UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 15 The State Legislature

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 15
Chapter Name The State Legislature
(राज्य के विधानमण्डल)
Number of Questions Solved 39
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 15 The State Legislature (राज्य के विधानमण्डल)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
उत्तर प्रदेश की विधानसभा के संगठन एवं शक्तियों का उल्लेख कीजिए। [2016]
या
उत्तर प्रदेश के विधानमंडल के दोनों सदनों के संगठन एवं शक्तियों की परस्पर तुलना कीजिए। [2016]
या
उत्तर प्रदेश की विधानसभा की रचना तथा कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
विधानसभा के संगठन, कार्यकाल तथा अधिकारों (शक्तियों) का उल्लेख कीजिए। [2007]
या
राज्य-मन्त्रिमण्डल की शक्तियों और कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
राज्य विधान सभा की वित्तीय शक्तियों का वर्णन कीजिए। [2012]
या
राज्य विधानसभा के कार्यों का वर्णन कीजिए। उत्तर प्रदेश की विधानसभा के संगठन पर प्रकाश डालिए तथा उन उपायों का उल्लेख कीजिए जिनके द्वारा वह मन्त्रिपरिषद् को नियन्त्रित करती है। [2013]
या
राज्य में विधानसभा की दो शक्तियाँ लिखिए। [2008, 10, 12]
उत्तर :
राज्य विधानमण्डल
संविधान के द्वारा भारत के प्रत्येक राज्य में एक विधानमण्डल की व्यवस्था की गयी है। संविधान के अनुच्छेद 168 में कहा गया है कि प्रत्येक राज्य के लिए एक विधानमण्डल होगा, जो राज्यपाल तथा कुछ राज्यों में दो सदन से मिलकर तथा कुछ में एक संदन से बनेगा। जिन राज्यों के दो सदन होंगे, उनके नाम क्रमशः विधानसभा और विधान-परिषद् होंगे। प्रत्येक राज्य में जनता द्वारा वयस्क मताधिकार द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों का सदन होता है। विधानमण्डल के इस प्रथम सदन को ‘विधानसभा’ कहते हैं। जिन राज्यों में विधानमण्डल का दूसरा सदन है, उसे ‘विधानपरिषद्” कहते हैं।

विधानसभा की रचना
विधानसभा विधानमण्डल का प्रथम और लोकप्रिय सदन है। जिन राज्यों में विधानमण्डल के दो सदन हैं, वहाँ पर विधानसभा विधान-परिषद् से अधिक शक्तिशाली है।

1. सदस्य-संख्या – संविधान में राज्य की विधानसभा के सदस्यों की केवल न्यूनतम और अधिकतम संख्या निश्चित की गयी है। संविधान के अनुच्छेद 170 के अनुसार राज्य की विधानसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 500 और न्यूनतम संख्या 60 होगी। सम्पूर्ण प्रदेश को अनेक निर्वाचन क्षेत्रों में इस प्रकार विभाजित किया जाता है कि विधानसभा का प्रत्येक सदस्य कम-से-कम 75 हजार जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करे। इस नियम का अपवाद केवल असम के स्वाधीन जिले शिलाँग की छावनी और नगरपालिका के क्षेत्र, सिक्किम, गोआ, मिजोरम तथा अरुणाचल प्रदेश हैं। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए जनसंख्या के आधार पर इसके स्थान सुरक्षित किये गये हैं।

2. सदस्यों की योग्यताएँ – विधानसभा के सदस्य के लिए व्यक्ति में निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिए –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसकी आयु कम-से-कम 25 वर्ष हो।
  3. वह भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन लाभ के पद पर न हो।
  4. वह पागल या दिवालिया घोषित न हो।
  5. वह संसद या राज्य के विधानमण्डल द्वारा निर्धारित शर्तों को पूरा करता हो।
  6. किसी न्यायालय द्वारा उसे दण्डित न किया गया हो।

3. निर्वाचन पद्धति – विधानसभा सदस्यों का निर्वाचन वयस्क मताधिकार प्रणाली द्वारा होता है। कम-से-कम 18 वर्ष की आयु प्राप्त राज्य का प्रत्येक स्त्री, पुरुष मतदान का अधिकारी होता है। इस प्रकार ऐसे व्यक्तियों की मतदाता सूची तैयार कर ली जाती है। निश्चित तिथि को मतदान होता है। मतगणना पश्चात् सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले व्यक्तियों को निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। यह समस्त चुनाव प्रक्रिया देश का निर्वाचन आयोग सम्पन्न कराता है।

4. कार्यकाल – राज्य विधानसभा का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है। राज्यपाल द्वारा इसे समय से पूर्व भी भंग किया जा सकता है। यदि संकटकाल की घोषणा हो तो संसद विधि द्वारा विधानसभा का कार्यकाल बढ़ा सकती है जो एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं होगा तथा किसी भी अवस्था में संकटकाल की घोषणा समाप्त हो जाने के बाद 6 माह की अवधि से अधिक नहीं होगा।

5. पदाधिकारी – प्रत्येक राज्य की विधानसभा के दो प्रमुख पदाधिकारी होते हैं – (1) अध्यक्ष (Speaker) तथा (2) उपाध्यक्ष (Deputy Speaker)। इन दोनों का चुनाव विधानसभा के सदस्य अपने सदस्यों में से ही करते हैं तथा इनका कार्यकाल विधानसभा के कार्यकाल तक होता है। अध्यक्ष के वही सब कार्य होते हैं जो लोकसभा अध्यक्ष के होते हैं।

राज्य विधानसभा के कार्य और शक्तियाँ

विधानसभा राज्य की व्यवस्थापिका है। संविधान द्वारा राज्य विधानसभा को व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। राज्य विधानसभा की शक्तियों का अध्ययन निम्नलिखित सन्दर्भो में किया जा सकता है –

1. निर्वाचन सम्बन्धी शक्ति – राज्य की विधानसभा के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेते हैं। इसके अतिरिक्त जिन राज्यों में द्वितीय सदन (विधान-परिषद्) की व्यवस्था है, उसके 1/3 सदस्यों का निर्वाचन विधानसभा के सदस्यों द्वारा किया जाता है।

2. विधायी शक्ति – राज्य की विधानसभा को सामान्यत: उन सभी विषयों पर कानून-निर्माण की शक्ति प्राप्त होती है जो राज्य सूची और समवर्ती सूची में दिये गये हैं। यद्यपि कोई भी विधेयक कानून का स्वरूप तभी धारण करता है जब उसे दोनों सदनों की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है, किन्तु इस विषय में विधानसभा की शक्तियाँ विधान-परिषद् की शक्तियों से बहुत अधिक हैं। विधान-परिषद् विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को 4 माह के लिए रोककर केवल देरी ही कर सकती है। समवर्ती सूची के विषय पर राज्यसभा द्वारा निर्मित कोई विधि यदि उसी विषय पर संसद द्वारा निर्मित विधि के विरुद्ध हो तो राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्मित विधि मान्य नहीं होगी। राज्य विधानमण्डल की कानून-निर्माण की शक्ति पर निम्नलिखित प्रतिबन्ध भी हैं –

(i) अनुच्छेद 356 के अनुसार यदि राज्य में संविधान तन्त्र भंग होने के कारण राष्ट्रपति शासन लागू किया गया है।
(ii) कुछ विधेयक राज्य विधानमण्डल में प्रस्तावित किये जाने के पूर्व उन पर राष्ट्रपति की अनुमति आवश्यक होती है। ऐसे विधेयक वे हैं जिनका सम्बन्ध राज्य के भीतर या विभिन्न राज्यों के बीच व्यापार, वाणिज्य व आने-जाने की स्वतन्त्रता पर रोक लगाने से होता है।
(iii) संघीय संसद अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों और समझौतों का पालन करने के लिए भी राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बना सकती है।

3. वित्तीय शक्ति – विधानसभा को राज्य के वित्त पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त होता है। आय-व्यय का वार्षिक लेखा विधानसभा से स्वीकृत होने पर ही शासन के द्वारा आय-व्यय से सम्बन्धित कोई कार्य किया जा सकता है। वित्त विधेयक केवल विधानसभा में प्रस्तुत किये जा सकते हैं। वित्तीय मामलों में विधान-परिषद् विधानसभा से अत्यधिक दुर्बल सदन है। विधानसभा से विनियोग विधेयक पारित होने पर ही सरकार संचित निधि से व्यय हेतु धन खर्च कर सकती है।

4. प्रशासनिक शक्ति – संविधान द्वारा राज्यों के क्षेत्र में भी संसदात्मक व्यवस्था स्थापित किये जाने के कारण राज्य का मन्त्रिमण्डल अपनी नीति और कार्यों के लिए विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होता है। विधानसभा सदस्यों द्वारा मन्त्रियों से उनके विभागों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे जा सकते हैं व काम रोको प्रस्ताव पारित किया जा सकता है। विधानसभा कभी भी राज्य मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध ‘अविश्वास प्रस्ताव पारित करके इसे उसके पद से हटा सकती है।

5. संविधान संशोधन शक्ति – हमारे संविधान की कुछ धाराएँ ऐसी हैं कि संसद द्वारा बहुमत के आधार पर पारित प्रस्ताव को कम-से-कम आधे राज्यों की विधानसभाओं द्वारा स्वीकार किया जाए। इस प्रकार राज्य विधानसभा संविधान संशोधन के कार्य में भी भाग लेती है।

[संकेत – विधान परिषद् के संगठन एवं शक्तियाँ शीर्षक का अध्ययन विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 2. तथा विधानसभा द्वारा मन्त्रिपरिषद् पर नियन्त्रण’ शीर्षक का अध्ययन लघु उत्तरीय प्रश्न 4 (शब्द-सीमा 150 शब्द) के अन्तर्गत करें तथा विधान परिषद् के संगठन एवं शक्तियों की परस्पर तुलना के लिए, विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 2 का उत्तर देखें।]

प्रश्न 2.
उत्तर प्रदेश की विधानपरिषद की रचना किस प्रकार होती है? उसके कार्यों का वर्णन कीजिए। [2013]
या
उत्तर प्रदेश की विधान-परिषद की रचना पर प्रकाश डालिए। [2013]
उत्तर :
विधान-परिषद की रचना अथवा संगठन राज्य, विधान परिषद् की संरचना को निम्नवत् स्पष्ट किया जा सकता है –

1. सदस्य-संख्या – विधान-परिषद् राज्य के विधानमण्डल का उच्च सदन होता है। यह एक स्थायी सदन है। संविधान में व्यवस्था की गयी है कि प्रत्येक राज्य की विधान-परिषद् की सदस्य-संख्या उसकी विधानसभा के सदस्यों की संख्या के 1/3 से अधिक न होगी, किन्तु किसी भी स्थिति में उसकी सदस्य संख्या 40 से कम नहीं होनी चाहिए।

2. सदस्यों को निर्वाचन – विधान-परिषद् के सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होता है तथा कुछ सदस्यों को मनोनीत भी किया जाता है। निम्नलिखित निर्वाचक मण्डल विधान-परिषद् के सदस्यों का चुनाव करते हैं –

(अ) विधानसभा का निर्वाचक मण्डल – कुल सदस्य संख्या के 1/3 सदस्यों का निर्वाचन विधानसभा के सदस्य ऐसे व्यक्तियों में से करते हैं, जो विधानसभा के सदस्य न हों।
(ब) स्थानीय संस्थाओं का निर्वाचक मण्डल – समस्त सदस्यों का 1/3 भाग, उस राज्य की नगरपालिकाओं, जिला परिषदों और अन्य स्थानीय संस्थाओं द्वारा चुना जाता है, जैसा संसद कानून द्वारा निश्चित करे।
(स) अध्यापकों का निर्वाचक मण्डल – इसमें वे अध्यापक होते हैं जो राज्य के अन्तर्गत किसी माध्यमिक पाठशाला या इससे उच्च शिक्षण संस्था में 3 वर्ष से पढ़ा रहे हों। यह निर्वाचक मण्डल कुल सदस्यों के 1/12 भाग को चुनता है।
(द) स्नातकों का निर्वाचक मण्डल – यह ऐसे शिक्षित व्यक्तियों को मण्डल होता है जो इस राज्य में रहते हों तथा स्नातक स्तर की परीक्षा पास कर ली हो और जिन्हें यह परीक्षा पास किये 3 वर्ष से अधिक हो गये हों। यह मण्डल कुल सदस्यों के 1/12 भाग को चुनता है।
(य) राज्यपाल द्वारा मनोनीत सदस्य – कुल सदस्य संख्या के 1/6 सदस्य राज्यपाल द्वारा उन व्यक्तियों में से मनोनीत किये जाते हैं जो साहित्य, विज्ञान, कला और सामाजिक सेवा के क्षेत्रों में विशेष रुचि रखते हों।

3. सदस्यों की योग्यताएँ – विधान-परिषद् की सदस्यता के लिए भी वे ही योग्यताएँ हैं, जो विधानसभा की सदस्यता के लिए हैं। भिन्नता केवल इतनी है कि विधान परिषद् की सदस्यता के लिए न्यूनतम आयु 30 वर्ष होनी चाहिए। निर्वाचित सदस्य को उस राज्य की विधानसभा के किसी निर्वाचन क्षेत्र का सदस्य तथा निवासी भी होना चाहिए।

4. कार्यकाल – विधान परिषद् इस दृष्टि से स्थायी है कि पूर्ण विधान परिषद् कभी भी भंग नहीं होती। विधान-परिषद् के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष है। प्रति दो वर्ष के बाद 1/3 सदस्य अपने पद से मुक्त होते रहते हैं और उनके स्थान पर नये सदस्य निर्वाचित होते हैं।

5. वेतन तथा भत्ते – विधान परिषद् के सदस्यों के वेतन और भत्ते विधानसभा सदस्यों के बराबर हैं। उत्तर प्रदेश में पारित किये गये कानून के अन्तर्गत विधानमण्डल के प्रत्येक सदस्य (विधायक) को प्रति माह वेतन, निर्वाचन-क्षेत्र भत्ता, जन सेवा भत्ता, सचिवीय भत्ता, चिकित्सा भत्ता तथा मकान किराया भत्ता मिलता है। इसके अतिरिक्त उसे प्रति वर्ष रेल यात्रा के कूपन भी मिलते हैं। इन कूपनों को हवाई यात्रा कूपनों में परिवर्तित कराने की भी सुविधा प्राप्त है। इन्हें पानी, बिजली, टेलीफोन एवं फर्नीचर की सुविधाओं के साथ-साथ उ० प्र० रा० प० नि० की बसों में मुफ्त यात्रा का भी प्रावधान है। मकान बनवाने अथवा कार खरीदने के लिए ब्याज मुक्त ऋण तथा आजीवन पेन्शन की भी व्यवस्था है। इन्हें प्राप्त होने वाले वेतन तथा भत्तों की राशि में समय-समय पर परिवर्तन होते रहते हैं।

6. पदाधिकारी – विधान परिषद् में मुख्यत: दो पदाधिकारी होते हैं, जिन्हें सभापति तथा उपसभापति कहते हैं। विधान परिषद् के सदस्य अपने में से इनका चुनाव करते हैं।

विधान-परिषद् के अधिकार तथा कार्य

विधान-परिषद्, विधानसभा की तुलना में एक कमजोर सदन है, फिर भी इसे निम्नलिखित शक्तियाँ प्राप्त हैं –

1. कानून-निर्माण कार्य – साधारण विधेयक राज्य विधानमण्डल के किसी भी सदन में प्रस्तावित किये जा सकते हैं तथा वे विधेयक दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत होने चाहिए। यदि कोई विधेयक विधानसभा से पारित होने के बाद विधान–परिषद् द्वारा अस्वीकृत कर दिया जाता है। या परिषद् विधेयक में ऐसे संशोधन करती है जो विधायकों को स्वीकार्य नहीं होते या परिषद् के समक्ष विधेयक रखे जाने की तिथि से तीन माह तक विधेयक पारित नहीं किया जाता है। तो विधानसभा उस विधेयक को पुनः स्वीकृत करके विधानपरिषद् को भेजती है। इस बार विधान परिषद् विधेयक को स्वीकृत करे या न करे, एक माह बाद यह विधान परिषद् द्वारा स्वीकृत मान लिया जाता है।

2. कार्यपालिका शक्ति – विधानपरिषद प्रश्नों, प्रस्तावों तथा वाद-विवाद के आधार पर मन्त्रि परिषद् के विरुद्ध जनमत तैयार करके उसको नियन्त्रित कर सकती है, किन्तु उसे मन्त्रिपरिषद् को पदच्युत करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि कार्यपालिका केवल विधानसभा के प्रति ही उत्तरदायी होती है।

3. वित्तीय कार्य – वित्त विधेयक केवल विधानसभा में ही प्रस्तावित किये जाते हैं, विधानपरिषद् में नहीं। विधानसभा किसी वित्त विधेयक को पारित कर स्वीकृति के लिए विधान-परिषद्, के पास भेजती है तो विधान-परिषद् या तो 14 दिन के अन्दर उसे ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर सकती है या फिर अपनी सिफारिशों सहित विधानसभा को वापस लौटा सकती है। यह विधानसभा पर निर्भर है कि वह विधान-परिषद् की सिफारिशें माने या न माने। यदि परिषद् 14 दिन के अन्दर विधेयक पर कोई निर्णय नहीं लेती तो वह दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत मान लिया जाता है।

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प्रश्न 3.
राज्य विधानमण्डल में कानून-निर्माण की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए। [2013, 15]
या
राज्य विधानमण्डल में कानून का निर्माण कैसे होता है? इसकी प्रक्रिया का उल्लेख कीजिए।
या
उत्तर प्रदेश राज्य में विधि-निर्माण की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए। [2008]
उत्तर :
राज्य विधानमण्डल में कानून-निर्माण की प्रक्रिया

(1) साधारण विधेयकों के सम्बन्ध में
साधारण विधेयक मन्त्रिपरिषद् के किसी सदस्य या राज्य विधानमण्डल के किसी सदस्य द्वारा विधानमण्डल के किसी भी सदन में रखे जा सकते हैं। यदि विधेयक किसी मन्त्रिपरिषद् के सदस्य द्वारा रखा जाता है तो इसे सरकारी विधेयक’ और यदि राज्य विधानमण्डल के किसी अन्य सदस्य द्वारा रखा जाता है तो इसे ‘निजी सदस्य विधेयक’ कहा जाता है। राज्य विधानमण्डल को भी कानून-निर्माण के लिए लगभग वैसी प्रक्रिया अपनानी होती है जैसी प्रक्रिया संसद के द्वारा अपनायी जाती है। ऐसे विधेयक को कानून का रूप ग्रहण करने के लिए निम्नलिखित चरणों से गुजरना होता है –

(अ) विधेयक को प्रेषित करना तथा प्रथम वाचन – सरकारी विधेयक के लिए कोई पूर्व सूचना आवश्यक नहीं होती है, परन्तु निजी सदस्य विधेयकों के लिए एक महीने पहले ही सूचना देना आवश्यक है। सरकारी विधेयक साधारणतः सरकारी गजट में छापा जाता है। ‘निजी सदस्य विधेयक को प्रस्तुत करने के लिए दिन निश्चित किया जाता है। निश्चित दिन को विधेयक प्रस्तुत करने वाला सदस्य अपने स्थान पर खड़ा होकर उस विधेयक को पेश करने के लिए सदन से आज्ञा माँगता है और विधेयक के शीर्षक को पढ़ता है। यदि विधेयक अधिक महत्त्वपूर्ण है तो विधेयक पेश करने वाला सदस्य विंधेयक पर एक संक्षिप्त भाषण भी दे सकता है। यदि उस सदन में उपस्थित और मतदान में भाग लेने वाले सदस्य बहुमत से विधेयक का समर्थन करते हैं तो विधेयक सरकारी गजट में छाप दिया जाता है। यही विधेयक का प्रथम वाचन समझा जाता है।

(ब) द्वितीय वाचन – प्रथम वाचन के बाद विधेयक प्रस्तावित करने वाला सदस्य प्रस्ताव रखता है कि उसके विधेयक का दूसरा वाचन किया जाए। इस अवस्था में विधेयक के सामान्य सिद्धान्तों पर ही वाद-विवाद होता है, उसकी एक-एक धारा पर बहस नहीं होती है। जब इस प्रकार की बहस के बाद कोई विधेयक पारित हो जाता है तो उसे प्रवर समिति (Select Committee) के पास भेज दिया जाता है।

(स) प्रवर समिति अवस्था – द्वितीय वाचन के पश्चात् विवादपूर्ण विधेयक को प्रवर समिति के पास भेज दिया जाता है। इसमें विधानमण्डल के 15 से 30 तक सदस्य होते हैं। इस अवस्था में विधेयक की प्रत्येक धारा पर गहरा विचार किया जाता है।

(द) तृतीय वाचन – प्रतिवेदन अवस्था की समाप्ति के कुछ समय बाद उसका तृतीय वाचन प्रारम्भ होता है। इस अवस्था में विधेयक के साधारण सिद्धान्तों पर फिर से बहस की जाती है और विधेयक में भाषा सम्बन्धी सुधार किये जाते हैं। इस अवस्था में विधेयक की धाराओं में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। इसे या तो स्वीकार किया जाता है या अस्वीकार। इसके बाद मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के बहुमत द्वारा स्वीकार होने पर इसे सदन द्वारा स्वीकृत समझा जाता है।

(य) विधेयक दूसरे सदन में – एक सदन द्वारा विधेयक स्वीकार कर लिये जाने पर जिन राज्यों में विधानमण्डल का एक ही सदन है, वहाँ विधेयक राज्यपाल के पास भेज दिया जाता है। और जिन राज्यों में विधानमण्डल के दो सदन हैं, वहाँ विधेयक दूसरे सदन में भेज दिया जाता है। द्वितीय सदन में भी विधेयक को उन्हीं अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है जिने अवस्थाओं से होकर विधेयक प्रथम सदन में गुजरा था। यदि विधेयक विधानसभा द्वारा पारित होने के पश्चात् विधान-परिषद् द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है या तीन महीने तक विचार पूरा नहीं होता तो विधानसभा उस विधेयक को पुन: स्वीकार करके परिषद् के पास भेजती है। तब यदि विधाने-परिषद् पुनः विधेयक अस्वीकार कर देती है अथवा दोबारा विधेयक आने की तिथि से एक माह बाद तक विधेयक पारित नहीं करती या विधेयक में पुनः ऐसे संशोधन करती है जो विधानसभा को स्वीकार नहीं होते तो विधेयक विधान-परिषद् द्वारा पारित किये बिना ही दोनों सदनों द्वारा पारित हुआ माना जाता है।

(र) राज्यपाल की स्वीकृति – विधेयक दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत होने पर राज्यपाल के पास स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राज्यपाल या तो इस विधेयक पर अपनी स्वीकृति दे देता है या अपनी ओर से कुछ संशोधनों का सुझाव देकर विधेयक विधानमण्डल के पास दोबारा भेज सकता है। यदि इस बार भी विधेयक को उसी रूप में या राज्यपाल की सिफारिशों के अनुरूप पारित कर देता है तो राज्यपाल को उस विधेयक पर अवश्य ही अपनी अनुमति प्रदान करनी पड़ेगी। राज्यपाल की स्वीकृति के बाद यह विधेयक कानून बन जाता है। अनेक बार राज्यपाल कुछ विशेष प्रकार के विधेयकों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज देता है। ऐसे विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त करने के बाद ही कानून बन पाते हैं।

(2) वित्त विधेयकों के सम्बन्ध में

जहाँ तक वित्त विधेयक की प्रक्रिया का सम्बन्ध है ये केवल विधानसभा में ही प्रस्तुत किये जाते हैं और विधान-परिषद् को वित्त विधेयकों के सम्बन्ध में लगभग वे ही अधिकार प्राप्त हैं। जो राज्यसभा को केन्द्रीय वित्त विधेयकों के सम्बन्ध में हैं। विधानसभा द्वारा पारित वित्त विधेयक विधान-परिषद् के पास विचारार्थ भेज दिया जाता है। यदि विधान-परिषद् उस विधेयक को प्राप्ति की तिथि से 14 दिन बाद तक न लौटाये तो वह विधेयक दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत समझा जाएगा। यदि विधान परिषद् 14 दिन की अवधि में विधेयक को अपने संशोधनों सहित लौटा भी दे तो इन संशोधनों को स्वीकार या अस्वीकार करना विधानसभा पर निर्भर करता है। विधानसभा इन संशोधनों के साथ या इन संशोधनों के बिना किसी रूप में भी विधेयक को राज्यपाल के पास भेज सकती है। और राज्यपाल की स्वीकृति से वह विधेयक कानून का रूप धारण कर लेता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
राज्य विधानमण्डल के दोनों सदनों के पारस्परिक सम्बन्धों का वर्णन कीजिए। [2013]
या
विधानसभा और विधान-परिषद् की तुलना कीजिए। इनमें से कौन अधिक शक्तिशाली है और क्यों? [2013]
उत्तर :
उत्तर प्रदेश के विधानमण्डल में दो सदन हैं। इसके निम्न सदन को विधानसभा तथा उच्च सदन को विधान-परिषद् कहते हैं। विधानसभा की तुलना में विधान परिषद् की स्थिति काफी कमजोर है। यह एक निर्बल द्वितीय सदन है। इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्धों को इस प्रकार समझा जा सकता है

1. विधायिनी क्षेत्र में विधायिनी क्षेत्र में विधानसभा व विधान-परिषद् के सम्बन्ध इस प्रकार है –

(अ) साधारण विधेयक के सम्बन्ध में – साधारण विधेयकों के सम्बन्ध में राज्यसभा को लोकसभा के बराबर अधिकार दिये गये हैं, किन्तु विधानपरिषद् के सन्दर्भ में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। उसे विधानसभा की इच्छा माननी ही पड़ती है। विधानसभा द्वारा पारित प्रत्येक साधारण विधेयक को स्वीकृति के लिए विधान परिषद् के पास भेजा जाता है। यदि विधान-परिषद् ऐसे किसी भी विधेयक को अस्वीकृत करे या संशोधित करे या तीन महीने तक उस पर कोई निर्णय ही न ले तो विधानसभा उसे पुनः पारित करके विधान परिषद् में भेज सकती है। इस स्थिति में यदि विधान-परिषद् अब भी उसे पारित न करे या एक महीने तक उस पर कोई निर्णय न ले तो विधेयक विधान-परिषद् द्वारा स्वीकृत मान लिया जाएगा और उसे राज्यपाल के हस्ताक्षर के लिए भेज दिया जाएगा। इस प्रकार साधारण विधेयकों के पारित होने में विधान परिषद् अधिक-से-अधिक चार महीने की देरी कर सकती है। कानून बनाने में अन्तिम शक्ति विधानसभा की ही रहती है।

(ब) वित्त विधेयक के सम्बन्ध में – लोकतन्त्रात्मक राज्यों में वित्तीय विधेयकों पर निम्न सदन की सम्मति ही सर्वमान्य होती है। विधानसभा भी इसका अपवाद नहीं है। वित्तीय विधेयक केवल विधानसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं, परन्तु विधान-परिषद् को उन पर अपनी सम्मति व्यक्त करने का पूरा अधिकार है चाहे विधानसभा उसे माने या न माने। नियम यह है कि विधानसभा में पारित हो जाने के बाद प्रत्येक वित्त विधेयक विधान परिषद् की संस्तुति के लिए भेजा जाता है। यदि विधान-परिषद् वित्त विधेयक में कोई संशोधन करे जो विधानसभा को मान्य नहीं है या 14 दिन में कोई वित्त विधेयक बिना निर्णय के लौट आये तो यह विधान-परिषद् द्वारा स्वीकृत मान लिया जाता है। और उसे सीधा राज्यपाल के हस्ताक्षर के लिए भेज दिया जाता है।

2. कार्यपालिका क्षेत्र में – राज्य की मन्त्रिपरिषद् विधानसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है और यही उसे अविश्वास प्रस्ताव द्वारा पदच्युत कर सकती है। विधानपरिषद् को मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव रखने का अधिकार नहीं है। यद्यपि विधान-परिषद् के कुछ सदस्य मन्त्रिपरिषद् के सदस्य होते हैं, यहाँ तक कि कुछ राज्यों में इसी सदन के मुख्यमन्त्री भी हो चुके हैं, परन्तु विधान-सभा ही मन्त्रिपरिषद् पर नियन्त्रण रखती है। विधान-परिषद् इस सन्दर्भ में काफी कमजोर सिद्ध होती है।

3. अन्य क्षेत्रों में विधान – परिषद् राष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सदस्यों के निर्वाचन में भाग नहीं ले सकती। केवल विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों को यह अधिकार प्राप्त है। संविधान संशोधन में भी विधानसभाओं की ही राय ली जाती है। विधान-परिषद् को इस सम्बन्ध में कुछ नहीं करना पड़ता। इतना ही नहीं, विधान परिषद् के 1/3 सदस्यों का निर्वाचन तक भी विधानसभा के सदस्यों द्वारा किया जाता है। इस प्रकार से विधान परिषदों की स्थिति कमजोर है। राज्यों के द्वितीय सदन की इस निर्बल स्थिति को देखते हुए आलोचकों का कहना है कि जो संस्था किसी विधेयक के पारित होने में केवल चार महीने की देर कर सकती है, उसे बनाये रखने का कोई औचित्य नहीं। अत: इस पर जनता का धन खर्च करना व्यर्थ है। सत्तारूढ़ दल इसे सदन को अपने दलीय हितों की वृद्धि का साधन बना लेते हैं।

विधान-परिषद् की आवश्यकता

निर्बल स्थिति होने पर भी विधानपरिषद् का महत्त्व कम नहीं आँका जा सकता। इसके द्वारा विधानसभा का कार्यभार हल्का हो जाता है। यहाँ कम सदस्य होते हैं, इसलिए शान्त और गम्भीर वातावरण में अच्छी तरह वाद-विवाद हो जाता है। यह विधि-निर्माण में जल्दबाजी पर रोक लगाता है, जिससे इस बीच विधेयक के सम्बन्ध में जनमत जानने का अवसर भी मिल जाता है। इसके द्वारा विभिन्न वर्गों, अल्पसंख्यकों तथा विभिन्न व्यवसायों का प्रतिनिधित्व किया जा सकता है। साथ ही राज्यपाल द्वारा अनुभवी और विशेषज्ञों को मनोनीत करने से प्रशासन को अवश्य ही लाभ पहुंचता है।

प्रश्न 2.
विधानसभा के विधान-परिषद् से अधिक शक्तिशाली होने के कारणों का उल्लेख कीजिए।
या
इस राज्य में विधानसभा विधान-परिषद् से अधिक शक्तिशाली है” इस कथन का परीक्षण कीजिए। [2012]
उत्तर :
विधानसभा तथा विधान-परिषद् की शक्तियों के निम्नलिखित तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि विधानसभा विधान-परिषद् की तुलना में अधिक शक्तिशाली है।

1. प्रतिनिधित्व के सम्बन्ध में – विधानसभी राज्य की जनता की प्रतिनिधि है, जब कि विधान परिषद् कुछ विशेष वर्गों की।

2. कार्यपालिका के सम्बन्ध में – राज्य की मन्त्रिपरिषद् विधानसभा के ही प्रति उत्तरदायी होती है, विधान परिषद् के प्रति नहीं। विधान परिषद् केवल प्रश्न, पूरक प्रश्न तथा स्थगन प्रस्ताव उपस्थित कर मन्त्रिपरिषद् के कार्यों की जाँच तथा आलोचना ही कर सकती है। मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर उसे पदच्युत करने का कार्य विधानसभा के द्वारा ही किया जा सकता है।

3. वित्त के क्षेत्र में – वित्त विधेयक विधानसभा में ही प्रस्तावित किये जा सकते हैं। विधानसभा से स्वीकृत होने पर जब कोई वित्त विधेयक विधान-परिषद् को भेजा जाता है तथा परिषद् 14 दिन के भीतर संशोधन सहित वापस कर देती है, उन संशोधनों को स्वीकार करने का अधिकार विधानसभा को है। यदि परिषद् 14 दिन के भीतर वित्त विधेयक नहीं लौटाती है, तो विधेयक दोनों सदनों से पारितं समझा जाता है। अनुदान की माँगों पर मतदान भी केवल विधानसभा में ही होता है। इस दृष्टि से राज्यों में विधान-परिषद् को वैसी ही स्थिति प्राप्त होती है जैसी स्थिति केन्द्र में राज्यसभा की है।

4. राष्ट्रपति के निर्वाचन के सम्बन्ध में – राष्ट्रपति के निर्वाचन में भी केवल विधानसभा के सदस्य ही भाग लेते हैं, विधान परिषद् के सदस्य नहीं।

विधानसभा तथा विधान-परिषद् की शक्तियों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि विधान-सभा विधान-परिषद् की तुलना में अधिक शक्तिसम्पन्न है। डॉ० ए० पी० शर्मा के शब्दों में, जो समानता का ढोंग लोकसभा और राज्यसभा के बीच है, वह विधानसभा और विधानपरिषद् के बीच नहीं।” विधानसभा का अधिक शक्तिशाली होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि विधानसभा जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित है, विधान-परिषद् अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित है।

