UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 3 Theory of Price Determination

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 3
Chapter Name Theory of Price Determination (मूल्य-निर्धारण का सिद्धान्त)
Number of Questions Solved 24
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 3 Theory of Price Determination (मूल्य-निर्धारण का सिद्धान्त)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
“किसी वस्तु का बाजार मूल्य माँग व पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा निर्धारित होता है।” रेखाचित्र सहित व्याख्या कीजिए।
या
“जिस प्रकार हम इस बात पर विवाद कर सकते हैं कि कागज के एक टुकड़े को कैंची का ऊपर वाला या नीचे वाला फलक काटता है, उसी प्रकार हम इस बात पर भी विवाद कर सकते हैं कि मूल्य का निर्धारण तुष्टिगुण द्वारा होता है या उत्पादन लागत द्वारा।” मार्शल के इस कथन की व्याख्या कीजिए।
या
रेखाचित्र द्वारा कीमत-निर्धारण के सामान्य सिद्धान्त की विवेचना कीजिए। [2011]
उत्तर:
किसी वस्तु का मूल्य मुद्रा में निर्धारित करने के विषय में विभिन्न अर्थशास्त्रियों में मतभेद रहा है। परम्परावादी अर्थशास्त्री प्रो० एडम स्मिथ, रिकाड, माल्थस व मिल आदि मूल्य के निर्धारण में उत्पादन लागत को तथा ऑस्ट्रियन अर्थशास्त्री प्रो० जेवेन्स, मैन्जर तथा वालरस आदि तुष्टिगुण को अधिक महत्त्व प्रदान करते थे; परन्तु प्रो० मार्शल ने मूल्य के निर्धारण में समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया तथा मूल्य के निर्धारण का सामान्य सिद्धान्त, जिसे माँग और पूर्ति का नियम (Law of Demand and Supply) या आधुनिक सिद्धान्त (Modern Theory) कहते हैं, प्रस्तुत किया। इस सिद्धान्त के अनुसार, ‘मूल्य के निर्धारण’ में माँग (तुष्टिगुण) और पूर्ति (उत्पादन लागत) दोनों ही शक्तियों का हाथ होता है। इन दोनों के परस्पर प्रभाव द्वारा कीमत का निर्धारण उस बिन्दु पर होता है। जहाँ दोनों की सापेक्ष स्थिति समान होती है अर्थात् जहाँ माँग और पूर्ति मात्रा के बराबर होती हैं। इस बिन्दु को सन्तुलन बिन्दु कहते हैं। इस बिन्दु पर जो कीमत निश्चित होती है उसे सन्तुलित कीमत (Equilibrium Price) कहते हैं।

1. माँग पक्ष की व्याख्या – किसी वस्तु की कीमत के निर्धारण में माँग पक्ष से सम्बन्धित दो प्रश्न उठते हैं

  •  क्रेता किसी वस्तु के लिए कीमत क्यों देता है?
  • क्रेता किसी वस्तु के लिए अधिक-से-अधिक कितनी कीमत दे सकता है?

क्रेता की वस्तु के उपयोग से आवश्यकता की पूर्ति होती है, इसी कारण वह वस्तु के लिए कीमत देने को तैयार रहता है। वस्तु की आवश्यकता जितनी अधिक तीव्र होती है, क्रेता उसके लिए उतनी ही अधिक कीमत देने के लिए तत्पर रहता है, क्योंकि उसे वस्तु से उतना ही अधिक तुष्टिगुण मिलता है। क्रेता किसी वस्तु की अधिक-से-अधिक कितनी कीमत देने को तैयार हो जाएगा, यह आवश्यकता की तीव्रता पर निर्भर करता है; परन्तु सीमान्त तुष्टिगुण ह्रास नियम के अनुसार, किसी वस्तु की अधिकाधिक इकाइयों से मिलने वाला तुष्टिगुण क्रमशः घटता जाता है। अतः कोई भी क्रेता किसी वस्तु की अधिक-से-अधिक सीमान्त तुष्टिगुण के बराबर कीमत दे सकता है। क्रेता वस्तु की जितनी भी इकाइयाँ खरीदता है वे रूप और गुण में समान होती हैं; अत: वह वस्तु की प्रत्येक इकाई के लिए एक ही अर्थात् सीमान्त तुष्टिगुण के बराबर कीमत देता है। इस प्रकार किसी वस्तु की माँग तथा कीमत, सीमान्त तुष्टिगुण द्वारा निश्चित होती है। यह क्रेता द्वारा दी जाने वाली मूल्य की अधिकतम सीमा होती है।

2. पूर्ति पक्ष की व्याख्या – माँग पक्ष की भाँति ही पूर्ति के विषय में भी दो प्रश्न उठते हैं

  •  विक्रेता अपनी वस्तु के लिए कीमत क्यों माँगता है ?
  •  विक्रेता अपनी वस्तु के लिए कम-से-कम कितनी कीमत ले सकता है ?

वस्तुओं के उत्पादन में कुछ-न-कुछ व्यय अवश्य करना पड़ता है। इसलिए विक्रेता अपनी वस्तु के लिए कीमत माँगता है। कोई भी उत्पादक अपंना माल हानि पर अर्थात् उत्पादन व्यय से कम कीमत पर नहीं बेचना चाहता। वह हर सम्भव प्रयास करता है कि उसे अधिकाधिक कीमत मिले, परन्तु किसी भी दशा में वह उत्पादन लागत व्यय से कम कीमत पर अपना माल बेचने के लिए तैयार नहीं होता। उत्पादन लागत से तात्पर्य ।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 3 Theory of Price Determination 121
सीमान्त लागत (Marginal Cost) से है। अत: वस्तु का निम्नतम पूर्ति मूल्य, वस्तु की सीमान्त लागत के बराबर चावल की माँग व पूर्ति की मात्राएँ (क्विटलों में) होगा। यह वस्तु की कीमत की न्यूनतम सीमा होती है। इस कीमत से कम पर विक्रेता अपनी वस्तु बेचने के लिए तैयार नहीं हो सकता।

3. माँग और पूर्ति का सन्तुलन – मॉग पक्ष अथवा क्रेताओं की दृष्टि से किसी वस्तु की कीमत सीमान्त तुष्टिगुण से अधिक नहीं हो सकती। किसी भी दशा में वे सीमान्त तुष्टिगुण से अधिक कीमत देने के लिए तैयार नहीं होते। दूसरी ओर विक्रेता अथवा पूर्ति पक्ष अपनी वस्तु की न्यूनतम कीमत सीमान्त उत्पादन लागत व्यय से कम लेने को तैयार नहीं होते हैं। अत: कीमत दोनों सीमाओं (अधिकतम और न्यूनतम) के बीच माँग और पूर्ति की सापेक्ष शक्तियों के प्रभाव के अनुसार निर्धारित होती है अर्थात् कीमत माँग और पूर्ति की शक्तियों द्वारा सीमान्त तुष्टिगुण द्वारा निर्धारित अधिकतम और सीमान्त लागत व्यय द्वारा निर्धारित न्यूनतम सीमा के बीच कहीं पर निश्चित होगी। क्रेता कम-से-कम कीमत देना चाहेगा और विक्रेता अधिक-से-अधिक कीमत प्राप्त करना चाहेगा। इस क्रम में जिस पक्ष की स्थिति सुदृढ़ होगी, कीमत उसके पक्ष में होगी। इस स्थिति में कीमत ऊपर-नीचे होती रहेगी और अन्त में यह उस बिन्दु पर निश्चित होगी जहाँ माँग और पूर्ति की मात्राएँ बराबर होंगी। यही स्थिति साम्य अथवा सन्तुलन की स्थिति कहलाती है।

इस प्रकार बाजार में कीमत गेंद की तरह इधर-उधर लुढ़कती रहेगी, परन्तु अन्त में वह सन्तुलन बिन्दु पर ही निर्धारित होगी। इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में साम्य की स्थिति में – कीमत = सीमान्त तुष्टिगुण = सीमान्त लागत।

उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वस्तु के मूल्य के निर्धारण में माँग और पूर्ति दोनों का ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें से कोई एक, दूसरे की सहायता के बिना स्वयं मूल्य निर्धारित नहीं कर सकता। मूल्य-निर्धारण में माँग व पूर्ति के सापेक्षिक महत्त्व को स्पष्ट करते हुए प्रो० मार्शल ने बताया है कि जिस प्रकार हम इस बात पर विवाद कर सकते हैं कि कागज के एक टुकड़े को कैंची को ऊपर वाला या नीचे वाला फलक काटता है, उसी प्रकार हम इस बात पर भी विवाद कर सकते हैं कि मूल्य का निर्धारण तुष्टिगुण द्वारा होता है या उत्पादन लागत द्वारा।”

प्रो० मार्शल के अनुसार, मूल्य-निर्धारण का सामान्य सिद्धान्त यह बताता है कि वस्तु का मूल्य सीमान्त तुष्टिगुण तथा सीमान्त उत्पादन व्यय के बीच में माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा उस स्थान पर निर्धारित होता है जहाँ वस्तु की पूर्ति उसकी माँग के बराबर होती है।
कीमत-निर्धारण के उपर्युक्त सिद्धान्त को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। किसी समय बाजार में चावल की माँग एवं पूर्ति को निम्नलिखित तालिका में दर्शाया गया है
माँग और पर्ति तालिका

चावल की माँग की मात्रा चावल का मूल्य प्रति क्विटल(₹ में) वस्तु की पूर्ति की मात्रा (किंवटल में)
500 1,200 1,300
700 1,000 1,000
900 800 900
1,000 600 700
1,300 400 500

माँग और पूर्ति की दी गयी तालिका मॉग और पूर्ति के नियम के अनुसार है। इस तालिका से स्पष्ट है कि कीमत बढ़ने पर माँग घट जाती है, किन्तु पूर्ति बढ़ जाती है। इसके विपरीत कीमत घट जाने पर माँग बढ़ जाती है और पूर्ति घट जाती है। साम्य की स्थिति में चावल की कीमत में ₹ 800 प्रति क्विटल होगी, क्योंकि इस कीमत पर ही माँग और पूर्ति की मात्राएँ समान हैं। यही कीमत सन्तुलित कीमत है। उपर्युक्त उदाहरण को रेखाचित्र द्वारा भी स्पष्ट किया जा सकता है।

रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण
इस रेखाचित्र में अ ब रेखा पर चावल की माँग एवं पूर्ति और अ स रेखा पर चावल की कीमत दिखायी गयी है। उपर्युक्त तालिका में दिये गये आँकड़ों के आधार पर माँग और पूर्ति वक्र खींचे गये हैं। म म’ माँग वक्र और प प पूर्ति वक्र हैं। ये दोनों वक्र एक-दूसरे को स बिन्दु पर काटते हैं। यही सन्तुलन बिन्दु है, क्योंकि इस बिन्दु पर माँग और पूर्ति की मात्राएँ बराबर हैं। कीमत के क’ के बराबर है।

प्रश्न 2
मूल्य के निर्धारण में समय तत्त्व के महत्त्व की व्याख्या कीजिए। विभिन्न समयावधि में मूल्य के निर्धारण में मॉग और पूर्ति की भूमिका की व्याख्या कीजिए।
या
कीमत-निर्धारण में समय तत्त्व की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
प्रो० मार्शल प्रथम अर्थशास्त्री थे जिन्होंने मूल्य के निर्धारण में समय के महत्त्व पर विशेष बल दिया। उनके अनुसार, समयावधि मूल्य के निर्धारण पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालती है। किसी वस्तु का मूल्य उसकी माँग और पूर्ति से निर्धारित होता है। मूल्य के निर्धारण में माँग और पूर्ति दोनों में किसकी महत्त्व अधिक है, यह समय या अवधि पर आधारित होता है। मूल्य के निर्धारण में माँग पक्ष अधिक प्रभावशाली होगा अथवा पूर्ति पक्ष, यह इस बात पर निर्भर होगा कि बाजार में माँग और पूर्ति को एक-दूसरे के साथ समायोजित होने के लिए कितना समय मिलता है। ऐसा इसलिए होता है कि पूर्ति की दशाएँ समयावधि के साथ बदलती रहती हैं। साधारणतया समयावधि जितनी लम्बी होती है, पूर्ति का प्रभाव उतना ही अधिक होता है और समयावधि जितनी छोटी होती है, उतना ही माँग का प्रभाव अधिक होता है।

कीमत के निर्धारण पर समय के प्रभाव को स्पष्ट करने के लिए प्रो० मार्शल ने बाजार का वर्गीकरण इस प्रकार किया है

  1. अति-अल्पकालीन बाजार,
  2. अल्पकालीन बाजार,
  3. दीर्घकालीन बाजार,
  4. अति-दीर्घकालीन बाजार।

1. अति-अल्पकाल में मूल्य-निर्धारण – अति-अल्पकाल उस स्थिति को बताता है जिसमें पूर्ति लगभग स्थिर रहती है। समय इतना कम होता है कि माँग के बढ़ने पर अधिक उत्पादन नहीं किया जा सकता, इसलिए पूर्ति मात्र स्टॉक तक ही सीमित होती है। पूर्ति के लगभग स्थिर होने के कारण कीमत माँग के द्वारा निर्धारित की जाती है। यदि माँग में वृद्धि होती है तो कीमत बढ़ जाती है और यदि माँग घट जाती है तो कीमत कम हो जाती है। अति-अल्पकालीन बाजार में कीमत माँग और पूर्ति के अस्थायी सन्तुलन का परिणाम होती है, इस कारण मूल्य के निर्धारण में ‘माँग’ का प्रभाव अधिक होता है।

2. अल्पकाल में मूल्य-निर्धारण – अल्पकाल वह अवधि है जिसमें पूर्ति पूर्णतया निश्चित नहीं होती। उसमें कुछ परिवर्तन किया जा सकता है, परन्तु उसे माँग के अनुसार नहीं बढ़ाया जा सकता। केवल अल्पकाल में परिवर्तनशील साधन; जैसे – श्रम, कच्चा माल, शक्ति के साधनों आदि की मात्रा में वृद्धि करके उत्पादन में कुछ वृद्धि की जा सकती है, इसलिए पूर्ति पूर्णतया अनिश्चित होती है; अत: उसे माँग के बराबर नहीं बढ़ाया जा सकता, क्योंकि मशीनों की उत्पादन क्षमता निश्चित होती है और इतने कम समय में नई ‘फर्मे भी उद्योग में प्रवेश नहीं कर सकतीं। अत: अल्पकाल में भी कीमत के निर्धारण में मुख्य प्रभाव माँग का रहता है, क्योंकि पूर्ति में अधिक परिवर्तन करना सम्भव नहीं होता।।

3. दीर्घकाल में मूल्य – निर्धारण दीर्घकाल में इतना पर्याप्त समय होता है कि वस्तु की पूर्ति को घटा-बढ़ाकर माँग के अनुसार किया जा सकता है। इसमें इतना समय मिल जाता है कि उत्पत्ति के सभी साधनों में परिवर्तन किया जा सकता है। दीर्घकाल में किसी वस्तु की पूर्ति को वर्तमान मशीनों की क्षमता को बढ़ाकर या उद्योग में नई फर्मों के प्रवेश के द्वारा बढ़ाया जा सकता है। इसी प्रकार मशीनों की क्षमता को कम करके या उद्योगों से कुछ फर्मों के बहिर्गमन के द्वारा पूर्ति को घटाया जा सकता है। इसलिए कीमत पर माँग का प्रभाव बहुत कम हो जाता है तथा कीमत का निर्धारण अधिकांश रूप से पूर्ति की शक्तियों के द्वारा होता है। दीर्घकाल में किसी वस्तु की कीमत उसकी उत्पादन लागत से बहुत ऊपर अथवा बहुत नीचे नहीं रह सकती है। दीर्घकालीन कीमत माँग और पूर्ति के बीच स्थायी और स्थिर सन्तुलन की परिणाम होती है। अत: दीर्घकालीन कीमत को दीर्घकालीन सामान्य कीमत भी कहा जाता है।

4. अति-दीर्घकाल में मूल्य-निर्धारण – जबे समय इतना अधिक लम्बा हो कि उसमें माँग और पूर्ति की परिस्थितियाँ ही बदल जाएँ तो उसे दीर्घकाल कहते हैं। दीर्घकाल में मूल्य के निर्धारण में पूर्ति पक्ष का प्रभाव अधिक रहता है।

प्रो० मार्शल के अनुसार, “सामान्यतः काल जितना अल्प होता है, कीमत पर माँग का प्रभाव उतना ही अधिक होता है और काल जितना ही दीर्घ होता है, कीमत पर लागत (पूर्ति) का प्रभाव उतना ही अधिक होता है।” मत के निर्धारण के सम्बन्ध में यह बात लागू नहीं होती है कि कीमत का निर्धारण कुछ परिनिया में केवल माँग द्वारा होता है और कुछ अन्य परिस्थितियों में अकेले पूर्ति द्वारा।
प्रो० मार्शल के अनुसार, “जिस प्रकार कागज काटने के लिए कैंची के दोनों फलकों का उपयोग आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार कीमत-निर्धारण में माँग और पूर्ति दोनों की ही आवश्यकता होती है। यह सत्य है कि समय जितना अल्प होगा, उतना ही मूल्य के ऊपर माँग का प्रभाव अधिक होगा। इसके विपरीत समय जितना अधिक होगा, वस्तु के मूल्य पर पूर्ति का प्रभाव उतना ही अधिक होगा।’

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
माँग, मूल्य व पूर्ति की पारस्परिक निर्भरता यो सम्बन्ध को समझाइए।
उत्तर:
माँग, मूल्य और पूर्ति के सम्बन्ध को निम्नवत् स्पष्ट किया जा सकता है

1. मूल्य, माँग व पूर्ति पर निर्भर रहता है – जिस प्रकार कागज काटने के लिए कैंची के दोनों फलकों का उपयोग आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार कीमत (मूल्य) के निर्धारण में माँग और पूर्ति दोनों की ही आवश्यकता होती है। उनके परस्पर प्रभाव द्वारा मूल्य का निर्धारण उस बिन्दु पर होता है जहाँ पर दोनों की सापेक्ष स्थिति एक-सी होती है अर्थात् जहाँ पर माँग और पूर्ति दोनों ही मात्रा में बराबर होती हैं। इस प्रकार कहा जाता है कि मूल्य की स्थिति माँग व पूर्ति पर निर्भर करती है।

2. मॉग, मूल्य व पूर्ति पर – माँग और मूल्य में घनिष्ठ सम्बन्ध है। किसी वस्तु को खरीदने और व्यय करने की तत्परता (Willingness) पर मूल्य का बड़ा प्रभाव पड़ता है। कोई व्यक्ति वस्तु की कितनी मात्रा खरीदेगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वस्तु का बाजार में कितना मूल्य है। जब हम कहते हैं कि बाजार में गेहूं की माँग एक हजार क्विटल है तो हमें इसके साथ यह भी बताना चाहिए कि यह माँग किस मूल्य पर है। माँग और मूल्य के घनिष्ठ सम्बन्ध के कारण ही यह कहा जाता है कि माँग से अभिप्राय वस्तु की उस मात्रा से है जो किसी निश्चित समय में किसी एक विशेष कीमत पर खरीदी जाएगी। इस प्रकार बिना मूल्य के माँग अर्थहीन है।

माँग, पूर्ति पर भी निर्भर रहती है। माँग और पूर्ति में घनिष्ठ सम्बन्ध है। कोई व्यक्ति वस्तु की कितनी मात्रा खरीदेगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वस्तु की बाजार में कितनी पूर्ति है। बिना पूर्ति के माँग का कोई अर्थ नहीं होता। जब हम कहते हैं कि बाजार में गेहूं की माँग एक हजार क्विटल है तो हमें उसके साथ यह भी बताना चाहिए कि इस मूल्य पर वस्तु की कितनी पूर्ति है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि वस्तु की माँग, मूल्य व वस्तु की पूर्ति पर निर्भर रहती है कि वस्तु कितनी मात्रा में खरीदी जाएगी।

3. पूर्ति, मूल्य व माँग पर – किसी वस्तु का उत्पादन कितनी मात्रा में किया जाए, यह वस्तु की माँग पर निर्भर करता है। उपभोक्ताओं की रुचि, फैशन तथा आय पर वस्तु की माँग निर्भर रहती है। लोग जितनी अधिक वस्तुओं की माँग करेंगे, वस्तु का मूल्य उतना ही अधिक होगा; अत: उत्पादक लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से वस्तुओं का अधिक उत्पादन करेंगे जिसके कारण वस्तुओं की पूर्ति बढ़ेगी। कीन्स का रोजगार सिद्धान्त प्रभावपूर्ण माँग सिद्धान्त पर आधारित है। माँग जितनी अधिक होगी, वस्तुओं का उत्पादन या पूर्ति उतनी ही अधिक होगी। इस प्रकार माँग पूर्ति को प्रभावित करती है।
पूर्ति और मूल्य का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। किसी वस्तु की पूर्ति साधारणतया कीमत पर निर्भर होती है। कीमत बढ़ने पर पूर्ति भी बढ़ जाती है और कीमत घटने पर पूर्ति भी घट जाती है। अर्थशास्त्र में पूर्ति का अभिप्राय वस्तु की उस मात्रा से होता है जो किसी समय एक मूल्य-विशेष पर बिकने आती है। अंतः बिना मूल्य का उल्लेख किये पूर्ति का कोई अर्थ नहीं होता। इस प्रकार स्पष्ट है कि वस्तु की पूर्ति वस्तु की मॉग व मूल्य पर निर्भर होती रहती है।

प्रश्न 2
सामान्य मूल्य की परिभाषा तथा विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
अर्थशास्त्र में सामान्य मूल्य से आशय है किसी वस्तु का वह मूल्य जो वस्तु की माँग व पूर्ति की। स्थायी शक्तियों द्वारा दीर्घकाल में निश्चित होता है। यह माँग व पूर्ति के स्थायी साम्य का परिणाम होता है। यह मूल्य दीर्घकाल तक रहता है; अत: यह मूल्य स्थिर रहता है तथा लागत मूल्य के बराबर होता है।

परिभाषा – मार्शल के अनुसार, “किसी निश्चित वस्तु का सामान्य मूल्य वह है जो कि अधिक शक्तियों द्वारा दीर्घकाल में निर्धारित होता है। इस मूल्य पर माँग की अपेक्षा पूर्ति का अधिक प्रभाव होता है, क्योंकि दीर्घकाल में पूर्ति में परिवर्तन लाया जा सकता है।

सामान्य मूल्य के निम्नलिखित लक्षण या विशेषताएँ हैं

1. यह दीर्घकाल में होता है – माँग और पूर्ति के सन्तुलन का परिणाम दीर्घकाल में होने के कारण इसे दीर्घकालीन मूल्य कहते हैं।

2. सामान्य मूल्य के निर्धारण में पूर्ति का अधिक महत्त्व होता है – इस पर माँग की अपेक्षा पूर्ति का अधिक प्रभाव हैं, क्योंकि दीर्घकाल में पूर्ति को माँग के अनुसार घटाया-बढ़ाया जा सकता है।

3. मॉग व पूर्ति के सन्तुलन का स्थायी परिणाम होता है – दीर्घकाल में पूर्ति को माँग के साथ समन्वय का पूरा समय मिल जाता है। इस कारण यह माँग व पूर्ति के स्थायी साम्य का परिणाम होता है।

4. यह सीमान्त व औसत लागत के बराबर होता है – दीर्घकाल में समयावधि इतनी लम्बी होती है कि सीमान्त लागत औसत लागत के बराबर हो जाती है। अत: सामान्य मूल्य सीमान्त व औसत दोनों लागतों के बराबर होता है।

5. यह काल्पनिक होता है – यह व्यावहारिक जीवन में सम्भव नहीं होता है। यह केवल काल्पनिक होता है।

