Class 10 Sanskrit Chapter 6 UP Board Solutions कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम् Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 6 Karyam va Sadhyeyam deham va Patyeyam Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 6 हिंदी अनुवाद कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

औरंगजेब के अत्याचारी और साम्प्रदायिक शासन के विरोध में शिवाजी ने दक्षिण में विद्रोह किया था। शिवाजी एक कुशल संगठनकर्ता थे। इन्होंने बलिदानी वीरों की सेना एकत्र करके बीजापुर के नवाब के राज्य का अधिकांश भाग अपने अधिकार में कर लिया था, जो मुगल (UPBoardSolutions.com) साम्राज्य का अंग था।
औरंगजेब ने जिसे भी शिवाजी के विरुद्ध सेना लेकर भेजा, उसे असफलता ही हाथ लगी। प्रस्तुत पाठ पं० अम्बिकादत्त व्यास द्वारा रचित ‘शिवराज-विजय’ के चतुर्थ नि:श्वास से लिया गया है। छत्रपति शिवाजी ही व्यास जी के शिवराज हैं। इस पाठ में शिवाजी के गुप्तचर रघुवीर सिंह के साहस, धैर्य और निर्भीकता का वर्णन है।

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पाठ-सारांश (2006, 07, 09, 14]

रघुवीर सिंह का परिचय रघुवीर सिंह शिवाजी का एक विश्वासपात्रे सेवक है। उसकी आयु मात्र सोलहवर्ष की है। वह शिवाजी का एक आवश्यक और गोपनीय पत्र लेकर सिंह दुर्ग से तोरण दुर्ग की ओर जा रहा है।

गमन-समय एवं वेशभूषा आषाढ़ मास में सायं समय सूर्य अस्त होने ही वाला था। पक्षी अपने घोंसलों में लौट रहे थे। अचानक आकाश में बादल छा गये। उस समय गौर वर्ण के शरीर वाला युवक, शिवाजी का विश्वासपात्र अनुचर रघुवीर सिंह उनका आवश्यक पत्र लेकर सिंह दुर्ग से घोड़े पर तोरण दुर्ग जा रहा था। उसका सुगठित शरीर गौर वर्ण का था और बाल बुंघराले काले थे। वह प्रसन्नमुख, हरा कुर्ता और हरी पगड़ी पहने हुए चला जा रहा था।

मौसम का प्रतिकूल होना उसी समय,अचानक तेज वर्षा और आँधी आयी। काले बादलों से शाम के समय में अन्धकार दुगुना हो गया। धूल और पत्ते उड़ रहे थे जिससे रघुवीर सिंह को पर्वतों, वनों, ऊँचे शिखरों, झरनों का मार्ग सूझ नहीं रहा था। वर्षा के कारण हुई चिकनी चट्टानों पर उसका घोड़ा क्षण-प्रतिक्षण फिसल जाता था। वृक्षों की शाखाओं से बार-बार ताड़ित होता हुआ भी दृढ़ संकल्पी वह घुड़सवार अपने काम से विमुख नहीं हो रहा था।

कर्तव्य-परायणता कभी रघुवीर सिंह का घोड़ा डरकर दोनों पैरों पर खड़ा हो जाता था, कभी पीछे लौट पड़ता था और कभी कूद-कूदकर दौड़ने लगता था, परन्तु यह वीर लगाम हाथ में पकड़े, घोड़े के कन्धों और गर्दन को हाथ से थपथपाता हुआ आगे बढ़ता ही चला जा रहा था। एक ओर आँखों में चकाचौंध पैदा करने वाली दर्शकों के मनों को कम्पित करती हुई, आकाश को चीरती हुई बिजली चमक रही थी तो दूसरी ओर सैकड़ों तोपों की गर्जना (UPBoardSolutions.com) के समान घोर शब्द जंगल में पूँज रहा था, परन्तु “या तो कार्य पूरा करके रहूँगा या मर मिटूगा यह दृढ़-संकल्प मन में लिये हुए वह अपने कार्य से लौट नहीं रहा था।

अपने स्वामी से प्रेरित जिसका स्वामी परिश्रमी, अद्भुत साहसी, विपत्तियों में धैर्यशाली और दृढ़-संकल्पी हो, उसका विश्वासपात्र सेवक फिर वैसा परिश्रमी, साहसी, वीर और दृढ़-संकल्पी क्यों न हो? वह आँधी-तूफान, तेज वर्षा और भयानक वातावरण से डरकर अपने स्वामी के कार्य की कैसे उपेक्षा कर सकता है? यह सोचता हुआ तथा घोड़े को तेज दौड़ाता हुआ वह आगे बढ़ता ही चला जा रहा था।

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गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
शिववीरस्य कोऽपि सेवकः श्रीरघुवीरसिंहः तस्यावश्यकं पत्रञ्चादाय महताक्लेशेन सिंहदुर्गात् तोरणदुर्गं प्रयाति। मासोऽयमाषाढस्यास्ति समयश्च सायम्। अस्तं जिगमिषुर्भगवान् भास्करः, सिन्दूर-द्रव-स्नातानामिव वरुणदिगवलम्बिनामरुण-वारिवाहानामभ्यन्तरं प्रविष्टः। कलविङ्काः नीडेषु प्रतिनिवर्तन्ते। वनानि प्रतिक्षणमधिकाधिक श्यामतां कलयन्ति। अथाकस्मात् परितो मेघमाला पर्वतश्रेणिरिव प्रादुर्भूय समस्तं गगनतलं प्रावृणोत्।।

शब्दार्थ शिववीरस्य = वीर शिवाजी का! कोऽपि = कोई। महताक्लेशेन = अत्यधिक कष्ट से। प्रयाति = जा रहा है। जिगमिषुः = जाने की इच्छा करने वाला। वरुणदिक् = पश्चिम दिशा। अवलम्बिनाम् = अवलम्ब लेने वालों के समान वारिवाहानाम् = बादलों के अभ्यन्तरम् = (UPBoardSolutions.com) भीतर। कलविङ्काः = गौरैया नाम के पक्षी। नीडेषु = घोंसलों में। प्रतिनिवर्तन्ते = लौटते हैं। कलयन्ति = धारण करते हैं। अथाकस्मात् = इसके बाद सहसा। परितः = चारों ओर से प्रादुर्भूय = उत्पन्न होकर प्रावृणोत् = ढक लिया।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में उस समय का रोचक वर्णन किया गया है, जब शिवाजी का विश्वासपात्र अनुचर उनका गोपनीय पत्र लेकर सन्ध्या के समय सिंह दुर्ग से तोरण दुर्ग की ओर जा रहा है।

अनुवाद वीर शिवाजी का कोई सेवक श्री रघुवीर सिंह उनका आवश्यक पत्र लेकर अत्यन्त कष्ट से सिंह दुर्ग से तोरण दुर्ग को जा रहा है। यह आषाढ़ का महीना और सायं का समय है। अस्ताचल की ओर जाने को इच्छुक भगवान् सूर्य सिन्दूर के घोल में स्नान किये हुए के समान, पश्चिम दिशा में छाये हुए लाल बादलों के अन्दर प्रविष्ट हो गये। गौरैया नामक पक्षी घोंसलों में लौट रहे हैं। वन प्रत्येक क्षण अधिकाधिक कालिमा को धारण कर रहे हैं। इसके बाद सामने अचानक मेघमालाओं ने पर्वतमाला की भाँति उमड़कर सारे आकाश को चारों ओर से घेर लिया।

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(2)
अस्मिन् समये एकः षोडशवर्षदेशीयो गौरो युवा हयेन पर्वतश्रेणीरुपर्युपरि गच्छति स्म। एष सुघटित-दृढ-शरीरः, श्यामश्यामैर्गुच्छगुच्छैः कुञ्चित-कुञ्चितैः कचकलापैः कमनीयकपोलपालिः, दूरागमनायास-वशेन-स्वेदबिन्दु-व्रजेन समाच्छादित-ललाट-कपोल-नासाग्रोत्तरोष्ठः, प्रसन्नवदनाम्भोजः, हरितोष्णीषशोभितः, हरितेनैव च कञ्चुकेन प्रकटीकृत-व्यूढ-गूढचरता-कार्यः, कोऽपि शिववीरस्य विश्वासपात्रं, सिंहदुर्गात् तस्यैव पत्रमादाय, तोरणदुर्गं प्रयाति स्म। [2009]

शब्दार्थ षोडशवर्षदेशीयः = सोलह वर्ष का हयेन = घोड़े के द्वारा कुञ्चित-कुञ्चितैः कचकलापैः = धुंघराले बालों के समूह से। कमनीयकपोलपालिः = सुन्दर गालों वाला। दूरागमनायास-वशेन = दूर से परिश्रम के साथ आने के कारण। स्वेदबिन्दुव्रजेन = पसीने की बूंदों के समूह से। समाच्छादित (UPBoardSolutions.com) = ढक गया है। ललाटकपोलनासाग्रोत्तरोष्ठः = मस्तक, गाल, नाक का अग्रभाग और ऊपर का होंठ। प्रसन्नवदनाम्भोजः = प्रसन्न है मुखरूपी कमल जिसका। हरितोष्णीष = हरी पगड़ी। कञ्चुकेन = लम्बा कुर्ता प्रकटीकृतव्यूढ-गूढचरता-कार्यः = प्रकट हो रहा है गुप्तचर का विशेष कार्य जिसका। तस्यैव = उसका ही। प्रयाति स्म = जा रहा था।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शिवाजी के विश्वासपात्र अनुचर रघुवीर सिंह के बाह्य व्यक्तित्व का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इस समय एक सोलह वर्ष की उम्र को गौरवर्ण युवक घोड़े से पर्वतश्रेणियों के ऊपर-ऊपर जा रहा था। यह सुगठित और पुष्ट शरीर वाला, अत्यन्त काले गुच्छेदार घंघराल बालों के समूह से शोभित कपोलों वाला, दूर चलने की थकावट के कारण पसीन की बूंदों के समूह से आच्छादित मस्तक, कपोल, नाक और होंठ वाला, प्रसन्न मुख-कमल वाला, हरी पगड़ी से शोभित और हरे कुर्ते से गुप्तचर के कठिन कार्य को प्रकट करने वाला, वीर शिवाजी का कोई विश्वासपात्र सेवक सिंह दुर्ग से उन्हीं (शिवाजी) का पत्र लेकर तोरण दुर्ग की ओर जा रहा था।

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(3)
तावदकस्मादुत्थितो महान् झञ्झावातः एकः सायं समयप्रयुक्तः स्वभाववृत्तोऽन्धकारः स च द्विगुणितो मेघमालाभिः। झञ्झावातोदधूतैः रेणुभिः शीर्षपत्रैः कुसुमपरागैः शुष्कपुष्पैश्च पुनरेष द्वैगुण्यं प्राप्तः। इह पर्वतश्रेणीतः पर्वतश्रेणीः, वनाद वनानि, शिखराच्छिखराणि प्रपातात् प्रपातान्, अधित्यकातोऽधित्यकाः, उपत्यकातः उपत्यकाः, न कोऽपि सरलो मार्गः, पन्था अपि नावलोक्यते, क्षणे क्षणे हयस्य खुराश्चिक्कणपाषाणखण्डेषु प्रस्खलन्ति, पदे पदे दोधूयमानाः वृक्षशाखाः सम्मुखमाघ्नन्ति, परं दृढ़-सङ्कल्पोऽयं सादी न स्वकार्याद विरमति।

शब्दार्थ तावदकस्मादुत्थितः = तब तक सहसा उठा। झञ्झावातः = वर्षासहित तूफान। स्वभाववृत्तोऽन्धकारः = अपने आप फैला हुआ अन्धकार। द्विगुणितः = दो गुना। झञ्झावातोधूतैः = आँधी से उठी हुई। शीर्णपत्रैः = टूटे पत्तों से। द्वैगुण्यं प्राप्तः = दोगुनेपन को प्राप्त हो गया। शिखराच्छिखराणि = पर्वत की चोटी से चोटियों तक प्रपातात् = झरने से। अधित्यकाः = पर्वत का ऊपरी भाग। उपत्यका = पर्वत का निचला भाग, तलहटी। नावलोक्यते = नहीं दिखाई देता है। हयस्य = घोड़े के। चिक्कणपाषाणखण्डेषु = चिकने पत्थर के टुकड़ों पर प्रस्खलन्ति = फिसलते हैं। दोधूयमानाः = हिलते हुए। आघ्नन्ति = चोट करती हैं। सादी = घुड़सवार। न विरमति = नहीं रुकता है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तोरण दुर्ग की ओर जाते हुए शिवाजी के अनुचर के मार्ग की कठिनाइयों का वर्णन रोचकता के साथ किया गया है।

अनुवाद उसी समय अचानक बड़ी तेज वर्षासहित आँधी उठी। एक तो शाम का समय होने से स्वाभाविक रूप से अन्धकार घिरा हुआ था और वह मेघमालाओं से दुगुना हो गया था। वर्षासहित तेज तूफान से उड़ी हुई धूल से, टूटे हुए पत्तों से, फूलों के पराग से और सूखे फूलों (UPBoardSolutions.com) से पुन: यह दुगुना हो गया था। यहाँ एक पर्वतश्रेणी से पर्वतमालाओं तक, वन से वनों तक, चोटी से चोटियों तक, झरने से झरनों तक, पहाड़ के ऊपर की समतल भूमि से दूसरे पहाड़ के ऊपर की समतल भूमि तक, तलहटी से तलहटियों तक जाने का कोई भी सीधा रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है। क्षण-क्षण पर घोड़े के खुर चिकने पत्थर के टुकड़ों पर फिसल रहे हैं। कदम-कदम पर तेज हिलते हुए वृक्षों की शाखाएँ सामने से लगकर चोट कर रही हैं, परन्तु दृढ़ संकल्प वाला यह घुड़सवार अपने कार्य से नहीं रुक रहा है।

(4)
कदाचित् किञ्चिद् भीत इव घोटकः पादाभ्यामुत्तिष्ठति, कदाचिच्चलन्नकस्मात् परिवर्तते, कदाचिदुत्प्लुत्य च गच्छति। परमेष वीरो वल्गां सम्भालयन्, मध्ये-मध्ये सैन्धवस्य स्कन्धौ कन्धराञ्च करतलेनऽऽस्फोटयन्, चुचुत्कारेण सान्त्वयंश्च न स्वकार्याद विरमति। यावदेकस्यां दिशि नयने विक्षिपन्ती, कर्णो स्फोटयन्ती, अवलोचकान् कम्पयन्ती, वन्यस्त्रासयन्ती, गगनं कर्त्तयन्ती, मेघान् सौवर्णकषयेवघ्नन्ती, अन्धकारमग्निना दहन्ती इव चपला चमत्करोति, तावदन्यस्यामपि दिशि ज्वालाजालेन बलाहकानावृणोति, स्फुरणोत्तरं स्फुरणं गज्र्जनोत्तरं गज्र्जनमिति परः शतः-शतघ्नी-प्रचारजन्येनेव, महाशब्देन पर्यपूर्यत साऽरण्यानी। परमधुनाऽपि “कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्” इति कृतप्रतिज्ञोऽसौ शिववीर-चरो न निजकार्यान्निवर्तते।

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शब्दार्थ कदाचित् = कभी। किञ्चित् = कुछ। घोटकः = घोड़ा। पादाभ्यामुत्तिष्ठति = दो पैरों पर उठ जाता है। कदाचिच्चलन्नकस्मात् = कभी चलता हुआ सहसा परिवर्त्तते = लौट जाता है। उत्प्लुत्य = कूदकर। वल्गाम् = लगाम को। सम्भालयन् = सँभालता हुआ। सैन्धवस्य = घोड़े के। स्कन्ध = दोनों कन्धों को। कन्धराम् = गर्दन को। आस्फोटयन् = थपथपाता हुआ। चुचुत्कारेण = पुचकार से। यावदेकस्याम् = जब तक एक में विक्षिपन्ती = चौंधियाती हुई। अवलोचकान् = दर्शकों को त्रासयन्ती = भयभीत करती हुई। कर्त्तयन्ती = चीरती हुई। सौवर्णकषया = सोने की चाबुक से। घ्नन्ती = मारती हुई। बलाहकान् = बादलों को। आवृणोति = ढक लेती है। (UPBoardSolutions.com) स्फुरणोत्तरम् = चमकने के बाद। परः शतः = सैकड़ों से भी अधिक शतघ्नी = तोपें। पर्यपूरत = भर गयीं, पूर्ण हो गयीं। अरण्यानी = वन। साधयेयम् = सिद्ध करूँगा। पातयेयम् = गिरा दूंगा। कृतप्रतिज्ञोऽसौ = प्रतिज्ञा करने वाला यह। चरः = गुप्तचर।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शिवाजी के अनुचर के मार्ग में आयी हुई कठिनाइयों का वर्णन मनोरम शैली में किया गया है।

अनुवाद कभी कुछ डरे हुए के समान घोड़ा (अगले) दोनों पैरों को उठा लेता है, कभी चलता हुआ अचानक लौट पड़ता है और कभी कूद-कूदकर चलता है, परन्तु वह वीर लगाम को पकड़े हुए बीच-बीच में घोड़े के दोनों कन्धों और गर्दन को हाथ से थपथपाता हुआ, पुचकार से सान्त्वना देता हुआ अपने कार्य से नहीं रुकता है। जब तक एक दिशा में नेत्रों को चौंधियाती हुई, कानों को फाड़ती हुई, देखने वालों को कॅपाती हुई, जंगली जीवों को भयभीत करती हुई, आकाश को चीरती हुई, बादलों को सोने की चाबुक से मानो पीटती हुई, अन्धकार को अग्नि से जलाती हुई-सी बिजली चमकती है, तब तक दूसरी दिशा में भी बादलों को ज्वाला के समूह से ढक लेती है। चमक के बाद चमक, गर्जना के बाद गर्जना, इस प्रकार सैकड़ों से भी अधिक तोपों के चलने से उत्पन्न हुए के समान घोर शब्द से वह वन भर गया, परन्तु इस समय भी ‘या तो कार्य को पूरा करूगा या शरीर को नष्ट कर दूंगा’ इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने वाला वह वीर शिवाजी का दूत अपने कार्य (कर्तव्य) से नहीं रुकता है।

(5)
यस्याध्यक्षः स्वयं परिश्रमी, कथं स न स्यात् स्वयं परिश्रमी? यस्य प्रभुः स्वयं अदभुतसाहसः, कथं स न भवेत् स्वयं तथा? यस्य स्वामी स्वयमापदो न गणयति, कथं स गणयेदापदः? यस्य च महाराजः स्वयंसङ्कल्पितं निश्चयेन साधयति, कथं स न साधयेत् स्व-सङ्कल्पितम्? अस्त्येष महाराज-शिववीरस्य दयापात्रं चरः, तत्कथमेष झञ्झाविभीषिकाभिर्विभीषितः प्रभु-कार्यं विगणयेत्? तदितोऽप्येष तथैव त्वरितमश्वं चालयंश्चलति। [2013]

