UP Board Solutions for Class 10 Home Science Chapter 10 अपशिष्ट (कचरा) प्रबन्धन

UP Board Solutions for Class 10 Home Science Chapter 10 अपशिष्ट (कचरा) प्रबन्धन

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1:
अपशिष्ट ( कचरा ) प्रबन्धन से क्या आशय है? कचरा प्रबन्धन की प्रक्रिया का विवरण दीजिए।
या
घरेलू कूड़े-कचरे के व्यवस्थित प्रबन्धन के लिए घर में क्या-क्या उपाय किये जाने चाहिए। प्रक्रिया का क्रमिक वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अपशिष्ट (कचरा) प्रबन्धन का अर्थ एवं आवश्यकता

घर को हर प्रकार से साफ एवं स्वच्छ रखना अनिवार्य है। घर पर अनेक कार्य (UPBoardSolutions.com) किए जाते हैं, जिनके परिणामस्वरूप घर में लगातार कूड़ा या कचरा (अपशिष्ट पदार्थ) एकत्र होता रहता है। भोजन बनाने के लिए सब्जी को काटना-छीलना पड़ता है। आटे को छाना जाता है तथा चोकर अलग किया जाता है। पके हुए भोजन की भी जूठन बचती है। इसके अतिरिक्त धूल-मिट्टी भी घर में हवा आने-जाने वालों के पैरों के साथ आती रहती है। इसके साथ-साथ छोटे बच्चों द्वारा घर में जहाँ-तहाँ मल-मूत्र त्याग देने से भी गंदगी में तथा कूड़े में वृद्धि हो जाती है। अतः स्पष्ट है कि घर में विभिन्न प्रकार का कूड़ा नित्य ही एकत्रित होता रहता है। यह कूड़ा हमारे लिए एक समस्या बन जाता है। जहाँ एक ओर इससे गंदगी होती है तथा दुर्गन्ध आती है, वहीं साथ-साथ कूड़े पर मक्खी तथा मच्छर भी पलते रहते हैं। अतः इस कूड़े को घर से प्रतिदिन बाहर निकालना अति आवश्यक है। घर से कूड़े के विसर्जन के उचित ढंग का ज्ञान होना भी अति आवश्यक है। इस प्रकार स्पष्ट है कि अपशिष्ट (कचरा) या कूड़े-करकट का व्यवस्थित प्रबन्धन अति आवश्यक कार्य है।

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अपशिष्ट ( कचरा ) प्रबन्धन की प्रक्रिया

उपर्युक्त वर्णित परिचय से स्पष्ट है कि स्वास्थ्य एवं सफाई के लिए कूड़े-करकट को घर से बाहर निकालने की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। इस उद्देश्य के लिए घर की गृहिणी तथा अन्य सदस्यों को निरंतर ध्यान रखना चाहिए तथा बिलकुल भी लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए। सबसे पहले इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि घर में कूड़ा-करकट कम-से-कम फैले। इसके लिए घर में जहाँ-जहाँ आवश्यक हो, वहाँ पर कूड़ेदान रख देने चाहिए। मुख्य रूप से रसोईघर में कोई खाली डिब्बा
अथवा ढक्कनदार बाल्टी अवश्य रखनी चाहिए। रसोईघर का सारा कूड़ा अर्थात् सब्जियों के छिलके, भोजन की जूठन तथा चोकर आदि को हाथ-के-हाथ ही इस डिब्बे में डाल देना चाहिए। रसोईघर के अतिरिक्त बच्चों के पढ़ाई वाले कमरे या स्थान पर भी एक टोकरी या ट्रे रख देनी चाहिए। बच्चों को चाहिए कि वे अपने फटे हुए कागज तथा कतरनें आदि को इसी टोकरी में फेंकें। इस प्रकार
की व्यॆवस्था कर देने से पूरे घर में कूड़ा नहीं फैलेगा।

उपर्युक्त व्यवस्था के अतिरिक्त एक मुख्य कूड़ेदान की भी व्यवस्था होनी चाहिए। यह लोहे का ढोल-सा होता है। इसे मुख्य द्वार के निकट अथवा सीढ़ियों के नीचे कहीं रखना चाहिए। जब घर की सफाई हो तथा झाडू लगाई जाए तो जो कूड़ा निकले उसे सीधे ही इस मुख्य कूड़ेदान में डालना चाहिए। इसके अतिरिक्त घर में अन्य स्थानों पर रखे गए डिब्बों अथवा टोकरी के कूड़े को भी समय-समय पर मुख्य कूड़ेदान में डालते रहना चाहिए। यह मुख्य कूड़ेदान भी ढक्कनदार होना चाहिए। ध्यान रहे कि इस कूड़ेदान में पानी नहीं भरना चाहिए। गंदे पानी के निकास की व्यवस्था अलग से करनी चाहिए। कूड़ेदान में तथा उसके आस-पास (UPBoardSolutions.com) समय-समय पर चूना डालते रहना चाहिए, जिससे गंदगी में उत्पन्न होने वाले कीटाणु भी मरते रहते हैं। आधुनिक मान्यताओं के अनुसार गीले कूड़े तथा सूखे कूड़े को एकत्र करने के लिए अलग-अलग कूड़ेदान रखने चाहिए।

अब प्रश्न उठता है कि इस मुख्य कूड़ेदाने का कूड़ा घर से बाहर कैसे विसर्जित किया जाए? सामान्य रूप से नगरों में घरों पर नित्य ही मेहतर आया करते हैं। मेहतर इस कूड़े को अपनी ठेली द्वारा अथवा टोकरी द्वारा उठाकर ले जाते हैं तथा सार्वजनिक खत्ते पर पहुँचा देते हैं। यदि किसी स्थान पर मेहतर की सुविधा न हो तो स्वयं ही कूड़े को घर से बाहर निकालना पड़ता है। इस स्थिति में ध्यान देना पड़ता है कि यदि गली अथवा सड़क की सफाई नित्य होती है तथा वहाँ से कूड़ा उठा ले जाने की सही व्यवस्था है तो उस स्थिति में हम अपने घर का कूड़ा घर से बाहर निर्धारित स्थान पर डाल सकते हैं। ऐसी स्थिति में ध्यान रखने योग्य मुख्य बात यह है कि हम अपने घर को कूड़ा समय से पहले ही घर से बाहर निकाल दें, जब सड़क की सफाई होती है। यदि हम सड़क की सफाई होने के बाद घर का कूड़ा बाहर फेंकते हैं तो वह अगले दिन सुबह तक वहीं पड़ा रहेगा तथा हवा आदि से फैलता रहेगा। यह . अनुचित है। यदि सड़क पर किसी सार्वजनिक कूड़ेदान की व्यवस्था है तो हमें चाहिए कि हम अपने घर का कूड़ा अनिवार्य रूप से उसी सार्वजनिक कूड़ेदान में ही डालें। गली अथवा सड़क को स्वच्छ रखना भी हमारा कर्तव्य है। कहीं-कहीं नगरपालिका की गाड़ियाँ कूड़ा ढोने का कार्य करती हैं। ऐसी स्थिति में हमें ध्यान रखना चाहिए कि जब कूड़े की गाड़ी आये, तभी अपने घर का कूड़ा उसमें डाल दें।

उपर्युक्त विवरण द्वारा घर के साधारण कूड़े को घर से बाहर निकालने का उपाय स्पष्ट होता है। इसके अतिरिक्त कुछ घरों में गाय, भैंस अथवा मुर्गियाँ भी पाली जाती हैं। इन पशुओं के कारण घर में अतिरिक्त कूड़ा भी एकत्रित होता रहता है, जिसे बाहर निकालने की व्यवस्था अनिवार्य है। गाय के गोबर के उपले आदि पथवा देने चाहिए। अन्य अवशेषों को घर से दूर खाली स्थान पर गड्ढे में डालते रहना चाहिए, जहाँ इससे खाद बनती रहती है। घर पर पशु होने (UPBoardSolutions.com) पर घर की सफाई का सामान्य से अधिक ध्यान रखना चाहिए तथा सफाई पर अधिक मेहनत करनी चाहिए। पशुओं के स्थान को समय-समय पर किसी कीटनाशक दवा से धुलवाते रहना चाहिए। इस प्रकार स्पष्ट है कि घर की सफाई हेतु कूड़ा-करकट के विसर्जन के लिए निरन्तर प्रयास करने चाहिए तथा इस ओर कभी भी लापरवाही नहीं दिखानी चाहिए।

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कचरा प्रबन्धन के लिए कचरा प्रबन्धन अधिनियम है। जिसके अन्तर्गत स्थानीय संस्थाओं के साथ-ही-साथ कचरा उत्पन्न करने वालों की भी जिम्मेदारी निर्धारित की गयी है। जो संस्थान कचरा जेनेरेट करते हैं उन्हें भी अपना कचरा वापस लेकर रिसाइकिल करना होगा।

प्रश्न 2:
घरों से एकत्र कूड़े-करकट या कचरे को नष्ट या समाप्त करने के लिए विभिन्न उपायों का विवरण दीजिए।
या
घरेलू कूड़े-करकट को घर से बाहर निकालना ही अनिवार्य नहीं है बल्कि उसे सही ढंग से ठिकाने लगाना अनिवार्य है।” इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कचरे को ठिकाने लगाने के विभिन्न उपायों का उल्लेख करें तथा बतायें कि कौन-से उपाय उपयुक्त हैं?
या
कचरे को नष्ट करने के लिए कौन-कौन सी विधियाँ अपनाई जाती हैं?
या
कचरे के निस्तारण की सर्वोत्तम विधि कौन-सी है? कारण भी समझाइए।
उत्तर:
कचरा या कूड़े-करकट को नष्ट करना या समाप्त करना

घरेलू कूड़े-करकट को घर से बाहर निकालने की व्यवस्था ही अपने आप में पर्याप्त तथा अंतिम व्यवस्था नहीं है। वास्तव में पूरे क्षेत्र से एकत्र हुए कूड़े को नष्ट करना या ठिकाने लगाना भी अति
आवश्यक है। यह अपने आप में एक गम्भीर नगरीय समस्या है। कूड़े-करकट को नष्ट करने या ठिकाने (UPBoardSolutions.com) लगाने के मुख्य उपाय निम्नलिखित हैं

(1) जलाकर:
स्वास्थ्य की दृष्टि से कूड़े को नष्ट करने का यह सर्वश्रेष्ठ उपाय है। कूड़े को जलाने के लिए शहर की बस्ती से दूर, ईंटों की एक गोलाकार चिमनी बनी होती है, जिसके ऊपर की ओर धुआँ तथा गैसों के निकलने के लिए 3 छेद होते हैं। बीच में एक जाली होती है जिसके नीचे कूड़ा रखने और नीचे से आग जलाने का प्रबन्ध होता है। चिमनी में आग लगाकर कूड़ा जला दिया जाता है। तथा बची हुई राख से सड़क या सीमेंट बनाने का काम लिया जाता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि कूड़े को इस प्रकार से जलाने से अनेक विषैली गैसें बनती हैं, जो वायु प्रदूषण में वृद्धि करती हैं। आज़कल कूड़े में प्लास्टिक या पॉलिथीन की थैलियों की काफी अधिक मात्रा होती है। इन वस्तुओं के जलने से अत्यधिक वायु प्रदूषण होता है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए अब हर
को जलाने का समर्थन नहीं किया जा सकता।

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(2) जलस्रोतों में प्रवाहित करना:
पारम्परिक रूप से प्रायः सभी क्षेत्रों में कूड़े-कचरे को जलस्रोतों अर्थात् नदियों आदि में विसर्जित कर दिया जाता थी परन्तु अब यह अनुभव किया गया कि कूड़े-कचरे को जलस्रोतों में प्रवाहित करना भी अनुचित है। इससे जल-प्रदूषण का गम्भीर खतरा उत्पन्न होने लगा है। हमारे देश की प्रायः सभी नदियों का जल काफी अधिक प्रदूषित हो चुका है। अतः कूड़े-कचरे को जल में प्रवाहित करने का समर्थन भी नहीं किया जा सकता।

(3) कूड़े से गड्ढों को पाटना:
यह विधि अधिक उपयुक्त नहीं है। इस विधि में कूड़े को नीची जमीनों को पाटने के काम में ले लिया जाता है। कूड़ा खुला पड़ा रहता है तथा मक्खी, मच्छर और हानिकारक जीवाणु इसमें इकट्ठे होते रहते हैं, जो यहाँ से उड़कर दूसरे स्थानों पर गंदगी फैलाते हैं। इससे पर्यावरण-प्रदूषण (UPBoardSolutions.com) में बहुत अधिक वृद्धि होती है। अतः इस उपाय का भी समर्थन नहीं किया जा सकता।

(4) छंटाई द्वारा कूड़े का उपयोग:
पाश्चात्य देशों में प्रचलित इस विधि में कूड़े को तीन भागों में छाँट लिया जाता है

  1. कोयले व मिट्टी के टुकड़े,
  2. मुलायम कूड़ा (घास, पत्ती, कागज व कपड़ों के टुकड़े),
  3.  कड़ा-कूड़ा (हड्डी, काँच, टूटी चीजें)। पहले प्रकार के कूड़े से ईंट व दूसरे प्रकार के कूड़े से खाद बना ली जाती है। तीसरे प्रकार के कूड़े को सड़कों के गड्ढे आदि पाटने के लिए उपयोग में लाया जाता है।

(5) खाद बनाना:
कूड़े से खाद बनाना उसको ठिकाने लगाने की सर्वोत्तम विधि है। बड़े-बड़े गड्ढों में घेरलू कूड़ा भरकर उसे मिट्टी से दबा दिया जाता है। कुछ समय में कूड़ा सड़कर उत्तम कार्बनिक खाद के रूप में परिवर्तित हो जाता है। यह खाद कृषि-कार्य के लिए उपयोगी एवं लाभदायक होती है। अब कम्पोस्ट प्लांट बनाये गये हैं। इन प्लांटों में ‘आर्गेनिक वेस्ट कम्पोस्ट मशीन की व्यवस्था है। यह मशीन कचरे को महीन बना देती है तथा इससे केवल 15 दिन में ही अच्छी कम्पोस्ट खाद बनकर तैयार हो जाती है। अब विद्यालयों की कैण्टीन आदि में भी तथा आवासीय सोसाइटियों में भी इस प्रकार की व्यवस्था करने का सुझाव दिया जा रहा है।

उपर्युक्त विवरण द्वारा कूड़े-कचरे को नष्ट करने या ठिकाने लगाने के विभिन्न उपायों का सामान्य परिचय प्राप्त (UPBoardSolutions.com) हो जाता है। इस विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि कूड़े-करकट को ठिकाने लगाने के उपयुक्त उपाय हैं

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  1. छंटाई द्वारा कूड़े का उपयोग तथा
  2. कूड़े से खाद बनाना।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
घर की सफाई एवं सजावट के लिए कचरा प्रबन्धन की आवश्यकता को स्पष्ट करें।
उत्तर:
घर की सफाई तथा कचरा प्रबन्धन

प्रत्येक परिवार उत्तम स्वास्थ्य एवं गृह सज्जा के लिए नियमित सफाई को अति आवश्यक मानता है। घर की सफाई का अर्थ है-घर में गन्दगी तथा कूड़े-करकट का अभाव होना। उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अति आवश्यक है कि घर में कूड़ा-करकट अधिक फैले ही नहीं तथा हमें पूरे (UPBoardSolutions.com) घर में जहाँ-तहाँ बिखरने वाले कूड़े-कचरे को साथ ही साथ कूड़ेदानों या डिब्बों आदि में डालते रहना चाहिए। विभिन्न कूड़ेदानों एवं डिब्बों में एकत्र हुए कूड़े-कचरे को एक मुख्य कूड़ेदान में डाल देना चाहिए तथा वहाँ से घर से बाहर निकालने की समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए। इस प्रक्रिया द्वारा घर की सफाई तथा सजावट के लिए कूड़े-कचरे का उचित प्रबन्धन हो जाता है।

प्रश्न 2:
कचरे का घर में संग्रह कैसे करेंगी?
उत्तर:
घर में कचरे का संग्रह करने के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए

  1. घर में सूखे व गीले कचरे को संग्रह करने के लिए अलग-अलग पात्र होने चाहिए। पात्र ऐसे स्थानों पर रखने चाहिए जहाँ परिवार के सदस्यों को उनमें कचरा डालने में सुविधा रहे।
  2. परिवार के सभी सदस्यों को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि वे फटे कागज, खाने के टुकड़े व अन्य निरर्थक वस्तुओं को इधर-उधर न फेंके वरन् उनको कचरापात्रों में ही डालें। इस विषय में बालकों को प्रारम्भ से ही शिक्षा मिलनी चाहिए।
  3.  कचरापात्रों को ढकने की व्यवस्था होनी आवश्यक है जिससे मक्खियाँ उस पर न बैठ सकें।
    वर्तमान में एक विशेष प्रकार के कचरापात्र बनाए जा रहे हैं जिनका ढक्कन खड़े-खड़े पैर से एक लोहे के टुकड़े को दबाने से खुल जाता है। इससे बहुत सुविधा रहती है। कचरापात्रों से प्रतिदिन कचरा हटाया जाना चाहिए और साथ ही यह भी आवश्यक है कि कचरापात्रों को अन्दर व बाहर से समय-समय पर धोकर साफ किया जाए, नहीं तो ये कचरापात्र स्वयं एक समस्या बन जाएँगे
    तथा ये जहाँ भी रखे जाएँगे इन पर मक्खियाँ भिनभिनाएँगी।

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प्रश्न 3:
कचरे के संवहन की कौन-सी विधि है?
उत्तर:
कचरे के संवहन की निम्नलिखित विधि है

घरों से कचरा बाल्टियों व टोकरियों से भरकर बाहर ले जाया जाता है और गली व (UPBoardSolutions.com) मुहल्ले के बड़े कचरापात्रों में डाला जाता है। फिर वहाँ से कचरे को नगर महापालिकाओं की गाड़ियों में भरकर नगर के बाहर निस्तारण हेतु भेजा जाता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
घरेलू कचरे से क्या आशय है?
उत्तर:
घर की सफाई के दौरान निकलने वाले व्यर्थ एवं दूषित पदार्थों को घरेलू कचरा कहा जाता हैं

प्रश्न 2:
घर में कचरा रहने से क्या हानियाँ हो सकती हैं?
उत्तर:
घर में कचरा रहने से गन्दगी बढ़ती है तथा विभिन्न रोगाणु पनपते हैं। इससे गृहसज्जा धूमिल पड़ जाती है।

प्रश्न 3:
कचरा प्रबन्धन के लिए सर्वप्रथम क्या उपाय किया जाना चाहिए?
उत्तर:
कचरा प्रबन्धन के लिए सर्वप्रथम कूड़े-करकट को घर से बाहर निकालने की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।

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प्रश्न 4:
कूड़े-करकट के निस्तारण की मुख्य विधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(i) कूड़े को जलाकर नष्ट करना,
(ii) जलस्रोतों में प्रवाहित करना,
(iii) कूड़े से गड्ढों को पाटना,
(iv) छंटाई द्वारा कूड़े का उपयोग तथा
(v) खाद बनाना।

प्रश्न 5:
कूड़े को जलाने का क्या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
कूड़े को जलाने से वायु प्रदूषण में वृद्धि होती है।

प्रश्न 6:
कूड़े-कचरे को जलस्रोतों में प्रवाहित करने से क्या हानियाँ होती हैं?
उत्तर:
कूड़े-कचरे को जलस्रोतों में प्रवाहित करने से जल-प्रदूषण का गम्भीर खतरा बना हुआ है।

प्रश्न 7:
कूड़े-कचरे के निस्तारण के हानि-रहित उपाय कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
कूड़े-कचरे के निस्तारण के हानि-रहित उपाय हैं

(i) छंटाई द्वारा कूड़े का उपयोग तथा
(ii) कूड़े से खाद बनाना।

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प्रश्न 8:
गोबर का सर्वोत्तम उपयोग क्या है?
उत्तर:
गोबर से बायो गैस बनाना गोबर का सर्वोत्तम उपयोग है। इस प्रक्रिया (UPBoardSolutions.com) में अवशिष्ट पदार्थ को । खाद के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।

प्रश्न 9:
कचरा-प्रबन्धन में ध्यान में रखने योग्य मुख्य बात क्या है?
उत्तर:
कचरा-प्रबन्धन में ध्यान में रखने योग्य मुख्य बात यह है कि कचरे से पर्यावरण-प्रदूषण में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं होनी चाहिए तथा जहाँ तक सम्भव हो कचरे का सदुपयोग हो।

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न-निम्नलिखित बहुविकल्पीय प्रश्नों के सही विकल्पों का चुनाव कीजिए

1. घर में जहाँ-तहाँ कचरान फैला रहे, इसके लिए निम्नलिखित में से क्या आवश्यक है?
(क) घर में कचरा उत्पन्न ही न हो।
(ख) कचरे को जलाते रहें।
(ग) घर पर विभिन्न स्थानों पर कचरापात्र रखें
(घ) कोई भी उपाय सफल नहीं होता।

2. घरेलू कचरे की समस्या के पूर्ण समाधान का उपाये क्या है?
(क) घर में कचरा न फैलने दें।
(ख) कचरे को घर से निकालने की समुचित व्यवस्था करें
(ग) सभी घरों से निकलने वाले कचरे को नष्ट करने के उपाय करें
(घ) उपर्युक्त सभी उपाय आवश्यक हैं।

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3. घर के समस्त कचरे को किस स्थान पर एकत्र करना चाहिए?
(क) घर के किसी कोने में
(ख) कचरापात्र में
(ग) सड़क पर
(घ) पड़ोसियों के घर के सामने।

4. नगर के कचरे को ठिकाने लगाने का हानिरहित उपाय निम्नलिखित में से क्या है?
(क) कचरे को जला देना।
(ख) कचरे को जल-स्रोत में बहा देना
(ग) कचरे को खुले मैदान में डाल देना
(घ) कचरे से खाद बना लेना।

उत्तर:
1. (ग) घर पर विभिन्न स्थानों (UPBoardSolutions.com) पर कचरापात्र रखे,
2. (घ) उपर्युक्त सभी उपाय आवश्यक हैं,
3. (ख) कचरापात्र में,
4. (घ) कचरे से खाद बना लेना।

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UP Board Solutions for Class 10 Home Science Chapter 9 पर्यावरण और जनजीवन पर उसका प्रभाव

UP Board Solutions for Class 10 Home Science Chapter 9 पर्यावरण और जनजीवन पर उसका प्रभाव

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
पर्यावरण का अर्थ और परिभाषा निर्धारित कीजिए तथा पर्यावरण के विभिन्न वर्गों का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर:
पर्यावरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ

मनष्य ही क्या प्रत्येक प्राणी एवं वनस्पति जगत भी पर्यावरण से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध है तथा ये सभी अपने पर्यावरण से प्रभावित भी होते हैं। पर्यावरण की अवधारणा को स्पष्ट करने से पूर्व ‘पर्यावरण के शाब्दिक अर्थ को स्पष्ट करना आवश्यक है।
पर्यावरण शब्द दो शब्दों अर्थात् ‘परि’ तथा ‘आवरण’ के संयोग या मेल से बना है। ‘परि’ का अर्थ है चारों ओर’ तथा आवरण का अर्थ है ‘घेरा। इस प्रकार पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ हुआ चारों ओर का घेरा’। इस प्रकार व्यक्ति के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि (UPBoardSolutions.com) व्यक्ति के चारों ओर जो प्राकृतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक शक्तियाँ और परिस्थितियाँ विद्यमान हैं, इनके प्रभावी रूप को ही पर्यावरण कहा जाता है। पर्यावरण का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है। पर्यावरण उन समस्त शक्तियों, वस्तुओं और दशाओं का योग है, जो मानव को चारों ओर से आवृत किए हुए हैं। मानवे से लेकर वनस्पति तथा सूक्ष्म जीव तक सभी पर्यावरण के अभिन्न अंग हैं। पर्यावरण उन सभी बाह्य दशाओं एवं प्रभावों का योग है, जो जीव के कार्य-कलापों एवं जीवन को प्रभावित करता है। मानव जीवन पर्यावरण से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध है।

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पर्यावरण के शाब्दिक अर्थ एवं सामान्य परिचय को जान लेने के उपरान्त इस अवधारणा की व्यवस्थित परिभाषा प्रस्तुत करना भी आवश्यक है। कुछ मुख्य समाज वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  1.  जिस्बर्ट के अनुसार पर्यावरण से आशय उन समस्त कारकों से है जो किसी व्यक्ति या जीव को चारों ओर से घेरे रहते हैं तथा उसे प्रभावित करते हैं एवं जीव अपने पर्यावरण के प्रभाव से बच नहीं सकता। उनके शब्दों में, “पर्यावरण वह है जो किसी वस्तु को चारों ओर से घेरे हुए है तथा उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है।”
  2.  रॉस ने पर्यावरण के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए एक संक्षिप्त परिभाषा इन शब्दों में प्रस्तुत की है, “पर्यावरण हमें प्रभावित करने वाली कोई बाहरी शक्ति है।”

उपर्युक्त विवरण द्वारा पर्यावरण का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है। कि व्यक्ति के सन्दर्भ में स्वयं व्यक्ति को छोड़कर इस जगत् में जो कुछ भी है वह सब कुछ सम्मिलित रूप से व्यक्ति का पर्यावरण है।

पर्यावरण का वर्गीकरण
पर्यावरण के अर्थ एवं परिभाषा सम्बन्धी विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि पर्यावरण की धारणा अपने आप में एक विस्तृत अवधारणा है। इस स्थिति में पर्यावरण के व्यवस्थित अध्ययन के लिए पर्यावरण को समुचित वर्गीकरण प्रस्तुत करना आवश्यक है। सम्पूर्ण पर्यावरण को मुख्य रूप से निम्नलिखित तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है

(1) प्राकृतिक अथवा भौगोलिक पर्यावरण:
प्राकृतिक अथवा भौगोलिक पर्यावरण के अन्तर्गत समस्त प्राकृतिक शक्तियों एवं कारकों को सम्मिलित किया जाता है। पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, पर्यावरण और जनजीवन पर उसका प्रभाव 113 वनस्पति जगत् तथा जीव-जन्तु तो प्राकृतिक पर्यावरण के घटक ही हैं। इनके अतिरिक्त प्राकृतिक शक्तियों एवं घटनाओं को भी प्राकृतिक पर्यावरण ही माना जाएगा। सामान्य रूप से कहा जा सकता है। कि प्राकृतिक पर्यावरण न तो मनुष्य द्वारा निर्मित है और (UPBoardSolutions.com) न यह मनुष्य द्वारा नियन्त्रित ही है। प्राकृतिक अथवा भौगोलिक पर्यावरण का प्रभाव मनुष्य के जीवन के सभी पक्षों पर पड़ता है। जब हम पर्यावरण-प्रदूषण की बात करते हैं तब पर्यावरण से आशय सामान्य रूप से प्राकृतिक पर्यावरण से ही होता है।

(2) सामाजिक पर्यावरण:
सामाजिक पर्यावरण भी पर्यावरण का एक रूप या पक्ष है। सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचा ही सामाजिक पर्यावरण कहलाता है। इसे सामाजिक सम्बन्धों का पर्यावरण भी कहा जा सकता है। परिवार, पड़ोस, खेल के साथी, समाज, समुदाय, विद्यालय आदि सभी सामाजिक पर्यावरण के ही घटक हैं। सामाजिक पर्यावरण भी व्यक्ति को गम्भीर रूप से प्रभावित करता है, परन्तु यह सत्य है कि व्यक्ति सामाजिक पर्यावरण के निर्माण एवं विकास में अपना योगदान प्रदान करता है।

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(3) सांस्कृतिक पर्यावरण:
पर्यावरण का एक रूप या पक्ष सांस्कृतिक पर्यावरण भी है। सांस्कृतिक पर्यावरण प्रकृति-प्रदत्त नहीं है, बल्कि इसका निर्माण स्वयं मनुष्य ने ही किया है। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी प्राणियों के सन्दर्भ में सांस्कृतिक पर्यावरण का कोई महत्त्व नहीं है। वास्तव में मनुष्य द्वारा निर्मित वस्तुओं का समग्र रूप तथा परिवेश सांस्कृतिक पर्यावरण कहलाता है। सांस्कृतिक पर्यावरण भौतिक तथा अभौतिक दो प्रकार का होता है। सभी प्रकार के मानव-निर्मित उपकरण एवं साधन सांस्कृतिक पर्यावरण के भौतिक पक्ष में सम्मिलित हैं। इससे भिन्न मनुष्य द्वारा विकसित किए गए मूल्य, संस्कृति, धर्म, भाषा, रूढ़ियाँ, परम्पराएँ आदि सम्मिलित रूप से सांस्कृतिक पर्यावरण के अभौतिक पक्ष का निर्माण करते हैं।

प्रश्न 2:
पर्यावरण के जनजीवन पर पड़ने वाले प्रत्यक्ष प्रभावों का वर्णन कीजिए। [2010]
या
प्राकृतिक अथवा भौगोलिक पर्यावरण जनजीवन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है।” इस कथन को स्पष्ट करते हुए पर्यावरण के प्रभावों का वर्णन कीजिए।
या
पर्यावरण मानव के लिए किस प्रकार उपयोगी है?
उत्तर:
जब पर्यावरण के प्रभावों का अध्ययन किया जाता है, तब सर्वप्रथम प्राकृतिक अथवा भौगोलिक पर्यावरण के प्रभावों को ही अध्ययन किया जाता है। वास्तव में पर्यावरण का यही रूप प्रकृति प्रदत्त है तथा मनुष्य के नियन्त्रण से बाहर है। भौगोलिक पर्यावरण के अर्थ को डॉ० डेविस ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “मनुष्य के सन्दर्भ में भौगोलिक पर्यावरण से अभिप्राय भूमि या मानव के चारों ओर फैले उन सभी भौतिक स्वरूपों से है जिनमें वह रहता है, जिनका उसकी आदतों एवं क्रियाओं पर प्रभाव पड़ता है। इस कथन से स्पष्ट है कि प्राकृतिक पर्यावरण के समस्त कारक मनुष्य
के नियन्त्रण से मुक्त हैं।

पर्यावरण के जनजीवन पर प्रत्यक्ष प्रभाव
पर्यावरण जनजीवन के सभी पक्षों को गम्भीर रूप से प्रभावित करता है। पर्यावरण के जनजीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को सामान्य रूप से दो वर्गों में बाँटा जाता है। प्रथम वर्ग में जनजीवन पर पर्यावरण के प्रत्यक्ष रूप से पड़ने वाले प्रभावों को सम्मिलित किया जाता (UPBoardSolutions.com) है तथा द्वितीय वर्ग में जनजीवन पर अप्रत्यक्ष रूप से पड़ने वाले प्रभावों को सम्मिलित किया जाता है। पर्यावरण के जनजीवन पर प्रत्यक्ष रूप से पड़ने वाले प्रभावों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है|

(1) पर्यावरण का जनसंख्या पर प्रभाव:
किसी भी क्षेत्र की जनसंख्या के स्वरूप के निर्धारण में वहाँ के प्राकृतिक पर्यावरण की सर्वाधिक भूमिका होती है। अनुकूल प्राकृतिक पर्यावरण होने पर सम्बन्धित क्षेत्र की जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है तथा प्रतिकूल प्राकृतिक पर्यावरण होने की स्थिति में सम्बन्धित क्षेत्र की जनसंख्या का घनत्व कम होता है। यही कारण है कि उपजाऊ भूमि वाले मैदानी क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है, जबकि रेगिस्तानी क्षेत्रों, बंजर भूमि वाले क्षेत्रों तथा दुर्गम पहाड़ी-क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व कम होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि पर्यावरण जनसंख्या के घनत्व को प्रभावित करता है।

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(2) पर्यावरण का खान-पान पर प्रभाव:
मनुष्य को अपनी खाद्य-सामग्री अपने पर्यावरण से ही प्राप्त होती है। इस स्थिति में जिस क्षेत्र में जो खाद्य-सामग्री बहुतायत में उपलब्ध होती है, वही उस क्षेत्र के निवासियों का मुख्य आहार होती है। उदाहरण के लिए–उपजाऊ मैदानी क्षेत्रों में लोगों का , मुख्य आहार वहाँ उगने वाले अनाज तथा सब्जियाँ एवं दालें आदि ही होते हैं। इससे भिन्न समुद्रतटीय क्षेत्रों में लोग अपने आहार में मछली एवं जलीय जीवों के मांस को अधिक स्थान देते हैं। इसी प्रकार ठण्डे एवं अति ठण्डे क्षेत्रों में रहने वाले अधिकांश व्यक्ति मांसाहारी होते हैं, जबकि गर्म क्षेत्रों के अधिकांश निवासी शाकाहारी होते हैं।

(3) पर्यावरण का वेशभूषा पर प्रभाव:
प्राकृतिक पर्यावरण को वहाँ के निवासियों की वेशभूषा पर भी पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। गर्म जलवायु वाले क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्ति बारीक, ढीले तथा सूती वस्त्र धारण करते हैं। इससे भिन्न ठण्डे क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्ति गर्म एवं चुस्त वस्त्र धारण किया करते हैं। अनेक ठण्डे प्रदेशों में जानवरों की खाले से भी कोट इत्यादि बनाकर पहने जाते हैं।

(4) पर्यावरण का आवासीय स्वरूप पर प्रभाव:
प्राकृतिक पर्यावरण मनुष्य के निवास हेतु प्रयुक्त मकानों तथा इनकी सामग्री को भी प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए—पर्वतीय पर्यावरण में पत्थर तथा लकड़ी सरलता से उपलब्ध होती है। अत: इन क्षेत्रों में मकान बनाने के लिए पत्थर तथा लकड़ी को ही अधिक इस्तेमाल किया जाता है। जिन क्षेत्रों में वर्षा अधिक होती है वहाँ मकानों की छतें ढलावदार बनाई जाती हैं। मैदानी क्षेत्रों में प्रायः ईंट, सीमेण्ट, लोहे आदि से मकान बनाए जाते हैं। कुछ क्षेत्रों में, प्रायः भूकम्प आते रहते हैं। इन क्षेत्रों को अधिक क्षति से बचाने के दृष्टिकोण से लकड़ी के मकान ही बनाए जाते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि पर्यावरण जन-सामान्य के आवासीय स्वरूप को भी प्रभावित करता है।

(5) पर्यावरण का आवागमन के साधनों पर प्रभाव:
प्राकृतिक अथवा भौगोलिक पर्यावरण का आवागमन के साधनों के विकास पर भी पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। समुद्र तथा नदियों के निकटवर्ती क्षेत्रों में स्टीमर एवं नौकाएँ आवागमन का साधन होती हैं। मैदानी क्षेत्रों में सड़कें बनाना तथा रेल की पटरियाँ बिछाना सरल होता है। अतः इन क्षेत्रों में रेलगाड़ियाँ, मोटर कारें, बसें आदि वाहन अधिक होते हैं। ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में खच्चर ही आवागमन एवं माल ढोने के साधन माने जाते हैं।

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(6) पर्यावरण का शारीरिक लक्षणों पर प्रभाव:
जन-सामान्य के शारीरिक लक्षणों पर भौगोलिक पर्यावरण का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति की त्वचा के रंग पर जलवायु एवं स्थानीय तापमान का अनिवार्य रूप से प्रभाव पड़ता है। गर्म क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का रंग बहुधा काला तथा ठण्डे क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का रंग (UPBoardSolutions.com) गोरा होता है। भूमध्यरेखीय जलवायु में रहने वाले व्यक्ति वहाँ की अतिरिक्त उष्णता के कारण नाटे कद के और काले रंग के होते हैं, जबकि भूमध्यसागरीय जलवायु के निवासी प्रायः गोरे तथा लम्बे कद के होते हैं।

(7) पर्यावरण का व्यावसायिक जीवन पर प्रभाव:
प्राकृतिक पर्यावरण सम्बन्धित क्षेत्र के निवासियों के मूल व्यवसायों को भी प्रभावित करता है। यह सर्वविदित तथ्य है कि समुद्र एवं जुल-स्रोतों के निकट रहने वाले लोगों का मुख्य व्यवसाय मछली पकड़ना होता है। नदियों से सिंचित मैदानी क्षेत्रों में कृषि-कार्य ही मुख्य व्यवसाय होता है। पहाड़ी क्षेत्रों में भेड़-बकरियाँ पालना एक मूले व्यवसाय माना जाता है, जब कि अधिक वन वाले क्षेत्रों में लकड़ी काटना मूल व्यवसाय माना जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि पर्यावरण अनिवार्य रूप से व्यावसायिक जीवन को भी प्रभावित करता है।

प्रश्न 3:
पर्यावरण-प्रदूषण से आप क्या समझती हैं? पर्यावरण-प्रदूषण के सामान्य कारणों काभी वर्णन कीजिए। [2007, 08, 16, 18]
या
पर्यावरण प्रदूषण की परिभाषा लिखिए। प्रदूषण के कारण बताइए। पर्यावरण-प्रदुषण नियन्त्रण के लिए सरकार द्वारा क्या उपाय किए गए हैं? [2008, 09, 11, 12]
या
पर्यावरण-प्रदूषण के मुख्य कारण क्या हैं? [2017]
या
जनजीवन पर पर्यावरण के हानिकारक प्रभाव को रोकने के बारे में लिखिए। [2013]
उत्तर:
पर्यावरण-प्रदूषण का अर्थ

पर्यावरण-प्रदूषण का सामान्य अर्थ है-हमारे पर्यावरण का दूषित हो जाना। पर्यावरण को निर्माण प्रकृति ने किया है। प्रकृति-प्रदत्त पर्यावरण में जब किन्ही तत्त्वों का अनुपात इस रूप में बदलने जगती है जिसका जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की सम्भावना होती है, तब कहा जाता है कि यावरण प्रदूषित हो रहा है। उदाहरण के लिए-यदि पर्यावरण के मुख्य भाग वायु में ऑक्सीजन के स्थान पर अन्य विषैली गैसों का अनुपात बढ़ जाये तो कहा जाएगा कि वायु-प्रदूषण हो गया है। ण के किसी भी भाग के दूषित हो जाने को पर्यावरण-प्रदूषण कहा जाएगा। यह प्रदूषण जल-प्रदूषण, मृदा-प्रदूषण, वायु-प्रदूषण तथा ध्वनि-प्रदूषण के रूप में हो सकता है।

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पर्यावरण-प्रदूषण के सामान्य कारण
पर्यावरण प्रदूषण अपने आप में एक गम्भीर तथा व्यापक समस्या है। इस समस्या को उत्पन्न करने तथा बढ़ावा देने वाले वैसे तो असंख्य कारण हैं, परन्तु कुछ सामान्य कारण ऐसे हैं जो अधिक प्रबल तथा
अति स्पष्ट हैं। इस वर्ग के कारणों को ही पर्यावरण-प्रदूषण के सामान्य लक्षण कहा जाता है। इस वर्ग के मुख्य कारणों का सामान्य परिचय निम्नवर्णित है

(1) जल-मल का अनियमित निष्कासन:
आवासीय क्षेत्रों से जल-मल का अनियमित निष्कासन पर्यावरण-प्रदूषण का एक मुख्य (UPBoardSolutions.com) कारण है। खुले शौचालयों से उत्पन्न होने वाली दुर्गन्ध वायु प्रदूषण में सर्वाधिक योगदान देती है। इसके अतिरिक्त वाहित मल जल के स्रोतों को प्रदूषित करता है। घरों में इस्तेमाल होने वाला जल भी विभिन्न कारणों से अत्यधिक प्रदूषित हो जाता है तथा नाले-नालियों के माध्यम से यह दूषित जल नदियों के जल को भी प्रदूषित कर देता है।

(2) घरेलू अवशिष्ट पदार्थ:
घरों में इस्तेमाल होने वाले असंख्य पदार्थों के अवशिष्ट भाग भी पर्यावरण-प्रदूषण में उल्लेखनीय योगदान प्रदान करते हैं। फिनाइल, मच्छर मारने वाले घोल, डिब्बाबन्दी में इस्तेमाल डिब्बे, डिटर्जेण्ट, शैम्पू, साबुन आदि सभी के अवशेष जल, वायु तथा मिट्टी को गम्भीर रूप से प्रदूषित करते हैं।

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(3) औद्योगिकीकरण:
तीव्र गति से होने वाला औद्योगिकीकरण भी पर्यावरण-प्रदूषण के लिए जिम्मेदार एक मुख्य कारण है। औद्योगिक संस्थानों में जहाँ ईंधन जलने से वायु-प्रदूषण होता है। वहीं उनमें इस्तेमाल होने वाली रासायनिक सामग्री के अवशेष आदि वायु, जल तथा मिट्टी को निरन्तर प्रदूषित करते हैं। औद्योगिक संस्थानों में चलने वाली मशीनों, सायरनों तथा अन्य कारणों से ध्वनि-प्रदूषण में भी वृद्धि होती है।

(4) दहन तथा धुआँ:
आधुनिक-उन्नत समाज में मानव ने दहन का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत कर लिया है। घरेलू रसोईघर से लेकर असंख्य वाहनों तथा औद्योगिक संस्थानों में सर्वत्र दहन का ही बोलबाला है, लकड़ी, कोयला, गैस, पेट्रोल तथा डीजल आदि के दहन से जहाँ अनेक विषैली गैसें तथा धुआँ उत्पन्न होता है, वहीं अप्राकृतिक स्रोतों से भी हानिकारक गैसें उत्पन्न होती हैं। ये सब सामूहिक रूप से वायु के प्राकृतिक स्वरूप को परिवर्तित करते हैं। परिणामस्वरूप वायु प्रदूषण में निरन्तर वृद्धि हो रही है।

(5) कीटनाशकों का बढ़ता प्रयोग:
जैसे-जैसे कृषि एवं उद्यान-क्षेत्र में विस्तार हुआ है, वैसे-वैसे कीटनाशकों को प्रयोग भी निरन्तर बढ़ा है। विभिन्न कीटनाशक अत्यधिक विषैले हैं तथा इनका प्रभाव दूरगामी है। फसलों पर तथा घरों में होने वाले कीटनाशकों के छिड़काव से वायु, जल तथा मिट्टी का अत्यधिक प्रदूषण हो रहा है। इस प्रदूषण का प्रतिकूल प्रभाव मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों पर
निरन्तर पड़ रहा है।

(6) नदियों में कूड़ा-करकट तथा मृत शरीर बहाना:
जैसे-जैसे जनसंख्या तथा नगरीकरण में वृद्धि हो रही है; वैसे-वैसे कूड़े-करकट की समस्या भी बढ़ रही है। अज्ञानता तथा प्रचलन के अनुसार कूड़े-करकट तथा मनुष्यों एवं पशुओं के मृत-शरीरों को नदियों में बहा दिया जाता है। इस प्रकार का विसर्जन सुविधाजनक तो (UPBoardSolutions.com) प्रतीत होता है, परन्तु इस प्रचलन के परिणामस्वरूप जल-प्रदूषण में अत्यधिक वृद्धि होती है। इस जल-प्रदूषण से कुछ अंशों में वायु तथा मिट्टी के प्रदूषण में भी वृद्धि होती है।

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(7) वृक्षों की अत्यधिक कटाई:
पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि करने वाला एक मुख्य उल्लेखनीय कारण वृक्षों की अत्यधिक कटाई भी है। वृक्ष वे प्रकृति-प्रदत्त कारक हैं जो वायु के प्राकृतिक स्वरूप को सन्तुलित बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वृक्ष सूर्य के प्रकाश से कार्बन डाइ-ऑक्साइड ग्रहण करके ऑक्सीजन छोड़ते हैं। वृक्षों के अत्यधिक संख्या में कट जाने के परिणामस्वरूप वायु का प्राकृतिक स्वरूप विकृत होने लगती है और वायु-प्रदूषण की स्थिति को बढ़ावा मिलता है।

(8) रेडियोधर्मी पदार्थ:
पर्यावरण प्रदूषण के लिए उत्तरदायी कारकों में रेडियोधर्मी पदार्थों का भी उल्लेखनीय योगदान है। विभिन्न आणविक परीक्षणों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले रेडियोधर्मी पदार्थों ने भी पर्यावरण को गम्भीर रूप से प्रदूषित किया है। प्रदूषण के इस कारक के गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव सभी प्राणियों तथा पेड़-पौधों पर भी पड़ रहे हैं। विभिन्न प्रकार के कैन्सर तथा
आनुवंशिक रोग इसी प्रकार के प्रदूषण के परिणाम हैं।

पर्यावरण-प्रदूषण पर नियन्त्रण

पर्यावरण-प्रदूषण अपने आप में एक गम्भीर समस्या है तथा सम्पूर्ण मानव-जगत के लिए एक चुनौती है। इस समस्या के समाधान के लिए मानव-मात्रं चिन्तित है। विश्व के प्रायः सभी देशों में पर्यावरण-प्रदूषण पर प्रभावी नियन्त्रण के लिए अनेक उपाय किए जा रहे हैं। हमारे देश में भी इस समस्या से मुकाबला करने के लिए अनेक उपाय किए जा रहे हैं। कुछ उपायों का संक्षिप्त विवरण निम्नवर्णित है