प्रश्न 3.
विधानसभा अध्यक्ष के कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2008, 10]
उत्तर :
विधानसभा अध्यक्ष के कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. वह विधानसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है और सदन की कार्यवाही का संचालन करता
  2. सदन में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखना उसका मुख्य उत्तरदायित्व है तथा इस हेतु उसे समस्त आवश्यक कार्यवाही करने का अधिकार है।
  3. सदन का कोई भी सदस्य सदन में उसकी आज्ञा से ही भाषण दे सकता है।
  4. वह सदन की कार्यवाही से ऐसे शब्दों को निकाले जाने का आदेश दे सकता है जो असंसदीय या अशिष्ट हैं।
  5. सदन के नेता के परामर्श से वह सदन की कार्यवाही का क्रम निश्चित कर सकता है।
  6. वह प्रश्नों को स्वीकार करता या नियम-विरुद्ध होने पर उन्हें अस्वीकार करता है।
  7. वह किसी प्रश्न पर मतदान कराता और परिणाम की घोषणा करता है।
  8. सामान्य स्थिति में वह सदन में मतदान में भाग नहीं लेता लेकिन यदि किसी प्रश्न पर पक्ष और विपक्ष में बराबर मत आयें, तो वह ‘निर्णायक मत’ (Casting Vote) का प्रयोग करता है।
  9. कोई विधेयक ‘धन विधेयक’ (Money Bill) है अथवा नहीं इसका निर्णय अध्यक्ष करता है।
  10. विधानसभा और विधान परिषद् के संयुक्त अधिवेशन की अध्यक्षता वही करता है।
  11. सदन तथा राज्यपाल के बीच ‘अध्यक्ष’ ही सम्पर्क स्थापित करता है।
  12. वह सदन के सदस्यों के अधिकारों की रक्षा करता है।
  13. वह विधानमण्डल की कुछ समितियों का पदेन सभापति होता है।
  14. वह सदन की दर्शक दीर्घा में दर्शकों और प्रेस प्रतिनिधियों के प्रवेश पर नियन्त्रण भी लगा सकता है।

अध्यक्ष की अनुपस्थिति में इन सभी कार्यों का सम्पादन उपाध्यक्ष करता है। यदि दोनों ही अनुपस्थित हों तो विधानसभा अपने सदस्यों में से एक कार्यवाहक अध्यक्ष चुन लेती है।

प्रश्न 4.
“विधानसभा, राज्य मन्त्रिपरिषद पर नियन्त्रण रखती है।” दो तर्क देते हुए इस कथनका औचित्य स्पष्ट कीजिए।
या
विधानसभा मन्त्रिपरिषद पर किस प्रकार नियन्त्रण रखती है ? [2010, 11]
या
विधानसभा तथा मन्त्रिपरिषद् के सम्बन्धों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
संविधान के अनुसार, विधानसभा तथा मन्त्रिपरिषद् परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। बेजहाट का कथन है कि “मन्त्रिपरिषद् अपने जन्म की दृष्टि से विधायिका से सम्बन्धित है।” मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होती है। किन्तु वास्तव में स्थिति इसके विपरीत होती है, क्योंकि मन्त्रिपरिषद् बहुमत दल की होती है, इसलिए विधानसभा इस पर अधिक नियन्त्रण नहीं रख पाती है तथा मुख्यमन्त्री भी विधानसभा को भंग कर सकता है। विधानसभा, प्रश्नों, पूरक प्रश्नों तथा काम रोको प्रस्तावों द्वारा मन्त्रिपरिषद् पर नियन्त्रण रखती है तथा निम्नलिखित आधारों पर मन्त्रिपरिषद् को पदच्युत कर सकती है –

  1. अविश्वास के प्रस्ताव द्वारा – विधानसभा के सदस्य मन्त्रिपरिषद् से असन्तुष्ट होकर सदन के सामने अविश्वास का प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकते हैं। इस प्रस्ताव के पारित हो जाने पर मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना होता है।
  2. विधेयक की अस्वीकृति – मन्त्रिपरिषद् द्वारा प्रस्तुत किसी विधेयक को यदि विधानसभा स्वीकृति न दे तो ऐसी दशा में भी मन्त्रिपरिषद् को अपना पद त्यागना पड़ता है।
  3. किसी मन्त्री के प्रति अविश्वास – यदि विधानसभा किसी मन्त्री-विशेष के प्रति अविश्वास का प्रस्ताव पारित कर दे तो भी सम्पूर्ण मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।
  4. गैर-सरकारी प्रस्तावे – विरोधी दलों के प्रस्ताव को गैर-सरकारी और मन्त्रिपरिषद् द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव को सरकारी प्रस्ताव कहते हैं। यदि विधानसभा किसी ऐसे गैर-सरकारी प्रस्ताव को स्वीकृत कर दे जिसका मन्त्रिपरिषद् विरोध कर रही हो, तो इस स्थिति में सम्बन्धित मन्त्री को अपना पद त्यागना होगा। सैद्धान्तिक दृष्टि से तो मन्त्रिपरिषद् पर विधानसभा द्वारा नियन्त्रण रखा जाता है, किन्तु व्यवहार में दलीय अनुशासन के कारण मन्त्रिपरिषद् ही विधानसभा पर नियन्त्रण रखती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
राज्य में विधानपरिषद के अस्तित्व के पक्ष में चार तर्क दीजिए। [2007]
उत्तर :
उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र जैसे विशाल राज्यों में विधानपरिषद् का अस्तित्व निश्चित रूप से अपना महत्त्व रखता है। इसके अस्तित्व के पक्ष में प्रमुख तर्क हैं –

  1. विधेयक को अधिकतम चार महीने की अवधि तक रोके रखकर यह प्रथम सदन विधानसभा की मनमानी पर रोक लगाता है।
  2. विधानसभा, प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होती है। विधानपरिषद् अप्रत्यक्ष रूप से। जिन वर्गों को प्रथम सदन में प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं होता, वे द्वितीय सदन में प्रतिनिधित्व प्राप्त कर सकते हैं।
  3. विधेयक को चार माह तक रोके रखकर विधानपरिषद् विधेयक पर जनमत जाग्रत करने का कार्य करती है।

प्रश्न 2.
राज्य के विधानमण्डल में कौन-कौन से अंग होते हैं? [2007]
उत्तर :
प्रत्येक राज्य का विधानमण्डल राज्यपाल और राज्य के विधानमण्डल से मिलकर बनता है। कुछ राज्यों के विधानमण्डल के दो सदन होते हैं, अर्थात् विधानसभा व विधान परिषद्। उत्तर प्रदेश तथा बिहार में द्वि-सदनात्मक विधानमण्डल हैं।

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प्रश्न 3.
उत्तर प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल क्या है? [2015]
उत्तर
उत्तर प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल 5 वर्ष है। हालांकि राज्यपाल द्वारा इसे समय से पूर्व भी भंग किया जा सकता है। परन्तु यदि संकटकाल की घोषणा प्रवर्तन में हो तो संसद विधि द्वारा विधानसभा का कार्यकाल बढ़ा सकती है जोकि एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं होगा तथा किस्सी भी अवस्था में संकटकाल की घोषणा समाप्त हो जाने के बाद 6 माह की अवधि से अधिक नहीं होगा।

प्रश्न 4.
राज्य में विधान-परिषद् की उपयोगिता के पक्ष में चार तर्क दीजिए। [2016]
उत्तर :
विधान परिषद् की उपयोगिता के पक्ष में चार तर्क निम्नलिखित हैं –

  1. यह सदन विधेयक में विलम्ब करके जनता को अपना मत अभिव्यक्त करने का अवसर देता है।
  2. यह संशोधनकारी सदन के रूप में कार्य करता है। ब्लण्टशली ने कहा भी है कि “चार आँखे दो आँखों की तुलना में सदैव अच्छा देखती हैं।”
  3. विधानपरिषद् में विशेष हितों-अल्पसंख्यकों, विभिन्न व्यवसायों व वर्गों को प्रतिनिधित्व मिलता है।
  4. इसमें परिपक्व और अनुभवी लोग होते हैं। राज्यपाल इसमें कुछ ऐसे व्यक्तियों को मनोनीत करता है जो कला, साहित्य, विज्ञान, समाज सेवा, सहकारिता आन्दोलन में विशेष अनुभवी हों।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
उत्तर प्रदेश का विधानमण्डल द्वि-सदनीय है अथवा एक-सदनीय?
उत्तर :
उत्तर प्रदेश का विधानमण्डल द्वि-सदनीय है।

प्रश्न 2.
विधानसभा का कार्यकाल कितना होता है?
उत्तर :
विधानसभा का कार्यकाल सामान्य रूप में पाँच वर्ष का होता है।

प्रश्न 3.
आपके राज्य में विधानसभा के अध्यक्ष का चयन कौन करता है?
उत्तर :
राज्य की विधानसभा के सदस्य विधानसभा के अध्यक्ष का चयन करते हैं।

प्रश्न 4.
विधानसभा तथा विधानपरिषद के सदस्यों हेतु निर्धारित आयु-सीमा बताइए।
उत्तर :

  1. विधानसभा–25 वर्ष तथा
  2. विधान-परिषद्-30 वर्ष।

प्रश्न 5.
विधान-परिषद् के सदस्यों का कार्यकाल कितना है? [2010, 11]
या
राज्य विधान-परिषद का कार्यकाल क्या है? [2012]
उत्तर :
विधान-परिषद् एक स्थायी सदन है, परन्तु इसके सदस्यों का कार्यकाल छ: वर्ष है। प्रति . दो वर्ष बाद 1/3 सदस्य उससे पृथक् हो जाते हैं तथा उनके स्थान पर नये सदस्य चुन लिये जाते हैं।

प्रश्न 6.
किन्हीं चार राज्यों के नाम लिखिए जिनमें द्वि-सदनीय विधानमण्डल हैं। [2013]
उत्तर :
कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, बिहार तथा महाराष्ट्र।

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प्रश्न 7.
राज्य विधानमण्डल का सत्रावसान कौन करता है?
उत्तर :
राज्य विधानमण्डल का सत्रावसान राज्यपाल करता है।

प्रश्न 8.
विधेयक कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर :
विधेयक दो प्रकार के होते हैं –

  1. साधारण विधेयक तथा
  2. धन या वित्त विधेयक।

प्रश्न 9
वित्त विधेयक विधानमण्डल के किस सदन में पेश होता है?
उत्तर :
वित्त विधेयक विधानसभा में प्रस्तुत किये जाते हैं।

प्रश्न 10.
वित्त विधेयक को विधान-परिषद अधिक-से-अधिक कितने दिनों तक रोक सकती [2011]
उत्तर :
वित्त विधेयक को विधानपरिषद अधिक-से-अधिक 14 दिनों तक रोक सकती है।

प्रश्न 11.
विधानसभा के सदस्यों की अधिकतम व न्यूनतम संख्या क्या हो सकती है?
उत्तर :
विधानसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 500 तथा न्यूनतम संख्या 60 हो सकती है।

प्रश्न 12.
उत्तर प्रदेश विधानसभा एवं विधान-परिषद् की सदस्य-संख्या बताइए। [2008, 11]
या
उत्तर प्रदेश की विधानपरिषद् में कुल कितने सदस्य हैं? [2016]
उत्तर :
विधानसभा सदस्य संख्या : 404 तथा विधान-परिषद् सदस्य-संख्या : 100।

प्रश्न 13.
राज्य सूची पर कौन कानून बनाता है?
उत्तर :
राज्य की विधानसभा राज्य सूची पर कानून बनाती है।

प्रश्न 14.
उन दो राज्यों के नाम बताइए जहाँ व्यवस्थापिका का एक ही सदन है। [2010]
उत्तर :

  1. मध्य प्रदेश तथा
  2. राजस्थान।

प्रश्न 15.
स्थानीय स्व-शासन के दो मुख्य लाभ लिखिए।
उत्तर :

  1. स्थानीय समस्याओं का त्वरित समाधान तथा
  2. नागरिकों के समय तथा धन की बचत।

प्रश्न 16.
उत्तर प्रदेश की विधायिका के दोनों सदनों के नाम लिखिए। [2014, 16]
उत्तर :
विधानसभा तथा विधान-परिषद्।

प्रश्न 17.
उत्तर प्रदेश की विधानसभा के प्रथम अध्यक्ष कौन थे? [2014, 16]
उत्तर :
श्री पुरुषोत्तम दास टण्डन।

प्रश्न 18.
उत्तर प्रदेश की विधानमण्डल के विश्रान्ति में अध्यादेश कौन जारी करता है? [2014]
उत्तर :
राज्यपाल।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
बिहार में विधानसभा के सदस्यों की कुल संख्या है। [2016]
(क) 224
(ख) 234
(ग) 243
(घ) 288

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कहाँ एक-सदनीय विधानमण्डल है?
(क) कर्नाटक
(ख) उत्तर प्रदेश
(ग) मध्य प्रदेश
(घ) बिहार

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कहाँ द्वि-सदनीय विधानमण्डल है?
(क) गुजरात
(ख) तमिलनाडु
(ग) ओडिशा
(घ) जम्मू-कश्मीर

प्रश्न 4.
भारत के निम्नलिखित में से किस एक राज्य में विधान-परिषद् नहीं है – [2011]
(क) बिहार
(ख) उत्तर प्रदेश
(ग) महाराष्ट्र
(घ) मध्य प्रदेश

प्रश्न 5.
विधानसभा तथा विधान-परिषद् के सदस्यों हेतु न्यूनतम निर्धारित आयु है
(क) 25 वर्ष से 30 वर्ष
(ख) 30 वर्ष से 35 वर्ष
(ग) 20 वर्ष से 25 वर्ष
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 6.
विधान-परिषद् के सदस्यों की न्यूनतम संख्या होती है
(क) 50.
(ख) 80
(ग) 40
(घ) 35

प्रश्न 7.
विधानसभा के सदस्यों की न्यूनतम संख्या होती है
(क) 50
(ख) 60
(ग) 100
(घ) 150

प्रश्न 8.
निम्नलिखित में से कौन राज्य विधान-परिषद् के सदस्यों के निर्वाचन से सम्बन्धित नहीं [2007]
(क) स्थानीय संस्थाओं का निर्वाचन मण्डल
(ख) स्नातकों का निर्वाचन मण्डल
(ग) विधानपरिषद का निर्वाचन मण्डल
(घ) अध्यापकों का निर्वाचन मण्डल

प्रश्न 9.
निम्न में से भारत के किस राज्य में द्वि-सदनात्मक विधान मण्डल नहीं है? [2008, 15]
(क) बिहार
(ख) उत्तर प्रदेश
(ग) जम्मू एवं कश्मीर
(घ) राजस्थान

प्रश्न 10.
भारत के निम्नलिखित में से किस राज्य में विधानपरिषद् है? [2012]
(क) मध्य प्रदेश
(ख) हिमाचल प्रदेश
(ग) गुजरात
(घ) जम्मू-कश्मीर

उत्तर :

  1. (ग) 243
  2. (ग) मध्य प्रदेश
  3. (घ) जम्मू-कश्मीर
  4. (घ) मध्य प्रदेश
  5. (क) 25 वर्ष से 30 वर्ष
  6. (ग) 40
  7. (ख) 60
  8. (ग) विधान परिषद् का निर्वाचन मण्डल
  9. (घ) राजस्थान
  10. (घ) जम्मू-कश्मीर।

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 25 Personality and Personality Tests

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 25 Personality and Personality Tests (व्यक्तित्व एवं व्यक्तित्व परीक्षण) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 25 Personality and Personality Tests (व्यक्तित्व एवं व्यक्तित्व परीक्षण).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 25
Chapter Name Personality and Personality Tests
(व्यक्तित्व एवं व्यक्तित्व परीक्षण)
Number of Questions Solved 46
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 25 Personality and Personality Tests (व्यक्तित्व एवं व्यक्तित्व परीक्षण)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
व्यक्तित्व का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। [2007]
या
व्यक्तित्व का क्या अर्थ है तथा इसकी परिभाषा भी दीजिए। व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए। [2007, 08]
उत्तर :
व्यक्तित्व का अर्थ
शाब्दिक उत्पत्ति के अर्थ में, इस शब्द का उद्गम लैटिन भाषा के ‘पर्सनेअर’ (Personare) शब्द से माना गया है। प्राचीनकाल में, ईसा से एक शताब्दी पहले Persona शब्द व्यक्ति के कार्यों को स्पष्ट करने के लिए प्रचलित था। विशेषकर इसका अर्थ नाटक में काम करने वाले अभिनेताओं द्वारा पहना हुआ नकाब समझा जाता था, जिसे धारण करके अभिनेता अपना असली रूप छिपाकर नकली वेश में रंगमंच पर अभिनय करते थे। रोमन काल में Persona शब्द का अर्थ हो गया—स्वयं वह अभिनेता’ जो अपने विलक्षण एवं विशिष्ट स्वरूप के साथ रंगमंच पर प्रकट होता था। इस भाँति व्यक्तित्व’ शब्द किसी व्यक्ति के वास्तविके स्वरूप का समानार्थी बन गया।

सामान्य अर्थ में 
व्यक्तित्व से अभिप्राय व्यक्ति के उन गुणों से है जो उसके शरीर सौष्ठव, स्वर तथा नाक-नक्श आदि से सम्बन्धित हैं। दार्शनिक दृष्टिकोण के अनुसार, सम्पूर्ण व्यक्तित्व आत्म-तत्त्व की पूर्णता में निहित है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार, मानव जीवन की किसी भी अवस्था में व्यक्ति का व्यक्तित्व एक संगठित इकाई है, जिसमें व्यक्ति के वंशानुक्रम और वातावरण से उत्पन्न समस्त गुण समाहित होते हैं। । दूसरे शब्दों में, व्यक्तित्व में बाह्य गुण तथा आन्तरिक गुण का समन्वित तथा संगठित रूप परिलक्षित होता है। अपने बाह्य एवं आन्तरिक गुणों के साथ व्यक्ति अपने वातावरण के साथ भी अनुकूलन करता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने वातावरण के साथ भिन्न प्रकार से अनुकूलन रखता है और इसी कारण से हर एक व्यक्ति का अपना अलग व्यक्तित्व होता है। इसके साथ ही व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति मनुष्य के व्यवहार से होती है, अथवा व्यक्तित्व पूरे व्यवहार का दर्पण है और मनुष्य व्यवहार के माध्यम से निज व्यक्तित्व को अभिप्रकाशित करता है। सन्तुलित व्यवहार सुदृढ़ व्यक्तित्व का परिचायक है।

व्यक्तित्व की परिभाषाएँ

  1. बोरिंग के अनुसार, “व्यक्ति के अपने वातावरण के साथ अपूर्व एवं स्थायी समायोजन के योग को व्यक्तित्व कहते हैं।”
  2. मन के शब्दों में, “व्यक्तित्व वह विशिष्ट संगठन है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति के गठन, व्यवहार के तरीकों, रुचियों, दृष्टिकोणों, क्षमताओं, योग्यताओं और प्रवणताओं को सम्मिलित किया जा सकता है।”
  3. आलपोर्ट के अनुसार, “व्यक्तित्व व्यक्ति के उन मनो-शारीरिक संस्थानों का गत्यात्मक संगठन है जो वातावरण के साथ उसके अनूठे समायोजन को निर्धारित करता है।”
  4. मॉर्टन प्रिंस के कथनानुसार, “व्यक्तित्व व्यक्ति के सभी जन्मजात व्यवहारों, आवेगों, प्रवृत्तियों, झुकावों, आवश्यकताओं तथा मूल-प्रवृत्तियों एवं अनुभवजन्य और अर्जित व्यवहारों व प्रवृत्तियों का योग है।
  5. वारेन का विचार है, “व्यक्तित्व व्यक्ति का सम्पूर्ण मानसिक संगठन है जो उसके विकास की किसी भी अवस्था में होता है।

उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि 

  1. व्यक्ति एक मनोशारीरिक प्राणी है।
  2. वह अपने वातावरण से समायोजन (अनुकूलन) करके निज व्यवहार का निर्माण करता है।
  3. मनुष्य की शारीरिक-मानसिक विशेषताएँ उसके व्यवहार से जुड़कर संगठित रूप में दिखायी पड़ती हैं। यह संगठन ही व्यक्तित्वे की प्रमुख विशेषता है।
  4. प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व स्वयं में विशिष्ट होता है।

व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारक
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले मूल कारक हैं – आनुवंशिकता तथा पर्यावरण आनुवंशिकता में उन कारकों या गुणों को सम्मिलित किया जाता है, जो माता-पिता के माध्यम से प्राप्त होते हैं। इस प्रकार के मुख्य गुण हैं-शरीर का आकार एवं बनावट तथा रंग आदि। शरीर में पायी जाने वाली विभिन्न नलिकाविहीन ग्रन्थियाँ तथा उनसे होने वाला स्राव भी व्यक्ति को प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त वातावरण का भी व्यक्तित्व पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है। वातावरण के अन्तर्गत मुख्य रूप से परिवार, विद्यालय तथा समाज का प्रभाव व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

प्रश्न 2
सन्तुलित व्यक्तित्व की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
सन्तुलित व्यक्तित्व की विशेषताएँ आदर्श नागरिक बनने के लिए मनुष्य के व्यक्तित्व का सन्तुलित होना अनिवार्य है। व्यवहार के माध्यम से व्यक्ति का व्यक्तित्व परिलक्षित होता है और समाजोपयोगी एवं वातावरण की परिस्थितियों से अनुकूलित व्यवहार ‘अच्छे व्यक्तित्व से ही उद्भूत होता है। सुन्दर एवं आकर्षक व्यक्तित्व दूसरे लोगों को शीघ्र ही प्रभावित कर देता है, जिससे वातावरण के साथ सफल सामंजस्य में सहायता मिलती है। यह तो निश्चित है कि सुन्दर जीवन जीने के लिए अच्छा एवं सन्तुलित व्यक्तित्व एक पूर्व आवश्यकता है, किन्तु प्रश्न यह है कि एक ‘आदर्श व्यक्तित्व के क्या मानदण्ड होंगे ? इसका उत्तर हमें निम्नलिखित शीर्षकों के माध्यम से प्राप्त होगा। सन्तुलित व्यक्तित्व की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित है।

1. शारीरिक स्वास्थ्य :
सामान्य दृष्टि से व्यक्ति का शारीरिक स्वास्थ्य सन्तुलित एवं उत्तम व्यक्तित्व का पहला मानदण्ड है। अच्छे व्यक्तित्व वाले व्यक्ति का शारीरिक गठन, स्वास्थ्य तथा सौष्ठव प्रशंसनीय होता है। वह व्यक्ति नीरोग होता है तथा उसके विविध शारीरिक संस्थान अच्छी प्रकार कार्य कर रहे होते हैं।

2. मानसिक स्वास्थ्य :
अच्छे व्यक्तित्व के लिए स्वस्थ शरीर के साथ स्वस्थ मन भी होना चाहिए। स्वस्थ मन उस व्यक्ति का कहा जाएगा जिसमें कम-से-कम औसत बुद्धि पायी जाती हो, नियन्त्रित तथा सन्तुलित मनोवृत्तियाँ हों और उनकी मानसिक प्रक्रियाएँ भी कम-से-कम सामान्य रूप से कार्य कर रही हों।

3. आत्म-चेतना :
सन्तुलित व्यक्तित्व वाला व्यक्ति स्वाभिमानी तथा आत्म-चेतना से युक्त होता है। वह सदैव ऐसे कार्यों से बचता है जिसके करने से वह स्वयं अपनी ही नजर में गिरता हो या उसकी आत्म-चेतना आहत होती हो। वह चिन्तन के समय भी आत्म-चेतना आहत होती हो। वह चिन्तन के समय भी आत्म-चेतना को सुरक्षित रखता है तथा स्वस्थ विचारों को ही मन में स्थान देता है।

4. आत्म-गौरव-आत्म :
गौरव का स्थायी भाव अच्छे व्यक्तित्व का परिचायक है तथा व्यक्ति में आत्म-चेतना पैदा करता है। आत्म-गौरव से युक्त व्यक्ति आत्म-समीक्षा के माध्यम से प्रगति का मार्ग खोलता है और विकासोन्मुख होता है।

5. संवेगात्मक सन्तुलन :
अच्छे व्यक्तित्व के लिए आवश्यक है कि उसके समस्त संवेगों की अभिव्यक्ति सामान्य रूप से हो। उसमें किसी विशिष्ट संवेग की प्रबलता नहीं होनी चाहिए।

6. सामंजस्यता :
सामंजस्यता या अनुकूलन का गुण अच्छे व्यक्तित्व की पहली पहचान है। मनुष्य और उसके चारों ओर का वातावरण परिवर्तनशील है। वातावरण के विभिन्न घटकों में आने वाला परिवर्तन मनुष्य को प्रभावित करता है। अतः सन्तुलित व्यक्तित्व में अपने वातावरण के साथ अनुकूलन करने या सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता होनी चाहिए। सामंजस्य की इस प्रक्रिया में या तो व्यक्ति स्वयं को वातावरण के अनुकूल परिवर्तित कर लेता है या वातावरण में अपने अनुसार परिवर्तन उत्पन्न कर देता है।

7. सामाजिकता :
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। अतः उसमें अधिकाधिक सामाजिकता की भावना होनी चाहिए। सन्तुलित व्यक्तित्व में स्वस्थ सामाजिकता की भावना अपेक्षित है। स्वस्थ सामाजिकता का भाव मनुष्य के व्यक्तित्व में प्रेम, सहानुभूति, त्याग, सहयोग, उदारता, संयम तथा धैर्य का संचार करता है, जिससे उसका व्यक्तित्व विस्तृत एवं व्यापक होता जाता है। इस भाव के संकुचन से मनुष्य स्वयं तक सीमित, स्वार्थी, एकान्तवासी और समाज से दूर भागने लगता है। सामाजिकता की भावना , व्यक्ति के व्यक्तित्व को विराट सत्ता की ओर उन्मुख करती है।

8. एकीकरण :
मनुष्य में समाहित उसके संमस्त गुण एकीकृत या संगठित स्वरूप में उपस्थित होने चाहिए। सन्तुलित व्यक्तित्व के लिए उन सभी गुणों का एक इकाई के रूप में समन्वय अनिवार्य है। किसी एक गुण या पक्ष का आधिक्य या वेग व्यक्तित्व को असंगठित बना देता है। ऐसा बिखरा हुआ व्यक्तित्व असन्तुष्ट व दु:खी जीवन की ओर संकेत करंता है। अतः अच्छे व्यक्तित्व में एकीकरण या संगठन का गुण पाया जाता है।’

9. लक्ष्योन्मुखता या उद्देश्यपूर्णता :
प्रत्येक मनुष्य के जीवन का कुछ-न-कुछ उद्देश्य या लक्ष्य अवश्य होता है। निरुद्देश्य या लक्ष्यविहीन जीवन असफल, असन्तुष्ट तथा अच्छा जीवन नहीं माना जाता है। हर किसी जीवन का सुदूर उद्देश्य ऊँचा, स्वस्थ तथा सुनिश्चित होना चाहिए एवं उसकी तात्कालिक क्रियाओं को भी प्रयोजनात्मक होना चाहिए। एक अच्छे व्यक्तित्व में उद्देश्यपूर्णता का होना अनिवार्य है।

10. संकल्प :
शक्ति की प्रबलता-प्रबल एवं दृढ़ इच्छा-शक्ति के कारण कार्य में तन्मयता तथा संलग्नता आती है। प्रबल संकल्प लेकर ही बाधाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है तथा लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। स्पष्टतः संकल्प-शक्ति की प्रबलता सन्तुलित व्यक्तित्व का एक उचित मानदण्ड है।

11. सन्तोषपूर्ण महत्त्वाकांक्षा :
उच्च एवं महान् आकांक्षाएँ मानव जीवन के विकास की द्योतक हैं, किन्तु यदि व्यक्ति इन उच्च आकांक्षाओं के लिए चिन्तित रहेगा तो उससे वह स्वयं को दुःखी एवं असन्तुष्ट हो पाएगा। मनुष्य को अपनी मन:स्थिति को इस प्रकार निर्मित करना चाहिए कि इन उच्च आकांक्षाओं की पूर्ति के अभाव में उसे असन्तोष या दुःख का बोध न हो। मनोविज्ञान की भाषा में इसे सन्तोषपूर्ण महत्त्वाकांक्षा कहा गया है और यह सुन्दर व्यक्तित्व के लिए आवश्यक है। हमने उपर्युक्त बिन्दुओं के अन्तर्गत एक सम्यक् एवं सन्तुलित व्यक्तित्व की विशेषताओं का अध्ययन किया है। इन सभी गुणों का समाहार ही एक आदर्श व्यक्तित्व कहा जा सकता है, जिसे समक्ष रखकर हम अन्य व्यक्तियों से उसकी तुलना कर सकते हैं और निज व्यक्तित्व को उसके अनुरूप ढालने का प्रयास कर सकते हैं।

प्रश्न 3
व्यक्तित्व परीक्षण की मुख्य विधियाँ कौन-कौन-सी हैं ? व्यक्तित्व परीक्षण की वैयक्तिक विधियों का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
व्यक्तित्व मापन की प्रमुख विधियों का वर्णन कीजिए। [2008]
या
व्यक्तित्व परीक्षण के कौन-कौन से प्रकार हैं? इनमें से किसी एक की विवेचना कीजिए। [2010]
या
व्यक्तित्व मापन के विभिन्न प्रकार बताइए और उनमें से किसी एक विधि का वर्णन कीजिए। [2007, 13, 15]
उत्तर :
व्यक्तित्व परीक्षण की विधियाँ
व्यक्तित्व का मापने या परीक्षण एक जटिल समस्या है, जिसके लिए किसी एक विधि को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व मापन व परीक्षण के लिए कुछ विधियों का निर्माण किया है। इन विधियों को निम्नांकित चार वर्गों में विभक्त किया जा सकता है।

  1. वैयक्तिक विधियाँ
  2. वस्तुनिष्ठ विधियाँ
  3. मनोविश्लेषणात्मक विधियाँ तथा
  4. प्रक्षेपण या प्रक्षेपी विधियाँ।

व्यक्तित्व परीक्षण की वैयक्तिक विधियाँ वैयक्तिक विधियों के अन्तर्गत व्यक्तित्व का परीक्षण स्वयं परीक्षक द्वारा किया जाता है। इसमें जाँच-कार्य, किसी व्यक्ति-विशेष या उसके परिचित से पूछताछ द्वारा सम्पन्न होता है। प्रमुख वैयक्तिक विधियाँ हैं।

1. प्रश्नावली विधि :
प्रश्नावली विधि के अन्तर्गत प्रश्नों की एक तालिका बनाकर उस व्यक्ति को दी जाती है, जिसके व्यक्तित्व का परीक्षण किया जाता है। प्राय: छोटे-छोटे प्रश्न किये जाते हैं, जिनका उत्तर हाँ या नहीं में देना होता है। सही उत्तरों के आधार पर व्यक्ति की योग्यता और क्षमता का मापन किया जाए हैं। प्रश्नावलियों के चार प्रकार हैं—बन्द प्रश्नावली, जिसमें हाँ या नहीं से सम्बन्धित प्रश्न होते हैं। खुली प्रश्नावली, जिसमें व्यक्ति को पूरा उत्तर लिखना होता है। सचित्र प्रश्नावली, जिसके अन्तर्गत चित्रों के आधार पर प्रश्नों के उत्तर दिये जाते हैं तथा मिश्रित प्रश्नावली, प्रश्न होते हैं।

प्रश्नावली विधि का प्रमुख दोष यह है कि व्यक्ति प्राय: प्रश्नों के गलत उत्तर देते हैं या सही उत्तर को छिपा लेते हैं। कभी-कभी प्रश्नों का अर्थ समझने में भी त्रुटि हो जाती है, जिनका भ्रामक उत्तर प्राप्त होता, है। प्रश्नावलियों द्वारा मूल्यांकन करने पर तुलनात्मक अध्ययन में काफी सहायता मिलती है। इसके साथ ही अनेक व्यक्तियों की एक साथ परीक्षा से धन और समय की भी बचत होती है।

2. व्यक्ति-इतिहास विधि :
विशेष रूप से समस्यात्मक बालकों के व्यक्तित्व का अध्ययन करने के लिए प्रयुक्त इस विधि के अन्तर्गत व्यक्ति-विशेष से सम्बन्धित अनेक सूचनाएँ एकत्रित की जाती हैं। जैसे—उसका शारीरिक स्वास्थ्य, संवेगात्मक स्थिरता, सामाजिक जीवन आदि। व्यक्ति के भूतकालीन जीवन के अध्ययन द्वारा उसकी वर्तमान मानसिक व व्यावहारिक संरचना को समझने का प्रयास किया जाता है। इन सूचनाओं को इकट्ठा करने में व्यक्ति विशेष के माता-पिता, अभिभावक, सगे-सम्बन्धी, मित्र-पड़ोसी तथा चिकित्सकों से सहायता ली जाती है। इन सभी सूचनाओं, बुद्धि-परीक्षण तथा रुचि-परीक्षण के आधार पर व्यक्ति के वर्तमान व्यवहार की असामान्यताओं के कारणों की खोज उसके भूतकाल के जीवन से करने में व्यक्ति-इतिहास विधि उपयोगी सिद्ध होती है।

3. साक्षात्कार विधि :
व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने की यह विधि सरकारी नौकरियों में चुनाव के लिए सर्वाधिक प्रयोग की जाती है। भेंट या साक्षात्कार के दौरान परीक्षक परीक्षार्थी से प्रश्न पूछता है और उसके उत्तरों के आधार पर उसके व्यक्तित्व का मूल्यांकन करता है। बालक के व्यक्तित्व का अध्ययन करने के लिए उसके अभिभावक, माता-पिता, भाई-बहन व मित्रों आदि से भी भेंट या साक्षात्कार किया जा सकता है। इस विधि का सबसे बड़ा दोष आत्मनिष्ठा का है। थोड़े से समय में किसी व्यक्ति-विशेष के हर पक्ष से सम्बन्धित प्रश्न नहीं पूछे जा सकते और अध्ययन किये गये विभिन्न व्यक्तियों की पारस्परिक, -तुलना भी नहीं की जा सकती। इस विधि को अधिकतम उपयोगी बनाने के लिए निर्धारण मान का प्रयोग किया जाना चाहिए तथा प्रश्न व उनके उत्तर पूर्व निर्धारित हों ताकि साक्षात्कार के दौरान समय एवं शक्ति की बचत हो।

4. आत्म-चरित्र लेखन विधि :
इस विधि में परीक्षक जीवन के किसी पक्ष से सम्बन्धित एक शीर्षक पर परीक्षार्थी को अपने जीवन से जुड़ी ‘आत्मकथा लिखने को कहता है। यहाँ विचारों को लिखकर अभिव्यक्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। परीक्षार्थी के जीवन से सम्बन्धित सभी बातों को गोपनीय रखा जाता है। इस विधि का दोष यह है कि प्रायः व्यक्ति स्मृति के आधार पर ही लिखता है, जिससे उसके मौलिक चिन्तन का ज्ञान नहीं हो पाता। कई कारणों से वह व्यक्तिगत जीवन की बातों को छिपा भी लेता है। इस भाँति यह विधि अधिक विश्वसनीय नहीं कही जा सकती।