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शब्दार्थ कथं = कैसे। प्रभुः = स्वामी। स्वयमापदः = अपने आप आपत्तियों को। गणयेदापदः = गिने, आपत्तियों को। साधयति = पूरा करता है। साधयेत् = सिद्ध करे। अस्त्येषः (अस्ति + एषः) = है यह। विभीषिकाभिर्विभीषितः = भयों से डरा हुआ। विगणयेत् = उपेक्षा करे, त्याग दे। त्वरितमश्वं = तेज गति से घोड़े को। चालयन् = चलाता हुआ।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शिवाजी के अनुचर के दृढ़-संकल्प, वीरता और स्वामिभक्ति का वर्णन किया गया है।

अनुवाद जिसका (सेना) अध्यक्ष स्वयं परिश्रमी है, वह स्वयं परिश्रमी क्यों न हो? जिसका स्वामी स्वयं अद्भुत साहसी है, वह स्वयं साहसी क्यों न हो? जिसका स्वामी स्वयं आपत्तियों की गणना (परवाह) नहीं करता है, वह क्यों आपत्तियों की गणना (परवाह) करे? जिसका राजा (UPBoardSolutions.com) स्वयं संकल्प किये गिये कार्य को निश्चय से पूरा करता है, वह क्यों न अपने संकल्पित कार्य को पूरा करे? यह महाराज और वीर शिवाजी को दयापात्र अनुचर है तो कैसे यह वर्षा और आँधी के भय से डरकर स्वामी के कार्य की उपेक्षा करे? तो यह यहाँ से भी उसी प्रकार घोड़े को तेज चलाता हुआ चला जा रहा है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
श्री रघुवीर सिंह का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर :
रघुवीर सिंह शिवाजी का एक विश्वासपात्र सेवक है। वह उनका एक आवश्यक और गोपनीय पत्र लेकर सिंह दुर्ग से तोरण दुर्ग की ओर जा रहा है। तेज वर्षा और आँधी जैसे प्रतिकूल मौसम में जब रास्ता भी

स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ रहा था, घोड़ा क्षण-प्रतिक्षण चिकनी चट्टानों पर बार-बार फिसल जाता था, वृक्षों की शाखाओं से लगातार प्रताड़ित होता हुआ भी यह दृढ़-संकल्पी वीर आगे बढ़ता ही चला जा रहा था। लगाम हाथ में पकड़े, घोड़े के कन्धों और गर्दन को हाथ से थपथपाता हुआ और प्रतिज्ञा करता हुआ कि “या तो कार्य पूरा करके रहूँगा या मर मिटूगा’ अपने कार्य से लौट नहीं रहा था। निश्चय ही रघुवीर सिंह एक परिश्रमी, अद्भुत साहसी, दृढ़-संकल्पी, विपत्तियों में धैर्यशाली और विश्वासपात्र सेवक था।

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प्रश्न 2.
तोरण दुर्ग जाते समय रघुवीर सिंह के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
तोरण दुर्ग जाते समय अचानक बड़ी तेज वर्षासहित आँधी उठी। शाम का समय होने के कारण स्वाभाविक रूप से अन्धकार घिरा था और वह अन्धकार मेघमालाओं से दुगुना हो गया था। एक पर्वतश्रेणी से पर्वतमालाओं तक, वन से वनों तक, चोटी से चोटियों तक, झरने से झरनों तक, पर्वत की घाटी से पर्वत की घाटियों तक, तलहटी से तलहटियों तक जाने का कोई सीधा रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। क्षणक्षण पर घोड़े के खुर चिकने पत्थर के टुकड़ों पर फिसल (UPBoardSolutions.com) रहे थे तथा कदम-कदम पर तेज हिलते हुए वृक्षों की शाखाएँ सामने से लगकर चोट कर रही थीं, परन्तु दृढ़-संकल्प वाला यह घुड़सवार चलता ही जा रहा था।

प्रश्न 3.
रघुवीर सिंह के शारीरिक गठन का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
रघुवीर सिंह एक सोलह वर्ष का गौरवर्ण युवक है। इसका शरीर सुगठित और दृढ़ है, बाल काले, गुच्छेदार और धुंघराले हैं, कपोल सुन्दर हैं तथा मुख कमल के समान है। थकान के कारण इसका मस्तक, कपोल, नाक एवं होंठ पसीने की बूंदों से आच्छादित हैं। यह हरे रंग का कुर्ता पहने हुए है और इसी रंग की पगड़ी धारण किये हुए है।

प्रश्न 4.
रघुवीर सिंह का स्वामी कौन है और वह कैसा है?
या
शिववीर के पत्रवाहक सेवक का क्या नाम था? [2007,09, 15]
या
रघुवीर सिंह किसका विश्वासपात्र सेवक था? [2007]
उत्तर :
रघुवीर सिंह के स्वामी महाराज शिवाजी हैं। महाराज शिवाजी परिश्रमी और अद्भुत साहसी हैं। वे आपत्तियों की परवाह नहीं करते और संकल्पित कार्य को निश्चित ही पूरा करते हैं। उनका विश्वासपात्र, पत्रवाहक और सेवक रघुवीर सिंह भी उनके जैसा ही है।

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प्रश्न 5.
“कार्यं वा साधयेयं, देहं वा पातयेयम्’ का मूल उद्देश्य क्या है?
उत्तर :
“कार्यं वा साधयेयं, देहं वा पातयेयम्” सूक्ति का मूल उद्देश्य हमें यह समझाना है कि किसी भी कार्य को करते समय हमें उसमें दत्त-चित्त होकर लग जाना चाहिए। उस कार्य को सम्पन्न करने में हमारे सामने चाहे कितनी भी और कैसी भी परेशानियाँ क्यों न आये, हमें (UPBoardSolutions.com) अपने कार्य से विरत नहीं होनी चाहिए।
या तो कार्य पूरा करूगा या मर मिटूगा’ के संकल्प से उस कार्य में लगे रहना चाहिए।

प्रश्न 6.
‘कार्यं वा साधयेयं, देहं वा पातयेयम्’ प्रतिज्ञा किसने की थी? [2010, 12]
उत्तर :
“कार्यं वा साधयेयं, देहं वा पातयेयम्’ प्रतिज्ञा महाराज शिवाजी के सेवक रघुवीर सिंह ने की थी, जब वह उनका एक गोपनीय पत्र लेकर सिंह दुर्ग से तोरण दुर्ग की ओर जा रहा था।

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प्रश्न 7.
शिवाजी के अनुचर रघुवीर सिंह की प्रतिज्ञा संस्कृत में लिखिए। [2010, 12]
या
शिवाजी के वीर अनुचर रघुवीर सिंह का प्रतिज्ञा वाक्य क्या था? [2013]
या
शिवाजी के वीर अनुचर का नाम और उसकी प्रतिज्ञा का उल्लेख कीजिए। [2014]
उत्तर :
शिवाजी के अनुचर रघुवीर सिंह की संस्कृत में प्रतिज्ञा है-कार्यं (UPBoardSolutions.com) वा साधयेयं, देहं वा पातयेयम्।

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Class 10 Sanskrit Chapter 13 UP Board Solutions गुरुनानकदेवः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 13 Guru Nanak Deva Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 13 हिंदी अनुवाद गुरुनानकदेवः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

गुरु नानकदेव सभी धर्म-संस्थापकों में सबसे अधिक आधुनिक एवं व्यावहारिक सिद्ध होते हैं। इन्होंने लोगों की सेवा, उद्धार और समानता के लिए सिक्ख धर्म की स्थापना की। आज सिक्ख धर्म के अनुयायी सारे विश्व में फैले हुए हैं और अपने श्रम, ईमानदारी, लगन तथा साहस से सभी को चकित कर रहे हैं। इन्होंने धर्म-साधना हेतु गृह-त्याग के स्थान पर घर में रहकर ही धर्म-पालन का उपदेश दिया। इनके समय में हिन्दू धर्म में (UPBoardSolutions.com) जाति-प्रथा और छुआ-छूत का बोलबाला था। नानकदेव को ये दोनों ही प्रथाएँ मानवता के प्रति अपराध लगती थीं, अतः उन्होंने इन्हें दूर करने लिए लंगर’ नाम से एक साथ बैठकर भोजन करने की प्रथा का सूत्रपात्र किया। यह प्रथा आज भी जारी है, जो लोगों में एकता और समानता की भावना जाग्रत करती है।

प्रस्तुत पाठ में गुरु नानकदेव के जीवन-वृत्त के साथ-साथ मानव-सेवा के लिए किये गिये उनके कार्यों का भी उल्लेख किया गया है।

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पाठ-सारांश [2006,07,08,09, 12, 13, 14, 15]

जन्म एवं माता-पिता सिक्ख धर्म के आदि संस्थापक गुरु नानक का जन्म पंजाब के तलवण्डी नामक ग्राम में वैशाख शुक्ल तृतीया विक्रम संवत् 1526 में हुआ था। वर्तमान में यह स्थान ननकाना साहेब के नाम से प्रसिद्ध है और पाकिस्तान में है। इनकी माता का नाम तृप्तादेवी और पिता का नाम मेहता कल्याणदास (कालू मेहता) था।

संसार में अनासक्ति गुरु नानक अपने माता-पिता के इकलौते पुत्र थे। इनका लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार में हुआ था। ये बचपन से ही एकान्त में बैठकर कुछ ध्यान-सा करते दिखाई देते थे। एक बार इन्होंने अपनी पढ़ने की तख्ती पर पढ़ाये जाने वाले पाठ के स्थान पर परमात्मा के माहात्म्य का वर्णन लिख दिया था, जिसे देखकर शिक्षक को अत्यधिक आश्चर्य हुआ। इन्होंने यज्ञोपवीत को अनित्य जानकर धारण नहीं किया था। पिता के द्वारा व्यापार के लिए दिये गये बीस रुपयों को ये भूखे-प्यासे साधुओं को देकर घर लौट आये थे और दान से सन्तुष्ट होकर उसे अपने व्यापार की सबसे बड़ी उपलब्धि मान बैठे थे। इस घटना को सुनकर इनके पिता अत्यधिक चिन्तित हुए। पिता के क्रोध करने पर इनके बहनोई इन्हें अपने साथ सुलतानपुर ले गये। वहाँ के नवाब दौलत खाँ ने इनके स्वभाव और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर इन्हें अन्न-भाण्डागार में नियुक्त कर दिया था। वहाँ ये बड़ी ईमानदारी और लगन से अपना कार्य सम्पादित करते थे। उनके यश को सहन न करके राज-कर्मचारी उनके विरुद्ध दौलत खाँ के कान भरते थे, परन्तु (UPBoardSolutions.com) दौलत खाँ पर उनका कोई प्रभाव नहीं होता था।

विवाह, नानक सायं समय अपने साथी नवयुवकों के साथ परमात्मा का चिन्तन व कीर्तन करते थे। नानक की संसार से विरक्ति को रोकने के लिए इनके बहनोई जयराम ने इनको 19 वर्ष की आयु में सुलक्खिनी नाम की कन्या के साथ विवाह-बन्धन में बाँध दिया।

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परमात्मा के दूत एक बार वे स्नान करने के लिए सेवक को अपने वस्त्र देकर नदी में उतर गये, किन्तु वहाँ से नहीं निकले। सेवक ने समझ लिया कि नानक को किसी जल-जन्तु ने खा लिया है। वापस लौटकर उसने सभी को यह बात बतायी और सभी ने उस पर विश्वास भी कर लिया। तीन दिन बाद जब नानक प्रकट हुए और अपने घर वापस पहुँचे तो इनके मुख पर विद्यमान अतुलनीय तेज को देखकर सभी आश्चर्यचकित रह गये। नानकदेव ने गाँववासियों को बताया कि उन्हें परमात्मा के दूत पकड़कर परमात्मा के सामने ले गये थे। वहाँ परमात्मा ने उनसे कहा कि उन्हें दुःखियों के दुःखों को दूर करने और परमात्मतत्त्व का उपदेश देने के लिए संसार में भेजा गया है। इसके बाद उन्होंने समस्त परिजनों से विरक्त जीवन व्यतीत करने की अनुमति प्राप्त की और घर छोड़कर चले गये।

भ्रमण एवं पाखण्डोन्मूलन नानक दीनों का उद्धार करने, मानवों में व्याप्त भेदभाव को दूर करने और तीन तापों से सन्तप्त संसार को उपदेशरूपी अमृत से शीतल करने के लिए बीस वर्ष तक सम्पूर्ण देश में भ्रमण करते रहे। इन्होंने धर्म के बाह्याचारों और पाखण्डों का खण्डन किया और धर्म के सच्चे स्वरूप को बताया। इन्होंने दलितों, पतितों, दीनों और दु:खियों के पास जाकर उन्हें उपदेश देकर सान्त्वना दी। ये दीन-दुःखियों का (UPBoardSolutions.com) ही आतिथ्य स्वीकार करते थे। भारत में भ्रमण करते हुए इन्होंने देश की दयनीय दशा देखी और देश की उन्नति के लिए श्रम की प्रतिष्ठा, दीनता का त्यागे, अपरिग्रह और सेवादि भावों का प्रसार किया। इन्होंने देश को एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया और ‘भारत’ को ‘हिन्दुस्तान’ कहकर पुकारा।

उपदेश अपने विचारों को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए ये कर्तारपुर ग्राम में रहने लगे। इन्होंने ज्ञानयोग और कर्मयोग का समन्वय स्थापित किया। निष्काम कर्म, सेवावृत्ति, करुणा, सदाचरण आदि चारित्रिक गुणों को परमात्मा की प्राप्ति का हेतु बताया। यहीं पर इन्होंने लंगर’ नाम की सहभोज प्रथा का प्रचलन किया, जिसमें जाति-पाँति और ऊँच-नीच के भाव को भुलाकर सभी लोग एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। यह प्रणाली गुरुद्वारों में आज भी यथापूर्व चल रही है।

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मृत्यु गुरु नानक विक्रम संवत् 1596 में सत्तर वर्ष की आयु भोगकर परमात्मतत्त्व में विलीन हो गये। ये लगातार सेवाभाव, प्रेम, राष्ट्रभक्ति, देश की अखण्डता, परमात्मा और करुणा के गीते गाते रहे। इनका नाम भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा रहेगा।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
सिक्खधर्मस्याद्यसंस्थापकः गुरुनानकः पञ्जाबप्रदेशे तलवण्डीनाम्नि स्थाने षड्विशत्युत्तरपञ्चादशशततमे वैक्रमे वर्षे वैशाखमासस्य शुक्ले पक्षे तृतीयायान्तिथौ (वै० शु०-3, वि० 1526) क्षत्रियवंशस्य वेदीकुले जन्म लेभे। तस्य जन्मस्थानं ‘ननकानासाहेब’ इति नाम्ना ख्यातमद्यत्वे पाकिस्तानदेशेऽस्ति। अस्य मातुर्नाम (UPBoardSolutions.com) तृप्तादेवी, पितुश्च मेहता कल्याणदासः कालूमेहतेति नाम्ना ख्यातः। शब्दार्थ आद्य = पहले। षड्विशत्युत्तरपञ्चदशशततमे = पन्द्रह सौ छब्बीस में। लेभे = प्राप्त किया। अद्यत्वे = आजकल। ख्यातः = प्रसिद्ध।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘गुरुनानक देवः’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानक के जन्म, जन्म-स्थान व माता-पिता के विषय में बताया गया है।

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अनुवाद सिक्ख धर्म के प्रथम संस्थापक गुरु नानक ने पंजाब प्रदेश में ‘तलवण्डी’ नामक स्थान पर विक्रम संवत् 1526 में वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को क्षत्रिय वंश के वेदी कुल में जन्में लिया था। उनका जन्म-स्थान ‘ननकाना साहेब’ के नाम से प्रसिद्ध है, जो आजकल पाकिस्तान देश में है। इनकी माता का नाम तृप्तादेवी और पिता का नाम मेहता कल्याणदास था, जो कालू मेहता के नाम से प्रसिद्ध थे।

(2)
गुरुनानकः स्वपित्रोरेक एव पुत्र आसीत्। अतस्तस्य जन्मनाऽऽह्लादातिशयं तावनुभवन्तौ स्नेहाशियेन तस्य लालन पालनं च कृतवन्तौ। बाल्यकालादेव तस्मिन् बालके लोकोत्तराः गुणाः प्रकटिता अभवन्। रहसि एकाकी एवोपविश्य नेत्रे अर्थोन्मील्य किञ्चिद् ध्यातुमिव दृश्यते स्म।।

शब्दार्थ आह्लादातिशयम् = अत्यन्त प्रसन्नता। अनुभवन्तौ = अनुभव करते हुए। रहसि = एकान्त में। उपविश्य = बैठकर अर्थोन्मील्य = आधे खोलकर

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानकदेव के बचपन के विषय में बताया गया है।

अनुवाद गुरु नानक अपने माता-पिता के इकलौते ही पुत्र थे। अत: (UPBoardSolutions.com) उनके जन्म से उन दोनों ने अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव करते हुए अत्यन्त स्नेह से उनका लालन-पालन किया। बचपन से ही उस बालक में अलौकिक गुण प्रकट हो गये थे। एकान्त में अकेले ही बैठकर दोनों नेत्रों को आधे खोलकर (ये) कुछ ध्यान करते से दिखाई देते थे।

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(3)
यथाकाले पित्रा विद्याध्ययनाय पाठशालायां स प्रेषितः। अन्यैः सहपाठिभिः सह विद्यालये पठन्नेकदा स्वलेखनपट्टिकायां किञ्चिदुल्लिख्य शिक्षकं प्रादर्शयत्। तल्लेखं दृष्ट्वा शिक्षको विस्मितो जातः। पट्टिकायां परमात्मनो माहात्म्यं तेन वर्णितमासीत्। तथैव यज्ञोपवीतसंस्कारावसरे आचार्येण प्रदत्तं कार्पासं यज्ञोपवीतमनित्यमिति प्रतिपादयन् न तज्जग्राह। तस्य पिता कालूमेहता जगत्प्रति तस्याप्रवृत्तिं दृष्ट्वा भूयसा चिन्तितोऽभवत्। वाणिज्यकर्मणि लिप्तस्तत्पिता कथमपि स जगत्कर्मणि प्रवृत्तो भवेदिति प्रायतत। किं च वहिं पत्रजालैर्पिधातुमाचकाङ्क्ष।

शब्दार्थ यथाकाले = ठीक समय पर। पठन्नेकदा = पढ़ते हुए एक बार। स्वलेखनपट्टिकायां = अपने लिखने की तख्ती पर| प्रादर्शयत् = दिखाया। यज्ञोपवीतसंस्कारावसरे = जनेऊ धारण करने के संस्कार के समय कार्पासम् = कपास का। तज्जग्राह = उसे ग्रहण किया। अप्रवृत्तिम् = उदासीनता को। भूयसा = अत्यन्त प्रायतत् = प्रयत्न किया। पिधातुम् = ढकने के लिए। आचकाङ्क्ष = इच्छा की।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानक की अलौकिक प्रतिभा के विषय में बताया गया है।