6. यह मूल्य स्थिर रहता है – इसके मूल्य में बाजार मूल्य की तरह परिवर्तन नहीं होते। यह स्थायी रहता है।

7. सामान्य मूल्य धुरी के समान होता है – इस मूल्य के चारों ओर बाजार मूल्य चक्कर काटा करता है। अतः यह धुरी के समान होता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
बाजार मूल्य एवं सामान्य मूल्य में अन्तर बताइए। [2016]
उत्तर:
बाजार मूल्य एवं सामान्य मूल्य में अन्तर

क्र० सं० बाजार मूल्य सामान्य मूल्य
1. अल्पकालीन मूल्य होता है। सामान्य मूल्य दीर्घकालीन मूल्य होता है।
2. इसमें परिवर्तन होते रहते हैं। यह अस्थायी होता है।
3. यह माँग व पूर्ति के अस्थायी प्रभाव का परिणाम होता है। यह माँग और पूर्ति के स्थायी साम्य का परिणाम होता है।
4. यह वास्तविक जीवन में पाया जाता है। यह काल्पनिक होता है।
5. यह पुनरुत्पादनीय और अपुनरुत्पादनीय दोनों प्रकार की वस्तुओं का होता है। यह केवल पुनरुत्पादनीय वस्तुओं का होता है।
6. यह सामान्य मूल्य के चारों ओर चक्कर काटता रहता है। यह मूल्य धुरी के समान होता है और स्थिर रहता है।
7. यह लागत मूल्य से ऊँचा-नीचा होता रहता है। यह सीमान्त व औसत, दोनों लागतों के बराबर होता है।
8. इस पर माँग का व्यापक प्रभाव होता है। इस पर पूर्ति का अधिक प्रभाव होता है।

प्रश्न 2
बाजार और सामान्य मूल्य में क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर:
बाजार मूल्य की प्रवृत्ति सदैव सामान्य मूल्य के बराबर होने की होती है। बाजार मूल्य सामान्य मूल्य के चारों ओर चक्कर काटता रहता है। यह अधिक समय तक सामान्य मूल्य से बहुत नीचा या ऊँचा नहीं रह सकता। सामान्य मूल्य लागत मूल्य के बराबर होता है, किन्तु बाजार मूल्य घटता-बढ़ता रहता है। इतना होते हुए बाजार मूल्य की प्रवृत्ति सदा सामान्य मूल्य की ओर बढ़ने लगती है। यदि बाजार मूल्य सामान्य मूल्य से अधिक ऊँचा हो जाता है तो उत्पादकों को असाधारण लाभ होने लगेगा और वे इस वस्तु का उत्पादन बढ़ाएँगे। दूसरे उत्पादक भी इस वस्तु का उत्पादन करने लगेंगे। वस्तु की पूर्ति माँग के बराबर हो जाएगी और मूल्य गिरकर सामान्य मूल्य के बराबर हो जाएगा।

इसी प्रकार, यदि माँग कम हो जाने के कारण किसी वस्तु का बाजार मूल्य सामान्य मूल्य से नीचा होता है तो उत्पादकों को हानि होने लगेगी। वे इस वस्तु का उत्पादन कम कर देंगे तथा कुछ अन्य उत्पादक भी इसका उत्पादन बन्द कर देंगे। इस प्रकार वस्तु की पूर्ति कम होकर माँग के अनुसार हो जाएगी और बाजार मूल्य सामान्य मूल्य के बराबर हो जाएगा। इस प्रकार मूल्य बार-बार सामान्य मूल्य के बराबर होता रहता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
“मूल्य के निर्धारण में उत्पादन लागत का अधिक महत्त्व रहता है। यह मत किन अर्थशास्त्रियों का है ?
उत्तर:
परम्परावादी अर्थशास्त्री प्रो० एडम स्मिथ, रिकाड, माल्थस व मिल आदि अर्थशास्त्रियों का मत है कि मूल्य-निर्धारण में उत्पादन लागत का अधिक महत्त्व रहता है।

प्रश्न 2
“मूल्य के निर्धारण में तुष्टिगुण अर्थात माँग पक्ष का अधिक महत्त्व रहता है। यह मत किन अर्थशास्त्रियों का था ?
उत्तर:
ऑस्ट्रियन अर्थशास्त्री प्रो० जेवेन्स, मैन्जर तथा वालरस आदि मूल्य के निर्धारण में तुष्टिगुण को अधिक महत्त्व प्रदान करते थे।

प्रश्न 3
प्रो० मार्शल के अनुसार मूल्य-निर्धारण का सामान्य सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल के अनुसार मूल्य-निर्धारण का सामान्य सिद्धान्त यह बताता है कि, “वस्तु का मूल्य सीमान्त तुष्टिगुण तथा सीमान्त उत्पादन लागत के बीच में माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा उस स्थान पर निर्धारित होता है, जहाँ वस्तु की पूर्ति उसकी माँग के बराबर होती है।”

प्रश्न 4
बाजार मूल्य की सामान्य प्रवृत्ति क्या होती है ?
उत्तर:
बाजार मूल्य की प्रवृत्ति सदैव सामान्य मूल्य के बराबर होने की होती है। बाजार मूल्य सामान्य मूल्य के चारों ओर चक्कर काटता रहता है।

प्रश्न 5
बाजार मूल्य की दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:

  1. बाजार मूल्य माँग वे पूर्ति के अस्थायी प्रभाव का परिणाम होता है।
  2.  यह लागत मूल्य से ऊँचा-नीचा होता रहता है।

प्रश्न 6
किस प्रकार के बाजार में कीमत के निर्धारण में माँग का प्रभाव अधिक होता है ?
उत्तर:
अति-अल्पकालीन बाजार में पूर्ति निश्चित होने के कारण मूल्य मुख्यतया माँग पर आधारित होता है। अत: अति-अल्पकालीन बाजार में कीमत-निर्धारण में माँग का प्रभाव अधिक होता है।

प्रश्न 7
प्रो० मार्शल ने समय को कितने भागों में बाँटा है ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल ने समय को चार भागों में बाँटा है।

प्रश्न 8
किसी वस्तु का बाजार मूल्य किन शक्तियों द्वारा निर्धारित होता है ?
उत्तर:
मॉग और पूर्ति की सापेक्ष शक्तियों द्वारा निर्धारित होता है।

प्रश्न 9
बाजार मूल्य किस प्रकार की वस्तुओं का होता है ?
उत्तर:
केवल भण्डार तक रखी वस्तुओं का अर्थात् जिन वस्तुओं की पूर्ति भण्डार की मात्रा तक बढ़ायी जा सकती है।

प्रश्न 10
सब्जियों के मूल्य के निर्धारण में किस पक्ष की प्रधानता होती है, माँग पक्ष की या पूर्ति पक्ष की ?
उत्तर:
माँग पक्ष की।

प्रश्न 11
कीमत-निर्धारण में समय कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर:
कीमत-निर्धारण में समय चार प्रकार का होता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
वस्तु के मूल्य-निर्धारण में उत्पादन लागत को महत्त्व प्रदान करने वाले अर्थशास्त्री हैं
(क) प्रो० एडम स्मिथ
(ख) रिकाड
(ग) माल्थस व मिल
(घ) ये सभी
उत्तर:
(घ) ये सभी।

प्रश्न 2
वस्तु के मूल्य-निर्धारण में तुष्टिगुण को महत्त्व प्रदान करने वाले अर्थशास्त्री हैं
(क) प्रो० जेवेन्स
(ख) मैन्जर तथा वालरस
(ग) (क) तथा (ख) दोनों
(घ) माल्थस व मिल
उत्तर:
(ग) (क) तथा (ख) दोनों।।

प्रश्न 3
वस्तु के मूल्य-निर्धारण में समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाने वाले अर्थशास्त्री हैं
(क) प्रो० जेवेन्स
(ख) प्रो० माल्थस
(ग) प्रो० मार्शल
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) प्रो० मार्शल।।

प्रश्न 4
मार्शल के ‘माँग एवं पूर्ति का नियम’ को इस नाम से भी पुकारते हैं
(क) माँग का सिद्धान्त
(ख) आधुनिक सिद्धान्त
(ग) सीमान्त लागत का सिद्धान्त ।
(घ) ये सभी
उत्तर:
(ख) आधुनिक सिद्धान्त।।

प्रश्न 5
यदि बाजार मूल्य सामान्य से अधिक ऊँचा हो, तो
(क) उत्पादकों को सामान्य हानि होने लगेगी
(ख) उत्पादकों को सामान्य लाभ होने लगेगा
(ग) उत्पादकों को असाधारण लाभ होगा
(घ) उत्पादकों को असाधारण हानि होने लगेगी
उत्तर:
(ग) उत्पादकों को असाधारण लाभ होगा।

प्रश्न 6
कीमत-निर्धारण में समय के महत्त्व को बतलाया था
(क) ए० मार्शल ने
(ख) ए० सी० पीगू ने
(ग) एल० रॉबिन्स ने
(घ) जे० के० मेहता ने
उत्त:
(क) ए० मार्शल ने।

प्रश्न 7
“एक वस्तु की कीमत के निर्धारण में माँग और पूर्ति दोनों का समान महत्त्व होता है।” यह कथन है
(क) ए० सी० पीगू का
(ख) जे० के० मेहता का
(ग) डेविड रिकार्डों का
(घ) ए० मार्शल का
उत्तर:
(घ) ए० मार्शल का।

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UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 12 Natural Disasters (प्राकृतिक आपदाएँ)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
आपदाओं से आप क्यों समझते हैं? आपदाओं के विभिन्न प्रकारों का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर
इस जगत में घटित होने वाली असंख्य घटनाओं की निरन्तरता ही जीवन है। घटनाएँ। असंख्य प्रकार की होती हैं। कुछ घटनाएँ सामान्य जीवन की प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होने में सहायक होती हैं, जबकि कुछ अन्य घटनाएँ बाधक होती हैं। सामान्य जीवन की गति को अवरुद्ध करने वाली घटनाओं को हम दुर्घटना की श्रेणी में रखते हैं। जब कुछ दुर्घटनाएँ व्यापक तथा विकराल रूप में घटित होती हैं तो उन्हें हम ‘आपदा’ या ‘विपत्ति’ कहते हैं।

सामान्य रूप से जब गम्भीर आपदा या विपत्ति की बात की जाती है तो हमारा आशय मुख्य रूप से उन प्राकृतिक घटनाओं से होता है जो जनजीवन एवं सम्पत्ति आदि पर गम्भीर, प्रतिकूल यो। विनाशकारी प्रभाव डालती हैं। प्राकृतिक आपदाओं के मुख्य रूप या प्रकार हैं-भूकम्प, बाढ़, सूखा, भूस्खलन ज्वालामुखी का फटना, तूफान, समुद्री तूफान, ओलावृष्टि, बादल फटना, सूनामी या समुद्री लहरें, उल्कापात, महामारियाँ। इन सभी प्राकृतिक आपदाओं का यदि विश्लेषण किया जाए तो हम कह सकते हैं कि उन विषम या प्रतिकूल प्रभाव वाली दशाओं को आपदाएँ कहा जाता है जो मनुष्यों, जीव-जगत था सामान्य जनजीवन को व्यापक रूप से प्रभावित करती हैं तथा पहले से चली आ रही जीवन सम्बन्धी सामान्य गतिविधियों में बाधा डालती हैं। इस तथ्य को इन शब्दों में भी कहा जा सकता है, उन समस्त दशाओं को आपदा कहा जाता है, जिनमें मनुष्य तथा जैव समुदाय, प्राकृतिक, मानवीय, पर्यावरणीय या सामाजिक कारणों से गम्भीर जान-माल की क्षति सहन करने के लिए बाध्य हो  जाता है।”

हिन्दी भाषा में प्रयोग होने वाला ‘आपदा’ शब्द का अंग्रेजी पर्याय Disaster है। अंग्रेजी भाषा का यह शब्द वास्तव में फ्रेंच भाषा के शब्द Desastre से लिया गया है, जिसका आशय ग्रह से है। प्राचीन विश्वासों के अनुसार प्राकृतिक आपदाएँ कुछ अनिष्टकारी तारों या ग्रहों के प्रतिकूल प्रभाव के कारण उत्पन्न होती हैं। वर्तमान वैज्ञानिक खोजों ने इस प्राचीन विश्वास को खण्डित कर दिया है। अब यह जान लिया गया है कि प्रायः सभी आपदाएँ अपने आप में प्राकृतिक घटनाएँ ही हैं तथा उनके कारण भी प्राकृतिक ही होते हैं। प्राकृतिक आपदाएँ उन गम्भीर प्राकृतिक घटनाओं को कहा जाता है, जिनके प्रभाव से हमारे सामाजिक ढाँचे व विभिन्न व्यवस्थाओं को गम्भीर क्षति पहुँचती है।

इनसे मनुष्यों एवं अन्य जीव-जन्तुओं का जीवन समाप्त हो जाता है तथा हर प्रकार की सम्पत्ति को भी नुकसान होता है। इस प्रकार की आपदाओं से मनुष्यों का सामाजिक-आर्थिक जीवन भी अस्त-व्यस्त हो जाता है। ऐसे में जनजीवन को पुनः सामान्य बनाने के लिए तथा पुनर्वास के लिए व्यापक स्तर पर बाहरी सहायता की आवश्यकता होती है। वर्तमान समय में विश्व-मानव प्राकृतिक आपदाओं के प्रति पर्याप्त सचेत है तथा इन अवसरों पर विश्व के कोने-कोने से सहायता एवं सहानुभूति प्राप्त हो जाती है।

आपदाओं के प्रकार
(Kinds of Disasters)

यहू सत्य है कि गम्भीर एवं व्यापक आपदाएँ मुख्य रूप से प्राकृतिक कारकों से ही उत्पन्न होती हैं, परन्तु कुछ आपदाएँ अन्य कारकों के परिणामस्वरूप भी उत्पन्न हो सकती हैं। इस स्थिति में आपदाओं के व्यवस्थित अध्ययन के लिए आपदाओं का समुचित वर्गीकरण करना भी आवश्यक माना जाता है। आपदाओं के मुख्य प्रकार या वर्ग निम्नलिखित हो सकते हैं

1. आकस्मिक रूप से घटित होने वाली आपदाएँ- कुछ आपदाएँ या प्राकृतिक घटनाएँ ऐसी हैं। जो एकाएक या आकस्मिक रूप से घटित हो जाती हैं तथा अल्प समय में ही गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव डाल  देती हैं। इनकी न तो कोई पक्की पूर्व-सूचना होती है और न निश्चित भविष्यवाणी ही की जा सकती है। इस वर्ग की आपदाओं को आकस्मिक रूप से घटित होने वाली आपदाएँ कहा जाता है। इस वर्ग की मुख्य आपदाएँ हैं-भूकम्प, ज्वालामुखी का विस्फोट, सूनामी, बादल का फटना, चक्रवातीय तूफान, भूस्खलन तथा हिम की आँधी। इन आपदाओं के प्रति सचेत न होने के कारण जान-माल की भारी क्षति हो जाती है।

2. धीरे-धीरे अथवा क्रमशः आने वाली आपदाएँ- दूसरे वर्ग में उन आपदाओं को सम्मिलित किया जाता है जो आकस्मिक रूप से नहीं बल्कि धीरे-धीरे आती हैं तथा उनकी गम्भीरता क्रमशः बढ़ती है। इस वर्ग की आपदाओं की समुचित पूर्व-सूचना होती है तथा उनकी भावी गम्भीरता की भी भविष्यवाणी की जा सकती है। इस वर्ग की आपदाओं के पीछे प्रायः प्राकृतिक कारकों के साथ-ही-साथ मनुष्य के कुप्रबन्धन या पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ सम्बन्धी कारक भी निहित होते हैं। इस वर्ग की मुख्य आपदाएँ हैं—सूखा, अकाल, किसी क्षेत्र का मरुस्थलीकरण, मौसम एवं जलवायु सम्बन्धी परिवर्तन, कृषि पर कीड़ों का प्रभाव तथा पर्यावरण-प्रदूषण। इन आपदाओं का मुकाबला किया जा सकता है तथा इन्हें नियन्त्रित करने के भी उपाय किये जा सकते हैं।

3. मानवजनित अथवा सामाजिक आपदाएँ– तीसरे वर्ग की आपदाओं को हम मानव-जनित अथवा सामाजिक आपदाएँ कहते हैं। इस प्रकार की आपदाओं के लिए कोई भी प्राकृतिक कोरक जिम्मेदार नहीं होता बल्कि ये आपदाएँ मानवीय लापरवाही, कुप्रबन्धन, षड्यन्त्र अथवा समाज-विरोधी तत्त्वों की गतिविधियों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती हैं। इस वर्ग की आपदाओं में मुख्य हैं—युद्ध, दंगा, आतंकवाद, अग्निकाण्ड, सड़क दुर्घटनाएँ, वातावरण को दूषित करना तथा जनसंख्या विस्फोट आदि। इस वर्ग की आपदाओं को विभिन्न प्रयासों एवं जागरूकता से नियन्त्रित किया जा सकता है।

4. जैविक आपदाएँ या महामारी- चतुर्थ वर्ग की आपदाओं में उन आपदाओं को सम्मिलित किया जाता है जिनका सम्बन्ध मनुष्यों के शरीर एवं स्वास्थ्य से होता है। साधारण शब्दों में हम कह सकते हैं कि व्यापक स्तर पर फैलने वाले संक्रामक एवं घातक रोगों को इस वर्ग की आपदा माना जा सकता है। उदाहरण के लिए, एक समय था जब प्लेग, हैजा, चेचक आदि संक्रामक रोग प्रायः गम्भीर आपदा के रूप में देखें, जाते थे। इन रोगों के प्रकोप से प्रतिवर्ष लाखों व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती थी। वर्तमान समय में एड्स, तपेदिक, हेपेटाइटिस-बी डेगू तथा चिकनगुनिया जैसे रोगों को जैविक आपदा के रूप में देखा जा रहा है।

प्रश्न 2
आग लगना या अग्निकाण्ड किस प्रकार की आपदा है? इसके कारणों, बचाव तथा । सम्बन्धित प्रबन्धन के उपायों का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
सभ्य मानव-जीवन तथा आग का घनिष्ठ सम्बन्ध है। सभ्यता के विकास से पूर्व मनुष्य आग से परिचित नहीं था। वह आग जलाना नहीं जानता था। इस ज्ञान के अभाव में वह जंगल के कन्द-मूल, फल तथा पशुओं का कच्चा मांस खाकर ही जीवन-यापन करता था। स्पष्ट है कि आग जलाने के ज्ञान के अभाव में व्यक्ति का जीवन पशु-तुल्य ही था। जैसे ही मनुष्य ने आग जलाना सीख लिया, वैसे ही उसने सभ्यता के मार्ग पर अग्रसर होना प्रारम्भ कर दिया। आज हमारे जीवन की असंख्य गतिविधियाँ आग पर ही निर्भर हैं। सर्वप्रथम हमारा आहार या भोजन पूर्ण रूप से आग (ताप) पर ही निर्भर है। पाक-क्रिया की चाहे जिस विधि को अपनाया जाए, प्रत्येक दशा में ताप अर्थात् आग एक अनिवार्य कारक है। इस प्रकार आग हमारे रसोईघर का अनिवार्य साधन है। आहार के अतिरिक्त जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों में भी आग की महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य भूमिका है। औद्योगिक क्षेत्र में, परिवहन एवं यातायात के क्षेत्र में भी आग या ईंधन को अनिवार्य कारक माना जाता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि आग एक अति महत्त्वपूर्ण एवं प्रबल कारक है जो मानव-जीवन के लिए उपयोगी एवं सहायक है। अग्नि का उपयोग मानव आदिकाल से कर रहा है। अग्नि यदि नियन्त्रण में रहे तो मानव की सबसे अच्छी सेवक व मित्र है। मानव के लिए यह ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है। यदि मानव के नियन्त्रण से अग्नि.

निकल जाए, तो यह विनाशकारी रूप धौरण कर लेती है। उस अवस्था में यह मानव की सबसे बड़ी शत्रु और संहारक बन जाती है। प्रत्येक वर्ष अग्नि लाखों लोगों के प्राण लेती है तथा लाखों को विकलांग बना देती है। लाखों इमारतें तथा अनेक वन प्रतिवर्ष अग्नि की भेंट चढ़ जाते हैं। एक बार अग्नि अपनी जकड़ बना ले तो इसको नियन्त्रित करना आसान नहीं होता। आग के अनियन्त्रित रूप को आग लगना’ या

अग्निकाण्ड कहा जाता है। आग लगना भी एक गम्भीर आपदा है। यह एक ऐसी आपदा है जो किसी-न-किसी रूप में मनुष्य द्वारा उत्पन्न की गयी आपदा है। आग लगना प्राकृतिक आपदा नहीं है। यह मानवकृत आपदा है। यह लापरवाही से, दुर्घटनावश अथवा दुर्भावनाजनित भी हो सकती है।

अग्निकाण्ड के कारण
(Causes of Fire)

आग लगाने के लिए तीन बातों का एक स्थान पर होना आवश्यक है। ये हैं
1. ऑक्सीजन गैस।
2. ईंधन; जैसे-पेट्रोल, कागज, लकड़ी आदि।
3. ऊष्मा; शेष दो वस्तुएँ एक साथ हों, तो अग्नि को जन्म देती हैं। आग लगने के मुख्य कारण

1. मानव लापरवाही

  • घर पर हम आग का प्रयोग खाना पकाने के लिए करते हैं। खाना पकाते समय ढीले-ढाले तथा ज्वलनशील कपड़े पहनने पर बहुधा आग लग जाती है। महिलाएँ अक्सर साड़ी या चुनरी पहनकर खाना बनाती हैं और इसी कारण वे रसोईघर में आग पकड़ लेती हैं तथा इसका शिकार हो जाती हैं।
  • हम, धूम्रपान करने के लिए अक्सरे माचिस को जलाते हैं। सिगरेट-बीड़ी सुलगा लेने पर जलती हुई तिल्ली को बिना सोचे-समझे इधर-उधर फेंक देते हैं। इसके कारण भी आग लग जाती है।
  • कभी-कभी हम घर पर कपड़ों पर बिजली की इस्तरी करते-करते, इस्तरी को बिना बन्द किये उसे खुला छोड़कर किसी और काम में लग जाते हैं। परिणामस्वरूप गर्म इस्तरी कपड़ों में आग लगा देती है।
  • त्योहारों और खुशी के अन्य अवसरों पर नवयुवक व बच्चे आतिशबाजी चलाते हैं। यह आतिशबाजी भी आग लगने का कारण बन जाती है।
  • प्रायः झुग्गी-झोंपड़ियों में आग लग जाया करती है। यह भी लापरवाही के ही कारण लगती है।


2. बिजली के दोषपूर्ण उपकरण व फिटिंग

  • बिजली सम्बन्धी दोषपूर्ण वायरिंग, शॉर्ट सर्किट व ओवरलोड आग लगने के कारण हैं। दुकानों व वर्कशॉपों में, जो रात को बन्द रहते हैं तथा कोई व्यक्ति उनकी देखभाल नहीं करता, अक्सर शॉर्ट सर्किट से आग लगने की दुर्घटनाएँ होती हैं।
  • दोषपूर्ण तथा अनाधिकृत विद्युत उपकरण भी आग लगने के कारण । मल्टी प्वाइंट अडॉप्टर भी शीघ्र गर्म हो जाने के कारण आग पकड़ लेते हैं।

3. ज्वलनशील पदार्थों के प्रति लापरवाही

कुछ पदार्थ ऐसे हैं जो अत्यन्त ज्वलनशील हैं; जैसे-पेट्रोल, सरेस, ग्रीस तथा ज्वलनशील गैसें। इनके भण्डारण में लापरवाही के कारण प्रायः आग लग जाती है।