  1. औद्योगिक संस्थानों के लिए कड़े निर्देश जारी किए गए हैं कि वे पर्यावरण-प्रदूषण को नियन्त्रित करने के हर सम्भव उपाय करें। इसके लिए आवश्यक है कि पर्याप्त ऊँची चिमनियाँ लगाई. जाएँ तथा उनमें उच्च कोटि के छन्ने लगाए जाएँ। औद्योगिक संस्थानों से विसर्जित होने वाले जल को पूर्ण रूप से उपचारित करके ही पर्यावरण में छोड़ा जाना चाहिए। यही नहीं, ध्वनि-प्रदूषण को रोकने के लिए जहाँ तक सम्भव हो ध्वनि अवरोधक लगाये जाने चाहिए। औद्योगिक संस्थानों के आस-पास अधिक-से-अधिक वृक्ष लगाए जाने चाहिए।
  2. वाहन पर्यावरण-प्रदूषण के मुख्य कारण हैं; अत: वाहनों द्वारा होने वाले प्रदूषण को भी नियन्त्रित करना आवश्यक है। इसके लिए वाहनों के इंजन की समय-समय पर जाँच करवाई जानी
    चाहिए। ईंधन में होने वाली मिलावट को भी रोका जाना चाहिए।
  3. जन-सामान्य को पर्यावरण-प्रदूषण के प्रति सचेत होना चाहिए तथा जीवन के हर क्षेत्र में प्रदूषण पर प्रभावी रोक लगाने के हर सम्भव उपाय किए जाने चाहिए।
    पर्यावरण-प्रदूषण वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति की समस्या है; अतः इसे नियन्त्रित (UPBoardSolutions.com) करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को जागरूक होना चाहिए। पर्यावरण प्रदूषण के प्रत्येक कारण को जानने का प्रयास किया जाना चाहिए तथा प्रत्येक कारण के निवारण का भी उपाय किया जाना चाहिए।

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प्रश्न 4:
पर्यावरण-प्रदूषण का जनजीवन पर प्रभाव स्पष्ट कीजिए। [2008, 09, 11, 12, 13, 17, 18]
या
पर्यावरण के दूषित होने से मानव जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
या
विस्तारपूर्वक समझाइए। प्रदूषण किसे कहते हैं? प्रदूषण का मानव जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? [2011]
या
व्यक्ति के स्वास्थ्य पर पर्यावरण-प्रदूषण का क्या प्रभाव पड़ता है? [2011]
या
मानव जीवन पर पर्यावरण-प्रदूषण का क्या दुष्प्रभाव पड़ता है? संक्षेप में लिखिए। [2017]
उत्तर:
पर्यावरण-प्रदूषण का जनजीवन पर प्रभाव
पर्यावरण का जनजीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है और यह जनजीवन, के सभी पक्षों को प्रभावित करता है। सामान्य स्थितियों में जनजीवन पर्यावरण के अनुरूप निर्धारित हो जाता है तथा उस स्थिति में पर्यावरण से कोई हानि नहीं होती, परन्तु जब पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है अर्थात् प्रदूषण की दर बढ़ जाती है तो जन-सामान्य के जीवन पर प्रतिकूल तथा हानिकारक प्रभाव पड़ने लगता है। पर्यावरण-प्रदूषण का अर्थ है-पर्यावरण के किसी एक या सभी पक्षों का दूषित हो जाना। पर्यावरण-प्रदूषण के परिणामस्वरूप विभिन्न साधारण, गम्भीर तथा अति गम्भीर रोग पनपने लगते हैं। जिनसे जन-स्वास्थ्य को गम्भीर खतरा उत्पन्न हो जाता है, परन्तु (UPBoardSolutions.com) पर्यावरण-प्रदूषण का अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिकूल प्रभाव जनसाधारण के आर्थिक जीवन पर भी पड़ता है। रोगों की वृद्धि तथा स्वास्थ्य के निम्न स्तर के कारण जनसाधारण की उत्पादक-क्षमता घटती है तथा रोग निवारण के लिए अतिरिक्त धन व्यय करना पड़ता है। इससे जनसाधारण का जीवन आर्थिक संकट का शिकार हो जाता है। जनजीवन पर पर्यावरण-प्रदूषण के पड़ने वाले प्रभावों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है –

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(1) जन-स्वास्थ्य पर प्रभाव:
पर्यावरण-प्रदूषण का सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव जन-स्वास्थ्य पर पड़ता है। जैसे-जैसे पर्यावरण का अधिक प्रदूषण होने लगता है, वैसे-वैसे प्रदूषण जनित रोगों की दर एवं गम्भीरता में वृद्धि होने लगती है। पर्यावरण के भिन्न-भिन्न पक्षों में होने वाले प्रदूषण से भिन्न-भिन्न प्रकार के रोग बढ़ते हैं। हम जानते हैं कि वायु प्रदूषण के परिणामस्वरूप श्वसन-तन्त्र से सम्बन्धित रोग अधिक प्रबल होते हैं। जल-प्रदूषण के परिणामस्वरूप पाचन-तन्त्र से सम्बन्धित रोग अधिक फैलते हैं। ध्वनि-प्रदूषण भी तन्त्रिकी-तन्त्र, हृदय एवं रक्तचाप सम्बन्धी विकारों को जन्म देता है। इसके साथ-ही- साथ मानसिक स्वास्थ्य एवं व्यवहारगत सामान्यता को ध्वनि-प्रदूषण विकृत कर देता है। अन्य प्रकार के प्रदूषण भी जन-सामान्य को विभिन्न सामान्य एवं गम्भीर रोगों का शिकार बनाते हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि पर्यावरण-प्रदूषण अनिवार्य रूप से जन-स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। प्रदूषित पर्यावरण में रहने वाले व्यक्तियों की औसत आयु भी घटती है तथा स्वास्थ्य का सामान्य स्तर भी निम्न रहता है।

(2) व्यक्तिगत कार्यक्षमता पर प्रभाव:
व्यक्ति एवं समाज की प्रगति में सम्बन्धित व्यक्तियों की कार्यक्षमता का विशेष महत्त्व होता है। यदि व्यक्ति की कार्यक्षमता सामान्य या सामान्य से अधिक हो, तो वह व्यक्ति निश्चित रूप से प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होता है तथा समृद्ध बन सकता है। जहाँ तक पर्यावरण-प्रदूषण का प्रश्न है, इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति की कार्यक्षमता अनिवार्य रूप से घटती है। हम जानते हैं कि पर्यावरण-प्रदूषण के परिणामस्वरूप जन-स्वास्थ्य का स्तर निम्न होता है। निम्न स्वास्थ्य स्तर वाला व्यक्ति न तो अपने कार्य को कुशलतापूर्वक कर सकती है और न ही उसकी उत्पादन-क्षमता सामान्य रह पाती है। ये दोनों ही स्थितियाँ व्यक्ति एवं समाज के लिए हानिकारक सिद्ध होती हैं। वास्तव में प्रदूषित वातावरण में भले ही व्यक्ति अस्वस्थ न भी हो, तो भी उसकी चुस्ती
एवं स्फूर्ति तो घट ही जाती है। यही कारक व्यक्ति की कार्यक्षमता को घटाने के लिए पर्याप्त होता है।

(3) आर्थिक जीवन पर प्रभाव:
व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र की आर्थिक स्थिति पर भी पर्यावरण प्रदूषण का उल्लेखनीय प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वास्तव में यदि व्यक्ति के स्वास्थ्य का स्तर निम्न हो तथा उसकी कार्यक्षमता भी कम हो, तो वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समुचित धन कदापि अर्जित नहीं कर सकता। पर्यावरण-प्रदूषण के परिणामस्वरूप व्यक्ति की उत्पादन क्षमता घट जाती है। इसके साथ-ही-साथ यह भी सत्य है कि यदि व्यक्ति अथवा उसके परिवार का कोई सदस्य प्रदूषण का शिकार होकर किन्हीं साधारण या गम्भीर रोगों से ग्रस्त रहता है तो उसके उपचार पर भी पर्याप्त व्यय करना पड़ सकता है। इससे भी व्यक्ति एवं परिवार का बजट बिगड़ (UPBoardSolutions.com) जाता है तथा व्यक्ति एवं परिवार की आर्थिक स्थिति निम्न हो जाती है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि पर्यावरण-प्रदूषण के प्रभाव से व्यक्ति की आर्थिक स्थिति प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों ही रूपों में कुप्रभावित होती है। इस कारक के प्रबल तथा विस्तृत हो जाने पर समाज एवं
राष्ट्र की आर्थिक स्थिति भी प्रभावित होती है।
उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि पर्यावरण प्रदूषण का जनजीवन पर बहुपक्षीय, गम्भीर तथा प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसलिए पर्यावरण-प्रदूषण को आज गम्भीरतम विश्वस्तरीय समस्या माना जाने लगा है।

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प्रश्न 5:
जल-प्रदूषण क्या है? जल-प्रदूषण के कारण और इसकी रोकथाम के उपाय लिखिए।
मानव जीवन पर पड़ने वाले जल-प्रदूषण के प्रभावों का वर्णन कीजिए। [2012]
या
मानव-जीवन पर वायु-प्रदूषण के प्रभाव लिखिए। [2009, 12, 14]
या
वायु-प्रदूषण किसे कहते हैं ? वायु प्रदूषण के क्या कारण हैं ? वायु-प्रदूषण की रोकथाम के उपायों के लिए अपने सुझाव दीजिए। [2007, 09, 10, 11, 14, 15, 16]
या
वायु-प्रदूषण के कारण, मानव जीवन पर प्रभाव एवं बचाव के उपाय संक्षेप में लिखिए। [2013, 12]
या
जल-प्रदूषित होने से कैसे बचाया जा सकता है? [2014]
या
जल-प्रदूषण से होने वाली हानियों का वर्णन कीजिए। [2013]
या
पयार्वरण-प्रदूषण से आप क्या समझती हैं? यह कितने प्रकार का होता है? [2012, 13, 15, 16]
या
कोई चार उपाय लिखिए जिनके द्वारा आप वायु प्रदूषण को नियन्त्रित करने में सहायता कर सकते हैं। [2016]
उत्तर:
पर्यावरण-प्रदूषण की अवधारणा
पर्यावरण प्रदूषण की नवीनतम अवधारणा वर्तमान विज्ञान, औद्योगीकरण और नगरीकरण की देन है। प्रदूषण शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘Pollute’ शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। ‘पोल्यूट’ का अर्थ होता है। ‘दूषित’ या ‘खराब हो जाना। प्रदूषण शब्द भ्रष्ट या खराब होने का भी सूचक है। इस प्रकार प्रदूषण का शाब्दिक अर्थ हुआ दूषित हो जाना। प्राकृतिक पर्यावरण हमारे लिए अत्यन्त लाभदायक है। जब यह प्रदूषकों के कारण अपना उपयोगी स्वरूप खोकर विकृत होने लगता है, (UPBoardSolutions.com) तब उसे पर्यावरण-प्रदूषण कहा जाता है। दूषित तत्त्व तथा गन्दगियाँ कल्याणकारी पर्यावरण को धीरे-धीरे हानिकारक बना रही हैं। पर्यावरण जब अपना मूल लाभकारी गुण खोकर दूषित हो जाता है, तब उसे पर्यावरण-प्रदूषण की संज्ञा दी जाती है। प्रदूषण उत्पन्न होने से पर्यावरण के गुणकारी तत्त्वों का सन्तुलन बिगड़ जाता है। वह लाभ के स्थान पर हानि पहुँचाने लगता है। पर्यावरण में असन्तुलन आ जाने तथा पारिस्थितिकी-तन्त्र में विकृति की स्थिति को प्रदूषण कहा जाता है।

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प्रदूषण की परिभाषा
प्रदूषण की विशेष जानकारी ज्ञात करने के लिए हमें उसकी विभिन्न परिभाषाओं पर दृष्टिपाते करना होगा। विभिन्न पर्यावरणविदों ने प्रदूषण को निम्नवत् परिभाषित किया है
विज्ञान सलाहकार समिति के अनुसार, “पर्यावरण प्रदूषण मनुष्यों की गतिविधियों द्वारा, ऊर्जा, स्वरूपों, विकिरण स्तरों, रासायनिक तथा भौतिक संगठन, जीवों की संख्या में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से परिवर्तन के परिणामस्वरूप उत्पन्न उप-उत्पाद हैं जो हमारे परिवेश में पूर्ण अर्थवा अधिकतम प्रतिकूल परिवर्तन उत्पन्न करता है।”
ओडम के अनुसार, “प्रदूषण हमारी हवा, मृदा एवं जल के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक लक्षणों में अवांछनीय परिवर्तन है जो मानव जीवन तथा अन्य जीवों, हमारी औद्योगिक प्रक्रिया, जीवनदशाओं तथा सांस्कृतिक विरासतों को हानिकारक रूप में प्रभावित करता है अथवा जो कच्चे पदार्थों के स्रोतों को नष्ट कर सकता है, करेगा।”

पर्यावरण-प्रदूषण के रूप
पर्यावरण प्रदूषण के मुख्य रूप हैं-जल-प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा-प्रदूषण तथा ध्वनि-प्रदूषण।
जल-प्रदूषण
जल में जीव रासायनिक पदार्थों तथा विषैले रसायन, खनिज ताँबा, सीसा, अरगजी, बेरियम, फॉस्फेट, सायनाइड, पारद आदि की मात्रा में वृद्धि होना ही जल-प्रदूषण है। प्रदूषकों के कारण जब जीवनदायी जल अपनी उपयोगिता खो देता है और उसका गुणकारी तत्त्व घातक बन जाता है तब उसे
जल-प्रदूषण की संज्ञा दी जाती है। जल-प्रदूषण दो प्रकार का होता है
(1) दृश्य प्रदूषण तथा
(2) अदृश्य प्रदूषण।

कारण: जल-प्रदूषण निम्नलिखित कारणों से होता है

  1. औद्योगीकरण जल-प्रदूषण के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी है। चमड़े के कारखाने, चीनी एवं ऐल्कोहल के कारखाने, कागज की मिलें तथा अन्य अनेकानेक उद्योग नदियों के जल को प्रदूषित करते हैं।
  2. नगरीकरण भी जल-प्रदूषण के लिए उत्तरदायी है। नगरों की गन्दगी, मल व औद्योगिक अवशिष्टों के विषैले तत्त्व भी जल को प्रदूषित करते हैं।
  3.  समुद्रों में जहाजरानी एवं परमाणु अस्त्रों के परीक्षण से भी जल प्रदूषित होता है।
  4. नदियों के प्रति परम्परागत भक्ति-भाव होते हुए भी तमाम गन्दगी; जैसे-अधजले शव और जानवरों के मृत शरीर तथा अस्थि-विसर्जन आदि; भी नदियों में ही किया जाता है, जो नदियों के जल के प्रदूषित होने का एक प्रमुख कारण है। |
  5.  जल में अनेक रोगों के हानिकारक कीटाणु मिल जाते हैं, जिससे प्रदूषण उत्पन्न हो जाता है।
  6.  भूमि-क्षरण के कारण मिट्टी के साथ रासायनिक उर्वरक तथा कीटनाशक पदार्थों के नदियों
    में पहुँच जाने से नदियों का जल प्रदूषित हो जाता है।
  7. घरों से बहकर निकलने वाला फिनाइल, साबुन, सर्फ आदि से युक्त गन्दा पानी तथा शौचालय (UPBoardSolutions.com) का दूषित मल नालियों में प्रवाहित होता हुआ नदियों और झील के जल में मिलकर उसे प्रदूषित कर देता है।
  8. नदियों और झीलों के जल में पशुओं को नहलाना, मनुष्यों द्वारा स्नान करना व साबुन आदि से गन्दे वस्त्र धोना भी जल-प्रदूषण का मुख्य कारण है।

नियन्त्रण के उपाय:
जल की शुद्धता और उसकी उपयोगिता को बनाए रखने के लिए प्रदूषण को नियन्त्रित किया जाना आवश्र प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए निम्नलिखित उपाय काम में लाए जा सकते हैं

  1. नगरों के दूषित जल और मल को नदियों और झीलों के स्वच्छ जल में सीधे मिलने से रोका जाए।
  2. कल-कारखानों के दूषित और विषैले जल को नदियों और झीलों के जल में न गिरने दिया जाए।
  3. मल-मूत्र एवं गन्दगीयुक्त जल का उपयोग बायोगैस निर्माण या सिंचाई के लिए करके प्रदूषण को रोकने का प्रयास किया जाए।
  4. सागरों के जल में आणविक परीक्षण न कराए जाएँ।
  5.  नदियों के तटों पर दिवंगतों का अन्तिम संस्कार विधि-विधान से करके उनकी राख को प्रवाहित करने के स्थान पर दबा दिया जाए।
  6. पशुओं के मृत शरीर तथा मानव शवों को स्वच्छ जल में प्रवाहित न करने दिया जाए।
  7. जल-प्रदूषण नियन्त्रण के ध्येय से नियम बनाये जाएँ तथा उनका कठोरता से पालन कराया जाए।
  8. नदियों, कुओं, तालाबों और झीलों के जल को शुद्ध बनाये रखने के लिए प्रभावी उपाय काम में लाये जाएँ।
  9. जल-प्रदूषण के कुप्रभाव तथा उनके रोकने के उपायों का जनसामान्य में प्रचार-प्रसार कराया जाए।
  10. जल उपयोग तथा जल संसाधन संरक्षण के लिए राष्ट्रीय नीति बनायी जाए।

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मानव जीवन पर प्रभाव
जल-प्रदूषण के प्रतिकूल प्रभावों अथवा हानियों का संक्षिप्त विवरण निम्नवर्णित है

  1. प्रदूषित जल के सेवन से जीवों को अनेक प्रकार के खतरों का सामना करना पड़ता है।
  2. जल-प्रदूषण अनेक बीमारियों; जैसे-हैजा, पीलिया, पेट में कीड़े, यहाँ तक कि टायफाइड; का भी जनक है। राजस्थान के दक्षिणी भाग के आदिवासी गाँवों के तालाबों का दूषित पानी पीने से ‘नारू’ नाम का भयंकर रोग होता है। इन सुविधाविहीन गाँवों के 6 लाख 90 हजार लोगों में से 1 लाख 90 हजार लोगों को यह रोग है।
  3.  प्रदूषित जल का प्रभाव जल में रहने वाले जन्तुओं और जलीय पौधों पर भी पड़ रहा है। (UPBoardSolutions.com) जल-प्रदूषण के कारण ही मछली और जलीय पौधों में 30 से 50 प्रतिशत तक की कमी हो गई है। जो खाद्य पदार्थ के रूप में मछली आदि का उपयोग करते हैं उनके स्वास्थ्य को भी हानि पहुँचती है।
  4. प्रदूषित जल का प्रभाव कृषि उपजों पर भी पड़ता है। कृषि से उत्पन्न खाद्य पदार्थों को मानव व पशुओं द्वारा उपयोग में लाया जाता है, जिससे मानव व पशुओं के स्वास्थ्य को हानि होती है।
  5. जल जन्तुओं के विनाश से पर्यावरण असन्तुलित होकर विभिन्न प्रकार के कुप्रभाव उत्पन्न करता है।

वायु-प्रदूषण :
वायु में विजातीय तत्त्वों की उपस्थिति चाहे गैसीय हो या पार्थक्य या दोनों का मिश्रण, जोकि मानव के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए हानिकारक हो, वायु-प्रदूषण कहलाता है। वायु-प्रदूषण मुख्य रूप से धूल-कण, धुआँ, कार्बन-कण, सल्फर डाइऑक्साइड, कुहासा, सीसा, कैडमियम आदि घातक पदार्थों के वायु में विलय से होता है। ये सब उद्योगों एवं परिवहन के साधनों के माध्यम से वायुमण्डल में मिलते हैं। वायु के कल्याणकारी रूप का विनाशकारी रूप में परिवर्तन ही वायु-प्रदूषण है। वर्तमान समय में मानव को प्राणवायु के रूप में वायु प्रदूषण के कारण शुद्ध ऑक्सीजन भी उपलब्ध नहीं हो पा रही है।
कारण: वायु-प्रदूषण निम्नलिखित कारणों से होता है

  1. नगरीकरण, औद्योगीकरण एवं अनियन्त्रित भवन-निर्माण से वायु प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो रही है।।
  2. परिवहन के साधनों (ऑटोमोबाइलों) से निकलता धुआँ वायु-प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है।
  3. नगरीकरण के निमित्त नगरों की बढ़ती गन्दगी भी वायु को प्रदूषित कर रही है।
  4. वनों की अनियमित एवं अनियन्त्रित कटाई से भी वायु-प्रदूषण बढ़ रहा है।
  5. रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशक ओषधियों के कृषि में अधिकाधिक उपयोग से भी वायु-प्रदूषण बढ़ रहा है।
  6. रसोईघरों तथा कारखानों की चिमनियों से निकलते धुएँ के कारण वायु-प्रदूषण बढ़ रहा है।
  7. विभिन्न प्रदूषकों के अनियन्त्रित निस्तारण से वायु-प्रदूषण उत्पन्न हो रहा है।
  8. दूषित जल-मल के एकत्र होकर दुर्गन्ध फैलाने से वायु प्रदूषित हो रही है।
  9.  युद्ध, आणविक विस्फोट तथा दहन की क्रियाएँ भी वायु को प्रदूषित करती हैं।
  10. कीटनाशक दवाओं के छिड़काव के कारण वायुमण्डल प्रदूषित हो जाता है।

नियन्त्रण के उपाय:
वायु मानव जीवन का मुख्य आधार है। वायु-प्रदूषण मानव जीवन के अस्तित्व के लिए खतरा बनता जा रहा है। वायु-प्रदूषण रोकने के लिए प्रभावी उपाय ढूँढ़ना आवश्यक है। वायु-प्रदूषण रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय काम में लाए जा सकते हैं

  1. कल-कारखानों को नगरों से दूर स्थापित करना तथा उनसे निकलने वाले धुएँ, गैस तथा राख पर नियन्त्रण करना। इसके लिए ऊँची चिमनियाँ लगाई जानी चाहिए तथा चिमनियों में उत्तम प्रकार के छन्ने लगाए जाएँ।
  2. परिवहन के साधनों पर धुआँरहित यन्त्र लगाए जाएँ।
  3. नगरों में हरित पट्टी के रूप में युद्ध स्तर पर वृक्षारोपण किया जाए।
  4. नगरों में स्वच्छता, जल-मले निकास तथा अवशिष्ट पदार्थों के विसर्जन की उचित व्यवस्था की जाए।
  5. वन रोपण तथा वृक्ष संरक्षण पर बल दिया जाए।
  6. रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के प्रयोग को नियन्त्रित किया जाए।
  7. घरों में बायोगैस, पेट्रोलियम गैस या धुआँरहित चूल्हों का प्रयोग किया जाए।
  8. खुले में मैला, कूड़ा-करकट तथा अवशिष्ट पदार्थ सड़ने के लिए न फेंके जाएँ।
  9. गन्दा जल एकत्र न होने दिया जाए।
  10. वायु-प्रदूषण रोकने के लिए कठोर नियम बनाए जाएँ और दृढ़ता से उनका पालन कराया जाए।

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मानव जीवन पर प्रभाव

वायु-प्रदूषण के मानव जीवन पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं

  1. वायु प्रदूषण से जानलेवा बीमारियाँ; जैसे छाती और साँस की बीमारियाँ यथा ब्रॉन्काइटिस, तपेदिक, फेफड़ों का कैन्सर आदि; उत्पन्न होती हैं।
  2. वायु प्रदूषण मानव शरीर, मानव की खुशियों और मानव की सभ्यता के लिए खतरा बना हुआ है। परिवहन के विभिन्न साधनों द्वारा उत्सर्जित धुआँ नागरिकों पर विभिन्न प्रकार के कुप्रभाव डालता है।
  3. वायु-प्रदूषण चारों ओर फैले खेतों, हरे-भरे पेड़ों व रमणीक दृश्यों को भी धुंधला कर देता है व उन पर झीनी चादर डाल देता है, बल्कि खेतों, तालाबों व जलाशयों को भी अपने कृमिकणों से विषाक्त करता रहता है, जिसका सीधा प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर पड़ता है।
  4. चिकित्साशास्त्रियों ने पाया है कि जहाँ वायु-प्रदूषण अधिक है वहाँ बच्चों की हड्डियों (UPBoardSolutions.com) का विकास कम होता है, हड्डियों की उम्र घट जाती है तथा बच्चों में खाँसी और साँस फूलना तो प्रायः देखा जाता है।
  5.  वायु-प्रदूषण का प्रभाव वृक्षों पर भी देखा जा सकता है। चण्डीगढ़ के पेड़ों और लखनऊ के दशहरी आमों पर वायु प्रदूषण के बढ़ते हुए खतरे को सहज ही देखा जा सकता है, जहाँ मानव को फल कम मात्रा में मिल रहे हैं और उनकी विषाक्तता का सीधा प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहा है।
  6. दिल्ली के वायुमण्डल में व्याप्त प्रदूषण का प्रभाव आम नागरिकों के स्वास्थ्य पर तो पड़ा ही, दिल्ली की परिवहन पुलिस पर भी पड़ा है और यही दशा कोलकाता और मुम्बई की भी है, अर्थात् इससे मानव का जीवन (आयु) घट रहा है। दिल्ली नगर में वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों को देखते हुए ही सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान निषिद्ध कर दिया गया है।
  7. वायु-प्रदूषण के कारण ओजोन की परत में छिद्र होने की सम्भावना व्यक्त होने से सम्पूर्ण विश्व भयाक्रान्त हो उठा है।
  8.  शुद्ध वायु न मिलने से शारीरिक विकास रुकने के साथ-साथ शारीरिक क्षमता घटती जा रही है।
  9. वायु-प्रदूषण मानव अस्तित्व के सम्मुख एक गम्भीर समस्या बनकर खड़ा हो गया है, जिसे रोकने में भारी व्यय करना पड़ रहा है।

प्रश्न 6:
‘ध्वनि प्रदूषण क्या है? इसके उत्तरदायी कारकों को बताते हुए मानव-जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन कीजिए। [2008]
या
ध्वनि-प्रदूषण का मानव-जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? [2011, 17]
या
ध्वनि-प्रदूषण के दो कारण लिखिए। [2013]
उत्तर:
ध्वनि-प्रदूषण का अर्थ
वायुमण्डल में परिवहन के साधनों, कल-कारखानों, रेडियो, लाउडस्पीकर, ग्रामोफोन आदि के तीव्र ध्वनि से उत्पन्न शोर को ध्वनि-प्रदूषण कहते हैं। कानों को ने भाने वाला वह कर्कश स्वर, जो मानसिक तनाव का कारण बनता है, ध्वनि-प्रदूषण कहलाता है। ध्वनि की तीव्रता के मापन की इकाई डेसीबल है। सामान्य रूप से 80-85 डेसीबल तीव्रता वाली ध्वनियों को प्रदूषण की श्रेणी में रखा जाता है तथा इनका प्रतिकूल प्रभाव मानव-स्वास्थ्य पर पड़ता है। वर्तमान युग में ध्वनि-प्रदूषण सुरसा के मुँह की भाँति बढ़ता जा रहा है। ध्वनि-प्रदूषण के लिए निम्नलिखित कारक उत्तरदायी है

  1. सर्वाधिक ध्वनि-प्रदषण परिवहन के साधनों; जैसे बसों, ट्रकों, रेलों, वायुयानों, स्कुटरों आदि; के द्वारा होता है। धड़धड़ाते हुए असंख्य वाहन कर्कश स्वर देकर शोर उत्पन्न करते हैं, जिससे ध्वनि-प्रदूषण उत्पन्न होता है।
  2. कारखानों की विशालकाय मशीनें, कल-पुर्जे, इंजन आदि भयंकर शोर उत्पन्न करके ध्वनिप्रदूषण के स्रोत बने हुए हैं।
  3. विभिन्न प्रकार के विस्फोटक भी ध्वनि-प्रदूषण के जन्मदाता हैं।
  4. घरों पर जोर से बजने वाले रेडियो, दूरदर्शन, कैसेट्स तथा बच्चों की चिल्ल-पौं की ध्वनि (UPBoardSolutions.com) भी प्रदूषण उत्पन्न करने के मुख्य साधन हैं।
  5. वायुयान, सुपरसोनिक विमान व अन्तरिक्ष यान भी ध्वनि-प्रदूषण फैलाते हैं।
  6. मानव एवं पशु-पक्षियों द्वारा उत्पन्न शोर भी ध्वनि-प्रदूषण का मुख्य कारण है।
  7. आँधी, तूफान तथा ज्वालामुखी के उद्गार के फलस्वरूप भी ध्वनि-प्रदूषण उत्पन्न होता है।

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नियन्त्रण के उपाय

  1. ध्वनि-प्रदूषण को नियन्त्रित करने हेतु हमें स्वयं पर ही नियन्त्रण करना सीखना होगा; जैसे कि ध्वनि विस्तारक यन्त्रों की ध्वनि को विभिन्न शुभ अवसरों पर कम-से-कम रखा जाए।
  2. सड़क पर आवागमन के दौरान अपने वाहनों के हॉर्न बहुत तीव्र ध्वनि वाले न रखें और उनका यथासम्भव कम-से-कम प्रयोग करें।
  3. कारखानों में तीव्र शोर वाली मशीनों के लिए साइलेन्सर या ऐसे ही कुछ अन्य उपाय किए जाएँ।
  4.  समय-समय पर मशीनों की मस्म्मत कराते रहना चाहिए जिससे वे अनावश्यक शोर न करें।
  5. सड़क पर खड़े करने वाले अपने वाहनों को चालू अवस्था में कदापि न छोड़े।

मानव जीवन पर प्रभाव
ध्वनि-प्रदूषण का मानव जीवन पर निम्नलिखित कुप्रभाव पड़ता है

  1. ध्वनि-प्रदूषण मानव के कानों के परदों पर, मस्तिष्क और शरीर पर इतना घातक आक्रमण करता है कि संसार के सारे वैज्ञानिक तथा डॉक्टर इससे चिन्तित हो रहे हैं।
  2. ध्वनि-प्रदूषण वायुमण्डल में अनेक समस्याएँ उत्पन्न करता है और मानव के लिए एक गम्भीर खतरा बन गया है। नोबेल पुरस्कार विजेता रॉबर्ट कोच ने कहा है कि वह दिन दूर नहीं जब आदमी को अपने स्वास्थ्य के इस सबसे बड़े नृशंस शत्रु ‘शोर’ से पूरे जी-जान से लड़ना पड़ेगा।
  3. ध्वनि-प्रदूषण के कारण व्यक्ति की नींद में बाधा उत्पन्न होती है। इससे चिड़चिड़ापन बढ़ता है तथा स्वास्थ्य खराब होने लगता है।
  4. शोर के कारण श्रवण शक्ति कम होती है। बढ़ते हुए शोर के कारण मानव समुदाय निरन्तर बहरेपन की ओर बढ़ रहा है।
  5. ध्वनि-प्रदूषण के कारण मानसिक तनाव बढ़ने से स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता है। इससे व्यक्ति के रक्तचाप में वृद्धि हो सकती है तथा हृदय-रोग होने की आशंका बढ़ जाती है। निरन्तर अत्यधिक ध्वनि प्रदूषण से व्यक्ति के सुनने की क्षमता भी समाप्त हो सकती है।
  6. ध्वनि-प्रदूषण मनुष्य के आराम में बाधक बनता जा रहा है।
    ध्वनि-प्रदूषण की समस्या दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही है। इस अदृश्य समस्या का निश्चित समाधान खोजना नितान्त आवश्यक है।
    वास्तव में जल, वायु और ध्वनि-प्रदूषण आज के सामाजिक जीवन की एक गम्भीर चुनौती हैं। यह एक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बनकर उभरा है। बढ़ते प्रदूषण ने मानव सभ्यता, संस्कृति तथा अस्तित्व पर प्रश्न-चिह्न लगा दिया है। भावी पीढ़ी को इस विष वृक्ष से बचाए रखने के लिए प्रदूषण का निश्चित समाधान खोजना आवश्यक है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
पर्यावरण का सामाजिक संगठन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
यह सत्य है कि पर्यावरण (प्राकृतिक पर्यावरण) सामाजिक संगठन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं करता, परन्तु पर्यावरण सामाजिक संगठन को अप्रत्यक्ष रूप से अवश्य प्रभावित करता है। इस प्रभाव को लीप्ले ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “ऐसे पहाड़ी व पठारी देशों में जहाँ खाद्यान्न की कमी होती है, वहाँ जनसंख्या की वृद्धि अभिशाप मानी जाती है और इस प्रकार की विवाह संस्थाएँ स्थापित की जाती हैं जिनसे जनसंख्या में वृद्धि न हो। जौनसार भाभर क्षेत्र (UPBoardSolutions.com) में खस जनजाति में सभी भाइयों की एक ही पत्नी होती है। इससे जनसंख्या-वृद्धि प्रभावी तरीके से नियन्त्रित होती है। विवाह की आयु, परिवार को आकार तथा प्रकार भी अप्रत्यक्ष रूप से भौगोलिक परिस्थितियों से प्रभावित होते हैं। इसके विपरीत मानसूनी प्रदेश, जो कि विभिन्न सुविधाओं से सम्पन्न हैं, सदैव अधिक जनसंख्या की समस्या से घिरे रहते हैं।

प्रश्न 2:
पर्यावरण का राजनीतिक संगठन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
पर्यावरण के जनजीवन पर अप्रत्यक्ष रूप से पड़ने वाले प्रभावों के अन्तर्गत राजनीतिक संगठन पर पड़ने वाले प्रभावों का उल्लेख किया जाता है। विभिन्न अध्ययनों द्वारा स्पष्ट है कि पर्यावरण का प्रभाव राज्य तथा राजनीतिक संस्थाओं पर भी पड़ता है। प्रतिकूल पर्यावरण में जनजीवन प्रायः घुमन्तू होता है तथा इस स्थिति में स्थायी राजनीतिक संगठनों का विकास नहीं हो पाता। अनुकूल पर्यावरण आर्थिक विकास में सहायता प्रदान करता है तथा समाज की राजनीति को स्थायी रूप प्रदान करता है। इस प्रकार की परिस्थितियों में प्रजातन्त्र या साम्यवाद जैसी राजनीतिक व्यवस्थाएँ विकसित होती हैं। यही नहीं, प्राकृतिक पर्यावरण का प्रभाव सरकार के स्वरूप तथा राज्य के संगठन पर भी पड़ता है।

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प्रश्न 3:
पर्यावरण का जन-सामान्य के धार्मिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
प्राकृतिक पर्यावरण अनिवार्य रूप से जन-सामान्य के धार्मिक जीवन को प्रभावित करता है। पर्यावरण के प्रभाव को अधिक महत्त्व देने वाले विद्वानों का मत है कि प्राकृतिक शक्तियाँ धर्म के विकास को प्रभावित करती हैं। मैक्समूलर ने धर्म की उत्पत्ति का सिद्धान्त ही प्राकृतिक शक्तियों के भय से इनकी पूजा करने के रूप में प्रतिपादित किया है। विश्व के जिन क्षेत्रों में प्राकृतिक प्रकोप अधिक है, वहाँ पर धर्म का विकास तथा धर्म के प्रति आस्था रखने वाले व्यक्तियों की संख्या अधिक होती है। एशिया की मानसूनी जलवायु के कारण ही यहाँ के लोग भाग्यवादी बने हैं। कृषिप्रधान देशों में इन्द्र की पूजा होना सामान्य बात है। स्पष्ट है कि धर्म विकास तथा धर्म के स्वरूप के निर्धारण में भी पर्यावरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

प्रश्न 4:
पर्यावरण का जनसाधारण की कलाओं पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
जन-सामान्य के जीवन में विभिन्न कलाओं का भी महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। विद्वानों का मत है कि वास्तुकला, चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, नृत्य तथा नाटकों पर भौगोलिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। सुन्दर प्राकृतिक पर्यावरण में चित्रकारी तथा नीरस पर्यावरण में होने वाली चित्रकारी में स्पष्ट रूप से अन्तर देखा जा सकता है। वास्तव में सभी कलाकार अपनी कला के लिए विषयों का चुनाव अपने पर्यावरण से ही करते हैं। यही कारण है कि विभिन्न प्राकृतिक पर्यावरण में विकसित होने वाली कलाओं के स्वरूप में स्पष्ट अन्तर देखा जा सकता है।

प्रश्न 5:
पर्यावरण संरक्षण के लिए जनता को कैसे जागरूक किया जा सकता है? [2011, 13, 18]
उत्तर:
पर्यावरण प्रदूषण अपने आप में एक अति गम्भीर एवं विश्वव्यापी समस्या है। इस समस्या को नियन्त्रित करने के लिए पर्यावरण संरक्षण के लिए जनता को जागरूक करना अति आवश्यक है। इसके लिए व्यापक स्तर पर पर्यावरण-प्रदूषण के कारणों तथा उससे होने वाली हानियों की विस्तृत जानकारी जन-साधारण को दी जानी चाहिए। इसके लिए जन-संचार के समस्त माध्यमों (रेडियो, दूरदर्शन तथा पत्र-पत्रिकाओं आदि) को इस्तेमाल किया जाना चाहिए। (UPBoardSolutions.com) शिक्षा के क्षेत्र में प्रत्येक स्तर पर पर्यावरण-शिक्षा को विशेष महत्त्व दिया जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को पर्यावरण-संरक्षण में योगदान के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। वर्तमान परिस्थितियों में प्रत्येक व्यक्ति को पेड़-पौधे लगाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए तथा पॉलीथीन के बहिष्कार के लिए तैयार करना चाहिए।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
‘पर्यावरण की एक परिभाषा लिखिए। [2013, 14, 15, 16]
या
पर्यावरण से आप क्या समझती हैं? (2010)
उत्तर:
“पर्यावरण वह है जो किसी वस्तु को चारों ओर से घेरे हुए है तथा उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है।” -जिस्बर्ट

प्रश्न 2:
पर्यावरण के कौन-कौन से वर्ग माने जाते हैं?
उत्तर:
पर्यावरण के मुख्य रूप से तीन वर्ग माने जाते हैं। इन्हें क्रमशः प्राकृतिक अथवा भौगोलिक पर्यावरण, सामाजिक पर्यावरण तथा सांस्कृतिक पर्यावरण कहते हैं।

प्रश्न 3:
अनुकूल पर्यावरण वाले क्षेत्र में जनसंख्या का घनत्व कैसा होता है?
उत्तर:
अनुकूल पर्यावरण वाले क्षेत्र में जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है।

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प्रश्न 4:
गर्म जलवायु वाले पर्यावरण में लोगों की वेशभूषा कैसी होती है?
उत्तर:
गर्म जलवायु वाले पर्यावरण में लोगों की वेशभूषा बारीक सूती कपड़े की बनी तथा ढीली-ढाली होती है।

प्रश्न 5:
मैदानी क्षेत्रों में लोगों का आहार कैसा होता है?
उत्तर:
मैदानी क्षेत्रों में लोगों के आहार में अनाज तथा दालों एवं सब्जियों का अधिक समावेश होता है।

प्रश्न 6:
पर्यावरण-प्रदूषण किसे कहते हैं? [2007, 14, 15]
उत्तर:
पर्यावरण-प्रदूषण का अर्थ है-पर्यावरण का दूषित हो जाना। प्रकृति-प्रदत्त पर्यावरण (UPBoardSolutions.com) में जब किन्हीं तत्त्वों का अनुपात इस रूप में बदलने लगता है जिसका जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, तब कहा जाता है कि पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है।

प्रश्न 7:
पर्यावरण प्रदूषित होने के कोई दो कारण लिखिए। [2011, 13]
उत्तर:
औद्योगीकरण तथा वृक्षों की अत्यधिक कटाई पर्यावरण-प्रदूषण के दो मुख्य कारण हैं।

प्रश्न 8:
वृक्षारोपण से क्या लाभ हैं? [2009, 11, 14, 16, 17, 18]
उत्तर:
वृक्षारोपण से पर्यावरण में ऑक्सीजन की मात्रा सामान्य बनी रहती है तथा वायु-प्रदूषण को नियन्त्रित करने में सहायता मिलती है।

प्रश्न 9:
वृक्ष (पेड़-पौधे) पर्यावरण (वातावरण) को कैसे शुद्ध करते हैं? [2011, 12, 13, 17, 18]
उत्तर:
वृक्ष पर्यावरण से कार्बन डाई-ऑक्साइड को ग्रहण करके तथा ऑक्सीजन विसर्जित करके पर्यावरण को शुद्ध करते हैं।

प्रश्न 10:
जल-प्रदूषण के दो कारण लिखकर उनके निवारण के उपाय लिखिए। [2011, 12, 13, 14]
उत्तर:
जल-प्रदूषण के दो मुख्य कारण माने जाते हैं (अ) औद्योगीकरण तथा (ब) नगरीकरण। इन कारणों के निवारण के लिए औद्योगीकरण अवशेषों एवं व्यर्थ पदार्थों को जल स्रोतों में मिलने से रोका जाना चाहिए तथा नगरीय कूड़े-करकट को भी जल-स्रोतों में मिलने से रोकना चाहिए।

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प्रश्न 11:
वायु-प्रदूषण से क्या तात्पर्य है? इससे क्या हानि होती है? [2015]
उत्तर:
वायु में किसी भी प्रकार की अशुद्धियों का व्याप्त हो जान्। वायु-प्रदूषण कहलाता है। वायु-प्रदूषण से श्वसन-तन्त्र के विभिन्न रोग हो जाते हैं।

प्रश्न 12:
वायु-प्रदूषण के दो कारण लिखिए। [2018]
उत्तर:
(1) नगरीकरण, औद्योगीकरण एवं अनियन्त्रित भवन-निर्माण से वायु बान्त्रत (UPBoardSolutions.com) भवन-निमोण से वायु प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो रही है।
(2) विभिन्न परिवहन साधनों (वाहनों) से निकलता धुआँ तथा कारखानों की चिमनियों से निकलता धुआँ वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी कर रहा है।

प्रश्न 13:
मिल व कारखाने वातावरण को कैसे दूषित करते हैं? [2010, 11]
या
कल-कारखानों से वातावरण कैसे प्रदूषित होता है? [2010, 11, 14, 15]
उत्तर:
मिल तथा कारखानों से निकलने वाली दूषित गैसें तथा विभिन्न व्यर्थ पदार्थ वातावरण को दूषित करते हैं। इनसे वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण तथा मृदा-प्रदूषण में वृद्धि होती है। मिल तथा कारखानों में होने वाली ध्वनियों से ध्वनि-प्रदूषण में भी वृद्धि होती है।

प्रश्न 14:
ध्वनि-प्रदूषण किसे कहते हैं? [2008, 12]
उत्तर:
वायुमण्डल में परिवहन के साधनों; कल-कारखानों, रेडियो, लाउडस्पीकरों; के शोर को ध्वनि-प्रदूषण कहते हैं।

प्रश्न 15:
वायु-प्रदूषण से फैलने वाले चार रोगों के नाम लिखिए। [2008, 12, 17]
उत्तर:
वायु-प्रदूषण से जानलेवा बीमारियाँ; जैसे-छाती और साँस की बीमारियाँ यथा ब्रॉन्काइटिस, (UPBoardSolutions.com) तपेदिक, फेफड़ों का कैन्सर, हड्डियों को विकास रुक जाना आदि; फैलती हैं।

प्रश्न 16:
पौधे कार्बन डाइऑक्साइड किस समय छोड़ते हैं? [2010]
उत्तर:
सभी पेड़-पौधे रात के समय कार्बन डाइऑक्साइड विसर्जित करते हैं।

प्रश्न 17:
ध्वनि-प्रदूषण तथा वायु-प्रदूषण में क्या अन्तर होता है? [2007]
उत्तर:
ध्वनि-प्रदूषण की दशा में पर्यावरण में शोर बढ़ जाता है जबकि वायु-प्रदूषण की दशा में वायु दूषित हो जाती है तथा उसमें हानिकारक तत्त्वों की मात्रा बढ़ जाती है।

प्रश्न 18:
मृदा-प्रदूषण का जन-जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? [2008]
उत्तर:
मृदा-प्रदूषण में होने वाली वृद्धि का सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव फसलों पर पड़ता है। कृषि-उत्पादन घटते हैं। इसके अतिरिक्त प्रदूषित मिट्टी में उत्पन्न होने वाले भोज्य-पदार्थों को ग्रहण करने से हमारे स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।

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बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न:
निम्नलिखित बहुविकल्पीय प्रश्नों के सही विकल्पों का चुनाव कीजिए