अनुवाद समयानुसार पिता ने विद्या अध्ययन के लिए उन्हें पाठशाला में भेजा। दूसरे साथियों के साथ विद्यालय में पढ़ते हुए (उन्होंने) एक दिन अपनी तख्ती पर कुछ लिखकर शिक्षक को दिखाया। उस लेख को देखकर शिक्षक आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने तख्ती पर परमात्मा के माहात्म्य का वर्णन किया था। उसी प्रकार यज्ञोपवीत संस्कार के अवसर पर आचार्य के द्वारा दिया गया कपास का यज्ञोपवीत तो अनित्य है, ऐसा बताते हुए उसे ग्रहण नहीं किया। (UPBoardSolutions.com) उनके पिता कालू मेहता संसार के प्रति उनकी अंनासक्ति को देखकर अत्यधिक चिन्तित हुए। व्यापार के कार्य में लगे हुए उनके पिता ने किसी प्रकार भी वह (नानक) संसार के कार्यों में लग जाये, इस प्रकार के प्रयास किये और आग को पत्तों के समूह से ढकने की इच्छा की।

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(4)
एकदा तस्य जनकः विंशतिरूप्यकाणि तस्मैं दत्वा वाणिज्यार्थं तं प्रेषितवान्। पथि क्षुत्पिपासादिभिः क्लिश्यमानान् दुर्बलान् क्षीणकायान् साधून् सोऽपश्यत्। तेषां क्लेशातिशयतापसन्तप्तां दशामवलोक्य तस्य हृदयं नवनीतमिव द्रवीभूतं जातम्। ताभिः मुद्राभिरत्नं क्रीत्वा तेभ्यः समर्थ्य परां शान्तिमनुभूयमानः गृहं प्रत्याजगाम। पित्रा लाभाय रूप्यकाणि प्रदत्तानि। मया तु पूर्णलाभः लब्धः। तस्यादेशस्यानुपालनमेव मया कृतामिति सोऽचिन्तयत्।।

शब्दार्थ क्षुत्पिपासादिभि: क्लिश्यमानान् = भूख-प्यास आदि से क्लेश पाये हुए। क्षीणकायान् = दुर्बल शरीर वालों को। क्लेशातिशयतापसन्तप्तां = क्लेश की अधिकता के दुःख से व्याकुल। नवनीतमिव = मक्खन की भाँति। अनुभूयमानः = अनुभव करते हुए प्रत्याजगाम = वापस आ गये। लब्धः = प्राप्त किया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में नानकदेव की दोनों की सहायता करने की प्रवृत्ति को दर्शाया गया है।

अनुवाद एक दिन उनके पिता ने उन्हें बीस रुपये देकर व्यापार करने के लिए भेजा। उन्होंने मार्ग में भूख-प्यास आदि से दुःखी, दुर्बल शरीर वाले साधुओं को देखा। उनके कष्ट (दु:ख) की अधिकता से दुःखी दशा को देखकर उनका हृदय मक्खन के समान पिघल गया। उन रुपयों से अन्न (UPBoardSolutions.com) खरीदकर उन्हें देकर अत्यधिक शान्ति का अनुभव करते हुए (वे) घर लौट आये। पिता ने लाभ के लिए रुपये दिये। मैंने तो पूर्ण लाभ प्राप्त कर लिया। मैंने उनके आदेश का पालन ही किया है, ऐसा उन्होंने सोचा।

(5)
पिता तस्य तद्वृत्तं संश्रुत्य खिद्यमानः भृशं चुकोप। तदानीमेव नानकस्य भगिनीपतिः जयराम आगतः। तदखिलमुदन्तं ज्ञात्वा तं स्वनगरं सुलतानपुरमनयत्। तत्रत्यः शासकः नवाबदौलतखाँ युवकनानकस्य व्यवहारकौशलेन शीलेन मधुरया वाचा सन्तुष्टः सन् तं स्वान्नभाण्डागारे नियुक्तवान्। स्वनिस्पृहवृत्या, श्रमेण, कर्मणा च नानकः स्वस्वामिनं दौलतखाँमहाशयं तुतोष।

पिता तस्य तद्वृत्तं ……………………………………… भाण्डागारे नियुक्तवान्।

शब्दार्थ तद्वृत्तं = उस बात को। संश्रुत्य = सुनकर। खिद्यमानः = खिन्न होते हुए। भृशम् = अत्यधिक चुकोप = कुपित हुए। भगिनीपतिः = बहनोई। उदन्तम् = समाचार को। तत्रत्यः = वहाँ का। स्वान्नभाण्डागारे = अपने अनाज के भण्डार में। निस्पृहवृत्या = निर्लोभ स्वभाव से। तुतोष = सन्तुष्ट किया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में नानक को सुलतानपुर के नवाब द्वारा अपने अन्न भाण्डागार में नियुक्त किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद उनके पिता उस समाचार को सुनकर दुःखी होते हुए बहुत क्रुद्ध हुए। उसी समय नानक के बहनोई जयराम आ गये। उस समस्त समाचार को जानकर उसे (नानक को) अपने नगर सुलतानपुर ले गये। वहाँ के शासक नवाब दौलत खाँ ने युवक नानक के व्यवहार की कुशलता, शील और मधुर वाणी से सन्तुष्ट होते हुए उन्हें अपने अन्न के भाण्डागार पर नियुक्त कर दिया। अपने नि:स्वार्थ व्यवहार से, परिश्रम से और कार्य से नानक ने अपने स्वामी दौलत खाँ को सन्तुष्ट कर दिया।

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(6) नानकः तेन समादृतो जातः। तद्यशोऽसहमानैः बहुभिः दोषादिक्षुभिः राजपुरुषैः कर्णेजपैः बोधितोऽपि दौलतखाँमहाशयः नानके दोषं नाऽपश्यत्। महत्सु दोषदर्शनं राजकुलस्य सहजा रीतिः। आदिवस स्वकार्य सम्पादयन्नसौ सन्ध्याकालेऽन्यैः युवकैः सह (UPBoardSolutions.com) एकत्रोपविश्य परमात्मचिन्तनं तन्नामकीर्तनञ्च करोति स्म। दानादिकं च तस्य कर्म तत्रापि सातत्येन चलति स्म।

शब्दार्थ तद्यशोऽसहमानैः = उनका यश सहन करने वालों ने। दोषादिदृक्षुभिः = दोषों को देखने वालों की इच्छा रखने वालों से। कर्णेजपैः = चुगलखोरों से, कान भरने वालों से। आदिवसैः = सारे दिन। एकत्र उपविश्य = एक स्थान पर बैठकर। सातत्येन = नियमित रूप से, निरन्तर

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानक के द्वारा दौलत खाँ के यहाँ सेवा-वृत्ति किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद नानक ने उनसे (अपने स्वामी से) अत्यधिक आदर प्राप्त किया। उनके यश को सहन न करने वाले, दोषों को देखने की इच्छा रखने वाले बहुत-से चुगलखोर राजकर्मचारियों के द्वारा बहकाये जाने पर भी दौलत खाँ ने नानक में दोष नहीं देखा।-महान् पुरुषों में दोष निकालना राजकुल का स्वाभाविक रिवाज है। दिनभर अपने कार्य को पूरा करते हुए वे शाम के समय दूसरे युवकों के साथ एक जगह बैठकर परमात्मा का चिन्तन और उसके नाम का कीर्तन करते थे। उनका दान आदि का काम वहाँ भी लगातार चलता रहता था।

(7)
युवकस्य नानकस्य तथाविधां प्रवृत्तिमवेक्ष्य तस्य भगिनीपतिः जयरामः चिन्तितः सन् विवाहबन्धनेन तस्य तां प्रवृत्तिं नियन्तुमियेष। ऊनविंशवर्षे वयसि गुरुदासपुरमण्डलान्तर्गतबहालाग्रामनिवासिनः बाबामूलामहोदयस्य सुलक्षणया ‘सुलक्खिनी’ नाम्न्या कन्यया सह तस्योद्धाहो जातः।।

शब्दार्थ अवेक्ष्य = देखकर। नियन्तुमियेष = रोकने की इच्छा की। ऊनविंश = उन्नीस। तस्य = उनका। उद्वाहः = विवाह। जातः = हो गया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में नानक के विवाहित होने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद युवक नानक की उस प्रकार की प्रवृत्ति को देखकर उनके बहनोई जयराम ने चिन्तित होते हुए विवाह के बन्धन से उनकी उस प्रवृत्ति को रोकने की इच्छा की। उन्नीस वर्ष की आयु में गुरुदासपुर जिले के “बहाला’ ग्राम के रहने वाले बाबामूला की गुणवती ‘सुलक्खिनी’ नाम की कन्या के साथ उनका विवाह हो गया।

(8)
एकदा सः स्नानाय नदीं प्रति सेवकेनैकेन सह प्रस्थितः। स्ववस्त्रादीनि सेवकाय समर्थ्य सः नद्यामवतीर्णः। बहुकाले व्यतीते स न निष्क्रान्तस्तदा (UPBoardSolutions.com) तस्य सेवकः तं नद्यां निमग्नमित्यनुमाय गृहं प्रतिनिवृत्य वृत्तमिदं सर्वानश्रावयत्। सर्वे विस्मिताः तद्विरहतापसन्तप्ताः परं का गतिरिति चिन्तयन्तो सर्वथा स्तब्धाः जाताः। तस्य भगिनी ‘नानकी’ तुन विश्वसिति स्म। संसारसागराज्जनानुद्धर्तुं जगति यस्य जनिः कथं वा नदीजले निमग्नो भवेदिति तस्याः दृढो विश्वासः आसीत्।। [2015]

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एकदा सः स्नानाय ……………………………………… विश्वसिति स्म। [2010]

शब्दार्थ सेवकेनैकेन सह = एक सेवक के साथ प्रस्थितः = गया| अवतीर्णः = उतर गया। निमग्नमित्यनुमाय = डूब गये, ऐसा अनुमान करके प्रतिनिवृत्य = लौटकर वृत्तमिदं = यह समाचार। सर्वानावयत् = सभी को सुनाया। स्तब्धाः = अवाक् विश्वसिति स्म = विश्वास किया। उद्धर्तुं = उद्धार करने के लिए। जनिः = जन्म)

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानक के जीवन से सम्बन्धित उस घटना का वर्णन किया गया है, जिसमें वे नदी में विलुप्त हो गये थे।

अनुवाद एक बार वे (नानक) स्नान करने के लिए एक सेवक के साथ नदी की ओर गये। अपने वस्त्र
आदि सेवक को देकर वे नदी में उतर पड़े। बहुत समय बीतने पर जब वे नहीं लौटे, तब उनके सेवक ने उन्हें ‘नदी में डूब गये ऐसा अनुमान करके, घर लौटकर, सबको यह समाचार सुनाया। सब विस्मित होकर उनके विरह के दु:ख से दुःखी हुए, परन्तु क्या किया जाए, ऐसा सोचते हुए (UPBoardSolutions.com) सभी तरह से अवाक् रह गये। उनकी बहन नानकी ने तो विश्वास नहीं किया। संसार-सागर से लोगों का उद्धार करने के लिए संसार में जिसका जन्म हुआ, वह कैसे नदी के जल में डूब जाएगा, ऐसा उसका दृढ़ विश्वास था।

(9)
दिनत्रयानन्तरं नानकः प्रकटितोऽभूत्। परमाह्लादिताः जनाः ज्योतिषा देदीप्यमानं तस्य मुखमण्डलं दर्श दर्श विस्मिता अभूवन्। मनसो बुद्धेरगोचरं किञ्चिद् दिव्यत्वं तस्मिन् प्रतिष्ठितमिति सर्वेऽन्वभवन्। तस्य मुखादेव दिनत्रयानुपस्थितिरहस्यं जना अशृण्वन्। नदीजले निमग्नं तं परमात्मनो दूताः परमात्मनः समीपमनयन्। जगतः विधाता तस्मैऽमृतोपदेशं प्रादात्। दुःखदैन्यतप्तानां क्लेशान् अपहर्तुं सदुपदेशेन परमात्मतत्त्वं सत्स्वरूपं च व्याख्यातुं जगति पुनः तस्यादेशात् आगतः इति तेनोक्तम्। भक्तः नानकः गुरुः जातः।

शब्दार्थ ज्योतिषा= प्रकाश से। देदीप्यमानं = चमकते हुए। दर्श-दर्शी = देख-देखकर। सर्वेऽन्वभवन् = सभी ने अनुभव किया। अशृण्वन् = सुना। अमृतोऽपदेशं = अमरता का उपदेश। अपहर्तुम् = दूर करने के लिए।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में नानक के नदी में विलुप्त होकर वापस लौट आने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद तीन दिन के बाद नानक प्रकट हुए। अत्यन्त प्रसन्न होकर लोग अत्यधिक तेज से प्रकाशमान् उनके मुखमण्डल को देख-देखकर आश्चर्यचकित हो गये। मन और बुद्धि से न जाना जा सकने वाला कुछ दिव्यत्व उनमें स्थित है, ऐसा सभी ने अनुभव किया। उनके मुख से ही तीन दिन तक की अनुपस्थिति का रहस्य लोगों ने सुना। नदी के जल में डूबे हुए उन्हें परमात्मा के दूत परमात्मा के पास ले गये थे। संसार के विधाता ने उन्हें अमरता का उपदेश दिया। दु:ख और दीनता से दु:खी लोगों के कष्टों को दूर करने के लिए, सुन्दर उपदेश द्वारा परमात्म तत्त्व और सत् स्वरूप की व्याख्या करने के लिए संसार में पुनः उनके आदेश से आया हूँ, ऐसा उन्होंने कहा। भक्त नानक गुरु हो गये।

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(10)
लोकरक्षायै दीनानामुद्धाराय मानवजातिषु जातान् वर्णजातिधर्मरूपान् भेदान् अपनेतुं सर्वेषु साम्यं प्रतिष्ठापयितुं त्रिविधतापसन्तप्तं लोकममृतोपदेशेन शीतलयितुं गुरुर्नानकः भारतभ्रमणाय मतिं चकार। स्वमातापितरौ स्वपत्नीं स्वसुतौ स्वभगिनीं नानकीं स्वमित्राणि चे (UPBoardSolutions.com) साधु समाश्वास्य स सुलतानपुरनगरान्निर्जगाम। नगरान्नगरं ग्रामोद् ग्राममटन धर्मस्य बाह्याचारानाडम्बरभूतान् व्यापारान् विखण्डयन् धर्मस्य सत्स्वरूपं स्थापयन् सर्वस्मिन् तदेकमिति प्रतिपादितवान्।

शब्दार्थ अपनेतुम् = दूर करने के लिए, मिटाने के लिए। प्रतिष्ठापयितुं = स्थापित करने के लिए। सन्तप्तं = पीड़िता अमृतोपदेशेन = अमृत के समान उपदेश से। शीतलयितुं = शीतल करने के लिए। मतिं चकार = विचार किया। समाश्वास्य = आश्वासन देकर। निर्जगाम = निकल पड़े। अटन् = घूमते हुए। व्यापारान् = गतिविधियों को। विखण्डयन् = खण्डित करते हुए।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानक द्वारा देश का भ्रमण करने एवं पाखण्ड के उन्मूलन के लिए किये गये अथक प्रयासों का वर्णन है।

अनुवाद लोकरक्षा के लिए, दोनों का उद्धार करने के लिए, मानव-जातियों में उत्पन्न वर्ण, जाति, धर्म के भेदों को दूर करने के लिए, सबमें स्थापित करने के लिए, तीन प्रकार के (दैहिक, दैविक, भौतिक) तापों से पीड़ित संसार को अमृत के समान उपदेश से शीतल करने के लिए गुरु नानक ने भारत में भ्रमण करने हेतु विचार किया। अपने माता-पिता, अपनी पत्नी, अपने दोनों पुत्रों, अपनी बहन नानकी और अपने मित्रों को अच्छी तरह धैर्य देकर सुलतानपुर नगर से निकल पड़े। नगर से नगर में, एक गाँव से दूसरे गाँव में भ्रमण करते हुए धर्म के बाहरी आचरणों, आडम्बरस्वरूप कार्यों को खण्डन करते हुए, धर्म के सच्चे स्वरूप की स्थापना करते हुए ‘सबमें वह एक (ईश्वर) है ऐसा बताया।

(11)
“नेह नानास्ति किञ्चन्” इति जनान् सम्यक् बोधयन् जातिवर्णधर्मजनितोच्चावचभेदानपनयन् देशस्योत्तरदक्षिण-पूर्व-पश्चिमभागानां भ्रमणमसौ कृतवान्। सर्वत्र दलितानां पतितानां अपहृताधिकाराणां दैन्यग्रस्तानां दुःखतप्तहृदयानां जनानामन्तिकं गत्वा स्वप्रेम्णा मधुरया वाचा अमृतोपदेशेन च तान् सान्त्वयामास। भ्रमणकाले दुःखदैन्यग्रस्तानामुपेक्षितानामेवातिथ्यं तेनाङ्गीकृतम्। परपरिश्रमेणार्जितधनेन जनाः धनिनो जायन्ते; अतः ऐश्वर्यवतो निमन्त्रणमपि तस्मै न रोचते स्म। स्वश्रमेणोपार्जिते वित्ते विद्यमाना पवित्रता परपरिश्रमार्जितवित्ते कुत्र इति श्रमं प्रति प्रशस्यभावः तेनोदाहृतः।

शब्दार्थ नेह नानास्ति किञ्चन = यहाँ कुछ भी अनेक नहीं है, अर्थात् एकमात्र परमात्मा ही सब कुछ है। सम्यक् = भली-भाँति बोधयन् = समझाते हुए उच्चावचभेदान् = ऊँचे-नीचे भेदों को। अपनयन् = दूर करते हुए। अपहृताधिकाराणां = अधिकार छीने हुए लोगों का। अन्तिकम् = पास| सान्त्वयामास = धीरज बँधाया। आतिथ्यम् = अतिथि-सत्कार। अङ्गीकृतम् = स्वीकार किया। उपार्जिते वित्ते = कमाये हुए धन में। कुत्र = कहाँ। इति = इस प्रकार प्रशस्यभावः = प्रशंसनीय भाव। उदाहृतः = प्रकट किया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानक के उच्च विचारों तथा उनके द्वारा किये गये धर्म-प्रचार का वर्णन किया गया है।

अनुवाद “इस संसार में उसके (ईश्वर) के बिना कुछ नहीं है, ऐसा लोगों को भली-भाँति समझाते हुए, जाति-धर्म-वर्ण से उत्पन्न ऊँच-नीच के भेदों को दूर करते हुए उन्होंने देश के उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम भागों का भ्रमण किया। सब जगह दलितों, पतितों, अधिकार छिने, दीनों, दुःख से (UPBoardSolutions.com) पीड़ित हृदय वाले लोगों के पास जाकर, अपने प्रेम से, मधुर वाणी से और अमृत के समान मीठे उपदेशों से उन्हें सान्त्वना दी। भ्रमण के समय उन्होंने दु:खियों, दीनों और उपेक्षितों के ही आतिथ्य को स्वीकार किया। दूसरों के परिश्रम से कमाये गये धन से लोग धनवान हो जाते हैं; अतः वैभवशालियों का निमन्त्रण भी उन्हें अच्छा नहीं लगता था। “अपने श्रम से उपार्जित धन में विद्यमाने पवित्रता दूसरों के श्रम से अर्जित धन में कहाँ है। इस प्रकार श्रम के प्रति उन्होंने श्रेष्ठता को प्रकट किया।

