Class 10 Sanskrit Chapter 14 UP Board Solutions योजना – महत्वम् Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 14 Yojana – Mahatvam Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 14 हिंदी अनुवाद योजना – महत्वम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

भारत में शताधिक वर्षों तक चले अंग्रेजी शासन ने देश के कल्याण और उन्नति की बात नहीं सोची, वरन् मात्र अपनी स्वार्थ-पूर्ति पर ध्यान दिया। इसी कारण भारत के स्वतन्त्र होने पर भारतीय नेतृत्व के सामने अनेक समस्याएँ खड़ी हो गयीं। स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू रूस की समाजवादी व्यवस्था से बहुत प्रभावित थे। कम्युनिस्टों का शासन प्रारम्भ होने के बाद रूस में पंचवर्षीय योजना-महत्त्वम् योजनाएँ बनायी गयी थीं और (UPBoardSolutions.com) यह निश्चित किया गया था कि पाँच वर्षों में उन्हें कौन-कौन से काम करने हैं। रूस के ढंग पर ही नेहरू जी ने भी भारत में पंचवर्षीय योजनाएँ प्रारम्भ कीं और उसके लिए एक समिति बना दी। समिति यह निश्चय करती थी कि किस पंचवर्षीय योजना में कौन-से कार्य किये जाएँगे और किन पर कितना व्यय किया जाएगा। इन्हीं पंचवर्षीय योजनाओं ने भारत का कायाकल्प कर दिया। यहाँ हवाई जहाजों तक का निर्माण होने लगा और कृषि के क्षेत्र में भी हरित क्रान्ति आयी। प्रस्तुत पाठ पंचवर्षीय योजना के महत्त्व और उनसे होने वाले लाभों का परिचय देता है।

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पाठ-सारांश (2006,07,08, 9, 10, 11, 12, 14]

उन्नति का अवसर संसार के इतिहास में कितने ही राष्ट्रों ने उन्नति की है और कितने ही अवनति के गर्त में गिर गये हैं। हमारा देश भारत भी दीर्घकाल तक परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा रहा। लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, सुभाषचन्द्र बोस और जनता के सहयोग तथा बलिदान के परिणामस्वरूप यह 15 अगस्त, 1947 ई० को स्वतन्त्र हुआ। इसके स्वतन्त्र होने तथा संविधान बन जाने पर यहाँ के नेतृत्व ने इसकी उन्नति के लिए योजनाएँ बनायीं। इन योजनाओं के लागू होने पर भारत को सामाजिक और आर्थिक उन्नति का अवसर प्राप्त हुआ।

पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा प्रगति हमारे नेताओं ने देश की प्रगति के लिए एक योजना-समिति बनायी, जिसने पाँच वर्षों में हो सकने योग्य कार्यों का विवरण तैयार किया। प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया तथा कृषि के आश्रित साधनों के विकास के लिए रूपरेखा बनायी गयी। दूसरी पंचवर्षीय योजना में बड़े-बड़े उद्योगों को महत्त्व दिया गया। इन योजनाओं के अन्तर्गत अनेक छोटी-बड़ी योजनाएँ थीं, जिनमें भाखड़ा, हीराकुड, दामोदर, तुंगभद्रा, मयूराक्षी और रिहन्द बाँधों की योजनाएँ प्रमुख थीं। इन योजनाओं से कृषि की सिंचाई, जल-प्रवाह के नियन्त्रण से बाढ़ की रोकथाम तथा विद्युत-शक्ति का उत्पादन (UPBoardSolutions.com) आदि लाभ थे। विद्युत् से बड़ी-बड़ी मशीनें चलती हैं और प्रकाश प्राप्त होता है। चौथी, पाँचवीं, छठी योजनाएँ भी यथासमय चलती रहीं और आज भी प्रचलित हैं।

योजनाओं से लाभ इन योजनाओं से हमारे देश की राष्ट्रीय आय में वृद्धि, महँगाई की रोकथाम, दैनिक उपयोग की वस्तुओं की प्राप्ति में सुगमता, छोटे-बड़े उद्योगों की ओर ध्यानाकर्षण, खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता, परिवार नियोज़न, नहरों का निर्माण और नलकूप लगाना, गाँवों में बिजली का प्रबन्ध, वृक्षारोपण आदि अनेक लाभ हुए। चिकित्सा के क्षेत्र में यक्ष्मा, चेचक, मलेरिया आदि संक्रामक और भयानक रोगों से पूर्णतया छुटकारा मिला। एक्स-रे से भीतरी रोगों का पता लगाना सम्भव हुआ। नहरों के निर्माण से भूमि उर्वरा, धान्यसम्पन्न हुई और मानवों व पशु-पक्षियों को पेयजल प्राप्त हुआ। रेलमार्गों के विस्तार, उनकी गति में वृद्धि तथा डीजल इंजनों के प्रयोग से यात्रा तथा माल के लाने और भेजने में समय की ११ बचत हुई।

जनसंख्या की समस्या इन योजनाओं के क्रियान्वयन से प्रति व्यक्ति जितना लाभ अपेक्षित समझा गया था, जनसंख्या की वृद्धि के कारण उतना लाभ नहीं मिला। चिकित्सा-साधनों में वृद्धि होने पर भी मृत्यु का प्रतिशत जितना कम हुआ, जन्म का प्रतिशत उससे कहीं अधिक बढ़ गया। जनसंख्या में वृद्धि को शिक्षा के प्रसार से ही रोका जा सकता है। सरकार जनसंख्या पर नियन्त्रण करने हेतु शिक्षा के प्रसार के लिए सतत प्रयासरत है।

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शिक्षा से लाभ शिक्षा से केवल व्यक्ति का ही विकास नहीं होता, वरन् सामाजिक चेतना भी जाग्रत होती है। बालकों और वृद्धों के आचार-विचार और व्यवहार में परिवर्तन आता है। निरक्षर और गरीब लोग बच्चे उत्पन्न करना ही अपना लक्ष्य समझते हैं, उनके भरण-पोषण पर ध्यान नहीं देते। सामान्य जनता में शिक्षा के प्रसार से ही हमारी योजनाएँ सफल हो सकती हैं।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा’ इतीयं सुशोभना सूक्तिः, यावच्चे प्रतिजनं चरितार्था भवति, तथैव तावदेव राष्ट्रजीवनेष्वपि सङ्घटते। संसारस्येतिहासे पुराकालादारभ्य अद्यावधि कियन्ति राष्ट्राणि, प्रोन्नतिशृङ्गमारूढानि, कालान्तरेऽवनतिगर्ते पतितानि। कियन्ति’ चान्यानि अवनति गर्तान्निष्क्रम्य, उन्नतिशिखरमारूढानि, इति गदितुं निरवद्यमशक्यम्। प्रायेण सर्वेषां राष्ट्राणां विषये तथ्यमिदम्। भारतवर्षमपि, अस्य तथ्यस्यापवादो भवितुं नाशकत्। बहोः कालात् अस्माकं (UPBoardSolutions.com) देशः पारतन्त्रिकशृङ्खलया निगडितः आसीत्। तिलक-गान्धी-नेहरू-पटेल-सुभाषमहोदयानां जनतायाश्च सहयोगेन, बलिदानेन सप्तचत्वारिंशदधिकैकोनविंशतिशततमे (1947) खीष्टाब्दे स्वतन्त्रो जातः।

शब्दार्थ कस्यात्यन्तं = किसका अत्यधिक उपनतम् = प्राप्त। एकान्ततः = पूर्णरूप से। तावदेव = उतना ही। सङ्कटते = घटित होती है। पुराकालादारभ्य = प्राचीनकाल से प्रारम्भ करके। अद्यावधि =आज तक कियन्ति = कितने ही। प्रोन्नतिशृङ्गमारूढानि = उन्नति के शिखर पर पहुँचे। गर्ते = गड्डे में। निष्क्रम्य = निकलकर। गदितुम् = कहना। निरवद्यम् = निश्चय ही। अशक्यम् = नहीं कहा जा सकता, असम्भव। पारतन्त्रिकशृङ्खलया = परतन्त्रतारूपी श्रृंखला से। निगडितः = जकड़ा हुआ, बँधा हुआ। सप्तचत्वारिंशदधिकैकोनविंशतिशततमे = उन्नीस सौ सैंतालीस में।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘योजना-महत्त्वम्’ शीर्षक पाठ से लिया गया है।

[ संकेत, इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में बहुत समय तक परतन्त्र रहने के बाद भारत के स्वतन्त्र होने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद “किसको अत्यन्त सुख प्राप्त है अथवा किसको पूर्णरूप से दुःख प्राप्त है। यह सुन्दर उक्ति जितनी प्रत्येक मनुष्य के विषय में चरितार्थ होती है, उसी प्रकार उतनी ही राष्ट्र के जीवन में भी घटित होती है। संसार के इतिहास में प्राचीन काल से लेकर आज तक कितने राष्ट्र उन्नति के शिखर पर पहुँच गये, कुछ समय बाद अवनति के गड्ढे में गिर गये और कितने ही अवनति के गड्डे से निकलकर उन्नति के शिखर पर चढ़ (पहुँच) गये, यह कहना निश्चित ही असम्भव है। प्रायः सभी राष्ट्रों के विषय में यह वास्तविक बात है। भारतवर्ष भी इस वास्तविकता का अपवाद नहीं हो सका। बहुत समय से हमारा देश परतन्त्रता की बेड़ी में जकड़ा हुआ था। तिलक, गाँधी, नेहरू, पटेल, सुभाष आदि नेताओं और जनता के सहयोग और बलिदान से सन् 1947 ईस्वी में स्वतन्त्र हो गया।

(2)
वैदेशिकाः समस्तानि कार्याणि स्वहितदृष्ट्यैव कृतवन्तः, नास्य देशस्य उन्नतेः समृद्धेर्वा दृष्टया। जाते स्वतन्त्रे देशे, सम्पन्ने सार्वभौमिके सत्तासम्पन्ने राष्ट्र, विरचिते च विधाने, आर्थिक-सामाजिकप्रोन्नत्योः मिलिते सुवर्णावसरे, अस्माकं नेतृभिः नेहरूमहाभागैः एतदर्थं समितिरेका निर्मिता या (UPBoardSolutions.com) योजनासमितिरभ्यधीयत। इयमेव समितिः सर्वं विचार्य प्रथमं पञ्चभिः वर्षेः सम्पादयितुं योग्यानां कार्याणां यद् विवरणं प्रकाशितवती सैव प्रथमा पाञ्चवर्षिकी योजनेति नाम्ना प्रसिद्धा। स्वदेशे जीविकासाधनेषु कृषेरेव सर्वमुख्यत्वाद् अस्यां योजनायां तस्या एव सर्वाधिक महत्त्वं स्वीकृतम्। कृष्याश्रितानां ग्रामोद्योगानामपि विकासोऽपेक्षितः, एतदपेक्षितानि साधनान्यपि यथासम्भवं साधितानि। द्वितीयपाञ्चवर्षियां योजनायां महोद्योगेभ्यः प्राधान्यमदीयत। अतः औद्योगिक विकासः प्रसारश्च द्वितीययोजनायाः प्रधानलक्ष्यमासीत्।।

शब्दार्थ वैदेशिकाः = विदेशियों ने। स्वहितदृष्ट्यैव = अपने हित की दृष्टि से ही। सार्वभौमिके सत्तासम्पन्ने = सार्वभौमिक सत्तासम्पन्न होने पर आर्थिक-सामाजिक प्रोन्नत्योः = आर्थिक और सामाजिक उन्नतियों के। एतदर्थं = इसके लिए। समितिरेको = एक समिति। अभ्यधीयत = कही गयी, कहलायी। सम्पादयितुम् = पूरा करने के लिए। कृष्याश्रितानाम् = खेती पर आधारित। अदीयत = दिया गया।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में स्वतन्त्र भारत की पंचवर्षीय योजनाओं के लक्ष्य के विषय में बताया गया है।

अनुवाद विदेशी लोग समस्त कार्य अपने हित की दृष्टि से ही करते थे, इस देश की उन्नति या समृद्धि की दृष्टि से नहीं। देश के स्वतन्त्र होने पर, राष्ट्र के सार्वभौमिक सत्ता से सम्पन्न होने पर और संविधान के बनने पर, आर्थिक और सामाजिक उन्नति का स्वर्णावसर मिलने पर, हमारे नेहरू जी आदि नेताओं ने इसके लिए समिति बनायी, जो ‘योजना-समिति’ कहलायी। इसी समिति ने सब कुछ विचारकर प्रथम पाँच वर्षों में हो सकने योग्य कार्यों को जो विवरण प्रकाशित किया, वही ‘प्रथम पंचवर्षीय योजना’ इस नाम से प्रसिद्ध हुई। अपने देश में जीविका के साधनों में खेती के ही सबसे प्रमुख होने के कारण इस योजना में उसी का सबसे अधिक महत्त्व स्वीकार किया गया। खेती पर आधारित ग्रामोद्योग का विकास भी आवश्यक है; अतः इसके लिए आवश्यक साधनों को भी यथासम्भव पूरा (प्राप्त) किया गया। द्वितीय पंचवर्षीय योजना में बड़े उद्योगों को (UPBoardSolutions.com) प्रधानता दी गयी; अत: उद्योगों का विकास और प्रसार द्वितीय योजना का प्रधान लक्ष्य था।

(3)
प्रथमपाञ्चवर्षिकयोजनान्तर्गतपञ्चत्रिंशदधिकं शतं (135) योजनाः आसन्। आसु एकादश बहुप्रयोजनाः तासु मुख्याः भाखरा-हीराकुड-दामोदर-तुङ्गभद्रा-मयूराक्षी-रिहन्दबन्धयोजनाः। एभ्यो बहुप्रयोजनेभ्यो बन्धेभ्योऽनेके लाभाः। कृषिसेचनं तावत् प्रथमो लाभः। द्वितीयश्च पुनः जलप्रवाहनियन्त्रणेन प्लावनभयान्निवृत्तिः। तृतीयो लाभः विद्युच्छक्त्युत्पादनं येनोद्योगशालासु सुमहन्ति यन्त्राणि परिचालितानि। विद्युत्प्रकाशस्तु अलभतैव। एवं चतुर्थ-पञ्चम-षष्ठ-इत्यादयः योजनाः यथासमयमद्यावधि प्रचलिताः सन्ति।

शब्दार्थ पञ्चत्रिंशदधिकं शतं = एक सौ पैंतीस। बहुप्रयोजनाः = बहुउद्देशीय। कृषिसेचनम् = खेती की सिंचाई। प्लावनभयात् = बाढ़ के डर से निवृत्तिः = छुटकारा। विद्युच्छक्त्युत्पादनम् (विद्युत् + शक्ति + उत्पादनम्) = बिजली की शक्ति का उत्पन्न होना। सुमहान्ति = बड़ी-बड़ी। यन्त्राणि = मशीनें। अलभतैव = प्राप्त किया ही जाता है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में प्रथम पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत हुए लाभों का वर्णन किया गया है।

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अनुवाद प्रथम पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत 135 योजनाएँ थीं। इनमें ग्यारह बहुउद्देशीय थीं। उनमें मुख्य भाखड़ा, हीराकुड, दामोदर, तुंगभद्रा, मयूराक्षी, रिहन्द बाँध योजनाएँ थीं। इन बहुउद्देशीय बाँधों से अनेक लाभ हैं। खेती की सिंचाई तो पहला लाभ है और दूसरा लाभ जल के प्रवाह को रोकने से बाढ़ के भय से मुक्ति है। तीसरा लाभ विद्युत शक्ति का उत्पादन है, जिससे उद्योगशालाओं में बड़े-बड़े यन्त्र चलाये जाते हैं। बिजली का प्रकाश तो प्राप्त हुआ ही है। इस प्रकार चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ इत्यादि योजनाएँ समय-समय पर
आज तक प्रचलित हैं।

(4)
आसु योजनासु अनेकाः अन्तर्गर्भिताः योजनाः सन्ति। आसां योजनानां फलानि-राष्ट्रियायेषु वृद्धिः महर्घतायाः नियन्त्रणम्, उपयोगिनां नैत्यिकानां वस्तूनां न्यूनतायाः दूरीकरणं, लघुषु विशालेषु, चोद्योगेषु अवधानं खाद्यान्नेषु स्वावलम्बनानयनं, परिवारनियोजनं, सर्वत्र कुल्यानां प्रवाहणं, नलकूपानां स्थापनं, प्रतिग्रामं विद्युत्प्रकाशः, वृक्षारोपणम्। आभिः योजनाभिः फलन्त्विदमवश्यं जातं यत् अस्माकं देशः खाद्यान्नेषु स्वावलम्बी सुसम्पन्नः।।

आसु योजनासु ………………………………………. विद्युत्प्रकाशः वृक्षारोपणम् । [2011]

शब्दार्थ अन्तर्गर्भिताः = भीतर छिपी हुई। राष्ट्रियायेषु = राष्ट्र की आयों में। महर्घतायाः = महँगाई का। नैत्यिकानाम् = प्रतिदिन की। अवधानम् = ध्यान देना। स्वावलम्बनानयनम् = स्वावलम्बन ले आना। कुल्यानाम् = नहरों का। नलकूपानाम् = ट्यूबवेलों का। आभिः (UPBoardSolutions.com) योजनाभिः = इन योजनाओं के द्वारा। फलन्त्विदमवश्यं (फलं + तु + इदम् + अवश्यं) = फल तो यह अवश्य है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा देश का जो विकास हुआ है, उसके बारे में प्रकाश डाला गया है।

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अनुवाद इन योजनाओं में अनेक योजनाएँ अन्तर्निहित हैं। इन योजनाओं के परिणाम हैं-राष्ट्रीय आय में वृद्धि, महँगाई की रोकथाम, उपयोग में आने वाली दिन-प्रतिदिन की वस्तुओं की कमी को दूर करना, छोटे और बड़े उद्योगों पर ध्यान देना, खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता लाना, परिवार नियोजन, सभी जगह नहरें प्रवाहित करना, ट्यूबवेल (नलकूप) लगाना, प्रत्येक गाँव में बिजली का प्रकाश, वृक्ष लगाना। इन योजनाओं से यह फल तो अवश्य हुआ कि हमारा देश खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर और भली-भाँति सम्पन्न हो गया है।

(5)
इत्थं चिकित्साक्षेत्रेष्वपि महती प्रगतिः सम्पन्ना। यक्ष्माशीतलामलेरियादिरोगाणां प्रायः देशात् निष्क्रमणमेव जातम्। क्ष-किरणात् (एक्स-रे) आन्तरिकाणां रोगाणां स्थानां चित्रं समक्षमायातं, येन चिकित्सासु महत्सौकर्यं सम्पन्नम्। सर्वत्र बन्धानां निर्माणेन, कुल्यानां प्रवाहणेन भूमिः उर्वरा जाता, ऊषरभूमिरपि सस्यसम्पन्ना भवति। जलसाधनेन प्रतिग्रामं, प्रत्युद्यानं प्रतिक्षेत्रं जलमेव दृश्यते। सर्वत्र जलपक्षिणः अन्ये च विहङ्गाः कलरवं कुर्वन्तः उड्डीयन्ते। वन्याः प्राणिनः ये ग्रीष्मकालेषु जिह्वां प्रसार्य तोयार्थमितस्ततः धावन्ति स्म तेऽद्योदकं पायं पायं नदन्तः कूर्दमानाः परिभ्रमन्ति।।

शब्दार्थ इत्थम् = इस प्रकार। यक्ष्माशीतलामलेरियादिरोगाणाम् = टी० बी०, चेचक, मलेरिया आदि रोगों का। निष्क्रमणमेव = निकलना ही। आन्तरिकाणाम् = भीतरी। समक्षमायातम् = सामने आया। सौकर्यम् = सुविधा, सरलता। बन्धानां = बाँधों के। उर्वरा = उपजाऊ। ऊषर = बंजर। सस्य = फसला उड्डीयन्ते = उड़ते हैं। प्रसार्य = फैलाकर। तोयार्थम् = पानी के लिए। इतस्ततः = इधर-उधर उदकं = जल के पायं-पायं = पी-पीकर। नदन्तः = शब्द करते हुए। कूर्दमानाः = कूदते हुए, दौड़ते हुए। परिभ्रमन्ति = चारों ओर घूमते हैं।