1. पर्यावरण में सम्मिलित हैं
(क) जड़ पदार्थ
(ख) चेतन पदार्थ
(ग) प्राकृतिक कारक
(घ) ये सभी

2. सम्पूर्ण पर्यावरण का गठन होता है
(क) प्राकृतिक पर्यावरण से
(ख) सामाजिक पर्यावरण से
(ग) सांस्कृतिक पर्यावरण से
(घ) इन सभी से

3. पर्यावरण का अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है
(क) जन-सामान्य के धार्मिक जीवन पर
(ख) जन-सामान्य की कलाओं पर
(ग) जन-सामान्य के साहित्य पर
(घ) इन सभी पर

4. आधुनिक युग की गम्भीर समस्या है
(क) बेरोजगारी
(ख) निरक्षरता
(ग) पर्यावरण-प्रदूषण
(घ) भिक्षावृत्ति

5. पर्यावरण-प्रदूषण का प्रभाव पड़ता है
(क) जन-स्वास्थ्य पर
(ख) व्यक्तिगत कार्यक्षमता पर
(ग) आर्थिक जीवन पर
(घ) इन सभी पर

6. पर्यावरण-प्रदूषण में वृद्धि करने वाले कारक हैं
(क) औद्योगीकरण
(ख) नगरीकरण
(ग) यातायात के शक्ति-चालित साधने
(घ) ये सभी

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7. पौधे वायुमण्डल का शुद्धिकरण करते हैं [2016]
या
पौधे भोजन बनाते समय वायुमण्डल का शुद्धिकरण करते हैं [2007]
(क) नाइट्रोजन द्वारा
(ख) ऑक्सीजन द्वारा
(ग) कार्बन डाइऑक्साइड द्वारा
(घ) जल द्वारा

8. प्रदूषण से बचने के लिए किस प्रकार का ईंधन उत्तम होता है? [2017]
(क) लकड़ी
(ख) कोयला
(ग) गैस
(घ) कंडी (उपला)

9. चौबीसों घण्टे ऑक्सीजन प्रदान करने वाला पौधा कौन-सा है?
(क) आम का पेड़
(ख) आँवला का पेड़
(ग) पीपल और नीम का पेड़
(घ) गुलाब का पेड़

10. वस्तु के जलने से गैस बनती है [2009, 11, 17]
(क) कार्बन डाइऑक्साइड
(ख) नाइट्रोजन
(ग) ऑक्सीजन
(घ) ओजोन

11. जल-प्रदूषण को रोकने के लिए कौन-से रासायनिक पदार्थ का प्रयोग किया जाता है?
(क) सोडियम क्लोराइड
(ख) कैल्सियम क्लोराइड
(ग) ब्लीचिंग पाउडर
(घ) पोटैशियम मेटाबोइसल्फाइट

12. ध्वनि मापक इकाई को कहते हैं
(क) कैलोरी
(ख) फारेनहाइट
(ग) डेसीबल
(घ) इनमें से कोई नहीं

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13. ध्वनि प्रदूषण का कारण है [2016, 17, 18]
(क) साइकिल
(ख) लाउडस्पीकर
(ग) रिक्शा
(घ) इनमें से सभी

14. ध्वनि प्रदूषण प्रभावित करता है। [2017]
(क) आमाशय को
(ख) वृक्क को
(ग) कान को
(घ) यकृत को

15. लाउडस्पीकर की आवाज से किस प्रकार का प्रदूषण फैलता है? [2015]
(क) वायु-प्रदूषण
(ख) ध्वनि प्रदूषण
(ग) मृदा-प्रदूषण
(घ) जल-प्रदूषण

16. प्रकृति में ऑक्सीजन का सन्तुलन बनाए रखते हैं [2008, 09, 12, 15]
(क) मनुष्य
(ख) कीट-पतंगे
(ग) वन्य-जीव
(घ) पेड़-पौधे

17. पौधों से ऑक्सीजन प्राप्त होती है [2009, 14, 15 ]
(क) रात में
(ख) सवेरे में
(ग) दिन में
(घ) शाम को

18. पौधे कार्बन डाइऑक्साइड गैस किस समय छोड़ते हैं ? [2010]
(क) दिन में
(ख) रात में
(ग) दोपहर के समय
(घ) इनमें से कोई नहीं

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19. हमारे स्वास्थ्य के लिए किस प्रकार का प्रदूषण हानिकारक है? [2011, 13, 14, 15]
(क) जल-प्रदूषण
(ख) ध्वनि प्रदूषण
(ग) वायु-प्रदूषण
(घ) ये सभी

20. पर्यावरण कहते हैं। [2013]
(क) प्रदूषण को
(ख) वातावरण को
(ग) पृथ्वी के चारों ओर के वातावरण को
(घ) इनमें से कोई नहीं

21. वायु-प्रदूषण का कारण है। [2014]
(क) औद्योगीकीकरण
(ख) वनों की अनियमित कटाई
(ग) नगरीकरण
(घ) ये सभी

22. पर्यावरण दिवस किस दिन मनाया जाता है ? [2011, 12, 13, 15, 16]
(क) 1 जून
(ख) 5 जून
(ग) 12 जून
(घ) 18 जून

23. ऑक्सीजन कहाँ से प्राप्त होती है? [2013]
(क) बन्द कमरे से
(ख) पेड़-पौधों से
(ग) नालियों से
(घ) खनिज से

24. कार्बनिक यौगिकों (वस्तुओं के जलने से कौन-सी गैस बनती है ? [2015, 16, 17]
(क) ऑक्सीजन
(ख) कार्बन डाइऑक्साइड
(ग) नाइट्रोजन
(घ) अमोनिया

25. ‘अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस’ किस दिन मनाया जाता है ? [2018]
(क) 21 जून
(ख) 20 जून
(ग) 25 जून
(घ) 28 जून

उत्तर:
1. (घ) ये सभी,
2. (घ) इन सभी से,
3. (घ) इन सभी पर,
4. (ग) पर्यावरण-प्रदूषण,
5. (घ) इन सभी पर,
6. (घ) ये सभी,
7. (ख) ऑक्सीजन द्वारा,
8. (ग) गैस,
9. (ग) पीपल और नीम का पेड़,
10. (क) कार्बन डाइऑक्साइड,
11. (ग) ब्लीचिंग पाउडर,
12. (ग) डेसीबल,
13. (ख) लाउडस्पीकर,
14. (ग) कान,
15. (ख) ध्वनि प्रदूषण,
16. (घ) पेड़-पौधे,
17. (ग) दिन में,
18. (ख) रात में,
19. (घ) ये सभी,
20. (ग) पृथ्वी के चारों ओर के वातावरण को,
21. (घ) ये सभी,
22. (ख) 5 जून,
23. (ख) पेड़-पौधों से,
24. (ख) कार्बन डाइ-ऑक्साइड,
25. (क) 21 जून

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UP Board Solutions for Class 10 Home Science Chapter 13 वस्त्रों की धुलाई तथा रख-रखाव

UP Board Solutions for Class 10 Home Science Chapter 13 वस्त्रों की धुलाई तथा रख-रखाव

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
वस्त्रों की धुलाई से आप क्या समझती हैं? वस्त्रों की धुलाई की आवश्यकता भी स्पष्ट कीजिए।
या
वस्त्रों की धुलाई क्यों आवश्यक होती है? [2011,17,18]
उत्तर:
वस्त्रों की धुलाई का अर्थ

सभ्य मनुष्य के जीवन में वस्त्रों का अत्यन्त महत्त्व है। प्रत्येक व्यक्ति समय-समय पर जो वस्त्र धारण करता है, उन वस्त्रों से जहाँ एक ओर उसके शरीर को विभिन्न प्रकार की सुरक्षा प्राप्त होती है, वहीं दूसरी ओर वे वस्त्र व्यक्ति के व्यक्तित्व को (UPBoardSolutions.com) निखारने में भी महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करते हैं। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि केवल साफ-सुथरे तथा धुले हुए वस्त्र ही उत्तम माने जाते हैं।
नियमित रूप से धारण किए जाने वाले तथा घर पर अन्य प्रयोजनों के लिए इस्तेमाल होने वाले वस्त्र शीघ्र ही गन्दे एवं मैले हो जाते हैं। वस्त्रों के गन्दे एवं मैले होने में जहाँ बाहरी धूल-मिट्टी एवं गन्दगी की विशेष भूमिका होती है, वहीं वस्त्रों को धारण करने वाले व्यक्ति के शरीर से निकलने वाले पसीने का भी विशेष प्रभाव होता है। पसीने से गीले हुए वस्त्रों में बाहरी धूल-मिट्टी जम जाती है। यही नहीं पसीना वस्त्रों में ही सूखकर उन्हें दुर्गन्धयुक्त भी बनाता है। इस प्रकार विभिन्न कारणों से गन्दे एवं मैले हुए वस्त्रों को पुनः गन्दगी एवं दुर्गन्धरहित साफ-सुथरा बनाने की प्रक्रिया को ही वस्त्रों की धुलाई कहते हैं। वस्त्रों की धुलाई के अन्तर्गत विभिन्न साधनों एवं उपायों द्वारा वस्त्रों की मैल, गन्दगी, दुर्गन्ध
आदि को समाप्त किया जाता है तथा पुनः वस्त्रों को साफ-सुथरा बनाया जाता है। वस्त्रों की धुलाई के लिए जल तथा शोधक पदार्थ (साबुन, डिटर्जेण्ट आदि) आवश्यक होते हैं तथा इसके लिए वस्त्रों को मलना, रगड़ना, पीटना एवं खंगालना आदि आवश्यक उपाय होते हैं।

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वस्त्रों की धुलाई की आवश्यकता

प्रश्न उठता है कि वस्त्रों को धुलाई की आवश्यकता क्यों होती है? या यह कहा जाए कि वस्त्रों की धुलाई का उद्देश्य क्या होता है? इस विषय में निम्नलिखित तथ्यों को जानना अभीष्ट होगा

(1) वस्त्रों की सफाई के लिए:
शरीर की नियमित सफाई जिस प्रकार अति आवश्यक होती है, ठीक उसी प्रकार शरीर पर धारण करने वाले तथा अन्य प्रयोजनों के लिए इस्तेमाल होने वाले वस्त्रों की भी नियमित सफाई आवश्यक होती है। शारीरिक सफाई के लिए स्नान आवश्यक होता है तथा की सफाई के लिए वस्त्रों की धुलाई को आवश्यक माना जाता है।

(2) वस्त्रों की दुर्गन्ध समाप्त करने के लिए:
कपड़ों को पहनने, बिछाने तथा ओढ़ने आदि के दौरान शरीर से निकलने वाला पसीना उनमें व्याप्त हो जाता है। इस पसीने से वस्त्रों में दुर्गन्ध आ जाती है। इस दुर्गन्ध को समाप्त करने के लिए भी वस्त्रों की धुलाई आवश्यक हो जाती है।

(3) कपड़ों की सुरक्षा के लिए:
कपड़ों की सुरक्षा के लिए भी इनकी नियमित धुलाई आवश्यक मानी जाती है। गन्दे एवं मैले वस्त्रों को विभिन्न प्रकार के कीड़ों, फफूदी तथा बैक्टीरिया आदि द्वारा नष्ट कर देने की आशंका बनी रहती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए वस्त्रों की सुरक्षा के लिए भी वस्त्रों की धुलाई को आवश्यक माना जाता है।

(4) व्यक्तिगत स्वास्थ्य के लिए:
मैले एवं गन्दे वस्त्र व्यक्तिगत स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव डालते हैं। मैले एवं गन्दे वस्त्र निरन्तर धारण किए रहने की स्थिति में विभिन्न चर्म रोग हो जाने की आशंका रहती है। यही नहीं गन्दे वस्त्र धारण करने से व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव (UPBoardSolutions.com) पड़ सकता है। ऐसा व्यक्ति प्रायः हीन-भावना का शिकार हो जाता है। इस स्थिति में व्यक्तिगत, शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को रम्नाए रखने के लिए भी वस्त्रों की नियमित धुलाई आवश्यक मानी जाती है।

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(5) कपड़ों की सुन्दरता के लिए:
गन्दे एवं मैले वस्त्र भद्दे एवं बुरे लगते हैं। वस्त्रों को सुन्दर एवं आकर्षक बनाने के लिए उनकी नियमित धुलाई आवश्यक होती है।

(6) व्यक्तित्व के निखार के लिए:
नि:सन्देह कहा जा सकता है कि साफ-सुथरे एवं धुले हुए तथा अच्छी तरह से प्रेस किए हुए वस्त्र धारण करने से व्यक्ति के व्यक्तित्व में निखार आ जाता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए भी वस्त्रों की धुलाई को आवश्यक माना जाता है।

(7) बचत के लिए:
वस्त्रों की धुलाई का एक उद्देश्य समुचित बचत करना भी होता है। वास्तव में गन्दे वस्त्र शीघ्र फट जाते हैं, जबकि नियमित रूप से धोये जाने वाले वस्त्र अधिक दिन तक ठीक बने रहते हैं। इस प्रकार कपड़ों पर होने वाले व्यय की भी बचत होती है।

प्रश्न 2:
वस्त्रों को घर पर धोने से क्या लाभ है? [2009, 10, 11]
या
वस्त्रों की धुलाई करते समय कौन-कौन सी मुख्य बातों को ध्यान में रखेंगी?
या
कपड़े धोते समय ध्यान रखने योग्य पाँच सावधानियाँ लिखिए। [2009, 11]
या
घर पर वस्त्र धोने के क्या लाभ हैं? वस्त्रों को धोने से पहले क्या-क्या सावधानियाँ रखनी चाहिए? [2008, 09, 10, 11, 18]
या
वस्त्रों की घर पर धुलाई के लाभ बताइए। [2007, 09, 10, 11, 13, 14]
या
वस्त्रों को धोने से पहले किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? [2015, 16]

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उत्तर:
घर पर वस्त्र धोने से लाभ

व्यावसायिक स्तर पर कपड़ों की धुलाई का कार्य धोबियों द्वारा अथवा नगरों में स्थापित लॉण्ड्रियों द्वारा किया जाता है, परन्तु परिवार के सदस्यों के दैनिक इस्तेमाल के वस्त्रों की धुलाई का कार्य घर पर ही किया जाता है। वास्तव में घर पर वस्त्रों की धुलाई करना (UPBoardSolutions.com) अधिक सुविधाजनक एवं लाभदायक भी होता है। घर पर वस्त्रों की धुलाई के मुख्य लाभ निम्नलिखित हैं

(1) समय की बचत:
धोबी अथवी लॉण्ड्री से वस्त्र धुलवाने में कई दिन का समय लगता है, जबकि स्वयं वस्त्र धोने पर उन्हें केवल कुछ घण्टों बाद ही प्रयोग में लाया जा सकता है। इस प्रकार घर पर वस्त्र धोने से समय की पर्याप्त बचत होती है।

(2) धन की बचत:
घर पर वस्त्र धोने से बहुत कम धन व्यय होता है। धोबी अथवा लॉण्ड्री की धुलाई में प्रति वस्त्र काफी धन व्यय करना पड़ता है, जबकि एक ही अच्छे साबुन अथवा डिटर्जेण्ट पाउडुर के प्रयोग से अनेक वस्त्रों की धुलाई की जा सकती है तथा धन की पर्याप्त बचत भी की जा सकती है। इसके अतिरिक्त घर पर वस्त्र धोने पर वस्त्रों की कम संख्या में ही कामे चलाया जा सकता है।

(3) वस्त्रों की आयु में वृद्धि:
वस्त्रों को धोते समय धोबी प्राय: अम्ल एवं कास्टिक सोडा अधिक मात्रा में प्रयोग करते हैं, जिससे तन्तु कमजोर हो जाने के फलस्वरूप वस्त्र शीघ्र फट जाते हैं। घर पर वस्त्रों की धुलाई ठीक प्रकार से होती है। अतः ये अधिक समय तक चलते हैं।

(4) रोगों से बचाव:
धोबी प्रायः अनेक घरों वस्त्र एकत्रित कर एक साथ उनकी धुलाई करते हैं। इस प्रकार रोगी एवं स्वस्थ मनुष्यों के वस्त्र साथ-साथ धुलते हैं। अधिकांश धोबी नगर के निकट के किसी तालाब या पोखर के पानी से कपड़े धोया करते हैं। यह पानी काफी गन्दा होता है। (UPBoardSolutions.com) इससे अनेक संक्रामक रोगों के फैलने की सम्भावना रहती है। घर पर रोगी के वस्त्र अलग से विधिपूर्वक धोए जाते हैं, जिससे रोगों से बचाव की पूर्ण सम्भावना रहती है।

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(5) अन्य लाभ:
घर पर वस्त्रों की धुलाई से होने वाले कुछ अन्य लाभ हैं|

  1. वर्षा ऋतु में कपड़े धोकर लाने में धोबी अधिक एवं अनिश्चित समय लगाता है, जबकि घर पर आवश्यक वस्त्र धोने से इस कठिनाई से बचा जा सकता है।
  2. धोबी प्रायः धोए जाने वाले वस्त्रों का स्वयं भी प्रयोग करते हैं। उनकी लापरवाही के कारण कई बार वस्त्र या तो खो जाते हैं अथवा दूसरे व्यक्तियों से बदल जाते हैं। घर पर वस्त्रों को धोने से इस प्रकार की कठिनाइयाँ नहीं होतीं।
  3. धोबी कई बार सफेद व रंगीन वस्त्रों को एक साथ धो देते हैं, जिससे सफेद वस्त्रों में रंगीन धब्बों के लगने की आशंका रहती है। घर पर वस्त्रों को धोने से इस प्रकार की आशंका से बचा जा सकता है। घर पर वस्त्र धोते समय वस्त्रों में इच्छानुसार केलफ लगाया जा सकता है।

वस्त्र धोने से पूर्व ध्यान देने योग्य बातें

वस्त्र धोने की तैयारी अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। वस्त्रों की धुलाई से पूर्व कुछ सावधानियों का पालन करने से तथा विधिपूर्वक वस्त्र धोने से न केवल वस्त्र ठीक प्रकार से धुलते हैं, बल्कि कई अन्य लाभ भी होते हैं। वस्त्रों की धुलाई से पूर्व निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए

  1. धोने से पहले वस्त्रों की जेबों को सावधानीपूर्वक देख लेना चाहिए। इससे कई बार जेबों में रखी मुद्रा अथवा महत्त्वपूर्ण कागज नष्ट होने से बच जाते हैं।
  2. वस्त्रों में लगे लोहे के बकसुए, बैचेज़, बकल एवं अन्य इस प्रकार के सामान धुलाई से पूर्व अलग कर देने चाहिए। इससे वस्त्र जंग लगने से सुरक्षित रहते हैं।
  3. फटे वस्त्रों की धुलाई से पूर्व ही मरम्मत कर लेनी चाहिए। यदि वस्त्रों के बटन आदि टूट गये हों तो उनमें भी प्रारम्भ में ही टाँके लगा देने चाहिए।
  4. वस्त्रों में यदि दाग अथवा धब्बे लगे हों, तो उन्हें धुलाई से पूर्व ही साफ करना चाहिए।
  5. रोगी के वस्त्रों को अलग करके व उन्हें उबलते पानी में कुछ समय तक डालकर (UPBoardSolutions.com) उनका नि:संक्रमण करना चाहिए। इससे अन्य व्यक्तियों में रोग फैलने की आशंका समाप्त हो जाती है।
  6. रेशमी, ऊनी व सूती वस्त्रों को अलग-अलग कर लेना चाहिए। (7) रेशमी वस्त्रों को धोते समय कास्टिक सोडे का न्यूनतम प्रयोग करना चाहिए।
  7.  रेशमी व ऊनी कपड़ों को अधिक गर्म पानी में नहीं धोना चाहिए और इन्हें अधिक कसकर नहीं निचोड़ना चाहिए।
  8. सूती वस्त्र धोते समय गर्म पानी व कास्टिक सोडे का प्रयोग किया जा सकता है। सफेद सूती वस्त्रों को धोते समय रानीपाल व नील का भी प्रयोग करते हैं। सूती वस्त्रों में इच्छानुसार कलफ भी लगाया जा सकता है।
  9. सफेद व रंगीन कपड़ों को अलग-अलग धोना चाहिए। पहले सफेद कपड़ों को तथा बाद में रंगीन कपड़ों को धोना चाहिए। इससे सफेद कपड़ों पर रंगों के धब्बे पड़ने की आशंका नहीं रहती है।

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प्रश्न 3:
रेशमी तथा ऊनी वस्त्रों की धुलाई की सम्पूर्ण विधि का वर्णन कीजिए। [2007, 11, 12]
या
ऊनी वस्त्रों को धोते समय क्या-क्या सावधानियाँ रखेंगी? [2011, 12, 14, 15]
या
ऊनी वस्त्र धोने एवं सुखाने की विधि लिखिए। [2010, 12]
या
रेशमी वस्त्रों की धुलाई की विधि लिखिए। [2007, 09, 10, 11, 13, 15]
उत्तर:
रेशमी वस्त्रों की धुलाई

तीव्र क्षार, रगड़ एवं अधिक ताप के उपयोग से रेशम के तन्तु दुर्बल व बेकार हो जाते हैं। अत: मूल्यवान् रेशमी वस्त्रों की या तो ड्राइक्लीनिंग करानी चाहिए अथवा उन्हें विधिपूर्वक धोना चाहिए। रेशमी वस्त्रों को क्षारहीन साबुन से अथवा उत्तम गुणवत्ता वाले डिटर्जेण्टों से गुनगुने पानी में धोनी चाहिए। ईजी अथवा रीठों का सत रेशमी वस्त्रों को धोने के लिए प्रयुक्त करना चाहिए। सफेद एवं रंगीन रेशमी वस्त्रों को अलग-अलग धोना चाहिए।

धोने की विधि:
एक प्लास्टिक के टब अथवा बाल्टी में हल्का गर्म पानी लेकर उसमें डिटर्जेण्ट पाउडर घोलकर झाग बना लेते हैं। रीठे का प्रयोग करते समय बीज निकालकर रीठों को पानी में उबाल लेते हैं। अब इस पानी को ठण्डा कर झाग उत्पन्न कर लेते हैं। रेशमी वस्त्रों को उपर्युक्त (UPBoardSolutions.com) किसी भी प्रकार के झागदार पानी में डुबो देते हैं। अब इन्हें हाथों से हल्के-हल्के मलकर एवं दबाकर इनका मैल निकाल देते हैं। यह प्रक्रिया दो या तीन बार दोहराते हैं। अन्तिम बार हल्के रंग के वस्त्रों के लिए एक चम्मच मेथिलेटिड स्प्रिट व गहरे र के वस्त्रों के लिए एक चम्मच सिरका एक लीटर पानी में मिलाकर खंगालने से इन वस्त्रों में स्वाभाविक चमक आ जाती है।

निचोड़ना एवं सुखाना:
रेशमी वस्त्रों को या तो हल्के-हल्के दबाकर उनका पानी निकालना चाहिए अथवा तौलिये में लपेटकर निचोड़ना चाहिए। अब इन्हें सावधानीपूर्वक फैलाकर छाँव में सुखाना चाहिए। हल्के से नम रहने पर मध्यम गर्म इस्त्री से इनकी सलवटें दूर की जा सकती हैं।

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ऊनी वस्त्रों की धुलाई

धोने की विधि:
ऊनी वस्त्रों को धोने से पूर्व अच्छी प्रकार झाड़कर उनकी धूल-मिट्टी दूर कर देनी चाहिए। ऊनी वस्त्रों को रीठे के झागदार पानी अथवा पानी में डिटर्जेण्ट पाउडर डालकर रेशमी वस्त्रों के समान धोना चाहिए। रंगीन व हल्के रंगों के ऊनी वस्त्रों को अलग-अलग धोना चाहिए। ऊनी वस्त्रों को हल्के हाथों से मलकर उनका मैल दूर करना चाहिए।

खंगालना व निचोड़ना:
ऊनी वस्त्रों को धीरे से हाथ का नीचे की ओर से सहारा देकर जल से बाहर निकालना चाहिए। हल्का-सा दबाव देकर इनका शोषित जल निकाल दें। साफ जल का प्रयोग कर इस प्रक्रिया को 2-3 बार दोहराएँ जिससे कि वस्त्रों से साबुन पूर्ण रूप से दूर हो जाए। अन्तिम बार एक लीटर जल में आधा चम्मच सिरका डालने से इन वस्त्रों में स्वाभाविक चमक आ जाती है। अब हाथों से दबाकर अथवा तौलिये में लपेटकर इन्हें निचोड़ना चाहिए।

सुखाना:
ऊनी वस्त्रों को सुखाना एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। इन्हें सूती वस्त्रों के समान लटका कर नहीं सुखाना चाहिए। इससे जल के भार के कारण इनकी आकृति विकृत हो जाती है। इनको पुराने समाचार-पत्र पर इनकी आकृति के अनुसार फैला देना चाहिए। समाचार-पत्र के नीचे मोटा (UPBoardSolutions.com) तौलिया बिछाकर टॉकों अथवा पिनों की सहायता से इनकी आकृति को स्थायित्व दिया जाना चाहिए। अब इन्हें लटकाकर अथवा फैलाकर सुखाया जा सकता है। ऊनी वस्त्रों पर गीला कपड़ा फैलाकर पर्याप्त गर्म इस्त्री द्वारा प्रेस की जाती है।

प्रश्न 4:
सफेद सूती वस्त्रों की धुलाई की विधि लिखिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 16, 17]
उत्तर:
सूती वस्त्रों की धुलाई

सूती वस्त्रों को धोते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए

  1. सफेद व रंगीन वस्त्रों को अलग-अलग कर देना चाहिए।
  2.  टूटे बटन वाले व फटे वस्त्रों की मरम्मत कर लेने चाहिए।
  3. वस्त्रों पर लगे दाग-धब्बे छुड़ा लेने चाहिए।
  4. वस्त्रं धोने की सामग्री; जैस – टब, बाल्टी, मग, साबुन, स्टार्च, नील आदि; (UPBoardSolutions.com) को सुविधाजनक स्थान पर एकत्रित कर लेना चाहिए।
  5. सूती वस्त्रों को ठण्डे गुनगुने पानी में 4-5 घण्टे तक भिगो देने से उनका मैल गल जाता है।

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धोने की विधि:
मजबूत सूती वस्त्रों पर साबुन लगाकर दबाव के साथ रगड़ा जाता है। एक बाल्टी में पानी भरकर साबुन के फ्लेक्स अथवा पाउडर घोलकर झाग उत्पन्न कर लेने चाहिए। अब सूती वस्त्रों को इसमें भिगोकर कसकर रगड़े। अधिक मैले स्थानों पर अतिरिक्त साबुन लगाकर दोबारा रगड़ना चहिए। अब इन्हें निचोड़कर 3-4 बार साफ पानी में खंगालें।

कई बार धोने पर सफेद वस्त्रों में पीलापन आने लगता है। इस प्रकार के वस्त्रों को धोने के लिए खौलते हुए पानी को प्रयोग में लाना चाहिए। एक बड़े भगौने में पानी व साबुन का घोल बनाकर वस्त्र भिगोकर उन्हें 15-20 मिनट तक उबालना चाहिए तथा वस्त्रों को लकड़ी की थपकी से चलाते रहना चाहिए। अब जल को ठण्डा होने दें। वस्त्रों को अच्छी प्रकार से रगड़कर निचोड़ लें तथा साफ पानी में 3-4 बार खंगालकर इनसे साबुन के अंश दूर करें। इस विधि द्वारा वस्त्रों का नि:संक्रमण हो जाता है। तथा चिकनाई एवं प्रोटीन के धब्बे भी दूर हो जाते हैं।

सूती वस्त्रों में धुलाई के पश्चात् नील व कलफ लगाया जाता है। इसके लिए एक टब में एक लीटर पानी लेकर उपयुक्त मात्रा में नील व कलफ (स्टार्च) घोल लिया जाता है। अब इसमें धुले वस्त्रों को भिगोकर तथा हल्के दबाव से निचोड़कर सुखा देना चाहिए। ध्यान रहे कि रंगीन कपड़ों को धूप में नहीं सुखाना चाहिए। सफेद वस्त्रों में अतिरिक्त चमक-दमक लाने के लिए रानीपाल का प्रयोग भी किया जाता है।

प्रश्न 5:
सूती वस्त्रों को कलफ क्यों लगाया जाता है? कलफ बनाने की मुख्य विधियों का वर्णन कीजिए।
या
कलफ किन-किन वस्तुओं से तैयार किया जाता है ? विस्तार से समझाइए। [2007, 08, 09, 10, 11, 16, 17, 18]
या
मैदा या अरारोट का कलफ बनाने की विधि लिखिए। [2008, 09, 10, 11, 12, 13, 15]
या
कलफ कितने प्रकार के होते हैं? रेशमी वस्त्र पर किस चीज का कलफ लगाया जाता है ? इसे बनाने की विधि बताइए। [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16]
या
वस्त्रों पर कलफ क्यों लगाया जाता है ? विभिन्न प्रकार के वस्त्रों पर कौन-कौन से कलफ लगाने चाहिए ? किसी प्रकार के कलफ बनाने और प्रयोग करने की विधि लिखिए। [2008, 09, 16]
या
अरारोट/चावल का कलफ बनाने की विधि लिखिए। [2011, 16]
उत्तर:
सूती वस्त्रों में कलफ

माँडी (स्टार्च) अथवा कलफ के प्रयोग से सूती वस्त्रों में कड़ापन उत्पन्न हो जाता है। कलफ धागों के मध्य के रिक्त स्थानों को भर देता है, जिससे वस्त्रों में धूल व गन्दगी आसानी से नहीं लग पाती। कलफ लगे वस्त्रों पर इस्त्री करने से उनमें झोल नहीं पड़ता तथा उनमें (UPBoardSolutions.com) चमक व नवीनता की जाती है।
कलफ बनाने की विधियाँ वस्त्रों को कलफ लगाने के लिए स्टार्च युक्त भिन्न-भिन्न पदार्थों से कलफ तैयार किया जाता है। कलफ बनाने की कुछ विधियों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

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(1) मैदा या अरारोट का कलफ:
इसे बनाने के लिए एक बड़ी चम्मच मैदा या अरारोट, तीनचौथाई चम्मच सुहागा, चौथाई चम्मच मोम लेकर ठण्डे पानी में गाढ़ा घोल तैयार करते हैं। अब धीरेधीरे गर्म पानी डालकर तथा किसी बड़े चमचे से हिलाते हुए घोल को पतला कर लेते हैं। इसके उपरान्त हल्की आँच पर इसे पका लेते हैं। पकाते समय इसे निरन्तर चलाते रहना चाहिए अन्यथा गाँठे पड़ जाने की आशंका रहती है। अच्छी तरह पक जाने पर कलफ तैयार हो जाता है।

(2) चावल का कलफ:
चावल को पीसकर महीन छलनी में छान लें। अब चावल का आटा दो चम्मच, सुहागा आधा चम्मच एवं मोम चौथाई चम्मच लेकर तथा इन्हें पानी में घोलकर धीमी आँच पर पकाकर कलफ बनाया जाता है। एक अन्य विधि में चावल बनाते समय शेष बची माँडी में सुहागा व मोम (UPBoardSolutions.com) मिलाकर भी चावल का कलफ बनाया जाता है, परन्तु यह विधि उत्तम नहीं मानी जाती है, क्योंकि इस स्थिति में खाने के लिए शेष बचे चावलों में पोषक तत्वों की न्यूनता हो जाती है। |

(3) साबूदाने का कलफ:
50 ग्राम साबूदाने को आधा लीटर पानी में भिगो दें। 10-15 मिनट बाद थोड़ा पानी डालकर उबाल लें। दानों के भली प्रकार गलकर घुल जाने पर इसे एक महीन कपड़े में छान लें तथा इसमें आधा चम्मच सुहागा मिलाकर कलफ तैयार कर लें।

(4) चोकर का कलफ:
मक्का के चोकर को चार गुने पानी में डालकर लगभग आधा घण्टे तक उबालते हैं। अब इस घोल को महीन कपड़े में छानकर प्रयोग में लाते हैं।

(5) गोंद का कलफ:
125 ग्राम गोंद को लगभग एक लीटर पानी में घोल लें। अब इसे हिलाते हुए गर्म करें। जब यह पूर्णरूप से घुल जाए, तो इसे महीन कपड़े से छान लें। अब इसमें आवश्यकतानुसार पानी मिलाकर प्रयोग में ला सकते हैं। गोंद का कलफ प्रायः ऐसे वस्त्रों में लगाया जाता है जिनमें कि अधिक शक्ति की आवश्यकता नहीं होती है। गोंद का कलफ साधारणतः रेशमी वस्त्रों, झालर तथा लेस आदि में ल्याया जाता है।

प्रश्न 6:
दाग व धब्बे छुड़ाने की प्रमुख विधियाँ कौन-कौन सी हैं? वस्त्रों पर साधारणतः पड़ने वाले दाग-धब्बों को आप किस प्रकार दूर करेंगी? [2012, 13, 15, 16]
या
धब्बे कितने प्रकार के होते हैं? किन्हीं पाँच धब्बों को छुड़ाने की विधि लिखिए। [2007, 12]
या
चाय/वार्निश और हल्दी का धब्बा कैसे छुड़ाएँगी? [2010, 11, 12, 13, 14, 16]
या
दाग-धब्बे छुड़ाने की विधियाँ लिखिए। चिकनाई व हल्दी के धब्बे आप कैसे छुड़ाएँगी? [2007, 11]
या
नेल पॉलिश और हल्दी के धब्बे छुड़ाने की विधि लिखिए। [2011]
या
किन्हीं पाँच धब्बों को छुड़ाने की विधि लिखिए। चाय और स्याही के दाग छुड़ाने की विधि लिखिए। [2007, 12, 13]
या
चाय, स्याही और हल्दी के धब्बे छुड़ाने की विधियाँ लिखिए। [2007, 08, 09, 10, 12, 16, 17, 18]
उत्तर:
दाग-धब्बे छुड़ाने की मुख्य विधियाँ

दाग-धब्बे वस्त्रों की स्वाभाविक सुन्दरता को नष्ट कर देते हैं। थोड़ी-सी भी लापरवाही से दागधब्बे वस्त्रों पर लग जाते हैं और यदि समय रहते इन्हें न छुड़ाया जाए, तो ये स्थायी बनकर रह जाते हैं। इन्हें छुड़ाने की मुख्य विधियाँ निम्नलिखित हैं|

(1) विलायकों द्वारा:
विलायकों; जैसे – कार्बन टेट्राक्लोराइड, पेट्रोल, तारपीन का तेल इत्यादि का प्रयोग कर घुलनशीन धब्बों को छुड़ाया जाता है। विलायक को ब्लॉटिंग पेपर या रुई पर लगाकर धब्बे के पीछे मल देते हैं। धब्बा विलायक में घुलकर वस्त्र से अलग हो जाता है।

(2) रासायनिक पदार्थों द्वारा:
सुहागा, ऑक्जेलिक एसिड, नींबू का रस आदि ऐसे रासायनिक पदार्थ हैं जिनके तनु घोल में वस्त्र भिगोने पर उसके धब्बे दूर हो जाते हैं। विशेष प्रकार के धब्बे के लिए विशिष्ट रासायनिक पदार्थ का उपयोग किया जाता है।

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(3) अवशोषक विधि द्वारा:
इस विधि में धब्बों के ऊपर टेल्कम पाउडर, खड़िया, मैदा व नमक आदि डाले जाते हैं तथा फिर इन्हें ब्रश द्वारा झाड़ दिया जाता है। इस प्रक्रिया को कई बार दोहराने से धब्बे दूर हो जाते हैं।

वस्त्रों से विभिन्न प्रकार के धब्बे दूर करना

वस्त्रों पर प्रायः चाय, कॉफी, फलों के रस, चिकनाई, हल्दी, पेण्ट व स्याही इत्यादि के धब्बे लग जाते हैं। वस्त्रों पर लगने वाले सामान्य धब्बों को निम्नलिखित विधियों से दूर किया जा सकता है

(1) चाय के धब्बे:
ठण्डे पानी व साबुन से चाय का ताजा धब्बा सहज ही दूर हो जाता है। गर्म पानी में सुहागा घोलकर चाय के पुराने धब्बों को दूर किया जा सकता है।

(2) कॉफी व चॉकलेट के धब्बे:
सुहागा व जल के गुनगुने घोल में भिगोकर धोने से कॉफी व चॉकलेट के धब्बे दूर हो जाते हैं।

(3) दूध के धब्बे:
चिकनाई के विलायक लगाकर गुनगुने पानी से धोने पर ये सहज ही दूर हो जाते हैं।

(4) क्रीम के धब्बे:
ग्लिसरीन लगाकर तथा गुनगुने पानी में साबुन से धोकर इन धब्बों को छुड़ाया जा सकता है।

(5) पसीने के धब्बे:
सिरका अथवा अमोनिया के हल्के घोल का प्रयोग करके धब्बों को दूर करें तथा फिर साफ पानी से वस्त्र को धो दें।

(6) पान के धब्बे:
दही, कच्चा आलू, हरी मिर्च आदि से धब्बे को रगड़कर गर्म पानी व साबुन से धोने पर पान के धब्बों को दूर किया जा सकता है।

(7) रक्त के धब्बे:
सूती वस्त्र को नमक के घोल अथवा कपड़े धोने के सोडे में डुबोकर ब्रश (UPBoardSolutions.com) से रगड़ने पर रक्त के धब्बे दूर हो जाते हैं। रेशमी वस्त्रों पर जल में बने स्टार्च का पेस्ट लगाकर तथा सूखने पर ब्रश द्वारा झाड़ने से रक्त के धब्बों को दूर किया जा सकता है।

(8) अण्डे के धब्बे:
ताजे धब्बों को कास्टिक सोडे के घोल से रगड़कर दूर किया जा सकता है। पुराने धब्बों को पिसा हुआ नमक रगड़कर तथा फिर साबुन से धोकर दूर किया जा सकता है।

(9) फलों के रस के धब्बे :
सूती वस्त्रों पर लगे धब्बों को सुहागे के घोल में कुछ घण्टों तक भिगोकर दूर किया जा सकता है। रेशमी वस्त्रों पर लगे धब्बों को पहले ग्लिसरीन लगाकर र नींबू का रस लगाकर धोकर दूर किया जा सकता है।

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(10) हल्दी के धब्बे:
हल्दी के धब्बों को तुरन्त साबुन से धोएँ तथा अब हल्के पड़े धब्बों पर स्प्रिट अथवा हाइड्रोजन-पर-ऑक्साइड का प्रयोग करके इन्हें दूर किया जा सकता है।

(11) पेण्ट व वार्निश के धब्बे:
इन्हें पेट्रोल, तारपीन का तेल अथवा कार्बन टेट्राक्लोराइड जैसे विलायकों का प्रयोग कर दूर किया जा सकता है।

(12) जंग के धब्बे:
नींबू का रस एवं नमक लगाकर धोने से प्रायः ये धब्बे दूर हो जाते हैं, परन्तु ऐसा न होने पर ऑक्जेलिक एसिड लगाकर धोने से ये निश्चित रूप से दूर हो जाते हैं।

(13) स्याही के धब्बे:
मेथिलेटिड स्प्रिट में भिगोकर धोने से बॉलपेन स्याही के धब्बे दूर हो जाते हैं। गर्म दूध व नींबू का रस लगाने तथा फिर साबुन से धोने पर साधारण स्याही के धब्बों को दूर किया जा सकता है।

(14) नेल पॉलिश के धब्बे:
नेल पॉलिश को घोलने के लिए थिनर उपलब्ध होता है। रूई में थिनर लगाकर धब्बे पर रगड़ने से नेल पॉलिश का धब्बा समाप्त हो जाता है।

प्रश्न 7:
वस्त्रों की सुरक्षा एवं उनके रख-रखाव के उपायों का उल्लेख कीजिए।
या
ऊनी वस्त्रों की आप सुरक्षा कैसे कर सकती हैं? [2010, 11, 14, 15, 16, 17]
उत्तर:
वस्त्रों की सुरक्षा एवं उनका रख-रखाव

मनुष्य की प्रमुख आवश्यकताओं में वस्त्र भी अपना स्थान रखते हैं। मनुष्य वस्त्रे सदैव मौसम एवं अवसर के अनुसार ही पहनता है। गर्मी में सूती एवं रेशमी वस्त्रों का प्रयोग होता है तथा शीतकाल में ऊनी वस्त्रों का प्रयोग किया जाता है। मानवकृत (कृत्रिम) तन्तुओं से निर्मित वस्त्रों का प्रत्येक ऋतु में पहनने का प्रचलन हो गया है। इसीलिए ऐसे वस्त्रों को जो केवल एक विशेष ऋतु; जैसे-ऊनी व कीमती साड़ियाँ; अथवा विशेष अवसरों पर ही प्रयोग किए जाते हैं, फफूदी एवं कीड़ों से सुरक्षा करनी चाहिए।

वस्त्रों की सुरक्षा के उपाय

  1. वस्त्रों को सीलनरहित स्थान (सन्दूक या अलमारी) में ही रखना चाहिए। डी०डी०टी० पाउडर छिड़ककर व अखबार का कागज बिछाकर ही कपड़ों को रखना चाहिए अथवा ओडोनिल या ओडोर की एक टिकिया खोलकर सन्दूक अथवा अलमारी में रख देनी चाहिए।
  2. (रखने से पहले देख लेना चाहिए कि वस्त्रों में नमी तो नहीं है।
  3. ऊनी वस्त्रों को सदैव धोकर ब्रश से साफ करके ही रखना चाहिए। कीमती वस्त्रों (UPBoardSolutions.com) को ड्राइक्लीन करके ही रखना चाहिए। धूल-मिट्टी, गन्दगी की वजह से ही ऊनी वस्त्रों में कीड़ा लगता है।
  4. ऊनी वस्त्रों को यदि अखबार के कागज में लपेटकर रखा जाए, तो उनमें कीड़ा नहीं लगता। .
  5. ऊनी वस्त्रों के सन्दूक में नीम की सूखी पत्तियाँ या नेफ्थलीन की गोलियाँ अथवा ओडोनिल की टिकिया रखने पर कीड़ा कदापि नहीं लगता है। सन्दूक अथवा अलमारी में बरसाती हवा नहीं जानी । चाहिए।
  6. ऊनी वस्त्रों को वर्षा ऋतु के उपरान्त एक-दो बार अवश्य ही तेज धूप में 3-4 घण्टे के लिए सुखाना चाहिए।
  7. जरीदार, रेशमी एवं गोटे-सल्मे के वस्त्रों को अलग से मलमल के कपड़े में बन्द करके रखना चाहिए। इनमें नैफ्थलीन की गोलियाँ कदापि न रखें।

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रख-रखाव

  1. वस्त्रों को यथासम्भव घर पर ही धोना चाहिए। इससे उनका जीवनकाल बढ़ जाता है।
  2. बनियान, अण्डरवियर अदि को प्रतिदिन धोना चाहिए।
  3. वस्त्रों को कभी भी बहुत ज्यादा गन्दा नहीं होने देना चाहिए; क्योंकि बहुत गन्दा होने पर एक वे बिल्कुल साफ नहीं होते हैं तथा धोने के लिए इन्हें काफी रगड़ना व मसलना पड़ता है, जिससे ये क्षीण हो जाते हैं।
  4. पैण्ट, कमीज, कुर्ता, साड़ी इत्यादि को यदि हैंगर पर टाँगकर सुखाएँ, तो उन पर प्रेस आसानी से हो जाती है।
  5. वस्त्रों की समय-समय पर आवश्यक मरम्मत करते रहना चाहिए। यदि कोई वस्त्र उधड़ गया हो या कट-फट गया हो, तो उसकी तुरन्त मरम्मत करनी चाहिए। वस्त्रों के टू न एवं बिगड़ी हुई जिप आदि को भी यथाशीघ्र ठीक कर लेना चाहिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
वस्त्रों की धुलाई के सामान्य सिद्धान्त लिखिए।
उत्तर:
वस्त्रों की धुलाई को कार्य दैनिक पारिवारिक जीवन का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। अतः इस कार्य के व्यावहारिक पक्ष के साथ-ही-साथ सैद्धान्तिक पक्ष को जानना भी आवश्यक है। वस्त्रों की धुलाई के सैद्धान्तिक पक्ष के अन्तर्गत दो तथ्यों की जानकारी आवश्यक है। प्रथम यह कि वस्त्र कैसे गन्दे या मैले हो जाते हैं तथा दूसरा यह कि इन्हें साफ करने का क्या उपाय है? | वस्त्रों की गन्दगी के लिए दो कारक जिम्मेदार होते हैं। प्रथम है धूल या उड़ने वाली गन्दगी। इस प्रकार की गन्दगी वस्त्रों पर चिपकती नहीं है। वस्त्रों से इस प्रकार की गन्दगी को अलग करने के लिए वस्त्रों को ब्रश से अच्छी प्रकार से झाड़ा जाता है। इसके अतिरिक्त सरलता से धोये जाने वाले वस्त्रों को भली-भाँति पानी द्वारा खंगाल लेने से भी धूल-मिट्टी अलग हो जाती है। वस्त्रों को गन्दा करने वाला दूसरा कारक है-स्थिर गन्दगी यो मैल। नमी, चिकनाई या पसीने (UPBoardSolutions.com) में बाहरी धूल मिट्टी पड़ जाने पर वह चिपककर स्थिर गन्दगी या मैल का रूप धारण कर लेती है। इस प्रकार की गन्दगी को वस्त्रों से अलग करने के लिए कुछ अतिरिक्त उपाय करने पड़ते हैं। इसके लिए जिस प्रक्रिया को अपनाया जाता है, उसे ही व्यवस्थित धुलाई कहा जाता है। धुलाई के लिए जल एवं शोधक पदार्थ (साबुन आदि) की आवश्यकता होती है। शोधक पदार्थों द्वारा मैल को घोलकर वस्त्रों से अलग किया जाता है तथा बार-बार साफ पानी में खंगाल कर वस्त्रों को पूरी तरह से साफ कर लिया जाता है।