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(12)
विंशतिवर्षं यावद् तेन समग्रदेशस्य भ्रमणं कृतम्। भ्रमता तेन देशस्य चिन्तनीया दशा दृष्टा। देशचिन्ताचिन्तितः स देशस्योन्नत्यै श्रमस्य प्रतिष्ठां, दैन्यपरित्यागमपरिग्रहं, सेवाभावादि भावान् प्रसारयामास। समग्रदेशमेकसूत्रे आबद्धं प्रयतमानः स प्रथम भारतीयो महापुरुषः आसीत्। यवनशासकैः कृतानत्याचारान् वीक्ष्य भृशं खिद्यमानः परमात्मानमुपालम्भितवान्। तेनैव महात्मना भारतं ‘हिन्दुस्तान इति नाम्ना सम्बोधितवान्। [2007, 13]

शब्दार्थ समग्रदेशस्य = सम्पूर्ण देश का। चिन्तनीया = शोचनीया दृष्टा = देखी। प्रसारयामास = प्रसारित किया। आबद्धम् = बाँधने के लिए। प्रयतमानः = प्रयत्न करता हुआ। कृतानत्याचारान् = किये हुए अत्याचारों को। वीक्ष्य = देखकर। खिद्यमानः = दुःखी होते हुए। उपालम्भितवान् = उलाहना दिया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानक के देश-प्रेम सम्बन्धी विचारों तथा कार्यों का उल्लेख किया गया है।

अनुवाद बीस वर्ष तक उन्होंने सम्पूर्ण देश का भ्रमण किया। भ्रमण करते हुए उन्होंने देश की चिन्ता के योग्य दशा देखी। देश की चिन्ता से चिन्तित उन्होंने देश की उन्नति के लिए श्रम की स्थापना, दीनता का त्याग, अपरिग्रह, सेवाभाव आदि भावों का प्रसार किया। सम्पूर्ण देश को एक सूत्र में बाँधने के लिए प्रयत्न करने वाले वे भारत के प्रथम महापुरुष थे। यवन शासकों के द्वारा किये गिये अत्याचारों को देखकर अत्यन्त दु:खी होते हुए उन्होंने ईश्वर को उलाहना दिया। उसी महात्मा ने भारत को ‘हिन्दुस्तान’ नाम से सम्बोधित किया।

(13) अथ स स्वविचारान् यथातथ्ये परिणेतुं पजाबप्रदेशे कर्तारपुरे स्ववसतिं चकार। स्वानुयायिभिः सह कृषिक्षेत्रे कृषिकर्म कुर्वन् वृद्धपितेव तेषु स्थितः परमात्मतत्त्वं चिन्तयन् विदेह इव सुस्थिरं स्थितः। गुरुणा नानकेन ज्ञानयोगस्य कर्मयोगस्य चादभूतं सामञ्जस्यं स्थापितम्। निष्काम-कर्मणा (UPBoardSolutions.com) सेवावृत्या करुणया सच्छीलेन च गुणैः सच्चारित्र्यस्य सृष्टिर्जायते। सच्चारित्र्यमेव परमात्मनो प्राप्तिहेतुरिति तेन प्रतिपादितम्। तत्रैवासौ लंगर’ इति नाम्नीं सहभोजप्रथां प्रारब्धवान्। तत्र स्वेन निर्मितं भोजनमाबालवृद्धं नराः नार्यः जातिधर्मवर्णनिर्विशेषाः सर्वेषु सहैवोपविश्य भुञ्जते स्म। एषा प्रथाऽधुनापि गुरुद्वारेषु प्रचलिता दृश्यते।

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अर्थ स स्वविचारान ……………………………………… सामञ्जस्यं स्थापितम्। [2008]
अथ स स्वविचारान ……………………………………… भुजते स्म। [2012]

शब्दार्थ यथातथ्ये परिणेतुम् = वास्तविक रूप में परिणत करने के लिए। स्ववसतिम् = अपना निवास। कृषिक्षेत्रे = खेत में। वृद्धपितेव = बूढे पिता के समान विदेह इवे = राजा जनक के समान। सामञ्जस्यम् = तालमेल, समन्वय सेवावृत्या = सेवा-कार्य के द्वारा। सच्छीलेन (सत् + शीलेन) = उत्तम स्वभाव के द्वारा। सृष्टिर्जायते = निर्माण होता है। तत्रैवासौ (तत्र + एव + असौ) = वहीं पर इन्होंने। सहभोजप्रथाम् = एक साथ भोजन करने की प्रथा को। जातिधर्मवर्णनिर्विशेषाः = जाति, धर्म और वर्ण की विशेषता से रंहिता सह एव उपविश्य = साथ ही बैठकर

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानकदेव द्वारा किये गये व्यावहारिक कार्यों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इसके पश्चात् उन्होंने अपने विचारों को यथार्थ रूप में परिणत करने के लिए पंजाब प्रदेश में कर्तारपुर में अपना निवास बनाया। अपने अनुयायियों के साथ खेत में खेती करते हुए वृद्ध पिता के समान वे उनके मध्य बैठे हुए परमात्म-तत्त्व का चिन्तन करते हुए विदेह (राजा जनक) के समान स्थिर रहते थे। गुरु नानक के द्वारा ज्ञानयोग का और कर्मयोग का अद्भुत समन्वय स्थापित किया गया। निष्काम कर्म से, सेवा व्यवहार से, करुणा से, अच्छे आचरण से और गुणों (UPBoardSolutions.com) से अच्छे चरित्र की सृष्टि हो जाती है। उत्तम चरित्र ही परमात्मा की प्राप्ति का साधन है, ऐसा उन्होंने बताया। वहीं पर इन्होंने ‘लंगर’ नाम से साथ भोजन करने की प्रथा को प्रारम्भ किया। उसमें स्वयं द्वारा निर्मित भोजन को बच्चों से लेकर बूढ़ों तक स्त्री-पुरुष, जाति-धर्म-वर्ण के भेदभाव के बिना सब एक साथ बैठकर खाते थे। यह प्रथा आज भी गुरुद्वारों में प्रचलित दिखाई देती है।

(14)
षण्णवत्युत्तरपञ्चदशशततमे वैक्रमे वर्षे आश्विनमासस्य कृष्णपक्षे दशम्यान्तिौ (आO कृ० 10, वि० 1516) गुरोरात्मतत्त्वं परमात्मतत्त्वे विलीनम्। गुरुः सप्ततिवर्षं यावद् धरामलङकुर्वाणः सेवाभावस्य, परस्परं प्रेम्णः, राष्ट्रभक्तेः, देशानुरागस्य, देशस्याखण्डतायाः परमात्मनः करुणायाश्च गीतं जिगाय। गुरुनानकोऽस्माकमितिहासपृष्ठेषु स्वर्णाक्षरैरङ्कितः सदा स्थास्यति।।

शब्दार्थ षण्णवति = छियानबे। गुरोरात्मतत्त्वम् = गुरु का आत्मतत्त्व। सप्ततिवर्ष = सत्तर वर्ष तका जिगाय = गाया। स्थास्यति = स्थायी रहेंगे।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में गुरु नानक के परलोकवास एवं उनकी अमरता का वर्णन किया गया है।

अनुवाद विक्रम संवत् 1596 में आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को गुरु का आत्मतत्त्व परमात्मतत्त्व में विलीन हो गया। गुरु ने सत्तर वर्ष तक पृथ्वी को सुशोभित करते हुए, सेवा-भावना, परस्पर प्रेम, राष्ट्रभक्ति, देशप्रेम, देश की अखण्डता और परमात्मा की करुणा के गीत गाये। गुरु नानक हमारे इतिहास के पृष्ठों में सदा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेंगे।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गुरु नानक देव का परिचय दीजिए। [2007]
या
गुरु नानक का जन्म कहाँ हुआ था और उनके माता-पिता का क्या नाम था? [2006,11,15]
या

सिक्ख धर्म के आदि संस्थापक का नाम लिखिए। [2013]
उत्तर :
सिक्ख धर्म के आदि संस्थापक गुरु नानक का जन्म पंजाब के तलवण्डी (ननकाना साहब, पाकिस्तान) नामक ग्राम में विक्रम संवत् 1526 में हुआ था। इनकी माता का नाम तृप्ता देवी और पिता का नाम मेहता कल्याणदास था। दोनों का उद्धार करने, मानवों में व्याप्त भेदभाव को दूर करने और तीनों तापों से सन्तप्त संसार को उपदेशरूपी अमृत से शीतल करने के लिए माता-पिता, पत्नी-पुत्र, बहन और मित्रों को छोड़कर ये भ्रमण के लिए घर से निकल पड़े। इन्होंने धर्म के बाह्याचारों (UPBoardSolutions.com) और पाखण्डों का खण्डन किया और धर्म के सच्चे स्वरूप को बताया। इन्होंने दलितों, पतितों, दीनों और दु:खियों को उपदेश देकर सान्त्वना प्रदान की। इन्होंने ही भारत को ‘हिन्दुस्तान’ कहकर पुकारा और पूरे देश को एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया।

प्रश्न 2.
लंगर-प्रणाली क्या है? इसका प्रारम्भ किसने किया?
उत्तर :
बीस वर्षों तक भ्रमण करने के उपरान्त गुरु नानक पंजाब के कर्तारपुर नामक स्थान पर स्थायी रूप से रहने लगे। यहीं पर इन्होंने लंगर’ नाम से एक साथ भोजन करने की प्रथा को प्रारम्भ किया। इस प्रथा में स्वयं द्वारा निर्मित भोजन को बच्चों से लेकर वृद्धों तक सभी स्त्री-पुरुष जाति-धर्म-वर्ण के भेदभाव के बिना साथ बैठकर ग्रहण करते हैं। गुरुद्वारों में यह प्रथा आज भी प्रचलित है।

प्रश्न 3.
गुरु नानकदेव का ईश्वर से साक्षात्कार किस प्रकार हुआ? विस्तार सहित लिखिए।
या
नानकदेव के नदी में डूबने और वापस आकर परमात्म-तत्त्व-प्राप्ति तक की घटना का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
एक बार गुरु नानकदेव नदी में स्नान करने के लिए एक सेवक के साथ गये। अपने वस्त्रों को सेवक को सौंपकर वे नदी में उतर गये। बहुत समय तक वे जल से बाहर नहीं आये। उनके सेवक ने उन्हें नदी में डूबा हुआ मान लिया और सभी को यह बात बतायी। तीन दिन बाद गुरु नानकदेव पुनः प्रकट हुए। लोगों ने गुरु नानक के मुख पर दिव्यत्व का ऐसा अद्भुत प्रकाश देखा, जो मन एवं बुद्धि से अगम्य एवं अगोचर था। नानक ने उन्हें तीन दिन तक अनुपस्थित रहने का रहस्य सुनाया। उन्होंने बताया कि परमात्मा का दूत उन्हें परमात्मा के पास ले गया था। परमात्मा ने उन्हें अमरत्व का उपदेश देने के साथ-साथ दुःखियों और दोनों के सन्ताप को दूर करने के लिए (UPBoardSolutions.com) भी कहा। इसीलिए वे परमात्मा के आदेश से उसके सत्-स्वरूप की व्याख्या करने के लिए दुबारा संसार में आये हैं।

प्रश्न 4.
गुरु नानकदेव के मुख्य उपदेश बताइए। [2011]
या
गुरु नानक ने किन बातों में समन्वय स्थापित किया? [2009]
उत्तर :
गुरु नानकदेव के मुख्य उपदेश निम्नलिखित हैं

  • जाति-धर्म-वर्ण से उत्पन्न ऊँच-नीच के भेदभाव को दूर करना चाहिए।
  • भारत के पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण भाग एक हैं। इनके निवासियों में कोई भेदभाव नहीं करना चाहिए।
  • दलितों, पतितों, अधिकार छिने लोगों, दीनों, दु:ख से पीड़ित हृदय वालों और उपेक्षितों को सान्त्वना देनी चाहिए, उनको सम्मान प्रदान करना चाहिए और उनका आतिथ्य भी स्वीकार करना चाहिए।
  • ‘श्रम से उपार्जित धन पवित्र और श्रेष्ठ है, इस भावना की प्रतिष्ठा करनी चाहिए।

प्रश्न 5.
गुरु नानक का विवाह किसके साथ हुआ था? [2006,08,09]
उत्तर :
गुरु नानक का विवाह सुलक्खिनी नाम की कन्या के साथ हुआ था।

प्रश्न 6.
नानक ने बाल्यकाल में कौन-सा सौदा किया?
उत्तर :
एक बार नानक के पिता ने इनको बीस रुपये व्यापार करने के लिए दिये। इन्होंने उन रुपयों से अन्न खरीदकर मार्ग में मिले दीन-दुःखियों में बाँट दिये। इस दान के परिणामस्वरूप मिले सन्तोष को इन्होंने अपने व्यापार की सबसे बड़ी उपलब्धि मान लिया। नानक ने बाल्यकाल में यही सौदा (व्यापार) किया था।

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प्रश्न 7.
 नानक देव की बहन का क्या नाम था? [2007, 14]
उत्तर :
नानक देव की बहन का नाम ‘नानकी’ था।

प्रश्न 8.
“दोषदर्शनं राजकुलस्य सहजा रीतिः” का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
राजकुल की यह सबसे साधारण परम्परा है कि वह हर किसी में दोष निकाल देता है, चाहे उसमें दोष हो अथवा नहीं। लेकिन गुरु नानक में मुगल दौलत खाँ ने कोई दोष नहीं देखा, जब कि उनकी सभा के अन्य लोगों ने गुरुनानक के विषय में अनेक शिकायतें की थीं। कहने का (UPBoardSolutions.com) आशय यह है कि जब सभी में दोष निकालने वाले राजकुल के लोगों के द्वारा दिखाये जाने पर भी जब राजा को गुरुनानक में कोई दोष दिखाई नहीं दिया तो इससे यह बात स्वत: प्रमाणित हो जाती है कि गुरु नानक का चरित्र निष्कलंक और अत्यधिक पवित्र था।

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Class 10 Sanskrit Chapter 1 UP Board Solutions महात्मनः संस्मरणानि Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 1 Mahatmana Sansmarnani Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 1 हिंदी अनुवाद महात्मनः संस्मरणानि के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

भारत की पावन-भूमि पर समय-समय पर ऐसे महापुरुष जन्म लेते रहे हैं, जिन्होंने अपने संघर्षशील जीवन से न केवल भारत का कल्याण किया, वरन् सम्पूर्ण विश्व को एक नवीन दिशा प्रदान की। परतन्त्रता की स्थिति में भारत को स्वतन्त्र कराने हेतु इस पावन-भूमि पर (UPBoardSolutions.com) जन्म लेने वाले–लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गाँधी, पं० जवाहरलाल नेहरू आदि-स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों एवं बलिदानी वीरों की श्रृंखला बहुत लम्बी है। देश की स्वतन्त्रता के संघर्ष में महात्मा गाँधी का नाम अत्यधिक आदर के साथ लिया जाता है। भारत को स्वतन्त्र कराने का श्रेय इन्हीं गाँधी जी को है। इन्होंने सत्य और अहिंसा के बल पर अंग्रेज शासकों को भारत छोड़ने पर विवश किया।

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प्रस्तुत पाठ के संस्मरण मुख्यतया ‘बापू’ नामक पुस्तक पर आधारित हैं। इसमें महात्मा गाँधी के जीवन सम्बन्धी कुछ संस्मरण दिये गये हैं, जिनमें महात्मा गाँधी की सत्यनिष्ठा, अपूर्व दृढ़ता, अतुलित साहस तथा लक्ष्य-पॅप्ति के लिए प्रत्येक अपमान को सहने की क्षमता आदि विशिष्ट गुणों की झाँकी मिलती है।

पाठ-सारांश

जन्म मोहनदास करमचन्द गाँधी का जन्म पोरबन्दर नामक नगर में हुआ था। इनके पिता का नाम करमचन्द गाँधी तथा माता का नाम पुतलीबाई था। मोहनदास पर अपने माता-पिता के सत्यनिष्ठा, निर्भयता आदि गुणों का प्रभाव पड़ा। प्रारम्भ से ही वे एक अध्ययनशील बालक थे।

सत्यवादिता एक बार गाँधी जी ने ‘हरिश्चन्द्र’ नामक नाटक देखा। इस नाटक से उन्होंने हरिश्चन्द्र (UPBoardSolutions.com) के समान ही सत्यवादी और सच्चरित्र बनने की प्रेरणा प्राप्त की। एक बार विद्यालय में छात्रों के भाषा-ज्ञान की परीक्षा लेने के लिए ‘गाइल्स’ नाम का इंस्पेक्टर आया। गाँधी जी पाँच शब्दों में से एक केटल’ शब्द शुद्ध

नहीं लिख सके। अध्यापकों के कहने पर भी इन्होंने नकल नहीं की। इससे वे शिक्षकों के कोपभाजन और छात्रों में उपहास के पात्र बने, फिर भी ये धोखा देकर सत्य को नहीं छिपाना चाहते थे। बाद में अपनी सत्यनिष्ठा से ये अपने शिक्षकों और सहपाठियों के प्रिय हो गये। सत्य बोलने वालों के लिए मौन शक्तिशाली अस्त्र होता है। मौन’ ने इन्हें अनेक बार झूठ बोलने से बचाया।

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अपमान सहने की क्षमता सन् 1893 ईस्वी में गाँधी जी बम्बई नगर से दक्षिण अफ्रीका के नेटाल नगर में गये। वहाँ इन्होंने भारतीयों की उपेक्षा और तिरस्कार को देखा। शिक्षित भारतीय भी यूरोपीय लोगों से मिल नहीं सकते थे। वहाँ भारतीयों को ‘कुली’ कहा जाता था और गाँधी जी कुलियों के वकील’ नाम से जाने जाते थे।

स्वाभिमानी एक बार गाँधी जी रेल से प्रिटोरिया नगर जाने के लिए प्रथम श्रेणी का टिकट लेकर प्रथम श्रेणी के डिब्बे में यात्रा कर रहे थे। उसी समय उस डिब्बे में कोई यूरोपीय यात्री आया। उसने श्याम वर्ण के गाँधी जी को देखकर पहले तो स्वयं ही उनसे बाहर जाने के लिए कहा। जब गाँधी जी ने ऐसा करने से मना कर दिया तो उसने रेल के अधिकारियों से कहकर उन्हें डिब्बे से बाहर निकलवा दिया। गाँधी जी ने ठण्ड में ठिठुरते हुए पूरी रात प्रतीक्षालय में व्यतीत की। उन्हें दक्षिण अफ्रीका में इसी प्रकार के अनेक कटु अनुभव हुए। उन्होंने वहाँ के भारतीयों को एक सूत्र में बाँधने के लिए उन्हें एकजुट किया। उन्होंने विद्वेष के स्थान पर प्रेम-व्यवहार, हिंसा के स्थान पर आत्म-बलिदान, शारीरिक बल के स्थान पर आत्मबल के व्यवहार का उपदेश दिया। गाँधी जी ने जीवन के प्रायः सभी सूत्रों की परीक्षा दक्षिण अफ्रीका में कर ली थी।