4. अन्य कारण 

(1) आज के आतंकवादी समय में शरारती तत्त्व भी आगजनी करते हैं। वे बहुधा धार्मिक स्थलों, बाजारों व बस्तियों में आग लगा देते हैं।
(2) वनों की आग का मुख्य कारण जैविक अथवा मानवजनित लापरवाही है। बाँस के वनों में आपसी घर्षण से उत्पन्न चिंगारी द्वारा अथवः थण्डरबोल्ट से भी दावाग्नि उत्पन्न हो जाती है।
(3) वनाग्नि कभी-कभी निम्नलिखित व्यक्तियों द्वारा लगाई जाती है।

(क) शहद निकालने वाले श्रमिक
(ख) शाक-बीज एकत्र करने वाले श्रमिक
(ग) अवैध कटान को छिपाने वाले व्यक्ति
(घ) अवैध शिकारी
(ङ) वन भूमि पर अतिक्रमण करने वाले व्यक्ति।

आग से बचाव
(Protection from Fire)

1. हमें आग से बचाव के नियमों का सख्ती से पालन करना चाहिए।
2. हमें अपने कार्यस्थल, घर (विशेषकर रसोई में), फैक्ट्री आदि में अग्नि-शमन उपकरण लगाने चाहिए।
3. घर में ज्वलनशील पदार्थों का भण्डारण नहीं करना चाहिए। यदि यह अपरिहार्य हो, तो पूरी सावधानी बरतनी चाहिए।
4. रसोई में खाना पकाते समय कृत्रिम रेशों के ज्वलनशील कपड़े व ढीले-ढाले कपड़े नहीं पहनने चाहिए।
5. बिजली के I.S.I. मार्का उपकरण ही प्रयोग करने चाहिए तथा बिजली के तारों की फिटिंग भी निपुण व्यक्ति से करानी चाहिए।
6. जलती हुई बीड़ी, सिगरेट व माचिस की तिल्ली इधर-उधर नहीं फेंकनी चाहिए। इन्हें बुझाकर फेंकने की ही आदेत डालनी चाहिए।
7. बिजली के उपकरणों को सावधानीपूर्वक प्रयोग करना चाहिए।
8. आतिशबाजी खुले स्थान पर सावधानीपूर्वक की जानी चाहिए।
9. घर से बाहर जाने से पहले बिजली तथा गैस के सभी उपकरण बन्द कर देने चाहिए।

आग लगने पर प्रबन्धन– यदि आग लग जाए तो उसके कारण क्षति को कम करने तथा उसकी पुनरावृत्ति को रोकने के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए

  1. आग बुझाना एक खतरनाक काम है। इसके लिए तभी प्रयास करें जब आपका जीवन खतरे में न पड़े।
  2. सर्वप्रथम आग में फँसे व्यक्ति को वहाँ से निकालना चाहिए।
  3. 101 पर फोन करके फायर ब्रिगेड को बुलाना चाहिए तथा आग की सूचना आस-पास के व्यक्तियों को शोर मचाकर दे देनी चाहिए।
  4. यदि आग छोटी है तो अग्निशमन उपकरण का प्रयोग करना चाहिए।
  5. यदि आग फैल चुकी है तो उस स्थान से निकलकर सुरक्षित जगह आ जाना चाहिए।
  6. आग लगने के स्थान की बिजली आपूर्ति बन्द कर देनी चाहिए।
  7. आग के धुएँ से दूर रहना चाहिए अन्यथा आपका दम घुट सकता है।
  8. बिजली के जलते हुए उपकरणों पर पानी मत डालिए, बल्कि रेत व मिट्टी डालिए। आग बुझने के पश्चात् निम्नलिखित बातों का ध्यान रखिए
    • आग लगने के कारणों का पता लगाइए।
    • घायल व्यक्ति के उपचार का प्रबन्ध कीजिए।
    • भविष्य में आग से बचने के लिए आवश्यक उपाय कीजिए।
    • अग्निशमन उपकरण, पंखों और बिजली के तारों का पूरा निरीक्षण कीजिए। जहाँ कहीं कोई दोष मिले, उसे दूर कीजिए।

प्रश्न 3
सूखा नामक आपदा से आप क्या समझते हैं? इसके मुख्य कारणों तथा सूखा शमन की 
युक्तियों का उल्लेख कीजिए।
या 
सूखे के प्रभाव को कम करने के उपायों के बारे में लिखिए। (2011, 16)
उत्तर

सूखा : एक आपदा
(Draught : Apisaster)

सूखा वह स्थिति है जिसमें किसी स्थान पर अपेक्षित तथा सामान्य वर्षा से कहीं कम वर्षा पड़ती है। यह स्थिति एक लम्बी अवधि खुक रहती है। सूखा गर्मियों में भयंकर रूप धारण कर लेता है जब सूखे के साथ-साथ ताप भी आक्रमण करता है। सूखा मानव, वनस्पति व पशु-पक्षियों को भूखा मार देता है। सूखे की स्थिति में कृषि, पशुपालन तथा मनुष्यों को सामान्य आवश्यकता से कम जल प्राप्त होता है।

शुष्क तथा अर्द्ध-शुष्क प्रदेशों में सूखी एक सामान्य समस्या है, किन्तु पर्याप्त वर्षा वाले क्षेत्र भी इससे अछूते नहीं हैं। मानसूनी वर्षा के क्षेत्र सूखे से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। सूखा एक मौसम सम्बन्धी आपदा है तथा किसी अन्य विपत्ति की अपेक्षा अधिक धीमी गति से आती है।

सूखा के कारण
(Causes of Draught)

वैसे यूँ तो सूखा के अनेक कारण हैं, परन्तु प्रकृति तथा मानव दोनों ही इसके मूल में हैं। सूखा के कारण इस प्रकार हैं|

1. अत्यधिक चराई तथा जंगलों की केंटाई- अत्यधिक चराई तथा जंगलों की कटाई के कारण हरियाली की पट्टी धीरे-धीरे समाप्त हो रही है, परिणामस्वरूप वर्षा कम मात्रा में होती है। यदि होती भी है, तो जल भूतल पर तेजी से बह जाता है। इसके कारण मिट्टी का कटाव होता है तथा सतह से नीचे जल-स्तर कम हो जाता है, परिणामस्वरूप कुएँ, नदियाँ और जलाशय सूखने लगते हैं।

2. ग्लोबल वार्मिंग- ग्लोबल वार्मिंग वर्षा की प्रवृत्ति में बदलाव का कारण बन जाती है। परिणामस्वरूप वर्षा वाले क्षेत्र सूखाग्रस्त हो जाते हैं।

3. कृषि योग्य समस्त भूमि का उपयोग – बढ़ती हुई आबादी के लिए खाद्य-सामग्री उगाने के लिए लगभग समस्तं कृषि योग्य भूमि पर जुताई व खेती की जाने लगी है, परिणामस्वरूप मृदा की उर्वरा शक्ति क्षीण होती जा रही है तथा वह रेगिस्तान में परिवर्तित होती जा रही है। ऐसी स्थिति में वर्षा की थोड़ी कमी भी सूखे का कारण बन जाती है।

4. वर्षा का असमान वितरण
दोनों तरीके से व्याप्त है। विभिन्न स्थानों पर न तो वर्षा की मात्रा समान है और न ही अवधि। हमारे देश में कुल जोती जाने वाली भूमि का लगभग 70 प्रतिशत भाग सूखा सम्भावित क्षेत्र है। इस क्षेत्र में यदि कुछ वर्षों तक लगातार वर्षा न हो तो सूखे की अत्यन्त दयनीय स्थिति पैदा हो जाती है।

सूखा शमन की प्रमुख युक्तियाँ (साधन)
(Means to Prevent Draught)

1. हरित पट्टियाँ– हरित पट्टी कालान्तर में वर्षा की मात्रा में वृद्धि तो करती ही है, साथ में ये वर्षा जल को रिसकर भूतल के नीचे जाने में सहायक भी होती हैं। परिणामस्वरूप कुओं, तालाबों आदि में जल-स्तर बढ़ जाता है और मानव उपयोग के लिए अधिक जल उपलब्ध हो जाता है।

2. जल संचय– वर्षा कम होने की स्थिति में जल आपूर्ति को बनाये रखने के लिए, जल को संचय करके रखना एक दूरदर्शी युक्ति है। जल का संचय बाँध बनाकर या तालाब बनाकर किया जा सकता है।

3. प्राकृतिक तालाबों का निर्माण- यह भी सूखे की स्थिति से निबटने के लिए एक उत्तम उपाय है। प्राकृतिक तालाबों में जल संचय भू-जल के स्तर को भी बढ़ाता है।

4. विभिन्न नदियों को आपस में जोड़ने- से उन क्षेत्रों में भी जल उपलब्ध किया जा सकता है। जहाँ वर्षा का अभाव रहा हो। भारत सरकार नदियों को जोड़ने की एक महत्त्वाकांक्षी योजना अगस्त 2005 ई० में प्रारम्भ कर चुकी है।

5. भूमि का उपयोग– सूखा सम्भावित क्षेत्रों में भूमि उपयोग पर विशेष ध्यान देना आवश्यक्त है, विशेषकर हरित पट्टी बनाने के लिए कम-से-कम 35 प्रतिशत भूमि को आरक्षित कर दिया जाना चाहिए। इस भूमि पर अधिकाधिक वृक्षारोपण किया जाना चाहिए।

प्रश्न4
बाढ़ से आप क्या समझते हैं? बाढ़ के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए तथा बाढ शमन की प्रमुख युक्तियों का भी वर्णन कीजिए।
या
बाढ़ आने के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
या
बाढ़ से बचने के उपाय लिखिए। 
(2017)
उत्तर

बाढ़ : एक प्राकृतिक आपदा
(Flood : A Natural Disaster) 

बाढ़ का अर्थ किसी क्षेत्र में निरन्तर वर्षा होने या नदियों का जल फैल जाने से उस क्षेत्र का जलमग्न होना है। वर्षाकाल में अधिक वर्षा होने पर नदी प्रायः अपने सामान्य जल-स्तर से ऊपर बहने लगती है। उनका जल तटबन्धों को तोड़कर आस-पास के निम्न क्षेत्रों में फैल जाता है, जिससे वे क्षेत्र जलमग्न हो जाते हैं। नदियों या धाराओं के मुहाने पर, तेज ढालों पर या जलमार्ग के अत्यन्त निकट बस्तियों को बाढ़ का खतरा बना रहता है।

बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है, किन्तु जब यह मानव- जीवन व सम्पत्ति को क्षति पहुँचाती है तो यह प्राकृतिक आपदा कहलाती है। बाढ़ों के कारण दामोदर नदी ‘बंगाल का शोक’, कोसी बिहार का शोक तथा ब्रह्मपुत्र ‘असम का शोक’ कहलाती है। ह्वांग्हो नदी ‘चीन का शोक’ कहलाती है।

बाढ़ के कारण
(Causes of Flood)

1. निरन्तर भारी वर्षा– जब किसी क्षेत्र में निरन्तर भारी वर्षा होती है तो वर्षा का जल धाराओं के रूप में मुख्य नदी में मिल जाता है। यह जल नदी के तटबन्धों को तोड़कर आस-पास के क्षेत्रों को जलमग्न कर देता है। भारी मानसूनी वर्षा तथा चक्रवातीय वर्षा बाढ़ों के प्रमुख कारण हैं। |

2. भूस्खलन भूस्खलन भी कभी- कभी बाढ़ों का कारण बनते हैं। भूस्खलन के कारण नदी का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, परिणामस्वरूप नदी का जल मार्ग बदलकर आस-पास के क्षेत्रों को जलमग्न कर देता है।

3. वन-विनाश- वन पानी के वेग को कम करते हैं। नदी के ऊपरी भागों में बड़ी संख्या में वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई से भी बाढ़े आती हैं। हिमालय में बड़े पैमाने पर वन विनाश ही हिमालय-नदियों में बाढ़ का मुख्य कारण है।

4. दोषपूर्ण जल निकास प्रणाली– मैदानी क्षेत्रों में उद्योगों और बहुमंजिले मकानों की परियोजनाएँ बाढ़ की सम्भावना को बढ़ाती हैं। इसका कारण यह है कि पक्की सड़कें, नालियाँ, निर्मित क्षेत्र, पक्के पार्किंग स्थल आदि के कारण यहाँ जल रिसकर भू-सतह के नीचे नहीं जा पाता। यहाँ पर जल निकास की भी पूर्ण व्यवस्था नहीं होने के कारण, वर्षा का पानी नीचे स्थानों पर भरता चला जाता है तथा बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

5. बर्फ का पिघलना- सामान्य से अधिक बर्फ का पिघलना भी बाढ़ का एक कारण है। बर्फ के अत्यधिक पिघलने से नदियों में जल की मात्री उसी अनुपात में अधिक हो जाती है तथा नदियों का जल तट-बन्ध तोड़कर आस-पास के इलाकों को जलमग्न कर देता है।

देश भर में केन्द्रीय जल आयोग के लगभग 132 पूर्वानुमान केन्द्र हैं। ये केन्द्र देश में लगभग सभी बाढ़-सम्भावी नदियों पर नजर रखते हैं। जल-स्तरों पर खतरे का निशान चिह्नित होता है। खतरे वाले जल-स्तर बढ़ने के विषय में टी० वी०, रेडियो तथा पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से चेतावनी प्रसारित की जाती है। समय रहते ही बाढ़ सम्भावित क्षेत्रों को लोगों से खाली करा लिया जाता है।

बाढ़ शमन की प्रमुख युक्तियाँ
(Means to Prevent Flood)

1. सीधा जलमार्ग – बाढ़ की स्थिति में जलमार्ग को सीधा रखना चाहिए जिससे वह तेजी से एक सीमित मार्ग से बह सके। टेढ़ी-मेढ़ी धारों में बाढ़ की सम्भावना अधिक होती है।

2. जल मार्ग परिवर्तन- बाढ़ के छन क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिए जहाँ प्रायः बाढ़े आती हैं। ऐसे स्थानों से जल के मार्ग को मोड़ने के लिए कृत्रिम ढाँचे बनाये जाने हैं। यह कार्य वहाँ किया जाता है जहाँ कोई बड़ा जोखिमंन हो।

3. कृत्रिम जलाशयों का निर्माण- वर्षा के जल से आबादी-क्षेत्र को बचाने के लिए कृत्रिम जलाशयों का निर्माण किया जाना चाहिए। इन जलाशयों में भण्डारित जल को बाद में सिंचाई अथवा पीने के लिए प्रयोग किया जा सकता है।इन जलाशयों में बाढ़ के जल को मोड़ने के लिए जल कपाट लगे होते हैं।

4. बाँध निर्माण– आबादी वाले क्षेत्रों को बाढ़ से बचाने के लिए तथा जल का प्रवाह उस ओर रोकने के लिए रेत के थैलों का बाँध बनाया जा सकता है।

5. कच्चे तालाबों का निर्माण– अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में कच्चे तालाबों का अधिक-से-अधिक निर्माण कराया जाना चाहिए। ये तालाब वर्षा के जल को संचित कर सकते हैं तथा संचित जल आवश्यकता के समय उपयोग में लाया जा सकता है।

6. नदियों को आपस में जोड़ना– विभिन्न क्षेत्रों में बहने वाली नदियों को आपस में जोड़कर बाढ़ के प्रकोप को कम किया जा सकता है। अधिक जल वाली नदियों का जल कम जल वाली नदियों में चले जाने से बाढ़ की स्थिति से बचा जा सकता है।

7. बस्तियों का बुद्धिमत्तापूर्ण निर्माण– बस्तियों का निर्माण नदियों के मार्ग से हटकर किया जाना चाहिए। नदियों के आस-पास अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में, सुरक्षा के लिए मकान ऊँचे चबूतरों पर बनाये जाने चाहिए।

प्रश्न 5
भूकम्प से आप क्या समझते हैं? भूकम्प के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए। भूकम्प से होने वाली क्षति से बचाव के उपायों का भी उल्लेख कीजिए।
उक्ट

भूकम्प : एक प्राकृतिक आपदा
(Earthquake : A Natural Disaster) 

भूकम्प भूतलकी आन्तरिक शक्तियों में से एक है। भूगर्भ में प्रतिदिन कम्पन होते हैं। जब ये कम्पन तीव्र होते हैं तो ये भूकम्प कहलाते हैं।

साधारणतया भूकम्प एक प्राकृतिक एवं आकस्मिक घटना है जो भू-पटल में हलचल पैदा कर देती है। इन हलचलों के कारण पृथ्वी अनायास ही वेग से काँपने लगती है जिसे भूचाल या भूकम्प कहते हैं। यह एक विनाशकारी घटना है। हमारे देश में भी विभिन्न क्षेत्रों में समय-समय पर हल्के या तीव्र भूकम्प आते रहते हैं।

भूकम्प मूल एवं भूकम्प केन्द्र- भूगर्भ में भूकम्पीय लहरें चलती रहती हैं। जिस स्थान से इन लहरों का प्रारम्भ होता है, उसे भूकम्प मूल कहते हैं। जिस स्थान पर भूकम्पीय लहरों का अनुभव सर्वप्रथम किया जाता है, उसे अभिकेन्द्र या भूकम्प केन्द्र कहते हैं। (भूकम्प की तीव्रता की माप के लिए रिक्टर स्केल’ का निर्धारण किया गया है।)

भूकम्प के कारण
(Causes of Earthquake)

भूगर्भशास्त्रियों ने भूकम्प के निम्नलिखित कारण बताये हैं

1. ज्वालामुखी उद्गार- जब विवर्तनिक हलचलों के कारण भूगर्भ में गैसयुक्त द्रवित लावा भूपटल की ओर प्रवाहित होती है तो उसके दबाव से भू-पटल की शैलें हिल उठती हैं। यदि लावा के मार्ग में कोई भारी चट्टान आ जाए तो प्रवाहशील लावा उस चट्टानं को वेग से ढकेलता है, जिससे भूकम्प आ जाता है।

2. भू-असन्तुलन में अव्यवस्था- भू-पटल पर विभिन्न बल समतल समायोजन में लगे रहते हैं जिससे भूगर्भ की सियाल एवं सिमा की परतों में परिवर्तन होते रहते हैं। यदि ये परिवर्तन एकाएक तथा तीव्र हो जाएँ तो पृथ्वी का कम्पन प्रारम्भ हो जाता है तथा उस क्षेत्र में भूकम्प के झटके आने प्रारम्भ हो जाते हैं।

3. जलीय भार- मानव द्वारा निर्मित जलाशय, झील अथवा तालाब के धरातल के नीचे की चट्टा के भार एवं दबाव के कारण अचानंक़ परिवर्तन आ जाते हैं तथा इनके कारण ही भूकम्प आ जाता है। 1967 ई० में कोयना भूकम्प (महाराष्ट्र) कोयना जलाशय में जले भर जाने के कारण ही आया था।

4. भू-पटल में सिकुड़न– विकिरण के माध्यम से भूगर्भ की गर्मी धीरे-धीरे कम होती रहती है। जिसके कारण पृथ्वी की ऊपरी पपड़ी मैं सिकुड़न आती है। यह सिकुड़न पर्वत निर्माणकारी क्रिया को जन्म देती है। जब यह प्रक्रिया तीव्रता से होती है, तो भू-पटल पर कम्पन प्रारम्भ हो जाता है।

5. प्लेट विवर्तनिकी- महाद्वीप तथा महासागरीय बेसिन विशालकाय दृढ़ भूखण्डों से बने हैं, जिन्हें प्लेट कहते हैं। सभी प्लेटें विभिन्न गति से सरकती रहती हैं। कभी-कभी दो प्लेटें परस्पर टकराती हैं तब भूकम्प आते हैं। 26 जनवरी, 2001 को गुजरात के भुज क्षेत्र में उत्पन्न भूकम्प की उत्पत्ति का कारण प्लेटों का टकरा जाना ही था।

भूकम्प से भवन-सम्पत्ति की क्षति का बचाव
(Protection of Damaged Land and Property from Earthquake)

भूकम्प अपने आप में किसी प्रकार से नुकसान नहीं पहुँचाता, परन्तु भूकम्प के प्रभाव से हमारे भवन एवं इमारतें टूटने लगती हैं तथा उनके गिरने से जान-माल की अत्यधिक हानि होती है। अतः भूकम्प से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए भवन-निर्माण में ही कुछ सावधानियाँ अपनायी जानी चाहिए तथा आवश्यक उपाय किये जाने चाहिए। |

1. भवनों की आकृति- भवन का नक्शा साधारणतया आयताकार होना चाहिए। लम्बी दीवारों को सहारा देने के लिए ईंट-पत्थर या कंक्रीट के कॉलम होने चाहिए। जहाँ तक हो सके T, LL, U और X आकार के नक्शों वाले बड़े भवनों को उपयुक्त स्थानों पर अलग-अलग खण्डों में बाँटकर। आयताकार खण्ड बना लेना चाहिए। खण्डों के बीच खास अन्तर से चौड़ी जगह छोड़ दी जानी चाहिए ताकि भूकम्प के समय भवन हिल-डुल सके और क्षति न हो।

2. नींव- जहाँ आधार भूमि में विभिन्न प्रकार की अथवा नरम मिट्टी हो वहीं नींव में कॉलमों को भिन्न-भिन्न व्यवस्था में स्थापित करना चाहिए। ठण्डे देशों में मिट्टी में आधार की गहराई जमाव-बिन्दु क्षेत्र के काफी नीचे तक होनी चाहिए, जबकि चिकनी मिट्टी में यह गहराई दरार के सिकुड़ने के स्तर से नीचे तक होनी चाहिए। ठोस मिट्टी वाली परिस्थितियों में किसी भी प्रकार के आधार का प्रयोग कर सकते हैं। चूने या सीमेण्ट के कंक्रीट से बना इसका ठोस आधार होना चाहिए।

3. दीवारों में खुले स्थान- दीवारों में दरवाजों और खिड़कियों की बहुलता के कारण, उनकी भार-रोधक क्षमता कम हो जाती है। अत: ये कम संख्या में तथा दीवारों के बीचोंबीच स्थित होने चाहिए।

4. कंक्रीट से बने बैंडों का प्रयोग- भूकम्प संवेदनशील क्षेत्रों में, दीवारों को मजबूती प्रदान करने तथा उनकी कमजोर जगहों पर समतल रूप से मुड़ने की क्षमता को बढ़ाने के लिए कंक्रीट के मजबूत बैंड बनाए जाने चाहिए जो स्थिर विभाजक दीवारों सहित सभी बाह्य तथा आन्तरिक दीवारों पर लगातार काम करते रहते हैं। इन बैंडों में प्लिन्थ बैंड, लिटल बैंड, रूफ बैंड तथा गेबल बैंड आदि सम्मिलित हैं।

5. वर्टिकल रीइन्फोर्समेंट- दीवारों के कोनों और जोड़ों में वर्टिकल स्टील लगाया जाना चाहिए। भूकम्पीय क्षेत्रों, खिड़कियों तथा दरवाजों की चौखट में भी वर्टिकल रीइन्फोर्समेंट की व्यवस्था की जानी चाहिए।

प्रश्न 6
एक प्राकृतिक आपदा के रूप में समुद्री लहरों का सामान्य परिचय दीजिए। इनके मुख्य कारण क्या होते हैं? समुद्री लहरों की चेतावनी तथा बचाव के लिए आवश्यक सावधानियों का भी उल्लेख कीजिए।
उक्ट

समुद्री लहरें : प्राकृतिक आपदा
(Sea Waves : Natural Disaster)

समुद्री लहरें कभी-कभी विनाशकारी रूप धारण कर लेती हैं। इनकी ऊँचाई 15 मीटर और कभी-कभी इससे भी अधिक तक होती है। ये तट के आस-पास की बस्तियों को तबाह कर देती हैं। ये

