविध व्यवसायों से सम्बन्धित जानकारी तथा वातावरण के साथ उचित सामंजस्य बनाने के लिए भी व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है।

 

प्रश्न 6
व्यावसायिक निर्देशन के लाभ, महत्त्व एवं उपयोगिता का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता व्यक्ति और समाज की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए। [2007]
या
व्यावसायिक निर्देशन से आप क्या समझते हैं। वर्तमान संदर्भ में इसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2016]
उत्तर :
व्यवसाय व्यक्ति के जीवन
यापने का अनिवार्य माध्यम है जो व्यक्ति की रुचि और योग्यता के अनुसार होना चाहिए। व्यक्तिगत विभिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए अनुकूल व्यवसाय चुनने में व्यक्ति की मदद करना व्यावसायिक निर्देशन का कार्य है। इसके अतिरिक्त नियोक्ता के लिए उपयुक्त व्यक्ति को तलाशने का कार्य भी इसी के अन्तर्गत आता है। व्यावसायिक निर्देशन के अर्थ को क्रो तथा क्रो ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “व्यावसायिक निर्देशन की व्याख्या सामान्यतः उस सहायता के रूप में की जाती है, जो विद्यार्थियों को किसी व्यवसाय को चुनने, उसके लिए तैयारी करने तथा उसमें उन्नति प्रदान करने के लिए दी जाती है।”

व्यावसायिक निर्देशन के लाभ, महत्त्व एवं उपयोगिता
व्यावसायिक निर्देशन की उपयोगिता को संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है|

1. व्यक्तिगत भेद एवं व्यावसायिक निर्देशन :
मनोवैज्ञानिक एवं सर्वमान्य रूप से कोई भी दो व्यक्ति एकसमान नहीं हो सकते और हर मामले में आनुवंशिक और परिवेशजन्य भेद पाये जाते हैं।
इन मेदों के कारण हर व्यक्ति पृथक एवं दूसरों की अपेक्षा बेहतर कार्य कर सकता है तथा इन्हीं के आधार पर व्यक्ति को सही और उपयुक्त व्यवसाय चुनने होते हैं। व्यावसायिक निर्देशन के माध्यम से व्यक्तिगत गुणों के आधार पर व्यवसाय चुनने से व्यक्ति को सफलता मिलती है।

2. व्यावसायिक बहुलता एवं निर्देशन :
आजकल व्यवसाय अपनाने का आधार सामाजिक परम्पराएँ व जाति-व्यवस्था नहीं रही। समय के साथ साथ व्यावसायिक बहुलता ने व्यवसाय के चुनाव की गम्भीर समस्या को जन्म दिया है। व्यावसायिक निर्देशन में विविध व्यवसायों व कायों का विश्लेषण करके उनके लिए आवश्यक गुणों वाले व्यक्ति को चुना जाता हैं।

3. सफल एवं सुखी जीवन के लिए सोच :
समझकर व्यवसाय चुनने में व्यक्ति के जीवन में स्थायित्व एवं उन्नति आती है। व्यवसाय का उपयुक्त चुनाव सफलता को जन्म देता है, जिससे जीवन में सुख और समृद्धि आती है।

4. आर्थिक लाभ :
व्यवसाय में योग्य, सक्षम, बुद्धिमान एवं रुचि रखने वाले कार्मिकों को नियुक्त करने से न केवल उत्पादन की मात्रा बढ़ती है, बल्कि उत्पादित वस्तुओं में गुणात्मक वृद्धि भी होती है। जिससे व्यवसाय को अधिक लाभ होता है। इस लाभ का अंश कर्मचारियों में भी विभाजित होता है और वे आर्थिक लाभ अर्जित करते हैं।

5. शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य :
विवशतावश किसी व्यवसाय को अपनाने से रुचिहीनता, निराशा, उत्साहहीनता, कुण्ठाओं एवं तनावों का जन्म होता है; अतः शारीरिक-मानसिक क्षमताओं व शक्तियों का भरपूर लाभ उठाने के लिए व दुर्बलताओं से बचने के लिए व्यावसायिक निर्देशन महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी है।