प्रश्न 4
व्यक्तित्व परीक्षण की मुख्य वस्तुनिष्ठ विधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
व्यक्तित्व परीक्षण की मुख्य वस्तुनिष्ठ विधियाँ व्यक्तित्व परीक्षण की वस्तुनिष्ठ विधियों के अन्तर्गत व्यक्ति के बाह्य आचरण तथा व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। इसमें ये चार विधियाँ सहायक होती हैं।

  1. निर्धारणमान विधि
  2. शारीरिक परीक्षण विधि
  3. निरीक्षण विधि तथा
  4. समाजमिति विधि।

1. निर्धारणमान विधि :
किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के मूल्यांकन हेतु प्रयुक्त इस विधि में अनेक सम्भावित उत्तरों वाले कुछ प्रश्न पूछे जाते हैं तथा प्रत्येक उत्तर के अंक निर्धारित किये जाते हैं। इस विधि का प्रयोग ऐसे निर्णायकों द्वारा किया जाता है जो इस व्यक्ति से भली-भाँति परिचित होते हैं जिसके व्यक्तित्व का मापन करना है। उस विधि से सम्बन्धित दो प्रकार के निर्धारण मानदण्ड प्रचलित हैं।

(i) सापेक्ष निर्धारण मानदण्ड
(ii) निरपेक्ष निर्धारण मानदण्ड

(i) सापेक्ष निर्धारण मानदण्ड :
इस विधि के अन्तर्गत अनेक व्यक्तियों को एक-दूसरे के सापेक्ष सम्बन्ध में श्रेष्ठता क्रम में रखा जाता है। इस भाँति श्रेणीबद्ध करते समय सभी व्यक्तियों की आपस में तुलना हो जाती है। माना 10 व्यक्तियों की ईमानदारी के गुण का मूल्यांकन करना है तो सबसे अधिक ईमानदार व्यक्ति को पहला तथा सबसे कम ईमानदार को दसवाँ स्थान प्रदान किया जाएगा तथा इनके मध्य में शेष लोगों को श्रेष्ठता-क्रम में स्थान दिया जाएगा। यह विधि थोड़ी संख्या के समूह पर ही लागू हो सकती है, क्योंकि बड़ी संख्या वाले समूह के बीच के लोगों का क्रम निर्धारित करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है।

(ii) निरपेक्ष निर्धारण मानदण्ड :
इस विधि में किसी के गुण के आधार पर व्यक्तियों की तुलना नहीं की जाती, अपितु उन्हें विभिन्न विशेषताओं की निरपेक्ष कोटियों में रख लिया जाता है। कोटियों की संख्या 3,5,7, 11, 15 या उससे अधिक भी सम्भव है। इन कोटियों को कभी-कभी शब्द के स्थान पर अंकों द्वारा भी दिखाया जा सकता है, किन्तु तत्सम्बन्धी अंकों के अर्थ लिख दिये जाते हैं। ईमानदारी के गुण को निम्न प्रकार मानदण्ड पर प्रदर्शित किया गया है
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 25 Personality and Personality Tests image 1
इस विधि के अन्तर्गत मूल्यांकन करते समय निर्णायक को न तो अधिक कठोर होना चाहिए और न ही अधिक उदार। व्यक्तियों की कोटियों के अनुसार श्रेणीबद्ध करने में सामान्य वितरण का ध्यान रखना आवश्यक है।

2. शारीरिक परीक्षण विधि :
इसमें व्यक्ति विशेष के शारीरिक लक्षणों के आधार पर उसके व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया जाता है। व्यक्तित्व के निर्माण में सहभागिता रखने वाले शारीरिक तत्त्वों के मापन हेतु इन यन्त्रों का प्रयोग किया जाता है-नाड़ी की गति नापने के लिए स्फिग्नोग्राफ; हृदय की गति एवं कुछ हृदय-विकारों को ज्ञात करने के लिए इलेक्ट्रो कार्डियोग्राफ; फेफड़ों की गति के मापन हेतु-न्यूमोग्राफ; त्वचा में होने वाले रासायनिक परिवर्तनों के अध्ययन हेतु-साइको गैल्वेनोमीटर तथा रक्तचाप के मापन हेतु-प्लेन्थिस्मोग्राफ।

3. निरीक्षण विधि :
हम जानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति भिन्न-भिन्न परिस्थितियों तथा समयों पर भिन्न-भिन्न आचरण प्रदर्शित करता है। इस विधि के अन्तर्गत उसके आचरण का निरीक्षण करके उसके व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया जाता है। यहाँ परीक्षक देखकर व सुनकर व्यक्तित्व के विभिन्न शारीरिक, मानसिक तथा व्यावहारिक गुणों को समझने का प्रयास करता है, जिसके लिए निरीक्षण तालिका का प्रयोग किया जाता है। निरीक्षण के पश्चात् तुलना द्वारा निरीक्षण गुणों का मूल्यांकन किया जाता है। निरीक्षणकर्ता की आत्मनिष्ठा के दोष के कारण इस विधि को वैज्ञानिक एवं विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता।

4. समाजमिति विधि :
समाजमिति विधि के अन्तर्गत व्यक्ति की सामाजिकता का मूल्यांकन किया जाता है। बालकों को किसी सामाजिक अवसर पर अपने सभी साथियों के साथ किसी खास स्थान पर उपस्थित होने के लिए कहा जाता है, जहाँ वे अपनी सामर्थ्य और क्षमताओं के अनुसार कार्य करते हैं। अब यह देखा जाता है कि प्रत्येक बालक का उसके समूह में क्या स्थान है। संगृहीत तथ्यों के आधार पर एक सोशियोग्राम (Sociogram) तैयार किया जाता है और उसका विश्लेषण किया जाता है। इसी के आधार पर बालक के व्यक्तित्व की व्याख्या प्रस्तुत की जाती है।

प्रश्न 5
व्यक्तित्व परीक्षण की मुख्य प्रक्षेपण विधियों का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
या
व्यक्तिस्व मापन की प्रक्षेपी विधियों से क्या तात्पर्य है ? इनमें से किसी एक विधि का विस्तृत वर्णन कीजिए।
या
व्यक्तित्व मापन की किसी एक विधि की व्याख्या कीजिए। [2007]
उत्तर :
व्यक्तित्व परीक्षण की प्रक्षेपण विधियाँ प्रक्षेपण (Projection) अचेतन मन की वह सुरक्षा प्रक्रिया है जिसमें कोई व्यक्ति अपनी अनुभूतियों, विचारों, आकांक्षाओं तथा संवेगों को दूसरों पर थोप देता है। प्रक्षेपण विधियों द्वारा व्यक्ति-विशेष के व्यक्तित्व सम्बन्धी उन पक्षों का ज्ञान हो जाता है जिनसे वह व्यक्ति स्वयं ही अनभिज्ञ होता है। कुछ प्रक्षेपण विधियाँ निम्नलिखित हैं।

  1. कथा प्रसंग परीक्षण
  2. बाल सम्प्रत्यक्षण परीक्षण
  3. रोर्शा स्याही धब्बा परीक्षण तथा
  4. वाक्य पूर्ति या कहानी पूर्ति परीक्षण।।

1. कथा प्रसंग परीक्षण :
कथा प्रसंग विधि, जिसे प्रसंगात्मक बोध परीक्षण और टी० ए० टी० टेस्ट भी कहते हैं, के निर्माण का श्रेय मॉर्गन तथा मरे (Morgan and Murray) को जाता है। परीक्षण में 30 चित्रों का संग्रह है जिनमें से 10 चित्र पुरुषों के लिए, 10 स्त्रियों के लिए तथा 10 स्त्री व पुरुष दोनों के लिए होते हैं। परीक्षण के समय व्यक्ति के सम्मुख 20 चित्र प्रस्तुत किये जाते हैं। इनमें से एक चित्र खाली रहता है।

अब व्यक्ति को एक-एक करके चित्र प्रस्तुत किये जाते हैं और उस चित्र से सम्बन्धित कहानी बनाने के लिए कहा जाता है जिसमें समय का कोई बन्धन नहीं रहता। चित्र दिखलाने के साथ ही यह आदेश दिया जाता है, “चित्र को देखकर बताइए कि पहले क्या घटना हो गयी है ? इस समय क्या हो रहा है ? चित्र में जो लोग हैं उनमें क्या विचार या भाव उठ रहे हैं तथा कहानी का क्या अन्त होगा?” व्यक्ति द्वारा कहानी बनाने पर उसका विश्लेषण किया जाता है जिसके आधार पर उसके व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया जाता है।

2. बांल सम्प्रत्यक्षण परीक्षण :
इसे ‘बालकों का बोध परीक्षण’,या ‘सी० ए० टी० टेस्ट’ भी कहते हैं। इनमें किसी-न-किसी पशु से सम्बन्धित 10 चित्र होते हैं, जिनके माध्यम से बालकों की विभिन्न समस्याओं; जैसे-पारस्परिक या भाई-बहन की प्रतियोगिता, संघर्ष आदि के विषय में सूचनाएँ एकत्र की जाती हैं। इन उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर बालक के व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया जाता है।

3. रोर्णा स्याही धब्बा परीक्षण :
इस परीक्षण का निर्माण स्विट्जरलैण्ड के प्रसिद्ध मनोविकृति चिकित्सक हरमन रोर्शा ने 1921 ई० में किया था। इसके अन्तर्गत विभिन्न कार्डों पर बने स्याही के दस धब्बे होते हैं, जिन्हें इस प्रकार से बनाया जाता है कि बीच की रेखा के दोनों ओर एक जैसी आकृति दिखायी पड़े। पाँच कार्डों के धब्बे काले, भूरे, दो कार्डों के काले-भूरे के अलावा लाल रंग के भी होते हैं तथा शेष तीन कार्डों में अनेक रंग के धब्बे होते हैं। अब परीक्षार्थी को आदेश दिया जाता है।

कि चित्र देखकर बताओ कि यह किसके समान प्रतीत होता है ? यह क्या हो सकता है ? आदेश देने के बाद एक-एक कार्ड परीक्षार्थी के सामने प्रस्तुत किये जाते हैं, जिन्हें देखकर वह धब्बों में निहित आकृतियों के विषय में बताता है। परीक्षक, परीक्षार्थी द्वारा कार्ड देखकर दिये गये उत्तरों को वर्णन,उनका समय, कार्ड घुमाने का तरीका एवं परीक्षार्थी के व्यवहार, उद्गार और भावों को नोट करता जाता है। अन्त में परीक्षक द्वारा परीक्षार्थी के उत्तरों के विषय में उससे पूछताछ की जाती है। रोर्शा परीक्षण में इन चार बातों के आधार पर अंक दिये जाते हैं।

  • स्याही के धब्बों का क्षेत्र
  • धब्बों की विशेषताएँ (रंग, रूप, आकार आदि)
  • विषय-पेड़-पौधे, मनुष्य आदि तथा
  • मौलिकता

अंकों के आधार पर परीक्षक परीक्षार्थी के व्यक्तित्व का मूल्यांकन प्रस्तुत करता है। इस परीक्षण को व्यक्तिगत निर्देशन तथा उपचारात्मक निदान के लिए सर्वाधिक उपयोगी माना जाता है।

4. वाक्यपूर्ति यो कहानी :
पूर्ति परीक्षण इस विधि के अन्तर्गत परीक्षण-पदों के रूप में अधूरे वाक्य तथा अधूरी कहानियों को परीक्षार्थी के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है। जिसकी पूर्ति करके वह अपनी इच्छाओं, अभिवृत्तियों, विचारधारा तथा भय आदि को अप्रत्यक्ष रूप से अभिव्यक्त कर देता है। इस प्रकार के परीक्षण रोडे (Rohde), पैनी (Payne) तथा हिल्ड्रेथ (Hildreath) आदि द्वारा निर्मित किये गये हैं। [2012]

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
व्यक्तित्व क्या है? वे कौन-से कारक हैं जो व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं? [2015]
या
वे कौन-से कारक हैं जो बालकों के व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करते हैं?
उत्तर :
व्यक्तित्व के बाह्य गुणों तथा आन्तरिक गुणों के समन्वित तथा संगठित रूप को व्यक्तित्व कहते हैं। वुडवर्थ के अनुसार, “व्यक्तित्व गुणों को समन्वित रूप है।” व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास को प्रभावित करने वाले कारक बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले दो महत्त्वपूर्ण कारक है।

1. आनुवांशिकता :
शारीरिक आकार, बनावट तथा मानसिक बुद्धि आदि आनुवांशिक गुण होते हैं, जो माता-पिता से प्राप्त होते हैं, जिनसे व्यक्तित्व का निर्माण होता है। ये कारक व्यक्तित्व के विकास के लिए चहारदीवारी का कार्य करते हैं, जिसके भीतर व्यक्तित्व का विकास होता है।

2. वातावरण :
इसके तीन तत्त्व होते हैं।

(i) परिवार :
यह एक ऐसी सामाजिक संस्था है, जहाँ बालक के व्यक्तित्व के विकास का प्रथम चरण प्रारम्भ होता है। परिवार में कुछ तत्त्व व्यक्तित्व के विकास पर व्यापक प्रभाव डालते हैं; जैसे – माता – पिता के आपसी सम्बन्ध, उनका बालक के साथ व्यवहार, परिवार की आर्थिक स्थिति, परिवार का सामाजिक स्तर, परिवार के नैतिक मूल्य, परिवार के सदस्यों की संख्या, संयुक्त परिवार व्यवस्था आदि।

(ii) विद्यालय :
बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करने में घर-परिवार के पश्चात् विद्यालय का ही स्थान आता है। विद्यालय में व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण कारक हैं; जैसे—अध्यापक का व्यवहार, अनुशासन पद्धति, नैतिक मूल्य, अध्यापन तथा सीखने के तरीके, स्वतन्त्र कार्य करने के अवसर तथा साथियों का व्यवहार आदि।

(iii) समाज :
बालक के व्यक्तित्व का निर्माण, सामाजिक रीति-रिवाज, परम्पराएँ, संस्कृति तथा सभ्यता के द्वारा होता है। बालक की मनोवृत्ति का विकास, समाज में प्रचलित मान्यताएँ, विश्वास तथा धारणाएँ करती हैं। इस प्रकार राजनीतिक विचार, जनतान्त्रिक मूल्य आदि भी व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं।

प्रश्न 2
शारीरिक संरचना के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक क्रैशमर (Kretschmer) ने शारीरिक संरचना में भिन्नता को व्यक्तित्व के वर्गीकरण का आधार माना है। उसने 400 व्यक्तियों की शारीरिक रूपरेखा का अध्ययन किया तथा उनके व्यक्तित्व को दो समूहों में इस प्रकार बाँटा।

1. साइक्लॉयड :
क्रैशमर के अनुसार, साइक्लॉयड व्यक्ति प्रसन्नचित्त सामाजिक प्रकृति के, विनोदी तथा मिलनसार होते हैं। इनका शरीर मोटापा लिए हुए होता है। ऐसे व्यक्तियों का जीवन के प्रति वस्तुवादी दृष्टिकोण पाया जाता है।

2. शाइजॉएड :
साइक्लॉयड के विपरीत शाइजॉएड व्यक्तियों की शारीरिक बनावट दुबली-पतली होती है। ऐसे लोग मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संकोची, शान्त स्वभाव, एकान्तवासी, भावुक, स्वप्नदृष्टा तथा आत्म-केन्द्रित होते हैं।

क्रैशमर ने इनके अलावा चार उप-समूह भी बताये हैं।

1. सुडौलकाय :
स्वस्थ शरीर, सुडौल मांसपेशियाँ, मजबूत हड्डियाँ, चौड़ा वक्षस्थल तथा लम्बे चेहरे वाले शक्तिशाली लोग, जो इच्छानुसार अपने कार्यों का व्यवस्थापन कर लेते हैं, क्रियाशील होते हैं, कार्यों में रुचि लेते हैं तथा अन्य चीजों की अधिक चिन्ता नहीं करते।

2. निर्बल :
लम्बी भुजाओं व पैर वाले दुबले – पतले निर्बल व्यक्ति, जिनका सीना चपटा, चेहरा तिकोना तथा ठोढ़ी विकसित होती है। ऐसे लोग दूसरों की निन्दा तो करते हैं, लेकिन अपनी निन्दा सुनने के लिए तैयार नहीं होते।

3. गोलकाय :
बड़े शरीर और धड़, किन्तु छोटे कन्धे, हाथ पैर वाले तथा गोल छाती वाले असाधारण शरीर के ये लोग बहिर्मुखी होते हैं।

4. स्थिर बुद्धि :
ग्रन्थीय रोगों से ग्रस्त तथा विभिन्न प्रकार के प्रारूप वाले इन व्यक्तियों का शरीर साधारण होता है।

प्रश्न 3
स्वभाव के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
शैल्डन (Scheldon) ने स्वभाव के आधार पर मानव व्यक्तियों को तीन भागों में बाँटा है।

  1. एण्डोमॉर्फिक (Endomorphic) गोलाकार शरीर वाले कोमल और देखने में मोटे व्यक्ति इस विभाग के अन्तर्गत आते हैं। ऐसे लोगों का व्यवहार आँतों की आन्तरिक पाचन-शक्ति पर निर्भर करता है।
  2. मीजोमॉर्फिक (Mesomorphic) आयताकार शरीर रचना वाले इन लोगों का शरीर शक्तिशाली तथा भारी होता है।
  3. एक्टोमॉर्फिक (Ectomorphic) इन लम्बाकार शक्तिहीन व्यक्तियों में उत्तेजनशीलता अधिक होती है। ऐसे लोग बाह्य जगत् में निजी क्रियाओं को शीघ्रतापूर्वक करते हैं।

शैल्डन : ने उपर्युक्त तीन प्रकार के व्यक्तियों के स्वभाव का अध्ययन करके व्यक्तित्व के ये तीन वर्ग बताये हैं।

1. विसेरोटोनिक (Viscerotonic :
मुण्डोमॉर्फिक वर्ग के ये लोग विसेरोटोनिक प्रकार का . व्यक्तित्व रखते हैं। ये लोग आरामपसन्द तथा गहरी व ज्यादा नींद लेते हैं। किसी परेशानी के समय दूसरों की मदद पर आश्रित रहते हैं। ये अन्य लोगों से प्रेमपूर्ण सम्बन्ध रखते हैं तथा तरह-तरह के भोज्य पदार्थों के लिए लालायित रहते हैं।

2. सोमेटोटोनिक (Somatotonic) :
मीजोमॉर्फिक वर्ग के अन्तर्गत आने वाले सोमेटोटोनिक व्यक्तित्व के लोग बलशाली तथा निडर होते हैं। ये अपने विचारों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करना पसन्द करते हैं। ये कर्मशील होते हैं तथा आपत्ति से भय नहीं खाते।

3. सेरीब्रोटोनिक (Cerebrotonic) :
एक्टोमॉर्फिक वर्ग में शामिल सेरीब्रोटोनिक व्यक्तित्व के लोग धीमे बोलने वाले, संवेदनशील, संकोची, नियन्त्रित तथा एकान्तवासी होते हैं। संयमी होने के कारण ये अपनी इच्छाओं तथा भावनाओं को दमित कर सकते हैं। आपातकाल में ये दूसरों की मदद लेना पसन्द नहीं करते। ये सौम्य स्वभाव के होते हैं। इन्हें गहरी नींद नहीं आती।

प्रश्न 4
सामाजिकता के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
या
मनोवैज्ञानिक जंग के अनुसार दो प्रकार के व्यक्तित्व होते हैं। वे कौन-से प्रकार हैं? उनकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2010]
या
अन्तर्मुखी व्यक्तित्व से आपको क्या अभिप्राय है? [2014]
उत्तर :
जंग (Jung) नामक मनोवैज्ञानिक ने समाज से सम्पर्क स्थापित करने की क्षमता पर आधारित करके व्यक्तित्व को दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया है।

  1. बहिर्मुखी
  2. अन्तर्मुखी। जंग के वर्गीकरण को सर्वाधिक मान्यता प्रदान की जाती है।

1. बहिर्मुखी :
बहिर्मुखी व्यक्तियों की रुचि बाह्य जगत् में होती है। इनमें सामाजिकता की प्रबल भावना होती है और ये सामाजिक कार्यों में लगे रहते हैं। इनकी अन्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  • बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाले लोगों का ध्यान सदा बाह्य समाज की ओर लगा रहता है। यही कारण है कि इनका आन्तरिक जीवन कष्टमय होता है।
  • ऐसे व्यक्तियों में कार्य करने की दृढ़ इच्छा होती है और ये वीरता के कार्यों में अधिक रुचि रखते हैं।
  • समाज के लोगों से शीघ्र मेल-जोल बढ़ा लेने की इनकी प्रवृत्ति होती है। समाज की दशा पर विचार करना इन्हें भाता है और ये उसमें सुधार लाने के लिए भी प्रवृत्त होते हैं।
  • अपनी अस्वस्थता एवं पीड़ा की बहुत कम परवाह करते हैं।
  • चिन्तामुक्त होते हैं।
  • आक्रामक, अहमवादी तथा अनियन्त्रित प्रकृति के होते हैं।
  • प्राय: प्राचीन विचारधारा के पोषक होते हैं।
  • धारा प्रवाह बोलने वाले तथा मित्रवत् व्यवहार करने वाले होते हैं।
  • ये शान्त एवं आशावादी होते हैं।
  • परिस्थिति और आवश्यकताओं के अनुसार स्वयं को व्यवस्थित कर लेते हैं।
  • ऐसे व्यक्ति शासन करने तथा नेतृत्व करने की इच्छा रखते हैं। ये जल्दी से घबराते भी नहीं हैं।
  • बहिर्मुखी व्यक्तित्व के लोगों में अधिकतर समाज-सुधारक, राजनैतिक नेता, शासक व प्रबन्धक, खिलाड़ी, व्यापारी और अभिनेता सम्मिलित होते हैं।

2. अन्तर्मुखी अन्तर्मुखी व्यक्तियों की रुचि स्वयं में होती है। :
इनकी सामाजिक कार्यों में रुचि न के बराबर होती है। स्वयं अपने तक ही सीमित रहने वाले ऐसे लोग संकोची तथा एकान्तप्रेमी होते हैं। इनकी अन्य। विशेषताएँ इस प्रकार हैं।

  • अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के लोग कम बोलने वाले, लज्जाशील तथा पुस्तक-पत्रिकाओं को पढ़ने में गहरी रुचि रखते हैं।
  • ये चिन्तनशील तथा चिन्ताओं से ग्रस्त रहते हैं।
  • सन्देह प्रवृत्ति के कारण अपने कार्य में अत्यन्त सावधान रहते हैं।
  • अधिक लोकप्रिय नहीं होते।
  • इनका व्यवहार आज्ञाकारी होता है, लेकिन जल्दी ही घबरा जाते हैं।
  • आत्म-केन्द्रित और एकान्तप्रिय होते हैं।
  • स्वभाव में लचीलापन नहीं पाया जाता और क्रोध करने वाले होते हैं।
  • चुपचाप रहते हैं।
  • अच्छे लेखक तो होते हैं, किन्तु अच्छे वक्ता नहीं होते।
  • समाज से दूर रहकर धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक आदि समस्याओं के विषय में चिन्तनरत रहते हैं, लेकिन समाज में सामने आकर व्यावहारिक कार्य नहीं कर पाते।

बहिर्मुखी तथा अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के लोगों की विभिन्न विशेषताओं को अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति समाज में शायद ही कुछ हों जिन्हें विशुद्धतः बहिर्मुखी या अन्तर्मुखी का नाम दिया जा सके। ज्यादातर लोगों का व्यक्तित्व ‘मिश्रित प्रकार का होता है, जिसमें बहिर्मुखी तथा अन्तर्मुखी दोनों प्रकार की विशेषताएँ निहित होती हैं। ऐसे व्यक्तित्व को विकासोन्मुख व्यक्तित्व (Ambivert Personality) की संज्ञा प्रदान की जाती है।

प्रश्न 5
व्यक्तित्व के मूल्यांकन के लिए इस्तेमाल होने वाली ‘व्यक्तित्व परिसूचियों का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर :
व्यक्तित्व के मूल्यांकन की एक प्रविधि व्यक्तित्व परिसूचियाँ भी हैं। व्यक्तित्व परिसूचियाँ (Personality Inventories) कथनों की लम्बी तालिकाएँ होती हैं, जिनके कथन व्यक्तित्व एवं जीवन के विविध पक्षों से सम्बन्धित होते हैं। परीक्षार्थी के सामने परिसूची रख दी जाती है, जिन पर वह हाँ / नहीं अथवा (√) या (×) के माध्यम से अपना मत प्रकट करता है। इन उत्तरों का विश्लेषण करके व्यक्तित्व को समझने का प्रयास किया जाता है। ये व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों रूपों में प्रयुक्त होती हैं।

इनको प्रचलन आजकल काफी बढ़ गया है, क्योंकि इनके माध्यम से कम समय में अधिकाधिक सूचनाएँ एकत्र की जा सकती हैं। अमेरिका तथा इंग्लैण्ड में निर्मित व्यक्तित्व परिसूचियों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-बर्न श्यूटर की व्यक्तित्व परिसूची, कार्नेल सूचक, मिनेसोटा बहुपक्षीय व्यक्तित्व परिसूची, आलपोर्ट का ए० एस० प्रतिक्रिया अध्ययन, वुडवर्थ का व्यक्तिगत प्रदत्त पत्रक, बेल की समायोजन परिसूची तथा फ्राइड हीडब्रेडर का अन्तर्मुखी-बहिर्मुखी परीक्षण इत्यादि। भारत में ‘मनोविज्ञानशाला उ० प्र०, इलाहाबाद द्वारा भी एक व्यक्तित्व परिसूची का निर्माण किया गया है, जिसे चार भागों में विभाजित किया गया है।

  1. तुम्हारा घर तथा परिवार
  2. तुम्हारा स्कूल
  3. तुम और दूसरे लोग तथा
  4. तुम्हारा स्वास्थ्य तथा अन्य समस्याएँ

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
वार्नर द्वारा किया गया व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
वार्नर (Warner) ने शारीरिक आधार पर व्यक्तित्व के दस विभिन्न रूप बताये हैं।

  1. सामान्य
  2. असामान्य बुद्धि वाला
  3. मन्दबुद्धि वाला
  4. अविकसित शरीर का
  5. स्नायुविक
  6. स्नायु रोगी
  7. अपरिपुष्ट
  8. सुस्त और पिछड़ा हुआ
  9. अंगरहित तथा
  10. मिरगी ग्रस्त

प्रश्न 2
टरमन द्वारा किया गया व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
टरमन (Turman) :
बुद्धि-लब्धि के आधार पर व्यक्तित्व के दो प्रकार बताये हैं।

  1. प्रतिभाशाली
  2. उप-प्रतिभाशाली
  3. अत्युत्कृष्ट
  4. उत्कृष्ट बुद्धि
  5. सामान्य बुद्धि
  6. मन्दबुद्धि
  7. मूर्ख
  8. मूढ़-जड़ बुद्धि।

प्रश्न 3
थॉर्नडाइक द्वारा किया गया व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
थॉर्नडाइक (Thorndike) ने विचार – शक्ति के आधार पर व्यक्तित्व को निम्नलिखित वर्गों में बाँटा है।

  1. सूक्ष्म विचारक – किसी कार्य को करने से पूर्व उसके पक्ष/विपक्ष में बारीकी से विचार करने वाले ऐसे व्यक्ति विज्ञान, गणित व तर्कशास्त्र में रुचि रखते हैं।
  2. प्रत्यय विचारक – ऐसे लोग शब्द, संख्या तथा सन्तों आदि प्रत्ययों के आधार पर विचार करना पसन्द करते हैं।
  3. स्थूल विचारक – स्थूल विचारक क्रिया पर बल देने वाले तथा स्थूल चिन्तन करने वाले होते हैं।

प्रश्न 4
व्यक्तित्व मूल्यांकन के लिए अपनायी जाने वाली स्वतन्त्र साहचर्य विधि का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
व्यक्तित्व मूल्यांकन की स्वतन्त्र साहचर्य (Free Association) विधि में 50 से लेकर 100 तक उद्दीपक शब्दों की एक सूची प्रयोग की जाती है। परीक्षक परीक्षार्थी को सामने बैठाकर सूची का एक-एक शब्द उसके सामने बोलता है। परीक्षार्थी शब्द सुनकर जो कुछ उसके मन में आता है, कह देता है जिन्हें लिख लिया जाता है और उन्हीं के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया जाता है।

प्रश्न 5
स्वप्न विश्लेषण विधि का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर :
स्वप्न विश्लेषण :
यह मनोचिकित्सा की एक महत्त्वपूर्ण विधि है। मनोविश्लेषणवादियों के अनुसार, स्वप्न मन में दबी हुई भावनाओं को उजागर करता है। इस विधि के अन्तर्गत व्यक्ति अपने स्वप्नों को नोट करता जाता है और परीक्षक उसका विश्लेषण करके व्यक्ति के व्यक्तित्व की व्याख्या प्रस्तुत करता है। वैसे तो स्वप्नों को ज्यों-का-त्यों याद करने में काफी कठिनाई होती है तथापि स्वप्न साहचर्य के अभ्यास द्वारा, स्वप्नों को सुविधापूर्वक याद किया जा सकता है।

प्रश्न 6
शिक्षा में ‘व्यक्तित्व परीक्षण के महत्त्व का विवेचन कीजिए। (2016)
उत्तर :
शिक्षा में व्यक्तित्व परीक्षण का महत्त्व इस प्रकार है।

  1. व्यक्तित्व परीक्षण के द्वारा व्यक्ति के व्यक्तिगत विशेषताओं की माप होती है।
  2. व्यक्तित्व का वास्तविक मापन वस्तुनिष्ठता, वैधता तथा विश्वसनीयता द्वारा होता है।
  3. शिक्षा में व्यक्तित्व का परीक्षण मुख्यत: व्यक्ति के ज्ञान के मूल्यांकन के लिए किया जाता है।
  4. व्यक्तित्व परीक्षण द्वारा व्यक्ति की बुद्धि क्षमता का परीक्षण किया जाता है।
  5. व्यक्तित्व परीक्षण द्वारा परीक्षार्थी के सीखने की क्षमता का पता चलता है।
  6. परीक्षण द्वारा व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक आकलन किया जाता है।
  7. व्यक्ति परीक्षण द्वारा परीक्षार्थी या व्यक्ति के व्यवहार का अवलोकन किया जाता है।

प्रश्न 7
व्यक्तित्व मूल्यांकन की परिस्थिति परीक्षण विधि का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
व्यक्तित्व मूल्यांकन की एक विधि ‘परिस्थिति परीक्षण विधि’ (Situation Test Method) भी है। इसे वस्तु परीक्षण भी कहते हैं, जिसके अनुसार व्यक्ति के किसी गुण की माप करने के लिए उसे उससे सम्बन्धित किसी वास्तविक परिस्थिति में रखा जाता है तथा उसके व्यवहार के आधार पर गुण का मूल्यांकन किया जाता है। इस परीक्षण में परिस्थिति की स्वाभाविकता बनाये रखना आवश्यक है।

प्रश्न 8
व्यक्तित्व मूल्यांकन की व्यावहारिक परीक्षण विधि का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
व्यक्तित्व मूल्यांकन की एक विधि व्यावहारिक परीक्षण विधि (Performance Test Method) भी है। इस विधि के अन्तर्गत व्यक्ति को वास्तविक परिस्थिति में ले जाकर उसके व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। परीक्षार्थी को कुछ व्यावहारिक कार्य करने को दिये जाते हैं। इन कार्यों की परिलब्धियों तथा व्यवहार सम्बन्धी लक्षणों के आधार पर परीक्षार्थी के व्यक्तित्व से सम्बन्धित निष्कर्ष प्राप्त किये जाते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने अनेक प्रकार की व्यावहारिक परीक्षण विधियाँ प्रस्तुत की हैं। एक उदाहरण इस प्रकार है-बच्चों के एक समूह को पुस्तकालय में ले जाकर स्वतन्त्र छोड़ दिया गया और उनके क्रियाकलापों का अध्ययन किया गया। वे वहाँ जो कुछ भी करते हैं, जिन पुस्तकों का अध्ययन करते हैं या जिस प्रकार की बातचीत करते हैं, उसे नोट करके उनके व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया जाता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
व्यक्तित्व की एक स्पष्ट परिभाषा लिखिए। [2007, 13]
उत्तर :
“व्यक्तित्व व्यक्ति के उन मनो-शारीरिक संस्थानों का गत्यात्मक संगठन है जो वातावरण के साथ उसके अनूठे समायोजन को निर्धारित करता है।” [आलपोर्ट]

प्रश्न 2
व्यक्तित्व के निर्माण में किन कारकों का योग रहता है ?
उत्तर :
व्यक्तित्व के निर्माण में व्यक्ति के जन्मजात तथा अर्जित गुणों का योग रहता है।

प्रश्न 3
किस विद्वान ने व्यक्तित्व का वर्गीकरण शारीरिक संरचना के आधार पर किया है ?
उत्तर :
क्रैशमर नामक विद्वान् ने व्यक्तित्व का वर्गीकरण शारीरिक संरचना के आधार पर किया है।

प्रश्न 4
किस विद्वान ने स्वभाव के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण किया है ?
उत्तर :
शैल्डन ने स्वभाव के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है।

प्रश्न 5
किस मनोवैज्ञानिक ने व्यक्तित्व का वर्गीकरण सामाजिकता के आधार पर किया है?
उत्तर :
जंग नामक मनोवैज्ञानिक ने व्यक्तित्व का वर्गीकरण सामाजिकता के आधार पर किया है।

प्रश्न 6
सन्तुलित व्यक्तित्व की चार मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2008]
उत्तर :
सन्तुलित व्यक्तित्व की चार मुख्य विशेषताएँ हैं।

  1. उत्तम शारीरिक स्वास्थ्य
  2. अच्छा मानसिक स्वास्थ्य
  3. संवेगात्मक सन्तुलन तथा
  4. सामाजिकता