प्रसग प्रस्तुत गद्यांश में पंचवर्षीय योजनाओं से हुए कुल लाभों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इस प्रकार चिकित्सा के क्षेत्र में भी बड़ी प्रगति हुई है। तपेदिक, चेचक, मलेरिया आदि रोगों का देश से प्रायः बहिष्कार हो गया है। एक्स-रे (शरीर के) से भीतरी रोगों के स्थानों का चित्र सामने आ जाता है, जिससे चिकित्सा में अत्यधिक सुविधा हो गयी है। सब जगह (UPBoardSolutions.com) बाँधों के बनाने से, नहरों के प्रवाहित करने से भूमि उपजाऊ हो गयी है। बंजर भूमि भी धान्य-सम्पन्न हो गयी है। जल के साधनों से प्रत्येक गाँव में, प्रत्येक उद्यान में, प्रत्येक खेत में जल ही दिखाई देता है। सब जगह जल-पक्षी और दूसरे पक्षी कलरव करते हुए उड़ते हैं। जंगली जीव, जो गर्मी के दिनों में जीभ फैलाकर जल के लिए इधर-उधर दौड़ते-फिरते थे, वे
आज जल पी-पीकर शोर करते कूदते हुए चारों ओर घूमते हैं।

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(6)
प्रतिग्रामं विद्युत प्रकाशेन, तारकितं नभः निशि भूतलोपरि आयातमिव प्रतीयते। अद्य रेलगन्त्रीणां गतिषु कियती वृद्धिः जाता। रेलमार्गाणां विस्तारः, रेलगन्त्रीणां सङ्ख्यासु वृद्धिः, धूम्रजनानां स्थानेषु डीजलतैलेजनानां विस्तारः, विद्युतच्चालितानां रेलगन्त्रीणां सञ्चारेण समयस्य दुरुपयोगात् संरक्षणं दृष्ट्वा मनः अतीव प्रसन्नं भवति। अस्तु आसु योजनासु विद्यमानासु सत्स्वपि प्रतिजनं यावान् लाभः अपेक्षितः आसीत् तावांल्लाभो न जातः। कारणं जनसङ्ख्यायाः तीव्रगत्या वृद्धिरेव। चिकित्सासुविधासु वृद्धि गतीसु यत्र मरणप्रतिशते हासः तावान् जन्मप्रतिशते हासो न जातः। जननप्रतिरोधज्ञानं विना जनसङ्ख्यासु न्यूनता नायास्यति। एतत् तदैव सम्भाव्यते यदा शिक्षायाः प्रसारो भवेत्, साक्षरता वर्धेत एतदर्थं सर्वकारः जनसङ्ख्याशिक्षायाः प्रसाराय शिक्षणं चालयति। इयं शिक्षा परिवारनियोजनात् भिन्नैव।

प्रतिग्रामं विद्युतां ………………………………………. तीव्रगत्या वृद्धिरेव। [2011, 14]

शब्दार्थ तारकितम् =तारों से भरा। भूतलोपरि =धरती पर कियती = कितनी। धूमेजनानां = धुएँ के इंजनों का। रेलगन्त्रीणां = रेलगाड़ियों की। सत्स्वपि = होने पर भी। तावांल्लाभः = उतना लाभ। ह्रासः = कमी। जननप्रतिरोधज्ञानम् = जन्म की रोकथाम का ज्ञान नायास्यति = नहीं आएगी। सर्वकारः = सरकार

प्रसंग. प्रस्तुत गद्यांश में बताया गया है कि योजनाओं से अनेक लाभों के होते हुए भी जनसंख्या की वृद्धि के कारण उतना लाभ नहीं हो पाया है।

अनुवाद प्रत्येक ग्राम में बिजलियों के प्रकाश से तारों से भरा आकाश रात्रि में पृथ्वी के ऊपर आया-सा प्रतीत होता है। आज रेलगाड़ियों की गति में कितनी वृद्धि हो गयी है। रेलमार्गों के विस्तार, रेलगाड़ियों की । संख्या में वृद्धि, धुएँ के इंजनों के स्थान पर डीजल-तेल से चलने (UPBoardSolutions.com) वाले इंजनों के विस्तार, बिजली से चलने वाली रेलगाड़ियों के चलने से समय के दुरुपयोग से बचत को देखकर मन अत्यन्त प्रसन्न होता है। फिर भी, इन योजनाओं के होने पर भी प्रत्येक व्यक्ति को जितने लाभ की अपेक्षा थी, उतना लाभ नहीं हुआ। (इसमें)। जनसंख्या की तीव्रगति से वृद्धि ही कारण है। चिकित्सा की सुविधाओं के बढ़ जाने पर जहाँ मृत्यु के प्रतिशत में कमी हुई है, उतनी जन्म के प्रतिशत में कमी नहीं हुई। जन्म की रोकथाम के ज्ञान के बिना जनसंख्या में कमी नहीं आएगी। यह तभी हो सकता है, जब शिक्षा का प्रसार हो, साक्षरता बढ़े। इसके लिए सरकार जनसंख्या की शिक्षा के प्रसार के लिए शिक्षण चला रही है। यह शिक्षा परिवार-नियोजन से भिन्न ही है।

(7)
शिक्षया न केवलं व्यक्तेः विकासः, वरं सामाजिकी चेतनापि जागर्ति। परिस्थितिवशात् आचारविचारव्यवहारेषु अपि बालकेषु, प्रौढेषु परिवर्तनमायाति। शिक्षितसमुदाये जनसङ्ख्यावर्धनावरोधेषु जागर्तिः दृश्यते। दीनेषु, निरक्षरेषु शिशूत्पादनमेव लक्ष्यं प्रतीयते। तेषां भरणे पोषणे च ध्यानं नास्ति। प्रतिविद्यालयमस्याः जनशिक्षायोजनायाः प्रसारेण सर्वासां योजनानां साफल्यमवश्यं भविष्यति नात्र सन्देहः।

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शब्दार्थ जागर्ति = जागती है। जनसङ्ख्यावर्धनावरोधेषु = जनसंख्या की वृद्धि को रोकने में। शिशूत्पादनम् एव = बच्चे पैदा करना ही। प्रतीयते = प्रतीत होता है। नात्र = नहीं, इसमें।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में जनसंख्या की शिक्षा देने के लाभ को बताया गया है।

अनुवाद शिक्षा से केवल व्यक्ति का विकास ही नहीं होता है, वरन् सामाजिक चेतना भी जागती है। परिस्थितियों के कारण बालकों और प्रौढ़ों में आचार, विचार और व्यवहार में परिवर्तन आता है। शिक्षित वर्ग में जनसंख्या को बढ़ने से रोकने में जागरूकता दिखाई पड़ती है। दोनों और अनपढ़ों में बच्चे उत्पन्न करना ही लक्ष्य प्रतीत होता है। उनके भरण-पोषण पर ध्यान नहीं है। प्रत्येक विद्यालय में इस जनशिक्षा की योजना के प्रसार से सभी योजनाओं की सफलता अवश्य होगी, इसमें सन्देह नहीं है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पंचवर्षीय योजना का उद्देश्य बताइए। [2006,08, 12]
उत्तर :
सन् 1947 ई० में देश के स्वतन्त्र होने और सार्वभौमिक सत्ता से सम्पन्न होने के बाद देश के आर्थिक और सामाजिक रूप से उत्थान के लिए एक योजना-समिति बनायी गयी। इस योजना-समिति द्वारा देश के सर्वाधिक उन्नयन हेतु पाँच वर्षों में हो सकने योग्य कार्यों को जो (UPBoardSolutions.com)  विवरण प्रकाशित किया गया, वही पंचवर्षीय योजना के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

प्रश्न 2.
पंचवर्षीय योजनाओं से होने वाले लाभों (महत्त्व) को संक्षेप में लिखिए। [2006,07,09]
उत्तर :
चवर्षीय योजनाओं से हमारे देश की राष्ट्रीय आय में वृद्धि, महँगाई की रोकथाम, दैनिक उपयोग की वस्तुओं की प्राप्ति में सुगमता, छोटे-बड़े उद्योगों की ओर ध्यानाकर्षण, खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता, परिवार नियोजन, नहरों का निर्माण और नलकूप लगाना, गाँवों में बिजली का प्रबन्ध, वृक्षारोपण आदि अनेक लाभ हुए। चिकित्सा के क्षेत्र में यक्ष्मा, चेचक, मलेरिया आदि संक्रामक और भयानक रोगों से पूर्णतया छुटकारा मिला। एक्स-रे से भीतरी रोगों का पता लगाना सम्भव हुआ। नहरों के निर्माण से भूमि उर्वरा व धान्यसम्पन्न हुई और मानवों व पशु-पक्षियों को पेयजल प्राप्त हुआ। रेलमार्गों के विस्तार, उनकी गति में वृद्धि तथा डीजल इंजनों के प्रयोग से आवागमन में लगने वाले समय की बचत हुई।

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प्रश्न 3.
प्रथम पंचवर्षीय योजना में किसका सर्वाधिक महत्त्व स्वीकार किया गया? [2008]
उत्तर :
प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि की उन्नति को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया। इसके अन्तर्गत 135 योजनाएँ निहित थीं, जिनमें भाखड़ा-नांगल, हीराकुड, दामोदर, तुंगभद्रा, मयूराक्षी और रिहन्द बाँधों की योजनाएँ बनाई गयीं। इन योजनाओं में कृषि-सिंचन, जल-प्रवाह नियन्त्रण (UPBoardSolutions.com) तथा विद्युत-शक्ति के उत्पादन के क्षेत्र में पर्याप्त लाभ हुए।

प्रश्न 4.
बाँधों के निर्माण से देश को क्या लाभ हुए? [2008, 10]
उत्तरं :
बाँधों के निर्माण से देश को खेतों की सिंचाई के लिए पर्याप्त जल उपलब्ध हुआ, जल के प्रवाह पर नियन्त्रण स्थापित किया गया तथा विद्युत-शक्ति के उत्पादन के क्षेत्र में अत्यधिक वृद्धि हुई। इन सभी से देश को अनेक लाभ हुए।

प्रश्न 5.
प्रथम पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल लिखिए। [2007,15]
उत्तर :
प्रथम पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल है-1951-56

प्रश्न 6.
परतन्त्रता काल में विदेशियों द्वारा भारत में किस प्रयोजन के लिए कार्य किये गये? [2009]
उत्तर :
परतन्त्रता काल में विदेशियों द्वारा भारत में समस्त कार्य अपने हित की दृष्टि से किये गये। भारत के हित की दृष्टि से कोई कार्य नहीं किया गया।

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प्रश्न 7.
क्या पंचवर्षीय योजनाओं से देश को अपेक्षित लाभ हुआ?
या
योजनाओं के क्रियान्वयन से जितना लाभ अपेक्षित था, उतना क्यों नहीं प्राप्त हो सका?
उत्तर :
पंचवर्षीय योजनाओं से देश और प्रत्येक व्यक्ति को जितने लाभ की अपेक्षा थी, उतना लाभ नहीं हुआ। इसका कारण जनसंख्या में हुई तीव्रगति से वृद्धि है। जब तक जनसंख्या में अपेक्षित कमी नहीं आएगी तब तक पंचवर्षीय योजनाओं से उल्लेखनीय सफलता नहीं मिल सकती। सरकार इसके लिए सतत प्रयत्नशील है।

प्रश्न 8.
भारत में पंचवर्षीय योजनाएँ किस प्रकार आरम्भ हुईं? या भारत में पंचवर्षीय योजनाओं की आवश्यकता क्यों पड़ीं?
उत्तर :
भारत में शताधिक वर्षों तक चले अंग्रेजी शासन ने भारत के कल्याण और उन्नति की बात नहीं सोची। उन्होंने भारत में जितने भी कार्य किये, वे अपनी ही भलाई के लिए किये न कि भारतीयों की भलाई के लिए। इसी कारण 15 अगस्त, 1947 को भारत के स्वतन्त्र होने पर तत्कालीन भारतीय नेतृत्व के सामने अनेक समस्याएँ खड़ी हो गयीं। स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू रूस की साम्यवादी व्यवस्था से बहुत प्रभावित थे। वे यह जानते (UPBoardSolutions.com) थे कि रूस में कम्युनिस्टों को शासन प्रारम्भ होने के बाद पंचवर्षीय योजनाएँ बनायी गयी थीं और यह निश्चित किया गया था कि पाँच वर्षों में उन्हें कौन-कौन से काम करने हैं। रूस के ढंग पर ही नेहरू जी ने भी भारत में पंचवर्षीय योजनाएँ प्रारम्भ कीं और इन योजनाओं के लिए एक समिति बना दी गयी। समिति यह निश्चय करती थी कि किस पंचवर्षीय योजना में कौन-से कार्य किये जाएँ और किन पर कितना व्यय किया जाए। इन्हीं पंचवर्षीय योजनाओं ने भारत की कायाकल्प करे। दिया।

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प्रश्न 9.
शिक्षा के क्या लाभ हैं?
उत्तर :
[ संकेत ‘पाठ-सारांश’ के उपशीर्षक “शिक्षा से लाभ” को अपने शब्दों में लिखें।]

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Class 10 Sanskrit Chapter 7 UP Board Solutions विद्यार्थिचर्या Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 7 Vidyarthi Charya Question Answer (पद्य – पीयूषम्)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 7 हिंदी अनुवाद विद्यार्थिचर्या के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

स्मृति-ग्रन्थों में जीवन की रीति-नीति, करणीय-अकरणीय कर्म, इनके औचित्य-अनौचित्य एवं विधि-दण्ड का विशेष रूप से वर्णन किया गया है। प्रमुख स्मृति-ग्रन्थों की संख्या अठारह मानी जाती है। इनमें जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्मृति-ग्रन्थ है, उसका नाम है-‘मनुस्मृति’। इसके रचयिता (UPBoardSolutions.com) आदिपुरुष मनु को माना जाता है।

प्रस्तुत पाठ के श्लोक इसी मनुस्मृति से संगृहीत हैं। यह सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के विविध पक्षों पर प्रकाश डालने वाला श्रेष्ठ ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की उपयोगिता, प्रामाणिकता एवं तार्किकता को इस बात से समझा जा सकता है कि आजकल न्यायालयों में भी मनुस्मृति को प्रमाण मानकर व्यवहार-निर्वाह किया जाता है। इसी ग्रन्थ से विद्यार्थियों के लिए व्यवहार से सम्बन्धित नियम संकलित किये गये हैं।

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पाठ-सारांश

विद्यार्थी को सूर्योदय से पूर्व ब्राह्म-मुहूर्त में उठकर धर्म, अर्थ, शरीर के कष्टों एवं वेदों के तत्त्वों पर विचार करना चाहिए। भोजन करने के उपरान्त स्नान नहीं करना चाहिए। रुग्णावस्था में, रात्रि में, वस्त्रों को पहने हुए, निरन्तर तथा अपरिचित जलाशय में कभी भी स्नान नहीं करना चाहिए। विद्यार्थी को अपना जूठा भोजन किसी को नहीं देना चाहिए। भोजन को समय पर एवं उचित मात्रा में ग्रहण करना चाहिए। भोजनोपरान्त मुँह अवश्य साफ करना चाहिए।

प्रणाम करने की आदत वाले तथा बड़ों की सेवा-शुश्रुषा करने वाले विद्यार्थी की आयु, विद्या, यश और बल बढ़ते हैं। विद्यार्थी को गीले पाँव भोजन करना चाहिए, किन्तु गीले पाँव सोना नहीं चाहिए। गीले पाँव भोजन करने से आयु बढ़ती है। विद्यार्थी को सदैव प्रिय सत्य ही बोलना चाहिए। अप्रिय सत्य और प्रिय असत्य को कभी नहीं बोलना चाहिए, यही उत्तम धर्म है। उसे चंचल हाथ-पैर, चंचल नेत्र, कठोर स्वभाव, चंचल वाणी, दूसरों से द्रोह करने वाला नहीं होना चाहिए।

सभी शुभ लक्षणों से हीन होने पर भी सदाचारी, श्रद्धावान् और दूसरों की निन्दा न करने वाला व्यक्ति सौ (UPBoardSolutions.com) वर्ष तक जीवित रहता है। स्वतन्त्रता ही सुख है और परतन्त्रता दुःख है, रि.धार्थी को सुख-दु:ख को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। एकान्त चिन्तने ही कल्याणकारी होता है; अतः विद्यार्थी को अपना हितचिन्तन एकान्त में बैठकर करना चाहिए।

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पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
ब्राह्म मुहूर्ते बुध्येत्, धर्मार्थी चानुचिन्तयेत्
कायक्लेशांश्च तन्मूलान्, वेदतत्त्वार्थमेव च ॥ [2006]

शब्दार्थ ब्राह्म मुहूर्ते = ब्राह्म-मुहूर्त में, सूर्योदय से पूर्व 48 मिनट तक के समय को ब्राह्म-मुहूर्त कहते हैं। बुध्येत = जागना चाहिए। धर्मार्थी = धर्म और अर्थ (धन) के बारे में। अनुचिन्तयेत् = विचार करना चाहिए। कायक्लेशान् = शरीर के कष्टों को। तन्मूलान् = उनके (शारीरिक कष्ट के कारणों को। वेदतत्त्वार्थम् = वेदों के वास्तविक अर्थ को।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड‘पद्य-पीयूषम्’ के विद्यार्थिचर्या शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में विद्यार्थी के प्रात: उठने के उचित समय को बताया गया है।

अन्वय, (छात्रः) ब्राह्म मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थी च अनुचिन्तयेत्, कायक्लेशान् तन्मूलान्, वेद-तत्त्वार्थम् एव च (चिन्तयेत्)।

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व्याख्या मनु का कथन है कि छात्र को ब्राह्म-मुहूर्त में अर्थात् सूर्योदय से 1 घण्टे पूर्व जागना चाहिए और धर्म तथा अर्थ के बारे में चिन्तन करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि लोक-कल्याण के लिए जितना आवश्यक धन है, परलोक कल्याण के लिए उतना ही आवश्यक धर्म भी है। साथ (UPBoardSolutions.com) ही उसे अपने शारीरिक कष्टों, उनके कारणों व निवारण के उपायों तथा वेदों के सारतत्त्व के विषय में भी विचार करना चाहिए।

(2)
न स्नानमाचरेद भुक्त्वा , नातुरो न महानिशि।
न वासोभिः सहाजस्त्रं, नाविज्ञाते जलाशये ॥ [2006, 09]

शब्दार्थ आचरेत् = करना चाहिए। भुक्त्वा = भोजन करके। आतुरः = रोगी। महानिशि = अधिक रात में। वासोभिः सह = कपड़ों के साथ। अजस्त्रम् = निरन्तर, बहुत समय तक अविज्ञाते = अपरिचिता जलाशये = तालाब में।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है कि विद्यार्थी को कब, कहाँ और कैसे स्नान नहीं करना चाहिए।

अन्वय (छात्रः) भुक्त्वा स्नानं न आचरेत्, न आतुरः, न महानिशि, न वासोभिः सह अजस्रं, न अविज्ञाते जलाशये (स्नानम् आचरेत्)।

व्याख्या मनु का कथन है कि विद्यार्थी को भोजन करके स्नान नहीं करना चाहिए; न रोगी (बीमार) होने पर, न मध्य रात्रि में, न कपड़ों के साथ बहुत समय तक और न अपरिचित जलाशय में स्नान करना चाहिए।