6. अवांछित प्रतिस्पर्धा की समाप्ति एवं सहयोगमें वृद्धि :
अच्छे व्यवसाय बहुत कम हैं, जबकि उनके पीछे बेतहाशा दौड़ रहे अभ्यर्थियों की भीड़ अधिक है। इससे अवांछित एवं गला काट प्रतिस्पर्धा का जन्म हुआ है। व्यावसायिक निर्देशों का सहारा लेकर यदि व्यक्ति अपनी योग्यता, क्षमता वे शक्ति को ऑककर सही व्यवसाय चुन लेगा तो समाज में अवांछित प्रतिस्पर्धा से उत्पन्न भग्नाशा समाप्त हो जाएगी। इससे पारस्परिक सहयोग में वृद्धि होगी।

7. मानवीय संसाधनों का सुनियोजित एवं अधिकतम उपयोग :
मानव शक्ति को समझना, आँकना और उसके लिए उपयुक्त व्यवसायं की तलाश करना व्यावसायिक निर्देशन का कार्य है। यह निर्देशन राष्ट्रीय नियोजन कार्यक्रम का भी एक महत्त्वपूर्ण अंग है, जिसके अन्तर्गत मानवीय संसाधनों का अधिकाधिक उपयोग सम्भव होता है जिससे व्यक्तिगत एवं समष्टिगत कल्याण में अभिवृद्धि की जा सकेगी।

8. समाज की गत्यात्मकता एवं प्रगति :
समाज की प्रकृति गत्यात्मक है। हर पल नयी-नयी परिस्थितियाँ जन्म ले रही हैं। बढ़ती हुई मानवीय आवश्यकताओं, उपलब्ध किन्तु सीमित साधनों एवं प्रगति की परिवर्तनशीलता आदि अवधारणाओं ने मानव व उसके समाज के मध्य समायोजन की दशाओं को विकृत कर डाला है। इस विकृत दशा में सुधार लाने की दृष्टि से तथा व्यावसायिक सन्तुष्टि के विचार को पुष्ट करने हेतु व्यक्ति को उचित कार्य देना होगा। इसके लिए व्यावसायिक निर्देशन ही एकमात्र उपाय दीख पड़ता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
निर्देशन की विधि के आधार पर निर्देशन का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
निर्देशन प्रदान करने की विधि के आधार पर निर्देशन दो प्रकार का है

  1. वैयक्तिक निर्देशन तथा
  2. सामूहिक निर्देशन।

1. वैयक्तिक निर्देशन :
सर्वोत्तम समझे जाने वाले इस निर्देशन का प्रयोग व्यक्ति विशेष की गम्भीरतम समस्याओं को हल करने में किया जाता है। इसके अन्तर्गत वह समस्यायुक्त युक्ति से व्यक्तिगत सम्पर्क साधता है, उसका बारीकी से अध्ययन करता है, उसकी समस्याओं को स्वयं समझने का प्रयास करता है और इसके बाद व्यक्ति को इस योग्य बनाता है कि वह अपनी समस्याओं का समाधान स्वयमेव प्रस्तुत कर सके। इस प्रकार के निर्देशन में मनोवैज्ञानिक या विशेषज्ञ एक बार में सिर्फ एक व्यक्ति पर ध्यान दे पाता है। इस कारणवश यह निर्देशन धन और समय की दृष्टि से महँगा पड़ता है। इसके अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक / विशेषज्ञ के अभाव में इसका प्रयोग करना सम्भव नहीं है।

2. सामूहिक निर्देशन :
कभी-कभी एक समूह के समस्त व्यक्तियों की समस्या एक ही होती है। उस दिशा में व्यक्तियों के एक समूह को एक साथ निर्देशन प्रदान किया जाता है, जिसे सामूहिक निर्देशन का नाम दिया जाता है। पाठ्य विषयों के चुनाव से सम्बन्धित शैक्षिक निर्देशन एवं व्यावसायिक निर्देशन में यह विधि अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होती है।

प्रश्न 2
निर्देशन का मायर्स द्वारा प्रस्तुत किया गया वर्गीकरण दीजिए।
उत्तर :
मायर्स (Mayers) के अनुसार समस्याओं के आधार पर निर्देशन के आठे प्रकार बताये गये हैं, जो निम्न प्रकार वर्णित हैं