प्रश्न 7
व्यक्तित्व – परीक्षण की मुख्य विधियाँ कौन-कौन-सी हैं ?
उत्तर :
व्यक्तित्व परीक्षण की मुख्य विधियाँ हैं

  1. वैयक्तिक विधियाँ
  2. वस्तुनिष्ठ विधियाँ
  3. मनोविश्लेषणात्मक विधियाँ तथा
  4. प्रक्षेपण या प्रक्षेपी विधियाँ।

प्रश्न 8
व्यक्तित्व परीक्षण की मुख्य वैयक्तिक विधियाँ कौन-कौन-सी ?
उत्तर :
व्यक्तित्व परीक्षण की मुख्य वैयक्तिक विधियाँ हैं

  1. प्रश्नावली विधि
  2. व्यक्ति इतिहास विधि
  3. साक्षात्कार विधि तथा
  4. आत्म-चरित्र-लेखन विधि।

प्रश्न 9
‘रोर्णा स्याही धब्बा परीक्षण किस प्रकार की विधि है ? (2007)
उत्तर :
‘रोर्णा स्याही धब्बा परीक्षण’ एक प्रक्षेपण विधि है।

प्रश्न 10
किस विधि से व्यक्ति में सामाजिक अन्तर्सम्बन्धों को मापा जाता है?
उत्तर :
समाजमिति विधि द्वारा व्यक्ति में सामाजिक अन्तर्सम्बन्धों को मापा जाता है।”

प्रश्न 11
व्यक्तित्व के मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त का प्रतिपादक कौन है?
उत्तर :
व्यक्तित्व के मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त का प्रतिपादक सिगमण्ड फ्रॉयड है।

प्रश्न 12
किस प्रकार के व्यक्तियों में आत्मविश्वास की सुदृढ भावना और पर्याप्त सहनशीलता होती है?
उत्तर :
बहिर्मुखी प्रकार के व्यक्तियों में आत्मविश्वास की सुदृढ़ भावना और पर्याप्त सहनशीलता होती

प्रश्न 13
सर्वप्रथम ‘स्याही धब्बा परीक्षण किसने किया था ? [2011]
उत्तर :
सर्वप्रथम ‘स्याही धब्बा परीक्षण स्विट्जरलैण्ड के प्रसिद्ध मनोविकृति चिकित्सक हरमन रोर्शा ने किया था।

प्रश्न 14
बाल सम्प्रत्यय परीक्षण (c.A.T.) का सम्बन्ध किस परीक्षण से है? [2014]
उत्तर :
बाल सम्प्रत्यय परीक्षण (C.A.T) का सम्बन्ध व्यक्तित्व-परीक्षण से है।

प्रश्न 15
व्यक्तित्व के शाब्दिक अर्थ को बताइए। [2012]
उत्तर :
व्यक्तित्व का शाब्दिक अर्थ है-व्यक्ति का वास्तविक स्वरूप।

प्रश्न 16
‘स्याही धब्बा परीक्षण क्या है। [2009]
उत्तर :
‘स्याही धब्बा परीक्षण’ व्यक्तित्व-परीक्षण की एक प्रक्षेपी विधि है।

प्रश्न 17
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य।

  1. व्यक्तित्व का आशय है-व्यक्ति का रूप-रंग एवं वेशभूषा धारण करने का ढंग।
  2. व्यक्तित्व वर्गीकरण का एक आधार सामाजिकता भी है।
  3. व्यक्तित्व मापन या मूल्यांकन का न तो कोई महत्त्व है और न ही आवश्यकता।
  4. व्यक्तित्व परीक्षण की मनोविश्लेषणात्मक विधि के प्रतिपादक एडलर थे।

उत्तर :

  1. असत्य
  2. सत्य
  3. असत्य
  4. असत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए।

प्रश्न 1
“व्यक्तित्व रुचियों का वह समाकलन है, जो जीवन के व्यवहार में एक विशेष प्रवृत्ति उत्पन्न करता हैं।” यह परिभाषा किसकी है ?
(क) कार माइकेल की
(ख) मैकार्डी की
(ग) आलपोर्ट की
(घ) मार्टन प्रिन्स की
उत्तर :
(ख) मैका की

प्रश्न 2
सामाजिक अन्तर्किया की दृष्टि से जंग के अनुसार व्यक्तित्व के प्रकार हैं।
(क) दो
(ख) तीन
(ग) चार
(घ) पाँच
उत्तर :
(क) दो

प्रश्न 3
व्यक्तित्व परीक्षण की वैयक्तिक विधि है।
(क) मनो-विश्लेषण विधि
(ख) रोश परीक्षण
(ग) वाक्य पूर्ति परीक्षण
(घ) प्रश्नावली विधि
उत्तर :
(घ) प्रश्नावली विधि

प्रश्न 4
रोर्शा परीक्षण मापन करता है। [2008, 10]
(क) उपलब्धि को
(ख) रुचिं को
(ग) बुद्धि का
(घ) व्यक्तित्व का
उत्तर :
(घ) व्यक्तित्व का

प्रश्न 5
व्यक्तित्त्व मापन की वस्तुनिष्ठ विधि है।
(क) समाजमिति
(ख) स्वप्न विश्लेषण
(ग) स्वतन्त्र साहचर्य
(घ) कहानी-पूर्ति परीक्षण
उत्तर :
(क) समाजमिति

प्रश्न 6
मनोविश्लेषण विधि के प्रवर्तक हैं।
(क) वुण्ट
(ख) फ्रॉयड
(ग) जंग
(घ) स्पीयरमैन
उत्तर :
(ख) फ्रॉयड

प्रश्न 7
प्रक्षेपण विधि मापन करता है।
(क) बुद्धि का
(ख) रुचिका
(ग) व्यक्तित्व का
(घ) उपलब्धि का
उत्तर :
(ग) व्यक्तित्व का

प्रश्न 8
व्यक्तित्व मापन की आरोपणात्मक विधि है।
(क) साक्षात्कार विधि
(ख) स्वप्न विश्लेषण विधि
(ग) रोर्णा स्याही धब्बा परीक्षेण
(घ) ये सभी
उत्तर :
(ग) रोर्शा स्याही धब्बा परीक्षण

प्रश्न 9
आर० बी० कैटल द्वारा विकसित पी० एफ० प्रश्नावली में प्रयुक्त पी० एफ० (व्यक्तित्व कारकों) की संख्या है।
(क) 14
(ख) 16
(ग) 15
(घ) 17
उत्तर :
(ख) 16

प्रश्न 10
“व्यक्तित्व गुणों का समन्वित रूप है।” यह कथन है।
(क) वुडवर्थ का
(ख) गिलफोर्ड का
(ग) जे० एस० रासे को
(घ) स्किनरे का
उत्तर :
(घ) स्किनर का

प्रश्न 11
वाक्यपूर्ति तथा कहानी पूर्ति परीक्षण व्यक्तित्व परीक्षण की किस विधि में शामिल है?
(क) आत्म चरित्र लेखन विधि
(ख) वस्तुनिष्ठ विधि
(ग) प्रक्षेपी विधि
(घ) मनोविश्लेषणात्मक विधि
उत्तर :
(क) आत्म चरित्र लेखन विधि

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 24 Statistics

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 24
Chapter Name Statistics (सांख्यिकी)
Number of Questions Solved 39
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 24 Statistics (सांख्यिकी)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
सांख्यिकी के महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2007, 08, 10, 11]
या
“सांख्यिकी प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करती है तथा जीवन के अनेक बिन्दुओं को स्पर्श करती है।” समीक्षा कीजिए। [2011]
या
हमारे जीवन में सांख्यिकी की उपयोगिता और महत्त्व को स्पष्ट कीजिए। [2016]
उत्तर:
सांख्यिकी का महत्त्व
मानव-सभ्यता के विकास के साथ-साथ सांख्यिकी की उपयोगिता बढ़ती जा रही है। आज विज्ञान, गणित, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, शिक्षाशास्त्र, नक्षत्र विज्ञान आदि विषयों में इसका प्रयोग होने लगा है। हमारे दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया सांख्यिकी से प्रभावित है। सांख्यिकी के महत्त्व को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता हैं

1. अर्थशास्त्र में सांख्यिकी – सांख्यिकी अर्थशास्त्र का आधार है। अर्थशास्त्र के सभी विभागों उपभोग, उत्पादन, विनिमय, वितरण एवं राजस्व में इसकी आवश्यकता पड़ती है। प्रो० बाउले के अनुसार, “अर्थशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी पूर्णतया सत्यता का दावा नहीं कर सकता, जब तक कि वह सांख्यिकी की रीतियों में निपुण न हो।’ प्रत्येक आर्थिक नीति के निर्माण में सांख्यिकी का प्रयोग आवश्यक होता है। आवश्यकताएँ, रहन-सहन का स्तर, पारिवारिक बजट, माँग की लोच, मुद्रा की मात्रा, बैंक-दर, आयात-निर्यात नीति का अध्ययन तथा निर्माण, राष्ट्रीय लाभांश, करों का निर्धारण आदि सांख्यिकीय आँकड़ों पर ही आधारित होते हैं।

2. आर्थिक नियोजन के क्षेत्र में  – वर्तमान युग नियोजन का युग है। देश का आर्थिक विकास नियोजन के द्वारा ही सम्भव है। सांख्यिकी नियोजन का आधार है। किसी भी आर्थिक योजना के निर्माण तथा उसको सफलतापूर्वक चलाने के लिये सांख्यिकीय विधियों का उपयोग अत्यन्त आवश्यक होता है। जितने सही व सबल आँकड़े प्राप्त होंगे, योजना उतनी ही ठीक बन सकेगी। योजना निर्माण में इस तथ्य का अनुमान आवश्यक होता है कि उसमें कितना धन व्यय होगा, कितने व्यक्तियों को रोजगार उपलब्ध हो सकेगा तथा राष्ट्रीय आय में कितनी वृद्धि होगी; अत: इसमें भी सांख्यिकी की आवश्यकता पड़ती है।

3. राज्य प्रशासन के क्षेत्र में  – सांख्यिकी की उत्पत्ति ही राज्य प्रशासन के रूप में हुई थी। आज के युग में राज्य के कार्य-क्षेत्र बढ़ते ही जा रहे हैं। इस कारण सांख्यिकी का महत्व और भी अधिक बढ़ गया है। कुशल प्रशासन हेतु अनेक प्रकार की सूचनाएँ एकत्रित करनी होती हैं; जैसे–सैनिक शक्ति, राष्ट्र की आय, व्यय, ऋण, आयात-निर्यात, औद्योगिक स्थिति, बेरोजगारी आदि। इन सूचनाओं के आधार पर ही सरकार अपनी नीति का निर्धारण करती है तथा बजट का निर्माण किया जाता है; अतः राज्य प्रशासन के क्षेत्र में सांख्यिकी का अत्यधिक महत्त्व है।

4. व्यापार व उद्योग के क्षेत्र में –  आज के इस प्रतियोगिता के युग में एक सफल व्यापारी व उद्यमी को इस बात का ज्ञान होना आवश्यक है कि उसकी वस्तु की माँग कहाँ और कितनी है? भविष्य में मूल्य-परिवर्तन की क्या सम्भावनाएँ हैं? सरकार की नीति उद्योग के विषय में क्या है? आदि। इन सभी प्रश्नों के ठीक उत्तर के लिये सांख्यिकी का ज्ञान आवश्यक है। बॉडिंगटन के शब्दों में, “एक सफल व्यापारी वही है जिसके अनुमान यथार्थता के अति निकट हो।’ इसके लिये उसे सांख्यिकीय विधियों का आश्रय लेना पड़ेगा।

5. सार्वभौमिक महत्त्व – आधुनिक समय में सांख्यिकी का महत्त्व सर्वत्र है। शिक्षा एवं मनोविज्ञान के क्षेत्र में छात्रों की रुचि, बुद्धि, योग्यता और उनकी प्रगति का मूल्यांकन, परीक्षा-प्रणाली में सुधार आदि में सांख्यिकीय विधियों का प्रयोग किया जाता है। चिकित्सा के क्षेत्र में, परिवार नियोजन कार्यक्रम की सफलता, रोग-निवारण में सफलता आदि के ज्ञान के लिए भी सांख्यिकीय विधियाँ प्रयोग में लायी जाती हैं। सांख्यिकी के सार्वभौमिक महत्त्व की ओर संकेत करते हुए टिपेट (Tippett) ने कहा है, सांख्यिकी प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करती है और जीवन को अनेक बिन्दुओं पर स्पर्श करती है।”

6. अनुसन्धान के क्षेत्र में  – हम जानते हैं कि तीव्र आर्थिक विकास के लिए अनुसन्धान आवश्यक हैं। भौतिक एवं सामाजिक विज्ञानों के सभी क्षेत्रों में अनुसन्धान हेतु सांख्यिकी का प्रयोग अनिवार्य है। सांख्यिकी के बिना अनुसन्धानकर्ता कभी भी सही निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकता।

प्रश्न 2
प्राथमिक एवं द्वितीयक आँकड़ों में अन्तर बताइए तथा प्राथमिक आँकड़ों के संग्रहण की विविध विधियों को समझाइए। [2008, 14, 15]
या
समंकों के संकलन से क्या आशय है ? समंक कितने प्रकार के होते हैं ? प्राथमिक समंकों के संकलन की विधियाँ बताइए तथा उनके गुण व दोषों पर भी प्रकाश डालिए।
या
प्राथमिक समंकों से आप क्या समझते हैं? प्राथमिक समंकों को एकत्र करने की विभिन्न विधियों को समझाइए। [2014, 15]
उत्तर:
समंकों (आँकड़ों) के संकलन से आशय आँकड़ों को एकत्रित करने से हैं। जब आर्थिक विकास के किसी भी क्षेत्र के लिए सांख्यिकीय अनुसन्धान की योजना बनायी जाती है तो प्रथम चरण के रूप में समंकों (आँकड़ों) के संकलन का कार्य आरम्भ किया जाता है। आँकड़े सांख्यिकीय अनुसन्धान के लिए नींव का कार्य करते हैं। संकलन के आधार पर समंक दो प्रकार के होते हैं
(क) प्राथमिक समंक तथा
(ख) द्वितीयक समंक।

(क) प्राथमिक समंक – प्राथमिक समंक वे समंक होते हैं, जिन्हें अनुसन्धानकर्ता अपने उपयोग के लिए स्वयं एकत्रित करता है। ये समंक पूर्णतः मौलिक होते हैं। अनुसन्धानकर्ता अपनी
आवश्यकतानुसार इन समंकों का संग्रहण करता है।

(ख) द्वितीयक समंक – द्वितीयक समंक वे समंक होते हैं, जिन्हें अनुसन्धानकर्ता स्वयं एकत्रित नहीं करता है अपितु उन समंकों का संग्रहण किसी पूर्व अनुसन्धानकर्ता के द्वारा पहले से ही किया हुआ होता है तथा निष्कर्ष भी निकाले हुए होते हैं। ये समंक पूर्व-प्रकाशित यो अप्रकाशित हो सकते हैं। अनुसन्धानकर्ता इन द्वितीयक समंकों के द्वारा ही अपनी आवश्यकतानुसार परिणाम ज्ञात कर लेता है।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि नवीन आँकड़े (समंक) प्रथम अनुसन्धानकर्ता के द्वारा प्रयुक्त किये जाने पर प्राथमिक होते हैं, किन्तु जब उन्हीं समंकों का प्रयोग किसी अन्य अनुसन्धानकर्ता द्वारा किया जाए तो वे ही समंक द्वितीयक हो जाएँगे।

प्राथमिक समंकों (आँकड़ों) के संकलन की विधियाँ (रीतियाँ)
प्राथमिक समंकों का संकलन करने के लिए अनुसन्धानकर्ता निम्नलिखित विधियों (रीतियों) में से कोई भी विधि (रीति) जो उसके लिए अधिक उपयुक्त व श्रेष्ठ हो, को अपना सकता है

  1.  प्रत्यक्ष व्यक्तिगत समंक संकलन रीतिः
  2. अप्रत्यक्ष मौखिक समंक संकलन रीति।
  3. संवाददाताओं की सूचनाओं के आधार पर समंक संकलन।
  4. प्रश्नावली विधि
    • कम सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ भरकर तथा
    • प्रगणकों द्वारा सूचनाएँ प्राप्त करके।

1. प्रत्यक्ष व्यक्तिगत समंक संकलन रीति – इस विधि में अनुसन्धानकर्ता स्वयं अनुसन्धान क्षेत्र में जाकर व्यक्तिगत रूप से सूचनादाताओं से सम्पर्क स्थापित करता है तथा अनुसन्धान से सम्बन्धित समंक एकत्रित करता है। यह रीति बहुत ही सरल है। इस रीति द्वारा विश्वसनीय और आवश्यक समंक एकत्रित किये जाते हैं, किन्तु इस प्रणाली का क्षेत्र सीमित होता है।
गुण – इस रीति में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. शुद्धता – इस प्रणाली द्वारा समंकों का अनुसन्धानकर्ता स्वयं संग्रह करता है; अतः ये समंक शुद्ध होते हैं तथा इनके परिणाम भी शुद्ध ही निकलते हैं।
  2. विस्तृत सूचनाओं की प्राप्ति – इस विधि में अनुसन्धानकर्ता को समंक एकत्रित करते समय मुख्य सूचनाओं के साथ-साथ अन्य सूचनाएँ भी प्राप्त हो जाती हैं। यदि अनुसन्धानकर्ता परिवार की आर्थिक स्थिति से सम्बन्धित सूचनाएँ प्राप्त कर रहा हो, तब रहन-सहन के स्तर, शिक्षा आदि के विषय में भी जानकारी प्राप्त हो जाती है।
  3.  मौलिकता – प्राथमिक समंक पूर्णत: मौलिक होते हैं, क्योंकि ये अनुसन्धानकर्ता द्वारा स्वयं एक निश्चित उद्देश्य के लिए किये जाते हैं।
  4. लोचकता – इस प्रणाली से प्राप्त समंकों में लोचकता होती है। अनुसन्धानकर्ता समंकों को घटा-बढ़ा सकता है तथा अपनी कार्य-प्रणाली में परिवर्तन कर सकता है।
  5. मितव्ययिता – इस प्रणाली में अनुसन्धानकर्ता समंक स्वयं संगृहीत करता है; अत: वह समंक एकत्रित करते समय होने वाले व्यय पर ध्यान रखता है तथा फिजूलखर्ची पर नियन्त्रण रखता है।

अवगुण – इस विधि में निम्नलिखित अवगुण पाये जाते हैं

  1. सीमित क्षेत्र – प्राथमिक समंकों का संग्रहण स्वयं अनुसन्धानकर्ता द्वारा ही किया जाता है। इस कारण समंकों का क्षेत्र सीमित ही रहता है।
  2. पक्षपातपूर्ण – अनुसन्धानकर्ता क्योंकि स्वयं समंकों का संग्रहण करता है; अतः समंक एकत्रित करते समय पक्षपात की सम्भावना हो सकती है।
  3. परिणामों की अशुद्धता की सम्भावना – अनुसन्धानकर्ता द्वारा समंक एक सीमित क्षेत्र से ही एकत्रित किये जाते हैं; अतः समंकों द्वारा जो परिणाम निकलते हैं उनके विषय में शुद्धता की कोई गारण्टी नहीं होती।
  4. अपव्यय – अनुसन्धानकर्ता स्वयं समंक एकत्रित करता है; अत: समय, शक्ति व धन को अधिक लगाना पड़ता है।

2. अप्रत्यक्ष मौखिक समंक संकलन रीति – अनुसन्धान का क्षेत्र विस्तृत होने की दशा में अनुसन्धानकर्ता स्वयं प्रत्यक्ष रूप से सभी व्यक्तियों से सम्पर्क स्थापित नहीं कर पाता। ऐसी स्थिति में इस विधि को अपनाया जाता है। इस विधि में अनुसन्धानकर्ता सम्बन्धित व्यक्तियों से प्रश्न न पूछकर, उन व्यक्तियों से उनके विषय में जानकारियाँ प्राप्त करता है, जिनका उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध होता है; क्योंकि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि सम्बन्धित व्यक्ति अपरिचित लोगों को प्रश्नों का उत्तर नहीं देना चाहता है। इस विधि का प्रयोग अधिकांश रूप में सरकारी आयोगों एवं समितियों द्वारा किया जाता है। जिन व्यक्तियों से अप्रत्यक्ष रूप से सूचना प्राप्त की जाती है उन्हें साक्षी कहते हैं।

गुण – इस पद्धति में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं।

  1. इस पद्धति में अनुसन्धानकर्ता को समय, शक्ति व धन की बचत हो जाती है।
  2. इस पद्धति से अनुसन्धान कार्य शीघ्र और सरलता से हो जाता है।
  3. अनुसन्धानकर्ता को अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता। समंक सरलता से प्राप्त हो जाते हैं। तथा कभी-कभी विशेषज्ञों का परामर्श भी प्राप्त हो जाता है।
  4. विस्तृत क्षेत्र एवं कठिन परिस्थितियों में यह विधि अधिक उपयोगी होती है।
  5. अनुसन्धानकर्ता द्वारा इसमें किसी प्रकार के पक्षपात की सम्भावना समाप्त हो जाती है।

अवगुण – इस पद्धति में निम्नलिखित अवगुण पाये जाते हैं

  1. अनुसन्धानकर्ता प्रत्यक्ष रूप से उन व्यक्तियों से सम्पर्क नहीं कर पाता, जिनसे सम्बन्धित समस्या का वह अनुसन्धान कर रहा होता है; अत: परिणामों के विषय में निश्चितता का अभाव रहता है।
  2. अनुसन्धानकर्ता को दूसरे के ऊपर आधारित रहना पड़ता है; अतः दूसरे व्यक्ति अनुसन्धानकर्ता को वास्तविकता से दूर रखकर पक्षपातपूर्ण जानकादिर में हैं जिसके कारण अनुसन्धानकर्ता ठीक निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाता है।
  3. प्राप्त समंकों में एकरूपता और गोपनीयता का अभाव रहता है।

3. संवाददाताओं की सूचनाओं के आधार पर समंक संकलन रीति – इस पद्धति में अनुसन्धानकर्ता स्वयं समंकों का संकलन नहीं करता है अपितु स्थानीय स्तर पर व्यक्ति या संवाददाताओं को नियुक्त कर उनके माध्यम से सूचनाएँ प्राप्त करता है। स्थानीय व्यक्ति या संवाददाता भी समंकों का संकलन स्वयं नहीं करते, वरन् अपने अनुभवों एवं अनुमानों के आधार पर ही अनुसन्धानकर्ता को सूचनाएँ उपलब्ध करा देते हैं। प्रायः पत्र-पत्रिकाओं व दूरदर्शन द्वारा इसी विधि का प्रयोग किया जाता है। इस विधि की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि संवाददाता योग्य, निष्पक्ष . एवं प्रतिभावान् हों तथा उनकी संख्या भी पर्याप्त होनी चाहिए।
गुण – इस पद्धति में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. अनुसन्धानकर्ता को कम परिश्रम करना पड़ता है।
  2. समय, शक्ति व धन की बचत होती है।
  3. विस्तृत क्षेत्र से सूचनाएँ शीघ्र एकत्रित की जा सकती हैं।

अवगुण – इस पद्धति में निम्नलिखित अवगुण पाये जाते हैं

  1. समंकों में विश्वसनीयता का अभाव होता है।
  2. समंक मौलिक नहीं होते हैं।
  3. समंकों में पक्षपात का भय बना रहता है।
  4. निष्कर्षों में अशुद्धियों की सम्भावना रहती है।
  5. समंक संकलनों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है।

4. प्रश्नावली विधि द्वारा समंक संकलन

(क) कम सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ भरकर – प्रश्नावली विधि में अनुसन्धानकर्ता, अनुसन्धान से सम्बन्धित एक प्रश्नावली अथवा अनुसूची तैयार करता है। सामान्यतया प्रश्नावली छपवायी जाती है। इसमें अनुसन्धान से सम्बन्धित वस्तुनिष्ठ प्रश्न, वैकल्पिक उत्तरों वाले प्रश्न, सत्य/असत्य पर आधारित प्रश्न, रिक्त स्थानों की पूर्ति आदि से सम्बन्धित प्रश्न होते हैं। यह प्रश्नावली सूचकों को उत्तरदाताओं के पास सूचनाएँ व उत्तर प्राप्त करने के लिए डाक द्वारा भेज दी जाती हैं तथा प्रश्नावली की वापसी के लिए टिकटयुक्त लिफाफा भी भेजा जाता है। उत्तरदाता को यह आश्वासन दिया जाता है कि उनके द्वारा प्रेषित सूचनाएँ या उत्तर पूर्ण रूप से गुप्त रखे जाएंगे। इस प्रकार सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ भरवाकर समंक संगृहीत किये जाते हैं।

गुण – इस प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. यह प्रणाली विस्तृत क्षेत्र के लिए उत्तम मानी जाती है। अनुसन्धानकर्ता इस विधि में अनुसूची या प्रश्नावली डाक द्वारा सूचकों या उत्तरदाताओं के पास भेज देता है।
  2. इस विधि द्वारा संगृहीत समंक मौलिक व शुद्ध होते हैं।
  3. इस विधि में समय वे शक्ति की बचत होती है।
  4. कार्य शीघ्र सम्पन्न हो जाता है, क्योंकि अनुसन्धानकर्ता को उत्तरदाताओं के पास स्वयं नहीं जाना पड़ता।
  5. यह विधि पक्षपातरहित होती है।

अवगुण – इस प्रणाली के मुख्य अवगुण निम्नलिखित हैं

  1. समंक संकलन की इस विधि में अनुसूचियों को तैयार करना, उन्हें मुद्रित कराना, फिर सूचनाएँ एकत्रित करने के लिए डाक द्वारा भेजना तथा उनके उत्तर प्राप्त करने में पर्याप्त धन व्यय हो जाता है।
  2. लोचकता का अभाव पाया जाता है, क्योंकि उत्तरदाता अनुसूची या प्रश्नावली से पूर्णतया बँधा होता है।
  3. इस विधि का सबसे बड़ा अवगुण यह है कि उत्तरदाता, उत्तर देने में एवं अनुसूचियों को भेजने में किसी प्रकार की रुचि नहीं लेता है।
  4. अशिक्षित व्यक्तियों के लिए यह विधि अनुपयुक्त होती है।
  5. सूचना देने वाले यदि सूचना देने में पक्षपात कर जाते हैं, तब सम्पूर्ण अनुसन्धान दोषपूर्ण हो जाता है।

(ख) प्रगणकों द्वारा सूचनाएँ प्राप्त करके – यह विधि सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ भरकर समंक या सूचनाएँ प्राप्त करने की अपेक्षा उत्तम है। इस विधि में भी प्रश्नावली व अनुसूची तैयार की जाती है, परन्तु डाक द्वारा सूचनादाता के पास नहीं भेजी जाती। इस विधि में कुछ प्रगणकों की नियुक्ति कर दी जाती है, जो अनुसूची या प्रश्नावली को स्वयं लेकर सूचनादाता के पास जाते हैं और प्रश्नोत्तरदाता से प्रश्नों के उत्तर पूछकर स्वयं भरते हैं। सरकार द्वारा व्यापक पैमाने पर कराये जाने वाले सर्वेक्षण इसी विधि द्वारा कराये जाते हैं। जनगणना के समंक इसी विधि द्वारा एकत्रित किये जाते हैं।
गुण – इस विधि में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. प्रगणकों द्वारा एकत्रित किये गये समंक पूर्णत: शुद्ध होते हैं; क्योंकि प्रगणक घर-घर जाकर व्यक्तिगत रूप से सूचनाएँ एकत्रित करते हैं।
  2. इस प्रणाली के द्वारा विस्तृत क्षेत्रों से सूचनाएँ एकत्रित की जा सकती हैं।
  3. इस रीति में पक्षपात नहीं हो पाता है; क्योंकि प्रगणक निष्पक्ष भाव से सूचनाएँ एकत्रित करता है।
  4. यह प्रणाली पूर्णत: लोचपूर्ण है। आवश्यकता पड़ने पर प्रगणक अन्य सूचनाएँ भी एकत्रित कर सकता है।

अवगुण
इस प्रणाली में निम्नलिखित अवगुण पाए जाते हैं

  1. इस प्रणाली में सूचनाएँ या समंक एकत्रित करने में धन, समय व श्रम का अत्यधिक व्यय होता है।
  2. इस प्रणाली में प्रगणक योग्य, शिक्षित, प्रशिक्षित एवं लगनशील होने चाहिए। योग्य, प्रशिक्षित एवं लगनशील प्रगणक के अभाव में विश्वसनीय सूचनाएँ प्राप्त नहीं हो सकती हैं।
  3. इस प्रणाली में प्रगणक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है; जैसे-जाने पर भी सूचनादाता से सम्पर्क न हो पाना, प्रश्नों का यथोचित उत्तर न दे पाना आदि।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि समंक संकलन की सफलता उपर्युक्त रीति के चयन के साथ-साथ अनुसन्धानकर्ता की योग्यता, अनुभव, परिश्रम तथा दक्षता पर निर्भर करती है।

प्रश्न 3
द्वितीयक समंक से क्या अभिप्राय है? द्वितीयक समंकों का प्रयोग करने में क्या-क्या सावधानियाँ बरती जानी चाहिए?
उत्तर:
द्वितीयक समंक वे समंक होते हैं जिन्हें अनुसन्धानकर्ता स्वयं संकलित नहीं करता है। ये समंक किसी पूर्व अनुसन्धानकर्ता द्वारा संगृहीत एवं प्रयुक्त किये हुए होते हैं। इसलिए इन समंकों को पूर्व-प्रकाशित समंक भी कहते हैं।
ब्लेयर के अनुसार, “द्वितीयक समंक वे हैं जो पहले से उपलब्ध हैं, जिन्हें वर्तमान समस्या के समाधान की अपेक्षा किसी अन्य उद्देश्य के लिए संकलित किया गया था।
डॉ० बाउले के अनुसार, “प्रकाशित समंकों को ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लेना कभी भी सुरक्षित नहीं है जब तक कि उनको अर्थ एवं सीमाएँ ज्ञात न हो जाएँ। जो तर्क उन पर आधारित हैं, उनकी आलोचना करना सदैव आवश्यक है।”
उपर्युक्त कथन का अर्थ है कि द्वितीयक समंकों को बिना सोचे-समझे और उनकी सीमाओं को जाने बिना उपयोग में नहीं लाना चाहिए। द्वितीयक समंकों को उपयोग में लाने से पूर्व हमें कुछ सावधानियाँ बरतनी चाहिए, जो निम्नलिखित हैं

(1) द्वितीयक समंकों को उपयोग में लाने से पूर्व वर्तमान अनुसन्धानकर्ता को यह जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए कि इन समंकों को संकलित करने वाले की योग्यती क्या थी ? किन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ये समंक एकत्रित किये गये थे और उस समय के निष्कर्षों की शुद्धता कितनी थी ? संकलनकर्ता यदि योग्य, ईमानदार और परिश्रमी था तब ही इस प्रकार के समंकों पर विश्वास किया जा सकता है अन्यथा नहीं।

(2) अनुसन्धानकर्ता को समंक उपयोग में लाने से पूर्व यह देख लेना चाहिए कि वर्तमान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ये समंक विश्वसनीय एवं पर्याप्त हैं अथवा नहीं।

(3) द्वितीय समंकों को उपयोग में लाने से पूर्व अनुसन्धानकर्ता को यह भी देखना चाहिए कि ये समंक किस समय तथा किन परिस्थितियों में संकलित किये गये थे। सामान्य परिस्थितियों में एकत्रित समंक असामान्य परिस्थितियों के लिए और असामान्य परिस्थितियों में एकत्रित समंक सामान्य परिस्थितियों के अध्ययन के लिए उपयुक्त नहीं होते। यदि समंकों के संकलन का अन्तराल कम है तो इनकी मदद से दीर्घकालीन पद्धति पर प्रकाश नहीं डाला जा सकता।

(4) द्वितीयक समंकों को उपयोग में लाने से पूर्व अनुसन्धानकर्ता को न्यादर्श विधि से कुछ समंकों को छाँटकर उनकी विश्वसनीयता की परख कर लेनी चाहिए।

(5) अनुसन्धानकर्ता को समंकों के संकलन की विधि के विषय में भी जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए। समंकों का संकलन करते समय किस विधि को उपयोग में लाया गया था; वह विधि समय का सही प्रतिनिधित्व करती थी या नहीं अथवा वह विधि विश्वास योग्य थी या नहीं ?