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(3)
नोच्छिष्टं कस्यचिद् दद्यान्नाद्याच्चैव तथान्तरा।
न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्टः क्वचिद् व्रजेत् ॥

शब्दार्थ उच्छिष्टम् = जूठा भोजन। कस्यचित् = किसी के लिए। दद्यात् = देना चाहिए। न अद्यात् = भोजन नहीं करना चाहिए। अन्तरा = बीच में, अर्थात् भोजन के दो समयों के मध्य में या बहुत-से लोगों के मध्य। अत्यशनम् = अधिक भोजन। कुर्यात् = करना चाहिए। उच्छिष्टः = जूठे मुँहा क्वचित् = कहीं पर। व्रजेत् = जाना चाहिए।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में भोजन की उचित प्रक्रिया पर प्रकाश डाला गया है।

अन्वय (छात्रः) कस्यचित् उच्छिष्टं न दद्यात् अन्तरा च न एव अद्यात्। न च अति अशनं एव कुर्यात्। उच्छिष्ट: च क्वचित् न व्रजेत्।

व्याख्या मनु का कथन है कि विद्यार्थी को किसी को अपना जूठा भोजन नहीं देना चाहिए तथा (UPBoardSolutions.com) भोजन के दो समयों के बीच में (अर्थात् बार-बार) या बहुत-से लोगों के बीच में भोजन नहीं करना चाहिए। उचित मात्रा से अधिक भोजन नहीं करना चाहिए। जूठे मुंह (बिना मुँह धोये) कहीं नहीं जाना चाहिए।

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(4)
अभिवादनशीलस्य, नित्यं वृद्धोपसेविनः।।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते, आयुर्विद्या यशो बलम् ॥ [2006, 08,09, 10, 11, 15]

शब्दार्थ अभिवादनशीलस्य = प्रणाम करने के स्वभाव वाले की। नित्यं = प्रतिदिन। वृद्धोपसेविनः = बड़े-बूढों की सेवा करने वाले की। चत्वारि = चार चीजें। तस्य = उस (विद्यार्थी) के वर्धन्ते = बढ़ते रहते हैं।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में व्यावहारिक सदाचरण पर प्रकाश डालते हुए उसके महत्त्व को स्पष्ट किया गया है।

अन्वय अभिवादनशीलस्य, नित्यं वृद्धोपसेविन: तस्य आयुः विद्या यश: बलम् (एतानि) चत्वारि वर्धन्ते।

व्याख्या मनु का कथन है कि जो छात्र अपने से बड़ों को अभिवादन कर उनका आशीर्वाद लेता है, नित्य अपने बड़े-बूढ़ों की सेवा करता है, उस छात्र की आयु, विद्या, यश और बल ये चार बढ़ते रहते हैं।

(5)
आर्द्रपादस्तु भुञ्जीत, नार्दपादस्तु संविशेत्।
आर्द्रपादस्तु भुञ्जानो, दीर्घमायुरवाप्नुयात् ॥ [2008, 12]

शब्दार्थ आर्द्रपादः = गीले पाँव वाला, धोने के पश्चात् बिना पोंछे। (UPBoardSolutions.com) भुञ्जीत = भोजन करना चाहिए। संविशेत् = सोना चाहिए। भुञ्जानः = भोजन करता हुआ। अवाप्नुयात् = प्राप्त करता है।

प्रसग प्रस्तुत श्लोक में दीर्घायु होने का उपाय बताया गया है।

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अन्वय आर्द्रपादः तु भुजीत। आईपादः तु ने संविशेत्। आर्द्रपादः तु भुञ्जानः दीर्घम् आयुः अवाप्नुयात्।।

व्याख्या मनु का कथन है कि गीले पाँव (धोने के बाद बिना पोंछे) भोजन करना चाहिए। गीले पैर नहीं सोना चाहिए। गीले पाँव भोजन करता हुआ दीर्घ आयु को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि जहाँ भीगे हुए पैरों से भोजन करना आयुवर्द्धक होता है, वहीं भीगे पैरों शयन करना हानिकारक।

(6)
सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न बूयोत्सत्यमप्रियम्।
प्रियं च नानृतं बूयादेष धर्मः सनातनः ।। [2009)

शब्दार्थ बूयात् = बोलना चाहिए। सत्यम् अप्रियम् = बुरा लगने वाला सत्य। अनृतम् = झूठ। सनातनः = सदा रहने वाला, शाश्वत।

प्रसंग इस श्लोक में अप्रिय सत्य और प्रिय असत्य न बोलने का परामर्श दिया गया है।

अन्वय सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात्, अप्रियं सत्यं न ब्रूयात्, प्रियं च अनृतं न ब्रूयात् एष सनातन: धर्मः (अस्ति)।

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व्याख्या मनु का कहना है कि सत्य बोलना चाहिए। प्रिय बोलना चाहिए। अप्रिय अर्थात् बुरा लगने वाला सत्य नहीं बोलना चाहिए तथा प्रिय अर्थात् अच्छा लगने वाला झूठ नहीं बोलना चाहिए। यही शाश्वत धर्म है।

(7)
न पाणिपादचपलो, न नेत्रचपलोऽनृजुः ।।
न स्याद्वाक्चपलश्चैव, न परद्रोहकर्मधीः ॥

शब्दार्थ पाणिपादचपलः = चंचल हाथ-पैर वाला। नेत्रचपलः = नेत्रों से चंचल। अनृजुः = कठोर स्वभाव वाला, कुटिल। वाक्चपलः = वाणी से चंचल। परद्रोहकर्मधीः = दूसरों के साथ द्रोह करने में बुद्धि रखने वाला।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में विद्यार्थी को चंचल न होने का परामर्श दिया गया है।

अन्वय (छात्रः) पाणिपादचपल: न (स्यात्)। नेत्रचपलः न (स्यात्), अनृणुः न (स्यात्), वाक्चपल: न (स्यात्), च न एवं परद्रोहकर्मधीः न स्यात्।।

व्याख्या मनु का कथन है कि छात्र को हाथ-पैरों से चंचल नहीं होना चाहिए; अर्थात् उसे अपने हाथ-पैर व्यर्थ में नहीं हिलाने चाहिए। चंचल नेत्रों वाला नहीं होना चाहिए, कुटिल स्वभाव वाला नहीं होना चाहिए, चंचल वाणी वाला नहीं होना चाहिए और न ही दूसरों से द्रोहकर्म में बुद्धि रखने वाला होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि विद्यार्थी को कुछ भी करने, कहीं भी जाने, सब कुछ देखने और कुछ भी कहने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहिए।

(8)
सर्वलक्षणहीनोऽपि, यः सदाचारवान्नरः
श्रद्दधानोऽनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति ॥ [2008, 11, 14]

शब्दार्थ सर्वलक्षणहीनोऽपि = सभी शुभ लक्षणों से हीन होता हुआ भी। यः (UPBoardSolutions.com) सदाचारवान्नरः = जो सदाचारी व्यक्ति। श्रद्दधानः = श्रद्धा रखने वाला, श्रद्धालु। अनसूयः = निन्दा न करने वाला, ईष्र्यारहित। शतं वर्षाणि जीवति = सौ वर्षों तक जीवित रहता है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सदाचारी व्यक्ति की उपलब्धि पर प्रकाश डाला गया है।

अन्वय सर्वलक्षणहीनः अपि यः नरः सदाचारवान्, श्रद्दधानः, नसूयः च (अस्ति), (स:) शतं वर्षाणि जीवति।

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व्याख्या मनु का कथन है कि सभी शुभ लक्षणों से हीन होता हुआ भी जो मनुष्य सदाचारी, श्रद्धा रखने वाला और दूसरों की निन्दा न करने वाला होता है, वह सौ वर्ष तक जीवित रहता है। तात्पर्य यह है कि सदाचारी, श्रद्धालु और ईर्ष्यारहित व्यक्ति ही दीर्घायुष्य को प्राप्त करते हैं।

(9)
सर्वं परवशं दुःखं, सर्वमात्मवशं सुखम्।।
एतद्विद्यात् समासेन, लक्षणं सुख-दुःखयोः ॥ [2008, 10, 12, 14, 15]

शब्दार्थ परवशं = पराधीनता। आत्मवशम् = स्वाधीनता। विद्यात् = जानना चाहिए। समासेन = संक्षेप में। लक्षणं = पहचान। सुख-दुःखयोः = सुख और दुःख की।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सुख-दु:ख के लक्षणों पर प्रकाश डाला गया है।

अन्वय परवशं सर्वं दु:खम् (अस्ति)। आत्मवशं सर्वं सुखम् (अस्ति)। एतद् समासेन सुख-दु:खयोः लक्षणं विद्यात्।।

व्याख्या मनु का कथन है कि जो दूसरे के अधीन है, वह सब दुःख है। जो अपने अधीन है, वह सब सुख है। इसे संक्षेप में सुख-दु:ख का लक्षण समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि स्वाधीनता सबसे बड़ा सुख और पराधीनता सबसे बड़ा दुःख है।

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(10)
एकाकी चिन्तयेन्नित्यं, विविक्ते हितमात्मनः।
एकाकी चिन्तयानो हि, परं श्रेयोऽधिगच्छति ॥ [2006,07, 15]

शब्दार्थ एकाकी = अकेला| चिन्तयेत् = विचार करना चाहिए। विविक्ते = एकान्त में। हितम् आत्मनः = अपनी भलाई। चिन्तयानो = विचार करने वाला। परं श्रेयः = परम कल्याण को। अधिगच्छति = प्राप्त करता है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में एकान्त के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है।

अन्वय विविक्ते एकाकी (सन्) नित्यम् आत्मनः हितं चिन्तयेत्। हि एकाकी चिन्तयान: (पुरुष:) परं श्रेयः अधिगच्छति।।

व्याख्या मनु का कथन है कि एकान्त में अकेला होते हुए सदा अपने हित के विषय (UPBoardSolutions.com) में विचार करना चाहिए; क्योंकि अकेले ही (अपने हित का) चिन्तन करने वाला पुरुष परम कल्याण की प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि आत्म-कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह एकान्त में यह सोचे कि मेरा हित किसमें है।

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सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) ब्राह्म मुहूर्ते बुध्येत, धर्माचानुचिन्तयेत्।। [2010]

सन्दर्भ प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘विद्यार्थिचर्या’ नामक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में विद्यार्थी के कर्तव्य का वर्णन किया गया है।

अर्थ ब्राह्म-मुहूर्त में जागना चाहिए तथा धर्म-अर्थ के बारे में चिन्तन करना चाहिए।

व्याख्या सूर्योदय के एक घण्टे पूर्व से लेकर सूर्योदय तक का समय ब्राह्म-मुहूर्त कहलाता है। अत: इस अन्तराल में विद्यार्थी को अवश्य ही निद्रा से जाग जाना चाहिए तथा धर्म और अर्थ के बारे में विचार करना चाहिए। अर्थ से आशय धन से होता है। विद्यार्थी का धन तो विद्या ही है। अतः विद्यार्थी को प्रात:काल विद्याध्ययन या स्वाध्याय करना चाहिए। सभी विद्वान् और शिक्षाशास्त्री मानते हैं कि ब्राह्म-मुहूर्त में किया गया अध्ययन मस्तिष्क में स्थायी रूप से बस जाता है अर्थात् याद हो जाता है। विद्यार्थी के लिए धर्म का तात्पर्य नित्य-नैमित्तिक कार्य तथा ईश्वर की यथासम्भव आराधना से है। अत: प्रत्येक विद्यार्थी को सूर्योदय से पूर्व उठकर अपने धर्म-अर्थ का चिन्तन करना चाहिए।

(2) न स्नानमाचरेद् भुक्त्वा नातुरो न महानिशि। [2008, 10, 15]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में विद्यार्थियों के लिए स्नान सम्बन्धी कति ‘ नियमों का वर्णन किया गया है।

अर्थ भोजन करके, रुग्णावस्था में और आधी रात में स्नान नहीं करना चाहिए।

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व्याख्या स्वस्थ और नीरोग रहने के लिए व्यक्ति को भोजन करके स्नान नहीं करना चाहिए। इसका कारण यह है कि भोजन को पचाने के लिए जिस पाचन-अग्नि की आवश्यकता होती है, वह स्नान करने के उपरान्त मन्द पड़ जाती है, जिससे भोजन ठीक से नहीं पच पाता और व्यक्ति क्रमश: अस्वस्थ होता जाता है। रुग्णावस्था में स्नान करने पर व्यक्ति की बीमारी और अधिक भयंकर स्थिति में पहुँचकर उसके लिए प्राणघातक हो सकती है। इसी कारण अर्द्ध-रात्रि या मध्यरात्रि में किया गया स्नान भी व्यक्ति के लिए हानिकारक ही होता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि विद्यार्थी को सदैव भोजन से पूर्व स्नान करना चाहिए, रोगग्रस्त होने पर रोग की (UPBoardSolutions.com) अवस्था के अनुसार ही स्नान करना चाहिए और अर्द्ध-रात्रि में स्नान से बचना चाहिए।

(3) अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में व्यक्ति को अभिवादनशील एवं वृद्ध-सेवी होने का परामर्श दिया गया है।

अर्थ अभिवादनशील और प्रतिदिन वृद्धों की सेवा करने वाले की आयु, विद्या, यश और बल बढ़ते हैं।

व्याख्या जो लोग अपने से बड़ों का नम्रतापूर्वक अभिवादन करते हैं और वृद्धों की नियमित रूप से सेवा करते हैं, उन लोगों की आयु, विद्या, यश और बल बढ़ते हैं। इसका कारण यह है कि जो लोग ऐसा करते हैं, उनके साथ बड़ों के आशीर्वाद और शुभकामनाएँ सम्मिलित होती हैं और सच्चे मन से दिये गये आशीर्वाद अवश्य फलीभूत होते हैं; अतः व्यक्ति को अपने से बड़ों का अभिवादन और वृद्धों की सेवा तन-मन से करनी चाहिए।

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(4)
चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्। [2006,07] |
आयुर्विद्या यशो बलम्। [2012, 14, 15]

प्रसंग यहाँ अभिवादनशीलता और बड़े-बूढ़ों की सेवा को सर्वांगीण उन्नति का साधन बताया गया है।

अर्थ उसकी (अभिवादनशील और प्रतिदिन वृद्धों की सेवा करने वाले की) आयु, विद्या, यश और बल चारों बढ़ते हैं।

व्याख्या बड़ों का आदर-सत्कार करने और नित्य-प्रति सेवा करने वाले व्यक्ति की आयु, विद्या, यश और बल ये चारों बढ़ते हैं; क्योंकि इन गुणों से युक्त व्यक्ति की सर्वत्र प्रशंसा होती है, जिससे वह मरकर भी जीवित रहता है। गुरुजनों की कृपा होने पर व्यक्ति विद्या में निपुण हो जाता है (UPBoardSolutions.com) और गुरुजनों; अर्थात् अपने से बड़ों का आदर करना विनम्रता का द्योतक है। विपत्ति में ऐसे व्यक्ति की सभी सहायता करते हैं। वस्तुतः हम महानता के समीप तभी होते हैं जब हम विनम्र होते हैं। विनम्रता बड़ों के प्रति कर्तव्य है, बराबर वालों के प्रति विनयसूचक है और छोटों के प्रति कुलीनता की द्योतक है।

(5)
सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्। [2006]

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् ।। [2007, 11, 12]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में प्रिय सत्य बोलने पर बल दिया गया है।

अर्थ सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए परन्तु अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए।

व्याख्या मनुष्य को सदा सत्य बोलना चाहिए। सत्य बोलने के साथ-साथ उसे ऐसा वचन भी बोलना चाहिए, जो सुनने वालों को प्रिय लगे। यदि कोई बात सत्य है, लेकिन सुनने वाले को वह बुरी लगती है तो उसे भी नहीं बोलना चाहिए; जैसे किसी काने व्यक्ति को ‘काना’ कहकर पुकारा जाए तो यह बात सत्य तो है, लेकिन उसके लिए अप्रिय है। अतः सत्य होते हुए भी अप्रिय होने के कारण ऐसा नहीं कहना चाहिए।

(6), श्रद्दधानोऽनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति [2007]

प्रसग प्रस्तुत सूक्ति में मनुष्य के दीर्घायु होने के कारणों पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ श्रद्धा रखने वाला, निन्दा न करने वाला व्यक्ति सौ वर्षों तक जीवित रहता है।

व्याख्या मनु जी कहते हैं कि जो व्यक्ति श्रद्धेय लोगों और वस्तुओं के प्रति श्रद्धा रखता है और दूसरे लोगों की निन्दा नहीं करता है, वह संसार में कम-से-कम सौ वर्ष तक जीवित रहता है। यहाँ पर जीवित रहने से आशय उसका यश निरन्तर चलते रहने से है; क्योंकि व्यक्ति के जीवन (UPBoardSolutions.com) का उद्देश्य सद्कर्मों के द्वारा युगों-युगों तक चलते रहने वाले यश की प्राप्ति करना है। श्रद्धावान् और दूसरों की निन्दा न करने वाला व्यक्ति उस यश को प्राप्त कर लेता है; क्योंकि इन गुणों से युक व्यक्ति का लोग मरने के पश्चात् भी युगों-युगों तक स्मरण करते हैं। इस प्रकार व्यक्ति मरणोपरान्त भी जीवित रहता है।

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(7)
सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।। [2006,09, 11, 12, 14]
सर्वं परवशं दुःखं। [2013]
एतद् विद्यात् समासेन, लक्षणं सुखदुःखयोः ॥

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में स्वतन्त्रता के महत्त्व को बताया गया है।

अर्थ पराधीनता सबसे बड़ा दु:ख है तथा स्वाधीनता सबसे बड़ा सुख।

व्याख्या महर्षि मनु ने संक्षेप में सुख और दुःख का लक्षण बताते हुए कहा है कि पराधीनता से बढ़कर दुःख नहीं है और स्वाधीनता से बढ़कर सुख नहीं है। तोता सोने के पिंजरे में रहकर भी परवश होने से दुःखी रहता है और मुक्त हो जाने पर सुखी हो जाता है। पराधीनता में मनुष्य मन के अनुकूल कार्य नहीं कर पाता; जिससे वह दुःखी रहता है। स्वाधीनता में वह अपने मन के अनुकूल कार्य करके सुखी रहता है। निश्चित ही बन्धन में कोई सुख नहीं है। स्वाधीन रहने पर ही सुख की प्राप्ति हो सकती है। तुलसीदास जी ने भी कहा है-‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।’ इसी को संक्षेप में सुख और दुःख का लक्षण जानना चाहिए अर्थात् सुख को स्वाधीनता का तथा दुःख को पराधीनता का।

(8)
एकाकी चिन्तयानो हि परं श्रेयोऽधिगच्छति। [2007,08,09, 10, 14]
पॅरं श्रेयोधिगच्छति।।

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में एकान्त के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है।

अर्थ निश्चय ही अकेला मनुष्य चिन्तन करने पर परम कल्याण को प्राप्त करता है।

व्याख्या मनुष्य को एकान्त में बैठकर अपना हित सोचना चाहिए। जो व्यक्ति एकान्त में बैठकर अपना हित सोचता है, वह परम कल्याण को प्राप्त करता है; क्योंकि एकान्त में बैठने से एकाग्रता होती है और एकाग्र होकर ही कोई व्यक्ति ध्यानपूर्वक सोच सकता है। एकान्त में बैठने से व्यक्ति के ऊपर बाहरी वातावरण का प्रभाव नहीं पड़ता, जिससे उसे किसी प्रकार के दबाव का सामना नहीं करना पड़ता; फलतः उचित निर्णय लेना आसान हो जाता है। इसीलिए कहा गया है कि व्यक्ति को अपने सम्बन्ध में चिन्तन एकान्त में ही करना चाहिए।