  1. शैक्षिक निर्देशन – निर्देशन की यह शाखा व्यक्ति को शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं के समाधान में सहायता करती है।
  2. व्यावसायिक निर्देशन – यह उपयुक्त व्यवसाय के चुनाव में मार्गदर्शन करता है।
  3. सामाजिक तथा नैतिक निर्देशन – इसमें सामाजिक सम्बन्धों को स्वस्थ व दृढ़ बनाने, सामाजिक तनाव को कम करने तथा मनुष्यों की नैतिक मूल्यों में प्रतिष्ठा हेतु परामर्श दिया जाता है।
  4. नागरिकता सम्बन्धी निर्देशन – यह शाखा नागरिक के अधिकार व कर्तव्यों के सम्बन्ध में आवश्यक निर्देश एवं सुझाव देकर व्यक्ति को श्रेष्ठ नागरिक बनाने में मदद करती है।
  5. समाज-सेवा सम्बन्धी निर्देशन – यह शाखा समाज-सेवा सम्बन्धी कार्यों को सम्पादित करने तथा योजनाओं को पूरा करने में सहायता प्रदान करती है।
  6. नेतृत्व सम्बन्धी निर्देशन – इसके अन्तर्गत लोगों में नेतृत्व की क्षमता का विकास करने सम्बन्धी पथ-प्रदर्शन प्रदान किया जाता है।
  7. स्वास्थ्य सम्बन्धी निर्देशन – इसमें व्यक्तियों को स्वास्थ्य सम्बन्धी परामर्श देने तथा अपने परिवार के सदस्यों का स्वास्थ्य बनाये रखने हेतु निर्देश और सुझाव मिलते हैं।
  8. मनोरंजन सम्बन्धी निर्देशन – निर्देशन की इस शाखा के अन्तर्गत लोगों को अपने खाली समय को सदुपयोग करने तथा श्रमोपरान्त मनोरंजन करने के उपायों से अवगत कराया जाता है।

प्रश्न 3
शैक्षिक निर्देशन के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
शैक्षिक निर्देशन अपने आप में व्यावहारिक महत्त्व एवं उपयोगिता की प्रक्रिया है। शैक्षिक निर्देशन के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं

1. शैक्षिक निर्देशन सर्वसुलभ होना चाहिए :
वर्तमान परिस्थितियों में यह अनिवार्य समझा जाता है कि प्रत्येक छात्र को आवश्यक शैक्षिक निर्देशन की सुविधा उपलब्ध है। सैद्धान्तिक रूप से यह माना जाता है कि शैक्षिक निर्देशन प्रदान करने में किसी भी प्रकार का पक्षपात या भेदभाव नहीं होना चाहिए।

2. मानक परीक्षणों को अपनाने का सिद्धान्त :
शैक्षिक निर्देशन से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि शैक्षिक निर्देशन आवश्यक परीक्षणों के आधार पर ही दिया जाए।

3. वैयक्तिक भिन्नता का सिद्धान्त :
सैद्धान्तिक रूप से यह माना जाता है कि शैक्षिक निर्देशन की। प्रक्रिया में वैयक्तिक भिन्नता को पूरी तरह से ध्यान में रखा जाए। प्रत्येक छात्र को शैक्षिक निर्देशन प्रदान । करते समय उसके व्यक्तिगत गुणों, क्षमताओं तथा आकांक्षाओं आदि को ध्यान में रखना चाहिए।

4. अनुगामी अध्ययन का सिद्धान्त :
यह सत्य है कि शैक्षिक निर्देशन की सही प्रक्रिया को अपनाया जाना चाहिए, परन्तु इसके साथ-ही-साथ यह भी आवश्यक है कि निर्देशन प्रदान करने के उपरान्त उसकी सफलता का मूल्यांकन भी किया जाए। इसे निर्देशन के अनुगामी अध्ययन का सिद्धान्त कहा जाता है।

प्रश्न 4
व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता क्यों है? स्पष्ट कीजिए। (2013)
या
शिक्षा में व्यावसायिक निर्देशन का महत्त्व बताइए। [2009, 10]
या
व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता एवं महत्ता पर प्रकाश डालिए। [2011, 13]
उत्तर :
वर्तमान युग में व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से पड़ती है।

1. व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी एवं मौलिक कारक व्यक्तिगत भिन्नता है। किसी व्यक्ति विशेष के लिए कौन-सा व्यवसाय उपयुक्त होगा, इसके लिए व्यावसायिक निर्देशन का कार्यक्रम अपेक्षित एवं अपरिहार्य है।