(6) समंक एकत्रित करने वाले व्यक्ति अथवा संस्था के उद्देश्य और क्षेत्र की जानकारी कर लेनी चाहिए। यदि वर्तमान अनुसन्धानकर्ता का उद्देश्य और क्षेत्र वही है जो पूर्व अनुसन्धानकर्ता का था, तभी पूर्व एकत्रित समंक उपयोगी हो सकते हैं।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि यदि अनुसन्धानकर्ता द्वितीयक समंकों का उपयोग सावधानीपूर्वक करता है तब ही अनुसन्धान का निष्कर्ष व परिणाम शुद्ध व वैज्ञानिक होगा। सावधानी के अभाव में अनुसन्धानकर्ता अपने उद्देश्य से भटक जाएगा तथा उसका श्रम, शक्ति व धन व्यर्थ हो जाएगा।

प्रश्न 4
द्वितीयक समंक संकलन के मुख्य स्रोतों को बताइए। [2008, 12]
या
द्वितीयक समंकों के कोई दो स्रोतों का उल्लेख कीजिए। [2015]
या
द्वितीयक आँकड़ों के विभिन्न स्रोतों का वर्णन कीजिए। [2014]
उत्तर:
द्वितीयक समंक संकलन के प्रमुख दो स्रोत हैं
(क) प्रकाशित तथा
(ख) अप्रकाशित।

(क) प्रकाशित स्रोत
1. सरकारी प्रकाशन –
प्रत्येक सरकार को अपने देश के आर्थिक विकास की जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रति वर्ष आर्थिक समीक्षा करनी होती है। इसके लिए सरकार प्रति वर्ष राष्ट्रीय आय, प्रति व्यक्ति आय, निर्धनता का स्तर, बेरोजगारी, सकल घरेलू उत्पाद, कृषि उत्पाद, खनन व औद्योगिक उत्पाद, देश की जनसंख्या आदि से सम्बन्धित समंकों का संकलन और उनका प्रकाशन कराती है। यह केन्द्र व राज्य सरकारों का दायित्व है।
अनुसन्धानकर्ता इन समंकों का उपयोग अपने अनुसन्धान-कार्य में द्वितीयक समंकों के रूप में कर लेता है। इस प्रकार द्वितीयक समंकों के मूल स्रोत सरकारी प्रकाशन ही हैं।

2. आयोग एवं समितियों के प्रकाशन – सरकार समय-समय पर विभिन्न प्रकार के आयोगों एवं समितियों का गठन करती रहती है; जैसे—योजना आयोग, वेतन आयोग आदि। ये आयोग व समितियाँ देश के आर्थिक विकास व उससे सम्बद्ध अनेकों समस्याओं से सम्बन्धित समंकों को संगृहीत कराते हैं तथा उनका प्रकाशन भी कराते हैं। इस प्रकाशित सामग्री का उपयोग भी अनुसन्धानकर्ता द्वितीयक सामग्री के रूप में करते हैं।

3. अर्द्ध-सरकारी प्रकाशन – नगर निगम, नगर पंचायत, जिला पंचायत आदि अपने कार्य-क्षेत्र से सम्बन्धित जन्म, मृत्यु, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि से सम्बन्धित समंकों का संकलन कराती हैं। और उन्हें प्रकाशित कराती हैं। अनुसन्धानकर्ता द्वितीयक समंकों के रूप में इस सामग्री को अपने उपयोग में लाता है।

4. शोधकर्ताओं व अनुसन्धान संस्थाओं के प्रकाशन – विभिन्न विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों पर शोध-कार्य होते रहते हैं। शोधकर्ता अपने शोध-कार्य को प्रकाशित कराते हैं। इसके साथ-साथ अनेक शोध संस्थाएँ; जैसे-भारतीय सांख्यिकीय संगठन, नेशनल काउन्सिल ऑफ ऐप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च आदि संस्थाएँ भी शोध-कार्यों के परिणामों को प्रकाशित कराती हैं। इस प्रकाशित सामग्री को अन्य अनुसन्धानकर्ता द्वितीयक सामग्री के रूप में उपयोग में लाते हैं।

5. समाचार पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन – देश की उत्तम श्रेणी के समाचार पत्र-पत्रिकाएँ भी समंकों का संकलन करके उन्हें प्रकाशित करती हैं। यह सामग्री भी द्वितीयक सामग्री के रूप में उपयोग में लायी जाती है।

6. अन्तर्राष्ट्रीय प्रकाशन – अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा विश्व के कई देशों के तुलनात्मक आँकड़े समय-समय पर प्रकाशित किए जाते हैं; जैसे – संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रकाशित प्रति व्यक्ति आय सम्बन्धी आँकड़े, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष की वार्षिक रिपोर्ट, डेमोग्राफिक इयर बुक, अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा प्रकाशित श्रम सम्बन्धी आँकड़े आदि।।

7. गैर-सरकारी अथवा व्यापारिक संस्थाओं के प्रकाशन – कुछ गैर-सरकारी प्रकाशन अथवा बड़ी-बड़ी व्यापारिक संस्थाएँ अनेक प्रकार के समंकों का संकलन कर उन्हें प्रकाशित करते हैं; जैसे – मनोरमा इयर बुक, जागरण वार्षिकी, प्रतियोगिता दर्पण आदि।

(ख) अप्रकाशित स्रोत
सरकार, संस्थाएँ, संगठन अथवा व्यक्तियों द्वारा कुछ सामग्री संगृहीत की जाती है, परन्तु ये इनका प्रकाशन नहीं करा पाते हैं। किसी अनुसन्धानकर्ता को यदि इस प्रकार की सामग्री या समंक उपलब्ध हो जाते हैं; तो वह इस सामग्री का उपयोग द्वितीयक सामग्री के रूप में कर लेता है।

प्रश्न 5
सांख्यिकीय अनुसन्धान की संगणना विधि तथा प्रतिदर्श या न्यादर्श विधि को समझाइए। इनके गुण व दोषों को भी स्पष्ट कीजिए।
या
संगणना विधि और ‘निदर्शन विधि को समझाइए। [2014]
उत्तर:
अनुसन्धानकर्ता को अनुसन्धान कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व यह निश्चय करना पड़ता है कि समंकों का संकलन समग्र में से किया जाएगा या न्यादर्श के द्वारा। दूसरे शब्दों में अनुसन्धान से सम्बन्धित प्रत्येक इकाई का अध्ययन किया जाएगा अथवा सम्पूर्ण इकाइयों में से कुछ को चुनकर ही उनका अध्ययन किया जाएगा।
अध्ययन की इन दो विधियों को ही पूर्ण गणना या संगणना विधि (Census Method) और प्रतिदर्श या न्यादर्श विधि (Sampling Method) कहा जाता है।

संगणना या पूर्ण गणना विधि
संगणना विधि  में अनुसन्धानकर्ता को अनुसन्धान से सम्बन्धित समग्र की प्रत्येक इकाई से सूचना एकत्रित करनी होती है। इसमें सम्पूर्ण समूह की समस्या से सम्बन्धित किसी इकाई को नहीं छोड़ा जाता। भारत में जनसंख्या की गणना, उत्पादन गणना, आयात-निर्यात गणना इत्यादि गणनाएँ इसी विधि के द्वारा होती हैं।

गुण या लाभ – संगणना या पूर्ण गणना विधि में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. संगणना विधि द्वारा प्राप्त समंक अत्यधिक शुद्ध और विश्वसनीय होते हैं; क्योंकि इस विधि । में अनुसन्धान की प्रत्येक इकाई का व्यक्तिगत सर्वेक्षण किया जाता है।
  2. इसी विधि के द्वारा समस्या से सम्बन्धित प्रत्येक इकाई का गहन अध्ययन सम्भव होता है; अत: समंकों के संग्रहण के दौरान विस्तृत सूचनाएँ प्राप्त हो जाती हैं। प्रत्येक इकाई के सम्पर्क में आने के कारण अनेकों बातों की जानकारी मिलती है।
  3. यह विधि ऐसे अध्ययनों के लिए अधिक उपयुक्त है, जहाँ पर इकाइयाँ एक-दूसरे से भिन्न होती हैं।
  4. यदि अध्ययन अथवा अनुसन्धान की प्रकृति ऐसी है कि जाँच में सभी इकाइयों का समावेश आवश्यक है तो इस विधि द्वारा अनुसन्धान आवश्यक होता है; जैसे-जनगणना।

अवगुण या दोष – इस प्रणाली में निम्नलिखित अवगुण होते हैं

  1. संगणना प्रणाली बहुत अधिक असुविधाजनक है; क्योंकि इसमें समय, श्रम व धन अधिक व्यय होती है। इस विधि से समंक संग्रहण के लिए एक पूरा विभाग बनाना पड़ता है, जिससे प्रबन्धन सम्बन्धी अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित हो जाती हैं।
  2. संगणना प्रणाली सभी प्रकार की परिस्थितियों में उपयुक्त सिद्ध नहीं होती। यदि अनुसन्धान का क्षेत्र विस्तृत है, समयावधि कम है, धन का अभाव है तब यह प्रणाली उचित नहीं रहती है।
  3. इस विधि का प्रयोग सीमित क्षेत्र में ही सम्भव है। अन्य परिस्थितियों में, अर्थात् जहाँ क्षेत्र विशाल व जटिल हों अथवा सभी इकाइयों की जाँच से उनके समाप्त हो जाने की सम्भावना हो, वहाँ | पर इस विधि को अपनाना असम्भव होता है।
  4. इस विधि का एक दोष यह भी है कि इसके द्वारा सांख्यिकीय विभ्रम का पता नहीं लगाया जा सकता।

निदर्शन विधि
निदर्शन अनुसन्धान विधि में समग्र से सूचनाएँ प्राप्त नहीं की जाती हैं, वरन् समग्र में से कुछ इकाइयों को छाँट लेते हैं। छाँटी हुई इकाइयों की ही जाँच की जाती है तथा उनके आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं। छाँटी हुई इकाई को प्रतिनिधि इकाई, प्रतिदर्श, न्यादर्श, नमूना या बानगी कहते हैं। यह इकाई सम्पूर्ण का प्रतिनिधित्व करती है। सांख्यिकीय अनुसन्धानों में अधिकांश रूप से इसी विधि को उपयोग में लाया जाता है।

रक्त की एक बूंद की जाँच करके शरीर के पूर्ण रक्त की रिपोर्ट इसी विधि का एक उदाहरण है।
निदर्शन की विधियाँ – न्यादर्श चुनने की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं

(क) सविचार निदर्शन – सविचार निदर्शन (Purposive Sampling) में अनुसन्धानकर्ता स्वेच्छा से समग्र में से ऐसी इकाइयाँ छाँट लेता है जो उसके विचार से समग्र का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन इकाइयों द्वारा निकाले गये निष्कर्ष समग्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस प्रणाली का प्रमुख दोष यह है। कि अनुसन्धानकर्ता पक्षपात कर सकता है, क्योंकि न्यादर्श छाँटने में वह स्वतन्त्र होता है।
अत: इस विधि की सफलता न्यादर्श छाँटने वाले की योग्यता, ज्ञान एवं अनुभव पर निर्भर करती है।

(ख) दैव-निदर्शन – दैव-निदर्शन (Random Sampling) विधि में समग्र में से इकाइयाँ इस प्रकार छाँटी जाती हैं कि प्रत्येक इकाई के न्यादर्श में सम्मिलित होने की सम्भावना बनी रहती है। अनुसन्धानकर्ता स्वेच्छा से किसी भी इकाई को नहीं छाँटता है। दैवयोग पर यह निर्भर रहता है कि कौन-सी इकाई का चयन किया जाएगा। न्यादर्श की यह विधि उत्तम है, क्योंकि इसमें किसी प्रकार के पक्षपात की सम्भावना नहीं होती। प्रत्येक इकाई की अनुसन्धान में छंटने की सम्भावना रहती है।

गुण या लाभ – इस विधि में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. इस विधि का प्रयोग करने पर धन, समय व परिश्रम की अत्यधिक बचत होती है।
  2. समय कम लगने के कारण यह प्रणाली शीघ्रता से बदलती हुई परिस्थितियों से सम्बन्धित अनुसन्धानों के लिए उपयुक्त है।
  3. यदि न्यादर्श समुचित आधार पर और यथेष्ट मात्रा में छाँटे जाएँ तो इस विधि के द्वारा भी प्राप्त निष्कर्ष वही होंगे, जो संगणना विधि के माध्यम से प्राप्त होते हैं।
  4. चुनी हुई सामग्री बहुत थोड़ी होती है इसलिए उसकी विस्तृत रूप से जाँच की जा सकती है।
  5. अनुसन्धान करने वाला केवल न्यादर्श के आकार से ही अपने अनुसन्धान में सांख्यिकीय विभ्रम ज्ञात कर सकता है तथा उसकी सार्थकता एवं निरर्थकता की जाँच भी कर सकता है।
  6. संगणना विधि की तुलना में यह विधि अधिक वैज्ञानिक है, क्योंकि उपलब्ध समंकों की जाँच दूसरे न्यादर्शों द्वारा की जा सकती है।

दोष या हानि–इस विधि में निम्नलिखित दोष पाये जाते हैं

  1. यह रीति वहाँ के लिए उपयुक्त नहीं होती, जहाँ पर सम्मिलित इकाइयों में विविधता हो अर्थात् सजातीयता का अभाव हो। इकाइयों के स्वरूप व गुण में परिवर्तन होते रहने के कारण न्यादर्श सम्पूर्ण समूह का सही प्रतिनिधित्व नहीं कर पाते।
  2. यह विधि उन अनुसन्धानों के लिए उपयुक्त नहीं है, जहाँ बहुत उच्च स्तर की शुद्धता ” अपेक्षित हो; क्योंकि न्यादर्श में समूह के शत-प्रतिशत गुणों का समावेश नहीं हो सकता।।
  3. यदि न्यादर्श का चुनाव अवैज्ञानिक या पक्षपातपूर्ण तरीकों से किया गया हो तो इस विधि से प्राप्त निष्कर्ष भ्रमात्मक एवं असन्तोषप्रद होगे।।
  4. कुशल एवं प्रशिक्षित प्रगणकों के अभाव में इस विधि की सफलता सन्दिग्ध होती है; क्योंकि इस विधि द्वारा न्यादर्श का चयन करने में, उसका आकार निश्चित करने में तथा प्राप्त परिणामों की शुद्धता निर्धारित करने में विशिष्ट ज्ञान एवं अनुभव की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 6
सांख्यिकी के प्रति अविश्वास बढ़ता जा रहा है, अविश्वास के कारण तथा इसके निवारण के उपाय बताइए।
उत्तर:
सांख्यिकी एक ऐसा यन्त्र है जो आज प्रत्येक क्षेत्र में होने वाली समस्याओं के समाधान में उपयोगी है; परन्तु आजकल सांख्यिकीय आँकड़ों के प्रति अविश्वास की भावना बढ़ती जा रही है। इसका प्रमुख कारण समंकों के प्रति अविश्वास का होना है। समंकों के अभाव में आज के युग में हम किसी भी महत्त्वपूर्ण कार्य को सम्पादित नहीं कर सकते। सामान्य रूप में यह धारणा है कि ‘आँकड़े झूठ नहीं हो सकते’, यदि आँकड़े हमें इस प्रकार का निष्कर्ष दे रहे हैं तब यह निष्कर्ष असत्य नहीं हो सकता, परन्तु अधिकतर लोग आँकड़ों को शक की दृष्टि से देखते हैं और उन्हें अविश्वसनीय भी मानते हैं।

अविश्वास के कारण
सांख्यिकीय आँकड़ों के प्रति अविश्वास के निम्नलिखित कारण हैं

  1. सांख्यिकी के विषय से अनभिज्ञता – अधिकांश व्यक्तियों को सांख्यिकीय नियमों, सिद्धान्तों, समंकों के संकलन की विधियों, वर्गीकरण और निकाले गये निष्कर्षों के विषय में कोई जानकारी नहीं होती। वे निष्कर्षों को बिना सोचे-समझे सत्य मान लेते हैं और जब उन्हें वास्तविक स्थिति की जानकारी होती है तब वे समंकों पर विश्वास करना छोड़ देते हैं।
  2. सांख्यिकी की सीमाओं की उपेक्षा  – प्रत्येक शास्त्र की अपनी सीमाएँ होती हैं, इसी प्रकार सांख्यिकी की भी अपनी सीमाएँ हैं। सांख्यिकी व्यक्तिगत समस्याओं की अपेक्षा सामूहिक समस्याओं के समाधान के लिए तत्पर रहता है। अनुसन्धानकर्ता यदि सांख्यिकी की सीमाओं की उपेक्षा करके समंकों को उपयोग में लाता है तब समंकों के निष्कर्ष शुद्ध हो ही नहीं सकते।
  3. परस्पर विपरीत समंकों द्वारा निष्कर्ष निकालना – एक ही समस्या परे सरकारी समंक जो निष्कर्ष जनता के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं, विरोधी पक्ष इन समंकों के विपरीत अपने निष्कर्ष प्रस्तुत करता है। ऐसी स्थिति में जनता किस प्रकार समंकों पर विश्वास कर सकती है।
  4. स्वार्थी व्यक्तियों द्वारा समंकों का दुरुपयोग – कुछ स्वार्थी लोग पूर्व भावनाओं से ग्रस्त होने के कारण समंकों का दुरुपयोग करते हैं, जिसके कारण समंकों के प्रति जनता में अविश्वास उत्पन्न हो जाता है।
  5. समंकों की शुद्धता का अभाव – समंकों की शुद्धता की जाँच करना एक कठिन कार्य है। कोई भी व्यक्ति चुनौतीपूर्वक यह नहीं कह सकता कि उसके द्वारा संकलित समंक सत्य, मौलिक एवं शुद्ध हैं। इस कारण समंकों के प्रति जनता में अविश्वास बढ़ता जा रहा है।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि समंक झूठ नहीं बोलते, बल्कि समंकों को उपयोग में लाने वाले व्यक्तियों में अज्ञानता व अनुभव न होने के कारण समंकों के प्रति अविश्वसनीयता रहती है। समंक तो गीली मिट्टी के समान हैं, जिसे हम देवता या दानव जो भी बनाना चाहें बना सकते हैं। किसी दवा का सदुपयोग करके योग्य चिकित्सक कोई रोग दूर कर सकता है, किन्तु अयोग्य चिकित्सक के द्वारा वही दवा किसी रोगी के लिए जहर का काम भी कर सकती है। इसी प्रकार यदि समंकों के प्रयोग में जरा-सी भूल या लापरवाही हो जाती है तो ये समंक भयंकर परिणाम भी दे सकते हैं; अतः समंकों से उत्पन्न अविश्वास के लिए, जो अधिकतर उसके दुरुपयोग से ही उत्पन्न होते हैं, उसके प्रयोगकर्ता ही उत्तरदायी हैं। इसमें समंकों का कोई दोष नहीं है। सांख्यिकी ऐसे विज्ञानों में से एक है जिसका प्रयोग करने वालों में एक कलाकार के समान आत्म-संयम होना चाहिए।

अविश्वसनीयता के निवारण के उपाय
निम्नलिखित उपायों द्वारा समंकों की अविश्वसनीयता को दूर किया जा सकता है

  1. सांख्यिकी विषय की जानकारी रखने वाले व्यक्ति ही समंकों का उपयोग करें।
  2. समंकों का निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र उपयोग किया जाए।
  3. समंकों का प्रयोग करते समय सांख्यिकी की सीमाओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
  4. समंकों को उपयोग में लाने से पूर्व उनकी शुद्धता की जाँच कर लेनी चाहिए।
  5. समंक स्वार्थी व्यक्तियों के हाथों में नहीं पहुँचने चाहिए जो इसका उपयोग मनमाने ढंग से कर सकें।

प्रश्न 7
प्रतिदर्श आँकड़ों की विश्वसनीयता से सम्बन्धित नियमों पर संक्षिप्त निबन्ध लिखिए।
या
टिप्पणी लिखिए
(क) सांख्यिकीय नियमितता नियम तथा
(ख) महांक जड़ता नियम।
उत्तर:
निदर्शन पद्धति सांख्यिकी के दो आधारभूत नियमों पर आधारित है। ये नियम ही प्रतिदर्श आँकड़ों की विश्वसनीयता एवं उपयोगिता के आधार हैं। ये आधारभूत नियम निम्नलिखित हैं
(क) सांख्यिकीय नियमितता नियम तथा
(ख) महांक जड़ता नियम।

(क) सांख्यिकीय नियमितता नियम
यह नियम सम्भावना सिद्धान्त का उपप्रमेय है। यह प्रतिपादित करता है कि यदि समग्र में से दैव-निदर्शन द्वारा न्यादर्श लिया जाए तो वह समग्र का ठीक प्रकार से प्रतिनिधित्व कर सकेगा अर्थात् इस न्यादर्श में उन्हीं गुणों की सम्भावना होगी जो समग्र में है। किंग के अनुसार, “गणित के सम्भावना सिद्धान्त के आधार पर बना सांख्यिकीय नियमितता नियम यह बताता है कि यदि किसी बहुत बड़े समूह में से दैव-निदर्शन द्वारा बड़ी संख्या में पदों को चुन लिया जाए तो यह लगभग निश्चित है कि इन पदों में औसत रूप में बड़े समूह के गुण होंगे।” यही प्रवृत्ति सांख्यिकीय नियमितता नियम कहलाती है।
इस नियम का आधार यह है कि प्रकृति ऊपर से भिन्नता दिखाते हुए भी उसमें अन्तर्निहित एकरूपता या नियमितता होती है। इसी कारण प्रकृति के सभी कार्य व्यवस्थित ढंग से चलते रहते हैं।
नियम की सीमाएँ-इस

नियम की सीमाएँ निम्नलिखित हैं

  1. यह नियम तभी लागू होगा जब न्यादर्श दैव-निदर्शन रीति से लिया जाए।
  2. जब न्यादर्श का आकार पर्याप्त होगा तभी यह नियम लागू होगा अन्यथा नहीं।
  3. यदि न्यादर्श की इकाइयों में विशेष प्रकार की भिन्नता व विषमता होगी तो यह नियम लागू नहीं होगा।
  4. यह नियम औसत रूप से सत्य होता है। यह आवश्यक नहीं है कि सभी स्थानों पर तथा सभी अवस्थाओं में यह सत्य हो।

नियम की उपयोगिताएँ-इस नियम की प्रमुख उपयोगिताएँ निम्नलिखित हैं

  1. इस नियम के आधार पर ही निदर्शन प्रणाली का प्रतिपादन हुआ है। निदर्शन प्रणाली के प्रयोग ने बहुत-से समय, धन एवं श्रम को बचा दिया है।
  2. इस नियम के प्रयोग के आधार पर ही श्रेणी के आन्तरिक एवं बाह्य अज्ञात मूल्यों को ज्ञात किया जा सकता है।
  3. इस नियम के आधार पर ही बीमा कम्पनियाँ भावी जोखिमों का पूर्वानुमान कर बीमा की किस्त निर्धारित करती हैं।
  4. इस नियम का प्रयोग ज्ञान-विज्ञान के लगभग सभी क्षेत्रों में किया जाता है। रेलवे दुर्घटनाओं, जुए के खेल, अपराधों, आत्महत्याओं, तूफानों व बाढ़ों आदि पर यह नियम क्रियाशील होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि इस नियम की व्यापारिक उपयोगिता बहुत ही अधिक है।

(ख) महांक जड़ता नियम
यह नियम सांख्यिकीय नियमितता नियम का उप-प्रमेय है। इसका आशय इसके नाम से ही स्पष्ट है। महा अंक से अर्थ है बड़े अंक तक, जड़ता से अर्थ है स्थिरता, अर्थात् बड़ी संख्याओं में स्थिरता होती है। दूसरे शब्दों में, बड़ी संख्याएँ छोटी संख्याओं की तुलना में कम परिवर्तित होती हैं। बड़ी संख्याओं के अधिक स्थिर तथा अपरिवर्तनशील रहने का कारण यह है कि बड़े समग्र में कुछ इकाइयों में परिवर्तन यदि एक दिशा में होता है तो कुछ इकाइयों में परिवर्तन दूसरी दिशा में और कदाचित कुछ इकाइयों में परिवर्तन होता ही नहीं है। प्रो० किंग ने इस नियम के आधार को स्पष्ट करते हुए कहा है एक बड़े समूह के एक भाग में एक दिशा में परिवर्तन होता है, तो सम्भावना होती है कि उसी समूह के बराबर के अन्य भाग में उसके विपरीत दिशा में परिवर्तन होगा, इस प्रकार कुल परिवर्तन बहुत कम होगा।” सारांश यह है कि बड़ी संख्याएँ छोटी संख्यौओं की अपेक्षा अधिक स्थिर तथा अपरिवर्तनशील होती हैं।

नियम का आधार – यह नियम इस बात पर आधारित है कि बड़े समग्र की पक्ष तथा विपक्ष की इकाइयाँ एक-दूसरे को प्रभावहीन कर देती है।
नियम की सीमाएँ – नियम की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं

  1. समग्र जितना बड़ा होगा यह नियम उतनी ही अधिक सत्यता के साथ लागू होगा।
  2. दीर्घकालीन तथ्यों में अल्पकालीन तथ्यों की अपेक्षा अधिक शुद्धता व स्थिरता होती है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि दीर्घकाल में परिवर्तन होता ही नहीं है। परिवर्तन तो होते हैं, परन्तु अचानक नहीं।

नियम की उपयोगिता – व्यावहारिक जीवन के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में इस नियम का महत्त्व है। दैव-निदर्शन में यह नियम अत्यधिक उपयोगी है। इस नियम के कारण ही बड़ी मात्रा के दैव न्यादर्शों में शुद्धता एवं विश्वसनीयता की मात्रा अधिक होती है। समंकों की स्थिर प्रवृत्ति के कारण ही पूर्वानुमान सम्भव हो पाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
सांख्यिकी की विभिन्न परिभाषाएँ दीजिए। [2007, 10]
या
सांख्यिकी का क्या अर्थ है?
उत्तर:
सांख्यिकी का शाब्दिक अर्थ ‘संख्या से सम्बन्धित शास्त्र’ है। अतः सांख्यिकी ज्ञान की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध संख्याओं या संख्यात्मक आँकड़ों से है। अंग्रेजी का ‘Statistics’ शब्द लैटिन भाषा के ‘status’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ ‘राज्य’ है। इससे पता लगता है कि इस विषय की उत्पत्ति राज्य विज्ञान के रूप में हुई। शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए राजा, सेना की संख्या, रसद की मात्रा, कर्मचारियों का वेतन, भूमि-कर आदि से सम्बन्धित आँकड़े एकत्र कराते थे। इन संख्यात्मक आँकड़ों की सहायता से ही राज्य के बजट का निर्माण किया जाता था।

कुछ विद्वानों द्वारा दी गयी सांख्यिकी की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
डॉ० बाउले (Dr. Bowley) के अनुसार,

  1. “सांख्यिकी गणना का विज्ञान है।”
  2. “सांख्यिकी को उचित रूप से औसतों का विज्ञान कहा जा सकता है।”
  3. “सांख्यिकी वह विज्ञान है जो सामाजिक व्यवस्था को सम्पूर्ण मानकर सभी रूप में उसका मापन करती है।”

बॉडिंगटन (Boddington) के अनुसार, “सांख्यिकी अनुमानों और सम्भाविताओं का विज्ञान है।”
प्रो० किंग (King) के अनुसार, “गणना अथवा अनुमानों के संग्रह को विश्लेषण के आधार पर प्राप्त परिणामों से सामूहिक, प्राकृतिक अथवा सामाजिक घटनाओं पर निर्णय करने की रीति को सांख्यिकी विज्ञान कहते हैं।’
सेलिगमैन (Seligman) के अनुसार, “सांख्यिकी वह विज्ञान है जो किसी विषय पर प्रकाश डालने के उद्देश्य से संग्रह किये गये आँकड़ों के संग्रह, वर्गीकरण, प्रदर्शन, तुलना और व्याख्या करने की रीतियों की विवेचना करता है।”
संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि सांख्यिकी वह विज्ञान है; जो आँकड़ों के संग्रहण, प्रस्तुतीकरण, वर्गीकरण, विश्लेषण, सारणीयन एवं आलेखी निरूपण की विधियों का वर्णन करता है।”

प्रश्न 2
सांख्यिकी की सीमाएँ बताइए। [2006, 07, 09, 10]
उत्तर:
सांख्यिकी की सीमाएँ
टिपेट के शब्दों में, “किसी भी क्षेत्र में सांख्यिकीय नियमों का उपयोग कुछ मान्यताओं पर आधारित तथा कुछ सीमाओं से प्रभावित होता है। इसलिए प्रायः अनिश्चित निष्कर्ष निकलते हैं।” प्रो० न्यूजहोम के शब्दों में, ‘‘सांख्यिकी को अनुसन्धान का एक अत्यन्त मूल्यवान् साधन समझा जाना चाहिए। अतः सांख्यिकी की सीमाओं को ध्यान में रखकर ही सांख्यिकी का प्रयोग किया जाना चाहिए। सांख्यिकी की कुछ प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं

  1. सांख्यिकी समूहों का अध्ययन करती है, व्यक्तिगत इकाइयों का नहीं। उदाहरण के लिए, सांख्यिकी के अन्तर्गत किसी संस्थान में कार्य करने वाले कर्मियों के वेतन-स्तर का अध्ययन किया जाएगा न कि किसी एक कर्मचारी के वेतन को।
  2. सांख्यिकी सदैव संख्यात्मक तथ्यों का अध्ययन करती है, गुणात्मक तथ्यों का नहीं। दूसरे शब्दों में, सांख्यिकी के अन्तर्गत केवल उन्हीं समस्याओं का अध्ययन किया जाता है, जिनका संख्यात्मक वर्णन सम्भव हो; जैसे-आय, आयु, ऊँचाई, लम्बाई, उत्पादन आदि। इसमें ऐसी समस्याओं का अध्ययन नहीं होता जिनका स्वरूप गुणात्मक हो; जैसे – सुन्दरता, चरित्र, बौद्धिक स्तर आदि।
  3. सांख्यिकीय निष्कर्ष असत्य व भ्रमात्मक सिद्ध हो सकते हैं, यदि उनका अध्ययन बिना सन्दर्भ के किया जाए। सही निष्कर्ष प्राप्त करने के लिए समस्या के प्रत्येक पहलू का अध्ययन आवश्यक होता है। बिना सन्दर्भ व परिस्थितियों को समझते हुए जो निष्कर्ष निकाले जाते हैं, वे यद्यपि सत्य जान पड़ते हैं, परन्तु वास्तव में वे निष्कर्ष सत्य नहीं होते।
  4. सांख्यिकीय समंकों का सजातीय होना आवश्यक है। सांख्यिकीय निष्कर्षों के लिए यह आवश्यक है कि जिन समंकों से निष्कर्ष निकाले जाएँ वे एकरूप एवं सजातीय हों। विजातीय समंकों से निकाले गये निष्कर्ष सदैव भ्रमात्मक होंगे; उदाहरणार्थ-हाथी की ऊँचाई से मनुष्यों की ऊँचाई की तुलना नहीं की जा सकती।
  5. सांख्यिकीय निष्कर्ष दीर्घकाल में तथा औसत रूप में ही सत्य होते हैं। सांख्यिकीय निष्कर्ष अन्य विज्ञान के नियमों की भाँति दृढ़, सार्वभौमिक तथा सर्वमान्य नहीं होते।
  6. सांख्यिकीय रीति किसी समस्या के अध्ययन की विभिन्न रीतियों में से एक है, एकमात्र रीति नहीं।।
  7. सांख्यिकी का प्रयोग वही व्यक्ति कर सकता है जिसे सांख्यिकीय रीतियों को पूर्ण ज्ञान हो। बिना पूर्ण जानकारी के समंकों का प्रयोग करना एवं उनसे निष्कर्ष निकालना निरर्थक सिद्ध होता है। यूल एवं केण्डल के शब्दों में, “अयोग्य व्यक्तियों के हाथ में सांख्यिकीय रीतियाँ अत्यन्त खतरनाक यन्त्र हैं।”
  8. सांख्यिकी किसी समस्या के अध्ययन का केवल साधन प्रस्तुत करती है, समाधान नहीं।

प्रश्न 3
सांख्यिकी के प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सांख्यिकी के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं।

1. आँकड़ों को व्यवस्थित और सरल बनाना – सांख्यिकी का प्रथम कार्य संगृहीत आँकड़ों को वर्गीकरण व सारणीयन द्वारा सरल बनाना है। आँकड़ों के व्यवस्थित हो जाने से बहुत-से निष्कर्ष आँकड़ों को देखकर ही ज्ञात हो पाते हैं। अव्यवस्थित आँकड़ों से हमारा कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।

2. सांख्यिकी तथ्यों को निश्चयात्मक बनाती है –
प्राय: संगृहीत आँकड़ों की संख्या अत्यधिक होती है; अतः उनको समझना और उनसे निष्कर्ष निकालना कठिन होता है। सांख्यिकी उनको इस प्रकार प्रस्तुत करती है कि वे सरलतापूर्वक समझ में आ जाते हैं।

3. तथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन –
आँकड़ों का तब तक कोई महत्त्व नहीं होता जब तक कि दूसरे आँकड़ों से उनकी तुलना न की जाए और उनमें सम्बन्ध स्थापित न किया जाए। सांख्यिकी माध्य, सह-सम्बन्ध आदि के द्वारा तथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन कराती है।

4. निर्वचन या व्याख्या करना –
सांख्यिकीय तथ्यों का वर्गीकरण, सारणीयन, चित्रण, विश्लेषण करने के उपरान्त समस्या के हल की व्याख्या करती है, जिसके आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

5. विभिन्न आर्थिक नियमों व सिद्धान्तों की जाँच –
सम्बंख्यिकीय गणना के आधार पर सिद्धान्तों व नियमों का सत्यापन किया जाता है, क्योकि सांख्यिकी की सहायता से निर्मित नियम स्थिर और सार्वभौमिक रहते हैं। उदाहरण के लिए माल्थस का जनसंख्या सिद्धान्त आदि नियमों का सत्यापन सांख्यिकी के द्वारा ही सम्भव है।

6. नीति निर्धारण में सहायता करना –
सांख्यिकी का कार्य है कि वह तथ्यों के आधार पर शुद्ध निष्कर्ष निकाले, जिससे आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक नीति निर्धारित हो सके। विभिन्न सरकारें जनमत के आधार पर ही महत्त्वपूर्ण निर्णय लेती हैं।

7. पूर्वकथन या अनुभव –
सांख्यिकी का महत्त्वपूर्ण कार्य निष्कर्षों के आधार पर भविष्य में, आने वाली परिस्थितियों के सम्बन्ध में अनुमान लगाकर भविष्यवाणी करना होता है। इस सम्बन्ध में डॉ० बाउले का कथन है-“एक सांख्यिकीयं अंनुमानं अच्छा हो या बुरा, ठीक हो या गलत, परन्तु प्रायः प्रत्येक देशों में वह एक आकस्मिक प्रेक्षक के अनुमान से अधिक ठीक होगा।”

प्रश्न 4
प्राथमिक और द्वितीयक समंकों में अन्तर बताइए।
उत्तर:
प्राथमिक और द्वितीयक समंकों में अन्तर को निम्नवत् स्पष्ट किया जा सकता है
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 24 Statistics 1