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प्रश्न 2:
सूती और रेशमी वस्त्र की धुलाई में क्या अन्तर है? [2009]
उत्तर:
सूती एवं रेशमी वस्त्रों के तन्तुओं के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में अन्तर होने के कारण इन्हें धोने के लिए भिन्न विधियाँ अपनाई जाती हैं। सूती एवं रेशमी वस्त्रों की धुलाई की विधियों में निम्नलिखित अन्तर होते हैं

  1. तीव्र क्षार, रगड़ एवं अधिक ताप के उपयोग से रेशम के तन्तु दुर्बल एवं बेकार हो जाते हैं। अत: मूल्यवान रेशमी वस्त्रों की या तो ड्राइक्लीनिंग करानी चाहिए अथवा उन्हें विधिपूर्वक सावधानी से धोना चाहिए। इसके विपरीत सूती वस्त्रों को खौलते पानी, तीव्र क्षार एवं रगड़कर धोया जा सकता है।
  2.  रेशमी वस्त्रों को उत्तम गुणवत्ता के डिटर्जेण्टों अथवा रीठों के सत का प्रयोग कर (UPBoardSolutions.com) गुनगुने पानी में हल्के-हल्के मलकर धोना चाहिए। सूती वस्त्रों को कास्टिक सोडायुक्त साबुन लगाकर रगड़-रगड़कर ठण्डे से खौलते पानी तक में धोया जा सकता है।
  3. सूती वस्त्रों में अधिक सफेदी व चमक लाने के लिए नील व रानीपाल लगाया जाता है, जबकि रेशमी वस्त्रों पर इनका प्रयोग नहीं किया जाता।
  4. रेशमी वस्त्रों में कड़ापन उत्पन्न करने के लिए केवल गोंद का कलफ लगाया जाता है, जबकि सूती वस्त्रों में लगभग सभी प्रकार का कलफ लगाया जा सक

प्रश्न 3:
नायलॉन व टेरीलीन वस्त्रों की धुलाई किस प्रकार की जाती है?
उत्तर:
मानवकृत तन्तुओं से निर्मित इन वस्त्रों को धोने के लिए मध्यम तापक्रम के जल का उपयोग किया जाता है। कम क्षार वाले साबुन, सर्फ, जेण्टील तथा रीठों का सत आदि कृत्रिम वस्त्रों को धोने के लिए उपयुक्त रहते हैं। कृत्रिम वस्त्रों को धोते समय उन्हें बलपूर्वक रगड़ना नहीं चाहिए। इन्हें साबुन लगाकर अथवा झागयुक्त साबुन के घोल में डालकर हल्के-हल्के मलकर धोना चाहिए। अधिक मैले भाग पर अतिरिक्त साबुन लगाकर धोना चाहिए। अब वस्त्रों को 2-3 बार साफ पानी में खंगालना चाहिए।
कृत्रिम वस्त्रों को निचोड़ना नहीं चाहिए। इन्हें तौलिए में लपेटकर दबा-दबाकर इनका पानी निकालना चाहिए। अब इन्हें हैंगर पर लटकाकर सुखाना चाहिए। इस प्रकार सुखाने से इनमें सलवटें नहीं पड़ती हैं, जिससे इन पर इस्त्री करने की आवश्यकता नहीं रहती है। रंगीन वस्त्रों को धूप में नहीं सुखाना चाहिए।

प्रश्न 4:
सफेद वस्त्रों पर नील लगाने की विधि का वर्णन कीजिए। या सफेद सूती वस्त्रों में नील का प्रयोग क्यों किया जाता है?
उत्तर:
सफेद वस्त्रों के पीलेपन को समाप्त करने के लिए तथा अधिक सफेदी एवं चमक लाने के लिए नील का प्रयोग किया जाता है। धुलाई के पश्चात् स्वच्छ पानी में अन्तिम खंगाल के बाद वस्त्रों को नील के घोल में डुबोकर निकाला जाता है। एक साफ कपड़े के टुकड़े में नील की पोटली बनाकर स्वच्छ पानी डालकर हिलाते हैं। इससे नील का साफ घोल बन जाता है। आजकल घुलित नील का उपयोग किया जाता है, जोकि अधिक प्रभावी रहता है। इसकी 8-10 बूंदें एक बाल्टी जल के लिए पर्याप्त रहती हैं। अब धुले हुए सफेद वस्त्रों को नील के घोल में 5-10 मिनट तक डुबोकर निकाल
ग सामान्य धूप में सुखा लिया जाता है। यदि वस्त्रों में अधिक नील लग जाए, तो तनु ऐसीटिक अम्ल का प्रयोग कर नील के रंग को कम किया जा सकता है।

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प्रश्न 5:
सूती वस्त्रों में कलफ लगाने से क्या लाभ हैं? या सफेद सूती कपड़ों में कलफ और नील का प्रयोग क्यों करते हैं? [2009, 12]
उत्तर:
सूती वस्त्रों को धोने के बाद उनमें कलफ व नील लगाकर उन्हें सुखाया जाता है। सूखने पर इन वस्त्रों पर इस्त्री की जाती है। कलफ व नील लगाने से निम्नलिखित लाभ होते है।

  1. वस्त्रों के तन्तुओं के मध्य रिक्त स्थानों की कलफ द्वारा पूर्ति हो जाने से इनमें धूल व गन्दगी प्रवेश नहीं कर पाती है।
  2. कड़ापन आ जाने से वस्त्रों में झोल नहीं पड़ता तथा क्रीज अच्छी बनती है।
  3. सुहागे, मोम वे नील से वस्त्रों में स्वाभाविक चमक आती है।
  4. वस्त्र अधिक समय तक सुन्दर व स्वच्छ रहते हैं।

प्रश्न 6:
सफेद वस्त्रों को धूप में सुखाने से क्या लाभ होता है? [2018]
उत्तर:
सफेद सूती वस्त्रों को जहाँ तक हो सके धूप में ही सुखाना चाहिए। वस्त्रों को धूप में सुखाने से निम्नलिखित लाभ होते हैं

  1. वस्त्र शीघ्र ही सूख जाते हैं।
  2. वस्त्र को धूप में सुखाने से नील एवं कलफ की गन्ध समाप्त हो जाती है।
  3. कपड़ों में व्याप्त सीलन की दुर्गन्ध समाप्त हो जाती है।
  4. धूप में वस्त्रों को सुखाने से उनका समुचित नि:संक्रमण हो जाता है अर्थात् उनमें विद्यमान रोगाणु नष्ट हो जाते हैं।
  5. सफेद सूती वस्त्र धूप में सुखाने पर अधिक सफेद तथा चमकदार हो जाते हैं।
  6. धूप में वस्त्रों को सुखाने से नील एवं कलफ के अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 7:
वस्त्रों पर इस्त्री करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखा जाता है? [2007, 15]
या
वस्त्रों पर इस्त्री करना क्यों आवश्यक है? इस्त्री करते समय क्या सावधानियाँ रखनी चाहिए? [2007, 08, 09, 10, 14, 15, 16, 18]
उत्तर:
इस्त्री करके कपड़ों की सलवटें दूर कर क्रीज बनाई जाती है, जिससे कपड़े सुन्दर व आकर्षक दिखाई पड़ते हैं, परन्तु अनुपयुक्त विधि अथवा लापरवाही से इस्त्री करने पर कपड़ों की अपार क्षति की सम्भावना रहती है; अतः इस्त्री करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए

  1.  कोयले वाली इस्त्री का खुले वातावरण अथवा पंखे के नीचे कदापि प्रयोग न करें, क्योंकि वायु द्वारा चिंगारी उड़ने से कपड़ों के जलने की सम्भावना रहती है।
  2.  विद्युत-इस्त्री को उसके निर्दिष्ट तापक्रम तक ही गर्म होने दें। विद्युत-इस्त्री प्रयोग (UPBoardSolutions.com) में लाते समय लकड़ी की कुर्सी पर बैठकर लकड़ी की मेज पर वस्त्र फैलाकर इस्त्री करें। इससे विद्युत झटकों से सुरक्षित रहा जा सकता है।
  3. इस्त्री को दाएँ से बाएँ चलाना चाहिए।
  4.  इस्त्री करने से पूर्व वस्त्रों को उनके आकार व क्रीज के अनुरूप व्यवस्थित करें।
  5. पहले कॉलर फिर कफ व झालर, तत्पश्चात् अन्य भागों पर इस्त्री करनी चाहिए।
  6. इस्त्री को वस्त्रों के अनुरूप ही गर्म करना चाहिए।

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प्रश्न 8:
सूती, रेशमी व ऊनी वस्त्रों पर इस्त्री किस प्रकार की जाती है?
या
रेशमी कपड़ों पर इस्त्री करने की विधि लिखिए। [2007, 08, 11]
या
वस्त्रों पर इस्त्री क्यों करते हैं? वस्त्रों पर इस्त्री करने की विधि लिखिए। [2008]
उत्तर:
वस्त्रों पर इस्त्री करने का एक कारण तो कपड़ों की सलवटें दूर करना व उन्हें आकर्षक बनाना है किन्तु इस्त्री करना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि धुलाई के दौरान यदि वस्त्रों में कुछ रोगाणु रह गए हों, तो वे इस्त्री की गरम सेंक से नष्ट हो जाएँ। इसके अलावा इस्त्री करने के बाद कपड़ों को सहेजकर रखने में सरलता होती है, क्योंकि तह किए हुए कपड़े फैले हुए कपड़ों की अपेक्षा कम स्थान घेरते हैं। सूती वस्त्रों को अधिक ताप, दबाव एवं नमी की आवश्यकता होती है; अतः इन वस्त्रों को पहले पानी छिड़ककर नम किया जाता है तथा इसके बाद अत्यधिक गर्म इस्त्री द्वारा अधिक दबाव डालकर इन पर प्रेस की जाती है। रेशमी वस्त्रों को (UPBoardSolutions.com) अपेक्षाकृत कम ताप, दबाव व नमी की आवश्यकता होती है। थोड़े नम रेशमी वस्त्रों को चादर बिछी मेज पर फैलाकर इनकी उल्टी सतह पर मध्यम गर्म इस्त्री की जाती है। ऊनी वस्त्रों पर मोटा व नम सूती कपड़ा बिछाकर इनकी उल्टी सतह पर मध्यम गर्म इस्त्री की जाती है। इसके अतिरिक्त ऊनी कपड़ों पर भाप की प्रेस द्वारा भी इस्त्री की जाती है।

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प्रश्न 9:
शुष्क धुलाई से क्या तात्पर्य है? शुष्क धुलाई के काम आने वाले प्रतिकर्मकों के नाम लिखिए। [2014, 16]
उत्तर:
शाब्दिक रूप से शुष्क धुलाई का अर्थ है–सुखी धुलाई, परन्तु वास्तव में यह सूखी नहीं होती वास्तव में यह धुलाई की वह विधि है जिसमें कपड़े को साफ करने के लिए जल का उपयोग बिल्कुल भी नहीं किया जाता है। जल का इस्तेमाल न होने के कारण ही इसे सूखी धुलाई कहा जाता है। वैसे इस धुलाई में अन्य गीले द्रव विलायक के रूप में अवश्य ही अपनाए जाते हैं। शुष्क धुलाई के मुख्य प्रतिकर्मक हैं–पेट्रोल, डीजल, बेन्जीन तथा कार्बन टेट्राक्लोराइड।

प्रश्न 10:
किन वस्त्रों पर शुष्क धुलाई की जाती है? शुष्क धुलाई के लाभ लिखिए। [2011, 14, 15, 16]
उत्तर:
मूल्यवान वस्त्रों तथा रेशम, ऊन व रेयॉन आदि से निर्मित वस्त्रों की शुष्क धुलाई (ड्राइ-क्लीनिंग) की जाती है। यह भी कहा जा सकता है कि पानी से धोने पर जिन वस्त्रों के खराब होने की
आशंका हो, उन्हें शुष्क धुलाई द्वारा साफ किया जाता है। इससे होने वाले लाभ निम्नलिखित हैं

  1. वस्त्रों की कोमलता, चमक व बुनाई को क्षति पहुँचने की सम्भावना अत्यधिक कम रहती है।
  2.  शुष्क धुलाई द्वारा वस्त्रों को धोने पर वे बिल्कुल भी सिकुड़ते नहीं हैं।
  3. वस्त्रों में सिकुड़न नहीं होती व उनकी स्वाभाविक आकृति भी बनी रहती है।
  4. चिकनाई के कारण वस्त्रों पर जमी धूल आदि दूर हो जाती है।

प्रश्न 11:
शुष्क धुलाई से होने वाली हानियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
यह सत्य है कि शुष्क धुलाई को धुलाई की एक उत्तम विधि माना जाता है, परन्तु धुलाई की इस विधि से कुछ हानियाँ भी हैं; जैसे

  1. यह धुलाई साधारण धुलाई की तुलना में बहुत महँगी होती है, क्योंकि पेट्रोल आदि विलायक बहुत महँगे होते हैं तथा शीघ्र ही उड़ने वाले होते हैं।
  2. शुष्क धुलाई में इस्तेमाल होने वाले विलायकों में एक विशेष प्रकार की तीखी गन्ध होती है। कुछ लोगों को यह गन्ध अच्छी नहीं लगती तथा कभी-कभी इससे एलर्जी के कारण जुकाम आदि की शिकायत भी हो जाती है।
  3. शुष्क धुलाई द्वारा कपड़ों की हर प्रकार की गन्दगी को अलग नहीं किया जा सकता। इस विधि द्वारा कपड़ों से केवल उन्हीं धब्बों को हटाया जा सकता है, जो पेट्रोल आदि विलायकों में सरलता से घुल जाते हैं, परन्तु कुछ दाग-धब्बे ऐसे भी हो सकते हैं जो इन विलायकों में नहीं घुलते। इस प्रकार के दाग-धब्बों को शुष्क धुलाई द्वारा साफ नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 12:
रासायनिक पदार्थों के प्रयोग से वस्त्र का धब्बा छुड़ाते समय कौन-सी सावधानियाँ रखनी चाहिए? [2016, 18]
उत्तर:
रासायनिक पदार्थों से वस्त्रों के दाग-धब्बे छुड़ाने के लिए विशेष सावधानी से काम लेना चाहिए तथा निम्नलिखित सावधानियाँ रखनी चाहिए|

  1. रासायनिक विधि द्वारा दाग: धब्बों को छुड़ाना हो तो विशेष सावधानी से काम लेना चाहिए। सामान्य रूप से रासायनिक प्रतिकर्मकों के हल्के घोल को ही प्रयुक्त करना चाहिए। यदि हल्के घोल से धब्बे न छूटें तो क्रमशः अधिक सान्द्र घोल का प्रयोग करना चाहिए। बहुत अधिक सान्द्रित रसायनों से कपड़े खराब भी हो सकते हैं।
  2. रासायनिक प्रतिकर्मकों को अधिक समय तक कपड़ों पर नहीं लगे रहने देना चाहिए। जैसे ही धब्बा हट गया प्रतीत हो, वैसे ही रासायनिक प्रतिकर्मक से युक्त कपड़े को साफ जल से धो लेना चाहिए। इससे कपड़ों का रंग खराब नहीं होता तथा वे क्षतिग्रस्त भी नहीं होते।
  3. रासायनिक विधि से दाग: धब्बे छुड़ाते समय सदैव खुले स्थान पर बैठकर ही इन पदार्थों का प्रयोग करना चाहिए, अन्यथा इन रासायनिक पदार्थों से निकलने वाली या बनने वाली गैसों से व्यक्ति के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
  4. अम्लीय रासायनिक पदार्थों को प्रयुक्त करने से कपड़े का रंग भी फीका पड़ जाता है। ऐसे कपड़ों को दाग-धब्बे छुड़ाकर तुरन्त अमोनिया के हल्के घोल में डाल देना चाहिए। इससे कपड़े का रंग नहीं बिगड़ता।
  5. दाग-धब्बों को हटाने वाले कुछ रासायनिक पदार्थ ज्वलनशील होते हैं; उदाहरण के लिए: पेट्रोल, ऐल्कोहल, स्पिरिट आदि। इस प्रकार के रसायनों का प्रयोग करते समय पास में कोई
    जलती हुई मोमबत्ती या अँगीठी नहीं होनी चाहिए।

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अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
वस्त्रों की धुलाई के मुख्य उद्देश्य बताइए। [2011]
उत्तर:
वस्त्रों की सफाई, उनकी दुर्गन्ध समाप्त करना, सुरक्षा, सुन्दर बनाना, व्यक्तिगत स्वास्थ्य तथा बचत करना वस्त्रों की धुलाई के मुख्य उद्देश्य हैं।

प्रश्न 2:
वस्त्रों की धुलाई के मुख्य चरण कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
वस्त्रों की धुलाई के मुख्य चरण हैं
(1) कपड़ों को पानी में भिगोना,
(2) साबुन या कोई शोधक पदार्थ लगाना,
(3) मैल निकालना,
(4) साफ पानी में खंगालना तथा
(5) सुखाना।

प्रश्न 3:
धुलाई के काम आने वाली मुख्य वस्तुएँ बताइए। [2012]
उत्तर:
धुलाई के काम आने वाली मुख्य वस्तुएँ हैं-जल, टब, बाल्टी, मग, ब्रश, साबुन या डिटर्जेण्ट पाउडर, नील, कलफ तथा चाहें तो कपड़े धोने की मशीन।

प्रश्न 4:
सफेद कपड़ों को रंगीन कपड़ों के साथ क्यों नहीं धोना चाहिए? [2018]
उत्तर:
सफेद कपड़ों को यदि रंगीन कपड़ों के साथ धोया जाता है तो सफेद कपड़ों पर रंगीन कपड़ों का रंग लग जाने की आशंका रहती है।

प्रश्न 5:
सफेद सूती वस्त्रों का पीलापन आप कैसे दूर करेंगी? [2008, 09, 12, 13, 14]
उत्तर:
सूती वस्त्रों को साबुन के पानी में उबालने से उनकी चिकनाई व प्रोटीन के धब्बे दूर हो जाते हैं (UPBoardSolutions.com) तथा उनका पीलापन दूर हो जाता है। धोने के उपरान्त किसी अच्छे श्वेतक का प्रयोग भी किया जा सकता है। नील लगाने से भी सूती वस्त्रों की सफेदी खिल उठती है।

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प्रश्न 6:
सूती वस्त्रों को धोने के बाद उन पर की जाने वाली दो प्रक्रियाओं के बारे में लिखिए।
उत्तर:
सूती वस्त्रों को धोने के बाद मुख्य रूप से अपनाई जाने वाली प्रक्रियाएँ हैं
(1) कलफ लगाना तथा
(2) प्रेस करना। कलफ से इन कपड़ों में कड़ापन व स्वाभाविक चमक आ जाती है तथा प्रेस से सलवटें दूर हो जाती हैं और अच्छी क्रीज़ बन जाती है।

प्रश्न 7:
रंगीन वस्त्रों को धोकर धूप में क्यों नहीं सुखाना चाहिए? [2018]
उत्तर:
रंगीन वस्त्रों को धोकर धूप में सुखाने से इन वस्त्रों का रंग बिगड़ जाने की आशंका रहती है।

प्रश्न 8:
गोंद का कलफ बनाने की विधि लिखिए। [2013]
उत्तर:
गोंद को पीसकर गर्म पानी में उबाल लेते हैं। अब इसे छानकर कलफ के रूप में प्रयुक्त करते हैं।

प्रश्न 9:
गोंद का कलफ किस प्रकार के वस्त्रों को दिया जाता है? [2007, 09, 11, 12, 13, 15]
उत्तर:
गोंद का कलफ मुख्य रूप से रेशमी वस्त्रों को दिया जाता है।

प्रश्न 10:
ऊनी वस्त्रों को धोकर रस्सी पर क्यों नहीं सुखाना चाहिए? [2009, 12]
उत्तर:
ऊनी वस्त्रों को धोकर यदि रस्सी पर टाँगकर सुखाया जाए, तो उनका आकार बिगड़ जाता है तथा वे किसी एक दिशा में लटक जाते हैं।

प्रश्न 11:
ऊनी वस्त्र रखते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? [2014]
या
आप अपने ऊनी वस्त्रों को कैसे सुरक्षित रखेंगी? [2011, 14]
या
ऊनी वस्त्रों को बॉक्स में रखते समय क्या सावधानी रखनी चाहिए? [2007, 10, 18]
उत्तर:
ऊनी वस्त्रों को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें
(1) सफेद कागज अथवा स्वच्छ समाचार-पत्र में लपेट देना चाहिए।
(2) नमीरहित सन्दूक या अलमारी में रखना चाहिए।
(3)नीम की सूखी पत्तियाँ एवं नेफ्थलीन की गोलियाँ (UPBoardSolutions.com) डालकर रखना चाहिए।

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प्रश्न 12:
रीठे के घोल में कौन-कौन से वस्त्र धोये जाते हैं और क्यों? [2008]
उत्तर:
रीठे के घोल में मुख्य रूप से ऊनी तथा रेशमी वस्त्र धोये जाते हैं। वास्तव में रीठे के घोल में किसी प्रकार का क्षार नहीं होता। इस स्थिति में क्षार से खराब होने वाले ऊनी एवं रेशमी वस्त्र रीठे के घोल में धोने पर खराब नहीं होते।

प्रश्न 13:
रेशमी वस्त्र में चमक लाने के लिए किस पदार्थ का प्रयोग किया जाता है? [2010]
उत्तर:
रेशमी वस्त्र में चमक लाने के लिए मेथिलेटिड स्प्रिट को इस्तेमाल किया जाता है।

प्रश्न 14:
रेशमी वस्त्र को प्रेस करते समय आप क्या सावधानी रखेंगी?
उत्तर:
रेशमी वस्त्र जब कुछ नम हों तभी प्रेस करनी चाहिए। प्रेस अधिक गर्म नहीं होनी चाहिए तथा कपड़े को उल्टा करके प्रेस करनी चाहिए।

प्रश्न 15:
किन वस्त्रों पर इस्त्री करने की विशेष आवश्यकता नहीं होती?
उत्तर:
नाइलॉन, टेरीलीन तथा ‘वाश एण्ड वीयर’ प्रकार के वस्त्रों पर इस्त्री करने की आवश्यकता नहीं होती।

प्रश्न 16:
कपड़ों को इस्त्री करना क्यों आवश्यक है? [2007, 08, 09, 10, 14, 15, 18]
उत्तर:
कपड़ों में आकर्षण, सुन्दरता तथा चमक लाने के लिए इस्त्री करना आवश्यक होता है। इस्त्री करने से कपड़े की सलवटें समाप्त हो जाती हैं।

प्रश्न 17:
कपड़ों से धब्बे छुड़ाने की मुख्य विधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
कपड़ों से धब्बे छुड़ाने की मुख्य विधियाँ हैं-विलायक विधि, रासायनिक विधि तथा अवशोषक विधि।

प्रश्न 18:
नींबू का प्रयोग किन धब्बों को छुड़ाने के लिए किया जाता है?
उत्तर:
नींबू के रस से स्याही, जंग तथा चाय-कॉफी के धब्बों को छुड़ाया जा सकता है।

प्रश्न 19:
धुलाई से पूर्व वस्त्रों की छंटाई करना क्यों आवश्यक है? [2014]
उत्तर:
सफेद एवं रंगीन कपड़ों को अलग-अलग धोना आवश्यक होता है ताकि सफेद वस्त्रों पर रंग न लगे। इसी प्रकार रेशमी, ऊनी तथा सूती वस्त्रों को भिन्न-भिन्न विधियों द्वारा धोना आवश्यक होता है। अतः धुलाई से पूर्व वस्त्रों की छंटाई करनी आवश्यक होता है।

प्रश्न 20:
ऊनी कपड़ों को समतल स्थान पर क्यों सुखाते हैं? [2013]
उत्तर:
ऊनी कपड़ों के आकार को बिगड़ने से बचाने के लिए समतल स्थान पर सुखाते हैं।

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प्रश्न 21:
कीड़ों तथा फफूदी से वस्त्रों की रक्षा आप किस प्रकार करेंगी? [2015, 16]
उत्तर:
वस्त्रों को कीड़ों से बचाने के लिए उन्हें सुरक्षित स्थान पर सँभालकर रखना चाहिए। ऊनी वस्त्रों को बन्द करते समय उनमें नेफ्थलीन की गोलियाँ या नीम की सूखी पत्तियाँ रखनी चाहिए। फफूदी से बचाव के लिए कपड़ों को कभी भी नम या गीली दशा में बन्द (UPBoardSolutions.com) करके नहीं रखना चाहिए। यदि अधिक समय तक बन्द रखना हो तो वस्त्रों में कलफ भी नहीं लगा होना चाहिए।

प्रश्न 22:
चिकनाई का धब्बा किस प्रकार छुड़ाया जा सकता है? [2016]
उत्तर:
चिकनाई का धब्बा छुड़ाने के लिए कपड़े को साबुन तथा गर्म पानी से धोया जाता है।

प्रश्न 23:
वस्त्रों और कालीन को धूप में सुखाना क्यों आवश्यक है? [2014, 16, 17, 18]
उत्तर:
वस्त्रों और कालीन को धूप में सुखाने से उनकी नमी एवं दुर्गन्ध समाप्त हो जाती है तथा विभिन्न जीवाणु भी मर जाते हैं।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न
निम्नलिखित बहुविकल्पीय प्रश्नों के सही विकल्पों का चुनाव कीजिए

1. धूल तथा चिकनाई मिलकर क्या बन जाती है?
(क) गन्दगी
(ख) मिट्टी
(ग) मैल
(घ) हानिकारक पदार्थ

2. नियमित धुलाई से वस्त्र
(क) साफ रहते हैं।
(ख) दुर्गन्ध रहित रहते हैं।
(ग) रोगाणुरहित रहते हैं।
(घ) ये सभी

3. वस्त्र धोने से पूर्व
(क) फटा वस्त्र सिल लेना चाहिए
(ख) शो बटन निकाल लेना चाहिए
(ग) दाग-धब्बे छुड़ा लेना चाहिए
(घ) इनमें से सभी

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4. धुलाई के लिए किस प्रकार को जल उत्तम होता है? [2008, 15, 17, 18]
(क) मृदु जल
(ख) कठोर जल
(ग) ठण्डा जल
(घ) ये सभी

5. घर पर कपड़े धोने से किसकी बचत होती है?[2010, 11, 15]
(क) समय की
(ख) धन की
(ग) साबुन की
(घ) ये सभी

6. तारकोल के दाग को छुड़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है
(क) ब्लीचिंग पाउडर
(ख) पेट्रोल
(ग) तारपीन का तेल
(घ) साबुन

7. शुष्क धुलाई में इस्तेमाल किया जाता है
(क) सूखा पाउडर
(ख) गर्म पानी
(ग) रासायनिक विलायक
(घ) कुछ भी नहीं

8. ऊनी वस्त्रों को धोने के लिए किसका प्रयोग किया जाता है? [2011, 12, 13, 15, 16]
(क) मुल्तानी मिट्टी
(ख) रीठे का घोल
(ग) साधारण साबुन
(घ) इनमें से कोई नहीं

9. ऊनी वस्त्रों की सुरक्षा हेतु किसका प्रयोग करते हैं? [2010]
(क) आम की पत्तियाँ
(ख) गुलाब की पत्तियाँ
(ग) नीम की पत्तियाँ
(घ) पीपल की पत्तियाँ

10. ऊनी वस्त्रों को कलफ लगाया जाता है
(क) गोंद का
(ख) अरारोट का
(ग) चावल का
(घ) इनमें से कोई नहीं

11. अरारोट का कलफ किन वस्त्रों में दिया जाता है?
(क) रेशमी
(ख) ऊनी
(ग) सूती
(घ) कृत्रिम

12. चावल का कलफ किन वस्त्रों में दिया जाता है? [2009, 12, 13, 15]
(क) रेशमी
(ख) ऊनी
(ग) सूती
(घ) कृत्रिम

13. कलफ का मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता है ।
(क) ऊनी वस्त्रों पर
(ख) रेशमी वस्त्रों पर
(ग) सूती वस्त्रों पर
(घ) कृत्रिम वस्त्रों पर

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14. रेशमी वस्त्रों में चमक के लिए प्रयोग करते हैं
(क) नींबू का रस
(ख) नमक का पानी
(ग) मेथिलेटिड स्प्रिट
(घ) कुछ नहीं

15. रेशमी वस्त्रों पर कलफ लगाया जाता है [2007, 11]
(क) गोंद का
(ख) मैदा का
(ग) अरारोट का
(घ) सभी का

16. किस प्रकार के वस्त्रों में गोंद का कलफ लगाया जाता है? [2007, 09,11,12,13]
(क) रेशमी
(ख) ऊनी
(ग) सूती
(घ) कृत्रिम

17. स्टार्च का कलफ किन वस्त्रों को दिया जाता है?
(क) रेशमी
(ख) ऊनी
(ग) सूती
(घ) बनारसी

18. नील का प्रयोग किस वस्त्र पर करते हैं? [2010, 15, 16, 17]
(क) रेशमी
(ख) ऊनी
(ग) सफेद सूती
(घ) संगीत

19. कच्चे रंग के कपड़े धोते समय पानी में मिलाया जाता है
(क) सिरको
(ख) नींबू का रस
(ग) अमोनिया
(घ) रानीपाल

20. रेशमी वस्त्रों को कैसे धोना चाहिए ? [2013]
(क) वस्त्रों को पीटकर
(ख) वस्त्रों को रगड़कर
(ग) वस्त्रों को पटककर
(घ) इनमें से कोई नहीं

21. रेशमी वस्त्रों को धोने के लिए किसका प्रयोग किया जाता है? [2014]
(क) सोडा
(ख) मिट्टी
(ग) अपमार्जक
(घ) रीठे का सत

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उत्तर:
1. (ग) मैल,
2. (घ) ये सभी
3. (घ) इनमें से सभी,
4. (क) मृदु जल,
5. (ख) धन की,
6. (ग) तारपीन का तेल,
7. (ग) रासायनिक विलायक,
8. (ख) रीठे का घोल,
9. (ग) नीम की पत्तियों,
10. (घ) इनमें से कोई नहीं,
11. (ग) सूती,
12. (ग) सूती,
13. (ग) सूती वस्त्रों पर,
14. (ग) मेथिलेटिड सिट,
15. (क) गोद का,
16. (क) रेशमी,
17. (ग) सूती,
18. (ग) सफेद सूती
19. (क) सिरका,
20. (घ) इनमें से कोई नहीं,
21. (घ) रीठे का सता

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UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 12 (Section 1)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 12 नवजागरण तथा राष्ट्रीयता का विकास (अनुभाग – एक)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Social Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 12 नवजागरण तथा राष्ट्रीयता का विकास (अनुभाग – एक)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
नवजागरण से क्या तात्पर्य है ? भारत में नवजागरण के कारणों पर प्रकाश डालिए। [2018]
             या
बीसवीं शताब्दी से पूर्व भारत में नवचेतना जाग्रत करने में सहायक कारकों की व्याख्या कीजिए।
             या
उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में समाज-सुधार आन्दोलनों में सहायक किन्हीं दो कारणों को स्पष्ट कीजिए।
             या
भारत में राष्ट्रीय जागरण में सहायक किन्हीं चार कारणों का वर्णन कीजिए। [2016]
उत्तर :

नवजागरण का अर्थ

उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में एक ऐसी नवीन चेतना का उदय हुआ, जिसने देश के सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक जीवन को नवचेतना एवं नवजागरण प्रदान किया, जिसे भारतीय नवजागरण या पुनर्जागरण (Renaissance) के नाम से (UPBoardSolutions.com) पुकारते हैं। “पुनर्जागरण का अर्थ विद्या, कला, विज्ञान, साहित्य और भाषाओं के विकास से लगाया जाता है। भारत में आये जागरण ने पश्चिमी सभ्यता से तर्क, समानता और स्वतन्त्रता की प्रेरणा लेकर भारत के प्राचीन गौरव को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया। इसने प्राचीन भारतीय सभ्यता में उत्पन्न दोषों को दूर करते हुए उसे प्रगति के लिए नवीन आधार और जीवन प्रदान किया। आधुनिक भारत में इस नवजागरण के फलस्वरूप नये सांस्कृतिक एवं सामाजिक मूल्यों का उदय हुआ। प्रारम्भ में नवजागरण आन्दोलन केवल एक बौद्धिक जागृति थी, किन्तु बाद में इस आन्दोलन के फलस्वरूप देश में अनेक महत्त्वपूर्ण सामाजिक तथा धार्मिक सुधार हुए।

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भारत में नवजागरण के कारण

भारत में नवजागरण के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे –

1. हिन्दू धर्म व समाज के दोष – उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय समाज और हिन्दू धर्म में अनेक दोष उत्पन्न हो गये थे; जैसे-जाति-प्रथा, सती–प्रथा, बाल-विवाह, विधवा-पुनर्विवाह निषेध, मूर्तिपूजा, छुआछूत, अन्धविश्वास आदि। भारतीय समाज और धर्म की रक्षा के लिए समाज-सुधारकों ने प्रत्येक दोषों और कुरीतियों को दूर करना आवश्यक समझा।

2. राष्ट्रीयता की भावना का विकास – सन् 1857 ई० की क्रान्ति ने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न कर दी। इसके फलस्वरूप भारतवासी अपने अधिकारों के लिए तथा समाज-धर्म में व्याप्त बुराइयों को। दूर करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हो गये। इससे देश में नवजागरण की लहर उत्पन्न हो गयी।

3. पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार – भारत के राष्ट्रीय नवजागरण में पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अंग्रेजी भाषा के माध्यम से भारतीयों का परिचय यूरोप के ऐसे विचारकों से हुआ जो राष्ट्रीयता, लोकतन्त्र तथा स्वतन्त्रता की भावना से परिपूर्ण थे। इससे भारतीयों की मनोवृत्ति में परिवर्तन आने लगा और वे गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए व्याकुल हो उठे।

4. महान् सुधारकों का जन्म – उन्नीसवीं शताब्दी में भारत के सौभाग्य से देश के विभिन्न भागों में राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, सर सैयद अहमद खाँ, गुरु राम सिंह तथा केशवचन्द्र सेन जैसे महापुरुषों ने जन्म लिया। ये उच्चकोटि के विद्वान् तथा सच्चे धर्म-प्रेमी थे। इनमें आत्मविश्वास, दृढ़ निश्चय तथा समाजकल्याण की भावनाएँ प्रबल थीं। इनके प्रयत्नों के फलस्वरूप ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, अलीगढ़ आन्दोलन आदि सुधारवादी आन्दोलनों का जन्म हुआ।

5. प्रेस तथा साहित्य का योगदान – उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम अर्द्ध भाग में अंग्रेजी तथा देशी भाषाओं में अनेक समाचार-पत्र तथा पत्रिकाएँ छपने लगी थीं। सुधारों के लेख प्राय: समाचार-पत्रों में छपते रहते थे। लोकमान्य तिलक, बंकिम चन्द्र (UPBoardSolutions.com) चटर्जी, माइकल मधुसूदन दत्त, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आदि ने जनता को राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत साहित्य प्रदान किया। इनके द्वारा लिखी पुस्तकें देश के विभिन्न भागों में पहुँच गयीं, जिनसे सुधारों के विचारों का खूब प्रचार-प्रसार हुआ।

6. यातायात तथा डाक-व्यवस्था का प्रभाव – ब्रिटिश सरकार ने भारत में अपने लाभ के लिए यातायात और संचार के साधनों का विकास किया। देश भर में रेल, डाक व तार व्यवस्था के फैल जाने से देश के एक भाग से दूसरे भाग में जाना या सम्पर्क करना आसान हो गया। इससे देश के विभिन्न भागों के लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आने लगे और परस्पर विचार-विमर्श करने लगे। इससे जनता में राष्ट्रीय चेतना का संचार होने लगा।

7. विदेशी घटनाओं का प्रभाव – इसी समय विदेशों में कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं, जिन्होंने भारतीयों पर गहरा प्रभाव डाला। इटली और जर्मनी का राजनीतिक एकीकरण (1870-71 ई०), इंग्लैण्ड के सुधार आन्दोलन (1832-67 ई०), अमेरिका में दासों की मुक्ति (1865 ई०) आदि घटनाओं ने भारतीयों के मन में भी राष्ट्रीयता की भावना का संचार किया।

8. ईसाई धर्म का प्रचार – सन् 1813 ई० के चार्टर ऐक्ट के बाद बहुत अधिक संख्या में ईसाई धर्म के प्रचारक भारत में आये। वे अपने भाषणों में हिन्दू तथा इस्लाम धर्म की कठोर शब्दों में निन्दा करते थे। वे बड़ी संख्या में हिन्दुओं, मुसलमानों तथा सिक्खों को ईसाई बनाने में सफल होने लगे। इन परिस्थितियों में हिन्दू तथा इस्लाम धर्म के शुभचिन्तकों की आँखें खुलीं और उन्होंने अपने धर्म की
बुराइयों को दूर करने के लिए प्रयास प्रारम्भ कर दिये।

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प्रश्न 2.
राजा राममोहन राय के जीवन एवं मुख्य कार्यों का वर्णन कीजिए। [2010, 11, 12]
             या
राजा राममोहन राय के व्यक्तित्व एवं किन्हीं तीन सामाजिक सुधारों का वर्णन कीजिए।
             या
राजा राममोहन राय कौन थे ? उन्हें आधुनिक भारत का जनक क्यों कहा जाता है ? (2018)
             या
ब्रह्म समाज की स्थापना किसने की ? ब्रह्म समाज के योगदान पर प्रकाश डालिए। [2012]
             या
ब्रह्म समाज की स्थापना कब हुई थी ? इसके संस्थापक कौन थे ? ब्रह्म समाज ने किन सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया ? किन्हीं चार का उल्लेख कीजिए। [2014]
             या
ब्रह्म समाज की स्थापना किसने की ? ब्रह्म समाज द्वारा किन सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने का प्रयास किया गया ? [2014]
             या
राजा राममोहन राय के कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2015]
             या
भारतीय नवजागरण में राजा राममोहन राय का क्या योगदान था? [2016]
             या
राजा राममोहन राय कौन थे? इनके प्रमुख योगदान का वर्णन कीजिए। [2016, 17]
             या
19 वीं शताब्दी के भारतीय पुनर्जागरण में राजा राममोहन राय के योगदान की विवेचना कीजिए। [2018]
उतर :
राजा राममोहन राय को भारत के नवजागरण का अग्रदूत कहा जाता है। ये पहले भारतीय थे जिन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में सुधारों के युग का श्रीगणेश किया। इन्हीं के कार्यों के परिणामस्वरूप भारत में नवजागरण की शुरुआत हुई तथा भारत आज (UPBoardSolutions.com) आधुनिक रूप में हमारे सामने प्रस्तुत है। इसी कारण उन्हें ‘आधुनिक भारत का जनक’ भी कहा जाता है।

राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई, 1774 ई० को बंगाल के हुगली जिले में हुआ था। ये बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न तथा उच्चकोटि के विद्वान् थे। इन्होंने दस भाषाओं में पाण्डित्य प्राप्त किया था तथा अपना अधिकांश जीवन भारतीय समाज की बुराइयों को दूर करने में लगाया। निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट हो जाएगा कि ये भारत के नवजागरण के अग्रदूत तथा आधुनिक भारत के जनक थे

1. ब्रह्म समाज के संस्थापक – भारतीय समाज एवं धर्म में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के उद्देश्य से राजा राममोहन राय ने 20 अगस्त, 1828 ई० में कलकत्ता (कोलकाता) में एक ‘आत्मीय सभा’ की स्थापना की। यही सभा आगे चलकर ‘ब्रह्म समाज’ कहलायी। शीघ्र ही यह राष्ट्रीय संस्था बन गयी। इस संस्था के माध्यम से इन्होंने ही सर्वप्रथम देश में अनेक सामाजिक-धार्मिक सुधार के कार्य किये अर्थात् ब्रह्म समाज द्वारा उन्होंने देश में नवजागरण का कार्य प्रारम्भ किया।

2. ब्रह्म समाज के आदर्श – ब्रह्म समाज के आदर्श तथा सिद्धान्त उच्चकोटि के थे। इनमें पुराने आदर्शों का समावेश तो था ही, साथ में नवीन तार्किक विचारों को भी समुचित महत्त्व दिया गया था। इन्होंने बहुदेववाद का खण्डन करते हुए एक ईश्वर की पूजा पर बल दिया। मूर्तिपूजा व धार्मिक कर्मकाण्डों तथा आडम्बरों पर इन्होंने तीव्र प्रहार किया। जाति-पाँति और ऊँच-नीच के भेदभाव का विरोध किया और लाखों लोगों को ईसाई होने से बचा लिया।

3. सामाजिक कुप्रथाओं का अन्त – राजा राममोहन राय पहले भारतीय थे जिन्होंने दृढ़ संकल्प, पूर्ण विश्वास तथा गम्भीरता से भारत के पिछड़े अन्धविश्वासी समाज में नयी रोशनी का दीप जलाया। इन्होंने बाल-विवाह, सती–प्रथा, बहु-विवाह, पर्दा-प्रथा, छुआछूत आदि का जोरदार विरोध किया। इन्हीं के विचारों से प्रभावित होकर लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने 1829 ई० में सती–प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया। विधवा-पुनर्विवाह को न्यायसंगत (UPBoardSolutions.com) ठहराते हुए इन्होंने इसके पक्ष में जनमत तैयार किया। पुरुषों के समान ही स्त्रियों के अधिकारों का समर्थन करते हुए इन्होंने स्त्रियों के सामाजिक उत्थान का बीड़ा उठाया।

4. पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन – राजा राममोहन राय पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति के आधार पर भारत का आधुनिकीकरण करना चाहते थे। इनका मानना था कि भारत में पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार के बिना सामाजिक कुरीतियाँ दूर नहीं हो सकतीं। इन्हीं के विचारों से सहमत होकर लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा लागू की। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन के लिए देश में अनेक शिक्षण-संस्थाएँ खोली गयीं। ये स्त्री-शिक्षा के भी बड़े समर्थक थे।

5. राजनीतिक जागृति लाने में योगदान – यद्यपि राजा राममोहन राय ने प्रत्यक्ष रूप से राजनीति में भाग नहीं लिया, किन्तु इन्होंने देश में राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया तथा लोगों को एकता के सूत्र में बाँधने के प्रयास किये। इन्होंने विचारों की अभिव्यक्ति तथा प्रेस की स्वतन्त्रता पर बल दिया, जिससे लोगों में जागृति आये।। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि राजा राममोहन राय भारत में नवजागरण के अग्रदूत’ तथा आधुनिक भारत के जनक’ थे। इन्हीं के दृढ़ संकल्प तथा गम्भीर प्रयासों से भारत में सामाजिक व धार्मिक सुधारों के युग का शुभारम्भ हुआ। इसीलिए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था, “राजा (UPBoardSolutions.com) राममोहन राय ने भारत में नये युग का सूत्रपात किया। वस्तुतः वे आधुनिक भारत के जनक थे।”