2. विभिन्न व्यक्तियों में शरीर, मन या बुद्धि, योग्यता, स्वभाव, रुचि, अभिरुचि तथा व्यक्तित्व के अनेकानेक तत्त्वों की दृष्टि से पर्याप्त अन्तर दृष्टिगोचर होता है। व्यक्ति द्वारा चुने गये व्यवसाय एवं इन वैयक्तिक भिन्नताओं के मध्य समायोजन की दृष्टि से व्यावसायिक निर्देशन आवश्यक है।

3. व्यक्ति और उसके समाज की दृष्टि से भी व्यवसाय में निर्देशन की आवश्यकता महसूस की जाती है। व्यक्ति द्वारा चयन किया गया व्यवसाय यदि उसकी वृत्तियों के अनुकूल हो और उसके माध्यम से वह अपना समुचित विकास स्वयं कर सके तो उसका जीवन सुखी हो सकता है। व्यावसायिक निर्देशन व्यक्ति की आजीविका के सम्बन्ध में अभीष्ट सहायता कर उसके हित में कार्य करता है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति । का सुख मिलकर ही समूचे समाज को सुखी बनाता है।

4. मानव संसाधनों का संरक्षण तथा व्यक्तिगत साधनों का समुचित उपयोग व्यावसायिक निर्देशन के बिना सम्भव नहीं है। व्यक्ति का आर्थिक विकास, प्रगति एवं समृद्धि उसके जीवन में प्रसन्नता उत्पन्न करती है, जिसके लिए व्यावसायिक निर्देशन की सबसे अधिक आवश्यकता होती है।

5. अनेक व्यवसायों के लिए भिन्न-भिन्न क्षमताओं व योग्यताओं से युक्त व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। व्यावसायिक निर्देशन के माध्यम से किसी विशेष व्यवसाय के लिए विशेष क्षमता व योग्यता वाले उपयुक्त व्यक्तियों का सुगम व प्रभावशाली चयन किया जा सकता है।

6. समाज गत्यात्मक एवं क्रियाशील है जिसकी परिस्थितियाँ एवं कार्य द्रुत गति से परिवर्तित हो रहे हैं। नये-नये परिवर्तनों के साथ तालमेल बिठाने के लिए भी व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है।

निष्कर्षत :
व्यक्तिगत भिन्नता, व्यावसायिक बहुलता, विविध व्यवसायों से सम्बन्धित जानकारी तथा वातावरण के साथ उचित सामंजस्य बनाने के लिए भी व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है।

प्रश्न 5
शैक्षिक निर्देशन तथा व्यावसायिक निर्देशन में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2007, 08, 09, 13, 14]
उत्तर :
शैक्षिक निर्देशन और व्यावसायिक निर्देशन, ये निर्देशन के दो मुख्य प्रकार हैं। शैक्षिक निर्देशन का आशय शैक्षिक विषयों के सम्बन्ध में परामर्श देना है, जबकि व्यावसायिक निर्देशन व्यवसाय के चुनाव तथा व्यवसाय से सम्बन्धित समस्याओं के निराकरण के लिए दिये जाने परामर्श को कहते हैं। मानव जीवन में निर्देशन के इन दोनों प्रकारों का महत्त्वपूर्ण स्थान है और दोनों ही आवश्यक तथा उपयोगी हैं। इनके मध्य भेद को निम्नलिखित तालिका के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 26 Guidance Educational and Vocational image 2

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
परामर्श किसे कहते हैं। इसके कितने प्रकार हैं ? (2016)
उत्तर :
परामर्श शब्द का अर्थ राय, सलाह, मशवरा तथा सुझाव लेना या देना होता है। अंग्रेजी में परामर्श को काउन्सलिंग कहते हैं। रोजर्स के अनुसार, “परामर्श किसी व्यक्ति के साथ लगातार प्रत्यक्ष सम्पर्क की वह कड़ी है, जिसका उद्देश्य उसकी अभिवृत्तियों तथा व्यवहार में परिवर्तन लाने में सहायता प्रदान करना है।” परामर्श एक ऐसी व्यवहारगत प्रक्रिया है, जिसमें कम-से-कम दो व्यक्ति परामर्श लेने वाला तथा परामर्श देने वाला अवश्य शामिल होता है।