लहरें मिनटों में ही तट तक पहुँच जाती हैं। जब ये लहरें उथले पानी में प्रवेश करती हैं, तो, झ्यावह शक्ति के साथ तट से टकराकर कई मीटर ऊपर तक उठती हैं। तटवर्ती मैदानी इलाकों में इनकी रफ्तार 50 किमी प्रति घण्टा तक हो सकती है।

इन विनाशकारी समुद्री लढेरों को ‘सूनामी कहा जाता है। ‘सूनामी’, जापानी भाषा का शब्द है, जो दो शब्दों ‘सू’ अर्थात् ‘बन्दरगंह’ और ‘नामी’ अर्थात् ‘लहर’ से बना है। सूनामी लहरें अपनी भयावह शक्ति के द्वारा विशाल चट्टानों, नौकाओं तथा अन्य प्रकार के मलबे को भूमि पर कई मीटर अन्दर तक धकेल देती हैं। ये तटवर्ती इमारतों, वृक्षों आदि को नष्ट कर देती हैं। 26 दिसम्बर, 2004 को दक्षिण-पूर्व एशिया के 11 देशों में सूनामी’ द्वारा फैलाई गयी विनाशलीला से हम सब परिचित हैं।

समुद्री लहरों के कारण
(Causes of Sea Waves)

1. ज्वालामुखी विस्फोट- वर्ष 1993 में इण्डोनेशिया में क्रकटू नामक विख्यात ज्वालामुखी में भयानक विस्फोट हुआ और इसके कारण लगभग 40 मीटर ऊँची सूनामी लहरें उत्पन्न हुईं। इन लहरों ने जावा व सुमात्रा में जन-धन की अपार क्षति पहुँचायी।

2. भूकम्प– समुद्र तल के पास या उसके नीचे भूकम्प आने पर समुद्र में हलचल पैदा होती है। और यही हलचल विनाशकारी सूनामी का रूप धारण कर लेती है। 26 दिसम्बर, 2004 को दक्षिण-पूर्व एशिया में आई विनाशकारी सूनामी लहरें, भूकम्प का ही परिणाम थीं।।

3. भूस्खलन– समुद्र की तलहटी में भूकम्प व भूस्खलन के कारण ऊर्जा निर्गत होने से बड़ी-बड़ी लहरें उत्पन्न होती हैं जिनकी गति अत्यन्त तेज होती है। मिनटों में ही ये लहरें विकराल रूप धारण कर, तट की ओर दौड़ती हैं।

चेतावनी व अन्य युक्तियाँ
(Warning and Other Means)

सूनामी लहरों की उत्पत्ति को रोकना मानव के वश में नहीं हैं। समय से इसकी चेतावनी देकर, लोगों की जान व सम्पत्ति की रक्षा की जा सकती है।

1. उपग्रह प्रौद्योगिकी– उपग्रह प्रौद्योगिकी के प्रयोग से सूनामी सम्भावित भूकम्पों की तुरन्त चेतावनी देना सम्भब हो गया है। चेतावनी का समय तट रेखा से अभिकेन्द्र की दूरी पर निर्भर करता है। फिर भी उन तटवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को जहाँ सूनामी कुछ घण्टों में विनाश फैला सकती है, सूनामी के अनुमानित समय की सूचना दे दी जाती है।

2. तटीय ज्वार जाली– तटीय ज्वार जाली का निर्माण करके सूनामियों को तट के निकट रोको जा सकता है। गहरे समुद्र में इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता।

3. सूनामीटर- सूनामीटर के द्वारा समुद्र तल में होने वाली हलचलों का पता लगाकर, उपग्रह के माध्यम से चेतावनी प्रसारित की जा सकती है। इसके लिए सूनामी सतर्कता यन्त्र समुद्री केबुलों के द्वारा भूमि से जोड़े जाते हैं और उन्हें समुद्र में 50 किमी तक आड़ा-तिरछा लगाया जाता है।

सूनामी की आशंका पर सावधानियाँ
(Precautions on the Probability of Tsunami)

यदि आप ऐसे तटवर्ती क्षेत्र में रहते हैं जहाँ सूनामी की आंशका है, तो आपको निम्नलिखित सावधानियाँ बरतनी चाहिए

  1. तट के समीप न तो मकान बनवाएँ और न ही किसी तटवर्ती बस्ती में रहें।
  2. तंट के समीप रहना आवश्यक हो, तो घर को ऊँचे स्थान पर बनवाएँ। ये स्थान 10 फुट से ऊँचे स्थान पर ही हों, क्योंकि सूनामी लहरें अधिकांशतः इससे कम ऊँची होती हैं।
  3. अपने घरों को बनाते समय भवन निर्माण विशेषज्ञ की राय लें तथा मकान को सूनामी निरोधक बनाएँ।
  4. सूनामी के विषय में प्राप्त चेतावनी के प्रति लापरवाही न बरतें तथा आने वाली बाढ़ को रोकने के लिए तैयारी रखें।

लघु उत्तरीय प्रश्नी

प्रश्न 1
भवन या गृह के अग्नि-अवरोधन के मुख्य उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
भवन एवं भवन में रहेंचे वालों की सुरेक्षा के लिए अनिवार्य है कि भवन को अग्नि से बचाव के योग्य बनाया जाए। अग्नि एक ऐसा कारक है जो कभी भी दुर्घटनावश या लापरवाही के परिणामस्वरूप सक्रिय हो जाता है। भंवन-निर्माण की प्रक्रिया में कोई ऐसा उपाय सम्भव नहीं है कि भवन में आग लगे ही नहीं। भवन में रखी हुई प्रायः सभी वस्तुएँ कम या अधिक ज्वलनशील होती हैं; अतः असावधानी, दुर्घटनावश अथवा किसी शरारत के परिणामस्वरूप मकान में आग लग सकती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए केवल इस प्रकार के उपाय किये जा सकते हैं जिनसे भवन में आग लग जाने पर उसका फैलाव तेजी से न हो तथा शीघ्र ही भवन गिर न जाए। इस उद्देश्य से भवन की संरचना को अधिक-से-अधिक अग्निसह (Fire Resisting) बनाना चाहिए।

भवन के अग्नि-अवरोधन (Fire proofing of house) के लिए भवन-निर्माण में अधिक-सेअधिक अग्निसह पदार्थों को इस्तेमाल करना चाहिए। भवन संरचना के सभी भाग कम-से-कम इतने अग्निसह तो अवश्य होने चाहिए कि इतने समय तक टूटकर न गिरें, जितने समय तक भवन में रहने वाले व्यक्ति सुरक्षापूर्वक उसमें से बाहर न निकल जाएँ। भवन को आग सम्बन्धी दुर्घटना के दृष्टिकोण से सुरक्षित बनाने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं|

  1. भवन की समस्त भारवाही दीवारें तथा स्तम्भ पर्याप्त मोटे तथा सुदृढ़ होने चाहिए, क्योंकि मोटे स्तम्भ एवं दीवारें पर्याप्त अग्निसह होते हैं।
  2. जहाँ तक हो सके भवन के अन्दर की विभाजक दीवारें भी अग्निसह पदार्थों की बनानी चाहिए। लकड़ी या प्लाईबोर्ड की दीवारें शीघ्र आग पकड़ लेती हैं। ये विभाजक दीवारें R.C.C., R.B.C., धातु की जाली, ऐस्बेस्टस, सीमेण्ट, बोर्ड अथवा कंक्रीट में खोखले ब्लॉकों द्वारा बनाई जानी चाहिए। 
  3. भवन की सभी दीवारों पर अग्नि अवरोधक प्लास्टर किया जाना चाहिए।
  4. भवन में यदि ढाँचेदार संरचनाएँ हों तो उनके फ्रेम ताप पाकर टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं।
  5. फर्श बनाने में अधिक-से-अधिक अग्निसह पदार्थों को ही इस्तेमाल करना चाहिए। यदि फर्श लकड़ी के हों तो मोटी लकड़ी की कड़ियाँ अधिक दूरी पर लगानी चाहिए। फर्श में स्थान-स्थान पर अग्नि-स्टॉप भी लगाये जाने चाहिए। यदि लोहे के हों तो उन्हें चिकनी मिट्टी की टाइलों, टेरा-कोटा या प्लास्टर से ढक देना चाहिए।
  6. भवन के बाहरी दरवाजे तथा खिड़कियाँ प्रवलित शीशे की होनी चाहिए तथा इनके फ्रेम धातु के बने होने चाहिए।
  7. भवन की छत चपटी बनाई जानी चाहिए। यदि छत ढालू हो तो उसमें लगाई जाने वाली सीलिंग अग्निसह पदार्थ की ही होनी चाहिए।
    उपर्युक्त उपायों के अतिरिक्त सुरक्षा की दृष्टि से भवन में निकासी की अधिक-से-अधिक सुविधाएँ होनी चाहिए, क्योंकि यदि दुर्घटनावश आग लग ही जाए तो उसमें रहने वाले व्यक्ति शीघ्रातिशीघ्र जान बचाकर बाहर निकल जाएँ।

प्रश्न 2
जल जाने या झुलस जाने पर क्या प्राथमिक उपचार किया जाना चाहिए?
उत्तर
आग से जल जाने पर तुरन्त निम्नलिखित प्राथमिक उपचार किया जाना चाहिए|

  1. जलने अर्थात् आग लग जाने पर सर्वप्रथम आवश्यक उपाय है-आग को बुझाना। इसके लिए पानी, मिट्टी या रेत तथा कम्बल आदि डाले जा सकते हैं। जिस व्यक्ति के कपड़ों में आग लग गयी हो वह जमीन पर लेटकर निरन्तर करवटें बदल-बदल कर एवं लुढ़ककर भी आग बुझाने का प्रयास कर सकता है। आग बुझ जाने पर आवश्यक प्राथमिक चिकित्सा के उपाय तुरन्त करने चाहिए।
  2. जल जाने वाले शरीर के भाग पर से वस्त्रों को सावधानीपूर्वक हटा देना चाहिए, किन्तु वस्त्र चिपकने की दशा में उसे चारों ओर से काट देना चाहिए और शरीर पर चिपक गये वस्त्र पर नारियल का तेल लगा देना चाहिए।
  3. अलसी के तेल तथा चूने के पानी को समान अनुपात में मिलाकर उसमें स्वच्छ कपड़ा या रुई। का फोहा भिगोकर जले भाग पर रखने चाहिए।
  4. फफोलों को फोड़ना नहीं चाहिए, क्योंकि इस स्थिति में विभिन्न प्रकार के बाहरी संक्रमणों का भय बढ़ जाता है।
  5. जले भाग पर टैनिक एसिड, कोई अच्छा मरहम जैसे कि बरनॉल आदि धीरे-धीरे लगाना चाहिए।
  6. जले हुए स्थानों पर नारियल का तेल भी लगाने से आराम मिलता है।
  7. जले भाग को साफ कपड़े या रुई से ढककर हल्की पट्टी बाँध देनी चाहिए।
  8.  दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को लगे आघात का उपचार करना चाहिए।
  9. जले हुए व्यक्ति को साधारण प्राथमिक चिकित्सा प्रदान करने के उपरान्त शीघ्रातिशीघ्र किसी योग्य चिकित्सक को अवश्य दिखाना चाहिए तथा समुचित उपचार करवाना चाहिए।

प्रश्न 3
चक्रवातीय तूफान से क्या आशय है?
उत्तर
प्रकृति द्वारा परिचालित क्रियाओं में से एक अनोखी तथा अत्यधिक विस्मयकारी क्रिया चक्रवातीय तूफान या चक्रवात भी है। चक्रवातीय तूफानों को अमेरिका में सामान्य रूप से ‘हरीकेन’ कहा जाता है। ऑस्ट्रेलिया में इसे ‘विलीविलीज’ तथा चीन में ‘टाइफून’ कहा जाता है।

चक्रवाती तूफान सामान्य रूप से समुद्रतटीय भागों में आया करते हैं। ये अति तीव्र गति से चलने वाली हवाओं के रूप में होते हैं तथा इन हवाओं के साथ-ही-साथ सम्बन्धित क्षेत्र में प्रचण्ड वर्षा भी होती है। सामान्य रूप से हवाओं की गति 400 किमी प्रति घण्टा तक वर्षा 1000 से 1500 मिमी या इससे भी अधिक प्रतिदिन होती है। चक्रवातीय तूफान अल्प समय के लिए ही होते हैं, परन्तु इनसे अत्यधिक क्षति हो जाती है, क्योंकि ये अचानक तथा एकाएक विकराल रूप ग्रहण कर लिया करते हैं। चक्रवातीय तूफानों में हवाओं के न्यून वायुदाब के परिणामस्वरूप समुद्र तल में अत्यधिक लहरें तथा उभार उत्पन्न होते हैं। इस स्थिति में तल से ऊपर की ओर उठने वाली तीव्र गति वाली हवाएँ समुद्र के जल को तट की ओर खींचती हैं। इसके साथ ही तटीय क्षेत्रों में भारी वर्षा होती है तथा बाढ़ की भयंकर स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार तेज हवाओं तथा भारी वर्षा से सम्बन्धित क्षेत्र में जान-माल का भारी नुकसान होता है।

जहाँ तक भारतीय उपमहाद्वीपीय क्षेत्र का प्रश्न है, यहाँ प्राय: चक्रवातीय तूफान आया करते हैं। हमारे देश में पूर्वी समुद्रतटीय क्षेत्रों में स्थित राज्य पश्चिम बंगाल, आन्ध्र प्रदेश का तटीय भाग, ओडिशा तथा तमिलनाडु में प्रायः चक्रवातीय तूफान आया करते हैं। सन् 1999 में ओडिशा में एक भयंकर चक्रवातीय तूफान आया था। इससे क्षेत्र के लगभग 460 गाँव तथा 5 लाख लोग गम्भीर रूप से प्रभावित हुए थे।

प्रश्न 4
चक्रवातीय तूफानों के मुख्य प्रतिकूल प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
जैसा कि हम जानते हैं, चक्रवातीय तूफानों की स्थिति में अत्यधिक तेज हवाएँ चलती हैं, वर्षा होती है तथा बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। चक्रवातीय तूफानों के मुख्य प्रतिकूल प्रभाव निम्नलिखित होते हैं

  1. चक्रवातीय तूफान के समय जो जलयान सम्बन्धित क्षेत्र में होते हैं, उन्हें बहुत अधिक हानि होती है। यह प्रतिकूल प्रभाव समुद्र में चलते हुए जलयान तथा लंगर डाले खड़े जलयान एवं बन्दरगाह सभी पर पड़ता है।
  2. चक्रवात के सम्मुख आने वाले क्षेत्र में हर प्रकार से जान-माल की भारी क्षति होती है।
  3. चक्रवातीय तूफान के कारण प्राय: तेज हवाओं के साथ-ही-साथ बाढ़, कीचड़ के प्रवाह तथा भू-स्खलन के माध्यम से भी सम्बन्धित क्षेत्र में गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं।
  4. चक्रवातीय तूफान के बाद सम्बन्धित क्षेत्र में अनेक संक्रामक रोग भी तेजी से फैलने लगते हैं।
  5. चक्रवातीय तूफान से सम्बन्धित क्षेत्र में विद्युत आपूर्ति, पेयजल, यातायात सेवाएँ तथा, संचार सेवाएँ भी प्रायः ठप्प हो जाती हैं।
  6. चक्रवातीय तूफान से फ़सलों तथा अन्य सम्पत्ति को भी बहुत अधिक हानि होती है।

प्रश्न 5
सूखा पड़ने के प्रतिकूल प्रभावों का उल्लेख कीजिए। : (2011, 16, 17)
उत्तर
सूखा एक ऐसी आपदा है जिसके परिणामस्वरूप सम्बन्धित क्षेत्र में जल की कमी या अभाव हो जाता है। यह एक गम्भीर आपदा है तथा इसके विभिन्न प्रतिकूल प्रभाव क्रमशः स्पष्ट होने लगते हैं। सर्वप्रथम सूखे का प्रभाव कृषि-उत्पादनों पर पड़ता है। फसलें सूखने लगती हैं तथा क्षेत्र में खाद्य-पदार्थों की कमी होने लगती है। इस स्थिति में अनाज आदि के दाम बढ़ जाते हैं तथा गरीब परिवारों की आर्थिक स्थिति दयनीय हो जाती है। सूखे का प्रतिकूल प्रभाव क्षेत्र के पशुओं पर भी पड़ता है क्योंकि उनको पर्याप्त मात्रा में चारा तथा जल उपलब्ध नहीं हो पाता।

इससे क्षेत्र में दूध एवं मांस आदि की भी कमी होने लगती है। कृषि-कार्य घट जाने के कारण अनेक कृषि-श्रमिकों को रोजगार मिलना बन्द हो जाता है तथा क्षेत्र की अर्थव्यवस्था बिगड़ने लगती है। सूखे की दशा में कृषि-उत्पादनों में कमी आ जाती है। इस स्थिति में कृषि आधारित कच्चे माल से सम्बन्धित औद्योगिक संस्थानों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस स्थिति में सम्बन्धित उत्पादनों की कमी हो जाती है तथा उनकी कीमत भी बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्त किसी क्षेत्र में निरन्तर सूखे की स्थिति बने रहने से वहाँ के निवासी अन्य क्षेत्रों में चले जाते हैं। इससे सामाजिक ढाँचा प्रभावित होता है तथा जनसंख्या का क्षेत्रीय सन्तुलन बिगड़ने लगता है। सूखे की समस्या विकराल हो जाने की स्थिति में बेरोजगारी तथा भुखमरी की समस्याएँ भी प्रबल होने लगती हैं।

प्रश्न 6
आपदा-प्रबन्धन का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा वर्तमान समय में इसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
यह एक्ल सर्वविदित तथ्य है कि प्राकृतिक आपदाओं से जान-माल की व्यापक हानि होती है। तथा इनके दूरगामीप्रतिकूल प्रभाव भी होते हैं। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए आज के वैज्ञानिक युग में आपदा-प्रबन्धन के अन्तर्गत विभिन्न आपदाओं के घटित होने की पूर्व जानकारी प्राप्त करने के अधिक-से-अधिक वैज्ञानिक उपाय किये जा रहे हैं। उदाहरण के लिए बाढ़, सूनामी, सूखा, चक्रवात आदि आने से पूर्व जार्नकारी प्राप्त की जाती है। इस जानकारी को ध्यान में रखते हुए सम्बन्धित क्षेत्र में पूर्व तैयारियाँ तथा बचाव के उपाय किये जाते हैं, उदाहरणस्वरूप बाढ़ की चेतावनी प्राप्त होते ही लोग सुरक्षित स्थानों पर पलायन कर जाते हैं। आपदा-प्रबन्धन के अन्तर्गत इस बात के भी सभी सम्भव उपाय किये जाते हैं। जिससे आपदा के कारण कम-से-कम के क्षति है। इसके अतिरिक्त आपदा के आने के उपरान्त किये जाने वाले बचाव-कार्य भी आपदा प्रबन्धन के ही अन्तर्गत आते हैं। उदाहरणस्वरूप बाढ़ के उपरान्त संक्रामक रोगों की रोकथाम के उपाय भी आपदा-प्रबन्धन के ही कार्य हैं।
आपदा-प्रबन्धन का मुख्य महत्त्व यह है कि उत्तम आपदा-प्रबन्धन से आपदा के प्रतिकूल प्रभावों को समाप्त या कम किया जा सकता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्राकृतिक आपदा का अर्थ बताइए। (2017)
उत्तर
प्राकृतिक आपदाएँ उन गम्भीर प्राकृतिक घटनाओं को कहा जाता है, जिनके प्रभाव से हमारे सामाजिक ढाँचे व विभिन्न व्यवस्थाओं को गम्भीर क्षति पहुँचती है। इनसे मनुष्यों एवं अन्य जीव-जन्तुओं के जीवन को नुकसान होता है तथा हर प्रकार की सम्पत्ति को भी नुकसान होता है। इस प्रकार की आपदाओं से मनुष्यों का सामाजिक-आर्थिक जीवन भी अस्त-व्यस्त हो जाता है। ऐसे में जनजीवन को पुनः सामान्य बनाने के लिए तथा पुनर्वास के लिए व्यापक स्तर पर बाहरी सहायता की आवश्यकता होती है। वर्तमान समय में विश्व मानव प्राकृतिक आपदाओं के प्रति पर्याप्त सचेत है तथा इन अवसरों पर विश्व के कोने-कोने से सहायता एवं सहानुभूति प्राप्त हो जाती है।

प्रश्न 2
आग लगने के मुख्य प्रतिकूल प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
आग लगने से सबसे गम्भीर आशंका व्यक्तियों के जलने या झुलसने की होती है। आग की लपट लग जाने या कपड़ों में आग लग जाने पर व्यक्ति जल सकता है। आग से निकलने वाली गर्म हवा  लग जाने से व्यक्ति झुलस सकता है। जलने तथा झुलसेने से व्यक्ति के शरीर पर लगभग समान प्रभाल ही पड़ते हैं। इस स्थिति में शरीर की त्वचा लाल पड़ जाती है, फफोले पड़ जाते हैं, त्वचा के तन्तु नष्ट हो जाते हैं और अत्यधिक पीड़ा होती है। जब कोई अंगे बहुत अधिक जल जाता है तो दिल की घबराहट अथवा आघात का भय रहता है। त्वचा के अधिक जल जाने पर अनेक प्रकार के संक्रमण की भी आशंका बढ़ जाती है। यह संक्रमण प्राय: घातक सिद्ध होता है। जलने के प्रभाव से व्यक्ति के गुर्दो, यकृत आदि आन्तरिक अंगों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है जो गम्भीर समस्या उत्पन्न कर देता है। जलने से व्यक्ति को गहरा मानसिक आघात या सदमी भी पहुँचता है। इसका भी व्यक्ति के स्वास्थ्य पर गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 3
‘जंगल की आग पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
आग लगने की दुर्घटना का एक रूप या प्रकार ‘जंगल की आग’ भी है। जंगल की आग को ‘दावानल’ कहते हैं। जंगल में आग प्राय: तीन कारणों से लग जाती है। जंगल में कुछ पेड़ ऐसे भी होते हैं जो आपस में रगड़ या घर्षण के कारण आग उत्पन्न कर देते हैं। तेज गर्मी के मौसम में इस प्रकार की घर्षण से प्रायः जंगलों में आग लग जाती है। इसके अतिरिक्त लापरवाही से भी आग लग जाती है। जंगल में विचरण करने वाले व्यक्ति द्वारा जलती हुई माचिस, बीड़ी-सिगरेट या उपले आदि से सूखे पत्तों में आग लग जाती है। तथा हवा से फैलकर भयंकर रूप ग्रहण कर लेती है। इसके अतिरिक्त कुछ स्वार्थी एवं समाज-विरोधी व्यक्ति भी जंगल में आग लगा दिया करते हैं। ये लोग कृषि योग्य भूमि ग्रहण करने के लिए पेड़ों की कटाई या भूमि अधिग्रहण के निहित स्वार्थ से जंगल में आग लगा देते हैं। जंगल में लगने वाली आग अति भयंकर एवं व्यापक होती है। इसे नियन्त्रित करना या बुझाना प्रायः एक कठिन कार्य होता है। यह आग या तो जंगल समाप्त होने पर बुझती है अथवा तेज वर्षा हो जाने पर ही बुझती है। जंगल की आग से अनेक हानियाँ हो जाती हैं। सर्वप्रथम वन सम्पदा की अत्यधिक हानि होती है। इसके साथ-ही-साथ वनों में रहने वाले पशु-पक्षियों का जीवन भी गम्भीर रूप से प्रभावित होता है। इसके अतिरिक्त जंगल की आग से पर्यावरण का तापमान अत्यधिक बढ़ जाता है तथा पर्यावरण-प्रदूषण में भी वृद्धि होती है।