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श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) ब्राह्म मुहूर्ते …………………………………………… वेदतत्त्वार्थमेव च ॥ [2014]
संस्कृतार्थः स्मृतिकारः मनुः कथयति यत् छात्र: प्रात:काले ब्राह्म मुहूर्ते बुध्येत्, धर्मान् अर्थान् च अनुचिन्तयेत्। कायस्य क्लेशान् तन्मूलान्, तत् निवारणोपायान्, वेदस्य तत्त्वानाम् अर्थस्य च चिन्तयेत्।।

(2) न स्नानमाचरेद …………………………………………… नाविज्ञाते जलाशये॥ [2006, 10, 13]
संस्कृतार्थः स्मृतिकारः मनुः कथयति यत् छात्र: भोजनं कृत्वा कदापि स्नानं ने आचरेत्। आतुरोऽपि, दीर्घ निशायाम् अपि, वस्त्राणि परिधायापि, अविज्ञाते सरोवरे स्नानं कदापि न आचरेत्।

(3) नोच्छिष्टं कस्यचिद् …………………………………………… क्वचिद् व्रजेत् ॥ [2007, 09]
संस्कृतार्थः स्मृतिकारः मनुः कथयति यत् विद्यार्थी कस्यचित् उच्छिष्टं भोजनं न दद्यात्, नैव द्वौ भोजनस्य मध्ये भोजनं कुर्यात्, अत्यधिक भोजनं न कुर्यात्, नापि उच्छिष्टः मुखात् क्वचित् गच्छेत्।।

(4) अभिवादनशीलस्य …………………………………………… यशो बलम् ॥ [2010, 11, 12, 13, 14, 15]
संस्कृतार्थः स्मृतिकारः अभिवादनशीलतायाः वृद्ध-सेवायाः च लाभं वर्णयति यत् यस्य स्वभाव: स्वपूज्यानाम् अभिवादनम् अस्ति, यः सदा वृद्धानां सेवां करोति, तस्य जनस्य आयुः, विद्या, यशः शक्तिः च इति चत्वारि वस्तूनि वृद्धि लभन्ते।

(5) आर्दपादस्तु भुञ्जीत …………………………………………… दीर्घमायुरवाप्नुयात् ॥ (2006, 11]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके चरण-प्रक्षालनस्य नियमानां र्णनम् : प्त–जलेन चरणौ प्रक्षाल्य आर्द्रपाद एव भोजनं (UPBoardSolutions.com) कुर्यात्, परम् आर्द्राभ्यां पादाभ्यां शयनं न कुर्यात्। यः जनः जलेन चरणौ प्रक्षाल्य आर्द्रपादः भोजनं करोति सः दीर्घम् आयुः प्राप्नोति।।

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(6) सत्यं ब्रूयात्प्रियं …………………………………………… धर्मः सनातनः ॥ [2006, 13]
संस्कृतार्थः महर्षिः मनुः सत्यभाषणस्य विषये नियमं कथयति यत् मनुष्यः सदा सत्यं वदेत्। सदा प्रियं वदेत्। तादृशं सत्यं न वदेत् यत् कस्यापि अप्रियं कटु च अस्ति। तादृशं प्रियम् अपि न वदेत् यत् सत्यं न अस्ति। इत्थं प्रकारेण सत्यं-प्रियं-भाषणं सर्वेषां समीचीनः धर्मः अस्ति।

(7) न पाणिपादचपलो …………………………………………… परद्रोहकर्मधीः ॥
संस्कृतार्थः स्मृतिकारः मनुः कथयति यत् विद्यार्थी हस्त–पादयोः चापल्यं न कुर्यात्, इत्यमेव अनृजुः सन् वाक्चापल्यमपि न कुर्यात्। परेषां द्रोहकर्मणि बुद्धिः अपि न कुर्यात्।

(8) सर्वलक्षणहीनोऽपि …………………………………………… वर्षाणि जीवति॥ [2008, 09, 10, 12, 13]
संस्कृतार्थः मनुः महाराजः कथयति यत् यः नरः सर्वलक्षणैः हीनः अस्ति, परञ्च सदाचारयुक्तः, श्रद्धायुक्तः, ईष्र्यारहितः च अस्ति, सः शतं संवत्सराणि जीवति।।

(9) सर्वं परवशं दुःखं, …………………………………………… सुखदुःखयोः ॥ [2006, 08, 10, 12, 14]
संस्कृतार्थः स्मृतिकारः मनुः कथयति-अस्मिन् संसारे यदपि (UPBoardSolutions.com) पराधीनम् अस्ति, तत्सर्वं दु:खस्वरूपम् अस्ति। यत् स्वाधीनम् अस्ति, तत्सर्वं सुखस्वरूपम् अस्ति। पराधीनतां दुःखस्य स्वाधीनतां च सुखस्य सङ्क्षेपेणलक्षणं जानीयात्।।

(10) एकाकी चिन्तयेन्नित्यं …………………………………………… श्रेयोऽधिगच्छति। [2006, 09, 14]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके एकान्तचिन्तनस्य महत्त्वं प्रदर्शितम् यत् प्रत्येक मानवा: एकान्तस्थले स्थित्वा प्रतिदिनं स्वहिताय चिन्तनं कुर्यात्। य: मानव: नित्यप्रति एकाकी भूत्वा स्वहितकारिणं विषयं प्रति चिन्तयति.य: सर्वथा स्वकल्याणं प्राप्नोति।

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Class 10 Sanskrit Chapter 7 UP Board Solutions वयं भारतीयाः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 7 Vayam Bhartiya Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 7 हिंदी अनुवाद वयं भारतीयाः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

सभी धर्म मानव की एकता में विश्वास रखते हैं और सभी धर्मों को प्राप्तव्य भी एक है। सत्य, दया, परोपकार, शुद्धता आदि बातों का उपदेश सभी धर्मों में दिया गया है। कोई भी धर्म सदाचार और नैतिकता का विरोध नहीं करता। धर्म के मूल-तत्त्व को न समझने वाले ही विरोध और द्वेष को जन्म देते हैं। भारत तो “वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना में विश्वास रखता है। हम सभी को यह समझना चाहिए कि हम हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई बाद में हैं, (UPBoardSolutions.com) सर्वप्रथम हम भारतीय हैं। प्रस्तुत नाटक बड़े रोचक ढंग से ‘राष्ट्रीय एकता’ के सन्देश का उद्घोष करते हुए वर्ण-सम्प्रदाय के भेदभाव को मिटाकर एक होकर रहने की प्रेरणा देता है। इसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी धर्मों के पात्र हैं, जिनमें प्रारम्भ में साम्प्रदायिक भेदभाव की भावना व्याप्त है, किन्तु अन्त में सभी एक होकर भाईचारे एवं सद्भाव से रहने का संकल्प लेते हैं।

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पाठ-सारांश

अध्यापक का कक्षा में प्रवेश – नाटक का प्रारम्भ कक्षा में अध्यापक के प्रवेश से होता है। अध्यापक के कक्षा में पहुंचने पर सभी छात्र उनके सम्मान में उठ खड़े होते हैं। तत्पश्चात् अध्यापक़ महोदय सामान्य ज्ञान सम्बन्धी प्रश्न पूछने के लिए कहकर आफताब से गौतम बुद्ध के चरित्र के विषय में प्रश्न पूछते हैं।

आफताब द्वारा उत्तर देना – आफताब उत्तर देता है कि महात्मा बुद्ध बचपन से ही चिन्तनशील और परम दयालु थे। वे सदैव संसार को दु:खों से मुक्त कराने की सोचा करते थे। महात्मा बुद्ध ने सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि का मनुष्यों को उपदेश दिया और समाज में व्याप्त धार्मिक पाखण्डों का खुलकर खण्डन किया।

अध्यापक का जसबिन्दर एवं दीपक से प्रश्न पूछना – इसके बाद अध्यापक जसबिन्दर से ईसा मसीह के उपदेशों के विषय में पूछते हैं। जसबिन्दर उत्तर देता है कि ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईसा मसीह ने। दु:खियों के दु:खों को दूर करने, निर्धनों का कल्याण करने और रोगियों की (UPBoardSolutions.com) पीड़ा हरने के लिए संसार को उपदेश दिया। मानव-सेवा के द्वारा ही ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सकता है, यही उनके उपदेश का मूल सार है। तत्पश्चात् अध्यापक ने दीपक से गुरु गोविन्द सिंह के विषय में प्रश्न किया।

‘दीपक सिखों के दसवें गुरु गुरु गोविन्द सिंह के विषय में बताता हुआ कहता है कि गुरु गोविन्द सिंह ने जन्मभूमि की रक्षा के लिए, देशभक्ति की भावना से आत्मोत्सर्ग कर दिया।

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मध्यावकाश में सबका भोजन करना – इसके बाद मध्यावकाश हो जाता है और सभी छात्र एक स्थान पर बैठकर खाना खाते हैं। दीपक कहीं चला जाता है और जसबिन्दर कहता है कि उसके पास भोजन के लिए कुछ भी नहीं है। पीटर अपना भोजन जसबिन्दर को दे देता है। कुछ दिनों के बाद बातचीत के दौरान जसबिन्दर के यह कहने पर कि उसके पास परीक्षा-फीस जमा करने के लिए पैसे नहीं हैं, पीटर उसका परीक्षा शुल्क भी जमा करता है।

आफताब का दीपक को रक्त देना – कुछ दिनों के बाद दीपक पर बम फेंका जाता है। घायलावस्था में चिरंजीव चिकित्सालय में वह मृत्यु से संघर्ष कर रहा होता है। उसके जीवन की रक्षा के लिए रक्त की। आवश्यकता है। दीपक के वर्ग का रक्त न तो अस्पताल से मिल पाता है और न ही उसके घर के किसी सदस्य से। ऐसी विषम परिस्थिति में आफताब स्वेच्छया अपने रक्त का परीक्षण कराता है। उसका रक्त दीपक के रक्त से मिल जाता है और वह रक्तदान करके उसकी प्राणरक्षा करता है।

सद्भाव का उदय – दीपक जो कभी जातिगत भेदभाव में विश्वास करता था, इस दुर्घटना से उसकी आँखें खुल जाती हैं और वह सभी भेदभाव भुलाकर सबको भाई के समान मानने लगता है। सभी लोग ईद, होली इत्यादि त्योहार परस्पर मिलकर बड़े सौहार्द के साथ मनाते हैं। दीपक के पिता के इस सन्देश के साथ नाटक का पटाक्षेप हो जाता है कि विभिन्न धर्मों के मार्ग भिन्न-भिन्न हैं, किन्तु सभी का गन्तव्य एक ही है। सबकी शिराओं में एक समान रक्त (UPBoardSolutions.com) प्रवाहित है। ईश्वर सभी व्यक्तियों के हृदय में निवास करता है।

प्रमुख कथ्य – इस नाटक को प्रमुख कथ्य जात-पाँत के भेदभाव को समाप्त कर मानवीय धर्म की स्थापना करना है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ही नाटक में दीपक को आरम्भ में जात-पाँत का पोषक दिखाया गया है, किन्तु दुर्घटनाग्रस्त होने पर जब आफताब अपने रक्तदान द्वारा उसकी प्राणरक्षा करता है तो उसकी विचारधारा में परिवर्तन हो जाता है और वह सर्वधर्म समभाव में अपनी आस्था व्यक्त करती है।

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चरित्र-चित्रण

आफताब [2009, 10, 14]

परिचय आफताब मुस्लिम छात्र है, किन्तु उसमें धार्मिक कट्टरता नहीं है। उसका दृष्टिकोण बड़ा व्यापक है। वह सभी धर्मों को एकसमान मानने वाली है। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

1. राष्ट्रीय एकता का पोषक – आफताब में जाति-पाँति की भावना लेशमात्र भी नहीं है, उसके हृदय में तो सर्वधर्म समभाव की पवित्र विचारधारा प्रवहमान है। अपने धर्म के अतिरिक्त उसे अन्य धर्मों का भी पर्याप्त ज्ञान है। अध्यापक के पूछने पर वह महात्मा बुद्ध के प्रमुख उपदेशों का उल्लेख करता है। अन्य धर्म का होते हुए भी वह दीपक को अपना रक्त देकर उसकी प्राणरक्षा करता है तथा होली के अवसर पर वह दीपक के घर जाता है।

2. श्रेष्ठ मित्र – आफताब सच्चा मित्र है। उसकी सच्ची मित्रता का उद्घाटन उस समय होता है, जब उसे ज्ञात होता है कि दीपक बम विस्फोट में घायल हो गया है। वह उसे देखने के लिए व्याकुल हो जाता है और चिकित्सालय जाकर रक्तदान करके अपने मित्र दीपक (UPBoardSolutions.com) की प्राणरक्षा करता है। इदानीं प्राणानां मोहः नैव कर्तव्यः।” उसके इस वाक्य से उसकी निश्छल मैत्री की पवित्र धारा निस्सृत हुई प्रतीत होती है।

3. उदारमना – सम्पूर्ण नाट्यांश में आफताब को उदारमना छात्र के रूप में चित्रित किया गया है। सर्वप्रथम वह भूखे जसबिन्दर को सान्त्वना देता हुआ दिखाई देता है, फिर चिकित्सालय में दीपक के माता-पिता को ढाढ़स बँधाता हुआ और दीपक के शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करता हुआ दिखलाई पड़ता है। वह होली के अवसर पर दीपक के घर जाकर होली की बधाई भी देता है। यह सब क्रिया-कलाप उसकी उदारता का स्वयं व्याख्यान करते प्रतीत होते हैं।

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4. बुद्धिमान् – आफताब बुद्धिमान् छात्र है। महात्मा गौतम बुद्ध के विषय में अध्यापक द्वारा पूछने पर वह सन्तोषजनक उत्तर देता है। सच्ची मित्रता के विषय में दीपक के पिता से कहे गये उसके शब्द तथा होलिकोत्सव पर ईद तथा होली के महत्त्व पर उसके द्वारा डाला गया प्रकाश उसके बुद्धिमान् होने की पुष्टि करते हैं।

निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि आफताब सभी मानवीय गुणों से समन्वित, राष्ट्रीय एकता का पोषक, उदारवादी छात्र है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रोन्नति के लिए आफताब जैसे नवयुवकों की देश को महती आवश्यकता है।

दीपक [2008, 10, 11, 14, 15]

परिचय दीपक एक हिन्दू छात्र है। गुरु गोविन्द सिंह के गुणों से प्रभावित होते हुए भी उसमें जातिवाद की भावना विद्यमान है। उसकी प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

1. जातिवाद का पोषक – यद्यपि दीपक सिखों के दसवें गुरु गुरु गोविन्द सिंह से अत्यधिक प्रभावित है, तथापि उसके हृदय में गोविन्द सिंह के उपदेशों की मानवीय सेवा-भावना विद्यमान नहीं है। वह हिन्दू, मुसलमान को पृथक्-पृथक् रखकर देखता है। मध्यावकाश (UPBoardSolutions.com) में आफताब के साथ बैठकर भोजन न करके वह अपनी जातिगत भावना को सार्वजनिक कर देता है।

2. परिवर्तित विचारधारा वाला – दीपक प्रारम्भ में संकीर्ण जातिगत भावना का पोषक प्रतीत होता है, किन्तु आफताब द्वारा अपनी प्राणरक्षा किये जाने पर उसकी विचारधारा परिवर्तित हो जाती है और वह जातिवाद की संकीर्ण भावना से ऊपर उठकर सभी धर्मों को एक समान मानने लगता है। कभी वह आफताब के साथ बैठकर भोजन नहीं करना चाहता था, किन्तु कालान्तर में वह उसका आलिंगन करता है, ईद के त्योहार पर उसके घर जाकर उसे ईद की बधाई देता है और होली के त्योहार पर आफताब को अपने घर बुलाकर उसका पर्याप्त आदर-सत्कार करता है।

3. शिष्टाचारी – यद्यपि दीपक में जाति-पाँति की हीन भावना विद्यमान है, किन्तु वह अशिष्ट नहीं है। वह किसी के साथ अशिष्टता का व्यवहार नहीं करता। घायलावस्था में भी उठकर वह आफताब का स्वागत करता है। आफताब के रक्तदान द्वारा स्वस्थ होने पर आफताब को साधुवाद देता हुआ वह उसे सच्चा मित्र मान लेता है। होली के अवसर पर अपने घर पर वह आफताब का जोरदार स्वागत करता है।

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4. बुद्धिमान् – दीपक बुद्धिमान् छात्र है। उसे सभी धर्मों का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त है। कक्षा में अध्यापक जी द्वारा पूछने पर वह गुरु गोविन्द सिंह के आत्मोत्सर्ग पर प्रकाश डालता है तथा ईद के अवसर पर आफताब के यहाँ अपने मित्रों के मध्य वह ईद के महत्त्व को बताता हुआ भाईचारे का सन्देश देता है।

प्रस्तुत नाट्यांश में दीपक की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उसके माध्यम से यह दर्शाने का प्रयत्न किया गया है कि जातिवाद जैसी संकीर्ण मान्यताओं के द्वारा न तो व्यक्ति का कोई उपकार हो सकता है और न ही राष्ट्र का। हमें जातिगत भेदभाव भुलाकर प्रेम से रहना चाहिए, यह सन्देश (UPBoardSolutions.com) भी उसी के माध्यम से सभी लोगों तक पहुँचता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
रामः कस्य पुत्रः आसीत्? (2015)
उत्तर :
रामः दशरथस्य पुत्रः आसीत्।

प्रश्न 2.
जनाः दशरथपुत्रं रामं कस्य प्रतीकं मन्यन्ते? (2015)
उत्तर :
जनाः दशरथपुत्रं रामं धर्मस्य मर्यादायाः त्यागस्य च प्रतीकं मन्यन्ते।

प्रश्न 3.
विजयादशमी महोत्सवः किं शिक्षयति?
उत्तर :
विजयादशमी महोत्सव: शिक्षयति यत् सदा धर्मस्य विजय: अधर्मस्य च पराजयः भवति।

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प्रश्न 4.
गुरुगोविन्दसिंहः किमर्थं पूज्यः? [2009, 11, 14]
उत्तर :
गुरुगोविन्दसिंह: जन्मभूमेः रक्षार्थं देशभक्तिभावनया आत्मोत्सर्गम् अकरोत्, अत: पूज्यः।

प्रश्न 5.
ईसामसीहः मानवान् किमुपादिशत्?
उत्तर :
ईसीमसीह: आर्तजनानाम् आर्तिहरणाय, (UPBoardSolutions.com) निर्धनजनानां कल्याणाय, रोग-पीडितानां च परित्राणाय उपादिशत्।

प्रश्न 6.
ईदमहोत्सवे जनाः परस्परं किं कुर्वन्ति? [2006]
उत्तर :
ईदमहोत्सवे जनाः द्वेषभावं विहाय परस्परम् आलिङ्गन्ति।

प्रश्न 7.
सन्मित्रलक्षणं किमस्ति? [2008,09, 10, 15]
उत्तर :
सन्मित्रम् आपद्गतं न जहाति तथा काले साहाय्यं करोति।

प्रश्न 8.
आफताबः दीपकस्य जीवनरक्षार्थं किमकरोत्?
उत्तर :
आफताबः दीपकस्य जीवनरक्षार्थं रक्तदानम् अकरोत्।

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प्रश्न 9.
स्वस्थे सति दीपकः आफताब किम अकथयत्? (2015)
उत्तर :
स्वस्थे सति दीपक: आफताबस्य आचरणं श्लाघयित्वा (UPBoardSolutions.com) साधुवादम् अकथयत्, स्वकीयं सन्मित्रं च अमन्यत्।

प्रश्न 10.
गुरुः गोविन्दसिंहः कः आसीत्
उत्तर :
गुरुः गोविन्दसिंह: सिखानां दशमो गुरुः आसीत्।

प्रश्न 11.
जसविन्दरः किं कथयित्वा रोदिति?
उत्तर :
“मम पाश्वें भोजनाय किञ्चिद् अपि न अस्ति। अहं निर्धनः क्षुत्प्रतीडितः अस्ति।” इति कथयित्वा रोदिति।

प्रश्न 12.
दीपकाय स्वरक्तं कः दत्तवान्?
उत्तर :
दीपकाय स्वरक्तम् आफताब: दत्तवान्।

प्रश्न 13.
कस्य गृहे ईदमहोत्सवः आसीत्?
उत्तर :
आफताबस्य गृहे ईदमहोत्सवः आसीत्।

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प्रश्न 14.
आफताबः होलिकायाः साधुवादं दातुं कस्य गृहं गच्छति?
उत्तर :
आफताब: होलिकायाः साधुवादं दातुं (UPBoardSolutions.com) दीपकस्य गृहं गच्छति।

प्रश्न 15.
ईश्वरः कुत्र तिष्ठति?
उत्तर :
ईश्वरः सर्वभूतानां हृदये तिष्ठति।

प्रश्न 16.
ईदमहोत्सवं जनेषु किं वर्धयति? [2014]
उत्तर :
ईदमहोत्सवं जनेषु भ्रातृभावं वर्धयति।

प्रश्न 17.
होलिकोत्सवः जनेषु किं किं जनयति? [2014]
उत्तर :
होलिकोत्सवः जनेषु प्रेमभावं सद्भावं च जनयति।

बहुविकल्पीय प्रश्न

अधोलिखित प्रश्नों में प्रत्येक प्रश्न के उत्तर-रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए –
[संकेत – काले अक्षरों में छपे शब्द शुद्ध विकल्प हैं।]

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1. ‘वयं भारतीयः’ नामक पाठ की मूल भावना कौन-सी नहीं है?