उग्रवाद का विरोध गाँधी जी के समय में पंजाब में उग्रवादियों की जटिल समस्या थी। लोगों के साथ अपमानजनक व्यवहार होता था और उन्हें कोड़ों से पीटा जाता था। गाँधी जी ने उनका डटकर विरोध किया।

विदेशी वस्त्रों की होली विदेशी वस्त्र किस प्रकार भारतीय वस्त्र उद्योग का विनाश कर (UPBoardSolutions.com) रहे हैं, इसे दिखाने के लिए गाँधी जी ने बम्बई में स्वदेशी आन्दोलनरूपी अग्नि को प्रज्वलित किया। इसके अन्तर्गत गाँधी जी ने एक बार बम्बई में विदेशी वस्त्रों की होली जलायी। हजारों लोग उसे देखने आये। उन्होंने लोगों को अच्छी तरह समझाया कि विदेशी वस्त्र पहनना पाप है। विदेशी वस्त्रों को जलाकर हमने अपना पाप जला दिया है। गाँधी जी के प्रेरणादायक नेतृत्व में कांग्रेस संस्था ने स्वतन्त्रता का समर्थन किया तथा भारत के इतिहास की धारा को ही मोड़ दिया।

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सन् 1914 ई० में गाँधी जी जब दक्षिण अफ्रीका से विदा हुए, तो हजारों भारतीय युवकों ने विदाई में उनका अपूर्व अभिनन्दन किया। ऐसी विदाई इस देश में पहले कभी नहीं हुई थी।

भारत आकर अनेक महीनों तक गाँधी जी ने भारत का भ्रमण किया। इस भ्रमण में पुरोहित, व्यापारी, भिक्षुक आदि सभी प्रकार के लोग सम्मिलित हुए। गाँधी जी गरीबों की कठिनाइयों और कष्टों का अनुभव करने के लिए सदैव तृतीय श्रेणी में यात्रा किया करते थे।

स्वर्गारोहण मातृभूमि की स्वतन्त्रता का प्रेमी यह महात्मा 30 जनवरी, सन् 1948 ई० की सायंकालीन बेला में ‘हे राम’ का उच्चारण करता हुआ स्वर्ग सिधार गया।

चरित्र-चित्रण

गाँधी जी [2006,09, 10, 11, 12, 14]

परिचय ” महात्मा गाँधी का पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गाँधी था। इनका जन्म गुजरात के पोरबन्दर नामक स्थान पर 2 अक्टूबर, सन् 1869 ई० को हुआ था। इनके पिता का नाम करमचन्द तथा माता का नाम पुतलीबाई था। इनकी माता एक धर्मपरायणा स्त्री थीं, (UPBoardSolutions.com)जिनका पर्याप्त प्रभाव गाँधी जी के चरित्र पर पड़ा। गाँधी जी के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं

1. सत्यवादी : गाँधी जी ने बचपन में ‘हरिश्चन्द्र’ नाटक देखा था। इस नाटक का इनके कोमल मन पर बड़ा प्रभाव पड़ा, जिसके फलस्वरूप इन्होंने आजीवन सत्य बोलने का दृढ़-संकल्प कर लिया और आजीवन पालन भी किया। विषम परिस्थितियों में भी इन्होंने सत्य का अवलम्ब नहीं छोड़ा।

2. नैतिकतावादी : गाँधी जी पर्याप्त नैतिकतावादी थे। अनैतिक कार्यों में इनकी रुचि कदापि नहीं होती थी। उनके गुण का पता इसी बात से चलता है कि जब विद्यालय में आये इंस्पेक्टर ने कक्षा के बच्चों से ‘केटल’ शब्द लिखने के लिए कहा, तब इन्होंने ‘केटल’ शब्द को अपनी कॉपी पर गलत ही लिखा। अध्यापक के कहने पर भी इन्होंने इस शब्द को नकल करके सही नहीं किया।

3. उपेक्षितों के नेता : महात्मा गाँधी सदैव ही उपेक्षितों के हितों के पक्षधर रहे। अपने इसी आचरण के कारण इन्हें अनेक बार गोरे लोगों द्वारा अपमानित होना पड़ा। दक्षिण अफ्रीका में ये ‘कुलियों के वकील’ कहलाते थे।

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4. प्रेम और एकता के अग्रदूत : प्रेम और अहिंसा गाँधी जी के अनुपम अस्त्र थे। इन्होंने इनके द्वारा विखण्डित भारतीयों को एकता के सूत्र में पिरो दिया। यही कारण था कि इनके पीछे भारत के ही करोड़ों नागरिक नहीं, अपितु विश्व के अन्य देशों के भी करोड़ों नागरिक खड़े रहते थे; अर्थात् इनका समर्थन करते थे।

5.उग्रवाद के कट्टर विरोधी : उग्रवाद सदैव ही लोगों के मन में घृणा उत्पन्न करता है। इससे लोगों के घर-के-घर नष्ट हो जाते हैं। गाँधी जी ने जब स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिए कभी उग्रवाद का समर्थन नहीं किया, फिर सामान्य जीवन में वे इसको कैसे स्वीकार कर सकते थे। उनके (UPBoardSolutions.com) समय में भी पंजाब में उग्रवादियों की समस्या थी। लोगों के साथ बड़ी क्रूरता का व्यवहार किया जाता था तथा उन्हें कोड़ों से बुरी तरह पीटा जाता था। गाँधी जी ने इसका डटकर विरोध किया।

6. स्वदेशी के पक्षधर : स्वदेशी वस्तुओं को अपनाकर ही हम अपने देश का विकास कर सकते हैं। अपनी इसी विचारधारा के कारण गाँधी जी ने बम्बई में विदेशी वस्त्रों की होली जलायी, जिसमें हजारों लोगों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। उन्होंने भारतीयों को बताया कि विदेशी वस्त्र पहनना पाप है और विदेशी वस्त्रों को जलाकर हमने अपने पाप को जला दिया है।

7. भेदभाव के विरोधी : गाँधी जी व्यक्ति-व्यक्ति में कोई भेदभाव नहीं मानते थे, भले ही वह किसी भी जाति, रंग अथवा लिंग का क्यों न हो। इन्होंने अनेक कष्ट उठाकर इस भेदभाव का कड़ा विरोध किया। दक्षिण अफ्रीका में इन्होंने रंगभेद के विरुद्ध आन्दोलन चलाया और वहाँ से विजयी होकर लौटे।

8. राम के परम भक्त : गाँधी जी राम के परम भक्त थे। सन् 1948 की 30 जनवरी को इन्होंने “हे राम’ कहकर ही अपने प्राण त्यागे थे।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि गाँधी जी सत्यवादी, नैतिकतावादी, रंगभेद विरोधी इत्यादि अनेक चारित्रिक गुणों से युक्त, भारतमाता के सच्चे सपूत तथा मानवता के पुजारी थे। उनके स्थान की पूर्ति सर्वथा असम्भव है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
महात्मनः किं नाम आसीत् ? [2011]
उत्तर :
महात्मनः नाम मोहनदासः आसीत्।

प्रश्न 2.
सः कुत्र जन्म लेभे ?
या
महात्मा कुत्र जन्म लेभे ? [2006,09,14]
या
गान्धीमहाशयस्य जन्म कुत्र बभूव (अभवत्)?
उत्तर :
पोरबन्दरनाम्नि नगरे गाँधीमहाशयस्य जन्म बभूव (अभवत्)।

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प्रश्न 3.
तस्य (महात्मनः गान्धिनः ) मातुः नाम किम् आसीत् ? [2007, 10, 12, 14]
या
महात्मागान्धिनः मातुर्नाम किम् आसीत्? [2013]
या
मोहनदासः मातुर्नाम किम् आसीत्? [2012]
उत्तर :
तस्य (महात्मनः गान्धिनः) मातुः नाम ‘पुतलीबाई’ आसीत्।

प्रश्न 4.
पुतलीबाई स्वभावेन कीदृशी आसीत् ? [2014]
उत्तर :
पुतलीबाई स्वभावेन मधुरा, धर्मरता, परम पवित्रा च आसीत्।

प्रश्न 5.
केन नाटकेन तस्य(महात्मनः गान्धिनः ) हृदयं परिवर्तितम् जातम् ? [2006, 10]
या
केन नाटकेन महात्मनः गान्धिनः हृदयं परिवर्तितं अभवत् ? [2015]
उत्तर :
हरिश्चन्द्र नाम्ना नाटकेन तस्य (महात्मन: गान्धिन:) (UPBoardSolutions.com) हृदयं परिवर्तितम् जातम्।

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प्रश्न 6.
विद्यालयनिरीक्षकः कः आसीत् ? [2007,08,09, 10, 11,14]
या
विद्यालयनिरीक्षकस्य किम् नाम आसीत् ? [2015]
उत्तर :
विद्यालयनिरीक्षकः ‘गाइल्स’ नामा आसीत्।

प्रश्न 7.
विद्यालयनिरीक्षकेन किं अकथयत् ?
उत्तर :
विद्यालयनिरीक्षकेन पञ्चशब्दानां वर्णविन्यासं शुद्धं लिखितुम् अकथयत्।

प्रश्न 8.
महात्मागान्धी नेटालनगरे कदा आगच्छत् ?
उत्तर :
महात्मागान्धी नेटालनगरे 1893 तमे ख्रिष्टाब्दे अप्रैल मासे आगच्छत्।

प्रश्न 9.
गान्धिमहोदयः दक्षिण अफ्रीका देशं कदा व्यसृजत्?
उतर :
गान्धिमहोदय: दक्षिण अफ्रीका देशं 1914 तमे ख्रिष्टाब्दे व्यसृजत्।

प्रश्न 10.
गान्धिमहोदयः केन यानेन कुत्र गतः?
या
धूमयानेन गान्धी कुत्र गतः?
उत्तर :
गान्धिमहोदयः धूमयानेन प्रिटोरियानगरं (UPBoardSolutions.com) प्रति गतः।

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प्रश्न 11.
गान्धिमहोदयः विद्वेषस्य स्थाने कम् उपादिशत्?
उत्तर :
गान्धिमहोदयः विद्वेषस्य स्थाने प्रेमाचारम् उपादिशत्।

प्रश्न 12.
गान्धि महोदयः कतमे ख्रिष्टाब्दे स्वर्गं गतः?
उत्तर :
गान्धि महोदयः 1948 तमे ख्रिष्टाब्दे जनवरी मासस्य त्रिंशे दिनाङ्के सन्ध्यायां समये स्वर्गं गतः।

प्रश्न 13.
महात्मा गान्धी किं वाक्यम् उच्चारयन् स्वर्गं जगाम? [2007]
उत्तर :
महात्मा गान्धी “हे राम’ वाक्यम् उच्चारयन् स्वर्गं जगाम।

प्रश्न 14.
महात्मनः पितुः किं नाम आसीत्? [2012, 13]
या
महात्मागान्धिनः पिता कः आसीत्? [2015]
या
महात्मनः पितुर्नाम किम् आसीत्? उत्तर महात्मनः पितुः नाम ‘करमचन्द गाँधी’ आसीत्।

प्रश्न 15.
महात्मनः पूर्ण नाम किम् आसीत् [2011, 15]
उत्तर :
महात्मनः पूर्ण नाम मोहनदासः कर्मचन्द: गाँधी आसीत्।

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प्रश्न 16.
गाइल्सः कः आसीत्? [2011,12]
उत्तर :
गाइल्सः विद्यालयनिरीक्षकः (UPBoardSolutions.com) आसीत्।

प्रश्न 17.
महात्मनः गान्धिनः पिता कीदृशः आसीत्? [2008]
उत्तर :
महात्मन: गान्धिनः पिता सद्गुणी आसीत्।

बहुविकल्पीय प्रश्न

अधोलिखित प्रश्नों में प्रत्येक प्रश्न के उत्तर-रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए –
[संकेत – काले अक्षरों में छपे शब्द शुद्ध विकल्प हैं।]

1. ‘महात्मनः संस्मरणानि’ शीर्षक पाठ का नायक कौन है?

(क) जनक
(ख) महात्मा गाँधी
(ग) जीमूतवाहने
(घ) परशुराम

2. ‘महात्मनः संस्मरणानि’ पाठ की कथा का स्रोत क्या है?

(क) ‘राष्ट्रपिता’ नामक पुस्तक
(ख) ‘महात्मा गाँधी’ नामक पुस्तक
(ग) ‘बापू’ नामक पुस्तक
(घ) इनमें से कोई नहीं

3. विद्यालय-निरीक्षक गाइल्स क्यों आया था ?

(क) अध्यापकों की उपस्थिति देखने
(ख) छात्रों की उपस्थिति देखने
(ग) छात्रों का वर्णविन्यास जानने
(घ) छात्रों को पुरस्कार बाँटने

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4. गाँधी जी हमेशा क्या बोलते थे ?

(क) राम नाम
(ख) सत्य
(ग) मधुर वचन
(घ) जयहिन्द

5. महात्मा गाँधी को अपने शिक्षकों का कोपभाजन क्यों बनना पड़ा?

(क) विद्यालय निरीक्षक से झूठ बोलने के कारण
(ख) वर्णविन्यास की नकल करने के कारण
(ग) वर्णविन्यास की नकल न करके उसे गलत लिखने के कारण
(घ) शब्दों का अनुचित वर्णविन्यास लिखने के कारण

6. अप्रैल, 1893 ई० में गाँधी जी कहाँ पहुँचे थे ?

(क) प्रिटोरिया
(ख) पोरबन्दर
(ग) नेटालनगर
(घ) बम्बई (अब मुम्बई)

7. गाँधी जी प्रिटोरिया नगर जाते समय कौन-सा टिकट लेकर रेल में बैठे थे ?

(क) सामान्य श्रेणी का
(ख) प्रथम श्रेणी का
(ग) द्वितीय श्रेणी का
(घ) तृतीय श्रेणी को

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8. दक्षिण अफ्रीका से महात्मा गाँधी किस सन् में स्वदेश लौटे ?

(क) 1948 ई० में
(ख) 1893 ई० में
(ग) 1914 ई० में
(घ) 1869 ई० में

9. दक्षिण अफ्रीका से लौटकर महात्मा गाँधी कई महीनों तक क्या करते रहे ?

(क) भारत-भ्रमण
(ख) असहयोग आन्दोलन
(ग) स्वदेशी आन्दोलन
(घ) अहिंसा का प्रचार

10. “पञ्चनदप्रान्ते उग्रवादिनां समस्यासीत्।” वाक्य में ‘पञ्चनद’ प्रान्त किसे कहा गया है?

(क) उत्तर प्रदेश को
(ख) बिहार को
(ग) बंगाल को
(घ) पंजाब को।

11. “अद्यतन इवे गान्धिकालेऽपि …………………………. “प्रान्ते उग्रवादिनां समस्यासीत्।” में वाक्य-पूर्ति होगी

(क) ‘महाराष्ट्र’ से
(ख)‘पञ्चनद’ से।
(ग) “कश्मीर’ से।
(घ) असम से

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12. ………………………. “संस्था प्रत्येकजातेः पुरुषवर्गं नारीनिचयं चाकृष्टवती।” में रिक्त स्थान में आएगा –

(क) राष्ट्रीय क्रान्ति
(ख) राष्ट्रीय महासभा
(ग) कांग्रेस
(घ) स्वराज्य

13. मोहनदासः कस्य शब्दस्य वर्णविन्यासं कर्तुं नाशक्नोत् ?

(क) टैकल’ शब्दस्य
(ख) टेबल’ शब्दस्य।
(ग) “गाइल्स’ शब्दस्य।
(घ) ‘केटल’ शब्दस्य

14. “नाटकेनानेन अयं हरिश्चन्द्रः इव सत्यसन्धः “च भवितुमांचकाङ्क्ष।” में रिक्त स्थान में आएगा –

(क) दानवीरः
(ख) सच्चरित्रः
(ग) अहिंसकः
(घ) वीरः

15. महात्मा गान्धी ……………………….. नगरे जन्म लेभे। [2010, 15]

(क) पुणे
(ख) वर्धा
(ग) बम्बई (अब मुम्बई)
(घ) पोरबन्दर

16. मोहनदासः ……………………… सत्यप्रियः निर्भयोजातः। [2006]

(क) मातेव
(ख) भ्रातेव।
(ग) पितेव
(घ) गुरुजनेव

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17. पुतली गान्धिन …………………… आसीत्। [2007]

(क) पत्नी
(ख) माता
(ग) पुत्री
(घ) शिष्या

18. महात्मनः पितुर्नाम ………………… आसीत्। [2006,12,13]

(क) करमचन्दः
(ख) धरमचन्द्रः
(ग) कृष्णचन्दः
(घ) रामचन्द्रः

19. विद्यालयनिरीक्षकः …………………….. आसीत्। [2010,11]

(क) स्टालिनः
(ख) गाइल्सः
(ग) पीटर:
(घ) गजेन्द्रः

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Class 10 Sanskrit Chapter 3 UP Board Solutions धैर्यधनाः हि साधवः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 3 Dhairya Dhana hi Sadhava Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 3 हिंदी अनुवाद धैर्यधनाः हि साधवः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

प्रस्तुत पाठ एक जातक-कथा है। जातक-कथाओं का सम्बन्ध सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध) के पूर्वजन्म से है। बौद्ध विद्वानों का मानना है कि सिद्धार्थ को एक ही जन्म में बोधि प्राप्त नहीं हुई थी अनेक पूर्व जन्मों में दया, करुणा, परोपकार आदि का अभ्यास करके उन्होंने बोधि प्राप्त की। पिछले जन्मों में उनकी संज्ञा बोधिसत्त्व रूप में उल्लिखित है। जातक-कथाओं की रचना पालि-भाषा में हुई है, जिनका बाद में संस्कृत में अनुवाद किया गया। इनकी संख्या 500 (UPBoardSolutions.com) के लगभग है और ये चीनी भाषा में भी अनूदित हो चुकी हैं। प्रस्तुत कथा “जातकमाला’ से ली गयी है, जिसका संकलन आर्यशूर नामक विद्वान् द्वारा किया गया है। प्रस्तुत कथा के अन्तर्गत बोधित्त्व एक नाविक के रूप में जन्म लेते हैं, जिनकी विशेषताएँ धर्म-पालन और विपत्तियों में धैर्य धारण करना है।

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पाठ-सारांश

बोधिसत्त्व का जन्म – किसी समय बोधिसत्त्व (महात्मा बुद्ध का पूर्व जन्म) ने नाविक के रूप में जन्म लिया। वे इतने प्रतिभासम्पन्न थे कि जिन-जिन विषयों को जानना चाहते थे, उन्हें सहज ही जान लेते थे। वे तीक्ष्ण बुद्धि वाले, अनेक कलाओं के ज्ञाता, दिशा सम्बन्धी ज्ञान वाले, समुद्र-ज्ञाता और भावी संकटों के ज्ञाता थे। उनका नाम सुपारग और उनके नगर का नाम ‘सुपारगम्’ था। वृद्ध होते हुए भी व्यापारी उनका बहुत सम्मान करते थे तथा उन्हें अपने साथ लेकर समुद्री यात्रा करना शुभ मानते थे। उन्होंने अपने नाविक जीवन में समुद्री यात्राएँ करते-करते मछलियों और नाना रत्नों से परिपूर्ण अगाध जल वाले सागरों का अवगाहन कर उनके रहस्य को जान लिया था।