प्रश्न 4
समुद्र की आग’ पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
आग लगने की दुर्घटना का एक रूप या प्रकार ‘समुद्र की आग’ भी है। समुद्र की आग को बड़वानल भी कहते हैं। यह सत्य है कि समुद्र जल का अथाह भण्डार होता है। ऐसे में समुद्र में आग लग़ना एक आश्चर्य की बात प्रतीत होती है परन्तु यथार्थ में समुद्र में प्रायः आग लगने की दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। समुद्र में आग लगने का कारण समुद्र में विद्यमान तेल के भण्डारों अथवा प्राकृतिक गैस में आग लगना हुआ करता है।

तेल अर्थात् पेट्रोलियम पदार्थ तथा प्राकृतिक गैस अत्यधिक ज्वलनशील पदार्थ होते हैं जो कि जल की उपस्थिति में भी जल उठते हैं। समुद्र की आग भी अत्यधिक भयंकर तथा व्यापक होती है। इससे जहाँ एक ओर तेल अथवा गैस भण्डारों की व्यापक क्षति होती है, वहीं दूसरी ओर जलीय जीवों का जीवन भी संकट में आ जाता है। यही नहीं, पर्यावरण-प्रदूषण में भी वृद्धि होती है। तथा कभी-कभी समुद्र में यात्रा करने वाले जलयान भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। समुद्र की आग को नियन्त्रित करने के लिए व्यापक उपाय करने पड़ते हैं।

प्रश्न 5
आग लगने से बचाव के लिए अस्थायी पण्डालों में क्या उपाय किए जाने चाहिए?
उत्तर
विभिन्न समारोहों के आयोजन के लिए प्रायः पण्डाल लगाये जाते हैं। इन पण्डालों में आग लगने की कुछ अधिक आशंका रहती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए आग से सुरक्षा के लिए कुछ उपायों को अपनाना आवश्यक माना जाता है। इस प्रकार के कुछ मुख्य उपाय निम्नलिखित हैं

  1. पण्डाल बनाने में सिन्थेटिक कपड़ों, रस्सियों तथा अन्य सामग्री का इस्तेमाल न किया जाए।
  2. पण्डाल कभी भी बिजली की तारों के नीचे या बहुत निकट नहीं लगाया जाना चाहिए।
  3. पण्डाल के चारों ओर पर्याप्त खुला स्थान होना चाहिए ताकि आपदा के समय सरलता से बाहर जा सकें।
  4. पण्डाल का द्वार कम-से-कम पाँच मीटर चौड़ा होना चाहिए तथा निकास द्वार अधिक-सेअधिक होने चाहिए।
  5. पण्डाल में लगी कुर्सियों की कतारों में कम-से-कम डेढ़ मीटर की दूरी अवश्य होनी चाहिए।
  6. बिजली का सर्किट तथा जेनरेटर आदि पण्डाल से कम-से-कम 15 मीट्रर दूर होने चाहिए।
  7. अग्नि-सुरक्षा के यथासम्भव अधिक-से-अधिक उपाय किये जाने चाहिए। पानी, रेत, आग बुझाने वाली गैस आदि की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।
  8. पण्डाल के अन्दर ज्वलनशील पदार्थ नहीं रखे जाने चाहिए।
  9. पण्डाल में अमोनियम सल्फेट,अमोनियम कार्बोनेट, बोरेक्स, बोरिक एसिड, एलम तथा पानी का घोल बनाकर छिड़काव किया जाना चाहिए।

प्रश्न 6
बाढ़ के समय मुख्य रूप से क्या सावधानियाँ आवश्यक होती हैं?
उत्तर
बाढ़ के समय सबसे अधिक आवश्यक कार्य है-मनुष्य की जान बचाना। इसके लिए आवश्यक है कि यथासम्भव शीघ्रातिशीघ्र बाढ़ग्रस्त क्षेत्र से निकल जाएँ तथा किसी ऊँचे सुरक्षित स्थान पर पहुँच जाएँ। यदि मकान काफी मजबूत हो तो मकान की ऊपरी मंजिल पर चढ़ जाएँ। यदि मकान मजबूत न हो तो मकान से बाहर निकल जाएँ। बाढ़ के समय पेड़ों पर न चढ़े क्योंकि पेड़ भी जड़ से ही उखड़ सकते हैं। यदि घर में रबड़ की ट्यूब हो तो उनको हवा भरकर अपने साथ रखें।

प्रश्न 7
बाढ़ के उपरान्त किये जाने वाले कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
सामान्य रूप से बाढ़ का प्रकोप कुछ समय में घटने लगता है, परन्तु बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में पानी, कीचड़, गन्दगी तथा सीलन बहुत अधिक हो जाती है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कुछ महत्त्वपूर्ण, कार्य अति आवश्यक होते हैं। घरों तथा गलियों में सफाई की व्यवस्था करें। पानी की निकासी के उपाय करें तथा कीटनाशक दवाओं का छिड़काव करें। इससे संक्रामक रोगों से बचाव हो सकता है। साफ पेय जल की व्यवस्था करें। जहाँ तक हो सके जल उबालकर ही पिएँ। चिकित्सकों से सम्पर्क बनाये रखें तथा संक्रामक रोगों से बचने के सभी सम्भव उपाय करें। बाढ़ग्रस्त लोगों को भारी नुकसान हो जाता है। अतः अन्य क्षेत्रों में रेहने वाले लोगों तथा सरकारी तन्त्र को बाढ़ग्रस्त लोगों की हर सम्भव सहायता करनी चाहिए। भोजन एवं कपड़ों आदि की तुरन्त पूर्ति होनी चाहिए।

प्रश्न 8
भूकम्प आपदा के समय आवश्यक सावधानियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
यह सत्य है कि भूकम्प आकस्मिक रूप से आता है। भूकम्प के आने पर मानसिक सन्तुलन बनाये रखें तथा अधिक घबराएँ नहीं। इस समय कुछ सावधानियाँ नितान्त आवश्यक होती हैं। सामान्य रूप से आप जहाँ हों, वहीं टिके रहें। यदि हो सके तो दीवारों, छतों और दरवाजों से दूर रहें। इसके साथ-ही-साथ दीवारों के टूटने तथा मलबा गिरने पर ध्यान रखें तथा बचाव के उपाय करें। भूकम्प के समय यदि आप किसी वाहन में हों तो वाहन को सुरक्षित स्थान पर रोककर उसमें से बाहर खुले में आ जाएँ। भूकम्प के समय न तो किसी पुल को पार करें और न ही किसी सुरंग में प्रवेश करें। यदि घर पर हों तो बिजली का मेन स्विच बन्द कर दें, गैस सिलेण्डर को भी बन्द कर दें। इन उपायों द्वारा कुछ दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है।

प्रश्न 9
भूकम्प आपदा के पश्चात किए जाने वाले कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
सामान्य रूप से भूकम्प की प्रबलता अल्प समय के लिए ही होती है, परन्तु अल्प समय में ही अचेक गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव हो जाते हैं। भूकम्प के पश्चात् भी बहुत सजग रहना आवश्यक होता है। इस समय परिवार के बच्चों तथा वृद्ध सदस्यों का विशेष ध्यान रखना आवश्यक होता है। इस समय घर में गैस के सिलेण्डर को बन्द रखें तथा आग न जलाएँ। रेडियो तथा दूरदर्शन को चलाए रखें, सभी आवश्यक घोषणाओं को ध्यानपूर्वक सुने तथा आवश्यक कार्य करें। भूकम्प से क्षतिग्रस्त होने वाले मकानों से दूर ही रहें। यदि भूकम्प के हल्के झटके आ रहे हों तो उनसे डरे नहीं। ऐसा कुछ समय तक होता रहता है। जहाँ जिस प्रकार की सहायता की आवश्यकता है, उस कार्य को अवश्य करें। तुरन्त सहायता उपलब्ध हो जाने पर अनेक व्यक्तियों की जान बचाई जा सकती है। अपने क्षेत्र में यथासम्भव सफाई व्यवस्था को बनाये रखें ताकि संक्रामक रोगों से बचा जा सके।

प्रश्न 10
संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-‘भूकम्प की भविष्यवाणी ।
उत्तर
भूकम्प की भविष्यवाणी करने में अग्रलिखित बिन्दुओं का विशेष महत्त्व है

  1. किसी क्षेत्र में हो रही भूगर्भीय मतियों का उस क्षेत्र में हो रहे भू-आकृति परिवर्तनों से अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसे क्षेत्र जहाँ भूमि ऊपर-नीचे होती रहती है, अत्यधिक भूस्खलन होते हैं, नदियों का असामान्य मार्ग परिवर्तन होता है, प्रायः भूकम्प की दृष्टि से संवेदनशील होते हैं।
  2. किसी क्षेत्र में सक्रिय अंशों, जिन दरारों से भूखण्ड टूटकर विस्थापित भी हुए हों, की उपस्थिति को भूकम्प का संकेत माना जा सकता है। इस प्रकार के भ्रंशों की गतियों को समय के अनुसार तथा अन्य उपकरणों से नाप जा सकता है।
  3. भूकम्प संवेदनशील क्षेत्रों में भूक़म्पमापी यन्त्र (Seismograph) लगाकर विभिन्न भूगर्भीय गतियों को रिकॉर्ड किया जाता है। इस अध्ययन से बड़े भूकम्प आने की पूर्व चेतावनी मिल जाती है।

प्रश्न 11
प्रतिबल की समस्या एवं उसके निराकरण के बारे में लिखिए। (
2011)
उत्तर
गम्भीर प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने वाला व्यक्ति प्रायः प्रतिबल (Stress) का शिकार हो जाता है। प्रतिबल मुख्य रूप से समायोजनात्मक प्रक्रियाओं से सम्बन्धित होता है। प्रबल प्रतिबल की स्थिति में सम्बन्धित व्यक्ति को अपने व्यवहार में अनेक प्रकार के समायोजन करने पड़ते हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि यदि प्रतिबल सामान्य स्तर का है तो वह व्यक्तित्व के विकास में सहायक सिद्ध होता है, परन्तु निरन्तर प्रबल तथा गम्भीर प्रतिबल व्यक्तित्व के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि व्यक्ति को प्रबल प्रतिबल से बचने के उपाय करने चाहिए। इनके लिए प्रायः दो प्रकार की प्रतिक्रियाएँ की जा सकती हैं—प्रथम प्रकार की प्रतिक्रियाएँ कार्य निर्देशित प्रतिक्रियाएँ कहलाती हैं। इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं में प्रतिबल निग्रस्त व्यक्ति समायोजन के लिए अपने आप में, परिष्करण में या दोनों में अपने अनुकूल परिवर्तन करने के उपाय् करता है।

इस प्रकार की प्रतिक्रिया भी तीन प्रकार की हो सकती है। इन्हें क्रमशः आक्रमण, पलायुन तथा समझौता कहा गया है। आक्रमण के अन्तर्गत व्यक्ति प्रतिबल के कारण या बाधा की समाप्त करने के उपाय करता है। इस उपाय को अपनाने से व्यक्ति निराश नहीं होता तथा निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने में प्रायः सफल हो जाता है। द्वितीय उपाय पलायन है। पलायन के अन्तर्गत व्यक्ति सम्बन्धित समस्या का सामना नहीं करता, बल्कि उससे दूर भागता है। तीसरा उपाय समझौता है। इस उपौय को उस स्थिति में अपनाया जाता है जब न तो आक्रमण सम्भव है और न ही पलायन। यह एक मध्यममार्गी उपाय है। जहाँ तक प्रतिबल के प्रति की जाने वाली अन्य प्रतिक्रियाएँ है। वे प्रतिक्रियाएँ सुरक्षा-निर्देशित प्रक्रियाएँ हैं, परन्तु समझौते की स्थिति में व्यक्ति अपने अहं को आत्म-अवमूल्यन से बचाने के लिए प्रयास करता है।

प्रश्न 12
प्राकृतिक आपदाओं के कारण पड़ने वाले किन्हीं दो मनोवैज्ञानिक प्रभावों के बारे में लिखिए।
या
प्राकृतिक आपदा के दौरान चिन्ताग्रसित व्यक्ति के लक्षणों के बारे में लिखिए। (2018)
उत्तर
प्राकृतिक आपदाओं के कारण व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इससे व्यक्ति विभिन्न साधारण अथवा गम्भीर मानसिक रोगों का शिकार हो सकता है। वह निरन्तर चिन्ताग्रस्त रहता है। ऐसे में व्यक्ति कुण्ठा, अकारण भय, अति चिन्ता, तनाव आदि का शिकार हो सकता है। प्राकृतिक आपदाओं के कारण व्यक्ति का सामान्य व्यवहार भी विकृत हो सकता है। व्यक्ति के व्यवहार में अस्थिरता, खीज, आक्रामकता या उत्साहहीनता के लक्ष्य उत्पन्न हो सकते हैं। अति गम्भीर प्राकृतिक आपदाओं के कारण व्यक्ति में निराशावादी प्रवृत्ति प्रबल हो सकती है तथा इसकी प्रबलता इतनी बढ़ सकती है कि व्यक्ति आत्महत्या तक कर सकता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न  1. निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए|

1. जीवन पर गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली प्राकृतिक घटनाओं को………….कहा जाता है।
2. भूकम्प, ज्वालामुखी का विस्फोट, बादल का फटना तथा सूनामी…………….प्राकृतिक आपदाएँ हैं। (2010, 11)
3. युद्ध, दंगा, आतंकवादी हमला………….आपदाएँ हैं।
4. आग लगना या अग्निकाण्ड मानवीय……….’या’…………के कारणे घटित होता है।
5. अधिकांश प्राकृतिक आपदाएँ………….रूप से घटित होती है।
6. सूनामी, चक्रवात, सूखा, बाढ़……………आपदाएँ हैं। (2011)
7. युद्ध तथा साम्प्रदायिक दंगे…………..आपदा नहीं है।
8. सूखा एक………….वाली प्राकृतिक आपदा है।
9. सूखे का सर्वाधिक प्रभाव………..पर पड़ता है। 
(2010)
10. बाढ़ से……….:”एवं…………की हानि होती है।
11. भूकम्प के कारण सर्वाधिक हानि………….के कारण होती है।
12. भूकम्प की तीव्रता की माप के लिए:……….’को अपनाया गया है।
13. सुनामी से सर्वाधिक क्षति……………..‘में होती है।
14. प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली क्षति को कम करने के लिए………….आवश्यक है।
15. गम्भीर प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव से व्यक्ति में………..”प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है।
16. समुद्र में गर्म पानी के तापमान और दबाव के कारण…………”उत्पन्न होता है। (2016)
17. प्राकृतिक आपदा के दौरान भय, असहायता और भारी हानि के कारण व्यक्ति में …………..विचार उत्पन्न होते हैं। 
(2017)
उत्तर
1. प्राकृमिक आपदा
2. आकस्मिक
3. मानव जनित
4. लापरवाही,दुर्भावना
5.आकस्मिक
6. प्राकृतिक
7. प्राकृतिक
8. धीरे-धीरे आने
9. कृषि कार्य एवं कृषि उत्पादों
10. फसलों, आवासीय क्षेत्रों
11. भवनों के गिरने
12. रिक्टर स्केल
13. तटीय क्षेत्रों
14, आपदा प्रबन्धन
15. निराशावादी
16. समुद्री तूफान
17. नकारात्मक।

प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए
प्रश्न 1.
गम्भीर आपदाओं से क्या आशय है?
उत्तर
उन समस्त प्राकृतिक घटनाओं को गम्भीर आपदाओं के रूप में जाना जाता है, जिनसे जनजीवन एवं सम्पत्ति आदि पर गम्भीर प्रतिकूल या विनाशकारी प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 2.
मुख्य प्राकृतिक आपदाएँ कौन-कौन सी हैं? (2010)
उत्तर
भूकम्प, बाढ़, सूखा, भूस्खलन, ज्वालामुखी का फटना, तूफान, समुद्री तूफान, ओलावृष्टि, बादल फटना तथा सूनामी या समुद्री लहरें आदि मुख्य प्राकृतिक आपदाएँ हैं।

प्रश्न 3
आपदाओं के मुख्य वर्गों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
आपदाओं के मुख्य रूप से चार वर्ग निर्धारित किये गये हैं—

  1. आकस्मिक रूप से घटित होने वाली आपदाएँ
  2. धीरे-धीरे अथवा क्रमशः आने वाली आपदाएँ
  3. मानव जनित अथवा सामाजिक आपदाएँ तथा
  4. जैविक आपदाएँ या महामारी।

प्रश्न 4.
आकस्मिक रूप से घटित होने वाली मुख्य प्राकृतिक आपदाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
भूकम्प, ज्वालामुखी का विस्फोट, सूनामी, बादल का फटना, चक्रवातीय तूफान, भू-स्खलन तथा हिम की आँधी आकस्मिक रूप से घटित होने वाली मुख्य प्राकृतिक आपदाएँ हैं।

प्रश्न 5.
धीरे-धीरे अथवा क्रमशः आने वाली मुख्य प्राकृतिक आपदाएँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तर
सूखा, अकाल, किसी क्षेत्र का मरुस्थलीकरण तथा मौसम एवं जलवायु सम्बन्धी परिवर्तन धीरे-धीरे अथवा क्रमशः आने वाली मुख्य प्राकृतिक आपदाएँ हैं।

प्रश्न 6.
हमारे जीवन में आग का क्या स्थान है?
उत्तर
हमारे जीवन में आग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आग एक अति महत्त्वपूर्ण एवं प्रबल कारक है, जो मानव-जीवन के लिए उपयोगी एवं सहायक है।

प्रश्न 7.
आग लगने या ‘अग्निकाण्ड’ से क्या आशय है?
उत्तर
आग का अनियन्त्रित होकर विनाशकारी रूप ग्रहण कर लेना ही ‘आग लंगना’ या ‘अग्निकाण्ड’ कहलाती है।

प्रश्न 8.
आग के नितान्त अभाव में हमारा कौन-सा महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता?
उत्तर
आग के नितान्त अभाव में भोजन पकाने अर्थात् पाक-क्रिया का कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता।

प्रश्न 9.
आग लगने पर सबसे गम्भीर आशंका क्या होती है?
उत्तर
आग लगने पर सबसे गम्भीर आशंका व्यक्तियों के जलने या झुलसने की होती है। इससे व्यक्तियों की मृत्यु भी हो सकती है।

प्रश्न 10.
सूखे से क्या आशय है?
उत्तर
किसी क्षेत्र में मनुष्यों, पशुओं तथा कृषि-कार्यों के लिए सामान्य आवश्यकता से काफी कम मात्रा में जल की उपलब्ध होना ‘सूखा पड़ना’ कहलाता है।

प्रश्न 11.
सूखे का सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव किस पर पड़ता है?
उत्तर
सूखे का सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव कृषि-कार्यों तथा कृषि उत्पादनों पर पड़ता है।

प्रश्न 12.
अनावृष्टि के परिणामस्वरूप कौन-सी आपदा उत्पन्न हो सकती है?
उत्तर
अनावृष्टि के परिणामस्वरूप सूखे की आपदा उत्पन्न हो सकती है।

प्रश्न 13.
बाढ़ से क़्या आशय है?
उत्तर
उन क्षेत्रों का जलमग्न हो जाना बाढ़ कहलाता है, जिन क्षेत्रों में सामान्य दशाओं में जल-भराव नहीं होता।

प्रश्न 14.
किसी क्षेत्र में भयंकर बाढ़ आने के उपरान्त किस अन्य आपदा के आने की आशंका बढ़ | जाती है? ।
उत्तर
किसी क्षेत्र में भयंकर बाढ़ आने के उपरान्त संक्रामक रोगों के फैलने की आशंका बढ़ जाती हैं।

प्रश्न 15.
भूकम्प के परिणामस्वरूप सर्वाधिक हानि किस कारण से होती है?
उत्तर
भूकम्प के परिणामस्वरूप सर्वाधिक हानि मकानों के गिरने के कारण होती है।

प्रश्न 16.
भूकम्प की तीव्रता के मापन के पैमाने को क्या कहते हैं?
उत्तर
भूकम्प की तीव्रता के मापन के पैमाने को ‘रिक्टर स्केल’ या ‘रिक्टर पैमाना’ कहते हैं।

प्रश्न 17.
सूनामी से क्या आशय है? (2012)
उतर
जब समुद्री लहरें तेज गति से तट की ओर बढ़ती हैं तो उन्हें सूनामी कहते हैं। इन लहरों की ऊँचाई लगभग 15 मीटर तथा गति 50 किमी प्रति घण्टा तक हो सकती है।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न 1.
आपदा हो सकती है।
(क) आकस्मिक आपदा
(ख) धीरे-धीरे आने वाली आपदा
(ग) जैविक आपदा
(घ) इनमें से किसी भी प्रकार की आपदा
उतर
(घ) इनमें से किसी भी प्रकार की आपदा

प्रश्न 2.
संक्रामक रोगों का भयंकर प्रकोप किस वर्ग की आपदा है?
(क) प्राकृतिक आपदा
(ख) मानव जनित आपदा
(ग) जैविक आपदा
(घ) अस्पष्ट आपदा
उतर
(ग) जैविक आपदा

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन प्राकृतिक आपदा नहीं है? (2008, 10, 14)
(क) सूखा
(ख) भुखमरी/युद्ध
(ग) बाढ़
(घ) भूकम्प।
उतर
(ख) भुखमरी/युद्ध

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन प्राकृतिक आपदा नहीं है? |
(क) भूकम्प
(ख) साम्प्रदायिक दंगा
(ग) बाढ़
(घ) सुनामी।
उतर
(ख) साम्प्रदायिक दंगा

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन मानव निर्मित आपदा से सम्बन्धित है? (2018)
(क) बाढ़
(ख) नाभकीय परीक्षण
(ग) सूखा
(घ) चक्रवात
उतर
(ख) नाभकीय परीक्षण

प्रश्न 6.
बाढ़, भूकम्प, चक्रवात तथा सूखा आदि आपदाओं के पीछे निहित कारक होते हैं
(क) दैवी प्रकोप सम्बन्धी कारक
(ख) पाप में वृद्धि सम्बन्धी कारक
(ग) प्राकृतिक कारक
(घ) मानव द्वारा पर्यावरण-प्रदूषण में वृद्धि
उतर
(ग) प्राकृतिक कारक

प्रश्न 7.
‘आग लगना या ‘अग्निकाण्ड’ किस प्रकार की आपदा है?
(क) प्राकृतिक आपदा
(ख) दैवी प्रकोप सम्बन्धी आपदा
(ग) मानवकृत आपदा
(घ) अज्ञाते आपदा
उतर
(ग) मानवकृत आपदा 

प्रश्न 8.
आग का मौलिक गुण है
(क) भयंकर लपटें उत्पन्न करना
(ख) ताप प्रदान करना
(ग) जलाना
(घ) भोजन पकाना
उतर
(ख) ताप प्रदान करना

प्रश्न 9.
आग लगने या ‘अग्निकाण्ड’ का कारण हो सकता है
(क) मानवीय लापरवाही
(ख) दुर्घटना के परिणामस्वरूप
(ग) व्यक्तिगत दुर्भावना या षड्यन्त्र
(घ) ये सभी कारण
उतर
(घ) ये सभी कारण

प्रश्न 10.
सूखा पड़ने का प्रण है
(क) अधिक कृषि कार्य
(ख) वर्षा का बहुत कम होना
(ग) अधिक संख्या में नलकूप लगाना
(घ) जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि
उतर
(ख) वर्षा का बहुत कम होना