(क) राष्ट्रीय एकता
(ख) सम्प्रदायवाद
(ग) धार्मिक एकता।
(घ) सर्वधर्म समन्वय

2. पंचशील सिद्धान्त का उपदेश किसने दिया?

(क) गौतम बुद्धने
(ख) श्रीराम ने
(ग) ईसा मसीह ने
(घ) गुरु गोविन्द सिंह ने

3. पंचशील सिद्धान्त में क्या सम्मिलित नहीं किया गया है?

(क) अपरिग्रह
(ख) ब्रह्मचर्य
(ग) अहिंसा
(घ) सर्वधर्म समभाव

4. “विरोधो विरोधं जनयति।”वाक्यस्य वक्ताः कः अस्ति?

(क) पीटरः
(ख) आफताबः
(ग) जसविन्दरः
(घ) दीपकः

5. देशभक्ति की भावना से किसने आत्मोत्सर्ग किया?

(क) मुहम्मद साहब ने
(ख) गुरु गोविन्दसिंह ने
(ग) बुद्ध ने
(घ) ईसा मसीह ने

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6. “अहं तव परीक्षाशुल्कं दास्यामि।” में ‘तव’ शब्द किसके लिए प्रयुक्त है?

(क) पीटर’ के लिए।
(ख) “आफताब’ के लिए
(ग) ‘दीपक’ के लिए
(घ) ‘जसबिन्दर’ के लिए

7. “धैर्यं न त्याज्यं विधुरेऽपि काले।” वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?

(क) आफताबः
(ख) जसविन्दरः
(ग) पीटरः
(घ) अध्यापकः

8. “त्वं वस्तुतः मम सन्मित्रमसि।”कथन में ‘मम’ से संकेतित व्यक्ति कौन है?

(क) आफताब
(ख) दीपक
(ग) पीटर
(घ) जसविन्दर

9. “ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में रहता है।” यह उपदेश किस ग्रन्थ से उधृत है?

(क) ‘रामायण’ से
(ख) ऋग्वेद’ से
(ग) ‘गीता’ से
(घ) ‘महाभारत’

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10. सेईदमहोत्सवे जनाः …………….. ।”वाक्य में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी [2005,08,09]

(क) न्यूनं खादन्ति’ से
(ख) ‘शोभनभावनया परस्परमालिङ्गन्ति’ से
(ग) “कोलाहलं कुर्वन्ति’ से
(घ) मौनं भवन्ति’ से

11. “परीक्षाशुल्कप्रदानाय मम पाश्र्वे …………….. नास्ति।” वाक्य में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी –

(क) फलं’ से
(ख) ‘अनं’ से
(ग) “पुस्तकं’ से
(घ) “भोजनं’ से

12. ………………….. ब्राल्यादेवअतिचिन्तनशीलः, परमकारुणिकश्चासीद्?”कथन किससे सम्बन्धित है?

(क) महात्मा बुद्धः
(ख) महाराणा प्रतापः
(ग) गुरुगोविन्दसिंह:
(घ) ईसामसीहः

13. “सिखधर्मस्य दशमो गुरुः ………………. आसीत्।”वाक्य में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी

(क) “गुरुनानकः’ से
(ख) “गुरुरामदासः’ से
(ग) “गुरुतेगबहादुरः’ से
(घ) “गुरुगोविन्दसिंहः’ से

14. “किमिदम्। हन्त दीपकोपरि बम्बप्रक्षेपः।” वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?

(क) अध्यापकः
(ख) पीटरः
(ग) जसबिन्दरः
(घ) आफताबः

15. “आफताबः होलिकायाः साधुवादं दातुं : गृहं गच्छति।” में रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए उचित पद है –

(क) जसबिन्दरस्य
(ख) अध्यापकस्य
(ग) दीपकस्य
(घ) पीटरस्य।

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16. “संसारस्य सर्वेऽपि मानवाः समानाः।” वाक्यस्य वक्ताः कस्य पिता अस्ति –

(क) आफताबस्य
(ख) दीपकस्य
(ग) जसबिन्दरस्य
(घ) पीटरस्य

17. दीपकस्य जीवनरक्षा ……………… अकरोत्। [2009,10]

(क) जसविन्दरः
(ख) दीपकस्य पिता
(ग) आफताबः
(घ) रमेन्द्रः

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Class 10 Sanskrit Chapter 10 UP Board Solutions उपनिषत – सुधा Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 10 Upnishat – Sudha Question Answer (पद्य – पीयूषम्)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 10 हिंदी अनुवाद उपनिषत – सुधा के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

भारतवर्ष के वेद निर्विवाद रूप से विश्व-वाङमय में सर्वाधिक प्राचीन हैं। इन्हें अपौरुषेय और नित्य माना जाता है। यही कारण है कि इनके रचना-काल-निर्धारण के सन्दर्भ में भारतीय विचारक मौन हैं। सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय चार भागों-संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक् और उपनिषद् में विभक्त हैं। इनमें संहिता भाग स्तुति-प्रधान, ब्राह्मण भाग यज्ञादि-कर्मकाण्ड-प्रधान, आरण्यक भाग उपासना-प्रधान और उपनिषद्-भाग ज्ञान-प्रधान हैं। इसीलिए (UPBoardSolutions.com) उपनिषदों को वेद का ज्ञानकाण्ड तथा वेद का अन्तिम भाग होने के कारण वेदान्त भी कहते हैं। उपनिषदों में जिस परम ज्ञानात्मक विद्या का प्रतिपादन किया गया है, उसे ब्रह्म विद्या या आत्म विद्या भी कहा जाता है। उपनिषदों की संख्या यद्यपि शताधिक है, किन्तु इन एकादश-ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, श्वेताश्वतर, छान्दोग्य और बृहदारण्यक-उपनिषदों को अत्यधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। इनमें से कुछ उपनिषद् गद्य में हैं, कुछ पद्य में और कुछ गद्य-पद्य दोनों में ही निबद्ध हैं।
प्रस्तुत पाठ में दिये गये मन्त्र कुछ प्रसिद्ध उपनिषदों से संगृहीत किये गये हैं।

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पाठ-सारांश

वैदिक ज्ञान की पात्रता जिस पुरुष के हृदय में परमात्मा और अपने गुरु के प्रति उच्चकोटि की भक्ति होती है, वही उपनिषदों के ज्ञानपरक सिद्धान्तों को समझ पाता है। मोक्ष-प्राप्ति का इच्छुक मैं; आदिपुरुष; उस परमात्मा की शरण को प्राप्त करता हूँ, जो सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को रचकर उसे वेदों का ज्ञान प्रदान करते हैं।

सम्बन्ध और मोक्ष का कारण मन दो प्रकार का होता है-कामनाओं से पूर्ण अशुद्ध मन और कामनाओं से रहित शुद्ध मन। यह मन ही मनुष्यों के बन्धन-मोक्ष का कारण है। विषयों में लिप्त अशुद्ध मन सांसारिक दु:खों में फँसाता है और वासनाओं से रहित शुद्ध मन मुक्ति प्रदान कराता है।

शुद्ध स्वरूप सत्य रूप परमात्मा पर चमकदार एवं सुनहरे सूर्य के मण्डल का पर्दा पड़ा है, उसके हट जाने पर चैतन्यस्वरूप शुद्ध ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है। जो ज्ञानी पुरुष उस शुद्ध ब्रह्म का अपनी आत्मा से ही साक्षात् दर्शन करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।

जगन्नियन्ता सूर्य, चन्द्र, तारे और लौकिक अग्निसहित सम्पूर्ण संसार उसी परमात्मा के दिव्य प्रकाश (UPBoardSolutions.com) से प्रकाशमान हैं। वह परमात्मा अग्नि, जल, सम्पूर्ण जगत्, ओषधियों और वनस्पतियों में व्याप्त है। उसी सर्वशक्तिमान, परमात्मा के भय से ही अग्नि और सूर्य उष्णता धारण करते हैं और उसी परमात्मा के आदेश से इन्द्र, वायु, यम और सभी लोकपाल नियमित रूप से अपने-अपने काम पूरे करते हैं।

निराकार और अज्ञेय वह सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापी ब्रह्म पैररहित होकर भी शीघ्र चलने वाला, हाथरहित होकर भी वस्तुओं को पकड़ने वाला, आँखरहित होकर भी देखने वाला और कर्णरहित होकर भी सब कुछ सुनने वाला है। वह जानने योग्य सभी कुछ जानता है, परन्तु उसे कोई नहीं जानता।

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सृष्टिकर्ता जलती हुई अग्नि से हजारों चिंगारियों के उत्पन्न होने के समान ही अविनाशी ब्रह्म से यह समस्त दृश्य जगत् उत्पन्न होता है।

परमपद की प्राप्ति ब्रह्मज्ञानी पुरुष अपने नाम और रूप के अस्तित्व रूपी अभिमान को छोड़कर उस दिव्य पुरुष में उसी प्रकार विलीन हो जाता है; जैसे-नदियाँ समुद्र में। ब्रह्मज्ञानी सबमें अपने को और अपने में सबको देखता है। अपने हृदय से कामनाओं के छूट जाने पर वह मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।

परम ज्ञानी की स्थिति उपनिषद् के ज्ञान को जानने वाला अर्थात् परम ज्ञानी (UPBoardSolutions.com) (ब्रह्मज्ञानी) अपनी स्थिति को व्यक्त करते हुए कहता है, “मैं अज्ञानरूपी अन्धकार से परे, सूर्य के समान वर्ण वाले, स्वयं प्रकाशस्वरूप इस महान् पुरुष को जानता हूँ।” ब्रह्म के इसी रूप का ज्ञान प्राप्त कर ज्ञानी पुरुष उस लोक में पहुँच जाता है, जहाँ पहुँचने पर मृत्यु का भय नहीं रह जाता। ज्ञान के अतिरिक्त उस परम पद की प्राप्ति के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है।

पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ॥ (2008, 13, 14]

शब्दार्थ यस्य = जिस (मनुष्य) की। देवे = परमात्मा में। पराभक्तिः = उच्चकोटि की भक्ति। यथा = जैसी (भक्ति) तथा = वैसी। गुरौ = गुरु में। तस्य = उस (मनुष्य) की। एते = ये (उपनिषद्)। कथिताः = कहे गये। अर्थाः = अर्थ। प्रकाशन्ते = प्रकट हो जाते हैं। महात्मनः = महान् आत्मा वाले पुरुष के लिए।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ (UPBoardSolutions.com) के ‘उपनिषत्सुधा’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में भगवद्भक्ति और गुरुभक्ति की महिमा का वर्णन किया गया है अन्वये यस्य (पुरुषस्य) देवे परा भक्तिः (अस्ति), यथा देवे तथा गुरौ (अपि भक्तिः अस्ति), तस्य महात्मनः (हृदये) हि (उपनिषत्सु) कथिताः एते अर्थाः प्रकाशन्ते।

व्याख्या जिस पुरुष की परमात्मा में उच्चकोटि की भक्ति है, जैसी भक्ति परमात्मा में है, वैसी भक्ति अपने गुरुदेव में भी है, उस महान् अन्त:करण वाले पुरुष के हृदय में उ उषदों में वर्णित आत्मज्ञान सम्बन्धी ये सिद्धान्त (स्वत:) प्रकाशित हो जाते हैं। तात्पर्य यह (UPBoardSolutions.com) है कि आत्मज्ञान सम्बन्धी सिद्धान्तों को साक्षात् अनुभव
होने लगता है। =

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(2)
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं, यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ।
तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं, मुमुक्षुर्वे शरणमहं प्रपद्ये ॥

शब्दार्थ यः = जो (परमात्मा ब्रह्माणं = ब्रह्म को। विदधाति = उत्पन्न करता है। पूर्वम् = सबसे पहले, सृष्टि – के प्रारम्भ में। वेदान् =चारों वेदों को, वेदों के ज्ञान को। प्रहिणोति = भेजता है, प्रदान करता है। तस्मै = उसके लिए। देवं = उसी परमात्मा को। आत्मबुद्धिप्रकाशम् = आत्मज्ञान को प्रकाशित करने वाले मुमुक्षुः = मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले। शरणम् = आश्रय के रूप में। प्रपद्ये = प्राप्त करता हूँ।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में परमेश्वर को जानने और प्राप्त करने के लिए उन्हीं की शरण प्राप्त करने को कहा गया है।

अन्वय यः (परमात्मा) पूर्वं ब्रह्माणं विदधाति, यः च वै तस्मै (ब्रह्माणे) वेदान् प्रहिणोति, (UPBoardSolutions.com) तं ह आत्मबुद्धिप्रकाशं देवं मुमुक्षुः अहं वै शरणं प्रपद्ये।।

व्याख्या जो परमात्मा सर्वप्रथम, अर्थात् सृष्टि के प्रारम्भ में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को रचता है और जो निश्चय ही उस ब्रह्मा के लिए वेदों के ज्ञान को भेजता है, अर्थात् प्रदान करता है, उसी आत्मज्ञान को प्रकाशित करने वाले परमात्मा की मोक्ष की इच्छा करने वाला मैं निश्चय ही उसकी शरण को प्राप्त करता हूँ।

(3)
मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुद्धं चाशुद्धमेव च।
अशुद्धं कामसङ्कल्पं शुद्धं कामविवर्जितम् ॥ [2008, 10, 14]

शब्दार्थ मनः = अन्तःकरण चित्ता द्विविधम् =दो प्रकार का। प्रोक्तम् = कहा गया है। शुद्धम् = पवित्र, निर्मल। अशुद्धम्= अपवित्र, मलिन। कामसङ्कल्पम् = कामनाओं और संकल्पों वाला। काम-विवर्जितम् = कामनाओं से रहित।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में मन के भेद लक्षणों सहित बताये गये हैं।

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अन्वये मनः हि द्विविधं प्रोक्तम्। शुद्धं च अशुद्धम् एव च। अशुद्धं (मनः) कामसङ्कल्पं (अस्ति), कामविवर्जितं शुद्धम् (मनः अस्ति)।

व्याख्या मन दो प्रकार का कहा गया है-शुद्ध और अशुद्ध। अशुद्ध मन कामनाओं और (UPBoardSolutions.com) संकल्पों वाला है और शुद्ध मन कामनाओं से रहित है। तात्पर्य यह है कि कामनाओं और इच्छाओं से युक्त मन अशुद्ध होता है तथा कामनाओं से रहित मन शुद्ध।

(4)
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।।
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥ [2006,07,12]

शब्दार्थ मनुष्याणां = मनुष्यों में कारणं = कारण बन्धमोक्षयोः = बन्धन और मुक्ति का। बन्धाय =बन्धन के लिए। विषयासक्तम् = इन्द्रियों के विषय; अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध; में लगा हुआ। मुक्त्यै = मुक्ति के लिए, दुःख के बन्धन से छुटकारे के लिए। निर्विषयं = विषय-वासनाओं में न फंसा हुआ। स्मृतम् = बताया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में मन को ही बन्धन और मोक्ष का कारण बताया गया है।

अन्वय मनुष्याणां बन्ध-मोक्षयोः कारणं मन एव (अस्ति)। विषयासक्तं (मनः) बन्धाय (भवति), निर्विषयं (मनः) मुक्त्यै स्मृतम्।।

व्याख्या मनुष्यों के (इतर प्राणियों के नहीं) बन्धन (संसार के दुःखों का) और मोक्ष (दु:ख के बन्धन से छुटकारा) का कारण केवल मन ही है; अर्थात् मन के अतिरिक्त दूसरा कोई कारण नहीं है। इन्द्रियों के विषयों; अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध; में रमा हुआ मन (UPBoardSolutions.com) (सांसारिक दुःख के) बन्धन के लिए होता है और विषय-वासनाओं से रहित मन सांसारिक दुःखों के) मुक्ति के लिए बताया गया है।

(5)
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥

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शब्दार्थ हिरण्मयेन = सोने जैसे चमकीले। पात्रेण = पात्र से। सत्यस्य = सूर्यमण्डल में स्थित सत्य रूप परमात्मा का। अपिहितम् = ढका हुआ है, आच्छादित। मुखम् = मुख। पूषन् = हे सूर्यदेव! अपावृणु = हटा लीजिए। सत्यधर्माय(मह्यम्) = सत्य रूप धर्म वाले मेरे लिए। दृष्टये = आत्मा का दर्शन कराने के लिए।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में मोक्षार्थी परमात्मा से सत्य का दर्शन कराने की प्रार्थना करता है।

अन्वय पूषन्! हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्य मुखम् अपिहितम्। सत्यधर्माय (मह्यम्) (आत्मनः) दृष्टये त्वं तत् अपावृणु।।

व्याख्या हे पूषन् (सूर्यदेव)! तुम्हारे मण्डल में स्थित सत्य रूप परमात्मा का मुख सोने जैसे चमकीले (सूर्यमण्डल रूप) पात्र से ढका हुआ है; अर्थात् आच्छादित है। सत्यरूप धर्म वाले मेरे लिए आत्मा का दर्शन करने हेतु आप उस (मण्डल रूप पात्र) को हटा लीजिए।

(6)
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥

शब्दार्थ एकः = अकेला, अद्वितीय वशी = समस्त संसार को अपने वश में रखने वाला। सर्वभूतान्तरात्मा = सभी प्राणियों की भीतरी आत्मा एकं रूपं = एक रूप को। बहुधा = अनेक रूपों में करोति = करता है। आत्मस्थम् = अपनी आत्मा में स्थित। अनुपश्यन्ति = देखते हैं, साक्षात् (UPBoardSolutions.com) अनुभव करते हैं। धीराः = ज्ञानी, विद्वान्। तेषां है उनके लिए। सुखं = सुख। शाश्वतम् = नित्य, सदा रहने वाला। नेतरेषाम् = अन्यों के लिए नहीं।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में परमात्मा का स्वरूप और उसके दर्शन का फल बताया गया है।

अन्वय यः सर्वभूतान्तरात्मा एकः वशी एकं रूपं बहुधा करोति। ये धीराः तम् आत्मस्थम् अनुपश्यन्ति, तेषां शाश्वतं सुखम् (भवति) इतरेषां न (भवति)।