परामर्श के प्रकार परामर्श मुख्य रूप से चार प्रकार का होता है।

  1. आपातकालीन परामर्श
  2. समस्या समाधानात्मक या उपचारात्मक परामर्श
  3. निवारक परामर्श
  4. विकासात्मक या रचनात्मक परामर्श

प्रश्न 2
निर्देशन और परामर्श में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2012]
उत्तर :
निर्देशन और परामर्श में अन्तर निर्देशन
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 26 Guidance Educational and Vocational image 3
प्रश्न 3
व्यक्तिगत निर्देशन से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
हर एक व्यक्ति का जीवन अनेक व्यक्तिगत समस्याओं से भरा होता है, ये समस्याएँ परिवार सम्बन्धी, मित्र सम्बन्धी, समायोजन सम्बन्धी, स्वास्थ्य सम्बन्धी, मानसिक ग्रन्थियों सम्बन्धी या यौन सम्बन्धी हो सकती हैं। ऐसी व्यक्तिगत समस्याओं के निराकरण तथा व्यक्तिगत जीवन में समायोजन बनाये रखने के लिए दिये जाने वाले निर्देशन को व्यक्तिगत निर्देशन कहते हैं।

प्रश्न 4
शैक्षिक निर्देशन से आप क्या समझते हैं ? [2010, 12, 13]
उत्तर :
शिक्षा जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया होने के बावजूद भी विशेष तौर पर मानव-जीवन के एक विशिष्ट काल और स्थान से सम्बन्ध रखती है। शैक्षिक जगत् में मनुष्य की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसने अपने अध्ययन के लिए किन विषयों या विशिष्ट क्षेत्रों का चयन किया है। शैक्षिक निर्देशन के अन्तर्गत बालक की योग्यताओं व क्षमताओं के अनुसार उपयुक्त अध्ययन-क्षेत्र या विषयों का चुनाव किया, जाता है।

शैक्षिक निर्देशन के अर्थ को जोन्स ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “शैक्षिक निर्देशन का तात्पर्य उस व्यक्तिगत सहायता से हैं जो विद्यार्थियों को इसलिए प्रदान की जाती है कि वे अपने लिए उपयुक्त विद्यालय, पाठ्यक्रम, पाठ्य विषय एवं विद्यालय जीवन का चयन कर सकें तथा उनसे समायोजन स्थापित कर सकें।

प्रश्न 5
शैक्षिक निर्देशन के क्या लाभ हैं? [2011]
उत्तर :
शैक्षिक निर्देशन के लाभ निम्नलिखित हैं।

  1. छात्र-छात्राओं की समस्याओं का उचित शैक्षिक निर्देशन से समाधान हो सकता है।
  2. छात्र और छात्राओं को क्षमता, रुचि तथा योग्यतानुसार दिशा-निर्देश प्राप्त हो जाते हैं।
  3. पाठ्यक्रम निर्धारण में शैक्षिक निर्देशन महत्त्वपूर्ण होता है।
  4. शैक्षिक निर्देशन से अनुशासन सम्बन्धी समस्याओं का भी समाधान हो जाता है।
  5. रोजगार के अवसरों का ज्ञान प्राप्त होता है।

प्रश्न 6
व्यावसायिक निर्देशन से आप क्या समझते हैं ?[2007, 13]
उत्तर :
व्यवसाय व्यक्ति के जीवन
यापने का अनिवार्य माध्यम है जो व्यक्ति की रुचि और योग्यता के अनुसार होना चाहिए। व्यक्तिगत विभिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए अनुकूल व्यवसाय चुनने में व्यक्ति की मदद करना व्यावसायिक निर्देशन का कार्य है। इसके अतिरिक्त नियोक्ता के लिए उपयुक्त व्यक्ति को तलाशने का कार्य भी इसी के अन्तर्गत आता है। व्यावसायिक निर्देशन के अर्थ को क्रो तथा क्रो ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “व्यावसायिक निर्देशन की व्याख्या सामान्यतः उस सहायता के रूप में की जाती है, जो विद्यार्थियों को किसी व्यवसाय को चुनने, उसके लिए तैयारी करने तथा उसमें उन्नति प्रदान करने के लिए दी जाती है।”