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प्रश्न 3.
स्वामी दयानन्द सरस्वती का संक्षिप्त परिचय देते हुए आर्य समाज के सिद्धान्तों का संक्षिप्त परिचय दीजिए। [2012, 13, 15, 16, 17]
             या
आर्य समाज की स्थापना किसने किस मुख्य उद्देश्य से की थी ? इसके धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों का वर्णन कीजिए। इसका क्या योगदान रहा ?
             या
आर्य समाज के प्रमुख चार सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए। [2016]
             या
उन्नीसवीं शताब्दी के पुनर्जागरण में स्वामी दयानन्द के योगदान की विवेचना कीजिए। [2010]
             या
स्वामी दयानन्द का जीवन-परिचय दीजिए। [2011]
             या
आर्य समाज की स्थापना किसने की ? इसका मुख्य कार्य क्या है ? [2013]
             या
स्वामी दयानन्द सरस्वती कौन थे ? उनके प्रमुख कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2012]
             या
आर्य समाज की स्थापना कब और किसके द्वारा की गयी ? इनके द्वारा किए गए किन्हीं चार समाज-सुधारों का वर्णन कीजिए। (2015)
             या
आर्य समाज की स्थापना किसने की थी ? उनके मुख्य सिद्धान्त व कार्य का वर्णन कीजिए। (2015, 16)
             या
भारतीय नवजागरण में स्वामी दयानन्द का क्या योगदान था? [2016]
उत्तर :
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती थे। उनका जन्म 1824 ई० में काठियावाड़ के एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके बचपन का नाम मूलशंकर था। अल्प आयु में ही इनमें हिन्दू धर्म में व्याप्त आडम्बरों के प्रति विद्रोह की भावना जाग उठी। 22 वर्ष की आयु में ही इन्होंने संन्यास ले लिया। उसके बाद 15 वर्ष तक वे ज्ञान-प्राप्ति के उद्देश्य से जगह-जगह विद्वानों तथा संन्यासियों से मिलते रहे। सन् 1861 ई० में इन्होंने स्वामी विरजानन्द को अपना गुरु बनाया। तीन वर्ष तक गुरु से शिक्षा ग्रहण की तथा वेदों का गहन अध्ययन किया। वेदों ने उनकी सारी जिज्ञासाओं को शान्त किया। इन्होंने अनुभव किया कि वेदों के आधार पर भारतीय समाज का पुनः निर्माण किया जा सकता है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्यों की गौरवशाली परम्पराओं की श्रेष्ठता को पुन: स्थापित करने के उद्देश्य से 10 अप्रैल, 1875 ई० में बम्बई (मुम्बई) में आर्य समाज की स्थापना की। इन्होंने भारतवासियों में अपने राष्ट्र, संस्कृति, धर्म और भाषा के (UPBoardSolutions.com) प्रति श्रद्धा उत्पन्न करने के अथक प्रयास किये। स्वामी दयानन्द ने हिन्दू धर्म के मूलभूत तत्त्वों पर ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की।

सुधारों पर बल

धर्म-सुधार कार्य – आर्य समाज के धर्म-सुधार सम्बन्धी मूलभूत कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. आर्य समाज ने हिन्दुओं में उनके प्राचीन धर्म-ग्रन्थ वेदों के प्रति आस्था उत्पन्न की। वेदों को सत्य और सभी ज्ञान-विज्ञान का स्रोत बताकर हिन्दू धर्म व संस्कृति की श्रेष्ठता को प्रतिपादित किया। परिणामस्वरूप हिन्दुओं में आत्मविश्वास का संचार हुआ।
  2. स्वामी दयानन्द ने हिन्दू धर्म को इस्लाम तथा ईसाई धर्म के खतरे से बचाया।
  3. स्वामी दयानन्द ने हिन्दू धर्म पर ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा।
  4. हिन्दू धर्म को छोड़कर गये हिन्दुओं को (UPBoardSolutions.com) पुनः हिन्दू धर्म में वापस लिया। साथ ही ईसाई और मुसलमानों को भी हिन्दू धर्म स्वीकार करने के लिए आमन्त्रित किया।
  5. मूर्तिपूजा, पाखण्ड तथा अन्धविश्वासों का खण्डन किया।
  6. महँगे और जटिल हिन्दू संस्कारों के स्थान पर सुलभ और सरल संस्कार की विधि अपनायी।

समाज-सुधार कार्य – आर्य समाज के समाज-सुधार सम्बन्धी मूलभूत कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. जातीय भेदभाव की समाप्ति के लिए जाति-भेद निवारक संघ की स्थापना की गयी।
  2. वेश्यावृत्ति की समाप्ति हेतु आवश्यक कानून बनाने के लिए प्रस्ताव पेश किये गये।
  3. बहु-विवाह, बाल-विवाह, सती–प्रथा, पर्दा-प्रथा आदि के विरोध के लिए जनमत तैयार किया गया।
  4. आर्यसमाजी पद्धति से सम्पन्न अन्तर्जातीय विवाहों को कानूनसम्मत बनाया गया।

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योगदान

शिक्षा के क्षेत्र में योगदान – आर्य समाज के शिक्षा के क्षेत्र में निम्नलिखित योगदान रहे –

  1. समाज के सर्वांगीण विकास और बौद्धिक जागृति के लिए सम्पूर्ण देश में डी०ए०वी० (दयानन्द ऐंग्लो-वेदिक) शिक्षण केन्द्रों की स्थापना की गयी।
  2. प्राचीन शिक्षा-पद्धति के आधार पर अनेक गुरुकुल (UPBoardSolutions.com) शिक्षा केन्द्रों की स्थापना की गयी।
  3. हरिद्वार में गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी।

राष्ट्रीय भावना का विकास – राष्ट्रीयता की भावना के विकास में आर्य समाज का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। स्वामी दयानन्द ने ही सर्वप्रथम ‘स्वराज्य’ और ‘स्वदेशी’ शब्दों का प्रयोग किया था। हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार करने वाले पहले व्यक्ति भी वही थे।

आर्य समाज के सिद्धान्त

आर्य समाज के मूलभूत सिद्धान्त अथवा शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं –

  1. ईश्वर ही एकमात्र ज्ञान का प्रमुख कारण है। वह सत्य है। विद्या और वे पदार्थ जो विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका मूल परमेश्वर है।
  2. ईश्वर सत्यं, शिवं, सुन्दरं, शाश्वत, असीमित, दयावान, अजन्मा, सर्वशक्तिमान, अतुलनीय एवं अपरिवर्तनीय है, अत: उसकी उपासना करनी चाहिए। मूर्तिपूजा निरर्थक है।
  3. सत्य को ग्रहण करना चाहिए और असत्य को त्यागने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए। सभी कार्य धर्मानुसार अर्थात् उचित-अनुचित और सत्य-असत्य का विचार करके करना चाहिए।
  4. अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए, अर्थात् अज्ञान के अन्धकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश फैलाना चाहिए।
  5. सबसे प्रेमपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करना चाहिए।
  6. आर्यों का ज्ञान वेदों में संकलित है; अत: प्रत्येक आर्य के लिए वेदों का अध्ययन परम धर्म एवं कर्तव्य है, ऐसा मानकर इनका अध्ययन करना चाहिए।
  7. संसार में भलाई का कार्य करना समाज का मुख्य उद्देश्य है; अत: सबको अपनी उन्नति के साथ-साथ अन्य की भी शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।
  8. प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उन्नति से ही सन्तुष्ट न होकर सबकी उन्नति को अपनी उन्नति समझना चाहिए।
  9. सार्वजनिक कल्याण के विरुद्ध कोई कार्य नहीं (UPBoardSolutions.com) करना चाहिए। 10. ऊँच-नीच, छुआछूत, जाति-पाँति आदि वेदों की मान्यताओं के विरुद्ध हैं। इनका त्याग करना चाहिए।

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प्रश्न 4.
स्वामी विवेकानन्द के जीवन, कार्यों एवं उपदेशों का विवरण दीजिए। [2010, 14]
             या
स्वामी विवेकानन्द के जीवन की प्रमुख घटनाओं तथा उनके सामाजिक-धार्मिक योगदान का वर्णन कीजिए।
             या
स्वामी विवेकानन्द को हम क्यों याद करते हैं ? दो कारण लिखिए। [2010, 13]
             या
स्वामी विवेकानन्द का परिचय देते हुए उनके द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन के सिद्धान्तों और सेवा-कार्यों पर प्रकाश डालिए।
             या
स्वामी विवेकानन्द पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2011]
             या
स्वामी विवेकानन्द कौन थे ? उनकी लोकप्रियता के क्या कारण हैं? [2011, 18]
             या
विवेकानन्द के व्यक्तित्व एवं कार्यों पर प्रकाश डालिए। [2013]
             या
रामकृष्ण मिशन की स्थापना के सिद्धान्तों और कार्यों का वर्णन कीजिए। रामकृष्ण मिशन के सेवा कार्यों का वर्णन कीजिए। [2009]
उत्तर :

धार्मिक और सामाजिक योगदान

स्वामी विवेकानन्द ने ज्ञान और दर्शन से समस्त विश्व को आलोकित किया। 12 जनवरी, 1863 ई० में कलकत्ता (कोलकाता) के एक सम्पन्न कायस्थ परिवार में इनका जन्म हुआ। इनका बचपन का नाम नरेन्द्रदत्त था। ये बड़ी ही प्रखर बुद्धि के नवयुवक थे। पहले ये पाश्चात्य संस्कृति को उत्तम मानते थे, परन्तु गुरु रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आने पर इनके विचार परिवर्तित हो गये। ये इस निर्णय पर पहुँचे कि सत्य या ईश्वर को जानने का सच्चा मार्ग अनुरागपूर्ण साधना का मार्ग ही है। सन् 1893 ई० में ये शिकागो के सर्वधर्मसम्मेलन में भाग लेने के लिए गये। इनकी ओजस्वी वाणी से जो विचार प्रस्फुटित हुए उसका सम्मोहन वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति तथा विश्व-जगत् पर छा गया। स्त्री-पुरुष इनकी एक झलक पाने के लिए ही उतावले हो गये। सन् 1897 ई० में इन्होंने धर्म और समाज-सुधार के कार्य (UPBoardSolutions.com) को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से वेल्लूर में रामकृष्ण परमहंस मिशन की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से स्वामी विवेकानन्द ने मानवता की सच्चे अर्थों में सेवा की। इन्होंने धार्मिक पाखण्ड, जाति-प्रथा, अस्पृश्यता, बाल-विवाह तथा देवदासी-प्रथा का घोर विरोध किया, किन्तु ये मूर्ति-पूजा के समर्थक थे और मूर्ति पूजा को आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया में एक प्रारम्भिक अवस्था मानते थे। ये बुराई का उन्मूलन शिक्षा द्वारा करना चाहते थे। 14 जुलाई, 1902 ई० में 39 वर्ष की अल्पायु में ही इनका स्वर्गवास हो गया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है कि “यदि कोई भारत को समझना चाहता है तो उसे विवेकानन्द को पढ़ना चाहिए।’

रामकृष्ण मिशन के सिद्धान्त (उपदेश) निम्नलिखित हैं –

  1. ईश्वर निराकार तथा सर्वव्यापक है। वह सभी पर दयालु है। आत्मा ईश्वरीय रूप ही है। ईश्वर की सच्ची उपासना करनी चाहिए। इस ईश्वर की उपासना करते हुए प्रेम-मार्ग में लोक-कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।
  2. हिन्दू धर्म, हिन्दू सभ्यता और हिन्दू रहन-सहन सबसे प्राचीनतम है, श्रेष्ठ है, सुन्दर है, शिव है। इसने दूसरों को भी प्रेरणा दी है और संसार का प्रथम शिक्षक भी यही है।
  3. प्रत्येक हिन्दू को अपनी सभ्यता और अपने धर्म की सुरक्षा में वृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। तथा पाश्चात्य भौतिक चमक-दमक से दूर रहना चाहिए।
  4. प्रत्येक व्यक्ति को सादा, पवित्र व त्यागमय जीवन व्यतीत करना चाहिए तथा मानवता की सेवा करनी चाहिए।
  5. सभी धर्म अच्छे हैं। प्रत्येक मनुष्य को अपने धर्म में आस्था तथा विश्वास रखना चाहिए।

रामकृष्ण मिशन के कार्य – समाज-सुधार को रामकृष्ण मिशन में प्रमुखता दी गयी है। समाज में व्याप्त कुप्रथाओं को दूर करने के लिए सक्रिय प्रयास किये गये हैं। दीन-दुःखियों की सेवा तथा सहायता करने का भी निर्देश दिया गया है। ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन पर भी इस मिशन में बल दिया गया है। इसलिए शिक्षण-संस्थाओं की स्थापना का कार्य यहाँ भी प्रमुख रूप से हुआ। इस मिशन द्वारा विदेशों में भी भारतीय संस्कृति और सभ्यता का (UPBoardSolutions.com) प्रचार किया गया। नवजागरण में यह बहुत ही व्यावहारिक योगदान था। भारत के शिक्षित युवकों पर भी इस मिशन का अच्छा प्रभाव रहा है। देश पर आने वाले संकटों का सामना करने की दशा में भी इस संस्था ने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

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प्रश्न 5.
किन्हीं दो मुस्लिम-सुधार आन्दोलनों का वर्णन कीजिए। उसका तत्कालीन मुस्लिम समाज पर क्या प्रभाव पड़ा ? (2013)
             या
अलीगढ़ आन्दोलन क्या था ? यह मुस्लिम समुदाय के लिए किस प्रकार लाभकारी था ?
             या
सर सैयद अहमद खाँ ने मुसलमानों में व्याप्त किन कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया ?
             या
अलीगढ़ आन्दोलन के प्रवर्तक कौन थे? इस आन्दोलन ने मुस्लिम समाज को जाग्रत करने में क्या योगदान दिया ?
             या
वहाबी आन्दोलन क्यों प्रारम्भ हुआ ?
             या
अलीगढ़ आन्दोलन का क्या उद्देश्य था? इसके मुख्य प्रवर्तक कौन थे? उनके किसी एक महत्त्वपूर्ण योगदान का उल्लेख कीजिए। (2018)
             या
निम्नलिखित मुस्लिम सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलनों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए (2017)
(क) वहाबी आन्दोलन, (ख) अलीगढ़ आन्दोलन तथा (ग) देवबन्द आन्दोलन।
उत्तर :
प्रारम्भ में जो सुधार आन्दोलन हुए वे प्रायः हिन्दू धर्म और समाज से सम्बन्धित रहे; अत: मुस्लिम समाज उनसे अपेक्षित लाभ न उठा सका। मुस्लिम समाज की सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्थिति अच्छी न थी। हिन्दू आन्दोलन की प्रतिक्रियास्वरूप (UPBoardSolutions.com) मुस्लिम समाज के आधुनिकीकरण के लिए भी सुधार आन्दोलन प्रारम्भ हुए। इन आन्दोलनों ने जहाँ सामाजिक बुराइयों को दूर करने में योगदान दिया, वहीं भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना के उत्थान में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। ये आन्दोलन निम्नलिखित थे –

(1) सैयद अहमद बरेलवी : वहाबी आन्दोलन
मुस्लिम समाज में अनेक सुधारात्मक आन्दोलन फले-फूले। इनमें वहाबी आन्दोलन एक प्रमुख आन्दोलन था। यह आन्दोलन अठारहवीं शताब्दी में अरब में मुहम्मद अब्दुल वहाब ने आरम्भ किया। भारत में वहाबी आन्दोलन के जन्मदाता सैयद अहमद बरेलवी (1787-1831 ई०) थे। इन्होंने कुरान को जनसाधारण में सरलता से समझाने के लिए उर्दू भाषा में अनूदित करवाया। वहाबी आन्दोलन का उद्देश्ये मुस्लिम जगत् में चेतना, धर्म-सुधार और संगठन उत्पन्न करना रहा। इन्होंने मुसलमानों के जीवन से अनेक बुराइयों को दूर करके इस्लाम धर्म की वास्तविक पवित्रता को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया तथा पाश्चात्य सभ्यता का विरोध किया। इस आन्दोलन के दो प्रमुख उद्देश्य थे-अपने धर्म का प्रचार एवं मुस्लिम समाज में सुधार।

(2) सर सैयद अहमद खाँ : अलीगढ़ आन्दोलन
मुस्लिम समाज में जागृति उत्पन्न करने में सर सैयद अहमद खाँ का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने इस्लामी शिक्षा का गहन अध्ययन किया तथा पाश्चात्य शिक्षा का ज्ञान भी प्राप्त किया। इन्होंने मुस्लिम समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया तथा मुस्लिमों में नवजागरण का कार्य सम्पन्न किया। इनके द्वारा किये गये प्रमुख सुधार-कार्य इस प्रकार थे

  1. इन्होंने मुस्लिम समाज के आधुनिकीकरण के लिए अंग्रेजी के अध्ययन पर बल दिया। इसी उद्देश्य से इन्होंने 1875 ई० में अलीगढ़ में ‘मोहम्मडन ऐंग्लो ओरियण्टल कॉलेज की स्थापना की, जो बाद में अलीगढ़ विश्वविद्यालय में परिणत हो गया।
  2. इन्होंने मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियों, रूढ़ियों और धार्मिक अन्धविश्वासों का खुलकर विरोध किया।
  3. इस्लाम को मानवतावादी स्वरूप देने का प्रयत्न किया।
  4. इन्होंने सभी समुदायों को परस्पर भ्रातृ-भाव से रहने की सलाह दी।
  5. इन्होंने स्त्रियों में पर्दा-प्रथा का विरोध किया तथा स्त्री-शिक्षा का समर्थन किया।

अलीगढ़ आन्दोलन के अन्य प्रमुख नेता चिराग अली, अल्ताफ हुसैन, नज़ीर अहमद तथा मौलाना शिवली नोगानी थे। अलीगढ़ आन्दोलन मुस्लिम जगत् में सुधार का महान् आन्दोलन था। ये हिन्दू और मुसलमानों की एकता के भी पक्षपाती थे।

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(3) मिर्जा गुलाम अहमद कादियानी : अहमदिया आन्दोलन
मिर्जा गुलाम अहमद कादियानी (1838-1908 ई०) ने 1889 ई० में अहमदिया आन्दोलन का सूत्रपात किया। इन पर पाश्चात्य विचारधारा, थियोसॉफिकल सोसायटी और हिन्दुओं के सुधार आन्दोलन को पर्याप्त प्रभाव पड़ा। इनसे प्रभावित होकर इन्होंने इस्लाम धर्म को सरल और व्यापक बनाने के लिए यह आन्दोलन चलाया। इनका सब धर्मों की मौलिक एकता में विश्वास था। ये गैर-मुस्लिम लोगों से घृणा करने और जिहाद के विरुद्ध थे। ये सच्चे धर्म-सुधारक थे। ये पर्दा-प्रथा, बहु-विवाह तथा तलाक के समर्थक थे। इनकी पुस्तक का नाम ‘बराहीन-ए-अहमदिया है। इनके समर्थकों की संख्या बहुत कम थी तथा इन्हें ‘नबी’ के नाम से पुकारा जाता था।

(4) देवबन्द आन्दोलन
एक मुसलमान उलेमा, जो प्राचीन मुस्लिम साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान थे, ने देवबन्द आन्दोलन चलाया। उन्होंने मुहम्मद कासिम तथा रशीद अहमद गंगोही के नेतृत्व में देवबन्द (सहारनपुर, उत्तर प्रदेश) में शिक्षण-संस्था की स्थापना की। इस आन्दोलन के दो मुख्य उद्देश्य रहे-कुरान तथा हदीस की शिक्षाओं का प्रसार करना और विदेशी शासकों के विरुद्ध जेहाद’ की भावना को बनाये रखना। देवबन्द आन्दोलन ने 1885 (UPBoardSolutions.com) ई० में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का स्वागत किया। इनके अतिरिक्त नदवा-उल-उलूम (लखनऊ, 1894 ई०, मौलाना शिवली नोगानी), महल-ए-हदीस (पंजाब, मौलाना सैयद नज़ीर हुसैन) नामक मुस्लिम संस्थाओं ने भी मुस्लिम समाज को जाग्रत करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

इन मुस्लिम आन्दोलनों ने मुसलमानों में राजनीतिक तथा सामाजिक चेतना की वृद्धि की; जिसके परिणामस्वरूप मुसलमानों की स्थिति में पर्याप्त सुधार हुए। इन्होंने पाश्चात्य रीति-रिवाजों को देखा और उनके प्रभावस्वरूप मुस्लिम समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को समाप्त कर दिया। इन आन्दोलनों के नेताओं ने नारी-शिक्षा की ओर भी ध्यान देना प्रारम्भ किया। यद्यपि मुसलमानों में इस चेतना के जागने से साम्प्रदायिकता की भावना प्रबल हो गयी और देश में हिन्दू-मुसलमानों के मध्य झगड़े होने लगे, तथापि इन आन्दोलनों के फलस्वरूप ही अनेक देशभक्तों व राष्ट्रीय मुस्लिम नेताओं का उदय भी हुआ।

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प्रश्न 6.
नवजागरण का सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों पर क्या प्रभाव पड़ा ?
             या
नवजागरण के तत्कालीन समाज पर पड़ने वाले चार प्रभावों का वर्णन कीजिए।
             या
उन्नीसवीं शताब्दी में भारतवर्ष में हुए धार्मिक एवं समाज सुधार आन्दोलनों ने किस प्रकार सामाजिक उत्थान में योगदान किया? [2016]
उत्तर :
नवजागरण का प्रभाव नवजागरण का भारतीय समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इसके प्रभाव से समाज का कोई भी अंग अछूता ने रहा। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। भारतीय समाज में एक नयी चेतना, स्फूर्ति और शक्ति का संचार हुआ। नवजागरण के भारतीय समाज पर निम्नलिखित प्रमुख प्रभाव पड़े

1. सामाजिक कुरीतियों में कमी – सुधार आन्दोलन से पहले भारतीय समाज में अनेक बुराइयाँ व्याप्त थीं। सभी सुधारों ने एक स्वर से इन कुरीतियों पर तीव्र प्रहार किया। इन आन्दोलनों से प्रभावित होकर अंग्रेजी सरकार ने कुप्रथाओं (UPBoardSolutions.com) को समाप्त करने के लिए कानून बनाये। सन् 1829 ई० में सती–प्रथा के विरुद्ध कानून बनाया गया तथा 1843 ई० में दास-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित किया गया तथा 1856 ई० में विधवाओं को पुनर्विवाह की कानूनी अनुमति मिल गयी। इसी प्रकार बहु-विवाह तथा पर्दा-प्रथा में कमी आयी। छुआछूत के विरुद्ध भी भावनाएँ पनपने लगीं। अत: नवजागरण के फलस्वरूप सामाजिक कुप्रथाओं के विरुद्ध एक सशक्त वातावरण तैयार हो गया।

2. प्राचीन भारतीय साहित्य के अध्ययन में वृद्धि – उन्नीसवीं शताब्दी के सुधार आन्दोलनों का एक प्रमुख प्रभाव यह पड़ा कि भारतवासियों में अपने प्राचीन दर्शन, साहित्य, कला तथा विज्ञान के अध्ययन के प्रति रुचि उत्पन्न हुई। देश के प्राचीन इतिहास तथा धार्मिक ग्रन्थों की खोज प्रारम्भ हो गयी, संस्कृत भाषा का तीव्रती से प्रसार हुआ, प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों का बड़े पैमाने पर प्रकाशन किया जाने लगा तथा भारतीय अपने देश के प्राचीन ग्रन्थों को बड़ी रुचि से पढ़ने लगे। इस सम्बन्ध में मैक्समूलर जैसे पाश्चात्य विद्वानों का बड़ा योगदान रहा।

3. भारतीय सभ्यता-संस्कृति के प्रति रुझान – पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार के कारण देश के शिक्षित लोग भारतीय सभ्यता-संस्कृति की उपेक्षा करने लगे थे। विभिन्न सुधार आन्दोलनों ने इस प्रवृत्ति पर रोक लगायी तथा भारतीयों में अपने धर्म, संस्कृति तथा जीवन-दर्शन के प्रति प्रेम उत्पन्न किया। आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन और थियोसॉफिकल सोसायटी के प्रयासों के परिणामस्वरूप भारतीय जनमानस फिर से अपने धर्म तथा संस्कृति पर गर्व करने लगा।

4. बुद्धिवादी दृष्टिकोण का विकास – नवजागरण का एक महत्त्वपूर्ण प्रभाव यह हुआ कि शिक्षित लोग धार्मिक, सामाजिक तथा अन्य समस्याओं पर बुद्धि और तर्क के आधार पर विचार करने लगे। अब वे प्राचीन रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं के अन्ध-भक्त नहीं रहे वरन् तार्किक दृष्टि तथा अनुभव के आधार पर समस्याओं के हल ढूंढ़ने लगे।

5. पाश्चात्य शिक्षा को बढ़ावा – सर्वप्रथम राजा राममोहन राय के प्रयासों से देश में अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति का प्रारम्भ हुआ। परिणामतः पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान, स्वतन्त्रता, समानता, लोकतन्त्र आदि विचारों से भारतीय परिचित और प्रभावित हुए। पाश्चात्य शिक्षा के कारण भारत में जन-जागरण की शुरुआत हो गयी।

6. धार्मिक आडम्बरों में कमी – नवजागरण के कारण भारतीयों के धार्मिक जीवन में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। सुधार आन्दोलनों ने मूर्तिपूजा तथा धार्मिक कर्मकाण्डों का तीव्र विरोध किया। इससे धार्मिक आडम्बरों में कमी आयी, पुरोहितों का प्रभाव कम हुआ तथा मठों-मन्दिरों में फैले दुराचारों में भी कमी आयी।

7. स्त्रियों की दशा में सुधार – समाज-सुधार आन्दोलनों के परिणामस्वरूप स्त्रियों की दशा में बहुत सुधार हुआ। सती–प्रथा, बाल-विवाह, कन्या-वध आदि पर रोक लगाये जाने तथा विधवाओं को पुनर्विवाह की अनुमति मिलने से स्त्रियों का समाज में (UPBoardSolutions.com) सम्मान बढ़ा। सभी सुधारकों ने स्त्री-शिक्षा पर विशेष बल दिया। इन आन्दोलनों के फलस्वरूप भारतीय स्त्रियों ने आगे चलकर स्वतन्त्रता-संग्राम में पुरुषों के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर योगदान दिया।

8. साहित्य का विकास – साहित्य के क्षेत्र में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नवजागरण एवं नवोत्थान की भावनाओं का सूत्रपात किया। अपने ‘भारत दुर्दशा’ नामक नाटक में इन्होंने विदेशी शासन से उत्पन्न दुर्दशा का मार्मिक चित्रण किया। बंकिमचन्द्र चटर्जी ने ‘आनन्दमठ’ की रचना करके भारतीय नवजागरण तथा राष्ट्रीय नवचेतना में क्रान्ति उत्पन्न कर दी। इनके द्वारा रचित ‘वन्देमातरम्’ गीत राष्ट्रीय जागृति का महान् प्रेरक बना। अनेकानेक साहित्यकारों ने भारतीय भाषाओं में रचनाएँ करके देश की मान-मर्यादा एवं साहित्य की गरिमा को बढ़ाया।

9. राष्ट्रीय एकता तथा देशभक्ति की भावना का उदय – तत्कालीन सुधार आन्दोलन तत्कालीन सामाजिक तथा धार्मिक व्यवस्था को सुधारने के लिए किये गये थे, किन्तु उन्होंने राष्ट्रीयता के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। नवजागरण के फलस्वरूप लोगों में राष्ट्रीय एकता की भावना जाग्रत हुई। वे जाति, भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय आदि के भेदभाव को भुलाकर अपने को भारतवासी मानने लगे। इससे राष्ट्रीय एकता की भावना का संचार हुआ, जिसने धीरे-धीरे देश-प्रेम तथा देश-भक्ति की भावना को जन्म दिया। लोगों में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भावनाएँ जोर पकड़ती गयीं। राष्ट्रीयता की यही भावना भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन की आधारशिला बनी। हजारों भारतीय नवयुवक देश की स्वाधीनता हेतु अपने प्राण भी देने के लिए तैयार हो गये। परिणामस्वरूप मई, 1857 ई० में मेरठ में क्रान्ति के प्रारम्भ होने के बाद स्वाधीनता संग्राम धीरे-धीरे समूचे देश में फैल गया।

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प्रश्न 7.
भारत में राष्ट्रीयता के उदय पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिए।
उत्तर :

भारत में राष्ट्रीयता का उदय

भारत में चले सुधार आन्दोलनों के द्वारा समाज में चले आ रहे अन्धविश्वासों, कुरीतियों एवं कुप्रथाओं को दूर करने का निरन्तर प्रयास किया गया। नवजागरण ने अंग्रेजों द्वारा शोषित भारतीयों के मन में असन्तोष व क्रोध की भावना का संचार किया। धीरे-धीरे भारतीयों के हृदय में आत्मविश्वास तथा नवचेतना पैदा हुई। इस नवचेतना ने राष्ट्रीयता की भावना को जन्म दिया, जिससे प्रेरणा प्राप्त कर भारतवासी अपने देश की स्वतन्त्रता की माँग करने लगे।

आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन भारत पर अंग्रेजों द्वारा किए गए अधिकार की चुनौती का उत्तर था। विदेशी शासन द्वारा पैदा की गई परिस्थितियों ने भारतीय जनता में राष्ट्रीय भावना का विकास किया। जिसका प्रत्यक्ष एवं परोक्ष परिणाम भारत में राष्ट्रीय (UPBoardSolutions.com) आन्दोलन की परिस्थितियों का निर्माण था।

कारण-अंग्रेजी शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर अत्यन्त विनाशकारी प्रभाव पड़ा। अंग्रेजों की आर्थिक शोषण की नीति’ ने भारतीय कुटीर उद्योग, कृषि एवं व्यापार को पूरी तरह नष्ट कर दिया था। इसके परिणामस्वरूप भारतीय बेरोजगार हो गए एवं उनकी अर्थव्यवस्था खस्ता हाल होने लगी।

वास्तव में प्रशासनिक सुविधाएँ, सैनिक रक्षा के उद्देश्य, आर्थिक व्यापार तथा व्यापारिक शोषण की बालों को ध्यान में रखते हुए ही परिवहन के तीव्र साधनों की अनेक योजनाएँ बनीं। सन् 1853 ई० में लॉर्ड डलहौजी द्वारा शुरू की गई रेल प्रणाली के विकास के साथ-ही-साथ परिवहन के अन्य साधनों ने प्रान्तों को नगरों से तथा नगरों को गाँवों से जोड़ दिया गया। इससे भारतीयों में विचारों का परस्पर आदान-प्रदान होने लगा।

सन् 1850 ई० के बाद शुरू हुई आधुनिक डाक-व्यवस्था तथा बिजली के तार ने देश को एक करने में सहायता की। अन्तर्देशीय-पत्र, समाचार-पत्र तथा पार्सलों को कम दर में भेजने की व्यवस्था ने देश के सामाजिक, शैक्षणिक, बौद्धिक तथा राजनीतिक जीवन में एक भारी परिवर्तन ला दिया। डाकखानों के द्वारा राष्ट्रीय साहित्य पूरे देश में भेजा जा सकता था।

लॉर्ड लिटन के प्रतिक्रियावादी कार्य; जैसे—दिल्ली दरबार, वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट, आर्क्स ऐक्ट, ICS की परीक्षा की आयु 21 वर्ष करना, द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध आदि ने राष्ट्रीयता के उदय का मार्ग प्रशस्त किया।

भारत के सबसे लोकप्रिय वायसराय लॉर्ड रिपन के समय में इल्बर्ट बिल पारित हुआ। परन्तु इस अधिनियम की यूरोपियों में हुई कटु प्रतिक्रिया के कारण वायसराय द्वारा इसे वापस लेना पड़ा। इसका भारतीय जनता पर बहुत व्यापक प्रभाव पड़ा।

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प्रश्न 8.
भारत में राष्ट्रीयता के उदय के कारणों पर प्रकाश डालिए।
             या
सन् 1857 ई० से 1885 ई० के मध्य भारत में राष्ट्रीय चेतना के विकास के प्रमुख कारणों की व्याख्या कीजिए। [2010]
             या
भारत में राष्ट्रीय जागृति के उद्भव के उत्तरदायी कारणों की विवेचना कीजिए।
             या
राष्ट्रीय जागरण के तीन सामाजिक तथा तीन राजनैतिक कारण लिखिए [2014]
             या
उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में राजनीतिक चेतना के विकास के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारणों की विवेचना कीजिए। [2016]
उत्तर :
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशकों में भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का तेजी से विकास हुआ, जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित थे –

1. अंग्रेजों द्वारा आर्थिक शोषण – पहले ईस्ट इण्डिया कम्पनी और बाद में ब्रिटिश शासन ने भारतीय लोगों का भरपूर आर्थिक शोषण किया। दोषपूर्ण भूमि-कर व्यवस्था के कारण किसानों को अपनी भूमि-सम्पत्ति से वंचित होना पड़ा। नव-जमींदार र्ग कृषित भूमि का वास्तविक स्वामी बन बैठा। अकाल आदि प्राकृतिक प्रकोपों ने निर्धन जनता पर अत्यधिक बोझ डाल दिया। दस्तकार तथा शिल्पकार बेरोजगार हो गये। उद्योगपति और (UPBoardSolutions.com) व्यापारी वर्ग को भी आर्थिक क्षति हुई। इन भयंकर परिस्थितियों में लोगों में ब्रिटिश शासन के प्रति गहरा आक्रोश पैदा हुआ। वे ब्रिटिश शासन को जड़ से उखाड़ने के लिए कृतसंकल्प हो गये।

2. देश को प्रशासनिक एकीकरण – अंग्रेजों ने प्रशासनिक सुविधा के लिए देश को राजनीतिक एकता के सूत्र में बाँधा। इससे भारत एक राष्ट्र के रूप में उदित हुआ। देश की जनता में अंग्रेजों के प्रशासन तथा शोषण के विरुद्ध एके राष्ट्रीय दृष्टिकोण का उदय तथा विकास हुआ।

3. पाश्चात्य चिन्तन तथा शिक्षा – पाश्चात्य शिक्षा के माध्यम से भारतीय लोग पाश्चात्य चिन्तन से | परिचित हुए, जिससे लोगों में राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ। पाश्चात्य दार्शनिकों, विचारकों तथा लेखकों के विचारों ने भारतीयों में स्वतन्त्रता, समानता, लोकतन्त्र तथा देशभक्ति की भावनाओं का संचार किया।

4. सांस्कृतिक विरासत – अपने अतीत का पुनरीक्षण करके कुछ भारतीयों में अपनी पुरातन सांस्कृतिक विरासत से गर्व तथा त्य-सन्तोष को अन्डी भावना जाग्रत हुई। इस भावना के कारण कुछ ले नवीन विचारधाराओं तथा प्रवृत्ति से विमुख अवश्य हुए, किन्तु साथ ही विदेशियों से स्वयं को मुक्त करने का उत्साह भी उनमें जागा।

5. सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन – राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, केशवचन्द्र सेन, स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, सैयद अहमद खाँ आदि हिन्दू तथा मुस्लिम समाज-सुधारकों ने अनेक सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन चलाये। इन आन्दोलनों से भारतीय लोगों में नवजीवन का संचार हुआ, उनमें सामाजिक तथा राजनीतिक चेतना जागी।

6. जातीय भेदभाव तथा ईसाई धर्म में अन्तरण – अंग्रेजों ने जातिभेद की नीति अपनायी तथा भारतीय लोगों को ईसाई धर्म अपनाने के लिए अनेक प्रलोभन दिये। इस जबरदस्ती धर्मान्तरण के कारण भारतीयों के | हृदय में क्षोभ तथा अपमान की भावनाएँ पैदा हुईं। परिणामस्वरूप वे अंग्रेजों के अन्याय के विरुद्ध जाग्रतहुए।

7. ब्रिटिश प्रशासन –लॉर्ड लिटन के प्रतिक्रियावादी शासनकाल में वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट, आर्स ऐक्ट आदि नये विनियमों ने भारतीयों के हृदय में अंग्रेजों के शासन के प्रति रोष पैदा किया। लॉर्ड रिपन के काल में इल्बर्ट बिल के विरुद्ध यूरोपीय लोगों की जातीय कटुता को देख भारतीय लोग चकित रह गये। इन अनुभवों ने भारतीयों को राष्ट्रीय स्तर पर संगठित होकर आन्दोलन के लिए तैयार किया।

8. प्रेस की भूमिका – उन्नीसवीं शताब्दी में अमृत बाजार पत्रिका, केसरी, हिन्द, ट्रिब्यून आदि समाचार-पत्र और पत्रिकाओं ने जनता में राष्ट्रवादी विचारधारा को फैलाने में बहुत योगदान दिया। प्रेस ने अंग्रेजों की अन्याय तथा भेदभावपूर्ण नीतियों का खण्डन करके भारतीयों को एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयास किया। तिलक ने ‘केसरी’ के माध्यम से लोगों में अथाह धैर्य और साहस का संचार किया। देश के विभिन्न भागों के नेताओं तथा लोगों को परस्पर एक सूत्र में बाँधते हुए प्रेस ने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम को गति दी।

9. अन्तर्राष्ट्रीय जागरण का प्रभाव – विश्व के अनेक देशों में स्वतन्त्रता के लिए संग्राम हुए और वे स्वतन्त्रता प्राप्त करने में सफल भी हुए। इन सभी अन्तर्राष्ट्रीय जागरण की घटनाओं से भारतीयों में भी राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ।

10. भारतीयों के साथ भेदभाव – भारतीयों को अंग्रेजों के समान अधिकार प्रदान नहीं किये गये थे। राज्यों के उच्च पदों पर भारतीयों को अनेक आधारों पर अयोग्य बताते हुए नियुक्त नहीं किया जाता था। ऐसी सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के साथ 1869 ई० में और अरविन्द (UPBoardSolutions.com) घोष के साथ 1877 ई० में हुआ। भारतीयों के साथ इस प्रकार का भेदभाव अपनाये जाने से बुद्धिजीवी वर्ग में अत्यधिक असन्तोष पैदा हुआ और वे राष्ट्रीय जागरण के कार्य में लग गये।

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प्रश्न 9.
भारतीय उदारवादियों के कार्यक्रम तथा उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
             या
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में ए०ओ० ह्युम नामक अंग्रेज क्यों रुचि ले रहे थे?
             या
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना किस प्रकार हुई ? आरम्भ में इसके उद्देश्य, कार्यक्रम तथा कार्य-प्रणाली क्या थी ?
             या
प्रारम्भ में कांग्रेस के क्या उद्देश्य थे ? इसकी प्रारम्भिक नीति को उदारवादी नीति क्यों कहा जाता है ? इसका परित्याग करके उग्र राष्ट्रवाद की नीति क्यों अपनायी गयी ? [2009, 11]
             या
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारम्भिक चरण में उदारवादियों का आधिपत्य था।” इस कथन की विवेचना कीजिए। [2010]
             या
उदारवादी नेताओं के प्रमुख उद्देश्यों को लिखिए।
             या
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना किसने की थी ? आरम्भ में इसके क्या उद्देश्य थे? भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तीन उद्देश्य लिखिए। [2014]
             या
अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना कब, कहाँ और किसके द्वारा की गयी? इसके तीन मुख्य उद्देश्य लिखिए। [2015, 17]
             या
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना कब और कहाँ की गयी? इसके प्रमुख उद्देश्य क्या थे? (2016)
             या
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना कब की गयी? इसके प्रथम अध्यक्ष कौन थे? इसके प्रमुख उद्देश्यों का वर्णन कीजिए। [2016]
उत्तर :
सन् 1885 ई० में भारतीय सिविल सर्विस के रिटायर्ड अधिकारी सर ए०ओ० ह्युम ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की दिशा में पहल की। इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकों को यह प्रेरणा दी कि वे एक ऐसी संस्था का निर्माण करें जो भारतीयों के सामाजिक, राजनीतिक तथा आध्यात्मिक जीवन का उत्थान कर सके। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड डफरिन ने भी इस दिशा में सहयोग दिया, क्योंकि इस प्रकार की संस्था से भारतीयों की (UPBoardSolutions.com) इच्छा तथा कार्यक्रमों का पता चलता रहता और ब्रिटिश सरकार उचित कार्रवाई करके 1857 ई० की क्रान्ति जैसी अप्रिय घटना की पुनरावृत्ति न होने देती। सन् 1884 ई० में मद्रास (चेन्नई) में दीवान बहादुर रघुनाथ राय के निवास पर एक अखिल भारतीय संस्था की स्थापना की योजना बनी, जिसके फलस्वरूप 1885 ई० में इस संस्था की स्थापना भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रूप में हुई। कांग्रेस की स्थापना में दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, फिरोजशाह मेहता, बदरुद्दीन तैयब जी आदि ने भी सहयोग दिया। कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन 1885 ई० में व्योमेशचन्द्र बनर्जी की अध्यक्षता में बम्बई में हुआ था। द्वितीय अधिवेशन 1886 ई० में कलकत्ता (कोलकाता) में दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में तथा तीसरा अधिवेशन मद्रास(चेन्नई) में बदरुद्दीन तैयब जी की अध्यक्षता में हुआ था।

सन् 1885-1905 ई० में उदारवादियों के उद्देश्य तथा कार्यक्रम

कांग्रेस के आरम्भिक दौर में नरमपन्थी नेताओं; जैसे-दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, फिरोजशाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले आदि का प्रभुत्व बना रहा। उनके उद्देश्य तथा कार्य निम्नलिखित थे

  1. उन्होंने विधानसभाओं की शक्तियों के विस्तार तथा स्वशासन में प्रशिक्षण की माँग की।
  2. उन्होंने आर्थिक सुधारों के अन्तर्गत गरीबी को दूर करने के लिए कृषि का विकास करने, भू-राजस्व कम करने तथा उद्योगों के विस्तार की माँग की।
  3. उन्होंने प्रशासकीय सेवाओं के उच्च पदों का भारतीयकरण करने की माँग की।
  4. उन्होंने नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए भाषण तथा प्रेस की स्वतन्त्रता की माँग की।

इस प्रकार भारतीय नेताओं ने राष्ट्रीय जागृति पैदा की तथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध जनमत तैयार किया। इन मेताओं ने एक राजनीतिक तथा आर्थिक कार्यक्रम देकर देशवासियों को एक ही मंच से राष्ट्रीय संघर्ष करने के लिए तैयार किया।

उदारवादियों की कार्यप्रणाली

  1. अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इन नेताओं ने शान्तिपूर्ण संवैधानिक तरीके अपनाये।
  2. उन्हें ब्रिटिश शासकों की न्यायप्रियता पर पूरा विश्वास था; अत: उन्होंने ब्रिटिश शासकों से मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखा।
  3. वे संवैधानिक सुधारों में विश्वास करते थे; अतः वे याचिकाएँ, अपीलें, निवेदन-पत्र आदि ब्रिटिश सरकार को इस आशा से भेजते थे कि वह उन पर सहानुभूतिपूर्ण ढंग से विचार करेगी तथा उनकी माँगों को स्वीकार करेगी। इसी कारण इनकी कार्यप्रणाली तथा नीतियों को उदारवादी नीति कहा जाता है। कुछ अन्य विद्वान इन उदारवादी नेताओं की कार्यप्रणाली को ‘राजनीतिक भिक्षावृत्ति’ की संज्ञा भी देते हैं।

उपलब्धियाँ

ब्रिटिश सरकार ने नरमपन्थियों से कोई सहयोग नहीं किया; अतः ये नेता अपने उद्देश्य की प्राप्ति में विफल रहे। इसलिए 1905 ई० के बाद राष्ट्रीय आन्दोलन की बागडोर गरमपन्थी नेताओं के हाथों में चली गयी, जो क्रान्तिकारी साधनों द्वारा अपना उद्देश्य प्राप्त करना चाहते थे।

उग्र राष्ट्रवाद की नीति अपनाने के कारण – उदारवादी युग की 20 (UPBoardSolutions.com) वर्षों की लम्बी अवधि में भी कांग्रेस लोगों में जागृति पैदा करने में सफल न हो सकी। उदारवादी आन्दोलन की सफलता अंग्रेजों की सहानुभूति और दया पर निर्भर थी। कांग्रेस को आन्दोलन जनता का आन्दोलन न था।

उदारवादियों ने सरकार से रियायतें माँगीं, स्वतन्त्रता नहीं। इसको आधार बलिदान नहीं था। बंकिम चन्द्र चटर्जी ने इस आन्दोलन को भिक्षावृत्ति की संज्ञा दी। लाला लाजपत राय ने लिखा कि 20 वर्षों के आन्दोलन के बाद भी रोटी के स्थान पर अंग्रेजों से पत्थर ही मिले।

उदारवादी अंग्रेजी ताज के प्रति भक्ति-भाव रखते थे। उनकी एक और गलती यह थी कि उनका विश्वास था कि यदि अंग्रेज भारत से चले गये तो भारतीय हितों की हानि होगी। उदारवादी लोगों की आकांक्षाओं को समझ न सके। वे यह भी न समझ सके कि भारतीयों और अंग्रेजों के हित एक-दूसरे के विरोधी हैं। इसलिए बिना लड़े अंग्रेज अपने अधिकारों को छोड़ने को तैयार न थे।