सुपारग का समुद्रयात्रा पर जाना – किसी समय भरुकच्छ से आये हुए कुछ व्यापारियों ने सुपारग से नाव पर बैठकर साथ चलने की प्रार्थना की। अत्यधिक वृद्ध होते हुए भी महात्मा सुपारग ने उनके साथ चलना स्वीकार कर लिया। व्यापारी प्रसन्न होकर अनेक समुद्रों को पार करते हुए उनके साथ यात्रा करते रहे।

मार्ग में बइवामुख समुद्र का आना – मार्ग में भयंकर तूफान आने के कारण वे कई दिन तक समुद्र में इधर-उधर भटकते रहे। उन्हें कहीं भी किनारा नहीं मिला। व्यापारी बहुत घबरा गये। सुपारग ने उन्हें समझाया कि घबराने से काम नहीं चलेगा। धीरज से काम लें। यह ‘खुरमाली’ नाम का समुद्र है। वायु के तीव्र झोंकों के कारण आप लोग इसे पार नहीं कर पा रहे हैं। येन-केन-प्रकारेण उसे समुद्र को पार करके वे ‘क्षीरसागर’ में पहुँचे और उसके बाद ‘अग्निमाली’ समुद्र में पहुँचे। इस प्रकार उन्होंने अनेक कष्टों को सहन करते हुए ‘कुशमाली’ और ‘नलमाली’ नामक भयंकर समुद्रों को पार किया। सुपारग बार-बार व्यापारियों को वापस चलने के लिए कहते रहे, लेकिन पर्याप्त प्रयास करने पर भी वे वापस न लौट सके और अत्यन्त भयानक, हृदयविदारक गर्जना करते हुए अन्ततः ‘बड़वामुख’ नामक समुद्र में (UPBoardSolutions.com) जा पहुँचे। सुपारग ने उस समुद्र का परिचय दिया कि यह वह समुद्र है जिसमें पहुँचकर कोई भी मृत्यु के मुख से नहीं बच पाया है। व्यापारियों ने जीवन से निराश होकर सुपारग से कोई उपाय बताने के लिए कहा, जिससे वे सुरक्षित लौट सकें।

सुपारग द्वारा प्रार्थना करना – जीवन का अन्त निकट जानकर सभी व्यापारी करुणा से रोने लगे। तब सुपारंग ने नाव पर बैठे हुए ही घुटने टेककर तथागतों को प्रणाम करके कहा-मेरे पुण्य और अहिंसा के बल से यह नाव कल्याण सहित लौट जाये।

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सुपारग द्वारा रत्नसहित व्यापारियों की कुशल वापसी – इसके बाद महात्मा सुपारग के पुण्य-बल से वह नाव अनुकूल वायु पाकर लौट पड़ी। नाव को लौटती देखकर सभी व्यापारियों को अत्यन्त प्रसन्नता और आश्चर्य हुआ। लौटते समय सुपारग ने व्यापारियों से कहा कि आप लोग नलमाली समुद्र से बालुका (रेत) और पत्थर नाव में भर लें। ये रेत और पत्थर निश्चय ही आपके लाभ के लिए होंगे। उन व्यापारियों ने सुपारग की बात मानते हुए समुद्री रेत और पत्थर को जहाज में भर लिया। इसके पश्चात् एक ही रात में वह नाव भरुकच्छ पहुँच गयी। प्रात: समय व्यापारियों ने नाव को चाँदी, इन्द्रनील, वैदूर्य, सुवर्ण आदि । (UPBoardSolutions.com) से भरी देखकर हर्षित होकर सुपारग की पूजा की। वास्तव में सत्य बोलना और धर्म का आश्रय लेना कभी दुःखदायी नहीं होता-‘तदेवं धर्माश्रयं सत्यवचनमपि आपदं नुदति।’

चरित्र-चित्रण

सुपारग (बोधिसत्त्व) [2006,07,08, 09, 10, 11, 12, 13, 15]

परिचय प्राचीनकाल में बोधिसत्त्व ने एक नाव के सह-संचालक के रूप में जन्म ग्रहण किया। वे अत्यन्त तीक्ष्ण बुद्धि, कलाओं में निपुण, संकटों में धैर्य रखने वाले, दिशाओं के ज्ञाता और समुद्रविषयक रहस्यों के सूक्ष्म जानकार थे। समुद्रविषयक ज्ञान के कारण उनका नाम ‘सुपारग’ पड़ा। उनकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

1.समुद्रयात्रा के ज्ञाता – सुपारग को समुद्रविषयक रहस्यों की सूक्ष्म जानकारी थी। वे कुशल नाविक थे और उन्होंने सुदूर देशों तक समुद्र की यात्रा की थी। उन्हें समुद्रयात्रा का गहन अनुभव, जानकारी तथा इस सम्बन्ध में दूर-दूर तक प्रसिद्धि भी थी। यही कारण था कि अशक्त और वृद्ध होते हुए भी वे व्यापारियों के द्वारा यात्रा पर ले जाये जाते थे और प्रत्येक विपत्ति में उनका साथ देते थे।

2. उदार हृदय – सुपारग उदार हृदय वाले व्यक्ति थे। वह प्रार्थना करने वालों की प्रार्थना अवश्य स्वीकार कर लेते थे। इसीलिए अशक्त और वृद्ध होते हुए भी वे भरुकच्छ से आये हुए व्यापारियों की प्रार्थना स्वीकार करके उनके साथ प्रस्थान करते हैं। इससे सुपारग की उदारता प्रकट होती है।

3. साहसी – सुपारग अत्यन्त साहसी व्यक्ति थे। वे भयंकर-से-भयंकर समुद्र की यात्रा करने में भी साहस को नहीं छोड़ते थे। व्यापारी जब अपने जीवन से पूर्णत: निराश हो चुके थे, तब भी वे साहस का परिचय देते हुए भगवान् से सबको सकुशल लौटाने की प्रार्थना करते हैं तथा अपने पुण्यबल व अहिंसाबल से जहाज को भरुकच्छ लौटा लाते हैं।

4. दयावान् – सुपारग उच्चकोटि के दयावान् हैं। वृद्ध होने पर भी वे व्यापारियों की प्रार्थना पर उनके साथ समुद्री यात्रा करना स्वीकार कर लेते हैं तथा उनको जीवन से निराश देखकर जहाज को सकुशल लौटाने की भगवान् से प्रार्थना करते हैं। यह उनकी दयालुता का परिचायक है।

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5. अहिंसावादी – सुपारगं अंहिंसा सिद्धान्त को मानने वाले थे। वे प्राणिमात्र की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझते थे और उसके लिए प्रयत्नशील रहते थे। वे अपने अहिंसा-बल से ईश्वर से प्रार्थना करकें नाव को वापस ले आते हैं और व्यापारियों के प्राणों की रक्षा करते हैं। इस कथा में उनका यह रूप स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।

6. हितैषी और मित्र – ‘सुपारग व्यापारी वर्ग के सच्चे हितैषी और मित्र हैं। नलमाली समुद्र को पार करते समय उसके गुणों से परिचित होने के कारण वे उसकी मिट्टी, बालू एवं पत्थरों को व्यापारियों से नाव में भर लेने के लिए कहते हैं, क्योंकि वे यह जानते थे कि ये रेत और पत्थर अन्त में सुवर्ण और रत्न बन जाएँगे। उनका यह कार्य उनके व्यापारी वर्ग के हितैषी और मित्र होने का परिचायक है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सुपारग समुद्री यात्रा के ज्ञाता, उदार हृदय, साहसी, दयावान्, (UPBoardSolutions.com) अहिंसावादी आदि गुणों से युक्त तो थे ही, उनमें परोपकारपरायणता, जनहित-चिन्तन, कोमल-हृदयता, तपस्विता आदि अन्य बहुत-से गुण भी विद्यमान थे। निश्चय ही सुपारग का चरित्र एक आदर्श पुरुष का चरित्र है।

लघु उत्तटीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कोऽयं सुपारगः ? कस्मात् तस्यायं नाम ? [2009, 15]
उत्तर :
सुपारगः बोधिसत्त्वः एव आसीत्। सः समुद्रपारं गत्वा वणिजाम् ईप्सितं देशं प्रापयिता नाविकः आसीत्, अतः जनाः तं सुपारगनाम्ना कथयन्ति स्म।

प्रश्न 2.
सुपारगः वणिग्साहाय्ये कथमसमर्थो जातः ?
उत्तर :
सुपारगः जराशिथिलशरीरत्वात् वणिग्साहाय्ये असमर्थः जातः

प्रश्न 3.
वणिजः कीदृशं समुद्रम् अवजगाहिरे ? [2006]
उत्तर :
वणिज: विविधमीनकुलविचरितं, बहुविधरत्नैर्युतम् अप्रमेयतोयं, महासमुद्रम् अवजगाहिरे।

प्रश्न 4.
वणिज: कान्कान् समुद्रान् ददृशुः ?
उत्तर :
वणिजः खुरमालिनं, क्षीरार्णवम्, अग्निमालिनं, (UPBoardSolutions.com) कुशमालिनं, नलमालिनं, बडवामुखं च समुद्रान् ददृशुः।

प्रश्न 5.
सायाह्नसमये वणिजः कीदृशीं समुद्रध्वनिम् अश्रौषुः ?
उत्तर :
सायाह्नसमये वणिजः श्रुतिहृदयविदारणं समुद्रध्वनिम् अश्रौषुः।

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प्रश्न 6.
महत्या करुणया उपेतः सुपारगः वणिग्जनान् किमुवाच?
या
सुपारगः वणिग्जनान् किम् उवाच ?
उत्तर :
‘महत्या करुणया उपेतः सुपारगः वणिग्जनान् उवाच-अस्यापि नः कश्चित् प्रतीकारविधिः प्रतिभाति तत्तावत् प्रयोक्ष्ये इति।

प्रश्न 7.
नलमालिसमुद्रेभ्यः प्राप्तबालुकाः पाषाणाश्च प्रभाते कीदृशाः जातः ?
उत्तर :
नलमालिसमुद्रेभ्य: प्राप्तबालुका: पाषाणाश्च प्रभाते रजते, इन्द्रनील, वैदूर्य, हेमरूपाः जाताः।

प्रश्न 8.
धर्माश्रयं सत्यवचनम् आपदं कथं नुदति ?
उत्तर :
धर्माश्रयं सत्यवचनम् आपदम् ईश्वरस्मरणमात्रेणैव नुदति।

प्रश्न 9.
सुपारगः कः आसीत्? [2009,11]
उत्तर :
सुपारगः बोधिसत्त्वः आसीत्।

प्रश्न 10.
कस्य नाम सुपारगः आसीत्?
उत्तर :
बोधिसत्त्वस्य नाम सुपारगः आसीत्?

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प्रश्न 11. 
जातकमालायाः रचयिता कः? [2009, 10, 12, 13, 14, 15]
उत्तर :
जातकमालायाः रचयिता ‘आर्यशूर:’।

बहुविकल्पीय प्रश्न

अधोलिखित प्रश्नों में प्रत्येक प्रश्न के उत्तर-रूप में चार विकल्प दिये (UPBoardSolutions.com) गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए
[संकेत – काले अक्षरों में छपे शब्द शुद्ध विकल्प हैं।]

1. ‘धैर्यधना: हि साधवः’ नामक पाठ किस ग्रन्थ से उधृत है ?

(क) नागानन्दम्’ से
(ख) ‘जातकमाला’ से
(ग) भोजप्रबन्ध’ से
(घ) ‘प्रबोधचन्द्रोदय’ से

2. “धैर्यधनाः हि साधवः’ नामक पाठ किस महान् व्यक्तित्व से सम्बन्धित है ?

(क) ईसा मसीह से
(ख) महावीर स्वामी से
(ग) गौतम बुद्ध से
(घ) भगवान् कृष्ण से

3. ‘जातकमाला’ नामक ग्रन्थ के रचयिता कौन हैं? [2008, 11, 15]

(क) आर्यशूर
(ख) महर्षि वाल्मीकि
(ग) हर्षवर्द्धन
(घ) महर्षि व्यास

4. ‘धैर्यधनाः हि साधवः” नामक पाठ में बोधिसत्त्व का क्या नाम है ?

(क) कुपारग
(ख) अपारग
(ग) सपारग
(घ) सुपारग

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5. सुपारग वणिजों की सहायता करने में क्यों असमर्थ हो गये थे ?

(क) मूढ़ाधिक्य के कारण रिण
(ख) गर्वाधिक्य के कारण
(ग) जराधिक्य के कारण
(घ) धनाधिक्य के कारण

6. व्यापारियों ने सबसे पहले कौन-सा समुद्र देखा?

(क) खुरमाली
(ख) क्षीरार्णव
(ग) कुशमाली
(घ) नलमाली

7. भयानक, दुःखदायी और हृदयविदारक गर्जना करने वाला समुद्र कौन-सा था ?

(क) नलमाली
(ख) बड़वामुख
(ग) अग्निमाली
(घ) कुशमाली

8. बड़वामुख समुद्र से नौका को लौटाने के लिए सुपारग ने क्या उपाय किया?

(क) मन्त्रों का प्रयोग किया।
(ख) ईश्वर से प्रार्थना की
(ग) नौका को वापस मोड़ लिया
(घ) नौका को स्वतन्त्र छोड़ दिया

9. सुपारगनाव को किसके बल से लौटाने में समर्थ हुआ ?

(क) बाहुबल से
(ख) अहिंसा बल से
(ग) सत्याधिष्ठान बल से
(घ) सत्याधिष्ठान और अहिंसा के बल से

10. जल-प्रवाह के विपरीत लौटी नौका किस समुद्र में पहुँच गयी ?

(क) अग्निमाली
(ख) नलमाली
(ग) कुशमाली
(घ) क्षीरार्णव

11. किस समुद्र के रेत और पत्थरों को सुपारग ने व्यापारियों से अपनी नौका में भरने को कहा था?

(क) अग्निमाली के
(ख) नलमाली के
(ग) खुरमाली के
(घ) कुशमाली के

12. व्यापारियों ने नौका में भरे रेत और पत्थरों के स्थान पर क्या वस्तु पायी ?

(क) विभिन्न रत्न
(ख) विभिन्न मोती
(ग) विभिन्न मछलियाँ
(घ) विभिन्न ओषधियाँ

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13. “बोधिसत्त्वभूतः किल महासत्त्वः परमनिपुणमतिः ………………… बभूव।” में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी –

(क) ‘पोतचालक:’ से
(ख) ‘नौसारथिः’ से
(ग) “सारथिः’ से
(घ) “सांयात्रिकः’ से

14. “यतो न भेतव्यमतः किं तु …………………… अयं समुद्रः तद्यतध्वं निवर्तितुम्।” में रिक्त-स्थान में आएगा –

(क) कुशमाली
(ख) खुरमाली
(ग) अग्निमाली
(घ) नलमाली

15. “अस्माकं काल इवायं नलमाली नाम सागरः।” वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति ?

(क) कुशमाली
(ख) सुपारग
(ग) श्रीमाली
(घ) वनमाली

16. …………………… समुपेतास्थ तदेतद् बडवामुखम्।” श्लोक की चरण-पूर्ति होगी –

(क) ‘शिवम्’ से
(ख) ‘सुन्दरम्’ से
(ग) “सत्यम्’ से
(घ)’अशिवम्’ से

17. “मम पुण्यबलेन अहिंसाबलेन चेयं नौः स्वस्तिविनिवर्त्तताम्।” वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति ?

(क) सुपारगः
(ख) कुशमाली
(ग) श्रीमाली
(घ) वणिकः

18. “तदेव ………………….. आश्रयं सत्यवचनमपि आपदं नुदतीति।” में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी –

(क) ‘सत्य’ से
(ख) “अहिंसा से
(ग)’धर्म’ से
(घ) “अधर्म’ से

19. सुपारगः ………………. आसीत्।

(क) व्यापारी
(ख) नाविकः
(ग) सैनिक:
(घ) कविः

20. पूर्वजन्मनि सुपारगः …………………… आसीत्। [2006, 10]

(क) ईन्द्रः
(ख) बोधिसत्वः
(ग) नृपः
(घ) अर्जुनः

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21. सुपारगः ……………………… ज्ञाता आसीत्। [2007]

(क) वेदानां शास्त्राणां
(ख) रत्नानाम् समुद्राणां
(ग) वनस्पतीनां फलानाम्
(घ) संगीतशास्त्राणाम्

22. सुपारगः ……………….. नाम बभूव। [2008, 10]

(क) वणिजः
(ख) पत्तनस्य
(ग) ग्रामस्य
(घ) नौसारथेः

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Class 10 Sanskrit Chapter 3 UP Board Solutions वृक्षाणां चेतनत्वम् Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 3 Vrikshanam Chetnatvam Question Answer (पद्य – पीयूषम्)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 3 हिंदी अनुवाद वृक्षाणां चेतनत्वम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

प्रस्तुत पाठ महाभारत से संकलित है। ‘महाभारत’ एक वृहद्काय ग्रन्थ है। इसे पंचम वेद भी माना जाता है। इसकी रचना महर्षि वेदव्यास ने की थी। इस पाठ में दर्शाया गया है कि वृक्ष भी अन्य प्राणियों
के समान सचेतन हैं और वे भी सुख-दुःख का अनुभव करते हैं। इस तथ्य को; (UPBoardSolutions.com) पौधों में भी हमारे समान जीवन है; हमारा विज्ञान भी आज प्रमाणित कर चुका है, जब कि हमारे ऋषि-मुनियों ने यह बात सहस्राधिक
वर्ष पहले ही प्रमाणित कर दी थी। प्रस्तुत पाठ में यह सन्देश भी दिया गया है कि मनुष्य को वृक्षों-पादपों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। वार्तालाप शैली में संकलित प्रस्तुत सामग्री में प्रश्नकर्ता महर्षि भारद्वाज हैं और समाधानकर्ता महर्षि भृगु।

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पाठ-सारांश

अपरिमित पदार्थों के लिए ‘महा’ शब्द का प्रयोग होता है; अतः अपरिमित प्राणियों के लिए ‘महाभूत’ शब्द उपयुक्त है। वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी ये पंचमहाभूत हैं और यह शरीर पाँचभौतिक। सभी स्थावर और जंगम इन पंच महाभूतों से युक्त हैं।