प्रश्न 7
व्यावसायिक निर्देशन के उद्देश्य का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
व्यावसायिक निर्देशन अपने आप में एक उद्देश्यपूर्ण क्रिया है। इसके मुख्य उद्देश्य हैं।

  1. प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यताओं एवं क्षमताओं के अनुसार व्यवसाय का चुनाव करने में सहायता प्रदान करना।
  2. सम्बन्धित व्यक्तियों को विभिन्न व्यवसायों के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी प्रदान करना।
  3. प्रत्येक कार्य के लिए उपयुक्त व्यक्ति की नियुक्ति में सहायता प्रदान करना।
  4. व्यक्ति को अपने जीवन में निराश एवं कुण्ठित होने से बचाना।

प्रश्न 8
व्यावसायिक निर्देशन के क्षेत्र की संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
उत्तर :
व्यावसायिक निर्देशन का क्षेत्र काफी व्यापक है। वास्तव में निर्देशन के व्यावसायिक पक्ष को उसके शैक्षिक, भौतिक तथा सांस्कृतिक पक्षों से पूर्ण रूप से अलग नहीं किया जा सकता। इस स्थिति में व्यावसायिक निर्देशन के लिए व्यक्ति से सम्बन्धित समस्त सूचनाएँ आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण होती हैं। व्यक्ति की अभिरुचि, योग्यता एवं क्षमताओं को जानना अनिवार्य है। व्यावसायिक निर्देशन के लिए व्यक्तिगत भिन्नताओं के साथ-ही-साथ व्यवसायों से सम्बन्धित भिन्नताओं को भी जानना आवश्यक है। इस प्रकार स्पष्ट है कि व्यावसायिक निर्देशन का क्षेत्र व्यापक है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
निर्देशन का क्या अर्थ है? [2011, 13]
या
निर्देशन में क्या प्रदान किया जाता है? [2009, 11]
उत्तर :
“निर्देशन एक ऐसी व्यक्तिगत सहायता है जो एक व्यक्ति द्वारा दूसरे को, जीवन के लक्ष्यों को विकसित करने व समायोजन करने और लक्ष्यों की प्राप्ति में आयी हुई समस्याओं को हल करने के लिए प्रदान की जाती है।” [ जोन्स ]

प्रश्न 2
सामान्य वर्गीकरण के अनुसार निर्देशन के मुख्य प्रकार कौन-कौन-से हैं ? [2016]
उत्तर :
सामान्य वर्गीकरण के अनुसार निर्देशन के मुख्य प्रकार हैं।

  1. शैक्षिक निर्देशन
  2. व्यावसायिक निर्देशन तथा
  3. व्यक्तिगत निर्देशन

प्रश्न 3
निर्देशन की विधि के आधार पर निर्देशन के मुख्य प्रकार कौन-कौन-से हैं ?
उत्तर :
निर्देशन की विधि के आधार पर निर्देशन के दो मुख्य प्रकार हैं।

  1. वैयक्तिक निर्देशन तथा
  2. सामूहिक निर्देशन

प्रश्न 4
विद्यालय में उत्पन्न होने वाली समस्याओं के समाधान के लिए दिये जाने वाले निर्देशन को क्या कहते हैं ?
उत्तर :
विद्यालय में उत्पन्न होने वाली समस्याओं के समाधान के लिए दिये जाने वाले निर्देशन को ‘शैक्षिक निर्देशन’ कहते हैं।

प्रश्न 5
शैक्षिक निर्देशन की कितनी विधियाँ हैं?
उत्तर :
शैक्षिक निर्देशन की दो विधियाँ हैं।

  1. वैयक्तिक निर्देशन तथा
  2. सामूहिक निर्देशन

प्रश्न 6
व्यक्तिगत शैक्षिक निर्देशन में एक समय में कितने व्यक्तियों को निर्देशन प्राप्त होता है?
उत्तर :
व्यक्तिगत शैक्षिक निर्देशन में एक समय में एक ही व्यक्ति को निर्देशन प्राप्त होता है।

प्रश्न 7
शैक्षिक निर्देशन के मुख्य उद्देश्य क्या हैं? [2010, 11]
उत्तर :
शैक्षिक निर्देशन का मुख्य उद्देश्य है – बालक को शैक्षिक परिस्थितियों में उत्पन्न होने वाली समस्याओं के समाधान के योग्य बनाना। शैक्षिक परिस्थितियों में समायोजन स्थापित करने के लिए। शैक्षिक निर्देशन दिया जाता है।