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व्याख्या जो परमात्मा समस्त प्राणियों की भीतरी आत्मा, अद्वितीय और समस्त संसार को अपने वश में रखने वाला है, जो अपने एक रूप को अनेक रूपों में व्यक्त करता है, जो धीर पुरुष उसे अपनी आत्मा में स्थित साक्षात् अनुभव करते हैं, उनको ही सदा रहने वाला मोक्षरूप नित्य सुख मिलता है, दूसरों को नहीं मिलता।।

(7)
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ [2010, 12]

शब्दार्थ तत्र = उस परलोक में, जो परमात्मा का सर्वोच्च पद है। सूर्यः भाति = सूर्य प्रकाशित होता है। न चन्द्रतारकम् = न चन्द्रमा और तारे। नेमाः (न + इमाः) = न ही ये। विद्युतः भान्ति = बिजलियाँ चमकती हैं। कुतः = कहाँ से अयम् अग्निः = यह अग्नि तम् एव = वह हीं। भान्तम् = प्रकाशित होते हुए। अनुभाति = पीछे प्रकाशित होता है। सर्वं = सब कुछ। तस्य = उससे। भासा = प्रकाश से, दीप्ति से। सर्वम् इदम् = यह सब कुछ। विभाति = प्रकाशित होता है।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में परमात्मा को सूर्य, चन्द्रमा आदि सभी का प्रकाशक बताया गया है।

अन्वय तत्र सूर्यः न भाति, चन्द्रतारकं न (भाति), इमाः विद्युताः न भान्ति, अयम् अग्निः कुतः (UPBoardSolutions.com) (प्रकाशितः भविष्यति)। तम् एव भान्तं सर्वम् अनुभाति। तस्य भासी इदं सर्वं विभाति।।

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व्याख्या वहाँ (उस परमलोक में) सूर्य नहीं चमकता है, चन्द्रमा और तारे नहीं चमकते हैं, न ये बिजलियाँ ही चमकती हैं, यह अग्नि ही कहाँ स्वयं चमक सकती है? उसी प्रकाशित होते हुए (परमात्मा) के पीछे समस्त विश्व प्रकाशित होता है। उसकी चमक से यह सभी कुछ प्रकाशित होता है; अर्थात् ईश्वर स्वयं प्रकाशयुक्त है और उस प्रकाश के समक्ष अन्य सभी प्रकाश नगण्य हैं।

(8)
यो देवोऽग्नौ योऽप्सु यो विश्वं भुवनमाविवेश।।
य ओषधीषु य वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमो नमः ॥

शब्दार्थ यः = जो। देवः = परमात्मा। अग्नौ = अग्नि में। अप्सु = जल में। विश्वम् भुवनम् = समस्त लोकों में। आविवेश = प्रवेश कर गया है, व्याप्त है। ओषधीषु = जड़ी-बूटियों में। वनस्पतिषु = वृक्षों-लताओं में। तस्मै देवाय = उस देवता के लिए नमः नमः = प्रणाम है, प्रणाम है।

प्रसग प्रस्तुत मन्त्र में ईश्वर की सर्वव्यापकता बतायी गयी है और उर पुनः-पुनः प्रणाम किया गया है।

अन्वय यः देवः अग्नौ (अस्ति), यः अप्सु (अस्ति), यः विश्वं भुवनम् आविवेश। यः ओषधीषु (अस्ति), यः वनस्पतिषु (अस्ति), तस्मै देवाय नमो नमः (अस्तु)।।

व्याख्या जो ईश्वर अग्नि में है, जो जलों में है, जो समस्त लोकों में व्याप्त है, जो जड़ी-बूटियों में है, (UPBoardSolutions.com) जो वनस्पतियों में है, उस परमात्मा (देवता) को बार-बार नमस्कार हो। तात्पर्य यह कि संसार की कोई वस्तु ऐसी नहीं है, जिसमें परमात्मा का वास न हो।

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(9)
भयादस्याग्निस्तपति भयात् तपति सूर्यः
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥

शब्दार्थ भयात् = भय से। अस्य = इस (सर्वव्यापक परमात्मा) के तपति = तपता है। तपति = चमकता है, प्रकाशित होता है। मृत्युः = मृत्यु के देवता अर्थात् यमराज| धावति = दौड़ता है। पञ्चमः = पाँचवाँ।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में बताया गया है कि परमात्मा के भय से सभी इन्द्रादिक लोकपाल अपना-अपना कार्य शीघ्रतापूर्वक नियमित रूप से करते हैं।

अन्वय अस्य (परमात्मनः) भयात् अग्नि: तपति, (अस्य) भयात् सूर्यः तपति, (अस्य) भयात् इन्द्रश्च वायुः च पञ्चमः मृत्युः धावति।

व्याख्या इस सर्वव्यापक जगन्नियन्ता परमात्मा के भय से अग्नि तपती है अर्थात् उष्णता को (UPBoardSolutions.com) धारण करती है। इसके भय से सूर्य तपता है अर्थात् चमकता है। इसके भय से ही इन्द्र-वायु तथा पाँचवें मृत्यु के देवता यमराज दौड़ते हैं; अर्थात् अपना-अपना कार्य शीघ्रतापूर्वक करते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार स्वामी के भय से सेवक अपना-अपना काम नियमित रूप से करते हैं, उसी प्रकार उस नियन्ता परमात्मा के भय से सभी लोकपाल अपने-अपने काम में नियमपूर्वक प्रवृत्त होते हैं।

(10)
अपाणिपादो जवनो ग्रहीतापश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्तातमाहुरग्रयं पुरुषं महान्तम् ॥

शब्दार्थ अपाणिपादः = बिना हाथ-पैर वाला। जवनः = वेगपूर्वक चलने वाला ग्रहीता = पकड़ने वाला। पश्यति = देखता है। अचक्षुः = नेत्ररहित। शृणोति =सुनता है। अकर्णः = बिना कान वाला। वेत्ति = जानता है। वेद्यम् = जानने योग्य को। वेत्ता = जानने वाला। तं = उस। आहुः = कहते हैं। अग्रयं पुरुषं = श्रेष्ठ पुरुष।

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प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में निर्विकार शुद्ध चैतन्यस्वरूप ब्रह्म का निरूपण किया गया है।

अन्वय सः अपाणिपादः (अपि) जवन: ग्रहीता च (अस्ति)। (सः) अचक्षुः (सन् अपि) पश्यति, (स:) अकर्णः (अपि) शृणोति। सः वेद्यं वेत्ति, तस्य च वेत्ता न अस्ति। तम् अग्यं महान्तं पुरुषम् आहुः।।

व्याख्या वह; अर्थात् सर्वव्यापी चैतन्यस्वरूप शुद्ध परमात्मा; पैररहित होता हुआ भी शीघ्रतापूर्वक चलने वाला है, वह हाथरहित होता हुआ भी वस्तुओं को पकड़ने वाला है, वह नेत्ररहित होता हुआ भी देखता है, वह कानों से रहित होकर भी सुनता है। वह जानने योग्य को जानता है, उसका जानने वाला कोई नहीं है। तात्पर्य यह है कि वह सभी इन्द्रियों से रहित होते हुए भी सभी कार्यों को करता है। उसे सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ और महान् आदिपुरुष कहा जाता है।

(11)
तदेतत्सत्यं यथा सुदीप्तात् पावकाद्, विस्फुलिङ्गाः सहस्रशः प्रभवन्ते सरूपाः ।।
तथाक्षराद् विविधाः सौम्य भावाः, प्रजायन्ते तत्र चैवापियन्ति

शब्दार्थ तत् एतत् सत्यम् = यह सच्चाई है, यह वास्तविकता है। यथा = जैसे। सुदीप्तात् = अच्छी तरह प्रज्वलित। पावकात् = अग्नि से। विस्फुलिङ्गाः = अग्नि-कण, चिंगारियाँ। सहस्रशः = हजारों की संख्या में। प्रभवन्ते = निकलते हैं। सरूपाः = उसी के समान रूप वाली। तथा = वैसे ही। (UPBoardSolutions.com) अक्षरात् = अविनाशी ब्रह्म से। विविधाः = विभिन्न प्रकार के सौम्य = हे प्रियदर्शन!| भावाः = पदार्थ। प्रजायन्ते = उत्पन्न होते हैं। तत्र च एव = और उसमें ही। अपियन्ति = विलीन हो जाते हैं।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में अविनाशी ब्रह्म से संसार की उत्पत्ति का वर्णन दृष्टान्तसहित किया गया है।

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अन्वय सौम्य! तत् एतत् सत्यं यथा सुदीप्तात् पावकात् सरूपाः सहस्रशः विस्फुलिङ्गाः प्रभवन्ते, तथा अक्षरात् विविधाः भावाः प्रजायन्ते, तत्र च एव अपियन्ति।।

व्याख्या हे प्रियदर्शन! यह सत्य है कि जिस प्रकार अच्छी तरह ये जली हुई अग्नि से उसी के समान रूप वाली हजारों अग्नि की चिंगारियाँ निकलती हैं, उसी प्रकार अविनाश ब्रह्म से अनेक प्रकार के अस्तित्व वाले पदार्थ उत्पन्न होते हैं और उसी में विलीन हो जाते हैं।

(12)
यथा नद्यः स्यन्दमाना समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय
तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥ [2013]

शब्दार्थ यथा = जैसे। नद्यः = नदियाँ। स्यन्दमानः = बहती हुई। समुद्रे = समुद्र में। अस्तं गच्छन्ति = विलीन हो जाती हैं। नामरूपे = नाम और रूप को। विहाय = छोड़कर तथा = वैसे ही। विद्वान् = ब्रह्मज्ञानी, आत्मज्ञानी। नामरूपाद् विमुक्तः = नाम और रूप से छूटा हुआ। (UPBoardSolutions.com) परात्परम् = श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ। पुरुषं = पुरुष को। उपैति = प्राप्त कर लेता है। दिव्यं = दिव्य

प्रसंगे प्रस्तुत मन्त्र में ब्रह्मवेत्ता विद्वान् द्वारा अविनाशी ब्रह्म की प्राप्ति का दृष्टान्तसहित वर्णन किया गया है।

अन्वय यथा स्यन्दमाना: नद्यः नामरूपे विहाय समुद्रे अस्तं गच्छन्ति, तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं दिव्यं पुरुषम् उपैति।

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व्याख्या जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ अपने नाम और रूप को छोड़कर समुद्र में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार ब्रह्मज्ञानी विद्वान् अपने नाम और रूप से विमुक्त होकर श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ दिव्य पुरुष को प्राप्त करता है अर्थात् परमात्मा में विलीन हो जाता है।

(13)
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥

शब्दार्थ यस्तु (यः + तु) = और जो। सर्वाणि भूतानि = सभी प्राणियों को। आत्मनि एव = आत्मा में ही। अनुपश्यति = देखता है। सर्वभूतेषु = सभी प्राणियों में। च आत्मानं = और स्वयं को। ततः = उन सबसे। विजुगुप्सते = घृणा करता है।

प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में ब्रह्मज्ञानी महापुरुष की स्थिति का वर्णन किया गया है।

अन्वय य: तु सर्वाणि भूतानि आत्मनि एव अनुपश्यति, आत्मानं च सर्वभूतेषु (पश्यति), (स:) ततः न विजुगुप्सते।।

व्याख्या जो (ब्रह्मज्ञानी पुरुष) सभी प्राणियों को अपनी आत्मा में ही देखता है और अपनी आत्मा को सभी प्राणियों में देखता है, वह उससे घृणा नहीं करता है। तात्पर्य यह है कि जो आत्मा मुझमें है वही आत्मा दूसरे में भी है और जो आत्मा दूसरे में है वही मुझमें भी है; (UPBoardSolutions.com) अर्थात् मुझमें और अन्य में भेद नहीं है। यह रहस्य ब्रह्मज्ञानी जान लेता है, इसलिए वह किसी से घृणा नहीं करता।

(14)
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः।
अथ मत्र्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥ [2010]

शब्दार्थ यदा = जब। सर्वे = सभी (इच्छाएँ)। प्रमुच्यन्ते = छूट जाती हैं। कामाः = इच्छाएँ, कामनाएँ। ये = जो। अस्य = इसके अर्थात् मरणशील मनुष्य के। हृदि = हृदय में। श्रिताः = आश्रित। अथ = तबे, इसके बाद। मर्त्यः = मरणशील भी। अमृतेः भवति = अमर हो जाता है। अत्र = यहाँ, इस स्थिति में। समश्नुते = प्राप्त करता है, भली-भाँति अनुभव कर लेता है।

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प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में ब्रह्म की उपलब्धि के श्रेष्ठ साधन का वर्णन किया गया है।

अन्वय यदा सर्वे कामाः, ये अस्य हृदि श्रिताः (सन्ति), प्रमुच्यन्ते। अथ मर्त्यः अमृतः भवति। अत्र ब्रह्म समश्नुते।

व्याख्या जब सभी कामनाएँ, जो इसके अर्थात् ब्रह्मज्ञानी के हृदय में आश्रित हैं, छूट जाती हैं, अर्थात् ब्रह्मज्ञानी के हृदय की सभी इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं, तब मनुष्य अमृत (न मरने वाला) हो जाता है। इस स्थिति में वह ब्रह्म का भली-भाँति अनुभव कर लेता है।

(15)
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥

शब्दार्थ वेद= जानता हूँ। अहं = मैं। एतं = इस पुरुषं महान्तं = महापुरुष को। आदित्यवर्णम् = सूर्य के समान वर्ण वाले, स्वयं प्रकाशस्वरूप। तमसः = अज्ञानरूपी अन्धकार से। परस्तात् = परे। तम् एव = उसको ही। विदित्वा = जानकर) अति मृत्युम् एति = मृत्यु का अतिक्रमण कर जाता है, पार कर जाता है। न = नहीं है। अन्यः = दूसरा| पन्थाः = मार्ग। विद्यते = विद्यमान अयनाय = जाने के लिए, परम पद पर पहुँचने के लिए।

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प्रसंग प्रस्तुत मन्त्र में ब्रह्मज्ञानी पुरुष के स्वानुभव का वर्णन किया गया है।

अन्वय अहम् तमसः परस्तात् आदित्यवर्णम् एतं महान्तं पुरुषं ६, तम् एव विदित्वा मृत्युम् अति एति। अयनाय अन्यः पन्थाः न विद्यते।

व्याख्या मैं (ब्रह्मज्ञानी) अज्ञानरूपी अन्धकार से परे सूर्य के समान वर्ण वाले अर्थात् स्वयं प्रकाशस्वरूप इस महान् पुरुष को जानता हूँ। उसी को जानकर ज्ञानी पुरुष मृत्यु को पार कर जाता है अर्थात् उस लोक में पहुँच जाता है, जहाँ मृत्यु नहीं है। (परमपद पर) (UPBoardSolutions.com) जाने के लिए अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानी लोग उस स्वयं प्रकाशस्वरूप ब्रह्म को जानकर ही मृत्यु को पारकर उस लोक में पहुँच जाते हैं, जहाँ मृत्यु होती ही नहीं। मुक्ति पाने का ब्रह्मज्ञान के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग ही नहीं है।

सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) यथा देवे तथा गुरौ। [2008, 10, 11, 12, 13, 15)

सन्दर्भ
यह सूक्तिपरक पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘उपनिषत्-सुधा’ नामक पाठ से उद्धृत है।।

[ संकेत इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

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प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में भगवद्भक्ति और गुरुभक्ति की महिमा का वर्णन किया गया है।

अर्थ जैसी भक्ति परमात्मा में हो वैसी ही गुरु में भी होनी चाहिए।

व्याख्या भगवान् में उच्चकोटि की भक्ति रखने वाले ज्ञानी पुरुष की यदि भगवान् (UPBoardSolutions.com) के समान ही उच्चकोटि की भक्ति गुरु में भी हो तो वेदों और उपनिषदों का ज्ञान उसे स्वयं ही स्वाभाविक रूप से हो जाता है। तात्पर्य यह है कि देवता के तुल्य गुरु में भी श्रद्धा रखें बिना ज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इसीलिए सन्त कबीर गुरु को देवता से भी श्रेष्ठ मानते हुए कहते हैं

गुरु गोबिन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोबिन्द दियो बताय॥

(2), अशुद्धं कामसङ्कल्पम्।

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में मन के एक प्रकार का उल्लेख किया गया है।

अर्थ कामनाओं से युक्त मन अशुद्ध होता है।

व्याख्या शास्त्रकारों ने दो प्रकार के मन बताये हैं-शुद्ध और अशुद्ध। कामनाओं से रहित मन को शुद्ध और कामनाओं से युक्त मन को अशुद्ध बताया गया है। यहाँ पर मन से आशय मानसिक स्थिति के साथ-साथ हृदय से भी है। सामान्य अनुभव के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि जब कोई भी सामग्री किसी पात्र में भरकर रख दी जाती है तो उसके दूषित हो जाने की सम्भावना बन जाती है। दूषित होने की यह प्रक्रिया एक मास में हो सकती है, एक वर्ष में भी और दस वर्ष में भी। आशय यह है कि संगृहीत अर्थात् रखी हुई का एक-न-एक दिन दूषित होना अवश्यम्भावी है। इसीलिए कामनाओं और इच्छाओं से युक्त मन को अशुद्ध बताया (UPBoardSolutions.com) गया है। कामनाएँ चाहे अच्छी हों या बुरी, मन में इनकी दीर्घकालीन उपस्थिति निश्चित ही विकृति उत्पन्न करती है। यही कारण है कि कामनाओं से युक्त मन बन्धन को और कामनाओं से रहित मन मोक्ष का कारण होता है।

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(3) मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। [2006,08,09, 10, 11, 12, 13, 15]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में उपनिषद्कार ने मन को बन्धन और मोक्ष का कारण बताया है।

अर्थ मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का कारण है।

व्याख्या सांसारिक आवागमन तथा विषयों में आसक्ति को बन्धन कहा जाता है और इन सबसे छुटकारा पाने को मोक्ष। मनुष्य में इस बन्धन और मोक्ष का एकमात्र कारण मन ही है; क्योंकि मन ही इन्द्रियों को विषयों की ओर ले जाता है और वही उसे विषयों से पृथक् भी करता है। यदि व्यक्ति का मन सांसारिक विषयों में रमण करता है तो वह आवागमन के बन्धन में बँधा रहता है और यदि उसका मन विषयों में न रमकर भगवद्-भक्ति में रमता है तो उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इसीलिए कहा गया है कि मन ही मोक्ष और बन्धन का कारण है।

(4) हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। [2010, 12, 13]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में बताया गया है कि सूर्य के रूप में चमकने गतेज वस्तुत: परमेश्वर का ही तेज है।

अर्थ (हे पूषन् अर्थात् सूर्यदेव! तुम्हारे) चमकीले आभामण्डल में स्थित सत्य (परमेश्वर) का मुख सोने जैसे चमकते हुए पात्र से आच्छादित है।

व्याख्या सूर्य की उपासना करता हुआ आराधक कहता है कि हे सूर्यदेव! आपका यह जो सुनहरा आभा-मण्डल है वह सत्य-स्वरूप परमेश्वर का ही तेज है। यह आपके अन्दर से इस प्रकार चमक रहा है, जैसे वह सोने के चमकीले मुंह वाले बर्तन के भीतर रखा हो और उस बर्तन के मुख से बाहर अपनी आभा चमक बिखेर रहा हो।

(5) न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं। [2011]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया गया है।

अर्थ न वहाँ सूर्य चमकता है, न चन्द्रमा-तारे।

व्याख्या परमपिता परमात्मा ही सर्वशक्तिमान है और प्रकाश के एकमात्र स्रोत भी। (UPBoardSolutions.com) उनके बिनाः न तो इस लोक में और न ही परलोक में; न तो सूर्य चमकता है न ही चन्द्रमा और न तारे ही चमकते हैं। उनके प्रकाश से ही संसार की सभी वस्तुएँ चमकती हैं अर्थात् प्रकाशित होती हैं। आशय यह है कि परमेश्वर की कृपा प्रसाद के बने रहने तक ही इस संसार का अस्तित्व है। उनकी कृपा के न रहने पर सब कुछ समाप्त हो जाता है।