वृक्षों के शरीर में ये पाँच महाभूत दिखाई नहीं पड़ते; क्योंकि वे देखते और सुनते नहीं, स्पर्श का अनुभव, गन्ध और रस का सेवन नहीं करते हैं। ऐसी शंका निर्मूल है। वृक्ष यद्यपि ठोस होते हैं, फिर भी फूलों और फलों की उत्पत्ति होने के कारण इनमें आकाश तत्त्व की विद्यमानता है। गर्मी से उनके पत्ते, फल और फूल कुम्हला जाते हैं; अतः उनमें स्पर्श गुण होने के कारण वायु तत्त्व विद्यमान हैं। वायु, अग्नि और बिजली की कड़क से वृक्षों के फल और फूल बिखर जाते हैं; अतः ‘वृक्ष शब्द सुनते हैं, यह सिद्ध होता है। बेलें वृक्ष को लपेट लेती हैं और चारों ओर फैल जाती हैं; अतः इससे सिद्ध होता है कि ‘वृक्ष देखते भी हैं। अनेक प्रकार की गन्धों और धूपों से वृक्ष नीरोग रहते हैं और पुष्पित हो जाते हैं; अत: निश्चित ही उनमें गन्ध को ग्रहण करने की शक्ति विद्यमान है। अपनी जड़ों से जल पीने और रोगों को दूर करने की क्षमता होने से वृक्षों में (UPBoardSolutions.com) आस्वादन की सामर्थ्य है। सुख और दु:ख का अनुभव करने, काटे जाने पर पुनः अंकुरित होने के कारण वृक्षों में जीव होता है। भोजन पचाने के कारण वृक्षों की वृद्धि देखी जाती है। वृक्षों के सचेतन होने के कारण यज्ञादि विशेष कारणों के बिना उन्हें नहीं काटना चाहिए। पुष्पित और सुगन्धित एक वृक्ष से सम्पूर्ण वन महक उठता है।

पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
अमितानां महाशब्दो यान्ति भूतानि सम्भवम्।
ततस्तेषां महाभूतशब्दोऽयमुपपद्यते ॥ [2007]

शब्दार्थ अमितानां = असीमित पदार्थों के लिए। महाशब्दः =’महा’ शब्द का (प्रयोग होता है)। भूतानि = प्राणी। सम्भवं यान्ति = उत्पत्ति को प्राप्त करते हैं। ततः = उस कारण से। तेषाम् = उन (पंचमहाभूतों) के लिए। महाभूतशब्दः = असीमित के लिए वाचक शब्द। अयम् = यह, पंचमहाभूत शब्द उपपद्यते = उपयुक्त होता है।

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सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘वृक्षाणां चेतनत्वम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में महर्षि भृगु पंचभूतों की महत्ता का प्रतिपादन कर रहे हैं।

अन्वय अमितानी (कृते) महाशब्दः (प्रयुज्यते तेभ्यः) भूतानि सम्भवं यान्ति। ततः तेषां (कृते) अयं महाभूतशब्दः उपपद्यते।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि असीमित पदार्थों के लिए ‘महा’ शब्द का प्रयोग होता है। इन (असीमित पदार्थों) से भौतिक पदार्थ उत्पन्न होते हैं। इसीलिए इन (असीमित पदार्थों) के लिए ‘महाभूत’ शब्द का प्रयोग उपयुक्त ही है।

(2)
चेष्टा वायुः खमाकाशमूष्माग्निः सलिलं द्रवः।
पृथिवी चात्र सङ्कातः शरीरं पाञ्चभौतिकम्॥

शब्दार्थ चेष्टा = गतिशीलता। खम् = खोखलापन। आकाशम् = आकाश। ऊष्मा = गर्मी। अग्निः = अग्नि सलिलं = जला द्रवः = तरल पदार्थ पृथिवी = पृथ्वी। चात्र = और यहाँ। सङ्कतिः = ठोसपन। शरीरं पाञ्चभौतिकम् = शरीर पाँच महाभूतों से बना है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में शरीर की पाँच भौतिकताएँ बतायी गयी हैं और स्पष्ट किया गया है कि शरीर पाँच महाभूतों से निर्मित है।

अन्वय अत्रे चेष्टा वायुः (अस्ति), खम् आकाशम् (अस्ति), ऊष्मा अग्निः (अस्ति), द्रवः सलिलम् (अस्ति), सङ्गातः पृथ्वी च (अस्ति)। (एवं) शरीरं पाञ्चभौतिकम् (अस्ति)।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि इन वृक्षों के शरीर में चेष्टा अर्थात् गतिशीलता वायु का रूप है, खोखलापन आकाश का रूप है, गर्मी अग्नि का रूप है, तरल पदार्थ सलिल का रूप है, ठोसपन पृथ्वी का रूप है। इस प्रकार (इन वृक्षों का यह) शरीर पाँच महाभूतों (UPBoardSolutions.com) (वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी तत्त्वों) से बना है।

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(3)
इत्येतैः पञ्चभिर्भूतैर्युक्तं स्थावर-जङ्गमम्।
श्रोत्रं घ्राणं रसः स्पर्शो दृष्टिश्चेन्द्रियसंज्ञिता ॥

शब्दार्थ इति = इस प्रकार। एतैः पञ्चभिः भूतैः = इन पाँच महाभूतों से युक्तं = युक्त है। स्थावर-जङ्गमम् = जड़ और चेतन रूप संसार। श्रोत्रम् = कर्णेन्द्रिय, कान। घ्राणम् = नासिका, नाका रसः = रसना, जीभा स्पर्शः = त्वगिन्द्रिय, त्वचा। दृष्टिः = चक्षु, आँख। इन्द्रियसंज्ञिता = इन्द्रिय नाम वाली।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में पंचमहाभूतों से उत्पन्न पाँच ज्ञानेन्द्रियों का वर्णन किया गया है। अन्वय इति एतैः पञ्चभिः भूतैः स्थावर-जङ्गमं युक्तं (अस्ति)। श्रोत्रं, घ्राणं, रसः, स्पर्शः, दृष्टिः च इन्द्रिय संज्ञिता (अस्ति)।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि यह सारा संसार इन पाँच महाभूतों (वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी) से ही निर्मित है, चाहे वह वृक्षादि जड़-पदार्थ हों अथवा चेतन। कान, नासिका, रसना, स्पर्श और दृष्टि; ये पाँचों ‘इन्द्रिय’ नाम वाले; श्रवणेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय और दर्शनेन्द्रिय; हैं।

(4)
पञ्चभिर्यदि भूतैस्तु युक्ताः स्थावरजङ्गमाः
स्थावराणां न दृश्यन्ते शरीरे पञ्चधातवः ॥ [2007, 11]

शब्दार्थ पञ्चभिः = पाँच। भूतैः =महाभूतों से। तु = तो। युक्ताः = युक्त हैं। स्थावरजङ्गमाः = जड़ और चेतन पदार्थ। स्थावराणां = स्थिर प्राणियों के न दृश्यन्ते = दिखाई नहीं देते हैं। शरीरे = शरीर में। पञ्चधातवः = पञ्चमहाभूत तत्त्व।

प्रसंग महर्षि भरद्वाज स्थावर (जड़) पदार्थों में पंच महाभूतों की सत्ता में सन्देह प्रकट कर रहे हैं।

अन्वय यदि स्थावर-जङ्गमाः पञ्चभिः भूतैः युक्ताः (सन्ति), (तर्हि) तु स्थावराणां शरीरे पञ्चधातवः (कथं) न दृश्यन्ते।

व्याख्या महर्षि भरद्वाज कहते हैं कि यदि जड़ और चेतन पदार्थ पाँच महाभूतों से युक्त हैं तो स्थावर पदार्थों के शरीर में पाँचों महाभूत तत्त्व क्यों नहीं दिखाई पड़ते?

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(5)
अनूष्माणामचेष्टानां घनानां चैव तत्त्वतः।
वृक्षाणां नोपलभ्यन्ते शरीरे पञ्चधातवः ॥ [2009]

शब्दार्थ अनूष्माणाम् = ऊष्मारहित। अचेष्टानाम् = गतिशीलता से रहिता घनानाम् = ठोस रूप। तत्त्वतः = वास्तविक रूप में वृक्षाणां = वृक्षों में। न उपलभ्यन्ते = नहीं पाये जाते हैं।

प्रसंग महर्षि भरद्वाज वृक्षों के शरीर में पाँच महाभूतों की सत्ता में सन्देह कर रहे हैं।

अन्वय अनूष्माणाम् अचेष्टानां घनानां च वृक्षाणां शरीरे तत्त्वतः पञ्चधातवः न एव उपलभ्यन्ते।

व्याख्या महर्षि भरद्वाज कहते हैं कि ऊष्मारहित, चेष्टाहीन और ठोस रूप वृक्षों के शरीर (UPBoardSolutions.com) में वास्तविक रूप से पाँच भूत तत्त्व नहीं पाये जाते हैं। तात्पर्य यह है कि गर्मी न होने से वृक्षों में अग्नि-तत्त्व का अभाव है, चेष्टा न होने से उनमें वायु तत्त्व भी नहीं है और ठोस होने के कारण वे आकाश-तत्त्व से भी रहित हैं।

(6)
न शृण्वन्ति न पश्यन्ति न गन्धरससेविनः।
न च स्पर्श विजानन्ति ते कथं पाञ्चभौतिकाः ॥

शब्दार्थ गन्धरससेविनः = गन्ध और रस का सेवन करते हैं; अर्थात् न सँघते हैं न स्वाद लेते हैं। विजानन्ति = जानते हैं, अनुभव करते हैं। कथं = कैसे? पाञ्चभौतिकाः = पाँच महाभूतों से युक्त।

प्रसंग महर्षि भरद्वाज वृक्षों के पाँचभौतिक होने में शंका प्रकट कर रहे हैं।

अन्वय (वृक्षाः) न शृण्वन्ति, न पश्यन्ति, न गन्ध रससेविन: (सन्ति), न च स्पर्श विजानन्ति, ते पाञ्चभौतिकाः कथं (भवितुमर्हन्ति)?

व्याख्या महर्षि भरद्वाज कहते हैं कि ये वृक्ष न तो जंगमों की तरह सुनते हैं, न,देखते हैं, गन्ध और रस का सेवन भी नहीं करते हैं, फिर वे पाँच महाभूतों से बने कैसे हो सकते हैं?

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(7)
अद्रवत्वादनग्नित्वादभूमित्वादवायुतः ।।
आकाशस्याप्रमेयत्वाद् वृक्षाणां नास्ति भौतिकम् ॥

शब्दार्थ अद्रवत्वात् = द्रव रूप न होने के कारण। अनग्नित्वात् = अग्नि रूप न होने के कारण। अभूमित्वात् = भूमि का अंश न होने के कारण। अवायुतः = वायु रूप न होने के कारण। आकाशस्य अप्रमेयत्वात् = आकाश के ज्ञेयत्व न होने के कारण। भौतिकम् = पंचभूतों से सम्बन्धित।

प्रसंग वृक्षों में पाँच भूतों का अभाव होने के कारण वे कैसे पाञ्चभौतिक हो सकते हैं, इस प्रकार महर्षि भरद्वाज शंका प्रकट कर रहे हैं।

अन्वये वृक्षाणाम् अद्रवत्वात्, अनग्नित्वात्, अभूमित्वात्, अवायुत: आकाशस्य अप्रमेयत्वात् (च तेषां) भौतिकम् न अस्ति।

व्याख्या महर्षि भरद्वाज कहते हैं कि वृक्षों में द्रव (जल) तत्त्व न होने के कारण, अग्नि तत्त्व न होने के कारण, भूमि तत्त्व के न होने के कारण, वायु का अंश न होने के कारण और आकाश के ज्ञेयत्व न होने के कारण उसको रूप पंचभूतों से नहीं बना है; अर्थात् वृक्षों का पाँच महाभूतों से सम्बन्ध नहीं है।

(8)
घनानामपि वृक्षाणामाकाशोऽस्ति न संशयः
तेषां पुष्पफलव्यक्तिर्नित्यं समुपपाद्यते ॥

शब्दार्थ घनानाम् अपि = ठोस रूप होते हुए भी। वृक्षाणां = वृक्षों में। आकाशः अस्ति = आकाश तत्त्व है। न संशयः = सन्देह नहीं है। तेषां = उन (वृक्षों) के पुष्पफलव्यक्तिः = फूल और फलों की उत्पत्ति। नित्यं = निरन्तर। समुपपाद्यते = सम्भव होती है।

प्रसंग वृक्षों की भौतिकता के सन्देह का समाधान करते हुए महर्षि भृगु आकाश तत्त्व की विद्यमानता सिद्ध कर रहे हैं।

अन्वय घनानाम् अपि वृक्षाणाम् आकाशः अस्ति, (अत्र) संशयः न (अस्ति)। तेषां (UPBoardSolutions.com) पुष्प-फल-व्यक्तिः नित्यं समुपपाद्यते।

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व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि ठोस रूप होते हुए भी वृक्षों में आकाश तत्त्व अवश्य होता है, इसमें सन्देह नहीं है; क्योंकि उनमें फूल और फलों की उत्पत्ति नित्य सम्भव होती है। तात्पर्य यह है कि फलों और फूलों में आकाश तत्त्व होता है। बिना आकाश तत्त्व के उनका अस्तित्व ही नहीं है। अत: वृक्षों में आकाश-तत्त्व के अभाव में फल और फूले उत्पन्न हो ही नहीं सकते थे।

(9)
ऊष्मतो म्लायते पर्णं त्वक् फलं पुष्पमेव च।
म्लायते शीर्यते चापि स्पर्शस्तेनात्र विद्यते ॥

शब्दार्थ ऊष्मतः = गर्मी के कारण। म्लीयते = कुम्हला जाता है। पर्ण = पत्ता। त्वक् = छाला शीर्यते = बिखर जाता है। स्पर्शः = स्पर्श। तेन = इस (कारण) से। अत्र = यहाँ। विद्यते = है।

प्रसंग महर्षि भृगु यह बता रहे हैं कि वृक्षों में स्पर्श का अनुभव करने की शक्ति है।

अन्वय ऊष्मतः पर्णं म्लायते। त्वक् फलं पुष्पम् एव च म्लायते शीर्यते अपि च। तेन अत्र स्पर्शः विद्यते।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि गर्मी के कारण वृक्षों के पत्ते मुरझा जाते हैं। छाल, फल (UPBoardSolutions.com) और फूल भी कुम्हला जाते हैं और बिखर जाते हैं। इस कारण वृक्षों में स्पर्श होता है क्योंकि बिना स्पर्श का अनुभव किये मुरझाना एवं सूखना सम्भव नहीं है। स्पर्श को वायु तत्त्व का गुण माना जाता है, अतः वृक्षों में वायु तत्त्व की विद्यमानता भी सिद्ध होती है।

(10)
वाय्वग्न्यशनिनिर्घोषैः फलं पुष्पं विशीर्यते
श्रोत्रेण गृह्यते शब्दस्तस्माच्छृण्वन्ति पादपाः ॥

शब्दार्थ वाय्वग्न्यशनिनिर्घोषः (वायु + अग्नि + अशनिनिर्घोषः) = वायु, अग्नि और बिजली की कड़के से। विशीर्यते = बिखर जाता है। श्रोत्रेण = कर्णेन्द्रियों के द्वारा। गृह्यते = ग्रहण किया जाता है। शब्दः = शब्द। तस्मात् = इस कारण से। शृण्वन्ति = सुनते हैं।

प्रसंग महर्षि भृगु वृक्षों में श्रवणेन्द्रिय की विद्यमानता बता रहे हैं।

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अन्वय वाय्वग्न्यशनिनिर्घोषैः (वृक्षाणां) फलं पुष्पं (च) विशीर्यते। श्रोत्रेण शब्दः गृह्यते। तस्मात् पादपाः शृण्वन्ति।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि वायु, अग्नि और बिजली की कड़क से फल और फूल बिखर जाते हैं। शब्द कान से ग्रहण किया जाता है। इसलिए वृक्ष सुनते हैं, यह सिद्ध होता है। यह तो सभी जानते हैं कि आकाश का गुण शब्द होता है; अत: इससे वृक्षों में आकाश तत्त्व (UPBoardSolutions.com) की विद्यमानता भी सिद्ध होती है।

(11)
वल्ली वेष्टयते वृक्षं सर्वतश्चैव गच्छति
न ह्यदृष्टेश्च मार्गोऽस्ति तस्मात् पश्यन्ति पादपाः ॥ [2008]

शब्दार्थ वल्ली = लता, बेल। वेष्टयते = लपेट लेती है। वृक्षं = वृक्ष को। सर्वतः = चारों ओर। अदृष्टेः = बिना दृष्टि वाले को मार्गोऽस्ति (मार्गः + अस्ति) = मार्ग है।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सिद्ध किया गया है कि वृक्षों में देखने की शक्ति होती है।

अन्वय वल्ली वृक्षं वेष्टयते, सर्वतः गच्छति च। अदृष्टे: च मार्गः न अस्ति। तस्माद् (सिध्यति यत्) पादपाः पश्यन्ति।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि बेल वृक्ष को लपेट लेती है और चारों ओर फैल जाती है; अर्थात् जिधर मार्ग मिल जाता है उधर निकल जाती है। बिना दृष्टि वाले का कोई मार्ग नहीं होता। इस कारण सिद्ध होता है। कि वृक्ष देखते भी हैं।

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(12)
पुण्यापुण्यैस्तथा गन्धैर्भूपैश्च विविधैरपि।
अरोगाः पुष्पिताः सन्ति तस्माज्जिघ्रन्ति पादपाः

शब्दार्थ पुण्यापुण्यैः = पुण्य और अपुण्य से, अच्छा बुरा, शुभ-अशुभ। गन्धैः = गन्धों से। धूपैः = धूपों (ओषधियों का धुआँ) से। अरोगाः = रोगरहित। पुष्पिता: = पुष्पयुक्त। जिघ्रन्ति = सँघते हैं। पादपाः = वृक्ष।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वृक्षों का सँघना अर्थात् घ्राणेन्द्रिय की विद्यमानता सिद्ध की गयी है।

अन्वय (वृक्षाः) पुण्यापुण्यैः तथा गन्धैः विविधैः धूपैः अपि च अरोगाः पुष्पिताः सन्ति। तस्मात् पादपाः जिघ्रन्ति (इति सिध्यति)।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि वृक्ष पुण्यों और अपुण्यों से तथा अनेक प्रकार की गन्धों और धूपों से रोगमुक्त और पुष्पित होते हैं। इस कारण वृक्ष सँघते हैं, यह सिद्ध होता है।

(13)
पादैः सलिलपानाच्च व्याधीनां चापि दर्शनात्।
व्याधिप्रतिक्रियत्वाच्च विद्यते रसनं द्रुमे॥

शब्दार्थ पादैः = जड़ों से, पैरों से। सलिलपानात् = जल पीने से। व्याधीनां = रोगों के चापि (च + अपि) = और भी। दर्शनात् = दिखाई पड़ने से। व्याधिप्रतिक्रियत्वात् = रोगों की प्रतिक्रिया (चिकित्सा) होने के कारण। विद्यते = है। रसनम् = स्वाद लेने की सामर्थ्य।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में महर्षि भृगु द्वारा वृक्षों में रसनेन्द्रिय का होना सिद्ध किया गया है।