सन् 1915 ई० तक उदारवादी नेताओं का कांग्रेस पर पूरा अधिकार था, परन्तु धीरे-धीरे उग्रवादी नेताओं ने उनके नेतृत्व को चुनौती दी और अन्ततः 1923 ई० में उदारवादी युग पूरी तरह समाप्त हो गया।

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प्रश्न 10.
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में महात्मा गांधी का क्या योगदान था ? [2010]
             या
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में महात्मा गांधी द्वारा चलाये गये आन्दोलनों का मूल्यांकन कीजिए। [2014]
             या
भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान गांधी जी द्वारा चलाये गये तीन प्रमुख आन्दोलनों का वर्णन कीजिए। [2014, 15, 16, 17, 18]
उत्तर :
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में महात्मा गांधी का योगदान प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन ने बहुत जोर पकड़ लिया। इसी समय महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय आन्दोलन में प्रवेश किया और वे शीघ्र ही राष्ट्रवादियों के सर्वप्रिय नेता बन गये। सन् 1920 ई० से 1947 ई० तक इन्होंने अपनी असाधरण योग्यता से स्वतन्त्रता आन्दोलन का नेतृत्व किया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में महात्मा गांधी की भूमिका अद्वितीय है। इसी कारण 1919 ई० से 1947 ई० तक के काल को ‘गांधी युग’ कहा जाता है। गांधी जी का समस्त आन्दोलन सत्य, अहिंसा, शान्तिपूर्ण विरोध तथा साधने व साध्य के औचित्य पर आधारित था। महात्मा गांधी का भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान निम्नलिखित है

1. असहयोग आन्दोलन – यह महात्मा गांधी द्वारा चलाये गये आन्दोलनों में प्रथम महत्त्वपूर्ण आन्दोलन था। पंजाब में हो रही नृशंस घटनाओं पर रोक लगाने के उद्देश्य से गांधी जी ने 1920 ई० में असहयोग आन्दोलन का आरम्भ किया। इस आन्दोलन का उद्देश्य सरकार से किसी भी प्रकार का सहयोग न करना था। इसका आरम्भ गांधी जी ने अपनी ‘केसरे-हिन्द’ की उपाधि को गवर्नर जनरल को लौटाकर किया। जनता ने भी बड़ा उत्साह दिखाया। सैकड़ों व्यक्तियों ने अपनी-अपनी उपाधियाँ त्याग दीं। हजारों छात्रों ने स्कूल तथा कॉलेज छोड़ दिये। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया तथा विदेशी वस्त्रों की होली जलायी गयी। चुनावों, सरकारी नौकरियों, संस्थाओं तथा उत्सवों का बहिष्कार किया गया। गांधी जी के आह्वान पर प्रिंस ऑफ वेल्स (ब्रिटेन के युवराज) के भारत आगमन पर उनका देश-भर में बहिष्कार किया गया। 5 फरवरी, 1922 ई० को चौरी-चौरा गाँव में हुई हिंसात्मक घटना से दुःखी होकर गांधी जी ने इस आन्दोलन को स्थगित कर दिया। इस आन्दोलन के स्थगित (UPBoardSolutions.com) होने पर सरकार ने राजद्रोह के आरोप में गांधी जी को 6 वर्ष के लिए बन्दी बना लिया।

2. सविनय अवज्ञा आन्दोलन – सन् 1929 ई० में कांग्रेस ने लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति’ को अपना लक्ष्य घोषित किया। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गांधी जी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाया गया। इस आन्दोलन का प्रारम्भ महात्मा गांधी ने गुजरात के डाण्डी नामक स्थान पर नमक बनाकर सरकार के नमक-कानून को तोड़कर किया। सन् 1931 ई० में गांधी-इर्विन समझौता हुआ। गांधी जी ने आन्दोलन स्थगित करके द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेना स्वीकार किया, किन्तु वार्ता के विफल होने पर पुनः आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया गया। यह आन्दोलन 1934 ई० तक चलता रहा।

3. व्यक्तिगत सत्याग्रह – अंग्रेजी सरकार ने भारतीयों को द्वितीय विश्वयुद्ध में नेताओं के साथ कोई परामर्श किये बिना ही धकेल दिया था। परिणामतः 1940-41 ई० में महात्मा गांधी के नेतृत्व में सरकार के इस कदम का विरोध करने हेतु सत्याग्रह आन्दोलन चलाया गया था।

4. भारत छोड़ो आन्दोलन – 8 अगस्त, 1942 ई० को कांग्रेस पार्टी के अधिवेशन में ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पास किया गया। गांधी जी ने देशवासियों को ‘करो या मरो’ का नारा दिया, किन्तु अगले दिन 9 अगस्त की सुबह ही महात्मा गांधी तथा अन्य महत्त्वपूर्ण नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इन गिरफ्तारियों की जनता में भयंकर प्रतिक्रिया हुई और समस्त भारत में प्रदर्शन, हड़तालें, तोड़फोड़, सरकारी इमारतों को आग लगाना, थानों व पुलिस चौकियों पर हमले आदि घटनाएँ हुईं। अनेक स्थानों पर विद्रोहियों ने अस्थायी नियन्त्रण कायम कर लिया। यद्यपि अंग्रेज सरकार आन्दोलन को कुचलने में सफल हो गयी तथापि पाँच वर्ष बाद ही वह भारत को छोड़ने के लिए विवश हुई। यह एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन था, जिसका श्रेय मुख्यतया महात्मा गांधी को प्राप्त है।

5. भारत का विभाजन तथा स्वतन्त्रता की प्राप्ति – 3 जून, 1947 ई० को लॉर्ड माउण्टबेटन ने घोषणा की कि 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत का विभाजन कर दिया जाएगा। यद्यपि कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार कर लिया, किन्तु गांधी जी ने इसका विरोध किया। भारत के विभाजन के समय महात्मा गांधी ने बंगाल (नोआखाली) में साम्प्रदायिक आधार पर होने वाले रक्तपात को रोका। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय आन्दोलन को जन-आन्दोलन बनाया तथा ब्रिटिश साम्राज्यवादी शिकंजे से भारत को मुक्त कराने में अद्वितीय योगदान दिया। केवल यही नहीं अपितु हिन्दू-मुस्लिम एकता, हरिजनोद्धार, महिलाओं की (UPBoardSolutions.com) स्थिति में सुधार, स्वदेशी भावना का प्रचार आदि महात्मा गांधी की अन्य महत्त्वपूर्ण देन हैं। राष्ट्र को अभूतपूर्व योगदान के कारण ही महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ कहा जाता है।

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प्रश्न 11.
भारत के स्वतन्त्रता संघर्ष में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के योगदान पर प्रकाश डालिए। उसका क्या परिणाम हुआ ?
             या
भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में सुभाषचन्द्र बोस तथा उनळी आजाद हिन्द फौज की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
             या
सुभाषचन्द्र बोस पर टिप्पणी लिखिए। [2014]
             या
भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में सुभाषचन्द्र बोस के योगदान की विवेचना कीजिए। [2015, 16]
उत्तर :
सुभाषचन्द्र बोस को जन्म 23 जनवरी, 1897 ई० में कटक में हुआ था। वे जन्मजात क्रान्तिकारी थे। भारत के स्वतन्त्रता के इतिहास में सुभाषचन्द्र बोस का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। अपनी आई०सी०एस० की नौकरी को छोड़कर सुभाष राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े। असहयोग आन्दोलन को सफल बनाने के लिए उन्होंने गांधी जी को पूरा सहयोग दिया। प्रिंस ऑफ वेल्स के बहिष्कार आन्दोलन में भी उन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया, जिस कारण अंग्रेज सरकार ने उन्हें दिसम्बर, 1921 ई० में 6 महीने के लिए जेल भेज दिया।

जब गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन स्थगित कर दिया तो सुभाषचन्द्र बोस को बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने गांधी जी का साथ छोड़ दिया। इसके बाद वे स्वराज्य पार्टी की स्थापना के कार्य में लग गये। सन् 1924 ई० में सरकार ने उन पर क्रान्तिकारी षड्यन्त्र का आरोप लगाकर उन्हें बन्दी बना लिया। सन् 1929 ई० में उन्हें रिहा कर दिया गया। सन् 1929 ई० में जब कांग्रेस ने अपना उद्देश्य पूर्ण स्वराज्य घोषित किया तो वे फिर से कांग्रेस में सम्मिलित हो गये।

सुभाषचन्द्र बोस कांग्रेस की उदारवादी नीति से बहुत असन्तुष्ट थे, क्योंकि वे सशस्त्र क्रान्ति के पक्ष में थे। इस बीच वे बीमार पड़ गये और इलाज के लिए यूरोप चले गये। सन् 1936 ई० में भारत लौटने पर उन्होंने पुनः स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया। सन् (UPBoardSolutions.com) 1938 ई० में वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये, किन्तु कुछ , समय पश्चात् कांग्रेस से अलग हो गये और ‘फारवर्ड ब्लॉक’ नामक एक नया संगठन बनाया।

ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें सरकार विरोधी होने का आरोप लगाकर जेल भेजा गया तथा बाद में घर पर ही नजरबन्द कर दिया गया। सन् 1941 ई० में सुभाष ब्रिटिश सरकार को चकमा देकर भारत से बाहर चले गय और अफगानिस्तान होते हुए जर्मनी पहुँच गये। जापानी सहायता से ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए फरवरी, 1943 ई० में वे जापान पहुँचे। जापानी सरकार की सहायता से उन्होंने ‘आजाद हिन्द फौज’ को गठन किया और अपने अनुयायियों को जयहिन्द’ का नारा दिया। भारत को स्वतन्त्रता दिलाने हेतु उनकी सेना ने उत्तर-पूर्व की ओर से भारत पर आक्रमण कर दिया। आजाद हिन्द फौज आगे बढ़ती हुई असम तक आ पहुँची, किन्तु उसी समय द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान हार गया। इसके परिणामस्वरूप आजाद हिन्द फौज को जापान से सहायता मिलनी बन्द हो गयी और उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। उन्हीं दिनों एक वायुयान दुर्घटना में सुभाष जी की मृत्यु हो गयी।

परिणाम – डॉ० वी०पी० वर्मा के अनुसार, “एक राजनीतिक कार्यकर्ता तथा नेता के रूप में बोस ओजस्वी राष्ट्रवाद के समर्थक थे। देशभक्ति उनके व्यक्तित्व का सार तथा उनकी आत्मा की उच्चतम अभिव्यक्ति थी। ऐसे राष्ट्रवादी नेता के संघर्ष का परिणाम उत्साहवर्धक ही होना था।

उनके द्वारा गठित आजाद हिन्द फौज का नारा–“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा”- युवाओं में स्वाधीनता की भावना तीव्र करने में मील का पत्थर साबित हुआ। सुभाषचन्द्र बोस क्रान्तिकारी और राष्ट्रवादी नेता थे। उनके प्रयासों से भारतीयों में राजनीतिक चेतना तीव्रतम रूप में अभिव्यक्त हुई। वे इतने अच्छे वक्ता थे कि जो भी उनको सुनता राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत हो पक्का देशभक्त बन जाता।

सुभाषचन्द्र बोस और उनकी आजाद हिन्द फौज का भारत के स्वतन्त्रता संघर्ष में बड़ा (UPBoardSolutions.com) महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारत की आजादी के लिए उन्होंने जो बलिदान किये उन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता।

प्रश्न 12.
गरम दल के प्रमुख नेताओं ‘लाल-बाल-पाल’ के कार्यों एवं योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
             या
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक पर टिप्पणी लिखिए।
             या
लाल-बाल-पाल से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
लाल-बाल-पाल कांग्रेस के तीन प्रमुख नेताओं की एक तिकड़ी थी। ये तीनों नेता कांग्रेस की उग्र या गरम विचारधारा के नेता थे। इनका विचार था कि ब्रिटिश सरकार से स्वराज्य या कोई अन्य सुविधा, उग्रवादी विद्रोह करके ही प्राप्त की जा सकती है। इन्होंने 1907 ई० में कांग्रेस की भिक्षावृत्ति की नीति से असन्तुष्ट होकर कांग्रेस का विभाजन करते हुए उग्रवादी दल का निर्माण किया। लाला लाजपत राय (लाल) पंजाब में सक्रिय थे। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (बाल) महाराष्ट्र में तथा बिपिनचन्द्र पाल (पाल) बंगाल में सक्रिय थे। इन सभी ने अपने क्षेत्रों में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभायी। इनका जीवन-परिचय तथा योगदान निम्नलिखित है –

1. लाला लाजपत राय – पंजाब केसरी लाला लाजपत राय स्वतन्त्रता आन्दोलन के प्रमुख कर्णधार थे। इनका जन्म 28 जनवरी, 1865 ई० को पंजाब के फिरोजपुर जिले में हुआ था। आप एक पत्रकार, वकील, शिक्षाशास्त्री, राजनीतिक नेता, समाज-सुधारक तथा सच्चे देशभक्त थे। इन्होंने लोकमान्य तिलक के साथ मिलकर क्रान्तिकारी आन्दोलन का संचालन किया। पंजाब में सामाजिक सुधारों के कार्यों को भी इन्होंने शुरू किया। सन् 1896 ई० में आपने इंग्लैण्ड जाकर वहाँ की जनता को भारतीयों के कष्टों से अवगत कराया। सन् 1905 ई० में इन्होंने कांग्रेस के माध्यम से स्वतन्त्रता आन्दोलन का कार्य शुरू किया था। ये सक्रिय (UPBoardSolutions.com) आन्दोलन के कारण कई बार जेल भी गये। सन् 1923 ई० में आप केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा के सदस्य चुने गये। सन् 1928 ई० के साइमन कमीशन के विरोध में लाहौर में एक जुलूस का नेतृत्व करते समय इन्हें पुलिस की लाठी से घातक चोट लग गयी थी। 17 नवम्बर, 1928 ई० को इनका देहान्त हो गया।

2. बाल गंगाधर तिलक – बाल गंगाधर तिलक भारत के महान् राष्ट्रीय नेता थे। इनका जन्म 23 जुलाई, 1856 ई० को महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। ये उग्र विचारधारा के समर्थक थे, इसलिए कांग्रेस में गरम दल के जन्मदाता थे। इनका कहना था कि, ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। और हम उसे लेकर रहेंगे।’ इन्होंने दो समाचार-पत्र ‘मराठा’ और ‘केसरी’ निकाले तथा महाराष्ट्र में ‘शिवाजी उत्सव’ और ‘गणपति उत्सव’ का शुभारम्भ किया। अपने त्याग, तपस्या और देशभक्ति से वे’लोकमान्य’ बन गये। सन् 1893 ई० के अकाल और प्लेग के समय इन्होंने पीड़ितों की बहुत सेवा की। इन्होंने जनता में राष्ट्रीय चेतना जाग्रत की, भिक्षावृत्ति का विरोध किया, भारतीय संस्कृति व जीवन-मूल्यों की पुनः स्थापना की तथा विभिन्न आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया। जन-आन्दोलन चलाने के कारण इन्हें जेल में बन्द कर दिया गया। सन् 1914 ई० में ये जेल से मुक्त होकर बाहर आये। इसके बाद होमरूल आन्दोलन के कर्णधार बन गये। इन्होंने स्वराज्य की महत्ता पर विशेष बल दिया था। तिलक जी 1918 ई० में इंग्लैण्ड भी गये। वहाँ से लौटने के बाद ये अधिकांशतः बीमार रहने लगे और 1 अगस्त, 1920 ई० को इनका स्वर्गवास हो गया।

3. बिपिनचन्द्र पाल – बिपिनचन्द्र पाल का जन्म 7 नवम्बर, 1858 ई० को हबीगंज (वर्तमान में बांग्लादेश) में हुआ था। इन्होंने राष्ट्र के दलों को इस प्रकार संगठित करने की बात कही जिससे कोई भी शक्ति, जो हमारे मुकाबले में आये, हमारी इच्छा के सामने दबने को मजबूर हो जाए। इनका मानना था कि हमें अंग्रेजी सरकार को पूर्ण बहिष्कार करना चाहिए। यदि हम सरकार को नौकरी करने वाले आदमी न दें तो हम सरकार की कार्यप्रणाली को असम्भव बना सकते हैं। इसके अतिरिक्त भी प्रशासन की कार्य-पद्धति को कई तरह से असम्भव बनाया जा सकता है।

सन् 1907 ई० में बिपिनचन्द्र पाल ने मद्रास (चेन्नई) प्रान्त का दौरा किया और स्वराज्य का नारा बुलन्द किया। उन्हें 6 महीने जेल में रखा गया था, क्योंकि उन्होंने अरविन्द घोष के विरुद्ध गवाही देने से मना कर दिया था। जेल से रिहा होते ही उन्होंने एक सार्वजनिक सभा की, स्वराज्य का झण्डा फहराया और प्रत्येक विदेशी वस्तु का बहिष्कार करने का निश्चय किया। वास्तव में, बिपिनचन्द्र पाल खुले आम सरकार की सत्ता की अवहेलना करने के (UPBoardSolutions.com) पक्षधर थे। वे भारतीयों के मन से ब्रिटिश सरकार का भय निकालकर, उनमें स्वदेशी की भावना का संचार करना चाहते थे। 20 मई, 1932 ई० को इनका स्वर्गवास हो गया।

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प्रश्न 13.
मुस्लिम लीग की स्थापना कब हुई ? इसकी नीतियों का वर्णन कीजिए। इसका क्या प्रभाव पड़ा ? (2011)
             या
मुस्लिम लीग के दो मुख्य उद्देश्यों की विवेचना कीजिए। उसकी नीति के किन्हीं तीन परिणामों का वर्णन कीजिए।
             या
मुस्लिम लीग के मुख्य सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए। भारतीय राजनीति में उसके प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 ई० में हुई, जो अंग्रेजों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति का परिणाम थी। भारत में राष्ट्रवादी आन्दोलन के उदय को ब्रिटिश सरकार ने अपने साम्राज्य के लिए बहुत बड़ा खतरा माना। उन्होंने देश में राष्ट्रीय भावना को रोकने के लिए भारतीयों को धार्मिक आधार पर बाँटने की नीति अपनायी। अंग्रेजों ने मुसलमानों का हिमायती बनकर यह कहना शुरू कर दिया कि कांग्रेस में तो हिन्दुओं का बाहुल्य है और राष्ट्रीय आन्दोलन मुसलमानों के हित में नहीं है। उन्होंने मुसलमानों को अलग प्रतिनिधित्व देने का लालच दिया तथा मुसलमान जमींदारों व नवशिक्षित युवकों को अपने पक्ष में कर लिया (UPBoardSolutions.com) और उन्हीं के द्वारा मुसलमानों में पृथकतावादी भावनाओं का संचार किया। अंग्रेज मुसलमानों को अपना पृथक् राजनीतिक संगठन बनाने के लिए उकसाते रहे। साम्प्रदायिकता तथा पृथकतावादी प्रवृत्तियों के पराकाष्ठा पर पहुँच जाने पर 1906 ई० में ढाका ऑल इण्डिया मुस्लिम लीग की स्थापना हुई।

दो उद्देश्य-
आगा खाँ के नेतृत्व में स्थापित मुस्लिम लीग के दो प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे –

  1. भारतीय राजनीति में मुसलमानों का पृथक् अस्तित्व कायम करना उनके लिए पृथक् निर्वाचन-प्रणाली की माँग करना और उन्हें अधिक-से-अधिक प्रतिनिधित्व दिलाने का प्रयास करना।
  2. मुसलमानों को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रभाव से बचाना और मुसलमानों में ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा और भ्रातृभाव उत्पन्न करना।

मुस्लिम लीग एक प्रतिक्रियावादी संस्था थी तथा इस पर मुसलमान राजाओं, जमींदारों, उद्योगपतियों तथा ऐसे व्यक्तियों का नियन्त्रण था, जो ब्रिटिश सरकार के पिट्ठू थे। उसका कोई रचनात्मक कार्यक्रम नहीं था तथा उसकी नीति मात्र कांग्रेस को नीचा दिखाने तथा मुसलमानों को हिन्दुओं से पृथक् करने की थी। इस नीति के निम्नलिखित तीन प्रभाव सामने आये

1. स्वतन्त्रता संग्राम पर प्रभाव – भारतीय मुस्लिम लीग की गतिविधियों का देश के स्वतन्त्रता संग्राम पर गहरा प्रभाव पड़ा। मुस्लिम लीग की हठधर्मिता तथा पृथकतावादी प्रवृत्तियों के कारण स्वतन्त्रता प्राप्ति में देर हुई।

2. हिन्दू-मुस्लिम एकता का अहित – सन् 1857 ई० के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में हिन्दू और मुसलमानों ने कन्धे-से-कन्धा मिलाकर अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष किया था। अंग्रेज इस हिन्दू-मुस्लिम एकता को अपने लिए खतरा समझते थे। लीग की नीतियों ने हिन्दू-मुसलमानों को पृथक् करने का निन्दनीय कार्य किया और उनके बीच घृणा के बीज बोये।

3. देश का विभाजन – यद्यपि 1911-13 ई० के दौरान कुछ घटनाओं; जैसे-बंगाल-विभाजन; के कारण मुस्लिम लीग ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध हो गयी और उसके बाद कई वर्षों तक मुस्लिम लीग ने राष्ट्रीय आन्दोलन में कांग्रेस का साथ दिया, किन्तु बाद में मुस्लिम (UPBoardSolutions.com) लीग फिर कांग्रेस के विरुद्ध हो गयी और दोनों में बराबर खींचातानी चलती रही। मुस्लिम लीग की प्रतिक्रियावादी तथा साम्प्रदायिकता की नीति के कारण ही 1947 ई० मे भारत का विभाजन और पाकिस्तान का निर्माण हुआ।

लध उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रार्थना समाज की स्थापना और कार्यों का वर्णन कीजिए।
             या
समाज-सुधार के क्षेत्र में प्रार्थना-समाज के योगदान को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्रार्थना समाज : स्थापना-सन् 1849 ई० में महाराष्ट्र में परमहंस सभा की स्थापना की गयी। लेकिन इसका प्रभाव सीमित था और वह शीघ्र ही टूट गयी। डॉ० आत्माराम पाण्डुरंग ने एक संगठन 1867 ई० में बनाया, जिसका उद्देश्य विचारयुक्त प्रार्थना और समाज-सुधार था। उसका नाम प्रार्थना समाज रखा गया। प्रार्थना समाज ने नामदेव, तुकाराम, रामदास और एकनाथ जैसे मराठी सन्तों से प्रेरणा ली। उनका उद्देश्य हिन्दू समाज में सुधार करना था।
कार्य

  1. इस समाज ने जाति-प्रथा का विरोध किया और अन्तर्जातीय विवाह, विधवा-पुनर्विवाह और स्त्री-शिक्षा पर बल दिया। इसने अछूतों के उद्धार का काम भी किया।
  2. इस समाज ने एक ब्रह्म की उपासना का सन्देश दिया तथा धर्म को जातिवाद-रूढ़िवाद से मुक्त करने का प्रयास किया। समाज ने जाति-व्यवस्था और पुरोहितों के आधिपत्य की आलोचना की।
  3. अछूतों, दलितों और पीड़ितों की दशा सुधारने के लिए कई कल्याणकारी (UPBoardSolutions.com) संस्थाओं का संगठन किया; । जैसे—दलित जाति मण्डल, समाज सेवा संघ और दक्कन शिक्षा सभा।

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प्रश्न 2.
आर्य समाज तथा ब्रह्म समाज के मध्य दो समानताओं और तीन असमानताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
आर्य समाज व ब्रह्म समाज में निम्नलिखित दो समानताएँ एवं तीन असमानताएँ थीं –

समानताएँ –

  • दोनों ही मानते हैं कि ईश्वर एक है और उसकी पूजा आध्यात्मिक रूप से होनी चाहिए। दोनों ही मूर्तिपूजा को नहीं मानते।
  • दोनों की मान्यता है कि ईश्वर निराकार, सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक है।

असमानताएँ –

  • आर्य समाज वेदों को ही ज्ञान का स्रोत मानता है और उनके अध्ययन को आवश्यक मानता है; जबकि ब्रह्म समाज वेदों की बात नहीं करता, वह प्रार्थना और मनुष्य के कर्म को अधिक महत्त्व देता है।
  • ब्रह्म समाज सभी धर्मों की शिक्षाओं और उपदेशों को सत्य मानकर सभी धर्मों का आदर करने की बात कहता है; जबकि आर्य समाज हिन्दू धर्म को महत्त्व देता है। यह हिन्दू धर्म को इस्लाम तथा ईसाई धर्म के खतरे से बचाता है तथा धर्म-परिवर्तन कर बने ईसाइयों व मुसलमानों को पुनः हिन्दू धर्म अपनाने को आमन्त्रित करता है।
  • आर्य समाज सत्य और ज्ञान पर अधिक बल देता है तथा ज्ञान का स्रोत वेदों को मानता है। ब्रह्म समाज सत्य और प्रेम पर अधिक बल देता है।

प्रश्न 3.
गोपालकृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक ने समाज-सेवा के क्षेत्र में क्यों प्रसिद्धि पायी ?
उत्तर :
गोपालकृष्ण गोखले – गोपालकृष्ण गोखले में दिल और दिमाग की अद्भुत योग्यताएँ थीं और इन्होंने जीवन में बड़ी तेजी से उन्नति की। सन् 1905 ई० में गोखले ने मातृभूमि की सेवा करने के लिए सार्वजनिक कार्यकर्ताओं को ट्रेनिंग देने हेतु ‘सर्वेण्ट्स ऑफ इण्डिया सोसायटी की स्थापना की। .. गोखले को सदा उन भूखे, दुर्बल किसानों का ध्यान रहता था, जो दो रोटियों के लिए सुबह से शाम तक मेहनत करते थे, परन्तु निःसहाय थे। उनका विचार (UPBoardSolutions.com) था कि घृणा करने से भारत तथा ब्रिटेन दोनों को हानि है। उनका यही प्रयत्न रहा कि दोनों पक्षों में मेल-मिलाप हो तथा टकराव को टाला जाए। मिण्टो-मालें सुधारों को पास कराने में गोखले ने जो कुछ किया, वह प्रशंसनीय है। गोखले एक रचनात्मक व्यक्ति थे। वे अन्तर्जातीय सद्भावना और सहयोग के नवीन युग के पैगम्बर सदृश थे।

बाल गंगाधर तिलक – बाल गंगाधर तिलक राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय रहते हुए भी भारतीय समाज के सुधार एवं उत्थान के लिए प्रयत्नशील रहे। ये सामाजिक शोषण, प्रतिरोध, आडम्बर, कुरीतियों और भेदभाव से समाज को मुक्त करना चाहते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इन्होंने होमरूल आन्दोलन प्रारम्भ किया तथा समाज को जगाने में अपनी सम्पूर्ण क्षमता लगा दी। इसके लिए इन्होंने ‘केसरी’ व ‘मराठा’ समाचार-पत्रों का सहारा लिया। ‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे’, इस घोषणा ने भारतीय समाज को झकझोर दिया।

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प्रश्न 4.
भारतीय समाज के उत्थान में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
सती–प्रथा के बन्द होने से विधवाओं की समस्या पहले से भी अधिक गम्भीर रूप में सामने आयी। सती–प्रथा के प्रचलन के कारण विधवाओं की संख्या उतनी अधिक नहीं थी, लेकिन जब यह प्रथा अवैध घोषित हो गयी तो विधवाओं की संख्या में काफी वृद्धि हुई। 19वीं सदी के समाज-सुधारक विधवा-विवाह के लिए आन्दोलन करने लगे। संस्कृत के महान् विद्वान् पंडित ईश्वरचन्द विद्यासागर ने. विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए प्रबल आन्दोलन किया। उन्होंने शास्त्रों से उदाहरण देकर यह प्रमाणित कर दिया कि हिन्दू शास्त्रों के द्वारा विधवा पुनर्विवाह निषिद्ध नहीं है। बड़ी संख्या में हस्ताक्षर इकट्ठे करके सरकार के (UPBoardSolutions.com) पास एक प्रार्थना-पत्र भेजा गया। उनके प्रयत्नों से 1856 ई० में विधवा-विवाह जायज घोषित कर दिया गया। सामाजिक संस्थाओं के द्वारा अनेक विधवा-आश्रम भी देश में कायम किये गये।

प्रश्न 5.
थियोसॉफिकल सोसायटी पर एक निबन्य लिखिए। (2010)
             या
थियोसॉफिकल सोसायटी का संक्षिप्त परिचय देते हुए भारत में एनी बेसेण्ट के योगदान पर प्रकाश डालिए। (2010)
             या
एनीबेसेण्ट के जीवन-वृत्त एवं कार्यों (उपलब्धियों) पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
एनीबेसेण्ट का जन्म 1847 ई० में इंग्लैण्ड में हुआ था। इनकी माता आयरलैण्ड की रहने वाली थीं। ये प्रगतिशील विचारों की महिला थीं। सन् 1893 ई० में ये थियोसॉफिकल सोसायटी का कार्य करने के लिए भारत आयीं। कालान्तर में इन्होंने हिन्दू धर्म को स्वीकार किया और इसकी श्रेष्ठता के प्रति सम्भाषण किया। ये शोषण, प्रतिरोध, आडम्बर, कुरीतियों और भेदभाव से मुक्त समाज की स्थापना में रुचि रखती थीं। ये राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन से भी जुड़ गयी थीं। इन्होंने अपनी सम्पूर्ण क्षमता राष्ट्रीय जागरण में लगा दी। इन्होंने बाल गंगाधर तिलक के साथ 1916 ई० में होमरूल आन्दोलन शुरू किया। एनीबेसेण्ट ब्रिटिश साम्राज्य की शत्रु नहीं थीं। वे केवल भारतीयों को निद्रा से जगाना तथा झिंझोड़ना चाहती थीं। उन्होंने कहा था, मैं भारत की लम्बी बन्दूक हूँ, जो सब सोने वालों को जगाये, जिससे वे जाग सकें और अपनी मातृभूमि के लिए कार्य कर सकें।”

एनीबेसेण्ट की योजना राष्ट्रीय उग्रवादियों को क्रान्तिकारियों के साथ समझौतापूर्ण सन्धि से अलग रखने के लिए, साम्राज्य के अन्तर्गत किसी भी स्थिति में सन्तुष्ट बनाये रखने के लिए तथा संयुक्त कांग्रेस में उन्हें नरम दल वालों के साथ एक ही पंक्ति में लाने की थी। (UPBoardSolutions.com) उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि अपना राज्य भारतीयों का जन्मसिद्ध अधिकार है तथा भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य के लिए अपनी सेवाओं के उपलक्ष्य में तथा ब्रिटिश राजगद्दी के लिए आज्ञाकारिता के पुरस्कार के रूप में इसे लेने को तैयार न थे।

होमरूल आन्दोलन 1917 ई० में अपने शिखर पर पहुंचा। उस वर्ष भारत सरकार ने आन्दोलन के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की। एनीबेसेण्ट को बन्दी बना लिया गया। उनकी मुक्ति के लिए आन्दोलन हुआ। तिलक जी ने निष्क्रिय संघर्ष करने की धमकी दी। भारत का सम्पूर्ण वातावरण उत्साह से भर उठा। किन्तु उसी समय अगस्त, 1917 ई० में राज्य सचिव ने एक प्रसिद्ध घोषणा की, जिसके द्वारा भारतीयों को क्रमशः उत्तरदायी सरकार देने का वचन दिया गया, परिणामस्वरूप होमरूल आन्दोलन ठण्डा पड़ गया।

एनी बेसेण्ट 1917 ई० में कांग्रेस की प्रधान निर्वाचित हुईं। इसी वर्ष मि० मॉण्टेस्क्यू भारत आये। उन्होंने भारत का भ्रमण किया तथा जनप्रतिनिधियों से भेंट की। सन् 1919 ई० में भारत सरकार का अधिनियम स्वीकृत हुआ। 20 सितम्बर, 1933 ई० में अड्यार में एनीबेसेण्ट का निधन हो गया।

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प्रश्न 6.
सत्यशोधक समाज के चार सिद्धान्तों को लिखिए।
उत्तर :
सत्यशोधक समाज के प्रमुख चार सिद्धान्त अग्रलिखित हैं –

  1. सर्वधर्म समभाव एवं पारस्परिक सहनशीलता की प्रेरणा देना।
  2. जाति-पाँति, छुआछूत तथा वर्गीय भेदभाव का विरोध करना।
  3. स्त्रियों को समाज में ऊँचा स्थान दिलाने की प्रेरणा देना तथा पर्दा-प्रथा एवं सती–प्रथा का विरोध करना।
  4. शिक्षा के क्षेत्र में भी सुधार एवं प्रचार करना।

प्रश्न 7.
अनुदारवादियों के विचार उदारवादियों से किस प्रकार भिन्न थे ?
             या
नरमपंथी एवं गरमपंथी कांग्रेसियों की नीतियों एवं कार्यक्रमों का अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2014]
             या
नरमपन्थियों और गरमपन्थियों के बीच क्या अन्तर थे ? [2015]
उत्तर :
प्रारम्भ में कांग्रेस पर उदारवादियों का ही अधिक प्रभाव रहा, परन्तु बाद में कांग्रेस के सदस्यों में वैचारिक मतभेद उत्पन्न होने लगा। सन् 1907 ई० के सूरत अधिवेशन में कांग्रेस दो दलों ‘उदारवादी’ एवं ‘अनुदारवादी’ में विभाजित हो गई। इसका प्रमुख कारण इन दोनों गुटों की विचारधारा में अन्तर होना था। उदारवादी नेता अहिंसात्मक और वैधानिक तरीके से ही स्वतन्त्रता की माँग करने में विश्वास करते थे। अनुदारवादी नेताओं को, उदारवादी (UPBoardSolutions.com) नेताओं का यह तरीका पसन्द नहीं था। उनका विचार था कि एक प्रकार से, अंग्रेजों से आजादी के लिए भीख माँगने के समान है। वे स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिए उग्रवादी तरीकों को अपनाना चाहते थे। इसी प्रकार यद्यपि दोनों दलों के नेताओं का लक्ष्य एक ही था, परन्तु उस लक्ष्य अर्थात् स्वतन्त्रता प्राप्त करने के तरीकों के सम्बन्ध में दोनों की विचारधाराएँ भिन्न थीं।

उदारवादी नेताओं में दादाभाई नौरोजी, गोपालकृष्ण गोखले, मदनमोहन मालवीय, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी आदि प्रमुख थे, जबकि लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, विपिनचन्द्र पाल आदि अनुदारवादी नेता थे।

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प्रश्न 8.
भारत-विभाजन के लिए उत्तरदायी कारकों का उल्लेख कीजिए।
             या
सन् 1947 ई० में भारत के विभाजन के लिए उत्तरदायी कारकों की समीक्षा कीजिए।
उत्तर :
सन् 1947 ई० में भारत के विभाजन के लिए निम्नलिखित कारक मुख्यत: उत्तरदायी थे –

  1. अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज्य करो’ नीति – यह नीति भारत के विभाजन का मूल कारण थी। इस नीति ने साम्प्रदायिकता का जहर घोला तथा मुस्लिम लीग को मुसलमानों के लिए पृथक् राज्य की माँग करने के लिए उकसाया।
  2. मुस्लिम लीग की भूमिका – जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने ब्रिटिश सरकार से द्वि-राष्ट सिद्धान्त के आधार पर मुसलमानों के लिए पृथक् राज्य बनाने की माँग की।
  3. हिन्दू महासभा की भूमिका – हिन्दू महासभा के नेताओं ने अपने भड़काने वाले भाषणों द्वारा मुसलमानों को पृथक् राज्य की माँग करने के लिए उकसाया। मुसलमानों को यह डर था कि स्वतन्त्रता के बाद हिन्दू बहुमत वाले देश में उनके हितों की रक्षा न हो (UPBoardSolutions.com) सकेगी।
  4. साम्प्रदायिक दंगे – देश-भर में व्यापक रूप से साम्प्रदायिक दंगे हुए। इन दु:खद घटनाओं के फलस्वरूप अन्तत: देश का विभाजन हो ही गया।

प्रश्न 9.
दादाभाई नौरोजी को ‘ग्रैण्ड ओल्ड मैन ऑफ इण्डिया’ क्यों कहा जाता है ? राष्ट्रीय आन्दोलन में उनका क्या योगदान था ?
             या
दादाभाई नौरोजी की प्रसिद्धि के क्या कारण थे ? (2011)
उत्तर :
दादाभाई नौरोजी को निम्नलिखित कारणों से ‘ग्रैण्ड ओल्ड मैन ऑफ इण्डिया’ कहा जाता है –

1. दादाभाई नौरोजी (1825-1917) ने 61 वर्ष भारत की सेवा की (40 वर्ष कांग्रेस की स्थापना के पहले और 21 वर्ष उसके बाद)। बाद में आप स्थायी रूप से इंग्लैण्ड में बस गये थे और वहाँ हाउस ऑफ कॉमन्स के सदस्य चुने गये थे। आप तीन बार 1886, 1893 और 1906 ई० में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये।

2. कांग्रेस के मंच से सबसे पहले स्वराज्य माँगने का श्रेय दादाभाई नौरोजी को ही है। कलकत्ता अधिवेशन में उनके अध्यक्षीय भाषण में स्वराज्य पर ही बल दिया गया था। आपने कहा था कि हमें मेहरबानी नहीं, इंसाफ चाहिए।

3. दादाभाई नौरोजी पहले भारतीय नेता थे, जिन्होंने भारतीय जनता का ध्यान उस ओर खींचा कि देश पर ब्रिटिश शासन होने के कारण भारत की सम्पत्ति बड़ी तेजी से ब्रिटेने जा रही है। आपने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘पावर्टी एण्ड ब्रिटिश रूल इन इण्डिया’ में अपने ये विचार प्रकट किये थे।

4. डॉ० पट्टाभि सीतारमैया के अनुसार, दादाभाई नौरोजी का नाम भारतीय देशभक्तों की सूची में सबसे पहले आता है। इनका सम्बन्ध कांग्रेस की स्थापना के समय से ही इससे रहा और अपने जीवन के अन्तिम दिनों तक ये इसकी सेवा करते रहे। इन्होंने कांग्रेस को शिकायतें दूर करने वाली एक मामूली संस्था से उठाकर स्वराज्य-प्राप्ति के एक निश्चित उद्देश्य के लिए काम करने वाली एक राष्ट्रीय सभा बना दिया।

5. सी०वाई० चिन्तामणि के अनुसार, “वर्षों तक इंग्लैण्ड में और भारत में दिन-रात प्रतिकूल और अनुकूल परिस्थितियों में और ऐसी निराशाजनक दशाओं में भी, जिनमें किसी आदमी का दिल टूट जाता है, दादाभाई ने अटल भाव से पूर्ण नि:स्वार्थ भाव और शक्ति से मातृभूमि की सेवा की। गोखले के अनुसार, “अगर मनुष्य में कहीं दिव्यता हो सकती है तो वह दादाभाई नौरोजी में थी।”

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प्रश्न 10.
सूरत के अधिवेशन में कांग्रेस में फूट क्यों हो गई ? दोनों गुटों के एक-एक नेता का नाम लिखिए। (2012)
             या
सूरत के अधिवेशन में इण्डियन नेशनल कांग्रेस किन दो दलों में विभाजित हो गई और क्यों? दोनों दलों में से प्रत्येक के एक-एक नेता का नाम लिखिए। (2018)
उत्तर :
ब्रिटिश सरकार के प्रति चलने वाले राष्ट्रीय आन्दोलन में उदारवादियों और उग्रवादियों के मतभेद चरम सीमा पर पहुँच गये। दोनों ही दलों के आन्दोलन के तरीके भिन्न-भिन्न थे। उग्र राष्ट्रवादी, स्वदेशी तथा बहिष्कार आन्दोलन को देशव्यापी बनाने के लिए कांग्रेस पर अपना आधिपत्य जमाना चाहते थे। इन्हीं परिस्थितियों में 1907 ई० में सूरत में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसमें दोनों दलों की शक्तियों का परीक्षण हुआ। सूरत अधिवेशन में नरम (UPBoardSolutions.com) दल ने अध्यक्ष पद के लिए डॉ० रासबिहारी घोष तथा उग्र राष्ट्रवादियों ने लाला लाजपत राय का नाम प्रस्तावित किया। उस समय नरम दल बहुमत में था। इस प्रकार 1907 ई० में सूरत का कांग्रेस अधिवेशन (जो गोखले का गढ़ था) उदारवादियों और उग्र राष्ट्रवादियों के मध्य रणस्थल बन गया। इस अधिवेशन में दोनों दिन अव्यवस्था बनी रही और पुलिस बुलानी पड़ी। परिणामस्वरूप कांग्रेस का औपचारिक रूप से विभाजन हो गया। उग्र राष्ट्रवादी एक संवैधानिक संशोधन द्वारा कांग्रेस से निष्कासित कर दिए गए।

सूरत में कांग्रेस विभाजन के पश्चात् ब्रिटिश सरकार का उग्र राष्ट्रवादियों के विरुद्ध आतंक का ताण्डव शुरू हो गया। सरदार अजीत सिंह और लाला लाजपत राय को देश निकाला दे दिया गया। तिलक को बर्मा में माण्डले भेज दिया गया। विपिनचन्द्र पाल को जेल में बन्द कर दिया गया। उनका अपराध यह था कि उन्होंने अरविन्द घोष के विरुद्ध चलाये गये मुकदमे में उन्हें बचाने का प्रयास किया था। ब्रिटिश सरकार ने अलीपुर बम काण्ड (1908 ई०) के सम्बन्ध में अरविन्द घोष और उनके भाई वारिन्द्र घोष सहित बड़ी संख्या में क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार कर लिया। इन लोगों के मुकदमे को ‘अलीपुर बम काण्ड’ कहा जाता है। अधिकांश अभियुक्तों को दोषी पाया गया और उनमें से वारिन्द्र सहित कुछ को आजीवन कारावास दिया गया।

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प्रश्न 11.
लाला लाजपतराय क्यों प्रसिद्ध हैं ? [2011]
उत्तर :
सच्चे राष्ट्रवादी लाला जी ने ‘पंजाबी’ तथा ‘वन्देमातरम्’ नामक दैनिक समाचार-पत्रों का प्रकाशन आरम्भ किया तथा अंग्रेजी साप्ताहिक-पत्र ‘द पिपुल’ का सम्पादन कार्य भी किया। वे 1905 ई० से राजनीति में पूर्ण सक्रिय हो गये। 1905 ई० के बंगाल विभाजन के समय इन्होंने इंग्लैण्ड जाकर जनमत को कर्जन के विरुद्ध करने का प्रयत्न किया था। 1907 ई० में उन्होंने सरदार अजीतसिंह के साथ ‘कोलोनाइजेशन बिल’ के खिलाफ एक बड़ा आन्दोलन चलाया। आन्दोलन को कुचलने के लिए सरकार ने उन्हें पकड़कर बर्मा की माण्डले जेल में बन्द कर दिया। 1914 ई० में लाला जी ने अमेरिका प्रवास के दौरान दो संस्थाओं ‘इण्डियन होमरूल’ (UPBoardSolutions.com) एवं ‘इन्फॉरमेशन ब्यूरो’ की स्थापना की। साथ ही ‘यंग इण्डिया’ नामक समाचार-पत्र का भी सम्पादन किया। लालाजी ने आर्य समाज, भारत में इंग्लैण्ड का ऋण, मैजिनी की जीवनी, शिवाजी की जीवनी आदि पुस्तकों की रचना कर प्रबुद्ध वर्ग को जाग्रत किया और प्रसिद्धि पायी।

प्रश्न 12.
गोपालकृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक के विचारों में क्या अन्तर था ? किन्हीं दो बिन्दुओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
तिलक और गोखले दोनों उच्च श्रेणी के देशभक्त थे। दोनों ने अपने जीवन में बड़ी कुर्बानियाँ की थीं, परन्तु उनके विचारों में अन्तर था। उनके विचारों के दो बिन्दु अग्रवत् हैं –

  1. गोखले नरम विचारों के थे और तिलक गरम विचारों के। गोखले का लक्ष्य मौजूदा संविधान को सुधारना था, तिलक उसे नये सिरे से बनाना चाहते थे। गोखले को आवश्यक रूप से नौकरशाही के साथ मिलकर काम करना था, तिलक को उससे आवश्यक रूप से लड़ना था।
  2. गोखले जहाँ हो सके वहाँ सहयोग और जहाँ जरूरी हो विरोध के पक्षधर थे। तिलक रुकावट डालने की नीति को पसन्द करते थे। गोखले को प्रशासन और उसके सुधार की मुख्य चिन्ता थी, तिलक का राष्ट्र और उसकी उन्नति का विचार था।