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(6) तस्य भासा सर्वमिदं विभाति। [2008, 10, 11]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में परमात्मा की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है।

अर्थ “यह सब कुछ उसकी दीप्ति से प्रकाशित होता है।

व्याख्या प्रस्तुत सूक्ति का आशय है कि ईश्वर स्वयं प्रकाशयुक्त है और सब कुछ उसके प्रकाश से ही प्रकाशित होता है। इस पृथ्वी पर जो कुछ भी है वह सब कुछ उसी परमात्मा, परमब्रह्म, ईश्वर का ही लीला-विलास है। विश्व के सभी धर्मों में इसी बात को अपने-अपने ढंग से बताया गया है। किसी विद्वान् ने तो यहाँ तक कह दिया है कि यह सम्पूर्ण चराचर जगत् एक रंगमंच के समान है और हम सब उस रंगमंच की कठपुतलियाँ मात्र हैं। हम सभी की डोर परमात्मा के हाथ में है। वह जब तक चाहता है और जैसे चाहता है, हमें नचाता है; अर्थात् सभी कार्य उसी के पूर्ण नियन्त्रण में संचालित होते हैं। उसकी इच्छा के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है। प्रस्तुत सूक्ति को यह कथन कि सब कुछ उसकी दीप्ति से ही दीपित है, पूर्णतया सत्य है।

(7) तस्मै देवाय नमो नमः। [2007]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में परमात्मा को बार-बार प्रणाम किया गया है।

अर्थ उस देवता को बार-बार प्रणाम है।

व्याख्या संस्कृत वाङमय के अनुसार ‘देव’ शब्द के अनेक अर्थ है; उदाहरणार्थ-देवता अर्थात् स्वर्ग में रहने वाले, अमर, सुर, राजा, मेघ, पूज्य व्यक्ति, पारद या पारा, ब्राह्मणों की एक उपाधि, देवदार, तेजोमय व्यक्ति, ज्ञानेन्द्रिय आदि। प्रस्तुत सूक्ति जो कि श्लोक-“यो देवौग्नो योऽप्सु, (UPBoardSolutions.com) यो विश्वं भुवनमा विवेश। य ओषधीषु य वनस्पतिषु, तस्मै देवाय नमो नमः॥”-का अंश है, में ऐसे ईश्वर को बार-बार प्रणाम किया गया है जो अग्नि, जल, समस्त जीवलोक, ओषधियों और वनस्पतियों में समाया हुआ है। ऐसे सर्वव्यापी जगन्नियन्ती परमेश्वर के लिए कहा गया है कि वह एक है—एको देवः केशवो वा शिवो वा।

(8) नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय। [2006]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में बताया गया है कि मोक्ष-प्राप्ति के लिए ब्रह्म-ज्ञान के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है।

अर्थ परमपद पर पहुँचने के लिए ब्रह्मज्ञान के अतिरिक्त दूसरा मार्ग नहीं है।

व्याख्या मनुष्य का सबसे बड़ा पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष-प्राप्ति के लिए विभिन्न धर्मों में अनेक मार्ग बताये गये हैं। ऋषियों ने ब्रह्मज्ञान को मोक्ष-प्राप्ति का सुगम साधन बताया है। ब्रह्म को जानकर ही जीवात्मा मृत्यु को पार करके मुक्त हो जाती है। ब्रह्मज्ञान को छोड़कर मुक्ति-प्राप्ति का अन्य कोई मार्ग नहीं है। अत: उस प्रकाशस्वरूप परमात्मा को ही जानने का प्रयास करना चाहिए।

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) यस्य देवे …………………………………………………….. ” महात्मनः ॥ (श्लोक 1) (2009)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके ऋषिः कथयति यत् यस्य पुरुषस्य दे पराभक्तिः तथा च देवे गुरौ अपि च भक्ति: विद्यते, तस्य महापुरुषस्य हृदये उपनिषत्सु वर्णितः विषयाः सर्वे अर्था: प्रकाशन्ते।

(2) मनो हि द्विविधं …………………………………………………….. कामविवर्जितम् ॥ (श्लोक 3) [2009, 10, 11]
संस्कृतार्थः अस्मिन् मन्त्रे ऋषिः कथयति यत् मनः द्विविधं प्रोक्तम्–शुद्धं च अशुद्धं च। अशुद्धं मनः सकामं सङ्कल्पं च भवति एवमेव शुद्धं मन: कामरहितं भवति।

(3) मन एव मनुष्याणां …………………………………………………….. निर्विषयं स्मृतम्॥ (श्लोक 4) [2006, 07]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके कविः अकथयत् यत् मनुष्याणां दु:खबन्धयोः एकमात्रकारणं मन एवं अस्ति। (UPBoardSolutions.com) विषयवासनासुरमण: मनः दु:खबन्धाय भवति, विषयवासनारहितः मनः मुक्त्यै (मोक्षाय) स्मृतम् (कथितम्)।।

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(4) एको वशी …………………………………………………….. शाश्वतं नेतरेषाम् ॥ (श्लोक 6)
संस्कृतार्थः अस्मिन् मन्त्रे ऋषिः कथयति यः परमात्मा सर्वेषां भूतानाम् अन्तरात्मा, अद्वितीयः, अखिलं संसारं स्ववशी कर्तुं समर्थः, यः स्व एकं रूपं विविधरूपेण अभिव्यक्ति; ये धीराः तम् आत्मस्थं साक्षात् अनुभवन्ति, शाश्वतं सुखं भवति, इतरेषां न भवति।

(5) न तत्र सूर्यो …………………………………………………….. सर्वमिदं विभाति ॥ (श्लोक 7) [2009]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके मुनिः कथयति यत् तत्र परलोके न सूर्यः भाति, न चन्द्रतारकं भाति, न इमाः विद्युताः भान्ति। तर्हि अयम् अग्नि कुतः प्रकाशितः भविष्यति। तं परमेश्वरम् एव भान्तम् अखिलं विश्वम् अनुभाति, तस्य परमेश्वरस्य भासा इदं सर्वं विभाति।

(6) यो देवोऽग्नौ …………………………………………………….. देवाय नमो नमः ॥ (श्लोक 8) [2014]
संस्कृतार्थः अस्मिन् मन्त्रे ऋषिः कथयति-य: ईश्वर: अग्नौ अस्ति, य: अप्सु अस्ति, य: विश्वं लोकम् आविवेश, यः ओषधीषु अस्ति, य: वनस्पतिषु अस्ति, तस्मै देवाय नमो नमः अस्तु।

(7) भयादस्याग्निस्तपति …………………………………………………….. मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥ (श्लोक 9)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके ऋषिः कथयति यत् अस्य सर्वव्यापकस्य परमात्मनः भयात् अग्निः, अस्य भयात् सूर्यः तपति, अस्य भयात् इन्द्रः च वायुः च पञ्चमः मृत्युः धावति। अस्मिन् संसारे गतिशीलता ईश्वरेण . एव अस्ति इति भावः।

(8) अपाणिपादो जवनो …………………………………………………….. पुरुषं महान्तम् ॥ (श्लोक 10) (2015)
संस्कृतार्थः अस्मिन् मन्त्रे ऋषिः कथयति यत् सः परमात्मा सर्वं वेत्ति। तस्य कोऽपि वेत्ता नास्ति। तं महान्तं (UPBoardSolutions.com) पुरुषं आहुः। सः आत्मा इन्द्रियैः रहित: अपि जनां गृह्णाति, चक्षुर्विना पश्यति, कर्ण विना श्रृंणोति। स एवं परमः पुरुषः। तस्य महत्तमं किञ्चिद् नास्ति। …

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(9) यथा नद्यः स्यन्दमानाः …………………………………………………….. पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥ (श्लोक 12)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महर्षिः कथयति-यथा पर्वतात् निर्गताः नद्यः स्वकीय नामरूपे त्यक्त्वा समुद्रं गत्वा विलीयन्ते तथा एव विद्वान् पुरुष: नामरूपात् विमुक्ताः सन् परात्परं दिव्यं पुरुषं परमेश्वरं प्राप्नोति।

(10) यस्तु सर्वाणि …………………………………………………….. न विजुगुप्सते ॥ (श्लोक 13)
संस्कृतार्थः अस्मिन् मन्त्रे महर्षिः कथयति-य: पुरुष: सर्वाणि भूतानि आत्मनि एव अनुपश्यति तथा च सर्वभूतेषु आत्मानम् एव मन्यते, सः पुरुषः तान् प्रति घृणां न करोति।

(11) यदा सर्वे …………………………………………………….. ब्रह्म समश्नुते ॥ (श्लोक 14)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महर्षिः कथयति—अस्य पुरुषस्य हृदये ये कामभावाः सन्ति, ते सर्वे भावाः यदा हृदयात् बहिः निर्गच्छन्ति तदा सः मर्त्यः पुरुषः अमरः भवति। अनन्तरं ब्रह्मानन्दं प्राप्नोति।

(12) वेदाहमेतं …………………………………………………….. विद्यतेऽयनाय ॥ (श्लोक 15)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महर्षिः कथयति—यः पुरुषः अज्ञानान्धकारात् बहिः वर्तते, यस्य स्वरूपं प्रकाशस्वरूपं (UPBoardSolutions.com) भवति तथाविधं महान्तं पुरुषं अहं जानामि। तं प्रकाशस्वरूपं ज्ञात्वा एवं जनाः मृत्युपाशात् मुक्तो भवति। मोक्ष प्राप्तये न अन्यः कश्चित् पन्थाः विद्यते।

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Class 10 Sanskrit Chapter 4 UP Board Solutions यौतुकः पापसञ्चयः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 4 Yautuk Pap Sanchay Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 4 हिंदी अनुवाद यौतुकः पापसञ्चयः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

यौतुक शब्द का हिन्दी पर्याय दहेज है। आज यह भारतीय समाज का कोढ़ बना हुआ है। आज वधू को उसके गुणों के आधार पर नहीं, अपितु उसके द्वारा लाये गये दहेज के आधार पर सम्मान दिया जाता है।

प्रस्तुत नाटक में दहेज पर कुठाराघात किया गया है तथा यह प्रतिष्ठित (UPBoardSolutions.com) किया गया है कि विपत्ति के समय संस्कारवान् बहू ही परिवार के लिए सहायक होती है, अधिक दहेज लाने वाली बहू नहीं।

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पाठ-सारांश

रमानाथ और विनय बचपन के मित्र हैं। विनय की पुत्री सुमेधा का रमानाथ के बड़े पुत्र से विवाह हुआ था। विनय निर्धन था; अत: वह पर्याप्त दहेज नहीं दे सका था। रमानाथ के कनिष्ठ पुत्र का विवाह सेठ दुर्गादास की पुत्री चपला से हुआ था, जिसने विवाह में बहुत दहेज दिया था और घरेलू कार्य के लिए दो सेविकाएँ भी दी थीं। रमानाथ अधिक दहेज मिलने से सेठ दुर्गादास व उसकी पुत्री चपला से प्रसन्न थे और दहेज न मिलने के कारण विनय और उसकी गुणवती पुत्री सुमेधा से अप्रसन्न।

प्रथम दृश्य – रमानाथ विनय को बुलाकर कहते हैं कि सेठ दुर्गादास के द्वारा चपला के साथ भेजी गयी दो नौकरानियाँ घर का सब कामकाज करती हैं; अतः अब हमें तुम्हारी पुत्री सुमेधा की आवश्यकता नहीं है, इसे तुम ले जाओ। विनय ने रमानाथ से कहा–मित्र! ऐसा मत कहो। (UPBoardSolutions.com) मैं निर्धन हूँ और घर पर रखकर उसके पालने का भार वहन करने में भी असमर्थ हूँ। मेरी पुत्री विदुषी, सुशिक्षित, सुसंस्कृत एवं सहनशील है; क्योंकि मैंने उसे बहुत कष्टों से पाला है।

इसी बीच सुमेधा पात्र में जल लेकर आती है। विनय ने उससे कहा कि मुझे जल नहीं चाहिए, तुम्हारे ससुर ने मुझे पर्याप्त जल पहले ही पिला दिया है। सुमेधा ने उससे कहा कि वह अपने श्रद्धेय ससुर के विषय में कोई निन्दा नहीं सुनना चाहती है। विनय ने सुमेधा से कहा कि जाओ, सबका अभिवादन करके आओ। मैं तुम्हें लेने आया हूँ।

रमानाथ सुमेधा से अपने व अपने मित्र हेतु भोजन की व्यवस्था करने के लिए कहकर बाहर चला जाता है। विनय वहीं चिन्तित बैठा हुआ है। इसी समय टेलीफोन की घण्टी बजती है। रमानाथ की पत्नी रम्भा टेलीफोन उठाकर सुनती है। उसे फोन से ज्ञात होता है कि उसके पति रमानाथ दुर्घटना में घायल हो गये हैं और मिशन अस्पताल में भर्ती हैं।

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इसी समय रमानाथ की छोटी पुत्रवधू सजधज कर आती है। वह पिता के घर किसी उत्सव में जाने को तैयार है। रम्भा कहती है कि तुम्हारे ससुर दुर्घटना में घायल होकर अस्पताल में भर्ती हैं, उन्हें सेवा-शुश्रूषा की आवश्यकता हो सकती है, परन्तु चपला यह कहती हुई–“रुग्ण की चिकित्सा के लिए अस्पताल और सेवा के लिए वहाँ अनेक परिचारिकाएँ हैं तथा सुमेधा सेवा में दक्ष है उसे ले जाइए।’-उत्सव में चली जाती है।

द्वितीय दृश्य – रमानाथ को विनय का पत्र मिलता है। उसमें उसने लिखा है कि वह अपनी पुत्री सुमेधा को लेने आ रहा है। तब रम्भा कहती है कि सुमेधा नहीं जाएगी। मेरी ही बुद्धि भ्रमित हो गयी थी। उसके ही रक्त-दान से मेरे सौभाग्य की लालिमा; अर्थात् पति के प्राण बचे हैं। (UPBoardSolutions.com) रमानाथ को अधिक रक्तस्राव हो जाने के कारण रक्त की आवश्यकता थी। सुमेधा के रक्त का वर्ग ही उनके रक्त से मिलता था। उसने ही सहर्ष रक्त दिया था। रम्भा ने कहा कि सुमेधा निर्धन है तो क्या हुआ, वह सुसभ्य, सुशिक्षित है और चपला भले ही धनवान् हो, किन्तु वह स्वार्थिनी, असंस्कृत और अशिक्षित है।

उसी समय विनय आ जाता है। रमानाथ अपने पुनर्जीवन लाभ के लिए उसे मिठाई खाने के लिए कहता है। रम्भा कहती है कि यह मिठाई मुझे सद्बुद्धि मिलने के लिए भी है तथा विनय से कहती है कि हम सुमेधा को पाकर धन्य हैं। उसके ही रक्तदान से ये (रमानाथ) जीवित बचे हैं। रमानाथ विनय को बताता है कि उसे समय सुमेधा का जीवन दु:खमय था। मैं उसके दु:ख को सहन करने में असमर्थ था; अत: पुत्र के लौटने तक मैंने उसे तुम्हारे पास धरोहर के रूप में रखने का निश्चय किया था। अब मैं उसे कदापि नहीं भेजूंगा। विनय भी क्रोध में अपने द्वारा कही गयी बातों के लिए रमानाथ से क्षमा माँगता है।

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प्रस्तुत नाटक से हमें यह शिक्षा मिलती है कि विवाह-सम्बन्ध सदैव समान स्तर के परिवार में ही स्थापित करने चाहिए तथा व्यक्ति को अनेक प्रलोभनों में फंसकर मानवीय गुणों का अनादर नहीं करना चाहिए। मनुष्य को दहेज की अपेक्षा करने के स्थान पर सुसभ्य, सुसंस्कृत, लज्जाशील एवं मर्यादाशील वधू की अपेक्षा करनी चाहिए। वही सर्वश्रेष्ठ दहेज है।

चरित्र-चित्रण

रमानाथ [2006, 08, 09, 10, 13, 14]

परिचय प्रस्तुत नाट्यांश के पुरुष पात्रों में रमानाथ का प्रमुख स्थान है। विनय उसका मित्र है, जिसकी पुत्री का विवाह रमानाथ के ज्येष्ठ पुत्र के साथ हुआ है। दूसरे पुत्र के विवाह में अत्यधिक दहेज प्राप्त हो जाने पर रमानाथ की धनलोलुपता बढ़ जाती है और वह अपने मित्र विनय का दहेज न देने के कारण अपमान भी करता है। उसकी प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

1. धनलोलुप  रमानाथ अपने कनिष्ठ पुत्र के विवाह में वधू पक्ष के द्वारा अत्यधिक दहेज तथा घर पर कार्य करने के लिए दो नौकरानियाँ दिये जाने पर स्वार्थी एवं लोभी बन जाता है तथा सुमेधा की ओर से उसका मने परिवर्तित होने लगता है।

2. त्रुटियों को सुधारने वाला – रमानाथ स्वार्थवश (UPBoardSolutions.com) अपने समधी तथा मित्र विनय का अपमान भी करता है, किन्तु दुर्घटनाग्रस्त होने के पश्चात् वह बहुत पश्चात्ताप करता है। अन्ततः अपने मित्र विनय से अपनत्वपूर्ण मृदु व्यवहार करता है।

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3. निर्दयी – धन के लोभ में रमानाथ अपने मित्र विनय के यह प्रार्थना करने पर भी कि वह निर्धन होने के कारण अपनी पुत्री का पालन नहीं कर पाएगा, उससे अपनी पुत्री को अपने घर ले जाने के लिए कहता है।

4. गुणग्राही तथा शान्ति का इच्छुक – रमानाथ गुणग्राही है। वह सुमेधा के गुणों को पहचानकर उसका आदर भी करता है। घर की शान्ति बनाये रखने के लिए ही सुमेधा का अपमान करने वाली अपनी पत्नी रम्भा को वह कुछ नहीं कहता। वह सुमेधा को अपमान-अत्याचार से सुरक्षित रखने के लिए ही; अपने पुत्र के लौट आने तक; सुमेधा को उसके पिता के घर पहुँचवाना चाहता है।

5. परिवर्तित विचारधारा वाला – किसी समय रमानाथ धन को ही सब कुछ समझता है और उसके सामने मानवीय गुणों-शील, सुसंस्कारिता, सुसभ्यता–को तुच्छ। किन्तु कालान्तर में उसकी विचारधारा में परिवर्तन हो जाता है और तब वह मानवीय गुणों को ही श्रेष्ठ मानने लगता है। उसकी परिवर्तित विचारधारा का ही यह परिणाम है कि वह किसी समय अनादृत पुत्रवधू एवं समधी को अपने सिर-आँखों पर बैठा लेता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि रमानाथ जहाँ निर्दयी, (UPBoardSolutions.com) धनलोलुप इत्यादि दुर्गुणों का वाहक है, वहीं वह गुणग्राही और अपनी त्रुटियों में सुधार करने वाला भी है। विचारशीलता से वह इन दुर्गुणों से मुक्त हो जाता है। तथा पश्चात्ताप भी करता है। अन्तत: वह समझ लेता है कि दहेजरूपी धन पापों का संग्रह ही है।

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रम्भा [2006, 08,11]

परिचय रम्भा रमानाथ की पत्नी तथा सुमेधा एवं चपला की सास है। प्रस्तुत नाट्यांश में उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है। वह धनलोलुप, अत्याचारी, स्वार्थी और हृदयहीन सासों का प्रतिनिधित्व करती हुई-सी प्रतीत होती है। उसकी प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