प्रश्न 5
सांख्यिकीय अनुसन्धान में प्रयुक्त उत्तम प्रश्नावली के गुण (विशेषताएँ) बताइए।
उत्तर:
एक उत्तम प्रश्नावली के निम्नलिखित गुण (विशेषताएँ) होने चाहिए
1. सरल व स्पष्ट – प्रश्नावली तैयार करते समय इस बात का ध्यान रखा जाए कि प्रश्न सरल, स्पष्ट एवं सीधी भाषा में हों, जिससे उत्तरदाता प्रश्न को समझकर उनका ठीक और शीघ्र उत्तर दे सके।

2. प्रश्नों की कम संख्या – एक उत्तम प्रश्नावली में यह गुण होता है कि प्रश्नों की संख्या न तो बहुत अधिक हो और न ही बहुत कम। प्रश्नों की संख्या इतनी अवश्य होनी चाहिए जिससे कि अनुसन्धानकर्ता के उद्देश्यों की पूर्ति हो जाए और उत्तरदाता को उत्तर देते समय अपने ऊपर किसी प्रकार के भार का अनुभव न हो।

3. वस्तुनिष्ठ, संक्षिप्त एवं उद्देश्यमूलक प्रश्न – प्रश्नावली के प्रश्न वस्तुनिष्ठ, संक्षिप्त व उद्देश्यमूलक होने चाहिए। बहुविकल्पीय, सत्य/असत्य, रिक्त स्थानों की पूर्ति, हाँ अथवा नहीं आदि में प्रश्नोत्तरी होनी चाहिए। इससे उत्तरदाता सरलता से उत्तर दे देता है तथा समय व श्रम की भी बचत होती है।

4. व्यक्तिगत प्रश्न न हों – प्रश्नावली के प्रश्न उत्तरदाता के व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित नहीं होने चाहिए अर्थात् प्रश्न इस प्रकार के हों जिससे उत्तरदाता प्रश्नों के उत्तर देते समय मन में किसी प्रकार की शंका या उत्तेजना का अनुभव न करे। जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि से सम्बन्धित प्रश्न अथवा इस प्रकार के प्रश्न नहीं होने चाहिए; जिससे राष्ट्रीय भावना को ठेस पहुँचती हो।

5. प्रश्नों के उत्तरों में अनेकता हो – एक प्रश्न में अनेक उत्तरों का समावेश होना चाहिए; जैसे भारत में शिक्षा का उद्देश्य है

  • नागरिकों को साक्षर करना,
  • बेरोजगारी दूर करना,
  • निरक्षरता को कम करना,
  • नागरिकों में उत्तम नागरिक गुणों का विकास करना,
  • उपर्युक्त सभी।।इस प्रकार के प्रश्नों से अनुसन्धानकर्ता को अनेक सूचनाएँ प्राप्त हो जाती हैं।

6. आवश्यक निर्देश – अनुसन्धानकर्ता को प्रश्नावली के साथ-साथ उत्तरदाता के पास आवश्यक निर्देश भी भेजने चाहिए। ये निर्देश संक्षेप में देने चाहिए, जिससे उत्तरदाता स्पष्ट और शीघ्र उत्तर दे सके।

7. प्रश्नों का क्रम – प्रश्नावली में एक प्रकार के प्रश्न एक ही क्रम में होने चाहिए तथा दूसरे प्रकार के प्रश्न भी क्रम में एक साथ ही होने चाहिए; जैसे—यदि प्रश्नावली में बहुविकल्पीय, सत्य/असत्य, हाँ/नहीं आदि प्रश्न दिये गये हैं तो वे क्रमानुसार होने चाहिए, जिससे उत्तरदाता को उत्तर देते समय किसी प्रकार की कोई कठिनाई न हो।

प्रश्न 6
दैव-निदर्शन में न्यादर्श चुनने की विधियाँ बताइए।
उत्तर:
दैव-निदर्शन द्वारा न्यादर्श चुनने के लिए निम्नलिखित विधियाँ प्रयुक्त होती हैं

1. लॉटरी रीति – लॉटरी विधि में सभी इकाइयों की पर्चियाँ या गोलियाँ बनाकर रख ली जाती हैं और किसी निष्पक्ष व्यक्ति या अनभिज्ञ बालक के द्वारा उतनी पर्चियाँ उठवा ली जाती हैं जितनी न्यादर्श में सम्मिलित करनी होती हैं। पर्चियाँ बनाते समय यह सावधानी रखनी चाहिए कि पर्चियाँ समान आकार-प्रकार की हों। पर्चियों को हिलाकर परस्पर मिला लेना चाहिए।

2. ढोल घुमाकर – इस रीति में समान आकार-प्रकार के नम्बर लिखे हुए लकड़ी या अन्य प्रकार के टुकड़े ढोल में डाल दिये जाते हैं। ढोल को हाथ या बिजली से घुमाकर उन अंकों को अच्छी तरह मिला लिया जाता है। इसके बाद निष्पक्ष व्यक्ति द्वारा क्रमशः नम्बर निकलवा लिये जाते हैं और उन अंकों को अलग लिख लिया जाता है।

3. निश्चित क्रम द्वारा –
इस विधि में समग्र इकाइयों को संख्यात्मक या वर्णात्मक क्रम में लिख लिया जाता है। इसके बाद उनमें से सुविधानुसार क्रम से आवश्यक संख्या को न्यादर्श में सम्मिलित कर लिया जाता है। उदाहरण के लिए–यदि 50 छात्रों में से 10 छात्र छाँटने हैं तब क्रमानुसार संख्या लिखकर उनमें से 5, 10, 15, 20, 25, 30, 35, 40, 45, 50वें छात्र को न्यादर्श में सम्मिलित कर लिया जाता है।

दैव-निदर्शन विधि से न्यादर्श चुनने के निम्नलिखित लाभ होते है।

  1. दैव-निदर्शन विधि में किसी प्रकार का कोई पक्षपात सम्भव नहीं होता।
  2. इस रीति में समय, श्रम व धन की बचत होती है।
  3. इस विधि द्वारा छाँटी गयी प्रतिदर्श इकाइयाँ समग्र का प्रतिनिधित्व करती हैं।

प्रश्न 7
पूर्ण गणना विधि तथा प्रतिदर्श विधि में अन्तर बताइए।
उत्तर:
पूर्ण गणना या प्रतिदर्श दोनों विधियाँ सांख्यिकीय अध्ययन के लिए महत्त्वपूर्ण विधियाँ हैं। दोनों में निम्नलिखित अन्तर होते हैं।

  1. पूर्ण गणना विधि में समूह की प्रत्येक इकाई के विषय में जाँच की जाती है, जबकि प्रतिदर्श विधि में कुछ ही इकाइयों की जाँच की जाती है।
  2. पूर्ण गणना पद्धति में व्यापक संगठन की आवश्यकता होती है, परन्तु प्रतिदर्श पद्धति में छोटे-से संगठन से भी काम चलाया जा सकता है।
  3. पूर्ण गणना विधि में विभ्रम का अनुमान नहीं लगाया जाता, परन्तु प्रतिदर्श विधि में विभ्रम का अनुमान पर्याप्त सीमा तक लगाया जा सकता है।
  4. जहाँ अनुसन्धान का क्षेत्र सीमित हो वहाँ पूर्ण गणना विधि तथा जहाँ अनुसन्धान का क्षेत्र अनन्त हो वहाँ प्रतिदर्श विधि अधिक उपयुक्त रहती है।
  5. जहाँ इकाइयों की संख्या बहुत ही कम हो वहाँ पूर्ण गणना विधि और जहाँ इकाइयाँ नाशवान् हों या अनन्त हों वहाँ अनुसन्धान की प्रतिदर्श विधि ही अपनायी जा सकती है।
  6. पूर्ण गणना विधि में ऊँचे स्तर की शुद्धता होती है, जबकि प्रतिदर्श विधि में सामान्य स्तर की है।
  7. यदि अनुसन्धान की प्रकृति ऐसी हो जहाँ सभी इकाइयों का अध्ययन आवश्यक हो तो पूर्ण गणना विधि उपयुक्त रहती है, परन्तु जहाँ सभी इकाइयों का अध्ययन महत्त्वपूर्ण न हो वहाँ निदर्शन या प्रतिदर्श विधि उपयुक्त रहती है।
  8. पूर्ण गणना विधि में अधिक धन, समय एवं श्रम की आवश्यकता होती है, परन्तु निदर्शन विधि में कम श्रम, समय एवं धन की आवश्यकता होती है।
  9. पूर्ण गणना विधि में विविध गुणों वाली विजातीय इकाइयों का अध्ययन किया जा सकता है, परन्तु निदर्शन या प्रतिदर्श विधि में सजातीय एवं एक-सी इकाइयों का अध्ययन उपयुक्त रहता है।

वास्तव में, पूर्ण गणना एवं प्रतिदर्श, दोनों ही महत्त्वपूर्ण विधियाँ हैं जो अलग-अलग परिस्थितियों में अपना स्थान रखती है। कई बार दोनों ही विधियों को एक साथ भी काम में लाया जाता है; अत: दोनों ही विधियों का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है और पृथक्-पृथक् परिस्थितियों में दोनों ही उपयोगी हैं।

प्रश्न 8
समग्र एवं न्यादर्श पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
समग्र-किसी भी अनुसन्धान क्षेत्र की सम्पूर्ण इकाइयाँ सामूहिक रूप में समग्र कहलाती हैं। दूसरे शब्दों में, अवलोकनों का सम्पूर्ण समूह जिनका अनुसन्धान किया जा रहा है, समग्र कहलाता है। अनुसन्धान इकाई की परिभाषा के अन्तर्गत आने वाले समस्त पदों का समूह समग्र कहा जाता है। तथा समग्र की इकाइयाँ व्यक्तिगत रूप में ‘इकाई’ कही जाती हैं। समग्र में निहित इकाइयों के आधार पर यह दो प्रकार का होता है

1. निश्चित या अनन्त समग्र – निश्चित समग्र में इकाइयों की संख्या निश्चित होती है; जैसे-किसी कॉलेज में छात्र या कारखाने में श्रमिक। इसे परिमित समग्र भी कहते हैं। अनन्त या अपरिमित समग्र में इकाइयों की संख्या निश्चित न होकर अनन्त होती है। आकाश के तारागण, वृक्ष की पत्तियाँ आदि अनन्त समग्र के ही उदाहरण हैं।

2. वास्तविक या काल्पनिक समग्र – अस्तित्व की दृष्टि से ठोस विषय वाले समग्र को वास्तविक अथवा विद्यमान समग्र कहते हैं; जैसे—विद्यालय के छात्र, कारखाने के श्रमिक आदि। वह सामग्री जो ठोस नहीं होती, काल्पनिक समग्र के अन्तर्गत आती है। सिक्कों के उछालों की संख्या काल्पनिक समग्र का ही उदाहरण है।

न्यादर्श – जब सम्पूर्ण समग्र में से किसी विशिष्ट आधार या थोड़ा-सा भाग जाँच के लिए लिया जाता है तो उसे नमूना, बानगी, प्रतिनिधि अंश अथवा न्यादर्श कहते हैं। न्यादर्श का अध्ययन करके समग्र के बारे में जानकारी प्राप्त की जाती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
सांख्यिकी की दो सीमाएँ बताइए। [2009]
उत्तर:
सांख्यिकी की सीमाएँ निम्नलिखित हैं

  1. सांख्यिकी में समूहों का अध्ययन किया जाता है न कि इकाइयों को।
  2. सांख्यिकी में केवल संख्यात्मक तथ्यों का अध्ययन होता है।

प्रश्न 2
आधुनिक युग में सांख्यिकी का महत्त्व लिखिए।
उत्तर:
आधुनिक युग में सांख्यिकी का महत्त्व उत्पादन, उपभोग विनिमय, वितरण, लोकवित्त के क्षेत्र में बढ़ता जा रहा है। देश का आर्थिक विकास, नियोजन के माध्यम से किया जा रहा है; अतः सांख्यिकी का महत्त्व और भी अधिक बढ़ गया है।

प्रश्न 3
प्राथमिक समंक और द्वितीयक समंक में क्या सूक्ष्म अन्तर है?
उत्तर:
प्राथमिक समंक अनुसंधानकर्ता अपनी आवश्यकतानुसार स्वयं संगृहीत करता है, जबकि द्वितीयक समंक अनुसंधानकर्ता द्वारा स्वयं एकत्रित नहीं किये जाते हैं। समंकों का संग्रहण किसी पूर्वअनुसंधानकर्ता के द्वारा पहले से ही किया होता है।

प्रश्न 4
विस्तृत प्रतिदर्श क्या है? इसके गुण बताइए।
उत्तर:
विस्तृत प्रतिदर्श बड़ा प्रतिदर्श लिया जाता है तथा लगभग 80 या 90% इकाइयाँ प्रतिदर्श में सम्मिलित की जाती हैं।

विस्तृत प्रतिदर्श के गुण

  1. परिणाम अधिक शुद्ध होते हैं।
  2. परिणाम पक्षपातरहित होते हैं।
  3. जाँच विस्तृत होती है

किश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
सांख्यिकी किसे कहते हैं? [2008, 16]
या
“सांख्यिकी गणना का विज्ञान है।” यह परिभाषा किसकी है? [2013]
उत्तर:
डॉ० बाउले के अनुसार, “सांख्यिकी गणना का विज्ञान है।”

प्रश्न 2
प्रशासन तथा व्यवसाय में सांख्यिकी का महत्त्व लिखिए।
उत्तर:
(1) कुशल प्रशासन हेतु अनेक प्रकार की सूचनाएँ एकत्र करनी होती हैं जिसके लिए। सांख्यिकी की आवश्यकता पड़ती है।
(2) एक व्यापारी को वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा मूल्य सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करने के लिए सांख्यिकी के सहयोग की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 3
सांख्यिकी के कोई दो उपयोग लिखिए। [2012]
उत्तर:
(1) इसका उपयोग तथ्यों को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करने में होता है।
(2) इसका उपयोग वैज्ञानिक नियमों की सत्यता जाँचने में होता है।

प्रश्न 4
सांख्यिकी के दो कार्य बताइए।
उत्तर:
सांख्यिकी के दो कार्य हैं

  1. समंकों को संगृहीत करना तथा
  2. समंकों के द्वारा निष्कर्ष निकालना।

प्रश्न 5
समंकों के संकलन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
समंकों के संकलन से आशय आँकड़ों को एकत्रित करने से है।

प्रश्न 6
संकलन के आधार पर समंक कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
संकलन के आधार पर समंक निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं

  1. प्राथमिक समंक तथा
  2. द्वितीयक समंक।

प्रश्न 7
प्राथमिक समंक (आँकड़े) क्या होते हैं? [2007, 08, 13, 14, 16]
उत्तर:
प्राथमिक समंक वे समंक होते हैं, जिन्हें अनुसन्धानकर्ता अपने उपयोग के लिए स्वयं एकत्रित करता है।

प्रश्न 8
प्राथमिक समंक की दो विशेषताएँ लिखिए। [2007, 08, 13, 14, 15]
उत्तर:
(1) अनुसन्धानकर्ता अपनी आवश्यकतानुसार इन समंकों का संग्रहण करता है।
(2) प्राथमिक समंक पूर्णतः मौलिक होते हैं।

प्रश्न 9
द्वितीयक समंक क्या होते हैं?
उत्तर:
द्वितीयक समंक वे समंक होते हैं जिन्हें अनुसन्धानकर्ता स्वयं एकत्रित नहीं करता अपितु उन समंकों का संग्रहण किसी पूर्व अनुसन्धानकर्ता के द्वारा पहले से ही किया होता है तथा निष्कर्ष भी निकाले हुए होते हैं।

प्रश्न 10
प्रतिदर्श अनुसन्धान विधि क्या है?
उत्तर:
प्रतिदर्श अनुसंधान विधि में समग्र सूचनाएँ प्राप्त नहीं की जाती हैं, वरन् समग्र में से कुछ इकाइयों को छाँट लेते हैं। छाँटी हुई इकाइयों की भी जाँच की जाती है तथा उनके आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

प्रश्न 11
“सांख्यिकी प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करती है और जीवन को अनेक बिन्दुओं पर स्पर्श करती है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
टिपेट (Tippett) का।

प्रश्न 12
सांख्यिकी के प्रति अविश्वास के दो कारण बताइए।
उत्तर:
(1) सांख्यिकी के विषय में ज्ञान न होना तथा
(2) सांख्यिकी की सीमाओं की उपेक्षा।

प्रश्न 13
सांख्यिकी के प्रति विश्वास उत्पन्न करने हेतु दो उपाय बताइए।
उत्तर:
(1) समंकों का निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र उपयोग किया जाए।
(2) समंकों का उपयोग करते समय सांख्यिकी सीमाओं को ध्यान में रखा जाए।

प्रश्न 14
द्वितीयक समंक संकलन के दो मुख्य प्रकाशित स्रोत लिखिए। या द्वितीयक आँकड़ों के क्या स्रोत हैं? [2003]
उत्तर:
(1) समाचार-पत्र-पत्रिकाएँ तथा
(2) सरकारी प्रकाशन।

प्रश्न 15
केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन का मुख्य कार्य क्या है?
उत्तर:
केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन का मुख्य कार्य राष्ट्रीय आय के आँकड़ों का संकलन करना व प्रकाशन कराना है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
“सांख्यिकी अनुमानों और सम्भावनाओं का विज्ञान है। यह परिभाषा है
(क) डॉ० बाउले की
(ख) बॉडिंगटन की
(ग) प्रो० किंग की।
(घ) सेलिगमैन की
उत्तर:
(ख) बॉडिंगटन की।

प्रश्न 2
सांख्यिकी के जन्मदाता हैं
(क) प्रो० किंग
(ख) क्रॉक्सटन व काउडन
(ग) गॉटफ्रिड ऐकेनवाल
(घ) सेलिगमैन
उत्तर:
(ग) गॉटफ्रिड ऐकेनवाल।

प्रश्न 3
आँकडे कितने प्रकार के होते हैं?
(क) एक
(ख) दो
(ग) तीन
(घ) चार
उत्तर:
(ख) दो।

प्रश्न 4
निम्न में से कौन-सा कथन सही है? [2011]
(क) सांख्यिकी केवल औसत का विज्ञान है।
(ख) सांख्यिकी को गलत उपयोग नहीं हो सकता है।
(ग) सांख्यिकी केवल गणना का विज्ञान है।
(घ) निरंकुश व्यक्ति के हाथ में सांख्यिकी विधियाँ बहुत खतरनाक औजार है।
उत्तर:
(घ) निरंकुश व्यक्ति के हाथ में सांख्यिकी विधियाँ बहुत खतरनाक औजार है।

प्रश्न 5
सांख्यिकी को सर्वाधिक माना जा सकता है [2010]
(क) कला
(ख) विज्ञान
(ग) कला एवं विज्ञान दोनों
(घ) इनमें कोई नहीं।
उत्तर:
(ग) कला एवं विज्ञान दोनों।

प्रश्न 6
सांख्यिकी के सम्बन्ध में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही नहीं है? [2012]
(क) यह संख्या का विज्ञान है।
(ख) यह गुणात्मक तथ्यों का अध्ययन करता है।
(ग) यह ज्ञान का व्यवस्थित समूह है।
(घ) यह कारण और परिणाम सम्बन्ध का अध्ययन करता है।
उत्तर:
(ख) यह गुणात्मक तथ्यों का अध्ययन करता है।

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UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 5

UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 5 are part of UP Board Class 12 Hindi Model Papers. Here we have given UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 5.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Hindi
Model Paper Paper 5
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 5

समय 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक 100

नोट

  • प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
  • सभी प्रश्नों के उत्तर देना अनिवार्य है।
  • सभी प्रश्नों हेतु निर्धारित अंक उनके सम्मुख अंकित हैं।

खण्ड ‘क’

प्रश्न 1.
(क) समय-सारथी’ के लेखक हैं  [1]
(i) मोहन राकेश ।
(ii) राहुल सांकृत्यायन
(iii) डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी
(iv) कशिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’

(ख) ‘आवारा मसीहा’ नामक रचना किस विधा से सम्बन्धित है? ) इ-पास  [1]
(i) उपन्यास
(ii) जीवनी
(iii) आत्मकथा
(iv) कहनि

(ग) भक्तमाल’ के रचनाकार है।  [1]
(i) विट्ठलनाथ
(ii) अग्रदा
(iii) नाभादास
(iv) गोकुलनाथ

(घ) निम्न में से कौन भारतेन्दु युग का नाटक है। [1]
(i) लहरों के राजहंस
(ii) अम्पाती
(iii) धुवस्वामिनी
(iv) नल-दमयन्ती

(इ) निम्नलिखित में से कौन-सी रचना रीतिकालीन कवि भूषण की। नहीं है?  [1]
(i) सुजान सागर ।
(ii) शिवा बागनी ।
(iii) छत्रसाल दशक
(iv) शिवराज सुवर्ण

प्रश्न 2.
(क) ‘दिनकर’ को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है। [1]
(i) कुस्त्र पर
(ii) रश्मिरथी
(iii) धर्वशी
(iv) इंकार

(ख) प्रियप्रवास महाकाव्य के रचयिता हैं। [1]
(i) रामधारी हि दिनकर
(ii) या प्रसाद
(iii) जगन्नाथदास रत्नाकर
(iv) परोक्त में से कोई नहीं

(ग) अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ युग के कवि है [1]
(i) भारतेन्दु-युग
(ii)  प्रगतिवाद-युग
(iii) द्विवेदी-युग
(iv) छायावाद-युग

(घ) द्वापर’ रचना है [1]
(i) सूरदास की
(ii) सुमित्रानन्दनपन्त
(iii) महादेवी वर्मा की
(iv) मैथिलीशरण गुप्त की

(ङ) रीतिबद्ध काव्यधारा के कवि हैं  [1]
(i) केशदास
(ii) बिहारीलाल
(iii) घनानन्द
(iv) बीघा

प्रश्न 4.
निम्नलिखित काव्यांशों को पढ़कर उनपर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए। [5 x 2 = 10]
‘कौन तुम! अमृत-जलनिधि तौर तरंगों से की मणि एक; कर रहे निर्मन का चुपचाप प्रभा को पारा से अभिषेक मधुर विश्रान्त और एकान्त जगत को सुलझा हुआ रहस्य; एक करुणामय मदर मौन और चंचल मन का आलस्य! उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) पद्यांश के कवि वे शीर्षक का नामोल्लेख कीजिए।
(ii) प्रस्तुत पद्यांश में संसृति-प्ल धि’ किसे व क्यों कहा गया है?
(iii) प्रस्तुत पद्यांशा में किसके मन की व्याकुलता को उजागर किया 
गया है।
(iv) मनु को देने के पश्चात् श्रद्धा को कैसी अनुभूति होती है?
(v) पद्यांश का केन्द्रीय भाव लिखिए। मक्क पग को १ मलिन करता आना पदचिह्न न दें आना जाना, मेरे आगम की जग में सुख की सिरहून हो अन्त विली! विस्तृत नम का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना, परिचय इतना इतिहास यही उमड़ी कल थी मिट आज चली! मैं नीर भरी दु:ख को बदली!

उपरोक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) कवयित्री अपने जीवन की तुलना किससे वे क्यों करती है?
(ii) कवयित्री का स्मरण लोगों में खुशियाँ क्यों बिखेर देता है?
(iii) “विस्तृत नम का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना” पंक्ति 
का भाशय स्पष्ट कीजिए।
(iv) प्रस्तुत पह्मांश का केन्द्रीय भाव लिखिए।।
(v) प्रस्तुत पशि में अलंकार योजना पर प्रकाश डालिए।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित लेखकों में से किसी एक लेखक का जीवन परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए। [4]
(i) जैनेन्द्र
(ii) श्री. सुन्दर रेड्डी
(iii) मोहन राकेश

प्रश्न 6.
निम्नलिखित कवियों में से किसी एक का जीवन परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए। [4] 
(i) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
(ii) जयशंकर प्रसाद
(iii) मैथिलीशरण गुप्त
(iv) सूर्यकान्त त्रिपाठी निरला

प्रश्न 7.
स्वतत नाटक के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नों में से किसी एक प्रश्न का उत्तर दीजिए। [4] 
(i) कुहासा और किरण नाटक के द्वितीय अंक की कथा का सार 
अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
(i) ‘कुहासा और किरण’ नाटक में भ्रष्टाचार रूपी कुहासे का 
यथार्थ चित्रण देखने को मिलता है। सप्रमाण उत्तर दीजिए।

(ii) ‘आन का मान’ नाटक के मार्मिक स्थलों का वर्णन कीजिए।
अथवा
(iii) नाटक के तत्वों के आधार पर ‘गरुड़प्पन’ नाटक की समीक्षा अषया
अथवा
‘गरुड़ध्वज’ नाटक के कथानक में निहित उद्देश्य को स्पष्ट | कीजिए।

(iv) सूतपुत्र’ नाटक के प्रमुख पात्र या नायक का चरित्र भित्रण कीजिए।
अथवा
सूत पुत्र’ नाटक के कथानक पर प्रकाश डालिए।

(v) ‘राम’ नाटक में निहित राष्ट्रीय एकता एवं संस्कृति के सन्देश को अपने शब्दों में व्यक्त कीजिए।
अथवा
राजकट’ नाटक को भाषा एवं संवाद-योजना की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित खण्डकाव्यों में से स्वपठित खण्डकाव्य के आधार पर किसी एक प्रश्न का उत्तर दीजिए। [4] 
(क) ‘श्रवण कुमार’ खण्डकाव्य को प्रमुख घटना को अपने शब्दों में
वर्णन कीजिए।
अथवा
‘श्रवण कुमार’ खण्डकाव्य के शीर्षक की आर्मकता को स्पष्टकीजिए।

(ख) “मुक्तियज्ञ की राष्ट्रीयता एवं देशभक्ति संकुचित नहीं 
है।”-इस उक्ति के परिप्रेक्ष्य में मुतिया’ की कमावस्तु को विवेचना कीजिए। अथवा ‘मुक्तियज़’ की भाषा शैली पर उदाहरण सहित प्रकाश डालिए।
(ग) “हर्षवर्द्धन के चरित्र में लोकमंगल की कामना निहित 
है।”-इस कथन के आलोक में ‘त्यागपयों’ के नायक हर्षवर्द्धन का चरित्रांकन कीजिए। अयवा ‘त्यागपथी खण्डकाव्य के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।

(घ) “श्मिरथी खण्डकाव्य में कवि का मुख्य मन्तव्य कर्ण के चरित्र के शील पक्ष, मैत्री भाव तथा शौर्य का चित्रण करना है।” सिद्ध कौजिए।
अथवा
रश्मिरथी’ खण्डकाव्य की कथावस्तु का संक्षेप में विवेचन

(ङ) “सत्य की जीत काव्य में द्रौपदी के चरित्र में वर्तमान युग, 
के नारी जागरण का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।”-इस कथन को सिद्ध कीजिए।
अथवा
खण्डकाव्य की विशेषताओं के आधार पर सत्य की जीत खण्डकाव्य की समीक्षा कीजिए।
(च) ‘आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य के शीर्षक को सार्थकता को स्पष्ट 
कीजिए। अथवा “आलोक-वृत्त एक सफल खुशहूकाव्य है।”-इस कथन के औचित्य पर अपने विचार प्रकट कीजिए।

खण्ड ‘ख’

प्रश्न 1.
निम्नलिखित अवतरणों का सन्दर्भ-सहित हिन्दी में अनुवाद कीजिए। [5 + 5 = 10]
(क)
अतीते प्रथमकल्ये चतुरादाः सिहं राजानमन्। मत्स्या 
आनन्दमत्स्य, शकुनयः सुवर्णहसम्। तस्य पुनः सुवर्णराजहंसस्य दुहिता ऐसपोतिका अतीव रूपवती आसीत्। स तस्यै वरमदात् । यत् सा आत्मनश्चित्तरुचितं स्वामिनं वृणुयात् इति। हंसराजः तस्यै वर दत्तया हिमविश शकुनिसक्ने संन्यपतत्। नानाप्रकाराः हँसमयूरादः शकुनिगणाः समागत्य एकस्मिन महति पाषाणतले संन्यपतन्। हंसराजः आत्मनः चित्तरुचितं स्वामिकम् आगत्य वृष्यात् इति दुहितरमादिदेश। सा शकुनिसते अवलोकयन्ती मणिवर्णीव चित्रप्रेक्षणं मयूर दृष्ट्वा ‘अयं में स्वामिकों भवतु’ यभाषत। मयूरः “आद्यापि तावन्में बलं न पश्यसि’ इति अतिगण लग्णाञ्च त्यक्त्वा तान्महतः शकुनिसङ्गस्य मध्ये पक्षौ प्रसार्य नर्तितुमारब्धवान्। नृत्यन् चाप्रतिच्छन्नोऽभूत्। सुवर्णराजहंसः लज्जितः अस्य नैव हीः अस्ति व बणां समुत्थाने लज्जा। नास्मै गतत्रपाय स्वदुहितरं दास्यामि इयकथयत्।।
अथवा
सौराष्ट्रप्रान्ते टङ्कारानाम्नि झामे औकर्षणतिवारीनाम्नो घनाद्यस्य 
औदीच्यविप्रवंशीयस्य धर्मपानी शिवस्य पार्वतीय भाद्रमासे नवम्यां तिथौ गुरुवासरे मूलनक्षत्रे एकाशीत्युत्तराष्टादशशततमे (1881) वैक़माब्दे पुत्ररत्नमजनयत्। जन्मतः दशमे दिने ‘शिवं भजेदयम्’ इति बुद्धया पिता स्वसुतस्य मूलशङ्कर इति नाम अकरोत् अष्टमे वर्षे चास्योपनयनमकरोत्।

योदशवर्ष प्राप्तेऽस्मै मूलङ्कराय पिता शिवरात्रिवतमाचरितुम् अकयत्। पितुराजानुसार मूलशङ्करः सर्यमपि व्रतविधानमकरोत्। रात्री शिवालये स्वपित्रा समं सर्वान् निद्रितान् विलोक्य स्वयं जागरितोऽतिष्ठत् शिवलिङ्गस्य चोपरि मूर्षिकमेकमतस्ततः विचरन्तं दृष्ट्वा शङ्कितमानसः सत्यं शिवं सुन्दरं लोकशङ्करं शङ्करं साक्षात्क इदि निश्चितवान्। ततः प्रभृत्येव शिवरात्रेः उत्सवः ऋषियोपोत्सवः’ इति नाम्ना श्रीमद्दपानन्दानुयायिनाम् आर्यसमाजिनां मध्ये प्रसिद्धोऽभूत।

(ख)
रेखामात्रमपि क्षुष्णादामनों वस्त्रनः परम् ।
न व्यतीयुः प्रजास्तस्य नियन्तुम्वृित्तयः ।।
अथवा
प्रस्तरेषु च रम्येषु विविधा कानन द्रुमाः ।
वायुवेगप्रचलिताः पुष्पैरवकिरन्ति माम् ॥

प्रश्न 2.
निम्नलिखित प्रश्नों में से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में दौजिए। [4+4=8]
(क) धीराः कुतः पदं न प्रविचलन्ति?
(ख) कः कालः प्रचुरमन्मथ भवति ।
(ग) राजा भोजः सौता किं प्राह?
(घ) दिलीप: किमर्स बलिममहीन्?

प्रश्न 3.
(क) ‘करुण’ अथवा ‘शान्त’ रस की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए। [2]
(ख) ‘अनन्वय’ अथवा ‘इलेष’ अलंकार की परिभाषा उदाहरण 
सहित लिखिए। [2]
(ग) ‘सुन्दरी’ अथवा ‘कुण्डलियाँ’ छन्द का लक्षण एवं उदाहरण 
लिखिए।  [2]

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से किसी एक विषय पर अपनी भाषा शैली में निबन्ध तिलिए। [9]
(क) मेरी प्रिय पुस्तक
(ख) राष्ट्र निर्माण में युवाशक्ति का योगदान
(ग) कम्प्यूटर की उपयोगिता
(घ) राष्ट्रीय एकता में हिन्दी का योगदान

(ङ) विद्यार्थी और राजनीति

प्रश्न 5.
(क)
(i) भानु + उदयः अथवा तत् + लय: की सन्धि कीजिए।  (1)
(i) हरेऽव अथवा उत्साहः में से किसी एक का सन्धि-विच्छेद कीजिए। (1)
(iii) दुग्धम् अथवा पित्राज्ञा में कौन-सी सन्धि है?  (2)

(ख)
(i) ‘नाम्नोः ‘ रूप है, ‘नाम’ शब्द का 
(1/2)
(a) चतुर्थी, एकवचन
(b) षष्ठी, द्विवचन
(c) पञ्चमी, एकवचन
(d) सप्तमी बहुवचन

(ii) ‘यद्’ (स्त्रीलिंग) द्वितीया, द्विवचन का रूप है (1/2)
(a) ययोः
(b) याः
(c) याम्
(d) ये

(ग)
(i) ‘दा’ अथवा ‘नी’ धातु के लङ् लकार, मध्यम पुरुष, द्विवचन का रूप लिखिए। (1)
(ii) ‘तिष्ठेव’ रूप किस धातु का, किस लकार, किस पुरुष तथा किस वचन  (1)

(घ)
(i) निम्नलिखित में से किसी एक शब्द में धातु एवं प्रत्यय का योग स्पष्ट कीजिए। लब्ध्वा, श्रवणीयः, नीतः।  (1)
(ii) निम्नलिखित में से किसी एक शब्द में प्रत्यय बताइए। (1) 
ज्ञानवती, मतिमान्, दीनत्व

(ङ)
रेखांकित पदों में से किन्हीं दो में प्रयुक्त विभक्ति तथा उससे सम्बन्धित नियम का उल्लेख कीजिए। (1 +1 = 2) 
(i) भिक्षुकः कर्णेन बधिरः अस्ति।
(ii) गङ्गायाः उदकम्।
(iii) तस्मै स्वधा।

(च)
निम्नलिखित में से किसी एक का विग्रह करके समास का नाम लिखिए। (2)
(i) आबालवृद्धम्
(ii) नीलाम्बरम्
(iii) विशालाक्ष:

प्रश्न 6.
निम्नलिखित वाक्यों में से किन्हीं चार वाक्यों का संस्कृत में अनुवाद कीजिए। (2)
(क) संसार में सभी लोग सुख चाहते हैं।
(ख) अपने माता-पिता का सदा सम्मान करो।
(ग) गाँव के चारों ओर बाग है।
(घ) दुर्योधन, धृतराष्ट्र का पुत्र था।
(ङ) क्या तुम आज विद्यालय नहीं जाओगे?