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प्रश्न 13.
सरदार वल्लभभाई पटेल का जीवन-परिचय देते हुए स्वतन्त्रता आन्दोलन में उनका योगदान लिखिए। [2010]
उत्तर :
जीवन परिचय-सरदार वल्लभभाई पटेल को लौह-पुरुष के नाम से भी जाना जाता है। इनका जन्म 21 अक्टूबर, 1875 ई० को गुजरात के एक धनी परिवार में हुआ था। ये एक प्रतिष्ठित वकील थे। सन् 1918 ई० में गांधी जी द्वारा चलाये गये किसान आन्दोलन में ये उनके साथ मिल गये। सन् 1918-19 ई० से पटेल पूर्णत: कांग्रेस के साथ जुड़ गये और सन् 1927 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम में अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया। स्वतन्त्र भारत के ये प्रथम उपप्रधानमन्त्री बने। 15 दिसम्बर, 1950 ई० को आपका निधन हो गया।

स्वतन्त्रता आन्दोलन में योगदान

बारदोली सत्याग्रह – सरदार वल्लभभाई पटेल का नाम बारदोली सत्याग्रह से जुड़ा हुआ है। महात्मा गांधी के कहने पर पटेल ने बारदोली के किसानों के सत्याग्रह का आयोजन किया। किसानों ने सत्याग्रह इसलिए किया, क्योंकि सरकार ने लगान बहुत बढ़ा दिया था। सत्याग्रह के दौरान किसानों को बहुत-सी यातनाएँ सहनी पड़ीं। उनकी फसलें नीलाम कर दी गयीं। उनके मवेशियों को सरकार उठाकर ले गयी और बेच डाला। परन्तु सरदार पटेल के नेतृत्व में किसान सत्याग्रह पर डटे रहे। अन्त में सरकार को उनकी माँगें माननी पड़ी।

रियासतों का भारत संघ में विलय – रियासतों के भारत में विलय के बिना सरदार पटेल भारत की स्वतन्त्रता को अधूरा समझते थे। अपने विशाल हृदय, दूरदर्शिता और उदारता परन्तु कठोर निर्णय-शक्ति का उपयोग करते हुए इन्होंने प्रत्येक बाधा को दूर किया। पहले रक्षा, विदेश मामलों और संचार के विषयों में देशी रियासतों को सम्मिलित किया, फिर उनका संगठन करके अन्त में पूरी तरह से केन्द्र में विलय करके समस्त देश को विधान की दृष्टि से एक बना दिया।

सरदार पटेल ने रियासती विभाग के अन्तर्गत एक उपसमिति का गठन भी किया। इनके सुझाव पर रियासती मन्त्रालय बनाया गया और वे स्वयं उसके अध्यक्ष हुए। सरदार पटेल के प्रयत्नों का यह परिणाम हुआ कि 15 अगस्त, 1947 ई० तक जूनागढ़, हैदराबाद (UPBoardSolutions.com) और कश्मीर को छोड़कर सभी रियासतें भारतीय संघ में सम्मिलित हो गयीं।

फरवरी, 1948 ई० में एक रेफरेण्डम के द्वारा जूनागढ़ का विलय 20 जनवरी, 1949 ई० को काठियावाड़ के संयुक्त राज्य में हो गया। हैदराबाद के विलय को सुनिश्चित करने के लिए सरदार पटेल ने पुलिस कार्रवाई करने का निश्चय किया। पुलिस कार्रवाई 13 सितम्बर, 1948 ई० को शुरू हुई और तीन दिन के भीतर निजाम ने हथियार डाल दिये। 1 नवम्बर, 1948 ई० को हैदराबाद भारतीय संघ में सम्मिलित हो गया। जब कबायली लोग, जिन्हें पाकिस्तान मदद दे रहा था, श्रीनगर पर कब्जा करने वाले थे, तब महाराजा कश्मीर ने भारत सरकार से सहायता माँगी और 26 अक्टूबर, 1947 ई० को भारत संघ में विलय के प्रवेश पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये।

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प्रश्न 14.
सन् 1857 ई० की क्रान्तिकारी घटना के बाद भारतीयों में असन्तोष उत्पन्न होने की कई घटनाएँ हुईं। उनमें से निम्नलिखित दो पर प्रकाश डालिए [2010]
(क) वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट तथा
(ख) इल्बर्ट बिल (विधेयक)। इन पर भारतीयों की क्या प्रतिक्रिया हुई ?
उत्तर :
(क) वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अनेक अंग्रेजी दैनिक पत्रों की स्थापना हुई। भारतीय भाषाओं में भी समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं को आरम्भ हुआ। धीरे-धीरे भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के लगभग 500 पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा। इन पत्र-पत्रिकाओं ने जनता में राष्ट्रीय चेतना जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। बाल गंगाधर तिलक द्वारा स्थापित मराठी पाक्षिक पत्र तथा केसरी ऐसा ही पत्र था।

भारतीय प्रेस पर सेंसर लगाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने समय-समय पर अनेक (UPBoardSolutions.com) कानून बनाये। ऐसा ही एक कानून 1878 ई० में लिटन ने ‘वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट’ पास करवे रतीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा दिया।

भारतीयों की प्रतिक्रिया-समाचार-पत्रों पर कठोर प्रतिबन्ध लगाने से बुद्धिजीवी वर्ग में ब्रिटिश शासन के प्रति आक्रोश और स्वराष्ट्र के प्रति अनुराग बढ़ा। लोकमान्य तिलक के केसरी व मराठा समाचार-पत्र अब अंग्रेजों के प्रति आग उगलने लगे।

(ख) इल्बर्ट बिल (विधेयक) – सन् 1873 ई० के फौजदारी दण्ड संहिता के अन्तर्गत किसी भी भारतीय न्यायाधीश को यूरोपीय अपराधियों के मुकदमे सुनने का अधिकार नहीं था। यह पूर्ण रूप से अन्याय था तथा उच्च पदों पर आसीन भारतीयों को असहनीय था। रिपन ने इस अन्याय को दूर करने के उद्देश्य से अपनी परिषद् के विधि सदस्य इल्बर्ट की सहायता के लिए एक बिल पारित कराने का प्रयास किया। अत: 2 फरवरी, 1883 ई० को एक बिल प्रस्तुत किया गया। विधेयक का उद्देश्य था कि जाति-भेद पर आधारित सभी न्यायिक अयोग्यताएँ तुरन्त समाप्त कर दी जाएँ और भारतीय तथा यूरोपीय न्यायाधीशों की शक्तियाँ समान कर दी जाएँ। परन्तु जैसे ही बिल प्रस्तुत हुआ, उसका घोर विरोध किया गया। यूरोपियनों के कड़े विरोध के सम्मुख रिपन को झुकना पड़ा और यह बिल पास नहीं हो सका।

भारतीयों की प्रतिक्रिया – इस बिल के पास न होने से भारतीयों में निराशा की लहर दौड़ गयी। उन्हें अब अंग्रेजों से किसी प्रकार के न्याय की उम्मीद न रही, लेकिन इससे भारतीयों में राजनीतिक चेतना का संचार हुआ। इस विधेयक और इसके विरोध में किये गये आन्दोलन ने भारतीय राष्ट्रीयता पर जो प्रभाव डाला, वह प्रभाव विधेयक के मूल रूप में पास होने पर कभी नहीं हो सकता था।

यद्यपि आजाद हिन्द फौज भारत को स्वतन्त्र कराने में सफल न हो सकी, फिर भी सुभाषचन्द्र बोस और आजाद हिन्द फौज की गतिविधियों ने देश में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष को शक्ति अवश्य प्रदान की।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ब्रह्म समाज की स्थापना कब और किसने की ? [2011]
उतर :
ब्रह्म समाज की स्थापना राजा राममोहन राय ने सन् 1828 ई० में की।

प्रश्न 2.
आर्य समाज की स्थापना कब और किसके द्वारा की गयी ? [2011, 13, 16]
             या
स्वामी दयानन्द ने किस संस्था की प्रतिष्ठा की थी ? [2011]
उत्तर :
आर्य समाज की स्थापना 1875 ई० में स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा बम्बई (मुम्बई) में की गयी।

प्रश्न 3.
रामकृष्ण मिशन की स्थापना कब और किसने की थी ? [2009, 17]
उत्तर :
रामकृष्ण मिशन की स्थापना स्वामी विवेकानन्द ने 1897 ई० में की थी।

प्रश्न 4.
रामकृष्ण मिशन का मुख्यालय कहाँ स्थापित किया गया ? [2010]
उत्तर :
रामकृष्ण मिशन का मुख्यालय वेलूरमठ, कलकत्ता (कोलकाता) में स्थापित किया गया।

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प्रश्न 5.
सर सैयद अहमद खाँ ने किस शिक्षा केन्द्र की स्थापना तथा कब की ?
उत्तर :
सर सैयद अहमद खाँ ने 1875 ई० में ‘मोहम्मडन एंग्लो ओरियण्टल (UPBoardSolutions.com) कॉलेज की स्थापना की, जिसे 1920 ई० में ‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में परिवर्तित कर दिया गया।

प्रश्न 6.
थियोसॉफिकल सोसायटी का मुख्यालय भारत में कहाँ खोला गया ?
उत्तर :
थियोसॉफिकल सोसायटी का मुख्यालय 1882 ई० में भारत में अड्यार (वर्तमान चेन्नई के निकट) खोला गया।

प्रश्न 7.
भारत में थियोसॉफिकल आन्दोलन कहाँ से प्रारम्भ हुआ ?
उत्तर :
भारत में थियोसॉफिकल आन्दोलन अड्यारे (चेन्नई) से प्रारम्भ हुआ।

प्रश्न 8.
प्रार्थना समाज का संस्थापक कौन था ?
उत्तर :
प्रार्थना समाज के संस्थापक डॉ० आत्माराम पाण्डुरंग थे।

प्रश्न 9.
आर्य समाज के प्रमुख ग्रन्थ का नाम लिखिए। इसकी रचना किसने की थी ? (2009, 10, 11)
उत्तर :
आर्य समाज के प्रमुख ग्रन्थ का नाम ‘सत्यार्थप्रकाश’ है। (UPBoardSolutions.com) इसकी रचना स्वामी दयानन्द सरस्वती ने की थी।

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प्रश्न 10.
शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किसने किया था ?
उत्तर :
स्वामी विवेकानन्द ने।

प्रश्न 11.
सत्यार्थ प्रकाश के लेखक कौन थे ?
उत्तर :
स्वामी दयानन्द सरस्वती।

प्रश्न 12.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का प्रारम्भिक नाम क्या था ?
उत्तर :
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का प्रारम्भिक नाम ‘मोहम्मडन एंग्लो ओरियण्टल कॉलेज’ था।

प्रश्न 13.
किन्हीं दो उदारवादी नेताओं के नाम लिखिए।
             या
उदारवादी नेताओं के नाम लिखिए।
उत्तर :
दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, गोपालकृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता आदि कांग्रेस के उदारवादी नेता थे।

प्रश्न 14.
भारतीय राष्ट्रवादी आन्दोलन के दो प्रमुख नेताओं के नाम लिखिए। [2011, 18]
उत्तर :
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दो प्रमुख नेता दादाभाई नौरोजी तथा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी थे।

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प्रश्न 15.
भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के गरम दल के दो नेताओं के नाम लिखिए। [2014]
उत्तर :

  1. बाल गंगाधर तिलक।
  2. विपिन चन्द्र पाल।

प्रश्न 16.
कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन कहाँ हुआ था ?
उत्तर :
कांग्रेस को प्रथम अधिवेशन 1885 ई० में बम्बई (UPBoardSolutions.com) (मुम्बई) में हुआ था।

प्रश्न 17.
पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव कब और कहाँ स्वीकार किया गया ?
उत्तर :
दिसम्बर, 1929 ई० के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव स्वीकार किया गया।

प्रश्न 18.
गरम दल के अधिष्ठाता कौन थे ?
उत्तर :
गरम दल के अधिष्ठाता बाल गंगाधर तिलक थे।

प्रश्न 19.
होमरूल लीग के दो नेताओं के नाम लिखिए।
उत्तर :
होमरूल लीग के दो नेता थे –

  1. श्रीमती एनीबेसेण्ट तथा
  2. मोतीलाल नेहरू।

प्रश्न 20.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष कौन थे ?
उत्तर :
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष व्योमेशचन्द्र बनर्जी थे।

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प्रश्न 21.
जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर :
जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड 13 अप्रैल, 1919 ई० को अमृतसर में हुआ।

प्रश्न 22.
जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड का मुख्य कारण लिखिए।
उत्तर :
इस हत्याकाण्ड का मुख्य कारण 1919 ई० का रॉलेट ऐक्ट था। इसका विरोध करने पर डॉ० सत्यपाल और डॉ० किचलू को गिरफ्तार कर लिया गया। इन गिरफ्तारियों के विरुद्ध विरोध प्रकट करने के लिए लोग 13 अप्रैल, 1919 ई० को अमृतसर (UPBoardSolutions.com) के जलियाँवाला बाग में एकत्रित हुए। तत्कालीन गवर्नर जनरल डायर के आदेश पर इन निहत्थे लोगों पर सैनिकों ने गोलियाँ बरसायीं।

प्रश्न 23.
भारत विभाजन का मुख्य कारण क्या था ?
उत्तर :
भारत विभाजन का मुख्य कारण मुस्लिम लीग की अपनी माँगों को लेकर हठधर्मिता और कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीति थी।

प्रश्न 24.
काकोरी षड्यन्त्र काण्ड में शहीद होने वाले क्रान्तिकारियों में से किसी एक का नाम लिखिए।
उत्तर :
काकोरी षड्यन्त्र काण्ड में शहीद होने वाले एक क्रान्तिकारी थे—रामप्रसाद बिस्मिल। इनके दूसरे साथी का नाम था-अशफाक उल्ला खाँ।

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प्रश्न 25.
“स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।” यह नारा किसने दिया था ? [2011, 18]
उत्तर :
बाल गंगाधर तिलक ने।

प्रश्न 26.
सुभाषचन्द्र बोस के सैन्य संगठन का क्या नाम था ? उनका नारा क्या था ? [2013]
उत्तर :
Indian National Army. (आजाद हिन्द फौज)। इसका नारा था-‘दिल्ली चलो।

प्रश्न 27.
1893 ई० में विश्वधर्म सम्मेलन किस स्थान पर आयोजित किया गया था ? इसमें भारत की ओर से किसने भाग लिया ? [2013]
उत्तर :
1893 ई० में विश्वधर्म सम्मेलन शिकागो में आयोजित किया गया था। इसमें भारत की ओर से स्वामी विवेकानन्द ने भाग लिया था।

प्रश्न 28.
राजा राममोहन राय और स्वामी दयानन्द द्वारा स्थापित संस्थाओं के सिद्धान्तों में क्या , समानताएँ थीं? [2016]
उत्तर :
आर्य समाज व ब्रह्म समाज में निम्नलिखित समानताएँ थीं –

  1. दोनों ही मानते हैं कि ईश्वर एक ही है और उसकी पूजा आध्यात्मिक रूप से होनी चाहिए। दोनों ही मूर्तिपूजा को नहीं मानते।
  2. दोनों की मान्यता है कि ईश्वर निराकार, सर्वशक्तिमान (UPBoardSolutions.com) व सर्वव्यापक है।

प्रश्न 29.
सर सैयद अहमद खाँ ने मुस्लिम समाज के उत्थान के लिए क्या किया? कोई दो बिन्दु लिखिए। [2016]
उत्तर :

  1. इन्होंने मुस्लिम समाज में अपेक्षित सुधारों पर बल दिया तथा उन्हें शिक्षित करने का भरसक प्रयास किया।
  2. इन्होंने मुसलमानों को रूढ़िवादिता में न रहकर युग के साथ चलने की प्रेरणा दी।

प्रश्न 30.
उन्नीसवीं सदी के दो ऐसे समाचार-पत्रों का नाम बताइट जो अब भी प्रकाशित होते हैं। [2013]
उत्तर :
उन्नीसवीं सदी के दो प्रमुख समाचार-पत्रों के नाम इस प्रकार हैं –

  1. टाइम्स ऑफ इण्डिया (1861 ई०)।
  2. अमृत बाजार पत्रिका (1868 ई०)।

ये दोनों समाचार-पत्र अब भी प्रकाशित हो रहे हैं।

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बहुविकल्पीय प्रश्न

1. ब्रह्म समाज की स्थापना कब हुई ? [2012]

(क) 1828 ई० में
(ख) 1875 ई० में
(ग) 1906 ई० में
(घ) 1919 ई० में

2. ब्रह्म समाज की स्थापना किसने की? [2018]

(क) राजा राममोहन राय
(ख) ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
(ग) केशवचन्द्र सेन
(घ) महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर

3. आर्य समाज के संस्थापक कौन थे ? [2012]

(क) विवेकानन्द ।
(ख) श्रद्धानन्द
(ग) सहजानन्द
(घ) दयानन्द सरस्वती

4. आर्य समाज की स्थापना किस वर्ष हुई ?

(क) 1882 ई० में
(ख) 1857 ई० में
(ग) 1875 ई० में
(घ) 1885 ई० में

5. रामकृष्ण मिशन की स्थापना किसके द्वारा की गयी ?

(क) स्वामी रामकृष्ण
(ख) स्वामी विवेकानन्द
(ग) स्वामी दयानन्द
(घ) राजा राममोहन राय

6. दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना कब और कहाँ की थी ?

(क) 1824 ई० में हरिद्वार में
(ख) 1875 ई० में मुम्बई में
(ग) 1857 ई० में दिल्ली में
(घ) 1867 ई० में कन्याकुमारी में

7. थियोसॉफिकल सोसाइटी की स्थापना किसने की ?

(क) एनीबेसेण्ट ने
(ख) सर सैयद अहमद खाँ ने
(ग) मैडम ब्लावेट्स्की ने
(घ) राजा राममोहन राय ने।

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8. अहमदिया आन्दोलन का संस्थापक कौन था ? [2013]

(क) शिब्ली नूमानी
(ख) मिर्जा गुलाम अहमद
(ग) वली उल्लाह
(घ) मुहम्मद कासिम ननौतवी

9. थियोसॉफिकल सोसायटी का मुख्यालय कहाँ है ?

(क) अड्यार में
(ख) बंगलुरु में
(ग) नयी दिल्ली में
(घ) कोलकाता में

10. मोहम्मडन ऐंग्लो इण्डियन ओरियण्टल कॉलेज की स्थापना कब हुई ?

(क) 1857 ई० में
(ख) 1875 ई० में
(ग) 1885 ई० में
(घ) 1890 ई० में

11. मुस्लिम एंग्लो ओरियण्टल कॉलेज की स्थापना किस नगर में की गयी थी ? [2012]

(क) आगरा
(ख) अलीगढ़
(ग) अजमेर
(घ) अहमदाबाद

12. अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का प्रथम वार्षिक अधिवेशन हुआ था (2013)

(क) कराची में
(ख) लखनऊ में
(ग) अलीगढ़ में
(घ) लाहौर में

13. ‘सत्यार्थप्रकाश’ का सम्बन्ध किससे है ? [2011, 18]

(क) ब्रह्म समाज से
(ख) आर्य समाज से
(ग) रामकृष्ण मिशन से
(घ) थियोसॉफिकल सोसायटी से

14. ‘भारत सेवक समाज’ नामक संस्था की स्थापना किसने की थी ? [2011]
             या
सर्वेण्ट्स ऑफ इण्डिया सोसायटी के संस्थापक थे [2011]

(क) गोपालकृष्ण गोखले ने
(ख) सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने
(ग) ज्योतिबा फुले ने
(घ) आत्माराम पाण्डुरंग ने

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15. बंगाल का विभाजन कब हुआ ? [2011]

(क) सन् 1907 में
(ख) सन् 1904 में
(ग) सन् 1905 में
(घ) सन् 1906 में

16. ‘वन्देमातरम्’ गीत के रचयिता कौन थे ? [2011]

(क) रवीन्द्रनाथ टैगोर
(ख) सोहनलाल द्विवेदी
(ग) रामधारी सिंह ‘दिनकर’
(घ) बंकिमचन्द्र चटर्जी

17. निम्नलिखित में कौन इण्डियन नेशनल कांग्रेस के उदार दल से सम्बन्धित था ?

(क) बाल गंगाधर तिलक
(ख) विपिनचन्द्र पाल
(ग) लाला लाजपत राय
(घ) फिरोजशाह मेहता

18. श्रीमती एनीबेसेण्ट निवासी थीं

(क) भारत की
(ख) इंग्लैण्ड की
(ग) फ्रांस की
(घ) आयरलैण्ड की

19. कांग्रेस द्वारा पूर्ण स्वराज्य’ का प्रस्ताव किस वर्ष पारित किया गया था ? (2017)

(क) 1929 ई० में
(ख) 1940 ई० में
(ग) 1942 ई० में
(घ) 1945 ई० में

20. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक कौन थे ?

(क) सुरेन्द्रनाथ बनर्जी
(ख) गोपालकृष्ण गोखले
(ग) एलन ऑक्टेवियन ह्यूम
(घ) महात्मा गांधी

21. भारत में मुस्लिम लीग की स्थापना कब हुई ? (2013)

(क) 1905 ई० में।
(ख) 1906 ई० में
(ग) 1916 ई० में
(घ) 1919 ई० में

22. नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज’ की स्थापना कहाँ की थी ? (2010)

(क) टोकियो में
(ख) हांगकांग में
(ग) जकार्ता में
(घ) सिंगापुर में

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23. जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड किस वर्ष हुआ था ?

(क) 1917 ई० में
(ख) 1918 ई० में
(ग) 1919 ई० में
(घ) 1920 ई० में

24. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई थी (2015)

(क) 1857 ई० में
(ख) 1885 ई० में
(ग) 1895 ई० में
(घ) 1905 ई० में

25. पूर्ण स्वराज्य दिवस प्रथम बार कब आयोजित किया गया था ? या भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज’ प्राप्त करने का लक्ष्य कब घोषित किया ? (2013)

(क) 26 जनवरी, 1920 ई० में
(ख) 26 जनवरी, 1930 ई० में
(ग) 26 जनवरी, 1935 ई० में।
(घ) 26 जनवरी, 1950 ई० में

26. अलीगढ़ आन्दोलन का संस्थापक था (2014)
             या
अलीगढ़ आन्दोलन के प्रवर्तक थे (2015)

(क) मिर्जा गुलाम अहमद
(ख) सैयद अहमद बरेलवी
(ग) सर सैयद अहमद खान
(घ) शौकत अली

27. आधुनिक भारत का निर्माता किसे माना जाता है? [2015, 17]

(क) स्वामी विवेकानन्द को
(ख) रामकृष्ण परमहंस को
(ग) स्वामी दयानन्द सरस्वती को
(घ) राजा राममोहन राय को

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28. निम्नलिखित में से किसने होम रूल लीग की स्थापना की थी? (2015, 16)

(क) लाला लाजपत राय
(ख) मोहम्मद अली जिन्ना
(ग) विपिन चन्द्र पाल
(घ) बाल गंगाधर तिलक

29. ‘ग्रेट ओल्ड मैन ऑफ इण्डिया’ कहा जाता था (2012)

(क) गोपाल कृष्ण गोखले को
(ख) सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को
(ग) दादा भाई नौरोजी को
(घ) फिरोजशाह मेहता को

30. कूका आन्दोलन किसने प्रारम्भ किया था? (2017)

(क) सन्त गुरु राम सिंह
(ख) लाला हरदयाल
(ग) सरदार भगत सिंह
(घ) बाल गंगाधर तिलक

उत्तरमाला

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 12 नवजागरण तथा राष्ट्रीयता का विकास 1

Hope given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 12 are helpful to complete your homework.

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 4 भारतीय संस्कृति (गद्य खंड)

UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 4 भारतीय संस्कृति (गद्य खंड)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 4 भारतीय संस्कृति (गद्य खंड).

जीवन-परिचय एवं कृतियाँ

प्रश्न 1.
डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के जीवन-परिचय एवं रचनाओं पर प्रकाश डालिए। [2009, 10]
या
डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए। [2009]
या
डॉ० राजेन्द्र प्रसाद का जीवन-परिचय दीजिए तथा उनकी रचनाओं के नाम लिखिए। [2011, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
उत्तर
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद एक सादगीपसन्द कृषक पुत्र थे। जहाँ वे एक देशभक्त राजनेता थे, वहीं कुशल वक्ता एवं श्रेष्ठ लेखक भी थे। सत्यनिष्ठा, ईमानदारी और निर्भीकता इनके रोम-रोम में बसी हुई थी। साहित्य के क्षेत्र में भी इनका योगदान बहुत स्पृहणीय रहा है। अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से इन्होंने हिन्दी-साहित्य को समृद्ध किया है। सांस्कृतिक, शैक्षिक, सामाजिक आदि विषयों पर लिखे गये इनके लेख हिन्दी-साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं।

जीवन-परिचय-देशरत्न डॉ० राजेन्द्र प्रसाद का जन्म सन् 1884 ई० में बिहार राज्य के छपरा जिले के जीरादेई नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम महादेव सहाय था। इनका परिवार गाँव के सम्पन्न और प्रतिष्ठित कृषक परिवारों में से धा। इन्होंने कलकत (कोलकाता) विश्वविद्यालय से एम० ए०: t!ल-एल० बी० की परीक्षा उतीर्ण की थी। ये प्रतिभासम्पन्न और मेधावी छात्र थे और परीक्षा में सदैव प्रथम आते थे। (UPBoardSolutions.com) कुछ समय तक मुजफ्फरपुर कॉलेज में अध्यापन कार्य करने के पश्चात् ये.पटना और कलकत्ता हाईकोर्ट में वकील भी रहे। इनका झुकाव प्रारम्भ से ही राष्ट्रसेवा की ओर था। सन् 1917 ई० में गाँधी जी के आदर्शों और सिद्धान्तों से प्रभावित होकर इन्होंने चम्पारन के आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया और वकालत छोड़कर पूर्णरूप से राष्ट्रीय स्वतन्त्रता-संग्राम में कूद पड़े। अनेक बार जेल की यातनाएँ भी भोगीं। इन्होंने विदेश जाकर भारत के पक्ष को विश्व के सम्मुख रखा। ये तीन बार अखिल भारतीय कांग्रेस के सभापति तथा भारत के संविधान का निर्माण करने वाली सभा के सभापति चुने गये।।

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राजनीतिक जीवन के अतिरिक्त बंगाल और बिहार में बाढ़ और भूकम्प के समय की गयी इनकी सामाजिक सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता। ‘सादा जीवन उच्च-विचार’ इनके जीवन को पूर्ण आदर्श था। इनकी प्रतिभा, कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी और निष्पक्षता से प्रभावित होकर इनको भारत गणराज्य का प्रथम राष्ट्रपति बनाया गया। इस पद को ये संन् 1952 से सन् 1962 ई० तक सुशोभित करते रहे। भारत सरकार ने इनकी महानताओं के सम्मान-स्वरूप देश की सर्वोच्च उपाधि ‘भारतरत्न’ से सन् 1962 ई० में इनको अलंकृत किया। जीवन भर राष्ट्र की नि:स्वार्थ सेवा करते हुए ये 28 फरवरी, 1963 ई० को दिवंगत हो गये।
रचनाएँ-राजेन्द्र बाबू की प्रमुख रचनाओं का विवरण निम्नवत् है

(1) ‘चम्पारन में महात्मा गाँधी’—इसमें किसानों के शोषण और अंग्रेजों के विरुद्ध गाँधीजी के . आन्दोलन का बड़ा मार्मिक वर्णन है। (2) ‘बापू के कदमों में-इसमें महात्मा गाँधी के प्रति श्रद्धा-भावना व्यक्त की गयी है। (3)‘मेरी आत्मकथा’—यह राजेन्द्र बाबू द्वारा सन् 1943 ई० में जेल में लिखी गयी थी। इसमें तत्कालीन भारत की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति का लेखा-जोखा है। (4) ‘मेरे यूरोप के अनुभव’-इसमें इनकी यूरोप की यात्रा का वर्णन है। इनके भाषणों के भी कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त (5) शिक्षा और संस्कृति, (6) भारतीय शिक्षा, (7) गाँधीजी की देन, (8), साहित्य, (9) संस्कृति का अध्ययन, (10) खादी का अर्थशास्त्र आदि इनकी अन्य प्रमुख रचनाएँ हैं। |

साहित्य में स्थान–डॉ० राजेन्द्र प्रसाद सुलझे हुए राजनेता होने के साथ-साथ उच्चकोटि के विचारक, साहित्य-साधक और कुशल वक्ता थे। ये ‘सादी भाषा और गहन विचारक’ के रूप में सदैव स्मरण किये जाएँगे। हिन्दी की आत्मकथा विधा में इनकी पुस्तक मेरी आत्मकथा’ का उल्लेखनीय स्थान है। ये हिन्दी के अनन्य सेवक और प्रबल प्रचारक थे। राजनेता के रूप में अति-सम्मानित स्थान पर विराजमान होने के साथ-साथ (UPBoardSolutions.com) हिन्दी-साहित्य में भी इनका अति विशिष्ट स्थान है।

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गुद्यांशों पर आधारित प्रश्न

प्रश्न-पत्र में केवल 3 प्रश्न (अ, ब, स) ही पूछे जाएँगे। अतिरिक्त प्रश्न अभ्यास एवं परीक्षोपयोगी दृष्टि से |महत्त्वपूर्ण होने के कारण दिए गये हैं।
प्रश्न 1.

अगर असम की पहाड़ियों में वर्ष में तीन सौ इंच वर्षा मिलेगी तो जैसलमेर की तप्तभूमि भी मिलेगी, जहाँ साल में दो-चार इंच भी वर्षा नहीं होती। कोई ऐसा अन्न नहीं, जो यहाँ उत्पन्न न किया जाता हो। कोई ऐसा फल नहीं, जो यहाँ पैदा नहीं किया जा सके। कोई ऐसा खनिज पदार्थ नहीं, जो यहाँ के भू-गर्भ : में न पाया जाता हो और न कोई ऐसा वृक्ष अथवा जानवर है, जो यहाँ फैले हुए जंगलों में न मिले। यदि इस सिद्धान्त को देखना हो कि आबहवा का असर इंसान के रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, शरीर और मस्तिष्क पर पड़ता है तो उसका जीता-जागता सबूत भारत में बसने वाले भिन्न-भिन्न प्रान्तों के लोग देते हैं।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों के लोग क्या प्रमाण देते हैं ?
  2. भारत की भूमि की क्या विशेषता है ?

[खनिज पदार्थ = पृथ्वी को खोदकर निकाले गये पदार्थ; जैसे-लोहा, चाँदी, पीतल आदि। भू-गर्भ = पृथ्वी के अन्दर। आबहवा = वातावरण।]
उत्तर
(अ) प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘गद्य-खण्ड’ में संकलित डॉ० राजेन्द्र प्रसाद द्वारा लिखित ‘भारतीय संस्कृति’ नामक निध से उद्धृत है। अथवा निम्नवत् लिखेंपाठ का नाम-भारतीय संस्कृति। लेखक का नाम–डॉ० राजेन्द्र (UPBoardSolutions.com) प्रसाद
[विशेष—इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए इस प्रश्न का यही उत्तर इसी रूप में प्रयुक्त होगा।]

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(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-भारतीय संस्कृति में निहित विभिन्नता में एकता का चित्रण करते हुए लेखक कहते हैं कि भारतीय वसुन्धरा धन-धान्य से परिपूर्ण है। इसी कारण कोई ऐसा अन्न या फल नहीं है जिसे यहाँ पैदा न किया जा सकता हो। भारतीय वसुन्धरा के गर्भ में अनेक खनिज पदार्थ पाये जाते हैं। हर प्रकार की वनस्पति और हर प्रकार के जानवर यहाँ पाये जाते हैं। लेखक के कहने का आशय यह है कि यहाँ बहुत-सी ऐसी बातें हैं जो भारत की एकता में भी अनेकता के दर्शन कराने में सत्य प्रतीत होती हैं।
द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी का कहना है कि यदि किसी व्यक्ति को इस सिद्धान्त को देखना है कि वातावरण का असर व्यक्ति के रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, शरीर और मस्तिष्क पर कितना अधिक पड़ता है तो उसका जीता-जागता प्रमाण भारत में बसने वाले भिन्नभिन्न प्रान्तों के लोग हैं क्योंकि उन सभी का खान-पान, रहन-सहन और वेश-भूषा भिन्न-भिन्न ही है।
(स)

  1. भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों में रहने वाले लोग यह प्रमाणित करते हैं कि यहाँ के वातावरण का प्रभाव यहाँ के निवासियों, उनके रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, शरीर और मस्तिष्क पर पड़ता है।
  2. भारत की भूमि की विशेषता यह है कि यहाँ सभी प्रकार के अन्न और फल उत्पन्न किये जा सकते हैं। सभी खनिज पदार्थ यहाँ की भूमि में पाये जाते हैं और इसकी भूमि पर उगे जंगलों में सभी प्रकार के वृक्ष और जानवर पाये जाते हैं।
  3. भारत में वर्षा की विशेषता यह है कि एक तरफ तो यहाँ की (UPBoardSolutions.com) असम की पहाड़ियों में तीन सौ इंच तक वर्षी होती है और दूसरी तरफ जैसलमेर (राजस्थान) की भूमि पर तीन इंच भी नहीं होती।

प्रश्न 2.
भिन्न-भिन्न धर्मों के मानने वाले भी, जो सारी दुनिया के सभी देशों में बसे हुए हैं, यहाँ भी थोड़ी-बहुत संख्या में पाये जाते हैं और जिस तरह यहाँ की बोलियों की गिनती आसान नहीं, उसी तरह यहाँ भिन्न-भिन्न धर्मों के सम्प्रदायों की भी गिनती आसान नहीं। इन विभिन्नताओं को देखकर अगर अपरिचित आदमी घबड़ाकर कह उठे कि यह एक देश नहीं, अनेक देशों का एक समूह है, यह एक जाति नहीं, अनेक जातियों का समूह है तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं; क्योंकि ऊपर देखने वाले को, जो गहराई में नहीं जाता, विभिन्नता ही देखने में आएगी।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. भारत के सम्बन्ध में कौन-सी बात आश्चर्य की नहीं मानी जाती ?
  2. भिन्न-भिन्न धर्मावलम्बी किस देश में बसे हुए हैं ? भारत के जल और वाणी की विशेषता
    को एक पंक्ति में व्यक्त कीजिए।
  3. सतही दृष्टि से देखने पर किसी व्यक्ति को  भारत के सम्बन्ध में क्या दिखाई पड़ता है ?
  4. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?

उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि यह विश्व अनेक देशों में विभक्त है और इन सभी देशों के भिन्न-भिन्न रीति-रिवाज, संस्कृति और धर्म हैं। पूरे विश्व में इन धर्मों को मानने वाले लोग भी अलग-अलग हैं। भारत की एक अपनी विशिष्टता है कि यहाँ पर विश्व के सभी देशों के निवासी अथवा किसी भी धर्म को मानने वाले व्यक्ति कम संख्या में ही सही, लेकिन मिल अवश्य जाएँगे। जिस प्रकार भारत के विभिन्न प्रान्तों, जनपदों और ग्रामों में बोली जाने वाली बोलियों की गणना करना अत्यधिक कठिन है, उसी प्रकार इस भारतभूमि पर निवास करने वाले लोगों के भिन्न-भिन्न धर्म और इन धर्मों के भी कई-कई सम्प्रदायों की गणना करना भी निश्चित ही आसान कार्य नहीं है।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि भारतभूमि की इतनी विभिन्नताओं को देखकर दूसरे देशवासी या ऐसे व्यक्ति जो यहाँ के मौलिक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं, घबरा जाते हैं और कह बैठते हैं कि भारत तो एक देश है ही नहीं, वरना (UPBoardSolutions.com) यह तो अनेक देशों का समूह है। यहाँ के निवासी भी किसी एक जाति के नहीं हैं, वरन् अनेकानेक जातियों के हैं। दूसरे देशवासियों की इस प्रकार की बातों में आश्चर्य करने योग्य कुछ भी नहीं है; क्योंकि वे इस देश को ऊपर-ही-ऊपर अर्थात् सतही दृष्टि से देखते हैं, वे इस बात की गहराई में नहीं उतरते। निश्चित ही ऐसे लोगों को भारत में विभिन्नता अर्थात् अनेकता ही नजर आएगी।
(स)

  1. “भारत एक देश नहीं वरन् अनेक देशों का समूह है, यहाँ एक जाति के लोग नहीं रहते वरन् अनेकानेक जातियों के लोग निवास करते हैं,” भारत के सम्बन्ध में यही बात आश्चर्य की नहीं मानी जाती।
  2. भिन्न-भिन्न धर्मों को मानने वाले; भले ही कम संख्या में हों; लेकिन भारत में विश्व के सभी धर्मों को मानने वाले पाये जाते हैं। भारत के जल और वाणी की विशेषता को व्यक्त करते हुए एक पंक्ति कही जा सकती है-“कोस-कोस पर बेदले पानी, चार कोस पर बानी।।
  3. सतही दृष्टि से देखने वालों को भारत में विभिन्नता अर्थात् अनेकता ही नजर आती है।
  4. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक भारतभूमि की विविधता का (UPBoardSolutions.com) बहुत ही सार्थक और धनात्मक रूप में वर्णन करता है। इससे लेखक का अपने देश और उसकी संस्कृति के प्रति प्रेम झलकता है।

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प्रश्न 3.
पर विचार करके देखा जाए तो इन विभिन्नताओं की तह में एक ऐसी समता और एकता फैली हुई है, जो अन्य विभिन्नताओं को ठीक उसी तरह पिरो लेती है और पिरोकर एक सुन्दर समूह बना देती है—जैसे रेशमी धागा भिन्न-भिन्न प्रकार की और विभिन्न रंग की सुन्दर मणियों अथवा फूलों को पिरोकर एक सुन्दर हार तैयार कर देता है, जिसकी प्रत्येक मणि या फूल दूसरों से न तो अलग है और न हो सकता है और केवल अपनी ही सुन्दरता से लोगों को मोहता नहीं, बल्कि दूसरों की सुन्दरता से वह स्वयं सुशोभित होता है और इसी तरह अपनी सुन्दरता से दूसरों को भी सुशोभित करता है।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में मणि या फूल की क्या विशेषता बतायी गयी है ?
  2. विभिन्नताओं की तह में फैली एकता किस प्रकार की है ?
  3. भारतीय संस्कृति के विषय में कुछ पंक्तियाँ लिखिए।

[ तह में = जड़ में । मोहता = मोहित करता।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि हमारे देश की संस्कृति में अनेक विविधताएँ तो हैं, पर ये सभी विविधताएँ बाहरी दृष्टि से देखने पर ही प्रतीत होती हैं। भीतर से देखने पर सबमें एक अनोखी एकता और समानता (UPBoardSolutions.com) व्याप्त है। जिस प्रकार मोतियों और रंग-बिरंगे फूलों को एक रेशमी धागा एक साथ एक हार के रूप में जोड़े रखता है, उसी प्रकार हमारी संस्कृति भी अनेक धर्मों, जातियों, भाषाओं तथा दूसरी भिन्नताओं को एक साथ जोड़े रखती है। एकता के इस धरातल पर हम सब केवल भारतीय रह जाते हैं।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि इस हार की प्रत्येक मणि या पुष्प अन्य मणि या पुष्पों से न तो भिन्न है और न ही हो सकती है। ये हार या पुष्प.अपनी सुन्दरता से ही । दूसरों को नहीं लुभाते, वरन् दूसरों की सुन्दरता से खुद सुशोभित भी होते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार माला के फूल अपने सौन्दर्य से दूसरों को मोहित ही नहीं करते अपितु दूसरों के गले में डाले जाने पर उनको सुशोभित भी करते हैं, इसी प्रकार हमारे देश की धार्मिक, भाषायी और जातिगत विभिन्नता स्वयं तो सुशोभित होती ही है, हमारे देश को भी सुशोभित करती है।
(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में मणि या फूल की विशेषता के रूप में कहा गया है कि ये केवल अपनी सुन्दरता से ही लोगों को मोहित नहीं करते वरन् दूसरों की सुन्दरता से स्वयं भी सुशोभित होते हैं।
    विभिन्नताओं की तह में फैली एकता उस रेशमी धागे के समान है जो विभिन्न प्रकार की मणिमुक्ताओं और फूलों को अपने में गूंथकर एक होर बना देता है।
  2. भारत और भारतीय संस्कृति के विषय में कहा जा सकता है-“हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख, ईसाई आदि सभी इसी देश में रहने वाले हैं। उनके मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे आदि अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु भारतरूपी जो बड़ा मन्दिर है, (UPBoardSolutions.com) वह सबका है। सब मजहबों के लोग एक ही ईश्वर की इबादत करते हैं।” कविवर द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी ने भी ऐसे ही भाव व्यक्त किये हैं-‘हम सब सुमन एक उपवन के।’

प्रश्न 4.
यह केवल एक काव्य की भावना नहीं है, बल्कि एक ऐतिहासिक सत्य है, जो हजारों वर्षों से अलग-अलग अस्तित्व रखते हुए अनेकानेक जल-प्रपातों और प्रवाहों का संगमस्थल बनकर एक प्रकाण्ड और प्रगाढ़ समुद्र के रूप में भारत में व्याप्त है, जिसे भारतीय संस्कृति का नाम दे सकते हैं। इन अलग-अलग नदियों के उद्गम भिन्न-भिन्न हो सकते हैं और रहे हैं। इनकी धाराएँ भी अलग-अलग बहती हैं और प्रदेश के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के अन्न और फल-फूल पैदा करती रहती हैं; पर सबमें एक ही शुद्ध, सुन्दर, स्वस्थ और शीतल जल बहता रहा है, जो उद्गम और संगम में एक ही हो जाता है। [2010]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. भारतीय संस्कृति का नाम किसे दिया जा सकता है ? स्पष्ट कीजिए।
  2. भारत की नदियों में कैसी भिन्नता और कैसी एकता है ? स्पष्ट कीजिए।

[ अस्तित्व = सत्ता। प्रपात = झरना। प्रकाण्ड = बहुत बड़ा। प्रगाढ़ = गहरा। उद्गम = निकलने का स्थान।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक का कथन है कि भारतीय संस्कृति की समता फूलों की माला से करना तथा यहाँ की भाषाओं और जातियों को रंग-बिरंगे फूल कहना केवल काव्य की कल्पना नहीं है, वरन् यह एक यथार्थ है, एक ऐतिहासिक सत्य है। जिस प्रकार हजारों वर्षों से प्रवाहित होते आ रहे झरने और नदियों के उद्गम अलग-अलग होने पर भी उनका जल दूर-दूर से आकर सागर में समा जाता है, जो उनका (UPBoardSolutions.com) मिलन-स्थल होता है; उसी प्रकार भारत में भी विभिन्न धर्म, विचारधारा और जाति रूपी झरने हजारों वर्षों से आकर मिल रहे हैं, जिससे एक विस्तृत और सागर के समान ही एक गहन गम्भीर भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ है।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि हर एक नदी का उद्गम स्थल अलग-अलग होता है। उसका मार्ग भी दूसरे से भिन्न होता है और हर नदी के किनारे की भूमि में प्रदेश की जलवायु और मिट्टी के अनुसार अलग-अलग प्रकार की फसलें पैदा होती हैं, पर इन सभी नदियों में एक ही पानी है, जो सागर में एक साथ मिलता है और फिर बादल के रूप में एक जैसा बरसता है। जिस प्रकार नदियों का जल अपने उद्गम (बादल) और संगम (सागर) पर एक जैसा हो जाता है, उसी प्रकार विभिन्न स्थानों से आयी हुई संस्कृतियाँ अपने संगम-स्थल भारतीय संस्कृति में एक-सी सुखद और कल्याणकारी हो गयी हैं।
(स)

  1. भारत के विभिन्न धर्म, विचारधारा और जाति रूपी जल-प्रपात और प्रवाह हजारों वर्षों से आकर भारत में व्याप्त हैं। इसे ही विस्तृत और सागर के समान गहन और गम्भीर भारतीय संस्कृति का नाम दिया जा सकता है।
  2. भारत की नदियों के उद्गम स्थल भिन्न-भिन्न हैं। ये अलग-अलग स्थानों से होकर बहती हैं और विभिन्न प्रकार की उपज करती हैं। लेकिन इन सभी नदियों में एक ही शुद्ध, शीतल, स्वच्छ और स्वास्थ्यवर्द्धक जल प्रवाहित होता रहता है, जो अपने उद्गम और संगम में एक हो जाता है।

प्रश्न 5.
आज हम इसी निर्मल, शुद्ध, शीतल और स्वस्थ अमृत की तलाश में हैं और हमारी इच्छा, अभिलाषा और प्रयत्न यह है कि वह इन सभी अलग-अलग बहती हुई नदियों में अभी भी उसी तरह बहता रहे और इनको वह अमर तत्त्व देता रहे, जो जमाने के हजारों थपेड़ों को बरदाश्त करता हुआ भी आज हमारे अस्तित्व को कायम रखे हुए है और रखेगा। [2016]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. कवि इकबाल की उक्ति का अपने शब्दों में अर्थ लिखिए।
  2. लेखक ने प्रस्तुत गद्यांश में किस अमर-तत्त्व की ओर संकेत किया है ?
  3. हमारे अस्तित्व को कौन कायम रखे हुए है? ।

[ निर्मल = स्वच्छ। अभिलाषा = चाह। बरदाश्त करना = सहना। अस्तित्व = विद्यमान होना। ]
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या–भारतीय संस्कृतिरूपी विशाल सागर में आकर गिरने वाली इन नदियों में, एक ही भाव से शुद्ध, स्वच्छ, शीतल तथा स्वास्थ्यप्रद जल, अमृत के समान प्रवाहित होता रहता है। इस जल में एक ही उदात्त भाव का समावेश है, जो भारतीय संस्कृति को अमरता और स्थिरता प्रदान करता है। लेखक की हार्दिक इच्छा है कि विभिन्न विचारधाराओं के रूप में प्रवाहित इन नदियों में वह अमृत (UPBoardSolutions.com) तत्त्व सदैव बना रहे, जिससे सभी लोगों में प्रेम और राष्ट्रीयता की भावना का संचार हो। इस भावना का विस्तृत रूप ही सनातन धर्म है और यही भारतीय संस्कृति की उदात्त परम्परा भी है। यद्यपि इस देश ने तरह-तरह के संकट झेले हैं, तथापि भारतीय संस्कृति में विद्यमान विभिन्नता में एकता एक ऐसा तत्त्व है, जो आज तक मिटाया नहीं जा सका है।

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(स)

  1. प्रसिद्ध शायर इकबाल का कहना है कि “न जाने कितनी बार इस देश पर बाहरी लोगों द्वारा आक्रमण किये गये और अनगिनत बार यह देश आक्रमणकारियों की धर्मान्धता का शिकार हुआ; किन्तु यहाँ एक ऐसा तत्त्व अवश्य विद्यमान रहा, जिसके बल पर भारतीय संस्कृति का अस्तित्व आज तक बना हुआ है।”
  2. लेखक ने प्रस्तुत गद्यांश में ‘अनेकता में एकता’ नामक (UPBoardSolutions.com) अमर-तत्त्व की ओर संकेत किया है और यह स्पष्ट किया है कि इस शक्ति के द्वारा भारतीय संस्कृति भविष्य में भी जीवित और स्थायी बनी रहेगी।
  3. हमारे अस्तित्व को जल कायम रखे हुए है।

प्रश्न 6.
यह एक नैतिक और आध्यात्मिक स्रोत है, जो अनन्त काल से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सम्पूर्ण देश में बहता रहा है और कभी-कभी मूर्त रूप होकर हमारे सामने आता रहा है। यह हमारा सौभाग्य रहा है। कि हमने ऐसे ही एक मूर्त रूप को अपने बीच चलते-फिरते, हँसते-रोते भी देखा है और जिसने अमरत्व की याद दिलाकर हमारी सूखी हड्डियों में नयी मज्जा डाल हमारे मृतप्राय शरीर में नये प्राण फेंके और मुरझाये हुए दिलों को फिर खिला दिया। वह अमरत्व सत्य और अहिंसा का है, जो केवल इसी देश के लिए नहीं, आज मानवमात्र के जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक हो गया है। [2013, 15]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. मानव-मात्र के जीवन के लिए क्या आवश्यक है ? इसका मूर्त रूप कौन है, जिसका
    गद्यांश में वर्णन किया गया है ? या लेखक ने गद्यांश में क्या सन्देश देना चाहा है ?
  2. भारतीय संस्कृति में विद्यमान अमर-तत्त्व का स्रोत बताइए। यह हमारे सम्मुख किस रूप | में आता रहा है ?
  3. लेखक ने अमर-तत्त्व का स्रोत किसे बताया है ?