प्रश्न 11.
बाढ़ नामक आपदा का स्रोत हैं
(क) तालाब
(ख) झीलें
(ग) नदियाँ
(घ) नहरें
उतर
(ग) नदियाँ

प्रश्न 12.
किसी भवन में आग लग जाने पर सर्वप्रथम क्या करना चाहिए?
(क) फायर ब्रिगेड को बुलाना
(ख) भवन के अन्दर उपस्थित व्यक्तियों को भवन से बाहर निकालना
(ग) प्राथमिक चिकित्सा की व्यवस्था करना
(घ) आग-बुझाने के उपाय करना
उतर
(ख) भवन के अन्दर उपस्थित व्यक्तियों को भवन से बाहर निकालना

प्रश्न 13.
भूकम्प से जान-माल का नुकसान होता है|
(क) पृथ्वी की गति से ।
(ख) इमारतों के गिरने से
(ग) अत्यधिक वर्षा से
(घ) डर से
उतर
(ख) इमारतों के गिरने से

प्रश्न 14.
सूनामी का सबसे अधिक प्रभाव कहाँ होता है?
(क) पहाड़ी क्षेत्रों में
(ख) तटवर्ती क्षेत्रों में
(ग) समुद्र के मध्यवर्ती क्षेत्र में
(घ) मैदानी भागों में
उतर
(ख) तटवर्ती क्षेत्रों में

प्रश्न 15.
समुद्री लहरों के समय समुद्र में विद्यमान जलयानों का बचाव हो सकता है
(क) तट की ओर तेजी से बढ़ने पर
(ख) तट से दूर खुले समुद्र की ओर चले जाने पर
(ग) एक स्थान पर रुक जाने पर
(घ) बन्दरगाह पर लंगर डाल देने पर
उतर
(ख) तट से दूर खुले समुद्र की ओर चले जाने पर

प्रश्न 16.
चक्रवातीय तूफान की दशा में होता है
(क) अत्यधिक तेज हवाएँ चलती हैं।
(ख) भारी वर्षा होती है।
(ग) ऊँची-ऊँची लहरें उठती हैं।
(घ) ये सभी
उतर
(घ) ये सभी

प्रश्न 17.
गम्भीर प्राकृतिक आपदाओं का लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर (2011)
(क) अच्छा प्रभाव पड़ता है
(ख) कोई प्रभाव नहीं पड़ता
(ग) गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है
(घ) उत्साहवर्द्धक प्रभाव पड़ता है
उतर
(ग)
गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है

प्रश्न 18.
प्राकृतिक आपदा से उत्पन्न विषद से रोकथाम में निम्नलिखित में से कौन सहायक नहीं है? (2018)
(क) जैविक चिकित्सा,
(ख) योग
(ग) बहिष्कार
(घ) संज्ञानात्मक चिकित्सा
उतर
(ग)
बहिष्कार

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi बैंक/विभिन्न व्यवसायों से सम्बन्धित ऋण-प्राप्ति हेतु आवेदन-पत्र

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name बैंक/विभिन्न व्यवसायों से सम्बन्धित ऋण-प्राप्ति हेतु आवेदन-पत्र
Number of Questions 4
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi बैंक/विभिन्न व्यवसायों से सम्बन्धित ऋण-प्राप्ति हेतु आवेदन-पत्र

प्रश्न 1.
ऋण-प्राप्ति हेतु भारतीय स्टेट बैंक के शाखा प्रबन्धक को आवेदन-पत्र लिखिए। [2010]
या
भारतीय स्टेट बैंक के शाखा प्रबन्धक को निजी कम्प्यूटर प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना हेतु ऋण-प्राप्ति के लिए एक आवेदन-पत्र लिखिए।
या
अपना कुटीर उद्योग प्रारम्भ करने हेतु किसी बैंक के प्रबन्धक को ऋण प्रदान करने हेतु एक पत्र लिखिए। [2009, 14, 17]
या
अपने निकटस्थ बैंक के शाखा-प्रबन्धक के नाम एक प्रार्थना-पत्र लिखिए, जिसमें निजी रोजगार के लिए ऋण लेने का निवेदन किया गया हो। [2013,14, 15]
या
इलाहाबाद बैंक के शाखा प्रबन्धक को फसली ऋण योजनान्तर्गत ऋण-प्राप्ति हेतु एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2015]
या
अपना कुटीर उद्योग प्रारम्भ करने हेतु किसी बैंक के प्रबन्धक को ऋण प्रदान करने हेतु एक पत्र लिखिए। [2016]
[बैंक के नाम में स्वयं परिवर्तन कर लें।]
उत्तर
सेवा में,
प्रबन्धक, भारतीय स्टेट बैंक, गोलाकुआँ, शोहराबगेट शाखा, मेरठ।
महोदय,
पिछले दिनों माननीय प्रधानमन्त्री महोदय ने प्रधानमन्त्री रोजगार योजना का शुभारम्भ किया था, जिसमें शिक्षित बेरोजगारों को एक लाख रुपए का ऋण देने का प्रावधान है। मैं भी बी० ए० पास एक शिक्षित बेरोजगार युवक हूँ और इस योजना का लाभ उठाकर एक लाख रुपए का ऋण लेकर इससे बॉल पेन बनाने का लघु उद्योग आरम्भ करना चाहता हूँ। इस हेतु आपकी सेवा में अपने विवरणसहित अपनी भावी योजना का संक्षिप्त प्रारूप प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो कि इस प्रकार है-
UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi बैंकविभिन्न व्यवसायों से सम्बन्धित ऋण-प्राप्ति हेतु आवेदन-पत्र img 1
श्रीमान जी से मेरा नम्र निवेदन है कि मेरे इस ऋण आवेदन-पत्र को स्वीकृत करके मुझे ऋण प्रदान कर कृतार्थ करें।
धन्यवाद सहित!
संलग्नक-
(1) आयु प्रमाण-पत्र,
(2) योग्यता प्रमाण-पत्रे,
(3) स्थायी निवास प्रमाण-पत्र,
(4) आय प्रमाण-पत्र।
दिनांक : 18/05/2014

भवदीय
किशनचन्द्र धानुक

प्रश्न 2.
केनरा बैंक के प्रबन्धक को अध्ययनार्थ ऋण-प्राप्ति हेतु एक पत्र लिखिए।
या
भारतीय स्टेट बैंक के शाखा प्रबन्धक को निजी उच्च शिक्षा-अध्ययन (चिकित्सा अथवा इंजीनियरिंग) हेतु शिक्षा ऋण प्राप्ति के लिए एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 17]
या
उच्च शिक्षा ग्रहण करने हेतु ऋण प्राप्त करने के लिए बैंक मैनेजर को एक प्रार्थना-पत्र लिखिए। [2018]
उत्तर
सेवा में,
श्रीमान शाखा प्रबन्धक महोदय,
केनरा बैंक, शहर शाखा, वाराणसी।

विषय-अध्ययन के लिए ऋण-प्राप्ति हेतु

महोदय,
मैं, विकास कुमार जैन ने चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ से बी० एस-सी० (भौतिकी, रसायन और गणित) परीक्षा प्रथम श्रेणी में 70% अंकों के साथ उत्तीर्ण की है। मैंने एम० बी० ए० (द्वि-वर्षीय पाठ्यक्रम) में प्रवेश लिया है और साथ-साथ प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षा के लिए तैयारी भी करना चाहता हूँ। मेरा अध्ययन अबाध चलता रहे, इसके लिए मुझे * 2,00,000.00 की आवश्यकता है। मुझे पता चला है कि आपके बैंक की अनेक ऋण योजनाओं में से एक योजना के अन्तर्गत अध्ययन के लिए भी ऋण प्रदान किया जाता है। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपके द्वारा प्रदत्त ऋण की भुगतान-प्रक्रिया अध्ययन पूर्ण होते ही यथाशीघ्र शुरू कर दी जाएगी।

उपर्युक्त उद्देश्य हेतु आपके सक्रिय सहयोग की अपेक्षा है।
धन्यवाद!
दिनांक :………………………….
संलग्नसभी उत्तीर्ण परीक्षाओं की अंक-प्रतियाँ व प्रमाण-पत्र।

भवदीय
विकास कुमार जैन
ठठेरवाड़ी, मेरठ।

प्रश्न 3.
अपने पिता जी की ओर से भारतीय स्टेट बैंक के प्रबन्धक को पत्र लिखकर ट्रैक्टर खरीदने के लिए ऋण स्वीकृत कराने का अनुरोध कीजिए।
उत्तर
सेवा में, 30-6-2017
श्रीमान प्रबन्धक महोदय,
भारतीय स्टेट बैंक, मुख्य शाखा
सोनीपत, हरियाणा।

विषय-ट्रैक्टर खरीदने के लिए ऋण की स्वीकृति हेतु आवेदन

महोदय,
निवेदन है कि मेरे पिता जी एक प्रगतिशील कृषक हैं, जिनके पास खेती योग्य उपजाऊ सत्तर एकड़ भूमि है। इस भूमि पर खेती से उन्हें पर्याप्त आमदनी हो जाती है।

मुझे खण्ड विकास अधिकारी द्वारा विदित हुआ कि आपके बैंक ने किसानों को आसान किश्तों पर ट्रैक्टर खरीदने हेतु ऋण देने के लिए एक योजना प्रारम्भ की है।

अपने पिता की आर्थिक स्थिति की पुष्टि में जमीन के कागजातों तथा मकान की रजिस्ट्री की छाया प्रतियाँ संलग्न कर रहा हूँ जिससे आपको हमारी आर्थिक स्थिति तथा ऋण अदायगी सम्बन्धी अर्हताओं का आकलन करने में कोई कठिनाई न हो।

आपसे निवेदन है कि आप मेरे पिता को इस योजना के अन्तर्गत ट्रैक्टर खरीदने के लिए ऋण की स्वीकृति प्रदान करने का कष्ट करें।
धन्यवाद!

भवदीय
मंगल सेन आर्य
आत्मज श्री बुध सेन आर्य
मकान नं० 646, गाँधी नगर
सोनीपत, हरियाणा।

प्रश्न 4.
यू०पी० ग्रामीण बैंक, इलाहाबाद के शाखा प्रबन्धक को फसल बीमा के अन्तर्गत प्राप्त होने वाली कृषक धनराशि के सम्बन्ध में एक प्रार्थना-पत्र लिखिए। [2016]
उत्तर
सेवा में,
श्रीमान शाखा प्रबन्धक,
इलाहाबाद बैंक, शहर शाखा, मेरठ।

विषय-फसल बीमा के अन्तर्गत कृषक धनराशि की प्राप्ति हेतु

महोदय,
निवेदन यह है कि प्रार्थी ने आपकी शाखा से अपनी पाँच बीघे धान की फसल का बीमा करवाया था। इसकी पॉलिसी संख्या 126796 तथा बीमा धनराशि 9,000/- है। प्रार्थी की फसल पानी के अभाव (बारिश का अभाव, नहर का सूख जाना व बिजली की किल्लत) के कारण सूख गई, जिसके कारण उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा है। फिलहाल प्रार्थी के सामने आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया है। इस सम्बन्ध में सम्बन्धित अधिकारियों को समय रहते सूचना दी जा चुकी है।

अतः आपसे अनुरोध है कि जल्द-से-जल्द प्रार्थी को उसके फसली बीमे की धनराशि दिलाने की कृपा करें।
धन्यवाद सहित।
दिनांक : …………………………

प्रार्थी
रामदुलारे
गाँव : रोहटा

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 2 Indian Education in Buddhist Period

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 2 Indian Education in Buddhist Period (बौद्ध-काल में भारतीय शिक्षा)are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 2 Indian Education in Buddhist Period (बौद्ध-काल में भारतीय शिक्षा).

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Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 2
Chapter Name Indian Education in Buddhist Period (बौद्ध-काल में भारतीय शिक्षा)
Number of Questions Solved 46
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 2 Indian Education in Buddhist Period (बौद्ध-काल में भारतीय शिक्षा)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
बौद्धकालीन शिक्षा के उद्देश्यों एवं आदर्शों का उल्लेख कीजिए।
बौद्ध शिक्षा-प्रणाली के क्या उद्देश्य थे? वर्तमान में उनकी प्रासंगिकता की विवेचना कीजिए।
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा के उद्देश्य
बौद्धकालीन शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे-
1. सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास-बौद्धकालीन शिक्षा का बदकालीन शिक्षा के उद्देश्य उद्देश्य व्यक्तित्व के ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक तीनों पक्षों सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास का विकास करना था।
बौद्ध धर्म का प्रचार

2. बौद्ध धर्मक़ा प्रचार–बौद्धकालीन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य चरित्र-निर्माण बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार एवं ग्रहण करना था, जिससे कि लोगों में निर्वाण की मात धर्म के प्रति श्रद्धा, विश्वास एवं आस्था बढ़े।
सामाजिक योग्यता और कुशलता

3. चरित्र-निर्माण सादगीपूर्ण और पवित्र जीवन, ब्रह्मचर्य, का विकास संयम तथा सदाचार द्वारा विद्यार्थियों के चरित्र का निर्माण करना। राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय भावना

4. निर्वाण की प्राप्ति-बौद्धकालीन शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य का विकास जीवन के दुःख, कष्ट, रोग वं मृत्यु से मनुष्य को निर्वाण प्राप्त कराना था।

5. सामाजिक योग्यता और कुशलता का विकास–शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञान और कौशल का समन्वय इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया गया था। इस काल में धर्म का अर्थ आध्यात्मिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का पालन करने से लिया जाता था और व्यक्ति की शिक्षा उसे यह क्षमता प्रदान करती थी कि वह अपने आपको समाज का एक योग्य सदस्य बनाए।

6. राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय भावना का विकास–बौद्धकालीन शिक्षा का एक उद्देश्य राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय भावना का विकास भी था। इसके लिए बौद्ध भिक्षु अपने देश और विदेश में भ्रमण करते थे और वे अपनी ही वेशभूषा, भाषा व आचार-विचार का प्रयोग करते थे। । उल्लेखनीय है कि बौद्ध शिक्षा प्रणाली के उपर्युक्त वर्णित उद्देश्य वर्तमान में भी अपनी प्रासंगिकता को बनाए हुए हैं। वर्तमान में शिक्षा को जीवन के मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया है, क्योंकि इसी से व्यक्ति का कल्याण सम्भव है।

चरित्र-निर्माण की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए नैतिक शिक्षा को प्राथमिकता दी जा रही है। भारत जैसे सीमित संसाधन एवं जनसंख्या आधिक्य वाले विकासशील देश में, समाज एवं राष्ट्र की उन्नति हेतु मानव संसाधन विकास में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इसी प्रकार समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, . गरीबी, वर्ग-भेद आदि समस्याओं हेतु शिक्षा का प्रचार अपरिहार्य आवश्यकता है।

बौद्धकालीन शिक्षा के आदर्श
बौद्धकालीन शिक्षा के प्रमुख आदर्श निम्नलिखित थे-

  1. जीवन और शिक्षा में घनिष्ठ सम्बन्ध था तथा जीवन के आदर्श शिक्षा में भी अपनाए गए थे। इसलिए विद्यार्थियों को सरल, शुद्ध, पवित्र व सात्विक जीवन व्यतीत करना पड़ता था।
  2. समाज सेवा बौद्ध शिक्षा का दूसँग आदर्श था। उपसम्पदा संस्कार सम्पन्न होने पर विद्यार्थी भिक्षु बन जाता था और वह बौद्ध धर्म एवं मठ की सेवा करता था। भिक्षु का कार्य समाज में भ्रमण करना और धर्म के सिद्धान्तों से जन-साधारण को शिक्षित-दीक्षित करना था।
  3. विश्व कल्याण बौद्ध शिक्षा का तीसरा आदर्श था। धर्म का प्रचार करने वाले भारत से बाहर भी गए और सम्पूर्ण जीवन वे मनुष्यों को जीवन के सत्यों का ज्ञान देते रहे, जिससे सम्पूर्ण विश्व के लोगों का कल्याण हो सके। बौद्ध धर्म में विश्व कल्याण की भावना होने के कारण ही उसका व्यापक प्रचार हुआ।
  4. बौद्धकालीन शिक्षा जनतान्त्रिक आदर्शों पर आधारित थी। इसमें समानता, स्वतन्त्रता और सामाजिक हित की भावना निहित थी। सभी लोग बिना किसी भेदभाव के समान रूप से शिक्षा ग्रहण करने और निर्वाण प्राप्त करने के अधिकारी थे।

प्रश्न 2
बौद्धकालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएँ
भारतीय शिक्षा के इतिहास में ईसा से पूर्व छठी शताब्दी में शिक्षा के क्षेत्र में कुछ परिवर्तन हुए। इस काल, जिसे बौद्धकाल कहा जाता है, की शिक्षा को बौद्धकालीन शिक्षा कहा जाता है। वैदिक धर्म एवं ब्राह्मण-उपनिषद् धर्म के पालन करने वालों में बहुत-से अवगुण, अन्धविश्वास, आडम्बर तथा जातीय । भेदभाव आदि आ गए थे। इस कारण यह आवश्यक था कि समाज के सदस्यों को धर्म के मूल सिद्धान्तों के प्रति प्रबुद्ध किया जाए इसलिए देश में एक नए सम्प्रदाय का उदय हुआ, जिसे महात्मा बुद्ध के अनुयायियों ने, उनके नाम से, जन्म दिया था। यह बौद्ध धर्म के नाम से प्रचलित हुआ। इस धर्म के अभ्युदय, विकास एवं प्रसार के कारण भारतीय शिक्षा का भी विकास हुआ और इसे बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली का नाम दिया गया। बौद्धकालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं|

1. समन्वित शिक्षा-धार्मिक परिवर्तन के कारण बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएँ बौद्धकालीन शिक्षा-प्रणाली में आरम्भ में केवल बौद्ध धर्म की शिक्षा दी जाती थी, बाद में सभी धर्मों के मानने वाले शिक्षा लेने लगे,
समन्वित शिक्षा इसलिए बौद्ध और अबौद्ध सभी विषयों की शिक्षा दी गई। केवल चाण्डाल, गम्भीर रोगों से ग्रस्त रोगियों तथा अपराधी व्यक्तियों को शिक्षा लेने का अधिकार नहीं था।

2. धार्मिक संस्कार–बौद्धकालीन शिक्षा का आरम्भ विकास ‘पवज्जा’ या ‘प्रव्रज्या संस्कार से होता था। यह संस्कार 8 वर्ष की जनतान्त्रिक भावना व्यापक शिक्षा, आयु में होता था। इसमें बालक-बालिका अपने माता-पिता के घर राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय को छोड़कर व पीले वस्त्र पहनकर गुरु के सामने नतमस्तक होता दृष्टिकोण का विकास था, प्रार्थना करता था और गुरु उसे स्वीकार करता था।

सामान्य शिक्षा, तकनीकी शिक्षा दूसरे संस्कार विद्यार्थी द्वारा तीन प्रण’ करना था, वह ‘समनेर’ और धार्मिक शिक्षा या ‘श्रमण’ कहलाता था। तीन प्रण ये थे—

  1. बुद्धम् शरणम् जनसाधारण की भाषा शिक्षा को गच्छामि।
  2. धम्मं शरणम् गच्छामि।
  3. सधं शरणम् गच्छामि। इसके माध्यम संस्कार के समय विद्यार्थी को निम्नांकित नियमों का पालन करने की शिक्षा का व्यवस्थीकरण प्रतिज्ञा लेनी पड़ती थी
    • किसी जीव की हिंसा मत करो।
    • अशुद्ध आचरण से दूर रहो।
    • असत्य भाषण मत करो।
    • कुसमय भोजन न करो।
    • मादक वस्तुओं का प्रयोग न करो।
    • नृत्य और तमाशों से दूर रहो।
    • बिना दिए हुए किसी की वस्तु को ग्रहणून करो।
    • बहुमूल्य पदार्थ दान में न लो।
    • किसी की निन्दा मत करो।
    • श्रृंगार की वस्तुओं का उपभोग न करो।

तीसरा संस्कार ‘उपसम्पदा’ का था, यह 20 वर्ष की आयु में सम्पन्न होता था। इस संस्कार के बाद शिष्य भिक्षु और शिष्या भिक्षुणी हो जाते थे। इसे संस्कार के होने से शिष्य आजीवन धर्म के लिए कार्य करता था। मठ और विहार के साथ संलग्न शिक्षालयों में ये शिक्षा देते थे।

3. धार्मिक भावना का विकास–बौद्धकालीन शिक्षा का आधार बौद्ध धर्म था। बुद्ध और उनके धर्म तथा संघ की शरण में रहना तथा बौद्ध धर्म के इस नियमों का पालन करना ही शिक्षा था।

4. वैयक्तिक और सामाजिक विकास-बौद्धकालीन शिक्षा आरम्भ में वैयक्तिक रूप से व्यक्ति को धर्म का ज्ञान कराती थी। बाद में उसका लक्ष्य ऐसे व्यक्तित्व एवं चरित्र का विकास करना हो गया जो समाज को आगे ले जा सके।

5. जनतान्त्रिक भावना–शिक्षा के माध्यम से समाज के सभी लोगों में समानता और स्वतन्त्रता की श्रेष्ठ भावना लाने का प्रयत्न किया जाता था ताकि चारों वर्गों के लोग परस्पर मिल-जुलकर जीवन व्यतीत करें।

6. व्यापक शिक्षा–बौद्ध काल में भारतीय संस्कृति का भौतिक पक्ष काफी समृद्ध हो चुका था और इस काल में शिक्षा लौकिक एवं धार्मिक दोनों प्रकार की थी। बालक और बालिका, ज्ञानी और व्यवसायी दोनों शिक्षा प्राप्त करते थे। शासन और जनसाधारणेदोनों के लिए शिक्षा की उत्तम व्यवस्था थी। इस प्रकारे बौद्ध काल में शिक्षा का क्षेत्र व्यापक था।

7. राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास–बौद्ध धर्म में शिक्षा लेकर लोग विदेशों में जाते थे और विदेशों से आए लोगों का स्वागत करते थे। बौद्ध विद्वान् एवं भिक्षु इसे अपना कर्तव्य मानते थे कि वे राष्ट्रीय धर्म, ज्ञान, बुद्धि, सभ्यता आदि को अपने देश में तथा दूसरे देशों में फैलाएँ। इस प्रकार शिक्षा द्वारा लोगों में राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास किया जाता था।

8. सामान्य शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और धार्मिक शिक्षा–बौद्धकालीन शिक्षा की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इस काल में लोग शिल्प कौशल या तकनीकी शिक्षा को उतना ही उपयोगी और आवश्यक समझते थे, जितनी दर्शन, धर्म, भाषा आदि की शिक्षा को।

9. जनसाधारण की भाषा शिक्षा का माध्यम-वैदिक शिक्षा के अन्तर्गत शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी। इससे केवल उच्च वर्ग के लोग ही शिक्षा प्राप्त कर सकते थे और इससे जनसाधारण में शिक्षा का प्रचार नहीं होता था। अत: बौद्ध काल में शिक्षा का विकास जनसाधारण की भाषा पालि में किया गया।

10. शिक्षा का व्यवस्थीकरण–बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्थित थी। प्राथमिक शिक्षा पाठशालाओं में और उच्च शिक्षा विश्वविद्यालयों में दी जाती थी। इसके साथ ही माध्यमिक विद्यालयों और तकनीकी शिक्षा संस्थाओं की व्यवस्था भी अवश्य ही रही होगी।