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 14 Executive of State: Governor and the Council of Ministers

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 14 Executive of State: Governor and the Council of Ministers (राज्य की कार्यपालिका-राज्यपाल तथा मन्त्रिपरिषद्) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 14 Executive of State: Governor and the Council of Ministers (राज्य की कार्यपालिका-राज्यपाल तथा मन्त्रिपरिषद्).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 14
Chapter Name Executive of State: Governor and the Council of Ministers
(राज्य की कार्यपालिका-राज्यपाल तथा मन्त्रिपरिषद्)
Number of Questions Solved 55
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 14 Executive of State: Governor and the Council of Ministers (राज्य की कार्यपालिका-राज्यपाल तथा मन्त्रिपरिषद्)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
राज्यपाल की शक्तियों की विवेचना कीजिए। [2016]
या
राज्यपाल की नियुक्ति कैसे होती है? उसके कार्यों तथा शक्तियों का वर्णन कीजिए। [2008, 09, 11, 12, 13]
या
भारत में राज्यपालों की शक्तियों एवं स्थिति का परीक्षण कीजिए। [2012, 13, 15]
या
“राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रधान है।” इस कथन का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। [2012]
या
भारत में राज्यैपाल की कार्यपालिका तथा विधायिनी शक्तियों का परीक्षण कीजिए। [2012]
उत्तर :
राज्यपाल – भारत में संघीय शासन-व्यवस्था अपनायी गयी है। इस हेतु संविधान द्वारा यह व्यवस्था की गयी है कि केन्द्र तथा इकाई राज्यों की पृथक्-पृथक् सरकारें होंगी। राज्य सरकारों का गठन बहुत कुछ संघ सरकार से मिलता-जुलता है। राज्य का संवैधानिक अध्यक्ष राज्यपाल होता है। के० एम० मुन्शी के अनुसार, “राज्यपाल संवैधानिक व्यवस्था का प्रहरी है। वह ऐसी कड़ी है, जो कि राज्य को संघ से जोड़कर भारत की संवैधानिक व्यवस्था को बनाये रखने में योग देता है।’ संविधान की धारा 154 में यह स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि राज्य की समस्त कार्यकारिणी शक्तियाँ उस राज्य के राज्यपाल में निहित होंगी, किन्तु इन शक्तियों का प्रयोग वह संविधान के अनुसार या तो स्वयं अथवा अपने अधीनस्थ पदाधिकारियों द्वारा करेगा। राज्यपाल की स्थिति बहुत कुछ ऐसी है जैसी कि केन्द्र में राष्ट्रपति की। संविधान के अनुच्छेद 153 से 160 तक राज्यपाल के सम्बन्ध में विस्तृत रूप से बताया गया है।

राज्यपाल की नियुक्ति – संविधान के अनुच्छेद 155 के अनुसार राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति किसी भी योग्य व्यक्ति को, जो निर्धारित शर्ते पूरी करे, राज्यपाल के पद पर नियुक्त कर सकता है।

राज्यपाल की नियुक्ति के सम्बन्ध में कुछ प्रथाएँ विकसित हो गयी हैं। इनमें से मुख्य इस प्रकार हैं –

  1. राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री के परामर्श से ही राज्यपाल की नियुक्ति करता है।
  2. राज्यपाल जिस राज्य के लिए नियुक्त किया जाता है, साधारणतः वह उस राज्य का निवासी नहीं होता।
  3. राज्यपाल की नियुक्ति से पूर्व राष्ट्रपति उस राज्य के मुख्यमन्त्री से भी परामर्श लेता है।

राज्यपाल को निर्वाचन किये जाने की अपेक्षा उसकी राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति को ही अधिक उपयुक्त समझा गया, क्योंकि निर्वाचन की स्थिति में राज्य का ही नागरिक इस पद के लिए खड़ा हो सकता था जिससे वह राजनीतिक दलबन्दी में पड़ जाता। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये जाने पर देश की एकता में दृढ़ता आ जाएगी, क्योंकि वह व्यक्ति किसी अन्य राज्य का निवासी होता है। अतः वह राज्य की दलबन्दी से दूर रहता है।

संविधान के अनुसार राज्यपाल के पद के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ अनिवार्य हैं –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 35 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हो।
  3. वह संसद अथवा किसी राज्य के विधानमण्डल का सदस्य न हो। यदि ऐसा कोई व्यक्ति राज्यपाल नियुक्त हो जाता है तो पद-ग्रहण करने के पहले उसे संसद या विधानमण्डल, जिसका वह सदस्य है, की सदस्यता से त्याग-पत्र देना होगा।
  4. वह किसी भी सरकारी वैतनिक पद पर कार्य न कर रहा हो।
  5. वह किसी न्यायालय द्वारा दण्डित न किया गया हो।

कार्यकाल – संविधान के अनुच्छेद 156 (1) के अनुसार, ‘राष्ट्रपति के प्रसाद-पर्यन्त राज्यपाल पद धारण करेगा।” दूसरे शब्दों में, राज्यपाल उसी समय तक अपने पद पर बना रह सकता है, जब तक राष्ट्रपति का उसमें विश्वास है। साधारणत: राज्यपाल की नियुक्ति पाँच वर्ष के लिए होती है, किन्तु वह स्वेच्छा से त्याग-पत्र देकर अवधि से पहले भी अपना पद त्याग कर सकता है। उसे अवधि से पहले भी पदच्युत किया जा सकता है। उसे अवधि से पहले पदच्युत करने को अधिकार केवल राष्ट्रपति को है जिसके लिए संसद से कोई प्रस्ताव पारित कराने की आवश्यकता नहीं होती है। राज्यपाल को पदच्युत करने का अधिकार राज्य के विधानमण्डल को भी नहीं है।

शपथ – राज्यपाल पद ग्रहण करने से पहले राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष संविधान की रक्षा करने, राज्य के कार्यों का न्यायपूर्वक संचालन करने तथा जन-कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहने की शपथ ग्रहण करता है।

वेतन, भत्ते आदि – राज्यपाल को ₹ 1,10,000 मासिक वेतन तथा अन्य भत्ते मिलते हैं। इसके अतिरिक्त रहने के लिए उसे राज्य की राजधानी में नि:शुल्क सरकारी भवन तथा अन्य सुविधाएँ दी जाती हैं। राज्यपाल के कार्यकाल में उसके वेतन या भत्तों आदि में किसी प्रकार की कमी नहीं की जा सकती। भत्तों की राशि विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न है।

राज्यपाल के अधिकार और कार्य

राज्यपाल राज्य की कार्यपालिका का प्रधान होता है। अतः अपने राज्य का उचित प्रकार से संचालन करने के लिए उसे अनेक अधिकार दिये गये हैं। राज्यपाल की राज्य में वही स्थिति होती है जो केन्द्र में राष्ट्रपति की है। उसकी शक्तियाँ भी लगभग वही हैं। श्री दुर्गादास बसु के शब्दों में, ‘राज्यपाल की शक्तियाँ राष्ट्रपति के समान हैं, सिर्फ कूटनीतिक, सैनिक तथा संकटकालीन अधिकारों को छोड़कर।” राज्यपाल को प्राप्त अधिकारों का वर्गीकरण संक्षेप में निम्नलिखित प्रकार से है –

(1) कार्यपालिका सम्बन्धी अधिकार
राज्यपाल को कार्यपालिका का प्रधान होने के कारण कार्यपालिका सम्बन्धी अनेक अधिकार दिये गये हैं, जो कि अग्रलिखित हैं –

(क) शासन संचालन सम्बन्धी अधिकार – राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होती है। राज्य का शासन भली प्रकार चलाने का उत्तरदायित्व उसी पर है। राज्य में कार्यपालिका सम्बन्धी सभी कार्य उसके नाम से होते हैं। वह शासन के कुशल संचालन के लिए। नियम बनाता है और मन्त्रियों में शासन सम्बन्धी कार्य का वितरण करता है। वह मुख्यमन्त्री से शासन सम्बन्धी किसी विषय पर सूचना प्राप्त कर सकता है।

(ख) विशेषाधिकार – राज्यपाल को कुछ ऐसे अधिकार प्रदान किये जाते हैं जिनको स्वेच्छाधिकार की संज्ञा दी जा सकती है। इनका प्रयोग राज्यपाल अपने विवेक से करता है। इनमें उसे मन्त्रिपरिषद् से परामर्श लेने की आवश्यकता नहीं होती। विद्वानों ने राज्यपाल के इस अधिकार की कटु आलोचना की है, क्योंकि यह लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों के विरुद्ध है।

(ग) अधिकारियों की नियुक्ति – सैद्धान्तिक दृष्टि से कहा जाता है कि राज्यपाल मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है तथा उसके परामर्श से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। इसके अतिरिक्त वह राज्य के लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों एवं राज्य के महाधिवक्ता की नियुक्ति करता है। साथ ही विधान-परिषद् के कुल संख्या के 1/6 सदस्यों को वह मनोनीत करती है।

(घ) आपातकालीन अधिकार – यदि राज्यपाल यह अनुभव करता है कि राज्य में संविधान के अनुसार शासन का संचालन असम्भव हो गया है तो वह राष्ट्रपति को इसकी सूचना देता है। उसकी सूचना के आधार पर राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राज्य में आपातकाल की घोषणा कर देता है तथा राष्ट्रपति के आदेशानुसार वह राज्य के शासन का समस्त कार्यभार अपने हाथ में ले लेता है।

(2) विधायिनी अधिकार
राज्यपाल राज्य के विधानमण्डल का आवश्यक अंग होता है, यद्यपि वह उसका सदस्य नहीं होता। उसकी विधायिनी शक्तियाँ निम्नलिखित हैं –

(क) कार्यवाही सम्बन्धी अधिकार – विधानमण्डल की कार्यवाही से सम्बन्धित अधिकार राज्यपाल को प्राप्त हैं। अपनी इच्छानुसार विधानमण्डल के दोनों सदनों का अधिवेशन बुलाने, विसर्जित करने तथा विधानसभा को अवधि से पहले भंग करने का अधिकार उसे प्राप्त है। राज्यपाल को यह सुनिश्चित करना पड़ता है कि किसी सदन के दो अधिवेशनों के बीच 6 माह से अधिक समय व्यतीत न हुआ हो। विधानमण्डल के किसी सदन में राज्यपाल अपना भाषण दे सकता है। प्रतिवर्ष विधानमण्डल का प्रथम अधिवेशन राज्यपाल के भाषण से ही प्रारम्भ होता है। वह किसी भी सदन में अपना लिखित सन्देश भेज सकता है। यदि वह चाहे तो दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन भी बुला सकता है।

(ख) विधेयकों की स्वीकृति – विधानमण्डल द्वारा पारित विधेयक राज्यपाल की स्वीकृति पाकर ही कानून का रूप धारण करते हैं। उसके इस अधिकार के निम्नलिखित दो भाग हैं –

  1. वित्त विधेयक-राज्य के वित्त विधेयकों को राज्यपाल न तो अस्वीकृत कर सकता है और न ही उन्हें पुनर्विचार के लिए विधानमण्डल के पास लौटा सकता है। इस सन्दर्भ में उसकी मात्र औपचारिक स्वीकृति ली जाती है।
  2. अन्य विधेयक-वित्त विधेयकों को छोड़कर शेष विधेयकों को राज्यपाल विधानमण्डल के पास पुनर्विचार के लिए लौटा सकता है। राज्यपाल किसी भी विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेज सकता है। यदि राष्ट्रपति उसे विधेयक पर अपनी स्वीकृति दे देता है तो वह कानून बन जाएगा।

(ग) विधानमण्डल के कुछ सदस्यों की नियुक्ति – राज्यपाल राज्य विधान-परिषद् की कुल संख्या के 1/6 भाग सदस्यों को ऐसे लोगों में से मनोनीत करता है जिन्हें साहित्य, कला, विज्ञान, समाजसेवा तथा सहकारिता आन्दोलन के क्षेत्र में निपुणता प्राप्त हो। विधानसभा के लिए उत्तर प्रदेश के राज्यपाल को एक सदस्य एंग्लो-इण्डियन समुदाय का मनोनीत करने का भी अधिकार है। विधानसभा के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष की खाली जगह पर नियुक्ति करने का अधिकार राज्यपाल को है।

(घ) अध्यादेश जारी करने का अधिकार – विशेष परिस्थितियों में राज्यपाल को अध्यादेश जारी करने का अधिकार है, लेकिन इस अधिकार का प्रयोग उसी समय किया जा सकता है जब विधानमण्डल का अधिवेशन न हो रहा हो। अध्यादेशों का प्रभाव विधानमण्डल के कानूनों के समान होता है। यह अधिवेशन विधानमण्डल की बैठक आरम्भ होने के 6 सप्ताह के बाद तक ही लागू रह सकता है, यदि 6 सप्ताह से पूर्व विधानमण्डल इस अध्यादेश को अस्वीकृत न कर दे।

(3) वित्त सम्बन्धी अधिकार
राज्यपाल को वित्त सम्बन्धी निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं –

(क) वार्षिक बजट – विधानमण्डलों में वार्षिक बजट पेश करवाने का अधिकार राज्यपाल को है। इसमें राज्य की आगामी वर्ष की आय एवं व्यय का विवरण रहता है। बजट राज्यपाल की ओर से वित्त मन्त्री द्वारा विधानसभा में प्रस्तुत किया जाता है।

(ख) वित्तीय विधेयक – वित्तीय विधेयक पर राज्यपाल की पूर्व स्वीकृति अनिवार्य है, अर्थात् बिना उसकी पूर्व स्वीकृति के विधानसभा में वित्तीय विधेयक प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।

(ग) अनुदान – किसी भी अनुदान की माँग राज्यपाल की स्वीकृति से की जा सकती है। राज्यपाल ही आय-व्यय से सम्बन्धित किसी प्रकार के सहायक अनुदान की माँग विधानसंभा के समक्ष उपस्थित करता है।

(4) न्याय सम्बन्धी अधिकार

(क) क्षमादान – राज्यपाल अपने राज्य के दण्ड प्राप्त किसी भी अपराधी को क्षमा कर सकता है, दण्ड को कम कर सकता है, अथवा कुछ समय के लिए उसे स्थगित कर सकता है, अथवा उसमें परिवर्तन कर सकता है, परन्तु उन्हीं अपराधियों के सम्बन्ध में वह ऐसा कर सकता है जिन्हें राज्य का कानून तोड़ने के लिए दण्ड मिला हो। मृत्यु-दण्ड को क्षमा करने का अधिकार राज्यपाल को नहीं है।

(ख) नियुक्ति – राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति राज्यपाल से भी परामर्श लेता है।

(5) विविध शक्तियाँ

  1. वह राज्य लोक सेवा आयोग का वार्षिक प्रतिवेदन प्राप्त करता है।
  2. संकटकालीन स्थिति में वह राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है।
  3. वह महालेखा परीक्षक का प्रतिवेदन प्राप्त करता है।
  4. वह अपने राज्य के सभी विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति (Chancellor) होता है।

प्रश्न 2.
राज्यपाल की नियुक्ति कैसे होती है? किसी राज्य में राज्यपाल के पद का क्या महत्त्व है? क्या राज्यपाल किसी परिस्थिति में अपने विवेक के अनुसार कार्य कर सकता है? [2013, 15]
या
भारतीय संविधान के अन्तर्गत राज्यपाल की भूमिका का परीक्षण कीजिए। [2012]
या
प्रदेश के शासन में राज्यपाल का क्या महत्त्व है?
[संकेतः राज्यपाल की नियुक्ति के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 देखें।
उत्तर :
राज्यपाल की स्थिति एवं महत्त्व
राज्यपाल के अधिकारों की व्याख्या करने पर यह ज्ञात हो जाता है कि उसे संविधान द्वारा व्यापक अधिकार दिये गये हैं। एक प्रकार से उसे राज्य का राष्ट्रपति कहा जा सकता है। दुर्गादास बसु ने राज्यपाल की शक्तियाँ राष्ट्रपति के समान बतायीं, केवल कूटनीतिक, सैनिक तथा संकटकालीन शक्तियों को छोड़कर। राज्यपाल को अपने राज्य के शासन-तन्त्र को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए काफी विस्तृत अधिकार दिये गये हैं। जिन विषयों में वह अपने विवेक से काम लेता है उनमें वह मन्त्रिपरिषद् का परामर्श नहीं लेता है। इस प्रकार राज्यपाल को स्व-विवेक के आधार पर प्रयुक्त शक्तियाँ भी प्राप्त हैं। विधानसभा में किसी दल का स्पष्ट बहुमत न होने पर। तथा संविधान की विफलता की स्थिति में भी उसे स्वविवेकी अधिकार प्राप्त हैं; अतः इस स्थिति में वह अपनी वास्तविक शक्ति का उपयोग करता है। संकटकाल की स्थिति में वह केन्द्रीय सरकार के अभिकर्ता (Agent) के रूप में कार्य करता है। इस स्थिति में वह अपनी वास्तविक स्थिति का प्रयोग कर सकता है।

इस पर भी वह केवल वैधानिक अध्यक्ष ही होता है। वास्तविक कार्यपालिका शक्तियाँ तो राज्य मन्त्रिपरिषद् में निहित होती हैं। राज्यपाल बाध्य है कि वह मन्त्रिपरिषद् के परामर्श से ही कार्य करे। संविधान के अनुच्छेद 163 (1) के अनुसार जिन बातों में संविधान द्वारा या संविधान के अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने कार्यों को स्वविवेक से करे। उन बातों को छोड़कर राज्यपाल को अपने कार्यों का निर्वहन करने में सहायता और मन्त्रणा देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी। संविधान राज्यपाल की स्वविवेकी शक्तियों का विशेष रूप से उल्लेख नहीं करता है। केरल, असम, अरुणाचल, मिजोरम, सिक्किम, मेघालय, त्रिपुरा और नागालैण्ड के राज्यपाल को ही इस प्रकार की कुछ स्वविवेकी शक्तियाँ प्राप्त हैं। अत: यह कहा जा सकता है कि साधारणतया राज्यपाल शासन का वैधानिक अध्यक्ष ही है और उसकी शक्तियाँ वास्तविक नहीं हैं। डॉ० एम० वी० पायली का कथन है कि “जब तक राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् के परामर्श पर कार्य करता है और विधानमण्डल के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी मन्त्रिमण्डल को उसके शासनकार्य में सहायता तथा परामर्श देता है, तब तक राज्यपाल के लिए उनके परामर्श की अवहेलना करने की बहुत ही कम सम्भावना है।” महाराष्ट्र के भूतपूर्व राज्यपाल स्वर्गीय श्री प्रकाश ने कहा था कि “मुझे पूरा विश्वास है कि संवैधानिक राज्यपाल के अतिरिक्त मुझे कुछ नहीं करना होगा।’ इस प्रकार राज्यपाल का पद शक्ति व अधिकार का नहीं वरन् सम्मान व प्रतिष्ठा का है। राज्यपाल की वास्तविक स्थिति का वर्णन करते हुए डॉ० अम्बेडकर ने कहा था कि “राज्यपाल दल का प्रतिनिधि नहीं है, वरन् वह राज्य की सम्पूर्ण जनता का प्रतिनिधि है; अतः उसे सक्रिय राजनीति से पृथक् रहना चाहिए। वह एक निष्पक्ष निर्णायक की भाँति है। उसे देखते रहना चाहिए कि राजनीति का खेल नियमानुसार खेला जाए, उसे स्वयं एक खिलाड़ी नहीं बनना चाहिए।’

राज्य प्रशासन में राज्यपाल की स्थिति बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस विषय में पं० जवाहरलाल नेहरू का यह कथन उपयुक्त जान पड़ता है, “भूतकाल में राज्यपालों का महत्त्व काफी अधिक था और आगे भी बना रहेगा। ये राज्य के विभिन्न हितों और दलों के विवादों को मध्यस्थ बनकर दूर करते हैं। वह मन्त्रियों को बहुमूल्य सुझाव दे सकता है। यदि राज्य के शासन द्वारा संविधान का उल्लंघन किया जाए तो राज्यपाल उसकी सूचना तुरन्त राष्ट्रपति को दे सकता है। राज्यपाल के पद का महत्त्व संवैधानिक भी है और परम्परागत भी। इस पद का महत्त्व राज्यपाल के व्यक्तित्व पर निर्भर करता है।”

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 14 Executive of State: Governor and the Council of Ministers

प्रश्न 3.
राज्य मन्त्रिपरिषद् का गठन कैसे होता है? राज्यपाल और मन्त्रिपरिषद् के पारस्परिक सम्बन्धों का वर्णन कीजिए। [2012]
या
राज्य (उत्तर प्रदेश) के मन्त्रिपरिषद् और राज्यपाल के सम्बन्धों की विवेचना कीजिए। [2010]
या
राज्य मन्त्रिपरिषद् का गठन किस प्रकार होता है? उसकी शक्तियों और कार्यों का वर्णन कीजिए।
मन्त्रिपरिषद् के कार्य बताते हुए मन्त्रिपरिषद् और राज्यपाल का सम्बन्ध बताइए। राज्य में मन्त्रिपरिषद् की शक्तियों का वर्णन करते हुए राज्य सरकार में मुख्यमन्त्री की स्थिति स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
राज्य मन्त्रिपरिषद् का गठन
संविधान के अनुच्छेद 163 के अनुसार, “उन बातों को छोड़कर जिनमें राज्यपाल स्वविवेक से कार्य करता है, अन्य कार्यों के निर्वाह में उसे सहायता प्रदान करने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी, जिसका प्रधान मुख्यमन्त्री होगा। राज्यपाल को मन्त्रिपरिषद् द्वारा दिया गया परामर्श न्यायालय में वाद योग्य नहीं होगा।

1. मुख्यमन्त्री की नियुक्ति – राज्य के मन्त्रिपरिषद् के गठन के लिए सबसे पहले मुख्यमन्त्री की नियुक्ति की जाती है। मुख्यमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष कहलाता है। सैद्धान्तिक दृष्टि से मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल करता है, परन्तु व्यवहारतः वह विधानसभा में बहुमत दल के नेता को ही मुख्यमन्त्री के पद पर नियुक्त करता है। लेकिन विधानसभा के किसी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने पर अथवा बहुमत प्राप्त दल या विभिन्न दलों के किसी संयुक्त मोर्चे का कोई निश्चित नेता न होने की स्थिति में राज्यपाल अपने विवेक से मुख्यमन्त्री की नियुक्ति कर सकता है।

2. मन्त्रियों का चयन तथा योग्यताएँ – राज्यपाल अन्य मन्त्रियों का चयन मुख्यमन्त्री के परामर्श से करता है। मन्त्रियों के चुनाव में अन्तिम मत मुख्यमन्त्री का ही रहता है। मन्त्री पद के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति विधानमण्डल के किसी सदन का सदस्य हो। यदि नियुक्ति के समय कोई मन्त्री सदन का सदस्य नहीं होता तो उसे 6 माह के अन्दर किसी सदन की सदस्यता प्राप्त करना अनिवार्य होगा।

3. मन्त्रियों की संख्या एवं कार्य-विभाजन – शासन ठीक प्रकार से चलाने के लिए मन्त्रियों में शासन के अनुसार विभिन्न विभागों को बाँट दिया जाता है। संविधान द्वारा मन्त्रियों की संख्या निश्चित नहीं की गयी है। मुख्यमन्त्री राज्य की आवश्यकता एवं कार्य को ध्यान में रखकर ही मन्त्रियों की संख्या निश्चित करता है। यही कारण है कि मन्त्रिमण्डल के मन्त्रियों की संख्या घटती-बढ़ती रहती है। मन्त्रियों की तीन श्रेणियाँ होती हैं –

  1. कैबिनेट स्तर के मन्त्री
  2. राज्यमन्त्री तथा
  3. उपमन्त्री।

कैबिनेट स्तर के प्रत्येक मन्त्री को शासन के एक या अधिक विभाग सौंप दिये जाते हैं। किसी-किसी राज्यमन्त्री को भी विभागाध्यक्ष बना दिया जाता है। उपमन्त्री सहायक के रूप में काम करते हैं। इनके अतिरिक्त संसदीय सचिव भी होते हैं। मन्त्रियों को विभागों का वितरण मुख्यमन्त्री करता है।

4. सामूहिक उत्तरदायित्व – केन्द्र की तरह राज्यों में भी संसदात्मक पद्धति को ही अपनाया गया है, फलतः राज्य मन्त्रिपरिषद् अपने कार्यों के लिए सामूहिक रूप से राज्य की विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है। इसके अनुसार एक मन्त्री की नीति सम्पूर्ण मन्त्रिपरिषद् की नीति मानी जाती है। मन्त्रिपरिषद् एक इकाई के रूप में काम करती है। सामूहिक उत्तरदायित्व का यह अर्थ है कि मन्त्रिपरिषद् तभी तक अपने पद पर रह सकती है जब तक उसे विधानसभा का विश्वास प्राप्त रहता है।

5. कार्यकाल – मन्त्रियों का कार्यकाल निश्चित नहीं होता है। संविधान में कहा गया है कि मन्त्रि परिषद् उस समय तक अपने पद पर बनी रहेगी जब तक विधानसभा को उसमें विश्वास है। अत: मन्त्रिपरिषद् उस समय तक सत्ता में बनी रह सकती है जब तक उसे विधानसभा में बहुमत प्राप्त है। मन्त्रिपरिषद् किसी भी समय त्याग-पत्र देकर पद से हट सकती है। इसके अतिरिक्त यदि विधानसभा मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पारित कर दे तो उसे अपने पद से हटना पड़ेगा।

6. शपथग्रहण – पद ग्रहण करने से पहले राज्य मन्त्रिपरिषद् के मन्त्री राज्यपाल के समक्ष अपने पद के कर्तव्यपालन एवं मन्त्रिपरिषद् की नीतियों की गोपनीयता की शपथ लेते हैं। वे अपने कार्य एवं मन्त्रणाओं को गुप्त रखते हैं।

7. वेतन तथा भत्ते – मन्त्रियों के वेतन तथा भत्तों के सम्बन्ध में विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न स्थिति है। ये वेतन तथा भत्ते राज्य विधानमण्डल द्वारा निश्चित किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्धारित अन्य सुविधाएँ भी मन्त्रियों को प्राप्त होती हैं।

मन्त्रिपरिषद् के कार्य और शक्तियाँ
राज्य के प्रशासन का संचालन राज्यपाल के नाम से मन्त्रिपरिषद् ही करती है। वास्तव में यह राज्यपाल के समस्त अधिकारों का प्रयोग करती है। मन्त्रिपरिषद् के निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण कार्य हैं

1. प्रशासन सम्बन्धी अधिकार – मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को शासन के विभिन्न विभाग सौंपे जाते हैं। उन विभागों का सामूहिक उत्तरदायित्व मन्त्रिपरिषद् का होता है। राज्य का सम्पूर्ण शासन मन्त्रियों द्वारा ही चलाया जाता है। अपने-अपने विभाग के दिन-प्रतिदिन के कार्यों का निरीक्षण करना भी मन्त्रियों का कार्य है। मन्त्रिपरिषद् विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है। विधानमण्डल का कोई भी सदस्य किसी भी मन्त्री के विषय में प्रश्न पूछ सकता है।

2. वित्तीय कार्य – राज्य की वित्त नीति का निर्धारण राज्य की मन्त्रिपरिषद् करती है। करों की दर निश्चित करना, उन्हें वसूल करने का कार्य करना एवं सरकारी धन को खर्च करना इसी का काम है। यही राज्य की आर्थिक उन्नति की योजना बनाती है। राज्य सरकार का वार्षिक बजट तैयार करना तथा आय-व्यय की विभिन्न मदों को निश्चित करना मन्त्रि परिषद् का कार्य है।

3. जनता में राज्य सरकार की नीति का प्रचार – मन्त्रिपरिषद् के सदस्य जनता में घूमघूमकर राज्य सरकार की नीतियों का प्रचार करते हैं तथा नीतियों एवं योजनाओं के औचित्य का प्रतिपादन करते हैं।

4. नियुक्ति सम्बन्धी कार्य – राज्यपाल को जिन अधिकारियों की नियुक्ति करने का अधिकार है, वे नियुक्तियाँ मुख्य रूप से मन्त्रिपरिषद् ही करती है। इस प्रकार राज्य के महाधिवक्ता, लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य, जिला न्यायाधीश आदि की नियुक्ति राज्य की मन्त्रिपरिषद् ही करती है।

5. नीति-निर्धारण का कार्य – मन्त्रिपरिषद् नीति-निर्धारण का कार्य करती है। वह सरकार की नीति विधानमण्डल से स्वीकृत कराती है। प्रशासन सम्बन्धी सभी नीतियाँ, कार्यक्रम एवं राज्य के कल्याण की योजनाएँ यही बनाती है तथा उनको कार्यरूप में परिणत करती है।

6. कानून-निर्माण का कार्य – मन्त्रिपरिषद् राज्य के लिए कानून बनाने का कार्य करती है। विधेयकों के प्रारूप तैयार करना, उन्हें विधानमण्डल में प्रस्तुत करना, उनके समर्थन में तर्क करना, उन पर विरोधी दलों द्वारा की गयी आलोचनाओं का उत्तर देना तथा उसे विधानमण्डल द्वारा स्वीकृत कराना आदि कार्य मन्त्रिपरिषद् के हैं।

7. राज्यपाल को परामर्श देने सम्बन्धी कार्य – मन्त्रिपरिषद् आवश्यकता पड़ने पर प्रशासन के कार्यों में राज्यपाल को परामर्श देती है। यह परामर्श न्यायालय में वाद योग्य नहीं होता। वैसे साधारणत: राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् के परामर्श के अनुसार ही कार्य करता है।

8. राज्यपाल को अपने निर्णयों की सूचना – मन्त्रिपरिषद् अपने द्वारा लिये गये समस्त निर्णयों से राज्यपाल को अवगत कराती रहती है। राज्यपाल के लिए यह सूचना शासनसंचालन में सहायक सिद्ध होती है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मन्त्रिपरिषद् ही राज्य की वास्तविक कार्यपालिका है। शासन सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यवाही इन्हीं मन्त्रियों के द्वारा सम्पन्न की जाती है। केवल विधानसभा ही इस परिषद् पर अपना अंकुश रख सकती है, परन्तु विधानसभा में मन्त्रिपरिषद् के दल का बहुमत रहता है, इसलिए राज्य की वास्तविक शक्ति इसी के हाथ में रहती है। यह एक ओर तो राज्यपाल के अधिकारों का प्रयोग करती है और दूसरी ओर विधानमण्डल के अधिकारों का। इस कारण राज्य शासन मन्त्रिपरिषद् की इच्छानुसार चलता है। अतः राज्य की प्रगति अथवा अवनति का पूरा उत्तरदायित्व मन्त्रिपरिषद् का ही है। एक स्वस्थ और योग्य मन्त्रिपरिषद् तो राज्य की काया ही पलट सकती है।

मन्त्रिपरिषद् और राज्यपाल का सम्बन्ध
राज्यपाल राज्य का वैधानिक प्रमुख है और मन्त्रिपरिषद् राज्य की वास्तविक प्रमुख। राज्य का प्रशासन तो राज्यपाल के नाम में किया जाता है, किन्तु अधिकतर विषयों पर वास्तविक निर्णय मन्त्रिपरिषद् ही लेती है। सामान्य स्थिति में राज्यपाल से मन्त्रियों के परामर्श के अनुसार कार्य करने की आशा की जाती है। यद्यपि राज्यपाल ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं होता फिर भी संसदात्मक व्यवस्था में उसे मन्त्रियों का परामर्श मानना होता है।

संविधान में यह उल्लेख है कि मन्त्रिपरिषद् राज्यपाल के प्रसाद-पर्यन्त बनी रहेगी। सैद्धान्तिक रूप में ऐसी शक्ति प्राप्त होने पर भी कोई राज्यपाल इस प्रकार का कार्य नहीं कर पाता।

राज्य के मुख्यमन्त्री का यह कर्तव्य माना गया है कि वहे राज्य प्रशासन से सम्बन्धित मन्त्रिपरिषद् के सभी निर्णयों और विचाराधीन विधेयक की सूचना राज्यपाल को दे। राज्यपाल उस विषय में अन्य आवश्यक जानकारी भी माँग सकता है। इन सूचनाओं के आधार पर राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् को परामर्श, प्रोत्साहन और चेतावनी देने का कार्य कर सकता है। राज्य में संवैधानिक तन्त्र की विफलता के विषय में वह अपने विवेक से ही राष्ट्रपति को रिपोर्ट तैयार करके भेजता है तथा राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने पर वह केन्द्र सरकार के निर्देशों को ध्यान में रखते हुए राज्य के शासन को चलाता है।

[संकेत – राज्य में मुख्यमन्त्री की स्थिति हेतु विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 4 का अध्ययन करें।

प्रश्न 4.
मुख्यमन्त्री की नियुक्ति कैसे होती है? उसकी प्रमुख शक्तियों तथा कार्यों का वर्णन कीजिए। [2013, 14]
या
मुख्यमन्त्री के कार्य एवं शक्तियों का उल्लेख कीजिए। [2014]
या
राज्य के मुख्यमन्त्री की नियुक्ति कैसे होती है? राज्यपाल तथा मन्त्रि-परिषद से उसके क्या सम्बन्ध होते हैं?
या
मुख्यमन्त्री के अधिकारों और कार्यों की विवेचना कीजिए तथा उसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
या
मुख्यमन्त्री के महत्त्वपूर्ण कार्यों का संक्षिप्त विवेचन कीजिए। [2010, 11]
या
मुख्यमन्त्री की स्थिति एवं शक्तियों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2013, 16]
या
राज्य के प्रशासन में मुख्यमन्त्री की भूमिका का वर्णन कीजिए तथा राज्यपाल के साथ उसके सम्बन्धों की विवेचना कीजिए। [2009, 10]
उत्तर :
राज्य की मन्त्रिपरिषद् के प्रधान को मुख्यमन्त्री कहा जाता है। मुख्यमन्त्री राज्य की कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान है। अत: राज्य के प्रशासनिक ढाँचे में उसे लगभग वही स्थिति प्राप्त है जो केन्द्र में प्रधानमन्त्री की है।