प्रश्न 8
व्यक्ति की व्यावसायिक समस्याओं के समाधान के लिए दिये जाने वाले निर्देशन को क्या कहते हैं ?
उत्तर :
व्यक्ति की व्यावसायिक समस्याओं के समाधान के लिए दिये जाने वाले निर्देशन को ‘व्यावसायिक निर्देशन’ कहते हैं।

प्रश्न 9
एक साथ अनेक व्यक्तियों को निर्देशन प्रदान करने की प्रक्रिया को क्या कहते हैं ?
उत्तर :
एक साथ अनेक व्यक्तियों को निर्देशन प्रदान करने की प्रक्रिया को सामूहिक निर्देशन’ कहते हैं।

प्रश्न 10
निर्देशन के केवल दो उद्देश्य लिखिए। [2014]
उत्तर :
निर्देशन का एक उद्देश्य है – समस्या को भली-भाँति समझने में सहायता प्रदान करना तथा दूसरा उद्देश्य है–समस्या का समाधान प्राप्त करने में सहायता प्रदान करना।

प्रश्न 11
निर्देशन क्यों आवश्यक है ? [2014]
उत्तर :
किसी भी समस्या के उचित समाधान को ढूंढ़ने के लिए निर्देशन आवश्यक होता है।

प्रश्न 12
व्यावसायिक निर्देशन की कितनी विधियाँ हैं? [2007]
उत्तर :
व्यावसायिक निर्देशन की दो विधियाँ हैं।

  1. व्यक्तिगत व्यावसायिक निर्देशन तथा
  2. सामूहिक व्यावसायिक निर्देशन।

प्रश्न 13
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य।

  1. निर्देशन एक प्रकार की वैयक्तिक सहायता है।
  2. निर्देशन की प्रक्रिया के अन्तर्गत निर्देशक द्वारा ही सम्बन्धित व्यक्ति के समस्त कार्य किये जाते हैं।
  3. विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों के लिए निर्देशन अनावश्यक एवं व्यर्थ है।
  4. व्यक्तिगत निर्देशन के परिणाम सामूहिक निर्देशन से अच्छे होते हैं।
  5. शैक्षिक निर्देशन व्यावसायिक निर्देशन से उत्तम है।

उत्तर :

  1. सत्य
  2. असत्य
  3. असत्य
  4. सत्य
  5. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए।

प्रश्न 1
“निर्देशन एक प्रक्रिया है, जो कि नवयुवकों को स्वयं अपने में, दूसरों से तथा परिस्थितियों से समायोजन करना सिखाती है।” यह परिभाषा दी है।
(क) हसबैण्ड ने
(ख) मौरिस ने
(ग) स्किनर ने.
(घ) जोन्स ने
उत्तर :
(ग) स्किनर ने

प्रश्न 2
“निर्देशन प्रदर्शन नहीं है।” यह कथन किसका है?
(क) क्रो एवं क्रो का
(ख) जोन्स का
(ग) वैफनर का
(घ) वुड का
उत्तर :
(क) क्रो एवं क्रो को

प्रश्न 3
“शैक्षिक निर्देशन व्यक्तिगत छात्रों की योग्यताओं, पृष्ठभूमि और आवश्यकताओं का पता लगाने की विधि प्रदान करता है।” यह परिभाषा दी है।
(क) रूथ तथा स्ट्रेन्ज ने
(ख) क्रो एवं क्रो ने
(ग) हैमरिन व एरिक्सन ने
(घ) बोरिंग व अन्य ने
उत्तर :
(ग) हैमरिन व एरिक्सन ने

प्रश्न 4
“व्यावसायिक निर्देशन व्यक्तियों को व्यवसायों में समायोजित होने में सहायता प्रदान करता है।” यह कथन है।
(क) विलियम जोन्स को
(ख) सुपर का
(ग) हैडफील्ड का
(घ) शेफर का
उत्तर :
(ख) सुपर का