प्रश्न 3
वैदिक और बौद्ध शिक्षा-प्रणालियों की समानताओं और असमानताओं की विवेचना कीजिए।
या वैदिककाल तथा बौद्ध-शिक्षा की समानताओं तथा असमानताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर
प्राचीनकाल में भारत में विकसित होने वाली दो मुख्य शिक्षा प्रणालियों को क्रमशः वैदिक शिक्षा या हिन्दू-ब्राह्मणीय शिक्षा तथा बौद्धकालीन शिक्षा के रूप में जाना जाता है। बौद्धकालीन शिक्षा बौद्ध धर्म एवं दर्शन की सैद्धान्तिक मान्यताओं पर आधारित थी, परन्तु यह भी सत्य है कि बौद्ध धर्म भी एक भारतीय धर्म था तथा बौद्धकालीन शिक्षा भारतीय सामाजिक परिस्थितियों में ही विकसित हुई थी।

इस स्थिति में वैदिक शिक्षा तथा बौद्धकालीन शिक्षा में कुछ समानताएँ होना नितान्त स्वाभाविक ही था, परन्तु वैदिक-धर्म तथा बौद्ध धर्म में कुछ मौलिक तथा सैद्धान्तिक अन्तर भी है। दोनों धर्मों का सामाजिक व्यवस्था स्तरीकरण तथा जीवन के उद्देश्यों आदि के प्रति दृष्टिकोण भिन्न है। इस स्थिति में दोनों धर्मों द्वारा विकसित की गयी शिक्षा-प्रणालियों में कुछ स्पष्ट अन्तर पाया जाता है। इस स्थिति में वैदिक-शिक्षा तथा बौद्धकालीन शिक्षा के तुलनात्मक विवरण को प्रस्तुत करने के लिए इन शिक्षा-प्रणालियों में पायी जाने वाली समानताएँ तथा असमानताएँ अग्रलिखित हैं–

वैदिक तथा बौद्ध शिक्षा की समानताएँ
डॉ० अल्तेकर के अनुसार, “जहाँ तक सामान्य शैक्षिक सिद्धान्त या प्रयोग की बात है, हिन्दुओं और बौद्ध में कोई विशेष अन्तर नहीं था। दोनों प्रणालियों के समान आदर्श थे और दोनों समान विधियों का अनुसरण करती थी। इस स्थिति में इन दोनों शिक्षा-प्रणालियों में विद्यमान समानताओं का विवरण निम्नवर्णित है

  1. दोनों शिक्षा प्रणालियाँ हर प्रकार के बाहरी नियन्त्रण से मुक्त थी अर्थात् वे अपने आप में स्कतन्त्र थी। दोनों शिक्षा व्यवस्थाओं में राज्य अथवा किसी अन्य सत्ता का कोई हस्तक्षेप नहीं था।
  2. दोनों ही शिक्षा-प्रणालियों में शिक्षण की मौखिक विधि को अपनाया गया था।
  3. वैदिक तथा बौद्ध शिक्षा-प्रणालियों में समान रूप में छात्रों को दिनचर्या तथा सामान्य जीवन के | नियमों का पालन करना पड़ता था।
  4. दोनों ही शिक्षा प्रणालियों में अनुशासन की गम्भीर समस्या नहीं थी तथा अनुशासन बनाये रखने | के लिए कठोर या शारीरिक दण्ड का प्रावधान नहीं था।
  5. दोनों शिक्षा-प्रणालियाँ धर्म-प्रधान थीं अर्थात् शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक एवं नैतिक मूल्यों को समुचित महत्त्व दिया गया था।
  6. दोनों ही शिक्षा-प्रणालियों में शैक्षिक-प्रक्रिया में कुछ संस्कारों को विशेष महत्त्व दिया गया था।
  7. दोनों ही शैक्षिक व्यवस्थाओं में शिक्षा पूर्ण रूप से निःशुल्क थी अर्थात् शिक्षा ग्रहण करने के लिए किसी प्रकार का शुल्क देने का प्रावधान नहीं था।
  8. किसी भी शिक्षा-प्रणाली का मूल्यांकन करते समय गुरु-शिष्य सम्बन्धों को अवश्य ध्यान में रखा जाता है। वैदिक शिक्षा तथा बौद्ध-शिक्षा के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि इन दोनों शिक्षा प्रणालियों में गुरु-शिष्य सम्बन्ध बहुत ही मधुर, स्नेहपूर्ण, पवित्र तथा पारस्परिक व कर्तव्यों पर आधारित थे। यह समानता विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
  9. ये दोनों ही शिक्षा-प्रणालियाँ विभिन्न निर्धारित नियमों द्वारा परिचालित होती थीं। शिक्षा प्रारम्भ | करने की आयु शिक्षा की अवधि आदि पूर्ण रूप से नियमित तथा निश्चित थी।
  10. वैदिक शिक्षा तथा बौद्ध शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत शैक्षिक वातावरण सम्बन्धी समानता थी। गुरुकुल तथा बौद्ध मठ सामान्य रूप से गाँव या नगर से कुछ दूर प्राकृतिक रमणीक वातावरण में ही स्थापित किये जाते थे।
  11. वैदिक शिक्षा तथा बौद्ध-शिक्षा में समान रूप से छात्रों द्वारा सादा तथा सरल जीवन व्यतीत किया जाता था तथा सदाचार को विशेष महत्त्व दिया जाता था। व्यवहार में सादा जीवन उच्च-विचार के आदर्श को अपनाया जाता था।

वैदिक तथा बौद्ध शिक्षा की असमानताएँ
वैदिक तथा बौद्ध शिक्षा प्रणालियों में विद्यमान असमानताओं का सामान्य विवरण निम्नवर्णित है|

  1. वैदिक काल में शिक्षा की व्यवस्था मुख्य रूप से गुरुकुलों में होती थी, जबकि बौद्धकाल में यह
    व्यवस्था बौद्ध-मठों एवं विहारों में होती थी। वैदिक काल में सामान्य विद्यालय नहीं थे, परन्तु | बौद्धकाल में इस प्रकार के विद्यालय स्थापित हो गये थे।
  2. “वैदिक काल में शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी, जबकि बौद्धकाल में शिक्षा का माध्यम पालि | भाषा तथा कुछ क्षेत्रीय भाषाएँ थीं।।
  3. वैदिक काल में शिक्षा प्रदान करने का कार्य ब्राह्मण करते थे, जबकि बौद्धकाल में ऐसा बन्धन नहीं था। किसी भी जाति का योग्य व्यक्ति शिक्षा प्रदान कर सकता था।
  4. वैदिक काल में शिक्षा का स्वरूप व्यक्तिगत एवं पारिवारिक था, जबकि बौद्धकाल में यह स्वरूप । सामूहिक एवं संस्थागत था।
  5. वैदिक काल में केवल सवर्णो को शिक्षा प्रदान की जाती थी, जबकि बौद्धकाल में किसी प्रकार का जातिगत भेदभाव नहीं था।
  6. वैदिक काल में छात्रों का जीवन अधिक कठोर एवं तपोमय था, जबकि बौद्धकाल में यह कठोरता घट गयी।
  7. वैदिक काल में शिक्षा अनिवार्य रूप से शिक्षके-केन्द्रित थी, जबकि बौद्धकाल में छात्रों को भी कुछ स्वतन्त्रता एवं अधिकार प्राप्त थे।
  8. वैदिक काल में वैदिक धर्म, दर्शन एवं साहित्य की शिक्षा दी जाती थी परन्तु बौद्ध-शिक्षा के अन्तर्गत बौद्ध धर्म एवं दर्शन को शिक्षा के पाठ्यक्रम में अधिक महत्त्व दिया जाता था।
  9.  वैदिककालीन प्रायः सभी शिक्षण-संस्थाओं में एकतन्त्रवादी सत्ता-व्यवस्था का बोलबाला था, परन्तु बौद्धकाल में प्राय: सभी शिक्षण संस्थाओं में जनतान्त्रिक सत्ता-व्यवस्था को प्राथमिकता दी जाती थी।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
बौद्धकालीन शिक्षा में गुरु-शिष्य सम्बन्धों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
डॉ० ए०एस० अल्तेकर ने लिखा है, “गुरु-शिष्य के बीच पिता-पुत्र का सम्बन्ध होता था। वे परस्पर श्रद्धा, विश्वास और स्नेह से बंधे रहते थे।”
गुरु के प्रति, भक्ति और प्रेम व्यापक एवं सर्वमान्य था। गुरु भी शिष्यों को सही मार्ग पर ले जाता था।
1. गुरु का कर्तव्य-गुरु का लक्ष्य हर छात्र को धर्म, नैतिकता, आध्यात्मिकता एवं बौद्धिकता प्रदान करना होता था। इस उत्तरदायित्व को वह भली प्रकार से वहन करता था। गुरु छात्र की सभी आवश्यकताओं को पूरी करता था। शिष्यों को आगे बढ़ाना, उनकी शंकाओं को दूर करना, उनकी रुचि के अनुकूल विषयों का ज्ञान देना, उन्हें जाग्रत एवं जिज्ञासु करना, संघ के जीवन के लिए तैयार करना, नियम न मानने के कारण दण्ड देना, सुधास्ना तथा पुनः सही मार्ग पर छात्रों को लाना गुरु का ही काम था।

गुरु छोटी-छोटी कक्षाओं में शिष्यों को बाँटकर शिक्षा देता था और व्यक्तिगत रूप से उन पर ध्यान रखता था। पढ़ाए गए पाठ की रोज जाँच करता था। पुराने पाठ के याद कर लेने के बाद ही नए पाठ का ज्ञान दिया जाता था। छात्र को उसकी शक्ति एवं क्षमता के अनुरूप शिक्षा दी जाती थी। वार्षिक परीक्षा नहीं होती थी। सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने पर शिक्षा पूरी समझी जाती थी। शिक्षा देने का पूरा भारे गुरु लेता था। गुरु शिष्यों का बौद्धिक, शारीरिक एवं धार्मिक विकास करता था।

2.शिष्य का कर्तव्य-प्रत्येक विद्यार्थी का कर्तव्य था नैतिक एवं ब्रह्मचर्यपूर्ण जीवन बिताना, संघ के नियमों एवं गुरु के आदेशों का पालन करना, गुरु की सेवा में लगे रहना, भोजन एवं आचरण की दृष्टि से शुद्ध-सरल जीवन जीना, स्वाध्याय में लगे रहना, मानवीय गुणों का विकास करना, सत्य का पालन, हिंसा न करना, आमोद-प्रमोद व मनोरंजन से दूर रहना, गुरु के साथ शास्त्रार्थ करना, ज्ञान की खोज में भ्रमण करना, समाज को दीक्षित करने के लिए प्रयत्न करना, समाज सेवा आदि। इस प्रकार, गुरु के आदर्शों, आदेशों और आचरण का अनुसरण करके शिष्य भी सिद्ध हो जाता था और उसे सिद्धि बिहारक’ की उपाधि मिलती थी।
इस काल में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध आदर्शमय, त्यागमय एवं कर्त्तव्यमय होता था, परन्तु यह सम्बन्ध शिक्षा काल तक ही सीमित रहता था। निर्धन छात्र गुरु की विशिष्ट सेवा करता था। वह गुरु के दैनिक कार्यों में सुहयोग देता था। बौद्धग्रन्थ महावग्गा में गुरु-शिष्य के सम्बन्ध में विशद् वर्णन दिया गया है।

प्रश्न 2
बौद्धकालीन शिक्षा के पाठ्यक्रम का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा का पाठ्यक्रम प्रारम्भिक, उच्च, औद्योगिक और व्यावसायिक वर्गों में बँटा हुआ था

  1. प्रारम्भिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में साधारण लिखना-पढ़ना, गणित, पंच विद्या (शब्द विद्या, शिल्प विद्या, चिकित्सा विद्या, हेतु विद्या व अध्यात्म विद्या) सम्मिलित थे।
  2. उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक रूप से प्रायः सभी विषय पढ़ाए जाते थे; यथा–धर्म, भाषा, इतिहास, भूगोल, ज्योतिष, राजनीति, न्याय, शिल्प, कला प्रशासन आदि।
  3. औद्योगिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में केवल कला-कौशल और व्यावसायिक शिक्षा में केवल व्यवसाय उद्योग विषय रखे गए थे। इस प्रकार बौद्धकालीन शिक्षा के पाठ्यक्रम में चार बातें प्रमुख थीं
    •  धार्मिक शिक्षा–बौद्ध धर्म के ग्रन्थ-त्रिपिटक-सुत्त पिटक, विनय पिटक व अभिधम्म पिटक का अध्यय
    •  हिन्दू दर्शन–वेद, पुराण, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द, सांख्य, योग, न्याय वैशेषिक आदि का अध्ययन।
    • भाषाएँ–पालि, संस्कृत, तिब्बती, चीनी आदि भाषाओं का अध्ययन।
    • विज्ञान व कला-विज्ञान, चिकित्सा, शिल्प, तर्कशास्त्र, विधिशास्त्र तथा कला के विषयों का अध्ययन।

मिलिन्दपन्हो और अन्य बौद्ध ग्रन्थों में आखेट विद्या, धनुर्विद्या, जादू, सैन्य विज्ञान, प्रकृति अध्ययन, लेखा विज्ञान, मुद्रा विज्ञान, शल्यशास्त्र, अस्त्र विज्ञान आदि विषयों का भी उल्लेख मिलता है।

प्रश्न 3
बौद्धकालीन शिक्षा के प्रबन्ध का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा के कई स्तर थे-

  1. प्रारम्भिक शिक्षा,
  2. उच्च शिक्षा,
  3. व्यावसायिक शिक्षा,
  4. ललित कलाओं की शिक्षा। स्त्री-शिक्षा की भी समुचित व्यवस्था थी। विद्यालय, विश्वविद्यालय तथा शिक्षा केन्द्रों की भी व्यवस्था की गई थी। इसी प्रकार सभी वर्गों तथा जातियों के लिए जनसाधारण शिक्षा का भी प्रबन्ध था।

शिक्षा के लिए आर्थिक व्यवस्था समाज के द्वारा की जाती थी। शासन, नगर श्रेष्ठ (सेठ) व अन्य धनी लोग धन तथा सम्पत्ति देकर शिक्षा की व्यवस्था करते थे, परन्तु शैक्षिक प्रबन्ध में इन्हें कोई अधिकार प्राप्त नहीं था। अधिकांश विद्यार्थी नि:शुल्क शिक्षा प्राप्त करते थे। कुछ शिक्षा केन्द्रों में शिक्षा शुल्क भी देना पड़ता था। भोजन और ओवास व्यवस्था छात्रावासों में होती थी।

इस काल में शैक्षिक व्यवस्था मठाधीश या विहार के प्रधान के हाथ में थी। उसी के अधीन सभी भिक्षु. होते थे, जो धार्मिक और लौकिक शिक्षा के लिए उत्तरदायी होते थे। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में प्रवेश देने का, शिक्षा की अघधि, शिक्षा के सत्र, अध्ययन का समय, अवकाश आदि का पूरा अधिकार मठाधीश को होता था।

प्रशासन की व्यवस्था संघ संचालक द्वारा होती थी। उसके सहयोगी अन्य अध्यापक एवं विद्यार्थी भी होते थे। प्रशासन के संचालन में सहायता देने के लिए अनेक समितियाँ भी होती थीं।। शैक्षणिक समिति के कार्य थे—छात्रों का प्रवेश लेना, तत्सम्बन्धी नियम बनाना, पाठ्यक्रम तैयार करना, अध्यापन के लिए अध्यापक नियुक्त करना, परीक्षा लेना, प्रमाण-पत्र देना, पुस्तकालय का संचालन करना, पुस्तकें लिखवाना तथा उन्हें सुरक्षित रखना आदि।

प्रबन्ध समिति का कार्य था–अर्थ भार लेना, विद्यालय भवन बनवाना, विद्यालय की सामग्री की देखभाल करना, छात्रावास का प्रबन्ध करना; भोजन आदि की व्यवस्था करना, नौकरों की नियुक्ति करना, चिकित्सा का प्रबन्ध करना आदि प्रबन्ध समिति के कार्य थे।

प्रश्न 4
बौद्धकालीन शिक्षा में अपनाई जाने वाली मुख्य शिक्षा-विधियों का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर
बौद्ध काल में शिक्षण की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित थीं-

  1. शिक्षक द्वारा शिक्षण विधि-प्रतिदिन शिक्षक द्वारा प्रातः 7 बजे से 11 बजे तक और फिर 2 बजे से सायं 5 या 6 बजे तक शिक्षा दी जाती थी। पहले पुराने पाठ का स्मरण कराया जाता था, तत्पश्चात् नया पाठ पढ़ाया जाता था।
  2. प्रवचन या व्याख्यान विधि-शिक्षक अपनी इच्छानुसार विषय के ऊपर प्रवचन या व्याख्यान देता था। शिक्षक शुद्ध उच्चारण और कण्ठस्थलीकरण पर विशेष बल देता था।
  3. वाद-विवाद विधि-शिक्षक सत्यों को प्रमाणित करने के लिए वाद-विवाद और शास्त्रार्थ विधि का प्रयोग करते थे। इस विधि में सिद्धान्त, हेतु, उदाहरण, साम्य, विरोध, प्रत्यक्ष, अनुमान तथा निष्कर्ष या आगम प्रमाणों का प्रयोग किया जाता था।
  4. प्रश्नोत्तर विधि-शिक्षक छात्रों की शंकाओं का समाधान विषयों के स्पष्टीकरण और छात्रों में जिज्ञासा उत्पन्न करने के लिए प्रश्नोत्तर विधि का प्रयोग करते थे।
  5. मॉनीटोरियल विधि-कक्षा के कुशाग्र बुद्धि छात्र द्वारा या उच्च कक्षा के छात्रों द्वारा निम्न कक्षा के छात्रों को पढ़ाने का प्रबन्ध किय्य जाता था।
  6. पुस्तक अध्ययन विधि-सम्यक् ज्ञान पुस्तक में रहता था, अतएव पुस्तक अध्ययन की विधि अपनाई गई थी।
  7. सम्मेलन विधि-पूर्णिमा और प्रतिपदा के दिन संघ के सभी छात्र एवं अध्यापक एक साथ मिलते थे और वहीं ज्ञान-धर्म की चर्चा होती थी।
  8. निदिध्यासन विधि-धर्म एवं अध्यात्म के विषय के लिए यह विधि अपनाई जाती थी। इससे अन्तर्ज्ञान प्राप्त किया जाता था।
  9. देशाटन, भ्रमण और निरीक्षण विधि—छात्र विभिन्न स्थानों में भ्रमण व देशाटन करके ज्ञान प्राप्त करते थे और प्रकृति की विभिन्न वस्तुओं का निरीक्षण करते थे।
  10. व्यावसायिक व प्रयोगात्मक विधि-व्यावसायिक एवं औद्योगिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए छात्र कुशल कारीगरों की देख-रेख में रहता था और दक्षता तथा प्रवीणता का अर्जन करता था। वह स्वयं काम करता था और अन्य लोगों के काम करने के तरीके का अवलोकन भी करता था।

प्रश्न 5
आधुनिक भारतीय शिक्षा के लिए बौद्ध-शिक्षा की देन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
आधुनिक भारतीय शिक्षा के लिए बौद्ध-शिक्षा की देन बौद्धकालीन भारतीय शिक्षा की कुछ मौलिक विशेषताएँ थीं, जिनके कारण इस शिक्षा-प्रणाली ने सम्पूर्ण भारतीय शिक्षा-व्यवस्था पर विशेष प्रभाव डाला। बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली एवं व्यवस्था के कुछ तत्त्व ऐसे थे जिनका अनुकरण आगामी भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में भी किया जाता रहा तथा आज भी हमारी शिक्षा में उन्हें किसी-न-किसी रूप में देखा जा सकता है। इन तत्त्वों को बौद्धकालीन शिक्षा की आधुनिक भारतीय शिक्षा की देन माना जा सकता है। इन तत्त्वों या कारकों का सामान्य परिचय निम्नवर्णित है-

  1. आधुनिक युर्ग में सब कहीं पाये जाने वाले सामान्य विद्यालय मूल रूप से बौद्धकालीन शिक्षा-प्रणाली की ही देन है, क्योंकि सर्वप्रथम बौद्धकाल में ही सामान्य विद्यालय स्थापित हुए थे।
  2. वर्तमान समय में सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था है, इसे प्रारम्भ करने का श्रेय भी बौद्धकालीन शिक्षा-प्रणाली को ही था।
  3. आधुनिक युग में स्त्री-शिक्षा को विशेष आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है। इस अवधारणा को भी सर्वप्रथम बौद्धकालीन शिक्षा-प्रणाली में ही प्रस्तुत किया गया था; अतः इसे भी बौद्ध-शिक्षा की ही देन माना जाता है।
  4. आधुनिक युग में छात्रों के सुचारु शारीरिक विकास के लिए विद्यालयों में खेल-कूद तथा शारीरिक व्यायाम की विशेष व्यवस्था की जाती है। इस व्यवस्था को भी सर्वप्रथम बौद्धकालीन शिक्षा-व्यवस्था में ही लागू किया गया था; अत: इसे उसी की देन माना जाता है।
  5. वर्तमान समय में प्राविधिक तथा विज्ञान सम्बन्धी शिक्षा को विशेष महत्त्व दिया जाता है। इस प्रकार की शिक्षा का प्रचलन भी सर्वप्रथम बौद्धकाल में ही हुआ था; अतः वर्तमान शिक्षा के लिए यह बौद्धकालीन शिक्षा की ही देन माना जा सकता है।
  6. बौद्धकालीन शिक्षा की एक अन्य सराहनीय देन है–शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक शिक्षा तथा लाभप्रद विषयों को सम्मिलित करना। आज भी इस वर्ग की शिक्षा को अति आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
  7. आधुनिक युग में शिक्षा के क्षेत्र में लौकिक तथा सामान्य विषयों के समावेश को विशेष प्राथमिकता दी जाती है। इस प्रचलन को भी बौद्धकाल में ही प्रारम्भ किया गया था।
  8. बौद्धकालीन शिक्षा की एक देन शिक्षा के क्षेत्र में सामूहिक प्रणाली को अपनाना, शिक्षण के लिए। बहु-शिक्षक व्यवस्था को लागू करना भी है। आज भी इन व्यबस्थाओं को अपनाया जा रहा है।
  9. बौद्धकालीन शिक्षा की एक देन शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न स्तरों की शिक्षा की अवधि को निर्धारित करना भी रही है।
  10. आज प्रत्येक शिक्षण संस्था के सँभी नियम पूर्व-निर्धारित तथा निश्चित होते हैं। शिक्षण संस्थाओं में इस व्यवस्था को प्रारम्भ करने का श्रेय बौद्धकालीन शिक्षा को ही है; अत: इसे भी उसकी देन माना जा सकता है।
  11. आज शिक्षा के क्षेत्र में अवसरों की समानता की अवधारणा को आवश्यक माना जा रहा है। मौलिक रूप से यह अवधारणा बौद्ध शिक्षा की ही देन है।
  12. आज अधिकांश विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने वाले बालक अपने घरों में अपने परिवार के साथ
    ही रहते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में इस व्यवस्था को प्रारम्भ करने का श्रेय बौद्ध शिक्षा-प्रणाली को ही | है, अत: इस व्यवस्था को भी बौद्ध शिक्षा की देन ही स्वीकार किया जाता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
बुद्ध के समय में पबज्जा (प्रव्रज्या) संस्कार कैसे मनाया जाता था?
उत्तर
प्रव्रज्या संस्कार’ बौद्ध शिक्षा प्रणाली की प्रमुख विशेषता थी। यह संस्कार बालक की शिक्षा प्रारम्भ करने के अवसर पर आयोजित किया जाता था। ‘पबज्जा’ का शाब्दिक अर्थ है-‘बाहर जाना। अत: यह संस्कार,बालक द्वारा अपना घर छोड़कर शिक्षा ग्रहण के लिए किसी बौद्ध मठ के लिए गमन करने का द्योतक है। | पबज्जा संस्कार का विवरण ‘विनयपिटक’ में दिया गया है। इसके अनुसार, इस अवसर पर बालक सिर के बाल मुंडवाकर एवं पीले वस्त्र धारण कर मठ के भिक्षुओं के सम्मुख एक श्लोक का तीन बार पाठ करता था। यह श्लोकोथा “बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि” इस प्रकार विधिवत् शपथ ग्रहण करने के उपरान्त बालक को प्रधान भिक्षु द्वारा सामान्य उपदेश दिया जाता था, जिसमें उसे मुख्य रूप से दस आदेश दिए जाते थे। उदाहरणत: चोरी न करना, जीवहत्या न करना, असत्य न बोलना अशुद्ध आचरण नहीं करना आदि।