मुख्यमन्त्री की नियुक्ति – संविधान के अनुच्छेद 164 में केवल यह कहा गया है कि मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल करेगा। व्यवहार के अन्तर्गत राज्यपाल के द्वारा विधानसभा के बहुमत दल के नेता को ही मुख्यमन्त्री पद पर नियुक्त किया जाता है। मुख्यमन्त्री की नियुक्ति के सम्बन्ध में राज्यपाल दो परिस्थितियों में अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है। प्रथम, विधानसभा में किसी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो और एक से अधिक पक्ष मुख्यमन्त्री पद के लिए दावे कर रहे हों। द्वितीय, स्थिति उस समय हो सकती है जब कि विधानसभा के बहुमत दल की कोई सर्वमान्य नेता ने हो। 1966 ई० से लेकर 1970 ई० और उसके बाद 1977-2000 ई० के काल में भारतीय संघ के कुछ राज्यों में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो चुकी हैं और भविष्य में भी ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। उत्तर प्रदेश में एक दशक में सम्पन्न विधानसभा चुनावों (1989, 1991, 1993 और 1996 ई० में सम्पन्न विधानसभा चुनाव) ने निरन्तर ऐसी ही स्थिति को जन्म दिया है।

मुख्यमन्त्री के अधिकार तथा कार्य

मुख्यमन्त्री राज्य की मन्त्रिपरिषद् का प्रधान होता है; अतः वह शासन के सभी विभागों की देखभाल निम्नलिखित अधिकार-क्षेत्र के अन्तर्गत करता है –

1. मन्त्रिपरिषद् का निर्याता – मुख्यमन्त्री अपनी मन्त्रिपरिषद् का स्वयं निर्माण करता है। इस सन्दर्भ में राज्यपाल भी स्वतन्त्र नहीं है। अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति मुख्यमन्त्री की इच्छा से ही होती है तथा मन्त्रिपरिषद् में मन्त्रियों की संख्या मुख्यमन्त्री ही निर्धारित करता है।

2. शासन का मुखिया – मुख्यमन्त्री को शासन का मुखिया कहना अतिशयोक्ति नहीं है। वह शासन के सभी विभागों की देखभाल करता है। किन्हीं विभागों में मतभेद हो जाने पर उनका समाधान भी करता है। शासन के सभी महत्त्वपूर्ण कार्य उसी की अध्यक्षता में होते हैं तथा सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर उसकी सहमति आवश्यक होती है। उसी के द्वारा सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को मूर्त रूप मिलती है।

3. मन्त्रियों में विभागों का वितरण – मन्त्रियों में विभागों का वितरण भी मुख्यमन्त्री ही करती है। वह ही यह निश्चित करता है कि शासन को कितने विभागों में बाँटा जाए और कौन-सा विभाग किस मन्त्री को दिया जाए।

4. कैबिनेट का अध्यक्ष – मुख्यमन्त्री अपनी कैबिनेट का अध्यक्ष होता है। वह कैबिनेट की। बैठकों में सभापति का आसन ग्रहण करता है। कैबिनेट की बैठकों में जो निर्णय लिये जाते हैं। उनमें मुख्यमन्त्री की व्यापक सहमति होती है। यदि कोई मन्त्री मुख्यमन्त्री से किसी नीति पर सहमत नहीं है तो उसे या तो अपने विचार बदलने पड़ते हैं या फिर मन्त्रिपरिषद् से त्याग-पत्र देना पड़ता है।

5. विधानसभा का नेता – मुख्यमन्त्री विधानसभा का नेता तथा शासन की नीति का प्रमुख वक्ता होता है। वही महत्त्वपूर्ण बहसों का सूत्रपात करता है तथा नीति सम्बन्धी घोषणा भी करता है। विधानसभा के विधायी कार्यक्रमों में उसकी निर्णायक भूमिका होती है।

6. नियुक्ति सम्बन्धी अधिकार – राज्यपाल को राज्य के अनेक उच्च अधिकारियों की नियुक्ति का अधिकार है, लेकिन उसके इस अधिकार का वास्तविक प्रयोग मुख्यमन्त्री ही करता है।

7. नीति निर्धारित करना – यद्यपि राज्य की नीति मन्त्रिपरिषद् निर्धारित करती है, किन्तु इसका रूप मुख्यमन्त्री की इच्छा पर निर्भर होता है। मन्त्रिपरिषद् की नीतियों पर मुख्यमन्त्री का स्पष्ट प्रभाव होता है।

8. विधानसभा को भंग करने की सहमति – मुख्यमन्त्री राज्यपाल को परामर्श देकर विधानसभा को उसकी अवधि से पहले ही भंग करा सकता है।

9. राज्यपाल एवं मन्त्रिपरिषद् के बीच की कड़ी – मुख्यमन्त्री राज्यपाल को प्रमुख परामर्शदाता होता है। वही मन्त्रिपरिषद् के निर्णयों की सूचना राज्यपाल को देता है। राज्यपाल अपनी बात मुख्यमन्त्री के माध्यम से ही अन्य मन्त्रियों तक पहुँचाता है एवं उसी के माध्यम से शासन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करता है।

10. कार्यपालिका का प्रधान – राज्यपाल कार्यपालिका का मात्र वैधानिक प्रधान होता है। कार्यपालिका की वास्तविक शक्ति मन्त्रिपरिषद् के हाथ में होती है। इसलिए कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान मुख्यमन्त्री होता है।

राज्यपाल द्वारा विधानसभा में बहुमत प्राप्त राजनीतिक दल के नेता को मुख्यमन्त्री पद पर नियुक्त किया जाता है। चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में राज्यपाल स्वविवेक से मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है।

मुख्यमन्त्री का महत्त्व

मुख्यमन्त्री के महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर समझा जा सकता है –

1. सरकार का प्रधान प्रवक्ता – मुख्यमन्त्री राज्य सरकार का प्रधान प्रवक्ता होता है और राज्य सरकार की ओर से अधिकृत घोषणा मुख्यमन्त्री द्वारा ही की जाती है। यदि कभी किन्हीं दो मन्त्रियों के परस्पर विरोधी वक्तव्यों से भ्रम उत्पन्न हो जाए, तो इसे मुख्यमन्त्री के वक्तव्य से ही दूर किया जा सकता है।

2. राज्य में बहुमत दल का नेता – उपर्युक्त के अतिरिक्त मुख्यमन्त्री राज्य में बहुमत दल का नेता भी होता है। उसे दलीय ढाँचे पर नियन्त्रण प्राप्त होता है और यह स्थिति उसके प्रभाव तथा शक्ति में और अधिक वृद्धि कर देती है।

3. राज्य की समस्त शासन-व्यवस्था पर नियन्त्रण – मुख्यमन्त्री राज्य की शासन-व्यवस्था पर सर्वोच्च और अन्तिम नियन्त्रण रखता है। चाहे शान्ति और व्यवस्था का प्रश्न हो, कृषि, सिंचाई, स्वास्थ्य और शिक्षा के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण निर्णय लेना हो और चाहे कोई विकास सम्बन्धी प्रश्न हो, अन्तिम निर्णय मुख्यमन्त्री पर ही निर्भर करता है। मुख्यमन्त्री मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को उनके विभागों के सम्बन्ध में आदेश-निर्देश दे सकता है। मन्त्रिपरिषद् के सदस्य विभिन्न विभागों के प्रधान होते हैं किन्तु अन्तिम रूप में यदि किसी एक व्यक्ति को राज्य के प्रशासन की अच्छाई या बुराई के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है तो वह निश्चित रूप से मुख्यमन्त्री ही है।

मुख्यमन्त्री राज्य के शासन का प्रधान है किन्तु किसी भी रूप में उसे राज्य के शासन का तानाशाह नहीं कहा जा सकता है। वह राज्य का सर्वाधिक लोकप्रिय जननेता है।

मुख्यमन्त्री तथा राज्यपाल का सम्बन्ध

मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल करता है। विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को राज्यपाल मुख्यमन्त्री नियुक्त करता है। मुख्यमन्त्री का राज्यपाल से गहरा सम्बन्ध है, राज्य के शासन में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। मुख्यमन्त्री के कार्यों के विवरण से राज्य के प्रशासन में मुख्यमन्त्री की स्थिति स्पष्ट हो जाती है। मुख्यमन्त्री, राज्यपाल एवं मन्त्रिपरिषद् के बीच एक कड़ी का कार्य करता है। वह राज्यपाल को मन्त्रिपरिषद् के निर्णयों के सम्बन्ध में सूचना देता है। वास्तव में मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष होने के नाते संविधान ने उसका यह कर्तव्य निश्चित किया है कि वह राज्यपाल को न केवल मन्त्रिपरिषद् के निर्णयों से सम्बद्ध सूचना ही दे, अपितु शासन और विधान सम्बन्धी सुझावों के सम्बन्ध में भी सूचित करे। उसे राज्यपाल के कहने पर किसी भी ऐसे मामले को, जिस पर मन्त्रिपरिषद् ने विचार न किया हो, मन्त्रिपरिषद् के समक्ष प्रस्तुत करना होता है। वस्तुत: मुख्यमन्त्री राज्य प्रशासन की धुरी तथा वास्तविक प्रधान होता है। राज्यपाल को जो शक्तियाँ प्राप्त हैं, वास्तविक रूप में उनका प्रयोग मुख्यमन्त्री ही करता है। शान्तिकाल में राज्यपाल मुख्यमन्त्री के परामर्श के अनुसार कार्य करता है, किन्तु संकटकाल में राज्यपाल के अधिकार वास्तविक हो जाते हैं। इस समय वह मन्त्रिमण्डल का परामर्श मानने के लिए बाध्य नहीं होता।

मूल्यांकन – राज्य शासन में मुख्यमन्त्री मन्त्रिपरिषद् को आदि तथा अन्त होता है। राज्य के सम्पूर्ण शासन का उत्तरदायित्व मुख्यमन्त्री पर रहता है। यही कारण है कि राज्य के शासन के लिए हम उसी की प्रशंसा या आलोचना करते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि राज्य के शासन में मुख्यमन्त्री की प्रधान भूमिका होती है।

लघु उत्तीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
राज्यपालों की नियुक्ति, स्थानान्तरण व हटाने का अधिकार किसको है? क्या एक ही व्यक्ति एक ही समय में एक से अधिक राज्यों का राज्यपाल रह सकता है? [2011]
उत्तर :
राज्यपालों की नियुक्ति, स्थानान्तरण वे हटाने का अधिकार राष्ट्रपति को प्राप्त है। हाँ, एक ही व्यक्ति एक ही समय में एक से अधिक राज्यों का राज्यपाल रह सकता है। राज्यपाल दूसरे राज्य का कार्यभार अतिरिक्त प्रभारी के रूप में सम्भालता है।

राज्यपाल की नियुक्ति

संविधान के प्रारूप (Draft) में राज्यपाल का जनता द्वारा निर्वाचित होने का प्रावधान था। इस प्रश्न पर संविधान सभा में बहुत वाद-विवाद हुआ और अन्त में यह निश्चय हुआ कि राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किया जाएगा।

नियुक्ति हेतु योग्यताएँ

संविधान के अनुच्छेद 157 में राज्यपाल के पद के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ निर्धारित की गई हैं –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह भारतीय संघ व उसके अन्तर्गत किसी राज्य के विधानमण्डल या सदन का सदस्य न हो। यदि वह नियुक्ति के समय किसी विधानमण्डल या सदन का सदस्य हो, तो उसके पद-ग्रहण करने की तिथि से यह स्थान रिक्त समझा जाएगा।
  4. राज्यपाल कोई अन्य लाभ का पद धारण नहीं करेगा।

कार्यकाल

संविधान के अनुच्छेद 156 में राज्यपाल की पदावधि का उपबन्ध दिया गया है। इस अनुच्छेद के अनुसार राज्यपाल का कार्यकाल राष्ट्रपति की इच्छापर्यन्त होता है। संविधान द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति 5 वर्षों के लिए की जाती है और पुनर्नियुक्ति भी हो सकती है, किन्तु इसके पूर्व राज्यपाल स्वयं भी राष्ट्रपति को सम्बोधित कर अपना त्याग-पत्र दे सकता है। अपना कार्यकाल समाप्त होने पर भी वह तब तक अपने पद पर बना रहेगा, जब तक कि उसके उत्तराधिकारी की नियुक्ति नहीं हो जाती है। कभी-कभी राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह पर राज्यपाल को बर्खास्त भी कर सकता है।

[राज्यपाल की स्थिति – इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 2 का उत्तर देखें।]

प्रश्न 2.
राज्यपाल की किन्हीं दो प्रकार की शक्तियों को बताइए। [2016]
उत्तर :
राज्यपाल की दो प्रकार की शक्तियाँ निम्नवत् हैं

1. कार्यकारिणी शक्तियाँ

राज्य की कार्यकारिणी शक्ति राज्यपाल में निहित होती है तथा उस शक्ति का प्रयोग राज्यपाल स्वयं या अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के माध्यम से करता है। ये शक्तियाँ उन विषयों तक सीमित हैं। जिनका उल्लेख राज्य सूची और समवर्ती सूची में किया गया है। संघ सूची के विषयों के सम्बन्ध में उसको कोई शक्ति प्राप्त नहीं है। राज्यपाल उसकी कार्यकारिणी शक्तियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. राज्य सूची पर अधिकार
  2. कार्यपालिका का संचालन
  3. नियुक्तियाँ सम्बन्धी अधिकार
  4. मन्त्रियों के कार्यों का विभाजन
  5. राज्यपाल का स्वेच्छाधिकार

2. वित्तीय शक्तियाँ

राज्यपाल को वित्तीय वर्ष के आरम्भ में, राज्य की उस वर्ष की अनुमानित आय-व्यय का विवरण (बजट) विधानमण्डल के सम्मुख प्रस्तुत करने का अधिकार है। उसकी संस्तुति के बिना किसी अनुदान की माँग स्वीकृत नहीं की जा सकती है और न ही कोई धन विधेयक उसकी संस्तुति के बिना विधानसभा में प्रस्तुत किया जा सकता है। किन्तु किसी कर के घटाने के लिए प्रावधान करने वाले किसी संशोधन को उसकी संस्तुति की आवश्यकता नहीं होती है। राज्य की आकस्मिक निधि (Contingency Fund) उसके अधीन होती है, जिसमें से वह आकस्मिक व्यय के लिए विधानमण्डल की अनुमति के पूर्व भी धन दे सकता है।

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प्रश्न 3.
राज्यपाल के किन्हीं दो विधायी अधिकारों का उल्लेख कीजिए। [2016]
या
राज्यपाल के दो विधायी कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2014]
उत्तर :
राज्यपाल के दो विधायी (कार्य) निम्नवत् हैं

1. धन विधेयकों से सम्बन्धित अधिकार – धन विधेयक केवल राज्यपाल की सिफारिश पर ही विधानसभा में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। उस पर कोई भी संशोधन राज्यपाल की सिफारिश के बिना प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। किन्तु राज्यपाल धन विधेयकों को पुनर्विचार के लिए वापस नहीं भेज सकता, बल्कि सामान्यतया वह उनको स्वीकृति दे देता है।

2. अध्यादेश जारी करने का अधिकार – यदि राज्य में विधानमण्डल का अधिवेशन नहीं चल रहा हो तो राज्यपाल आवश्यकता पड़ने पर उन सभी विषयों पर अध्यादेश जारी कर सकता है जिन पर राज्य के विधानमण्डल को कानून बनाने का अधिकार है। ऐसे किसी अध्यादेश का प्रभाव वही होगा जो राज्य के विधानमण्डल द्वारा बनाए हुए किसी कानून का होता है। किन्तु इस प्रकार के अध्यादेश को विधानमण्डल के सम्मुख रखना पड़ता है। और विधानमण्डल के अधिवेशन के आरम्भ होने की तिथि से 6 सप्ताह बाद तक ही यह लागू रह सकता है। इससे पूर्व भी विधानसभा यदि चाहे तो इसे रद्द कर सकती है। उन विषयों के बारे में जिनके सम्बन्ध में राष्ट्रपति की आज्ञा के बिना राज्य के विधानमण्डल में कोई विधेयक प्रस्तुत नहीं किया जा सकता, राज्यपाल राष्ट्रपति की अनुमति के बिना अध्यादेश जारी नहीं कर सकता है।

प्रश्न 4.
यदि विधानसभा में किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं है, तो सरकार की रचना में राज्यपाल किन-किन विकल्पों का प्रयोग कर सकता है? [2007]
उत्तर :
राज्यपाल का एक मुख्य कार्य मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करना है। राज्य की विधानसभा में यदि किसी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त है तथा बहुमत वाले राजनीतिक दल ने अपना नेता चुन लिया है, तो राज्यपाल के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि वह उसी नेता को मुख्यमन्त्री नियुक्त करे।

यदि राज्य की विधानसभा में किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं है, उस स्थिति में राज्यपाल स्वविवेक का प्रयोग करते हुए निम्नलिखित विकल्पों का प्रयोग कर सकता है

  1. स्पष्ट बहुमत प्राप्त न होने की स्थिति में मुख्यमन्त्री पद के लिए एक से अधिक दावेदार हों, तब मुख्यमन्त्री के चयन और मनोनयन में राज्यपाल पदधारी को अपने विवेक का प्रयोग करते हुए सामान्यतया सबसे बड़े दल के नेता को प्राथमिकता देनी चाहिए। नवनियुक्त मुख्यमन्त्री को शीघ्रातिशीघ्र विधानसभा का अधिवेशन बुलाकर अपने बहुमत को प्रमाणित करना होता है। बहुमत को सिद्ध करने के लिए सामान्यतया 3 दिन से अधिक का समय देना, उसे मोलभाव का अवसर देना है। ऐसी स्थिति राजनीतिक तनाव, विवाद तथा उत्पातों को जन्म देती है।
  2. यदि ऐसी स्थिति हो कि मुख्यमन्त्री पद का दावेदार अपना बहुमत सिद्ध करने में सफल न हो, तब राज्यपाल अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए अपनी आख्यो राष्ट्रपति को भेज सकता है।

प्रश्न 5.
राज्य प्रशासन में मुख्यमन्त्री का क्या स्थान है?
उत्तर :
राज्य प्रशासन में मुख्यमन्त्री का स्थान

स्वतन्त्र भारत की राजनीति में मुख्यमन्त्रियों की स्थिति परिवर्तनशीलता रही है। अनेक राज्यों के कुछ मुख्यमन्त्री तो बहुत प्रभावशाली और शक्तिशाली रहे हैं और उन्हें ‘किंग मेकर्स’ की संज्ञा दी गई है। कुछ मुख्यमन्त्री ऐसे भी हुए हैं, जिनका व्यक्तित्व तथा कार्यप्रणाली विवादास्पद रही है और उनके विरुद्ध जाँच आयोग भी बिठाए गए हैं। कुछ मुख्यमन्त्रियों ने अपने घटक दलों के बलबूते पर अपना पद कायम रखा है। कुछ मुख्यमन्त्रियों को केन्द्र सरकार का पिछलग्गू भी माना गया है। कुछ मुख्यमन्त्रियों की गणना कठपुतली मुख्यमन्त्री के रूप में की जाती है। सी०पी० भाम्भरी ने इन्हें ‘पोस्टमैन’ की संज्ञा दी है।

वास्तव में, सत्ता की राजनीति में मुख्यमन्त्री की स्थिति परिवर्तनशील होती है। साठ और सत्तर के दशक में मुख्यमन्त्री राज्य की शक्ति के स्तम्भ समझे जाते थे, किन्तु इसके बाद मुख्यमन्त्री पद की गरिमा निरन्तर घटती गई और आज मिली-जुली सरकारों के युग में तो मुख्यमन्त्री को स्वयं अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए दाँव-पेंच से काम लेना पड़ता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
राज्यपाल की आपातकालीन शक्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
यदि राज्यपाल यह अनुभव करता है कि राज्य में संविधान के अनुसार शासन का संचालन असम्भव हो गया है तो वह राष्ट्रपति को इसकी सूचना देता है। उसकी सूचना के आधार पर राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राज्य में आपातकाल की घोषणा कर देता है। तथा राष्ट्रपति के आदेशानुसार वह राज्य के शासन का समस्त कार्य अपने हाथ में ले लेता है।

प्रश्न 2.
राज्यपाल की किन्हीं दो विवेकाधीन शक्तियों का वर्णन कीजिए। [2012, 13,14]
या
राज्यपाल अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग किन परिस्थितियों में कर सकता है? किन्हीं दो का उल्लेख कीजिए। [2009]
उत्तर :
कुछ कार्य ऐसे भी हैं जिन्हें राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् से सलाह लेने के बाद भी अपने विवेक से करता है। इस प्रकार के कार्यों को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है। राज्यपाल, क्रिस विषय पर अपने विवेक से कार्य करेगा, इसका निर्णय भी वह स्वयं ही करता है। राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए राष्ट्रपति को रिपोर्ट भेजना, कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति की अनुमति के लिए अपने पास रोक लेना आदि मामलों में राज्यपाल, मुख्यमन्त्री और मन्त्रिपरिषद् से सलाह नहीं लेता है।

प्रश्न 3.
राज्यों की मन्त्रिपरिषद का गठन कैसे होता है?
उत्तर :
राज्यपाल विधानसभा के बहुमत प्राप्त दल के नेता को मुख्यमन्त्री नियुक्त करता है। यदि किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता है तो राज्यपाल स्वविवेक के आधार पर ऐसे व्यक्ति को मुख्यमन्त्री नियुक्त करता है जो बहुमत प्राप्त करने में सक्षम हो सके। तत्पश्चात् उसके परामर्श से वह मन्त्रिपरिषद् के अन्य मन्त्रियों की भी नियुक्ति करता है।

प्रश्न 4.
मुख्यमन्त्री की चार शक्तियाँ और कार्य बताइए। [2008, 11, 14, 16]
उत्तर :
मुख्यमन्त्री की चार शक्तियाँ और कार्य निम्नवत् हैं –

1. अपने मन्त्रिपरिषद् का गठन करना मुख्यमन्त्री का विशेषाधिकार है।
2. मुख्यमन्त्री शासन के क्षेत्र में राज्य का नेतृत्व करता है।
3. मुख्यमन्त्री अपने मन्त्रियों का कार्यविभाजन तथा विभागों का आवंटन करता है।
4. मुख्यमन्त्री राज्य में राज्यपाल तथा सरकार के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य करता है तथा प्रशासनिक कार्यों की जानकारी राज्यपाल को औपचारिक रूप से देता है।

प्रश्न 5.
मुख्यमन्त्री अपने सहयोगियों के चयन में किन-किन बातों का ध्यान रखता है? [2012]
उत्तर :
मुख्यमन्त्री अपने सहयोगियों के चयन में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखता है.

  1. सहयोगी प्रभावशाली, अनुभवी एवं विश्वासपात्र व्यक्ति हो।
  2. सहयोगी में उच्च नेतृत्व क्षमता हो।
  3. उत्तम चरित्र एवं अपराधी न हो।
  4. प्रमुख क्षेत्रों एवं वर्गों का प्रतिनिधित्व करता हो।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
राज्यपाल की नियुक्ति कौन करता है? [2008, 09, 10, 11, 13]
उत्तर :
राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।

प्रश्न 2.
राज्यपाल की नियुक्ति कितने समय के लिए की जाती है?
उत्तर :
राज्यपाल की नियुक्ति 5 वर्ष के लिए की जाती है।

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प्रश्न 3.
क्या राज्यपाल पर महाभियोग लगाया जा सकता है?
उत्तर :
नहीं, राष्ट्रपति जब चाहे राज्यपाल को पदच्युत कर सकता है।

प्रश्न 4.
किन्हीं दो महिला राज्यपालों के नाम लिखिए।
उत्तर :

  1. सरोजिनी नायडू तथा
  2. एम० फातिमा बीबी।

प्रश्न 5.
उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला मुख्यमन्त्री कौन थीं? [2010, 11, 13, 15]
उत्तर :
उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला मुख्यमन्त्री श्रीमती सुचेता कृपलानी थीं।

प्रश्न 6
राज्य मन्त्रिमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता कौन करता है?
उत्तर :
राज्य मन्त्रिमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता मुख्यमन्त्री करता है।

प्रश्न 7.
राज्य के मुख्यमन्त्री की नियुक्ति कौन करता है? [2014]
उत्तर :
राज्य के मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है।

प्रश्न 8.
राज्य की मन्त्रिपरिषद् अपने कार्यों के लिए किसके प्रति उत्तरदायी होती है?
उत्तर :
राज्य की मन्त्रिपरिषद् विधानसभा के प्रति अपने कार्यों के लिए सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है।

प्रश्न 9.
उत्तर प्रदेश की मन्त्रिपरिषद् के दो कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2014]
उत्तर :

  1. राज्य प्रशासन की नीति का निर्धारण और संचालन तथा
  2. राज्य में शान्ति व सुव्यवस्था की स्थापना।

प्रश्न 10.
उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमन्त्री का नाम बताइए। [2008, 12]
उत्तर :
स्वतन्त्र भारत में उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमन्त्री श्री गोविन्द वल्लभ पन्त थे।

प्रश्न 11.
किसी राज्यपाल का अकस्मात निधन हो जाने पर या त्याग-पत्र देने पर, नये राज्यपाल की नियुक्ति होने तक उसका कार्यभार कौन सँभालता है?
उतर :
उस राज्य का मुख्य न्यायाधीश।

प्रश्न 12.
राज्य के प्रमुख महाधिवक्ता का प्रमुख कार्य क्या है?
उत्तर :
वह राज्य का सर्वप्रथम विधि अधिकारी है तथा उसका प्रमुख कार्य राज्य को विधि सम्बन्धी ऐसे विषयों पर सलाह देना और विधिक स्वरूप के ऐसे अन्य कार्य करना है जो राज्यपाल उसे समय-समय पर निर्देशित करे।

प्रश्न 13.
राज्य का संवैधानिक प्रधान कौन होता है?
उत्तर :
राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रधान होता है।

प्रश्न 14.
उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला राज्यपाल का नाम बताइए। [2012, 14, 16]
उत्तर :
श्रीमती सरोजिनी नायडू।।

प्रश्न 15.
राज्य के राज्यपाल की दो व्यवस्थापिका सम्बन्धी शक्तियाँ बताइए।
उत्तर :

  1. विधानमण्डल के दोनों सदनों को अधिवेशन बुलाने का अधिकार तथा
  2. विधानमण्डल द्वारा पारित विधेयक को स्वीकृति देने का अधिकार।

प्रश्न 16.
महिला मुख्यमन्त्रियों के नाम लिखिए। [2011]
उत्तर :
सुश्री जयललिता-तमिलनाडु; सुश्री मायावती, श्रीमती सुचेता कृपलानी-उत्तर प्रदेश।

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प्रश्न 17.
उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला मुख्यमन्त्री कौन थी? [2010, 11, 13, 15]
उत्तर :
श्रीमती सुचेता कृपलानी।

प्रश्न 18.
राज्यपाल को उसके पद से कौन हटा सकता है? [2007, 09, 11]
या
राज्यपाल को पदच्युत करने का अधिकार किसको है? [2014]
उत्तर :
राज्यपाल को उसके पद से राष्ट्रपति हटा सकता है।

प्रश्न 19.
राज्यों में महाधिवक्ता की नियुक्ति कौन करता है? [2007]
उत्तर :
राज्यपाल।

प्रश्न 20.
राज्य विधान परिषद् की बैठकों की अध्यक्षता कौन करता है? [2012]
उत्तर :
राज्यपाल।

प्रश्न 21.
राज्यपाल को वापस बुलाने का अधिकार किसे है? [2012]
उत्तर :
राष्ट्रपति को।

प्रश्न 22.
क्या कोई व्यक्ति एक ही समय में एक से अधिक राज्यों का राज्यपाल हो सकता है? [2012]
उत्तर :
हाँ।

प्रश्न 23.
राज्यपाल के पद पर नियुक्ति के लिए न्यूनतम आयु क्या है? [2013]
उत्तर :
वह 35 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हो।

प्रश्न 24.
भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद के अनुसार राज्यपाल विधानमण्डल के विश्रान्ति काल में अध्यादेश प्रख्याजित (जारी) कर सकता है? [2014]
उत्तर :
अनुच्छेद 213 के अनुसार।

प्रश्न 25.
भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में लिखा है कि “प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होगा? [2014, 16]
उत्तर :
अनुच्छेद 153 में।

प्रश्न 26.
उत्तर प्रदेश का मुख्यमन्त्री किस दल से सम्बद्ध है? [2015]
उत्तर :
भारतीय जनता पार्टी से।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य का मुख्यमन्त्री किसके प्रति उत्तरदायी होता है? [2009]
(क) राज्यपाल के प्रति
(ख) विधानसभा के प्रति
(ग) प्रधानमन्त्री के प्रति
(घ) राज्यसभा के प्रति

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से राज्यपाल कौन-सा कदम उठाएगा यदि मुख्यमन्त्री त्याग-पत्र दे देता है?
(क) विधानसभा अध्यक्ष को मुख्यमन्त्री पद के लिए आमन्त्रित करेगा
(ख) विधानमण्डल को नया नेता चुनने को कहेगा।
(ग) विधानसभा को भंग कर देगा और नये चुनाव करने का आदेश देगा
(घ) सत्ता पक्ष को नया नेता चुनने को कहेगा

प्रश्न 3.
क्या कोई व्यक्ति एक ही समय में अधिक राज्यों का राज्यपाल ले सकता है? [2007, 11, 13]
(क) नहीं।
(ख) हाँ
(ग) हाँ, पर अधिकतम छः महीने के लिए
(घ) हाँ, पर अधिकतम दो साल के लिए

प्रश्न 4.
विधानसभा का सत्र बुलाने का अधिकार किसे है?
(क) विधानसभा के अध्यक्ष को
(ख) मुख्यमन्त्री को
(ग) राज्यपाल को
(घ) विधानसभा के सचिव को

प्रश्न 5.
राज्यपाल को उसके पद से कौन हटा सकता है? [2009, 11]
(क) प्रधानमन्त्री
(ख) राष्ट्रपति
(ग) संसद
(घ) उच्च न्यायालय

प्रश्न 6.
राज्यपाल की नियुक्ति कौन करता है? [2008]
(क) राष्ट्रपति
(ख) राज्यपाल
(ग) मुख्यमन्त्री
(घ) प्रधानमन्त्री

प्रश्न 7.
राज्य की कार्यपालिका का संवैधानिक प्रमुख कौन होता है?
(क) राष्ट्रपति
(ख) राज्यपाल
(ग) मुख्यमन्त्री
(घ) प्रधानमन्त्री

प्रश्न 8.
राज्यपाल के पद पर नियुक्ति के लिए न्यूनतम आयु है [2013]
(क) 30 वर्ष
(ख) 35 वर्ष
(ग) 21 वर्ष
(घ) 25 वर्ष

प्रश्न 9.
संविधान के किस भाग में उल्लिखित है कि “राज्यपाल को सहायता व सलाह देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी, जिसका प्रधान मुख्यमन्त्री होगा”? [2014]
(क) संविधान के भाग 4 में
(ख) संविधान के भाग 5 में
(ग) संविधान के भाग 6 में
(घ) संविधान के भाग 7 में

प्रश्न 10.
उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला राज्यपाल कौन थीं?
(क) श्रीमती सुचेता कृपलानी
(ख) कु० मायावती
(ग) श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित
(घ) श्रीमती सरोजिनी नायडू

प्रश्न 11.
निम्नलिखित में से कौन राज्य-मन्त्रिपरिषद् को अविश्वास प्रस्ताव द्वारा हटा सकता है?
(क) विधानपरिषद्
(ख) विधानसभा
(ग) संसद
(घ) विधानमण्डल

प्रश्न 12.
उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला मुख्यमन्त्री कौन थीं? [2014, 15]
(क) श्रीमती सरोजिनी नायडू
(ख) सुश्री मायावती
(ग) श्रीमती सुचेता कृपलानी
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 13.
उत्तर प्रदेश के राज्यपाल हैं –
(क) श्री टी०वी० राजेश्वर
(ख) श्री विष्णुकान्त शास्त्री
(ग) श्री राम नाईक
(घ) श्री बी०एल० जोशी

प्रश्न 14.
राज्यपाल, निम्नलिखित विषयों में से किन विषयों पर राष्ट्रपति को सिफारिश कर सकता [2015]
(क) राज्य मन्त्रिपरिषद् की बर्खास्तगी।
(ख) उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाया जाना
(ग) राज्य विधानसभा का विघटन
(घ) राज्य के संवैधानिक मशीनरी के रूप में ठप होने की सूचना

प्रश्न 15.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री को हटाने की क्या प्रक्रिया है? [2016]
(क) राष्ट्रपति के आदेश द्वारा
(ख) राज्यपाल के निर्देश द्वारा
(ग) विधानसभा द्वारा अविश्वास प्रस्ताव
(घ) उच्च न्यायालय के निर्देश द्वारा

उत्तर :

  1. (ख) विधानसभा के प्रति
  2. (घ) सत्ता पक्ष को नया नेता चुनने को कहेगा
  3. (ख) हाँ
  4. (ग) राज्यपाल को
  5. (ख) राष्ट्रपति
  6. (क) राष्ट्रपति
  7. (ख) राज्यपाल
  8. (ख) 35 वर्ष
  9. (ग) संविधान के भाग 6 में
  10. (घ) श्रीमती सरोजिनी नायडू
  11. (ख) विधानसभा
  12. (ग) श्रीमती सुचेता कृपलानी
  13. (ग) श्री राम नाईक
  14. (घ) राज्य के संवैधानिक मशीनरी के रूप में ठप होने की सूचना
  15. (ग) विधानसभा द्वारा अविश्वास प्रस्ताव।

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