अन्वये पादैः सलिलपानात् व्याधीनां च अपि दर्शनात् व्याधि प्रतिक्रियत्वात् च द्रुमे रसनं विद्यते (इति सिध्यति)।

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व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि अपनी जड़ों के द्वारा जल पीने के कारण और रोगों के दिखाई पड़ने के कारण और रोगों का उपचार सम्भव होने के कारण वृक्षों में स्वाद लेने की सामर्थ्य सिद्ध होती है। तात्पर्य यह है कि रसनेन्द्रिय के अभाव में जल पीना और रोगों की दवा पीना सम्भव नहीं है और बिना स्वाद के दवा का प्रभाव हो ही नहीं सकता।

(14)
वक्त्रेणोत्पलनालेन यथोर्ध्वं जलमाददेत्
यथा पवनसंयुक्तः पादैः पिबति पादपः ॥

शब्दार्थ वक्त्रेण = मुख द्वारा। उत्पलनालेन = कमल की डण्डी से। यथा = जैसे, जिस प्रकार। ऊर्ध्वम् = ऊपर की ओर। आददेत् = ग्रहण करता है। तथा = उसी प्रकार पवनसंयुक्तः = पवन से युक्त।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वृक्षों में चेतना का होना सिद्ध किया गया है।

अन्वय यथा उत्पलनालेन वक्त्रेण जलम् ऊर्ध्वम् आददेत्। तथा पवनसंयुक्तः पादपः पादैः (जलं)। पिबति।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि जैसे कमल डण्ठल के द्वारा ऊपर की ओर जल ग्रहण करता है, अर्थात् खींचता है, उसी प्रकार वृक्ष वायु से युक्त होकर अपनी जड़ों से पानी पीता है।

(15)
सुखदुःखयोश्च ग्रहणाच्छिन्नस्य च विरोहणात्।
जीवं पश्यामि वृक्षाणामचैतन्यं न विद्यते ॥ [2008]

शब्दार्थ सुख-दुःखयोः = सुख और दुःख का। ग्रहणात् = अनुभव करने के कारण। छिन्नस्य = कटे हुए का। विरोहणात् = पुनः उगने के कारण। जीवं = जीवन को। पश्यामि = देखता हूँ, अनुभव करता हूँ। अचैतन्यम् = चेतना का अभाव।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वृक्षों में चेतनता की विद्यमानता को सिद्ध किया गया है।

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अन्वय (वृक्षाणां) सुखदुःखयोः ग्रहणात्, छिन्नस्य विरोहणात् च (अहं) वृक्षाणां जीवं पश्यामि। (तेषाम्) अचैतन्यं न विद्यते।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि सुख और दुःख का अनुभव करने के कारण तथा कटे हुए वृक्ष (UPBoardSolutions.com) के पुनः उगने के कारण मैं वृक्षों में जीवन देखता हूँ। उनमें चेतना का अभाव नहीं है।

(16)
तेन तज्जलमादत्तं जरयत्यग्नि-मारुतौ ।
आहारपरिणामाच्च स्नेहो वृद्धिश्च जायते ॥

शब्दार्थ तेन = उसके (वृक्ष के) द्वारा। आदत्तम् = ग्रहण किया जाता है। तत् = वह (जल)। जरयति = पचाता है। अग्नि-मारुतौ = अग्नि और वायु को। आहारपरिणामात् = भोजन पच जाने के कारण। स्नेहः = चिकनापन, स्निग्धता। वृद्धिः = बढ़ावा।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वृक्षों में चेतना का होना सिद्ध किया गया है।

अन्वय तेन तत् जलम् आदत्तम्। अग्निमारुतौ जरयति। आहार-परिणामात् च स्नेह: वृद्धिश्च जायते।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि उस वृक्ष के द्वारा जल ग्रहण किया जाता है। वह अग्नि और हवा को पचाता है। भोजन के पच जाने के कारण उसमें स्नेह उत्पन्न होता है और उसकी वृद्धि होती है। तात्पर्य यह है कि वृक्षों में चेतना होती है, क्योंकि जीवों में वृद्धि प्राप्त करना चेतना का द्योतक है।

(17)
एतेषां सर्ववृक्षाणां छेदनं नैव कारयेत्
चातुर्मासे विशेषेण विना यज्ञादिकारणम् ॥ [2007,12]

शब्दार्थ सर्ववृक्षाणां = सभी वृक्षों की। छेदनम् = कटाई। ‘कारयेत्’ = करना चाहिए। चातुर्मासे = वर्षा के चार महीनों में। विशेषेण = विशेष रूप से। विना यज्ञादिकारणम् = यज्ञ आदि किसी पवित्र उद्देश्य के बिना।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में बिना किसी विशेष प्रयोजन के वृक्षों को न काटने का परामर्श दिया गया है।

अन्वय एतेषां सर्ववृक्षाणां यज्ञादिकारणं विना छेदनं न कारयेत्। विशेषेण चातुर्मासे एव (एतेषां छेदनं न कारयेत्)।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि इन सभी वृक्षों की यज्ञादि विशेष कारण के बिना कटायी नहीं करनी चाहिए; अर्थात् यज्ञादि के समय आवश्यकता पड़ने पर ही वृक्षों को काटना चाहिए। विशेष रूप से वर्षा के चार महीनों में इन्हें नहीं काटना चाहिए।

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(18)
एकेनापि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगन्धिना।
वासितं वै वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं यथा ॥ [2008, 10, 11, 14, 15]

शब्दार्थ एकेनापि = एक भी। सुवृक्षेण = सुन्दर वृक्ष के द्वारा। पुष्पितेन = फूलों से युक्त। सुगन्धिना = सुन्दर महक (गन्ध) वाले। वासितम् = सुगन्धित हो जाता है। वनं सर्वं = सम्पूर्ण वन|

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में पुष्पित और पल्लवित वृक्ष के माध्यम से सुपुत्र के गुणों पर प्रकाश डाला गया है।

अन्वय पुष्पितेन सुगन्धिना एकेन अपि सुवृक्षेण सर्वं वै वनं वासितं सुपुत्रेण कुलं (भवति)।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि फूलों से युक्त तथा सुन्दर गन्ध से युक्त एक भी सुन्दर वृक्ष के द्वारा सारा वन उसी प्रकार सुगन्धित हो जाता है, जैसे एक ही सुपुत्र के द्वारा वंश प्रतिष्ठित हो जाता है।

सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) अमितानां महाशब्दो यान्ति भूतानि सम्भवम्। [2007]

सन्दर्भ प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘वृक्षाणां चेतनत्वम्’ पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ की शेष समस्त सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में महर्षि भृगु पंचभूतों और उसके लिए प्रयुक्त शब्द का वर्णन कर रहे हैं।

अर्थ असीमित पदार्थों के लिए ‘महा’ शब्द से भौतिक पदार्थ उत्पन्न होते हैं।

व्याख्या महर्षि भरद्वाज से महर्षि भृगु कहते हैं कि असीमित पदार्थों के लिए ‘महा’ शब्द का प्रयोग होता है। यह शब्द के पूर्व जुड़कर उसके अर्थ में; बहुत अधिक, सर्वश्रेष्ठ, सबसे बड़ा, बहुत बड़ा आदि अर्थों का बोध कराता है; यथा-महात्मा, महाकाव्य, महादेव, महापुरुष, महाभियोग, महायज्ञ, महामारी आदि। अतः स्पष्ट है कि ‘महा’ शब्द का प्रयोग असीमित पदार्थों के लिए होता है। इन असीमित पदार्थों से ही समस्त प्राणी/भौतिक पदार्थ उत्पन्न होते हैं। इसीलिए इनके लिए प्रयुक्त ‘महाभूत’ शब्द सार्थक और उपयुक्त है।

(2) शरीरं पाञ्चभौतिकम्। [2012]

प्रसंग इस सूक्ति में बताया गया है कि संसार में जितने भी प्राणी हैं उनके शरीर पाँच तत्त्वों से मिलकर बने

अर्थ शरीर पाँच भौतिक तत्त्वों से निर्मित है।

व्याख्या महर्षि भृगु वृक्षों में चेतना के होने को प्रमाणित करते हुए उनकी तुलना मनुष्य के शरीर से करते हैं। वे बताते हैं कि हमारा शरीर आकाश, वायु, जल, पृथ्वी और अग्नि-इन पाँच तत्त्वों से मिलकर बना है। हमारे शरीर की चेतना के कारण ये पाँच तत्त्व ही हैं। जिस प्रकार (UPBoardSolutions.com) शरीर की गति वायु तत्त्व के कारण, खोखलापन आकाश तत्त्व के कारण, ऊष्मा अग्नि तत्त्व के कारण, रुधिर आदि का प्रवाह जल तत्त्व के कारण और ठोसपन पृथ्वी तत्त्व के कारण है, उसी प्रकार वृक्षों में भी ये पाँचों तत्त्व और लक्षण विद्यमान हैं। इसीलिए ये भी हमारी तरह ही प्राणवान हैं।

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(3)
शरीरे पञ्चधातवः।
ते कथं पाञ्चभौतिकाः।

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में वृक्षों में पाँच धातुओं अर्थात् पाँच महाभूतों की विद्यमानता में सन्देह व्यक्त किया गया है।

अर्थ शरीर में पाँच धातुएँ अर्थात् पाँच महाभूत तत्त्व कैसे (हो सकते हैं)?

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि सभी स्थावर (एक ही स्थान पर स्थित रहने वाले) और जंगम (चलने-फिरने वाले) पदार्थों में पाँच धातुओं अर्थात् पाँच महाभूतों की विद्यमानता है। इन्हीं पाँच महाभूतों से चर-अचर समस्त विश्व युक्त हैं। पाँच इन्द्रिय संज्ञक-श्रवणेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय और दर्शनेन्द्रिय सूक्ष्म महाभूत हैं। महर्षि भरद्वाज इन पाँच महाभूतों की विद्यमानता जंगम पदार्थों में तो स्वीकार करते हैं, लेकिन स्थावर पदार्थों में नहीं। अपने सन्देह को व्यक्त करते हुए वे विभिन्न तर्को के द्वारा अपनी बात को रखते हैं।

(4)
तथा पवनसंयुक्तः पादैः पिबति पादपः।
पादैः पिबति पादपः।। [2015]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में जीवधारियों और वृक्ष द्वारा जल-ग्रहण करने की विधि का वर्णन किया गया है।

अर्थ जैसे पवन से युक्त होकर वृक्ष जड़ों से जल पीते हैं।

व्याख्या जीवधारी वायु के सहयोग से चूषण-पद्धति द्वारा जल आदि पेय पदार्थों को ग्रहण करते हैं। यह क्रिया केवल जीवधारियों में पायी जाती है। वृक्ष भी इस पद्धति के द्वारा वायु के योग से अपनी जड़ों द्वारा पृथ्वी से जल चूसकर अपना पोषण करते हैं; अतः उनमें भी जीवन है। जिस प्रकार कमल अपनी नाल के द्वारा पानी को ऊपर पहुँचाता (खींचता) है, उसी प्रकार वृक्ष वायु की सहायता से अपने जड़रूपी पैरों से पानी पीकर वृक्ष की शाखाओं-उपशाखाओं तक ले जाते हैं। इसीलिए उनको पादप कहा जाता है। भाव यह है कि मूल ही सबका कारण होता है।

(5) एतेषां सर्ववृक्षाणां छेदनं नैव कारयेत्। [2006,07,09, 10, 12]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में महर्षि भृगु वृक्षों में चेतना होने के कारण उन्हें न काटने की ओर संकेत कर रहे हैं।

अर्थ इन सभी वृक्षों को नहीं काटना चाहिए।

व्याख्या सभी वृक्षों में जीवधारियों की तरह ही चेतना होती है। इसी कारण से वे भी हमारी तरह ही सुख और दु:ख का अनुभव करते हैं। अतः व्यर्थ काटकर उन्हें पीड़ा नहीं पहुँचानी चाहिए। वर्षा ऋतु में सभी पेड़-पौधों में नवजीवन और नवचेतना का संचार होता है। इसी समय (UPBoardSolutions.com) वे सर्वाधिक वृद्धि करते हैं। अतः वर्षा ऋतु में तो उन्हें कदापि नहीं काटना चाहिए। वर्तमान समय में पर्यावरण का सन्तुलन बिगड़ रहा है, इसलिए उनकी रक्षा करना तो और भी आवश्यक हो जाता है।

(6)
वासितं वै वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं यथा। [2006, 08,09, 10, 14]
सुपुत्रेण कुलं यथा। [2009, 14]

प्रसंग इस सूक्ति में सुपुत्र के महत्त्व को बताया गया है।

अर्थ एक ही पुष्पित एवं गन्ध वाले वृक्ष से पूरा वन सुवासित हो जाता है, जिस प्रकार एक योग्य पुत्र से कुल का यश बढ़ जाता है।

व्याख्या जब किसी वन में सुगन्धित पुष्पों वाला एक वृक्ष भली प्रकार से सुगन्धित हो उठता है, तो उसकी सुगन्ध से सारा वन महकने लगता है। ठीक इसी प्रकार से एक सुपुत्र अपने सम्पूर्ण कुल को अपने सकर्मों की सुगन्ध से महका देता है। तात्पर्य यह है कि पुत्र के सद्कर्मों से उसके सम्पूर्ण कुल की …. यश-कीर्ति चारों ओर फैल जाती है। उसके नाम से उसके कुल का नाम जाना जाने लगता है। यहाँ पर सुपुत्र की तुलना सुवृक्ष से की गयी है और यह बताया गया है कि दोनों को अपने-अपने कुल समूह के लिए महत्त्व है। भाव यह है कि एक भी अच्छा गुण व्यक्ति के विकास में सहायक होता है।

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श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) अमितानां महाशब्दो ……………………………… शब्दोऽयमुपपद्यते ॥ (श्लोक 1)
संस्कृतार्थः महर्षिः भृगुः उवाच-वृक्षाः असीमितपदार्थान् यच्छन्ति, अतएव एभ्यः ‘महा’ शब्दस्य प्रयोगः भवति। अस्मात् कारणात् एव इमान् ‘महाभूत’ संज्ञया अभिहितः।

(2) चेष्टा वायुः ……………………………… शरीरं पाञ्चभौतिकम् ॥ (श्लोक 2)
संस्कृतार्थः महर्षिः भृगुः उवाच–अस्मिन् वृक्षे शरीरे गतिशीलता वायोः रूपम् अस्ति, खम् आकाशस्य रूपम् अस्ति, उष्णत्वम् अग्निरूपम् अस्ति, रुधिरादयः तरलाः पदार्थाः सलिलरूपम् अस्ति, सङ्गातः पृथ्वीरूपम् अस्ति; अतः इदं शरीरं पाञ्चभौतिकम् अस्ति।

(3) पञ्चभिर्यदि भूतैस्तु ……………………………… पञ्चधातवः ॥ (श्लोक 4) [2006]
संस्कृतार्थः महर्षिः भरद्वाजः कथयति यत् यदि स्थावर-जङ्गमाः पदार्थाः पञ्चमहाभूतैः युक्ताः सन्ति तर्हि स्थावराणां पदार्थानां शरीरे पञ्चधातवः पञ्चमहाभूततत्त्व: वा कथं न दृश्यन्ते?

(4) अनूष्माणामचेष्टानां ……………………………… पञ्चधातवः ॥ (श्लोक 5)
संस्कृतार्थः महर्षिः भरद्वाजः उवाच-ऊष्मारहिताणां क्रियाशीलतारहिताणाम् अवकाशरहिताणां चे वृक्षाणां शरीरे वस्तुतः पञ्चधातवः न एव उपलभ्यन्ते।

(5) न शृण्व न्ति नं ……………………………… कथं पाञ्चभौतिकाः ॥ (श्लोक 6) (2010].
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महर्षिः भरद्वाजः शङ्कां करोति यत् ते वृक्षाः न शृण्वन्ति, न पश्यन्ति, (UPBoardSolutions.com) न गन्ध-रस सेविन: न च स्पर्श विजानन्ति, अतएव ते कथं पाञ्चभौतिकाः सन्ति।

(6) ऊष्मतो म्लायते ……………………………… तेनात्र विद्यते॥ (श्लोक 9) [2009]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महर्षिः भृगुः कथयति उष्मतः अर्थात् तापकारणेन पर्णानि म्लायन्ते। एतत् अतिरिक्तं त्वक् फलं-पुष्पं च अपि म्लायते शीर्यते च। एतेन कारणेन स्पष्टः अस्ति यत् वृक्षेषु स्पर्शगुणस्य विद्यमानता अवश्यमेव भवति।

(7) वल्ली वेष्टयते ……………………………… पश्यन्ति पादपाः ॥ (श्लोक}l) [2010]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महर्षिः भृगुः कथयति यत् वृक्षेषु चक्षु-इन्द्रियम् अपि विद्यते, लता वृक्षम् आरोहति यत्र अलम्बनं मिलति तत्र सर्वत्र गच्छति। अदृष्टे मार्गे लतानाम् आरोहणे गमनं नैव सम्भवतः। तस्मात् पादपाः पश्यन्ति अपि।

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(8) पुण्यापुण्यैस्तथा ……………………………… जिघ्रन्ति पादपाः ॥ (श्लोक 12)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महर्षिः भृगुः वृक्षाणां घ्राणेन्द्रियस्य सिद्धिः करोति। वृक्षः सुगन्धं दुर्गन्धं च विचारयन्ति। गन्धैः युक्तैः धूपैः पादपाः अरोगाः पुष्पिता: सन्ति। तस्मात् कारणात् पादपाः जिघ्रन्ति।

(9) सुखदुःखयोश्य ……………………………… न विद्यते ॥ (श्लोक 15) [2010, 1]
संस्कृतार्थः महर्षिः भृगुः उवाच-अहं सुखदुःखयोः अनुभवकरणात् छिन्नस्य शरीरस्य पुनः अङ्कुरणात् च वृक्षाणां जीवं पश्यामि। तेषां निर्जीवत्वं न विद्यते। वृक्षा अपि सचेतना नैव जडाः इति भावः।।

(10) एतेषां सर्ववृक्षाणां ……………………………… यज्ञादिकारणम्॥ (श्लोक 17)
संस्कृतार्थः महर्षिः भृगुः कथयति यत् कदापि वृक्षाणाम् अकारणं कर्त्तनं न कुर्यात्। यज्ञादि कारणाय एव छेदनं कारयेत्। विशेषेण चातुर्मासे वृक्षं कर्त्तनं न कुर्यात्। शास्त्रेषु अपि वृक्षाणां कर्त्तनं निषिद्धम् अस्ति।

(11) एकेनापि सुवृक्षेण ……………………………… सुपुत्रेण कुलं यथा ॥ (श्लोक 18) [2007,08,09, 10, 11, 12, 15]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महर्षिः भृगु कथयति यत् यथा एकः सुपुष्पितः सुगन्धित: वृक्षः सर्वं (UPBoardSolutions.com) वनं सुगन्धितं करोति तथैव एकः सुपुत्रः अपि समस्तं कुलं स्वगुणैविभूषितं करोति। अतएव वृक्षाणां समृद्धिः आवश्यकी अस्ति।

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