प्रश्न 5
निर्देशन का प्रमुख उद्देश्य है। [2009, 11, 13]
(क) छात्र का शारीरिक विकास
(ख) छात्र का मानसिक विकास
(ग) छात्र का सर्वांगीण विकास
(घ) छात्र को संवेगात्मक विकास
उत्तर :
(ग) छात्र का सर्वांगीण विकास

प्रश्न 6
शैक्षिक निर्देशन प्रदान करने में सहायक होता है।
क) व्यक्तित्व परीक्षण
(ख) बौद्धिक परीक्षण
(ग) अभिरुचि परीक्षण
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(ख) बौद्धिक परीक्षण

प्रश्न 7
बालकों को विद्यालय की सामान्य समस्याओं के समाधान के लिए दिया जाने वाला निर्देशन कहलाता है। [2010, 12, 15]
(क) व्यक्तिगत निर्देशन
(ख) शैक्षिक निर्देशन
(ग) व्यावसायिक निर्देशन
(घ) आवश्यक निर्देशन
उत्तर :
(ख) शैक्षिक निर्देशन

प्रश्न 8
व्यावसायिक निर्देशन का प्रमुख उद्देश्य है। [2015)]
(क) शारीरिक विकास
(ख) मानसिक विकास
(ग) सामाजिक विकास
(घ) व्यावसायिक समस्याओं का समाधान
उत्तर :
(घ) व्यावसायिक समस्याओं का समाधान

प्रश्न 9
किसी व्यक्ति को किसी समस्या के समाधान के लिए किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दी गई सहायता को कहते हैं।
(क) समस्या समाधान
(ख) साधारण सहायता
(ग) निर्देशन
(घ) अनावश्यक सहायता
उत्तर :
(ग) निर्देशन

प्रश्न 10
निर्देशन वह निजी सहायता है, जो जीवन के लक्ष्यों को विकसित करने में, समायोजन करने में और लक्ष्यों की प्राप्ति में उनके सामने आने वाली समस्याओं को सुलझाने में एक व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्ति को दी जाती है।” यह कथन किसका है।
(क) आर्थर जोन्स
(ख) बी० मोरिस
(ग) हसबैण्ड
(घ) डॉ० भाटिया
उत्तर :
(क) आर्थर जोन्स

प्रश्न 11
निर्देशन की मुख्य रूप से आवश्यकता होती है।
(क) बाल समस्याओं के समाधान के लिए
(ख) शिक्षा एवं व्यवसाय की समस्याओं के लिए
(ग) व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए
(घ) इन सभी के लिए।
उत्तर :
(घ) इन सभी के लिए

प्रश्न 12
शैक्षिक निर्देशन के प्रमुख महत्त्व हैं। [2010, 12, 15]
(क) पाठ्य-विषयों के चयॆन में सहायक
(ख) अनुशासन स्थापित करने में सहायक
(ग) शैक्षिक वातावरण में समायोजित होने में सहायक
(घ) ये सभी महत्त्व
उत्तर :
(घ) ये सभी महत्त्व

प्रश्न 13
“व्यावसायिक निर्देशन वह सहायता है, जो किसी व्यक्ति की अपनी व्यावसायिक समस्याओं के समाधान के लिए दी जाती है। इस सहायता का आधार व्यक्ति की विशेषताएँ तथा उनसे सम्बन्धित व्यवसाय चुनना है।” यह कथन किसका है?
(क) क्रो एवं क्रो
(ख) जोन्स
(ग) बी० मोरिस
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(ख) जोन्स

प्रश्न 14
व्यावसायिक विवरण के लिए दिए जाने वाले निर्देशन को कहते हैं।
(क) महत्त्वपूर्ण निर्देशन
(ख) व्यावसायिक निर्देशन
(ग) शैक्षिक निर्देशन
(घ) आवश्यक निर्देशन
उत्तर :
(ख) व्यावसायिक निर्देशन

प्रश्न 15
व्यावसायिक निर्देशन से लाभ होते हैं
(क) व्यक्ति की अपनी रुचि एवं योग्यता के अनुसार व्यवसाय मिल जाता है।
(ख) औद्योगिक-व्यावसायिक संस्थानों को योग्य एवं कुशल कर्मचारी मिल जाते हैं।
(ग) उत्पादन की दर में वृद्धि होती है
(घ) उपर्युक्त सभी लाभ होते हैं।
उत्तर :
(घ) उपर्युक्त सभी लाभ होते हैं।

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