[ नैतिक = नीति और चरित्र सम्बन्धी। आध्यात्मिक = आत्मा से सम्बन्धित। स्रोत = प्रवाह। मूर्त = साकार। मज्जा = चर्बी। मृतप्राय = लगभग मरा हुआ।]
उत्तर
(अ) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने यह बताया है कि हमारी संस्कृति में निहित अमृत-तत्त्व का स्रोत नैतिक और आध्यात्मिक है, जो आदिकाल से ही प्रत्यक्ष (दृष्टिगोचर) तथा अप्रत्यक्ष (अगोचर) रूप में सम्पूर्ण (UPBoardSolutions.com) देश में बहता चला आ रहा है। यह कभी-कभी स्थूल रूप में अर्थात् मूर्त रूप में किसी महापुरुष के रूप में भी जन्म लेता रहा है।

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(ब)द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत गद्यांश में लेखक यह बता रहे हैं कि हम बड़े ही भाग्यवान् हैं कि इसी प्रकार के एक स्थूल रूप को (महात्मा गाँधी के रूप में) हमने अपने बीच चलतेफिरते और हँसते-रोते हुए देखा है। इसी मूर्त रूप ने परतन्त्रता के परिणामस्वरूप सूख चुकी हमारी हड्डियों को अमृत-तत्त्व की स्मृति दिलाकर नयी मज्जा प्रदान की। मरे हुए से हमारे शरीर में प्राणों का संचार किया, निराश एवं मुरझाये हुए दिलों को प्राणदान देकर पुनः खिला दिया और उनमें नूतन ऊर्जा का संचार किया। उस मूर्त रूप ने जो अमर-तत्त्व प्रदान किया वह सत्य और अहिंसा का है।
(स)

  1. मानव-मात्र के जीवन के लिए सत्य और अहिंसा नामक अमर-तत्त्व की आवश्यकता है। आज की बढ़ती हुई हिंसात्मक वृत्ति में इसकी प्रासंगिकता और भी बढ़ गयी है। सत्य और अहिंसा के मूर्तिमान स्वरूप राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी हैं, जिनका प्रस्तुत गद्यांश में सांकेतिक रूप से वर्णन किया गया है।
  2. भारतीय संस्कृति में विद्यमान अमर-तत्त्व का स्रोत नैतिक और आध्यात्मिक है जो कि अनन्त काल से कभी प्रत्यक्ष, कभी अप्रत्यक्ष और कभी मूर्त रूप में हम सभी के सम्मुख आता रहा है।
  3. लेखक ने अमर-तत्त्व को स्रोत भारतीय संस्कृति को बताया है।

प्रश्न 7.
हम इस देश में प्रजातन्त्र की स्थापना कर चुके हैं, जिसका अर्थ है व्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता, जिसमें वह अपना पूरा विकास कर सके और साथ ही सामूहिक और सामाजिक एकता भी। व्यक्ति और समाज के बीच में विरोध का आभास होता है। व्यक्ति अपनी उन्नति और विकास चाहता है और यदि एक की उन्नति और विकास दूसरे की उन्नति और विकास में बाधक हो तो संघर्ष पैदा होता है और यह संघर्ष तभी दूर हो सकता है, जब सबके विकास के पथ अहिंसा के हों। हमारी सारी संस्कृति का मूलाधार इसी अहिंसा-तत्त्व पर स्थापित रहा है। जहाँ-जहाँ हमारे नैतिक सिद्धान्तों का वर्णन आया है, अहिंसा को ही उनमें मुख्य स्थान दिया गया है।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. प्रजातन्त्र का क्या अर्थ है ? यहाँ किस देश में प्रजातन्त्र की बात की जा रही है ?
  2. नैतिक सिद्धान्तों में किस तत्त्व को प्रमुख स्थान दिया गया है ?
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?

[आभास = प्रतीति। पथ = मार्ग।]
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या–विद्वान् लेखक का कहना है कि हमें अपनी स्वतन्त्रता का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। हम कोई भी कार्य करने के लिए स्वतन्त्र हैं, किन्तु हमारा यह नैतिक कर्तव्य भी है कि हम अपने कार्य को इस प्रकार सम्पन्न करें, जिससे किसी दूसरे को उससे किसी प्रकार की असुविधा न हो। यदि हम ऐसा सोचकर कार्य करेंगे तो हमारी सामाजिक एकता बनी रहेगी और सभी को उन्नति करने के एक (UPBoardSolutions.com) समान अवसर मिलेंगे। संघर्ष तब होता है, जब एक के स्वार्थ दूसरे के स्वार्थ में बाधा पहुँचाते हैं। इस संघर्ष को टालने का एकमात्र उपाय अहिंसा या त्याग-भावना का अनुसरण करना है। इसी अहिंसा-तत्त्व पर हमारी संस्कृति टिकी हुई है। जब भी हम मानवीय मूल्यों की बात करते हैं, तब अहिंसा को मुख्य स्थान देते हैं।

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(स)

  1. प्रजातन्त्र का अर्थ है–व्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता, जिसमें वह स्वयं के साथ-साथ अपने समूह और समाज का भी विकास कर सके। इस गद्यांश में भारत में प्रजातन्त्र की बात की जा रही है।
  2. नैतिक सिद्धान्तों में अहिंसा-तत्त्व को ही प्रमुख स्थान दिया गया है; क्योंकि व्यक्तिगत और सामूहिक उन्नति के विकास में आड़े आने वाला संघर्ष तभी दूर हो सकता है; जब सबके विकास के पथ अहिंसा के हों।
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक के द्वारा अहिंसा-तत्त्व के महत्त्व को उद्घाटित किया गया है। उसका कहना है कि व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य संघर्ष तभी दूर हो सकेगा, जब सभी लोग अहिंसा के मार्ग पर चलें और हिंसा की भावना का त्याग कर दें।

प्रश्न 8.
अहिंसा का दूसरा नाम या दूसरा रूप त्याग है और हिंसा का दूसरा रूप या नाम स्वार्थ है, जो प्राय: भोग के रूप में हमारे सामने आता है। पर हमारी सभ्यता ने तो भोग भी त्याग से ही निकाला है और भोग भी त्याग में ही पाया है। श्रुति कहती है-‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः। इसी के द्वारा हम व्यक्ति-व्यक्ति के बीच का विरोध, व्यक्ति और समाज के बीच का विरोध, समाज और समाज के बीच का विरोध, देश और देश के बीच के विरोध को मिटाना चाहते हैं। हमारी सारी नैतिक चेतना इसी तत्त्व से ओत-प्रोत है। [2015)
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. हिंसा और अहिंसा के लिए प्रस्तुत गद्यांश में क्या कहा गया है ?
  2. श्रुति क्या कहती है ? स्पष्ट कीजिए।
  3. विभिन्न प्रकार के विरोध क्या हैं ? इन्हें किस प्रकार समाप्त किया जा सकता है ?
  4. हमारे नैतिक सिद्धान्तों में किस चीज को प्रमुख स्थान दिया गया है ? इसका दूसरा रूप
    क्या है?

[ भोग = सांसारिक वस्तुओं का उपयोग। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः = इसलिए त्याग की भावना से भोग करो। श्रुति = वेद, उपनिषद्।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश कीयाख्या–प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने बताया है कि भारतीय संस्कृति में अहिंसा की अवधारणा का विशेष महत्त्व है। वास्तव में हमारी संस्कृति अहिंसा के मूल तत्त्व पर ही आधारित है। संस्कृति में नैतिक मान्यताओं का विशेष महत्त्व होता है। भारतीय संस्कृति में स्वीकृत अधिकांश नैतिक मान्यताएँ भी अहिंसा के तत्त्व पर ही आधारित हैं। अहिंसा का दूसरा नाम ही त्याग है। इसी प्रकार हिंसा का दूसरा (UPBoardSolutions.com) नाम स्वार्थ है। हिंसा का रूप पदार्थों के भोग के रूप में हमारे सामने आता है। मनुष्य स्वार्थ के कारण जब पदार्थों का अकेले ही उपभोग करता है, तभी हिंसा का जन्म होता है। भारतीय संस्कृति में त्याग और भोग का समन्वय है। जब तक हम किसी वस्तु का त्याग नहीं करेंगे, तब तक दूसरा उसका उपभोग नहीं कर सकता। इस प्रकार त्याग से ही भोग की प्राप्ति होती है।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि वेद और उपनिषदों में भी त्यागपूर्वक भोग को महत्त्व दिया गया है। हम जिन पदार्थों का भोग करें, त्याग (अनासक्ति) की भावना से करें। त्याग की भावना से सभी आपसी संघर्ष समाप्त हो जाते हैं। इसी भावना से व्यक्ति का व्यक्ति से, व्यक्ति का समाज से, समाज का समाज से और देश का देश से संघर्ष समाप्त हो सकता है। सभी संघर्ष स्वार्थ या भोग को लेकर होते हैं। यदि हम सभी विरोधों या संघर्षों को समाप्त करना चाहते हैं तो हमें अपनी नैतिक चेतना को इसी तत्त्व त्याग से ओत-प्रोत करना होगा।
(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में कहा गया है कि हिंसा का ही दूसरा रूप ‘स्वार्थ’ है, जो भोग के रूप में व्यक्तियों के सम्मुख आता है और अहिंसा का दूसरा रूप त्याग है। भारतीय संस्कृति में भोग को भी त्याग से ही निकाला गया है।
  2. श्रुति कहती है कि “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः’ अर्थात् त्याग की भावना से ही भोग करना चाहिए; क्योंकि त्यागं की भावना से ही सभी आपसी संघर्ष समाप्त हो जाते हैं।
  3. विभिन्न प्रकार के विरोध हैं—व्यक्ति-व्यक्ति का विरोध, (UPBoardSolutions.com) व्यक्ति-समाज का विरोध, समाजसमाज का विरोध, समाज-देश का विरोध, देश-देश का विरोध आदि। इन सभी प्रकार के विरोधों को त्याग की भावना के प्रस्फुटन के द्वारा समाप्त किया जा सकता है।
  4. हमारे नैतिक सिद्धान्तों में अहिंसा को प्रमुख स्थान दिया गया है। इसका दूसरा रूप त्याग है।

प्रश्न 9.
इसलिए हमने भिन्न-भिन्न विचारधाराओं को स्वतन्त्रतापूर्वक पनपने और भिन्न-भिन्न भाषाओं को विकसित और प्रस्फुटित होने दिया। भिन्न-भिन्न देशों के लोगों को अपने में अभिन्न भावे से मिल जाने दिया। भिन्न-भिन्न देशों की संस्कृतियों को अपने में मिलाया और अपने को उनमें मिलने दिया और देश और विदेश में एकसूत्रता तलवार के जोर से नहीं, बल्कि प्रेम और सौहार्द से स्थापित की। दूसरों के हाथों और पैरों पर, घर और सम्पत्ति पर जबरदस्ती कब्जा नहीं किया, उनके हृदयों को जीता और इसी वजह से प्रभुत्व, जो चरित्र और चेतना का प्रभुत्व है, आज भी बहुत अंशों में कायम है, जबकि हम स्वयं उस चेतना को बहुत अंशों में भूल गये हैं और भूलते जा रहे हैं।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. भारतीयों ने विभिन्न धर्मों और विचारधाराओं के लिए क्या किया ?
  2. भारतीय लोगों ने विभिन्न देशों के व्यक्तियों और संस्कृतियों के साथ क्या किया?
  3. भारतीयों ने किस प्रकार एकता स्थापित की ?
  4. भारतीयों का प्रभुत्व अभी भी दूसरों पर क्यों कायम है ?
  5. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?

[ प्रस्फुटित = फलने-फूलने। एकसूत्रता = एकता। सौहार्द = मित्रता का भाव। कब्जा = अधिकार। प्रभुत्व = वैभव।]
उत्तर
(अ) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने यह बताया है कि भारतीय संस्कृति ने कभी-भी उन संस्कृतियों-सभ्यताओं को विकसित होने में बाधा नहीं पहुँचाई, जो उसकी अपनी नहीं थीं। उसका कहना है कि भारतवासियों ने सदैव (UPBoardSolutions.com) अलग-अलग विचारधाराओं को; जो कि धर्म, आदि विभिन्न रूपों में होती हैं; सदैव विकसित होने और उनके अपने ही ढंग से उन्हें पल्लवित-पुष्पित होने दिया। विभिन्न देशों के लोगों को इस प्रकार अपने में मिल जाने दिया जैसे कि वे उनके अपने ही हों। भारतवासियों ने विभिन्न देशों की संस्कृतियों को स्वयं में मिला लिया और स्वयं को उनकी संस्कृतियों में मिल जाने दिया।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत गद्यांश में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि भारतीय संस्कृति ने एकता और समरसता का यह कार्य बलपूर्वक नहीं किया, वरन् प्रेम और मित्रता की भावना से किया। उन्होंने कभी-भी विदेशियों के शारीरिक अंगों पर, चल-अचल सम्पत्ति पर बलपूर्वक अधिकार करने का प्रयास नहीं किया, वरन् सदैव उनके हृदय पर अधिकार जमाने का प्रयास किया; क्योंकि किसी के शरीर पर तो बलपूर्वक अधिकार किया जा सकता है, लेकिन हृदय पर नहीं। यही कारण है कि आज भी भारतीयों का जो प्रभाव दूसरों पर बना हुआ है, वह उनके चरित्र और चेतना का है। अन्तिम पंक्ति में लेखक भारतीयों की वर्तमान स्थिति पर अफसोस प्रकट करते हुए कह रहे हैं कि आज भारतीय अपने उस गुण को; जिसके बल पर वे दूसरों पर कायम थे; स्वयं भूल चुके हैं और भूलते ही जा रहे हैं।
(स)

  1. भारतवासियों ने विभिन्न धर्मों को स्वतंन्त्रतापूर्वक पल्लवित-पुष्पित होने और भिन्न-भिन्न वैचारिक धाराओं को बिना किसी रोक-टोक के अपने-अपने मार्ग पर प्रवाहित होने दिया।
  2. भारतीय लोगों ने भिन्न-भिन्न देश के व्यक्तियों को अपने में मिल जाने दिया तथा विभिन्न देशों की संस्कृतियों को अपने में तथा अपने देश की संस्कृति को उनमें मिल जाने दिया।
  3. भारतीयों ने स्वदेश और विदेश में एकता प्रेम और सौहार्द से (UPBoardSolutions.com) स्थापित की, बलपूर्वक नहीं।
  4. भारतीयों का प्रभुत्व दूसरों पर अभी भी मात्र इसीलिए कायम है क्योंकि उन्होंने उनके हृदयों को जीत लिया, उनके घर, धन, सम्पत्ति और बाह्य व्यक्तित्व को कभी अपने अधीन नहीं किया।
  5. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने भारतीयों के उच्च आदर्श को स्पष्ट किया है जो दूसरों पर अपना प्रभुत्व प्रेम और सौहार्द से स्थापित करता है तथा यह भी बताया है कि वर्तमान समय में भारतीय स्वयं उससे विमुख होते जा रहे हैं।

प्रश्न 10.
हर प्रकार की प्रकृतिजन्य और मानवकृत विपदाओं के पड़ने पर भी हम लोगों की सृजनात्मक शक्ति कम नहीं हुई। हमारे देश में साम्राज्य बने और मिटे, विभिन्न सम्प्रदायों का उत्थान-पतन हुआ, हम विदेशियों से आक्रान्त और पददलित हुए, हम पर प्रकृति और मानवों ने अनेक बार मुसीबतों के पहाड़ ढा दिये, पर फिर भी हम लोग बने रहे, हमारी संस्कृति बनी रही और हमारा जीवन एवं सृजनात्मक शक्ति बनी [2009]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक क्या कहना चाहता है ? स्पष्ट कीजिए।
  2. किस-किस प्रकार की विपत्तियों के पड़ने पर भी भारतवासियों की सृजनात्मकता कम नहीं हुई ?

[प्रकृतिजन्य = प्रकृति द्वारा उत्पन्न। मानवकृत = मनुष्यों द्वारा उत्पन्न। विपदा = आपदा, आपत्ति, विपत्ति। सृजनात्मक शक्ति = नवीन निर्माण की शक्ति।]
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या इतिहास को साक्षी बनाते हुए लेखक कहता है कि : भारतवर्ष में साम्राज्य बने, समाप्त हुए; विभिन्न सम्प्रदाय विकसित हुए और उनका पतन भी हुआ तथा विदेशियों ने हम पर आक्रमण किये और हमें अपमानित भी किया। (UPBoardSolutions.com) प्रकृति और मनुष्यों ने एक बार नहीं अनेक बार हमारे ऊपर मुसीबतों के पहाड़ ढाये लेकिन हमारी संस्कृति इतनी महान् है कि उसने सभी को अपने में समाविष्ट कर लिया। इसी कारण हमारी संस्कृति, हमारा जीवन और हमारी सृजनात्मक शक्ति आज तक बनी हुई है। निश्चित रूप से हमारी संस्कृति सभी संस्कृतियों से श्रेष्ठ एवं महान् है।

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(स)

  1. प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने भारतीय संस्कृति के महान् आध्यात्मिक-नैतिक आधार तथा । विपरीत परिस्थितियों में भी स्वयं को उच्च बनाये रखने के आधार को स्पष्ट किया है। संक्षेप में, लेखक ने भारतीय संस्कृति की महानता को स्पष्ट किया है।
  2. प्रत्येक प्रकार की प्रकृतिजन्य (यथा-भूकम्प, बाढ़, सूखा आदि) और मानवजन्य विपत्तियों के पड़ने पर भी भारतवासियों की सृजनात्मक शक्ति में कभी कमी नहीं आयी।
    रही।

प्रश्न 11.
हम अपने दुर्दिनों में भी ऐसे मनीषियों और कर्मयोगियों को पैदा कर सके, जो संसार के इतिहास के किसी युग में अत्यन्त उच्च आसन के अधिकारी होते। अपनी दासता के दिनों में हमने गाँधी जैसे कर्मठधर्मनिष्ठ क्रान्तिकारी को, रवीन्द्र जैसे मनीषी कवि को और अरविन्द तथा रमण महर्षि जैसे योगियों को पैदा किया और उन्हीं दिनों में हमने ऐसे अनेक उद्भट विद्वान् और वैज्ञानिक पैदा किये, जिनका सिक्का संसार मानता है। जिन हालातों में पड़कर संसार की प्रसिद्ध जातियाँ मिट गयीं, उनमें हम न केवल जीवित ही रहे, वरन् अपने आध्यात्मिक और बौद्धिक गौरव को बनाये रख सके। उसका कारण यही है कि हमारी सामूहिक चेतना ऐसे नैतिक आधार पर ठहरी हुई है, जो पहाड़ों से भी मजबूत, समुद्रों से भी गहरी और आकाश से भी अधिक व्यापक है।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. कैसे दुर्दिनों में भारत ने किन उच्च आसन के अधिकारी व्यक्तियों को जन्म दिया है ?
  2. किन परिस्थितियों में पड़कर संसार की प्रसिद्ध जातियाँ मिट गयीं ?
  3. भारतवासियों की सामूहिक चेतना कैसे आधार पर स्थित है ?

[दुर्दिन = बुरे दिन। मनीषी = बुद्धिमान। आसन = स्थान। उद्भट = श्रेष्ठ, असाधारण!]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या इतिहास को साक्षी बनाते हुए लेखक राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि भारत देश को भी बुरे दिन देखने पड़े थे, परन्तु यह भी सत्य है कि इन बुरे दिनों में भी भारत ने अनेक विद्वानों एवं कर्मयोगियों को जन्म दिया। ये महान् भारतीय सपूत इतने योग्य थे कि उन्हें संसार के किसी भी भाग में, किसी भी युग में अनिवार्य रूप से सम्मान एवं उच्च पद के योग्य ही समझा जाता। जब हमारा देश परतन्त्र था तब भी (UPBoardSolutions.com) हमारे देश में महात्मा गाँधी जैसे कर्मठ और धर्म में रत रहने वाले क्रान्तिकारी, रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे विचारशील कवि, योगिराज अरविन्द घोष तथा रमण महर्षि जैसे महान् योगी व्यक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ। इसी काल में हमारे देश में अनेक वैज्ञानिक एवं महान् विद्वान भी उद्भूत हुए जिनकी योग्यता को आज भी सारा संसार स्वीकार करता है।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी का कहना है कि जिस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों में विश्व की अनेक जातियाँ प्रायः समाप्त हो गयीं, उसी प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों में हम भारतीय हर प्रकार से अपने आपको कुशल बनाये रखने में सफल तो रहे ही, हमने अपने आध्यात्मिक एवं बौद्धिक गौरव को भी बनाये रखा। इस विशिष्टता का मुख्य कारण यह है कि हमारी सामूहिक चेतना का आधार सुदृढ़ नैतिकता है। हमारी नैतिक चेतना पहाड़ों के समान मजबूत, समुद्र से भी गहन तथा आकाश से भी अधिक व्यापक है। इन्हीं गुणों के कारण भारतीय संस्कृति महान् है, जिसके कारण हमारे देश ने अपने बुरे दिनों में भी विश्वविख्यात महान् व्यक्तियों को जन्म दिया।
(स)

  1. परतन्त्रता/दासता के दिनों में भारत ने महात्मा गाँधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, महर्षि अरविन्द आदि के साथ-साथ अनेक वैज्ञानिक और विद्वानों को, जो उच्च आसन के अधिकारी थे, जन्म दिया।
  2. दासता अथवा परतन्त्रता की परिस्थितियों में पड़कर संसार की अनेक प्रसिद्ध जातियों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया।
  3. भारतवासियों की सामूहिक चेतना पर्वतों से भी दृढ़, समुद्रों से भी गहरी और आकाश से भी अधिक व्यापक नैतिक आधार पर स्थित है।

प्रश्न 12.
दूसरी बात जो इस सम्बन्ध में विचारणीय है, वह यह है कि संस्कृति अथवा सामूहिक चेतना ही हमारे देश का प्राण है। इसी नैतिक चेतना के सूत्र से हमारे नगर और ग्राम, हमारे प्रदेश और सम्प्रदाय, हमारे विभिन्न वर्ग और जातियाँ आपस में बँधी हुई हैं। जहाँ उनमें और सब तरह की विभिन्नताएँ हैं, वहाँ उन सब में यह एकता है। इसी बात को ठीक तरह से पहचान लेने से बापू ने जनसाधारण को बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में क्रान्ति करने के लिए तत्पर करने के लिए इसी नैतिक चेतना का सहारा लिया था। [2011, 17]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. क्रान्ति के लिए बापू ने किसका सहारा लिया था ?
  2. लेखक ने भारतीय संस्कृति की एकता और उसके बल का क्या महत्त्व बताया है ?

[विचारणीय = विचार करने योग्य बुद्धिजीवी = समाज का प्रबुद्ध वर्ग।]
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि हमें सर्वप्रथम वैज्ञानिक और औद्योगिक विकास के अनुचित परिणामों को ध्यान में रखना चाहिए। विचार करने योग्य दूसरी बात यह है कि भारतीय संस्कृति अथवा भारतवासियों की सम्पूर्ण व एकीकृत चेतन शक्ति ही इस देश का जीवन है। बिना इसके देश का जीवन ही सम्भव नहीं है। ऐसी चेतन शक्ति; जो नैतिकता पर आश्रित है; से हमारे देश के सभी शहर, गाँव और (UPBoardSolutions.com) सभी प्रदेश, सभी धर्म और उनको मानने वाले विभिन्न सम्प्रदाय, इन सम्प्रदायों के विभिन्न वर्ग और इनसे सम्बद्ध जातियाँ आपस में बँधी हुई हैं। जहाँ इनमें सभी तरह की विभिन्नताएँ और विषमताएँ फैली हुई हैं, वहीं उन सबमें एक एकता है, जिसे ध्यान से देखने, समझने और पहचानने की आवश्यकता है।
(स)

  1. क्रान्ति के लिए बापू ने सामान्य जनता को बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में क्रान्ति करने के लिए तैयार किया था और गद्यांश के रेखांकित अंश में उल्लिखित नैतिक चेतना का सहारा लिया था।
  2. लेखक ने भारतीय संस्कृति की एकता और उसके बल का यह महत्त्व बताया है कि इसी के कारण सम्पूर्ण भारत के सभी शहर, गाँव, प्रदेश, विभिन्न जातियाँ, सम्प्रदाय, वर्ग आदि एक सूत्र में बँधे हुए हैं, जिसके कारण गाँधीजी ने देश की जनता को क्रान्ति के लिए तत्पर किया।

प्रश्न 13.
मैं तो यही समझता हूँ कि यदि हमें अपने समाज और देश में उन सब अन्यायों और अत्याचारों की पुनरावृत्ति नहीं करनी है, जिनके द्वारा आज के सारे संघर्ष उत्पन्न होते हैं तो हमें अपनी ऐतिहासिक, नैतिक चेतना या संस्कृति के आधार पर ही अपनी आर्थिक व्यवस्था बनानी चाहिए अर्थात् उसके पीछे वैयक्तिक लाभ और भोग की भावना प्रधान न होकर वैयक्तिक त्याग और सामाजिक कल्याण की भावना ही प्रधान होनी चाहिए। हमारे प्रत्येक देशवासी को अपने सारे आर्थिक व्यापार उसी भावना से प्रेरित होकर करने चाहिए। वैयक्तिक स्वार्थों और स्वत्वों पर जोर न देकर वैयक्तिक कर्तव्य और सेवा-निष्ठा पर जोर देना चाहिए और हमारी प्रत्येक कार्यवाही इसी तराजू पर तौली जानी चाहिए। [2012, 15]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. भारतवासियों को अपनी आर्थिक व्यवस्था किस प्रकार बनानी चाहिए ?
  2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?
  3. प्रस्तुत गद्यांश के भाव पर आधारित एक पंक्ति लिखिए।
  4. आर्थिक व्यापार करने में किस भावना की प्रधानता होनी चाहिए ?

[ पुनरावृत्ति = फिर से दोहराना। आर्थिक व्यवस्था = धन का वितरण और उपभोग। स्वत्व = अधिकार। सेवा-निष्ठा = सेवा-भावना में विश्वास।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक कहता है कि हमें समाज और देश में अन्यायों और अत्याचारों को फिर से न दोहराये जाने के लिए अपनी आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन करना चाहिए। आर्थिक व्यवस्था के दूषित होने के कारण ही सारे संघर्ष उत्पन्न होते हैं। हमारी आर्थिक व्यवस्था का आधार नैतिक चेतना या संस्कृति द्वारा निर्धारित होना चाहिए। धन से सम्बन्धित जितने भी कार्य किये जाएँ, उनमें सदैव नैतिकता का ध्यान रखा जाना चाहिए। ऐसा करने से अन्याय, अत्याचार और संघर्ष समाप्त हो जाएँगे।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत गद्यांश में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि किसी भी कार्य को करते समय हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कहीं स्वार्थ को बढ़ावा तो नहीं मिल रहा है। प्रत्येक कार्य कर्तव्य और सेवा की भावना से करना चाहिए। हमें अपने स्वार्थों और अधिकारों की पूर्ति का कर्म तथा कर्तव्य और सेवा की भावना का अधिक ध्यान रखना चाहिए, अर्थात् जिस प्रकार तराजू दो पदार्थों के परिमाण में (UPBoardSolutions.com) समन्वय बनाकर दोनों के साथ न्याय करती हैं, उसी प्रकार हमें प्रत्येक कार्य में भोग तथा स्वार्थ का कर्तव्य और सेवा-भावना के साथ समन्वय स्थापित करना चाहिए। इससे संघर्ष होने की सम्भावना नहीं रहेगी।
(स)

  1. भारतवासियों को अपनी आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार से बनानी चाहिए कि उसमें व्यक्तिगत स्वार्थ और भोग की भावना की प्रधानता न हो; क्योंकि स्वार्थों के टकराने से संघर्ष उत्पन्न होता है। अतः स्वार्थ की भावना को त्यागकर सामाजिक हित का ध्यान रखते हुए अपनी आर्थिक व्यवस्था बनानी चाहिए।
  2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने बताया है कि मनुष्य को अपने समस्त आर्थिक कार्य वैयक्तिक त्याग, सामाजिक कल्याण, सेवा और कर्तव्य-भावना से प्रेरित होकर करने चाहिए। हमें अपनी नैतिक चेतना या संस्कृति के आधार पर ही अपने कार्य करने चाहिए। लेखक की यह भावना गाँधी जी के ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त के समान है।
  3. प्रस्तुत गद्यांश के भाव पर आधारित एक पंक्ति हो सकती है-“सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।”
  4. आर्थिक व्यापार करने में वैयक्तिक त्याग, सामाजिक कल्याण, सेवा और कर्तव्य-भावना की प्रधानता होनी चाहिए।

प्रश्न 14.
आज विज्ञान मनुष्यों के हाथों में अद्भुत और अतुल शक्ति दे रहा है, उसका उपयोग एक व्यक्ति और समूह के उत्कर्ष और दूसरे व्यक्ति और समूह के गिराने में होता ही रहेगा। इसलिए हमें उस भावना को जाग्रत रखना है और उसे जाग्रत रखने के लिए कुछ ऐसे साधनों को भी हाथ में रखना होगा, जो उस अहिंसात्मक त्याग-भावना को प्रोत्साहित करें और भोग-भावना को दबाये रखें। नैतिक अंकुश के बिना शक्ति मानव के लिए हितकर नहीं होती। वह नैतिक अंकुश यह चेतना या भावना ही दे सकती है। वही उंस शक्ति को परिमित भी कर सकती है और उसके उपयोग को नियन्त्रित भी। [2011, 14, 16, 18]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. विज्ञान द्वारा प्रदत्त शक्ति को प्रयोग किस प्रकार से हो सकता है ? इस शक्ति का प्रयोग किस भावना से किया जाना चाहिए?
  2. किसके बिना प्राप्त शक्ति मानव-मानवता के लिए हितकर नहीं होती ? या उपर्युक्त अवतरण में लेखक ने मानव को क्या सन्देश दिया है ?
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने क्या सुझाव दिया है? क्या आप इससे सहमत हैं?
  4. विज्ञान के सम्बन्ध में लेखक का क्या विचार है? स्पष्ट कीजिए। या आज विज्ञान मनुष्य को क्या दे रहा है?

[अतुल = जिसकी तुलना न हो सके। उत्कर्ष = उत्थान। प्रोत्साहित करना = उत्साहित करना, प्रेरणा देना। अंकुश == नियन्त्रण। परिमित = सीमित।।
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत गद्य-अंश में लेखक कह रहा है कि वर्तमान युग विज्ञान की उन्नति का युग है। विज्ञान की उन्नति से मनुष्य को असीमित शंक्ति प्राप्त हो गयी है, किन्तु विज्ञान से प्राप्त शक्ति का सही उपयोग नहीं हो रहा है। इस शक्ति का उपयोग एक व्यक्ति अथवा समूह के उत्थान के लिए तथा दूसरे व्यक्ति और समूह को गिराने में हो रहा है। लेखक का कहना है कि समाज में या राष्ट्र में ऐसी भावना उत्पन्न होनी चाहिए, (UPBoardSolutions.com) जिससे विज्ञान की शक्ति के इस दुरुपयोग को रोकने के लिए अहिंसात्मके त्याग की भावना को बढ़ावा दिया जा सके।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-प्रस्तुत गद्यांश में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि यदि विज्ञान की शक्ति पर प्रेम और अहिंसा जैसे नैतिक मूल्यों का नियन्त्रण नहीं लगाया गया तो यह मानव का हित नहीं कर सकती। नैतिक बन्धन से विज्ञान की असीमित शक्ति सीमित हो सकती है और उसका उपयोग विनाश के लिए न कर निर्माण के लिए किया जा सकता है। आज विज्ञान की शक्ति को कल्याण की दिशा में प्रेरित करना अत्यन्त आवश्यक हो गया है। |
(स)

  1. विज्ञान के द्वारा प्रदत्त अतुलनीय शक्ति का उपयोग एक समूह और व्यक्ति के उत्थान तथा दूसरे समूह और व्यक्ति का पतन करने के लिए हो सकता है। इस शक्ति का प्रयोग अहिंसात्मक त्याग की भावना से किया जाना चाहिए।
  2. नैतिकता के अंकुश के बिना प्राप्त शक्ति मानव और मानवता के लिए हितकारी नहीं होती। यही उस असीमित शक्ति को सीमित कर सकती है और उसके दुरुपयोग को नियन्त्रित भी कर सकती है।
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने विज्ञान की संहारक नीति को नियन्त्रित करने का सुझाव दिया है तथा इसके नियन्त्रण के लिए अहिंसा से परिपूर्ण त्याग की भावना को आवश्यक बताया है। मैं लेखक के इस कथन से शत-प्रतिशत सहमत हूँ।
  4. विज्ञान के सम्बन्ध में लेखक का विचार है कि उसने मनुष्य के हाथों में अद्भुत और अतुल शक्ति दी है। इस शक्ति का उपयोग व्यक्ति और समूह के उत्कर्ष के लिए किया जाना चाहिए। इसके लिए व्यक्ति को अपने अन्दर अहिंसा-त्याग की भावना को प्रोत्साहित करना चाहिए।

प्रश्न 15.
वर्तमान युग में भारतीय संस्कृति के समन्वय के प्रश्न के अतिरिक्त यह बात भी विचारणीय है। कि भारत की प्रत्येक प्रादेशिक भाषा की सुन्दर और आनन्दप्रद कृतियों का स्वाद भारत के अन्य प्रदेशों के लोगों को कैसे चखाया जाए। मैं समझता हूँ कि इस बारे में दो बातें विचारणीय हैं। क्या इस सम्बन्ध में यह उचित नहीं होगा कि प्रत्येक भाषा की साहित्यिक संस्थाएँ उस भाषा की कृतियों को संघ-लिपि; अर्थात् । देवनागरी में भी छपवाने का आयोजन करें।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) लेखक के अनुसार भारतीय संस्कृति के समन्वय के लिए क्या किया जाना चाहिए ?
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक डॉ० राजेन्द्र प्रसाद कहते हैं कि वर्तमान में हमें अपने पुराने सांस्कृतिक मूल्यों को अपनाकर भारतीय संस्कृति के समन्वयात्मक स्वरूप को अक्षुण्ण बनाये रखना होगा। विभिन्न भाषावाद भी हमारी संस्कृति के समन्वयात्मक स्वरूप को आघात पहुँचा रहे हैं। इसका समाधान सुझाते हुए लेखक कहते हैं कि भारत में अनेकानेक प्रादेशिक भाषाएँ हैं और प्रत्येक भाषा में अनेक सुन्दर और आनन्द प्रदान करने (UPBoardSolutions.com) वाली साहित्यिक कृतियाँ हैं। यदि हम इन कृतियों के सारतत्त्व से अन्य भाषा-भाषियों को परिचित करा सकें तो हमारी समस्या का बहुत कुछ समाधान हो सकता है।

(स) लेखक के अनुसार भारतीय संस्कृति के समन्वय के लिए प्रत्येक प्रादेशिक भाषा की साहित्यिक कृतियों का अनुवाद कराके उसे भारत की संघलिपि; अर्थात् हिन्दी; में छपवाना चाहिए।

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प्रश्न 16.
दूसरी बात यह है, ऐसी संस्था की स्थापना की जाए, जो इन सब भाषाओं में आदान-प्रदान का सिलसिला अनुवाद द्वारा आरम्भ करे। यदि सब भारतीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वाला सांस्कृतिक संगम स्थापित हो जाता है तो इस बारे में बड़ी सहूलियत होगी। साथ ही, वह संगम साहित्यिकों को प्रोत्साहन भी प्रदान कर सकेगा और अच्छे साहित्य के स्तर के निर्धारण और सृजन करने में भी पर्याप्त अच्छा कार्य कर सकेगा। साहित्य संस्कृति का एक व्यक्त रूप है। उसके दूसरे रूप-गान, नृत्य, चित्रकला, वास्तुकला, मूर्तिकला इत्यादि में देखे जाते हैं। भारत अपनी एकसूत्रता इन सब कलाओं द्वारा प्रदर्शित करता आया है। [2013] |,
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक को नाम (सन्दर्भ) लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) भारत अपनी एकसूत्रता किन-किन कलाओं द्वारा प्रदर्शित करता आया है ?
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी का कहना है कि भारतवर्ष में विद्यमान विभिन्न संस्कृतियों के समन्वय के लिए यह आवश्यक है कि हम सब मिलकर एक ऐसी संस्था की स्थापना करें जो सभी भारतीय भाषाओं की कृतियों में पारस्परिक आदान-प्रदान का सिलसिला अनुवाद द्वारा प्रारम्भ करे। लेखक के कहने का आशय है कि संस्था ऐसी होनी चाहिए जो किसी एक भारतीय भाषा की कृति का अन्य सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद कर सके।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी का कहना है कि भारतवर्ष में विद्यमान विभिन्न संस्कृतियों में समन्वय के लिए आवश्यक है कि विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों का समन्वय हो जाये। यदि कोई इस प्रकार का संगम स्थापित हो जाता है तो यह विभिन्न भाषा के साहित्यकारों को साहित्य-सृजन के लिए प्रोत्साहित कर सकेगा। इसके साथ ही यह संगम साहित्य के स्तर के उत्थान तथा उत्तमोत्तम साहित्य की रचना (UPBoardSolutions.com) करने में भी पर्याप्त रूप से सहायक सिद्ध होगा।
(स) भारत अपनी एकसूत्रता को गान, नृत्य, चित्रकला, वास्तुकला, मूर्तिकला इत्यादि कलाओं के द्वारा प्रदर्शित करता आया है।

प्रश्न 17.
यदि पृथ्वी पर स्वर्ग कहीं है तो यहाँ ही है, यहाँ ही है, यहाँ ही है। यह स्वप्न तभी सत्य होगा और पृथ्वी पर स्वर्ग तो तभी स्थापित होगा, जब अहिंसा, सत्य और सेवा का आदर्श सारे भूमण्डल में मानवजीवन का मुख्य आधार और प्रधान प्रेरकशक्ति हो गया होगा। |
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. “यदि पृथ्वी पर स्वर्ग कहीं है तो यहाँ ही है, यहाँ ही है, यहाँ ही है’ के लिए पाठ में आयी काव्य-पंक्ति लिखिए।
  2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किस बात पर बल दिया है ?

उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि भारत की सुन्दर धरती को पृथ्वी का स्वर्ग कहा जाता है। परन्तु आज समाज में जैसा वातावरण व्याप्त है, उसे देखते हुए इसे पृथ्वी को स्वर्ग नहीं कहा जा सकता। स्वर्ग की स्थापना तो सत्य, अहिंसा और नि:स्वार्थ सेवा की भावना से होती है। यदि हम वास्तव में इस धरती पर स्वर्ग उतारना चाहते हैं तो हमें इस बात का प्रयास करना चाहिए कि मनुष्य के जीवन की प्रत्येक गतिविधि सत्य, अहिंसा और सेवाभाव से प्रेरित हो। ऐसा होने पर संघर्ष, द्वेष, घृणा और युद्ध की समस्या स्वत: ही समाप्त हो जाएगी तथा मानव-जीवन सुखमय और आनन्दमय हो जाएगा।
(स)

  1. प्रश्न में उल्लिखित अंश के लिए पाठ में आयी काव्य-पंक्ति है
    गर फिरदौस बर रुए जमींनस्त,
    हमींअस्तो, हमींअस्तो, हमींअस्त।
  2.  प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने पृथ्वी पर स्वर्ग की कल्पना को साकार करने (UPBoardSolutions.com) के लिए सत्य, अहिंसा, कर्तव्य-पालन और सेवा-भाव की भावना पर बल दिया है।

व्याकरण एवं रचा-बोध ।

प्रश्न 1
निम्नलिखित शब्दों में एक ही प्रत्यय लगा है। प्रत्यय को मूल शब्दों से अलग कीजिए और उन्हें देखकर प्रत्यय लगने के बाद शब्द में होने वाले परिवर्तन के विषय में एक नियम का प्रतिपादन कीजिए नैतिक, वैज्ञानिक, औद्योगिक, बौद्धिक, ऐतिहासिक, सामूहिक, प्रादेशिक, साहित्यिक
उत्तर
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प्रश्न 2
निम्नलिखित शब्दों में उपसर्ग को मूल शब्दों से अलग कीजिए अत्याचार, उपार्जन, उपयोग, प्रत्येक, परिश्रम, आदान।
उत्तर
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प्रश्न 3
निम्नलिखित शब्द उपसर्ग और प्रत्यय दोनों के योग से बने हैं। उपसर्ग और प्रत्यय दोनों को मूल शब्दों से पृथक् कीजिए विभिन्नता, सुशोभित, प्रस्फुटित, प्रोत्साहित, अहिंसात्मक, प्रतिनिधित्व, प्रदर्शित।
उत्तर
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प्रश्न 4
निम्नलिखित प्रत्ययों से पाँच-पाँच शब्दों की रचना कीजिए- पूर्वक, त्व, प्रद, ईय, आत्मक, जन्य।
उत्तर
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