वस्तुतः ये आदेश विद्यार्थियों के लिए आचार-संहिता के समान थे। इस उपदेश के उपरान्त बालक को मठ की सदस्यता प्राप्त हो जाती थी तथा उसे नव-शिष्य, श्रमण या सामनेर कहा जाता था।

प्रश्न 2
बौद्धकालीन शिक्षा में अनुशासन की क्या व्यवस्था थी ?
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा में छात्रों के लिए अनुशासित रहना अति आवश्यक था। प्रत्येक छात्र को विद्यालय के नियमों तथा रहन-सहन एवं खान-पान के नियमों का पालन करना पड़ता था। नियम और अनुशासन भंग तथा दुराचरण पर गुरु विद्यार्थी को दण्ड देता था, विद्यालय से निकाल देता था तथा विद्याध्ययन से कुछ समय के लिए वंचित कर देता था। छात्रों के प्रत्येक अपराध की सूचना गुरु द्वारा संघ को दी जाती थी और संघ की ‘प्रतिभारत’ सभा द्वारा दण्ड दिया जाता था। इसमें विद्यार्थी अपना अपराध सभी के सामने स्वीकार करता था। अनुशासनहीनता बढ़ने पर सभी छात्र दण्ड पाते थे।

प्रश्न 3
बौद्धकाल में स्त्री-शिक्षा की क्या व्यवस्था थी ?
उत्तर
बौद्धकाल में स्त्रियों अर्थात् बालिकाओं को शिक्षा दिए जाने की सुचारु व्यवस्था थी। इसका प्रमाण है कि इस काल में अनेक विदुषी स्त्रियों का उल्लेख हुआ है; जैसे–अनुपमा, सुमेधा, विजयंका तथा शुभा। बौद्धकाल में अनेक स्त्रियों ने बौद्ध-धर्म के प्रचार एवं प्रसार में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। परन्तु यह भी सत्य है कि बौद्धकाल में केवल उच्च वर्ग के परिवारों की स्त्रियाँ ही उत्तम शिक्षा प्राप्त कर पाती थीं। वास्तव में बौद्ध मठों में प्रारम्भ में स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध था। अत: बालिकाओं की शिक्षा की कोई सार्वजनिक व्यवस्था नहीं थी।

प्रश्न 4
बौद्धकालीन शिक्षा-व्यवस्था में समाज के किन वर्गों के व्यक्तियों को शिक्षा प्राप्त करने, का अधिकार प्राप्त नहीं था ?
उत्तर
बौद्ध मान्यताओं के अनुसार वर्ण या जातिगत भेदभाव की कोई महत्त्व नहीं था; अतः इस आधार पर समाज के किसी वर्ग को शिक्षा के अधिकार से वंचित नहीं किया गया था। सभी वर्गों एवं जातियों के बालक मठों में एक-साथ शिक्षा प्राप्त केरते थे। परन्तु बौद्धकालीन शैक्षिक नियमों के अनुसार चाण्डालों को शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार से वंचित स्ख़ा गया था। चाण्डालों के अतिरिक्त अन्य दस आधारों पर भी किसी व्यक्ति को शिक्षा प्राप्ति के अधिकार से वंचित किया जा सकता था। ये आधार थे-

  1. नपुंसक व्यक्ति,
  2. दास अथवा ऋणग्रस्त व्यक्ति,
  3. राजा की नौकरी में संलग्न व्यक्ति,
  4. डाकू व्यक्ति,
  5. कारावास से भागा हुआ व्यक्ति,
  6. अंग-भंग व्यक्ति,
  7. विकृत शरीर वाला व्यक्ति,
  8. राज्य द्वारा दण्डित व्यक्ति,
  9. जिस व्यक्ति को माता-पिता ने शिक्षा प्राप्त करने की आज्ञा न दी हो,
  10. क्षय, कोढ़ तथा खुजली आदि संक्रामक रोगों से पीड़ित व्यक्ति।

प्रश्न 5
बौद्धकालीन शिक्षा के मुख्य गुणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा के निम्नलिखित मुख्य गुणों का उल्लेख किया जा सकता है

  1. प्राथमिक एवं उच्च स्तर पर सभी प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था होना।
  2. जाति-पाँति के भेदभाव को दूर कर धनी व निर्धन, पुरुष व स्त्री सभी लोगों के लिए शिक्षा का प्रबन्ध होना।
  3. विभिन्न प्रकार के विद्यालयों, विश्वविद्यालयों तथा शिक्षा केन्द्रों की स्थापना होना।
  4. जीवनोपयोगी, ज्ञानात्मक एवं कौशलात्मक विषयों को संगठित करना।
  5. संयम, नियम-पालन, अनुशासन व आदर्शों पर ध्यान देना।
  6. पाठ्य-पुस्तके,रचना, सुरक्षा तथा पुस्तकालयों का विकास करना।
  7. स्त्री शिक्षा, व्यवसायिक, शिल्प एवं ललित कलाओं की शिक्षा का विकास करना।
  8. प्राचीन आधार पर होते हुए भी नवीन शिक्षा की ओर उन्मुख होना।
  9. सामाजिक एवं सामुदायिक जीवन की प्रगति पर बल देना।
  10. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय भावना से छात्रों का नैतिक, धार्मिक, ज्ञानात्मक, आर्थिक एवं राजनीतिक विकास करना।

प्रश्न 6
बौद्धकालीन शिक्षा के मुख्य दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा में निम्नलिखित दोष थे

  1. धार्मिक ज्ञान पर विशेष बल देना।
  2. तकनीकी कौशल के विषयों की शिक्षा का अभाव होना।
  3. सैनिक तथा शारीरिक शिक्षा का अभाव होना।
  4. समाज की ओर ध्यान होते हुए भी निवृत्ति मार्ग का अनुसरण करना।
  5. शिक्षा में शारीरिक श्रम के महत्त्व की उपेक्षा होना।
  6. शिक्षकों तथा छात्रों में अनुशासन-संयम के नियमों में शिथिलता होना।
  7. अनाचार फैलने से स्त्री शिक्षा का विकास अवरुद्ध होना।
  8. लोकतन्त्र के नाम पर स्वेच्छाचारिता का प्रवेश और विकास होना।
  9. जनसाधारणका दृष्टिकोण संकुचित और दूषित हो जाना।
  10. शिक्षा और जीवन दोनों की प्रगति रुक-सी गई।

प्रश्न 7
‘शरणत्रयी’ से आप क्या समझते हैं ?
उतर
बौद्धकालीन शिक्षा की मान्यताओं के अनुसार जब बालक की शिक्षा प्रारम्भ की जाती थी तब बालक बौद्ध मठ की शरण में जाता था। इस अवसर पर बालक को एक श्लोक का उच्चारण करना पड़ता था—“बुद्ध शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि।” इस प्रचलन या परम्परा को ही ‘शरणत्रयी’ के रूप में जाना जाता था।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली के नियमानुसार बालक की शिक्षा आरम्भं करते समय किस संस्कार को आयोजित किया जाता था ?
उत्तर
बालक की शिक्षा को एम्भ करते समय प्रव्रज्या संस्कार आयोजित किया जाता था।

प्रश्न 2
बौद्धकालीन शिक्षा में प्राथमिक शिक्षा का माध्यम कौन-सी भाषा थी ?
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा में पालि भाषा के माध्यम से प्राथमिक शिक्षा प्रदान की जाती थी।

प्रश्न 3
बौद्धकाल में मुख्य रूप से शिक्षण की किस प्रणाली को अपनाया जाता था ?
उत्तर
बौद्धकाल में मुख्य रूप से शिक्षण की मौखिक प्रणाली को अपनाया जाता था।

प्रश्न 4
बौद्धकालीन शिक्षा के दो मुख्य स्तर कौन-कौन-से थे ?
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा के दो मुख्य स्तर थे—प्राथमिक शिक्षा तथा उच्च शिक्षा।

प्रश्न 5
बौद्धकालीन सामान्य शिक्षण संस्थानों को किस नाम से जाना जाता था?
उत्तर
बौद्धकालीन सामान्य शिक्षण संस्थाओं को बौद्ध मठ के नाम से जाना जाता था।

प्रश्न 6
बौद्धकालीन शिक्षा का परम उद्देश्य क्या स्वीकार किया गया था ?
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा को परम उद्देश्य निर्वाण की प्राप्ति माना गया था।

प्रश्न 7
आलोचकों के अनुसार बौद्धकालीन शिक्षा में जीवन के किस पक्ष को समुचित महत्त्व प्रदान नहीं किया गया था ?
उत्तर
आलोचकों के अनुसार बौद्धकालीन शिक्षा में जीवन के लौकिक पक्ष को समुचित महत्त्व प्रदान नहीं किया गया था।

प्रश्न 8
बौद्धकाल में बालक की शिक्षा के पूर्ण होने के अवसर पर किस संस्कार को सम्पन्न किया जाता था ?
उत्तर
बौद्धकाल में बालक की शिक्षा के पूर्ण होने के अवसर पर उपसम्पदा संस्कार सम्पन्न किया जाता था।

प्रश्न 9
बौद्धकालीन शिक्षा-प्रणाली में किस वर्ग के व्यक्तियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया था ?
उत्तर
बौद्धकालीन शिक्षा-प्रणाली में चाण्डाल वर्ग के व्यक्तियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया था।

प्रश्न 10
बौद्ध काल में स्थापित किन्हीं दो प्रमुख विश्वविद्यालयों के नाम लिखिए।
उत्तर
1. नालन्दा विश्वविद्यालय तथा
2. विक्रमशिला विश्वविद्यालय।

प्रश्न 11
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. बौद्धकालीन शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थी को आत्मनिर्भर तथा स्वावलम्बी बनाना था।
  2. बौद्ध काल में शिक्षा का माध्यम जनसाधारण की भाषा संस्कृत थी।
  3. बौद्ध काल में शिक्षा के क्षेत्र में शारीरिक विकास तथा सैन्य प्रशिक्षण को विशेष महत्त्व दिया जाता था।
  4. बौद्ध काल में प्राथमिक शिक्षा के मुख्य केन्द्र बौद्ध मठ थे।
  5. बौद्ध काल में शिक्षा का मुख्य स्वरूप लिखित ही था।

उत्तर

  1. असत्य,
  2. असत्य,
  3. असत्य,
  4. सत्य,
  5. असत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
बौद्ध धर्म के प्रवर्तक कौम थे ?
(क) महावीर स्वामी
(ख) गौतम बुद्ध
(ग) शंकराचार्य
(घ) अश्वघोष
उत्तर
(ख) गौतम बुद्ध

प्रश्न 2
“बौद्ध शिक्षा प्राचीन हिन्दू या ब्राह्मण शिक्षा-प्रणाली का केवल एक रूप थी।” यह कथन किसका है ?
(क) ए०एस० अल्तेकर
(ख) आर०के० मुकर्जी
(ग) डी०पी० मुकर्जी
(घ) कीथ
उत्तर
(ख)आर०के० मुकर्जी

प्रश्न 3
बौद्ध शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य था
(क) चरित्र-निर्माण
(ख) व्यक्तित्व का विकास
(ग) जीविकोपार्जन
(घ) निर्वाण-प्राप्ति
उत्तर
(घ) निर्वाण-प्राप्ति

प्रश्न 4
बौद्ध शिक्षा का ज्ञान किस लेखक के यात्रा-विवरण से होता है?
(क) सुंमाचीन
(ख) फाह्याने
(ग) ह्वेनसाँग
(घ) इत्सिग
उत्तर
(ग) ह्वेनसाँग

प्रश्न 5
बौद्ध काल में प्राथमिक शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे
(क) देव मन्दिर
(ख) बौद्ध मठ
(ग) बौद्ध विहार
(घ) बौद्ध संघाराम
उत्तर
(ख)बौद्ध मठ

प्रश्न 6
बौद्ध काल में शिक्षा आरम्भ होने की आयु थी
(क) 5 वर्ष
(ख) 7 वर्ष
(ग) 8 वर्ष
(घ) 12 वर्ष
उत्तर
(ग) 8 वर्ष

प्रश्न 7
बौद्ध काल में शिक्षा प्रारम्भ का संस्कार था
(क) उपनयन
(ख) उपसम्पदा
(ग) पबज्जा
(घ) समावर्तन
उत्तर
(ग) पबज्जा

प्रश्न 8
बौद्ध काल में शिक्षा का माध्यम कौन-सी भाषा थी? बौद्ध मठों एवं विहारों में शिक्षा का माध्यम कौन-सी भाषा थी?
(क) पालि
(ख) प्राकृत
(ग) संस्कृत
(घ) मगधी
उत्तर
(क) पालि

प्रश्न 9
बौद्ध काल में शिक्षा का विश्वप्रसिद्ध केन्द्र था
(क) जौनपुर
(ख) उज्जैन
(ग) नालन्दा
(घ) अमरावती
उत्तर
(ग) नालन्दा

प्रश्न 10
बौद्ध काल के किस ग्रन्थ में उस समय प्रचलित व्यावसायिक शिक्षा के 19 विषयों का उल्लेख मिलता है
(क) बौद्धचरित
(ख) विनयपिटक
(ग) ललितविस्तर
(घ) मिलिन्दपन्हो
उत्तर
(घ) मिलिन्दन्हो

प्रश्न 11
विक्रमशिला विश्वविद्यालेस की स्थापना हुई थी
(क) बौद्ध काल में
(ख) वैदिक काल में
(ग) मुस्लिम काल में
(घ) ब्रिटिश काल में
उत्तर
(क) बौद्ध काल में

प्रश्न 12
नालन्दा विश्वविद्यालय वर्तमान समय में किस नगर के निकट स्थित है?
(क) पटना
(ख) राँची
(ग) आगरा
(घ) कोलकाता
उत्तर
(क) पटना

प्रश्न 13
प्रव्रज्या संस्कार का सम्बन्ध है
(क) वैदिक शिक्षा से
(ख) बौद्ध शिक्षा से.
(ग) मुस्लिम शिक्षा से
(घ) ब्रिटिश शिक्षा से
उत्तर
(ख) बौद्ध शिक्षा से

प्रश्न 14
बौद्रकालीन शिक्षा में किस संस्कार के पश्चात् बालक को ‘श्रमण’ कहा जाता था?
(क) पबज्जा
(ख) उपसम्पदा
(ग) उपनयन
(घ) समावर्तन
उत्तर
(ख) उपसम्पदा

प्रश्न 15
बौद्ध कौल में छात्रों को किस संस्कार के बाद मठों में शिक्षा ग्रहण करने हेतु प्रवेश
दिया जाता था ?
(क) उपनयन
(ख) प्रव्रज्या
(ग) शरणत्रयी
(घ) बिस्मिल्लाह
उत्तर
(ख) प्रव्रज्या

प्रश्न 16
भारत का सर्वप्रथम विश्वविद्यालय कौन-सा था ?
(क) तक्षशिला
(ख) नालन्दा
(ग) वल्लभी –
(घ) विक्रमशिला
उत्तर
(ख) नालन्दा

प्रश्न 17
बौद्ध काल में ‘महोपाध्याय किसे पढाते थे?
(क) सामनेर
(ख) गृहस्थ
(ग) शिक्षक
(घ) धम्म
उत्तर
(घ) धम्म

प्रश्न 18
मठ व्यवस्था महत्त्वपूर्ण तत्त्व था
(क) वैदिक शिक्षा का
(ख) इस्लाम शिक्षा को
(ग) जैन शिक्षा का
(घ) बौद्ध शिक्षा का
उत्तर
(घ) बौद्ध शिक्षा का

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi नियुक्ति आवेदन-पत्र

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi नियुक्ति आवेदन-पत्र are part of UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi नियुक्ति आवेदन-पत्र.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name नियुक्ति आवेदन-पत्र
Number of Questions 3
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi नियुक्ति आवेदन-पत्र

कुछ महत्त्वपूर्ण बातें

  1. अन्य पत्रों के समान आवेदन तथा प्रार्थना-पत्र में पत्र-लेखक अपना नाम-पतादि प्रारम्भ में नहीं लिखता और न ही प्रारम्भ में दिनांक लिखा जाता है। आवेदक अपना पता पत्र-समाप्ति पर अन्त में हस्ताक्षर के नीचे दायीं ओर लिखता है और बायीं ओर दिनांक लिखा जाता है।
  2. इन पत्रों का प्रारम्भ प्रथम पंक्ति में बायीं ओर कोने में सेवा में’ या ‘प्रति’ लिखने से होता है।
  3. ‘सेवा में लिखकर दूसरी पंक्ति में बायीं ओर से कुछ स्थान छोड़कर उद्दिष्ट अधिकारी का पदनाम और पता लिखा जाता है।
  4. सम्बोधन के रूप में मान्यवर/मान्य महोदय/महोदया लिखना चाहिए।
  5. निवेदन प्रारम्भ करते हुए प्रारम्भिक विनय-वाक्य लिखना चाहिए; जैसे—सादर निवेदन है/सविनय निवेदन है आदि।
  6. आवेदन का सम्पूर्ण कथ्य लिखने के उपरान्त शिष्टाचार के लिए सधन्यवाद लिखना चाहिए।
  7. स्वनिर्देश के रूप में भवदीय/विनीत/प्रार्थी लिखना चाहिए। स्वनिर्देश के नीचे हस्ताक्षर और पूरा पता देना चाहिए।
  8. अन्त में संलग्न प्रपत्रों की सूची देनी चाहिए। आवेदन-पत्र की दो शैलियाँ होती हैं—
    • प्रपत्र शैली तथा
    • पत्र शैली। दोनों ही शैली के उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं।

प्रश्न 1.
लिपिक पद हेतु हिन्दी में प्रपत्र शैली में एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2009, 11]
या
अपनी शैक्षिक योग्यताओं का उल्लेख करते हुए किसी उद्योग प्रबन्धक को लिपिक के पद पर नियुक्ति हेतु एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2018]
या
अपने जनपद के जिलाधिकारी को उनके कार्यालय में रिक्त लिपिक पद पर नियुक्ति पाने के लिए एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2009, 13]
या
प्रधानाचार्य/प्रबन्धक महोदय को लिपिक पद पर नियुक्ति हेतु एक प्रार्थना-पत्र लिखिए। [2012, 13, 14, 15, 17]
या
स्थानीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में लिपिक के रिक्त पद पर नियुक्ति हेतु विद्यालय के प्रबन्धक महोदय को एक प्रार्थना-पत्र लिखिए। [2016, 18]
उत्तर
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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi नियुक्ति आवेदन-पत्र img 2

9. शुल्क विवरण-पोस्टल आर्डर संलग्न (संख्या 05921, दिनांक : ………………………………) मैं घोषणा करती हूँ कि आवेदित पद के लिए सभी निर्धारित अर्हताएँ मुझमें हैं। मैंने जो सूचनाएँ इस आवेदन-पत्र में दी हैं, वे सही हैं। यदि इनमें से कोई भी जानकारी गलत पायी जाये तो मेरी उम्मीदवारी निरस्त कर दी जाये।।

10. संलग्नकों की संख्या : तीन भवदीया
दिनांक : 14 मई, 2014 हस्ताक्षर

[ नाम : …………………………….]

प्रश्न 2.
सहायक अध्यापक पद के लिए पत्र शैली में शिक्षा-निदेशक के नाम एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2014]
या
किसी विद्यालय के प्रबन्धक के नाम हिन्दी प्रवक्ता पद हेतु अपनी नियुक्ति के लिए आवेदन-पत्र लिखिए। [2013]
या
अपने जनपद के किसी विद्यालय में शिक्षक के रूप में कार्य करने के लिए अपना आवेदन-पत्र विद्यालय-प्रबन्धक को प्रस्तुत कीजिए। [2015]
उत्तर
सेवा में,
शिक्षा निदेशक,
लखनऊ।

विषय-सहायक अध्यापक पद के लिए आवेदन-पत्र महोदय,

दिनांक 11 मार्च, 2010 के ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशित आपके विज्ञापन के उत्तर में मैं हिन्दी में सहायक अध्यापक पद के लिए आवेदन कर रहा हूँ। मेरी शैक्षणिक योग्यताओं एवं अन्य जानकारियों का विवरण इस प्रकार है-
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अन्य गतिविधियाँ-विद्यालय तथा महाविद्यालय स्तर पर हुई वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में प्रथम पुरस्कार विजेता, कुछ एक सांस्कृतिक कार्यक्रमों के सफल संचालन का अनुभव।
स्थायी पता-15A, सी-ब्लॉक, शास्त्रीनगर, मेरठ।
मेरी अध्यापन में अत्यधिक रुचि है। यदि आपने इस पद का उत्तरदायित्व मुझे सौंपा, तो मैं पूर्ण निष्ठा से उसका निर्वाह करूंगा तथा कभी शिकायत का अवसर नहीं दूंगा।
सेवा का अवसर प्रदान कर कृतार्थ करें।
धन्यवाद! भवदीय
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प्रश्न 3.
बेसिक शिक्षा अधिकारी को प्राइमरी शिक्षक के पद के लिए आवेदन-पत्र लिखिए। [2010]
या
समाचार-पत्र में दिये गये विज्ञापन के आधार पर सहायक अध्यापक पद पर नियुक्ति हेतु अपने जनपद के जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी को एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2013]
या
समाचार-पत्र में प्रकाशित विज्ञापन के आधार पर ग्राम पंचायत अधिकारी पद पर नियुक्ति हेतु अपने जनपद के जिला पंचायत राज अधिकारी को एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2014]
या
समाचार-पत्र में प्रकाशित विज्ञापन के आधार पर लेखपाल पद पर नियुक्ति हेतु अपने जनपद के जिला अधिकारी को एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2016]
उत्तर
सेवा में,
बेसिक शिक्षा अधिकारी,
मेरठ (उ० प्र०)

विषय-प्राइमरी शिक्षक के पद हेतु आवेदन-पत्र

महोदय,
आपके कार्यालय द्वारा कल दिनांक …………. को दैनिक जागरण’ में प्रकाशित विज्ञापन के प्रत्युत्तर में मैं अपना आवेदन-पत्र प्रस्तुत कर रही हूँ। मुझसे सम्बन्धित विवरण निम्नवत् है-
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शैक्षणिक योग्यताएँ–
(क) 2002 ई० में उ० प्र० वोर्ड से 62% अंक लेकर हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण की।
(ख) 2004 ई० में उ० प्र० बोर्ड से 61% अंक लेकर इण्टरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण की।
(ग) 2006 ई० में दो वर्षीय बी० टी० सी० प्रशिक्षण कोर्स (उ० प्र०) से किया।
अनुभव-सितम्बर, 2006 से अब तक जनता विद्यालय, मेरठ में प्राथमिक शिक्षक के रूप में कार्य कर रहा हूँ।
आशा है कि आप सेवा का अवसर प्रदान कर कृतार्थ करेंगे।
दिनांक :…………………………. भवदीय
रूपेश कुमार
संलग्नक-सभी प्रमाण-पत्रों की सत्यापित प्रतिलिपियाँ व अनुभव प्रमाण की मूल प्रति।।

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