1. स्वार्थी और धनलोलुप – रम्भा स्वार्थी और धनलोलुप स्वभाव की स्त्री है। वह अपनी पुत्रवधू सुमेधा पर दहेज न लाने के लिए अत्याचार करती है। वह धन को ही सर्वस्व समझती है अपनी बड़ी बहू सुमेधा का अपमान वह केवल इसलिए करती है कि वह छोटी बहू चपला के समान अधिक दहेज लेकर नहीं आयी थी। ‘ममैव बुद्धिः भ्रमिता’ कथन उसकी इसी स्वार्थी और धनलोलुप प्रवृत्ति की स्वीकारोक्ति का सूचक है।

2. पति को चाहने वाली – रम्भा अपने पति को चाहने वाली एक पतिव्रता स्त्री है। जब वह दूरभाष पर अपने पति के दुर्घटनाग्रस्त होने का समाचार सुनती है तो रोने लगती है। पति को ही वह अपना सौभाग्य मानती है, यह उसके इस वाक्य-“तस्या एव रक्तेन (UPBoardSolutions.com) मम सौभाग्यलालिमा सुरक्षीकृता।”-से स्पष्ट होता है। वह चपला को भी इसीलिए रोकना चाहती है कि घायलावस्था में पति की सेवा-शुश्रूषा के लिए उसे उसकी आबश्यकता पड़ सकती है।

3. कृतज्ञा – रम्भा स्वार्थी और धनलोलुप तो अवश्य है, किन्तु कृतघ्न नहीं है। वह अपने ऊपर किये गये उपकार को मानने वाली है। सुमेधा द्वारा रक्तदान और सेवा करके उसके पति की प्राणरक्षा करने पर उसकी आँखें खुल जाती हैं और वह उसके उपकार का गुणगान अपने पति तथा अपने समधी से करती है। अपनी गलती को मानती हुई वह सुमेधा को घर में उचित सम्मान देती है।

4. दुष्कर्म पर लज्जित होने वाली – लोभ के वशीभूत होकर रम्भा अपनी ज्येष्ठ पुत्रवधू पर अत्याचार करती अवश्य है, किन्तु उसकी शीलता, सुसभ्यता, सुसंस्कारिता तथा कनिष्ठा पुत्रवधू की निर्लज्जता, अहंकारवादिता से जब उसके ज्ञानचक्षु खुलते हैं तो वह अपने द्वारा किये गये दुष्कर्मों पर लज्जित होती है। वह स्वयं कहती है कि “ममैव बुद्धिः भ्रमिता अहं लज्जितास्मि।”

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निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि रम्भा में जहाँ स्त्री स्वभावोचित धनलोलुपता, स्वार्थीपन जैसे दुर्गुण मिलते हैं, वहीं उसमें पतिव्रता, लज्जाशीलता इत्यादि सद्गुणों का समावेश भी है। निश्चित ही विषम परिस्थितियाँ मनुष्य को वास्तविकता की ओर मोड़ देती हैं। रम्भा जो (UPBoardSolutions.com) दहेज की चकाचौंध से भ्रमित थी वह विषम परिस्थितियों में वास्तविकता को समझकर दहेज को पाप का संचय कहने लगती है।

सुमेधा [2006, 08, 09, 10, 11, 12, 13, 15]

परिचय प्रस्तुत नाट्यांश का ताना-बाना सुमेधा को लेकर ही बुना गया है। वह ही नाटक की मुख्य पात्र भी है। सम्पूर्ण कथा उसके चारों ओर ही घूमती है। वह विनय की पुत्री एवं रमानाथ की ज्येष्ठ पुत्रवधू है। वह भारतीय नारी के सद्गुणों की वाहक आदर्श नारी है। उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. सेवापरायणा – भारतीय नारी को सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठापित करने वाला गुण उसकी सेवा-परायणता ही है। वह अपनी ससुराल को ही स्वर्ग मानती है तथा सास-ससुर को देवता मानकर उनकी पूजा करती है। सुमेधा अनेक कष्टों के होते हुए भी अपने पति का गृह त्यागकर अपने पिता के घर नहीं जाना चाहती। साथ-ही अपने पिता के मुख से अपने निर्दयी ससुर की निन्दा भी नहीं सुनना चाहती। अपने ससुर की प्राणरक्षा वह अपना रक्त देकर करती है। यह उसके सेवापरायण होने का प्रबल प्रमाण है।

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2. सुसंस्कृत एवं विनम्र – सुमेधा का सम्पूर्ण व्यक्तित्व उसकी नम्रता के पावन जल से स्नानकर कान्तिमान हो उठा है। वह प्रताड़ित किये जाने पर भी अपनी विनम्रता को नहीं त्यागती। उसकी विनम्रता का उत्कृष्ट उदाहरण देखने को तब मिलता है, जब वह अपने पिता को अपने ससुर की निन्दा करने से यह कहकर रोकती है-“कृपया मम श्रद्धेयश्वसुरमाधिक्षिपतु भवान्।” उसके सुसंस्कृत होने का प्रमाण तो कदम-कदम पर मिलता है। किसी समय उससे दुर्व्यवहार करने वाली सास रम्भा उसकी सुसंस्कारिता, सुसभ्यता इत्यादि से प्रभावित होकर स्वयं कह उठती है-“स्पष्टीकरोमि सुमेधां प्राप्य वयं धन्याः।”

3. विचारशीला – सुमेधा प्रगतिशील विचारधारा वाली भारतीय नवयुवती है। उसका मानना है कि सम्मान के इच्छुक माता-पिता को अपने समान स्तर के परिवार में ही पुत्र-पुत्री का विवाह करना चाहिए। अपने पिता से कहा गया उसका यह वाक्य इस बात की पुष्टि करता है-“सम्मानेच्छुकैः समानस्तरपरिवार एव कन्या प्रदेया।”

4. धैर्यधृता एवं उदारमना – धैर्य ही व्यक्ति को विपत्तियों से उबारने में सक्षम होता है, यह उक्ति सुमेधा पर अक्षरश: सत्य बैठती है। वह धैर्यपूर्वक प्रत्येक कष्ट को सहन करती है और अपनी उदारता का परित्याग नहीं करती। अन्ततः अपनी उदारता से वह अपने सास-ससुर का (UPBoardSolutions.com) मन जीत लेती है और उनकी आँखों का तारा बन जाती है। अपना रक्त देकर अपने ससुर की प्राणरक्षा करना उसके उदार हृदय होने का प्रमाण है।

5. विदुषी एवं गुणवती – सुमेधा निर्धन परिवार की कन्या तो अवश्य है किन्तु वह विदुषी और गुणवती है। उसके इन्हीं गुणों से प्रभावित होकर ही रमानाथ के ज्येष्ठ पुत्र ने उससे प्रेम-विवाह किया था। नाटक के अन्त में रमानाथ ने विनय से वास्तविक स्थिति को स्वीकार करते हुए ठीक ही कहा था-“उस समय सुमेधा का जीवन दुःखमय हो गया था। उसके त्याग, विनम्रता आदि गुण उसके लिए शत्रुवत् हो गये थे। उसका दुःख मेरे लिए असहनीय था, इसलिए मैंने अपने पुत्र के प्रवास से आगमनं तक अपनी पुत्रवधू को धरोहर के रूप में तुम्हें समर्पित करने का निश्चय किया था।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सुमेधा पूर्णतया आदर्श भारतीय नारी है। प्रस्तुत नाट्यांश में वह सर्वगुणसम्पन्न एवं सर्वप्रिया वधू के रूप में चित्रित की गयी है। समाजोत्थान के लिए सुमेधा जैसी ही सुयोग्य वधुओं एवं माताओं की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आवश्यकता है।

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विनय [2010]

परिचय विनय नाटक की नायिका सुमेधा के पिता, रमानाथ के मित्र एवं सम्बन्धी हैं। ये सामान्य आर्थिक स्थिति के व्यक्ति हैं। पाठ के अन्तर्गत इनके चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं –

1. योग्य पिता  विनय एक योग्य पिता हैं। (UPBoardSolutions.com) इन्होंने अपनी पुत्री सुमेधा को अच्छी शिक्षा व संस्कार दिए हैं। यही कारण है कि वधू बन जाने पर वह अपनी ससुराल में प्रतिष्ठा प्राप्त करती है। कन्या को योग्य बनाना एक योग्य पिता का ही कार्य है।

2. मित्र-मित्रता के प्रति विश्वासी – विनय का मित्र-मित्रता के प्रति अत्यधिक विश्वास है। वे यह मानते हैं कि मित्र कितनी भी सम्पन्न क्यों न हो, वह अपने धनहीन मित्र का कभी अपमान नहीं करेगा। इसी कारण ये सामान्य आर्थिक स्थिति के होते हुए भी अपनी पुत्री सुमेधा का विवाह अपने सम्पन्न मित्र रमानाथ के पुत्र के साथ कर देते हैं। रमानाथ जब सुमेधा को वापस इनके घर भेजना चाहते हैं तो ये कहते हैं कि ‘‘बालमित्रस्य असम्मानं त्वत्तः नापेक्ष्यते।”

3. कुलीनता में विश्वास रखने वाले – विनय का पारिवारिक कुलीनता में पूर्ण विश्वास है। इसीलिए जब रमानाथ सुमेधा को इनके साथ भेजना चाहते हैं तब ये मित्र को कुलीनता की याद दिलाते हुए कहते हैं। कि “त्वं कुलीनोऽसि। स्वपरिवारस्य मर्यादां विचिन्त्य। किं कथयिष्यन्ति जनाः?”

4. स्पष्टवक्ता – विनय को स्पष्ट बात कहने में तनिक भी संकोच नहीं है। जब रमानाथ सुमेधा को इनके साथ भेजना चाहते हैं, तब ये अपनी धनहीनता की अवस्था को स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हुए कहते हैं कि ‘विचारय मित्र! सम्प्रदत्तायाः भारं वोढुं कथं समक्षोऽस्ति एकोऽकिञ्चनः?

5. स्वाभिमानी – विनय स्वाभिमानी भी हैं। जब रमानाथ इनकी विनम्रता से प्रभावित नहीं होते और न ही इनकी प्रार्थना सुनते हैं, बल्कि अपनी पुत्रवधू का पालन करने में अपनी असमर्थता प्रकट करते हैं तो विनय का स्वाभिमान जाग उठता है। वे रोषपूर्वक कहते हैं कि “यदि तुम्हारे जैसे कुबेर सदृश (UPBoardSolutions.com) धनवान् अपनी पुत्रवधू के जीवन-निर्वाह में असमर्थ हैं तो मुझ जैसे श्रमजीवी के घर में भोजन का अभाव नहीं है। मैं अपनी पुत्री का पालन करने में समर्थ हूँ।”

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6. आधुनिक और ईश्वर-विश्वासी – विनय विचारों से आधुनिक होने के साथ-साथ ईश्वर की सत्ता पर विश्वास रखने वाले भी हैं। उनके कथन ‘अस्मिन् युगे दुहिता भाररूपा नास्ति।” तथा ”बलीयसी ईश्वरेच्छा।” इसकी पुष्टि करते हैं।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि विनय अनेक सद्गुणों से युक्त है जो अपने मित्र रमानाथ से श्रेष्ठ सिद्ध होता है।

लघु उत्तटीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सुमेधा कस्य तनया ( पुत्री ) आसीत् ? [2006,07,08, 10, 12, 13, 15]
उत्तर :
सुमेधा विनयस्य तनया आसीत्।

प्रश्न 2.
सुमेधायां के गुणाः आसन् ? [2007,11]
उत्तर :
सुमेधा विदुषी, सुसंस्कृता, सहनशीला, सेवाभाविनी च इत्यादयः गुणयुक्ताः आसन्।

प्रश्न 3.
रमानाथस्य गृहे कलहमूलं किम् आसीत् ?
उत्तर :
रमानाथस्य गृहे यौतुकम् एव कलहमूलम् आसीत्।

प्रश्न 4.
रम्भायाः सुमेधया सह दुर्व्यवहारस्य किं कारणम् ?
उत्तर :
रम्भायाः सुमेधया सह दुर्व्यवहारस्य कारणम् एकमेव (UPBoardSolutions.com) आसीत् यत् सा आत्मना सह यौतुकं प्रभूतं नानीतवती।

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प्रश्न 5.
रमानाथस्य गृहे सर्वगृहकार्यं कः अकरोत् ?
या
रमानाथस्य गृहे सर्वाणि गृहकार्याणि कः अकरोत् ? [2015]
उत्तर :
रमानाथस्य गृहे सर्वगृहकार्यं सुमेधा अकरोत्।

प्रश्न 6.
चपलायाः स्वभावे का विशेषता आसीत् ? [2007]
उत्तर :
चपला चञ्चला, कटुभाषिणी, स्वेच्छाचारिणी, गर्वशीला च आसीत्।

प्रश्न 7.
रमानाथाय रक्तं का अदात् ? [2006,07,08, 10]
उत्तर :
रमानाथाय रक्तं सुमेधा अदात्।

प्रश्न 8.
रम्भा कथं स्वार्थिनी अभूत् ? [2010]
उत्तर :
चपलायाः धनाढ्यतया प्रभावेण रम्भा धनलोलुपा स्वार्थिनी च अभूत्।

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प्रश्न 9.
सुमेधा चपला च के आस्ताम् ? [2013]
उत्तर :
सुमेधा चपला च द्वे एवं रमानाथस्य पुत्रवध्वौ आस्ताम्।

प्रश्न 10.
सुमेधा का आसीत् ?
उत्तर :
सुमेधा रमानाथस्य ज्येष्ठपुत्रवधूः (UPBoardSolutions.com) आसीत्।

प्रश्न 11.
चपला का आसीत् ?[2009]
उत्तर :
चपला रमानाथस्य कनिष्ठा पुत्रवधूः आसीत्।

प्रश्न 12.
रमानाथः कः ? सुमेधायाः व्यवहारेण तस्य हृदयपरिवर्तनं कथं जातम् ?
उत्तर :
रमानाथः सुमेधायाः लुब्धकः श्वशुरः अस्ति। सुमेधायाः मृदुव्यवहारेण विपत्तिसमये रक्तदानेन च तस्य हृदयपरिवर्तनं जातम्।

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प्रश्न 13.
रम्भा कस्य भार्या? [2007,08, 09, 10, 11, 12, 13, 14]
उत्तर :
रम्भा रमानाथस्य भार्या।

प्रश्न 14.
चपलायाः पितुः किं नाम आसीत्? [2011, 15]
उत्तर :
चपलायाः पितुः नाम श्रेष्ठ दुर्गादासः आसीत्?

बहुविकल्पीय प्रश्न

अधोलिखित प्रश्नों में प्रत्येक प्रश्न के उत्तर-रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। (UPBoardSolutions.com) इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए –
[संकेत – काले अक्षरों में छपे शब्द शुद्ध विकल्प हैं।]

1. ‘यौतुकः पापसञ्चयः’ नामक पाठ में वर्तमान समय में भी प्रचलित किस समस्या को उठाया गया है ?

(क) सांस्कृतिक पतन की समस्या को
(ख) दहेज की समस्या को
(ग) निर्धनता की समस्या को
(घ) अशिक्षा की समस्या को

2. रमानाथ की धनी पुत्रवधू कौन है?

(क) सुमेधा
(ख) चपला
(ग) रम्भा
(घ) तीनों में कोई नहीं

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3. सुमेधा और रम्भा आपस में क्या थीं ?

(क) बहू-सास
(ख) देवरानी-जिठानी
(ग) पुत्री-माता
(घ) पड़ोसिने

4. सुमेधा में कौन-सा गुण नहीं है ?

(क) उदारहृदयता
(ख) सेवापरायणता
(ग) सुसंस्कृतता
(घ) स्वार्थान्धता

5. सुमेधा के रक्तदान और सेवा-शुश्रूषा से किनका हृदय-परिवर्तन होता है ?

(क) विनय और रमानाथ को
(ख) रम्भा और रमानाथ को
(ग) चपला और रम्भा का
(घ) रम्भा और विनय का

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6. “साविदुषी सुसंस्कृता सहनशीलापि।”इस कथन में ‘सा’ शब्द से किसकी ओर संकेत किया गया है?

(क) ‘चपला’ की ओर
(ख) ‘सुमेधा’ की ओर
(ग) रम्भा की ओर
(घ) “चपला’ और ‘सुमेधा’ की ओर

7. “नहि सुमेधे! तव धनिश्वशुरेण पूर्वमेव पर्याप्त जलं पायितम्।” इस संवाद में निहित भाव है

(क) व्यंग्य का
(ख) विद्वेष का
(ग) करुणा का
(घ) तृप्ति का

8. रमानाथ अपने मित्र विनय को मिष्टान्न क्यों खिलाता है ?

(क) सुमेधा की सेवापरायणता का
(ख) अपने पुनर्जीवन-प्राप्ति का
(ग) रम्भा के हृदय-परिवर्तन का
(घ) अपने हृदय-परिवर्तन का

9. “मम कनिष्ठपुत्रवधूचपलायाः पित्रा श्रेष्ठ …………………… प्रेषिते सेविके सर्वगृहकार्यं कुरुतः।” वाक्य के रिक्त-स्थान में आएगा –

(क) शम्भूदासेन
(ख) दुर्गादासेन
(ग) चन्दनदासेन
(घ) रत्नदासेन

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10. ‘अस्मिन् युगे दुहिता …………………. नास्ति।” वाक्य की पूर्ति होगी । [2005,08]

(क) लक्ष्मीरूपा’ से
(ख) ‘सेविकारूपा’ से
(ग) ‘भाररूपा’ से
(घ) “धनरूपा से

11. “हितैषिणः आपत्काल एव परीक्ष्यन्ते।” वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति ?

(क) रमानाथः
(ख) रम्भा
(ग) चपला
(घ) विनयः

12. “दुर्घटनया मम नेत्राभ्यां काञ्चनकान्तिसमुत्पन्नम् …………………. अपनीतम्।” वाक्य में रिक्त| स्थान की पूर्ति होगी

(क) ‘अज्ञानम्’ से
(ख) मोहत्वम्’ से
(ग) लोभम्’ से
(घ) ‘अन्धत्वम्’ से

13. “तस्याः त्यागः श्लाघ्यः सुमेधायाः रक्तदानेनैव एष:।”वाक्य में रिक्त-स्थान में आएगा

(क) उपकृतः
(ख) प्रसन्नः
(ग) जीवितः
(घ) मरणः

14. “रक्तदानं जीवनं ददाति, रक्तपातम् अपहरत्येव।” वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति ?

(क) रम्भा
(ख) विनयः
(ग) रमानाथः
(घ) सुमेधा

15. “अहं स्वपुत्रवधू तुभ्यं …………………. समर्पयितुं निश्चितवान्।” के रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी –

(क) आभूषणरूपेण
(ख) न्यासरूपेण
(ग) धनरूपेण
(घ) कोषरूपेण

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16. “क्रोधानलः यथार्थचित्तदाहकः परमधुनान्तं सुखदं तु सर्वं सुखदम्।” वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?

(क) विनयः
(ख) दुर्गादासः
(ग) रमानाथः
(घ) रम्भा

17. सुमेधा …………………. पुत्री आसीत्। [2007,08,09, 11, 12, 15]

(क) रमानाथस्य
(ख) विनयस्य
(ग) रम्भायाः
(घ) चपलायाः

18. चपला …………………. “पुत्री आसीत्।

(क) विनयस्य
(ख) रम्भायाः
(ग) दुर्गादासस्य
(घ) रमानाथस्य

19. यौतुक शब्दस्य अर्थ …………………. अस्ति।

(क) खेलः
(ख) दहेजः
(ग) नृत्यः
(घ) मेला

20. ‘यौतुकः पापसञ्चयः’ नाटकस्य नायिका …………………. अस्ति। [2007]

(क) चपला
(ख) सुमेधा
(ग) रम्भा
(घ) कमला

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21. समाजे …………………. निन्दनीयः [2006]

(क) यौतुकः
(ख) परोपकारः
(ग) अध्ययन:
(घ) सदाचारः

Hope given UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 4 are helpful to complete your homework.
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